सावरकर समग्र
स्वातंत्र्यवीर
विनायक दामोदर सावरकर
प्रभात प्रकाशन, दिल्ली
आभार- स्वातंत्र्यवीर सावरकर राष्ट्रीय स्मारक
२५२ स्वातंत्र्यवीर सावरकर मार्ग
शिवाजी उद्यान, दादर, मुंबई-२८
प्रकाशक - प्रभात प्रकाशन
४/१९ आसफ अली रोड
नई दिल्ली-११०००२
संस्करण - २००४
© सौ. हिमानी सावरकर
मूल्य - पाँच सौ रुपए प्रति खंड
पाँच हजार रुपए (दस खंडों का सैट)
मुद्रक - गिर्राज प्रिंटर्स, दिल्ली
SAVARKAR SAMAGRA (Complete Works of Vinayak Damodar Savar Published by Prabhat Prakashan, 4/19 Asaf Ali Road, New Delhi-2
Vol. VIII Rs. 500.00 ISBN 81-7315-328-0
Set of Ten Vols. Rs. 5000.00 ISBN 81-7315-331-0
प्रथम खंड
पूर्व पीठिका, भगूर, नाशिक
शत्रु के शिविर में
लंदन से लिखे पत्र
द्वितीय खंड
मेरा आजीवन कारावास
अंदमान की कालकोठरी से
गांधी वध निवेदन
आत्महत्या या आत्मार्पण
अंतिम इच्छा पत्र
तृतीय खंड
काला पानी
मुझे उससे क्या? अर्थात् मोपला कांड
अंधश्रद्धा निर्मूलक कथाएँ
चतुर्थ खंड
उ:शाप
बोधिवृक्ष
संन्यस्त खड्ग
उत्तरक्रिया
प्राचीन अर्वाचीन महिला
गरमागरम चिवड़ा
गांधी गोंधल
पंचम खंड
१८५७ का स्वातंत्र्य समर
रणदुंदुभि
तेजस्वी तारे
षष्टम खंड
छह स्वर्णिम पृष्ठ
हिंदू पदपादशाही
सप्तम खंड
जातिभंजक निबंध
सामाजिक भाषण
विज्ञाननिष्ठ निबंध
अष्टम खंड
मैझिनी चरित्र
विदेश में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम
क्षकिरणे
ऐतिहासिक निवेदन
अभिनव भारत संबंधी भाषण
नवम खंड
हिंदुत्व हिंदुत्व का प्राण
नेपाली आंदोलन
लिपि सुधार आंदोलन
हुनदु राष्ट्रदर्शन
दशम खंड
कविताएँ
भाषा-शुद्धि लेख
विविध लेख
अनुवाद:
प्रो. निशिकांत मिरजकर, डॉ. ललिता मिरजकर,
डॉ. हेमा जावडेकर, श्री वामन राव पाठक, श्री काशीनाथ जोशी,
श्री शरद दामोदर महाजन, श्री माधव साठे, सौ. कुसुम तांबे,
सौ. सुनीता कुट्टी, सौ. प्रणोति उपासने
संपादन:
प्रो. निशिकांत मिरजकर, डॉ. श्याम बहादुर वर्मा,
श्री रामेश्वर मिश्र 'पंकज', श्री जगदीश उपासने,
श्री काशीनाथ जोशी, श्री धृतिवर्धन गुप्त, श्री अशोक कौशिक
मार्गदर्शन :
श्री त्रिलोकीनाथ चतुर्वेदी, डॉ. हरींद्र श्रीवास्तव,
श्री शिवकुमार गोयल
विनायक दामोदर सावरकर : संक्षिप्त जीवन परिचय
श्री विनायक दामोदर सावरकर भारतीय स्वाधीनता-संग्राम के एक तेजस्वी तथा अग्रणी नक्षत्र थे। 'वीर सावरकर' शब्द साहस, वीरता, देशभक्ति का पर्यायवाची बन गया है। 'वीर सावरकर' शब्द के स्मरण करते ही अनुपम त्याग, अदम्य साहस, महान् वीरता, एक उत्कट देशभक्ति से ओतप्रोत इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठ हमारे सामने साकार होकर खुल पड़ते हैं।
वीर सावरकर न केवल स्वाधीनता-संग्राम के एक तेजस्वी सेनानी थे अपितु वह एक महान् क्रांतिकारी, चिंतक, सिद्धहस्त लेखक, कवि, ओजस्वी वक्ता तथा दूरदर्शी राजनेता भी थे। वह एक ऐसे इतिहासकार भी थे जिन्होंने हिंदू राष्ट्र की विजय के इतिहास को प्रामाणिक ढंग से लिपिबद्ध किया तो '१८५७ के प्रथम स्वातंत्र्य समर' का सनसनीखेज व खोजपूर्ण इतिहास लिखकर ब्रिटिश शासन को हिला डाला था।
इस महान् क्रांतिपुंज का जन्म महाराष्ट्र के नासिक जिले के ग्राम भगूर में चित्तपावन वंशीय ब्राह्मण श्री दामोदर सावरकर के घर २८ मई, १८८३ को हुआ था। गाँव के स्कूल में ही पाँचवीं तक पढ़ने के बाद विनायक आगे पढ़ने के लिए नासिक चले गए।
लोकमान्य तिलक द्वारा संचालित 'केसरी' पत्र की उन दिनों भारी धूम थी। 'केसरी' में प्रकाशित लेखों को पढ़कर विनायक के हृदय में राष्ट्रभक्ति की भावनाएँ हिलोरें लेने लगीं। लेखों, संपादकीयों व कविताओं को पढ़कर उन्होंने जाना कि भारत को दासता के चंगुल में रखकर अंग्रेज किस प्रकार भारत का शोषण कर रहे हैं। वीर सावरकर ने कविताएँ तथा लेख लिखने शुरू कर दिए। उनकी रचनाएँ मराठी पत्रों में नियमित रूप से प्रकाशित होने लगीं। 'काल' के संपादक श्री परांजपे ने अपने पत्र में सावरकर की कुछ रचनाएँ प्रकाशित की, जिन्होंने तहलका मचा दिया।
सन् १९०५ में सावरकर बी.ए. के छात्र थे। उन्होंने एक लेख में विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का आह्वान किया। इसके बाद उन्होंने अपने साथियों के साथ मिलकर विदेशी वस्त्रों की होली जलाने का कार्यक्रम बनाया। लोकमान्य तिलक इस कार्य के लिए आशीर्वाद देने उपस्थित हुए।
सावरकर की योजना थी कि किसी प्रकार विदेश जाकर बम आदि बनाने सीखे जाएँ तथा शस्त्रास्त्र प्राप्त किए जाएँ। तभी श्री श्यामजी कृष्ण वर्मा ने सावरकर को छात्रवृत्ति देने की घोषणा कर दी। ९ जून, १९०६ को सावरकर इंग्लैंड के लिए रवाना हो गए। वह लंदन में इंडिया हाउस' में ठहरे। उन्होंने वहाँ पहुँचते ही अपनी विचारधारा के भारतीय युवकों को एकत्रित करना शुरू कर दिया। उन्होंने 'फ्री इंडिया सोसाइटी' की स्थापना की।
सावरकर 'इंडिया हाउस' में रहते हुए लेख व कविताएँ लिखते रहे। वह गुप्त रूप से बम बनाने की विधि का अध्ययन व प्रयोग भी करते रहे। उन्होंने इटली के महान् देशभक्त मैझिनी का जीवन-चरित्र लिखा। उसका मराठी अनुवाद भारत में छपा तो एक बार तो तहलका ही मच गया था।
१९०७ में सावरकर ने अंग्रेजों के गढ़ लंदन में १८५७ की अर्द्धशती मनाने का व्यापक कार्यक्रम बनाया। १० मई, १९०७ को 'इंडिया हाउस' में सन् १८५७ की क्रांति की स्वर्ण जयंती का आयोजन किया गया। भवन को तोरण-द्वारों से सजाया गया। मंच पर मंगल पांडे, लक्ष्मीबाई, वीर कुँवरसिंह, तात्या टोपे, बहादुरशाह जफर, नानाजी पेशवा आदि भारतीय शहीदों के चित्र थे। भारतीय युवक सीने व बाँहों पर शहीदों के चित्रों के बिल्ले लगाए हुए थे। उनपर अंकित था - '१८५७ के वीर अमर रहें'। इस समारोह में कई सौ भारतीयों ने भाग लेकर १८५७ के स्वाधीनता-संग्राम के शहीदों को श्रद्धांजलि अर्पित की। राष्ट्रीय गान के बाद वीर सावरकर का ओजस्वी भाषण हुआ, जिसमें उन्होंने सप्रमाण सिद्ध किया कि १८५७ में 'गदर' नहीं अपितु भारत की स्वाधीनता का प्रथम महान् संग्राम हुआ था।
सावरकर ने १९०७ में '१८५७ का प्रथम स्वातंत्र्य समर' ग्रंथ लिखना शुरू किया। इंडिया हाउस के पुस्तकालय में बैठकर वह विभिन्न दस्तावेजों व ग्रंथों का अध्ययन करने लगे। उन्होंने लगभग डेढ़ हजार ग्रंथों के गहन अध्ययन के बाद इसे लिखना शुरू किया।
ग्रंथ की पांडुलिपि किसी प्रकार गुप्त रूप से भारत पहुँचा दी गई। महाराष्ट्र में इसे प्रकाशित करने की योजना बनाई गई। 'स्वराज्य' पत्र के संपादक ने इसे प्रकाशित करने का निर्णय लिया; किंतु पुलिस ने प्रेस पर छापा मारकर योजना में बाधा डाल दी। ग्रंथ की पांडुलिपि गुप्त रूप से पेरिस भेज दी गई। वहाँ इसे प्रकाशित कराने का प्रयास किया गया; किंतु ब्रिटिश गुप्तचर वहाँ भी पहुँच गए और ग्रंथ को प्रकाशित न होने दिया गया। ग्रंथ के प्रकाशित होने से पूर्व ही उसपर प्रतिबंध लगा दिया गया। अंतत: १९०९ में ग्रंथ फ्रांस से प्रकाशित हो ही गया।
ब्रिटिश सरकार तीनों सावरकर बंधुओं को 'राजद्रोही' व खतरनाक क्रांतिकारी घोषित कर चुकी थी। सावरकर इंग्लैंड से पेरिस चले गए। पेरिस में उन्हें अपने साथी याद आते। वह सोचते कि उनके संकट में रहते उनका यहाँ सुरक्षित रहना उचित नहीं है। अंतत: वह इंग्लैंड के लिए रवाना हो गए।
१३ मार्च, १९१० को लंदन के रेलवे स्टेशन पर पहुँचते ही सावरकर को बंदी बना लिया गया और ब्रिक्स्टन जेल में बंद कर दिया गया। उनपर लंदन की अदालत में मुकदमा शुरू हुआ। न्यायाधीश ने २२ मई को निर्णय दिया कि क्योंकि सावरकर पर भारत में भी कई मुकदमे हैं, अत: उन्हें भारत ले जाकर वहीं मुकदमा चलाया जाए। अंतत: २९ जून को सावरकर को भारत भेजने का आदेश जारी कर दिया गया।
१ जुलाई, १९१० को 'मोरिया' जलयान से सावरकर को कड़े पहरे में भारत रवाना किया गया। ब्रिटिश सरकार को भनक लग गई थी कि सावरकर को रास्ते में छुड़ाने का प्रयास किया जा सकता है। अत: सुरक्षा प्रबंध बहुत कड़े किए गए। ८ जुलाई को जलयान मार्सेलिस बंदरगाह के निकट पहँचने ही वाला था कि सावरकर शौच जाने के बहाने पाखाने में जा घुसे। फुरती के साथ उछलकर वह पोर्ट हॉल तक पहुँचे और समुद्र में कूद पड़े।
अधिकारियों को जैसे ही उनके समुद्र में कूद जाने की भनक लगी कि अंग्रेज अफसरों के छक्के छूट गए। उन्होंने समुद्र की लहरें चीरकर तैरते हुए सावरकर पर गोलियों की बौछार शुरू कर दी। सावरकर सागर की छाती चीरते हुए फ्रांस के तट की ओर बढ़ने लगे। कुछ ही देर में वह तट तक पहुँचने में सफल हो गए; किंतु उन्हें पुन: बंदी बना लिया गया। १५ सितंबर, १९१० को सावरकर पर मुकदमा शुरू हुआ। सावरकर ने स्पष्ट कहा कि भारत के न्यायालय से उन्हें न्याय की किंचित् भी आशा नहीं है, अत: वह अपना बयान देना व्यर्थ समझते हैं।
१४ दिसंबर को अदालत ने उन्हें ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध षड्यंत्र रचने, बम बनाने तथा रिवॉल्वर आदि शस्त्रास्त्र भारत भेजने आदि आरोपों में आजन्म कारावास की सजा सुना दी। उनकी तमाम संपत्ति भी जब्त कर ली गई।
२३ जनवरी, १९११ को उनके विरुद्ध दूसरे मामले की सुनवाई शुरू हुई। ३० जनवरी को पुनः आजन्म कारावास की सजा सुना दी गई। इस प्रकार सावरकर को दो आजन्म कारावासों का दंड दे दिया गया। सावरकर को जब अंग्रेज न्यायाधीश ने दो आजन्म कारावासों का दंड सुनाया तो उन्होंने हँसते हुए कहा, 'मुझे बहुत प्रसन्नता है कि ईसाई (ब्रिटिश) सरकार ने मुझे दो जीवनों का कारावास दंड देकर पुनर्जन्म के हिंदू सिद्धांत को मान लिया है।'
कुछ माह बाद महाराजा नामक जलयान से सावरकर को अंदमान भेज दिया गया। वे ४ जुलाई, १९११ को अंदमान पहुँचे। अंदमान में उन्हें अमानवीय यातनाएँ दी जाती थीं। कोल्हू में बैल की जगह जोतकर तेल पिरवाया जाता था, मूँज कुटवाई जाती थी। राजनीतिक बंदियों पर वहाँ किस प्रकार अमानवीय अत्याचार ढाए जाते थे, इसका रोमांचकारी वर्णन सावरकरजी ने अपनी पुस्तक 'मेरा आजीवन कारावास' में किया है।
सावरकरजी ने अंदमान में कारावास के दौरान अनुभव किया कि मुसलमान वॉर्डर हिंदू बंदियों को यातनाएँ देकर उनका धर्म-परिवर्तन करने का कुचक्र रचते हैं। उन्होंने इस अन्यायपूर्ण धर्म-परिवर्तन का डटकर विरोध किया तथा बलात् मुसलिम बनाए गए अनेक बंदियों को हिंदू धर्म में दीक्षित करने में सफलता प्राप्त की। उन्होंने अंदमान की कालकोठरी में कविताएँ लिखीं। 'कमला', 'गोमांतक' तथा 'विरहोच्छ्वास' जैसी रचनाएँ उन्होंने जेल की यातनाओं से हुई अनुभूति के वातावरण में ही लिखी थीं। उन्होंने 'मृत्यु' को संबोधित करते हुए जो कविता लिखी वह अत्यंत मार्मिक व देशभक्ति से पूर्ण थी।
सावरकरजी ने अंदमान कारागार में होनेवाले अमानवीय अत्याचारों की सूचना किसी प्रकार भारत के समाचारपत्रों में प्रकाशित कराने में सफलता प्राप्त कर ली। इससे पूरे देश में इन अत्याचारों के विरोध में प्रबल आवाज उठी। जाँच समिति ने अंदमान जाकर जाँच की। अंत में दस वर्ष बाद १९२१ में सावरकरजी को अंदमान से मुक्ति मिली। उन्हें। अंदमान से लाकर रत्नाजगिरी तथा यरवडा की जेलों में बंद रखा गया। तीन वर्षों तक इन जेलों में रखने के बाद सन् १९२४ में उन्हेंड रत्नायगिरी में नजरबंद रखने के आदेश हुए। रत्नागिरी में रहकर उन्होंडने अस्पृयश्यीता निवारण, हिंदू संगठन जैसे अनूठे कार्य किए।
'हिंदुत्व', 'हिंदू पदपादशाही', 'उ:श्राप', 'उत्तरक्रिया', 'संन्यस्त खड्ग' आदि ग्रंथ उन्होंने रत्नागिरी में ही लिखे।
१० मई, १९३७ को सावरकरजी की नजरबंदी रद्द की गई।
नजरबंदी से मुक्त होते ही सावरकरजी का भव्य स्वागत किया गया। अनेक नेताओं ने उन्हें कांग्रेस में शामिल करने का प्रयास किया; किंतु उन्होंने स्पष्ट कह दिया, 'कांग्रेस की मुसलिम तुष्टीकरण की नीति पर मेरे तीव्र मतभेद हैं। मैं हिन्दू महासभा का ही नेतृत्व करूँगा।'
३० दिसंबर, १९३७ को अहमदाबाद में आयोजित अखिल भारतीय हिंदू महासभा के अधिवेशन में सावरकरजी सर्वसम्मति से अध्यक्ष चुने गए। उन्होंने 'हिंदू' की सर्वश्रेष्ठ व मान्य परिभाषा की। हिंदू महासभा के मंच से सावरकरजी ने 'राजनीति का हिंदूकरण और हिंदू सैनिकीकरण' का नारा दिया। उन्होंने हिंदू युवकों को अधिक-से-अधिक संख्या में सेना में भरती होने की प्रेरणा दी। उन्होंने तर्क दिया, 'भारतीय सेना के हिंदू सैनिकों पर ही इस देश की रक्षा का भार आएगा, अत: उन्हें आधुनिकतम सैन्य विज्ञान की शिक्षा दी जानी जरूरी है।'
२६ फरवरी, १९६६ को भारतीय इतिहास के इस अलौकिक महापुरुष ने इस संसार से विदा ले ली। अपनी अंतिम वसीयत में भी उन्होंने हिंदू संगठन व सैनिकीकरण के महत्त्व, शुद्धि की आवश्यकता पर प्रकाश डाला। भारत को पुन: अखंड बनाए जाने की उनकी आकांक्षा रही।
ऐसे वीर पुरुष का व्यक्तित्व और कृतित्व आज भी हमारे लिए पथ-प्रदर्शक का काम करने में सक्षम है।
- शिवकुमार गोयल
अनुक्रम
मैझिनी चरित्र २३
१, श्री विदा, सावरकर की प्रस्तावना (सन् १९०६) २५
२, मैझिनी लिखित प्रस्तावना (सन् १८६१) ४७
३, मैमिनी का आत्मकथ्य ४९
४, युवा इटली (La Giovine Italia) ८३
संस्था के मूलभूत सिद्धांत ८४
'युवा इटली' का घोषणापत्र ९६
निर्वासित देशभक्तों को पत्र १५९
'युवा यूरोप' की सिद्धांत-मालिका १६४
५. मैझिनी लिखित महत्त्वपूर्ण लेख २१९
खंजर की उपपत्ति (सन् १८५६) २१९
कूटनीति युद्ध के नियम (सन् १८३२) २२७
बंडीएरा बंधु तथा कोसेंझा के अन्य देशवीरों का बत्तांत
(२५ जुलाई, १८४८) २३६
स्फुट लेख २६५
१.हिंदी क्रांतिकारियों का विदेशी आंदोलन २६७
पूर्वार्ध २६७
उत्तरार्ध २७४
२.आगामी महायुद्ध का स्वर्णावसर हाथ से निकलने न दें २८१
लेखांक-1 २८१
लेखांक-२ २८४
लेखांक-३ २९४
लेखांक-४ ३००
३. स्वतंत्रता सेनानी वीर सावरकर के विविध भाषण ३०५
रत्नागिरी से विदाई ३०५
हथकड़ियाँ बर्नी फूलों की लड़ियाँ ३०६
मैं बढ़ता ही रहूँगा ३०७
छात्रों के सामने भाषण ३०९
इकसठी के उपलक्ष्य में सत्कार (बंबई में; सन् १९४३) ३१०
वीर सावरकर की भूमिका में सुसंगति (इकसठी के उपलक्ष्य
में सत्कार : पुणे) ३१४
इकसठवीं वर्षगाँठ के उपलक्ष्य में सत्कार : नागपुर ३१८
महाराष्ट्र को हिंदुस्थान का खड्गहस्त होना चाहिए ३२०
अध्यक्ष बन गया तो दो वर्षों में देश को समर्थ बनाऊँगा
ये बातें सेना की हैं, शक्ति की हैं ३२३
प्रशासन शक्तिशाली हो ३२६
महाराष्ट्र को हिंदुस्थान का खड्गहस्त होना चाहिए ३२८
सेना में भर्ती ३३२
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ-गुरुपूर्णिमा उत्सव, पुणे ३३४
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, सांगली शाखा ३३६
आर्थिक सूत्र ३३७
भोपटकर का सत्कार-भागा नगर रणसंग्राम की फलश्रुति ३३८
क्ष-किरण ३४३
१. हिंदुओं का अनाड़ीपन और मुसलमानों का ३४५
पेट के बल पर चलने की मनौती ३४७
अब यह बैठा व्रत देखो ३४९
अब मुसलमानों के अघोर व्रत ३५१
२. गाय : एक उपयोगी पशु, माता नहीं-देवता तो त्रिवार नहीं! ३५६
३. पोथीनिष्ठा की बाधा ३६८
मौलवी पूछते हैं, "दूरध्वनि (टेलीफोन) शैतान की खोज है
या भगवान् की?" ३६८
अब यह देखो, ईसाई अंधश्रद्धा का मजा ३६९
राजपूत जाति-धर्म के नाम पर जाट लोगों के सिर फोड़ते हैं ३७२
राजपूतों ने सूत्रान्वये जाटों को यंत्रणा दी इसलिए जाटों ने तीव्र
निषेध किया और सूत्रान्वये जाट अस्पृश्यों को यातना देते हैं ३७३
'ब्राह्मण चाहे मेरे साथ भोजन करे परंतु मैं भंगी-मेहतर के
साथ भोजन कभी नहीं करूँगा'-इति महार-चमार! ३७४
४. गोरक्षक या धर्मभ्रष्ट पंडा ३७६
यथासमय न बोले तो कब सदुक्ति बोले? -मोरोपंत ३७६
५. यह गर्भगृह है या गोशाला? ३८७
यह हुई भोलीभाली गोभक्ति, अब यह देखिए दांभिक मूषक भक्ति ३९२
६. एक अलौकिक शस्त्रीय शोध, जो विश्व के समस्त युद्ध असंभव करता है ३९७
यह हुआ युद्ध विनाशी अद्भुत उपाय, अब सुनिए भूचाल नष्ट
करने का उतना ही अद्भुत उपाय! ४०१
उच्चांक माने रिकॉर्ड ४०४
७. उच्चांकों की महामारी ४०६
८. धार्मिक छाछू के कार्यकरण भाव ४१५
नौ यान जो पानी में डूबते नहीं ४१५
धार्मिक छाछू के कार्यकारण भाव ४१७
बीड़ी और ब्रह्म का कार्यकारण संबंध ४१८
सौभाग्यकांक्षिणी कुमारी कलौरी का ब्याह ४१९
९.पुनश्च एक बार गाय-हानिकारक धर्मभावना ४२१
नूतन देवता की मूर्ति ४२३
अंधश्रद्धा का सैलाब ४२३
अमेरिका के गो माहात्म्य विषयक हमारी भ्रामक धारणाएँ ४२४
गो भक्षक अमेरिका ४२५
वरदान किस अर्थ में ४२६
अभिनेत्रियाँ पंचगव्य का सेवन करती हैं? ४२७
गो माता किसकी? ४२९
शिवाजी महाराज भी 'गो ब्राह्मण प्रतिपालक' कहलाते थे। ४३०
वही कहानी परमपूज्य पं. मालवीयजी के 'मानबिंदु' के संबंध में ४३१
१०. यह भूतदया या भूतबाधा? ४३४
वही वास्तविक भूतदया है जो मानवी हित के लिए पोषक हो ४३४
मनुष्य दया और भूतदया ४३४
असंभव! असंभव!! असंभव!!! ४४१
दांभिक शब्दच्छल ४४२
महात्मा गांधी का एकदम चालू उदाहरण लीजिए ४४३
तो फिर यथासंभव उस तुलनीय भूतदया की, सापेक्ष अहिंसा की
कसौटी क्या है? ४४४
११. कुछ विदेशी शब्द जो तत्काल बहिष्कार्य हैं ४४८
भाषाशुद्धि की कसौटी ४५०
उन अनावश्यक परशब्दों की दिग्दर्शक सारणी जिन्हें आज ही
बहिष्कृत किया जा सकता है ४५१
वह अत्यंत लज्जास्पद परशब्द है कायदा' (निबंध)! ४५८
नागपुर का एक पत्र ४५९
१२. अंधश्रद्धा का अतिरेक (परिसीमा) ४६२
१३. वर्तमान तिब्बत के कुछ मजेदार किस्से ४७६
१४. राहुल सांकृत्यायन का तिब्बत में संशोधन (अन्वेषण) ४८५
ऐतिहासिक निवेदन ४९१
१. हिंदू मतदाताओं को आह्वान ४९३
२. कांग्रेस हिंदुओं की प्रतिनिधि नहीं ४९५
३. निजाम के राज्य में हिंदुओं पर हो रहे अत्याचार ४९५
४. वंदेमातरम् ! नेपाल, ज्यू (तीन पत्रिकाएँ) ४९६
५. निजामी में घुसो (घुसपैठ करो) कृति ही प्रचार ४९७
६. रूजवेल्ट को टेलीग्राम ५०२
७. किशन प्रसाद को प्रत्युत्तर ५०२
८. मसजिद में ताला ठोकना चाहिए ५०३
९. भीतर से भी चढ़ाई करो ५०४
१०. ग्वालियर नरेश का अभिनंदन ५०६
११. निजाम तनिक ठंडा पड़ गया ५०६
१२. शिया मुसलमानों को उत्तर ५०७
१३. गुंडागर्दी घातक सिद्ध होगी ५०८
१४. बँगला हिंदूजन हो, जाग्रत् हो जाओ! ५०९
१५. महायुद्ध और हिंदू महासभा ५१०
१६. वाइसराय को दी गई सूचनाएँ ५११
१७. शहीदों के पुत्र विजयी सेना उभारेंगे ५१४
१८. एकमत का अनुरोध एक भुलावा है ५१४
१९. हिंदू सभा को समर्थ बनाएँ! ऐसी ही विजय प्राप्त करें! ५१६
२०. आजाद मुसलिम परिषद् के संकट का उपाय ५२२
२१. बड़ौदा के मुसलमानों को तमाचा ५२३
२२. सिक्ख सेना खड़ी करो ५२४
२३. हिंदुओं के सच्चे प्रतिनिधि लीजिए ५२६
२४. वाइसराय को पत्र ५२६
२५. गोवा में मराठी की रक्षा करो ५२७
२६. निजाम से नेपाल अधिक उचित ५२७
२७. नेहरू को मिले दंड का विरोध ५२८
२८. जनगणना में हिंदू के रूप में नाम दर्ज करें ५२९
२९. डॉ. जयकर को पत्र ५३५
३०. मदुरा प्रस्ताव का स्पष्टीकरण ५३६
३१. लिंगायत समाज का आह्वान ५३८
३२. तार न करते हुए प्रत्यक्ष संघर्ष करो ५४०
३३. बै. जमनादास मेहता को ही वोट दो ५४१
३४. जनगणना और कांग्रेस की विसंगतियाँ ५४१
३५. ब्रिटेन की अप्रामाणिकता ५४२
३६. कांग्रेस मूक अधिवक्ता है ५४३
३७. विजयी हिंदू सभा को बधाई ५४४
३८. पाकिस्तान पर प्रत्याघात ५४५
३९. दंगों की मीमांसा-१ ५५१
४०.दंगों की मीमांसा-२ ५५१
४१. डॉ. राजेंद्र प्रसाद को उत्तर ५५१
४२. हिंदू संघटन निधि स्थापित करें ५५३
४३. उनसठवें जन्मदिन का संदेश ५५४
४४. प्रत्यक्ष प्रतिकार का अर्थ ५५६
४५. असम के हिंदुओं को चेतावनी ५६०
४६. सुरक्षा मंडल का स्वागत ५६३
४७. बहुसंख्यक पक्ष एक ही है ५६४
४८. भाषण के लिए दो शर्ते ५६५
४९. रूजवेल्ट तथा शरद बाबू को टेलीग्राम ५६५
५०. अकेले हिंदू ही लड़ेंगे ५६६
५१. चर्चिल-रूजवेल्ट का प्रश्न ५६६
५२. नेल्लोर के हिंदुओं को समर्थन ५६७
५३. भागलपुर युद्ध का श्रीगणेश ५६७
५४. जापान भी अपने लिए लड़ रहा है ५६७
५५. भागलपुर संबंधित सूचना ५६८
५६. ब्रिटिश हित रक्षक गांधी ५६९
५७. सिंगापुर का पतन ५७०
५८. राजाजी को मुँहतोड़ जवाब ५७०
५९. क्रिप्स योजना क्यों अस्वीकृत हो गई? ५७१
६०. भविष्य में युद्ध-परीक्षा ही काम आएगी ५७१
६१. डॉ. आंबेडकर का चिंतन ५७२
६२. कोंकणी युवको, नौ दल में जाओ ५७२
६३. चीनी-मुसलिम शिष्टमंडल ५७२
६४. साठवाँ जन्मदिन ५७५
६५. मद्रास में राजाजी का विरोध करो ५७५
६६. रेवा के महाराज की पदच्युति ५७५
६७. सर मिर्जा इसमाइल को निकालो ५७६
६८. अभिनंदन और असंतुष्टि ५७६
६९. जैन यात्री-कर मत लें ५७७
७०. कश्मीरी मुसलमानों को उत्तर ५७७
७१. गांधी प्रभृतियों की गिरफ्तारी ५७७
७२. ब्रिटिश वृत्तपत्रों को सूचना ५७८
७३. त्यागपत्र न दें ५७८
७४. भारत का भवितव्य युद्ध देवता के हाथ में ५७९
७५. विदेश में प्रचारक भेजें ५७९
७६. विजयादशमी का संदेश ५८०
७७. देश को अखंड ही रखो ५८०
७८. सिंध का पाकिस्तान विषयक प्रस्ताव ५८१
७९. हूरों का विद्रोह विफल करो ५८१
८०. जिन्ना को उत्तर ५८२
८१. मंत्रिमंडल संबंधी सूचना ५८३
८२. मान अपघात है और त्याग नियम है ५८३
८३. प्रो. माटे तथा डॉ. मुखर्जी को उत्तर ५८५
८४. संयुक्त मंत्रिमंडल की आवश्यकता क्यों है? ५८५
८५. जिन्ना पर हुए हमले का विरोध ५८९
८६. द्विराष्ट्रवाद का स्पष्टीकरण ५९०
८७. सूखा पीड़ितों की सहायता करो ५९०
८८. हिंदू सभा के सदस्य बढ़ाओ ५९१
८९. नगर सेवक प्रथम वह कार्य करें ५९२
९०. निर्वाचन निर्णय का बोध ५९६
९१. सूखे में धर्मभ्रष्टता ५९८
९२. बंगाल युद्ध की छावनी होगा ५९९
९३. वह निर्णय युद्ध देवता के हाथ में ६००
९४. वर्ष प्रतिपदा के दिन घर-घर में हिंदू ध्वज फहराएँ ६०१
९५. हिंदू सभा का यश ६०१
९६. गांधी की तरह अन्य लोगों को भी मुक्त करो ६०२
९७. जिन्ना को उत्तर ६०२
९८. उर्दू के विरोध में युद्ध का आह्वान करें ६०३
९९. पंढरपुर यात्रा पर लगाई गई पाबंदी हटाएँ ६०४
१००. पंढरपुर यात्रियों का अभिनंदन ६०४
१०१. गांधी ने विभाजन को स्वीकारा ६०५
१०२. गांधी की स्वीकृति सभी की स्वीकृति नहीं ६०६
१०३. राजाजी को उत्तर ६०६
१०४. गांधी की आँखों में धूल झोंककर पाकिस्तान नहीं मिलेगा ६०७
१०५. हिंदू सभा कांग्रेस के हाथों की कठपुतली न बने ६०८
१०६. हिंदी को ही राजभाषा बनाओ ६०८
१०७. ये पत्रकार ढोंगी हैं या अप्रामाणिक ६१०
१०८. क्रांतिवीर रासबिहारी तथा पं. चंद्रगुप्त को श्रद्धांजलि ६१०
१०९. निजाम पुत्र का समय पर ही विरोध करो ६११
११०. निजाम की पत्रिका का परदाफाश ६१२
१११. भुलाभाई-लियाकत प्रसंविदा का विरोध ६१४
११२. वेवेल योजना का खतरा पहले ही जान लो ६१५
११३. शरद बोस को मुक्त करो ६१७
११४. वेवेल योजना के विरोध में संघर्ष सफल ६१८
११५. हिंदू महासभा में अहिंदुओं को प्रवेश न मिले ६१९
११६. हिंदी हो, न कि उर्दू ६२०
११७. हिंदू सभा को विजयी बनाओ ६२२
११८. डॉ. मुखर्जी को वोट दो ६२५
११९. दैनिक अग्रणी की सहायता करो ६२५
१२०. हिंदू होने का निश्चय कृति में उतारिए ६२६
१२१. अस्पृश्यता शीघ्रतापूर्वक नष्ट करें ६३०
१२२. पंजाब की समस्या ६३१
१२३. बंगाल का विभाजन ६३१
१२४. कोल्हापुर छत्रपति का अभिनंदन ६३२
१२५. भोपाल संबंधी पत्रिका ६३२
१२६. दंगों में हिंदू कार्यकर्ताओं का अभिनंदन ६३३
१२७. असम के मुख्यमंत्री को तार ६३३
१२८. एक हो जाओ, विभाजन टलेगा ६३४
१२९. विभाजन का विरोध करो ६३५
१३०. बिहारी हिंदूजन हो, भ्रमित गांधी की एक न सुनो ६३६
१३१. हिंदूजन हो! आत्मघात नहीं करते तो! ६३७
१३२. ध्वज विषयक सूचनाएँ ६३९
१३३. हिंदू सभा मंदिर को मसजिद न बनाए ६४१
१३४. सशस्त्र क्रांति से ही स्वाधीनता-प्राप्ति ६४२
१३५. सरकार ही दुर्बल सिद्ध हो तो जनता क्या करे? ६४३
१३६. असली प्रश्न अखंड हिंदुस्थान या अखंड पापस्तान ६४६
१३७. हिंदू सभा को वोट देना आपके लिए ही लाभदायक है ६४९
१३८. स्वतंत्र ज्यू राज्य को समर्थन ६५०
१३९. गांधी वध के विवाद को तूल न दें ६५२
१४०. सरदार पटेल का अभिनंदन ६५३
१४१. संविधान समिति के अध्यक्ष को तार ६५३
१४२. हिंदू सभा नेता को भेजा हुआ संदेश ६५३
१४३. सरसंघचालक का अभिनंदन ६५४
१४४, मास्टर तारासिंह का गौरव ६५५
१४५, स्वाधीनता प्राप्त हो गई शस्त्र बल से। स्वाधीनता रक्षार्थ
शस्त्रास्त्र सामर्थ्य की आवश्यकता है, ६५५
१४६, सरदारसिंह राणा को पत्र ६५७
१४७. पुन: गिरफ्तारी और राजनीति में हिस्सा न लेने की शर्त पर मुक्ति ६५९
१४८, सरदार पटेल चल बसे ६६०
१४९, पाक के विरुद्ध लड़ने की इच्छा ६६०
१५०, मेरा ७१वाँ जन्मदिन नहीं मनाया जाए ६६०
१५१, डॉ. मुखर्जी को वास्तविक श्रद्धांजलि देने के लिए कश्मीर को
भारत का अविभाज्य हिस्सा बनाएँ ६६०
१५२, पराजय नहीं, विश्वासघात-यही वास्तविक अपराध है! ६६१
१५३, सशस्त्र क्रांतिकारी खानखोजे का अभिनंदन ६६१
१५४, अहमदाबाद को कर्णावती कहें ६६१
१५५. विजयी हुए तो पेकिंग पहँचेंगे ६६२
१५६, सुरक्षा मंत्री यशवंत राव चव्हाण का समर्थन ६६३
१५७. बै. निर्मल चंद चट्टोपाध्याय को संदेश ६६४
अभिनव भारत परिसमाप्ति भाषण ६६७
१. भाषण-१ ६६९
क्रांति चित्र प्रदर्शनी का उद्घाटन ६६९
क्रांतिकारियों का चित्र लगाना भी दंडनीय अपराध था ६७०
महाराष्ट्रीय हिंदुओं के राष्ट्रीय मूल पुरुष शिवाजी महाराज ६७१
जीवित क्रांतिकारियों के चित्र क्यों नहीं? ६७२
इसी में कृतार्थता की धन्यता है ६७४
२. भाषण-२ ६७६
सशस्त्र क्रांतिकारियों को श्रद्धांजलि ६७६
समाज के लिए व्यक्ति प्रतीक्षा करें? ६८१
सीता माई के वरदान का अंग्रेजी संस्करण ६८२
शोभा यात्रा कि शव यात्रा ६८३
क्रांतिकारियों का मनोगत ६८५
सशस्त्र क्रांतिकारियों की मालिका ६८८
समारोह की अपूर्वता ६८९
३. भाषण-३ ६९२
अभिनव भारत का परिपूर्ति समारोह ६९२
विद्यमान क्रांतिकारियों का सत्कार ६९३
सर्व सशस्त्र क्रांतिकारी संस्थाओं की परिसमाप्ति ६९५
ईर्ष्या, आत्मविश्वास तथा शक्ति के लिए ६९६
परिसमाप्ति समारोह संकल्प समारोह भी होता है ६९८
स्वदेश बांधवों के हाथ सत्ता आए-यही धारणा ६९९
इंग्लैंड का सामरिक संकट हमारी स्वतंत्रता संधि ७०१
सेना में क्रांति का प्रचार ७०२
सैनिकीकरण का अर्थ ७०३
यूरोप में परराष्ट्रीय राजनीति हिंदी क्रांतिकारियों ने ही शुरू की ७०४
स्वतंत्र हिंदुस्थान का प्रथम राष्ट्रध्वज ७०४
बम का पहला विस्फोट ७०६
भारत का प्रथम स्वतंत्र अस्थायी प्रशासन ७०८
जर्मनी ने रखी हिंदुस्थान की स्वाधीनता की शर्त ७०९
क्रांतिकारियों का दुर्दम्य आशावाद ७१०
इतिहास रक्षा का सेहरा शत्रुपक्ष के सिर पर ७१०
स्वतंत्रता प्राप्ति का दूसरा अवसर ७११
रासबिहारी बोस ७१२
दोनों ही गुट साम्राज्यवादी हैं ७१४
पहले सैनिक प्रशिक्षण लें ७१६
सुभाषचंद्र बोस से अचानक भेंट ७१७
साहसी यत्नों के बिना स्वाधीनता प्राप्ति असंभव ७१८
हिटलर, मुसोलिनी से संधि ७२०
सैनिकीकरण से स्वतंत्र सेना को सैनिक मिले ७२०
हिंदुस्थान से संधि करने के लिए ब्रिटिश तैयार ७२२
आज गंगा-यमुना मुक्त हुई परंतु"? ७२३
सिंधु सूक्त! ७२५
महाराष्ट्र को सिंधु जल की तृष्णा ७२५
४. अभिनव भारत परिपूर्ति समारोह (तीसरा दिवस) ७२७
पुणे महापालिका की ओर से विद्यमान क्रांतिकारियों का सत्कार ७२०
क्रांति परिसमाप्ति महोत्सव का समापन ७२८
हम मृत्यु से नहीं डरे, मृत्यु हमसे भयभीत हुई ७२९
स्वतंत्रता का सबसे बड़ा शत्रु है अराजकता ७३१
स्वराज्य प्रस्थापित हुआ इसका अर्थ प्रथम दिवस पर ही
रामराज्य प्रस्थापित नहीं हो सकता ७३२
परंतु परराज्य प्रत्यक्ष राष्ट्रीय मृत्यु ही है ७३३
अपने सारे मतभेद मतपेटी में ही समाने चाहिए ७३३
राज्य हम सभी का है, कारोबार केवल आज तक के लिए
कांग्रेस का ७३४
'विरोधी' नहीं, 'अल्पमतीय' पक्ष ७३४
भारतीय युवको, अब प्रथम शस्त्रबल चाहिए ७३५
कौन सा राष्ट्र 'बड़ा' सिद्ध होता है? ७३८
५. वीर सावरकर के इस समय के अन्य विविध कार्यक्रम ७४०
अब हम सभी की एक ही जाति-हिंदू ७४१
संदर्भ टिप्पणियाँ ७४२
मैझिनी चरित्र
श्री वि.दा. सावरकर की प्रस्तावना (सन् १९०६)
विज्ञान के प्रमेय देशकाल से सीमित नहीं होते। भूमिति के सिद्धांत जितने यूनान में सत्य हैं उतने ही हिंदुस्थान में भी हैं और आज भी वे उतने ही यथार्थ हैं जितने युक्लिड के समय थे। मनुष्य जाति के विस्तृत क्षेत्र तथा निश्चित किए गए जो सिद्धांत होते हैं वे सार्वकालिक होकर संपूर्ण मनुष्य जाति के लिए समान रूप में ही लागू होते हैं। इस प्रकार के साधारण सिद्धांतों का पठन और उनकी आत्मोन्नति के लिए प्रयोग अत्यावश्यक है। प्रत्येक व्यक्ति अतीत के इतिहास तथा अनुभवों से लाभ न उठाते हुए मनुष्य जाति द्वारा आरंभ की हुई भूलें बार-बार दोहराने लगा तो यही कहना होगा कि मानवी उत्क्रांति का गतिरोध होगा। मनुष्य जाति द्वारा जो समस्याएँ सुलझा दी गई हैं उन्हें पुनः सुलझाने में कालापव्यय करने से अधिक श्रेयस्कर है, विभिन्न दार्शनिकों द्वारा सिद्धांत रूप में ग्रथित किए गए उन प्रश्नों के देशकाल से असीमित उत्तरों का आकलन करते हुए उन प्रश्नों को सुलझाने में काल व्यतीत करना, जिनके उत्तर मनुष्य जाति के लिए अभी तक अलभ्य हैं। मानवी उत्क्रांति सुलभ बनाने के लिए दार्शनिकों ने इस विश्व के आज तक के अनुभवों को अकारथ न करते हुए उनका सूक्ष्म परीक्षण करके सर्वव्यापी तत्त्व सिद्ध किए हैं। ज्योतिष शास्त्र, भूमिति शास्त्र, रसायन शास्त्र आदि विज्ञान के वर्तमान रूप मानव के विभिन्न अनुभवों से सर्वमान्य सिद्ध सिद्धांतों का संग्रह करने से संभव हुए हैं। विज्ञान के ये सर्वमान्य सिद्धांत सभी देश तथा सभी काल के लिए लागू होते हैं, अतः जान-बूझकर उनका लाभ न उठाते हुए पुन: पहले पहाड़े पढ़ बचपने करते रहना मूर्खता की परिसीमा है। यह तथ्य जिस तरह ज्योतिष शास्त्र, भूमिति शास्त्र, रसायन शास्त्र आदि के लिए लागू है उसी तरह राजनीति शास्त्र के लिए भी लागू है। राजनीति की उत्क्रांति भी अन्य शास्त्र-सत्यों की तरह काल-देश से असीमित महत् सत्य की तत्त्व योग्यता प्राप्त कर चुकी है। उस सत्य का ज्ञान होना, मनुष्य जाति के आज तक के अनुभवों से लाभ उठाना, अतीत की सृष्टि का भविष्य मार्ग गमनार्थ आधार लेना तथा 'इतिहास प्रदीपेन मोहावरण धातिना लोकगर्भगृहं कृत्स्नंव यथावत' प्रकाशित करने के लिए तत्पर रहना अत्यंत श्रेयस्कर है। अन्य राष्ट्रों ने सदियों से कष्टों का पहाड़ उठाकर कई बार देह की बलि चढ़ाकर भी जिन महान तत्त्वों का संशोधन किया है- उनसे लाभ न उठाते हुए यदि कोई देश जान-बूझकर टटोलता रहे तो इस राष्ट्रीय अंधत्व के कारण उसे भयंकर पश्चात्ताप अवश्य होगा। इस साधारण तत्त्व को आग लगने पर उसपर पानी डालना चाहिए- ताक पर रखकर उस आग पर घी की वर्षा करके जो पुस्तकीय पंडित शांत चित्त से यह देखता रहता है कि वह आग बुझती है या नहीं, उसे उस आग में जलकर राख होने के अतिरिक्त भला अन्य कौन सा पुरस्कार मिल सकता है? मेरी उत्कट इच्छा है कि मेरे युवा देशबंधु राजनीति के अंतर्गत अंतिम सत्य तथा महान् सिद्धांत सीखें, ताकि ऐसी अवस्था मेरी प्रिय आर्यभूमि की न हो। यह सत्य सीखने के लिए राजनीति शास्त्र में अग्रणी बनें; लोगों के उपदेशों को आत्मसात् करने के अतिरिक्त अन्य कोई उत्तम मार्ग नहीं है। राजनीति में अग्र स्थान प्राप्त दार्शनिकों में महान् मैझिनी के अतिरिक्त भला अन्य कोई गुरु मिल सकता है, जो युवा राष्ट्रभक्तों को उत्साहवर्धक, दिव्य, स्नेहमय, उदात्त राष्ट्रमंत्र की दीक्षा दे सके।
'नहीं-नहीं, राष्ट्र कभी मरते नहीं। ईश्वर पीड़ितों का रक्षक है। उसने मनुष्य को स्वाधीनता में साँस लेने के लिए उत्पन्न किया है। यदि तुम ठान लो तो समझो देश स्वतंत्र हो ही गया।' इससे अधिक प्रोत्साहक अन्य राष्ट्रमंत्र कौन सा है? एक बार मनुष्य ने ठान ली कि मैं स्वाधीनता, स्वदेश और मानवता का परम भक्त हूँ, फिर उसे स्वाधीनता, स्वदेश और मानवता के लिए लड़ना ही होगा; निरंतर आजीवन लड़ना होगा। जो भी अस्त्र-शस्त्र मिलें उनके साथ लड़ना होगा। तिरस्कार से लेकर मृत्यु तक सभी संकटों को तुच्छ समझना होगा। विद्वेष, निंदा का सामना करना होगा। अन्य किसी भी फल की आकांक्षा न करते हुए केवल कर्तव्य भावना से तत्पर रहना होगा। इससे अधिक दिव्य राष्ट्रमंत्र कौन सा हो सकता है? 'युवा जनो, प्रेम करो, प्रेम करो। समस्त मानव जाति से प्रेम करो।' इससे अधिक प्रेममय राष्ट्रमंत्र कौन सा है? 'केवल इटली स्वतंत्र होने से क्या लाभ? स्वयं स्वतंत्र होते ही दूसरों को स्वतंत्र करना होगा।' इससे अधिक उदात्त राष्ट्रमंत्र कौन सा है? एवं गुण विशेष राष्ट्रीय मंत्र के रचयिता, इटली के स्वातंत्र्यदाता, देशभक्त मैझिनी का आत्मचरित्र और कुछ राजनीतिपरक लेख, इस स्थान पर अनुवादित किए गए हैं। इन लेखों ने दो करोड़ लोगों में चेतना भर दी। इन लेखों का तेज गैरीबॉल्डी की तलवार की धार पर झलमल करता था। इन लेखों से यूरोपीय सिंहासन उलट-पुलट गए हैं। इन लेखों से इटली स्वतंत्र हुआ है। सभी पराधीन देशों को स्वतंत्र करने की शक्ति इन लेखों में ठूँस-ठूँसकर भरी हुई है। मैझिनी के तत्त्व केवल इटली के लिए ही लागू नहीं किए गए। इटली केवल निमित्त बना है। राजनीति शास्त्र के ये महत् सत्य उस महात्मा ने अखिल मानव जाति के लिए प्रकट किए हैं। इस स्वतंत्रता सुधा का मिष्टान्न सभी संतप्त भूमिकाओं की ओर मुड़ गया है। चातक पक्षियो, इस अवसर का लाभ उठाकर तृषा शांति करना अब तुम्हारे हाथों में है।
इससे अधिक मैझिनी के लेखों की प्रस्तावना मेरे जैसा पाठक भला क्या लिख सकता है? तथापि इस पुस्तक में उनके चुनिंदा लेख खंडित रूप में अनुवाद किए जाने के कारण मैझिनी के सभी अभिमतों की सही-सही कड़ियाँ जोड़ना तनिक कठिन कार्य है, अतः इस आशा से कि इस महात्मा के राजनीतिक विचारों का जितना भी निदेशन हो, उतना उन्हीं के वाक्यों में गूँथकर संक्षिप्त एवं सार रूप में तैयार करने से वह सुबोध हो-मैं यह प्रयास कर रहा हूँ।
विश्व में आज तक जितनी भी राज्यक्रांतियाँ हुईं, उन सभी में इटली की राज्यक्रांति में उदात्त, पवित्र वृत्तियाँ चरम सीमा पर हैं। स्वदेशाभिमान की ज्योति इतनी प्रज्वलित हो गई थी और प्रत्येक देशभक्त व्यक्तिगत सुख-सुविधा के प्रति इतना तटस्थ था कि स्वदेश के हितार्थ अपना सबकुछ समर्पित करने की होड़ लगी हुई थी। विदेशी प्रशासम यह चैतन्य दबाने के लिए भयंकर यंत्रणा दे रहा था, उन यातनाओं में देशप्रेमियों के झंड-के-झुंड कुचले जा रहे थे, तथापि प्रतिवर्ष प्रक्षोभ का उफान इतना विलक्षण एवं अबाध था कि अंत में साठ वर्षों से अधिक काल तक लड़ते-लड़ते इन जुझारू एवं चीमड़ वृत्ति के देशवीरों ने यश प्राप्त किया। इतिहास को भी इस सत्यं को स्वीकार करना पड़ा कि इन सभी महत्कृत्यों से तथा महनीय नररत्नों से अलंकृत अन्य राज्यक्रांति आज तक नहीं हुई है। इटली की इस राज्यक्रांति में सद्गुणों का जो इतना चरम उत्कर्ष हुआ, उसका मुख्य कारण यह है कि यह राज्यक्रांति व्यक्तिगत लोभ के लिए नहीं हुई थी, उसकी नींव अत्यंत उन्नत एवं महान् तत्त्वों पर आधारित थी। 'महान् क्रांतियाँ तलवार से अधिक तत्त्वों से संपन्न होती हैं। 'खड्ग के बिना तत्त्वों की विजय नहीं होती-यह भी एक दु:खद सत्य है और इसीलिए इटली ने खड्ग उठाया।' परंतु 'उस खड्ग की नोंक पर यदि सत्य का अधिष्ठान नहीं होता तो उस खड्ग को वह स्पर्श भी नहीं करती।' जिन तत्त्वों पर उस पवित्र स्वतंत्रता संग्राम की नींव रखी गई थी, उन तत्त्वों का पाठ सबसे पहले मैझिनी ने इटली को पढ़ाया। इटली के लिए लड़नेवाले देशभक्तों में ऐसे कुछ ही लोग थे जिन्होंने मैझिनी की युवा इटली में प्रशिक्षण प्राप्त नहीं किया था। इन तत्त्व-विचारों में और अन्य राजनीतिकुशल षड्यंत्रकारियों के उपदेशों में एक महत्त्वपूर्ण अंतर है। मैझिनी की राजनीति मात्र ऐहिक एवं स्वार्थ आधारित नहीं थी। यदि होती तो उस राजनीति से प्रेरित देशवीरों के अंत:करण में इतनी उदात्त प्रवृत्तियों का उदय कभी न होता। मैझिनी की राजनीति प्रवृत्ति और निवृत्ति का संगम थी। उसकी राजनीति की इमारत नीति की नींव पर खड़ी थी। यह सिद्ध होने के पश्चात महान् पुरुषों से तुच्छ समझकर उसे अवमानित किया जाना बंद हो गया। राजनीति स्वार्थपरता का शास्त्र है और उसमें जिसकी लाठी उसकी भैंस' इसी पशु-प्रवृति पर अमल किया जाता है-इसी तरह साधारण धारणा होने के कारण स्वाभाविक है कि साधु पुरुष इसे घृणित दृष्टि से देखते हैं। दूसरों के देशों पर धावा बोलकर उनकी स्वाधीनता का अपहरण करना ही राजनीति है-यह भावना आज भी प्रायः सभी राष्ट्रों में है, तो फिर राजनीति और नर्क में भला अंतर ही क्या रहा?
मैझिनी ने राजनीति को इस नर्कगामी धारणा से मुक्त किया। उन्होंने स्पष्ट रीति से यह सिद्ध किया कि राजनीति ईश्वरीय कर्तव्य है। उन्होंने यह प्रतिपादन किया कि प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों परस्पर विरोधी तत्त्व नहीं अपितु एक ही मार्ग के दो भिन्न भागों के नाम हैं। यह सत्य नहीं कि नर्क, स्वर्ग और पृथ्वी इनमें विरोध है अथवा वे भिन्न हैं। न स्वर्ग में सत्य और न्याय का ईश्वरी राज रहे और पृथ्वी पर असत्य, अन्याय का अमल चले, यह सत्य नहीं। पृथ्वी स्वर्ग का सोपान है।' इस प्रकार मैझिनी ने राजनीति को स्वार्थपरता का बीभत्स रूप देनेवाले लोगों की भूल उजागर करते हुए आवश्यकता से अधिक धर्माभिमानियों को आड़े हाथों लिया है। राजनीति में धर्म का हस्तक्षेप आवश्यक है। इतना ही नहीं, वह एक धार्मिक कर्तव्य है। राजनीति का अर्थ है समाज, स्वदेश एवं स्वराष्ट्र का दास्य विमोचन और संवर्धन। उसपर गौर न करना मनुष्य जाति पर टूटा हुआ विपत्तियों का पहाड़ चुपचाप देखते रहने का अक्षम्य पाप करना है। धर्म की वास्तविक परिभाषा हैमनुष्य मात्र को धारण करना। मनुष्य मात्र के दासता के कर्म में अथवा अनीति में सड़ते स्वयं सिर्फ आत्मयुक्ति करने का विचार पाखंड है, ढोंग है। भूतदया के अतिरिक्त आत्मयुक्ति का अन्य मार्ग नहीं है। जब आपकी परीक्षा होगी तब ईश्वर आपसे यह नहीं पूछेगा कि आपने अपने कल्याणार्थ क्या किया है?' यह भूतमात्र के अंतिम कल्याणार्थ, ज्ञान और पवित्रता से उनकी आत्मोन्नति होने के लिए उन्हें सत्कृत्य करने हेतु सक्षम होने के लिए पहली अत्यावश्यक बात है उनका दास्य विमोचन करना, उन्हें स्वाधीनता प्राप्त कराना। जब तक किसी व्यक्ति को कारावास में बंदी बनाकर रखा जाता है तब तक उसके हाथों सत्कृत्य होना और प्रगमन जितना असंभव है उतना ही जब तक किसी देश को राजनीतिक परतंत्रता में जकड़ लिया गया है तब तक उसके हाथों मानवी प्रगमनार्थ सहायता प्राप्त होना असंभव है। ऐसी अवस्था में हम सभी एक-दूसरे की मुक्ति के लिए जिम्मेदार हैं। यदि हम अपने अन्य बंधुओं को पराधीनता तथा अज्ञान में ऐसे ही सड़ने दें तो ईश्वर--द्रोह का घोर पाप हमारे सिर आ जाएगा। आत्मोन्नति तथा मुक्ति का एक ही मार्ग है, वह हैसभी को मुक्ति प्राप्त होने के लिए प्रयास करना। हमने जिस देश में जन्म लिया और जिस देश का नमक खाया, उसका ऋण चुकाए बगैर हमारे लिए स्वर्ग के द्वार कभी नहीं खुलेंगे। यह व्यक्तिगत मोक्षार्थ प्रयत्नरत रहनेवाले बगुला भगतों अथवा भ्रमिष्ट धर्माभिमानियों को ज्ञात होना चाहिए।'
'भूतांची दया़ अमृत हे मुखे स्त्रवत से।' यह सच्चा धर्म रहस्य है और इसीलिए मैझिनी धर्माभिमानियों तथा धर्मोपदेशकों से पूछते हैं, 'धर्माधिकारियो, आप भी इसी मिट्टी से उपजे हैं न? इसी मिट्टी से आपका भी पोषण हुआ है न? इसी के दूध से आप पले-बढ़े हैं न? फिर अन्याय और यंत्रणाओं के नीचे जब वह कुचली जा रही है आप हाथ पर हाथ धरे बैठे रहकर स्वर्गारोहण कैसे करेंगे? क्या आपका कोई देश नहीं? आपके मन में रत्ती भर भी भूतदया नहीं? अपनी इस अहसानफरामोशी से आप पापी सिद्ध हो रहे हैं। अब धर्म आपकी छावनी में नहीं, हमारी छावनी में आया है। 'बाइबल' में स्वतंत्रता को पवित्र नहीं माना? और आपका देश परतंत्रतावश अपवित्र नहीं हुआ है? फिर यदि आप वास्तव में यही चाहते हैं कि सर्वदूर स्वतंत्रता का आधिपत्य हो, मनुष्य-मनुष्य में विद्वेष भावना नष्ट हो, धर्म की वास्तविक जय-जयकार हो तो हमसे आकर मिलो।' इस तरह धर्म राजनीति का विरोधी नहीं, इसका मैझिनी ने अपनी प्रभावपूर्ण वाणी से प्रतिपादन किया।
एक स्थान पर वे स्वयं कहते हैं, 'हम राजनीति को धर्म की उच्चता तक ले गए।' जो षड्यंत्रकारी धर्म और नीति का धिक्कार करते हुए कहते थे कि 'राजनीति का कोई धर्म नहीं होता' और जो धर्मज्ञ राजनीतिक परिस्थितियों की ओर ध्यान दे देते हुए यह प्रतिपादन करते थे कि धर्म की राजनीति नहीं है'- उन दोनों पक्षों के अपराध और दोष उजागर करते हुए मैझिनी ने पवित्र एवं उदात्त तत्त्वों का उच्चारण करते हुए कहा, 'जीवन में भिन्नता नहीं, जीवन एकरूप है-ईश्वरीय आज्ञाएँ परस्पर विरोधी नहीं हैं। ईश्वरीय आज्ञा एक ही है और वह सभी पर लागू है।'
यूरोप के इतिहास में राज्यक्रांतिकारी नेताओं में महात्मा मैझिनी के अतिरिक्त ऐसा अन्य उदाहरण मिलना दुर्लभ है, जिसे नीति और धर्म की पवित्रता से क्रांति की प्रेरणा मिली हो। मैझिनी का यह विशेष योगदान है। उनके तथा उनके उपदेश से प्रवृत्त तत्कालीन इटालियन देशवीरों के जीवन में जो उदात्त भाव एवं पवित्रता दिखाई देती है वह सब उपर्युक्त नीति तत्त्व का फल है। स्वार्थ के लिए नहीं अपितु ईश्वरीय कर्तव्य समझकर स्वदेश को स्वतंत्र कराने के लिए जो देशवीर तत्पर होते हैं उनकी तलवार के आगे ऑस्ट्रिया ही नहीं, घमंड से उन्मत्त बना कोई भी देश थर-थर काँपने लगेगा। राजनीति और धर्म एक ही हैं-यदि सभी लोगों के मन इस पवित्र निष्ठा से पूरित होंगे तो इस विश्व से परतंत्रता का नामोनिशान मिट जाएगा। राजनीति में धर्म है और धर्म में राजनीति है-इस महत् सत्य, इस कालदेशबाधित सत्य, इस ईश्वरीय सत्य को पहचानकर 'यदि मेरी प्रिय देशभूमि के दो करोड़ लोग स्वतंत्रता प्राप्त करके ही रहेंगे' यह ठानकर खड़े हो गए तो एक ऑस्ट्रिया ही क्यों, तीन ऑस्ट्रिया भी इस प्रकार संगठित हो जाएँ तो भी उनका विनाश करके अपनी स्वतंत्रता प्राप्त कर सकते हैं। मात्र दो करोड़ देश बंधुओं के ही बलबूते पर इस महात्मा की कितनी ऊँची उड़ान ! फिर यदि उनके देश की जनसंख्या इससे पाँचदस गुना अधिक होती और उनका शत्रु केवल ऑस्ट्रिया ही होता तो वे स्वदेश स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए पल भर का भी विलंब नहीं करते। पौरुष का यही लक्षण है। धर्म और स्वराज्य इन तत्त्वद्वय की एकरूपता मैझिनी के शब्दों में श्रवण करने के पश्चात् किसी भी महाराष्ट्रीय को महाराष्ट्र के मैझिनी का स्मरण हुए बिना नहीं रहेगा। सत्पुरुष ईश्वरीय अंशों से संभूत होने के कारण उनकी आत्माएँ अभिन्न होती हैं और इसीलिए उनके विचार भी परस्पर विसंगत नहीं होते। विभिन्न देशों में उनके नाममात्र भिन्न, शेष तत्त्व एक ही होते हैं। इटली में जनमे रामदास मैझिनी कहलाते हैं और हिंदुस्थान में जनमे मैझिनी रामदास। दोनों एक ही तत्त्व का प्रतिपादन करते हैं कि राजनीति धार्मिक हो तभी पवित्र होती है और धर्म राजनीतिक होने पर ही पवित्र होता है। जैसे ही मुझे ज्ञात होगा, अमुक व्यक्ति धार्मिक है, मैं उससे पहला प्रश्न पूछंगा कि उसने लोगों की मुक्ति के लिए क्या किया है, क्या सहा है?' अमुक व्यक्ति 'मनुष्य' है, यह ज्ञात होते ही मैं पहला प्रश्न करूँगा, क्या वह गुलाम है? क्योंकि गुलामी में, दासता में जो हाथ पर हाथ धरे बैठता है वह मनुष्य नहीं, जड़ है, मिट्टी का लोंदा है।
राजनीति को स्वार्थ लंपटता के चुंगल से छुड़ाकर उसे ईश्वरीय कर्तव्य का उच्च स्वरूप देने के बाद फिर उस कर्तव्य के लिए प्रत्येक मनुष्य किस तरह कार्य करे यह स्पष्ट करना आवश्यक होता है। मैझिनी की कर्तव्य मीमांसा अत्यंत उदात्त तत्त्वों पर आधारित है; परंतु यहाँ पर मैं उस महात्मा के राजनीतिक अभिमतों की कड़ियाँ ही देने का प्रयास कर रहा हूँ, क्योंकि उस मीमांसा का विस्तृत विवेचन असंभव है। मैझिनी के 'मानवी कर्तव्य' शीर्षक निबंध का जो अत्यंत श्रेष्ठ और रोचक अंश है, उसी का अनुवाद करने का उद्देश्य है। यदि वह सफल हुआ तो यह कर्तव्य मीमांसा मैझिनी के शब्दों में ही से केवल मराठी पाठकों को पढ़ने के लिए मिलेगी। यहाँ पर बस इतना ही कहना पर्याप्त है कि मैझिनी के अनुसार जो कार्य कर्तव्य के रूप में निश्चित किया गया है उसे पूरा करना ही चाहिए, चाहे कितने भी संकटों का सामना क्यों न करना पड़े। कर्तव्य के लिए कर्तव्य करो, कर्तव्य के तत्त्व से आत्मार्पण की शक्ति प्राप्त होती है। इस उदात्त कल्पना से आत्मा ईश्वर के रूप में विलीन होती है। इस कर्तव्यनिष्ठा से मनुष्य में विलक्षण चैतन्य का संचार होता है। मनुष्य अद्भुत कर्म कर सकता है। इस कर्तव्य की फलाशा विरहित निष्ठा से देशवीरों के फाँसी के स्तंभ स्वर्ग की ओर ले जानेवाले सोपान बन जाते हैं। 'जीवन सुख लोलुपता में न बिताते हुए कर्तव्य लोलुपता में व्यतीत करो', 'जीवन कर्तव्य है, न कि भोग-विलास', 'राजनीति के अंतर्गत बिलकुल आधारभूत कर्तव्य स्वदेशी-स्वाधीनता है। मनुष्य जाति, स्वदेश, कुटुंब और व्यक्ति इन सीढ़ियों में मनुष्य के कर्तव्य का तारतम्य भाव है। इस परंपरा के हिस्से में जो कर्तव्य आए हैं उनमें स्वदेश स्वाधीनता का कर्तव्य प्रमुख अवश्य है; परंतु केवल राजनीतिक कर्तव्य के लिए ही नहीं अपितु अन्य सभी कर्तव्यों का सम्यक् पालन मनुष्य द्वारा करने के लिए पहले स्वदेश स्वतंत्रता प्राप्त करनी होगी। व्यक्तिगत अथवा पारिवारिक कर्तव्य यदि उनकी स्वदेश परतंत्रता में हो तो उसका सम्यक् पालन कभी नहीं होगा। जन में असत्य तथा निर्धनता का राज होने पर वह देश कायर एवं कमजोर हो जाता है। उस देश को ज्ञान दान करना असंभव होता है। 'जहाँ पढ़ने के लिए निर्धनता के कारण समय नहीं मिलता वहाँ सिर्फ स्कूल खोलकर क्या होगा?' इस राजनीतिक दासतावश न केवल देश के व्यक्ति तथा परिवार की बढ़ोतरी में गतिरोध उत्पन्न होता है बल्कि 'मानव जाति की वृद्धि भी उसी अनुपात में अवरुद्ध होती है।' प्रत्येक देश को मानव जाति की उत्क्रांति में परिवर्धनार्थ एक विशेष कार्य सौंपा जाता है; परंतु पराधीनता के कारण उस देश का अस्तित्व संदिग्ध होकर उसके हिस्से में आया हुआ कर्तव्य का पालन उस देश से असंभव होता है; अत: उसी अनुपात में मनुष्य जाति की उन्नति अटकी रहती है। संपूर्ण देश की उन्नति मानवता की उन्नति है। परंतु जब तक पराधीनता ने कुछ देशों को नीचता से जकड़ रखा है तब तक भला मानवता की उन्नति कैसे होगी? इसीलिए व्यक्ति, कुटुंब, समाज तथा मनुष्य जाति की सभी प्रकार की उन्नति का प्रमुख साधन, जो राजनीतिक स्वतंत्रता है-उसे संपादन करना तथा उसकी रक्षा करना प्रथम कर्तव्य है, यह ईश्वर की आज्ञा है, यह धर्म की आज्ञा है।
परंतु यह राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त करने को कर्तव्यपालन के लिए किस मार्ग का आयोजन किया जाए? उस समय इटली की स्थिति ऐसी थी कि उसका स्वामित्व ऑस्ट्रिया के पास आ गया था; पिचहत्तर हजार ऑस्ट्रियन सिपाही इटली पर राज कर रहे थे-परतंत्रता का दुःख, निर्धनता, अज्ञानादि परिणाम हो चुके थे। वेनिस तथा मिल आदि व्यापार में विख्यात राज्यों के लोग दाने-दाने के लिए मोहताज हो गए थे। शिक्षा पराए हाथों में, व्यापार, उद्योग पराए लोगों के हाथ, जीवन दूसरों के हाथ, स्वाधीनता पराए लोगों के हाथ-सारांश यह कि इटली गुलामों का बाजार बन गया था। वहाँ जो कुछ थोड़ी-बहुत नेटिव रियासतें थीं वे ऑस्ट्रिया की पिछलग्गू बन चुकी थीं। इटली का नाम मिट गया था। इटली का फहराता झंडा तार-तार हो चुका था। जिस रोम ने दो बार संपूर्ण विश्व का नेतृत्व किया था वह रोम मर चुका है। इटली एक प्रचंड कारागृह बन गया है और उनपर ऑस्ट्रियन सिपाहियों का पहरा बैठ चुका है।' इटली में शांति है, परंतु वह शांति मृतकों की शांति है, न कि जीवितों की। इस अत्यंत अपमानजनक अवस्था से स्वदेश को कैसे उबारा जाए? स्वतंत्रता पुन: कैसे प्राप्त करें? मैझिनी के जन्म के समय ही इटलीवासियों ने यह प्रश्न हल किया था कि 'भिक्षां देहि मार्ग से अथवा पराए जनों की सहायता से कदापि स्वतंत्रता प्राप्त नहीं होगी। क्या आप आशा करते हैं कि भीख माँगकर स्वतंत्रता का लाभ होगा? इस प्रकार भिक्षां देहि से स्वतंत्रता नहीं प्राप्त होगी।' उसके सामने जो कार्य था वह एक लंब-तडंग, हट्टेकट्टे व्यक्ति का था और उस कार्य को संपन्न करने के लिए वे एकदम धरती पर लंबे हो गए। वे प्रत्येक प्रधानमंत्री की झूठी बातों से मुग्ध होंगे, उनकी नगण्य सुविधाओं से संतुष्ट रहते और प्रचंड लोकशक्ति पर विश्वास करना छोड़कर वे पराए लोगों के सामने झोली फैलाते रहें।' परंतु इस उपक्रम का उपसंहार शीघ्र ही हो गया। इटली के चालाक नेता अधिक समय तक पराए लोगों के चक्कर में नहीं फंसे रहे। उन्होंने तुरंत गौर किया कि ऑस्ट्रिया ने उनपर जो विजय प्राप्त की है वह अपनी एक अरजी की परची से हमें मुक्त करने के लिए नहीं, राष्ट्रों के इतिहास में प्रायः पाई जानेवाली यह भिक्षां देही की लत इटली को ग्रस चुकी थी। परंतु तुरंत ही उससे मुक्ति मिल गई। सौ-सौ वर्ष पराए जनों के द्वार पर लताड़ खाते, ठोकरें खाते तथा हजारों बार विश्वास भंग होते हुए भी पुन: एक बार हाथ में कटोरा लेकर भीख माँगने योग्य राज्यनिष्ठा इटली में नहीं थी। उसी समय पोलैंड, स्पेन आदि देशों में राज्यक्रांति की लहर उमड़ रही थी। उससे प्रेरित होकर भी इटलीवासियों में आत्मनिष्ठा उपजी। परंतु ऐसे देश इस धरती पर क्या कम हैं जो इस तरह की धधकती राज्यक्रांतियों के आस-पास चलते हुए भी उन्हें देखकर अपनी गुलामी एवं भिक्षा देही प्रवृत्ति पर लज्जित नहीं होते। परंतु इटली इतना सुस्त, ढुलमुल नहीं पड़ा था, वह हड़बड़ाकर उठ गया। इस जागृति का परिणाम चारों ओर दिखने लगा। साहित्य में पहली बार स्वदेश प्रेम का निर्माण हुआ। इसके पश्चात् इटली में स्वदेश आंदोलन प्रारंभ हुआ। मिलॉन में तो यह स्वेदशी आंदोलन चरम सीमा पर पहुच गया। प्रत्येक उदात्त तथा साहसी कृत्य में जैसे युवा वर्ग हमेशा अग्रणी होता है उसी तरह वह इटली की राज्यक्रांति में भी था। मिलॉन में ऑस्ट्रिया की तंबाकू बहिष्कृत हो गई। हर सड़क पर छात्रों ने कड़ी नाकाबंदी की और किसी को ऑस्ट्रियन बीड़ी के कश लगाते देखते ही उसकी जोरदार धुनाई करना आरंभ किया। इस स्वदेशी आंदोलन को शीघ्र ही पूर्ण राजनीतिक स्वरूप प्राप्त हो गया। अमेरिका में भी स्वतंत्रता संग्राम से पूर्व ऐसा ही स्वदेशी आंदोलन शुरू हुआ था। कैसा चमत्कार है यह ! इतिहास की पुनरावृत्ति ऐसे ही होती है। अनेक उदाहरण इतिहास में हैं जिनमें स्वदेशी आंदोलन का अंत राज्यक्रांति में तथा स्वतंत्रता-प्राप्ति में हो चुका है। ये कोई आकस्मिक घटनाएँ नहीं थीं, न ही दुर्घटनाएँ थीं। उनके इस विलक्षण सादृश्य का वर्णन करना असंभव है। स्वदेशी आंदोलन का अर्थ है दूसरों की लूटमारी पर नियंत्रण करते हुए अपने अधिकारों की रक्षा करना। साधारण लोग नहीं जानते कि उनके अधिकार क्या हैं। अतः प्रथमतः उनकी ग्राहकशक्ति को केवल इतना ही बोध होता है कि विदेशी व्यापार से वे डूब रहे हैं, अत: वे उस उद्योग को बहिष्कृत करने के लिए तैयार होते हैं। उनकी इतनी तैयारी होने पर अर्थात् विदेशी लोग अपने व्यवसाय की रक्षार्थ पीड़ादायक, दुष्ट उपायों को अपनाने लगते हैं। इस यंत्रणा का आरंभ होते ही प्रथमतः वे लोग सत्य मार्ग का अवलंबन करते हैं जो उद्योगव्यवसाय को ही बहिष्कृत करते हैं। उन्हें बोध होने लगता है कि निर्जीव विदेशी कपड़ों अथवा तंबाकू अथवा चाय को बहिष्कृत करने से कोई लाभ नहीं। भला इन बेजान चीजों पर क्रोध जताने में क्या तुक है? वास्तविक अंगार उन सजीव वस्तुओं पर बरसाने चाहिए जो इन निर्जीव वस्तुओं का सहारा लेती हैं। विदेशी माल को तो नहीं, ऑस्ट्रियन लोगों को बहिष्कृत करना होगा। तंबाकू को नहीं, ऑस्ट्रियन लोगों को, और चाय को नहीं, इन अंग्रेजों को ही अपने देश से खदेड़ना चाहिए। इस विचार परंपरा से इटालियन और अमरीकनों में स्वदेशी आंदोलन स्वतंत्रता संग्राम में बदल गया। मैझिनी से पहले जो देशप्रेमी थे वे इटली की राजनीति इस स्थिति तक ले आए थे। चारों ओर विदेशी सत्ता के लिए असंतोष फैला हुआ था। प्रायः सभी को विश्वास हो गया था कि भीख माँगने से अपने दु:ख कम नहीं होंगे; उसके साथ ही स्वदेशी आंदोलन जैसे आत्मनिष्ठा युक्त आंदोलनों का प्रादुर्भाव हो गया था। इतना ही नहीं, कुछ नेताओं के मन में स्वतंत्रता की ललक भी उत्पन्न हो गई थी; परंतु इस ललक को जनता को सूचित कैसे करें? जनता को यह सीख कैसे दें कि पराए लोगों को इटली से खदेड़े बिना इटली देश की उन्नति कभी नहीं हो सकती। वृत्तपत्र तथा प्रकट सभाएँ जनता में असंतोष उत्पन्न कर रही थीं। परंतु इस असंतोष को कृति में या कार्य रूप में परिणत करने की आवश्यकता थी; क्योंकि कोई खुलेआम, सरे बाजार तो नहीं कह सकता था कि ऑस्ट्रिया को खदेड़ो और लाक्षणिक भाषा में व्यक्त करने पर जनता को इसका आभास नहीं हुआ। इससे भी अधिक अड़चन यह थी कि 'केवल ऑस्ट्रिया को खदेड़ो' कहने से बात नहीं बनती, अपितु इसका प्रशिक्षण तथा सामग्री भी संचित करनी चाहिए थी कि इस राष्ट्र कार्य के लिए कौन सा उपाय किया जाए। 'स्वाधीनता प्राप्त करो' बस इतना ही कहकर हाथ पर हाथ धरे बैठना नहीं था, उस स्वाधीनता संग्राम की तैयारी करना भी आवश्यक था। ये दो कृत्य कैसे संपन्न किए जाएँ ? 'इटली के लिए पालियामेंट, मंच, मुद्रण स्वातंत्र्य, सभा स्वातंत्र्य नहीं। ऐसा एक भी साधन नहीं जिससे हमारे मन में प्रस्फुरित सत्य स्पष्ट रूप में व्यक्त किया जाए।' ऐसी स्थितियों में इटली में स्वाधीनता प्रेम की ललक और स्वाधीनता संग्राम की तैयारी कैसे करें? यह प्रश्न सुलझाने का कारबोनारी आदि एक-दो गुप्त मंडलों ने प्रयास किया। तथापि वे सफल नहीं हुए। उसकी कारणमीमांसा का यह स्थल नहीं है।
इन सारी परिस्थितियों का विचार करते हुए तथा इटली के पूर्वेतिहास का सम्यक् अध्ययन करके 'मुझे विश्वास हो गया है कि इन पुराने यंत्रों को पिघलाकर पुन: नए यंत्र बनाने से ही इटली का भाग्योदय होगा।' इन नए यंत्रों का साहित्य युवा जन हैं। ऐसे युवक आगे बढ़ने चाहिए-जिनके मन पुराने विचारों से जकड़े हुए नहीं हैं, जिनकी आत्माएँ गुलामी की छूतहा बीमारी से भ्रष्ट नहीं हुई हैं तथा जिनमें अपनी ध्येय-पूर्ति के लिए कोई भी संकट सहने की हिम्मत है। 'नई परिस्थितियों के लिए नए लोगों की आवश्यकता है। ये दो करोड़ लोग यदि मन में ठान लें तो भला इस दुनिया में क्या असंभव है? मेरी इटली की जनसंख्या दो करोड़ है। यदि इन दो करोड़ लोगों ने मन में निश्चय किया तो विदेशियों के वे पिचहत्तर हजार सिपाही उन्हें दबा थोड़े सकते हैं? दो करोड़ लोग और उनका सहायक ईश्वर ! ऐसी स्थितियों में पलक झपकते ही इटली विदेशी सत्ता को चूर-चूर कर देगी।' आज तक वह स्वतंत्र नहीं हो सकी, इसका कारण यह नहीं कि उसमें स्वशक्ति नहीं थी अपितु उसे स्वशक्ति का ज्ञान नहीं था। अत: सबसे पहला काम था कि उसमें आत्मविश्वास निर्माण करना, यह कार्य पूरा होते ही इटली में स्वतंत्रता-प्राप्ति की आस्था तथा उसे अपने कार्य-निपुणता से प्राप्त करने की निष्ठा आते ही दूसरा काम था उसे रणांगण में कूदने के लिए सशक्त तथा समर्थ बनाना। प्रथमत: इटली में मन परिवर्तन करना और उसके साथ-साथ उसका शरीर प्रवर्तन भी करना। इटली का मन स्वतंत्र तथा समर्थ करना है, उसी तरह उसका शरीर भी स्वतंत्र एवं सशस्त्र बनाना है।
परंतु जैसाकि ऊपर स्पष्ट किया है-यह कार्य प्रत्यक्ष रूप में संपन्न करना असंभव है। किसी भी परतंत्र राष्ट्र के इस मुकाम तक पहुँचने पर उसके सामने यह समस्या खड़ी होती है। स्वतंत्रता की धुँधली सी कामना उत्पन्न होती है, पति बहजन समाज को उसे स्पष्ट रूप से सूचित कैसे करें? उसे इस बात का धुंधला सा भान होता है कि भीख माँगकर कुछ भी प्राप्त नहीं होगा और अंततोगत्वा शक्तिदेवी की ही उपासना करनी पड़ेगी; परंतु वह यह नहीं बता सकता कि राष्ट्र सशक्त पर्व सशस्त्र कैसे बनाए। ऐसी स्थितियों में गुप्त मंडल के अतिरिक्त परवशता से मुक्त होने का अन्य मार्ग नहीं; जब सत्य प्रतिपादन पर रोक लगाई जाती है, जब पवित्र कार्य का भी श्रीगणेश करने पर पाबंदी लगाई जाती है, जब स्वदेश ही एक प्रचंड बंदीशाला बन जाता है तब उस बंदीगृह से मुक्त होकर स्वतंत्रता के पवित्र वातावरण में मुक्त साँस लेने का ईश्वरीय अधिकार सिद्ध करने के लिए हम कैदियों का एक ही मार्ग है-षड्यंत्र। 'हम गुप्त मंडल बनाएँगे, षड्यंत्र रचें, समय आने पर उस जेल की खिड़कियाँ खोल देंगे, उनके छड़ों के टुकड़े-टुकड़े कर देंगे, उनके दरवाजों को पद प्रहार से तोड़ देंगे और उन जेलकर्मियों की छाती पर मूंग दलकर हम खुली हवा में आएँगे, हम स्वतंत्र होंगे।' जहाँ सत्य प्रतिपादन पर अधम सत्ता ने पाबंदी नहीं लगाई वहाँ गुप्त मंडल तथा षड्यंत्र अपराध है। परंतु जहाँ सत्य प्रतिपादन पर अधम, नीचों के अत्याचारों ने पाबंदी लगाई है वहाँ ये गुप्त मंडल पवित्रतम हैं। ना-ना, सत्य प्रतिपादन का यही एकमात्र मार्ग है। इन गुप्त मंडलों का आधार यूरोप स्थित प्रायः सभी स्वातंत्र्योन्मुख राष्ट्रों ने लिया है। इन गुप्त मंडलों की सहायता से बहुजन समाज को स्वतंत्रता की शिक्षा अत्यंत सुलभतापूर्वक दी जाती है। वृत्तपत्रों में प्रकट रूप से लिखकर अथवा सार्वजनिक भाषणों द्वारा शत्रु को खदेड़ने का प्रयास करना असंभव होता है और युवा जन एवं साधारण वर्ग की ग्राहकशक्ति इतनी अधिक सूक्ष्म न होने के कारण वे वृत्तपत्र अथवा सार्वजनिक भाषणों में गर्भित अर्थ ग्रहण नहीं कर सकते। परंतु गुप्त मंडलों का पहला लाभ यह है कि गुप्त गोष्ठी आयोजित करते हुए उसमें स्वतंत्रता का स्पष्ट तथा श्रेष्ठ प्रशिक्षण दिया जा सकता है। उसको लोग तुरंत ग्रहण कर सकते हैं तथा विदेशी सरकार उसे दबा नहीं सकती। मैझिनी कहते हैं कि इस मार्ग में आप युवकों को स्पष्ट रूप से वही कहें जो सत्य है। उनसे कुछ भी मत छिपाएँ। उनसे निर्जीव मशीन की तरह व्यवहार न करते हुए जीवंत तथा चेतनामय मनुष्य की तरह आदरपूर्वक व्यवहार करें, ताकि आप समझ सकेंगे कि उनमें कितना तेज है। गुप्त मंडलों के प्रसार का दमन करना विदेशी सरकार के लिए सर्वथा असंभव होता है। इतना ही नहीं, एकाध गुप्त मंडल को उजागर करने से उससे उनकी हानि ही होती है। गुप्त मंडल का विस्फोट ज्वालामुखी के विस्फोट की तरह होता है। विदेशी सत्ता का जीवन तब तक सुरक्षित होता है जब तक वह दबा-दबा सा रहता है; परंतु उसका विस्फोट होते ही उसमें स्थित तप्त रस से परवश जनों पर चेतना की प्रचंड लहर फैलती है। गुप्त मंडल वहाँ भी निर्माण होते हैं जहाँ उनका अस्तित्व नहीं होता। विशेष रूप से, उससे विदेशी सत्ता के धीरज की धज्जियाँ उड़ती हैं। इस भय से कि जहाँ पाँव रखें वहाँ सुरंग तो नहीं, उनकी गति कुंठित होती है। कहीं पटाखा भी फोड़ने से उन्हें बम के धमाके का आभास होने लगता है। उनके अधिकारी वर्ग को प्राणों की आशा से नौकरी छोड़नी पड़ती है। इस प्रकार सर्वत्र आतंक का वातावरण छा जाता है और विदेशी लोगों में इस प्रकार हड़कंप मच जाती है कि तौबा तेरी छाछ से, कुत्तों से छुड़ा। सारांश, दूसरा लाभ यह है कि गुप्त मंडली द्वारा अत्यल्प शक्ति से परकीय सत्ता को सकपकाया जा सकता है। मैझिनी कहते हैं, 'वे सौ थे, परंतु उन्होंने यूरोप के सिंहासन, साम्राज्य, आज्ञापत्रक, कारागृह, फाँसी आदि सभी राक्षसों के छक्के छुड़ाए थे।' तीसरा लाभ यह है कि युद्ध की तैयारी की जा सकती है। यह कार्य खुलेआम करना सर्वथा असंभव होता है। इस असंभव कार्य को षड्यंत्रों द्वारा मैझिनी ने संभव करके दिखाया। इसके अतिरिक्त एक केंद्र उत्पन्न हो सकता है। संघशक्ति द्वारा सभी योजनाएँ संपन्न की जा सकती हैं और जनता को एक मार्ग, एक दिशा और एक केंद्र दिया जा सकता है। इस प्रकार के अनेक लाभों। पर विचार करते हुए मैझिनी ने 'युवा इटली' की स्थापना की। इस प्रस्तावना में मैझिनी के राजनीतिक विचारों से साँठ-गाँठ करने का संकल्प होने के कारण इस 'युवा इटली' के इतिहास की ओर मुड़ना आवश्यक नहीं। उसे इटली देश में क्या लगभग संपूर्ण यूरोप में प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से उसका प्रभाव किस प्रकार होता रहा, इस अत्यंत महत्त्वपूर्ण विषय को दूर हटाना अनिवार्य है। साधारण कल्पना के लिए बस इतना कहना ही पर्याप्त है कि इस युवा इटली' के उपदेश से ही इटली को स्वाधीनता प्राप्त हुई और इटली में एकता निर्माण हो गई। अनंत देशवीरों ने, जो इटली के स्वतंत्रता संग्राम में लड़े थे, इस 'युवा इटली' में ही शिक्षा प्राप्त की। युवा इटली' ने मेरे देश के भिन्न पंथों को तोड़कर स्वदेश को एक किया। तत्पूर्व काल में इटली की एकता जग-हँसाई का विषय बनी थी। सभी नेताओं का कहना था कि इटली का राष्ट्रैक्य मनोराज्य है, शेखचिल्ली है; परंत 'युवा इटली' ने मेरे देश में नवयुग का श्रीगणेश किया। 'युवा इटली' ने यह युगांतर का कार्य किस तरह संपन्न किया इसका स्पष्टीकरण करने के लिए उसके श्रम विभाग का विवेचन करना होगा।
'युवा इटली की सहायता प्राप्त करने के लिए दोहरे कार्यक्रम की योजना बना रहा हूँ। शिक्षा और युद्ध प्रशिक्षण युद्ध की सहायता करेंगे एवं युद्ध शिक्षा की।' इस प्रकार के दोहरे कार्यक्रमों का विवेचन करने पर यह स्पष्ट होगा कि मैमिनी ने अपने अभीष्ट कर्म कैसे संपन्न किए अथवा करवाए?
