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वैचारिकी संग्रह

सावरकर समग्र खंड 6

विनायक दामोदर सावरकर


सावरकर समग्र

स्‍वातंत्र्यवीर

विनायक दामोदर सावरकर

प्रभात प्रकाशन,दिल्‍ली


आभार -

स्‍वातंत्र्यवीर सावरकर राष्‍ट्रीय स्‍मारक 252 स्‍वतंत्र्यवीर सावरकर शिवाजी उद्यान, दादर, मुंबई- 28

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प्रकाशक - प्रभात प्रकाशन

4/19 आसफ अली रोड

नई दिल्‍ली- 110002

सस्‍करण- 2005

© सौ. हिमानी सावरकर

मूल्‍य - पाँच सौ रुपए प्रति खंड

पाँच हजार रुपए (दस खंडों का सैट)

मुद्रक - नरुला प्रिंटर्स, दिल्‍ली



स्‍वर्णिम पृष्‍ठ : प्रथम


सावरकर समग्र

प्रथम खंड

पूर्व पीठिका, भंगूर, नाशिक शत्रु के शिविर में लंदन से लिखे पत्र

पष्‍टम खंड

छह स्‍वर्णिम पृष्‍ठ

हिंदू पदपादशाही

द्वितीय खंड

मेरा आजीवन कारावास अंदमान की कालकोठरी से गांधी वध नि‍वेदन

आत्‍महत्‍या या आत्‍मार्पण अंतिम इच्‍छा पत्र

सप्‍तम खंड

जातिभंजक निबंध

सामाजिक भाषण

विज्ञाननिष्‍ठ निबंध

तृतीय खंड

काला पानी

मुझे उससे क्‍या? अर्थात् मोपला कांड अंधश्रद्धा निर्मूलक कथाएँ

अष्‍टम खंड

मैझिनी चरित्र

विदेश में भारतीय स्‍वतंत्रता संग्राम

क्षकिरणे ऐतिहासिक निवेदन

अभिवन भारत संबंधी भाषण

चतुर्थ खंड

उ: शाप बोधिवृक्ष संन्‍यस्‍त खड्ग

उत्तरक्रिया प्राचीन अर्वाचीन महिला गरमागरम चिवड़ा गांधी गोंधल

नवम खंड

हिंदुत्‍व हिंदुत्‍व का प्राण नेपाली आंदोलन लिपि सुधार आंदोलन हिंदू राष्‍ट्रदर्शन

पंचम खंड

१८५७ का स्‍वातंत्र्य

समर रणदुंदुभि तेजस्‍वी तारे

दशम खंड

कविताएँ

भाषा-शुद्धि लेख विविध लेख


अनुवाद:

प्रो.निशिकांत मिरजकर, डॉ. ललिता मिरजकर,

डॉ. हेमा जावडेकर, श्री वामन राव पाठक, श्री काशीनाथ जोशी,

श्री शरद दामोदर महाजन, श्री माधव साठे, सौ. कुसुम तांबे,

सौ. सुनीता कुट्टी, सौ. प्रणोति उपासने,

सौ. सिंधुताई भिंगारकर, श्री वि. गो. वैद्य

संपादन:

प्रो. निशिकांत मिरजकर, डॉ. श्‍याम बहादुर वर्मा,

श्री रामेश्‍वर मिश्र 'पंकज', श्री जगदीश उपासने,

श्री काशीनाथ जोशी, श्री धृतिवर्धन गुप्‍त, श्री अशोक कौशिक,

सौ. रश्मि घटवाई

मार्गदर्शन :

श्री त्रिलोकीनाथ चतुर्वेदी, डॉ. हरींद्र श्रीवास्‍तव,

श्री शिवकुमार गोयल


विनायक दामोदर सावरकर : संक्षिप्‍त जीवन परिचय

श्री विनायक दोमोदर सावरकर, दामोदर सावरकर भारतीय स्वाधीनता-संग्राम के एक तेजस्वी तथा अग्रणी नक्षत्र थे। 'वीर सावरकर' शब्द साहस, वीरता, देशभक्ति का पर्यायवाची बन गया है। 'वीर सावरकर' शब्द के स्मरण करते ही अनुपम त्याग, अदम्य साहस, महान् वीरता, एक उत्कट देशभक्ति से ओतप्रोत इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठ हमारे सामने साकार होकर खुल पड़ते हैं।

वीर सावरकर न केवल स्वाधीनता संग्राम के एक तेजस्वी सेनानी थे अपितु वह एक महान् क्रांतिकारी, चिंतक, सिद्धहस्त लेखक, कवि, ओजस्वी वक्ता तथा दूरदर्शी राजनेता भी थे। वह एक ऐसे इतिहासकार भी थे जिन्होंने हिंदू राष्ट्र की विजय के इतिहास को प्रामाणिक ढंग से लिपिबद्ध किया तो '१८५७ के प्रथम स्वातंत्र्य समर' का सनसनीखेज व खोजपूर्ण इतिहास लिखकर ब्रिटिश शासन को हिला डाला था।

इस महान् क्रांतिपुंज का जन्म महाराष्ट्र के नासिक जिले के ग्राम भगूर में चित्तपावन वंशीय ब्राह्मण श्री दामोदर सावरकर के घर २८ मई, १८८३ को हुआ था। गाँव के स्कूल में ही पाँचवीं तक पढ़ने के बाद विनायक आगे पढ़ने के लिए नासिक चले गए।

लोकमान्य तिलक द्वारा संचालित 'केसरी' पत्र की उन दिनों भारी धूम थी। 'केसरी' में प्रकाशित लेखों को पढ़कर विनायक के हृदय में राष्ट्रभक्ति की भावनाएँ हिलोरें लेने लगीं। लेखों, संपादकीयों व कविताओं को पढ़कर उन्होंने जाना कि भारत को दासता के चंगुल में रखकर अंग्रेज किस प्रकार भारत का शोषण कर रहे हैं। वीर सावरकर ने कविताएँ तथा लेख लिखने शुरू कर दिए। उनकी रचनाएँ मराठी पत्रों में नियमित रूप से प्रकाशित होने लगीं। 'काल' के संपादक श्री परांजपे ने अपने पत्र में सावरकर की कुछ रचनाएँ प्रकाशित की, जिन्होंने तहलका मचा दिया।

सन् १९०५ में सावरकर बी.ए. के छात्र थे। उन्होंने एक लेख में विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का आह्वान किया। इसके बाद उन्होंने अपने साथियों के साथ मिलकर विदेशी वस्त्रों की होली जलाने का कार्यक्रम बनाया लोकमान्य तिलक इस कार्य के लिए आशीर्वाद देने उपस्थित हुए।

सावरकर की योजना थी कि किसी प्रकार विदेश जाकर बम आदि बनाने सीखे जाएँ तथा शस्त्रास्त्र प्राप्त किए जाएँ। ९ जून १९०६ को सावरकर इंग्लैंड के लिए रवाना हो गए। वह लंदन में 'इंडिया हाउस' में ठहरे। उन्होंने वहाँ पहुँचते हो अपनी विचारधारा के भारतीय युवकों को एकत्रित करना शुरू कर दिया। उन्होंने 'फ्री इंडिया सोसाइटी' की स्थापना की।

सावरकर 'इंडिया हाउस' में रहते हुए लेख व कविताएँ लिखते रहे। वह गुप्त रूप से बम बनाने की विधि का अध्ययन व प्रयोग भी करते रहे। उन्होंने इटली के महान् देशभक्त मैझिनो का जीवन-चरित्र लिखा। उसका मराठी अनुवाद भारत में छपा तो एक बार तो तहलका हो मच गया था।

१९०७ में सावरकर ने अंग्रेजों के गढ़ लंदन में १८५७ को अर्द्धशती मनाने का व्यापक कार्यक्रम बनाया। १० मई, १९०७ को 'इंडिया हाउस' में सन् १८५७ की क्रांति की स्वर्ण जयंती का आयोजन किया गया। भवन को तोरण-द्वारों से सजाया गया। मंच पर मंगल पांडे, लक्ष्मीबाई, वीर कुँवरसिंह, तात्या टोपे, बहादुरशाह जफर, नानाजी पेशवा आदि भारतीय शहीदों के चित्र थे भारतीय युवक सीने व बाँहों पर शहीदों के चित्रों के बिल्ले लगाए हुए थे। उनपर अंकित था- '१८५७ के वीर अमर रहें'। इस समारोह में कई सौ भारतीयों ने भाग लेकर १८५७ के स्वाधीनता संग्राम के शहीदों को श्रद्धांजलि अर्पित की। राष्ट्रीय गान के बाद वीर सावरकर का ओजस्वी भाषण हुआ, जिसमें उन्होंने सप्रमाण सिद्ध किया कि १८५७ में 'गदर' नहीं अपितु भारत की स्वाधीनता का प्रथम महान् संग्राम हुआ था।

सावरकर ने १९०७ में '१८५७ का प्रथम स्वातंत्र्य समर' ग्रंथ लिखना शुरू किया। इंडिया हाउस के पुस्तकालय में बैठकर वह विभिन्न दस्तावेजों व ग्रंथों का अध्ययन करने लगे। उन्होंने अनेक ग्रंथों के गहन अध्ययन के बाद इसे लिखना शुरू किया।

ग्रंथ की पांडुलिपि किसी प्रकार गुप्त रूप से भारत पहुँचा दी गई। महाराष्ट्र में इसे प्रकाशित करने की योजना बनाई गई । 'स्वराज्य' पत्र के संपादक ने इसे प्रकाशित करने का निर्णय लिया; किंतु पुलिस ने प्रेस पर छापा मारकर योजना में बाधा डाल दी। ग्रंथ की पांडुलिपि गुप्त रूप से पेरिस भेज दी गई । वहाँ इसे प्रकाशित कराने का प्रयास किया गया; किंतु ब्रिटिश गुप्तचर वहाँ भी पहूँच गए और ग्रंथ को प्रकाशित न होने दिया गया। ग्रंथ के प्रकाशित होने से पूर्व ही उसपर प्रतिबंध लगा दिया गया। अंततः १९०९ में यह ग्रंथ फ्रांस से प्रकाशित हो गया।

ब्रिटिश सरकार तीनों सावरकर बंधुओं को 'राजद्रोही' व खतरनाक क्रांतिकारी घोषित कर चुकी थी। सावरकर इंग्लैंड से पेरिस चले गए। पेरिस में उन्हें अपने साथी याद आते। वह सोचते कि उनके संकट में रहते उनका यहाँ सुरक्षित रहना उचित नहीं है। अंततः वह इंग्लैंड के लिए रवाना हो गए।

१३ मार्च, १९१० को लंदन के रेलवे स्टेशन पर पहूँचते ही सावरकर को बंदी बना लिया गया और ब्रिक्स्टन जेल में बंद कर दिया गया। उनपर लंदन की अदालत में मुकदमा शुरू हुआ। न्यायाधीश ने २२ मई को निर्णय दिया कि क्योंकि सावरकर पर भारत में भी कई मुकदमे हैं, अत: उन्हें भारत ले जाकर वहीं मुकदमा चलाया जाए। अंततः २९ जून को सावरकर को भारत भेजने का आदेश जारी कर दिया गया।

१ जुलाई, १९१० को 'मोरिया' जलयान से सावरकर को कड़े पहरे में भारत रवाना किया गया। ब्रिटिश सरकार को भनक लग गई थी कि सावरकर को रास्ते में छुड़ाने का प्रयास किया जा सकता है। अतः सुरक्षा प्रबंध बहुत कड़े किए गए। ८ जुलाई को जलयान मार्सेलिस बंदरगाह के निकट पहुँचने ही वाला था कि सावरकर शौच जाने के बहाने पाखाने में जा घुसे। फुरती के साथ उछलकर वह पोर्ट हॉल तक पहूँचे और समुद्र में कूद पड़े।

अधिकारियों को जैसे ही उनके समुद्र में कूद जाने की भनक लगी कि अंग्रेज अफसरों के छक्के छूट गए। उन्होंने समुद्र की लहरें चीरकर तैरते हुए सावरकर पर गोलियों की बौछार शुरू कर दी। सावरकर सागर की छाती चीरते हुए फ्रांस के तट को ओर बढ़ने लगे। कुछ ही देर में वह तट तक पहुँचने में सफल हो गए। किंतु उन्हें पुनः बंदी बना लिया गया। १५ सितंबर, १९१० को सावरकर पर मुकदमा शुरू हुआ। सावरकर ने स्पष्ट कहा कि भारत के न्यायालय से उन्हें न्याय की किंचित् भी आशा नहीं है, अतः वह अपना बयान देना व्यर्थ समझते हैं।

१४ दिसंबर को अदालत ने उन्हें ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध षड्यंत्र रचने, बम बनाने तथा रिवॉल्वर आदि शस्त्रास्त्र भारत भेजने आदि आरोपों में आजन्म कारावास की सजा सुना दी। उनकी तमाम संपत्ति भी जब्त कर ली गई।

२३ जनवरी, १९११ को उनके विरुद्ध दूसरे मामले की सुनवाई शुरू हुई। ३० जनवरी को पुन: आजन्म कारावास की सजा सुना दी गई। इस प्रकार सावरकर को दो आजन्म कारावासों का दंड दे दिया गया। सावरकर को जब अंग्रेज न्यायाधीश ने दो आजन्म कारावासों का दंड सुनाया तो उन्होंने हंसते हुए कहा, 'मुझे बहुत प्रसन्नता है कि ईसाई (ब्रिटिश) सरकार ने मुझे दो जीवनों का कारावास- दंड देकर पुनर्जन्म के हिंदू सिद्धांत को मान लिया है।'

कुछ माह बाद महाराजा नामक जलयान से सावरकर को अंदमान भेज दिया गया। वे ४ जुलाई, १९११ को अंदमान पहुँचे अंदमान में उन्हें अमानवीय यातनाएँ दी जाती थीं। कोल्हू में बैल की जगह जोतकर तेल पिरवाया जाता था, मूँज कुटवाई जाती थी। राजनीतिक बंदियों पर वहाँ किस प्रकार अमानवीय अत्याचार ढाए जाते थे, इसका रोमांचकारी वर्णन सावरकरजी ने अपनी पुस्तक 'मेरा आजीवन कारावास' में किया है।

सावरकरजी ने अंदमान में कारावास के दौरान अनुभव किया कि मुसलमान वॉर्डर हिंदू बंदियों को यातनाएँ देकर उनका धर्म-परिवर्तन करने का कुचक्र रचते हैं। उन्होंने इस अन्यायपूर्ण धर्म-परिवर्तन का डटकर विरोध किया तथा बलात् मुसलिम बनाए गए अनेक बंदियों को हिंदू धर्म में दीक्षित करने में सफलता प्राप्त की। उन्होंने अंदमान की कालकोठरी में कविताएँ लिखीं। 'कमला', 'गोमांतक' तथा 'विरहोच्छवास' जैसी रचनाएँ उन्होंने जेल की यातनाओं से हुई अनुभूति के वातावरण में ही लिखी थीं। उन्होंने 'मृत्यु' को संबोधित करते हुए जो कविता लिखी बार अत्यंत मार्मिक व देशभक्ति से पूर्ण थी।

सावरकरजी ने अंदमान कारागार में होनेवाले अमानवीय अत्याचारों की सूचना किसी प्रकार भारत के समाचारपत्रों में प्रकाशित कराने में सफलता प्राप्त कर ली इससे पूरे देश में इन अत्याचारों के विरोध में प्रबल आवाज उठी। जाँच समिति ने अंदमान जाकर जाँच की। अंत में दस वर्ष बाद मई १९२१ में सावरकरजी को अंदमान से मुक्ति मिली। उन्हें अंदमान से लाकर रत्नागिरि तथा यरवदा की जेलों में बंद रखा गया। तीन वर्षों तक इन जेलों में रखने के बाद सन् १९२४ में उन्हें रत्नागिरि में नजरबंद रखने के आदेश हुए रत्नगिरि में रहकर उन्होंने अस्पृश्यता निवारण, हिंदू संगठन जैसे अनूठे कार्य किए।

'हिंदुत्व', 'हिंदू पदपादशाही', 'उ:श्राप', 'उत्तरक्रिया', 'संन्यस्त खड्ग' आदि ग्रंथ उन्होंने रत्नागिरि में ही लिखे।

१० मई, १९३७ को सावरकरजी की नजरबंदी रद्द की गई।

नजरबंदी से मुक्त होते ही सावरकरजी का भव्य स्वागत किया गया अनेक नेताओं ने उन्हें कांग्रेस में शामिल करने का प्रयास किया; किंतु उन्होंने स्पष्ट कह दिया, 'कांग्रेस की मुसलिम तुष्टीकरण की नीति पर मेरे तीव्र मतभेद हैं मैं हिंदू महासभा का ही नेतृत्व करूँगा।'

३० दिसंबर, १९३७ को अहमदाबाद में आयोजित अखिल भारतीय हिंदू महासभा के अधिवेशन में सावरकरजी सर्वसम्मति से अध्यक्ष चुने गए। उन्होंने 'हिंदू' की सर्वश्रेष्ठ व मान्य परिभाषा की। हिंदू महासभा के मंच से सावरकरजी ने 'राजनीति का हिंदूकरण और हिंदू का सैनिकीकरण' का नारा दिया। उन्होंने हिंदू युवकों को अधिक-से-अधिक संख्या में सेना में भरती होने की प्रेरणा दी। उन्होंने तर्क दिया, 'भारतीय सेना के हिंदू सैनिकों पर ही इस देश की रक्षा का भार आएगा, अतः उन्हें आधुनिकतम सैन्य विज्ञान की शिक्षा दी जानी जरूरी है।'

२६ फरवरी, १९६६ को भारतीय इतिहास के इस अलौकिक महापुरुष ने इस संसार से विदा ले ली। अपनी अंतिम वसीयत में भी उन्होंने हिंदू संगठन व सैनिकीकरण के महत्त्व, शुद्धि की आवश्यकता पर प्रकाश डाला। भारत को पुनः अखंड बनाए जाने की उनकी आकांक्षा रही।

ऐसे वीर पुरुष का व्यक्तित्व और कृतित्व आज भी हमारे लिए पथ-प्रदर्शक का काम करने में सक्षम है।

-शिवकुमार गोयल


अनुक्रम

छह स्वर्णिम पृष्ठ १३

स्वर्णिम पृष्ठ: प्रथम १५

चंद्रगुप्त-चाणक्य १७

स्वर्णिम पृष्ठ : द्वितीय ६९

यवनांतक सम्राट् पुष्यमित्र ७१

स्वर्णिम पृष्ठ: तृतीय ९७

शक कुषाणांतक विक्रमादित्य ९९

स्वर्णिम पृष्ठ: चतुर्थ १२१

हूणांतक यशोधर्मा १२३

स्वर्णिम पृष्ठ: पंचम (पूर्वार्द्ध) १३७

१. महाराष्ट्रीय पराक्रम का उच्चांक अटक पर भगवा ध्वज फहराया गया! १३९

२. केवल हिंदू-निंदक इतिहास १४२

३. दस शतक-व्यापी मुसलिम-हिंदू महासंघर्ष की विशेषता, मुसलिमों के धार्मिक अत्याचार, गजनी के सुलतान १५९

४. सद्गुण विकृति १८०

५. एक ही रामबाण उपाय-प्रत्याचार! प्रत्याक्रमण! २०१

६. मुसलमानों के धार्मिक आक्रमणों का प्रतिशोध २११

७. हिंदू-प्रपीड़क क्रूरकर्मा टीपू सुलतान २३४

८. पूर्वार्द्ध का समापन २६१

स्वर्णिम पृष्ठ : पंचम (उत्तरार्द्ध) २६५

१ विषयानुबंध २६७

२. हिंदुस्थान और अरबों का पूर्वापर संबंध २७२

३. ईसवी सन् की बारहवीं से तेरहवीं सदी के अंत तक का कालखंड २७९

४. दक्षिण भारत पर मुसलमानों के आक्रमण २९५

५. खुशरु खान और देवल देवी ३०७

६. मुसलिम साम्राज्यसत्ता के अंत का प्रारंभ ३३५

७. विजयनगर का विजयशाली स्वतंत्र हिंदू राज्य ३५१

८. सोलहवीं शताब्दी के अंत तक और तत्पश्चात् ३८०

९. मुसलिम राजसत्ता के महाकाल मराठे ४१३

१०. अटक के उस पार भी। ४५१

स्वर्णिम पृष्ठ : षष्ठ ४५७

अंग्रेज भी गए, हिंदू राष्ट्र का स्वातंत्र्य सिद्ध हुआ ४५९

हिंदू-पदपादशाही ४७९

१. नवयुग का आगमन ४८१

२. हिंदवी-स्वराज्य ४८५

३. समग्र राष्ट्र ने शिवाजी महाराज का उत्तरदायित्व निभाया ४९०

४. शहीद छत्रपति ४९२

५. बलिदानी के बलिदान का प्रतिशोध ४९४

६. महाराष्ट्र-मंडल ४९७

७. कर्मभूमि पर बड़े बाजीराव का पदार्पण ५००

८. दिल्ली पर आक्रमण ५०५

९. हिंद महासागर की मुक्ति के लिए ५१३

१०. नादिरशाह एवं बाजीराव ५२६

११. नाना और भाऊ ५३१

१२. सिंधु नदी का किनारा गाँठा! ५४२

१३. हिंदू-पदपादशाही ५५०

१४. पानीपत ५६१

१५. विजेता को भी जीतनेवाली पराजय ५७४

१६. होनहार माधवराव ५८०

१७. पानीपत का प्रतिशोध ५८४

१८. गृहकलह तथा जनमत राय की राज्य क्रांति ५९२

१९. अंग्रेजों को नवाया ६०५

२०. जनता का लाड़ला-पेशवा सवाई माधवराव ६१०

२१. ध्येय ६३८

२२. तत्सामयिक स्थिति में सर्वश्रेष्ठ कार्य नीति ६४५

२३. प्राचीन और अर्वाचीन इतिहास को प्रमाण मानकर एक विश्लेषण ६५३

२४. मराठों की युद्धशैली ६५९

२५. साम्राज्य द्वारा हिंदू जीवन का सर्वांगीण नवजागरण ६६६

२६. स्नेह और कृतज्ञता का ऋण ६७२

२७. यवनिका का पतन ६७८


छह स्‍वर्णिम पृष्‍ठ


चंद्रगुप्त-चाणक्य

१. अद्यतन शोध के अनुसार हमारे देश के राष्ट्रीय जीवन के उषा काल का प्रारंभ कम-से-कम पाँच हजार वर्षों से लेकर दस हजार वर्षों पुराना है। चीन, बेबिलोन, यूनान आदि किसी भी प्राचीन राष्ट्र के जीवन-वृत्तांत की भाँति हमारे इस प्राचीन राष्ट्रीय वृत्तांत का भी समावेश पौराणिक काल में ही होता है। अर्थात् इसमें समाविष्ट इतिहास पर दंतकथाएँ, दैवीकरण तथा लाक्षणिक वर्णनों की कई परतें चढ़ी हुई हैं। फिर भी हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारे ये प्राचीन पुराण प्राचीन इतिहास के आधार-स्तंभ ही हैं। यह विशाल पुराण-वाङ्मय जिस प्रकार हमारे साहित्य, ज्ञान, कर्तृत्व और ऐश्वर्य का भी एक भव्य भंडार है, उसी प्रकार असंगत, अस्त-व्यस्त और संदिग्ध होते हुए भी हमारे प्राचीन जीवन-वृत्तांतों का भी असीम संग्रहालय है।

२. परंतु हमारे पुराण विशुद्ध इतिहास नहीं हैं।

३. इसलिए इस ग्रंथ में मैं उस पौराणिक काल पर विचार नहीं करूँगा। मैं जिन स्वर्णिम पृष्ठों का निर्देश कर रहा हूँ, वे भारत के पौराणिक काल के नहीं, बल्कि ऐतिहासिक काल के हैं।

४. भारतीय इतिहास का आरंभ- इतिहास का मुख्य लक्षण यह है कि उसमें वर्णित और घटित घटनाओं के स्थल तथा काल का निश्चित रूप से निर्देश करना संभव हो और इन घटनाओं को यथासंभव एतद्देशीय अथवा विदेशी साक्ष्यों और सबूतों का आधार प्राप्त हो।

५. हमारे प्राचीन काल के वृत्तांतों में बौद्ध काल उपरिनिर्दिष्ट कसौटियों या लक्षणों पर लगभग खरा उतरता है। इसी कारण आजकल कई भारतीय तथा पाश्चात्य प्राच्यविद्याशास्त्री हमारे इतिहास का आरंभ बौद्ध काल से ही मानते हैं। इन प्राच्यविद्यावेत्ताओं के सतत परिश्रम से नवीन शोधकार्य होने पर आज जिसे हम पौराणिक काल कहते हैं, उसके भी कुछ भाग की गणना ऐतिहासिक काल में होने लगेगी, परंतु तब तक हमें यही मानना होगा कि बौद्ध काल ही हमारे इतिहास का आरंभ है।

६. किसी भी प्राचीन राष्ट्र के विशुद्ध इतिहास की गवेषणा निश्चित रूप से करते समय विश्व के तत्कालीन अन्य राष्ट्रों के साहित्य तथा अन्य अभिलेखों में प्राप्त उल्लेख बड़े उपयोगी सिद्ध होते हैं। आज संसार में उपलब्ध असंदिग्ध ऐतिहासिक साधनों में भारत के जिस प्राचीन कालखंड को इतर राष्ट्रों के सुनिश्चित साधनों का आधार तथा साक्ष्य प्राप्त है, वह कालखंड सम्राट चंद्रगुप्त के समय के आस-पास का है। कारण, जब सिकंदर ने भारत पर आक्रमण किया, तब से यूनानी इतिहास-लेखकों के, और उनके बाद चीनी प्रवासियों के प्रवास-वर्णन पर लेखों में तथा यात्रा-वृत्तांतों में उस काल में भारत में घटित घटनाओं की ऐतिहासिक कसौटी पर सिद्ध होनेवाले कई उल्लेख मिलते हैं।

७. कौन सा स्वर्णिम काल?-इस ऐतिहासिक कालखंड के जिन स्वर्णिम पृष्ठों की चर्चा में कर रहा हूँ, केवल उन्हें ही स्वर्णिम पृष्ठ की कसौटी पर मैं कसता हूँ? वैसे देखा जाए तो हमारे इस ऐतिहासिक कालखंड में काव्य. संगीत, प्राबल्य, ऐश्वर्य, अध्यात्म आदि अन्यान्य कसौटियों पर खरे उतरनेवाले सैकड़ों गौरवास्पद पृष्ठ मिलते हैं, परंतु किसी भी राष्ट्र पर जब परतंत्रता का प्राणसंकट आता है, जब शत्रु के प्रबल एवं कठोर पाद-प्रहार उसे रौंद डालते हैं। उस शत्रु को पराजित कर उच्च कोटि का पराक्रम कर स्वराष्ट्र को परतंत्रता से और शत्रु से मुक्त करनेवाली तथा अपने राष्ट्रीय स्वातंत्र्य और स्वराज्य का पुनरुज्जीवन करनेवाली वीर, जुझारू पीढ़ी और उसका नेतृत्व करनेवाले वीर, धुरंधर, विजयी पुरुष-सिंहों के स्वातंत्र्य-संग्राम के वृत्तांतों से रंगे पृष्ठों को ही मैं 'स्वर्णिम पृष्ठ' कहता हूँ। कोई भी राष्ट्र अपने परजयी स्वातंत्र्य-युद्धों के वर्णनों से युक्त ऐतिहासिक पृष्ठों का सम्मान इसी प्रकार 'स्वर्णिम पृष्ठ' कहकर करता है अमेरिका का हो उदाहरण लीजिए। अमेरिका ने इंग्लैंड को युद्ध में पराजित कर जिस दिन स्वतंत्रता प्राप्त की, उसी विजय दिवस को अमेरिकी इतिहास का स्वर्ण दिवस माना जाता है और उसे त्योहार की तरह मनाया जाता है। इस स्वातंत्र्य-युद्ध के इतिहास का पृष्ठ अमेरिकी इतिहास का स्वर्ण-पृष्ठ माना जाता है।

८. प्रत्येक विशाल और प्राचीन राष्ट्र पर परतंत्रता का महासंकट कभी-न-कभी आता ही है-राष्ट्र के रूप में अमेरिका का जन्मकाल अभी कल-परसों का ही तो है। इसलिए उसके चुटकी भर इतिहास में पारतंत्र्य का प्राणसंकट केवल एक ही बार आया हो और उसके 'युद्ध द्वारा' निवारण का एक ही स्वर्णिम पृष्ठ हो तो कोई विशेष आश्चर्य की बात नहीं है; परंतु चीन, ईरान, बेबिलोन, मिस्त्र, पेरू, मेक्सिको, यूनान, रोम आदि जो राष्ट्र हजारों वर्षों तक समर्थ और समृद्ध बने रहे, उनके विस्तृत राष्ट्रीय जीवन में प्रबलतर बाह्य शत्रुओं के आक्रमण से नष्ट होने के भीषण संकट कई बार आए हों- यह स्वाभाविक ही है। इनमें से कुछ राष्ट्रों ने ऐसे घोर प्राणसंकटों में भी स्वपराक्रम से पुन:-पुन: स्वतंत्रता प्राप्त कर ली और उन शत्रुओं के छक्के छुड़ा दिए। अपना राष्ट्रीय अस्तित्व और सामर्थ्य हजारों वर्षों तक अक्षुण्ण बनाए रखनेवाले इन राष्ट्रों के इतिहास में समय-समय पर किए गए स्वातंत्र्य युद्धों और उनमें प्राप्त विजयों से भरे ऐसे अनेक स्वर्णिम पृष्ठ सम्मान पा रहे हैं उस प्राचीन काल में जो राष्ट्र उन्नत और समर्थ रहे, लगभग वे सारे राष्ट्र और राज्य आज नामशेष हो गए हैं, परंतु भारतीय इतिहास तो उस प्राचीनतम काल से आज तक अखंड बना हुआ है। आज केवल चीन ही पुरातन महान् राष्ट्र बचा हुआ है जो भारतीय महानता का पुरातन साक्षी है।

९. चीन और भारत- दोनों राष्ट्र अतिविस्तृत हैं और दोनों ने ही अति प्राचीन काल से आज तक अपनी स्वतंत्रता और सामर्थ्य सतत टिकाए रखी है। इसलिए इन राष्ट्रों पर अन्य अल्पजीवी राष्ट्रों की अपेक्षा अधिक बार परचक्र के प्राणसंकट आए हों तो कोई आश्चर्य नहीं है। 'चक्रनेमिक्रम' का अटल नियम उनपर भी लागू होता है। भारत पर जिस प्रकार शक, हूण, मुगल आदि विदेशियों ने अनेक बार आक्रमण किए, उसी प्रकार चीन पर भी इन्हीं लोगों ने तथा अन्य कई राष्ट्रों ने भी आक्रमण किए। हुणों के प्रलय से बचने के लिए ही चीन ने अपनी विश्व प्रसिद्ध दौवार- 'The Chinese wall' का निर्माण किया था, परंतु चीन के शत्रुओं ने उसे भी लाँघकर या उसका चक्कर काटकर चीन को पदाक्रांत करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। अधिकतर अंशतः, परंतु कई बार तो चीन भी संपूर्णतः विदेशी राजसत्ता के दुस्सह बोझ तले संत्रस्त होकर दबा पड़ा था, परंतु हर बार वह महान् राष्ट्र नवतेज और चैतन्य से पुनः-पुनः अनुप्राणित होकर उस विदेशी राजसत्ता को उखाड़ फेंकने में सफल हुआ; अपना जीवन, सत्त्व और स्वतंत्रता अबाधित रख सका और आज भी एक स्वतंत्र, श्रेष्ठ तथा सामर्थ्यशाली राष्ट्र बना हुआ है। यही वास्तव में एक ऐतिहासिक 'आश्चर्य' है। भारत के इतिहास का मूल्यांकन करते समय भी हमें इसी मापदंड का उपयोग करना चाहिए, परंतु विदेशी-विशेषतः अंग्रेजी सत्ता के अधीन दबे हुए भारत में अनेक अंग्रेजों ने भारत का इतिहास इतने विकृत ढंग से लिखा और अंग्रेजी शासन द्वारा संचालित विद्यालयों-महाविद्यालयों में उस विकृत इतिहास का यहाँ की दो-तीन युवा पीढ़ियों से इतना अधिक पारायण कराया गया कि बाहरी जगत् के ही नहीं, अपितु भारत के हमारे अपने लोगों की भी निश्चत रूप से बुद्धि भ्रष्ट हो। 'हिंदुस्थान सतत किसी-न-किसी परसत्ता के अधीन दबा रहा।' 'हिंदुस्थान का इतिहास हिंदुओं के एक के बाद एक हुए पराजितों की सूची मात्र है।' स्पष्टतः ऐसे असत्य, अपमानजनक और दुर्भावनापूर्ण विधानों का प्रयोग विदेशी ही नहीं, अपितु कुछ देशवासी भी बेधड़क कर रहे हैं। उनका प्रतिकार करना स्वराष्ट्र के अभिमान की दृष्टि से ही नहीं, अपितु ऐतिहासिक सत्य की रक्षा की दृष्टि से भी अत्यंत आवश्यक कार्य है। इस प्रसंग में अन्य इतिहासज्ञों द्वारा जो कुछ प्रयत्न किए जा रहे हैं, उनका अधिकाधिक प्रचार कर उन्हें यथाशक्ति बढ़ावा देना हमारा कर्तव्य ही है। इसलिए जिन बाह्य आक्रमणकारियों ने बार-बार भारत पर आक्रमण किए और यहाँ पर राज किया, उन सब आक्रमणकारियों को युद्ध में पराजित कर और उनका विनाश कर अंत में जिन्होंने हमारे हिंदू राष्ट्र को विमुक्त किया, उन हिंदू राष्ट्रविमोचक पीढ़ियों का तथा उनके प्रतीक के रूप में उन स्वातंत्र्य-संग्रामों के कुछ युग-प्रवर्तक वीरवरों का ऐतिहासिक शब्दचित्र यहाँ खींचने की मेरी योजना है।

१०. सिकंदर (अलेक्जेंडर) का आक्रमण- पूर्व में उल्लिखित भारत के ऐतिहासिक कालखंड में विदेशियों द्वारा किया गया पहला प्रसिद्ध आक्रमण सिकंदर (अलेक्जेंडर) का था उस प्राचीन काल में यूरोप के आज के इंग्लैंड, फ्रांस, जर्मनी आदि राष्ट्रों का तो जन्म भी नहीं हुआ था। रोमन साम्राज्य की नींव भी नहीं पड़ी थी। यूरोप में केवल ग्रीक (यूनानियों) की हो चर्चा थी। इन यूनानियों के छोटे छोटे नगर-राज्य (City States) स्वतंत्र रूप से हुआ करते थे। उनमें स्पार्टा और एथेंस के नगर-राज्य काफी विकसित थे। इन छोटे-छोटे नगर-राज्यों पर जब उस समय के सुसंगठित, विस्तृत, एक-केंद्रित और बलशाली ईरानी साम्राज्य के अधिपति ने आक्रमण किया, तब वे (फुटकर नगर-राज्य) अल्प काल भी टिक नहीं पाए। उन छोटे-छोटे यूनानी गणराज्यों (Republics) ने युद्ध करने का प्रयास किया; परंतु ईरानी साम्राज्य की विशाल सेना के सामने वे निरुपाय हो गए। इस कारण यूनानियों में तीव्र इच्छा उत्पन्न हुई कि हम भी ईरानियों की तरह अपने सारे फुटकर नगर-राज्यों को मिलाकर एक प्रबल ग्रीक राज्य स्थापित करें और एकजुट होकर शत्रु का सामना करें।

इसी महत्त्वाकांक्षा से मैसिडोनिया के ग्रीक राजा फिलिप ने अनेक छोटे गणराज्यों को जीता। उसका एकछत्र राज्य अभी बढ़ ही रहा था कि अचानक उसकी मृत्यु हो गई। तथापि उसके बाद राज्य का स्वामी बना उसका पुत्र-उससे शतगुणित महत्त्वाकांक्षी, विजयी और शूर सिद्ध हुआ। उसी का नाम था 'सिकंदर'। उसने समस्त यूनानी नगर-राज्यों में एक राष्ट्रीयत्व की नवचेतना का संचार किया और बाद में अत्यंत शक्तिशाली सेना तैयार कर यूनानियों के परम शत्रु ईरानी सम्राट् डेरियस पर आक्रमण किया। यूनानियों की इस सुसंगठित सेना ने सम्राट् डेरियस की बहुसंख्य, परंतु असंगठित विशाल सेना को बुरी तरह पराजित किया। अलबेल के युद्ध की पराजय ने तो ईरानी राजसत्ता को ही उखाड़ फेंका। सिकंदर अपनी विजयोदीप्त सेना के साथ ईरान की राजधानी पर चढ़ आया और उसे जीतकर उसने स्वयं को ईरान का सम्राट घोषित कर दिया।

इस अपूर्व विजय से सिकंदर की राजतृष्णा और भी बढ़ गई। यूनान और ईरान के सुविशाल साम्राज्यों का सम्राट् पद प्राप्त करते हो सिकंदर को ऐसा लगा, मानो उसने स्वर्ग जीत लिया हो! 'मैं चाहूँ तो सारे जग को जीत सकता हूँ और इतिहास में अपना नाम जगज्जेता के रूप में विख्यात कर सकता हूँ।' इस प्रबल आत्मविश्वास का उन्माद उसपर छा गया। 'जिस प्रकार मैंने ईरान का और उससे भी प्राचीन बेबिलोन का साम्राज्य एक ही आक्रमण में पदाक्रांत किया, उसी प्रकार उसके समीपवर्ती देश भारत-वह देश जिसकी कीर्ति हम यूनानी लोग कई पीढ़ियों से सुनते आ रहे हैं-को भी मैं सहजता से पदाक्रांत कर सकूँगा।'

इस दुर्दम्य महत्त्वाकांक्षा से प्रेरित होकर सिकंदर ने भारत पर आक्रमण करने का निश्चय किया। इस साहसी योजना के अनुसार उसने शीघ्र ही चुनिंदा, फुरतीले तथा नए शस्त्रास्त्रों से सज्जित यूनानी युवाओं का नया सैन्य-बल तैयार किया। उसमें एक लाख बीस हजार पदाति और पंद्रह हजार घुड़सवार सैनिक थे। अब तक एक के बाद एक लगातार विजय प्राप्त करनेवाले अपने इस महान् सेनापति और सम्राट् सिकंदर पर उसकी इस पराक्रमी और सदा विजयी रहनेवाली सेना की इतनी असीम श्रद्धा थी कि वे यूनानी सैनिक उसे एक अलौकिक दैवी पुरुष-'देवता'- हो मानते थे। सिकंदर भी स्वयं को 'झ्यू' (द्यु:) देवता का पुत्र मानता और कहलवाता था।

११. भारत राष्ट्र का विस्तार- भारतीयों की बस्तियाँ और राज्य-लगभग ढाई हजार वर्ष पुराने उस काल में-सिंधु नदी के उस पार ईरान की सीमा से लगे हुए प्रदेशों तक फैला हुआ था आज जिसे हम 'हिंदुकुश' पर्वत कहते हैं, उसे यूनानी लोग 'परोपनिसस' (Paropnisus) कहते थे। आज के अफगानिस्तान का नाम उस समय 'गांधार' था। हमारे यहाँ अफगानिस्तान का प्राचीन नाम 'अहिगणस्थान' था। हमारे यहाँ काबुल नदी का प्रचलित नाम 'कुभा' था। हिंदुकुश पर्वत तक के भूभाग में उस समय भारतीयों के छोटे-बड़े राज्य फैले हुए थे। यहाँ से लेकर सिंधु नदी के उस भाग तक, जहाँ पर सागर से संगम हुआ है, दोनों तटों पर वैदिक धर्मानुयायी भारतीयों को छोटे-बड़े स्वतंत्र राज्यों की लंबी श्रृंखलाएँ फैली हुई थीं। इन राज्यों में से अधिकतर राज्य गणराज्य (Republics) थे उन्हें उस समय 'गणराज्य' कहते थे। उनका संविधान प्रजातांत्रिक प्रणाली का होता था इनमें से दो- तीन राज्य ही ऐसे थे, जो राजतंत्रात्मक प्रणाली के थे उनमें राजा पौरव (जिसे यूनानी लोग 'पोरस' कहते थे) का राज्य सबसे बड़ा था।

१२. डॉ. जायसवाल का ग्रंथ'Hindu Polity'-लंदन में क्रांतिकारियों की प्रसिद्ध संस्था 'अभिनव भारत' के सन् १९०७ से १९१० तक सदस्य रह चुके विश्वविख्यात प्राच्यविद्याविशारद डॉ. जायसवाल ने अपने सुप्रसिद्ध ग्रंथ 'Hindu Polity' में सिंधु नदी के दोनों तटों पर सागर संगम तक फैले हुए इन भारतीय गणराज्यों के अलग-अलग संविधानों का शोधपरक विस्तृत वर्णन किया है। यूनानी लोगों की यह पुरातन भावना है कि उनके पुराणों की भाँति उनके पूर्वज भी मूलत: आर्त वंश के थे। आर्यों की एक शाखा सिंधु नदी के तटवर्ती इसी गांधार प्रदेश से अलग होकर यूनान में जा बसी थी। सिकंदर ने अपनी सेना के साथ जब प्राचीन भारत के इस गांधार प्रदेश में प्रवेश किया, तब उसे कुछ ऐसे लोग मिले जो स्वयं को मूलतः यूनानी मानते थे। यद्यपि इन लोगों का यह छोटा सा समूह तब तक भारतीयों से पुल-मिलकर काफी एकरूप हो गया था, तथापि जब उनकी भेंट यूनानियों से हुई, तब उन्होंने उन्हें पहचानकर बताया कि वे उनके पुराने भाई-बंधु हैं। सिकंदर को भी ऐसा लगा कि उसके प्राचीन पूर्वजों का मूल स्थान यहीं है। उसे और उसकी यूनानी सेना को अपनी इस प्राचीन 'पितृभूमि' के दर्शन से इतना हर्ष हुआ कि उन्होंने कुछ दिनों तक युद्ध बंद रखा और एक महान् उत्सव मनाया। यूनानियों ने अपने देवताओं को संतुष्ट करने के लिए अनेक यज्ञ और हवन किए।

१३. यूनानी देवताओं का वैदिक देवताओं से बहुत अधिक सादृश्य था। उनके देवी-देवताओं के नामों के उच्चारण भर अपभ्रंश होने के कारण बदले हुए थे। यूनानी लोग भी यज्ञ करते थे। देवताओं को हवन अर्पित करते थे। यूनानियों को 'आयोनियंस' भी कहते थे। 'आयोनियंस' नाम से ही 'यवन' शब्द बना।

१४. कदाचित् ये यूनानी लोग ययातिपुत्र 'अनु' के ही वंशज हों! क्या उनके नाम के अपभ्रंश रूप अन्वायन-अयोनियंस-आयोनियन क्रम से बदलते गए? खैर, यह तो शोध का विषय है, परंतु इतना सत्य है कि यूनानियों को हमारे भारतीय लोग आरंभ से ही 'यवन' नाम से जानते रहे हैं। संस्कृत साहित्य से यह बात स्पष्ट होती है। ग्रीक लोगों के 'आयोनियन' नाम से ही भारत में उनका नाम 'यवन' पड़ा होगा। उस काल में गांधार-पंचनद से लेकर सिंधुमुख तक कहीं भी बुद्ध का पता नहीं था।

१५. यहाँ पर एक और बात बता देना उचित होगा। वह यह कि पूर्व में उल्लिखित गांधार से पंचनद (पंजाब) तक और वहाँ से सिंधु नदी के दोनों तटों पर सागर-संगम तक फैले हुए भारत के जिस भूभाग से सिकंदर का संपर्क हुआ था, उसकी लोकस्थिति के विविध अंगों का वर्णन तत्कालीन यूनानी लेखकों ने किया है। इन सारे वर्णनों में वैदिक धर्मानुयायी भारतीयों के अनेक उल्लेख मिलते हैं, परंतु बुद्ध और बौद्ध पंथ का उल्लेख भूलकर भी कहीं नहीं मिलता। इस बात से तथा तत्कालीन अन्यान्य साक्ष्यों से यह स्पष्ट होता है कि उस समय तक भारत के शतगु (सतलज) पार के भू-प्रदेश में बौद्ध धर्म के अस्तित्व का कहीं चिह्न भी नहीं था। इसका अर्थ यह है कि बुद्ध की मृत्यु के बाद ढाई-तीन सौ वर्ष बीत जाने पर भी बौद्ध पंथ का यत्र-तत्र प्रचार केवल मगध प्रदेश में ही हुआ था आगे के इतिहास के आकलन में यह बात ध्यान में रखना आवश्यक है।

१६. यवन अर्थात् यूनानी- 'यवन' अर्थात् यूनानी; मुसलमानों को 'यवन' कहना ठीक नहीं है। विदेशी, विधर्मी आक्रमणकारी यूनानियों को तत्कालीन भारतीय 'यवन' नाम से जानते थे; परंतु इस कारण सारे विदेशी आक्रमणकारियों को 'यवन' कहना बहुत बड़ी भूल है। कारण, विदेशी और आक्रामक होते हुए भी यूनानियों को गणना सापेक्षतः तत्कालीन विद्याव्यसनी सभ्य जगत् में होती थी; परंतु उनके सैकड़ों वर्षों बाद जिन मुसलमानों ने भारत पर टिड्डी दल की भाँति आक्रमण किए थे, वे धर्माध, जंगली और विध्वंसक राक्षसी प्रवृत्तियों के थे। ऐसे मुसलमानों को मुसलमान कहना ही उचित होगा। उन्हें 'यवन कहने से उनको अकारण सम्मानित करने की और 'यवन' शब्द का अपमान करने को दोहरी भूल हम कर रहे हैं। मुसलमानों को म्लेच्छ तो कह सकते हैं, किंतु यवन नहीं।

१७. हम मूर्ख, पागल मुसलमान जैसा सिकंदर को समझते हैं, वह वैसा मुसलमान नहीं था। यहाँ अधिकतर मुसलमानों में प्रचलित एक भ्रामक धारणा भी बता दूँ। अलेक्जेंडर यूनानी नाम है, इसका पर्शियन या फारसी भाषा में 'सिकंदर' रूपांतरण हुआ था। फारस या ईरान पर जब यूनानियों का साम्राज्य था तब अनेक ईरानी लोगों ने सिकंदर के अलौकिक पराक्रम पर मुग्ध होकर अपने पुत्रों का नाम 'सिकंदर' रखा। ईरान के लोग आगे चलकर मुसलमान बने, परंतु तब भी उनमें अपने पुत्रों का नाम सिकंदर रखने की परिपाटी बनी रही। भारत के जबरदस्ती मुसलमान बने हुए लोगों ने भी इस परिपाटी को अपनाया। सिकंदर नाम की मूल कथा ज्ञात न होने के कारण भारत के हजारों मुसलमानों की यह दृढ़ धारणा है कि मोहम्मद, अली, कासिम आदि नामों की तरह सिकंदर भी मुसलिम नाम ही है। अर्थात् वह पराक्रमी था, इसलिए सिकंदर भी कोई मुसलमान महापुरुष ही होना चाहिए! अथवा वह मुसलमान था, इसीलिए वह इतना पराक्रमी और दिग्विजयी बन सका। इन धर्माध, अनाड़ी, अज्ञानी, आत्मप्रशंसक मुसलमानों को यदि कोई यह बताए कि सिकंदर मुसलमान नहीं था; वह मुसलमान हो ही कैसे सकता है, जबकि इसलाम संप्रदाय के संस्थापक मोहम्मद पैगंबर का जन्म उसकी मृत्यु के लगभग एक हजार वर्ष पश्चात् हुआ था, तो ये गँवार मुसलमान उसे ही मूर्ख और पागल कहेंगे!

१८. उस समय सिकंदर के साम्राज्य की सीमा हिंदुकुश पर्वत तक आ पहुँची थी। सिकंदर जब अपनी प्रबल सेना के साथ वहाँ से आगे भारत की ओर बढ़ा, तब सर्वप्रथम उसने तक्षशिला पर आक्रमण किया तक्षशिला के राजा अंबुज (आंभि) ने युद्ध किए बिना ही सिकंदर का आधिपत्य स्वीकार कर लिया। कुछ यूनानी लेखकों का कथन है कि तक्षशिला के इस राजा ने ही अपने प्रतिद्वंद्वी राजा पौरव (पोरस) का नाश करने के लिए स्वयं सिकंदर को आमंत्रण भेजा था। यदि यह सच है, तो भी आंभि को इस स्वजन-द्रोह का प्रायश्चित्त बिना युद्ध के यूनानियों की शरण में जाकर स्वेच्छा से भोगना पड़ा, यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है।

१९. तक्षशिला का विद्यापीठ और एक विलक्षण संयोग- तक्षशिला में उस समय एक भारतीय विद्यापीठ था। उस विद्यापीठ में देश-विदेश के छात्र आकर अनेक शास्त्रों और कलाओं का अध्ययन करते थे। इतना ही नहीं अपितु देश-विदेश के अनेक राज्यों के राजकुमार वहाँ जाकर अनुशासन का पालन कर राजनीति और युद्धनीति की शिक्षा प्राप्त करते थे ।

२०. यह एक विलक्षण संयोग था कि उधर जब सिकंदर ससैन्य भारत पर आक्रमण कर तक्षशिला राज्य को पराजित कर रहा था, तब इधर उसी तक्षशिला विद्यापीठ में, भवितव्यता जिसके हाथों भारतीय इतिहास का एक देदीप्यमान स्वर्णिम पृष्ठ लिखने वाली थी, ऐसा एक तेजस्वी, स्फूर्तिशाली युवक राजनीति और युद्धनीति का अध्ययन कर रहा था या अपना अध्ययन लगभग पूर्ण कर चुका था। उस युवक का नाम था 'चंद्रगुप्त' इसी तक्षशिला विद्यापीठ के परिवेश में विधिशास्त्र में अत्यधिक पारंगत, राजनीति धुरंधर, प्रौढ़ विद्वान् इस युवक को राष्ट्रीय क्रांति कार्य और राजनीति के पाठ पढ़ाता था। उस महा विद्वान् का नाम था-विष्णुगुप्त 'चाणक्य'!

