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वैचारिकी संग्रह

सावरकर समग्र खंड 3

विनायक दामोदर सावरकर


 

सावरकर समग्र

स्वातंत्र्यवीर

विनायक दामोदर सावरकर

 

आभार • स्वातंत्र्यवीर सावरकर राष्ट्रीय स्मारक

२५२ स्वातंत्र्यवीर सावरकर मार्ग

शिवाजी उद्यान, दादर, मुंबई-२८

प्रकाशक • प्रभात प्रकाशन

४/१९ आसफ अली रोड

नई दिल्ली-११०००२

संस्करण • २००४

© सौ. हिमानी सावरकर

मूल्य • पाँच सौ रुपए प्रति खंड

पाँच हजार रुपए (दस खंडों का सैट)

मुद्रक • गिर्राज प्रिंटर्स, दिल्ली


SAVARKAR SAMAGRA (Complete Works of Vinayak Damodar Savarkar)

Published by Prabhat Prakashan, 4/19 Asaf Ali Road, New Delhi-2

Vol. III Rs. 500.00 ISBN 81-7315-323-X

Set of Ten Vols. Rs. 5000.00 ISBN 81-7315-331-0


विनायक दामोदर सावरकर : संक्षिप्त जीवन परिचय

श्री विनायक दामोदर सावरकर भारतीय स्वाधीनता-संग्राम के एक तेजस्वी तथा अग्रणी नक्षत्र थे। 'वीर सावरकर' शब्द साहस, वीरता, देशभक्ति का पर्यायवाची बन गया है। 'वीर सावरकर' शब्द के स्मरण करते ही अनुपम त्याग, अदम्य साहस, महान् वीरता, एक उत्कट देशभक्ति से ओतप्रोत इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठ हमारे सामने साकार होकर खुल पड़ते हैं।

वीर सावरकर न केवल स्वाधीनता-संग्राम के एक तेजस्वी सेनानी थे अपितु वह एक महान् क्रांतिकारी, चिंतक, सिद्धहस्त लेखक, कवि, ओजस्वी वक्ता तथा दूरदर्शी राजनेता भी थे। वह एक ऐसे इतिहासकार भी थे जिन्होंने हिंदू राष्ट्र की विजय के इतिहास को प्रामाणिक ढंग से लिपिबद्ध किया तो '१८५७ के प्रथम स्वातंत्र्य समर' का सनसनीखेज व खोजपूर्ण इतिहास लिखकर ब्रिटिश शासन को हिला डाला था।

इस महान् क्रांतिपुंज का जन्म महाराष्ट्र के नासिक जिले के ग्राम भगूर में चितपावन वशीय ब्राह्मण श्री दामोदर सावरकर के घर २८ मई, १८८३ को हुआ था। गाँव के स्कूल में ही पाँचवीं तक पढ़ने के बाद विनायक आगे पढ़ने के लिए नासिक चले गए।

लोकमान्य तिलक द्वारा संचालित 'केसरी' पत्र की उन दिनों भारी धूम थी। 'केसरी' में प्रकाशित लेखों को पढ़कर विनायक के हृदय में राष्ट्रभक्ति की भावनाएँ हिलोरें लेने लगीं। लेखों, संपादकीयों व कविताओं को पढ़कर उन्होंने जाना कि भारत को दासता के चंगुल में रखकर अंग्रेज किस प्रकार भारत का शोषण कर रहे हैं। वीर सावरकर ने कविताएँ तथा लेख लिखने शुरू कर दिए। उनकी रचनाएँ मराठी पत्रों में नियमित रूप से प्रकाशित होने लगीं। 'काल' के संपादक श्री परांजपे ने अपने पत्र में सावरकर की कुछ रचनाएँ प्रकाशित की, जिन्होंने तहलका मचा दिया।

सन् १९०५ में सावरकर बी.ए. के छात्र थे। उन्होंने एक लेख में विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का आह्वान किया। इसके बाद उन्होंने अपने साथियों के साथ मिलकर विदेशी वस्त्रों की होली जलाने का कार्यक्रम बनाया। लोकमान्य तिलक इस कार्य के लिए आशीर्वाद देने उपस्थित हुए।

सावरकर की योजना थी कि किसी प्रकार विदेश जाकर बम आदि बनाने सीखे जाएँ तथा शस्त्रास्त्र प्राप्त किए जाएँ। तभी श्री श्यामजी कृष्ण वर्मा ने सावरकर को छात्रवृत्ति देने की घोषणा कर दी। ९ जून, १९०६ को सावरकर इंग्लैंड के लिए रवाना हो गए। वह लंदन में इंडिया हाउस' में ठहरे। उन्होंने वहाँ पहुँचते ही अपनी विचारधारा के भारतीय युवकों को एकत्रित करना शुरू कर दिया। उन्होंने 'फ्री इंडिया सोसाइटी' की स्थापना की।

सावरकर 'इंडिया हाउस' में रहते हुए लेख व कविताएँ लिखते रहे। वह गुप्त रूप से बम बनाने की विधि का अध्ययन व प्रयोग भी करते रहे। उन्होंने इटली के महान् देशभक्त मैझिनी का जीवन-चरित्र लिखा। उसका मराठी अनुवाद भारत में छपा तो एक बार तो तहलका ही मच गया था।

१९०७ में सावरकर ने अंग्रेजों के गढ़ लंदन में १८५७ की अर्द्धशती मनाने का व्यापक कार्यक्रम बनाया। १० मई, १९०७ को 'इंडिया हाउस' में सन् १८५७ की क्रांति की स्वर्ण जयंती का आयोजन किया गया। भवन को तोरण-द्वारों से सजाया गया। मंच पर मंगल पांडे, लक्ष्मीबाई, वीर कुँवरसिंह, तात्या टोपे, बहादुरशाह जफर, नानाजी पेशवा आदि भारतीय शहीदों के चित्र थे। भारतीय युवक सीने व बाँहों पर शहीदों के चित्रों के बिल्ले लगाए हुए थे। उनपर अंकित था -१८५७ के वीर अमर रहें। इस समारोह में कई सौ भारतीयों ने भाग लेकर १८५७ के स्वाधीनता संग्राम के शहीदों को श्रद्धांजलि अर्पित की। राष्ट्रीय गान के बाद वीर सावरकर का ओजस्वी भाषण हुआ, जिसमें उन्होंने सप्रमाण सिद्ध किया कि १८५७ में 'गदर' नहीं अपितु भारत की स्वाधीनता का प्रथम महान् संग्राम हुआ था।

सावरकर ने १९०७ में १८५७ का प्रथम स्वातंत्र्य समर' ग्रंथ लिखना शुरू किया। इंडिया हाउस के पुस्तकालय में बैठकर वह विभिन्न दस्तावेजों व ग्रंथों का अध्ययन करने लगे। उन्होंने लगभग डेढ़ हजार ग्रंथों के गहन अध्ययन के बाद इसे लिखना शुरू किया।

ग्रंथ की पांडुलिपि किसी प्रकार गुप्त रूप से भारत पहुँचा दी गई। महाराष्ट्र में इसे प्रकाशित करने की योजना बनाई गई। 'स्वराज्य' पत्र के संपादक ने इसे प्रकाशित करने का निर्णय लिया; किंतु पुलिस ने प्रेस पर छापा मारकर योजना में बाधा डाल दी। ग्रंथ की पांडुलिपि गुप्त रूप से पेरिस भेज दी गई। वहाँ इसे प्रकाशित कराने का प्रयास किया गया; किंतु ब्रिटिश गुप्तचर वहाँ भी पहुँच गए और ग्रंथ को प्रकाशित न होने दिया गया। ग्रंथ के प्रकाशित होने से पूर्व ही उस पर प्रतिबंध लगा दिया गया। अंतत: १९०९ में ग्रंथ फ्रांस से प्रकाशित हो ही गया।

ब्रिटिश सरकार तीनों सावरकर बंधुओं को 'राजद्रोही' व खतरनाक घोषित कर चुकी थी। सावरकर इंग्लैंड से पेरिस चले गए। पेरिस में उन्हें अपने साथी याद आते। वह सोचते कि उनके संकट में रहते उनका यहाँ सुरक्षित रहना उचित नहीं है। अंतत: वह इंग्लैंड के लिए रवाना हो गए।

१३ मार्च, १९१० को लंदन के रेलवे स्टेशन पर पहुँचते ही सावरकर को बंदी बना लिया गया और ब्रिक्स्टन जेल में बंद कर दिया गया। उनपर लंदन की अदालत में मुकदमा शुरू हुआ। न्यायाधीश ने २२ मई को निर्णय दिया कि क्योंकि सावरकर पर भारत में भी कई मुकदमे हैं, अत: उन्हें भारत ले जाकर वहीं मुकदमा चलाया जाए। अंतत: २९ जून को सावरकर को भारत भेजने का आदेश जारी कर दिया गया।

१ जुलाई, १९०९ को 'मोरिया' जलयान से सावरकर को कड़े पहरे में भारत रवाना किया गया। ब्रिटिश सरकार को भनक लग गई थी कि सावरकर को रास्ते में छुड़ाने का प्रयास किया जा सकता है। अत: सुरक्षा प्रबंध बहुत कड़े किए गए। ८ जुलाई को जलयान मार्सेल बंदरगाह के निकट पहुँचने ही वाला था कि सावरकर शौच जाने के बहाने पाखाने में जा घुसे। फुरती के साथ उछलकर वह पोर्ट हॉल तक पहुँचे और समुद्र में कूद पड़े।

अधिकारियों को जैसे ही उनके समुद्र में कूद जाने की भनक लगी कि अंग्रेज अफसरों के छक्के छूट गए। उन्होंने समुद्र की लहरें चीरकर तैरते हुए सावरकर पर गोलियों की बौछार शुरू कर दी। सावरकर सागर की छाती चीरते हुए फ्रांस के तट की ओर बढ़ने लगे। कुछ ही देर में वह तट तक पहुँचने में सफल हो गए किंतु उन्हें पुन: बंदी बना लिया गया।

१५ सितंबर, १९१० को सावरकर पर मुकदमा शुरू हुआ। सावरकर ने स्पष्ट कहा कि भारत के न्यायालय से उन्हें न्याय की किंचित् भी आशा नहीं है, अत: वह अपना बयान देना व्यर्थ समझते हैं।

२३ दिसंबर को अदालत ने उन्हें ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध षड्यंत्र रचने, बम बनाने तथा रिवॉल्वर आदि शस्त्रास्त्र भारत भेजने आदि आरोपों में आजन्म कारावास की सजा सुना दी। उनकी तमाम संपत्ति भी जब्त कर ली गई।

२३ जनवरी, १९११ को उनके विरुद्ध दूसरे मामले की सुनवाई शुरू हुई। ३० जनवरी को पुनः आजन्म कारावास की सजा सुना दी गई। इस प्रकार सावरकर को दो आजन्म कारावासों का दंड दे दिया गया। सावरकर को जब अंग्रेज न्यायाधीश ने दो आजन्म कारावासों का दंड सुनाया तो उन्होंने हँसते हुए कहा, 'मुझे बहुत प्रसन्नता है कि ईसाई (ब्रिटिश) सरकार ने मुझे दो जीवनों का कारावास दंड देकर पुनर्जन्म के हिंदू सिद्धांत को मान लिया है।'

कुछ माह बाद महाराजा नामक जलयान से सावरकर को अंदमान भेज दिया गया। अंदमान में उन्हें अमानवीय यातनाएँ दी जाती थीं। कोल्हू में बैल की जगह जोतकर तेल पिरवाया जाता था, मूंज कुटवाई जाती थी। राजनीतिक बंदियों पर वहाँ किस प्रकार अमानवीय अत्याचार ढाए जाते थे, इसका रोमांचकारी वर्णन सावरकरजी ने अपनी पुस्तक मेरा आजीवन कारावास में किया है।

सावरकरजी ने अंदमान में कारावास के दौरान अनुभव किया कि मुसलमान वॉर्डर हिंदू बंदियों को यातनाएँ देकर उनका धर्म-परिवर्तन करने का कुचक्र रचते हैं। उन्होंने इस अन्यायपूर्ण धर्म-परिवर्तन का डटकर विरोध किया तथा बलात् मुस्लिम बनाए गए अनेक बंदियों को हिंदू धर्म में दीक्षित करने में सफलता प्राप्त की। उन्होंने अंदमान की कालकोठरी में कविताएँ लिखीं। 'कमला', 'गोमांतक' तथा 'विरहोच्छ्वास' जैसी रचनाएँ उन्होंने जेल की यातनाओं से हुई अनुभूति के वातावरण में ही लिखी थीं। उन्होंने 'मृत्यु' को संबोधित करते हुए जो कविता लिखी वह अत्यंत मार्मिक व देशभक्ति से पूर्ण थी।

सावरकरजी ने अंदमान कारागार में होने वाले अमानवीय अत्याचारों की सूचना किसी प्रकार भारत के समाचारपत्रों में प्रकाशित कराने में सफलता प्राप्त कर ली। इससे पूरे देश में इन अत्याचारों के विरोध में प्रबल आवाज उठी। अंत में दस वर्ष बाद १९२१ में सावरकरजी को बंबई लाकर नजरबंद रखने का निर्णय किया गया। उन्हें महाराष्ट्र के रत्नागिरी स्थान में नजरबंदी में रखने के आदेश हुए।

'हिंदुत्व', 'हिंदू पदपादशाही', 'उ:श्राप', 'उत्तरक्रिया', 'संन्यस्त खड्ग' आदि ग्रंथ उन्होंने रत्नागिरी में ही लिखे।

१० मई, १९३७ को सावरकरजी की नजरबंदी रद्द की गई।

नजरबंदी से मुक्त होते ही सावरकरजी का भव्य स्वागत किया गया। अनेक नेताओं ने उन्हें कांग्रेस में शामिल करने का प्रयास किया; किंतु उन्होंने स्पष्ट कह दिया, 'कांग्रेस की मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति पर मेरे तीव्र मतभेद हैं। मैं हिन्दू महासभा का ही नेतृत्व करूँगा।'

३० दिसंबर, १९३७ को अहमदाबाद में आयोजित अखिल भारतीय हिंदू महासभा के अधिवेशन में सावरकरजी सर्वसम्मति से अध्यक्ष चुने गए। उन्होंने 'हिंदू' की सर्वश्रेष्ठ व मान्य परिभाषा की। हिंदू महासभा के मंच से सावरकरजी ने 'राजनीति का हिंदूकरण और हिंदू सैनिकीकरण' का नारा दिया। उन्होंने हिंदू युवकों को अधिक-से-अधिक संख्या में सेना में भरती होने की प्रेरणा दी। उन्होंने तर्क दिया, 'भारतीय सेना के हिंदू सैनिकों पर ही इस देश की रक्षा का भार आएगा, अत: उन्हें आधुनिकतम सैन्य विज्ञान की शिक्षा दी जानी जरूरी है।'

२६ फरवरी, १९६६ को भारतीय इतिहास के इस अलौकिक महापुरुष ने इस संसार से विदा ले ली। अपनी अंतिम वसीयत में भी उन्होंने हिंदू संगठन व सैनिकीकरण के महत्त्व, शुद्धि की आवश्यकता पर प्रकाश डाला। भारत को पुन: अखंड बनाए जाने की उनकी आकांक्षा रही।

ऐसे वीर पुरुष का व्यक्तित्व और कृतित्व आज भी हमारे लिए पथ-प्रदर्शक का काम करने में सक्षम है।

-शिवकुमार गोयल

 

सावरकर समग्र

प्रथम खंड

पूर्व पीठिका, भगूर, नाशिक

शत्रु के शिविर में

लंदन से लिखे पत्र

द्वितीय खंड

मेरा आजीवन कारावास

अंदमान की कालकोठरी से

गांधी वध निवेदन

आत्महत्या या आत्मार्पण

अंतिम इच्छा पत्र

तृतीय खंड

काला पानी

मुझे उससे क्या? अर्थात् मोपला कांड

अंधश्रद्धा निर्मूलक कथाएँ

चतुर्थ खंड

उ:शाप

बोधिवृक्ष

संन्यस्त खड्ग

उत्तरक्रिया

प्राचीन अर्वाचीन महिला

गरमागरम चिवड़ा

गांधी गोंधल

पंचम खंड

१८५७ का स्वातंत्र्य समर

रणदुंदुभि

तेजस्वी तारे

षष्टम खंड

छह स्वर्णिम पृष्ठ

हिंदू पदपादशाही

सप्तम खंड

जातिभंजक निबंध

सामाजिक भाषण

विज्ञाननिष्ठ निबंध

अष्टम खंड

मैझिनी चरित्र

विदेश में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम

क्षकिरणे

ऐतिहासिक निवेदन

अभिनव भारत संबंधी भाषण

नवम खंड

हिंदुत्व हिंदुत्व का प्राण

नेपाली आंदोलन

लिपि सुधार आंदोलन

हिंदू राष्ट्रदर्शन

दशम खंड

कविताएँ

भाषा-शुद्धि लेख

विविध लेख

 

अनुवाद :

प्रो. निशिकांत मिरजकर, डॉ. ललिता मिरजकर,

डॉ. हेमा जावडेकर, श्री वामन राव पाठक, श्री काशीनाथ जोशी,

श्री शरद दामोदर महाजन, श्री माधव साठे, सौ. कुसुम तांबे,

सौ. सुनीता कुट्टी, सौ. प्रणोति उपासने

 

संपादन :

प्रो. निशिकांत मिरजकर, डॉ. श्याम बहादुर वर्मा,

श्री रामेश्वर मिश्र 'पंकज', श्री जगदीश उपासने,

श्री काशीनाथ जोशी, श्री धृतिवर्धन गुप्त, श्री अशोक कौशिक

 

मार्गदर्शन :

श्री त्रिलोकीनाथ चतुर्वेदी, डॉ. हरींद्र श्रीवास्तव,

श्री शिवकुमार गोयल

 

 

अनुक्रम

काला पानी

आमुख

१. मालती

२. मालती कहाँ है?

३. योगानंद का कपट

४. पुलिस की हिरासत में

५. इलाहाबाद का कारागृह

६. रफीउद्दीन का अंतरंग

७. गुलाम हुसैन के शिकंजे में मालती

८. किशन और मालती की गिरफ्तारी

९. अंदमान का चालान

१०. अंदमान की राह पर

११. अंदमान स्थित आदिवासी जन

१२. अंदमान के बंदीगृह में

१३. नए उपनिवेश के लोग

१४. अंदमान के बंदीगृह में मालती

१५. उपनिवेशीय सिद्धांत

१६. अंदमान के घने जंगल में

१७. जावरों की राजधानी की ओर प्रयाण

१८. जावरों का जीवन

१९. रफीउद्दीन से प्रतिशोध

२०. बंदिनीगृह से मालती उड़न-छू

२१. किशन और मालती

२२. भाई-बहन का मिलन

मुझे उससे क्या अर्थात् मोपला कांड

१. कुट्टम गाँव के लोग

२. संकट की सूचना

३. अहिंसा के नशे में

४. यह है वह खिलाफत

५. हरिहर शास्त्री ने तलवार उठाई

६. मुझे एक छुरी दो

७. अधमों के अत्याचार

८. संन्यासी से भेंट

९. सबको फिर से हिंदू बनाया

अंधश्रद्धा-निर्मूलक कहानियाँ

१. कुसुम

२. गोविंदा ग्वाला

३. पित्रेजी का दूसरा विवाह कैसे टूटा?

४. समय और दीमक

५. नारद पुनः पृथ्वी पर

६. एक सत्यघटित रोचक संवाद

७. दीवाली में अब सूखे का कोई डर नहीं

८. नंदी बैल और मनुष्य बैल

९. चातुर्मास

१०. ताजियों की कहानी

११. 'नकली' राजा बन गया

१२. दर्जी जो कुरते के लिए मनुष्यों को ब्योंतता है

१३. जच्चा

१४. प्रार्थना

१५. आवश्यकता है काले को गोरा बनानेवाले वैज्ञानिक की

१६. गर्दभ संगठन

१७. शेंदाड़पुर का शिवाजी उत्सव

१८. आधिदैविकता और मानवता

१९. दुर्घटना या आत्मघात

२०. भक्तिविजय का खोया हुआ नूतन अध्याय

२१. छूतछात की मूर्खता

२२. व्रतानुष्ठान

काला पानी

आमुख

'काला पानी' स्वातंत्र्य वीर सावरकर का द्वितीय गद्यात्मक उपन्यास है। उनका प्रथम उपन्यास 'मोपलों का विद्रोह' अथवा 'मुझे इससे क्या?' था। इससे पूर्व अंदमान में विरचित उनके दीर्घ काव्य 'गोमांतक' को मेरे विचार से कथा-वस्तु तथा गद्य रूपांतर की दृष्टि से उपन्यास विधा में ही सम्मिलित किया जा सकता है।

'मुझे इससे क्या?' शीर्षक उपन्यास के पश्चात् सावरकर ने 'मेरा आजीवन कारावास' के रूप में अपने आत्मकथ्य का एक अंश लिखा था। इस आत्मकथ्य में मुख्य रूप से उन राजबंदियों के जीवन का वर्णन किया गया है जो अंदमान अथवा 'काले पानी' में सश्रम कारावास का भयानक दंड भुगत रहे हैं। इस आत्मकथ्य में कुछ हत्यारों, लुटेरों, डाकुओं तथा क्रूर, स्वार्थी व्यसनाधीन अपराधियों का जीवन- चित्र उकेरा गया है। इसके अतिरिक्त इसमें दो ऐसे प्रकरण हैं जिनमें इन विषयों की चर्चा की गई है कि हमारी राष्ट्रभाषा संस्कृतनिष्ठ हिंदी हो तथा अहिंदुओं का हिंदूकरण करना आवश्यक है। 'मेरा आजीवन कारावास' में 'बालिश्त भर हिंदू राज्य-ओस का एक मोती' जैसी संकल्पना का भी समावेश है। इस पुस्तक का गुजराती भाषा में अनुवाद होने के उपरांत कुछ राजनीतिज्ञों ने ब्रिटिश प्रशासकों से यह माँग की कि इस उपन्यास पर प्रतिबंध लगाया जाय। उसके अनुसार ब्रिटिश प्रशासकों ने 'मेरा आजीवन कारावास' शीर्षक पुस्तक पर तारीख १७ अप्रैल, १९३४ को प्रतिबंध लगाया।

इस प्रतिबंध को हटाने का प्रयास जारी रखते हुए भी यह ज्यों-का-त्यों रह गया। तथापि यह दर्शाने के उद्देश्य से कि अंदमान के बंदीगृह में किस तरह कष्टप्रद, तापदायी, अमानुषिक एवं उत्पाती जीवनयापन करना अनिवार्य होता है, सावरकर ने 'काला पानी' शीर्षक उपन्यास लिखा। अगस्त १९३६ से 'मनोहर' पत्रिका में यह क्रमशः प्रकाशित होता रहा था। सन् १९३७ में 'काला पानी' का प्रथम संस्करण प्रकाशित हो गया।

'काला पानी' उपन्यास की कथा-वस्तु कल्पित अथवा मनगढंत नहीं है। वह एक दंडित के न्यायालयी अभियोग पर आधारित है। वीर सावरकर की टिप्पणियों में इस तरह का उल्लेख किया गया है। यद्यपि रफीउद्दीन, योगानंद, मालती आदि नाम काल्पनिक हैं, तथापि वे उक्त अभियोगांतर्गत मूल नामों से मिलते-जुलते ही हैं। बीच में विख्यात गायक तथा चित्रपट निर्माता श्री सुधीर फड़के इस उपन्यास पर चित्रपट तैयार करना चाहते थे, परंतु नियंत्रक मंडल ने अनुरोध किया कि उसमें रफीउद्दीन नामक जो मुसलिम पात्र है, उसमें परिवर्तन किया जाय। उसके अनुसार नामांतर की अनुज्ञा की माँग जब वीर सावरकर से की गई तब उन्होंने स्पष्ट तथा ठोस शब्दों में कहा, "इस तरह नामांतरण की अर्थात् मुसलिम नाम हटाकर हिंदू नाम का समावेश करने के लिए मैं कदापि अनुमति नहीं दूँगा। यह दिखाना कि कुछ मुसलिम शिष्ट, साधु वृत्ति के होते हैं, चित्रपट की दृष्टि से यदि अत्यावश्यक हो तो आप कोई नया चरित्र गढ़ सकते हैं। परंतु मुसलिम नाम में परिवर्तन करने के लिए मैं अनुमति नहीं दूँगा।"

प्रस्तुत उपन्यास में एक ऐसे स्वतंत्रता सेनानी का चरित्र वर्णित है, जिसे सन् १८५७ के स्वतंत्रता संग्राम में दंड मिला था। दंड भुगतकर मुक्ति प्राप्त वह सेनानी अंदमान का ही बाशिंदा बना हुआ है। यह योद्धा कपोलकल्पित नहीं है। जब सावरकर अंदमान में थे, उस काल में इस तरह के दो-तीन योद्धा थे जिनकी आयु अस्सी-पचासी के आसपास होगी। इस आयु में भी वे पके पान उधर ही रहते थे तथा उन्होंने सावरकर से गुप्त संपर्क किया था। सावरकर के साथ उनकी साठ-गाँठ थी।

इस उपन्यास की कुछ समीक्षाओं की सावरकर ने टिप्पणियाँ रखी हैं। उन्होंने इस बात पर भी गौर किया है कि इसमें से कौन से वाक्य 'मनोहर' पत्रिका ने निकाल दिए हैं। हो सकता है, उस काल में ऐसे दो-तीन वाक्य अश्लील प्रतीत होने के कारण उन्हें निकाल दिया गया हो। सावरकर के साहित्य में काम्य अथवा ग्राम्य अश्लीलता दुर्लभ ही है, तथापि आचार्य अत्रे तथा प्रो. फड़के जैसे दिग्गजों में जो विवाद हुआ था उसमें प्रो. फड़के ने यह कहा था कि आचार्य अत्रे प्रो. फड़के के साहित्य की हमेशा यह कहकर आलोचना करते हैं कि उसमें अश्लील, बीभत्स प्रसंगों का चित्रण किया जाता है, परंतु सावरकर के साहित्यांतर्गत तत्सम वर्णनों के संबंध में वे कभी जूं तक नहीं करते, न ही कोई फच्चर अड़ाते हैं। प्रो. फड़के के इस कथन का स्पष्टीकरण करते हुए आचार्य अत्रे कहते हैं, "फड़के-वर्णित बलात्कार के प्रसंग पढ़ते समय पाठक के मन में यह अभिलाषा उत्पन्न होती है कि वह भी उसी तरह किसीपर बलात्कार करे। परंतु सावरकर-वर्णित बलात्कार के प्रसंग पढ़ते समय क्रोध से खून खौलने लगता है और यह उत्कट इच्छा उत्पन्न होती है कि उस बलात्कारी पापी, चांडाल पर सौ-सौ कोड़े बरसाकर उसकी चमड़ी उधेड़ें, उसे कठोर-से-कठोर दंड दें।" आचार्य अत्रे की मीमांसा मुझे उचित प्रतीत होती है। यह उपन्यास पढ़कर सुधी पाठक स्वयं निर्णय करें।

इस उपन्यास के सिलसिले में एक पाठक श्री वाचासुंदर सोनमोह, ता. कटोल ने सावरकर को लिखे पत्र में कहा है- 'मेरी यह धारणा थी कि आपका साहित्य रूखा तथा नीरस होता है। मेरा विचार था कि आपका यह उपन्यास भी रसहीन ही होगा। परंतु पहला वाक्य पढ़ते ही दूसरा वाक्य पढ़ने की ललक उत्पन्न हो गई और दूसरा वाक्य पढ़ते ही पूरा अनुच्छेद पढ़ने के लिए मन उछलने लगा। फिर अधिकारियों की ओर ध्यान न देते हुए प्रकरण पाँच और छह के बारह पन्ने लगे हाथ पढ़ डाले। आपकी मालती ने जितना मेरा दिल जलाया है, उतना योगानंद का भी नहीं जलाया होगा। आज तक मैंने सैकड़ों उपन्यास तथा कहानियाँ पढ़ी हैं परंतु मालती ने तो मेरा हृदय ही चीरकर रख दिया है। आपके रफीउद्दीन ने मेरी विचार धारणाओं का ही कायाकल्प कर दिया।"

इस प्रकार के और अनेक पत्र तथा अभिमत समय-समय पर प्रकाशित किए गए हैं। अधिवक्ता श्री भा.गं. देशपांडे लिखित-'काला पानी-समीक्षण' नामक सात प्रकरणों और छत्तीस पृष्ठों की एक पुस्तिका नागपुर के विधिज्ञ श्री ल.वा. चलणे ने प्रकाशित की है। इस पुस्तिका में इस उपन्यास की विविध साहित्यिक निकषों पर वैज्ञानिक दृष्टिकोण से साहित्यिक समीक्षा की गई है। इन तमाम कसौटियों पर यह उपन्यास कुंदन हो गया है।

-बाल सावरकर

 

प्रकरण-१

मालती

"अम्मा री, एक ओवी [1] सुनाओ न! हम इतनी सारी मीठी-मीठी ओवियाँ सुना रहे हैं तुम्हें, पर तुम हो कि मुझे एक भी नहीं सुना रही हो। उँह..." मालती ने अपने हिंडोले को एक पेंग मारते हुए बड़े लाड़ से रमा देवी को अनुरोध भरा उलाहना दिया।

"बेटी, भला एक ही क्यों? लाखों ओवियाँ गाऊँगी अपनी लाड़ली के लिए। परंतु अब तेरी अम्मा के स्वर में तेरी जैसी मिठास नहीं रही। बेटी ! केले के बकले के धागे में गेंदे के फूल भले ही पिरोए जाएँ, जूही के नाजुक, कोमल फूलों की माला पिरोने के लिए नरम-नरम, रेशमी मुलायम धागा ही चाहिए अन्यथा माला के फूल मसले जाएँगे। वे प्यारी-प्यारी ओवियाँ मिश्री की डली जैसे तेरे मीठे स्वर में जब गाई जाती हैं तब वे और भी मधुर, दुलारी प्रतीत होती हैं। अतः ऐसी राजदुलारी, मधुर ओवियाँ तुम बेटियाँ गाओ और हम माताएँ उन्हें प्रेम से सुनें। यदि मैं गीत गाने लगूँ न, तो इस गीत की मिठास गल जाएगी और मेरी इस चिरकती-दरकती आवाज पर-जो किसी फटे सितार की तरह फटी-सी लग रही है, तुम जी भरकर हँसोगी।"

"भई, आने दो हँसी। आनंद होगा, तभी तो हँसी आएगी न? मेरा मन बहलाने की खातिर तो तुम्हें दो-चार ओवियाँ सुनानी ही पड़ेंगी। हाँ, कहे दे रही हूँ।"

"तुम भगवान् के लिए ओवियाँ और स्तोत्र पठन घंटों-घंटों करती रहती हो, भला तब नहीं तुम्हारी आवाज फटती? परंतु मुझपर रची हुईं दो-चार ओवियाँ सुनाते ही आनन-फानन सितार चिरकने लगती है। यदि माताएँ बेटियों की ओवियाँ सिर्फ सुनती ही रहीं तो उन ओवियों की रचना भला क्यों की जाती जो माताएँ गाती हैं? कितनी सारी ममता भरी ओवियाँ हैं जो माताएँ गाती हैं? मुझे भी कुछ-कुछ कंठस्थ हैं।"

"तो फिर जब तुम माँ बनोगी न तब सुनाना अपने लाड़ले को।" कहते हुए रमा देवी खिलखिलाकर हँस पड़ी।

लज्जा से झेंपती हुई मालती ने रूठे स्वर में कहा, "भई, मैं सुनाऊँ या न सुनाऊँ, तुम मेरे लिए एक मधुर-सी ओवी गाओगी न?" और तुरंत माँ से लिपटकर उनकी ठोड़ी से अपने नरम-नरम, नन्हें-नन्हें होंठ सटाकर वह किशोरी माँ की चिरौरियाँ करने लगीं।

"यह क्या अम्मा? तुम मेरी माँ हो न? फिर तुम नहीं तो भला और कौन गाएगा मेरे लिए माँ की दुलार भरी ओवी?"

'तुम मेरी माँ हो न?' अपनी इकलौती बिटिया के ये स्नेहसिक्त बोल सुनते ही रमा देवी के हृदय में ममता के स्रोत इस तरह ठाठें मारने लगे कि उनकी तीव्र इच्छा हुई कि किसी दूध-पीते बच्चे की तरह अपनी बेटी का सुंदर-सलोना मुखड़ा अपने सीने से भींच लें। उसे जी भरकर चूमने के लिए उनके होंठ मचलने लगे। परंतु माँ की ममता जितनी उत्कट होती है, उतनी ही सयानी हो रही अपनी बेटी के साथ व्यवहार करते समय संकोची भी होती है।

मालती के कपोलों से सटा हुआ मुख हटाते हुए उसकी माँ ने यौवन की दहलीज पर खड़ी अपनी बेटी का बदन पल भर के लिए दोनों हाथों से दबाया और हौले से उसे पीछे हटाकर मालती को आश्वस्त किया।

"अच्छा बाबा, चल तुझे सुनाती हूँ कुछ गीत। बस, सिर्फ दो या तीन! बस! बोलो मंजूर?"

"हाँ जी हाँ। अब आएगा मजा।" उमंग से भरपूर स्वर में कहकर मालती ने झूले को धरती की ओर से टखनों के बल पर ठेला और पेंग के ऊपर पेंग ली।

"अरे यह क्या? गाओ भी। किसी कामचोर गायक की तरह ताल-सुर लगाने में ही आधी रात गँवा रही हो।" मालती के इस तरह उलाहना देने पर रमा देवी वही ओवी गाने लगीं जो होंठों पर आई-

अगे रत्नांचिया खाणी। नको मिखू ऐट मोठी।

बघ माझ्याही ये पोटीं। रत्न 'माला' ॥१॥

जाता येता राजकुँवरा। नको पाहूं लोभूनिया।

दृष्ट पडेल माझीया। मालतीला॥२॥

देते माझं पुण्य सारं। सात जन्मवेरी।

माझ्या रक्षावे श्रीहरी। लेकुरा या॥३॥

पुरोनी उरू द्यावी। जन्मभरी नारायणा।

कन्या माझी सुलक्षणा। एकूलती॥४॥

[अर्थ : (१) अरी ओ रत्नों की खानि, इस तरह मत इतराना। देखो तो सही, मेरी कोख से तो इस सुंदर रत्न 'माला' ने जन्म लिया है।

(२) हे राजकुमार! आते-जाते इस तरह ललचाई दृष्टि से मत देखो, मेरी मालती को नजर लग जाएगी।

(३) मेरे सात जन्मों का सारा पुण्य संचय, हे श्रीहरि, मैं तुम्हें अर्पित करती हूँ, मेरी मालती की रक्षा करो!

(४) हे नारायण! मेरी इकलौती सुलक्षणी कन्या मुझे आजन्म मिले।]

गाने की धुन में 'इकलौती' शब्द का उच्चारण करते ही रमा देवी को यूँ लगा जैसे किसी बिच्छू ने डंक मारा है। किसी तीव्र दुःख की स्मृति से उनका मन कसमसाने लगा। ऐसे हर्षोल्लास की घड़ी में उनकी बेटी को भी यह कसक न हो, वह भी उदास न हो इसलिए रमा देवी ने अपने चेहरे पर उदासी का साया तक नहीं उभरने दिया, फिर भी उनके कंठ में गीत अटक सा गया। मालती ने सोचा, गाते-गाते माँ की साँस फूल जाने से वह अचानक चुप हो गई हैं। माँ को तनिक विश्राम मिले और उनकी गाने की जो मधुर धुन बँध गई है वह टूट न जाए इसलिए, यह समझकर कि अब उसकी बारी है, वह अपनी अगली ओवियाँ गाने लगी। उसकी माँ ने उसके लिए ममता से लबालब भरी जो ओवियाँ गाई थीं, उनकी मिठास से भरपूर हर शब्द के साथ उसके दिल में हर्ष भरी गुदगुदियाँ हो रही थीं। अपने साजन की प्रेमपूर्ण आराधना की आस लगने से पहले लड़कियों को माँ के प्यार-दुलार भरे कौतुक में जितनी रुचि होती है, उतनी अन्य किसी में भी नहीं।

संध्या की वेला में पश्चिम की ओर के सायबान पर, जिसका सामनेवाला बाजू खुला है-हिंडोले पर बैठी वह सुंदर-सलोनी, छरहरे बदन की किशोरी अपने सुरीले गीत की मधुरता का स्वयं ही आस्वाद लेती हुई ऊँची पेंगें भरने लगी। हिंडोला जब एक तरफ की ऊँचाई से नीचे उतरता तब हवा के झोंके से उसका आँचल फड़फड़ाता हुआ लहराता रहता। तब ऐसा प्रतीत होता कि संध्या समय सुंदर पक्षियों का झुंड अपने सुदूर नीड़ की ओर उड़ रहा है और उस झुंड में से एक पखेरू पीछे रह गया है, जो पंख फैलाकर आलाप के पीछे आलाप छेड़ते हुए पता नहीं कब हर्षोल्लास के आकाश में उड़ जाएगा।

माउलीची माया। न ये आणिकाला।

पोवळया माणिकाला। रंग चढे ॥१॥

न ये आणिकाला। माया ही माउलीची।

छाया देवाच्या दयेची। भूमीवरी॥२॥

माउलीची माया। कन्या-पुत्रांत वांटली।

वाट्या प्रत्येकाच्या तरी। सारीचि ये॥३॥

जीवाला देते जीव। जीव देईन आपूला।

चाफा कशाने सूकला। भाई राजा॥४॥

माझं ग आयुष्य। कमी करोनी मारुती।

घाल शंभर पूरतीं। भाई राजा॥५॥

[अर्थ :(१) माँ की ममता की बराबरी कोई नहीं कर सकता। मूंगा-माणिक रत्नों पर रंग छा जाता है।

(२) माँ की ममता की तुलना किसी से भी नहीं हो सकती। वह ईश्वर की दया की भूमि पर बिखरी हुई छाया है।

(३) माँ की ममता कन्या-पुत्रों में बाँटने पर भी सभी के हिस्से में संपूर्ण रूप में ही आती है।

(४) हे भाई राजा, मैं आपके लिए अपनी जान दे दूँगी। यह चंपा का फूल क्यों सूख गया?

(५) हे बजरंगबली, मेरी आयु कम करके मेरे राजा भैया के सौ साल पूरे करो!]

गीतों के बहाव में जो मुँह में आया, मालती वही ओवी गाती जा रही थी। पहली ओवियाँ उसकी अपने मन की बोली में रची हुई थीं। अपनी माँ से उसे जो लाड़-दुलार भरी ममता थी, उन्हीं गीतों को चुन-चुनकर वह अपने कंठ की शहनाई द्वारा गा रही थी। परंतु अगली ओवियाँ अर्थ के लिए चुनकर नहीं गाई गई थीं। वह वैसे ही गाती गई, जैसे कोई मराठी गायक हिंदी पदों के अर्थ पर खास गौर न करते हुए उस गीत की धुन के ही कारण वह पद गाता है। परंतु उसकी माँ का ध्यान उन ओवियों के अर्थ की ओर भी था, अत: मालती गाने के बहाव में जब वे ओवियाँ गाती गई, जो उसके भाई राजा पर लागू होती थीं, तब उसकी माता की छाती दुःख से रुंध गई और उन्हें डर लगने लगा कि अब रोई, तब रोई। उनके दुःख का साया मालती के उस हँसते-खेलते हर्षोल्लास पर पड़ने से वह स्याह न हो, इसलिए रमा देवी ने मालती की ओवियाँ, जो अब असहनीय हो रही थीं, बंद करने के लिए उसे बीच में ही टोका, "माला, बेटी अब रुक जा। भई, मुझे तो चक्कर-सा आने लगा है। कितनी ऊँची-ऊँची पेंगें भर रही हो।" ऐसा ही कुछ बहाना बनाकर माँ ने अपने पैरों का जोर देकर हिंडोला रोका। उसके साथ ही न केवल मालती ही झूले से नीचे उतरी, उसका मन भी, जो ऊँचे-ऊँचे आलापों के झोंकों पर सवार होकर मदहोश हो गया था, उन गीतों के हिंडोले से नीचे उतरकर होश में आ गया।

उसने देखा तो माँ के नयन आँसुओं से भीगे हुए थे। दुःखावेग की तीव्र स्मृति से चेहरे का रंग पीला पड़ गया था। मालती को तुरंत स्मरण हो गया कि अरे हाँ, अपने लापता भैया की स्मृति से अम्मा दुःखी हो गई है। अपने मुख से सहजतापूर्वक निकली हुई ओवियों को, जिनमें भैया का वर्णन है, सुनकर ही अम्मा का मन विह्वल हो उठा है। उस हादसे को इतने साल बीतने के बाद भी उसकी माँ को अपने गुमशुदा बेटे की स्मृति कभी-कभी इस तरह प्रसंगवशात् असहनीय होती थी, जैसे दुःख का ताजा घाव हो और फिर वह ममता की मूरत माता फूट-फूटकर रोया करती। मालती जानती थी, उस समय अम्मा को किस तरह समझाना है। वह यह भी जानती थी कि कौन सा इलाज है, जो माँ के दुःख को टाल तो नहीं सकता पर अचेत और संवेदनाशून्य बना सकता है।

उसने झट से माँ की गोद पर अपना सिर रख दिया। उसके साथ अपने आप उसके चेहरे का रंग उड़ गया। उसकी आँखें भर आईं और अपनी आदत के अनुसार अपना चेहरा माँ की ठोड़ी से सटाकर अकुलाते हुए उसने कहा, "नहीं, ऐसे दिल छोटा नहीं करते, अम्मा! मैं तो तुम्हारे मन को रिझाने के लिए गा रही थी और तुम्हारे दुःख का घाव ताजा हो गया। हाय, न जाने ये निगोड़ी ओवियाँ मुझे कैसे सूझी?"

मालती के मन को अपनी गलती के अहसास की चुभन इतनी तीव्रता से हो रही थी कि उसकी माँ से अपने पिछले दुःख की अपेक्षा अपनी रोती-सिसकती बिटिया का वर्तमान दुःख देखा नहीं गया और वह झट से अपना दुखड़ा समेटकर मालती को ढाढस बँधाने लगीं।

"चल, पगली कहीं की! अरी बावली, तुम्हारे गीतों के कारण नहीं, मैं ही ओवी गाते-गाते 'मेरा बबुआ' कह गई न, उसी का मुझे दुःख हुआ। भगवान् ने मेरी झोली में दो-दो बच्चे डाले थे, पर हाय! नियति ने एक को मुझसे छीनकर बस एक ही मेरे लिए बाकी रखा-यही कसक मुझे अचानक चुभ गई। मत रो बेटी, मत रो। चुप हो जा। तुमने मेरा जख्म हरा नहीं किया बल्कि तुम्हारे खिले-खिले मुख पर थिरकती सुखद मुसकान ही वह रसायन है जो इस दुःख को तनिक हलका कर सके। जो बीत गई सो बीत गई, वह वापस थोड़े आनेवाला है ? तेरा भाई तुझपर इतनी जान छिड़कता था कि यदि मैंने तुझे उसके वियोग के दुःख से भी रुलाया तो भी वह मुझसे नाराज होगा। उसकी आत्मा जहाँ कहीं भी होगी, उसी स्थान तड़पेगी। तुमने तो उसका स्थान ले ही लिया है। न, न, चुप हो जा। अरी हाँ आज उस नए आए हुए साधु महाराज का भजन सुनने चलेंगे न? चल उठ, मैं चूल्हा जलाती हूँ, तुम झाड़-बुहारकर खाना बनाने की तैयारी करो। भोजन आदि से निपटने ही नायडू बहनजी बुलाने के लिए आ जाएँगी।"

माँ-बेटी भीतर चली गईं। रमा देवी ने यह एक छोटा सा शानदार मकान पिछले महीने ही मथुरा में रहने के लिए स्वतंत्र रूप से किराये पर लिया था।

रमा देवी के पति का दो बच्चों के पिता होने के बाद अचानक स्वर्गवास हो गया। उनके पति ने रमा देवी के लिए इतना पैसा और जेवरात छोड़े थे, जिससे उनकी दाल-रोटी आराम से चल सके। उसीके सहारे कुछ साल नागपुर के पास अपने गाँव में रमा देवी ने अपने दोनों बच्चों को पाला-पोसा था। आगे चलकर उनका बेटा जब फौज में भरती हो गया तब उनकी बेटी मालती ही उनके पास बची थी। दो-चार वर्षों में ही हिंदुस्थान से बाहर अंग्रेजों से छिड़े किसी युद्ध में भारतीय फौज भेजी गई। उसमें रमा देवी के पुत्र को भी जाना पड़ा। लेकिन वहाँ जाने के बाद वह लापता हो गया। बड़ी दौड़-धूप, कोशिशों के बाद रमा देवी को अफसरों से पता चला कि वह फौजी कुछ कारणवश अफसरों से लड़-झगड़कर फरार हो गया और हो सकता है, दुश्मनों के हाथों मारा गया हो।

यह हादसा हुए पाँच-छह साल बीच चुके थे। इस बात को कि रमा देवी का पुत्र फौज में भरती हो गया था और गुजर चुका है, उनके गाँववालों को इतना विश्वास हो चुका था कि अब इस बात को सभी भूल चुके हैं। परंतु भला रमा देवी यह पूरी तरह से कैसे भूल सकेंगी? उन्हें अपने पुत्र का विस्मरण नहीं हुआ। इतना ही नहीं, कभी-कभी तो उन्हें इस बात पर विश्वास ही नहीं होता था कि उनका पुत्र मारा गया है और अब इस लोक में वह फिर कभी नहीं मिलेगा। युद्ध में मारे गए सैनिकों के निकटवर्तियों की प्रायः इसी प्रकार की मनोवृत्ति पाई जाती है। आज भी उन्हें यह बात सच प्रतीत नहीं होती थी कि उनका पुत्र मारा गया है। कोई भी आशा बाकी नहीं रही थी, फिर भी संदेह दूर नहीं हो रहा था। इन शब्दों का उच्चारण करना भी उन्हें अप्रिय-सा लगता था कि उनका पुत्र दूर देश में युद्ध में मारा गया। यदि कभी इस बात को छेड़ने का प्रसंग आ भी जाता तो बस वे इतना ही कहतीं कि मेरा बड़ा बेटा युद्ध में लापता हो गया है।

पुत्र की मृत्यु का समाचार पाने के बाद दुःख की मारी वह हतभागिनी नारी अब अपनी इकलौती बेटी के प्यार के सहारे ही जी रही थी। वही उसकी आँख की पुतली थी। कंचन का कौर खिलाकर पाला था उसने अपनी लाड़ली को। जैसे-जैसे वह बड़ी होती गई वैसे-वैसे ही वह चंद्रकलावत् अधिकाधिक सुंदर दिखने लगी; जैसे माथे चाँद, ठोढ़ी तारा। उसके प्यार भरे, चपल किंतु सुशील स्वभाव, सलीकेदार बोलचाल में कुछ ऐसी सुघड़ता और रमणीयता थी, मानो उसके मुख से फूल झड़ते हों। न केवल उसकी माँ, बल्कि जो भी उसे देखता, उसके नेत्रों और मन को चतुर्थी की चंद्रकला के दर्शन का आनंद एवं सुख प्राप्त होता। सुंदर मोतियों के दर्शन से इस बात का जिस तरह सहज अहसास होता है कि यह किसी शोभनीय अलंकार की सामग्री है, उसी तरह इस किशोरी को देखने के बाद भी ऐसा ही लगता कि किसी-न-किसी रमणीय, मंगल तथा सुखमय जीवन के लिए इसका निर्माण हुआ है। अब वह चौदहवाँ वर्ष पार कर चुकी थी। गुलाब चटक रहा था। उसकी अम्मा के मन में उसके भविष्य के सिलसिले में सुनहरी आशाओं तथा आकांक्षाओं का एक मनोहारी उद्यान खिलने लगा था।

रमा देवी की एक बहुत पुरानी सखी परिचारिका श्रीमती अन्नपूर्णा देवी नायडू आजकल मथुरा में नौकरी कर रही थीं। उन्हीं के अनुरोध तथा रमा देवी के धार्मिक मन की तीर्थयात्रा में रुचि होने के कारण वे महीना-पंद्रह दिनों के लिए मालती के साथ मथुरा आई हुई थीं। मथुरा के दर्शनीय स्थलों, मंदिरों तथा साधु-संतों के दर्शनार्थ उनकी प्रमुख पुरोहित एवं मार्गदर्शक अन्नपूर्णा देवी हुआ करतीं। उनकी भी साधु-संतों में बड़ी रुचि थी। किसी भी नए साधु के मथुरा आते ही उसका उपदेश सुनने तथा प्रसंगवश यथाशक्ति उसकी सेवा-टहल करने के लिए भी अन्नपूर्णा देवी सहसा नहीं चूकतीं।

उनके घर के निकटवर्ती घाट पर ही पिछले महीने योगानंद नामक एक साधु अपने शिष्यों के साथ ठहरे थे। उन्हीं के पास आजकल अन्नपूर्णा देवी की भजन-पूजन, दर्शनार्थ आवाजाही जारी थी। सर्वत्र यही चर्चा थी कि उन योगानंद स्वामीजी के पास अतीत-भविष्य-वर्तमान जानने की दैवी शक्ति है। रात में उस साधु के मठ में भजन का उद्घोष होते ही उस संकीर्तन के रंग में सैकड़ों लोग तल्लीन होकर भक्तिभावपूर्वक नाचने लगते। योगानंद स्वामी को जब अन्नपूर्णा देवी द्वारा रमा देवी की जानकारी प्राप्त हुई तब उन्होंने अपने हाथों अपनी विशेष कृपा के निदर्शक- स्वरूप रमा देवी के लिए भगवान् का प्रसाद भेजा। पिछली दो-तीन रातों से रमा देवी मालती के साथ भजनोत्सव में भी जा रही थीं। स्वयं योगानंदजी ने भी एक-दो बार उनके बारे में पूछताछ करने की कृपा की थी।

योगानंदजी का आचरण इतना धार्मिक, निर्लिप्त तथा सादगीपूर्ण होता कि गाँव के गुंडे-निठल्ले निंदकों की टोली में भी उनकी कभी निंदा नहीं होती। भजन में जब वे तल्लीन होते तो ऐसा प्रतीत होता कि इस सत्पुरुष को जगत् तथा अपनी देह का भान तक नहीं है। उनकी मुख्य साधना भजन ही हुआ करती। अन्य कोई ढोंग-धथूरा उनके मठ में दिखाई नहीं देता। उनके शिष्यों की संख्या बड़ी थी जो उनके पीछे-पीछे अनुशासनपूर्वक चलते हुए मठ के अनुशासन अनुसार व्यवहार करते हुए दिखाई देते।

मथुरा से उनका पड़ाव शीघ्र ही उठनेवाला था, अतः इस अंतिम सप्ताह में भजन की धूमधाम चल रही थी। सैकड़ों लोग रात में उधर रेलपेल करते।

रमा देवी मालती को लेकर आज रात के भजन-महोत्सव के लिए उधर ही जा रही थीं। माँ-बेटी के भोजनादि से निपटते ही अन्नपूर्णा देवी ने द्वार पर दस्तक दी। तुरंत तीनों स्वामीजी के मठ की ओर चल पड़ी।

प्रकरण-२

मालती कहाँ है ?

