सावरकर समग्र
स्वातंत्र्यवीर
विनायक दामोदर सावरकर
७
प्रभात प्रकाशन,दिल्ली
आभार • स्वातंत्र्यवीर सावरकर राष्ट्रीय स्मारक
२५२ स्वातंत्र्यवीर सावरकर मार्ग
शिवाजी उद्यान, दादर, मुंबई-२८
प्रकाशक • प्रभात प्रकाशन
४/१९ आसफ अली रोड
नई दिल्ली-११०००२
संस्करण • २००४
© सौ. हिमानी सावरकर
मूल्य • पाँच सौ रुपए प्रति खंड
पाँच हजार रुपए (दस खंडों का सैट)
मुद्रक • गिर्राज प्रिंटर्स, दिल्ली
SAVARKAR SAMAGRA (Complete Works of Vinayak Damodar
Savarkar)
Published by Prabhat Prakashan, 4/19 Asaf Ali Road, New Delhi-2
Vol. III Rs. 500.00
ISBN 81-7315-327-2
Set of Ten Vols. Rs. 5000.00
ISBN 81-7315-331-0
विनायक दामोदर सावरकर : संक्षिप्त जीवन परिचय
श्री विनायक दामोदर सावरकर भारतीय स्वाधीनता-संग्राम के एक तेजस्वी तथा अग्रणी
नक्षत्र थे। वीर 'सावरकर' शब्द साहस, वीरता, देशभक्ति का पर्यायवाची बन
गया है। 'वीर सावरकर' शब्द के स्मरण करते ही अनुपम त्याग, अदम्य साहस, महान्
वीरता, एक उत्कट देशभक्ति से ओतप्रोत इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठ हमारे सामने
साकार होकर खुल पड़ते हैं।
वीर सावरकर न केवल स्वाधीनता-संग्राम के एक तेजस्वी सेनानी थे अपितु वह एक
महान् क्रांतिकारी, चिंतक, सिद्धहस्त लेखक, कवि, ओजस्वी वक्ता तथा
दूरदर्शी राजनेता भी थे। वह एक ऐसे इतिहासकार भी थे जिन्होंने हिंदू राष्ट्र
की विजय के इतिहास को प्रामाणिक ढंग से लिपिबद्ध किया तो '१८५७ के प्रथम
स्वातंत्र्य समर' का सनसनीखेज व खोजपूर्ण इतिहास लिखकर ब्रिटिश शासन को हिला
डाला था।
इस महान् क्रांतिपुंज का जन्म महाराष्ट्र के नासिक जिले के ग्राम भगूर में
चितपावन वशीय ब्राह्मण श्री दामोदर सावरकर के घर २८ मई, १८८३ को हुआ था। गाँव
के स्कूल में ही पाँचवीं तक पढ़ने के बाद विनायक आगे पढ़ने के लिए नासिक चले
गए।
लोकमान्य तिलक द्वारा संचालित 'केसरी' पत्र की उन दिनों भारी धूम थी।
'केसरी' में प्रकाशित लेखों को पढ़कर विनायक के हृदय में राष्ट्रभक्ति की
भावनाएँ हिलोरें लेने लगीं। लेखों, संपादकीयों व कविताओं को पढ़कर उन्होंने
जाना कि भारत को दासता के चंगुल में रखकर अंग्रेज किस प्रकार भारत का शोषण कर
रहे हैं। वीर सावरकर ने कविताएँ तथा लेख लिखने शुरू कर दिए। उनकी रचनाएँ मराठी
पत्रों में नियमित रूप से प्रकाशित होने लगीं। 'काल' के संपादक श्री परांजपे
ने अपने पत्र में सावरकर की कुछ रचनाएँ प्रकाशित की, जिन्होंने तहलका मचा
दिया।
सन् १९०५ में सावरकर बी.ए. के छात्र थे। उन्होंने एक लेख में विदेशी वस्तुओं
के बहिष्कार का आह्वान किया। इसके बाद उन्होंने अपने साथियों के साथ मिलकर
विदेशी वस्त्रों की होली जलाने का कार्यक्रम बनाया। लोकमान्य तिलक इस कार्य के
लिए आशीर्वाद देने उपस्थित हुए।
सावरकर की योजना थी कि किसी प्रकार विदेश जाकर बम आदि बनाने सीखे जाएँ तथा
शस्त्रास्त्र प्राप्त किए जाएँ। ९ जून, १९०६ को सावरकर इंग्लैंड के रवाना हो
गए। वह लंदन में 'इंडिया हाउस' में ठहरे। उन्होंने वहाँ पहुँचते ही अपनी
विचारधारा के भारतीय युवकों को एकत्रित करना शुरू कर दिया। उन्होंने 'फ्री
इंडिया सोसाइटी' की स्थापना की।
सावरकर इंडिया हाउस' में रहते हुए लेख व कविताएँ लिखते रहे। वह गुप्त रूप से
बम बनाने की विधि का अध्ययन व प्रयोग भी करते रहे। उन्होंने इटली के महान्
देशभक्त मैझिनी का जीवन-चरित्र लिखा। उसका मराठी अनुवाद भारत में छपा तो एक
बार तो तहलका ही मच गया था।
१९०७ में सावरकर ने अंग्रेजों के गढ़ लंदन में १८५७ की अर्द्धशती मनाने का
व्यापक कार्यक्रम बनाया। १० मई, १९०७ को 'इंडिया हाउस' में सन् १८५७ की
क्रांति की स्वर्ण जयंती का आयोजन किया गया। भवन को तोरण-द्वारों से सजाया
गया। मंच पर मंगल पांडे, लक्ष्मीबाई, वीर कुँवरसिंह, तात्या टोपे, बहादुरशाह
जफर, नानाजी पेशवा आदि भारतीय शहीदों के चित्र थे। भारतीय युवक सीने व बाँहों
पर शहीदों के चित्रों के बिल्ले लगाए हुए थे। उनपर अंकित था - '१८५७ के वीर
अमर रहें'। इस समारोह में कई सौ भारतीयों ने भाग लेकर १८५७ के
स्वाधीनता-संग्राम के शहीदों को श्रद्धांजलि अर्पित की। राष्ट्रीय गान के बाद
वीर सावरकर का ओजस्वी भाषण हुआ, जिसमें उन्होंने सप्रमाण सिद्ध किया कि १८५७
में 'गदर' नहीं अपितु भारत की स्वाधीनता का प्रथम महान् संग्राम हुआ था।
सावरकर ने १९०७ में '१८५७ का प्रथम स्वातंत्र्य समर' ग्रंथ लिखना शुरू किया।
इंडिया हाउस के पुस्तकालय में बैठकर वह विभिन्न दस्तावेजों व ग्रंथों का अध्ययन
करने लगे। उन्होंने अनेक ग्रंथों के गहन अध्ययन के बाद इसे लिखना शुरू किया।
ग्रंथ की पांडुलिपि किसी प्रकार गुप्त रूप से भारत पहुँचा दी गई। महाराष्ट्र
में इसे प्रकाशित करने की योजना बनाई गई। 'स्वराज्य' पत्र के संपादक ने इसे
प्रकाशित करने का निर्णय लिया; किंतु पुलिस ने प्रेस पर छापा मारकर योजना में
बाधा डाल दी। ग्रंथ की पांडुलिपि गुप्त रूप से पेरिस भेज दी गई। वहाँ इसे
प्रकाशित कराने का प्रयास किया गया; किंतु ब्रिटिश गुप्तचर वहाँ भी पहुंच गए
और ग्रंथ को प्रकाशित न होने दिया गया। ग्रंथ के प्रकाशित होने से पूर्व ही
उसपर प्रतिबंध लगा दिया गया। अंतत: १९०९ में ग्रंथ फ्रांस से प्रकाशित हो गया।
ब्रिटिश सरकार तीनों सावरकर बंधुओं को 'राजद्रोही' व खतरनाक घोषित कर चुकी
थी। सावरकर इंग्लैंड से पेरिस चले गए। पेरिस में उन्हें अपने साथी याद आते। वह
सोचते कि उनके संकट में रहते उनका यहाँ सुरक्षित रहना उचित नहीं है। अंततः वह
इंग्लैंड के लिए रवाना हो गए।
१३ मार्च, १९१० को लंदन के रेलवे स्टेशन पर पहुँचते ही सावरकर को बंदी बना
लिया गया और ब्रिक्स्टन जेल में बंद कर दिया गया। उनपर लंदन की अदालत में
मुकदमा शुरू हुआ। न्यायाधीश ने २२ मई को निर्णय दिया कि क्योंकि सावरकर पर
भारत में भी कई मुकदमे हैं, अतः उन्हें भारत ले जाकर वहीं मुकदमा चलाया जाए।
अंततः २९ जून को सावरकर को भारत भेजने का आदेश जारी कर दिया गया।
१ जुलाई, १९०९ को 'मोरिया' जलयान से सावरकर को कड़े पहरे में भारत रवाना
किया गया। ब्रिटिश सरकार को भनक लग गई थी कि सावरकर को रास्ते में छुड़ाने का
प्रयास किया जा सकता है। अतः सुरक्षा प्रबंध बहुत कड़े किए गए। ८ जुलाई को
जलयान मार्सेल बंदरगाह के निकट पहुँचने ही वाला था कि सावरकर शौच जाने के
बहाने पाखाने में जा घुसे। फुरती के साथ उछलकर वह पोर्ट हॉल तक पहुँचे और
समुद्र में कूद पड़े।
अधिकारियों को जैसे ही उनके समुद्र में कूद जाने की भनक लगी कि अंग्रेज अफसरों
के छक्के छूट गए। उन्होंने समुद्र की लहरें चीरकर तैरते हुए सावरकर पर गोलियों
की बौछार शुरू कर दी। सावरकर सागर की छाती चीरते हुए फ्रांस के तट की ओर बढ़ने
लगे। कुछ ही देर में वह तट तक पहुँचने में सफल हो गए किंतु उन्हें पुनः बंदी
बना लिया गया। १५ सितंबर, १९१० को सावरकर पर मुकदमा शुरू हुआ। सावरकर ने
स्पष्ट कहा कि भारत के न्यायालय से उन्हें न्याय की किंचित् भी आशा नहीं है,
अतः वह अपना बयान देना व्यर्थ समझते हैं।
१५ दिसंबर को अदालत ने उन्हें ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध षड्यंत्र रचने, बम
बनाने तथा रिवॉल्वर आदि शस्त्रास्त्र भारत भेजने आदि आरोपों में आजन्म कारावास
की सजा सुना दी। उनकी तमाम संपत्ति भी जब्त कर ली गई।
२३ जनवरी, १९११ को उनके विरुद्ध दूसरे मामले की सुनवाई शुरू हुई। ३० जनवरी को
पुनः आजन्म कारावास की सजा सुना दी गई। इस प्रकार सावरकर को दो आजन्म
कारावासों का दंड दे दिया गया। सावरकर को जब अंग्रेज न्यायाधीश ने दो आजन्म
कारावासों का दंड सुनाया तो उन्होंने हँसते हुए कहा, 'मुझे बहुत प्रसन्नता है
कि ईसाई (ब्रिटिश) सरकार ने मुझे दो जीवनों का कारावास दंड देकर पुनर्जन्म के
हिंदू सिद्धांत को मान लिया है।'
कुछ माह बाद महाराजा नामक जलयान से सावरकर को अंदमान भेज दिया गया। वे ४
जुलाई, १९११ को अंदमान बहुँचे। अंदमान में उन्हें अमानवीय यातनाएँ दी जाती
थीं। कोल्हू में बैल की जगह जोतकर तेल पिरवाया जाता था, मूँज कुटवाई जाती थी।
राजनीतिक बंदियों पर वहाँ किस प्रकार अमानवीय अत्याचार ढाए जाते थे, इसका
रोमांचकारी वर्णन सावरकरजी ने अपनी पुस्तक मेरा आजीवन कारावास में किया है।
सावरकरजी ने अंदमान में कारावास के दौरान अनुभव किया कि मुसलमान वॉर्डर हिंदू
बंदियों को यातनाएँ देकर उनका धर्म-परिवर्तन करने का कुचक्र रचते हैं।
उन्होंने इस अन्यायपूर्ण धर्म-परिवर्तन का डटकर विरोध किया तथा बलात् मुसलिम
बनाए गए अनेक बंदियों को हिंदू धर्म में दीक्षित करने में सफलता प्राप्त की।
उन्होंने अंदमान की कालकोठरी में कविताएँ लिखीं। 'कमला', 'गोमांतक' तथा
'विरहोच्छ्वास' जैसी रचनाएँ उन्होंने जेल की यातनाओं से हुई अनुभूति के
वातावरण में ही लिखी थीं। उन्होंने 'मृत्यु' को संबोधित करते हुए जो कविता
लिखी वह अत्यंत मार्मिक व देशभक्ति से पूर्ण थी।
सावरकरजी ने अंदमान कारागार में होनेवाले अमानवीय अत्याचारों की सूचना किसी
प्रकार भारत के समाचारपत्रों में प्रकाशित कराने में सफलता प्राप्त कर ली।
इससे पूरे देश में इन अत्याचारों के विरोध में प्रबल आवाज उठी। जाँच समिति ने
अंदमान जाकार जाँच की। अंत में दस वर्ष बाद १९२१ में सावरकरजी अंदमान से
मुक्ति मिली। उन्हें अंदमान से लाकर रत्नागिरी तथा यरवदा की जेलों में बंद
रखा गया। तीन वर्षों तक इन जेलों में रखने के बाद सन् १९२४ में उन्हें
रत्नागिरी में नजरबंदी में रखने के आदेश हुए। रत्नागिरी में रहकर उन्होंने
अस्पृश्यता निवारण हिंदू संगठन जैसे अनूठे कार्य किए।
'हिंदुत्व', 'हिंदू पदपादशाही', 'उ:श्राप', 'उत्तरक्रिया', 'संन्यस्त खड्ग'
आदि ग्रंथ उन्होंने रत्नागिरी में ही लिखे।
१० मई, १९३७ को सावरकरजी की नजरबंदी रद्द की गई।
नजरबंदी से मुक्त होते ही सावरकरजी का भव्य स्वागत किया गया। अनेक नेताओं ने
उन्हें कांग्रेस में शामिल करने का प्रयास किया; किंतु उन्होंने स्पष्ट कह
दिया, 'कांग्रेस की मुसलिम तुष्टीकरण की नीति पर मेरे तीव्र मतभेद हैं। मैं
हिंदू महासभा का ही नेतृत्व करूँगा।'
३० दिसंबर, १९३७ को अहमदाबाद में आयोजित अखिल भारतीय हिंदू महासभा के अधिवेशन
में सावरकरजी सर्वसम्मति से अध्यक्ष चुने गए। उन्होंने 'हिंदू' की
सर्वश्रेष्ठ व मान्य परिभाषा की। हिंदू महासभा के मंच से सावरकरजी ने 'राजनीति
का हिंदूकरण और हिंदू सैनिकीकरण' का नारा दिया। उन्होंने हिंदू युवकों को
अधिक-से-अधिक संख्या में सेना में भरती होने की प्रेरणा दी। उन्होंने तर्क
दिया, 'भारतीय सेना के हिंदू सैनिकों पर ही इस देश की रक्षा का भार आएगा, अतः
उन्हें आधुनिकतम सैन्य विज्ञान की शिक्षा दी जानी जरूरी है।'
२६ फरवरी, १९६६ को भारतीय इतिहास के इस अलौकिक महापुरुष ने इस संसार से विदा
ले ली। अपनी अंतिम वसीयत में भी उन्होंने हिंदू संगठन व सैनिकीकरण के महत्त्व,
शुद्धि की आवश्यकता पर प्रकाश डाला। भारत को पुन: अखंड बनाए जाने की उनकी
आकांक्षा रही।
ऐसे वीर पुरुष का व्यक्तित्व और कृतित्व आज भी हमारे लिए पथ-प्रदर्शक का काम
करने में सक्षम है।
-शिवकुमार गोयल
अनुक्रम
जातिभंजक निबंध
२३
१. जातितोड़क लेख
२४
१. वर्तमान जातिभेद के इष्ट एवं अनिष्ट पहलू
२४
जातिभेद एवं अध: पतन का समकालीनत्व
२६
किसका मत प्रमाण मानें?
२६
आज का विकृत रूप
२७
परदेश-गमन निषेध
२८
छूत के पागलपन से दूसरों का लाभ
२८
जाति रही पर धर्म गया
२९
पराक्रम का संकोच
३०
मराठी साम्राज्य का क्षय
३०
राजमुकुट जाने दिया, पर मुकटा बचाया
३१
समाज का शरीर कुरेदनेवाला जातीय पागलपन
३२
उपेक्षा की तो?
३२
२. सनातन धर्म माने जातिभेद नहीं
३३
'धर्म' शब्द के अर्थ
३३
धर्म और आचार
३४
चातुर्वर्ण्य का उच्छेद है जातिभेद
३६
३. चार वर्णों की चार हजार जातियाँ
३८
४. इस आपत्ति पर उपाय
४३
यह मुट्ठी भर ब्राह्मणों द्वारा रचित नहीं है
४३
ब्राह्मण और क्षत्रियों का यह संयुक्त षड्यंत्र भी नहीं
४४
जन्मजात जातिभेद का उच्छेद और गुणजात जातिभेद का उद्धार ४६
५. आनुवंशिक गुण-विकास का तत्त्व
४७
वर्तमान जातिभेद का समर्थन
४८
एक अर्थ से संकर हानिकारक है
४९
हिंदू जाति द्वारा किया गया महान् प्रयोग
५०
आनुवंशिकता, गुण-विकास का अनन्य कारण नहीं है
५०
बीज एक घटक है
५१
६. आनुवंशशास्त्र का साक्ष्य
५२
परिस्थिति का प्रभाव
५२
आनुवंशिक गुण-विकास की सीमाएँ
५३
बीज एवं क्षेत्र शुद्धि
५४
सीता कौन? तो राम की भगिनी
५५
७. सगोत्र विवाह निषिद्ध क्यों?
५६
संकर की उपयुक्तता
५६
संकर नहीं है
५७
संकर के कुछ उदाहरण
५७
और एक कारण : गुप्त संकर
५८
अंधनिष्ठा
५९
पोथीजनित बेटीबंदी
५९
८. जातिसंकर के अस्तित्व का साक्षीदार-स्वयमेव स्मृति
६०
पितृ सावर्ण्य
६१
मातृ सावर्ण्य
६१
अनुलोम और प्रतिलोम
६२
एक पांडव कुल ही देखें
६२
प्रत्यक्ष अनुभव
६५
इसीलिए प्रत्यक्ष गुण देखना उत्तम
६६
विश्व के अन्य राष्ट्रों के अनुभव देखें
६८
अरे ये कलियुग है
६९
९. उपसंहार
६९
जन्मतः जातियों का उच्छेद और गुणानुरूप जाति का उद्धार
७१
जन्म से शिशु की एक ही जाति-हिंदू
७२
बैरिस्टर और वाहन चालक
७३
२. पोथीजात जातिभेद-भंजक सामाजिक क्रांति घोषणा :
तोड़ डालो ये सात स्वदेशी बेड़ियाँ
७६
सात स्वदेशी बेड़ियाँ
७९
जातिभेद तोड़ने के लिए और कुछ नहीं करना
८०
३. अस्पृश्यता का पुतला दहन : रत्नागिरि में जन्मजात अस्पृश्यता
का मृत्युदिवस
८५
कर्मवीर अण्णा साहेब शिंदे, पुणे, का भाषण
८५
विशाल सहभोज
८९
४. नासिकवासी सनातनी हिंदू बंधुओं को मेरा अनावृत-पत्र
९०
५. मद्रास प्रांत की कुछ अस्पृश्य जातियाँ
९२
मद्रास की कुछ अस्पृश्य जातियाँ
९५
६. आनुवंश या आत्मघात या वाहियातपना
१००
कंचोले प्रभु की जाति क्यों और कैसे उत्पन्न हुई?
१०२
भंडारी जाति के संबंध में पोथी-पुराणों में दी हुई जानकारी
१०३
दरजी उपजाति की उत्पत्ति
१०५
अंडे पर पैर पड़ा और जाति बँट गई
१०६
७. वज्रसूची
१०८
श्रीमत् अश्वघोषकृत 'वज्रसूची'
११०
जाति की भिन्नता वास्तव में कैसी होनी चाहिए?
११४
वैशंपायन-धर्मराज संवाद
११५
८. मुसलमानों के पंथ-उपपंथों का धर्मविज्ञान दृष्टि से तुलनात्मक परिचय ११९
बुद्धिवाद के विरुद्ध आक्षेप
१२१
पवित्र कुरान की संक्षिप्त रूपरेखा
१२५
उत्तरार्ध
१३१
मोहम्मद पैगंबर के बाद में भी पैगंबर
१४०
हाकिम-बिन-हाशम या बुरकेवाला
१४२
बाबेकी करमातियन, इशमेलियन, बाबी
१४२
एक ताजा पैगंबर
१४३
समापन
१४३
खताबियन पंथ
१४३
इसलाम में समता का झंडा
१४४
गौब का पूर्व पक्ष
१४५
विषमता का प्रारंभ
१४५
समता एवं सहिष्णुता का अर्क
१४६
अदरूना विषमता
१४७
क्या गुलामी को मानवीय समता माना जाए?
१४७
कट्टर अस्पृश्यता
१४८
९. हमारे 'अस्पृश्य' धर्मबंधुओं को चेतावनी
१५०
हिंदू धर्म मेरा है, उसे छोड़ने के लिए कहनेवाला तू कौन?
१५५
स्पृश्य भी होऊँगा और हिंदू भी रहूँगा
१५७
बैरिस्टर सावरकर का 'समता संघ' को पत्र
१५७
डॉ. अंबेडकर के सुपुत्र फिर से हिंदू होंगे
१६१
चाहे तो बुद्धिवादी विधर्मी बने, परंतु हिंदू धर्म से
उत्तम धर्म नहीं मिलेगा
१६१
चाहिए तो एक नए 'बुद्धिवादी संघ' की स्थापना करें
१६२
धर्मांतरण से आज अस्पृश्यों की हानि अधिक होगी
१६३
ऐसा धर्मांतरण भी मानवीयता को कालिख ही लगाएगा
१६३
शुद्धि का दरवाजा, अब क्या चिंता!
१६४
जैसा वह राष्ट्रद्रोह, वैसा ही यह धर्मद्रोह
१६५
सावरकर का डॉ. अंबेडकर को निमंत्रण
१६५
१०. धर्मांतरण के प्रश्न पर महार बंधुओं से खुली चर्चा
१६९
लेखांक-१
१६९
लेखांक-२
१७२
लेखांक-३
१७६
सगे-संबंधियों से दुःखद बिछोह
१८१
आर्थिक दुर्दशा भी वही रहेगी
१८२
महार रहें, हिंदू रहें और अस्पृश्यता से मुक्त हों-
यह संभव है क्या? हाँ! हाँ! हाँ!!!
१८२
११. रत्नागिरि ने अस्पृश्यता और रोटीबंदी की बेड़ियाँ कैसे तोड़ीं?
१८४
गृहप्रवेश
१९०
महिलाओं के हलदी-कुंकुम समारोह
१९०
गाड़ी, सभा, नाटक-घर
१९१
हिंदू बैंड
१९१
पूर्वास्पृश्य मेला एवं देवालय प्रवेश
१९२
पतितपावन की स्थापना
१९३
अखिल हिंदू उपाहार-गृह
१९३
जिले भर में प्रचार-मालवण में ही अस्पृश्यता मरी
१९४
अस्पृश्यता का मृत्युदिवस! स्पर्शबंदी का पुतला जलाकर
रोटीबंदी पर हमला
१९४
१२. महाराष्ट्र भर में सहभोज का धूम-धड़ाका (१९३६)
१९६
छह वर्षों में रत्नागिरि ने रोटीबंदी की बेड़ी तोड़ डाली
१९८
झुणकाभाकर सहभोजन संघ
२००
सात वर्ष पूर्व रत्नागिरि में उठा सामाजिक क्रांति का
ज्वार आज महाराष्ट्र-व्यापी हो गया है
२०१
विद्यालय, महाविद्यालय, सम्मेलन के सहभोजकों के
नाम प्रकाशित हों
२०६
१३. जातिभेदोच्छेदक संस्था की जातिसंघ संबंधी नीति क्या हो?
२०८
हमारी जाति हिंदू, अन्य कोई भी उपजाति हम नहीं मानते
या हम किसी भी जातिसंघ के सदस्य नहीं हैं
२०९
जातिभेद के विषैले साँप का विषदंत कौन सा है?
२११
संक्रमण काल में जातिसंघ एक अपरिहार्य अनिष्ट है
२१५
जाति-उन्मूलनवालों की जातिसंघ के संबंध में नीति क्या हो?
२१९
१४. चित्तपावन शिक्षा सहायता समिति और बैरिस्टर सावरकर
२२५
१५. जन्मजात अस्पृश्यता का मृत्युलेख : अस्पृश्यता मर गई,
पर उसका क्रियाकर्म अभी शेष है
२३१
पूर्वार्ध
२३१
यह सुधार हमारे हिंदू राष्ट्र पर किसी अहिंदू शक्ति द्वारा
बलपूर्वक लादा हुआ नहीं है
२३३
अमेरिका में गुलामी का अंत और हिंदुस्थान में
अस्पृश्यता का अंत
२३५
स्पृश्य हिंदुओं की तरह ही 'अस्पृश्य' हिंदुओं ने भी
अपने पापों का स्वयंस्फूर्ति से प्रायश्चित्त किया
२३७
प्रतिकूल परिस्थिति को पछाड़कर कायापलट करने की
हिंदू राष्ट्र की क्षमता
२३९
उत्तरार्ध
२४२
आज की परिस्थिति की उड़ती जाँच
२४५
महाराष्ट्र प्रदेश हरिजन सेवक संघ
२४७
अखिल भारतीय दिप्रेस्ड क्लासेस लीग
२४८
जाति-उन्मूलक हिंदू महामंडल
२५०
अस्पृश्यता निवारण कानून लागू करने के कार्यक्रम की रूपरेखा
२५२
अस्पृश्यता निवारण आंदोलन का क्षेत्र
२५२
सरकारी स्वतंत्र विभाग
२५३
स्पृश्य-अस्पृश्यों की अखिल भारतीय संस्था
२५४
समाज-हितकारी कोई भी धंधा हीन नहीं, पर यदि उसे
छोड़ दिया तो कोई बात नहीं
२५५
१६. बौद्ध धर्म स्वीकार कर तुम असहाय हो जाओगे
२५८
बौद्ध धर्म में भी कल्पित कथाएँ, अज्ञानता, कदाचार,
अनाचार आदि का दलदल है
२६२
१७. सीमा का उल्लंघन किया, परंतु हिंदुत्व के सीमाक्षेत्र में ही
२७२
चिंतनीय, परंतु चिंताजनक नहीं
२७२
अंबेडकर ईसाई या मुसलमान नहीं हुए, हमपर यह
कोई उपकार नहीं है
२७३
हिंदुओं द्वारा धर्मांतरितों का सम्मान करना निर्लज्जता होगी
२७४
परंतु बौद्ध होते ही डॉ. अंबेडकर की भंगड प्रतिज्ञा भंग हो गई
२७५
एक सावधानी की सूचना : बौद्ध स्थान और नागराज्य
२७८
१८. हिंदू देवालय में अहिंदुओं को प्रवेश नहीं
२८०
श्री पतितपावन मंदिर की परंपरा
२८१
दिवंगत यूसुफ मेहर अली ने पतितपावन मंदिर को भेंट दी
२८२
हिंदुओं के देवालय और देव स्थल में अहिंदुओं को प्रवेश
का रत्ती भर भी अधिकार नहीं होना चाहिए
२८४
अब विनोबा पाकिस्तान में पद-यात्रा करने क्यों नहीं जाते?
२८७
१९. हिंदू नाग लोग ईसाई क्यों हुए?
२८९
इसका कारण है आत्मघाती सनातन दुराग्रह
२८९
सामाजिक भाषण
२९५
१. जीभ को बंदीरोग है
२९७
२. सब घर मेरे ही लगते हैं
२९८
३. मेरे शव को सबका कंधा लगे
२९८
४. देश का अभियोग हाथ में लिया है
२९९
५. अस्पृश्यां में अस्पृश्यता
३००
६. कुरान का द्वेषपोषक आदेश
३००
७. वनिताओ, विदुला बनो
३०१
८. मुझसे भी अधिक पराक्रमी बनो
३०२
९. कांग्रेसी हिंदू भी हिंदुओं को संगठित करें
३०२
१०. युवा डॉक्टरो, युद्ध कला भी सीखो
३०३
११. अहिंदुओं का हिंदूकरण (शुद्धि)
३०३
१२. तुम सियार नहीं, शेर बनो!
३०४
१३. अस्पृश्यों के साथ मंदिर प्रवेश
३०४
१४. हमारी लिपि सर्वश्रेष्ठ; शुद्धि एवं लिपिशुद्धि
३०५
१५. अप्रिय भी बोलना चाहिए
३०६
१६. वही सच्चा पतितपावन
३०७
१७. सत्यनारायण पोथी में नया अध्याय जोड़ें
३०८
१८. धर्म का स्थान (हृदय) पेट नहीं!
३०९
१९. अहिंदू धर्मसत्ता भी समाप्त करो
३११
२०. रत्नागिरि जिला-सोमवंशीय महार परिषद्
३१२
२१. एक ही धर्म-पुस्तक नहीं, यह अच्छा है!
३१३
२२. खामगाँव का हिंदू संगठन महायज्ञ
३१५
२३. गोरक्षण चाहिए, केवल गोपूजन नहीं!
३१५
२४. सावरकर और मौ. शौकत अली के बीच विचार युद्ध
३१६
२५. हिंदुओं के शक्ति केंद्र
३२४
२६. स्त्री-शिक्षा के उद्देश्य
३२७
२७. स्त्री-जीवन का ध्येय
३२९
२८. वही वास्तव में श्रेष्ठ स्त्री
३३६
२९. स्वा. वीर सावरकर का दक्षिण दौरा
३३७
३०. राष्ट्रभाषा और भाषाशुद्धि
३४०
३१. विश्व को एक लिपि चाहिए तो देवनागरी को स्वीकार करें
३४८
३२. अस्पृश्यता का संवैधानिक निर्मूलन-एक बड़ी विजय
३५०
३३. वेदामृत सबको पीने दो, मिशनरी लोगों का प्रचार बंद करो
३५७
३४. पादरीस्तान को जड़मूल से खोद डालो, यह नई पूर्व सूचना
अच्छी तरह सुनो
३५८
३५. सागरा प्राण तळमलळला
३६२
३६. संन्यस्त खड्ग क्यों लिखा?
३६६
३७. पृथ्वी पर मानव एक कब होगा?
३६८
३८. अखंड हिंदुस्थान के लिए लड़ने का संकल्प करें
३६८
३९. शुद्धि यज्ञ प्रज्वलित करें, उसी में से खरा हिंदू राष्ट्र निर्मित होगा
३७१
४०. हिंदू महासभा केवल चुनावों की ओर न देखे
३७२
४१. स्वतंत्रता की सुरक्षा की चाणक्य नीति
३७२
विज्ञाननिष्ठ निबंध३७५
१. मानव का देव और विश्व का देव
३७७
२. ईश्वर का अधिष्ठान यानी क्या?
३८५
महाराष्ट्र के इतिहास के एक पृष्ठ के दो पार्श्व
३८७
मुसलिम और ख्रिस्तों का प्रलाप
३९१
३. सत्य सनातन धर्म कौन सा?
३९५
४. यज्ञ की कुलकथा (वृत्तांत)
४०५
सद्य:कालीन यज्ञ के व्यावहारिक लाभ
४१०
संस्कृति रक्षण का सही अर्थ
४२४
यज्ञ का पारलौकिक लाभ
४२५
पुष्ट पशु या पिष्ट पशु?
४२६
५. गोपालन हो, गोपूजन नहीं!
४३३
गोग्रास
४४१
६. साधु-संतों के चित्रपट किस प्रकार देखें?
४४६
संतचरित्र जैसे हैं वैसे ही पढ़ना चाहिए, चित्र सजाने चाहिए
४५१
७. लोकमान्य की स्मृतियाँ कैसे पढ़नी चाहिए?
४५९
८. दो शब्दों में दो संस्कृतियाँ
४६७
९. आज की सामाजिक क्रांति का सूत्र
४७८
प्रथम वर्ग कट्टर सनातनी
४७९
दूसरा वर्ग अर्ध सनातनी
४८१
पंडित सातवलेकर के आक्षेप
४८२
केवल कपट (आरोप)
४८३
अंत में अरथी का आधार
४८४
किंतु यह बकरा किसलिए?
४८६
१०. पुरातन या अद्यतन
४९०
अद्यतन प्रवृत्ति
४९१
सनातनी प्रवृत्ति
४९२
११. यंत्र
४९६
देवभीरुपन जितना घटे, यंत्रशीलता उतनी बढ़े
४९७
नाना फड़नवीस की एक कहानी
४९८
और विज्ञान की व्यष्टि यानी यंत्र
५००
जितने यंत्र उतनी देवियाँ, जितने औजार उतने देव
५०१
यूरोप के अजय पद यंत्रबल के कारण
५०१
यंत्र शाप है या वरदान
५०३
१२. यंत्र से क्या बेकारी बढ़ती है?
५०८
काम, परिश्रम और बेकारी का सही अर्थ
५१२
बेकारी यंत्र से नहीं बढ़ती अपितु विषम वितरण के कारण
५१४
बढ़ती है और विषम वितरण का दोष यंत्र का नहीं
अपितु समाज-रचना का है
अनावश्यक दोष यंत्र पर लादे नहीं जा सकते
५१६
१३. 'न बुद्धिभेदं जनयेद' यानी क्या?
५१८
धर्मांध कर्मकांडियों के तीन वर्ग
५१९
बुद्धिभेद नहीं करें, पर दुर्बुद्धि-भेद अवश्य करें; सद्भावनाएँ
नहीं दुखाएँ, पर असद्भावनाएँ अवश्य दुखाएँ! ५२४
१४. यदि आज पेशवाई होती!
५२७
सुधार यानी अल्पमत, रूढ़ि यानी बहुमत!
५३१
लोकमान्य के संबंध में एक भ्रमपूर्ण मान्यता
५३२
सत्य के प्रचारार्थ और राष्ट्रहित के साधनार्थ लोकमान्य
तिलकजी रूढ़ 'धर्मभावना' को दुखाने में पीछे नहीं हटे
५३४
सुधारकों को हाथी के पैरों तले कुचला होता
५३७
१५. हमारी धर्मभावना को मत दुखाओ
५४०
हरेक से उसके लेख के संबंध में बोलो
५४०
धर्मभावना-विघातक और बुद्धिभेदक का अर्थ?
५४१
अपने हिंदू राष्ट्र का उद्धार हम सबका आज का ध्येय है
५४१
सनातनी आपस में ही परस्पर धर्म-भावनाओं को
कुचलते हैं। बुद्धिभेद करते हैं।
५४३
गोरक्षक स्त्री-पुरूषों का विनोद
५४५
१६. धर्म के पागलपन के विश को नष्ट कर सकेगा विज्ञान-बल
५४९
धर्मांधता या पंडिताई से मुसलमानों की भी दुर्दशा हो रही है
५५०
एकदम ताजे एक-दो उदाहरण
५५२
एक धर्मग्रंथ तय करना भी व्यर्थ
५५६
१७. ॐकार की उपपत्ति तथा गजानन की मूर्ति
५५८
'ॐ इति एकाक्षरं ब्रह्म'
५५८
चित्रलिपि
५५९
वर्ण-व्यवस्था
५५९
ॐ की महिमा
५६१
ॐ की मूर्ति अर्थात् गणपति गजानन
५६३
गजानन की जन्मकथा
५६३
उपसंहार-गणानां त्वां गणपति हवामहे
५६४
१८. हर जगह अखिल हिंदू गणपति की स्थापना करें!
५६७
मूर्तिपूजा के संबंध में एक नया आक्षेप
५६८
जैसी एक धार्मिक मूर्तिपूजा है, वैसी एक बौद्धिक मूर्तिपूजा
भी है और वह बुद्धिवाद की कसौटी पर पूर्णतः खरी है।
५६९
सहभोज! सहभोज! सहभोज!
५७५
१९. रहस्यकार और उपयुक्ततावाद
५७७
पाश्चात्य और पौर्वात्य पंडित
५७७
उपयुक्ततावाद का विचार
५७८
सुखवाद यानी क्या?
५७९
नैतिक घपले
५८०
उपयुक्ततावाद की उपयुक्तता
५८१
शुद्धबुद्धि की कसौटी
५८२
२०. पुनर्जन्म की एक चामत्कारिक, किंतु विचारणीय घटना
५८४
पुनर्जन्मवाद
५८६
पूर्वजन्म की स्मृतिवाली आठ वर्ष की एक आश्चर्यकारक
कन्या-कुमारी शांति माथुर (दिल्ली)
५८६
कुमारी शांति की पूर्वजन्म के पति से प्रत्यक्ष भेंट
५८८
कुमारी शांति अपने पूर्वजन्म के घर ले जाती है
५८९
जेठ को प्रणाम
५८९
कुमारी शांति पूर्वजन्म के स्वयं के घर में
५९०
शांति की पूर्वजन्म के माँ-बाप से भेंट
५९१
परंतु इस संबंध में एक चेतावनी
५९१
२१. भारतीय पंचांग का सूतोवाच
५९३
राष्ट्रीय पंचांग हेतु आंदोलन
५९३
रॉमे का कालदर्शक (Calender)
५९४
परंपरा-विरोधी रोमनीय पंचांग
५९५
धार्मिक आचार के लिए स्वकीय पंचांग
५९६
ऐहिक व्यवहार के लिए मर्यादित क्षेत्र
५९६
भारतीय संवत्
५९७
२२. यह खिलाफत क्या है?
६००
शिया धर्मशास्त्री
६०४
सुन्नी धर्मशास्त्री
६०४
जातिभंजक निबंध
प्रकरण-१
जातितोड़क लेख
१. वर्तमान जातिभेद के इष्ट एवं अनिष्ट पहलू
"मुझे लगता है कि देश की राजनीतिक, सामाजिक आदि परिस्थितियों और उनमें सुधार
करने के लिए नियत सिद्धांतों के स्वरूप का ज्ञान बच्चों को बचपन से ही करा
देना बहुत आवश्यक हो गया है। जिस तरह राजनीतिक सिद्धांतों एवं सामाजिक
प्रमेयों की घुट्टी छात्रों को पिलाना आवश्यक है, वैसे ही जातिभेद, जातिद्वेष
एवं जातिजन्य आक्रोश में हमारा देश कैसे जल-भुन रहा है, कटता-बँटता जा रहा है
इसका ज्ञान भी राष्ट्रीय विद्यालयों के छात्रों को मिलना चाहिए। जातिभेद से
मुक्ति कितनी आवश्यक है, इसकी शिक्षा हमारे छात्रों को मिलनी चाहिए।"
[बेलगाँव (महाराष्ट्र) में दिया गया लोकमान्य तिलक का व्याख्यान,१९०७]
अपने हिंदू राष्ट्र के सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक एवं राजनीतिक जीवन से
पहले चातुर्वर्ण्य और बाद में उसी के विकृत स्वरूपवाली जातिभेद संस्था इतनी
गुँथी हुई है कि अपने हिंदू या आर्य राष्ट्र की व्याख्या ही कुछ स्मृतिकारों
ने 'चातुर्वर्ण्यव्यवस्थानं यस्मिन् देशे न विद्यते। तं म्लेच्छदेशं जानीयात्
आर्यावर्त ततः परम्।' के रूप में की है। अर्थात् अपने हिंदू राष्ट्र के
उत्कर्ष का श्रेय अपने जीवन के तंतु-तंतु में गुँथे जातिभेद में निहित होने की
जितनी उत्कट संभावना है उतनी ही भीषण आशंका राष्ट्र के अपकर्ष के लिए भी इस
संस्था के सशक्त कारण होने की है।
चातुर्वर्ण्य के मूल आधार-गुणकर्म विभागशः सृष्टम्-का लोप होते जाने और
जन्मनिष्ठ जातिभेद का प्रसार होते जाने से अपने हिंदुस्थान का अधःपतन भी होने
लगा और जब उसने रोटीबंदी, बेटीबंदी का उग्र रूप धारण किया तब हिंदुस्थान का
अध:पतन भी उतनी ही तीव्र गति से हुआ।
जातिभेद एवं अधःपतन का समकालीनत्व
जातिभेद और अध:पतन का समकालीनत्व केवल काकतालीय न्याय से है या कार्य-कारण
आधार पर है यह प्रश्न अत्यंत तीव्रता से उठता है, इसलिए अपने राष्ट्र की
अवनति के कारण खोजते हुए अन्य महत्त्वपूर्ण बातों की तरह ही जातिभेद के
वर्तमान स्वरूप के इष्ट व अनिष्ट पहलुओं की पड़ताल करना भारतीय नेतृत्व का आज
का अत्यावश्यक और अपरिहार्य कर्तव्य हो गया है। कोई ऐसा उद्यान जो फल-फूलों से
लदा हो, जिसके पेड़ों के विशाल-विस्तीर्ण छत्र एवं लता-बेल उल्लसित हों तो
उन्हें देखकर उस उद्यान के प्रकाश, जल और मिट्टी के निर्विकार होने का अनुमान
सहज है। पर यदि वृक्ष शुष्क हों, फल सड़े, फूल कुम्हलाए हुए हों तो वैसी
स्थिति में उस उद्यान के प्रकाश, जल और मिट्टी आदि में कोई एक घटक या सभी घटक
दोषयुक्त हैं; यह अनुमान भी उसी तरह सहज होता है और फिर बागबान का कर्तव्य हो
जाता है कि वह हर घटक को जाँचकर किसमें क्या और कितना दोष है इसको जाने, और
तदनुसार दोष दूर करे।
परंतु इस दृष्टि से देखें तो हिंदू राष्ट्र की अवनति के लिए यह हमारी जातिभेद
संस्था कैसे व कितनी कारणीभूत हुई है अथवा नहीं, इसका विवेचन आवश्यक होते हुए
भी वह व्यक्तिगत रीति से सांगोपांग करना आज संभव नहीं है। क्योंकि जातिभेद के
आज के स्वरूप का विवेचन मैं करूँ तो आज की राजनीतिक स्थिति का विवेचन करना
आवश्यक हो जाएगा और वर्तमान राजनीतिक जंजीरों में जकड़ी हमारी लेखनी उसे
स्पर्श भी नहीं कर सकती। (राजनीति से किसी भी तरह का संबंध न रखने की शर्त पर
सावरकर को अंदमान से मुक्त कर महाराष्ट्र में रत्नागिरि जिले में स्थानबद्ध रखा
गया था।) इसलिए उस विवेचन को यहीं छोड़ जातिभेद के हमारे राष्ट्र की सुस्थिति
और प्रगति पर सामान्यतः क्या प्रभाव हुए हैं- इसका विश्लेषण कर हमें यह
प्रस्तावना समेटनी पड़ रही है।
किसका मत प्रमाण मानें?
यह विश्लेषण करते समय इस विषय में लोकमान्य तिलक के अतिरिक्त अन्य किसका मत
अधिक आधिकारिक हो सकता है? गत सौ वर्षों में लोकमान्य तिलक ही पहले व्यक्ति
हैं जिन्होंने हिंदू राष्ट्र के हित-अहित के संबंध में उत्कट ममत्व से,
सूक्ष्म विवेक से और स्वार्थ-निरपेक्ष साहस से सभी पक्षों पर समन्वित रूप से
विचार किया है। इस कारण हमारे हिंदू राष्ट्र की अवनति के कारण परंपरा के संबंध
में उनके विचार सिद्धांतभूत चाहे न माने जाएँ, परंतु अन्य किन्हीं भी विचारों
की तुलना में वे अधिक आदरणीय, विचारणीय और विश्वसनीय हैं। जातिभेद जैसी
धार्मिक संस्था या सनातन संस्था होने से राजनीति और धर्मकारण में सनातनी समझे
जानेवाले और करोड़ों लोगों का विश्वास जीत उनका नेतृत्व करनेवाले लोकमान्य
तिलक के विचारों का महत्त्व विशेष ही होना चाहिए। वास्तव में देखा जाए तो आजकल
सनातनी कौन है यह निश्चय करना कठिन है; क्योंकि जो भी कोई किसी एक सुधार का
विरोध करता है और किसी एक रूढ़ि को मान्यता देता है वह उतनी देर और उस मुद्दे
पर सनातनी कहा जाता है। वर्तमान में इतना ही सनातनी ठप्पा रह गया है। लोकमान्य
का भी बहिष्कार किया गया। कतिपय धर्ममार्तंडों ने उन्हें सुधारक कह अपमानित
किया है; फिर भी हिंदू संस्कृति के रक्षणार्थ उन्होंने अपनी पूरी आयु भर, जो
अनवरत संघर्ष किया और निरुपाय होने की सीमा तक प्रचलित समाज व्यवस्था को किसी
का भी अनावश्यक धक्का न लगे और अंतरकलह न बढ़े, इसके लिए सुधार-विरोधी होने
का तीव्र आरोप सहन करते हुए भी जो कार्य किया उससे करोड़ों हिंदुओं में उनके
सनातन धर्म संरक्षक होने का विश्वास जमा।
इन सब कारणों से जातिभेद के वर्तमान स्वरूप के संबंध में लोकमान्य जैसे अग्रणी
सनातनी राजनीतिक नेता के क्या विचार हैं, यह देखने पर जातिभेद अपने हिंदू
समाज की अवनति के लिए किस तरह कारणीभूत है, यह इस लेख के प्रारंभ में ही
उद्धृत वाक्यांश से स्पष्ट हो जाता है। 'जातिद्वेष और जातिमत्सर के कारण हमारा
देश कैसे जल-भुन रहा है।' (और इसलिए जातिभेद को नष्ट करना कितना आवश्यक है।)
उनके प्रखर विचारों को पढ़ने के साथ ही यदि उनके राजनीतिक जीवन को देखें तो
इसे अलग से सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं रह जाती कि जातिभेद को नष्ट करना वे
कितना आवश्यक समझते थे।
आज का विकृत रूप
लोकमान्य के उपर्युक्त मातृवचनों को कुछ देर के लिए अलग भी रख दें तो आज जिस
स्थिति में जातिभेद है वही देशहित के लिए अत्यंत घातक है, यह सिद्ध करने के
लिए एक सामान्य, परंतु सशक्त साक्ष्य भी है और वह यह कि चार सौ वर्षों के
रोटी-बेटीबंदी के हजारों पोखरों में हिंदू जाति के जीवन का गंगाप्रवाह
खंड-विखंड कर सड़ा डालनेवाला यह जातिभेद घातक है, इसमें सुधार होना ही चाहिए।
ऐसा विचार अब बिना किसी मतभेद के सनातनियों और महासनातनियों में भी दिखने लगा
है।
महासनातनी पंडित राजेश्वर शास्त्री भी जातिभेद के आज के अति विकृत स्वरूप का
समर्थन कर सकने का साहस नहीं कर सकते, फिर किसी दूसरे की बात क्या करें। (यह
निष्कर्ष इस बात से निकलता है कि) सनातन महासभा ने गोलमेज सम्मेलन के लिए
बुलावा आने पर जाने का प्रस्ताव स्वीकार किया है। दरभंगा राज्य के महाराज ने
भी जहाज पर चढ़ते ही परदेश-गमन के निषेध को समुद्र में धकेल दिया। उन्होंने इस
संबंध में जाति बंधन की बेड़ियाँ तोड़ डालीं।
परदेश-गमन निषेध
वर्तमान काल के जातिभेद का विकृत स्वरूप हमारे लिए हानिकारक है और इसलिए उसमें
कुछ सुधार होना चाहिए, इस संबंध में आज के सभी चिंतनशील नेताओं का एक मत है।
इसी तरह अपने गत वैभव को खोने के पीछे भी इसी जातिभेद और उससे उत्पन्न छुआछूत
के भ्रांतिपूर्ण विचार ही अधिकतर कारण हैं यह भी कोई विचारवान व्यक्ति अब सहसा
अस्वीकार नहीं कर सकता। अन्य सब ढेर सारे निषेधों की बात छोड़कर केवल एक
परदेश-गमन की बात ही लें तो इस केवल एक निषेध ने ही कितने गुल खिलाए, देखें।
परदेश-गमन का निषेध क्यों? तो मेरी जात चली जाएगी इसलिए और जात चली जाएगी
माने क्या होगा? जाति बाहर के लोगों से खान-पान के संबंध बनेंगे, जातिभेद की
प्रवृत्ति से अंधाधुंध फैले अन्न की छूत, चिंदियों से छूत। ऐसे छूत के पागलपन
से परदेश-गमन निषेध हुआ और परदेश का व्यापार और बसाव पूरी तरह डूब गया। इतना
ही नहीं, विश्व के दूर-दराज में, इस छूत रोग के इस देश में फैलने के पूर्व
हिंदू व्यापारियों और सैनिकों द्वारा निर्मित और बसाए हुए अनेकानेक नगर,
बंदरगाह, राज्य मातृभूमि से अकस्मात् विलग हो जाने से और स्वदेश से भारतीय
स्वजनों का जो निरंतर प्रवाह वहाँ जाकर उन सारी प्रवृत्तियों को जीवित बनाए
रहता था, वह एकाएक थम जाने से अक्षरश: नामशेष हो गया। आज उसकी स्मृति कुछ
विकृत रूप में, लेकिन प्रचलित नामों में ही शेष है।
छूत के पागलपन से दूसरों का लाभ
इंडो-चाइना (हिंद-चीन), झाझीबार (हिंदू बाजार) बाली, ग्वाटेमाला (गौतमालय)
आदि नामों से ही वहाँ तक विस्तारित हुए हिंदू वैभव, संस्कृति और प्रभुत्व का
पता आज भी हमें चल जाता है। हिंदुत्व और दिग्विजय जैसे शब्दों में इतना विरोधी
भाव आ गया कि जब अटक तक पहुँचे मराठों के मन में इस्तांबूल पर चढ़ाई करने की
कुछ धुँधली आकांक्षा उत्पन्न हुई तब उसे संपन्न किया जाना अपने हिंदुत्व को
बचाए रखते हुए संभव है यह कल्पना करना मल्हार राव जैसे हिंदू पदपादशाही के
सर्वोच्च वीर को भी संभव न लगा और वह गरज उठा-"हिंदू से मुसलमान हो जाएँगे, पर
अगले वर्ष काबुल पर हमला करेंगे ही।" मुसलमान देश पर सत्ता स्थापित करने के लिए
मुसलमान होने के सिवाय कोई रास्ता शेष नहीं था क्या?
हिंदू भी बने रहेंगे और काबुल ही नहीं, इस्तांबूल तक पर मराठी झंडा और मराठी
घोड़ा नचाएँगे-यह बात अति असंगत (विपरीत) लगी। इसका कारण उस छूत के पागलपन या
'मेरी जान चली जाएगी' के डर में समाया हुआ था। हिंदू म्लेच्छ देश जाए तो उसकी
जात चली जाए, परंतु कितना आश्चर्य था कि म्लेच्छों के इस देश में आने से
हिंदुओं की जात नहीं जाती थी, यहाँ छूत नहीं लगती थी! वास्तव में देखें तो
छूत का पागलपन ही कुछ इस तरह होता था कि जिस किसी गाँव या प्रदेश में कोई
म्लेच्छ व्यापारी घुसा, उस गाँव या प्रदेश को उस म्लेच्छ की छत लगने से उस
गाँव की जात चली जाएगी-ऐसी रूढ़ि पड़ती तो आपत्ति तो होती, पर काफी अंशों में
वह इष्टापत्ति ही होती। पर कोई कासिम या क्लाइव हिंद देश में आए और वह यहाँ का
व्यापार या पूरा राज्य ही निगल जाए तो उसकी छूत हम हिंदुओं को नहीं होती थी।
उससे हमारी जात नहीं जाती थी। हमारी जात तब जाती थी जब कोई एक हिंदूजन म्लेच्छ
देश में जाकर वहाँ धन, ऐश्वर्य कमाकर भारत देश को सधनतर और सबलतर बनाने के लिए
स्वदेश लौट आता था।
जाति रही पर धर्म गया
म्लेच्छ व्यापारी को उसकी वस्तुएँ इस देश में लाने के लिए, किसी दामाद को न
मिलतीं, ऐसी अनेक सुविधाएँ हिंदुओं ने दीं। पर स्वदेश का हिंदू व्यापारी परदेश
में हिंदवी वस्तु बेचने और हिंदू वाणिज्य फैलाने के लिए जाने लगे तो शत्रुओं
को भी न लगाई जातीं, ऐसी कड़ी शर्ते उनपर लादी जातीं। ऐसे आत्मघाती अंधेपन की
इतनी बुरी परिणति हुई कि जब मलाबार के राजा को अपने कुछ विश्वसनीय आदमियों को
अरबों के समुद्री वाणिज्य-व्यवसाय में निपुणता प्राप्त करने हेतु वहाँ भेजने
की इच्छा हुई तो उस राज्य के हिंदुओं ने ऐसी सयानी युक्ति निकाली कि हर वर्ष
हर हिंदू परिवार का एक सदस्य मुसलिम धर्म स्वीकारेगा और नौवाणिज्य सीखेगा;
क्योंकि जब तक वह हिंदू है तब तक समुद्री वाणिज्य सीखना उसके लिए निषिद्ध ही
रहेगा। समुद्र पार जाते ही उसकी जात चली जाएगी। जात रहे, इसलिए धर्म छोड़ा।
चूल्हे में ईंधन चाहिए, इसलिए अपने ही हाथ-पैर तोड़कर उसमें लगाए। पत्नी को
आभूषण चाहिए, इसलिए पत्नी को ही बेचा जाए। जात रखने के लिए बेजात किए गए ये
मोपले आज अपनी ही जातिवाले हिंदुओं को निर्वंश करने के लिए उनपर टूट पड़ रहे
हैं। अधिक क्या कहें, कदाचित् किसी अद्भुत दैवी योग से दिल्ली का सिंहासन
चूर्ण करनेवाले सदाशिवराव भाऊ के धन को लंदन का सिंहासन चूर्ण करने की शक्ति आ
गई होती और वह दिल्ली की तरह ही इंग्लैंड जाकर लंदन के सिंहासन पर विश्वासराव
को बैठाकर उसका राज्याभिषेक करता तो इंग्लैंड में हिंदू पदपादशाही स्थापित न
होती। हाँ, ये दो हिंदू विदेश-गमन के पातक के कारण अहिंदू हो जाते, उनकी जात
चली जाती।
पराक्रम का संकोच
ग्यारहवीं-बारहवीं शती तक भी जातिभेद के क्षय रोग से हमारी नाड़ियाँ संकुचित
हो रही थीं। तब भी विदेश-गमन निषेध की परिणति तक वह रोग नहीं पहुँचा था। तब तक
मद्रास के पांड्य राजा ने ब्रह्मदेश के पेगू पर हमला किया था। केवल 'प्रतस्थे
स्थलवर्मना' नहीं, पूरे प्रबल नौसाधन लेकर जलवर्त्मना किया था और ब्रह्मदेश
के पेगू को जीतकर लौटते-लौटते अंदमान आदि उस समुद्र के सारे द्वीपों को वह
हिंदू साम्राज्य में सम्मिलित करके लौटा था। पर आगे जब महासागर संचारी हिंदू
पराक्रम घर के कुएँ का मेढक बन गया तब पराक्रम (पर + आक्रम-माने बाहर के शत्रु
देश पर हमला करना) शब्द ही हिंदुओं के शब्दकोश से लुप्त हो गया। संभावना का
मूल स्रोत आकांक्षा में ही निहित होता है। पराक्रम की, वास्तविक दिग्विजय की,
नए राज्य प्राप्त करने की, अपनी संस्कृति और प्रभाव सप्तद्वीपा वसुंधरा पर
फैलाने की संभावना भी दिनो-दिन नष्ट होती गई। आकाश में उड़ने की साहसी वृत्ति
पीढ़ी-दर-पीढ़ी नष्ट हो जाने से जिनके पंख नाकारा हो गए हैं, हिंदू पराक्रम
के ऐसे मुरगे अपनी ही जाति के आँगन को विश्व मानकर उसी में बाँग देते रहे और
वह भी कब? जब आतंकवादी पराक्रम को भी पुण्य माननेवाले मुसलमानी गिद्धों और
यूरोपियन गुंडों ने पूरे विश्व के आकाश को ढक लिया तब। ऐसी स्थिति में उनके
हमले से जाति के आँगन में बाँग देता झूमता वह मुरगा फड़फड़ाकर नहीं मरता तो ही
आश्चर्य होता।
मराठी साम्राज्य का क्षय
अंतिम हिंदू साम्राज्य 'मराठा हिंदू पदपादशाही' के पतन का ही केवल विचार
करें। इससे पहले के साम्राज्य और स्वतंत्रता नष्ट होने के लिए जैसे केवल
जातिभेद को ही कारण बताना अतिशयोक्तिपूर्ण होगा, वैसे ही मराठा राज्य केवल
जातिभेद के कारण ही डूबा-यह कहना भी अतिशयोक्ति भरा होगा। परंतु हिंदू
पदपादशाही के मुट्ठी भर अंग्रेजी पलटन के पैरों तले कुचले जाने तक निर्बल होने
में जातिभेद के क्षय का बिलकुल भी योगदान नहीं है, यह कहना भी वस्तुस्थिति को
बहुत कम करके आँकना होगा। जातिभेद के एक उपांग-'समुद्र गमन निषेध' पर ही केवल
विचार करें तो मराठी साम्राज्य काल में भी सामाजिक ही नहीं, राजनीतिक बल भी
इस भयंकर व्याधि के कारण निर्जीव हो गया था, यह तत्काल दृष्टिगत होता है। जिस
समय अंग्रेजों ने देश का पूरा आयात-निर्यात अपने हाथों में ले लिया था उस समय
उनके देश में अपने व्यापार की एक भी हिंदू पेढ़ी (आढ़त) नहीं थी। अंतिम
बाजीराव के अंत:पुर में कितनी दासियाँ हैं, उनमें से कितनी बातें करनेवाली,
कौन-कौन विश्वासघाती हो सकती हैं, इतनी गहरी जानकारी जब पुणे के पास के द्वीप
के कार्यालय में रहा करती थी तब भी इंग्लैंड देश है कहाँ, अंग्रेजी साम्राज्य
है कितना बड़ा, उनके शत्रु कौन हैं, उनका बल कितना है ऐसी मोटी जानकारी भी
स्वयं देखकर बता सके, ऐसा कोई भी हिंदू उनके देश नहीं गया था। फ्रांसीसियों के
संबंध में जानकारी अंग्रेजों के मुँह से और अंग्रेजों की जानकारी फ्रांसीसियों
द्वारा, वह भी उनके स्वार्थ प्रेरित उलटी-सुलटी, जो भी हो वह, ऐसी हमारी
स्थिति थी।
राजमुकुट जाने दिया,पर मुकटा
[1]
बचाया
अंतिम पेशवा का वकील एक ही बार विलायत गया था, तो उसके जात चले जाने के पाप
का प्रायश्चित्त उसे योनि प्रवेश कराकर करवाया गया था। योनि प्रवेश का नाटक एक
योनि जैसी गुफा से होकर आना था। यह नाटक पूरा होते ही उस वकील को शुद्ध मानकर
जात-बिरादरी में ले लिया गया। जैसे हजारों अंग्रेज हिंदुस्थान में आए वैसे ही
लाखों हिंदू व्यापारी, सैनिक, विद्वान् यूरोप में जाते-आते रहते, तो क्या
उनकी कला, उनका व्यापार, उनका अनुशासन, उनकी खोजें हमें आत्मसात् न होतीं?
मराठा दरबार के काले, बर्वे, हिंगणे जैसे धुरंधर वकील, राजदूत बनकर लंदन,
पेरिस, लिस्बन में रहते तो क्या जैसे हमारी फूट का लाभ उन्होंने लिया, वैसे
उनकी फूट का लाभ हम न लेते? पर रास्ता काट गई जात- बिरादरी और छुआछूत की
बिल्ली। अंतिम बाजीराव का राज्य छीना गया, उसकी जात नहीं गई; पर यदि पूर्व
में उल्लिखित पांड्य राजा जैसा वह लंदन पर चढ़ाई करता तो नि:संशय उसकी जात चली
गई होती।
समाज का शरीर कुरेदनेवाला जातीय पागलपन
भारत का स्थल-बल इस तरह निर्बल हुआ। भारत का जल-बल, वे जहाज, वे नौसाधन, जो
दसवीं सदी तक सागर की छाती पर हिंदू ध्वज फहराते, संचार करते रहे, वे तो समूल
डूब गए। डूबे भी कहाँ, महासागर के जल में नहीं, अहिंदुओं के खड्ग की धार के
पानी में नहीं, वे तो डूबे हिंदुओं के जाति बंधन के चुल्लू भर पानी में। आज भी
सात करोड़ अस्पृश्य मुसलमानों की संख्या के बराबर का बल किसी कटे हुए हाथ की
तरह निर्जीव पड़ा है इसी जाति बंधन के पागलपन में। करोड़ों हिंदू धर्म
परिवर्तित कर रहे हैं केवल इस जाति बंधन के कारण। वे सारे अब्राह्मण, सत्यशोधक
फूटकर निकले केवल इस जाति बंधन के कारण। ब्राह्मणों के जाति अहंकार को जो
सत्यशोधी पंथ समता के अत्युच्च बिंदु तक जाकर अपने लिए कुछ प्राप्त कर लेता है
वही पंथ उससे निचली जाति के द्वारा वैसी ही समता की माँग करने पर लाठी लेकर
पिल पड़ता है केवल जाति बंधन के पागलपन में। ब्राह्मण क्षत्रियों के ब्राह्मण
बनना चाहते हैं, क्षत्रिय शूद्रों के ब्राह्मण बनना चाहते हैं, शूद्र
महाशूद्रों के ब्राह्मण बनते हैं। इस तरह यह पागलपन केवल ब्राह्मणों तक ही
सीमित न रहकर अब्राह्मण चांडाल तक पूरे हिंदू समाज के ही मांस-मज्जा में घुसा
हुआ है। पूरा समाज-शरीर इस जाति अहंकार के, जाति मत्सर के, जाति कलह के क्षय
रोग से गलित गात हुआ है।
उपेक्षा की तो?