२१. परंतु सिकंदर के आक्रमण से हुई प्रचंड उथल-पुथल में इन दो सामान्य से लगनेवाले व्यक्तियों की असामान्यता किसी को भी दृष्टिगत नहीं हुई। ये दोनों व्यक्ति सिकंदर के आक्रमण की सारी प्रचंड गतिविधियों का अध्ययन और अवलोकन सूक्ष्मता से कर रहे थे। भारत के समस्त राब-रावल, राजा महाराजाओं के फुटकर छोटे-छोटे मुकुट पिघलाकर अपने मस्तक पर धारण करने के लिए सिकंदर भारतीय सम्राट् पद का जो महामुकुट उस रणभूमि में बना रहा था, उसे उस शत्रु के हाथों से छीनकर अपने उक्त युवा शिष्य के मस्तक पर रखने की एक महान् क्रांतिकारी योजना बह प्रौढ़ विद्वान् आचार्य आचार्य मन-ही-मन बना रहा था।

२२. राजा पौरव से युद्ध- तक्षशिला के राजा अंबुज ने म्लेच्छ यूनानी सेना से युद्ध किए बिना ही सिकंदर का आधिपत्य स्वीकार कर लिया था उसके इस कृत्य की सर्वत्र घोर निंदा हुई। क्षात्रधर्म को कलंकित करनेवाली राजा अंबुज की इस कविता का विरोध कर उसका प्रतिकार करने के लिए आस-पास के सारे राजतंत्रात्मक राज्यों और गणराज्यों ने यूनानियों का सामना कर उनके साथ यथाशक्ति घोर युद्ध करने का दृढ़ निश्चय किया; किंतु दुर्भाग्य की बात यही थी कि उन सारे स्वतंत्र, परंतु छोटे-बड़े फुटकर भारतीय राज्यों को एक होकर, एक सेनापति के नेतृत्व में युद्ध करने की बुद्धि नहीं आई या फिर उसके (संगठित होने) के लिए उन्हें समय नहीं मिला। तक्षशिला पहुँचते ही सिकंदर ने समय गंवाए बिना तुरंत सारे भारतीय राजाओं को अपनी शरण में आने का आदेश दिया। जब तक्षशिला के समीपवर्ती राजा पौरव ने उसके आदेश का विरोध कर उसे युद्ध के लिए ललकारा तो सिकंदर ने तत्काल उसपर आक्रमण कर दिया।

२३. राजा पौरव का बल मुख्यतः उसके युद्ध-निपुण हाथियों और रथों के दल पर निर्भर था, जबकि सिकंदर की मुख्य शक्ति यूनानियों के रण-निपुण अश्वदल पर निर्भर थी। उनकी सेनाएँ वितस्ता (झेलम) नदी के दोनों तटो पर आमने-सामने खड़ी थीं। युद्ध प्रारंभ होने से पहले अकस्मात् प्रबल आँधी-तूफान के साथ भीषण वर्षा हुई, जिसके परिणामस्वरूप वितस्ता में भयंकर बाढ़ आ गई। परंतु सिकंदर ने धैर्य रखा और दूर-दूर तक खोजकर नदी के ऊपरी भाग में एक ऐसा स्थान खोज निकाला, जहाँ पर नदी का पाट चौड़ा होने के कारण पानी का बहाव कम था। उसने अपनी रणकुशल सेना और अश्वदल के साथ झटपट रातोरात उस स्थान से नदी पार की और पौरव की सेना पर पिछाड़ी से अचानक आक्रमण कर दिया।

इस अनपेक्षित आक्रमण से पौरव की सेना की सारी व्यूह-रचना अस्त-व्यस्त हो गई। फिर भी राजा पौरव ने तुमुल युद्ध किया। परंतु घोर वर्षा के कारण रणभूमि में चारों ओर कीचड़-ही-कीचड़ हो गई थी। उसमें फँसने से राजा पौरव के हाथी और रथ-दोनों रण-साधन बेकाम और निष्प्रभावी सिद्ध हुए और सिकंदर के अश्वदल के तीव्र आक्रमण के आगे उसकी सेना को हार माननी पड़ी। उस घोर रण-क्रंदन में गजारूढ़ राजा पौरव स्वयं भी प्राणपण से लड़ते हुए घायल हो गया और सिकंदर द्वारा बंदी बना लिया गया। इस प्रकार अंशतः पौरव के दुर्भाग्य से और अंशतः सिकंदर के रणचातुर्य तथा साहस से यवनों की पूर्ण विजय हुई।

२४. प्रशंसक वृत्ति से नहीं, राजनीतिवश- राजा पौरव को बंदी बनाकर जब सिकंदर के सामने लाया गया, तब सिकंदर ने उससे पूछा, "तुम क्या चाहते हो? मैं तुम्हारे साथ कैसा बरताव करूँ?" पौरव ने उत्तर दिया, "जैसा एक राजा दूसरे राजा के साथ करता है!" इस देश के और यूरोप के अधिकतर इतिहासकारों ने यही लिखा है कि पौरव का यह स्वाभिमानी, धीरोदात्त उत्तर सुनकर सिकंदर अत्यंत प्रसन्न हुआ। उसने राजा पौरव को मृत्युदंड न देकर केवल अपना अधीनस्थ बनाकर छोड़ दिया और उसे उसका राज्य पुन: लौटा दिया। परंतु यह वर्णन गलत है, झूठ है। कम-से-कम पाठशालाओं की पुस्तकों में तो ऐसे मिथ्या स्तुतिवाक्य नहीं होने चाहिए!

२५. सिकंदर कोई भोला, भावुक भारतीय राजा नहीं था, जो स्वप्न में दिए हुए वचन की पूर्ति के लिए भी राज्य दे देता! वह भलीभाँति जानता था कि राजा पौरव की हत्या करने से या उसका राज्य छीनकर वहाँ किसी युनानी 'क्षत्रप' (Governor) की नियुक्ति करने से स्वाभिमानी भारतीय जनपद यूनानियों के प्रति और भी अधिक द्वेष भाव रखते और विद्रोह कर उठते। सिकंदर का लक्ष्य तो अनेक शत्रुओं का सामना करते हुए भारत की प्रमुख राजधानी पाटलिपुत्र पहुँचकर उसे जीतना था। यह लक्ष्य केवल उसकी ग्रीक सेना के बल पर थोड़े ही प्राप्त होनेवाला था! तक्षशिला के राजा अंबुज की भाँति राजा पौरव को भी दिखावटी दया और उदारता से अपना अधीनस्थ और समर्थक बनाने से ही सिकंदर का भारत-विजय का सपना सच होने की अधिक संभावना थी। यह बात वह अच्छी तरह जानता था। इसलिए राजा पौरव के धीरोदात्त उत्तर से प्रसन्न होकर नहीं, अपितु अपने राजनीतिक स्वार्थ से राजनीतिकुशल सिकंदर ने पौरव को उसका राज्य लौटाया। यही नहीं, अपितु उसके आस-पास के छोटे-छोटे राज्य भी जीतकर उन्हें पौरव के राज्य में मिलाकर उसने एक विस्तृत प्रांत या सूबा बनाया और पौरव को ही उसका 'क्षत्रप' नियुक्त किया। पौरव ने भी 'वक्त पड़ा बाँका' के न्याय से सिकंदर का यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। उसने राजधर्म का पालन कर विदेशी शत्रु से युद्ध करने का अपना कर्तव्य तो निभाया ही था। इसलिए राजा पौरव ने 'तावत् कालं प्रतीक्षेताम्' की राजनीति के अनुसार सिकंदर का आधिपत्य स्वीकार कर अपने राज्य की रक्षा की। इस नीति पर भारतीयों को भी विषाद नहीं हुआ। आगे हम देखेंगे कि अवसर मिलते ही किस प्रकार 'क्षत्रप' पौरव ने सिकंदर का दाँव उसपर ही उलटा चला दिया!

२६. सिकंदर द्वारा यूनानी मँगवाना- पौरव के साथ युद्ध समाप्त होने पर सिकंदर ने आस-पास के छोटे-छोटे राज्यों को जीतकर वहाँ सुव्यवस्था स्थापित की तथा उनकी और आगे के प्रदेशों की लोकस्थिति की जानकारी प्राप्त की। हिंदुकुश से यहाँ तक के प्रदेश जीतने में उसकी मूल यूनानी सेना की जो क्षति हुई थी, उसे पूरा करने के लिए उसने यूनान और बेबिलोन के प्रांताधिपों से नया यूनानी सैन्य-बल मँगवाया पुरानी यूनानी सेना के जो सैनिक घायल, अशक्त, विकलांग और निरुपयोगी हो गए थे, उन्हें उसने वापस स्वदेश भेज दिया।

२७. भारतीय यति और योगी- भारत के जीते हुए और जीतने लायक प्रदेशों की लोकस्थिति का पूरा वृत्तांत लाने के लिए सिकंदर ने अनेक जिज्ञासु दूत या गुप्तचर चारों ओर भेजे थे उनके द्वारा प्राप्त समाचारों में वहाँ के अरण्यों, तपोवनों में रहनेवाले तपस्वियों, नि:संग अकेले विचरण करनेवाले तत्त्वचिंतक यतियों, योगियों और प्रव्रजितों के वर्णन होते थे। स्वयं सम्राट सिकंदर को विद्वानों और दार्शनिकों के प्रति आकर्षण और लगाव था। वह स्वयं को महान् दार्शनिक अरस्तू (Aristotle) का शिष्य कहता था। यूनान देश में भी इन यतियों, योगियों, दार्शनिकों, संन्यासियों और ब्राह्मणों की ख्याति थी। वह ख्याति सिकंदर के कानों तक भी पहूँची थी। इस कारण उसे, ग्रीक भाषा में जिन्हें Gymnosophist (जिम्नोसोफिस्ट) कहा जाता था, उन भारत के संन्यासी ब्राह्मणों को, कम-से-कम उनमें से कुछ को देखने और उनके साथ संभाषण करने की प्रबल इच्छा थी।

सिकंदर ने अरण्यों से ऐसे ही कुछ तपस्वियों को बुलवाकर उनके साथ भेंट की और स्वयं तपोवनों में जाकर कुछ तपस्वियों से भेंट की। उन तपस्वियों की और सिकंदर जैसे अलौकिक सम्राट् की भावनाओं को जानने के लिए ऐसे प्रसंगों की कुछ कथाएँ यूनानी लेखकों के शब्दों में ही प्रस्तुत कर रहा हूँ।

२८. ऐसे ही एक यति से भेंट होने पर सिकंदर ने उससे पूछा- "मैं भारत विजय कर सकूँगा या नहीं?" यह सुनकर वह यति चुप रहा, किंतु उसने एक ऐसा चमड़ा मँगवाया, जिसके दोनों सिरे या किनारे सूखकर और ऐंठकर धनुष की भाँति वक्र तथा कड़े हो गए थे। तब उसने सिकंदर से कहा, "यह चमड़ा सपाट बिछाकर तू उसपर अकेला ही बैठ।"

सिकंदर ने स्वयं और उसकी आज्ञा से उसके किसी अधिकारी ने उस चमड़े के वक्र सिरे को दबाकर उसपर बैठने की बहुत चेष्टा की, परंतु वह एक सिरा दबाता, तो दूसरा कड़ा सिरा खट् से ऊपर उठ जाता और उस सिरे को बलपूर्वक दबाता तो पहला कड़ा, ऐंठा सिरा खट् से ऊपर उठ जाता। बहुत प्रयत्न करने पर भी उस चमड़े को सपाट बिछाकर उसपर अकेले बैठना उसके लिए संभव नहीं हुआ। उस ओर इंगित कर उस यति ने कहा- "तुम्हारे भारत-विजय अभियान की यही दशा होगी तुम प्रदेश जीते हुए आगे बढ़ोगे, तब तक पीछे जीते हुए प्रदेश तुम्हारे विरुद्ध विद्रोह कर, तुम्हारी सत्ता उखाड़ फेंकेंगे। उन्हें दंड देने के लिए तुम पीछे मुड़ोंगे, तो आगे के जीते हुए प्रदेश तुम्हारा शासन अस्वीकार कर विद्रोह करेंगे और स्वतंत्र हो जाएँगे। इस प्रकार अखिल भारत का सम्राट् बनना तुम्हारे लिए असंभव है। इस अभियान में तुम सफल नहीं हो सकते।"

२९.'डंडामिस' की फटकार- यूनानी लेखक, जिसे 'Dandamis' (डंडामिस) कहते हैं और जिसका शुद्ध संस्कृत नाम मुझे नहीं मिल सका, तक्षशिला में ऐसे एक संन्यासी ब्राह्मण की ख्याति सुनकर सिकंदर की उसे देखने और उसके साथ संभाषण करने की तीव्र इच्छा हुई। वह वयोवृद्ध, ज्ञानवृद्ध तपस्वी ब्राह्मण विरक्त अवस्था में विचरण करता था कई आमंत्रण भेजने पर भी वह संन्यासी ब्राह्मण सिकंदर से मिलने नहीं आया। तब क्रुद्ध होकर सिकंदर ने सेक्रेटस नामक अपने एक अधिकारी को उस सर्वसंगपरित्यागी ब्राह्मण के पास इस आदेश के साथ भेजा- 'जो प्रत्यक्ष 'ज्यूज' (संस्कृत द्युः) देवता का पुत्र है, ऐसे जगज्जेता सम्राट् सिकंदर ने तुम्हें बुलाया है। यदि तुम नहीं आओगे, तो वहीं तुम्हारा शिरच्छेद कर दिया जाएगा ।'

यह धमकी सुनकर वह ब्राह्मण खिलखिलाकर हंस पड़ा। उसने उत्तर दिया- 'सिकंदर जैसा और जिस अर्थ में 'ज्यूज' देवता का पुत्र है, वैसा ही और उसी अर्थ में मैं भी उसी 'द्यु:' देवता का पुत्र हूँ। सिकंदर का जगज्जेता होने का दंभ व्यर्थ है। उसने तो अभी व्यास नदी का तीर भी नहीं देखा है। उस पार जिन शुर भारतीयों के राज्य हैं और उनसे भी आगे जो मगध का प्रबल साम्राज्य है, उनके साथ युद्ध करने के बाद यदि सिकंदर जीवित शेष रहता है, तो वह जगज्जेता है या नहीं- इसपर विचार करेंगे। सिकंदर मुझे भूमि और धन का लालच दे रहा है। जाकर उससे कहो कि मुझ जैसे संन्यासी ब्राह्मण ऐसी वस्तुओं को तुच्छ समझते हैं। मुझे जो कुछ चाहिए, वह सब मेरी मातृभूमि मुझे माता की ममता से दे रही सिकंदर मेरा सिर कटवा देगा, तो अधिक-से-अधिक यही होगा कि वह सिर और शेष धड़ जिस मिट्टी से बना है, उसी में मिल जाएगा। परंतु वह मेरी आत्मा का हनन नहीं कर सकता। मेरी आत्मा अमर है, अच्छेद्य है। सिकंदर से कहो कि जो लोग सत्ता और स्वर्ण के दास हैं और मृत्यु से डरते हैं, उन्हीं को ऐसी धमकियाँ दे! हमारे सामने सिकंदर जैसे मर्त्य मानव की ये धमकियाँ गीदड़भभकियाँ होती हैं, क्योंकि सच्चा संन्यासी न स्वर्ण के वश में होता है और न ही मृत्यु से डरता है। जाओ, मैं नहीं आता।

३०. डंडामिस ने सिकंदर के अधिकारी को जो तेजस्वी उत्तर दिया था, उसमें से केवल कुछ वाक्य ही ऊपर उद्धृत किए गए हैं। ग्रीक लेखकों ने वह तेजस्वी उत्तर विस्तार से लिखा है। प्लूटार्क (Plutarch) ने ही इन कथाओं का वर्णन किया है। डंडामिस की इस कथा को लिखते हुए उसके इस स्वाभिमानपूर्ण, तेजस्वी उत्तर से अत्यंत अभिभूत होकर कुछ ग्रीक लेखकों ने लिखा है- "जिस सिकंदर ने अनेक राष्ट्रों को जीता, उस जगज्जेता सिकंदर को भी परास्त करनेवाला या धूल चटानेवाला यदि कोई इस विश्व में था, तो वह वही वृद्ध, नंगा भारतीय ब्राह्मण संन्यासी ही था।"

३१. सिकंदर का ब्राह्मणों को मृत्युदंड- सिकंदर को उसके दूतों द्वारा प्राप्त जानकारी से यह ज्ञात हुआ कि ये संन्यासी, योगी और यति यद्यपि प्रायः अकेले भटकते हैं, तथापि उनकी निर्भय, निस्संग और निस्पृह वृत्ति के कारण, भारतीय गणराज्यों के हों या राजतंत्रात्मक साम्राज्यों के हों, सभी राज्यकर्ताओं पर उनके राजनीतिक मतों का अधिक प्रभाव पड़ता है। इन संन्यासी ब्राह्मणों की जिह्वा की धार भारतीय क्षत्रियों के खड्ग की धार के समान ही तीक्ष्ण होती थी। वह यूनानियों के अन्यायपूर्ण आक्रमणों का तीव्रता से प्रतिकार करती थी और भारतीय जनता के हृदय में सिकंदर के विरुद्ध प्रकट रूप से या गुप्त रूप से प्रक्षोभ उत्पन्न करती थी।

यह बात ध्यान में आने पर प्रारंभ में सिकंदर के मन में इस जिम्नोसोफिस्ट वर्ग के प्रति जो जिज्ञासापूर्ण आकर्षण था, उसका रूपांतरण अब इन संन्यासी ब्राह्मणों के प्रति तीव्र द्वेष में बदल गया। सिकंदर ने ऐसे कुछ ब्राह्मणों को पकड़कर फाँसी पर चढ़ाया। ऐसे ही एक ब्राह्मण का सिर काटने से पहले जब उसे पूछा गया कि उसने अमुक राजा को यूनानियों के विरुद्ध क्यों भड़काया? तब उस ब्राह्मण ने दृढ़ता और निर्भीकता से उत्तर दिया-" मेरे जीवन का यह सिद्धांत है कि जीवित रहना है तो सम्मान से जीवित रहो, अन्यथा सम्मानपूर्वक मर जाओ!" (Plutarch, IXIV)

३२. पौरव राजा को पराजित करने के बाद सिकंदर को स्वाभाविक रूप से ऐसा लगा कि उसकी इस महान् विजय से आस-पास के छोटे-छोटे गणराज्यों का धैर्य अपने आप नष्ट हो जाएगा और वे सब गणराज्य (Republics) शीघ्र ही उसकी शरण में आ जाएँगे; परंतु उसकी यह धारणा अधिकतर भ्रामक सिद्ध हुई। वितस्ता पार कर वह जैसे-जैसे आगे बढ़ता गया, उसे मार्ग में आए अधिकांश छोटे-बड़े गणराज्यों के साथ युद्ध करना ही पड़ा। उन्होंने रणदेवता का आह्वान किए बिना सहजता से सिकंदर का आधिपत्य स्वीकार नहीं किया। यूनानियों की बहुसंख्यक प्रबल सेना ने यद्यपि उनमें से अधिकांश राज्यों को जीत लिया था, फिर भी इन सतत युद्धों के कारण यूनानी सेना बहुत त्रस्त और तनावग्रस्त हो गई थी।

३३.ग्रीक ग्रंथकारों ने ऐसे कई युयुत्सु भारतीय राज्यों और गणराज्यों के साथ हुए सिकंदर के युद्धों के वर्णन किए हैं यहाँ उन्हें विस्तारपूर्वक या संक्षेप में भी बताना उचित नहीं है। तथापि सारा भारत पदाक्रांत कर मगध के सम्राट् का मुकुट अपने मस्तक पर धारण करने के लिए आए हुए उस असामान्य, जगत् प्रसिद्ध सेनापति सिकंदर तथा उसकी प्रबल यूनानी सेना के साथ भारत की स्वतंत्रता के लिए जिन गणराज्यों ने अलग-अलग ही क्यों न हो, परंतु यथाशक्ति तुमुल और भीषण युद्ध किए और अंत में सिकंदर को भारत के आँगन से ही वापस लौट जाने के लिए बाध्य किया उनमें से कुछ विशेष राज्यों और गणराज्यों की चर्चा नमूने के लिए करना केवल कृतज्ञतावश आवश्यक है।

३४. सौभूति और कठ गणराज्य- सौभूति और कठ गणराज्य प्रजासत्तात्मक प्रणाली के थे और स्वतंत्र थे। डायोडोस्स नामक ग्रीक ग्रंथकार ने लिखा है कि इन गणराज्यों के सारे नगरों की राज्य व्यवस्था और कानून अत्यंत हितकारी तथा प्रशंसनीय थे। (They were governed by laws in the highest degree salutary and their political system was admirable.) इनकी एक विशेषता यह थी कि प्रजा अधिकाधिक बलिष्ठ और सुंदर हो, इस हेतु से प्रजनन को व्यक्तिगत विषय न मानकर उन्होंने एक राष्ट्रीय कर्तव्य समझा और उसपर राज्यसत्ता का नियंत्रण रखा। वे शारीरिक सौंदर्य के भोक्ता थे। इसलिए विवाह के समय दहेज लेने की प्रथा उनमें नहीं थी वधू-वरों का शरीर सौष्ठव, सुंदरता और बलवान्, स्वस्थ संतति पैदा करने की उनकी क्षमता, ये गुण मिलने पर ही उनका विवाहबद्ध होना श्रेयस्कर माना जाता था सुजनन का सिद्धांत उनके कानूनों में इतनी कठोरता से लागू रहता था कि बच्चे के जन्म के बाद तीन महीने के अंदर उसका स्वास्थ्य-परीक्षण राज्याधिकारियों द्वारा किया जाता था यदि कोई जन्मत: विकलांग, किसी असाध्य रोग से ग्रस्त या विकृत होता तो उसे राजाज्ञा से निर्दयतापूर्वक मार डाला जाता था।

३५. यूनान के 'स्पार्टा' नामक गणराज्य में भी आनुवंशिकता (Heredity) सुधारने के लिए इसी प्रकार के कानून होते थे- यह विद्वानों को ज्ञात ही है।

३६. उस काल में और भी कुछ गणराज्य भारत में थे जो सौभूति और कठ गणराज्यों जैसे कठोर तो नहीं थे, फिर भी बलवान् और सुंदर प्रजा-निर्माण के उद्देश्य से कुछ नियमों का पालन अवश्य करते थे। इससे भी बहुत पूर्वकाल में वृष्णि गणों में भी उनके धुरंधर पुरुष बलवान् और सुंदर हों- इसका प्रयत्न निष्ठापूर्वक किया जाता था। इन वृष्णि गणों के विश्वविख्यात नेता श्रीकृष्ण के शरीर सौष्ठव, सुंदरता और बलिष्ठता की ख्याति अजर अमर है। श्रीकृष्ण के पुत्र भी अत्यंत सुंदर थे-ऐसा पुराणों में वर्णन है।

३७. आयुधजीवी गणराज्य-पंचनद (पंजाब) प्रदेश और सिंधु नदी के दोनों तटों पर उसके सर-संगम तक फैले हुए भारतीय गणराज्यों में से अनेक गणराज्यों को आयुधजीवी या शस्त्रोपजीवी कहा जाता था उनकी विशेषता यह होती थी कि वहाँ के समस्त पुरुषों को ही नहीं, अपितु बहुसंख्यक स्त्रियों को भी अनिवार्य रूप से सैनिक-शिक्षा दी जाती थी। युद्धकाल में पूरा राष्ट्र युद्ध कर सकता था। उनके संविधान भिन्न-भिन्न होते हुए भी मूलतः प्रजातांत्रिक प्रणाली के होते थे, यह हम बता ही चुके हैं। ये गणराज्य छोटे-बड़े थे, परंतु स्वतंत्र रूप से रहते थे।

३८, यौधेय गणराज्य- यह राज्य विशाल और उर्वर प्रदेश में फैला था, जहाँ अठारह से इक्कीस वर्ष की आयु के प्रत्येक युवक और युवती को अनिवार्य रूप से शस्त्रविद्या सीखनी पड़ती थी। इससे सारा पुरुष वर्ग ही नहीं, अपितु अधिकांश स्त्री वर्ग भी शस्त्रसज्ज होता था, जिसे विदेशी इतिहासकारों ने 'A nation in arms' शब्दों से संबोधित किया है और अपनी स्वतंत्रता लिए प्राणपण से लड़ने की कीर्ति के कारण जिनके पराक्रम से लोग थरति थे, वह 'यौधेय गणराज्य' इन आयुधजीवी राज्यों में प्रमुख माना जाता था। वह पंचनद प्रदेश में व्यास नदी के निचले हिस्से में फैला हुआ था।

३९. पौरव राजा के पराभव के पश्चात् आस-पास के गणराज्य और पहाड़ी कबीलों को युद्ध में जीतकर सिकंदर वितस्ता (झेलम) और चंद्रभागा (चिनाव) नदियों को पार कर बड़ी तेजी से व्यास नदी पार करने के लिए आ रहा है, यह समाचार सुनकर उसके निचले हिस्से में बसे हुए पराक्रमी यौधेय गणराज्य ने भी सिकंदर की शरण में न जाने और उसके साथ युद्ध करने की पूरी तैयारी कर ली। इतना सबकुछ हो गया, फिर भी मगध साम्राज्य का सम्राट् कहलानेवाले उस कायर महाराजा धनानंद की निद्रा भंग नहीं हुई। उस पराक्रमशून्य भीरु राजा ने इस वीर यौधेय गणराज्य को सिकंदर को वहीं पर पराजित करने में किसी भी प्रकार की सामरिक सहायता दी हो-ऐसा दृष्टिगत नहीं होता। फिर भी यौधेय गण अपने ही बल पर सिकंदर से युद्ध करने के लिए तैयार हुए।

४०. सिकंदर की भयभीत सेना- पंचनद प्रदेश की सिंधु, वितस्ता, चंद्रभागा नदियों को पार कर सिकंदर की सेना जब व्यास नदी के तट पर पहुँची तो उसे पता चला कि नदी के उस पार बसे हुए यौधेय गणराज्य की सेना अपनी स्वतंत्रता के रक्षार्थ युद्ध करने के लिए तैयार है। इस पराक्रमी सेना की कीर्ति यूनानियों तक पहुँच चुकी थी। इस यौधेय गणराज्य के आगे गंगातट पर बसे बड़े-बड़े राज्य युद्ध करने के लिए तैयार हैं-यह समाचार भी उसने सुना। इसलिए आज तक पंचनद में भारतीयों से सतत युद्ध कर थकी और ऊबी हुई उस यूनानी सेना को व्यास नदी पार कर यौधेय गणराज्य तथा अन्य भारतीय राज्यों से युद्ध करते हुए आगे बढ़ने का साहस नहीं हो रहा था।

४१. परंतु उनके उस जीत हासिल करनेवाले, धैर्यशील सम्राट् और सेनापति सिकंदर की राज्यतृष्णा और युद्धपिपासा लेशमात्र भी कम नहीं हुई थी। उसने ग्रीक सेना में घोषणा कर दी कि उसे व्यास नदी पार कर यौधेय गणराज्य को जीतकर मगध तक आगे बढ़ना ही है। उसकी इस जिद और आग्रह के कारण युद्ध से ऊबी उसकी चुनी हुई सेना में भी घोर असंतोष फैल गया। उसके यूनानी सैनिक छोटी टुकड़ियों में एकत्र होकर गुप्त रूप से प्रस्ताव पारित करने लगे कि वे आगे जाना स्पष्ट रूप से अस्वीकार करेंगे! वे सिकंदर को प्रत्यक्ष 'ज्यूज' देवता का अजेय पुत्र मानते थे, परंतु अब उसकी राज्यतृष्णा से उन्हें भी घोर वितृष्णा होने लगी।

ग्रीक सेना में फैले इस असंतोष का पता चलते ही सिकंदर ने अपनी सेना को पुनः उत्तेजित करने के लिए उसके सामने एक भाषण दिया- "ग्रीक सेना अजेय है, यह कीर्ति जग भर में फैली है। उस कीर्ति पर ऐसा कलंक! भारत में प्रवेश करने के बाद आज तक आपने जो युद्ध किए, जो विजय प्राप्त की, वे सब छोटे-छोटे शत्रुओं के साथ थी। अब बड़े-बड़े शत्रुओं से सामना करना पड़ेगा। व्यास नदी के उस पार ही एक शस्त्रजीवी (आयुधजीवी) गणराज्य आपकी शरण में आकर आपसे युद्ध करने के लिए प्रस्तुत हुआ है। उसको सबक सिखाना ही होगा! यही नहीं, उसके आगे गंगा के किनारे पर बसे हुए अत्यंत उर्वर राज्यों को भी जीतकर आपको यूनानियों की दिग्विजय का डंका बजाकर सारे जग को सुनाना ही होगा।"

४२. सिकंदर के द्वारा अपनी सेना को उत्तेजित करने के लिए किए गए उपर्युक्त भाषण का परिणाम उसकी अपेक्षा के अनुसार न होकर उसके ठीक विपरीत हुआ। आज तक जो युद्ध किए, उनसे अधिक भीषण संग्राम उन्हें अब करने होंगे-यह बात स्वयं सिकंदर के मुख से सुनकर यूनानी सेना अत्यंत भयभीत हुई। डॉ. जायसवाल ने अपने ग्रंथ ''Hindu Polity में लिखा है "The Greek army refused to move an inch forward to face the (Bharatiya) nations whose very name, according Alexander struck his soldiers with terror."

४३. यौधेय गणराज्य से तत्काल युद्ध करना पड़ेगा- इस भय से तथा आगे के सारे भीषण संग्राम टालने के लिए यूनानी सेना ने व्यास नदी को पार करने से ही स्पष्ट रूप से अस्वीकार कर दिया। सिकंदर सेना के इस आज्ञाभंग से अत्यंत क्रोधित हुआ, परंतु वह जैसा धुरंधर योद्धा था, वैसा ही चतुर और धूर्त राजनीतिज्ञ भी था। समय और प्रसंग को पहचानते हुए उसने एकाएक कोई निर्णय नहीं लिया। वह चुपचाप क्रोध और निराशा से अपने खेमे में चला गया। उसने सबसे बोलना बंद कर दिया। तीन दिनों तक वह अपने खेमे से बाहर निकला ही नहीं-अकेले मन-ही-मन विचार कर उसने एक निराली योजना बनाई। तत्पश्चात् खेमे से निकलकर उसने अपनी सारी यूनानी सेना को एकत्र किया और उनसे कहा, "व्यास नदी पार कर आगे बढ़ने का विचार अब मैंने छोड़ दिया है। अब हम यूनान वापस जाएँगे।"

यह सुनते ही यूनानी सेना में हर्ष की लहर दौड़ गई। तब सिकंदर ने उनसे आगे कहा, "परंतु हम वापस कैसे जाएँगे? हम सीधे पीठ दिखाकर जिस रास्ते से आए, उसी रास्ते से वापस जाएँगे तो हमारे द्वारा जीते हुए ये सारे भारतीय राज्य 'जितं, जितं' कहते हुए विद्रोह कर उठेंगे हम घबरा गए हैं, ऐसा समझेंगे। इसलिए पीठ दिखाकर जिस मार्ग से आए, उस भूमि मार्ग से वापस न जाकर हम थोड़ा सा तिरछा मुड़ेंगे, सिंधु नदी के किनारे से हम समुद्र तक जाएँगे और फिर समुद्र मार्ग से ईरान वापस लौटेंगे। आगे जब हम पुनः भारत में आक्रमण करने आएँगे, तब गंगातट के राज्यों को भी जीतकर भारत-विजय का अभियान पूर्ण करेंगे।"

४४. सिकंदर ने भाषण के प्रवाह में कह तो दिया कि 'आगे जब हम पुन: भारत में आक्रमण करने आएँगे'…परंतु हे ग्रीक सेनानी, आगे यानी कब? गंगा तट के राज्यों को जीतने की बात तो दूर, भारत के जिस सीमावर्ती प्रदेश को तुमने जीता है, उसके राज्य भी क्या तब तक तुम्हारी सत्ता को उखाड़कर फेंक नहीं देंगे और स्वतंत्र नहीं हो जाएँगे? और कहीं तुम्हारे उस 'आगे'… से पहले ही तुम स्वयं इस संसार से लुप्त हो जाओगे, तब? अरे, 'ज्यूज' का कुल भी देखते-देखते काल-कवलित हो सकता है, चाहे वह यूनान का ही क्यों न हो!

४५. भारत पर पुनः आक्रमण करने की सिकंदर की उन व्यर्थ की बातों की भारतीय Fymnosophist अर्थात् यतियों, योगियों ने जो खिल्ली उड़ाई थी, वह अप्रासंगिक या अनुचित नहीं थी।

४६. सिकंदर की वापसी- सिकंदर मुँह से भले ही बड़ी-बड़ी बातें करता रहा, परंतु व्यास नदी के उस पार के यौधेय आदि भारतीय सेनाओं के बल-विक्रम से यूनानी सेना भयभीत हो गई थी। इसी कारण सिकंदर को व्यास नदी पार करने का साहस नहीं हुआ। भारतीयों के पराक्रम से उसका युद्ध का उन्माद नष्ट हुआ। इसलिए सिकंदर वापस जाने पर विवश हुआ। वह स्वेच्छा से वापस नहीं जा रहा था, वह तो भारतीयों के सम्मुख बलहीन हुए यूनानियों की वापसी थी। इस ऐतिहासिक सत्य को छिपाने के लिए कुछ ग्रीक और यूरोपीय इतिहासकारों ने लिखा है-"यदि सिकंदर व्यास नदी पार कर आगे बढ़ता तो वह यौधेय गणराज्य को ही नहीं, अपितु मगध को भी पराजित कर सकता था। यौधेयों ने प्रत्यक्ष रणभूमि में युद्ध कर उसको पराजित नहीं किया था।" इस प्रकार की बड़ी-बड़ी बातों का यौधेय आदि भारतीय रणवीरों की ओर से यह प्रत्युत्तर दिया जा सकता है-

'का कथा बाणसंधाने ज्याशब्देनैव दूरतः।

हूँकारेणैव धनुषः स हि विघ्नन् व्यपोहति॥

४७. जो शत्रु केवल हमारी धनुष की टंकार सुनकर ही भयभीत होकर भागता है, उसके साथ क्या खाक युद्ध करेंगे।

४८. सिकंदर की यूनानी सेना की प्रत्यक्ष युद्धभूमि में भारतीयों से संग्राम करने की इच्छा को भी मगध आदि रणप्रतापी भारतीय अब शीघ्र ही पूर्ण करने वाले हैं। युद्ध के मैदान में वह चंद्रगुप्त अब उतरने ही वाला है। बस, थोड़ी सी प्रतीक्षा कीजिए!

४९. सिकंदर द्वारा बलशाली नौसेना का निर्माण- व्यास नदी से उसकी सेना की वापसी होने पर सिकंदर ने सिंधु नदी के जलमार्ग से सेना के साथ सिंधुमुख तक अर्थात् समुद्र तक जाने के लिए पाँच-छह सौ जलपोत बनवाकर एक बलशाली नौ-दल का निर्माण किया। इन जलपोतों पर सवार होकर वह अपने अस्त्र-शस्त्रों से सज्जित हजारों सैनिकों के साथ सिंधु नदी के जलमार्ग से यात्रा करने लगा। इस यात्रा के दौरान ही सिकंदर को बेबिलोन से मंगाई हुई दो ताजा-दम यूनानी सेनाएँ भी आकर मिलीं। उनको देखकर सिकंदर की थकी हुई पुरानी सेना भी फिर से उत्साहित और उल्लसित हो गई।

५०. तब तक सिकंदर को पीछे हटते देखकर उसके जीते हुए गांधार से व्यास नदी तक के प्रदेश में स्थित भारतीय जनपदों में भीतर-ही-भीतर यूनानी सत्ता के विरुद्ध एक बड़ा षड्यंत्र रचा जाने लगा था। उसका उल्लेख हम आगे करेंगे।

यहाँ पर इतना ही बताना पर्याप्त है कि 'मैं पुन: वापस आऊँगा, तब देख लुगा।'- सिकंदर की इस धमकी को केवल एक राजनीतिक चाल समझकर, सिकंदर सिंधु नदी के जिस जलमार्ग से वापस जा रहा था, उसके दोनों तटों पर फैले हुए छोटे-बड़े भारतीय गणराज्यों ने उसकी यूनानी सेना का यथाशक्ति सामरिक प्रतिकार करने का निर्णय किया। यह निर्णय उन सारे स्वतंत्र फुटकर गणराज्यों द्वारा अलग-अलग विभक्त रूप में लिया गया था। सब राज्यों ने मिलकर, संगठित होकर, एक नेतृत्व में संयुक्त रूप से सिकंदर के साथ युद्ध कभी नहीं किया। इसलिए जिस प्रकार पूर्व काल में गांधार और पंचनद में उसने किया, उसी प्रकार एक-एक भारतीय गणराज्य को युद्ध में पराभूत करती हुई सिकंदर की सुसंगठित सेना अपनी वापसी के मार्ग पर आगे बढ़ती गई।

भारतीय सेनाओं के साथ किए गए इन फुटकर युद्धों से यद्यपि सिकंदर की सेना को भारी क्षति पहुँचती थी, तथापि वह निःशेष नहीं हो सकती थी। हर स्वतंत्र गणराज्य के अपने तक ही सीमित रहकर अकेले ही युद्ध करने की इस अलगाववादी प्रवृत्ति के उस समय कुछ थोड़े अपवाद भी थे। उनमें से जिनको शत्रुपक्ष के ग्रीक इतिहास लेखक भी भूरि-भूरि प्रशंसा करते हैं और जिन्होंने सिकंदर को ग्रीक इतिहास के लिए अविस्मरणीय भयंकर आघात युद्धस्थल में पहुँचाया था, उन दो भारतीय गणराज्यों के सम्माननीय अपवादों का उल्लेख करना नितांत आवश्यक है।

५१. मालव तथा शूद्रक गणराज्य-मालव और शूद्रक सिंधु नदी के तट के पृथक्-पृथक् और स्वतंत्र गणराज्य थे। दोनों स्वतंत्र, शुर, अत्यंत स्वाभिमानी लोकसत्तात्मक पद्धति के राज्य थे उनमें भी मालव गण अत्यंत प्राचीन काल से विख्यात था। इन गणों में कभी-कभी शत्रुता भी होती थी। तथापि जब सिकंदर की सेना रास्ते में आनेवाले हर गणराज्य को युद्ध में पराजित करती हुई जलमार्ग से वापस जा रही थी, तब उन दोनों गणराज्यों के राजनेताओं ने, अलग-अलग लड़ने में भारतीयों ने अब तक जो भयंकर भूल को थी, उस राष्ट्रघाती भूल को सुधारने का दृढ़ निश्चय किया उन्होंने स्वतंत्र रूप से अलग-अलग न लड़कर दोनों गणों की सेनाओं को सम्मिलित कर एक ही नेतृत्व में लड़ने का निर्णय लिया। केवल सेनाएँ ही एक नहीं हुई, अपितु दोनों गणराज्यों के नागरिकों ने भी अपनी पुरानी शत्रुता भुलाकर अपना राष्ट्रीय और सामाजिक जीवन भी एकात्म एकरूप करने के लिए परस्पर शारीरिक संबंध (विवाह से) जोड़े। दोनों गणों की जातियाँ आपस में मिल जाएँ, एकरूप, एकबीज हों, इस उद्देश्य से दोनों गणराज्यों के नागरिकों ने एक बहुत बड़ा सामुदायिक विवाह समारोह आयोजित किया। इस विशाल समारोह में न्यूनतः दो सहस्र युवक-युवतियों का परस्पर विवाह हुआ।

५२. मालव-शूद्रकों को इस संयुक्त सेना के साथ भयंकर युद्ध करते समय सिकंदर ने उनके गणराज्य के एक महत्त्वपूर्ण नगर पर घेरा डाला था। उस नगर का निश्चित नाम नहीं मिला, परंतु वह नगर राजधानी या उतने हो महत्त्व का होगा नगरवासी बड़े धैर्य से, पूरी शक्ति से युद्ध कर रहे थे। दीर्घकाल तक घेरा डालने पर भी उस नगर को जोतना संभव नहीं हो सका। तब शीघ्रकोपी सिकंदर को यह विलंब असा होने लगा। उसने नगर की प्राचीर की तह पर सीढ़ियाँ लगाकर सीधे चढ़ने और आक्रमण करने की योजना बनाई।

५३. सिकंदर की सेना में इसके पूर्व में व्यास नदी पार करने के समय जैसा असंतोष फैला था, वैसा ही घोर असंतोष इस समय भी व्याप्त था। नए युद्धों को टालने के लिए ही हार स्वीकार कर यूनानी सेना सिंधु नदी के जलमार्ग से घर वापस लौट रही थी। उस मार्ग से लौटते हुए उसे लगातार दोनों तटों पर फैले भारटीय गणराज्यों के साथ युद्ध करने पड़े। यूनानी जानते थे कि उनके सेनापति सिकंदर ने असोम राज्यतृष्णा के कारण यह आक्रामक नौति अपनाई है, जिसके परिणामस्वरूप उन्हें आगे भी ऐसे ही तुमुल युद्ध प्राणपण से करने पड़ेंगे इसलिए वे भयभीत और असंतुष्ट थे। इन शक्तिशाली मालव-शूद्रकों के साथ चले इस लंबे युद्ध से तो उनकी सहनशक्ति जवाब देने लगी थी।

५४. इसलिए उनका असंतोष अब चरम सीमा पर पहूँचा और वे खुलकर विद्रोह एवं अवज्ञा की भाषा बोलने लगे।

"When the Macedonian soldiers found that they had still on hand a fresh war in which the most warlike nations (गण) would be their antagonists, they were struck with unexpected terror and began again to upbraid the king in the language of sedition." (Curtius as quoted in 'Hindu Polity')

५५. इस विद्रोह के बावजूद सिकंदर ने अपनी सेना को शरण में न आनेवाले उस भारतीय नगर की अभेद्य प्राचीर के तटों पर सीधे सीढ़ियाँ लगाकर चढ़ने और शत्रु के प्रतिकार से बिना डरे तट से नगर के अंदर कूदकर प्रवेश करने की आज्ञा दी। उसकी सेना यह अत्यंत साहसिक कार्य करने के लिए आनाकानी कर रही है-यह देखकर सिकंदर स्वयं तट से लगाई हुई एक सौढ़ी पर तेजी से चढ़ने लगा। उसके सैनिकों ने यह देखा तो वे भी उत्तेजित होकर तेजी से सीढ़ियाँ लगाकर तट पर चढ़ने लगे। तट पर चढ़ते ही सिकंदर ने सीधे वहाँ से नगर के अंदर रणभूमि में छलँग लगाई! उसके पीछे-पीछे उसके सैनिक भी तट से कूदकर नगर में, रणभूमि में घुस पड़े। वहाँ भारतीय सेना के साथ उनका घोर युद्ध होने लगा।

५६. इतने में...

५७. इतने में एक भारतीय वीर (जिसका नाम उपलब्ध नहीं है) ने अपने धनुष की प्रत्यंचा से एक अत्यंत विषमय बाण छोड़ा और तुमुल युद्ध करते हुए आगे घुसनेवाली उस यूनानी सेना में, जहाँ उसके सम्राट् सेनापति का स्वर्णिम शिरस्त्राण चमक रहा था, वहाँ लक्ष्य कर उसने वह अमोघ बाण छोड़ा।

५८. वह बाण नहीं था, अपितु भारत का मूर्तिमंत प्रतिशोध ही था! सुप्रसिद्ध मराठी कवि मोरोपंत की एक आर्या में थोड़ा परिवर्तन कर कहें, तो कह सकते हैं 'तो शर गिरधत्वरसा, पविसा, रविसा स्मरारिसायकसा म्लेच्छ हृदंतरी घुसल वल्मीकामाजि नागनायकसा।' (अर्थात् गिरिधर के वर जैसा, अग्नि जैसा, सूर्य जैसा, स्मरारि (शंकर) के बाण जैसा वह बाण म्लेच्छ अर्थात् सिकंदर के हृदय में ऐसा घुसा, जैसे बिल में नागनायक (श्रेष्ठ नाग घुसा हो।)

५९. उस भारतीय वीर का छोड़ा हुआ वह अमोघ बाण सीधा सिकंदर के वक्ष में घुसा, जिससे वह मूर्च्छित होकर भूमि पर गिर पड़ा। यह देखते ही उसके एक सैनिक ने तुरंत उसे अपनी ढाल से ढक लिया। सिकंदर रणभूमि में धराशायी हुआ। घायल हुआ! इन समाचारों से उसकी सेना में हाहाकार मच गया। यूनानी सैनिकों ने बड़ी कठिनाई से घायल, मूर्च्छित सिकंदर को रक्तरंजित अवस्था में ही वहाँ से बाहर निकाला। वे उसे अपने शिविर में ले गए। उसकी छाती में घुसे विषबाण को बड़ी मुश्किल से बाहर निकाला जा सका। जब सिकंदर की चेतना लौटने लगी, तब जाकर उसकी व्याकुल सेना को कुछ धीरज बंधा ! सिकंदर का घाव भरने में कई दिन लगे। तब तक वह रुग्ण-शय्या पर हो रहा था।

६०. उधर बेबिलोन से यूनान तक इस घटना का पहला समाचार यह पहुँचा कि भारतीय युद्ध में एक विषैले बाण से सिकंदर की मृत्यु हो गई! यह सुनकर गांधार और ईरान के कुछ भागों में विद्रोह के स्वर उभरे; परंतु 'सिकंदर केवल घायल हुआ था और अब वह पूर्णतः स्वस्थ है'- यह समाचार सुनते ही वह विद्रोह शांत हो गया।

६१. इस घटना का वृत्तांत सुनकर भारतवासियों ने, विशेषत: मालव-शूद्रकों के उन वीर गणराज्यों ने धन्यता और कृतकृत्यता का अनुभव किया, जो स्वाभाविक ही था। भारत के पौरव राजा को जब यूनानी सैनिकों ने युद्ध में घायल किया था, तब सिकंदर को इतना गर्व हुआ था कि उसने यह दृश्य एक स्वर्णमुद्रा पर अंकित करवाया और उस नई मुद्रा को इस वीर कृत्य के स्मरणार्थ प्रचलित करवाया था । वह मुद्रा या सिक्का आज भी देखने को मिलता है। यूनानियों के उसी राजा को रणभूमि में धराशायी कर आज भारतीय वीरों ने उस अपमान का प्रतिशोध लिया था असंख्य भारतीयों का भीषण रक्तपात करनेवाले उस सम्राट् सिकंदर को, उसका अपना रक्त बहाकर भारतीय वीरों ने व्यक्तिगत रूप से दंड दिया था।

६२. जिसके वक्षस्थल में अंदर तक भारतीय बाण घुसा है और इस कारण जो रक्तरंजित होकर रणभूमि में मूच्छित पड़ा हुआ है, ऐसे सम्राट् सिकंदर का चित्र अंकित की हुई किसी स्वर्णमुद्रा का प्रचलन मालव तथा शुद्रक गणराज्यों को भी करना चाहिए था। हो सकता है, उन्होंने वैसा किया भी हो।

६३. सिकंदर की रणनीति उसका विरोध करनेवाले अधिकतर राज्यों को निर्दयता से कुचलने की थी। परंतु किसी तुल्यबल प्रतिवीर से सामना होने पर पैंतरा बदलकर झट से सीधा, सरल बन जाने की कला में भी वह चतुर था। उसका स्वास्थ्य सुधरते ही उद्दंडता की भाषा छोड़कर उसने मालव-शूद्रक गणराज्यों के संयुक्त सेनापति के पास युद्ध-संधि का प्रस्ताव भेजा। उन गणराज्यों ने सौ प्रतिनिधियों का चयन कर उनका एक प्रतिनिधिमंडल इस संधि-प्रस्ताव पर विचार करने के लिए भेजा। उन सब प्रतिनिधियों के। सम्मानार्थ सिकंदर ने अपने शिविर में एक भव्य समारोह का आयोजन किया था। मालव-शूद्रकों के वे सौ प्रतिनिधि जब यूनानी शिविर में आए तो वहाँ उनका भव्य स्वागत किया गया विभिन्न इतिहासकारों ने उस प्रसंग। के बड़े सरस और विस्तृत वर्णन दिए हैं, परंतु यहाँ मैं स्थानाभाव के कारण उनका उल्लेख संक्षेप में ही कर रहा हूँ। यूनानियों से भी असामान्य (Uncommon) दीर्घकाय, हृष्ट-पुष्ट, सुडौल देहयष्टि के, बहुमूल्य जरी के वस्त्र तथा रत्नों-मोतियों के आभूषणों से सज्जित वे सौ भारतीय वीर अपने सौ सुदृढ़, सज्जित स्वर्णरथों में बैठकर वहाँ पधारे थे उनके साथ मूल्यवान् अलंकारों से सज्जित उत्तम हाथी भी थे यूनानियों के मन में हाथी के लिए सदैव विशेष आकर्षण रहा है।

६४. इन्हीं शत्रुओं ने उसके प्राण लेने की चेष्टा की थी- यह चुभन मन में होने हुए भी सिकंदर ने उस समारोह में वीरोचित उदारता का परिचय देते हुए अपने भी राजवैभव का प्रदर्शन किया। उस प्रतिनिधिमंडल के सौ प्रतिनिधियों को दिए गए महाभोज में सौ स्वर्णा पीठ (आसन) एक पंक्ति में रखे गए थे। भोज में उच्च कोटि के उत्कृष्ट मद्यों और पकवानों की प्रचुरता थी। विभिन्न क्रीड़ोत्सवों तथा गायन, वादन, नर्तन के अनेक सुंदर कार्यक्रमों का भी आयोजन किया गया था। अंत में सिकंदर और मालव-शूद्रकों के संयुक्त गणराज्य के बीच संधि प्रस्ताव पारित हो गया।

६५. उस काल के ग्रीक लेखकों ने इस संधि के बारे में जो विसंगत वर्णन किए हैं, उनके समन्वय से इतना ही ज्ञात होता है कि यूनानियों तथा मालव शूद्रकों के बीच चल रहे युद्ध को बंद करना दोनों पक्षों ने माना तथा सिंधु के जलमार्ग से वापस लौटनेवाली सिकंदर की सेना को यह संयुक्त गणराज्य किसी भी प्रकार का उपद्रव या हानि नहीं पहूँचाएगा-यह आश्वासन संयुक्त गणराज्य ने दिया। इन दोनों गणराज्यों में मालव गणराज्य के पराक्रमी अस्तित्व का उल्लेख भारत के भावी इतिहास में शकों के म्लेच्छ सत्ता के साथ हुए युद्धों में बार-बार आएगा। उससे यह अपने आप ही सिद्ध होता है कि वह मालव गणराज्य आगे भी कई सदियों तक विकसित और उन्नत था।

६६. भारतीय प्रतिकारकों की ऐसी कुछ और वीरकथाएँ, जिनके स्थल, काल का स्पष्ट उल्लेख न मिलने पर भी जिनका वर्णन किए बिना ग्रीक इतिहासकारों से भी नहीं रहा गया, उनमें से दो-तीन कथाएँ यहाँ पर उदाहरण के लिए प्रस्तुत कर रहा हूँ।

६७. मासागा का छापा - 'मासागा' में सिकंदर के हाथों सात सहस्र सशस्त्र भारतीयों की एक वीर टोली पकड़ी गई। उसमें अनेक स्त्रियाँ भी थी। सिकंदर ने उनसे कहा कि यदि वे लोग उसकी सेना में भरती होकर भारतीय शत्रुओं से युद्ध करेंगे तो वह उन्हें जीवनदान देगा, अन्यथा उन सबकी हत्या करेगा या सबको दास-दासी बनाकर ले जाएगा।

उस टोली के नेताओं ने यह प्रस्ताव मानते हुए उससे प्रार्थना की कि इस बारे में टोली के सब लोगों का एकमत हो। इसलिए आपस में विचार विनिमय करने के लिए उन्हें एक रात का समय दिया जाए। इसके अनुसार सिकंदर ने उन्हें एक रात का समय दिया और उन्हें यूनानी शिविर के सामने नौ मील की दूरी पर स्थित एक पहाड़ी पर रात भर रहने के लिए जाने दिया। विंसेंट स्मिथ ने अपने इतिहास में लिखा है-"The indians being unwilling to aid the foreigners in the subjugation of their countrymen desired to evade the unwelcome obligation."