प्रथमतः यह देखने पर ज्ञात होता है कि इटली में शिक्षा प्रदान करने के विषय में मैझिनी के विचार कितने प्रगल्भ और पवित्र थे। जैसाकि पहले कहा गया है, मैझिनी की संपूर्ण राजनीति नीति की नींव पर खड़ी थी। 'हमारे सामने जो कार्य है वह कोई ऐसा-वैसा कार्य नहीं। हम वही कार्य कर रहे हैं जो भगवान् ने किया है। हम लोक निर्मिति कर रहे हैं। हम स्वराष्ट्र निर्माण कर रहे हैं।' इससे अधिक दिव्यतर कर्तव्य कौन सा होगा? ईश्वर ने अत्यंत स्पष्ट आदेश के साथ कहा है कि इटली स्वतंत्र देश है तथा पर्वतों की रेखाएँ अपनी दिव्य करांगुली से खींचकर ईश्वर ने इटली देश इटालियन को दिया है। अत: इटालियन लोगों का आद्य कर्तव्य है, ईश्वर के इस आदेशानुसार इटली को स्वतंत्र करना। 'युवा बंधुओ, स्वदेश ईश्वर द्वारा दिया हुआ हमारा घर है। उसकी इच्छा है, इस घर में रहकर उसके आश्रय में आप पले-बढ़े और बड़े होते-होते अंत में मनुष्य जाति के साथ अंतिम स्वरूप तक जाएँ। यह प्रकृति निर्मित गृह इटालियनों के पालन-पोषणार्थ आश्रय स्वरूप दिया हुआ है, जिसे विदेशी सत्ता ने एक कारागृह बनाकर रख दिया है। अत: इटली के पुत्रों का आद्य कर्तव्य है-स्वदेश स्वतंत्र करना।' मैझिनी ने अपनी गुप्त संस्था द्वारा प्रथम इसी सिद्धांत की शिक्षा दी। 'पहले स्वाधीनता प्राप्त करनी होगी। दासता को मिटाना चाहिए। अन्य सारे प्रश्न इसके पश्चात् सुलझेंगे। भागो, आल्प्स की ओर ! चलो ऑस्ट्रिया से भिडंत करो।' इस प्रकार स्पष्ट रूप से इटालियन नवयुवकों में स्वतंत्रता की चेतना एवं उत्साह उत्पन्न होने के कारण मैझिनी से पहले प्रचलित सामान्य विचारों का एकदम विनाश हो गया। वह पंथ जो यह कहता था कि अमुक कर माफ होना चाहिए, अमुक अधिकार मिलने चाहिए-निर्माल्यवत् हो गया, क्योंकि सभी का विचार बन चुका था- 'हमें अनेक अधिकार नहीं चाहिए, एक ही अधिकार चाहिए-संपूर्ण स्वाधीनता का अधिकार-दासता से मुक्ति।' और यह स्वतंत्रता लाभकारी होने के कारण नहीं, पुरुषोचित कर्तव्य के नाते प्राप्त करनी चाहिए। मुख्य प्रश्न यह नहीं है कि इटली में रोटी सस्ती है या महँगी। मुख्य प्रश्न यह है कि उस रोटी पर गुलामी की मुहर लगी है या नहीं। फिर यदि ऑस्ट्रिया अनंत अधिकार भी दे देता तो भी इटली के लोग स्वाधीनता प्राप्त करके दम लेते। मैझिनी द्वारा स्वाधीनता को कर्तव्य का रूप दिए जाने से ऑस्ट्रिया दुर्बल हो गया। उस समय तक तनिक न्यूनाधिक आंदोलन छिड़ जाने से कुछ छोटे-मोटे अधिकार देकर ऑस्ट्रिया कुशलतापूर्वक आंदोलन दबा देता। परंतु अब 'अधिकारों का प्रश्न नहीं, अधिकार का प्रश्न है।' तिस पर युवकों ने अनुभव किया है कि वे स्वाधीनता संपादन का एक अत्यंत पवित्र कार्य कर रहे हैं। उनकी उदात्त प्रवृत्तियाँ जाग्रत् हो गईं। देशवीरों के राष्ट्रगीतों से बंदीशालाएँ गूंज उठीं। 'चिरंजीव वही होता है जो स्वदेश के लिए मरता है।'-वे इस महामंत्र का जयघोष करने लगे। 'युवकों को कर्तव्यबुद्धि से उद्दीप्त करो, ध्येयभक्ति सिखाओ, फिर पता चलेगा उनमें कितना दम है।' इस प्रकार वह महात्मा यों ही नहीं कहता। इटली में सन् १८३१ से १८८० तक कहीं-न-कहीं विद्रोह छिड़ता ही। इतनी जीवट-वृत्ति के साथ स्वदेश भक्तों ने अंत में विजय हासिल की। विद्रोह में महिलाओं ने जो पराक्रम किए उससे अन्य निष्प्राण देशों के पुरुष लज्जा से सिर झुकाएँगे। रोम में सन् १८४८ में फ्रेंच लोगों से युद्ध के चलते 'सेना में कूदकर गैरीबॉल्डी सुध-बुध बिसारकर लड़ रहा था। इतने म सोनेट का बुलावा आने से वह उधर चला गया। उसे देखते ही सीनेट ने तालियों की गड़गड़ाहट की। गैरीबॉल्डी को प्रथम उन तालियों, उस जयनाद का कारण समझ में नहीं आया। इतने में उसने अपने आप पर गौर किया, देखा तो नख-सिख से लहू की धाराएँ वह रही हैं, शस्त्रों तथा हल्के से लगी गोलियों से वस्त्र तार-तार हो गए हैं, वार करते-करते हाथों में थामी तलवार इतनी टेढ़ी हो गई है कि म्यान में आधी भी नहीं जा रही है। ऐसी तलवार को शतशः प्रणाम! जब तक ऐसी कमसे-कम एक तलवार विश्व में कायम है, तब तक पराधीन देशों को स्वाधीनताप्राप्ति की आशा करने में कोई आपत्ति नहीं। मिलॉन में विद्रोह का श्रीगणेश करने से पहले नेतागण कहने लगा, 'आप मत उठो, आपके पास शस्त्र नहीं हैं।' दूसरे दिन लोग कहने लगे, 'उठो, पत्थर लो, छुरियाँ पकड़ो, लाठियाँ थामो और उठो ताकि शस्त्र अपने पाँवों इधर आ सकें।' वे उठे और ऑस्ट्रिया पर छापा मारकर उनके शस्त्र लूटकर ले आए। गुप्त मंडलियों का संघटन इतना सुघड़ता के साथ होता कि बीवी-बच्चों को भी उनके सिद्धांतों से परिचित कराया गया था। मिलॉन तथा वेनिस में राज्यक्रांति का नगाड़ा बजते ही महिलाएँ रास्ते में तैयार होकर खड़ी हो गईं। एक वृद्ध व्यक्ति लँगड़ाते हुए चारे का गट्ठर उठाकर सरकारी थाने में पहुँचा और उस गट्ठर को आग लगाकर वह थाना जलाकर राख करते हुए वापस लौटा। युवा जन पुस्तकें फेंककर बाहर निकले; युवतियाँ फंड इकट्ठा करने के लिए दर-दर घूमकर भिक्षा माँगने लगी; खानसामे अपनी रसोई में हाथ पोंछने के कपड़े के साथ रास्ते पर कूद पड़े और ऑस्ट्रियन सिपाही शहर में घुसने का प्रयास करने लगते ही उन पर टेबल, कुरसियाँ, छुरियाँ, खंबे, पत्थर, गरम सलाखें, उबलता हुआ तेल आदि की वर्षा होने लगी। एक दृढ़ संकल्प के साथ इटली लड़ी, क्योंकि 'प्रत्येक पराजय ही विजय की एक सीढ़ी है'-इस प्रकार 'युवा इटली' ने उन्हें दीक्षा दी थी। सन् १८२० में पराजय हो गई। सन् १८३१ में इटली पराजित हो गई। सन् १८४८ में भी उसे पराजय का सामना करना पड़ा। तथापि मैझिनी का कहना था-'पुनः-पुनः प्रयास करते रहो। प्रथम विचार कर्तव्य का, न कि यशापयश का। तुम्हारे पक्ष में ईश्वर का वास है। अंतिम विजय तुम्हारी ही होनी चाहिए।' इस महर्षि के उपदेशानुसार इटली ने पुनः प्रयास किया और यह देखकर कि इटली स्वार्थ त्याग, शौर्य तेज, तत्त्व निष्ठा आदि सद्गुणों से युक्त है, सन् १८५९ से उसके कष्टों का फल ईश्वर भी देने लगा। स्वाधीनता के मधुर फलों का स्वाद चखने की इटली को जो कीमत चुकानी पड़ी वह 'युवा इटली के खजाने से दी गई। इस प्रकार मैझिनी ने इटली के युवकों को स्वाधीनता का प्रशिक्षण दिया। परंतु केवल स्वाधीनताप्राप्ति का कार्य ही अंतिम कार्य नहीं होता; क्योंकि लोग तब तक संघटित रहेंगे जब तक युद्ध जारी रहेगा, परंतु युद्ध बंद होते ही इटली देश के विभिन्न प्रदेशों में अराजकता मचेगी।' इसीलिए मैझिनी का दूसरा सिद्धांत है-'राष्ट्रैक्य'।
इटली के विभिन्न प्रदेशों में बरसों से इतनी अराजकता मची हुई थी कि वे अलग-अलग देश ही बन चुके थे। छोटे-छोटे राज्य एक-दूसरे से निरंतर लड़ते थे। शहर एक-दूसरे से सतत भिड़ते रहते थे। ऐसी परिस्थितियों में इटली की प्राप्त स्वाधीनता कायम रखने के लिए राष्ट्रैक्य होना आवश्यक था। संयुक्त राज्य पद्धति से काम नहीं चलता। क्योंकि अलग-अलग राज्य रखने से प्रादेशिक अभिमान पनपने लगता है और उस राष्ट्र में एकरूपता नष्ट होकर शीघ्र ही वह राष्ट्र विदेशियों के चंगुल में फँस जाता है। अतः मैझिनी का अनुरोध रहता कि इटली में प्रादेशिक अभिमान छोड़कर संपूर्ण राष्ट्र का एकीकरण होना चाहिए। यह बात मैझिनी से पूर्व काल में किसी ने नहीं समझी थी। इतना ही नहीं, पहले-पहल मैझिनी की इस विचारधारा की खिल्ली उड़ाई जाती। परंतु उधर ध्यान न देते हुए इस दूरदर्शी भविष्यवादी ने 'युवा इटली' द्वारा यह उपदेश दिया कि 'इटली का राष्ट्रैक्य होना आवश्यक है, क्योंकि बिना एकता के देशत्व नहीं; बिना एकता के शक्ति नहीं। इटली के चारों ओर बलवान् राष्ट्र होने के कारण यदि इटली की स्वाधीनता अबाधित रखने की इच्छा है तो इटली को एकराष्ट्र होना चाहिए।' 'जब-जब कोई प्रदेश युद्ध आरंभ करेगा तब-तब वह युद्ध इटली के नाम से होगा और इस युद्ध का ध्वज इटली का एक-राष्ट्रीय ध्वज होगा।'
संपूर्ण इटली में जो मनोराज्य इटली द्वारा मनोनीत समझा जाता, वही इटली का राष्ट्रैक्य इस महात्मा की दिव्यदृष्टि को सँवाना की जेल से दिखाई दिया। उसने यह बात अपने देश-बांधवों को सूचित की। जिन्होंने उस पर विश्वास किया, उन्होंने उसका अनुसरण किया और इस कष्टप्रद मार्ग का अनुसरण करते-करते उस मनोराज्य को प्रत्यक्ष देखने का भाग्य प्राप्त कर वे धन्य-धन्य हो गए। इस प्रकार प्रथम दासता से छुटकारा और उसके पश्चात् राष्ट्रैक्य-ये दो सिद्धांत उसने बताए। परंतु 'हमारा कार्य केवल विनाशकारी नहीं है, हमें विनाश के पश्चात् उसमें से सृष्टि का निर्माण करना होगा।'
इसमें कोई संदेह नहीं कि इस सृष्टि के निर्माण कार्यार्थ इटली के सौभाग्यवश योग्यतम सृष्टिकर्ता उसे मिल गया था। राष्ट्र स्वतंत्र हो गया, उसमें स्थित विभिन्न प्रादेशिक मतभेद तोड़कर तथा विद्वेष दूर करते हुए एक होने पर वहाँ उस स्वतंत्रता एवं उस एक-राष्ट्रीयता को कायम रखने के लिए आंतरिक स्वतंत्रता मिलनी चाहिए। 'अत्याचार पूर्णरूपेण त्याज्य है-चाहे वह परकीयों का हो या स्वकीयों का, वह धार्मिक हो या राजनीतिक।' अतः राष्ट्र में व्यक्ति-स्वातंत्र्य, धर्म-स्वातंत्र्य तथा मत-स्वातंत्र्य अवश्य होना चाहिए। परंतु जहाँ राजसत्ता होती है वहाँ असमता अवश्य उत्पन्न होती है। मनुष्य में सद्गुण और योग्यता के योग से जितने भेद होंगे, उतने ही भेद न्याय और उन्नतिमूलक हैं, शेष सभी तरह की असमता अत्यंत गर्हित है। अतः राजसत्ता भी गर्हित है। मैझिनी की संपूर्ण राजनीति जिस तरह नीतिमत्ता पर आधारित थी, उसी प्रकार उसकी जनसत्तावाद की नीति भी दृढ़ नींव पर खड़ी की गई थी। तिस पर जनसत्ता के अतिरिक्त अन्य राज्य प्रणाली नहीं थी जो इटली जैसे देश को स्थिरता दे सकती। स्वयं मैझिनी राष्ट्र के बहुमत का विरोधी नहीं था। 'मैं राष्ट्रीय आदेश का बंदा हूँ, परंतु मुझे विश्वास है कि जनसत्ता के अतिरिक्त अन्य सारी राज्य प्रणालियाँ अन्यायमूलक तथा अनीतिमान् हैं।' उसकी दृढ़ धारणा थी कि इटली में अनंत प्रदेश, अनंत राज्य, अनंत दुरभिमान शुरू होने के कारण उन सभी को अधिकार दिए बिना उनकी एकता अधिक दिन नहीं टिकेगी। एक राज्य को राजा बनाया तो अन्य राज्य उसके अधीन रहना कभी नहीं चाहेंगे। एक प्रदेश के अधिकार स्वीकार करने से अन्य प्रदेश के लोग अपनी सत्ता उसके हाथ में नहीं देना चाहेंगे। ऐसी अवस्था में जनसत्ता ही वास्तविक राज्य प्रणाली है। जनसत्ता प्रस्थापित करने से कभी ऐसा नहीं हो सकता कि किसी एक को विशिष्टाधिकार दिया है या पक्षपात किया है। वही व्यक्ति सर्वानुमत से अधिकृत किया जाएगा जिसका निजी तथा सार्वजनिक व्यक्तित्व योग्यतम होगा। इसके अतिरिक्त मनुष्य जाति की उत्क्रांति के विचार से अब जनता का युग आया है। ईश्वर और लोक के सिद्धांत अब छूट चुके हैं। अब राजा-महाराजाओं तथा पोप के अत्याचार नहीं चल सकते। यूरोप में सबका रुझान जनसत्ता की ओर हो रहा है। अतः इटली भी जनसत्ता का अनुसरण करे। इस तरह मैझिनी का अनुरोध था। आप राज्यसत्ता की नियुक्ति करेंगे तो कुछ दिनों के लिए शांति रहेगी; परंतु सदा के लिए शांति नहीं रहेगी। प्रथम राज्यक्रांति समाप्त होते ही दूसरी क्रांति आरंभ होगी।' इस तरह वह बार-बार सूचना देता।
उसका दृढ विश्वास था कि उस भविष्य की सत्यता अपने जीवन काल में जनता के निर्देशन में भले ही नहीं आई हो तथापि भावी काल में आए बिना नहीं रहेगी। एतदर्थ यवा इटली' ने जनसत्ता का सिद्धांत अंगीकृत किया था। इस प्रकार 'युवा इटली' में दास्यमुक्ति राष्ट्रैक्य-समता और जनसत्ता इन तत्त्वचतुष्टी का प्रशिक्षण दिया जाता। ये सिद्धांत मैझिनी ने इटली के अंत:करण पर उकेरे थे। उन सिद्धांतों की लगभग विजय हो चुकी है और किसी को भी इस बात पर संदेह नहीं कि जो थोड़ी-बहुत विजय रही है वह भी भविष्य में होकर ही रहेगी।
यह तो 'युवा इटली' के प्रशिक्षण के कार्यक्रम का विस्तारपूर्वक वर्णन हुआ। अब 'युद्ध कांड' की थोड़ी सी चर्चा करनी चाहिए। मैझिनी को पूरा विश्वास था कि ऑस्ट्रिया से युद्ध किए बिना स्वाधीनता नहीं मिलेगी। दीर्घ काल तक प्राणों की बाजी लगाकर भयंकर तुमुल युद्ध किए बिना हमें दूसरा चारा नहीं।' ऐसे समय युद्ध करना पाप नहीं। 'जब किसी सत्य की जय-जयकार करनी है अथवा किसी असत्य का विनाश करना है, तब युद्ध पवित्र है।' इटली में यह लड़ाई लड़ना अत्यंत कठिन हो गया था। उनके पास युद्धोपयोगी शस्त्रास्त्र नहीं थे अथवा उन्हें रखने की अनुमति नहीं थी। ऐसी अवस्था में इटली के अतिरिक्त कोई अन्य राष्ट्र फँसा होता तो गलितगात्र होकर लड़ाई के नाम से भी घबराता। परंतु ऐसे संकटों की परवाह इटली को जरा भी नहीं थी। इटली के शूर युवकों ने स्पेन, अमेरिका, जर्मनी, पोलैंड आदि देशों में जाकर वहाँ युद्धकला का ज्ञान प्राप्त किया। गैरीबाल्डी, रिसोओटी आदि 'युवा इटली' के सदस्य इसी तरह से युद्धकला में निपुण हो गए। दूसरी योजना यह थी कि इटली की सीमा के बाहर, परंतु निकटवर्ती प्रदेश के लोग जर्मनी आदि देशों से शस्त्रास्त्र खरीदकर उनका संचय करें और स्वदेश में कुछ गड़बड़ होने पर तुरंत सीमारेखा लाँघकर भीतर घुसपैठ करने का प्रयास करें। एक बार सीमारेखा का उल्लंघन किया, फिर बाहर से शस्त्र भीतर ले जाने का मार्ग खुल जाएगा। मैझिनी के सेवॉय पर आक्रमण में यही योजना थी। यह मार्ग अत्युत्तम था। इस युक्ति से एक बार स्वाधीनता युद्ध का ध्वज उभारा गया कि बाहर से शस्त्रास्त्रों की अच्छी खासी आपूर्ति होती है। तीसरा उपाय इस प्रकार आयोजित किया गया कि स्वदेश में गुप्त रूप से शस्त्र तैयार करने के बहुसंख्य तथा निश्चित अंतरों पर गुप्त कारखाने खड़े करें। चौथी युक्ति इस प्रकार आयोजित की गई कि गुप्त मंडलियों को अन्य देशों में हथियार खरीदकर मालवाहक जहाजों में उन्हें छिपाकर भेजा जाए। कई बार इसकी पोल खुल जाती। एक बार मैझिनी के फ्रेंच मित्र ने मार्सेलिस से इटली तक शस्त्र पहुँचाने की जिम्मेदारी ली। उसने शस्त्रों से भरा जहाज चलाना आरंभ किया; परंतु इटली के किनारे लगने से पूर्व ही उसके द्वारा विश्वासघात करने पर वह पकड़ा गया। उस जहाज को कैद करके उसपर लदा हुआ माल जब्त कर लिया गया। परंतु स्वाधीनता संग्राम के महायुद्ध में संकट तो आते ही हैं। उनसे घबराकर डरपोक लोग गुलामी में वैसे ही सड़ते रहते हैं; परंतु शूरवीर उन विपदाओं से टकराकर स्वतंत्रता प्राप्त करते हैं। इन सभी दाँव-पेंचों से अधिक महत्त्वपूर्ण मैझिनी ने, और तत्कालीन इटालियन देशभक्तों ने जो प्रमुख उपाय आयोजित किया-वह था सेना को मोड़ना। ऑस्ट्रिया की सेना में जितने इटालियन थे, उन्हें 'युवा इटली' की दीक्षा मिल गई थी। विदेशी सरकार के लिए तद्देशीय सेना रखने के सिवा किसी भी देश पर राज करना असंभव होता है। ऐसी स्थिति में यदि सेना को स्वदेश की ओर मोड़ना संभव हो तो उससे दोहरा लाभ होता है। एक तो विदेशियों का विश्वास उठ जाता है, वे सही समय पर घबरा जाते हैं, दूसरी बात यह है कि राष्ट्रपक्ष को बिना प्रयास के शिक्षित तथा सशस्त्र लोग मिलते हैं। सेना को अपनी ओर मोड़ते समय उनके वरिष्ठ अधिकारियों को ही अपनी ओर करने से काम बन जाता है। वह भी एकदम उच्च श्रेणीय अधिकारी नहीं, द्वितीय श्रेणी के सूबेदार, मेजर आदि अधिकारी अपनी ओर करें।' यह सेना मोड़ने का कार्य रूस में कठिन है, क्योंकि उधर दोनों पक्ष एक ही देश तथा एक ही जाति के हैं; परंतु इटली में तो यह बाँए हाथ का काम है, क्योंकि विजातियों से घृणा और स्वकीयों का लाभ यह मनुष्यमात्र में प्राकृतिक रूप से ही कायम होता है। उसके लिए मैझिनी मिलना चाहिए, जो उसमें प्राण फूंकता है, चेतना भरता है। सारांशतः, स्वाधीनता युद्ध की तैयारी इस प्रकार करें-यह मैझिनी का कार्यक्रम था। परंतु सामान्य तैयारी हो जाने पर जो युद्ध करना है वह बड़ी-बड़ी लड़ाइयाँ संभव न हों तो 'कूटयुद्ध' करना है। मैझिनी का इस कूटयुद्ध नीति पर पूरा विश्वास था। गैरीबॉल्डी भी कूटयुद्ध नीति में निपुण था। 'विदेशी जुए को फेंककर जिनकी इच्छा हो उन सभी राष्ट्रों के कूटयुद्ध नीति का आश्रय लेना चाहिए। शत्रु की तरह हमारी सेना के कवायद करना न आने के कारण जो कमी रह जाती है वह कूटयुद्ध नीति से पूरी होती है। तिस पर जनपक्ष की छोटी-छोटी टोलियाँ चारों ओर फैलाने से शत्र की विस्तीर्ण सेना को देशभक्तों की मुट्ठी भर सेना में उलझाया जा सकता है। कूटयुद्ध नीति के लिए युद्धकला का कुछ विशेष ज्ञान आवश्यक न होने के कारण निश्चयी तथा तेजस्वी देशभक्तों के मन में आते ही इस कार्य का आरंभ किया जा सकता है और जैसे-जैसे युद्ध परवान चढ़ने लगता है वैसे-वैसे उन देशभक्तों को युद्ध का ज्ञान तथा अनुभव प्राप्त होता जाता है। 'कूटयुद्ध नीति से प्रचंड पराजय का भय नहीं होता।' कूटयुद्ध नीति या छिपे युद्ध की टोलियाँ छोटी और हल्की होने के कारण वे वायुवेग से इधर-उधर यानी चारों ओर घूमती रहती हैं और शत्रु की भारी सेना पागल की तरह पीछा करती हुई पीछे से आगे तथा आगे से पीछे व्यर्थ परेशान होती रहती है। इसके अतिरिक्त परकीय लोग कभी कूटयुद्ध नीति का आश्रय नहीं ले सकते। क्योंकि वे उस प्रदेश की भौगोलिक स्थिति से अनजान होते हैं और वहाँ के लोग उनके लिए अनुकूल नहीं होते। कूटयुद्ध नीति को अंगीकार करते हुए वे यदि छोटी-छोटी टोलियों में बँट गए तो समझो, पल भर में ही उनका विनाश होना अटल है। इस प्रकार पराधीन देशों के लिए कूटयुद्ध नीति अत्यंत लाभदायक होती है। यह देखकर मैझिनी ने इस युद्ध की योजना बनाई। अगले लेख से ज्ञात होगा कि इस युद्ध प्रणाली का उसने कितनी गहराई में पैठकर अध्ययन किया था। इस प्रकार संपूर्ण देश में युद्ध छिड़ जाने से ऑस्ट्रिया के लिए इटली में रहना असंभव होगायही मैझिनी की युद्ध योजना थी।
सारांश, प्रथमतः राजनीति नीति पर आधारित है और अपनी स्वाधीनता प्राप्त करना न्यायोचित है, इस प्रकार इटली की मन:प्रवृत्ति बन गई कि फिर कूटनीति से युद्ध आरंभ किया जाए। उपर्युक्त विवेचन का मतितार्थ संक्षेप में इस प्रकार निकाला जा सकता है कि राजनीति नीति पर आधारित हो। राजनीति का आद्य कर्तव्य है स्वाधीनता संपादन करना। जिन राष्ट्रों में इस सत्य का प्रतिपादन करने पर पाबंदी लगाई गई हो तो वे वहाँ गुप्त मंडलियाँ प्रस्थापित करें। इन गुप्त मंडलियों का दोहरा कर्तव्य हो। प्रथम कर्तव्य है मानसिक प्रशिक्षा। इस मानसिक शिक्षा द्वारा गुप्त तथा प्रकट रूप से मुख्यतः चार सिद्धांतों की शिक्षा दी जाए। स्वतंत्रता-समता-राष्ट्रैक्य तथा जनसत्ता-ये चार सिद्धांत हैं। दूसरा कर्तव्य है इन चार तत्त्वों की विजय के लिए धर्मयुद्ध की तैयारी करना। यह युद्ध कूटनीति से किया जाए। मानसिक प्रशिक्षा से युद्ध की सहायता होगी और युद्ध से मानसिक शिक्षा में वृद्धि होगी। इस प्रकार स्वदेश परकीयों की सत्ता से मुक्त होने पर उसका आचरण इस तरह रखा जाए कि उससे मनुष्य जाति की उन्नति तथा प्रगमन की सहायता हो। स्वयं शक्तिमान् बनते ही अन्य पीड़ित, त्रस्त राष्ट्रों को मुक्त करें और अखिल मनुष्य जाति के लिए स्वतंत्रता, समता तथा बंधुत्व भाव से परमेश्वरी आज्ञा का पालन करें।
मैझिनी के राजनीतिक विचारों तथा कार्यक्रमों का तात्पर्य यही है। इस कार्य में मैझिनी की तरह ही अनेक महान् विभूतियों ने दिव्य कार्य किए हैं और वे संपूर्ण इतिहास के लिए वंदनीय सिद्ध हुए हैं। धन्य हो इटली का भाग्य! धन्य है इटली का भाग्य, जिसके लिए भगवान् मैझिनी का जन्म होता है, जिसके लिए गैरीबॉल्डी के लहू की बूंदें खर्च होती हैं, जिसकी सेवा के लिए कटिबद्ध होकर मानिन मरने-मारने पर उतारू होता है, जिसपर कवि मामली की कविता रचना होती है और जिसके स्वतंत्रता देवी वश में होती है। अनेक देश परतंत्रता में सड़ रहे थे तब अपने सत्कृत्यों से जो भूमि सबसे पहले स्वतंत्रता लक्ष्मी को अपनी ओर आकर्षित करती है उस इटली का भाग्य धन्य हो! जिनका जन्म परतंत्रता में हुआ है, परंतु जो अपने पराक्रम से उस परतंत्रता का निर्दलन करते हुए अपना देश स्वतंत्र हुआ देखते हैं और स्वकर्तव्य के बलबूते पर दासता से मुक्त की हुई भूदेवी की गोद पर अपना शुभ्र मस्तक रखकर चिन्मय होते हैं-उनके हर्ष की कोई सीमा नहीं। यदि इस विश्व में कुछ निर्मल सुख के क्षण हों तो उनमें वह क्षण विशुद्ध सुख की चरम सीमा करनेवाला होगा, जिस क्षण अपनी अत्यंत प्रिय देशजननी का असह्य पीडा देनेवाला शत्रु मार खाते-खाते देश की सीमा के बाहर दुम दबाकर भागता हुआ देखा जा सकता है। यदि निर्लेप धन्यता का कोई दिवस होगा तो वही होगा जिस दिन जननी जन्मभूमि को संपूर्ण स्वतंत्रता उपलब्ध कराते हुए देशभक्त रणभूमि से वापस लौट रहे हों और उस स्वतंत्रता के लिए एक के बाद एक शहीद हुए देशवीरों की आत्माओं को संबोधित करते हुए गर्जना कर रहे हों कि देशवीरो, हमारा देश स्वतंत्र हो गया है। तुम्हारे लहू की एक-एक बूंद का प्रतिशोध ले लिया गया है। यह सुख और यह धन्यता जिन चंद महात्माओं के भाग्य में है, उनमें भगवान् मैझिनी की गणना होती है। अगले लेख में सन् १८४८ तक का आत्मकथात्मक वृत्तांत आया है। उसके पश्चात् का वृत्तांत मैझिनी लिखित नहीं है। सन् १८५९ में इटली में राज्यक्रांति की दूसरी लहर चली। मैझिनी पुनः रण में कूद पड़ा। उस समय आधे से अधिक इटली स्वतंत्र हो गई। फिर सन् १८६६ में वेनिस स्वतंत्र हो गया और सन् १८७० में रोम स्वतंत्र हो गया। सन् १८७१ में उस महानायक की आँखें बहुतांशी ठंडी हो गईं। संपूर्ण इटली स्वतंत्र हो गई, संपूर्ण इटली एक राष्ट्र बन गई। संपूर्ण इटली सजीव हो गई और इस स्वतंत्र, एकराष्ट्रीय तथा चैतन्ययक्त इटली की राजधानी बनी रोम। सहस्र वर्षों से रोम और इटली एक-दूसरे से बिछडे हए थे। यह वियोगावस्था, यह बिछोह समाप्त होकर इस भाग्यशाली दिन में रोम पर स्वतंत्र इटली का ध्वज लहराने लगा। तीस वर्ष पूर्व जिस रोम में जनसत्ता के प्रतिनिधित्व के अधिकार का डंका बजाया था, जिस रोम के लिए 'रोम! रोम! रोम में मत्य नहीं, रोम में अशुभ नहीं, रोम मेरा प्यार है, रोम मेरे प्राण हैं। इस तरह सदैव चीख-पकार होती थी, उस रोम में मैझिनी ने प्रवेश किया। इस समय उसके मन में किस तरह के विचार आते रहे होंगे? आखिर इटली स्वतंत्र हो गई। रोम पर स्वतंत्रता का ध्वज फहरा रहा है और ऑस्ट्रिया के ध्वज के टुकडे रास्ते में बच्चों के पैरों तले कुचले जा रहे हैं। यह देखकर, चालीस वर्ष जिसके लिए अपना कोई देश नहीं था, निर्वासित होकर दर-दर की ठोकरें खानी पड़ रही थीं, उस कठोर देशव्रतधारी की आँखें ठंडी हुई होंगी, यही उसके विचार रहे होंगे। सेवॉय की जेल में बंदी बनाया गया। सन् १८३१ का मैझिनी और सन् १८७१ का मैझिनी, जो स्वतंत्र इटली की-उस स्वतंत्र राजधानी में-रोम में प्रवेश करता है, क्या इटली का कोई चितेरा ये दोनों चित्र उकेर सकता है?
इटली देश स्वतंत्र और एकीकृत होने के पश्चात् मैझिनी की एक इच्छा शेष रही थी; वह इच्छा थी-जनसत्ता। परंतु उसे इस जनसत्ता की कोई जल्दी नहीं थी। 'इस जन्म में नहीं तो अन्यत्र कहीं भी इटली में जनसत्ता का ध्वज लहराता हुआ देखकर मैं धन्य हो जाऊँगा।' यह उसका विश्वास था। परंतु दुर्भाग्य यह कि प्रायः अंग्रेज ग्रंथकारों ने मैझिनी को उसके इस पागलपन के लिए दोष दिया है। उनके अनुसार मैझिनी एक महान् दार्शनिक तथा भविष्यवादी था, परंतु उसके पास व्यावहारिक ज्ञान नहीं था। उसे जनसत्ता का भ्रम हो गया था। भई, मात्र जनसता का ही क्यों? मैझिनी को इटली की स्वतंत्रता का, राष्ट्रैक्य का तथा समता का भी भ्रम' नहीं हुआ था? तत्कालीन लोगों ने मैझिनी की इन महत्त्वाकांक्षाओं को भी मनोराज्यखयाली पुलाव पकाना नहीं कहा था? परंतु वही मनोराज्य आज सत्यसृष्टि में उतरा दिखाई दे रहा है। उसी तरह जनसत्ता का यह भ्रम सत्य क्यों नहीं होगा? उस मैझिनी को, जिसने राख के ढेर में से एक जीवंत राष्ट्र निर्माण किया, अंग्रेज ग्रंथकार 'व्यवहारचातुर्य' की शिक्षा दे रहे हैं। मैझिनी की महत्त्वाकांक्षा जनसत्ता तक पहुँची इसी में उसके भविष्यवाद की विजय है। यदि इस प्रकार वह नहीं पहुँचती तो उसकी दृष्टि उतनी ही अवरुद्ध होती, उतनी ही बौनी होती जितनी अंग्रेज राष्ट्रों की; और यह कहना पड़ता कि वह राजसत्ता के उस पार नहीं पहुँच सकी। परंतु मैझिनी की नीति-मीमांसा अंग्रेजों की नीति-मीमांसा की तरह पेट-पोसुवी नहीं थी। क्या वह इसलिए व्यवहारकुशल सिद्ध नहीं होता कि उसने अंग्रेज राष्ट्रों की अनीतिमान तथा पापकारी राजनीति को बार-बार कठोरता से फटकारा है? जाहिर है कि मैझिनी व्यवहारकुशल नहीं है, क्योंकि उसने कभी कहीं दूसरों के पत्र खोलकर, पढ़कर उनमें लिखा हुआ मजमून दूसरों को सूचित करके अपनी व्यवहारकुशलता का ढोल नहीं पीटा। मैझिनी व्यवहारकुशल नहीं यह जाहिर ही है, क्योंकि उसने यह कहने की अपेक्षा कि 'इटली स्वतंत्र होते ही वह शेष सभी राष्ट्रों को फटाफट गुलाम बनाए' इस तरह उपदेश करने का अविवेक किया कि केवल हमारे अकेले स्वतंत्र होकर काम नहीं चलता तो हमें अन्य देशों को भी स्वतंत्र कराना होगा।' भई, मैझिनी की पहचान इन स्वार्थांध राष्ट्रों को कैसे होगी? परंतु यद्यपि वे उसे पागल घोषित करें तथापि आखिर वह इतिहास देवी के गले का हार बन ही गया न? मैझिनी ने जनसत्ता के लिए अथक परिश्रम भले ही किए हों तथापि उसने हजारों बार यह स्पष्ट घोषित किया था कि पहले स्वतंत्रता, फिर एकता और उसके पश्चात् जनसत्ता। इस प्रकार उसने यथासंभव यथासमय व्यवहार भी किया और इटली स्वतंत्र होने के पश्चात् उसने जनसत्ता का जो उपदेश किया वह प्रसिद्ध रीति से किया है; क्योंकि उसका और मनुष्य जाति की उत्क्रांति का जिस-जिस ने सूक्ष्म निरीक्षण किया है, उस प्रत्येक का संपूर्ण विश्वास है कि अब जनता का युग आया है। आज नहीं कल, जनसत्ता की ही जय-जयकार होनेवाली है। मैझिनी ने जो ध्वज खड़ा किया था वह ईश्वर तक पहुँचनेवाला ध्वज था। इस ध्वज का अग्रभाग अदूरदृष्टि लोगों को न भी दिखाई दे तथापि वह उसे स्पष्ट रूप में देख सकता था। नन्हा सा पंछी उड़कर किसी पहाड़ी पर बैठ जाए तो उसे सत्कृत्य करने का आभास होता है। मैझिनी पक्षीराज गरुड़ था। भला वह उस पहाड़ी तक ही संतुष्ट कैसे रह सकता है? वह काल गगन पर उड़ान भरता गया और वहीं से जनसत्ता का गीत गाने लगा। मैझिनी के जीवन में दो बार जनसत्ता की विजय निकट आई थी। परंतु उस समय यदि वह अन्य जनों की स्वार्थ परायणतावश धोखा नहीं खाता तो मैझिनी के अन्य सपनों की तरह ही यह स्वप्न भी सच हो जाता। क्या हुआ यदि ऐसा नहीं हुआ तो? मैझिनी को आत्मा की अमरता तथा समय के अनंतत्त्व पर विश्वास था। उसने सिद्ध किया था कि जनसत्ता नीतियुक्त राज्य पद्धति है। मुख्य प्रश्न था, सिद्धांत सही है या नहीं। यह गौण अंश था कि उसकी विजय आज होगी या कल। यह अत्यंत सुखद बात है कि भगवान् मैझिनी की वास्तविक योग्यता भले ही अन्य किसी ने न पहचानी हो, परंतु उसके स्वदेश बंधुओं ने उसे पूर्णतया पहचाना है। वह महात्मा जिस दिन इहलोक के सारे कर्तव्य पूरे करते हुए-ऑस्ट्रिया के ध्वज तले नहीं, स्वतंत्र इटली के ध्वज तले परलोक सिधार गया, उस दिन रोम में इटली की पार्लियामेंट ने राष्ट्रीय सूतक का पालन करने का प्रस्ताव किया। मुख्य सचिव ने उसके अपरिमित स्वार्थ त्याग तथा अनवरत स्वदेश सेवा की वक्तृत्वपूर्ण प्रशंसा की। जेनेवा में उस महात्मा की जड़देह की उत्तरक्रिया के चलते हजारों इटालियन लोग अपने देशपिता के अंतिम दर्शन के लिए उमड़ पड़े और अंतिम दर्शन होते ही बालकों के समान फूट-फूटकर रोने लगे। केवल एक मनुष्य की मृत्यु के लिए इतना अश्रुपात इस दुनिया में कभी नहीं हुआ होगा।
ईश्वर के घर में प्रत्येक देश के लिए यदि एक मैझिनी रखा होगा तो किसी को भी इटली से ईर्ष्या नहीं होनी चाहिए।
मैझिनी लिखित प्रस्तावना (सन् १८६१)
जब मुझसे प्रार्थना की गई कि मैं अपने राजनीतिक तथा साहित्यिक लेखों का संकलन करूँ तथा उसके साथ अपना जीवन-वृत्तांत दूँ, तब मैंने स्पष्ट रूप से विरोध किया था। आज मैं उस तरह लिखना नहीं चाहता। मेरा जीवन थोड़ा सा सुख और अनंत दुःखों से भरा हुआ है। उन व्यक्ति विशेषों के अतिरिक्त जो मुझसे प्रेम करते हैं अथवा मैं जिनसे प्रेम करता हूँ अन्य जनों को उसमें कुछ भी महत्त्वपूर्ण नहीं मिलेगा। मेरे जीवन में जो कुछ सार्वजनिक है वह सब मेरे लेखों में प्रतिबिंबित हुआ है और उस लेखन से वर्तमान इतिहास किस तरह प्रभावित होता है इसका निश्चय करना जन-समूह का काम है, न कि मेरा। जिस थोथे चने को लोग कीर्ति कहते हैं उसके लिए मेरी प्रवृत्ति विरक्त है। तिस पर स्वभावजन्य अभिमान तथा विशुद्ध अंत:करण के बलबूते पर उन आरोपों और उस जननिंदा से जो मेरे जीवन पर कालिख पोते रही थी, मैं घृणा करता रहा। उस साध्य में-जो अपनी शक्ति तथा काल स्थिति में सिद्ध होता है-अपना व्यक्तित्व एकरूप करना ही उस ऐहिक अस्तित्व का प्रमुख कर्तव्य है। इसपर मेरा सौ प्रतिशत विश्वास तथा पूरी निष्ठा होने के कारण मैंने कभी अपनी जीवनी की तारीखें एवं ठोस प्रसंगों की टिप्पणियाँ सँजोयी नहीं, न ही प्रपत्रों की सूची बनाई।
परंतु यदि मैं सारी टिप्पणियाँ रखता तो भी उनका प्रयोग करने का साहस प्रस्तुत काल में मुझसे नहीं होता। केवल उन्हीं लोगों को, जिनके अस्तित्व के प्रत्येक महत्त्वपूर्ण अंश में संपूर्ण यूरोप में क्रांति लाने का अधिकार ईश्वर ने दिया है उनके राष्ट्रीय जागरण के चलते उसके सामने प्रत्येक आत्मकथा एक तुच्छ बात है। श्री सूर्यनारायण के उदयाचल से आकाश पर आरोहण के बावजूद मोमबत्ती जलाना क्या निरी मूर्खता नहीं है?
तथापि इस लेख में आँखों देखी घटनाओं का वर्णन तथा उन व्यक्तियों की हकीकत, जिन्हें मैं जानता हूँ, जितनी आवश्यक है उतनी ही दूंगा, ताकि यूरोप की पिछली सदी के अंतिम अंश की गतिविधियाँ समझने में सुविधा हो। उसके साथ ही इस लेख के कारण तथा उद्देश्य का सही स्पष्टीकरण होने के लिए ऐसे कुछ व्यक्तियों की जानकारी दूँगा जिनका भविष्य काल में राष्ट्र तथा लोक इन महत्त्वपूर्ण तत्त्वों की विजय होने के लिए जो पूर्वचिह्न हैं, ऐसे प्रसंगों के विकास और उन्नति से अत्यंत निकट संबंध रखते हैं।
प्रायः सभी प्रसंगों में मेरा शब्द बहुजन समाज का ही शब्द हो गया है। मेरा शब्द हमारे राष्ट्र युवकों का, जो भविष्य साकार करनेवाले हैं, संघ शब्द है।
मेरे लेख का जो भी मूल्य हो वह ऐतिहासिक दस्तावेज के रूप में ही है और इसीलिए उसकी सत्यता के समर्थनार्थ तथा इटली की वास्तविक अंतर्वृत्ति से उनका निकट संबंध सिद्ध करने के लिए आगे दी हुई बातों का, आज नहीं तो कल, अवश्य उपयोग होगा।
मुझे आशा है, इटली के कृत्यों का मूल तथा उनके साहित्य का संशोधन करने से मेरे देश-बांधवों को वर्तमान की गलतियाँ तथा कमियों का सही ज्ञान अधिक आसानी से होगा।
मैझिनी का आत्मकथ्य
दिशः प्रसेदुर्मरुतो ववुः सुखाः प्रदक्षिणार्चिर्हविरग्निराददे॥
बभूव सर्व शुभशंसि तत्क्षणम्। भवो हि लोकाभ्युदयाय कालिदास'- तादृशम्॥१॥
शैशवकाल में सन् १८२१ के अप्रैल महीने में किसी रविवार के दिन मैं अपनी माँ के साथ स्ट्रॅन्डानोवा से जिनेवा जा रहा था। हमारे साथ हमारे परिवार का एक पुराना मित्र भी था। कुछ अंश में ऑस्ट्रिया द्वारा, कुछ अंश में विश्वासघात से तो कुछ अंश में दूसरों की दुर्बलतावश पिडमांट का विद्रोह अभी-अभी विफल किया गया था।
आत्मरक्षार्थ सारे विद्रोही जलमार्ग से जिनेवा पहुँच चुके थे। इधर साधनों का अभाव देखकर उधर जाने की योजना बनाते हुए, उसके लिए वे सहायता की याचना कर रहे थे। उनमें से कई विद्रोही जिनेवा छोड़ने का अवसर देख रहे थे। परंतु कुछ विभिन्न बहानों के साथ शहर में अकेले-अकेले ही घुसपैठ कर रहे थे। उनके चेहरों से, उनकी पोशाक से तथा लश्करी शान से अथवा अत्यंत दुःखी एवं मुग्धचर्या से मैं अन्य लोगों के जमघट में से उन्हें पहचान सकता था।
समाज में एक विशेष सहानुभूति उत्पन्न हो गई थी। उनमें से कुछ धैर्यशाली लोगों ने सांटारोसा तथा अंसाल्डी विद्रोहियों के प्रमुख नेताओं को सुझाव दिया कि वे शहर में इकट्ठा होकर शहर पर कब्जा करें तथा रुकावट डालने की पुनः तैयारी करें। परंतु जिनेवा में ऐसा कोई साधन नहीं था जो इस विद्रोह को विजयी बनाता। यहाँ तक कि किले पर तो तोपखाना भी नहीं था, अतः उन विद्रोहियों ने उस सुझाव को स्वीकार नहीं किया और तब तक रुकने के लिए कहा, जब तक जिनेवा में अनुकूल समय नहीं आ जाता।
जब हम सड़क से जा रहे थे तब एक लंबे कद के व्यक्ति ने हमें रोका। उसकी दाढ़ी घनी काली थी तथा मुद्रा तेजस्वी एवं निश्चयी थी। उसकी दृष्टि का तेज तो मैं कभी भूलूँगा ही नहीं। अपने हाथ में रखा एक सफेद रूमाल हमारे आगे फैलाकर उसने कहा, 'इटली के निराश्रितों के लिए।' मेरी माँ तथा हमारे मित्र ने उसमें कुछ पैसे डाले और वह याचक दूसरे लोगों से वही प्रार्थना करने के लिए आगे बढ़ा। बाद में मुझे पता चला कि विद्रोह के आरंभ में तैयार की गई राष्ट्रीय सेना का वह एक कमांडर है और उसका नाम रिनी है। उसके लिए वह इस तरह पैसे इकट्ठा कर रहा था। आगे चलकर वह स्पेन चला गया और संभवत: अपने सैकड़ों लोगों की तरह वह भी स्पेन देश की स्वतंत्रता के लिए लड़ते-लड़ते शहीद हो गया हो।
उस दिन प्रथमत: मेरे मन में एक धुंधला सा विचार उत्पन्न हुआ। निश्चित रूप में कह नहीं सकता कि वह स्वतंत्रता का था या स्वदेश का, तथापि मुझे लगा, अपने स्वदेश को स्वतंत्र करने के लिए लड़ना हम इटालियन लोगों के लिए संभव है और इसीलिए वैसा करना हमारा कर्तव्य है। धनवान् अथवा निर्धन, सभी श्रेणी के लोगों से मेरे माता-पिता का आचरण सदैव समान रहता। अनजाने में ही उनके इन जनपक्षीय सिद्धांतों का परिणाम मुझ पर होने लगा और समता के विषय में मेरे मन में पूज्य बुद्धि उत्पन्न होने लगी। व्यक्ति का दर्जा चाहे कोई भी हो, उसमें मानवता कितनी है यह देखने की ओर उसका ध्यान रहता और केवल ईमानदार, विश्वसनीय मनुष्य के प्रति ही उसमें आदर था। उस मित्र के साथ, जिसका ऊपर निर्देश किया गया है-मेरे पिता फ्रांस में अभी-अभी सामने आए जनसत्ता पक्ष के इतिहास के संबंध में नित्य चर्चा करते, उसे सुनकर मेरे अंत:करण में स्थित सहज स्वतंत्रता लालसा अधिकाधिक बलवती होती गई। मेरे लैटिन के अध्यापक द्वारा अनुवाद के लिए दिए गए लिवी और टॅसिटसचा के ग्रंथ पठन ने तथा मेरे पिताजी के वैद्यकीय ग्रंथों के पीछे छिपाए हुए कुछ पुराने फ्रेंच वृत्तपत्रों के कारण तो स्वदेश को स्वतंत्र कराने की मेरी महत्त्वाकांक्षा प्रबलतम हो गई। इन फ्रेंच वृत्तपत्रों में फ्रांसीसियों द्वारा प्रथम क्रांति के समय प्रकाशित किए गए 'Chronigue do mois' नामक पत्र के कुछ अंक थे।
परंतु अपने देश में पनपे हुए अत्याचार को मिटाने के लिए प्रयत्नरत रहना मेरा प्रमुख कर्तव्य है और उस युद्ध में मेरा जो हिस्सा होगा वह मुझे उठाना ही होगा-यह विचार मेरे मन में दृढमूल हो गया। इटली के उन निराश्रितों का स्मरण, जिनमें से कई आगे चलकर मेरे मित्र बन गए-दिन में मैं जहाँ-जहाँ जाता और रात में जो-जो सपने देखता उन सभी में मेरा पीछा करता। उन लोगों के पीछे जाने के लिए मैं कुछ भी करता। इन लोगों द्वारा पिडमाट में किए गए राज्यक्रांति के महान् प्रयास असफल कैसे हुए इसके कारण ढूँढ़ने के लिए सारा वृत्तांत प्राप्त करके मैंने उसका अध्ययन करना आरंभ किया।
स्वतंत्रता की उस लड़ाई में जिन्होंने कुछ भी करने की प्रतिज्ञा की थी उन्होंने सही समय पर विश्वासघात किया। नेताओं ने पहली भिडंत में ही धीरज खो दिया और प्रतिकार का तनिक भी प्रयास नहीं किया। सभी वृत्तांत तथा स्थिति समझ लेने के पश्चात् मैंने सोचा, यदि सभी अपना-अपना कर्तव्य निभाते तो उन्हें विजय मिलती, तो फिर पुनः प्रयास करने में क्या हर्ज?