रमा देवी मालती के संग जब भजन स्थल पर पहुँचीं तब भजन का रंग खूब जमा हुआ प्रतीत हो रहा था। उस घाट पर इधर-उधर दूर-दूर तक लोगों की रेलपेल, भीड़-भड़क्का हो गया था। दिंडी भजन [2] की तरह बड़े-बड़े झाँझरों के साथ पचास-पचहत्तर गोसाईं साधु-संत योगानंद को घेरकर संकीर्तन कर रहे थे। दस-बीस प्रमुख शिष्य पखावज, मृदंग, वीणा, झाँझर प्रभृति वाद्य-यंत्रों के साथ, ताल-सुर ठीक-ठाक पकड़कर योगी महंत के बिलकुल निकट तैयार बैठे हैं और बीचोबीच कभी बैठे-बैठे तो कभी भक्ति के आवेश में उठकर योगानंदजी ऊँची, बुलंद आवाज तथा तन्मय सुरों में भजन गा रहे हैं। सुदूर फैली हुई उस भीड़ में से ठेला-ठेली करके भीतर जाने की गुंजाइश ही नहीं थी। परंतु अन्नपूर्णा देवी के अनुरोध पर पहले से ही उन्हें महंत के मंदिर के आरक्षित स्थान पर बैठाने के लिए एक शिष्य नियुक्त किया गया था। उस शिष्य ने राह में ही उन्हें देखकर योगानंदजी की आज्ञा-अनुसार तीनों को वहाँ लाकर बैठाया।

इधर भजन अपनी चरम सीमा पर था। तुलसीदासजी के एक पद के चरण उन सैकड़ों भजनियों के सैकड़ों कंठों से परिपुष्ट बुलंद स्वर में गूँजते रहे-

तुलसी मगन भए। हरिगुणगान में॥

मगन भए। हरिगुणगान में॥ ध्रु.॥

कोई चढ़े हाथी घोड़ा पालकी सजा के॥

साधु चले पैंया-पैंया चिंटियाँ बचा के॥

मगन भए। हरिगुणगान में॥ तुलसी.॥

झाँझर की झनझनाहट से लहू की बूंद-बूंद थरथराने लगी।

सारा समाज भक्ति रस में डूबा हुआ था, सराबोर। हरिनाम के सिवा अन्य कोई भी ध्वनि वहाँ सुनाई नहीं दे रही थी। परंतु क्या यह कहा जा सकता है कि एक-दूसरे को सुनाई नहीं दे रही थी या जिस-तिस को भी सुनाई नहीं दे रही थी- इस संबंध में भला कौन कह सकता है?

इतने में उस शतकंठ निनादी स्वर को कुछ नीचे उतारकर योगानंदजी अकेले ही इतनी तन्मयता से गाने लगे कि शिष्यादि भजनी लोगों ने झाँझर को, जो सिर्फ हल्ला-गुल्ला, गुल-गपाड़ा ही कर रहा था, बंद करके करतालों के साथ गाना प्रारंभ किया। 'तुलसी मगन भए। हरिगुणगान में' यह चरण उलट-पुलटकर मधुर तथा धीमे स्वरों में गाते-गाते योगानंद उठकर खड़े हो गए।

उस पद का अर्थ योगानंद स्पष्ट नहीं कर रहे थे। लेकिन जिन्हें उसका बोध हो रहा था वे उस भजन का अर्थ सुन रहे थे, जैसे उन्हें गागर में सागर मिला हो। इस जीवन की साधना हर कोई अपनी रुचि के अनुसार कर रहा है- हर कोई आनंद और सुख का पीछा कर रहा है-कोई भोग द्वारा, कोई योग द्वारा। जैसी जिसकी और जितनी जिसके मन की उन्नति वैसी उसकी रुचि-'स्वभावो मूर्धिन्तिष्ठते।' इसीलिए भई, बाह्य साधनों के विवादों का पचड़ा किसलिए खड़ा किया जाए? तुम उसीमें रम जाओ जिसमें तुम्हें आनंद और सुख मिले, वे उसमें रमे जिसमें उन्हें आनंद और सुख मिले। मुझसे पूछा जाए तो 'तुलसी मगन भए। हरिगुणगान में। हरिगुणगान में।'

कुछ लोग चंदन के ऊँचे पर्यंक पर गुदगुदी मखमली सेज पर लेटने के लिए एड़ी-चोटी एक कर रहे हैं-उन्हें उसमें आनंद आता है। परंतु कुछ लोग अपने पास पलंग होते हुए भी, उसे त्यागकर, साथ-साथ कामी पत्नी को भी त्यागकर बुद्ध सदृश बोधिवृक्ष के नीचे खुले स्थान पर सिर्फ धरती पर सोते हैं-उन्हें वहीं पर गहरी नींद आती है। गाढ़ी निद्रा ही उद्दिष्ट हो तो उसे वहीं सोना उचित है, जहाँ वह चैन की नींद सो सके। भई, इस विवाद की आवश्यकता ही क्या है कि मेरा ही साधन तुम्हें भी इस्तेमाल करना होगा?

कुछ हाथी पर तो कुछ घोड़े पर और कुछ पालकी में शान से इतरा रहे हैं। भई, उन्हें उसी में आनंद आ रहा है-उनका वही स्वभाव है। लेकिन इस साधु को देखो, उसे हाथी पर सवार होना उतना ही दुःखद प्रतीत हो रहा है जितना सूली पर चढ़ना। इस मुँहजोरी से कि पालकी में स्वयं बैठे और उसे कोई अन्य ढोए-उसे इतना लज्जाप्रद प्रतीत होता है, पालकी के स्पर्श मात्र से उसे ऐसा दुःख होता है जैसे किसी धधकते अंगारे से हाथ जल रहा हो। इसीलिए वह साधु पैदल चलता है और पैदल चलते-चलते भी इस भय से कि कीड़े-मकोड़े या चींटियाँ उसके पैरों तले कुचलकर मर तो नहीं जाएँगी, दयाभाव से उन्हें बचाने के लिए देख-देखकर डग भरता है, उसी में उसे सच्चा सुख मिलता है।

कोई चढ़े हाथी घोड़ा पालकी सजा के।

साधु चले पैंया-पैंया चिंटियाँ बचा के॥

पैंया पैंया। चिंटियाँ बचा के॥

उस समय सभी को यही अहसास हुआ कि क्या यह वही साधु तो नहीं जिसका तुलसीदासजी के पद में उल्लेख किया गया है। क्योंकि योगानंद की एक खास आदत थी कि राह में, घाट में, हाट में कहीं पर भी हों, देख-देखकर एक-एक कदम तनिक ऊपर उठाकर उसे आगे बढ़ाते थे।

यद्यपि वे इसी उद्देश्य से उन भजनों को इतनी तल्लीनता से तथा रसभीने स्वर में नहीं गा रहे थे कि उनका साधुत्व गोस्वामीजी के पद के इन चरणों द्वारा लोगों के मन पर अंकित हो, तथापि उसका परिणाम वही हुआ। हर कोई किसी के बिना बताए भी यह जान गया कि गोस्वामीजी के निकष पर योगानंदजी का साधुत्व कुंदन हो गया है।

इस प्रकार के भजनोत्सव में आधी रात बीत चुकी। आरती के समय स्वामीजी का चरण स्पर्श करने के लिए लोगों की रेलपेल होने लगी। लोगों के झुंड घर वापस लौटने के लिए बाहर निकलने लगे। अब तो ऐसी ठेला-ठेली शुरू हो गई कि बस अंधेर मच गया। इतने में अन्नपूर्णा देवी, रमा देवी तथा मालती जहाँ से बाहर निकल रही थीं, उधर दस-पाँच लोगों में अचानक तू-तू, मैं-मैं होने लगी; गुत्थमगुत्था शुरू हो गई और बड़ा हंगामा खड़ा हो गया। यह बखेड़ा निपटाने के बहाने स्वामीजी के दस-पाँच शिष्य छड़ियों के साथ अंदर घुस गए। जो जिधर निकल गया वह वहीं ठेलता, ढकेलता चला गया। बीच में ठसाठस भीड़ ठुँसती गई। इस बिछोह में रमा देवी किधर गईं, अन्नपूर्णा देवी किधर और मालती कहाँ गायब हो गई, इस बात का एक-दूसरी को भी पता नहीं लग रहा था। इतने में स्वामीजी के एक शिष्य ने रमा देवी का, जो लगभग कुचली जाने से बौखलाई हुई थीं, हाथ पकड़कर उन्हें इस भीड़-भड़क्के से बाहर निकाला और बताया कि 'स्वामीजी की आज्ञा से महिलाओं को विशेष तत्परतापूर्वक पहुँचाने के लिए हमें भेजा गया है। आप अपने घर चलिए।'

"लेकिन मेरी मालती? बताइए कहाँ है मेरी बिटिया?" बौखलाई सी, घबराई सी रमा देवी ने पूछा। उस शिष्य ने आनन-फानन उन्हें आगे-आगे ले जाकर ही बताया कि 'सब लोगों को अपने-अपने घर पहुँचाया गया है। आप लोग आगे-आगे बढ़िए। बस।'

आधी राह तो भीड़ की ठेला-ठेली ही चल रही थी, उस भीड से शिष्य ने रमा देवी को लगभग खींचकर ही निकाला।

"जाइए, अब सीधे घर चली जाइए। बाकी दोनों माताजी लोगों को पहले ही वहाँ पहुँचा दिया गया है।" इस प्रकार आश्वासन देते हुए वह शिष्य भीड़ की शिकार किसी अन्य अबला को बचाकर घर पहुँचाने के लिए चलता बना और भीड़ में खो गया।

धड़कते दिल से रमा देवी जल्दी-जल्दी कदम बढ़ाती अपने घर पहुँचीं। एक तरफ इस उपकार का स्मरण करते हुए कि स्वामीजी ने इतने दंगल में विशेष ध्यान रखकर महिलाओं को अपने-अपने घर पहुँचाया और दूसरी तरफ इस बात की चिंता करते-करते कि मालती द्वार पर ही मेरी प्रतीक्षा में बैठी होगी और बेचारी के होश उड़ गए होंगे, रमा देवी अपने घर के पास आ गईं। उन्होंने अँधेरे में उस बरामदे की ओर देखा। दरवाजे का ताला ज्यों-का-त्यों था। मालती या अन्य किसी की भी आहट नहीं मिल रही थी। मालती के आगे आने का कोई सुराग नहीं मिल रहा था। उन्हें ऐसा आभास होने लगा कि भजन-कीर्तन के समय जो धक्कम-धक्का हुआ था, उसमें कुचली गई मालती फूट-फूटकर रो रही है।

"मालती, अरी ओ माला बिटिया..."

रमा देवी ने बड़ी कठिनाई के साथ न जाने किसलिए उस वीरान अँधेरे में दो बार पुकारा और तीसरी पुकार यूँ ही गले से निकल रही थी कि उनका गला भर आया, रुलाई फूट पड़ी और वे धम् से नीचे बैठ गईं। यह ध्यान होते हुए भी कि इधर ऐसा कोई नहीं है जिससे वे बार-बार पूछ रही हैं, सिसक-सिसककर पूछती ही रहीं, "मेरी मालती कहाँ है जी? मेरी माला बिटिया आ गई?"

वस्तुत: उस समय चित्त के इतना व्याकुल होने का कोई कारण नहीं था। स्वामीजी के शिष्य ने जल्दी-जल्दी किंतु साफ-साफ बता दिया था कि 'उन सभी को आगे पहुँचा दिया जा चुका है।' उन्होंने सोचा, इधर नहीं तो हो सकता है अन्नपूर्णा देवी के घर उन दोनों को पहुँचा दिया गया हो। मैं भीड़ में अकेली फँस गई और वे दोनों साथ-साथ हो सकती हैं। नहीं, नहीं, अवश्य साथ ही होंगी। इसलिए इतने दूर तक हंगामे में मुझे ढूँढ़ते-ढूँढ़ते आने की बजाय वहीं से उन्हें अन्नपूर्णा देवी के घर पहुँचा दिया होगा जो इस घर से अधिक निकट है; अन्नपूर्णा देवी ने ही यह प्रार्थना की होगी।

इस तरह यही विपरीत विचार धीरे-धीरे उन्हें सही लगने लगा। यह सोचकर कि स्वयं उधर जाकर मालती को देख लें, वे दो-चार बार सड़क पर आ गईं। 'पर मैं उधर चली गई और मालती इधर आ गई तो? फिर वह अकेली रहेगी। मेरे यहाँ न मिलने पर शायद मुझे ढूँढ़ने वह वापस लौटेगी। दूर का रास्ता, रात का तीसरा पहर, घना अँधेरा। जाएँ या न जाएँ।' इस तरह उलट-पुलट विवंचना, मिथ्या आशा दिखा रही थी कि न जाने कब उन्हें झपकी-सी आ गई।

चौंककर वे उठ गईं। देखा तो बगल में मालती का बिस्तर खाली ही था, यह बिस्तर कभी भी इस तरह सूना-सूना नहीं दिखाई दिया था। प्रतिदिन सुबह आँख खुलते ही उस बिस्तर पर मीठी नींद में सोई हुई मालती की अस्त-व्यस्त लटें सँवारकर उसका मुख प्यार से सहलाकर, उसे कंबल ओढ़ाकर वे प्रसन्नचित्त के साथ 'सडा सम्मार्जन'[3], झाड़ू-बुहार आदि नित्यकर्मों में जुटतीं-यही रमा देवी का नित्य का निश्चित क्रम था। आज उस बिस्तर पर वह प्यारा सा दुलारा मुखड़ा नहीं दिख रहा था। उनका कलेजा सन्न हो गया-काटो तो बदन में खून नहीं। बुरे विचार मन में उमड़-उमड़कर बाहर आने लगे। परंतु उनका मन में भी उच्चारण न करती हुई रमा देवी तपाक् से उठ खड़ी हुईं और सीधी मालती को ढूँढ़ते अन्नपूर्णा देवी के यहाँ चल पड़ी।

लेकिन थोड़ी दूर चलने पर उन्हें दिखाई दिया कि अन्नपूर्णा देवी इधर ही आ रही हैं। अकेली...

घबराती हुई रमा देवी ने पूछा, "यह क्या? मालती कहाँ है?"

हक्की-बक्की सी अन्नपूर्णा देवी ने कहा, "आँ? स्वामीजी के एक शिष्य ने मुझे बताया कि मालती तो आपके साथ चली गई।"

"हाय राम! मेरी मालो! किधर गई होगी वह?" रुंधे कंठ में अटके हुए ऐसे ही कुछ शब्द कहकर रमा देवी किसी नन्हें बालक के समान बिलख-बिलखकर रोने लगीं।

अन्नपूर्णा देवी उनसे अधिक धैर्यशाली महिला थीं अथवा उनका धीरज इसलिए ज्यों-का-त्यों रहा होगा कि उनकी इकलौती कोखजायी सयानी बेटी नहीं खो गई थी। रमा देवी को सहारा देते हुए उन्होंने कहा, "इस तरह मन छोटा क्यों करती हैं आप? हिम्मत से काम लीजिए। आप और हमारी जैसी सभी स्त्रियों को जिस तरह स्वामीजी ने सोच-समझकर आदमी भेजकर उस हुल्लड़ से बचाया, उसी तरह मालती को भी बचाकर किसी सुरक्षित स्थान पर रखा होगा। चलिए, पहले स्वामीजी के पास चलते हैं। कुछ भी हो-मालती उधर ही सरक्षित है-चलिए।"

रमा देवी को इस तरह ढाढस बँधाकर अन्नपूर्णा देवी स्वामीजी के मंदिर की ओर चल तो पड़ीं, परंतु उनका मन भी इसी धुकधुकी में डाँवाडोल हो रहा था कि क्या होगा, क्या नहीं।

प्रकरण-३

योगानंद का कपट

योगानंद जिस मंदिर में ठहरे थे, उसके अहाते में सवेरे कुछ दर्शनार्थी तथा प्रश्नार्थी तब तक इधर-उधर टहलते रहते थे, जब तक स्वामीजी का बुलावा नहीं आता। दो-दो, चार-चार परिचित लोगों के गुट योगानंदजी की प्रशंसा के पुल बाँधते रहते कि वे भूत-भविष्य-वर्तमान कितना अचूक बताते हैं। कोई संदेह व्यक्त करता, तब उसका समाधान करने की जिद पकड़कर अन्य भक्त लोग उनके अचूक भविष्य कथन के उदाहरण नमक-मिर्च लगाकर बखानते। स्वयं योगानंद कभी कीर्तन द्वारा अथवा व्यक्तिगत संवादों से धार्मिक उपदेश नहीं दिया करते थे। वे प्रायः किसी भी संबंध में किसी से भी बातचीत नहीं किया करते थे। सिर्फ जिनके मन में भूत-भविष्य देखने की इच्छा हो जाती, उन्हें ही शिष्य द्वारा एकांत में उनके कमरे में बुलाया जाता। उधर महंतजी कुछ चुनिंदा प्रश्न पूछा करते, और सुनते। फिर जलादर्श नामक एक तांत्रिक यंत्र सामने रखा जाता और महंतजी वही कहते जो प्रत्यक्ष रूप में उस यंत्र में उनकी दिव्य दृष्टि को दिखाई देता। किसी के सच-झूठ प्रमाणित करने के प्रयासों से वे विवादों के किसी पचड़े में नहीं पड़ते। 'प्रभु ने बताया सो मैंने कह दिया। सत्य-मिथ्या प्रभु का अधिकार। मैं तो बस उसके शब्दों की ध्वनि हूँ।' यही ठोस उत्तर योगानंद दिया करते और उस शिष्य द्वारा उस प्रश्नार्थी को बाहर पहुँचा दिया जाता। महंतजी किसी से भी उस जलादर्श स्थित भूत-भविष्य कथन के बदले एक धेला भी नहीं लिया करते-इस अपरिग्रही निर्लोभतावश उनकी दी हुई जानकारी पर सश्रद्ध जनों को ही नहीं, अपितु अर्धसंदेही लोगों की भी अधिक ही श्रद्धा होती। महंतजी वाक्संयम का पालन करते, उससे उनके मुख से एकाध जो गूढ शब्द निकलता, उसका स्पष्टीकरण अपने मतानुसार करने के लिए हर कोई स्वतंत्र हुआ करता। कीर्तन में स्वयं तल्लीन होकर उन्मुक्त भाव से सुरीली आवाज में बार-बार दोहराकर भजन गाते। उस समय उस भावभक्ति ने अभिनय से उनकी धार्मिक सिद्धि की महत्ता श्रोतावृंद को ज्ञात होती, लेकिन कीर्तन द्वारा भी वे भजन से अलग कोई प्रवचन नहीं देते। 'भजन संतों का। संतों से अधिक भला मैं क्या कह सकता हूँ।' इस वाक्य का प्रसंगवश उच्चारण करके वे मुँह में ठेपी रखते।

लेकिन योगानंदजी की इस मौनवृत्ति से ही अन्य किसी भी प्रवचनकार के किसी भी वक्तव्य की अपेक्षा उनके वेदांत ज्ञान की गूढ़ता पर मुग्ध लोगों पर असाधारण छाप पड़ती। उनका ज्ञान इतना अगाध है, गूढ़ है, प्रगाढ़ है कि भई, शब्दों की कमी तो रहेगी ही! 'गुरोस्तु मौनं व्याख्यानम्' यही परम प्रसिद्धि का चिह्न है- इस तरह भावुक लोग आपस में कहा करते। उस कुएँ की गहराई पर तर्क किया जा सकता है जिसका मुँह खुला है परंतु जिसका मुँह बंद होता है और किसी ने भी उसे खुला हुआ नहीं देखा है-उसके प्रति असीम विस्मय होगा ही। इस प्रकार अथवा ऐसी ही कोई आपत्ति यदि कोई उठाने लगता तो उस गुरु का ही, जिसके लिए भाषण देना टेढ़ी खीर है, यह लक्षण हो सकता है-'गुरोस्तु मौनं व्याख्यानम्।' तब इधर उधर से भावुक शोरगुल मचाकर कहते, 'भई, इस निंदक के मुँह कौन लगे।'

रमा देवी की उस स्वामी पर अटूट निष्ठा थी, जो उन्हें आज उस राह पर चलने लायक शक्ति दे रही थी। 'यदि मालती योगानंद के मठ में सुरक्षित नहीं हो और कल के दंगा-फसाद में खो गई हो, तो भी योगानंदजी अपने जलादर्श यंत्र में देखकर मुझे अवश्य बताएँगे कि वह कहाँ है। यह विचार उस भावुक माता के घबराए हुए मन का तनिक सहारा बन गया था। वे अपने आपको ही सांत्वना दे रही थीं कि स्वामीजी किसी-न-किसी उपाय से उनको इस संकट से उबारेंगे। निरीच्छ, निर्मोही साधु पर उनकी जो अटूट श्रद्धा थी, उसी श्रद्धा की लाठी के सहारे वे लड़खड़ाते हुए मंदिर की ओर तेजी से बढ़ रही थीं।

अन्नपूर्णा देवी भावुक होते हुए भी भोली-भाली नहीं थीं। पाखंडी, रखेड़िए बगुला भगत उन्होंने बहुतेरे देखे थे। लेकिन यदि कोई इस तरह बहस करता कि सभी साधु ढोंगी, ढपोरशंखी होते हैं तो वे उसे पराजित करतीं। किसी से कुछ भी न लेते हुए, जो समझ में आए वह बताने की योगानंदजी की प्रवृत्ति, उनके द्वारा कथित भूत-भविष्य में किसी प्रकार की चालाकी या झूठ न होने की चर्चाएँ-इन दो प्रमाणों से योगानंद के विषय में उनका अनुकूल ग्रह हो गया था। स्पष्ट था कि वे एक सच्चरित्र, परोपकारी, साधु पुरुष हैं। इस विषय में भी अन्नपूर्णा देवी का विश्वास बढ़ने लगा था कि उनमें भूत-भविष्य कथन करने की दिव्य दृष्टि है, वे अंतर्यामी हैं। हाँ, तनिक संदेह था, लेकिन वह इसपर कि भूत, भविष्य, वर्तमान ज्ञान की सिद्धि कितनी अचूक होगी, न कि उनकी ईमानदारी पर। मालती पर जो विपदा आ पड़ी थी, उससे अन्नपूर्णा देवी के मन में परेशानी होने के बावजूद यह विचार आए बिना नहीं रहा कि इस बात को परखने का यह सुनहरा अवसर है।

मंदिर के प्रांगण में दोनों महिलाएँ कदम रख ही रही थीं कि इतनी देर तक दबाई हुई आह भरते हुए रमा देवी ने उसी शिष्य से पूछा, "भई, हमारी मालती बिटिया कहाँ है?"

शिष्य ने, जो उनके इस उतावले प्रश्न की मानो ताक में ही था, अपने मुख पर थिरकती आश्वासक मुसकान और दोनों पंजे वरदहस्त सदृश हिलाते हुए बताया, "सबकुछ ठीक-ठाक है।" उससे रमा देवी की जान में जान आ गई। जिस गति से उनकी चिंता कम हुई उतनी ही तेज गति से उनकी जिज्ञासा दुगुनी हो गई और व्याकुल चित्त के साथ रमा देवी गिड़गिड़ाने लगीं, "उसे बुलाइए न? अं? यहाँ पर तो कहीं नजर नहीं आ रही?"

शिष्य ने इस लाचारी के आविर्भाव में उत्तर दिया, जैसे कि इसलिए बोल रहा हो कि शब्दों का उच्चारण होना ही चाहिए, "माताजी, गुरु महाराज अभी याद करेंगे आपको। घबराइए मत। शोर भी मत मचाइएगा।"

योगानंद स्वामी की तरह उनके शिष्यों को भी यथासंभव मितभाषी होने के अनुशासन का पालन करना पड़ता है और योगानंद गुरुजी की अनुज्ञा के बिना किसी भी प्रश्न का सहसा कोई भी वाचिक उत्तर देना उनके लिए असंभव था। यहाँ की रीत अन्नपूर्णा देवी जानती थीं, मिलनेवालों को बस उतने ही प्रश्न पूछने की अनुमति थी जितने महंत चाहते हैं। उन्होंने संकेत से रमा देवी को घुड़की दी, "तनिक चुप भी रहिए।"

इतने में महंतजी के कमरे का द्वार खुल गया। दो-चार प्रश्नार्थी सज्जन बाहर निकले। तब दोनों को वह शिष्य भीतर ले गया। लेकिन उधर भी मालती नजर नहीं आई। रमा देवी को संकेत से बोलने की अनुमति मिलते ही उन्होंने हाथ जोड़कर पूछा, "स्वामीजी, मैं आपका यह उपकार जन्म-जन्म तक नहीं भूलूँगी कि मेरी बेटी मालती को कल के दंगा-फसाद से मुक्त करके यहाँ सुरक्षित स्थान पर आपने रखा। मैं उसे लेने आई हूँ। कहाँ है मेरी बिटिया?"

महंतजी के संकेत से शिष्य बोलने लगा, "माताजी, आपकी कन्या को दंगा-फसाद से मैंने छुड़ाया और आपके घर ले जा ही रहा था। लेकिन उसने कहा कि मैं अपने किसी परिचित सज्जन के साथ संतोषपूर्वक घर चली जाऊँगी। वह मेरा निकटवर्ती संबंधी है।"

"क्या मतलब? कौन था वह?" रमा देवी ने घबराकर पूछा। बुझती चिंता की लपटें भभक उठीं और उनका हृदय फिर से धधकने लगा, जैसे बुझता दीपक भभक उठता है। अकुलाती हुई वे पूछने लगीं, "महाराज, यहाँ तो मेरा कोई नहीं है ! ओह ! महाराज, अवश्य कोई धोखा हुआ है। महाराज..."

निश्चयी मुद्रा से अपने हाथों की तर्जनी उठाकर महंतजी ने उन देवियों को रुकने का इशारा किया। रमा देवी का उमड़ता हुआ आवेग, जो असंयत हो रहा था, वह घुड़की भरा लेकिन सहानुभूतिपूर्ण संकेत पाकर खट से दब गया। ढेर सारी बाते वहीं पर ठिठक गईं जो उनके मुख से बाहर निकलने के लिए उनके होंठों पर अटकी हुई थीं।

आँखें सिकोड़ते हुए महंतजी तनिक अंतर्मुख हो गए, फिर अत्यंत दयार्द्र स्वर में कहने लगे, "देख मैया, तेरी बेटी नहीं, मेरी अपनी बेटी ही खो गई है। भगवान् की इच्छा हो तो, देख, झट से उसे ढूँढ़ निकालता हूँ। हाँ, परंतु बस उतना ही बोल माई, जितना मैं तुमसे पूछूँगा, उतना ही देख जितना दिखाई देता है, उतना ही सुन, जितना मैं तुमसे कहूँगा। सबसे पहले अपना मन मेरे हाथों सौंप दे। ऐसा कोई भी विचार मन में झाँकने नहीं देना जो तेरा अपना हो। दे दिया न अपना मन रिक्त करके?"

"हाँ जी, दे दिया, महाराज!" यह कहते ही रमा देवी का मन सचमुच ही संवेदनाशून्य सा हो गया और वह महंतजी की गतिविधियों की ओर बस टुकुर-टुकुर देखती रहीं।

गुरुजी का संकेत पाकर एक शिष्य ने एक साफ-सुथरी परात उनके सम्मुख रख दी। उसे निर्मल, स्वच्छ जल से लबालब भर दिया। उस परात के तनिक ऊपर एक साफ-सुथरा, निष्कलंक दर्पण दीवार पर टाँग दिया गया। एक दीप जलाकर पास रख दिया गया। महंत योगानंदजी ने कड़छी से जल मंत्रित करके अपनी आँखों पर छिड़का और एकाग्रचित्त से मंत्र-जाप करते हुए उस परात में भरे जल की ओर टकटकी बाँधकर बैठ गए। सभी लोग ऐसे बुत बनकर बैठे, जैसे साँस लेने में भी उन्हें डर लग रहा हो।

थोड़ी ही देर में महंतजी ने सिर उठाकर अन्नपूर्णा देवी से पूछा, "माई, इनका एक बड़ा बेटा है न?" रमा देवी चौंकी, भई इन्हें कैसे पता चला? भई, वाकई यह पुरुष अंतर्यामी है!

परंतु अन्नपूर्णा देवी कुछ खास नहीं चौंकी। उन्होंने उत्तर दिया, "जी हाँ। मैंने स्वयं ही पहले आपको यह बताया था कि रमा देवी का एक बड़ा बेटा है, जो युद्ध में मारा गया है। इस हादसे को अब पाँच-छह साल बीत चुके हैं।"

"लेकिन वह मारा नहीं गया है। मैं यही बता रहा था कि इनका बड़ा बेटा जीवित है और अच्छा-खासा हट्टा-कट्टा है। देखो-देखो, मेरे सामने प्रत्यक्ष बैठा है, जैसे आप लोग इस समय बैठी हैं-वह मेरे संग बतिया भी रहा है।"

महंत के हर वाक्य के साथ रमा देवी के ही नहीं, अन्नपूर्णा देवी के बदन में भी आश्चर्य की बिजलियाँ सनसनाने लगीं। काँपते स्वर में रमा देवी ने कहा, "आहा! मेरा बेटा! जीवित है ! हाय भगवान् ! आपके मुँह में घी-शक्कर।"

अन्नपूर्णा देवी ने विस्मय की लपेट से अपने आपको तनिक छुड़ाते हुए पूछा, "पर महाराज, इसका क्या प्रमाण है कि वह इन्हीं का पुत्र है? क्षमा करें, महाराज, परंतु मिथ्या आभास..."

"व्यर्थ तर्क-कुतर्क का झंझट नहीं चाहिए। फिर भी कान खोलकर सुनो, वह क्योंकर इन्हीं का पुत्र है। उसके माथे पर घाव का एक गहरा निशान है। क्यों? है न?"

अन्नपूर्णा देवी इस मामले में कुछ भी नहीं जानती थीं, अतः उन्होंने रमा देवी की ओर देखा। रमा देवी तनिक उधेड़बुन में पड़ गईं, क्योंकि उनके पुत्र के माथे पर, तो किसी भी घाव का निशान नहीं था। लेकिन अगर उसे मान लिया तो महंत झूठे सिद्ध होंगे तथा उनका अंतर्ज्ञान मिथ्या, पाखंड सिद्ध होते ही मृत पुत्र के पुनर्जीवित होने तथा खोई हुई बेटी के मिलने की सुखद संभावना भी घोर संदेह के चक्कर में लटकती रहेगी।

"भई, नहीं है तो साफ-साफ कह डालो, उलझो मत।" महंत ने टोका।

"वैसे उसके माथे पर कोई घाव तो नहीं था..." कहे या न कहे के पसोपेश में पड़ी रमा देवी के मुख से आनन-फानन निकल गया।

"ठीक-ठीक याद करो। फौज में भरती होने के पश्चात् तेरा बेटा युद्ध पर गया था न? ठीक है, वहीं पर उसे घाव हो गया था।"

"अरे हाँ, महाराज, अब याद आ गया। सोलह आने सच है यह बात। अपनी अंतिम चिट्ठी में उसने इसका जिक्र किया था कि उसके सिर में चोट लगी है। आपका अंतर्ज्ञान त्रिकाल सत्य है, महाराज!"

महंतजी को वह खबर इस तरह ज्ञात हो जो स्वयं रमा देवी को भी ज्ञात नहीं थी, न ही आज तक उनमें से किसीको ज्ञात थी, वह जानकारी इतनी सत्य सिद्ध हो और वह भी सहज क्रम से! अन्नपूर्णा देवी दंग रह गईं। अब उनका भी महंतजी के शब्दों पर भाविक श्रद्धा न होना उतना ही असंभव था जितना रमा देवी का। उस सर्वथा परस्थ तथा अपरिचित साधु ने इतनी जल्दी, फटाफट उनके पुत्र के हुलिये के इतने अचूक निशान एवं घरबार की जानकारी दी कि किसी महापाखंडी के लिए भी इसे नकारना कठिन होगा कि उनकी अंतर्दृष्टि उनके पुत्र को देख रही है।

रमा देवी के विस्मय का तो ठिकाना ही नहीं रहा। वह फटी-फटी आँखों से देखती ही रह गईं। महंतजी का यह वाक्य कानों में आते ही कि 'आपका पत्र जी है, सकुशल है' उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ जैसे किसीने कानों में अमृत उँडेला हो। हर्ष लहरियों से उनका दिल ऐसा उछला कि उनमें मालती के खो जाने की स्मृति भी पल भर के लिए डूब गई। जो माता अपनी खोई हुई बेटी को ढूँढ़ रही थी, उसने अब अपना इकलौता मृत पुत्र जीवित रूप में पा लिया!

"परंतु पते की बात तो अभी बाकी ही है..." महंतजी अब जल्दी-जल्दी कहने लगे, "अपने उस पुत्र का एक यह स्नेही देखो...वह तथा...हाँ हाँ...देखा...यह मालती आ गई। ठीक। आपका घर नागपुर के पास है न? हूँ.. .देखो तो सही, उस स्थान पर मालती उससे प्यार की पेंगें बढ़ा रही है। यही है वह सज्जन-जिसके साथ कल मालती चली गई। हाँ, हाँ, बिलकुल राजी-खुशी से जा रही है, देखो। यह सबकुछ मुझे दिखाई दे रहा है, इसीलिए यह सब उतना ही सच है जितना आप मुझे दिखाई दे रही हैं, इसीलिए यह यथार्थ है कि आप यहाँ हैं। देखो, अब वे चल पड़े, ट्रेन छूट गई। क्या अक्षर धुँधले से? लेकिन नागपुर चली गई है। होम-हीम-हूम-वषट्। नेत्रत्रयाय फट्।"

वह महंत, जो एकाग्रचित्त के अवधानवश परिशांत हो गया था, इस मंत्र के उच्चारण के साथ ही हलके से मृगछाला पर आँखें मूंदकर लेट गया। शिष्य ने सैकड़ों प्रश्न-शंका-जिज्ञासा आदि से अकुलाती हुई उन दो महिलाओं को इशारे से चुप रहने के लिए धमकाकर उस यंत्र को तोड़ दिया। उसके साथ ही न जाने कहाँ से एक आवाज गूंज उठी तथा घंटियों का गुच्छा खनखनाया गया। फिर उसकी ध्वनि धीमी होती गई। उस शिष्य ने जल्दी-जल्दी परात, चिरागदान, आईना आदि वस्तुओं को अपने-अपने स्थान पर रख दिया। फिर थोड़ी देर पंखा झुलाते हुए गुरुजी के पास बैठ गया। गुरुजी के तनिक हाथ ऊपर उठाकर संकेत करते ही उसने उन महिलाओं से गंभीर स्वर में आग्रह किया, "अब इससे अधिक कुछ भी नहीं कहा जाएगा-अब उनकी प्रेरणा उतर गई है। हाँ, चाहें तो बस इतना ही पूछिए कि अब आगे क्या किया जाए? बस उतना ही सुनना चाहिए जितना गुरुजी द्वारा योग निद्रा भंग होने से पहले बताया जाए। किसी प्रकार की अधिक चर्चा, ऊहापोह न करते हुए आज वापस लौटा जाए। कल का कल देखा जाएगा।"

रमा देवी का जी करता था, एक ही साँस में सैकड़ों सवाल पूछे। उनके मन में उस महंत द्वारा वर्णित मालती संबंधित वृत्त ने चिंताकुल विचारों का इतना कुछ संभ्रम उत्पन्न कर दिया था। लेकिन वे लाचार थीं। सौ सोनार की तो एक लुहार की जैसे एक ही उत्तर ने उनके सैकड़ों प्रश्नों को उसी स्थान पर पथरा दिया था। वह उत्तर था उस उग्र शिष्य की फटकार भरी वह अँगुली जो उन्हें चुप्पी साधने का संकेत कर रही थी। अर्थात् रमा देवी ने अकुलाकर वही प्रश्न पूछा जो पूछने की उन्हें अनुज्ञा मिली थी, "अब हमें आगे क्या करना चाहिए जिससे संकट टल जाए? महाराज, कृपा करके..."

शिष्य ने 'हाँ! हाँ!' कहकर इशारे से फिर धमकाया। रमा देवी के वाक्य की लंबाई निश्चित परिमाण से बढ़ गई थी।

"हाँ! हाँ! आगे? अच्छा ! इधर-उधर किसीसे भी मत बोलो! यदि तनिक भी 'ची-चपड़' किया तो मालती बची-खुची लाज-हया त्यागकर बैरन बन जाएगी, बैरन। इधर किसी के भी सामने मालती के खो जाने के बारे में एक भी शब्द मुँह से मत निकालना। अभी इसी समय नागपुर जाओ। लड़की मैदान में मिलेगी। परंतु इधर जरा सा भी विलंब करोगी-एक रात बिताओगी तो पछताओगी-उसे तुम नहीं पाओगी। नागपुर से लड़की-बस्स-चल देगी-दूर-दूर-दूर। जाओ, जल्दी करो- मैदान में। देख-देख-देख। यह देखो मालती। आओऽ आओऽ आओ। बेटा आ जाओ, अपनी अम्मा के पास..."

महंतजी निश्चेष्ट लेट गए। शिष्य ने कहा, "माँजी, आपका संकट टल गया। अभी सुना आपने गुरुजी का अभिप्राय? साक्षात्कार का वह शब्द? उन शब्दों का पालन करेंगी तो लड़की वापस आ जाएगी-अपने पैरों से चलती हुई वापस लौटेगी। इस इलाके में यहाँ किसी से भी कुछ न कहते हुए, चर्चा न करते हुए, आज ही यहाँ से चली जाओ। यहाँ से निकल पड़ो और नागपुर पहुँच जाओ, अन्यथा समाज में बदनामी होगी। यदि आप चाहती हैं कि मालती और अधिक बेहया बनकर दूर न चली जाए तो अब बिलकुल चीं-चपड़ न करते हुए नागपुर चली जाइए और उससे तीन-चार दिनों में भेंट कीजिए जब तक वह उधर मौजूद है। बस, अब आप विदा लीजिए। न-न-न। भई, यह क्या? फल, दक्षिणा? छी:-छी: माँजी, ये देवता किसी अन्य व्यक्ति का फूल भी स्वीकार नहीं करते। ये महंत एक पहुँचे हुए अलौकिक साधु हैं। वैसे तो लाखों जोगी, जोगड़े आप देखती हैं। परंतु, माताजी, यह तो साक्षात्कारी पुरुष हैं। अच्छा, चलिए। न, न, अब एक शब्द भी अधिक नहीं कहना। बाहर..."

उस शिष्य का वह अंतिम शब्द इतना आदेशात्मक था कि अगर एक पग भी बाहर की ओर नहीं उठाया तो लगता था, महाशय धक्के मारकर बाहर निकालेंगे। वे दोनों प्रणाम करके फल-दक्षिणा वापस लेकर चुपचाप उलटे कदम बाहर की ओर चल दी। चुपचाप मंदिर से बाहर आ गईं। राह लगते ही रमा देवी कुछ कहने जा रही थीं कि अन्नपूर्णा देवी ने चेतावनी दी, "अंऽहं ! रास्ते में नहीं! घर जाकर जो कहना है कहिए।"

वे प्रथमतः अन्नपूर्णा देवी के ही घर गईं। घर में कदम रखते ही उन्होंने पूछा, "है कोई ऐसा आपका परिचित? आपके बेटे का कोई मित्र है जो मालती से इतना गाढ़ा मेल-जोल रखे? कहीं मालती किसी के मोहजाल में तो नहीं फँसी थी, जिसके लिए आपका विरोध था?"

बेचारी रमा देवी! सुबह से इतनी देर तक इतने चमत्कारपूर्ण आघातों से उनका मन इस तरह डाँवाँडोल हो गया था कि अब उनके दिमाग की विचार शक्ति ही अशक्त हो गई थी। फिर भी अंतिम प्रश्न से चौंककर उन्होंने कहा, "नहीं जी! अपनी माला बिटिया को कभी इस तरह ऊटपटाँग, अनर्गल बातें करते मैंने सुना ही नहीं, तो उसके विरोध या अनुमति का प्रश्न ही कहाँ उत्पन्न होता है? हाँ, वैसे वह सैर-सपाटे के लिए अपनी सखियों के संग जाया करती थी। मंदिर में जाती, नाटक देखने भी कभी गई होगी, लेकिन इस प्रकार कोई पुरुष उससे परिचित नहीं था। अब मैं क्या कहूँ कि मेरे बेटे का कौन सा मित्र हो सकता है? भई, मेरे बेटे ने सारी दुनिया की सैर की है। परंतु हाय राम! मालती ऐसी कुलच्छनी निकली...!"

"न, न! आज नियति ने ईश्वर सदृश ही उपकार किए हैं आप पर कि पुराण की कथा इस युग में घटी? क्या आपके मृत पुत्र का पुनर्जन्म नहीं हुआ? फिर गुमशुदा बेटी से मिलने की भला चिंता क्यों? मैं कहती हूँ, अब आप सारे तर्क-कुतर्क छोड़ दीजिए। महंतजी के विगत अद्भुत अंतर्ज्ञान पर, जो सोलह आने सत्य निश्चित हो चुका है, विश्वास करके उसी राह जाइए जिसका उन्होंने आदेश दिया है।"

"न बाबा! आप चलेंगी तभी मैं नागपुर जाऊँगी।" रमा देवी अपनी जिद पर अड़ गईं। अपने भरोसे वे एक पग भी आगे नहीं बढ़ा सकती थीं।

कीर्तन के समय मालती के खो जाने की खबर किसी को कानोकान न देते रमा देवी और अन्नपूर्णा देवी उसी दिन उस शहर से रवाना हो गईं।

प्रकरण-४

पुलिस की हिरासत में

रमा देवी अन्नपूर्णा देवी के साथ तुरंत नागपुर के लिए रवाना हो गईं। मालती के गुमशुदा होने के सिलसिले में उन्होंने कहीं भी एक शब्द तंक मुँह से नहीं निकाला था, अत: पास-पड़ोस में किसी को इसकी भनक तक नहीं लगी थी, फिर भला अन्य लोगों तथा पुलिस को कैसे लग पाती?