हिंदू राष्ट्र के आज के अतिहीनत्व के लिए जातिभेद का यह विकृत स्वरूप चाहे
एकमात्र कारण न भी माना जाए, परंतु वह अनुपेक्षणीय कारण तो है ही, यह
उपर्युक्त संक्षिप्त विवेचन से साफ दिखता है और इसीलिए ऐसी स्थिति में अपने
हीनत्व के बाह्य कारणों का उन्मूलन करने का प्रयास करते हुए ही इसके अंतर्गत
क्षय रोग का भी उपचार करना, हम सबका एक अति आवश्यक कर्तव्य हो जाता है। हिंदू
राष्ट्र के लिए जो स्वतंत्रता हमें प्राप्त करनी है वह जातिभेद से जर्जर हुआ
राष्ट्र-पुरुष कदाचित् प्राप्त भी कर ले, फिर भी इस रोग का उपचार होने से
उसका निर्मूलन न हुआ तो स्वतंत्रता प्राप्त करना पूर्णतः कठिन हो जाएगा या उसे
प्राप्त करते ही उसको गँवाने की प्रक्रिया शुरू हो जाएगी।
परंतु जातिभेद के आज के विकृत और घातक स्वरूप को समाप्त करने का प्रयास करते
हुए इस संस्था में जो कुछ गुण या अच्छाइयाँ हैं वे भी नष्ट न हो जाएँ, इसके
लिए हमें यथासंभव सावधान रहना चाहिए। पाँच हजार वर्ष तक जो संस्था राष्ट्र जीवन
के अणुरेणु से संबद्ध रही है उसमें आज कुछ भी अच्छाइयाँ नहीं हैं और पहले भी
कुछ अच्छा नहीं था-ऐसा किसी आवेश में आकर मानना पूरी तरह मिथ्या होगा। इसलिए
इस लेखमाला में जातिभेद के मूल में कौन से तत्त्व थे, उसका हितकर भाग कौन सा
था, उसकी प्रवृत्ति क्या थी और विकृति क्या थी और किस तरह उसमें की अच्छाइयों
को न छोड़ते हुए जो हानिकारक है उसे यथासंभव हम टाल सकते हैं, इसका यथावकाश
विवेचन करने की योजना है।
(केसरी, २९.११.१९३०)
२. सनातन धर्म माने जातिभेद नहीं
जातिभेद के दोष निकालने, उसे सुधारने या उसे पूरी तरह नष्ट करने में
जनसामान्य का जो कड़ा विरोध होता है उसके मूल में अधिकतर यह भ्रांति होती है
कि जातिभेद सनातन धर्म है या कम-से-कम वह सनातन धर्म का अति महत्त्व का घटक है
और इस कारण जातिभेद के नष्ट होते ही सनातन धर्म ही नष्ट हो जाएगा-यह मिथ्या भय
जाने-अनजाने मन में बना रहता है। इसलिए जातिभेद के इष्ट अनिष्ट तत्त्वों की
खुलासा चर्चा करने के पहले यदि हम हिंदू समाज में फैली हुई यह भ्रांति और भय
दूर कर सकें तो चर्चा के पूर्वग्रह-ग्रस्त होने की आशंका काफी कम होगी और
बुद्धि-विवेक आधारित उस चर्चा से निकले अपरिहार्य सिद्धांतों का सामना अधिक
निर्भयता से हो सकेगा।
'धर्म'शब्द के
अर्थ
पहले ही संक्षेप में यह कह देना आवश्यक है कि जब हम 'सनातन' विशेषण जातिभेद,
विधवा विवाह, मांसाहार निषेध या ऐसे ही किसी आचार के लिए लगाते हैं तब उसका
अर्थ 'सनातन धर्म' में निहित 'सनातन' शब्द के अर्थ से भिन्न होता है।
अंग्रेजी के LAW शब्द का विकास और पर्याय होते-होते उसमें जैसे अलग-अलग अर्थ
समाहित होते चले गए, वैसे ही 'धर्म' शब्द के भी पर्याय से भिन्न-भिन्न भाव
होते गए।
Natural Law माने प्राकृतिक धर्म या गुण या नियम। जैसे पानी का धर्म द्रवत्व,
पृथ्वी का धर्म गुरुत्वाकर्षण यानी Law of gravity-एक अर्थ हुआ। दूसरा अर्थ
होगा इन प्राकृतिक नियमों के, इस प्रकृति के ही मूल में स्थित ऐसा नियमों का
नियम और उसका पालन करनेवाली या उसे भी अपने नियंत्रण में रखनेवाली जो शक्ति
है, उस आदिशक्ति (आदि नियमों) का शोध। इसी आदिशक्ति पर जब विचार किया जाता है,
उसका शोध किया जाता है, जिससे विचार एवं शोध का संपादन किया जाता है तब उस
सबको भी धर्म ही कहा जाता है। पर वहाँ उसका अर्थ तत्त्वज्ञान होता है।
आदिशक्ति या आदि नियमों के प्रकाश में अपना ध्येय निश्चित कर उसकी प्राप्ति के
लिए मनुष्य अपनी ऐहिक और पारलौकिक यात्रा कैसे करे-इस सबका विवरण जो दे वह भी
धर्म है, पर यहाँ उसका अर्थ पंथ, मार्ग, A Religion, A Sect, A School ऐसा
कुछ होगा। उन सामान्य और प्रमुख नियमों का और सिद्धांतों का निर्वाह करते हुए
जीवन के नाना प्रसंगों और संबंधों के लिए जो अनेक उपनियम बनाए जाते हैं-वे भी
धर्म हैं। पर यहाँ उसका अर्थ कर्मकांड, विधि, आचार, Religious Rites,
Religious Laws ऐसा होता है। 'बाइबिल' में जब The Law, The Book of the Law
ऐसा कहा जाता है तब Law का अर्थ यही होता है। ईश्वरकृत समझे जानेवाले या
ईशप्रेरित बताए गए धर्म-नियमों से अंशतः स्वतंत्र रहकर और सापेक्षतः अधिक
परिवर्तनशील मनुष्यकृत नियमों का उल्लेख करना पड़ता है तब उन्हें भी धर्म
(Laws) कहा जाता है। परंतु उसका अर्थ वहाँ विधि (Political Laws) होता है।
धर्म शब्द के ऐसे भिन्न-भिन्न अर्थ और उनमें स्थित अंतर ध्यान में न लिये जाने
से ही सनातन धर्म माने जातिधर्म, और जातिधर्म माने सनातन धर्म-की भ्रांति
उत्पन्न होती है।
धर्म और आचार
परंतु जब 'धर्म' शब्द के साथ 'सनातन' विशेषण लगाया जाता है तब उसका अर्थ
ईश्वर, जीव और जगत् के स्वरूप के संबंध में तथा उनके परस्पर संबंधों का विवरण
करनेवाला शास्त्र और उसके सिद्धांत, तत्त्वज्ञान हो जाता है। कारण कि
आदिशक्ति का स्वरूप, जगत् का आदिकारण और आदि नियम-ये सारे वास्तव में सनातन,
शाश्वत एवं त्रिकाल बाधित हैं। भगवद्गीता में या उपनिषदों में इस संबंध में जो
सिद्धांत प्रकट किए गए हैं वे ही सनातन हो सकते हैं। क्योंकि जगत् का आदिकारण
और उसकी इच्छा या शक्ति बदलना मनुष्य शक्ति के बाहर है। वह जो है वह है और
वैसा ही निरवधि रहेगा। मनुष्यमात्र नष्ट हो जाए तो भी वह 'नियम' नष्ट
होनेवाला नहीं। मनुष्य तो क्या, यह पूरी पृथ्वी भी यदि कोई धूमकेतु अपने जलते
जबड़े में किसी सुपारी की तरह कड़कड़ाकर, चबाकर निगल जाए तब भी उस महान् धर्म
के अस्तित्व को रत्ती भर भी आघात पहुँचनेवाला नहीं है, उलटे वह घटना उसके उस
सनातन अस्तित्व का और एक साक्ष्य ही होगी। इसलिए धर्म के इस अर्थ के साथ ही
'सनातन' विशेषण समुचित एवं संपूर्णता से लागू हो सकता है। अर्थात् जिसका जीवन
अत्यंत अशाश्वत है, उस मनुष्यजाति के जीवन पर ही अवलंबित रहनेवाले, जिसके
रंग-रूप अत्यंत अशाश्वत हैं-ऐसी मनुष्यजाति के अल्पकालीन इतिहास में भी अनेक
बार बदलाव स्पष्ट दिखते हैं। उसी मनुष्य निर्मित, कृत्रिम और मनुष्य की इच्छा
के अनुसार ही भंग होनेवाली जातिभेद, अस्पृश्यता या वर्णाश्रम व्यवस्था जैसी
संस्थाओं को हम जब धर्म कहते हैं तब उस धर्म के साथ उस अर्थ में सनातन,
शाश्वत, अनश्वर आदि विशेषण लगाना कभी भी पूरी तरह सार्थक नहीं होता, क्योंकि
वहाँ 'धर्म' शब्द का अर्थ आचार होता है। त्रिकाल बाधित आदि तत्त्वों के आदि
नियम जैसा अर्थ वहाँ लागू नहीं होता। आचार मनुष्य प्रीत्यर्थ एवं मनुष्यकृत
हैं, अतः वे नश्वर और अशाश्वत होंगे ही और इसीलिए केवल जातिभेद की तो बात ही
क्या, पूर्ण पुरातन कर्मकांड भी यदि बदला गया तब भी सनातन धर्म का डूबना संभव
नहीं। सनातन धर्म को डुबोना मुट्ठी भर सुधारकों की तो क्या, स्वयं मनुष्यजाति
के बस की बात भी नहीं है। साक्षात् ईश्वर के भी हाथ का है या नहीं यह कहना भी
कठिन है।
और यह जो विश्व का सनातन धर्म है उसे ही हम हिंदू सनातन धर्म कहते हैं। हम उसी
के अनुयायी हैं कि जो प्रलय के बाद भी रहता है और जन्म के पहले भी। जो
त्रैगुण्य विषय वेदों के भी पार निरस्त्रैगुण्य प्रदेशों को ही 'विश्वतो
कृत्वा अत्यतिष्ठद्दशांगुलम्', वह हम हिंदुओं का सनातन धर्म है। शेष सारे
आचार, मनुष्य सापेक्ष धर्म, मनुष्य के द्वारा धारण करने की युक्तियाँ हैं। जब
तक उसके द्वारा योग होगा तब तक वह धारण रहेगा, तब तक उस धर्म का, उन आचारों
का हम पालन करेंगे, नहीं तो बदलेंगे, नहीं तो उन्हें डुबो देंगे, नहीं तो
नई स्थापना करेंगे। उसे बदलने से या डुबोने से हम हिंदुओं का सनातन धर्म बदलेगा
या डूबेगा-यह डर हमें त्रिकाल भी स्पर्श नहीं कर सकता।
धर्म के जो मूल तत्त्व हैं वे स्वभावतः ही सनातन हैं। जो आचार हैं वे आचार,
धर्म स्वभावतः ही परिवर्तनशील हैं और होने चाहिए, क्योंकि-
'न हि सर्वहितः कश्चिदाचारः संप्रवर्तते।
तेनैवान्यः प्रभवति सोऽपरो बाध्यते पुनः॥'
आज जातिभेद के आचार को हम बदलना चाहते हैं। इस आचार को बदलने का यह कोई पहला
अवसर हिंदू समाज में नहीं आया है। ऐसा होता तो सनातन धर्म को धक्का लगने का भय
होता और फिर उसपर विचार करना पड़ता। परंतु आज तक ऐसे सैकड़ों अवसर आए हैं और
इसीलिए हिंदू समाज आज भी जीवित है। अन्य सारी बातें छोड़ दें और केवल
'कलिवर्ज्य' प्रकरण पर ही विचार करें तो भी पर्याप्त होगा। धर्म के अत्यंत
महत्त्वपूर्ण माने जानेवाले संन्यास और नियोग जैसे पूर्व युग के अपने आचार, एक
श्लोक के आघात से इस युग में वर्ण्य मान लिये गए, क्योंकि स्मृतिकारों को ऐसा
लगा कि समाज धारण का कार्य बदली हुई परिस्थिति में उनसे नहीं हो सकता। परंतु
उसके कारण सनातन धर्म डूब गया ऐसा सनातन कहलानेवालों को भी नहीं लगता। उलटे इस
कलिवर्जन को ही सनातन धर्म के मुख्य आचारों में से एक आचार मानते हैं। वास्तव
में देखा जाए तो चातुर्वर्ण्य ही सनातन धर्म है-यह कहनेवाले लोगों को ही उस
चातुर्वर्ण्य का उच्छेद करनेवाले जातिभेद का कट्टर शत्रु होना चाहिए था। परंतु
आश्चर्य यह कि ये लोग चातुर्वर्ण्य और जातिभेद दोनों को ही सनातन धर्म मानते
हैं और जातिभेद के आज के अत्यंत विकृत स्वरूप को ही उठाए रखते हैं कि यदि उसे
पलटा गया तो सनातन धर्म डूब जाएगा। इस घोटाले का कारण, धर्म और आचार में जो
अंतर है और जिसे हमने प्रारंभ में ही स्पष्ट किया है, उसकी ओर ध्यान नहीं
देता है। चातुर्वर्ण्य और जातिभेद दोनों ही आचार हैं, सनातन धर्म नहीं है।
चातुर्वर्ण्य के आचार में आकाश-पाताल का भेद होने से जातिभेद का आचार चालू
हुआ, लेकिन इस उलट-फेर से जैसे सनातन धर्म नहीं डूबा वैसे ही जातिभेद का आज का
विकृत रूप नष्ट होने से भी वास्तविक सनातन धर्म अर्थात् ईश्वर, जीव, जगत् के
स्वरूप और आदि तत्त्व और नियम के सत्य सिद्धांत डूब नहीं सकते।
चातुर्वर्ण्य का उच्छेद है जातिभेद
उपर्युक्त विधान हमने पूर्व में ही किया है। जातिभेद की लाभ-हानि की मीमांसा
करने का इस लेखमाला का जो हेतु है उसके उपक्रम में ही चातुर्वर्ण्य और जातिभेद
में जो महान् अंतर है, उसको और थोड़ा स्पष्ट करने से पाठकों के मन में उठ
सकनेवाले दूषित पूर्वग्रह और पूर्वभय का निराकरण हो जाएगा। चातुर्वर्ण्य माने
चार वर्ण। वे चार वर्ण गुण-कर्म विभागशः सृष्टित किए हुए हैं, जन्मजात नहीं;
क्योंकि सृष्टम् पद का संबंध चातुर्वर्ण्य शब्द से जुड़ा है। 'चातुर्वर्ण्य
मया सृष्टम्' माने मैंने चातुर्वर्ण्य संस्था उत्पन्न की। उसमें गुण-धर्म के
अनुसार लोगों को जन्म देता हूँ और वंश परंपरा भी देता रहता हूँ-इस अर्थ का कोई
उल्लेख इस श्लोक में नहीं है। लोकमान्य तिलकजी ने केसरी के लिए ट्रस्ट बनाया
जब ऐसा कहा जाएगा तब उस ट्रस्ट के ट्रस्टियों का मंडल (Board of Trustees) भी
उन्होंने जन्मजात बनाया या वंश परंपरा नियुक्त किया-ऐसा यत्किंचित् भी अर्थ
उसमें से नहीं निकलता। उलटे हर कोई 'जन्मना जायते शूद्रः', जन्मतः वह केवल
शूद्र ही होता है। आगे संस्कार आदि से द्विजत्व आदि अधिकार प्राप्त करता है,
ऐसा स्मृतिकार स्पष्टतः कहते हैं। परंतु वह वाद भी कुछ देर के लिए अलग रखकर
चार वर्णों की बात ही स्वीकार करें और पंचम वर्ण को मानें ही नहीं। फिर हिंदू
समाज में चातुर्वर्ण्य का ही पालन करें ऐसा कहनेवाले मेरे सनातन धर्माभिमानी
सात करोड़ अस्पृश्य हिंदुओं को शूद्रों के अधिकार देने के लिए तैयार होंगे
क्या?
'ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यः त्रयो वर्णाः द्विजातयः।
चतुर्थरेकजातिस्तु क्षुद्रो नास्ति तु पंचमः॥'
ऐसा पुरातन वचन है। फिर यह पंचम वर्ण पूरी तरह समाप्त करना चातुर्वर्ण्य
अभिमानियों का कर्तव्य नहीं है क्या? यदि इतना भी हो गया तो जातिभेद के कारण
हिंदू राष्ट्र की हो रही हानि की बहुत बड़े परिमाण में भरपाई हो जाएगी। परंतु
अस्पृश्यता रखनी ही चाहिए। सात करोड़ हिंदुओं को हमें म्लेच्छों से भी हीन
दृष्टि से देखना और उनसे भी नीचतर पद्धति से रखना ही चाहिए। जिस हाथ को कुत्ते
के स्पर्श से छूत नहीं लगती वह हाथ अंबेडकर जैसे श्रेष्ठ विद्वान् को स्पर्श
नहीं कर सकता-ऐसा कहकर जो इस पंचम वर्ण का निर्माण कर, चातुर्वर्ण्य व्यवस्था
पर कालिख पोतते हैं वे ही चातुर्वर्ण्य के संरक्षक कहलाते हैं और हम जो पंचम
वर्ण की बात स्वीकार न करके अस्पृश्यता नष्ट कर अपने सात करोड़ धर्म-बंधुओं को
सभी हिंदुओं की तरह चातुर्वर्ण्य में समाविष्ट कर लेते हैं और चातुर्वर्ण्य को
यथावत् पुनः प्रस्थापित करना चाहते हैं तो वे हमें चातुर्वर्ण्य-द्वेषी और
चातुर्वर्ण्य को डुबोकर सनातन धर्म डुबोने के लिए निकले पाखंडी कहते हैं-यह
कितना बड़ा मतिभ्रम है!
यह बात कुछ देर के लिए अलग रखें और चार वर्ण जन्मजात ही होते हैं, यह भी
चर्चा के लिए गृहीत मान लें, वैसे ही यह भी मान लें कि ये पंचम वर्णी करोड़ों
अस्पृश्य भी चातुर्वर्ण्य की संस्था को ही पकड़े बैठे हैं, पर कम-से-कम वे जो
मुख्य चार वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र हैं, वे तो केवल चार ही
थे। जन्मजात ही कह लें, पर हिंदू समाज में केवल चार ही विभाग थे और उन चारों
में परस्पर विवाह आदि होते थे। ये बातें पितृ सावर्ण्य, मातृ सावर्ण्य आदि
आचारों के स्मार्त व्यवस्था से सिद्ध होते हुए भी उसे न देखते हुए यह कहें कि
भई इतना तो सच है न कि उन चार विभागों के हर एक में बेटीबंदी और रोटीबंदी नहीं
थी। सारे ब्राह्मण इकट्ठे बैठ सकते थे, आपस में विवाह कर सकते थे, वैसे ही
करोड़ों शूद्रों के वर्ग आपस में खाते-पीते, विवाह करते थे। पर आज जातिभेद की
स्थिति क्या है? अकेले ब्राह्मणों में सैकड़ों जातियाँ हैं। क्षत्रियों में
सैकड़ों हैं, वैश्यों में सैकड़ों और शूद्रों में तो हजारों जातियाँ हैं।
जितने पंथ उतनी जातियाँ। जितने प्रांत उतनी जातियाँ। जितने व्यवसाय उतनी
जातियाँ। जितने पाप उतनी जातियाँ, जितने अन्न उतनी जातियाँ। अब जो जातियाँ
हैं उनका समर्थन जिन तत्त्वों से किया जाता है उन तत्त्वों के अनुसार वे उतनी
ही रहनी चाहिए। उन सबको बेटीबंद किया इस जातिभेद ने। चातुर्वर्ण्य में
बेटीबंदी थी-यह मान भी लिया तो भी रोटीबंदी तो कभी नहीं थी। राम भिलनी के झूठे
बेर खा सकते थे। कृष्ण दासीपुत्रों के घर भात खाते थे, ब्राह्म ऋषि द्रौपदी
की थाली की सब्जी खाते थे और सूत्रकार आज्ञा देते हैं-'शूद्राः पाककर्तारः
स्युः' परंतु भाग के विभाग, विभाग के खंड, खंडों के भी राई-राई जैसे
टुकड़े-रोटीबंद, लुटियाबंद, बेटीबंद, संबंधशून्य, सहानुभूतिशून्य-कर डाले
इस जातिभेद ने। और इस जातिभेद का पालन करते हुए हम चातुर्वर्ण्य का ही परिपालन
कर रहे हैं-ऐसा समझते हैं। सच में यदि चातुर्वर्ण्य को ही सनातन धर्म कहें तो
सनातन धर्म का यदि कोई कट्टर शत्रु हो तो वह जातिभेद को समाप्त करने निकला
सुधारक न होकर जातिभेद को ही सनातन मानकर उठाए चलनेवाला सनातन धर्माभिमानी ही
होगा।
(केसरी, २.१२.१९३०)
३. चार वर्णों की चार हजार जातियाँ
पूर्ववर्ती लेख में वर्णित स्थिति यदि किसी को असह्य या अतिशयोक्ति लगती हो तो
वह जातिभेद की नीचे दी हुई किसी भी स्थिति में नकार न सकनेवाली आज की
वस्तुस्थिति को एक बार सोच-समझकर देखे। जिन तत्त्वों और कारणों से अपने हिंदू
समाज के टुकड़े हुए उनमें से कुछ का उल्लेख परिचय मात्र के लिए कर रहा हूँ।
पूर्व के केवल चार या बहुत कहें तो पाँच वर्गों के आज हजारों वर्ण और जातियाँ
कैसे हुईं? यदि वह पहले का जातिभेद सनातन धर्म हो तो आज का जातिभेद उस सनातन
धर्म का कितना बीभत्स भ्रम हुआ है और फिर भी उसे सनातन धर्म मानना अपनी ही बात
काटना-'वदतो व्याघात' होता है।
हिंदू राष्ट्र के मुख्य चार भाग जिस कल्पना से बनाए गए, उसको यहाँ-
१. वर्ण-विशिष्ट जातिभेद- कहें तो इसमें ब्राह्मण,
क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और अधिक पंचम या अतिशूद्र आते हैं। परंतु इन चार
वर्णों के अस्तित्व और व्यवस्था के संबंध में आज कहीं भी एकवाक्यता नहीं है।
'कलावाद्यंतयोः स्थितिः' कहकर क्षत्रिय, वैश्य वर्ण अब बिलकुल भी अस्तित्व
में नहीं हैं, कुछ लोग ऐसा मानते हैं। तब भी छत्रपति शिवाजी से लेकर सोमवंशीय
महार संघ तक अन्य अनेक जातियाँ और व्यक्ति अपना क्षत्रियत्व स्थापित करते हैं।
इस मुख्य वर्ण-विशिष्ट भेद में फिर से जिससे उपभेद पैदा हुए वह दूसरा है-
२. प्रांत-विशिष्ट जातिभेद- ब्राह्मणों में पंजाबी ब्राह्मण,
मैथिली ब्राह्मण, मराठी ब्राह्मण और मराठी ब्राह्मणों में फिर से कन्हाड़े,
पलसे, देवरुखे, देशस्थ, कोकणस्थ, गौड़, द्राविड़, गोवर्धन। इधर के
सारस्वतों की उधर के सारस्वतों से रोटीबंदी, बेटीबंदी; तेलुगु में तमिलों की
नंबूदरी से रोटी-बेटीबंदी; वही स्थिति क्षत्रियों की, वैसी ही वैश्यों की,
वही शूद्रों की। कोकणस्थ वैश्य अलग, देशस्थ अलग, कोकणस्थ कासार अलग, देशस्थ
अलग; यही स्थिति महार, चमार और डोम की भी। इनमें भी पंजाब, बंगाल, मद्रास
या अन्य प्रांत की भिन्नता और वही रोटी-बेटीबंदी। बंदी की अभेद्य किलेबंदी फिर-
३. पंथ-विशिष्ट जातिभेद- वर्ण एक ब्राह्मण, प्रांत एक जैसे
बंगाल, परंतु एक वैष्णव, दूसरा बाझो, तीसरा शैव तो चौथा शाक्त। वर्ण एक
वैश्य, प्रांत एक गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक, मद्रास या पंजाब; परंतु एक
जैन वैश्य, दूसरा वैष्णव वैश्य, तो तीसरा लिंगायत वैश्य, रोटीबंदी,
बेटीबंदी, किलाबंदी। बौद्ध, जैन, वैष्णव, सिख, लिंगायत, महानुभाव,
मातंगी, राधास्वामी, ब्राह्मो जो-जो पंथ निकले उनमें प्रत्येक की
महत्त्वाकांक्षा यह कि वह जिस समाज का एक अभिन्न अंग था उससे रोटी-बेटीबंदी की
दुहत्ती तलवार से साफ काटकर अलग हो जाए और नए पंथ ने यदि कहीं यह कार्य करने
में कोई चूक की तो पुराने-सनातनी बहिष्कार की तीसरी तलवार चलाकर उस अंग को
मुख्य देह से काटकर अलग कर देंगे। परंतु इस तरह वह कटा हुआ अंग और यह कटी हुई
देह दोनों के घायल होने, दोनों की जीवनशक्ति क्षीणतर होने की अनुभूति किसी को
भी नहीं होती। इन वर्ण, प्रांत, पंथ तीन विशिष्ट भेदों से अलग और इन तीनों
से अधिक हानिकर एक चौथा-
४. व्यवसाय-विशिष्ट जातिभेद- का पहाड़ टूट पड़ा। इस
व्यवसाय-विशिष्ट जातिभेद ने तो कहर ढाया है। वर्ण के हिसाब से तो कम-से कम
हिंदू राष्ट्र का नौ-दस करोड़ का समूह एक रहना चाहिए था। परंतु अभाग्य को वह
सहन न हुआ और उस समूह के व्यवसाय-विशिष्ट, कर्मनिष्ठ जातिभेद ने
टुकड़े-टुकड़े कर डाले। इस एक शूद्र वर्ण की प्रांतवार अलग-अलग जातियाँ हुई ही
थीं। पंथ के कारण उसमें पुनः विभाग हुए। ठठेरे, माली, नाई, सोनार, बुनकर,
लोहार, बढ़ई, दरजी ऐसे कितने ही और ये जातियाँ केवल दुकानों तक ही नहीं थीं
अपितु जनम-जनम की वंश परंपरा, रोटीबंदी, बेटीबंदी, किलाबंदी! ये जातियाँ भी
मुख्य व्यवसाय तक ही सीमित नहीं थीं अपितु एक मुख्य व्यवसाय की जैसी स्वतंत्र
जाति वैसी ही और उन्हीं तत्त्वों पर और क्रम से उस व्यवसाय के उपांग की भी
उतनी ही रोटीबंद, बेटीबंद अलग जाति। जैसे कटक प्रांत के कुम्हारों की जाति
देखें-उनमें कुछ बैठकर चाक चलाते हैं और छोटे मटके बनाते हैं तो कुछ खड़े होकर
चाक चलाते हैं और बड़े मटके बनाते हैं। बस इतने ही अंतर से उनकी दो अलग
जातियाँ हो गईं और जाति के अर्थ जन्मजात, बेटीबंद, सारे संबंध कटे हुए। कुछ
ग्वाले कच्चे दूध से मक्खन निकालते हैं, उनकी अलग जाति हो गई और दूध गरम कर
मक्खन निकालनेवाले ग्वालों से उनका बेटी-व्यवहार बंद हो गया। एक मछुआरे की
जाति है, उनमें जो मछुआरे दाएँ से बाएँ जाल बुनते हैं वे अलग हैं और जो बाएँ
से दाएँ जाल बुनते हैं वे अलग हैं, उनमें बेटीबंदी हो गई।
यह पूरा ब्रह्म घोटाला यदि किसी को सचमुच सनातन धर्म का आधार और विकास लगता हो
तो उस सनातनी को चाहिए कि वह आज निर्मित हो रही नई जातियों को भी लागू कर
सनातन धर्म की ध्वजा और ऊँची करे। वह केवल लेखनी से लिखनेवाले बाबुओं की जाति
अलग करे, टंक लेखकों (Typist) की अलग जाति बनाए। जाति माने रोटीबंद,
बेटीबंद, किलाबंद। रेलगाड़ीय ब्राह्मणों की एक जाति घोषित करे और मोटरीय
ब्राह्मणों की दूसरी। नाइयों में भी ऐसी दो जातियाँ वह बनाए-पुराने ढर्रे और
छुरे से हजामत बनानेवाली नाई जाति और विलायती उस्तरे तथा मशीन से हजामत
बनानेवाले नाई। दोनों के बीच रोटीबंद-बेटीबंद।
अंत में यह कहना उचित होगा कि पूर्व में हमने कुछ जातियों को जो शूद्र कहा है
वह पुराने धर्ममार्तंडों की परंपरा की भाषा का अनुवाद है। उनमें से कुछ अपने
को क्षत्रिय मानते हैं और उन्होंने अपने को शुद्ध ब्राह्मण भी कहा तो हमें कोई
आपत्ति नहीं है; क्योंकि हम गुण के सिवाय केवल बाप की अनुशंसा पर किसी को
ब्राह्मण या शूद्र नहीं मानते हैं। और वैसे गुण होंगे तो हम भंगी के बेटे को
भी ब्राह्मण मानने को तैयार हैं। कर्म के संबंध में तो हम मानते हैं कि सारे
ही कर्म समाज-धारण के लिए आवश्यक और सम्माननीय हैं। अपने इस हिंदू राष्ट्र के
विराट् शरीर के खड़े और पड़े ऐसे शताधिक टुकड़े करने के बाद भी चूँकि भेदासुर
का समाधान नहीं हुआ, इसलिए उसने उसपर जो तिरछे वार करना प्रारंभ किया, वह
पाँचवाँ है-
५. आहार-विशिष्ट जातिभेद- वर्ण, प्रांत, पंथ, व्यवसाय एक
है, पर शाकाहारी जो हैं उनकी एक जाति और मांसाहारियों की दूसरी। फिर उस
मांसाहारी परिवार में कोई शाकाहार करने भी लगे तब भी उसकी एक बार जो जन्मजात
निश्चित हुई वही वंश-परंपरा रहेगी। मांसाहारी ब्राह्मण, शाकाहारी ब्राह्मण।
मांसाहारी आर्य, शाकाहारी आर्य। मांसाहारी में भी मछली खानेवाले ब्राह्मणों की
एक जाति, तो मुरगा खानेवालों की दूसरी और बकरा खानेवालों की तीसरी। इस क्रम
में और इसी आधार पर प्याज खानेवाली बहू की एक और आलू खानेवाली सास की दूसरी और
लहसुन खानेवाले लड़के की तीसरी जाति नहीं हुई इतना ही सौभाग्य। अपने इधर के
ब्राह्मणों को दिए जानेवाले सीधे पर जिस निष्पाप बुद्धि से ककड़ी रखी जाती है
वैसे ही बंगाली ब्राह्मणों के सीधे पर एक लंबी मछली रखी जाती है। परंतु
'विष्णुना धृतविग्रहः' मछली खाना महापाप समझनेवाले कनौजिया ब्राह्मण इससे
क्रोधित होकर उस मत्स्याहारी ब्राह्मण की जाति से रोटीबंदी करके संबंध तोड़कर
केवल बकरे का मांस, वैदिक धर्म मानकर स्वीकार करता है। परंतु इन सब भेदकारक
आधारों को भी मात देनेवाला जातिभेद का एक प्रकार अभी शेष है और वह है-
६. संकर-विशिष्ट जातिभेद- प्रकृति के विक्षिप्त भाव से यदि
किसी स्त्री के पेट से साँप जन्म ले तो उस संतान से उस स्त्री को भय उत्पन्न
होगा, वैसे ही जिन स्मृतियों ने संकर-विशिष्ट जातिभेद को जन्म दिया वे
स्मृतियाँ भी अपना डरावना प्रसव देखकर थर-थर काँपने लगीं। मूल चार वर्ण और
उनके अनुलोम, प्रतिलोम पद्धति के प्रथम वर्ग के संकरों की गिनती कर उनके लिए
नामों की योजना भी स्मृतिकारों ने की। ब्राह्मण स्त्री और शूद्र पुरुष के संकर
से चांडाल हुआ। फिर चांडाल पुरुष और ब्राह्मण स्त्री से अतिचांडाल हुआ। फिर से
अतिचांडाल पुरुष और ब्राह्मण स्त्री का संकर-उनका फिर से संकर, उनका फिर से
संकर माने अति-अति-अति-अति चांडाल! पर फिर संकर है ही। ऐसे अनंत भेद, केवल
ब्राह्मण प्रतिलोम के। उतने ही अनंत क्षत्रिय प्रतिलोम के, उतने ही वैश्य
प्रतिलोम के, उतने ही शूद्र प्रतिलोम के। उसमें यदि एक अनंत का दूसरे, तीसरे
अनंत से हुए प्रतिलोमों को लें और उसमें उतने ही अनुलोमी संकर के अनंत मिला दें
तो केवल चार वर्णों से उत्पन्न संकरों की संख्या की गिनती अंकगणित की क्षमता
के बाहर होगी। उसमें उस वर्ण के बाद में उत्पन्न हुए व्यवसाय आदि उपर्युक्त
जातियों के परस्पर संकर जोड़ दिए तो मनुष्य जातियों की काल्पनिक संख्या अनंत
गुना हो जाएगी। ऐसा विचार करते-करते हारकर स्वयं स्मृतिकार ही कहते हैं कि
संकरोत्पन्न जाति की संख्यानास्ति! संख्यानास्ति, संख्यानास्ति! सौभाग्य इतना
ही कि इस सारी व्यवस्था की अनवस्था केवल स्मृतिकारों की कल्पना में ही तैरती
रही और वह कभी व्यवहार में नहीं उतरी।
वर्तमान जातिभेद के मूल में स्थितभेद-आधारों में से काफी मान्य, प्रमुख और
प्रचलित वर्ण, प्रांत, पंथ, व्यवसाय, आहार, संकर आदि कुछ आधार ही यहाँ
उदाहरण के लिए प्रस्तुत किए गए हैं। जातिभेदों में पाप-विशिष्ट जातिभेद, जैसे
महापाप करनेवाले बहिष्कृतों की जाति, वंश-विशिष्ट जाति, जैसे यक्ष, रक्ष,
पिशाच आदि कई भेद छोड़ दिए गए हैं।
जातिभेद के वर्तमान स्वरूप की ऐसी भयावह रूपरेखा है। हम अपने सारे हिंदू
बंधुओं से साग्रह यह निवेदन करते हैं कि वर्तमान समय के जातिभेद पहले की
चातुर्वर्ण्य व्यवस्था का अति विकृत विध्वंसात्मक रूप है, इसलिए हम जो कह रहे
हैं, वह क्यों कह रहे हैं, उसे समझने के लिए इस रूपरेखा का कम-से-कम एक बार
तो ध्यान से निरीक्षण करें। अपनी राष्ट्र-देह के रोटीबंद, बेटीबंद, किलाबंद
जैसे हजारों-हजार टुकड़े करनेवाला यह जातिभेद, चातुर्वर्ण्य व्यवस्था की मारक
विकृति है। यह सामाजिक क्षय रोग यूँ ही बढ़ने देना अपनी राष्ट्रीय शक्ति का
पोषक है क्या? आपको अभी भी यही ठीक लगता है क्या? यदि नहीं तो बाह्य शक्तियों
और संकटों ने हमारे पैरों में पहले से ही जो परतंत्रता की भारी बेड़ियाँ डाली
हुई हैं, उनके साथ ही हमारे अपने द्वारा डाली गई जन्मजात रोटीबंद, बेटीबंद,
किलाबंद आदि जातिभेद की बेड़ियाँ अपनी प्रगति अधिक अवरुद्ध नहीं कर रहीं क्या?
अधिक पंगु नहीं बना रहीं क्या? और ये बेड़ियाँ तत्काल तोड़ने का काम पूरी तरह
अपने हाथ में लेना अपना त्वरित कर्तव्य नहीं है क्या? उस बाहरी संकट की
बेड़ियाँ तोड़ते हुए और तोड़ने के लिए अगर स्वयं पहनी हुई बेड़ियाँ, स्वयं
अपने गले में बाँधा भारी पत्थर यदि हम तोड़-फोड़ डालें तो अपना हिंदू राष्ट्र,
अपनी हिंदू जाति इन आंतरिक लड़ाई-झगड़ों और क्षय रोग के शिकंजे से उसी प्रमाण
में मुक्त होकर विश्व की अन्य संगठित जातियों और राष्ट्रों की स्पर्धा और
संघर्ष में अधिक सक्षम और चढ़ाई करने में अधिक सशक्त होगी।
(केसरी, ९.१२.१९३०)
४. इस आपत्ति पर उपाय
जातिभेद की जन्मजात बेड़ियाँ तोड़ने से अपनी हिंदू जाति अंशतः ही सही, पर
यदि आज पराक्रमशाली बनी हुई अहिंदू एवं आक्रमणकारी शक्तियों का सामना करने के
लिए अधिक समर्थ होती हो तो ये जन्मजात जातिभेद हम किस उपाय से तोड़ें? यह
प्रश्न उठता है। हमारे विचार से वह उपाय सूत्र रूप में यह है कि कृत्रिम
संकेतों द्वारा माने हुए इस जन्मजात जातिभेद का उच्छेद कर हम गुणजात जातिभेद
का उद्धार करें। क्योंकि जिसे हम जन्मजात जातिभेद कहते हैं वह वास्तव में
जन्मजात है ही नहीं। वह तो केवल मन की भावना का, एक पागलपन का खेल है। उतनी
भावना हम यदि बदल दें तो यह पर्वताकार ताजिया अपने आप नीचे गिर जाएगा।
यह मुट्ठी भर ब्राह्मणों द्वारा रचित नहीं है
परंतु उपर्युक्त कथित भावना बदलते हुए हम यह पहले ध्यान में रखें कि जातिभेद
किन्हीं चार-पाँच दुष्ट या कुटिल आदमियों या किसी एक वर्ग द्वारा अपना स्वार्थ
साधने के लिए जान-बूझकर बनाई गई कोई युक्ति नहीं है, बिलकुल नहीं है। किसी
गुप्त गुफा में इकट्ठा होकर, कुछ मुट्ठी भर ब्राह्मणों ने, किसी एक बुरे दिन,
पूरे विश्व को लूटने के लिए जातिभेद का यह कूट रचा और सारे विश्व की
पीढ़ी-दर-पीढ़ी की मुंडियाँ अपने दो-चार श्लोकों के जाल में पक्की तरह बाँध
दी, ऐसा घटित होना जितना असंभव है उतना ही ऐसा समझना मूर्खतापूर्ण है। केवल
ब्राह्मणों की ही, यदि यह चाल होती तो श्रीराम और श्रीकृष्ण तो ब्राह्मण नहीं
थे, फिर उन्होंने भी चातुर्वर्ण्य को क्यों उठाए रखा? यदि कोई कहे कि
क्षत्रिय आदि वर्ग बेचारे भोले थे इसलिए सहज ही ब्राह्मणों के मायाजाल में फँस
गए, तो श्रीकृष्ण क्या भोले थे? या समुद्रगुप्त भोले थे? या शिवाजी भोले थे?
मैंने यदि किसी से कहा कि 'कूद जा कुएँ में और जान दे दे तो तू मुक्त हो
जाएगा!' तो ऐसा कहनेवाला मैं जितना लुच्चा उतना ही कुएँ में तत्काल कूदनेवाला
भी मूर्ख।
जातिभेद का छल रचने के लिए यदि ब्राह्मणों को लुच्चेगिरी के कठघरे में खड़ा
किया जाता है तो सूर्य-चंद्र वंश के हजारों राजर्षियों की परंपरा को भी मूर्ख
कहने के लिए हमें सिद्ध होना पड़ेगा। उस कुटिलों के राजा और प्रत्यक्ष कणिक
शिष्य दुर्योधन को भी आटे की तरह गूँधनेवाले श्रीकृष्ण तो चातुर्वर्ण्य का
उत्पादक स्वयं ही हैं, ऐसा कहते हैं। और स्वयं मनु कौन थे? क्षत्रिय। ऐसे
कुशाग्र राजर्षियों की खड्ग की और बुद्धि की धार पंडितों के कुश के अग्र के
आगे भोथरी हो गई, ऐसा कहते हुए पंडितों को अपशकुन करने के लिए अपने ही वर्ण के
पुरुषश्रेष्ठ पूर्वजों की महानता की नाक काटते हमें लज्जा नहीं आती, इसका
मुझे बार-बार आश्चर्य होता है।
ब्राह्मण और क्षत्रियों का यह संयुक्त षड्यंत्र भी नहीं
जातिभेद को कल्पना कहें, षड्यंत्र कहें, ब्राह्मणों ने ही रचा-ऐसा भी क्षण
भर के लिए मान लें तब भी व्यापक हिंदू समाज में ब्राह्मण मुट्ठी भर थे और उन
मुट्ठी भर लोगों के शब्दों को विधि की कर्तुम् अकर्तुम् शक्ति देनेवाली
राजशक्ति, दंडशक्ति, The sanction behind the law किसकी थी? क्षत्रियों की
ही तो! ब्राह्मणों का शब्द और क्षत्रियों की शक्ति इन दोनों के संयोग से
जातिभेद की प्रथा दीर्घजीवी हो सकी, इसलिए उसका सारा दोष ब्रह्मक्षत्रों पर
है, ऐसा कहकर वैश्यों या शूद्रों को भी कान पर हाथ रखकर स्वयं को निर्दोष मान
लेना संभव नहीं है। क्योंकि जब-जब ब्राह्मणों का शब्द और क्षत्रियों की शक्ति
निर्माल्यवत् हुई-जैसाकि वर्तमान काल में है-वैश्य, शूद्र तो क्या अतिशूद्र
भी अपनी-अपनी जातियों से चिपके बैठे हैं, वह क्यों? वे ब्राह्मणों के शब्दों
के लिए नहीं हैं, क्षत्रियों की शक्ति के लिए भी नहीं हैं अर्थात् स्वयं की
इच्छा के लिए ही तो हैं। जातिभेद की प्रथा में हर जाति को अपने से निचली जाति
पर रोब जमाने का अवसर फोकट में मिल जाता है, इसलिए यह प्रथा सभी को कुछ हद तक
अच्छी लगती है और इसलिए अपनी जाति को सर्वश्रेष्ठ मानकर कोई कुछ भी कहे, पर
जातिभेद का निर्मूलन करने की इच्छा किसी की नहीं होती। उलटे अपने जातीय अहंकार
का ढिंढोरा पीटने के लिए ही इस-उसने जातिभेद का उपयोग किया। और इसी कारण
जातिभेद को इस-उसने इस या उस रीति से उठाए ही रखा, यह सच्ची बात है। बुद्धकाल
में भी जातिभेद को बुरा नहीं माना गया, केवल जाति-श्रेष्ठत्व का, अग्रवर्ण
का मान ब्राह्मणों का न होकर क्षत्रियों का है, यही बात अनेक ग्रंथों में लिखी
मिलती है। अतः यदि जातिभेद के वर्तमान अत्यंत विकृत स्वरूप से अपने हिंदू
राष्ट्र की भयानक हानि हो रही हो तो जन्मजात जातिभेद की उस हानि का दोष किसी
एक वर्ण के या व्यक्ति के सिर मढ़ने की अपेक्षा उस दोष के हिस्सेदार हम सब
अब्राह्मण-चांडाल सब जातियाँ, सब वर्ण, सब व्यक्ति हैं ऐसा ही मानना उचित और
इष्ट है। जातिभेद के कारण जो कल्याण पहले या आज होता आया या हुआ होगा उसका
श्रेय भी हम सबका है और हम सबने मिलकर ही वह संस्था, यदि बनाकर रखी हुई हो और
उससे लाभ की अपेक्षा अपनी हिंदू जाति की हानि यदि सौ गुना अधिक हो रही हो और
वह दोष सुधारना, उसे पूरी तरह उखाड़ डालना हो तो वह प्रयास भी करने का कर्तव्य
हम सबका ही है। वह उत्तरदायित्व हमसब पर आता है। एक-दूसरे के सिर चढ़ने की
हमारी प्रवृत्ति के कारण ही हम सबको इस सहस्रबाहु भेदासुर ने अधोगति के गड्ढे
में ढकेल दिया है। अब उसमें से उबरने के लिए पिछले झगड़े-टंटे छोड़कर एक-दूसरे
का हाथ थाम उस भेदासुर के नाश के लिए संगठित होकर चारों ओर से चोट-पर-चोट करते
रहें और उस समय यह भी ध्यान में रखें कि चातुर्वर्ण्य या जातिभेद का
प्रादुर्भाव और प्रबलता मूलतः समाज धारणा की सद्बुद्धि से ही प्रेरित होगी और
उसी पूर्व में कमाए पुण्य के जोर पर जातिभेद की संस्था आज तक जीवित है।
जब तक जातिभेद से होनेवाली हानि की तुलना में समाज का कुल लाभ अधिक था तब तक
और उस परिस्थिति में वह श्रेयकर भी रही होगी। हिंदुस्थान में ही नहीं अपितु
आर्यावर्त के बाहर सुदूरवर्ती मिन देश से लेकर मेक्सिको तक किसी समय
चातुर्वर्ण्य या यह जातिभेद विश्व भर में फैला था, मान्य था। कुछ सीमा तक
लोकहितकारी भी था। परंतु पहले कभी वह कुल मिलाकर लाभकारी था, इसीलिए आज जब वह
कुल मिलाकर अत्यंत हानिकर सिद्ध हो रहा है, तो भी उसे चलाए रखना उचित नहीं है।
'तातस्य कूप्रोऽयम्' कहकर केवल वह क्षारजल पीते रहना जैसे कायरता का लक्षण है
वैसे ही आज उस संस्था से लाभ की तुलना में सौ गुनी हानि हो रही है, इसलिए वह
संस्था सर्वथा और सर्वदा वैसी ही हानिकारक थी यह मानकर चलना भी अंध अज्ञान का
द्योतक होगा। चातुर्वर्ण्य या जातिभेद से किसी काल में किसी परिस्थिति में अपनी
हिंदू जाति को कितना लाभ हुआ या कितनी हानि हुई यह जानने के लिए इस संस्था के
भूतकाल की चर्चा करना इस लेखमाला की कक्षा के बाहर की बात होने से उसका विस्तार
से विवरण देना यहाँ अनावश्यक है, फिर भी जातिभेद के आज के विकृत स्वरूप का
विवरण देकर इस विकृति से, इस क्षय रोग से अपनी जाति के स्वास्थ्य को कैसे
मुक्त रखा जा सकेगा-यह जो इस लेखमाला का मूल हेतु है-उसका विवेचन करते हुए
जातिभेद की जड़ में स्थित अनेक समाजहित साधक तत्त्वों को यथासंभव धक्का न
लगाते हुए उसमें जो हितावह है वह सबकुछ यथासंभव परिपालित करते, जो इतिकारक है,
उसे यथासाध्य त्यागने की सावधानी रखना अत्यंत आवश्यक है।
जिसे हम विकृति कहते हैं, वह प्रकृति का ही अंशत: या पूर्णतः होनेवाला
कुपरिपाक होता है। उस विकृति का नाश करने के लिए शल्यक्रिया को उत्सुक शल्य
चिकित्सक को शल्यक्रिया के पूर्व की मूल प्रकृति को कम-से-कम धक्का लगे इसके
लिए आवश्यक सावधानी बरतनी ही होगी। जातिभेद के आज के अत्यंत हानिकारक स्वरूप
का जो वर्णन वर्ण-विशिष्ट, प्रांत-विशिष्ट, पंथ-विशिष्ट, व्यवसाय-विशिष्ट,
आहार-विशिष्ट, संकर-विशिष्ट आदि से किया गया है। उसकी जड़ में सर्वसाधारण और
विशिष्ट ऐसे जो कुछ लोकहितकारी मूल तत्त्व हैं या थे, उनसे होनेवाले लाभ को
जिस योजना के द्वारा हम खोएँगे नहीं या उन तत्त्वों के अतिरेक से या विपर्यास
से या अन्य घातक तत्त्वाभास से जो हानि हो रही है या हो गई है, वह जिस योजना
में अधिकांशतः टाली जा सकती है ऐसी ही योजना, ऐसे ही नए आचार की हम योजना
करें।
ऊपर निर्दिष्टानुसार हमारे विचार से वह योजना है-जन्मजात जातिभेद का उच्छेद और
गुणानुरूप जातिभेद का उद्धार। यह हमारी इस चर्चा के प्रारंभ में ही की हुई
प्रतिज्ञा है। उपर्युक्त प्रतिज्ञा को सिद्धांत का आधार देने के पहले अब इस
लेखमाला के उत्तरार्ध में जातिभेद के उपर्युक्त वर्णित मुख्य प्रकारों में
स्थित लाभदायी तत्त्व हमारी योजना के अनुसार किस तरह पालन किए जा सकते हैं और
हानिकारक तत्त्व किस तरह टाले जा सकते हैं यह संक्षेप में दिखाने का प्रयास हम
करेंगे।
जन्मजात जातिभेद का उच्छेद और गुणजात जातिभेद का उद्धार
चातुर्वर्ण्य या जातिभेद के सभी मुख्य भेदों की जड़ में एक सर्वसामान्य मुख्य
तत्त्व आनुवंशिकता का है। इस आनुवंशिक गुण-विकास के तत्त्व की जाँच हम पहले
करेंगे और उसके बाद उन सारे भेदों की जड़ में जो अन्य विशिष्ट तत्त्व हैं,
उनका भी क्रम से निरीक्षण करेंगे और यह दिखा देंगे कि चातुर्वर्ण्य या जातिभेद
की संस्था से हुए या हो सकनेवाले बहुत सारे लाभ जन्मजात जातिभेद की अपेक्षा
गुणजात जातिभेद से ही अधिक मात्रा में हमारे पल्ले पड़ सकते हैं और उस संस्था
से आज होनेवाली अधिकतर हानियाँ अधिक मात्रा में टाली जा सकती हैं।
(केसरी, १३.१२.१९३०)
५. आनुवंशिक गुण-विकास का तत्त्व
मौलिक चातुर्वर्ण्य या जिसका विकृत और विपर्यस्त रूप वर्तमान का जातिभेद है,
ऐसा कह सकते हैं कि उस जातिभेद की जड़ में जनहितकारक जो तत्त्व थे या होंगे और
जिनकी उपकारक प्रवृत्ति के बल पर ही आज तक यह संस्था जीवित रही, उन सबमें
आनुवंशिक गुण-विकास का तत्त्व या जिसे संक्षेप में आनुवंशिकता (हेरिडिटी) कह
सकते हैं, वह सचमुच महत्त्वपूर्ण है। पूर्व के चातुर्वर्ण्य का रूपांतर जब
जन्मजात जातिभेद में होने लगा तब गुणजातक का वह रूपांतर एकदम केवल उसी हेतु से
और सोच-समझकर जन्म-जातकता में हुआ था क्या? और हुआ होगा तो वह कुल मिलाकर
भूतकाल में कितना उपकारक और व्यावहारिक हुआ-इस संबंध में चर्चा अभी एक तरफ रख
दें, क्योंकि इस जाति-संस्था के भूतकालीन इतिहास का लेखन या विवरण इस लेखमाला
का हेतु नहीं है, हमारा हेतु तो वर्तमान में उसका जो स्वरूप दिख रहा है, जिस
जन्मजात जातिभेद का पालन हम कर रहे हैं उस प्रथा में आनुवंशिकता का तत्त्व
कितनी मात्रा में और किस तरह पालन होता है और वह जिस प्रकार पालन होता है, उस
तरीके से वह जनहितकारी है कि नहीं और यदि वैसा नहीं है तो आज के जन्मजात
जातिभेद से अलग किस तरह उसका पालन करें कि जिससे हमें वह अधिक उपकारक हो सके,
यह देखना है।
आनुवंशिक गुण-विकास के तत्त्व का या आनुवंशिकता का अर्थ पारिभाषिकता को छोड़कर
और वर्तमान विषय की सीमा में संक्षेप में कहें तो ऐसा कह सकते हैं कि किसी
मनुष्य में कोई एक गुण या प्रवृत्ति हो और उसी गुण, प्रवृत्ति एवं कर्म का
अभ्यास यदि वह निरंतर करे तो उसकी संतान में भी अन्य बातों के समान होते हुए
भी वह गुण एवं वह कार्य-क्षमता अधिक उत्कटता से प्रकट होना अपरिहार्य है। अब
अगर उस संतान ने भी वही गुण और बढ़ाया और वैसी ही गुणवाली स्त्री से विवाह किया
और यह परंपरा उस कुल में पीढ़ी-दर-पीढ़ी अविछिन्न चलती रही तो वह गुण, वह
स्वभाव या वह विशिष्ट कार्य क्षमता उस कुल में, अन्य घटकों के समान रहते हुए
भी अत्यंत उत्कटता से प्रकट होगी। यह नियम पूरे प्राणी जगत् पर लागू है। हाथी
के बच्चे की सूँड आनुवंशिक कारणों से सूअर के बच्चे की अपेक्षा जन्मतः ही अधिक
लंबी होती है। सूखे प्रदेशों में ऊँचे-ऊँचे पेड़ों पर लगी पत्तियाँ खानेवाले
और उन्हीं पर जीवित रहनेवाले पशुओं की गरदनें आनुवंशिक कारणों से बहुत लंबी और
ऊँची होती जाती हैं। गोरे माँ-बाप की संतानें अधिकतर गोरी और कालों की काली
होती हैं। वैसे ही ऊँचे लोगों की संतानें अधिकतर ऊँची, सुंदर माँ-बाप की
संतान सुंदर और मजबूत कद-काठीवालों की संतान भी अधिकतर मजबूत ही होती है।
चींटियों के एक ही कल में रहती चींटियों में भी जिन्हें हमेशा शक्ति के काम
करने पड़ते हैं, ऐसी चींटियाँ चींटियों में क्षत्रिय लगें, ऐसे मजबूत शरीर की
होती हैं और उनका डंक भी अधिक विषैला होता है। आनुवंशिकता के कारण जन्मतः ही
ऐसा होता है। प्रजनन का कार्य जिनको सौंपा गया है, ऐसी चींटियों के प्रजनन
इंद्रिय जन्मतः ही अधिक कार्यक्षम होते हैं। पशु प्रजनन में जैसा चाहे वैसा
घोड़ा, बैल या कुत्ता पैदा करने के लिए उन्हीं गुणोंवाले नर-मादा खोजे जाते
हैं और अधिकतर इच्छित गुणों की संतति उत्पन्न होती है।
जीवमात्र पर लागू होनेवाले इस प्राकृतिक नियम का बुद्धि से उपयोग कर अपने समाज
को जिन अनेक गुणों की आवश्यकता है, उनमें से जो-जो गुण जिस-जिस व्यक्ति में
उत्कटता से दिखे उन-उनमें ही शरीर संबंध स्थापित किए जाएँ तो इस परंपरा से
उनकी संतानों में, कुल में और जाति में वे गुण अधिक उत्कटता से स्थिर और
विकसित होते जाएँगे। ऐसे बुद्धि, शक्ति आदि कुछ (मोटे) विशिष्ट गुण चुनकर उन
व्यक्तियों में, कुलों में और जातियों में उनका विकास किया जाए, बीजानुबीज से
उसे बढ़ाया जाए, उन्हें पोषक अन्न, विचार, व्यवसाय, आचार आदि
पीढ़ी-दर-पीढ़ी दिए जाएँ। इस तरह के सद्हेतु से और शास्त्रशुद्ध तर्क से
जाति-संस्था प्रस्थापित की गई, ऐसी ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि भिन्न वर्गों की
और उसके बाद के सहस्राधिक जन्मजात जातियों की जो कारण मीमांसा बताई जाती है,
वह बिलकुल निरर्थक है-ऐसा नहीं कहा जा सकता।
वर्तमान जातिभेद का समर्थन
जातिभेद का जो वर्तमान स्वरूप है उसमें तो इस आनुवंशिकता की प्रबलता निर्विवाद
रूप से दिखती है। वर्तमान के जातिभेद का अत्यंत शुद्ध लक्षण यदि कोई हो तो वह
जन्मजात ही है। जातिभेद के जो अनेक प्रकार हमने गत लेखांक में दिए हैं, उसका
हर प्रकार का समर्थन कुछ सीमा तक इस आनुवंशिक आधार पर हो सकता है। पहला
वर्ण-विशिष्ट जातिभेद का। इस पद के 'वर्ण' शब्द का मोटा अर्थ भी लें तो
जिनका वर्ण 'हंस' की तरह शुभ्र-श्वेत हो और रूप सुंदर हो, ऐसे लोगों द्वारा
काले या तत्सम लोगों की जाति से विवाह कर अपना गोरा रंग और सुंदरता गँवाना
उनके या कुल मिलाकर मानवजाति के शरीर विकास की दृष्टि से अनुचित ही है। आज भी
अमेरिका, यूरोप आदि भूखंडों के गोरे और सुंदर लोग अफ्रीका की काली और कुरूप
जातियों के साथ सामान्यतः विवाह कर अपनी भावी पीढ़ी का रंग और रूप बिगाड़ना
नहीं चाहते। यह स्वाभाविक ही नहीं, आंशिक रूप से मनुष्य-विकास की दृष्टि से
हितकर ही है।
एक अर्थ से संकर हानिकारक है
ऐसी परिस्थिति में संकर हानिकर और आनुवंश हितकर होगा। वर्ण का गुणानुरूप
वर्गीकरण-ऐसा रूढ़ अर्थ लें तो भी बुद्धि-प्रधान बीज का निर्बुद्ध बीज से संकर
हो जाए, तो अन्य घटकों के समान होने पर बीज की बुद्धि का अपकर्ष
होगा-ही-होगा, इसलिए यथासंभव बुद्धिमानों का बुद्धिमानों से ही शरीर संबंध
होना मनुष्यजाति के बुद्धि विकास के लिए हितकर होगा। जो बात रूढ़ भाषा में
बुद्धि-प्रधान ब्राह्मण वर्ग की है, वही शक्ति-प्रधान क्षत्रिय वर्ग की; इतना
ही नहीं, शूद्र वर्गों के जिस व्यवसायनिष्ठ जातिभेद के कारण अनेक टुकड़े होते
गए उन व्यवसायों को जन्मजात करने में भी आनुवंश का हितकारी तत्त्व कुछ अंशों
में पालन करने का ही हेतु था और वैसा उसका पालन होता नहीं, ऐसा भी नहीं। हर
व्यवसाय में किसी-न-किसी मानसिक और शारीरिक ज्ञान तंतुओं का पेशियों पर
विशिष्ट परिणाम होता रहता है। सूत का उदाहरण देखें-जिनको बचपन से सूत की
जातियों को पहचानने का काम करना पड़ता है उनकी अंगुलियों को अलग-अलग क्रमांक के
सूत का सूक्ष्म अंतर केवल अंगुलियों से छूकर जान लेने की अनुभूति उनके स्पर्श
तंतुओं में विकसित हो जाती है। अन्य लोग केवल स्पर्श से इतना सूक्ष्म अंतर नहीं
बता सकते। अब यदि एक पीढ़ी में वे स्पर्श तंतु इतने विकसित हो जाते हैं और उनकी
संतति पीढ़ी-दर-पीढ़ी यही धंधा करती रही तो वह स्पर्शज्ञान उत्कृष्ट होता
जाएगा, अन्य घटकों के समान होते हुए इसकी बहुत संभावना है।
ठठेरे के हाथ मजबूत, सुनार के कुशल, लेखक के हाथ हलके होते जाते हैं। एक ही
व्यवसाय, एक कुल वंश-दर-वंश करता रहे तो उन गुणों का आनुवंशिक विकास जन्मतः ही
होते-होते उस कला को वह कुल अधिकाधिक सहज प्रवीणता से उत्कर्ष तक ले जा सकता
है। आहारनिष्ठ जातिभेद का समर्थन भी इसी तत्त्व के आधार पर कुछ सीमा तक किया
जा सकता है। एक ही आहार जीवन भर करते रहें तो उसके विशिष्ट गुण मन और शरीर पर
विशिष्ट प्रभाव डालेंगे ही। वही (गुण) संतान में संक्रमित होंगे।
पीढ़ी-दर-पीढ़ी एक ही आहार उसी निष्ठा से चलता रहा तो अन्य घटकों के समान होते
हुए भी उस कुल में वे विशिष्ट गुण प्रबल होंगे। शाकाहारी कुलों की या जाति की
मानसिक व शारीरिक रचना का पीढ़ी-दर-पीढ़ी मांसाहार करनेवाली जाति से भिन्न
होना अधिक संभव है। शाकाहारी और मांसाहारी प्राणियों में ऐसा अंतर कुछ अंशों
में दिखलाई भी देता है।
हिंदू जाति द्वारा किया गया महान् प्रयोग
आनुवंशिक गुणों के विकास के प्राकृतिक नियमों के अनुसरण से जन्मजात जातिभेद की
संस्था का जो समर्थन किया जा सकता है या किया जाता है, वह इस छोटी सी लेखमाला
के लिए हमने यथाआवश्यक विवेचन किया है। वास्तव में इस जन्मजात जाति-संस्था
ने-आनुवंशिकता के प्राकृतिक नियमों का लाभ मनुष्य जाति को कितनी मात्रा में
लेना संभव है, इस संबंध में यह जो महान् प्रयोग, इस आश्चर्यकारी धैर्य से,
इतने बड़े आकार में, इतनी विविधता से युगों-युगों तक करके देखा, उस संबंध
में मनुष्य जाति को इसका कृतज्ञ ही रहना चाहिए।
इस आनुवंशिकता के अवलंबन के अतिरेक से या विपरीतता से वह प्रयोग फँस गया-ऐसा
भी मानें तो ऐसा प्रयोग ऐसे रूप में ऐसे कारणों के लिए ऐसा फँसता है यह सिद्ध
करना भी कोई छोटा काम नहीं है। अपनी हिंदू जाति ने इस जाति-संस्था के महान्
प्रयोग में जो अपयश संपादन किया उसने भी मनुष्यजाति के अनुभव में एक
(उल्लेखनीय) महान् योगदान कर उसे उपकृत करने का यश संपादन किया है; उस प्रयोग
की जड़ में निहित वह शास्त्रीय दृष्टि एवं सद्बुद्धि तथा उसके प्रवर्तन में
दिखाया गया साहस और निरंतरता आश्चर्यकारक है।
इसीलिए वह प्रयोग क्यों फँसा और कितने अंश में फँसा-यह बारीकी (निश्चितता) से
देखकर उसकी असफलता इसके आगे टालने के लिए समाज की पुनारचना करने में भी वैसा
ही साहस, वैसी ही शास्त्रीय दृष्टि और वैसी ही लोकहित तत्परता दिखाई जानी
चाहिए। आनुवंशिकता के मूल तत्त्वों की फिर से जाँच कर उसकी उपकारक शक्तियों के
साथ ही उसकी घातक शक्तियों और उसकी दुर्बलता का भी निरीक्षण करना चाहिए।
आनुवंशिकता,गुण-विकास का अनन्य कारण
नहीं है
निरीक्षण करें तो पहली बात जो हमें सीखनी होगी वह यह कि गुण-विकास का एकमात्र
कारण या आधार आनुवंश ही नहीं होता। सृष्टि की या समाज की रचना और प्रगति भी
आनुवंश के एक ही धागे से बुनी हुई नहीं है। आनुवंशिक गुण-विकास के प्राकृतिक
नियमों के साथ भी अन्य अनेक नियमों के ताने-बाने इस रचना के निर्माण में
सहयोगी रहे हैं। आनुवंश से गुण-विकास होता है, परंतु अन्य सब घटक समान हों
तो। इसीलिए हमने ऊपर आनुवंश का सिद्धांत विवेचित करते हुए हर स्थान पर 'अन्य
सारे घटकों के समान होने पर' लिखा। पितरों के गुण संतान में यथावत् उतरने के
लिए केवल आनुवंश पर, केवल पितरों के बीज के अंतर्निहित गुणों पर ही अवलंबित
नहीं रहा जा सकता। इसीलिए एक ही माँ-बाप की संतानें, जुड़वाँ संतानें भी
सर्वदा और बिलकुल एक सी नहीं होती। बीज वही होते हुए भी गर्भधारण का समय,
मनःस्थिति, शरीर स्थिति, गर्भ विकास की अवधि, अन्न, प्रदेश का वायुमान,
प्रकाश आदि अनेक घटकों पर संतान की मानसिक और शारीरिक बनावट अवलंबित रहती है।
एक ही पुरुष का बीज एक ही स्त्री का उदर, पर पहले गर्भ के समय से दूसरे गर्भ
के समय केवल मनःस्थिति ही बदल गई तो दूसरे गर्भ की मनःस्थिति ही नहीं अपितु
शरीर रचना भी बदल जाती है। सूक्ष्म अंतर दिखाते रहने की अपेक्षा एक दुर्घटना
प्रसूत घटना का ही उल्लेख करना अच्छा है। किसी एक शास्त्रीय संशोधन प्रतिवेदन
में इस उदाहरण का उल्लेख है। एक महिला की संतान के गाल पर पाँचों अंगुलियों के
बड़े स्पष्ट निशान थे। उसकी अन्य किसी संतान के गालों पर ऐसे कोई चिह्न नहीं
थे। शोध करने पर यह ज्ञात हुआ कि गर्भावस्था में किसी ने उसे चाँटा मारा था,
जिससे उसके गाल पर उसके चिह्न आ गए थे। इस हादसे से उसका मन कितने ही दिनों तक
बेचैन बना रहा था। महिला की मनःस्थिति का प्रभाव उस गर्भ पर इतना गंभीर हुआ कि
महिला के गाल पर पड़े चाँटे का प्रतिबिंब दर्पण की तरह स्पष्ट उसके बालक के
गाल पर आ गया।
बीज एक घटक है
अन्न, प्रकाश, परिस्थिति, मनःस्थिति, शरीर स्थिति-ये सारे घटक समान रहे और
बालक का प्रसव होने तक बीज की मूल बुद्धि आदि प्रधान गुण भी जैसे के-तैसे लेकर
बालक का जन्म हुआ तो भी क्या? उसके प्राकृतिक गुणों का विकास केवल जन्ममात्र
से नहीं होता। उसका जीवन केवल जन्म लेने मात्र से पूरा नहीं होता। उसके
बीजानुगत गुणों का विकास या संकोच केवल बीज पर अवलंबित नहीं होता, जन्म के
बाद की बाह्य परिस्थिति पर भी वह अवलंबित होता है। किसी वेदपाठी की कोई संतान
जन्मते ही 'हरि ॐ' कहकर वेद पठन शुरू नहीं करती। यदि उसे कोई शिक्षा दी ही
नहीं गई या अकबर द्वारा कुछ अभागे लड़कों पर किए गए प्रयोग में फँसकर पूरे
जन्म मनुष्य प्राणी की ध्वनि ही जिसके कान में नहीं पड़ी तो वह लड़का पूर्ण
निरक्षर भट्टाचार्य ही रह जाएगा। जन्म भर गूँगा-का-गूँगा। इसके विपरीत किसी
अक्षर शत्रु का लड़का, जो जन्मतः शंख हो, पर उसे कुछ-न कुछ शिक्षा मिलती रही
तो वह वेदपाठी ब्राह्मण के लड़के की तुलना में अधिक वाचाल तो हो ही जाएगा।
वैसे ही जैसे शिवाजी का पुत्र, असल क्षत्रिय, पर जन्म से उसे खाने-पीने को
केवल अहिंसावाद की सूखी घास ही मिली और शस्त्र को किसी शाप की तरह उसे जन्म भर
स्पर्श ही नहीं करने दिया गया और भुखमरी की सात्त्विक खुराक के सिवाय उसे
दूसरी खुराक ही नहीं मिली तो क्या वह रणबाँकुरा क्षत्रिय बन सकेगा? कभी नहीं।
गुण-विकास के कार्य में बीज एक घटक है, अनन्य घटक नहीं।
(केसरी, २४.१.१९३१)
६. आनुवंशशास्त्र का साक्ष्य
गर्भशास्त्री कहते हैं कि कभी-कभी ऐसा होता है कि कोई महिला अपने पहले पति से
जब पहला गर्भ धारण करती है तो कभी-कभी उसके गर्भाशय आदि अंग एवं मन पर कोई ऐसा
गहरा संस्कार पड़ जाता है कि उसका गर्भ मानो एक साँचा बन जाता है और फिर यदि
दूसरे पति से भी वह गर्भ धारण करती है तो भी जो संतान उसे उत्पन्न होती है वह
बिलकुल पहली संतान के रूप-रंग, आकारवाली होती है। जातिभेद के समर्थक इसका
अपने पक्ष में उपयोग करते हुए कहते हैं कि देखिए वे पश्चिम के शास्त्री भी, जो
एव्होल्युनिस्ट हैं, कैसे आनुवंश के-उस हेरेडिटी के सिद्धांत को मानते हैं।
जातिभेद समर्थक यह भूल जाते हैं कि वे गुण-विकासवादी (एव्होल्युनिस्ट) आनुवंश
के सिद्धांतों का विवरण देते हुए यह मानते हैं कि बीज परिस्थिति के हाथ की
गीली मिट्टी होता है। यदि बीज जनित गुण किसी भी कारण बदलते ही नहीं हैं और
उसका आनुवंशिक संक्रमण यदि केवल बीज-शुद्धि पर ही आधारित है तो उपजाति की
उत्पत्ति (ओरिजिन ऑफ स्पसीज) जैसे शब्द भी बोलने की आवश्यकता नहीं होती। बाघ
बाघ ही रहता है, पर परिस्थिति उसे बिल्ली बनाके छोड़ती है। घोड़ा घोड़ा ही
रहता है; परंतु परिस्थिति उसे गधा बनाती है।
परिस्थिति का प्रभाव
बीज का जो प्रबल गुण, रंग, वर्ण है वह भी स्वयमेव सिद्ध नहीं रह सकता। बीज
जनित आर्य 'ब्राह्मण' वर्ण से हंस जैसा गोरा होता है, होना चाहिए; पर
परिस्थिति उसे आर्यलैंड (आर्यभू) में केतकी जैसा, ईरान में गुलाब जैसा,
आर्यावर्त में नीबू जैसा और मद्रास में अय्यर, आयंगारों को काला-कलूटा बना
देती है। बीज में अत्यंत दृढ़ता से अंतर्निहित गुण केवल सूर्य प्रकाश और
उष्णता की भिन्नता से यदि रंग, ऊँचाई, आकार और देह गठन इतने बदलते हैं तो
दया, शील, विद्या, पराक्रम आदि मानसिक गुण या व्यक्ति-व्यक्ति की भिन्नता,
जो बीज में पूर्णता से दृढीभूत नहीं रहती, वह परिस्थिति से कितनी बदलती
होगी-यह कहना कठिन है। सारांश, गुण-विकास करने का आनुवंश ही एकमात्र और
संपूर्ण साधन नहीं है अपितु वह गुण-विकास के कार्य के अनेक घटकों में से एक
घटक है। इतना ही नहीं अपितु उस गुण-विकास के जो दूसरे घटक हैं, उन सब संस्कार
(शिक्षा), जलवायु, भौगोलिक भिन्नता आदि की परिस्थिति की तुलना में उस बीज
में विकसित होने की प्राकृतिक शक्ति इतनी अल्प होती है कि उसे जीवित रहने के
लिए भी उस परिस्थिति से तालमेल बैठाने के लिए स्वयं ही बदलने के सिवाय कोई गति
नहीं रहती।
आनुवंशिक गुण-विकास की सीमाएँ
आनुवंशिक गुण-विकास के नैसर्गिक नियमों की इन दो सीमाओं की ओर ध्यान न देकर आज
के जन्मजात जातिभेद में आनुवंश को ही एकमेव, स्वयंपूर्ण और प्रबलतम घटक समझा
जा रहा है, और यही भयंकर भूल उस संस्था को इतना घटिया बनाने का मुख्य कारण है।
गुणों का विकास करने हेतु आनुवंश को स्वीकारा गया, परंतु वह गुण-विकास तो दूर
गया, उलटे आनुवंश मृतप्राय हो गया तब भी उसकी चिंता न कर आनुवंश रह जाए तो
गुणों का क्या काम-ऐसा उलटा आह्वान करनेवाली विचित्र वस्तुस्थिति उत्पन्न हुई
है। कर्णाभूषण पहनने के लिए कानों में छेद तो किए, पर कर्णाभूषण ही नहीं रहे,
इसका होश नहीं रहा और छेदों को ही भूषण समझने लगे। छेद ही कानों के भूषण हो
गए। आनुवंश हो, जन्म उस जाति में हुआ हो तो वे सारे जाति विशेष गुण उस मनुष्य
में आ गए, यह धारणा स्थिर हुई। फिर वास्तव में वे गुण हैं या नहीं, इसकी
चिंता ही नहीं रही। केवल जन्म उस विशिष्ट जाति में है। जिसमें ब्राह्मणों का
रत्तीमात्र गुण नहीं, जो आतंक, चोरी, डकैती, खून-खराबा करते हुए अनेक बार
कारावास जाता रहा है; जिसकी पिछली सात पीढ़ियों में ब्राह्मण गुणों का कोई
संकेत नहीं मिला, उसकी किसी अज्ञात पीढ़ी में कोई ब्राह्मण था इसलिए वह
ब्राह्मण, इसीलिए उसे ब्राह्मण का अधिकार। मूर्ति स्पर्श का उसे अधिकार, वेद
पठन का उसे अधिकार, दक्षिणा उसे और जिसमें ब्राह्मणों के गुण प्रत्यक्ष दिख
रहे हैं उसका कोई पिछला पूर्वज परिचर्यात्मक कर्म करता रहा, इसलिए वह शूद्र
और उस कुल में जन्म लेनेवाला हर कोई शूद्र, हीन, अस्पृश्य। फिर वह अरविंद घोष
भी हो तो भी हम उसे वेद-घोष नहीं करने देंगे। महात्मा गांधी हो तो भी टीका
लगाने का अग्राधिकार उसे नहीं। विवेकानंद हो तो भी वह संन्यास नहीं ले सकता।
तुकाराम हो तो भी वह उज्जैन के महाकाल को स्पर्श नहीं कर सकता। जिस नंद के
साम्राज्य की छाती पर नाचते हुए म्लेच्छ ग्रीकों ने पूरा आर्यावर्त छोड़े की
टापों से पादाक्रांत किया-वह नंद भी क्षत्रिय। परंतु उस वादग्रस्त सूर्य-चंद्र
वंशीय क्षत्रियों की पूर्व सात पीढ़ी में भी चंद्रगुप्त जितना बलवान्
साम्राज्य किसी ने स्थापित नहीं किया, फिर भी वह चंद्रगुप्त क्षत्रिय नहीं।
विश्व विजेता का गर्व हरण जिसने किया वह क्षत्रिय नहीं। 'नन्दान्तं
क्षत्रियकुल' कहकर क्षत्रिय वंश ही समाप्त घोषित कर दिया। उसका वेदोक्त
राज्याभिषेक नहीं होगा। उसके महापराक्रम की बात गौण, उसके बाबा-पड़बाबा की
जाति कौन सी थी, यह बात प्रमुख। और ऐसा बखेड़ा केवल ब्राह्मण ही फैलाते थे-ऐसा
नहीं। हिंदू मूर्तियों को औंधा कर जिन्होंने मसजिदों की सीढ़ियाँ बनाईं, उस
मुसलमान बादशाह के पैर चाटने में जिन्होंने अपने को धन्य माना, उस क्षत्रिय
जाति के लोग भी। उस बादशाही को गिराकर अपने सिंहासन की जिसने सीढ़ियाँ बनाईं
और हिंदू पदपादशाही का राजमुकुट हिंदू जाति के मूर्धाभिषिक्त मस्तक पर शोभित
किया, वह छत्रपति भी जाति का क्षत्रिय नहीं है, यह बात अंत तक उसे चुभोई जाती
रही। शिवाजी के सामने इन क्षत्रियों का सिर ऊँचा। तू क्षत्रिय नहीं, अपनी
विजयावली का बखान न कर, अपनी वंशावली निकाल। ऐसी माँग वे करते रहे।
दिल्लीश्वर के चरणों पर अपनी बेटी अर्पित करनेवाले असल क्षत्रियों की जाति
नहीं गई मानो वे म्लेच्छ दिल्लीश्वर, कौशल्या के पेट से प्रभु रामचंद्र के साथ
ही जनमे हों।
बीज एवं क्षेत्र शुद्धि
आनुवंश की उपर्युक्त वर्णित मर्यादाओं की ओर ध्यान न देने का जो अक्षम्य अपराध
हमने किया, उसके कारण आनुवंश की स्वच्छंदता उन्माद जैसी हो गई। आनुवंश के
नियमों का मानवहित में उपयोग कहाँ तक किया जा सकता है, इसका विचार करते हुए
ऊपर दी हुई दो बातों की तरह ही जो महत्त्व की तीसरी बात ध्यान में रखनी आवश्यक
है, वह यह कि आनुवंश से गुण-विकास होता है। इसका अर्थ यह भी है कि सद्गुणों की
तरह दुर्गुणों का भी दृढ़ीकरण या विकसन होता है। मनुष्य के लिए हितकर उतने ही
गुण दृढ़ या वृद्धि करने का कार्य आनुवंश का नियम नहीं करता। प्रकृति के
अधिकतर नियमों की तरह मनुष्यों को भोलेपन से ऐसा लगता है कि ये सारे नियम मेरे
ही भले के लिए ईश्वर ने बनाए हैं; पर आनुवंश के नियमों को वैसा नहीं लगता। जो
नियम मनुष्य के लिए उपयोगी हैं, जैसे साँप को मारनेवाले हाथ जन्मजात मिलते
हैं, वैसे ही मनुष्य के प्राण हरण करने में समर्थ विषैले दाँत सर्प को भी
जन्मजात होते हैं। स्वास्थ्य की तरह माँ-बाप से संतान को महारोग भी मिलते हैं।
इन बातों की ओर ध्यान न देने से मनुष्य को कभी-कभी बड़ी दुर्घटनाओं का सामना
करना पड़ता है, पड़ा है। आनुवंश से सद्गुणों की ही बढ़ोतरी होती है, ऐसा मान
लेने से मनुष्य ने कभी-कभी आनुवंशिकता पर अपनी निष्ठा का इतना भयंकर अतिरेक
किया कि बीज शुद्धि और क्षेत्र शुद्धि पूरे सौ प्रतिशत सँभाले रखने के लिए
बहन-भाइयों के विवाहों को अतिश्रेष्ठ विवाह मान, इसी श्रेष्ठ कुलाचार का पालन
वह करता रहा।
सीता कौन?तो राम की भगिनी
क्षत्रियों में क्षात्र-तेज उत्कट बना रहे, इसलिए क्षत्रिय 'क्षत्रिय' जाति
में ही विवाह करे, ताकि आनुवंश से वह तेज अधिक वृद्धिंगत हो। इसी विचार पद्धति
को एक कदम आगे बढ़ाने पर यह भी मानना पड़ेगा कि उन क्षत्रियों में भी कुछ कुल
जो अधिक शूर रहते हैं, विशेषतः किसी राजकुल के, तो वह राजतेज दैवी है, अत:
उसका यदि उसी कुल में विवाह संबंध होता रहा तो अन्य हीन क्षत्रियों की अपेक्षा
वह कुल दैविक संपत्ति के राजगुणों से जन्मतः ही संपन्न बना रहेगा। परंतु राजा
की बराबरी का दूसरा क्षत्रिय कौन? उस अद्वितीय राजा के गुण पूर्ण रूप से तो
उसके पुत्र और पुत्री में ही होंगे। अर्थात् उस राजपुत्र को उसके समतुल्य दैवी
राजगुण से युक्त पत्नी उस राजा की पुत्री के अतिरिक्त दूसरी कौन हो सकती है?