इस विचार के अतिरिक्त मुझे कुछ भी नहीं सूझता था; परंतु उस समय मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि उस विचार के अनुरूप आचरण कैसे करें। परिणामतः मेरे उत्साह पर पानी फिर गया। यूनिवर्सिटी के बेंच पर जब अन्य छात्र हँसते, खेलते, गुलछर्रे उड़ाते रहते तब मैं उनके साथ बैठकर भी अपने ही विचारों में खोया-खोया सा रहता-गंभीर, विचारमग्न। यौवनावस्था में ही मुझपर बुढ़ापे का पीलापन छाने लगा। मैं सोचता, मेरे देश पर पराधीनता का सूतक लग रहा है, अतः मैं काले रंग का सूतकी वेश धारण करने लगा। उसी समय एक पुस्तक मेरे हाथ लगी जिसका नाम 'जाकोपो ऑर्टिस' (Jokopo Ortis) था। उसे पढ़ने में मुझे रुचि हुई। मैंने उस पुस्तक को कंठस्थ कर डाला। परिस्थितियों ने इतना गंभीर रूप धारण किया कि मेरी माँ को यह भय सताने लगा, कहीं मैं आत्महत्या न कर बैठू।
धीरे-धीरे मनोविकारों का यह पहला उफान ठंडा पड़ने लगा, तूफान थमने लगा। इसी समय युवा रफीनी बंधुओं से मेरी मित्रता हो गई। मित्रता हो गई कहने की अपेक्षा यह कहना ज्यादा उचित होगा कि उनसे तथा उनकी पवित्र माता से मेरा प्रेम हो गया और उनकी यह मित्रता मुझे पुनः इस विश्व में ले आई। भीतर-हीभीतर जलानेवाला मेरा यह मनोविकार खत्म हुआ और हमने इटली का साहित्य, बौद्धिक पुनरुज्जीवन, दर्शन, धार्मिक चर्चा आदि विषयों पर छोटी-छोटी संस्थाएँ बनाईं जो भविष्यकालीन राज्यों की पुरोगामी होने की पृष्ठभूमि में ऐसी पुस्तकें गुप्त रूप से प्रकाशित करतीं जिनपर पुलिस ने प्रतिबंध लगाया था। इस प्रकार अल्प मात्रा में ही क्यों न हो, कृति का मार्ग उपलब्ध होने से मेरे मन को पूर्ण संतुष्टि मिल गई। ऐसे चुनिंदा मित्रों का समूह मेरे चारों ओर इकट्ठा होने लगा जो अपने उज्ज्वल भविष्य की महत्त्वाकांक्षा सँजोए था। ऐसे मित्रों में से जिनकी स्मृति किसी अभूतपूर्व पुस्तक की तरह मेरे अंतःकरण में समाई हुई है, इस समय फेडरिको कॅम्पानेल के अतिरिक्त (आजकल ये रोम और वेनिस की कमेटी के सदस्य हैं।) हमारी योजना सफल बनाने के लिए कोई भी शेष नहीं रहा। उनमें से कुछ परलोक सिधार गए। कुछ हमें छोड़कर चले गए। शेष लोग विश्वास के साथ हमारा हाथ थामे हुए हैं तथापि हताशा से घिरे हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं। लेकिन उस समय वह मंडल मुझे 'प्लीआड' [1] के संघ सदृश प्रतीत होता जिससे मेरे त्रस्त हृदय को सांत्वना मिलती थी। तब मैं असहाय, विवश नहीं रहा था।
आत्मचरित्र लिखने का मेरा कोई विचार न होने के कारण मैं सन् १८२७ की ओर मुड़ता हूँ। उससे पिछले वर्ष, मेरे विचार से मैंने अपना पहला साहित्य विषयक लेख लिखकर फ्लोरेंस के एक वृत्तपत्र में प्रकाशित कराने के लिए भेजने का साहस किया। परंतु स्वाभाविक रूप से ही उस पत्र ने उस लेख को प्रकाशित नहीं किया। उस लेख का विषय अत्यंत प्रख्यात कवि दांते (Dante) था, जो मुझे देशपिता प्रतीत होते थे।
सन् १८२७ में पूर्व रचनावादी एवं अद्भुत रचनावादी इन दो ग्रंथकारों के पक्षों में घमासान युद्ध छिड़ गया था। उनमें से प्रथम पक्ष के विचार से साहित्य पर अत्याचार का सिक्का अबाध रूप से चलते रहना चाहिए। हजारों वर्ष पूर्व निश्चित किए गए तथा अमल में लाए गए प्राचीन नियमों से साहित्य जकड़ा रहना चाहिए। इटली का साहित्य भी गुलामी की बेड़ियों में जकड़ा रहे-इस प्रकार उस पक्ष का अभिप्राय था। दूसरा पक्ष इटली की सरस्वती को दासता की बेड़ियों से मुक्त करके उसे अपनी अंत:प्रेरणा के रूप में पाना चाहता था। हम सारे युवाजन इस स्वातंत्र्यशील पक्ष के समर्थक थे; परंतु मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि उस विवाद का गर्भितार्थ बहुत ही कम लोगों की समझ में आ पाया है। वृद्ध पक्ष की ओर पुराना शास्त्री मंडल तथा विद्यापीठ का अध्यापक वर्ग था, उनका सारा प्रयास निर्जीव, निःसत्त्व तथा 'हटादाकृष्टानां कतिपयपदाना रचयिता' इस प्रकार का था और इधर हर कोई मनमानी करने पर उतारू हो गया। इस प्रकार नवजागरण का परिणाम दिखाई देने लगा। नूतन पंथ अत्याचार से घृणा करने लगा था। परंतु उन्हें इसका भान नहीं रहा कि इस भीड में विश्व की प्रत्येक वस्तु की तरह ललितकला भी विशेष नियमों से आबद्ध होनी चाहिए।
कला अपने वास्तविक स्वरूप में किसी व्यक्ति की मनमानी नहीं है। वह स्वरूप का अतीत का परिणाम अथवा भविष्यकाल का निदर्शक होना आवश्यक रहता है, परंतु जब दांते अथवा बायरन की तरह उस स्वरूप में अतीत तथा भविष्य का मिलाप एवं समानता होती है, उसी समय समझो कि वह कला पूर्ण स्वरूप को प्राप्त हो गई है। (हमारे श्री समर्थ रामदास के ग्रंथों में कवित्व का यह पूर्ण रूप भाषा तथा सैद्धांतिक रूप में दिखाई देता है।)
परंतु यहाँ अतीत तथा भविष्यकाल का सम्मिश्रण हमारे इटली में कैसे हो सकता है ? तीन सदियाँ बीत गईं। इटली का कोई अतीत ही नहीं है। तीन सदियों से हमारी व्यक्तित्व प्रेरणा की स्वतंत्रता नष्ट हो चुकी है और हम ऐसे गुलामों का बाजार बन चुके हैं जिन्होंने अपना स्वत्व विस्मृत कर दिया है। किसी भी कला का उदय चाहते हैं तो प्रथमत: गुलामी के समय के औज़दैहिक मंत्रों का जाप करते हुए भविष्य के उदयार्थ प्रभात स्तोत्र का गान करना चाहिए। इन प्रभात स्तोत्रों का गान करते समय लोगों की मनोरचना की जानकारी करनी होगी जो सुप्त तथा अनजाने में अभी तक जीवित है। अपने देश के अधमरे अंत:करण पर हाथ रखकर उसकी मंथर गति युक्त धड़कनें गिनकर यह निश्चित करना अनिवार्य है कि हमारी इटली की बुद्धि प्रथमत: किस उद्दिष्ट एवं कर्तव्य की ओर लगानी है। व्यक्तिगत प्रेरणा तभी उपयुक्त होती है जब उसे समाज प्रेरणा की सहायता मिलेगी। जिस तरह नानाविध पुष्प एक ही भूमि से भिन्न-भिन्न सुंदरता एवं सुगंध प्राप्त करते हैं उसी तरह व्यक्तिगत प्रेरणा की विविधता भी एक ही समाज-प्रेरणा से उत्पन्न होनी चाहिए। परंतु इटली में यह सामाजिक प्रेरणा है कहाँ? यह समाज प्रेरणा जो किसी भी कला की उन्नति के लिए मूलभूत है इटली में आज नष्ट हो चुकी है। ऐसा केंद्र कहाँ है जो समाज चेतना की उत्क्रांति ठीक तरह से होने के लिए आवश्यक है? स्वदेश कहाँ है ? कहाँ है स्वाधीनता? स्वदेश तथा स्वाधीनता के बिना किसी भी कला का उत्कर्ष होना असंभव है और एतदर्थ हमें सबसे पहले अपना सारा ध्यान इस प्रश्न की ओर लगाना होगा कि सकल कलाओं के लिए मूलभूत जो देश चेतना' चाहिए, क्या वह हमारे पास है ? 'प्रथमतः स्वदेश चाहिए' यह कहकर सारी शक्ति राजनीतिक स्थिति की ओर लगानी होगी। अपने जीवन में इस कार्य में यदि हम विजयी हो गए तो हमारी कब्र पर इटली की कलाएँ विकसित होंगी, फूलों की बहार आएँगी। इस प्रकार के विचार स्वदेशाभिमानी तथा बुद्धिमान् मैझिनी जैसे कवि के मन में पहले ही आए थे और जो उसके नाटकों में दृष्टिगोचर हो रहे थे; पर उन विचारों पर उस समय बहुत ही थोड़े लोगों ने गौर किया था। प्रायः सभी लोग इस असत्य सिद्धांत को पकड़े बैठे थे कि लोककला का प्रयोजन कला ही है।
सन् १८२७ में मेरे मन में उत्पन्न विचार क्रांति अभी तक तीव्रता के साथ धधक रही थी। अंत में मैंने साहित्य का मार्ग छोड़कर राजनीतिक दिशा से प्रयास करने के सरल तथा प्रमुख मार्ग का अवलंबन किया।
यही मेरा पहला महत्त्वपूर्ण स्वार्थ त्याग रहा। मेरे मन में ऐतिहासिक तथा काल्पनिक कथाओं के हजारों दृश्य उभरते रहते। जिस प्रकार एकांतवासी मनुष्य को सुंदर तथा रम्य युवतियों के काल्पनिक प्रतिबिंब भी समाधान प्रदान करते हैं उसी तरह मेरे अंत:करण को ये प्रसंग एवं दृश्य शांतिदायक प्रतीत होते। मेरे मन की सहज प्रवृत्ति बहुत अलग है; परंतु जिस काल में मैंने जन्म लिया उस काल की स्थिति तथा देश के अपमान के कारण मेरा कर्तव्य अपनी सहज प्रवृत्ति से भिन्न हो गया। परंतु इस कर्तव्य को व्यवहार में लाने के लिए उस समय कुछ साधन न होने के कारण मैंने साहित्य के प्रश्न की चर्चा द्वारा ही उस कर्तव्य की दिशा स्पष्ट दिखाने का निश्चय किया।
जिनेवा से एक वृत्तपत्र निकलता था जिसमें व्यापार विषयक वार्ताएँ प्रकाशित होती थीं। उस पत्र के संपादक को पुस्तकों के विज्ञापन दिए जाएँ इस प्रकार का एक सुझाव देते हुए मैंने पुस्तक से संबंधित थोड़ी-बहुत सिफारिशी लेखन का काम स्वीकार किया। परंतु विज्ञापन के लिए लिखा जानेवाला यह लेख बढ़तेबढ़ते एक स्वतंत्र निबंध ही बन गया। जनता की तरह सरकार भी गहरी नींद में होने के कारण उसने उसपर गौर नहीं किया। न ही उसकी परवाह की। वह वृत्तपत्र साहित्यिक चर्चा का एक महत्त्वपूर्ण साधन बन गया। वे सारे लेख स्वतंत्र रूप से छापे गए। उन लेखों का वास्तविक मूल्य कुछ अधिक नहीं, परंतु उससे यह दिखाई देगा कि मैं और कुछ युवक किस उद्देश्य से लिख रहे थे। इस लेखन विषयक चर्चा को शीघ्र ही राजनीतिक स्वरूप प्राप्त हो गया। हमारे विचार से लेखन स्वातंत्र्य एक अलग किस्म की महत्त्वपूर्ण स्वतंत्रता की प्रथम सीढ़ी है। समाज की गुप्त शक्ति में युवक अपनी संजीवनी उँडेलकर उन शक्तियों को जाग्रत् करें इस प्रकार की सूचना ही इस मार्ग से की जा रही थी। हमारे इन प्रयासों का परकीय तथा स्वकीय लोग दोहरे रूप में प्रतिरोध करेंगे और इन प्रयासों को असफल बनाने के लिए वे सज्ज होंगे यह हम जानते थे।
अंत में सरकार की दृष्टि इन लेखों पर पड़ ही गई और उसके विरोध में प्रयास होने लगे। जब पहले वर्ष के अंत में अब तक मिली सफलता से प्रोत्साहित होकर हमने अपने पाठकों को उस पत्र को बढ़ाने का अपना ध्येय सूचित किया तब सरकार ने उसे एकदम बंद करने का आदेश दिया। परंतु छुटपुट लेखों से अभिव्यक्त तरुणाई का आवेश, साहस तथा उत्साह तथा उसमें गर्भित साहसी उद्देश्य के कारण जिनेवा में मैं बहुत ख्यातनाम हो गया। कार्लोबोटा नामक इतिहासकार के विरोध में मैंने एक वृत्तपत्र प्रकाशित किया था। उस पत्र द्वारा मेरा फ्लोरेंस स्थित अँटोलॉजिओ के संचालक से परिचय हुआ। ये संचालक बंधु अंत:करण से पूर्ण इटालियन थे। परंतु उनमें से प्रायः सभी कायर थे। मेरे एक युवा भक्त ने, जो अत्यंत देशाभिमानी था परंतु गृहसौख्य की अनिवार लालसा के कारण जो आगे चलकर निरुपयोगी सिद्ध हो गया, उसपर एक निबंध लिखा। तब ग्यूएराजी ने हमें एक पत्र लिखा। उस पत्र का उत्तर मैंने ही लिखा। तब से ग्यूएराजी और मेरा पत्र व्यवहार आरंभ हुआ। उस समय स्नेहात्मक लेखन तथा इटली में सुधार किस तरह किया जाए इसपर उत्साह के साथ चर्चा हुई।
जिस समय जिनेवा में वृत्तपत्र बंद किया गया, ग्यूएराजी के निकट संघटित युवा मंडली तथा हमने मिलकर 'लेगहॉर्न' या किसी अन्य नाम से एक वृत्तपत्र निकालने का निश्चय किया। हमारे लेखों का राजनीतिक उद्देश्य अब अधिक स्पष्ट रीति से दृष्टिगोचर होने लगा। मैं, ग्यूएराजी और कोर्लोविनी कुछ भी न छिपाते हुए खुलेआम मुख्य लेख लिखने लगे। जिस फास्कोलो ने प्रथमतः साहित्य को देशोन्नति का प्रमुख कर्तव्य करने पर बाध्य किया हमने उस फास्कोलो से संबंधित लेख लिखे, जिसका इटली को उसके देशप्रेम के लिए सम्मान करना ही चाहिए। दिन-ब-दिन हम इतना स्पष्ट लिखने लगे कि टरकीनी की इस सुप्त रियासत ने भी हमारे पत्र पर पाबंदी लगाने का आदेश दिया। प्रथम वर्ष के अंत में ही हमने उसे बंद कर किया; परंतु इन दो पत्रों के लेख पढ़कर ऐसे अनेक युवक तैयार हो गए थे जो जोश और आवेश से भरे हुए थे। अब उस आवेश को बाहर निकालने के लिए कोई-न-कोई मार्ग निकालना ही था। अनेक देश-बांधवों के मन में छिपे गूढ़ विचारों को जाग्रत् करने में हमें सफलता मिली थी और इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण कार्य यह था कि हमारे इटालियन युवकों को वास्तविक परिस्थितियों का ज्ञान हो चुका था। उन्हें यह ठोस रूप में ज्ञात हो चुका था कि इटली के विदेशी प्रशासक जान-बूझकर विकास में रोड़े अटका रहे हैं, हमारे विकास का विरोध कर रहे हैं तथा उन्हें लड़कर स्वाधीनता प्राप्त किए बिना किसी भी तरह का विकास असंभव है।
लेखन विषयक इस तरह के प्रयासों के चलते मुझे अपने मुख्य उद्देश्य का विस्मरण नहीं हुआ था। ऐसे युवक चुनने का कार्य मैं कर रहा था जिनमें साहसिक कृत्य करने की क्षमता हो। हम लोगों में कारबोनरी मंडली का पुनरुज्जीवन शुरू होने की वार्ता फैल गई थी। मैं उन लोगों की तलाश में था और सूक्ष्म निरीक्षण द्वारा तथा प्रश्न पूछकर सभी ओर से उन्हें ढूंढ़ निकालने के कार्य में जुट गया था। आखिर एक मित्र ने, जिसका नाम टॉली था, मेरे सामने स्वीकार किया कि वह उन लोगों की एक शाखा का सदस्य है और उसे उस वर्ग की प्रथम श्रेणीय दीक्षा देने की योजना बनाई गई है जिसके लिए वह तैयार ही है।
सन् १८२० से १८२१ तक की महत्त्वपूर्ण बातों का जब मैं अध्ययन कर रहा था तब कारबोनरी जन की काफी जानकारी मुझे हो चुकी थी। उनका विधि वैचित्र्य, आवश्यकता से अधिक गुप्त जीवन और उनके राजनीतिक विचार अथवा सच कहा जाए तो राजनीतिक मतों का अभाव आदि बातें मुझे अच्छी नहीं लगीं। परंतु उस समय मेरी अपनी राजनीतिक मंडली की स्थापना करना मेरे लिए असंभव था। कारबोनरी मंडली उनके प्रमुख सिद्धांतों के अनुपात में कितना ही निम्न स्तरीय क्यों न हो वह ऐसे युवाओं का एकीकरण करने का साधन थी, जिनकी बोली में कृति है, जो कथनी के अनुसार करनी करने के लिए तैयार हैं। उसमें ऐसे लोग थे जो धार्मिक बहिष्कार तथा देह त्याग के दंड की परवाह न करते हुए अपने प्रयासों की जीवट प्रवृत्ति न छोड़ने और पुराना जाल तार-तार होते-न-होते नया बुन लेते हैं, अत: मेरा नाम और परिश्रम उस संस्था को समर्पित हो यह उचित था।
मैं अब पका पान बन गया हूँ तथापि मेरी यही धारणा है कि जनता को सही रास्ते से ले जानेवाले नेतृत्व के पश्चात् दूसरा अत्युत्तम सद्गुण है कब और किस तरह अनुयायी होना चाहिए-इसका ज्ञान होना। अर्थात् मैं उन्हीं के बारे में बोल रहा हूँ जो सत्य और कल्याण की ओर ले जाते हैं। ऐसे युवकों में से जो सभी तरह की विकासमान संस्थाओं से अथवा रचनात्मक पंथों से अलग रहकर अपने ही व्यक्त्वि की शान में ही मग्न रहते हैं-बहुत सारे प्रबल तथा सुसंघटित सत्ता के सामने हताश होकर किसी गुलाम की तरह शरणागति स्वीकार करते हैं। उस पवित्र सत्ता के लिए जो मनःपूर्वक स्वीकृत की गई है तथा जिसकी सम्मति दी गई है, पूर्णतः पूज्य भावना रखनी चाहिए ताकि दबंग वृत्ति से प्रस्थापित की गई मिथ्या सत्ता का भय न हो। इसीलिए मैं कारबोनरी सभा का सदस्य बन गया।
एक दिन संध्या समय सेंट मुझे जार्जिओ के निकट एक घर में ले जाया गया। उस घर की एकदम ऊपरी मंजिल पर जाने के बाद मैंने उस व्यक्ति को देखा जिसको मुझे दीक्षा देने का काम सौंपा गया था। उस सज्जन का नाम रामोनडी डोरिया था, वह वयस्क प्रतीत हो रहा था। उसका चेहरा रूखा था। उसने गंभीर मुद्रा में मझसे कहा कि सरकार की कड़ी पूछताछ तथा अपने उद्देश्य की प्राप्ति करने के लिए आवश्यक ज्ञान व सावधानी न होने के कारण सैकड़ों संस्थाओं के काम असंभव हो गए हैं। मुझे अनेक विधि-विधानों की छूट दी गई। उन्होंने मुझसे पूछा कि मैं काम करने के लिए तैयार हूँ या नहीं। समय-समय पर जो आदेश मुझे दिए जाएँगे उन्हें मुझे मानना पड़ेगा और मुझसे यह भी कहा गया कि यदि आवश्यकता हो तो 'संस्था' के लिए मुझे अपने प्राण भी देने पड़ेंगे। इसके पश्चात् उन्होंने मुझे घुटने टेकने के लिए कहा। मैंने घुटने टेके। उन्होंने अपने म्यान से एक खंजर निकालकर उस शपथ को पढ़ना आरंभ किया जो प्रथम श्रेणी के नूतन दीक्षा लेनेवालों को दी जाती है। मैं उसी के अनुसार उस शपथ का उच्चारण करता गया। इसके पश्चात् उन्होंने दो-तीन चिह्न सदस्यों को पहचानने के लिए बताकर मुझे छुट्टी दे दी। मैं कारबोनरी बन गया।
वहाँ से निकलने के पश्चात् उस संस्था का उद्देश्य, लक्ष्य, कार्य, उसमें कौन लोग हैं, क्या काम करना है आदि प्रश्न उस मित्र से जो मेरी प्रतीक्षा कर रहा था, पूछते-पूछते मैं थक गया। परंतु सब व्यर्थ। हमारा कर्तव्य मुँह में ठेपी धरना, दिए हुए आदेशों का पालन करना और धीरे-धीरे योग्यता बढ़ाकर विश्वासपात्र बनना। मेरे मित्र ने आनंद मनाया कि सौभाग्यवश मैं नित्य नियम की बहुत सारी विधियों के कष्टों को टाल सका। मुझे तनिक मुसकराते हुए देखकर उसने जरा सख्ती से पूछा कि नित्य की तरह मेरी आँखों के सामने पिस्तौल भरकर वे मेरे कान उड़ा देने के लिए कहते तो मैं क्या करता? मैंने उत्तर दिया कि मैं ऐसा करने के लिए स्पष्ट मना करता। यह दीक्षा प्रदान करनेवाले सज्जन से मैं कहता कि एक तो उस पिस्तौल में कोई गहरा गड्ढा हो तो उसमें गोली गढ़ जाएगी और यदि ऐसा ही हो तो उस पिस्तौल का चलाना एक मखौल ही है। ऐसा करना हम दोनों के लिए अनुचित है अथवा यदि वह गोली सचमुच ही पिस्तौल से उड़ने योग्य हो तो मुझे। यह अत्यंत विचित्र प्रतीत होता है कि जिस व्यक्ति को अपने देश के लिए लड़ने की आज्ञा देनी है उसी से प्रथम ईश्वर उसके थोड़े प्रदत्त बहुत दिमाग पर वार करके उसे उड़ाने के लिए कहा जाए।
बहुत सोच-विचार करने पर मुझे उस शपथ के संबंध में अचंभा तथा अविश्वास लगने लगा। उसमें मात्र आज्ञाकारिता की प्रतिज्ञा के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं था। इसका कुछ उल्लेख तक नहीं कि अंतिम साध्य क्या है। राष्ट्रीय एकता अथवा एकजुट संस्था, जनसत्ता या राज्यसत्ता इसके संबंध में उस दीक्षा देनेवाले के मुख से एक शब्द भी नहीं निकला। सरकार के विरुद्ध लड़ाई, बस! इसके आगे और कुछ नहीं। संस्था के कोष की सहायतार्थ प्रत्येक सदस्य को जो चंदा राशि देनी पड़ती है, उसमें से दीक्षा ग्रहण के समय बीस फ्रंक (लगभग बारह-तेरह रुपए) तथा आगे प्रतिमास चार फ्रंक देना होता। इस प्रकार का नियम था। मेरे जैसे छात्र के लिए यह रकम भरना बहुत कठिन होता। तथापि यह अच्छी बात थी। बुरे काम के लिए जब धन इकट्ठा किया जाता है तब वह पापकारी होता है। परंतु किसी पवित्र कृत्य की सहायतार्थ संभव होते हुए भी पैसे देने से हाथ खींचना अधिक पापकारक है।
आज की स्थिति में स्वार्थ परायणता एक ऐसी दु:खमयी विधा है जो सर्वत्र दिखाई देती है तथा जिसके हम आदी बन चुके हैं-एक फ्रंक की खातिर भी लोग आनाकानी करेंगे; स्वार्थ के लिए, अपने सुख के लिए और वह सुख भी प्रायः वास्तविक नहीं काल्पनिक ही होता है। जो लोग लाखों रुपए उड़ाने के लिए एक पैर पर खड़े रहते हैं और समय आने पर जिन्हें स्वदेश की स्वतंत्रता के लिए लह के सिक्के गिराना आवश्यक है, वही लोग यह रोना रोएँगे कि बार-बार द्रव्य त्याग करना पड़ रहा है। अपने मन, अपने जीवन तथा अपने बांधवों की आत्मा को कलंक भी क्यों न लगे, उन्हें स्वीकार है, परंतु अपने बटुवे का मुँह ढीला नहीं करेंगे।
प्राचीन ईसाई लोग अपने दीन-दुखी बांधवों के कल्याणार्थ अपने पेट के लिए आवश्यक धन रखकर शेष सारी संपत्ति अपने धर्माध्यक्ष के चरणों पर अर्पण करते। अपने राष्ट्र को परकीयों के कब्जे से छुड़ाकर स्वतंत्र करने के लिए दो करोड़ पचास लाख लोगों में यदि ऐसे दस लाख भी निकले कि प्रत्येक एक फ्रंक देगा तो समझ लीजिए कि वह अत्यंत प्रचंड मनोराज्य ही फलित हो गया। उस पहले वर्ग में निष्ठा थी, अब हम लोगों में केवल मत है। इसके पश्चात् मुझे कारबोनरी मंडली की दूसरी श्रेणी की दीक्षा दी गई। अब मुझे दूसरों को दीक्षा देने का अधिकार प्राप्त हो गया। दो-तीन कारबोनरी मंडली से मेरा परिचय हो गया। मंडली में एक ऐसे सज्जन से मेरा परिचय हुआ जिसका नाम पॅसानो था और वह एक ऊँचे ओहदे पर था, पहले फ्रेंच कौंसिल के ओहदे पर था। वृद्ध होने पर भी उसमें हिम्मत तथा स्वाभिमान ज्यों-का-त्यों था। परंतु उस संस्था के अंतिम उद्देश्य की सिद्धि के लिए धीरज से एवं युक्तियुक्त प्रयास करने के बदले वह छोटे-मोटे राजनीतिक षड्यंत्रों में ही अपना समय नष्ट कर रहा था। मुझे तो यह भी पता नहीं था कि वे क्या कर रहे थे अथवा उनका क्या कार्यक्रम है। मुझे संदेह हो गया कि प्रायः कुछ भी नहीं किया जा रहा है।
वे हमेशा कहते-'इटली देश की सारी कार्यशक्ति नष्ट हो चुकी है। हम 'वसुधैव कुटुंबकम्' श्रेणी के हैं। 'वसुधैव कुटुंबकम्' शब्द अत्यंत मधुर है, परंतु यदि उसका अर्थ संपूर्ण विश्व की स्वतंत्रता हो तभी। परंतु प्रत्येक उन्नयन दंड के लिए एक उपस्तंभ लगता है, मैं इटली में उस उपस्तंभ को ढूँढ़ रहा था और ये कारबोनरी मंडली के लोग उसकी खोज के लिए पेरिस की ओर भागने लगे थे।'
मुझे स्मरण नहीं किसे, पर फ्रेंच भाषा में एक लेख लिखकर भेजने का मुझे आदेश हो गया। इस लेख में स्पेन की स्वाधीनता का समर्थन करते हुए सन् १८२३ के बर्बोन बिचौली की अवैधता तथा उसके दुष्परिणाम उजागर करने थे। मैंने लेख लिखकर दे दिया। इस कार्य के पश्चात् मैं प्राप्त अधिकार का उपयोग करने लगा। मैं छात्र वर्ग को तैयार करने में जुट गया। मेरी योजना थी कि आज नहीं तो कल, हम अपने संपूर्ण वोटों के सदस्यों का सशक्त संघ बनाकर कारबोनरी मंडली की निर्जीव बन रही संस्था में नवचेतना उत्पन्न कर सकेंगे।
अंत में फ्रांस में क्रांति के चिह्न स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होने पर हमारी मंडली में थोड़ा-थोड़ा आंदोलन आरंभ हो गया। मुझे टस्कनी में कारबोनरी की स्थापना करने के लिए भेजना निश्चित किया गया। उसके विचार से अधिक मेरी शक्ति की तुलना में यह कार्य अधिक कठिन था। अपने पारिवारिक संस्कार मुझे इस कार्य के लिए प्रवृत्त नहीं करना चाहते थे। इस कार्यसिद्धि के लिए आवश्यक पैसा प्राप्त होना सर्वथा असंभव था। परंतु खूब सोच-विचार के पश्चात् मैंने उस कार्य को स्वीकार करने का निश्चिय किया। अरेंजानो गाँव में मेरे परिवार का परिचित एक छात्र रहता था। मैंने उससे मिलने का बहाना बनाया तथा अन्य सैकड़ों तिकड़म लगाकर अपनी सत्त्वशील माँ से थोड़े पैसे लिये और घर से निकल पड़ा।
निकलने से एक दिन पहले किसी निश्चित स्थल पर मध्य रात्रि के समय में उपस्थित रहूँ इस प्रकार मुझे आदेश दिया गया। मैं यह बात हेतुपूर्वक कह रहा हूँ ताकि यह स्पष्ट हो कि कारबोनरिजम कितनी निम्न स्थिति तक पहुँच चुका था। मैं वहाँ गया। प्रायः वे सारे युवक भी वहाँ इकट्ठे हो गए थे, जिन्हें मैंने दीक्षा दी थी। उन्हें भी मेरी तरह बताया नहीं गया था कि किसलिए वहाँ इकट्ठा होना है। बहुत समय तक हम वहाँ रुके रहे। फिर डोरिया दो सज्जनों के साथ, जिनसे हम अपरिचित थे, वहाँ आ गया। उन दोनों की केवल आँखें खुली थीं, शेष सारा शरीर ढका हुआ था। किसी भूत-पिशाच के समान वे नि:शब्द खड़े रहे। यह देखकर और यह सोचते हुए हम उल्लसित हो गए कि कुछ-न-कुछ करने का समय आ गया है।
हम सभी एक घेरे में खड़े थे कि डोरिया ने मुझे संबोधित किया। कारबोनरी संस्था के विरोध में कुछ अनुभवी मूर्ख युवकों के निंदा करने के अपराध संबंधी विवरण देकर उन अवगुंठनधारी व्यक्तियों का निर्देश करते हुए उसने कहा, 'कल हम बोलोग्ना में नेताओं के विरोध में निंदा करनेवाले सदस्य की हत्या करने जा रहे हैं, क्योंकि संस्था के नियम के अनुसार यदि कोई उसकी सत्ता के विरोध में विद्रोह करने लगे तो उसी क्षण उसका सर्वनाश करना है।' मैंने उस संस्था के विरोध में जो शिकायतें की थीं और जिन्होंने आवश्यकता से अधिक आस्था का प्रदर्शन करते हुए उन्हें सूचित की होंगी, उन्हें अनुलक्षित करते हुए यह उत्तर दिया। मुझे आज भी स्मरण है कि उस मूर्खतापूर्ण गीदड़ भभकी से किस तरह मेरे तन-बदन में आग लग गई थी। क्रोधावेश में मैंने संदेश भेजा कि मैं टस्कनी नहीं जाऊँगा और सूचित किया कि इसके लिए संस्था मेरा जो भी करना चाहे करे।
परंतु तनिक शांत होने पर मेरे मित्रों ने मेरे कान खींचे कि इस प्रकार मैं अपने व्यक्तिगत अपमान की खातिर अनजाने में देश कार्य की बलि चढ़ा रहा हूँ। मेरा मन पलटा और अपने परिवार के विश्वासार्थ एक पत्र देकर मैं टस्कनी की ओर चल पड़ा।
लेगहॉर्न जाने पर मैंने एक शाखा खोली और टस्कनी के काफी लोगों तथा कुछ अन्य प्रांतीय लोगों को उसमें शामिल होने के लिए राजी किया। इन्हीं में मार्लियानी भी था जो ऑस्ट्रिया से बोलोग्ना की रक्षा करते-करते रणभूमि में धराशायी हो गया था। शेष कार्य मैंने कार्लोविनी नामक युवक को सौंपा। उसका पवित्र, उदात्त व्यवहार अंत तक कायम रहा। उसकी बुद्धि विलक्षण थी; परंत व्यवसाय में उलझने के कारण उस बुद्धि का उचित विकास नहीं हुआ। यद्यपि सिद्धांत से संबंधित उसके मन में रत्ती भर आशंका नहीं थी तथापि समकालीन लोग और परिस्थितियों की संदेही वृत्ति से उसमें सुस्ती बढ़ती गई और केवल कुछ ही प्रसंगों में उस बुद्धि का प्रभाव दिखाई दिया। अलौकिक नीतिमत्ता तथा विलक्षण स्वार्थ त्याग-ये उसके प्राकृतिक सद्गुण थे। मेरे साथ बात करते-करते कारबोनरिज्म के विधि निषेध के संबंध में वह तिरस्कार व्यक्त करता। परंतु मेरी तरह उसका भी यही मत था कि कार्य सफल होने के लिए सभी का किसी-न-किसी मार्ग से, परंतु किसी सुचारु रूप से एकीकरण करना अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। हम दोनों साथ-साथ मांट्रेयल शिआमो गए। इस स्थान पर ग्यूएराजी कारागृह में था। इस देशभक्त ने कासिमो नामक एक इटालियन शूर सिपाही की स्तुति पर कुछ कविताएँ की थीं। इसी अपराधवश उसे बंदी बनाया गया था। हमें अपनी प्रस्तुत स्त्रैण प्रवृत्ति से मुक्ति हो ऐसा कोई भी प्रयास करने से तत्कालीन दो कौड़ी की सरकार कितनी भयभीत होती थी, यह इससे सिद्ध होता है। यदि इतिहास ही नष्ट करने की शक्ति उनमें होती तो वे वह भी करते।
मैं ग्यूएराजी से मिला। उसने अपने किसी अधूरे ग्रंथ का पूर्वार्ध हमें पढ़कर दिखाया। पढ़ते-पढ़ते आवेश के कारण उसका चेहरा इतना तमतमाकर लाल पड़ गया कि शीतलता के लिए उसने अपने सिर पर शीतल जल डाला। उसे अपने आप पर गर्व था, परंतु अपने देश के प्रति भी उसके मन में तीव्र आस्था थी। उसे अपने देश की अतीत की महानता तथा भविष्य काल में इटली का भाग्योदय होगा इसपर अत्यंत अभिमान एवं प्रसन्नता होती थी।
ग्यूएराजी जब अपने उस लेख का सर्वोत्कृष्ट तथा इटली के प्रत्येक युवक को याद उपर्युक्त अंश पढ़ रहा था तब कार्लोविनी का अंत:करण उमड़ने लगा और वह उस ग्रंथकार का मुख ऐसे ताकने लगा जैसे कोई माता देखती है। उसके दुःख के विचारों में वह खो गया। कार्लोविनी की दृष्टि में जो चमक तथा प्रेम छलक रहा था वह मैंने ग्यूएराजी में नहीं देखा।
उस समय ग्यूजाट और कुसिन की दर्शन विषयक लेखमाला कभी-कभा प्रकाशित होती थी। इस लेख में नए से प्रसारित प्रगति तत्त्व का अनुवाद होता था। विश्व का यह प्रगमन सिद्धांत मैंने दांते की 'डेलामानर्किया' पुस्तक से पढ़ा था। यह प्रगमन का, विश्व की उत्क्रांति का नियम ईश्वर ने प्राणिमात्र के लिए किया है। उस नियम को ठीक समझकर उसी के अनुसार व्यवहार करते रहने से आज नहीं तो कल, वह ऐश्वर्य संपन्न भविष्य प्राप्त होना ही चाहिए, इस मुद्दे पर मैंने ग्यूएराजी से संवाद किया और बड़े उत्साह के साथ उस लेखमाला की हार्दिक प्रशंसा की।
ग्यूएराजी तनिक मुसकराया। इस मुसकराहट में कुछ दुःख तथा कुछ व्यग्य भी गर्भित था। उस अधिकारी बुद्धि पर भविष्य में जो बीतने वाला था उसकी सूचना मानो उसी समय ज्ञात होने से उसके मुसकराने का मुझे दुःख हुआ। मुझे इतना दुःख हुआ कि मैं जिस कार्य के लिए आया था उसे कार्लोविनी को सौंपकर उलटे पाँव वापस लौटा। तथापि सौभाग्यवश उसमें स्थित महान् शक्ति एवं उसके महानुभावत्व की मैंने भूरि-भूरि प्रशंसा की और उसके स्वाभिमान ने मुझे विश्वास दिलाया कि भविष्य में उससे नीच कृत्य नहीं होंगे। उस समय से हमारी गाढ़ी छनने लगी। परंतु आगे चलकर हमारी मित्रता टूटने वाली थी और इसमें मेरा कोई दोष नहीं था।
मैं जिनेवा लौटा तो मैंने देखा बड़े अधिकारियों में बड़ी अनबन हो गई है। यह तय हो गया था कि डोरिया को मैं अपने कार्य का ब्योरा सूचित न करूँ और वह तुरंत ही कुछ दिनों के लिए शहर छोड़ दे-इस तरह न जाने किस अपराध के लिए उसे दंड दिया गया। एक दिन मैं अपनी माँ से मिलने एक निकटवर्ती गाँव में जा रहा था कि डोरिया मिला। कह नहीं सकता, इतने सवेरे वह कहाँ से आया। परंतु गुस्से से तमतमाकर वह कारबोनरी और उसके नए सदस्यों को सबक सिखाने का निश्चय कर रहा था।
सन् १८३० में फ्रांसीसियों ने आक्रमण किया। हमारे नेताओं ने कुछ गतिविधियाँ आरंभ की, परंतु उद्दिष्ट कुछ भी तय नहीं हुआ था। क्योंकि उन्हें लुई फिलिप से स्वतंत्रता मिलनेवाली थी।
हम सारे युवकों ने गोलियाँ बनाना आरंभ किया। हमारी कल्पना के अनुसार युद्ध शीघ्र ही आरंभ होनेवाला था और उसमें एक बड़ा परिणाम होना तय ही था। प्रसन्नता में हम सारी तैयारियाँ करने लगे।
निश्चित दिवस का मुझे स्मरण नहीं, परंतु पेरिस के वे प्रख्यात दिन बीतने पर शीघ्र ही मुझे एक आदेश मिला कि एक उपहारगृह में एक निश्चित समय पर मैं जाऊँ जहाँ मुझे एक व्यक्ति मिलेगा जिसका नाम मेजर कॉटिन होगा। उसे पहले ही कारबोनरी की प्रथम श्रेणी में लिया गया था। मुझे उसे दूसरी श्रेणी की दीक्षा देने को कहा गया था।
हमारे नेता लोग हम युवकों से एक निर्जीव मशीन की तरह व्यवहार करते। यह पछना व्यर्थ था कि इस मेजर कॉटिन से परिचित किसी व्यक्ति की नियुक्ति करने के बदले मेरी नियुक्ति क्यों की गई। मैंने चुपचाप इस काम को स्वीकार किया। परंतु जाने से पहले, न जाने किस प्रेरणा से मैंने रफिनी बंधुद्वय के साथ पर व्यवहार करने की व्यवस्था की। मेरी माँ से उनका घनिष्ठ परिचय था, अत: यह कि उन्हें जेल जाना पड़ा तो घर के पत्र में ही वे मुझे सूचित करें। इस दूरदर्शिता का आगे चलकर बहुत लाभ हो गया।
मैं निश्चित समय पर उस सराय गृह में गया। वहाँ एक कमरे में मैंने पॅसानो को देखा; परंतु उसने मुझे न पहचानने का बहाना बनाया। मैंने पूछा-कॉटिन कहाँ है? मुझे वह दिखाया गया। छोटी कद-काठी, चंचल दृष्टि। उसे देखकर मुझे कुछ अधिक अच्छा नहीं लगा। उसने निश्चित किया हुआ वेश धारण नहीं किया था। वह फ्रेंच भाषा बोल रहा था। नित्य के संकेतों द्वारा यह जताते हुए कि मैं तुम्हारा सगा भाई हूँ। उसने कहा, 'मेरी भेंट का उद्देश्य आपको ज्ञात ही होगा।'
इसके पश्चात् वह मुझे अपने कमरे में ले गया और घुटने टेककर मेरे सामने खड़ा रहा। मैंने अपने हाथ में पकड़ी म्यान से तलवार निकालकर रीति के अनुसार शपथ पढ़ना आरंभ किया ही था इतने में उसके कमरे की दीवार की एक छोटी सी खिड़की धड़ाम से खुल गई और एक अपरिचित व्यक्ति वहाँ आकर खड़ा हो गया।
कॉटिन ने कहा, 'आपको असमंजस में पड़ने की आवश्यकता नहीं है। वह मेरा अत्यंत विश्वसनीय सेवक है। मैं यह खिड़की बंद करना भूल गया, इसलिए मैं क्षमाप्रार्थी हूँ।' मैंने उसे दीक्षा दी। वह कहने लगा, 'कुछ ही दिनों में मैं नाइस जाने के पश्चात् लश्करी लोगों में बहुत कुछ काम कर सकता हूँ। परंतु मेरी स्मरणशक्ति तीव्र न होने के कारण शपथ का प्रारूप यदि आप लिख देंगे तो अच्छा होगा।'
मैंने कहा, 'ऐसी बातें मैं कभी लिखकर नहीं देता। परंतु चाहें तो जैसे मैं बताऊँगा आप लिख लीजिए।'
मैं उसे शपथ बताता गया और उसने लिख लिया। फिर भी यह सारी घटना ठीक नहीं, मन-ही-मन यही कहते हुए मैं वापस जाने के लिए निकला।
बाद में पता चला कि वह अपरिचित व्यक्ति गुप्त पुलिस था। थोड़े ही दिनों बाद मैं पकड़ा गया।
जिस समय मैं पकड़ा गया उस समय मैं घर से बाहर निकल रहा था और मेरे पास इतना सामान था कि मुझपर तीन तरह के आरोप लगाए जा सकते थे। रायफल की गोलियाँ, कारबोनरी का आँकड़ों में लिखा पत्र, जुलाई के दिनों का छपी हुई खबर, कारबोनरी की दूसरी श्रेणी की शपथ का प्रारूप तथा हाथ में पकड़ी तलवार की लाठी। परंतु मैं इन सारी वस्तुओं को गायब करने में सफल हो गया। वे पुलिसवाले अत्याचार करना चाहते तो थे परंतु नीरे बछिया के ताऊ थे। हमारे घर की बारीकी से तलाशी लेने पर भी उसमें ऐसा कुछ भी आपत्तिजनक नहीं मिला।
पुलिसवाले मुझे अपनी बैरक में ले गए। वहाँ एक बुजुर्ग कमिश्नर ने पूछताछ शुरू की। उसने मुझसे सभी तरह के सैकड़ों प्रश्न पूछे। वह मेरी परीक्षा लेना चाहता था। अंत में मेरी चुप्पी से तंग आकर और क्रोध से लाल-पीला होकर और यह सुचित करके मेरा भांडा फूट गया है, मुझे डराने का प्रयास करने के लिए उसने मुझसे कहा कि मैंने अमुक स्थान पर मेजर कॉटिन को कारबोनरी मंडल की दूसरी श्रेणी की दीक्षा दी।
यह सुनते ही मैं तनिक सिटपिटाया, परंतु संयत होकर मैंने जोर से उत्तर दिया कि रचे हुए षड्यंत्र को झुठलाने में क्या तुक है? उस मेजर कॉटिन को मेरे सामने लाया जाए। मेजर कॉटिन को कभी भी मेरे सामने नहीं लाया गया। क्योंकि वह विश्वासघाती कृत्य करने का प्रस्ताव करते समय ही उन्होंने तय किया था कि पूछताछ के समय उसे सामने न लाया जाए।
कुछ दिन मैंने उस बैरक में ही बिताए। वहाँ के सिपाहियों द्वारा गालिया तथा खिल्ली उड़ाने का काम सतत चल रहा था। उनमें से जिसने अधिक पुस्तकें पढ़ी थीं वह मुझे जाकापो का नया संस्करण दिखाता रहता। मुझे अपने मित्रों से पत्र व्यवहार करने का एक विलक्षण अवसर मिला। पेंसिल से अपने कपड़ों पर लिखता और धोने के लिए उन्हें घर भेजता। ऐसे साधनों द्वारा ही मैंने टस्कनी के अपने संस्था बंधुओं को कुछ खतरनाक कागजात नष्ट करने के लिए सूचित किया। मुझे बाद में पता चला कि जब मैं पकड़ा गया उसी समय और भी बहुतों को पकड़ा गया था। परंतु मेरे द्वारा उनमें दीक्षा लेनेवाला कोई नहीं था।
मेरे पिताजी जिनेवा की यूनिवर्सिटी में शारीरिक विज्ञान के प्रोफेसर थे। वे जब उस शहर के गवर्नर के पास जाकर मुझे पकड़ने का कारण पूछ रहे थे तब उनसे कहा गया कि आपके बेटे को रात-बेरात दुःखपूर्ण विचारों में खोकर शहर के आस-पास अकेले घूमने का चस्का लगा है। इस उम्र में इतना विचार किस बात का करता है वह ? ऐसे नवयुवक और ऐसे लोग जो विचारों में मग्न रहते हैं, जिन्हें हम जानते नहीं, हमें अच्छे नहीं लगते।
एक दिन रात्रि के समय कुछ सिपाहियों ने मुझे जगाया और झट से उठकर अपने पीछे-पीछे चलने के लिए कहा। प्रथमत: मैंने सोचा, पुनः किसी पूछताछ के लिए मुझे लेकर जा रहे हैं। परंतु जब उन्होंने मुझसे अपना कुरता आदि लेने के लिए कहा तब मैंने समझ लिया कि मुझे बैरक से निकालकर कहीं अन्यत्र ले जा रहे हैं। मैंने उनसे पूछा कि वे मुझे कहाँ ले जा रहे हैं? उन्होंने उत्तर दिया, 'हमें वह बताने की अनुमति नहीं है।' मुझे अपनी माँ की चिंता होने लगी। मैंने सोचा, यदि मैं यहाँ से अचानक गायब हो गया और दूसरे दिन उसे इसका पता चला तो उसे कुछ विपरीत संदेह हुए बिना नहीं रहेगा। आखिर मैंने उनसे स्पष्ट शब्दों में कहा कि मुझे अपने घर पत्र भेजने की अनुमति मिले बिना मैं एक पग भी आगे नहीं बढ़ाऊँगा। जबरदस्ती मुझे ले जाया गया तो विवश हूँ। हाँ-ना करते-करते उनके अधिकारियों ने कुछ मंत्रणा करने के बाद अनुमति दी।
मैंने पत्र लिखकर माँ को सूचित किया कि मैंने बैरक छोड़ दी है, लेकिन घबराने की कोई बात नहीं। फिर मैं उनके पीछे चला गया। द्वार के पास मुझे ले जाने के लिए एक पेटीनुमा सवारी खड़ी थी। मेरे उसमें सवार होते ही वह बंद कर दिया गया। सवारी के चलते ही मुझे घोड़ों की आवाज सुनाई दी। मैंने तभी भाँप लिया कि यात्रा बहुत लंबी है। इतने में मैंने अपने पिताजी के शब्द सुने, वे मुझे धीरज बँधा रहे थे।
मेरी समझ में नहीं आया, उन्हें मेरी इस यात्रा की वार्ता का कैसे पता चला। मुझे इस बात का पता नहीं था कि वह स्थल अथवा वह समय क्या था। परंतु उन अधिकारियों की पशु तुल्य बर्बरता का मुझे आज भी स्मरण है। उन्होंने मेरे पिताजी को धत्ता बताने का बहुत प्रयास किया। मुझे उस पेटी से उस गाड़ी में झट से ढकेलकर मेरे पिता का हाथ प्रेम से दबाने का अवसर भी उन्होंने मुझे नहीं दिया। यह पहचानने के लिए कि पास में खड़ा हुड़काया जैसे लगनेवाला यह व्यक्ति कौन है, वे उसपर टूट पड़े। यह व्यक्ति अगॉस्टिनी रफिनी था। इस रफिनी परिवार से मैं सगे भाई की तरह प्रेम करता था। अगॉस्टिनी अक्षय कीर्ति को पीछे छोड़कर कुछ वर्ष पूर्व चल बसा। ऐसा नहीं कि उसकी कीर्ति केवल इटालियन लोगों में ही है। निर्वासित होने पर स्कॉटलैंड में रहते समय उसका सद्गुणी स्वभाव, बुद्धि गंभीरता तथा निष्कलंक प्रामाणिकता की प्रशंसा के पुल स्कोच लोग आज भी बाँध रहे हैं। अगॉस्टिनी रफिनी सिगार मुँह में दबाकर दूर खड़ा रहा और उसने वहीं से सिर हिलाकर मुझसे विदा ली।
अब हम सेंट अंड्रिया की जेल के निकट आ गए। वहाँ पहुँचते ही एक व्यक्ति को, जिसकी आँखें छोड़कर पूरा शरीर कपड़े में लिपटा हुआ था, हमारी गाड़ी में लूंसा गया। उसके पीछे हाथ में एक-एक बंदूक लिये दो सिपाही अंदर चढ़कर बैठ गए। वह पहला मनुष्य बंदी था और वह पॅसानो ही था और उन दो सिपाहियों में से एक उस होटल का अपरिचित गुप्तचर था। हमें तुरंत सॅवॉनो के किले पर लाया गया। मेरा जाना अचानक होने के कारण मेरे लिए जेल में कोठरी आरक्षित नहीं रखी गई थी। एक अत्यंत अँधेरे मार्ग में ही मुझे बैठाया गया। इसके पश्चात् सत्तर-बहत्तर वर्षीय एक वृद्ध, जो वहाँ का गवर्नर था, मेरे पास आया। खूनी तथा अपराधी लोगों में ही तथा सभा-सेमीनारों में मैंने सैकड़ों रातें व्यर्थ खर्च की आदि विषयों पर एक लंबा-चौड़ा भाषण देकर उसने कहा कि उस किले में मुझे बड़ी शांति मिलेगी। जाते-जाते मैंने उससे सिगरेट के एक टुकड़े के बारे में पूछा तो उसने कहा, 'मैं जिनेवा के अधिकारी को लिखकर पूछता हूँ कि सिगरेट देने की अनुमति है या नहीं।' आखिर की इस छोटी सी बात से उसके जाते ही मेरी आँखें भर आईं। जेल में आने के पश्चात् ये मेरे पहले ही अश्रु थे। मैं जिन अधमों से अत्यंत घृणा करता हूँ उनके ही चंगुल में पूर्णतया फँस गया हूँ इससे संबंधित आवेशपूर्ण आँसू थे वे।
एक घंटे के पश्चात् मुझे अपने काजी हाउस में लाया गया। उस किले में वह कमरा सबसे ऊपरी मंजिल पर था। वहाँ से सागर दिखाई देता था। बस उससे ही मेरे मन को तुष्टि मिलती। वह सागर और वह आकाश अनंतता के मूर्तिमंत स्वरूप । विश्व की उदात्तम वस्तुएँ। जब-जब मैं उस छोटी सी खिड़की की सलाखों की ओर मुड़ता तब-तब ये दोनों मेरे सामने रहते। नीचे की भूमि पर मेरी दृष्टि नहीं पहुँचती। परंतु हवा जब मेरी दिशा में बहने लगती तब मच्छीमारों के कुछ शब्द मुझे सुनाई देते।
पहले महीने में मुझे एक भी पुस्तक पढ़ने के लिए नहीं मिली। परंतु मेरे सौभाग्य से जो दूसरा गर्वनर आया उसने मुझे बायरन, टॅसिटस तथा बाइबिल-ये तीन पुस्तकें दीं। उस जेल में भी मुझे एक मित्र मिल गया था। अल्हड़ और दुलारा सा वह नन्हा सा पखेरू प्रतिदिन मेरी कोठरी में आता। मैं उससे बहुत प्रेम करता था। मनुष्यों से मेरा संपर्क देखा जाए तो मेरा दयालु जेलर, दिन का पहरेदार जो दिन में केवल एक ही बार कैदी ठीक है या नहीं, यह देखने के लिए कमरे में झाँकता और एक वृद्धा, जो मेरी थाली परोसकर लाती-बस इतने ही। वह जेलर गंभीरतापूर्वक प्रतिदिन मुझसे यही प्रश्न पूछता, 'कुछ हुक्म है?' और मैं भी उसे यही उत्तर देता. 'जी हाँ, मुझे जिनेवा जाने के लिए एक गाड़ी चाहिए।'
ऐसा नहीं कि फांटोना जेल के नए अधिकारी में इटालियनों की योग्यता नहीं थी। परंतु उसे पूरा विश्वास हो गया था कि कारबोनरी मंडली का उद्देश्य लूटपाट, धर्मच्छेद, भरे बाजार खूनखराबा करना आदि के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। मेरे जैसे युवक के हाथों ऐसी गलतियाँ होती हैं, उससे दु:खी होकर वह अपनी मर्यादा के बाहर जाकर भी मुझे सन्मार्ग पर लाने के लिए अपने घर कॉफी पीने बुलाता।
इसी बीच जिनेवा स्थित अपने मित्रों की सहायता से मैंने कारबोनरी मंडली में नया तेज लाने का भरसक प्रयास किया। प्रति दस दिनों के पश्चात् अपनी माँ का पत्र मुझे मिलता। जो खुला हुआ होता और जिसकी अधिकारियों द्वारा छानबीन होती। वहाँ प्रथा यह थी कि इस पत्र का उत्तर मैं उन अधिकारियों के सामने ही लिखू और उसे लिफाफे में बंद न करते हुए उनके हाथ में दे दूं। परंतु उनके इस कड़े बंदोबस्त के बावजूद अपने मित्रों से पहले ही निश्चित की हुई गुप्त रीति से पत्र व्यवहार करने में मुझे कोई कठिनाई नहीं होती। वह रीति इस प्रकार होती कि पत्र में जो वाक्य लिखने होते उनकी रचना ऐसी की जाती कि एक छोड़कर एक शब्द का अद्याक्षर लेते रहने से मुख्य मुद्दे का मजमून लिखा जाए। इसमें भी विशेष सावधानी यह होती कि उन अद्याक्षरों को जोड़कर तैयार किए गए वाक्य लैटिन भाषा में होते। मेरी माँ की पहली पंक्तियाँ इसी कारणवश मेरे मित्रों द्वारा लिखी गई होतीं। उत्तर लिखने के लिए वाक्यों को जुड़ाई करके उन्हें कंठस्थ करने के लिए मुझे भरपूर अवकाश होता।
इस प्रकार अपने मित्रों का मार्गदर्शन करने की युक्ति मैंने ढूँढ़ निकाली। मैंने अपने परिचित बहुसंख्य कारबोनरी मंडली से मिलने की उनसे प्रार्थना की। परंतु उन मंडलियों में से प्रायः सभी भयभीत हो जाने से मेरे मित्रों से मिलने अथवा उनके विचार सुनने का साहस वे नहीं कर रहे थे। तिसपर चतुराई से मुझे पोलिश लोगों के आक्रमण की वार्ता का पता चला। यह वार्ता सुनते ही यौवन सुलभ उच्छृखलता के साथ मैंने उसे झुठलाने के लिए वह वार्ता सुनाई, क्योंकि कलपरसों ही उसने मुझे कहा था कि यूरोप में संपूर्ण शांति है। मेरे विचार से उसे विश्वास हुआ होगा कि हम लोगों में कुछ भूत-प्रेतों की शक्ति समाई हुई है।
इस प्रसंग में कारबोनरी संस्था की मूर्खतापूर्ण भीरुता का प्रदर्शन, उन लोगों के विश्वास अथवा निष्ठा से रत्ती भर भी परिचय न होने के कारण बहुत कुछ सोचने के पश्चात् कि इसके अटल परिणाम क्या होंगे और मेरे द्वारा इसका किया गया अनुमान तथा एक दिन जेल के गलियारे में पिसानो को यह कहकर कि 'मेरे पास पत्र व्यवहार के साधन हैं, आप चाहें तो नाम बताएँ-मेरे सर पर हाथ रखकर' न जाने कौन सा एक महान् अधिकार तथा एक उच्चतम श्रेणी की दीक्षा भी अर्पण करने का हास्यास्पद प्रसंग-इन सभी बातों से मुझे विश्वास हो गया कि वही सत्य है जो मैंने कुछ महीनों पूर्व सोचा था। कारबोनरिज्म एक मृत संस्था है और किसी शव में पुन: चेतना भरने के प्रयास में काल और शक्ति का व्यर्थ अपव्यय करने के प्रयास की अपेक्षा यदि हम स्वयं ही सजीव व्यक्तियों को संबोधित करने लगें तथा नई इमारत खड़ी करने का प्रयास करें तो बहुत अच्छा होगा।
एतदर्थ इन जेल के दिनों में मैंने 'युवा इटली' की संभावनाओं पर सोचा। उस पंथ की रचना कौन से सिद्धांतों पर हो, उसका सारा श्रम प्रयोजन क्या होना चाहिए, उद्दिष्ट कैसा हो-मैंने यह सब स्पष्टतः प्रकाशित करने का निश्चय किया था। उसकी रचना पद्धति कैसी हो, उसे उभारने के लिए किस वक्ता से सहायता ली जाए; प्रस्तुत काल में यूरोप अस्तित्ववान क्रांतिकारी पक्ष से साँठगाँठ करने की संभावना है या नहीं-इन सभी मुद्दों पर मैं गहराई से सोचने लगा।
हमारी संस्था की छोटी-कच्ची उम्र, पैसे की शक्ति नहीं, जनता में भारी वजन नहीं ऐसी स्थिति थी; परंतु मेरे विचार से मुख्य कार्य इटली के मनोविकारों एवं मनोवृत्तियों को जाग्रत् करना था। इटली का अंत:करण स्तब्ध था, तथापि इतिहास तथा भविष्य के आकलन से अंत:करण की ये प्रवृत्तियाँ सहजतापूर्वक दृग्गोचर होनेवाली थीं। उस मनोवृत्ति का, उन मनोविकारों का ज्ञान प्राप्त करने में ही हमारी सारी शक्ति समाई हुई थी।
सभी महान् राष्ट्रकार्य जनता पक्ष के नेताओं ने शुरू किए हैं। उन नेताओं का सारा बल और सामर्थ्य उनकी इच्छाशक्ति व निष्ठाशक्ति में होता है। ये शक्तियाँ कठिनाइयों की परवाह नहीं करतीं, न ही दिन गिनते हुए हाथ पर हाथ धरे बैठी रहती हैं। श्रीमान तथा प्रतिष्ठित लोग हमेशा ही बाद में मिलते हैं और लोकपक्ष द्वारा आरंभ किए हुए कार्य की सहायतार्थ उसे स्थगित करके आगे ढकेलने के लिए अथवा प्रायः उस कार्य का मुख्य उद्दिष्ट छोड़कर उसे विपरीत दिशा की ओर ले जाने का प्रयास करते हैं।
इतिहास तथा समाज रचना के गूढ़ अध्ययन से मैंने अपने पंथ का लक्ष्य राष्ट्रैक्य तथा जनसत्ता (Unity and Republic)-ये दो महासिद्धांत निश्चित करने के क्या-क्या वैचारिक प्रयास किए यह यहाँ कहने की आवश्यकता नहीं है। मेरी लेख-माला में प्रकाशित सभी लेख उसी विषय पर हैं। फिर भी मैं बस इतना ही कहता हूँ कि ऐसा नहीं कि मेरे मन में केवल राजनीतिक विचार ही थे अथवा ऐसे एकमात्र देश को-जिसे तहस-नहस किया गया है, नीचता तक पहुँचाया गया है और अत्याचार करके नीचे कुचला गया है-उबारने के लिए मैं प्रयास कर रहा था। मेरी सारी योजना की जड़ में एक ही विचार था, बस एक बार मेरी इटली स्वतंत्र होने दो। लेकिन संपूर्ण यूरोप में नई एकता एवं नवेचतना निर्माण करने के लिए किस अधिकार की आवश्यकता होती है आदि से संबंधित मेरे विचार और वह अधिकार इटली के पास कैसे आता है, इसका स्पष्टीकरण करने से संबंधित मेरी इच्छा अधूरी रही है। यदि मेरी प्रिय भूमि, मेरा इटली देश मेरी आँखों के सामने स्वतंत्र एवं एक हो गया, मेरे अधिकार के देश में किसी भी एक कोने में एकांत में एक वर्ष व्यतीत करना संभव हुआ तो मैं इस महत्त्वपूर्ण विषय पर अपने विचार ग्रंथित करूँगा।
खैर, उस समय इस विचार के धुंधले स्वरूप से भी मेरे अंत:करण में आशा का पूर्ण संचार हो गया। मेरे सामने वह आशा एक सितारा बनकर चमकने लगी। मुझे पुनरुज्जीवित इटली देश साकार दिखाई देने लगा और अतीत में मानवी समाज में दिए गए धर्मबोध से भी अत्यंत उदात्त, महत्तर प्रगमनात्मक तथा बंधुत्वात्मक धर्मोपदेश के शब्द मुझे सुनाई देने लगे।
रोम! रोम की पूजा ! रोम मुझे प्राणप्रिय था। विश्व को सन्मार्ग की ओर ले जाने का महान् अवसर रोम के अतिरिक्त दो बार और किसके भाग्य में आया है? वह रोम में जीवित और अमर है। उस रोम में मृत्यु को कोई नहीं पूछता। स्वतंत्रता की वल्ली तथा प्राकृतिक अधिकारों की औषधियाँ अखिल विश्व की सीमाओं में फैलाने के लिए रोम का गरुड़ पक्षी (रोम के ध्वज पर गरुड़ का चित्र) कितनेकितने प्रदेशों की सीमाएँ तोड़कर आया। पुनः एक बार सर्वत्र जब ऐसा प्रतीत हो रहा था कि रोम जीवित व्यक्तियों की कब्र है तब रोम हड़बड़ाकर जाग गया और पोप की अगवानी में उसने एकता तथा कर्तव्य के सिद्धांत विश्व भर में प्रसृत किए। पहला सीजर का रोम था और दूसरा पोप का रोम। उस जनसत्ता का जिसका उदय मुझे दिखाई देने लगा था, रोम पुनः एक बार तीसरा तथा अत्यंत महत्तम जगदैक्य करने के लिए क्यों नहीं आगे बढ़ेगा? पृथ्वी तथा स्वर्ग की, अधिकारों एवं कर्तव्य की एकतानता के लिए व्यक्तियों को नहीं अपितु जनता को एकजीविता का महामंत्र सिखाने, स्वतंत्र एवं समान मानवी जाति को इस जीवन के कार्य का ज्ञान देने के लिए रोम को आगे बढ़ना ही होगा।
जब मैं सँवोना की जेल की कोठरी में था तब वहाँ के अधिकारियों की सायंकालीन समस्याएँ और मुझे अपनी ओर करने के प्रयास इनके बीच के कालखंड में मेरे विचारों के कारण मुझे आजीवन घनचक्कर, भ्रमी तथा शेख चिल्ली कहा गया और ये आरोप इतने अत्याचारपूर्वक एवं तीव्रता से मुझपर लादे गए हैं कि ऐसे समय दुःख से गद्गद होकर जब तक निजी जीवन की लालसा मेरे मन में कायम थी तब तक मेरा मन सँवोना की उस कोठरी की ओर भागने लगता जहाँ ऊपर आकाश और नीचे सागर फैला हुआ है और जहाँ मनुष्य की हवा भी नहीं लगती।
यह तो भविष्य ही निश्चित करेगा कि मेरे विचार स्वप्नसृष्टि थी या भविष्यवाद। उस समय इन विचारों का परिणाम इस निश्चय में हुआ कि हम जो भी कार्य हाथ में लेंगे उसका केवल राजनीतिक होना ही पर्याप्त नहीं है। वह राजनीतिक तो होना ही चाहिए, परंतु उसे नैतिकता का समर्थन चाहिए। वह केवल विनाशकारी न हो अपितु उसे धर्मबल का आधार चाहिए। वह स्वार्थी प्रवृत्ति पर आधारित न हो, विशेष सिद्धांतों को सामने रखकर तथा कर्तव्य पर उसकी रचना होनी चाहिए।
मेरे यूनिवर्सिटी के कालखंड में प्रथम परकीयों के द्रव्यादित्व का प्रभाव मेरे मन पर था; परंतु इतिहास के अध्ययन और विवेक-बुद्धि की प्रेरणा से यही दो सत्य के लक्षण हैं-मेरी प्रवृत्ति पुनः लौट गई।
मेरी पूछताछ का कार्य ट्यूरिन के सीनेटर्स को सौंपा गया था। मेजर कॉटिन से, जिसे मैंने दीक्षा दी थी, पूछताछ करने में उसे आगे बढ़ाने का अनुबंध मैंने किया था, यह मैं पहले ही लिख चुका हूँ। अतः उसने गवाही दी कि उसने मुझे उस कमरे में तलवार निकालकर खड़ा देखा था। मैंने इसे साफ नकारा। ऐसी स्थिति में कुछ भी निश्चय करना असंभव होने से मुझे छोड़ दिया गया। मेरी संपूर्ण रिहाई होते ही मैं निर्विघ्न रूप से अपना कार्य आरंभ करता इसलिए सीनेट ने मुझे निर्दोष घोषित करते हुए छोड़ दिया, तथापि जिनेवा के गवर्नर को यह पसंद नहीं था। सारा शहर उस गवर्नर से घृणा करता था और वह भी लोगों से डटकर प्रतिशोध लेता था। परंतु इस पराजय से क्रुद्ध होकर तथा इस भय और मेरी निर्दोष मुक्ति से लोकनिंदा की सीमा नहीं रहेगी, उसने राजा के चरणों पर सिर रखकर बताया कि कुछ प्रमाण केवल वही जानता है और उसे रत्ती भर भी संदेह नहीं कि मैं भयंकर प्रवृत्ति का अपराधी हूँ। राजा का दया-सागर ठाठे मारने लगा। अपने गवर्नर का संकट दूर करने के लिए वह उस सीनेट के परिणाम को, मेरे. माता-पिता को भीतर-भीतर जलाती हुई चिंता को तथा मेरे व्यक्तिगत अधिकार को पैरों तले रौंदने के लिए तैयार हो गया। मेरे ऊपर जिनेवा और ट्यूरिन में अथवा लुंगोरियन के किनारे कहीं भी जाने पर पाबंदी लगाई गई। चाहे तो मैं मध्य प्रदेश स्थित किसी छोटे शहर में जाकर रहूँ अथवा बिना किसी समयावधि के तथा मेरे भावी आचरण पर राजा की कृपा पर निर्भर निर्वासन का दंड भुगतूं-इस तरह मेरे लिए आदेश आ गया। इस दंड की वार्ता मुझे पिताजी ने सूचित की। वे स्वयं सॅवोना आ गए। क्योंकि मेरे दंड में एक ऐसी भी धारा थी कि मैं अपने मातापिता के अतिरिक्त और किसी से न मिलूँ। अत: वे सॅवोना आ गए, ताकि जिनेवा की पुलिस के अत्याचार का सामना न करना पड़े।
इटली का मध्य प्रदेशीय विद्रोह मेरी मुक्ति होने से पहले सन् १८३१ में छिड़ गया था। परंतु जिनेवा आने के पश्चात् मुझे पता चला कि निर्वासन के दंड से सैकड़ों जन फ्रांस की सहायता से तथा अभी तक की आज्ञा से मुक्त होकर सीमा रेखा पर इकट्ठा हो गए थे। मैं ऐसे समय यदि छोटे गाँव में बसने की योजना स्वीकारता तो उन अज्ञ लोगों के बीच एक कोने में पड़ा रहता। पुलिस की कठोर देखरेख में कोई भी आंदोलन छेड़ना मुश्किल होता। किसी साधारण संदेह पर भी वे मुझे कभी भी कैद कर सकते थे। इसी कारणवश मैंने निर्वासन का दंड स्वीकार किया। उससे मुझे समुचित स्वतंत्रता प्राप्त होनेवाली थी। तिसपर उस समय मेरी यह धारणा बन गई थी कि निर्वासन का दंड अल्पकालीन होता है। मैंने अपने परिवार से विदा ली। चलते समय पिताजी से कहा-मेरा वियोग कुछ दिनों में समाप्त हो जाएगा। परंतु मेरे पिताजी का पुनर्दर्शन मेरे भाग्य में नहीं था।
मैं सेवॉय से फ्रांस चला गया। मेरी माँ को मेरी अधिक चिंता होने के कारण उसने मेरे एक चाचा को, जो उस प्रदेश में बहुत दिन रह चुका था, मेरे साथ भेजने की व्यवस्था की। मैं रास्ते में अपने प्रजासत्ता काल के इतिहासकार सिस्मांडी से मिला। उसने और उसकी पत्नी ने शिष्टाचार के साथ-साथ आत्मीयता से मेरा स्वागत किया। सिस्मांडी ने आस्थापूर्वक इटली की स्थिति से संबंधित प्रश्न किए। परंतु उसके विचार उतने उदात्त नहीं थे जितना मैं समझता था। उसकी धारणा थी कि उसके स्विट्जरलैंड देश की परिस्थितियाँ उतनी ही अवरुद्ध थीं। संयुक्त संस्थानों की कल्पना से आगे उसकी दृष्टि नहीं पहुँचती थी। इटली स्थित उधर गए हुए सभी निर्वासित देशभक्तों के लिए इटली में संयुक्त संस्थान पद्धति-यही राजनीति अंतिम होनी चाहिए-यही उसका विचार था। उन सभी में ऐसा एक भी व्यक्ति नहीं था जिसे इटली की एकता की संभावना अथवा कम-से-कम उपयोगिता आवश्यक लगती हो। इटली के वहाँ रह रहे निर्वासित देशभक्तों की कुल स्थिति का सूक्ष्मावलोकन करने पर धीरे-धीरे मैं अत्यंत निराश होने लगा। तब तक मेरा दृढ़ विश्वास था कि इन निर्वासित लोगों में इटली का अंत:करण प्रतिबिंबित हुआ हो। परंतु उसके संभाषण से यह एक भ्रम सिद्ध हुआ। उसका सारा दारोमदार फ्रांस पर था। उसके विचार से राजनीतिक आंदोलन को नीति तो क्या, निष्ठा की भी आवश्यकता नहीं थी। अनीतिपूर्ण समझौते से तथा षड्यंत्रकारी विलंब से वे स्वाधीनता प्राप्त करना चाहते थे, वह भी परकीयों के आधार पर आखिर मैंने सिस्मांडी से विदा लेने का निश्चय किया। चलते समय मैंने उससे कहा कि पेरिस में उसका कुछ काम हो तो मैं कर दूंगा। उस समय एक देशभक्त ने, जो लैंबर्डी से निर्वासित हुआ था, हल्के से कुछ कहा। यह व्यक्ति जब मैं बात करता तो बड़े ध्यान से सुनता। परंतु मेरे साथ उसका कभी संभाषण नहीं हुआ। उसने कहा-यदि मुझे कुछ करने की उत्सुकता हो तो मैं लायन स्थित विश्रामगृह जाकर वहाँ के देशभक्तों से मिलूँ। मैंने उसे मन:पूर्वक धन्यवाद देते हुए उसका नाम पूछा। वह एक देशभक्त था जिसे सन् १८२१ में ऑस्ट्रिया ने मृत्युदंड दिया था। मैं लॉयन (फ्रांस) गया। वहाँ के इटालियन लोगों में तेज की कुछ चमक थी। वहाँ पहले से ही इकट्ठा हुए तथा प्रतिदिन बढ़नेवाले निर्वासितों में से प्रायः सभी लोग लश्कर के थे। प्राय: वे सारे देशभक्त मुझे वहाँ मिले जिन्हें मैंने एक वर्ष पहले निराशाग्रस्त होकर जिनेवा की सड़कों पर भटकते हुए देखा था, जिन्होंने उसके पश्चात् स्पेन तथा ग्रीस में स्वातंत्र्यार्थ लड़कर इटली का नाम उज्ज्वल किया था। पिआजॉबच्ची में सेना को लोगों पर जब गोली चलाने का आदेश हुआ था तब वह शूर अधिकारी प्रतीकारार्थ स्वयं जनता और सेना के बीच में कूद पड़ा और सीना तानकर खड़ा रहा। देशभक्त बार्सी से भी भेंट हुई। वहाँ जमे हुए प्रायः सभी लोग राजसत्तावादी थे। वह विचार उनकी अपनी सोच से नहीं बना था, केवल फ्रांस में उस समय राजसत्ता थी इसलिए वे भी राजसत्ता के पक्ष में शामिल हो गए थे। फिर भी उनमें लोकसत्तावादी भी बहुत से थे।
वे सारे वहाँ इकट्ठा हो गए थे। क्योंकि एक कमेटी की राय से शीघ्र ही सेवॉय पर आक्रमण करने की योजना तय हो गई थी। उनका राजसत्तात्मक कार्यक्रम और उस योग से फ्रेंच सरकार द्वारा प्राप्त समर्थन-इन कारणों से श्रीमान वर्गीय बहुसंख्य निर्वासित वहाँ आकर मिले थे और इसलिए उनके पास पैसा भी भरपूर था। राजपुत्र, सरदार सभी श्रेणी एवं सभी विचारों के लोग वहाँ इकट्ठा हो गए थे। उनकी लश्करी तैयारी प्रकट रूप में चल रही थी। इटली का तिरंगा ध्वज फ्रेंच ध्वज से सम्मिश्र होकर उस विश्रामगृह पर लहरा रहा था। शस्त्र संचय की सभी को जानकारी थी और स्वयं फ्रेंचों के लॉयन स्थित अधिकारियों के यहाँ उनका आवागमन होता था। स्पेनिश सीमा पर भी इसी समय कुछ ऐसा ही हो रहा था। फ्रेंचों की इस सहानुभूति का कारण जाहिर ही था कि लुई फिलिप को अन्य राजाओं ने मान्यता नहीं दी थी। अतः उनके विरोध में क्रांति पक्ष को सफल करने का प्रयास करने से वे घबरा जाएँगे और मान्यता दे देंगे-यही उनकी चाल थी और यह शीघ्र ही स्पष्ट हो गया। एक दिन मैं जल्दी-जल्दी अपने विश्रामगृह की ओर जा रहा था। अब शीघ्र ही आक्रमण होगा' इस विचार से मेरा मन उल्लसित था। इतने में एक दीवार पर चिपकाई गई एक मुद्रित सरकारी नोटिस पढ़ने के लिए इकट्ठा हुए लोगों का जमावड़ा मैंने देखा। वह इटालियनों के आक्रमण के विरुद्ध अत्यंत कठोर सरकारी चेतावनी थी। इटालियन सेना को कुचलना चाहिए। फ्रेंच सरकार से स्नेह संबंध रखे हुए किसी भी सरकार के विरोध में फ्रेंच सीमा पर यदि कोई व्यक्ति भयंकर कृत्य करेगा तो उसे कठोर दंड दिया जाएगा। यह चेतावनी लॉयन के ऑफिस में से ही जारी हुई थी।
इस चेतावनी से हमारी कमेटी की सारी हिम्मत मंद पड़ गई और उसके हाथ-पाँव फूल गए। ध्वज गायब हो गए। बहुत सारे शस्त्र छिपा दिए गए। उनके कमांडर वृद्ध रेजिस की आँखें भर आईं और शेष निर्वासित अपने विश्वासघातियों पर गालियों की बौछार करने लगे। स्वदेश कार्य में जो दूसरों की सहायता की अपेक्षा करते हैं उन्हें धोखा खाने पर गाली-गलौच के अतिरिक्त प्रतिशोध का अन्य मार्ग ही नहीं रहता। उनमें से जो हठपूर्वक अंधे बने थे अथवा महानता का अतिरेक कर रहे थे, उनका विश्वास अभी भी ज्यों-का-त्यों ही रहा। वे कहने लगे, फ्रांसीसियों का उदारमतवादी (Liberal) पक्ष हमें इस प्रकार अचानक धोखा नहीं देगा। फ्रांसीसियों की धूर्त तथा चौकन्नी सरकार ने जनता को यह सूचित करने के लिए ही दिखावे के लिए यह चेतावनी निकाली कि वह इस आक्रमण को किसी भी प्रकार की सहायता नहीं कर रही। मैंने तुरंत एक उपाय सुझाया कि लगे हाथ जितना हो सके उतने फ्रेंच कर्मचारियों की भरती करके उस पलटन को शस्त्रों से लैस करते हुए सेना को बिनी के बदले सेवॉय भेज दिया जाए ताकि इसका पता चले कि फ्रेंच सरकार के मन में कैसी खिचड़ी पक रही है। तुरंत ही यह उपाय कार्यान्वित किया गया। तब फ्रेंचों ने घुड़सवार भेजकर उस पलटन का विरोध किया और उन्हें भगा दिया। उस पलटन में जो फ्रांसीसियों थे वे पहले ही चले गए और इस प्रकार आक्रमण करना असंभव हो गया।
उसके पश्चात् पकड़-धकड़ आरंभ हुई। सैकड़ों के हाथों में हथकड़ियाँ डालकर किले तक उनका जुलूस निकालकर उनका सार्वजनिक अपमान किया था और फिर वहाँ से मुक्त करके उन्हें इंग्लैंड भेज दिया गया। उस समय कैद, भगदड़, डाँट-डपट, निराशा, हताशा का एकसाथ भारी कोलाहल मचा। इतने में बार्ले ने मुझे सूचित किया कि कुछ जनसत्तावादी लोग रातोरात निकलकर कार्सिका द्वीप जानेवाले हैं। क्योंकि वहाँ से इटली के मध्य प्रदेश में छिड़ गए विद्रोह की अस्त्र-शस्त्रों की सहायता अच्छी तरह से की जा सकती है। यदि मेरी इच्छा हो तो मैं आ सकता हूँ। मैंने तुरंत हामी भर दी। चाचा को अपनी योजना की भनक तक नहीं लगने दी। मेरे लिए घबराएँ नहीं और कृपया कुछ समय तक यह वार्ता घर तक न पहुँचाएँ-इस तरह एक पत्र लिखकर मैं निकल पड़ा। बीच में कहीं भी न रुकते हुए हम मार्सेलिस तक पहुँच गए। वहाँ से ट्यूलोन आ गए। फिर वहाँ से जहाज में सवार होकर हम कार्सिका तक पहुँचे। मैं इतना हर्षविभोर हो गया जैसे मैं स्वदेश पहुँच गया होऊँ। क्योंकि उस समय कार्सिका द्वीप बिलकुल इटली जैसा था। तापमान, आबोहवा, प्राकृतिक दृश्य, भाषा और विशेष रूप से उदात्त स्वदेशाभिमान-सभी बातों में कार्सिका और इटली में रत्ती भर भी अंतर नहीं था। वहाँ के लोग इटली से अगाध प्रेम करते थे। वे मध्य प्रदेश में चल रहे विद्रोह के परिणाम पर टकटकी लगाए बैठे थे। उन्हें आशा थी कि शीघ्र ही वह द्वीप अपनी माता से मिलकर उसे प्रेम से गले लगाएगा। परंतु पहाड़ी लोग दबंग और सशस्त्र थे और उस समय वे इटली में जाकर लड़ना है इसके अतिरिक्त दूसरा विषय नहीं जानते थे। हमारे उधर जाते ही उन्हें ऐसा लगा कि उन्हें अपना नेता मिल गया। इन कार्सिकन लोगों से मुझे अत्यंत प्रेम हो गया और मुझे आशा है कि शीघ्र ही वे और हम एक होंगे।
निओपॉलिटन देशभक्तों ने कार्सिका द्वीप में भी कारबोनरी की शाखाएँ स्थापित की थीं और उन विचारों का ही प्रभाव सर्वत्र दिखाई दे रहा था। कार्सिकन लोगों को वह संस्था किसी धर्मसंस्था की तरह पूजनीय प्रतीत होती थी। एक-दसरे से प्रतिशोध लेने की जिन्होंने प्रतिज्ञा की हुई होती है, वे भी उस संस्था में शपथ ग्रहण करके एक बार प्रविष्ट होते ही एक-दूसरे को भाई-भाई समझने लगते। उनमें से दो-तीन हजार कार्सिकन लोगों के साथ इटली के मध्य प्रदेश में घुसने की हमारी योजना थी। परंतु जहाज प्राप्त करने के लिए पैसा नहीं था। तिसपर जो लोग हमारे साथ निकलनेवाले थे उनके बीवी-बच्चों को भी थोड़ी-बहुत रकम देना आवश्यक था। एक नेटिव संस्था से पैसे की सहायता के लिए पूछने पर परकीय सत्ता की तरह उसने उत्तर भेजा कि जिन्हें स्वतंत्रता की इच्छा है वे स्वयं उसे खरीद लें। इस सारी ढील, विलंब का परिणाम यह हुआ कि ऑस्ट्रिया की सेना ने विद्रोह का उच्छेद किया और परतंत्रता की बेड़ियाँ पुन: मेरे देश के पैरों में डाली गईं। इस प्रकार कार्सिका से कुछ करने की आशा ही नष्ट हो गई। मेरी गंगाजली भी सूख गई। मेरे चाचा ने मेरे माता-पिता की शपथ दिलाकर मार्सेलिस आने का अत्याग्रह किया। अतः मैं कार्सिका छोड़कर मार्सेलिस लौटा।
मार्सेलिस आने के पश्चात् मैंने सोचा 'युवा इटली' के पवित्र कार्य का श्रीगणेश करें, जो मैंने सँवोना की जेल में आयोजित किया था। मैं तत्कालीन स्थितियों का सूक्ष्म विचार करने लगा।
मैं मार्सेलिस आ गया। उसी समय चार्ल्स अर्बट गद्दी पर बैठा। यह राजकुमार कारबोनरी मंडल का सदस्य था और पहले सन् १८२१ में कारबोनरी मंडली का कुछ काल तक प्रमुख संचालक भी था। इटली की एक संस्था का आधिपत्य कारबोनरी मंडली के एक सदस्य के पास आते देखकर कुछ उथले, अदूरदृष्टि लोग बाँसों उछलने लगे। परंतु मेरा पूर्ण विश्वास था कि एक साधारण तथा स्वयं परतंत्रता में रहे किसी राजा से इटली की एकता व स्वतंत्रता प्रस्थापित होना शत प्रतिशत असंभव है। आज भी इस धारणा पर मैं दृढ़ हूँ। जब तक इटली में एकता नहीं होती तब तक छोटे-छोटे राज्य परतंत्रता में सड़ेंगे ही और यों ही आपस में युद्ध करते रहेंगे। मुझे जिस इटली की आस थी वह अत्यंत निराली थी। एकराष्ट्र स्वतंत्रता से अभिमंडित, जिसपर परसत्ता का अप्रत्यक्ष रीति से भी रत्ती भर भी दबाव नहीं, शक्तिमत्त्व से बलवती तथा नीतिमत्ता से श्रेष्ठ इस सकलगुण युक्त इटली की मुझे आस थी। परंतु इसके लिए इटली के प्रयासों का नेतृत्व जनता को ही स्वीकारना होगा। यह कृत्य किसी मूंग की दाल खानेवाले गोबर गणेश राजा से पूर्ण होना सर्वथा असंभव था। परंतु लोगों का भ्रम दूर नहीं हो रहा था, अत: ऐसी कठपुतली से प्रत्यक्षत: कुछ भी नहीं होगा और प्रमुख शुरुआत जनता को ही करनी होगी यह सिद्ध करने के लिए मैंने चार्ल्स अल्बर्ट को एक सार्वजनिक पत्र भेजने का विचार किया। जो लोग उस पत्र का आधार लेकर यह सिद्ध करने का प्रयास कर रहे हैं कि मैं इस राजा से देशोन्नति की आशा कर रहा था, वे वस्तुस्थिति को नजरअंदाज कर रहे हैं। मुझे ऐसी आशा न कभी थी, न होगी। मैं डंके की चोट पर कहता हूँ कि एक समय जनसत्ता की जय-जयकार होगी। उच्च कुलीन राजकुमार से कोई श्रमजीवी मजदूर रत्ती भर भी कम योग्यता नहीं रखता, इसपर मनुष्य का जब विश्वास होगा, दूसरों के हाथों में हाथ डालना उतना ही गलत है जितना कि पहले का हस्तस्पर्श। यह धारणा जब होगी और निजी व्यवस्था की तरह सरकारी व्यवस्था भी जब सबसे अधिक योग्य, बुद्धिमान्, कर्तव्यदक्ष और प्रामाणिक लोगों के हाथों में, भले ही वे किसी भी श्रेणी के क्यों न हों, जाएगी उस समय ही हमारे देश की वास्तविक उन्नति होगी। परंतु यह सिद्ध करने के लिए ही कि राजा पर विश्वास करना कितनी मूर्खता है जनता की मूर्खतापूर्ण आशा और चार्ल्स अल्बर्ट इन दोनों के बीच मैंने केवल बिचौलिया बनने का काम स्वीकारा। वह पत्र मैंने अपने एक मित्र को दिखाया जिसका नाम लिब्री था। तब उसने मुझे सलाह दी कि मैं उसे प्रकाशित न करूँ। यदि मैंने उसे प्रकाशित किया तो मेरा निर्वासन दंड स्थायी स्वरूप का किया जाएगा, जीवन में जो-जो प्रेममय है, उसका मुझे स्थायी स्वरूप में त्याग करना होगा और मेरा सारा जीवन दुःख और निराशा से ग्रस्त होगा-इस तरह वह अनुरोध तथा आस्थापूर्वक कह रहा था। तथापि सार्वजनिक हित के लिए मैंने वह पत्र प्रकाशित किया। यह पत्र मेरा महत्त्वपूर्ण राजकीय लेख है।