रात के समय उसी दिन मथुरा निवासियों को योगानंद स्वामी का अंतिम बार दर्शन-लाभ होना था, अंतिम बार भजन-श्रवण का लाभ होनेवाला था, क्योंकि भजन समाप्ति के पश्चात् स्वामीजी का पड़ाव मथुरा से उठना निश्चित हो चुका था। जाहिर है, मंदिर के प्रांगण में भावुक भक्तों की रेलपेल, भीड़-भड़क्का हमेशा से भी अधिक हो गया था। अपने चार प्रमुख शिष्यों की चौकड़ी में योगानंद महाराज बीचोबीच खड़े रहकर वीणा पर भजन गाने लगे। रंगत आने लगी, अच्छा-खासा समाँ बँध गया। थोड़ी देर के पश्चात् स्वामीजी की आज्ञानुसार हजारों भक्तगण भी खड़े होकर एकमुख से जब नामघोष करने लगे, बड़ी-बड़ी पखावज, मृदंग, मँजीरा, सारंगियाँ सहस्राधिक तालिकाएँ एक साथ झंकारती हुईं उस शतकंठ निनादी नामघोष का साथ देने लगीं और भक्ति के आवेश में महंत हाथ ऊपर उठाकर लय को द्रुततर करने के लिए सतत संकेत करने लगे तथा उस द्रुततर लय पर नामघोष का घमासान उड़ाने लगे, तब उस ध्वनि सिंधु की लहरों के साथ हृदय थर्राने लगा, हर किसी की सुधबुध बिसरने लगी। कई लोग तो भक्ति के आनंद में तल्लीन होकर नाचने लगे, कई लोगों की आँखों से प्रेमाश्रु बहने लगे। नामघोष से सारा वातावरण गूँज उठा।

लेकिन अंत में जब लय साधकर महंत ने दोनों हाथ ऊपर उठाए और सूचना दी कि 'शांत हो जाइए' तब वह विशाल गोष्ठी उसी प्रकार पूर्णतया नि:शब्द हो गई, जैसे किसी बड़े हारमोनियम के संगीत के जोश में भाथी फूटने से वह अचानक मौन हो जाता है। कहीं भी चीं-चपड़ नहीं था। हर कोई उत्सुकता से टुकुर-टुकुर देखने लगा कि उस सत्वशील भक्त के मुख से अब पुनः कौन सा रसपूर्ण, भावभीन भजन-पद निकलता है।

भोर की वेला में पक्षी के नीड़ से जिस प्रकार पंछी का पहला आलाप गहन निद्रा में पड़े व्यक्ति के कानों में मिठास घोलता है, उसी प्रकार उस नीरव गोष्ठी की शांति में से कुछ देर बाद फिर से सारंगी का कोमल मधुर स्वर उभरने लगा। वह शिष्य, जो स्वामीजी के भजन में साथ दे रहा था, उनको प्रिय मीराबाई का पद सारंगी पर अलापने लगा-

बता दे सखि कौन गली गए श्याम?॥

कौन गली गए श्याम? ॥ध्रु.॥

गोकुल ढूँढ़ा। वृंदावन ढूँढ़ा।

ढूँढ़ आयो ब्रजधाम॥ बता दे सखि॥१॥

वह भक्त 'कौन गली गए श्याम?' जैसा रसभीना चरण इतनी आर्त अकुलाहट भरे स्वर में गाने लगा, हर शब्द को अदल-बदलकर ऊँचाई पर उठाते-उठाते मधुर, भावभीने आलाप के साथ मनुहार करने लगा कि हर किसी के हृदय में अपने-अपने प्रियतम की मूर्ति दिखने लगी। हर किसी को यह आभास होने लगा कि वही अपने प्रिय को तलाशता हुआ गली-गली घूम रहा है, डोलता फिर रहा है। कौन गली गए श्याम?' 'सखी री, बता दो न, किस गली में मेरा साजन छिपा हुआ है? मैंने उसे गोकुल में ढूँढ़ा, वृंदावन का चप्पा-चप्पा छान मारा, ब्रज में भी देखा, पर मेरे प्रिय का कुछ अता-पता नहीं है। कहो सखी, वह मनमोहन है कहाँ ? कौन गली गए श्याम?'

संसार-प्रवण युवा-युवतियों के हृदय में अपने ऐहिक प्रियतम की स्मृति जाग उठी, एक मधुर अकुलाहट थरथराने लगी और पूछने लगी, 'बता दो न, कौन गली गए श्याम?'

अध्यात्म-प्रवण साधु-संतों, भक्तों के हृदयों में अपने पिया मिलन की आस अकुलाने लगी। यह जो जीव जन्म-जन्मों के गोकुल-वृंदावन में जिस किसी को तलाशता हुआ, जिस किसी की आस लेकर, रंग-रूप-रस-स्पर्श के फूलों से लदे-फदे कुंज-कुंज में से उस आनंदकंद देवकी नंदन को खोजता हुआ लगातार भाग रहा है-उसके मिलन की उत्सुकता आर्त स्वर में यही पूछने लगी, 'कौन गली गए श्याम? बता न सखी! कहाँ है वह ईश्वर जिसके आकर्षणवश यह जीव इस तरह छटपटाता हुआ युगों से लगातार भागता जा रहा है? जिसकी बंसी के मधुर नाद से मनुष्य के मन में जिजीविषा उत्पन्न होती है, वह बंसीधर, बंसीवट का नटनागर कहाँ है? कौन गली गए श्याम?'

उस रसभीने गीत के चलते बीच में ही उस सात्विक मधुर, सुरीले संगीत में खोई गोष्ठी के कानों को अचानक एक के पीछे एक आनेवाले दस-बारह मोटरों के भोंपुओं की कर्कश फों-फों सुनाई दी, जैसे नरम मखमली फूलों की सेज पर सोते हुए अचानक कोई गहरा विषैला डंक मारे। मंदिर के प्रांगण में, जहाँ भजन-कीर्तन की गोष्ठी जमती थी, उसकी तीनों दिशाओं के द्वारों पर उन मोटरों में से दो-दो मोटरकारें फों-फों फुँफकारती हुई मुड़कर रुक गईं। योगानंद स्वामी की चर्चा मथुरा में दूर-दूर तक फैली हुई थी, अतः उनका भजन सुनने के लिए अनेक धनी-मानी लोग मोटरें लेकर हमेशा आया करते थे। हो सकता है ये कारें उनमें से ही किसी की हों, फिर भी इन मोटरवालों को जमी-जमाई भजन-गोष्ठी में रस भंग कर इस तरह खीर में नोन डालने की धृष्टता करने में रत्ती भर भी संकोच नहीं होता? लोग-बाग तनिक झल्लाते हुए आपस में खुसुर-फुसुर करने लगे। परंतु महंत योगानंदजी उसी तल्लीनता से भजन गाते रहे, जैसे पहले गा रहे थे।

इतने में एक हट्टा-कट्टा, उदंड, उग्र, लंबा-तडंगा आदमी सामनेवाले दरवाजे से अंदर घुसकर धृष्टतापूर्वक रास्ता बनाते हुए सीधा मंच पर उस तरफ जाने लगा जहाँ महंतजी अपनी भजन-मंडली के साथ विराजमान थे। आसपास के लोग चिल्ला-चिल्लाकर उससे कहने लगे--'नीचे बैठो', 'अरे सुनो, अक्लमंद की दुम', 'अजी देखते क्या हो, उसे नीचे खींचो', 'हाथ पकड़कर नीचे बैठाओ।' परंतु उनके चीखने-चिल्लाने पर कान न देते हुए, उनके व्यंग्य-बाणों की उपेक्षा कर वह सीधे मंच के निकट चला गया और बिना किसी से पूछे मंच के ऊपर चढ़ गया। जो भक्त भजन के रंग में मन:पूर्वक तन्मय हो जाता है, उसमें किसी दैवी आवेश का संचार होता है अथवा कोई नीम पागल व्यक्ति को विशाल सभा-गोष्ठियों के केवल जनसमुद्र के दृश्य मात्र से ही उन्माद चढ़ जाता है। परंतु यह व्यक्ति तो नीम पागल भी नहीं दिखाई देता, न ही भोला-भाला। सलीकेदार वेशभूषा, शानदार, समझदार भद्र मुद्रा देखकर मंच पर चढ़ते ही महंत की चौकड़ी में से एक शिष्य ने विनम्रतापूर्वक पूछा, "आपको क्या चाहिए महाराज? इस प्रकार सीधे मंच पर चढ़ना सभा-शिष्टता नहीं है, न ही यह उचित है।"

परंतु उस सज्जन के कानों पर जूँ तक नहीं रेंगी। उसे अनसुना करके वह सीधा महंत के निकट आया। उसने उससे कहा, "बाहर आपको कोई महान् व्यक्ति मिलने के लिए बुला रहा है-चलिए।"

महंत ने स्वयं उस व्यक्ति को कोई उत्तर नहीं दिया, उन्होंने अपने शिष्य की ओर संकेत किया। शिष्य ने कहा, "वह महान् व्यक्ति स्वयं भीतर आ जाए। महंत केवल ईश्वर के सम्मुख जाते हैं, उसकी अगवानी करते हैं, न कि मनुष्य की।"

उस शिष्य की उपेक्षा करके उस व्यक्ति ने योगानंद को धमकाते हुए कहा, "आपको बाहर आना ही होगा।"

उस ठोस, सधे स्वर से महंत भी चौंक से गए।

"जब तक भजन समाप्त नहीं होता, हम नहीं आ सकते।" किसी संदेह के कारण अटक-अटककर उन्होंने उत्तर दिया।

"आप स्वयं नहीं चलेंगे, तो मैं आपको ले चलूँगा। कहिए, अब आप चल रहे हैं या नहीं?"

"यह धृष्टता आपको शोभा नहीं देती।" शिष्य ने तमककर उस व्यक्ति को फटकारा, "भई, कौन है वह सज्जन? तनिक नाम तो बताइए।"

"पुलिस सुपरिटेंडेंट साहब!"

इन शब्दों के साथ ही योगानंद स्वामी की प्रशांत मुद्रा ही नहीं, वह नख-शिख भक्तिशील आविर्भाव भी पलट गया और उसके स्थान पर कोई दूसरा ही चालाक, काइयाँ, मक्कार, शीघ्रकोपी, कलहप्रिय पुरुष दिखाई देने लगा। उस व्यक्ति ने, जो उन्हें बुलाने आया हुआ था, पुलिस सुपरिंटेंडेंट के नाम का पूरा उच्चारण भी नहीं किया था कि इतने में योगानंद स्वामी ने उसकी नाक पर मजबूत वज्रमुष्टि सदृश घूसा जमाया और बड़ी लंबी छलाँग लगाई। अच्छा-खासा हट्टा-कट्टा होते हुए भी उस व्यक्ति को अपनी नाक पर जमे हुए घूँसे के कारण दिन में तारे नजर आने लगे थे। उसने अपने आपको सँभालकर योगानंद के पीछे छलाँग मारी। वह छलाँग योगानंद की छलाँग के पीछे इतनी दूर भी नहीं थी। वे चार शिष्य भी योगानंद की छलाँग के पीछे-पीछे अपने तेज धारवाले चिमटे बाहर निकालकर मंच से कूद पड़े थे। इतनी घिचपिच, भीड़-भड़क्के में इन साधुओं के इस तरह धड़ाधड़ कूदते ही उधर एक भगदड़ ही मच गई। चीखते-चिल्लाते उधर के लोग उठ खड़े हुए। फिर ठेला-ठेली शुरू हो गई।

परंतु यह सारा कांड इतने आनन-फानन में हो रहा था कि जब तक लोगों ने छलाँगें नहीं लगाईं और वहाँ से लोगों की भीड़ हो-हल्ला के साथ उठ नहीं खड़ी हो गई, तब तक अन्य बाजुओं के लोगों को इस बात की इतनी अधिक खबर नहीं थी। उन लोगों को केवल इतना ही देखने का अवसर मिला कि धक्कम-धक्का शुरू हुआ है और महंत कूदकर भागे जा रहे हैं। उन लोगों को इस बात का अहसास रंचमात्र भी नहीं था कि यह सब क्या हो रहा है। बस एक ही प्रश्न हर कोई जोर से पूछ रहा था, 'भई, हुआ क्या है ?' इस प्रश्न पर मन में झाँकने के लिए भी समय नहीं मिला कि यह सब माजरा क्या है ? यह सब क्यों हो रहा है? धड़ाधड़ छलाँग लगाते हुए वे साधु लोग भीड़ में घुस गए और धैर्य के साथ भीड़ को चीरते, रास्ता काटते हुए दृष्टि से ओझल हो गए। सैकड़ों लोगों ने उस आकस्मिक हंगामे के साथ ठेला-ठेली करके आगे घुसकर उस प्रांगण में एक ऊधम मचाया था, यह सारा गुलगपाड़ा उनके लिए अनायास अनुकूल हो गया।

हम किसी ने कहा, "महंतजी में महावीरजी का संचार हो गया। हनुमानजी का संचार हो गया। इसीलिए वे उड़ान भरते हुए प्रभु रामचंद्रजी के मंदिर की ओर भाग रहे हैं।" कोई कहने लगा, "किसी पागल ने महंतजी को परेशान किया, अतः झुंझलाहट में उठकर वे चले गए।" उस प्रशांत भक्तिरस की शांति में निमग्न कुछ लोगों के अचानक हुए शोरगुल से पल भर के लिए होश उड़ गए। इस प्रकार आकस्मिक दृश्य परिवर्तन होते ही उन लोगों को यह अहसास हो गया कि उन्हें उस प्रशांत प्रांगण से उठाकर, जहाँ उस स्वामी के सुरीले भजन जारी थे, सहसा किसी अन्य स्थल पर अन्य हंगामे में फेंक दिया गया है।

सामनेवाले जिस द्वार से वह व्यक्ति, जो पुलिस सुपरिंटेंडेंट का संदेश लाया था, घुसा था, उस द्वार की ओर से उन लोगों ने जान-बूझकर छलाँग नहीं लगाई थी; और दूसरे द्वार की ओर कूदकर भीड़-भाड़ में शामिल होने का प्रयास किया था। उस द्वार की ओर प्रायः ऐसे ही लोग बैठाए जाते थे जो प्रतिदिन भजन के लिए आया करते, बहुत भावुक दिखाई देते तथा सबसे पहले आकर आस्थापूर्वक अपना-अपना स्थान ले लेते। महंत ने तुरंत तय किया था कि उस द्वार से ही वे सही-सलामत बाहर निकल सकते हैं, जिधर यह श्रद्धालु भजन-प्रेमी समाज बैठा हुआ था। सामनेवाले जिस द्वार की ओर से पुलिस सुपरिटेंडेंट का संदेश आया, यदि वे उसी तरफ प्रस्थित हों तो उधर पुलिस की उपस्थिति की आशंका अधिक मात्रा में हो सकती है, इसीलिए वह चतुर महंत और उसके शिष्य सामनेवाला दरवाजा छोड़कर उस द्वार की ओर झपट पड़े जहाँ भावुक लोग भरे हुए थे। उनके पीछे-पीछे उस पुलिस सुपरिटेंडेंट के संदेशवाहक के हाथों से खिसककर वे साधु भी वहाँ पहुँच गए, जहाँ उन भावुक, श्रद्धालु लोगों को बैठाया गया था। तब एक और झपट्टा लगाया कि दरवाजे के पास, और फिर तुरंत द्वार के बाहर। मन में यही ठानकर वे पाँच साधु उस द्वार से टकरा गए। फिर वे जल्दी-जल्दी अपने नित्य नियमित रूप में आनेवाले उन श्रद्धालु श्रोताओं से रास्ता देने के लिए कहने लगे जो वहाँ ठसाठस भरे हुए थे।

इतने में सहसा ही उन श्रद्धालु भक्तों की द्वार के सामने जो भीड़ जम गई थी, वही भीड़ एक पंक्ति में कंधे-से-कंधा मिलाते हुए उन पाँचों साधुओं को बीचोबीच में घेरकर खड़ी हो गई। उनमें हरेक ने अपना-अपना पिस्तौल निकाल साधुओं पर तान दिया। फिर उनके नेता ने योगानंद को आज्ञा दी, "ठहरो। एक कदम भी आगे बढ़ाया तो जान से हाथ धोना पड़ेगा।"

हाय-हाय ! बेचारे सत्वशील सत्पुरुषों की जान लेने पर वही श्रोतावृंद तुले थे जो वैष्णवी गंध, वैष्णवी मुद्रा, माला, गेरुए वस्त्र आदि धारण करके आया करते थे, भजन में सुधबुध बिसराकर तन्मय होते और नियमित रूप से शुरू से आकर चेहरों पर मासूमियत पोतकर बैठते थे, सीधे-सादे असाधारण लोगों की तरह दिखाई देते थे। वे उन्हीं की जान के ग्राहक बन गए जिन्हें तारणहार भगवद्भक्त समझकर उनके चरण छुआ करते। सभी लोगों को जैसे काठ मार गया। वे आपस में खुसुर-फुसर करने लगे। कुछ लोगों के मन में सहानुकंपा जागी और वे यह भी सोचने पर उतारु हो गए कि इन धर्मपरायण भक्तों की मुक्ति के लिए दंगा-फसाद खड़ा करें।

परंतु उस महंत को अब पूरा-पूरा विश्वास हो गया कि इन नानाविध ढंगों तथा ढोंगों से, छद्म वेश में, गुप्तचर विभाग के ये तीस-चालीस पुलिस के लोग ही प्रतिदिन तीनों द्वारों के निकट भजन के बहाने बैठते थे। यह सच है, उनकी कुटिल साजिश से हम अनभिज्ञ थे। हम अब उनके चंगुल में पूरे-पूरे फँस गए हैं। फिर भी अंतिम उपाय के रूप में उन्होंने अत्यंत कर्कश और ऊँचे स्वर में प्रक्षुब्ध जनता को ललकारा, "क्या यहाँ पर एक भी माई का लाल नहीं जिसे अपने धर्म का अभिमान है? किसी ने भी अपनी माँ का दूध नहीं पिया है ? हे भगवन्, अब तुम ही अपने इस अनन्य भक्त के लिए दौड़े-दौड़े चले आओ।"

इस पुकार के साथ ही समाज के कई सच्चे सज्जन आपे से बाहर होने लगे। उन्हें महंत के संबंध में जो कुछ प्रत्यक्ष जानकारी थी, वह उनके मन में उनके प्रति अटल श्रद्धा स्थापित करने के लिए पर्याप्त थी। हो सकता है, इस निर्मोही, अपरिग्रही, स्वधर्मप्रचारक भक्त पर मिशनरी परधर्मियों ने ही कुछ तोहमत लगाई हो! इसी भावना के साथ कुछ साहसी स्वधर्माभिमानी लोग आग-बबूला हो गए, पुलिसवालों पर दो-तीन पत्थर भी फेंके गए, गाली-गलौज की तो अखंड बौछार होने लगी।

इतने में मुख्य द्वार से लाठीबंद पुलिस के दलबल सहित स्वयं पुलिस सुपरिटेंडेंट भीतर आ गए, मंच पर चढ़कर उन्होंने बुलंद आवाज में सभी लोगों को संबोधित करके आदेश दिया, "जानते हैं, योगानंद नामधारी इस व्यक्ति। आज तक इधर जो पाखंड, ढकोसला रचाया था उससे आप जैसे सुशील नागरिकों की यह धारणा बनना स्वाभाविक ही है कि ये महाशय कोई पहुँचे हुए भगवद्भक्त हैं। परंतु इस व्यक्ति के संबंध में हमें जो जानकारी है, उसे सुनते ही आप सब जान जाएँगे कि आपकी सहानुभूति भले ही स्वाभाविक हो पर यह बिलकुल ही अनुचित है। इस योगानंद का-इस रखेड़िया साधु का, जो स्वामी का स्वाँग रचाकर डोल रहा है-असली नाम सुनेंगे तो आपके विस्मय का ठिकाना नहीं रहेगा, दंग रह जाएँगे आप। इस पांखडी का-इस योगानंद स्वामी का असली नाम रफीउद्दीन अहमद है। यह पंजाबी मुसलमान है। इसपर पहले दो अत्यंत क्रूरतापूर्ण डाकेजनी के आरोप सिद्ध हो चुके हैं और पंजाब में सात वर्षों की काले पानी की सजा हो चुकी है। उस दंड के अनुसार इसे काले पानी में भेजा गया था, परंतु यह महाशय वहाँ से चार साल पहले रफू-चक्कर हो गए। पिछले दो सालों से इसने अपने इन चार शिष्यों की तरह ही अनेक दुष्ट प्रवृत्ति के लोगों को इकट्ठा करके फिर से चोरी, डाकेजनी, अपहरण आदि भयंकर कांड करना शुरू किया है। पिछले वर्ष पुलिस ने इसके गिरोह को जंगल में घेर लिया था, परंतु उस गिरोह ने अचानक पुलिस पर गोलियां चलाईं और पुलिस अधिकारी को घायल करके उसी के घोड़े पर सवार होकर यह धृष्ट, दुष्ट नौ-दो ग्यारह हो गया। उसके बाद यह लापता ही था। परंतु जब हमें संदेह हो गया कि यह वही है, तब से इसके मथुरा आने के दिन से ही गुप्तचर पुलिस विभिन्न रूपों में हर तरह इसपर कड़ी नजर रखे हुए थी, ताकि हमारी खोज पूरी होते ही वॉरंट निकलते ही इसके जैसे धृष्ट अपराधी को साथियों सहित अचानक गिरफ्तार कर सकें। इलाहाबाद से निकला हुआ यह वॉरंट देखिए जो सभी सबूत मिलने के बाद, इसी के विश्वस्त साथी के समाचार के अनुसार निकाला गया है।

"आज शाम यह हमारे हाथों में आ गया। इस गिरोह के इस इरादे का पता चलने के पश्चात् कि आज भजन समाप्ति के बाद इनका यहाँ से खिसकने का इरादा है, हमने यह तय किया कि भजन के बीच में ही इन्हें गिरफ्तार किया जाए। हमारा पहले से ही यह अनुमान था कि इक्के-दुक्के आदमी की ये बदमाश रत्ती भर भी परवाह नहीं करेंगे, अतः हमें इनपर इस तरह हथियारबंद छापा मारना पड़ा। हमने इतना विस्तृत स्पष्टीकरण इसलिए दिया कि आपमें से कुछ लोग इस विपरीत धारणा से कि एक साधु को इतनी यातनाएँ दी जा रही हैं-कुछ अड़ंगा न लगाएँ, उपद्रव या धींगामुश्ती न करें। अब दस मिनट के अंदर-अंदर आप सभी को यह मैदान खाली करना होगा। उसी तरह कल सुबह तक सड़कों पर किसी भी प्रकार का भीड़-भड़क्का नहीं होना चाहिए, अन्यथा पुलिस को लाठी चार्ज से भीड़ हटानी पड़ेगी। वॉरंट के अनुसार हमें अपना कर्तव्य निभाना होगा। उसमें से तथ्यातथ्य चुनने का काम न्यायालय का है। हवलदार, दस मिनट के अंदर इन पाँचों अपराधियों को बेड़ियाँ पहना जेल रवाना कर दो और यह मैदान भी खाली करवाओ।"

दस मिनट के अंदर उन पाँचों साधुओं के हाथ-पाँवों में बेड़ियाँ ठुकवाकर उन्हें जेल रवाना किया गया और वह जमावड़ा अपने आप उँट जाने से उस मैदान में सन्नाटा छा गया।

परंतु हिरासत में लिया हुआ वह गोसाईं वास्तव में था कौन?

स्वामी योगानंद या रफीउद्दीन अहमद?-और मालती? उसका क्या हुआ?

प्रकरण-५

इलाहाबाद का कारागृह

इलाहाबाद की बंदीशाला के प्रमुख जमादार को कड़ा आदेश दिया गया था कि 'आज छँटे हुए बदमाश और डाकू रफीउद्दीन को, जो काले पानी से भागकर आया है, उसके साथियों के साथ इस जेल में लाया जाएगा। अतः किसी भी बंदी के कानों में पहले से इसकी भनक तक नहीं पड़नी चाहिए। उसका पक्का बंदोबस्त रखा जाए। इसमें जरा सी भी ढील या लापरवाही बरती तो हवलदार, तुम्हारे पैरों में बेड़ियाँ ठोंकी जाएँगी, याद रखना।'

बंदीपाल साहब ने स्पष्ट चेतावनी दी।

बंदीपाल के उस मुसलिम जमादार ने, जो तनकर खड़ा था, अंग्रेजी तरीके से फौजी 'सैल्यूट' करते हुए कहा, "जी हुजूर! वह लाख छुटा हुआ डाकू क्यों न हो, पर मैंने तो ऐसे छप्पन बदमाशों को इसी जेल में छठी का दूध याद दिलाकर दाँतों में तिनका दबाने के लिए बाध्य किया है। वह भले ही काले पानी से उड़न-छू होकर आया हो परंतु उससे कहना कि यह लाल पानी है, लाल। इस डंडे की एक फटकार से लहू उगलवाऊँगा, लहू। कमर ही तोड़ दूंगा साले की।" जमादार ने अपनी कमर का लटकता डंडा हाथ में पकड़कर हवा में ही एक धौल जमाया। बंदीपाल ने उसे टोका, "हाँ! हाँ! मारपीट बिलकुल नहीं करना। भई, ये गुंडे जान हथेली पर लिये हुए घूमते हैं। उन्हें पुचकारकर यदि अपना उल्लू सीधा कर लो तभी तुम्हारी कुशलता मानूँगा। तुम लोग एकदम मारपीट पर उतर जाते हो, और निपटाना पड़ता है हमें।"

"अच्छा सरकार! यह लटका लिया डंडा अपनी कमर में और अपनी लचीली जीभ निकाल ली बाहर। यह डंडे से भी अधिक कुशल, करामाती है, हुजूर! इस डंडे से आदमी सिर्फ घायल होता है पर इस जीभ से तो वह जान से ही हाथ धो बैठता है। तलवार से गरदन काटकर जान ली जा सकती है, पर खून टपकता है। जीभ से गरदन ज्यों-की-त्यों रखकर जान ली जा सकती है प्रमाण के लिए उसपर खून की एक भी बूँद नहीं मिलती। आम के आम, गठलियों के दाम। इसीलिए तो तलवार से की गई हत्या पकड़ी जाती है, पर जो जीभ द्वारा प्राण ले सकता है, उसे तो सौ-सौ हत्याओं की छूट..."

"चुप! हो गई बकबक शुरू। जाओ, यहाँ से दफा हो जाओ। तुम्हारे डंडे की तरह तुम्हारी कैंची जैसी कतर-कतर करती जबान सँभालते-सँभालते भी मेरे कन्ने ढीले पड़ जाते हैं।"

"अच्छा सरकार! देखिए, यह जीभ तालू में चिपका ली, जैसे डंडा कमर में लटकाया था।" फिर से एक सलाम बजाकर जमादार बाहर चला गया।

"ऐ जमादार, अंदर आओ, हमारे जूते किधर हैं? महामूर्ख, भूल गए तुम? जाओ, लेकर आओ।"

जमादार ने इस संतोष के साथ बंदीपाल के मुँह से निकली वह गाली सुनते ही लज्जा से जीभ बाहर निकाली, जैसे वह गाली उसके भुलक्कड़ स्वभाव का प्रशंसासूचक एक अंग्रेजी शब्द हो। जीभ बाहर दिखाकर और तुरंत ही अपने ही अभिनय से लज्जित होकर मुँह पर हाथ रखते हुए मुसकराया और तुरंत खिसियाना सा होते हुए बाहर से जूते लेकर आ गया। अपने मुँह पोंछने से लेकर नाक साफ करने तक हर काम में आनेवाले रूमाल से जूते झटककर चुपके से बंदीपाल के सामने रख दिए और रूमाल साफ करने के लिए वह उसे झटकने लगा। तभी मुँह में ठुँसी सिगरेट निकालकर बंदीपाल ने कहा, "किसलिए रूमाल झटकते हो, भाई? मेरे जूतों से तुम्हारा रूमाल मैला नहीं हुआ, बल्कि उस गंदे रूमाल से मेरे जूते ही मैले हो गए।"

"सच बात है, हुजूर! आपके जूते ही मेरे अन्नदाता हैं, माई-बाप! आपके जूतों की सेवा आज बारह सालों से कर रहा हूँ जी, इसीलिए तो आज एक मामूली सिपाही से जमादार बन गया है यह बंदा।"

इस भय के मारे कि कहीं इस कथक्कड़ की चपड़-चपड़ फिर से शुरू न हो जाए और बकने के लिए उसे कोई नया विषय न मिले, बंदीपाल साहब ने निकट बैठे हुए क्लर्क से, जो टाइप कर रहा था, कहा, "अच्छा दादा, तनिक अपने कागज तो लाना। कहो कि किसपर हस्ताक्षर चाहिए आपको?"

जमादार को जाते हुए देखते ही उस नीम-गोरे जेलर ने उस क्लर्क की ओर देखकर, लेकिन कुछ मन-ही-मन कहा, 'कैसी चाशनी में पगी भाषा है इस विश्वासघाती की। बिलकुल शहद की छुरी है यह पाजी। भई, इस बंदीशाला के छँटे हुए बदमाश भले, पर इन बगुलाभगत सिपाहियों से तो तोबा!"

क्लर्क भी जानता था कि जेलर साहब उस बात में उसका नाम न लेते हुए यही सूचित करना चाहते हैं कि वह भी उसी थैली का चट्टा-बट्टा है।

बंदीपाल क्लर्क के साथ उस सिपाही के सिलसिले में जो यह अभिमत दे रहा था, वही अभिमत वह क्लर्क तथा वे सिपाही एकांत में उस जेलर के संबंध में दिया करते। इसीलिए हमेशा लेन-देन बराबर होने के कारण कोई भी किसी की पीठ पीछे की गई निंदा का बुरा नहीं मानता था। हर कोई जानता था, कौन कितने पानी में है। हर कोई दूसरे के लिए अच्छी तरह से जानता था, और हर एक के भेद में हर किसी का थोड़ा-बहुत हिस्सा होने के कारण तेरी भी चुप, मेरी भी चुप। पिछले बारह वर्षों से वह दादामुनि और वह बंदीपाल इस बंदीगृह की रियासत का कारोबार किसी संयुक्त परिवार की तरह एक-दूसरे को सँभालते हुए बड़े प्यार से चला रहे थे। नए-नए पर्यवेक्षकों (सुपरिटेंडेंट) की आवाजाही होती रहती परंतु यह जमादार, दादा और जेलर का संयुक्त परिवार पिछले बारह वर्षों से अडिग था, अचल था, जैसे यह बंदीशाला।

बंदीपाल का आदेश सुनकर जेल के भीतर जाते-जाते जमादार मन-ही-मन सोच रहा था। उसने लोहे के दोनों पाट खुलवाकर भीतर आँगन में कदम रखा, जो बीचोबीच था। उसने तुरंत आवाज दी, "शिवराम, शिवराम हवलदार किधर है? उसे बुलाना तो।"

थोड़ी ही देर में शिवराम हवलदार हाँफता हुआ आ गया। आते ही अपनी एड़ियाँ मिलाकर, सीना तानकर उसने 'सैल्यूट' ठोंक दिया। बाकी सभी को वहाँ से चले जाने का आदेश देकर उसने शिवराम से, जो वहाँ अकेला ही रह गया था, कहा, "देख शिवराम, आज एक ऐसे डाकू कैदी तथा उसके साथियों को इस जेल में भेजा जा रहा है जो काले पानी से भागकर आए हैं। जेलर साहब का कड़ा आदेश है कि यह खबर किसी को कानोकान नहीं पहुँचनी चाहिए।"

"अच्छा, जमादार जी!"

"ध्यान से सुनो। उस खूँखार डाकू को दूसरी तरफ फाँसी के चौक में एक कालकोठरी में रखा जाए। तेरे या मेरे सिवा और किसी को भी भीतर नहीं जाने दिया जाए।"

"जेलर साहब और सुपरिंटेंडेंट साहब को भी?"

"अबे साले घोंचू, बकवास बंद कर। हँसी-ठिठोली में दाँत दिखाई देते हैं, वैसे कभी-कभी ये दाँत तोड़ भी दिए जाते हैं। कोई झाड़ू-बुहार, बावर्ची, पानी देनेवाले को भीतर जाना हो तो सिर्फ तभी जब तुम या मैं साथ हों। यदि किसी को भी उन डाकुओं के साथ बतियाते देखा तो बच्चू, तेरा गला घोंट डालूँगा, समझे?" इस तरह अत्यंत कठोर शब्दों में उसे चेतावनी देते हुए उस नट-सम्राट जमादार जाते-जाते अपने उस मुँह-लगे हवलदार का गला पकड़ लिया, "किसी को कानोकान खबर न हो।"

हाँ, हाँ! अभी से मेरा गला क्यों घोंट रहे हैं, जनाब। मजाल है कोई माई का लाल उनसे बात करे? कौन साला कमीने बाप का बेटा उन डाकुओं से बात करेगा? आने तो दो। फिर चाहे वह इस जेल का जमादार ही क्यों न हो। न, न, जमादार साहब, क्षमा चाहता हूँ। 'आपकी आज्ञा सिर-आँखों पर, उसका हूबहू पालन करूँगा।' यही कहने के आवेश में मैं बक गया।"

"अरे, पर तुमने वही कहा, जो एक तरह से मैं चाहता ही था। देखो शिवराम, तुम्हें ही उन डाकुओं से वह बातचीत करनी है जो ऐसे लाभ के अवसर पर विशेष रूप से करनी पड़ती है। मैं तो अपने मुँह में ठेपी रखूँगा। प्रथमत: तुम सारा जुगाड़ 'फिट' करो, यार ! ऐसे कामों में तुम हो परले दरजे के गुरूघंटाल। तभी तो ऐसे भरोसे के स्थान पर मैं हमेशा तुम्हें ही नियुक्त करता हूँ। देखो, इस तरह का कोई घुटा हुआ डाकू जब इधर भूले-चूके कभी-कभार आता है, तभी तो तुम्हारे-हमारे पौ-बारह होंगे। ऐसे असामी सौ-सवा सौ के नीचे प्रायः नहीं जाते। यदि हो तो उन्हीं के पास अशर्फियाँ होंगी अन्यथा ऐसे सैकड़ों चोर-उचक्के, लल्लू-पच्चू जो इस बंदीगृह में आते हैं, भला उनकी जेब में क्या होगा, खाक ! वे हमारी मुट्ठी किस तरह गरम करेंगे? बस ऐसा पक्का बंदोबस्त करो कि वे जेल से भागने न पाएँ-बस इतना ही है हमारा सरकारी कर्तव्य। बाकी उनकी जो मरजी, गुलछर्रे उड़ाने दो। हाँ, यदि वे हम जो चाहे वह उगलकर हमारी खाली मुट्ठी गरम कर सकें तो। और हाँ, सबकुछ बड़ी सतर्कता के साथ करना। पहले उसे टटोलकर देखो, असामी कितने पानी में है, अन्यथा फट् कहते ही ब्रह्महत्या हो जाएगी। समझे न? हाँ, अब जाओ। वह चौक, अहाता, वह कालकोठरी सबकुछ झाड़-पोंछकर ताला ठोंक दो। जाओ। शाम तक वह टोली आ ही जाएगी, तब तक उनके आने के संबंध में किसी के पास चूँ तक नहीं करना।"

"बिलकुल नहीं, जनाब! आप निश्चिंत रहिए।" इस तरह उसे आश्वासन देते हुए शिवराम हवलदार उस फाँसीवाले चौक की सफाई करने चला गया। उसने पहले सपाटे में ही अपने एक खास विश्वसनीय बंदी को बुलाया। उस बंदी का आठ-दस वर्षों की सजा हो गई थी। अपनी कार्यक्षमता की वजह से वह मुकादम बन गया था। बंदीवान के उस मुकादम को शिवराम हवलदार ने कमरों का वह चौक, जो फाँसीवाले अपराधियों के लिए अलग रखा हुआ था, वह अहाता, कालकोठरियाँ, जो उन खतरनाक बंदियों के लिए भी कभी-कभी प्रयोग में लाई जाती थीं जो घात-पात पर उतारू होते, साफ करने को कहा। साथ ही उसे सख्त आदेश दिया, "देखो, किसी के कानों में खबर न पहुँचे कि आज यह चौक खाली किया जा रहा है। वे बहुत पहुँचे हुए बदमाश हैं।"

मुकादम की जिज्ञासा को जैसे उफान सा आ गया था। लेकिन यह जानकर कि सीधी अँगुलियों से घी नहीं निकलेगा, सीधी तरह से पूछने पर हवलदार साहब राज को राज ही रखने की अकड़ से और ही इतराने लगेंगे, उसने बात को घुमा-फिराकर कहा, "बस, इतनी सी बात! दरोगाजी, आपको याद है, गत वर्ष डाकुओं का वह गिरोह आया था जिसे काले पानी की सजा हो गई थी? आपकी दया से उसे मैंने तब तक सँभाला था, जब तक उसे काला पानी रवाना नहीं किया गया था? आपने उनकी चिट्ठियाँ दीं, बाजार में जेल का सामान बेचने जाते-जाते; बताइए उनके घर किसने पहुँचाई थीं? मुट्ठियाँ भर-भरके 'हलदी की गाँठे' भला कौन ले आया? इसी पट्टे ने तो अपनी जान पर खेलकर उन्हें हासिल किया था, दरोगाजी!"

"अरे बाबा, जो काले पानी से भागकर आते हैं वे बदमाश उनसे लाख गुना अधिक भयंकर होते होंगे जो काला पानी जाते हैं। हाँ, हाँ, चुप! भई दीवारों के भी कान होते हैं। वह मैं नहीं बताऊँगा। पर क्यों रे मुकादम, यह बकरा यदि मोटा-ताजा हो तो उसकी भी चिट्ठियाँ ले जाओगे? या उन्हें काले पानी से आते हुए देखकर ही दुम दबाकर भाग जाओगे? जो हलदी की गाँठें मिलेंगी उनमें से तुम्हें भी किसी दूल्हे मियाँ की तरह पीला कर दूंगा, भैया!"

मुकादम सबकुछ जान गया जो जानना चाहता था। "वैसे हलदी की गाँठों' से संबंधित कोई भी काम मेरा है, दरोगाजी ! काले पानी से भागकर आने से मनुष्य भला भेड़िया थोड़े ही बन जाता है?" (बताने की आवश्यकता नहीं कि बंदीगृह के शब्दकोश में हलदी की गाँठों का अर्थ है सोने के सिक्के।)

मुकादम को साथ लेकर दरोगाजी फाँसी के अहाते में चले गए। यह देखकर कि मुकादम अपने अधिकार में काम करनेवाले कैदियों से चौक-कोठरियों की फटाफट सफाई करने में लगा हुआ है और उन्हें प्रोत्साहित करने के लिए खास चुनिंदा मल्लाही गालियों तथा अचूक डंडों की यथोचित बौछार कर रहा है, दरोगाजी उन कालकोठरियों में से एक में कमर की पेटी, सिर का फेंटा उतारकर पाँव पसारते हुए सुस्ताने लगे। मुकादम ने एक कैदी लौंडे को उनका बदन रगड़ने के लिए भी लगा दिया। इस तुष्टि के नशे में उन्हें अहाते के बड़े दरवाजे का ताला लगाने की भी आवश्यकता महसूस नहीं हुई।

इतने में इस तरह आवेग के साथ जैसे कोई अभुआता हो, धड़धड़ाते हुए आगे बंदीपाल उसके पीछे पूरी रफ्तार के साथ भागता हुआ जमादार और दो-तीन सिपाही धड़ल्ले के साथ खुले दरवाजे के अंदर घुस गए जैसे कोई तूफान घुस गया हो।

"हवलदार! अबे ओ हवलदार! किधर है वह उल्लू का पट्ठा?" बंदीपाल दहाड़ा।

"इधर-उधर-वे-वहाँ।" मुकादम की घिग्घी बँध गई। हड़बड़ाते हुए हवलदार को अपने भाग्य के भरोसे छोड़कर यह दिखावा करने के लिए कि वह अपने काम में व्यस्त है, कैदियों को 'यह करो, वह करो' आदेश देने लगा और उसने जमादार से कहा, "देखो, सबकुछ साफ-सुथरा, ठीक-ठाक होना चाहिए।"

इतने में बंदीपाल धड़धड़ाता हुआ 'किधर मर गया वह साला। हवलदार, अबे ओ हवलदार!' इस प्रकार बेखटके चिंघाड़ते हुए उसी कोठरी के चबूतरे पर 'ठक-ठक' जूते चटकाते हुए चढ़ गया। तब उस कोठरी के सामने ही वह हवलदार बौखलाते हुए गिरते-पड़ते हुए दिखाई दिया। बंदीपाल की पहली लरजती गर्जना अप्रत्याशित रूप से सुनते ही हवलदार साहब की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई। उसके चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं। उसने जितना हो सके सँभलकर उठने की फुरती दिखाई, परंतु आधे-अधूरे सँभल पाने से पहले ही बंदीपाल उसके रूबरू आकर खड़ा हो गया। वह लौंडा जिस पैर को रगड़ रहा था, उसकी गणवेश की पट्टी खोली हुई थी और जूता उतारा हुआ था। दूसरी टाँग की पट्टी ठीक-ठीक लिपटी हुई, उस पाँव में जूता पहना हुआ, जल्दी-जल्दी में बँधा हुआ वह टोपनुमा फेंटा सिर पर रखते-रखते तिरछा हो गया है और उसका एक छोर किसी पहलवान के छोर की तरह कंधे से छाती पर झूल रहा है, कमर की पेटी दूर कोने में दुबकी पड़ी है और फाटक की चाभियों का गुच्छा उस बंदी लौंडे के हाथ में भूल से वैसे ही लटक रहा है-इस प्रकार उस हवलदारजी की अस्त-व्यस्त मूर्ति एक टाँग पर खड़ी रही, जिसमें जूता पहना हुआ था। उसका वह भाँड जैसा भोंडा बेढंगा रूप देखकर गुस्से से लाल-पीले हो रहे बंदीपाल, जो स्वभावतः हँसोड़ थे, हँसते-हँसते लोटपोट हुए बिना नहीं रह सके।

"क्यों जमादार, आप हमेशा कहते हैं कि आपात् स्थिति में शिवराम हवलदार एक पाँव पर तत्पर रहता है-यह बात सोलह आने सच है। तनिक देखिए तो सही, एक ही टाँग पर पुलिसिया गणवेश चढ़ाकर वे वाकई एक ही टाँग पर खड़े हैं। दूसरे पाँव में जूता भी नहीं पहना महाशय ने। क्यों बे, तेरा यह नंगा पैर इस तरह खाली...इसे रखते ही क्यों हो? बेकार ही है वह। ठहर बच्चू, मैं इस टाँग को ही काटकर फेंक देता हूँ।" क्रोध से अंगार बने बंदीपाल ने हाथ में पकड़ी सोटी से शिवराम की उस टाँग पर जोर से आघात किया।

"ओय! ओय! जेलर साहब, आपके पैरों पड़ता हूँ, पहले मेरी बात तो सुनिए-क्या हुआ कि चलते-चलते मेरी इस टाँग की पिंडली में फट् से गाँठ आ गई। पीड़ा के मारे हुजूर, मेरा बहुत बुरा हाल था। मैंने हाय-तौबा मचाई और निढाल होकर नीचे गिर गया। इसीलिए इस कोठरी में बैठकर उस गाँठ को दबा-दबाकर नीचे उतार रहा था, सरकार! माई-बाप, इसके लिए यदि मैं अपराधी हूँ तो क्षमा कीजिए।" दरोगा ने झट से नौटंकी रचाई।

"क्षमा? ड्यूटी पर होते हुए पेटी फेंककर लाट साहब यहाँ पसरे हैं, जैसे बाप का घर हो। तुम्हें माफ किया तो कल तमाम सिपाहियों की पिंडलियों की गाँठें कभी इसी तरह अकड़कर चढ़ने लगेंगी। लाओ वह पेटी इधर। जमादार, इस सिपाही की कमर की यह पेटी इसके गले में कुत्ते की पट्टी जैसी लपेटो। ऊँहूँ। हाँ, ऐसे; हाँ-हाँ, अब ठीक है। अब इस निठल्ले कामचोर को इसी हालत में-इसी तरह एक पाँव में जूता, तिरछी पगड़ी का छोर खुला, कुत्ते जैसा गले में पट्टा लपेटा हुआ-तमाम कैदियों की कतारों में से उधर दफ्तर के बड़े गेट के पास ले आओ। चलो-साले-तेरे बाप का-उस सुपरिटेंडेंट साहब का उधर फोन आया हुआ है कि डाकुओं का गिरफ्तार किया हुआ एक गिरोह अभी आएगा-और तू यहाँ पर अपनी टाँगें दबवा रहा है, साला! चलो।"

सबसे आगे-आगे दरोगा का वह भाँड जैसा भोंडा बेढंगा विचित्र स्वाँग, उसके पीछे वह जमादार जो मुँह में रूमाल ठूसकर हँसी दबा रहा था, उसके पीछे वह मुकादम, फिर कैदी-इस तरह वह जुलूस आगे निकल गया। रास्ते में जहाँ-जहाँ बंदियों की पंक्तियों में से गुजरना पड़ा, वहाँ-वहाँ आसपास वे हँसते-हँसते लोटपोट हो रहे थे। सबसे पीछे वह नीम-गोरा बंदीपाल, जो यह सारा तमाशा देखकर मन-ही-मन मुसकराता हुआ, लेकिन ऊपरी तौर पर क्रोध से अकड़कर चल रहा था-इस तरह वह सारी बारात बंदीशाला के बड़े द्वार के निकट प्रधान कचहरी के पास पहुँच गई।

बंदीपाल ने देखा, उस भयानक बंदीगृह के लोहे के मुख्य द्वार के सीखचों को पकड़कर बाहर की तरफ दस-पाँच सिपाहियों के साथ एक गोरा सार्जेंट खड़ा है। उन सिपाहियों की बंदूकों की संगीनें तनी हुई थीं-सार्जेंट के पीछे पैरों की बेड़ियों की झनझनाहट सुनाई दी, जो बाहर से आ रही थी। बंदीपाल ने गौर किया- अरे, यह टोली जो आनेवाली थी आ भी धमकी ! इस बाहरी संकट का सामना करने के लिए अंदरूनी कलह मिटाकर मेहनती तथा विश्वसनीय जमादार-हवालदारों का आंतरिक संघठन करना निहायत आवश्यक है। इस तरह उस बंदीगृह की बालिश्त भर की राजनीति का बखेड़ा मिटाने का विचार आनन-फानन करके बंदीपाल ने जमादार को आदेश दिया, "छोड़ दो शिवराम को। जितनी उसकी दुर्गति कर दी, उतनी काफी है। उससे कहना, आइंदा ऐसी हरकत कभी न करे।"

जमादार भी यही प्रार्थना करनेवाला था। शिवराम वैसे बड़े काम का है। अंदरूनी घपले, लफड़े उसीके जरिए तो चलते रहेंगे। उन झमेलों में बंदी महाशय की भी तो साझीदारी थी। जमादार और बंदीपाल का आँखों-आँखों में यह वार्तालाप अनकहा होकर भी हो ही गया था। दोनों की राय का मेल हो चुका था, साठ-गाँठ हो चुकी थी। शिवराम हवलदार के दोनों जूते, साफा, पेटी चाभियों का गुच्छा तुरंत ही उसके बदन पर अपने-अपने स्थान पर झलकने लगे। फिर क्या कहने!