उन भारतीयों ने उस रात की गुप्त सभा में निर्णय लिया कि अपने प्राणों की रक्षा के लिए यूनानियों जैसे विदेशी शत्रुओं से मिलकर स्वराष्ट्र को परतंत्र बनाने के लिए युद्ध करने का पापी कृत्य वे कदापि नहीं करेंगे और यूनानी पहरे से बचकर बड़े सवेरे ही वहाँ से भाग जाएँगे! इस सभा के बाद वे रात में थोड़ी देर विश्राम करने के लिए सो गए परंतु उनकी इस योजना की जानकारी सिकंदर को तत्काल मिल गई। उसने अपनी यूनानी सेना के साथ इस निद्रित भारतीय टोली पर अकस्मात् छापा मारा तथा एकदम भयंकर मारकाट शुरू कर दी। तब उन सात सहस्र भारतीयों में पहले कुछ देर तो हाहाकार मचा, परंतु शीघ्र ही वे संभल गए। उन्होंने शस्त्र-धारण कर व्यूह बनाया। उस व्यूह-रचना चक्र के मध्य के रिक्त स्थान में उन्होंने स्त्रियों और बच्चों को रखा और वे सारे भारतीय वीर शत्रु पर टूट पड़े। उनकी अनेक स्त्रियाँ भी सामने आकर यूनानियों से प्राणपण से लड़ती हुई दिखाई दे रही थीं। अंत में यूनानियों की विशाल सेना द्वारा वे सब मारे गए। परंतु मरते दम तक वे भारतीय वीर अपने राष्ट्र की स्वतंत्रता के लिए जूझते रहे।

६८. "The Gallant Defenders met a glorious death which they would have disclaimed to exchange for a life with dishonour." ('Early History of India' by V.A. Smith, Page 51)

६९. अग्रश्रेणी-'अग्रश्रेणी' नामक छोटे से, परंतु स्वतंत्र भारतीय गणराज्य ने भी सिकंदर की शरण में न जाकर, उसकी सेना जब सिंधु नदी से वापस लौट रही थी, तब उस प्रचंड नौ-दल के साथ क्षात्रधर्म के अनुसार प्राणपण से युद्ध किया। यूनानी सेना ने जब उनकी राजधानी पर आक्रमण किया, तब उन भारतीय योद्धाओं ने मार्ग में कई स्थानों पर मोर्चे बनाकर उन्हें रोका और उनके साथ पग-पग पर ऐसा विकट युद्ध किया कि सिकंदर अपने कई यूनानी सैनिकों की बलि चढ़ाकर ही उनके नगर में प्रवेश कर सका। "According to Curtius when those brave fellows could not further resist the odds, they (the Agrashrenees) set their houses on fire and their wives and children and all threw themselves into the flames!"

कर्टियस नामक यूरोपीय ग्रंथकार ने लिखा है कि अंत में जब उस बहुसंख्यक यूनानी सेना को हराना असंभव हो गया, तब उन वीर जुझारू अग्रश्रेणियों ने अपने घरों में आग लगाई और अपनी वीर स्त्रियों तथा बच्चों के साथ इस प्रचंड अग्नि में कूदकर भस्म हो गए! आज की भाषा में उन्होंने 'जौहर' किया।

७०. यही है वह जौहर-जय हर!-हमारे यहाँ सर्वसामान्य रूप से यह माना

जाता है कि 'जौहर' की तेजस्वी प्रथा राजपूतों में ही प्रचलित थी, परंतु ऊपर ग्रीक लेखकों ने 'अग्रश्रेणी' लोगों के जो उदाहरण आश्चर्यचकित भाव से दिए हैं, उनसे यह स्पष्ट होता है कि 'राजपूत' नाम के उदय के पूर्व से हमारे भारतीय योद्धाओं के कुछ वर्गों में यह जौहर की तेजस्वी परंपरा चली आ रही थी। 'जौहर' शब्द अर्वाचीन काल का है। वह 'जय हर!' इस रण-घोषणा से निर्मित हुआ होगा। जहाँ मरण-मारण का घोर तांडव चलता है उस रणभूमि का, विलय का भारतीय देवता है 'हर' यानी महादेव! इसी कारण 'जय हर!' के तुमुल रणघोष के साथ भारतीय सेनाएँ सुधबुध खोकर लड़ती थी। मराठों की भी रणगर्जना 'हर-हर महादेव!' ही थी। युद्ध की पराकाष्ठा करने पर भी जब परधर्मीय या विदेशी आततायी शत्रु से बचने की या मुक्ति पाने की सारी संभावनाएँ नष्ट हो जाती थीं, तब पराभूत होकर उस शत्रु के अधीन उसके दास-दासी बनकर रहने अथवा परधर्म स्वीकार कर जीवित रहने की अपेक्षा स्वधर्म, स्वराष्ट्र, स्वत्व इन सबके सम्मान का रक्षण करने स्वयं हौतात्म्य स्वीकारने का यह अग्न्यस्त्र, यह जौहर हमारे भारतीय युद्ध-तंत्र का अंतिम और अमोघ अस्त्र होता था युद्ध करने की आयु के सभी वीर पुरुष जब रणभूमि में शत्रु से लड़ते हुए मारे जाते थे, तब उनकी सैकड़ों वीरांगनाएँ अपने बच्चों को छाती से लगाए स्वयं जलाई हुई अग्नि की प्रचंड ज्वालाओं में 'जय हर', 'जय हर' का घोष करते हुए कूदकर भस्म हो जाती थीं! यही है जौहर ! यह मात्र कहावत नहीं है। यह तो वीर श्री की, पराक्रम की, स्वत्वरक्षक क्षात्रधर्म की प्राणांतक पराकाष्ठा है।

७१. जिन-जिन वीरों ने इस प्रकार जौहर कर अग्नि के कवच धारण किए, उन्‍हें भ्रष्ट करना, दास बनाना या स्पर्श करना भी किसी सिकंदर, अलाउद्दीन या सलीम ही नहीं, अपितु प्रत्यक्ष शैतान को भी संभव नहीं होता था उन अग्नि-ज्वालाओं के समीप आते ही शत्रु तीव्र दाह से हतबल, हताश और उदास होता था।

७२. भारत में कुछ स्थानों के वीरों तथा वीरांगनाओं ने ग्रीक सेना द्वारा पराभूत होकर मानहानि सहने की अपेक्षा अंतिम रणक्रंदन के पश्चात् सामूहिक रूप से अग्नि प्रवेश किया उन अद्भुत दृश्यों को देखकर ग्रीक सैनिक आश्चर्यचकित हो गए-ऐसे कई वर्णन मिलते हैं। उपर्युक्त 'अग्र श्रेणी' नामक शूर जनपद की गणना उन्हीं में होती है।

७३. ब्राह्मणक जनपद- सिकंदर की नौ-सेना लड़ते-लड़ते जब सिंधु नदी के मुख के पास पहुँची तो उसका वहाँ बसे हुए स्वतंत्र भारतीय गणराज्यों से सामना हुआ। ये गणराज्य या जनपद स्वतंत्र और शूर होते हुए भी छोटे छोटे थे। सिकंदर की विशाल, शक्तिशाली सेना के साथ तुल्यबल होकर युद्ध कर सके-ऐसा कोई राज्य नहीं था फिर भी उनमें से ब्राह्मणक नामक जनपद ने विदेशी शत्रु की शरण में न जाकर उसके साथ यथाशक्ति युद्ध करने का निश्चय किया डॉ. जायसवाल के अनुसार, पाणिनि ने जिस 'ब्राह्मणको नाम जनपदः' का उल्लेख किया है, वही यह जनपद है। पूर्व में पंचनद में युद्ध करते समय इस 'Philosopher' वर्ग के प्रति सिकंदर का विशेष रोष था, यह हम बता ही चुके हैं। उसी Philosopher (दार्शनिक) ब्राह्मण वर्ग का यह राज्य है-यह जानकर सिकंदर ने उनका निर्दलन अत्यंत कठोरता से कर प्रतिशोध लेने का दृढ़ निश्चय किया। Plutarch ने सिकंदर का जो चरित्र लिखा है, उसमें वह लिखता है- "These philosophers were specially marked down for revenge by Alexander as they gave him no less troubles than the mercenaries, they reviled the princes who declared for Alexander and encouraged free states (in India) to revolt against his authority." इस छोटे से जनपद ने अत्यंत स्वाभिमानपूर्वक अपनी स्वतंत्रता के लिए अंतिम क्षणों तक घोर युद्ध कर यूनानियों का प्रतिरोध किया!

७४. पट्टनप्रस्थ-जिसे आज मुसलमान लोग सिंध-हैदराबाद कहते हैं, उस नगर का नाम उस काल में पट्टनप्रस्थ था। संस्कृत में समुद्र के किनारे या किसी बड़ी नदी के मुख के तट पर बसे हुए नगर को पट्टन' कहा जाता है। पट्टन का अंग्रेजी अर्थ है 'Port') अंग्रेजी का यह Port शब्द उस संस्कृत शब्द' पट्टन' से ही बना हो-यह भी संभव है। सिकंदर जब समुद्र के तट पर पहूँचा, तब पट्टनप्रस्थ के इस छोटे से राज्य को उसकी शरण में जाना स्वीकार नहीं था। परंतु वह यह भी जानता था कि सिकंदर की बलशाली विशाल सेना का सामना करने की सामर्थ्य उसमें नहीं है। इसलिए उस छोटे से जनपद ने एक तीसरा मार्ग अपनाया। उस सारे जनपद के सामुदायिक रूप से देश-त्याग किया। अपने घर, संपत्ति, मातृभूमि सबकुछ त्याग कर वह स्वतंत्रताप्रिय जनपद अत्यंत दुःखित अंत:करण से दूसरे देश में जाकर बस गया।

७५. सिकंदर का स्वदेश लौटना - सिंधु नदी जहाँ समुद्र से मिलती है, उस समुद्र को 'सिंधुसागर' नाम से पुकारना उचित है। जिस प्रकार पूर्व भारत में जहाँ गंगा समुद्र से मिलती है उस सागर का (गंगासागर' परंपरागत नाम है। उसी प्रकार इधर पश्चिम में 'सिंधुसागर' नाम शोभा देता है।

७६. सिकंदर का नौ-दल जब सिंधुसागर पहुँचा, तब उसने अपनी सेना के दो भाग किए। आज जिसे हम बलूचिस्तान कहते हैं, एक भाग को उस भू-मार्ग से ईरान वापस भेजा। सिकंदर की सारी सेना इस भारत-विजय अभियान में लड़ते हुए थककर अत्यंत त्रस्त हो गई थी उसपर उस काल में बलूचिस्तान का यह भू-प्रदेश अत्यंत विकट, अरण्यमय, यूनानियों को अपरिचित और अज्ञात था। इसलिए इस ओर से गई हुई सिकंदर की सेना अत्यंत कठिन परिस्थिति में किसी प्रकार गिरती-लड़खड़ाती हुई ईरान पहुँची।

सेना के दूसरे भाग को साथ लेकर सिकंदर स्वयं समुद्र मार्ग से ईसा पूर्व सन् ३२५ में ईरान जा पहुँचा। पूर्व के समस्त ईरानी साम्राज्य का अधिपति अब सिकंदर ही था। इसलिए वह अपनी राजधानी बेबिलोन वापस गया। परंतु दो वर्ष पहले यहाँ से भारत पर जिस वीरश्रीयुक्त आवेश से उसने आक्रमण किया था, उसके अनुसार 'भारत सम्राट्' बनकर वह बेबिलोन वापस नहीं लौट सका! उसका बेबिलोन में पुनरागमन भारत सम्राट् की भांति क्या, किसी भी सम्राट् की भाँति ठाठ-बाट से नहीं हुआ था। वह तो आधे-अधूरे युद्ध अभियान से लौटे हुए किसी धके-हारे, भग्नहृदय सेनापति की तरह वापस लौटा था!

७७. भारतीय साम्राज्य पर विजय पाना बाएँ हाथ का खेल नहीं-सिकंदर के इस मनोभंग का कारण यह था कि उस समय तक यूनानियों को उनके अपने देश से बहुत बड़ा और विशाल ईरान का साम्राज्य ही सर्वश्रेष्ठ साम्राज्य लगता था। जब उन्होंने सिकंदर जैसे अलौकिक सेनापति के नेतृत्व में ईरान पर आक्रमण किया और डेरियस का वह समस्त विशाल साम्राज्य दो-तीन लड़ाइयों में ही ताश के पत्तों के भवन की भौँति ढहकर उसके पैरों पर आ गिरा। तब इस अद्भुत विजय के बाद वीरश्री के उन्माद में यूनानी अपने इस सेनापति को देव सेनापति की तरह अजेय समझने लगे। सिकंदर भी इस गर्वोन्माद से अछूता नहीं रह सका। उसके मन में अपनी इस विजयी सेना के बल पर विश्व विजेता बनने की महत्त्वाकांक्षा उत्पन्न हुई। ईरान के आगे ही भारत था। इसलिए ईरान के बाद लगे हाथ भारत को भी जीतकर 'भारत सम्राट्' बनने की आकांक्षा से उसने भारत पर आक्रमण किया। उसने सोचा कि भारतीय राज्य और साम्राज्य भी यद्यपि विशाल और अतिविस्तृत दिखाई देते हैं, तथापि ईरानी साम्राज्य की भाँति वे भी भीतर से खोखले और दुर्बल होंगे। ईरानी साम्राज्य की तरह उन्हें जीतना भी उसके बाएँ हाथ का खेल होगा!

७८. प्रत्यक्ष अनुभव इसके ठीक विपरीत था। भारत में उसे पग-पग पर कड़े विरोध का सामना करना पड़ा। यद्यपि भारत में हुए लगभग सभी युद्धों में उसकी विजय हुई, तथापि इन युद्धों को जीतने में उसकी और उसकी सेना की बड़ी दुर्दशा हुई थी! ईरान की तरह सारा भारत भी एक चुटकी में पदाक्रांत करने की यूनानियों की दर्पपूर्ण गर्वोक्तियाँ निष्फल तथा मिथ्या सिद्ध हुई और अंत में भारत का केवल सिंधु-सीमा पर स्थित भाग हो जीतकर उसे स्वदेश लौट जाना पड़ा।

७९. इस प्रकार सिकंदर का मनोभंग और कुछ अंश तक मानभंग भी हुआ था; परंतु उस पराक्रमी सम्राट् का साहस कम नहीं हुआ था। सिकंदर के मन में अभी भी यह आकांक्षा थी कि जीते हुए भारतीय प्रदेश का सुप्रबंध कर उसे सीरिया, बेबिलोन और ईरान की भाँति अपने साम्राज्य में आत्मसात् कर लूँ और तब कालांतर में पुनः भारत पर आक्रमण करू।

८०. भारत के जीते हुए भागों में सिकंदर ने अपने क्षत्रप नियुक्त किए- हिंदुकुश से गांधार और तक्षशिला तक का प्रदेश, व्यास नदी तक का आधा पंचनद और वितस्ता के संगम से सिंधुमुख तक का, सिंधुतट का प्रदेश-इस सारे भूभाग को अपने साम्राज्य में अंतर्भाव करने की अधिकृत घोषणा सिकंदर ने कर दी। तक्षशिला के राजा अंबुज को उसने हिंदुकुश प्रदेश का अपना क्षत्रप (Governor) नियुक्त किया। पंचनद के क्षत्रप के रूप में राजा पौरव की नियुक्ति की। सिंधु-वितस्ता के संगम से सिंधुसागर तक फैले तीसरे भाग पर अपने दो विश्वासपात्र ग्रीक सेनानी-फिलिप और निकियान की नियुक्ति की। उनके अधीन यूनानी सैनिकों के चल पथक भी नियुक्त किए। उसने भारतीय प्रदेशों में कुछ नए नगर बसाकर उनके यूनानी ज रखे। अपनी पूर्व परिपाटी के अनुसार उसने 'अलेक्जेंड्रिया' नामक एक ग्रीक नामवाला नगर तक्षशिला के पास ही निर्मित किया था।

८१. सिकंदर की मृत्यु-सिकंदर जब भारत में जीते हुए प्रदेशों का इस प्रकार सुप्रबंध कर रहा था, उसी समय उसे पता चला कि उनमें से अनेक भारतीय जनपद अपने को विजित मानते ही नहीं हैं। सिकंदर जब सिंधुसागर के समीप था, उसी समय गांधार प्रदेश में भारतीयों ने उसकी सत्ता के विरोध में विद्रोह किया। इस विद्रोह को कुचलने के लिए वह गांधार में नई विशाल ग्रीक सेना भी भेजने वाला था, परंतु उसी समय पंचनद में भी उसकी सत्ता को उखाड़ फेंकने के लिए षड्यंत्र रचा जा रहा है-ऐसा समाचार उसे मिला। अपनी सेना के साथ स्वदेश वापस लौटने के पूर्व ही ये चिंताजनक समाचार सिकंदर ने सुने थे। परंतु वह तत्काल कुछ उपाय कर सका। भारत-विजय के अभियान में हुए अत्यधिक परिश्रम से न केवल उसकी सेना थक गई थी, बल्कि वह स्वयं भी तनावग्रस्त और अस्वस्थ हो गया था। ऐसे में उसका मद्यपान का व्यसन भी बढ़ गया था। इसलिए ईसा पूर्व सन् ३२३ में अर्थात् भारत से ससैन्य स्वदेश लौटने के बाद केवल डेढ़-दो वर्षों के अंदर ही अकस्मात् अस्वस्थ होकर यूनानियों का वह प्रतापी सम्राट् और सेनापति सिकंदर बेबिलोन में मृत्यु को प्राप्त हुआ।

८२. भारतीय राजनीतिज्ञों का राष्ट्रीय पड्यंत्र- सिकंदर जब सिंधु नदी के जलमार्ग से वापस लौट रहा था, तब पंचनद में यूनानियों के विरुद्ध राष्ट्र की स्वतंत्रता के लिए कुछ भारतीय राजनेता एक षड्यंत्र रच रहे थे उस षड्यंत्र का उद्देश्य यूनानियों द्वारा जीते गए सीमा प्रदेशों को स्वतंत्र करना नहीं, अपितु एक प्रचंड आंतरिक राज्य क्रांति का सूत्रपात कर समस्त भारत का राजनीतिक कायापलट करने का था। सिकंदर की मृत्यु नहीं होती, तब भी वे षड्यंत्रकारी नियोजित राष्ट्रीय राज्य-क्रांति का भीषण साहस अवश्य करते। तथापि सिकंदर की अकस्मात् हुई मृत्यु से इन भारतीय राजनेताओं को एक अनपेक्षित स्वर्ण अवसर प्राप्त हुआ और उन्होंने यूनानी सत्ता को उखाड़ फेंकने के लिए तत्काल विद्रोह किया।

८३. ग्रीक गवर्नरों का विच्छेद- ग्रीक सत्ता के मुख्य राज प्रतिनिधियों के रूप में सिकंदर ने भारत में निकियान और फिलिप की नियुक्ति की थी-यह हम ऊपर बता ही चुके हैं। सिकंदर की मृत्यु का समाचार मिलते ही इन दोनों गवर्नरों में से फिलिप को पकड़कर भारतीय विद्रोहियों ने उसका शिरच्छेद किया और उसकी छोटी सी यूनानी सेना की भी वही दुर्दशा कर उन्हें भी मृत्युदंड दिया। इसी समय शेष बचे दूसरे ग्रीक गवर्नर निकियान की भी किसी भारतीय विद्रोही ने हत्या कर दी। इसके साथ ही सिंधु के तटवर्ती जिन भारतीय राज्यों, गणराज्यों और पंथों ने सिकंदर का आधिपत्य स्वीकार किया था, उन सबने उसकी सत्ता को अस्वीकार कर अपनी राजनीतिक स्वतंत्रता की पुनर्धोषणा कर दी! जहाँ कहीं यूनानी बस्तियाँ, यूनानी ध्वज या यूनानी राज्य का कोई भी चिह्न दिखाई देता, वहाँ उसे तत्काल नष्ट कर दिया जाता। पंचनद से सिंधुसागर तक सिंधुतट की सीमारेखा पर स्थित जिस भारतीय भू-प्रदेश को सिकंदर ने जीतकर अपने यूनानी साम्राज्य में 'यावच्चंद्र दिवाकरौ' कहकर सम्मिलित किया था वह सारा भू-प्रदेश सिकंदर की मृत्यु के केवल छह महीने के भीतर हो स्वतंत्र हो गया।

८४. सिकंदर ने यूनान, सीरिया, पर्शिया (ईरान), बेबिलोन, इजिप्ट (मिस्र) आदि कई देशों, राज्यों और साम्राज्यों को जीता। उसने वहाँ अपने नाम से कई नगर बसाए। ग्रीकों की बस्तियाँ स्थापित की। तत्पश्चात् उसके साम्राज्य का बँटवारा हुआ उसके ग्रीक (यूनानी) उत्तराधिकारी बेबिलोन जैसे देशों में कई शतकों तक राज्य करते रहे। आज भी उनमें से कई देशों में अलेक्जेंड्रिया नामक नगर अस्तित्व में हैं। सिकंदर का नाम तो प्राचीन इतिहास में 'The Great' विशेषण के साथ ही लिखा गया है। यूरोप के प्राचीन इतिहास में 'The Great' विशेषण के साथ ही लिखा गया है।

८५. परंतु भारत में क्या हुआ? सतत दो वर्षों तक अनेक युद्ध कर, लाखों भारतीयों और यूनानियों का रक्त बहाकर उसने जिन प्रदेशों को जीतकर उनको सदा के लिए अपने साम्राज्य में सम्मिलित किया था, उन सारे प्रदेशों ने सिकंदर की सत्ता, उसका ध्वज, उसकी ग्रीक बस्तियाँ, उसकी विजय का एक-एक चिह्न उखाड़कर नष्ट कर डाला। और यह सब उसकी मृत्यु के पश्चात् केवल छह महीनों के अंदर हुआ।

८६. अंत में स्थिति यह हो गई कि सिकंदर (अलेक्जेंडर) द्वारा निर्मित अलेक्जेंड्रिया' नगर का ही नहीं, अपितु स्वयं उसके नाम का भी परवर्ती भारतीय इतिहास में कहीं उल्लेख नहीं मिलता। मानो अलेक्जेंडर नामक 'दि ग्रेट' (The Great) विशेषण से विभूषित किसी यवन राजा का भारतीय सीमा पर कभी आक्रमण हुआ ही न हो। वैदिक, जैन या बौद्ध किसी भी प्राचीन भारतीय ग्रंथ में अलेक्जेंडर के नाम का उल्लेख भी अभी तक नहीं मिला है।

८७, विसेंट स्मिथ ने अपने सुप्रसिद्ध ग्रंथ-'Early History of India' में लिखा है-

८८. "All these proceedings prove conclusively that Alexander intended the permanent annexation of those (Indian) provinces of his empire. But within three years of his departure from India (from 325 B.C. to 322 B.C.) his officers in India were ousted, his garrisons destroyed and all traces of his rule had disappeared. The colonies which he founded in India, no root. His campaign, though carefully designed to secure a permanent conquest was in actual effect no more than a brilliantly successful raid on a gigantic scale which left upon India no mark save the horrid sears of a bloody war India remained unchanged. She continued her life of splendid isolation and soon forgot the passing of the Macedonian Storm. No Indian author Hindu, Buddhist or Jain makes even the faintest allusion to Alexander or his deeds." (Page 110)

८९. विदेशी आक्रमणकारी सिकंदर के आधिपत्य से पंचनद से सिंधुमुख तक के भारतीय प्रदेशों को जिस भारतीय राजनीतिक राष्ट्रीय षड्यंत्र द्वारा केवल छह महीनों में स्वतंत्र किया गया, उस षड्यंत्र के प्रमुख नेताओं के नाम इतिहास में नहीं मिलते। परंतु उनमें से दो महापुरुषों के नाम भारतीय इतिहास में अजर-अमर हो गए हैं। सिकंदर जिस समय तक्षशिला पहुँचा, उस समय के वृत्तांत में हमने जिन दो पुरुषों के नामों का उल्लेख किया है, वही ये दो महापुरुष हैं। प्रथम पुरुष है तक्षशिला के विद्यापीठ से युद्धशास्त्र की शिक्षा लेकर बाहर निकला हुआ तेजस्वी युवक चंद्रगुप्त और द्वितीय पुरुष हैं आर्य चाणक्य, जो पहले उसी विद्यापीठ में आचार्य थे और तत्पश्चात् इसी युवक चंद्रगुप्त को राज्य-क्रांति और राज्यशास्त्र के वस्तुपाठ प्रत्यक्ष रूप में सक्रिय रीति से सिखाते थे भावी काल में यही दो महापुरुष सारे भारत का प्रकट नेतृत्व करने वाले हैं। इसलिए यहाँ उनका समुचित, सुदीर्घ परिचय देना आवश्यक है।

९०. चंद्रगुप्त की कुलकथा-विश्व के प्राचीन इतिहास के अधिकतर महापुरुषों के चरित्रों की भाँति चंद्रगुप्त और चाणक्य-इन दोनों महापुरुषों के चरित्रों पर भी दंतकथाओं और कल्पित कथाओं के प्रगाढ़ पुट चढ़े हुए हैं। उनमें से अनेक कथाएँ, केवल मनोरंजन के लिए जो पढ़ना चाहते हैं, ऐसे व्यक्ति श्री राधाकुमुद मुकर्जी का 'Chandragupta Maurya and his Time' ग्रंथ अवश्य पढ़ें। चंद्रगुप्त और चाणक्य के बारे में वैदिक, जैन तथा बौद्ध वाङ्मय में बिखरी पड़ी अनेक कथाओं में से इन दोनों महापुरुषों के चरित्रों का ऐतिहासिक कसौटी पर खरा उतरनेवाला वृत्तांत ही हम यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं।

९१. गौतम बुद्ध का जन्म जिस शाक्य जाति में हुआ था, उस शाक्य जाति पर एक बार महासंकट आने पर उनमें से कुछ टोलियाँ दूरवर्ती प्रदेश में जाकर बस गई। शाक्य स्वयं को क्षत्रिय मानते थे, तथापि आपत्काल समझकर वे निर्वासित शाक्य-कुटुंब वहाँ आजीविका के लिए अन्य व्यवसाय करने लगे। वहाँ के जंगलों में मोर बहुतायत से मिलते थे। उन्हें पालने और बेचने का व्यवसाय ये शाक्य करने लगे। इसलिए उनका नाम 'मोरिया' पड़ा। वह उनकी 'उपजाति' ही बन गई। इस 'मोरिया' जाति का एक परिवार पुनः पाटलिपुत्र नगर के पास आकर रहने लगा था उसकी 'मुरा' (मथुरा) नामक एक महिला को किसी कारण से पाटलिपुत्र के राजप्रासाद के अंत:पुर में प्रवेश मिला और वह नंद सम्राट् महापद्मनंद उपनाम धनानंद की दासी के रूप में वहाँ रहने लगी। उस मुरा दासी को नंद सम्राट् से जो पुत्र हुआ, वही आगे चलकर सम्राट चंद्रगुप्त के रूप में विख्यात हुआ।

९२. जब चंद्रगुप्त सम्राट् बना, तब उसकी यह कुलकथा कलंकयुक्त है-यह सोचकर किसी ने कुछ ग्रंथों में ऐसा सुधार किया कि मुरादेवी नंद सम्राट् की दासी नहीं, विवाहिता पत्नी थी; अर्थात् चंद्रगुप्त दासीपुत्र नहीं, राज्ञीपुत्र था।

९३. कुछ ग्रंथों में दी गई एक तीसरी दंतकथा ने तो इन दोनों कथाओं पर पानी फेर दिया। लेखक ने लिखा है कि मुरा का नंद सम्राट् से किसी भी प्रकार का कोई संबंध नहीं था। उसे उसकी जाति के पति से ही जो पुत्र प्राप्त हुआ, वही चंद्रगुप्त है। चंद्रगुप्त ने आर्य चाणक्य की प्रेरणा और सहायता से तथा पराक्रम से नंद वंश से सम्राट् पद छीनकर 'मौर्य ' राजवंश की स्थापना की और अपने निर्धन, सामान्य तथा अप्रसिद्ध माता पिता का ऋण चुकाया।

९४. किसी भी मनुष्य की महानता या साधुता का निर्धारण उसके अपने गुणों से न करके उसका जन्म किस वर्ण, जाति अथवा कुल में हुआ, इससे निर्धारित करने की कुप्रथा सभी समाजों में कम-अधिक मात्रा में पाई जाती है। इसलिए जैसे-जैसे समय बीतता जाता है, उस मनुष्य के कुलवृत्तांत के बारे में अनेक लोककथाएँ-कथा, काव्य, नाटकों से या मौखिक रूप में प्रचलित होती जाती हैं। चंद्रगुप्त की महानता या हीनता सिद्ध करनेवाली उपर्युक्त कथाओं के अतिरिक्त भी कई दंतकथाएँ हैं। परंतु उपर्युक्त कारणों से ही उनका उल्लेख करने का न यहाँ स्थान है और न प्रयोजन।

९५. यदि चंद्रगुप्त क्षत्रिय नहीं, दासीपुत्र था तो क्या हुआ? जिस तेजस्विता से महारथी कर्ण ने उसे सूतपुत्र कहनेवालों को-

'सूतो वा सूतपुत्रो वा यो वा को वा भवाम्यहम्।

दैवायत्तं कुले जन्म मदायत्तं तु पौरुषम् ॥'

यह उत्तर दिया था, उसी तेजस्विता और स्वाभिमान से चंद्रगुप्त भी, उसका दासीपुत्र कहकर अपमान करनेवालों को, यह उत्तर दे सकता है कि म्लेच्छों की, उनके यूनानी सम्राट् और सेनापति सिकंदर के पैरों की धूल मस्तक पर लगानेवाले आप जैसे केवल नामधारी तथाकथित 'खानदानी' राज्ञीपुत्रों और क्षत्रियों की अपेक्षा उन यवनों को समर में धूल चटानेवालों में खड्गधारी गुणवान चंद्रगुप्त मैं ही सच्चा क्षत्रिय हूँ।

९६. मुरा का पुत्र होने से चंद्रगुप्त 'मौर्य' कहलाता था। मातृकुल से प्राप्त इस उपनाम का अभिमान रखते हुए चंद्रगुप्त ने सम्राट् पद प्राप्त होने पर भी अपने द्वारा स्थापित राजवंश का नाम मौर्य वंश' रखा और अपनी जननी मुरा देवी का नाम भारतीय इतिहास में चिरंतन और अमर किया। मौर्य सम्राट् मुरा देवी को मोरिया' (मोर-मयूर पालनेवाली) जाति को ही अपनी जाति मानते थे। मौर्य सम्राटों का कुलदेवता भी 'मयूर' ही माना जाता था। इसके लिए अब शिलालेखों का साक्ष्य भी मिला है। नंदनगढ़ में प्राप्त अशोक स्तंभ पर नीचे मयूर का चित्र उत्कीर्ण है। उसी प्रकार साँची के सुप्रसिद्ध स्तूप पर उत्कीर्ण सम्राट अशोक की चरित्र गाथाओं में भी मोरों के चित्र अंकित मिलते हैं।

९७. मगध सम्राट् महापद्मनंद- इस समय मगध के विस्तृत साम्राज्य पर महापद्मनंद का राज्य था। अपने कई दुर्गुणों के कारण वह जनता में अत्यंत अप्रिय हो गया था। उसकी अपार धनतृध्णा को तृप्त करने के लिए जो कर देने पड़ते थे, उनके भार से प्रजा त्रस्त हो गई थी उसमें घोर असंतोष फैल गया। उसकी धनतृष्णा का उपहास करने के लिए लोग उसे 'घनानंद' कहते थे (महापद्मनंद नहीं)। उसमें सम्राट् का एक भी गुण नहीं था। केवल पिछले सम्राट का भाई होने के नाते वह सम्राट् बना था जब सिकंदर ने भारत पर आक्रमण किया और साथ ही स्पष्ट रूप से यह घोषणा की कि मैं सीधे मगध पर चढ़ाई कर, उसे जीतकर भारत-सम्राट् बनेगा, तब उसी समय मगध के इस तथाकथित सम्राट् महापद्मनंद ने यदि उसका आह्वान स्वीकार कर पंचनद में ही उसका सामना किया होता और उसे पराभूत कर उस भारतीय भूभाग को यूनानियों के आधिपत्य से मुक्त किया होता या कम- से-कम यथाशक्ति वैसा प्रयत्न ही किया होता, तो उसके सम्राट् पद का कोई अर्थ हो सकता था; परंतु उसने कुछ भी नहीं किया। सिकंदर द्वारा किए गए इस घोर अपमान को उसने चुपचाप सह लिया। उसकी इस कायरता के कारण हर स्वाभिमानी, स्वराष्ट्राभिमानी भारतीय को उससे घोर वितृष्णा होने लगी थी। वह भीरु था, इसीलिए कपटी भी होता गया। वह नि:स्वार्थी, राष्ट्राभिमानी राजनेताओं से द्वेष करता था। जनता में उनकी लोकप्रियता कम करने के लिए वह जनता के सामने उनका घोर अपमान करता था। किसी कर्तृत्ववान मनुष्य को देखते ही उसकी भृकुटी तन जाती थी।

९८. इसी सम्राट् महापद्मनंद से मुरा दासी को जो पुत्र प्राप्त हुआ था, वही चंद्रगुप्त है। चंद्रगुप्त की बाल्यावस्था की कुछ कथाएँ हैं, परंतु वे केवल थोड़ी सी दंतकथाएँ ही हैं। निश्चित निष्कर्ष केवल इतना ही निकला है कि चंद्रगुप्त जैसा तेजस्वी, स्फूर्तिशाली, साहसी, महत्त्वाकांक्षी किशोर जब दासीपुत्र होते हुए भी युवराज के अधिकार चाहता था, तब उस कायर, परंतु धूर्त सम्राट् महापद्मनंद को भय होने लगा कि उसके विरोधी राजनीतिज्ञों का प्रबल गुट इस उच्छंखल दासीपुत्र का पक्ष लेकर कहीं उसे ही सिंहासन से पदच्युत न कर दे। उसके नंद वंश ने किस प्रकार छल-कपट से मगध के मूल शासक शिशुनाग राजवंश का उच्छेद कर राज्य प्राप्त किया था-यह स महापद्मनंद अच्छी तरह जानता था। ऐसे ही किसी भयावह कारण से कुपित होकर सम्राट् महापद्मनंद ने किशोर चंद्रगुप्त को मगध राज्य से सीमा पार होने का दंड दिया। उसके आगे का वृत्तांत अज्ञात है।

इसके पश्चात् चंद्रगुप्त तक्षशिला विद्यापीठ में राजनीति युद्धनीति आदि विद्याओं का अध्ययन करने वाले राजकुमार विद्यार्थी के रूप में हो प्रकट होता है। तक्षशिला विद्यापीठ के महापंडित के रूप में विख्यात

चाणक्य की सहायता से ही चंद्रगुप्त को उस विद्यापीठ में प्रवेश मिला ऐसी कथा कुछ ग्रंथों में मिलती है, उसमें कुछ तथ्य अवश्य हैं। चंद्रगुप्त ने तक्षशिला विद्यापीठ में छह-सात वर्षों तक अध्ययन किया उसके बाद सिकंदर का पूर्ववर्णित आक्रमण हुआ था। उस समय यूनानियों ने भारतीय राष्ट्र की जो घोर अवमानना की थी, उसका प्रतिशोध लेकर उनके द्वारा विजित भू-प्रदेशों को पुनः स्वतंत्र करने के लिए भारतीय राष्ट्रभक्तों और राजनीतिज्ञों ने आर्य चाणक्य के नेतृत्व में एक विशाल षड्यंत्र रचा था-यह हम पहले ही बता चुके हैं। आर्य चाणक्य के इस पट्टशिष्य चंद्रगुप्त का तेज इसी षड्यंत्र में प्रथमतः प्रस्फुटित हुआ था।

९९. इतिहास की एक अद्भुत अर्धघटिका- युवक चंद्रगुप्त ग्रीकों की सैन्य रचना, व्यूह रचना और शस्त्रागार की विशेषताओं का अध्ययन स्वयं करने के लिए गुप्त रूप से छद्मवेश में यूनानी शिविरों में संचरण करता रहा होगा, क्योंकि एक बार सीधे राजा के शिविर में छिपकर निरीक्षण करते हुए ग्रीक रक्षकों ने उसे संदेह में पकड़ लिया था सिकंदर तक जब यह समाचार पहूँचा तो उस ग्रीक सम्राट् ने उक्त अज्ञात साहसी भारतीय युवक को अपने सम्मुख बुलवाया। कुछ ग्रंथकारों के अनुसार, वह युवक पूर्व अनुमति लेकर ही सिकंदर से मिलने गया होगा।

१००. लगभग चालीस वर्ष की आयु का वह प्रतापी ग्रीक सेनापति सिकंदर और भारत का भावी सम्राट और सेनापति, परंतु उस समय केवल बीस वर्ष का भटकता एक युवक चंद्रगुप्त जब आमने-सामने आए, तब कुछ क्षण एक दूसरे को निहारते रहे! एक मध्याह्न का अस्तोन्मुख सूर्य और दूसरा उषाकाल का अपर उदयोन्मुख सूर्य ही मानो परस्पर सम्मुख खड़े थे!

१०१. उनकी यह भेंट अर्धधटिका भी नहीं हुई होगी परंतु इतिहास में चिरंतन रूप से विस्मयजनक लगनेवाली वह अर्धघटिका अद्भुत सिद्ध हुई, यह सत्य है।

१०२. इस भेंट का उल्लेख लगभग सभी ग्रीक लेखकों ने किया है। परंतु इस भेंट में सिकंदर और युवक चंद्रगुप्त का क्या संवाद हुआ- इसके बारे में निश्चित जानकारी किसी ने भी नहीं दी है। एक-दो लेखकों ने केवल इतना हो लिखा है कि 'मगध के राजवंश से मेरा संबंध है' इस अर्थ का कोई वाक्य चंद्रगुप्त ने कहा था कुल मिलाकर निश्चित रूप से केवल यही कहा जा सकता है कि चंद्रगुप्त ने सिकंदर के प्रश्नों के उत्तर स्वाभिमान और तेजस्विता से दिए थे। इन तेजस्वी उत्तरों से कुपित होकर सिकंदर ने उस युवक को तत्काल शिविर से बाहर निकाल देने की आज्ञा दी। उसके अनुसार, यह युषक तत्क्षण वहाँ से बाहर चला गया। कुछ समय पश्चात् सिकंदर के मन में कुछ और विचार आया और उसने उस युवक को पुनः अपने सामने लाने की आज्ञा दी; परंतु वह युवक इतनी तेजी से वहाँ से निकलकर लुप्त हो गया कि बहुत प्रत्यनों के बाद भी ग्रीक सैनिक उसे खोज नहीं सके।

१०३. आर्य चाणक्य की कुलकथा-आर्य चाणक्य ने ब्राह्मण कुल में जन्म लिया था। उनका मूल नाम 'विष्णुगुप्त' था। उनके मूल ग्राम 'चणक' के नाम से उसका नाम चाणक्य' पड़ा होगा; परंतु उनका आर्य चाणक्य' नाम ही प्रसिद्ध है। उनका तीसरा नाम 'कौटल्य' भी लोकप्रिय है यह नाम उनके 'कुटल' गोत्रनाम से पड़ा होगा। वे उस समय के अधिकांश शास्त्रों में पारंगत थे। तक्षशिला विद्यापीठ में तथा भारतीय विद्वानों में उनकी कीर्ति महापंडित के रूप में थी। वे देखने में कुरूप थे, परंतु मगध साम्राज्य में आगे चलकर जो राज्य-क्रांति हुई, उसमें उनका नाम अखिल भारत में ही नहीं, अपितु तत्कालीन जागतिक राज्यमंडल के यूनान मिस्र आदि देशों में भी चंद्रगुप्त के बाल्यावस्था के मार्गप्रदर्शक और तत्पश्चात् भारतीय साम्राज्य के महामात्य के रूप में विख्यात हुआ। तब उनके पूर्वचरित्र के विषय में भी चंद्रगुप्त और सिकंदर की भाँति अनेक मिथ्या दंतकथाएँ लोगों में प्रचलित हुईं। चंद्रगुप्त और चाणक्य-दोनों की मृत्यु के पश्चात् कई शताब्दियाँ बीतने के बाद लिखे गए अनेक ग्रंथों, नाटकों और लोककथाओं में उनके अनेक उल्लेख, साधार हों या निराधार, मिलते हैं। जैन, बौद्ध और वैदिक वाङ्मय में पाए जानेवाले ये उल्लेख पूर्णत: विश्वसनीय नहीं हैं। एक संस्कृत नाटक में भी उनका जो चरित्र-चित्रण किया गया है, वह नाटकीयता लाने के उद्देश्य से कृत्रिम रूप से किया गया है इसलिए चाणक्य की कुरूपता और दाँतों के विषय में आए विक्षिप्त वर्णनों को अथवा उन्होंने मार्ग में खेलनेवाले अज्ञात, ग्राम्य बालकों में से एक नटखट बालक चंद्रगुप्त का उसकी हस्तरेखाएँ देखकर केवल उनके मन में आया इसलिए भारत का भावी सम्राट् बनने के हेतु से चुनाव किया था, ऐसी कथाओं को 'गप' या कपोल कल्पना के अतिरिक्त कोई भी ऐतिहासिक महत्त्व नहीं देना चाहिए। फिर भले ही वे कथाएँ प्राचीन ग्रंथों में ही क्यों न लिखी हों। तथापि इसके मूल में क्या कुछ ऐतिहासिक तथ्य हैं-इसका पता अवश्य लगाना चाहिए।

१०४. आर्य चाणक्य की प्रतिज्ञा की विकृत आख्यायिका- चाणक्य से संबंधित ऐसी ही एक विकृत आख्यायिका की चर्चा यहाँ पर उदाहरणस्वरूप करना आवश्यक है। कारण आज भी वह शाक्य इतिहास में उसी विकृत रूप में पढाई जाती है। वह आख्यायिका संक्षेप में इस प्रकार है-तक्षशिला विधारोट में तथा उस पूरे प्रदेश में जब चाणक्य की ख्याति महापंडित के रूप में हुई, तब सबाट महापद्मनंद ने उन्हें आमंत्रित कर मगध के राजप्रासाद में 'दानाध्‍यक्ष' के पद पर नियुक्त किया। एक दिन जब वह इस उच्च पट कार्य कर रहे थे, तब नंद सम्राट् कहाँ निरीक्षण करते हुए आए। चाणक्य का दंतविहीन पोपला मुख और जन्मतः कुरूप शरीर देवकर सम्राट् ने उनका कुचेष्टापूर्वक उपहास किया। चाणक्य के लिए वह उपहाध असह्य हुआ और उनका मुख संतप्त हो गया। नंद ने तत्काल उन्हें सोजे खींचकर, और कुछ ग्रंथों के अनुसार तो जोर से उनकी शिखा पकड़ते हुए खींचकर, पदच्युत कर राजप्रासाद से बाहर निकालने का आदेश दिया। तब उस तेजस्वी ब्राह्मण ने तुरंत शाप देते हुए कहा, "जब तुम्हें भी सिंहासन में इसी प्रकार नीचे खींचकर तुम्हारा और तुम्हरे नंद वंश का निर्दलन और सर्वनाश करूँगा, तब ही मैं इस शिखा में पुनः गाँठ बाधूँगा!" यह कठिन प्रतिज्ञा कर ये तत्काल राजप्रासाद से चले गए।

१०५. परंतु सम्राट् नंद वहाँ सौंदर्य विभाग का नहीं, धन विभाग का निरीक्षण करने आया था। अत: जिस महापंडित को स्वयं दानाध्यक्ष के उच्च पद पर नियुक्त किया था, उसे केवल उसकी कुरूपता के कारण उस उच्च पद के लिए नंद सम्राट् अयोग्य कैसे कहता? उस दानाध्‍यक्ष के लिए दैहिक सौंदर्य की नहीं, धर्मशास्त्र आदि की विद्वत्ता की आवश्यकता थी। परंतु इस आख्यायिक को असत्यता सिद्ध करनेवाला यह तो केवल एक साधारण आक्षेप है। असली महत्वपूर्ण आक्षेप तो यह है कि नंद सम्राट द्वारा किए गए इस वैयक्तिक अपमान के कारण ही चाणक्य उसके विरुद्ध विद्रोह कर उठे-ऐसा यह आख्यायिका सूचित करती है। अर्थात् यदि यह वैयक्तिक अपमान न होता तो चाणक्य नंद सम्राट् का एक राजनिष्ठ सेवक हो बने रहते! उसने जो भारतव्यापी प्रचंड राज्य-क्रांति की, वह भारतीय राष्‍ट्र को यवनों की दासता से मुक्त कर स्वतंत्र करने के लिए नहीं, अपितु केवल अपने वैयक्तित्‍व अपमान का प्रतिशोध लेने के लिए की। ऐसा इस आख्यायिका में आभास मिलता है। इसीलिए यह आख्यायिका विकृत है।