चार्ल्स अल्बर्ट के पत्र का चुनिंदा एवं उपदेश का एक अंश ही दिया है। 'यदि जनता को जोर-जबरदस्ती से दबोचने का कोई प्रयास कर रहा हो, वह समझ ले कि रक्त-पिपासा रक्त से ही शांत होती है, षड्यंत्र की छुरी की धार को देशवीरों की कब्र पर जब सान चढ़ाई जाती है तब वह तीक्ष्णतम होती है। विदेशियों से घृणा अब सब लोग करने लगे हैं। ऑस्ट्रिया की गुलामी से सभी धृणा करने लगे हैं। इसी ऑस्ट्रिया के विद्वेष से इटली भभक उठी है। अब इक्के-दुक्के अधिकार से अथवा तुच्छ सहूलियतों से लोग शांत नहीं होंगे। पीढ़ियों से छीने गए हमारे मूलभूत अधिकार, हमारा मनुष्यत्व हमें वापस चाहिए। हम व्यक्ति स्वातंत्र्य चाहते हैं। हमें अपने कानून चाहिए, स्वदेश की एकता चाहिए, एकराष्ट्रीयता चाहिए, स्वराज्य चाहिए, अब हमें संपूर्ण स्वातंत्र्य चाहिए। आपसी फूट, विच्छिन्नता, अत्याचारों के पैरों तले कुचले गए उन लोगों का अपना कोई नाम नहीं, देश नहीं। उनके मुँह पर 'तुम्हारा राष्ट्र गुलामों का राष्ट्र है' कहकर विदेशी लोग थूकते हैं। हम सुनते हैं, स्वतंत्र देश के लोग हमारे देश की यात्रा करके वापस लौटने पर 'इस देश में सारे मुरदे भरे हुए हैं,' इस तरह कहते फिरते हैं। गुलामी का प्याला हमने तलछट के कचरे के मैल के साथ पी लिया है। परंतु हमने उसे पुन: न भरने की शपथ ली है। ऐसी स्थिति में यदि आप अगुआई करेंगे तो उस पिडमॉन्ट रियासत के तुच्छ मुकुट से अधिक श्रेष्ठ मुकुट से आपका मस्तक सुशोभित होगा। परंतु यदि आप हमसे नहीं मिलेंगे, इटली के स्वतंत्रता युद्ध का नेतृत्व धारण नहीं करेंगे तो इससे बस इतना ही होगा कि स्वाधीनता-प्राप्ति का पवित्र कर्तव्य संपन्न होने में तनिक विलंब होगा। परंतु स्वयं जगच्चालक द्वारा इटली देश के भाग्य पर लिखी गई स्वाधीनता पत्रिका मिटाने की शक्ति भला किसमें है? यह कर्तव्य करने का साहस यदि आप नहीं करेंगे तो अन्य जन आगे बढ़ेंगे। वे आगे बढ़ेंगे और आपके बिना तथा आपके विरोध में इच्छित साध्य की ओर जाएँगे। हम आशा करते हैं कि हमारे जैसे स्वतंत्रता के इच्छुक लोग अपनी कृति से ही हमारे इस पत्र का उत्तर देंगे। स्मरण रहे कि आपका नाम मानवजाति के आद्य महात्मा के रूप में अथवा इटली के अंतिम अत्याचारी राजा के रूप में लिया जाना इसी उत्तर पर निर्भर करेगा।
यह पत्र मार्सेलिस में प्रकाशित किया गया। प्रथम कुछ प्रतियाँ पत्र द्वारा ही इटली में भेजी गईं। सभी बड़े-बड़े लोगों के पते पर ये पत्र भेजे गए। शीघ्र ही गुप्त छापाखाने से उसकी प्रतियाँ निकलवाई गईं और फिर उस पत्र का सर्वत्र प्रसार हो गया। चार्ल्स अल्बर्ट को उसकी एक प्रति मिल गई और उसने उसे पढ़ लिया।
थोड़े ही दिनों के पश्चात् उस राजा का एक आदेश आया। सीमा पर सभी अधिकारियों को सूचित किया गया कि इटली में आने का प्रयास करते ही मैझिनी को कैद कर लिया जाए। मेरे मित्र लिब्री की भविष्यवाणी सत्य सिद्ध हुई। परंतु उसमें मुझे एक बात अत्यंत उत्साहवर्धक प्रतीत हुई कि वह पत्र इटली स्थित युवकों ने बहुत पसंद किया। स्वतंत्रता के नाम का मेरे द्वारा प्रकट रूप में गाई जय-जयकार सुनकर उन युवकों के अंत:करण स्थित गुप्त और सुप्त मनोवृत्तियों ने गंभीर प्रतिध्वनि की। इस शुभ शगुन को मैंने सहर्ष स्वीकार किया और इटली की तत्कालीन परिस्थितियों का सूक्ष्म विचार करने लगा। यद्यपि इटली के सभी महापुरुषों के अंत:करण में इटली देश की एकता की कल्पना पहले से ही प्रतिबिंबित दिखाई दे रही थी, तथापि उस समय इटली की एकता को मनोराज्य अथवा शेखचिल्ली का खयाल कहा जाता। तत्कालीन उच्च शिक्षित देशभक्त नेताओं को भी यह कल्पना असंभव ही प्रतीत होती। उनकी आशा और आकांक्षा संयुक्त राज्य के आगे नहीं बढ़ रही थी। किसी भी लेखक ने एकता-एकराष्ट्रीय का उपदेश नहीं किया था। सभी संस्थाएँ मिलकर बंधुत्व भाव से रहें यही राजकीय उन्नति की चरम सीमा थी। इसी समय चार्ल्स अल्बर्ट से संबंधित मूर्खतापूर्ण आशा का परिणाम सामने आ गया। उसने पहले से निर्वासित लोगों को वापस नहीं बुलाया। इधर मार्सेलिस में एक अन्य गुप्त मंडली होने की सूचना मुझे कॉर्लोबिएन्को से मिली। वही उसका संस्थापक था। यह मंडली केवल लश्करी तैयारी की ओर ही ध्यान देती थी, अतः मन:प्रवर्तन का मुख्य काम ही लड़खड़ा रहा था और उस योग से स्वतंत्रता युद्ध को मन की जो उदात्तता तथा सुशिक्षितता आवश्यक होती है वह प्राप्त होना असंभव था।
अब मेरी अपनी गुप्त मंडली की कल्पना की ओर देखा जाए तो उसमें दो अंगों की आवश्यकता है-मन:संस्कृति और युद्धसंस्कृति, मन:प्रवर्तकता और शरीर प्रवर्तकता, विचार क्षमता और कृति तत्परता। इन दो मुख्यांगों का संतुलन करना आवश्यक तथा आद्य कर्तव्य है। मध्य प्रदेश के विद्रोहियों को, जो अभी-अभी असफलता मिली उसका भी कारण यही था कि उनके नेताओं की मानसिक शक्ति कमजोर थी। मैं कारबोनरी तथा उपरिनिर्दिष्ट संस्था दोनों गुप्त मंडलियों के नेताओं से मिला था। उससे मैंने स्पष्ट देखा कि इन सभी अस्त-व्यस्त, तितर-बितर मशीनों को पुनश्च एक बार नए साँचे में ढालकर एक नया यंत्र तैयार किए बिना विजय की आशा करना व्यर्थ है। इस नई मशीन की सामग्री है युवा अंत:करण।
अतः प्रमुख कर्तव्य था लोकशिक्षा का श्रीगणेश। हमारा कर्तव्य केवल इटली का निर्माण करना ही नहीं था बल्कि ऐसा प्रयास करना था जिससे इटली बलिष्ठ और श्रेष्ठ हो, उसके अतीतकालीन वैभव को शोभा दे और उसके भविष्यकालीन कर्तव्य के लिए वह औचित्य बने। परंतु मेरे विचार तत्कालीन विचारों से संपूर्णतया भिन्न थे। उनके विचार से परकीय सत्ता द्वारा ही राष्ट्रीय उन्नति होगी। मेरे विचार से पहले आत्मनिष्ठा उत्पन्न करना सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य है। मेरा पूरा विश्वास है कि कोई भी राष्ट्र आत्मावलंबन और आत्मनिष्ठा के अतिरिक्त कभी उन्नत नहीं होगा, न ही हो सकेगा। दूसरी बात यह कि कारबोनरी का सारा विश्वास बड़े-बड़े लोगों पर था। जबकि राज्यक्रांतियाँ जनता द्वारा होती हैं। अत: यह बात सभी लोगों को समझानी चाहिए कि राज्यक्रांति द्वारा स्वाधीनता प्राप्त करना अपना प्रमुख कर्तव्य है। जनता को अपने इस कर्तव्य का भान मन:पूर्वक होना चाहिए। तीसरी बात यह कि कारबोनरी मंडली में उदात्त लक्ष्य कोई नहीं था। उनका कार्यक्रम केवल विनाशमय था। उनमें संघटनशक्ति रत्ती भर भी नहीं थी। एकराष्ट्रीयता (Unity) शब्द के बदले उन्होंने केवल 'ऐक्य' (Union) शब्द ग्रहण किया था, क्योंकि संयुक्त संस्था प्रणाली का अर्थ भी ऐक्य शब्दांतर्गत गर्भित हो सकता है। इस प्रकार मुख्य सिद्धांत में ही अस्थिरता निर्माण हो गई थी। सिद्धांत प्रेम का अभाव होने के कारण उनमें निष्ठा बिलकुल नहीं थी। जनता के मन की विपरीत धारणा निकालने के कारण उनका मन:प्रवर्तन करने का कार्य नहीं हो रहा था। क्योंकि नेतृत्व ही इस संबंध में संपूर्ण अज्ञानी था। और इस अज्ञान को छिपाने के लिए गोपनीयता का आवश्यकता से अधिक महत्त्व बढ़ाया गया था। वास्तविक लिए किया हुआ एक ढोंग था। कारबोनरी का प्रसार बहुत हुआ था। उससे पूर्व किसी भी संस्था का इतना प्रसार नहीं हुआ था। परंतु उससे जुड़े युवकों के आवेश, उत्साह तथा स्वतंत्रता-प्रेम का उपयोग और लाभ वे नहीं ले सके। उन उदात्त तथा कर्तृत्वशाली युवकों पर शिथिलता प्राप्त वृद्धों का दबाव रखा जाता। वृद्धों में न निष्ठा थी, न ही भविष्य। स्वदेशभक्त, जनसत्तावादी, युद्धप्रिय तथा विजयाकांक्षी इटली के यौवन का उत्साहवर्धन करने के बदले वे उसे हतोत्साहित करने में सहायता करते। आखिर उस मंडली की संख्या इतनी अधिक हो गई कि अब गोपनीयता का पालन करना असंभव हो गया। फिर कुछ करना आरंभ हो गया। परंतु क्या करना है और कैसे करना है? एकतत्त्व का अभाव था और उच्च लक्ष्य का अभाव होने से ऐक्य नहीं हो पा रहा था। एक उद्देश्य का बंधन न होने से एक होना कठिन था। अर्थात् तत्त्वनिष्ठा के बंधन के बदले फिर व्यक्ति निष्ठा का बंधन ढूँढना पड़ा। कारबोनरी एक राजकुमार के लिए लड़ने लगे, क्योंकि उसे एकतत्त्व के लिए लड़ना कठिन। उनके विचार द्रव्यवादी बन गए थे। उनमें निष्ठा नहीं रही थी।
निष्ठा न होने से उनकी यही धारणा थी कि 'भिक्षां देहि' कहने से परकीय लोग हमारे तारणहार बनेंगे। आखिर परिणाम यह दिखाई दिया कि वास्तविक शक्ति केवल संख्या में नहीं, साधनों की संघटना पर निर्भर होती है।
परंतु कारबोनरिज्म में समता का तत्त्व पूर्णतया दिखाई देता था। सर्व राज्यीय तथा सर्व श्रेणीय लोगों को, धर्मोपदेशक, सरदार, लेखक, विद्वान्, सिपाही तथा साधारण वर्ग-इन सभी को दीक्षा देकर संघटित करने से एकता का मार्ग सुलभ हो गया था। परंतु कोई निश्चित कार्यक्रम न होने के कारण उनका हाथ पहुँचते-नपहुँचते विजयश्री उनसे दूर चली जाती। कारबोनरी मंडलियों की गलतियों का मैंने सूक्ष्म परीक्षण किया और सन् १८३१ में घटित विद्रोह के इतिहास की बारीकी से छानबीन की।
सन् १८३१ में जो विद्रोह हुआ उसमें पहली बात यह दिखाई दी कि यह स्पष्ट हो गया कि क्रांतिकारी आंदोलन का शास्त्र राष्ट्र में बहुत आगे निकल चुका है। पहला सिद्धांत यह है कि पिछले विद्रोह की तरह इस समय जनसमूह महान लोगों अथवा सिपाहियों के आधार पर अटका नहीं था। क्रांतिशास्त्र का यह पहला सिद्धांत है। बहुजन समाज को ही धावा बोलना होगा। महान् लोग और सिपाही बाद में मिलते हैं। यदि वे पहले से ही मिलें तो सोने में सुहागा। परंतु बहुजन समाज की सहायता के होते महान् व्यक्तियों की सहायता पर, सिपाहियों की आशा पर निर्भर रहना उचित नहीं, इस सिद्धांत का पालन सन् १८३१ के विद्रोह में किया गया था। फ्रांस के उन क्रांतिकारी तीन दिवसों की वार्ता पहुँचते ही सब लोग जगह-जगह इकट्ठा होने लगे। युवा जनो ने फ्रांस स्थित हकीकतों तथा स्वतंत्रता प्राप्ति से भरे वृत्तपत्र तथा लेख ऊँचे स्थान पर खड़े होकर चौराहे पर इकट्ठा हुए लोगों को पढ़कर सुनाए। शस्त्रास्त्र से लैस स्वयं सेवकों की सेना संघटित की गई तथा किसी भी नागरिक को कष्ट न पहुँचे, इसके लिए कठोर आदेश दिए गए। बोलोग्ना की यह वार्ता मिलते ही विद्रोह का दावानल चारों ओर धड़ाधड़ जलने लगा। मॉडेना की गुप्त मंडली तो तैयार थी ही। अधिकारियों के अड्डों पर दागे गए तोपों का विस्फोट होते ही-संकेत पहचानकर सभी उठ गए। तारीख २ को यह घटना घटी। तारीख ४ के दिन बोलोग्ना में सर्वत्र धावा बोला गया। तारीख ५ को मॉडेना के लोगों ने अत्याचारी अधिकारियों को शहर से बाहर खदेड़ दिया। इमोला, फाएंजा, फॉर्ली, कॉसेना, रवेना एक के पीछे एक स्वतंत्र हो गए। फेरारा तारीख ७ के दिन बंधनमुक्त हो गया। पेसरो, फोसैब्रोन, फ्रेनो तथा अरबिनो ने तारीख ८ को परतंत्रता का जुआ तोड़ डाला। ऑस्ट्रिया सिर पर पाँव रखकर भागने लगा। प्रतिदिन नए-नए शहर स्वतंत्र होने की वार्ताएँ आने लगीं। यह सारा कार्य बहुजन समाज की प्रेरणा से सिद्ध हो गया। युवा, वृद्ध, स्त्री-पुरुष सभी का आवेश और जोश ठाठे मारने लगा। महिलाओं ने ध्वज बनाकर लहराए। यदि कोई युवा वीर लड़ाई में थोड़ा सा भी हिचकिचाने लगता तो वृद्धजन पिछले विद्रोह में झेले हुए घाव उसके सामने खोलकर दिखाते और कहते 'स्वदेश स्वतंत्र करते समय ये घाव झेले हैं हमने।'
इस प्रकार २५ फरवरी को लगभग पच्चीस लाख इटालियन लोग परवशता से मुक्त हो गए। उन्हें अपनी शक्ति में निष्ठा जगी और आत्मरक्षार्थ ही नहीं, अन्य देश-बंधुओं को मुक्ति दिलाने वे सशस्त्र होकर आगे-आगे चलने लगे। पिछले विद्रोह की और एक भूल टाली गई, वह यह कि विद्रोह को राष्ट्रीय स्वरूप प्राप्त हो गया। इटली के त्रिरंगभूषित ध्वज तले सारा विद्रोह हो रहा था और यह जानकर कि अपना प्रदेश भी मुक्त होना संभव है और एकराष्ट्रीयता की कल्पना से प्रेरित होकर वे बाहर निकल रहे थे। क्योंकि क्रांति शास्त्र के प्रमुख सिद्धांतों में से यह बहुत महत्त्वपूर्ण सिद्धांत है। विद्रोह का प्रसार जितने अधिक प्रदेश में किया जा सकता है उतना अच्छा। इतना ही नहीं, क्रांति का प्रत्यक्ष जीवन ही इस प्रसार पर निर्भर होता है।
सर्वत्र एक समय ही धावा बोलने से शत्रु का बल छिन्न-भिन्न हो जाता है और इधर क्रांतिपक्ष में एक-दूसरे के आधार से एक-दूजे का धीरज बँधता है। अतः क्रांति की नींव जितनी चौड़ी हो सकती है उतनी चौड़ी बनाना अत्यावश्यक है। सन् १८३१ में इस सिद्धांत पर अमल करने से यह सिद्ध हो गया कि पिछले विद्रोह अकारथ नहीं गए।
परंतु जैसे ही जनता के हाथ से सत्ता निकलकर नेताओं के हाथ लगी तो अदूरंदेशिता तथा भीरुता का आरंभ हो गया। ऑस्ट्रिया को दबोचने के लिए घातक तथा आक्रामक पद्धति का अवलंबन करने के बदले इन्होंने संरक्षक पद्धति का ही सहारा लिया और लड़ाई की नींव ऑस्ट्रिया की सीमा में ढकेलने के बदले उसे अपने ही शहर के तट पर खींचा। प्रत्येक क्रांति को प्रथमतः आघातक पद्धति का ही अवलंबन करना चाहिए। विद्रोह के आरंभ में स्वाभाविक रूप में शत्रु असावधान अवस्था में होता है। ऐसे समय उसे अचानक पूरी तरह से दबोचना अत्यंत सुलभ होता है और इसी कारण आघातक पद्धति के बिना केवल संरक्षक पद्धति से की गई क्रांति अपने ही हाथों अपनी कब्र खोदती है। शत्रु पर आघात करते रहने से विभिन्न स्थानों के लोगों में भी आघात करने का उत्साह एवं आवेश का संचार होता है। ऐसी क्रांति के समय यत्र-तत्र आक्रमण हो इसीलिए स्वयं धावा बोलते रहना चाहिए। अन्य लोगों में जोश निर्माण करने के लिए स्वयं उत्साह और आवेश का प्रदर्शन करना चाहिए। अन्य लोगों में सामर्थ्य-निष्ठा उत्पन्न करने के लिए स्वयं सामर्थ्यनिष्ठा रखनी चाहिए। परंतु उन वृद्ध तथा मूर्ख नेताओं ने प्रत्येक कृत्य में भीरुता दिखाकर संपूर्ण इटली में निरुत्साही वातावरण फैलाया। वे यह दिखावा करने लगे कि अन्य लोगों से उनका कोई संबंध नहीं। जनता को सिद्धांत-भक्ति के बदले व्यक्ति-भक्ति सिखाने लगे। जनसत्तावादी व्यवस्था को लताड़कर राजसत्ता का आडंबर रचाने लगे। स्वयं युद्ध की कुछ भी तैयारी न करते हुए फ्रांसीसियों के 'उदार मतवादियों के (Liberals) विश्वासघाती भुलावे में आ गए। उन्हें स्वावलंबन का विस्मरण हो गया और एक समय जब ऑस्ट्रिया जोर-शोर से युद्ध की तैयारी कर रहा था तब स्वयं शहर में ही घोड़े बेचकर सो गए। उसके पश्चात् पुनः विधिवत् आंदोलन आरंभ हुआ। जो तलवार के बलबूते पर प्राप्त किया जाता और 'वापस दे रहे हो या प्राण ले लूँ?' इस तरह बिना धौंस दिखाए कभी प्राप्त नहीं होता वह राष्ट्रीय स्वतंत्रता ये लोग विधिवत् आंदोलन से प्राप्त करना चाहते थे। उन्होंने एक अशोभनीय निवेदन किया और उसमें कानून का आधार दिखाकर उस आधार पर हमें स्वाधीनता प्राप्त हो यह सिद्ध करने के लिए एक नीचतापूर्ण लेख लिखा।
स्वाधीनता प्रत्येक राष्ट्र का अधिकार है, यह ईश्वरीय नियम है और इसीलिए हम अपने प्रयासों से स्वतंत्र होंगे। इस तरह जाहिर करने के बदले अमुक धारा के अमुक आधार पर हम स्वाधीनता की भीख माँगते हैं इस तरह नपुंसक तथा निंद्य भाषा का प्रयोग किया। और उनका यह कृत्य ऑस्ट्रिया के लिए ऐसा हुआ कि अंधा क्या चाहे दो आँखें। इस मृगमरीचिका की खोज में बलपूर्वक बनाए गए विद्रोह के स्वयमधिकृत नेताओं को उलझाकर उसने इटली के नूतन सुहाग-तिलक पर पुनः डाका डाला। आघातक प्रणाली से विद्रोह का विस्तृत प्रसार तो न होता उलटे धीरज खोने के कारण कहीं भी नया आक्रमण नहीं हो रहा था। क्रांति के प्राण लेने के लिए उच्छृखलता जैसा अन्य विष नहीं। परंतु कानून के पंडित उन नेताओं ने सोचा कि इस उच्छृखलता में ही वे महान् विचारवंत होने का प्रदर्शन कर रहे हैं। इस अतिरेकी संस्थाशास्त्र में तथा इस अतिरेकी षड्यंत्र में अत्यंत विश्वास एवं उत्साह, पौरुष और समकालीन आक्रमण-इन तीन शवों पर, जिनमें समस्त क्रांतिशास्त्र भरा हुआ है, अत्यंत अविश्वास-ये रोग इटली के लिए प्राणनाशक बने हैं। हम प्रतीक्षा करते रहते हैं, परीक्षा करते हैं, परिस्थितियों के दास बनते हैं। परिस्थितियों को अपना दास बनाने का अथवा नई परिस्थितियाँ निर्माण करने का प्रयास हम कभी करते ही नहीं। विचार करने में अधिक समय खर्च करना मंद बुद्धि का लक्षण समझने की अपेक्षा कुछ लोग उसी में लगे रहना अपनी शान समझते हैं।
इन सारे दोषों का परिणाम वह नहीं हुआ जो होना था। अपनी तैयारी पूरी होते ही ऑस्ट्रिया ने एकदम आक्रमण की घोषणा कर दी। अभी भी सावधान होना था और एक राष्ट्रीयता तत्त्व से प्रेरित होकर साहस करना था; परंतु नपुंसक, भीरु तथा वयोवृद्ध नेताओं की मूर्खता के कारण सबकुछ मटियामेट हो गया। युवा जनों के जोश से भरे होते हुए भी इन स्त्रैण कायरों ने उस अवसान, उस जोश का गला घोंटा। वृत्तपत्रों में किसी के युद्ध का नाम लेते ही उसे कड़ी-से-कड़ी सजा देने का आदेश निकाला गया। ऑस्ट्रिया ने मॉडेन पर धावा बोल दिया। तब बोलोग्ना शहर ने यह जाहिरनामा निकाला कि 'मॉडेनीज लोगों के संकट से हमारा कोई संबंध नहीं, अत: उन लोगों द्वारा आयोजित युद्ध में हमारे सम्मिलित होने का प्रश्न ही नहीं उठता। उनपर आपात स्थिति आई हुई है। मॉडेना की आपात स्थिति से गुजरते हुए भी बोलोग्ना ने सोचा कि उसपर आपात स्थिति की छाँव तक नहीं पड़ी है। सेना रखने का नियम आगे आते ही उसे दुत्कारा गया। अन्य शहर स्वतंत्रता से परतंत्रता में ढह रहे थे और बोलोग्ना हाथ पर हाथ धरे बैठा था। क्योंकि उनकी स्वाधीनता विधिवत् कानूनी निवेदन-पत्र पर निर्भर जो थी। आखिर तारीख २० को ऑस्ट्रिया ने बोलोग्ना के द्वारा ठोकर मारी, फिर भी कानूनी आंदोलन कायम ही था। नेतागण अभी भी सोच रहे थे कि पहले दिए वचनों को पत्थर की लकीर ही समझा जाएगा। उन सभी वचनों को अँगूठा दिखाते हुए ऑस्ट्रिया ने पुन: सभी को परवशता की बेड़ियों में जकड़ लिया।
सन् १८२० तथा १८३१ के दुर्भाग्यपूर्ण आक्रमणों के इतिहास का उपर्युक्त पद्धति से विवेचन करने के पश्चात् मैंने तय किया कि भविष्यकालीन प्रयासों में किन-किन भूलों को टालना होगा। इटालियन लोगों में प्रायः सभी लोगों को क्रांति और उसके नेताओं के विभिन्न ढंग से परीक्षण करने का विस्मरण होने से उपर्युक्त पराजयों से केवल निराशा, हताशा के अतिरिक्त उन्होंने कुछ भी नहीं सीखा।
मैं दावे के साथ कहता था कि सफलता-प्राप्ति के लिए मात्र सही दिशा का चुनाव आवश्यक है। सबसे प्रमुख भूल यही हो रही थी कि आंदोलन का नेतृत्व उन लोगों को सौंपा जाता, जिन्हें उसका क, ख, ग पता नहीं था। युवा जन तथा साधारण वर्ग ने ही इटली की प्रत्येक क्रांति का श्रीगणेश किया है। परंतु उन्होंने अल्पावधि में ही नेतृत्व बुजुर्गों के हाथ में दे दिया। समाज की सामान्य स्थिति में यह नियम उचित है कि बुजुर्गों की सलाह पर चलें। परंतु विलक्षण कालक्रांति में वृद्ध लोग स्वभावत: ही अयोग्य सिद्ध होते हैं। क्रांति का आरंभ युवा जन तथा मध्य वर्ग से होता है। आगे चलकर पहले महासंकट दूर होते हैं, क्रांति पक्ष की जय होती है तब धीरे से ये वृद्ध जन आगे बढ़ते हैं और पहले लोगों को हटाकर स्वयं अधिकृत होते हैं। वे उस क्रांतिकल्पना के पथ प्रदर्शक बनते हैं जो उनकी कभी थी ही नहीं। वे वह योजना पूरी करना चाहते हैं, जिसका अध्ययन उन्होंने इस जनम में कभी किया ही नहीं होता। ऐसी कठिनाइयों, परिस्थितियों, आवेश, स्वार्थ त्याग पर वे नियंत्रण करना चाहते हैं।
इनकी संपूर्ण शिक्षा पुरानी विचार प्रणाली से होती है। उनका युवावस्था पर विश्वास उठ जाता है। इनकी उदारमतवादिता आज तक इटली में रूढ़ नरम पक्ष (Moderation) की तरह ही होता। क्योंकि वे भी उन्हीं की तरह भीरु तथा दुर्बल थे जो छोटी-छोटी बातों पर भाव-ताव, खींचातानी करते; कानूनी आंदोलन के दुर्बल प्रतिकार पर निर्भर, परंतु स्वाभाविक अधिकारों के मूल तत्त्वों तक जाने का साहस जिनमें नहीं था।
ये लोग नेता बनते ही अपने दोयम अधिकारी भी उन्हीं को चुनते जो उन्हीं के विचारों के होते। कुलीन लोग वकील, प्रोफेसर आदि में से चयन किए जाते। अर्थात् उनमें से सभी दुर्बल होते, उनमें राज्यक्रांति के लिए आवश्यक शक्ति, साहस, बुद्धि, धैर्य रत्ती भर भी नहीं होता। हमारे युवक अनुभव तथा विश्वास से उनके हाथ में सत्ता की बागडोर देकर पीछे हट जाते हैं। वे यह न भूलें कि स्वतंत्र अंत:करण की महत्त्वाकांक्षाओं और गुलामों की महत्त्वाकांक्षाओं में आकाशपाताल का अंतर होता है। इसीलिए ये पुराणमतवादी वृद्ध, जो गुलामों का प्रतिनिधित्व करने के लिए योग्य हैं-स्वतंत्रता का नेतृत्व कदापि नहीं कर सकेंगे।
इन सभी मुद्दों पर विचार करते हुए अंत में मैंने अपनी अंत:प्रेरणा से चलने का विचार किया और 'युवा इटली' की स्थापना का श्रीगणेश किया।
(इस 'युवा इटली' का ध्येय, नीति तथा कार्य का वृत्तांत आगे दिया गया है। और उसके पश्चात् 'आत्मकथा' का आरंभ किया गया है।)
युवा इटली (La Giovine Italia)
मावळा मराठा : श्रीमत्स्वतंत्रता की निधि की कैसे हो प्राप्ति।
ज्ञात नहीं हमें शिवबा, करें कैसे ईश भक्ति॥
शिवबा : करी धरो भक्त शंकरा भवनि तलवार।
अविंध सारा चीर डालो चराचर होंगे दास्यपार॥
- गोविंद
(युवा इटली की स्थापना करते समय निम्नलिखित नियमों का सदस्यों को पालन करना पड़ा। वही सदस्य हो सकते थे जिनका विचार उन सिद्धांतों के अनुकूल हो। उन मतों का सूत्रबद्ध निष्कर्ष निकालने के लिए निम्नांकित लेख मैझिनी ने लिखा है। उसका प्रत्येक शब्द इतिहास शास्त्र का एक-एक महान् सिद्धांत है। वाक्य स्वतंत्र व्याख्यान है और वह संपूर्ण लेख मृत राष्ट्रों का संजीवनी मंत्र है।)
युवा इटली के सदस्यों के लिए सामान्य दिग्दर्शन-स्वतंत्रता, समता, मानवता, दास्यमुक्ति, राष्ट्रैक्य।
:१:
यह 'युवा इटली' ऐसे इटालियनों की सहकारी संस्था है जिनका विकास तथा कर्तव्य इन दोनों महान् तत्त्वों पर विश्वास है। इस संस्था का दृढ़ विश्वास है कि इटली एक राष्ट्र तो अवश्य होगी। उस एकराष्ट्रीयता की प्राप्ति करने के लिए वह आत्मसमर्थ है। उसकी आज तक की असफलता का वास्तविक कारण उसकी आंतरिक दुर्बलता नहीं, उसकी क्रांति-शक्ति की दिशाभूल है। संगठित होकर सतत प्रयत्नरत रहना इसी में विजय का रहस्य छिपा हुआ है। इस तरह के विश्वास से जो इस संस्था के सदस्य हो गए हैं उनका प्रमुख उद्दिष्ट इटली देश को स्वतंत्र करते हुए उसमें स्ववश तथा समसमान लोगों की एक राष्ट्रसत्ता उत्पन्न करना है। इटली की इस स्वाधीनता के लिए, इस राष्ट्रैक्य के लिए तथा इस जनसत्ता के लिए हमने अपना बुद्धि सामर्थ्य तथा कृति सामर्थ्य पूर्णत: समर्पित किया है।
:२:
इटली देश की भौगोलिक स्थिति हम इस तरह समझते हैं
१. यूरोप महाद्वीप से सटी हुई तथा आगे द्वीपसमान बनी हुई, जिसकी उत्तर सीमा की ओर आल्प्स पर्वत वर्तुलाकार फैला हुआ है तथा जो दक्षिण में समुद्रवलयाकित है, पश्चिम दिशा की ओर व्हरा नदीमुख है और जिसकी पूर्व सीमा पर ट्रिस्टी नगर बसा हुआ है।
२. और जो निकटवर्तीय द्वीप हैं, वहाँ के लोगों की मातृभाषा के कारण वे इटली के ही प्रदेश सिद्ध हो रहे हैं तथा राज्य प्रणाली की उचित रचना होने पर जो इटली की राष्ट्रीय सीमा में अवश्य आएँगे वे सारे टापू भी इटली देश में ही सम्मिलित हैं।
'राष्ट्र' शब्द का अर्थ है समस्त इटालियन लोग, जो सर्वसम्मति से एकजीव हो गए हैं और जो एक ही राज्य प्रणाली से प्रशासित हैं।
:३:
संस्था के मूलभूत सिद्धांत
किसी भी संस्था की सुरक्षा, उपयुक्तता तथा समृद्धि उसके उद्दिष्ट लक्ष्य की निश्चितता, स्पष्टता तथा सुव्यक्तता पर निर्भर रहती है।
किसी भी संस्था की शक्ति, उसके सदस्यों की संख्या पर ही निर्भर नहीं होती, वह सदस्यों की एकवाक्यता पर निर्भर करती है। जिस मार्ग से आगे बढ़ना है उसके लिए पूर्ण सम्मति तथा समय आते ही संगठित होकर एक दिल से कंधे से, कंधा मिलाकर एक ध्वज तले अभेद्य व्यूह रचना करेंगे यह विश्वास-इन बातों में, ही वास्तविक शक्ति होती है।
जिस क्रांतिकारी संस्था में भिन्न-भिन्न विरोधी मतों के लोग लिये जाते हैं और जिनके सामने निश्चित कार्यक्रम नहीं होता ऐसी संस्थाएँ यद्यपि युद्ध से पहले खत्म नहीं होती तथापि युद्ध के दूसरे ही दिन उस आंदोलन को उचित मोड़ देने के लिए समर्थ न होने के कारण अपने आप ही उनका अंत हो जाता है।
प्रत्येक सिद्धांत में उसकी साधना का भी अंतर्भाव होता है। दूसरे शब्दों में, साधना वैसी ही होती है जैसा साध्य होता है।
जब तक 'क्रांति क्यों करनी है, उससे क्या प्राप्त होगा' यह निश्चित नहीं होता तब तक उसे मूर्त रूप देने अथवा स्थिर स्वरूप देने के साधन भी अनिश्चित और असफल ही होते हैं। दृढ़ विश्वास के बिना वह आंदोलन कुछ समय तक चलेगा और इसीलिए उसका विकास भी ढुलमुल तथा मंद ही होगा। अतीत में इसका अनुभव किया ही गया है।
एतदर्थ जो संस्था अथवा जो व्यक्ति राष्ट्रक्रांति के प्रवर्तन का प्रयास करेगा उसे इसका स्पष्ट ज्ञान होना चाहिए कि आंदोलन की जड़ क्या है और उस क्रांति का अंत किसमें है। लोगों को शस्त्र उठाने की जो आज्ञा करेगा, उसे यह भी स्पष्ट करना चाहिए कि शस्त्र उठाने का प्रयोजन क्या है? जो कोई पुनरुज्जीवन चाहेगा उससे श्रद्धा होनी चाहिए। यदि उस श्रद्धा का ही अभाव हो तो उसका बंदोबस्त करना अथवा उसे उचित मोड़ देना उसके लिए असंभव होगा। अराजकता आरंभ करने के अतिरिक्त उसके हाथों से कुछ नहीं होगा। क्योंकि लड़ना किसलिए है और विजय प्राप्त करके क्या हासिल करना है। इसी के ही अज्ञानवश संपूर्ण राष्ट्र रणांगण में कभी उतरेगा ही नहीं।
इसलिए हमारी 'युवा इटली' का उद्देश्य या साध्य, जिसके लिए उसे लड़ना है उस तरह की लुका-छिपी न करते हुए हम अपने स्वदेश बांधवों को सूचित करते रहेंगे।
हमारी संस्था का उद्दिष्ट राज्यक्रांति है। राज्यक्रांति पूर्व तथा पश्चात् भी उसके प्रयास शिक्षात्मक रहेंगे। जिन सिद्धांतों की शिक्षा से ही राष्ट्रीय मन सुसंस्कृत करना संभव है और जिनके प्रभाव से ही इटली का पुनरुज्जीवन तथा रक्षा होना संभव है ऐसे सिद्धांतों तथा विचारों के उद्बोधन होने के लिए युवा इटली उसका विवेचन करती रहेगी।
'युवा इटली' की यह धारणा है कि उसे जो सत्य प्रतीत होता है उसका उपदेश करना उसका कर्तव्य है। इसमें वह किसी का अधिकार नहीं छीनती। राज्यक्रांति आरंभ करने से पहले इसका उपदेश करने में कि किस मार्ग से इच्छित फल प्राप्त करने के लिए लड़ना चाहिए, इटली के सामने स्वतंत्रता युद्ध का ध्वज लहराने में, जो इस बात पर दृढ़ विश्वास रखते हैं कि स्वतंत्रता संग्राम का ध्वज स्वदेश के पुनरुज्जीवन की 'गुढी' है, उन्हें उस ध्वज तले आने का निमंत्रण देने में और उन स्वयंसेवकों की सेना की व्यूह रचना करने में यह संस्था अपने कर्तव्य का पालन करती है। परंतु हमारा उद्देश्य वह ध्वज स्वदेश के भावी राष्ट्रीय ध्वज के बदले फहराने का नहीं है। जब हमारा यह इटली देश पूर्ण स्वतंत्र होगा और केवल उसी का अपना स्वामित्व वह पुनः अपने हाथों में लेगा तब उस भाग्योदय के शुभ दिवस पर वह अपना ध्वज फहराएगा और किन सिद्धांतों पर तथा नियमों पर राष्ट्र आचरण करे इससे संबंधित स्वयं की स्वतंत्र इच्छा वह प्रकट करेगा। स्वतंत्र देश की वह कामना सर्वपूज्य तथा सर्वमान्य रहेगी।
'युवा इटली' जनसत्ताप्रिय तथा राष्ट्रैक्यवादी है। वह जनसत्ताप्रिय है, क्योंकि सिद्धांततः ईश्वर तथा मानवता की यही आज्ञा है कि प्रत्येक राष्ट्र ऐसे देश-बंधुओं से बना हो जो सम तथा स्वतंत्र हों और जनसत्तावादी राज्य पद्धति के अतिरिक्त ऐसी कोई अन्य राज्य प्रणाली नहीं जो स्वदेश की यह स्थिति बनाए रखेगी; क्योंकि सत्यनिष्ठ राज्यसत्ता उस राष्ट्र शरीर में ही प्रतिष्ठित होती है जहाँ १ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को फहराया जानेवाला अत्युच्च नीतिसिद्धांत का धार्मिक ध्वज, जिसमें कपड़े के साथ नीम की टहनी, आम्रमंजरी, चीनी के पत्रों की माला और एक बटलोई भी होती है, प्रगमनशील तथा अखंडता निदर्शक होता है।
क्योंकि, इस राष्ट्र शरीर से राज्यसत्ता को निकालकर उसे किसी भी अधिकार के रूप में किसी विशेष व्यक्ति में रखने से और उस व्यक्ति को सभी के सिर पर चढ़ाए जाने से, इसी सत्ता अधिकार की रुचि अन्य वर्गों में फैलती है और फिर उससे नागरिकों की समता नष्ट होकर अंत में स्वदेश स्वतंत्रता का भी विनाश होता है।
क्योंकि एक बार सत्ताधीशत्व राष्ट्रपुरुष के हाथ से निकलकर विभिन्न विभागों की ओर जाने से डाँट-डपट, धमकियों का आरंभ होता है और एक बार ये धमकियाँ, धौंस देना आरंभ हुआ कि समझो स्वामित्व के लिए युद्ध का श्रीगणेश हो गया। एकता नष्ट होकर भेदभाव फैलते हैं। अविश्वास और विद्वेष का नशा चढ़कर प्रत्यक्ष जीवनशक्ति की एकतानता का भंग होना भी अटल होता है।
क्योंकि राजा का जनता से प्रत्यक्ष संबंध असंभव होता है। तब जनता का समर्थन न होने के कारण उसे सरदारों का एक मध्यवर्ती वर्ग निर्माण करना पड़ता है। यह सरदार वर्ग होने से राष्ट्र में असमता और दुराचार उत्पन्न होना अवश्यंभावी होता है।
क्योंकि प्रकृति की व्यवस्था तथा इतिहास-दोनों का यही उपदेश है कि राजा का चयन करने की पद्धति रखने से अंधेर नगरी अथवा अराजकता फैलती है और उस संकट को टालने के लिए राजा की वंश परंपरा पद्धति रखने से जुल्म, अत्याचार का आरंभ होता है।
क्योंकि राजा विष्णु का अंश होता है-इस दुष्ट धारणा का अब विनाश होते जाने से राजसत्ता में हुकूमत चलाने तथा एकता कायम रखने की हिम्मत ही नहीं रही।
क्योंकि यूरोप में उत्क्रांति दर्शक जो अनिवार्य रूपांतर होते गए उनसे स्पष्ट होता है कि अब जनसत्ता तत्त्व ही सिंहासनारूढ़ होगा। ऐसी स्थिति में इटली में यदि राजसत्ता का विरोध किया गया तो उसी में क्रांति के बीज बोए जाएँगे और जो शीघ्र ही होनेवाली है।
'युवा इटली' जनसत्ताप्रिय है। क्योंकि इटली में वास्तविक राजसत्ता के कोई लक्षण अस्तित्व में नहीं हैं। राजा और जनता इन दोनों के बीच सम्माननीय सरदार वर्ग स्थिर नहीं है। वर्तमान में ऐसा एक भी राजवंश कायम नहीं है जो संपूर्ण इटली को राष्ट्रीय स्वरूप देगा और इसीलिए समूचे देश को ममत्व प्रदान करेगा। क्योंकि हमारे इटली देश की प्राचीन टेक जनसत्ताप्रिय ही है। हमारे श्रेष्ठ पूर्वस्मारक जनसत्तावादी हैं? हमारी राष्ट्रोत्क्रांति का संपूर्ण इतिहास जनसत्ताप्रिय है और जब हमारे देश में राजसत्ता का आरंभ हुआ तभी से परसत्ता के अवलंबन से प्राप्त अवनति, लोकद्वेष तथा राष्ट्रैक्य का समूल विनाश भी आरंभ हो गया।
क्योंकि इटलीवासी जनता इसलिए कभी नहीं लड़ेगी कि केवल एक व्यक्ति को राज्यप्राप्ति हो। किसी भी एक रियासत को राज्य पद देने के लिए अन्य रियासतों के अधिकार नष्ट करना संभव है और वे संयुक्त संस्थान पद्धति का हठ कभी नहीं छोड़ेंगे। परंतु इस व्यक्ति महत्त्व के बदले में यदि ऐसा कोई महत्त्व आगे रखा जाए कि उस सिद्धांत के अनुगमन से स्थानीय महत्त्वाकांक्षा गिर पड़ेगी तो उस सिद्धांत के लिए सभी इटालियन लोग सहर्ष एक होंगे। इस प्रकार सर्वसम्मत होनेवाला लक्ष्य ही जनसत्तावादी पद्धति है।
क्योंकि संपूर्ण राष्ट्र आक्रमण करे इसके लिए जनमत तैयार होने का एकमेव उपाय यह है कि कोई ऐसा ही उद्दिष्ट जनता के सामने रखना होगा जिससे उसका प्रत्यक्ष रूप से कल्याण हो सके और उसे अपने जन्मसिद्ध अधिकार वापस मिल सकें। अतः जनसत्ता ही उनकी आशा होनी चाहिए।
क्योंकि आजकल सभी संस्थानों की अवस्था गुड्डा-गुड्डी की तरह होने के कारण हमारे राष्ट्रीय स्वतंत्रता के पवित्र प्रयासों में उनकी कायरता तथा दुष्ट नीति के कारण उससे कुछ भी लाभ नहीं होगा। अत: रणभूमि में कूदकर हमें लोगों को पुकारना होगा। हमें जनपद को ही उस स्वतंत्रता के तथा जनसत्ता के श्रेष्ठ सिद्धांतों का उच्चारण करके चैतन्यपूरित करना होगा और संपूर्ण यूरोप महाद्वीप में हो रही क्रांति के प्रत्येक प्रादुर्भाव में जो कुछ सामने आया है उसके जनसत्ता तत्त्व का ही अंगीकार करना चाहिए।
इनी सभी कारणों वश 'युवा इटली' जनसत्ताप्रिय है। इटली को स्वतंत्र करके उसमें जनसत्ता पद्धति प्रस्थापित करने का उसका अंतिम लक्ष्य है।
'युवा इटली' राष्ट्रैक्यवादी है। क्योंकि एकता के बिना वास्तविक राष्ट्रीयता संभव ही नहीं। और राष्ट्रीय एकता के बिना वास्तविक शक्तिमत्ता कभी नहीं आएगी। समर्थ, एकीकृत तथा महत्त्वाकांक्षा युक्त राष्ट्रों के बीच में बसने के कारण इटली को अन्य सभी बातों से पहले शक्तिमत्ता ही प्राप्त करनी होगी।
क्योंकि एकराष्ट्र करने के बदले संयुक्त संस्थान पद्धति को स्वीकार करने से स्विट्जरलैंड की तरह ही इटली देश भी दुर्बल ही रहेगा और उसे किसी पड़ोसी राष्ट्र के हाथों की कठपुतली बनना होगा।
क्योंकि सर्वराष्ट्र एक है-इस तरह की स्थिति नहीं होगी तो विभिन्न लोग एक-दूसरे से प्रेम नहीं करेंगे। और संयुक्त संस्थान पद्धति को अंगीकार करते ही अभी-अभी अस्त होते स्थानिक तथा प्रादेशिक अभिमान में वृद्धि होकर इटली पुनः मध्ययुगीन आंतरिक अराजकता में फँसेगी।
क्योंकि संयुक्त संस्थान पद्धति इटली देश के स्वाभाविक राष्ट्रकुटुंब स्वरूप का विध्वंस करके इटली देश को मानवजाति की उत्क्रांति में जो महान् कार्य करना है उसपर कुठाराघात करेगी।
क्योंकि संयुक्त संस्थान पद्धति इटली देश का विस्तृत क्षेत्र तोड़कर उसके छोटे-छोटे टुकड़े करेगी और ये टुकड़े होने पर इस संकुचित क्षेत्र में जलन, विद्वेष का अधिराज्य होगा और पुनः राजे-महाराजों के अत्याचार का उफान आएगा।
क्योंकि यूरोप महाद्वीप के प्रगमनात्मक रूपांतर से गुजरते हुए उसमें विस्तृत और एकीकृत राष्ट्र बन रहा है और आवश्यक यही सिद्धांत निकलता है कि मनुष्य जाति एवं एकीकृत राष्ट्रों का संविधान बनाया जाए।
क्योंकि इटली में आंतरिक सुधार के जो-जो प्रयास हुए, उनका सूक्ष्म अध्ययन करने पर यह दिखाई देगा कि सदियों से राष्ट्रैक्य की ओर ही इटली का रुझान रहा है।
क्योंकि राष्ट्रैक्य के विरोध में जो-जो आक्षेप किए जाते हैं उनमें यह गृहीत रखा जाता है कि मुख्य सरकार प्रदेशों पर उनके स्थानिक अधिकारों के विरुद्ध अत्याचार करने लगेंगी। 'युवा इटली' को सम्मत राष्ट्रैक्य में किसी भी तरह के अत्याचार को बिलकुल स्थान नहीं। उसमें सहकारिता, सर्वसम्मति का अंतर्भाव होता है। प्रत्येक राज्य का स्थान माहात्म्य पवित्र है। युवा इटली' की इच्छा है कि व्यवस्था की रचना में प्रत्येक प्रदेश की स्वतंत्रता का यथासंभव सम्मान हो। परंतु राजकीय व्यवस्था की रचना में संपूर्ण इटली देश एकीभूत और केंद्रीभूत हो और वह यूरोपीय आंदोलन में एक राष्ट्र के नाते व्यवहार करे। एतदर्थ 'युवा इटली' एक राष्ट्रैक्यवादी संस्था है।
इस प्रकार युवा इटली' के मूलभूत सिद्धांत तथा उनके तात्कालिक परिणामों का सार रूप में दिग्दर्शन किया है। यह 'युवा इटली' का धर्ममत है और केवल उन्हीं को 'युवा इटली' में प्रवेश दिया जाएगा जिनकी इस राष्ट्रीय धर्म पर श्रद्धा है, जो उसको स्वीकार करने के लिए तैयार हों।
इन मूलभूत सिद्धांतों का छोटे-मोटे प्रश्नों में किस प्रकार उपयोग किया जा सकता है और उन सिद्धांतों से तथा उन विविध प्रश्नों से उत्पन्न राजकीय घटनाओं की किस प्रकार व्यवस्था करनी है आदि मुद्दों पर 'युवा इटली' जैसी संस्था पूर्ण विचार कर रही है, भविष्य में भी करेगी। इस तरह के दोयम प्रकार के मुद्दों का निर्णय लेते समय सदस्यों के विचारों पर गौर किया जाएगा और उनके मतभेदों को उचित रीति से समाप्त किया जाएगा।
इस संस्था के उपर्युक्त प्रमुख सिद्धांतों के स्पष्टीकरण तथा प्रसार हेतु समय-समय पर लेख प्रकाशित किए जाएंगे। इस लेखमाला में इन सिद्धांतों तथा उसके सभी महत्त्वपूर्ण प्रश्नों का विचार उत्क्रांति नियम पर, जो मनुष्यजाति का नियमन करता है तथा जो हमारी इटली की ऐतिहासिक प्रवृत्ति पर आधारित होगा।
जो महान् तत्त्व अन्य सभी राष्ट्रों के लिए सामान्य है, युवा इटली के सदस्यों को मान्य है और उपर्युक्त विशिष्ट सिद्धांत जो इटली के लिए लागू हैं उन्हीं सिद्धांतों का यथासंभव सभी इटालियन लोगों को उपदेश दिया जाएगा।
दीक्षाधिकारी तथा दीक्षित वर्ग इन दोनों को स्मरण रखना होगा कि प्रत्येक सिद्धांत के अनुसार आचरण अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। बिना नीति के नागरिकता असंभव है। किसी भी पवित्र महत्कार्य का श्रीगणेश करते समय पहली बात है-सद्गुणों द्वारा अपनी अंत:शुद्धि करना। जब उन सिद्धांतों का, जो हम सिखाते हैं और प्रत्यक्ष कृति का कोई तालमेल नहीं होता, जब 'कथनी और करनी' एक नहीं होती, तब उन सिद्धांतों के प्रसार के लिए किया जानेवाला प्रयास ढोंग मात्र होता है। यह अत्यंत भ्रष्टता का चिह्न है। केवल सद्गुण और पवित्राचरण से ही अन्य लोग 'युवा इटली' को अपनी ओर मोड़ सकते हैं। यदि वे अपने विचार स्वीकार नहीं करते, उनसे अत्यंत श्रेष्ठ आचार से हम विभूषित नहीं हैं, तो हम एक अभागे तथा हठधर्मी पंथ के अनुयायी सिद्ध होंगे। परंतु 'युवा इटली' अभागा अथवा हठधर्मी पक्ष नहीं है, वह राष्ट्रधर्म है। वह देवदूतों की समिति है और हम इटली देश के भाग्यरवि के अरुण हैं। इटली के राष्ट्रधर्म का श्रीगणेश करना ही हमारा प्रमुख कर्तव्य है।
:४:
जिन साधनों से उपर्युक्त स्वतंत्रता-प्राप्ति के श्रेष्ठ उद्देश्य की सिद्धि करनी है, वे साधन दो हैं-शिक्षा और आक्रमण। इन दो साधनों का प्रयोग साथ-साथ ही आरंभ होगा और उसकी एकतानता की जाएगी। शिक्षा का उदाहरण वक्तृत्व तथा कलम द्वारा दिया जाकर उसका संपूर्ण रुख-आक्रमण का महत्त्व तथा आवश्यकता लोगों के मन पर अंकित करना होगा। आक्रमण यथासंभव इस तरह से किया जाएगा कि उससे राष्ट्रीय मन को उच्च शिक्षा प्राप्त हो।
स्वतंत्रता संग्राम तथा स्वतंत्रता प्रीति की शिक्षा इटली में गुप्त रीति से दी जाएगी। परंतु अन्य देशों में प्रकट रूप से दी जाएगी।
'युवा इटली' के सदस्य, संस्था से छपवाई गई लेखमाला का खर्चा चलाने के लिए अनुमानित व्यनिधि की यथाशक्ति व्यवस्था करेंगे व उसे भेजने का प्रयास करेंगे।
जो देशभक्त निर्वासित हो गए हैं उनका प्रमुख कर्तव्य यही है कि वे राष्ट्रधर्म प्रवर्तन समिति की स्थापना करें।
विद्रोह का श्रीगणेश करने की तैयारी गुप्त रूप से की जाएगी। उससे संबंधित प्रशिक्षण तथा उसकी जानकारी इटली में और इटली के बाहर भी अत्यंत गुप्त रीति से दी जाएगी।
'युवा इटली' की संपूर्ण तैयारी होने पर, उचित अवसर देखकर विद्रोह का आरंभ किया जाएगा। इस विद्रोह का स्वरूप हमेशा राष्ट्रीय रखा जाएगा। इस विद्रोह का कार्यक्रम ऐसा ही रखा जाएगा कि उसमें भावी राष्ट्रैक्य के बीज अंकुरित किए जाएँ। इस आक्रमण का आरंभ किसी भी स्थान पर हो तथापि फहराया हुआ ध्वज तथा हमारा साध्य एकराष्ट्रीयता ही होगा। वह विद्रोह राष्ट्र संघटना, के लिए होगा, अतः वह राष्ट्र के नाम पर ही किया जाएगा और हमारा भरोसा उस जनपद पर भी होगा जिसे आज तक तिरस्कृत किया गया था। उस विद्रोह का उद्देश्य सर्वराष्ट्र स्वतंत्र करना रहेगा। हमारी इच्छा है कि हमारा संपूर्ण इटली देश स्वतंत्रता-तिलक से अभिमंडित हो। अत: यद्यपि विद्रोह का आरंभ किसी एक विवक्षित प्रदेश में हआ हो तथापि हमारे अन्य देश-बंधुओं को दास्यमुक्त करने के लिए हमारे बल अपने ही राज्य का विचार न करते हुए बाहर भी निकलेंगे और आक्रमण करते हुए एकदम धावा बोलने की व्यवस्था करते रहेंगे। इस क्रांति का प्रसार जितने अधिक प्रदेशों में किया जाएगा उतनी उसकी नींव अधिक चौड़ी होती जाएगी। और यह प्रसार तथा उसका व्यापक होना जितनी शीघ्रता के साथ किया जा सकता है उतना करने का प्रयास किया जाएगा।
स्वदेश स्वतंत्रता की वास्तविकता महत्ता जनता समझे और उसके हृदयमंदिर में स्वदेश की मूर्ति सहानुभूति के साथ तथा दिव्य प्रेम के कमल में आरूढ़ हो, यही हमारा उद्देश्य होने के कारण छेड़ा गया यह क्रांति का संग्राम इसी तरह आगे बढ़ेगा कि सभी लोगों का यह दृढ़ विश्वास हो सके कि स्वदेशहित ही स्वहित है।
हमारी यह दृढ़ धारणा है कि हमारी यह पितृभूमि अपनी स्वतंत्रता प्राप्त करने में समर्थ है। यदि एक राष्ट्र निर्माण करना हो तो पहले राष्ट्रनिष्ठा उत्पन्न करनी चाहिए। वह राष्ट्रनिष्ठा विदेशियों की सहायता से प्राप्त पूर्ण विजय से भी कभी उत्पन्न नहीं होगी। जो आक्रमण विदेशियों के सहारे किया जाता है उसका प्रारब्ध भी उस परकीय परिस्थितियों पर निर्भर रहने से यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि वह विजयी तथा शाश्वत होगा। इस संपूर्ण ऐतिहासिक सत्य पर हमारा पूर्ण विश्वास होने के कारण 'युवा इटली' यद्यपि विदेशियों की सहायता का यथासंभव फायदा लेना नहीं छोड़ेगी तथापि हमारे आक्रमण का स्वरूप तथा समय हम ही निश्चित करेंगे। हमें ही यह निश्चित करना होगा कि हमें किस मार्ग से जाना है।
क्रांतिप्रिय यूरोप विद्रोह का झंडा फहराने की ही प्रतीक्षा कर रहा है तो फिर उसे इटली ही क्यों न फहराए। परवशता का पाश तोड़ने के लिए 'युवा इटली' को जिस क्षेत्र की ओर जाना है वह क्षेत्र आज तक किसी के भी पादस्पर्श से भ्रष्ट नहीं हुआ। परदास्यता का विनाश करने के लिए 'युवा इटली' ने जो प्रयोग आरंभ किया वह प्रयोग आज तक किसी ने भी नहीं किया है। आज तक जितनी तैयारी की गई उतनी केवल एक विशिष्ट वर्ग ने ही की है। उसमें जन की सहभागिता नहीं थी। परंतु अब राष्ट्र का केवल एक ही विभाग आंदोलन में सम्मिलित नहीं है, उसकी विराट् देह नखशिख चैतन्ययुक्त होकर खड़ी रहेगी। रणभूमि में वही विजयी होगी।
क्योंकि विजय प्राप्त करने के लिए जिसकी कमी थी वह बात हमारी 'दुर्बलता नहीं, हमारी आत्मनिष्ठा का अभाव था। परंतु जब एक बार इस आत्मनिष्ठा से युक्त तथा स्वतंत्रता के लिए प्रतिज्ञाबद्ध इटली के दो करोड़ लोग ताल ठोंककर खड़े हो जाएँगे तब वे क्या कुछ नहीं कर सकते? अब विदेशी दासता की बेड़ी तोड़ी जानी है इसलिए दो करोड़ जनों का राष्ट्र बड़ा हथौड़ा उठाता है तो उस बेड़ी के टुकड़े-टुकड़े होने ही चाहिए।
यह आत्मनिष्ठा तथा स्वतंत्रता-प्रेम उत्पन्न करने का प्रथम कर्तव्य उन विचारों के उपदेश से तथा उसके पश्चात् जोरदार आक्रमण करके संपन्न किया जाएगा। प्रथम मन:प्रवर्तन और उसके पश्चात् आक्रमण किया जाएगा।
'युवा इटली' आक्रमण और क्रांति में अंतर करती है। आक्रमण की विजय होने के पश्चात् क्रांति का आरंभ होता है। अतः पहला आक्रमण होने के बाद विद्रोह का आरंभ होने से लेकर इटली देश संपूर्ण स्वतंत्र होने तक जो मध्यवर्ती समय होगा उस अवधि में एक उस सत्ता का परिवर्तन होगा जो अस्थायी है और थोड़े लोगों के हाथों में केंद्रीभूत है। परंतु एक बार मातृभूमि स्वतंत्र हो गई कि प्रत्येक अधिकार राष्ट्रीय समिति के हाथों सौंप दिया जाएगा। यह राष्ट्र समिति ही राष्ट्राधिकार का उद्गम होने के कारण प्रत्येक व्यक्ति उसका अधिकार सर-आँग पर मानेगा।
स्वाधीनता संग्राम छापामार या कूटनीति से लड़ा जाएगा। सबल परकीय सेना की धज्जियाँ उड़ाकर जो स्वदेश मुक्त करना चाहते हैं वे कूटनीति ही अपनाएँ। युद्ध के आरंभ में परसत्ता की नजर बचाकर अनुशासनबद्ध सेना तैयार करना असंभव होता है; परंतु कूटनीति प्रणाली से यह कमी पूरी की जा सकती है। इस कूटनीति में छोटी-छोटी टोलियों की आवश्यकता होने के कारण इन्हें तुरंत तैयार किया जा सकता है। इनके सरल-सुलभ स्वरूप के कारण शत्रु की दृष्टि सहजतापूर्वक बचाई जा सकती है।
दूसरा लाभ यह होता है कि छापामार या कूटयुद्ध की टोलियाँ इधर-उधर फैली हुई रहने के कारण शत्रु को बहुत बड़ी मात्रा में रणभूमि पर सेना लानी पड़ती है। उसे नाकों दम करने के लिए छोटी-छोटी टोलियाँ समर्थ होती हैं। सारांशतः शत्रु की प्रचंड सेना को देशोद्धारकों की छोटी सी सेना उलझा सकती है। तीसरा लाभ यह है कि परतंत्रता में लोगों को सैन्य प्रशिक्षण देना सर्वथा असंभव होता है और बिना सैनिकी प्रशिक्षा से परतंत्रता कभी समाप्त नहीं होती। इस प्रकार इस वर्तुलाकार तर्क का उच्छेद करने के लिए कूटयुद्ध के अतिरिक्त कोई अन्य शस्त्र नहीं। क्योंकि छापामार युद्ध आरंभ करने के लिए बहुत कम सैनिकी शिक्षा की आवश्यकता होती है। वह इतनी अल्प मात्रा में होती है कि परतंत्रता में सहजतापूर्वक दी जा सके। परंतु एक बार इस कूटयुद्ध पद्धति का आरंभ होते ही शेष सैनिकी प्रशिक्षण स्वानुभव से अपने आप मिलने लगता है और राष्ट्र युद्धक्षम ही बनता है। अतः परतंत्रता की सभी धौंस, दबाव ताक पर रखते हुए युद्ध की परीक्षा में निपुण बनाने के लिए कूटयुद्ध ही एकमात्र मार्ग है। चौथा लाभ यह है कि विद्रोह की सफलता उसके प्रसार पर निर्भर रहती है और कूटयुद्ध की टोलियाँ चारों ओर भ्रमणशील रखना संभव होने से यह प्रसार तुरंत किया जा सकता है। कूटयुद्ध द्वारा पितृभूमि में पगपग पर देश वीर्यत्व की कृति से पावनता का साक्षात्कार होता है। प्रत्येक स्थल स्वाधीनता संग्राम के संसर्ग से राष्ट्र क्षेत्र बनता है और इस तरह का एक-एक क्षेत्र स्वर स्मृति द्वारा हजारों देशवीर उत्पन्न करता है। इस युद्ध प्रणाली में बड़ी मात्रा में सेना संगठित करने की आवश्यकता न होने के कारण प्रत्येक व्यक्ति की आत्मसुरक्षा की चिंता करना ही पर्याप्त होता है, और एतदर्थ पाँचवाँ लाभ यह है कि प्रत्येक स्थान पर युद्धजन्य परिस्थिति होने के कारण स्थानिक शूरता को बस उतना ही क्षेत्र प्राप्त होता है जिसमें वह अपने करतब का प्रदर्शन कर सके। तिसपर अवसर मिलने पर अथवा आवश्यकता पड़ने पर वे झट से संघटित हो सकते हैं। परंतु यह सहजता शत्रु की अनुशासनबद्ध तथा भारी सेना में असंभव होने के कारण छठवाँ लाभ यह होता है कि शत्रु को ऐसी युद्ध पद्धति से, जिसकी उसे रत्ती भर भी जानकारी नहीं है, डराया जा सकता है। इसमें भी एक बार पराजित हो जाने पर भी अधिक-सेअधिक एकाध टोली डूब सकती है, परंतु शेष सभी सुरक्षित रह सकती हैं। अत: सातवाँ लाभ यह होता है कि कितनी भी बार पराजित होने से छापामार पद्धति से लड़ने में निर्मूल होने का भय कदापि नहीं होता। पराजय होने की आशंका आते ही हिरन हो जाओ। अपना खजाना खोने का भय नहीं, न ही शत्रु को बड़ी लूट मिलेगी। सभी टोलियाँ एक ही उद्देश्य से तथा एक ही स्वदेश प्रेम से आबद्ध होने के कारण उनमें अराजकता नहीं फैलती। परंतु प्रायः असंगठित न रहने के कारण उनमें से किसी एक टोली का सुराग मिलने पर भी अन्य टोलियों की योजनाएँ सुरक्षित रहती हैं, यह आठवाँ लाभ। कूटयुद्ध से राष्ट्रीय युद्ध को विश्वासघात से बचाया जा सकता है और इस प्रकार किसी स्थान पर विश्वासघात होने पर अथवा. शत्रु के चंगुल में यह स्थल फँसने से कुछ अधिक हानि नहीं होती। क्योंकि उस युद्ध की नींव एक ही स्थान पर नहीं होती। एकाध शहर छूट जाए तो अन्यत्र जाकर दूसरे शहर पर कब्जा किया जा सकता है। इसमें नौवाँ लाभ यह होता है कि एक ही निश्चित स्थान पर युद्ध की नींव रखने से जो अनर्थ होना संभव होता है उसे सहजतापूर्वक टाला जा सकता है। स्वतंत्रता देवता के मंदिर जाने के लिए, सही तरीके से आक्रमण करने पर कूटयुद्ध ही एकमात्र मार्ग है। कूटयुद्ध सुरक्षित है, अविनाशी है। (इटली के रामदास का कूटनीति पर यह स्तोत्र पढ़ते समय, उसपर मनन-चिंतन करते समय और उसका पठन करते समय महाराष्ट्र के मैझिनी का किसे स्मरण नहीं होगा? समर्थ के उपदेश में वृकयुद्ध' पर कटाक्ष है और श्रीमच्छत्रपति से लेकर स्वतंत्रता-प्राप्ति के राजारामीय युद्ध के अंत तक मराठे वीरों ने इसी कूटयुद्ध का सहारा लिया था। परंतु इटली के इस महापुरुष की तरह भविष्यवादी आत्माएँ हमारे देश में भी उत्पन्न हुई थीं-इसपर गर्व करने अथवा उन महात्माओं के जन्म तथा उपदेश इटली की तरह सार्थक न करते हुए इस बात से लज्जित हो जाएँ ऐसा हिंदुस्तान पुनः मृतावस्था के पहले जैसा ही था-ऐसा क्यों यह कुछ समझ में नहीं आता।)
इस प्रकार युद्ध का श्रीगणेश कूटयुद्ध से करें। परंतु संभव होते ही अनुशासनबद्ध सेना की रचना चुनिंदा सिपाहियों को संघटित करते हुए सोच समझकर करें। विद्रोह से आरंभ किया गया कार्य इस सेना की सहायता से आरंभ किए हुए युद्ध को अंत तक पहुँचाएगा।
युद्ध के ये मूलभूत सिद्धांत सर्वत्र प्रसृत करने के लिए युवा इटली' के सारे सदस्य कमर कसकर प्रयास करेंगे। इन सिद्धांतों का विवरण, स्पष्टीकरण और विद्रोह के चलते इन सिद्धांतों का उपयोग किस तरह किया जाए यह 'युवा इटली' की लेखमाला द्वारा समय-समय पर प्रसिद्ध किया जाएगा।
:५ :
युवा इटली' के सारे सदस्य प्रति व्यक्ति पचास सेंटियस (लगभग सात आने) प्रतिमास संस्था के कोषागार को देंगे। यदि अनुकूल हो तो इससे अधिक रकम देना स्वीकार करेंगे।
: ६ :
'युवा इटली के रंग तीन हैं-श्वेत, रक्त और हरित। युवा इटली का ध्वज इन रंगत्रयो से भूषित होगा। उसकी एक ओर स्वतंत्रता, समता, मनुष्यता ये सिद्धांतत्रय और दूसरी ओर राष्ट्रैक्य तथा दास्यमुक्ति का सिद्धांतद्वय झिलमिलाता रहेगा।
: ७ :
'युवा इटली' का सदस्य होने के लिए इच्छुक प्रत्येक व्यक्ति 'युवा इटली' की दीक्षा ग्रहण करते समय अपने दीक्षा गुरु के सामने निम्नलिखित शपथ ग्रहण करेगा-
जगज्जनक ईश्वर का स्मरण करते हुए, अपनी परमपवित्र मातृभूमि का स्मरण करते हुए परकीय अथवा आंतरिक शत्रु के अत्याचार से स्वदेश सुरक्षा के पवित्र कार्यार्थ जो-जो देशवीर बलि चढ़ गए हैं-उन सभी देशवीरों का स्मरण करते हुए-
ईश्वर ने जो देशबंधु मुझे प्रदान किए हैं उनके प्रीत्यर्थ तथा जिस देश में जन्म लेने का अहोभाग्य मुझे प्राप्त हो गया है, उस जन्मभू प्रीत्यर्थ, अपने आवश्यक कर्तव्यों का स्मरण करते हुए-
जिसने मेरे पूर्वजों को जन्म दिया और जहाँ मेरी संतान पनपी है उस भूमि के लिए मनुष्य प्राणी में उत्पन्न जो सहज पवित्र प्रीति है, उसी देशप्रेम का स्मरण करते हुए-
दुष्टता, कुटिलता, उपहार, अत्याचार तथा दास्यता के संबंध में मनुष्य प्राणी में जो स्वाभाविक तथा मनस्वी घृणा, विद्वेष होता है उसका स्मरण करते हुए-
अन्य स्वतंत्र देश के नागरिकों में खड़े रहने पर जब मुझे यह दिखाई देता है कि मुझे नागरिकता का एक भी अधिकार नहीं है, मेरा कोई स्वदेश नहीं जिसे मैं अपना कह सकूँ, मेरे पास स्वदेश का ध्वज नहीं है-तब जिस लज्जा से मेरा मुख स्याह पड़ेगा, उस लज्जा का आत्यंतिक स्मरण करते हुए-
स्वातंत्र्य के लिए उत्पन्न होते हुए भी मेरी आत्मा जिसका भोग नहीं कर सकती और सत्कृत्य के लिए ही जिसकी उत्पत्ति नहीं होती, दासता के भयानक तथा शून्य शब्द कांजीहाउस में पड़ने से मेरी आत्मा जो सत्कृत्य नहीं कर सकती, तथापि इस स्वयं स्वतंत्र आत्मा की जो स्वाभाविक प्रवृत्ति स्वतंत्रता की ओर तथा सत्कृत्य की ओर ही आकर्षित होती है अपनी उन सभी स्वाभाविक प्रवृत्तियों का स्मरण करते हुए-
अपने पूर्वकालीन महत्पद की स्मृति तथा वर्तमान नीचता का स्मरण करते हुए-
स्वतंत्रता के लिए लड़ते समय फाँसी, जेल अथवा वनवास में देहत्याग को प्राप्त हुए देशवीरों की माताओं ने जो आँसू बहाए हैं उन पवित्र आँसुओं का स्मरण करते हुए-
मेरे करोड़ों बंधुओं की छटपटाती हुई आत्माओं का स्मरण करते हुए-
मुझको अमुक व्यक्ति के लिए ईश्वर ने इटली देश का जो विशेष कार्य सौंपा है उसमें तथा उसे पूर्ण करने के लिए इटली के प्रत्येक व्यक्ति को कमर कसनी होगी। इसी कर्तव्य पर संपूर्ण विश्वास करते हुए-
जहाँ-जहाँ ईश्वरीय सत्ता ने आदेश दिया है कि यहाँ राष्ट्रनिर्मिति होनी ही चाहिए वहाँ-वहाँ उस राष्ट्र की निर्मिति की शक्ति भी उसने निर्माण की है। वह शक्ति जनपद में ही बसी हुई है और यदि उस शक्ति का प्रयोग जनपद द्वारा तथा जनपद के लिए ही किया जाएगा तो विजयश्री अवश्य गले में माला डालेगीइसपर मेरा संपूर्ण विश्वास होने के कारण-
यह जानकर कि कर्तृत्व तथा स्वार्थ-त्याग ही सद्गुण है और संहति तथा हेतुसातत्य ही सद्बल है-
मैं इसी राष्ट्रधर्म का पालन कर रही 'युवा इटली' नामक संस्था में अपना नाम दर्ज करता हूँ और यह शपथ ग्रहण करता हूँ कि उनके साथ इटली देश को एक स्वतंत्र, दास्यमुक्त तथा जनसत्ताक राष्ट्र बनाने का मैं आजन्म प्रयास करता रहूँगा-
'युवा इटली' के उद्देश्य की, उस हेतु की पूर्ति करने का जो एकमात्र साधन है उस संहति की और जिसके बिना विजयश्री सतत निवास नहीं करेगीऐसे सद्गुणों की शिक्षा मैं स्वदेश बंधुओं को वक्तृत्व, लेखन अथवा व्यवहार द्वारा देने का प्रयास यथाशक्ति तथा यथासंभव करता रहूँगा।
इसके अतिरिक्त अन्य किसी भी संस्था में मैं अपना नाम दर्ज नहीं कराऊँगा।
युवा इटली' के अंतिम सिद्धांतों को मिलाकर जितने भी आदेश होंगे उनका पालन करूँगा। मैं इस संस्था के सारे नियम गुप्त रखूगा, भले ही मेरे प्राण क्यों न चले जाएँ।
अपने सहयोगी बंधुओं को उपदेश और कृति से सहायता करने के लिए अब और भविष्य में भी मैं आजन्म शपथ का पालन करूँगा।
यदि यह सब अथवा इसमें से एक शब्द भी विश्वासघात से मैंने तोड़ा तो मेरे मस्तक पर ईश्वरीय प्रकोप की बौछार हो, मनुष्य जाति मेरा धिक्कार करे और असत्य प्रतिज्ञा का लांछन मेरे मुख पर कालिख पोते।
(इस प्रकार 'युवा इटली' संस्था का कार्यारंभ होने के बाद उसके 'शिक्षा' और 'आक्रमण' इन दो परस्परावलंबी कर्तव्यों में से पहला कर्तव्य पहले पूरा करना चाहिए था। वह जितनी मात्रा में उत्तम होगा उतनी मात्रा में आक्रमण सफल होना अधिक संभव था। एतदर्थ राष्ट्र में स्वतंत्र और सत्य मार्गी विचारों का प्रसार करते हुए युवकों के अंत:करण की एकवाक्यता करने के लिए मैझिनी ने 'यंग इटली', या 'युवा इटली' नाम से ही मार्सेलिस में एक पत्र निकाला। मार्सेलिस फ्रेंच सीमा में होने के कारण मैझिनी उस 'युवा इटली' पत्र द्वारा स्वतंत्रता की शिक्षा प्रकट रूप में देने लगा। इस पत्र के आरंभ से पहले निकाला गया घोषणापत्र अत्यंत महत्त्वपूर्ण होने के कारण उसके कुछ अंश नीचे दिए हैं।)
'युवा इटली'का घोषणापत्र
इटली से स्वदेश सेवा करने के अपराध के कारण जिन्हें स्वदेश त्याग करना पड़ा और जो आजकल परदेस में समय व्यतीत कर रहे हैं, उनके विचार संबंधी अब तक जितनी बात की गई उतनी बहुत है। अब क्रिया ही करके दिखाएँगे। मन-हीमन जलानेवाली तीव्र संताप की ज्वाला तब तक दबाकर रखेंगे जब तक उचित समय नहीं आता। दरमियान हम एक शब्द भी नहीं कहेंगे।
परंतु वास्तविक स्थिति का परीक्षण करने पर यह दिखाई देता है कि इटलीवासियों में आज भी प्रमुख सिद्धांतों के संबंध में भयंकर अज्ञान है। उन सिद्धांतों का जब तक प्रशिक्षण नहीं दिया जाता, जब तक उन सिद्धांतों का पारायण करते हुए इटली का हृदय परिवर्तन नहीं किया जाता तब तक विद्रोह का प्रयास सफल नहीं होगा।
हो सकता है महान् राज्यक्रांतियाँ इन्हीं सिद्धांतों से घटित होती हों। ये क्रांतियाँ पहले मन में तैयार होती हैं, फिर व्यवहार में लाई जाती हैं। ये क्रांतियाँ किसलिए करनी हैं और कैसी करनी हैं जब इसका यथार्थ में स्पष्ट मन होता है तब तदनुसार ही कृति होती है। जिस समय किसी प्रकृतिदत्त अथवा महत्त्वपूर्ण पवित्र अधिकार के लिए तलवार का प्रयोग किया जाता है, केवल उसी समय तलवार विजयी होती है। परंतु इसका पूर्वज्ञान होना चाहिए कि ये अधिकार किसके हैं? संपूर्ण समाज की आत्मशिक्षा बढ़िया ढंग से चलने पर ही अधिकार और कर्तव्य का ज्ञान होता है। मानसिक तैयारी के अभाव में आरंभ की गई केवल धींगामुश्ती उतनी ही सारहीन होती है। परवशता का संपूर्ण तिरस्कार, इसका पूर्ण ज्ञान कि शत्रु हमें किस प्रकार धोखा दे रहे हैं तथा इसकी स्पष्ट कल्पना की अशुभ का सर्वनाश कैसे किया जाए आदि तत्त्वों का जनता को उत्तम बोध होता है तभी तो उनके हाथों सफल क्रांतियाँ होती हैं। तत्त्व सिद्धांतों को पूरी तरह समझाने पर लोगों को अपने अधिकारों का बोध होता है। अधिकार का ज्ञान होने से उनके मन में स्वतंत्रता की तीव्र कामना उत्पन्न होती है। इस प्रकार लोगों को शिक्षा प्रदान करते-करते उन्हें स्वाधीनता की आवश्यकता प्रतीत होने लगी और उसकी प्राप्ति की अनिवार इच्छा उत्पन्न हो गई कि समझ लीजिए उनमें शक्ति उत्पन्न हो ही गई।
एतदर्थ इटली निवासियों को प्रमुख तत्त्वों की जानकारी तथा शिक्षा देने के लिए हमने एक वृत्तपत्र शुरू करने की योजना बनाई है। उसमें धीरे-धीरे तथा प्रगमन की मात्रा से विभिन्न विषयों पर चर्चा की जाएगी तथा प्रत्येक विषय के अनुरूप मूल सिद्धांतों की आवश्यकता बताई जाएगी।
स्वदेश प्रीति, परसत्ता के जुए से, उसकी की बेड़ियों से, उस परदास्य की जेल से, उस ऑस्ट्रिया के अत्याचारी प्रशासन से संपूर्ण घृणा, उसका जुआ उतार फेंकने का, उस श्रृंखला को तोड़ने का, उस परसत्ता का विनाश करने का पूर्ण संकल्प चारों ओर होना चाहिए। यह सिद्धांत सर्वमान्य होना चाहिए। वह होगा, वह पूरा हो रहा है। परंतु यह अंतिम उद्देश्य किस तरह पूर्ण करना है इससे संबंधित प्रश्न में बड़ा झंझट उत्पन्न हो रहा है।
हम लोगों में ऐसे बहुत सारे पुराने लोग हैं, जिनमें स्थानिक कर्तृत्व तथा स्थानिक महत्त्व हैं। उनके विचार से राजनीतिक अधिकार कूटनीति की सहायता से थोड़े-थोड़े प्राप्त करने चाहिए। उन्हें अपने सिद्धांत स्वीकार हैं, परंतु उनके परिणाम स्वीकार नहीं। वे बड़े दुःखी होकर स्वीकार करते हैं कि अत्याचार और परवशता का अतिरेक हो रहा है। परंतु अतिरेकी उपाय करने का साहस उनमें नहीं है। जिस षड्यंत्र से तथा युक्ति से विदेशियों ने उन्हें दास बनाया उसी षड्यंत्र तथा लुकाछिपी के खेल द्वारा वे मुक्ति चाहते हैं। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि गुलामों, दास्यता के योग्य ही उनके विचार हैं। इटली में जिस समय स्वतंत्र मनोवृत्ति का नामोनिशान तक नहीं था तब गुलामी की अवस्था में उनका जन्म हो गया और गुलामी में ही उनकी शिक्षा हुई, वे पले-बढ़े। अतः अपने अधिकारों के लिए, अपनी पूर्वकालीन समृद्धि के लिए तथा अपने प्रत्यक्ष अस्तित्व के लिए ताल ठोंककर खड़े होनेवाले लोगों पर उन्हें भरोसा नहीं, इसमें कैसा आश्चर्य? वे नहीं जानते कि साहस और हिम्मत में कितनी शक्ति होती है। इसी कूटनीति की सनक से हम हजारों बार धोखा खा चुके हैं।
वे अभी तक यह समझ नहीं पा रहे हैं, पिछले अर्धशतक तक इटली देश में पुनरुज्जीवन के साहित्य को सँजोया गया है और हमारे लोग सोचने लगे हैं कि अब यह स्थिति सुधरनी ही चाहिए।
वे यह समझ नहीं पा रहे हैं कि यह इटली देश जो केवल सदियों से केवल धंसा हुआ है, उसके उबरने के केवल दो ही मार्ग हैं-सद्गुण और स्मरण।
वे यह नहीं समझ रहे हैं कि दो करोड़ साठ लाख लोग पवित्र कार्य में 'देह वा पातयेत अर्थं वा साधयेत' की गर्जना करके उठ खड़े हो जाएँ तो त्रिभुवन में अजेय होते हैं।
उन्हें यह संभव प्रतीत न होता कि संपूर्ण इटली को एक सिद्धांत के लिए, एक उद्देश्य के लिए एक किया जा सकता है। कम-से-कम एक बार भी उन्होंने कभी इस तरह का प्रयास किया है ? इस प्रयास में मृत्यु को भी गले लगाने के लिए वे कभी तैयार हुए हैं? संपूर्ण इटली के नाम पर उन्होंने कभी राष्ट्रयुद्ध आरंभ किया है? जनता को उन्होंने कभी ऐसी शिक्षा दी थी कि मोक्ष-प्राप्ति का एक ही मार्ग है कि आत्मोन्नति आत्मबल पर करनी होती है कि लड़ाई के बिना कभी भी स्वतंत्रताप्राप्ति संभव नहीं? लडाई निर्णायक तुमुल है। जिसे विजय के बिना अथवा स्वर्ग के बिना दूसरी संधि ज्ञात नहीं? 'हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्ग जित्वा वा भोक्ष्य से महीम्' इस प्रकार की निश्चयात्मक लड़ाई के बिना स्वतंत्रता की आस नहीं। इस तरह का प्रशिक्षण कभी लोगों को दिया था ? नहीं? अपितु साहसपूर्ण प्रयासों से डरकर वे इधर-उधर दुबककर बैठे अथवा सहमते हुए, घबराते हुए पग उठाते रहे, जैसेकि जिस परमपवित्र स्वतंत्रता समर के मार्ग पर वे खड़े थे, वह अवैध मार्ग था। मानो स्वतंत्रता-प्राप्ति का प्रयास करना एक घोर अपराध था। उन्होंने राष्ट्रसभा (Congress) तथा प्रधानमंडल (Cabinets) की भोंडी तथा दुर्बल संस्थाओं की ओर उँगली उठाते हुए लोगों को धोखा दिया है। परकीयों की सहायता का वचन देकर जनता की आत्मनिष्ठा तथा आत्मत्याग की ज्योति को उन्होंने बुझाया है और जो समय जनता के हृदय परिवर्तन में अथवा समर में व्यय करना है वह समय उन्होंने कानूनी बहस में व्यर्थ गँवाया है और आखिर अब नौ-नौ आँसू बहा रहे हैं कि राष्ट्र में ही आत्मनिष्ठा नहीं है। जिन्होंने उस आत्मनिष्ठा को अपने उदाहरण से कभी प्रदीप्त करने का प्रयास नहीं किया, वे अपनी ही कायरता तथा चंचलता से मारे गए लोगों के जोश की खिल्ली उड़ा रहे हैं।
परंतु बेचारे सुखी रहें। क्योंकि उनसे जो भूप्रमाद हो गए वे उनकी नीचता के कारण नहीं, भीरुता के कारण हुए हैं। तिसपर क्रांति की स्थिति में घटित प्रत्येक भूल अंतिम सत्य की एक-एक सीढ़ी ही है। अभी-अभी जो गलतियाँ हुईं वे क्रांतिशास्त्र पर लिखीं हजारों पुस्तकों से अधिक उत्तम ढंग से युवा पीढ़ी को उपदेश करेंगी। उनकी गलतियों का युवा पीढ़ी को लाभ होगा। इसके पहले ही यह लाभ उठाना था। यदि वह लाभ उठाते और राष्ट्र इससे पहले ही सावधान होता तो नई भूलें टाली जा सकती थीं। परंतु किंचित् दस सदियों के इतिहास का सार पर्याप्त नहीं था। आज तक परकीयों के वचनों तथा आशा पर किए गए घात आत्मनिष्ठा उत्पन्न करने के लिए पर्याप्त नहीं थे। अबकी बार भी सावधान होना है या नहीं? हे इटली देश! क्या आज भी तुम्हारा विश्वास हुआ है या नहीं कि ईश्वर तथा जयश्री शूर पुरुषों के ही वश में होते हैं? कानूनी षड्यंत्र में विजयदेवी नहीं रहती, वह तुम्हारी तलवार की नोंक पर रहती है। क्या अब भी इटली का विश्वास है या नहीं?