'अबे ओ गधे की दुम! इधर आओ, ओ साले निखटू की औलाद, उधर जाओ', इस प्रकार अनुशासनयुक्त परिभाषा के आदेश देते हुए वह मुकादम और उन कैदियों में जो उसके गाँस में थे-दनदनाता हुआ इस प्रकार डोलने लगा, जिस प्रकार किसी गली में लड़ाकू मुरगा कुकड़ू-कूँ करता हुआ शान से इतराता है।

कर्रर्रर्र ...

बंदीगृह का वह भीमकाय दरवाजा चरमराता हुआ खुल गया। सार्जेंट उन डाकुओं की टोली के साथ भीतर आ गया। डाकुओं के पैरों की बेड़ियाँ झनझना रही थीं। बंदीपाल ने अपने सामने स्थित अंदरूनी दरवाजा खुलवाकर प्रधान बंदीगृह के भयंकर परंतु भव्य, विशाल आँगन में उन दस-बारह डाकुओं का ताँता बाँध दिया। शिवराम हवलदार को उनपर कड़ी नजर रखने का आदेश देकर वह कचहरी में जाकर उस सार्जेंट से सारे कागजातों की जानकारी प्राप्त करने लगा।

इधर इस मुकादम ने उससे पहले ही कारागृह में जाकर अपने विश्वसनीय बंदी को बताया था कि 'आज यहाँ परले सिरे के कुछ अपराधी आनेवाले हैं, जो काले पानी से भागकर आए हुए हैं। हाँ, यह बात अपने पेट में ही रखना। किसी को कानोकान इसकी खबर नहीं होनी चाहिए।'

उस बंदी ने दूसरे कैदियों को-उन्होंने तीसरों को बताया और इस प्रकार वह गुप्त खबर कानोकान दावानल की तरह फैल गई-इसी शर्त पर काना-फूसी करते-करते उस कारागृह का हर कैदी इस खुले रहस्य से परिचित हो गया कि 'आज कोई घुटा हुआ बदमाश, पुराना चांडाल यहाँ आनेवाला है जो काले पानी से भागकर आया है, परंतु यह खबर किसी को कानोकान नहीं होनी चाहिए।' इसीलिए जिसे जो भी बहाना मिला उसी से वह कैदी, वॉर्डर, मुकादम, सिपाही उस गिरोह के दर्शनार्थ उस आँगन के आसपास रुक रहे थे। सिपाहियों का जमघट भी वहीं पर खड़ा रहा था। शिवराम के फूले-फूले सीने में इस बात का दर्पयुक्त अहसास नहीं समा रहा था कि इतने सारे लोगों के सामने वह इतने परले सिरे के डाकुओं पर डंका बजा रहा था। इस दुर्दम्य अभिलाषा से कि अपने कठोर अनुशासन का प्रदर्शन करके सब लोगों पर अपना दबदबा जमाए, हवलदार ने उन डाकुओं में से एक को, जो तनिक भयभीत और सौम्य प्रकृति का दिखाई दे रहा था, यूँ ही डंडे से छेड़ते हुए कहा, "ऐ, सीधे खड़े रहो। यह तेरे बाप का घर नहीं है, बच्चू! इलाहाबाद की जेल है यह-इधर हर एक को कायदे से अनुशासन के साथ खड़ा होना चाहिए, समझे?"

शिवराम का यह कठोर आदेश उस शांत, सौम्य स्वभाव के डाकू ने सुना। परंतु उनमें जो एक लंबा-तडंगा, घुटा हुआ और देखने में बड़ा सुंदर डाकू था, जिसके होंठों पर सतत कुटिल मुसकान थिरक रही थी, वह जैसे हवलदार की अकड़ के मजे ले रहा था। हवलदार के पीठ फेरते ही वह उसके ठसके की नकल उतारते हुए जोर से गुर्राया, "ऐ सीधा चलो, यह तेरा घर नहीं है। इलाहाबाद की जेल है यह।"

शिवराम ने गौर किया कि कोई उसे मुँह चिढ़ा रहा है। आसपास के लोगों के कहकहे छूट गए। शिवराम के मन में यह संदेह उभरा कि काले पानी का वह छँटा हुआ डाकू यही होगा। उसने यह अनुमान किया, सीधे उसे छेड़ने में उसने गलती की है और इस अंदाज से कि उसका मुँह चिढ़ाना उसने देखा ही नहीं, वह दूसरी तरफ घूमने लगा।

इतने में सार्जेंट का पालतू कुत्ता टॉम उस अहाते में घुस गया। उस कठोर अनुशासनयुक्त जेल में उसकी किसी ने रोक-टोक नहीं की। भई, गोरे सार्जेंट का लाड़ला कुत्ता जो ठहरा! कुछ इलाकों में मनुष्य से अधिक कुत्तों को स्वाधीनता होती है। शिवराम हवलदार उसे प्यार से सहलाने, पुचकारने लगा। टॉम ने अपनी दो टाँगें उठाकर हवलदार के कमरबंद पर रखीं। इतने में उस निर्लज्ज डाकू ने बड़े अनुनयपूर्वक कहा, "तनिक इधर तशरीफ लाइए, सरकार, एक अर्ज करता है यह बंदा।"

लगता है इस उद्दंड, दुष्ट मनुष्य पर भी अपना सिक्का जम गया। 'सरकार' जैसे विनम्र संबोधन से हवलदार ने अनुमान किया और उसके प्रति दयालुता के साथ बड़प्पन दिखाते हुए उसने कहा, "क्या चाहिए? बोलो, बिलकुल डरना नहीं।" उस लुच्चे काइयाँ डाकू ने मुसकराते हुए ऊँचे स्वर में कहा, "भई, मैंने आपको कहाँ बुलाया? मैंने तो उस टॉम को बुलाया। उससे यह कहने जा रहा था, इस तरह लापरवाही से मत खड़े रहो। यह इलाहाबाद की जेल है। इधर हर एक को अनुशासनबद्ध खड़े रहना चाहिए।"

एक बार फिर सभी बंदियों तथा सिपाहियों ने जोर से ठहाका लगाया। हवलदार क्रोध से भूत बन गया, "निपट गधे हो तुम सब लोग।" विनम्रता से मुसकराते हुए डाकू ने उत्तर दिया, "और आप हमारे सरदार। आप जो बोलेंगे वही सत्य वचन है, सरकार!"

इतने में बंदीपाल उस आँगन में उन बंदियों से सार्जेंट द्वारा बाकायदा परिचय करने सार्जेंट के साथ आ गया। पहले धड़ाके में सार्जेंट ने बंदीपाल को दिखाया वही बेशरम, लंबा-तडंगा अपराधी जिसके होंठों पर कुटिल मुसकान हमेशा थिरकती रहती थी।

"यही है वह योगानंद-अर्थात् रफीउद्दीन-काले पानी से भागा हुआ बंदी-डाकुओं के इस भयंकर गिरोह का सरगना, अव्वल दरजे का अपराधी।"

जैसे किसी भाट से अपना प्रशस्ति-गायन सुनकर कोई राजा अधिकाधिक शान से फूलता जाता है, आकाश के दिये जलाने लगता है, उसी तरह वह आरोपी योगानंद ऊर्फ रफीउद्दीन सार्जेंट से अपनी प्रशंसा बड़ी अकड़ से सुन रहा था। लज्जा अथवा भय छोड़िए, चिंता का भी कोई चिह्न उसके मुख पर नहीं झलक रहा था। अपने भरे-भरे से गाल और होंठ बाईं ओर सिकोड़कर, आँखें मटकाकर, भीतर-ही-भीतर कुटिल मुसकान बिखेरने की उसकी जो खास अदा थी, उसी का प्रदर्शन करते हुए उसने उस सार्जेंट से कहा, "इस तरह अन्याय क्यों करते हैं, हुजूर! अजी, मुझपर चार बार कोड़े बरसाए गए हैं और कम-से-कम चौदह बंदीशालाओं का दीदार यह खाकसार कर चुका है। मेरा इतना पराक्रम तो प्रिजनर साहब के सामने बखानना चाहिए, हुजूर, ताकि मेरी असली योग्यता जानकर ये प्रिजनर साहब मेरा यथोचित आतिथ्य तथा मान-सम्मान कर सकें।"

महीने भर से यह डाकू सार्जेंट के कब्जे में था। इस कारण दोनों की खूब छनने लगी थी और उस अपराधी की इस तरह की निरुपद्रवी बकबक में जो एक चुटीला व्यंग्य था, वह सार्जेंट को भाने लगा था। बंदीपाल को जेलर साहब संबोधित करने की बजाय रफीउद्दीन के 'प्रिजनर साहब' कहते ही उसके अंग्रेजी भाषा के अज्ञान की खिल्ली उड़ाने के लिए सार्जेंट ने जोर से ठहाका लगाया, "वाह वाह। बहुत खूब! जेल का जो अधिकारी है, वही यदि 'प्रिजनर साहब' हो तो तेरे जैसे डाकू-बदमाश जेल के कैदी को 'जेलर साहब' कहना होगा, समझे?"

"ऑफ कोर्स ! मि. सार्जेंट साहब! आपके बावर्ची अंग्रेज को भले ही वह रास नहीं आता हो लेकिन जो मैं कहता हूँ वही व्याकरण-शुद्ध अंग्रेजी है। अगर प्रिजन का अर्थ कैदखाना और जेल का अर्थ भी कैदखाना ही है तो क्या प्रिजनर और जेलर इन दो शब्दों का कोई एक अर्थ नहीं होगा? भई, व्याकरण के अनुसार तो जो जेलर है, वही प्रिजनर है। प्रिजनर और जेलर एक ही तरकश के तीर हैं। सार्जेंट साहब, मैं भी जानता हूँ, अंग्रेजी किस चिड़िया का नाम है।"

"योगानंद ही हो तुम। अच्छा, क्यों रे रफीउद्दीन, तुमपर चार बार कोड़े बरसाए गए, भला वह किस खुशी में? यह नहीं बताया तुमने?" सार्जेंट की जिज्ञासा उमड़-उमड़कर बहने लगी।

"उसका कारण तो बिलकुल सीधा है, महाशय ! बताता हूँ, यदि ये जेलर साहब नाराज न हुए तो। दो बंदीपालों ने इसलिए मेरी खाल उधेड़ी कि उन्होंने मेरे कहे अनुसार मुझे चोरी-चोरी अफीम नहीं खाने दी, सो मैंने भी ताव खाकर उनके सिर पर थाली-पाट मारा और दो बार इसलिए कि मैंने जेलर साहब की माँग के अनुसार उन्हें उतने चाँदी के जूते नहीं मारे थे जितने वे चाहते थे।"

चलते-चलते घूसखोरी की बात छिड़ते ही सार्जेंट के हाथ-पाँव फूल गए। उसने सोचा, कहीं यह वाहियात आरोपी, जो मगज के कीड़े उड़ा रहा है, उसकी पोल तो नहीं खोल देगा, क्योंकि पिछले पखवाड़े इस सार्जेंट के बच्चे को भी उस आरोपी ने चालीस-पचास रुपए खिलाए थे। हाथघड़ी देखने का बहाना बनाकर सार्जेंट ने रफीउदीन की वह बात अनसुनी कर दी। बंदीपाल ने घंटी बजने की सूचना दी और वह सार्जेंट उस पूरी टोली को उस बंदीपाल के हाथों बाकायदा सुपुर्द करके जेल के फाटक से बाहर निकल गया।

लगे हाथ डाकुओं के उस गिरोह को फोड़कर अलग-अलग कोठरियों में फाँसी के उस आरक्षित चौक में बंद किया गया। उनमें से दो-तीन जनों के चेहरे दारुण चिंता की छाया से घिरे हुए थे। एक डाकू, जिसका नाम किशन था, बेचारा पूरा पश्चातापदग्ध दिखाई दे रहा था। शेष सभी बंदीशाला में गारद में डालने पर भी निश्चिंत, निडर तथा निस्संकोच शान से ऐसे इतराते फिरते थे, मानो वे किसी नाट्यशाला में डोल रहे हैं। सबसे निडर, निश्चिंत गैंडे की चमड़ी ओढ़े हुए था योगानंद अर्थात् रफीउद्दीन अहमद, जिसे फाँसी की कालकोठरी में कैदे-तनहाई की सजा हुई थी। उसे खास बंदोबस्त में रखा गया था। इसका अर्थ यह था कि उसकी कोठरी के पास जमादार और शिवराम हवलदार के अतिरिक्त कोई भी नहीं जा सकता था। परंतु इससे तो वह सबसे अधिक मजे में था और चैन की बंसी बजा रहा था। शिवराम के पिठु ने जो बंदीगृह में एड़ियाँ रगड़ रहा था, जैसाकि अपेक्षित ही था, उन डाकुओं के जो साथी इलाहाबाद में अभी तक चोरी-छिपे आजाद रह रहे थे, उन्हें रफीउद्दीन की चिट्ठियाँ पहुँचाईं। फिर क्या, शिवराम आदि की पाँचों अँगुलियाँ घी में! कारागृह में बेशुमार 'हलदी की गाँठों' की आवाजाही शुरू हो गई। थोड़ी सी अफीम, प्रचुर मात्रा में तंबाकू और कभी-कभी मिठाई गुप्त रूप से रफीउद्दीन की कालकोठरी में पहुँचने लगी और अप्रत्यक्ष रूप से वह नगद नारायण-पीले सोने के सिक्के से जमादार, दादा तथा जेलर की जेबें गरम करने लगा।

रफीउद्दीन की योगानंद के रूप में जो जटाएँ, दाढ़ी-मूँछे थीं, अब उन्हें उतारकर फेंक दिया गया था। अब वह एक छिछोरा मुस्टंडा मुसलमान बन गया था। वे लोग, जिन्होंने उसे योगानंद के वेश में तथा पूजा-पाठ, भजन में तल्लीन होते हुए देखा था, कभी सपने में भी नहीं सोच सकते थे कि यह जहर का बुझा हुआ, परले सिरे का मुसलिम डाकू है। उसी प्रकार जिसने इसे फाँसी की कालकोठरी में एक छँटे हुए मुसलिम बदमाश के रूप में देखा है, उसे यह कहने से रत्ती भर भी विश्वास नहीं होगा कि इस महापाजी ने कभी हिंदू साधु के वेश में हजारों लोगों को झाँसा दिया है तथा लुभाया है। तथापि यह कहा जा सकता था कि योगानंदत्व का एक निशान एक तरह से उसमें था ही-वह था-'सुख दुःखे समे कृत्वा तुल्यनिंदा स्तुतित्व' का। जब उससे यह पूछा जाता कि तुम्हें कड़ी-से-कड़ी सजा होने का भय या चिंता कैसे नहीं सताती, भई?, तब होंठ सिकोड़कर आँखें मटकाते हुए वह हमेशा की तरह मुसकराता, "धत् तेरे की। इसमें चिंता काहे की, भाई? फाँसी तो मुझे होने से रही-और आजीवन कारावास, काले पानी की सजा तो भुगतनी ही पड़ेगी। यार, हमें काले पानी के दंड में जो पुण्य तथा आनंद मिलता है वह तुम्हें काशीजी में भी नहीं मिल सकता, न ही मक्काजी में। काला पानी ही हम लोगों की काशीजी है।"

"परंतु यह दावे के साथ कैसे कह सकते हो कि तुम्हें फाँसी होगी ही नहीं? तुमने तो दारुण घृणा के साथ कितने लोगों की जाने लीं, कितने युवक-युवतियों की गरदनें मरोड़ी, सिर काटे। बड़े ही गंभीर, नृशंस आरोप हैं तुमपर। स्वयं जेलर साहब दावा कर रहे थे कि तुम फाँसी पर चढ़ोगे।" शिवराम उसे टोकता तो वह बस मुसकराता, "अरे, जेलर क्या खाक जानता है मेरे जैसे डाकू को जिसने घाट-घाट का पानी पिया है? सबूत, दंड, अपराध, प्रतिबंध, नियमों का जो अनुभव हमें होता है वह ऐसे जेलरों को ही क्या, बड़े-बड़े जजों को भी नहीं होता। इसी ज्ञान के बलबूते डाके भी हम कानूनी तौर पर डालते हैं। ऐसी हत्याएँ हम कभी नहीं करते, जिन्हें करके फाँसी हो। बाबा, तुम्हारी हिंदुओं की गीता मैंने पढ़ी है 'हत्वाऽपिस इमाँल्लोकन् न हंति न निबध्यते'। इसे ही कहते हैं 'योगः कर्मसु कौशलम'।" हिंदू अधिकारियों के पहरे में वह संस्कृत श्लोक का पाठ करता, भजन गाता और उन भोले-भाले लोगों को सम्मोहन होता कि सत्य ही यह कोई अंतर्यामी अवधूत है, पहुँचा हुआ संत है। कारागृह में उसे उन हिंदू सिपाहियों की सहानुभूति मिलती।

मुसलिम अधिकारियों के पहरे में गप्पें हाँकते समय वह कुरान की दस-पाँच सच्ची-झूठी आयतों का पाठ करने का नाटक करता। नमाज तो अपनी बची-खुची बित्ता भर दाढ़ी सहलाते हुए बड़ी गंभीरता के साथ, तल्लीन होकर दिन भर पढ़ता रहता। वह कहा करता, "देखो, मैंने जो-जो डाके डाले, जिन-जिन लड़कियों को भगाया, जिनके-जिनके हाथ-पाँव तोड़े, प्राण लिये, लूट-पाट की वे सारे काफिर हिंदू थे, समझे? ईमानदारों (मुसलिमों) का बाल भी बाँका नहीं किया। अल्लाह रहीम है। काफिरों को सजा देने के बदले खुदाताला मुझपर तो रहम ही करेगा। क्यों?"

"अलबत्ता!" वह मुसलिम जमादार कहता और फिर जिस प्रकार किसी पुराने अँधेरे कुएँ में, जिसकी थाह पाना मुश्किल है, झाँका जाए उसी तरह उसकी आँखों में झाँकते हुए मन-ही-मन बड़बड़ाता, "वाकई, यह कोई औलिया, कोई खुदाई खिदमतगार दिखता है।"

कारागृह में घुटे हुए बदमाश, डाकू जो मुसलिम होते हैं, उनमें से सिंधी, बलूची, पठान, पंजाबी अपराधी अपने खून, चोरी, डाकेजनी का समर्थन इसी तर्क से करते हैं कि 'भई, हम तो सिर्फ काफिर हिंदुओं को ही मारते हैं, लूटते हैं।'

और इस समर्थन के साथ उनका पाप कृत्य भी पुण्य कृत्य समान भासमान् हो उठता है और अनेक धर्मांध मुसलिम सिपाही-जमादारों को उनसे हमदर्दी होने लगती है। इस प्रकार के सैकड़ों उदाहरण स्वयं देखने-सुनने का अनुभव हमें भी हुआ है। इस सिलसिले में अपवाद निकलने पर इतनी ही बात अच्छी है कि कम-से-कम बंगाली, मराठी मुसलिम इतने धर्मांध नहीं होते। इसीलिए डाकुओं में उत्तर प्रांतीय मुसलिमों का दक्षिण देश के मुसलिमों पर इतना भरोसा नहीं होता।

इस योगानंद ऊर्फ रफीउद्दीन के गिरोह में भी अंत में वही अनुभव प्राप्त हुआ। जैसाकि ऊपर कहा जा चुका है कि उनमें जिन आरोपियों के कारागृह में कदम रखते ही सकपकाकर होश उड़ गए उनमें से एक हसन भाई नामक महाराष्ट्रीय मुसलिम और दूसरा वह किशन जो पश्चात्ताप की आग में जल रहा था, दोनों ने पुलिस को उस गिरोह की काफी जानकारी दी और अपने अपराधों को स्वीकार किया। उनकी इस स्वीकृति के आधार पर सरकार ने उनपर मुकदमा दायर किया और उस मुकदमे की मुकर्रर तारीख रफीउद्दीन वगैरह सबको सूचित की गई थी।

मुकदमे के दिन जिस तरह शादी के दिन दूल्हे मियाँ जिस उत्सुकता तथा शान से सज-धजकर तैयार होता है, उसी प्रकार अपने बाल, पेंट आदि परिवेश का कारागृह में जितना संभव है, उतना शृंगार करके बड़ी अकड़फूँ के साथ पैरों की बेड़ियाँ झनझनाते रफीउद्दीन डाकू बड़े ठसके के साथ कहकहे लगाता बाहर निकला। 'यही है वह काले पानी से आया हुआ भगोड़ा पराक्रमी पुरुष सिंह', उसे लग रहा था कि समूचा त्रिभुवन उसकी ओर देखता चल रहा है। वह मन-ही-मन यही योजना बना रहा था कि अब अदालत में वह किन-किन हँसी-मजाक से जज साहब को भी हँसते-हँसते लोटपोट करे। उसके मन में इस बात के लिए रत्ती भर भी धकधकी नहीं हो रही थी कि उसके घोर अपराधों की नृशंस कथा सुनते ही किसके बदन के रोंगटे नहीं खड़े होंगे। कुछ लोग उसे राक्षस समझकर छी:-थू करेंगे; उसे कठोर दंड भुगतने पडेंगे। भूत-प्रेत, रोना-धोना, चिता-कपाल से अभ्यस्त बने श्मशान की धर्मशाला के चौकीदार को जिस प्रकार श्मशान से भय नहीं लगता, ये तमाम कार्यक्रम जिस तरह अपने नित्य कर्मों की तरह वह स्वाभाविक समझता है, उसी तरह उस गैंडे की चमड़ी पहना वह डाकू अदालत, सबूत, दंड, गवाह, बेड़ियों, बंदीशाला, आजन्म कारावास, काला पानी, कैदे-तनहाई इन तमाम बातों के परिपाठ का इतना अभ्यस्त बन चुका था कि वह उसे बिलकुल भी हौवा नहीं समझता था; न ही उसे इतनी अहमियत देता था। शैतान की तरह ही उसका मन 'Oh Evil ! Thou be my good' यही शिक्षा लिये हुए था।

उसका मन हैवानियत तथा इनसानियत, इन दोनों का एक संयुक्त परिवार बना हुआ था। जिस प्रकार राजमहल में रहनेवाला वह नीरो था, उसी प्रकार काले पानी पर रहनेवाला यह रफीउद्दीन।

नीरो को जिस प्रकार मृत्यु का भय था, उसी तरह इसे फाँसी का डर था; और अगर इसे किसी की परवाह हो, किसी में रुचि हो तो वह थी अफीम और नारी।

अदालत जाते-जाते भी उसका मन एक-दो बार धक-धक करने लगा-न जाने अगर फाँसी हो गई तो? और एक-दो बार तो वह क्रूरकर्मा भी गौ बनकर दीन-हीन होकर बेचैन हो उठा, 'मालती! हाय! हाय! अब फिर से कहाँ आएगी वह लौंडिया मेरी मजबूत बाँहों में।'

प्रकरण-६

रफीउद्दीन का अंतरंग

अदालत में उन डाकुओं का मुकदमा यौवन पर था। वकील, उनके कारिंदे, सिपाहियों का हथियारबंद झुंड, पंखेवाले वे सज्जन, गृहस्थ तथा गाँव के गुंडे जिन्हें इस प्रकार के डाकुओं के मुकदमों का खास चस्का लगा हो आदि लोगों से अदालत ठसाठस भरी हुई थी। उन क्रूर नर-पशुओं के क्रूर, नृशंस कृत्य सुनते समय कई बार स्वयं न्यायमूर्ति के अभ्यस्त मन पर भी घनाघात हो जाता। निष्पक्षता भी आपे से बाहर हो जाती। ग्रामकंटकों के भी रोंगटे खड़े हो जाते। मनुष्य नृशंस, क्रूर श्वापदों को मनुष्यों की बस्ती से दूर जंगल में खदेड़ सका, परंतु मनुष्य के मन ही में कितने सारे नृशंस श्वापद कैसे घात लगा बैठे, घर बनाकर विचर रहे हैं ! मन के तहखाने के ताले जब कभी इस तरह से खुले, वे नृशंस श्वापद तितर-बितर होकर भगदड़ मचाते हैं। तभी इस दारुण सत्य को नकारना असंभव होता है। जिसे हम मानवता, मनुष्यता कहते हैं वह एक सजी-सँवरी क्वेट्टा नगरी है। उसके नीचे भूचालीय राक्षसी वृत्तियों की कई परतें फैली हुई हैं। मात्र दया, दाक्षिण्य, माया-ममता, न्याय-अन्याय की नींव पर ही यह मानवता की क्वेटा नगरी उभारी जाने के कारण, इस भ्रम में कि वह अटल-स्थिर-दृढ़ होनी चाहिए, जो लापरवाही से घोड़े बेचकर सोता है उसका सहसा ही विनाश हो जाता है, पूरा राष्ट्र पलट जाता है।

रफीउद्दीन अहमद भी एक मनुष्य था, क्योंकि वह हमेशा हँसता रहता था। अनेक जीव-वैज्ञानिकों के अनुसार अन्य प्राणियों से मनुष्य अलग-थलग है। यह दर्शाता है उसकी प्रमुख विशेषता-उसकी मुसकराहट। सिर्फ मनुष्य ही हँस सकता है। न्यायाधीश ऑक्लैंड साहब, जिनके सामने यह मुकदमा जारी था, इस तरह के पैशाचिक आरोपियों को मात्र अपराधी के नाते से नहीं देखा करते, अपितु जिस तरह कोई वैद्य रोगियों की ठोक-बजाकर परीक्षा करता है अथवा मांत्रिक सर्पों की विष-परीक्षा करता है, उसी आलोचक दृष्टि से इस प्रकार के अघोरी पापियों के स्वभाव विशेषों की छानबीन किया करते। उनकी यह धारणा होती कि अपराध-विज्ञान मनोविज्ञान का ही एक हिस्सा है। इसीलिए वे प्रमाण की तरह पैशाचिक तथा विक्षिप्त अपराधियों के मनोविकारों, मुद्राओं एवं भाषणों की तथा गतिविधियों की मन-ही-मन छानबीन करने में उलझे रहते। वे अपराधियों को आरोपी के कटघरे में खड़े करते हुए भी यथोचित सीमित स्वाभाविक बोलचाल तथा हँसने-रोने देते, उनसे स्वयं बातचीत करके कभी उन्हें बोलने के लिए भी बाध्य करते, ताकि उनकी छानबीन करना आसान हो। जिस संकट के घात में आते ही बड़े-बड़े दुष्ट भी बेंत की तरह काँपते हैं, लज्जित होते हैं, उस संकट में भी रफीउद्दीन को निश्चिंत, निर्लज्जता से हँसते हुए देखकर न्यायाधीश ऑक्लैंड साहब सोचते कि अच्छा होता यदि शेक्सपियर एक बार इसे इस तरह मुसकराता हुआ देखते, क्योंकि शेक्सपियर ने एक चरित्र द्वारा एक दुष्ट, धोखेबाज तथा गुरूघंटाल, काइयाँ व्यक्ति का एक लक्षण बताया है कि 'He seldom laughs' (उसे कभी-कभी ही हँसी आती है।) उसने यह भी किसी अन्य चरित्र द्वारा किसी अन्य स्थान पर कहलवाया होता कि वह लक्षण भी किस प्रकार मिथ्या प्रमाणित हो सकता है। क्रूरकर्मा होते हुए भी रफीउद्दीन जिस प्रकार हँसोड़ था वैसे ही दुर्वृत्त, काला नाग होते हुए भी वह अत्यंत सुंदर था। न्यायाधीश ऑक्लैंड साहब मन-ही-मन सोचते, 'बच्चू ने एक महाकवि के उक्त सूक्त को ही नहीं अन्य महाकवि के 'नट्याकृति सुसदृशं विजहानि वृत्तम्' इस कालिदासीय सूक्ति को भी झुठलाया है। ऐसा नहीं कि सुंदर मनुष्य सद्शील होता ही है। इतना ही नहीं, उसके दुराचरण से भी कभी-कभी उसकी सुंदरता अधिक विषाक्त होती है, जैसे इंद्रायन का फल। कभी समझ में नहीं आता, गुलाब की घनी फुलवारी की ओट में छल-कपट की चरम सीमा है।

डाकुओं के उस गिरोह द्वारा किए गए नृशंस क्रूरतापूर्ण अत्याचार, पुलिस ने ठोस सबूत के साथ उनके पल्ले बाँध दिए। उनमें जिस एक अप्रत्यक्ष लेकिन महत्त्वपूर्ण प्रमाण की जोड़ रफीउद्दीन के गिरोह में हसन भाई नामक आरोपी ने दी, वह सरकारी माफी का साक्षीदार हो गया था। उसकी स्वीकारोक्ति में से चुनिंदा आशय भी यहाँ प्रस्तुत करें तो भी वह रफीउद्दीन के राक्षसी कृत्यों की रूपरेखा पाठकों के ध्यान में लाने के लिए पर्याप्त है। उस स्वीकारोक्ति के आशय का पुलिस के स्वतंत्र प्रमाण ने समर्थन किया था।

"मेरा नाम हसन भाई। मैंने हाई स्कूल तक शिक्षा प्राप्त की है। मैं क्लर्क भी था। आगे चलकर जुए की लत पड़ने से मैं पैसे चुराने लगा। मेरा जन्म-स्थान खानदेश में है। रफीउद्दीन से मेरा परिचय उसके काले पानी जाने से पहले ही हुआ था। पंजाब, उत्तर प्रदेश से लूटपाट कर लाई गई संपत्ति का कुछ अंश वह मेरे पास छिपाकर रखता था। लेकिन अपने गिरोह में प्रत्यक्ष डकैती के लिए वह मुझे साथ कभी नहीं ले जाता तथा मेरे पास खुल्लम-खुल्ला नहीं आता था ताकि पुलिस का ध्यान मेरी ओर आकर्षित न हो। आगे चलकर उसे सजा हो गई, वह काला पानी चला गया और हम दोनों में कोई संपर्क नहीं रहा। कुछ वर्षों के उपरांत एक दिन मैंने देखा कि वह अचानक मेरी चौखट पर खड़ा है। तब मुझे ऐसा लगा, जैसे कोई मृत व्यक्ति जीवित होकर आया है। मुझे मालूम भी नहीं था कि वह व्यक्ति, जो काला पानी गया है, जीवित लौट सकता है। उसने बताया कि वह मंत्रशक्ति से अदृश्य होकर सागर पर चलकर वापस आया। उसने मंत्र से अभिभूत एक ताबीज भी मुझे दिखाया। उसने मुझे आश्वस्त किया कि अपनी तीन-चार हजार की अमानत जो उसने मेरे पास रखी थी वह भी मुझे उपहार-स्वरूप मिल जाएगी। उसकी इस प्रकार की तमाम चिकनी-चुपड़ी बातों का मुझपर विलक्षण प्रभाव पड़ा। मुझे वह एक अद्भुत मांत्रिक तथा असाधारण साहसी पुरुष प्रतीत होने लगा और मैं वैसा ही करने के लिए तैयार हो गया जैसा वह कहे। उस समय उसकी बात पर मैंने विश्वास किया। उसने कहा, 'सिंध और पंजाब में मुसलिम धर्म प्रचारार्थ मैंने एक बड़ी संस्था शुरू की है। यह एक तरह का जेहाद-धर्मयुद्ध है और उसकी सहायता करना हर मुसलमान का फर्ज है।' मुसलमान बनाने के लिए खानदेश में जो हिंदू लड़के-लड़कियाँ मिलेंगी, उन्हें फुसलाकर उसके हाथ सौंप दिया जाए; उसे जो चीजें और द्रव्य छिपाना हो वह पूर्ववत् छिपाए; जब भी वह बुलाए, मुझे उसके पास चला जाना चाहिए, और इस काम के लिए वह मुझे खर्चा और हर महीने सौ रुपए दे देगा। इस प्रकार हम दोनों में करार हो गया।

मुझे उसकी दहशत-सी लगती कि उसका अगला काम मैंने नहीं किया तो यह क्रूरकर्मा अपनी पिछली अमानत के लिए मुझे जान से मार डालने में भी नहीं हिचकिचाएगा। पहले-पहले डरते-डरते मैं उस गिरोह की सहायता करता रहा, परंतु इनकी डाकेजनी के वर्णन सुनते-सुनते मैं भी लोगों को इकट्ठा करके छोटे-मोटे डाके डालने लगा। यात्राओं, धर्मशालाओं और स्टेशन से भले घरानों की हिंदू लड़कियों का अपहरण करने में इतना अभ्यस्त तथा निपुण हो गया कि जिनकी बेटियों का हम अपहरण करते उन्हें आठ-आठ आँसू बहाते देख हमारा बड़ा मनोरंजन होता था। इससे रफीउद्दीन मुझपर निहायत प्रसन्न हो गया। उन लड़कों, लौंडे-लौंडियों को सुदूर सिंध, बलूचिस्तान तक भेजा जाता, उधर उनके गिरोह उन्हें बेचते अथवा किसीपर दिल आने पर उसका आपस में बँटवारा कर लेते। धर्म-प्रचार की ओट में बड़े-बड़े मौलवी भी हमारे इन दुष्ट कृत्यों की अथक प्रशंसा किया करते। उससे अपनी नीच विषय-वासना तथा धर्मलाभ में एक धर्मोन्माद आ जाने से हम जनलज्जा तथा मनोलज्जा दोनों से मुक्त हो गए। भय मात्र सरकारी दंड से रह गया, वह भी खासकर अंग्रेज और कुछ कठोर हिंदू पुलिस अफसरों से ही।

हमारे जैसे दक्खनी मुसलमानों को उत्तर के ये पठान, बलूची डाकू अविश्वसनीय समझते थे। हमारा परिवेश, भाषा, रीति-रिवाज हिदुओं जैसे होने के कारण आनन-फानन क्रूर कर्म हमसे नहीं हो सकते, इसलिए वे हमें कायर, डरपोक तथा 'आधे काफिर' समझते थे। डाकेजनी में हमें सीधे हिस्सा नहीं लेने देते थे। परंतु बिहार में एक डकैती में इस गिरोह की पकड़-धकड़ हो गई, तब रफीउद्दीन कुछ साथियों के साथ वहाँ से खिसककर खानदेश आ गया और उसे मेरे गिरोह में शामिल होना पड़ा। तबसे वह हिंदू गोसाईं के वेश में घूमने लगा। वह एक मँजा हुआ बहुरूपिया है। अंग्रेजी, संस्कृत, बँगला, मराठी भाषाओं में से थोड़ा-थोड़ा जबानी याद करके रखा है उसने। फिर झूम-झूमकर गाता है, नाचता है। चाहे लावनी हो (मराठी संगीत की एक विधा), चाहे भजन, किसी में भी रंग भरकर ऐसा समाँ बाँधता है कि क्या कहने! योगानंद का स्वाँग रचाकर तो उसने हजारों हिंदू लोगों को सम्मोहित किया। उसे सिर्फ पाँच-दस भजन ही कंठस्थ हैं। शास्त्रार्थ आदि तो वह कुछ जानता नहीं, इसलिए मौन व्रत का ढोंग करता है या फिर भजन गाता है। पाँच-दस संस्कृत श्लोक उसे कंठस्थ थे, परंतु वह ऐसे ढंग से बीच में ही बोलता, कभी बीच में ही मौन हो जाता कि जिस-तिसको यही भ्रम होता कि आहा! महाराज प्रगाढ़ विद्वान् होते हुए भी कितने विनम्र हैं। उसने योगानंद का जो चोला पहना था, उस पहनावे का हमें काफी फायदा हो गया। हिंदू बिना माँगे हमें हजारों रुपयों का दान देते। ये महाशय स्वयं किसी चीज को स्पर्श नहीं करते, परंतु जो जबरदस्ती रख जाते उन उपहारों को हम लोग इकट्ठा करते और आपस में बाँट लेते। भजन के समय जब भीड़-भड़क्का होता था, तब लगभग सौ-सवा सौ हिंदू लड़कियों को भगाकर हमने पिछले साल-डेढ़ साल में गुलाम हुसैन नामक एक बलूची के हाथों उत्तर में रवाना किया। उस हर शिकार के पीछे हमें स्वतंत्र उपहार मिलता। मुसलमानों को न लूटने का यह जो बहाना बनाता, वह भी झूठा था। इस सत्य से हम सब तब परिचित हो गए जब इसका हमारे गिरोह से प्रत्यक्ष संबंध हुआ। किसी मुसलमान को लूटना हो तो वह उसे सिर्फ 'काफिर का दोस्त' जैसी गाली देता और फिर अपनी कसम से मुक्त होता। भई, हमें भी यह सुविधाजनक शासन बहुत पसंद था। यह जितना क्रूर, जहरीला भुजंग है उतना ही हँसोड़ और मजाकिया है। परंतु हाँ, यह इतना गजब का बहुरूपिया है कि मैं नहीं बता सकता। इसका बुनियादी स्वभाव मजाकिया है या निर्घृण। पागलपन का स्वाँग रचाने में भी इसका मसखरापन बहुत काम आता है। कुछ भी हो, यह सोलह आने सच है कि यह तभी भारी मसखरी करता है जब अत्यंत नृशंस, निर्घृण कृत्य करता है।

इसकी नृशंसता के दो प्रसंग जो मैंने अपनी इन आँखों से देखे हैं, जिनसे मुझे भी इसकी नृशंसता से घिन हुई है, जिनका मैं चश्मदीद गवाह हूँ, सबूत के तौर पर बताता हूँ। इस मुकदमे में खानदेश के जिस मुसलिम डॉक्टर के घर पड़ी डकैती का हमपर आरोप लगाया गया है, उस डकैती में मैं भी शामिल था। हमारे दरवाजा तोड़कर भीतर घुसते ही डॉ. रहमान की, जो अटारी से खिसक रहा था, टाँगों पर हमने कुल्हाड़ी से प्रहार किया। उसकी टाँग के टुकड़े-टुकड़े हो गए। डॉक्टर ने तो वहीं पर दम तोड़ दिया लेकिन फिर भी सिर्फ कुठाराघात करने के आनंद में इसने जोर-जोर से कहकहे लगाते हुए मेरी 'ना-नु' की परवाह किए बिना उस डॉक्टर की बोटी-बोटी काट डाली। इतने में उस डॉक्टर के दो बच्चे दिखाई दिए जो पलंग के नीचे दुबककर बैठे हुए थे। मैंने तड़पकर कहा, 'भाई, इन मासूमों पर तो रहम करो, इन्हें तो बख्शो। बेचारे डर के मारे अधमरे, गुमसुम तथा बदहवास हो गए हैं।'

उसने कहा, 'अरे यार, बेहोशी की हालत में सभी आँखें मूँदकर मुँह में ठेपी रखते हैं, लेकिन होश में आते ही उनकी जबान खुल जाती है, आँखें भी खुल जाती हैं। फिर भरी अदालत में ये ही खुली जबान और खुली आँखें पहचानेंगे कि वे डाकू कौन थे और फिर तेरे-मेरे गले में फाँसी का फंदा पड़ जाएगा।' इतना कहकर उसने कुल्हाड़ी के एक-एक प्रहार से उन मासूम बच्चों के एक-एक के दो-दो टुकड़े उड़ा दिए। वह पैशाचिक कृत्य देखकर मैं भी गश खा गया। लेकिन उस डाके में हमारे हाथ में दस हजार की लूट लगी। हो सकता है मेरे मन को इसी कारण उस चक्कर की बाधा अधिक मात्रा में नहीं पहुँची हो और उसी कुमार्ग पर वह पूर्ववत् चलता रहा हो।

दूसरी नृशंस घटना जो मैंने अपनी आँखों से देखी, उसके सामने तो उपर्युक्त घटना भी फीकी पड़ जाती है। रफीउद्दीन हरदम हमसे बड़ी शान से कहता कि आजकल वह हर साल में एक सुंदर स्त्री रखता है। वर्ष समाप्त होते ही वह उसे जान से मार डालता है और फिर दूसरी रखता है। अन्य लोग-बाग अपने सत्कर्मों को राई का पहाड़ बनाकर बखान करते हैं, उसी प्रकार यह घनचक्कर प्राणी अपने दुष्कर्मों को भी बड़ी शान से तिल का ताड़ बनाकर बखानता था। उसपर इठलाता था। हाँ, जब यह खानदेश से भाग आया था तब इसके साथ एक हिंदू कायस्थ युवती थी, जिसका बिहार से जबरदस्ती अपहरण किया गया था। वह इसके कड़े पहरे में थी। उससे वह स्त्रैणबुद्धि होकर इतना प्यार करता था कि ऐसा लगता, इसके जैसा प्यार करनेवाला चिराग लेकर ढूँढ़ने से भी नहीं मिलेगा। वैसे देखा जाए तो हमारे गिरोह के साथियों से भी जब तक मित्रता करता तो अच्छी तरह से करता। उस युवती पर वह बेहद लटू था, लेकिन वह किसी दुःख से कुढ़ती हुई दिखती। कभी-कभी तो ऐसा आभास होता कि वह अपनी जान को जान ही नहीं समझ रही है। एक बार उसे हिंदू धर्म के तौर-तरीके से हाथ जोड़कर प्रार्थना करते हुए रफीउद्दीन ने देखा।

'क्या मन्नत माँग रही हो, मेरी जान, पत्थर के इस भगवान् से?'

तब गुस्से से भन्नाकर उसने कहा, 'तुम्हें फाँसी पर लटकाने की।'

'फाँसी' शब्द सुनते ही रफीउद्दीन ने मारे क्रोध के साँप जैसा फन उठाया। तैश में आने का झटका आते ही वह हमेशा ठहाका लगाता है-उसी तरह अट्टहास करते हुए उसने कहा, 'वाकई, इसका साल पूरा हो रहा है न?'

उस दिन उसने मुझसे कहा, 'शाम को मैं तुम्हें एक दिलचस्प बात दिखाऊँगा, यार! जंगल की घाटी में ऊँचे मीनार पर जाकर बैठ जाओ।'

शाम के समय मैं उस जंगल की घाटी की ऊँची मीनार पर जाकर बैठ गया। वर्षा की झड़ियाँ लगी हुई थीं। पानी से लबालब नदी सैलाबवश दोनों किनारों को छूती-उफनती, फूँ-फूँ फुफकारती हुई बह रही थी। फिलहाल उस वीरान जंगल में घाटी की मीनार तक नदी का पानी चढ़ने पर उसे सैलाब समझा जाता। इस प्रकार नदी में प्रचंड बाढ़ आई हुई थी।

थोड़ी ही देर में रफीउद्दीन उस सुंदर रमणी के साथ वहाँ आ गया। उसे बेपरदा करके हिंदू युवती की तरह कंधे पर आँचल लपेटकर वह उसे खुली हवा में बाढ़ का नजारा दिखाने ले आया था। बहुत लंबे अरसे के बाद चेहरे का अवगुंठन दूर होने से विशुद्ध, ताजा, खुली हवा साँसों में भर लेने के कारण उसके मुख पर तनिक संतोष झलक रहा था। रफीउद्दीन निर्लज्ज छेड़खानी, चापलूसी और खुशामद की परिसीमा के साथ उसका प्रणयाराधन कर रहा था। मुझे इस बात से आश्चर्य हुआ कि वह मेरे सामने इस तरह उसे बेपरदा करके खुले दिल से इस एकांत स्थान पर ले आया। उसपर विषयांध सा होकर जब वह उसे अपनी बाँहों में भरने लगा तब तो मेरी मति ही मारी गई। दरअसल मेरे मन में भी दुर्दम्य अभिलाषा उत्पन्न हो गई थी कि चाँद के उस टुकड़े को मैं भी अपनी बाँहों में भर लूँ।

रफीउददीन ने उसे हाथ से निकलने की कोशिश करते हुए देख कसकर दबोचा और फिर ऊपर उठाया। तत्पश्चात् छोटे बच्चे की तरह उसे दोनों हाथों में लिटाकर 'मेरी प्याली-प्याली नन्नी-मुन्नी' कहकर प्यार से दुलारा, पुचकारा, झुलाया और फिर एक झटके के साथ उसकी साड़ी लगभग आधे से अधिक उतारकर कामोन्मत्त निर्लज्जता के साथ मुझसे कहने लगा-'देख ले यार, जी भरकर देख ले इस जन्नत की हूर को!'

मैं भी इस विचार से कि इस विकृत सनक में यह विषयांध पुरुष न जाने क्या करेगा, कामावेश में थरथराते हुए उसे देख ही रहा था।

इतने में ...

उसने उस सुंदर सुकुमार युवती को आवेशपूर्ण ताकत के साथ उस मीनार से नदी के सैलाब में दूर फेंक दिया, जैसे हम एक पत्थर को जोर से घुमाकर झटके के साथ फेंकते हैं।

'भई, साल जो पूरा हो गया था इस लौंडिया का...' कहकर उसने जोरदार ठहाका लगाया।

'अरे शैतान की औलाद!' मैं जोर से चीख पड़ा।

'अरे यार, पहले मजा तो देख। यही दिलचस्प नजारा दिखाने के लिए तो मैंने तुम्हें यहाँ पर बुलाया था।'

दो बार वह मासूम निरपराध रमणी मौजों पर सवार हो गई। लगे हाथ दो बार वह नीचे डूब गई। उस सैलाब के बीच में ही एक ऊँची चट्टान सिर उठाकर खड़ी थी। एक महाकाय प्रचंड लहर कलकल, हर-हर-हर-हर हहराती ध्वनि के साथ उधर मुड़ गई। उसमें फँसी हुई वह युवती तथा उसकी गुलाबी साड़ी साफ-साफ नजर आ रही थी।

बहुत ऊँचे लटकाया हुआ सुंदर बिल्लौरी झाड़फानूस अचानक टूटकर, तेजी से नीचे भहराते ही जिस तरह चकनाचूर होता है और उसकी चिनगारियाँ बिखरकर, झड़कर ज्योति अचानक बुझ जाती है, उसी तरह उस प्रचंड लहर के चट्टान से टकराते ही उस जलौघ की हिमधवल धज्जियाँ उड़ गईं और उस अत्यंत निरीह भोली-भाली कंचन-गौर युवती का मस्तिष्क तार-तार होकर उसकी पंच प्राण-ज्योतियाँ एक साथ अस्तंगत हो गईं। फिर वह पानी की ऊपरी सतह पर नहीं आई।

'अरे नीच, शीशमहल के कुत्ते, अरे तुमने यह क्या कर डाला? मौत के मुँह में ढकेल दिया उसे?' मैंने शोकावेश में सिसकते हुए उससे साफ-साफ दो टूक सवाल किया।

'अरे पगले, मौत के मुँह में नहीं, उसके बारे में बात करनी है तो उसकी जबान में बोलो। उसकी संस्कृत भाषा में पानी को मौत नहीं कहते, बेटा! पानी को जीवन कहा जाता है। भई, मैंने उसे जीवन के सैलाब में फेंका है।' यह कहकर उसने अट्टहास किया।

'अरे, आज उसे मौत के घाट नहीं उतारता तो कल वह खुफिया पुलिस को मेरा अता-पता बता देती, समझे?'