१०६. जब शिवाजो एक राजनीतिक चाल के रूप में औरंगजेब का आधिपत्य स्वीकार कर उसके दरबार में गए, तब उस मुगल बादशाह ने उनका अपमान किया। तब प्रतिकार करने के कारण शिवाजी को बंदी बना लिया गया। परंतु शिवाजी अत्यंत चतुराई से वहां से भागकर स्वदेश लौटें; उन्होंने औरंगजेब के साथ स्पष्ट रूप से युद्ध प्रारंभ किया और अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित किया। यह कथा कहकर यदि कोई जानी यह निष्कर्ष निकाले कि शिवाजी ने अपने व्यक्तिगत अपमान के कारण ही औरंगजेब से शत्रुता की थी; उनके मन में स्वधर्म की और स्वराष्ट्र की राजनीतिक स्वतंत्रता का कोई हेतु नहीं था, तो वह कथन जितना विकृत और विक्षिप्त होगा! उतना ही नंद सम्राट् ने वैयक्तिक रूप से उनका अपमान किया इसीलिए चाणक्य ने नंद वंश का उन्मूलन कर वह भारतीय राज्य-क्रांति की थी-ऐसा सूचित करनेवाली यह आख्यायिका भी पूर्णतः असत्य ही नहीं, बल्कि विकृत और अधूरी भी है।

१०७. वास्तविकता क्या थी?-शिवाजी का अपमान हुआ, इसलिए उन्होंने औरंगजेब के विरुद्ध विद्रोह किया-यह असत्य है। वास्तव में हिंदुत्व के अभिमान से औरंगजेब की परधर्मीय सत्ता को उखाड़ फेंकने के लिए शिवाजी ने जो विद्रोह किया था, उसे देखकर औरंगजेब भयभीत हो गया और उसने शिवाजी का अपमान कर उन्हें बंदी बना लिया, यही सच्चा कार्य-कारण भाव है। इसी प्रकार आर्य चाणक्य उसे दुर्बल समझकर उसके हाथों से मगध को साम्राज्यवादी सत्ता छीन लेने के लिए एक राष्ट्रीय षड्यंत्र रच रहा है, यह गुप्त समाचार महापद्मनंद को पहले से ही ज्ञात था। इसीलिए नंद सम्राट् ने राजप्रासाद में चाणक्य का ऐसा घोर अपमान किया कि उस तेजस्वी ब्राह्मण ने तत्काल 'तुम्हारी प्रपीड़क सत्ता का उन्मूलन कर भारत का उद्धार करूंगा, तब ही मैं सच्चा चाणक्य कहलाऊँगा' इस आशय का उत्तर दिया। ऐसे कार्य-कारण भाव का यहाँ पर भी प्रतिपादन करना चाहिए। वही पूरी स्थिति से मेल खाता है।

१०८. इसका सबसे बड़ा प्रमाण स्वयं चाणक्य द्वारा रचित 'कौटिलीय अर्थशास्त्र' में मिलता है। इस ग्रंथ में ग्रंथकार का परिचय देते हुए उन्होंने लिखा है-

चाणक्य इति विख्यातः श्रोत्रियः सर्वधर्मविद्॥

येन शस्त्रं च शास्त्रं च नन्दराजगता च भूः।

अमर्षेणोद्धृतान्याशु तेन शास्‍त्रमिदं कृतम् ॥'

१०९. "जिसने नंदराज का उच्छेद कर उसके शासन में अध:पतित राष्ट्रीय शस्वशक्ति का, शास्त्रशक्ति का और भारतभूमि का उद्धार किया, उसने यह ग्रंथ लिखा है।" ग्रंथकार ने अपने वैयक्तिक अपमान का प्रतिशोध लेने के हेतु नंद का निर्दलन किया-इस आशय का एक भी शब्द इस परिचायक श्लोक में नहीं है। उन्होंने स्वराष्ट्र और मातृभूमि के उद्धार के लिए नंद का नाश किया ऐसा स्वयं चाणक्य का ग्रंथ ही बताता है।

११०. इस नाटकीय भाषा में कथित तथ्यहीन आख्यायिका में सत्य का अंश केवल इतना ही है कि चाणक्य के राष्ट्रमूलक नंद-विद्वेष को नंद द्वारा किए गए पोर अपमान ने अधिक तीव्र बनाया होगा।

१११. चाणक्य की राजनीति का आरंभ-तक्षशिला के परिवेश से चाणक्य का संबंध सिकंदर के कई वर्ष पूर्व से था। सिंधु सीमावर्ती भारतीय प्रदेशों को राजनीतिक स्थिति का प्रत्यक्ष परिचय उन्हें प्राप्त था।

११२. भारत के इस सीमा प्रदेश से ही लगा ईरान जैसे शत्रु राष्ट्र का प्रचंड, संगठित, एककेंद्र और एकराष्ट्र साम्राज्य फैला हुआ था। ऐसे किसी भारत विद्वेषी संगठित साम्राज्य का आक्रमण होने पर उस सीमा पार हिंदुकुश से पंचनद और सिंध तक फैले हुए हमारे स्वतंत्र तथा शूर, परंतु छोटे-छोटे अलग, विघटित राज्य और गणराज्य समरभूमि में एक अकेले कभी भी उसका सामना कर जीत नहीं सकेंगे, यह चाणक्य अच्छी तरह जानते थे।

११३. ग्रीक गणराज्य के विनाश का कारण-इसी समय यूनान में चाणक्य की उपर्युक्त धारणा का समर्थन करनेवाला एक प्रसंग प्रत्यक्ष पटित हुआ। ईरान के सम्राट् के आक्रमण ने जिन बिखरे हुए छोटे-छोटे यूनानी गणराज्यों को परास्त कर बरबाद कर दिया, उन्हों सब गणराज्यों को जीतकर और संगठित कर जब फिलिप और उसके पुत्र सिकंदर ने यूनानियों का एक प्रबल साम्राज्य बनाया, तब वे ईरानी साम्राज्य को भी जीतकर मात दे सके थे। यह घटना चाणक्य की सूक्ष्म दृष्टि से छूटी नहीं थी।

११४. उन्होंने दृढ़ निश्चय किया कि भारत की स्वतंत्रता की रक्षा करने तथा उसे बलशाली एवं अजेय राजशक्ति बनाने के लिए उस शत्रुवत् विस्तृत साम्राज्य के रहते एक ही उपाय है कि छोटे छोटे सभी राज्यों एवं गणराज्यों का विलय कर अखिल, अखंड भारत का एकच्छत्र, एकात्म, एककेंद्र तथा प्रबलतम साम्राज्य स्थापित करना होगा; परंतु उनके इस दृढ़ निश्चय का समर्थन कर उसे मूर्त रूप दे सके-ऐसा एक भी राज्य या गणराज्य वहाँ के गांधार, सिंध आदि प्रांतों में नहीं था। चाणक्य ने उन सबकी शक्ति और प्रवृत्ति को भली-भाँति परखा था इसलिए समस्त उत्तर भारत में पहले से ही साम्राज्य कहा जानेवाला जो एकमात्र राज्यसंगठन, राज्यशक्ति और साम्राज्य संस्था शेष बची थी, उस मगध साम्राज्य की ओर चाणक्य की दृष्टि गई। इस नियोजित भारतीय राज्य क्रांति की प्रेरणा से अभिभूत होकर आर्य चाणक्य मगध राज्य की कुटिया से राजप्रासाद तक गुप्त रूप से छानबीन करने के लिए पुनः मगध आए। वे राजप्रासाद में प्रवेश पाने और मुक्त संचार करने का प्रयत्न कर रहे थे। तब तक नंद सम्राट् को केवल इतना ही ज्ञात था कि चाणक्य एक महापंडित है। इसलिए उन्हें दानाध्यक्ष के महत्त्वपूर्ण पद पर नियुक्त करने में नंद सम्राट् ने कोई संशय नहीं किया। उस पद को स्वीकार करने से चाणक्य को भी अपने षड्यंत्र रचने के कार्य में वांछित सहायता मिलती रही।

११५. कुछ समय पश्चात् नंद सम्राट् तक यह समाचार गुप्त रूप से पहुँचा कि चाणक्य केवल एक महापंडित ही नहीं, अपितु एक कूटनीतिज्ञ भी है और वह नंद के विरुद्ध कोई भीषण षड्यंत्र रच रहा है। तब उसने सबके सामने भरी सभा में चाणक्य का घोर अपमान किया और उन्हें पदच्युत कर, राजप्रासाद से निकालकर मगध राज्य से भी सीमा पार होने का दंड दिया। सीमा पार होकर चाणक्य पुन: तक्षशिला पहूँचे।

११६. इस बीच उस राष्ट्रभक्त के अखिल भारतीय साम्राज्य स्थापित करने के महान् कार्य की योजना के लिए एक अत्यंत अनुकूल घटना घटित हुई। वह यह कि नंद सम्राट् ने अपने दासीपुत्र चंद्रगुप्त को भी सीमा पार होने का दंड दिया और वह भी तक्षशिला पहुँचकर आर्य चाणक्य से मिला।

११७. चाणक्य और चंद्रगुप्त-दुर्बल और दुष्ट नंद सम्राट् को पदच्युत कर उसके स्थान पर यदि किसी बाहरी, अपरिचित पुरुष, भले ही वह अत्यंत गुणवान हो-को मगध सम्राट् के रूप में स्थापित किया जाता तो मगध का मंत्रिमंडल, भारतीय राजमंडल और परंपराप्रिय प्रजाजन सभी लोग उसका घोर विरोध करते; परंतु चंद्रगुप्त नंद सम्राट का दासीपुत्र होते हुए भी राजपुत्र ही था। अतः उसका उस सिंहासन से जन्मसिद्ध रक्त-संबंध है, यह सर्वविदित था इसके अतिरिक्त वह पराक्रमी और गुणवान भी था। अत: उपर्युक्त परंपराप्रिय शक्तियाँ भी उसका तीव्र विरोध करेंगी, यह आशंका बहुत कम, बल्कि नहीं के बराबर थी यह बात कूटनीतिज्ञ चाणक्य के ध्यान में प्रारंभ से ही थी। उन्होंने चंद्रगुप्त का हो पक्ष लेकर उसको मगध सम्राट् का ही नहीं, अपितु भारतीय सम्राट् के पद पर स्थापित करने का दृढ़ निश्चय किया था।

११८. चंद्रगुप्त-चाणक्य के भारतीय साम्राज्य स्थापित करने के षड्यंत्रों का इस प्रकार सूत्रपात हो रहा था कि उसी समय चाणक्य ने जैसा तर्क किया था, वैसी अशुभ घटना उधर ईरान में घटित हुई। ग्रीकों के नव-साम्राज्य के नेता सिकंदर ने ईरान के विशाल साम्राज्य को जीतने के पश्चात् भारत पर आक्रमण किया। जैसाकि पूर्व में वर्णन किया गया है, उस घोर संकट में भारतीयों ने सिकंदर का तीव्र विरोध कर यद्यपि उसको हराकर स्वदेश वापस जाने के लिए विवश किया था, तथापि वे उस संगठित, साम्राज्यीय यूनानी शक्ति को निर्णायक रूप से पराजित नहीं कर सके।

११९. इस अनिष्ट से इतना ही घटित हुआ कि चाणक्य आदि राष्ट्रीय द्रष्टा जिस सिद्धांत का प्रतिपादन करते थे, उस सिद्धांत से 'शत्रु के साम्राज्य की भौति एककेंद्र, एकराष्ट्र और विस्तृत, पर संगठित भारतीय साम्राज्य की स्थापना के बिना इन परिस्थितियों में भारतीय स्वतंत्रता की रक्षा करना असंभव है'-इस सत्य से सीमावर्ती गणराज्य के लोकसत्ताप्रिय भारतीय भी वह ठोकर खाकर सहमत हो गए।

१२०. इस क्रांतिकारी प्रवृत्ति के प्रसार का पहला प्रसाद-चिह्न यह था कि सिंधु सीमा के जिन भारतीय प्रदेशों को जीतकर सिंकदर ने उनका समावेश अपने साम्राज्यों में किया था, वे सारे प्रदेश सिकंदर की मृत्यु के बाद केवल छह महीने के अंदर सामूहिक रूप से विद्रोह कर उठे और शीघ्र ही स्वतंत्र हो गए। इस आश्चर्यजनक और अभिमानास्पद सामुदायिक विद्रोह का श्रेय प्रसिद्ध प्राचीन ग्रंथकार जस्टिन (Justin) स्पष्ट रूप से चंद्रगुप्त के नेतृत्व को देता है- "India after the death of Alexander had shaken as it were, the yoke of servitude form its neck and put his governors to death. The author of this liberation was Sandrocottus." स्यान्ड्रोकोटस अर्थात् चंद्रगुप्त! ग्रीक लेखक इसी प्रकार करते थे।

१२१. ग्रीक सेना के प्रतिकारार्थ-ग्रीक साम्राज्य की सेना भारत पर पुनः आक्रमण करेगी-यह निश्चित था उसका मुकाबला करने के लिए चंद्रगुप्त-चाणक्य के नेतृत्व में उपर्युक्त सीमावर्ती भारतीय प्रदेशों का सामूहिक विद्रोह इस प्रकार सफल हुआ था। तथापि भारतीय साम्राज्य पर ग्रीकों के आक्रमण का संकट अभी भी मंडरा रहा है-यह चेतावनी चाणक्य के शिष्य समस्त राज्यकर्ताओं को देते रहे। चाणक्य और उसके शिष्यों ने सर्वत्र बड़े जोर शोर से ऐसा प्रचार करना प्रारंभ किया कि 'सिकंदर स्वयं मरते दम तक यह प्रतिज्ञा करता रहा कि वह भारत-विजय के लिए पुनः भारत पर आक्रमण करेगा। उसकी मृत्यु के पश्चात् इस समय उसके सत्ताधारियों और सेनाधिकारियों में ग्रीक साम्राज्य के विभाजन के बारे में घोर संघर्ष चल रहा है। इस संघर्ष के बाद जो ग्रीक सेनापति भारतीय सीमा से लगे हुए बेबिलोन प्रदेश का राज्यकर्ता बनेगा, वह पहले से भी अधिक सामर्थ्य के साथ भारत पर अवश्य आक्रमण करेगा। आप लोग यदि इसी प्रकार बिखरे हुए राज्यों, गणराज्यों के रूप में असंगठित रहेंगे, तो इस आक्रमण का पहला भक्ष्य और बलि पुन: आप ही बनेंगे! परंतु यदि ग्रीक साम्राज्य में चल रहे इस यूनानी उपद्रव का लाभ हम लोगों ने उठाया और सिंधुसागर से गंगासागर तक का समस्त भारत एक प्रबल, एकच्छत्र साम्राज्य में विलीन किया तो ग्रीकों के यूनानी साम्राज्य से अधिक शक्तिशाली हमारा भारतीय साम्राज्य यूनानियों का पुनराक्रमण होने पर भी उनके दांत खट्टे किए बिना नहीं रहेगा! इसलिए सारे भारतीय एक होकर एकराष्ट्र का निर्माण करें!

१२२. मगध पर चंद्रगुप्त-चाणक्य की चढ़ाई-यूनान में चल रहे आपसी सत्ता संघर्ष से प्राप्त अवसर का लाभ उठाकर और एक क्षण भी व्यर्थ न गँवाकर चाणक्य की योजना के अनुसार सर्वप्रथम मगध पर आक्रमण करने के लिए चंद्रगुप्त और उसके अन्य अनुयायी सैन्य-निर्माण करने लगे। इस संबंध में कुछ स्पष्ट, परंतु थोड़े उल्लेख महावंश' जैसे कुछ एक ग्रंथों में मिलते हैं। उन उल्लेखों से तथा अन्य उपलब्ध आधारों से यह विदित होता है कि उस सेना में अधिकांश संख्या चाणक्य के एकराष्ट्र, भारतीय साम्राज्य-निर्माण के प्रचार से प्रभावित उद्दीप्त पर्वतीय, पंचनदीय और गणराज्यीय सैनिकों की ही थी।

इस विकट महाकार्य में सहायता प्राप्त करने के लिए चाणक्य ने स्वयं गुप्त रूप से जाकर वहाँ के एक महत्वपूर्ण राजा 'पर्वतेश्वर' अर्थात् पौरव से भेंट की थी-ऐसा उल्लेख मिलता है। भारत से सिकंदर की राजसत्ता ही नष्ट हो गई थी। अतः राजा पौरव भी अब यूनानियों का अधीनस्थ 'क्षत्रप' नहीं रहा था। चाणक्य के इस महाकार्य में केवल राजा पौरव ही नहीं, अपितु अन्य कई धनिक तथा समर्थ जन भी प्रत्यक्ष रूप से सहायक और सहभागी हुए थे-ऐसा ग्रंथों से स्पष्ट होता है। चाणक्य ने इस समस्त सेना का सेनापति चंद्रगुप्त को ही नियुक्त किया। पंचनद के जितने संभव हुए-उतने सब प्रदेशों में अपनी सत्ता स्थापित कर चंद्रगुप्त की सेना ने बड़े वेग से मगध पर आक्रमण किया। नंद की प्रपीडक, आततायी और दुर्बल राजसत्ता से रुष्ट और त्रस्त होकर तथा चाणक्य द्वारा प्रचारित एकच्छत्र, अखंड भारतीय साम्राज्य के ध्येय से प्रेरित भारत को जनता तथा अन्य सत्ता केंद्र चंद्रगुप्त को सेना से, जैसे-जैसे वह लड़ती हुई आगे बढ़ती गई, वैसे वैसे आकर जुड़ते गए।

१२३. इस चक्रवर्ती अभियान में चंद्रगुप्त और चाणक्य पर कई बार प्राणसंकट भी आए। एक बार तो उनकी सारी सेना शत्रुओं के विकट आक्रमण से विखर कर इतस्ततः भाग गई। स्वयं चंद्रगुप्त और चाणक्य को भी प्राणरक्षा के लिए जंगलों में जाकर छिपना पड़ा। वहाँ एक रात उन्हें खुले आसमान के नीचे कठोर भूमि पर काटनी पड़ी। परंतु ऐसे किसी भी संकट से हतोत्साहित न होकर वे पुनः पुनः अपनी सेना को एकत्र कर आगे बढ़ते गए और एक दिन मगध की राजधानी पाटलिपुत्र के परिवेश में आ पहूँचे।

१२४. कूटनीतिज्ञ चाणक्य के षड्यंत्रकारी दूतों ने गुप्त रूप से नंद की सेना और राजधानी में घुसकर उन्हें पहले से ही खोखला कर दिया था। उस आधार पर साहसी चंद्रगुप्त पाटलिपुत्र पर तीर की तरह टूट पड़ा। १२५. महापद्मनंद का शिरच्छेद -राजधानी को चारों ओर से घेरकर कड़ी

नाकाबंदी करते हुए चंद्रगुप्त की सेना ने जब पाटलिपुत्र नगर में प्रवेश किया, तब वहाँ पर सर्वत्र घोर हाहाकार मच गया। चंद्रगुप्त स्वयं राजप्रासाद में घुसा; परंतु उस घोर अराजकता में महापद्मनंद पहले हो राजप्रासाद से भाग गया था। जब वह गुप्त मार्ग से राजधानी से बाहर भाग रहा था, तभी मार्ग में ही चंद्रगुप्त की सेना द्वारा पकड़ लिया गया और तत्काल वहाँ उसका शिरच्छेद कर दिया गया।

१२६. सम्राट चंद्रगुप्त की जय-महापद्मनंद के शिरच्छेद के पश्चात् तत्काल सर्वत्र चंद्रगुप्त के नाम की घोषणा मगध सम्राट् के रूप में कर दी गई। उसने अपनी माता के 'मुरा' नाम के अनुसार 'मौर्य' अभिधान या उपनाम धारण किया। इस कारण उसे तथा उसके राजवंश को इतिहास में 'मौर्य' नाम से ही जाना जाता है। सम्राट् पद पर अधिष्ठित होते ही उसने चाणक्य को अपने साम्राज्य का मुख्य अमात्य नियुक्त किया। यह घटना लगभग ई.स.पू ३२१ में घटित हुई थी।

१२०. सिकंदर की मृत्यु ई.स.पू. ३२३ में हुई थी। उसके बाद केवल दो वर्षों के भीतर लगभग ई.स.पू. ३२१ में सम्राट चंद्रगुप्त और आर्य चाणक्य, इन दोनों भारतीय महापुरुषों ने सर्वत्र अस्त-व्यस्त, विश्रृंखल और हतोत्साह हुए उत्तर भारत में पुनः स्वातंत्र्य और राज्यशक्ति प्रस्थापित करनेवाली यह प्रचंड राज्य-क्रांति यशस्विता से संपन्न कराई। उधर सिकंदर के ग्रीक साम्राज्य में उसके पीक सरदार और सामंत आपसी युद्धों में ही अभी तक उलझे हुए थे। इस अनुकूल अवसर का पूरा लाभ उठाने के लिए चाणक्य में एक क्षण भी विश्राम न लेकर तत्काल पूरे साम्राज्य में आंतरिक शांति और सुव्‍यवस्‍था स्थापित करने का कार्य प्रारंभ किया।

१२८. चाणक्य नीति का मूल सिद्धांत-किसी भी साम्राज्य की शांति और मुष्पवस्था, अंततोगत्वा उसका जो मूलाधार, दंडशक्ति है, उसपर निर्भर रहती है। यह चाणक्य की राजनीति का मूल सिद्धांत था क्षात्रतेज शस्त्रशक्ति समाज का केवल राजनीतिक अंग ही नहीं, वरन् समस्त सामाजिक जीवन का प्राण है। क्षात्रधर्म दुर्बल हो गया तो समझो कि सारे धर्म, शास्त्र, कलाएँ, राष्ट्र का समस्त जीवन ही डूब गया, नष्ट हो गया।

'सर्वे धर्माः प्रक्षयेयुर्विवृद्धाः क्षात्रे त्यक्ते राजधर्में पुराणे।' बिना नींव के भव्य भवन की भौँति बिना शस्तरशक्ति का साम्राज्य केवल हवा के तीव्र झोंके से ही ढहकर धराशायी हो जाएगा।' यह जिसकी राजनीति का प्रमुख सूत्र था, उस चाणक्य ने सर्वप्रथम उस नूतन साम्राज्य की रक्षा के लिए प्रबल, नियंत्रित, विजयी वृत्ति से ओतप्रोत प्रचंड सैन्य के निर्माण का कार्य युद्ध स्तर पर प्रबल वेग से किया इतने वेग से कि केवल तीन या चार वर्ष की अल्पावधि में ही समस्त प्रजाजनों को सम्राट् चंद्रगुप्त की महाशक्ति का विश्वास हो गया तथा भारत के शत्रुओं के मन में उसका आतंक छा गया।

१२९. इस प्रकार गुप्त रूप से, तेजी से निर्मित चंद्रगुप्त की इस महासेना की संख्या कितनी थी?

१३०. केवल चार-पाँच वर्ष पूर्व चंद्रगुप्त-चाणक्य ने जब पंचनद में स्वातंत्र्य प्राप्ति का और अखंड, एकच्छत्र, अखिल भारतीय साम्राज्य की स्थापना का गुप्त संकल्प किया था, तब उनका सैन्यबल अक्षरश: शून्य ही था! उस शून्य से आरंभ करनेवाले उसी सम्राट् चंद्रगुप्त के पास अब जो शस्त्रसज्ज, कटिबद्ध सेना थी, उसकी संख्या इस प्रकार थी-छह लाख पदाचारी, तीस हजार अश्वारोही, दो सहस्र गजारोही और चार सहस्र रधारुढ्ध सैनिक।

१३१. इसी प्रबल सैन्यशक्ति के आधार और प्रभाव से चाणक्य ने उत्तर भारत के छोटे-छोटे स्वतंत्रता चाहनेवाले राज्यों, गणराज्यों और संघों को मिटाकर उनके कारण छाई हुई घोर अराजकता को दूर किया और पूरे साम्राज्य में शांति तथा एक केंद्रित सुव्यवस्था की स्थापना की। अंत में सिंधु नदी के इस पार के पंचनद, पर्वतीय प्रदेश और सिंध के देश आदि प्रदेशों का भी समावेश सम्राट चंद्रगुप्त के मौर्य साम्राज्य में कर लिया गया।

१३२. इस प्रकार हमारा ऐतिहासिक काल में पहली बार सिंधु नदी के तट तक फैला एकसंघ भारतीय साम्राज्य देखकर किसी भी राज्यधुरंधर नेता को और भारतीय सम्राट् को कृतकृत्यता का अनुभव होता तो वह स्वाभाविक और शोभनीय था। परंतु...

१३३. सिंधु नदी नहीं, हिंदुकुश पर्वत है-...परंतु चंद्रगुप्त-चाणक्य को भारतीय साम्राज्य की सीमा केवल सिंधु नदी के तट तक ले जाने में ही कृतकृत्यता का अनुभव नहीं हुआ था। उनकी प्रतिज्ञा थी अखिल और अखंड भारतीय साम्राज्य की स्थापना तथा उद्दंड म्लेच्छों का विनाश! परंतु उस काल में भारतीय राष्ट्र की सीमा सिंधु नदी के केवल इस पार के तट तक हो नहीं मानी जाती थी, अपितु उसका विस्तार सिंधु नदी के उस पार के गांधार आदि प्रदेशों तथा वेदविख्यात कुभा, क्रम, सुवास्तु, गोमती (आज के अफगानिस्तान की क्रमशः काबुल, कुर्रम, स्वात, गुमल) आदि नदियों का समावेश कर हिंदुकुश पर्वत के वैदिक धर्मानुयायी अथवा भारतवंशीय जनपद वहाँ तक फैले हुए था। उनपर परंपरागत भारतीय राजाओं का राज्य होता था। भारत के उस हिम-शीतल प्रदेश के लोग सापेक्षत: अधिक गौर वर्ण के होते थे। इसलिए इस प्रदेश को 'स्वेतभारत' भी कहा जाता था। सिंधु नदी के इस पार तक पहूँचे हुए अपने साम्राज्य की संरक्षक सेना का यथायोग्य पूरा प्रबंध कर चाणक्य-चंद्रगुप्त की राष्ट्रीय महत्त्वाकांक्षा अब अपने उस साम्राज्य का ध्वज अखिल भारत की प्राकृतिक सीमा हिंदुकुश पर्वत के शिखरों पर किस प्रकार फहराया जाएगा-इस चिंता में, चिंतन में, योजना में और साधना में व्यग्र हो गई।

'यत्कक्षिन्ति तपोभिरन्यमुनयः, तस्मिन् तपस्यन्तमो।'

१३४, ग्रीक साम्राज्य का अंतसंघर्ष और विभाजन -उसी समय यूनान में यूनानियों के सत्ता के लिए चल रहे आपसी युद्धों का अंत थोड़े समय के लिए हो गया। सिकंदर के साम्राज्य का उनके बीच विभाजन हो गया। उसके अनुसार भारतीय सीमा से लगा हुआ बेबिलोन का यूनानी प्रदेश सिकंदर के एक शूर, युद्ध में निपुण सेनापति और सत्ताधिकारी 'सेल्युकस निकेटर' के हिस्से में आया। उसपर उसका संपूर्ण स्वामित्व और आधिपत्य स्थापित हुआ। यही नहीं, आगे हिंदुकुश पर्वत से लगा हुआ सिकंदर द्वारा विजित भारतीय प्रदेश भी उसके स्वामित्व के अधीन माना गया।

१३५. इस बीच सम्राट चंद्रगुप्त ने सिकंदर द्वारा जीता हुआ पंचनद से सिंध तक का जो भारतीय प्रदेश अपने भारतीय साम्राज्य में समाविष्ट कर लिया था, उसे लौटाने की मांग ग्रीक नरेश सेल्युकस ने चंद्रगुप्त से की। प्रदेश की मांग करते समय सेल्युकस के ध्यान में यह नहीं आया कि अब यूनानियों का सामना पूर्व को भाँति किसी तक्षशिला के अंबुज राजा या किसी कायर, दुर्बल महामात्य से नहीं, वरन् राजा चंद्रगुप्त और महामात्य चाणक्य से था। उन्होंने सेल्युकस की उस उदंडतापूर्ण तथा अनुचित माँग को तुकराते हुए उलटे उससे ही माँग की कि यूनानियों के आधिपत्य में जो गांधार से हिंदुकुश तक का भारतीय प्रदेश है, उसे वह तत्काल लौटा दें।

१३६. भारत पर सेल्युकस का आक्रमण-चंद्रगुप्त की माँग से अपमानित और कुपित सेल्युकस ने सिकंदर के द्वारा शिक्षा प्राप्त युद्धनिपुण यूनानी सेना को लेकर ई.स. पू. ३१५ के आस-पास सिंधु नदी पार कर भारत पर आक्रमण किया। ई.स.पू. ३२९ में सिकंदर ने गांधार प्रदेश पर एक छोटा सा आक्रमण किया था। उसकी गणना न करें तो उसके ई.स. पू. ३२७ में सिंधु नदी पार कर पूर्व में किए गए विस्तार से वर्णित प्रथम आक्रमण के पश्चात् सिंधु नदी पार कर भारत पर किया गया यह दूसरा यूनानी आक्रमण था।

१३७. परंतु इस समय जब सेल्युकस सिंधु नदी पार कर आगे आया तो उसे सिकंदर को मिली भारतीय राज्यों, गणराज्यों की छोटी-छोटी फुटकर सेनाओं को तरह सेनाएँ कहाँ भी दृष्टिगत नहीं हुई। इस बीच के काल में चंद्रगुप्त चाणक्य के प्रयत्नों और पराक्रम से भारत का जो राजनीतिक और सामरिक कायाकल्प हुआ था, उसे देखकर सेल्युकस आश्चर्यचकित हुआ और भयग्रस्त भी। उसने देखा कि सिंधु नदी के पंचनद के छोर से लेकर सिंधुसागर तक भारतीय राष्ट्र की संगठित, एकच्छत्र, एककेंद्र, एक-संचालित चतुरंग प्रबल सेना फौलादी दीवार की तरह उसे रोकने के लिए शर्त्रसज्ज खड़ी थी और उसका सेनापति था स्वयं चंद्रगुप्त!

१३८. उन दोनों सेनाओं का सामना होते ही उनके मध्य घमासान युद्ध आरंभ हो गया। ग्रीक सेना ने पराक्रम की पराकाष्ठा की, परंतु भारतीय सेना ने सिंधु तट के किसी स्थान पर (उस स्थान का नाम भी कहीं उपलब्ध नहीं है) हुए दो-तीन युद्धों में ही उसे पराभूत कर उसकी इतनी अधिक दुर्दशा कर दी कि इस निर्णायक पराजय के बाद सेल्युकस के पास विजयी चंद्रगुप्त की शरण में जाने के सिवाय कोई रास्ता हो नहीं बचा।

१३९. राजा पौरव की पराजय का प्रतिशोध-सिकंदर के नेतृत्व में यूनानियों ने राजा पौरव को पराजित कर जो अपमान और अत्याचार किए थे, उसका पूरा-पूरा प्रतिशोध चंद्रगुप्त की इस निर्णायक विजय द्वारा यूनानियों को पदाक्रांत करके भारत ने लिया था। उस विजयी सम्राट चंद्रगुप्त की सारी शर्तें सेल्युकस को चुपचाप स्वीकार करनी पड़ीं।

१४०, इन शर्तों के अनुसार, यवन राजा सेल्युकस ने सिंधु नदी के इस पार के पंचनद से सिंध तक के सारे भारतीय प्रदेश पर अपना अधिकार जताना छोड़ दिया। यही नहीं, जब महामात्य चाणक्य ने उसे धमकाया कि सिंधु के उस पार का गांधार-हिंदुकुश तक का यूनानियों द्वारा विजित भारतीय प्रदेश भी भारत को लौटाए बिना यह युद्ध समाप्त नहीं होगा तो राजा सेल्युकस ने चुपचाप वह सारा प्रदेश विजयी सम्राट् चंद्रगुप्त को वापस लौटा दिया। इस प्रकार भारत पर आक्रमण करने के लिए बड़े गर्व से सिंधु पार कर आनेवाला राजा सेल्युकस और उसकी सहस्राधिक यूनानी सिकंदरी सेना परास्त होकर सिर झुकाए सिंधु पार ही नहीं, हिंदुकुश पार चलती बनी!

१४१. भय बिनु होय न प्रीत-चंद्रगुप्त की इस विजय से उसके भारतीय साम्राज्य को सीमा सेल्युकस के ग्रीक साम्राज्य से मिल गई थी और इन दोनों साम्राज्यों के मध्य की सीमारेखा थी हिंदुकुश पर्वतश्रृंखला। इस भारतीय साम्राज्य के सामर्थ्य से और चंद्रगुप्त, चाणक्य आदि व्यक्तित्वों से यवनाधिपति सेल्युकस इतना अधिक प्रभावित हुआ कि उनका विरोध करने की अपेक्षा उनके साथ स्नेह-संबंध जोड़ने में ही यूनानियों का कल्याण है-यह उसकी दृढ़ धारणा बन गई। दूसरी बात यह थी कि सेल्युकस के साम्राज्य की अन्य सीमाओं पर जो राज्य थे, उनके अधिपति ग्रीक होते हुए भी सेल्युकस के शत्रु थे। उनके मन में भय उत्पन्न करने की दृष्टि से भी चंद्रगुप्त जैसे महाशक्तिशाली सम्राट् के साथ मैत्री करना सेल्युकस के लिए हितकारी था। इसलिए सेल्युकस ने सम्राट चंद्रगुप्त के साथ सम्मानपूर्वक चिर मैत्री स्थापित की।

१४२. यही नहीं, इस राजनीतिक और राष्ट्रीय स्नेहबंध को दोनों राजकुलों के शरीर-संबंध द्वारा व्यक्तिगत स्नेह-संबंधों की आत्मीयता और दृढ़ता प्रदान करने के लिए सेल्युकस ने अपनी कन्या का विवाह चंद्रगुप्त से दिया।

१४३. ग्रीक राजकुमारी के उस अलंकृत कन्यादान से सम्राट चंद्रगुप्त के देदीप्यमान यशोमंदिर पर मानो रत्नजड़ित स्वर्णकलश ही चढ़ा।

१४४. महामात्य चाणक्य का प्रभावी प्रबंध-उस स्वतंत्र, सुविशाल, अखंड साम्राज्य का सारा प्रबंध महामात्य चाणक्य ही करता था। यह प्रबंध उसने पात्रापात्र विवेकानुसार कितनी प्रबलता से, कठोरता से और साथ ही दयालुता से भी किया-यह स्वयं उस राजकार्य धुरंधर पुरुष द्वारा रचित सुविख्यात गंथ 'कौटिलीय अर्थशास्त्र' से तथा उस भारतीय साम्राज्य के भावी काल में न्यूनतः सौ वर्षों तक निरंतर बढ़ते गए और दूर-दूर तक फैलते गए अजेय प्रभाव से स्पष्ट रूप से विदित होता है। इसी प्रकार चंद्रगुप्त की राजसभा में सेल्युकस द्वारा नियुक्त ग्रीक राजदूत मेगास्थनीज द्वारा लिखे गए प्रतिवृत्त से भी इसका परस्पर ही प्रत्यय होता है कि चाणक्य के प्रभावी सुप्रबंध से पूरा राष्ट्र शांति, सुव्यवस्था सुख और संपन्नता से कितना भरा-पूरा था।

१४५. कभी-कभी एक ही दिन में घटित किसी ऐतिहासिक घटना का प्रभाव अगले हजारों वर्षों का ऐतिहासिक भविष्य निर्धारित करता है। चंद्रगुप्त द्वारा हुए ग्रीकों के पराभव के परिणाम भी इसी प्रकार कितने दूरगामी थे-इस विषय में अंग्रेज इतिहासकार विंसेंट स्मिथ ने लिखा है-"चंद्रगुप्त के द्वारा किए गए सिकंदर तथा सेल्युकस के आक्रमणों को विफल करनेवाले इस निर्णायक ग्रीक विजय के परिणामस्वरूप भविष्य में लगभग डेढ़ हजार वर्षों तक यूरोप का कोई भी राष्ट्र भारत पर आक्रमण नहीं कर सका।''

१४६. सेल्युकस से हुई संधि के अनुसार हिंदुकुश, हिरात से बलूचिस्तान तक के प्रदेश का समावेश करनेवाली भारत की उस दिशा की जो प्राकृतिक, सामरिक और वैज्ञानिक (Scientific) सीमारेखा है, जहाँ तक पहुँचने के लिए भविष्य में अंग्रेजी शासक भी लालच से विफल प्रयत्न करते रहे और जिस पर मुगल बादशाह भी कभी पूर्ण शासन नहीं कर सके, उस अखंड भारत की शास्त्रीय सीमारेखा को भारत के प्रथम सम्राट चंद्रगुप्त ने दो सहस्र वर्षों से भी प्राचीन ऐतिहासिक काल में इस प्रकार पदाक्रांत किया था! ("...The first Indian Emperor, more than two thousand years ago thus entered into possession of that Scientific frontier sighed for in vain by his English successors and never held in its entirety even by the Monghul Monarch's of the 16 th and 17 th century." "Early History of India' by V. Smith)

१४७. सिकंदर न विश्वविजयी, न भारतविजेता-उस प्राचीन काल में सारे यूरोप में केवल यूनानी सभ्यता ही एकमात्र विकसित सभ्यता थी। इसलिए आज के अधिकतर यूरोपीय राष्ट्र उसे अपनी सभ्यताओं की जननी मानते हैं। उस प्राचीन काल के सिकंदर जैसे प्रतापी ग्रीक सम्राट् का नाम आज भी यूरोप को जा के लिए अपने किसी पराक्रमी पूर्वज के नाम की भौति अत्तोपतापूर्ण प्रेरणादायी बना हुआ है। यूरोपीय इतिहास में उसे 'Alexander the Gtreat' (सिकंदर महान्) कहकर संबोधित किया जाता है। उसके बारे में अनेक पैराणिक पद्धति की आख्यायिकाएँ उनकी शालेय पुस्तको सरशैली में युवा वर्ग को बताई जाती हैं, परंतु उस सिकंदर और उसके उस ग्रीक साम्राज्य के तत्कालीक भारतीय प्रतिद्धंद्धी सम्राट चंद्रगुप्‍त और महामात्‍व चाणक्‍य के नामों का भी पता कुछ इतिहासज्ञों को छोड़कर साधारण यूरोपीय शिक्षित व्यक्ति को नहीं रहता। एक बार यूरोपीय जनता ऐतिहासिक विपरीतता की ओर दुर्लक्ष्य कर भी दे, परंतु दुःख यह है कि भारत में अंग्रेजी राज्य की स्थापना के बाद हमारे विद्यालयों में निर्धारित अंग्रेजी द्वारा लिखित पुस्तकों और अन्य साहित्य में भी सिकंदर की ऐसी अवास्‍तविक प्रशंसा वर्णित की गई है। उसकी महानता का अयथार्थ गुणगान किया गया है। पिछली तीन-चार पीढि़यों से ऐसी अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त करनेवाले हमारे शिक्षित वर्ग पर 'अलेक्जेंडर द ग्रेट' नाम को सुनते ही बड़ा रोमहर्षक प्रभाव पड़ता है। परंतु चंद्रगुप्त अथवा चाणक्य किस झाड़ की पत्ती हैं-इसका प्रभाव अधिकतर लोगों को नहीं रहता। यह ऐतिहासिक विरोधाभास और उसके फलस्वरूप होनेवाला जनमानस का दिशाभ्रम अब इसके आगे तो नहीं होने देना चाहिए। सिकंदर के विषय में प्रचलित पौराणिक शैली की दंतकथाओं को छोड़ दें, तब भी प्रत्या भारतीय इतिहास से संचित, सिकंदर की मिथ्‍या महानता और भारत की (मिथ्या) हीनता वर्णन करनेवाली आख्यायिकाओं का तो हारे शालेय पुस्तकों और साहित्य से पूर्ण माल होना ही चाहिए। उदाहरणार्थ, यूरोप के शालेय पुस्तकों और साहित्य में सरस शैली में वर्णित तथा हमारे यहाँ भी औंग्रेजों द्वारा प्रचलित नीचे दी हुई ग्रीक आख्यायिका पढें-

१४८. "यूनान आदि समस्त यूरोप की जनता में यह धारणा प्रचलित है कि सिकंदर विश्वविजेता था और उसने पूरे भारत को जीत लिया था। वह पराक्रमी पुरुष जब सारा जग जीतकर स्वदेश वापस लौटा तो जगत् में जीतने लायक कोई देश ही शेष नहीं रहा। इस निरुत्साहजनक अनुभूति में युद्ध की इच्छावाले उस सम्राट को रोना आया!"

सिंकदर की दिग्विजय से संबंधित यह आख्‍यायिक यूरोप में ही नहीं अपितु भारत में भी बड़े सम्मानपूर्वक बताई जाती है। अब वह कितनी मिथ्‍या और हास्‍यपद है, यह इस पुस्तक में सिकंदर के विषय में दिए गए संक्षिप्त वृतांत से स्पष्ट रूप से विदित होता है। उस काल के चीन आदि शक्तिशाली राष्ट्रों की ओर तो सिकंदर गया ही नहीं था।

यह बात छोड़ भी दें, तब भी दिग्विजय करते हुए जब वह भारत पहुँचा और उसके मन में मगध के साथ समस्त भारत की जीतकर 'भारत सम्राट' बनने की महत्त्वाकांक्षा का उदय हुआ, तब भारत पर आक्रमण की और भारत सम्राट बनने की उसकी महत्त्वाकांक्षा की कैसी दुर्दशा हुई, इसका विस्तृत वर्णन हमने इस पुस्तक में पहले ही किया है। सिकंदर पराक्रमी था, विजेता था, परंतु जगज्जेता नहीं था भारतविजेता तो कभी भी नहीं था। यदि वह पराक्रमी पुरुष सचमुच रो पड़ा होगा, तो अब जगत् में जीतने के लिए कोई देश नहीं बचा-इस दुःखद अनुभूति से रोया होगा, यह असंभव है, क्योंकि यह अनुभूति झूठी है, मिथ्या है, यह वह स्वयं भी जानता था। उसे रोना आया होगा तो इस अनुभूति से कि 'जिस भारत का सम्राट होने की मेरी महत्त्वाकांक्षा थी, उस भारत को मैं मरते दम तक, अंतिम क्षण तक जीत नहीं सका! यही नहीं अपितु उसका जो छोटा सा कोना मैंने जीत लिया है (ऐसी मेरी धारणा थी), उसे भी विद्रोही भारतीय मुझसे छीन लेंगे-ऐसी परिस्थिति आती दिख रही है।' मैंने अपने गोमांतक काव्य में कहा है कि 'अन्य कुणाचा असो सिकंदर परंतु भारत जेता ना। अंगण ही न तये देखिले ककला ही ना कुणा-कुणा।।' (अन्य किसी के लिए भले ही सिकंदर महान् रहा हो, परंतु वह भारतविजेता नहीं था उसने भारत का आँगन भी नहीं देखा था किसी को उसका आकलन ही नहीं हुआ था।)

१४९. सवाई सिकंदर-महापुरुषों की तुलना सहसा नहीं करनी चाहिए। वे सब अपने-अपने ढंग से श्रेष्ठ होते हैं। परंतु यदि कोई ऐसे महापुरुषों की तुलना, करते हुए किसी एक की व्यर्थ, मिथ्या प्रशंसा करे तो उसका निषेध और विरोध करना आवश्यक है। जब तक यूरोप ही सिकंदर का सम्मान 'अलेक्जेंडर द ग्रेट' कहकर गौरव कर रहा है और उसके तथा उसके ग्रीक साम्राज्य के यशस्वी प्रतिद्वंद्वी सम्राट् चंद्रगुप्त की अवहेलना कर रहा है, तब तक हम भारतीयों के लिए यह प्रतिपादन करना आवश्यक है कि दोनों में यदि तुलना ही करनी है तो यदि सिकंदर एक सिकंदर है तो चंद्रगुप्त सवाई सिकंदर है।' सिकंदर को उसके पिता फिलिप से भी पहले से जीते हुए प्रबल राज्य और सेना की पर्याप्त पूंजी मिली थी। उसके आधार पर उसने स्वपराक्रम से यूनानी साम्राज्य का निर्माण किया; परंतु चंद्रगुप्त का ऐसा कोई भी आधार नहीं था। उसके अधीन एक भी सैनिक नहीं था उसके पिता ने उसे दंडित कर राज्य से बाहर निकाल दिया था। उसे केवल एक हा पुरुष का आधार था। वह पुरुष था आर्य चाणक्य। ऐसी विपरीत स्थितियों में चंद्रगुप्त ने शून्य से आरंभ कर अपनी सुविशाल, महाशक्तिशाली सेना का निर्माण किया। स्वयं सिकंदर के सेनापति सेल्युकस के आक्रमणों को विफल कर उनकी धज्जियाँ उड़ा डाली और सिकंदर के साम्राज्य से भी बड़े तथा श्रेष्ठ भारतीय साम्राज्य का निर्माण किया।

१५०. काल के जिस पृष्ठ पर यवन विजेता सम्राट चंद्रगुप्त की, इस सवाई सिकंदर की विजयी राजमुद्रा अंकित है, वही हमारे हिंदू राष्ट्र के इतिहास का प्रथम स्वर्णिम पृष्ठ है!