प्राचीन नील देश, मेक्सिको, ब्रह्मदेश तथा और भी अनेक देशों के राजवंशों में
इसी विचारधारा के अधीन बहन-भाइयों के विवाह प्रचलित थे। क्योंकि राजा और
राज्ञी दोनों ही मनुष्य जाति में अद्वितीय। उनका वह दैवी गुण उसी अद्वितीय बीज
के द्वारा और उसी अद्वितीय क्षेत्र में अर्थात् उनके ही कुमार और कन्या में
अवतरित होगा। अतः यदि बीज और क्षेत्र शुद्धि में किसी तरह की मिलावट को रोकना
है और उन दैवी गुणों का आनुवंशिक विकास करना है तो उस राजकुमार का विवाह उसकी
सगी बहन के साथ करने के सिवाय दूसरा कोई रास्ता ही शेष नहीं रहता। 'लाट' नामक
एक पैगंबर का बीज व्यर्थ न जाए इसलिए उसकी दोनों कन्याओं ने अपने पिता से ही
संबंध बनाया। यह कथा 'बाइबिल' में है और प्रख्यात है। बुद्ध का कुल भी यही
मानता था कि सगे भाई-बहन के विवाह से ही हमारी उत्पत्ति हुई है और कदाचित्
बुद्ध जन्म की इस घटना का अप्रत्यक्ष समर्थन करने के लिए ही कदाचित् बुद्धरचित
'रामायण' में राम और सीता सगे भाई-बहन थे, ऐसा वर्णन है।
आनुवंशिकता से मनुष्य के हितकर गुण ही केवल उतरते तो उपर्युक्त विचारधारा उस
सीमा तक तो लाजवाब ही होती। आज की परंपरा में कहें तो समाज में ब्राह्मण जाति
जैसे बुद्धि-प्रधान है, वैसे ही उस जाति में भी कोई नाना फड़नवीस या चाणक्य
कुल अति बुद्धिमान् होगा ही। फिर जन्मजात गुणों की विचारधारा के अनुसार उस
अत्यंत बुद्धिमान् कुल में विवाह, उनका बीज और क्षेत्र अत्यंत शुद्ध रहे,
इसके लिए उसी कुल में और अंत में अपनी ही औरस संतान में करना उचित होगा। परंतु
अंत में इस विचारधारा के आनुवंश के नियम पर की गई निष्ठा के अतिरेक से उस
आनुवंश के नियम ने ही कैसा सत्यानाश किया-आगे देखेंगे।
(केसरी, १३.२.१९३१)
७. सगोत्र विवाह निषिद्ध क्यों?
एक ही माँ-बाप के पुत्र-पुत्री में जब विवाह होते गए तब उन माँ-बाप के शरीरगत
दोष, गुणों के संक्रमण की भाँति ही और कभी तो गुणों से भी अधिक प्रबलता से
संतान में संक्रमित होते गए। पहले अकेले पिता की ही एक आँख कुछ दुर्बल थी। वह
दुर्बलता उसके लड़के-लड़की में उतरी। अब इन भाई बहनों का विवाह होते ही उन
दोनों की दाईं आँख की दुर्बलता उनकी संतान में अर्थात् नातियों में दुगुनी
प्रबल होकर आई और उनकी संतान की दाईं आँख बिलकुल बंद ही रही। एक ही कुल में
विवाह होने से उस कुल के अवगुण संतानों में बढ़ने लगते हैं। इतना ही नहीं
अपितु अनेक भयानक रोग एक पीढ़ी से दूसरी में तेजी से संक्रमित होते हैं, यह
अनुभव आने पर सहोदर या सगोत्र विवाह इस या उस रीति से विश्व के अधिकांश
सुसंगठित समाजों में निषिद्ध ठहराए गए। जो बात कुल की है, वही विस्तार से
जाति की। व्यवहार में ब्राह्मण जाति बुद्धिमान् के रूप में ख्यात है, पर उससे
भी अधिक उसकी कुख्याति यह है कि ब्राह्मण डरपोक और भोजनभट्ट होते हैं। बनिया
की व्यापार-व्यवसाय में जितनी ख्याति है उससे अधिक कुख्याति यह है कि अरे बनिया
का बेटा है, जोड़ है। यद्यपि ये दोनों की कुख्यातियाँ भ्रांत हैं, फिर भी
आनुवंशिकता से सद्गुणों की तरह ही अवगुणों का भी संक्रमण संतान में होता है,
यह तथ्य उस व्यंग्योक्ति के द्वारा व्यक्त होता है, यह बात सच है।
संकर की उपयुक्तता
जातीय आनुवंश का कट्टर विरोधी है संकर। पर वही कभी-कभी हितकर भी सिद्ध होता
है; क्योंकि आनुवंश के नियम का परीक्षण करते हुए ऐसा दिखता है कि कभी-कभी
पितरों के गुण संतान में विकसित होते-होते अंत में उनका विकास रुक जाता है और
पतन शुरू हो जाता है, मानो व्यक्ति की देह की तरह गुणों की देह भी बुद्धि की
एक मर्यादा पार कर जाने के बाद क्षय की ओर बढ़ने लगती है। ऐसे समय में उस
दुर्बल होते बीज क्षेत्र में अन्य प्रबल बीज क्षेत्र का संकर करना हितकर होता
है। संकर माने भिन्न कुल के बीज क्षेत्र का चुनाव और संयोग। ऐसे संकर द्वारा
मानव विपुल इच्छित सृष्टि का निर्माण कर सकता है-करता आया है। देसी आम से देसी
आम ही पैदा होता है। लँगड़े आम के पेड़ पर बीज शुद्धि का सात्त्विक कुलाचार
यदि करते भी रहें तो वे प्रयास निष्फल ही होते हैं। पर यदि लँगड़े आम की कलम
देसी आम पर बाँधी जाए, उन दो जातियों का संकर किया जाए तो उसी देसी आम पर
बढ़िया आम लगने लगता है। टमाटर से टमाटर ही होता है। आलू से आलू। परंतु कुछ
दिनों पूर्व इन दो जातियों का यथाप्रमाण संकर कर एक वैज्ञानिक ने एक अत्यंत
उपयुक्त शाकभाजी उत्पन्न की है। उस पौधे में नीचे आलू लगते हैं और ऊपर टमाटर।
संकर नहीं है
जिस जातिभेद के संबंध में हम यहाँ विचार कर रहे हैं उसमें हमारी हिंदू जाति के
संबंध में तो बोलने की आवश्यकता ही नहीं है। क्योंकि अपने हिंदू समाज के
व्यक्ति-व्यक्ति में आलू और टमाटर की तरह या हाथी और गाय की तरह, या जापानी
और नीग्रो की तरह का प्राकृतिक जातिभेद शेष नहीं रहा है। ब्राह्मण, वैश्य,
शूद्र, बंगाली, पंजाबी, दरजी, सुनार ये जातियाँ जन्मजात हैं, यह केवल
माना जाता है। उनमें जन्मजात स्वतंत्र या प्राकृतिक जातीय भिन्नता रत्ती भर भी
नहीं है, क्योंकि वे जन्मजात जातियाँ थीं ही नहीं। वे केवल व्यवहार जाति, पोथी
जाति, संकेत जाति हैं और इसीलिए प्राकृतिक अर्थ में जो जाति एक ही है उसमें
संकर होगा, ऐसा कहना 'वदतोव्याघात' होगा माने कही बात काटना होगा।
संकर के कुछ उदाहरण
परंतु उसी भ्रांत भाषा में बोलने से वह भ्रांति दूर करना अधिक सरल है, अत:
'जाति' और 'संकर' शब्दों का उपयोग कर यह कहें कि एक ही जाति के पितरों की
औरस संतति की तुलना में भिन्न जाति के पितरों की संकर संतति अधिकतर समबल और
कभी-कभी तो अधिक प्रबल उत्पन्न होने के उदाहरण हमें अपने हिंदू इतिहास में
हजारों देखने को मिलते हैं।
विदुर दासीपुत्र, संकरजात प्रजा थी, परंतु औरस समझे गए धृतराष्ट्र या पांडु
इन दोनों ही क्षत्रिय बंधुओं की तुलना में वह कितना ज्ञानी, कितना सात्त्विक
निकला। उसके शूद्र माता की शूद्र गोद उसके समकालीन ब्राह्मणी की या क्षत्राणी
की गोद से किसी प्रकार कम सात्त्विक या कम शुद्ध या कम सद्गुण-संपन्न नहीं थी।
उलटे कुरु राजवंशीय राजाओं से वह दैवी संपत्ति में अधिक संपन्न निकली।
चंद्रगुप्त दासीपुत्र, असल बीज के क्षत्रिय नंद से वह संकर पुत्र क्षात्र
गुणों में हजारों गुना श्रेष्ठ साबित हुआ। 'भविष्य पुराण' में वर्णित एक कथा
है, जिसमें व्याध के वीर्य से एक ब्राह्मण स्त्री के गर्भ से जनमा एक बालक
विक्रमादित्य का मुख्य यज्ञाचार्य बना-ऐसा वर्णन है। विक्रमादित्य के उस मुख्य
यज्ञाचार्य से लेकर तो मराठा साम्राज्य के पाटीलबुवा, दिल्ली के राजसिंहासन
को अपने अधीन रखनेवाले महादजी सिंधिया तक संकरोत्पन्न संतानें कभी-कभी एक जाति
से उत्पन्न संतानों की तुलना में अधिक तेजस्वी और मानवीय गुणों से भरपूर सिद्ध
हुई हैं।
और एक कारण : गुप्त संकर
अमुक जाति की विवाहिता के पेट से जनमे बच्चे की जाति उसके लौकिक पितर की जाति
होगी और उसमें पिता के सद्गुण अवतरित होंगे, यह आज के जन्मजात जातिभेद
माननेवालों का पक्का विश्वास है। यह विश्वास और एक सशक्त कारण से मूलत: ही
संशयास्पद हो जाता है, क्योंकि मानवजाति का जातीय आनुवंश पीढ़ियों तक शुद्ध
रखना अत्यंत दुष्कर है। प्राकृतिक रूप से भिन्न स्वरूप प्राप्त जो जीव हैं,
जैसे कृमि, कीटक, पंछी, पशु, मानव इनमें जातीय आनुवंश को विजातीय संकर से
शुद्ध रखने के लिए स्वयं निसर्ग पहरा देता रहता है। परंतु निसर्ग-जनित जातियों
में संकर का कट्टर विरोध करनेवाला ईमानदार पहरेदार निसर्ग स्वयं इन पोथीजात
मनुष्य-मनुष्य में भेद करनेवाले जाति के अंत:पुर में संकर का प्रवेश कराने
किसी सखा जैसी गुप्तचरी करता रहता है।
निसर्ग का नियम तो यह है कि न तो मत्स्य किसी खग को और न खग किसी पशु को जन्म
देता है। न एक पशु जाति दूसरी पशु जाति को जन्म देती है। पर मानव-मानव में यह
भेद होने से असवर्ण स्त्री भी अन्य वर्ण के किसी भी पुरुष का सहज गर्भ धारण कर
लेती है। स्पष्ट ही है कि निसर्ग हमारे पोथीजात जातिभेद को जातिभेद मानता ही
नहीं। जाति की मूल व्याख्या ही यह कहती है कि जो जन्म से आती है वही वास्तविक
जाति; पोथी से आती है वह जाति नहीं। हमारे वैश्य, शूद्र, दरजी, सुनार,
कच्चे दूध से मक्खन निकालनेवाले यादव और दूध गरम कर मक्खन निकालनेवाले ग्वाला
आदि जाति-प्रपंच निसर्ग स्वीकार नहीं करते और इसीलिए इन पोथीजात जातिभेद की
बेटीबंद व्यवस्था को बनाए रखने के लिए हम अपनी पोथी-पुस्तकों की चीन जैसी
दीवार भी बनाएँ तो भी उसे लाँघकर संकर, यौन आकर्षण के पुष्पक विमान से
किलाबंद अंत:पुर में उतरे बिना नहीं रुकता।
अंधनिष्ठा
समाज व्यवस्था के लिए बनाए हमारे मानवीय नियम हमें उपयुक्त लगते हैं, इसलिए
वे निसर्ग के नियमों को उलटने में हमेशा समर्थ होंगे ही, ऐसा माननेवाली निष्ठा
एक तरह की आत्मवंचना ही है। यह अंधनिष्ठा समाज व्यवस्था के लिए चाहे अपरिहार्य
हो, पर प्रत्यक्ष वस्तुस्थिति के अखंडनीय विरोधी साक्ष्य के सामने (किसी भी
वैज्ञानिक चर्चा में भ्रमपूर्ण मानते हुए) एक तरफ रखी जानी चाहिए। अमेरिका,
यूरोप, एशिया आदि सभ्य समझे जानेवाले विश्व के न्यायालयों में हमेशा ही
हजारों वैवाहिक अभियोग प्रस्तुत होते हैं और निर्णय पाते हैं, उनके निर्णयों
को टालना असंभव है।
विश्व में पग-पग पर जो अनुभव सामने आता है उससे तो ऐसा की कहा जाएगा कि किसी
भी वंश, कुल या घराने के संबंध में चाहे वह यहूदी, मुसलिम, क्रिश्चियन या
हिंदू हो, शास्त्रीय आधार पर प्रतिज्ञा के साथ यह कहना एक साहस ही होगा कि उस
कुल में गत सात या सत्तर पीढ़ियों में प्रकट या अप्रकट रूप से कुलसंकर या
जातिसंकर हुआ ही नहीं। ऐसी स्थिति में गली के अमुक एक घर पर कभी हजार वर्ष
पूर्व ब्राह्मण, महार, दरजी, बढ़ई के नाम पर क्रमांक पड़ गया, इसलिए उस घर
में जिसका भी जन्म हुआ वह ब्राह्मण, महार, दरजी या बढ़ई ही होगा और उसमें उस
जाति विशेष के व्यावसायिक गुण उतरे ही होंगे, ऐसा कहना या इसके भी आगे जाकर
जो नहीं दिख रहे हैं वे दिखते हैं, ऐसा मानना ही होगा और अन्य स्थान पर दिख
रहे हों तो उसे दिखते नहीं कहकर नकारना ही होगा। आग्रहपूर्वक अपने मन को इस
तरह समझाना कितना गलत होगा! आज का जातिभेद जन्मसिद्ध होने की बात कहना भी
मुख्यत: इसी गलत सोच पर आधारित नहीं है क्या? इसलिए पोथीजनित बेटीबंदी पर
खड़ी की गई मानव जातियाँ निसर्गजनित बेटीबंदी द्वारा निर्मित नैसर्गिक जातियों
जैसी ही एक-दूसरे से विलग रह सकती हैं। इस विषय की शास्त्रीय चर्चा करते समय
गुप्त संकर अस्तित्व को नकारना संभव नहीं है।
पोथीजनित बेटीबंदी
किसी उथले पाठक को भ्रम न हो, इसलिए अंत में यह कहना आवश्यक है कि इस चर्चा
में संकर शब्द विवाह शब्द के विलोम के रूप में प्रयुक्त है, ऐसा नहीं है।
विवाह संस्था अच्छी है या बुरी-यह प्रश्न ही नहीं है। प्रश्न इतना ही है कि कल
और जाति की पोथीजनित बेटीबंदी से संकर टाला जा सकता है या नहीं। वैवाहिक
दांपत्य के व्रतभंग से उत्पन्न संकर 'संकर' है ही, परंतु विवाह का व्रत अति
अभंगता से पालन करते हुए भी वधू-वर की जातियाँ मूलतः भिन्न होने के आधार पर
हुआ, विवाह भी जातिभेद की परिभाषा में संकर ही होगा और वह जातिसंकर भी आज की
जन्मजनित जाति शुद्धता को बिगाड़ेगा ही।
इसी तरह किसी सिद्धांतप्रिय और तार्किक वाचक की गलत धारणा न हो, इसलिए यह भी
कहना इष्ट है कि यहाँ प्रयुक्त नैसर्गिक शब्द भी 'मनुष्यकृत' शब्द के विलोम
के रूप में मर्यादित अर्थ में ही उपयोग में लिया है। अन्यथा निसर्ग के
सैद्धांतिक और व्यापक अर्थ में वह कृत्रिम और स्वाभाविक है, ऐसा कोई भेद हो
नहीं सकता। जो कृत्रिम है या जो मनुष्यकृत है, अधिक क्या कहें, जो-जो भी घटित
हो सकता है वह-वह वास्तव में नैसर्गिक ही है। इस तरह अनैसर्गिक कुछ होता ही
नहीं।
(केसरी, १०.३.१९३१)
८. जातिसंकर के अस्तित्व का साक्षीदार-स्वयमेव स्मृति
माने हुए और केवल पोथीजनित जातिभेद को परस्पर संकर से शुद्ध रखना ऊपर बताए
अनुसार दुष्कर है, यह सामान्य रूप से मान्य करके भी हम हिंदू लोग यही कहते
हैं कि वह नियम सामान्यतः कितना भी सच हो हमारे चातुर्वर्ण्य के प्रकरण में
झूठ ही है। ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि भिन्न जातियाँ परस्पर संकर से एकदम अलिप्त
हैं; क्योंकि वे वैसी रहें, इसलिए वैसा ही असाधारण प्रबंध शताब्दियों से किया
हुआ है। ऐसा कहनेवालों की ऐसी धारणा है कि एक शुभ पुरातन मुहूर्त पर विराट्
पुरुष के मुख से ब्राह्मणों की पूरी जाति अकस्मात् टप से नीचे गिरकर खड़ी हो
गई और छाया डालने के समय पेड़ों-झुरमुटों में छिपे सैनिक जैसे प्रकट होते हैं
वैसे ही विराट की भुजाओं के रोम-रोम से शस्त्रास्त्र सज्जित क्षत्रिय छलाँगें
लगाकर बाहर आए। इस आदिसंभव से लेकर आज तक इन चार वर्णों का रक्तबीज एकदम शुद्ध
और संकररहित बने रहने से जैसे ब्राह्मण के लड़कों में ब्राह्मण के गुण ही रहते
हैं, वैसे ही क्षत्रियों में क्षत्रियों के और शूद्रों में शूद्र के गुण बने
हुए हैं।
परंतु जिनकी धारणा सच में ऐसी है उनकी धारणा कितनी गलत और काल्पनिक है-यह अपने
प्राचीन और सर्वमान्य ग्रंथ, श्रुति, स्मृति, पुराणों का हर पृष्ठ सिद्ध कर
सकता है। व्यक्तिगत उदाहरण तो विपुल हैं, उन्हें छोड़कर केवल दो-चार पुरातन
रूढ़ियों और परंपरा प्रचलित प्रथाओं का निर्देश यह सिद्ध करने के लिए काफी है
कि हमारे ये चार वर्ण संकर से कभी भी अलिप्त नहीं थे। उन सुप्रतिष्ठित और
शास्त्रोक्त प्रथा के एक-एक नाम में हजारों व्यक्तिगत उदाहरण समाहित हैं।
हमारे चारों वर्गों में 'संकर' शास्त्रीय पद्धति से होता आया है और हमारी
सैकड़ों जातियाँ तो संकर से ही उत्पन्न हैं।
पितृ सावर्ण्य
विवाह संस्था का जब जन्म भी नहीं हुआ था या उद्दालक ऋषि के संगम, स्वतंत्रता
का जो एक काल था, उसे छोड़ दें। पुराण कथा के अनुसार जब श्वेतकेतु ने विवाह
संस्था स्थापित की उसके बाद के काल में भी ब्राह्मण सभी जातियों की स्त्रियों
से विवाह करते थे, अर्थात् इसके लिए शास्त्र की अनुमति प्रदान थी ही। इन
तीनों वर्गों की स्त्रियों की गोद से उत्पन्न संतति ब्राह्मण ही मानी जाती थी।
वचन ही है-'त्रिषु वर्णेषु जातो हि ब्राह्मणो ब्राह्मणात् भवेत्' और ये भिन्न
वर्णजात ब्राह्मण संतति ब्राह्मणों की कन्याओं से अभिन्नता से विवाह करते थे।
सैकड़ों वर्ष यह पितृ सावर्ण्य प्रथा शास्त्र सम्मत रूप में हममें विद्यमान
थी। सारांश, हममें तीनों वर्गों का रक्त पीढ़ी-दर-पीढ़ी संचरित होता आ रहा है।
क्षत्रियों और वैश्यों में भी यही पितृ सावर्ण्य प्रथा थी और इसलिए उनमें भी
सब वर्गों का रक्त संचरित है। ब्राह्मण की माँ शूद्र, मौसी वैश्य और चाची
क्षत्रिय होना सामान्य बात थी। सगा ममिया भाई 'क्षत्रिय' तो सगा मौसिया भाई
'शूद्र' हो सकता था। बेटीबंदी जहाँ इतनी खुली थी वहाँ रोटीबंदी की तो बात ही
गौण है।
मातृ सावर्ण्य
आगे जब मातृ सावर्ण्य प्रथा चालू हुई और माँ की जाति ही संतान की जाति होने
लगी, तब भी 'शूद्रैव भार्या शूद्रस्य सा च स्वा च विशः स्मृते। ते चं स्वा
चैव राज्ञश्च ताश्च स्वा चायजन्मनः॥' यह नियम बना। यह मिश्र विवाह का प्रयोग
था। पितृ सावर्ण्य के कारण ब्राह्मणों में तीनों वर्गों का रक्त संक्रमित हुआ
तो मातृ सावर्ण्य के कारण ब्राह्मणों का रक्तबीज तीनों वर्गों में और तीनों के
फिर परस्पर में संक्रमित हुए। मातृ सावर्ण्य के कारण एक ही ब्राह्मण का एक
पुत्र ब्राह्मण, दूसरा क्षत्रिय, तीसरा वैश्य तो चौथा शूद्र हो सकता था। इस
तरह समाज के चारों वर्ण केवल लक्षणा से नहीं अपितु रक्तबीज से भाई-भाई थे और
उनमें भी गुण-कर्म प्रभाव से एक वर्ण के लोग अन्य वर्गों में समय-समय पर लिये
जाने से जैसे विश्वामित्र ब्राह्मण होकर या सूतपुत्र कर्ण मूर्धाभिषिक्त
अंगराज होकर क्षत्रिय हो गए और उन-उन वर्गों में विवाह करने लगे। इसी तरह
चारों वर्गों में परस्पर रक्तबीज का जीवन प्रवाह संचरित होता रहता था।
अनुलोम और प्रतिलोम
अनुलोम और प्रतिलोम प्रथाएँ कब अस्तित्व में आईं, यह प्रश्न एक तरफ रख दें तो
भी उन प्रथाओं के कारण चातुर्वर्ण्य के मध्य हुए संकर से अनेक उपजातियाँ
बनीं-यह सत्य है। और इसीलिए सूत मगध आदि से लेकर शूद्र पुरुष संबंध से
ब्राह्मण स्त्री को हुई संतति, जिसे चांडाल माना गया तक, हमारे
पूर्वास्पृश्य भाइयों से ब्राह्मण आदि वर्ण का रक्तबीज संकीर्ण हुआ है। हमारी
सारी जातियों की नस-नस में एक-दूसरे का रक्त प्रवाहित हो रहा है, यह तथ्य
कोई भी नकार नहीं सकता।
पितृ सावर्ण्य, मातृ सावर्ण्य, अनुलोम और प्रतिलोम इन चार प्रथाओं को
श्रुति, स्मृति, पुराणोक्त ऐसी शुद्ध सनातनी मुद्राओं की मान्यता प्राप्त थी।
इन प्रथाओं से बिना किसी वाद-विवाद के यह सिद्ध हो सकता है कि चार वर्णों में
ही नहीं, संकर के कारण बनी चार सौ जातियों में निःसंकीर्ण (शुद्ध) आनुवंश
कहीं रहा ही नहीं और यह सब शास्त्रीय विवाह और संगम के द्वारा ही हुआ।
रक्तबीजों का परस्पर संकर पीढ़ियों से होता आया है और इसीलिए आनुवंशिक
गुण-विकास के नियम से ही हममें एक-दूसरे के गुण-अवगुण भी संकीर्ण हुए हैं।
एक पांडव कुल ही देखें
उदाहरण के लिए पांडवों के कुल को ही देखें। धर्म संरक्षक आर्योत्तम प्रत्यक्ष
सम्राट भरत का यह कुल कोई हीन या अमंगल कुल नहीं था। और यह वह समय था जब
श्रीकृष्ण ने स्वयं 'चातुर्वर्ण्य मया सृष्टं' की घोषणा कर चातुर्वर्ण्य की
रक्षा का अभिवचन दिया था। ऐसा नहीं कि कोई कहे कि मुसलमानों ने सबकुछ बिगाड़ा
है या बुद्ध के पाखंड के कारण सब गड़बड़ हुई है। वह धर्म-हानि का काल नहीं था।
उस काल में विशुद्ध चातुर्वर्ण्य की रेत की बाँध फोड़कर हमारा जीवन प्रवाह बह
रहा था।
प्रतीप ने शांतनु से कहा कि हे राजा! यह स्त्री कौन है, कहाँ की है, किस जाति
की है? ऐसे प्रश्न न पूछते हुए तू उससे विवाह कर ले। इस कथन के बाद अज्ञात
जाति की गंगा से शांतनु ने विवाह किया। उसका पुत्र भीष्म अभिषेक से क्षत्रिय
हुआ। फिर शांतनु ने, जिसकी जाति-पाँति ज्ञात थी, ऐसी एक मछुआरे की कन्या
'सत्यवती' से विवाह किया और उसे पटरानी बनाया-फिर भी शांतनु की जाति बनी रही।
इतना ही नहीं अपितु उस मछुआरे की कन्या के लड़के चित्रांगद और विचित्रवीर्य
दोनों ही भारतीय ब्राह्मणों के शास्त्रोक्त सम्राट् बने। उसी मछुआरे की कन्या
के पुत्र विचित्रवीर्य ने अंबिका और अंबालिका ऐसी दो क्षत्रिय कन्याओं से
विवाह किया। परंतु वह निस्संतान ही मर गया, इसलिए उसकी रानियों से नियोग
पद्धति से संतान उत्पन्न करने के लिए उनकी सास उस मछुआरे की कन्या 'सत्यवती'
ने श्रीमान् व्यास को कहा।
व्यास कौन? ब्राह्मण श्रेष्ठ पाराशरपत्र, और वे ब्राह्मणश्रेष्ठ पाराशर कौन?
'श्वपाकाच्च पराशरः।' एक अस्पृश्य श्वपाक का पुत्र। वह अस्पृश्य श्वपाक का
पुत्र ब्राह्मण श्रेष्ठ माना गया। उस ब्राह्मणश्रेष्ठ पाराशर को मछुआरे की
कुमारी कन्या से जो पुत्र हुआ वही वह महाज्ञानी, महाभारतकार व्यास था।
अच्छा हुआ किसी ब्राह्मण, क्षत्रिय से नहीं, श्वपाक से ब्राह्मण श्रेष्ठ
पाराशर मुनि उत्पन्न हुआ। यह भी अच्छा हुआ कि किसी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य
जाति की कुमारी से पाराशर ने संबंध नहीं किया। यदि ऐसा होता तो यह देश व्यास
जैसे लोकोत्तर पुरुष से वंचित हो जाता। पर पाराशर से सवाई पुत्र जिसकी गोद में
पैदा हुआ, वह मछुआरे की कन्या उस महाऋषि पर मोहित हो गई, इसलिए बीज क्षेत्र
का ऐसा अलौकिक चयन हुआ कि उस संबंध से 'व्यासोच्छिष्टं जगत्सर्व' ऐसी सार्थ
गर्ववाणी जिसकी अलौकिक प्रतिभा के कारण आज हम करते हैं, वह व्यास जैसा भारत
कुलवंतस पुत्र उत्पन्न हुआ। कृष्णद्वैपायन व्यास जिसकी श्रीकृष्ण ने ब्राह्मण
कहकर वंदना की और भारतीय सम्राटों के राजमुकुट जिसकी चरणधूलि मस्तक से लगाते
रहे, जिस संकर से ऐसा पुत्र पैदा हो, वह संकर वास्तव में शास्त्रीय विवाह है।
जिससे संतति हीनतर हो वह वास्तव में संकर, फिर वह सवर्ण विवाह क्यों न हो?
उच्चतर संतति का प्रसव जिससे हो वह असवर्ण विवाह भी हो तो भी वही असली विवाह।
ऐसा संकर 'नारकीय' न होकर 'स्वर्गीय' कहना होगा।
महर्षि व्यास ने क्षत्रिय रानियों से नियोग विधि से पांडु और धृतराष्ट्र को
जन्म दिया और उनकी शूद्र दासी से विदुर को जन्म दिया। ये तीनों ही उस राजकुल
में भाइयों की तरह ही रहते थे। पांडु की अनुज्ञा से उसकी दोनों रानियों कुंती
और माद्री ने किन्हीं अज्ञात पाँच पुरुषों से पाँच पांडवों को जन्म दिया। उस
कुंती देवी को पहले भी कुमारी अवस्था में ही सूतपुत्र कर्ण हुआ था। उस
सूतपुत्र कर्ण को दुर्योधन ने यह कहकर कि क्षत्रियों का मुख्य गुण कुल नहीं
शौर्य है, गुण-कर्मानुसार क्षत्रिय बनाकर अंग देश का राजा बना दिया। भीम ने
राक्षस जाति की हिडिंबा से विवाह किया। श्रीकृष्ण ने भी जांबुवंती से और
कुब्जा से विवाह किया था। अर्जुन ने नागकन्या से गांधर्व विवाह किया था। परंतु
उनमें से कोई जातिच्युत नहीं हुआ।
बहुत हुआ। इस एक आर्य श्रेष्ठ पांडव-कुल के ग्रथित इतिहास से उस काल के हजारों
अग्रथित उदाहरणों का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है और यह स्पष्ट हो जाता है
कि आज यह हिंदू राष्ट्र जिस रोटीबंदी, बेटीबंदी आदि के मजबूत किले में बंद कर
दिया गया है वैसा वह उस काल में बिलकुल नहीं था। इसे कोई नकार नहीं सकता।
बुद्धकाल में तो जाति-संस्था स्पष्ट ही तुच्छ हो गई थी। अशोक की माँ
ब्राह्मणी! वैश्य सम्राट् श्री हर्ष की कन्या ने क्षत्रिय से विवाह किया था।
यक्ष, तक्षक, नाग आदि कुल भी क्षत्रिय ही मान लिये जाने से क्षत्रियों के
उनसे बेटी-व्यवहार होने लगे थे।
जाति-वर्ण में शास्त्र मान्य ऐसे रक्तबीज संबंध जहाँ उपर्युक्त के अनुसार होते
थे, वहाँ जाति-जाति में स्त्री-पुरुषों के यौन आकर्षणवश गुप्त रीति से इससे
कितने गुना अधिक होते होंगे! आज जाति-जाति में बेटीबंदी इतनी कट्टरता से लागू
है तब भी यौन आकर्षण से वर्णसंकर इतनी बड़ी मात्रा में खुला चल रहा है, तो जब
बेटीबंदी शास्त्र और व्यवहार में इतनी ढीली थी तब जाति-जाति में रक्त संबंध
कितनी बड़ी मात्रा में होते होंगे-यह अलग से कहने की आवश्यकता नहीं।
आनुवंश की अब तक की गई जाँच का सारांश यह है कि आनुवंश शुद्ध रखने पर
गुण-विकास या गुण-दृढ़ीकरण होता है, यह प्राकृतिक नियम अंशतः सच होते हुए भी
आज की बेटीबंदी और जातिभेद का समर्थन करते हुए निम्न सीमाएँ ध्यान में रखनी
चाहिए-
१. गुण-विकास के लिए आवश्यक आनुवंश एकमात्र घटक न होकर अनेक घटकों में
से एक घटक है।
२. आनुवंश शुद्ध रखने पर भी प्रकाश, अन्न, जल, वायुमान, पितरों की
मन:स्थिति, उनके संस्कार, शिक्षा, संधि, साधन आदि परिस्थितियाँ जैसे-जैसे
बदलती हैं वैसे-वैसे संतान के बीजभूत गुण भी भिन्न-भिन्न मात्रा में विकसित या
आकुंचित होते हैं।
३. आनुवंश शुद्ध हो तो भी सद्गुणों की तरह ही दुर्गुणों का भी वर्धन या
दृढ़ीकरण होता है। इसीलिए आनुवंश कभी-कभी अत्यंत हानिकर सिद्ध होता है और केवल
संकर ही वह दोष या दुर्गुण संतानों में से निकाल डालने के लिए समर्थ और
हितकारी होता है।
४. आनुवंश शुद्ध रखें तो भी पितरों के सद्गुण कुछ काल तक विकसित हो, फिर
क्षीण होते जाते हैं या विकृत होते हैं। ऐसे समय भी संकर प्राणियों के हित में
होता है।
५. निसर्गजनित जातियों में आनुवंश शुद्ध रखना सहज है, पर केवल माने
हुए, केवल पोथीजनित जातियों में आनुवंश लंबे काल तक शुद्ध रखना असंभव है।
६. ब्राह्मण आदि जिन जातियों में आज परस्पर बेटीबंदी कड़ाई से लागू है
उन हिंदू जातियों में शास्त्र सम्मति से भी पहले अनेकानेक पीढ़ियों में
अन्य-अन्य रक्तबीजों का प्रवाह अखंड बहता था और यौन आकर्षण से होनेवाला गुप्त
संकर भी हमेशा ही इस ओर उस गति से प्रवाहित होता आया है और होता रहेगा। अतः
वर्तमान में विवाहों की सीमा में बेटीबंदी कितनी भी कड़ाई से लागू की जाए, तो
भी ब्राह्मण का लड़का उपजते ही ब्राह्मण गुण-संपन्न या क्षत्रिय का क्षत्रिय
गुण संपन्न होगा ही, ऐसा मानना मूलतः त्याज्य सिद्ध होता है। हमारी सब
जातियों के आनुवंश पीढ़ियों से खुले (संकीर्ण) होने से आनुवंश के नियमानुसार
और उस नियम की सीमा में किसी भी जाति को किसी विशिष्ट गुण का एकाधिकार
(Monopoly) प्राप्त होना असंभव है।
प्रत्यक्ष अनुभव
तर्क से अनुमानित उपर्युक्त सिद्धांत को व्यावहारिक अनुभवों का भी अनुमोदन
हमेशा मिलता आया है। माँ-बापों जैसे ही बच्चे नहीं होते यह अनुभव भी सबको है।
श्रीकृष्ण का एक भी पुत्र श्रीकृष्ण नहीं निकला। आँखोंवाले व्यास का पुत्र
धृतराष्ट्र अंधा था और सात्त्विक व्यास के पौत्र दुर्योधन, दुःशासन हुए।
शुद्धोधन का पुत्र बुद्ध और बुद्ध का पुत्र राहुल। अपनी कन्याओं का बलपूर्वक
केवल मुखदर्शन चाहनेवाले म्लेच्छों को रक्तस्नान करानेवाले चित्तौड़ के प्रतापी
महाराणा और उनके ही पुत्र की कन्याओं को कोई बलपूर्वक हरण न कर पाए, इसलिए
अपनी कुमारी कन्याओं को विषपान करानेवाले भीमसिंह भी महाराणा। शिवाजी का पुत्र
संभाजी और संभाजी पुत्र शाहू। बाजीराव प्रथम का बेटा राघोबा और पौत्र दूसरा
बाजीराव। पृथ्वी के पूरे इतिहास की यह कहानी है कि किसी शककर्ता के बाद की
चौथी-पाँचवीं पीढ़ी तक कोई-न-कोई दुर्बल राज्य विनाशक पुत्र उत्पन्न होगा ही,
मानो यह कोई सिद्धांत है। किसी एक बीज की अंतर्निहित शक्ति किसी एक पुरुष को
परम उत्कर्ष देने में व्यय हो जाने पर वह बीज युद्ध में रिक्त हुए तरकस की तरह
खाली हो जाता है और अगली पीढ़ियों में उसका तेज संक्रमित नहीं हो पाता।
इसीलिए प्रत्यक्ष गुण देखना उत्तम
माँ-बापों जैसी संतति नहीं होती-यह सार्वजनिक अनुभव है। आनुवंशिक गुण-विकास का
नियम सत्य होते हुए भी ऐसा क्यों होता है? आनुवंश के सारे नियमों की अभी तक
जो छनाई (जाँच) हमने की उससे तथा जातिभेद को जितना आवश्यक था उतना विवेचित
करने के बाद वर्तमान में प्रचलित जातिभेद की व्यवस्था केवल आनुवंश के सिद्धांत
पर करने में हमारी जो भूल हुई या हो रही है, उसे सुधारने में उसमें क्या
संशोधन किए जाएँ, यह सहज ही ज्ञात हो जाएगा। हम बेटीबंदी का और तज्जन्य शतशः
जातियों का समर्थन इसलिए करते हैं कि आनुवंश के कारण जो-जो (जातिगत) गुण
जिस-जिस जाति में विकसित होते हैं या दृढ़ होते हैं, संकर से वे गुण मलिन
होने की आपत्ति आती है। चातुर्वर्ण्य में बुद्धि, शक्ति आदि विशिष्ट गुणों का
विकास हो-इसलिए। यदि ऐसा है तो वधू-वर में वे गुण प्रत्यक्ष हैं या नहीं यह
विशेषतः देखा जाना चाहिए। वे वधू-वर अमुक जाति के हैं या अमुक कुल के हैं,
इतना ही देखकर चलनेवाला नहीं। क्योंकि ऊपर दिए गए छह-सात कारणों से और आनुवंश
के गुण-विकास की दृष्टि से एकमात्र घटक न होने से अमुक जाति या अमुक माँ-बाप
हों तो संतान में अमुक गुण होंगे ही-ऐसा निश्चितता से केवल आनुवंश के आधार पर
कभी भी नहीं कहा जा सकता। उसमें भी पोथीजनित, केवल मानी हुई, केवल काल्पनिक
भिन्नता पर आधारित हमारी वर्तमान की जाति के लिए तो ऐसा मानना केवल अंधी धारणा
है। इसीलिए वर्तमान की केवल आनुवंश पर अवलंबित बेटीबंदी तोड़कर प्रत्यक्ष
गुणों पर अवलंबित ऐसी बेटीबंदी को यदि हम मानने लगे तो हमारा जो मुख्य हेतु
है, 'सद्गुण-विकास' वह अधिक निश्चयपूर्वक हम प्राप्त कर सकेंगे।
वधू-वर अमुक एक जाति के हों तो उस जाति का जो माना हुआ गुण है वह होगा ही,
ऐसा नहीं है। क्योंकि गुण केवल आनुवंश से उतरते, बढ़ते नहीं और हमारा मुख्य
कार्य तो गुणों से है, आनुवंश से नहीं। इसलिए जिन वधू-वर में वह इष्ट या
अपेक्षित गुण प्रकट हुआ है फिर चाहे वह केवल आनुवंश से उतरा हो या परिस्थिति
से हो, उन वधू-वर का विवाह करने से ही हमारे जातिभेद के मूल में निहित
गुण-विकास का हेतु साध्य होना अधिक संभव है। फिर उन वधू-वर की मानी हुई जाति
कोई भी क्यों न हो।
विवाह के समय मंगल या शनि उन वधू-वर की कुंडली में किस स्थान पर है, आदि
बेकार के झगड़ों की ओर हम जितना ध्यान देते हैं उतना ध्यान वधू-वर की संतान में
हम जो अपेक्षा करते हैं वे गुण हैं या नहीं, यह देखने में लगाएँ तो आनुवंशिक
गुण-विकास करने में हम आज की अपेक्षा अधिक समर्थ होंगे। बीज से अनुरूप फल
लगेगा ही, यह जितने निश्चय से कहा जा सकता है उससे सौ गुना अधिक निश्चितता से
यह कहा जा सकता है कि फल लगने पर वह अनुरूप बीज का ही है। वैसे ही व्यक्ति में
गुण प्रकट हो जाने के बाद उसका आनुवंश या जाति अमुक ही होगी यह कहना उतने धोखे
का नहीं है जितना वह व्यक्ति अमुक (पीढ़ीजात) जाति का है, इसलिए उस व्यक्ति
में उस जाति का वह माना हुआ या पोथीजनित गुण होगा ही-यह कहना। यदि वह गुण
प्रकट हुआ तो उसका आनुवंश, परिस्थिति आदि कारण ठीक मिल गए होंगे, यह
प्रत्यक्ष सिद्ध हो जाता है और गुण प्रकट हुआ ही नहीं है तो फिर उस आनुवंश को
क्या चाटना है! गुण प्रकट न हुआ तो उस अनुपात में आनुवंश ठीक हो तो परिस्थिति
ठीक न होगी। लेकिन उससे क्या लेना-देना?
संतान में गुण-विकास चाहिए तो वह गुण प्रत्यक्ष में जिनमें दृष्टिगोचर हो रहा
है, उन वधू-वरों का संबंध करना चाहिए। फिर वे गुण उन वधू-वरों में आनुवंशिकता
के कारण आए हों या परिस्थिति के कारण। आज के हमारे हिंदू समाज में केवल पोथी
में लिखा हुआ भिन्नत्व अन्य किसी भी सहज लक्षण से प्रमाणित नहीं होता, अतः
ब्राह्मण, शूद्र, दरजी, सुनार, बनिया, लिंगायत, ग्वाला, माली आदि हजारों
पैदाइशी भिन्न जातियों को मानना पहली भूल है और फिर महादेव की जटा से अमुक
जाति निकली, ब्रह्मदेव की नाभि से अमुक-ऐसी काल्पनिक उपपत्तियों को अक्षरशः
सत्य मानकर किसी जाति विशेष में विशिष्ट गुण पैदा होते-ही-होते हैं यह पक्का
मान लेना और भी अधिक गलत है। वह गुण विशेष उस जाति की संतान में प्रकट न होते
हुए भी उसे प्रकट मानना तथा उसी गुणानुरूप मान-पान, सुविधा-असुविधा,
उच्चता-नीचता उस जाति की संतान को भोगने देना पर्वतसमान त्रुटि है साथ ही यह
कहना कि हमारे ऋषियों द्वारा खोजा गया आनुवंशिक गुण-विकास का रहस्य यही है।
कोई कन्या नकटी है किंतु उसकी पड़नानी की नाक चंपाकली जैसी थी, इसलिए हम उसे
भी सुंदर नाकवाली तो नहीं कहते! तो उस आनुवंशिक गुण विकास के उस सनातन रहस्य
की रत्ती भर भी परवाह न करते हुए उसके प्रत्यक्ष दिखती नकटी नाक को देखकर उसे
नकटी ही कहते हैं। वैसे ही किसी लडके की आँख जन्मतः ही अंधी हो तो उसके किसी
पूर्वज की आँखें कमल जैसी थीं, इसलिए उस लड़के को कमललोचन न मानते हुए हम उसे
काना ही कहते हैं। फिर वही न्याय पोथी में लिखे चातुर्वर्ण्य के गुणों के लिए
क्यों न लागू हो! ब्राह्मण वंश में कोई गधा निकला तो उसे गधा ही कहना होगा और
शूद्रों में ज्ञानी निकला तो उसे ज्ञानी ही कहना चाहिए-फिर चाहे उसका पिता,
बाबा या पड़बाबा गधा हो या ज्ञानी हो। आनुवंश सही उतरा हो तो गुण प्रकट होगा
ही, पर गुण प्रकट न हुआ तो आनुवंश परिस्थिति या किसी अन्य गुण के विकास घटक
में कुछ त्रुटि हुई है, ऐसा मानना होगा।
कोई कहता है, व्यक्ति के गुण हमेशा बच्चे में उतरते ही हैं, ऐसा नहीं है। वे
तीसरी-चौथी पीढ़ी में भी प्रादुर्भूत होते हैं। हाँ, होते हैं। पर कभी-कभी!
और कभी-कभी तो होते ही नहीं। वे जब प्रकट होंगे तब उसे मानेंगे ही। पर किसी
गवैया की मधुर आवाज उसके पौत्र-प्रपौत्र में सनई जैसी मधुर निकलेगी ऐसी पक्की
गारंटी दी भी गई हो तो उसपर विश्वास कर उसके पुत्र और पौत्र को संगीत शिक्षक
के पद पर नियुक्त कर उसके गर्दभ स्वर की प्रशंसा कर 'फिर से, फिर से' कह
सकेंगे क्या? एक वीर पुरुष पैदा हुआ, हमने उसे अपना सेनापति बनाया। उसका
पुत्र डरपोक निकला, घोड़े को देखते ही वह डरता है। पर सेनापति का वीरत्व उसके
पौत्र में फिर से प्रकट होगा, इस आशा से उस डरपोक पुत्र को वांशिक सेनापति पद
देकर घोड़े पर बाँधकर क्या पानीपत की लड़ाई में भेजा जाए? तीसरी-चौथी पीढ़ी
में पितृगुण उतरते हैं, संत तुकाराम की आज १०-२० पीढ़ियाँ हो चुकीं, पर उस
वंश में एक भी तुकाराम पैदा नहीं हुआ। या आनुवंश के गुणों की दया कर पांडुरंग
ने संत तुकाराम के किसी वंशज के लिए फिर से आज तक स्वर्गीय विमान नहीं भेजा। गत
सात पीढ़ियों में रामदास के घर रामदास नहीं है और न बोनापार्ट के कुल में
बोनापार्ट पैदा हुआ।
विश्व के अन्य राष्ट्रों के अनुभव देखें
पोथीजनित माने हुए जातिभेद के गड़बड़झाले पर कभी न सोचते हुए गुण-विकास के
विज्ञान का अवलंबन कर जो समाज आज विश्व में जी रहे हैं, उनमें से अधिकतर में
ही हर पीढ़ी कुल मिलाकर पहले से अधिक ऊँची, विशाल, सुंदर, सुबुद्ध, वीर और
परोपकार-निरत पैदा हो रही है, जैसे अमेरिका। हर पीढ़ी में उनके पुरुष
'दीघौरस्को वृषस्कन्धो शालप्रांशुर्महाभुजः' ऐसे पौरुषीय लक्षणों से अधिकाधिक
संपन्न होते जा रहे हैं। उनकी महिलाएँ सुंदरता में, सृजन क्षमता में, सुभगता
में और अपत्य संगोपन में भी अधिकाधिक क्षमतावान हो रही हैं। और हमारे यहाँ की
हर पीढ़ी पहले की अपेक्षा अधिक दुर्बल, दुर्मन और दुर्धन पैदा हो रही है।
हमारे विचार से इसके कारण कई हैं, जातिभेद ही अकेला कारण नहीं है।
परंतु जातिभेद के कारण ही आनुवंशिक गुण-विकास सही में हो रहा होता तो
वस्तुस्थिति उलटी होती। क्योंकि वे अमेरिकी पोथीजनित जातिभेद की हवा में नहीं
टिकते और हम तो मानो उसी में जी रहे हैं। कोई कहेगा, यह तो ऐसा ही होगा।
अरे ये कलियुग है
ये कलियुग है, इसमें आदमी दुर्बल होंगे। गायें सूखी रहेंगी, खेती कमजोर
रहेगी, बरसात कभी-कभार होगी-हमारे त्रिकालदर्शी ऋषियों ने यह सब पहले ही कह
रखा है। हम उनसे एक प्रतिप्रश्न करना चाहते हैं। कलियुग तो पूरे विश्व पर
आएगा, इसके प्रभाव में पूरी मनुष्यजाति आएगी। फिर अमेरिका में इसके ठीक उलटी
स्थिति क्यों है? उनके आदमियों का सीना, ऊँचाई, प्रतिभा हर पीढ़ी में बढ़ती
ही जा रही है। उनकी एक गाय हमारी दस गायों के बराबर दूध देती है। नारियल जितने
बड़े आलू, बिना बीज के अंगूर और विश्व के हर भूखंड को देकर भी शेष रहे-इतना
अनाज और आदमी। चाहे जहाँ और चाहे जितना पानी बरसाने की कला उसके अधीन है।
हाँ, यदि उन त्रिकालज्ञ ऋषियों ने कलियुग का बाँझ भविष्य केवल भारत के लिए ही
व्यक्त किया हो तो निश्चित ही वे त्रिकालज्ञ थे, क्योंकि जिन अनेक कारणों से
हमारी यह दुर्दशा हुई है उसमें प्रत्यक्ष अनुभव होते सुजननशास्त्र के नियमों
को लतियाकर अंधे अनुमान पर खड़े किए गए जातिभेद का टीका गत अनगिनत पीढ़ियों से
लगवा लेना यह एक महत्त्व का कारण है।
उसी टीके के कारण हमारे यहाँ चींटियों जैसे नन्हे, सड़े, कीड़ा लगे आदमी
संतान रूप में उत्पन्न होंगे-यह उन ऋषियों को भी ज्ञात होगा। ऐसा ही हो तो
उन्होंने जो भविष्यवाणी की, सत्य ही थी।
९. उपसंहार
इस लेखमाला का यह अंतिम लेख है। समाचारपत्र की सीमा में जितनी संभव थी उतनी इस
विषय की चर्चा विस्तार से पिछले लेखों में हो जाने के बाद इस लेख में उसका
उपसंहार कर इस लेखमाला के प्रारंभ में ही कहे अनुसार जन्मजात जातिभेद के
उच्चाटन की एक योजना संक्षेप में देकर यह लेखमाला हम आज पूरी करनेवाले हैं।
आज के जातिभेद का प्रमुख लक्षण उसका जन्मतः होना है और जन्मजात का समर्थन
करनेवाला प्रमुख तत्त्व और हेतु है आनुवंशिक गुण-विकास का निसर्ग नियम। इसीलिए
गत दो-तीन लेखों में हमने उस आनुवंश (Heredity) का यथास्थान पूरा विश्लेषण
किया और उसकी सीमाएँ निश्चित की, जो निम्न हैं-
१. आनुवंश, गुण-विकास का एक घटक होने के कारण समाजहितकारक लगनेवाले गुण
जिनमें प्रकट हों, ऐसे वधू-वरों का आपस में विवाह होने पर उन गुणों के दृढ़
अथवा विकसित होने की संभावना अन्य परिस्थितियों के समान होने पर अधिक है, यह
बात सच है।
२. पर आनुवंश, गुण-विकास का अनन्य घटक नहीं होता। गर्भकाल में माता की
परिस्थिति और संतान के जन्म लेने के बाद की शिक्षा, संस्कार आदि परिस्थिति उस
संतान के बीज का वह (विशेष) गुण विकसित होने में या नष्ट होने में बड़ी मात्रा
में सहायक होती है।
३. आनुवंश से जैसे सद्गुण-विकास होता है वैसे ही दुर्गुण-विकास भी होता
है। इसलिए जातीय बीजशुद्धि के साथ ही उस दुर्गुण का उच्चाटन करने में समर्थ
संकर का जोड़ भी कभी-कभी हितकर होता है।
४. एक अकेला गुण कितना ही उत्कृष्ट क्यों न हो, हर व्यक्ति या जाति में
वैसे अन्य उपकारक गुणों की अनुपस्थिति में वह गुण लूला पड़ जाता है। केवल सिर
(बुद्धि) कितना ही उत्तम हो, पर हाथ-पैर समर्थ न हो तो वह बुद्धि पंगु ही
होगी। इसके लिए उत्कृष्ट बुद्धि को शक्ति की और उत्कृष्ट शक्ति को बुद्धि का
सहयोग अवश्य चाहिए। इसलिए बुद्धि-प्रधान, शक्ति-प्रधान कुलों या जातियों में
अन्य अनुकूल गुण प्रधान कुल या जाति का संकर भी कभी-कभी हितकर ही होता है
इसलिए सब जातियों का यथाप्रमाण यथाआवश्यक सम्मिश्र बेटी-व्यवहार चालू रहना
उनके विशिष्ट गुणों के उत्कर्ष और कार्य-क्षमता के लिए उपयोगी ही होगा।
५. आज का हमारा जातिगत बँटवारा निसर्गतः भिन्न न होने के कारण और वह
केवल माना हुआ, पोथीजात होने के कारण, उसका आनुवंश, उसकी जातीय बीजशुद्धि,
शुद्ध रखना कठिन है।
६. व्यावहारिक अनुभव भी यही सिद्ध करता है। ब्राह्मणों में भी परशुराम,
द्रोणाचार्य, दुर्वासा आदि ऋषियों से लेकर मराठी साम्राज्य के पेशवा, पटवर्धन
या चापेकर, राजगुरु तक की लंबी सूची के पुरुष क्षत्रियों से भी अधिक पराक्रमी
सिद्ध हुए। दूसरी ओर क्षत्रिय, वैश्यों आदि में जनक, बुद्ध से संत तुकाराम
तक अनेक सत्त्वशील, शांतिप्रिय, तपस्वी हुए। इन व्यावहारिक अनुभवों के बाद भी
हमारे माने हुए जाति-बँटवारे में अमुक गुण अमुक जाति में होता ही है और अन्यों
में नहीं होता-ऐसा मानकर उन जातियों को उन गुणों पर और सम्मान पर जन्मजात
अधिकार जताने का अधिकार देनेवाली जातिभेद की प्रथा तथ्यविहीन और अन्यायकारी
है।
७. अपने इतिहास की ओर देखें तो आज जो जातियाँ रक्तबीज के कारण भिन्न
हैं, जैसाकि हम समझते हैं, वे मूलतः ही सम्मिश्र थीं यह स्पष्ट दिखता है।
पूर्व में चार वर्णों की चार हजार उपजातियाँ नहीं थीं माने उनके उस समय आपस
में विवाह होते थे और उन चारों वर्गों में भी परस्पर बेटी-व्यवहार निषिद्ध
नहीं था। पितृ सावर्ण्य, मातृ सावर्ण्य, अनुलोम और प्रतिलोम इन चार स्मृति
प्रतिपादित प्रथाओं के ये चार नाम ही निर्विवाद रूप से यह सिद्ध करते हैं कि
चारों वर्गों में रक्तबीज परस्पर घुले-मिले हैं। इसीलिए अमुक जाति में अमुक
गुण जन्मत: ही होते हैं-इसका अनुभव नहीं होता।
आनुवंश के नैसर्गिक नियमों की ये सब सीमाएँ और दोष ध्यान में लें तो आनुवंश के
कारण गुण-विकास होना ही चाहिए, यह समझने में हमारी कितनी बड़ी भूल हो रही है,
यह समझ में आ जाता है। इस कारण जाति से गुण की पहचान न कर गुण से जाति की
पहचान करना अधिक उचित है। अमुक एक क्षत्रिय का पुत्र है तो वह वीर होगा ही-ऐसा
न मानकर और वीरता का पदक उसका जन्मजात अधिकार है, इसलिए उसके नाम संस्कार के
दिन ही उसके सीने पर न लटका, अमुक एक वीर व्यक्ति है ऐसा प्रमाणित हो जाने पर
ही, उसे क्षत्रिय मानकर वीरता का पदक देना उचित है, फिर वह वीरता उसमें बीज
से आई हो या संकर से।
उसी तरह किसी गुण का विकास या दृढ़ीकरण करने के लिए भी जिस व्यक्ति में वह गुण
साफ-साफ दिखाई दे रहा हो उससे विवाह करना अधिक उपयोगी होगा। गोरा पुत्र चाहिए
तो वधू-वर का रंग गोरा है कि नहीं, यह देखकर ही चुनाव करें तो संतान गोरी
होने की संभावना अधिक होगी। परंतु ब्राह्मण जाति की मानकर स्पष्ट काले-कलूटे
दिखनेवाले वर-वधू को गोरा मानकर विवाह किया तो वह गोरी संतान प्राप्त करने का
सुरक्षित रास्ता नहीं होगा। यही बात अन्य गुणों की है। एक बार प्रत्यक्ष गुण
से आनुवंश का अनुमान लगाया जा सकता है, परंतु केवल माने हुए आनुवंश से गुण
सुनिश्चित नहीं किया जा सकता।
जन्मतः जातियों का उच्छेद और गुणानुरूप जाति का उद्धार
उपर्युक्त और यहाँ अनुल्लेखित ऐसे अनेक कारणों का विचार कर जातिभेद के विकृत
स्वरूप से छुटकारा पाने की एक मोटी योजना हम नीचे दे रहे हैं। हमारी ऐसी
निष्ठा है कि प्रस्तुत योजना से जितना भी कार्य हुआ तो आज के जातिभेद के
विषैले कीड़े से अपना समाज मुक्त किया जा सकेगा। जन्मत: जाति का उच्छेद और
गुणानुरूप जाति के उद्धार का यह सूत्र कार्य में लाना कठिन नहीं है, क्योंकि
जातिभेद का मुख्य आधार केवल भावना है।
आज उसके पीछे और कोई भी शक्ति खड़ी नहीं है; हमारे मानने में ही उसका सच्चा
जीवन है और उसका सच्चा मरण हमारे न मानने में है। इसलिए वह जाति अहंकार की
भावना हम त्याग दें तो उसकी मृत्यु निश्चित है। इसलिए जिसे आज की इस विकृत
जातिभेद की अनिष्ट पीड़ा से मुक्ति चाहिए, वह कम-से-कम निम्न योजना के अनुसार
स्वयं का आचरण रखे तो भी काम हो जाएगा। इससे यह जन्मजात जातिभेद सहज ही टूट
सकता है। जिस जातिभेद की हम चर्चा कर रहे हैं, वह हिंदू समाज का जातिभेद है;
अतः निम्न चर्चा का संबंध हिंदुओं से ही है-यह स्पष्ट है।
जन्म से शिशु की एक ही जाति-हिंदू
१. अमुक हिंदू जाति जन्मतः उच्च और अमुक जन्मतः नीच यह भावना कोई हिंदू
कभी भी मन में आने न दे। श्रेष्ठता-नीचता व्यक्ति के प्रकट गुणों से तय होनी
चाहिए। यदि किसी व्यक्ति का आनुवंश उच्च होगा तो उसमें उच्च गुण प्रकट होंगे
ही। यदि गुण प्रकट न हों तो उस आनुवंश या परिस्थिति में कुछ-न-कुछ दोष है-यह
मानना होगा।
२. जन्म से हर हिंदू लड़के की एक ही जाति होगी-हिंदू! इसके सिवाय दूसरी
उपजाति मानी न जाए। 'जन्मना जायते हिंदू'। (वास्तव में जन्म से तो मनुष्य की
जाति एक ही है-'मनुष्य'! परंतु जब तक मुसलमान-ईसाई आदि विधर्मीय लोग उस उच्च
ध्येय को छोड़ जन्म से अपनी जाति मुसलमान या ईसाई मानते हैं और हिंदुओं को खा
जाना चाहते हैं तब तक स्वसंरक्षणार्थ जाति के इस अहंकार का सापेक्षतया पालन
करना ही होगा। हर समय और जनगणना में अपनी जाति हिंदू ही लिखाएँ, अन्य सब
उपभेद धंधा-व्यवसाय माने जाएँ।)
३. हर हिंदू को वेद सहित सब हिंदू धर्मग्रंथ पढ़ने और सीखने तथा
इच्छानुसार संस्कार भी वेदोक्त रीति से करवाने का, करने का अधिकार हो।
पुरोहिती किसी एक जाति की जन्मजात विरासत नहीं है। जो हिंदू पुरोहिती की
योग्यता प्राप्त करे या परीक्षा उत्तीर्ण करे, वह पुरोहित हो, हो सकता हो;
जाति से नहीं अपितु 'तस्मच्छीलगुणैर्द्विजः'।
४. हिंदुओं के विशिष्ट तीर्थक्षेत्र, मंदिर और पवित्र ऐतिहासिक स्थान
(जैसे नासिक, पंचवटी के राम, सेतुबंध रामेश्वर) जाति-वर्ण निर्विशेषता से
स्पृश्य-अस्पृश्य सब हिंदुओं को समान रूप से खले हों।
५. प्रत्यक्षावलंबी सुजननशास्त्र की दृष्टि से योग्य किसी भी हिंदू
वधू-वर का विवाह, वह जन्मजात भिन्न मानी हुई जाति में हुआ है इसलिए निषिद्ध
और बहिष्कार योग्य न माना जाए। (यह नियम निषेधात्मक है।) ब्राह्मण और महार के
बीच विवाह संबंध होना ही चाहिए ऐसा नहीं। परंतु यदि गुण, शील, प्रीति आदि
दृष्टि से परस्पर अनुकूल वधू-वर (ब्रह्मण-महार) विवाह करें तो उनकी जातियाँ
भिन्न हैं, इसलिए वह विवाह निषिद्ध न माना जाए।
६. वैद्यकशास्त्र की दृष्टि से जो शुद्ध और आरोग्यप्रद है उसकी दृष्टि
से योग्य किसी भी व्यक्ति के साथ माने एक थाली में नहीं तो एक पंगत में भोजन
करने में हानि न मानी जाए। पड़ोस में बैठकर भोजन करने से जाति अगली कई
पीढ़ियों के लिए बदल जाती है, यह कल्पना पागलपन की है। मांसाहारी-मांसाहारी एक
पंगत में बैठे तो उत्तम और वैसे ही शाकाहारियों की भी पंगत हो सकती है।
सुपाच्य और रुचिकर अन्न-सहभोजन में कोई हानि न मानी जाए। पूर्व में अर्थात्
महाभारत काल में चारों ही वर्गों के सहभोजन होते थे। 'शूद्राः पाककर्तारः
स्युः' (आपस्तंब) या 'दासनापितगोपालाः कुल मित्रार्धसीरिणः। एते शूद्रेषु
भोज्यान्नः॥' ऐसे सैकड़ों वचन हैं।
शाकों में अति तामसी गुणवाले शाक भी होते हैं। वे मांसाहारी जो हमेशा ही मांस
नहीं खाते, शाकाहारियों की पंगत में बैठ सकते हैं।
७. धार्मिक समानता के साथ प्राथमिक सामान्य शिक्षा हर हिंदू को दिए जाने
के बाद जैसे गुण या प्रवृत्ति प्रकट हो वैसा व्यवसाय हर हिंदू करे। आज सबको
व्यवसाय स्वतंत्रता है। ब्राह्मण जूते बेचते हैं, चमार उत्तम शिक्षक होते
हैं। अब सुधार जो अपेक्षित है वह इतना ही कि प्रत्यक्ष व्यवसाय भिन्न होते हुए
भी मूल व्यवसाय की जो मानी हुई रोटी-बेटीबंद जाति है और उसके पीछे ही पड़े
रहने की जो प्रवृत्ति है, उसे टाला जाए। माने जाति दरजी, व्यवसाय सुनार; जाति
ब्राह्मण, व्यवसाय दुकानदारी यह जो गड़बड़झाला है वह टूटेगा। सबकी जाति
हिंदू, व्यवसाय जो कुछ होगा वह होगा।
बैरिस्टर और वाहन चालक
अब इस चर्चा का मंतव्य संक्षेप में शीघ्र ध्यान में आ जाए, इसलिए एक-दो
उदाहरण देकर यह लेखमाला समाप्त करें। जो बातें बचपन से हमें अच्छी कहते हुए
बताई जाती हैं उनकी हास्यास्पदता तत्काल ध्यान में नहीं आती। इसलिए इन उदाहरणों
में पुरानी जाति का उदाहरण न लेते हुए अर्वाचीन, बिना जाति व्यवसायों को
दिखाया गया है कि जिससे हास्यास्पदता तत्काल दिख जाए। नए व्यवसाय जैसे
बैरिस्टरी एवं मोटर चालक व्यवसाय का उदाहरण लें। मानो एक बैरिस्टर हो गया और
दूसरा वाहन चालक। अब केवल रोटीबंदी से उनके वंश में वह गुण विकसित होता है। इस
पुरानी कल्पना के अनुसार उनकी तुरंत एक व्यवसायनिष्ठ जाति बन जानी चाहिए और उस
बैरिस्टर के लड़के को जन्मतः बैरिस्टर मानना चाहिए जैसे ब्राह्मण के लड़कों को
ब्राह्मण कहा जाता है। आगे उस बैरिस्टर के पुत्र-पौत्र को बैरिस्टरी की पढ़ाई न
करते हुए भी बैरिस्टरी के चोगे, प्रमाण-पत्र, सम्मान एवं अधिकार दिए जाएँ। उस
बैरिस्टर ब्राह्मण या वाहन चालक ब्राह्मणों के विवाह अन्य बैरिस्टर या चालक
ब्राह्मणों से ही किए जाएँ। इतना ही नहीं, उनका खान-पान भी उन्हीं की नई जाति
में हो। फिर कालांतर में उनके वंश में किसी ने दुकानदारी या बाबूगिरी की तो भी
उनकी रोटीबंद-बेटीबंद जाति बैरिस्टरी या वाहन चालक ही रहेगी।
डॉक्टर की संतान की जाति जन्मजात डॉक्टर। मरणासन्न व्यक्ति की नाड़ी देखने का
पहला जन्मजात अधिकार उस जाति के डॉक्टर को, फिर चाहे उसे डॉक्टरी विद्या की
गंध भी न हो। आज जो नए व्यवसाय प्रचार में आ रहे हैं उनकी भी रोटीबंद-बेटीबंद
जन्म-जातियाँ हो जाएँ तो-'वचनात्प्रवृत्तिर्वचनान्निवृत्तिः' कहकर गर्जन
करनेवाले वर्णाश्रम संघवाले पंडित भी उसे हास्यास्पद पाखंड कहेंगे। फिर आज जो
दरजी, सुनार, ठठेरा, बढ़ई, लुहार आदि जन्म-जातियाँ हैं; परंतु जो अन्य
व्यवसाय करती हैं उनकी भी स्थिति एक हास्यास्पद पाखंड जैसी है। पर हम कहते हैं
उस नई व्यवस्था में किसी ने बैरिस्टरी परीक्षा उत्तीर्ण की तभी वह बैरिस्टर
होगा, उस वर्ग के संघ का, बाररूम का वह सदस्य होगा। आनुवंशिक गुण-विकास से
उसके पुत्र में वह गुण आएगा और वह भी बैरिस्टर हो गया तो वह संघ (बाररूम) में
जाएगा। पर यदि वह झाड़वाला बना तो उसका पड़बाबा बैरिस्टर या लड़ाकू क्षत्रिय
था, इसलिए उसे बैरिस्टर या क्षत्रिय नहीं माना जाएगा या व्यवसाय अमुक है इसलिए
अन्य व्यवसायवालों से उसका रोटी-बेटी व्यवहार केवल मानी हुई जाति भिन्नता के
कारण बंद पड़ने का कारण नहीं रहेगा।
इस तरह प्रत्यक्ष गुणनिष्ठ वर्गीकरण के कारण आज के जन्मजात वर्गीकरण द्वारा
किया गया सबगोलंकार टूटता है, वही वे सबगोलंकार तोड़नेवाले को सबगोलंकार
करनेवाले कहते हैं।
इसपर भी किसी को ऐसा डर हो कि पोथीजात जातिभेद छोड़ दें तो समाज की भयंकर
अवनति होगी, तो वे मन में इतना ही विवेक धरें कि यह पोथीजात जातिभेद की बला
पृथ्वी के किसी भी धुरंधर राष्ट्र में रूढ़ नहीं है। जापान, रूस, ईरान,
तुर्किस्तान, इंग्लैंड, अमेरिका, जर्मनी इन सबको ऐसा जातिभेद समाज में करना
आवश्यक नहीं लगा। उनके व्यवसाय जन्मजात नहीं हैं, इसलिए उनके ज्ञान, बल,
संगठन में जातिभेद नहीं है इसलिए दुर्बलताएँ हैं क्या? उलटे आज इन सब गुणों
में वे हमसे हजारों गुना उन्नत, संपन्न और प्रबल हैं और सामाजिक उन्नति का
सनातन मंत्र मानकर जिस जातिभेद को हम चिपकाए बैठे हैं वह हमें ही चारों खाने
चित कर हमारी छाती पर चढ़ा हुआ है। इसलिए इस एक प्रथम प्रत्यक्ष तथ्य से भी यह
स्पष्ट हो जाता है कि जातिभेद सामाजिक प्रतिष्ठा का एकमेव मंत्र नहीं है।
अवनति का वह एक बीजमंत्र है, ऐसी शंका अवश्य आ सकती है। क्योंकि आज के ज्ञात
राष्ट्रों में हम ही केवल सबसे नीचे और सबसे पद-दलित हैं।
अंत में, लोकहितार्थ अपरिहार्य मानकर परोसी हुई यह लेखमाला लिखने का कटु
कर्तव्य करना पड़ा। मुझे अपनी बात कहने के लिए केसरी (समाचारपत्र) ने बिना
किसी पक्षपात के स्थान दिया, इसलिए उनके प्रति आभार प्रकट कर और यह कहते हुए
कि इस लेखमाला को पुस्तक रूप में जल्द ही प्रकाशित करने की इच्छा है, यह
लेखमाला समाप्त करते हैं।
(केसरी, ५.५.१९३१)
प्रकरण-२
पोथीजात जातिभेद-भंजक सामाजिक क्रांति घोषणा : तोड़ डालो ये सात स्वदेशी
बेड़ियाँ
'तस्मान्न गोऽश्ववत् कश्चिज्जतिभेदोऽस्ति देहिनाम्।
कार्यभेदनिमित्तेन संकेतः कृत्रिमः कृतः ॥१॥'
(भविष्य पुराण, अ. ४०)
नए-पुराने मत के अनेक लोगों द्वारा हमसे बार-बार यह पूछा जा रहा है कि
श्रीमान्, आपके इस जन्मजात जातिभेद-तोड़क आंदोलन के घटक कौन से हैं? इन
जातियों को तोड़ने के लिए क्या-क्या करना है? वैसे ही जाति तोड़ना वास्तव में
क्या तोड़ना है और क्या रखना है? इस सबके सूत्र क्या हैं? कार्यक्रम क्या
हैं?