महाराज, मैं उसके जैसा जल्लाद, नीच नहीं हूँ फिर भी पाप-कर्मों का मुझे चस्का सा लग गया था। अलौकिक सत्कर्मों की तरह ही अलौकिक, असाधारण दुष्कर्मों का भी एक दुस्साहस होता ही है, ताकि लोगों पर सिक्का जमाया जाए। उसी प्रकार हमारा दबदबा जमने से इसके भीषण दुष्कर्मों का हमपर जो प्रभाव था, वह दिन दूना रात चौगुना होता गया। उसके योगानंद बाबावाले ढकोसले से हमारी पाँचों अँगुलियाँ घी में होने के कारण हम भी उसका साथ निभाते ही रहे।

इसके बाद हम मथुरा आ गए। इसने कर्णपुतली समान एक जलादर्श यंत्र का पाखंड रचाया। कहा कि उस यंत्रबल के जरिए अतीत, भविष्य, वर्तमान बिलकुल ठीक-ठीक बताया जा सकता है। इस बात को हम सर्वत्र फैला रहे थे। कहीं भी चले जाने पर हम परस्थ, सौदागर, वकील, डॉक्टर, इस तरह विविध स्वाँग रचाकर पृथक् रूप से गाँव में घूमते और पृथक्-पृथक् रूप से गप्पें हाँकते कि योगानंदजी ने अमुक-अमुक चमत्कार हमारे रू-ब-रू किए, अमुक भविष्य कथन ठीक-ठीक बताया। जब हमें इस बात की खबर मिलती कि कोई सज्जन इसके पास भूत-भविष्य पूछने आ रहे हैं, तो हममें से कोई एक किसी अपरिचित रईसजादे के भेष में इसके सामने बैठकर इससे कुछ प्रश्न पूछता और यह चाहे कुछ भी कह देता।

'अहो आश्चर्यम्! आहा! कैसी अद्भुत दिव्य दृष्टि! हूबहू वैसा ही सिद्ध हुआ जो हम कहते थे। सोलह आने सच।' इस तरह इसकी 'वाहवाही' करके जबरदस्ती एक मोटी-तगड़ी रकम इसके देवस्थान को देकर वापस लौटते। अर्थात् जिनके सामने हम यह नाटक करते, उन लोगों में प्रायः सभी स्त्री-पुरुष अंधविश्वास की मनोवैज्ञानिक छूत की बीमारी का निश्चिंत रूप से शिकार बनते। जिस सिलसिले में योगानंद के उत्तर असत्य सिद्ध होते उन्हें वैसे ही छोड़कर जो संयोगवश, काकतालीय न्याय से सत्य सिद्ध होते उन्हींका हम इधर-उधर ढिंढोरा पीटते फिरते। मथुरा में भी हमारा यह ढकोसला इसी तरह फलता-फूलता गया। उसी समय डॉ. नायडू नामक एक महिला हमारे झाँसे में आ गईं। बातचीत के दौरान उन्होंने नागपुर स्थित एक महिला और उसकी इकलौती बेटी, जिनसे उनकी मित्रता थी, दोनों की रामकहानी सुनाई। उन्होंने यह भी बताया कि वे दोनों मथुरा आई हुई हैं।

यह जानकारी प्राप्त होते ही यह बदमाश योगानंद अकेले में मुझसे कहने लगा, 'मैं जब काले पानी पर गया था तब मेरे साथ एक कैदी था जिसे फौज में दंड हुआ था। अन्य कोई कैदी मेरे पास कभी नहीं रखा जाता। अत: हम दोनों में गहरी घुटने लगी। उसने समय-समय पर अपने घर की सारी जानकारी मुझे दे दी। डॉ. नायडू नागपुर की जिस महिला और उसकी बेटी को यहाँ लाने का जिक्र कर रही थीं, अवश्य वही उस कैदी की माता और उसकी युवा बहन होंगी। डॉ. नायडू ने जो बताया वह नाम, गाँव, वृत्त सबकुछ हूबहू मेल खाता है। वही है वह लड़की। अब मेरे हाथ आ गई। माल...माल...मालती...हाँ-हाँ यह मालती ही है। हाय री मेरी मालती, उसे तो दसों बार मैंने अपनी शय्या की शोभा बनाया है। मालती! मेरी मालती...।'

'अरे भाई, तुम तो काले पानी पर थे न? फिर उस लौंडिया को अपने बिस्तर का शोभा बनाया कैसे बनाया? सपने में? उसका नाम लेने से ही दिल में लड्डू फूटने लगे जनाब के।' मैंने व्यंग्य कसा।

'देख हसन ! किसी खूँखार जानवर को भूखे पेट बंद करो, उसे मांस मत दो। फिर खून से सनी एक हड्डी उसके सामने डालो और देखो वह खूँखार जानवर उस हड्डी को कितने चटकारे ले-लेकर चचोड़ता है। ठीक उसी प्रकार काम विकार जहाँ बरसों से मन के पिंजड़े में भूखे भेड़िये की तरह बंद रखा जाता है, उस काले पानी पर औरत का जो भी नाम कानों पर आ जाता है, वही नाम तन-मन में ऐसा बस जाता है कि वह उस नारी की एक मूर्ति बन जाता है, उस काल्पनिक मूर्ति पर मन विषयी हो जाता है। यथार्थ में नहीं अपितु सपने में उससे रत होता है। हिंदू लोगों में उषा का एक सुंदर आख्यान है, कभी सुना भी है तुमने? स्वप्नस्थित प्रिय पुरुष उसे प्रत्यक्ष दृश्यमान पुरुष की अपेक्षा अधिक काम-विकल कर किया करता है। मेरा भी ठीक वैसा ही हाल हो गया था। मजबूरन बार-बार सिर्फ उसी साथी कैदी के साथ बातचीत करने के कारण और उसकी बातों में बार-बार उस सयानी, पर कच्ची कली का, जो अनबिंधा मोती थी, जिक्र आने के कारण मेरी बुभुक्षित कामेच्छा पर उस कल्पनारम्य मूरत की, उस नाम की जो एक अमिट छाप अंकित हो गई, वह अब अन्य किसी भी प्रत्यक्ष नारी के संबंध में नहीं हो सकती; और दिलचस्प बात देखो, उसी नाम की रमणी का, उस कामातुर कल्पना का ही अब मैं प्रत्यक्ष रूप में भोग कर सकूँगा। बस! हम उसका अवश्य अपहरण करेंगे।'

उसके अपहरण का निश्चय होते ही हमने अपनी हमेशा की चाल चली। भजन समाप्त होते ही जन-समूह के वापस जाते समय जहाँ से मालती अपनी माँ के साथ रेलपेल में चल रही थी, वहाँ हममें से ही दो-तीन जनों ने झूठ-मूठ की हाथापाई शुरू की। उसके साथ ही उस भीड़-भड़क्के में एकदम भगदड़ मच गई। उस ठेला-ठेली में मालती को उसकी माँ से अलग किया गया। फिर हमारे इस योगानंद स्वामी के एक शिष्य ने बनावटी मासूमियत का पुतला बनकर उसे घर तक छोड़ने का बहाना बनाकर अपने कब्जे में ले लिया और सीधे गुलाम हुसैन के अड्डे पर पहुँचा दिया। वहाँ वह रात इस दुष्ट ने मालती की सेज पर ही बिताई।

दूसरे दिन इसलिए कि इस अपहरण की बात शहर में न फैले, मालती के सगे-संबंधियों को हमने माया-ममता के जाल में फँसाकर उन्हें दूसरी ही राह पर लगा दिया, जो बहुत लंबी थी। यह लफंगा काले पानी में रहते समय इस मालती के भाई के रंग-रूप वृत्तांत को जानता था। वह सारी जानकारी अंतर्दृष्टि से प्राप्त होने का इसने नाटक किया। उसकी माँ को भी, उसके सिर पर घाव का जो निशान था, वह याद नहीं था। वह भी जब इसने जलादर्श यंत्र-मंत्र का ढिंढोरा पीटकर कहा कि वह अंतर्ज्ञान से उस निशान को देख सकता है, तब वे महिलाएँ इसकी दैवी अंतर्दृष्टि पर मुग्ध हो गईं। तब लगे हाथ इसने भूत, भविष्य, वर्तमान के बारे में बताया कि 'मालती नागपुर की ओर अपने एक गुप्त प्रेमी के साथ भाग गई है, आप लोग इधर इस बात का हो-हल्ला न मचाते हुए गुप-चुप चली जाएँगी तो उसे वापस ला सकती हैं।' उसपर भरोसा करके मथुरा की पुलिस तथा अन्य किसीको कानोकान खबर न देते हुए वे महिलाएँ नागपुर रवाना हो गईं। हम लोग भी मथुरा से चंपत होने लगे थे कि अचानक दूसरे ही पाप-कर्म का परिपाक होने से हमें उसका फल भुगतना पड़ा। इलाहाबाद का यह वॉरंट निकल जाने से हम लोग लगे हाथ पकड़े गए। इस धाँधली में इसका सुराग अभी तक किसीको भी नहीं मिला कि उस बेचारी विवाह योग्य मालती को लेकर वह जालिम गुलाम हुसैन किधर फरार हो गया। उस पापी ने उस निहायत मासूम, निरपराध, बेबस कोमलांगी की कैसी दुर्गति की होगी, इज्जत की कैसी धज्जियाँ उड़ाई होंगी-अल्लाह ही जाने।"

भावुक न होते हुए भी उस न्यायाधीश के होंठ क्रोध के मारे फड़कने लगे और दूसरी तरफ आँखों से आँसुओं की झड़ी लग गई। श्रोताओं में भी कइयों की आँखों में आँसू छलकने लगे।

...और एक व्यक्ति की आँखों से दया के आँसू झरझर बह रहे थे, लेकिन वह न न्यायाधीश था, न न्यायालय में बैठा श्रोता। वह था उन्हीं डाकुओं में से एक आरोपी, वह पश्चात्तापदग्ध किशन ...

देखने में वह बदसूरत, बातचीत में संयत, उम्र से नौजवान, नरमदिल, आचरण से आत्मसम्मानी लग रहा था। उस संपूर्ण मुकदमे में वह सिर झुकाकर बैठता था। किंतु जब वह अपना बयान देने खड़ा हुआ तब तनी हुई गरदन और सिर ऊपर उठाकर इतमीनान के साथ सधे, नपे-तुल शब्दों और अपनी आँखों में मालती की दुर्गति के जिक्र के साथ भर आए आँसू पोंछता हुआ कहने लगा, "मैं काशी में वेदांत विद्या का एक छात्र था। मेरा चित्त विरागी बनकर किसी गरु का सानिध्य प्राप्त कर भक्ति और योग की साधना की कामना करने लगा। आगे चलकर मैं मथुरा आ गया। उसी समय वहाँ इस योगानंद गोसाईं के भजन की और अंतर्यामी होने की काफी धूम मची थी। उससे रीझकर मैं इसका शिष्य बन गया। मैं अच्छा सारंगी-वादक हूँ। भजन भी गाता हूँ। इसके भजन में मैं इसका साथ देने लगा। एक सप्ताह भी नहीं हुआ था कि इस गिरोह के कुछ लोगों ने कहना शुरू किया कि यह हिंदू नौसिखिया है, इस कारण इसे चार हाथ दूर ही रखा जाए। कुछ इस प्रकार की खुसुर-फुसुर मैंने सुनी। मुझे यह संदेह भी हुआ कि दाल में कुछ काला है। गुप्त रूप से कुछ गोलमाल चल रहा है। परंतु उस समय इस मनुष्य को, जो अपने आपको योगानंद कहता था, मैं गुरुदेव की भावना से देखा करता था। अत: इसका कोई भी दुराचार मुझे दिखाई नहीं दिया। इसलिए अन्य शिष्यों के अपराधों का ठीकरा मैंने इसके माथे नहीं फोड़ा। बिना बुलाए मैंने इसकी मठी में या मजलिस में कभी कदम भी नहीं रखा। इसके आगे दो-तीन दिनों के बाद रात में भजन के पश्चात् लोगों के वापस लौटते समय जो दंगा-फसाद हो गया, उस रात योगानंद ने मुझे बुलाकर कहा कि इस बलवे में मालती अपनी माँ से बिछुड़ गई है। उसे उसके अपने घर या अन्नपूर्णा देवी के घर सही-सलामत पहुँचा दो। अन्नपूर्णा देवी के साथ जब वह आई थी, तब मैं तुम्हें ही उनके साथ उनके घर भेजा करता था। अत: वह तुमपर भरोसा करती है। यदि तुम साथ जाओगे तो वह इसी रात मेरे ड्राइवर के साथ मेरी कार से वापस जाना चाहती है। तो उसे ले जाओ।

मैंने इस प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार किया। अंधा क्या चाहे दो आँखें? मालती के साथ कार में जा बैठा। मैं उसे सांत्वना देने में तनिक उलझ गया। इतने में मोटर मथुरा के किसी अजनबी इलाके में घुसकर किसी अजनबी घर के पास खड़ी हो गई। मेरे पूछने पर ड्राइवर ने बताया, 'अन्नपूर्णा देवी ने यहीं पर उतरने के लिए कहा था। वे भीतर ही हैं।' इतना कहकर वह मालती को लेकर उस घर के पास गया। तुरंत बाहर आते हुए उसने मुझसे कहा, 'चलो, वापस चलें।' इस प्रकार किसी प्रकार की धोखेबाजी तथा कुटिल षड्यंत्र का रत्ती भर भी आभास या आशंका मन में न होने के कारण कार से उतरते समय मालती के भीतर बुलाने पर भी उसके पीछे भीतर न जाते हुए ड्राइवर के कहने मात्र से मैं तुरंत वापस लौटा। परंतु उसके पश्चात् मुझे मठ में न बुलाते हुए एक दूसरे ही शिवालय में रखा गया। दूसरे दिन रात के भजन के समय केवल साथ करने के लिए उस गोष्ठी में लाया गया। उस सभा में अंत में इसी गिरोह में होने के कारण मैं भी पकड़ा गया। मुझे इस बात का अत्यंत खेद है कि मैं मालती के विश्वास के लिए अपात्र तथा उसकी सहायता के लिए अक्षत सिद्ध हुआ। यदि मेरा कोई अपराध है तो मेरे विचार से बस यही है। न्यायाधीश के मतानुसार अन्य कोई अपराध सिद्ध होगा तो होने दो।"

आरोपियों में से सभी के बयान, पुलिस के सारे प्रमाण, मुकदमे का साग काम लगभग समाप्त हो गया। परंतु रफीउद्दीन अर्थात् योगानंद ने अभी तक अपनी सफाई के सिलसिले में कुछ भी नहीं कहा था। बस उसका हँसी-मजाक जारी था, वह जी खोलकर हँस रहा था। इन सभी आरोपियों की तरफ से मिलकर सरकार ने अपनी ओर से एक वकील दिया था। परंतु रफीउद्दीन ने बीच में उसकी भी खिल्ली उड़ाने से ही संबंध रखा था। उसके विरुद्ध उसके गिरोह के फुट्टैल साथियों ने उसके नृशंस कर्मों का जो तूमार बाँधा था, उस समय वह उनसे भी नाराज नहीं दिखाई दे रहा था। न्यायाधीश के साथ उसकी काफी घनिष्ठता बनी हुई दिखाई दे रही थी। इस पैशाचिक वृत्ति के मनुष्य के अघटित मन को किसी वैज्ञानिक विषय की तरह गहराई से अध्ययन करने के लिए न्यायाधीश उससे कुरेद-कुरेदकर बात करते, उसे हँसने-बोलने देते, उसे गौर से देखते। आखिर अभियोग समाप्ति से पहले फिर से एक बार उन्होंने रफीउद्दीन से पूछा, "तुम्हारे ऊपर जो आरोप लगाए गए हैं उनके सिलसिले में तुम्हें कुछ सफाई पेश करनी है?"

"अच्छा उगलता हूँ, थोड़ा-बहुत..." रफीउद्दीन किसी शेखीबाज वक्ता की भाँति, जो सभा के अत्याग्रहवश बोलने के लिए खड़ा रहता है, शान के साथ हिंदी-उर्दू झाड़ने लगा, "इन चालीस-पचास साथियों ने मुझपर इतने असंख्य आरोप लगाए हैं कि मुझे आज उनका अलग-अलग स्मरण भी नहीं रहा है। भला तब उनके अलग जवाब भी कैसे दूँ? इन सभी का मिलकर जिसे एक सर्वसाधारण आरोप कहा जा सकता है, वह यह है-मैं एक दुर्दांत अपराधी हूँ तथा मुझे कड़ी से-कड़ी सजा फरमाना ही न्यायसंगत सिद्ध होनेवाला है।

इस सर्वसाधारण आरोप के लिए मेरा सर्वसाधारण जवाब यह है कि मैं पूरी तरह निर्दोष हूँ, अत: मुझे कुछ भी सजा न फरमाते हुए मेरी अकारण बदनामी के लिए पुलिस की ओर से मुझे हरजाने के तौर पर एक मोटी रकम मिले, यही न्यायसंगत होगा।

इन पुलिसवालों ने और इन आरोपियों ने कहा है कि मैंने इतने लोगों को जान से मार डाला और इतनी कोमल कन्याओं की अस्मत लूटी, जैसे मैं कोई उपन्यासकार, नाटककार अथवा न्यायाधीश हूँ। अपने उपन्यास के एक ही पृष्ठ पर चाहे कितनी भी कन्याओं की भरपूर नग्न दुर्गति किसीसे भी करा लीजिए और चाहे तो उस मानसिक कामचेतना को सभ्यता, शिष्टता का चोला पहनाकर स्वाद लीजिए अथवा नाटक के लिए एक ही प्रवेश में इतने सारे मुरदों को फटाफट गिरा दीजिए कि रंगमंच पर उनका समाना भी मुश्किल हो अथवा अपने निर्णय-पत्रक के एक स्तंभ में 'फाँसी' के दो अक्षरों के गड्ढे में दो सौ जीवों को जिंदा गाड़ दीजिए, ऐसा करते हुए कलम से स्याही की बूंदें टपटप भले ही गिर जाएँ पर आँखों से आँसू का एक कतरा भी नहीं झरेगा। इस प्रकार किसी शिष्ट उपन्यासकार, फनकार, नाटककार अथवा सदय न्यायाधीश के अतिरिक्त अन्य कोई मनुष्य इतने भीषण कृत्य इतनी चालाकी तथा इतनी शीघ्रता से भला कैसे कर सकता है-आप ही सोचिए।

मेरा कहना है कि क्या इन तमाम पुलिसों ने, गवाहों ने, आरोपियों ने जान- बूझकर गठबंधन तथा साँठ-गाँठ करके मुझपर इतने सारे मिथ्या आरोप लगाए? नहीं महाराज, नहीं। मैं पुलिस आदि लोगों को उतना ही शरीफ तथा पापभीरु समझता हूँ जितना कि अपने आपको। मैं भी बेकसूर, ये भी बेकसूर। फिर भला यह सारा अजब घपला होने का कारण ही क्या हो सकता है? इसका कारण जिस एक शब्द में कहा जा सकता है और जिस शब्द का उच्चारण करते ही पुलिस ने मेरे विरुद्ध जो जबरदस्त प्रमाण इकट्ठा किया है, उसे न झुठलाते हुए भी मुझे बेगुनाह सिद्ध करने की खूबी आपकी विवेकबुद्धि के हाथ लगेगी। वह शब्द है-गलतफहमी-धारणाओं, विचारों का सरासर घालमेल।

और हुजूर, उसका कारण है मुझमें विद्यमान एकमेव दोष। अल्लाहताला ने मुझे किसी शरीफ, सदय, दूध के धुले न्यायाधीश जैसा शरीरिक डीलडौल, गठन न देते हुए एक खूँखार डाकू सदृश बनावट दी। लेकिन माईबाप, इस दोष के लिए जो कुछ दंड देना हो वह अल्लाह को दिया जाए, न कि मुझे।

क्या कहूँ सरकार ! दुर्भाग्यवश मेरा चेहरा-मोहरा तथा मेरे शरीर का हूबहू बाल-बाल उसी रफीउद्दीन नामक खूँखार, हत्यारे, नृशंस, अधमाधम डाकू जैसा होगा जो पंजाब में डाकाजनी करके काला पानी गया था, वहाँ से फुर्र हो गया था और भागकर बिहार, खानदेश आदि इलाकों में अक्षम्य अत्याचारों का भीषण अंधेरखाता जिसने मचाया था। इसलिए हो सकता है इन सभी सज्जनों ने उसके प्रति सात्विक क्रोध के आवेश में यही सोचा होगा कि मैं ही वह कमीना, मक्कार पापी हूँ।

हुजूर, अपने इस कथन को मैं ठोस प्रमाण द्वारा सिद्ध करना चाहता हूँ। इसलिए वह असली पापी डाकू रफीउद्दीन अहमद जब तक नहीं मिलता तब तक तो मुझे निरपराध समझकर छोड़ दिया जाए अथवा पुलिस उसे गिरफ्तार करे, ताकि उसे देखते ही आपको पता चले कि मेरा कथन हर्फ-ब-हर्फ सही है। माईबाप, आरोपी की स्वरक्षार्थ आवश्यक प्रमाण प्राप्त कराने में जो भी सहायता देना मेरे लिए संभव है, उसे देने के लिए मैं भी जो सहायता माँग रहा हूँ वह देना आपके लिए भी उचित है। मुझे निरपराध समझकर छोड़ दीजिए, फिर मैं उस असली रफीउद्दीन अहमद को पकड़कर लाता हूँ। मुझे जमानत पर छोड़ दिया जाए, बस! यही है मेरा अपनी सफाई का बयान-मेरा defence (पुलिस की ओर देखकर) क्यों भई, सौ सोनार की तो एक लोहार की, है न?"

अदालत में बैठे लोगों की यथासंभव दबी-दबी हँसी जब तक यथासंभव हलकी पड़ी, तब तक न्यायाधीश महाराज भी होंठों से फाउंटेनपेन का पेंदा सटाकर छत की ओर विचारपूर्वक ताकते रहे। फिर उन्होंने पूछा, "रफीउद्दीन उर्फ योगानंद, अब भी मुझे तुमसे कुछ मामूली जानकारी के आखिरी प्रश्न पूछने हैं। उनके सही और सच उत्तर देने में ही तुम्हारा कल्याण है।"

हाथ जोड़कर उस आरोपी ने विनम्रतापूर्वक खड़े होते हुए कहा, "पूछिए सरकार!"

"तुम्हारा असली नाम?"

"योगानंद गोसाईं (गोस्वामी)।"

"तुम्हारा व्यवसाय? तुम क्या करते थे?"

"वैसे व्यवसाय तो कुछ भी नहीं करता था, माईबाप! बस, भगवान् का भजन किया करता था।"

"इन आरोपियों में से कुछ डाकू तुम्हारे चेले ही बने हुए थे, क्या यह सच है?

"यह सच है कि इनमें से कुछ लोग मेरे चेले बन गए थे, पर भला मैं क्या जानूँ कि ये डाकू-चोर हैं या साव?"

"अच्छा, इस हसन भाई को, जिसने तुम्हारे खिलाफ बयान दिया है, जानते ही हो। पर इसके बारे में तुम और क्या जानते हो?"

"इस आदमी को तो मैं जानता हूँ, सरकार ! पर इसके इस नाम को बिलकुल नहीं। दूसरी बात यह है इसे भाँग, गाँजे, चरस की जबरदस्त लत है। जब देखो गाँजे का दम लगाता रहता है ससुरा। उनके नशे में इसे न जाने कैसे-कैसे अजीब अजीब आभास होते हैं। जिस तरह भूत-प्रेतों से डरे हुए व्यक्ति पर उसकी छाप पड़ती है, उसी तरह इस प्रकार के नशे में भी सबको ऐसे आभास होते हैं। परंतु इसकी विशेषता यह है कि उन आभासों की छाप इसके दिलो-दिमाग पर इतनी उत्कटता से पड़ती है कि होश में आने के बाद भी इसकी यही धारणा होती है कि वे सत्य घटना ही थीं, न कि आभास। मेरे संबंध में इसने जो घटनाएँ बताईं वे इसके गाँजा के रंजक तथा भंग के नशे में देखे हुए आभास ही थे। यदि जेल में उसे भाँग, गाँजा, चरस का रंजक नहीं मिलता तो पुलिस उस नशे में कही हुई सारी सच्ची-झूठी बातों को सच समझकर उसे गप्पीदास पुराण कभी नहीं बताती, जो उसने अपने बयान में कहा है।"

"अच्छा! तुम मालती को जानते हो?"

"जी सरकार ! वाह जी वाह ! कैसे पूछ रहे हैं आप कि मैं मालती को जानता हूँ या नहीं। मैं उसे अच्छी तरह से जानता हूँ। इतना ही नहीं, वह मुझे बहुत प्यारी लगती है।"

"मालती को तुमने सबसे पहले कहाँ देखा था?"

"रानी के बाग (विक्टोरिया गार्डन) बंबई में, सरकार! वहाँ सबसे पहले बचपन में मैंने उसे देखा। तभी से वह मेरे दिल में ऐसी रच-बस गई कि उसका कलम लाकर मैंने अपने बगीचे में लगाया। क्या कहूँ हुजूर, मुझे तो जुही-चमेली से भी ज्यादा अच्छी लगती है मालती। भजन के समय मैं मालती के फूलों का हार ही अपने गले में डालता था। क्यों, है न बड़ा प्यारा पेड़?"

न चाहते हुए भी न केवल श्रोताओं के मुख पर अपितु न्यायाधीश के मुख पर भी इस निर्लज्ज, वाहियात आरोपी की इस अप्रत्याशित शब्द-क्रीड़ा से मुसकराहट उभरी। उसे तुरंत दबाकर न्यायाधीश ने प्रश्न किया, "क्या यह सच है कि तुम यह कहकर लोगों की आँखों में धूल झोंकते हो कि तुम्हें भूत-भविष्य-वर्तमान बताने की अंतर्दृष्टि है?"

"महाराज, यह सोलह आने सच है कि भगवत्भजन में तन्मय होते ही मेरे अंत:चक्षुओं के सामने भूत-भविष्य का चलचित्र खड़ा हो जाता है। हाँ, पर यह सफेद झूठ है कि मैं उसका आडंबर बनाकर लोगों को उल्लू बनाता हूँ। मैं कभी किसीसे यह नहीं पूछता कि मेरे भविष्य कथन सत्य सिद्ध होते हैं या झूठ। न मैं किसीसे ज्यादा बातचीत करता, न ही किसीसे एक भी धेला लेता। मैंने लोगों से कभी ठग विद्या नहीं खेली। बल्कि अब इस बात का अहसास हो रहा है कि यदि किसीने छू-छू बनाया है तो मुझ जैसे भोले-भाले अलल बछेड़े को इन लुच्चे-लफंगे लोगों ने ही, क्योंकि संत, साधु, शिष्य बनकर और मेरे इर्दगिर्द इकट्ठा होकर इन बगुलाभगतों ने ही मुझे खबर किए बिना गुरुडम का ढिंढोरा पीटा और न जाने कितने भोले-भाले लोगों को लूटा, तंग किया और ठगा।"

"तुम्हारा अंत:चक्षु क्या आज भी खुला है ? यदि हो तो अभी इसी वक्त मेरे बारे में एक-दो भविष्य-कथन बताओगे?"

"जी हाँ, सरकार ! जिस तरह मेरे बहिर्चक्षुओं को अभी दिखाई देता है, उसी प्रकार कल से आपके भविष्य की दो-तीन बातें मेरे अंत:चक्षुओं के सामने बिलकुल साफ-साफ प्रकट हो गई हैं। मैं भविष्य की उन बातों को बताने ही वाला था, परंतु..."

"परंतु, यदि वे दोनों भविष्य-कथन झूठ सिद्ध हो गए तो..."

"धत तेरे की। फिर तो आप मुझसे तीसरा भविष्य मत पूछिए। किरण खत्म।"

"अच्छा, बताओ तो सही मेरे बारे में। याद रखो, गोल-मोल, संदिग्ध भाषण में नहीं, बिलकुल साफ भाषा में, जिसका अर्थ साफ नजर आए। चलो बताओ।

"बिलकुल साफ, सीधी भाषा में, हुजूर, मैं आपको भविष्य बताता है जो आपके लिए शुभ है-अपनी मौत अपनी ही आँखों से देखने के दुःखद प्रसंग का सामना आपको कभी नहीं करना होगा। दूसरा उतना ही अचूक परंतु मेरे लिए अशुभ भविष्य यह है कि इस अभियोग के निर्णय में आप मुझे निर्दोष सिद्ध करके कभी छोड़ेंगे नहीं। हिम्मत है तो मेरा भविष्य आप झुठलाकर दिखाइए।"

अबकी बार उस बेहया, बेमुरव्वत आरोपी के बनावटी वीर-रस तथा उस कुटिल मुसकान का आविर्भाव देखते ही न्यायालय में कोई भी हँसते-हँसते लोटपोट हुए बिना नहीं रह सका। वे आरोपी भी हँस पड़े जिनके हृदय चिंता और भय के मारे धकधक कर रहे थे। हाँ, जिसके चेहरे पर मुसकान की एक रेखा भी नहीं उभरी वह था सिर्फ किशन..."।

इस अभियोग के आरोपियों के जीवन में यह अंतिम प्रसंग था, जिसमें वे जी भरके हँसे थे। अब हँसते-हँसते किए हुए भीषण पाप-कर्मों का फल भुगतने का समय समीप आ चुका था, क्योंकि न्यायाधीश न्यायदान का उस दिन का कार्य समाप्त करके तुरंत उठ गए और अभियोग की शेष विधि से फारिग होकर उन्होंने घोषणा की-'निर्णय चौथे दिन घोषित किया जाएगा।'

प्रकरण-७

गुलाम हुसैन के शिकंजे में मालती

अखिल भू-तल पर खाल्डियन, ग्रीक, पारसी, यहूदी, ईसाई, मुसलिम प्रभृति जो धर्मक्षेत्र विद्यमान हैं, उनमें अति प्राचीन होते हुए भी अत्याधुनिक काल तक अपने महत्त्व तथा आकर्षण को अक्षुण्ण बनाए रखनेवाले और द्वापर युग की तरह ही आज भी कोटि-कोटि हिंदुओं का ज्ञानतीर्थ बने रहनेवाले श्रीकाशी क्षेत्र के आसपास एक उपवन के एकांत से बहती गंगा के किनारे एक प्राचीन घाट था। आसपास आबादी कहने लायक कुछ भी नहीं था। एक छोटा सा वीरान शिवालय था और उसके निकट बेला तथा चंपा के पौधे, बस इतना ही उस स्थल का खास अलंकार था।

जिस तरह कोई महारानी दिन भर राजसभा स्थित सामंत, नृपतियों, सेनापतियों, प्रधान मंडलों के मान-सम्मानों को राजसी शान से स्वीकारते-स्वीकारते संध्या तक थकी-हारी अपने अंत:पुर में आती है, केश संभार मुक्त करती है, दपदप दमकते अलंकार, जगर-मगर करती वेशभूषा उतारकर बहुत ही साधारण सी घरेलू धोती-चोली पहनती है, फिर एकांत उद्यान में निश्छलता के साथ फुलवारियों में स्वच्छंद विहार करती है, पल में मंचक पर लेटती है, उसी तरह भागीरथी काशी नगरी के सार्वजनिक घाटों पर लाखों भक्तगणों, राजा-महाराजाओं, सैनिकों, पुरोहितों, पंडों के पूजा-पुरस्कारों के टीमटाम, ठाट-बाट को स्वीकारती हुई अब साँझ की वेला में इस एकांत, विजन स्थल पर स्वच्छंदतापूर्वक लहर-लहर बह रही थी। सामने आकाश में शफक फूल रहा था। संध्याकालीन सूरज ने लाल गुलाबी जर्कमुर्क जमुर्रदी रंगों से लबालब पश्चिमी क्षितिज के हौज में से रंगों की बौछार करते, फव्वारे छोड़ते, झिलमिल करते फुहारों से फाग खेलते हुए पश्चिम को सतरंगों से सराबोर किया था।

उस विजन स्थल पर, उस प्राचीन घाट पर, भागीरथी के सलिल संथ प्रवाह में एक ब्राह्मण युवक स्नानविधि के मंत्रोच्चारण करते हुए उस संध्या समय अपना स्नान कर रहा था। स्नान पूर्व ही उसने अपने वस्त्र धोकर उस शिवालय के निकट स्थित चंपा के पेड़ पर सुखाने के लिए डाले थे। स्नान से निवृत्त होते ही गीले अँगोछे के साथ ही उसने सूर्यनारायण को अर्घ्य समर्पित किया। फिर उन अधसखे वस्त्रों को धारण करके कुछ बिल्व दल और चंपा के चार फूल तोड़कर वह शिवालय में गया और उन्हें सद्भाव से शिवलिंग पर चढ़ाकर हाथ जोड़ते हुए मन-ही-मन प्रार्थना करने लगा-'हे ईश्वर, मेरी मूर्खतावश मुझपर थोपे गए दोषारोपणों का निरसन कर उस पिशाच योगानंद के शिकंजे से तुमने मुझे मुक्ति दिलाई। उस पापी के संसर्ग-दोषवश मुझपर थोपे गए डाकेजनी तथा मनुष्य-वध के भयंकर आरोप से न्यायाधीश महाराज ने मुझे निर्दोष घोषित कर मुझे मुक्त किया। यह सब तुम्हारी ही दया का फल है। इन दुष्टों के कारण आई हुई विपदा से मेरे जैसे निरपराध मनुष्य का तो पुनर्जन्म हो गया है। यह तेरी ही दया है, प्रभु, जो तुम्हारी न्यायी वृत्ति लौकिक प्रतिष्ठा रखती है।

परंतु हे ईश्वर, न्यायी दया भी निष्पक्ष ही होनी चाहिए न?' वह तनिक झिझक गया, 'फिर तुम्हें अभी तक उस कन्या पर दया क्यों नहीं आती जो मुझसे भी अधिक निरपराध तथा निष्पाप है? यद्यपि न्यायाधीश ने मुझे उस भयंकर मुकदमे से निर्दोष छोड़ा है, तथापि एक दोष के कारण मेरा कलेजा फट रहा है। जाने-अनजाने में क्यों न हो मैंने अपने इन हाथों से मालती को उसके अपने घर छोड़ने की बजाय किसी अन्य स्थान पर छोड़ दिया। मुझे ज्ञात था, वह उसके घर का पता नहीं है। बेचारी 'मेरे साथ भीतर चलो' कह भी रही थी लेकिन व्यर्थ...। बेपेंदे के लोटे की तरह मूर्खतापूर्ण विश्वास के कारण उसके साथ उस अपरिचित घर में नहीं गया और उस दुष्ट नरपशु के, उस नीच, कमीने गुलाम हुसैन के हाथों उस बेसहारा, लाचार कन्या को सौंपने के दोष में अंशभागी बन गया। मैं बिलकुल अनभिज्ञ था, परंतु उस समय मैंने जिस कार्य को स्वीकार किया था उसमें मेरा कर्तव्य था कि वह बात ज्ञात करूँ जो ज्ञात नहीं है। अपने कर्तव्य के प्रति मैंने ईमानदारी नहीं दिखाई। मेरी यह लापरवाही भी एक दंडनीय अपराध है। सामाजिक अपराध न भी हो, पर नैतिक अपराध अवश्य है।

हे भगवन्, जो अपराध मुझसे नहीं हुए थे उन अपराधों के आरोपों स पहली बार मेरी मन्नत पूरी करके तुमने मुझे मुक्ति दिलाई। अब इस अपराध के दोष से भी मुझे मुक्ति दिलाओगे न प्रभु? मेरी यह दूसरी मन्नत भी पूरी करोगे न दयाधन? उस बेचारी मालती को उस खूँखार नरपश के चंगुल से छुटकारा दिलाने का एक अवसर और सामर्थ्य तो मुझे दिया जाए। परंतु यह तो लगभग असंभव ही प्रतीत होता है। किसीको भी मालूम नहीं कि वह है कहाँ? उसपर मैं कितना दुर्बल, अदना सा तुच्छ इनसान। उस निघरघट, बेमुरव्वत, मक्कार पापी के सशस्त्र कपटाचारों से सर्वथैव अपरिचित। अतः अवसर और शक्ति-प्राप्ति मेरे लिए दुर्घट ही है। फिर भी हे प्रभु, कम-से-कम अपनी न्यायपूर्ण दया का सुदर्शन चक्र तो उसके पीछे-पीछे भेजकर उन दुष्टों का संहार करो, तुम ही उसे मुक्त करो। हे ईश्वर, तुम सर्वसमर्थ हो। सज्जनों के संकटों का तुम निवारण करते हो, इसलिए ही तुम्हें दयासागर कहा जाता है।'

भक्ति-गद्गद वाणी से ईश्वर की प्रार्थना करते-करते इस अंतिम वाक्य के साथ उस युवक का मन भर आया, 'तुम सर्वशक्तिमान हो, सज्जन-रक्षक तथा परम दयाधन हो।' तल्लीन होकर एक-एक शब्द का उच्चारण करते-करते वह हाथ जोड़ते हुए खड़ा हो गया। पल भर के लिए उसका मन बिलकुल निस्तब्ध, निःशब्द हो गया। परंतु उसके उस बहिर्मन की जड़ता और अंतर्मन दोनों में उस विधान पर अनजाने में न जाने क्या चर्चा हो गई, उसकी वह तल्लीन संज्ञाहीनता हलकी होते ही एक स्पष्ट संदेह उसके मन से निकलकर उसे टोकने लगा-

'ईश्वर यदि सज्जनों का संकट मोचन करने योग्य परम दयालु तथा सर्वसमर्थ है भी, तो वह उन निरपराध सुजनों को पहले ही संकट में क्यों ढकेलता है भला? दुर्जनों को इतना बलवान क्यों बनाता है कि वे उन सज्जनों पर असंगत अत्याचार करें, उन्हें शिकंजे में लें? सज्जनों की परीक्षा के लिए? फिर भगवान् सर्वज्ञ, अंतर्यामी कैसे हो सकते हैं ? इस तरह का विधान कि दुष्टों के हाथों से उस भक्त को दारुणिक यंत्रणा, पीड़ा पहुँचाए बिना भगवान् को यह ज्ञात नहीं होता कि यह भक्त खरा है या खोटा, ईश्वर की सर्वज्ञता तथा परम दयालुता को क्या कलंक लगाना ही नहीं है? डाकुओं से गाँव की रक्षा करने की शक्ति होते हुए भी तथा इसका पूर्व ज्ञान होते हुए भी कि डाका डाला जानेवाला है, जो अधिकारी पहले गाँव के निरपराध लोगों को भरपूर लुटवाता है, मारधाड़, आगजनी करने देता है और फिर उनकी आर्त, करुण पुकार तथा मिन्नतों को पूरा करने के लिए उनके लहूलुहान घावों पर मुफ्त मरहम-पट्टी लगवाने की व्यवस्था करता है, भला उस अधिकारी की दयार्द्रता सराहनीय कही जाएगी? क्यों...'

एक के बाद एक उमड़-उमड़कर उछलती आशंकाओं के प्रचंड तथा आकस्मिक सैलाब में उस युवक का दम घुटने लगा और उसने उनका वह रेला बड़े साहस तथा बल से रोककर अपने मन को डूबने से बचा लिया।

'पाखंड! पाखंड!' इस तरह अपने आपसे जोर से कहते हुए वह युवक तेजी के साथ चहलकदमी करने लगा। उसका चित्त तनिक स्थिर होने पर जैसेकि उन संदेह-विचारों से मलिन हुए चित्त को अक्षरशः प्रक्षालनार्थ ही उसने गंगा मैया के उस पवित्र तथा शीतल जल का आचमन किया। विचार-प्रवाह अन्यत्र मोड़ने के लिए वह उसकी शोभा देखने लगा, जहाँ सूरज अपने रंग बिखेरकर पनि संग इंद्रधनुषी फाग खेल रहा था।

उस रक्ताभ, गुलाबी, मखमली, सुनहरी रश्मियों के झकोरे भागीरथी के प्रवाह में नीचे गहराई में प्रतिबिंबित हो रहे थे-लहर-लहर में, नदिया की गहराई में सतरंगो का नर्तन जारी था। उन लहरों के ऊँचाई पर टकराने से उनका सहस्राधिक फुहार उड़ते ही नन्हे-नन्हे इंद्रधनुषों की बौछार ही प्रवाह के जल पर तरंगित हो रही थी।

धीरे-धीरे पश्चिमी क्षितिज पर लाल, गुलाबी, मखमली, सुनहरी, सुरमई सात छटाएँ हलकी, फीकी फिर विरल होती गईं। तेजस्वी राष्ट्रधुरंधर पुरुष के दूर होते ही जिस प्रकार राष्ट्र का जीवन कुम्हला जाता है, उसी तरह रश्मिरथी के अपनी रश्मियों के समूह को नि:शेषता से समेटकर अस्ताचल के पीछे पूर्णतया ओझल होते ही वह गंगा-प्रवाह रंगहीन, निस्तेज तथा मलिन दिखाई देने लगा। किसी सुंदर रमणी की देह से चेतना के निकल जाते ही उसपर तुरंत मुर्दनी छा जाती है, उसी तरह पश्चिम दिशा के मुखमंडल पर तुरंत कृष्ण छाया फैल गई। जो प्रफुल्लित मेघ ताजा गुलाब पुष्पों से भरी चंगेरी सदृश शोभायमान थे, वे कुछ ही क्षणों में सड़ी-गली सूखी पत्तियों की राशि बन गए।

अँधेरे की चपेट में आकर सुहानी सुनहरी पश्चिम दिशा स्याह पड़ते ही उसकी रंग-सज्जा में रँगे उस युवक की आनंदमग्न स्मृतियाँ भी अस्तंगत हो गईं और उसके चित्त में भी दुःखद स्मृतियों का घनघोर अँधेरा छाने लगा। 'एक, दो, तीन, चार। हाँ, चार दिन पहले ही इस समय मैं इलाहाबाद की उस भीषण कालकोठरी में 'कैदे-तनहाई' की सजा भुगत रहा था। उस घुप अँधेरे में, इस दारुण चिंता में टटोल रहा था कि कल क्या होगा। मेरे पैरों की बेड़ियाँ टूट गईं, मैं निर्दोष छूट गया। आज मैं यहाँ इस खुली ताजा हवा में साँस ले रहा हूँ। परंतु मालती! हाय! यह मखमली गुलाबी पश्चिम दिशा जिस तरह अँधेरे के चंगुल में फँसते ही स्याह पड़ गई, उसी प्रकार वह सुंदर किशोरी भी उस खूखार भेड़िए के शिकंजे में फँस जाने से स्याह पड़ गई होगी। अस्त-व्यस्त, उलझे-बिखरे बाल, भयाकुल अवस्था ने जिसकी मुसकराहट की हत्या की है और इसी कारणवश जिसके मुख पर चिंता की मुर्दनी फैली हुई है- ऐसी अवस्था में वह कहीं बेकल-सी पड़ी होगी। इस बात का कुछ अंदाजा भी नहीं लगाया जा सकता कि जालिमों ने उसे कहाँ भगाया होगा?'

वह उठकर घाट पर इधर-उधर चक्कर काटने लगा। पिछले कई दिनों की आदत से महसूस हुआ कि पैरों में अब भी बेड़ियाँ हैं। चलते समय उन्हें समेटने के लिए उसके हाथ कमर के नीचे टटोलने लगे। फिर यह याद करके वह मन-ही-मन मुसकराया कि वह मुक्त है, बेड़ियाँ टूट चुकी हैं, वह जेल की कोठरी में नहीं सड़ रहा है। सुदूर शून्य में ताकते हुए मालती के ठौर-ठिकाने के बारे में तर्क-वितर्क करते, उसके संबंधों में कई कल्पनारम्य प्रसंगों की रचना करते वह कभी चक्कर लगाकर डोलता-फिरता तो कभी रुक जाता।

वह युवक किशन था। योगानंद उर्फ रफीउद्दीन अहमद की डकैती के अभियोग में फँसने से पूर्व न्याय, वेदांत शास्त्रों का अध्ययन करने के लिए वह जब काशी में ही रहता था तब इसी शिवालय में आकर बैठता, उस ईश्वर को ही वह अपना आराध्य देवता समझता। आगे चलकर वह योगानंद के ढोंग-धतूरे का शिकार बन जाने पर जब पकड़ा गया तब बंदीशाला में उसने इसी देवता से अपनी निर्दोष मुक्ति के लिए मन्नत माँगी थी। इस मुकदमे का निर्णय इलाहाबाद की अदालत में चार-पाँच दिन पहले ही घोषित हो चुका था। रफीउद्दीन अहमद को आजन्म काला पानी कारावास और उसके साथियों में से प्रायः सभी को सात से दस वर्ष काला पानी की कड़ी सजाएँ घोषित की गई थीं। मुक्ति सिर्फ दो को मिली थी-एक हसन भाई, जो माफी का गवाह हो गया और दूसरा किशन, जो संपूर्ण निर्दोष सिद्ध हो गया।

उधर से छुटकारा पाते ही वह सीधे काशी आ गया और अपने उस प्रिय विजन शिवालय में ठहरा। उसका अपना घरबार, परिवार कुछ भी शेष नहीं था। उसके छप्पर पर फूस तक न होने के कारण कोई उसे पूछता तक नहीं था। वह देखने में कुछ बदसूरत था, अत: कभी किसीका मन उसमें नहीं उलझा था। मथुरा में जब वह था तब मालती को लिवाने और फिर घर तक छोड़ने के लिए बावन गज का वह शोहदा रफीउद्दीन उर्फ योगानंद किशन को ही उसके साथ भेजा करता था। उसका चुनाव वह उसके अन्य किसी गुणों के कारण नहीं, उसकी थोड़ी सी बदसूरती के दुर्गुण के कारण ही करता। कम-से-कम इस दृष्टि से तो उसकी कुरूपता का उसपर उपकार ही हुआ था, क्योंकि उसीके कारण मालती से उसका परिचय हो गया था और उस परिचय में उसे जीवन में वह पहला व्यक्ति मिला जिसने उससे प्रेम तथा सहानुभूति से बात की, उसे भला कहा। मालती तथा उसकी माँ किशन की सुशीलता की भूरि-भूरि प्रशंसा किया करतीं। उनसे दो-चार बार जो मुलाकातें हुईं उनसे किशन ने सोचा, वाकई दोनों उससे स्नेह करती हैं। तब तक पूरे जीवन में उसे किसीने पूछा तक नहीं था। इसीलिए हो सकता है, मालती और उसकी माँ के सीधे-सादे दो मीठे बोल उसे विशेष ममता के द्योतक प्रतीत हुए हों। हाँ, उसके मन में उन दोनों माँ-बेटी के प्रति स्नेह-भावना अवश्य अंकुरित हुई थी, और पूरे जीवन में मिली इसी ममता से उसे इस प्रकार वंचित होना पड़ा। उसीकी छोटी सी कारण उन दोनों पर इस प्रकार संकटों का पहाड़ टूट पड़ा जिसमें उनका विनाश हो सकता है। यह बात उसे निरंतर शूल की तरह चुभने लगी। मालती सहज तथा मधुर स्वर में जिस प्रकार उसे पुकारा करती थी, उस प्रकार जीवन में उसे किसी पुकारा था।

'मालती, फिर एक बार उसी तरह मुझे मधुर आवाज दो न, किशऽऽन।' उसने अपने आपसे मालती सदृश मधुर स्वर में हाँक मारने का प्रयास किया। फिर से एक बार तनिक विसंगत विचारों के प्रवाह में वह शिवालय में आ गया-उधर भी चहलकदमी करता रहा और फिर अपने आपसे ऊँचे स्वर में कहने लगा-

'नहीं! बड़े-बड़े पुलिस अफसरों को इस नीच, कमीने गुलाम हुसैन का ठौर-ठिकाना नहीं मिल सका, फिर भला मुझे कहाँ से मिलेगा? और मिलने पर भी मैं लाचार, अकेला उस चांडाल-चौकड़ी के हाथों से मालती को छुटकारा कैसे दिलाऊँगा? असंभव, असंभव। यदि संभव है तो हे भगवन्, सिर्फ तुम्हारे लिए ही, तुम ही अनहोनी को होनी में बदल सकते हो, प्रभु! दिला दो न उसे मुक्ति, मुझसे मिलवा दो न उसे। तुम्हारी इच्छा मुझ जैसा पापी भला कैसे जान सकता है? मैं उसके बारे में पूछूँगा भी नहीं। परंतु अपनी इच्छा मैं जानता हूँ। उसे कहे बिना मुझसे रहा नहीं जाता। मुझे मालती से मिलवाओ न, प्रभु!'