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स्‍वर्णिम पृष्‍ठ : द्वितीय


यवनांतक सम्राट् पुष्यमित्र

१५१. सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य का देहांत ई.स.पू. २९८ में हुआ। तत्पश्चात् उसका पुत्र बिंदुसार राज सिंहासन पर बैठा। वह भी पराक्रमी था उसने स्वयं 'अमित्रघात' (शत्रु का कर्वनकाल) उपाधि धारण की थी। चंद्रगुप्त की मृत्यु के बाद भी कुछ समय तक आर्य चाणक्य ही मौर्य साम्राज्य के महामात्य बने रहे। इसलिए उनकी प्रेरणा से सम्राट् बिंदुसार ने चाणक्य चंद्रगुप्त के (पूर्व में परिच्छेद १२७, १२८, १३२ एवं १४९ में वर्णित) भारतीय साम्राज्य के भव्य ध्येय का जो एक उपांग चंद्रगुप्त की मृत्यु के समय अधूरा रह गया था, उसे भी पूर्ण करने का कार्य लगे हाथ अपने हाथों में लिया। उस भव्य ध्येय के अनुसार यवनों का संपूर्ण विनाश हुआ था। अखिल भारत स्वतंत्र हुआ था। उत्तरी भारत में एक अखंड, बलशाली, एकच्छत्र भारतीय साम्राज्य प्रस्थापित हुआ था; परंतु चंद्रगुप्त-चाणक्य की प्रतिज्ञा संपूर्ण भारत का एकच्छत्र साम्राज्य स्थापित करने की थी। इसलिए उत्तर भारत के उस मौर्य समाज में शेष दक्षिण भारत को भी विलीन कर लेना मौर्य सम्राट् का वर्तमान कर्तव्य ही था।

१५२. यद्यपि दक्षिणी भारत के तत्कालीन पृथक्-पृथक् राज्य हमारे भारतीय राज्य ही थे; सब स्वतंत्र और स्वयंपूर्ण थे, किसी भी परकीय सत्ता के, म्लेच्छों के उपद्रव से मुक्त थे, तथापि अखिल भारत को एकच्छत्र, एकतंत्र, एकराष्ट्र बनाने के लिए ये सारे दाक्षिणात्य पृथक् स्वतंत्र राष्ट्र स्वयं-प्रेरणा से उत्तर भारत के भव्य भारतीय साम्राज्य में विलीन हो जाते, यह उनका भी उस परिस्थिति में राष्ट्रीय कर्तव्य था।

१५३. दक्षिण-विजय के लिए प्रस्थान करने के पश्चात् सम्राट् सिकंदर ने साम दाम-दंड-भेद सभी उपायों से वहाँ के अधिकतर राज्यों को अपने अधीन कर लिया। "पूर्व समुद्र और पश्चिम समुद्र के बीच में स्थित सत्रह राजधानियों को उसने मौर्य साम्राज्य में समाविष्ट किया।" -ऐसा उल्लेख ग्रंथों में मिलता है। निष्कर्ष यह है कि चंद्रगुप्त-चाणक्य के अखिल भारतीय सामान के ध्येय के शेष बचे द्वितीय उपांग को भी पूर्ण कर सम्राट् विंदुस्वर मे दक्षिण, पूर्व-पश्चिम युक्त समस्त भारतवर्ष को एकच्छन एकराष्ट्र बनाया इस वैशिष्ट्य के अतिरिक्त उस मौर्य साम्राज्य का एक और वैशिष्ट्य यह था कि ऐतिहासिक मापदंडों से परखने पर भी तत्कालीन जगत् के समस्‍त राष्ट्रों में भारत ही सैनिक बल में भी सर्वाधिक (यूनान से भी अधिक बलशाली राष्ट्र था।

१५४. चाणक्य के कुशल और दृढ़ प्रबंध के अनुसार निर्मित और शस्त्रसज्जित चतुरंग सेना की अजेय सामर्थ्य में चंद्रगुप्त के राज्यारोहण से सम्राट अशोक के बौद्ध बनने के बाद भी, उसके देहांत तक लगभग सौ वर्षों की दीर्य अवधि में, उस मौर्यकालीन अखिल भारतीय साम्राज्य को भूमि मार्ग जल मार्ग से समुद्र पार कर, किसी भी सीमा का उल्लंघन कर विश्‍व का कोई भी शत्रु कुछ भी हानि नहीं पहुँचा सका।

१५५. पुण्यश्लोक अशोक-ई.स. पू. २७३ में सम्राट् बिंदुसार का देहावसान हुआ। उसके पश्चात् उसका पुत्र अशोक अपने ज्येष्ठ भ्राता का अधिकार अमान्य कर स्वयं सिंहासनारूढ हुआ। केवल भारतीय इतिहास में ही नहीं, अपितु पूरे विश्व के इतिहास में जिसके नाम का संकीर्तन 'पुण्यश्‍लोक नृपावलि' में किया जाना चाहिए, सम्राट अशोक की ऐसी योग्यता थी। तथापि मैंने इस पुस्तक के प्रारंभ में परिच्छेद ७ से ९ तक स्वर्णिम पृष्ठ की जिन कसौटियों और विषय-क्षेत्र का निर्धारण किया था, उनके अनुसार यह सम्राट अशोक के काल का पृष्ठ पूरा खरा नहीं उतरता। इसलिए यहाँ उसके राज्य काल की चर्चा अधिक नहीं करेंगे।

१५६. तथापि अशोक ने बौद्ध धर्म की दीक्षा लेने के बाद उस धर्म के अहिंसा आदि कुछ सिद्धांतों और आचारों का जो अतिरेकी सम्मान किया, उसका इतना हानिकारक परिणाम भारतीय राजनीति पर और भारत की स्वतंत्रता पर हुआ है कि सम्राट के नहीं, अपितु मुख्यत: बौद्ध धर्म के संदर्भ में सिदधंतों और प्रवृत्तियों का यहाँ पर तथा पुस्तक के अगले भाग में भी चर्चा करना आवश्यक है।

१५७. नमो भगवते बुद्धाय-बौद्ध धर्म की ऐसी कुछ राष्ट्रविघातक प्रवृत्तियों और उनके परिणामों की चर्चा करने से पहले मेरे मतों का विरोध न हे, इसलिए यहाँ आरंभ में ही मैं यह बताना अपना कर्तव्य मानता हूँ कि स्‍वयं बुद्धदेव के लिए तथा उनके बौद्ध धर्म के लिए मेरे मन में कुल मिलाकर अत्यंत आदरभाव है। भारतीय इतिहास में महान् और जागतिक कीर्ति की विभूतियों में जो एक से बढ़कर एक उत्तुंग हिमालय शिखर हैं, उनमें से एक उत्तुंग शिखर का नाम है 'भगवान् बुद्ध'! इसी आदरभाव से उनके शिष्यों की भाँति उनकी मूर्ति के सम्मुख विनम्र होकर मैं भी कहता हूँ 'नमो भगवते बुद्धाय'। जिस हिंदू राष्ट्र ने उन्हें जन्म दिया, वह हिंदू राष्ट्र भी आज केवल इसी कारण उन्हें श्रीविष्णु का नवम अवतार मानता है।

१५८. बौद्ध धर्म भारत में नामशेष क्यों हुआ?- सम्राट अशोक के न्यूनतः तीन सौ वर्ष पूर्व से मगध और उसके आस-पास बौद्ध धर्म का अस्तित्व था। तब तक उसका प्रचार-प्रसार अधिकतर उपदेशों द्वारा मत-परिवर्तन से होता था। इसलिए उसका प्रसार भी मंद गति से चलता था परिच्छेद १५ में हम बता चुके हैं कि सिकंदर-सेल्युकस के काल तक पंचनद, सिंध, गांधार आदि प्रांतों में बौद्ध धर्म का नाम भी सुनाई नहीं देता था यूनानियों को तो उसकी कुछ भी जानकारी नहीं थी अधिकतर इतिहासकारों की यह मान्यता है कि बौद्ध धर्म वेद को प्रमाण न माननेवाला और सम्यक् रूप से निरीश्वरवादी धर्म होने के कारण तत्कालीन वैदिक धर्माभिमानी जनता ने उसका प्रबल विरोध किया और इस कारण से अंत में वह धर्म भारत में नामशेष हो गया । परंतु आज तक की यह दृढ़ धारणा पूर्ण रूप से सत्य नहीं है, क्योंकि गौतम बुद्ध ने ही अवैदिक या निरीश्वरवादी या शून्यवादी धर्मपंथ का प्रवर्तन किया, यह विधान ही मूलतः तथ्यहीन है।

बुद्ध के जन्म से पहले भी कम-से-कम पचास-साठ अवैदिक एवं निरीश्वरवादी धर्मपंथ भारत में प्रचलित थे। यह बात बौद्ध ग्रंथों को भी मान्य है। वैदिक और अवैदिक दर्शन तथा सिद्धांतों के विषय में उनके प्रचारकों में बौद्धिक वाद-विवाद होते थे मत परिवर्तन जिसको जो धर्मपंथ श्रेष्ठ लगता था, उसका वह अनुसरण करता था। बौद्ध काल से शंकराचार्य तक के काल में सैद्धांतिक और बौद्धिक संघर्षों के आघात से कुछ अंशों में बौद्ध धर्म का पराभव हुआ-यह सत्य है। तथापि वैदिक धर्माभिमानी ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि जनता के हृदय में बौद्ध धर्म के प्रति, और विशेष रूप से उसमें आई हुई विकृतियों का ही अनुसरण करनेवाले बौद्ध-धर्मियों के प्रति, जो घोर घृणा उत्पन्न हुई, उसका मुख्य कारण केवल सैद्धांतिक और बौद्धिक ही नहीं बल्कि राष्ट्रीय और राजनीतिक भी है। इस बात पर हम यथाप्रसंग इस पुस्तक की सीमाओं में जितना संभव हो सकेगा, उतना प्रकाश डालेंगे।

१५९. अशोक ने वैदिक-धर्मियों पर बौद्ध धर्म बलपूर्वक लादा-बौद्ध धर्म स्वीकार करने के बाद अपने राज्य काल के उत्तरार्ध में सम्राट् अशोक के मन में बौद्ध धर्म का अभिनिवेश इतना अधिक संचारित हुआ कि तब तक जो केवल उपदेश से उस धर्ममत का प्रचार हो रहा था, उसे अपर्याप्त समझकर उसने अपने संपूर्ण साम्राज्य में वैदिक धर्म के मूलभूत, परंतु बौद्ध धर्म में निषिद्ध माने गए धर्माचारों को किसी घोर अपराध की तरह दंडनीय घोषित किया। यहाँ हम स्थानाभाव से दो-तीन ही उदाहरण देंगे। उसने यज्ञयाग को हिंसा-प्रधान कहकर उनपर पूरे राज्य में रोक लगाई! यज्ञसंस्था वैदिक धर्म का आद्य केंद्र है। यज्ञसंस्था के केंद्र के आस-पास ही, उसी की परिधि में वैदिक काल से भारतीयों की महान् संस्कृति का विकास और उन्नति होती रही। उन यज्ञों को अकस्मात् राजदंड के बल पर दंडनीय अपराध घोषित करने से अशोक के साम्राज्य में रहनेवाले अस्सी प्रतिशत ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि वैदिक-धर्मियों में कितना क्षोभ उत्पन्न हुआ होगा, इसकी कल्पना ही करके देखें! वैदिक धर्म में मृगया या आखेट क्षत्रियों का एक कर्तव्य माना जाता रहा है। अशोक ने मृगया या आखेट को भी दंडनीय और निषिद्ध अपराध घोषित किया। उसपर लाखों लोगों का नित्य का जो मुख्य आहार मछली और मुरगा था, उसे मारना भी निषिद्ध घोषित हुआ। यह भी छोड़ दीजिए, परंतु 'प्राणिहिंसा मत करो' इसके निरपवाद रूप से आचरण करने से अत्यंत दुर्बल और मनुष्याघातक सिद्ध होनेवाले बौद्ध सिद्धांत के अनुसार अशोक ने सघन वनों में विचरण करनेवाले और बार बार मनुष्य बस्ती में आकर मनुष्यों का भक्षण करनेवाले सिंह-व्याघ्रादि क्रूर पशुओं की मृगया को भी दंडनीय अपराध घोषित किया। अशोक एक ओर ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि वैदिक-धर्मियों के धर्माचरण पर इस प्रकार अत्याचारी पाबंदियाँ लगा रहा था और दूसरी ओर बड़े-बड़े स्तंभों तथा स्तूपों पर उपदेश उत्कीर्ण करवाता था कि' सर्वधर्म यों के साथ सहिष्णुता का व्यवहार करो! 'श्रमणों और ब्राह्मणों का सत्कार करो!' उसके इस कृत्य की स्पष्ट विसंगति उसके जैसे संयमशील, विवेकी महान् सम्राट् के भी ध्यान में नहीं आई थी, यह एक आश्चर्य है।

१६०. सम्राट अशोक से पचास वर्ष पूर्व आर्य चाणक्य यह अच्छी तरह जान गए थे कि बौद्ध धर्म के कुछ सिद्धांतों और उपदेशों का राष्ट्रीय शक्ति और सामाजिक धारणा पर घातक और विपरीत परिणाम होगा इसलिए मौर्य साम्राज्य का सारा राजप्रबंध जिस अर्थशास्त्र' पर आधारित था, उस अपने विख्यात ग्रंथ में उन्होंने संसार त्याग कर भिक्षु बननेवालों पर राष्ट्रीय दृष्टि से उपयुक्त कुछ प्रतिबंध लगाए थे। उदाहरणार्थ-चाणक्य का एक सिद्धांत इस प्रकार है कि कोई भी अल्पवयस्क स्त्री अपने माता-पिता तथा राजसत्ता की अनुमति के बिना सांसारिकता का त्याग कर भिक्षु संघ में प्रवेश नहीं कर सकती। 'दूसरे एक सिद्धांत के अनुसार 'किसी भी पुरुष के लिए उसपर अवलंबित स्त्री-बालकों का उचित प्रबंध किए बिना भिक्षु होना प्रतिबंधित और निषिद्ध है।'

अशोक के काल में और उसके बाद ये प्रतिबंध लुप्त हो गए और किसी भी छोटे-बड़े व्यक्ति को संसार त्याग कर सीधे भिक्षुसंघ में प्रवेश मिलने लगा। इन भिक्षुसंधों में प्रवेश लेनेवाले हजारों लोगों को अन्न, वस्त्र, शब्या-निवास आदि सुविधाएँ धर्मार्थ निःशुल्क प्रदान की जाती थीं और उनका सारा व्यय राजकोष से किया जाता था। ऐसे भिक्षुसंघों के लिए बड़े बड़े विहार बनाने के लिए तथा उनमें रहनेवाले लाखों भिक्षुओं के उदर निर्वाह के लिए अशोक अपने साम्राज्य के कोष से करोड़ों रुपए खर्च करता था, परंतु साम्राज्य का यह सारा राजकोष अधिकतर साम्राज्य की वैदिक धर्मीय प्रजा की संपत्ति से, उससे प्राप्त होनेवाले करों से भरता और उसका विनियोग इस प्रकार वैदिक धर्म-विरोधी बौद्ध धर्म के सार्वत्रिक प्रचार के लिए होता था। उसकी ही संपत्ति का उसके विरोधी पक्ष को प्रवल बनाने के लिए किया जानेवाला यह अपरिमित व्यर्थ व्यय वैदिक-धर्मीय प्रजा के लिए असह्य हुआ और उसका असंतोष बढ़ता गया। यह अत्यंत स्वाभाविक था।

१६१. साम्राज्य के शस्त्रबल पर ही कुठाराघात-राजदंड की शक्ति से अशोक अपने साम्राज्य में तथा उसके बाहर भी बौद्ध धर्म की अतिरेकी अहिंसा का जो प्रचार अभियान चला रहा था, उसके कारण भारतीय साम्राज्य के मूल अस्तित्व पर ही कुठाराघात हो रहा था और वह उसके उपर्युक्त अन्य कृत्यों से भी राष्ट्रीय अस्तित्व और स्वातंत्र्य के लिए अधिक हानिकारक था। सब प्रकार का शस्त्रबल हिंसामय और पापकारक है। क्षात्रधर्म का आचरण करनेवाले हिंसक और अधर्मी हैं। अत: जो व्यक्ति अहिंसा की शपथ लेकर, शस्त्र त्याग कर, संसार त्याग कर भिक्षु बनेंगे और विहारों में बौद्ध धर्म के अनुसार जीवनयापन करेंगे, उनका भिक्षु वर्ग-राष्ट्र के संरक्षण के लिए लड़नेवाले और हताहत होनेवाले क्षत्रिय, वीर सैनिक वर्ग से अधिक उच्‍चकोटि का, पुण्यशील और पूज्य है-इस प्रकार का बौद्ध-धर्मोंपदेश अशोक द्वारा और उनके द्वारा नियुक्त सहस्राधिक भिक्षुओं द्वारा दिया जाने सगा। फलस्वरूप सामान्य समाज में भी वीर-वृत्ति के शस्त्रधारी सैनिक को अपेक्षा परजीवी यायावर भिक्षु अधिक सम्माननीय और धर्माचारी माना जाने लगा।

१६२. अशोक स्तंभों पर और अन्य धर्मों में भी पाया जानेवाला एक निश्चित वाक्य उत्कीर्ण किया हुआ मिलता है-'शस्त्र-विजय से धर्म-विजय श्रेष्ठ है। परंतु क्या वह धर्म-विजय इस ऐहिक जगत् में संभव है, व्यवहार्य है? अमृतपान करने से मनुष्य अमर होता है; होता होगा, परंतु वह अमृत इस ऐहिक जगत् में किस दुकान में मिलता है, उसका पता क्या कोई जानता है? क्या कोरे उपदेशों से कभी किसी का पेट भरा है?

१६३. जिस साम्राज्य की अपार सत्ता, संपत्ति और अन्य साधनों के आधार से सम्राट अशोक भारत में और तत्कालीन परराष्ट्रों में भी भिक्षु भेजकर धर्म-विजय, शस्त्र-विजय की अपेक्षा श्रेष्ठ है का उपदेश दे रहा था, वह उसका साम्राज्य भी क्या चंद्रगुप्त-चाणक्य द्वारा निर्मित प्रबल, अजेय चतुरंग सेना के शस्त्रबल से ही प्राप्त नहीं किया गया था? अशोक के सिंहासनारूढ़ होते हो यदि उस चतुरंग सेना के सारे सैनिक शस्त्र त्याग कर बौद्ध धर्म की स्वीकार करते और परजीवी भिक्षु बनकर विहारों में आराम से खरटि भरने रहते, तो क्या स्वयं अशोक पल भर के लिए भी सम्राट् पद पर आसीन रह सकता था?

भारत के आस-पास उस काल में अनेक ग्रीक राष्ट्र और उनसे भी आगे क्रूर, कठोर, हिंसक आयुधजीवी शक-कुषाण-हूण आदि राष्ट्र केवल भारत की चतुरंग, अजेय सेना के भय और आतंक से दूर-दूर तक छिपकर चुपचाप बैठे थे। वे सब-के-सब भिक्षुमय बने भारत पर व्याघ्र-सिंहों की भाँति टूट पड़ते और तब क्या वे अपने क्रूर नखों से अशोक की त्यक्तशस्त्र धर्म-विजय का ही गला घोंटकर उसका रक्तपान न करते?

१६४. इस 'यदि-तो' की चर्चा करने का कुछ प्रयोजन नहीं है। भारतीय क्षात्र-वृत्ति का संपूर्ण नाश करने का प्रयत्न करनेवाले अशोक के ही नहीं, अपितु जैसा मैंने अपने 'संन्यस्त खड्ग' नाटक में वर्णन किया है, स्वयं भगवान् बुद्ध के ही उपदेशों का दुर्भाग्यपूर्ण दुष्परिणाम भारत को उसी काल में भोगना पड़ा है। उस दुर्भाग्यपूर्ण दुष्परिणाम का और वैदिक-धर्मीय जनता द्वारा किए हुए उसके यशस्वी प्रतिकार का अब हम वर्णन करेंगे।

१५६. धर्म के राजनीतिक परिणामों की चर्चा-यह वर्णन करते समय वैदिक धर्म अथवा बौद्ध धर्म के सिद्धांतों की या उनके कर्मकांड के यज्ञयाग संन्यास आदि आचारों की पारलौकिक दृष्टि से छानबीन करने का हमारा कोई हेतु नहीं है। साथ ही ऐतिहासिक दृष्टि से सर्वांगीण परीक्षण या तुलना करने का भी हमारा उद्देश्य नहीं है। उन सिद्धांतों में से कौन से सिद्धांत आज विश्वसनीय हैं अथवा उन आचारों में से कौन से आचार आज भी अनुकरणीय है-यह प्रश्‍न भी यहाँ अप्रासंगिक होने के कारण हम उपस्थित नहीं करेंगे। इस पुस्तक में उन कालखंडों में इन सारे धर्ममतों के और उनके अनुयायियों के कृत्यों के भारत के तत्कालीन राजनीतिक जीवन पर जो राष्ट्रीय और राजनीतिक परिणाम हुए; उन्हीं की, केवल उन्हीं की चर्चा करना हमारा उद्देश्य है। कारण, ऐसे ऐतिहासिक विश्लेषण के बिना उस इतिहास के सूत्रों को सुलझाना असंभव है।

१६६. अशोक की मृत्यु के पश्चात्-अपनी धर्मनिष्ठा के अनुसार अंतिम क्षण तक लोक-कल्याण के लिए प्रयत्नशील इस पुण्यात्मा सम्राट अशोक का देहावसान ई.स.पू. २३२ में हो गया। उसका अंत ही इस भव्यतम भारतीय मौर्य साम्राज्य के अंत का आरंभ सिद्ध हुआ सम्राट अशोक ने अपने राज्य काल के अंतिम पच्चीस वर्षों में अपना सर्वस्व, अपना तन-मन-धन बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए अर्पित कर दिया था अशोक के बाद उसके सिंहासन पर क्रमश: बैठने वाले उसके सभी वंशज प्रामाणिक रूप से बौद्ध धर्मीय थे और उसी के कारण शस्त्रशक्तिहीन, दुर्बल, केवल नामधारी राजा मात्र थे। उस अहिंसा-प्रधान बौद्ध धर्म के इन अतिरेकी अनुयायियों और राज्यकर्ताओं द्वारा इन चालीस-पचास वर्षों में साम्राज्य की शस्त्रशक्ति की जो घोर राष्ट्रघातक उपेक्षा की गई, उसके कारण मौर्य साम्राज्य की, विशेषत: उसके वायव्य दिशा के प्रदेशों की, सारी सैन्य-व्यवस्था और संगठन भंग होकर पूर्ण रूप से अस्त-व्यस्त हो गया। तब तक केवल मौर्य साम्राज्य के नाम के आतंक से दबकर चुप रहे भारत के शत्रुओं ने अशोक की मृत्यु के पश्चात् यह देखकर केवल तीस वर्षों के अंदर भारत पर पुनः आक्रमण करने का दुस्साहस किया।

१६७. भारत पर बैक्ट्रियन ग्रीकों का आक्रमण-सम्राट् चंद्रगुप्त ने सेल्युकस निकेटर को पराजित कर ई.स.पू. ३१५ के आस-पास यूनानियों को हिंदुकुश के उस पार खदेड़ दिया था (देखिए परिच्छेद १३६ से १४० तक) । उस काल में भारत की सीमा से लगे हुए हिंदुकुश के उस पार का जो बैक्ट्रिया नामक प्रदेश था, वहाँ सेल्युकस निकेटर ने अपना स्वतंत्र ग्रीक राम स्थापित किया था। यह राज्य पूर्णतः स्वतंत्र था और उसका मूल यूरोपीय ग्रीक राज्य से कुछ भी संबंध नहीं रहा था। यदि कोई संबंध रहा भी हो। वह संबंध परस्पर शत्रुता का ही था। इसलिए इन बैंक्ट्रिबन सलोगों 'एशियायी ग्रीक' ही कहते थे बीते हुए लगभग सौ वर्षों में टूटती। अनेक पीढ़ियों के कारण ये बैक्ट्रियन ग्रीक उनके सिकंदरकालीन जातिक पूर्वजों की तुलना में हीन अवस्था को पहूँचे थे सिकंदरकालीन पूर्वजों का, मूल खानदानी ग्रीकों का तेज अब उनमें शेष नहीं रहा था; परंतु सिकंदर की एक ही इच्छा अभी तक उनके मन में जीवित थी और वह थी भारत-विजय की महत्त्वाकांक्षा! मौर्य साम्राज्य को शस्त्रशक्ति का उपर्युक्त विनाश देखकर उन बैक्ट्रियन ग्रीकों के हृदयों में पुनः वह भारत-विद्वेषी महत्त्वाकांक्षा उभर आई और उन्होंने अपने तत्कालीन राजा डेमेट्रियस के नेतृत्व में हिंदुकुश पार कर भारत पर आक्रमण किया। भारतीय सेना द्वारा विशेष मुकाबला नहीं किए जाने के कारण डेमेट्रियस ने कांबोज, गांधार आदि प्रदेशों को जीतकर सिंधु नदी भी पार कर ली। आगे सारा पंचनद (पंजाब) भी जीतकर वह यवन नरेश सीधे मगध पर आक्रमण करने के लिए अपनी सेना के साथ आगे बढ़ा। उसकी सारी ग्रीक सेना वीरता के दर्प और उत्साह से घोषणा करने लगी कि 'सिकंदर का स्वप्न था कि पाटलिपुत्र जीतकर वहाँ भारतीय सम्राट के रूप में स्वयं को स्थापित करेगा सिकंदर का वह भारतीय साम्राज्य की विजय का स्वप्न अब हम साकार कर दिखाएँगे।'

१६८. भारतीय वीर-वृत्ति का अकस्मात् ह्रास क्यों हुआ?-यह कितने आश्चर्य की बात है कि सौ-सवा सौ वर्ष पूर्व हिंदुकुश से पंचनद और सिंध तक के जिन प्रांतों में वहाँ के भारतीय क्षत्रियों ने, गणराज्यों ने सैनिकों ने और जनता ने मिलकर सिकंदर-सेल्युकस आदि ग्रीक सेनापतियों और उनकी सेनाओं को पूर्णतया पराजित कर उन्हें पीछे खदेड़ा था, उन्हीं पराक्रमी भारतीय प्रदेशों को इन बैक्ट्रियन ग्रीकों जैसे दुर्बल और अध:पतित एशियायी ग्रीकों ने इतनी सहजता और सरलता से चलते-चलते जीत लिया! पग-पग पर विरोध कर लड़नेवाले भारतीय वीरों के भय से सिकंदर और सेल्युकस इन्हीं प्रांतों में युद्ध करते समय अपने शिविर में भी कभी सुख-शांति से सो नहीं सकते थे! परंतु ये द्वितीय स्तर के बैक्ट्रियन ग्रीक सेनापति आज अयोध्या के प्रासाद में सुख से सुरक्षित सो रहे हैं।

१६९. अशोक ने जब बौद्ध धर्म को स्वीकार किया तब उसके तीस-चालीस वर्षों के बाद ही डेमेट्रियस का यह ग्रीक आक्रमण हुआ था। बीच के तीस-चालीस वर्षों में गांधार, पंचनद आदि उन जुझारू प्रदेशों भारतीय वीर-वृत्ति का और प्रतिकार शक्ति का अकस्मात् इतना अधिक हायरी ऐसी कौन सी विशेष घटना हुई थी जिसके कि परिणामस्वरूप भारतीय वीर-गति का यह ह्रास अपरिहार्य सिद्ध हुआ?

१७०. यह डेमेट्रियस के नेतृत्व में आक्रमण करनेवाला बैक्ट्रियन ग्रीक सैन्य क्या सिकंदर-सेल्युकस की सेनाओं से अधिक पराक्रमी था? कदापि नहीं! वे स्वयं भी स्वीकार करते थे कि उनके सिकंदर, सेल्युकस आदि पूर्वज उनसे अधिक पराक्रमी और देवोपम योग्यता के थे। इसका अर्थ यह है कि ऐसे अधिक दुर्बल और हीन स्तर के यवनों ने इन भारतीय प्रदेशों को चलते चलते सहजता से जीत लिया था, वह सिकंदर के काल से उनकी शक्ति बढ़ी थी; इसलिए नहीं, अपितु वहाँ के भारतीयों की ही प्रतिकार शक्ति और वीर-वृत्ति में भयंकर गिरावट आई, इसलिए जीत लिया था।

१७१. सिकंदर के ई.स.पू. ३२७ में हुए आक्रमण से डेमेट्रियस के लगभग ई. स. पू. २०० में हुए इस आक्रमण के मध्यांतर में भारतीयों की प्रतिकार शक्ति और वीर-वृत्ति का हास करनेवाली जो एक ही घटना हुई थी, वह घटना यही हो सकती है कि अशोक द्वारा बौद्ध धर्म स्वीकार करने के बाद राजदंड के बल से अप्रतिकारक, अहिंसक, शस्त्रबलनिंदक बौद्ध मतों का अधिकाधिक प्रचार उन प्रदेशों में भी किया गया था दूसरी कोई इतनी महत्त्वपूर्ण घटना उस काल में घटित ही नहीं हुई थी स्पष्टीकरणार्थ, इस विषय से संबंधित दो-तीन मुद्दों पर विचार करेंगे।

१७२. सिकंदर और डेमेट्रियस काल की भारतीय मनोवृत्ति-सिकंदर के काल में कांबोज, गांधार, पंचनद, सिंध आदि प्रांतों में जनता को बौद्ध धर्म के नाम का भी पता नहीं था (देखिए परिच्छेद १५) वहाँ की जनता वीरपूजक, वैदिक-धर्मानुयायी थी क्षात्र-वृत्ति का अभिमान रखनेवाले 'यौधेय' आदि गणराज्य बड़े गर्व से स्वयं को 'आयुधजीवी' (Nation in arms) अभिधान से गौरवान्वित करते थे (देखिए परिच्छेद ३७, ३८) । केवल क्षत्रिय ही नहीं, अपितु कुछ जनसंघों (राज्यसंघो) में तो स्त्री, पुरुषादि समस्त भारतीय नागरिक परशत्रु का आक्रमण होते ही सशस्त्र होकर रणभूमि में लड़ने जाते थे। दुर्भाग्य से यदि किसी युद्ध में जनसंघ' की पराजय होती थी तो वहाँ की भारतीय वीरांगनाएँ यवन शत्रु के हाथों बंदी बनकर जीने की अपेक्षा अपने वीर शिशुओं के साथ 'जौहर' करती थीं, अर्थात् अग्निकुंड में कूदकर भस्म हो जाती थीं। इसका विस्तृत वर्णन इसी पुस्तक में परिष्ट ३७ से ७४ के बीच किया गया है। उस चाणक्य-चंद्रगुप्त काल के वैदिक धर्मीय भारतीयों की स्वराष्ट्र संरक्षक वीर-वृत्ति की द्योतक एक ही बात और कहना यहाँ पर्याप्त होगा।

१७३. वैदिक-धर्मानुयायी आर्य चाणक्य के 'अर्थशास्त्र' नामक जिस ग्रंथ के अनुसार चंद्रगुप्त के भव्यतम भारतीय साम्राज्य का अधिकतर राज्य प्रबंध किया जाता था, उस ग्रंथ में भारतीय स्वातंत्र्य और भारतीय साम्राज्य के रक्षणार्थ आवश्यक क्षात्र-वृत्ति का बहुत अधिक गौरव माना गया है। चाणक्य के ग्रंथ के अनुसार ब्राह्मणों सहित सब वर्गों के लोगों को सेना में प्रवेश मिलता था

'अमर्यादप्रवृत्ते च शत्रुभिः संगरे कृते।

सर्वे वर्णाश्च दृश्येयुः शस्त्रवन्तो युधिष्ठिर।'

१७४. यह वैदिक-धर्मीय आर्यों की परंपरा ही थी चाणक्य का कहना है कि साम्राज्य की ऐसी महासेना जब शत्रु पर आक्रमण करने के लिए समरभूमि में उतरती है, तब स्वयं सम्राट् को उस चतुरंग दल सेना को संबोधित कर इस प्रकार का भाषण करना चाहिए।

१७५, "वेदेष्वप्यनुश्रूयते समाप्तदक्षिणानाम् यज्ञानामवभृथस्नानेषु या सा गतिः शूराणामिति। क्षणेन लाभप्यतियान्ति शूराः प्राणान् सुयुद्धेषु परित्यजन्ति। तुल्यभोगोऽस्मि, भवद्भिः सह भोग्यामिदं राज्यम्। परान् हन्तव्यम् ।"

इसका भावार्थ यह है कि यज्ञ से जो सद्गति प्राप्त होती है, वही सद्गति शूरवीरों को रण में प्राप्त होती है। न्याय युद्ध में (सुयुद्धे) प्राणापर्ण करनेवाले वीरों को तत्क्षण स्वर्ग की प्राप्ति होती है। मेरी ही तरह तुम सब भी इस राज्य का उपभोग करोगे। तब देखते क्या हो? शत्रु पर टूट पड़ो! उसका वध करो!

१७६. हो सकता है, इन्हीं ज्वलंत शब्दों से स्वयं सम्राट चंद्रगुप्त ने भी सेल्यूकस पर आक्रमण करने के लिए प्रस्तुत अपनी अजेय भारतीय सेना को संबोधित कर उसका उत्साह बढ़ाया हो।

१७७. 'परित्राणाय साधूनाम् विनाशाय च दुष्कृताम्' अर्थात् सज्जनों के रक्षण के लिए और दुर्जनों के विनाश के लिए जो आक्रामक, न्याय्य, सशस्त्र युद्ध करना पड़ता है, उसे वैदिक धर्म 'हिंसक' मानता ही नहीं है। उसे तो वह 'धर्मयुद्ध' ही कहता है।

१७८. सिकंदर के काल में भारतीय स्वातंत्र्य के रक्षणार्थ यवन शत्रुओं से ऐसा ही धर्मयुद्ध' करने के लिए यवनों द्वारा पदाक्रांत सारे प्रदेशों में वैदिक-धर्मीय प्रचारकों ने वीरश्री की अग्नि सतत प्रज्वलित की थी। उनमें से कई ब्राह्मण संन्यासी प्रचारकों को पकड़कर सिकंदर ने मृत्युदंड भी दिया था! (देखिए परिच्छेद ३१ एवं ७३)

१७९. सम्राट् चंद्रगुप्त की वीरश्री से परिपूर्ण भारतीय सेना ने यवन नरेश सेल्युकस को पराजित किया। तत्पश्चात् चंद्रगुप्त-चाणक्य ने हिंदुकुश तक फैले हुए भारतीय साम्राज्य की स्वतंत्रता और स्वायत्तता के रक्षाणार्थ अपनी सीमाओं पर अपने तत्कालीन जगत् के सर्वाधिक शक्तिशाली सैन्य के फौलादी तट निर्मित किए। उनके उस प्रबल शस्त्रबल के आतंक और भय से ही हिंदुकुश से लगे हुए बैक्ट्रिया प्रांत में दबे हुए, छिपे हुए ग्रीक राज्यों ने लगभग अगले सवा सौ वर्षों तक कोई हलचल नहीं की। सम्राट अशोक जब तक इस वीरवृत्तिपूजक वैदिक धर्म का अनुयायी था, तब तक यानी साधारणतः ई.स.पू. २५२ तक भारतीय मौर्य साम्राज्य की वायव्य सीमा का यह सेना संभार उसी प्रकार शस्त्रसज्ज और अजेय था; परंतु-

१८०. अशोक ने बौद्ध धर्म स्वीकार करते ही यह सारी सुरक्षा अचानक भंग कर दी। जिस प्रकार गौतम बुद्ध अपने छोटे से शाक्य राज्य का त्याग कर स्वयं भिक्षु बने थे, उसी प्रकार यदि अशोक भी बौद्ध धर्म स्वीकार करते ही सम्राट् पद का त्याग कर स्वयं भिक्षु बन जाता और सर्वत्र विचरण कर बौद्ध धर्म का प्रचार करता, तो भारतीय राष्ट्र पर कोई विशेष संकट नहीं आता। बौद्ध धर्म के प्रति अशोक की निष्ठा की भी पूरी परीक्षा हो जाती; परंतु अशोक अंतिम क्षण तक भारतीय साम्राज्य के सम्राट् पद का त्याग नहीं कर सका। इसके विपरीत उसने उस साम्राज्य को ही बौद्ध धर्म का एक प्रचारक मठ बना दिया! अर्थात् वायव्य दिशा के इन पर्वतीय प्रदेशों में भी धर्म-विजय, शस्त्र-विजय से श्रेष्ठ है, 'अक्रोधेन जयेत क्रोधम्', 'अहिंसा परमोधर्मः','मा हिंस्यात्सर्वभूतानि' इत्यादि मूलत: वैदिक-धर्मीय तथा देश काल-पात्रानुसार आचरण करने पर अत्यंत हितकारक सूक्तों का धुआँधार प्रचार बौद्ध धर्म के अनुसार निरपवाद सत्य के रूप में देश-काल-पात्र का विवेक त्याग कर होने लगा। अशोक के राजकोष से जिनका पालन-पोषण होता था, ऐसे बौद्ध भिक्षुओं के जत्थे-के-जत्थे इन प्रदेशों में 'शस्त्रबल महापाप है' ऐसा प्रचार करते हुए घूमते थे। साम्राज्य में अशोक द्वारा निर्मित 'धर्ममहामात्र', 'प्रांतीय अधिकारी', 'रज्जुक' आदि विश्वासपात्र राजकर्मचारियों के उच्च पद थे। उनपर केवल बौद्ध-धर्मियों की ही नियुक्ति होने लगी। इन सबको अशोक की आज्ञा थी कि वे बौद्ध धर्म के आचार और प्रचार को राज्य की ओर से यथासंभव पूरा प्रोत्साहन दें। गांधार, पंचनद जैसे सीमांत प्रदेशों में बौद्ध धर्म का प्रचार नागरिकों में ही नहीं अपितु सैनिकों में भी जोर-शोर से होने लगा था अर्थात् राजदंड के बल पर अहिंसा जैसे उपर्युक्त बौद्धमतों का प्रचार- प्रसार भारत में यत्र-तत्र जिस प्रचुर मात्रा में हो रहा था, उसी बड़ी मात्रा में उसके वायव्य दिशा के सीमावर्ती पर्वतीय प्रदेशों में शस्त्रबल और क्षात्र-वृत्ति का ह्रास होता गया।

बीस वर्षों तक इस प्रकार का वीरवृत्ति-निरोधक अराष्ट्रीय प्रचार करने के बाद अशोक की मृत्यु हो गई। उसके बाद राजसिंहासन पर बैठे उसके दुर्बल बौद्ध-धर्मीय वंशजों ने तो उन पर्वतीय सीमावर्ती प्रदेशों के संरक्षण के लिए सम्राट चंद्रगुप्त के समय से बनी शस्त्रसज्ज भारतीय सेना की अजेय-फौलादी प्राचीर की उपेक्षा इतनी अधिक की कि उसकी नींव ही हिल गई और वह किसी रेत दुर्ग की भांति ढहकर नष्ट हो गई।

१८१. सारांश-सम्राट अशोक तथा उसके वंशजों ने राजदंड के बल पर बौद्ध धर्म के शस्त्रबल निंदक और राष्ट्रीय स्वातंत्र्य के लिए अत्यावश्यक बीर-वृत्ति की अक्षम्य उपेक्षा करनेवाले मतों का पूरे साम्राज्य में जो एकांगी और अतिरेकी प्रचार भारत की जनता में किया; पूरे साम्राज्य का जो बौद्धमठीकरण और सैनिकों का जो बौद्ध भिक्षुकरण किया, उसके परिणामस्वरूप भारत के अत्यंत महत्त्वपूर्ण वायव्य सीमावर्ती पर्वतीय प्रदेशों की जनता में वीरश्री का हास और भारत के प्रति दुर्दम्य राष्ट्राभिमान का नाश हो गया तथा इस आंतरिक क्षय से चंद्रगुप्त के समय से निर्मित और विख्यात तत्कालीन समस्त जगत् में सर्वाधिक शक्तिशाली मानी जानेवाली शस्त्रसज्ज भारतीय सेना का सर्वनाश हो गया। इसीलिए सिकंदर सेल्युकस की ग्रीक सेना से बहुत निम्न स्तर की बैक्ट्रियन ग्रीक सेना ने हिंदुकुश से पंचनद सहित सारे भारतीय प्रदेश बड़ी सरलता से चलते-चलते जीत लिये और वह मगध पर आक्रमण करने हेतु आगे बढ़ी।

१८२. उस समय सारी साम्राज्य सत्ता बौद्धों के हाथों में थी, परंतु उनका कोई भी राज्याधिकारी, प्रांताधिकारी अथवा बौद्ध-धर्मीय जनपद-समूह भारत की स्वतंत्रता छीनने के लिए आनेवाले इस यवन शत्रु से समरांगण में युद्ध करने के लिए आगे नहीं आया। भारत के इस राष्ट्रीय अपमान से उन्हें क्षोभ नहीं हुआ, लज्जा भी नहीं आई। प्रत्यक्ष मगध में अशोक का जो वंशज बौद्ध-धर्मीय राजा बृहद्रथ सम्राट् बना सिंहासन पर बैठा था, उसने तो इस यवन शत्रु के प्रतिकार के लिए एक पग भी आगे नहीं रखा।

१८३. यह भी हो सकता है कि इस निरपवाद 'अप्रतिकार' से वह बौद्ध राजा घर बैठे-बैठे ग्रीकों का हृदय जीतकर 'अक्रोधेन जयेत् क्रोधम्' -इस धम्मपद के सूक्त का यशस्वी प्रयोग कर रहा हो!

१८४. ग्रीकों पर राजा खारवेल का आक्रमण - ग्रीकों के इस परचक्र से भारत की स्वतंत्रता और राष्ट्रीय सम्मान को जो ग्रहण लगा था, उसकी राष्ट्रीय चिंता, लज्जा अथवा क्षोभ यद्यपि भारत के बौद्ध-धर्मियों को नहीं हुआ तथापि भारत के वैदिक-धर्मियों में सर्वत्र इस राष्ट्रीय अपमान और संकट से प्रचंड क्रोधाग्नि भड़क उठी। इस संकट का तत्काल समाधान करने के लिए दुर्भाग्य से वैदिक-धर्मियों का एक भी समर्थ राज्य उत्तर भारत में नहीं बचा था; परंतु सौभाग्य से अशोक की मृत्यु के पश्चात् दस वर्षों के अंदर ही दक्षिण के कलिंग (उड़ीसा) और आंध्र राज्यों के राजाओं ने बौद्ध-धर्मी मौर्य सम्राट् का आधिपत्य अस्वीकार कर अपने स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिये थे ये दोनों राजा प्रतापी, वैदिक-धर्माभिमानी और भारत राष्ट्र के अभिमानी थे। दोनों ने शस्त्रसज्ज प्रबल सैन्यों का निर्माण किया था। ग्रीक म्लेच्छों ने सारा उत्तर भारत पदाक्रांत किया है और मगध का दुर्बल बौद्ध-धर्मी राजा उनका कोई भी प्रतिकार नहीं कर सका है, यह दु:खद समाचार सुनकर दक्षिण भारत के इन राज्यों की वैदिक-धर्माभिमानी जनता में प्रचंड प्रक्षोभ उत्पन्न हुआ। फलस्वरूप कलिंग के स्वतंत्र राज्य के पराक्रमी राजा खारवेल ने स्वयं डेमेट्रियस की ग्रीक सेना पर आक्रमण करने का निश्चय किया।

१८५. यवनों का विध्वंस और पराजय - राजा खारवेल ने अपने निश्चय के अनुसार अपनी प्रबल सेना के साथ प्रथमतः मगध पर आक्रमण कर उसे जीता। उसके बाद उसने अयोध्या के आस-पास डेमेट्रियस की यवन सेना का डटकर सामना किया। कलिंग की उस प्रबल सेना ने रणभूमि में यवन सेना का विध्वंस कर उसकी ऐसी दुर्दशा की कि डेमेट्रियस तत्काल पूर्ण वेग से पीछे हटता हुआ अपनी बची-खुची सेना के साथ पंचनद के उस पार चला गया।

१८६. राजसूय यज्ञ- यवनों को इस प्रकार भारत की पर्वतीय सीमा तक खदेड़ने के बाद उनका पीछा करने के लिए अथवा उत्तर के सभी प्रदेशों का पक्का प्रबंध करने के लिए राजा खारवेल को अधिक समय नहीं मिला। उसे कुछ राजकीय कारणों से तत्काल कलिंग वापस आना पड़ा। उसने मगध के बौद्ध राजा बृहद्रथ को भी पदच्युत नहीं किया। कलिंग वापस आते ही उस पराक्रमी खारवेल राजा ने, भारत की स्वतंत्रता और सम्मान के रक्षणार्थ यवन शत्रुओं पर रणभूमि में जो महान् विजय प्राप्त की थी, उसकी घोषण करने के लिए वैदिक-धर्मीय श्रेष्ठ राजाओं की परंपरा के अनुसार 'राजसूय' महायज्ञ किया। इस यज्ञ की विशेषता यह थी कि यह मुख्यत: राष्ट्रीय और राजकीय स्वरूप का था। अशोक द्वारा यज्ञयागादि कर्मकांडों पर बलपूर्वक संपूर्ण प्रतिबंध लगाए जाने के बाद लगभग पचास वर्षों तक पूरे भारत में वैदिक-धर्मी किसी भी प्रकार का यज्ञ समारोह नहीं कर सके थे, परंतु कलिंग और आंध्र में वैदिक-धर्मियों के स्वतंत्र, बलशाली राज्य स्थापित होते ही अशोक के वैदिक धर्माचरण पर लगाए गए उस बलात् प्रतिबंध की अवमानना स्पष्ट रूप से करके भारत के राष्ट्रीय शत्रु यवन म्लेच्छों को रणभूमि में पराजित कर वैदिक-धर्मियों द्वारा राजसूय यज्ञ का यह विशाल समारोह पचास वर्षों के पश्चात् प्रथम बार संपन्न हो रहा था।

१८७. ग्रीक राजाओं द्वारा पुनः आक्रमण-प्रतापी खारवेल राजा दक्षिण में स्वदेश वापस लौट गया है-यह देखते ही डेमेट्रियस के मगध पर आक्रमण के समय उसकी और उसकी ग्रीक सेना की जो घोर दुर्दशा हुई थी, उससे लक्ष्य और क्रोधित, गांधार और कांबोज प्रांतों के मिनांडर नामक ग्रीक सेनापति ने फिर से सिर उठाया और चार वर्षों के भीतर ही पुन: नई सेना लेकर भारत पर आक्रमण कर दिया। डेमेट्रियस के आक्रमण की तरह ही ग्रीकों के इस आक्रमण का भी उन बौद्ध बहुल और मुकाबला करने में अक्षम बने हुए पंचनदादि प्रांतों में अथवा मगध के दुर्बल अशोकवंशीय राजा बृहद्रथ द्वारा कोई विशेष प्रतिकार नहीं हुआ।

१८८. ग्रीकों के प्रति बौद्ध की सहानुभूति-यवन सेनापति मिनांडर को उसके इस भारत-विजय अभियान में अनेक बौद्ध-धर्मीय भारतीयों की सहानुभूति प्राप्त होने लगी, क्योंकि वह स्पष्ट रूप से कहता था कि उसे बौद्ध धर्म के कई सिद्धांत अच्छे लगते हैं और वह शीघ्र ही बौद्ध धर्म स्वीकार करने वाला है। इसलिए 'ये ग्रीक लोग यहाँ केवल वैदिक-धर्मियों के विरुद्ध युद्ध करने आए हैं और उनका राज्य भारत पर होगा तो बुरा क्या होगा? वह तो हमारे बौद्ध-धर्मियों का ही राज्य होगा! ये ग्रीक लोग पराए, विदेशी हैं-यह सत्य है, परंतु हमें इस राष्ट्रवाद से क्या लेना है? हमारा बौद्ध धर्म तो जाति, राष्ट्र, वंश आदि के। भेद मानता ही नहीं है।

इस प्रकार के राष्ट्रघाती, भारत-विरोधी, दुर्बल विचारों का उपदेश अनेक प्रचारक भिक्षु भारत की बौद्ध-धर्मीय जनता को देने लगे उनकी वह सहानुभूति भारत के कट्टर शत्रु मिनांडर के लिए अत्यंत प्रभावी रूप से सहायक और उपयोगी सिद्ध हुई। अत: उसने भी अपने ग्रीक प्रचारकों द्वारा बौद्ध जनता में ऐसा प्रचार करना शुरू किया कि उसका यह आक्रमण, भारत के वैदिक-धर्मीय मगध के दुर्बल बौद्ध सम्राट् के हाथों से भारतीय साम्राज्य सत्ता छीनने के लिए जो भयंकर षड्यंत्र रच रहे हैं, उसे विफल कर उन्हें पराजित करने के लिए ही है। मिनांडर पंचनद आदि प्रदेशों को पुनः जीतकर अयोध्या पहुँचा। अपरिपक्वता और शीघ्रता के कारण डेमेट्रियस तथा उसकी सेना की जो दुर्गति हुई, वैसी उसकी भी दुर्गति न हो, इसलिए मिनांडर ने सोचा कि जीते हुए भारतीय प्रदेशों और राज्यों को संगठित करके तथा सैन्य संख्या बढ़ाकर ही मगध पर आक्रमण करना उचित होगा। इसके अनुसार सावधानीपूर्वक सारा प्रबंध कर वह अयोध्या में दृढ़ आसन जमाए उचित अवसर की प्रतीक्षा करने लगा ।

१८९. पाटलिपुत्र में क्या स्थिति थी? - कलिंग के प्रतापी राजा खारवेल की विजय से उत्तर भारत के वैदिक-धर्मीय नेताओं और जनता में वीरश्री की लहर दौड़ गई थी। ऐसे में मिनांडर की ग्रीक सेना पुनः आक्रमण कर मगध की ओर आ रही है-यह समाचार उन्होंने सुना। उसी समय भारतीय बौद्ध जनता की स्वदेशद्रोही प्रवृत्तियाँ तेज हो गई और वह भारत में राष्ट्रशत्रु ग्रीकों का बौद्ध राज्य स्थापित करने के लिए मिनांडर को अनुकूल तथा सहायक हो रही है यह स्पष्ट दिखाई देने लगा। तब यवनों का एकबारगी संपूर्ण सफाया करने के लिए प्रथमतः मगध के दुर्बल बौद्ध-धर्मीय सम्राट् बृहद्रथ मौर्य' को सिंहासन से पदच्युत कर वहाँ चंद्रगुप्त जैसे किसी पराक्रमी वैदिक-धर्मीय पुरुष को स्थापित करने के उद्देश्य से उत्तर भारत के राष्ट्राभिमानी नेताओं ने एक विशाल राज्य-क्रांति का षड्यंत्र रचा; परंतु उन सबके सामने मुख्य प्रश्‍न यह था कि इस राज्य-क्रांति का नेतृत्व कर यवनों का खात्मा कर सकनेवाला ऐसा वीर, पराक्रमी पुरुष कौन है?