उपर्युक्त सहज, उचित एवं अपरिहार्य शंकाओं या आपत्तियों के समाधानार्थ इस लेख
में हम आज हिंदू राष्ट्र को छिन्न-भिन्न कर डालने में कारणीभूत हुए और हो रहे,
आज के पोथीजात जातिभेद को तोड़ने के लिए हिंदुओं को जो आंदोलन करना चाहिए, जो
एक सामाजिक क्रांति घटित करनी चाहिए उसके मुख्य सूत्र एवं कार्यक्रम की रूपरेखा
यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं-
१. पहली बात तो यह कि आज हम हिंदुओं में जिसे जन्मजात जातिभेद कहा जाता
है वह वास्तव में पोथीजात है। मद्रासी ब्राह्मणों की अपेक्षा मराठी चमार गोरे
होते हैं। महार जैसी निकृष्ट समझी जानेवाली जाति में चोखा मेला जैसे संत एवं
डॉ. अंबेडकर जैसे विद्वान् पैदा होते हैं तो उत्तर हिंदुस्थान में सैकड़ों
ब्राह्मण पीढ़ी-दर-पीढ़ी खेती करते हैं और निरक्षर होते हैं। ब्राह्मण दरजी
की, सुनार की या जूते-चप्पलों की दुकानें चलाते हैं तो दरजी, सुनार, बनिया
आई.सी.एस., एम.ए. आदि पदवीधारी हो जाते हैं। जाट लोगों को राजपूत इतना हीन
मानते हैं कि यदि कोई जाट किसी राजपूत के घोड़े पर बैठ जाए तो मारपीट के बाद
जाति बहिष्कार भी हो जाता है। पर वही जाट यदि सिख बन जाए तो उसे क्षत्रियों
में प्रखर क्षत्रिय कहा जाता है। पठानों को कभी भी राजपूत हरा नहीं पाए, पर
जाट से सिख बने क्षत्रियों ने उनकी ऐसी-तैसी कर कश्मीर-काबुल तक अपना राज्य
विस्तार किया। केवल जाट ही नहीं, निम्नवर्ग जाति के हजारों हिंदू सिख बने और
सिंग-सिंह हुए। सिखों में तत्त्वतः कोई जात-पाँत नहीं है। पर हमारा (जाति का)
ठप्पा लगे क्षत्रियों से उनका बल, तेज एवं पराक्रम कम नहीं है। कायस्थों को
'शूद्र' माना जाता है, पर बंगाल के विवेकानंद, अरविंद, पाल, घोष, बोस
आदि कायस्थ; बुद्धि में, विद्या में बंगाली ब्राह्मणों से आगे ही रहे हैं।
पानीपत का सेनापति भाऊ ब्राह्मण, 'यातिशूद्र वंश' तुकाराम परम संत। इन सब
अखंडित साक्ष्यों से यह सिद्ध होता है कि पाँच हजार वर्ष के पूर्व क्या था और
क्या नहीं था। उसे भी छोड़ें तो आज जो जातियों में भिन्नता मानी जाती है उनमें
वर्ण या गुण या कर्म आदि के आधार पर संघश: ऐसी कोई भी निश्चित 'जन्मजात'
भिन्नता दिखती नहीं है। वे जातियाँ जन्मजात न होकर आज केवल 'पोथीजात' रह गई
हैं। कोई भी विशिष्ट उच्चता जन्मतः न होते हुए भी चूँकि पोथी में उच्च जात कही
हुई है, अत: जिस घर के दरवाजे पर 'ब्राह्मण' का पट लगा हुआ है उस घर में
जन्म लेनेवाला ब्राह्मण और वैसे ही क्षत्रिय। यह परिस्थिति यथार्थ रूप में
व्यक्त की जा सके, इसलिए हमने नया शब्द बनाया 'पोथीजात'। आज का जातिभेद
यद्यपि जन्मजात कहा जाता है तो भी वास्तव में वह जन्मजात न होकर केवल पोथीजात
है। केवल माना हुआ, झूठा-खोटा।
२. अतः कोई भी जाति या व्यक्ति केवल अमुक एक गुट में जनमा या गिना गया,
इसलिए ही उच्च या नीच माना न जाए और उस स्वभाव का गुण-विकास होने या करने का
अवसर समानता से उसे दिया जाए। आनुवंशिकता (Heredity) गुण-विकास का एकमात्र
घटक नहीं है और पर्यावरण (Environment) भी एक महत्त्व का घटक है। किसी का
पड़बाबा बुद्धिमान् और शूर था, इसलिए उसका पौत्र या उसके बाद के वंशज
प्रत्यक्षतः मूर्ख एवं डरपोक होते हुए भी बुद्धिमान् और वीर होंगे ही-ऐसा
मानकर उसे प्रधानमंत्री या सरसेनापति नियुक्त करनेवाले राष्ट्र को धूल में
मिलना ही चाहिए। मोटर में बैठना है तो वाहन चालक को इसकी अनुमति मिली है या
नहीं, यह पूछना ही होगा। उसका बाबा चालक था इसलिए केवल आनुवंश के आधार पर वाहन
चलाने की कला से अवगत न होते हुए भी उसे गाड़ी सौंपकर उसमें यात्रा के लिए
निकलना जैसी आत्मघाती मूर्खता है वैसी ही अमुक एक पोथीजात जाति में जनमा है,
इसीलिए उच्च या नीच मानना और उसे वे जन्मजात विशिष्टाधिकार देना राष्ट्रघाती
मूर्खता है। प्रकट गुणों के आधार पर आनुवंशिकता मानी जानी चाहिए। मानी हुई
आनुवंशिकता के आधार पर गुण नहीं माने जाने चाहिए।
३. मनुष्यकृत, परिवर्तनीय और प्रसंग से परस्पर विरोधी ग्रंथों में क्या
कहा गया है, उस आधार पर ही कोई धारणा (इष्ट या अनिष्ट) उचित या अनुचित निश्चित
न करते हुए यह देखा जाए कि वह विशिष्ट धारणा उस विशिष्ट परिस्थिति में
राष्ट्रधारणा के लिए हितकर है या नहीं। प्रत्यक्ष प्रमाण से इसपर विचार करें
और परिस्थिति बदलते ही विधियाँ भी बेधड़क बदली जाएँ।
४. प्राचीन धर्मग्रंथों में दिए कुछ या सारे निर्बंध या विचार या नियम
आज की परिस्थिति में भले ही त्याज्य हो गए हों, परंतु उस प्राचीन परिस्थिति
में अर्थात् जब वे बने या बनाए गए तब राष्ट्रधारणा का कार्य करने में उनमें से
कितने ही आचार एवं विचार कारण हुए हैं, इसलिए उस राष्ट्रीय ग्रंथ संपत्ति को
हमें ऐतिहासिक कृतज्ञता से एवं स्वाभिमान तथा ममत्व से आदरणीय एवं संरक्षणीय
ही मानना होगा। इतना ही नहीं अपितु विश्व में उस काल के राष्ट्रों से तुलना
करें तो हमारे राष्ट्र ने संपत्ति का, सामर्थ्य का एवं संस्कृति का जो अति
उच्च शिखर स्पर्श किया उस राष्ट्रीय पराक्रम और यश का श्रुति, स्तुति, पुराण,
इतिहास आदि प्रचंड संस्कृत वाङ्मय किसी हिमालय जैसा मूर्तिमंत स्मारक है और
उसी दृष्टि से हम उसे आदरणीय एवं पवित्र भी मानें।
५. इसलिए अपनी श्रुति, स्मृति आदि में वर्णित शास्त्रों का अथाह अनुभव
एवं विविध प्रयोगों का सारांश ध्यान में रखें, परंतु उनकी बेड़ियाँ पैर में न
डालकर इस पोथीजात जातिभेद को तोड़ने के लिए आज की परिस्थिति में विज्ञान की
कसौटी पर खरी उतरनेवाली समाज धारणा को हम तत्काल अंगीकृत करें। उसके लिए
'शास्त्राधार' है क्या? यह प्रश्न गौण है। हमारे हिंदू राष्ट्र के गठन एवं
अभ्युदय के लिए कौन सा सुधार आज की परिस्थिति में आवश्यक है? यह प्रश्न ही
मुख्य है-फिर उसे शास्त्राधार प्राप्त हो या न हो। भूतकाल का अनुभव ध्यान में
लेते हुए यथासंभव भविष्य के क्षितिज की जाँच करें और आज की परिस्थिति में
विज्ञान की कसौटी पर खरी उतरनेवाली समाज धारणा को हम तत्काल लागू करें। चूँकि
इस पोथीजात जातिभेद से अपने हिंदू राष्ट्र की हानि-ही-हानि हो रही है। चूँकि
इस पोथीजात जातिभेद से मंदिरों में, रास्तों में, घरों में, नौकरियों में,
ग्राम-संस्थाओं में, नगर संस्थाओं में, विधि मंडलों में, विधि समितियों
(कौंसिल, असेंबली) में हिंदू जाति के टुकड़े-टुकड़े कर आपस में कलह-ही-कलह
फैलाकर अहिंदू आक्रमण का सामना करने की संगठित शक्ति हिंदू राष्ट्र में
उत्पन्न होना दुष्कर कर दी गई है। इस सड़े हुए पोथीजात जातिभेद से जो कुछ
तथाकथित लाभ आज भी हो रहे हैं, ऐसा लगता है, वे अन्यथा होनेवाली अमर्यादित
राष्ट्रीय प्रगति की तुलना में एकदम तुच्छ हैं; अतः इस पोथीजात जातिभेद को
आमूलचूल उखाड़ना ही आज के अपने हिंदू राष्ट्र के उद्धार का एक आवश्यक कार्य हो
गया है। सारा यूरोप, सारा अमेरिका इस तरह के पोथीजात जातिभेद की व्याधि से
मुक्त होने के कारण ही मुक्त है या इसीलिए निरंतर समर्थ, स्वतंत्र, सबल रहते
हुए उन्नति की ओर अग्रसर है और हम उसे सीने से लगाए हुए हैं, इसीलिए निरंतर
विघटित, परतंत्र, दुर्बल होते जा रहे हैं। वास्तव में राष्ट्रीय बल-संवर्धन
एवं अभ्युदय के लिए जातिभेद की इस व्याधि की अपरिहार्य आवश्यकता नहीं है, उलटे
इससे बाधाएँ ही खड़ी होती हैं-यह स्पष्ट है। पिछले शास्त्राधार हों या न हों,
आज की आवश्यकता है, इसीलिए इस पोथीजात जातिभेद को पूरी तरह उखाड़ना ही चाहिए।
सात स्वदेशी बेड़ियाँ
उसे उखाड़ने के लिए हमें सात बेड़ियाँ तोड़नी होंगी। अपने राष्ट्र के पैरों
में जो विदेशी बेड़ियाँ हैं, उन्हें तोड़ने की क्षमता, हमने अपने पैरों में
धर्म के नाम पर जो बेड़ियाँ स्वेच्छा से डाल रखी हैं उन्हें तोड़ने से हममें
अधिक संचरित होंगी। उसमें भी निम्न सात स्वदेशी बेड़ियाँ तोड़ना पूरी तरह अपने
हाथों में है। हम कहें कि 'टूटो' तो वे टूटनेवाली हैं। जब तक वे बेड़ियाँ पैर
में हैं तब तक 'विपक्ष' हमें चलते, चढ़ते ठोकर-पर-ठोकर मार सकता है। पर हम
उन्हें तोड़कर निकल पड़े तो 'विपक्ष' का यह साहस नहीं रहेगा कि वह बलपूर्वक
हमें बाँधे रखे। अस्पृश्यता को जब तक हम मान रहे हैं तब तक इस हिंदू राष्ट्र
में स्पृश्य एवं अस्पृश्य का भेद बढ़ा-चढ़ाकर तथा उन्हें जातिवार प्रतिनिधित्व
देकर उनमें परस्पर कलह बढ़ाकर राष्ट्रशक्ति के टुकड़े विपक्षीय अवश्य करेंगे।
पर जो अंगुली हम कुत्ते को बिना मन के भ्रम के छुआते हैं वही अपने स्वयं के
बीज को, धर्म और राष्ट्र सहोदर, उन अस्पृश्यों को लगाकर बड़ी ही सरल युक्ति
से उस अस्पृश्यता को ही निकालकर फेंक दें और स्पर्शबंदी की बेड़ी तोड़ दें, तो
तीन-चार करोड़ धर्मबंधुओं को हमसे कौन सा विपक्षीय अलग कर सकेगा?
स्पृश्य-अस्पृश्य का यह विघटक विभाग तो चुटकी से ही नामशेष हो जाएगा, वही बात
अन्य बेड़ियों की है।
जातिभेद तोड़ने के लिए और कुछ नहीं करना
जो सात बेड़ियाँ हमें तोड़नी हैं वे बेड़ियाँ हमने अपने-आप ही अपने पैरों में
डाली हैं, किसी विदेशी शक्ति ने नहीं डालीं। ऐसा होता तो उन्हें तोड़ना कठिन
होता। पर उन्हें तो हम ही अपने हौंस से अपने पैरों में डाले हुए हैं। इसीलिए
तो हम उसे स्वदेशी बेड़ियाँ कह रहे हैं। केवल हम हौंस छोड़ दें तो वे टूट
जाएँगी। अपने अपने मन से हर कोई संकल्प कर यह कहे कि 'मैंने निम्न सात
बेड़ियाँ अपने राष्ट्र के पैरों से तोड़ डालीं' और अपने उस संकल्प के अनुसार
अपने व्यवहार से उन सात बेड़ियों की चिंता नहीं की कि हो गया। पोथीजात जातिभेद
तो एक मनोरोग है। मन नहीं माने तो वह तुरंत ठीक हो जाता है। जिन सात स्वदेशी
बेड़ियों को तोड़ने से, पोथीजात जातिभेद की व्याधि से या भूतबाधा से यह हिंदू
राष्ट्र मुक्त हो सकता है; वे सात बेड़ियाँ निम्न हैं-
१. वेदोक्तबंदी-यह पहली बेड़ी है जिसे तोड़ना चाहिए। सारे
हिंदुओं का वेद आदि समस्त धर्मग्रंथों पर समान अधिकार होना चाहिए। वेदों का
अध्ययन या वेदोक्त संस्कार, जिसे इच्छा हो उसे करना चाहिए। म्लेच्छ लोग यदि
वेद पढ़ सकते हैं तो स्वयं के क्षत्रिय आदि धर्मबंधुओं को भी वेद आदि पढ़ने का
अधिकार नहीं है, ऐसा कहनेवाली पंडेबाजी इसके बाद नहीं चलनी चाहिए। वैसे ही
क्षत्रिय आदि 'स्पृश्यों की अस्पृश्यों' पर चलनेवाली डंडेबाजी भी बंद होनी
चाहिए। उलटे वेदादि ग्रंथ सारी मानवजाति के लिए खुले कर विश्व में वैदिक
अध्ययन फैलाने से ही 'वैदिक' धर्म की दृष्टि से भी हम सच्ची विजय प्राप्त
करेंगे।
२. व्यवसायबंदी-यह दूसरी बेड़ी है जो तोड़नी चाहिए। व्यक्ति
को जो व्यवसाय करने की हिम्मत और इच्छा हो, उसे वह करने की छूट होनी चाहिए।
अमुक पोथीजात जाति में जनमा इसलिए वह वही व्यवसाय करे, नहीं तो वह
जाति-बहिष्कार का भागी होगा, ऐसा अत्याचार नहीं होना चाहिए। स्पर्धा का डर न
हो तो जन्म से ही किए जानेवाले व्यवसाय एवं कार्य संबद्ध वर्ग उचित दक्षता से
नहीं कर पाते। जैसे पुरोहित, पुजारी, भंगी, राजा आदि। इसके आगे भी वही
पुरोहित चलना चाहिए जिसने पुरोहिती के लिए उचित विद्या प्राप्त कर परीक्षा
उत्तीर्ण की है, चाहे वह किसी भी जाति का हो। पंडा परीक्षा जो उत्तीर्ण करेगा
वह पंडागिरी करेगा। वैसे ही भंगी का। समाजोपयोगी सारे व्यवसाय निर्दोष हैं। आज
व्यवसायबंदी टूटी हुई है। पंडागिरी एवं भंगीगिरी अवश्य अभी भी जातिबद्ध धंधे
हैं। वे भी टूटने चाहिए। जातियों की मानी हुई योग्यता से व्यवसाय बँधा न रहना
चाहिए। उन्हें प्रत्येक व्यक्ति के प्रकट गुणों पर आधारित होना चाहिए। इससे
योग्य व्यक्तियों के उचित कार्य में लगकर राष्ट्रकार्य अति दक्षता से करने की
संभावना अधिक रहती है। डॉ. अंबेडकर महार जाति के थे, जो मुख्यतः मृत पशुओं का
चमड़ा खींचने का काम करती है। डॉ. अंबेडकर वही कार्य करते रहने को बाध्य होते
तो देश एक उच्च विधिवेत्ता और राजनीति के महापंडित से वंचित रह जाता। इसके
विपरीत जिन पंडों की या क्षत्रिय आदि स्पृश्यों की योग्यता मृत पशु का चमड़ा
खींचने की है, उसे पुरोहित या सैनिक बनाना, उस कार्य का नाश करने जैसा ही है।
राष्ट्रीय शक्ति का मितव्यय एवं क्षमता बढ़ाने का उत्कृष्ट साधन माने प्रत्येक
व्यक्ति के प्रकट गुणानुरूप उसे वह काम सौंपना है। आज का चमार का लड़का गुण के
उत्कर्ष से कल प्रधानमंत्री हो सकता है, जैसे स्टालिन रशिया का हुआ, इसके
विपरीत आज के प्रधानमंत्री का पुत्र चमड़े का बड़ा कारखाना लगा सकता है, चमार
हो सकता है।
३. स्पर्शबंदी-यह तीसरी बेड़ी तोड़कर जन्मजात अस्पृश्यता का
समूल नाश करना चाहिए। छूत केवल उस स्पर्श की मानी जाए जिससे आरोग्य को हानि
हो। वैसे ही सारी छूत-अछूत की कल्पनाओं को चिकित्सा दृष्टि से ही देखा और माना
जाना चाहिए। अस्पृश्य जाति की अस्पृश्यता तो केवल मानी हुई, मानवीयता पर कलंक
है, वह तो तत्काल नष्ट होनी चाहिए। केवल इस एक सुधार के कारण करोड़ों हिंदू
बांधव अपने राष्ट्र के साथ एक-जान होकर समा जाएँगे। अपने पक्ष में भी उतने
एकनिष्ठ सैनिक बढ़ेंगे और हिंदू राष्ट्र के आक्रमण और युद्ध में भिड़ जाएँगे।
४. समुद्रबंदी- यह चौथी बेड़ी काटकर परदेश-गमन खुला किया जाना
चाहिए। परदेश-गमन को पापकर्म मानने की मूढ़ता जिस दिन या जिस अवधि में हमारे
सिर चढ़ी, उसी दिन या अवधि में हमारा विशाल हिंदू राष्ट्र, जो मेक्सिको से
मिस्र तक फैला हुआ था, परस्पर संपर्क से वंचित हो गया। विदेश व्यापार पूरा डूब
गया, नौसैनिक बल भी डूबा। विदेशी शत्रु समुद्र पारकर हमला करने में समर्थ हो
सके। इसके पूर्व ही इस बंधन को कुल्हाड़ी से काटा जाना आवश्यक था। विदेशी
विद्याओं का संजीवनीहरण दुष्कर हो गया। आज भी जो लाखों हिंदू देश-विदेश में
बसे हुए हैं, उनसे यदि संबंध अभंग न रखे गए तो वे हिंदू संस्कृति एवं हिंदू
धर्म के मजबूत बंद टूट जाएँगे और वे भी हमसे दूर हो जाएँगे तथा अहिंदुओं के
पेट में समाकर उनका बल बढ़ाएँगे। हजारों धर्मोपदेशक, हिंदू संगठक, हिंदू
व्यापारी तथा वीर छात्रों की बड़ी संख्या विदेश में बसते और आते-जाते रहनी
चाहिए।
५. शुद्धिबंदी- यह पाँचवीं बेड़ी तोड़कर पूर्व में परधर्म में
गए या परधर्म में ही जनमे अहिंदुओं को हिंदू धर्म में समा लेने की कोशिश करनी
चाहिए। इतना ही नहीं अपितु उन्हें हिंदू राष्ट्र में ममता से और समानता से
संव्यवहार कर आत्मसात् कर लेना चाहिए। मुसलमान-ईसाइयों में हिंदू स्त्री-पुरुष
धर्मांतरित होकर जाते ही जैसे पानी के समान मिल जाते हैं वैसे ही हम
शुद्धिकृतों को समाज में आत्मसात् कर लें तो दस-बीस वर्षों के अंदर एक करोड़
अहिंदू लोग शुद्ध होकर हिंदू धर्म में आ सकते हैं। यह बात वसई, राजपूताना,
आसाम, कान्हदेश, बंगाल आदि स्थानों पर शुद्धि कार्य करनेवाले महान्
कार्यकर्ताओं ने बार-बार कही है। मंदिरबंदी, रोटीबंदी, बेटीबंदी की बाधाओं
के कारण परधर्म में अटके हिंदुओं की इच्छा होते हुए भी अहिंदुओं के गुट में से
कटकर इतना बड़ा संख्याबल अपने शिविर में आ नहीं पा रहा।
६. रोटीबंदी- इसी के लिए रोटीबंदी की छठी बेड़ी को भी तत्काल
तोड़ना चाहिए। यदि यह एक बेड़ी तोड़ी गई; खाने से जाति नष्ट होती है, धर्म
डूबता है यह मूर्खतापूर्ण राष्ट्रघातक एवं घृणा भाव छोड़ दें तो अन्य सब
बेड़ियाँ एकदम टूट जाएँगी। क्योंकि इस रोटीबंदी के कारण करोड़ों हिंदुओं ने
केवल अकाल के समय ईसाइयों के हाथ से खाया इसलिए, घर पर गोमांस का टुकड़ा
फेंका इसलिए, मुसलमानों ने दंगे में जबरन सैकड़ों हिंदुओं के मुँह में कौर
ठूँसा, इसलिए वे हिंदू धर्म से ही कट गए। उनका बहिष्कार किया गया। वंश-परंपरा
से हिंदू रहे करोड़ों लोग हमसे कट गए। शुद्धिबंदी, समुद्रबंदी वास्तव में इस
रोटीबंदी की ही राक्षसी संतानें हैं। यह रोटीबंदी की इल्लत सहभोजन के घनप्रहार
से तोड़ डालनी होगी। खाना-पीना वास्तव में वैद्यकशास्त्र का विषय है। वैद्यक
दृष्टि से जो आरोग्यकर वही भोज्यान्न। किसी भी व्यक्ति के साथ खाने या पीने
में हानि नहीं। उससे जाति नष्ट नहीं होती, धर्म नहीं डूबता। जाति रक्तबीज में
होती है, भात के भगौने में नहीं। धर्म का स्थान हृदय है, पेट नहीं। जो
सुस्वादु है, पाचन योग्य है वह किसी का हो, कहीं भी किसी के साथ भी मजे से
खाना चाहिए। मुसलमान के साथ हिंदू खाए तो हिंदू का मुसलमान क्यों होगा,
मुसलमान का हिंदू क्यों नहीं होता? सारे विश्व ने हिंदुओं का अन्न खा डाला,
वे धर्मभ्रष्ट नहीं हुए, हिंदू नहीं हुए। इसलिए आगे उसी न्याय से अपना अन्न
बचाओ और पराक्रम से विश्व को जीतकर विश्व का अन्न भी खाओ और हिंदू-के-हिंदू भी
बने रहो। तभी हम जी सकते हैं।
७. बेटीबंदी- हिंदू राष्ट्र के टुकड़े-टुकड़े करनेवाली यह
सातवीं स्वदेशी बेड़ी है। यह बेटीबंदी भी टूटनी चाहिए। इसके माने ये नहीं कि
हर ब्राह्मण-क्षत्रिय वधू या वर महार-भंगी से ही विवाह करें या महार भंगी
वधू-वर अन्य निम्न जाति के वधू-वर से विवाह करें। ऐसा इसका विपरीत अर्थ नहीं
है। गुण, शील, प्रीति अनुरूप हों तथा सृजन दृष्टि से उन्नततर संतति होने में
बाधक न हो तो हिंदू जाति के वर-वधू से विवाहबद्ध होने में जन्मजात जाति का कोई
बंधन रुकावट न हो। ऐसे विवाह का बहिष्कार न किया जाए, उलटे उसका सम्मान हो।
परंतु अहिंदू से विवाह करना हो तो फिर वर्तमान स्थिति में उस अहिंदू व्यक्ति
को हिंदू बना लेने के बाद ही ऐसा विवाह होना चाहिए। यह मर्यादा हिंदू राष्ट्र
के हित में आज अपरिहार्य है। जब तक मुसलमान मुसलमान ही बना रहना चाहता है,
ईसाई ईसाई, पारसी पारसी, ज्यू ज्यू, तब तक हिंदू भी हिंदू ही रहे। यह
आवश्यक है, उचित है, इष्ट है। जिस दिन वे विधर्मीय गुट अपनी संकुचित दीवारें
तोड़ एक ही मानव धर्म या मानव राष्ट्र में समरस होने में समानता से सिद्ध
होंगे उस दिन हिंदू राष्ट्र भी उसी मानव धर्म की ध्वजा के नीचे मानवमात्र से
समरस होगा। वास्तव में मानव धर्म ही हिंदू धर्म की परम सीमा और परिपूर्णता
मानी गई है।
उपर्युक्त सात स्वदेशी बेड़ियाँ, जो हमने ही अपने पैरों में बड़ी हौंस से डाल
रखी हैं और जिन्हें खोलना आज भी अपने ही हाथ में है, उन्हें तोड़ते ही
पोथीजात जातिभेद का विषैला दाँत टूट जाएगा। मूलभूत गुण न होते हुए भी जाति में
जन्म के कारण विशिष्ट जातीय अधिकार या विशिष्ट हानि किसी के भी हिस्से में नहीं
आनी चाहिए। फिर जाति के नाम कुल नाम, उपनाम या गोत्र नाम की तरह परिवार के साथ
कुछ काल और चलें तो भी हानि नहीं।
पोथीजात जातिभेद के प्राणघातक लपेटों को तोड़-फोड़कर एक बार भी हिंदू राष्ट्र
की संगठित शक्ति से हाथ-पैर खुले हो जाएँगे तो जिस बाह्य आपत्ति ने, जिन
विदेशी बेड़ियों ने आज हमें कसकर रखा है, बाँधकर रखा है उस संकट से भी पलटकर
टक्कर लेने के लिए अपना राष्ट्र आज की अपेक्षा सौ गुना अधिक शक्ति से भिड़ने
में सक्षम हो जाएगा।
प्रकरण-३
अस्पृश्यता का पुतला दहन : रत्नागिरि में जन्मजात अस्पृश्यता का
मृत्युदिवस
कर्मवीर अण्णा साहेब शिंदे,पुणे,का
भाषण
जैसाकि पहले से उद्घोषित था, दिनांक २५.२.३३, शिवरात्रि का दिन रत्नागिरि के
संगठनाभिमानी हिंदू समाज ने बड़ी धूमधाम से मनाया। दिनांक २१ की शाम पुणे के
कर्मवीर विट्ठल रामजी शिंदे, मुंबई के प्रसिद्ध हिंदू नेता डॉ. सावरकर, श्री
पुष्पाला, श्री राजभोज आदि डेढ़-दो सौ अतिथियों के जहाज से बंदरगाह पर उतरते
ही श्रीमंत कीर सेठजी ने उन्हें माला पहनाकर स्वागत किया। इसके बाद उनको
सम्मान से एक बड़ी शोभायात्रा में बंदरगाह से पतितपावन मंदिर में लाया गया।
वहाँ चमार नेता श्री राजभोज सहित सबने सीधे गर्भगृह तक जाकर देवदर्शन किया,
फिर सभा हुई। स्वातंत्र्य वीर बैरिस्टर सावरकर, श्री विठ्ठल रामजी शिंदे आदि
ने स्वागत भाषण किया, उसके बाद डॉ. सावरकर ने अतिथि नेताओं का
रत्नागिरिवासियों को परिचय देते हुए कहा, "हिंदू संगठन हर हिंदू का धार्मिक ही
नहीं, राष्ट्रीय कर्तव्य भी है और इस दृष्टि से हिंदू के रक्षणार्थ श्री
पुष्पाला द्वारा मुंबई में किया गया प्रयास सभी हिंदू वीरों के लिए शोभादायी
ही था।" कर्मवीर अण्णाराव शिंदे ने कहा कि 'अस्पृश्यता निवारणार्थ रत्नागिरि
द्वारा किया गया उत्तम प्रयास देखने मैं स्वयं यहाँ आया हुआ हूँ। अस्पृश्यता
उन्मूलन के भी आगे बढ़ जन्मजात जातिभेद का ही उन्मूलन करने के लिए आप सीना
ताने इतना आगे बढ़ रहे हैं यह देखकर विस्मय होता है। यह विलक्षण मनःक्रांति
रत्नागिरि जैसे पुराणप्रियता के नशे में डूबे नगर में हुई तो कैसे हुई, इसकी
कुंजी मुझे इस आंदोलन के धुरंधर वीर बैरिस्टर सावरकर से लेनी है।
महाशिवरात्रि के दिन प्रात: ही श्री विठ्ठल राव शिंदे, राजभोज आदि लोग समाज
की मनःस्थिति को प्रत्यक्ष सूक्ष्मता से देखने महारों, चमारों आदि की बस्तियों
में गए और वहाँ लोगों से चर्चा करके आए। दोपहर दो बजे अस्पृश्यता मृत्युदिवस
के अवसर पर एक सभा हुई। भूसा भरा हुआ एक काला-कलूटा पुतला बीच में रखा हुआ था।
यही था वह अस्पृश्यता रूढ़ि राक्षसी का पुतला, जिसे युवा हिंदूसभा जलाकर भस्म
करने को आतुर थी। सारे नेता लोगों के आते ही स्वातंत्र्य वीर सावरकर ने तरुणों
का आह्वान करते हुए भाषण दिया कि इस पुतले का दहन करने के पूर्व आपने
अस्पृश्यता को अपने मन से ही नहीं अपितु आचरण से भी सचमुच में नष्ट कर दिया
है, यह मैं गत दो वर्षों से देख रहा हूँ, इसलिए मैं यह पुतला जलाने की अनुमति
आपको दे रहा हूँ। अस्पृश्यता के माने हैं-कुछ विशिष्ट जातियों को जन्म से ही न
छूने का उन जातियों के सिर पर लगाया हुआ प्रतिबंध, वह रूढ़ि। सन् १९३० से
महार, चमार, मेहतर आदि न छुए जानेवाले हिंदू बंधुओं को आपने केवल सार्वजनिक
स्थानों पर ही नहीं वरन् नब्बे प्रतिशत घरों में भी अन्य स्पृश्यों की तरह
खुले रूप में प्रवेश देकर जन्मजात अस्पृश्यता को मृत्यु की ओर बढ़ाया है। उसी
वर्ष से रत्नागिरि का जन्मजात अस्पृश्यता उन्मूलन का आंदोलन, जातिभेद के ही
उन्मूलन का आंदोलन हो गया। अस्पृश्यों-स्पृश्यों से जो 'छूत' आड़े आती थी उसे
तोड़कर अस्पृश्यों को सन् १९३० से ही आपने पूर्वास्पृश्य बनाया। अस्पृश्यता तो
जन्मजात जातिभेद नामक विषवृक्ष की मात्र एक शाखा थी और आप तो जातिभेद की जड़
पर ही सामाजिक क्रांति की कुल्हाड़ी मार रहे हैं। रत्नागिरि के तरुण हिंदुओं
में से नब्बे प्रतिशत तरुण सहभोज में प्रत्यक्ष हिस्सा लेते हैं। महार, भंगी
बंधुओं के साथ छुआछूत छोड़कर प्रत्यक्ष खान-पान करनेवाले ये युवा केवल
सैद्धांतिक नहीं अपितु आचरण में भी रोटीबंदी तोड़कर दिखानेवाले हैं। इस तथ्य
को मैंने परखा है। मालवीयजी केलकर के हाथों का पानी नहीं पीते, ऐसी स्पृश्यों
के बीच चालू अस्पृश्यता को, उसी पोथीजात जातिभेद को तुम रत्नागिरि के हिंदू
युवा प्रत्यक्ष में नष्ट कर रहे हो, इसलिए तुम्हें यह अस्पृश्यता का पुतला
जलाकर उस रूढ़ि की, रत्नागिरि की सीमा में ही सही, मृत्यु घोषित करने का
अधिकार है। तुमने पहले कर दिखाया, फिर देश को बता रहे हो कि रत्नागिरि ने एक
राष्ट्रीय प्रश्न को अपनी सीमा में ही सही, हल कर लिया है। रत्नागिरि नगरी
'अस्पृश्यता के पाप से मुक्त हो गई है' यह उद्घोषणा इस पुतले में लगी आग सारे
देश में घोषित करे। इस आग में यह पुतला ही नहीं अपितु तुम्हारे मन का सात हजार
वर्ष पुराना वह दुष्ट संस्कार भी जलकर राख हो जाए। इस आशय का बैरिस्टर सावरकर
का भाषण होते ही एक भंगी, एक ब्राह्मण, दो लड़कों ने उस पुतले के दोनों पैरों
को आग लगाई। कितनी अर्थपूर्ण विधि थी वह! अस्पृश्यता ऊँच-नीच के बीच में ही
नहीं, नीच- नीच में भी चालू है। उसके अस्तित्व के दोनों ही दोषी हैं, अत:
उसका निर्मूलन भी दोनों के सहकार्य से किया जाएगा तभी वह स्थायी होगा।
जन्मजात अस्पृश्यता राक्षसी का पुतला दहन होते समय बैंड, ताशे, ढोल बज रहे
थे। उस दृश्य को चारों ओर से घेरे हुए हजारों हिंदू-भंगी से लेकर ब्राह्मण तक
हिंदू धर्म की जय की घोषणा करते रहे। वह दृश्य कभी भी न भूलने जैसा था।
फिर बड़ी भारी शोभायात्रा निकाली गई। पालकी में भगवान् की पादुकाएँ भंगी नेता
और ब्राह्मणों ने मिलकर रखीं। शोभायात्रा में कुंडलिनी कृपाणांकित भगवा हिंदू
ध्वज लेकर चलने का सम्मान एक मजबूत भंगी बंधु को दिया गया। सबसे आगे महारों का
हिंदू बैंड और एक बड़ा चित्र गाड़ी पर बाँधा हुआ था, उसका नाम था 'अस्पृश्यता
हनन'। उसमें एक ओर एक महिला को एक सर्प ने पैर से लेकर कंठ तक लपेटा हुआ था।
उसका चेहरा विह्वल 'भयभीत' था। यह महिला थी सात वर्ष पूर्व की रत्नागिरि
नगरी की, जिसे अस्पृश्यता की नागिन ने बाँध रखा था। और पड़ोस में ही वही महिला
उसी नागिन के लपेटे से मुक्त होकर भाले से उसका फन कुचल रही थी-यह आज की
रत्नागिरि थी।
उस शोभायात्रा में पाँच हजार भंगी-ब्राह्मणों का एकत्रित समुदाय भागेश्वर
मंदिर के मैदान में जमा हो गया और वहाँ उन हिंदुओं की सभा हुई। पहले एक भंगी
कन्या ने स्पृश्य समाज को इंगित करनेवाली एक प्रार्थना गाई। उसमें मंदिर खुले
रहने की विनती थी। उसका मुखड़ा था-मुझे देवता के दर्शन लेने दो, नजर भर मुझे
उसे देखने दो। यह करुण गीत सुनकर जिसका गला न भरा हो, ऐसा आदमी खोजे नहीं मिल
सकता। फिर एक महार कुमार ने संस्कृत वाणी में गीताध्याय सुनाया। उसके बाद जिस
व्यक्ति ने लाखों रुपए खर्च कर पतितपावन का हिंदू मंदिर बनवाया और इस तरह
रत्नागिरि के हिंदू संगठन को आकार प्रदान किया तथा अपना भागेश्वर मंदिर भी
पूर्वास्पृश्य हिंदू बंधुओं के लिए खुला कर दिया, उस साधुशील श्रीमंत भागोजी
सेठ कीर को रत्नागिरि के प्रौढ़ एवं प्रमुखतम नागरिकों से लेकर छात्रों तक के
एक हजार पाँच सौ से अधिक हस्ताक्षरों का अभिनंदन पत्र सभा के अध्यक्ष कर्मवीर
श्री अण्णा साहेब शिंदे के हाथों समर्पित किया गया। श्रीमंत कीर सेठ ने कहा कि
हमने जो किया वह ईश्वर कार्य समझकर किया। मेरे हाथ से हिंदू जाति की जो सेवा
हुई वह आप स्वीकार करें और जो सुधार हुए हैं उन्हें दृढ़तापूर्वक बनाए रखें।
तात्या राव रत्नागिरि से चले भी गए तो भी कदम पीछे न पड़ने दें। अपने भाषण के
अंत में अध्यक्ष श्री अण्णा साहेब शिंदे ने कहा, "रत्नागिरि के सामाजिक
परिवर्तन की सूक्ष्म जाँच जो हमने की उससे मैं बिना संकोच कह सकता हूँ कि यहाँ
घटित हुई सामाजिक क्रांति वास्तव में अपूर्व है। सामाजिक सुधार का कार्य मैं
जीवन भर करता रहा। वह कार्य कितना कठिन, कितना दुरूह है; मैं भी कई बार
निरुत्साहित हुआ। ऐसा यह कार्य केवल सात वर्ष में रत्नागिरि जैसे नगर में,
जिसने रेल-फोन का अभी तक मुँह भी नहीं देखा, ऐसे पुरातनपंथियों के छोटे किले
में आप हजारों लोग जन्मजात अस्पृश्यता का उन्मूलन कर आज जन्मजात जातिभेद का ही
उन्मूलन करने सज्जित हुए हैं और भंगी आदि धर्मबंधुओं के बराबर बेखटके सहासन,
सहपूजन और सहभोज आदि सारे सामाजिक व्यवहार खुले रूप में कर रहे हैं-यह मैं देख
रहा हूँ। इस सबसे मैं इतना प्रसन्न हूँ कि यह दिन देखने के लिए मैं जीवित रहा
यह बहुत अच्छा हुआ, ऐसा मुझे लग रहा है। मैं किसी का स्तुति पाठक होना नहीं
चाहता, परंतु जिस स्वतंत्रता सेनानी ने अपने अज्ञातवास के केवल सात वर्ष की
अवधि में यह अपूर्व सामाजिक क्रांति कर दिखाई उस सावरकर पर मैं कितना गर्व
करूँ, मुझे समझ में नहीं आ रहा। कल से मैं देख रहा हूँ, आप हजारों नागरिक
विशेषतः युवा उनपर कितना विश्वास प्रदर्शित कर रहे हैं। परंतु आप सबमें खरा
युवा यदि मुझे कोई दिख रहा है तो वह हिम्मतवाला बहादुर सावरकर ही है। मुझे यह
भी कहने में कोई संकोच नहीं है कि अच्छा हुआ सावरकर को अज्ञातवास मिला अन्यथा
यह सामाजिक सेवा करने के लिए ये महोदय जीवित रहते या नहीं, यह आशंका ही थी।
सावरकर बंधुओं के प्रति हममें पहले से ही बहुत आदर है और इसीलिए उनसे मिलने ही
विशेषकर मैं यहाँ आया। उनके द्वारा चलाया जा रहा सामाजिक क्रांति का यह सफल
आंदोलन देखकर मैं इतना प्रसन्न हूँ कि ईश्वर मेरी शेष आयु उन्हें दे-ऐसी
प्रार्थना ईश्वर से करना चाहता हूँ। क्योंकि मेरे अधूरे सपने यही वीर पूरा
करेगा, ऐसा विश्वास मुझे हो रहा है। सरकार उन्हें सामाजिक कार्य के लिए खुला
छोड़े ऐसा प्रयास सभी स्पृश्यों-अस्पृश्यों की ओर से किया जाए-ऐसा मैंने और
राजभोज ने निश्चय किया है।
अंत में स्वतंत्रता सेनानी ने अपने ओजस्वी भाषण में कहा कि कुछ भी कहीं हो
नहीं रहा था, उस हिसाब से यह (परिवर्तन) ठीक रहा। परंतु जो होना चाहिए उस
हिसाब से यह कुछ भी नहीं है। ये तो साधन हैं। महार को हम ब्राह्मण कर दें, पर
आज ब्राह्मण ही विश्व का महार हो गया है। हिंदू शब्द आज विश्व में 'कुली' के
लिए उपयोग में लाया जा रहा है, उसका क्या? श्रीराम या श्रीकृष्ण के काल में
भारतभूमि को जो सम्मान, जो गौरव, जो सांस्कृतिक शक्ति प्राप्त थी वह
सांस्कृतिक शक्ति और उच्चतम स्थान विश्व में फिर से जब तक प्राप्त नहीं होता
तब तक हिंदू संगठन के इस आंदोलन को थककर रुकना नहीं चाहिए। जो कुछ रत्ती भर
कार्य हुआ वह रत्नागिरि नगर के सुबुद्ध और सद्प्रवृत्त हिंदू समाज का है। मेरे
सनातनीय और सुधारक दोनों ही धर्मबंधुओं ने हिंदू राष्ट्र के गौरवार्थ अपने-अपने
शूद्र वर्णाहंकार की बलि देने में संकोच नहीं किया। कम-से-कम कोई निम्न स्तर की
जिद या विरोध नहीं किया, इसलिए यह कार्य हो सका, अतः इस कार्य का आधे से अधिक
श्रेय मैं अपने नए व पुराने धर्मबंधुओं, अखिल हिंदू समाज को दे रहा हूँ। सच
यह भी है कि मैं अकेला कुछ नहीं कर पाता।
बैरिस्टर सावरकर का भाषण समाप्त होते ही 'हम-तुम सब हिंदू बंधु। बंधु-बंधु!!'
यह एकता गीत पूरी सभा ने एक स्वर से गाया और सब स्पृश्य-अस्पृश्य मंदिर में ईश
दर्शन करने गए। इधर-उधर सब ओर से हिंदू धर्म की जय, सावरकर बंधु की जय के
नारे गूँजने लगे। समाज का उत्साह ज्वार की तरह ऊपर उठता रहा।
विशाल सहभोज
दूसरे दिन दिनांक २३ को पतितपावन मंदिर में विशाल सहभोज आयोजित हुआ। प्रातः
ग्यारह बजे से दोपहर चार बजे तक पंगतें बैठती-उठती रहीं। महार, भंगी, मराठा,
ब्राह्मण, चमार, भंडारी सब जातियों के वकील, विद्यार्थी, अधिकारी, किसान
सभी वर्ग के छोटे-बड़े एक हजार से अधिक नागरिक सहभोज में मिले-जुले भोजन कर गए।
हर पंगत के प्रारंभ में हम रोटी-बेटीबंदी की बेड़ी क्यों तोड़ रहे हैं, यह
बैरिस्टर सावरकर स्पष्ट समझाते थे और फिर निम्न संकल्प सब लोग दोहराते
थे-'जन्मजातजात्युच्छेदनार्थम् अखिल हिंदूसहभोजनम् करिष्ये।'
संध्या समय मुंबई के प्रसिद्ध व्यायामाचार्य श्री रेडकर एवं हरिश्चंद्र लश्कर
आदि की मंडली ने व्यायाम के करतब दिखाए। रात में ही गोधडे बुवा के शिष्य
चंद्रभानु बुवा का कीर्तन हुआ। इस अवसर पर बहुत भीड़ हो गई थी। इस सारे
महोत्सव का व्यय श्रीमान् भागोजी सेठ कीर ने वहन किया।
(सत्यशोधक-रत्नागिरि, ५.३.१९३३)
प्रकरण-४
नासिकवासी सनातनी हिंदू बंधुओं को मेरा अनावृत-पत्र
मेरे सभी हिंदू बंधुओ एवं विशेषकर मेरे नासिकवासी धर्मबंधुओ! मेरी आपसे अत्यंत
नम्र परंतु आग्रहपूर्ण विनती है कि जितनी शीघ्र संभव हो उतनी शीघ्रता से, अभी
आज ही अपने पूर्वास्पृश्य हिंदू बंधुओं के लिए पंचवटी का श्रीराम मंदिर अन्य
स्पृश्य हिंदुओं की तरह खुला कर दें।
मैं इस विषय की विस्तार से चर्चा नहीं कर रहा, वह चर्चा काफी हो चुकी है।
वैसे ही मैं युक्तिवाद या शास्त्राधार के सहारे यह पत्र नहीं लिख रहा, केवल
हिंद हित और प्रेम का आश्रय लेकर यह पत्र लिख रहा हूँ।
दूसरे किसी मंदिर के संबंध में मैंने ऐसा पत्र कदाचित् लिखा न होता। नए हिंदू
देवालय का देश में निर्माण करने से भी कुछ अंशों में यह प्रश्न छूट जाएगा। पर
पंचवटी का राम, सीता गुफा या सेतुबंध आदि स्थानों का जो पवित्र ऐतिहासिक
महत्त्व है वह अन्य किसी मंदिर को प्राप्त नहीं हो सकता। इसी कारण इस पवित्र
ऐतिहासिक स्थान पर सारे हिंदुओं का समान विशिष्ट वारिसाना अधिकार है। रायगढ़
छत्रपति शिवाजी की राजधानी है। उसका दर्शन करने गए किसी महाराष्ट्रीय को यदि
हम यह कहने लगे कि तुझे नया किला बाँध देते हैं, तू उसे ही रायगढ़ मान और
संतुष्ट हो ले, तो यह हास्यास्पद होगा; क्योंकि वहाँ का स्थान माहात्म्य
अप्रतिम है। वैसे ही जहाँ राम वनवास अवधि में रहे, जहाँ सीता रहीं, जहाँ
कौरव- पांडव लड़े, जहाँ गीता का उपदेश दिया गया-ऐसे-ऐसे जो ऐतिहासिक
देवस्थान, तीर्थक्षेत्र हैं वे सारे अप्रतिम हैं। उनकी विशिष्टता उनकी किसी भी
प्रतिलिपि में आना संभव नहीं। उनकी वह विशेषता नित्य बनी रहेगी। अतः हमारे
तीर्थ-माहात्म्य से संबंधित ग्रंथों ने उन्हें जो अनन्य पुण्यत्व दिया है उसके
कारण ही वे स्थान पूरे हिंदू समुदाय के लिए मुक्त करने ही होंगे-और कोई दूसरा
उपाय नहीं है।
अतः चाहे जो हो, पर हम अपनी ओर से वे स्थान और इस पत्र के संदर्भ में वह राम
मंदिर अपने पूर्वास्पृश्य हिंदू बंधुओं के लिए खुला कर दें।
मैं तो नासिकवासी ही हूँ, इसलिए मुझमें नासिक के लिए अल्हड़ ममत्व जन्म से ही
रहा है और मेरे लिए नासिक ने भी आज तक अनेक बार जो अपनत्व एवं विशेष प्रेम और
आदर व्यक्त किया है उस प्रेम और ममत्व की अनुशंसा से मैं आबालवृद्ध हिंदु जाति
के लिए तथा हिंदुस्थान के लिए जो छोटी-बड़ी सेवा कर सका, दुःख उठा सका और आज
तीस वर्षों से वह सेवा करते हुए हम हिंदुओं का हित-अहित किसमें है, इसका जो
अनुभवजनित ज्ञान मुझे हुआ है, उस सेवा का, उन कष्टों का एवं उन अनुभवों का
भरोसा देकर मैं आपको यह निवेदन कर रहा हूँ, यह आश्वासन भी दे रहा हूँ कि
पंचवटी का श्रीराम मंदिर पूर्वास्पृश्य हिंदू बंधुओं के लिए अन्य हिंदुओं की
तरह ही खुला करते ही अपनी हिंदू जाति की शक्ति, प्रभाव और जीवन अनेक गुना
अधिक प्रबल हो जाएगा, कम-से-कम रत्ती भर भी दुर्बल नहीं होगा।
पूर्वास्पृश्यों की मंदिर प्रवेश की माँग एकदम धर्म्य, न्याय्य है और वे जिस
सत्याग्रह संघर्ष तक आए हैं, वह सत्याग्रह हमारे पीढ़ियों के दुराग्रह की ही
अपरिहार्य प्रतिध्वनि है। साठ-सत्तर पीढ़ियों तक उन्होंने राह देखी और कितनी
राह देखें? अब हम उन्हें वह राह खुली कर दें, यही एकमात्र रास्ता शेष है।
इसलिए पूर्वास्पृश्य हिंदू बंधुओं के मंदिर के पास आते ही आप सब उनका उत्कंठ
प्रेम से स्वागत करें और पतितपावन प्रभु श्री रामचंद्र के सामने इकट्ठे होकर
आप सब स्पृश्यास्पृश्य पतित दोनों हाथ जोड़कर-जो हो चुका उसकी क्षमायाचना
करें-देखिएगा इससे जातीय प्रेम की एक विशाल लहर पूरे हिंदुस्थान में उठेगी।
सारे हिंदुओं के कंठ से निकली हिंदू धर्म की जय की अपूर्व गर्जना से वह राम
मंदिर आज तक गूँजा न होगा और फिर अहिंदू शत्रु का मान भरा चेहरा काला पड़
जाएगा।
राक्षस कुल के विभीषण आदि के लिए उनमें भक्ति का उदय होते ही श्रीराम ने
अयोध्या का अपना राजभवन जैसे खुला कर दिया था, वैसे ही उन्हीं की जाति, धर्म
और राष्ट्र के उन परंपरागत भक्तों को, उन पूर्वास्पर्ध्य हिंदू बंधुओं को अपने
मंदिरों के राजद्वार खुले करने की सद्बुद्धि हम स्पृश्य हिंदुओं को हो, यह
पूरे मन से चाहनेवाला-
आपका
रत्नागिरि
जातिबंधु-धर्मबंधु
१३.३.१९३१
वि.दा. सावरकर
प्रकरण-५
मद्रास प्रांत की कुछ अस्पृश्य जातियाँ
जातिभेद का आज का तिरस्करणीय रूप कितना भयंकर है और उसके कारण हमारे हिंदू
राष्ट्र के कैसे टुकड़े-टुकड़े हुए हैं-यह विवेचन करने के कार्य में केवल
सैद्धांतिक या सामान्य विवेचन से मन पर जो परिणाम होता है उससे सौ गुना अधिक
परिणाम उसका वास्तविक चित्र खींचने से होता है। कश्मीर से रामेश्वर तक कितनी
भिन्न-भिन्न जातियाँ, उनकी उपजातियाँ, फिर उन उपजातियों की अनुजातियाँ, उन
जाति, उपजाति, अनुजाति की हर जाति में एक-दूसरे से बेटीबंद, रोटीबंद,
लुटियाबंद। जातिभेद कहने मात्र से अधिकतर 'बहुशाखा ह्यनंताश्च' जैसे जातिभेद
के विषैले विस्तार की कुछ भी कल्पना नहीं आती और इसलिए जातिभेद ने अपने हिंदू
राष्ट्र का कितना अपरिमित विघटन किया है, कितने टुकड़े टुकड़े किए हैं और
उसके परिणाम कितने भयावह हो रहे हैं, इसकी स्पष्ट कल्पना कभी नहीं आ पाती।
'जातिभेद' कहते हैं तो अधिकतर लोगों की दृष्टि के सामने केवल चातुर्वर्ण्य ही
खड़ा हो जाता है और वे कहते हैं-उसमें क्या है, बुद्धिशाली वर्ग, शक्तिशाली
वर्ग, धनिक एवं श्रमिक बस इतने ही चार वर्ग तो हैं और वे कितने उचित श्रम
विभाग हैं। हर राष्ट्र इन चार विभागों में बँटा होता ही है। परंतु उन
राष्ट्रों में 'पहले तो ये चार भाग रोटीबंदी, बेटीबंदी की दुर्लंघ्य दीवारों
से पृथक् किए हुए नहीं होते। काम की आवश्यकतानुसार वे अलग होते हैं, पर शाम को
घर लौटने पर वे इकट्ठे रहते हैं, एक साथ खाते-पीते हैं, वे एक-कुटुंबीय ही
रहते हैं। श्रम विभाग सब जगह होगा पर श्रम विभाग के जाति विभाग कर राष्ट्र के
चार-बेटी रोटी-लुटिया बंद टुकड़े नहीं होते।
पर केवल जातिभेद कहने से लोगों के मन में हिंदुओं के चार वर्ण रूपी चार
टुकड़े, इतना ही अर्थ आता है, यह कितना त्रुटिपूर्ण है। यह तथ्य जातिभेद के
सामान्य नाम का विस्तृत विवरण या उसका परिगणन करते ही स्पष्ट हो जाता है।
चातुर्वर्ण्य माने चार वर्ण और जातिभेद माने कम-से-कम चार हजार जातियाँ!
'ब्राह्मण जाति' इस सामान्य नाम से या ब्राह्मण जाति की सैद्धांतिक चर्चा
करने से सामान्यतः ऐसा लगता है कि वह एक ही जाति है, परंतु उसका गहराई से
परीक्षण करें या केवल जो-जो ब्राह्मण हैं उनके नाम गिनाने लग जाएँ तो समझ में
आता है कि ब्राह्मणों की पाँच सौ उपजातियाँ हैं। जिनमें परस्पर बेटीबंदी,
रोटीबंदी है। यही बात 'क्षत्रिय' शब्द की या 'वैश्य' शब्द की या शूद्रों
की है। 'जातिभेद' इस सामान्य शब्द से या उसकी सैद्धांतिक चर्चा से जो एकत्व
का या अधिक-से-अधिक चार होने का जो बोध होता है वह उस जातिभेद का गहराई से
अध्ययन करें तो समाप्त हो जाता है। इन चार जातियों की चार सौ बड़ी-बड़ी
जातियाँ, उनकी उपजातियाँ तथा अनुजातियाँ मिलकर चार हजार हो जाती हैं।
यही स्थिति 'अस्पृश्य' शब्द की है। अस्पृश्य वर्ग-इतना ही सामान्य उल्लेख
करने से मन में कैसी भ्रांति उत्पन्न होती है, यह देखें। लगता है-अस्पृश्य एक
समूह है। स्पृश्य नामक दूसरा समूह इस अस्पृश्य समूह पर अस्पृश्यता का भयानक
अत्याचार कर रहा है, इतना ही अर्थ लक्षित होता है। पर अस्पृश्य कौन कौन हैं,
उस एक शब्द के पेट में कितनी जातियाँ, उपजातियाँ, अनुजातियाँ भरी हुई हैं और
एक अस्पृश्य भी दूसरे अस्पृश्य को किस तरह अछूत मानता है, उस पाप का अधिकारी
केवल 'स्पृश्य' ही अकेला न होकर अस्पृश्य भी कैसे है, यह तथ्य अस्पृश्यता का
गहराई से अध्ययन करने से जैसे स्पष्ट होता है वैसे केवल अस्पृश्य, अछूत कहने
मात्र से नहीं होता।
जातिभेद या अस्पृश्यता आदि सामान्य शब्दों के उच्चारण से जो अर्थ या अनर्थ
मनुष्य के मन में सामान्यतः प्रकट होता है उसका विस्तृत वर्णन या परिगणन
उत्कटता से मन पर प्रभाव करता है। वह कैसे होता है? एक उदाहरण देखें-'जातिभेद
ने हिंदू राष्ट्र के टुकड़े-टुकड़े किए' इस सामान्य एवं सैद्धांतिक विधान से
किसी के मन पर-जातिभेद से हिंदू राष्ट्र के हुए टुकड़े और उस कारण हुई भयानक
हानि का जो हलका सा प्रभाव पड़ता है उसे देखें और उन टुकड़ों की केवल
महाराष्ट्र में गिनती करने से, केवल जातियों के नाम ही गिनने से, उनका
उच्चारण करने से जो वास्तविक प्रभाव पड़ता है, उससे बिना बतियाए हानि की जो
कल्पना होती है उसे देखें-
महाराष्ट्र की जातियाँ-देशस्थ, चित्पावन, कहराडे, गोवर्धन, सामवेदी, पलसे,
सारस्वत, शेणवी कुडालकर, भंडारी, मराठे, दैवज्ञ, कासार, लिंगायत,
संगमेश्वरी वाणी, नामदेव शिंपी, भावसार शिंपी, कोकणस्थ वैश्य, देशस्थ
वैश्य, पाताणे प्रभु, साली, माली, कोष्टी, तांबट, सोनार, धनगर, जिनकर
और हर एक जाति की उपजातियाँ, अनुजातियाँ। वैसे मराठा एक जाति है, पर उसकी
उपजातियाँ सौ हैं। अस्पृश्य जाति का भी ऐसा ही। कोई अंडा फोड़े और उसमें से
इल्लियाँ-ही-इल्लियाँ बाहर निकलें। वैसे ही जाति में से उपजातियाँ और
अनुजातियाँ निकलती हैं। अछूतों में और अछूत, उन अछूतों से भी नीचे अछूत इस
तरह अस्पृश्यों में भी उच्च जाति और नीच जाति अलग-अलग और इन सब जातियों,
उपजातियों, अनुजातियों में पिछली अनगिनत पीढ़ियों से बेटी-रोटी-लुटियाबंदी की
दीवारें पक्की, कभी भी एक होने का अवसर न देनेवालीं।
जातिभेद से विभाजित हिंदू राष्ट्र के किन्हीं दो टुकड़ों को जोड़ना 'अधर्म',
पर उस उपजाति के शतशः टुकड़े करने की पूरी स्वतंत्रता, वह धर्म। प्रभु जाति
के किसी व्यक्ति के हाथ से गंधपात्र, जिसे कंचोले कहते हैं, गिर गया; वह पाप
माना गया, पापी को जाति बहिष्कार का दंड सुनाया गया। उस एक पापी का पक्ष लेने
आगे बढ़े सारे लोग भी 'जाति बहिष्कृत' हो गए, उनकी एक अलग जाति बनी-कंचोले
प्रभु। इस तरह जाति विभाजन की करुण कथाएँ सुनने पर जातिभेद राक्षस के घृणित
स्वरूप का जो बोध होता है वैसा बोध केवल 'जातिभेद' शब्द के उच्चारण से कभी
भी नहीं होता।
यह तो केवल महाराष्ट्र की कथा है। पर पूरे हिंदू राष्ट्र के इस जातिभेद ने
कैसी बुरी गत बनाई है, इसकी स्पष्ट कल्पना हो इसके लिए हिंदुस्थान की जातियों
की पूरी सूची पढ़नी चाहिए। सामान्य नागरिक को उसकी कल्पना नहीं होती। जातिभेद
के विरुद्ध कोई पाँच सौ पृष्ठों का ग्रंथ लिखें और उसमें सैद्धांतिक और
सामान्य चर्चा करें तो वह ग्रंथ पढ़कर वाचक को कोई धक्का नहीं लगेगा, परंतु
यदि वह सारे हिंदुस्थान के हिंदुओं में प्रचलित केवल बड़ी-बड़ी जातियों की
नामावली ही सुने तो भयभीत हो जाए। पहले ब्राह्मण ही को लें-उनमें कश्मीरी,
मुलतानी, पंजाबी, कनौजी, मारवाड़ी, गुजराती, बंगाली, तेलुगु, तमिल,
ओड़िसी, असमिया, मलबारी, कन्नड़ी जैसे प्रांतिक भेद फिर उसमें शैव, वैष्णव,
कुलीन-अकुलीन, शाकाहारी-मांसाहारी; मांसाहारियों में अंडा न खानेवाले,
खानेवाले; मुरगा न खानेवाले पर बकरा खानेवाले, मछली खानेवाले पर बकरा न
खानेवाले। ऐसे अनगिनत भेद और उन सबमें रोटी-बेटीबंद। ऐसी ही स्थिति क्षत्रियों
की और वैश्यों की। जातिभेद कहते ही चातुर्वर्ण्य माननेवाले और केवल चार टुकड़े
माननेवाले कितनी बड़ी भ्रांति में रहते हैं। चातुर्वर्ण्य के अनुसार ब्राह्मण
एक समूह, एक टुकड़ा है, पर उस ब्राह्मण समूह की जाँच करें तो उसमें पाँच सौ
बड़ी-बड़ी जातियाँ दिखती हैं। जितने प्रांत उतनी जातियाँ, जितने पंथ उतनी
जातियाँ, जितनी भाषा उतनी जातियाँ, जितने धंधे उतनी जातियाँ और रोटी-बेटीबंद,
यह है जाति की पहचान। कहाँ रह जाता है चातुर्वर्ण्य, वह तो कभी का मर गया।
शेष जो रहा है वह है चतुष्कोटिवर्ण!