उसने भगवान् को साष्टांग प्रणाम किया। आँखों से सावन-भादों की झड़ी लगी हुई थी। झरझर बह रहे आँसू उसने पोंछ डाले। निष्फल विचार करते-करते थका-हारा दिमाग संज्ञाविहीन हो गया। आंतरिक विचार कुंठित होने पर वह बेल के तने से पीठ टिकाकर बैठ गया। बिछुड़े हुए दो-चार पंछी तेजी से उड़ रहे थे। गहरी शाम में जब तक मनुष्य मनुष्य को देख सकता तब तक जल्दी-जल्दी अपने नीड़ तक वे पहुँचना चाहते थे। वह युवक उन्हें देखकर अपना मन बहलाने लगा।

इतने में उसे इस बात का अहसास हुआ कि निकट ही उस घाट की सीढ़ियों की ओर से कोई सीटी बजा रहा है। उसने मुड़कर देखा तो सीढ़ी पर औंधा मुँह करके कोई झाँकता हुआ उसे धुंधला सा दिखाई दिया। इतने में पानी भरने के लिए गागर डुबोने की डब-डब आवाज भी सुनाई दी।

'इतनी गहरी शाम को पानी भरने के लिए गंगा पर कौन आया होगा? इधर मनुष्य की बहुत ही कम आवाजाही होती है। उसपर यह पनघट तो है ही नहीं। इस समय पानी की गगरी भरनेवाला व्यक्ति कहीं आसपास ही ठहरा होगा। होगा बेचारा कोई राहगीर।' मन-ही-मन सोचते हुए किशन उस व्यक्ति की धुंधली सी आकृति को सहज भाव से देखने लगा जो पानी भरकर उठ रहा था। गागर कंधे पर उठाकर सीटी बजाता हुआ वह व्यक्ति दूसरी तरफ आए हुए रास्ते से न जाते हुए मंदिर के निकटवाली राह से जैसे-जैसे निकट आता गया वैसे-वैसे किशन भी मन-ही-मन अधिकाधिक चौंकता गया और चौकन्ना होकर गौर से देखने लगा-वह बेल की ओट में छिपता गया और वह आदमी जो सिर्फ दिल बहलाने के लिए सीटी बजाते गागर ले जा रहा था, उसके मंदिर के निकट से पगडंडी पर अपनी धुन में आगे बढ़ते ही किशन तीव्र संताप, भय तथा आनंदावेश में बड़बड़ाया, 'हाँ, हाँ, यही है वह। सोलह आने यही है वह गुलाम हुसैन। अभियोग में हसन भाई कथित कहानी यदि सत्य है तो मालती का अपहरण करने का काम इसीका है। परंतु इसने उसे बलूचिस्तान के दूर-दराज इलाके में रवाना तो नहीं किया? या उसे बेच डाला? या अपने पास ही रखा? यह यहाँ क्या कर रहा है? परंतु वह उसीके पास हो तो? उसका दर्शन होगा मुझे? कम-से-कम एक बार मालती फिर से दिखेगी? अरे, यह अँधेरे में जाने लगा और मैं मूरख यहीं पर क्यों रुका हुआ हूँ? यह मन कितना कायर है ! कहता है, अपने हाथ में कुछ भी नहीं; और यह तो भेड़िया जैसा क्रूर, नृशंस है ही, इसके पास हथियार भी होंगे ही। अति विचार से इस तरह इनसान कापुरुष बन जाता है। इसके पीछे-पीछे अवश्य जाऊँगा। मालती को भी इसने यहीं कहीं छिपाया होगा तो? कैसा संयोग? जान लूँगा। अपने प्राणों की बाजी लगाऊँगा, पर उसे छुड़ाऊँगा।'

इस अंतिम विचार से उसमें गजराज की शक्ति तथा वनराज का साहस आ गया। उसे इस बात का आभास हुआ कि 'किशन, मुझे मुक्त करो', इस तरह मालती की आर्त चीख-पुकार उसे सुनाई दे रही है।

किशन तुरंत डग भरते हुए उस व्यक्ति के पीछे-पीछे लग गया, जो पानी लेकर जा रहा था। किशन जब उसके इतने निकट आया कि उसका रास्ता दिख सके तब वह दबे पाँव चलने लगा। अब किशन को संदेह की कोई गुंजाइश ही नहीं रही कि आगे जा रहा आदमी गुलाम हुसैन ही है। गुलाम हुसैन तनिक आगे जाते ही पगडंडी से हटकर एक बंजर मैदान की ओर मुड़ गया। आगे एक टूटी-फूटी बड़े से पथरीले चबूतरे जैसी ऊँचाई पर अलग छिपने लायक जगह थी, उसके चक्कर लगाकर वह बिना गारे के, सिर्फ एक के ऊपर एक पत्थर रखकर रची हुई पत्थरों की बाढ़ जैसी दीवार के पास आ गया। फिर उस मेंड़ पर गागर रखकर उस बाँध पर से अंदर कूदकर और वह गागर पुनः कंधे पर रखकर बड़े से एक बरगद के तने की ओट में छिपे हुए एक खपरैलवाले घर के द्वार पर आ गया। किशन उसके पीछे- पीछे सुरक्षित फासला रखकर आ रहा था। अब तक वह उस पत्थर की दीवार तक पहुँच चुका था। वह आँखें फाड़-फाड़कर यह देख रहा था कि उस घर के अंदर से कोई द्वार खोलकर सामने तो नहीं आ रहा। घर से हिलती-डोलती रोशनी देखते ही उसके मन में एकदम यह विचार कौंधा कि अवश्य घर में कोई है। क्या वह मालती तो नहीं होगी? उत्सुकतावश उसका दिल धौंकनी के समान धड़कने लगा। परंतु गुलाम हुसैन के गागर नीचे रखकर कमर से कुछ निकालकर उस बंद ऊपरी चौखट के पास हाथ रखते ही किशन समझ गया कि दरवाजे को बाहर से ताला लगा है। इससे यह जानकर कि भीतर कोई नहीं, उसका दिल खट्टा को उसका जी इसीलिए छटपटाने लगा कि मालती हाथ लगते-लगते जैसे फिर अदृश्य हो गई। इतने में गुलाम हुसैन ने ताला खोलकर दरवाजा पूरा खोल दिया और वह तनिक घुड़की भरे स्वर में गुर्राया, "रोशन, अरी ओ रोशन, बत्ती बाहर ले आओ। बाहर क्यों नहीं आ रही? झोंटा पकड़कर घसीटकर ले आऊँ?"

यह सुनते ही किशन का पूरा बदन थर्रा उठा। उसका दिल उछला। हाँ भीतर कोई स्त्री है। उसे अंदर कड़े पहरे में बंद किया होगा। बाहर जाना हो तो यह राक्षस उसे अंदर ही बंद करके ताला लगाकर जाता है। वह इसकी बात दिल से नहीं मानती। यह उसे वक्त आने पर घसीटकर लाने में भी नहीं हिचकिचाता। उस एक छोटे से वाक्य से किशन को इतनी विस्तृत जानकारी मिल गई। उसकी अपेक्षा के साथ वह सौ फीसदी तालमेल खा रही थी। वह होंठों-ही-होंठों में बड़बड़ाया, 'हाँ। अवश्य यह मालती होगी। यह रोशन ही मालती है। क्या वह दिया लेकर बाहर निकलेगी?'

संचित जिज्ञासावश उसके दिल में धुकधुकी होने लगी। क्रोध के मारे होंठ फड़फड़ाने लगे। यह देखते ही कि दिया दरवाजे के पास आ रहा है, वह उस पत्थर की दीवार की ओट में अँधेरे में छिपकर गौर से देखने लगा।

धुँधुआती हुई आग जिस प्रकार ढकोसने से बस उतनी देर तक फिर धधकने लगती है, उसकी लौ तनिक लपलपाती है, उसी प्रकार गुलाम हुसैन के आती है या नहीं? इधर और आगे।' इस प्रकार घुड़की भरे शब्दों तक ही हठीले कदम बढ़ाती हुई फिर अड़ियल बनकर रुकती हुई हाथ में दीपक लेकर मुसलिम वेश धारण की हुई एक युवती आखिर बाहर आई। वह दीपक गुलाम हुसैन के दिखाए हुए हुक पर उसने लटकाया और फिर भीतर जाने लगी, इतने में गुलाम हुसैन ने उसे पकड़ लिया। पास ही वृक्ष का एक बड़ा सा ठूँठ पड़ा था। उसपर वह टाँगें लटकाकर इस तरह बैठा जैसे कुरसी पर बैठा है और जबरदस्ती युवती को अपनी गोद में खींचत हुए उसने कहा, "आ जाओ, मेरी जान ! तुम चाहे हँसो या रोओ, पर मैं अब तेरे सा प्रेम का मजा लूटूँगा-ही- लूटूँगा। जरा देखूँ तो यह चाँद सा मुखड़ा। नहीं उठाएगी मुँह ऊपर? तो मैं ऐसे जबरदस्ती उसे ऊपर उठाऊँगा और अपनी आँखी से तेरी खूबसूरती की शराब पिऊँगा।"

इस तरह प्यार में मनुहार करते हुए उसने उस रमणी का मुखमंडल बलात् ऊपर उठाकर दोनों हाथों से उसे दीपक की रोशनी में पकड़ा। जी भरके नेत्रों से वह उसकी सुंदरता का मदिरा-पान करने लगा। उसपर उसका नशा सा छाने लगा। झूमते हुए वह उसके मुख के चुंबन लेते हुए बोला, "आहा! इस अँधेरी रात में यह नया चाँद निकला। ऐ रोशन, क्या बोलती थी तुझे तेरी अम्मा? मालती? ऐ मालती, मेरी जान!"

मालती का मुखमंडल उस घनी अँधेरी रात में गुलाम हुसैन को वैसा ही सुंदर प्रतीत हुआ, जैसे कोई नया चंद्रमा उदित हुआ हो। यह देखते ही वह कृष्ण रजनी किशन को अधिकाधिक काली-कलूटी प्रतिभासित होने लगी। दीपक की रोशनी में उठाया हुआ उसका मुखमंडल साफ-साफ नजर आते ही किशन को निस्संदेह रूप से ज्ञात हुआ कि वह मालती ही है। जिस मालती को एक स्वर्ण की थाली में सजाकर रखी पूजा की शुभ्रधवल पवित्र पुष्पमाला सदृश उसने मथुरा में देखा था, उसे ही उस विरूप तथा उजड्ड धोकड़े, नीच, मुस्टंडे की गोद पर गँदले कीचड़ से लथपथ निर्माल्यवत् अत्यधिक घिनौनी दुर्दशा में देखकर उसकी आँखों के सामने अँधेरा छा गया।

"मालती, मेरी चश्मे-बुलबुल! तुम मेरी जबान नहीं समझती? ठीक! मैं ही तेरी टूटी-फूटी मेरठी में बात करता हूँ। सुन, तुम ऐसी उदास क्यों हो? क्या तुम्हें अपनी अम्मा की याद आती है? इसलिए तुम अभी तक धींगामुश्ती करती हो, मुझे दुत्कारती हो? हर रोज मैं तुम्हें अपने बिस्तर पर लेता ही हूँ। फिर जबरदस्ती जो तुमसे मैं छीन लेता हूँ वह सुख तुम मुझे राजी-खुशी क्यों नहीं देती? तेरी अम्मा को तेरे पास लाकर रखूँ? बोल। तेरी अम्मा को भगाकर यहाँ ले आता हूँ। फिर तू खुशी से हँसते-हँसते सोएगी न मेरे बिस्तर पर? तेरी अम्मा...।"

"कलमुँहे, नाम मत लाना मेरी माँ का अपनी गंदी जबान पर। आग लगे तेरे मुँह को।" उसके हाथों से ऊपर उठाया हुआ और अब क्रोधवश रुआँसा बना अपना मुख एक झटके के साथ छुड़ाने के लिए मालती ने अपना सिर खट से घुमाया। उसके सिर का एक जोरदार आघात गुलाम हुसैन की ठोड़ी पर पड़ा और उसकी दंतपंक्तियाँ एक-दूसरी पर दरक गईं और उसके मस्तिष्क में झमझमाकर एक तीव्र टीस उठ गई। उस चोट से आग-भभूका होकर उसने मालती के कोमल गाल पर एक करारा चाँटा रसीद किया? फिर उसे ढकेला और जमीन पर पटक दिया।

"राक्षस! नीच! साले का अभी तसमा खींचता हूँ।'' इस प्रकार बड़बड़ाते हुए दया और आवेश में किशन एकदम दीवार पर चढ़ने लगा। "या तो तेरी जान लेता हूँ या अपनी जान दे देता हूँ।" इस सनक के साथ उसने दीवार पर जो अपना एक पैर गाड़ दिया, इतने में नीचे का पत्थर खिसक गया और पत्थर की दराने पैर फँस गया। उसके साथ उसका आवेश, उसकी सनक ठंडी पड गई।पैर को छुड़ाते हुए अन्य विचार तुरंत उसके मन से कहने लगा, 'इस प्रकार की टक्कर में इस विकल्प की अपेक्षा कि गुलाम हुसैन की जान लेता हूँ अन्यथा अपनी जान देता हूँ यही विकल्प सफल होना अधिक संभव है। यह कमीना हुसैन हथियारबंद तो अवश्य होगा। मैं ठहरा निहत्था। इस छीना-झपटी में 'ठोकर लगी पहाड़ की, तोड़े तो घर की सिल' इस न्याय से वह मेरा गुस्सा मालती पर उतारकर उसकी जान तो नहीं ले लेगा? उसपर ऐसा भी नहीं कि इस घर में उसका और भी कोई साथीदार न हो। इस प्रकार के निर्लज्ज अधर्मों का श्रृंगार भी कई बार साझे का होता है। उसके साथी हसन भाई ने शपथ लेकर इस बात को उजागर किया था। नहीं, अभी इस तरह सहसा साहस करना उस अद्भुत संयोग का सुवर्णावसर खो देना है, जो मालती को मुक्ति दिलाने के लिए मुझे मिला है।'

ऊपर का पैर पत्थरों की पकड़ से छुड़ाने के बाद किशन अँधेरे में फिर से अलक्षित रूप में छिपने के लिए उतावला हो गया। एक तरफ वह फिर दीवार की ओट में दबकर देखने लगा कि अब क्या होता है तो दूसरी ओर उसके मन में 'अब मैं करूँ तो क्या करूँ' इससे संबंधित उलटे-सीधे भागते विचारों की कशमकश चल रही थी।

उधर मालती धड़ाम से धरती पर लुढ़क गई। बेचारी रोती-सिसकती हाथ सिरहाने रखकर यूँ ही पड़ी रही। गुलाम हुसैन सीना तानकर खड़ा हुआ लार टपकाता उसे जी भरकर देख रहा था और फिर वह कुछ अधिक ही आतुरता से मुसकराया।

"वाह री सुंदरता ! ऐ छोकरी, किसी संगमरमरी मूर्ति जैसा तराशा हुआ साँचे में ढला तेरा यह डील-डौल ! हाय! कितना प्यारा, सुंदर लगता है, जैसे माथा चाँद, ठोड़ी तारा। तुम खड़ी रहती हो, उससे भी अधिक जब तुम अपनी ये लंबी-लंबी हसीन टाँगें करवट पर लंबी तानकर लेटती हो न तब तुम्हारी यह तनुलता एक अनूठी शोभा से मन को लुभाती है। सैकड़ों औरतों के खिलखिलाकर हँसने पर भी उतना मजा नहीं आता जितना तुम्हें इस प्रकार रोती-सिसकती करवट पर पूरा बदन ढककर लेटती हुई देखकर मुझे आ रहा है। तेरा यह सिसकता सीना कैसे ऊपर-नीचे हो रहा है, बिखरी हुई घुँघराली लटें किस तरह परिंदों के झुंड जैसी तुम्हारे माथ पर खिली-खिली लहरा रही हैं। उठो, मेरी बुलबुल! अब यह नाजो-नखरा छोड़ दो। मैं तुम्हें क्या ऐसे ही छोड़ दूँगा कि तुम मुझे दुत्कारती रहो। मेरी जान, सुनो, गाय! जो खूब दूध देती है, वही गाय जब हठ पकड़कर अड़ियल-सी बैठ जाती है बिगडकर लातें मारने लगती है, तब उसे बहल्ली देकर (कुश्ती का एक दाँव-पेंच), उसकी टाँगें बाँधकर उसे जबरदस्ती खड़ी कर ग्वाला उसे दुहता है। गाय लतही है, इसलिए जो ग्वाला उसके कुंभ सदृश अयनों को दुहने का विचार त्याग देता है वह उस बेमुरव्वत गाय को पालता ही किसलिए है ? उठो जानेमन, उठो, तेरी जवानी की खूबसूरत गाय मैं दुह के ही रहूँगा।"

गुलाम हुसैन ने स्वयं नीचे बैठकर पुनः उसे जबरदस्ती उठाया और अपने पास खींचकर सहलाने लगा।

"प्यारी मालो, तू इसलिए फूलकर कुप्पा हो गई है कि मैं तुझे दिन भर ताले में बंद रखता हूँ। तेरा अता-पता न लगे, तुझे पकड़कर ले गए तो पुलिस मुझसे भी मारपीट करेगी। किसी दूसरे दरिंदे के पिजड़े में यह नाजुक परिंदा फँस जाएगा। तुम्हारी इन नाजो-अदाओं के पर वे काट देंगे। सुन री मेरी प्यारी मैना, चश्मे बुलबुल, तेरे ये सारे नाजो-नखरे एक मैं ही उठाता हूँ। ऐ मेरे राजदुलारे प्यारे मेमने, मैं तुम्हें इस मवेशीखाने में इसलिए बंद करके जाता हूँ कि कोई भेड़िया तुम्हारी दुर्गति न बनाए। लेकिन सब्र करो प्यारी, अब दो-चार दिनों में ही तुम्हें मैं एकदम इतनी दूर और ऐसे जंगल में ले जाऊँगा जहाँ कोई परिंदा भी पर नहीं मार सकेगा। उधर यहाँ की पुलिस का बाप भी सुराग नहीं पा सकेगा। वह हरामी रफीउद्दीन तो अब सड़ रहा है काले पानी में। आजन्म कारावास, कैदे-हयात। उस पूरे मुकदमे का फैसला हो चुका है। अब पुलिस हमें भी अपने आप भूल जाएगी। उसपर अब मुझे ठीहा भी इतने रमणीय जंगल में मिला है कि जहाँ तुम खुले आम आराम से रह सकोगी। डाके में कमाए हुए ये दो रत्नहार, यह सोना-जेवर और मेरी प्यारी जान, तू! बस! भोग ही-भोग। जिंदगी भर गुलछर्रे उड़ाऊँगा, घोड़े बेचकर सोऊँगा। तुम सब मेरे लिए काफी से भी ज्यादा हो। आज तक काफी धन-दौलत की कमाई की। अब ठाठ से चैन की बंसी बजाऊँगा। भरपूर कमाई का जी भरके भोग। प्यारी बुलबुल, तनिक मुसकराओ तो मेरी जान! अरे हँसो, हँसो!" यह कहकर वह उसे गुदगुदाने लगा।

मालती को ये गुदगुदियाँ भालू की जानलेवा गुदगुदियों सदृश प्रतीत हुईं। वह मुसकराई, लेकिन आकुलित होकर। परंतु इन गुदगुदियों से किशन को असली गुदगुदियाँ हो गईं और वह मुसकराया, निहायत संतोष के साथ। गुलाम हुसैन के मुख से पुलिस का नाम निकलते ही उसे एकदम जैसे एक गुर मिल गया।

ऐसा लगा, अँधेरे में एक हैंड-बैटरी अचानक मिल गई। उस बैटरी का स्विच, जो उसके मन में था, दबाते ही भावी उपाय की राह लकालक दिखाई दी।

बस। हलवाई की दुकान, दादा का फातेहा। अभी इसी वक्त पुलिस थाने जाकर गुप-चुप यह खबर दे दी जाए। अठारह साल से कम उम्र की एक नाबालिग कुँवारी लड़की का अपहरण-यह गुलाम हुसैन का एक संवैधानिक घोर अपराध है, न कि मालती का। उसपर गुलाम हुसैन पर डकैती के वॉरंट भी जरूरी होंगे। मुकदमे का वह एक फरार गुनहगार है। अब बच्चू फाँसी के फंदे पर झूलेगा और मालती पुनः अपने उस मथुरा स्थित आनंद के हिंडोले पर। वैसी ही उन सभी ओवियों को अलापती हुई उमंग, हर्षोल्लास के आकाश में किसी सुंदर गीत-पखेरू की तरह उड़ने के लिए लालायित पुनः झूलेगी। अहो आनंद! उसकी वह प्यारी- प्यारी 'किशऽऽऽन' जैसी लाड़ भरी, मधुर पुकार उसे फिर से सुनाई दी।

हर्षावेग में यह खबर पुलिस को देने के लिए किशन छिप-छिपकर दीवार की ओट से इतना दबे पाँव रास्ते की ओर जाने लगा कि किसीको उसकी आहट तक न लगे। इतने में उसने एक हृदय विदारक चीख मारी, वह 'हाय! हाय' कर कराहने लगा।

'भों! भों! गुर्रर्र गुर्रर्र !' करते हुए एक महाकाय कराल कुत्ता किशन की पिंडली को नोच-खसोट रहा था। वह गुलाम हुसैन का ही पालतू शिकारी कुत्ता था।

दीवार के भीतर कहीं टहलते-टहलते कुछ आहट पाकर वह दीवार पर चढ़ आया था और किशन की चोरों जैसी गतिविधियों को देखते ही उस खूँखार कुत्ते ने एक ही छलाँग में झपट्टा मारकर उसकी पिंडली को जोर से काटा था। अँधेरे में अनजाने इस प्रकार काटने की असहनीय पीड़ा से किशन जोर से चीखा, फिर भी वह कुत्ता पिंडली नहीं छोड़ रहा था बल्कि अधिकाधिक आवेश से उसे लगातार भँभोड़ता रहा।

दीवार के पास किसीकी जोरदार चीख सुनकर कामातुर गुलाम हुसैन भी चौंक पड़ा। अवश्य अपने उस ऊधमी, फसादी, झगड़ालू कुत्ते ने अँधेरे में किसी राहगीर को चित किया होगा। इस बस्ती में चोरी-छिपे रहते हुए वह किसी प्रकार का हो-हल्ला नहीं चाहता था। अतः यह मामला झटपट साम-दाम से रफा-दफा करने के लिए वह लालटेन के साथ बाहर निकला। उसने मालती को भीतर जाने का आदेश दिया और भागते-भागते उस दीवार के पास आ गया। तब तक किशन ने दीवार का एक पत्थर निकालकर उस कुत्ते के सिर पर मारा था और वह उसकी पिंडली छोड़कर बिलबिलाता-किकियाता हुआ तनिक हटकर, पर फिर से आवेशपूर्ण आक्रमण करने के लिए जूझ रहा था।

किशन की पिंडली से खून की धारा बह रही थी। दर्द के मारे उसका बुरा हाल था। हिलने-डुलने की तो गुंजाइश ही नहीं थी। गुलाम हुसैन के पास आते ही उसने बहाना किया, "इस घने अँधेरे में यहाँ रोशनी देखकर मैं एक रात के लिए आसरा माँगने आया, तभी तुम्हारे इस पागल कुत्ते ने मेरी जान ले ली। ओह ! ओ!"

"चुप रहो, इतना गला फाड़कर चिल्ला क्यों रहे हो?" गुलाम हुसैन इस बला से जान छुड़ाने के लिए उसे समझाने लगा, "वैसे इस पागल कुत्ते को मैंने नहीं पाला। तनिक ठहरो, तुम्हारे जख्म पर पट्टी बाँधता हूँ। मेरे घर के पास सो जाओ और फिर पौ फटते ही अपनी राह पकड़ो या अस्पताल में जाओ।" गुलाम हुसैन को इस झंझट को रफा-दफा करने की यही तरकीब सबसे अधिक ठीक लगी।

बड़ी मुश्किल से गुलाम हुसैन ने किशन को सहारा देकर दीवार पार कराई और आँगन में ले गया जहाँ लालटेन की फीकी सी रोशनी टिमटिमा रही थी। पानी से उसका घाव धो-पोंछकर उसने नित्य नियम की रामबाण औषधियाँ उसपर लगाईं जिससे खून बहना रुक गया, पट्टी बाँधी और फिर किशन को लकड़ी के उस ठूँठ पर गलतकिया जैसे बैठाकर लालटेन को उस हुक में टाँग दिया।

जब तक लालटेन नीचे रखी थी तब तक दवा-दारू की जुगत में गुलाम हुसैन का ध्यान उस राही के पैर की ओर था क्योंकि उसे किसी भी छल-कपट का संदेह नहीं हुआ था। उसपर उसने किशन को मथुरा में जो देखा था वह योगानंदी संप्रदाय के गोसाईं के वेश में, जबकि आज किशन का वेश किसी कंगाल खानाबदोश जैसा था। इसी वजह से उसके लिए उसे पहचानना मुश्किल था। लालटेन ऊपर टाँगने के पश्चात कंदे के पास थके-हारे बैठे किशन के चेहरे पर साफ रोशनी पड़ गई।

इतनी देर तक घर में बैठी रहने पर भी मालती उस राही की सारी गतिविधियाँ देख रही थी। उसके मन में दसों बार यही एक संदेह उभरा कि यह बटोही कौन हो सकता है। लालटेन की रोशनी में किशन का चेहरा साफ-साफ निहारने के बाद मालती का संदेह ठोस निश्चय में बदल गया। 'किशऽऽन' मालती के होंठों-ही होंठों पर यह आवाज भी थरथराई। उसे कुछ भी मालूम नहीं था कि मथुरा में देखने के बाद उसका क्या हाल होगा। उसे पहचानते ही यह विचार पहले ही झटके में उसके मन में कौंधा, जरूर इसे उसकी अम्मा की खबर होगी। परंतु परपुरुष के साथ योगानंद, गुलाम हुसैन आदि की चांडाल चौकड़ी ने उसका अपहरण किया, उनके अधम अपराध की जानकारी होने की उत्कट संभावना है और जिसका उसके साथ भाईचारे का संबंध है, प्रकट रूप में बतियाते देखकर गुलाम हुसैन उसका ही नहीं अपितु किशन का भी घात-पात किए बिना नहीं रहेगा। इस भय से मालती का जी लरज उठा। वह बौखला गई। लेकिन जिज्ञासावश तुरंत प्रकटतः न सही, पर उसी समय उसने ठान लिया कि इस राक्षस के सोने के बाद किशन से अकेले में जरूर मिलूँगी। आँखों से झरझर आँसू बहाती वह किशन की ओर टुकुर-टुकुर देखती रही। इतने में उस खिड़की की ओर गुलाम हुसैन की निगाहें उठते ही मालती पीछे हट गई और अपने आपसे पूछने लगी, 'हे भगवान् ! यह राक्षस अचानक आग का पुतला क्यों हो गया? मुए को कुछ संदेह तो नहीं हुआ?'

खिड़की से परे हटकर वह दरवाजे की दरार से झाँकने द्वार के पास आई। इतने में बाहर गुलाम हुसैन के किसीपर बरस पड़ने की, उस कराल कुत्ते से भी अधिक पागल क्रूरता के साथ भौंकने की आवाज सुनाई दी।

क्योंकि किशन थकावट से आँखें बंद कर उस ठूँठ से पीठ टिकाकर बैठा था, उसके निश्चल मुख पर उस लालटेन की रोशनी पड़ते ही गुलाम हुसैन के मन में भी वही संदेह उभरा जो मालती के मन में उभरा था। उसपर मालती, जो खिड़की से किशन की ओर लुब्ध दृष्टि से ताक रही थी, उससे तो उसका संदेह सौ गुना दृढ़ हो गया। इतने में उसे तुरंत ठोस निर्णय की युक्ति सूझी। उस घायल आदमी को, जो बेखबर तथा अर्धमूर्च्छित अवस्था में लेटा हुआ था, गुलाम हुसैन ने जान-बूझकर संदेहपूर्ण नाम से आवाज दी, "किशन, ओ किशन!"

किशन चौंककर जग गया और इससे पहले कि वह सतर्कता से सोचता कि अपने नाम की पहचान नहीं देनी है, उसने उत्तर दिया, "हाँ जी! हाँ जी!"

"अरे हरामखोर! पाजी ! कैसे पकड़ लिया तुझे। छद्मवेष में चोरी-छिपे टोह लेने आया था न? बोल किशन, बोल?" मुट्ठी कसते हुए क्रोध से लरजती, दरकती फटी आवाज में गुलाम हुसैन चीखा, "बोल, मालती की टोह लेते-लेते यहाँ तक आया है न? तुम और वह पाजी हसन भाई विश्वासघात करके सरकारी गवाह बन गए थे। अब मेरा गला फँसाना चाहता है ? काफिर, बेईमान!"

"बेईमान तेरा बाप और तू ! तेरा क्या ईमान?'' किशन आवेश में उठकर खड़ा हो गया।

"छुरा घोंपकर अब तेरा पेट फाड़ता हूँ, ठहर। मेरा छुरा-छुरा..." उस ठूँठ पर गुलाम हुसैन ने देखा। वहाँ पर छुरा नहीं था। फिर उसे स्मरण हुआ, छुरा घर में खाट पर रखा है।

भीतर दरवाजे के पास खड़ी मालती को भी तुरंत इसी बात का स्मरण हुआ। उसने झट से खाट से छुरा उठाकर अपने वस्त्रों में कमर के पास उसे छिपाया और वह एक कोने में जाकर खड़ी हो गई। इसी छुरे को भोंककर मालती के रूबरू गुलाम हुसैन ने अपने एक बिगड़ैल साथी की मथुरा से भागते समय हत्या की थी। अब इस भय के मारे कि किशन की भी मौत आई है, वह बेंत की तरह थरथर काँपने लगी। क्रोध से उसपर जैसे उन्माद चढ़ने लगा।

इतने में छुरा लेने गुलाम हुसैन धड़ल्ले के साथ दरवाजा खोलकर भीतर घुस गया। पीछे-पीछे आवेश तथा जोश से तमतमाया हुआ किशन भी अंदर घुसा और गुलाम हुसैन की कमर को दृढ़तापूर्वक पकड़कर उससे उलझते हुए गुलाम हुसैन समेत खाट पर गिर पड़ा। सिर कटा हुआ कबंध भी रणावेश से थोड़ी देर तक रणभूमि में जूझता रहता है। किशन को अपने घायल पैर का भी होश नहीं था।

मालती भी उस प्राणघातक संकट में विवेकहीन हो गई थी। उसे भी होश नहीं था। किशन के गले को गुलाम और गुलाम के गले को किशन पकड़ते-छुड़ाते हुए दोनों के खाट पर गिरते ही गुलाम हुसैन दहाड़ा, "अरे ले आओ। ले आओ मालती, वह छुरा लाओ।" उसके साथ ही मालती छुरा लेकर भागी भी। लेकिन उस बेहोश अवस्था में भी एक दृढ़ आशंका उसके मन में आई कि इतने छोटे छुरे से यह इतना हट्टा-कट्टा, मोटा-ताजा इनसान कैसे मरेगा? वह यकायक ठिठक गई।

'कैसे क्या? अरी कायर छोकरी, तेरी आँखों के सामने ही उस साथी का प्राण इसी छुरे से भोंककर बाहर निकाला था न इसी गुलाम हुसैन ने?' उसीके दिल ने उसे फटकारा।

"लाओ, छुरा लाओ।" गुलाम हुसैन ने उस गुत्थम-गुत्थी से एक हाथ छुड़ाते और ऊँचा उठाते हुए चिल्लाकर कहा।

"ले हरामजादे, ले यह छुरा।" दाँत किटकिटाकर चीखती-चिल्लाती उन्मादिनी मालती छुरा निकालकर भागी। गुलाम हुसैन ने किशन को दबोच रखा था परंतु वह भी किशन की पकड़ में खाट के एक कोने में सीधा चित लेटा था-मालती ने उसकी तोंद में वह लंबा तीक्ष्ण छुरा सारी शक्ति लगाकर घोंप दिया।

अरे, कितनी आसानी से भीतर चला गया! आरी की तरह पेट चीरता हुआ ! उस आवेश में भी मालती की हँसी छूट गई।

'मैंने बेकार में ही अपनी पूरी शक्ति दाँव पर लगाई। आधी शक्ति से भी वह आर-पार चला जाता!'

आँ-आँ-आँ।" दो-तीन भयंकर चिंघाड़ों के साथ गुलाम हुसैन का बलदंड शरीर धम् से नीचे लुढ़क गया, वह फिर उठा ही नहीं। अपने ही लहू के उबाल में उसके प्राण डूब गए।

"मर गया! मर गया!" किशन ने ताली बजाई।

"किशन, अब आगे?" किशन की आँखों में टकटकी बाँधकर देखते और थरथर काँपते हुए मालती ने पूछा।

"आगे? मालती, आगे..."

वे दोनों, जिनकी सुध-बुध बिसरी हुई है, जिनकी विवेकशक्ति थम गई है, पल भर के लिए एक-दूसरे की आँखों में आँखें गड़ाकर एक-दूसरे की ओर ताकते रहे। चारों ओर रात का घनघोर अँधेरा-ही-अँधेरा था।

प्रकरण-८

किशन और मालती की गिरफ्तारी

'आगे क्या?' मालती के इस प्रश्न का किशन को कोई भी उत्तर नहीं सूझा। वैसे देखा जाए तो पाँच-दस उत्तर एक साथ सूझे और उनके उलटे-सीधे और परस्पर एक-दूसरे को काटने की धाँधली में अंत में कुछ भी निश्चिंत राय चित्त में न टिकने के कारण किशन सिर्फ 'आगे-आगे' ऐसा ही कुछ बड़बड़ाता हुआ मालती की ओर शून्यवत् ताकता रहा। वह विकराल लाश उनके कदमों तले बीच-बीच में दम उखाड़ती हुई पड़ी थी। उसके ताजा-हरे घाव से रुक-रुककर खून का फव्वारा छूट रहा था। इस प्रकार दस-पाँच पल बीतने के बाद किशन ने सुना, वही कुत्ता जोर-जोर से दहाड़ें मारकर रो रहा है, दूर दीवार पर चीख रहा है और जोर-जोर से भौंकते हुए आक्रोश प्रकट कर रहा है।

वास्तव में जब उनकी जानलेवा मुठभेड़ जारी थी, तभी से वह कुत्ता पास जाने से डर रहा था, लेकिन भागना छोड़कर वहीं दीवार पर निरंतर इधर-उधर भागता, कभी रुकता और उसी तरह जोर-जोर से किकियाता रहा था। बीच-बीच में बलात् भौंकता था। उस प्रकार जैसे किसीकी सहायता माँगी जाए, लोगों को इकट्ठा किया जाए, ऐसे पुकारता था-'बचाओ-बचाओ।' लेकिन इतनी देर तक इस जानलेवा प्रसंग में उसका शोरगुल किशन-मालती को सुनाई ही नहीं दिया- अपने सिवा बाहरी दुनिया उन्हें विस्मृतप्राय हो गई थी। परंतु उस कुत्ते के हंगाम की ओर ध्यान बँटते ही किशन ने चौंककर उधर मुड़कर देखा तो उसे ऐसा लगा कि बाहरी दुनिया उन दोनों की ओर, उनके खून से सने हाथ-पाँवों, कपड़ों की ओर, उन दोनों के बीच पड़ी गुलाम हुसैन की अगरुन, भारी-भरकम लाश बीच-बीच में रिसते खून-इन सभी की ओर घूर रही है। उनकी ओर अँगुलियाँ उठाकर सब लोग हल्ला मचा रहे हैं कि 'यही हैं वे हत्यारे, पकड़ो इन्हें'। उनका नशा हिरन हो गया। इधर यदि पल भर की भी देर लगा दी तो यह जीव, जो उस दुष्ट के छुरे से बचा हुआ था, फाँसी के चंगुल में फँस जाएगा और वह आग से निकलकर कुएँ में गिरना होगा और इस मालती के गले में फाँसी का फंदा...उफ् ! कल्पना भी कितनी भयंकर ...

उस सदमे के साथ उसने एक बड़ा सा पत्थर उठाकर पहले कुत्ते को मारा। इतने में उसने देखा कि पड़ोस के खेत में दो-तीन आदमी लालटेन लेकर उनकी ओर ही घूर रहे हैं और आपस में खुसुर-फुसुर कर रहे हैं।

उस कुत्ते के किकियाने तथा लगातार भौंकने के कारण वे लोग अपने खेत की खुली भूमि पर कब से भौंचक खड़े थे। उसके बाद उस कुटिया के पास गुलाम हुसैन और किशन के बीच हुई झड़पा-झड़पी, गाली-गलौज, हाथापाई, चीखना-चिल्लाना और अंत में गुलाम हुसैन के पेट में छुरा घोंपे जाते ही जब वह नीचे ढह गया, तब उसकी चिंघाड़ आदि बातों के धुँधले दृश्यों तथा गुल-गपाड़ों से उन काश्तकारों ने यह अनुमान लगाया था कि उधर कुछ अघटित घटना घट रही है। परंतु भय ने उनकी जिज्ञासा पर अंकुश लगाया था। उन्होंने यह समझदारी दिखाई कि वे उधर गए तो स्वयं ही किसी झंझट में फँस जाएँगे। अतः वहीं से जो दिखाई और सुनाई दे रहा था, उसकी चर्चा करते हुए तथा इस प्रकार के तर्क करते हुए कि बीच-बीच में दिखाई दे रही तेजस्विनी स्त्री से संबंधित ही यह सब चल रहा है, वे लोग वहीं पर वैसे ही खड़े थे।

उन्हें देखते ही किशन का दिल इस प्रकार धड़का कि उनके हाथों हुई हत्या अब मुखर हो गई। उसके कहने की अपेक्षा उससे बिना पूछे उसके हाथों ने ही फट् से लालटेन बुझाई। अँधेरे में मालती का हाथ पकड़कर उसने कहा, "अब इधर से खिसकना चाहिए। हमें कैद करने लोग-बाग इकट्ठे हो रहे हैं; वह देखो वहाँ घेरा बन रहा है, चलो।"

"अरे, लेकिन कहाँ?"

"जिधर राह मिले उधर। इस स्थान से दूर-दूर-दूर...जितना हो सके दूर और जल्दी। एक पाँव घायल हो गया है तो क्या, दूसरा तो है न? जितना चला जाएगा उससे चलूँगा।"

"और यह लाश?"

"मरने दो, सड़ने दो इस दुष्ट को। नहीं तो इसके कुत्ते को ही इसे खाने दो। खिसको यहाँ से, पहले चलो। वह छुरा दे दो। इस लाश की शिनाख्त भी किसीको नहीं होनी चाहिए।" इतना कहकर उस छुरे से लाश के मुँह पर अँधेरे में ही कचाकच वार करके किशन ने उसे विरूप कर दिया।

"हाँ! अब ताला ले आओ।"

मालती ने अँधेरे में ही टटोलकर कमरे से ताला ले लिया। बाहर निकलते समय उसका पाँव 'डब' से खून के उस थक्के पर गिरा। उसका दिल भी धौंकनी तरह धड़कने लगा। उसने वह छुरा अपनी टेंट में खोंस लिया। वैसे ही आगे बढ़कर टूटा-फूटा दरवाजा ज्यों-त्यों करके बंद करके वह उसे ताला लगाने लगी। उस हाथ काँप रहा था पर आखिर ताला लग ही गया। मनुष्य को एक पैदाइशी आदत होती है, तदनुसार ताला लगाते ही उसने चाभी कमर में खोंस ली। उसने फिर टटोलकर देखा कि खून से लथ-पथ वह छुरा, जो उसने अपनी टेंट में खोंसा था. ठीक-ठाक है या नहीं। उस छुरे की निकटता के अहसास से ही उसमें हिम्मत साहस तथा बारह हाथियों का बल ठाठें मारने लगा।

"हाँ, चलो, ऐसे सनसना क्यों रहे हो? किशन, मेरे हाथ पर अपना सारा बोझ डाल दो, हाँ-हाँ ठीक है, मेरा सहारा लेकर चलो जितना तुमसे चला जाता है। यह राह मेरी परिचित है। ठहरो, दो-चार पत्थर उठाने दो मुझे। सावधान रहना उस पागल कुत्ते से। मुआ पीछे से चोरी-छिपे आकर फिर काटेगा तुम्हें।"

अँधेरे में वह दीवार पार करके चबूतरे का चक्कर काटकर उन दोनों ने ज्यों-त्यों करके वह राह पकड़ी।

"अब किधर मुड़ेगी? नगर की ओर...?"

"कदापि नहीं। अरे पगले, सिर से पाँव तक हम लोग खून से सने हुए हैं न? पहले गंगा तक चलते हैं, वहाँ नहा-धोकर साफ-सुथरे होंगे और तनिक शरीफ बनेंगे-चलो पहले।"

"वाकई...आओ इधर से। पहले शिवालय में चलेंगे, रात वहीं पर गुजारेंगे। आजकल मैंने उधर ही अपना डेरा-डंडा जमाया है। अभी थोड़ी देर पहले उधर ही से मैं आया था। वहीं पहले रात में तनिक झपकी लेंगे। भोर के समय नहाना-धोना और फिर भाग्य में जो होगा वह। ओय! ओय! पाँव की पीड़ा सही नहीं जाती। चलो, पहले शिवालय ही चलेंगे।"

शिवालय में पहुँचते ही अकेले किशन ने ही नहीं मालती ने भी, जिनके मन और तन दोनों इतनी देर तक उत्तेजनावश दुर्बल हो रहे थे, अपने आपको धरती पर छोड़ दिया। दूर से ही लेटे-लेटे किशन ने उसे आश्वासन दे दिया, "तुम आराम से सो जाओ। वह छुरा मुझे दे दो। मैं पहरा देता हूँ। दुःख-दर्द को अब कुछ देर के लिए भूल जाओ।"

"दुःख? बिलकुल नहीं। बताऊँ, इस समय मुझे क्या प्रतीत हो रहा है? आनंद। साहस कैसे कहूँ? हमारे घर में एक बार एक भुजंग निकला। दरवाजे के बरगद के पेड़ के आसपास ही कहीं रहता था। मेरी अम्मा ठहरी देवलसी। वह उसके लिए एक कटोरे में दूध रखती। दूध पीते समय कई बार हम उसे दूर से देखा करते। माँ कहा करती, 'भई, साँप भी तो एक जीव है न? वह उसे कभी नहीं डॅसता जो उसे दूध पिलाता है। लेकिन पता नहीं किसीने उसका क्या बिगाड़ा। एक दिन वह घर में पाया गया और मेरी एक नन्ही सी मौसेरी बहन को, जो मेरे साथ खेल रही थी, डँसकर मुझे भी डँसने के लिए दौड़ा। हम सारे बच्चे बदहवास होकर भाग गए। 'साँप-साँप' का हंगामा मचाया हमने। हमारे नौकर ने एक ही प्रहार से उसकी खोपड़ी तोड़ दी। फिर भी वह कुलबुला रहा था। उसे मुँह खोले पड़ा देखकर एक बड़ी सी सोटी उठाकर मैंने दूर से ही इतनी ताकत से उसपर मारी कि उसका बीच का हिस्सा बिलकुल ही पिचक गया। अपना क्रोध, संताप इस तरह मुखर होते देखकर जीवन में पहली बार मैंने जाना कि प्रतिशोध का आनंद कैसा होता है। आज मैं हर्षोन्माद से झूम रही हूँ। मेरी यह सारी हिम्मत उस प्रतिशोध के आनंद की, प्रतिशोध के इस छुरे की है। जब तक वह मेरे पास है तब तक मेरी जान में जान है। रहने दो उसे मेरे सिरहाने ही। मुझे नींद-किशन, अरे, पर मेरी अम्मा? पहले मुझे यह तो बताओ, मेरी अम्मा किधर है ? तुम जानते हो? मैं उठकर बैठ जाती हूँ। हाँ, अब बताओ।" वह बड़ी मुश्किल से अपनी देह को मूर्च्छित होते-होते सँभालकर बैठ गई। परंतु उसकी बातचीत उस मनुष्य जैसी ही असंगत और खंडित थी जो नींद से घिरा हुआ हो।

किशन ने मालती को संक्षेप में बताया। मालती के गुलाम हुसैन के घर कैद होने के बाद श्रीमती अन्नपूर्णा देवी और उसकी अम्मा के साथ उस कपटी योगानंद ने ठग विद्या खेली। उसपर भरोसा करके वे दोनों मालती को ढूँढ़ने किस प्रकार नागपुर गईं और उसके पश्चात् उनका पता उसे भी नहीं है। परंतु उसकी बात समाप्त होते ही मालती के मनोव्यापार लगभग ठप हो चुके थे। वह कुछ सुनती, कुछ अनसुनी करती नीचे लेट गई और उसे पता तक नहीं चला कि वह कब निद्राधीन हो गई। किशन भी जमीन पर लेट गया। उसके मन में उस कृत्य के भावी भीषण परिणामों के विचार कोहराम मचा रहे थे। कभी ग्लानि, कभी यह कोलाहल, कभी पैर की असह्य पीड़ा। उसने उठकर बाहर झाँककर देखा, कोई नहीं है। फिर वह अंदर आकर लेट गया। आँखें मूँदते ही पुलिस की आकृतियाँ उसके सामने खड़ी हो जातीं। उसे लगता वे उसे पकड़ रही हैं। तब वह फिर आँखें खोलता, ढाढस बाँधता और अर्धचेतनावस्था में ही योजना बनाता कि पौ फटते ही यहाँ से खिसकने के लिए क्या-क्या करना होगा।

मालती का चेतन मन यद्यपि उस घड़ी के समान बंद पड़ा था जिसकी चाभी खत्म हो चुकी है, तथापि मुर्छा की गहरी निद्रा में भी उसके चेतन मन का सतह से किशन के चित्त के कोलाहल सदृश ही धृति, भय-माया-ममता-विद्वेष की नानाविध स्मृतियों तथा वृत्तियों का एक हंगामा जरूर मच रहा होगा। वह कभी चौंकती, कभी मुसकराती तो कभी खर्राटे भरती। सपने देखते-देखते उसे यह आभास हुआ कि वह अपनी अम्मा के साथ मथुरा के उस हिंडोले पर प्रेमपूर्ण ओवियाँ गाती हुई एक रस्सी से ऊँची-ऊँची पेंगें भरती झूल रही है। इतने में उसकी गरदन जोर से कसने से वह लटक गई है। गलफाँसी लगने से दम घुट रहा है और उसकी जीभ बाहर निकल आई है। ऐसी भीषण अवस्था में भी वह स्वयं ही अपने आपको देख रही है। उस सदमे से वह 'हाय, मर गई। बचाओ। बचाओ। अम्मा, मुझे गलफाँसी हो गई।' इस तरह स्पष्ट रूप से चीखती-चिल्लाती मालती झट से उठ गई, वह थरथर काँपने लगी।

किशन भी तपाक् से उठ गया। अँधेरे में घबराकर वह जहाँ खड़ी थी, वहाँ टटोलकर उसके कंधे पर उसने अपना एक हाथ रखा, दूसरे हाथ से उसकी पीठ पर थपकियाँ देते हुए वह उसे ढाढस बँधाने लगा। इतने में बेंत की तरह काँपती, थरथराती मालती कसकर उससे लिपट गई।

"किशन, मुझसे खड़ा नहीं रहा जाता। मुझे अपने सीने से कसकर लगा लो और मेरे पास सो जाओ। शरमाओ मत। तुम ही पहले पुरुष हो जिसे मैं स्वयं अपने पास सोने के लिए कह रही हूँ।"

किशन के सीने से लगाकर सोते ही वह पनः इतनी गहरी नींद में सो गई जैसे वह बीच में पूरी तरह से जगी ही नहीं थी। उसे नींद में चलने-फिरने, बोलने की जो एक बीमारी होती है, उसीका एक झटका सा आ गया था।

फिर बेलवृक्ष से कोयल की प्रात:कालीन कुहुक सुनाई दी। तब किशन ने बड़ी कठिनाई से उसे झिंझोड़कर जगाया।

"मालती, मैंने भविष्य की योजना निश्चित की है। तुम्हें धीरज रखना होगा। धैर्य से विचलित तो नहीं होगी?"