१९०. पुष्यमित्र- मगध के उपर्युक्त राजा बृहद्रथ मौर्य के पास जो कुछ नाममात्र की सेना थी, उसमें एक सैनिक था पुष्यमित्र। पुष्यमित्र जन्मतः ब्राह्मण था। वह वैदिक धर्म और भारतीय राष्ट्र का कट्टर अभिमानी तथा निष्ठावान शिवभक्त था। उसके कुल का नाम 'शुंग' था। उसने अपने क्षात्र तेज से मगध की उस सेना में इतना वर्चस्व प्राप्त किया था कि यवनों के आक्रमण की उस प्राणसंकट की स्थिति में राजा बृहद्रथ मौर्य ने निरुपाय होकर पुष्यमित्र को ही अपनी सेना का मुख्य सेनापति नियुक्त किया था। सेनापति पद प्राप्त होते ही पुष्यमित्र ने तत्काल मगध की सेना का शस्त्रबल और संख्याबल बढ़ाने का प्रयास शुरू किया। इस संयोग से समस्त वैदिक धर्मीय, राष्ट्रभक्त जन सेनापति पुष्यमित्र की ओर आशा और अपेक्षा से देखने लगे हर व्यक्ति उत्कटता से यह आशा करने लगा कि सेनापति पुष्यमित्र ही इस राज्य-क्रांति का नेतृत्व करे। सभी मानने लगे कि इस पीढी में आज भारतीय साम्राज्य के परंपरागत सिंहासन पर आरूढ़ होने के लिए उस पराक्रमी पुरुष से अधिक योग्य व्यक्ति और कोई नहीं है।

१९१. कभी-कभी इतिहास में 'फलानुमेयाः प्रारम्भाः संस्काराः प्राक्तना इव' के न्याय से आगे घटित हुई घटनाओं से ही पूर्व काल में उन घटनाओं को घटित करने के लिए कूटनीतिज्ञों ने कौन से और कैसे षड्यंत्र रचे होंगे. इसका अनुमान लगाया जा सकता है। अगले परिच्छेदों में वर्णित मगध की इस राज्य-क्रांति की इतिहास-वर्णित घटनाओं से यह स्पष्ट होता है कि सेनापति पुष्यमित्र ने बहुत पहले से इस भावी राज्य-क्रांति के षड्यंत्र का नेतृत्व करना गुप्त रूप से स्वीकार किया होगा यही नहीं, अपितु उसने अपने अधीनस्थ राज्य की सेना की और उसके प्रमुख अधिकारियों की भी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से इस क्रांति के लिए सहमति प्राप्त कर ली होगी।

१९२. बृहद्रथ मौर्य का शिरच्छेद- क्रांति की यह सारी पूर्व तैयारी चल ही रही थी कि एक दिन राजधानी पाटलिपुत्र में समस्त सेना के शस्त्र संचालन के विविध कार्यक्रमों का एक विशाल समारोह आयोजित किया गया इस सैनिक समारोह का निरीक्षण करने के लिए स्वयं सम्राट् बृहद्रथ मौर्य वहाँ उपस्थित था। सेनापति पुष्यमित्र की आज्ञा के अनुसार वह चतुरंग दल सेना अपने कौशल का प्रदर्शन विविध रूप से कर रही थी। तभी अचानक उस स्थान पर, जहाँ बृहद्रथ बैठा था, कुछ कलह, कुछ संघर्ष होने लगा। उस संघर्ष या कलह के कारण का उल्लेख इतिहास में नहीं मिलता; परंतु उसके कारण क्षुब्ध होकर स्वयं सेनापति पुष्यमित्र ने उस नाममात्र के सम्राट् बृहद्रथ मौर्य पर आक्रमण कर वहीं तत्काल उसका शिरच्छेद कर डाला।

१९३. इस शिरच्छेद से अशोक के राजवंश का अंत हुआ। बौद्ध-धर्मीय मौर्य साम्राज्य समाप्त हुआ।

१९४. अकस्मात् हुई इस भीषण घटना से वहाँ पर एकत्र विशाल जनसमूह में खलबली मची, परंतु उस शस्त्रसज्ज सेना में से अथवा बृहद्रथ के समीप बैठे हुए राजपुरुषों में से किसी ने बृहद्रथ का पक्ष लेकर सेनापति पुष्यमित्र पर आक्रमण नहीं किया नहीं। इसके विपरीत वह शस्त्रसज्ज चतुरंग सेना अपने सेनापति पुष्यमित्र के नाम का जयघोष करने लगी।

१९५. कारण, अनेक सैनिक भी जो कार्य करने की इच्छा अपने मन में रखते थे. परंतु जिसे पूरा करने का उत्तरदायित्व लेने का साहस समस्त उत्तर भारत में किसी को भी नहीं हो रहा था, वह महासाहसी कार्य अर्थात् भारतीय साम्राज्य की स्वतंत्रता के रक्षणार्थ अपात्र सिद्ध हुए अशोक के वंशज बृहद्रथ मौर्य का शिरच्छेद अशोक की राजधानी में ही करने का अपरिहार्य राष्ट्रीय कर्तव्य सेनापति पुष्यमित्र ने कर दिखाया था।

१९६. भारतीय स्वतंत्रता की रक्षा के लिए जो साहस पूर्व में चंद्रगुप्त को करना पड़ा था, वही साहसपूर्ण कार्य आज पुष्यमित्र ने किया था।

१९७, सिकंदर के प्रथम आक्रमण के समय यूनानियों का प्रतिकार करने में असमर्थ सिद्ध हुए नामधारी सम्राट् महापद्मनंद का शिरच्छेद भारतीय स्वातंत्र्य के रक्षणार्थ आर्य चाणक्य और सम्राट् चंद्रगुप्त को राष्ट्रीय कर्तव्य समझकर करना पड़ा था, उसी प्रकार ठीक उन्हीं कारणों से मगध के इस नामधारी बौद्ध सम्राट् बृहद्रथ मौर्य का शिरच्छेद सेनापति पुष्यमित्र को राष्ट्रीय कर्तव्य समझकर ही करना पड़ा।

१९८. सम्राट् पुष्यमित्र शुंग- यह घटना ई.स.पू. १८४ के आस-पास घटित हुई। इसके बाद तत्काल पाटलिपुत्र में वैदिक विधि-विधान से पुष्यमित्र का राज्याभिषेक हुआ और वह अशोक के सिंहासन पर आरूढ़ हुआ। इसी के साथ मौर्य राजवंश का अंत हुआ और सम्राट् पुष्यमित्र के शुंग राजवंश का प्रारंभ हुआ।

१९९. पुष्यमित्र द्वारा ग्रीकों पर आक्रमण- सम्राट् पुष्यमित्र ने सर्वप्रथम राजधानी पाटलिपुत्र और उसके आस-पास के सारे प्रदेश का सुव्यवस्थित तथा सुदृढ़ राज्य-प्रबंध किया। तत्पश्चात् उसने शक्तिशाली, रणोत्सुक चतुरंग-दल भारतीय सेना का निर्माण कर उसके साथ अयोध्या में आसन जमाए बैठे हुए ग्रीक सेनापति मिनांडर पर आक्रमण किया। जब भारतीय सेना के शस्त्रबल के आगे रण में टिक पाना यवन सेनापति को असंभव लगने लगा, तब वह लड़ता हुआ अपनी सेना के साथ पंचनद की ओर पीछे हटने लगा; परंतु डेमेट्रियस की ग्रीक सेना का पीछा न कर पाने की जो भूल राजा खारवेल ने पूर्व में की थी, उसे न दोहराकर सम्राट् पुष्यमित्र ने इस बार ग्रीक सेना का पीछा पूरी शक्ति से किया। एक के बाद एक लगातार हुई पराजयों से और ग्रीक सेना की सारी व्यूह-रचना ही ध्वस्त हो जाने से अत्यंत शक्तिहीन हुए मिनांडर को पुष्यमित्र ने उसकी सेना के साथ सिंधु पार खदेड़ दिया।

इस तरह सिंधु सीमा तक का सारा भारत ग्रीकों की राजनीतिक दासता से मुक्त हुआ।

२००. ग्रीकों की जड़ें ही उखाड़कर फेंक दीं- भारत पर ग्रीकों का यही आक्रमण अंतिम सिद्ध हुआ। सम्राट् पुष्यमित्र द्वारा की गई इस पराजय से ग्रीकों की शस्त्रशक्ति इतनी क्षीण हुई कि पुनः सिंधु पार कर भारत पर आक्रमण करने का साहस ही उनमें न रहा। सिकंदर के समय से भारत में उपद्रव मचानेवाले इन यवन शत्रुओं का सफाया इस प्रकार भारत ने सदा के लिए कर दिया।

२०१. ग्रीक सत्ता से मुक्त किए हुए सारे प्रदेशों को पुष्यमित्र ने अपने साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया। उसने अपने पराक्रमी पुत्र अग्निमित्र को उज्जैन (उज्जयिनी) का मुख्य राजप्रतिनिधि नियुक्त किया अग्निमित्र भी अपने पिता जैसा ही शूर और कर्तृत्वशाली पुरुष था। उसने अपने साम्राज्य की सीमा का विस्तार दक्षिण में विदर्भ देश तक किया, परंतु विदर्भ के राजा ने उसका आधिपत्य स्वीकार नहीं किया। इसलिए सेनापति अग्निमित्र ने विदर्भ राज्य पर आक्रमण किया और युद्ध में उसे पराजित किया; परंतु इस बीच विदर्भराज की कन्या मालविका अग्निमित्र के शौर्य आदि गुणों पर मुग्ध होकर उसके साथ विवाह करने को उत्सुक हो गई। तब विदर्भराज ने पुष्यमित्र से प्रार्थना कर उसकी सहमति से बड़े समारोहपूर्वक अग्निमित्र के साथ मालविका का विवाह कर दिया। इसलिए उन दोनों राजकुलों में केवल स्नेह का ही नहीं, बल्कि रक्त का भी संबंध हो गया। कालिदास का सुप्रसिद्ध नाटक 'मालविकाग्निमित्रम्' इसी रमणीय कथावस्तु पर आधारित है।

२०२. पाटलिपुत्र नगर में अश्वमेध यज्ञ- ग्रीकों जैसे पुरातन, परकीय शत्रुओं का नि:शेष निर्दलन कर भारतीय साम्राज्य का पुनरुज्जीवन करनेवाले सम्राट् पुष्यमित्र को हमारी वैदिक परंपरा के अनुसार अब अश्वमेध यज्ञ करने का अधिकार स्व पराक्रम से ही प्राप्त हो गया था। सम्राट् पुष्यमित्र के इस अधिकार के विषय में विंसेंट स्मिथ ने सम्मानपूर्वक लिखा है- "The Yavanas and all other rivals having been disposed off in due course, Pushyamitra was justified in his claim to reign as the paramount power of North India and straightway proceeded to announce his success by a magnificent celebration of the Ashwamedha sacrifice at his capital." ('The Early Historly oh India', Page189)

२०३. सम्राट् पुष्यमित्र ने अश्वमेध यज्ञ करने का संकल्प किया है-यह समाचार सुनकर अल्पसंख्यक बौद्धों को छोड़कर समस्त भारतवर्ष में भारतीय राष्ट्राभिमान और हर्षोल्लास की लहर दौड़ गई। जिस अशोक ने राजदंड के बल पर वैदिक-धर्मियों का धार्मिक कर्मकांड करना बंद कर दिया था, उसी बौद्ध सम्राट अशोक की राजधानी पाटलिपुत्र में वैदिक-धर्माभिमानी सम्राट् पुष्यमित्र का यह अश्वमेध यज्ञ हो रहा था वैदिक-धर्मियों के धर्माचारों के स्वातंत्र्य पर अशोक द्वारा लगाए गए सारे प्रतिबंध अब समाप्त हो गए हैं, वह अश्वमेध यज्ञ मानो सम्राट् पुष्यमित्र द्वारा की जानेवाली इसकी प्रत्यक्ष घोषणा ही था।

२०४. सम्राट् पुष्यमित्र का पुत्र अग्निमित्र जिस प्रकार एक पराक्रमी रणकुशल और कर्तृत्ववान राजपुरुष था, उसी प्रकार उसका पुत्र अर्थात् पुष्यमित्र का पौत्र वसुमित्र भी एक युवा, तेजस्वी और पराक्रमी राजपुत्र था। सम्राट् पुष्यमित्र ने जब अपना अश्वमेध का घोड़ा विजय यात्रा के लिए छोड़ा, तब उसके पीछे-पीछे जाकर उसकी रक्षा करने का कार्य समवेत सेना के इसी युवा सेनानी पौत्र वसुमित्र को सौंपा था। उस विजयाश्व के स्वेच्छया संचारण में सिंधु नदी के तट तक किसी ने भी कोई बाधा नहीं डाली; परंतु सिंधु तट पर किसी यवन नरेश ने उस घोड़े को पकड़कर रोक लिया। अर्थात् उस समय के संकेतों के अनुसार उसने सम्राट् पुष्यमित्र के सार्वभौमत्व को चुनौती दी। तब उस युवा सेनानी वसुमित्र ने अपनी सेना के साथ उस यवन नरेश से युद्ध किया और उसको पूर्णतया पराजित कर विजयाश्व को मुक्त कर वापस लाया। जब एक वर्ष के पश्चात् उस अश्व को लेकर विजयी सेनानी वसुमित्र पाटलिपुत्र लौट आया, तब सर्वत्र कितना आनंदोत्सव हुआ-इसका वृत्तांत स्वयं सम्राट् पुष्यमित्र द्वारा युवराज अग्निमित्र के पास निमंत्रण प्रेषित पत्र में लिखा है। उस पत्र का अधिकांश, उस सम्राट् की ही भाषा में लिखा हुआ मूल लेख सौभाग्य से आज भी उपलब्ध है। वस्तुतःकालिदास के नाटक 'मालविकाग्निमित्रम्' में यह मूल लेख लगभग ज्यों का-त्यों मूल रूप में ही दिया गया है इस नाटक का वह पत्र इतना सुंदर और रोचक है कि संभव हो तो हर व्यक्ति को उसे पढ़ना चाहिए। उस विजयपूर्ण स्वर्णकाल में प्रत्यक्ष समगद पुष्यमित्र के विचारों का और जनसाधरण की भावनाओं का भी वह लेख एक जीवंत चित्रण है।

२०५. राष्ट्रीय विजयोत्सव-भारतवर्ष के महातपस्वी, यति, योगी, वेदविद्यापारंगा क्षत्रियकुलावंतस राजवृंद, साम्राज्य के प्रमुख राज्याधिकारी, नगर श्रेष्ठी और ग्रामप्रमुख उस अश्वमेध यज्ञ के महान् समारोह में उपस्थित हुए थे। उस काल के पंडितों में महापंडित के रूप में विख्यात और आज भी पश्चिम के विद्वानों में जागतिक मान्यता प्राप्त पतंजलि भी उस अश्वमेध यज्ञ में उपस्थित थे। ऐसे महापुरुषों को सहभागिता और आशीर्वाद से उस अश्वमेध बज् के समारोह को म्लेच्छों का मर्दन करनेवाले भारतीय विजयोत्सव की प्रतिष्ठा और शोभा प्राप्त हुई थी।

२०६. एशियायी ग्रीक वंश का संपूर्ण नाश-उपर्युक्त वर्णनानुसार जब से सम्राट् पुष्यमित्र ने साधारणतः ई.स.पू. १९० से १८० की अवधि में ग्रीक आक्रमणकारियों का पराभव कर उन्हें सदैव के लिए सिंधु के उस पार खदेड़कर भारत को स्वतंत्र किया, तब से ग्रीक वंश के हास और विनाश का प्रारंभ हुआ। सिंधु के उस पार गांधार और बाहीक (बैक्ट्रिया) देशों में उनके कुछ छोटे-छोटे क्षीण होते जानेवाले राज्य थे परंतु ईसवी सन् के पहले शतक के प्रारंभ में जब मध्य एशिया की शक जाति का प्रचंड, जुझारू जत्या ईरान, गांधार और बैक्ट्रिया (बाहीक) प्रांतों में आ धमका, तब उन खूखार शकों के खड्गों से बचकर भागना वहाँ की ग्रीक जनता के लिए अत्यंत कठिन हो गया। बेचारे ग्रीक स्त्री-पुरुष अपने बाल-बच्चों के साथ प्राण बचाने के लिए आगे भागते, फिर रुकते, पुनः आगे भागते। इस प्रकार भागते-रुकते अंत में वे सिंधु को पार कर प्राणों की रक्षा के लिए, भारतीय साम्राज्य में आ पहुँचे। उस समय वे केवल शरणार्थी, आश्रयार्थी थे। कहाँ वे ई.स.पू. ३२९ से ३२७ के बीच 'युद्धं देहि' की गर्जना करते हुए भारत पर आक्रमण करनेवाले सिकंदर और सेल्युकस के साथी यवन तथा कहाँ ये भारतीय पराक्रम के आगे शक्तिहीन, नतमस्तक हुए ईसवी सन् के प्रारंभ के भिक्षां देहि' कहकर भारत में घर-घर भीख माँगनेवाले उनके ही वंशज शरणार्थी ग्रीक।

२०७. उनकी वैसी दुरवस्था में भी पुराना शत्रुत्व भूलकर भारत ने उन्हें आश्रय दिया। भारतीयों की उदारता के फलस्वरूप वे ग्रीक लोग. जिसे जहाँ आश्रय मिला, वहाँ जाकर विभिन्न नगरों और प्रांतों में पृथक्-पृथक् होकर बस गए। इनमें से कुछ लोगों ने बौद्ध धर्म स्वीकार किया, तो कुछ ने वैदिक धर्म अपनाया। उस काल में अधिकांश राज्य वैदिक-धर्मीय थे। इसलिए उनका व्यक्तिगत धर्म बौद्ध हो या वैदिक, वे मूलत: ग्रीक समाज के व्यक्ति किसी भी प्रकार से राजनीतिक उपद्रव नहीं कर सके। धीरे धीरे वे अपनी ग्रीक भाषा भी भूल गए। भारतीय भाषाएँ और भारतीय रीति-रिवाज आत्मसात् कर वे इतनी तेजी से भारतीय समाज के साथ एकरूप होते गए कि उनके विवाह आदि संबंध भी भारतीयों के साथ ही होते गए। फलस्वरूप एक दो सदी के अंदर ही उनके भीतर की, हम भारतीयों से अलग अन्य राष्ट्र के हैं, यह प्रेरणा देनेवाली अहंकारी ग्रीकत्व की भावना ही समूल नष्ट हो गई। गंगा के प्रवाह में जिस प्रकार नमक का ढेला घुल जाता है, उसी प्रकार उनका सारा ग्रीकपन ही भारतीय जीवन-प्रवाह में विलीन हो गया।

२०८. यवनों को आत्मसात् किया- तथापि इस विषय में एक महत्त्वपूर्ण विधेय (मुद्दे) पर हमारे लोगों का तथा अधिकतर इतिहासकारों का ध्यान आकर्षित नहीं हुआ है। अत: उस मुद्दे का उल्लेख यहाँ पर करना आवश्यक है। वह मुद्दा या विधेय यह है कि भारत पर आक्रमण करनेवाले विजयार्थी शत्रुओं को, चाहे वे यवन हों अथवा शक-हूण आदि या आगे आए हुए म्लेच्छ हों, उन्हें सैकड़ों वर्षों के संघर्ष के पश्चात् ही क्यों न हो, परंतु भारतीयों ने जीतकर, लीलकर, पचाकर अपनी संस्कृति में, समाज में समाविष्ट कर, आत्मसात् कर नि:शेष कर डाला। ऐसे प्रत्येक प्रसंग में यही सिद्ध हुआ है कि भारतीय पराक्रम ने आक्रमणकारियों की उठी हुई तलवारें तोड़कर उन्हें जब सशस्त्र संग्राम में पूर्णतया पराजित किया, तब ही वे सशस्त्र आक्रमणकारी शत्रु हमारी भारतीय संस्कृति और समाज में आत्मसात् करने योग्य हो सके। केवल शांति पाठ से नहीं, प्रभावकारी प्रबल शस्त्र पाठ से भी।

२०९. राष्ट्रद्रोह के पाप के लिए योग्य दंड-सम्राट् पुष्यमित्र ने वौद्ध भिक्षुओं को भीषण यातनाएँ दीं। उसने कुछ भिक्षुओं की हत्या की, कुछ मठों को ध्वस्त किया, ऐसे कुछ पौराणिक शैली के अतिरंजित उल्लेख पुराने बौद्ध ग्रंथों में प्राप्त होते हैं। यूरोपीय इतिहास लेखकों ने भी उन्हें अतिशयोक्तिपूर्ण बताकर इन उल्लेखों की उपेक्षा की है। तथापि कुछ इतिहासकारों ने ऐसा प्रतिपादन किया है कि इस अतिशयोक्ति के मूल में कुछ तो तथ्य अवश्य होगा; निस्संदेह पुष्यमित्र ने केवल धर्मद्वष से बौद्धों पर अन्यायपूर्ण प्रतिशोध लेने के लिए कुछ अत्याचार किए होंगे। हमारे विचार से सम्राट् पुष्यमित्र ने अनेक बौद्ध-धर्मियों को अवश्य कठोर दंड दिया होगा; परंतु यह दंड केवल सैद्धांतिक और धार्मिक मतभेदों के कारण नहीं दिया था।

२१०. बौद्ध-धर्मीय शून्यवाद अथवा अज्ञेयवाद मानते थे, उनमें से कुछ लोग नास्तिक, अहिंसक या वेदनिंदक थे अथवा उनकी जप-तप की पद्धतियाँ वैदिक-धर्मियों से भिन्न थीं। इन कारणों से कभी बौद्धों पर सामुदायिक धार्मिक अत्याचार नहीं हुआ था। स्वयं गौतम बुद्ध के धर्म-प्रचार में कभी किसी ने बाधा नहीं डाली थी। उसे भी छोड़ दें तो आगे चंद्रगुप्त के अखंड भारतीय साम्राज्य में वैदिक धर्मनिष्ठ आर्य चाणक्य के प्रधानमंत्रित्व काल में भी बौद्ध धर्म के अस्तित्व को तीन सौ वर्ष हो जाने पर भी कभी बौद्ध धर्मियों पर अत्याचार होने की थोड़ी सी भनक भी चंद्रगुप्त की राजसभा में अनेक वर्षों तक रहे प्रख्यात ग्रीक राजदूत और लेखक मेगास्थनीज के कानों में नहीं पड़ी थी, वरना वह अपने इतिहासप्रसिद्ध प्रतिवृत्त में इसके बारे में अवश्य कुछ लिखता। मेगास्थनीज के प्रतिवृत्त में तो बौद्ध धर्म का कहाँ नामोल्लेख भी नहीं है। वस्तुतः उस समय सिकंदर या सेल्युकस जैसे बलशाली ग्रीक सेनापतियों तथा उनकी सेनाओं के साथ तत्कालीन बौद्ध धर्मियों ने राजद्रोहात्मक अथवा राजनीतिक स्वरूप के राष्ट्रघातक संबंध नहीं रखे थे। उनके लिए वह संभव ही नहीं था इसलिए उसी प्रकार के अन्य अनेक पंथों की भाँति बौद्ध-धर्मीय भी चंद्रगुप्त और आर्य चाणक्य के वैदिक-धर्मीय साम्राज्य में पूरी स्वतंत्रता से अपने-अपने धर्मानुसार आचरण करते थे। यही नहीं, उपदेशों द्वारा अपने धर्म का यथासंभव प्रचार-प्रसार भी करते थे।

२११. सिकंदर-सेल्युकस के बाद डेमेट्रियस और मिनांडर के नेतृत्व में जब भारत पर ग्रीकों का पुन: आक्रमण हुआ और वे राष्ट्रशत्रु अयोध्या पहुँचकर वहाँ आसन जमाए मगध के राजसिंहासन पर भारत सम्राट् बनकर आरूढ़ होने की चेष्टा करने लगे, तब भारत के राष्ट्रीय स्वातंत्र्य पर आए घोर राजनीतिक संकट की स्थिति में इन भारतीय बौद्धों ने उन ग्रीक आक्रमणकारियों के प्रति सहानुभूति रखते हुए स्पष्टत: राष्ट्रद्रोह किया। यहीं पर यह भी बताना विषयानुकूल होगा कि जिसे बौद्ध-धर्मीय 'मिलिंद' कहते हैं, उस ग्रीक सेनापति और नरेश मिनांडर ने जब बौद्ध धर्म को स्वीकार किया, तब भारतीय बौद्धों ने उस ग्रीक राजा को ही अपनी राजनिष्ठा बेची। उन्होंने उसे ही उसके द्वारा विजित भारतीय प्रदेशों का राजा माना। उस ग्रीक राजा की राजसभा में ये बौद्ध भिक्षु और विद्वान् ऐसे अभिमान तथा गर्व से विराजमान होते थे, जैसे किसी स्वकीय स्वराष्ट्रीय राजा की राजसभा में विराजमान हों।

भारतीय बौद्धों के इस प्रकार के भयंकर देशद्रोही कृत्य, उनके मठों में रचे जानेवाले स्वराष्ट्रघाती षड्यंत्र और राष्ट्रीय स्वातंत्र्य के विरोध में उनके द्वारा जनता में किया जानेवाला दुष्‍प्रचार उन सबका यशस्वी प्रतिकार करने के लिए ग्रीकों के साथ प्रत्यक्ष संग्राम के इस काल में सम्राट पुष्यमित्र और उसके सेनाधिकारियों के लिए ऐसे राष्ट्रद्रोही कृत्य तथा प्रचार करनेवाले भारतीय बुद्धि को प्राणदंड देना था उनके द्वारा रचित भारत-द्रोही षड्यंत्रों के केंद्र जो बौद्ध मठ थे, उनका ध्वंस करना अत्यावश्यक और अनिवार्य था। भारतीय स्वातंत्र्य और साम्राज्य के संरक्षणार्थ स्वदेशद्वोहियों को और परराष्ट्र से मिले हुए स्वराष्ट्रघाती शक्तियों को दिया गया वह न्यायपूर्ण राजनीतिक दंड था, वह बौद्ध-धर्मियों पर किया गया धार्मिक अत्याचार नहीं था। भारतीय साम्राज्य का प्रमुखतम दंडधारक जो सम्राट् था, वह ऐसे राष्ट्रघातक पापियों को-वे चाहे बौद्ध हों या वैदिक-धर्मी-दंड दे, यह पुष्यमित्र की वैदिक-धर्मीय दंडनीति के अनुसार उसका राज-कर्तव्य था, धर्म-कर्तव्य था।

२१२. धर्मसहिष्णु कौन? - गतानुगतिक इतिहास-लेखकों में अशोक का सम्मान 'परधर्मसहिष्णु' कहकर करने की परिपाटी ही बन गई है; परंतु पुष्यमित्र के धर्म-स्वातंत्र्य प्रस्थापित करने के महत्कार्य का उल्लेख भी किसी देशी या विदेशी इतिहासकार ने नहीं किया। उलटे पुष्यमित्र ने बौद्धों पर धार्मिक अत्याचार किए-ऐसा कहनेवाली बौद्धों की पुराण कथाएँ उद्धृत कर उनके द्वारा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कहने की परंपरा ही इतिहासकारों में चली आ रही है कि पुष्यमित्र पर धर्मसहिष्णु कदापि नहीं था हमें इन दोनों परंपराओं को नष्ट करना चाहिए। यदि कोई धार्मिक असहिष्णुता के लिए अधिक दोषी है तो वह अशोक ही है। कारण, उसने केवल प्रचार से ही नहीं, अपितु राजशक्ति के बल से वैदिक-धर्मियों के, अर्थात् तत्कालीन भारत की बहुसंख्यक जनता के यज्ञयाग, मृगया प्रभृति अनेक मूलगामी धर्माचारों को पूरे भारत वर्ष में दंडनीय घोषित कर प्रतिबंध लगाया था। परंतु अशोक का प्रतिशोध लेने के लिए भी सम्राट् पुष्यमित्र ने ऐसी कोई राजाज्ञा नहीं निकाली कि 'बौद्धों को अपने मठों में वैदिक पद्धति से ही सामुदायिक यज्ञ करने चाहिए।' अथवा 'प्रत्येक गृहस्थाश्रमी बौद्ध को अपने घर में वैश्वदेव यज्ञ करना ही चाहिए।' राष्ट्र-शत्रुओं से किसी भी प्रकार का राजनीतिक संबंध न रखकर अपने धर्मों या पंथों का प्रचार-प्रसार करनेवाले तथा उनके अनुसार आचरण करनेवाले वैदिक धर्म के अतिरिक्त अनेक धर्म और पंथ के लोग उस काल में भी भारत में पूर्ण रूप से धार्मिक स्वतंत्रता तथा सुरक्षा का उपभोग कर रहे थे। सुविधाएँ निरुपद्रवी बौद्धों की भी पूर्ण रूप से मिलती थी। अब यह संभव है कि विकट युद्धकाल में देशद्रोह जैसा घोर अपराध और पाप करनेवाले बौद्धों को पकड़कर कठोर दंड देते समय कुछ निरपराध लोगों को भी दंड दिया गया होगा; परंतु ऐसा नियम नहीं था, अपरिहार्य अपवाद था।

२१३. पुष्यमित्र ने जो महान् सत्कृत्य किया, वह यह था कि उसने भारतीय साम्राज्य में वैदिक-धर्मियों पर अशोक द्वारा लगाए गए राजनीतिक प्रतिबंधों को हटाकर पुन: धार्मिक स्वतंत्रता प्रस्थापित की। यदि कोई धार्मिक दृष्टि से असहिष्णु या पक्षपाती था, तो वह अशोक था, पुष्यमित्र नहीं।

२१४. इस संदर्भ में वैदिकों के बारे में किसी भी प्रकार की विशेष सहानुभूति नहीं होते हुए भी विंसेंट स्मिथ जैसे विदेशी, परंतु निष्पक्ष, संतुलित इतिहासकार ने जो लिखा है, वह पठनीय है।

२१५. भारतीय बौद्धों का अनेक प्रसंगों में भारतीय वैदिकों द्वारा घोर उत्पीडन हुआ, इसका तथा भारतीय जनता में बौद्ध धर्म के प्रति तीव्र तिरस्कार और घृणा उत्पन्न हुई, जिससे अंत में भारत में बौद्ध-धर्म पूर्णतः नष्ट और विलुप्त हुआ। इसका प्रमुख कारण भारतीय बौद्धों द्वारा भारतीय स्वातंत्र्य और साम्राज्य के साथ बार-बार किया हुआ राष्ट्रद्रोही व्यवहार ही था। यद्यपि अन्य इतिहासकारों की तरह स्मिथ जैसे निष्पक्ष विद्वान् का भी ध्यान इस बात की ओर बिलकुल नहीं गया, तथापि मुख्य कारण न समझते हुए भी उसने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ में बौद्धों के अन्य ऐतिहासिक कृत्यों की चर्चा करते समय धार्मिक असहिष्णुता के प्रश्‍न पर बौद्धों को ही दोषी ठहराया है। इस विषय पर उसके मूल लेख के कुछ वाक्य निम्नलिखित हैं-

२१६. "The memorable Horse Sacrifice of Pushyamitra marked the beginning oh Brahmanical (Vaidik?) re-action which was fully developed by centuries later, in the time of Samudragupta and his successors... Its credit may be given to semimythological stories oh Buddhist writers. Pushyamitra was not contented with the peaceful revivals of Hindu rites, but indulged in a savage persecution of Buddhism... It will be rash to reject this tale as wholly baseless, although it may be exaggerated... That such outbursts after all should have occurred is not wonderful if you consider the extreme oppressiveness of the Jain and Buddhist prohibition when ruthlessly enforced as they certainly were by some Rajas and probably by Ashok. The wonder rather is that persecutions were so rare. And that as a rule the various sects managed to live together in harmony and in the enjoyment of fairly impartial official favour." ('Early History oh India', Page 190-91)

२१७. सिकंदर के समय से बार-बार भारत पर आक्रमण कर यहाँ उपद्रव मचानेवाले यवनों की राजसत्ता, शस्त्रशक्ति और अंत में वांशिक अस्तित्व का ही सर्वनाश जिसने अपने प्रतापी खड्ग से कर डाला और इस अर्थ में जिस पर 'यवनांतक' उपाधि पूर्ण रूप से लागू होती है, उस सम्राट् पुष्यमित्र ने स्वयं मुक्त किए हुए भारत के साम्राज्य और स्वतंत्रता के छत्तीस वर्ष उत्तम रीति से संरक्षण, संगोपन और संवर्धन किए। तत्पश्चात् लगभग ई. स.पू. १४९ में उसकी मृत्यु हो गई।

२१८. जिस अर्थ में यवन विजेता सम्राट चंद्रगुप्त की राजमुद्रा से अंकित पृष्ठ हमारे भारतीय इतिहास का प्रथम स्वर्णिम पृष्ठ है, उसी अर्थ में, उन्हीं मापदंडों से 'यवनांतक' सम्राट् पुष्यमित्र की राजमुद्रा से अंकित पृष्ठ हमारे भारतीय इतिहास का 'द्वितीय स्वर्णिम पृष्ठ' है।

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स्‍वर्णिम पृष्‍ठ तृतीय


शक -कुषाणांतक विक्रमादित्य

२१९. ग्रीकों के समूल उच्चाटण या उच्छेद के पश्चात् भारत पर, इतिहास में गणना के लायक कुछ मायनों में सिकंदर आदि यवनाधिपतियों के आक्रमणों से भी भयंकर और व्यापक जो परचक्र आया था, वह शक कुषाणों का था।

२२०. यद्यपि शक और कुषाण- दोनों कुछ अंशों में परस्पर भिन्न जाति के लोग थे और उनकी आपस में घोर शत्रुता थी, तथापि उनमें इतना साम्य भी था कि भारतीयों जैसे भिन्न और अपरिचित राष्ट्र के लोगों को वे लगभग एक जैसे ही लगते थे अतः उनकी जो वन्य, बर्बर टोलियाँ भारत पर एक के बाद एक आक्रमण करने आ धमकी, उन सबको साधारण भारतीय जनता 'शक' नाम से ही जानती थी भारतीय ग्रंथों में कुछ स्थानों पर कुषाणों का उल्लेख 'कुश' नाम से भी किया गया है। अत: हम उन दोनों का उल्लेख 'शक' नाम से ही करेंगे।

२२१. शक जाति के लोग बाह्लीक (बैक्ट्रिया) प्रदेश के उस पार मध्य एशिया में जंगली अवस्था में बड़े-बड़े समूह बनाकर रहते थे, उसके भी आगे का विस्तीर्ण प्रदेश कुषाण नामक वैसी ही वन्य जाति के लोगों से व्याप्त था और उसके भी आगे चीन देश के कुछ भागों को व्याप्त कर 'हूण' नामक समूह बनाकर भटकनेवाले, सदैव आपस में या दूसरों से लड़नेवाले, जंगली, क्रूर, परंतु शूर लाखों लोग रहते थे उन शक, कुषाण और हुण जातियों के लोगों में आपस में बड़ा वैमनस्य और वैर रहता था वे सदैव एक-दूसरे के प्रदेशों पर आक्रमण या युद्ध करते रहते थे।

२२२. ईसवी सन् से सौ-डेढ़ सौ वर्ष पहले इन लोगों के परस्पर वैमनस्य की भयंकर दावाग्नि इसके पूर्व कभी नहीं भड़की होगी, इतनी भयंकरता से प्रज्वलित होकर भड़क उठी थी। इनमें से चीन के प्रदेशों में रहनेवाले अत्यंत कूर, कठोर हुण लोगों ने मध्य एशिया में उनके पास रहनेवाले कुषाण लोगों पर आक्रमण कर उन्हें उनके प्रदेश से पश्चिम की ओर खदेड़ दिया। तब उन कुषाण लोगों ने उनके समीपवर्ती बाह्लीक (वैकिटिया) प्रदेश के उत्तर में रहनेवाले शकों पर लगातार अनेक आक्रमण कर उन्हें नीचे दक्षिण में भगा दिया और उनके प्रदेशों में अपना राज्य स्थापित किया इसलिए शकों ने बाहीक प्रदेश पर आक्रमण किया इस बाह्लीक या बैक्ट्रिया से लेकर पश्चिम में ग्रीक तक सिकंदर के समय से स्थापित छोटे-बड़े ग्रीक राज्य अभी तक जीवित थे। जिनकी स्त्रियाँ भी पुरुषों की भाँति शस्त्र लेकर घोड़े पर सवार होकर रणभूमि में युद्ध करती थीं। ऐसी शूर, परंतु कर, कठोर शक जाति के असंख्य लोगों ने जब इन ग्रीक राज्यों पर लगातार अनेक आक्रमण किए, तब उन ग्रीक राज्यों की घोर दुर्दशा हुई। उन सारे ग्रीक राज्यों को ध्वस्त कर उस पूरे प्रदेश पर शक लोग छा गए, परंतु उनके शत्रु कुषाण लोग सौ वर्षों के भीतर ही वहाँ भी उनका पीछा करते हुए पहूँचे।

उन कुषाण लोगों का भी जीवन शकों के ही समान स्थायी नगर ग्रामों से अधिक युद्ध-शिविरों में और घोड़ों पर सशस्त्र सवार होकर दौड़ते, हुए ही व्यतीत होता था। उन कुषाणों ने शकों पर पुनः आक्रमण कर उन्हें बैक्ट्रिया प्रभृति प्रदेशों से भी भगा दिया और वहाँ भी अपनी राज्यसत्ता स्थापित की तब नीचे खदेड़े गए इन असंख्य शकों को पीछे या तिरछे मुड़कर जाने का मार्ग भी शेष नहीं बचा और वे नीचे दक्षिण में बलूचिस्तान के प्रदेश में घुसे। वहाँ से बोलन दरें के मार्ग से उनके अनेक दल प्रचंड वेग से भारत में घुस आए और टि्डडी दल की भाँति सिंध, काठियावाड (कच्छ) और गुजरात प्रांतों में फैल गए। मार्ग में लूटमार करते स्त्री बच्चों समेत ग्रामों और नगरों का संपूर्ण विध्वंस करते हुए प्रचंड वेग से आगे बढ़नेवाले उन असंख्य घुड़सवारों ने उन सारे भारतीय प्रदेशों को अपनी टापों के तले रौंद डाला। उस काल में उन प्रदेशों में कोई भारतीय राज्य था अथवा नहीं या वे राज्य म्लेच्छों के इन भयंकर आक्रमणों का कोई प्रतिकार कर सके थे अथवा नहीं, इस विषय में इतिहास कोई निश्चित जानकारी नहीं देता। इस पुस्तक के परिच्छेद ७, ८, ९ के अनुसार, निश्चित विषय-सीमा के अंतर्गत न आने के कारण इस विषय की चर्चा यहाँ करने का कोई प्रयोजन नहीं है। यहाँ इतना ही बताना पर्याप्त होगा कि ईसवी सन् के आरंभ में भारत के बलूचिस्तान, सिंध, कच्छ, गुजरात और नीचे अपरांतक (कोंकण) के कुछ भाग में फैलकर उत्तर में उज्जयिनी तक के प्रदेश पर शकों ने अपनी सत्ता प्रस्थापित की थी और उनका पीछा करते हुए प्रचंड वेग से आनेवाले मध्य एशिया के कुषाण और हूण प्रदेशों के दबाव से ये शक लोग भारत का और कितना भाग पदाक्रांत कर उसे सहकुटुंब बनाते हैं, इस चिंता और भय से पूरा भारत संत्रस्त हो गया था।

२२३. स्वतंत्र दक्षिण भारत-ऐतिहासिक काल में दक्षिण भारत न्यूनाधिक एक सहस्र वर्षों तक म्लेच्छों के आक्रमणों से अलिप्त, स्वतंत्र, समर्थ और संपन्न था। हमारे इतिहास के उस प्राचीन कालखंड में परकीय शत्रुओं के अधिकांश आक्रमण वायव्य दिशा से ही होते रहे। अत: उनके विरोध का भार भी मुख्यतः हमारे उत्तर भारतीय राष्ट्र बांधवों को ही वहन करना पड़ा। उन्होंने यह कर्तव्य भलीभांति निभाते हुए राष्ट्र-शत्रुओं के छक्के छुड़ा दिए। इसलिए कोई भी परकीय शत्रु उस कालखंड में विंध्याचल पार कर दक्षिण भारत में आ ही नहीं सका। पुरातन काल के एक अनिश्चित और क्षणभंगुर ईरानी आक्रमण की कथा छोड़ दें, तो साधरणतः ईसवी सन् से पाँच सौ वर्ष पूर्व तक उत्तर से कोई भी म्लेच्छ शत्रु विंध्य पार कर नीचे नहीं आ सका। इसलिए तब तक सारा दक्षिण भारत स्वातंत्र्य और साम्राज्य, सत्ता तथा संपत्ति का उपभोग अखंड रूप से कर सका था। कलिंग से लेकर पांड्य, चेर, चोल प्रभृति हमारे दक्षिण भारतीय प्रांतों के राज शासक दक्षिण भारत के तीनों ओर स्थित पश्चिम समुद्र, दक्षिण समुद्र और पूर्व समुद्र में अपने नौ-दल सदैव शस्त्रसज्ज रखते थे। अत: उन समुद्र-सीमाओं को पार कर भी उस काल में किसी भी परकीय म्लेच्छ शत्रु का नौ-दल भारत पर आक्रमण नहीं कर सका। यही नहीं, अपितु इसके विपरीत हमारी ये भारतीय सामुदायिक राजसत्ताएँ ही अपने प्रबल और विजय प्राप्त करनेवाले नौ-दल लेकर ब्रह्मदेश, स्याम से लेकर फिलिपींस तक सतत अपनी सत्ता, संस्कृति और वाणिज्य का प्रभावी प्रचार करती थीं।

२२४. वायव्य दिशा से आए परचक्रों का प्रतिकार हमारे उत्तर भारतीय वीरवरों ने वहीं-के-वहीं यशस्वी रूप से किया। इसलिए वे परकीय म्लेच्छ शत्रु नर्मदा तक पहुँच ही नहीं पाए। परंतु ये शक शत्रु बलूचिस्तान के बोलन दरें के मार्ग से निरंकुश रूप से आक्रमण कर पश्चिम में सिंध, कच्छ, गुजरात आदि प्रांतों में घुस आए। इसलिए उनके लिए नर्मदा पार करना अपेक्षाकृत सरल सिद्ध हुआ। फलत: दक्षिण भारत पर परचक्र की जो पहली काली छाया पड़ी, वह उन म्लेच्छ शकों की थी, परंतु वह भी कितनी क्षणिक, अल्पकालिक थी। उसका भी कारण था।

२२५. आंधों की हूँकार-सौभाग्य से इसी काल में दक्षिण में कलिंग और आंध दो वैदिक-धर्मीय तथा भारतनिष्ठ प्रबल शक्तियों का उदय हो गया था। शकों जैसा म्लेच्छ राष्ट्र भारत का सिंध से उज्जैन तक का प्रदेश पदाक्रांत कर वहाँ अपनी राजसत्ता स्थापित करे और उनका विरोध करने के लिए उत्तर भारत में कोई भी शक्ति आगे न आए, इस लज्जास्पद और विषादपर्ण स्थिति से सारी भारतनिष्ठ जनता की भांति आंध्र के जन भी संतप्त हो गए। उनमें से शकों की कुछ टोलियाँ नर्मदा पार कर अपरांतक (कोंकण) तक पहुँच गई थीं। इसलिए वहाँ तक फैले हुए आंध्रों के विस्तृत राज्य को भी संकट उत्पन्न हुआ था। इन सब कारणों से आंध्र की राजशक्ति ने शकों की पूर्ण पराजय और विनाश करने के लिए उनपर प्रबल सेना के साथ आक्रमण किया और उन शत्रुओं को भारत की ओर से समरभूमि में पहली बार ललकारकर नर्मदा के उस पार खदेड़ दिया। इसी समय उत्तर में आक्रमण कर उज्जयिनी तक पहुँचनेवाले शक-समूहों का सामना मालव और यौधेय गणों से हुआ।

उन दोनों गणराज्यों ने सिकंदर के आक्रमण के समय भी भारत की स्वतंत्रता की रक्षा करने के लिए कितने दुर्दम्य शौर्य से युद्ध किया था, इसका वर्णन हम पहले ही कर चुके हैं। इस प्रकार नीचे दक्षिण से आंध्रों ने और ऊपर उत्तर से यौधेयों तथा मालवों ने शकों पर प्रबल आक्रमण कर उनकी आक्रामक प्रवृत्ति को ही कुचल डाला। उनकी प्रगति रुक गई तब तक भारत में समस्त शकों की एकत्र, एककेंद्रित, संयुक्त और समर्थ कोई भी राजसत्ता स्थापित नहीं हो सकी थी। भारत के उपर्युक्त प्रांतों में उनके जो अलग-अलग फुटकर, स्वतंत्र राज्य स्थापित हुए थे, वे भारतीयों के इस दोहरे आक्रमणों के बीच फंस गए और उनका यशस्वी रूप से सामना करने में वे विफल रहे।

२२६. मालवों की जय-मालव और यौधेय गणों ने उज्जयिनी के आस-पास फैले हुए शक-राज्यों पर आक्रमण किया था। ई.स.पू. ५७ के आस-पास उत्तमभद्रा' को मालवों ने घेरा था-ऐसा उल्लेख मिलता है। शकों के उस समय के प्रसिद्ध राजा 'नहपान' और उसकी सेना ने युद्ध कर घेरा हटाने के लिए मालवों को विवश किया; परंतु मालवों की सेना ने तत्काल 'नहपान' और उसकी शक सेना को चारों ओर से घेर लिया। अर्थात् तब दोनों सेनाओं में तुमुल युद्ध हुआ। उसमें मालव गणों की सेना ने शौर्य की पराकाष्ठा की और युद्धभूमि में अजेय तथा दुर्दम्य समझी जानेवाली शक सेना का संपूर्ण संहार किया। यही नहीं, उनके रणधुरंधर राजा नहपान का भी वध मालवों ने इस युद्ध में किया।

२२७. मालव संवत्-मालवों द्वारा म्लेच्छ शकों पर प्राप्त की गई इस महाविजय से शकों की युद्ध की शक्ति और धैर्य इतना क्षीण हो गया कि सुसंगठित भारतीय सेना के साथ भिड़कर युद्ध करने का भय उनके मन में समा गया। उस युद्ध की दूसरी उल्लेखनीय विशेषता यह थी कि मावल गणों ने उनके द्वारा म्लेच्छों पर प्राप्त इस भारतीय कीर्ति की महान् विजय की चिरंतन स्मृत्ति को अक्षुण्ण रखने के उद्देश्य से उस विजय के संवत्सर से एक नया संवत् प्रारंभ किया। उसका नाम उन्होंने 'कृत' रखा। तथापि उस निमित्त से उन्होंने संवत् की जो नई मुद्राएँ (सिक्के) प्रचलित कीं, उन मुद्राओं पर ब्राह्मी लिपि में 'मालवजयः', 'मालवानाम् जयः' 'मालवगणस्य' आदि अंकित थे।

२२८. यही आज का विक्रम संवत् है- हमारे देश में अनेक विख्यात सम्राटों ने अपने काल से अपने नामों के संवत् शुरू किए हैं। दिग्विजय करनेवाले राजाओं अथवा गणों को स्वयं को 'शककर्ता' कहलाने की परंपरा से प्राप्त अभिलाषा और अधिकार भी होता था। इसका एक परिचित आज के काल का उदाहरण यह है कि छत्रपति शिवाजी महाराज के भक्तों ने भी उनके नाम से 'शिव-शक' प्रचलित किया था। इन अनेक संवतों में से अधिकांश संवत् उन राजवंशों के अंत के साथ ही लुप्त हो जाते थे। तथापि उन अनेक संवतों में से जिन दो-तीन संवतों को राष्ट्रीय सम्मान प्राप्त हुआ, जिनको हमारे हिंदू जगत् ने अंशत: ही सही, अंगीकार किया, पिछले लगभग दो हजार वर्षों से आज तक हमारे व्यावहारिक ही नहीं, अपितु धार्मिक कृत्यों की भी कालगणना जिन संवतों में होती आ रही है, उन संवतों में इस मालव संवत् की गणना प्रमुखता से करनी चाहिए। कारण, यही मालव संवत् आगे चलकर विक्रम संवत् के नाम से विख्यात हुआ है।

२२९. सुप्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. जायसवाल ने अपने ग्रंथ Hindu Polity में इस मत का समर्थन किया है कि मालव संवत् ही विक्रम संवत् है। तथापि उनके मतानुसार, मालव संवत् को प्रारंभ से ही विक्रम संवत्' (विजय का संवत्) नाम दिया गया था; परंतु इसके आगे हम जिन घटनाओं का वर्णन करने वाले हैं, उनके अनुसार भारत से शक-कुषाणों का संपूर्ण उन्मूलन करनेवाला गुप्तवंशीय सम्राट विक्रमादित्य जब उज्जयिनी का सम्राट् बना, तब उसके उपर्युक्त अखिल भारतीय राष्ट्रीय विक्रम को गौरव प्रदान करने के लिए इस मालय संवत् की ही 'विक्रम संवत्' नाम दिया गया। हमारी राय में यह दूसरा मत अधिक ग्राहा है। यह संवत् अपने विक्रम संवत्' नाम से ही भारतीय राष्ट्र में इतना परिचित और लोकप्रिय होता गया कि पूरे उत्तर भारत के करोड़ों हिंदू आज भी अपने धर्मकृत्यों में उसी विक्रम संवत् का अनुसरण करते हैं।

२३०. विक्रम संवत् के विषय में मतभेद- यहाँ पर यह भी बताना आवश्यक है कि विक्रम संवत् की इस उत्पत्ति के विषय में इतिहासकारों में मतभेद है। युद्ध के जन्म के प्रश्‍न पर भी विभिन्न इतिहासकारों द्वारा मान्य काल और तिथियों में सौ-पचास वर्षों का अंतर पड़ता है। कनिष्क के काल के बारे में भी यही स्थिति है। कुछ इतिहासकार उसके राज्यारोहण का वर्ष ई.स. ७८ मानते हैं, कुछ अन्य इसे ई.स. १२० मानते हैं। इस विक्रम संवत् के विषय में भी कुछ इतिहासकारों द्वारा प्रतिपादित तीसरा मत है कि विक्रम संवत् का कोई संबंध मालवगण संवत् से नहीं है। भारत में प्रविष्ट शकों के एक क्षत्रप राजा ओझोझ प्रथम ने ई.स.पू. ५८ में अपने नाम से एक संवत् शुरू किया। आगे जब गुप्त वंश के सम्राट विक्रमादित्य ने शक-कुषाणों का सफाया कर महान् विजय प्राप्त की, तब से लोग राजा ओझोझ के संवत् को ही 'विक्रम संवत्' कहने लगे एक चौथा मत भी है, उसके अनुसार ई.स.पू. ५८ में विक्रमादित्य नामक एक पराक्रमी सम्राट् वहाँ राज करता या। उसने शकों पर महान् विजय प्राप्त की और उस विजय के स्मरणार्थ अपने नाम से यह विक्रम संवत्' शुरू किया, परंतु मालव गणों के 'मालय संवत्' से या शकराज ओझोझ के संवत् से उसका कुछ भी संबंध नहीं है। परंतु ऐसे किसी विक्रमादित्य का उल्लेख शिलालेखों आदि ऐतिहासिक साधनों में नहीं है अथवा उसके द्वारा 'विक्रम संवत्' के निमित्त से प्रचलित कोई भी मुद्रा आज तक उपलब्ध नहीं हुई है। इसलिए यह आख्यायिका अभी तक पौराणिक ही है, ऐतिहासिक नहीं।

२३१. यदि भविष्य में कोई नई मुद्रा या शिलालेख जैसा साधन उपलब्ध हो जाए और उसके द्वारा विक्रम संवत् की कोई अन्य उपपत्ति अधिक विश्वसनीय सिद्ध हुई, तो हम उसे ग्राहा मानेंगे।

२३२.जो बात विक्रम संवत् की है, वही बात शालिवाहन शक की है। इस विषय में प्रथम मत के समर्थक कहते हैं कि भारत में कुषाणों का पहला राजा 'विभा कैड़फाइसेस' था, जिसे हमारे लोग 'शक' ही कहते हैं। उसने ई. स. ७८ में जब राज्यारोहण किया, तब यह 'शक' संवत् शुरू किया; परंतु द्वितीय मत के समर्थकों के अनुसार ई.स. ७८ में 'विभा कैड्फाइसेस' का नहीं, अपितु उसके बाद के कुषाण राजा कनिष्क का राज्यारोहण हुआ था। सम्राट् कनिष्क ने अपने राज्यारोहण के स्मरणार्थ इस शक कालगणना का प्रारंभ और प्रचलन किया। आगे चलकर जब पैठण के शालिवाहन सम्राट् ने शकों को पदाक्रांत किया, तब उसने अपनी विजय के स्मृतिस्वरूप इसी शक को 'शालिवाहन शक' नाम दिया; परंतु इन दोनों मतों को अग्राह्य माननेवाले इतिहासकारों का तीसरा मत इस प्रकार है कि शालिवाहन शक का कनिष्क जैसे किसी भी कुषाण नरेश से कुछ भी संबंध नहीं है। ई.स. ७८ के आस-पास शालिवाहन नरेशों में से 'गाथा-सप्तशती' लिखनेवाले हाल' नामक राजा ने स्वयं गुजरात (सौराष्ट्र) के शक क्षत्रप पर एक महान् विजय प्राप्त की और इस विजय के स्मरणार्थ उसने इस 'शालिवाहन शक' का प्रारंभ और प्रचलन किया।

२३३. यहाँ इस विषय पर अधिक चर्चा न कर शक संवत् के बारे में ऊपर के संक्षिप्त उल्लेख से संबंधित इस विषय की दो-तीन महत्त्वपूर्ण बातों का उल्लेख करना ही पर्याप्त होगा। वे बातें इस प्रकार हैं-

२३४. इन संवत्सरों के विषय में इतिहासकारों के विभिन्न मतों में से किसी भी मत को ग्राह्य मानें, तब भी यह वादातीत सत्य है कि ये दोनों कालगणनाएँ भारतीयों द्वारा शक और कुषाणों पर रणभूमि में प्राप्त निर्णायक विजयों को ही द्योतक हैं।

२३५. 'शक शब्द से' संवत्' शब्द हमारी भारतीय कालगणना में अधिक स्वीकार्य है। वेदकाल से हमारे यहाँ संवत्सर और 'संवत्' शब्दों की कालगणना में योजना होती रही है। इस अर्थ में 'शक' शब्द प्रयुक्त किया हुआ सहसा दृष्टिगत नहीं होता। अर्थात् वह शब्द उस काल के शक-कुषाणादि आक्रमणकारी म्लेच्छ शत्रुओं के नाम का ही विकृत रूप होना चाहिए। विक्रम संवत्' नाम जिस प्रकार शुद्ध संस्कृतनिष्ठ है, उस प्रकार 'शालिवाहन शक' नाम संस्कृतनिष्ठ नहीं है। इसलिए अब इसके आगे हमें म्लेच्छ शत्रु शकों के नाम का 'शक' शब्द वर्जित कर अपने समस्त धर्मकृत्यादि प्रसंगों में 'संवत्' शब्द का प्रयोग करना चाहिए। उदाहरण के लिए 'शालिवाहन शक' के स्थान पर 'शालिवाहन संवत्'। आज हमारे धर्मकार्यों में रूढ़िगत दोषों के कारण 'शालिवाहन शकों' अथवा केवल 'शक'-इन म्लेच्छ शब्दों का उपयोग अनेक बार होता है; परंतु ऐसा न कर हमें इन म्लेच्छ शब्दों का बहिष्कार करना चाहिए।

२३६. विक्रम संवत् और यान संवत्-दोनों राष्ट्रीय संवतों का संबंध भारतीयों इरा शक और कुषाणों पर प्राप्त विजय के स्मृति-गौरव से है। यह केवल एक चामत्कारिक संयोग नहीं, अपितु अत्यंत अर्थगर्भित बात है। हमारे इतिहास में गुप्त सम्राटों जैसे बड़े-बड़े सम्राटों द्वारा प्रचलित अनेक संवत उनके समय में विख्यात हुए और उनके साथ ही लुप्त भी हो गए। केवल शक और कुषाणों पर भारतीयों द्वारा प्राप्त विजयों के स्मृति चिह्न के रूप में ये दोनों संवत् ही चिरंतनत्व प्राप्त कर स्थायी हो पाए इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि हमारी तत्कालीन भारतीय जनता को शक-कुषाणों के इन निरंकुश, बर्वर, टिड्डी दलों जैसे आक्रमणों से डेढ़-दो सदियों तक कितने घोर उत्पात और उपद्रव सहने पड़े होंगे, अन्यथा इन शत्रुओं के राक्षसी उपद्रवों से और राजनीतिक दासता से भारतीयों को मुक्त करनेवाले हमारे शालिवाहन और गुप्त सम्राटों के शक-कुषाणों पर प्राप्त विजय के स्मृत्यर्थ प्रारंभ किए गए विक्रम तथा शालिवाहन संवतों को, इतर अनेक संवत् लुप्त हो जाने पर भी इतना भारतीय महत्त्व प्राप्त नहीं होता और आज दो हजार वर्ष बीत जाने के बाद भी हम हिंदू इन दोनों संवतों का पालन राष्ट्रीय संवती के रूप में नहीं कर रहे होते!