इस जातिभेद के राक्षस ने अपने हिंदू राष्ट्र के विराट् शरीर के ऐसे सैकड़ों
टुकड़े किस प्रकार किए हैं, वह सैद्धांतिक चर्चा से अधिक अच्छी तरह बताने और
उन सारे टुकड़ों की गिनती एक-एक करके दिखानी होगी। इसी विधि से सही कल्पना
होगी। इसलिए बीच-बीच में महाराष्ट्र के अपरिचित अन्य प्रांतों की जातियों के
नाम एवं जानकारी देना जितना मनोरंजक होगा उतना ही हृदयविदारक भी होगा। जातिभेद
के प्रति तीव्र घृणा उत्पन्न हो, इसलिए वैसी जानकारी देने का प्रयास होना
जरूरी है। अतः कुछ जानकारी आज दे रहे हैं-वह भी मद्रास की अछूत जाति की ही
सर्वप्रथम देने का कारण यह है कि इस जातिभेद के लिए घृणा उत्पन्न हो; सिवाय
इसके कि अत्यंत अन्याय्य एवं आत्मघाती अस्पृश्यता का घातक रूप एवं उसके कारण
हिंदू राष्ट्र की जो भयानक हानि हो रही है, उसकी जानकारी मिलते ही 'उलटी' हो
जाए। स्पृश्यों का ही नहीं अपितु अस्पृश्यों का भी मन घृणा से भर जाए, वे भी
अस्पृश्यता के हिस्सेदार हैं। उच्च वर्णीय जैसे अछूतों को स्पर्श न कर उन्हें
कुत्ते की तरह दुत्कारते हैं वैसे ही वे अछूत भी स्वयं स्पृश्य बनकर उनसे नीची
जाति को छूते नहीं और उन्हें कुत्ता मानकर दुत्कारते हैं। वरिष्ठ जातियों को
गाली देते समय स्वयं को भी गाली देनी चाहिए। जो-जो भी दोषी हैं वे सारे मिलकर
वह दोष दूर करें-यही उचित है। अस्पृश्य जो गालियाँ स्पृश्यों को देते हैं वही
गालियाँ स्वयं अस्पृश्यों को भी दी जाती हैं इसे उन्हें भूलना नहीं चाहिए।
मद्रास की कुछ अस्पृश्य जातियाँ
चेरुम (पुलिया)
मलाबार में रहनेवाली यह अस्पृश्य जाति है। उत्तर मलाबार में रहनेवालों को
पुलिया कहते हैं और दक्षिण मलाबार के अस्पृश्यों को चेरुगा कहा जाता है।
अर्थात् स्थान भिन्नता से इस जाति की दो उपजातियाँ हो गईं। परंतु इतने से क्या
होता है। इन दो उपजातियों में से चेरुमा की उनतीस उपजातियाँ हैं जिनमें से कुछ
के नाम कनक्का, चेरुगा, पल्ला, चेरुमा, ऐलारेन, रोलन, बुडान आदि हैं।
पुलिया की बारह उपजातियाँ हैं। इनमें से चेरुगारिया स्वयं को पुलिया जाति से
ऊँचा समझते हैं। वे सारे चेरुगा लोग अपने को ब्राह्मण क्षत्रियों से हुए
अस्पृश्य मानते हैं। शूद्र भी उन्हें नहीं छूते। यह अस्पृश्यता इतनी कड़ी है कि
परंपरा के अनुसार अस्पृश्य चेरुगा ब्राह्मण से नब्बे फीट दूरी पर और नायर आदि
अब्राह्मणों से चौंसठ फीट दूरी पर खड़ा रहता है।
ब्राह्मण शूद्र आदि लोगों के पास नहीं जा सकते, नहीं तो उन्हें छूत लग जाएगी।
इधर महाराष्ट्र में अस्पृश्यों की छाया स्पृश्यों पर न पड़े इतनी दूरी मान्य
है अर्थात् इतना ढीलापन है। मद्रासी परंपरा की तुलना में तो मानो वह वरदान ही
है। यदि कोई चेरुगा अस्पृश्य इस दूरी के अंदर जाकर बोला तो उस ब्राह्मण शूद्र
को स्नान कर प्रायश्चित्त करना पड़ता है। बहुत स्थानों पर तो उन्हें बाजार में
भी प्रवेश नहीं करने दिया जाता, फिर तालाब या कुएँ की बात तो बहुत दूर।
ब्राह्मण, शूद्र आदि के द्वारा चेरुगा लोगों का किया जानेवाला अपमान एवं
पीड़ा सुनकर उनकी दलित अवस्था पर जितनी दया की जाए कम है। स्वयं इतने दलित और
निम्न ये चेरुगा अस्पृश्य भी पुला, परिया, नवादी और उल्लदन जातियों के लोगों
को अस्पृश्य मानते हैं, उनपर कितनी दया की जाए! क्षत्रिय आदि स्पृश्य जैसे
चेरुमाओं को पीड़ा देते हैं और उन्हें छूना भी पाप समझते हैं, वैसे ही चेरुम
अपने से निम्न जाति के परिया, पुलादी आदि से व्यवहार कर उन्हें पीड़ा देते हैं
और उन्हें छूना भी पाप समझते हैं। वरिष्ठ जो पीड़ा और नीचता उनपर लादते हैं
उसी पीड़ा और नीचता का बोझ चेरुम अपने से निम्न जातियों पर लादकर वरिष्ठों से
होनेवाले अपमान की भरपाई अपने से निम्नों का अपमान कर करते हैं। इस कारण
ब्राह्मण क्षत्रियों को वे प्रपीड़क नहीं कह पाते, क्योंकि उसी नियम से वे
अस्पृश्य स्वयं को उच्च समझकर अपने से निम्न जातियों के ब्राह्मण, क्षत्रिय
बन जाते हैं और उन्हें छूना भी पाप समझते हैं। अस्पृश्यता की क्रूरता के लिए
जो-जो गालियाँ अस्पृश्य स्पृश्यों को देते हैं वे सारी गालियाँ लौटकर उनके सिर
आकर गिरती हैं। क्योंकि हर अस्पृश्य जाति दूसरी किसी निम्न जाति को अस्पृश्य
मानता है। एकदम निम्नतर जाति कौन सी है-यह वास्तव में बडी गंभीर खोज का विषय
है और उसके लिए तो किसी पाताल यंत्र की मदद लेनी पड़ेगी।
चेरुम जाति के लोग उच्चवर्णियों की खेती करते हैं। स्वामी के वे वंश-परंपरागत
चाकर होते हैं, किसी दूसरे के खेत पर चाहे जब चाकरी करना उन्हें संभव नहीं
होता। वे खेत में ही बँधे होते हैं। उनके यहाँ विवाह करने की अनुमति उन्हें
अपने स्वामी को दस रुपए देकर लेनी पड़ती है। ये चेरुम अपनी स्त्री को बेच सकते
हैं। सन् १८४१ तक लड़का साढ़े तीन रुपए में और लड़की तीन रुपए में बिकती थी।
कहा जाता है कि ये चेरुम लोग प्राचीन समय में मलाबार के राजा थे छोटे-बड़े
इनके राज्य थे। चेरनाद्र ऐसे ही एक राजा की राजधानी थी। पराभव के बाद विजेताओं
ने उन्हें इस निम्न कोटि में ढकेला। चेरुम की उपजातियाँ पुला, चेरुगा आदि
गोमांस खाती हैं, उन्हें चेरुगा की अन्य जातियाँ भी निम्न अस्पृश्य मानती हैं।
चेरु शब्द का अर्थ खेत होता है, उनके आज के मुख्य व्यवसाय भी खेत संबंधी ही
हैं। इससे यह अनुमान होता है कि ये कभी भूमिपति होंगे। किसी दुर्घटना से भूमि
का स्वामित्व दूसरे के पास चला गया और ये भूदास (Serfs) हो गए, ऐसा भी एक
तर्क इनके लिए प्रचलित है।
चेरुमा और पुलिया हिंदू-धर्मीय, देवी-देवपूजक हैं। परकुट्टी, कमरकुट्टी, चयन
आदि विशिष्ट देवता और अपने पूर्वजों की वे पूजा करते हैं। कर्क और मकर
संक्रांति को वे ओनम् (ॐ?) एवं विष्णु भगवान् की पूजा कर प्रसाद चढ़ाते हैं।
उनकी विवाह विधि में बूढ़ों पर चावल मारते हैं और मंगलम नामक संस्कार के बाद
विवाह का संपन्न होना मानते हैं। चेरुम जाति की स्त्री यदि इस जाति से नीच
पारिया जाति से संबंध रखती है तो उसे जाति बहिष्कृत किया जाता है अर्थात् वह
ईसाई या मुसलमान के पंजे में चली जाती है। सन् १९२१ की जनगणना के अनुसार
चेरुमा ढाई लाख और पुलिया पौने तीन लाख की संख्या में थे।
होलिया
यह जाति मलाबार के ऊपर दक्षिण कानडा में रहती है। होला शब्द का अर्थ 'भूमि'
होता है और इसी से यह जातिवाचक नाम चला। चेरुमा शब्द का अर्थ जैसे भूमिधर है
वैसा ही होलिया का भी है। इतना ही नहीं, चेरुमा के प्राचीन राज्य जैसे मलाबार
में थे वैसे ही होलिया के दक्षिण कानडा में थे। अर्थात् इनकी भी भूमि जब विजयी
लोगों के हाथ में चली गई तब ये भूमिदास हो गए। ये अपने शव गाड़ते हैं। ये भी
अस्पृश्य हैं, ये भी उच्चवर्णीय भूस्वामी का कृषि कार्य करते हैं, कहीं-कहीं
कपड़ा भी बुनते हैं और मच्छीमारी भी करते हैं। इनका मुख्य देवता शिव है। वे
ग्रामदेवता भी मानते हैं। एक आश्चर्यजनक रूढ़ि इनमें है-होलिया का स्पर्श हो
जाए या कोई होलिया ब्राह्मण बस्ती में घुस जाए तो ब्राह्मण अपने को अपवित्र
मान प्रायश्चित्त करते हैं। वैसे ही यदि कोई ब्राह्मण भूलकर होलिया बस्ती में
चला जाए तो होलिया लोग भी अपनी बस्ती को अपवित्र मान उसे शुद्ध करने का एक
संस्कार करते हैं। इनकी कुल-रीतियों, देह-रचना, इतिहास से यह ज्ञात होता है
कि ये मलाबार की चेरुमा जाति के ही हैं अर्थात् कभी दोनों के पूर्वज एक ही थे।
सन् १९२१ की जनगणना में इनकी संख्या पौने सात लाख थी।
पल्ला
अस्पृश्यों की यह तीसरी बड़ी जाति है। ये लोग तंजौर, त्रिचिनापल्ली, सलेम
एवं कोयंबतूर जिले में रहते हैं। पल्ला शब्द का अर्थ निचली भूमि होता है। इनका
व्यवसाय भी निचली भूमि में चावल की खेती करना है। इस आधार पर ही अनुमान लगाया
जाता है कि कानडा के होलिया एवं मलाबार के चेरुमा की तरह ये भी कभी भू-स्वामी
थे, पर कालगति से विजेताओं के भूदास बनकर रह गए। स्पृश्यों के गाँव में ये रह
नहीं सकते। गाँव के बाहर ही झोंपड़ियों की इनकी बस्ती होती है, इन बस्तियों
को पल्लाचेरी कहते हैं।
इनकी जाति-संस्था संगठित और जीवट की है। हर गाँव में तीन-चार व्यक्ति मुखिया
रहते हैं-पंच। उनमें का एक (अध्यक्ष) सरपंच 'नात्तुगुप्पन' एक अडुमपिल्लची
चपरासी की तरह पंचायत के समय सबको बुलाकर लानेवाला आज की भाषा में प्रतोद
(Whip) होता है। इनकी जाति के नाई, धोबी स्वतंत्र होते हैं। जाति-नियम
तोड़नेवाले को जातिच्युत करते हैं, फिर नाई-धोबी आदि कोई उनका काम नहीं करते।
ये लोग शिव और ग्रामदेवता की उपासना करते हैं। सन् १९२१ में इनकी जनसंख्या नौ
लाख के आस-पास थी।
पारिया,माल और मादिगा
मद्रास की अस्पृश्य जातियों में से शेष रहीं ये तीन बड़ी जातियाँ हैं। पारिया
में कुछ लोग नगाड़ा बजाते हैं। पर अधिकतर लोग चेरुमा, होलिया एवं पल्ला
जातियों की तरह खेती करते हैं। श्वेत मालिक की बँधी हुई नौकरी पीढी-दर-पीढी
करते हैं। माल और मादिगा जातियाँ तेलुगु प्रांत में एवं पारिया तमिल प्रांत
में बसे हैं। उनमें आपस में बेटीबंदी, रोटीबंदी आदि बंदियाँ हैं-यह कहने की
आवश्यकता नहीं। ये माता काली, शिव, विष्णु और ग्रामदेवता का पूजन करते हैं।
गत जनगणना में पारिया चौबीस लाख, माल चौदह लाख एवं मादिगा सात लाख थे।
दक्षिण कानडा के होलिया, मलाबार के चेरुमा, तंजौर के पल्ला, तमिल प्रदेश के
पारिया और तेलुगु के माल-मदिगा इन पाँच जातियों को पंचम जाति कहते हैं। इन
पाँच बड़ी-बड़ी अस्पृश्य जातियों की कुल संख्या साठ लाख से ऊपर चली जाती है।
यूरोप के तीन-चार देशों-डेनमार्क, पुर्तगाल, स्विट्जरलैंड राष्ट्रों के बराबर
यह संख्या है। आधी इटली। अपने हिंदू राष्ट्र का यह संख्याबल होकर भी न होने के
बराबर है। इस अस्पृश्यता के महारोग की खाई में हम स्वयं उन्हें ढकेले हुए
हैं-उन्हें मृतप्राय बनाए हुए हैं। वे अस्पृश्य हैं, इतना ही नहीं अपितु
उनमें से काफी अदृश्य भी हैं। तमिल प्रांत के चौबीस लाख पारियाओं में से कुछ
उपजातियाँ मद्रासी सनातनियों के लिए अदृश्य हैं। माने उनके स्पर्श से नहीं,
छाया से नहीं अपितु दूर से होनेवाले दर्शन से भी सनातनियों को छूत लग जाती है।
उन्हें स्नान करना पड़ता है, उनका शब्द कान पर आते ही भोजन छूतहा हो जाता है।
स्नान करना पड़ता है। रास्ते में चलते हुए यदि किसी उच्चवर्णीय के सामने कोई
पारिया पड़ जाता है तो उसे कपड़े से अपना मुँह ढक लेना पड़ता है; क्योंकि वह
अदृश्य है। अस्पृश्य से कई गुना अधिक अस्पृश्य। वह दिखते ही उच्चवर्णियों को
छूत लग जाती है। उस पारिया को नियम का पालन न करने पर पीटा भी जा सकेगा।
ये पाँचों अस्पृश्य एवं अदृश्य जातियाँ मूल में एक जाति थीं, ऐसा अधिकतर
इतिहासवेत्ता, समाजशास्त्रियों का विचार है। उस एक कृषक जाति की पाँच जातियाँ
आगे प्रांत और भाषा भेद के कारण पाँच की पचास और पचास की पाँच सौ! अस्पृश्यों
में भी अनुलोम, प्रतिलोम की छुरियों से बकरा काटा जाए वैसा समाज, राष्ट्र
काट-काटकर टुकड़े कर दिए। स्पृश्य अस्पृश्य को छुएगा नहीं, मुँह भी देखेगा
नहीं; अस्पृश्य भी अपने से नीच जाति के साथ ऐसा ही व्यवहार करेगा। ये सारी
पाँच सौ जातियाँ जन्मजात पृथक्, रोटीबंद, बेटीबंद।
हाय! हाय! ऐसे में हमारे बीच कैसा संगठन और कैसी एकता होगी! नहीं! नहीं! हिंदू
राष्ट्र को यदि संगठित करना है, आज की परिस्थिति से लोहा लेने में समर्थ
मौलिक एकता का हममें निर्माण करना है तो इस जन्मजात जातिभेद के राक्षस का वध
पहले करना होगा और उसका वध करना इतना सरल है कि मर जा कहते ही वह मर जाता है।
उसका जीवन केवल हमारी इच्छा के अधीन है। इसके विपरीत यह भी कहा जा सकता है कि
केवल इच्छा में हमारा मरण है। केवल अस्पृश्यता निकाल देने मात्र से काम नहीं
होगा, उस विषैली शाखा के जीवनदाता--जन्मजात जातिभेद के विषवृक्ष को ही जड़ से
उखाड़ना होगा।
जब तक यह जातिभेद हमारी इच्छा से हमारे प्राण सोख रहा है तब तक हमें मारने का
काम शत्रु को करने की आवश्यकता ही नहीं है। हम स्वयं ही मर रहे हैं। मद्रास की
इन पाँचों अस्पृश्य जातियों में से इसलाम और ईसाई ये दोनों हमारा संख्याबल लूट
रहे हैं। केवल ईसाइयों ने दो-चार वर्ष में पचास हजार से अधिक अस्पृश्यों को
ईसाई बना लिया। मोपला मुसलमानों जैसे अशिक्षित जाति के लोग भी अस्पृश्यों को
धड़ाधड़ धर्मांतरित कर रहे हैं। उन विपक्षियों के नाम पर रोने से कुछ होनेवाला
नहीं। जो दुःस्थिति मद्रास की, वही सर्वत्र है।
यदि हम हिंदू इस जन्मजात जातिभेद को समूल उखाड़ेंगे तभी हम एक राष्ट्र के रूप
में, धर्म के रूप में जी सकेंगे, दूसरा कोई उपाय शेष नहीं है।
(किर्लोस्कर)
प्रकरण-६
आनुवंश या आत्मघात या वाहियातपना
अपने इस हिंदू राष्ट्र में आज जो हजारों-हजार जातियाँ, उपजातियाँ, अनुजातियाँ
हो गई हैं वे सब मानो किसी महान् समाजशास्त्री पुरुष ने आनुवंशिकता का गहरा
अध्ययन कर, गणित जैसे नियमों से आरेखित कर बनाई हैं। हर जाति उपजाति-अनुजाति
के रक्तबीज गुण अन्य जाति-उपजाति-अनुजाति के रक्तबीज गुण से भिन्न हैं-ऐसा
किसी प्रयोगशाला में हर रक्त की बूंद का कठोर परीक्षण कर निश्चित किया हुआ है
और जिस गुट का रक्तबीज आनुवंश विज्ञान के अनुसार मिलता है, उसपर उनकी संतति
निकृष्ट-निकृष्टतर होगी, ऐसा प्रयोगशाला में सिद्ध हुआ है। उनके गुट अलग किए
गए और इसीलिए आज की हजारों-हजार जातियाँ, उपजातियाँ, अनुजातियाँ तोड़ने पर
समाजशास्त्र का ही सत्यानाश हो जानेवाला है ऐसा एक भ्रम आज के इस शास्त्र के
विद्वान् Heredity, Eugenics जैसे भ्रामक शब्द का प्रयोग कर कहते हैं।
पर यह भ्रम कितना निर्मूल है इसका निर्विवाद साक्ष्य आज की बढ़ी हुई जाति
व्यवस्था में से कुछ की पृथक्-पृथक् उत्पत्ति देखने से सरलता से मिल जाता है।
रक्तबीज की बूँद-बूँद की परीक्षा प्रयोगशाला में कर, अमुक कुल का रक्तबीज हीन
है, इसलिए उसकी जाति हम अलग करते हैं ऐसा उल्लेख किसी समाजशास्त्री के ग्रंथ
या आनुवंश विज्ञान के किसी पुराण में नहीं मिलता, ऐसी हजारों अनुजातियाँ आज
विद्यमान हैं। इतना ही नहीं अपितु अनुजातियाँ या जातियाँ कैसे बनीं इसके संबंध
में दी गई उक्ति या तर्क जो पुराणों में दिए गए हैं, उनमें ऊपर दिए
शास्त्रशुद्ध किसी परीक्षण की कल्पना भी नहीं है और जो कारण दिए गए हैं वे सब
गप्पें, कपोल कल्पित कथाएँ हैं।
जातियों का विघटन या निर्माण पुराण काल में ही पूरा हो गया था-ऐसा मानने का
साक्ष्य नहीं है। सबल साक्ष्य तो यह है कि पुराणों के इतिश्री काल में अर्थात्
जब पुराणों के पृष्ठ मुद्रण कला से गिनकर उनपर लकड़ी की पट्टियाँ रख उन्हें
ऐसा कसकर बाँधा गया कि जिससे उसमें एक भी अनुष्टुप का प्रवेश न हो सके उसके
बाद भी अर्वाचीन काल तक जातियों के फिर-फिर टुकड़े होते रहे और उनकी उत्पत्ति
की कहानियाँ अधिकतर सरकारी कागज-पत्रों में मिलती हैं। इस ऐतिहासिक जानकारी से
तो यही स्पष्ट होता है कि रक्तबीज की शास्त्रोक्त परीक्षा कर आनुवंश की दृष्टि
से समाज में उत्तम संतति बढ़े, ऐसे किसी हेतु से आज की ये जातियाँ तोड़ी नहीं
गई हैं, उनकी तोड़-फोड़ क्षुद्र कारणों पर हुई हैं-जैसे तू मांस खाता है, तू
शैव है या तू वैष्णव है, तू खड़े-खड़े बुनाई करता है या बैठकर? तू ताजे दूध
से मक्खन बनाता है या गरम करने के बाद? तू नासिक जिले में रहता है या नागपुर
में? ऐसी अति हास्यास्पद मत-भिन्नता से एक-दूसरे का बहिष्कार करते हुए जातियों
का विघटन होता गया और एक की अनेक जातियाँ बनती चली गईं।
हाथ कंगन को आरसी क्या? आज चालू हजारों भिन्न-भिन्न रोटीबंद, बेटीबंद,
जाति-पाँति की उत्पत्ति के संबंध में कुछ की उत्पत्ति की जो जानकारी पुराणों
की कपोल कल्पित कथाओं में मिलती है या कुछ की जो जानकारी ऐतिहासिक कागज-पत्रों
में मिलती है, उसी के कुछ उदाहरण नीचे दे रहे हैं, उससे यह सहज ही स्पष्ट हो
जाता है कि हजारों जाति-उपजातियों की उत्पत्ति आनुवंशिक रक्तबीज की परीक्षा
आदि वैज्ञानिक विधि से नहीं हुई अपितु उनकी उत्पत्ति वाहियात सोच या कपोल
कल्पित कथाओं के आधार पर की गई है।
हाँ, यह केवल वाहियातपना है। इससे उचित शब्द इन सब कारणों का उल्लेख करने के
लिए मिलेगा नहीं। वाहियातपना माने आचार का मूर्खतापूर्ण बड़प्पन। माथे पर चंदन
लगाने जैसी बात पर उसमें खड़ा चंदन लगानेवाले और आड़ा चंदन लगानेवाले। यदि
किसी खड़ा चंदन लगानेवाले वैष्णव ने आड़ा चंदन लगा दिया तो मानो गजब हो गया।
इसका दंड उसका जाति निष्कासन। उसी के साथ उसका घर, जो-जो भी उससे व्यवहार
करे, खाए-पीए वे सब जाति बहिष्कृत; बन गई उनकी नई जाति। नई जाति माने
रोटीबंद, बेटीबंद। राष्ट्र के एक संघ, एक प्राण, देह का एक टुकड़ा तड़ाक् से
तोड़ डाला। वंश-परंपरा तोड़कर। केवल चंदन लगाने की किसी दस-पाँच लोगों की जिद
से पचास पीढ़ियाँ पूर्व बनी एक नई जाति। सैकड़ों जातियों के टुकड़े हो-होकर
सैकड़ों उपजातियाँ, अनुजातियाँ उत्पन्न हुई हैं-केवल वाहियात सोच के कारण।
किसी को उपर्युक्त कथन अतिशयोक्तिपूर्ण लग रहा हो तो एक अर्वाचीन एवं जिसके
साक्ष्य में अभिलेख भी प्राप्त हैं, ऐसी एक उपजाति की जन्मपत्रिका प्रस्तुत
है।
कंचोले प्रभु की जाति क्यों और कैसे उत्पन्न हुई?
वह किस्सा ऐसा है कि कोई डेढ़ सौ वर्ष पूर्व पाठारे प्रभु नामक जाति में एक
विवाह समारोह था। पाठारे प्रभु की पूरी बिरादरी विवाह मंडप में जमा थी। जाति,
संगठन और एकता मजबूत हो इसलिए ऐसे सामाजिक-धार्मिक आयोजन होते हैं। मंडप में
जब जाति के सब छोटे-बड़े जमा हो गए तो रीति के अनुसार सबको चंदन लगाने के लिए
हाथ में चंदन पात्र लेकर एक तरुण सभा में आया। चंदन पहले किसे लगाया जाए, यह
समझ में न आने के कारण सबसे पहले जिसे चंदन लगाया गया उसके विरुद्ध अग्रता या
अग्रसम्मानवाले सज्जन ने इसका प्रतिवाद किया और बात बढ़ गई। झगड़ा खड़ा हो गया।
इस झगड़े में उस तरुण की भी खींचतान हुई और फलतः उसने गुस्से में वह चंदन
पात्र भूमि पर पटक दिया।
एक विवाह समारोह में एकत्रित एक ही जाति के लोगों में हुआ यह झगड़ा। चंदन
'इन्हें' पहले लगाना था, उसको क्यों लगाया? यह मूल कारण। और एक तरुण
गंधपात्र को फेंक देता है। एक सौ पचास-साठ वर्ष पूर्व में घटित घटना। बहुत
छोटी, बहुत साधारण, पर परिणाम यह कि एक संघ पाठारे प्रभु दो टुकड़ों में बँट
गए। वंश-परंपरा, रोटीबंदी, बेटीबंदी प्रारंभ हो गई।
उस गंधपात्र फेंकनेवाले युवक को अग्रमान के लिए लड़नेवाले गुट ने दंडित किया।
वैयक्तिक अपराध के लिए कुछ देह दंड या द्रव्य दंड दिया जाता था। परंतु दंड माने
जाति बहिष्कार। जाति बहिष्कार के माने उसके साथ कोई खाए नहीं, विवाहित न हो।
रोटीबंदी, बेटीबंदी। अच्छा यह भी केवल उस व्यक्ति तक नहीं, उसके पूरे वंश के
लिए, पीढ़ी-दर-पीढ़ी। गंधपात्र फेंकने का दंड अगली डेढ़ सौ पीढ़ियों को। एक
छोटा टुकड़ा टूट जाने के कारण कंचोले प्रभु जाति में विवाह संबंध स्थापित करना
एक समस्या है और इसीलिए वे विवाह आपसदारी में ही करते हैं। भिन्न रक्तबीज का
प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता।
ऐसी ही निरर्थक मान-अपमान की गँवारू कल्पनाओं के कारण झगड़े होने से एक-दूसरे
को जाति बहिष्कृत कर एक की दो, दो की चार जातियाँ कैसे होती गई हैं-इसकी
सामान्य जानकारी रिसले, एश्नोवेन आदि विदेशी लेखकों ने दी है। जनगणना
करनेवाले अधिकारियों ने अध्ययन कर यह जानकारी प्रस्तुत की है। इसे खुले
मस्तिष्क से, दुराग्रह छोड़कर पढ़ने पर यह तथ्य उजागर होगा कि हिंदू राष्ट्र
के जात-पाँत के कारण जो हजारों टुकड़े हुए हैं उसमें से सैकड़ों जातियों की
उत्पत्ति ऐसे ही वाहियात कारणों से हुई है। आनुवंश आदि वैज्ञानिक आधार पर किसी
ने सोच-समझकर उनकी रचना की है ऐसा आभास उत्पन्न करना केवल पाखंड है।
यह कहा जा सकता है कि पाखंड काल में हुई हिंदुओं की अर्वाचीन जाति निर्मिति के
लिए उपर्युक्त कथन सच होगा भी, पर वह प्राचीन पुराण काल के लिए सच नहीं है।
उस समय की जाति निर्मिति आनुवंशकीय समाजशास्त्रीय कसौटी पर रक्तबीज की जाँच
करके ही हुई होगी। ऐसा यदि किसी को लगता है तो वह पुराणों और पोथियों में दी
हुई जाति उत्पत्ति की उपपत्तियाँ देखे। वे उपपत्तियाँ तो झूठ का ऐसा पुलिंदा
हैं कि उसकी तुलना में उपर्युक्त दी हुई ऐतिहासिक जानकारी कम मूर्खता की नहीं
है तो भी कम-से-कम सच्ची तो है। उदाहरण के लिए जिस जाति के अस्तित्व का उल्लेख
एक हजार वर्ष पूर्व के ग्रंथों में मिलता है, उसकी उत्पत्ति के संबंध में
संस्कृत ग्रंथों में क्या वर्णन किया गया है, यह देखें।
भंडारी जाति के संबंध में पोथी-पुराणों में दी हुई जानकारी
भंडारी जाति के संबंध में ब्रह्मोत्तर खंड एवं 'कथा कल्पतरु' में ऐसा कहा गया
है कि एक बार तिलकासुर नामक दैत्य बहुत उत्पात करने लगा। महादेव को भी उसने
पीड़ित किया। महादेव ने उसे पकड़कर कोल्हू में पेर दिया और अपने नंदी को कहा
कि चलाओ कोल्ह और निकालो इसका तेल। नंदी ने कोल्हू चलाना शुरू किया और शंकरजी,
जो उसे पकड़ने आदि में थक गए थे, हुश् करके बैठ गए। वे जैसे ही बैठे उनके
कपाल से उनकी एक श्रम बूंद नीचे टपकी और उसमें से तत्काल एक पुरुष ने जन्म
लिया। उसे देखते ही शंकरजी बोले, "तेरा नाम भावगुण, क्योंकि तू मेरी स्तुति
करते हुए मेरे सामने खड़ा है। जा पहले जाकर पानी ले आ, मुझे प्यास लगी है।"
(शंकर की जटा में बैठी पतिसेवा-निरत भागीरथी उस समय कहीं तीर्थयात्रा पर गई
होंगी, नहीं तो पानी की कमी महादेव को न होती।) भावगुण ने पूछा, "महाराज,
ठंडा जल कहाँ से लाऊँ? यहाँ आस-पास तो वह कहीं है भी नहीं।" यह सुनते ही
शंकरजी ने अपनी इच्छा से एक वृक्ष उत्पन्न किया, वही नारियल वृक्ष है।
(वनस्पतिशास्त्री नारियल वृक्ष की उत्पत्ति ध्यान में रखें। इस कथा के कारण
आनुवंशिकी विद्या के साथ ही वनस्पति विज्ञान में भी भंडारी की उत्पत्ति कथा ने
नया योगदान दिया है।)
उस नारियल वृक्ष पर इच्छा मात्र से सुरामधुर फल भी उत्पन्न किए। तब से नारियल
वृक्ष को 'सुरातरु' कहते हैं। भावगुण उस वृक्ष पर तत्काल चढ़ा और सुराफल
तोड़कर, छीलकर, महादेवजी को सुरा पीने को दी। (मनुष्य, वृक्ष, फल केवल
इच्छा मात्र से उत्पन्न करनेवाले महादेव प्यास लगते ही मुँह-के-मुँह में सुरा
की निर्मिति क्यों नहीं कर सके या वृक्षफल को भावगुण पेड़ पर चढ़कर तोड़े उसके
पर्व नीचे क्यों नहीं लाए, ईश्वर ही जानें)। सुरा पीकर महादेव प्रसन्नचित्त
होकर भावगुण से बोले, "जा, अलकावती के भंडार का तू अधिकारी हो जा।" तब से उसे
भंडारी कहने लगे और शंकरजी सुरातरु के सुराफल पीने लगे। (उस दिन तक शंकरजी
भाँग आदि का सेवन ही करते थे; परंतु भंडारी भावगुण की पहचान होते ही भगवान्
सुरा भी पीने लगे, संगति का यह दोष है।)
पर इतने में उस सौभाग्य के वृक्ष से घिसटकर नारियल के वृक्ष पर, मनुष्य नीचे
गिरे वैसे भावगुण भंडारी भाग्यहीनता के कठोर पत्थर पर आ गिरा। क्योंकि माँ
पार्वती उसे भंडार में से स्वर्ण लाकर देने के लिए जैसे ही भंडारगृह में गईं कि
एक ब्राह्मण वहाँ आया। उसे देखते ही भावगुण भंडारी उस पीढ़े पर से उठ गया
जिसपर वह बैठा था और वह अयाचित प्रकट हुआ। ब्राह्मण उसपर बैठ गया। माँ पार्वती
स्वर्ण लेकर आईं और पीढ़े पर भावगुण ही बैठा है, यह समझकर उस अयाचित ब्राह्मण
को उन्होंने स्वर्ण दे दिया। ब्राह्मण तत्काल उठकर चला गया। (माँ पार्वती को
गुप्तचरों जितना भी अंतर्ज्ञान या व्यवहार ज्ञान इस समय न रहे और ब्राह्मण
बिना पकड़े छूट जाए!) माँ पार्वती ने पीछे मुड़कर देखा तो वहाँ भावगुण खड़ा
था। तब उन्होंने कहा, "अरे, तुझे स्वर्ण दे दिया तब भी तू खड़ा क्यों है?" वह
बेचारा बोला, "स्वर्ण ब्राह्मण को दिया, मुझे नहीं। मैं तो धर्माचार मानकर
ब्राह्मण को देखते ही आदर से उसे पीढ़ा देकर स्वयं खड़ा हो गया। उसे मिलनेवाली
दक्षिणा में बाधा न आए इसलिए कुछ बोला भी नहीं। आप ईश्वर, वह ब्राह्मण। आप तो
सर्वज्ञ हैं, आप यह न जान पाए, यह मैं स्वप्न में भी नहीं सोच सकता।" यह
सुनते ही पार्वती माँ कुपित हो गईं और उन्होंने उस बेचारे भावगुण भंडारी को
शाप दिया-(अपराधी ब्राह्मण को कुछ नहीं कहा) "तुम्हारी जाति को नारियल की
माड़ी और ताड़ी बेचकर ही जीवन-यापन करना पड़ेगा। तुम्हारी जाति हमेशा दरिद्र
रहेगी। भंडारी को कभी भी स्वर्ण प्राप्ति नहीं होगी।" तब से भंडारी जाति
ताड़ी-माड़ी बेचकर ही जी रही है। पर मेरे परिचय का एक भंडारी चतुर निकला। उसने
महादेव के चार मंदिर बनवाए, उनसे अपनी अनुशंसा कराई और पार्वती के शाप की धार
भोथरी कर वह धनवान् हो गया। श्रीमंत भागोजी कीर भंडारी जाति के हैं, पर उनके
घर में, बैंक में, जेब में सब जगह सोने के सिक्के होते हैं और हम उस ब्राह्मण
के वंशज होकर भी, जिसे पार्वती माँ ने स्वयं स्वर्ण दिया, एक छल्ले भर सोने
के लिए तरस रहे हैं।
जाति की उत्पत्ति दर्शानेवाली ऐसी सैकड़ों कथाएँ पुराणों में हैं; पर कहीं
भी रक्तबीज की परीक्षा कर सुजनन के लिए आवश्यक होने से उच्च या नीच जाति की
निर्मिति की गई है, इसकी किंचित् सूचना भी इनमें नहीं मिलती। जात-पाँत की
उत्पत्ति की अधिकतर सारी कथाएँ ऐसी ही बिना पेंदे की, निरर्थक और कपोल कल्पित
हैं।
वास्तव में भंडारी जाति का मूल राजपूत है। भांड का अर्थ 'बड़ी नौका' होता है।
संस्कृत और पेशवाई के कागज-पत्रों में भी 'भांडे' शब्द नौका के लिए ही
प्रयुक्त है। (भांडे के दो मान्य अर्थ हैं-नौका और पात्र। अंग्रेजी में भी
'वेसल' शब्द के 'नौका' और 'पात्र' ऐसे ही दो अर्थ होते हैं। यह साम्य
उल्लेखनीय है।) मौर्य काल से भंडारी जाति के पूर्वज सामुद्रिक सैनिक थे, वे
पेशवाई तक वैसे ही बने रहे। मौर्य काल से ही 'भांड' सेना के अधिकारी और
'भांडी' निर्माणकर्ता भी होते थे, अतः उनकी जाति को भंडारी कहा गया। अब यह
जाति निर्मिति की कथा अधिक विचारणीय है या पुराण की, महादेव के पसीने की बूँद
की घानी में जुते नंदी की? कोंकण में भंडारी नौकायन का मुख्य व्यवसाय करते
हैं। नारियल की नीरा-ताड़ी का व्यवसाय द्वितीय है। इसे ही बिना समझे-बूझे किसी
पुराण-पाठी ने कथा रचकर पुराण में घुसेड़ दी। जैसे पुराणवाचक वैसे ही बेचारे
भंडारी। उन्होंने अपनी जाति की उत्पत्ति की यह वाहियात कथा ही स्मरण में रखी
और असली कथा भुला दी।
दरजी उपजाति की उत्पत्ति
भावसार क्षत्रिय जाति के टूटे टुकड़े की उत्पत्ति के संबंध में एक मजे की
चर्चा वर्तमान में दरजी समाज में प्रचलित है, अब उसकी बात करें। संत नामदेव
के काल तक भावसार क्षत्रिय रोटी, बेटी सब बातों में एक जात, एक रक्त, एक बीज
मूल हिंगला देवी की शाक्तपंथीय जाति थी। इस जाति में से जो लोग नामदेव के
शिष्य हो गए और जिन्होंने भक्तिमार्ग स्वीकार किया, उन्हें नामदेव दरजी कहने
लगे और यह एक उपजाति ही बन गई। इसके होने का कारण था शाक्तपंथियों का
भक्त-संप्रदायी लोगों का बहिष्कार करना। रोटीबंदी, बेटीबंदी लागू हो गई।
उनमें से किसी के रक्तबीज की वैज्ञानिक परीक्षा हुई और सुजनन के लिए कम योग्य
साबित हो गए इसलिए नहीं। केवल दैवत्व अलग हो गए। फिर इन नामदेव दर्जियों में
कुछ नासिक की ओर, कुछ कोंकण में, कुछ नागपुर में, ऐसे गुटों में काफी दिन
रहने के कारण एक-दूसरे समूह से जाति व्यवहार न हो पाया। कारण कोई वैज्ञानिक
प्रतिबंध नहीं था, केवल आने-जाने के सुगम साधन, जैसे रेलगाड़ी आदि नहीं थी।
अतः उन नामदेव दर्जियों में तीन अनुजातियाँ पैदा हो गईं। सभी में रोटीबंद,
बेटीबंद। ये सारी बातें ऐतिहासिक कागजों में लिखी हैं। इसलिए कथावाचकों को
उन्हें शंकर, पार्वती, नंदी आदि के सूत्र में बैठा नई कहानी गढ़ने का मौका न
मिला। अन्यथा महादेवजी की कौपीन लाड़ में या झगड़े में पार्वती के हाथों फट
जाने से उनकी फटी चिंदी से ये नामदेव अनादिकाल में उत्पन्न हुए-ऐसी कथा रचकर
कोई कथावाचक किसी पुराण ग्रंथ में घुसेड़ देता या Heredity, Eugenics आदि
भारी-भारी शब्दों के आवर्तन कर यह अनुजाति शास्त्रीय आधार पर ही निर्मित है ऐसी
गप्प-कथा कोई गोमाजी शास्त्री छाती ठोककर कहता। दर्जियों की सारी अनुजातियाँ
अर्वाचीन हैं इसलिए एक ठोस साक्ष्य मिलता है कि उनमें से किसी ने भी मौलिक
संगठन के बाहर बेटी व्यवहार नहीं किए। अर्थात् रक्तबीज आदि की ऊँच-नीच के कारण
जातियों का विभाजन हुआ, यह बिलकुल झूठ है। उस समय तेज गति वाहन नहीं होने के
कारण ये जातियाँ एक-दूसरे से कट गईं, अलग हो गईं। भौगोलिक कारणों से एक जाति
में जो भेद दिखते हैं उसका मुख्य कारण उनमें उत्तम रक्तबीज की कमी नहीं,
वाहनों की कमी थी।
अंडे पर पैर पड़ा और जाति बँट गई
कुछ कारणों से जातिरूढ़ि तोड़ने के आरोप पर जाति बहिष्कार का दंड देकर एकदम
अलग कर देने की यह प्रक्रिया आज भी वैसी ही चल रही है। छोटे-छोटे नमूने न देकर
एक बड़ी जाति में घटित स्तंभित कर देनेवाला एक प्रकरण यहाँ प्रस्तुत है।
मालवा में ओसवाल नामक एक विख्यात और प्रमुख जाति है। सन् १९३१ में उनमें एक
गड़बड़ी पैदा करनेवाली घटना घटी। उस जाति के एक सेठजी के घर में लगे हुए एक
चित्र के पीछे चिड़िया ने अपना घोंसला बनाया और उसमें दो अंडे दिए। उसमें से
एक सुपारी के आकार का अंडा नीचे आ गिरा, गिरने से फूटा और उसके अंदर का
चिपचिपा पदार्थ भूमि पर गिरा। उसी समय सेठजी का दस वर्ष का लड़का दरवाजे में
से कमरे में घुसा और उस अंडे के चिपचिपे द्रव्य पर उसका पैर पड़ा। घर के बड़े
आदमियों ने देखा तो उन्होंने पाया कि वहाँ अंडा गिरकर फूटा था। यह छोटी सी बात
इस मुँह से उस मुँह में होते-होते फैलती गई। अंडे पर पैर पड़ा, पैर से अंडा
फूटा, यह पाप हुआ, बच्चे के पैर ने अधर्म किया। सेठ बागमल का लड़का अधर्मी हो
गया।
ओसवाल जैन पक्के शाकाहारी। उस लड़के को उसके घरवालों ने ही भोजन की पंगत से
अलग बैठाना शुरू किया। एक-दो दिन में जैन श्वेतांबर मंदिर में जाति पंचायत
बुलाई गई। पूर्वोक्त पक्ष पर गंभीरता से विचार हुआ। चिड़िया के अंडे पर अनजाने
लड़के का पैर पड़ा और पैर गंदा हो गया, उस भयंकर हिंसा दोष के लिए उस लड़के
को जाति बहिष्कृत किया जाए या नहीं। वाद-विवाद हुए। दो पक्ष हो गए। जाति टूटी।
उस लड़के के परिवार को जाति से अलग किया गया। उसके पक्ष में जो बोले उन सबको
जाति बहिष्कृत किए जाने की नौबत आ गई। पर नए जमाने में ऐसे प्रकरण न्यायालय
में जाने लगे थे। सेठजी ने भी प्रकरण को न्यायालय में ले जाने की धमकी दी।
पंचायत चुप हो गई। पर फिर भी अनेक परिवार ने उस चिड़िया के अंडे पर पैर
रखनेवाले लड़के के परिवारवालों से रोटी व्यवहार बंद कर ही दिया।
उपर्युक्त नए-पुराने उदाहरणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि वैदिक, जैन,
लिंगायत आदि अखिल हिंदू राष्ट्र में जो हजारों जातियाँ हो गई हैं वे आनुवंश या
सुजनन या अन्य किसी समाजशास्त्रीय रक्तबीज परीक्षा की जाँच करके विभाजित की गई
हैं-ऐसा भ्रम फैलाना केवल गप्पबाजी है। आज की जातियों में से हजारों
अनुजातियाँ केवल प्रांत, भाषा, धर्म, मत, मुरगा खाना या बकरा मांसाहार या
शाकाहार, लहसुन या प्याज, खड़े-खड़े बुनाई करना या बैठकर करना, गंधपात्र
फेंकना, अंडे पर पैर पड़ना-ऐसे वाहियात कारणों से निर्मित हुई हैं। एक संघ,
एक प्राण, अखंड राष्ट्रीय देह के जाति बहिष्कार की तलवार से खंड-खंड कर
हजारों टुकड़े कर दिए हैं। कुछ भी हो जाए करो जाति बहिष्कृत और जाति बहिष्कृत
माने रोटीबंदी, बेटीबंदी, जन्म-जन्म, पीढ़ी-दर-पीढ़ी। कहाँ है इसमें आनुवंश,
यह तो केवल वाहियात आत्मघात है।
इसीलिए बड़ौदा जैसे राज्य में गँवार, अनाड़ी और जिन्हें पता ही नहीं है कि
उनके निर्णय के राष्ट्रीय परिणाम क्या होंगे-ऐसी जाति पंचायत के अधिकार
क्षेत्र से जाति बहिष्कार का यह आत्मघाती शस्त्र निकाल लेने के लिए विधि बनाई
जा रही है, जो उचित है। वाहियात कारणों से निर्मित इस जातिभेद को समूल उखाड़
फेंका जाना चाहिए और उसके लिए आवश्यक है रोटीबंदी को तोड़ना, सहभोज आयोजित
करना।
(किर्लोस्कर)
प्रकरण-७
वज्रसूची
'फलान्यथौदुंबरवृक्षजाते: मूलाग्रमध्यानि भवानि वापि।
वर्णाकृतिःस्पर्शरसैस्समानि तथैकतो जातिरिति प्रचिंत्या॥१॥
तस्मान् गोऽश्ववत्कश्चित् जातिभेदोऽस्ति देहिनाम्।
कार्यभेदनिमित्तेन संकेतः कृत्रिमः कृतः॥२॥'
(भविष्य पुराण, अ. ४०)
बौद्ध धर्म के जो महान् प्रचारक हुए उनमें अवश्घोष की योग्यता बड़ी मानी गई।
उनका लिखा संस्कृत श्लोकबद्ध 'बुद्धचरित्र' काव्य वाङ्मय के क्षेत्र में
उत्कृष्ट, पूज्य एवं प्रासादिक ग्रंथ माना जाना है। उसकी गणना संस्कृत वाङ्मय
की काव्य संपत्ति के एक माननीय ग्रंथ के रूप में की जाती है।
इस विद्वान् बौद्ध प्रचारक ने 'वज्रसूची' नामक एक अन्य ग्रंथ की भी रचना की
है, जिसका विषय जन्मजात जातिभेद है। बौद्ध धर्म की उत्पत्ति के बाद हिंदू
राष्ट्र में वैदिक और बौद्ध ऐसे दो धर्मपंथों के बीच जन्मजात जातिभेद के तीव्र
मतभेद का जो प्रश्न बन गया था, उसपर अश्वघोष ने अपने ग्रंथ में जातिभेद प्रथा
पर तर्कमूलक चर्चा की है।
उपनिषद् काल से ही वन-उपवनों में स्थित आश्रमों में स्वतंत्र तत्त्व चिंतन का
भारतीय वातावरण हमेशा निनाद करता रहा। उसमें श्रुति-स्मृति द्वारा रेखित
मंत्ररेखा की मर्यादा की भी चिंता न करते हुए बुद्धकाल में बुद्धिवाद स्वतंत्र
अकुंठित संचार करने लगा, फिर तो राष्ट्र और मानव चिंतन के हर क्षेत्र में यह
ऐसा क्यों, इस प्रश्न की अग्निपरीक्षा में उस काल के सारे मत, रूढ़ियाँ,
आचार-विचार साधक-बाधक चर्चा की ज्वाला में कुंदन की तरह दमकने लगे। वैदिकों ने
बौद्धों के और बौद्धों ने वैदिकों के हर वचन, मंत्र, कोटिक्रम, कुशाग्र
तर्कों की धुनकी से धुनक-धुनक तार-तार अलग कर दिया। वैदिक-वैदिक से जब चर्चा
करता या बौद्ध-बौद्ध से वाद-विवाद करता जब उनकी तर्कशुद्धता को हमेशा
'इतिश्रुति' या 'इतिबुद्धानुशासन' की अनुलंघ्य मंत्ररेखा की बाधा आगे बढ़ने
से रोकती। क्योंकि श्रुतिवाक्य झूठ है, यह कहना वैदिकों के लिए असंभव है,
वैसे ही 'बुद्धवाक्य' झूठ है यह कहना बौद्धों के लिए सर्वथा निषिद्ध। इस
कारण श्रुति की परख, परीक्षा वैदिक तर्क के लिए मना, बौद्धगम की परख,
परीक्षा बौद्ध तर्कशक्ति को मना।
पर वैदिक और बौद्धों के बीच जब उपनिषद् काल से प्रचलित चले आए 'तद्विद्
संवाद' पर चर्चा होने लगी तब श्रुति आदि सब अनुल्लंघनीय एवं अशंकनीय मर्यादाएँ
भी तर्क की गति को रोक नहीं सकीं। क्योंकि बौद्धों को इतिश्रुति का डर नहीं
होता था, वे तो हर मंत्र को तर्क की भट्ठी में और हेतुवाद की चंदन शिला पर
घिस, परख लेने के बाद भी टिका तो लेते थे। वैदिकों के लिए 'इति
बुद्धानुशासनम्' की कोई चिंता न रहती। वे बुद्ध के हर शब्द को तर्क की मार के
नीचे लाते थे। ऐसी स्थिति में बुद्धकाल में श्रुति-स्मृति, अगम-निगम,
रीति-रूढ़ि, आचार-विचार इन सब छन्नों में से छनकर पुरुष बुद्धि अग्निपरीक्षा
से गुजरने को बाध्य हुई। श्रुतियों को भी पुरुष बुद्धि की परीक्षा में बैठकर
ही जो प्रमाण-पत्र मिल सकता था वह प्राप्त करना आवश्यक हो गया। ऐसी ऊहापोह
इतनी बड़ी मात्रा में आज तक नहीं हुई थी।
इसी कारण बुद्धकाल के धर्म-अधर्म, कर्म-अकर्म, आचार-अनाचार इन सबकी परख
करनेवाली निर्मेल एवं स्वतंत्र तर्क की कसौटी पर कसी गई चर्चाएँ आज बड़ी
मनोरंजक एवं बोधप्रद लगती हैं। कुशाग्र बुद्धिवाद के उस समय के मान से अप्रतिम
एवं अकुंठित उदाहरण आज भी पठनीय और विचारणीय लगते हैं। ग्रंथ का उल्लेख कर
उसमें ऐसा लिखा है-इसलिए वह सत्य है, ऐसा कह तर्क का मुँह बंद करने की परिपाटी
सहसा नहीं दिखती। युक्तिसंगत, हेतुगम्य, बुद्धिनिष्ठ ऐसे उस काल के जो
उदाहरण आज भी उपलब्ध हैं, उन्हीं में जन्मजात जातिभेद की रूक्ष और खड़ी भाषा
में साधक-बाधक चर्चा करनेवाले श्रीमत् अश्वघोष रचित 'वज्रसूची' नामक निबंध
को गिना जाना चाहिए। उसमें आज की तर्क पद्धति का सर्वत्र अवलंबन न होते हुए भी
उस समय के चातुर्वर्ण्य विषय पर जो कुछ अनुकूल, प्रतिकूल, आक्षेप-प्रत्याक्षेप
चलते थे उनका विचार आज भी अध्ययनीय लगे, इतने बुद्धिवाद से किया गया है। आज के
जन्मजात जाति निर्मूलन के वाद में आधार प्राप्त करने के लिए नहीं अपितु इस
विषय पर उस काल में इस राष्ट्र के नेतृत्व के क्या मत-विमत थे, उसे समझ लेने
के लिए उपयुक्त और अपरिहार्य एक प्राचीन अधिकृत लेख मानकर उसे यहाँ उद्धृत कर
रहे हैं।
श्रीमत् अश्वघोषकृत'वज्रसूची'
जगतगुरु श्रीमंजुघोष की अनेक वंदना कर और उनका स्मरण कर उनका शिष्य मैं
अश्वघोष 'वज्रसूची' नामक ग्रंथ शास्त्राधारपूर्वक प्रारंभ कर रहा हूँ। धर्म
और अर्थ की विवेचना करनेवाली श्रुति और स्मृति के मत-मतांतरवाले भाग को यद्यपि
मैं प्रमाण नहीं मानता तथापि उसमें वर्णित विश्वसनीय एवं संयुक्तिक भाग को
प्रमाण मानने में मुझे कोई आपत्ति नहीं।
परंतु श्रुति-स्मृति को इस तरह प्रमाण मानते हुए भी मुझे लगता है कि
चातुर्वर्ण्य विषयक उसकी कल्पनाएँ उस ग्रंथ के आधार पर सिद्ध नहीं की जा
सकतीं।
पहले ब्राह्मण की विवेचना करें। आप ब्राह्मण किसे कहते हैं? जीव, जाति,
जन्म, आचार, वेदज्ञान, ज्ञान? ब्राह्मणत्व किससे आता है? इनमें से किसे
ब्राह्मण कहेंगे?
जीव को ही आप ब्राह्मण कहेंगे तो वेदों में वैसा मानने का कोई आधार नहीं है।
जीव की एक स्वतंत्र जाति ही ब्राह्मण है। कुछ भी हो, वह ब्राह्मण की ब्राह्मण
ही रहेगी। ऐसे मत का वेद बिलकुल समर्थन नहीं करते। प्रत्यक्ष देवों के लिए जब
वेद कहते हैं, 'सूर्यः पशुरासीत। सोमः पशुरासीत। इन्द्रः पशुरासीत पशवो
देवाः॥' देवता भी प्रथम पशु ही थे, तदनंतर कर्मबल से देव हुए, तो ब्राह्मण
का जीव मूलतः ब्राह्मण है और वह ब्राह्मण अपरिवर्तित ब्राह्मण ही रहेगा-यह
कैसे सिद्ध होगा? अधिक क्या कहें, नीच से नीच जो हैं श्वपाक वे भी ब्राह्मण
तो क्या देव भी हो सकते हैं, हुए हैं-'आद्यत्ते देवा पशवः श्वपाका अपि देवा
भवन्ति' ऐसा श्रुति ही कहती है। वैसा ही अनुवाद 'महाभारत' ने किया है।
'महाभारत' में तो एक जगह स्पष्ट लिखा है कि कालिंजल पहाड़ी के सात शिकारी,
दस मृग, मानस सरोवर का एक बतख, शरद् द्वीप का एक चक्रवाक-ये सब कुरुक्षेत्र
में ब्राह्मण के रूप में जनमे और वेद पढ़ उसमें पारंगत हुए। मनु कहता है,
चतुर्वेद और उसके अंग-उपांग में प्रवीण ब्राह्मण यदि शूद्र से दक्षिणा या दान
स्वीकार करेगा तो उसे गधे के बारह जन्म, सूअर के छह जन्म और सत्तर जन्म
कुत्ते के होंगे। इससे यह स्पष्ट है कि ब्राह्मण का यह जीव ब्राह्मण स्वरूप है
और वह कभी भी अब्राह्मण नहीं हो सकता। यह कल्पना श्रुति-स्मृति को स्वीकार
नहीं है।
अब आप यह कहें कि ब्राह्मणत्व माँ-बाप से अर्थात् रक्तबीज से प्राप्त होता है,
ब्राह्मण माँ-बाप के पेट से जिसका जन्म होता है वह और वही ब्राह्मण है तो वह
कल्पना भी शास्त्र-विरुद्ध है। स्मृति के हर श्लोक से यह स्पष्ट है। अचल मुनि
का जन्म हाथी के पेट से, केशपिंगला का उल्लू के पेट से, कौशिक का घास के पेट
से, द्रोणाचार्य का मटके से, तैत्तरी ऋषि का पक्षी के पेट से, व्यास का
मत्स्यकन्या से, कौशिकी का शूद्रिणी से, विश्वामित्र का चांडाल से, वशिष्ठ
का वैश्या से-ये सारे उदाहरण स्मृति से दिए जाने से आपको मान्य करने ही होंगे।
इन सबके माँ-बाप ब्राह्मण न होते हुए भी उन्हें आप ब्राह्मणत्व के अधिकारी
मानते हैं। अत: माँ-बाप के द्वारा ही ब्राह्मणत्व मिलता है, ब्राह्मण माँ-बाप
के पेट से जन्म ले वही ब्राह्मण हो सकता है-यह कहना असत्य हो जाता है।
स्मृति के श्लोकों की बात भी छोड़ दें और प्रत्यक्ष व्यवहार में घटित जो कुछ
सुनने में आता है तथा देखा जाता है उसका विचार निस्संकोच करें। अनेक उदाहरण
देखने में आते हैं, जिनमें शूद्र पुरुष से ब्राह्मण स्त्री का गुप्त संबंध हो
जाता है और वह संतति ब्राह्मण कुल में ही समाई रहती है। माँ-बाप में से एक या
दोनों के ही ब्राह्मण न होते हुए भी मनुष्य को ब्राह्मणत्व प्राप्त हो जाने के
प्राचीन (स्मृति में उद्धृत) एवं अर्वाचीन उदाहरणों के आधार पर यह कहना कि
ब्राह्मणत्व माँ-बाप से ही मिलता है, झूठ है।
ब्राह्मण माँ-बाप के उदर से जन्म लेने से प्राप्त ब्राह्मणत्व की पैतृक
उत्पत्ति को सच मानें तो एक बार प्राप्त ब्राह्मणत्व मरने तक समाप्त नहीं होना
चाहिए। ब्राह्मण पितरों के उदर से जो मिले वह तो आजीवन रहेगा ही, क्योंकि
उसके प्राप्त होने की जो प्रथम शर्त है वह जनमते ही पूर्ण हो चुकी है। पर हमारी
स्मृतियों को पढ़ें तो कुछ अलग ही दृश्य दिखता है। मनु कहते हैं, जो ब्राह्मण
मांस भक्षण करेगा वह तत्काल ब्राह्मणत्व से च्युत हो जाएगा। जो ब्राह्मण मोम,
दूध, नमक बेचेगा वह तीन दिन में शूद्र हो जाएगा। अर्थात् ब्राह्मण माँ-बाप के
उदर से जन्म लेना ही एकमेव ब्राह्मणत्व का कारण नहीं है या ब्राह्मणत्व
प्राप्त करने का उपाय नहीं है। जन्म से निश्चित होनेवाला ब्राह्मणत्व नीच कर्म
से अकस्मात् नष्ट कैसे हो जाएगा? आकाश में उड़नेवाले घोड़े के भूमि पर उतरते
ही सूअर बन जाने की कथा क्या किसी ने सुनी है या उसपर विश्वास किया है?
ब्राह्मणत्व शरीर का धर्म है, किसी एक विशिष्ट शरीर में ब्राह्मणत्व आवेशित
है-ऐसा कहेंगे तो बड़ा घोटाला हो जाएगा। ब्राह्मण का शरीर प्रेत होते ही जो
उसे चिता पर रख अग्नि देगा, उन्हें ब्रह्म हत्या का पाप लगेगा। वध किए जाने
पर दंड का भागी होगा। क्योंकि ब्राह्मणत्व यदि शरीर में होगा तो जो शरीर
जलाएगा वह ब्रह्म हत्या करेगा। जिन श्लोकों में ऐसा लिखा हुआ होता है कि
यजन-याजन, अध्ययन-अध्यापन, दान, प्रतिग्रह ये सारे कार्य ब्राह्मण की देह से
निर्मित होते हैं-ऐसे मतवादियों से हम यह प्रश्न करते हैं कि ब्राह्मण का शरीर
नाश होते ही उन सारे कर्मों के गुणधर्मों का नाश हो जाता है क्या? उनका उत्तर
होगा 'कभी नहीं'। तो इसका अर्थ होगा ब्राह्मण का शरीर माने ब्राह्मणत्व नहीं।
इतना ही नहीं, वह ब्रह्म कर्म का उत्पत्ति स्थान भी नहीं है।
अब ज्ञान से ब्राह्मण होता है ऐसा कहें तो ठीक, पर व्यवहार में लाया जाए तब।
उपर्युक्त व्याख्या के अनुसार जो भी ज्ञानी है उसे ब्राह्मण के सारे अधिकार
दिए जाने चाहिए। ज्ञान से ब्राह्मणत्व प्राप्त होता हो तो अनेक शूद्रों को
ब्राह्मण मानना पड़ेगा। चतुर्वेद, व्युत्पत्ति मीमांसा, सांख्य, वैशेषिक,
ज्योतिष, तत्त्व ज्ञान आदि में पारंगत पंडित शूद्रों में आज भी हैं और मेरे
परिचित हैं; परंतु उनमें से किसी को भी ब्राह्मण मानकर उन्हें ब्राह्मणत्व के
अधिकार सौंपे नहीं गए हैं। अत: आप जिसे ब्राह्मणत्व कहते हैं वह केवल ज्ञान से
प्राप्त होता है, ऐसा आप कैसे कह सकते हैं?
आचरण से ब्राह्मण निश्चित होता है ऐसा कहेंगे, परंतु व्यवहार में आप अपनी इस
व्याख्या के अनुसार रत्ती भर भी चलते नहीं हैं। भाट, कैवर्तक और भांड आदि के
आचार कितने सात्त्विक होते हैं देखें, अनेक कष्ट सहन कर वे कड़ाई से धर्माचार
का पालन करते हैं। साधारण ब्राह्मण से उनके आचार इतने सात्त्विक होने पर भी आप
उन्हें गलती से भी ब्राह्मण नहीं कहते।
ज्ञान के अन्य विभाग में कोई कितना ही पारंगत क्यों न हो, उसे ब्राह्मणत्व
नहीं मिलता। ब्राह्मणत्व तो वेदपठन एवं वेदज्ञान प्राप्त करके ही संपादित किया
जा सकता है, ऐसा कहेंगे; पर हम पूछते हैं कि रावण वेद में पारंगत था पर उसे
राक्षस कहा जाता था, ब्राह्मण नहीं। उस युग के राक्षस वेदपठन करते थे फिर आप
उन्हें ब्राह्मण क्यों नहीं कहते?
सारांश यह है कि आप किस गुण के कारण या किस धर्म के कारण ब्राह्मणत्व निश्चित
करते हैं, यह आप समझते नहीं हैं। ब्राह्मण किसे कहा जाए? इसका आप विचार ही
नहीं करते। कोई एक कसौटी निश्चित करें और उस कसौटी पर जो खरा उतरे वही
ब्राह्मण हो, ऐसा आपका आचरण नहीं है।
मेरे विचार से ब्राह्मण का लक्षण यह है कि वह एक निष्कलंक गुण है। जिसके कारण
पाप घटता है वह ब्राह्मणत्व! व्रततप, दान, शमदम संयम आदि से सुसंपन्न मनुष्य
एवं अविवेक, अहंकार, राग व द्वेष से मुक्त, संग व परिग्रह के लिए अशक्त, दया
जिसका ध्येय, वह ब्राह्मण! इन सद्गुणों के विरुद्ध जो दुर्गुणी व दुष्ट वह
चांडाल! वेदों और शास्त्र में ब्राह्मणत्व का यही सामान्य लक्षण है।
शुक्राचार्य तो इससे भी आगे जाकर कहते हैं कि देवों को जाति की परवाह नहीं
होती, अधमाधम गिनी जानेवाली जाति में जनमे सज्जन व्यक्ति को वे ब्राह्मण कहते
हैं।
सज्जन शूद्र को भी संन्यास का अधिकार नहीं, उन्हें तो द्विजों की सेवा ही
करनी होगी; क्योंकि शूद्र तो नीच है। आपके ऐसे विधान का आधार क्या है? तो कहा
जाता है कि चातुर्वर्ण्य की गिनती में 'शूद्र' शब्द अंत में आता है, इसलिए वह
नीच है ऐसा कहना बचपने का चरम प्रदर्शित करने जैसा है। इतना भी आपको कैसे
ध्यान में नहीं आता, समझ के बाहर है। बोलते या लिखते समय जो शब्द प्रवाह में
आगे-पीछे लिखे-कहे जाते हैं वे उच्च या नीच का प्रदर्शन करने के लिए नहीं
होते। उच्चारण में सहज गति आने के लिए या व्याकरण की दृष्टि से आगे-पीछे रखे
जाते हैं। ऐसे शब्दक्रम का अर्थ यदि हमेशा ऊँच-नीच के अर्थ में लिया तो
क्या-क्या हास्यास्पद स्थिति बन सकती है, देखें-
पाणिनि का एक प्रसिद्ध सूत्र है-'श्वानं युवानं मधवानमाह।' अब इसमें श्वान
पहले आया है तो क्या कुत्ता इंद्र (मधवान) से श्रेष्ठ और इंद्र कुत्ते से नीच
समझा जाए। दन्तौष्ठ समास में 'दंत' पहले आया है इसलिए दाँत होंठों से श्रेष्ठ
होगा क्या? वास्तव में होंठ ज्येष्ठ, दाँतों का जन्म तो बाद का। 'उमामहेश'
कहा जाता है तो क्या उमा को महेश से श्रेष्ठ मानें। वैसे ही ब्राह्मण,
क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र कहने से शूद्र नीच? कितना ही सज्जन हो, पर यदि वह
शूद्र है तो वह दुर्जन है ऐसा कहना बचपना ही तो होगा। शूद्र को इसीलिए संन्यास
का अधिकार भी है।
मनु ने अपने ग्रंथ में, शूद्र नीच होते हैं-ऐसा कहा है, ऐसा आप कहते
हैं-शूद्र स्त्री का स्तनपान जिसने किया है या जिसपर शूद्रिणी ने फूँक मारी है
या जिसकी माँ ही शूद्र हो ऐसे ब्राह्मण कुल को ब्राह्मण जाति में प्रायश्चित्त
लेकर भी प्रवेश मना है। जो शूद्र स्त्री से अन्न-पानी लेता है वह ब्राह्मण इसी
जन्म में शूद्र एवं अगले जन्म में कुत्ता होगा। शूद्र स्त्री को 'राखना' भी
नहीं चाहिए। ऐसा करनेवाला ब्राह्मण मरने पर नरक में जाता है। ऐसी सारी
व्यवस्थाएँ मनु के ग्रंथ में हैं, यह सच है। परंतु उसे सच मानें तो ब्राह्मण
जन्म से ब्राह्मण है और वह कुछ भी करे ब्राह्मण का शूद्र नहीं होता, यह आपका
मुख्य सिद्धांत ही असत्य है। शूद्र सदाचारी हो तो ब्राह्मण हो जाता है और
दुराचारी हो तो ब्राह्मण ही शूद्र हो जाता है-यह हमारा सूत्र ही सत्य है। मनु
ने अपने ग्रंथ में यह भी स्पष्ट किया है कि शूद्रों ने अपने पुण्यशील आचरण से
ब्राह्मणत्व प्राप्त किया है। काठीन मुनि और उर्वशी का पुत्र वशिष्ठ, कुलाल
स्त्री का पुत्र नारद-ये जन्मतः शूद्र होते हुए भी तप और सदाचार से ब्राह्मण
हुए। नीच कुल में जन्म लेकर पुण्य के बल पर स्वर्ग तक पहुँचे, ऐसे लोगों के
चाहे जितने उदाहरण मिलते हैं, उन्हें क्या आप नकार देंगे?
ब्राह्मण के लिए जो मैंने कहा वही क्षत्रिय के लिए भी वैसा-का-वैसा ही लागू
है। बड़े राजा का वंश होते हुए भी सद्गुणों का अभाव हो तो वह क्षत्रिय भी
तिरस्कार के योग्य है-ऐसा मनु कहता है। चार जाति-वर्ण की कल्पना ही असत्य है।
मनुष्य की जाति केवल एक है।
तुम्हीं कहते हो ब्रह्मदेव ने सारी मनुष्य जाति उत्पन्न की, फिर उनमें
एक-दूसरे से रक्तबीज संबंधविहीन चार जातियाँ कैसे निर्मित हुईं? मुझसे मेरी
पत्नी को चार बालक हुए वे सब एक ही जाति के तो होंगे! फिर एक ब्रह्मदेव की चार
संतानें जाति से अलग-अलग कैसे होंगी?
जाति की भिन्नता वास्तव में कैसी होनी चाहिए?
यदि जाति अलग माननी हो तो भेद कैसा होना चाहिए, यह निश्चित करने के लिए
प्राणियों की जातियाँ कैसे निश्चित होती हैं-वही देखना चाहिए। इंद्रियादि रचना
के मूल भेद से ही जाति की विलगता निश्चित होती है। घोड़े का पैर हाथी के पैर
जैसा नहीं होता। शेर की टँगड़ी और मृग की टँगड़ी एक जैसी नहीं होती। इस तरह के
शरीर और इंद्रियों के रचनात्मक मूल भेद के आधार पर ही एक जाति दूसरी से अलग
है, यह निश्चित किया जाता है। पर उसी अर्थ और आधार पर ब्राह्मण और क्षत्रिय की
दो जातियाँ कभी भी नहीं मानी जा सकतीं। उनके पैर उस तरह से अलग-अलग नहीं होते।
बैल, साँड़, घोड़ा, हाथी, गधा, बंदर, बकरा आदि के जनन अंग, रंग, आकार,
ध्वनि, मल-मूत्र तक में इतना मौलिक अंतर होता है कि उनमें प्रत्येक को भिन्न
जाति के रूप में सरलता से पहचाना जाता है। मनुष्य में उसी आधार पर ब्राह्मण,
क्षत्रिय भिन्न जातियों के हैं ऐसा क्या कभी कहा जा सकता है? जैसे पशुओं में
वैसी ही स्थिति पंछियों में। कबूतर, तोता, कौआ, मोर आदि के ध्वनि, रंग,
पंख, जितने मूल रूप में भिन्न होते हैं उतना और वैसा भिन्नत्व क्या कभी
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों में होना कभी संभव है? वृक्षों में
बड़, पीपल, बबूल, अशोक, ताड़, चंपा आदि के तने, पत्ते, फूल, फल, छिलके,
बीज सबकुछ अलग, उनकी जाति अलग। परंतु इसी अर्थ में जाति शब्द से
ब्राह्मण-क्षत्रिय आदि में विभेद करना संभव ही नहीं, इतने ये चारों वर्गों के
लोग अंतर्बाह्य एक-जाति हैं। हड्डी, रक्त, मांस, अवयव आदि लक्षण अभिन्न हैं।
हास्य-रोदन, भाव-भावना, रोग-भोग, जीने-मरने की रीतिकृति, डर के कारण,
कर्मों की प्रवृत्ति आदि इतने एक जैसे हैं कि घोड़ा और बैल में जितनी सहजता से
जातिदर्शक भिन्नत्व दिखता है वैसा भिन्नत्व चार वर्णों के बीच कभी दिख नहीं
सकता, इसीलिए उनके साथ भिन्न जाति का विशेषण लगाया ही नहीं जा सकता और उस
अर्थ में उन्हें एक-जाति ही समझना अनिवार्य है।
गूलर और बड़ के पेड़ों में डाली, तना, टहनी, जड़ सब स्थानों पर फल लगते
हैं, लेकिन डाली पर लगा फल तने या जड़ पर लगे फल से रंगाकृति, स्पर्श, रस
में बिलकुल समान होता है और इसीलिए वे फल एक ही हैं-ऐसा हम समझते हैं। अलग जाति
के नहीं मानते। टहनी के सिरे पर लगे गूलर को ब्राह्मण गूलर कहें क्या? उसी
तरह आप कहते हैं कि ब्रह्मदेव के शरीर के अलग-अलग भाग से ब्राह्मण, शूद्रादि
उत्पन्न हुए, ऐसा मान भी लें तो भी उन्हें भिन्न जातीय कैसे माना जा सकता है?
वे अलग-अलग जातियों के कैसे होंगे?