"अरे पगले, अब मैं सपने में थोड़े ही हूँ? स्वप्न-स्थित गले के फंदे से जो डरते हैं, उनमें से कितने ही असली गलफाँसी से रंचमात्र भी नहीं डरते।"

"हट पगली, गलफाँसी का जिक्र ही क्यों कर रही हो? संक्षेप में बताता हूँ, ध्यान से सुनो। अब तुम जाकर अपना यह मुसलिम वेश और खून से लथपथ कपड़े। गंगा में डुबा दो, नहा-धो लो और मेरी इस गठरी में से एक धोती किसी भिखारना। सदृश पहनकर यह कटोरा हाथ में थामकर इस पगडंडी से खिसक जाओ और गाँव-गाँव से राह निकालते अपनी अम्मा के पास चली जाओऔर।"

"नहीं, हरगिज नहीं। मेरी अम्मा का नाम अब पूरी तरह से भूल जाओ। अरे, मुझे देखते ही वह मेरा मुख सहलाने यदि पुनः लपककर आ जाए तो उसके निर्मल हाथ भी मेरे मुख के खून के धब्बों से रक्तरंजित होंगे। उसके शरीर पर मेरे हाथों के कर्मों के छींटे पड़ेंगे और उस सती-साध्वी की निर्मलता भी डाँवाडोल होगी। मैं कभी अपनी अम्मा के आँगन का एक निर्मल फूल थी, तब मुझे मालती नाम से पुकारा जाता था, लेकिन अब मैं वह फूल नहीं हूँ। अब मैं समाज की राह का एक कंटक बन गई हूँ। कहीं भी धूल से सनी पड़ी रहूँगी लेकिन पुन: माँ के आँगन में गिरकर उसके पैर में काँटे की तरह टूटूँगी नहीं, न ही उसे सालूँगी। अब मैं अपना नाम भी बदलूँगी। फूल नहीं, काँटा। कंटकी, न कि मालती। अब याद रखना हाँ, अब मुझे मालती मत कहना, कंटकी नाम से पुकारना।"

"ठीक है। परंतु अब तुम मुझे अकेला छोड़ चली जाओ। मुझसे अब चला नहीं जाता। मैं भी पीछे से ज्यों-त्यों करके खिसकता आऊँगा। यदि पकड़ा गया तो अकेले ही अपने सिर इस हत्या के सिलसिले में सबकुछ कबूल लूँगा। यदि खिसक गया तो तुमसे मिलूँगा। मुझे भी नाम में परिवर्तन करना होगा। गौर से सुनो, मेरा नाम कंटक है। इससे पिछले मुकदमे के सूत्र मेरे, तेरे तथा तुम्हारी अम्मा के इर्दगिर्द फिर से सहसा नहीं उलझेंगे। उस अधम का नाम बताने का प्रसंग भी नहीं आएगा, जिसका सिर कुचलकर नामोनिशान तक मिटा दिया। 'हमें कुछ भी नहीं मालूम' यही कहेंगे। बस! अगर हम इकट्ठे घूमते रहे तो दोनों फँसेंगे। इसलिए कम-से कम तुम तो यहाँ से निकल लो। सच कहता हूँ, मालती, तुमसे बिछुड़ते हुए मेरी जान उसी तरह छटपटा रही है जैसे पानी से बाहर फेंकी हुई मछली छटपटाती है। लेकिन तुम्हारा अहित होने से बच गया तो ताल में गिरी मछली सदृश वह फूले नहीं समाएगी। न-न, अब सारी चर्चा बंद। देखो, पौ फटने लगी।"

वे दोनों बातें कर रहे थे कि इतने में दूर से फिर कुछ शोरगुल सुनाई दिया। इस आशा से कि रात में जिस तरह उसे जूतों की टापों की आवाज का आभास हुआ और वह जिस तरह मिथ्या सिद्ध हुआ, उसी प्रकार यह भी एक आभास ही होगा। किशन ने बाहर झाँका तो वाकई कुछ लोग हंगामा करते हुए शिवालय की ओर राह में ही ठिठके, धुंधले से नजर आ गए।

गौर से देखने पर एक चबूतरे पर खड़े दो जने नजर में आ गए और वे निस्संदेह वर्दीधारी पुलिसवाले थे।

अपेक्षित होने पर भी निश्चित रूप में ऐसे भयंकर संकट का पहाड़ टूटते ही मन को जो जबरदस्त धक्का पहुँचना होता है, वह पहुँचे बिना नहीं रहता। किशन को थोड़ी-बहुत आशा थी कि संकट टल जाएगा। अतः वह भयंकर संकट टलते टलते उसके इस तरह सौ फीसदी गले से टकराते ही उसके होश उड़ना स्वाभाविक ही था। परंतु उसने तुरंत साहस बटोरा। वह झट से भीतर मुड़ा और दबे स्वर में उसने मालती को समझाया, "पुलिस आई है। अब ध्यान से सुनो। अब मैं आगे बढ़कर जो कहूँगा सिर्फ उसीको तुम दोहराओ-मेरी हाँ में हाँ मिलाती रहो। जरा भी चीं-चपड़ कम-अधिक कभी, कहीं भी, आगे-पीछे भी, मँह से मत निकालना। कारागृह में मियाद काटते समय सैकड़ों घुटे हुए हत्यारे, चोर-डाकुओं के गिरोह में रहकर मैं अब इस प्रकार के कानून के छक्के-पंजे अच्छी तरह से सीख चुका हूँ। ऐसे प्रसंग में सबकुछ नकारना सर्वथा असंभव है। उन किसानों ने ही रातोरात यह खबर पुलिस को दी होगी। खून से सने कदमों के निशान उभरे हुए और कपड़े, हाथ भी खून से सने हुए हैं।"

इतने में-

"कौन है बे अंदर? चलो बाहर निकलो।" दूर से ही पुलिस का घुड़की भरा आदेश आया।

किशन तपाक से बाहर आया। आगे बढ़ा। उसके साथ ही 'पकड़ो-पकड़ो' चिल्लाते हुए दो-तीन सिपाहियों ने हमला किया और उन्होंने किशन के हाथों में हथकड़ियाँ पहना दी।

"भई, यह हथकड़ियाँ काहे के लिए? और इतना कसकर भी क्यों पकड़ रहे हो मुझे? आप न भी आते तो भी मैं स्वयं पुलिस को खबर करने उधर आ ही जाता।"

"इस तरह सीधी तरह से चलोगे तो उसमें तुम्हारे ही अनावश्यक कष्ट टलेंगे।" पुलिस अफसर ने समझदारी की बात करते हुए शांत स्वर में कहा, "सच-सच बताओ, वहाँ उस तरफ एक झोंपड़ी में एक आदमी की हत्या तुमने की? तुम्हारा नाम? हाँ, यही है वह स्त्री। पकड़ो उस औरत को भी।"

"ठहरो! उस आदमी का कत्ल मैंने किया न कि उस औरत ने, वह भी इसलिए कि वह इनसान नहीं, हैवान था, एक नृशंस राक्षस। मेरा नाम कंटक है और यह है मेरी बहन कंटकी। हम जब छोटे थे तब हमारी माँ उज्जैन की तरफ मेले में भीख माँगती घूमती थी। वह हैजे से मर गई। उससे पहले की हमें कुछ भी जानकारी नहीं है। अगली जानकारी यह कि हम दोनों भीख माँगते हुए इस मेले से उस मेले में घूमते-घामते वैसे ही भटकते हुए इधर आ गए। कुछ दिन पहले मेरी बहन भीख माँगने अकेली घूम रही थी। इसे अकेली पाकर उस मुसलमान गुंडे ने इसे जबरदस्ती खींचकर अपने घर में कैद किया। मैं टोह लेता हुआ उसके घर के सामने जैसे ही पहुँचा और 'मेरी बहन को छोड़ दो' कहकर उसे घुड़की दी तो वह छुरा निकालकर मुझपर टूट पड़ा। धींगामुश्ती में वही छुरा छीनकर मैंने उसे मार डाला और अपनी बहन को छुड़ाया। हमारे कन्ने ढीले पड़ने के कारण यहीं पर रात गुजारकर अभी उठे हैं और पुलिस में अपने आप सारी खबर देने ही वाले थे कि इतने में आप लोग यहाँ पहुँच गए।"

मालती से पूछने पर उसने भी सूझबूझ से ढिठाई के साथ बयान दिया जो किशन के उक्त बयान से हूबहू मिलता-जुलता था। पुलिसवालों ने जब कुरेद-कुरेदकर पूछा तब उसने 'उस मुसलमान गुंडे का नाम, गाँव, पूर्ववृत्त कुछ भी जानकारी मुझे नहीं है' यही ठोस और टका सा जवाब दे दिया।

तलाशी में मालती के शरीर पर उसके खून से सने वस्त्र, कमर में खोंसी हुई उस टूटे-फूटे घर की चाभी, वह रक्तरंजित छुरा, इतनी चीजें बरामद हो गईं। उन सभी को नोट करके उन दोनों को गिरफ्तार करके वे चल पड़े। उनके साथ वे किसान भी लौट गए। उन्होंने ही उस टूटे-फूटे घर में चल रहे इस भीषण कांड की खबर उसी रात पुलिस को दे दी थी, ताकि उनके ऊपर कोई आरोप न आ जाए। उस कांड की पूरी रिपोर्ट लिये जाने पर ही उन्हें अपने-अपने घर रवाना किया गया। 'अपराध मैंने किया है। मेरी बहन को छोड़ दीजिए, उसे वापस भेज दीजिए', इस प्रकार गिड़गिड़ाने पर किशन को अच्छी-खासी डाँट पिलाई गई। 'प्रत्यक्ष प्रमाण तुम दोनों के विरुद्ध हैं।' हमारे लिए तुम दोनों को ही गिरफ्तार करना अनिवार्य है। अपराधी कौन है, इसका फैसला अदालत करती है, न कि हम या तुम।

किशन और मालती दोनों पर मुकदमा दायर किया गया। अपराधी लगे हाथ मिल गए। उस हत्या के लिए प्रमाण एकदम तैयार। अपराध के सूत्र कहीं भी उलझे हुए नहीं थे। उस मृत व्यक्ति का पूर्व इतिहास बिलकुल अज्ञात। छुरे के घावों से छिन्न-विच्छिन्न हुई उसकी मुद्रा के कारण उसकी शिनाख्त करना भी दुर्घट। जहाँ तक उस मुकदमे का सवाल है, उस पचड़े में पड़ने का कोई कारण नहीं था। इन सभी हालात के मद्देनजर किसी भी तरह की अधिक गहराई में न पैठते हुए उस हत्या का आरोप लगाकर पुलिस ने छुट्टी की। बचाव के रूप में उनके अपने बयान छोड़कर अभियुक्तों की ओर से कुछ भी नहीं था।

अंतिम दिन न्यायाधीश ने फैसला सुनाया, "यह स्पष्ट रूप से सिद्ध नहीं हुआ है कि किस अभियुक्त ने इस प्रकार जानलेवा हमले किए। यह सिद्ध हुआ है कि दोनों ने ही इस हत्या में जान-बूझकर हिस्सा लिया है। इसलिए कंटक और कंटकी दोनों भाई-बहन को अदालत सजा देती है-आजन्म कारावास, काला पानी।"

ये शब्द सुनते ही किशन की आँखों से यद्यपि टपटप आँसू गिरने लगे, तथापि फाँसी टलने के कारण उसका कलेजा ठंडा हआ, उसने राहत की साँस ली। परंतु इस तरह धुँधला सा आभास होते हुए भी कि उन शब्दों में कुछ भयंकर अर्थ समाया हुआ है, उसकी भीषणता का स्पष्ट चित्र मन में अभी तक नहीं उभरा था। न जान इसीलिए 'आजन्म कारावास, काला पानी' जैसे शब्द सुनते ही मालती संज्ञाशून्य होकर देखती रही। लेकिन जज साहब के उठने लगते ही उसने एकदम गद्गद होकर प्रार्थना की, "एक पल रुक जाइएगा, कृपालु महाराज! मुझे बस इतना ही बताइएगा कि काले पानी जाने पर भी मेरा यह भाई कंटक मेरे साथ ही रहेगा न? क्या अपने बंदीपाल को आप तनिक उतना आदेश दे देंगे कि काले पानी में भी हम दोनों को एक साथ रखा जाए। इतनी दया की जाए, हुजूर!"

"नादान लडकी, यह न्यायाधीश के बस में थोड़े ही होता है? काले पानी में पुरुषों और महिलाओं के बंदीगृह अलग-अलग होते हैं, बेटी! वहाँ एक ही अभियोग के सभी अपराधियों को भी पुरुष-पुरुषों में अथवा महिला-महिलाओं में साधारणतः एक साथ नहीं रहने देते।"

यद्यपि जज साहब के इन शब्दों का सहानुभूति के स्वर में उच्चारण किया गया था, तथापि इससे पूर्व सजा सुनाते समय उन्होंने जिन भावनाहीन शब्दों का उच्चारण किया था उनसे भी वे मालती को अधिक दारुण प्रतीत हुए। 'आजन्म कारावास, काला पानी' जैसे शब्दों की भीषणता से इस कल्पना की भीषणता कि किशन अब उससे बिछुड़ जाएगा, उसके मन को हुई अत्यंत असहनीय पीड़ा से वह तड़प उठी और सिसक-सिसककर 'नहीं ऐसा मत करो, ऐसा मत करो' ऐसा ही कुछ आधा-अधूरा वाक्य ही बार-बार दोहराकर प्रार्थना करने लगी।

जज साहब के मन को पहले से ही उसके अपराध का निरपराध पक्ष रिझा रहा था। परंतु कानून कानून होता है-वह अनुल्लंघनीय होता है। इसीलिए जब तक मुकदमा जारी था, उनके मुँह से ममता का एक भी शब्द नहीं निकला था। परंतु पूरे मुकदमे के चलते जो लड़की धीरज और साहस की प्रतिमा बनी रही, आजन्म कारावास और काला पानी जैसा भयंकर दंड सुनकर भी जो बिलकुल अडिग रही, उसी लड़की को अपने भाई से बिछुड़ने की कल्पना मात्र से सिसक-सिसककर रोती हुई देखकर जज साहब का दिल भी पसीजा और कुछ-न-कुछ सांत्वना देने के लिए उन्होंने कहा, "मत रो, बेटी! काले पानी पर यदि तुम्हारा आचरण ठीक रहा तो दस-पाँच वर्षों के पश्चात् तुम्हें विवाह की अनुज्ञा मिलने की सुविधा है। फिर उस द्वीप में भी तुम लोग मजे से एक साथ रह सकते हो।"

इस बात को सुनते ही जैसे काले पानी की सजा रद्द हो गई और उसने छुटकारा पा ही लिया, इस प्रकार विपदाओं के उस बवंडर से घिरकर बौखलाई हुई मालती मन-ही-मन खुशी से झूम उठी। उसकी आँखों में सरसों खिल गई।

"हुजूर, आपके मुँह में घी-शक्कर। क्या है जिससे चाहूँ उससे शादी कर सकती हूँ? कारावास के अनुशासन का मैं पूरा पालन करूँगी, सरकार।"

उसकी नारी प्रकृति की तमाम यौवन पलभ भावनाएँ उस कल्पना मात्र से जैसे तृप्त, तुष्ट हो गईं। उसे अहसास हुआ कि स्शन के साथ उसके फेरे भी हो चुके। परंतु अरी बावली, कल्पना-लोक भला कभी यथार्थ हो सकता है? अरे पगली, तुम्हें अभी तक यह समझ में नहीं आया कि मनुष्य केवल अपने ही अनुशासन का, पाप-पुण्य का तथा कर्माकर्म का फल नहीं भोगता। इस प्रत्यक्ष जगत् में उसे समाज के पाप-पुण्य का और कर्माकर्म का फल इच्छा न होते हुए भी भोगना पड़ता है। उसे दूसरों के कृत्यों का फल ठीक उसी तरह भोगना पड़ता है जैसे ताऊन (प्लेग) जैसे संक्रामक, छूत की बीमारी में सिर्फ वातावरणीय संसर्ग से स्वस्थ आदमी को भी उस रोग का कष्ट भोगना पड़ता है। क्या अभी तक तुम्हें इस बात की प्रतीति नहीं हुई कि तुम्हारे भाग्य में क्या लिखा है? अन्यथा तुमने ऐसा कौन सा पाप किया है कि इतनी कच्ची उम्र में तुम्हारी देह, मन, भावनाओं की इतनी कठोर, असहनीय तथा दारुण दुर्गति हुई? कौन सा गुनाह किया था तुमने? किसका नुकसान किया था? अपनी माँ की ममता के आँगन में खिली हुई मालती, तुम एक मालती वल्लरी पर कोमल निर्मल फूल की अर्धोन्मीलित चटकी हुई कच्ची कली हो। हमने तुम्हें जब पहली बार देखा, तब तुम शरद ऋतु की चंद्रकला सदृश थीं, तब कोई जनमजला भी ऐसी भविष्यवाणी करने की हिम्मत नहीं करता कि बिना किसी अपराध के तुम्हारी इस प्रकार दुर्गति होगी। दुष्ट-से-दुष्ट पिशाच भी तुम्हें इस तरह यूँ ही अभिशाप नहीं देता।

यह असहनीय दुर्गति इतनी लज्जास्पद है कि सहानुभूति के सामने भी इसे स्पष्ट नहीं किया जा सकता। जब तुम्हें उस कसाई के खूटे से बाँध दिया गया, उस उजड्ड, अडबंग, घिनौने, अमंगल नरपशु की अघोर वासना पर जब-जब तुम्हारी लाज की बलि चढ़ाई गई, तब तुम्हारे कोमल बदन की जो आग बनी होगी तथा कोमल भावनाओं की जो राख बनी, हे निष्पाप कुमारी, वह क्या इसलिए हुआ कि तुमने कोई नीति, नियम, विनय, अनुशासन का भंग किया था? उस अघोर दुर्दशा से तुम्हें और तुम्हारी जैसी अनेकों को छुटकारा दिलाने के लिए यह किशन आगे बढ़ा, उसने नीति-नियमों का, परोपकार तथा विनय-मर्यादा का आदर किया और उस राक्षस के खून की नदी बहाकर उसके अत्याचारों का शमन किया। इसलिए तुम लोग अत्याचारी सिद्ध हो गए। समाज में तुम्हारे मुँह पर कालिख लग गई। अब समुद्र पार उतार दिया जाएगा तुम लोगों को। समाज की पीड़ा, अत्याचारों का जो विध्वंस करता है, वही कभी-कभी समाज-पीड़क अत्याचारी के रूप में दंडित होता है। नीति-नियमों के असली अनुशासन का पालन करना ही अपराध सिद्ध हो जाता है और उसके लिए ही उसे अनुशासनहीनता का फल भुगतना पड़ता है।

किसका है यह दोष? क्यों होता है ऐसा? अथवा ऐसा न हो, इसके लिए किन उपायों की योजना की जाए? ये प्रश्न यहाँ बिलकुल अप्रासंगिक हैं। हाँ, पर यह सत्य है कि ऐसा होता है। और इसीलिए मालती, तुम यह दृढ़ धारणा मत कर बैठना कि तुमने अनुशासन का पूरा-पूरा पालन किया तो उसका फल, उसका पुरस्कार तुम्हें अवश्य मिलेगा। इस तरह खयाली पुलाव मत पकाना।

परंतु ऐसा भी नहीं कि सुख-स्वप्न सत्य होते ही नहीं। अतः यदि किसा सुखद सपने में मुसकरा रही हो, रममाण हो तो पल भर के लिए अवश्य मुसकराओ, रममाण हो जाओ। हाँ, पर उसे मात्र एक सपना समझकर। जग जाने पर ऐसी दृढ़ धारणा मत करना कि वह सपना सत्य सिद्ध होगा।

प्रकरण-९

अंदमान का चालान

कलकत्ता बंदरगाह के जहाज घाट पर एक मैदान खाली करवाने के लिए पुलिस दौड़-धूप कर रही थी। सबके-सब आदमियों को वहाँ से हटाया गया था। वे हटाए गए लोग दूर खड़े होकर, जो जगह मिली वहाँ रेलपेल करके यह देखने के लिए कि आगे क्या होना है, एक-दूसरे के कंधे पर तो कोई आगे खड़े लोगों को ठेलाठेली करते हुए टखनों पर खड़े थे।

इतने में इधर-उधर से हंगामा हो गया, 'आया! चालान आ गया। चालान आ गया।'

चालान का अर्थ है उस जहाज घाट का वह गुट, जिसके साथ विभिन्न कारागृहों में पड़े काले पानी के दंडितों को इकट्ठा कर समुद्र पार अंदमान भेजने के लिए लाया जाता है।

सारे अपराधों में जो अत्यंत घातक तथा नृशंस अपराध होते हैं और ऐसे अपराध जिनके लिए बाएँ हाथ का खेल होता है, इस प्रकार के आग उगलनेवाले, विषदायी, परले दरजे के डाकुओं को प्राय: काले पानी की सजा दी जाती है। इसमें भी पुनः छँटनी होती है और जो अतिवृद्ध, अल्पवयस्क, यहाँ तथा बंदीशालाओं में सदाचरण द्वारा सुधरे हुए पाए जाते हैं, उन्हें छोड़कर शेष उस्तादों के भी उस्ताद अपराधियों को प्राय: काले पानी पर भेजा जाता है। राजनीतिक कांड छोड़कर उग्र, हिंसक, उच्छृखल खलसर्पो की इस काले पानी पर रवाना करने के लिए छंटनी की जाती है और उन्हें 'चालान' में भरती किया जाता है। किसी भी सुघड़, सुनियंत्रित समाज में इनका अस्तित्व किसी महामारी की तरह भयप्रद प्रतीत होता है। कुछ अपवादों को छोड़कर यही नियम है।

इस अहाते में चालान पर आते हुए यदि कोई नवागंतुक अथवा भोला-भाला संत-जिसे इसकी रत्ती भर भी जानकारी नहीं है-इसे देखता तो? तो उस 'चलान' से वह अनुकंपा ही दर्शाता न कि क्रोध, क्योंकि वे बेचारे कितने अनुशासनबद्ध थे- प्रायः सभी के सिर झुके हुए तथा आँखें डबडबाई हुई थीं। कम-से-कम मन में तो भय समाया ही हुआ था, चेहरे उतरे हुए थे, पास खड़े व्यक्ति से एक शब्द भी न बोलते हुए; और यदि बातचीत करें भी तो किसी लड़की जैसे शरमाते, सकुचाते, छुईमई बनते, धीमे स्वर में फुसफुसाते हुए, चार-चार की कतार में निहायत फटीचर वेश में नपे-तले डग भरते हुए वे चल रहे थे। सिपाही के 'ठहरो' कहते ही वे रुक जाते, 'बैठो' कहते ही बैठ जाते और 'उठो' कहते ही उठ जाते। सौ-सवा सौ लोग जरा भी हो-हल्ला न करते हुए चल रहे थे। इतने शांत, संयत जीवों का वह समुदाय! सौ-सवा सौ भेड़-बकरियों का झंड बूचड़खाने में ले जाते समय उससे अधिक शोरगुल करता होगा, इससे कम दीन-हीन दिखता होगा। इस प्रकार इन गरीब, बेचारे, दीन-हीन, दुर्बलों पर अपने माँ-बाप, बीवी-बच्चों से आजीवन बिछुड़ने का प्रसंग थोपकर काले पानी पर असंगत संत्रास तथा कष्ट का शिकार बनाने के लिए इस तरह ले जाया जा रहा था? राजहठ की यह कैसी निष्ठुरता तथा दंड की यह कैसी क्रूरता! जो उन्हें मात्र दुर्दशा में तड़पते देखते हैं अथवा उनकी पीड़ा देखते ही इसकी विवंचना छोड़कर कि वह पीड़ा रोगहारक शल्यक्रिया की है या मारक शस्त्राघात की है, जिनके मन सिर्फ आठ-आठ आँसू बहाती पिलपिली उबासीयुक्त दया का अनुभव करते हैं, ऐसे लोगों के मन में उन घोंघा सदृश हीन-दीन दिखनेवाले चलते हुए दंडितों के प्रति अनुकंपा और हार्दिक सहानुभूति ही उत्पन्न होती और मन-ही-मन क्रोध का उफान यदि किसीके प्रति उमड़ता हो तो वह पुलिसवालों की निर्दय, निष्ठुर, नृशंस, जुल्मी लट्ठबाजी के प्रति। बंदूकों से संगीनें ठूँस-ठूँसकर पुलिसवालों के दल कुछ पीछे, कुछ आगे, कोई डंडे तानकर चारों ओर अंगार उगलते, कठोर स्वर में बरसाते हुए समूह को ठीक उसी प्रकार ठेल-ठेलकर आगे हाँक रहे थे जैसे कोई कसाई चौपायों के झुंड को आगे ठेलता है। कोई तनिक भी ऊँचे स्वर में बोलता या सुस्ताने की कोशिश करता तो उसे डंडे के बल पर आगे खदेड़ दिया जाता; तनिक भी कोई 'तू-तड़ाक' पर उतरता तो पुलिसवाले के तीन-चार डंडे उसकी खोपड़ी पर बरसने लगते। न पूछताछ, न गवाह, न ही कोई प्रमाण। सीधे डंडे से बातचीत। तमाम न्यायनिर्बंध उसीमें समाए हुए। ऊपरी तौर पर देखनेवालों को असली अत्याचारी और निर्दयी लगती पुलिस तथा असली दीन-दुखियारे, दुर्बल 'बेचारे' लगते 'चालान' वाले।

परंतु यदि तेज धारवाली संगीनें ठूँसी हुई उन बंदूकों का तथा डंडों का घेरा पल भर के लिए हटाकर 'चालान' के उन 'बेचारों' को-जिनके सिर झुके हुए थे तथा जो आँसू बहा रहे थे-घड़ी भर के लिए निरंकुश, खुला छोड़ दिया जाता तो? आँखों से दया की एक बूंद भी न बहाते चालान के प्रायः सभी 'बेचारों' ने आधा कलकत्ता जलाकर राख कर दिया होता और शेष आधे कलकत्ता की गरदनें मरोड़कर त्राहि-त्राहि मचा दी होती। वह 'चालान' वैसे अनुशासनबद्ध रूप में चल रहा था, इसलिए कि संगीनों तथा डंडों ने उसे घेर लिया था, जैसे किसी सर्कस के घेरे में भाले तथा कँटीले चाबुक चमकाते हुए नियंत्रक जब तक सामने तथा आसपास होते हैं तब तक सिंह, व्याघ्र भी शिष्ट नागरिकों के सदृश घेरे में कायदे से चलते हैं। कुछ अपवादों को छोड़कर इस चालान में प्रायः सभी की आँखों के आँसू सभ्यता, विनय, दीनता, नीति के नहीं थे, अपितु थे मात्र मजबूरी के, भय के। इस प्रकार के पेंदे के हलके, छिछले खलपुरुषों को भी सामाजिक स्वास्थ्य के लिए पोषक अनुशासन में बाँध सकते हैं, लेकिन गीता के पारायण से नहीं अपितु संगीनों के इस्पात से ही।

बिलकुल घोंघा सदृश 'बेचारे' प्रतीत होनेवाले इस चालान के दस-पाँच व्यक्तियों का आपसे परिचय कराया जाए तो यह ज्ञात होगा कि पिलपिली, लिचलिची उबासीयुक्त दया को इनकी दुर्गति देखकर जहाँ अनुकंपा होती है, वहीं यहाँ के तथा इस प्रकार के हिंस्र श्वापदों में भी जो मानवता होती है, उसीको जीवित रखकर उन हिंस्र कीटाणुओं का प्रतिरोध करने के लिए इन तीक्ष्ण संगीनियों का टीका लगाना कितना आवश्यक है, भले ही वह ऊपरी तौर पर अत्याचारी क्यों न प्रतीत होता हो। देखिए 'चालान' आ ही गया।

पुलिस की संगीनों तथा डंडों के चारों ओर से पिंजड़े में बंद सौ-सवा सौ हिंस्र जानवर चार-चार की कतारों से इस अहाते में एक गुट के साथ आ गए, जैसेकि वह भीमकाय पिंजड़ा ही पूरा-का-पूरा आगे ठेलते हुए मैदान में खड़ा कर दिया गया हो। उस हर एक दंडित के, जो काला पानी जा रहा है, पाँवों में ठुकी हुई बेड़ियाँ खनखना रही हैं जो ऊपर कटि में चमड़े के तसमे से बँधी हुई थीं। हर एक की छाती पर जस्ते का एक-एक तमगा-उसपर दंड के वर्ष तथा दंडित का नाम खुदा हुआ। हर एक की बगल में अपना-अपना बिछौना। एक हाथ में जस्ते की थाली। इनमें से जो कच्चा, ढुलमुल, निर्बल है वह बंदी झुकते, कराहते और जो बेमुरव्वत, कड़ा, मजबूत, मुस्टंडा है वह अकड़कर, लेकिन फिर भी डंडे से दबकर भुनभुनाता हुआ अपनी-अपनी पंक्तियों में खड़ा हो रहा है। चलिए, उनमें से प्रथम पंक्ति में ही जो काले पानी का नागरिक है, नमूने के रूप में उसका परिचय करें।

यह पहला 'बेचारा'-सीने पर लटके तमगे के अनुसार इसका नाम रामदयाल तथा चौदह वर्ष काले पानी की सजा। इसने अपने सगे भाई की मृत्यु के बाद उसके इकलौते बच्चे को विष-प्रयोग से जान से मारने की साजिश की; और इस वजह से बालक की मृत्यु हो गई। उद्देश्य? ताकि उस सगे भतीजे का काँटा रास्ते से हटाकर, उसको निर्वंश कर सारी संयुक्त जायदाद यह अकेला ही हड़प सके।

यह जो दूसरा दंडित है उसे एक तरह से सुधारणीय अपराधी कहा जा सकता है-आयु सत्रह-अठारह वर्ष। नाम गोपाल। मुद्रा-लापरवाह। उसक घर-परिवार के पिता, चाचा आदि बुजुर्गों ने अपने खेतों की नीलामी होने के गुस्से से अपने गाँव के साहूकार से प्रतिशोध लेने के लिए उसकी हवेली पर डाका डाला। बुजुर्गों के साथ यह लड़का भी चला गया। साहकार को नीचे गिराकर उसके धुर्रे उड़ाते समय इसने चक्की का पाट उठाकर उस बेचारे साहूकार के सिर पर मारा। उसका तो भेजा ही बाहर निकल गया। उस महाजन का अपराध यह था कि इसके परिवार ने उसका ऋण चुकाना तो दूर रहा, बल्कि उसके घास के टाल, जानवर भी जला दिए, उनकी हत्या की, इसलिए साहकार ने इनपर मुकदमा दायर किया और कायदे के अनुसार नीलाम करके इनका खेत बेच दिया। इसके बाप को फाँसी की सजा हो गई। यह लड़का दूसरे नंबर का अपराधी अर्थात् गौण था, अतः इसे आजन्म कारावास-काला पानी।

परंतु 'बेचारा' नंबर तीन की ओर तो एक नजर डालिए। तीक्ष्ण संगीनों के जगर-मगर में कैसे सलीके से खड़े-कितने सलीकेदार कानून को माननेवाले दिखाई दे रहे हैं जनाब। लेकिन जब यह चमक-दमक उसकी राह पर नहीं पड़ी थी और उस राह को वह अपने स्वाभव की अंधी रोशनी में ही निहारकर स्वतंत्र रूप से जा रहा था तब जानते हैं आप, यह नागरिक किस तरह जा रहा था? यह उसके दंड की इस टिप्पणी में पढ़िए-इसमें क्या दर्ज किया गया है-यह बलूची-वहाँ के असंख्य गिरोहों में से एक व्यक्ति-नाम-अल्लाबख्श। सिंध प्रांत के कामयाम, विरला हिंदू बस्ती पर ये टोलियाँ बार-बार डाकाजनी करतीं। उसमें हिस्सा लेते-लेते यह इतना क्रूर बन गया कि उसे हिंदू लड़के-लड़कियों के मांस की बोटियाँ हबकने का राक्षसी चस्का लग गया। आखिर एक बार एक रेल में, जो पेशावर की ओर जा रही थी, इसने टोह ली कि जनाना डिब्बे में एक हिंदू महिला अपने दूध-पीते बच्चे को लेकर अकेली बैठी है। यह उस डिब्बे में घुस गया। छुरा तानकर इसने उस अबला की इज्जत लूट ली और उसी आसुरी आवेश में इसने उसके दोनों कपोलों के मांस की बोटियाँ अपने दाँतों से काटकर उन्हें चबर-चबरकर गटक लिया। वह और उसका नन्हा सा शिशु, दोनों जोर-जोर से बिलबिलाने लगे। इससे यह क्रोध से और भी पागल हो गया। इस उन्मत्त पशु ने वही छुरा उस बेबस नारी के उस मासूम शिशु के पेट में घोंप दिया और उस अबला के चेहरे पर वार करने लगा। क्रोध के मारे यह इतना बेसुध हो गया कि इसने यह भी गौर नहीं किया कि रेलगाड़ी रुक चुकी है। ट्रेन रुकते ही इसने नीचे छलाँग लगा ली, मारधाड़ करते-करते यह भागने की कोशिश करने लगा पर पकड़ा गया। तो जिस पुलिसवाले ने पकड़ा उसकी अँगुली को यह खीरा-ककड़ी की तरह तड़ाक् से तोड़कर कचर-कचर चबाने लगा। अदालत में इसने पागलपन का स्वाँग भरा परंतु नरमांस भक्षण की अघोरी हवस के अलावा इसमें अन्य कुछ भी पागलपन का निशान नहीं दिखाई दिया, बल्कि हिंदुओं के ही कोमल बच्चों की बोटियाँ नोच-खसोटकर खाने और उनका लहू चटकारे ले-लेकर पीने के कारण यह सिद्ध हो गया कि इसकी नृशंसता एक शैतानी धर्मबद्धता है तथा इसकी पैशाचिकता का भी एक तरीका है। इसे आजन्म कारावास, काले पानी की सजा हई तथा कुछ दिनों के लिए पागलखाने में बंद किया गया। उधर भी वाहियात व्यवहार के कारण जब इसपर दो बार पचास-साठ कोड़े बरसाए गए तबसे इसने पागलपन की यह नौटंकी बंद की और अनुशासन के साथ रहने लगा और अब इसे काला पानी भेजा जा रहा है। कोड़े पड़ने से जनाब का पागलपन ठीक हो गया। संगीन की तेज धार पर राक्षसी वृत्ति तराशी जाने पर ही कभी-कभी इस प्रकार राक्षसों को मानवी आकार दिया जाता है। अटकलपच्चू के मंत्र के पानी से जो हिंस्र जानवर नहीं हिल-मिल जाते या परचे नहीं जाते, वे स्पष्ट रूप से संगीन के पानी से साधे जा सकते हैं। कम-से-कम इस प्रकार उपद्रवहीन तो बनाए ही जा सकते हैं।

पिलपिली, लसलसी उबासीयुक्त दया ने जिन्हें 'बेचारा' समझा, वे इस काले पानी के चालानांतर्गत उस समय इस प्रकार 'बेचारे' क्यों प्रतीत हो गए, यह समझने लायक उनमें से जिन तीनों का परिचय नमूने के तौर पर ऊपर कराया, उनकी पृष्ठभूमि में मात्र उपन्यास की सनसनीखेज अनूठी अद्भुतता बढ़ाने के लिए कल्पनाजन्य भूमिकाएँ नहीं हैं। मात्र उभरे हुए रोमांचों की थरथराहट का अनुभव करने के लिए मानव जाति की मानवता की मिथ्या दुर्दशा करना उपन्यास की मानवता के लिए भी कलंक है।

परंतु यह भूमिका इस उपन्यास का कल्पित सत्य नहीं है, अपितु प्रकृति का एक यथार्थ है। काला पानी स्थित दंडितों के इतिवृत्त का पोथा, उनका कच्चा चिट्ठा उलट-पुलट करेंगे तो आप इस पैशाचिक नगरी के पचहत्तर फीसदी नागरिकों की जीवनयात्रा उक्त दो-तीन जनों के लेखे-जोखे से मिलती-जुलती ही पाएँगे। अपवादस्वरूप पच्चीस फीसदी, और फिर भी अपनी धार्मिक यात्राओं में भी जितनी हुल्लडबाजी होती है, उतनी भी इस राक्षस राष्ट्र में सहसा नहीं होती। उधर हत्या, डाकेजनी की वारदातों के सालाना आँकड़े अमेरिका के आँकड़ों से कम पड़ते हैं। इसका कारण वह पिलपिली, लसलसी उबासीयुक्त सहिष्णु दया नहीं अपितु संगीन दंड है। वह दुर्धर्ष दंड ही उन राक्षसों को मनुष्य बनाता है।

देह में जिस प्रकार व्याधि होती है, उसी प्रकार मानवता में राक्षसी वृत्ति उपजाऊ होती है। आसुरी वृत्ति को सुधारने का उपाय है दंड, मानवता को सुधारने का उपाय है दया।

'चालान' के दंडितों को अपने पैरों की बेडियों की झनझनाहट तथा किसा फौजी दल के अनुशासन के साथ चार-चार की पंक्तियों में मैदान में आते ही ठोस आदेश दिया गया, 'ठहरो।' तत्काल वे तमाम दंडित खट से खड़े हो गए। 'बैठो'-इस आदेश की सनसनाती गोली छूटने से बेडियों की झनझनाहट के साथ ये सारे झट से नीचे उकड़ूँ बैठ गए। सामने जिस सागर में उन्हें अब उतरना था, वह ऊँची-ऊँची विशाल लहरों को लहराता, बाद में उस जहाज घाट पर उन लहरियों से धड़ाधड़ टकराता, उमड़-उमड़कर बहती-छलकती फेनिल लहरियों द्वारा प्रचंड क्रोधावेग से गर्जन-तर्जन के साथ फुफकारता हहर-हहर नाद करता था। दंडितों में से प्रायः सभी ने जीवन में पहली बार सागर दर्शन किया था, इसलिए उस विशाल जलाशय का इस तरह प्रचंड क्रोधावेग से उमड़ता-उछलता-लरजता रूप देखकर उस भीषण दृश्य के आघात के साथ ही उनका दिल धौंकनी के समान धड़कने लगा। एक-दूसरे से बातचीत करना उनके लिए सख्त मना होने के बावजूद इस अनिवार आघात से, किसीसे और कुछ उद्गार सुनने की इच्छा से हर एक निकटवर्ती दंडित से खुसुर-फुसुर करने लगा, 'यही है वह काले पानी का सागर।' 'बाप रे, बाप! ये उत्तुंग जोरदार लहरें उमड़ती हुई देखकर मेरा जी तो साँय-साँय करने लगा है।' 'अरे, क्या यह सच है कि काले पानी पर जब भेजते हैं तब उन्हें, इस असीम सागर के उस पार कोई द्वीप है, वहीं ले जाते हैं?' 'मैंने सुना है वह निरी चंडूखाने की गप है।' 'इसी गप ने झांसा देकर तो हमें इस जहाज पर सवार करवाया और भरे समुंदर में झोंक दिया। अब हमें पूरी तरह डुबो रहे हैं-जलसमाधि ही होगी हमारी।' नौसिखिया दंडितों की कँपकँपी उत्पन्न करनेवाली शंकाएँ तथा पुराने घाघ, अनुभवी बेमुरव्वत दंडित उन्हें जो प्रत्युत्तर दे रहे थे उससे यह कानाफूसी बढ़ते-बढ़ते, दबे-दबे कोलाहल में बदल गई, यहाँ तक कि पुलिस के सब्र का बाँध टूट गया और उन्होंने फिर धमकाया, "चुप बे! वरना अच्छी-खासी मरम्मत होगी तुम लोगों की।"

इसके साथ ही फिर सभी ने चुप्पी साधी। जो निर्लज्ज बंदी अनुभवी तथा घुटे हुए हैं तथा जो बार-बार जेल की हवा खाते हैं वे इस फन में माहिर होते हैं कि रखवाले की नजर बचाकर अनुशासन भंग कैसे किया जाता है। पर नौसिखिए बंदी उनके फंदे में फँसकर जब अनुशासन भंग करने लगते हैं, तभी झट से पकड़े जाते हैं। उसपर भी उन निर्लज्ज निघरघट दंडित बंदियों को, जो अनुशासन भंग करते हैं, सहसा छेड़ते नहीं। जो नवागंतुक अभी नरमदिल होते हैं उनपर अनुशासन भंग का गुस्सा उतारना पहरेदारों को भी आसान होता है। इसीलिए एक गुस्सैल पहरेदार, जो यह देख रहा था कि कोई शोर तो नहीं मचा रहा-अपनी दूसरी तरफ बैठे हुए दो-तीन निघरे दंडितों को, जो कबसे खुसुर-फुसुर कर रहे थे, उनके प्रति ध्यान न देने का नाटक करके चोरी-छिपे उनपर नजर रख रहा था। थोड़ी देर में फिर से इधर-उधर धीरे-धीरे फुसफुसाहट बढ़ने लगी और हजम भी होने लगी। यह देखकर इस कल्पना मात्र से कि सागर में ले जाकर बंदियों को जलसमाधि देते हैं, उन दो-तीन जनों में जो अल्पवयस्क तथा नया था, उसकी इस कल्पना मात्र से सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई थी। वह अपने निकट बैठे बंदी से, जो शिक्षित दिखाई दे रहा था, गिड़गिड़ाकर बार-बार पूछने लगा-"बाबूजी, बताओ न! क्या इसी सागर में डुबाएँगे हम सबको?"

"नहीं बबुआ, नहीं।" उस निघरे दंडित ने बीच में ही यह आहट लेकर कि पुलिस की पीठ है, झट से कहा, "यह बात सरासर झूठ है। मैंने एक निपुण पट्टे को अपनी आँखों से जेल में देखा है जो काले पानी से भागकर आया था। उस द्वीप को अंदमान कहा जाता है। हम सभी को उधर भेजा जाएगा।"

"आँ? क्या कहा आपने?" उस लड़के ने पूछा, जैसे उसमें नई जान आ गई, "भला काले पानी से कोई भागकर भी आ सकता है? बाबूजी, तुम कहो तो हम सच मानेंगे इस बात को।"

"भई, हजारों में कोई इक्का-दुक्का होगा ऐसा वीर बहादुर। इस प्रकार का एक नराधम अपराधी मैंने भी देखा है जो काले पानी से भागकर आया था।"

वह 'बाबूजी' (बंदी जगत् में 'बाबूजी' उसे संबोधित किया जाता है जो साक्षर या क्लर्क हो अथवा बड़ी योग्यता रखता हो।) सतर्कता की चरम सीमा पर जाकर यह सब बोल रहा था कि उस पुलिस पहरेदार ने, जो उन बंदियों की ओर पीठ करने का बहाना बनाकर उनपर नजर रख रहा था, लपककर भागते-भागते 'बाबूजी' को पकड़ लिया, क्योंकि 'बाबूजी' शब्द उनकी असावधानी से बहुत जोर से निकल गया। बंदीवास का प्रसंग पूरी जिंदगी में पहली बार आने के कारण वे इस विद्या से बिलकुल ही अनजान थे कि शासन के हाथ न लगते हुए अनुशासन भंग कैसे किया जाता है। उसपर जोर से सीधा सत्य बोलने की शिष्ट दुनिया की आदत छोड़कर उनमें अभी तक वह धूर्तता नहीं आई थी जो बंदीगृह में आवश्यक होती है।

पहरेदार ने झपट्टा मारकर बाबूजी के कुरते का गला पकड़कर उसे खड़ा किया और उसे घसीटते हुए अपने जमादार के सामने खड़ा कर दिया, "बार-बार चुप रहने के लिए कहने के बावजूद यह बंदी निरंतर हल्ला मचा रहा है। इतना ही नहीं, अन्य बंदियों को भी पट्टी पढ़ा रहा है कि 'हम सब काले पानी पर जेल का सलाखें तोड़कर भाग जाएँगे।"

"क्या?" गुस्से से नथुने फुलाकर जमादार दहाड़ा, "काले पानी से भाग का षड्यंत्र? क्या नाम है उस बदमाश का?"