२३७, धर्म-विजय- जिस प्रकार मालव गणों ने शकों के राजा नहपान का वध कर उनके मालवा पर संभावित निरंकुश आक्रमणों पर पक्का प्रतिबंध लगा दिया था, उसी प्रकार उसी काल में उपर्युक्त वर्णनानुसार हमारी दाक्षिणात्य आंध्र सेना ने दक्षिण भारत से उत्तर की ओर आक्रमण कर गुजरात, सौराष्ट्र और सिंध प्रांतों में स्थित शक राज्यों को रणभूमि में परास्त कर उनकी दुर्दशा कर दी थी शालिवाहन वंश के विलीनयांकुर, गौतमी-पुत्र शातकर्णी, वशिष्ठ-पुत्र मुलमाई आदि के समान पराक्रमी राजाओं ने उज्जयिनी तक फैले हुए शक राज्यों पर जो लगातार आक्रमण किए, उनसे-इस समरांगणीय प्रतिकार से संत्रस्त होकर अंत में उन शक-राज्यों ने शालिवाहन सम्राटों का आधिपत्य स्वीकार कर लिया। एक शिलालेख के अनुसार, शक राजाओं में से एक राजा 'रुद्र' ने अपनी कन्या का विवाह शालिवाहन राजा के साथ किया था। पूर्व में भी ग्रीक राजा सेल्युकस ने अपनी कन्या का विवाह सपाट् चंद्रगुप्त के साथ किया था।

२३८, हमें यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि भारतीयों के साथ रणभूमि में हुए सतत युद्धों के कारण शकों के भारत में आए मूल शूर, युयुत्सु सैनिकों में से हजारों सैनिकों का संहार होता रहा, जिसके कारण शकों का संख्याबल भी क्षीण होता रहा।

२३९. इस प्रकार भारतीय प्रतिकार के सम्मुख जैसे-जैसे शकों की शस्त्रशक्ति क्षीण होती गई, वैसे-वैसे भारतीयों की प्रबल संस्कृति का प्रभाव उनपर अधिकाधिक पड़ता गया। शक शत्रुओं के साथ भारतीयों का जो संघर्ष लगभग सौ वर्षों तक चलता रहा था, उसके परिणामस्वरूप शकों ने भारतीय संस्कृति को मानो शरणागति ही लिख दी थी! शकों में से सामान्य जनों से लेकर राजवंश के लोगों तक सबने अपने मूल शकभाषीय नामों को त्यागकर सत्यसिंह, रुद्रसेन आदि भारतीय नामों को धारण किया। विशेष आश्चर्य इस बात का है कि बहुसंख्यक शकों ने वैदिक धर्म को स्वीकार कर लिया।

वैसे देखा जाए तो शक लोग हिंदुकुश पार कर जब से बलूचिस्तान, सिंध आदि प्रांतों में आकर बस गए, तब से उनका अशोक और मिनांडर के काल से वहाँ पर प्रचार कर रहे बौद्ध भिक्षुओं के केंद्र तथा बौद्ध जनता के साथ सतत संबंध था। फिर उनके साथ घोर युद्ध कर उन्हें पराजित करनेवाले मालव, यौधेय गणराज्यों के तथा सातवाहनों के पराक्रमी सैन्य वैदिक धर्मीय ही थे। बौद्धों ने उनका प्रतिकार सशस्त्र अथवा निःशस्त्र-किसी भी प्रकार से नहीं किया था ऐसी स्थिति में अधिक संभावना यह थी कि शक अपने शत्रुओं के वैदिक धर्म का तिरस्कार करते और अपनी सत्ता चुपचाप मान्य करनेवाले बौद्धों के धर्म को अंगीकार करते; परंतु हुआ इसके ठीक विपरीत। साधारण जनता से लेकर राजवंश के लोगों तक सारे शकों ने स्वेच्छा और अत्यंत रुचि से वैदिक धर्म को ही स्वीकार किया। इस चमत्कार का कारण अधिकतर यही रहा होगा कि शक मूलत: वीर, जुझारू (युयुत्सु) जाति के लोग थे उनके साथ शूरता से युद्ध करनेवाले पराक्रमी वैदिक वीरों के प्रति, वे शत्रु थे तब भी उनके मन में आदरभाव उत्पन्न हुआ होगा और वैदिकों में वह क्षात्र तेज स्फुरित करनेवाला उनका वह वैदिक धर्म ही उन्हें अपने जाति-स्वभावानुसार स्वीकार्य तथा ग्राह्य लगा होगा ।

२४०. संस्कृत भाषा के लिए भी शकों के मन में प्रशंसनीय प्रीति उत्पन्न हुई थी। भारतीय सम्राटों का आधिपत्य स्वीकार करनेवाले जो दो-तीन प्रांतों के शक राज्य बचे थे, उनके शक राजाओं ने संस्कृत भाषा को यथासंभव पूर्ण प्रोत्साहन दिया। एक शक राजा ने तो संस्कृत को अपनी राजभाषा बनाकर सारा राजनीतिक कामकाज और लेखन-व्यवहार संस्कृत में ही करने का आदेश जारी कर दिया। भारत के अन्य छोटे-बड़े राज्यों के साथ उसका पत्राचार संस्कृत भाषा में ही होता था शकों के सारे आचार-विचार सी बड़ी तेजी से भारतीयों के सामाजिक जीवन के साथ एकरूप होते गए।

२४१. कुषाणों पर आक्रमण-भारत जब इस प्रकार सामरिक और सांस्कृतिया क्षेत्रों में शकों पर विजय प्राप्त कर रहा था, तब उसकी हिंदुकुश की सीमा पर कुषाणों के समूह टिड्डी दलों की भांति आ धमके थे। हूण लोगों भे आक्रमण करके उन कुषाणों को स्त्री-बच्चों सहित उनके प्रदेशों से खदेड़ दिया था। अतः मध्य एशिया से निष्कासित लाखों कुषाण स्त्री-पुरुषों की जुझारू टोलियाँ एशिया के दक्षिणी प्रदेशों में लूटमार, आगजनी, रक्तपात करती हुई प्रचंड वेग से घुस पड़ीं। हिंदुकुश के उस पार पूर्व में चीन की सीमा से लेकर पश्चिम में ग्रीस तक के सारे प्रदेशों में ठन कुपाणों ने भयंकर आतंक मचाया। उनमें से कुछ टोलियाँ उनके पुराने शत्रु शकों का पीछा करती हुई उनके बैक्ट्रिया (बाहीक) प्रदेश को जीतकर उनके पीछे हिंदुकुश पार कर भारत की वायव्य दिशा के गांधार आदि प्रांतों में पुस आई। उस काल में वहाँ पर स्थित छोटे-छोटे शकों के राज्यों को देखते ही-देखते ध्वस्त कर वे कुषाण पंजाब में घुस आए और वहाँ पर उन्होंने अपना राज्य स्थापित किया। भारत में उनके इस राज्य के पहले राजा का नाम 'विभा कैडफाइसेस' था।

२४२. शकों के आक्रमणों का लगभग सौ वर्षों तक सफल रूप से प्रतिकार कर युद्ध करते रहने में उत्तर के यौधेय, मालव आदि गणराज्यों की और दक्षिण के शालिवाहनों की शक्ति की परीक्षा हो रही थी। उसी समय शकों से भी क्रूर, शूर और रक्तपिपासु कुषाणों के आक्रमण का संकट भारत पर आया। इसी कारण पंजाब तक उनका प्रतिकार तत्काल कोई नहीं कर सका। तथापि ऐसे संकट काल में भी इन निरंकुश कुषाणों के आक्रमणों पर अंकुश लगाने योग्य प्रतिकार इसके आगे के प्रदेशों के भारतीयों ने किया। इसलिए कुषाणों की ये टोलियाँ पंजाब से आगे के भारतीय प्रांतों में प्रवेश नहीं कर सकीं।

२४३. सम्राट् कनिष्क- 'विभा कैडफाइसेस' की मृत्यु के बाद कुषाणों के राजसिंहासन पर कनिष्क ने ई.स. ७८ में (कुछ इतिहासकारों के अनुसार ई.स. १२० में) आरोहण किया उसकी महत्वाकांक्षा जैसी असीम थी, वैसा ही उसका पराक्रम भी उस काल में अतुलनीय था। उसके विषय में विस्तृत वृत्तांत देने का यहाँ प्रयोजन नहीं है; परंतु इस पुस्तक के विषयक्षेत्र की परिधि में आनेवाली कुछ घटनाओं की चर्चा करना आवश्यक है।

शक-कुषाणों के हिमालय के उस पार और इस पार की समस्त धुमंत, जुझारू, लूटमार करनेवाली टोलियों को और पंजाब तक फैले हुए छोटे-छोटे राज्यों को जीतकर कनिष्क ने एक विशाल साम्राज्य स्थापित किया। वह स्वयं इस साम्राज्य का सम्राट् बना और उसने पुरुषपुर (पेशावर) को अपनी राजधानी बनाया तत्पश्चात् उसने मालवा से सिंध तक फैले आंध्रों से हारकर उनका आधिपत्य स्वीकार करनेवाले शक राज्यों पर आक्रमण किया; परंतु शकों को पदाक्रांत करने के लिए पिछले लगभग एक सौ वर्षों से सतत युद्धरत भारतीयों की युद्धशक्ति पर्याप्त मात्रा में व्यय हो चुकी थी। ऐसे में कुषाणों के आक्रमण का यह नया विकट संकट अकस्मात् आने से उसका मुकाबला करना उनके लिए अत्यंत कठिन हुआ। एक-दो युद्धों में तो शालिवाहनों की सेना की भी घोर पराजय हुई। इसलिए अपने स्वयं के साम्राज्य के संरक्षण के लिए नर्मदा के उत्तर में स्थित सारी सेनाओं को दक्षिण में लाकर सुरक्षा का संपूर्ण प्रबंध करना शालिवाहनों के लिए आवश्यक हो गया।

तब तक कनिष्क ने मालव, गुजरात, सौराष्ट्र और सिंधु के सारे शक राज्यों को जीत लिया था इसलिए वहाँ के शक राज्यों ने अब आंधों या शालिवाहनों का आधिपत्य अस्वीकार कर कनिष्क का आधिपत्य स्वीकार कर लिया। आगे बढ़कर आंध्रों पर आक्रमण करने के लिए कनिष्क की सेना ने नर्मदा पार कर दक्षिण में प्रवेश किया और अपरांतक (उत्तर कोंकण) का एक भाग जीत लिया; परंतु शालिवाहनों की एककेंद्रित सैन्यशक्ति और सामर्थ्य देखकर कनिष्क ने आगे बढ़ने का साहस न कर दक्षिण विजय का अपना अभियान वहीं पर स्थगित कर दिया। उसके बाद हिमालय के उस पार फैले हुए उसके राज्य पर जब चीन के सेनापति ने आक्रमण किया, तब उसका मुकाबला करने के लिए कनिष्क एक विशाल सेना लेकर वहाँ गया। कई युद्धों के बाद उसने चीनी सेनापति को भी पराजित किया और चीनी साम्राज्य के मध्य एशिया में स्थित काशगर, चाशकंद तथा खोतान प्रदेश जीत लिये।

२४४. राष्ट्र के पौरुष की सच्ची कसौटी- किसी राष्ट्र के पौरुष और जीवन की सच्ची कसौटी क्या है? यहाँ इसकी चर्चा करने का मुख्य कारण यह है कि मध्य एशिया में हुए शक-कुषाणों के इस महाप्रलय से केवल भारत को ही आघात नहीं पहूँचा था, अपितु उन लाखों शस्त्रजीवी समूहों के प्रचंड उत्पातों ने चीन जैसे उस काल के बलिष्ठ और संगठित साम्राज्य को भी कुछ समय तक रणभूमि में संत्रस्त किया था; परंतु केवल शक और कुषाणों के आक्रमणों से तथा अन्य प्रसंगों में हुई तत्कालीन पराजयों के कारण 'चीन का राष्ट्र सदैव दुर्बल ही था और सदैव पराधीनता में सड़ते रहने से अधिक उसकी पात्रता ही नहीं थी'-ऐसा विधान करना जिस प्रकार मत्सरपूर्ण मूर्खता का होगा, उसी प्रकार भारत पर आए परचक्रों के कारण भारत का राष्ट्रीय जीवन पराजयों का एक पहाड़ा ही है!' हमारे कुछ शत्रुओं द्वारा किया गया यह विधान भी यही सिद्ध करता है कि उनकी मत्सर से विलुप्त हुई दृष्टि इतिहास का आकलन सम्यक् रूप से नहीं कर सकती।

२४५. किसी राष्ट्र पर कितने परचक्र आए, यह उस राष्ट्र के पौरुष की अंतिम कसौटी नहीं है, अपितु उन परकीय आक्रमणों के आधातों से वह राष्ट्र नष्ट हुआ या उसने राष्ट्रीय संघर्ष के अंतिम रण में उस आक्रमणकारी शत्रु को पदाक्रांत कर पराजित किया-इसी पर उस राष्ट्र के पौरुष की और जीवन पात्रता की सच्ची कसौटी निर्भर करती है।

२४६. इस कसौटी पर भारतीयों और शक तथा कुषाणों के इस संघर्ष में कौन खरा उतरा और किसका नामचिह्न भी शेष नहीं रहा, यह अब हम देखेंगे।

२४७. कनिष्क और बौद्ध धर्म- कनिष्क ने मूल बौद्ध धर्म का नहीं, उसके नए कनिष्कीय संस्करण को स्वीकार किया। चीन तक आक्रमण कर अनेक युद्धों में व्यस्त रहते हुए भी कनिष्क का ध्यान आध्यात्मिक और सांस्कृतिक विषयों की ओर लगा रहता था इसी अवधि में उसने बौद्ध धर्म को स्वीकार करने की घोषणा की थी। उसके अनुसार उसने अपने साम्राज्यों में विभिन्न स्थानों पर अनेक स्तूपों और विहारों का निर्माण कराया अशोक के काल के समान हो कनिष्क के काल में भी बौद्ध धर्म में अनेक पंथ उत्पन्न हुए थे। इन पंथों में जो परस्पर वैमनस्य था, उसे समाप्त कर सारे बौद्ध पंथों के मतों में सहमति और एकसूत्रता लाने के लिए अशोक की तरह कनिष्क ने भी समस्त बौद्ध पंथों की एक महापरिषद् अथवा महासम्मेलन का आयोजन किया था; परंतु उसमें एकमत नहीं हुआ। हाँ, बौद्ध धर्म का अधिकांश कायाकल्प करनेवाले एक नए रूप का या नए 'महायान' का निर्माण हुआ। जो मूल बौद्ध धर्म में नहीं थे, परंतु कनिष्क को प्रिय थे, ऐसे सर्वसंग्राहक मतों को इस नए 'महायान' पंथ में समाविष्ट किया गया इससे असहमत अल्पसंख्य बौद्धों ने रुष्ट होकर 'हीनयान' नामक एक दूसरा पंथ स्थापित किया। कनिष्क ने हिमालय के उस पार फैले हुए अपने विशाल राज्य में भी इस नए महायान पंथ का विपुल प्रचार करवाया। कनिष्क द्वारा आमंत्रित इस महापरिषद् में संस्कृत भाषा को धर्मभाषा के रूप में महत्त्वपूर्ण मान्यता मिली थी। इसलिए इसके पूर्व में पालि-प्राकृत में लिखे गए बौद्ध ग्रंथों का रूपांतर अब संस्कृत में होने लगा था। यही नहीं, 'बुद्धचरित्र' आदि कई संत अनेक विषयों पर लिखे गए। कनिष्क के एशियायी साम्राज्य की शक-कुषाण प्रभृति जनता में भी पुराने और नए संस्कृत साहित्य तथा संस्कृति का प्रचार-प्रसार होने लगा। भारतीय संस्कृति ने शक-जगत् को भारतीय धर्म, भाषा, आचार, विचार इत्यादि उपांगों सहित आत्मसात् किया था; परंतु जेता बनकर आया हुआ यह कुषाण-जगत् भी स्वयं प्रेरणा से, स्वेच्छा से अब भारतीय संस्कृति का अंग बन गया।

२४८. बौद्ध धर्म भी एक भारतीय धर्म ही था। अतः सम्राट् कनिष्क ने जब बौद्ध धर्म को स्वीकार किया, तब भारत को ही यह सांस्कृतिक विजय प्राप्त हुई। यह जो हुआ, वह इष्ट ही था। तथापि ध्यान देने योग्य बात यह है कि कनिष्क ने जिस बौद्ध धर्म को स्वीकार किया था, वह गौतम बुद्ध या अशोक का शुद्ध, मूल बौद्ध धर्म नहीं था, अपितु बौद्ध धर्म का नया परिवर्तित कनिष्कीय संस्करण था उदाहरणार्थ, स्वयं सम्राट् कनिष्क बौद्ध धर्म की दीक्षा लेने के बाद भी रुद्र जैसे वैदिक देवता की उपासना करता था। 'प्राणि-हिंसा मत करो' तथा 'शस्त्र-विजय सच्ची विजय नहीं है, धर्म-विजय ही सच्ची विजय है', इस प्रकार की घोषणाएँ कर शस्त्र संन्यास लेनेवाले सम्राट अशोक की अहिंसा को सम्राट् कनिष्क के बौद्ध धर्म में लेशमात्र भी स्थान प्राप्त नहीं था। एक ओर वह बौद्ध धर्म के नए महायान' पंथ का प्रचार-प्रसार कर रहा था तो दूसरी ओर वही बौद्ध कनिष्क विशाल सेनाएँ लेकर अपने शत्रुओं पर लगातार आक्रमण कर रहा था। स्वयं चीन का सम्राट् बनने की अभिलाषा से वह दस वर्षों तक रणभूमि के शिविर में सशस्त्र रहकर अनेक युद्ध करता रहा। अंत में उसकी इस युद्ध-पिपासा से त्रस्त होकर उसके सैनिकों ने विद्रोह करके अपने इस युद्ध सम्राट् का वध कर दिया। उसकी युद्ध-पिपासा शांत हुई।

२४९. एक और बात विचारणीय है। वह यह कि हिमालय के उस पार चीन के प्रदेश में बौद्ध धर्म का प्रसार करना कनिष्क के लिए कैसे संभव हुआ? प्रथम, उसने शस्त्र-विजय से वे प्रदेश जीत लिये थे। इसीलिए वहाँ इतनी शीघ्रता से धर्म-विजय करना उसके लिए संभव हुआ। उसने वहाँ सैकड़ों प्रचारकों को भेजा, अनेक विहार निर्मित किए और सहस्रों भिक्षुओं का पालन-पोषण किया। यह सब करना, उसके पास प्रबल राज्य अर्थात् शस्त्रबल था, इसीलिए संभव हुआ न!

२५०, सारांश यह कि शस्त्र-विजय श्रेष्ठ अथवा धर्म-विजय श्रेष्ठ' ऐसे एकातिर विधान अयथार्थ होते हैं।

२५१. शस्त्रबल रहित धर्म-विजय पंगु होती है और धर्मबलहीन शस्त्र-विजय पाशवी होती है-यही सच है।

२५२. भारतीय बौद्धों का परंपरागत राष्ट्रद्रोह- सम्राट् कनिष्क का धर्म है। हो या वैदिक, वह अभारतीय कुषाण जाति का एक विदेशी आक्रमण था और उसने भारत के पश्चिमोत्तर प्रदेश को जीतकर वहाँ बलपूर्वक अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया था। उसका यह साम्राज्य भारत पर आप हुआ एक परचक्र ही था। वह भारतीय राज्य नहीं था। इसलिए उसका समूल नाश कर कुषाणों की दासता से उस प्रदेश को मुक्त और स्वांग करवाने के लिए भारत की वैदिक-धर्मीय राष्ट्रभक्त जनता ने जिस प्रकाशकों के साथ प्राणपण से युद्ध किया था, उसी प्रकार अब कनिष्क के साथ भी वह युद्ध कर रही थी; परंतु उस समय भारतीय बौद्ध क्या कर रहे थे? वे उस म्लेच्छ शत्रु कुषाण सम्राट् कनिष्क को, उसके द्वारा बौद्ध धर्म स्वोका करते हो उसको अपना सम्राट मानकर, उसे अपनी सारी राजनिष्ठा बेचकर भारतीय राष्ट्र और उसके स्वातंत्र्य के लिए लड़नेवाली वैदिक-धर्मोप स्वराजनिष्ठ वीर जनता के साथ द्रोह कर रहे थे।

पूर्व में सम्राट् पुष्यमित्र के काल में बौद्ध धर्म को स्वीकार करनेवाले मिनांडर जैसे ग्रीक राजाओं से मिलकर भारतीय बौद्धों ने जिस प्रकार भारतीय स्वातंत्र्य के लिए लड़नेवाले राष्ट्रभक्तों के साथ द्रोह किया था, उसी प्रकार कुषाणों के परचक्र के संकट काल में भी कुषाण सम्राट् को अपनी निष्ठा बेचकर स्वराष्ट्र द्रोह करने में भारतीय बौद्धों को थोड़ी भी हिचक नहीं हुई या लज्जा नहीं आई।

२५३. यदि भारतीय बौद्ध म्लेच्छ शकों को पराजित कर अपना कोई भारतीय राज्य स्थापित करते तो उस राज्य के राजा को भी वैदिक राजाओं की तरह भारत को स्वतंत्र करने का श्रेय मिलता और वैदिक-धर्मीय सम्राट् पुष्पमित्र अथवा शालिवाहन सम्राटों के समान हो हम उस भारतीय बौद्ध राजा का भी सम्मान करते; परंतु भारतीय बौद्धों में वैसा राष्ट्राभिमान और साहस कहाँ था? शक-कुषाणों के साथ तत्कालीन भारतीय राष्ट्राभिमानी यौधेय, शालिवाहन आदि गणराज्य और राज्य लगभग सवा सौ वर्षों तक लगातार अनेक युद्ध करते रहे। उस काल में इन भारतीय बौद्धों ने इन म्लेच्छ शत्रुओं से भारत को स्वतंत्र कराने के लिए कुछ भी नहीं किया। उलटे उनके महाशक्तिशाली सम्राट् कनिष्क ने अंशत: बौद्ध धर्म को स्वीकार कर लिया और यह सारी बौद्ध जनता बड़े प्रेम से उसकी शरण में गई वे उसे देवता मानकर पूजने लगे; उसके स्तुति-स्तोत्र गाने लगे। उसका म्लेच्छ कुषाण राज्य चिरकाल रहे-इसके लिए अपने विहारों में प्रार्थना करने लगे। अर्थात् उनके इस भारत-द्रोह के कारण भारतीय वैदिक-जनता में उनके प्रति घोर तिरस्कार उत्पन्न हुआ, जिसके परिणामस्वरूप भारत में सम्राट् पुष्यमित्र के समय से ही बौद्ध धर्म का जो हास होने लगा था, वह पतन कनिष्क जैसे सम्राट् का प्रबल आश्रय मिलने पर भी होता ही गया तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है।

२५४. कनिष्क के पौत्र ने वैदिक धर्म स्वीकार किया- उपर्युक्त वर्णनानुसार सम्राट् कनिष्क जब चीन देश में युद्धरत था, तब उसके सैनिकों ने विद्रोह कर उसका वध किया। उसके वध के उपरांत तो भारत में बौद्धों की 'इतो भ्रष्टस्ततो भ्रष्टः' जैसी दुर्दशा हो गई कारण, कनिष्क के बाद उसके सिंहासन पर आरूढ़ उसका पुत्र सम्राट् हविष्क बौद्ध धर्म के प्रति अपेक्षाकृत उदासीन था। हविष्क की मृत्यु के बाद उसका पुत्र और कनिष्क का पौत्र जब शक-कुषाण साम्राज्य का अधिपति बना, तब उसने बौद्ध धर्म को त्यागकर बड़े समारोहपूर्वक वैदिक धर्म को स्वीकार किया। उसने अपना मूल नाम बदलकर शुद्ध संस्कृत नाम 'वसुदेव' धारण किया। अपने नाम की शिव और नंदी की प्रतिमाओं से युक्त नई मुद्राओं का प्रचलन किया।

२५५. साम्राज्य के खंड-खंड-सम्राट् कनिष्क की मृत्यु होते ही उसके भारतीय साम्राज्य की धज्जियाँ उड़ गईं। भारत में कनिष्क के राज्य का अधिक विस्तार उत्तर भारत में भी नहीं हो सका था। वह प्रबल तो था ही नहीं। भारत का पंजाब, सौराष्ट्र, मालवा, गुजरात और उत्तर कोंकण का कुछ हिस्सा-इनसे युक्त जो पश्चिमोत्तर प्रदेश पूर्व में शकों के अधीन था और उसके बाद आंध्रों द्वारा जीते जाने के कारण उन शकों को आंध्रों के अधीनस्थ शासित होना पड़ा था, उनको ही कनिष्क ने आक्रमण कर जीत लिया था। अब कनिष्क की मृत्यु के बाद उन शक राजाओं ने कुषाणों का आधिपत्य अस्वीकार कर अपने राज्यों को स्वतंत्र कर लिया। शालिवाहन राजाओं ने शक-कुषाणों के साथ चल रहे इन शतकव्यापी युद्धों में दक्षिण भारत की स्वतंत्रता को अबाधित रखा था। अब उत्तर-पूर्वी भारत के कनिष्क का आधिपत्य नाममात्र के लिए माननेवाले बड़े-छोटे भारतीय राज्यों ने भी उसकी मृत्यु के बाद कुषाणों का आधिपत्य अस्वीकार कर अपने को स्वतंत्र पोधित किया। पूर्व भारत के इन राज्यों में ही पाटलिपुत्र का भी एक छोटा सा राज्य था, जो उस उथल-पुथल में स्वतंत्र हो गया था।

२५६. अस्तंगत सूर्य का पुनः उदय-कोई सोचेगा कि ऊपर की पंक्तियों में पाटलिपुत्र को 'छोटा सा राज्‍य' गलती से कहा गया होगा। वस्तुतः इस कथन में कोई भूल नहीं हुई है कारण, जिस पाटलिपुत्र के सिंहासन पर सम्राट चंद्रगुप्त, अशोक, पुष्यमित्र आदि प्रतापी सम्राट विराजमान हुए थे और जहाँ से कई शतकों तक आसेतु-हिमाचल भारतीय साम्राज्य का नियंत्रण और नेतृत्व किया गया, उस पाटलिपुत्र का सिंहासन सूर्य ईसवी सन् के प्रारंभ में हुए शक-कुषाणों के इस महाप्रलय में देखते-ही-देखते अस्तंगत हो गया था। तत्पश्चात् शक-कुषाणों के साथ सौ-डेढ़ सौ वर्षों तक चले भारतीयों के महान् युद्धों में पाटलिपुत्र या मगध के स्वतंत्र अस्तित्व का भी कहीं भास नहीं होता। कहीं का कोई नामधारी राजा पाटलिपुत्र की चारदीवारी में रहता होगा।

२५७. ई.स. ३०० के आस-पास इसी पाटलिपुत्र के छोटे से राज्य पर बुद्ध के हो समय से विख्यात मगध के लिच्छवि गणराज्य की सत्ता स्थापित हुई थी।

२५८. इस लिच्छवि गणराज्य के प्रमुख की कन्या कुमारदेवी का विवाह ई.स. ३०८ में एक प्रसिद्ध सामंत घराने के युवक चंद्रगुप्त के साथ हुआ। चंद्रगुप्त ने लिच्छवि गणराज्य की सहायता से आस-पास के प्रदेशों पर अपना स्वामित्व स्थापित कर ई.स. ३२० में पाटलिपुत्र में अपने स्वतंत्र राज्य की स्थापना की। इस चंद्रगुप्त का जो नाम सादृश्य प्रख्यात सम्राट् चंद्रगुप्त मौर्य से था, उसके कारण कोई भ्रम नहीं होना चाहिए, क्योंकि सम्राट् चंद्रगुप्त मौर्य कुल का था, जबकि यह होनहार युवक चंद्रगुप्त गुप्त वंश का था; परंतु उसका पराक्रम सम्राट चंद्रगुप्त की कीर्ति और नाम समान ही था। उसने केवल दस-ग्यारह वर्षों के राज्यकाल में ही मगध, प्रयाग और अयोध्या के प्रांतों को अपने छोटे से पाटलिपुत्र के साथ जोड़कर उसका इतना विस्तार किया कि उसके नाम के साथ 'महाराज' अभिधान सार्थक हो! म्लेच्छ शकों की राजसत्ता का उन्मूलन कर भारतीय सम्राट् पद को महत्त्वाकांक्षा रखनेवाले अपने सुयोग्य पुत्र समुद्रगुप्त को अपना विशाल राज्य सौंपकर महाराज चंद्रगुप्त ने ई.स. ३३० अपनी इहलीला समाप्त कर ली। उसके द्वारा प्रचलित गुप्त वंश वैदिक धर्म का अत्यंत अभिमानी था और उनके उपास्य देवता श्री विष्णु थे।

२५९. सम्राट् समुद्रगुप्त-राज्यारोहण करते समय उत्तर भारत और दक्षिण भारत में जो विभिन्न छोटे-बड़े, स्वतंत्र, परंतु फुटकर राज्य थे, उन्हें जीतकर समुद्रगुप्त ने मौर्यकालीन चंद्रगुप्त-चाणक्य की भाँति एक प्रबल भारतीय साम्राज्य की स्थापना करने और उसकी प्रबल शक्ति के आधार से शक कुषाणों के अधीन भारत के पश्चिमोत्तर प्रदेश को मुक्त और स्वतंत्र कराने के लिए उन म्लेच्छों पर आक्रमण करने का संकल्प किया था। उसके अनुसार उसने पहले कामरूप, नेपाल, समतट प्रभृति पूर्वोत्तर सीमा-राज्यों से लेकर विंध्य पर्वत तक का सारा प्रदेश जीत लिया। उसके बाद विंध्य पर्वत को लाँघकर उसने पूर्व दिशा से विशाल सेना के साथ दक्षिण में प्रवेश किया। दक्षिण के प्रमुख बारह राज्यों पर उसने विजय प्राप्त की।

वह अनेक राजाओं को युद्ध में पराजित कर बंदी बनाता था और जब वे उसका आधिपत्य स्वीकार कर लेते थे, तब उन्हें मुक्त कर उनके राज्य लौटा देता था। उसके इस उत्तर-दक्षिण दिग्विजय के, पराक्रम और यश के विषय में अनेक पाश्चात्य इतिहासकारों की लेखनी से भी धन्योद्गार निकले हैं। उन्होंने वहाँ प्रचलित भव्यतम उपमा देकर समुद्रगुप्त को 'The Hindu Napoleon' (हिंदू नेपोलियन) कहकर सम्मानपूर्वक गौरव प्रदान किया है।

इतनी विस्तृत दिग्विजय के बाद समुद्रगुप्त पाटलिपुत्र वापस लौटा। तत्पश्चात् अपने द्वारा विजित नए भारतीय साम्राज्य की घोषणा वैदिक धर्म के अनुसार करने के लिए उसने बड़े समारोहपूर्वक विशाल अश्वमेध यज्ञ किया और वह चक्रवर्ती साम्राट् पद का अधिकारी बना। उसके बाद उसने शक और कुषाणों पर आक्रमण करने की संपूर्ण सिद्धि प्राप्त की।

२६०. कुषाणों की अंतिम शरणागति-समुद्रगुप्त के संभावित आक्रमण का समाचार पाते ही वायव्य दिशा के गांधार आदि भारतीय प्रदेश में कुषाणों के जो छोटे-छोटे राज्य अभी तक जीवित थे, उन्होंने भयभीत होकर सम्राट् समुद्रगुप्त की शरणागति स्वीकार की। कुषाणों को उस समय हमारे भारत में 'कुश' भी कहा जाता था। शरणागति के प्रतीक के रूप में इन कुशों ने अपने दूत भेजकर उनके साथ सम्राट् समुद्रगुप्त के पास कई बहुमूल्य उपहार भेजे। इस प्रकार लगभग डेढ़-दो शतकों के अविरत संघर्ष के बाद भारतीय खड्ग ने भारत में शेष कुषाणों की राजसत्ता का भी मूलोच्छेद कर डाला। इस प्रकार कुषाणों की समस्या का अंत सदा के लिए हो गया।

२६१. परिच्छेद २४३ एवं २४४ के अनुसार, कनिष्क के आक्रमण के बाद मालवा से सिंध तक फैले हुए जिन शक राज्यों ने आंध्रों का आधिपत्य अस्वीकार कर कनिष्क का आधिपत्य स्वीकार किया था और कनिष्क की मृत्य के बाद उसे भी अस्वीकार कर अपने आपको स्वतंत्र कर लिया था, वे शक राज्य स्वयं प्रेरणा से समुद्रगुप्त की शरण में नहीं आए। इसलिए समुद्रगुप्त ने उन म्लेच्छ शक राज्यों पर आक्रमण करने का निश्चय किया।

२६२. सम्राट् समुद्रगुप्त का देहांत- उन म्लेच्छ शकों पर आक्रमण की तैयारी कर रहे सम्राट् समुद्रगुप्त की मृत्यु ई.स. ३७५ में अचानक हो गई। उसने आज्ञा दी थी कि उसके पश्चात् सम्राट् का पद उसके कनिष्ठ, परंतु तेजस्वी और सुयोग्य युवा पुत्र चंद्रगुप्त (द्वितीय) को दिया जाए; परंतु उसकी इस आज्ञा की अवहेलना कर उसका ज्येष्ठ पुत्र रामगुप्त ज्येष्ठत्व का अधिकार बताकर सिंहासन पर बैठ गया। वह इतना दुर्बल और कायर था कि मंत्रिमंडल और सेना के अधिकतर कर्तृत्ववान लोग मन-ही-मन उसका तिरस्कार करने लगे।

उसी समय रामगुप्त की दुर्बलता के प्रति जनता में भी क्षोभ उत्पन्न होने योग्य एक घटना घटित हुई। यद्यपि कुछ इतिहासकार इस घटना को केवल एक आख्यायिका मानते थे, तथापि जब विशाखदत्त, बाणभट्ट आदि प्राचीन ग्रंथकारों ने उसे सत्य माना है और अमोघवर्ष राजा के दानपत्र में भी उसका उल्लेख प्राप्त होता है एवं अर्वाचीन इतिहास में अलाउद्दीन-पद्मिनी प्रकरण में राजपूत वीरों ने भी ऐसे ही प्रसंग का सामना किया है, तब रामगुप्त के विषय में प्रचलित इस आख्यायिका के मूल में जो घटना घटी, वह अधिकांश रूप में सत्य होगी-इतिहासकारों का यह मत ही अधिक ग्राह्य है। वह घटना इस प्रकार हुई थी-

२६३. सम्राट् समुद्रगुप्त की मृत्यु के बाद जब रामगुप्त जैसा दुर्बल पुरुष सम्राट् बना, तब उसके शत्रु शक-राजे निर्भय होकर इस भारतीय सम्राट् के साथ उदंडतापूर्ण व्यवहार करने लगे। इनमें से एक उद्दड और अधम म्लेच्छ राजा ने सम्राट् रामगुप्त का उपहास करने के लिए उसके पास 'आज्ञापत्र भेजा कि 'तुम अपनी सुंदर, तरुण पत्नी गृहदेवी को मेरे पास भेज दो, अन्यथा युद्ध के लिए तैयार हो जाओ!'

यह नीचतापूर्ण, अत्यंत अपमानजनक आज्ञापत्र पढ़कर मगध राज्य का सारा राजनीतिक वातावरण क्षुब्ध हो उठा; परंतु वह तथाकथित सम्राट् रामगुप्त इतना अधिक दुर्बल, कायर और निर्लज्ज था कि उसने केवल युद्ध टालने के लिए अपनी रानी गृहदेवी को उस शक-क्षत्रप के पास भेजने की तैयारी कर ली।

यह देखकर उसका छोटा भाई चंद्रगुप्त (द्वितीय) अत्यंत संतप्त हो गया। उसने रामगुप्त की स्पष्ट अवहेलना कर गृहदेवी को अपने संरक्षण में ले लिया। तत्पश्चात् उसने कूटनीति का अवलंबन कर उस शक-राजा के पास संदेश भेजा कि उसकी आज्ञा के अनुसार रानी गृहदेवी को उसके पास भेजा जा रहा है, परंतु स्त्री-सुलभ लज्जा के कारण वह एक बंद शिविका में आरूढ़ होकर ही आना चाहती है। उसके साथ दासियाँ भी ऐसी ही अवगुंठित बंद शिविकाओं में बैठकर आएँगी।

यह संदेश पाकर वह शक राजा अत्यंत हर्षित हुआ और उसने इस योजना के अनुसार रानी गृहदेवी को तत्काल भेजने का आदेश पुन: भेजा। तव चंद्रगुप्त स्वयं स्त्रीवेश धारण कर रानी गृहदेवी के स्थान पर शिविका में बैठा। अन्य शिविकाओं में चुने हुए वीर सैनिक स्त्रीवेश धारण कर दासियाँ बनकर बैठे। ये सारी बंद शिविकाएँ जब शक राजा की राजधानी में पहुँचीं तब हर्षोन्मत्त शक राजा स्वयं ही रानी गृहदेवी के स्वागत के लिए उसकी शिविका के समीप आया। तब अवसर का लाभ उठाकर रानी का वेश धारण किए हुए चंद्रगुप्त ने असावधान शक राजा पर अचानक आक्रमण कर अपने खड्ग से उसका तत्काल शिरच्छेद कर दिया। अन्य शिविकाओं में बैठे स्त्रीवेशधारी सैनिक भी तत्काल शस्त्र लेकर बाहर कूद पड़े। शक राजा के शिरच्छेद का भीषण समाचार आस-पास के लोगों को ठीक से ज्ञात हो-इसके पहले ही चंद्रगुप्त और उसके सशस्त्र साथी शक-शत्रुओं के घेरे से दूर निकल गए।

२६४. यह अद्भुत, साहसिक कार्य संपन्न कर तथा अपने राष्ट्र और सम्राट् का घोर अपमान करनेवाले शक-राजा को अपने हाथों से मृत्युदंड देकर जब युवराज चंद्रगुप्त पाटलिपुत्र वापस लौटा, तब यह समाचार सुनकर सारी राजधानी और समस्त राष्ट्र हर्षित होकर उसका जयघोष करने लगा। दिवंगत सम्राट् समुद्रगुप्त की आज्ञा का उल्लंघन कर सिंहासनारूढ़ हुए कायर, दुर्बल रामगुप्त को पदच्युत कर चंद्रगुप्त को ही सम्राट् बनाने की माँग करती हुई प्रजा विद्रोह कर उठी। उस प्रक्षोभ में रामगुप्त का वध हुआ और चंद्रगुप्त को सम्राट् पद मिला। जिस रानी गृहदेवी को उसने अपने अद्भुत पराक्रम से म्लेच्छ शत्रु के हाथों अपमानित और कलंकित होने से बचा लिया था और उसके शील, सतीत्व तथा सम्मान की रक्षा की थी, उसी रानी गृहदेवी (ध्रुवस्वामिनी) के साथ उसने (चंद्रगुप्त ने) विवाह किया। तत्पश्चात् अपनी बलशाली एवं शस्त्रसज्ज सेना को लेकर उसने शक राज्यों पर आक्रमण किया।

२६५. शकों के साथ अंतिम युद्ध- गुजरात से मालवा तक फैले हुए शक राज्यों ने कई स्थानों पर घोर युद्ध करके भारतीय सेना का मुकाबला किया, परंत प्रत्येक युद्ध में भारतीय सेना ने अतुल पराक्रम से शक सेना को परास्त और ध्वस्त कर दिया। अंतिम युद्ध में तो शकों के अंतिम क्षत्रप सत्यसिंह के पुत्र क्षत्रप रुद्रसिंह का शिरच्छेद स्वयं सम्राट चंद्रगुप्त ने रणभूमि में किया।

२६६. शकों की राजसत्ता का अंत- इस प्रकार शकों की सत्ता का संपूर्ण विनाश कर सम्राट चंद्रगुप्त ने उनके अधीन सिंध, कच्छ, सौराष्ट्र, गुजरात, मालवा आदि प्रांतों को स्वतंत्र कर उनका समावेश अपने भारतीय साम्राज्य में कर लिया। शक राजाओं का इस प्रकार समूल उच्छेद करने के बाद जब सम्राट चंद्रगुप्त ने उनकी राजधानी (प्राचीन काल की प्रख्यात नगरी) उज्जयिनी में विजय प्रवेश किया, तब वहाँ एक विशाल विजयोत्सव के रूप में राष्ट्रीय महोत्सव मनाया गया, जिसमें सम्राट् चंद्रगुप्त 'वित्र दित्य' उप धारण की। वहाँ पर पूर्वापर प्रचलित ' मालवा संवत्' को ही उसने शकों का संपूर्ण उन्मूलन करनेवाली अपनी इस महान् विजय के स्मरणार्थ अपना नाम देकर विक्रम संवत्' प्रारंभ किया। यह हमने परिच्छेद २२८ और २२९ में बताया ही है। उसने उज्जयिनी को ही अपने भारतीय साम्राज्य के पश्चिम भाग की राजधानी बनाया और वहीं सिंहासनारूढ़ होकर रहने लगा।

२६७. विक्रमादित्य ने म्लेच्छों पर जो महान् विजय प्राप्त की, उसके कारण पूरे भारतवर्ष ने वर्णनातीत गौरव और धन्यता का अनुभव किया। संपूर्ण भारत स्वतंत्र होकर अपने एकच्छत्र साम्राज्य के रूप में 'एकराष्ट्र' हुआ। शक- कुषाणों के नाश के लिए विगत डेढ़-दो सौ वर्षों से संघर्ष कर रहे यौधेय, मालव, विलीनयांकुर, शालिवाहन आदि वीर श्रेष्ठों को और उसके स्वयं के पिता तथा पितामह के पराक्रम को, यश-अपयश को एवं राष्ट्रीय आशा आकांक्षाओं को इस प्रकार अंत में पूर्ण सार्थक हुआ देखकर स्वयं विक्रमादित्य को भी बड़ी कृतकृत्यता एवं धन्यता का अनुभव हुआ।

२६८. अंग्रेजी इतिहासकार विंसेंट स्मिथ भी इस विषय में कुछ अनिच्छा से ही सही, निम्नलिखित प्रशस्ति-वाक्य लिखता है- "We may feel assured that differences of a race, creed and manner supplied the Gupta monarch with special reasons for desiring to suppressthe impure foreign (म्‍लेच्‍छ) rulers of the Western India. Chandragupta Vikramaditya although tolerant of Buddhism and Jainism was himself an orthodox Hindu, especially devoted to the cult of Vishnu, and as such could not but have experienced peculiar satisfaction in 'Violently uprooting foreign chieftains."