जी हाँ, हो गया है। 'युवा इटली' उसी का ही फल है। इस उन्नीसवीं शताब्दी में इटली देश समझ चुका है कि युद्ध के बिना स्वतंत्रता-प्राप्ति नहीं होगी। जनता के बिना लड़ाई नहीं। बहुजन समाज शिक्षा के बिना, राजकीय शिक्षा के बिना युद्ध के लिए प्रवृत्त नहीं होता। और यह शिक्षा प्रदान करने का उत्तम मार्ग है उनके साथ स्वार्थ त्याग और देह त्याग करने के लिए तैयार होना। इटली को ज्ञात हो चुका है कि इस नए कार्य में पुराने खूसटों का, पुराने शवों का कोई काम नहीं। नई परिस्थितियों के लिए नए लोग उत्पन्न होने चाहिए। नवयुवक जिन्हें प्राचीन, दकियानूसी विचारों ने अथवा आदतों ने दूषित नहीं किया, जिनकी आत्माएँ स्वार्थ अथवा लालच के स्पर्श से भ्रष्ट नहीं हुई हैं, जो प्रतिभा के जीवंत झरने हैं उन एवं वे गुण विशिष्ट युवकों से युक्त 'युवा इटली' इन बातों को समझ चुकी है। उसके कर्तव्य की पवित्रता उसे संवेदित कर चुकी है। हमने उन हजारों देशभक्तों की, जो स्वदेश के लिए बलि चढ़ चुके हैं, शपथ लेकर प्रतिज्ञा की है, सिद्ध करना है, अत्याचार से विचार नहीं मरते बल्कि सुदृढ़ होते हैं। हम प्रगति की ओर सदा सर्वदा अभिमुख हैं, उस माननी आत्मा की शपथ ली है, उस युवा रिमिनी के योद्धाओं की शपथ ली है। मॉडेना के देशवीरों के लहू की शपथ ली है।
अजी! देशवीरों का लहू ! उस लहू में स्पष्टतः राष्ट्रधर्म भरा हुआ है। स्वतंत्रता के बीज का एक बार लहू में आरोपण हो गया कि उसका नाश करनेवाला 'इस भूमंडल में कौन है ?' आज हमारा प्रमुख धर्म देश वीरता का है, परंतु कल वह विजय का धर्म होनेवाला है और ऐसी स्थिति में हम युवावर्ग का-जो देशवीरों के धर्म पर विश्वास करता है-कर्तव्य है उस पवित्र कार्य हेतु आजीवन यथाशक्ति प्रयत्न करते रहना। आज शस्त्र नहीं उठा सकते तो हम लेखनी उठाएँगे। जो विचार अधूरे और अव्यवस्थित रूप से अस्त-व्यस्त फैले हुए हैं उन्हें एकत्रित करते हुए स्वतंत्रता-प्राप्ति को व्यवस्थित मोड़ देना और उनमें आत्मनिष्ठा की ज्योति जलानाइस कार्य के लिए लेखनी उठाना अनिवार्य है। अतः हमने विचार किया है कि निश्चित समय पर अपने सिद्धांतों के स्पष्टीकरण तथा प्रसार हेतु हमारे देशबंधुओं का सहायता से स्वतंत्रता-प्राप्ति के अंतिम उद्देश्यानुरूप क्रमशः एक लेखमाला प्रकाशित करें।
हमारा प्रमुख उद्देश्य इटली की स्वाधीनता होने के कारण उसके अनुरूप अंश का ही अन्य देशों की राजनीति द्वारा विवरण किया जाएगा। भूतदया मानवता की प्रकृति है। अतः सर्व राष्ट्रों के साथ भूतदया से आचरण करें यह अबाधित धर्म है। परंतु भूतदया सम-समानों में ही संभव होती है। अतः प्रथम स्वतंत्रता संपादन और पश्चात् भूतदया, इसके बिना हम भूतदया के लिए योग्य नहीं। हम उनका धिक्कार करते हैं जो विदेशियों की सहायता की आशा करते हैं। परंतु अन्य राष्ट्रों को इटली की वास्तविक जानकारी देने का हम प्रयास करेंगे। हम सारे विश्व को सिद्ध करके दिखाएँगे कि इटली अंधी नहीं, भीरु भी नहीं, परंतु अभागी है। इटली अज्ञात है। खोखली शान, अविचार, किए जा रहे अत्याचार का मिथ्या मंडन करने की आवश्यकता उत्पन्न होने के कारण जानबूझकर फैलाई हुई गलतफहमी-इन सभी से परकीय लोगों ने इटली को विश्व भर में बदनाम किया है। हमारे मनोविकार, स्थिति, रीति-रिवाज सभी का जानबूझकर दुष्प्रचार किया जा रहा है।
विदेशी लोग इस बात पर इतरा रहे हैं कि उन्होंने हमारे देश को शांति प्रदान की, शांति। हम अपने घाव अनावृत करेंगे और उनमें से लहू के फव्वारे छूटेंगे, पर विश्व को बताएंगे कि उस शांति के लिए हमें यह मूल्य चुकाना पड़ रहा है। हम कोठरियों से तथा अँधेरे में से अत्याचार के कागजात खींचकर बाहर निकालकर लिखित प्रमाण प्रस्तुत करेंगे कि परकीयों ने हमपर कितने अत्याचार किए। हम अपनी कब्रों में उतरेंगे और अपने देशवीरों की अस्थियाँ उन हजारों अज्ञात योद्धाओं का इतिहास विश्व के सामने रखेंगी। वे हमारी मंत्रणा के, हमारे चट्टान सदृश निश्चय के, विश्व की प्रदूषित उपेक्षा के मूक साथी बनेंगे। उन महात्माओं की ओर निर्देश करते हुए हम अखिल विश्व से कहेंगे कि ऐसी हैं वे आत्माएँ जिन्हें आपने परवशता में कुचल डाला। ऐसा है यह इटली देश जो एकाकी छोड़कर गुलामी में ढकेला गया।
(इसके पश्चात् थोड़े ही दिनों में 'यंग इटली' वृत्तपत्र आरंभ हो गया। इस पत्र की सूचना घोषणापत्र में दी गई थी। उसके अनुसार स्वाधीनता प्रेम, स्वतंत्रता यद्ध की आवश्यकता तथा उसके मार्ग-इनके संबंध में चर्चा जारी रखी गई थी। मैझिनी के लेखों का परिणाम किस तरह हुआ यह बताने की आवश्यकता नहीं है। इतना समय बीतने के पश्चात् भी तथा परदेशियों को भी आज भी जो शब्द प्रेरणा के जीवंत स्रोत प्रतीत होते हैं तथा जिन्हें सुनते ही अत्याचार एवं परवशता की कँपकँपी छूटती है, वे शब्द जिस समय उन स्वतंत्रतावीरों की लेखनी से सर्वप्रथम निकले होंगे और तत्कालीन महत्त्वपूर्ण प्रश्नों के परिणाम सिंहगर्जना द्वारा इटली के युवकों के अंत:करण को सूचित किए होंगे तब उनका परिणाम किस तरह का रहा होगा इसे कल्पना से जानना होगा। मार्सेलिस से वे शब्द बाहर नहीं निकलते थे अपितु पवित्र आवेश से धधकती ज्वालाएँ इटली की पराधीनता भस्म करने के लिए भागती रहतीं। मैझिनी की लेखनी ने मुकुट उलट-पुलट दिए, सिंहासन पलटे, बादशाहियों । के टुकड़े-टुकड़े किए, इटली की तलवार पर स्वतंत्रता का पानी चढ़ाया और यह सिद्ध करके दिखाया कि 'महान् राज्यक्रांतियाँ' तलवार से अधिक सिद्धांतों से ही की जाती हैं। ये क्रांतियाँ पहले मन में होती हैं और फिर व्यवहार में। मैझिनी की लेखनी ने राष्ट्रीय स्वतंत्रता के लिए चतुर्वेद निर्माण किए। कालाकाल का विचार करते हुए जो उन वेदों का श्रवण, मनन तथा ध्यान करेंगे उन्हें कभी परवशता के भूतप्रेतों की बाधा नहीं होगी। उस 'यंग इटली' वृत्तपत्र में मैझिनी के साथ और भी कई स्वदेशभक्त लेखक लेख लिखते। यह पत्र प्रति सप्ताह निकलता। कभी-कभी उसके अंश प्रकाशित होते। उसमें मैझिनी के प्रायः सभी लेख तत्कालीन मुद्दों पर, कानूनों पर तथा विशेष परिस्थितियों पर होने के कारण आजकल साधारण पाठकों के लिए वे अधिक उपयुक्त नहीं हैं। जिन गूढ़ सिद्धांतों का इस लेख में विवरण किया गया है वे उपर्युक्त घोषणापत्र में तथा 'यंग इटली' जैसी गुप्त मंडली की नियम पत्रिका में आए ही हैं। आगे भी आएँगे। अतः इन लेखों का शब्दशः अनुवाद करने की विशेष आवश्यकता नहीं है। वृत्तपत्रों में एक ही सिद्धांत समय-समय पर प्रस्तुत करना होता है, परंतु कालांतर में वही विवरण उकताहट भरा लगने लगता है।
मैझिनी के 'यंग इटली' के तीनों लेखों का, इटली पर कैसा परिणाम हुआ यह उन लेखों के प्रसार के विरोध में कठोर नियमों से ज्ञात होगा। वह विवरण मैझिनी ने ही आगे आत्मचरित्र में दिया है।
तथापि 'यंग इटली' पत्र के साधारण स्वरूप का ज्ञान होने के लिए मैझिनी के लेखों में से महत्त्वपूर्ण अंश ही आगे दिया गया है जो आज भी मनोरंजक तथा उपदेशक हो सकता है।)
'तरुण इटली' वृत्तपत्र आरंभ होते ही उसमें १. युवा इटली, २. रोमाग्ना, ३. सत्यान्वेषण इन विषयों पर लेख थे। इसके पश्चात् 'इटली में स्वाधीनता-प्राप्ति में आज तक आए हुए प्रतिरोध एवं किए गए प्रमाद' इस विषय पर लिखे हैं। उनमें प्रमुख तथा आद्य कारण उत्तम नेताओं की कमी ही थी। नेताओं के मन स्वाधीनता विचारों से पूर्णतया सुसंस्कृत नहीं हुए थे और उन्होंने जनता को गुमराह किया। जनता भी मनःप्रवर्तन में इतनी आगे नहीं निकली थी। इसी कारण अंत:प्रेरणा से विद्रोह करने पर भी सब टाँय-टाँय फिस्स हो जाता था। परंतु वास्तविक भूल नेताओं के कच्चे मन में थी। इटली स्वतंत्र होने में सक्षम होते हुए भी नेताओं ने भिक्षां देहि का आश्रय लिया। दूसरा कारण यह दिखाया गया है कि जनता को इस बात की साधारण शिक्षा भी नहीं दी गई थी कि स्वाधीनता प्राप्त होते ही कैसा प्रबंध करना है। जनसत्ता प्रस्थापित करना अंतिम लक्ष्य न कहने के कारण और यह सिद्ध करके नहीं दिखाए जाने के कारण कि यह संभव है, लोग दुविधा में पड़ गए। मान लो विदेशियों को खेदड़ दिया, पर आगे क्या? उनके सामने कुछ भी स्पष्ट कार्यक्रम नहीं था।
अब 'व्यक्ति' का समय समाप्त हो गया है। 'समाज' का काल आया है। मनुष्य-व्यक्ति लुप्त होकर अब समाज-व्यक्ति आधार तत्त्व हो गया है। राष्ट्रव्यक्ति तक मानवी उत्क्रांति आई हुई है। अत: अब क्रांतिशास्त्रांतर्गत आधार तत्त्व यही है कि 'क्रांति जनपद से जनपद के लिए ही की जानी चाहिए।' यही हमारा ॐकार है। हमारे विचारों का यह सार है। हमारे उपदेश का यह निचोड़ है। क्रांति जनपद से जनपद के लिए ही की जानी चाहिए' यह हमारा शास्त्र, यह हमारा धर्म और यही हमारे अंत:करण का विश्राम।"राजसत्ता और गुलामी, महाजन और साधारण जन, पैट्रीशियन और प्लेबियन, जागीरदारी और रोमन कैथॉलिसिज्म, रोमन कैथॉलिसिज्म और प्रॉटेस्टनिज्म, अत्याचार और स्वतंत्रता-ये ऐतिहासिक द्वंद्व तथा तदर्थ छेड़े गए द्वंद्व युद्ध में कितनी भिन्नता है? चल रहे 'विशिष्टाधिकार' तथा 'जानपदता' इनमें आज तक चले द्वंद्व युद्ध के ही भिन्न-भिन्न नामों से तथा विभिन्न रूपों से निकला हुआ वह पूर्व संस्करण है।
परंतु विशिष्टाधिकार अब समाप्तप्राय हो रहा है और इधर जनपद का उत्कर्ष होते-होते अंत में ईश्वर तक जाकर उन्होंने अपने अधिकार तथा कर्तव्य की शासकीय पत्रिका प्राप्त की है। अब इस विश्व के सारे द्वंद्व सुलझते-सुलझते आखिर 'ईश्वर और जनपद', 'ईश्वर और लोक' के समानाधिकार के निकट आ गया है।
'ईश्वर और जनपद', 'ईश्वर और लोक' यही हमारा भविष्यकालीन कार्यक्रम है। इसीलिए हम लोगों की ओर मुड़कर उन्हें संबोधित करेंगे। उनके समक्ष स्पष्ट करेंगे कि स्वतंत्रता-प्राप्ति तथा स्वतंत्रता-प्राप्ति होने पर सर्वांगीण विकास किस तरह अपने आप होगा, और जब तक राजकीय परवशता है तब तक किसी भी मार्ग में प्रगमन करने में समाज असमर्थ होता है। इसके पश्चात् उन्हें अपनी पूर्वस्मृति का स्मरण दिलाएँगे। उन्हें पूर्ववैभव-संपन्नता के चिह्न दिखाएँगे। उन्हें बताएँगे, किस तरह प्राचीन काल में स्वतंत्रतावीरों ने मातृभूमि की बलिवेदी पर अपनी कुर्बानी दी। वह मातृभूमि की बलिवेदी हम उन्हें दिखाएँगे। उन्हें पेरिस, वारसा, ब्रुसेल के मैदान दिखाएँगे और उन्हें संबोधित करते हुए कहेंगे, 'अजी, ऐसे कृत्य पुनः करना तथा ताल ठोंककर खड़े होना तुम्हारे हाथ में है। भीमभयानक शक्ति लगाकर उठो। ईश्वर तुम्हारे पक्ष में है। अत्याचार से पीड़ितों की वह रक्षा करता है। अतः मृतवत् निद्रामग्न क्यों हो, जागो, शेर सदृश डटकर खड़े हो' और फिर जब इन शब्दों से जनसमूह चैतन्य हो गया, वह उठने लगा, उसके नेत्र उत्साह तथा चैतन्य से चमकने लगे, प्रचंड सागर के हत्स्पंदन की तरह क्षुब्ध जनसमूह के अंत:करण की ध्वनि हमें सुनाई देने लगी कि हम आगे घुसपैठ करेंगे। वह आ गया लैंबर्डी का मैदान, जन हो, देखो, वे अधम वहाँ खड़े हैं जिन्होंने तुम्हें दासता की बेड़ियों में जकड़ा है। आल्प्स पर्वत दिखाई दिया, देशवीरो, देख क्या रहे हो? यह हमारी सीमा है। ऑस्ट्रिया से युद्ध।'
'लोकपक्ष की जय-जयकार ! जनपद की जय-जयकार। क्योंकि जनता को ईश्वर ने पसंद किया है। विश्व प्रेम, समाज सहकारिता तथा दास्यमुक्ति इन ईश्वरी नियमों की पूर्ति करने के लिए ईश्वर ने जनपक्ष को चुना है।'
आगे चलकर मैझिनी ने स्पष्ट मत प्रकट किया है कि बिना जनसत्ता के देश की स्वतंत्रता कायम नहीं रहेगी। इटली सदृश विभिन्न संस्थाओं तथा विभिन्न प्रदेशों से बने देश में राज्यसत्ता कभी चिरकालीन रूप में नहीं टिकेगी। क्योंकि सिद्धांत सभी पर समान रूप से लागू होते हैं। सिद्धांतों की विजय सभी की विजय होती है। सिद्धांतों की स्वीकृति सभी की स्वीकृति होती है। सिद्धांतों के लिए युद्ध तथा सत्ता चलाने से उसमें प्रतियोगिता, होड़ अथवा व्यक्तिगत विद्वेष उत्पन्न नहीं होते, इसलिए स्वतंत्रता-प्राप्ति और जनसत्ता से दो तत्त्व विजयी होंगे। परंतु राजा के नाम पर सब लोग संघटित कैसे होंगे? वह व्यक्ति किसी विशेष प्रदेश में जन्म लेता है, वहीं पलता है और यद्यपि उस विशिष्ट प्रदेश ने प्रेमपूर्वक तो नहीं, परंतु स्वाभिमान से उसका समर्थन किया, तथापि अन्य राज्य उससे द्वेष ही करेंगे, उन्हें वह फूटी आँख नहीं भाएगा; परंतु जनसत्ता के सिद्धांतों से सभी संगठित होंगे।'
इसका कारण एकदम अलग है कि जनसत्ता से अन्य राष्ट्र इतने क्यों डरते हैं? वे जनसत्ता के सिद्धांतों से नहीं घबराते, नाम से घबराते हैं। क्योंकि फ्रांस के भयंकर हादसे को जनसत्ता का नाम दिया गया, परंतु वस्तुत: वह जनसत्ता नहीं थी। जनसत्ता निर्मिति का वह एक प्रयास था। जनसत्ता निर्मिति की वह एक तिक्रांति थी, वह जनसत्ता नहीं थी, वह क्रांतियुद्ध था। इसका स्मरण रखते हुए जनसत्ता का विचार करने पर सब स्पष्ट होता है। जनसत्ता Republic-यह शब्द मूलतः किससे निकला है ? Republican-जनता की वस्तु- इससे यह शब्द उत्पन्न हुआ है और उसका अर्थ अन्य कुछ नहीं, 'राष्ट्र की सत्ता राष्ट्र के ही हाथ में होना' ही है। इससे पवित्र शब्द और कौन सा हो सकता है ?
इसके पश्चात् का लेख 'क्रूरता' पर है, इसके पश्चात् 'उन्नीसवीं शताब्दी के कवि को संबोधित' इस विषय पर एक सुंदर लेख लिखा है। उसपर बायरन का एक ससुरस वचन दिया है-'कविता क्या है?' कविता अतीत विश्व की तथा भावी विश्व की चेतना है। परंतु यह लेख काव्य विषयक होने पर भी उसमें तत्कालीन नेपोलियन काल की चर्चा है। तथापि कविता का अर्थ मैझिनी के शब्दों में दिए बिना रहा नहीं जाता।
'परंतु कविता समय के साथ ही प्रगमन करती है। कविता चेतना है, कविता गति है, कविता कृति का अस्त हो चुका तेज है, वह एक दिव्य तारिका है जो भविष्य का मार्ग आलोकित करती है। वह जलती हुई दीपमाला है जो घोर घना जंगल पार करनेवाले पथिक का पथप्रदर्शन करती है। कविता अंगारों के पंखों से युक्त क्षमता है, साहस है। वह उन उदात्त विचारों की दिव्य मूर्ति है जो आत्मत्याग का बल शरीर में संचार करती है। नहीं, नहीं, कविता गतप्राण नहीं हुई है। वह तो अभी-अभी स्पेन गई थी। अर्वाचीन कालीन कविता स्पेन में लड़ रहे कूटयुद्ध के योद्धाओं से मिली, जिन्होंने अपनी जीवट-वृत्ति से नेपोलियन को भी नाकों चने चबवाए, और उन आदिवासियों को प्रेरणा देती हुई, परकीयों के विनाशार्थ देशभक्तों को जगानेवाले वचनों में प्रादुर्भूत होकर वह पर्वतों की चोटी-चोटी पर ध्वनित हो रही है। अर्वाचीन कविता उधर जर्मनी में अपने स्कूलों, विश्वविद्यालयों से निकलकर स्वतंत्रता संग्राम की ओर हँसते-नाचते जा रहे युवा वीरों की सरस्वती में संभूत होकर उस रणनर्तन के ताल-से-ताल मिला रही है।'
"क्या कहा ? अब पुनः व्यक्ति विषयक कविता? नहीं, नहीं। उसका नाम मत लेना। अब व्यक्तियुग नहीं, समाजयुग आया है "कविराज हो। हे गरुड़ सखाओ! पीछे क्यों देख रहे हो? पृष्ठभाग नहीं अग्रभाग देखो, ऊँची उड़ान भरकर भविष्यवादी बनो।'
'कविराज हो ! स्वदेश बंधो! चलो, लोगों के लिए लोकगीतों की रचना करो। ऑस्ट्रिया की छाती पर नाचते-नाचते उन समरगीतों का गान करने युवा जन उत्सुक हो गए हैं।'
इसके पश्चात् जो लेख हैं, वे 'कॉसिमों पर भाषण', 'लोकबंधुत्व', 'जर्मनी की स्थिति', 'फ्रांस तथा जर्मनी की संधि', 'फ्रेंच उदारमतवादी जर्मन लोग तथा यंग इटली' आदि विषयों पर हैं। फिर मैझिनी और सिस्मांडी के बीच का पत्र-व्यवहार प्रकाशित किया है। वह 'युवा इटली' में सिस्मांडी की अनुमति से ही दिया गया है।
इसके पश्चात् महत्त्वपूर्ण लेख है 'यंग इटली के लेखक वर्ग का स्वदेश बांधवों को संबोधन'। इस लेख में मैझिनी ने 'युवा इटली' पर उठाए गए आक्षेपों पर विचार किया है और प्रत्युत्तर दिए हैं। स्वतंत्रता-प्राप्ति का समर्थन, भीरुता तथा वैधता का खंडन, उस पक्ष का, जो परकीय लोगों पर निर्भर करता है-यथोचित फटकार, जनसत्ता की आवश्यकता आदि तत्त्वों का पीछे दिए मुद्दों पर ही विवरण दिया है।
"हम विशिष्टाधिकार का विनाश करेंगे। संपूर्ण राष्ट्र में समता का बीजारोपण करेंगे। संपूर्ण राष्ट्र एक करेंगे। हम विदेशियों की आशा तथा वचनों पर भरोसा नहीं करेंगे। हम सभा आयोजित करके तथा अर्जियाँ भेजकर भिखारी जैसी भीख नहीं माँगेंगे। क्योंकि हम जानते हैं कि जनसत्ता का ध्वज फहराने से राजा की कमर टूट जाएगी। हम दावे के साथ कहते हैं कि तलवार से ही क्रांतियाँ सिद्ध होती हैं। हम जनपक्ष के हैं। हम जनपद से बात करेंगे। जनता हमारा कहना मानेगी। लोगों के विचारों को उचित मोड़ देकर हम यथासंभव प्रयास करते हुए युद्ध छेड़ेंगे। युद्धजनपक्ष का चलाया हुआ, संराष्ट्रीय तथा कूटनीतिपूर्ण । यह कूट युद्ध यदि निश्चयपूर्वक सर्वत्र चलाया जाए तो उससे टक्कर लेने की शक्ति किसी में भी नहीं।'
इसके पश्चात् मैझिनी ने अपनी संस्था को 'युवा इटली' नाम देकर युवक और वृद्ध-इस प्रकार दो गुट किए और इस आक्षेप का उत्तर दिया है। साथ ही 'युवा इटली' के मतानुसार राष्ट्रसत्ता की रचना करने के बाद किन सिद्धांतों पर राष्ट्रसत्ता की रचना हो, इसका अत्यंत महत्त्वपूर्ण मानचित्र रेखांकित किया है।
'हमने अपने त्रिरंगयुक्त ध्वज पर 'युवा इटली' नाम लिखा है। इसका कारण यह है कि वह ध्वज पुनरुज्जीवित तथा अभिनव इटली का है।
'जो समाज की क्रांति-प्रवृत्ति को किंचित् सुधारों पर संतुष्ट रखना चाहते हैं, जो अतीत के इतिहास के विरुद्ध जाकर तथा उस इतिहास के बोध को ताक पर रखकर राजसत्ता का भजन अलापते हैं, वे जनसत्ताक पद्धति से द्वेष करते हैं; जो राष्ट्रीय नेतृत्व पर इतराने के लिए आगे बढ़ते हैं, परंतु मृत्यु का समय आते ही पीछे हटते हैं, जिन्हें स्वदेशोन्नति परकीय लोगों के आधार पर करने की मृगमरीचिका मय आस लगी है, जो राजकीय स्वाधीनता चाहिए परंतु साहित्यिक, धार्मिक तथा सैद्धांतिक स्वतंत्रता नहीं चाहिए, इस प्रकार गला फाड़कर चिल्लाते हैं और उस राजकीय स्वाधीनता के लिए भिक्षां देहि के मार्ग पर विश्वास रखकर स्वदेश द्वारा आत्मनिष्ठापूर्वक किए गए आंदोलन का धिक्कार करते हैं, उन्हें और केवल उन्हीं को, भले ही वे किसी भी श्रेणी के, आयु के तथा प्रदेश के क्यों न हों, उन सभी को हम 'वृद्ध इटली' कहते हैं। क्योंकि वे अतीतकालीन लोग हैं, वे सठिया गए हैं।
'स्वतंत्रता, सर्व तरह की, सभी लोगों की। समता, सामाजिक तथा राजकीय अधिकारों की तथा कर्तव्यों की', 'सहकारिता सभी लोगों की, सर्व स्वतंत्र जनों की, मानव-विकास का महत्कृत्य संपन्न करने के लिए किया गया संपूर्ण समुत्थान।
'यह हमारा चिह्न है, उद्देश्य है, महत्कार्य है।
"जिसे इससे कुछ अधिक श्रेयस्कर सिखाना हो वह आगे बढ़े। उसे प्रकट रूप में कहना उसका कर्तव्य है। जिसे इससे उदात्ततर ज्ञात नहीं हो वह आकर हमसे मिले, हमारा बंधु हो।
"जिन्हें इन दोनों मार्गों को स्वीकार नहीं करना हो वे आराम से घोड़े बेचकर सोएँ। हाँ, परंतु उलटे हम ही को क्रियाशून्यता का तथा श्मशान शांति का उपदेश करने का साहस न करें।
'लोकजन जनपद हमारा मूलभूत तत्त्व है। समाज रूपी पिरामिड का यह मूलाधार है। हमारे विचार से जनपद का अर्थ है वह लोकसमाज, जो राष्ट्र निर्माण करता है, मात्र समाज राष्ट्र नहीं होता। एक तत्त्व से, एक उद्देश्य से तथा एक ही कानून से बँधे लोग राष्ट्र बना सकते हैं। राष्ट्र शब्द में 'एक' का अंतर्भाव होता है। तत्त्वैक्य, एक उद्देश्य, एकाधिकार इन्हीं तत्त्वों से समाज को राष्ट्रीयता प्राप्त होती है।
'राष्ट्र एक होने से उसका प्रतिनिधिमंडल भी एक ही रहेगा।
'राष्ट्रीय प्रतिनिधित्व का अधिकार रईस तत्त्वों पर निर्भर न हो, वह लोक संख्या की मात्रा से निश्चित किया जाए।
'राष्ट्रीय प्रतिनिधित्व संपादन करने के लिए प्रत्येक व्यक्ति को मतदान का अधिकार होना चाहिए। जो व्यक्ति मतदान के अधिकार का उपयोग नहीं कर सकता वह नागरिक ही नहीं। यह कहना पड़ेगा कि समाज का अनुबंध, जहाँ तक उसका संबंध है, टूट चुका है। क्योंकि इस अनुबंध के लिए उसकी अनुमति नहीं ली गई, अतः समाज का प्रत्येक विधान उसके लिए मात्र एक अत्याचार ही है।
'परंतु उस प्रत्येक व्यक्ति को मताधिकार देने के विरोध में एक महत्त्वपूर्ण आक्षेप यह है कि प्रत्येक व्यक्ति को इतनी शिक्षा प्राप्त नहीं होती जिससे वह मताधिकार का उचित उपयोग कर सके। अत: इस अड़चन को टालने के लिए ऐसी व्यवस्था की जाएगी कि दोहरी चुनाव पद्धति का अवलंबन किया जाएगा। पहले मतदाता का चुनाव होगा और फिर वे मतदाता लोक प्रतिनिधियों का चुनाव करेंगे।
'राष्ट्रीय प्रतिनिधियों को राष्ट्र ही वेतन देगा और फिर उन्हें प्रतिनिधित्व की अवधि तक कोई भी सार्वजनिक स्थान नहीं मिलेगा।
'राष्ट्रीय प्रतिनिधियों की संख्या यथासंभव अधिक रखें। इससे घूसखोरी पर कडा नियंत्रण किया जा सकता है। फ्रांस में जब-जब प्रतिनिधियों की संख्या कम की गई तब-तब स्वतंत्रता की अवनति होती गई।
'ये प्रतिनिधि एक साथ मिलकर राष्ट्रीय कार्य करेंगे। राष्ट्र की शक्ति असीम है और इसलिए प्रतिनिधियों के चुनाव पर किसी का भी दबाव या तानाशाही रखना राष्ट्र की संप्रभुता का विनाश करना है।
'इस प्रकार पूर्ण रूप से विचार कर प्रतिनिधियों का चुनाव संपन्न करने से वह वास्तविक अर्थ में राष्ट्रीय चुनाव होगा।
'सामाजिक शक्ति की उचित व्यवस्था, दिग्दर्शन तथा सुधार करके उस समाज को विकास की ओर, उत्क्रांति की ओर ले जाना-प्रतिनिधिमंडल का यह प्रमुख कर्तव्य है। उसे अनंत समता की रक्षा करनी होगी। इसीलिए दु:खग्रस्त लोगों की उन्नति तथा सुख की व्यवस्था करना प्रमुख कर्तव्य है।
'आनुवंशिक, प्राप्त वैधानिक, दान संबंधी, मृत्युपत्रात्मक आदि विधान इस तरह से किए जाएँ कि कुछ विशिष्ट लोगों का ही संपत्ति पर अधिकार न रहे अथवा कुछ थोड़े ही परिवारों के हाथों में सारी चलाचल संपत्ति अटकी न रहे।
'करों की व्यवस्था ऐसी की जाए कि केवल जीवनावश्यक पदार्थ करमुक्त रहें और विलासी पदार्थों पर भारी मात्रा में कर लगाए जाएँ।
'प्रत्येक व्यक्ति को उसकी योग्यता के अनुसार न्याय प्राप्त हो, एतदर्थ पंचायत पद्धति रहे।
'राष्ट्र के प्रतिपालक के नाते राष्ट्र प्रतिनिधियों का यह कर्तव्य है कि इस प्रकार सारा कारोबार चलाया जाए कि व्यक्ति स्वतंत्रता की चरम सीमा तथा राष्ट्र के वैभव की परिसीमा दोनों साथ-साथ रह सकते हैं।
'एतदर्थ ही व्यक्ति-स्वतंत्रता की पूरी सुरक्षा होनी चाहिए। उसके विरुद्ध घटित अपराधों का दंड कठोर हो।
"एतदर्थ ही मत-स्वातंत्र्य सदा पूज्य माना जाएगा और इसी कारण धार्मिक प्रश्न व्यक्ति की निष्ठा तथा रुचि पर छोड़ दिए जाएंगे।
'एतदर्थ ही लेखन स्वातंत्र्य तथा मुद्रण स्वातंत्र्य पूरी तरह से दिया जाएगा।
'परंतु राष्ट्र के विराट् पुरुष का ध्यान हमेशा प्रगमन की ओर होना चाहि और इसी कारण यथासंभव सुधार करने के लिए भविष्य की ओर सतत पर परीक्षण करते हए वर्तमान स्थिति के तत्त्वों में कौन सा परिवर्तन लाना है देखना राष्ट्र प्रतिनिधियों का महत्त्वपूर्ण कर्तव्य होगा। क्योंकि राष्ट्र सुरक्षा ही एकमात्र कार्य नहीं अपितु राष्ट्रगमन मुख्य कर्तव्य है।
'अतः समाज स्वतंत्रता की सुरक्षा तथा समाज एकीकरण की संपूर्ण स्वतंत्रता रखी जाएगी। समाज सुशिक्षित बने इसके लिए प्राथमिक शिक्षा की सर्वव्यापी पद्धतियाँ आरंभ करें और शिक्षा संस्थाओं को प्रोत्साहन एवं उनकी सहायता करें।
'सरकारी अधिकारियों का चयन बुद्धि विषयक श्रेष्ठता, व्यक्ति विषयक सुशीलता तथा समाज विषयक नीतिमत्ता आदि विचारों से निश्चित किया जाएगा।
'अपराधीकरण के विरुद्ध इस प्रकार नियम-कानून बनाए जाएँ कि अपराधियों को सुधरने तथा सच्चरित्र बनने का अवसर मिले।
'सार्वजनिक ग्रंथालय, वृत्तपत्र तथा विश्वविद्यालय शुरू किए जाएँ, पुरस्कार दिए जाएँ।
'सर्वव्यापक मतदान के आधार पर जो भी सरकार सत्तारूढ़ होगी उसे हम विनम्रतापूर्वक स्वीकार करेंगे। व्यक्ति राष्ट्रीय शब्द का सम्मान करे यह उसका कर्तव्य है। परंतु यदि वह सरकार होगी, उपर्युक्त मूल तत्त्वों के विरुद्ध, तो हम राष्ट्र की आज्ञा अवश्य मानेंगे तथा राष्ट्र को अपने मतों का उपदेश इतने जोर से करेंगे कि राष्ट्र ही पुनः क्रांति करवाने के लिए तैयार हो।'
हमारा उत्तर यहाँ समाप्त हो गया है। ये हमारे मलभत सिद्धांत हैं। ये अपने विचार हमने प्रकाशित किए हैं। जो इनकी रक्षा करना चाहते हैं वे अवश्य करें। 'युवा इटली' इन्हीं विचारों का अनुसरण करेगी। इटली के भावी भाग्य समान ही सुनिश्चित और जिन स्वतंत्रता विचारों में से वह उत्पन्न हई, उन स्वतंत्रता विचारों के समान ही अविनाशी यह 'युवा इटली' इसी मार्ग का अनुसरण करेगी।
'यूवा इटली' अविनाशी रहेगी, क्योंकि प्रस्तत यग की अंत:प्रेरणा से वह तन्मय हो गई है। अत: सरकारी अत्याचार, व्यक्ति का शक्की स्वभाव अथवा परवशता का भारी बोझ इनके योग से इटली के युवा वीरों की महत्त्वाकांक्षा तथा स्वतंत्रता की आकांक्षा का कभी भी विनाश नहीं होगा।
Bright goddess of the charmless mind brightest in dungeons, liberty thou art. Thy palace is within the freeman's heart, whose soul the love of thee alone can find. And when thy sons to fetters are consigned. To fetters and the damp vault's day-less gloom.
Thy joy is with them still and unconfined.
Their country conquers with their martyrdom.
--Byron
इस प्रकार 'युवा इटली' की प्रस्थापना का श्रीगणेश हो गया। प्रथमतः मैंने शपथ ग्रहण की। उस शपथ के अनुसार आज तक मेरा आचरण रहा है और आजन्म रहेगा। युवा इटली' के कार्यक्रम के अनुसार शिक्षा और आक्रमण-दोनों कर्तव्य निभाना मैंने आरंभ किया। गुप्त रूप से इटली में शाखा खोलकर मैं संस्था के प्रसार के लिए प्रयत्नशील हो गया। इधर 'युवा इटली' का घोषणापत्र छापकर मैंने प्रसारित किया। इस समय हमारे पास पैसे का बल थोड़ा सा भी नहीं था। अपने घर से जो पैसे आते उसमें से ही मैं खर्चा चलाता। तिसपर मेरे जो अन्य मित्र थे वे भी जब से निर्वासित हुए तभी से निर्धन हो गए थे। परंतु लोकाश्रय के भरोसे पर हमने वृत्तपत्र के कार्य का आरंभ किया था। इस प्रकार मैंने गुप्त संस्था तथा वृत्तपत्र-दो कामों का भार उठाया। मैं अपना समय वृत्तपत्र के लिए लेख लिखने में तथा गुप्त संस्था का प्रसार करने में व्यतीत करने लगा। अब मैंने मार्सेलिस में ही रहने का संकल्प किया। जिनेवा, लेगहॉर्न आदि शहरों में जो मेरे मित्र थे उन्हें 'युवा इटली' की संकल्पना समझाकर जगह-जगह पर उसकी शाखाएँ खोलने के लिए उसके नियम, काम किस तरह करना है इसकी जानकारी, प्रत्येक महत्त्वपूर्ण प्रश्न का स्पष्टीकरण, विभिन्न सूचनाएँ आदि भेजता। जिनेवा स्थित मेरे प्रिय मित्र रफिनी बंधुद्वय तथा लेगहॉर्न निवासी बिनि और ग्यूएराजी के परिश्रम से शीघ्र ही जिनेवा में 'युवा इटली' की शाखाएँ खोली गईं। वहाँ पहले राष्ट्रमंडल की स्थापना की गई।
'तरुण इटली' की रचना यथासंभव सादगीपूर्ण तथा वाहियात, व्यर्थ विधियों से निर्लिप्त रखी गई। कारबोनरी की असंख्य सीढ़ियाँ, कक्षाएँ, वर्ग आदि सबकुछ हटाकर हमने केवल दो कक्षाएँ ही रखीं। एक, दीक्षा गुरु अथवा दीक्षाधिकारी तथा दूसरी, दीक्षित।
'तरुण इटली' के सिद्धांतों को संपूर्ण सम्मान देनेवालों में से जो सदस्य विशेष मेधावी एवं सूझबूझवाले थे उन्हें अन्य जनों को दीक्षा देने का अधिकार दिया जाता। उन्हें दीक्षागुरु कहा जाता; परंतु जो केवल दीक्षित वर्ग के थे उन्हें दूसरों को दीक्षा देने का अधिकार नहीं होता। इटली से बाहर एक प्रधान कमेटी नियुक्त की गई। यह प्रमुख कमेटी इसलिए इटली से बाहर रखी गई ताकि इटली में कितनी भी पकड़-धकड़ क्यों न हो, संस्था के प्रमुख केंद्र की क्षति न हो। उस कमेटी का प्रमुख कार्य यही था-'युवा इटली' का ध्वज सतत लहराए रखना तथा अन्य देशीय जनसत्ताक एवं स्वतंत्रताशाली वीरों के साथ यथासंभव स्नेह-संबंध दृढ बनाए रखना। इसके पश्चात् प्रमुख कमेटी के नीचे इटली के महत्त्वपूर्ण प्रदेशों में, बडेबड़े शहरों में स्थानिक कमेटियों की नियुक्ति की गई थी। उनका प्रमुख कार्य था अस्थायी रूप में कार्यान्वयन करना, स्थानिक कृत्य संपन्न करना, पत्राचार करना आदि। ऐसा नहीं कि प्रत्येक शाखा में सदस्यों की संख्या समान रहती। उस प्रत्येक शाखा के सदस्यों में से छोटी-छोटी टोलियाँ बनाकर उन्हें एक-एक दीक्षागुरु के अधिकार में सौंपा जाता और इन सभी दीक्षा गुरुओं पर उन विशेष स्थानों का वास्तविक नेता संचालक के रूप में नियुक्त किया जाता।
'युवा इटली' की रचना इसी प्रकार की थी। पत्राचार की पद्धति इस प्रकार थी कि प्रथमतः दीक्षित दीक्षागुरु के, इसके पश्चात् उस दीक्षागुरु ने प्रत्येक स्थानीय चालक के साथ, स्थानीय संचालक अपने जिला मंडल के साथ और जिला मंडल इटली के बाहर सबसे उच्च केंद्रमंडल के साथ (Central Committee) इस परंपरा से युद्ध संबंधी पत्र व्यवहार किया जाता।
केंद्रीय मंडल से स्थानिक मंडल की ओर तथा स्थानिक मंडल से केंद्र मंडल के पास आनेवाले संदेशवाहकों की विश्वसनीयता पर भरोसा करने से पूर्व उन्हें परखने के लिए कुछ संकेत निश्चित किए जाते। विशिष्ट शब्द, विशिष्ट आकृति से काटा हुआ कागज का टुकड़ा, हस्तस्पर्श की निश्चित शैली आदि संकेत निश्चित किए जाते और फिर भी धोखा न हो इसके लिए प्रत्येक तीन माह के पश्चात् उनमें परिवर्तन किया जाता। प्रत्येक सदस्य अपनी आर्थिक शक्ति के अनुसार प्रतिमास निश्चित किया हुआ चंदा देता। इस चंदे में से दो तिहाई रकम प्रादेशिक व्यय के लिए रखी जाती और शेष एक तिहाई रकम केंद्रीय मंडल के पास संस्था के खर्चे के लिए दी जाती। प्रथमत: यह अनुमान था कि छपाई का व्यय लेखों के प्रकाशन से ही निकलेगा।
हमारी संस्था का चिह्न था 'साइप्रस वृक्ष की एक टहनी'। साइप्रस वृक्ष एक श्मशान चिह्न है और उसे ही हमने अपने देशवीरों की स्मृति के लिए धारण किया हआ था। हमारा सूत्र शब्द था 'अब और आजन्म'। यह हमारे कार्य में अत्यंत आवश्यक दृढ़ निश्चय का तथा सत्तत्त्वों का प्रतीक था।
'युवा इटली' के ध्वज पर इटली राष्ट्र का रंगत्रय था-श्वेत, रक्त और हरित (मैझिनी ने उनका उद्देश्य नहीं दिया, परंतु वह स्पष्ट है। श्वेतवर्ण-पवित्रता का प्रतीक है; रक्तवर्ण-अन्याय के प्रतिशोध का प्रतीक तथा हरितवर्ण यानी हरा रंग-यौवन का, ताजगी का प्रतीक है)। इस ध्वज की एक ओर स्वतंत्रता, समता और मनुष्यता यह शब्दत्रय और दूसरी ओर राष्ट्रैक्य तथा दास्यमुक्ति यह शब्दद्वय लिखा हुआ होता। पहली ओर इटली देश के अंतस्थ कर्तव्य और उसके राष्ट्रीय कर्तव्य लिखे हुए थे। 'ईश्वर और मानवता' यह हमारा मंत्र पहले से ही निश्चित हआ है। ईश्वर और मानुषता' इस तरह यह महामंत्र हमारे अन्य राष्ट्रों से होनेवाले संबंध में पालन किया जाता और 'ईश्वर और लोग' इस मंत्र का हमारी आंतरिक व्यवस्था में पालन होगा।
इन दो सिद्धांतों अथवा एक ही सिद्धांत की परिस्थिति से वहाँ भिन्न दिखाई देनेवाले इन दो रूपों 'ईश्वर और जनपद', 'लोक और ईश्वर'-से हमारी संस्था के राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक तथा व्यक्तिगत सभी मतों का उद्भव हो गया है। राष्ट्रों में उत्पन्न होनेवाले विभिन्न समाज रूपों का निरीक्षण करते हुए उस तत्त्व की भाषा में राष्ट्र के सर्व उपांगों का अंतर्भाव करने में सफल बनी हुई राजनीतिक संस्था है हमारी 'युवा इटली'। राष्ट्र की दास्यता से मुक्ति, इसके पश्चात् स्वतंत्रता से विभूषित उस राष्ट्रपुरुष का अन्य राष्ट्रपुरुषों से स्नेह संपादन, इस प्रकार मानवी उत्क्रांति की ओर सभी के साथ अभिमुख होकर उस अंतिम तत्त्व-ईश्वर के निकट जाकर तन्मय होने के कर्तव्य का यह मनुष्य का पूर्णावस्था का मार्ग प्रथमत: 'युवा इटली' ने ढूँढा। स्वतंत्रता संपादन धर्मशीलता की प्रथम सीढ़ी है। राजनीतिक तथा धार्मिक कर्तव्य भिन्न नहीं और इसीलिए ऐहिक, पारमार्थिक ये एक ही तत्त्व के दो रूप हैं-यह दिखाकर विश्व के तथा स्वर्ग के मूर्ख मतवादियों द्वारा किया गया विरोध तोड़ दिया गया।
उस समय मैं इटली में प्रस्थापित 'युवा इटली' नामक गुप्त मंडली की विभिन्न शाखाओं से भेंट करता; उन्हें बार-बार उपदेश देता और मार्गदर्शन करता। उसी तरह जब इटालियन युवा वर्ग मुझसे मिलने तथा उपदेश सुनने आते तो उन्हें भी उपर्युक्त तत्त्वों को स्पष्ट करता। इस प्रकार के उपदेश में मैं हमेशा राजनीति तथा नीति विषयक तत्त्वों का समन्वय करता। हजारों बार यह काम करना पड़ता। उसमें से निकले हुए साधारण मुद्दे दिए हैं-
'मात्र क्रांति करके रुकना नहीं है अपितु यथासंभव प्रयास करके पुनरुज्जीवन करना है।'
हमारे सामने जो प्रमुख प्रश्न है, वस्तुत: वह राष्ट्रीय संस्कृति तथा राष्ट्रीय शिक्षा का है। परंतु हमारी मातृभूमि को आजकल परतंत्रता की जिन स्थितियों में कैद किया गया है उस परतंत्रता का नाश किए बिना राष्ट्रीय संसृति का यह महत्कार्य करना असंभव होने के कारण उस संसृति के साधनस्वरूप शस्त्र उठाने होंगे और क्रांति युद्ध करना होगा। परंतु जो तलवारें उठाकर हम राजनीतिक बेड़ियाँ तोड़ने जा रहे हैं उस तलवार की नोंक पर 'ईश्वर और लोक' ये तत्त्व होंगे तभी हम उन खड्गों को स्पर्श करेंगे।
'अधिक सुंदर तथा शुभ मंदिर निर्माण करने की हिम्मत रखते हैं तो प्रस्तुत इमारत का विनाश करने में आनंद आएगा। स्वदेश बांधवों के अंत:करण-पट पर अधिकार और कर्तव्य ये शब्द लिखू, इस प्रकार आशा और निष्ठा न हो तो मात्र कागजी शब्दों का क्या करना है?