वैशंपायन-धर्मराज संवाद
महाभारत में वैशंपायन और धर्मराज के बीच हुई एक चर्चा इसी संदर्भ पर अच्छा
प्रकाश डालती है, उसे देखें। धर्मराज ने प्रश्न किया-"हे वैशंपायन ऋषि! आप
ब्राह्मण किसे कहते हैं और ब्राह्मण के लक्षण क्या हैं?" इस प्रश्न के उत्तर
में वैशंपायन अंत में कहते हैं- "युधिष्ठिरजी, सत्य, दया, इंद्रिय दमन,
परोपकार एवं तपाचरण ये गुण जिसमें हैं उसे मैं ब्राह्मण समझता हूँ, जिसमें इन
गुणों का अभाव है उन्हें शूद्र। ये पाँच गुण माने ब्राह्मणत्व। यदि ये गुण किसी
चांडाल में हों तो वह भी ब्राह्मण ही है। पहले भूलोक पर एक ही जाति थी, फिर
आचार, कर्मादि भिन्नत्व बढ़ने से चातुर्वर्ण्य की व्यवस्था स्थापित हुई।
'एकवर्णमिदं पूर्वं विश्वमासीत् युधिष्ठिर। कर्मक्रियाप्रभेदेन चातुर्वर्ण्य
प्रतिष्ठितम्॥' सब मानवों की उत्पत्ति स्त्री से एक ही पद्धति से होती है,
सबकी दैहिक आवश्यकता, अंतरइंद्रिय एक जैसी होती हैं अर्थात् जाति अलग न होकर
जिसका आचरण अच्छा वह ब्राह्मण, बुरा वह शूद्र अर्थात् आचरण सुधारते ही वह
शूद्र तत्काल ब्राह्मणत्व का अधिकारी हो जाता है। हे राजा! इसलिए इंद्रिय मोह
से अलिप्त और सद्शील शूद्र को दान देना सत्कृत्य ही है और स्वर्ग प्राप्ति
करानेवाला भी। जाति का विचार असत्य, सद्गुणों पर ही ब्राह्मणत्व अधिष्ठित है।
जो दूसरे के कल्याण के लिए दिन-रात लगा रहता है वह ब्राह्मण, जो जीवन
सद्कृत्यों में खपाता है वह ब्राह्मण, क्षमा, दया, सत्य, शौच, ज्ञान
विज्ञान से जो युक्त वह ब्राह्मण।"
'महाभारत' ग्रंथ में वैशंपायन ऋषि ऐसा कहते हैं। मित्र, आप भी इसे समझें, उस
सत्मार्ग पर चलें।
अज्ञान दूर हो इसलिए मैं, अश्वघोष ने यह प्रवचन किया। पट गया आपको तो ठीक,
किसी ने उसे जान-बूझकर टाल दिया तो भी मैं उसका बुरा न मानूँगा। इति वज्रसूची।
उपर्युक्त प्रवचन द्वारा अश्वघोष ने प्राचीन काल में प्रचलित आक्षेपों आदि का
निराकरण उस काल की तर्क पद्धति के अनुसार किया है अर्थात् उस प्राचीन लेख को
तत्कालीन मानकों पर ही देखा जाना चाहिए, यह कहने की आवश्यकता नहीं। उपर्युक्त
लेख में जन्मजात चातुर्वर्णीय जातिभेद के विरुद्ध जो-जो तर्क प्रस्तुत किए गए
हैं उन्हें आज की परिस्थिति में पढ़ते समय उनमें जो कमियाँ हैं उस ओर भी
दुर्लक्ष नहीं होना चाहिए। उसमें एक कमी ऐसी है जिसकी उपेक्षा नहीं की जा
सकती। वह यह कि उसमें ब्राह्मण जाति ही सारी ऊहापोह का केंद्र है। परंतु
वास्तव में ब्राह्मणों को दिए हुए उत्तर क्षत्रियों से निम्न वर्णों को पैरों
तले कुचलनेवाले क्षत्रियों पर भी यथावत् लागू होते हैं। वैश्यों में भी ऊपर के
ब्राह्मण-क्षत्रियों को पीड़क वर्णाहंकारी आदि गाली देनेवाले हैं तो शूद्र,
अस्पृश्य आदि निम्न वर्णों को अपनी उच्च बनियायी का पानी दिखाकर नीच वर्ण के
ब्राह्मण बननेवाले लाखों वैश्य भी हैं। शूद्रों में भी 'त्रैवर्णिकोने'
जातिभेद का ढोंग फैलाकर हमें नंगा किया, कहनेवाले शूद्र भी उनसे निम्न शूद्र
उपजातियों को उसी जातिभेद के उसी ढोंग से हीन दरशाने से नहीं चूकते।
मंदिर प्रवेश के लिए महाराष्ट्र में शूद्रों द्वारा किए गए सत्याग्रह में
सत्याग्रहियों के सिर पर लाठी मारनेवालों में अनेक 'मराठे' भी थे। नासिक के
राममंदिर सत्याग्रह में अस्पृश्यों को मंदिर में प्रवेश न करने देनेवाले महा
कट्टर विरोधी लोगों में केवल पंडित नहीं थे अपितु सेठजी और रावजी भी थे।
अस्पृश्य घोडे पर न बैठे, यह अधिकार केवल क्षत्रियों का है, ऐसा अहंकार
दरशानेवाले अनेक क्षत्रिय राजाओं ने अस्पृश्यों को कठोर दंड दिए हैं।
राजपूताने में गत दो वर्षों में कई-कई बार मारपीट किए जाने की घटनाएँ हुई हैं।
एक शिक्षित मराठा कन्या द्वारा उच्च वर्णीय कुल में प्रेमविवाह करने की ठानने
पर जातिगंगा भरकर उसके विरुद्ध मारपीट की धमकी देने तक बात बढ़ी और हिंदूसभा
में उसकी शिकायत की गई। 'पांडव प्रताप' नामक ग्रंथ का उत्सव कर शोभायात्रा
निकालनेवाले महारों पर शूद्रों के लाठी चलाने की घटना तो अभी ताजा ही है। गाँव
खेड़े की पाठशालाओं में हमारे बच्चे के पास चमार, भंगी के बच्चे को नहीं
बैठने दिया जाना या मारपीट तो बहुत ही सामान्य सी बात है। द्विजों के साथ
एकासन करनेवाले शूद्र को दंडनीय कहनेवाले स्मृतिग्रंथों को गंदी गालियाँ
देनेवाले शूद्र स्वयं के साथ अस्पृश्यों को एकासन करने नहीं देते। अधिक क्या
कहें, अस्पृश्यों में भी निम्न जाति पर वही अन्याय उसी उच्च जातिमत के सूत्र
से वे करते हैं, जो अन्याय ब्राह्मणों ने उनपर किए, इसलिए ब्राह्मणों से
निम्न ब्राह्मणों को और अस्पृश्य स्पृश्यों को गालियाँ देते आए हैं। इस तरह
सीढ़ी का हर ऊँचा डंडा अपने से नीचे डंडे को डंडा दिखाकर अपना उच्चत्व सिद्ध
करता है।
नासिक में राममंदिर में घुसेंगे-ऐसा कहते ही ब्राह्मण, वैश्य, मराठों ने
महारों की पिटाई की और उस असमानता के लिए सात्त्विक एवं न्याय्य गुस्से से लाल
महारों के मंदिर में यदि भंगी वैसा ही सत्याग्रह कर घुसने लगें तो वे ही महार
उसी असमानता के झंडे की रक्षा करने के लिए भंगियों को पीटने से बाज नहीं
आएँगे। रायगढ़ किले पर गत माह शिवाजी उत्सव के अवसर पर महार सहभोजन के लिए आए,
इसलिए कुछ मराठा और ब्राह्मण उठकर चले गए। वैसे ही महारों की सार्वजनिक पंगत
में भंगी लोगों के घुसते ही महार भी उनका प्रतिकार करने से चूकते नहीं।
इस तरह जातिभेद के पागलपन का दोष ब्राह्मण, क्षत्रिय या स्पृश्यों पर डालना
केवल पक्षपात है। इस रोग से भंगियों तक हर जाति ग्रसित है। जाति अहंकार का रोग
सबमें है। उसकी जो भी गालियाँ कोई ब्राह्मण या क्षत्रियों को देना चाहता है वह
गालियाँ वास्तव में समान रूप से भंगियों तक हर जाति में बाँट देनी चाहिए।
मजे की बात यह कि इस जन्मजात जातिभेद के रोग को नष्ट करनेवाले सुधारकों में
प्रमुख सुधारक ब्राह्मण ही थे; बुद्ध ने अपने बाद अपने संघ का पूरा बोझा एवं
संचालकत्व का अधिकार एक ब्राह्मण को सौंपा था। वैसे ही मरने के पूर्व
'पीठाधिष्ठानवसन' के स्वयं को प्राप्त अधिकार अपने जिस पट्ट शिष्य को सौंपे
वह महाकाश्यप एक ब्राह्मण था। बौद्ध पंथ के बड़े-बड़े ग्रंथकार, सूत्रकार,
प्रचारक, भिक्षु भी ब्राह्मण ही थे। वैष्णव संतों में अनेक प्रमुख आचार्य
चैतन्य प्रभु, ज्ञानेश्वर, एकनाथ, रामकृष्ण परमहंस सारे ब्राह्मण थे। आर्य
समाज के संस्थापक दयानंद, ब्रह्म समाज के अध्वर्यु टैगोर, प्रार्थना समाज के
रानडे ब्राह्मण थे। उसी तरह अनेक क्षत्रिय, अनेक वैश्य, अनेक शूद्र जैसे
रोहिदास, चोखा, नंद तिरुपेल्लुयर जैसे अनेक अस्पृश्य भी महान् सुधारक हो गए
हैं और हो रहे हैं।
अर्थात् ब्राह्मणों में, भंगियों में जाति अहंकारी, विषमतावादी, पीड़क जैसे
मिलते हैं वैसे ही उसी अनुपात में जातिभेद नष्ट करने के इच्छुक समतावादी,
सुधारक भी मिलते हैं। ब्राह्मण या क्षत्रिय ही लुच्चे और अन्य सब बड़े
परोपकारी, साधु, समतावादी, सज्जन ऐसा कहनेवाला जातिभेद नष्ट करने का इच्छुक
व्यक्ति जातिद्वेष का ही कार्य करता है, जाने-अनजाने जातिभेद ही सत्य है यह
सिद्ध करता है। क्योंकि ब्राह्मण या अन्य कोई भी जाति जन्मतः और पूरी जाति ही
खराब एवं अन्य जाति पूरी और जन्मतः ही पक्की तरह अच्छी, ऐसा कहें तो जातियाँ
केवल मानी हुई, केवल पोथीजात न होकर वास्तविक जन्मजाति हैं, उनमें जन्मजात
ऐसा कोई विशिष्ट विभेद है यही सिद्ध होता है।
ब्राह्मणों की या भंगियों की जाति में सब ही बुरे या सब ही अच्छे जन्मतः ही
विभाजित नहीं होते। ऐसा कहनेवाले किसी पगले का वह आक्षेप मूलतः झूठा और
द्वेष-दूषित होता है। सारी जातियाँ मूलतः भिन्न नहीं हैं। जातिभेद जन्मतः नहीं
होता, केवल मानो हुआ, पोथीजन्य है यही निश्चित होता है।
अश्वघोष द्वारा लिखित 'वज्रसूची' में ये सारे सिद्धांत सूचित हैं, पर उचित
स्पष्टीकरण के लिए हमने उपर्युक्त स्पष्टीकरण दिया है।
(किर्लोस्कर)
प्रकरण-८
मुसलमानों के पंथ-उपपंथों का धर्मविज्ञान दृष्टि से तुलनात्मक परिचय
हिंदू धर्म में घुसे हुए जन्मजात जातिभेद, अस्पृश्यता आदि रूढ़ियों की तरफ
अंगुली दिखाकर मुसलमान प्रचारक भोले-भाले हिंदुओं को कहते रहते हैं कि तुम
मुसलमान बनो! हम में जातिभेद, पंथभेद नहीं है। हमारा धर्मग्रंथ एक, पैगंबर
एक, पंथ एक, हमारे धर्म में सारे मुसलमान एक समान, कोई ऊँच-नीच नहीं। मुसलिम
मौलवियों का यह वाग्जाल कितना तथ्यहीन है यह दिखाने के लिए हम मुसलिम धर्मपंथ
की सत्य जानकारी देनेवाले एक-दो लेख लिख रहे हैं।
किसी एक धर्म का पक्षपात या पक्षघात करने की अन्यायी एवं अहितकारी दुर्बुद्धि
न रखते हुए केवल 'सत्य' (जो है उसका यथावत् ज्ञान) ही सब धर्मों के अध्ययन की
न्यायिक एवं हितकारी कसौटी है-यह मानकर जिसे सब धर्मों का स्वतंत्र अध्ययन करना
हो, उसे जो पहला सूत्र सीखना चाहिए या जिस शर्त का पालन करना चाहिए वह यह है
कि मनुष्यजाति में अज्ञान युग के हाटेटांट अंदमानी द्वीपों के धर्ममत को लेकर
अत्युच्च वेदांत विचार तक, जो भी धर्ममत प्रचारित हुए या हो रहे हैं, वे
सारे अखिल मानवजाति की सामूहिक संपत्ति हैं; उस विशिष्ट परिस्थिति में मनुष्य
के हितार्थ सूझी हुई, ऐहिक एवं पारलौकिक कल्याण के लिए रचित वह योजना होने से
वे प्रयास अखिल मानवजाति के कृतज्ञ आदर के पात्र हैं। ऐसी ममत्व एवं समत्व की
सादर भावना से ही उन सब धर्ममतों का अध्ययन करें, उनके धर्मग्रंथों को पढ़ें,
उन सारे धर्मग्रंथों का सम्मान करें।
हर उस धर्ममत में जो भी चिरंतन सत्य हो उसको स्वीकार करने में हम सबका हित है।
जो कुछ उस परिस्थिति में सत्य लगा या उस संघ को उस काल सीमा में हितकर था,
परंतु आज जो विज्ञान की शोध ज्योति के झकाझक प्रकाश में निश्चित सत्याभास है
कि आज की परिस्थिति में वह मनुष्य-हित में बाधक है उसका त्याग करने में ही हम
सबका हित है। उस सबको त्यागना सत्य के शोधकर्ता का और मनुष्य के उद्धार के लिए
प्रयासरत रहने के इच्छुक प्रामाणिक साधक का कर्तव्य है, धर्म-कर्तव्य है।
कारण कुछ भी हो, परंतु जो ऐहिक एवं पारलौकिक धारण करता है वह धर्म
है-'धारणात् धर्ममित्याहुः'। धर्म की यह व्याख्या इतनी सुसंगत और बुद्धिनिष्ठ
है कि उसे नकारने का साहस धर्म-उन्मादियों को भी सहसा न होगा।
अर्थात् किसी भी धर्ममत में या धर्मग्रंथ में 'यह' ऐसा है इसलिए वह सत्य एवं
कृत्य होगा ही, ऐसी किसी अध्ययनकर्ता की बुद्धि को पहले कदम पर ही पंगु बना
देनेवाली किसी प्रतिज्ञा से धर्माधर्म का तुलनात्मक अध्ययन करने का इच्छुक
विज्ञानवादी स्वयं को बाँधकर नहीं रखेगा। वेद के अध्ययन के प्रारंभ में ही यदि
'वेद ईश्वरकृत है और इसलिए इसका हर अक्षर सत्य ही होगा। उसके किसी भी अक्षर को
असत्य कहनेवाला नरक में जाएगा।' ऐसी प्रतिज्ञा स्वीकार करने पर अवेस्ता,
तौलिद, बाइबिल, कुरान आदि अन्य धर्मग्रंथों का पक्षपातरहित दृष्टि से अध्ययन
करना संभव न होगा। वैसे ही कुरान ईश्वरकृत है, इसलिए उसका हर अक्षर सत्य। यदि
सहज झूठ ही कहा जाए कि तू मरने पर नरक में नहीं जाएगा, यहीं-के-यहीं तुम्हें
मार डालना चाहिए तो ऐसी प्रतिज्ञा करना तर्क न होकर लाठी मार ही होगा। जो ऐसा
मानेगा उसे कुरान के बाद अन्य धर्मग्रंथों का अध्ययन करना संभव नहीं होगा।
उन्हें तो अधर्मग्रंथ के रूप में पढ़ा जा सका तो पढ़ा जा सकेगा।
परंतु विकृत पूर्वग्रह स्वीकार करने से साफ इनकार करनेवाला विज्ञानवादी वेद,
अवेस्ता, कुरान आदि हर ग्रंथ को पक्षपातरहित दृष्टि से और उस ग्रंथ में
प्रवृत्ति-निवृत्ति पर हुए लेखन ने उस काल में जो मनुष्यजाति की सापेक्ष
उन्नति की होगी, उसे परखकर एक सीमा तक कृतज्ञता से अध्ययन करने को मुक्त
रहेगा। अरस्तू, प्लेटो, चाणक्य, ह्यूम, हस्कले, हेगेल, मार्क्स आदि के
धर्म दीवानेपन की कक्षा में न समानेवाले जागतिक ग्रंथों को उसमें निहित भिन्न
मतवाद से या आज कच्चे लगनेवाले भौतिक विधेयों से विषाद न करते हुए जैसे ममत्व
बुद्धि से, समतोल बुद्धिवाद की कसौटी पर परखते हुए, निर्भयता से उसे मानवजाति
की संयुक्त संपत्ति मानते हुए, उनका सम्मान करते हुए हम सब पढ़ते हैं, वैसे
ही यदि हम सब वेद, अवेस्ता, बाइबिल, कुरान आदि सारे धर्मग्रंथों को उसी
वैज्ञानिक एवं ऐतिहासिक दृष्टि से पढ़ें तो उनके तुलनात्मक अध्ययन से हर उस
ग्रंथ के सैद्धांतिक सत्य एवं उपयुक्त आचार स्वीकार करने के लिए अधिक खुलेपन
से तैयार हो जाएँगे और उन ग्रंथों के नाम पर धर्म के पागलपन में जो कत्लेआम
एवं रक्तपात हुए उनके होने की आशंका भी नहीं रहेगी। विज्ञान ग्रंथों
(Scientific Works) को पढ़ते हुए जैसे विद्युत् या रेडियम के उत्पत्ति-सूत्र
में मतैक्य न होते हुए भी रक्तपात होने की आशंका जन्म नहीं लेती।
मिल्टन, होमर, वाल्मीकि, उमर आदि के काव्य; कांट, स्पेंसर, कपिल,
स्विनोसा आदि के तत्त्वज्ञान के ग्रंथ, इतिहास ग्रंथ, विद्युत् प्रकाश,
ऊर्जा आदि के वैज्ञानिक ग्रंथ, यंत्रविद्या, वैद्यक, शिल्प, उपन्यास आदि
के लाखों ग्रंथ विश्व में कहीं भी लिखे गए हों, उन सभी को संयुक्त विश्व की
साझा संपत्ति मानकर ममत्व और समत्व से, शांति से पढ़ा जाता है। ऐसा नहीं होता
कि ग्रंथालय में पढ़ते-पढ़ते एकाएक जोश में आकर आपस में भिड़ जाएँ। वैसे ही ये
दस-पाँच धर्मग्रंथ हम क्यों नहीं पढ़ सकते? इन दस-पाँच पुस्तकों के कारण
पिछली दस-पाँच सदियों में सिवाय रक्तपात, उत्पात और विध्वंस के कुछ नहीं हुआ।
आदमी आदमी का बैरी हो गया। ऐसा तो किसी अधर्म ग्रंथ के कारण होना था,
धर्मग्रंथ से तो नहीं।
बुद्धिवाद के विरुद्ध आक्षेप
किसी भी विषय के ग्रंथों को अपने तर्कशुद्ध बुद्धिवाद से जैसे हम परखते हैं
वैसे ही उपर्युक्त सारे धर्मग्रंथों को ममत्व और समत्व से सादर पढ़कर विज्ञान
की अद्यतन कसौटी पर उन्हें परखें और जो उत्तम है उसे मानव की सामूहिक संपत्ति
मानकर हम सब स्वीकार करें।
हमारी उपर्युक्त सूचना पर एक निश्चित आक्षेप जो किया जाता है और जो शब्दनिष्ठ
प्रवृत्ति का होता है, वह यह कि 'पुरुषबुद्धि अधिकतर हर व्यक्ति की भिन्न
होती है, वह अस्थिर और परिवर्तनशील भी होती है इसलिए मनुष्य को ऐसा कोई ठोस
आधार नहीं मिलता।' पुरुषबुद्धि स्खलनशील परंतु ईश्वरीय आज्ञा अस्खलनशील,
त्रिकाल बाधित होती है इसलिए किसी एक ईश्वरोक्त ग्रंथ को प्रमाण न मानने पर
मानव की जीवननौका बिना पतवार बिना गंतव्यबोध के भटकने लगती है। अच्छे-बुरे के
बारे में पक्का निर्णय, अभिमान तोड़ सके ऐसा अंतिम प्रमाण मिलना कठिन हो जाता
है।
ऐसा कोई निश्चित प्रमाण ईश्वर ने सचमुच ही दिया होता तो कितना अच्छा होता,
परंतु...
वेद, अवेस्ता, कुरान, बाइबिल ये सब ईश्वरप्रणीत ग्रंथ हैं ऐसा मानें तो भी
उपर्युक्त आक्षेप की आपत्ति नहीं टलती। यही मुख्य बाधा है, क्योंकि ईश्वर
निर्मित, अपौरुषेय, ईशप्रेषित ऐसे जो पचास-पचहत्तर ग्रंथ भिन्न-भिन्न मनुष्य
समुदाय ने स्वीकृत किए हुए हैं वे अत्यंत पारस्परिक विधानों से भरे हुए हैं।
इन सारे ग्रंथों में से हर ग्रंथ बिना विवाद जो एक बात कहता है वह यह कि वह
एकमात्र ग्रंथ ईशप्रेषित परम प्रमाण है, और शेष सारे पाखंड हैं।
उपर्युक्त में से वेद, कुरान किसी को भी ईश्वरोक्त समझ लें तो भी बात बनती
नहीं है, क्योंकि यही एक ईश्वरोक्त है और अन्य मनुष्यकृत, यह कौन निश्चित
करेगा? पुरुषबुद्धि ही तो? परंतु जिस किसी तर्क से वे अन्य ईश्वरोक्त नहीं
हैं ऐसा निश्चित करें तो उन तर्कों से एक भी ग्रंथ ईश्वरोक्त नहीं है-यही
सिद्ध होता है।
तर्क पद्धति को तिलांजलि देकर केवल लाठी से भैंस हाँकने के न्याय से कोई एक
ग्रंथ मनुष्य समाज पर लादा जाए और कहा जाए कि यही ईश्वरोक्त, स्वयं प्रमाण है
और शेष सारे ग्रंथ झूठ हैं-ऐसा लाठी फरमान हो तब भी पुरुषबुद्धि फिर से अपनी
हरकतें शुरू करने और स्वयं प्रमाण ग्रंथ से स्वयं के हाथ की गुड़ियाँ बनाने का
काम छोड़ेगा नहीं। क्योंकि एक ग्रंथ के अर्थ तो अनेक होते हैं। इस आपत्ति से
मुक्ति नहीं मिलती। इससे मुक्ति का एक ही उपाय था और वह यह कि स्वयं ईश्वर एक
ही ग्रंथ ईश्वरोक्त कहकर सब जगह भेजता और उसी के साथ उस ग्रंथ के हर अक्षर का
एक ही अर्थ मानव को सूझना अनिवार्य कर डालता, दूसरा अर्थ सूझे ही नहीं, ऐसी
पुरुषबुद्धि कर डालता। तब केवल एक ही ग्रंथ ईश्वरोक्त रहता और हमेशा रहता। पर
वैसी कोई व्यवस्था ईश्वर ने की नहीं। इसलिए एक ही ग्रंथ को अहं प्रमाण, स्वयं
प्रमाण, ईश्वरोक्त प्रमाण के रूप में मानें तो भी उसका भाष्य करने का काम
चूँकि उस पुरुषबुद्धि को ही करना पड़ता है जो बहुत भिन्न, अस्थिर, अप्रतिष्ठ
होती है, इसलिए एक ही ग्रंथ में अनेकता, अस्थिरता, विविधता आती है और ग्रंथ
अप्रतिष्ठित हो जाता है।
उदाहरणार्थ, पहले वेद को लें। वेद अपौरुषेय हैं पर 'प्रमाणं परमं श्रुतिः'
माननेवाले करोड़ों धर्म-जिज्ञासु हिंदुओं के लिए 'वेद' एक धर्मकेंद्र होते
हुए भी उसके हर मंत्र और हर शब्द की अर्थ भिन्नता से अनेक वेद हो जाते हैं।
पुरुषबुद्धि के सिवाय उसका अर्थ लगाने का दूसरा साधन मनुष्य के लिए उपलब्ध न
होने से जितने पुरुष उतने वेद, उतने पंथ, उतने ही भिन्न प्रमाण होते हैं। एक
कहता है वेद में पशु यज्ञ है, दूसरा कहता है नहीं ऐसा नहीं है। तीसरा तीसरे ही
विकल्प की बात करता है। एक को मांशासन, जन्मजात अस्पृश्यता, मूर्तिपूजा,
केशवपन, वेदांत आदि वेद में हैं ऐसा लगता है; उसी वेद के उसी मंत्र के आधार
पर ये सब आचार प्रथा वेदबाह्य है-ऐसा दूसरे को लगता है। बहुतकाय ईश्वर एक है
यह वेद के आधार पर एक पक्ष उच्च स्वर से कहता है तो मीमांसा आदि पंथ भिन्न
पुरुष के पार या देवता के पार ईश्वर है ही नहीं, ऐसा कहते हैं। कोई वेद का
आधार लेकर संन्यासियों की निंदा करता है तो 'यदहरेव विरजेत। तदहरेव प्रव्रजेत।
वनाद् वा गृहाद्वा॥' ऐसा वेद आधार पर ही अन्य पंथ मानते हैं। एक मजे की बात यह
कि यह सारी एक-दूसरे से भिन्न बातें कोई ऐरा-गैरा नहीं कह रहा, ये तो यास्क,
कपिल, जैमिनी, शंकर, रामानुज से लेकर दयानंद तक बड़े-बड़े आचार्य कहते हैं।
वे सब स्थितप्रज्ञ, योगी, सिद्ध, साक्षात्कारी थे। कौन सच, कौन झूठ, कैसे
चुनें? चुने बिना कैसे रहें? और चुनाव तो पुरुषबुद्धि से ही होगा। अंतिम बात
यह कि यद्यपि वेद ग्रंथ अक्षर रूप में एक हैं फिर भी अर्थ रूप से जितने
टीकाभाष्य और अर्थकार उतने शताधिक वेद हो जाते हैं।
सारांश, पुरुषबुद्धि को टालने के लिए एक ग्रंथ को परम प्रमाण ही नहीं अपितु
ईश्वरोक्त प्रमाण मान लेने पर भी मनुष्य को ऐहिक और पारलौकिक पथ-प्रदर्शक
पुरुषबुद्धि के सिवाय दूसरा कोई भी मिलना संभव नहीं है।
अंतर इतना ही है कि पुरुषबुद्धि से जो तर्क प्रतिष्ठ लगेगा वही लेंगे, ऐसा
स्पष्ट कहने के बाद भी अन्य ग्रंथों की तरह वेद, कुरान, बाइबिल आदि ग्रंथ भी
पढ़े और अनुसरण किए तो मतभेद होने पर वह गाली-गलौज, लाठी-डंडा चलने तक जाने
की आशंका बहुत अधिक नहीं होती। वैज्ञानिक ग्रंथ पढ़ और परिस्थिति के अनुसार
उसका सामना करने या पैंतरा बदलने के लिए आदमी स्वतंत्र रहता है, पर ईश्वरोक्त
वेद का मैं करूँ वही अर्थ ईश्वरोक्त है, ऐसा कहने और ऐसा ही मानते हुए वेदपठन
और उसपर आचार करने का दुराग्रह रखा तो मेरा जो विचार वही ईश्वर का विचार ऐसा
खुराफाती अहंकार पालनेवाला व्यक्ति धार्मिकता के नशे में झूमने लगता है और वेद
का अर्थ करने का ठेका मेरा, तेरा नहीं, ऐसा चिल्लाते हुए मनुष्य मनुष्य का
भयानक शत्रु हो जाता है और विचार व्यक्त करने का स्थान व्यक्ति को ही नामशेष
करने में हो जाता है। मेरा विचार मेरी मानवीय बुद्धि के अनुसार है यह भावना मन
में रहे तो व्यक्ति धार्मिकता में पगला न जाए जितना कि वह यह मानने पर हो जाता
है कि मेरा कहा-ईश्वर का कहा है। इस भाव से तो वह उन्मादी हो जाता है।
सर्वसामान्य व्यक्ति पर लागू होनेवाला यह सत्य नकारा नहीं जा सकता।
परंतु जिन्हें ऐतिहासिक और बुद्धिनिष्ठ दृष्टि से इन धर्मग्रंथों का अध्ययन
करना होता है, उन्हें भी उन मंत्र उद्गाता ऋषियों या ईसा, मूसा, मोहम्मद
आदि बड़े-छोटे शताधिक पैगंबरों द्वारा प्रेषितों के, संतों और साधुओं के
अंत:स्फूर्त संदेश ईश्वर ने स्वयं ही कहे हैं ऐसा पूर्ण निश्चय था, उन महान्
पैगंबर, साधु, संत, ऋषि, महर्षि आदि से व्यक्तिपरक चर्चा करने का कोई कारण
नहीं है। उन महान् विभूतियों की वह निष्ठा सच्ची थी, उन्हें वे स्वयं ही
ईश्वर के अवतार या ईश्वर के प्रेषित, पैगाम लानेवाले हैं ऐसा जो लगता था वह
उनके लिए एक सत्य ही था, ढोंग नहीं था-ऐसा मानते हुए भी हम विज्ञाननिष्ठ
अध्ययनकर्ताओं को वे धर्मग्रंथ, शब्द-शब्द की निष्ठा से न पढ़कर जैसेकि कोई
मनुष्यकृत ग्रंथ पढ़ा जाता है वैसे ही तर्क की कसौटी पर कसते हुए पढ़ने की
स्वतंत्रता का उपभोग करने का अधिकार है ऐसा लगता है।
बुद्धि की स्वतंत्रता कहकर इसका उपभोग चाहते हैं। इन ग्रंथों का पुरुषबुद्धि
से ही अध्ययन करना संभव है-ऐसा स्पष्ट कहते हैं। परंतु ग्रंथों को
ईश्वरप्रेषित या अपौरुषेय माननेवाले लोग उनका भाष्य करते समय अवशता से, न
कहते हुए पर समझते-बूझते हुए अंत में पुरुषबुद्धि की ही शरण जाते हैं इतना ही
केवल अंतर है।
ग्रंथ को मनुष्यकृत मानकर पुरुषबुद्धि के साफ चश्मे से पढ़ना या ग्रंथ को
ईश्वर-रचित मानकर उसका अर्थ उसी पुरुषबुद्धि के मैले चश्मे से पढ़ना परिणाम की
दृष्टि से एक ही बात है। शब्द से वेद चाहे एक ही हो, पर अर्थ के भाव से जितने
आचार्य, जितने भाष्यकार,
जितने स्मृतिकार या जितने वाचक उतने वेद हो जाते हैं। यह तो हुई वेदों की बात,
पर यह बात अकेले वेद की नहीं है। मानवजाति में जो-जो ग्रंथ ईश्वरीय माने गए
हैं या माने जाएँगे उन सबकी यही गति होगी। तर्कतः वह अपरिहार्य है, वस्तुतः
वैसा ही घटित भी हुआ है।
इसके दूसरे उदाहरण के रूप में इस लेख में प्रख्यात ग्रंथ 'पवित्र कुरान'
(करानशरीफ) का इसी संदर्भ में इतिहास देखें। वेद में से शताधिक पंथ बने, उन
सबने वेद के अपने-अपने भिन्न अर्थ माने और इस तरह प्रत्यक्ष में शताधिक वेद
ग्रंथ बने, यह सारी कहानी अपने घर की ही होने के कारण काफी कुछ परिचय की है।
पवित्र बाइबिल, जिसको वेद जैसा ही अपौरुषेय, ईश्वरप्रेषित मानकर सम्मान किया
गया, वह ग्रंथ भी शब्दश: एक ही ग्रंथ है तब भी अर्थभाव से उसके सैकड़ों बाइबिल
कैसे बने यह भी, यूरोप के इतिहास का जिन्हें काफी परिचय है ऐसे शिक्षित वर्ग
को, काफी कुछ ज्ञात है। परंतु हमारे निन्यानबे प्रतिशत हिंदुओं को और
हिंदुस्थान के लाखों मुसलमानों को यह निश्चित ज्ञात नहीं कि ईश्वरोक्त कहने के
कारण सम्मानित मनुष्य जाति के एक और प्रख्यात और सुप्रतिष्ठित ग्रंथ की,
कुरानशरीफ की भी, वही गत बनी हुई है। कुरानशरीफ शब्दशः एक ही ग्रंथ है, फिर
भी भिन्न-भिन्न संप्रदाय उसके हर वाक्य और मतितार्थ का भिन्न ही नहीं अपितु
अन्योन्य विरोधी अर्थ अपनी पुरुषबुद्धि की अपरिहार्य दृष्टि से करते आए हैं और
इसीलिए अर्थभाव से एक कुरान के शताधिक कुरान बने हैं। उन भिन्नार्थवादी
पंथ-उपपंथों में से किसके द्वारा लगाया जानेवाला भावार्थ सत्य है, यह प्रश्न
हमारे सामने नहीं है। उनमें से कुछ प्रमुख पंथों ने कुरान के एक ही विधेय के
कितने विभिन्न अर्थ किए हैं। यह वास्तविकता है और जो वास्तविकता है उसे
स्थालीपुलक न्याय के अनुसार दिखाना ही इस लेख का उद्देश्य है।
इसी संदर्भ में जानकारी देने के लिए प्रथम श्रेणी के प्रमाणित ग्रंथकारों का
ही आधार लिया गया है। अंग्रेजी में कुरान का अनुवाद करनेवाले जॉर्ज सेल,
कुरान के मराठी अनुवादक के समान ही यूरोप को मान्य होगा, ऐसी नई दृष्टि से
कुरान का अर्थ देते हुए अंग्रेजी में उसका अनुवाद करनेवाले इंग्लैंड के
प्रख्यात इसलाम प्रचारक डॉ. मोहम्मद साहेब, इसलाम संस्कृति के प्रगाढ़
अध्ययनकर्ता जस्टिस अमीर अली आदि नामवर इसलाम धर्म, इतिहास एवं संस्कृति आदि
के लेखक वर्ग के ग्रंथों का हमने जो काफी वर्षों से अध्ययन किया, उसी आधार पर
निम्न जानकारी का, हर शब्द का सावधानी से सहारा लिया है। जो चाहे वह उस
जानकारी की जाँच कर सके इसीलिए लिये गए आधार का उल्लेख यहाँ कर रहा हूँ।
यथावत् जानकारी देते हुए मेरा स्वयं का मत-प्रदर्शन कोष्ठक में दिया जाएगा।
पवित्र कुरान की संक्षिप्त रूपरेखा
'कुरान' शब्द का अर्थ-पढ़ने योग्य, पाठ्य या संकलन होता है। समय-समय पर
ईश्वर की ओर से मोहम्मद साहेब को जो संदेश प्राप्त हुए वे फुटकर संदेश जिसमें
इकट्ठा किए गए वह संचय, संग्रह, संकलन माने कुरान। पैगंबर का अर्थ होता
है-पैगाम (संदेश) लानेवाला, ईश्वरीय संदेश लानेवाला, ईशप्रेषित। कुरान के एक
सौ चौदह अध्याय हैं-अध्याय को 'सूदा' कहा जाता है। हर अध्याय के श्लोक को
आयत कहा जाता है। कुरान की मूल सात अलग-अलग प्रतियाँ ज्ञात थीं। दो मदीना
पंथी, तीसरी मक्का पंथी, चौथी कूफा में प्रचलित, पाँचवीं जिसे बाम्रा में
सम्मान प्राप्त है, छठवीं सीरिया की और सातवीं सर्वसाधारण में प्रचलित। इन
प्रतियों की श्लोक संख्या भी अलग-अलग है। एक में छह हजार श्लोक हैं, तो दूसरी
में छह हजार दो सौ छत्तीस।
यहूदी लोगों की तरह ही मुसलमानों ने पवित्र कुरान के शब्द सत्रह हजार छह सौ
उनतालीस और अक्षर तीन लाख तेईस हजार पंद्रह गिने हैं। इतना ही नहीं अपितु हर
अक्षर कुरान में कितनी बार आया है उसकी भी गिनती की गई है अर्थात् इन संख्याओं
को विवादास्पद माननेवाले आचार्य हैं ही।
कुरान के कुछ अध्यायों के प्रारंभ में जिनका कोई रूढ़ अर्थ नहीं है ऐसे दो-चार
अक्षर होते हैं। उस प्रयोग का क्या हेतु है यह जानने, यहूदी लोगों के
धर्मग्रंथों की तरह ही मुसलमान धर्मशास्त्री मतभेद के भँवर में फँसे हुए हैं।
कुछ कहते हैं, इन अक्षरों का अर्थ तो केवल ईश्वर को ही ज्ञात है या फिर
मोहम्मद पैगंबर को ज्ञात होगा। अन्य इस बात को न मानते हुए यथामति उसका अर्थ
करते हैं। हर व्यक्ति अपने द्वारा किए गए अर्थ को ही सच्चा ईश्वरीय अर्थ मानता
है। जैसे कुछ अध्यायों के प्रारंभ में अ, ल, म ये तीन अक्षर आते हैं। कुछ
आचार्य कहते हैं इनका अर्थ मनुष्य को करना ही नहीं चाहिए।
उसका अर्थ ईश्वर या पैगंबर ही जाने। दूसरा पंथ कहता है, नहीं उसका अर्थ किया
जाना चाहिए और वह अर्थ भी यही होगा कि 'अल्लाह, लतीफ, मजीद' इन तीन शब्दों
के वे पहले वर्ण हैं और उनका अर्थ है-'ईश्वर दयालु और गौरवशाली है।' तीसरे
कहते हैं उन तीन वर्षों से 'अनालमीनि' यह वाक्य बनता है और उसका अर्थ है-मुझे
और मुझसे (सब पूर्ण और शुभ जन्म लेता है)। चौथा कहता है वह वाक्य
अना-अल्ला-आलम है और उसका अर्थ है-सब ओर जो ईश्वर है वह मैं ही हूँ। पाँचवाँ
कहता है वे आद्याक्षर हैं ही नहीं। कुरान की कर्ता शक्ति, प्रकट शक्ति एवं
प्रचार शक्ति ऐसे तीन अल्लाह-जिब्रील-मोहम्मद का वह संकेत है और पहले का पहला
अक्षर, दूसरे का अंतिम अक्षर और तीसरे का अंतिम से पहला उसी क्रम से लें तो अ,
ल, म बनता है। छठा कहता है 'अ' मूल स्वर है, 'ल' तालव्य है और 'म' ओष्ठ्य
है और इससे सूचित होता है कि ईश्वर सारे जग और कर्म का आदि, मध्य और अंत है
और इसलिए उसका स्मरण नित्य आदि, मध्य, अंत में करना चाहिए। सातवाँ पंथ कहता
है कि ये वर्ण संख्यावाचक हैं, जिनका योग ७१ है और वह यह निर्देशित करता है
कि इतने वर्ष में इसलाम धर्म सारे विश्व में प्रस्थापित हो जाएगा।
(ईश्वरीय धर्मग्रंथ अक्षर-अक्षर एक होते हुए भी पुरुषबुद्धि उसके कितने विविध
अर्थ करती है, इसका यह कितना सुंदर उदाहरण है-तीन अक्षर तीस अर्थ)
कुरान के अध्यायों के नाम एवं मंगलारंभ वाक्य के संबंध में कुछ
धर्मशास्त्रियों का मत है कि वे कुरान के अध्यायों की ही तरह ईश्वरोक्त हैं तो
कुछ धर्मशास्त्री मुसलमानों के मत में वे मनुष्यकृत हैं, ईश्वरोक्त नहीं।
मुसलमानी शास्त्रीय मत परंपरा के अनुसार कुरान की रचना मोहम्मद साहेब या किसी
मनुष्य ने नहीं की है, वह अनादि है। इतना ही नहीं, वह ईश्वरकृत भी नहीं है,
वह तो ईश्वरमय ही है। उसकी पहली प्रतिलिपि जो लिखी गई वह ईश्वर के सिंहासन के
पास की एक बड़ी मेज पर रखी हुई है। संपूर्ण भूत-भविष्य का लेखन भी उसी मेज पर
अति उच्च स्वर्ग में लिखा रखा है। उस ईश्वरीय मेज पर रखी कुरान की एक
प्रतिलिपि देवदूत जिबील के हाथों से सबसे नीचे के स्वर्ग में भेजी गई। वह
रमजान माह की जिस रात को भेजी गई, उस रात का नाम 'शक्तिमती' था। उस कागजी
प्रतिलिपि का वह कुरान देवदूत जिबील द्वारा मोहम्मद साहेब को क्रमशः प्रकट
किया गया। कुछ मक्का में, कुछ मदीना में, जैसा-जैसा अवसर आता गया वैसा-वैसा
वह लिखित भाग जिबील की ओर से पैगंबर की चेतना में डाला गया। परंतु वह
पूरी-की-पूरी दिव्य पुस्तक देखने का भाग्य भी मोहम्मद पैगंबर को जिब्रोल की
कृपा से वर्ष में एक बार मिलता था। रेशमी वस्त्र में बँधी सोने की कलाबत्तू से
कढ़ी, स्वर्गीय हीरे-जवाहरात में मढ़ी वह दिव्य पुस्तक थी।
यद्यपि उपर्युक्त मत के अनुसार कुरान अनिर्मित एवं अनादि है और प्रत्यक्ष
कुरान में वैसा न माननेवाले को पाखंडी कहा गया है, फिर भी हर महत्त्व के
धर्म-प्रश्नों की तरह इस प्रकरण में भी मुसलमान धर्मशास्त्रियों में तीव्र
मतभेद जो होना था हुआ। मोटाझलाईट और मोझदार के अनुयायियों का प्रबल इसलामी पंथ
उपर्युक्त मत के पूरी तरह विरुद्ध है और उनके मत में कुरान को अनादि, ईश्वरमय
एवं अनिर्मित मानना बहुत बड़ा पाप है, पाखंड है। इस संदर्भ के कुरान वाक्यों
का वे उपर्युक्त से बिलकुल उलटा अर्थ निकालते हैं। यह मतभेद इतना बढ़ा कि
अलमामून खलीफा के राज्य में, कुरान अनादि न होकर निर्मित है, ऐसी धर्माज्ञा
जारी हुई और जो कुरान को अनादि, अनिर्मित मानेगा उसे कोड़े लगाने, कारा में
बंद करने का और मृत्युदंड भी दिया गया। अंत में खलीफा अलमोतावक्केले ने दोनों
ही पक्षों को अपने-अपने मत पर चलने की स्वतंत्रता दी।
कुरान जिस भाषा में लिखा है वह अरबी भाषा-शैली अरबिस्तान में इतनी श्रेष्ठ
मानी जाती है कि उसी भाषा-शैली के आधार पर ऐसा सिद्ध करने का वे प्रयास करते
हैं कि वह पुस्तक मनुष्यकृत न होकर ईश्वरकृत होगी। जो प्रतिपक्षी मोहम्मद
पैगंबर को ढोंगी कहते हैं उनका हम आह्वान करते हैं कि वे इतनी सुंदर अरबी
लिखकर दिखाएँ, ऐसी काव्यमय रचना करके दिखाएँ। परंतु चूँकि कोई भी ऐसी उत्तम
अरबी लिख नहीं सकता, इसलिए कुरान ईश्वरोक्त ही होगा। कुरान मनुष्यकृत न होकर
ईश्वरीय है-इसका दृढ़ साक्ष्य यही है कि उसकी भाषा-शैली अतुलनीय है।
(परंतु इस तर्क से तो इतना ही सिद्ध होता है कि मोहम्मद पैगंबर उत्कृष्ट कवि
थे। मुसलमानों के मोटाझलाईट, मोझदार, नोधम आदि धर्मशास्त्रीय पंथ भी
उपर्युक्त तर्क का उपहास करते हुए खुले-खुले कहते हैं कि कुरान से भी उत्कृष्ट
अरबी भाषा-शैली मनुष्य लिख सकता है। और यह भी कि तर्क के आधार पर उत्कृष्ट अरब
भाषा-शैली है, इसलिए कुरान ईश्वरीय है तो उत्कृष्ट संस्कृत भाषा शैली या
उत्कृष्ट मराठी, बँगला, तमिल, जर्मन, ब्राह्मी में लिखे ग्रंथों को भी
ईश्वरीय मानना पड़ेगा।)
कुरान कैसे प्रकट हुआ? मोहम्मद पैगंबर जब चालीस वर्ष के आस-पास के थे तब एक
गुफा में ईश्वर का ध्यान करने बैठते थे। वहाँ देवदूत जिब्रील मनुष्य रूप में
आया और उसने कहा तेरा जो मालिक है उसका लिखा यह देख! मोहम्मद ने कहा, पर मुझे
तो अक्षर न पढ़ने आते हैं, न लिखने। तब मोहम्मद पैगंबर को अंत:प्रेरणा से
ईश्वरीय संदेश आने लगे। वे जैसे आते थे मोहम्मद उसका वैसे ही उच्चारण करते थे।
उनके शिष्य उनको स्मरण रखते, कुछ लिख लेते। ऐसा बीस वर्ष होता रहा और पैंसठ
वर्ष की आयु में जब मोहम्मद पैगंबर
स्वर्गवासी हुए तब तक जो संदेश समय-समय पर मिले थे, वे उस समय अरबिस्तान में
कागज बहुत प्रचलित न होने से चमड़े और खजूर के पत्तों पर लिखे गए। बाद में जो
इधर-उधर थे उन्हें एक जगह संगृहीत किया गया। जो मौखिक थे वे सारे एकत्रित कर
मोहम्मद के खास शिष्य और उत्तराधिकारी अबूबकर ने कुछ व्यवस्था से एक ग्रंथ में
लिखे, वही कुरान है। मोहम्मद के पहले शिष्य अधिकतर लड़ाइयों में मारे जाने से
जब यह कुरान संगृहीत किया गया तब कुछ संदेश छूट गए। स्थल-काल का अनुक्रम नहीं
रहा। इस ग्रंथ में मोहम्मद पैगंबर के कई वाक्य, जो अन्यों को स्मरण थे, न
आने से वे उसे अपूर्ण कहने लगे। इस संबंध में सभी मुसलमान धर्मशास्त्री एकमत
हैं।
(इसका अर्थ यह है कि अपने वेद की जो स्थिति है कि उसमें कितनी ही श्रुतियाँ
लुप्त हैं; व्यास ने जो मूल श्रुतियों का संकलन किया, वही आज का अनुक्रम है,
उससे अधिक पुराना नहीं; ऋषि, देवता आदि विषयों का सुसंगत एकीकरण नहीं है;
वही स्थिति अर्वाचीन होते हुए भी इस कुरान की हुई है। कितने ही ईश्वरीय संदेश
छूट गए हैं, अतः उसे ईश्वरीय प्रमाण ग्रंथ माना तो उसमें उल्लिखित आज्ञाएँ ही
केवल ईश्वरीय धर्म है, ऐसा समझना गलत है। क्योंकि जो संगृहीत हैं उनसे भिन्न
और कोई ईश्वरीय आज्ञाएँ थी ही नहीं-ऐसा नहीं कहा जा सकता।)
अबूबकर द्वारा किया गया यह संकलन (कुरान) मोहम्मद पैगंबर की अनेक पत्नियों में
से एक विधवा स्त्री हप्सा, जो खलीफा उमर की कन्या थी, को सौंपा गया। परंतु
पैगंबर की मृत्यु के बाद तीस वर्षों में ही उपर्युक्त दिए नाना कारणों से
कुरान की एक से दूसरी न मिलनेवाली अनेक आवृत्तियाँ मुसलमानी साम्राज्य के
अलग-अलग भागों में चलने लगीं। हर कोई अपने ही कुरान को सत्य मानकर दूसरे कुरान
के पाठ भेद को पाखंड, धर्मबाह्य कहने लगा। अबूबकर के कुरान को उसके
प्रतिस्पर्धी 'वह अबूबकर की स्वयं की कृति है' ऐसा कहते और ईश्वरीय होने का
उसका अधिकार नकारते। यह सारा घोटाला ठीक करने के लिए खलीफा (उस्मान) आश्मन ने
अलग-अलग प्रचलित कुरान की जितनी संभव हो सकीं उतनी प्रतियाँ एकत्रित कर और
हप्सा के पास की अबूबकर की प्रति को ही मान्य करते हुए उसमें जो कुछ है उसे ही
मानने का आदेश जारी किया। अबूबकर के कुरान की हजारों प्रतियाँ तैयार करवाकर
दूर-दूर तक बाँटी तथा उससे अलग या कम-अधिक आयतोंवाली प्रतियाँ जप्त की और जला
दी।
इतने प्रयास के बाद आज का कुरान ईश्वरीय और सच्चा माना गया।
परंतु आज भी बहुत पाठभेद इसलामी धर्मशास्त्रियों के मतानुसार अस्तित्व में
हैं।
इतने से भी काम न हुआ। परस्पर विरोध टालने के लिए भिन्न-भिन्न प्रतियाँ जलाकर
एक ही कुरान रहने दिया तब भी उसमें ऊपर वर्णित कुछ पाठभेद हैं ही। पर उससे भी
अधिक कठिनाई और आश्चर्य की बात यह कि उस ईश्वरीय मानी गई अनन्य प्रति में
मोहम्मद पैगंबर के ही अनेक परस्पर विरुद्ध 'वचन' अनिवार्य रूप से आए हुए
हैं। पैगंबर स्वयं ईश्वर का एक आदेश एक दिन कहते थे और दूसरे दिन पहले दिन के
आदेश का एकदम उलटा आदेश लिखवाते थे। शिष्य हर शब्द को लिख लेते थे, पूरी
ईमानदारी से। पर उनकी समझ में नहीं आता कि बिलकुल परस्पर विरोधी आदेश ईश्वर
कैसे दे देता था। सर्वज्ञ ईश्वर को भी अपने विचार मनुष्य की तरह भिन्न-भिन्न
परिस्थिति में बदलने पड़े। मोहम्मद साहेब का प्रतिपक्षी और अनुयायी भी इससे
बहुत आश्चर्य और संदेह में पड़ गए। प्रतिपक्ष तो खुला आरोप लगाने लगा कि इससे
यह साफ हो जाता है कि भूत भविष्य-वर्तमान जाननेवाले सर्वज्ञ ईश्वर की यह रचना
न होकर इसपर तो मनुष्यकृति होने की स्पष्ट छाप है।
किसी एक परिस्थिति में मोहम्मद की सत्ता और हित को जो अनुकूल लगा वह ईश्वर का
आदेश है, ऐसा कहा गया। दूसरी परिस्थिति में जब वह नियम सत्ता पर छाए विभिन्न
संकट के कारण अहितकारी लगने लगा तो मोहम्मद पैगंबर ने उलटा नियम कहकर उसे
ईश्वर की अंतिम से अंतिम आज्ञा के रूप में प्रचारित किया। सर्वज्ञ ईश्वर यदि
उस कुरान को लिखता तो पहले ही अपना गलत आदेश न देता या कह रखता कि कुछ समय बाद
अमुक परिस्थिति आते ही मैं विपरीत आदेश देनेवाला हूँ। तब तक इस पहली का पालन
किया जाए। ऐसा होता तो परस्पर विरुद्ध आदेश प्रसारित न होते। उससे ईश्वरीय
कृति अधिक सजती। पर ऐसा न कर पहला आदेश त्रिकाल बाधित धर्म के रूप में कहा गया
और बाद में 'मैंने गलती की, अब जो दूसरा आदेश कह रहा हूँ वो पहले के उलट होते
हुए भी त्रिकाल बाधित सत्य है' ऐसा कहा जाना कुरान के रचयिता ईश्वर को मानव
की तरह क्षणभंगुर बुद्धि का मानने की अपेक्षा सारे कुरान को ही मनुष्यकृत
मानना ईश्वर के सच्चे भक्तों को अधिक सरल था। मोहम्मद पैगंबर भी अपनी जीवित
अवस्था में अपने प्रतिपक्ष का विरोध टाल न सके। प्रतिपक्ष के आरोपों का उत्तर
वे इतना ही देते कि मैं क्या करूँ? ईश्वर ने जैसा समझा वैसा आदेश दिया, उसको
कौन रोकेगा? कौन उसका मुँह पकड़ेगा? वह चाहे जैसा आदेश देगा। ईश्वर सत्य ही
सर्वशक्तिमान और स्वतंत्र है। (अति शब्दनिष्ठ मुसलमान धर्मशास्त्री भी इन
परस्पर विरुद्ध कुरान-वचनों का स्पष्टीकरण उपर्युक्त उत्तर से अधिक सुसंगत
रीति से नहीं कर सकते।)
स्वयं पैगंबर के मुँह से निकले कुरान के परस्पर विरुद्ध वचन, जिनका उल्लेख
ऊपर आया है, वे वैसे ही परस्पर विरुद्ध हैं, इस संबंध में अधिकतर इसलामी
आचार्यों के साथ ही स्वयं पैगंबर का भी यही मत है। परंतु ऐसे केवल दो-तीन
अपवाद नहीं हैं। इसलामी धर्मशास्त्री ऐसे अपवादों की संख्या दो सौ तीस मानते
हैं। जैसे मोहम्मद पैगंबर के मुँह से ईश्वर ने सभी मुसलमानों को यह आदेश दिया
कि तुम सब मुसलमान जेरुसलम (ज्यू लोगों का काशी तीर्थ) की ओर मुँह कर
प्रार्थना करोगे। यह भी नहीं कहा कि यह आदेश अल्पकालिक है। अन्य सारे फरमानों
की तरह यह फरमान भी त्रिकाल बाधित है, सर्वत्र सर्वथा अनुल्लंघनीय धर्माज्ञा
की तरह उसी ढंग और भाषा में प्रथम दिया हुआ है। पर उसके अनेक वर्षों बाद ईश्वर
ने दूसरा आदेश पहले के बिलकुल विपरीत किया कि जेरुसलम की ओर मुँह करके
प्रार्थना न करते हुए सच्चे भक्त, मेरे भक्त मक्का की ओर मुँह करके प्रार्थना
करेंगे। [कुरान को ईश्वरीय कृति मानने पर यह विरोध विसंगत लगता है। वही कुरान
मनुष्यकृत मानने पर इन दो प्रार्थनाओं में कुछ भी आपत्तिजनक नहीं लगता।
क्योंकि पहले मक्का में प्राचीन अरबी धर्म के मूर्तिपूजक लोग प्रबल थे,
उन्होंने मोहम्मद साहेब का उच्चाटन कर दर-दर की ठोकरें खाने को मजबूर कर दिया
था। उनके विरोधी जब तक मक्का पर काबिज थे तब तक मोहम्मद साहेब के उन शत्रुओं
का केंद्र मक्का था, इसलिए मक्का की ओर मुँह करके प्रार्थना करना मोहम्मद
साहेब को पसंद न था। पर बाद में उन्होंने मक्का पर अपना अधिकार जमा लिया।
मक्का चूँकि उनकी मूलभूमि, जन्मभूमि, तीर्थभूमि थी इसलिए उसपर कब्जा होते ही
वह उनके इसलामिक धर्म की राजधानी और पवित्र क्षेत्र हो गया। इसलिए फिर संपूर्ण
मुसलमानी समाज ने अपने धर्म राष्ट्र को एकसूत्री, एकमुखी, एकजीवी करने के
लिए जो एकरूप बंधन लादे उनमें यह बंधन भी था कि हर मुसलमान मक्का की ओर मुँह
करके ही नमाज (प्रार्थना) अता करेगा।]
इसलाम धर्म का जो संविधान ग्रंथ है उसमें ही इतने संदेह पैदा करनेवाली
न्यूनताएँ हैं तो उसे अविकल, अशंकनीय, अनन्य ईश्वरीय ग्रंथ कैसे मानें, यह
उनके एकनिष्ठ अनुयायियों के लिए भी एक समस्या बन जाने से उन्हें उन न्यूनताओं
को भरने के लिए अंत में पुरुषबुद्धि की सहायता कैसे लेनी पड़ी और चूँकि
पुरुषबुद्धि 'श्रुतिर्विभिन्ना स्मृतयश्चभिन्ना' होती है; अत: मूल कुरान कौन
सा है, कौन से श्लोक सच्चे हैं, कौन सी प्रतिलिपि पूर्ण है, किस पाठभेद का
कौन सा अर्थ ग्राह्य है इन सारे प्रश्नों का भिन्न निर्णय देनेवाले आचार्यों
की जितनी संख्या उतने कुरान हो गए हैं।
और जो स्थिति कुरान के मूलपाठ या विधान की है वही उसके हर वाक्य के अर्थ की बन
गई है। एक ही वाक्य या विधेय के इसलामिक पंथ, उपपंथ, उपपंथ के आचार्यों ने
कैसे भिन्न-भिन्न अर्थ प्रस्तुत किए-वह बोधप्रद और धर्मशास्त्र के तुलनात्मक
अध्ययन के लिए उपयुक्त है। मैं यह जानकारी इस लेख के उत्तरार्ध में दे रहा
हूँ।
उत्तरार्ध
पवित्र कुरान की जिन ऐतिहासिक घटनाओं का उल्लेख मैंने पूर्वार्ध में किया था
और जो सामान्य हिंदू और मुसलमान को भी स्मरण रहनी चाहिए, उनका सार संक्षेप
निम्नवत् है-
१. मोहम्मद पैगंबर को ईश्वर ने जो संदेश भेजे, जैसा उन्हें लगता था, वे
सारे-के-सारे तत्काल लिखे नहीं जाने से उनमें से कुछ खो गए। पैगंबर की मृत्यु
के बाद अबूबकर द्वारा किया गया उनका संकलन अपूर्ण है।
२. उस अपूर्ण कुरान में अनेक ईश्वरीय आज्ञाएँ परस्पर विरोधी हैं। एक
आदेश को कहने के बाद ईश्वर ने उसे रद्द किया और दूसरा आदेश जारी किया। ऐसे कोई
डेढ़-दो सौ प्रकरण हैं। इससे उस अपूर्ण कुरान में जो आदेश हैं उन्हें भी रद्द
करने के आदेश उन खोए हुए और छूटे हुए भाग में होने की बहुत संभावना है। इसलिए
जो उपलब्ध है वह कुरान भी कुछ-एक पंथों के मुसलमान आचार्यों के विचार से
विश्वास करने योग्य नहीं है।
३. इसी कारण अबूबकर के कुरान से अलग सात-आठ कुरान ग्रंथ और प्रचलित हैं।
४. इन सात-आठ कुरानों में से अमुक एक कुरान सच्चा है, यह ईश्वर ने
प्रत्यक्ष साक्ष्य से कहीं नहीं कहा। हाँ, उस्मान खलीफा ने अपनी दंडशक्ति से
या लाठी के जोर से, उनकी पुरुषबुद्धि को उचित लगी इसलिए अबूबकर के कुरान पर
सच्ची होने की मोहर लगाई और शेष को जलाकर या जप्त कर नष्ट कर दिया। सुन्नी
पंथियों ने उसको स्वीकार किया।
५. पर इतना होने के बाद भी जिन्हें सुन्नी पंथ के सिद्धांत मान्य नहीं
थे, उन शिया पंथियों की बड़ी-बड़ी मुसलमानी जमातों ने उस निर्णय को मान्यता
नहीं दी। सुन्नी पंथियों का वर्तमान कुरान घटा-बढ़ाकर बना अविश्वसनीय ग्रंथ
है, ऐसा शिया पंथ के आचार्य खुल्लमखुल्ला कहते हैं; पर सच्चा कुरान ग्रंथ
हमारे पास है-ऐसा जो शिया पंथ के लोग कहते हैं उसको सुन्नी पंथ के मुसलमान
झूठा ग्रंथ कहते हैं। सारांश यह कि पूर्ण ईश्वर प्रदत्त या ईश्वरोक्त लगनेवाले
कुरान ग्रंथ का कोई अस्तित्व ही नहीं है।
६. सुन्नी पंथ का जो ग्रंथ आज कुरान के रूप में सुन्नियों में आदरणीय
है, उसमें भी अनेक पाठभेद हैं, यह बात अनेक मुसलमानी धर्मशास्त्री निर्विवाद
रूप से मानते हैं।
सारांश यह कि यद्यपि धर्मग्रंथ का एक ही नाम कुरान है, फिर भी उस नाम का
ईश्वरदत्त ग्रंथ कौन सा है-यह मानव बुद्धि से ही निश्चित करना पड़ता है।
इसलिए भिन्न-भिन्न प्रतियों को भिन्न-भिन्न आचार्य सच्चा मानते हैं। इस तरह
अनेक कुरान हो गए। शब्दशः देखें तो कुरान में शब्दशः एकवाक्यता नहीं है।
और अर्थशः देखें तो घेटाला शतगुना बढ़ा हुआ है। क्योंकि शब्दशः जो विचार एक
पंथ मानता है उसी में अर्थशः अनेक भाव निर्मित होते हैं और उसके सैकड़ों अर्थ
होते हैं तथा एक-एक अर्थ को प्रधानता देनेवाले अलग उपपंथ बनते हैं। उनमें से
कुछ प्रमुख उपपंथ निम्न हैं-
१. हानिफाई (सुन्नी) - इस उपपंथ का नाम उसके
आचार्य हानिफा के नाम पर पड़ा है। मोहम्मद पैगंबर की 'स्मृति' को यह पंथ
अमान्य नहीं करता, फिर भी उसका शब्दशः पालन नहीं करता।
२. शफाई सुन्नी - यह आचार्य शफाई का अनुयायी
पंथ है। मुसलमानी श्रुति (कुरान) और स्मृति (पैगंबर से संबंधित आख्यायिका एवं
उनके स्वयं के वचन) इन दो की कक्षा में मानव बुद्धि को कोई स्वतंत्रता नहीं
है। हर शब्द परम प्रमाण है, ऐसा इनका मत है। आचार्य शफी अमुक एक बात सच या झूठ
है यह कहते हुए कभी भी ईश्वर की सौगंध नहीं लेते थे।
३. मालेकी सुन्नी-इस पंथ के आचार्य का नाम
मालेक है। जिन प्रश्नों पर कुरान और पैगंबर की आख्यायिकाओं में कोई स्पष्ट
अभिप्राय नहीं है उन सारे प्रश्नों पर मालेक मौन रहता था, इतना वह और उसका
पंथ शब्दनिष्ठ प्रवृत्ति का था। मृत्युशय्या पर पड़ा वह रो रहा था, उससे रोने
का कारण उसके ही अनुयायियों ने पूछा तो आचार्य मालेक ने कहा, "कुरान के वचनों
के बाहर मैंने स्वयं की बुद्धि से कुछ निर्णय तो नहीं किए? यह चिंता ही मुझे
रुला रही है। यदि मैंने कभी शास्त्र के आदेश के बाहर जाकर बरताव किया हो या
निर्णय दिया हो तो वैसे हर मेरे मनगढंत शब्द के लिए ईश्वर कोड़े से मेरी उतनी
बार धुनाई करे।
४. हानबाली सुन्नी - पैगंबर के वचन एवं
आख्यायिकाओं का यह पंथ अत्यंत अभिमानी है। इसके आचार्य हानबाल को पैगंबर की दस
लाख आख्यायिकाएँ मुखोद्गत हैं-ऐसी उनके अनुयायियों में उसकी प्रसिद्धि थी।
कुरान केवल अपौरुषेय नहीं, वह तो अनादि, अनिर्मित एवं स्वयंसिद्ध है और उसकी
उत्पत्ति ईश्वर ने भी नहीं की। वह ईश्वरमय ही है, ऐसा आचार्य हानबाल का कहना
था। कुरान को ईश्वरमय ही समझना धर्मबाह्य पाखंड है ऐसा विचार मोटासम खलीफा का
था और उसने खलीफा होने के कारण हानबाल को वैसा पाखंड फैलाने से रोका था; परंतु
हानबाल मानता नहीं था। तब खलीफा ने उसे बंदी बनाकर रक्त-रंजित होने तक उसकी
कोड़े से पिटाई करवाई।
हानबाल पंथ कट्टर और कर्मठ माना जाता है। एक बार इस पंथ के अनुयायियों ने
बगदाद की राजधानी में उत्पात किया और जो मुसलमान कुरान के आदेशों के पालन में
कर्मठ नहीं थे उनके घरों में घुसकर उनके मदिरा भरे पात्र लुढ़का दिए, मदिरापान
के पात्र फोड़ डाले। कुरान के आदेश न मानकर नाच-गाने करते-करवाते हैं, इसलिए
नर्तकियों-गायिकाओं को भारी मार लगाई। वाद्य चकनाचूर कर दिए। इसलाम धर्म के लिए
इस पंथ के अति कर्मठ, कट्टर भाव जिन्हें मान्य नहीं थे उन्होंने जब इस पंथ के
विरुद्ध कड़े उपाय किए तो उन्हें कठोर दंड देकर चुप कराना पड़ा। उपर्युक्त पंथ
उनके विचार और उनकी कट्टरता न माननेवाले मुसलमानों को पाखंडी, पापी समझते हैं
और उन्हें शाप देते हैं कि वे सारे नरक में जाएंगे और जब संभव होता है तब
उन्हें दंडित करने से नहीं चूकते।
उपर्युक्त चारों सुन्नी पंथों में, स्मार्तो में, कुरान और आख्यायिका के
प्रमाण मानने संबंधी जो ऊपरी एकवाक्यता है वह भी निम्नवर्णित पंथों में आवश्यक
नहीं मानी जाती और तत्त्वत: वे सब स्वतंत्र हैं। ऐसे सुन्नी वर्ग में न
आनेवाले कुछ प्रमुख पंथ भी हैं।
५. मोटाझली - इस पंथ का प्रवर्तक वासेल है।
वासेल के अनुसार ईश्वर एक है तो उसे विशेषणों की अनेकता से दरशाना भी पाप है।
ईश्वर है, अस्ति सत् इसके आगे उसे चित् आदि अन्य गुण दरशानेवाले विशेषण नहीं
लगाने चाहिए। उसका अखंड स्वरूप इस कारण खंडित होता है। चित् आदि भिन्न गुणधर्म
एक ही अनंत, अखंड, एकरस पदार्थ के कैसे माने जा सकते हैं। ऐसा करने से एक से
अधिक असीम पदार्थ मानने का दोष लग जाता है। एकेश्वरी धर्म के यह विरुद्ध है।
उसका दूसरा महत्त्व का मत यह है कि नियतिवाद झूठा है। अच्छा जो कुछ है उसका
कर्ता ईश्वर है, जो अच्छा नहीं है उसका वह कर्ता नहीं है। तीसरा उसका मत यह
है कि अच्छा या बुरा कहने का इच्छा स्वातंत्र्य मनुष्य को है। उस आचार्य के
मतानुसार प्रलय के अंतिम दिन पूरी दुनिया का जब न्याय किया जाएगा तब मनुष्य
अपने चर्मचक्षु से ईश्वर देख सकेगा, यह कहना असत्य है। ईश्वर के लिए प्रयुक्त
की जानेवाली साकार उपमाएँ वे स्वीकार नहीं करते चाहे वे उपमाएँ कुरान में ही
क्यों न दी गई हों।
कुरान के अक्षर-अक्षर को प्रमाण और सत्य माननेवाले धर्मशास्त्रियों का
उपर्युक्त मतों से भयंकर विरोध हो जाने से 'मोटाझली' पंथियों का मुँह भी
नहीं देखना चाहिए, ऐसा कर्मठ-कट्टर सोचने लगे। मोटाझली लोग भी उतनी ही कट्टरता
से सोचने लगे। मोटाझली लोग भी उतने ही कट्टर और अपने विचारों के प्रति
धर्मनिष्ठुर हैं, इस कारण ये लोग भी अन्य मुसलमानी पंथियों के कट्टर शत्रु बन
गए। वासेल के इस नए पंथ में भी उपपंथ बनने लगे, उनमें के कुछ खास उपपंथ निम्न
हैं-
क.हशेमियन - हाशम के
अनुयायियों का मत है कि जब बुरे का कर्ता ईश्वर होता ही नहीं तब बुरी-से-बुरी
चीज, जैसे काफिर (इसलाम धर्म पर विश्वास न करनेवाले) की उत्पत्ति ईश्वर करे यह
कैसे संभव है? जो मुसलमान नहीं हैं वे सारे लोग आदमी होते हुए भी कुरान को
एकमेव, ईश्वरोक्त, परम प्रमाण धर्मग्रंथ न माननेवाले और मोहम्मद पैगंबर को
अंतिम ईशप्रेषित न माननेवाले काफिरों की, पापियों की निर्मिति ईश्वर कैसे
करेगा? ईश्वर का ईशतत्त्व उससे लांछित होगा, अतः जो मुसलमान नहीं हैं ऐसे
काफिरों की उत्पत्ति ईश्वर ने नहीं की।
ख.नोधेमियन - उदाहररण के
लिए इस पंथ का एक उत्तर देना हो तो यह कहें कि यदि ईश्वर सर्वशक्तिमान है तो
वह केवल अच्छे की निर्मिति करता है और बुरे की निर्मिति वह कर ही नहीं सकता
ऐसा कैसे कहा जा सकता है? अगर बुरा निर्मित करने की शक्ति ही उसे न हो तो फिर
वह कैसा सर्वशक्तिमान! इसलिए वे कहते हैं कि ईश्वर को बुरे का भी निर्माण करने
की शक्ति थी, पर इच्छा नहीं थी। इसलिए उसने अच्छे का निर्माण किया और बुरे का
किया ही नहीं।
ग.हेयिटियन - इस पंथ का मत
था कि ईश्वर दो माने जाने चाहिए। एक परमेश्वर नित्य, अनंत; दूसरा ईश्वर
अनित्य, सांत। वे पुनर्जन्म को भी कुछ अंशों में स्वीकार करते हैं और कहते हैं
कि जीव जन्मानुसार देहांतर प्राप्त करता है। नाना शरीर प्राप्त करते हुए विश्व
के अंत के समय जो शरीर होगा उसी शरीर को ही अंतिम न्याय के समय परलोक का दंड
या भोग भोगने के लिए स्वर्ग या नरक भेजा जाएगा।
घ.मोझदारी - आचार्य
मोझदारी के अनुयायी, ईश्वर को बुरा निर्माण करने की शक्ति नहीं है-ऐसा
माननेवाले धर्मशास्त्रियों का यह पंथ इतना विरोधी था कि सर्वशक्तिमान ईश्वर
असत्यवादी और अन्यायी भी हो सकता है ऐसा यह पंथ स्पष्ट कहता है। उनकी इस ईश्वर
निंदा से अन्य पंथ के लोग इतने नाराज हो जाते हैं कि उनका उपर्युक्त मत सुनना
भी पाप मानकर तोबा-तोबा करते हैं। कुरान का जो वाक्य गायत्री जैसा पवित्र माना
जाता है, वह वाक्य है-'उस एक ईश्वर के अतिरिक्त कोई ईश्वर नहीं है।' उसी
वाक्य का उच्चार भी मोझदारी आचार्य धर्मबाह्य, महापाप मानते हैं; क्योंकि
उसमें 'दूसरा ईश्वर' शब्द का निषेध करते ही सही पर उच्चार करना पड़ता है।
एकेश्वर पंथ के लोगों को वह उच्चार भी असह्य हो जाता है। मोझदार कहता था-
"हमारे पंथ द्वारा किया गया कुरान का अर्थ ही सही होने से जो मुसलमान नहीं हैं
उनके सहित अन्य पंथों के वे मुसलमान जो कुरान का अलग अर्थ लगाते हैं, वे
सबके-सब पतित, नीच एवं धर्मशत्रु माने जाकर नरक में ही भेजे जाएँगे।" यह
सुनकर एक मुसलिम भिन्न पंथीय आचार्य ने व्यंग्य से मोझदार से पूछा, "कुरान में
वर्णित पृथ्वी और आकाश से निर्मित विस्तृत, सुविशाल स्वर्ग मोझदार और उसके
दो-चार अनुयायियों के लिए ही है क्या?"