२६९. शक भी नामशेष हो गए- पूर्व में परिच्छेद २३९, २४० और २४१ में हम बता चुके हैं कि शकों ने वैदिक धर्म, संस्कृत भाषा और भारतीय आचार विचारों को आत्मसात् कर लिया था। विक्रमादित्य ने जब उनकी राजसत्ता का भी संपूर्ण उन्मूलन अपने शस्त्रबल से कर लिया, तब उनका भारतीयों से भिन्न स्वतंत्र अस्तित्व 'शकत्व' ही समूल नष्ट हो गया। दो-तीन पीढ़ियों के अंदर ही कुषाणों की भाँति शक भी भारतीय जगत् में नामशेष हो गए।

२७०. भारत के इस ऐतिहासिक काल में अनेक सम्राट् हुए, परंतु शक-कुषाणों का अंत करनेवाले सम्राट विक्रमादित्य के समान लोकप्रिय सम्राट् शायद ही कोई हुआ होगा। उसके राज्यकाल में फाहियान नामक जो चीनी प्रवासी भारत में आया था, उसने भी इसका सुंदर वर्णन किया है कि विक्रमादित्य के साम्राज्य में भारत किस प्रकार सुख, संतोष, संपन्नता और वैभव के परम उत्कर्ष पर पहूँचा था। आज भी भारत के सब प्रांतों में छोटे-छोटे ग्रामों में भी लोकगीतों, लोककथाओं और आख्यायिकाओं में 'राजा विक्रम' का नाम तथा उसकी न्यायशीलता का गुणगान बड़े प्रेम से किया जाता है। लगभग पैंतीस वर्षों तक अपने उस शक्तिशाली, एकच्छत्र भारतीय साम्राज्य का संरक्षण, संगोपन और संवर्धन करने के बाद ई.स. ४१४ में सम्राट् विक्रमादित्य की मृत्यु हो गई।

२७१. भारतीय इतिहास का जो पृष्ठ इस शक-कुषाणांतक सम्राट् विक्रमादित्य की राजमुद्रा पर अंकित है, वही हमारे भारतीय इतिहास का 'तृतीय स्वर्णिम पृष्ठ' है।

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स्‍वर्णिम पृष्‍ठ : चतुर्थ
हूणांतक यशोधर्मा

२७२. हूणों का जगत् पर आक्रमण (हूणों का विश्व विप्लव)- इस पुस्तक में इसके पूर्व भी हूणों का उल्लेख आया है। इन्हीं हूणों ने समस्त शक और कुषाणों को उनके मूल प्रदेशों से खदेड़कर भगा दिया था और उन सारे प्रदेशों को आच्छादित कर डाला था। अब शक-कुषाणों से भी महाभयंकर इन हूणों के महाप्रलय ने एशिया ही नहीं, अपितु यूरोप को भी हिला दिया था तत्कालीन ज्ञात विश्व के चीन से लेकर रोम तक के समस्त स्थायी संगठित और सुसंस्कृत राज्य तथा राष्ट्र हूणों के विप्लव एवं आतंक से काँप उठे। उनका संख्याबल असीम था। उनके विप्लवकारी, विध्वंसक आक्रमण एक या दो प्रदेशों में ही नहीं, अपितु उस काल के समस्त ज्ञात विश्व में हुए थे।

२७३. हूणों की हजारों शस्त्रधारी स्त्री-पुरुषों से युक्त सेनाएँ अश्वारूढ़ होकर भाले तथा तलवारें चमकाती हुई जब अभियान पर निकलतीं, तो सामने आनेवाले सबका (स्त्री-बच्चों का भी) शिरच्छेद करती हुई, मार्ग के सारे ग्रामों और नगरों को आग लगाकर भस्म करती हुई, दिन में ही नहीं अपितु रात्रि में भी हिंस्र श्वापदों के समान भयंकर, कर्कश और उच्च स्वर में चीखती-चिल्लाती हुई, उनके आतंक से काँप उठे शत्रु प्रदेश में सतत दौड़ती दृष्टिगत होती थीं। जहाँ भी युद्ध होता, वहाँ युद्ध समाप्त होते ही काटे हुए शत्रुओं के सिरों की खोपड़ियों को निकालकर, उनकी कटोरियाँ बनाकर उन कटोरियों से मद्यपान करते हुए वे हूण विजयोत्सव मनाते।

२७४. हूणों का मूल प्रदेश चीनी साम्राज्य की सीमा से लगा हुआ था। अत: उनके भयंकर उपद्रवों से चीन के कई प्रांत उजड़कर वीरान हो गए। टिड्डी दलों की भाँति छा जानेवाले इन हूणों के महाविप्‍लव से अनेक वर्षो तक त्रस्त होने पर उसका स्थायी निवारण करने हेतु चीन के सम्राट् ने पूरे चीन देश को घेरनेवाली प्रचंड दीवार बनाने का निश्चय किया। उसी का मूर्त रूप आज भी सुप्रसिद्ध चीन की दीवार' है! जगत् के महान् आश्चर्यों में गिनी जानेवाली वह चीन की दीवार' हों के आतंक और भय का मूर्त प्रतीक हो है।

२७५. हणों के जो अश्वदल मध्य एशिया को पदाक्रांत करते जा रहे थे, उन्हें उनके 'आर्टिल' नामक एक सेनापति ने संगठित कर एशिया पार कर यूरोप पर आक्रमण किया। उन अगणित अश्वारोहियों की भिन्न-भिन्न सेनाओं को जहाँ कहीं से मार्ग मिला, वहाँ से घुसकर प्रथमत: एशिया में महाप्रलय कर डाला। घर एवं मंदिर, कुटीर एवं राजप्रासाद, विद्यापीठ एवं कलापीठ, ग्राम एवं नगर-जो भी कुछ मार्ग में दिखाई देता, उसे जलाकर भस्म कर डालते। उनके सामने आए हर व्यक्ति का शिरच्छेद कर डालते! एशिया को रौंदकर वे पोलैंड में मुसे। उसके बाद वे 'गांथ' लोगों पर टूट पड़े। उन्होंने रोमन साम्राज्य की कई सेनाओं का लगातार विध्वंस और विनाश किया।

इन क्रूर, बर्बर हों को विजय से विध्वंस ही अधिक प्रिय था। इसलिए उनके इन प्रचंड विध्वंसकारी आक्रमणों से समस्त यूरोप केवल पराभूत ही नहीं हुआ, अपितु रक्तस्रावित होकर ध्वस्त, वीरान हो गया। गिबन ने अपने सुप्रसिद्ध इतिहास ग्रंथ 'Decline and fall of the Roman Empire' में हूणों के द्वारा की गई यूरोप की भीषण दुर्दशा का विस्तृत वर्णन किया है। हमारे यहाँ जिस प्रकार 'पिशाच' एक बड़ी गाली मानी जाती है, उसी प्रकार यूरोपीय भाषाओं में आज भी 'A Hun' (हूण) किसी अति दुष्ट व्यक्ति के लिए प्रयुक्त बड़ी गाली मानी जाती है यूरोप पर हूणों का ऐसा घोर आतंक छाया था!

२७६. मध्य एशिया से जिस प्रकार हूणों की कुछ अश्वारोही सेनाएँ महाप्रलय मचाती यूरोप में घुसी थीं उसी प्रकार अन्य कुछ अश्वारोही दल थोड़े समय तक हिमालय के आस-पास के प्रदेशों में आतंक फैलाते रहे। हिमालय के उस पार के शक कुषाणों के शेष राज्यों और प्रजा का संपूर्ण सत्यानाश कर अंत में वे भारत को वायव्य सीमा के गांधार आदि प्रदेशों में आ धमके। उन्होंने चीन, एशिया और रोम के साम्राज्यों तथा राज्यों की जैसी दुर्दशा की, वैसे ही भारत को भी पूरा पदाक्रांत कर उसकी दुर्दशा करने हेतु अधीर ईर्ष्यायुक्त आवेश से इन हूणों के अश्वदल टिड्डी दल की भाँति गांधार प्रदेश को रौंदकर सिंधु के समीप आ धमके।

२७७. भारत के सौभाग्य से उस समय वहाँ पर ग्रीकों के आक्रमण के समय जैसा किसी कायर नामधारी सम्राट् धनानंद का साम्राज्य नहीं था अपितु अब वहाँ शक-कुषाणांतक सम्राट विक्रमादित्य के पुत्र, क्षत्रिय कुलावंतस सम्राट कुमारगुप्त का साम्राज्य था। भारत में उस समय शतकव्यापी गुप्तकालीन स्वर्णयुग चल रहा था। मौर्यकालीन स्वर्णयुग के अंत में सम्राट अशोक ने अहिंसा के प्रभाव से शस्त्र-संन्यास लिया था, इसलिए भारत की सैन्यशक्ति अस्त-व्यस्त और दुर्बल हो गई थी; परंतु वैदिक-धर्मीय सम्राट् कुमारगुप्त ने इस प्रकार का आत्मघाती शस्त्र-संन्यास नहीं लिया था । इसलिए उसके साम्राज्य की सैन्यशक्ति दुर्बल और अस्त-व्यस्त नहीं, अपितु अत्यंत प्रबल और सुसंगठित थी। पूरे विश्व में प्रलयंकारी उत्पात करनेवाले हूणों जैसे महाभयंकर शत्रुओं का आक्रमण निकट भविष्य में भारत पर भी अवश्य होगा-इसके स्पष्ट चिह्न देखकर सम्राट् कुमारगुप्त ने अपने भारतीय साम्राज्य की सीमाओं के संरक्षण के लिए समर्थ, सुसंगठित एवं प्राणपण से लड़नेवाली सेना तैयार कर रखी थी।

२७८. हूणों का संपूर्ण पराभव- हूणों का परचक्र गांधार प्रदेश पर आया है यह समाचार सुनते ही सम्राट् कुमारगुप्त ने अपनी चतुरंग दल सेना को अपने पराक्रमी पुत्र स्कदंगुप्त के नेतृत्व में हूणों पर प्रत्याक्रमण करने के लिए भेज दिया। अगणित संख्याबल के आधार पर हूणों का एक विशिष्ट युद्धतंत्र बना था, जो उस समय तक अजेय सिद्ध हुआ था। उसी का प्रयोग कर वे भारतीय सेना के साथ युद्ध करने लगे भारतीय सैनिक जैसे-तैसे हजारों अश्वारोहियों की एक हूण सेना का संहार करते तब तक हजारों अश्वारोहियों की अनेक नई टुकड़ियाँ चारों ओर से, बिल से निकली चींटियों की भांति, पंक्तियों में आने लगती। उनका नाश होते-न-होते और नई हूण टोलियाँ आक्रमण करती हुई पूरे प्रदेश को पदाक्रांत करती; परंतु ऐसे दुर्दम्य, निरंकुश, प्रबल म्लेच्छ शत्रुओं से कुमार स्कंदगुप्त की सेना ने अनेक वर्षों तक उनका संहार करते हुए इतना सतत और निरंतर युद्ध किया कि अंत में हूणों का वह अमित संख्याबल भी क्षीण हो गया और उनमें गुप्त साम्राज्य की सीमा में एक पग भी आगे रखने या बढ़ने का साहस नहीं रहा। जो थोड़ी सी शेष सेना लड़ रही थी, वह भी स्कंदगुप्त के आक्रमण, युद्ध-कौशल से शीघ्र ही पराजित होकर पीछे भागी और जिस मार्ग से आई थी. उसी मार्ग से जैसे तैसे अपने प्राण बचाती हुई भारतीय सीमा के बाहर चली गई इस प्रचंड पराजय से हूणों के मन में ऐसा आतंक छा गया कि अगले चालीस वर्षों तक उन्हें पुनः भारत की ओर आने का साहस नहीं हुआ।

२७९. विजयी वीर स्कंदगुप्त- इस प्रकार अनेक वर्षों तक विश्व के महान् साम्राज्यों को भी ध्वस्त करनेवाले हूणों जैसे भयंकर म्लेच्छ शत्रुओं से रणभूमि में सतत युद्ध कर उनका निर्णायक पराभव कर वह विजयी युवराज स्कंदगुप्त जब अपने पिता के पास पाटलिपुत्र वापस लौट आया, तय राजधानी में उसका अपूर्व सम्मान किया गया। उसके वृद्ध पिता सम्राट कुमारगुप्त को तो अपार हर्ष हुआ। उसने इस असाधारण विजय की राष्ट्रीय घोषणा करने हेतु वैदिक परंपरा के अनुसार एक विशाल अश्वमेध यज्ञ का आयोजन किया।

२८०. स्कंदगुप्त सम्राट्-पद पर आसीन-कुछ वर्षों के पश्चात् ई.स. ४५५ में वृद्ध सम्राट् कुमारगुप्त का देहावसान हुआ उसके बाद उसका प्रतापी पत्र स्कंदगुप्त सम्राट् पद पर आसीन हुआ। मुख्यतः स्थानाभाव और दूसरे उसके जीवन और महान् कर्तृत्व के बारे में अन्य उल्लेखनीय घटनाओं का वृत्तांत यहाँ पर कुछ अप्रासंगिक होने के कारण हम छोड़ रहे हैं।

२८१. इस बीच यूरोप पर आक्रमण करनेवाले हूणों के कर्तृत्ववान, पराक्रमी सेनापति नार्टिल के समान पराक्रमी खिंखिल नामक नेता ने एशिया की समस्त हुई सेनाओं को एकत्र कर एक संगठित केंद्रराज्य स्थापित करके स्वयं उसका राजा बना। भारत में हुए हूणों के घोर पराभव का प्रतिशोध लेने और समस्त भारत को जीतने के उद्देश्य से उसने अपनी इस संगठित विशाल हुण सेना को लेकर पुनः भारत पर आक्रमण किया। यह घटना सम्राट् स्कंदगुप्त के राज्यकाल के उत्तरार्ध में हुई थी।

२८२. भारत पर हूणों का दूसरा प्रबल आक्रमण- हूणों ने इस द्वितीय भारत-विजय अभियान में भारतीय साम्राज्य की वायव्य सीमा का संरक्षण करनेवाली भारतीय सेना को पहले ही आक्रमण में एक-दो स्थानों पर पराजित किया और पीछे हटाया। यह समाचार मिलते ही वृद्ध सम्राट् स्कंदगुप्त राजधानी से पंचनद तक स्वयं सेना लेकर हों का प्रतिकार करने के लिए आया। जब वह हूणों द्वारा पराजित अपनी साम्राज्यीय सेना का पुनर्संगठन कर हूणों पर पुन: आक्रमण करने की तैयारी करने में व्यस्त था तब इधर पाटलिपुत्र में उसका सौतेला भाई पुरगुप्त राजसिंहासन छीनने के लिए षड्यंत्र रच रहा था। यह ज्ञात होने पर भी अपने व्यक्तिगत स्वार्थ को त्यागकर वह प्रखर राष्ट्रप्रेमी सेनापति सम्राट् स्कंदगुप्त वहीं पर म्लेच्छों से युद्ध करता रहा। गृहकलह के कारण यदि वह अपनी साम्राज्यीय सेना को वहीं छोड़कर राजधानी वापस आ जाता तो उसकी सेना का धैर्य शीघ्र ही नष्ट हो जाता और हूणों की क्रूर सेनाएँ बाँध फूटने पर तेजी से फैलनेवाले बाढ़ के पानी की भाँति पूरे पंजाब में और अधिकांश उत्तर भारत में फैलकर उसका विध्वंस कर डालती। इस आशंका से वह वृद्ध सम्राट् वहीं रणशिविर में रहकर शत्रु से जूझता रहा।

२८३. इस प्रकार उस वृद्ध, वीरवंतस सम्राट् स्कंदगुप्त ने अपने राष्ट्र के संरक्षणार्थ युद्ध करते हुए रणशिविर में ही ई.स. ४७१ में प्राण त्याग दिए। सम्राट् हो तो ऐसा।

२८४. सम्राट् को खड़े-खड़े ही मरना चाहिए- रोमन साम्राज्य के उत्कर्ष के काल में हुए एक सुप्रसिद्ध रोमन सम्राट् के विषय में एक कथा इस प्रकार प्रचलित है कि वह अपने राजप्रासाद में मृत्युशय्या पर पड़ा था। अकस्मात् हाथ में खड्ग लेकर वह खड़ा हो गया। यह देखते ही उसके राजवैद्य और परिचारक इस आशंका से कि उसे सन्निपात हुआ है, घबरा गए और 'हाँ- हाँ, महाराज, आप यह क्या कर रहे हैं?' कहते हुए उसे पुनः शय्या पर सुलाने लगे। तब अंतिम श्वास छोड़ने से पहले उस सम्राट ने उनसे कहा- "दूर हो जाओ, रोम के सम्राट् को शय्या पर लेटे-लेटे नहीं मरना चाहिए। रोम के सम्राट को अपने पाँवों पर सीधे खड़े होकर, रणसज्ज मुद्रा में खड़े खड़े ही मरना चाहिए।" (Roman Emperor must die standing.)

२८५. ऐसी ही तेजस्विता से म्लेच्छ शत्रुओं के साथ युद्ध करते हुए भारत का यह महान् सम्राट् एक साधारण सैनिक की भाँति रणशिविर में दिवंगत हो गया पूर्व में अपने यौवनकाल में उसने इन्हीं दुर्दम्य टिड्डी दल जैसे हूणों को सीमा पार खदेड़ दिया था। अब वह वृद्धावस्था में भी उन्हीं अत्यंत प्रबल राष्ट्र शत्रुओं के साथ समरभूमि में युद्ध करता रहा। उपलब्ध सारे राजविलास का त्याग कर उस महान् योद्धा सेनापति ने अपने जीवन के न्यूनत: पंद्रह-बीस वर्ष भारतीय साम्राज्य और स्वातंत्र्य के रक्षणार्थ रणशिविर में अत्यंत कठिन, कष्टप्रद अवस्था में व्यतीत किए। उस काल में उसे अत्यधिक कष्ट सहने पड़े थे, परंतु वे सारे कष्ट सहकर उस विस्तृत भारतीय साम्राज्य की रक्षा करते हुए उसने अंत में देह त्याग किया, वह भी अपने राष्ट्र के संरक्षणार्थ, राष्ट्रशत्रुओं से किसी सैनिक की भाँति युद्ध करते हुए, सुदूर पंचनद प्रांत के एक रणशिविर में! राजधानी के राजप्रासाद में नहीं! सम्राट् हो तो ऐसा!

२८६. जिन पचास वर्षों में हूणों ने एक ओर चीन के प्रदेशों को ध्वस्त और दूसरी ओर एशिया तथा रोमन साम्राज्य तक के प्रदेश को पदाक्रांत कर डाला, उन्हीं पचास वर्षों में इस प्रबल शत्रु के समीपवर्ती भारत पर बारंबार आक्रमण करने पर भी सिंधु नदी तक के एक कोने के अतिरिक्त कहीं भी स्थिरता से उसके लिए पाँव जमाना संभव नहीं हो सका, तो वह केवल सम्राट् स्कंदगुप्त और उसकी भारतीय सैन्यशक्ति के प्रताप से ही था, अन्यथा हणों के विजयोन्माद में सारे एशिया और यूरोप की जो भीषण दुर्दशा की थी, वैसी ही घोर दुर्दशा वे सारे भारत की भी कर देते। हूणों का पूरी तरह सफाया होने से पहले ही सम्राट् स्कंदगुप्त की मृत्यु हो गई। परंतु उसके प्रताप से हो पूर्व का रणोन्माद नष्ट हो जाने से क्षीणबल बने हूणों का सफाया कर सकनेवाली अधिक शक्तिशाली वीरों की पीढ़ी भारत में शीघ्र ही रणभूमि में अवतरित होने की संभावना उत्पन्न हुई।

२८७. इसलिए विक्रमादित्य जैसे किसी भी दिग्विजयी सम्राट् को जितनी श्रद्धांजलि अर्पण करेंगे, उतने ही गौरव, अभिमान और राष्ट्रीय कृतज्ञता से हम सम्राट् स्कंदगुप्त की स्मृति-समाधि को श्रद्धांजलि अर्पण करेंगे।

२८८. सम्राट् स्कंदगुप्त की मृत्यु के बाद- सम्राट् स्कंदगुप्त की मृत्यु के बाद उसके जीवनकाल में ही उसके विरुद्ध विद्रोह करनेवाला उसका सौतेला भाई पुरगुप्त मगध के सिंहासन पर सम्राट् बन बैठा, परंतु उसमें थोड़ा सा भी कर्तृत्व और पराक्रम नहीं था। स्कंदगुप्त की मृत्यु होते ही उसके नाम और पराक्रम के भय से वायव्य सीमा पर ही रुके हुए हूणों के टिड्डी दल उनके राजा खिंखिल के नेतृत्व में भारतीय प्रदेश में आ घुसे। खिंखिल की मृत्यु के बाद तोरमाण नामक एक पराक्रमी पुरुष हूणों का राजा बना। उसके राज्यकाल में हों की विध्वंसक और अत्याचारी प्रवृत्तियों को पूर्ण प्रोत्साहन मिला और उन्होंने लूटमार तथा आगजनी से कांबोज, गांधार और पंजाब प्रांत में महाविनाश किया। उन्होंने तक्षशिला के जगप्रसिद्ध विद्यापीठ का भी विध्वंस किया। हूणों ने वहाँ के सहस्राधिक मूल्यवान् ग्रंथों की होली जलाई।

२८९. किसी राष्ट्र के पास यदि शस्त्रबल का आधार न हो तो उसके साहित्य और संस्कृति का भी परशत्रु कैसा सर्वनाश करते हैं- इसका एक और प्रत्यक्ष उदाहरण देखिए।

२९०. (इस बीच) मध्यांतर में उधर ईरान पर टूट पड़ी हुण सेना ने संपूर्ण ईरान देश पदाक्रांत कर ई.स. ४८४ में ईरान के राजा फीरोज को पकड़कर मार डाला। इस प्रकार ईरान की समस्या सुलझने से वहाँ युद्ध कर रहे हजारों हूण सैनिक खाली हो गए और अब तक उनके लिए अजेय बने भारत की भी वैसी ही दुर्दशा करने के लिए भारत में प्रवेश कर तोरमाण की सेना में सम्मिलित हुए। इस प्रकार तोरमाण का सैन्यबल जब अकस्मात् बढ़ा, तब उसने ई.स. ५११ के आस-पास पंजाब से आगे बढ़कर उज्जयिनी के समवेत पूरे मालवा प्रांत को जीत लिया। तोरमाण की मृत्यु के बाद उसका पुत्र मिहिरगुल हणों का राजा बना। पराक्रम और क्रूरता-दोनों में वह अपने बाप से बढ़कर था।

२९१. मिहिरगुल रुद्र देवता का उपासक बना- आश्चर्य की बात यह है कि भारत के वायव्य प्रदेश में प्रवेश करने के पश्चात् हूणों में वैदिक-धर्मीय देवता रुद्र (शिव) की उपासना का प्रसार बड़े वेग से हुआ था बौद्ध धर्म के प्रति हूणों के मन में पहले से ही तिरस्कार का भाव था। उनका नया राजा मिहिरगुल भी इसका अपवाद नहीं था। वह वैदिक रुद्रदेवता का एकनिष्ठ भक्त था और बौद्ध धर्म तथा बौद्धों का कट्टर द्वेष्टा था । उसके बारे में विंसेंट स्मिथ ने लिखा है- "The savage Invader who worshipped as his patron deity Shiva, the God of destruction, exhibited ferocious hostility against the peaceful Buddhistic cult and remoreselessly overthrew their Stupas and Monasteries which he plundered of their treasuries."

२९२. वैदिकों का स्वराष्ट्राभिमान और बौद्धों का राष्ट्रद्रोह- इस पुस्तक के परिच्छेद १८१ से १८६ तक, १८८-१८९ से १९८ तक और २५२, २५३ में हमने वैदिकों की राष्ट्राभिमानी और बौद्धों की राष्ट्रद्रोही प्रवृत्तियों के बारे में जो विधान किए हैं, उनको पाठकगण संदर्भ के लिए एक बार पुन: पढ़ें। बौद्धों की राष्ट्रद्रोही और वैदिकों की राष्ट्राभिमानी प्रवृत्तियों का विरोध स्पष्ट करने के लिए तथा हमारे विधानों की सत्यता सिद्ध करने के लिए हूणों के राजा मिहिरगुल का यह प्रकरण किस प्रकार अत्यंत उपयुक्त है, यह देखिए।

२९३. भारत पर आक्रमण करनेवाले हूणों का राजा मिहिरगुल वैदिक-धर्मीय रुद्रदेवता का कट्टर उपासक था और वह वैदिकों से द्वेष करनेवाले भारतीय बौद्धों पर अनन्वित अत्याचार कर रहा था; परंतु इस कारण से वैदिक धर्मीय राजाओं अथवा जनता ने उस परकीय हूण राजा का राजनीतिक दासत्व स्वीकार नहीं किया अथवा उसके साथ मिलकर भारतीय बौद्धों पर होनेवाले अत्याचारों को प्रोत्साहन नहीं दिया। चूँकि मिहिरगुल स्वधर्मीय होते हुए भी राजनीतिक दृष्टि से परकीय था इसलिए उसे भारत का राष्ट्रशत्रु मानकर उसके अधीनस्थ भारतीय प्रदेशों को राजनीतिक दृष्टि से मुक्त और स्वतंत्र करने के लिए उसके साथ शत्रुत्व ही किया। वैदिक धर्मियों में भी तक्षशिला के अंबुज या कन्नौज के जयचंद जैसे कुछ राष्ट्रद्रोही व्यक्ति पूर्व काल और उत्तर काल में भी हुए; परंतु कुल मिलाकर वैदिक समाज सदैव म्लेच्छ राजाओं से कट्टर शत्रुता ही करता आया था। भारतीय स्वातंत्र्य और साम्राज्य के संरक्षण के लिए उनके साथ घनघोर युद्ध की करता आया था। अंग्रेजी इतिहासकार स्मिथ भी वैदिकों के इस तेजस्वी राष्ट्राभिमान का किंचित् कुत्सित भाषा में ही सही, बारंबार उल्लेख किए बिना नहीं रहा। वैदिक-धर्मीय हिंदू किसी भी म्लेच्छ राजसत्ता के जन्मजात शत्रु होते हैं, ऐसा मानकर वह लिखता है- "These foreign tribes Shakas, Pahlavas and Yavanas at the time settled in Western India as the lords of a conquered native population were the objocts of hostility of the Vaidik King Vilivayankur II …He recovered the losses which his kingdom had suffered at the hands of the intruding foreigners and utterly destroyed the power of (the Shaka king) Nahpan. The hostility of the Andhra (Vaidik) monarch was stimulated by the disgust felt by all Hindus, and especially by the followers of the orthodox Bramhanical system at the outlandish foreign barbarians."

२९४. शायद भारत के अंग्रेजी साम्राज्य के कट्टर शत्रु भी वैदिक हिंदू ही थे, इसका प्रत्यक्ष अनुभव शल्य इतिहासकार स्मिथ के उपर्युक्त वाक्यों में व्‍यक्‍त हो रहा है।

२९५. राजा यशोधर्मा (यशोवर्मन) - मगध का सम्राट् पद अयोग्य और दुर्बल व्यक्ति पुरगुप्त को मिलते ही अन्य राजे-महाराजे उसका आधिपत्य अस्वीकार करने लगे। गुप्त साम्राज्य के अधिकतर अधीनस्थ राजा अब स्वतंत्र रूप से अपने प्रदेशों में राज्य करने लगे उन स्वतंत्र पृथक् भारतीय राज्यों में सर्वत्र म्लेच्छों की मालवा तक फैली राजसत्ता का आतंक छाया हुआ था। यद्यपि उनमें से प्रत्येक स्वराष्ट्राभिमानी वैदिक भारतीय को ऐसी चिंतायुक्त उत्कंठा लगी हुई थी कि हूणों का उच्छेद कब होगा उज्जयिनी में प्रत्यक्ष विक्रमादित्य के सिंहासन पर मिहिरगुल जैसे म्लेच्छ राक्षस को आसीन देखकर अधिकतर लोगों के हृदय क्रोध और तिरस्कार से भर उठते थें, तथापि हों के विरुद्ध स्वयं अकेले आक्रमण करने का साहस उन पृथक् राज्यों में से एक को भी नहीं था। कोई यह प्रश्‍न भी नहीं उठा सकता था।

२९६. ऐसे समय में, इसी कठिन प्रश्‍न का समाधान निकालने की प्रतिज्ञा प्रकट रूप में करनेवाला एक साहसी वीर पुरुष आगे आया। वह कोई नामधारी महाराजाधिराज नहीं था। वह तो 'महाराज' भी नहीं था। वह था मालय प्रदेश का एक अपेक्षाकृत छोटा सा राजा 'यशोधर्मा' (यशोवर्मन)। उसका साहस, राष्ट्राभिमान और महत्त्वाकांक्षा म्लेच्छों के राजाधिराज' कहलानेवाले बलशाली शासक मिहिरगुल को उज्जयिनी के सिंहासन से नीचे उतारकर हणों का निर्दलन करने के लिए स्वयं रणभूमि में युद्ध करने लायक उत्तुंग और विशाल था।

२९७. वैदिक राजाओं का संयुक्त मोर्चा - उसने सर्वप्रथम आस-पास के अधिकांश स्वतंत्र भारतीय राज्यों को हूणों के विरुद्ध युद्ध करने के लिए प्रेरित, एकत्र और संगठित कर एक संयुक्त युद्ध-योजना बनाई। मगध के राजा बालादित्य ने भी उस योजना को समर्थन दिया। तब यशोधर्मा के नेतृत्व में उन सब राजाओं ने हूणों के विरुद्ध विद्रोह कर चारों ओर से एक साथ उसपर आक्रमण करना प्रारंभ कर दिया। हूणों पर आक्रमण करने का जो साहस उस समय का कोई भी राजा अकेले नहीं कर सका, वह साहस और आवेश इस संयुक्त भारतीय सेना में उत्पन्न हुआ और वह रणभूमि में हों की प्रबल सेना का विध्वंस करने लगी।

२९८. हूणों का निर्णायक पराभव - अंत में सेनापति यशोधर्मा ने अपनी सेना को लेकर हूणों के राजा मिहिरगुल की मुख्य सेना पर आक्रमण किया। इन दोनों सेनाओं का आमना-सामना ई.स. ५२८ के लगभग मंदसौर या कोरूर में हुआ था। उनके बीच हुए विकट युद्ध में भारतीय सेना पराक्रम से हूणों की व्यूह रचना भंग हो गई और वह अस्त-व्यस्त होकर ध्वस्त हुई। उनकी अब तक काल की भाँति उन्मत्त बना हुआ राजा मिहिरगुल जीवित पकड़ा गया और विजयी सेनापति यशोधर्मा द्वारा बंदी बना लिया गया।

२९९. राजा यशोधर्मा के नेतृत्व और पराक्रम से हूणों पर प्राप्त हुई इस अभूतपूर्व विजय का दुंदुभि-नाद पूरे भारत में गूंजने लगा। हूण जाति ने और स्वतः मिहिरगुल ने भारतीयों पर अब तक जो अत्याचार किए थे, उनका प्रतिशोध लेने और उसे अपने पापों का दंड देने के लिए सेनापति यशोधर्मा ने राजा मिहिरगुल के शिरच्छेद की आज्ञा दी थी।

३००. बालादित्य की उदारता या स्वार्थपरता ?- राजा यशोधर्मा ने दुष्ट मिहिरगुल का वध करने की आज्ञा है-यह ज्ञात होने पर मगध के राजा बालादित्य ने आग्रह किया कि मिहिरगुल का वध न कर उसे जीवित को सौंपा जाए। बालादित्य उस संयुक्त भारतीय मोर्चे का एक महत्त्वपूर्ण मगध नरेश घटक था। अत: उसका मन रखने के लिए सेनापति यशोधर्मा ने मिहिरगुल को उसके हाथों सौंप दिया मिहिरगुल द्वारा गुप्त रीति से कोई स्वार्थ साधन करने के उद्देश्य से हो अथवा वधयोग्य राष्ट्रशत्रु को भी जीवनदान देना (सांप को दूध पिलाना) अलौकिक उदारता का कृत्य है, भारतीयों की रग-रग में व्याप्त इस दुष्ट व्यसन जैसी मान्यता के कारण हो, बालादित्य ने उस राष्ट्रशत्रु मिहिरगुल को जीवनदान दिया यही नहीं, उसे वापस वायव्य सीमा पर बचे हुए उसके गणराज्य में लौट जाने की अनुमति भी दी। अर्वाचीन काल में पृथ्वीराज चौहान ने मुहम्मद गोरी को जीवनदान देकर यही भयंकर भूल दोहराई थी।

३०१. ' पयःपानं भुजङ्गानां केवलं विषवर्धनम्- अपने प्राण बचाकर मिहिरगुल यहाँ से जो भागा, तो सीधा कश्मीर पहुँचा। वहाँ उसने गुप्त रूप से हण सेना को पुनः एकत्र कर कश्मीर के राजा की हत्या की। गांधार का भी राज्य जीतकर उसने वहाँ की प्रजा पर अनन्वित अत्याचार किए विशेषतः बौद्धों का जो कुछ भी 'बुद्धप्रस्थ' (मठ, विहार, स्तूप आदि) उसे दिखा, उसे उसने नष्ट कर दिया। उसने अनेक बौद्धों का शिरच्छेद भी किया।

३०२. 'शस्त्र-विजय से धर्म-विजय श्रेष्ठ है' के भ्रामक नशे में रहनेवाले भारतीय बौद्धों को स्वकीय शस्त्रबल के आधार पर बिना शत्रु के शस्त्रबल के सम्मुख धर्म को भी जीवित रहना असंभव होता है अपितु प्रत्यक्ष भी जीवित रहना असंभव होता है, यह पाठ प्रत्यक्ष रूप से पढ़ाने के लिए ही संभवत: नियति ने मिहिरगुल को जन्म दिया हो!

३०३. तथापि मिहिरगुल का प्रतिशोध लेने का जो एकमात्र साधन उन बेचारे दुर्बल और संत्रस्त बौद्धों के पास बचा था, उसका पूरा-पूरा उपयोग उन्होंने किया। अंत में जब मिहिरगुल अपनी मौत से ही स्वाभाविक रूप से मरा, तब उसके मृत्यु के क्षण का वर्णन बौद्धों ने अपने पुराणों में इस प्रकार किया है-"जब वह हुण राक्षस मिहिरगुल मरा और बुद्धद्वेष के घोर अपराध के कारण अनंत यंत्रणाएँ भोगने के लिए वह क्रूरकर्मा अक्षय नरक में गया, तब उस धक्के से पृथ्वी दुभंग हो गई, प्रलयकाल जैसी भीषण गर्जना के साथ वर्षा हुई, पशु-पक्षी संत्रस्त होकर चीखते-चिल्लाते हुए वन-वन भटकने और भागने लगे, अन्य भी उत्पात हुए!"

इस इहलोक में जिसका बाल भी बाँका न कर सके, उसे अंत में परलोक में अक्षय नरक में घोर कष्ट और यंत्रणाएँ भोगने के लिए हमने बाध्य किया और प्रतिरोध लिया-ऐसा काल्पनिक समाधान मानने के अतिरिक्त ऐसे दुर्बल लोग और कुछ भी नहीं कर सकते; परंतु क्या उन अहिंसक बौद्धों का यह समाधान भी 'हिंसक' ही नहीं था? इसे कारुण्य कहें या भीषण क्रूरता?

३०४. उज्जयिनी में विजय-प्रवेश-हूण राजा मिहिरगुल के पूर्ण पराभव के पश्चात् यशोधर्मा ने पंचनद प्रदेश से हूणों का समूल उच्छेद किया। पंचनद को स्वतंत्र कर वहाँ पर भारतीय राजसत्ता का स्थायी प्रबंध कर राजा यशोधर्मा अपनी विजयी सेना के साथ मालवा वापस लौटा, जिसे उसने हणों के सत्तापाश से स्वयं मुक्त किया था उस विक्रमादित्य के समय से सम्मानित भारत की सुप्रसिद्ध उज्जयिनी नगरी में उसने बड़े समारोहपूर्वक विजय-प्रवेश किया। अब वह 'राजा' नहीं रहा था, अपितु' महाराजाधिराज' हो गया था। भारतीयों द्वारा हूणों पर प्राप्त इस विजय के स्मरणार्थ उसने दो कीर्ति-स्तंभों का भी निर्माण कराया। तत्कालीन भारतीयों को उस विजय से कितने गौरव का अनुभव हुआ था, इसके वे स्तंभ आज भी साक्षी बने हैं!

३०५. हूणों का आगे क्या हुआ?- और क्या होगा? यवन (ग्रीक), शक, कुषाण, पर्शियन आदि पूर्व के परकीय आक्रमणकारियों की जो गति हुई थी, वही गति अंत में हूणों की भी हुई। ई.स. ५४० के आस-पास मिहिरगुल की मृत्यु हुई। उसके बाद सिंधु के उस पार के वायव्य प्रदेश में जो थोड़े बहुत हुण बचे थे, वे भी एक-दो पीढ़ियों में ही समाप्त हो गए। वैदिक धर्मीय राजाओं ने उनके हाथों से राजसत्ता छीनकर पुनः हिंदुकुश तक अपने हिंदू राज्यों की स्थापना की। हिंदू राष्ट्र का शस्त्रबल उनके शस्त्रबल से अधिक प्रभावी सिद्ध होते ही राजसत्ता नष्ट होने के बाद वही क्रूर, नृशंस हुण अब गऊ की भाँति निरीह बन गए। डॉ. जायसवाल ने लिखा है "The Huns were fully crushed within a century by the Successive (Hindu) dynasties." हिंदू राष्ट्र के साथ लगभग सौ वर्षों तक चलनेवाले इस महासंग्राम में हूणों का जो प्रचंड संहार हुआ, उसके फलस्वरूप उनका संख्याबल भी अब बहुत घट गया था। जो थोड़े से हूण बचे थे, वे स्वयं प्रेरणा से भारतीय धर्म, भाषा और आचार- विचार स्वीकार कर एक-दो पीढ़ियों में ही भारतीयों में इतनी पूर्णता से विलीन हो गए कि उनके अंदर हूणत्व का कोई आभास या चिह्न भी शेष नहीं रहा।

३०६. हूणों पर भारतीयों द्वारा रणसंग्राम में प्राप्त की गई इस निर्णायक विजय के दूरगामी परिणामों के संबंध में विंसेंट स्मिथ ने ऐसा आशय व्यक्त किया -"After the defeat of Mihiragul and the extinction of the Hun power on the Oxus, India enjoyed immunity from foreign attack for nearly five centuries." अर्थात् राजा यशोधर्मा ने मिहिरगुल का निर्णायक पराभव किया और उधर वक्षु (oxus) नदी के पार भी हों की राजसता का अंत होने के बाद लगभग पाँच सौ वर्षों तक भारत पर कोई बाह्य संकट नहीं आ सका। अर्थात् लगभग पांच सौ वर्षों तक पारिया पर्वत (हिंदुकुश पर्वत) से गांधार, कश्मीर, पंजाब, सिंध से लेकर कन्याकुमारी तक भारत में सर्वत्र वैदिक हिंदुओं के स्वतंत्र राज्य थे। सारा भारत स्वतंत्र. संपन्न, समर्थ और सुखी था।

३०७. ऐतिहासिक प्राचीन खंड का समारोप - ई.स.पू. ६०० से लेकर ई.स. ७०० तक के साधारणतः एक हजार तीन सौ वर्षों के सुदीर्घ ऐतिहासिक कालखंड को यदि प्राचीन खंड और उसके आगे के कालखंड को अर्वाचीन खंड कहा जाए, तो इस पुस्तक के विषयक्षेत्र से संबंधित प्राचीन खंड के विवेचन का यहीं पर समारोप करना उचित होगा इस प्राचीन कालखंड के जो ऐतिहासिक विधेय या मुद्दे (Points) हमारे तरुणों और सर्वसामान्य पाठकों के हृदयों पर स्पष्ट रूप से अंकित होना आवश्यक थे, परंतु आज भी जिनपर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया, ऐसे कुछ महत्त्वपूर्ण मुद्दों का सरल, संक्षिप्त विवरण हम इस समारोप में दे रहे हैं।

क. इस प्राचीन कालखंड में कोई भी विदेशी सत्ता कभी भी संपूर्ण भारत को जीत नहीं सकी। इस वस्तुस्थिति की ओर अधिकतर परकीय अथवा स्वकीय लोगों का ध्यान नहीं जाता। कुछ लोग तो उस ओर जानबूझकर ध्यान नहीं देते।' भारत पर सिकंदर का आक्रमण', 'भारत पर शकों का आक्रमण' जैसे शीर्षक पढ़ते ही सर्वसाधारण विदेशी या स्वदेशी पाठक की भी एक ऐसी विपरीत धारणा बनती है कि इन शत्रुओं ने समस्त भारत पर आक्रमण कर उसे जीतकर उसका स्वातंत्र्य छीन लिया था। ऐसी भ्रमपूर्ण धारणा के कारण अनेक शत्रु और हितशत्रु इस प्रकार के आक्षेप लेते हैं और ऐसे सिद्धांत प्रतिपादित करते हैं कि भारतीय राष्ट्र अर्थात् हिंदू राष्ट्र का संपूर्ण जीवन ही पराधीनता में व्यतीत हुआ है। उनके ये मूर्खतापूर्ण या दुष्टतापूर्ण आरोप और अपसिद्धांत पूर्णत: अहेतुक, अज्ञानमूलक अथवा सहेतुक ईर्ष्‍यामूलक होते हैं। यह स्पष्ट करने के उद्देश्य से ही यह पुस्तक लिखी गई है। इसमें अब तक किए हुए वर्णन के अनुसार यह स्पष्ट है कि-

ख. नेपाल से पूर्वी समुद्र तक पूरा पूर्वोत्तर भारत और पूरा दक्षिण भारत अर्थात् हमारे सुविशाल भारतवर्ष का लगभग तीन-चौथाई भाग इस एक हजार तीन सौ वर्षों के प्रदीर्घ कालखंड में पूर्ण रूप से स्वतंत्र था। उसपर भूमिमार्ग या जलमार्ग से कोई भी आक्रमण नहीं हुआ।

ग. शेष पश्चिमोत्तर भाग में, अर्थात् लगभग एक- चौथाई भाग में जो बाह्य संकट आए, उनमें से यवन एक बार पंजाब से अयोध्या तक छा गए थे और शक-कुषाणों ने कुछ काल तक पंजाब से गुजरात तक के पश्चिमोत्तर भाग को जीत लिया था। हूण तो पंजाब से उज्जयिनी तक ही फैल सके थे। अंत में हिंदू राष्ट्र ने इन सब शत्रुओं की कैसी दुर्दशा की थी, उसका संक्षिप्त वर्णन हमने पहले ही किया है।

घ. उस काल के इतिहास में तत्कालीन जगत् के एशियाई अथवा यूरोपीय राष्ट्रों में क्वचित् ही कोई राष्ट्र ऐसा होगा, जो ऐसे भयंकर शत्रुओं का निर्दलन कर इतने प्रदीर्घ काल तक इतनी यशस्विता के साथ अपना राष्ट्रीय स्वातंत्र्य और अस्तित्व अबाधित बनाए रख सका।

ङ. उस प्राचीन काल में यवन, शक, हूण आदि के बाह्य संकट केवल हिंदू राष्ट्र या भारत पर ही आए थे-ऐसा नहीं है। उनमें से कुछ संकटों ने तो तत्कालीन जगत् के अधिकतर राष्ट्रों को ध्वस्त कर डाला था । यही नहीं, अपितु कई राष्ट्र नामशेष कर डाले थे उनके भारत पर हुए आक्रमणों की चर्चा और तुलना करते समय इस बात को ध्यान में रखना चाहिए।

च. वे सारे आक्रमणकारी जब-जब आए, तब-तब हिंदू राष्ट्र को भी उसी प्रकार नामशेष करने की ईर्ष्या से प्रचंड शस्त्रबल और संख्याबल के साथ भारत पर टूट पड़े थे; परंतु इन सारे यवन-शक-कुषाण-हूण आदि आक्रमणकारियों के शस्त्रबल को हिंदू राष्ट्र ने सर्वप्रथम समराग्नि में भस्मसात् किया और तब उनकी म्लेच्छोय बर्बरता को यज्ञाग्नि में शुद्ध कर उन्हें आत्मसात् कर डाला। इतनी पूर्णता से आत्मसात् किया कि भारत को नामशेष करने आए हुए इन शत्रुओं का अस्तित्व ही नहीं, अपितु नाम भी शेष नहीं रहा।

३०८. क्षण भर के लिए ऐसी कल्पना करें कि उपर्युक्त प्राचीन कालखंड में आकाश से पृथ्वी का निरीक्षण करनेवाला, परंतु तत्पश्चात् पृथ्वी की ओर झाँककर भी न देख सकनेवाला कोई देवदूत आज पुनः हिमालय के किसी उच्च शिखर पर आकर वहाँ से भारत का पुनः निरीक्षण करने लगे; परंतु इस बीच बीते हुए काल की घटनाओं की उसे कुछ भी जानकारी न होने के कारण वह यदि उस शिखर पर से ही प्रश्‍न करे-'महोदय, पूर्वकाल में एक बार इसे भारत में यवन (ग्रीक) नामक जाति के लोगों का एक कोने में राज्य था। क्या आज भी उस जाति के वंशजों में से कुछ लोग यहाँ रहते हैं?' तो इस प्रश्‍न के उत्तर में 'हाँ, मैं उन यवनों का ही एक वंशज यहाँ खड़ा हूँ, ऐसा कहनेवाला एक भी व्यक्ति आज भारत में बाकी नहीं बचा है।

यदि उस देवदूत ने पुनः प्रश्‍न किया- 'महोदय, किसी समय इसी भारत के एक भाग में शक और कुषाणों के राज्य थे क्या उनके वंशजों में से कोई आज भी यहाँ पर रहता है?' तो इसके उत्तर में 'जी हाँ, मैं उनका ही वंशज शक हूँ', या 'मैं उनका ही वंशज कुषाण हूँ' ऐसा कह सकनेवाला एक भी व्यक्ति आज इस देश में मिलना असंभव है। यदि उसने पुनः प्रश्‍न किया- 'महोदय, उस काल में सारे जगत् में संत्रास और आतंक फैलानेवाले हण नामक जाति के क्रूर लोग रहते थे, जो भारत में भी युद्ध करते हुए उज्जयिनी तक घुस आए थे और वहीं रहने लगे थे उन हूणों के वंशजों में से तो कुछ व्यक्ति यहाँ अवश्य बचे होंगे ? ऐसे क्या कोई सज्जन यहाँ हैं?' इसके उत्तर में 'जी हाँ, मैं उनका ही वंशज हूण हूँ' ऐसा विश्वासपूर्वक कह सकनेवाला एक भी मनुष्य इस देश में शेष नहीं रहा है।

३०९. परंतु अंत में यदि वह देवदूत आश्चर्यचकित होकर पुन: प्रश्‍न करता है महोदय, अब इतना ही बताइए कि क्या उस प्राचीन काल में यवन-शक- कुषाण-हूण आदि प्रबल आक्रमणकारियों का निर्दलन कर इस देश में राज्य करनेवाले उन प्रसिद्ध हिंदू जाति के लोगों का वंशज कोई हिंदू यहाँ पर शेष बचा है?' तो इसके उत्तर में-'जी हाँ, मैं उनका वंशज हिंदू ही हूँ', ऐसी अत्यंत अभिमान से घोषणा करनेवाले तीस कोटि (आज एक सौ कोटि) जनों का जन-अरण्य, एक पूरा-का-पूरा हिंदू राष्ट्र आज भी इस देश में उठ खड़ा होगा।

३१०. इस प्राचीन कालखंड के अंतिम शतक में या शताब्दी में अधिकांश जगत् को ध्वस्त और आतंकित करनेवाले क्रूर हूणों को भी पदाक्रांत कर उनका निर्दलन करनेवाले हूणांतक राजा यशोधर्मा के पराक्रम से उद्दीप्त पृष्ठ हो हमारे हिंदू राष्ट्र के इतिहास का 'चतुर्थ स्वर्णिम पृष्ठ' है!

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स्‍वर्णिम पृष्‍ठ : पंचम (पूर्वार्द्ध)


प्रकरण-१

महाराष्ट्रीय पराक्रम का उच्चांक:

अटक पर भगवा ध्वज फहराया गया!

३११. प्रस्तावना- हिंदू राष्ट्र के इतिहास के छह स्वर्णिम पृष्ठ' नामक ह जो ग्रंथ हम लिख रहे हैं, उसका विषयक्षेत्र इस ग्रंथ के प्रारंभ में परिच्छेद ४ से ९ तक व्यक्त किया है। उस अनुरोध से यह ज्ञात होता है कि साधारणतः ईसवी सन् की आठवों शताब्दी से लेकर अठारहवीं शताब्दी के अंत तक चल रहे सतत, प्रदीर्घ और प्रचंड हिंदू-मुसलिम संघर्ष का ब्योरेवार विस्तृत इतिहास लिखना इस ग्रंथ का मूल उद्देश्य नहीं है, अपितु हमारे मत से उस महासंग्राम का और उस कालखंड का हिंदू राष्ट्रीय दृष्टिकोण से जितनी मर्मज्ञता, यथार्थता और निर्भयता से समीक्षण होना आवश्यक है, परंतु जो आज तक किसी ने नहीं किया है, वह समीक्षण करना ही यहाँ पर हमारा मुख्य उद्देश्य है।

३१२. कारण, हिंदू राष्ट्र के हित के लिए वह आज भी अत्यंत आवश्यक और हितकर है।

३१३. हमारे इतिहास के दो खंड-हमारे विचार से हमारा विशुद्ध इतिहास घटनाक्रम के अनुसार दो कालखंडों में विभाजित होता है। पहला भाग या कालखंड ईसवी स