'हमारे पिता ने ये कर्तव्य नहीं किए और इसीलिए हमें उन्हें अवश्य निभाना है। इटली के देशबंधुओं को मात्र विद्रोह के लिए नहीं उकसाना है, हमारा प्रमुख कर्तव्य स्वतंत्र और शक्तिमान् राष्ट्र निर्माण करना है।
'हमारी धर्मनिष्ठा है कि इटली देश का ऐहिक अस्तित्व समाप्त नहीं हुआ है। मानवी उत्क्रांति में नूतन तत्त्वों को जोड़ने के लिए वह आज भी समर्थ है। उसने दो बार विश्व का नेतृत्व स्वीकारा था। वह इटली देश पुनः एक बार विश्व का नेतृत्व करने पूर्ण समर्थ है। हमारा कर्तव्य है उस नेतृत्व से अत्यावश्यक राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त कर लेना।
'पदार्थवाद से व्यक्ति-धर्म के गौण तत्त्व प्रचलित होते हैं। परंतु राष्ट्र और समाज निर्माण करने के लिए पदार्थवाद समर्थ नहीं। क्योंकि राष्ट्रनिर्मिति व्यक्ति के गौण उद्देश्यों से नहीं होती। इस तरह की भावना निर्माण नहीं होती कि हम सभी की उत्पत्ति, हमारी प्रवृत्ति, हमारी अंतिम सार्थकता एक ही है, समाज निर्मिति नहीं होती। अत: व्यष्टि की जगह हम समिष्टि उत्क्रांति रूप को अंगीकार करते हैं।
'प्राचीन महान् इटालियनों के इतिहास प्रसार द्वारा हम इटालियन लोगों के मन में स्वसामर्थ्य, निष्ठा उत्पन्न करेंगे। अपने राष्ट्र के अतीतकालीन कृत्य सुनकर उनकी बाँहें फड़कने लगेंगी। धीरज, स्वार्थत्याग, जीवट-वृत्ति, भारी प्रयास और एकात्मता इन सद्गुणों का उनमें संचार होगा। ये सद्गुण हमारे महत्कार्य के लिए अत्यावश्यक हैं।
'जिनके विचार तर्कशास्त्र की कसौटी पर खरे उतरते हैं उनका पंथ बलिष्ठ होता है। अपने अनुयायियों में केवल विद्रोही वृत्ति मत पनपने दो। प्रत्येक शिष्य से पूछो, उसका विश्वास किस पर है। जो तुम्हारे सिद्धांतों पर पूरा विश्वास करता है उसी को अपना शिष्य बनाओ। संख्या महत्त्वपूर्ण नहीं, उसके पीछे मत पड़ो, मतैक्य पर विश्वास करो।
'तुम्हें नया ध्वज फहराना है। अत: उन्हीं लोगों को चुनो जिनमें इस ध्वज को सँभालने की शक्ति है और ऐसे लोग हैं-राष्ट्र के युवक। यौवन उत्साह तथा आत्मत्याग से भरा-पूरा होता है। उनसे अपने सिद्धांत गुप्त मत रखो। आवश्यकता से अधिक गोपनीयता विनाश का कारण बनती है। उन्हें सबकुछ जान लेने दो। इतना ही नहीं, उन्हें अपने सिद्धांत स्पष्ट रूप से समझाओ। जब उन्हें ज्ञात होगा कि अपना उद्देश्य क्या है, रास्ता क्या है तो वे कुछ भी करेंगे।
'अतीत में की हुई बहुत बड़ी भूल यह है कि सिद्धांतों के स्थान पर व्यक्ति को महत्त्व दिया गया। यह कहने के बदले कि स्वतंत्रता के लिए अमुक कार्य करोयह कहा जाता है कि हमारा यह आदेश है, अमुक व्यक्ति कहता है इसलिए करो।
यह भूल सुधारो। सिद्धांतनिष्ठा सिखाओ। उन्हें सूचित करो कि व्यक्ति के लिए युद्ध नहीं करना। हमें अपने प्रिय देश को मुक्त करने के लिए, जनकल्याण के लिए, प्रकृतिदत्त अधिकारों के लिए तथा ईश्वर के लिए लड़ना है।
'जनता को समझाओ कि राज्यक्रांति का नेता उन्हीं लोगों में से चुनो जिनका राज्यक्रांति पर विश्वास है। उनके हाथों में राज्यक्रांति का संचालन कभी मत सौंपना जिन्होंने गुलामी, दास्यता के कार्य करके बड़प्पन प्राप्त किया है। सन् १९३१ के विद्रोह में घटित इस प्रकार के नेताओं का आचरण उजागर करो।
'पुन:-पुनः लोगों को समझाओ कि इटली देश की मुक्ति उसकी जनता के हाथ में है। सतत कार्यरत रहना ही प्रमुख शस्त्र है। आक्रमण-पुनः-पुनः आक्रमणप्रथम-प्रथम आ रही पराजय की परवाह न करते हुए, धीरज न खोकर तथा निराश न होते हुए आक्रमण करते रहना।
'सहसा समझौता मत करो। समझौता प्रायः अनीतिकारी एवं घातक होता है।
'कभी सपने में भी नहीं सोचना कि तुम युद्ध से बच सकोगे। नहीं-नहीं, बिना युद्ध के स्वतंत्रता नहीं मिलेगी। युद्ध-भयंकर, रक्तरंजित, तुमुल, कठोर युद्ध-ऑस्ट्रिया से युद्ध किए बिना छुटकारा नहीं। युद्ध अटल है। इतना ही नहीं, सामर्थ्य प्राप्त करते ही जितना शीघ्र हो सके, उतनी शीघ्रता से तुम्हें युद्ध का श्रीगणेश करना होगा; क्योंकि क्रांतियुद्ध में सदा ही पहला वार क्रांतिपक्ष को ही करना होगा। अचानक टूट पड़ने से तुम्हारे असावधान शत्रु भयभीत होते हैं और तुम्हारे मित्र आशान्वित और धैर्यवान् होते हैं।
'परकीय सत्ता से कुछ पाने की आशा न करो। परकीय लोग तुम्हारी कभी सहायता नहीं करेंगे। तुम्हें यही सिद्ध करना होगा कि उनके बिना तुम्हारे भीतर स्वतंत्रता प्राप्त करने की हिम्मत है।
'जब आक्रमण करोगे तो किसी राज्य अथवा जाति की ओर से आक्रमण न करते हुए संपूर्ण इटली देश के नाम से करो। संपूर्ण देश के नाम के साथ उठो। यदि स्वतंत्रता सिद्धांत के लिए, राष्ट्रीयता के नाम से उठोगे और पहली ही टक्कर के साथ अपनी शक्ति का प्रभाव प्रदर्शित करोगे तो सारे लोग दूसरे ही आक्रमण में तुमसे आ मिलेंगे और इस प्रकार तुम्हें विजय मिलेगी। परंतु राष्ट्र के नाम पर और अपने बलबूते पर उठने से यद्यपि तुम्हें असफलता मिलती है। तो क्या हुआ? उस देशवीरता से तुम राष्ट्र को इतनी उदात्त शिक्षा दोगे कि तुम्हारे मित्र तुम्हारी असफलता से सबक लेकर तथा तुम्हारे लहू की शपथ लेकर आरंभ किया हुआ पवित्र कार्यक्रम पूरा करेंगे।
साधारणतः मैं ऐसे ही तत्त्वों का तथा ऐसी ही दिशा का बोध करता। जिन्हें मैं उपदेश देता उनमें से बहुत लोग अभी जीवित हैं। वे स्वयं इस बात की गवाही देंगे कि जैसे मैंने लिखा है वैसे ही उपदेश देता था या नहीं। मेरे उपदेश का परिणाम त्वरित होता। उधर टस्कनी राज्य में कमेटियों की स्थापना अत्यंत तेजी से होती गई। जिनेवा शहर में रफिनी बंधुद्वय कंपनेला, बेंझा तथा कुछ युवक नो संस्था के प्रसारार्थ प्रयत्नरत थे-सभी तरुणाई के उत्साह से भरपूर थे। परंतु अप्रसिद्ध, निर्धन तथा साधन रहित होने के कारण उनका कुछ प्रभाव नहीं पड़ता था। परंतु ये सारी कठिनाइयाँ दूर हो गईं, और एक युवक से दूसरे युवक तक-इस तरह अन्य छात्रों तक यह आग पहुँचती गई। संस्था का प्रसार किसी दावानल की भाँति अनपेक्षित गति के साथ आगे बढ़ा। इतने में हमारा वृत्तपत्र भी प्रकाशित हो गया। इससे हमें वह महत्त्व प्राप्त हो गया जिसका आज तक हमारे पास अभाव था। ये लेख जिनके हाथ लगे वे सारे हमारे पक्ष के हो गए। युवकों के झुंड-के-झुंड हमारे ध्वज तले आने लगे। व्यक्ति तथा गोपनीयता का अतिरेक-इनके विरुद्ध यह सिद्धांत की विजय थी। प्रत्येक उच्च हृदय से हमारे विचारों की प्रतिध्वनि निकलने लगी और उदात्त महत्त्वाकांक्षा, जो आज तक हमारे इटालियन युवकों के अंत:करण में सुप्त थी, 'युवा इटली' की गर्जना से जाग्रत् हो गई।
इस प्रकार हमें प्रोत्साहन मिल गया। अपना कर्तव्य पूरा करने के लिए हमने। प्राणों की भी परवाह नहीं की। हमारे उस छोटे से मंडल के प्रत्येक व्यक्ति ने, प्रत्येक देशवीर ने परिश्रम, कष्ट अथवा स्वार्थत्याग की परिसीमा करते हुए यथासंभव सारे कर्तव्य पूरे किए। मैं इस प्रकार कहता हूँ-जिन युवकों ने अपनी देह बलिवेदी पर रखी उनके संबंध में तथा जो आज तक कीर्ति को तुच्छ समझकर अप्रसिद्धि में भी कार्यक्षम हैं उनके लिए अपने कर्तव्य का स्मरण करते हुए मैं कहता हूँ कि हमारे इस युवा मंडल की तरह मैंने ऐसे युवकों का मंडल कभी नहीं देखा जिसके युवकों ने अपने आपको स्वतंत्रता-कार्यार्थ समर्पित किया था, जो एक-दूसरे से असीम प्रेम करते थे, जो इतने निर्मल उत्साह तथा आवेश से कार्यरत थे, जो प्रत्येक दिवस, प्रत्येक क्षण अनथक परिश्रम करते थे।
इस मंडल में लैंबर्टी, मुसिग्लियो, लुस्ट्रीनी, रफिनी, मैं और लगभग और पाँच-छह लोग थे। उनमें से प्राय: सभी मॉडेना से ही आए थे। किसी की भी सहायता न होते हुए, नौकर-चाकर न होते हुए, कचहरी तथा क्रम बदलने की सविधा न होते हुए भी सुबह से शाम तक, शाम से रात बारह बजे तक, इटली की शाखाओं का दिशा संचालन, यात्री तथा इटालियन युवकों से मिलना, इटालियन खलासियों को अपने पक्ष की ओर आकर्षित करना, छपे हुए लेखों की तह करना, गटठर बाँधना आदि मानसिक तथा शारीरिक काम एक के पीछे एक करने के लिए हम कोल्हू का बैल बने हुए थे।
एक सच्चरित्र तथा आस्थावान् युवा कंपोजिटर था, जिसका नाम लासेसिलिया था। लैंबर्टी छपा हुआ लेखन देखता। तीसरा उन लेखों के गट्ठर बाँधकर उन्हें स्वयं ढोकर ले जाता और गाड़ी तथा कुली का किराया बचाता। हम सभी सदस्य समान नाते से तथा सगे भाई की तरह रहते। एक ही उद्देश्य से तथा एक ही आशा से आबद्ध। अन्य राष्ट्रों के जनसत्तावादी हमारे प्रयासों का सातत्य तथा स्वतंत्रता-प्रेम देखकर हमसे प्रेम करते तथा हमारे लिए पूज्यभाव रखते। प्रायः हम लोगों की ही जमा की हुई छोटी सी राशि से यह सारा खर्चा चलाना पड़ता, अत: हमारी निर्धनता भी चरम सीमा तक पहुँचती और हमारे पास एक धेला भी नहीं बचता। तथापि हम सदैव उल्लसित तथा प्रसन्नचित्त रहते। हमारी मुद्रा पर सदा सर्वदा भावी आशा की मुसकान झलकती।
सन् १८३१ से १८३३ तक के दो वर्ष हमारे जीवन में इतनी निर्मल, प्रसन्न तथा उमंग भरी कर्तव्य परायणता में व्यतीत हो गई कि मेरी इच्छा है भावी पीढियाँ यह हकीकत अवश्य पढ़ें। हमपर शत्रु ने मनमाने आक्रमण किए। कई बार हमें जानलेवा संकटों का सामना करना पड़ा। वह हकीकत आगे आएगी ही; परंतु यह युद्ध हमारे शत्रु ने उदात्त रीति से नहीं किया। उनके इस तरह तंग करने से, उनके द्वारा किए गए विश्वासघात से, हम लोगों में डाली गई फूट से, हममें से कुछ लोग निराश तथा हताश हुए होंगे तथापि हमारा पक्ष हताहत नहीं हुआ था। हमारी आत्माएँ अभी आशा से प्रफुल्लित हैं। हम लोग अब व्यक्ति की चिंता नहीं करते। अब मैं मात्र कर्तव्य के लिए विरक्त फलाशाविहीन, निर्ममत्वपूर्ण कर्तव्य के लिए ही परिश्रम कर रहा हूँ और आजन्म करूँगा। 'कर्मण्य कदाचन' इस कर्तव्य मीमांसा के अनुसार मैं अपना आचरण रखूगा। परंतु हमारे पीछे-पीछे आनेवाले स्वदेश बंधुओं को तो ईश्वर अधम शत्रु से सुरक्षित रखे।
अपना पत्र और लेख इटली में गुपचुप प्रसृत करना है, जब यह प्रश्न सामने खड़ा हो गया तब फ्रांस से इटली जा रहे जहाज में सवार इटालियनों के साथ साँठगाठ करने का प्रयास किया गया। उनमें मॉन्टेनरी नामक एक युवा इटालियन था। उसने और अन्य कुछ लोगों ने लेख समय पर इटली पहुँचाने का काम अत्यंत तत्परता से किया। आगे चलकर यह युवा मॉन्टेनरी कॉलरा का शिकार हो गया। पहले पहल सरकार की वक्रदृष्टि हमारे लेखों की ओर नहीं गई। तब लेखों के बंडलों पर किसी व्यापारी के गोदाम का पता लिखते। इस व्यापारी के नाम पर सरकार कभी संदेह नहीं करती। इसके अतिरिक्त जिनेवा भेजे जानेवाले बंडलों पर लेग्हार्न शहर के गोदाम का नाम लिखा होता और लेग्हान के बंडल पर किसी अन्य शहर का नाम होता, इस प्रकार बंडल भेजे जाते। इस तरह जिस पहले शहर में जहाज रुकता वहाँ के अफसर उस स्थान के पत्रों से संबंधित पूछताछ करने के क्रम में सारे बंडलों की जाँच करते। वे बंडल हमारे आदमी के कब्जे में जहाज पर आते। जहाज के बंदरगाह पर लगते ही हमारी पूर्व सूचनाओं के अनुसार उस शहर स्थित संस्था का अधिकारी जहाज पर मिलने के बहाने आ जाता और जाते समय बंडल छिपाकर ले जाता। इधर पुलिस उस शहर के पते की सारी वस्तुओं की जाँच करती और चुप बैठती। परंतु कुछ काल के पश्चात् अधिकारियों का ध्यान इधर बँट गया। उन लेखों का परिणाम इतना हुआ कि सरकार ने लेख पकड़ने में सहायता करनेवाले के लिए इनाम घोषित कर दिया। इटली में उनके प्रसारार्थ किसी ने जरा भी सहायता की तो उसे भयंकर दंड देने के आदेश दिए गए। इसके पश्चात् एक नेटिव राजा ने हमारे विरोध में एक जाहिरनामा निकाला। जो कोई हमारे पाठकों को पकड़वाएगा उसे उन पाठकों से प्राप्त जुर्माने की रकम में से आधी रकम दी जाएगी और उसका नाम प्रकाशित करने पर चूँकि हमारे युवा लोग उस विश्वासघाती का खात्मा करेंगे अतः उसका नाम प्रकाशित नहीं किया जाएगा। इस प्रकार आदेश दिया गया। यहाँ से राजसत्ता और हममें प्रत्यक्ष रूप में लड़ाई छिड़ गई। इस झगड़े में हमें सैकड़ों यातनाएँ भुगतनी पड़ी। तथापि मैं गर्व से कहता हूँ, अंत में हमारा ही पक्ष विजयी हुआ।
इस प्रकार सरकार की कड़ी दृष्टि हमारे लेखों पर पड़ने से एक नया ही कार्यक्रम आयोजित किया गया। राल अथवा कोयले की बोरियों की आवाजाही इटली में चल रही थी। हमने इस व्यवसाय के लिए छोटी सी टाल खोली और वहां कोयले की बोरियों में अपने हाथों से अपने लेखों के बंडल सलीके के साथ भरे। इन कोयलों की दस-दस, बारह-बारह बोरियाँ जहाज के एजेंटों के हाथों भेजते। उन एजेंटों को केवल इतना ही सूचित किया जाता कि इन बोरियों में केवल कोयले ही भरे हैं। इन बोरियों को सकुशल पहुँचाने के लिए भरपूर कमीशन दिया जाता। उन बोरियों पर पते भी ऐसे व्यापारियों के नाम के होते जो अंदर की बात नहीं जानते। उस दलाल द्वारा इटली के व्यापारियों के हाथ बोरियाँ लगते ही वहाँ के सदस्य, जो इसके आस-पास ही रहते, हमारी पूर्वसूचना के अनुसार ग्राहक के रूप में उनके पास जाते और पूर्वनिश्चित निशान देखकर बस उतनी ही बोरियां चुनकर उन्हें खरीदकर ले जाते। इसके पश्चात् हमारे लेख गोपनीय ढंग से सर्वत्र बाँटे जाते।
हमारे द्वारा अपनाई गई हजारों युक्तियों में से मैंने एक उदाहरण के तौर पर दी है। हमारे इस गुप्त प्रसृति कार्य में हमें फ्रेंच जनसत्तावादियों की सहायता मिलती। इनमें से कई हमारे बहुत काम आए हैं। मुझे जिओसोपेलो का नाम अभी तक याद है। इटली में दो सौ बंदूकें भेजने के लिए हम इस युवक के जहाज द्वारा ले गए। उसने गुप्त रीति से उन बंदूकों को पहुँचाने का कार्य पूरा करने के लिए एड़ी-चोटी एक कर दी। परंतु अंत में इस कृत्य की पोल खुल गई और उसका जहाज और उसकी सारी संपत्ति छीन ली गई। तथापि मेरे साथ उसका आचरण प्रेमपूर्वक था। मेरे विचार से वह आज भी मार्सेलिस ही में रहता होगा। मेरी मन:पूर्वक कामना है कि वह इस लेख को देखे। मुझे पूरा विश्वास है कि यह देखकर कि मुझे अभी तक उसकी याद है, वह फूला नहीं समाएगा। परंतु केवल उसी का क्या, मैं स्पष्ट कहता हूँ कि जनपक्ष के एक भी व्यक्ति ने मुझसे कृतघ्नता का व्यवहार नहीं किया, न ही उन्हें मेरा विस्मरण हुआ।
हमारे लेखों के लिए अत्याचारी नियम तथा कठोर दंड लागू करने पर भी उनपर नियंत्रण नहीं किया जा सका। यह देखकर इटली सरकार निराश हो गई और अंत में उसने फ्रेंच सरकार के पास शिकायत की और उससे अनुरोध किया कि मार्सेलिस में हमारा लेखन व्यवसाय बंद करे। फ्रेंच सरकार ने बछिया का ताऊ बनकर सिर हिलाया। परंतु उसके इस समर्थन से न घबराते हुए हम अपना काम करते रहे। उन्होंने हमपर कैसे-कैसे अत्याचार किए, इसका वर्णन आगे करूँगा।
दरमियान इटली में 'युवा इटली' की गुप्त संस्था की जय-जयकार होने लगी। जिनेवा से आरंभ होकर उस संस्था की शाखाएँ शहर-शहर में फैली। स्थानिक कमेटियों की संख्या बढ़ने लगी। आगे चलकर सुरक्षित तथा गुप्त रीति का प्रवेश नीओपोलिटन सीमा की ओर शुरू हुआ। पत्र व्यवहार धोखादायक होने के कारण सदैव प्रत्येक राज्य में मनुष्य भेजा जाता और उसके द्वारा संदेश अथवा काम सूचित किया जाता और फिर दीक्षित किए गए सदस्यों का जोश कायम रखा जाता। क्योंकि जनता हमारे लेखों के लिए उत्कंठित रहती। आखिर हमारे लेखों की माँग इतनी बढ़ गई कि कितनी ही प्रतियाँ भेजने पर ही पूरी नहीं पड़ती। अत: इटली के चारों ओर गुप्त छापाखाने बनाए गए, जिनमें से हमारे पत्र की ढेर सारी प्रतियाँ निकाली जातीं। तिसपर स्थानिक महत्त्व के लेखों का, हमारे ही सिद्धांतों का प्रसार करने के लिए प्रकाशन होता। इस प्रकार 'युवा इटली' इटली देश में एक वर्ष के भीतर एक कार्यशील, कार्यक्षम शक्ति बन गई।
यह सिद्धांतों की विजय थी। ऐसे मुट्ठी भर युवक-जिनका साधारण श्रेणी में जन्म हुआ हो, जिनके पास धन नहीं और जो उस समय तक जनसंघ के नेता तथा प्रतिष्ठित कहलानेवालों के विचारों से सर्वथा विरुद्ध हैं-एक संस्था प्रस्थापित करते हैं और ऐसी प्रचंड शक्ति का नेतृत्व करते हैं जिसकी विभिन्न स्थानों की सात सरकार तथा सात सिंहासनों परे धाक जम जाती है और वे उसके विनाशार्थ तैयार होते हैं। इससे एक ही बात सिद्ध होती है कि उन्होंने जो ध्वज फहराया था वह सत्य का ध्वज था।
किसी भी राजनीतिक पद्धति का सूक्ष्म परीक्षण करके देखा जाए तो यह ज्ञात होगा कि वह एक दर्शन पद्धति में से उत्पन्न हुई है। राजनीतिक घटना होने से पहले विचार प्रवर्तन होना आवश्यक है। विचार हमेशा आचार से पूर्व उत्पन्न होते हैं। प्रत्येक नई क्रांति एक नया कार्यक्रम होता है। प्रत्येक क्रांति किसी-न-किसी सिद्धांत का परिणाम होती है। अतः क्रांति से पूर्व राष्ट्र को वह सिद्धांत ठीक तरह से समझना चाहिए। और उस सिद्धांत को अंत:करण द्वारा ग्रहण करने पर देखते-देखते क्रांति सफल होती है।
फ्रांस सरकार ने इटली के अत्याचारी राजा को संतुष्ट करने हेतु सन् १८३२ में एक आदेश दिया और मुझे तड़ीपार की सजा हो गई। वह अगस्त का महीना था। निर्वासन का दंड तो हो चुका था, परंतु मोर्सेलिस छोड़ना मेरे लिए सर्वथा असंभव था। इटली में यातायात की सारी सुविधाएँ हमने मार्सेलिस में ही सुचारु ढंग से तैयार की थीं और अपनी लेखन प्रसृति के लिए मुझे मार्सेलिस में ही रहना अनिवार्य था। अत: इस आदेश को मैंने ताक पर रखने का निश्चय किया। सरकार को यह आभास कराने के लिए कि मैंने मार्सेलिस छोड़ दिया है, मैं शहर में ही छिपकर बैठा। उस समय फ्रांस में बहुत सारे देशभक्त निर्वासित होकर आ गए थे। अत: इस तरह प्रबंध किया गया था कि फ्रांसीसियों की सरकारी नौकरी में निर्वासित लोग अल्प वेतन पर प्रवेश करें और उस वेतन के लिए विशेष कानून का पालन करें। ये कायदे उनका विचलन बंद करने के लिए अपनाए गए थे। मैंने उन कायदों को स्वीकार करने के लिए नौकरी करना अस्वीकार किया और मेरी सजा के विरोध में ट्रिब्यून' नामक जनसत्ताक पत्र में निम्नलिखित पत्र प्रकाशित किया।
'आपको यह पत्र भेजने का प्रमुख उद्देश्य कि मुझे जो सजा हई उससे अपनी रक्षार्थ प्रमाण प्रस्तुत करना नहीं है। क्योंकि अत्याचारी राजाओं के मन में दंड का विचार आने पर न्याय के आधार से उनसे झगड़ा करते हुए वह दंड रद्द करवाने का प्रयास करना व्यर्थ है। परंतु यह पत्र प्रकाशित करने का प्रमुख हेतु यह है कि विदेशियों के नीच कृत्य उजागर हों और लोग उनसे ऊबकर उन विदेशियों का अधिक-से-अधिक शीघ्रतापूर्वक विनाश करें।
'अतः मैं अपनी शिकायत जनता के सामने प्रस्तुत करता हूँ।
'वृत्तपत्रों ने मुझे तड़ीपार का दंड प्रकाशित किया है। उन्हें मेरा अपराध इस प्रकार बताया गया है कि मैं अपने देश की मुक्ति के लिए षड्यंत्र कर रहा हूँ।
'मैं यह कहने से रत्ती भर भी नहीं डरता कि हाँ ! यह अपराध मैंने किया है। यदि स्वदेश को मुक्त कराने की इच्छा करना अपराध है, तो वह मैंने किया है। स्वतंत्रता-प्राप्ति के महासत्य स्वदेश बांधवों को संबोधित करना यदि षड्यंत्र है तो इस तरह का षड्यंत्र मैंने अवश्य किया है और कर रहा हूँ। 'अजी, आप सोना नहीं, गुलामी के दुर्भाग्य के फेरे में मत उलझो। गुलामी में जीवित रहने से अच्छा है उसकी बोटी-बोटी उड़ाते हुए मरना। सावधान, घात में रहो और स्वदेश तथा स्वराज्य संपादन का पहला अवसर मिलते ही झपट्टा मारकर उसे पकड़ो' इस तरह अपने इटालियन परमप्रिय बंधुओं से कहना यदि राजद्रोही षड्यंत्र है तो मैं स्पष्ट शब्दों में कहता हूँ कि यह राजद्रोही षड्यंत्र मैं रचता आया हूँ, रच रहा हूँ और आजीवन रचूँगा।
'अपने मानव बंधुओं की मुक्ति तथा सम्मान के लिए षड्यंत्र रचना प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है और जो सरकार ढोंग करते हुए अपने आपको उदारमतवादी कहती है, उस फ्रेंच सरकार को ऐसे व्यक्ति को अपराधी समझने का रत्ती भर भी अधिकार नहीं।
'मुझपर दूसरा आरोप यह है कि मैं फ्रांस सरकार का विरोध करने तथा विद्रोहियों को प्रोत्साहित करने का प्रयास कर रहा हूँ और इस संदर्भ में मेरे भेजे हुए पत्र पुलिस ने पकड़े हैं।
'कहाँ हैं वे पत्र ? क्या पुलिस ने उन्हें किसी गड्डे में गाड़ दिया है? उन्हें आगे प्रस्तुत करने का साहस सरकार क्यों नहीं करती? इन पत्रों को न दिखाने के लिए मैंने सरकार से प्रार्थना नहीं की थी? फिर क्यों नहीं दिखाए? उनमें से कुछ के अंश जो सरकार ने प्रकाशित किए हैं वे बनावटी हैं। मैंने वे कभी नहीं लिखे। वे मिथ्या हैं। मैं असत्यभाषियों को धिक्कारता हूँ और प्रमाण क्या हैं? कम-से-कम एक? नहीं-नहीं। यह वास्तविक रूप में रचाया गया षड्यंत्र है।
'चलने दो। मदांध राजे हो, चलने दो। तुम लोगों ने हमसे हमारी स्वतंत्रता, स्वदेश, हमारा प्रत्यक्ष अस्तित्व छीन ही लिया है। अब हमारी वाक्स्वतंत्रता भी छीन लो। मार्सेलिस मेरे इटली देश से सटा हुआ ही है, इटली से निर्वासित होने के बाद मैं यहाँ आकर रहने लगा। क्योंकि इटली के स्पर्श से धन्य हुई हवा तो कम-से-कम हमें स्पर्श करती। हमारी साँसों के लिए इटली से पवित्र होकर आई उस प्रिय वायु का भी हमसे छीन लो। मार्सेलिस के तट पर खड़े रहकर जहाँ सागर और आकाश मिलकर हमारी मातृभूमि को छिपाना चाहते हैं, वहाँ हम निर्देश करें और यथासंभव दृष्टि दौड़ाकर अपने आपसे कहें, 'वहाँ पर प्रिय इटली है।' यह कहने का अधिकार भी हमसे छीन लो। चलने दो। एक नीच, जघन्य कृत्य से दूसरे नीच कृत्य तक चलते रहो। अपमान तथा नीचता के मार्ग से इसी तरह चलते रहो ताकि तुम्हें अपनी कब्र मिले। इसी में लोकपक्ष का हित है। यही हमारी मुक्ति का वास्तविक साधन है कि आज तक अनुभूत, अत्याचार तथा दुष्टता के काले-कलूटे रंग से अपना चेहरा पोतकर तुम विश्व के सामने प्रवेश करो।
परंतु जब पाप का पैमाना छलक पड़ेगा, जब जनपक्ष की वह रणघंटी घनघनाने लगेगी, तब? जब स्वतंत्रता के प्रभात होने की गर्जना होगी, तब? तब हे मदांध राजन्, तुम्हारी दुर्गति की कोई सीमा नहीं।
'और हमारे बारे में पूछो तो भई, हम कर्तृत्ववादी दुर्भाग्य की कठोर दृष्टि से पवित्र हो गए हैं, हम हैं राज्यक्रांति के नौबतखाने की दुर्दुभि (नगाड़े)। जिस दिन हमने अत्याचार पीड़ितों की रक्षार्थ, भागे-भागे आते हुए उनके स्वातंत्र्यार्थ बेलभंडार उठाकर शपथ ग्रहण की उसी दिन से जीवन के सुख और आनंद से सदा के लिए विदा ली। मेरे साथियो, क्रोध-लोभ, सुख-दुःख को तो हमने लताड़ दिया है। अब संगठित हो जाओ। अभेद्य घेरा तैयार करो। न्याय की जय का दिवस दूर नहीं।'
इस पत्र से सरकार का पारा सातवें आसमान पर चढ़ गया और इटली सरकार की चौकसी सतत शुरू होने के कारण हमारा 'युवा इटली' पत्र बंद करने का प्रयास जोर-शोर शुरू हो गया। उस शहर के अधिकारी ने हमारे कंपोजिटर लोगों को तथा संवाददाताओं को भगा देने की धमकी दी। उस व्यक्ति को, जो प्रकाशित करता था, बंद करने का प्रयास किया। मुझे ढूँढ़ने के लिए आकाशपाताल एक किया। परंतु इस सारे अत्याचार का हमने धीरज के साथ सामना किया। उसी तरह एक फ्रेंच व्यक्ति ने प्रकाशन की जिम्मेदारी अपने सिर पर लेते हुए अपने नाम से यह पत्र जारी रखा। जिन कंपोजिटरों को भगा दिया था उनके स्थान पर हमने फ्रेंच लोग रखे। हमारे वास्तविक लेखकवृंद मार्सेलिस के आस-पास गाँवों में बिखर गए। वहाँ से लेख मार्सेलिस लाना और प्रतियाँ छपते-छपते ही तत्काल प्रसारार्थ भेजना-ये सारे काम अत्यंत सफाई के साथ तथा गुप्त रीति से चलाए।
तब से मेरा गुप्त जीवन आरंभ हुआ। तीस वर्षों में से बीस वर्षों तक मैं स्वेच्छा से नजरबंदी भुगत रहा था। एक कोठरी की चारदीवारी में मैंने अपने आपको दफनाया था। अहोरात्र मैं उसी कमरे में बंद रहता। सरकार के मुझे ढूँढ़ने के सारे प्रयास विफल हुए। अधिकारियों के सहायकों की मुट्ठी थोड़े से पैसों से दबाते हो वे हमारे गुप्त सेवक बन गए। अधिकारियों का आदेश मिलते ही वे तुरंत मेरे पास सूचना भेजकर मुझे सावधान करते। इस प्रकार छानबीन के समय मैं अस्थायी रूप से अदृश्य होता। एक दिन यह युक्ति सफल नहीं हुई और मैं पकड़ा ही जानेवाला था। पकड़ने के लिए पुलिस निकल पड़ी, परंतु उनके नायक का मन पलटा। उसने अपने साथी सिपाहियों को मेरे साथ भेजकर मुझे सुरक्षित रूप से किसी अन्य गाँव पहँचाया। इधर मेरे कमरे की छानबीन की गई। वहाँ अधिकारियों को उस नायक पर संदेह न हो इसलिए मेरे ही चेहरे-मोहरे के एक मित्र को बैठाया गया था। वह पकड़ा गया और बड़ी शान से अधिकारियों के पास लाया गया। इधर मैं उसी समय पुलिस के भेष में, मुझे पकड़ने के लिए आए हुए सिपाहियों की पंक्ति से बेधड़क धीरे-धीरे निकल गया। ऐसे सैकड़ों प्रसंगों का वृत्तांत देने का यह स्थान नहीं है। विलासी पाठकों के मनोरंजनार्थ मैं नहीं लिखता। केवल ऐसा ही वृत्तांत देना चाहता हूँ जो मेरे देश के लिए उपयुक्त हो और इसीलिए उदाहरण के रूप में उपर्युक्त वृत्तांत दिया गया है।
अधिकारियों की ऐसी छोटी-मोटी पूछताछ की परवाह न करते हुए मैं संपूर्ण वर्ष मार्सेलिस में ही था-बस इतना कहने से उन युक्तियों की कल्पना हो जाएगी। हमेशा की तरह लेख लिखता, प्रूफ देखता, पत्र व्यवहार करता और समयसमय पर फ्रांस के जनसत्ताप्रिय पक्ष के नेताओं से अथवा इटली के राष्ट्रपक्ष के प्रमुखों से मध्यरात्रि में मिलता।
इसी कालखंड से मेरे शत्रु ने अपनी निंदनीय कपट नीति का अवलंबन आरंभ किया। मेरे लेख के बीच का ही कोई वाक्य, उसका अगला-पिछला संदर्भ तोड़कर प्रकाशित किया जाता। अनुवाद करते समय वह ऐसा किया जाता जिससे मेरे विचारों का विद्रूप हो। जिस तरह उल्लू प्रकाश से कतराता है उसी तरह ये लोग राज्य क्रांति की लड़ाई से जी चुराते। फिर अपनी भीरुता छिपाने के लिए ये लोग क्रांतिपक्ष की भरपूर निंदा करते। इन्होंने मुझे हत्यारा घोषित किया है। मुझे भीरु कहा है, महत्त्वाकांक्षी कहा है। पर-सहिष्णु कहकर अन्य नेताओं के मन में मेरे संबंध में विद्वेष भरने का प्रयास किया है। मैंने जो फ्रांसीसियों के व्यर्थ बहाए लहू से घृणा की उससे मुझे हत्यारा घोषित किया गया। मेरे पक्ष का मुझपर प्रकोप होने के बावजूद इस उद्देश्य से कि अन्य जनों को किन्हीं अन्य प्रयत्नों से इटली लाना संभव हो तो देखें जिन्होंने मेरी जी खोलकर निंदा की, उनकी भी सहायता के लिए सिद्धांत ताक पर रखकर कुछ करने के लिए मेरे तैयार होते ही मुझे महत्त्वाकांक्षी कहकर मुझपर लालची होने का आरोप लगाया जा रहा है। मेरे कट्टर निंदकों ने भी जब-जब स्वातंत्र्यार्थ उठने का नाटक किया तब-तब मैंने व्यक्तित्व भूलकर उनसे हाथ मिलाया है। मैं सारे संकटों का स्वामी बन गया हूँ। फिर भी मैं भीरु और वे शूर। इस समय मुझ पर जो आरोप लगाया गया था वह हत्या का था। उसमें सहायता करने का था। फ्रेंच सरकार को मेरे गुप्त स्थान का पता नहीं लग रहा था। मेरा वृत्तपत्र भी बंद नहीं हो रहा था। भई, अब मेरी लोकप्रियता रोकी कैसे जाए? अतः उन्होंने मुझ पर अंटशंट और भयंकर आरोप लादकर इस तरह का चक्कर चलाना शुरू किया कि लोग ही मेरी थूड़ी-थूड़ी करें। यह प्रसिद्ध होते ही कि मैंने एक फ्रेंच मनुष्य की हत्या की अथवा करने में सहायता की, मैंने ट्रिब्यून पत्र में पुनः शिकायत की और चुनौती दी कि मेरे ऊपर जो आरोप लगाए गए हैं, उनके समर्थनार्थ कमसे-कम एक प्रमाण प्रस्तुत करें।
"मेरे पक्ष के नेताओं में से मैं एक हूँ और मैं युवा इटली' का सदस्य हूँ। मैं स्पष्ट कहता हूँ कि जो हमारे विचारों से भिन्न हैं वे सारे मारे जाएँ-इस अत्यंत विघातक वाक्य का उच्चार मेरे विरोधियों के अमंगल मुखों के अतिरिक्त और किसी ने नहीं किया। हम उन्हीं को सदस्य बनाते हैं जिन्हें हमारे मत मान्य हैं। हमारे सदस्यों ने अन्य किसी को भी मारने की शपथ नहीं ली। केवल ऑस्ट्रियनों को जान से मारने की शपथ ली है और अवसर मिलते ही उसे पूरा करनेवाले भी हैं।'
दरमियान 'हत्या की जाए' इस प्रकार मेरी भेजी हुई आदेश पत्रिका सरकार की ओर से प्रकाशित की गई। विश्व में कहीं भी इतना नीच कर्म नहीं हुआ है। मैंने एक वृत्तपत्र में, जिसका नाम 'नेशनल' था, उस बनावटी लेख का कपट उजागर किया और पूछा, मूलभूत लेख सरकार क्यों प्रकाशित नहीं कर रही? इस समय प्रायः सभी ने मेरा पक्ष लिया था। परंतु मार्सेलिस में गुप्त रूप से रह रहा था इसीलिए प्रकट रूप से मैं कोर्ट नहीं जा सका अथवा अन्य किसी को कानूनी प्रतिनिधित्व देकर मानहानि का मुकदमा दायर नहीं कर सका। आखिर उस मुकदमे का अंतिम निर्णय हुआ, उसमें षड्यंत्र आदि कुछ नहीं था और अपराधियों ने वह कृत्य अपनी ही सनक में किया यह स्पष्ट रूप से प्रमाणित हो गया था।
आगे चलकर इंग्लैंड के सर जेम्स ग्राहम नामक एक प्रमुख व्यक्ति ने यही आरोप मुझपर लगाया। परंतु सत्यकथा प्रकाशित होते ही उसे भरी पार्लियामेंट में हाउस ऑफ कॉमन्स के सामने मुझसे क्षमा मांगने के लिए बाध्य होना पड़ा।
हमारी युवा इटली' की गुप्त मंडली के विरोध में जो लेख लिखे गए हैं वे कितने उपद्रवी हैं यह हमारे नियमों का परीक्षण करते ही ज्ञात होगा। हमारी संस्थाओं की शाखाएँ नेपल्स, कार्सिका आदि तक फैली हुई थी और इसीलिए स्थानिक कमेटियों के कुछ नियम स्थानिक परिस्थितियों से भिन्न हो जाने के कारण नियम भिन्न थे; परंतु सिद्धांत भिन्न नहीं थे। हमने यथासंभव अपने सिद्धांतों का शाखा-प्रशाखाओं में पालन करवाया। उन सिद्धांतों को सन् १८३३ में पुनः एकीकृत करते हुए व्यवस्थित रूप में लिखा गया। यह सोद्देश्य आगे दे रहा हूँ। इन सिद्धांतों का हम आज तक अनुसरण कर रहे हैं। 'युवा इटली' का अंतिम उद्देश्य प्राप्त करने के लिए दो उपायों का अवलंबन किया गया है। प्रथम कर्तव्य इटली के युवा रक्त की शुद्धता। राष्ट्र बल-सामर्थ्य युवा जन हैं। उन्हें अपने ध्वज तले लाकर तथा स्वदेश और स्वतंत्रता के नाम पर बाँधकर फिर क्रांतिपक्ष के असली नेताओं के चारों ओर उन्हें संघटित करें। क्योंकि जब क्रांतियुद्ध का पहला धमाका होगा तब उसके संचालन पुराने, खूसट तथा लब्धप्रतिष्ठित विपरीत जनों के पास न जाए, इस प्रकार व्यवस्था होनी चाहिए। यह तो प्रथम कर्तव्य हुआ। यह प्राप्त हो इसलिए दूसरा कर्तव्य यह है कि 'युवा इटली' के नेताओं तथा प्रतिनिधियों द्वारा इटली देश में जितनी गुप्त संस्थाएँ 'राष्ट्रैक्य, दास्य-मुक्ति तथा स्वातंत्र्य' इन सिद्धांतों के लिए अस्तित्व में आए हों उन सभी की एकवाक्यता करें।
'उनमें से प्रथम कर्तव्य पूरा करने का अधिकार 'युवा इटली' के किसी भी सदस्य को है। दरजा तथा वर्ग के अनुसार प्रत्येक युवक अपने राष्ट्रधर्म की दीक्षा देने का प्रयास करे। दूसरा कर्तव्य 'युवा इटली' का केंद्र मंडल तथा प्रादेशिक मंडल को सौंपा हुआ होगा संस्था के नैतिक एवं राजनीतिक सिद्धांत-'
(इसमें पहले दिए हुए सिद्धांत ही हैं। अत: उनके अतिरिक्त तथा जो अधिक सुघड़ता से प्रस्तुत किए गए हैं वही नीचे दिए हैं।)
१. सकल जगत् एक ही नियम से अनुशासित हो, वह नियम है विकास अथवा उत्क्रांति।
२. मनुष्य का जन्म अत्यंत महान् कर्तव्य के लिए हुआ है। उसके जीवन का अंतिम लक्ष्य है उसकी संपूर्ण शक्ति की पूर्ण स्वतंत्र तथा व्यवस्थित ढंग से होनेवाली वृद्धि।
३. मानवी शक्ति के विकास को अंतिम रूप से प्राप्त करने के लिए मुख्य साधन है मनुष्य का समान समुत्थान।
४. इस मानवी शक्ति का पूर्ण विकास होने के लिए मनुष्य उपर्युक्त सिद्धांत के आधार पर एकनिष्ठा तथा एक ही उद्देश्य तथा सहयोग से चले।
५. और एतदर्थ 'युवा इटली' का विश्वास है कि यह संपूर्ण विश्व एक
कुटुंब है। इसके लिए प्रत्येक स्वतंत्र मनुष्य सकल मानवजाति की सहकारिता करने का प्रयास करे। मनुष्य मात्र की बंधुता तथा सहकारिता भी साध्य करने का प्रयास 'युवा इटली' करती रहेगी।
तथापि अपने साधारण उद्देश्य की ओर मानवी शक्ति विकसन की ओर, सभी मानव जाति सहकार भाव से जा सके एतदर्थ उन्हें समसमानता संपादन करने के लिए एक साधारण नींव चाहिए। विश्व कुटुंब के लिए, उसे जो अवयव उसका होने की इच्छा करता है, अपना साधारण रूप में नाम, शक्ति और अस्तित्व की अवश्य जरूरत है।
'अतः प्रत्येक मनुष्य विश्व कुटुंब का अंग होने से पहले अपना एक निजी राष्ट्र निर्माण करे।
'राष्ट्रैक्य के बिना राष्ट्र की संभावना नहीं। नित्य और अखंड राष्ट्रक्य दास्यमुक्ति के बिना संभव नहीं। जनपक्ष की सत्ता असफल करने का प्रयास करने के लिए अत्याचारी राजा घात में बैठे रहते हैं, अत: वे राष्ट्र का विभाजन किए बिना नहीं रहेंगे।
'दास्यमुक्ति स्वतंत्रता के पूर्णत्व के बिना प्राप्त नहीं होगी।
'राष्ट्र के लोग अपना राष्ट्र दास्यमुक्त करने के लिए प्रयत्नशील रहें। वे स्वतंत्र रूप में विचार करें। उन्हें वाक्स्वातंत्र्य चाहिए। उनका अपना तौर-तरीका हो। इस तरह की व्यवस्था होनी चाहिए। फिर राष्ट्र की परतंत्रता से रक्षा करने की बुद्धि तथा हिम्मत भी उन लोगों में आती है। राष्ट्र की स्वतंत्रता के लिए आत्मत्याग करने का दायित्व वे पहचान लेते हैं। सारांश, राष्ट्र का स्वातंत्र्य अबाधित टिके रहने के लिए व्यक्ति-स्वातंत्र्य की आवश्यकता है।
'इसके लिए युवा इटली' का उद्देश्य इटली देश का राष्ट्रैक्य करना है। राष्ट्र स्वातंत्र्य तथा व्यक्ति-स्वातंत्र्य प्राप्त करना है।
'जहाँ-जहाँ सत्ता आनुवंशिक है और एक ही व्यक्ति के हाथ में है वहाँवहाँ व्यक्ति-स्वातंत्र्य का टिके रहना असंभव है। क्योंकि सत्ता का स्वभाव ही ऐसा है कि उसकी वृद्धि तथा असीमता बढ़ती रहती है। आनुवंशिक प्रणाली होने से राजा और प्रजा के हित में विरोध उत्पन्न होता है। क्रांति अपरिहार्य होती है और इसलिए प्रत्येक राष्ट्र को जितना हो सके उतनी शीघ्रतापूर्वक राजतंत्र को उखाड़ फेंक देना होगा ताकि बार-बार क्रांति के संकट नहीं आएँ।
'क्रांति जनपद से तथा जनपद के लिए ही होनी चाहिए। लोग इसलिए क्रांति करें कि उस क्रांति से उन्हें अलभ्य लाभ होगा और इसलिए जिस पद्धति से लोगों को बहुत लाभ होगा, असंख्य निर्धनों को अन्न मिलेगा, प्रत्येक नागरिक की शक्ति का पूर्ण विकास होने के लिए क्षेत्र मिलेगा, समता रहेगी, लोगों को उसे ही अधिकार देने की शक्ति और साधन रहेगा जिसे वे देना चाहते हैं-इस प्रकार की सत्ता पद्धति इसके पश्चात् शुरू करने का अभिवचन लोगों को देना होगा।
'और इस प्रकार की सत्ता पद्धति लोकसत्ताक पद्धति है। एतदर्थ 'युवा इटली' राष्ट्रैक्यवादी और लोकसत्तावादी है।
'धर्म विषयक स्वतंत्रता रखी जाएगी; परंतु संस्था का उद्देश्य होगा विशिष्टाधिकार पद्धति का विनाश करना। अत: योग्यता के बिना कोई भी अधिकार किसी को भी नहीं मिलेगा।
'अब यह राष्ट्रैक्य, दास्यमुक्ति, स्वातंत्र्य तथा लोकसत्ता आदि महत्तत्त्वों में से पहली बात जो करनी चाहिए-वह है दास्यमुक्ति। राष्ट्रोन्नति पहली सीढ़ी है। अत: 'युवा इटली' अपनी सारी शक्ति प्रथमत: उस तत्त्व की विजयार्थ खर्च करेगी। ऑस्ट्रिया को खदेड़कर परकीय दास्यता से स्वदेश मुक्ति होने तक 'युवा इटली' शस्त्र पैदा करेगी और स्वतंत्रता युद्ध के लिए राष्ट्र को तैयार करने का यथासंभव प्रयास करेगी।
'एक बार राष्ट्र दास्यमुक्त हो गया फिर शेष योजनाएँ संपन्न करने का प्रयास किया जाएगा। क्रांति के दौरान राष्ट्रीय सत्ता एक अस्थायी तथा प्रत्येक राज्य से एक-एक प्रतिनिधि को लेकर बनाई गई सरकार के हाथ में रहेगी। क्रांति पूर्ण होते ही उस सरकार का अधिकार समाप्त हो जाएगा और फिर राष्ट्रप्रतिनिधियों का चुनाव राष्ट्र की मरजी के अनुसार होगा। युद्ध कूटनीति (छापामारी) से लड़ा जाएगा और फिर अनुशासनबद्ध युद्ध पद्धति का आयोजन किया जाएगा और कवायदी फौज खड़ी की जाएगी।
'प्रथम शस्त्र और विजय, इसके पश्चात् कायदे और सत्ता पद्धति-यही 'युवा इटली' का कार्यक्रम है। युद्ध और शिक्षा ये दो साधन हैं। पहले के लिए हम गुप्त शारीरिक तैयारी करते हैं और दूसरे के लिए लेख, वृत्तपत्र आदि का गुप्त तथा खुला प्रसार करते हुए मानसिक तैयारी करते हैं।
युवा इटली की रचना (यह पूर्णता से दी हुई है)-
१. केंद्र मंडल,
२. इटली के प्रत्येक राज्य में एक प्रादेशिक मंडल,
३. प्रत्येक शहर में एक व्यवस्थापक,
४. दीक्षागुरु अथवा प्रचारक तथा
५. दीक्षित।
१. केंद्र मंडल के कार्य : इटली के प्रत्येक राज्य के प्रांतिक मंडल का चयन करना, उनके पास साधारण नियम और सूचना भेजना, अपने और उनके बीच संकेत निश्चित करना। संस्था के लेखों का प्रकाशन तथा प्रसार करना, संस्था के कार्यक्रम की दिशा निश्चित करना, आक्रमण का प्रारूप तैयार करना। सारांशतः किसी भी प्रकार का अतिरिक्त दबाव न रखते हए सभी शाखाओं के आंदोलन का एकीकरण और केंद्रीकरण करना-ये काम केंद्र मंडल के हैं।
२. प्रादेशिक मंडल के कार्य : अपने-अपने राज्य में संस्था के महत्त्वपूर्ण काम संपन्न करना, संस्था का प्रसार करना, अपने राज्य के लिए सांकेतिक चिह्न निश्चित करना, राज्य के सदस्यों को केंद्र मंडल से आए हुए आदेश सूचित करना, प्रत्येक महीने में अपने राज्य में संस्था की प्रगति किस तरह हो गई, विभिन्न साधनों का जुगाड़ कैसे किया, गाँव-गाँव में जनमत की स्थिति कैसी है और अब आगे कैसी आवश्यक व्यवस्था करें, इन सभी बातों की मासिक रिपोर्ट केंद्रीय मंडल को भेजना, ये सभी कार्य प्रादेशिक मंडल के हैं।
३.शहर के व्यवस्थापकों के कार्य : प्रत्येक शहर में एक-एक व्यवस्थापक वहाँ के मुख्याधिकारी के रूप में नियुक्त किया जाएगा। उसका चयन प्रादेशिक मंडल करेगा। वह प्रत्येक महीने उस शहर में कौन सा काम हो गया इसकी मासिक रिपोर्ट प्रादेशिक मंडल को भेजेगा। उस प्रबंधक, प्रादेशिक मंडल से होनेवाले पत्र व्यवहार का स्वरूप केंद्रीय मंडल के पत्र व्यवहार सदृश होगा।
४. दीक्षागुरु और प्रचारक के कार्य : प्रादेशिक मंडल तथा नगर व्यवस्थापक की अनुमति से इनका चुनाव होगा। ऐसे ही लोगों का चयन होगा जो बुद्धिमान् और उदात्त विचारों के होंगे। उनका प्रमुख कर्तव्य होगा युवकों को संस्था के धर्म की दीक्षा देना और उन दीक्षितों को जानकारी तथा उपदेश देते रहना। वह नगर व्यवस्थापक पत्र व्यवहार करेगा और उस पत्र व्यवहार का स्वरूप नगर व्यवस्थापक तथा प्रादेशिक मंडल के व्यवहार सदृश होगा। ये सारे दीक्षागुरु अपने नगर व्यवस्थापकों के पास मासिक रिपोर्ट भेजेंगे और उनकी ओर से आनेवाले आदेश का अपने दीक्षित वर्ग में प्रचार करेंगे।
५. दीक्षित : दीक्षित अथवा सदस्यों का चयन उत्कृष्ट आचरण के लोगों में से दीक्षागुरु द्वारा होगा और उन्हें दीक्षा दी जाएगी। परंतु उनमें जब तक योग्य कर्तृत्व नहीं दिखाई देता उन्हें दीक्षा का अधिकार नहीं दिया जाएगा अर्थात् वे दूसरों को दीक्षा नहीं दे सकते। वे उनके अधिकार में रहेंगे जिन दीक्षा गुरुओं ने उन्हें दीक्षा दी हो और जो-जो जानकारी, वार्ता अथवा सूचना उन्हें मिली हो वे उन्हें उस दीक्षाधिकारी को सूचित करेंगे। 'युवा इटली' के सिद्धांतों का प्रसार वे करते रहेंगे। आक्रमण अभियान का समय आने पर वे तैयार रहेंगे।
'प्रत्येक सदस्य को एक उपनाम दिया जाएगा। संस्था का प्रचार महत्त्वपूर्ण कार्य होने के कारण सामान्य वर्ग तथा ऐसे युवकों को, जिन्होंने नए युग में जन्म लिया है और जिनकी आशाएँ भी नई हैं, उपदेश देकर उन्हें अपनी ओर करने का अखंड प्रयास चलता रहेगा।
'जिस-जिसको संभव होगा वह प्रत्येक सदस्य अपने पास रायफल अथवा मस्केट-इनमें से एक बंदूक और पचास कारतूस रखें। जिन्हें यह संभव नहीं होगा उन्हें बंदूक और पचास कारतूस प्रादेशिक मंडल से मिलेगा।
'जिसे जैसा बन पड़े उतना मासिक चंदा वह फंड में जमा करे।
'इस चंदा की रकम समय-समय पर प्रादेशिक मंडल के पास भेजी जाए। प्रादेशिक मंडल उसमें से उस राज्य का व्यय पूरा करेगा और एक निश्चित प्रमाण में कुछ रकम केंद्र मंडल को भेजेगा। उस रकम का विनियोग प्रवास व्यय, छपाई, शस्त्र खरीदना आदि कामों के लिए केंद्रीय मंडल करे।
'इस चंदा की रकम इकट्ठा करना, किंचित् प्रसंग में उसे माफ करना, दीक्षा के विशिष्ट मंत्र निश्चित करना आदि दुय्यम बातें प्रादेशिक मंडल को सौंपी गई हैं।
'आवश्यकता से अधिक कब्जा अथवा बिना किसी कारण पूछताछ से केंद्रीय मंडल घृणा करता है और सभी संस्थाओं में एकवाक्यता तथा क्रियासंगति बनी रहे, बस इतना ही अधिकार जताना चाहता है।
'इस गुप्त संस्था की संकेत पद्धतियाँ दो हैं। पहली संकेत पद्धति केंद्रीय मंडल तथा प्रादेशिक मंडल के व्यवहारार्थ है और केंद्रीय मंडल उसे निश्चित करेगा। दूसरी संकेत पद्धति प्रादेशिक सदस्यों के लिए प्रादेशिक मंडल ही चुनेगा और वह केंद्र मंडल को सूचित करेगा।
'ये सांकेतिक चिह्न तीन महीनों के पश्चात् अथवा आवश्यक हो तो उससे भी शीघ्र बदले जाएँगे। इस प्रकार एक प्रदेश का चिह्न यदि पुलिस को पता चल गया तो अन्य प्रदेश अलग और सुरक्षित रहेंगे।'
(इसके आगे 'युवा इटली' वृत्तपत्र में मैझिनी ने इटली के धर्मोपदेशकों को संबोधित करते हुए एक पत्र प्रकाशित किया है। उसमें तत्कालीन धर्मविचारों की तथा धर्मोपदेशकों की स्थिति की चर्चा की है और यह सिद्ध किया है कि धर्मोपदेशकों को भी देश के लिए चेष्टा करनी चाहिए। धर्म विश्व को धारण करता है तथा उसका उद्धार करना उसका अंतिम लक्ष्य है। यदि कोई धर्मोपदेशक यह सोचता हो कि जगदुद्धार के अत्यंत विरोधस्वरूप उस परतंत्रता का विनाश करना धार्मिक कृत्य नहीं, तो उस मूर्ख को धर्म की वास्तविक परिभाषा ही ज्ञात नहीं, इस प्रकार कहते हुए मैझिनी ने अंत में धर्मोपदेशक को संबोधित करते हुए अत्यंत उदात्त और उत्तेजक परिच्छेद लिखे हैं, जो नीचे दिए हैं।)
जब क्रांति का समय समीप आता है तब उसे टालने की शक्ति किसी भी मानव प्राणी में नहीं होती। वह क्रांति खुशी से हो अथवा बलपूर्वक और उसमें सम्मिलित होकर उसका नेतृत्व स्वीकारने का सम्मान धर्मोपदेशक स्वीकार नहीं करते, फिर भी वह क्रांति नहीं रुकेगी। हम इस मानवी धर्मोपदेशकों से मुँह मोड़कर उस प्रत्यक्ष धर्म की ही गुहार करेंगे। मनुष्य प्राणी के सामने गिड़गिड़ाने की अपेक्षा ईश्वर से प्रार्थना-मनुहार करेंगे। अब यह ढकोसला बहुत हुआ कि ईश्वर एक वर्ग विशेष से ही बातें करता है और हमसे बात नहीं करता। ईश्वर सभी की पुकार सुनता है, वह हमारी भी सुनेगा। परंतु धर्मोपदेशक भी एक प्राणी ही हैं और नागरिक भी। इस बात का किसी को विस्मरण न हो कि धर्माधिकारी हमारे ही देश का एक हिस्सा हैं और हम जो सर्वकल्याणार्थ लड़ रहे हैं, हमारे ध्वज पर जो 'ईश्वर और लोक', 'मनुष्यता और स्वदेश' जैसे शब्द फहरा रहे हैं, हमारे ही विरुद्ध जाकर वे आत्मविनाश कर रहे हैं।
'हे मेरे देश के धर्माधिकारियो, तुम अपने धर्म की रक्षा की चेष्टा नहीं करोगे ? तुम्हारा धर्म साकार सुंदर है और जो मनुष्यता की पवित्रता लिए हुए है वह धर्म परसत्ता के नीचे मसला जाता देखकर भी तुम हाथ पर हाथ धरे बैठोगे? क्या अभी तक आपने नहीं जाना कि स्वदेश स्वतंत्रता के बिना स्वधर्म भी मरण द्वार पर बैठता है? फिर आप हमारी सहायता क्यों नहीं कर रहे हैं? जनता के अगुआ बनें और उन्हें विकास पथ पर ले चलें। यह आप जैसे धार्मिकों का असली कर्तव्य है और इसे प्रगति पथ पर ले जाने का कर्तव्य परतंत्रता का, राजनीतिक परतंत्रता का विनाश किए बिना आप कैसे करेंगे? राजनीतिक परतंत्रता में इटली को जकड़ने का अधर्म क्या ऑस्ट्रिया ने नहीं किया? तो फिर आपको तथा जनता दोनों को ही जिन्होंने परतंत्रता की जंजीरों में जकड़ लिया है उस ऑस्ट्रिया का गला घोंटने के लिए उठो। शीघ्रतापूर्वक उठो।
'अरे, आपका स्वदेश के नाम पर कुछ नहीं है ? क्या आपका अंत:करण एक नागरिक का नहीं? आप अपने ही रक्त-मांस के स्वदेश बांधवों से प्रेम नहीं करते?