ङ. बाशेरी- बाशेरी का कथन है कि
सर्वशक्तिमान ईश्वर चाहे तो किसी मनुष्य की बुद्धि में ऐसी दुर्भावना भर सकता
है कि उसे नरक में ही जाना पड़े। परंतु ऐसा कृत्य करने के बाद भी वह अन्याय
है, कहना पड़ेगा।
सारे मानव मुसलमान हो जाएँ ऐसी सद्बुद्धि उनमें भरना ईश्वर के हाथ में होते
हुए जो मुसलमान नहीं हैं उन दुष्टों के लिए नरक का निर्माण करने की क्रूरता
टालना ईश्वर के हाथ में था। पर ईश्वर ने नरक का निर्माण किया और मानव को
स्वतंत्र इच्छाशक्ति दी। इस सबसे ईश्वर केवल अच्छे का निर्माता है, बुरे का
नहीं। यह अन्य धर्मशास्त्रियों का मत झूठा साबित होता है।
च. थमामी- थमामी के अनुयायी यह कहते हैं कि पापियों को अनंत
काल तक नरक में सड़ना चाहिए। अन्य मुसलमानी आचार्यों का यह कहना असत्य है कि
नरक दंड का कुछ काल बाद अंत हो जाता है। अंतिम प्रलय के दिन केवल मुसलमान ही
नहीं, वे मूर्तिपूजक भी भयंकर नरक में पड़ेंगे-ही-पड़ेंगे। परंतु ईसाई,
ज्यू, पारसी आदि सारे नास्तिक, जो मुसलमान नहीं हैं, उन सबका सत्यानाश कर
ईश्वर उन्हें मिट्टी में मिला देगा।
छ. कादेरियन- ईश्वर केवल अच्छाई का निर्माता है, बुराई का
नहीं इस पक्ष का यह पंथ है। अर्थात् बुराई का निर्माता शैतान हो जाता है, इस
तरह दो निर्माता हो जाते हैं। अन्य मुसलमान इसीलिए इस पंथ को पारसियों के द्वैत
पाखंड को माननेवाले पतितों का मानते हैं।
६. सेफेशियन- इस पंथ के भी कुछ उपपंथ हैं, परंतु यहाँ तीन
पर ही विचार प्रस्तुत हैं-
क. आशारियन- इनके मत से ईश्वर का केवल
गुणधर्म ही नहीं अपितु रूप-वर्णन भी कहना धर्म सम्मत है। कुरान में वर्णन है
कि ईश्वर सिंहासन पर बैठता है। ईश्वर कहता है मैं अपने हाथ से निर्माण करता
हूँ, मेरी दो अंगुलियों में विश्वसनीय लोगों के हृदय हैं। ऐसे सैकड़ों कथन
चूँकि कुरान में हैं, इसलिए वे सत्य ही हैं, उनको केवल आलंकारिक नहीं कहा जा
सकता? वैसा वास्तव में होता तो कुरान में स्पष्टतः कहा जाता। ईश्वर के हाथ,
अंगुलियाँ आदि अवयव हैं, परंतु वे कैसे हैं? यह कोई कहे नहीं। इतना ही नहीं,
कुरान पठन करते हुए, अपने हाथ से मैंने उसका निर्माण किया-यह ईश्वर वाक्य
पढ़ते समय यदि कोई अपना हाथ आगे बढ़ाकर अभिनय करता है तो वह भी पाप है,
क्योंकि ईश्वर का हाथ मनुष्य जैसा है-ऐसा उससे सूचित होता है। इतना ही नहीं
अपितु कुरान के अरबी शब्द, जो हाथ, पैर, अंगुली आदि ईश्वरीय अवयवों के लिए
उपयोग में लाए गए हैं उनका अनुवाद अन्य भाषाओं में हाथ, पैर, अंगुली न कर
वहाँ उन्हीं अरबी शब्दों का प्रयोग करना चाहिए। न जाने उनका दैवी अर्थ प्राकृत
परभाषा में चूक जाए। ईश्वर मनुष्याकृति है, ऐसा कहने का महापाप हो जाए।
ख.मूशाबेही- इस उपपंथ को उपर्युक्त मत मान्य
नहीं हैं। कुरान में ईश्वर के मुख से जो शब्द निकले हैं वे अक्षर-अक्षर सच
माने जाएँ, ईश्वर मनुष्य से पूरी तरह असदृश्य है ऐसा मानने का कोई कारण नहीं
है। उसके अवयव हैं, ऊपर-नीचे आना-जाना ही नहीं, ईश्वर को मनुष्य रूप धारण
करना सहज संभव है। जिब्रील नामक देवदूत मनुष्य रूप धारण करता था यह स्वयं
पैगंबर साहेब कहते हैं और यह भी स्पष्ट रूप से कहते हैं कि 'ईश्वर मुझे सुंदर
रूप में दिखा। मोसेस के साथ भी वह साक्षात आकर बोला था।' कुरान के ऐसे अनेक
वाक्यों का अर्थ अक्षरश: न लेना महापाप है।
ग.केरामियन- इस उपपंथ के लोग, कुरान में
ईश्वर का जो वर्णन आया है, उसके शब्दों के अर्थ को स्वीकार करते हुए इतना आगे
निकल जाते हैं कि वे मानते हैं कि ईश्वर साकार, सावयव और ऊपर-नीचे से समर्याद
भी होना चाहिए। कुछ लोग कहते हैं वह ऊपर की ओर अनंत है, परंतु नीचे की ओर से
मर्यादित है। ऐसा न मानें तो ईश्वर नीचे आया, बैठा आदि कुरान वाक्य झूठे पड़
जाएँगे। ईश्वर को मनुष्य अपने हाथों से छू सकता है, अपने चर्मचक्षु से देख
सकता है। उसके भी आगे जाकर इस पंथ के कुछ आचार्य कुरान के आधार पर यह निश्चित
करते हैं कि हाथ, पैर, सिर, जीभ आदि अवयव और शरीर होते हुए भी वह मनुष्य के
शरीर से कुछ अलग है। क्योंकि सिर से वक्षस्थल तक वह भरा हुआ नहीं है। वक्षस्थल
से नीचे भरा हुआ है और उसके बाल काले और लहराते हैं। इस सबका आधार कुरान है;
क्योंकि उसमें मोहम्मद पैगंबर स्पष्टता से ईश्वर के संबंध में 'ईश्वर बोला,
चला, बैठा, ईश्वर ने मेरी पीठ पर हाथ की अंगुलियों से स्पर्श किया तब वे
अंगुलियाँ शीतल लगीं, ऐसा वर्णन करते हैं और कहते हैं कि 'ईश्वर ने अपने
स्वयं जैसा ही मनुष्य बनाया' अर्थात् ईश्वर से मनुष्य की दैहिक सादृश्यता न
मानी गई तो कुरान झूठा पड़ जाएगा।
७. खारेजायी- इस पंथ की उत्पत्ति राजनीतिक प्रश्न से हुई।
खारेजायी का मत था कि मुसलिम सत्ता और धर्म का मुख्य खलीफा या इमाम होना ही
चाहिए, ऐसा नहीं है। यदि इमाम नियुक्त करना ही हो तो वह न्याय-निष्ठुर एवं
उत्कृष्ट हो। मोहम्मद पैगंबर के कोरेश वंश का ही व्यक्ति खलीफा या इमाम हो
सकता है-ऐसा जो शिया मुसलमान कहते थे वह उसे स्वीकार नहीं था। खलीफा चुनने का
अधिकार मुसलमानों को न होना भी उसे मान्य नहीं था। खलीफा अली से द्वेष करते
हैं, प्रार्थना के समय उसे शाप देते हैं, ऐसे धार्मिक मतों के कारण अली ने
उनका कत्ल किया। इमाम यदि दुराचारी हो तो उसे पदच्युत करना या मार डालना धर्म
है-ऐसा भी यह पंथ कहता है।
८. शिया- यह पंथ खारेजाग्री पंथ के एकदम उलटे विचारवाला है।
खलीफा अली का अति अभिमानी। उसका कहना है कि इमाम, धार्मिक मुखिया कौन बने?
इसका अधिकार भीड़ को नहीं है। मनुष्य के मूर्खतापूर्ण बहुमत से उसका चयन कर
देने से दुराचारी और बलवान् व्यक्ति भी इमाम बनने लग सकते हैं। वे इसके बहुत
से साक्ष्य देते हैं। इमाम और खलीफा के पदों पर कई दुराचारी, शराबी, पापी
आदमी आ बैठे, ऐसा मुसलमानी इतिहास है ऐसा उनका कहना है। इसीलिए वे अली के बाद
के सुन्नी खलीफा को महापापी कह शाप देते थे। सुन्नी लोग यही बात उलटकर शियाओं
को कहते हैं और उन्हें पाखंडी और काफिर कहने से भी नहीं चूकते। अली का वंश परम
पवित्र है, इसलिए शिया लोग ऐसा मानते हैं कि ईश्वर ने इमाम पद उनके ही वंश रखा
है। अली के पुत्र हसन-हुसैन और उनके अनुयायियों का करबला की लड़ाई में अंत
हुआ। सुन्नी लोगों ने जिस दिन यह कत्ल किया शिया लोग उसी दिन को शोक दिन के
रूप में मनाते हैं, ताजिए निकालते हैं। अली के वंश का अंतिम पुत्र 'अमर' है,
वह लड़ाई में मारा ही नहीं गया और वह लौटकर आएगा-ऐसी श्रद्धा शिया मुसलमान आज
भी रखते हैं। शियाओं के कुछ उपपंथ ऐसा कहते हैं कि अली और उसके वंशज इमाम के
रूप में ईश्वर ने ही जन्म लिया, वे ईश्वर स्वरूप थे। ईश्वर मनुष्य रूप में
अवतार ले सकता है। (यह उनकी श्रद्धा है) साबाई लोग तो अली को वास्तविक ईश्वर
ही मानते हैं। ईश्वर का अवतरण-'अलहोलूल' होता है और मनुष्य की देह में ईश्वर
रहता है। शिया पंथ का एक उपपंथ 'ईशाकी' तो कहता है कि अली स्वर्ग और पृथ्वी
के भी पहले अस्तित्व में था, वह तो मोहम्मद पैगंबर जैसा ही पैगंबर था।
इन शियाओं से आगे बढ़कर सूफी पंथी लोग तो अन्य अनेक मनुष्यों का देवत्व मान्य
करते हैं। उनके कई साधु तो कहते ही हैं कि हम ईश्वर के समक्ष बातें करते हैं।
हम ईश्वर को देखते हैं, हम ही ईश्वर हैं। इस तरह की बातें करना सुन्नी जैसे
एकेश्वरवादी मुसलमानों को कितना असह्य होता था, यह बात हुसैन अल हिलाज आदि को
जो, कत्ल किया गया, उससे प्रकट होती है। वे ईश्वर से साक्षात्कार की या स्वयं
ही ईश्वर होने की बातें करते थे। सूफी पंथ में बहुत बड़े-बड़े साधु हो गए।
वेदांती हुए। इन लोगों का तत्त्वज्ञान कुछ अंशों में ब्रह्मवाद की ओर झुकता
दिखता है।
शिया लोग यह मानते हैं कि सुन्नी लोग जो कुरान पढ़ते हैं उसमें उन्होंने अनेक
'प्रक्षिप्त' घुसेड़कर मिलावट कर दी है और कुरान अपने मूल सत्य रूप में नहीं
है। सुन्नी भी वैसा ही कहते हैं, वे भी कुरान में मिलावट किए जाने का आरोप
शियाओं पर लगाते हैं। सारांश यह कि शिया कुरान स्वतंत्र, सुन्नियों को वह
मान्य नहीं; सुन्नियों का स्वतंत्र, शियाओं को वह मान्य नहीं। दूसरा अत्यंत
विरोध का प्रश्न पैगंबर का है। सुन्नियों के विचार में इसलाम धर्म का
अपरिहार्य और मुख्य-से-मुख्य लक्षण यह है कि मोहम्मद पैगंबर ही अंतिम,
सर्वश्रेष्ठ और परिपूर्ण पैगंबर थे। उनके कहे कुरान के बाहर दूसरा पैगंबर नहीं
है। परंतु शिया लोग हजरत अली को भी मोहम्मद के बराबर का पैगंबर मानते हैं। कुछ
पंथ तो अली को मोहम्मद पैगंबर से भी श्रेष्ठ मानते हैं और कुछ तो उन्हें
ईश्वरमय ही मानते हैं। शिया और सुन्नी ऐसे अत्यंत मूलभूत विरोध के कारण
एक-दूसरे को काफिर कहते हैं। सुन्नियों के बड़े आचार्य तो शियाओं को मुसलमान
ही नहीं मानते। अर्थात् यही बात शिया सुन्नियों के लिए कहते हैं।
मोहम्मद पैगंबर के बाद में भी पैगंबर
मेरे बाद कोई भी पैगंबर नहीं होगा, मेरे पूर्व में अब्राहम गोसेज, जीसस आदि
अनेक पैगंबर, ईश्वरदूत हुए, पर उन्होंने ईश्वर का समग्र संदेश मनुष्य को नहीं
दिया और उन्होंने अपने अनुयायियों को जो संदेश दिए वे भी पूर्णता से संगृहीत न
कर उसमें मिलावट कर बाइबिल जैसे ग्रंथ बनाए। इसलिए समग्र और सत्य संदेश देकर
परमेश्वर ने मुझे भेजा। अब भविष्य में कोई अन्य पैगंबर मेरे सिवाय माना न जाए
ऐसा मोहम्मद पैगंबर ने बार-बार कहा। यह भी कहा कि जो कोई किसी दूसरे मोहम्मद
को मानेगा वह मुसलमान नहीं, महापापी है। यह इसलाम के सैकड़ों धर्मपंथों की
प्रतिज्ञा होते हुए मोहम्मद के बाद के मुसलमान पैगंबर कहना 'वदतो व्याघात'
मानना चाहिए। पर वास्तविकता यह है कि स्वयं को मुसलमान कहनेवाले अनेक पंथों के
लोग मोहम्मद के बाद भी पैगंबर हुए-ऐसा मानते हैं। जिन पुरुषों ने मोहम्मद के
बाद भी स्वयं को पैगंबर कहा-ईश्वर का दूत होने का दावा किया उनमें से कुछ की
जानकारी उदाहरण के लिए नीचे दे रहा हूँ-
१. मोसिलेमा- यह मोहम्मद पैगंबर का समकालीन था। अरबों की एक
जमात का मुखिया था। अपनी जमात की ओर से मोहम्मद से मिलने गया और इसलाम धर्म
स्वीकार कर लिया। बाद में स्वयं को पैगंबर कहने लगा; ईश्वर का दूत हूँ यह
प्रसिद्ध करवाया। अनुयायी भी मिले। कौन सा पैगंबर सच्चा है, यह निश्चित करना
सहज नहीं था। भविष्य ही कह सकता था, इसके सिवाय कोई मापनतंत्र मिलना असंभव था।
मोहम्मद पैगंबर की तरह ही मोसिलेमा भी अरबी में पद्यों की रचना करने लगा। वह
कहता, यह ईश्वरीय है। मोहम्मद पैगंबर को इससे बड़ा गुस्सा आया, वे उसे
लुच्चा-झूठा कहते, पर उसके भी अनुयायी बढ़ रहे थे इसलिए मोहम्मद की मृत्यु तक
उसका कुछ भी नहीं बिगड़ा। अबूबकर के जमाने में इन दोनों पैगंबरों में सच्चा
कौन है, इसका निर्णय हुआ। किस विधि से? ईश्वर ने कोई संकेत दिया इसलिए नहीं,
किसी तत्त्व विचार की तुलना से नहीं, आत्मिक या अन्य कसौटी से भी नहीं, अपितु
केवल लाठी के जोर से। लड़ाई में मोसिलेमा की दस हजार सेना काटी गई, मोसिलेमा
भी मारा गया, इसलिए वह आडंबरी पैगंबर साबित हुआ।
२. अल आस्वाद- एक और दूसरी अरब जमात का यह मुखिया था।
मोहम्मद का समकालीन। पहले इसलाम धर्म स्वीकार किया, परंतु फिर स्वयं ही
पैगंबर बनने की इच्छा हुई। देवदूत मुझे भी संदेश भिजवाते हैं, ऐसा प्रचारित
करवाया। नए-नए चमत्कार भी करने लगे। चमत्कारों से प्रभावित होकर यही वास्तव
में पैगंबर है ऐसा समझ हजारों लोग मोहम्मद को छोड़ इनके अनुयायी बने। मोहम्मद
पैगंबर जो कुछ आश्चर्यकारक करते उसे जो मुसलमान दैवी चमत्कार कहते वही और वैसे
ही नहीं, उससे भी अधिक आश्चर्यकारक कृत्य अल आस्वाद करने लगा। तब मोहम्मद
साहेब के अनुयायी उसे हाथ की सफाई, जादूगिरी कहते। इसके उलट अल आस्वाद के
अनुयायी मोहम्मद साहेब के चमत्कारों को जादू और आडंबर कहते।
इस तरह के आरोप-प्रत्यारोप पहले से ही पैगंबरों के प्रकरण में चले आ रहे हैं।
परंतु धीरे-धीरे अल आस्वाद प्रबल होता चला गया। मोहम्मद के एक सूबेदार और उसके
लड़कों को मारकर उसकी पत्नी से ही उसने विवाह किया। फिर इस पत्नी के पिता को
भी अल आस्वाद ने मारा था। इस सबका बदला लेने के लिए अल आस्वाद की इस पत्नी ने
मोहम्मद साहेब से मिलकर अपने महल में सैनिक घुसा लिये और अपने पति का गला
घोंटा। अल आस्वाद बड़े जोर-जोर से चिल्लाने लगा। पहरेदार उस आवाज को सुनकर
सहायता के लिए आए। दरवाजे पर ठक-ठक करने लगे। औरत ने अंदर से कहा, चुप रहो।
सवारी आई हुई है, इसलिए यह आवाज आ रही है। पैगंबर की पत्नी के ऐसा कहने से
पहरेदार चुप हो चले गए। अल आस्वाद का सिर काट मोहम्मद साहेब की सेना को महल
में बुला लिया। इस तरह एक नकली पैगंबर रूपी काँटा मोहम्मद साहेब के रास्ते से
हट गया। सच्चा पैगंबर कौन है? यह फिर एक बार तलवार से निश्चित हुआ। जिसकी
लाठी मजबूत वह पैगंबर।
३. तोलीहा- इसने भी स्वयं को ईश्वरदूत सिद्ध करने का प्रयास
किया।
४. पैगंबरी सेजाज- यह महिला पैगंबर के रूप में ख्यात हुई।
उसे हजारों अनुयायी मिले। मोसिलेमा पैगंबर से उसने विवाह किया, पर फिर वह अलग
हो गई और पैगंबर पद का उपभोग करती रही। परंतु उसका पंथ नामशेष हो गया।
हाकिम-बिन-हाशम या बुरकेवाला
यह भी अपने को पैगंबर कहता था। सुनहले बुरके में वह सिर से पैर तक ढका रहता
था। उसके अनुयायी कहते कि उसका ईश्वरीय तेज कोई नंगी आँखों से देख नहीं सकता
था। उसके शत्रु कहते, उसकी एक आँख नहीं है और लड़ाई में चेहरा भी बिगड़ गया
है इसलिए मुँह ढके रहता है। वह अनेक चमत्कार करता था। एक बार कुएँ से चाँद
निकाल कई-कई रातों को प्रकाशित किया, ऐसा उसके अनुयायी कहते। तब से उसे चंद्र
निर्माता कहा जाने लगा। ईश्वर का अवतार मान उसकी पूजा भी होने लगी। ईश्वर
मनुष्य शरीर में अवतार लेता है, अपना यह मत वह कुरान के आधार पर सिद्ध करता
था। सुन्नी लोगों से उसने भयंकर युद्ध किए और उसे अपने मरे सैनिक पुनर्जीवित
करने की विद्या आती है-ऐसा कहा जाता था। उसने घोषणा की कि वह अदृश्य होकर फिर
अवतार लेगा। एक बार एक किले में मुसलमानों द्वारा घेरे जाने पर वह अदृश्य हो
गया। सुन्नी मुसलमान कहते कि उसने स्वयं को जलाकर राख कर दिया। परंतु उसके
अनुयायियों को यह विश्वास था कि चंद्र निर्माता हाकिम अदृश्य हो गया। उसके
अनुयायियों का बड़ा पंथ श्वेतांबरी या सफेद जामावाले नाम से चालू रहा।
मुसलमानी खलीफा के झंडे का रंग काला होता है इसलिए ये सफेद परिधान धारण करते।
चंद्र निर्माता पैगंबर फिर से अवतार लेगा और सारी दुनिया पर वह राज करेगा-यह
उनका विश्वास है।
बाबेकी करमातियन,इशमेलियन,बाबी
ऐसे अनेक पंथों के संस्थापक और मोहम्मद के बाद के मुसलमानों में से पैदा हुए
पैगंबर बहुत होते आए हैं। हर पचास वर्ष बाद एक नया पैगंबर उत्पन्न होता है और
अपने अवतार-कार्य के संगत वह कुरान के अर्थ लगाता है या फिर मुझे ईश्वर ने नया
कुरान देकर भेजा है, ऐसा कहनेवाला और जिसके पीछे हजारों लोग लगे हैं, ऐसा
पुरुष पैदा होता ही है। मुसलमानों के इतिहास में मोहम्मद पैगंबर के समय से यह
क्रम आज तक चालू है। बाबी, करमातियन और इशमेलियन आदि ने तो ईसाइयों का इतना
विरोध नहीं किया जितना मुसलमानों का किया। हजारों मुसलमानों को मार डाला। हसन
सबाह की अधीनता में इशमेलियन लोगों ने अपने इमाम को अवतार मानकर उसके आदेश से
हत्या करनेवाला एक धर्म संप्रदाय ही प्रचारित किया। इस 'हसन' नाम का अंग्रेजी
में Assassin शब्द बना जिसका अर्थ होता है हत्या करनेवाला। बाब नामक पैगंबर ने
मोहम्मद पैगंबर से जुड़ा मंत्र कि ईश्वर के सिवाय ईश्वर नहीं और बाब ही
ईश्वरप्रेषित पैगंबर है, नमाज के समय कहना शुरू करवाया।
उपर्युक्त सुन्नी, शिया, बहावी आदि नाना पंथों, उपपंथों का झमेला और
लड़ाइयाँ भारतीय मुसलमानों के इतिहास में भी प्रारंभ से जारी हैं।
एक ताजा पैगंबर
इन पचास वर्षों के अंदर का एक ताजा उदाहरण है पंजाब के कादियानी पंथ के
मुसलमानों का। हजरत अब्दुल मिर्जा कादियानी नामक एक व्यक्ति को साक्षात्कार
हुआ कि वह स्वयं अली अकबर पैगंबर है। उनके पूर्व जो पैगंबर हुए उनमें कादियानी
महोदय ने यीशू, मोहम्मद, राम, कृष्ण आदि हिंदू अवतारों की भी गणना की। वेद
को भी ईश्वरप्रणीत ग्रंथ माना, जैसाकि कुरान है। परंतु पहले के सारे पैगंबर
और धर्मग्रंथ पूर्ण कार्य नहीं कर सके, इसलिए ईश्वर ने मिर्जा अब्दुल
कादियानी, जो सबसे अंतिम पैगंबर है, को भेजा। वे अपने को फिर भी मुसलमान
कहते। परंतु सारे मुसलमान उन्हें काफिर मानते हैं। काबुल की ओर भेजे गए उनके
प्रचारकों को पत्थरों से मार-मारकर मारने का दंड दिया गया था।
समापन
उपर्युक्त सब पंथों, उपपंथों के मत मुसलमानों के ही शब्दों में सच-झूठ,
अच्छा-बुरा इस तरह की कोई भी चर्चा न करते हुए दिए गए हैं, इस दृष्टि से
कुरान संपूर्ण मुसलमानों का अनन्य धर्मग्रंथ है और वे सारे उसे एक ही ईश्वर
प्रदत्त पुस्तक मानते हैं-यह लोकभ्रम कितना तथ्यहीन, खोखला, बेपेंदे का है,
यह स्पष्ट हो जाता है।
कुरान शब्दशः एक नहीं है। परस्पर विरुद्ध अर्थ कहनेवाले सात सौ पंथ मुसलमान
धर्मशास्त्रियों ने ही गिने हैं। सात सौ में से हर पंथ कुरान का अपना ही अर्थ
सच और ईश्वरीय मानता है और अन्य सारे मुसलमानी पंथों को काफिर, धर्मविहीन,
पाखंडी कहता है और शाप भी देता है कि वे सारे नरकगामी होंगे। माने वास्तविकता
देखते हुए कुरान सात सौ हैं, एक नहीं।
खताबियन पंथ
अब्दुल खताव नामक मुसलमान आचार्य का पंथ एक ही कुरान का अत्यंत विरोधी अर्थ
लगाने की परंपरा का शिरोमणी पंथ दिखता है। उसका मत है कि कुरान का अर्थ शब्दशः
न लेकर कहीं-कहीं लाक्षणिक रूप में भी लिया जाना चाहिए। वैसा लाक्षणिक अर्थ
लगाया जाए तो जो ईश्वरीय संदेश मिलता है वह यह कि ईश्वर द्वारा कुरान में बताए
स्वर्ग के माने हैं लोगों के समस्त सुख और भोग; नरक के माने दुःख और रोग। वह
कहता है-प्रलय की बात झूठी है, विश्व ऐसा ही चलेगा। इसलिए 'मद्यं मांसं च मीनं
च मुद्रामैथुनगेंव च' का यथेच्छ उपभोग करना ही धर्म है। इस दुनिया में जो-जो
कष्ट देनेवाली, उपवास आदि बातें हैं वही अधर्म हैं ('Sale's Koran
Introduction', पृष्ठ १३६) दिन में पचास बार नमाज पढ़ना चाहिए, पाँच से क्या
होगा? इस तरह एक ही कुरान का कर्मठ, कठोर अर्थ लगानेवाला 'करमाती' पंथ है तो
उसी कुरान का उपर्युक्त ढीला अर्थ लगानेवाला खताबियन पंथ भी है।
पुरुषबुद्धि एवं तर्क को अप्रतिष्ठित, अस्थिर मानकर अपौरुषेय, अनुल्लंघ्य,
तर्क से परे, देवदत्त धर्मग्रंथ को प्रमाण मानना ही उचित है-ऐसा कहनेवालों ने
कुरान की गत भी वेद या बाइबिल जैसी कैसे बनाई यह ध्यान में लाया जाए। ग्रंथ एक
ही कुरान, उसे त्रिकाल बाधित और अनुल्लंघ्य माना; इतना ही नहीं, जिस किसी ने
उसे वैसा नहीं माना तो लाठी के जोर से मनवाया, फिर भी कुरान का अर्थ लगाने के
लिए मनुष्य के पास पुरुषबुद्धि के सिवाय और कोई साधन न होने से एक कुरान के
सात सौ कुरान हो गए।
किसी भी ग्रंथ को ईश्वर प्रदत्त मानें तो मनुष्य की प्रगति एवं विज्ञान के
पैरों में बेड़ी डालकर धर्मोन्माद खुला घूमता ही है।
इससे अच्छा है यह मानें कि कुरान, पुराण, वेद, अवेस्ता, बाइबिल, टालमद
आदि सारे ग्रंथ मनुष्यकृत हैं। उस विशेष परिस्थिति में ज्ञान और अज्ञान से
संपृक्त परंतु लोकहित बुद्धि से प्रचारित होने से आदरणीय मानकर हम सब उनका
अध्ययन करें। प्रयोग करते हुए आज जो उसमें अतथ्य दिखे, अहितकारी लगे, उसे
छोड़ दें। तथ्य एवं हित जो हो, वह सबकी सामूहिक मानवी संपत्ति है-यह
स्वीकारना ही इष्टकर, तथ्यकर और हितकर है।
(किर्लोस्कर, जुलाई-अगस्त १९३५)
इसलाम में समता का झंडा
जिसे जो धर्म प्रिय, वह उसपर चले; जिसे जो धर्मग्रंथ ईश्वरीय या पवित्र लगे,
उसे वह माने। अन्यों को भी चाहिए कि वे उसे समुचित आदर दें। शिष्टाचार के ये
सारे आदर्श मानने में कम-से-कम हिंदू तो कभी भी आनाकानी नहीं करेगा।
'येऽप्यन्यदेवताभक्ता यन्ते श्रद्धयान्विताः। तेऽपि मामेति कौन्तेय
यजन्त्यविधिपूर्वकम्।' ये पाठ तो हिंदुओं के महान् ग्रंथ भगवद्गीता' में
दिया ही हुआ है।
गौब का पूर्व पक्ष
परंतु जब कोई मुसलिम या अन्य अहिंदू धर्मीय स्वयं धर्म की तुलना का प्रश्न
फैलाए, इतना ही नहीं, जो यह कहे कि हिंदू धर्म विषमता से ओत-प्रोत है और
हमारा मुसलिम धर्म आदमी-आदमी के बीच मानी जानेवाली विषमता से कोसों दूर है,
हमारे मुसलिम धर्म में सारे मानव समान माने जाते हैं, वे सब ईश्वर की संतान
हैं, समता और वैचारिक स्वतंत्रता का, दया और परधर्म सहिष्णुता का अमृत चाहिए
तो हिंदू धर्म को छोड़कर हमारा मुसलिम धर्म स्वीकार करो-ऐसे सार्वजनिक आमंत्रण
एवं आह्वान वे देने लगें तो ऐसे समय उनकी बात न काटते हुए, उनके आह्वान को
स्वीकार न करते हुए 'रावणाय स्वस्ति रामाय स्वस्ति' ऐसी ढीली-पोली वृत्ति से
बैठे रहना भी शिष्टाचार को भंग करना ही होगा, केवल भोलापन ही होगा। डॉ.
अंबेडकर जैसे अछूतों द्वारा धर्मांतरण की बात कहते ही अपना बड़प्पन और हिंदू
धर्म की निंदा खुले और बहाने-बहाने से आरंभ कर दी गई। धर्म तुलना का प्रश्न
पहले उन्होंने उठाया, उनकी आपत्तियों को हमने निर्भय संयम से सुना, अब उनके
द्वारा उठाए प्रश्नों के उत्तर हम दे रहे हैं और उन्हें चुपचाप सुनना चाहिए।
मुसलिम धर्म में सिद्धांत रूप से या व्यवहार में सारे लोग समान होते हैं।
उनमें धार्मिक ऊँच-नीच या जन्मजात जातिश्रेष्ठता बिलकुल नहीं है-यह अहं केवल
एक गप है, यह स्पष्ट करने के लिए मुसलिम धर्ममत के एवं व्यवहार के गौब जैसे
पक्षपाती मुसलिम धर्मप्रचारक भी अस्वीकार न कर सके, ऐसे कुछ उदाहरण नमूने के
रूप में नीचे दे रहा हूँ। इससे यह स्पष्ट हो जाएगा कि मुसलिम धर्म सिद्धांत
में एवं धर्म व्यवहार में विषमता है, केवल इतना ही नहीं अपितु वह कहीं-कहीं
अत्यंत असहिष्णु एवं आततायी (विषमतायुक्त) है। गौब चाहे तो इन उदाहरणों का वह
खंडन करे।
विषमता का प्रारंभ
इसलाम धर्म की मूल प्रतिज्ञा में ही विश्व को एकदम दो फाँक कर दिया गया है।
मोहम्मद साहब को पूर्ण और सच्चा पैगंबर माननेवाले ही केवल मुसलमान और शेष सौ
करोड़ मानव काफिर हैं। जो मुसलमान है वही स्वर्ग में जाएगा और सारे काफिर
हमेशा नरक में सड़ेंगे। माने मोहम्मद साहब को पैगंबर मानना मानवता का पहला गुण
है। सदाचार, परोपकार आदि सारे गुण गौण हैं। जो मोहम्मद को पैगंबर नहीं
मानेंगे, वे अनंत नरक में सड़ते रहेंगे। बुद्ध, कंफ्यूशियस, चीनी, जापानी
संत-महंत, यीशू, सारे ईसाई संत, वशिष्ठ, मनु, व्यास, ज्ञानेश्वर,
तुकाराम, रामानुज, चोखा, रैदास, चैतन्य, नानक सारे राष्ट्रभक्त लोकसेवक,
पूरे विश्व के अनगिनत महान् पुरुष और करोड़ों विगत एवं विद्यमान व्यक्तियों ने
मोहम्मद पैगंबर को ही सच्चा और अंतिम प्रेषित नहीं माना, इसलिए वे सब नरक में
सड़ने के योग्य हैं। यह जिस धर्म की पहली ही प्रतिज्ञा हो वह धर्म कितनी बड़ी
विषमता का वाहक है, यह कहने की कोई आवश्यकता नहीं है। नीच-से-नीच होगा, पर
यदि मोहम्मद साहब को पैगंबर मानता हो तो वह मुसलमान किसी भी काफिर साधु से
श्रेष्ठ होगा, ईश्वर को प्रिय होगा। ऐसा कुरान के पन्ने-पन्ने पर उद्घोषित
करनेवाला धर्म क्या पूरी मानवजाति को समान माननेवाला धर्म है? या फिर वह
आदमी-आदमी में भयंकर एवं असमर्थनीय धर्मोन्मादी विषमता फैलानेवाला धर्म है?
जिन मुसलमानों की ऐसी निष्ठा हो वे अपने धर्म का सुख से पालन करें। पर दूसरे
धर्म को विषमता फैलानेवाला कहकर लांछित करते हुए ऐसी गप न मारें कि हमारा
इसलाम धर्म ही सब आदमियों को समान माननेवाले विचार और आचार की स्वतंत्रता देता
है।
समता एवं सहिष्णुता का अर्क
जो मुसलमान होकर कुरान का हर वाक्य, चाहे वह बुद्धि और तर्क की कसौटी पर
कितना ही हीन लगता हो, ईश्वर के कथन जैसा अनुल्लंघ्य एवं सत्य नहीं मानेंगे वे
करोड़ों-करोड़ आदमी नरक में पड़े सड़ेंगे, वे काफिर होंगे। इस मूल सिद्धांत
की विषमता जितनी कठोर है उससे भी अधिक मुसलमानी शासन के अनुशासन, उनके स्मृति
ग्रंथ की विषमता सौ गुनी क्रूरतर है। उनके अनेक मौलवियों एवं बादशाहों ने
काफिरों को मृत्युदंड की धमकी देकर भी मुसलिम धर्म में लाना स्वीकारा, वैसी
ही धर्म व्यवस्था बनाई। जिन्होंने धर्मांतरण स्वीकार नहीं किया उनको कत्ल किया।
उनपर मुसलिम राज्य में एक विशेष हीनता का जजिया लगाया। उन्हें घोड़े पर बैठने न
देना, शस्त्र नहीं देना, उनके धर्माचार को अधर्माचार मानकर बंद कराना,
मुसलमानी धर्म ने यह नंगा नाच पर्शिया, अफगानिस्तान, हिंदुस्थान, स्पेन आदि
मुसलमानों द्वारा जीते हुए देशों में किया। जिनके कारण सैकड़ों शहीदों का रक्त
मुसलमानों ने बहाया, वे सब मानव ईश्वर की संतान हैं ऐसा कहने और सम-समान
माननेवाला मुसलमानी अनुशासक तो नहीं था। मोहम्मद गजनवी, अलाउद्दीन, औरंगजेब
आदि का शासन काल मानवी समानता और परमत सहिष्णुता का चरम काल था, क्या ऐसा कोई
मानेगा? समता तो छोडें, तब तो मुसलिम को छोड़ सबको आदमी की तरह जीने भी न
देनेवाला भयानक विषमता और आततायी असहिष्णुता का काल था जिसमें हिंदू रक्त से
इतिहास का हर पन्ना तर-बतर हुआ। वैसा ही स्पेन, सीरिया और ईरान में हुआ।
आज भी मुसलिम धर्मप्रचारकों ने उनके धर्मशास्त्र के अनुसार मनुष्यजाति को वैसे
ही दो फाँक बनाए रखा है, विषमता की क्रूर दीवार पाताल से स्वर्ग तक खड़ी की
हुई है। मौलवी मोहम्मद अली, शौकत अली जैसे पियर्स साबुन से धुले मुसलिम
प्रचारक भी बिलकुल खुले कहते हैं-"गांधी कितना ही सद्विचारक हो परंतु जब तक वह
काफिर है तब तक नीच-से-नीच मुसलमान भी मुझे उससे श्रेष्ठ ही लगेगा, पाक
लगेगा।"
अंदरूनी विषमता
मानवजाति में मुसलिम और काफिर ऐसे चिरंतन भेद डालनेवाली विषमता तो मुसलिम
धर्मशास्त्र में फैली है ही, इसके सिवाय मुसलमानों में भी समता या सहिष्णुता
नहीं है। समता को ही धर्मबाह्य माना जाता है। जैसे पैगंबर मोहम्मद साहब जिस
कोरेश जाति में जनमे वह जाति अधिकतर मुसलमानी पंथों एवं आचार्यों के मत से
जन्म से ही शुद्ध या श्रेष्ठ या विशेष माननीय जाति मानी जाती है। सुन्नी
आचार्यों में से अधिकतर इसी मत के हैं। यह मत इतना धर्मानुकूल समझा जाता है कि
मुसलमानों का खलीफा (शंकराचार्य एवं सम्राट) उस कोरेश जाति का ही होना चाहिए,
यह धर्मशास्त्र का एक बहुमत सिद्धांत ही है। अन्य मुसलिम जातियों में कितना ही
योग्य पुरुष हो पर खलीफा जन्मजात उच्च माने गए। मोहम्मद साहब की कोरेश जाति
में से ही चुना जाना चाहिए। कोरेश जाति का न हो तो वह खलीफा धर्मबाह्य। इस एक
प्रश्न पर मुसलमानों में रक्त की नालियाँ बही हैं। शिया पंथ के मतानुसार अली
साहब का वंश जन्मजात उच्च वर्णीय होता है, इसलिए खलीफा उस वंश का चाहिए। इसी
बात पर कर्बला में मुसलमानों ने मुसलमानों का भयानक कत्ल किया। मोहम्मद साहेब
के नाती को मोहम्मद के ही अनुयायियों ने पीड़ा दे-देकर मार डाला।
क्या गुलामी को मानवीय समता माना जाए?
गुलाम? मनुष्य को केवल पशु ही समझनेवाली गुलामी कुरान में धर्मबाह्य नहीं है।
स्वयं मोहम्मद पैगंबर और उनका हर अनुयायी गुलाम रखता था। मुसलमानी धर्म में
गुलाम रखना पशु पालने जैसा वैध कर्म माना जाता था। यह निर्विवाद सत्य बात थी।
इतना ही नहीं, बड़ी-बड़ी लड़ाइयों में हारे हुए शत्रु-स्त्री-पुरुष, बालक
बालिकाओं-को भरे बाजार में पशुवत् बेचा जाता था। गुलाम माने एक पशु। उनकी संतान
उनकी नहीं, उनके मालिक की होती थी। घर की मुरगी या गाय के बछड़े जैसे उससे दूर
कर किसी को भी बेचे जा सकते हैं वैसे ही इन गुलाम बच्चों को बेचा जाता था।
मालिक के मरने पर गुलामों का संपत्ति जैसा बँटवारा होता था। गुलाम का
पारिवारिक जीवन नहीं रहता था। पत्नी को पति या पति को पत्नी नहीं होती थी। कोई
संपत्ति या पैसा-कौड़ी भी वह स्वयं की नहीं रख सकता था। आदमी-आदमी के बीच की
समानता तो छोड़ें, मानवता ही छीन लेने की यह भयंकर प्रथा जिस इसलाम धर्म में
वैध है और लाखों मुल्ला, मौलवी, खलीफा, बादशाह, अमीर, उमरावों ने जिसका
उपभोग किया, उस इसलाम धर्म में समता का राज्य है-ऐसा कहना बर्बरता नहीं है
क्या? गुलामी बंद की ईसाइयों ने। मुसलमानों को उसे जबरन बंद करना पड़ा। ईसाई
राष्ट्रों ने भी जो गुलामी प्रथा बंद की वह मुख्यतः राजनीतिक कारणों से।
क्योंकि ईसाई धर्म में भी वह धर्मबाह्य नहीं है। 'Slaves, obey your Masters'
ऐसा बाइबिल कहता है।
कट्टर अस्पृश्यता
जो बातें सिद्धांत और अनुशासन की वही लोकरीति की। पठानी मुसलमानों में जाति
विषयक ऊँच-नीच इतनी तीव्र है कि भिन्न जातियों में बेटी-व्यवहार नहीं हो सकता।
अन्य अनेक मुसलमान जातियों में भी ऐसा ही होता है। मुसलमानों में अस्पृश्यता
भी रूढ़ है। बंगाल में मुसलमानों में स्पृश्य मुसलमान एवं अस्पृश्य मुसलमान का
भेद इतनी कट्टरता से पालन किया जाता है कि बंगाल में मुसलमानों को मिलनेवाली
नौकरियाँ एवं प्रतिनिधित्व स्पृश्य मुसलमान ही भोगते हैं। अस्पृश्य मुसलमानों
को कुछ भी नहीं मिलता।
मुसलमानों में मसजिदें भी अनेक जगह अलग-अलग होती हैं। एक पंथ की मसजिद में
दूसरे पंथ के लोग नहीं जा सकते। क्योंकि वह पंथ अधिकतर दूसरे पंथ के लिए ईश्वर
से यही प्रार्थना करता है कि इस काफिर को नरक में भेज। शिया मुसलमानों की
मसजिद में हसन-हुसैन के वंश के, ईश्वरीय वंश के इमाम की प्रार्थना कर सुन्नी
खलीफाओं को झूठा कहनेवाली मसजिद में सुन्नी कैसे जाएँगे? वैसे ही उसी तीव्र
धार्मिक मतभेद से सुन्नी की मसजिद में शिया पंथी कैसे जाएगा? क्योंकि वहाँ
इमाम का विरोध कर खलीफा पर प्रभु की कृपा रहे, ऐसी प्रार्थना जो होती है।
जिस इसलाम धर्म में प्रार्थना मंदिर भी एक नहीं हो सकते वहाँ यह कहना कि हममें
समता का राज है, मानवीय विषमता हम नहीं मानते, जातिभेद नहीं है, मुसलमान
पूरा एक है; एकमत, एकपंथी और एकजाति है ऐसी प्रतिज्ञा करना गप्पें लड़ाना
जैसा ही है। मसजिद जैसे ही सुन्नी पंथ के कब्रिस्तान भी अलग-अलग होते हैं।
सुन्नियों के कब्रिस्तान में शिया का शव नहीं गाड़ा जा सकता, वैसे ही शियाओं
के कब्रिस्तान में सुन्नियों का शव नहीं दफनाया जा सकता।
कुछ-एक अस्पृश्य नेताओं ने व्याख्यानों और समाचारपत्रों के माध्यम से ऐसा
हल्ला-गुल्ला किया है कि वे समता और सत्य की दृष्टि से धर्म की खोज करने हिंदू
धर्म से बाहर हो गए हैं और कुरान का अध्ययन कर रहे हैं। वे तुलनात्मक अध्ययन
अवश्य करें। तुलना की लालटेन से डरकर तथा किसी की उपेक्षा या दया पर हिंदू
धर्म एवं हिंदू संस्कृति जीना नहीं चाहती। तुलना में टिकी रहकर ही वह जीना
चाहेगी। परंतु तुलना करते समय मुल्ला-मौलवी उनके हाथों में गलत मापदंड न पकड़ा
दें इसके लिए वे सावधान रहें। गौब जैसे पक्षपाती प्रचारकों की टीका-टिप्पणी पर
वे इसलाम धर्म की कल्पना न कर लें। कम-से-कम वे मुसलमान सज्जन द्वारा ही किया
गया कुरान का मराठी अनुवाद अवश्य पूरी तरह पढ़ लें। इसके बाद SALE का
अंग्रेजी अनुवाद एवं विशेष रूप से उसकी लंबी-चौड़ी प्रस्तावना अवश्य पढ़ें।
उसके बाद जस्टिस अमीर अली जैसे कट्टर मुसलमान द्वारा लिखित 'History of
Sarasins' यह मुसलमानी इतिहास भी अवश्य पढ़ें।
और इसके बाद किर्लोस्कर मासिक के जुलाई और अगस्त सन् १९३५ में लिखे मेरे
लेख-'मुसलमानों के पंथ-उपपंथ' समीक्षात्मक विवेचन की दृष्टि कैसी होनी चाहिए
यह ज्ञात करने के लिए अवश्य पढ़ें। कम-से-कम इतना पढ़ लेने के बाद फिर अंत में
स्वामी दयानंद के 'सत्यार्थ प्रकाश' में दिया गया मुसलिम मत खंडन का उत्तर
पक्ष के रूप में पढ़ें। इस सबसे मुसलमानी धर्म एवं आचार और विशेषतः भारतीय
मुसलमानों में सीमारहित अस्पृश्यता तथा असहिष्णुता कितनी व्यापक है यह अपने-आप
ज्ञात हो जाएगा।
(केसरी, १७.१.१९३६)
प्रकरण-९
हमारे'अस्पृश्य'धर्मबंधुओं
को चेतावनी
अपने हिंदू समाज में अत्यंत अन्याय और आत्मघाती अस्पृश्यता की जो रूढ़ि पड़ी
हुई है उसका उच्छेद करने के लिए हम कितने प्रयास कर रहे हैं, यह 'श्रद्धानंद'
(पत्रिका) के पाठकों को कहने की आवश्यकता नहीं है।
अस्पृश्यता के नाम पर हम अपने ही सात करोड़ धर्मबंधुओं को व्यर्थ ही पशुओं से
भी हीन मानें, यह मनुष्य जाति का अपमान तो है ही, पर यह अपनी आत्मा का भी
घोर अपमान है, इसलिए अस्पृश्यता से हमें छुटकारा पाना है-ऐसा मेरा स्पष्ट मत
है। अस्पृश्यता निवारण से आज अपने हिंदू समाज का ही हित है, इसलिए भी हमें
उससे छुटकारा चाहिए। पर मान लें, उससे किसी कारण हमें लाभ भी होता तब भी हमने
उसके विरुद्ध इतना ही प्रबल आंदोलन चलाया होता। क्योंकि मेरे अस्पृश्य माने
जानेवाले भाई को केवल वह अमुक जाति का है इसलिए मैं स्पर्श नहीं करता और किसी
कुत्ते-बिल्ली को छूने में कोई संकोच नहीं करता, तब मैं मनुष्य के विरुद्ध एक
अत्यंत हीन अपराध कर रहा होता हूँ। केवल आपदा से छुटकारा पाने के लिए
अस्पृश्यता को हटाना है, ऐसा नहीं है। धर्म का किसी भी तरह से विचार करें तो
भी वर्तमान की इस अमानुषिक रूढ़ि का समर्थन करना अशक्य है, इसलिए धर्म का
आदेश मानकर ही हमें वह रूढ़ि नष्ट करनी चाहिए। न्याय की दृष्टि से, धर्म की
दृष्टि से, मानवता की दृष्टि से कर्तव्य है, इसलिए अस्पृश्यता का कलंक हम
हिंदू साफ धो डालें। इससे आज की परिस्थिति में लाभालाभ क्या हैं यह प्रश्न गौण
है। यह लाभालाभ का प्रश्न ही आपद्धर्म है और अस्पृश्यता निवारण ही मुख्य और
निरपेक्ष धर्म है।
परंतु जिस तरह ईश्वर-भक्ति करना मुख्य धर्म होते हुए भी जो उच्च भावना से वह
कर नहीं सकता उसे निष्काम बुद्धि से भी न हो तो अभ्युदय के लिए, पुत्र, धन,
पत्नी, आरोग्य आदि की प्राप्ति के लिए ईश्वर-भक्ति का कहना उचित ही होता है,
उसी तरह केवल न्याय के लिए तथा मनुष्यता का धर्म जानकर अस्पृश्यता त्याज्य है
यह समझने किसी-किसी का मन उदार, विशाल न हो तो धर्म समझकर नहीं, पर कम-से-कम
आपद्धर्म है, यह मानकर ही अस्पृश्यता की रूढ़ि नष्ट करो यह कहना उचित है। इतना
ही नहीं अपितु न्याय-दृष्टि से और नीति-दृष्टि से भी वह कर्तव्य होता है।
विद्यालय में पढ़ने के लिए नहीं जानेवाले लड़के को रोज मिसरी की डली देकर
विद्यालय भेजना जरूरी होता है। इसका कारण यह है कि शिक्षा की रुचि लगते ही वह
अपने-आप विद्यालय जाने लगेगा। वही स्थिति उस हिंदू समाज की भी है जिसमें
असंख्य अनुयायियों में से धर्म के उदार भाव लुप्त हो गए और अन्यायी और
आत्मघाती रूढ़ि को ही धर्म समझा जाने लगा है। न्याय के लिए अस्पृश्यता छोड़ने
की बात तुम्हें समझ न आती हो तो तुम्हें समझ में आए तब तक ठहरने का समय न होने
से उस अमानुषिक रूढ़ि से राष्ट्रपुरुष के प्राण जाने की स्थिति आ जाने से अब
उतनी देर भी असह्य है। यह रूढ़ि आत्मघाती है, इसलिए उसे तू छोड़-यह बार-बार
कहना पड़ता है और कहना अपरिहार्य ही नहीं, कर्तव्य भी है। यह कर्तव्य करते
हुए बार-बार यह सिद्ध कर दिखाना पड़ता है कि अस्पृश्य लोग इस अन्याय त्रास से
उकताकर धर्म परिवर्तन करने के निंद्य मोह में पड़ जाते हैं और उससे हिंदू समाज
के संख्याबल और गुणबल की भयंकर हानि होती है। धर्मशास्त्र को अस्पृश्यता मान्य
है ऐसा थोड़ी देर के लिए मान भी लिया तो भी धर्मशास्त्र में आपधर्म की जो
व्यवस्था है उसमें 'राष्ट्रविप्लवे स्पष्टास्पष्टिर्न विद्यते' जैसी स्पष्ट
और निर्णायक आज्ञा भी है। इसलिए धर्मशास्त्र के अनुसार नहीं तो आपद्धर्म
शास्त्र के आज्ञानुसार ही यह अस्पृश्यता की रूढ़ि छोड़ना कर्तव्य है, ऐसा
घुमाकर कहना पड़ता है।
हिंदू राष्ट्र के उद्धार के लिए आवश्यक होने से धर्म न सही आपद्धर्म समझकर ही
अस्पृश्यता निवारण के लिए सैकड़ों लोग तैयार हो जाएँ तो युगों-युगों से मरे
पड़े अस्पृश्यता के कुसंस्कार धीरे-धीरे धुँधला जाते हैं और वे मूर्खताजनित
पूर्वग्रह, जो अस्पृश्यों के प्रति दृढ़ हुए हैं, वे उनकी संगति, विचार और
संपर्कों से झूठे हो जाते हैं। यह बात जिनके ध्यान में आ जाती है अस्पृश्यता
का पूरे मन से धिक्कार करने लगते हैं, इसलिए नहीं कि आपद्धर्म के रूप में
स्वीकार की गई बात लाभकर है बल्कि न्याय है इसलिए, उपकार नहीं मानवता के
कारण।
उनके लिए अस्पृश्य जाति को अस्पृश्य कहना भी भारी हो जाता है और उन्हें
'पूर्वास्पृश्य' या ऐसा ही कुछ कहने लगते हैं। यह अनुभव हमें सैकड़ों जगह,
प्रामाणिक परंतु पुराणप्रिय धर्मशास्त्रियों से लेकर अज्ञानी और इसीलिए
शास्त्र से भी अधिक रूढ़िअंध-गँवार किसान तक अनेक बार हुआ है।
उपर्युक्त सब विस्तार से कहने का मूल हेतु यह है कि 'श्रद्धानंद' पत्रिका
में जब हम यह कहते थे कि अस्पृश्यता निवारण से अमुक लाभ हैं, इसलिए
अस्पृश्यता छोड़ें तब यह भी कहा जाता था कि अस्पृश्यता त्यागने की बात यदि
धर्मशास्त्र में नहीं मिलती तो आपद्धर्म के सूत्रों में वह मिलेगी, इसलिए
आपद्धर्म समझकर ही अस्पृश्य बंधुओं को गले गलाएँ। पर यह तर्क दूसरे क्रमांक का
है, फिर भी यह कहा जाता था।
'श्रद्धानंद' में इस संबंध में प्रकाशित लेख प्रामाणिक व्यक्तियों द्वारा भी
पूरे न पढ़े जाने और केवल बीच-बीच की कुछ कंडिकाएँ ही पढ़ने से कुछ भ्रांतियाँ
जन्म लेती हैं और उनके लिए ही स्पष्टता से और बलपूर्वक यह कहना आवश्यक है कि
अस्पृश्यता की रूढ़ि अति अन्यायकारी और आत्मघाती होने से मूलतः मानवीय आधार पर
ही हम हिंदू उसका निर्दलन करें, अन्य सारे कारण गौण हैं। यही हमारा अबाधित मत
है।
ऊपर लिखे गए और व्यावहारिक आधार पर भी विचार करें तो हमें ऐसा लगता है कि
तथाकथित अस्पृश्य बंधुओं को विधि के द्वारा प्राप्त अधिकारों का भी स्पृश्य जन
इसके बाद भी विरोध करेंगे तो उन विधिक अधिकारों को प्राप्त करने के लिए जहाँ
अपरिहार्य हो वहाँ तथाकथित अस्पृश्य यदि शांत सत्याग्रह करते हैं तो उन्हें
कोई दोष नहीं दिया जा सकता। अर्थात् मन परिवर्तन से और स्पृश्यों का मन घुमाकर
वे विधिक अधिकार प्राप्त करने के सारे मधुर उपाय हार जाने के बाद ही निरुपाय
होकर ऐसे सत्याग्रह किए जाएँ। अनेक स्थानों पर स्पृश्य लोगों को न्याय और
व्यवहार से आज यह बात समझाना सरल है कि सार्वजनिक स्थान और प्रसंग में
अस्पृश्यता त्याज्य माननी चाहिए। यह हमारा अनुभव है। वैसे ही ऐसे बंधुभाव से
ही वह प्रश्न सुलझ सकता है, यह भी निश्चित है। परंतु कभी-कभी इस प्रश्न का
वैसा कोई हल नहीं निकलता है तो अपने विधिक अधिकारों के संरक्षण के लिए
अस्पृश्य बंधुओं को सत्याग्रह, शांत सत्याग्रह, करना पड़ सकता है-यह भी हमें
ज्ञात है। सत्याग्रह की नीति हमेशा की नहीं है, परंतु विशिष्ट और अपवाद रूप
में प्रयोग में लाने का एक कड़वा परंतु अपरिहार्य अंतिम उपाय तो है ही।
सार्वजनिक विद्यालय, नल, नगर संस्था, जिला समितियों आदि स्थानों पर, विशेषकर
जहाँ जहाँ मुसलमान आदि अहिंदू स्पृश्य समझे जाते हैं, वहाँ-वहाँ और उससे भी
आगे एक कदम हमारे तथाकथित अस्पृश्य बंधुओं को स्पृश्य बंधु द्वारा आने देना
चाहिए। वह उनका न्यायिक अधिकार है, वह उनका विधिक अधिकार है। इसी कारण डॉ.
अंबेडकर द्वारा 'महाड' में आयोजित सत्याग्रह आंदोलन हमें दोषपूर्ण नहीं लगता,
यह हम स्पष्टता से घोषित करना चाहते हैं। क्योंकि महाड के संबंध में जो बात
खुले रूप से ज्ञात है वह यह कि जिस तालाब से मुसलमान पानी भरते हैं और बरतन भी
धोते हैं उस तालाब से पानी की तंगी के दिनों में भी अपने अस्पृश्य हिंदू
बंधुओं को पानी पीने से रोका गया। इतना ही नहीं, नगर संस्था के आदेश के बाद
तालाब पर आकर पानी पीनेवाले अस्पृश्य बंधुओं को स्पृश्य बंधुओं ने मारा-पीटा।
अस्पृश्य मंदिर प्रवेश करेंगे-ऐसी आशंका के कारण ही यह मारपीट हुई ऐसा कहना
विश्वसनीय नहीं हो सकता। क्योंकि फिर गोमूत्र छिड़ककर उस तालाब की शुद्धि नहीं
की जाती। अपने धर्म के रक्त के, बीज के हिंदू मनुष्य के स्पर्श मात्र से जल
दूषित हो जाता है और पशु मूत्र छिड़कने से शुद्ध हो जाता है। इस अत्यंत
तिरस्कार योग्य प्रकरण में मनुष्य स्पर्शजन्य भ्रष्टता की भावना अधिक तिरस्कार
योग्य है या वह पशु मूत्र से शुद्ध करने की भावना अधिक धिक्कार करने योग्य
है-यह कहना कठिन है।
नगर संस्था और विधिमंडल इन दोनों ही विधिक संस्थाओं ने जो विधिक अधिकार
अस्पृश्यों को दिए थे, वे अधिकार यथासंभव शांति से मिलने के सारे प्रयास करने
के बाद भी महाड के लोगों ने उन्हें वे बंधुभाव से नहीं दिए। जब मुसलमान तालाब
का पानी पी रहे थे तब हिंदुओं के द्वारा हिंदुओं को पानी छूने से भी मना करना
कितना बड़ा कलंक है! ऐसे में महाड जाकर उस तालाब पर शांति से सत्याग्रह कर
पानी लेने का प्रयास करना केवल अस्पृश्यों का नहीं अपित अखिल हिंदू का कर्तव्य
है। इस न्याय कार्य में जो कुछ भी धींगामुश्ती हुई वह डॉ. अंबेडकर सत्याग्रह
मंडल की ओर से न होकर महाड के धर्मविमूढ़ स्पृश्यों की ओर से हुई और यह अतिरेक
यदि टालना है तो डॉ. अंबेडकर की मंडली को 'जाने भी दो' कहकर टाला नहीं जा
सकता। हमारा महाड के हिंदू बंधुओं से प्रेमाग्रहपूर्वक निवेदन है कि वे अब भी
चेतें और इस दुःखद अध्याय का अंत करें और वैसा करना कितना सरल है। यदि एक पत्र
पूरे समाज की ओर से या नगर संस्था की ओर से हमारे महाडकर बंधु उनके हिंदू धर्म
के नाम पर जो कुछ भी अपमान हुआ हो, उसे भूलकर प्रकाशित करने की उदारता
दिखाएँगे और कहेंगे कि इस तालाब पर हमारे अस्पृश्य बंधु आएँ और सुख से पानी
पीएँ तो सत्याग्रह करने का दुःखद अवसर तत्काल टल जाएगा। हिंदू अपने ही प्यासे
हिंदू बंधु को तालाब पर पानी न पीने दें और वह सारा मजा उसी तालाब का पानी
पीते खड़े मुसलमान और ईसाई हँसते, मुस्कराते देखें, यह अति लज्जाकारी दृश्य
हमारे महाडकर बंधु विश्व को फिर से न दिखाएँ, यह हमारा उनसे हार्दिक निवेदन
है।
महाडकर यदि ऐसा पत्र सर्वसम्मति से प्रकाशित न कर पाएँ तो वे ऐसा करें कि जब
अपने हिंदू बंधु पानी पीने दलबल सहित आएँ तब उनका बिलकुल भी विरोध न करते हुए
वह पानी उन्हें सुख से पीने दें जिससे कलहप्रिय परधर्मी लोगों की सारी उठापटक
(खटाटोप) व्यर्थ हो जाएगी और शिकार से वंचित व्याध की तरह उनकी फजीहत हो
जाएगी। अपने अस्पृश्य बंधुओं के हमले को हम स्पृश्य बंधु स्वयं ही पराजय
स्वीकार कर पराजित करें। अंग्रेजों और मुसलमान गुंडों के सामने हार न मानें,
जो कुछ भी धर्माभिमान और शौर्य है वह उन दो के सामने हम दिखाएँ। अपनी ही जीभ
को अपने ही दाँतों से काटने में कौन सा पौरुष है?
जिस तरह 'स्पृश्य' बंधुओं से हमारा यह निवेदन है उसी तरह हमारे अस्पृश्य
बंधुओं को भी एक चेतावनी देना हमें अपना कर्तव्य लगता है। और वह चेतावनी यह कि
वे स्पृश्य हिंदुओं को यह धौंस देना बंद करें कि अस्पृश्यता हटाओ अन्यथा हम
धर्मांतरण करेंगे। क्योंकि ऐसा कहना भी उनको बहुत लांछनास्पद है। अस्पृश्यता
जो हटाएगा उसका ही केवल हिंदू धर्म पर अधिकार है और 'अस्पृश्य' सारे हिंदू
धर्म में आए हुए कोई मेहमान हैं क्या? अस्पृश्यों के लिए हिंदू धर्म चाहे जब
फेंक सकें ऐसा जीर्ण कपड़ा या बाजार से लाई गई सब्जी-भाजी तो नहीं है। हिंदू
धर्म की और हिंदू संस्कृति की, हिंदू देश की और हिंदू इतिहास की, हिंदू
तत्त्वज्ञान की और हिंदू वाङ्मय की, संक्षेप में हिंदुत्व की यह अपनी
पूर्वार्जित विरासत केवल वशिष्ठ जैसे ज्ञानी ब्राह्मणों ने या श्रीकृष्ण जैसे
गीता उद्घोषक क्षत्रिय ने या हर्षवर्धन जैसे साम्राज्य निर्माता वैश्य ने या
नामदेव, तुकारात जैसे संतों ने ही अर्जित नहीं की, उसे अर्जित करने में
अस्पृश्य जाति के अनेक पूर्वज भी लगे रहे। उस हिंदुत्व की रक्षा करने में
हजारों अस्पृश्य वीर रणभूमि पर खेत रहे हैं। महाभारत के एक उज्ज्वल अध्याय में
व्याध गीता का उद्गाता 'अस्पृश्य' से लेकर हिंदुत्व के भगवा ध्वज के
रक्षणार्थ अपने प्राण न्योछावर करनेवाले महार, शिदनाईक तक के लाखों अस्पृश्य
संत, चिंतक, वीर आदि ने हिंदुत्व की इस सामूहिक संपत्ति का उपार्जन और
संरक्षण किया है। हिंदुत्व के गाँव सीमा की रक्षा में जिन महारों ने रातें
जागते हुए काटी हैं, वे सारे महार तुम्हारे ही पूर्वज थे।
हाँ, यदि पूर्वजों की ही बात करनी है तो अनुलोम-प्रतिलोम विवाहों के कारण ही
अस्पृश्यों की उत्पत्ति अधिकतर हुई है, इसलिए उनके और तुम्हारे पूर्वज एक ही
हैं। यह तथ्य कम-से-कम त्रैवर्णिक तो नकार नहीं सकते। क्योंकि अस्पृश्यों का
रक्त स्पृश्यों के शरीर में संचार कर रहा है और स्पृश्यों का अस्पृश्यों के
शरीर में। इस विधान की पुष्टि उनकी मनुस्मृति ही देती है। पंचमादिक वर्णों की
उत्पत्ति की उपर्युक्त मीमांसा उन्हें मान्य मनुस्मृति में ही कही हुई है। फिर
जब कुछ समय पूर्व स्पृश्यों और अस्पृश्यों के पूर्वज एक ही थे तो यह हिंदुओं
की विरासत जितनी स्पृश्यों की है उतनी ही अस्पृश्यों की परंपरागत स्वायत्त
संपत्ति है। तुम्हारे और हमारे वे पूर्वज जब एकत्रित थे तब और आगे
गाँव-के-गाँव में ही स्पृश्य-अस्पृश्य के झगड़े कर अलग हुए तब भी सामूहिक श्रम
से प्राप्त की है। सामूहिक शौर्य से संरक्षित रखी है। उसपर जितना स्पृश्यों का
है उतना ही अस्पृश्यों का पैतृक अधिकार है। फिर आप यह कैसे पूछते हैं कि 'इस
हिंदुत्व पर हमारा अधिकार है या नहीं? हिंदू धर्म हमारा है कि नहीं?'
इस प्रश्न में तुम अनजाने में यह मानकर चल रहे हो कि हिंदुत्व मानो अकेले
स्पृश्यों की विरासत है। तुम स्वयं ही अपना अधिकार यों छोड़ कैसे देते हो?