पहरेदार ने उस 'बाबजी' की छाती पर लटके हुए तमगे की ओर दखकर उसका नाम बताया, "कंटक।"

जमादार ने नाम और उसके तमगे पर लिखा बंदी-क्रमांक अपनी जेब में रख नोटबुक में नोट किया। फिर गर्राकर उसने कहा, "कंटक, अगर तुम्हारे गुनाह का रिपोर्ट मैं ऊपर कर दें तो जानते हो तम्हें लेने के देने पड़ जाएँगे। तुम्हें पता है, काल पानी से भागते हुए बंदी को गोली से उड़ा दिया जाता है और पकड़े जाने पर उस फाँसी दे दी जाती है? काले पानी में यह अपराध सर्वाधिक जघन्य माना जाता है।"

"पर जमादारजी, मैंने काले पानी से भागने की साजिश के संबंध में किसीको जरा भी नहीं उकसाया। मुझे..."

"चुप हो, बदमाश! तूने ऐसे ही भड़काया है।" पहरेदार गुर्राया।

"मेरे आसपास बैठे हुए बंदियों से पूछिए कि मैं सच बोल रहा हूँ या झूठ।"

जमादार ने उस लड़के से तथा उस निघरे बंदी को उठाकर पूछा, "क्यों रे, यह कंटक तुम्हें क्या पट्टी पढ़ा रहा था?"

लड़के के तो छक्के छूट गए; वह थरथर काँपता हुआ ऐसे खड़ा रहा कि अब मूत देगा। लेकिन वह निघरा कैदी, जो कंटक के ऊपर थोपे गए आरोप से संबंधित पुलिस से चल रही कहा-सुनी प्रारंभ से सुन रहा था, लपककर कहने लगा, "जमादारजी, यह बाबू हमसे कह रहा था कि वह जानता है काले पानी से कैसे भागते हैं। उनका एक नेता है जो इसी प्रकार काले पानी से उड़न-छू हो गया था। यदि हम उनकी साजिश में मिली-भगत करें और गूलर का पेट न फड़वाने की शपथ लें लें तो साल भर के अंदर-अंदर सभी जेल तोड़कर काले पानी से खिसककर घर वापस लौटेंगे। मैंने इससे कहा, भई, हम नहीं शरीक होंगे इस भयंकर साजिश में और शपथ वगैरह भी नहीं लेंगे।"

इस छँटे हुए शोहदे लफंगे की गवाही सुनते हुए कंटक हक्का-बक्का सा खड़ा रहा। इतना सफेद झूठ! फिर अचानक उसने कहा, "अरे, यह कैसी तोहमत लगाई जा रही है? मनुष्य इतना दरिंदा हो सकता है? अँ? जमादारजी, एक अक्षर भी सच नहीं है जो इसने कहा, भगवान् की कसम मैं..."

तड़ाक् से डंडे का एक प्रहार कंटक की जाँघ पर करके जमादार दहाड़ा, "चुप!" इस तमाम गवाह-प्रमाण, आरोप-बचाव, न्याय-निर्णय का समारोप बस उस एक डंडे ने कर दिया।

इतने में एक घंटी घनघनाने लगी। "उन तीनों को अलग-अलग पंक्तियों में बैठा दो।" पुलिस पहरेदार को आदेश देकर वह जमादार भागा-भागा उधर चला गया, जहाँ घंटी बज रही थी। जब तक वह चालान अंदमान जानेवाले धुआँकश पर चढ़ाया नहीं जाता, तब तक जमादार की जिम्मेदारी समाप्त नहीं होती और वह घंटी उसके आगमन की सूचना दे रही थी, अतः कंटक के पचड़े को जमादार वहीं पर भूल गया। एक बार जैसे-तैसे चालान की यह बला उस वाष्प-चालित बोट पर चढ़ाई कि अपनी छुट्टी। फिर उधर ये साले भाग जाएँ या जल जाएँ-भाड़ में जाएँ। भला यह जमादार इस प्रकार के झमेलों के प्रतिवृत्त वरिष्ठ अधिकारियों तक पहुँचाकर स्वयं झंझट किसलिए मोल लेगा?

जमादार चला गया। वह यह कांड भूल भी गया। परंतु बेचारा कंटक अपनी जाँघ पर मारे हुए डंडे के घनाघात को यूँ ही थोड़े भूल सकता है भला? उसकी जाँघ में तीव्र पीड़ा हुई और छटपटाता हुआ वह उसी पंक्ति में बैठ गया, जहाँ उसे बैठाया गया था। उस अन्याय, अपमान तथा खासकर उसका प्रतिरोध करने की संपूर्ण अक्षमतावश कंटक जीवित रहने में भी लज्जा अनुभव करने लगा। काले पानी पर जीवित रहने के लिए जितनी लज्जाहीन सहनशीलता आवश्यक है, उतनी वह उस सद्गुणी में पैदा हुई नहीं थी।

परंतु ऐसे निघरघट बेशरमों में वह दंडित, जिसने कंटक के विरुद्ध गवाही दी थी; और कारागृह तथा काला पानी दोनों का जीवन जिनके अस्तित्व पर आधारित तथा समर्थ होता है, वे बैठे-ठाले कंटक की ओर देखकर बड़े ही वाहियात ढंग से दाँत निकाल रहे थे। पास में बैठे अन्य कैदियों से वह कंटक पर लगाए गए मिथ्या लांछन के सिलसिले में डींग हाँक रहा था, "भई, मेरी तो जान पर बीत रही थी पर मैंने इस नामर्द बाबू की पूंछ पर टाल दी वह बला। कंटक की टाँग पर ऐसा तड़ातड़ धौल जमाया कि ओह!"

कंटक की टाँग में तीव्र वेदना होने के कारण उसे लगातार काफी देर तक उकड़ूँ बैठना मुश्किल हो गया। सिपाही तो बार-बार चीख रहा था, "हाँ, उकड़ें बैठो। सीधा बैठो।" कंटक पर अब अनुशासन भंग का दूसरा आरोप लगना अटल था।

लेकिन इतने में यहाँ-वहाँ चारों ओर से वे संगीनधारी पहरेदार गरज उठे, "उठो! महाराजा आ गया।"

कंटक चौंक पड़ा और कौतूहलवश टुकुर-टुकुर देखने लगा। भई, ऐसे कौन से महाराजाधिराज पधार रहे हैं?

निघरे अनुभवी बंदी उठकर सागर की ओर निर्देश करके फुसफुसाए, "महाराजा! देखो, आ गया।"

कंटक ने देखा तो एक महाकाय जहाज भों ऽऽ धुआँ छोड़ता, उन उमड़ती-दलकती लहरों के जंगल से राह काटता, हौले-हौले जहाज घाट की ओर आ रहा है, उसपर अगड़धत्त मोटा-ताजा नाम लटक रहा है-'महाराजा।'

'महाराजा आया' का अर्थ है जलयान, यानी जहाज आ गया। क्या यही मुझे अब काला पानी ले जाएगा? उस विशालकाय जलयान को देखते ही कंटक के दिल में सनसनी सी दौड़ी।

आज तक सहस्राधिक भले-बुरे स्त्री-पुरुष अपराधियों को इस 'महाराजा जलयान' ने इस घाट से उठाकर समुद्र पार काले पानी तक छोड़ा होगा, परंतु उन हजारों में से एक को भी पुनः इस घाट पर वापस नहीं लाया होगा। जो काले पानी के एक दंडित रूप में इस जलयान पर सवार होकर काले पानी गया, सो हमेशा के लिए गया। इस दुनिया के लिए वह मर चुका और यह दुनिया उसके लिए मर गई। श्मशान घाट ले जाते समय शव को अगर कुछ अहसास होता हो, तो उसे जो लगता होगा, वही काले पानी पर जाते दंडितों को तब होता होगा, जब उन्हें 'महाराजा' पर चढ़ाया जाता है। कम-से-कम जिनमें महसूस करने की मानवीयता शेष है, उन्हें यही अहसास होता है कि 'महाराजा' एक कब्र है, न कि जहाज। इसमें जो दफनाया गया वह बाहर भी निकलेगा तो काले सागर के उस पार यमलोक में, यमपुरी में, न कि इस लोक में। कंटक को इस बात का अहसास अवश्य था, इसीलिए उस 'महाराजा' के दर्शन मात्र से उसका कलेजा काँप उठा। अब तक वह अपने मन से पूछता था, 'भई, उस सागर को काला पानी क्यों कहा जाता है?'

वैसे देखा जाए तो समुद्रोल्लंघन का अर्थ है जात-पाँत, धर्म नष्ट होना। हिंदू समाज के लिए तो एक सामाजिक मृत्यु ही समझिए। इस प्रकार सिंधुबंदी की रूढ़ि जब से हिंदू समाज में पनपने लगी, दृढ़ होने लगी, तब से प्रत्येक सागर ही काला पानी होने लगा-कराल काल का-मृत्यु का-सागर प्रतीत होने लगा। परंतु जो भी अंदमान आजन्म कारावास के लिए जाते हैं, उन्हें ही काले पानी के यात्री का भयंकर नाम क्यों मिल गया? कंटक कितनी देर तक बैठे-बैठे उस सागर के पानी को देख रहा था लेकिन उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि वह विशेष रूप से काला क्यों है? अब 'महाराजा' जलयान देखते ही, यह यथार्थता मन में साकार होते ही कि 'अब यह जहाज मुझे अपने आज तक के रिश्तेदारों, स्वजातियों की दुनिया से ही नहीं अपितु जीवन से भी खसोटकर अत्यंत दुर्गति के किसी मृतशंड में, काल के गाल में ले जाकर निश्चित ही दफनाएगा' उसका दिल जोर-जोर से धड़कने लगा। इस विचार के साथ ही उसे वह सारा समुद्र वाकई उलटे तवे जैसा गहरा काला दिखाई देने लगा। उसे इस बात का बोध हो गया कि इसे काला पानी क्यों कहा जाता है। उसने इस तथ्य को भी स्वीकार किया कि नहीं, काले पानी से भिन्न दूसरा कोई यथार्थ नाम इसे दिया जाता तो किस प्रकार यह अपने पूर्व कथन के विरुद्ध कहा हुआ होता।

यह कंटक आपका जाना-पहचाना किशन है। उसे और मालती को काले पानी की सजा होने पर वे एक-दूसरे से बिछुड़ गए। लाख कोशिशों के बावजूद वह यह नहीं जान सका कि उसकी रवानगी किस बंदीशाला में की गई है। उसे विभिन्न गारद में बंद करते-करते हर चार-पाँच महीने के बाद जमा किए गए काले पानी के दंडितों को इकट्ठा करके एक-एक दल काले पानी पर रवाना करने की पद्धति के अनुसार इस दल को जब कलकत्ता लाया गया, तब उस जानलेवा खतरे में भी एक स्निग्ध जिज्ञासा उसे चैन से जीने नहीं देती थी। कहीं मालती को भी तो इसी 'चालान' में लाया नहीं जाएगा? हाय! हाय! उसे इस दुर्दशा में देखना, ठेलना कितना असहनीय, कितना कटु होगा। हाँ, पर उसी बहाने क्यों न हो, कम-से-कम उसे देखना; संकट भोगना ही है तो साथ-साथ बाँटकर भोगना कितना प्यारा लगेगा। उसने गुपचुप उसकी तलाश की, लेकिन उस चालान में दंडित महिलाएँ नहीं भेजी जानेवाली थीं; और भेजना भी हो तो उन्हें मर्दाना चालान की निगाहों से ओझल रख भेजने की जो स्वतंत्र व्यवस्था की गई है, वही उचित है। इस प्रकार के छिछले, छाकटेबाज कलिपुरुषों तथा क्रूर पशुओं के झुंड में उन क्रूर और दंडित स्त्रियों का भी सर्वनाश हुए बिना थोड़े ही रहेगा। इस बात का पता लगने के बाद कि मालती इस चालान में नहीं है, किशन को एक तरह से अच्छा लगा; पर कुछ बुरा भी लगा, इसलिए वह बैचैन हो गया कि उसे देखने का अवसर भी साध्य नहीं हो रहा। इसके विपरीत एक और व्यक्ति को उस चालान में न पाने के कारण उसे इतनी राहत मिली कि जैसे जान का खतरा टल गया। वह व्यक्ति है रफीउद्दीन। उसे भी आजन्म कारावास, काले पानी का दंड हो चुका था। किशन को सजा होने से कुछ ही दिन पहले। कहीं वह भी इसी चालान में साथ तो नहीं आ रहा। उसका नाम बदला गया-किशन का कंटक किया गया पर रूप तो वही है। यदि उसने मुझे पहचान लिया तो? वह क्रूरकर्मा नराधम उससे प्रतिशोध लेने के लिए कुछ भी अत्याचार कर सकता है। किशन पर भी प्रत्याघात किए बगैर नहीं रहेगा। पहले से ही भीषण संकट झेलते-झेलते दूसरी आफत गले पड़ जाएगी, जैसे कंगाली में आटा गीला। चलो जो होना है होने दो। जितना अनिष्ट होना है हो चुका-अब क्या आजन्म कारावास-क्या काला पानी-मृत्युदंड-भई, उड़द की दाल में काला-सफेद क्या देखना? इस विचार से किशन उस आपत्ति का सामना करने के लिए मन-ही-मन तैयार होता रहा था। फिर भी उसकी उत्कट इच्छा थी कि अच्छा ही होगा, यदि वह विपत्ति टल जाए। इसीलिए उस चालान में रफीउद्दीन अथवा उसका अन्य कोई साथी नहीं दिखाई देने पर उसे बहुत अच्छा लगा कि एक नई बला तो टल गई। फाँसी पर चढ़ाया जाता है, तो उस समय भी आँखों पर पट्टी बाँधकर चढ़ाया जाना थोड़ा अच्छा लगता है।

आखिर वह संपूर्ण चालान खन्-खन् करती बेड़ियों की झनझनाहट के साथ, हर एक की बगल में बिस्तरा, हाथ में थाली, चार-चार की कतारें अब एक-एक बनाकर 'महाराजा' पर-झिझकते, लुढ़कते-पुढ़कते उस जलयान की-जो लहरा पर जोर-जोर से हिलकोरे ले रहा था-सँकरी सी सीढ़ी द्वारा चढ़ गया। वह 'महाराजा' जलयान सिर्फ काले पानी पर आवाजाही के लिए ही आरक्षित था। पिछले तीस-चालीस वर्ष में इस प्रकार के सैकड़ों 'चालानों' को इसने आजन्म कारावास पर पहुँचाया। उसपर कदम रखते ही लहरों के हिलकोरों का आदी न होने के कारण किशन को चक्कर सा आ गया। उसे अहसास हो गया कि यह अग्नियान आजन्म कारावास पर नहीं, मृत्युवास पर ले जा रहा है। एक खंभे का सहारा लेकर वह स्वयं को सँभाल ही रहा था कि इतने में एक सिपाही ने 'आगे बढ़ो' कहते हुए उसे डंडे से टोका। उसके साथ ही वह फिर से पंक्ति में ठीक-ठाक खड़ा रहकर-मोटे से तल पर उतर गया। उधर देखा तो एक पूरा पिंजड़ा ही सामने था, जो लोहे की सीखचों से बना हुआ था। उस जलयान पर यह एक विशेष प्रबंध था जो काले पानी के बंदियों के लिए ही किया गया था। वह पिंजड़ा ही उन सम्माननीय अंदमानी यात्रियों का आरक्षित कक्ष-Reserved Cabin-था। उस एक छोटे पिंजड़े में, जिसमें पचास-एक व्यक्ति सो सकते हैं-उन सौ-सवा सौ दंडितों को फटाफट ठूँसा गया। जिसे जहाँ भी खाली जगह मिली, उसने वहाँ अपना बोरिया-बिस्तर फैलाया। कोई पंजाबी ब्राह्मण, कोई बंगाली चमार, कोई बलूची मुसलिम, कोई मद्रासी अय्यर, कोई भील, कोई मछियारा, कोई क्लर्क, कोई भिखारी, कोई सेठ-साहूकार, कोई ज्वर से पीड़ित, कोई अतिसारी, कोई आँव से पीड़ित-इस प्रकार विभिन्न लोगों का बेमेल मिश्रण-जैसे तिल-तंडुल का मेल-सभी एक साथ ठेलते-ठालते सटकर समान रूप से इकट्ठे ठूँसा हुए। चलो, विपत्काल में ही सही, लेकिन यह समानता ऐसी कि वर्ण भेद, जाति भेद, धर्म भेद, स्थिति भेद आदि को नकारने का साहस रूसी बोलशेविकों को भी नहीं होता।

किशन भी उस रेलपेल में अपना बिस्तर रखकर धम् से बैठ गया। पहले से ही, नाव से जहाज में आते-आते कई बंदी जिस तरह धड़ाधड़ उलटियाँ करने लगे, उसी तरह उसे भी मतली-सी आ रही थी। परंतु इधर कै करने के लिए अलग जगह कहाँ थी? हर कोई वहीं पर उलटियाँ करने लगा, जहाँ वह बैठा था। इसमें भी बेशरम ज्यादती में जो जितना अधिक दुस्साहसी, उसे उतनी ही अधिक सुविधा। बलपूर्वक धक्के देकर स्वयं यथासंभव ज्यादा-से-ज्यादा पैर पसारकर बैठ जाते। सिपाही चाहे लाख पानी पी-पीकर कोसें, डंडों से मरम्मत करें, उसकी उन्हें रंच मात्र भी लाज-शरम नहीं थी। अभ्यस्त होने के कारण उन्हें उतना डर नहीं था, न ही लिहाज। परंतु जो इस भय का लिहाज करते, जिन्हें दूसरों की गरदन मरोड़ने में रत्ती भर क्यों न हो, शरम महसूस होती; उन कायरों को अथवा जिन्होंने शरम-हया घोलकर नहीं पी है, उन्हींको पुलिसवालों तथा उन नीच दंडितों की गाली-गलौज और घिनौनी गंदगी अधिक पीड़ादाई प्रतीत होती। किशन को भी एक उग्र दंडित, जो उसकी बगल में बैठा था, बार-बार ढकेल रहा था। किशन ने वहीं पर उलटी की। उसके छींटे बिस्तर पर पड़ने के कारण वह उसे गंदी-गंदी गालियाँ दे रहा था। दूसरी ओर दमे का एक मरीज लगातार खाँसता जा रहा था, बलगम थूक रहा था। इतने भीड़-भड़क्के में मजबूरन उसकी थूक किशन के बिस्तर तथा पैरों पर गिरती। यथासंभव शरीर समेटकर, घुटने पेट में सिकोड़कर वह अपने बिस्तर को हाथ भर ही बिछाते हुए बाकी वैसा ही लपेटा रखकर उससे पीठ टिकाकर लेट गया। उस भीमकाय जलयान की कर्णकटु घरघराहट छूटने से पहले ही कान खाने लगी। जहाज की चिमनी बीच-बीच में हड़काए हुए राक्षसी कुत्तों की किसी टोली सदृश 'भोंऽऽ भों' करते पागल कुत्ते जैसी चीखने लगी।

उस अगड़धत्त धुआँकश की वह घरघराहट किशन को साक्षात् मृत्यु की ही घरघराहट महसूस होने लगी। चिमनी का वह 'भोंऽऽऽ भोंऽऽऽकार' यमराज के किसी काले-कलूटे, रक्त-पिपासु, विशालकाय, कराल कुत्ते के बुभुत्कार सदृश भीषण प्रतीत होता। पेट में निरंतर मतली, दिल में घबराहट, तड़प, सिर में चक्कर और मन में इस अहसास की सतत चुभन कि 'मैं काले पानी में आजन्म कारावास भुगतने जा रहा हूँ। अब जीवित भी रहा तो इसी प्रकार की गंदगी भरी दलदल, गाली-गलौज, लात-घूसों की असहनीय दुर्गति में मुरदा जीवन जीऊँगा और इसकी रत्ती भर भी आशा नहीं कि इस दुर्गति का कभी अंत भी होगा।' किशन अपने विचारों में लीन वैसे ही बिस्तर के सिरहाने लेटा रहा। इतने में उसके इस अस्त-व्यस्त चिंतन में अचानक एक विचार की चीख सुनाई दी।

'क्यों? भला क्यों अंत नहीं इस दुर्गति का? काला पानी, कैदे-हयात, आजन्म कारावास। ठीक है, मुक्ति नहीं हो सकती; पर छुटकारा क्यों नहीं हो सकता? पट्टा क्यों नहीं तोड़ सकते? वह रफीउद्दीन नहीं भाग गया काले पानी से? भला मैं क्यों नहीं भाग सकता उसकी तरह?'

इसी मर्छितावस्था में अस्त-व्यस्त लेकिन दढ विचारों के साथ उसकी मृतप्राय आशा अचानक उछलकर चौंक उठी। मरणासन्न व्यक्ति जिस प्रकार आकस्मिक प्रबलतावश हाथ-पाँव झटकता है, उसी प्रकार उसकी आशा सहसा ही झड़झड़ाकर प्रबल हो उठी। उसने तर्कशास्त्र का अध्ययन किया था और कुतक भा तो एक तर्क ही है। संभवासंभवनीयता, साध्य-साधनों की रुकावट, आशा तथा वात-विकार के झटके में बाधा नहीं डालती। डूबता हुआ जो तिनके का सहारा लता है, वह इसलिए कि लिये बिना रहा नहीं जाता। उसी तरह उसकी आशा ने, जो काले पानी के अथाह सागर में गोता खा रही थी, इन विचारों को झट से अपनी बाँहों में कस लिया और उस बेभान मूर्च्छितावस्था का संपूर्ण होश भी उसी एक वाक्य का संगठित करके उद्घोष करने लगा-'काले पानी से भागना है। बस! भागना ही है।'

खड् ऽऽऽ खड् ऽऽ ...

खड़खड़ाते हुए धुआँकश के पहिए, पंखयंत्र सागर के पेट में गुड़गुड़ाने लगे। 'निकल पड़ेगा। शुरू होगा। जहाज काले पानी की ओर चल पड़ेगा।' पुलिस, कदी, जहाज का कप्तान, मल्लाह, अधिकारी, नौकर-चाकर सभी के मुँह से यही एक ध्वनि उभरने लगी।

इतने में खट-खट जूते खटखटाते दो गोरे सार्जेंट एक कैदी को, जिसके हाथ-पाँवों में बेड़ियाँ, हथकड़ियाँ ठुकी हुई थीं, कड़े पहरे में नीचे उतारते पिंजड़े के द्वार के पास आ गए। धड़ाम से द्वार खुल गया और उस पिंजड़े में उस घुटे हुए दंडित के साथ, जिसे खास पहरे में लाया गया था, वे सार्जेंट अंदर घुस गए।

उस खट-खट के साथ चौंकते हुए यह देखने के लिए कि सार्जेंट आदि किसे लेकर आ रहे हैं, किशन ने लेटे-लेटे ही आँखें खोलीं-उधर देखा-वही! कौन? यह तो...? अरे, यह तो वही रफीउद्दीन अहमद है! सिर्फ चार हाथ के फासले पर अकड़कर खड़ा है!

मुट्ठियाँ कसते हुए झटके के साथ आधा उठते हुए क्रोध, भय और आश्चर्य से थरथर काँपते हुए किशन फुसफुसाया, "रफीउद्दीन ! यही है वह रफीउद्दीन अहमद!"

उससे जो पुराना बैर था, किशन के हृदय में वह यकायक खौलने लगा। स्थान, काल और स्थितियों का होश उसे नहीं रहा। जैसेकि देखते ही रफीउद्दीन शेर जैसा उसपर झपट्टा मारेगा। इसी प्रकार की लहर किशन के लहू में भी उमड़ने लगी और झपट्टा मारने के लिए घात लगाकर वह बिस्तर की ओट में बैठ गया।

इतने में रफीउद्दीन की निगाहें भी उसकी निगाहों से टकराईं।

प्रकरण-१०

अंदमान की राह पर

रफीउद्दीन की दृष्टि किशन की दृष्टि से टकराते ही, यह सोचकर कि यह साला अभी इसी वक्त हमला करेगा, हाथापाई के जोश से किशन की मुट्ठियाँ अपने आप कसने लगीं। परंतु पल भर में ही किशन को इस बात का अहसास हो गया कि रफीउद्दीन अन्य बंदियों की ओर भी उसी तरह देख रहा था। वह किसी भी तरह से विचलित नहीं हुआ है, और इसी विवंचना की ओर उसने अपना सारा ध्यान बटोरा है कि अपना बोरिया-बिस्तर किस तरह सबसे अधिक प्रशस्त जगह डाला जाए। उस अवकाश में उसे तनिक सोचने के लिए भी फुरसत मिली। यदि इसने मुझे साफ नहीं पहचाना तो न सही? वह भी उसे पहचानने से इनकार करेगा। यथासंभव उसकी यही धारणा बनी रहनी चाहिए कि वह कंटक नामधारी कोई दूसरा ही कैदी है। उस अवकाश काल में किशन ने यही निश्चय किया कि जितना भी हो सके, इससे परिचय करना टाल देना ही उचित है। और फिर अपने बिस्तर पर लेटकर आँखें मूंदने का नाटक करते हुए वह रफीउद्दीन की गतिविधियाँ देखने लगा।

रफीउद्दीन ने अपना बिस्तर पिंजड़े के एक ऐसे कोने में बखूबी रखा कि पहरेदार सिपाही से बातचीत करना सुविधाजनक हो। गोरे सार्जेंट के उसे इतने खास पहरेवाले पिंजड़े में छोड़कर, पिंजड़ा बंद करके जाते हुए देखकर पहले से ही सारे कैदियों पर उसका अच्छा-खासा रौब पड़ गया था। अधिकारी जिसे अत्यंत भयंकर दंडित समझकर भारी-से-भारी हथकड़ियाँ, बेड़ियाँ ठोंकते हैं, अन्य दंडित लोग उसे तिरस्कारास्पद व्यक्ति न मानते हुए अत्यंत पराक्रमी नरसिंह समझने लगते हैं। उन गुनाहगारों में उसका दबदबा, प्रतिष्ठा बढ़ जाती है और वे अनायास ही भयमिश्रित आदर के साथ उसके अधीन हो जाते हैं। दंडितों की इस प्रवृत्ति के कारण ही इतनी घिचपिच में रफीउद्दीन को उस महत्त्वपूर्ण कोने के दंडितों ने किसी भी प्रकार की हुज्जत, चखचख न करते हुए स्वयं को एक-दूसरे में ठूँसकर थोड़ी खुली जगह बना दी। हर कोई इस प्रकार की जिज्ञासा करता कि 'भई, यह है कौन?' यह जानकारी बातचीत के दौरान दो-चार लोगों से, जिन्हें जानकारी नहीं थी उन सभी को, प्राप्त हो गई कि यह पहले काले पानी गया हुआ एक कुख्यात बंदी है। रफीउद्दीन का इस बात का पूरा-पूरा अहसास था कि हर कोई उसकी तरफ शिष्टता और आदर क साथ देख रहा है। वह इस शान से खाँस-खंखार रहा था, पुलिस की नजरें बचाकर यथासंभव बातचीत कर रहा था, जैसे उन दंडितों का एक शहंशाह हो। उसकी आलमपनहाई के जो विशेष राजचिह्न थे-वे थीं उसके पैरों में पड़ी अन्य सभी कैदियों से भारी बेड़ियाँ-उन्हें बार-बार झनझनाता हुआ वह इतरा रहा था।

अब अँधेरा घिर आया था। वह जलयान कलकत्ता बंदरगाह छोड़कर काले पानी की राह पर तेज गति के साथ सूँ-सूँ करता जा रहा था। कलकत्ता से अंदमान जाने के लिए जो चार-पाँच दिन लगते हैं, उनमें बंदियों को सिर्फ चिउड़ा तथा चने जैसा कच्चा भोजन मिलता था, क्योंकि उनमें से प्रायः सभी घबराए हुए होते हैं। समुद्र यात्रा का वह पहला ही प्रसंग होने के कारण कई दंडितों को लगातार उलटियाँ होती हैं। उन्हें कुछ खाने-पीने की इच्छा ही नहीं होती। दूसरा कारण यह कि इतने सारे, सैकड़ों लोगों के लिए भोजन-पंगत की व्यवस्था तथा व्यय करने का अधिकारियों में भी इतना जोश नहीं होता। उसीके अनुसार चना-चिउड़ा जो शाम के समय पिंजडा बंद करते ही बाँट दिया गया था, प्रायः सभी कैदियों ने जो उलिटयों से बेजार थे, उस खाद्य सामग्री को ज्यों-का-त्यों रखा था। परंतु रफीउद्दीन का जैसे काले पानी से जनम-जनम का रिश्ता था-वह रत्ती भर भी डरा-सहमा नहीं था-न ही उसे उलटियाँ हो रही थीं, बल्कि उसके पेट में तो चूहे कूद रहे थे। उसका रौब तो पहले से ही सभी दंडितों पर पड़ गया था-भई, वह तो उनका आलमपनाह ही था। अतः उसने, जिस प्रकार राजे-महाराजे अपना लगान प्रजा से वसूल करते हैं, उसी अधिकार से, अपने आसपास के दंडितों से उनका वैसे ही रखा हुआ खाने का हिस्सा स्पष्ट रूप से माँग लिया। एक-दो ने देने में अगर-मगर की तो इसने किसी दूसरे बहाने से झगड़ा छेड़कर गाली-गलौज करते हुए उन्हें धमकाया और उनका हिस्सा हड़प लिया। लाय-चना तथा चिरा-चिउड़ा का फाँका मार-मारकर-इधर-उधर बिखेरकर रफीउद्दीन अब पिंजड़े की सीखचों के पास किसीकी प्रतीक्षा में खड़ा था। किसी कैदी के कुछ पूछने पर वह कहता, 'तनिक ठहरो, फिर बात करेंगे।'

इतने में उसे वह अवसर मिल गया जिसकी ताक में वह था। रात नौ बजे ही पिंजड़े का पहरा बदला गया। उस 'चालान' को काला पानी लाने के लिए काला पानी पुलिस के कुछ आदमियों को कलकत्ता भेजा जाता है। उनमें दो जनों का यह दूसरा पहरा था। काले पानी से आए हुए उन पुलिसवालों से रफीउद्दीन की गाढ़ी छनने लगी थी। वह उन्हींके पहरे की प्रतीक्षा कर रहा था। उनके आते ही रफीउद्दीन ने सीखचों में से अपना हाथ तनिक आगे बढ़ाकर उन पहरेदारों से परिचयसूचक हाथ मिलाया। परंतु पहरेदारों के हाथों में हलदी की गाँठ कहिए या मिश्री की छोटी सी डली, अर्थात् सोने या चाँदी का एक सिक्का आ ही गया। पहरेदार आनन-फानन दूसरे सिरे तक चक्कर लगाता हुआ गया। फिर तनिक सन्नाटा होते ही रफीउद्दीन के पिंजड़े की सीखचों में से बीड़ी का एक बंडल तथा दियासलाई टप् से गिर गई। उसी समय से पिंजड़े की उस रियासत में सर्वाधिकारी सदृश उसकी अच्छी तरह से पटरी बैठ गई। उस सर्वाधिकार का लाभ भी वह कुछ बातों में भलीभाँति उठाने लगा।

जिस तरह आगे चलकर पिंडारियों [4] के नेताओं की रियासतें बन गईं उसी प्रकार कुछ साहसी, दिलेर लुटेरे जब-जब राज्यों की स्थापना करके राजे-महाराजे बन जाते हैं तब-तब वे राजा-महाराजाओं जैसा व्यवहार भी करने लगते हैं। स्वयं द्वारा किए जा रहे अन्याय के प्रति आँखें बंद करके अन्य लोगों के न्यायान्याय का वे चोखा फैसला करते हैं। स्वयं अपनी लूटपाट छोड़कर अन्य लोगों को आपस में लूटपाट नहीं करने देते। उनकी चाहत के अनुसार मचाया गया फसाद छोड़कर अन्य मामलों में अन्य लोगों को आपसी उपद्रव, फसाद कम करने के लिए अपनी दयाशीलता का, उदारता का भी अच्छा खासा प्रदर्शन करते हैं।

रफीउद्दीन अतिक्रूर व्यक्ति था। वह तब तक मनुष्यता का व्यवहार करता था जब तक कोई उसका मन नहीं तोड़ता था, ताकि उसकी क्रूरता अपना फन न उभारे। उसने कई कैदियों को ढाढस बँधाया, जिनके काले पानी के नाम से छक्के छूट जाते हैं, "अरे यार, घबराओ मत। वहाँ तो दस हजार लोग पच्चीस-तीस-चालीस सालों तक जीवित रहते हैं। कई लोग तो बीवी-बच्चों का खलेरा फैलाकर अपनी घर-गृहस्थी भी बसा लेते हैं। खेती, पशु, घरबार सबकुछ तो होता है उधर। अरे, तुम्हारी ही तरह मेरे हाथों के भी तोते उड़ गए थे। लेकिन उधर रहने के बाद हजार रुपए गाँठ में बाँधकर लौटा था। घबराओ मत पट्ठो, घबराओ मत।" कई लोग दस्त-उलटियों से परेशान थे, तब सिपाहियों से लड़कर, आवश्यकता पड़ी तो डॉक्टरों से भी लड़कर उन्हें इस प्रकार फटकार कर कि बंदियों से कैसे पेश आएँ-इस संबंध में जो नियम हैं उनको भंग क्यों कर रहे हैं-कप्तान साहब को शिकायत करने की धमकी देता और दवा-दारू देने के लिए उन्हें बाध्य करता। जो कैदी उसे अपने हिस्से का चना-चिरा-चिउड़ा अर्पण करते, बदले में वह उन्हें बीड़िया के वे टुकड़े दे देता जो उसे नहीं चाहिए थे। अपने जीवन के सच्चे-झूठे प्रसंगों का वर्णन इस प्रकार बाल का कंबल बनाकर कहता; ऐसे पद, भजन गाता कि उन बंदियों को अपनी बीमारी तथा अत्यधिक कष्टों का घड़ी भर को ही क्यों न हो, विस्मरण हो जाता, उनका दिल बहलता। आजन्म कारावास सजा प्राप्त प्रत्येक बंदी के आगे-पीछे, ऊपर-नीचे पिशाचवत् एक ही प्रश्न इस दुर्धर प्रसंग में उभरता, 'काला पानी कैसा होगा? उधर कैसी-कैसी दारुण यातनाओं को भोगना होगा? उसमें से यदि संभव हो तो छुटकारा कैसे पा सकते हैं?' जिस प्रकार मनुष्य को यह असह्य जिज्ञासा होती है कि यमलोक कैसा होगा, उसी प्रकार 'महाराजा' के ये आजन्म कारावास दंड प्राप्त बंदी भी एक ही प्रश्न के दीवाने होते हैं, 'काला पानी कैसा होगा?' जिससे जो भी मिलता उससे उसका यही प्रश्न पूछने के लिए जी ललचाता।

इस प्रकार की मानसिक अवस्था में वह रफीउद्दीन, जो काले पानी का प्रत्यक्ष अनुभव गाँठ में बाँधकर आया है, उन्हें साक्षात् गरुड़ पुराण ही प्रतीत होता। उसने यमपुरी का भूगोल उकेरा था। किशन के मन में भी यही लालसा उछल रही थी कि इससे उधर की जानकारी ले और खासकर वह रोमांचकारी कथा सुने कि काले पानी से वह कैसे चंपत हो गया था? लेकिन पहचाने जाने के डर से 'भीख मत दो, पर अपने कुत्ते को तो रोको' की नीति का अवलंबन करके किशन ने पहले एक-दो दिन तो रफीउद्दीन की तरफ देखा ही नहीं।

परंतु रफीउद्दीन ने कच्ची गोलियाँ नहीं खेली थीं। वह हाथ पर हाथ धरे बैठनेवाला थोड़े ही था? उसका पहला कार्यक्रम था जो-जो बंदी उसे दिखाई देता, उस विशेष कैदी के अभियोग तथा चरित्र की जानकारी लेता। उस प्रत्येक बंदी की, जो आजन्म कारावास की सजा प्राप्त है, रामकहानी एक-एक उपन्यास का कथ्य होती है। असाधारण दुष्टता, सुष्टता, विक्षिप्तता, संकट, मुक्ति, खून-खराबा, हत्या, उत्पात, उपद्रव, प्रतिशोध, सुख-दुःख, दुर्गति इन सभी का एक विलक्षण कोलाहल। वह पिंजड़ा उपन्यासों से भरी हुई एक अलमारी है, भानुमती का पिटारा है। इन उपन्यासों में उमड़-उमड़कर बहनेवाली तथा उखाड़नेवाली भावनाएँ हैं। ऐसे उपन्यास दुनिया के किसी भी ग्रंथालय में नहीं मिलेंगे। प्रथम श्रेणी का यात्री जिस प्रकार धुंआकश पर अपने केबिन में आराम से बैठकर रोमांचक उपन्यास के पन्ने उलटने में तल्लीन होता है, उसी प्रकार रफीउद्दीन उस पिंजड़े में उस एक-एक कैदी के सनसनीखेज रोमहर्षक चरित्र के पन्ने उलटने में लीन हो गया था। यद्यपि सागर यात्रा से परेशान होकर किशन निढाल होकर चुपचाप अपने बिस्तर पर ही लेटा था तथापि दो-चार बार रफीउद्दीन का ध्यान उसकी ओर चला गया, जो जाना ही था। रफीउद्दीन को इस बात का आश्चर्य था कि उसके मुकदमे में जो वह 'उल्लू का पट्ठा किशन' था, उससे इस कैदी का चेहरा-मोहरा कितना मिलता-जुलता है। परंतु किशन जैसा बेमुरव्वत उल्लू एक बार इतने भयंकर अभियोग से निर्दोष छूटने के बाद फिर कभी ऐसे झंझट में क्यों पड़ेगा? यह विचार बिलकुल असंभव प्रतीत होने के बावजूद रफीउददीन के मन को एक बार स्पर्श तो कर गया, पर वह उससे चिपककर नहीं बैठा। तथापि ये जीवित रहस्यकथाएँ पढ़ते-पढ़ते रफीउद्दीन ने जिज्ञासावश एक-दो जनों से पूछा ही कि इस पुस्तक का परिचय क्या है।

"यह प्राणी कौन है, भई? न हिलता है, न डुलता है, न मुसकराता है, न ही कुछ बोलता है; बिलकुल बुत बनकर लेटा है। बिलकुल ही छिछोरा-कोई साधारण सा लल्लू-पंजू, चोर-उचक्का, ऐरा-गैरा पचकल्यानी ही लग ता है।''

उसपर उसे दो-एक जनों ने बताया, "नहीं-नहीं मियाँ, हमारे चालान में वह आज दस-बारह दिनों से है। 'बाबू' है वह। सुना है, फर्राटेदार अंग्रेजी और क्या कहते हैं, 'संसकुरित' पढ़ा है। दंडित होने पर जेल में लिखा-पढ़ी का काम दिया था उसे। आदमी पर आदमी है वह बाबू।"

रफीउद्दीन की जिज्ञासा बढ़ गई, "क्या नाम है उसका?"

"साहब लोग इसे कंटक बाबू कहते हैं।"

"इसका अपराध क्या है?"

"हत्या! खून!"

यह जानकारी दो-तीन बार सुनते ही रफीउद्दीन की खुशी का ठिकाना नहीं रहा-अंधा क्या चाहे दो आँखें। उसे वही मिल गया जो वह चाहता था। कंटक बाबू को साहब लोग भी मानते थे, जेल में उसे बंदी लेखक का काम पहले ही मिल चुका था, यह सुनते ही कि इसे केवल हत्या के आरोप में सजा हुई है, रफीउद्दीन ने, जो काले पानी के नियमों का पर्याय बन गया था, तुरंत गौर किया कि इस आजन्म कारावास की सजावाले कैदी को काले पानी पर पहुँचते ही 'बाबू' का महत्त्वपूर्ण काम मिलेगा। मात्र एक हत्या का अपराधी एक सौम्य अपराधी समझा जाए-यह उस यमलोक में न्यायसंगत ही था, क्योंकि वहाँ तो रफीउद्दीन जैसे जालिम, निघरे नृशंस पापी ही यहाँ-वहाँ बिखरे पड़े हैं। इसलिए उधर गए हुए दंडितों में जो इस तात्कालिक आवेश में घटित हत्या सदृश अपराध का बंदी होता है, उसे सुधारणीय बंदियों की श्रेणी में दर्ज किया जाता है और उसके साथ काफी सौम्य-काले पानी की क्रूरता एवं कठोरता के विपरीत-व्यवहार किया जाता है। उसपर इस प्रकार के 'सुधारणीय' वर्ग के बंदियों में यदि कोई पढ़ा-लिखा हो तो उसे काला पानी स्थित बंदियों में लेखक का स्थान प्राप्त होता है। उसके हाथ में साहब की निकटता की कुंजी होने से अन्य निघरे लुटेरों आदि बंदियों के भवितव्य के बहुत सारे सूत्र इन लेखक कैदियों के प्रतिवृत्तांत से निर्धारित किए जाते हैं। वॉर्डर की नियुक्ति, वॉर्डरों को ऐसे ही सुविधाजनक काम जिसमें लाभ हो बाँटना, जेलद्वार की आवाजाही दर्ज करना, सिपाहियों की उपस्थिति रखना, बड़े-बड़े कारखानों के आय-व्यय का हिसाब रखना आदि कार्य इन लेखक बंदियों के हाथों में धीरे-धीरे सौंपे जाते हैं। अत: निघरघट बंदी वॉर्डर प्रभुति दंडितों पर ही नहीं, अपितु स्वतंत्र सिपाही कामगारों पर भी इस बंदी लेखक वर्ग की अच्छी-खासी छाप होती थी। घूसखोरी का उनका सारा कच्चा चिट्ठा खोलना अथवा उसे छिपाना, अधिकांशत: इन लेखक बंदियों के हाथ में होता है। आजन्म कारावास प्राप्त दंडित लेखक को 'बाबू' कहा जाता है।

रफीउद्दीन काले पानी से भागने के घोर अपराध में पुनः काले पानी की सजा मिलने के कारण यह जानता था कि उसे वहाँ प्रथमत: बहुत ही कठोर अवस्था में रहना होगा। ऐसी स्थिति में उसने गौर किया कि उसीके चालान का एक व्यक्ति यदि इस प्रकार बाबू बनकर आनेवाला हो तो उससे दृढ़ परिचय होना उसके लिए अवश्य लाभदायी होगा। इसीलिए वह कंटक बाबू का कृपा प्रसाद पाने के लिए लालायित हो उठा। उसने तुरंत कंटक बाबू के पास जाकर उनसे परिचय किया। उसका नाम कंटक, अपराध सिर्फ हत्या; अतः उसका चेहरा मोहरा किशन से मिलता-जुलता प्रतीत होने पर भी अन्य किसी भी बात का किसीसे तालमेल न होने के कारण रफीउद्दीन काफी निस्संदिग्धता के साथ कंटक बाबू से घनिष्ठता बढ़ाने लगा। कंटक बाबू की सहायता का भरसक प्रयास करके उन्हें पुचकारने लगा। अपने परिचित तथा ऋणानुबंधवाले सिपाहियों का पहरा शुरू होते ही अपनी अंतिम दो रातें उसने कंटक के पास ही जाकर गुजारी। कंटक भी उससे बहुत सारी जानकारी प्राप्त करना चाहता था। इससे साँठ-गाँठ करने से काले पानी से नौ-दो ग्यारह होने का रास्ता भी मिल सकता है, इस प्रकार एक दुस्साहसपूर्ण आशा भी उसे लुभाने लगी। सपेरा जिस तरह काले भुजंग के साथ उसके विषाक्त डंक के दायरे से यथासंभव बाहर रहकर खेलता है, उसी तरह कंटक भी रफीउद्दीन के साथ खेलने लगा। रफीउद्दीन के मन पर दृढ़तापूर्वक यह बात अंकित करने के लिए कि वह उसे बिलकुल नहीं जानता, रात में गपशप का अड्डा जमते ही किशन ने कहा, "लेकिन मियाँ, आप जैसा दिलेर, साहसी, चतुर पुरुष पुलिस को चकमा देकर काले पानी से भागने की दुष्कर, साहसपूर्ण आँख-मिचौनी में तो सफल हो जाता है लेकिन अपने देश में सही-सलामत पहुँचने के बाद भारतीय पुलिस के जाल में पुनः फँस जाता है! भई यह क्या माजरा, यह हुआ कैसे? चोरी, लूटपाट, डकैती आदि दुष्कर्मों के कारण एक बार जबरजस्त ठोकर खाकर आप हिंदुस्थान में भागकर जाने के पश्चात् पुनः इस प्रकार के संकटमय झंझट में न फँसते तो ही अच्छा था न? मुझे इस बात का बड़ा दुःख होता है कि आपको काले पानी से भागकर आने के लिए जिन जानलेवा संकटों का सामना करना पड़ा होगा, वे सारे-के-सारे इसी एक गलती के कारण निष्फल हो गए और आपके सारे किए-कराए पर पानी फिर गया। फिर वही दुर्दशा आपके भाग्य में आ गई। इसीलिए पूछे बिना नहीं रहा जाता।"

"क्या कहूँ कंटक बाबू! मैंने तो सचमुच ही बड़ी ईमानदारी के साथ जीवन बिताने का निश्चय किया था। काले पानी से भाग जाने के पश्चात् मैंने फकीरी ही ग्रहण की थी। हिंदू साधुओं पर भी मेरी भक्ति थी, अत: मैं योगाभ्यास करने लगा। कंटक बाबू, आप विश्वास करें या न करें लेकिन मैं भगवान् की सौगंध खाकर कहता हूँ कि इससे पहले मैंने डाके डाले, चोरी-लूटपाट की, फसाद किया, लेकिन काले पानी से लौटने के बाद मुझे यदि किसी बात का मोह था तो वह भक्ति तथा योग का। भोग-विलास मुझे फूटी आँख नहीं सुहाता। दरअसल मुझपर यह जो संकट का पहाड़ टूट पड़ा वह मेरे किसी नए दुष्कृत्यवश नहीं, अपितु धर्म-न्यायसंगत व्यवहार करने का दृढ़ निश्चय करने के बाद भगवान् जो एक सत्कृत्य मेरे हाथ से करवाना चाहते थे, उसी सत्कृत्यवश।" फिर वह अचानक मौन हो गया जैसे किसी गंभीर विचार में उलझ गया हो।

अनेक बंदियों के मुख से, जो यह सब बड़े ध्यान से सुन रहे थे, एक साथ एक ही सवाल निकला, "अच्छा? बोलो न मियाँजी, कहो ऐसी, क्या बात हो गई? कौन सा सत्कर्म था वह?"

इस बात से निश्चित होकर कि ऐसा कोई कैदी यहाँ उपस्थित नहीं, जो उसका पूर्वकालीन कच्चा चिट्ठा जानता हो, रफीउद्दीन किसी धर्मवीर की शान से कहने लगा, "क्या कहूँ बाबूजी! अच्छा, आपने ग्वालियर नगरी देखी है कभी?"

कंटक बाबू ने कहा, "जी नहीं।"

यह सुनते ही उसे इस बात का विश्वास हो गया कि अब चाहे झूठ के जितने भी प