'इसीलिए अपने आपको तथा उनको मुक्त करो। क्योंकि हे धर्माधिकारियो, आप लोग भी परतंत्रता में ही हैं न ? क्या आपको स्मरण नहीं कि प्राचीन काल में मिलॉन शहर परतंत्रता में बँधते ही लैंबर्डी की जनता को पुकारकर उस मिलॉन शहर की रक्षार्थ एक नेता भागा-भागा गया। वह नेता कौन था? वह आप जैसा ही एक धर्माधिकारी था। फिर आपको लज्जा क्यों आती है? आपकी भी बारी आई है इसीलिए इस इटली देश की जनता को पुकारकर उनके साथ आल्प्स पर्वत की ओर दौड़ो, चलो-ऑस्ट्रिया का उच्छेद करके हम आल्प्स पर्वत पर अपने इटली देश की स्वतंत्रता का झंडा गाड़ेंगे।
'यह भूमि जब ईश्वर ने निर्माण की तब वह स्वतंत्र थी और अब ? वह परकीय मदांध उस ईश्वरीय इच्छा के साथ इस भू-माता को पैरों तले कुचल रहा है। अत: ईश्वरीय इच्छा के अनुसार लड़ो। माँ के दु:ख के लिए लड़ो। युद्ध में प्रयुक्त 'हर-हर महादेव' का उच्चारण करो। तुम्हारी गर्जना में अलौकिक शक्ति है, इसका उपयोग करो।
'मेरे देश के धर्मोपदेशको, आपमें से वही वास्तविक धर्मोपदेशक है जो सर्वप्रथम मनुष्यता का कर्तव्य अच्छी तरह से पहचानकर ईश्वरीय आज्ञा समझकर स्वदेश को स्वातंत्र्य प्रदान करने के लिए रणभूमि में 'हर-हर महादेव' का उच्चारण करे।
'परंतु जनपद की स्वयंप्रेरणा से युद्धनिनाद के पूर्व यदि आप उस रणशब्द का उच्चारण नहीं करेंगे तो ईश्वर ही जनता की उस भयंकर शक्ति के प्रचंड विस्फोट से आपकी रक्षा करे। क्योंकि जनशक्ति का प्रकोप महाभयंकर होता है।'
(इसके पश्चात् 'युवा इटली' के वृत्तपत्र में 'हंगरी-इटली की एकता' आदि लेख प्रकाशित हुए हैं। वे प्रस्तुत समय महत्त्वपूर्ण न होने के कारण अथवा मनोरंजक भी न होने के कारण यहाँ नहीं दिए हैं। तथापि यहाँ इतना कथन करना आवश्यक है कि इस राजनीतिक भविष्यवादी द्वारा हंगरी विषय में की गई सारी भविष्यवाणियाँ सत्य सिद्ध हुई हैं। इटली का राष्ट्रैक्य होना मनोराज्य कहा जाता था, परंतु अंत में मैझिनी की ही भविष्यवाणी सत्य सिद्ध हो गई और जो हंगरी तथा राष्ट्रीय एकता के लेख के विषय में हँस रहे थे, उन्हीं के नेत्रों के सामने भविष्य के ये मनोराज्य सत्य सिद्ध हुए।)
'युवा इटली' वृत्तपत्र में मेरे अपने लेखों के अतिरिक्त और कइयों के लेख प्रकाशित हुए। अनंत बाधाएँ, कष्ट तथा अत्याचार के चलते ही हमने अपने लेखन का काम अव्याहत रूप से जारी रखा। अन्य लोगों द्वारा लिखे गए लेखों में अत्यंत महत्त्वपूर्ण लेख जाकोपो रफिनी का 'राजनिष्ठा की शपथ और उसका धिक्कार' इस विषय पर, घेरार्डी का 'ब्रिटिश राज्यपद्धति' पर, टाबेरिओ का 'धर्माधिकारियों की सद्य:स्थिति' पर, मेलेगारो का 'सन् १८३१ के विद्रोह में घटित प्रमाद' पर, एडवोकेट बोंजा का 'राज्यक्रांति पर चर्चा' तथा बुनारोटी का राज्यक्रांति में 'जनसत्ता', फ्रांसिनी का 'लैंबर्डी में ऑस्ट्रिया का अस्तित्व' आदि लेख थे।
शिक्षित युवकों को संबोधित करते हुए लिखे गए इन लेखों के अतिरिक्त समय-समय पर लोकशिक्षा के लिए छोटी-छोटी पुस्तकें, गस्टवो मॉडेना की 'छोटा सा संवाद' थी। इसके अतिरिक्त परकीय लेखकों के अनुवाद, घोषणापत्र, हस्तपत्रक, प्रांतिक वृत्तपत्र आदि के रूप में सतत लेखन जारी था।
अंत में हमारा परिश्रम रंग लाया। राष्ट्रीय संवेदना जाग्रत् हो गई। इटली के प्रत्येक राज्य में हजारों युवकों ने जनसत्ताक राष्ट्रैक्य की शपथ ली। हमारा शत्रुपक्ष की ओर से भी विरोध किया गया। परंतु वह विरोध इतना मूर्खतापूर्ण था कि उससे हमारे हितैषियों की संख्या में ही अधिक वृद्धि हुई।
रोमाग्ना राज्य की 'एपोफसीमेनी' नामक गुप्त संस्था अपने सभी सदस्यों के साथ स्वयं आकर हमारी संस्था में सम्मिलित हो गई। उसके नेता कार्बोनी ऑस्को को ही वहाँ के प्रादेशिक मंडल का सदस्य नियुक्त किया गया। दूसरी गुप्त संस्था भी-जिसका नाम था 'वेरी इटालियानी'-हमारे पक्ष में हो गई। कारबोनरिज्म में से जो कुछ थोड़ी-बहुत शाखाएँ टिकी हुई थीं वे भी हमारी हो गईं। हमारे मत तथा सिद्धांतों का पालन करने की शपथ ग्रहण की गई और हमारे मार्ग का अनुसरण किया गया। कारबोनरी संस्था का प्रमुख नेता बुओनारोटी अत्यंत कर्तृत्ववान् था। उसके जर्मनी के गुप्त मंडलों से किए गए पत्र व्यवहार अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं। कारबोनरी का यह नेता ही नित्य नियमित रूप से मुझसे पत्राचार रखने लगा और हमारा स्नेह संबंध जुड़ गया। फ्रेंच जनसत्ता पक्ष के प्राय: सभी नेता तथा फ्रांस के निर्जन प्रदेशीय लोगों ने भी हमसे मित्रता जोड़ी। 'ट्रिब्यून' और 'नेशनल' के संचालक हमसे सहानुभूति जताते। लफाट्टे जैसा महापुरुष भी उत्तेजक संदेश भेजता। पोलिश लोग भी हमारे पक्ष में थे। हमारे इस अथक परिश्रम का परिणाम यह हुआ कि यूरोप में क्रांति के लिए जिन्होंने कमर कसी थी उन सभी राष्ट्र के लोगों को अब इटालियन क्रांति का महत्त्व समझ में आने लगा। उन्हें विश्वास हो गया कि इटली का कुछ-न-कुछ महत्त्व स्वीकार करना होगा।
सन् १९३३ में 'युवा इटली' की शक्ति विलक्षण रूप से बढ़ गई। लैंबर्डी, जिनेवा, टस्कनी तथा पोप के प्रदेश में उसका आशातीत प्रसार हो गया। इनमें से टस्कनी राज्य का प्रमुख शहर लैग्हॉर्न हमारी संस्था के उस प्रदेश का केंद्र था। इस शहर में ग्यूएराजी, बिनी तथा एनिको मेअर का परिश्रम और कर्तृत्व आश्चर्यजनक था। पीसा, फ्लोरेंस, सायेना तथा ल्युका शहरों में संस्था की शाखाएँ थीं और उनका संचालन उपर्युक्त लोगों के पास था। पेट्रोबस्टोजी (आजकल प्रधान है) कोषाध्यक्ष थे। एनिको मेअर संस्था के प्रसारार्थ रोम जाते ही पकड़ा गया। परंतु कुछ सबूत न मिलने के कारण उसे छोड़ दिया गया और मुझसे मिलने वह मार्सेलिस आ गया। मेरे सौभाग्य से जिन-जिन इटालियन युवकों से मेरी भेंट हुई उनमें से अत्यंत आस्थापूर्वक कर्तृत्ववान् तथा स्नेहमयी निष्ठावान युवकों में इंरिको मेअर की गणना की जाती है। प्रोफेसर पॉलोकॉर्सिनो, मॉन्ट्रर्नेली, कार्लोमटयुची (आजकल पार्लियामेंट सदस्य है) कार्लोफेंजी, सेपिनी (आजकल हमारे विरोधी पक्ष से मिलकर मुझपर निंद्य तथा उपद्रवी आरोप करने में यह एक प्रमुख सदस्य है) और सैकड़ों अन्य युवकों ने लैग्हॉर्न से निकलती ज्वालाएँ विभिन्न राज्यों में पहुँचाकर सर्वत्र परवशता के प्रकोप को आग लगा दी। अंब्रिया राज्य में गोंडवासी एक नेता था। रोमाग्ना राज्य में, आजकल पैसे मिलने लगते ही, पदवी ग्रहण करते ही और पेंशन मिलते ही, जो हमें गालियाँ दे रहे हैं वे सभी उस समय 'युवा इटली' के उत्साही और जोशीले सदस्य थे। बोलोग्ना में मजदूर वर्ग में गुप्त मंडलियाँ संघटित करते हुए स्वतंत्रताप्राप्ति तथा स्वतंत्रता युद्ध के सिद्धांत प्रसृत करने के लिए फेरिनी स्वकर्तृत्व से दिव्य तेज उत्पन्न कर रहा था। बोलोग्ना में आज भी सैकड़ों मजदूरों के कानों में फेरिनी के 'मेरे प्रिय देशबंधुओ, हमें अपने हाथ शत्रु के लहू में धोने ही चाहिए। उसके बिना परवशता का मैल धोया नहीं जा सकता' ऐसे वाक्य गूंजते होंगे। रोम में हमारा प्रादेशिक मंडल था। नेपल्स में पाएरिओ, बेलिची, लिओपार्डी और उनके मित्रों ने एक स्वतंत्र संस्था बड़े जोर-शोर से चलाई थी। परंतु हमारी परस्पर आवाजाही चलती रही थी और उन्होंने मुझे सूचित किया था कि उनके लोग दृढ़ जीवटवाले तथा साहसी थे और हमारी योजना के अनुसार सही मौके पर आकर हमें मिलने के लिए तैयार थे। मेरे साथ उनका पत्र व्यवहार भी चलता था।
परंतु जिनेवा में, जो मेरा जन्मस्थान था, संस्था का उत्कर्ष दिन दूना रात चौगुना हो रहा था। ऐसा नहीं कि जिनेवा में केवल युवक और साधारण वर्ग के नेतागण हमसे आकर मिले थे, सरदार वर्ग के बहुत सारे नेता लोग भी हमारे पक्ष के हो गए थे। हमारी शक्ति स्वीकार कर माविस रोवोरेडो और अन्य कुछ सरदार संस्था के ध्वज तले आ गए। पिडमॉन्ट प्रदेश में संस्था का काम जरा धीरे-धीरे शुरू हो गया। परंतु अंत में उधर भी संस्था का प्रसार पूरा हो गया। प्रत्येक महत्त्वपूर्ण शहर में शाखाएँ खोली गई थीं और उनकी उपशाखाओं का विस्तार तो कानावीज़ के शूर जनों तक पहुँच गया था। एडवोकेट अजेरिओ (सन् १८२१ में निर्वासित), साएंड्रा (व्यापारी, रैन्फ्रोडे प्रटिस) (प्रधानमंत्री और नरम पक्ष के विरोधी पंथ का वर्तमान नेता), स्टारा और अन्य कई लोग हमारे पक्ष के अत्यंत ठोस और कर्तृत्ववान युवकों में से थे। इसके अतिरिक्त असंख्य प्रतिष्ठित एवं भद्र लोग प्रत्यक्ष रूप से हमसे नहीं मिले थे, तथापि हमें हमेशा सूचित करते कि किसी भी कार्य का जोरदार आरंभ करते ही हम संपूर्ण सहायता करेंगे।
अब हमारे पास क्रांति के साधन प्रचुर मात्रा में उपलब्ध थे। संस्था के दोहरे कर्तव्य की तरह शिक्षा और गुप्त युद्ध की तैयारी ये दो कर्तव्य संपन्न करते समय सैकड़ों विपदाएँ प्रतिक्षण सामने खड़ी रहतीं। तिसपर हमारी उत्पन्न की हुई जागृति तथा चैतन्य का उपयोग जितनी शीघ्रतापूर्वक करना है उतना करना अनिवार्य होने लगा। क्योंकि चेतना की उष्णता को सरकारी आँच लगने लगी और शीघ्र ही उसपर पानी डालने के लिए सरकार भयंकर पूछताछ तथा अत्याचार करेगी ऐसा दिखाई देने लगा। यह पानी डालने से पहले उस चैतन्य के अंगारों को फूंक मारकर उसकी लपटें प्रज्वलित करना और उसमें परतंत्रता को भस्म करने का प्रयास करना अ प्रतीत होने लगा और हमने आक्रमण का प्रयास किया।
इसी समय साडीनिया राज्य से सहायता मिलने की आशा उत्पन्न हो गया उस राज्य के पास युद्ध करनेवाले सिपाहियों को लश्करी विद्या प्रशिक्षित सेना उस सेना को उनपर नियुक्त अधिकारी के अधिकार में अनुशासबद्ध आचरण करने की शिक्षा मिली थी। इस प्रकार वह राज्य बहुत बलवान् था। सौभाग्य से उस राज्य ने हमें अत्यंत महत्त्वपूर्ण तथा लश्करी दाँव-पेंचों के लिए अत्यंत उपयुक्त दो स्थान देने का वचन दिया था। एलेसेंड्रिया और जिनेवा यही वे स्थान हैं। इन्हीं दो शहरों में हमारी संस्था का बल असीम था। मध्य प्रदेश पर आक्रमण करने से ऑस्ट्रिया का वहाँ प्रत्यक्ष संबंध होने के कारण उसे सावधान करने में खतरा था। मुझे विश्वास नहीं था कि नेपल्स में आरंभ होते ही वे लोग आगे घुसेंगे कि नहीं। आक्रमण के पश्चात् आगे घुसने के अतिरिक्त जय का अन्य कोई उपाय नहीं था। अतीत में इसी अपराधवश आक्रमण निरर्थक हो गए हैं। एक बार आक्रमण होने से उसका प्रसार शीघ्रतापवूक होना चाहिए। आक्रमण करके सभी शहर एकसाथ हिलाने चाहिए ताकि शत्रु का बल विभाजित हो और मित्रों का उत्साह बढ़े-यह न करते हुए कापुरुष समान हिसाब जोड़ते, कतर-ब्योंत करते दबके बैठने में जिन्हें बड़ी बुद्धिमानी लगती है उन निठल्ले तथा महामूर्ख नेताओं की ऐसी ही गलतियों के कारण इससे पहले सैकड़ों बार पराजय का मुख देखना पड़ा है।
ऑस्ट्रिया हमारा शत्रु है। रणभूमि में कूदकर उसे ललकारना ही पड़ा। उसपर पहला वार क्रांतिपक्ष से ही होना चाहिए। अन्यथा वही आक्रमण को दबा देता। परंतु हम अपनी ओर से उसपर टूट पड़ते तो उसकी घिग्घी बँध जाती। तिसपर उस समय ऑस्ट्रिया के प्रति द्वेष हम लोगों में सारे इटली भर में इतना प्रज्वलित हो गया था कि उससे युद्ध करना सर्वमान्य होता। इस कारणवश मैंने निश्चित किया कि विद्रोह का आरंभ सार्डिनिया राज्य से करना है। जिनेवो और एलेसंड्रिया को केंद्र बिंदु बनाए रखना है। उसी समय आरंभ का संकेत होते ही हम निर्वासित देशभक्त जन बाहर से सेवॉय पर आक्रमण करें ताकि वह राज्य सीमावर्ती होने से हमें इटली में घुसपैठ का मार्ग मिले। इतना ही नहीं, फ्रांस में जनसत्ताक मंडल का हमसे यातायात संबंध बना रहे। इस तरह की योजना निश्चित करते हुए हम सेना को अपनी ओर करने का प्रयास करने लगे। उनके उच्च श्रेणीय, अधिकारी लोगों को इटली की एकराष्ट्रीयता तथा स्वातंत्र्य कल्पना पसंद आई और वे सहयोग के लिए तैयार हो गए। इटली स्थित प्रायः सभी रेजिमेंटों में आवाजाही आरंभ करने में तथा परस्पर एकदिल होने का कार्य अखंड रूप से जारी रखने में हमें संपूर्ण सफलता मिली। जिनेवा और एलेसेंड्रिया विद्रोह के दो प्रमुख स्थान बनाने की हमारी योजना होने के कारण उन शहरों में जो शस्त्रागार थे वहाँ प्रवेश करने का बहुत प्रयास किया अंत में उस शस्त्रागार के तोपखाने के अधिकारियों में हमने संपूर्ण प्रवेश किया। सेना को अपनी तरफ करने में हमने उच्चाधिकारियों की इतनी परवाह नहीं की। क्योंकि यह सत्य है कि ये अधिकारी हमारे पक्ष में आएँ तो सोने पे सुहागा और न भी आएँ तो उससे हमारी कुछ अधिक हानि नहीं होनी। सिपाही लोग उनके दल के अधिकारियों के संपूर्ण कब्जे में होते हैं। वे अपने श्रेष्ठ सेनापति से परिचित भी नहीं होते। ऐसी स्थिति में दल के अधिकारियों के कहने के अनुसार सैनिकों का तरंत उसी तरह आचरण करने के इतिहास में सैकड़ों उदाहरण हैं। सेनापति सामारजानो सर्व सेना से विद्रोह में शामिल होने के लिए कहता था, जो घुड़सवार विद्रोहियों में शामिल नहीं हुए थे वही उनके अधिकारी के आदेश से तुरंत क्रांतिपक्ष में आ गए थे। सार्जंट गिरमांडी के आदेश से इसकी चिंता भी न करते हुए कि वरिष्ठ अधिकारी क्या कहेंगे, सारी रेजिमेंट क्रांतिपक्ष के पास आई थी। तब मुख्य अधिकारियों से दुय्यम अधिकारियों के साथ ही सेना का प्रत्यक्ष संबंध आने से सिपाही को अपने पक्ष की ओर लाने का प्रमुख साधन उनके ऊपर, जो दुय्यम अधिकारी हैं, उन्हें ही दीक्षा देना था और इसीलिए हम कार्पोरल्स, सार्जंट्स और कैप्टन्स को फटाफट दीक्षा देते गए। शेष बचे प्रमुख सेनापतियों में भी दो वर्ग होते हैं। एक एकदम विरुद्ध और दूसरा अविरुद्ध। पहले वर्ग में स्वभावत: लोग अल्प संख्या में होते हैं। जब संपूर्ण राष्ट्र स्वतंत्रता सदृश परम मंगल तथा सकलसूखमूलक कार्य के लिए रणभूमि में उतरता है तब परवशता की जय-जयकार अंतःकरण से करनेवाले नराधम अत्यंत अल्प संख्या में ही मिलते हैं। प्रायः उनके अंत:करण में सहानुभूति ही होती है। परंतु भय, अनिश्चय तथा संदेह के कारण वे प्रकट रूप में हमारे पक्ष में नहीं आ सकते। ऐसे लोगों का जो दूसरा अविरुद्ध वर्ग है उसमें कुछ लोग तटस्थ होते हैं। परंतु शेष पीछे से आना चाहते हैं। उदाहरणतः गिफ्लेंगा ने स्पष्ट अभिवचन दिया था कि यदि आक्रमण सफल होने के आसार दिखाई दिए तो वे प्रत्यक्ष रूप से हमारे पक्ष में आएँगे। सफलता के चिह्न दिखाई देने लगते ही जो तटस्थ हैं उनमें भी उत्साह का संचार होता है और जो विरुद्ध होते हैं वे अविरुद्ध होने लगते हैं। अत: दुय्यम श्रेणीय अधिकारियों को अपनी ओर करने से सेना का पूरी तरह क्रांतिपक्ष की आर जाना अथवा न जाना-यह सर्वस्वी जनता के आक्रमण के जोर पर निर्भर रहता है। यदि कुछ समय जोर लगाया तो संपूर्ण सेना विद्रोह पर उतारू होती है। हाँ, परंतु पहले उनके मन तैयार करने का काम पूरा होना चाहिए ताकि प्रारंभ में भी वे मन:पूर्वक आक्रमण के विरोध में नहीं लड़ें और विद्रोह का स्वरूप आशानुरूप दिखाई देते ही प्रकट रूप में आ मिलें।
इतना सारा जुगाड़ होने के पश्चात् मैंने विद्रोह की योजना पक्की की और प्रादेशिक मंडल का अनुमोदन लेते हुए धन की माँग की। परंतु दुर्भाग्य से मुझे उतने पैसे नहीं मिले जितने मैंने माँगे थे। इतना ही नहीं, आवश्यक रकम भी इकट्ठी नहीं हो पाई। न जाने कैसा चमत्कार है, परंतु इस बात का अनुभव हमेशा होता है कि जो लोग प्रसंग आते ही स्वतंत्रता के लिए अपना लहू बहाना चाहते हैं वही लोग उनका लहू कम खर्च हो ऐसा संभव होने पर भी पैसे देने के लिए 'ना-नुकर' करते हैं।
आक्रमण का कार्यक्रम जिनेवा, एलेसेंड्रिया, वर्सेली, लोमेलिना आदि स्थानों के शाखाध्यक्षों को सूचित किया। जिनेवा में सारी तैयारी ठीक करने के लिए मैंने मार्सेलिस से जाना निश्चित किया और प्रस्थान की सारी गुप्त व्यवस्था की। परंतु जिनेवा जाने से पहले फ्रेंच जनसत्ताक नेताओं का निश्चित अनुमोदन लेकर तथा सारी व्यवस्था पक्की करके ही मार्सेलिस छोड़ना निश्चित किया।
इसके पश्चात् जनसत्ताक नेताओं ने मुझे मार्सेलिस बुलाया। उनके आने के पश्चात् इटली में जनसत्ता के नाम पर विद्रोह खड़ा करते ही वे फ्रांस में एकसाथ विद्रोह का झंडा गाड़ें, इस प्रकार हमने योजना बनाई। इस प्रकार का कार्यक्रम बनाने का कारण यह था कि फ्रेंच सरकार नहीं चाहती थी कि इटली जनसत्ताक बने। अत: वह हमेशा इटली के विरोध में प्रयत्नरत रहती। अगर फ्रांस में विद्रोह खड़ा हो जाए तो फ्रेंच सरकार घरेलू टंटे-बखेड़े मिटाने में उलझी रहेगी और उसे इटली की ओर ध्यान देना संभव नहीं होगा। लायन और पेरिस में विद्रोह करने की योजना बनाकर फ्रेंच जनसत्ताक नेता मार्सेलिस से लौटे। इस तरह सारा जुगाड़ बन गया। परंतु उसे मुकम्मल करने से पहले ही एक साधारण बात से सबकुछ टॉयटॉय फिस्स होने के लक्षण दिखाई देने लगे।
हमारे 'युवा इटली' के लेखों का विस्तृत प्रसार और सरकार द्वारा उनके विरोध में हजारों उपाय करने पर भी उनकी अखंडता देखकर सरकार को ज्ञात हुआ था कि हमारा गुप्त मंडल कितना प्रबल हो गया है। उसने इस गुप्त आंदोलन का केंद्र ढूँढ़ने का खूब प्रयास किया, लेकिन व्यर्थ। वह ढूँढ़ने में व्यस्त हो गई। छिपा केंद्र कभी था ही नहीं। वह सोचती, सन् १८२१ में जिन्होंने विद्रोह किया था, उन नेताओं के पक्षकारों एवं श्रीमान लोगों में इस आंदोलन की जड़ होगी। इस प्रकार की गुप्त मंडली का अद्भुत प्रसार तथा सरकार और पुलिस को नाकों दम करते हुए राज्य क्रांति का कठिन कार्य अखंड चलाने का सामर्थ्य, इसकी जड़ में ऐसे मुट्ठी भर युवक थे जो लोकप्रसिद्ध नहीं थे तथा अपनी अपूर्व पराक्रम शक्ति एवं अद्भुत इच्छाशक्ति के अतिरिक्त उनके पास किसी भी तरह का द्रव्यबल अथवा साधनबल नहीं था। उन्हीं के बलबूते पर यह सारा चक्र घूमता रहा। यह पुलिस समझ नहीं सकी; परंतु इन श्रीमान जनों पर सरकार एकदम अत्याचार करने का साहस नहीं कर सकी। क्योंकि यदि वास्तविक नेता अलग ही होंगे तो इन लोगों को, जिनका उन गतिविधियों से कुछ भी संबंध नहीं, दंड होने से वे सतर्क होंगे। इस भय से पुलिस दबी रहकर ही सारी छानबीन करना चाहती थी। ऐसी स्थिति में यदि अकस्मात् विद्रोह छिड़ जाए तो उन्हें तैयारी के लिए भी अवसर नहीं मिलता। परंतु मार्च के अंत में घटी एक साधारण सी घटना से सारी योजना मिट्टी में मिल गई।
तोपखाने के दो सिपाहियों में आपसी झगड़ा हो गया। उनमें से एक हमारी संस्था में था जो उस दूसरे को भी दीक्षा देने का प्रयास कर रहा था। तब तक युवा इटली' की कुछ जानकारी उसने उसे दे दी थी। यह आपसी झगड़ा हद से अधिक बढ गया और क्रोधावेश में तुम्हारा परदाफाश करना मेरे हाथ में है, मैं तम्हारी जान ले लँगा'-इस प्रकार हमारे उस सदस्य को सरेआम धमकाया। इस बात की भनक लगते ही पुलिस सावधान हो गई और एक के बाद दूसरे गुप्त रहस्य का खुलासा आरंभ हो गया। इस बात का पता लगते ही मैंने भाँप लिया कि इसके कितने अनिष्ट परिणाम होनेवाले हैं। मैंने तुरंत संदेश भेजा कि 'एकदम उठो अन्यथा सर्वनाश अटल है।' नेताओं को या तो संदेश नहीं पहुँचा हो या उन्होंने उसपर ध्यान नहीं दिया हो। धावा नहीं बोला गया। सरकार ने इतनी शीघ्रतापूर्वक तथा कड़ी पूछताछ की कि उससे स्पष्ट होता था कि उन्हें भीतर से कितना भय रहा होगा। सभी बैरकों तथा तोपखानों पर कड़ा पहरा बैठाया गया। सिपाहियों की पूछताछ भी हो गई। तिसपर कई स्थानों पर 'यंग इटली' के लेख मिल गए। उन लेखों के स्वामी बंदी बनाए गए। कुछ ही दिनों में उनके जितने प्रिय मित्र थे सभी पकड़े गए। इसके पश्चात प्रत्येक सिपाही का चेहरा देखा जाता। जिनके चेहरे पर घबराहट दिखाई देती उन्हें उसी प्रमाण पर पकड़ा जाने लगा। ऐसा नहीं कि यह बात केवल जिनेवा तक ही थी, ट्यूरीन, एलेसेंड्रिया तथा चमबेरी के कारागृह 'संदेहास्पद' कैदियों से खचाखच भर गए। पकड़ते समय एक खूबी देखी जाती कि प्रथम जो पकड़े गए उनके पीछे-पीछे ही दूसरों को नहीं पकड़ना, थोड़ी देर के बाद पकड़ना ताकि दूसरा सोचे कि पहले ने उनके नाम बताए ही होंगे, अतः अब 'ना' कहकर छिपाने में कोई तुक नहीं। इस प्रकार उस कैदी को, जो पहले का मुखबिर हुआ होगा, इस तरह के संदेह से ग्रस्त हो गया होगा-मृत्यु की धौंस दिलाई जाती। उन्हें सूचित किया जाता, 'नाम बताओ, अन्यथा फाँसी पर चढ़ाया जाएगा।' एक सरकारी नौकर और तीन लश्करी सिपाही इतने कापुरुष थे कि उन्होंने नाम बता ही दिए। अन्य लोगों में से कुछ ने तो अपना ही अपराध स्वीकार करते हुए क्षमा-याचना का नारी सुलभ कृत्य आरंभ किया। परंतु अन्य लोगों ने नाम बताने से इनकार किया। परंतु उनके अपना अपराध स्वीकार करते ही उनके सारे मित्र ही पकड़े गए। बड़े शहरों के कारागृह भरने पर छोटे-छोटे शहरों में पकड़-धकड़ आरंभ हो गई। चारों ओर उसका दबदबा हो गया। हममें से कुछ भाग गए, कुछ छिपे रहे। नेता लोग कभी धावा बोलने का इशारा देना चाहते, परंतु आखिर संदेह से विनाश हो गया। जाकोपो रफिनी और जिओनी ने इशारा नहीं किया। इस तरह पराजित होने पर लोग उँगली न उठाएँ इसलिए इशारा न देते हुए धीरज तथा हिम्मत के साथ संकटों का सामना करने का उपक्रम उन्होंने किया। थोड़े दिनों में आक्रमण करना असंभव हो गया। बैरक में जाने पर कड़ी पाबंदी लगाई गई। सरकार ने हमारे विरोध में नीच अफवाहें फैलाना जारी रखा ही था ताकि जनता हमसे घृणा करे। हम शहरों को आग लगानेवाले थे। दुष्ट अफवाहों का बाजार गरम होने लगा। सरकार ने नीचता की चरम सीमा भी पार की। जनता पक्ष की ओर तनिक अतिरेक होकर किसी ने क्रोधावेश में एकाध खून किया तो सरकार उस कृत्य को 'मेरे खंजर की उपपत्ति' कहती। परंतु मेरे पक्ष के उस अतिरेक से दिन-दहाड़े तथा वैध रूप से किए गए हजारों हत्याओं की उपपत्ति किसने लिखी थी? उन्होंने तथा अहम्मन्य सरकार ने ही न? परकीय सत्ता का अर्थ है सेना, संपदा तथा कायदे के आधार पर दिन-दहाड़े संपूर्ण विश्व की हत्या करने के लिए प्रस्थापित मंडली।
इस प्रकार पकड़-धकड़ करके आक्रमण बंद तथा असंभव करने के पश्चात् सरकार का उचित मार्ग था वैध रीति से नेताओं की पूछताछ करना। परंतु उनकी क्रूरता अब दुगुनी हो गई। एक तो मन में समाया हुआ भय और दूसरा अपना भय प्रकट होने पर उत्पन्न हुई लज्जा। इन दो मनोविकारों का परिणाम दुगुनी क्रूरता के रूप में सामने आया। सार्डिनिया प्रदेश का तत्कालीन इतिहास इस प्रकार का है कि उसका वर्णन करने के लिए टैसिटरस ही चाहिए और उसे अपनी लेखनी लह में ड्बोनी पड़ेगी। जिन-जिनको विदेशियों के अत्याचार और अत्याचारी राजाओं की क्रूरता की कल्पना पक्की करनी हो वे सब लोग यह इतिहास अवश्य पढ़ें। माताएँ अपने बच्चों को इसे पढ़कर सुनाएँ ताकि यह सिखाने के लिए कि गुलामी के फल क्या होते हैं कोई दूसरा ग्रंथ खोलने की आवश्यकता न पड़े।
जिन्हें संदेह में पकड़ा गया था, उन्हें यह कहा गया कि घबराने की कोई आवश्यकता नहीं है। उन्हें शीघ्र ही मुक्त किया जाएगा। परंतु उसी समय उधर जेल में अपराध स्वीकार करने के लिए तथा भांडा फोड़ने के लिए भयंकर यंत्रणा देना आरंभ होता है। नरक यातनाओं का वैज्ञानिक ज्ञान तथा अत्यंत गहरा विद्वेष यथासंभव जितने प्रकार के ढूँढ़े गए वे कम थे। किसी को लालच दिखाया, किसी को अत्यंत कष्टप्रद, अपमानजनक प्रश्न पूछकर थका दिया, और शीघ्र अथवा विलंब से परंत मरण का भय सभी को दिखाया। जो साधारण मित्र दिखाई दिए उनसे वे पूछते, 'हमें विश्वासपूर्वक पता चला है कि तुम अपराधी हो और तुम्हें तोप के मुँह में डालने का दंड पक्का हो गया है। चौबीस घंटों के भीतर तुम यदि अपने मित्रों तथा षड्यंत्र करनेवालों के नाम बताओगे तो हम तुम्हारा जीवन बचाने का विश्वास दिलाते हैं।' अब उनसे जिनका धीरज तथा शील विश्रुत था, वे पूछते, 'मन-ही-मन हमें तुम्हारे लिए अत्यंत दु:ख होता है। तुमने जो किया वह अति उत्तम विचार से किया। तुमने उसी के लिए कमर कसी जो तुम्हें प्रशंसनीय प्रतीत हुआ। परंतु जिनके लिए तुम इतना स्वार्थत्याग करने के लिए तैयार हो गए उनकी नीचता पर तुमने गौर नहीं किया। जिन्हें साथी समझकर उनके नाम तक प्रकट न करते हुए तुमने मृत्यु को गले लगाना स्वीकार किया है उनपर अंधविश्वास है तुम्हारा। जिन्होंने इससे पहले ही विश्वासघात से तुम्हारे नाम हमें बताए हैं उनके लिए तुम अपना परिवार तथा अपने प्राण दे रहे हो। देखो, तुम्हारे उन मित्रों ने ही तुम्हारे नाम हमें बताए हैं। तो फिर उनके नाम बताकर अपने इष्ट मित्रों तथा बीवी-बच्चों के पास जाकर उन्हें दृढ़ आलिंगन देने का सुअवसर हाथ से क्यों जाने दे रहे हो? स्वीकृति नहीं दोगे तो निंद्य मृत्यु के अतिरिक्त कुछ भी पल्ले नहीं पड़ेगा।' इतना कहकर संदेह से चंचल बने उस मन का तुरंत हाथ उठाकर वे उसका नाम बताने का एक बनावटी पत्र निकालते और उस पत्र पर उनके मित्र के बनावटी हस्ताक्षर दिखाते हुए उस कैदी के मन पर यह अंकित करने का प्रयास करते कि उन मित्रों ने वास्तव में ही विश्वासघात किया है। मेरे प्रिय मित्र रफिनी जाकोपो को इसी तरह धोखा देने का प्रयास किया गया। जिनसे उन्हें केवल अपने ही जुर्म कबूल करवाने थे, उनपर अलग प्रयोग किए जाते थे। जेल में जिस कोठरी में उन्हें रखा जाता, एक पुलिस का आदमी कैदी बनाकर रखा जाता। वह निराशा, हताशा तथा विश्वास के प्रत्येक क्षण का लाभ उठाकर उस देशभक्त बंदी से सहानुभूति का ढोंग रचाकर उगलवाने का प्रयास करता। मिलिग्लिओ नामक एक सार्जंट पकड़ा गया था। जिनेवा में उसकी कोठरी में एक बंदी था। वह रोते-रोते मिलिग्लिओ से कहता, मैं भी एक गुप्त षड्यंत्रकारी हूँ। एक दिन उसने कहा कि मेरे पास पत्र व्यवहार का साधन है, चाहो तो अपने घर पत्र भेज दो। स्याही आदि उपलब्ध न होने के कारण मिलिग्लिओ ने आखिर अपनी नस काटी और उस लहू से एक संक्षिप्त पत्र लिखकर बड़े विश्वास के साथ उस बंदी को दे दिया। यह बंदी पुलिस ही था। वही रक्त लिखित पत्र मिलिग्लिओ के सबूत के रूप में काम आ गया। बंदी की खिड़की के नीचे चांडाल उस बंदी के अन्य मित्रों को फाँसी पर चढ़ाने के आज्ञापत्र पढ़ते। वह पत्र सुनते ही घबराकर अन्य बंदियों के नाम बताएँगे और अपने प्राण बचाएँगे-यही योजना होती। एक ओर राक्षसी युक्ति होती। दो मित्रों को एक-दूसरे की कोठरी में रखा जाता। उनमें से एक को दूसरे के कष्टों का वर्णन सुनाया जाता। थोड़ी ही देर में इस बंदी को अपने मित्र की कोठरी के सामने सिपाहियों के दौड़ने की आवाज सुनाई देती। फिर थोड़ी देर के पश्चात् बंदूक का धमाका होता। उसे सुनते ही इस बंदी को विश्वास होता कि उसके मित्र को गोली से उड़ा दिया है। और कबूली देने से ही तुम्हारा जीवन बचेगा यह वचन पुनः उसके कानों पर आ जाता। जिओनरी अपना अनुभव लिखता है कि 'सार्जंट लोगों को फाँसी पर चढ़ाने के पश्चात् उन्होंने पिओनेविया को भी फाँसी पर लटकाया' इस तरह मुझे विश्वास दिलाने का प्रयास किया। पिओनेविया (यह देशद्रोही सभी के नाम बताकर जीवित छोड़ा गया) की कोठरी मेरे निकट थी। वह रोज गीत गाता। एक दिन उसका गाना एकदम बंद हो गया। उसकी कोठरी में उस शहर के (अलेसेंड्रिया) अधिकारी ने प्रवेश किया। रात भर सिपाहियों की आवाजाही की आवाज मुझे सुनाई देती। इतने में एक अधिकारी मुझे भी उपदेश देने आ गया। मुझे पूछा गया, 'तुम ठीक हो न?' मैंने उत्तर दिया, 'हाँ, मैं ठीक हूँ। मेरा मन शांत है।' इतने में पिओनेविया को उसकी कोठरी से ले जाने का आभास उत्पन्न किया गया। तीन धमाके हुए और यह सोचकर कि पिओनेविया को गोली से उड़ाया गया है, मैंने अश्रुपात किया।'
कुछ देशभक्त बंदियों पर अलग ढंग से अत्याचार किए जाते। उनकी कोठरी के सामने रात के समय सतत आवाजें, शोरगुल, हो-हल्ला करवाया जाता। उस धमाचौकड़ी से सोना दूभर होता। इस प्रकार तीन-चार रातें आँख न लगने के पश्चात् उन्हें सतत पूछताछ की जाती। इस पूछताछ तथा प्रश्नों का स्वरूप कितना भयंकर होता, कितना कष्टप्रद होता इसे वही समझ पाएगा जिसने इसका अनुभव किया है। इस प्रकार मन तथा शरीर का संपूर्ण सामर्थ्य क्षीण होने के पश्चात् उस बंदी को यह आस दी जाती कि संपूर्ण कबूली देने पर उसे मुक्त कर दिया जाएगा। इसपर भी मात देनी हो तो प्राकृतिक तथा विशुद्ध परिवार प्रेम को भ्रष्ट करते हुए उस कैदी के पिता, माता अथवा पत्नी को अधिकारी के साथ कबूली देकर मुक्त होने की प्रार्थना करने के लिए लाया जाता। जिओनरी कहता है, 'मेरी कोठरी घुप अँधेरे में थी। वह हताशा, उद्वेग का निवास था। उस कोठरी की एक ही खिड़की थी जिसपर डबल सलाखें रहतीं। एक दीवार को एक कड़ी रहती जहाँ मुझे मोटी जंजीर से जकड़ा जाता। मुझे प्रतिदिन बताया जाता कि राजा की आज्ञा ईश्वरीय आज्ञा होती है, जिन्होंने उसे अस्वीकार किया उन्हें दंड देना पुण्य कर्म है। मेरी कोठरी हाएचिएरी के सामने थी, जो फाँसी की प्रतीक्षा कर रहा था। उसकी कोठरी का द्वार जानबूझकर खुला रखा जाता। मेरे दरवाजे में तीन छेद किए गए और उनके सामने हाएचिएरी को इस प्रकार बैठाया गया जिससे मैं देख सकूँ। उसके पैरों में मोटी-मोटी बेड़ियाँ डाली गई थीं। उसके दोनों ओर दो सिपाही नंगी तलवारों के साथ खड़े थे। वे कुछ भी नहीं बोलते। एक सप्ताह तक यह भयंकर दृश्य मेरी आँखों के सामने था। दर्भाग्य तथा बीभत्सता की चरम सीमा पार करने के लिए मेरी बगल की कोठरी में एक भयंकर रोगी को रखा गया था। उसका कराहना, जोर-जोर से चीखनाचिल्लाना अखंड रूप से चलता रहता। कुछ दिनों के बाद मुझे दूसरी कोठरी में रखा गया। वहाँ सीलन इतनी थी कि मेरे हाथ-पैर, सारा शरीर ठनकने लगा। यह देखकर कि मेरा शरीर और मन अति दुर्बल हो गया है, उलटे-सीधे प्रश्न आरंभ हुए। ऐसे उलझन भरे, दोहराव भरे कष्टप्रद प्रश्न पूछे जाते कि मेरी मति पूर्णतया कुंठित हो जाती। किसी आरोप का विरोध करने लगते ही एव्हेनरी बीच में ही मुझे रोकता और कहता, 'हाँ-हाँ, सँभलकर, सावधानी के साथ उत्तर दो।' अर्थात् मैं सकपकाऊँ। तुरंत कुछ ही क्षणों में आवाज बदलकर वह कहता, 'बस, इससे आपका अपराध साबित हो गया है। अब सारा प्रमाण तैयार है। अपनी सुरक्षा के लिए चल रहा लुका-छिपी का खेल असफल हो गया है।
'आखिर मुझे विश्वास हो गया कि मरण निश्चित है, अटल है। फिर उन्होंने मेरे मित्रों द्वारा मेरा नाम बताए जाने के प्रमाण दिखाए। सेग्रेवओरा आदि के जवाब पढ़कर मैं उलझन में पड़ गया। मुझे ऐसा प्रतीत होने लगा कि मैं पागल हो जाऊँगा। आगे पूछताछ का समय आ गया। मैं अपना पक्ष प्रस्तुत करने के लिए वकील नहीं दे सकता इस प्रकार आदेश आ गया। अच्छा, मैं अपना वकील स्वयं ही बनना चाहता था, तब मेरा पक्ष लिखने के लिए अभियोग शुरू हो जाने के दो दिन बाद भी मुझे स्याही नहीं मिली। मेरे माता-पिता उस शहर में मेरे लिए आए थे-इस बात का पता चलते ही उन चांडालों ने उन्हें शहर छोड़ने का आदेश दिया। आखिर मुझे यह आज्ञा दी गई कि मुझे वही वकील स्वीकार करना पड़ेगा जिसे वे लोग देंगे। मैंने इसे स्वीकार किया। परंतु आते ही मेरी सुरक्षा की योजना बनाने के बदले वह मुझसे कहने लगा, मेरी अवस्था बहुत ही भयंकर हो गई है। सिर्फ वही बातें मुझसे कहने लगा, जिससे मैं केवल अपना जी खोलकर प्रमाण इकट्ठा करने के विषय में चर्चा करूँ-सरकार को पक्की खबर मिली है कि मैं गुप्त संस्थाओं का एक अत्यंत सक्रिय सदस्य हूँ, अत: दंड न होना तो असंभव ही है। इसपर केवल एक ही उपाय है-वह यह कि सबकुछ स्वीकार करते हुए नाम बता दो। मेरे अन्य मित्रोंएजेरिओ, स्टारा-ने तुम्हारी सारी योजनाओं का भांडा फोड़ दिया है और ट्यूरीन से अनुमति आते ही उन्हें रिहा भी किया जाएगा। यह अंतिम अवसर है। मैं कबूली देकर मुक्त हो जाऊँ। दो बार मैंने इस मांग को दुत्कारा। परंतु तीसरी बार पुन: वही उपाय सुझाने पर उसके वशीकरण का मैं शिकार बन गया। इस भयंकर अत्याचार की शरण कई लोग गए। जो अनेक लोग धैर्य के मेरु पर्वत समान अचल, अडिग रहे वे फाँसी पर चढ़ाए गए। एक युवक ने, जिसका अंत:करण इतना शुद्ध और उदात्त था कि उसमें इस भूतल के समस्त राजाओं के वचन अथवा भय से रत्ती भर भी विचलन नहीं उत्पन्न होता अथवा कायरता का स्पर्श तक नहीं होता, अपनी पवित्र आत्मा को उस भूलभुलैया पिशाच से तथा अपनी देह को उन फाँसी पर चढ़ानेवाली माँगों से सकुशल सुरक्षित बचाकर परलोक भेज दिया।
एक दिन रात के समय उसने अपने कारागृह के द्वार से एक कील उखाड़कर निकाली और उसे अपनी गरदन में ठोंक दिया। इस जगत् की असहनीय दासता के विरोध में तथा स्वदेश की परतंत्रता के विरोध में एक अंतिम लरजती हुई गर्जना के साथ वह विश्वजनक के गले लग गया। उसे अधिकार था विश्वजनक के पास जाने का, क्योंकि वह शुद्ध, पवित्र और पापभीरु था। उस युवक का स्वभाव अत्यंत मधुर था। उसकी प्रीति निर्मल, मनस्वी तथा अखंड रसदा थी। आज तक मैंने ऐसा युवक नहीं देखा था जिसका अंत:करण इतना मधुर, जिसका प्रेम इतना पवित्र तथा अखंड था। वह मेरा मित्र था, मेरा प्रथम और सर्वश्रेष्ठ सखा। बाल्यकाल से लेकर सन् १८३१ तक जाकोपो रफिनी और मैं बंधुभाव से रहे। पहले तो जेल के कारण और फिर निर्वासन से हम सदा के लिए एक-दूसरे से बिछुड़ गए। वह वैद्यकी का तथा मैं वकालत का अध्ययन कर रहा था। परंतु प्रथमतः वनस्पति विज्ञान में अभिरुचि, फिर दोनों की साहित्य के प्रति आत्मीयता और बाद में रूढ़ रचनावादी एवं अद्भुत रचनावादी इनमें छिड़ा रणसंग्राम और सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह कि हमारे अंत:करण की स्वाभाविक एकतानता इन सभी बातों में धीरे-धीरे हम एक-दूसरे की ओर आकर्षित होने लगे और आखिर उसी आकर्षण से निकट आते-आते हम एकजीव हो गए। हम चरम सीमा तक पहुँच चुके थे। ऐसी चरम सीमा कि ऐसा स्वर्गीय प्रेम तथा इस तरह का दैविक स्नेह मैंने आज तक कहीं नहीं देखा। भविष्य में भी आजीवन मैं नहीं देख सकूँगा। उससे उदात्ततर और पूर्णतर आत्मा मैंने कहीं नहीं देखी? यह मेरी दृढ़ धारणा है और मैं प्रसन्नतापूर्वक एवं दुःख से भी दु:खमिश्रित संतोष के साथ कहता हूँ कि उस पवित्र आत्मा पर उसकी धवलता दूषित करने के लिए एक भी कलंक लगने से पहले ही वह आत्मा ब्रह्म स्वरूप में विलीन हो गई। पर्वत पर किसी एक स्थान पर लिली (एक शुभ्र तथा अत्यंत कोमल पुष्प) के फूला की एक क्यारी है। इन फूलों की शुभ्रता तथा उनकी कोमल मनोरम सुगंध के हम दोनों प्रशंसक थे। उन लिली पुष्पों को देखता हूँ तब मेरे रफिनी की मूर्ति आँखों के सामने खड़ी रहती है। उन फूलों सदृश ही वह शुचिव्रत और विनम्र था। उन पुष्पों की वह किंचित् मात्र बंकिमता देखकर मेरा अंत:करण कंधे की ओर किंचित् झुकी हई ग्रीवा देखने लगता है।
बाल्यकाल में ही बड़े भाई की मृत्यु से उसके हृदय में जिसकी मूर्ति पूरी तरह बसी थी और उससे असीम प्यार करती उस माँ की दीर्घकालीन बीमारी से तथा और भी अनेक कारणों से उसका जीवन दुःखमय हो गया था। उसका मन अत्यंत कोमल, सुकुमार था। उसके मनोविकार सूक्ष्मचेतन थे। इसी कारणवश युवावस्था में ही उसकी मनोवृत्ति उदासीन रहने लगी। कभी-कभी तो निराशा चरम सीमा तक पहुँच जाती। परंतु प्रायः सभी तीव्र बुद्धि के लोगों की तरह, जिन्हें गुलामी में कष्ट झेलना अनिवार्य हो गया था, वह कभी दुनिया को नहीं कोसता। मानव प्राणी से उसने बहुत ही थोड़ा सुख पाया तथापि वह मनुष्य से प्रेम करता था। अपने समकालीन लोगों के प्रति उसके मन में इतना आदर नहीं था। परंतु ऐसी मनुष्य जाति के प्रति वास्तविक रीति के अनुसार जिस पूर्णावस्था में मनुष्य को होना चाहिए और किसी समय वह होगा, उसके मन में पूज्य भावना थी।
तत्कालीन परिस्थितियाँ और तत्कालीन लोगों के संसर्ग से जो हताशा उत्पन्न होने की संभावना थी ऐसी निराशा उसे धार्मिक सत्य का समर्थन होने के कारण छू भी नहीं सकी। विकास का, उन्नति का उदात्त सिद्धांत, वही सिद्धांत जिससे पूर्वकालीन दैव नियति के स्थान पर ईश्वर को बैठाया गया, उसके अंत:करण में स्वयंप्रेरणा से उद्भूत हुआ था तथा इतिहास परिज्ञान ने उसे दृढ़ किया था। उसका दृढ़ विश्वास था कि प्रतिभाजन्य उत्तमता ही मनुष्य का इतिकर्तव्य, ईश्वर ही उसका जनक और अंत:स्फूर्ति (प्रायः हमेशा जो उपेक्षित रहती है) ही पथप्रदर्शिका है। वह उदास रहता। क्योंकि नीतिमत्ता का संपूर्ण अभाव उसने देखा। वह हमेशा यही सोचता कि अपना लक्ष्य प्राप्त करने से पहले ही अपना इस जगत् का निवास समाप्त होनेवाला है। तथापि उसकी प्रवृत्ति शांत रहती। क्योंकि वह जानता था कि इस जीवन का अंतिम लक्ष्य है अपनी कर्तव्य पूर्ति, न कि सुख-प्राप्ति। ईश्वर प्रेरित कर्तव्य पूर्ति निभाना ही जीवन का वास्तविक पर्यवसान है, जीवन कर्तव्य पूर्ति के लिए ही खर्च करना होगा, भले ही तत्काल सफलता की संभावना भले न हो। सुख मिलता है कि नहीं इससे जीवन की परीक्षा नहीं होती, जीवन की परीक्षा, कर्तव्य किया जा रहा है कि नहीं इससे की जाती है। जब वह हँसता तो उसकी हँसी ऐसी होती जैसे बलि का बकरा महात्मा बना मुसकराता रहता है। उसका मनुष्य जाति से प्रेम, शिलर (जर्मन कवि) के प्रेम सदृश प्रतिभापूर्ण था। उस प्रेम में व्यक्ति लीन हो गया था। प्रेम के लिए ही प्रेम था। परंतु वह प्रेम था। उसका व्यक्ति विषयक दुःख, उसकी स्मिति और उसके उस प्रेम-दोनों पर रत्ती भर भी प्रभाव नहीं डाल सका। जब सरकारी अत्याचार का आरंभ हुआ, उसी समय जाकोपो रफिनी ने भाँप लिया था कि अपना विनाश अब अटल है। वह शांति से भावी घटना की प्रतीक्षा करने लगा। उसे पकड़ने का आदेश निकलने की गुप्त वात्तो उसे सूचित की गई। परंतु उसने भाग जाने से साफ इनकार कर दिया। जब उससे ऐसा करने का अनुरोध किया गया तब उसने उत्तर दिया कि ऐसे संकट सर्वप्रथम उन्हें सहने चाहिए जिन्होंने अपने उदाहरण से अपने बांधवों को इस ओर ढकेल दिया। जब पकड़ा गया तब अत्यंत अत्याचार भरे हजारों प्रश्न उससे पूछना आरंभ हुआ, परंतु वह मुसकराते हुए शांति से उन सारे प्रश्नों के उत्तर देता। आगे चलकर उसे भयंकर यातना तथा धमकी और डॉट-डपट का सामना करना पड़ा। तथापि वह चट्टान सदृश अटल, अडिग रहा। अंत में उससे कहा गया कि वह मेरा नाम बताए, इसलिए कि मैंने उसका नाम पुलिस को बताया है। भई, वह कैसे विश्वास करता कि रफिनी का नाम और मैझिनी बताएगा? तब उन नीच नराधमों ने एक पत्र निकाला जिसमें मेरा बनावटी हस्ताक्षर था और उसके सामने रखा। रफिनी को पकड़ा जाए इस अर्थ का मजमून और उसके नीचे मैझिनी का सौ प्रतिशत वैसा ही हस्ताक्षर। जाकोपो का चित्त मछली समान छटपटाने लगा। उसका अपने पर विश्वास उठने लगा। कहीं अपना मन भी अपने आपको धोखा न दे और संपूर्ण पोल खोलकर शत्रु की शरण न चला जाए। इस प्रकार के अविश्वास से वह तड़पने लगा। मन में वह अविश्वास घर करने से पूर्व ही उसने द्वार की एक कील उखाड़ी और उतनी ही शुचिता में तथा पावनता में जितनी पवित्र शुचिता में उसने जीवनयापन किया था, उसने वह जीवन स्वतंत्रता, देवी को समर्पित कर दिया। स्वदेशार्थ पवित्र मरण से वह चिरंजीव हो गया। वह देशवीर बन गया।
मेरा दृढ़ विचार है कि आत्महत्या जैसा पाप ठीक उतना ही भयंकर है जितना कि किसी को फाँसी पर चढ़ाना। जीवन ईश्वर निर्मित है। जिसने उसका पापवृत्ति से अपव्यय किया उसे पश्चात्ताप हो और वह पुन: अपने कार्य पर उपस्थित हो सके, इसका अवसर छीन लिया है, इसलिए फाँसी जितनी निंद्य है उतनी ही ईश्वरीय कार्य से बिना उसकी अनुमति के भाग जाने का प्रयास करना होता है, अत: आत्महत्या निंद्य है। परंतु जाकोपो के उदाहरण में आत्महत्या का पवित्र आत्मस्मरण का स्वरूप प्राप्त हुआ है। 'तुम्हारी दाहिनी आँख तुम्हारे विरुद्ध जा रही हो तो उसे उखाड़ो और दूर फेंक दो। जब दुष्ट दुर्जनों के निंद्य वशीकरण का शिकार बनकर तुमसे पाप होने वाला हो-तब अपना जीवन उखाड़कर उसे दूर फेंक दो। पवित्र स्वदेश के विरुद्ध पाप करने से अधिक इष्ट है अपने आपके विरुद्ध पाप करने का आरोप अपने सिर पर लेना। इस साधारण पाप के विरोध में वह दयासागर अपने विशाल छत्र तले तुम्हें अवश्य आश्रय देगा। इस दार्शनिक सत्य की कसौटी पर देखें तो जाकोपो का आत्महत्या का कृत्य उतना ही शुद्ध तथा उदात्त है जितना उसका महत्त्वपूर्ण क्रांतिकारी कृत्य।
जिन्होंने देशद्रोह करके नाम बताए उनमें से भी प्राय: सभी को दंड हो ही गया। कुछ बंदियों को छोड़ दिया गया, क्योंकि उन्होंने भेद खोलने में अत्यंत महत्त्वपूर्ण और अनमोल सहायता की थी। न्याय का अद्भुत पंख उड़ गया। जो स्वयं शामिल थे उन्हें तो फाँसी हो ही गई परंतु जिनका अपराध बस इतना ही था कि उन्होंने गुप्त मंडलियों का निषेध नहीं किया उन्हें भी दंड मिला। जिन-जिन लोगों ने सरकार के विरोध में कुछ-न-कुछ लिखा उन सभी को भिन्न-भिन्न दंड दिए गए। उनके नाम बताता हूँ जिन्हें मृत्युदंड मिला। टॉम बरिली एक ब्रिगेड का कैप्टन था। गव्होटा एक लश्करी अध्यापक। बिग्लिआ सार्जंट था। मारिनी-लेफ्टिनेंट, गोविओ-सार्जंट, वोचिएरी-वकील। मृत्युदंड होने पर भी जो भाग सके, उनमें से स्कोवाजी एडवोकेट ऑर्जनो लेफ्टिनेंट, बर्नेटी आदि सार्जंट, जिओवैनी-रफिनी (जाकोपो का भाई), वर्घिनी-एडवोकेट, ऑर्जनो-एडवोकेट, मार्किस रोवरेटो और सैकड़ों बंदियों को वापसी पर मृत्युदंड दिया जाएगा यह तय हो गया, उसी समय मुझे भी मृत्युदंड दिया गया।
टैपैजा को बीस वर्ष का कारावास दिया गया। वह राजसेना में लेफ्टिनेंट था। ऑर्सिनी, जो डॉक्टर था, उसे भी उतना ही दंड सुनाया गया। कइयों को तब तक कैद हो गई जब तक राजाज्ञा नहीं होती। सरदार लोगों को कुछ दिनों के उपरांत मुक्त कर दिया गया। यह सारा गड़बड़झाला न्याय के दिखाऊपन को दूर फेंककर किया गया था। चार्ल्स अल्बर्ट को रक्त पिपासा हुई थी, उसे लहू पिलाया गया। कई स्थानों पर तो इतने भयंकर हादसे हो गए कि उन्हें बताने में हमारी लेखनी के भी रोंगटे खड़े होते हैं। असंख्य घटनाओं में एक उदाहरण देता हूँ। फाँसी के लिए चलते समय वोचिएरी ने प्रार्थना की कि फाँसी के लिए मुझे अपने घर के मार्ग से मत ले जाना। घर के द्वार पर उसके दो नन्हे-नन्हे बच्चे, उसकी बहन, पत्नी जो उस समय माँ बननेवाली थी भी, खड़ी थी। इसीलिए कृपया मुझे किसी अन्य मार्ग से ले चलें। परंतु राजा के आदेश पर चांडाल से नराधम चांडाल बने उन फाँसी के अधिकारियों ने उसे दुत्कारकर जानबूझकर उसके घर पर से ही ले चलने का निश्चय किया। यह देखते ही उसकी बहन पागल हो गई। राजसत्ता के ये क्रूर और अधम कृत्य देखकर किसे गुलामी और राजसत्ता चाहिए? मुझे गर्व है, जिस पक्ष का मैं अभिमानी हूँ उसे जब-जब विजय प्राप्त हुई तब-तब हमारी जनसत्ता ने अपने देश बंधुओं के लहू से बिना हाथ साने और इस प्रकार राक्षसी प्रतिशोध न लेते हुए अपना नाम कलंकहीन रखकर रोम, वेनिस, नेपल्स में जनसत्ताक प्रणाली का झंडा फहराया।
इस भयंकर घटना की वार्ता समझते ही मेरे मनोविकार किस तरह के हो गए यह कहने की आवश्यकता नहीं। मैं केवल घटित घटनाओं का वर्णन कर रहा हूँ, अपने अंतःकरण का इतिहास लिखने की मेरी इच्छा नहीं है। केवल इतना ही कहना पर्याप्त है कि यह सब सुनकर भी मुझे तथा मेरे मित्रों ने धावा बोलने की आवश्यकता तथा कर्तव्य-परायणता कायम समझी। कथनी और करनी में तालमेल न होना, इसी दुर्गुण ने आज तक इटली का सर्वनाश किया है। राज्यक्रांति के सिद्धांत हम पढाते आए, वे सर्वसम्मत होने पर भी उनकी विजयार्थ आवश्यक स्वार्थ त्याग तथा जीवट वृत्ति आज तक इटालियनों में उत्पन्न नहीं हुई थी। यह कृति-पराङ्गमुखता सुधारना तथा हमारे पक्ष की इस नीतिमत्ता का समर्थन करना हमारा कर्तव्य था। हमें यह सिद्ध करना अनिवार्य था कि जब हम किसी एक विचार पर या सिद्धांत पर निष्ठा रखते हैं तब और लोगों के जीवन की जिम्मेदारी शपथपूर्ण रीति से अपने सिर पर लेते हैं। तब दिए हुए वचन के अनुसार कार्य करना हमारा कर्तव्य है, भले ही कितने भी संकटों के पहाड़ सामने खड़े रहें। कितने भी उदात्त एवं उदार व्यक्ति विषयक मनोविकारों को उतार फेंककर एक बार जो करने का वचन दिया है वह हमें करना ही है। हमने इटली के बाहर विद्रोह करने का वचन दिया था। उसे करने की बात हमने की, तदर्थ ही उसे करना श्रेयस्कर है, यह हमने निश्चित किया था। तिसपर तुरंत आक्रमण होता तो विजय की संभावना थी। इतने लोग फॉसी चढ़े और बंदी बनाए गए तथापि हमारी जोर-शोर की तैयारी की मात्रा में वास्तविक आघात बहुत थोड़ों को लगा और घबराकर अनिश्चयता का शिकार होकर और एक विचार के छूट जाने से हमारा पक्ष तितर-बितर हो गया था तथापि उसकी संख्या विशाल थी। एक बार आक्रमण शुरू होता तो सभी के संघटित होने की संभावना थी। मेरे ऊपर वर्णन किए हुए अत्याचारों से सर्वत्र संताप तथा भयंकर वातावरण उत्पन्न हो गया था और हमें पूरा विश्वास था कि हमारी निश्चित की हुई योजना के अनुसार आरंभ भी हुआ देखकर आस-पास के इटली के प्रदेशों में आक्रमण होगा। हमारा विश्वास ठीक था या नहीं यह कहने के लिए मैं एक ही बात बताता हूँ। यह समझते ही कि हमने धावा बोलने की योजना निश्चित की है, पुनः जिनेवा में इकट्ठा होना आरंभ हो गया। पुनः युवकों का उत्साह ठाठे मारने लगा। शहर में आक्रमण असफल होने का प्रमुख कारण यही था कि वहाँ के युवकों के शरीर को अपने स्वदेश से प्रीति का सही अनुभव नहीं था। इस दूसरे आक्रमण में गैरीबॉल्डी प्रमुख था। परंतु पराजय के कारण आत्मरक्षार्थ भागने के अतिरिक्त उसे कोई चारा नहीं था। यहीं से गैरीबाल्डा से मेरा परिचय हुआ था। वह युवा इटली' का सदस्य था। संस्था में उसका उपनाम वॉरेल था। खैर, इसी विचार से हमने आक्रमण की योजना निश्चित की। मैं मार्सेलिस से निकलकर जिनेवा (स्विट्जरलैंड के निकट) जाने के लिए तैयार हो गया। उधर जाकर जिस प्रदेश में हमें वह कार्य करना था, उस प्रदेश का सूक्ष्म निरीक्षण किया। जिनेवा सरकार अपने ही निकट शस्त्र तथा सेना की तैयारी नहीं करने देगी यह मैं जानता था। अत: मैंने दरबार के लोगों का विचार परिवर्तन किया। उस समय फेज़ी संपूर्णत: मेरे पक्ष का था। इस प्रकार जिनेवा सरकार द्वारा हो रहे अवरोधों का स्वरूप सौम्य करते हुए मैंने जनता के उस कार्य के लिए अनुमति निश्चित की। मैंने उन लोगों से घनिष्ठ परिचय बढ़ाया जिनके समय पर हमारे काम आने की संभावना थी। उधर मैंने एक वृत्तपत्र निकाला, जिसका नाम Europe Centrate' था। स्वतंत्रता के विचार का प्रसार शुरू किया। सेवॉय में भी गुप्त आंदोलन चलाए तथा गुप्त रूप से यातायात आरंभ किया। उससे मुझे विश्वास हो गया कि जिनेवा सरकार के विरुद्ध उस प्रदेश से सेवॉय जीतकर हम इटली में उतर सकते हैं। सेवॉय अत्याचारों तले रौंदा जा रहा था और उधर भी क्रांति की आकांक्षा प्रबल हो रही थी। मैंने वहाँ के प्रतिष्ठित नेताओं से भेंट की। थोनान, बॉनेविले, चंबेरी आदि शहरों में जननेताओं ने जब मुझसे पूछा, यदि सेवॉय जीतने में सफलता मिली तो हमारे राज्य का क्या किया जाए? तब मैंने कहा, यह निश्चित करना पूर्णरूपेण आप लोगों की इच्छा पर निर्भर रहेगा कि आपको इटली में मिल जाना है या फ्रांस में अथवा स्विट्जरलैंड के संयुक्त संस्थानों में। स्वतंत्र होने पर अपनी इच्छा के अनुसार जो करना है वह निश्चित करें। मेरे विचार से स्विट्जरलैंड में मिल जाएँ।
सेवॉय राज्य में इतने प्रयत्न करते हुए इधर मैंने सेना इकट्ठी करना आरंभ किया। पोलिश तथा जर्मन लोगों से एकवाक्यता करने से इटली का कार्य और जर्मनी एवं पोलैंड के कार्य में परस्पर प्रेमभाव होने लगा। मेरे मन में आशा की एक किरण चमकने लगी कि यूरोप की स्वतंत्रता का श्रीगणेश इटली की स्वतंत्रता के साथ होगा। 'युवा यूरोप' की कल्पना 'युवा इटली' की कल्पना की जननी है और इसी कारणवश इटली स्वतंत्र होते ही यूरोप स्वतंत्र करना है। यूरोप महाद्वीप की स्वतंत्रता का ध्वज सर्वप्रथम मेरे इटली देश में फहराएगा-यह देखकर मैं फूला नहीं समाया। मेरा यही इटली देश, आल्प्स पर्वत पर जिसने दो बार विश्व का नेतृत्व स्वीकारा था अब तीसरी बार भी विश्व का नेतृत्व स्वीकार रहा था और अब तीसरी बार भी विश्व की स्वतंत्रता तथा लोकपक्ष की विजय का नेता होगा यह कितनी महान् कल्पना है। उसने मुझे आमंत्रित किया। हमारी सेना यूरोप की संयुक्त संस्थाओं की सेना का बीज थी। यह कल्पना प्रस्तुत करते ही जर्मन, पोलिश आदि निर्वासित हमसे आकर मिले। उनकी कमेटियाँ बनाई गईं। लश्करी रचना (व्यूह) तथा दाँव-पेंच सिखाने के कार्य में मेरी बिआन्को आदि लश्करी लोगों ने अच्छी-खासी सहायता की। उस समय जहाँ में रहता था, उस जिनेवा के वासगृह में अन्य युवक भी संघटित हुए। रफिनी अगॉस्टिनो, नायकोला फब्रिजी, यूसिलियो लैंबर्टी और अन्य असंख्य युवक इकट्ठे हुए। संपूर्ण वासगृह हमारे अधिकार में था। वहाँ पर पुलिस के प्रवेश पर पाबंदी लगाई गई। सिआनी ने लैंबर्डी (इटली) का जो धनिक वर्ग स्विट्जरलैंड में रहता था, उन्हें हमारे पक्ष में करने का कार्य सौंपा गया। गैस्पेरी बेलकेडी भी ऐसा युवक था जो अत्यंत निष्ठ, विश्वसनीय तथा परिश्रमी था, कीर्ति के लिए नहीं कर्तव्य के लिए कमर कस रहा था। उसके दीर्घोद्योग की कोई सीमा नहीं थी। वह व्यवसाय से वैद्य था। इस गैस्पेरी बेलकेडी का नाम मैं यहाँ जानबूझकर दे रहा हूँ क्योंकि अनंत परिस्थितियों में परिवर्तन हुआ परंतु यह अडिग रहा और हमारे सिद्धांतों के साथ तथा मेरे साथ अंत तक विश्वसनीय रहा। वह मेरा एक प्रिय तथा विश्वासी सुहृदय था।
हमने धन इकट्ठा करने का उपक्रम आरंभ किया। गैस्पेरी की कथनी और करनी में विलक्षण तालमेल रहता। उसने बहुत आर्थिक सहायता की। बेल्जियम से शस्त्रास्त्र, कारतूस आदि सारी सामग्री इकट्ठा करने के लिए हम सभी प्रसन्नतापूर्वक तथा धैर्य के साथ जुट गए। सारी व्यवस्था सुचारु ढंग से हो रही थी। परंतु वह कृत्य जितना शीघ्रतापूर्वक हो सके उतना जल्दी करने की आवश्यकता थी। लेकिन इसी समय इटली स्थित जिन गुप्त संस्थाओं ने हमें आर्थिक सहायता देना स्वीकार किया था उन्होंने शर्त लगाना आरंभ किया जिससे कार्य का पूर्ण विनाश नहीं हुआ तो भी प्रचुर मात्रा में अवरोध उत्पन्न तो हुआ ही। वह शर्त यह थी कि वे किसी जिम्मेदार व्यक्ति का नाम चाहते थे। वे एकदम जिद पर उतर आए थे। आक्रमण के नेतृत्व के लिए कोई नामवर लश्करी अमलदार हो। उसमें मात्र योग्यता ही नहीं अपितु उसके नाम का जनता में दबदबा भी आवश्यक है। इसी समय सेनापति रामोरिनो पोलैंड से लौटा था। वस्तुतः पोलैंड में उसका आचरण लोकपक्ष को विशेष पसंद नहीं था। तथापि फ्रांस लौटने पर उसका भव्य सम्मान किया गया। तिसपर उसका जन्मस्थान सेवॉय होने के कारण ही वहाँ उसका दबदबा बहुत था। जिनेवा में उसकी माँ रहती। वहाँ भी विशेषत: उन लोगों को जो दास्यता में अटके हैं, उन्हींमें से एक व्यक्ति का विदेश द्वारा पवित्र कार्य का किया गया सम्मान देखकर अभिमान होना स्वाभाविक था। परंतु इससे अधिक चिंता किसी ने नहीं की। अंत में यह तय हा गया कि मैं उससे मिलूँ और रामोरिनो को आक्रमण का नेतृत्व सौंपा जाए।
इस आक्रमण के विरोध में मैंने यथासंभव शिकायत की। पोलिश लोगों में श्रेष्ठ तडीपार देश-सेवकों और रामोरिनो के लश्करी दाँव-पेंचों का मैंने जो सूक्ष्म निरीक्षण किया उससे मेरी राय इटली के प्रादेशिक मंडल के विपरीत हो गई थी। मैंने पुनः-पुनः उनसे कहा कि नई परिस्थितियों के लिए नए लोगों की आवश्यकता होती है, यह सिद्धांत हम आज तक सिखाते आए हैं। प्रत्येक महत्त्वपूर्ण क्रांति में, साहस के प्रसंगों में व्यक्तियों की निर्मिति की आवश्यकता होती है। आपको पता चलेगा मनुष्यों ने प्रसंग नहीं गढ़े। मैंने उन्हें समझाया कि अपने हाथ के काम के दो हिस्से होते हैं। पहला आक्रमण का और दूसरा घमासान लड़ाई का। इसमें से यह पहला आक्रमण का जिन्होंने जुटाया उनके ही हाथों से वह संपन्न करना इष्ट होता है। एक बार इसमें विजय प्राप्त हो गई कि फिर भले हम कोई भी नेता नियुक्त करें उसे अपने कार्यक्रम में परिवर्तन लाना असंभव होगा। अत: फिर उस समय हम कोई पुराना सेनापति नियुक्त करेंगे। परंतु मेरा कथन ऐसा सिद्ध हुआ जैसे चिकने घड़े पर पानी। उन्हें, जो सिद्धांतों की शक्ति की अपेक्षा व्यक्ति की प्रतिष्ठा पर अधिक विश्वास करते हैं, मेरा उपदेश कैसे भाएगा भला? उन्होंने मुझे सूचित किया कि रामोरिनो होगा तभी हम आक्रमण करेंगे। फिर भी मैं अपनी ही हाँकता, परंतु मैंने गौर किया कि मेरे सारे आक्षेपों का विपरीत अर्थ निकाला जा रहा है। मुझे स्पष्ट रूप में दिखाई दिया कि मैं अकेले ही में स्थानीय और लश्करी दोनों सत्ताओं का नेतृत्व इकट्ठा रखने के लिए हाथ-पाँव मार रहा हूँ और रामोरिनो को बुलाने का विरोध करने में व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षा के अतिरिक्त मेरा अन्य कोई हेतु नहींउनकी धारणा इस प्रकार की हो गई है। मैं महत्त्वाकांक्षी हूँ। आज भी वह लोग जीवित हैं कि मुझपर किया गया यह आरोप जब मैंने सुना तब जिन्होंने मेरे अंत:करण में मच रहा कोलाहल तथा आँखों में भरे आँसू देखे हैं। मैं इतना निरपराध था कि मैंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि इस प्रकार का घिनौना आरोप मुझ पर थोपा जाएगा। तथापि अविश्वास एवं लोकनिंदा तथा लोककुंशका उन्हीं के भाग्य में लिखी होती है जो महान् कृत्यों के लिए पवित्रतम उद्देश्य से तथा दूसरों पर संपूर्ण निष्ठा रखकर अपना जीवन समर्पित करते हैं। मेरे भावी जीवन में समझ में आनेवाला यह सत्य उस समय सर्वप्रथम मैंने किंचित् समझ लिया, और अब तो इस जीवन ने उसका पूरा अनुभव किया है। अतः मैं पीछे हट गया और रामोरिनो को बुलाया गया। मेरे विचार से वह मेरी एक भूल थी। उसने हमारी सारी योजना बारीकी से सुनी और नेतृत्व स्वीकार किया। हमने ऐसी योजना बनाई कि आक्रमण करनेवाली सेना दो हिस्सों में बाँटी जाएगी। प्रथम भाग की व्यवस्था का संपूर्ण दायित्व मैंने लिया। तय हुआ कि यह भाग जिनेवा से निकल पड़े। दूसरा हिस्सा रामोरिनो तैयार करे और वह लायन से निकले। क्योंकि उसने बताया कि लायन में उसका बड़ा प्रभाव है। उसने सेना की व्यूह रचना करने के लिए आवश्यक समझकर प्रथम चालीस हजार फ्रैंक की माँग की। मैंने उसे दे दिए। सन् १९३३ के अक्तूबर में हमने निश्चय किया कि आक्रमण करना ही चाहिए और फिर वह शीत चला गया। जाते-जाते उसके सेक्रेटरी के स्थान पर हमने एक युवक की, जिसका नाम मॉडेनीज था, नियुक्ति करवाई। इस युवक पर मेरा दृढ़ विश्वास था। उसने रामोरिनो की सारी गतिविधियों का वृत्तांत सूचित करने का दायित्व उठाया था।
अक्तूबर की पहली तारीख से पूर्व मेरे विभाग की सेना की सारी तैयारी पूरी हो चुकी थी। परंतु रामोरिनो की कोई भी वार्ता नहीं मिल सकी थी। मैंने उसे कई पत्र लिखे पर व्यर्थ । मेरा विश्वासु मॉडेनीज ने रामोरिनो का सारा वृत्तांत मुझे सूचित किया। वह जुआ खेलने में व्यस्त था। जुए में उसने सारे पैसे उड़ा दिए थे और सेना की तैयारी कुछ भी नहीं की थी। मैंने उसके पास कुछ आदमियों को भेजा। अंत में बार-बार पूछने पर रामोरिनो कहने लगा कि उसपर विपदाओं का पहाड़ टूटने से वह कुछ नहीं कर सका। तथापि थोड़ी अवधि और मिले। हमने विवश होकर उसे नवंबर तक का समय दिया। परंतु नवंबर समाप्त हुआ। दिसंबर के अंत में यह संदेश आया कि हजार लोगों को संघटित करने का जो वचन उसने दिया था, उनमें से पूरे सौ भी वह तैयार नहीं कर सका। कारण यह बताया गया कि पेरिस की पुलिस को वह सूचना मिल गई और उन्होंने रामोरिनो से पूछताछ की तथा उसके प्रत्येक कार्य में पुलिस बाधा पहुँचने लगी। इस तरह कुछ गोलमाल उत्तर देकर उसने मेरे दिए हुए चालीस हजार फ्रैंक में से दस हजार फ्रेंक लौटाए। बाद में मुझे वास्तविक कारण का पता चला कि फ्रेंच सरकार के उसका सारा कर्ज चुकाने का दायित्व लेने के कारण रामोरिनो ने हमारी योजना विफल करना स्वीकार कर लिया था। इस सार। गड़बड़झाले में उचित अवसर हाथ से निकल गया था। इटली में हमारे पक्ष के कुछ लोगों को दंडित किया गया, शेष भयभीत होकर दब्ब बन गए और सर्वत्र निराशा के बादल छा गए। इधर जिन सैकड़ों पोलिश, जर्मन, स्विस आदि सिपाहियों को आक्रमण की योजना का पता चला था, उनका अधिक समय तक गुप्त रहना असंभव हो गया और जिनेवा सरकार को हम विदेशी निर्वासित देशभक्ता का निकाल देने पर जोर दिया जाने लगा। फिर हमने निकट अंतर पर अपने लाग फैलाए। परंतु हमसे दूर जाने से तथा बार-बार अवधि बढ़ाए जाने के कारण व उकता गए। उन्हें जोड़ने के लिए हम वेतन देने लगे तो आपात स्थिति के लिए आरक्षित पूँजी कम होने लगी। इस प्रकार विलक्षण पेचीदा स्थिति में हम अटक गए। तिसपर तड़ीपार किए गए लोग आक्रमण न करने पर हमें छोड़कर चले जाएँगे अथवा अकेले ही धावा बोल देंगे, इस प्रकार के संदेश निरंतर भेजने लगे।
जो पोलिश निर्वासित वापस आना चाहते हैं उन्हें धन, क्षमा तथा सहायता देने के जाहिरनामे फ्रेंच सरकार ने निकाले। उन्हें रोकने के लिए पुनः वेतन बढ़ाए गए। यह सारी अंधेर नगरी के चलते हुए भी मेरे लिए सच बताना कठिन हो गया था। इटली में सब लोगों की पक्की धारणा बन गई थी, रामोरिनो सेनापति होगा और वही रहेगा तभी आक्रमण करना है। अच्छा, उन्हें बताएँ कि रामोरिनो नहीं आ रहा है तो वे अपना धीरज खो बैठेंगे। वे सोचेंगे, यह कार्य असंभव होने के कारण रामोरिनो छोड़कर चला गया। रामोरिनो के दुराचार के संबंध में मैं कुछ कहता तो उन्हें यह संदेह होगा कि वह प्रतिद्वंद्वी बनकर मेरी आँख की किरकिरी होने के कारण मैं उसे निकालने के लिए प्रयत्नशील हूँ। मेरे पास रामोरिनो के दुराचार का प्रमाण भी कहाँ था? ये सारी अड़चनें जैसे कम ही थीं इसलिए एक नई अड़चन मेरे सामने खड़ी हो गई कंगाली में आटा गीला। बोनारोटी अब तक मेरे साथ एक विचार से काम कर रहा था, अब अकस्मात् विरुद्ध जाने लगा और आक्रमण विरोधी प्रयास करने लगा। वह फ्रेंच था, उसका सारा आधार पेरिस शहर था। पेरिस के बाहर के विश्व पर वह रत्ती भर विश्वास नहीं करता था। इटालियन क्या खाक विद्रोह करेंगे? इस तरह वह घमंड से चूर हो गया। परंतु उसके छोड़कर चले जाने से बहुत हानि हुई। क्योंकि मेरी सेना में जो स्विस थे वे सारे कारबोनरी संस्था के थे, उनका वह नेता था। इस प्रकार मेरी पूरी योजना धराशायी हो गई। मैं स्वयं नहीं जानता कि इस तरह की अनंत अड़चनों एवं नए-नए संकटों के चलते मैं किस तरह धैर्य मेरू बनकर रहा था। उस समय मेरा युद्ध अंटीयस राक्षस सदृश था। (इस असुर को यह वरदान था कि भूमि पर आने से उसकी शक्ति बढ़ेगी। इस तरह जितना उसे भूमि पर पटका जाता उतना ही वह अधिकाधिक शक्तिमान बनता। अंततोगत्वा उसकी इस शक्ति पर हर्म्युलस ने गौर किया और उसने अंटीयस को हवा में ही कुचल डाला।) इस अंटीयस की तरह मैं नीचे गिरते ही पुनः दुगनी शक्ति के साथ उछलता। मैं स्विस सिपाहियों में से प्रत्येक से मिला और बोनारोटी के प्रभाव को नष्ट करते हुए पुनः उन्हें अपने पक्ष में किया। मैंने दुबारा से फंड इकट्ठा किया। लायन में फ्रेंच सरकार को उलझाने के लिए रोसेल्स, निकोलो आदि की नियुक्ति की। परंतु इतनी कठिनाइयों के पहाड़ टूटे, फिर भी मैंने आक्रमण को त्यागने का निश्चय क्यों नहीं किया? क्योंकि इटली में प्रतीक्षा में बैठे हमारे युवा मंडल को, सेवॉय के लोगों को, फ्रेंच जनसत्तावादियों को, इटली के तडीपार देशभक्तों को तथा सर्वजगत् को आक्रमण की योजना स्वप्नवत् प्रतीत होती। इस तरह अचानक सूचित करना उस पक्ष को, जिसका मैं अभिमानी हूँ, जो पक्ष मुझे सत्य प्रतीत होता है, कलंकित करना था। आक्रमण बंद। उससे उत्तम है कि लड़ते-लड़ते स्वदेशार्थ देह रखकर अपने पीछे-पीछे आनेवाले देशभक्तों के सामने एक आदर्श एवं अनुकरणीय उदाहरण क्यों न रखा जाए? तिसपर किसी महान् कृत्य के नेतृत्व के स्थान पर मेरे पाठकों में से जो कोई हों वे जानते होंगे कि महान् कृत्य एक बार थोडा आकार धारण करने लगते हैं तो वे अपने पहले नेतृत्वों के भी नेतृत्व और श्रेष्ठ बनते जाते हैं और उन्हें छोड़कर जाना असंभव हो जाता है। इन नई-नई अड़चनों की व्यवस्था करने में संपूर्ण नवंबर-दिसंबर मास व्यतीत हो गए। सेना में इतना अविश्वास फैल रहा था और हमारा द्रव्यबल भी इस तरह न के बराबर होने लगा था कि तुरंत आक्रमण का श्रीगणेश करने के अतिरिक्त हमारे पास अन्य कोई चारा नहीं था। अतः जनवरी के अंत में आक्रमण का समय पक्का करके लायन में ही उसी समय आक्रमण करना निश्चित किया गया। मैंने पुनः रामोरिनो को लिखा कि अब हम बीस जनवरी के दिन आक्रमण करेंगे-यह निश्चित है। अतः यद्यपि भले ही इससे पूर्व न सही, कम-से-कम वह सही समय पर तो हमसे मिल जाए और सेनापतित्व स्वीकर करे। उसका उत्तर आने से पूर्व ही मैंने सारी तैयारी कर ली थी। निश्चित दिवस और कहाँ-कहाँ से विभिन्न दलों को निकलना है-उन सारे स्थानों को निश्चित किया। अनाज की आपूर्ति, विभिन्न मार्ग, यातायात के साधन आदि निश्चित किए। जिनेवा झील के किनारे पर शस्त्रागार बनाए गए थे और इस प्रकार योजना थी कि फ्रेंच तथा रामोरिनो के आते ही उनके लिए जहाज तैयार खड़े हों और तैयारी करते हुए वे किसी निश्चित किए स्थान पर इकट्ठा हो जाएँ तथा उस शस्त्रागार से शस्त्र उठा लें और जो स्वयं जिनेवा से निकलेंगे वे भी उसी स्थान पर आकर रामोरिनो से मिलें। विद्रोह का प्रमुख स्थान सेंट जूलियन को निश्चित किया था। उसपर कब्जा करने की योजना थी-उतनी सेना हमारे पास थी। वहाँ से सेवॉय में विद्रोह के लिए कुछ लोगों को भेजा ही था। मेरे विचार से इस तरह सूचित करना अच्छा होगा कि रामोरिनो ने कहा था, 'मैं तुम्हें आक्रमण के पश्चात् मिलूंगा। परतु उसने सूचित किया कि वह सही समय पर आएगा। इससे सर्वनाश हो गया। क्योंकि विलंब होने लगा। मैं थोड़ा ठहर जाऊँ इस तरह वह संदेश भेजने लगा। अंत म दाना जनरल के साथ वह ३१ जनवरी के दिन आ गया। चलो गंगा नहाए। उसके चेहर पर झेंपने की छटा साफ दिखाई दे रही थी। मुझसे बात करते समय उसने दृष्टि उठाकर ऊपर नहीं देखा। उस समय मुझे पता नहीं था कि उसने फ्रेंच सरकार के साथ हमारी सारी तैयारी पर पानी फेरने का अनुबंध किया था तथापि उसकी विश्वासघात की करनी मैंने भाँप ली। मैं नित्य उसके निकट रहूँ और सेंट जूलियन आते ही उसके हाथ में अधिकार न जाने देने का यथासंभव प्रयास करूं, ऐसा मैंने निश्चय किया। क्योंकि मुझे विश्वास था कि एक बार आक्रमण होने पर हमारे पक्ष की शक्ति पर लोग भरोसा करने लगेंगे और लोग रामोरिनो आदि की व्यक्तिगत प्रतिष्ठा पर निर्भर नहीं रहेंगे। पिछले कृत्यों का मैंने बिलकुल उल्लेख नहीं किया। मैंने अपनी सेना की सची तथा गतिविधियों का कार्यक्रम उसके स्वाधीन किया। मैंने उससे अधिकारियों की नियुक्ति की पसंद के बारे में पूछा। उसने प्रत्येक बात का अनुमोदन किया, परंतु कहने लगा कि सेनापति का अधिकार तुरंत उसे मिले। यदि मैंने उसका इस बात के लिए विरोध किया तो ऐसा करने से आप पर भारी दायित्व होगा, इस तरह दिखावटी कारण सचित किया। परंतु वह और वे लोग जिनका व्यक्ति विषयक नाम पर भरोसा था, कुछ सुनने के लिए तैयार नहीं थे। उसने तुरंत अपने गुट के कुछ अधिकारी नियुक्त किए। मैंने जनरल ज्यूफर के साथ उसे एक ओर ले जाकर पुनः सारी गतिविधियों का निरीक्षण करने के बाद निश्चित किया और आखिर प्रस्थान का कार्यक्रम निश्चित करते हुए मैं वापस लौटा।
१ फरवरी के दिन हम निकल पड़े। जिनेवा की सरकार ने मेरी अपेक्षा से अधिक जोरदार बंदोबस्त किया था। हमारे जहाज पकड़े गए। मेरे रहने के स्थान को सिपाहियों ने घेर लिया। हमारे लोग विलक्षण टोपी पहनना, शस्त्र रखना आदि किसी भी संदेह पर पकड़े गए। परंतु सतत परिश्रम के साथ हमने तत्रस्थ जनता को अपने पक्ष में कर लिया। अब वे लोग आगे बढ़े और सिपाहियों तथा अधिकारियों में भी हमसे सहानुभूति होने के कारण नागरिकों के दबाव के साथ ही उन्होंने हमें तंग करना बंद कर दिया। हमारे सब लोग निश्चित स्थान पर संघटित हो गए। उन्होंने अपने-अपने शस्त्र उठाए। सारी सेना के झील पार करने तक मैं उनके पीछे रहा। एक-दो जनों को जहाज के लिए निरुपयुक्त समझकर छोड़ दिया और उस जहाज से वापसी पर आ गया।
परंतु हमारे भाग्य में दारुण आशा भंग तथा धोखाधड़ी लिखी थी। हमारे साथ जो जर्मन निर्वासित थे उनका उत्साह ठाठे मार रहा था। उन्हें कार्य का वास्तविक कठिन स्वरूप समझ में नहीं आया था। वे प्रकट रूप में युद्ध की शान से इतराने लगे। परंतु मार्ग में स्विस सरकार के प्रदेश से जाना था। उस सरकार ने यह देखते ही कि वे किस ओर जा रहे हैं यह भाँप लिया और उनमें फूट डाली। कुछ लोगों को घेर लिया, कुछ को भगा दिया और कुछ उतनी विपदाओं में से मार्ग निकालते हुए उस स्थान पर पहुँच गए जहाँ हम प्रतीक्षा में खड़े थे। परंतु बहत देरी हो चुकी थी। इधर रामोरिनो की सेना जब झील पार करने लगी तब और एक अक्षम्य भूल की गई। सभी के शस्त्र निकालकर एक ही जहाज में डाले गए। सरकारी पुलिस ने वह जहाज पकड़ लिया और सहजतापूर्वक उन पोलिश सिपाहियों को बंदी बनाया। इस तरह अनेक युक्तियों से हमारे तीन चौथाई सिपाही कम हो गए और इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण संकट यह कि रामोरिनो को शिकायत के लिए अवसर दिया गया जो वह चाहता था। वस्तुतः हमारी वस्तुस्थिति का भान उसी को होता जिसे आक्रमण करके जय प्राप्त करने की मन:पूर्वक इच्छा है और जिसे क्रांतियुद्ध की कम-से-कम प्राथमिक जानकारी तो है। उस अल्प संख्य सेना से भी हम सेंट जूलियन पर कब्जा कर सकते थे। क्योंकि हमें आते हुए देखकर और शहर की रक्षा करने की हिम्मत हारकर शत्रु सेना शहर छोड़कर पहले ही चली गई थी। एक बार सेंट जूलियन जाकर हम पहुँच जाते कि तुरंत उन्हें संकेत करते जो जगहजगह पर संकेत की प्रतीक्षा में बैठे थे। फिर हमारी सेना की कमी पल भर भी टिक नहीं पाती। तिसपर हमारा यह कृत्य देखकर जिनेवा के लोगों का उत्साह, जो पहले से ही हमारे पक्ष में थे, अधिक बढ़ जाता। हमारी सेना जो उधर बंदी बनी थी मुक्त करना अनिवार्य हो गया होता और शेष सेना हमें आ मिलती। इसी कारणवश रामोरिनो को सेंट जूलियन के छोड़ देने की महत्त्वपूर्ण वार्ता जान-बूझकर सूचित की गई। अबकी बार उसने अपने वचन का पालन किया, उसे मेरे प्रतिद्वंद्वी होने का संदेह होने के लिए रंचमात्र भी स्थान न रहे इसलिए मैंने तुरंत एक मस्केट बंदूक उठाई और सेना में जाकर साधारण सिपाहियों की पंक्ति में खड़ा हो गया। रामोरिनो ने झील पर उन लोगों को पकड़ा यह सुनते ही सारा कार्यक्रम छोड़ दिया और उस झील के किनारे-किनारे सतत चौबीस घंटे घूमते-घामते समय बिताया। सेना तो सकते में आ गई, उसे कुछ भी समझ नहीं आ रहा था। निराशा से वे पागल बने और अंत में सर्वनाश हुआ। वह रामकहानी मैं यहाँ नहीं बताना चाहता। केवल अपने संबंध में यह हकीकत कहता हूँ।
इस आक्रमण के प्रबंध में मैं अपने शरीर की परवाह न करते हुए पिछल तीन महीनों से अथक परिश्रम कर रहा था। इस अंतिम सप्ताह में तो मैंने एक भी रात बिस्तर पर नहीं काटी। बिछौने को तो मैंने छुआ तक नहीं। कुरसी पर बैठे-बैठे दस-पंद्रह मिनटों के लिए एकाध झपकी ले लेता, बस वही नींद थी। इसके अतिरिक्त विभिन्न चिंताएँ, अविश्वास का भय, विश्वासघात होगा ही यह पक्की धारणा, परंतु अन्यों को प्रोत्साहित करने के लिए ऊपर-ऊपर उत्साहित रहने का कष्टप्रद नाटक, पल-पल में अकस्मात् हो रही धोखाधड़ी तथा सिर उठाया हुआ भारी जिम्मेदारी के बोझ तले मेरा शरीर और मन निराशा, हताशा से कुचला गया। बंदूक लेकर सिपाहियों में जब मैं घुसा उसी समय से ज्वर से तप रहा था। आसपास के सिपाहियों ने मुझे आधार दिया था अन्यथा खड़े रहने की शक्ति भी मुझमें नहीं थी। उस रात कड़ाके की सर्दी थी, जो हड्डियाँ चीरकर शरीर के अंदर घुस रही थी। लापरवाही के कारण मैं अपना गाउन घर भूल गया था। इतने में किसी ने मेरे शरीर पर गाउन तो डाला, परंतु पीछे मुड़कर उसे धन्यवाद देने की भी शक्ति मुझमें नहीं थी। बीच-बीच में मैं गौर करता कि योजना के अनुसार हमारी सेना सेंट जूलियन नहीं जा रही है। मैं अपनी सारी शक्ति समेटकर भागा। रामोरिनो के पास पहँचा और ठीक समय पर विपरीत दशा से गतिविधियाँ न करने के लिए तिलमिलाकर उससे प्रार्थना करने लगा। वह इतराते हुए निर्णायक स्वर में पुनः-पुनः कहता कि थोड़ी ही देर में पोलिश लोग आएँगे तब तक हम झील के किनारे ही घूमेंगे। मुझे इतना पूरा स्मरण है कि मैं उससे अंतिम विनती कर रहा था कि हममें से कुछ सिपाहियों ने धमाका किया। इस विचार से कि आखिर ईश्वर निर्णायक क्षण ले ही आया, मैं उत्साह के साथ बंदूक के स्थान पर भागा और बंदूक उठाने लगा, इसके पश्चात् क्या हुआ, मुझे कुछ स्मरण नहीं। मेरी आँखों के सामने अँधेरा छा गया और वायु का झटका खाकर मैं धड़ाम से धरती पर गिर गया।
वायु की लहरें बीच-बीच में आतीं और मैं किंचित् होश में आ जाता, फिर पुनः मूर्च्छित होता। इस थोड़े से होश में आने में ग्युसेपी लैंबर्डी मुझसे पूछता, 'क्या लिया है तुमने?' वह तथा मेरे कुछ अन्य मित्र जानते थे कि हमेशा पकड़े जाने का भय होने के कारण और बंदी बनाने पर मुझसे कबूली लेकर नाम बताने के लिए मुझे अनंत यातनाएँ दी जाएँगी-इसपर विश्वास होने के कारण मैं हमेशा अपने पास एक जानलेवा विष छिपाकर रखता।
परंतु उसका 'तुमने क्या लिया?' यह प्रश्न सुनकर नीम बेहोशी में मैंने कुछ अर्थ निकाला। मैंने सोचा, 'तुमने कितने पैसे लिए और अपने मित्रों से विश्वासघात करना स्वीकार किया' इस अर्थ में वे मुझसे पूछ रहे हैं। इस कल्पना के साथ मेरे तन-बदन में आग लग गई। मुझे अत्यंत जोरदार वायु का झटका लगा और मैं निश्चेष्ट गिर पड़ा। वे सारे सिपाही, जो उस आक्रमण में उपस्थित होनेवालों में से अभी तक जीवित हैं, बताएँगे कि मेरा लिखा हुआ सौ प्रतिशत सत्य है। वह मेरे जीवन की अत्यंत भयानक रात थी। ईश्वर उन्हें क्षमा करे जिन्होंने मेरी उस स्थिति पर हास्यात्मक चुटकुले लिखे और मेरी खिल्ली उड़ाने का प्रयास किया।
मेरी दुःस्थिति की वार्ता रामोरिनो को मिलते ही उसने सोचा, चलो मेरे मार्ग का प्रमुख काँटा दूर हुआ। उसने अपना घोड़ा मँगवाया। सेना फूटकर चली जाएइस तरह का आदेश पढ़ा और घोड़े पर सवार होकर अपने घर की ओर भागा। उसके स्थान पर कार्लेबियान्को को नियुक्त करने का विचार चल रहा था। परंतु उस दायित्व के सामने उसने हिम्मत नहीं दिखाई। क्योंकि प्राय: सेना तितर-बितर हो ही चुकी थी। संपूर्ण बिखर गई थी और सारे सैनिक अपने-अपने घर चले गए।
मैं जब होश में आया तो देखा कि मुझे विदेशी सिपाहियों ने घेरा हुआ है और मैं एक लश्करी में हूँ। मेरे निकट मेरा मित्र अंजेलो यूसिग्लिओ बैठा हुआ था। मैंने उससे पूछा, 'हम लोग कहाँ हैं?' 'स्विट्जरलैंड में ही', उसने दु:ख के साथ उत्तर दिया। और सेना?' वह भी स्विट्जरलैंड में ही।
मेरा 'युवा इटली' का प्रथम भाग समाप्त हो गया।
I slept and found that life is beauty.