किसी राज्य के दो वारिस हों और उनमें से एक वारिस ने दूसरे को हीन स्थिति में
रखा हुआ है तो क्या वह दलित वारिस छली के छल से उकताकर उस राज्य को ही छोड़ दे
और परशत्रु के दरवाजे से फेंके टुकड़ों पर पले? यह श्रेयस्कर और वीरवृत्ति को
शोभादायी नहीं है। वह छली वारिस राज्य को छोड़ जाने का आदेश भी दे तो भी उसकी
चिंता न कर राज्य पर अपना न्याय अधिकार बनाए रखना ही वीरवृत्ति का परिचायक है।
मेरे तथाकथित अस्पृश्य बंधुओ, तुम इस हिंदुत्व के सनातन और पूर्वज अर्जित
साम्राज्य पर अपना अधिकार जताओ, दरवाजे के सामने खड़े भिखारी की तरह भीख
माँगना और न मिलने पर आगे बढ़ना-ऐसे डरपोक भाव का प्रदर्शन न करो। घर के मालिक
की तरह घर में बराबरी से खड़े रहो। तुम्हारे स्पृश्य बंधु चाहे तो कहें कि तुम
हीन हो, हिंदुत्व का यह महान् सांस्कृतिक राज्य मेरा है, तू निकल जा बाहर;
तुम उनकी बात न मानकर उनसे उलटकर कहो यह अकेला तुम्हारे बाप का अर्जित किया
हुआ नहीं है। उसके अर्जन में पिछले हजार-हजार वर्ष मेरे भी पूर्वज प्रयासरत
रहे हैं। मैं बाहर नहीं जाता, मुझे 'बाहर जा' कहने का अधिकार तुम्हें नहीं
है। तुमने आज तक अपनी सामूहिक संपत्ति को बहुत भोगा, अब मैं तुम्हें उसे
अकेले भोगने न दूँगा।
हिंदूधर्म मेरा है,उसे छोड़ने के
लिए कहनेवाला तू कौन?
ऐसा प्रश्न तुम स्पृश्यों को करना चाहिए। हिंदू धर्म में रहने देने या न रहने
देनेवाले अधिकारी ये स्पृश्य लोग ही हैं ऐसी हीन भावना हमारे अस्पृश्य बंधुओं
को कभी नहीं करनी चाहिए। और वह दरिद्र भावना व्यक्त करके यह कहना कि 'हमें
छुओ' नहीं तो हम दूसरे घर जाते हैं, ऐसी अत्यंत भिखारी और दुर्बल कुलकलंक
जैसी बातें कहकर अपने ही पूर्वजों का घर छोड़कर उनके शत्रु को ही अपना पूर्वज
समझने का डरपोकपन कभी भी नहीं करना चाहिए। क्योंकि हिंदुत्व का अधिकार छोड़ना
सारे अस्पृश्य संतों को छोड़ना, भुला देना होगा। इन संतों और उनके विशाल शिष्य
वर्ग ने अर्थात् तुम्हारे प्रत्यक्ष पूर्वजों द्वारा उपार्जित की हुई संपत्ति
डरकर छोड़ भाग जाना, न कभी नहीं। जो हिंदुत्व तुम्हारी हजारों पीढ़ियों ने
अपने प्राण दाँव पर लगाकर, अस्पृश्यता की सारी पीड़ाएँ भोगते हुए अर्जित
किया, उस हिंदुत्व को छोड़ना तुम्हारे ही उन महार, माँग आदि सोमवंशी कुल के
शत-सहस्र पूर्वजों को मूर्ख मानकर अपने बाप का नाम बदलने जैसा है। फिर तुम्हें
राम हमारा, कृष्ण हमारा, काशी हमारी, मथुरा हमारी, द्वारका हमारी, कालिदास
हमारा, व्यास हमारा यह हिंदू संस्कृति हमारी-ऐसा कहने का और अनुभव करने का
अधिकार नहीं रहेगा। जो तुम्हारे स्वयं के माता-पिता हिंदू बनकर रहे उन्हें
तुम्हें काफिर कहना पड़ेगा। तो अब ऐसी अमंगल भाषा तुम स्वयं के जातीय अभिमान
के लिए मुँह से नहीं निकालना।
एक भाई ने दूसरे को पीड़ित किया तो दूसरा पहले से लड़े और अपना न्याय भाग
प्राप्त करे। ऐसा न करे कि उस भाई पर का गुस्सा निकालने के लिए अपने बाप को
बाप कहना ही छोड़ दे और श्राद्ध के दिन किसी दूसरे और उसमें भी उससे जिससे
दोनों भाइयों के बाप-दादे लड़ते रहे ऐसे परशत्रु को पिता मान उनका श्राद्ध
करे। इसलिए हे मेरे धर्मबंधुओ, यह नीच भावना मन को छूने भी मत दो। स्वधर्म
त्याग की भावना जिसके मन में आती है वही वास्तविक अस्पृश्य है। वह तुरंत
पश्चात्ताप का प्रायश्चित्त कर ले।
और ऐसी हीन बात सोचते हुए तुम मुसलमान के दरवाजे पर जाते हो तो भी तुम्हें
कुत्ते की तरह टुकड़ों पर ही जीना पड़ेगा। हसन निजामी नामक एक मुसलमान की
लिखित पुस्तक है-'चेतावनी घंटा' (Alarm Bell)। उसमें निजामी ने स्पष्ट कहा
है, उच्च और कुलीन मुसलमानों को चाहिए कि वे धर्मांतरित होकर आए हिंदू भंगी,
महार आदि से बेटी आदि व्यवहार करे, ऐसा मैं बिलकुल नहीं कहता।
हैदराबाद के निजाम के समय मुसलमान हुए महार आदि अस्पृश्यों के हाथ का पानी न
पीनेवाले अनेक मुसलमान हमने देखे हैं। कुछ वर्षों पूर्व धर्मांतरित अस्पृश्यों
की अनेक जातियाँ मुसलमान समाज में अभी भी जैसी-की-तैसी अलग बनी हुई हैं।
ईसाइयों में तो त्रावणकोर में स्पृश्य ईसाई और अस्पृश्य ईसाइयों के बीच
बार-बार दंगे होते रहते हैं यह तो सबको ज्ञात ही है। अर्थात् मुसलमान होने पर
कोई बड़ा राज्य मिलनेवाला है-ऐसा नहीं है।
वैसा वह राज्य मिलता तो भी केवल उसके लिए तुम्हारे ही पूर्वजों की हजारों वर्ष
पुरानी संस्कृति, धर्म और समाज को छोड़कर जन्मदात्री माँ और बाप को छोड़कर,
परशत्रु के पैर पकड़ना अत्यंत नीच प्रवृत्ति है। ऐसी नीच प्रवृत्ति पर हमारे
अस्पृश्य धर्मबंधु आज तक बलि नहीं चढ़े। इतनी अमानुषिक पीड़ा पीढ़ी-दर पीढ़ी
सहते रहे पर बलि नहीं चढ़े। यह जितना उनको पीड़ा देनेवाले स्पृश्यों के लिए
लज्जाजनक है उतना ही अस्पृश्यों के लिए गौरवास्पद है।
आवश्यकता पड़ी तो हम हिंदू धर्म पर लगा अस्पृश्यता का कलंक अपने रक्त से
धोएँगे-यह डॉ. अंबेडकर की प्रतिज्ञा सच्चे हिंदू के लिए गर्व की बात है, इसलिए
उनके सत्याग्रह को भी हम न्याय्य ही मानते हैं, परंतु इसी के साथ प्रेमपूर्वक,
परंतु चिंता के साथ चेतावनी भी देते हैं कि हिंदू धर्म हमारा है कि नहीं कहो?
ऐसा आत्मघाती प्रश्न करके कि 'नहीं तो हम हिंदुत्व छोड़ देंगे' ऐसे अभद्र और
लज्जाजनक वाक्य का उच्चारण सिद्धांततः जितना नाश करनेवाला है उतना ही व्यवहार
में भी होगा। एक युक्ति की तरह उसका उपयोग करना भी लज्जाजनक है।
क्योंकि सगे परंतु दुष्ट भाई को डराने के लिए ही तेरे बाप को मैं आज से अपना
बाप नहीं कहूँगा, यह धमकी देना स्वयं के लिए ही घृणित है, वैसे ही स्पृश्यों
को धमकी देने के लिए हिंदुत्व छोड़ दूँगा यह कहकर पितृ परंपरा से पूजे हुए
हिंदुत्व के मुँह पर थूकना भी अति निंदनीय और तुम्हारी ही आत्मा को कलंकित
करनेवाला है।
स्पृश्य भी होऊँगा और हिंदू भी रहूँगा
ऐसी प्रतिज्ञा करें। हिंदू धर्म, हिंदू संस्कृति, हिंदुत्व अकेले स्पृश्यों
के बाप का नहीं है, वह तो दोनों के ही बाप की सम्मिलित संपत्ति है। उसे छोड़कर
जाऊँ क्या? ऐसा स्पृश्यों को ही क्यों पूछते हो? क्या वे मालिक और तुम चोर
हो? और जो पापी और निर्दय स्पृश्य तुम्हारे लाखों लोगों के धर्मांतरित होकर
चले जाने पर भी अस्पृश्यता को छोड़ने को तैयार नहीं है, वे और कुछ लाख निकल
गए तो भी घबराने की बात नहीं है। उनके लिए ऐसी अमंगल भावना जितनी लज्जाकारक है
उतनी ही परिणाम में विफल होने से हमारे अस्पृश्य बंधुओं के लिए भी। झूठ-मूठ भी
उसके पास जाने का पाप न करें, ऐसी हमारी उनसे हार्दिक विनती है।
(श्रद्धानंद, १.९.१९२७)
बैरिस्टर सावरकर का'समता संघ'को
पत्र
(डॉ. अंबेडकर के समाज की 'समता संघ' नामक एक संस्था थी। उसका मुखपत्र
'समता'। उसमें 'अपना आदमी' शीर्षक से जातिभेदोच्छेदक विषय पर कुछ लेख छपे।
उनमें व्यक्त विचारों पर बैरिस्टर सावरकर ने निम्नलिखित पत्र भेजा। वह पत्र
'समता' के २४ अगस्त, १९२७ के अंक में प्रकाशित हुआ।)
रत्नागिरि से बैरिस्टर विनायक दामोदर सावरकर का निम्न पत्र प्रकाशनार्थ
प्राप्त हुआ है-
१. श्री संपादक 'समता', नमस्कार, निवेदन यह है कि समता संघ के मुखपत्र
'समता' के अंक आप मुझे भेजते हैं, इसके लिए आभारी हूँ।
२. अपने पत्र में प्रकाशित अनेक लेखों में आप यह दिखाने का प्रयास कर
रहे हैं कि मैं जातिभेद का बड़ा अभिमानी हूँ और उसके निर्मूलन का प्रयास करने
की कल्पना का, निश्चय का और तदनुरूप आचरण का जिम्मा जो केवल आपके ही पास है,
ऐसा समझते हैं उसमें मेरा कुछ भी अंशदान नहीं है। इतना ही नहीं अपितु उस तरह
के सुधार का मैं पूर्ण और प्रत्यक्ष विरोधी हूँ।
३. यदि यह बात सच होती तो आपकी टीका को प्रामाणिक मान मैं कुछ भी न
कहता। परंतु आपकी और मेरी भेंट में मेरा मत जातिभेद के निर्दलन के लिए पूरी
तरह से अनुकूल है और मैं स्वयं रोटीबंदी व्यवहार में यथासंभव सुधार करने और
दूसरों से करवाने के लिए प्रयत्नशील हूँ यह बात स्पष्ट हो गई है। फिर भी जिस
कारण आप 'समता' में मेरे नाम का उल्लेख करते हुए-मैं उसके विरुद्ध हूँ ऐसा
आभास उत्पन्न कर रहे हैं, उससे यह स्पष्ट होता है कि आपकी टीका का हेतु और ही
कुछ है। वैसा हो तो जिस कार्य पर आपकी निष्ठा है उस कार्य के लिए कम-से-कम
भविष्य में जान-बूझकर जनता में ऐसी भ्रममूलक बात न फैलाएँ-यह मैं आपको
देशबंधुत्व और धर्मबंधुत्व के नाते सुझाना चाहता हूँ।
४. फिर भी यदि वृत्तपत्र आपके स्वामित्व का होता तो मैं ज्ञात जातिभेद
विरोध के अपने विचार और आचार आपको ही फिर-फिर कहते रहने का परिश्रम न करता और
वह प्रश्न आपकी व्यक्तिगत सत्यनिष्ठा पर सौंपकर उधर दुर्लक्ष्य ही करता। पर
समता संघ के मुखपत्र के रूप में 'समता' का प्रकाशन हो रहा है इसलिए मैं यह
स्पष्टीकरण करना आवश्यक समझता हूँ।
५. हिंदू समाज से जन्मजात जातिभेद का जड़ से नाश करना अत्यंत आवश्यक है।
उसका अस्तित्व किसी भी आनुवंशिक आधार पर असमर्थनीय और राष्ट्रीय शक्ति के लिए
हानिकारक है। हिंदू समाज में प्रांतीय और जातीय कोई भी भेद न स्वीकारते हुए
पंगत व्यवहार और विवाह व्यवहार होने चाहिए। वैद्यक, स्वास्थ्य या
रुचि-भिन्नता को छोड़ अन्न व्यवहार में कोई मर्यादा मान्य न होनी चाहिए। शुद्ध,
स्वास्थ्यवर्धक और उचित अन्न-जल हो तो किसी के भी द्वारा और कहीं भी पकाया या
लाया गया, खाने या पीने में कोई आपत्ति नहीं है। उसमें कहीं 'जाति' का विषय
भी न आए। और विवाह केवल वधू-वर की योग्यता पर स्वास्थ्य और परस्पर प्रीति पर
अवलंबित हो। उसमें भी जाति-पाँति का कोई बखेड़ा न हो।
६. अर्थात् उपर्युक्त स्पष्टीकरण केवल हिंदू राष्ट्र के अंतर्गत व्यवहार
के लिए हैं।
७. जातिभेद के निर्मूलन के लिए उपर्युक्त आधार पर जब मैं विद्यालय में
था तब से खुले रूप में व्यवहार कर रहा हूँ। कॉलेज में तो मैं इस विषय पर खुला
भाषण देता था और प्रत्यक्ष व्यवहार में उसे लाते हुए मैंने सैकड़ों लोगों की
जातिभेदमूलक दूषित प्रवृत्तियाँ पलटी हैं। कारागृह से बाहर आने के बाद से
मैंने तीव्र लोक विरोध सहन करते हुए जातिभेद के निर्मूलन के लिए व्याख्यान,
लेख, चर्चा कर अपनी व्यक्तिगत सीमा तक ऐसा आचरण भी किया है। इस संबंध में
मेरा कथन ही पर्याप्त साक्ष्य था, पर संक्षेप में दो-चार घटनाओं का भी उल्लेख
मैं कर रहा हूँ। मेरे लिखे पत्र-'अंदमान के पत्र' प्रकाशित हो चुके हैं।
उनमें मैंने उस काल में भी जातिभेद से होनेवाली हानि पर समय समय पर लिखा था और
रोटी-बेटी व्यवहार सारे हिंदुओं में हो, इस हेतु की मेरी उत्कट इच्छा प्रकट
हुई दिखेगी। 'माझी जन्मठेप' नामक मेरी जो दूसरी पुस्तक है, उसमें भी इस विषय
के कतिपय अध्याय हैं। हिंदू सारा एक, हमें एक ही जाति ज्ञात है वह है
हिंदू-ऐसा उपदेश और आचार का उधर कैसा लगातार प्रयोग मैंने चलाया हुआ था वह
सारा लिखा हुआ है। भगूर में रहते खुले रूप में मैंने पूर्वास्पृश्य बंधु के
साथ (उसे अस्पृश्य कहना भी मैं पाप समझता हूँ, पूर्वास्पृश्य भी केवल निरुपाय
होकर मैंने कहा है।) दूध और चाय पी है। नासिक में हजारों लोगों की सभा में यह
घटना सुनाकर मैंने सदिच्छा प्रकट की थी कि मेरे शव को यदि ब्राह्मण, मराठा,
महार, डोम आदि मेरे सारे हिंदू बंधु कंधा देकर ऐसा कर दिखाएँ कि अस्पृश्यता
और जातिभेद मर गया तो मेरी आत्मा बड़ी सुखी होगी। ये बातें तत्कालीन 'सधर्म'
आदि पत्रों में प्रकाशित हुई हैं। श्रद्धानंद' में तो लेखनी थक जाए तब तक
रोटी व्यवहार विरुद्ध लिखा जा रहा है। धर्म का स्थान 'हृदय है पेट नहीं'। यह
वाक्य श्रद्धानंद के कारण मराठी भाषा में कहावत जैसा परिचित हो गया है। मेरे
घर में एक बार नहीं अपितु नित्य ही सहभोजन होते हैं। रत्नागिरि में सैकड़ों
लोग भंगी के लड़के के साथ चाय-चिउड़ा खाते हैं। मैं अपने मैराठा, वैश्य,
ब्राह्मण आदि हिंदू बंधुओं के यहाँ भोजन करता हूँ और अंदमान से अब तक अनेक
अंतरजातीय विवाह मैंने सफलतापूर्वक कराए हैं।
८. इतना उल्लेख भी आवश्यक होने से करना पड़ा। वास्तव में हजारों लोगों
को मैंने जातिभेद तोड़ने के लिए कहा है। सैकड़ों लोगों को उसके अनकल कर लिया
है। मेरा आचरण भी स्वयं वैसा ही है। किसी का प्रमाण-पत्र मुझे नहीं चाहिए, पर
प्रामाणिक मतिभ्रम (गलतफहमी) हो तो वह न रहे इसलिए लिखना पड़ रहा है।
९. जातिभेद का जड़-मूल से नाश करना अपने हिंदू राष्ट्र के लिए हितकर
होने से मैं उस सीमा तक समता संघ का अभिनंदन करता हूँ। हाँ, यह अवश्य कहूँगा
कि आज मुझे जातिभेद नहीं चाहिए, पर हिंदुत्व चाहिए। इसीलिए रोटी व्यवहार में
स्वास्थ्य का ध्यान रखते हुए किसी अहिंदू के साथ वह करने में मेरी कोई आपत्ति
नहीं है, यह यद्यपि आज मैं कहता हूँ, पर बेटी व्यवहार के संबंध में और कुछ
अवधि तक हिंदू अपनी बेटियाँ अहिंदुओं को न दें ऐसा मुझे लगता है। अहिंदू कन्या
कर लेने में कोई हानि नहीं है ऐसी समझ और रूढ़ि हिंदुओं में बहुत अंश तक
बद्धमूल हो जाने के बाद ही वैसे मुक्त विवाहों का समर्थन मैं करूँगा। आज हमारी
कन्याएँ जाएँगी और उनके वंश से हम वंचित रह जाएँगे-मुझे यह डर है। शुद्धि,
जातिभेद निर्मूलन और आंतरिक संगठन पक्का हो जाने के बाद ही अहिंदुओं से
बेटी-व्यवहार करने वे जितने खुलेपन से बरतेंगे उतना करने में हम तत्पर होंगे।
१०. इतना ही नहीं मुसलमानपन, ईसाईपन आदि 'पन' यदि अन्य छोड़ दें तो मेरा
हिंदूपन भी मानवता में विलय हो जाएगा। जैसे मेरा राष्ट्रपन, हिंदीपन मानव
राष्ट्र में तब विलय होगा जब इंग्लिशपन, जर्मनीपन आदि पन' लुप्त होकर केवल
मनुष्यपन ही मनुष्यों में शेष रह जाएगा। आज भी जो सच्चा मनुष्यवादी है उससे मैं
भी सारे भेदभाव छोड़कर व्यवहार करूँगा।
११. मैं अभी हिंदुत्व रखना चाहता हूँ यह मत जिस किसी को अमान्य हो वह उसके
लिए मेरी चाहे जितनी टीका करे, वह सच्ची होगी। परंतु मैं जातिभेद का संरक्षण
करना चाहता हूँ यह कोई न कहे, न ही वैसा कुछ माने। वह टीका झूठी होगी। समता
संघ के उस उद्देश्य के लिए मैं अनुकूल हूँ यह प्रकाशित हो जाने से जो कुछ
शक्ति उस जातिभेद निर्मूलन को मिलेगी, वह मिले इसलिए यह पत्र मैंने खुले रूप
में लिखा है। यह पत्र समता में जैसा-का-तैसा प्रकाशित कर पक्षपातरहित इस
स्पष्ट कथन को आप स्वीकार करेंगे यह मुझे आशा है। जाते-जाते यह भी कहना पड़ेगा
कि 'श्रद्धानंद' में मेरे नाम से छपे लेख की सीमा तक ही मैं उत्तरदायी हूँ।
स्नेह बना रहे, यह निवेदन है।
रत्नागिरि
आपका १४.८.१९२९
वि.दा. सावरकर
डॉ. अंबेडकर के सुपुत्र फिर से हिंदू होंगे
चाहे तो बुद्धिवादी विधर्मी बने,परंतु
हिंदू धर्म से उत्तम धर्म नहीं मिलेगा
डॉ. अंबेडकर ने हिंदू धर्म छोड़ने का निश्चय किया हुआ है। इस समाचार से मुझे
उतना आश्चर्य नहीं हुआ जितना इस समाचार से कि वे हिंदू धर्म से अच्छा कोई एक
धर्म खोजने का प्रयास कर रहे हैं। हिंदू धर्म छोड़ने के लिए जो कारण उन्होंने
दिए हैं, जो प्रकाशित हुए हैं, वे अत्यंत संदिग्ध हैं, अत: उनका हेतु एक
यही है ऐसा कह नहीं सकते। फिर भी यदि वे इसलिए धर्म त्याग कर रहे हों कि हिंदू
धर्म बुद्धिवाद (Rationalism) की कसौटियों पर खरा नहीं उतरता तो उस बात का
अर्थ थोड़ा-बहुत समझ में आ सकता है-Ism को यदि धर्म मानें तो उसमें
बुद्धिबाह्य कुछ विशिष्ट श्रद्धा तो होगी ही। बुद्धि को जो मान्य नहीं, ऐसी
श्रद्धा रखना जिन्हें पसंद नहीं, इतना ही नहीं अपितु तर्क के विरुद्ध
जानेवाले धर्ममत अंधश्रद्धा के आदेश को सीने से चिपकाए रखना जिन्हें
अप्रामाणिक लगता है, धर्म कहते ही, जिसमें कुछ पुराणपंथी और आज की परिस्थिति
में निरर्थक नहीं तो अन-अर्थक हो गए ऐसे आचार और संकेत भी जो होते हैं, उनको
लोकहित के लिए सुधारना जिन्हें अपना कर्तव्य लगता है और पारलौकिक मानी
जानेवाली बातों पर भी जो प्रत्यक्षनिष्ठ तर्क के पार जाकर विश्वास करने की
इच्छा नहीं रखते, ऐसे Positivists या Rationalists आदि बुद्धिवादी जब धर्म
त्याग करते हैं तब उसका कारण सहज ध्यान में आ जाता है। उन अर्थों में डॉ.
अंबेडकर यदि Hinduism छोड रहे हों तो उसमें कोई बड़ा आश्चर्य नहीं।
चाहिए तो एक नए'बुद्धिवादी संघ'की
स्थापना करें
पर जिस बुद्धिवाद की कसौटी से हिंदू धर्म छोड़ने की इच्छा होती है उस कसौटी को
मानें तो विश्व का कोई भी धर्म स्वीकार्य होना कठिन है। जैसे इसलाम एवं ईसाई
धर्म लें। वेद अपौरुषेय हैं, अग्नि पूजा से स्वर्ग प्राप्त होता है आदि हिंदू
धर्म के सिद्धांत जिस बुद्धिवाद को अंधश्रद्धा का निरा ढोंग लगता है वह
बुद्धिवाद इसलाम धर्म की मूलभूत प्रतिज्ञा कि मोहम्मद साहब ही अंतिम पैगंबर
हैं, उनके कुरान का हर शब्द ईश्वर की मेज पर विश्व के पहले ही लिखकर रखी हुई
एक प्रचंड पुस्तक से पृष्ठ फाड़-फाड़ देवदूत के हाथों से मोहम्मद साहब को भेजा
गया और मोहम्मद साहब को जो सर्वश्रेष्ठ पैगंबर नहीं मानेगा, वह अखंड नरक में
सड़ता रहेगा आदि सिद्धांत मैं मान्य करता हूँ-ऐसा प्रतिज्ञा के साथ कहने की
अप्रामाणिकता कैसे करेगा। या यीशू ख्रीस्त को कुमारी मेरी देवी के गर्भ में
ईश्वरीय तेज के अपौरुषेय संभोग से जन्म मिला और उसका हर शब्द अनुल्लंघनीय
ईश्वरीय आज्ञा है ऐसी प्रतिज्ञा भी कैसे की जा सकती है। यदि डॉ. अंबेडकर हिंदू
धर्म छोड़ रहे हों कि वह बुद्धिवाद की कसौटी पर खरा नहीं उतरता तो वे बुद्धि को
न पटनेवाली केवल श्रद्धा की नींव पर खड़े स्पष्ट ही पुरुष द्वारा रचित ग्रंथ
को अपौरुषेय माननेवाले और अनेक झूठमूठ कथाओं से भरे हुए किसी भी धर्म को,
धर्म एक फैशन के रूप में घर या बँगले में होना ही चाहिए, इसलिए स्वीकार न
करें।
आज की परिस्थिति में प्रत्यक्ष लोकहितकारी नियम जिसका आचार हो, तर्कनिष्ठता
और प्रत्यक्षागत सिद्धांत जिसके उपनिषद् हों और विज्ञान जिसकी स्मृति हो-ऐसे एक
बुद्धिवादी संघ की स्थापना की जाए और उसके अनुयायियों को अंधश्रद्धा तथा झूठमूठ
की कथाओं के पिंजड़े से एक झटके में बाहर निकालकर अधुनातन (अद्यावत्)-ऐसी
वैज्ञानिक बुद्धि स्वतंत्रता के उच्चतम और स्वास्थ्यप्रद वातावरण में ले जाया
जाए। यह उत्तम मार्ग होगा।
परंतु हिंदू धर्म लकड़ी का गले में लटका भोलेपन का एक बेंडा है और उसे फेंककर
उसके स्थान पर ईसाई या मुसलमानी धर्म दीवानेपन और धर्मोन्माद की बड़ी विशाल
शिला वे स्वयं के और अपने अनुयायियों के गले में बाँधना चाहते हैं तो उससे
मानवीयता के नाते उनका अध:पतन ही होगा। कुछ भी हो, बुद्धिवाद की दृष्टि से
कुल मिलाकर देखें तो सब धर्मों में ग्राह्यतम धर्म हिंदू धर्म ही है।
'किर्लोस्कर' मासिक (इस पुस्तक में समाविष्ट) में इसलाम धर्म और उसके पंथों
पर हमने जो दो लेख लिखे हैं, वे धर्म तुलना की दृष्टि से लोगों को अवश्य
पढ़ने चाहिए।
धर्मातरण से आज अस्पृश्यों की हानि अधिक होगी
अब यदि डॉ. अंबेडकर केवल अस्पृश्यों की मानवता बढ़ाने के लिए और आत्म-सम्मान
की रक्षा करने के लिए हिंदू धर्म को त्याग रहे हों तो वे इस बात को ध्यान में
रखें कि अगले दस वर्ष में अस्पृश्यता का उच्चाटन हुए बिना न रहेगा। और केवल दस
वर्ष वे धीरज रखें। इतनी बड़ी राष्ट्रीय समस्या सुलझाने के लिए इतना समय तो और
लगेगा ही। आज अस्पृश्यता का प्रश्न हर तरह से हल होने के कगार पर है। सदियों
से महार आदि अस्पृश्यों के हिंदू धर्म से जुड़े संबंधों के कारण, परधर्म में
जाते हुए उन्हें जो आर्थिक और सामाजिक कष्ट एवं हानि भोगनी पड़ेगी, उसकी
तुलना में जिस स्थिति में वे हैं उसी स्थिति में दस वर्ष और संघर्ष कर
अस्पृश्यता की बेड़ियाँ तोड़ डालना अधिक सुलभ और सम्मान की बात है। कुछ भी हो
पर पूर्वास्पृश्य लोगों में से लाख में दस और महार आदि जातियों में से हजार
में दस आदमी भी डॉ. अंबेडर के पीछे-पीछे पूर्व परंपरागत संत रैदास आदि का
हिंदू धर्म छोड़ेंगे-यह बात संभव नहीं दिखती।
ऐसा धर्मांतरण भी मानवीयता को कालिखही लगाएगा
और मानवता की दृष्टि से देखें तो इसलाम या ईसाई धर्म में प्रवेश के लिए जो
अपरिहार्य प्रतिज्ञा करनी पड़ती है कि मोहम्मद या यीशू पर जो विश्वास न करे वह
हमेशा नरक-भोगी होगा-ऐसी प्रतिज्ञा करना मानवीयता को कालिख पोतना ही तो है।
कोई भी मानवीय संवेदनावाला मनुष्य किसी नौकरी के लिए या लाभ के लिए अपने
माँ-बाप को भरे बाजार दस गाली दे सकेगा क्या? फिर अपने जाति-धर्म की पिछली
सत्तर पीढ़ियों के सारे आदरणीय माँ-बाप, साधु संतों को उन्होंने मोहम्मद या
यीशू पर विश्वास नहीं किया, इसलिए घोर नरक में सड़ रहे हैं ऐसा कहकर जिन
माँ-बाप के उदर से जन्म लिया उनके उपकारों से मुक्त होने का नीच साहस डॉ.
अंबेडकर या उनके अनुयायी कर सकें तो क्या वह मानवता का कार्य होगा?
मनुष्य मुसलमान या ईसाई होते ही अस्पृश्यता से एकाएक मुक्त हो जाता है यह कहना
भी सरासर झूठ है। बंगाल में मुसलमानों में अस्पृश्य मुसलमान (हलाल) और स्पृश्य
मुसलमान (अश्राफ) के बीच झगड़ा इतना तीव्र हुआ है कि बंगाल विधान-सभा में
अस्पृश्य मुसलमानों ने स्पृश्य मुसलमानों के आक्रमणों से सुरक्षा के लिए
आरक्षित स्थान माँगे हैं। अन्य प्रदेशों में भी अनेक स्थानों पर सय्यद जैसे
स्पृश्य मुसलमान अस्पृश्य मुसलमानों के साथ बेटी-व्यवहार नहीं करते। त्रावणकोर
आदि दक्षिण हिंदुस्थान के स्पृश्य ईसाई अस्पृश्य ईसाइयों को छूते तक नहीं।
नासिक के पुजारियों जैसे ही स्पृश्य लोगों में उनको आने नहीं देते। अस्पृश्य
ईसाइयों ने स्पृश्य ईसाइयों के विरुद्ध त्रावणकोर विधानसभा में स्वतंत्र
प्रतिनिधित्व की माँग की है, यह बात डॉ. अंबेडकर ने सुनी नहीं है क्या? अत:
अस्पृश्यता की और समता की दृष्टि से भी देखें तो महार आदि अस्पृश्य सामाजिक
उठा-पटक के अति कष्टकारी गड्ढे में गिरने की अपेक्षा दस-बारह वर्ष बाद अपने
धर्मबंधु हिंदुओं के जाति उच्छेदक सुधारकों से सहकार्य कर अस्पृश्यता का ही
नहीं, जातिभेद का भी प्रश्न हल करें, इसी में वास्तविक सामाजिक और आर्थिक
हित हैं।
अब स्पृश्य हिंदुओं को एक बात यह कहूँ कि ऐसी अपरिहार्य आपत्ति से विचलित होने
की आवश्यकता नहीं है। उन्हें तो चाहिए कि वे जिसे जन्मजात मानते हैं, पर जो
केवल पोथीजन्य है उस अस्पृश्यता को ही नहीं अपितु जातिभेद की दुषित रूढ़ि की
जड़ पर कुल्हाड़ी से जल्द-से-जल्द प्रहार करें। डॉ. अंबेडकर जाएँ या रहें। आज
तक बड़े-बड़े पंडित एवं राजा-महाराजा हिंदू धर्म को त्यागकर परधर्म को स्वीकार
करने का धर्मद्रोह करते रहे, उस नीचता का घाव सहन करके भी इस हिंदू राष्ट्र
के कुंडलिनी-कृपाणांकित भगवा ध्वज के नीचे बीस करोड़ कट्टर अनुयायी प्राणपण से
खड़े हैं। अत: विचलित न होते हुए, परंतु केवल सनातनता की भाँग के नशे में न
रहते हुए अपनी राष्ट्र देह में घुसे हुए जातिभेद के रोग पर शस्त्रक्रिया करनी
चाहिए। इसके लिए कुछ रक्त बिंदु या धारा बहेगी, कुछ मांस के टुकड़े टूटकर
अवश्य गिरेंगे। परंतु यदि यह जाति उच्छेदक सुधार की शस्त्रक्रिया कुशलता के
साथ हम कर सकें तो बह गए रक्त से शतगुणित शक्तिशाली नया रक्त अपनी नस-नस में
बहने लगेगा और सारे घाव भर जाएँगे।
शुद्धि का दरवाजा,अब क्या चिंता!
पचास-पचहत्तर वर्ष पूर्व डॉ. अंबेडकर परधर्म में गए होते तो उसकी जितनी चिंता
करनी आवश्यक थी उतनी आज करनी आवश्यक नहीं, क्योंकि अब शुद्धि का दरवाजा पूरा
खुला है। गोवा में जैसे सात पीढ़ी पूर्व धर्मांतरित हुए दस हजार ईसाई आज हिंदू
धर्म में लौट आए या साठ हजार मलकाना राजपूत फिर से हिंदू हो गए या गत माह
दिल्ली में चार सौ ईसाई हिंदू धर्म में लौट आए, वैसे ही इस संक्रमण काल में
ये धर्मद्रोह करनेवाले हजार-दो हजार या लाख-दो लाख लोग भी बाइबिल में वर्णित
मूर्ख पुत्रों की तरह बाप का घर खोजते कल फिर हिंदू धर्म में लौट आएँगे और हम
उन्हें शुद्ध कर लेंगे। अंबेडकर रत्नागिरि जिले के ही हैं। अंबेडकर और उनके
अनुयायी आज दूसरे धर्म में चले भी गए तो भी हिंदू संगठन की जाति उच्छेदक
संजीवनी से नवप्राणित हुए हिंदू धर्म में हमें फिर से शुद्ध कर प्रवेश दें,
ऐसा निवेदन डॉ. अंबेडकर के चिरंजीव कुछ ही वर्षों में रत्नागिरि हिंदूसभा को
करेंगे-इसकी संभावना मुझे अधिक दिखती है।
जैसा वह राष्ट्रद्रोह,वैसा ही यह
धर्मद्रोह
ऊपर हमने कुछ तात्कालिक लाभ के लिए हिंदुत्व त्यागने के इस कृत्य को धर्मद्रोह
कहा है, वह यदि किसी को अन्याय का लगे तो हम उससे यह पूछते हैं कि यदि
हिंदुस्थान के कुछ नागरिक इस भारत राष्ट्र को अध:पतित हुआ देख अपनी जेब में
चार रुपए अधिक भरने के लिए हिंदू राष्ट्र के शत्रुओं से जा मिलते हैं या रशिया
के दुर्दिनों में अपने राष्ट्र के लिए सबकुछ दाँव पर लगाकर संघर्ष न कर कोई
लेनिन रशियन बंधुओं से अपने सारे संबंध तोड़कर जर्मनी या अमेरिका का नागरिकत्व
स्वीकार कर वहाँ का बड़ा अधिकारी हो जाता है तो उस नामर्द मनुष्य के उस
स्वार्थी कृत्य को राष्ट्रद्रोह कहा जाता या नहीं। वह जैसा राष्ट्रद्रोह वैसा
ही यह धर्मद्रोह । वह जैसा अमानवीय, वैसा यह भी।
(निर्भीड, ३.११.१९३५)
सावरकर का डॉ. अंबेडकर को निमंत्रण
रत्नागिरि, दिनांक १३.११.१९३५
श्रीयुत डॉ. अंबेडकर महोदय,
गत पाँच-छह वर्षों से रत्नागिरि नगर में पोथीजन्य जातिभेद निर्मूलन आंदोलन
बहुत बड़े स्तर पर चल रहा है। अपने हिंदू धर्म की एवं हिंदू राष्ट्र की जड़ को
लगा यह जन्मजात कहा जानेवाला पर पोथीजन्य जातिभेद का कीड़ा मारे बिना यह हिंदू
धर्म संगठित और सबल होकर आज के जीवन कलह में जी नहीं सकेगा, इस संबंध में
मुझे बिलकुल भी आशंका नहीं है। आपके जैसा ही और आपके जितने ही स्पष्ट शब्दों
में मैं अस्पृश्यता आदि अन्याय, अधर्म एवं आत्मघाती ऐसी अनेक रूढ़ियों का
प्रसार करनेवाले इस जन्मजात जातिभेद का विरोध करता आ रहा हूँ। साथ में अपने
दो-तीन लेख भी भेज रहा हूँ। समय मिले तो अवलोकन कर लें।
परंतु यह पत्र मैं जातिभेद के संबंध में शाब्दिक विरोध या चर्चा करने के लिए
नहीं भेज रहा। इस पीढ़ी में इस जातिभेद का निर्मूलन करने के लिए हिंदू समाज
प्रत्यक्ष कौन सा कार्य करना चाहता है इसका कोई प्रत्यक्ष साक्ष्य, प्रत्यक्ष
दर्शन, मनोवृत्ति पलटने का निर्विवाद साक्ष्य आपको चाहिए ऐसा कुछ आपने मसूरकर
महाराज से कहा, ऐसा सूचित हुआ। अस्पृश्यता व जातिभेद निर्मूलन का दायित्व
स्पृश्यों पर ही नहीं है, अस्पृश्यों में भी अस्पृश्यता और जातिभेद की पैठ
स्पृश्यों जितनी ही है। पंडा और भंगी ये दोनों ही जातिभेद के पाप के भागीदार
हैं और मनोवृत्ति में परिवर्तन का साक्ष्य दोनों को एक-दूसरे को देना चाहिए।
दोनों को ही मिलकर इस पाप का निस्तार करना चाहिए। दोष तो सबका ही है, पर
प्रमाण बहुत थोड़े हैं। जातिभेद के नाश का प्रत्यक्ष कार्य वहीं हृदय से और
यथार्थता से हुआ ऐसा कहा जा सकेगा, जहाँ ब्राह्मण और मराठा ही केवल महारों के
साथ भोजन नहीं करते अपितु महार भी भंगी के साथ भोजन करेगा। जाति अहंकार की
अत्याचारी वृत्ति से महार भी इतना मुक्त नहीं कि वह स्पृश्य वर्ग से ही अपनी
मनोवृत्ति पलटने के सक्रिय साक्ष्य की माँग करे, यह अनुभव तो मुझ जैसा आपको
भी होगा।
"केवल बातों की सहानुभूति नहीं चाहिए। अब सक्रिय गारंटी क्या देते हैं यह
पक्की तरह तय करके दिखाइए ।" ये आपकी माँग न्याय्य ही नहीं अपितु उपयुक्त भी
है। मैं भी गत चार-पाँच वर्षों से जो पक्का है वही कार्य, यह सूत्र हिंदू
राष्ट्र के आगे अन्य बातों के साथ सामाजिक क्रांति के विषय में भी रख रहा हूँ।
इस सूत्र को आचरण में लाने और जन्मजात जातिभेद को प्रत्यक्षतः तोड़कर दिखाने
का प्रयोग रत्नागिरि नगर में विशाल आकार में और उससे कुछ कम मालवण नगर में सफल
हुआ है। कोई प्रयोग जब प्रयोगशाला के एक कोने में भी सफल होता है तब उसके सफल
होने की संभावना दिखने लगती है एवं नियम सामान्य होने से वह उस अंश तक सफल ही
समझा जाना चाहिए। इसलिए आपका चाहा हुआ सक्रिय साक्ष्य, 'क्या करते हो दिखाओ'
की माँग रत्नागिरि का जाति निर्मूलन संघ अपनी सीमा तक प्रत्यक्ष कार्य से ही
दिखलाना चाहता है और इसीलिए उस संघ की ओर से यह निमंत्रण मैं आपको भेज रहा
हूँ।
जातिभेद तोड़ने का व्यावहारिक कार्यक्रम रोटीबंदी तोड़ने में निहित है। जिसने
भी रोटीबंदी तोड़ी उसने वेदोक्तबंदी एवं स्पर्शबंदी तोड़ दी। बेटीबंदी इतनी रह
जाती है परंतु वह कोई, हर कोई तोड़-जोड़ सके ऐसी बात नहीं है। वह वर-वधू का
भी प्रश्न है। ऐसा कोई मिश्र विवाह होता है और दूसरे उसे धर्मबाह्य या
बहिष्कार करने योग्य कार्य नहीं मानते और उस जोड़े को अन्य विवाहितों जैसा ही
सामान्य मानते हैं तो प्रश्न समाप्त। इसलिए जातिभेद को व्यवहार में तोड़ने का
कभी भी थोक में दिया जा सके ऐसा निर्विवाद साक्ष्य है सार्वजनिक घोषणा के साथ
रोटीबंदी तोड़कर दिखाना। आपके आगमन पर ऐसा ही कार्यक्रम रखेंगे-
१. आप एक पखवाड़े के भीतर कभी अपनी सुविधानुसार रत्नागिरि आएँ। आने के
एक हफ्ते पूर्व हमें सूचित करने का कष्ट करें।
२. पतितपावन मंदिर के बीच संभामंडप में औसत एक हजार ब्राह्मण मराठा,
वैश्य, किसान आदि अनेक स्पृश्य प्रतिष्ठित प्रमुख नागरिक से लेकर कर्मचारी तक
सब वर्गों के स्पृश्यों के साथ अस्पृश्य महार, चमार, भंगी सहित सब मिल-जुलकर
पंगत में बैठते हैं, ऐसा ही विशाल सहभोज आपकी अध्यक्षता में होगा। ऐसे सहभोज
स्पृश्य और अस्पृश्यों के कई बार हो चुके हैं।
३. आपकी इच्छा हो तो महिलाओं का भी सहभोज होगा। उसमें ब्राह्मण,
क्षत्रिय, वैश्य आदि प्रतिष्ठित परिवारों की महिलाएँ प्रौढ़ एवं युवा अपनी
महार, चमार, भंगी आदि धर्म-बहनों के साथ मिल-जुलकर भोजन करेंगी।
४. सहभोज में सम्मिलित लोगों के नाम समाचारपत्र में प्रकाशित किए जाते
हैं-यह शर्त जिसे स्वीकार है, उन्हें ही सहभोज में सम्मिलित किया जाता है।
५. यहाँ के भंगी कथावाचक कथा बाचेंगे। यदि आपके साथ कोई सुयोग्य कथावाचक
हो तो वह भी कथा कह सकेंगे। मंदिर में अन्य कथावाचकों जैसे ही भंगी कथावाचक का
स्वागत-सत्कार किया जाएगा और सैकड़ों लोग कथावाचक के चरण-स्पर्श करेंगे। गत
गणेश उत्सव में श्री काजरोलकर भंगी कथावाचक का ऐसा ही सत्कार-सम्मान किया गया
था।
६. आपकी इच्छा प्रतिकूल न हो तो आपका एक व्याख्यान भी इस अवसर पर हो, यह
भी हमारी इच्छा है।
७. कार्यक्रम का स्थान पतितपावन मंदिर होगा। यह मंदिर श्रीमंत भागोजी
सेठ कीर के स्वामित्व का है और सहभोज के कार्यक्रम में वे स्वयं आएँगे। इस
कारण अन्य किसी तीसरे व्यक्ति के वहाँ न होने और इसीलिए विधिक बाधा उत्पन्न
होने की कोई आशंका नहीं है।
८. हाँ, सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह कि ऐसे छोटे-बड़े डेढ़ सौ से अधिक
सहभोज यहाँ आयोजित हुए हैं और सबके नाम भी प्रकाशित हुए हैं; परंतु किसी
सहभोजक को किसी भी जाति ने जाति से बाहर नहीं किया। उलटे सहभोज जिसने चाहा
किया या नहीं किया तो वह प्रश्न जिसका उसका। वह जाति से बाहर करने का कार्य
नहीं है, यह यहाँ का धर्मशास्त्र हो गया है। उस वस्तुस्थिति का आप स्वयं
अवलोकन करेंगे।
यह कार्यक्रम होते ही यह राष्ट्रीय प्रश्न सुलझ गया, ऐसा समझनेवाला मूर्ख कोई
नहीं है। पर उससे हवा के रुख का पता चल जाता है। हमें भी कोई सक्रिय प्रारंभ
चाहिए। और यदि छह हजार वर्ष की बलवान् रूढ़ि छह वर्षों में इतने बड़े आकार में
यहाँ केवल मन के परिवर्तन से तोड़ी जा सकती है तो अन्य स्थानों पर भी ऐसा हो
सकता है, ऐसा मानने में कोई आपत्ति नहीं है। इसीलिए हम यह निमंत्रण दे रहे
हैं।
हम हिंदू, आप हिंदू अनगिनत पीढ़ियों के धर्मबंधुत्व के स्मरण से ही हृदय में
जो ममता उमड़ आती है उस ममता के कारण ही यह खुला निमंत्रण भेज रहा हूँ।
मेरा-आपका कुछ व्यक्तिगत स्नेह भी है। उसका स्मरण करते हुए यह आमंत्रण प्रेम
से आप स्वीकारें।
हमारे संघ के दो-तीन नेताओं के हस्ताक्षर इस पत्र पर उनकी भी वैसी उत्कट इच्छा
होने से लेकर यह पत्र भेज रहे हैं। स्नेह बना रहे, यह निवेदन है।
आपका
वि.दा. सावरकर
डॉ. शिंदे
रा.वि. चिपलूणकर, एम.ए., एल.एल.बी.
दत्तोपंत लिमये, बी.ए., एल.एल.बी.
संपादक सत्यशोधक
प्रकरण-१०
धर्मांतरण के प्रश्न पर महार बंधुओं से खुली चर्चा
लेखांक-१
येवला नामक स्थान पर डॉ. अंबेडकर द्वारा धर्मांतरण की बात छेड़ देने के बाद से
अस्पृश्य वर्ग में जो हलचल मची हुई है उससे ऐसा लगता है कि हमारे मातंग
धर्मबंधुओं के नेताओं में से अधिकांश का विचार धर्मत्याग के विचार के विरुद्ध
हो रहा है। यह अच्छी बात है। हिंदू संगठनवादी जाति उन्मूलन संघ से सहयोग कर
हिंदू समाज के जन्मजात जातिभेद की बला नष्ट कर आज के अस्पृश्यता के रोग से
अस्पृश्यों की वास्तविक मुक्ति होनेवाली है, धर्म-त्याग से अस्पृश्यों के हित
की अधिक खराबी होनेवाली है। उनकी जाति का सत्त्व, मानवीयता और उनका अस्तित्व
सभी पूरी तरह नष्ट होनेवाले हैं, यह बात हमारे मातंग एवं चमार बंधुओं के ध्यान
में आ गई दिखाई देती है।
रत्नागिरि के जन्मजात जाति उन्मूलन संघ की ओर से बैरिस्टर सावरकर, चिपलूणकर
वकील, दत्तोपंत लिमये, संपादक सत्यशोधक, डॉ. शिंदे आदि हिंदू नेताओं ने डॉ.
अंबेडकर को जो निमंत्रण भेजा था, उसका निम्न उत्तर डॉ. अंबेडकर ने भेजा-
रत्नागिरि में आप जो कार्य कर रहे हैं उसकी जानकारी पढ़कर मुझे खुशी हो रही
है। यहाँ के लॉ कॉलेज की व्यस्तता के कारण मैं आपके आमंत्रण का लाभ नहीं ले पा
रहा हूँ, इसका मुझे खेद है।
(प्रात: दिनांक २४.११.१९३५)
उनकी ओर से दिखाई जा रही हिंदुत्व के प्रति इस आस्था को बनाए रखने के लिए उनकी
अस्पृश्यता ही नहीं अपितु जातिभेद की बेड़ियाँ भी यथासंभव शीघ्र तोड़कर उनका
विश्वास बढ़ाना चाहिए।
परंतु अस्पृश्यों के हित की दृष्टि से धर्मांतरण कितना घातक है यह बात ध्यान
में न आने से महार बंधुओं में से कुछ लोग बहुत हुल्लड़ मचाए हुए हैं और वह
विशेषकर महारों में ही है। इस कारण हम यह लेखमाला अपने महार बंधुओं को संबोधित
करके ही लिखने वाले हैं। उनको अपने हुल्लड़ में हमसे धार्मिक स्नेह या
हिंदुत्व का नाता भी टूटा हुआ लग रहा हो, फिर भी वे जब तक हिंदू हैं तब तक
हमारे लिए तो वे हमारे हिंदू धर्म के राष्ट्रीय बंधु ही हैं। हमारे ही नहीं
अपितु उनके हित की भी चिंता करना हमारा कर्तव्य है। इसी कारण धर्मांतरण कर वे
संपूर्ण हिंदू राष्ट्र की ही नहीं अपितु उनकी स्वयं की भी कितनी हानि वे कर
लेंगे, इसकी स्पष्ट कल्पना एक बार उनके सामने रखें फिर उन्हें जो कुछ उचित लगे
वह वे करें, इस हेतु से यह लेखमाला हम लिख रहे हैं। अस्पृश्यता की क्रूर रूढ़ि
के प्रति हमें कितनी घिन है, न्याय और मानवता की दृष्टि से भी अस्पृश्यता
नष्ट करना कितना आवश्यक है इसकी अनुभूति हमें कितनी तीव्रता से है, इसका पता
इसी से लग सकता है कि पिछले दस वर्षों से हम इस रूढ़ि को समाप्त करने के लिए
अपनी स्थानबद्धता की सीमा में कितना अविश्रांत प्रयास कर रहे हैं। इसके लिए
हमारे महार बंधु उनके लिए स्नेह रखनेवाले उनके ही हितचिंतक और जातभाई द्वारा
लिखी लेखमाला विश्वास से पढ़ें, यह हमारा उनसे निवेदन है। या यह भी कि किसी
ने किसी भाव से लिखी हो, उसमें क्या कहा गया है और जो कहा गया है उसमें कितना
तथ्य या अतथ्य है, यह देखने से अपना हित ही होगा, हानि तो होगी नहीं-ऐसे
त्रयस्थ भाव से वे यह लेखमाला पढ़ें और उसपर विचार करें, यह हमारा उनसे
निवेदन है।
इस लेखमाला में हम स्वधर्माभिमान, हिंदुत्वाभिमान, पुरुषों का अभिमान आदि
हिंदू भावना की अति उदारता का उल्लेख कर कुछ भी सिद्ध करने का प्रयास नहीं
करेंगे। क्योंकि जो महार बंधु अब धर्मांतरण के आंदोलन की राह पर चल पड़े हैं
वे इन भावनाओं के पार चले गए हैं। इन भावनाओं की बलि देकर जो इच्छित वस्तु वे
प्राप्त करना चाहते हैं वह इच्छित उन्हें उन भावनाओं से अधिक प्रिय लग रहा है
यह स्पष्ट है। इसलिए हम उन्हें यही समझाने का प्रयास करेंगे कि वे भावनाओं को
बलि देकर भी 'इच्छित' प्राप्त नहीं कर सकते, इतना ही नहीं, वह 'इच्छित' उन
भावनाओं के बल पर ही उन्हें अधिक शीघ्रता से प्राप्त होगा। हिंदुत्व छोड़ने से
लाभ से अधिक हानि-ही-हानि होने की आशंका अधिक है, यह यदि उन्हें ज्ञात होगा
तो ही वे अपना गुस्सा भरा मार्ग छोड़ें तो छोड़ें।
उनके धर्मांतरण के आंदोलन के संबंध में जो-जो बातें सुनने में आ रही हैं उससे
यह कहा जा सकता है कि धर्मांतरण का उनका मुख्य हेतु अस्पृश्यता की व्याधि से
तत्काल मुक्ति प्राप्त करना है। कौन सा धर्म सिद्धांत की दृष्टि से अच्छा है,
द्वैत या अद्वैत, ब्रह्म या माया, निराकार या साकार, हिंसक या अहिंसक-ये
सारे प्रश्न उनके सामने नहीं हैं। जिस धर्म में प्रवेश करने से उनकी अस्पृश्यता
समूल निकल जाएगी और वे किसी बलिष्ठ समाज के अंग बन जाएँगे-वह धर्म उन्हें
चाहिए। उचित और स्वीकार्य धर्म की उनकी कसौटी यही है, यह उनकी ओर से बार-बार
कहा जा रहा है। हम उनकी ही कसौटी पर कसकर उनकी धर्मांतरण की इच्छा के संबंध
में यह कहना चाहते हैं कि ये दोनों ही हेतु-महार जाति की आज की पूरी परिस्थिति
एवं अवस्था को ध्यान में रखें तो धर्मांतरण की अपेक्षा हिंदू धर्म में तथा
हिंदू राष्ट्र के ध्वज के नीचे रहकर ही अधिक अच्छी तरह एवं निश्चयपूर्वक
प्राप्त हो सकती है। इतना ही नहीं अपितु धर्मांतरण के गड्ढे में हुल्लड़ करते
हुए कूदने से लाभ से सौ गुनी हानि ही होनेवाली है। वह कैसे होगी? इसका
क्रमवार विचार करें।
पहली बात तो यह कि मुट्ठी भर लोगों की अस्पृश्यता नहीं, पूरे महार समाज की ही
अस्पृश्यता गई तो 'अस्पृश्यता गई' ऐसा कहा जा सकता है। कुछ लोगों ने
धर्मांतरण किया तो उन्हें नौकरी मिल सकती है या गवर्नरी मिल सकती है। पर देखा
यह गया है कि धर्मांतरण करने के बाद बावर्चीगिरी से अधिक कुछ हाथ में न आने से
और विशेषतः अपने सगे-संबंधियों से छुट जाने से बहतों की परधर्म और परसमाज में
बड़ी दुर्दशा होती है। जब शुद्धि आंदोलन नहीं था तब ऐसे धर्मांतरित और धोखा खाए
कितने ही लोग वहीं सड़ते रहे। अब शुद्धि की सुविधा संभव हो जाने से व्यक्तिगत
धर्मांतरित कितने ही महार आदि अस्पृश्य शुद्ध होकर अपने छूटे हुए सगे-संबंधियों
में फिर से मिल सकते हैं। शुद्ध होकर अपने धर्म में लौट आनेवाले समाज को हिंदू
समाज जैसे-जैसे अपना मानने लगेगा वैसे-वैसे पूर्व में धर्मांतरित समाज में से
बहुत बड़ी संख्या फिर से हिंदू होने लगेगी। हिंदू समाज की मूर्खता के कारण
शुद्धिकृत समाज पहले की अस्पृश्य जाति में ही लिये जा रहे हैं फिर भी कितने ही
अस्पृश्य शुद्ध हुए हैं। इस प्रत्यक्ष उदाहरण से हमारा उपर्युक्त कथन
स्वयंसिद्ध हो जाता है।
व्यक्तिशः आज तक जो महार धर्मांतरित हुए उनके धर्मांतरण से महार की या किसी भी
अस्पृश्य जाति की अस्पृश्यता का प्रश्न हल नहीं होता, यह स्पष्ट है। यदि
महारों में से कुछ लोग आज तक धर्मांतरित हुए ही न होते तो यह संभावना थी कि
देखें इस नए प्रयोग के परिणाम क्या होते हैं? पर आज तक सैकड़ों महार आदि
अस्पृश्य व्यक्तिगत या छोटे समूहों में धर्मांतरित हुए हैं। धर्मांतरण के बाद
उनकी स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ है। इतना ही नहीं, वे अन्य धर्मों में भी
अछूत ही बने हुए हैं। और तो और वे महार ईसाई मांग ईसाई बने हुए हैं और उनसे
वहाँ भी वे रोटी, बेटी, लोटी व्यवहार नहीं करते। जिन धर्मांतरित लोगों की
स्थिति धर्मांतरण के कारण सुधरी है उनकी अस्पृश्यता व्यक्तिशः चली गई, पर
स्वयं उनकी जाति और बहुसंख्य हिंदू राष्ट्र से वंचित हो जाने से करोड़ों अछूतों
की अस्पृश्यता से मुक्त करने में उनका भी कोई उपयोग नहीं हुआ, यह बात अनुभवों
से इतनी स्पष्ट और स्वयंसिद्ध है कि मुट्ठी भर या अंजुली भर अस्पृश्यों के
व्यक्तिशः धर्मांतरण से अस्पृश्य जाति की अस्पृश्यता नष्ट करने के कार्य में
कुछ भी कहने लायक सहायता मिलनेवाली नहीं है। यदि अस्पृश्यता के कलंक से सारा
अस्पृश्य समाज ही मुक्त करना हो तो डॉ. अंबेडकर जैसे पचीस-पचास बड़े आदमी या
एक-दो हजार छोटे लोगों के धर्मांतरण से कुछ नहीं होगा-यह सत्य महार जाति के
तुरंत ध्यान में आने योग्य है, यह प्रयोग पहले हो चुका है।
अतः यदि पूरी महार जाति को अस्पृश्यता की बेड़ियों से या गड्ढे से बाहर
निकालना है तो हर गाँव की महारबाड़ी के दस-पाँच महार आदमियों द्वारा धर्मांतरण
करने से कोई बहुत लाभ होनेवाला नहीं है। हाँ, यदि पूरी महार जाति या उनमें से
प्रति सैकड़ा नब्बे लोग यदि धर्मांतरित होने की हिम्मत करें तो उसका कुछ
परिणाम, प्रभाव पड़ने की संभावना हो सकती है।
(निर्भीड, ८.१२.१९३५)
लेखांक-२
पर आज की परिस्थिति में कुछ भी करें तो भी सौ में से दस से अधिक महार लोग
धर्मांतरित होने के लिए तैयार नहीं होंगे, और दूसरा यह कि इच्छा भी करेंगे तो
साहस नहीं कर पाएँगे। कम-से-कम पूरी महार जाति अर्थात् सौ में से नब्बे का
धर्मांतरित होना पूरी तरह असंभव है।
उपर्युक्त परिस्थिति को महारों में से कोई भी समझदार आदमी नकार नहीं सकता। सौ
में नब्बे महार कभी भी धर्मांतरित नहीं होंगे, क्योंकि उनमें से अधिकतर यह
नहीं चाहते, उसके निम्न कारण हैं-
महारों में जन्मजात जाति का अभिमान एवं जाति गंगा के पंचायत का प्रभाव इतना
प्रबल है कि स्पृश्यों को कल्पना नहीं। महार उनसे छोटी भंगी आदि जाति से रोटी
व्यवहार करने में ब्राह्मणों जितना ही विरोधी है। यह बात हमेशा के अनुभव की
है। जो कुछ छुटपुट महार आज तक धर्मांतरित हुए हैं उन्हें महार जाति अति नीच
समझकर, धर्मद्रोही या जातिद्रोही समझकर जाति बहिष्कृत करती है। धर्मांतरित
ब्राह्मण को शुद्ध करने के बाद ब्राह्मण जाति में स्थापित करना जितना कठिन है
वैसा ही शुद्धिकृत महार को उसकी जाति में स्थापित करना कठिन है। धर्मांतरितों
की शुद्धि धर्मसम्मत है, यह महार लोगों को समझाना अन्य किसी जाति जैसा ही
बड़ा कठिन है। ब्राह्मणों के साथ भोजन करते हुए किसी शुद्धिकृत ब्राह्मण को
ब्राह्मणों की अवहेलना का सामना करना पड़ता है। ठीक वैसा ही अनुभव महारों की
पंगत में शुद्धिकृत महारों को भोगना पड़ता है। सहभोज में अनेक बार भंगी तो
क्या चमार को भी पंगत में बैठा देख महार उठकर चले जाते हैं। मांग जाति के
लोगों को महार अपने कुएँ पर पानी नहीं भरने देते। यह बात मातंगों के नेता कई
बार कहते हैं। कोई महार जान पर ही आ जाए तो भंगी का काम करेगा। महार भंगियों
को, मांगों को अस्पृश्य मानते हैं। सारांश यह कि गाँव-गाँव में महार उन
जातियों से, जिन्हें वे नीच मानते हैं, रोटी, बेटी आदि व्यवहार कड़ाई से
नहीं करते और उनकी वह जातीय भावना किसी भी स्पृश्य जाति जितनी ही बद्धमूल है,
उनके रक्तमांस में समाई हुई है। वही बात उनके देवी-देवता और रूढ़ि की है।
उदाहरण के लिए कोंकण की बात करें। यहाँ दापोली, गिमवणें, खेड, चिपलूण,
संगमेश्वर, देवरुख, रत्नागिरि, राजापूर, खारेपाटण, देवगढ़, कणकवली,
मालवण, वैंगुर्ले इन सब तहसील स्थानों पर बड़ी-बड़ी महार बस्तियाँ हैं। हम इन
बस्तियों में और छोटे-छोटे गाँवों की छोटी-छोटी महार बस्तियों में कई-कई बार
पैदल घर-घर जाकर, देखकर उनके हाथ का पानी माँगकर पीकर, अन्न या खाद्य पदार्थ
जबरन खाकर आए हैं। इन सब महार बस्तियों में ईसाई धर्म-प्रचार केंद्र हैं। उनके
चलाए विद्यालय हैं, प्रचारक हैं, प्रार्थनाघर हैं। वे हर तरह के प्रचार
साधनों का उपयोग कर प्रचार करते रहते हैं। जितनी बड़ी महार बस्ती होगी, प्रचार
केंद्र भी उतना बड़ा होगा। ये केंद्र गत तीस-चालीस वर्षों से महार बस्तियों में
जमकर प्रचार कर रहे हैं। वे दवाइयाँ मुफ्त देते हैं। बच्चों को मिठाई, खिलौने
बाँटते हैं। हिंदू देवी-देवताओं को बिना मूल्य गालियाँ देते हैं। महारों को
धर्मांतरित करने को वे चालीस वर्ष से निरंतर उपदेश कर रहे हैं। कभी-कभी कोई
महार धर्म परिवर्तन कर लेता है तो उसका बड़ा सम्मान आदि कर उसे दस-बारह रुपए
माहवार की माने उस कंगले दीन, मृतमांस खाकर उकताए महार को गवर्नरी मिलने जैसी
नौकरी देते हैं। कभी वह मास्टर साहब बन जाता है या दफ्तर में स्पृश्य, जिसे
समता से छूते हैं ऐसा पट्टेवाला (चपरासी) बना देते हैं। बड़े-बड़े गोरे साहब और
उनकी मेम कभी मोटर में बैठकर आकर महारों को कह जाती हैं-तुम्हारा हिंदू धर्म
खोटा, हमारा ईसा खरा, टुम ईसाई बनो।
जिस महार जाति को स्पृश्य जनता अस्पृश्य कहकर अपमानित करती है वही महार लोग
डोम, भंगी आदि उनसे नीच जातियों के ब्राह्मण, क्षत्रिय बनकर उतने ही ठाठ से
उनका अपमान करते हैं।
पर किसी भी महार बस्ती से, स्पृश्यों द्वारा किए जानेवाले अपमान से, मिशनों
के दिखाए जानेवाले लालच से, चालीस-पचास वर्षों से रात-दिन मच्छरों जैसी कान के
पास की जानेवाली प्रचार की गुन-गुन-टुम ईसाई बनो से दस प्रतिशत से अधिक
धर्मांतरित महार हमें दिखा नहीं।
महार अपने महार धर्म को सामान्यतः छोड़ना नहीं चाहता
क्योंकि वे जिन देवी-देवताओं का भजन-पूजन करते हैं वही धर्म वे अपना स्वयं का
धर्म मानते हैं। वह उनपर किसी दूसरे पोंगा पंडित ने या राव ने लादा है या किसी
पर उपकार करने के लिए वे उसका पालन कर रहे हैं-यह उनकी भावना नहीं है। जैसे
उनका 'मैं' स्वयं का वैसी उनकी महार जाति उनकी स्वयं की और वैसे ही उनका धर्म
उनका स्वयं का है। वह महारों का अपना धर्म है, दूसरे किसी का नहीं। इसीलिए हर
छह माह बाद होनेवाली पंढरपुर की यात्रा में महार पुरुष, महार महिलाएँ, बच्चे,
बड़े-बूढ़े सैकड़ों, हजारों महार 'ग्यानवा तुकाराम' की गर्जना करते, संतों
के भजन गाते, आँखों से आँसू टपकाते जाते हुए हमें दिखते हैं। गाँव से निकलती
पालकी, गाँव का मंदिर, अपने महार धर्म का हर महार कट्टर अनुयायी है; कट्टर
सनातनी है।
जो बात महारों की वही चमारों या अन्य अनेक नीच से नीचतर अस्पृश्य जाति की है।
उपर्युक्त चर्चा से यह बात स्पष्ट होती है कि आज ही पूरी महार जाति अपना धर्म
छोड़ना चाहेगी, यह असंभव बात है। उनमें से पचहत्तर प्रतिशत तो निश्चित ही धर्म
परिवर्तन नहीं चाहेंगे। कोई चाहेगा तो भी आगे नहीं बढ़ पाएगा।
और यह महत्त्वपूर्ण है। अनेक के मन में आने के बाद भी बहुसंख्या में जनता
धर्मांतरण कर नहीं सकती, उसकी हिम्मत ही नहीं होगी। यदि महार कहीं एक जगह
बहुसंख्या में रहे होते तो कदाचित् वे धर्मांतरण कर भी लेते, पर आज एक-एक गाँव
में उनके दस-बीस घर होते हैं, हर कहीं वे अल्पसंख्यक हैं। सारा गाँव दूसरे
बहुसंख्य स्पृश्यों का। उसमें भी महार कंगाल, अशिक्षित, युगों-युगों का
दलित, कुव्वत कुछ भी नहीं। सारा जीवन गाँव से जुड़ा। वह हिंदू रहकर, हिंदू का
ही मन प्रवर्तन होकर स्पृश्य माना गया तो होगा। गाँव के कुल-व्यवहार में कुछ
काम महारों के आरक्षित, उन कामों और उस अवसर के वे माननीय, उनके गौरव बोध को
बढ़ानेवाले अवसर गिने-चुने पर निश्चित, अपना वह सम्मान सँभालने को वे हमेशा
तत्पर। उनकी महार बस्ती के मरी माता या विठोबा के मंदिर में यदि कोई उनसे नीच
जाति के भंगी, चमार घुसने का प्रयास करें तो उसका स्वागत लाठी आदि से करने,
उनके सिर फोड़ने से वे पीछे हटनेवाले नहीं हैं।
क्या अच्छा है, क्या बुरा है यह प्रश्न यहाँ नहीं है। वास्तविकता क्या है? यह
प्रश्न है। वास्तविकता यही है कि अपनी जाति और जातिधर्म से अनगिनत पीढ़ियों से
चिपकी हुई यह महार जाति, कुछ महार परधर्म में चले गए तो भी अपने पूर्वजों के
जातिधर्म को एकाएक छोड़ देंगे और धर्म परिवर्तन कर लेंगे यह असंभव है, चुटकी
बजाते ही एक या ग्यारह वर्षों में यह होना कठिन है।
शुद्धि करो, रोटीबंदी तोड़ो, सारी जातियाँ तोड़ो आदि उपदेश महारों के गले
में उतारना हमें उतना ही कठिन लग रहा है जितना ब्राह्मणों के गले उतारना। बहुत
क्या, अस्पृश्यता समाप्त करो, यह भी महारों को उनसे नीच जातियों के संबंध में
समझाना स्पृश्यों को समझाने जितना ही कठिन है। और यह भी कि किसी गाँव की सारी
महार बस्तियों में धर्मांतरण की इच्छा हुई भी तो वे दस-बीस परिवार सारे गाँव
के शत्रु हो जाएँगे। खुले या छिपे, परदे के पीछे से पूरा गाँव कदम-कदम पर उनकी
अवहेलना करेगा। गाँव का महार हिंदू धर्म को लात मारता है, यह देख गाँव का
मुखिया उन्हें घर छोड़ने के लिए कहेगा, साहूकार अपना पैसा माँगेगा। गाँव के
मंदिर में निश्चित उसका स्थान एवं सारे गाँव से रिश्ते-नाते टूट जाएँगे और वह
गाँव का शत्रु बन जाएगा। बहुसंख्य हिंदू गाँव एक ओर हो जाए तो धर्मांतरित
दस-पाँच घर दूसरी ओर हो जाएँगे। विधि (कानून) पुस्तकों में कुछ भी हो तो भी
पूरे गाँव के विरोध के आगे विधि क्या करेगी? इसके भी आगे धर्मांतरित महारों
के पीछे जो उसके नाते-संबंधी होंगे वे छूट जाएँगे। बाप से बेटा, बहन से बहन,
माँ से पुत्र टूटकर जन्म के, पीढ़ी के दूसरे हो जाएँगे, जाति के बेजात
होंगे।
ईसाई हो गए तो भी इन हजारों फैले हुए महारों को सालों-साल पैंट, टोपियाँ,
नौकरियाँ देकर कोई भी साहब नहीं बना सकता, मेमें नहीं दे सकता। आज जैसे
कोई-कोई धर्मांतरित महार दिखते हैं वैसे वे घूमते भी नहीं रह सकते, क्योंकि
गाँव से बँधे हुए हैं। उनका तो गाँव के पटेल, बनिया से जन्म का रिश्ता है।
मुसलमान हो गए तो भी वही स्थिति। गाँव में दस-पाँच मुसलमान के घर, उनमें ये और
दस-पाँच। धर्मांतरित महारों के लिए उ