I woke and found that life is duty;
अथचेत्वमिमं धर्म्य संग्रामं न करिष्यसि।
ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि ॥३३॥
सुख दुखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ॥३८॥
(श्रीमद्भगवद्गीता, अ. २)
'युवा इटली' के प्रथम खंड का अंत पराजय में हुआ। आगे क्या करना है ? इस पराजय से घबराकर तथा असफलता से हताश होकर स्वदेशोद्धार के कार्य से मुँह मोड़ना क्या उचित होगा? उचित काल अपने आप आने तक अथवा तब तक जब तक मुझसे अधिक श्रेष्ठ नेता नहीं मिलता, इटली की राजनीति छोड़कर क्या मैं अपने निजी व्यवसाय की ओर ध्यान दूँ? विविध शास्त्रों के अध्ययन में मग्न हो जाऊँ जो मेरी स्वाभाविक प्रवृत्ति के लिए अनुकूल है?
अनेक ने मुझे यही करने का उपदेश किया। उनमें से कुछ लोगों को तो विश्वास हो गया कि आज सैकड़ों वर्ष तक इटली गुलामी की गंदगी में सड़ रही है, अत: हमारे उदात्त लक्ष्य का आकलन करने की उसकी शक्ति नष्ट हो चुकी है।
स्वयं प्रेरित आंदोलन द्वारा उसे जो करना है करेगी। शेष लोगों ने मझे राजनीति से दूर होने की सलाह दी। वह इसलिए कि स्वाधीनता संग्राम का श्रीगणेश हआ ही नहीं था कि इन लोगों का उत्साह असंगत हो गया। हमारे सिर पर लटकती अत्याचारों की तलवार अब वहाँ से छूटकर गरदन पर आती देखते ही उनके हाथपाँव फूल गए थे। यह कहते हुए कि अब बस हुई राजनीति, खूब हुआ देशोद्धार, हम अपनी पेटपूजा की तैयारी में लगना चाहते हैं। इतने में सेवॉय पर किए गए आक्रमण को जड़मूल से उखाड़ने की वार्ता सुनकर इटली में अनर्थ का श्रीगणेश होने का समाचार फैल गया। अब तो कोई मुझे सिर ऊपर उठाने नहीं देता। सभी ने हमारे दुर्भाग्य पक्ष पर गालियों की बौछार की। इटली से निराशा, हताशा को छोड़कर अन्य कोई खबर नहीं आती। भगदड़, विश्वासघात, कैद, फूट के अतिरिक्त अन्य कोई संवाद, भाषण नहीं। इधर स्विट्जरलैंड में जिन लोगों ने हमसे सहानुभूति जताई थी वे लोग हमसे ऊब गए थे। जिनेवा सरकार को चारों ओर से हमें खदेडने से संबंधित पत्र तथा निर्णायक आदेश आने लगे और चूँकि हम पराजित थे अत: उन लोगों ने 'उपद्रवी विदेशी कहाँ से आ गए और हमारे स्विट्जरलैंड के तथा अन्य यरोपीय सरकार से होनेवाले स्नेह संबंधों के विनाश का कारण बन गए और सारा झंझट खड़ा कर गए।' इस तरह कहकर हमारी निंदा करना आरंभ किया। उस सरकार ने पकड़-धकड़ के आदेश दिए। हमारी लश्करी सामग्री पकड़ी गई। हमारा स्थायी कोष समाप्त होने लगा। हमारे पास आए निर्वासितों को खाने के लाले पड़ गए और उनके कष्टों की सीमा नहीं रही। हताशा तथा संकटों की चरम सीमा से आपसी विवाद, ईर्ष्या-जलन आरंभ हो गई। उदासीनता और अंधकार ने हमें घेर लिया। फ्रांस में जनसत्ताक पक्ष का आक्रमण सफल होगा इस तरह हमें आश्वासन भेजे गए तथापि मेरा उसपर विश्वास नहीं हो रहा था। सभी तरह के उपदेशों के बावजूद एक कारण मुझे अहोरात्र चुभ रहा था-वह था मेरी वृद्ध माता का स्मरण। उसका क्या होगा? यदि किसी विषय से हारकर मेरा विश्वास डोलना संभव होगा तो बस इसी विचार के कारण।
परंतु एक महत्त्व मेरे अंत:करण में निवास कर रहा था जो इन बाह्य संकटों की परवाह भी नहीं करता था। मेरी प्रकृति स्वयं स्वतंत्र थी। मेरी आत्मा पराधीन नहीं हुई थी। तब से मेरा दृढ़ विश्वास है कि बाह्य मायापाश का जाल तोड़कर स्वतंत्र रूप में आचरण करने की शक्ति मनुष्य की आत्मा में वास कर रही है। मानवी आत्मा बाह्योपाधियों की दास न बनते हुए उन बाह्योपाधियों को ही अपना दास बनाए। मुझमें बसा हुआ चैतन्य बहिरंग से अंतरंग में नहीं उतरा था, वह अंतरंग से बहिरंग में संचार करता। वह उधार का चैतन्य नहीं था, वह प्रकृतिप्रद था। हमने जो कुछ कार्य हाथ में लिया है वह केवल प्रतिक्रिया का कार्य नहीं था, न ही हमारा आक्रमण भी किसी रोगी मनुष्य ने स्थान बदलने के लिए की हुई गतिविधि थी। हमें स्वतंत्रता की आस थी। वह परवशता की प्रतिक्रिया के रूप में ही नहीं, मनुष्य के उदात्ततर कर्तव्य को पूरा करने का प्रमुख साधन वही होने के कारण उसे प्राप्त करने का हम प्रयास कर रहे थे। हमारे ध्वज पर जनसत्तात्मक राष्ट्रैक्य के महत्त्व झलकते थे। हमारा प्रयास किसलिए था? हमारा प्रयास नवराष्ट्र निर्माण करने का, दो करोड़ लोगों को जीवित करने का महामंडलीय प्रयास था। उन्हें जो इस प्रकार के शुभ लक्ष्य के लिए लड़ते हैं, इक्की-दुक्की पराजय की कैसी चिंता? विपदाएँ महत्कार्य में महत्त्वपूर्ण स्वरूप में आएँगी ही। तो फिर महद्विपत्तियों में अटल धैर्य से खड़े रहने की शिक्षा हमारे स्वदेश बंधुओं को देना क्या हमारा कर्तव्य नहीं था? कर्तव्य का त्याग करने से अच्छा है स्वयं ही उस विपदा में खड़े रहकर यह शिक्षा प्रदान करने का अन्य मार्ग कौन सा होगा, यदि अब हमने हथियार डाल दिए तो राष्ट्रीय एकता का असंभव हो जाना और एक उदाहरण के रूप में शत्रुपक्ष को नया प्रमाण देना नहीं होगा आदि प्रश्नों पर विचार-मंथन। इटली देश में प्रमुख दुर्गुन यही था कि यद्यपि उसे स्वतंत्रता की इच्छा थी तथापि उसे प्राप्त करने की शक्ति उसमें है यह आत्मनिष्ठा नहीं थी। वह तुरंत निराश हो जाता और सत्य के बिना सद्गुण भी निष्फल हो जाता। प्रयत्नों के सातत्य तथा परिश्रम के लिए आवश्यक जीवटवृत्ति का भी इटालियन लोगों में अभाव है। लोगों के आचार और विचारों में एकवाक्यता नहीं थी। लेखनी जो स्वतंत्रता, प्रेम तथा उसके लिए संकट, कष्ट झेलने की दृढ़ता उत्पन्न करने का प्रमुख साधन है-उठाना अब संभव हो गया था। क्योंकि इटली में इस प्रकार के लेख पुलिस की वक्रदृष्टि को चकमा देकर प्रसृत करना संभव नहीं था। अत: अब सजीव शिक्षा देने के अतिरिक्त अन्य कोई मार्ग नहीं था। ऐसे नररत्नों का महामंडल हो जो निश्चय का महामेरु, निर्णय की निधि, निराशा को जिन्होंने लताड़ा है, अत्याचारी पीछा करनेवालों की जिन्होंने परवाह नहीं की, उत्कट आत्मनिष्ठा के बलबूते पर प्रत्येक पराजय में जिन्हें भावी विजय का स्मित मिलता है, जो टप्पा खाकर उछलने के लिए आज गिर रहे हैं, उत्थान के लिए ही पतन को स्वीकार कर रहे हैं, जो सदासर्वदा धर्मयुद्ध के लिए कमर कसकर खड़े हैं, भले ही सैकड़ों विपत्तियाँ टूट पड़ें, चाहे कितनी बार पराजित होना पड़े अथवा चाहे जितना समय लगे परंतु अंत में विजयश्री हमारा ही वरण करेगी इस प्रकार की निष्ठा से प्रफुल्ल हृदय हैं-यही इटली को पुनरुज्जीवन देने के लिए अवतरित मूर्त शिक्षा है। इसके अतिरिक्त अन्य मार्ग नहीं था। हम अपने पक्षाभिमान से रहित नहीं हो गए थे, हम स्वदेश-भक्ति के राष्ट्रधर्म से दीक्षित थे। अत्याचार पक्षाभिमान मार सकेगे, परतु धर्म ज्योति नहीं बुझा पाएँगे।
अंत:करण पर संचित संदेह का तम:पटल झाड़कर मैंने 'पुनश्च हरी ॐ कहना आरंभ किया।
आज तक इटली में हमारा बुना हुआ जाल तार-तार हो चुका था। ऐसी स्थिति में कुछ समय तक छिपना ही श्रेयस्कर था। क्योंकि इससे हमारे ऊपर छाया हुआ आतंक तब तक कम हो जाता। हमारे देश-शत्रुओं को संपूर्ण विजय प्राप्त हो गई और हमारा सदा के लिए सर्वनाश हो गया इस प्रकार सुरक्षा प्रतीत होने से वे पुनः घोड़े बेचकर सो जाएँ। परंतु इटली में कुछ न करने के लिए जो अवधि अब निश्चित करनी है उसमें इटली के बाहर बहुत सारा काम किया जा सकता था। हमारे दूसरे आक्रमण को अन्यत्र स्थित जनसत्तावादियों का समर्थन तथा यूरोप के देशों की सहानुभूति अवश्य चाहिए थी और उसे निर्माण करने का प्रयास इस अवधि में करने के लिए अवसर था। सन् १८३४ से १८३७ तक इसी नीति को अपनी कर को आंदोलन चल रहे थे। हमारे आज तक के लेखों का अन्य देशों में भी थोडा सा परिणाम हआ था। सेवॉय के साहसी प्रयासों के कारण हमारे पास विदेशी निर्वासित प्रचर संख्या में इकट्ठा हो गए थे। इनमें से प्रायः सभी जर्मन और पोलिश देशभक्त थे और शेष स्पेन, फ्रांस तथा अन्य देशीय थे। हैरोहेरिग इनमें से प्रमुख देशभक्त था। यह सच्चा लेखक और स्वतंत्रता देवी का एक स्नेही एकनिष्ठ वारकरी (प्रतिवर्ष नियमित रूप से पंढरपुर की यात्रा करनेवाला विट्ठल भक्त) था, क्योंकि इस सेवा के लिए पोलैंड, जर्मनी, ग्रीक के रणमंदिरों से उसकी उपासना करने के लिए रणनर्तन करता आया था। हमारा पीछा हो और हम दश दिशाओं की ओर बिखर जाएँ इससे पूर्व इन विभिन्न देशीय निर्वासितों में मैंने विश्व कुटुंब कल्पना का बीजारोपण करना आरंभ किया था। इस जनसंघ के एकीकरण की इच्छा सर्वत्र थी, परंतु उसपर अमल करने का प्रयास किसी ने नहीं किया था।
परंतु मेरी विश्व कुटुंब की परिकल्पना में तथा कारबोनरी के विश्व कुटुंबकत्व में अत्यंत महत्त्वपूर्ण भेद था। उनके अनुसार मनुष्य समाज के केवल दो ही रूप हैं। पहला व्यक्ति और दूसरा मनुष्य जाति। मनुष्य जाति का अंतिम हित साध्य है और व्यक्ति साधन। परंतु मेरे विचार से उन दो ही रूपों को स्वीकारना उचित नहीं है। मैं स्वीकार करता हूँ कि मनुष्य जाति का उच्चतम तथा अत्यंत हित करना संभव है परंतु यह मानना अधूरा है कि मानवता का अंतिम साधन शक्ति है। व्यक्ति की परिकल्पना बहुत संकुचित परिकल्पना है। मानवता के उच्चतम हित सदृश महत्कार्य की पूर्ति के लिए व्यक्ति असमर्थ है। उसकी शक्ति इस कार्य की तुलना में अत्यंत अपूर्ण है। अत: मानवता की उच्चतम पूर्णता का साध्य साधने के लिए ऐसा हथियार चाहिए जो व्यक्ति से अधिक सबल हो और वह हथियार है समष्टि अर्थात् देश अथवा राष्ट्र।
ऐसे सैकड़ों व्यक्ति जो एक ही विशिष्ट सिद्धांत, एक ही विशिष्ट मनःप्रवृत्ति और एक ही विशिष्ट अंतर्बाह्य रचना से युक्त हैं-मिलकर एक राष्ट्र होता है और उस विशेषता की तुलना से उस राष्ट्र को एक विशेष कर्तव्य प्राप्त होता है। यह कर्तव्य करने के लिए वह राष्ट्र संघटित रूप से तैयार रहे। इससे एक व्यक्ति से महत्तर कृत्य संपन्न करने की शक्ति एक राष्ट्र में उत्पन्न होगी। फिर यह सबलतर साधन अपनाने से मानवता की अत्यच्च पूर्णता का साध्य संभव होगा। अत: मेरे विचार से मानवता की पूर्णता साध्य और व्यक्ति साधन सामग्री है। कारबोनरी को राष्ट्र की इस परिकल्पना का विस्मरण हो गया था, अत: उसका महत्साध्य संपन्न करने में वह असमर्थ थी। व्यक्ति से आरंभ करते हए एकदम विश्वविचार पर आने का प्रयास करना असंभव है। जनमानस से स्वदेश की कल्पना पूर्णतया दुत्कारना, राष्ट्र का संपूर्ण विनाश करना, ईश्वर ने विभिन्न जातियों में जो विशिष्ट कर्तव्यों का आवंटन किया है उनमें अँधेर मचाना, विश्व कुटुंब में विभिन्न राष्ट्रपुरुषों के पास ने आए हुए विशेष कर्तव्यों को न समझते हुए उन सारे राष्ट्रपुरुषों का विनाश करते हुए न जाने किस विचार से विलक्षण एकता के पीछे पड़ना और जिस सोपान पंक्ति से पूर्णतम तथा अंतिम लक्ष्य की ओर मनुष्य जाति को पहुँचना संभव है उन व्यक्ति, राष्ट्र और मानवता की सोपान पंक्ति की तोड़-फोड़ करके उसके टुकड़े-टुकडे करना अनहोनी को होनी करने की चेष्टा करना है। प्रस्तुत युग का प्रमुख कर्तव्य है राष्ट्र परिकल्पना तथा मानवता की एकवाक्यता करना। मानवजाति के अनुबंध-पत्र पर प्रत्येक व्यक्ति को हस्ताक्षर नहीं करना है तथापि प्रत्येक राष्ट्र तो कर सकता है। वह राष्ट्र ऐसे व्यक्तियों के संघटन से बनना चाहिए जो समान, स्वतंत्र तथा एक नाम के तले, एक ध्वज तले तथा एक ही विशेष कर्तव्य से प्रेरित हो और व्यक्ति उपर्युक्त गुणों से अभिमंडित हो। यह इच्छा हो तो उन्हें राष्ट्रीय तथा स्वदेश की परिकल्पना समझानी होगी। प्रत्येक देश को मानवी कुटुंब पूर्णता के कार्य में एक विशेष कर्तव्य करना होता है और वह कर्तव्य उस देश के सामने स्पष्ट किया जाना चाहिए। यह कर्तव्य किए बिना राष्ट्र कदापि नामशेष नहीं होगा। फ्रांसीसी क्रांति तक व्यक्ति युग था। उनका 'अधिकार' जैसे सिद्धांत के आगे प्रवेश नहीं हुआ था। परंतु मेरे विचार से अब नवयुग का उदय हो गया है। अब व्यक्ति युग समाप्त होकर राष्ट्र युग का आरंभ हो गया है। व्यक्ति के अधिकारों की रक्षा साध्य होने से मनुष्य-मनुष्य का आपसी विद्वेष कभी समाप्त ही नहीं होगा। अधिकार का सिद्धांत सामने रखने से स्वार्थ उत्पन्न होगा ही होगा। अत: अब 'कर्तव्य' जैसे सिद्धांत का पालन करना चाहिए। जीवन कर्तव्य पूर्ति के लिए है, न कि अधिकार निभाने के लिए, उसपर अमल करने के लिए। अधिकार में स्वार्थ की दुर्गंध आती है। कर्तव्य में परमार्थ की परिकल्पना है। कर्तव्य ही जीवन का अंतिम लक्ष्य है। यही बात राष्ट्रयुगातर्गत प्रधान सिद्धांत है। अत: व्यक्तिगत अधिकार के बदले व्यक्ति कर्तव्य का सिद्धात तथा व्यक्ति युग के बदले समष्टि युग की परिकल्पना मेरे विचार से जनता क उतारना अनिवार्य है।
अत: मानवजाति की अत्युत्कट उन्नति का साध्य साधने के कार्य में अपने-अपने प्रकृति निर्दिष्ट विशेष कर्तव्य निभाने के लिए उन कर्तव्यों को पहचानकर स्वतंत्र एवं एकसमान व्यक्तियों से एकीभूत बने ये विभिन्न राष्ट्र एकदिल तथा एकवाक्यता के साथ कमर कसेंगे तथा परस्पर हितार्थ प्राणपण से चेष्टा कराते हुए अखिल मनुष्यजाति का उद्धार करेंगे यही मेरा सार सर्वस्व था और एसका उपदेश करने के लिए मैंने एक संस्था आरंभ करने का निश्चय किया। जिसका नाम है 'युवा इटली'।
दरमियान हमें खदेड़ने का कार्य जोर-शोर से आरंभ हो गया। जो निर्वासित देशभक्त हमसे आकर मिले थे उन्हें अपराधी की तरह सीमा तक पहरे में ले जाया गया और अमेरिका या इंग्लैंड भेज दिया गया। कुछ लोगों ने अपने नाम बदलकर छोटे-छोटे गाँवों में प्रवेश किया। इन सभी से अधिक हम इटालियन देशभक्तों का पीछा हो रहा था, तो भी हम सभी खिसक गए। मैं रफिनी मेलेगारी के साथ जिनेवा से निकल पड़ा। कुछ दिवस लॉरेंस में छिप-छिपकर बिताए। पुडे बर्ने गाँव में रहने की स्विस सरकार ने अनुमति दी। मैं अपने निर्वासितों के उत्तेजनार्थ एक छोटी सी पुस्तिका लॉरेंस में ही प्रकाशित की। उसमें से कुछ अंश नीचे दे रहा हूँ-
निर्वासित देशभक्तों को पत्र
'वे केवल दो सौ देशभक्त थे। वे देशप्रेमी दो सौ ही थे। परंतु उन्होंने संपूर्ण यूरोप महाद्वीप को थर्राया। यूरोप के राजाओं ने इन दो सौ के विरोध में भयंकर षड्यंत्र रचा। उनकी विशाल सेना, संपूर्ण यूरोप का पुलिस दल, गुप्तचर, प्रधान मंडल षड्यंत्र पटु आदेशों के पुलिंदे, तलवारों के ढेर इन सभी के लिए ये दो सौ देशभक्त सवा सेर बनकर रहे। यूरोप के उस छोर से इस छोर तक ये सारे अधम सम्राट-जिन्हें ईश्वर अच्छे लोगों की परीक्षा लेने के लिए इस दुनिया में भेजता है-तथा उनके अमलदार हमें ढूँढ़ने के लिए, हमें खदेड़ने के लिए, हमारी निंदा करने के लिए तथा प्रतिशोध लेने के लिए सतत प्रयत्नरत थे। उन्होंने निर्वासितों को शिकार करना आरंभ किया। सतत चार महीने सीधे-सादे स्विट्जरलैंड सरकार के सामने रूस, फ्रांस, जर्मनी आदि सभी सरकारों की ओर से प्रार्थना-पत्र और आदेश के ढेर-के-ढेर इकट्ठा हो गए थे। 'संघटित निर्वासितों को खदेड़ दो, उनका गुट तोड़ दो।' यही एक घोषणा सारे यूरोप में फैली हुई थी। संपूर्ण यूरोप इन दो सौ देशभक्तों के सामने भय से थर-थर काँप रहा था। परंतु भय से सिट्टी-पिट्टी गुम होने पर भी ऊपर-ऊपर से इन नामर्दो ने कितनी शान दिखाई, कितने इतराए ! वृत्तपत्रों में उनके लेख आने लगे कि ये निर्वासित नासमझ बालक हैं जो अभीअभी स्कूल से निकले हैं। जन्मत: उन्हें षड्यंत्रों और कूटनीति का चस्का सा लग गया है। नीति के अतिरेक में वे मदांध हो गए हैं। असाध्य बात साध्य करने यानी आकाश को खोल चढ़ाने निकले हैं। इस बुरी लत के लिए उन्हें अच्छी-खासी सजा देनी चाहिए। परंतु ऐसे नादान बच्चों से भयभीत होने का कोई कारण नहीं। वे युवा थे? 'जी हाँ। अर्थात् वे जवानी के जोश में थे। यद्यपि स्नेहमय चुंबन से वंचित करते हुए उन्हें उन अधम राजाओं ने दूर फेंक दिया था फिर भी वे युवा थे। यद्यपि परिवार-स्नेह से तथा घर-परिवार के स्नेहिल सौख्य से वे वंचित हो गए तथापि वे युवा थे। वे नूतन विश्व की संतान थे। नूतन धर्म के बालक थे क्योंकि उस नूतन विश्व ने तथा उस राष्ट्रधर्म द्वारा उनका जन्म होते ही उन युवकों के सामने वनवासी देवदूत आ गया। उन नूतन बालकों में स्वार्थ प्रवृत्ति, आत्मार्पण, क्षमा तथा तारुण्य शुचिता देखकर तथा उससे प्रसन्न होकर उस देवदूत ने उन्हें पवित्र तथा मधर मंत्रोच्चारण के साथ विश्वप्रीति की तथा तत्कालीन वृद्धों को अनाकलनीय उच्च राष्ट्रधर्म की दीक्षा दी।
'उस वनवासी देवदूत के पंख से स्पर्श होते ही पावन हुई उन अभिनव बालकों की दृष्टि भविष्य काल में प्रवेश करने लगी। वृद्धों की अंधदृष्टि को जो दिखाई देना असंभव है वह भी उनकी दिव्यदृष्टि देखने लगी। यूरोप की गुलामी का शव-संस्कार उन्हें दिखाई देने लगा। गुलामी की राख का ढेर उन्हें दिख गया। उस ढेर से विजयश्री की प्रभा से मंडित दिव्य स्वतंत्रता युग का उदय दिखाई देने लगा। राष्ट्रों का पुनरुज्जीवन, आज तक परस्पर कलह में मग्न विभिन्न लोगों को इकट्ठा होकर, संपूर्ण मनुष्यजाति को हाथों में हाथ डाले, बंधुत्व भाव के साथ, विश्वास के साथ हर्ष विभोर होकर झूमते-झूमते प्रगमन की ओर जाते हुए देखा। सर्व राष्ट्र नियमित रूप से संघटित हो गए हैं और उनपर स्वाधीनता, समता तथा मनुष्यता के देवदूत अपने शुभ्र पंखों का दिव्य छत्र थामे हुए उन्हें दिखाई दिया। भविष्य की परम सृष्टि उन्हें गोचर हो गई थी। वे पीछे मुड़े और वनवास के उस देवदूत से पूछने लगे, 'इस दिव्य युग की प्राप्ति हो इसके लिए हम कौन सा कर्तव्य करें?' देवदूत ने कहा, 'मैं वनवास का अध्यक्ष हूँ। आप मेरे पीछे आएँ। उस दिव्य युग की प्राप्ति के लिए आपको मेरे पीछे-पीछे आना होगा। मैं आपको उस राष्ट्र की ओर ले जाता हूँ जो कर्तव्यशून्यता की निद्रा में खर्राटे भर रहा है। आप उन्हें अपने उदाहरण स शिक्षा देते जाएँ। उन्हें, जो अत्याचार से पीड़ित तथा दुःखग्रस्त हैं, प्रसन्न करें। विश्व का कल्याण करें।' परंतु आपको कोई सुख नहीं देगा। जिनके कल्याणार्थ आप एड़ी-चोटी एक करेंगे वही आपको धिक्कारेंगे तथा आप पर जननिंदा की बौछार होगी। परंतु परलोक में मैं आपके दुःखों का परिमार्जन करूँगा।'
इसे शिरोधार्य समझकर वे युवक यात्रा पर निकल पड़े। जनपद के कान में पवित्र मंत्रों का उच्चारण करने लगे। जहाँ-जहाँ से परदास्यता के कोल्हू में पिसे जाने के कारण शूर लोगों की चीख-पुकार इन युवकों के अंत:करण ने सुनी वहाँ-वहाँ वे भागे-भागे पहुंचे और जब-जब हताश, निराश जनों की रामकहानी उन्होने सुनी तब-तब उद्धरेदात्मनात्मानंनात्मानमवसादयेत्' इस तत्त्व का उन्होने उपदेश किया।
'देवदूत की भविष्यवाणी के अनुसार जननिंदा उनके पीछे सत्तू बाँधकर पडी थी। अपने मार्ग में कृतघ्नता के अतिरिक्त उन्होंने कुछ भी नहीं पाया। परंतु जिस-जिस प्रदेश में उस महायात्रा ने अपनी चरण-धूलि झाड़ी क्रमश: वे सारे प्रदेश उनके चरणों की मुद्रा से मुद्रित हो ही गए। जिन लोगों ने उनकी भरपूर निंदा की थी उन्होंने ही देखा कि अपने राष्ट्र में आश्चर्यजनक परिवर्तन हुआ है। उनका राष्ट्र पहले से निश्चयपूर्वक उदात्ततर हो गया है। जैसे ही इस महायात्रा के प्रस्थान की वार्ता यूरोप के राजाओं के कानों में पड़ी वैसे ही उनकी सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई। इटली के चारों ओर फाँसी के स्तंभों की बाड़ बनाई गई। अपने देश में महायात्रा प्रवेश न पाए इसके लिए जर्मनी ने प्रत्येक स्थान पर पहरे लगाए। फ्रांस-स्वतंत्र फ्रांस-ने भी देशभक्तों को अपने देश में फाँसी की ओर ले जाने के मार्ग जैसा ही मार्ग दिया। क्योंकि फ्रांस ने उन्हें दाने-दाने को तरसने के लिए ही अन्य देशों में भेजा गया। स्विट्जरलैंड ने मारे भय से काँपते हुए शरणार्थियों को खदेड़ दिया। ये मुट्ठी भर देशभक्त बड़ी आस लगाए स्विट्जरलैंड की ओर देख रहे थे। स्वातंत्र्य ईश्वर ने आल्प्स पर्वत पर इसीलिए स्विट्जरलैंड उत्पन्न किया कि स्वतंत्रता को सुंदर प्रासाद मिले। और वही स्विट्जरलैंड नीच षड्यंत्रों के दाँव-पेंचों से भरे अत्याचारी राजाओं का सोपान बना हुआ था। अत्याचारी राजा की धमकियों से डरकर इस जनसत्ताक संयुक्त राज्य ने, जिसने आज तक पालन-पोषण किया था, उसी ने अत्याचारी राजाओं की धमकियों से डरकर हमें शत्रु को सौंपने का षड्यंत्र रचा है। इन लोगों में आज भी ऐसा एक भी महात्मा नहीं निकला जो उन अत्याचारी राजाओं के धमकी भरे पत्रों को आग लगाकर कहे, 'नहीं-नहीं, देशभक्त निर्वासितों को हम इस तरह अनाथ नहीं करेंगे। दुःखी जनों को छोड़ देने का पातक हम अपने सिर पर नहीं लेंगे। हम इन पवित्र देशभक्तों को स्विट्जरलैंड से निकालेंगे नहीं। यदि तुम बलात्कार से हमपर आक्रमण करना चाहते हो तो ईश्वर, हमारा प्रिय आल्प्स पर्वत तथा हमारी अस्मिता तुमसे हमारी रक्षा करने के लिए समर्थ हैं।' इस तरह यदि स्विट्जरलैंड मुँहतोड़ उत्तर देता तो उसे नकारने का वे साहस नहीं कर सकते। जो दो सौ देशभक्त निर्वासितों के आगे थर-थर काँप रहे हैं उन डरपोक राजाओं की स्विट्जरलैंड के रणवीरों से टकराने की बिलकुल थाती नहीं।
परंतु ऐसा करने में स्विट्जरलैंड के धीरज का बाँध ढह गया। अरे, तुमने अपने घर आश्रय माँगने आए हुए पवित्र याचकों को उन अत्याचारी राजाओं को सौंप दिया। तुमने ईश्वर और मनुष्य-दोनों को जोड़नेवाली श्रृंखला की बोटी-बोटी उड़ा दी।
स्वदेशभक्त चले गए हैं। वे अज्ञात वनवास में दर-दर भटक रहे हैं। ईश्वर उनपर अपनी कृपादृष्टि रखे और उनके अंत:करण पर अपनी शांति का आलोक बिखेरे। यूरोप ने जो निर्वासन का दंड दिया है, उस निर्वासन की महायात्रा में उनका अंत:करण शांत रहे। निर्वासित युवको, निराश मत होना। आप अपने हस्तकमल में अभिषिक्त किए हुए भविष्य का विस्मरण नहीं होने देना। इस महायात्रा को रात ने कर्तव्य की योग्यता दे दी। जिस नए धर्म के आप दीक्षित हो चुके हैं उस धर्म की विजयी धर्मवीरों को अत्यंत आवश्यकता थी। धैर्यपूर्वक सहन की हुई विपदा का देदीप्यमान रत्न लेकर भवितव्य राष्ट्रधर्म के योद्धाओं के मस्तक विभूषित करता है। आपने जो भविष्य देखा वह अवश्य वर्तमान बनेगा। ईश्वर ने जो लिखा है उसे राजाओं के आज्ञापत्र तथा जारों के अत्याचार मिटा सकेंगे? बवंडर में गरजनेवाले मेघों से आकाश मंडल से सूर्यनारायण मिटाए जाएँगे? उत्क्रांति का विश्वव्यापी नियम सभी के सहयोग से सकल परमोन्नति में दिखाई देता है। स्वर्ग में यह नियम अविनाशी है और इस पृथ्वी पर जनशक्ति अविनाशी है। वह जनशक्ति और वह भविष्य अमर है। वह दिवस अवश्य आएगा, जिस दिन वही लोग, वही जनपद जो आज गुलामी में पूरी तरह जकड़ा हुआ, सख्त पहरे में बंदी बनाया तथा दास्यपंक में धंसा हुआ प्रतीत होता है। मानवता का बली भीम बनकर हड़बड़ाकर जग जाएगा, आकाश की ओर देखेगा, ईश्वर की अनुज्ञा प्राप्त करेगा और फिर एक प्रहार के साथ अत्याचारी सिंहासनों को पलट देगा, खटाखट बंधन तोड़ डालेगा, बेड़ियों के टुकड़े-टुकड़े करेगा, अन्याय की सीमाएँ उठाकर फेंक देगा और स्वतंत्रता के मंदिर में संपूर्ण स्वतंत्र होकर स्वतंत्रता प्रेम में लीन होगा।
भाग्य के उस शुभ दिन स्वदेश से अत्यंत प्रेम करने के अपराध में जिन्हे तडीपार होने का दंड मिला है यदि वे जीवित होंगे तो मनुष्यजाति उनपर शुभाशीर्वादों की वर्षा करेगी और यदि उनमें से सभी लड़ते-लड़ते स्वर्ग चले गए हों और यह अकेला पीछे रह गया हो तो वह अपने देशबंधुओं की पवित्र अस्थियाँ जिस समाधि में से चमकती होंगी उस समाधि के सामने घुटने टेककर और वहाँ से कडा-करकट तथा घास किंचित दर हटाकर उन देशभक्तों के कान में कहेगा कि बंधुजनो, आनंद मनाने का दिन आ गया है। क्योंकि उस वनराज देवदूत के शब्द सत्य सिद्ध हो गए हैं और हमने गुलामी का वध कर दिया है।' और वह इस विश्व का अंतिम निर्वासित देशभक्त होगा, क्योंकि इसके पश्चात् विश्व पर जनपद की सत्ता रहेगी।
हमारे बर्ने पहँचने पर भी हमारे कष्टों की इतिश्री नहीं हई थी। परंतु पुलिस की पूछताछ तथा प्रस्तुतकालीन और भावी कठिन प्रसंगों की चिंता में व्यग्र होते हुए भी हम पोलिश, जर्मन और इटालियन देशभक्तों में से लगभग अठारह जनों ने पोलैंड, जर्मनी, इटली के नूतन पक्ष के आंदोलन एक ही दिशा से चलाने के लिए निम्नांकित मानवी-भाईचारे के अनुबंध पर हस्ताक्षर किए।
'हम जो स्वतंत्रता, विकास के भक्त हैं, अखिल मानवजाति की समानता तथा भाईचारे पर निष्ठा रखते हैं, नीचे हस्ताक्षर करेंगे।
'विश्वव्यापी प्रगमन के नीति-नियम से ही मानवजाति की अखंड उन्नति होकर, उसकी सकल शक्तियों की स्वतंत्र रूप से तथा एकतानता के साथ संपूर्ण वृद्धि होकर इस विश्व के उसके पास स्थित महत्कर्तव्य करने के लिए वह मनुष्यजाति समर्थ होगी-इसपर हमारी निष्ठा है।'
मनुष्यजाति के पास यह कर्तव्य क्षमता संपादन करने के लिए एक ही साधन है कि उसमें से सभी लोगों को स्वतंत्रता तथा स्वेच्छापूर्वक संघटित होकर सहकारिता के सिद्धांत पर अपने-अपने कर्तव्य संपन्न करने होंगे। इस प्रकार की स्वेच्छायुक्ति तथा स्वतंत्र सहकारिता समानता में ही संभव है। क्योंकि प्रत्येक प्रकार की विषमता स्वतंत्रता की कमी ही दर्शाता है और स्वतंत्रता में कमी होने से स्वेच्छानुसार कृति असंभव होती है; अत: स्वतंत्रता, समता और मनुष्यता ये तीन सिद्धांत समान रूप में ही पूजनीय हैं। प्रत्येक सामाजिक प्रश्न का सही-सही उत्तर प्राप्त करने के लिए ये तीन संख्याएँ विचाराधीन करनी चाहिए और जब-जब इन तीनों में से एक संख्या छोड़ दी जाती है तब-तब शेष दो को विचाराधीन करने पर भी सामाजिक प्रश्न के उत्तर में निश्चित रूप में भूल होगी।
यद्यपि उपर्युक्त कथन के अनुसार मानवजाति का उद्देश्य एक ही है और मानवी कुटुंब उसे प्राप्त करने के लिए उन सिद्धांतों का पालन करे। यद्यपि ये सिद्धांत सर्वत्र समान ही हैं तथापि उस प्रमुख उद्देश्य की प्राप्ति का महत्कार्य सुलभता के साथ साध्य हो इसके लिए श्रम विभाग के तत्त्वानुरूप प्रत्येक व्यक्ति तथा प्रत्येक लोक के हिस्से में एक-एक विशेष कर्तव्य आया है। इस कर्तव्य को संपन्न करने से वह राष्ट्र अपने विशेष दायित्व से मुक्त होता है और उस दायित्व को पूरा करने के लिए अपना कर्तव्य, जो मानवजाति का अंतिम साध्य है, संपन्न करता है।
यह व्यक्ति विशिष्ट कर्तव्य-संपन्न करने के लिए तथा कर्तव्य की पूर्ति मानवजाति का अंतिम सुलभ रीति से करने में व्यक्तियों तथा जनता का सहयोग अत्यावश्यक होने के कारण उनकी संस्थाएँ प्रस्थापित करने के लिए मानवता तथा नागरिकता के अधिकार पहचानकर एवं लोकोद्धार के पवित्र कार्यार्थ जो अपना बुद्धि सर्वस्व तथा शक्ति सर्वस्व समर्पित करने के लिए उत्सुक होते हैं उन्हें ईश्वर तथा मनुष्यता की प्रेरणा से जिस सद्विवेक बुद्धि का लाभ होता है उस विवेक-बुद्धि की आज्ञा को मान्यता देकर हमारी विभिन्न राष्ट्र समितियाँ, जो मानवजाति के प्रगमनार्थ प्रथम सीढ़ी हैं-उस राष्ट्र समिति में अपना कर्तव्य करने के लिए 'यंग पोलैंड', 'यंग जर्मनी' तथा 'यंग इटली' इन राष्ट्र समितियों में प्राथमिक दीक्षा ग्रहण करके आज तारीख १५ अप्रैल, १८३४ के दिन अपनी कर्तव्य तत्परता का स्वयं ही विश्वास दिलाकर हम इस तरह आचरण करने का निश्चय कर रहे हैं-
१. 'यंग जर्मनी', 'यंग पोलैंड', 'यंग इटली' ये तीनों संस्थाएँ जनासत्ताक होने के कारण मानव हितार्थ प्रयत्नशील रहने के कारण, उनका स्वतंत्रता, समता तथा उन्नति-इन तीन सिद्धांतों पर विश्वास होने के कारण, इन साधारण सिद्धांतों की विजयार्थ आज से उसके लिए करणी कर्तव्य में परस्पर सहयोग संपादन का निश्चय करके एक समान बंधुत्व के नाते हम संघटित हो रहे हैं।
२. जिन प्रमुख तत्त्वों का इस संस्था को पालन करना है, उनकी सुची अन्यत्र दी हुई है। ये तीनों संस्थाएँ उन सभी सिद्धांतों का पूर्णतया पालन करें।
३. साधारण सिद्धांतों के अनुसार कर्तव्य-पूर्ति करते समय इन तीन संस्थाओं के विशेष कर्तव्य करने की उन्हें स्वतंत्रता है। उनके विशेष अभियान में उनपर किसी का भी नियंत्रण नहीं।
४. 'युवा पोलैंड', 'युवा जर्मनी' तथा 'युवा इटली' इनमें आघातक और संरक्षक संधि हो गई है। उनके देशों को मुक्त करने के लिए वे जी जान से भरसक चेष्टा करेंगे। परस्पर सहायता करेंगे।
५. राष्ट्रीय प्रतिनिधियों द्वारा इस युवा यूरोप के केंद्र मंडल को कार्यान्वित किया जाएगा।
'युवा यूरोप'की सिद्धांत-मालिका
(यहाँ प्रमुख सिद्धांत ही दिए गए हैं)
ईश्वर एक है।
उसका प्रमुख शासन एक ही है।
उस शासन की अधिकारिणी मानवता है। मनुष्यजाति की सर्व शक्तियों का जब संपूर्ण विकास होगा तभी उसे निश्चित रूप में ज्ञात होगा कि अपना वास्तविक कर्तव्य क्या है। उस कर्तव्य के ज्ञान के अनुसार कति करने के लिए मानवजाति का सामूहिक समुत्थान होना चाहिए। बिना सहकारी एकीकरण और भूतदया के मानव उन्नति असंभव है।
ईश्वर का जो विश्वव्यापी नियम है वह सर्वत्र एक ही रूप में लागू है। उस ईश्वर का आदेश है कि समस्त मानव स्वयं में स्वतंत्र, समान और परस्पर बधु है।
स्वतंत्रता का अर्थ है प्रत्येक व्यक्ति को अपना कर्तव्य करने के लिए अपनी शक्ति का सदुपयोग करने में स्वेच्छानुरूप व्यय करना, इस कार्य में उसे किसी भी तरह की बाधा या रुकावट नहीं आने देना, उसकी स्वेच्छा की मर्यादा बस इतनी ही है कि उससे अन्यों के अधिकार के बिरुद्ध आचरण न हो। अर्थात् प्रत्येक मनुष्य के विशेष कर्तव्य की, मानव समाज के कर्तव्य के साथ एकवाक्यता होनी चाहिए। इस मर्यादा के अतिरिक्त प्रत्येक मनुष्य की इच्छा स्वतंत्र होकर उसे अन्य किसी भी तरह का बंधन नहीं।
एकसमानता का अर्थ है सभी मनुष्यों के अधिकार और कर्तव्य समान ही हैं। संपूर्ण समाज के परिश्रम का जो फल होगा उसमें प्रत्येक मनुष्य का उसके श्रम की मात्रा में हिस्सा है।
संबंधुता का अर्थ है व्यक्ति-व्यक्ति में बसी हुई परस्पर प्रीति। हमें दूसरों से ठीक वैसा ही व्यवहार करना चाहिए जैसा हम चाहते हैं कि वे हमसे करें।
प्रत्येक विशेषाधिकार समता का भंग है। प्रत्येक स्वार्थी प्रवृत्ति तथा अहम्मन्यता का कृत्य संबंधुता का भंग होना है। अब व्यक्ति विषयक बताए गए सिद्धांत राष्ट्रों पर भी लागू हैं।
क्योंकि जिस प्रकार व्यक्ति राष्ट्र का प्रमुख अंग है उसी प्रकार राष्ट्र मानवी समाज का मुख्यांग है। राष्ट्र का मानवजाति से वही संबंध है जो व्यक्ति का राष्ट्र से है।
अतः ईश्वर के व्यक्ति विषयक नियमों की तरह उसका राष्ट्र विषयक नियम भी है। ईश्वर का यही आदेश है कि सभी राष्ट्र, स्वयं स्वतंत्र, एक समान तथा भाई-भाई हैं।
मानवजाति की अंतिम रचना ऐसी ही होनी चाहिए कि प्रत्येक राष्ट्र स्वतंत्र, सम और संबंधु व्यक्तियों से बना है और उन राष्ट्रों में स्वतंत्र, सम और संबंधुता के नाते एकता हो गई है। प्रत्येक राष्ट्र प्रजासत्ताक है और वह राष्ट्र मिलकर लोकसत्ताक संयुक्त राष्ट्रसंघ की निर्मिति हुई है और उस जनसत्ताक संयुक्त राष्ट्रसंघ ने साधारण सिद्धांतों तथा सर्वसाधारण अनुबंध के अनुषंग से सारी व्यवस्था की है। इस प्रकार अखिल मनुष्यजाति नीति-नियम के अनुसार अंतिम उद्धार की ओर जाने लगेगी तभी ऐसा होगा कि उसने जगच्चालक के विश्वव्यापी आदेश का पालन किया है।
इस 'युवा यूरोप' के अनुबंध पर मैंने तथा मेलेगारी रफिनी, धिग्लिओनी, कम्पनेला आदि ने हस्ताक्षर किए। पोलिश आदि देशभक्तों के हस्ताक्षर होने के पश्चात् हमारा वह दिव्य मंडल विभाजित हो गया। कॅम्पॅनेला फ्रांस चला गया। मेलेगारी लासाने गया और उनमें से प्रत्येक देशभक्त उस संस्था के प्रसारार्थ अथक परिश्रम कर रहा था। गस्टॅ वो मॉडेना कुछ दिन के लिए स्विट्जरलैंड में ही रहा। आगे चलकर उसे एक सुंदर, दृढ़ निश्चयी तथा प्रेममयी स्त्री से, जिसका नाम ग्युलिआ था, प्रेम हो गया। उसने उससे विवाह किया। इस महिला ने अपने स्वाधीन स्वदेश के लिए (इटली के लिए) अविश्रांत परिश्रम किया। वेनिशिया में युद्ध के समय वह सदा सर्वदा अपने शूर तथा देशाभिमानी पति के साथ स्वदेश सेवा में तत्पर रहती। इधर मैं, रफिनी तथा धिग्लिओनी ग्रेचन में एक निजी सराय में ठहरे। उस सराय के स्वामी के परिवार ने हमारे साथ अत्यंत ममता तथा प्रेममय व्यवहार किया। उसकी सुशील पत्नी, उसके बच्चे और स्वयं वह हमें सुख देने के लिए मानो होड़ में लगे थे। उनके प्रयासों के कारण, सरकार द्वारा हमें जो अनंत यातनाएँ दी गई थीं उनकी, क्षतिपूर्ति हो गई।
मेरी 'युवा यूरोप' संस्था का मूलभूत उद्देश्य ही यही था कि यूरोप स्थित जनसत्ताक आंदोलनों को एक केंद्र में संघटित करते हुए उनके प्रयासों की एकवाक्यता करे ताकि किसी एक राष्ट्र के अपनी स्वतंत्रता हेतु युद्ध के लिए तैयार होते ही अन्य सभी राष्ट्र उसकी सहायता के लिए तैयार होने चाहिए। यद्यपि प्रत्यक्ष कृति की सहायता न भी हो तथापि कम-से-कम अन्य राष्ट्रों की राजसत्ताएँ उस लड़ रहे राष्ट्र के विपरीत कृत्य करने का साहस न करें-इतना जनमत का दबदबा तो प्रत्येक राष्ट्र में उत्पन्न हो। इसी उद्देश्य के साथ हमने विभिन्न राष्ट्रों में प्रांतिक केंद्र स्थापित किए और प्रमुख केंद्र से उनका संबंध-व्यवहार सुचारु ढंग से चलने लगा। शपथ का प्रारूप, संकेत रीति आदि तैयार की जो गुप्त संस्था की रचना के लिए आवश्यक होती हैं। मैं जानता था कि 'युवा यूरोप' का उद्देश्य इतना विस्तृत है कि अनंत स्वयंसेवकों की सहायता से तथा दीर्घ कालावधि के पश्चात् वह किंचित् फलित हो सकता है। मैं पूरी तरह से जानता था कि संपूर्ण यूरोप स्थित आंदोलन केंद्रीभूत करना उस समय बहुत कठिन था। मेरी आशा बस इतनी ही थी कि किसी भी तरह ये विचार सामने आएँ, श्रीगणेश तो करें, फिर उस कार्य की समाप्ति कहीं भी और कभी भी पूर्ण हो।
मैंने अपने पत्रों के अथवा मुझे प्राप्त हुए पत्रों के परिच्छेद कभी भी आरक्षित नहीं रखे। अपने पत्रों के तो इसलिए नहीं रखे कि उन्हें मैं अधिक महत्त्व नहीं देता, तिस पर मेरा जीवन रमता जोगी की तरह एक देश से दूसरे देश भटकने में व्यतीत हुआ; अत: जिन देशों में मुझे भटकना पडा उन सभी देशों की सरकारो से मेरी घोर शत्रुता होने के कारण, मुझ पर संकटों की सतत बौछार होने के कारण मित्रों के पास रखे कुछ कागजात नष्ट होने से आखिर मैंने यह निश्चय किया कि (अब मुझे वह अनुचित प्रतीत हो रहा है। जब-जब कोई नया संकट खड़ा हो तब- तब सारा पत्र व्यवहार जलाकर नष्ट करना है और इसी तरह मैं करता गया। इसी कारणवश मेरे देश-विदेश में किए गए अत्यंत श्रमसाध्य तथा विस्तृत पत्र व्यवहार का अब नामोनिशान तक नहीं रहा। केवल लॅमेनिस को लिखे एक पत्र की प्रति उसके एक मित्र ने सँभालकर रखी है।
तारीख १२ अक्तूबर, १८३४ 'तारीख १५ सितंबर का आपका पत्र प्राप्त हो गया। उस मूल्यवान पत्र का मैं सदैव जतन करूँगा। कुछ क्षण इतने विचित्र होते हैं कि उनके अधिकार में हमारा मन आते ही दु:खमय अतीत और असहनीय वर्तमान के स्मरण के बोझ तले हमारा अंत:करण दब जाता है, हम धीरज खो बैठते हैं, हाथ-पाँव फूल जाते हैं और भविष्य की सफलता के संबंध में मन आशंकित होता है। इस प्रकार के हतोत्साहित क्षणों में संशय के पटल को विध्वंस करते हुए स्वकर्तव्य की धुरी अधिक जीवट वृत्ति से धारण करने की शक्ति आपके पत्र के उत्साहवर्धक विचारों से निश्चित मिलेगी। मैं आपको 'युवा इटली' का अंक भेज रहा हूँ। उसमें हमारे प्रायः सारे सिद्धांत ग्रंथित किए हुए हैं।
"आपने दूसरा एक विचार लिखा है। उसे पढ़कर मुझे बहुत दुःख हुआ। आप कहते हैं कि हमारी राजनीतिक स्वतंत्रता अन्य लोगों की सहायता के बिना प्राप्त करना इटली देश के लिए असंभव है।
'इसी अभिमत तथा उपदेश ने हमारी स्वतंत्रता संपादन की शक्ति नष्ट की है। क्या राजनीतिक स्वतंत्रता संपादन करना इटली के लिए असंभव है ? इस प्रकार दो करोड़ साठ लाख लोग जिनके पास आल्प्स, ॲपिनाइंस जैसे पर्वत हैं, जिनकी रक्षा करने के लिए दोनों ओर सागर है, जिन्हें पूर्वपराक्रम से भरे तीन हजार वर्ष राष्ट्रीय समर्थता की गवाही देते हुए प्रोत्साहित करने के लिए साक्षात् खड़े हैं उन दो करोड़ साठ लाख लोगों के राष्ट्र को आप भगोड़े समान कापुरुष सिद्ध कर रहे हैं? दूसरे के मुँह की ओर स्वतंत्रता के टुकड़े के लिए ताकते रहने का उपदेश देकर आप यह सिद्ध करना चाहते हैं कि इटली के हिस्से में कुछ भी कर्तव्य नहीं आया? स्वतंत्रता का मूल्य समझे बिना स्वतंत्रता प्राप्त नहीं होती तथा वह मूल्य भीख माँगने से नहीं मिलता। अपने पराक्रम के बलबूते पर स्वतंत्रता प्राप्त करने से ही उस स्वतंत्रता रत्न का वास्तविक मूल्य समझ में आ सकता है।
'अजी, इटली में शक्ति की कोई कमी नहीं। उसका सामर्थ्य इतना दृढ़ है कि आज उसपर छाए हुए संकटों से दुगुने और भयंकर संकट आने पर भी वह भयभीत नहीं होगा। इटली में अभाव है आत्मवलंबन का। इटली में निष्ठा नहीं। मेरा कहने का अर्थ स्वतंत्रता अथवा समता के तत्त्व पर निष्ठा नहीं है यह नहीं अपितु इन तत्त्वों की अंतिम विजय में उसकी निष्ठा नहीं। इटली की इसपर निष्ठा नहीं कि ईश्वर अन्याय से पीड़ित जनों का रक्षक है। अपने आत्मबल और तलवार पर उसकी निष्ठा नहीं। जनपद में जिन्होंने इतने दिनों तक रणभूमि में कभी उतरने नहीं दिया उस लोकपद पर उसकी निष्ठा नहीं। एक कर्तव्य, एक उददेश्य, एक दुःख, एक आशा से प्रेरित होकर किए गए आक्रमण में यदि एक विजय प्राप्त हो जाए तो भी उस एक विजय के उत्तोलनदंड से संपूर्ण आसमुद्रवलयांकित देश ऊपर उठाया जा सकता है इसपर इटली की निष्ठा नहीं। सिद्धांतों के लिए समस्त लोग संघटित कैसे हो सकते हैं इस तत्त्वबल पर उसकी निष्ठा नहीं।
'परंतु यह निष्ठा, यह विश्वास, यह आत्मनिष्ठा जिसकी आज तक कमी लग रही थी अब इटली में प्रादुर्भूत हो रही है। मेरे लिखने के समय भी सन् १८३० और १८३१ के विद्रोह की गलतियाँ समझकर इटली देश ने निष्ठा सीखी है। इस निष्ठा का प्रादुर्भाव हमारे शिक्षित युवकों में गोचर हो रहा है। इसमें रत्ती भर भी संदेह नहीं कि उन युवकों द्वारा वह तेज जनपद को प्राप्त होगा, क्योंकि इस स्वतंत्रता प्रेम तथा इस आत्मनिष्ठा को अब राष्ट्र धर्म का स्वरूप प्राप्त हो गया है। स्वदेश आज उतना ही पूजनीय हो गया है जितना कि स्वधर्म। उधर देखिए, आत्मविद्या का पुनरुज्जीवन कितना शीघ्रतापूर्वक हो रहा है। हमारे 'युवा इटली' के लेखों के पारायण करने के लिए पहाड़ जैसी विपत्तियाँ सहने के लिए युवक तैयार हो गएइसपर गौर करें। बार-बार मुँह की खाकर भी इसका विचार करें कि क्रांतिकारी एक के पीछे एक आक्रमण किस तरह कर रहे हैं। हमारे राष्ट्रधर्म प्रचारकों की ओर देखें। हमारे देशवीरों को देखें। ईश्वर की आज्ञा समझकर स्वतंत्रता-प्राप्ति के प्रयासों के समान अन्य कृत्य नहीं-इसी दृढ़ विश्वास के साथ जनपद की प्रेरणा बनकर गुलामी की धज्जियाँ उड़ाने के लिए इटली आज तक तैयार नहीं हुआ था। आज तक लोग स्वदेशार्थ लड़े, परंतु उन्हें अंतिम उद्देश्य की स्पष्ट कल्पना नही थी। परंतु पिछले दो वर्षों में जिन देशवीरों ने सेवॉय, जिनेवा, व्यूरिन, अलेक्जीड्रया और नेपल्स में स्वदेशार्थ अपनी देह अर्पण की उनके सामने एक स्पष्ट तथा उदात्त कार्यक्रम था। उन्होंने इस कार्य के लिए ली हुई शपथों के लिए अपने प्राण अर्पण किए। इस निष्ठा के लिए कि इटली स्वतंत्र होने के लिए निश्चित रूप से स्वयसमर्थ है। इस प्रकार के दृढ़ निश्चय के साथ तथा इस प्रकार की श्रद्धा से 'मानवता और राष्ट्र' इन देवताओं के लिए जनपक्ष के ध्वज जब फहाराए जाते हैं तब उन्हे नीचे गिराने की किस माई के लाल की छाती है?
'महाराज, हमारी पूर्व असफलताओं को न देखें। अतीत और भविष्य में जमीन-आसमान का अंतर है। यह सत्य है कि आज तक हमारे देश की स्वतंत्रता के लिए किए गए प्रयास विफल रहे, परंतु वे सारे प्रयास किसी राजवंश अथवा लश्करी जाति के थे। ये विद्रोह विफल हुए, क्योंकि इधर और लोक' जैसे सिद्धांत जो प्रत्येक भयंकर राज्यक्रांति को यश देने में समर्थ होते हैं वे उन्हें ग्रहण नहीं कर सके। इसीलिए उन सभी का विश्वासघात से विनाश हो गया। ये विद्रोह पूर्ण राष्ट्र के नहीं थे। अत: उसमें विश्वासघात होना अपरिहार्य ही था। इतने दिनों से इटली के मित्र और शत्रु उससे यही कह रहे थे कि तुम्हारे अपने पुत्र तुम्हारी रक्षा करने में असमर्थ हैं।' किसी ने भी ऐसी गर्जना नहीं कि कि 'उठो! उठो! हे इटली देश, स्वसामर्थ्यनिष्ठा से उठो। तुम्हारा सारा आधार ईश्वर तथा तुम्हारे शूर पुत्र ही हैं।'
'भिक्षां देहि कहते हुए स्वतंत्रता ! भला वह कैसी प्राप्त होगी? और प्राप्त हो भी गई, शशशृंग का लाभ हो ही गया तो उसकी शाश्वति कैसे समझी जाए? जिस स्वतंत्रता के लिए कुछ भी खर्च नहीं किया उस स्वतंत्रता से इटली कैसे प्रेम करे? यह स्वतंत्रता सँवारने-सँभालने की शक्ति ऐसे लूले राष्ट्र में कैसे होगी जिसमें आत्मश्रद्धा नहीं है? और यह आत्मश्रद्धा वहाँ कैसे उत्पन्न होगी जहाँ विदेशियों ने जूठन की भाँति ये स्वतंत्रता दी है?
'ऐसा कुछ नहीं। एक साहसी कृत्य संपन्न होते ही दूसरा करने के लिए मन उत्साहित होता है। ऐसे सैकड़ों कृत्य हैं जो कानूनी तिकड़म से अथवा विदेशियों की सहायता से आयोजित किए हैं। जो शिक्षा देंगे उससे हजार गुना अधिक नैतिक शिक्षा परवश राष्ट्र को उसके लोगों द्वारा किए गए एक आक्रमण से प्राप्त होगी।
'मैं अपने विचार यथासंभव प्रसृत कर रहा हूँ। इसमें मुझपर हजारों संकटों के पहाड़ टूट पड़ते हैं। परंतु उनसे मैं हताश नहीं होता। कुछ वर्षों से मैंने उस प्रत्येक वस्तु-विषय के प्रति पूर्ण उदासीनता धारण की है जिस-जिस वस्तु से मेरे व्यक्तित्व को रत्ती भर भी सुख मिलना संभव हो। मेरी प्रिय माँ और मेरी बहन से भी जो मुझे प्रिय हैं उन सभी व्यक्तियों और चीजों से वियुक्त होकर मैं दूर वनवास में पड़ा हूँ। मेरा प्राणप्रिय बालसखा रफिनी जाकोपो की जेल में स्वदेश के लिए मृत्यु हो गई। इस कारण से तथा अन्य कुछ कारणों से जिन्हें मैं ही जानता हूँ, मैंने अपने व्यक्तिगत जीवन की तथा इस शरीर के सुख की सारी आशा छोड़ दी है और अपनी आत्मा से कहा है-
'तुम्हें ऐसी ही अवस्था में मृत्यु आएगी। सत्तू बाँधकर पीछे पड़े दुष्टों का पीछा करते समय सत्कार्य का भी दुनिया ने अन्यार्थ लगाया, फिर भी जिस उद्देश्य के लिए जीवन समर्पित किया इस उद्देश्य के आधे-अधूरे मार्ग पर इसी अवस्था में तुम्हें मृत्यु आएगी।' परंतु जब इटली के, मेरे इटली देश के पुनरुज्जीवन की कल्पना मेरी आँखों के सामने खड़ी रहती है तब मेरा मन प्रसन्नता से झूम उठता है। इटली! स्वतंत्र इटली! उसी इटली में मेरा व्यक्तित्व विलीन हो गया है।
'आपकी ही पुस्तक पढ़ने पर मेरा विश्वास हो गया है कि हमें स्वतंत्रता अवश्य मिलेगी-हममें से प्रत्येक व्यक्ति द्वारा 'मैं स्वतंत्र हो जाऊँगा' यह कहने भर की देरी है। स्वाधीनता के लिए कुछ भी सहने को, कुछ भी खर्च करने को प्रत्येक व्यक्ति के तैयार होने की देरी है।
'मैं स्वीकार करता हूँ कि इस निश्चय के साथ कुछ भी सहने तथा कुछ भी खर्च करने के लिए लोग अभी तक तैयार नहीं। परंतु क्या वे कभी तैयार ही नहीं होंगे ? क्या हम कह सकते हैं कि आज वे तैयार नहीं इसीलिए भविष्य में भी नहीं होंगे? वर्तमान काल गुलामी का है, दास्यता का है, परंतु भविष्य काल स्वतंत्रता का नहीं आएगा?
'हमारे कान उमेठे; किसी भविष्यवादी की तरह हमारे दोष, हमारी दुर्बलता, हमारी आपसी कलह, साहस की कमी इन सभी को गिनाएँ। परंतु महाराज उसी समय, यह भविष्यवाणी भी आगे आने दें कि 'जिस दिन तुम लोगों में अधिक मर्दानगी, शूरवीरता तथा अधिक बंधुभाव उत्पन्न होगा वही दिन तुम्हारी स्वतंत्रताप्राप्ति का दिन होगा।' अब 'स्वतंत्रता चाहिए' इस प्रकार आपके दृढ़ संकल्प करने की ही देरी है। यदि आपको अपने शत्रु से भय नहीं, दूसरों की सहायता की आवश्यकता नहीं, तो स्वतंत्रता देवी आप पर अवश्य प्रसन्न होगी।
'महाराज, अब मैं आपसे विदा लेता हूँ। इसका विस्मरण न होने दें कि आपके लिए मेरे मन में पूज्य भावना है। यदि नहीं होती तो मैं अपने मन के फफोले आपके सामने फोड़ने का साहस नहीं करता।
- जोसेफ मॅझिनी'
सन् १८६४ के अंत में मैने 'युवा स्विट्जरलैंड' नामक एक संस्था बनाई थी। उसकी शाखाएँ स्विट्जरलैंड के प्रमुख क्षेत्रों में फैलीं। स्विट्जरलैंड देश को मैं उस समय और आज भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण मानता हूँ। ऐसा नहीं कि यह महत्त्व केवल उस देश की स्थिति तक ही है। इटली देश के भाग्योदय से भी स्विट्जरलैंड की स्थिति का प्रत्यक्ष संबंध है। सन् १३३८ के जनवरी की पहली तारीख से लेकर आज तक इस छोटे से राष्ट्र पर किसी विदेशी अधिकार अथवा राजसत्ता का नाम नहीं। संपूर्ण यूरोप में अद्वितीय एवं अद्भुत दृश्य, अभूतपूर्व प्राकृतिक सुंदरता केवल स्विट्जरलैंड में ही दिखाई देती है। अत्याचारी तथा राक्षसी महत्त्वाकाक्षा राष्ट्रों से घिरा हुआ रहकर भी आज पाँच सदियों से आल्प्स पर्वत के इस प्राकार पर जनसत्ता का, स्वतंत्रता का ध्वज फहरा रहा है। पाँचवाँ चार्ल्स चौहदवा लुई, नेपोलियन बोनापार्ट आए और नामशेष होकर चले गए। परंतु यहाँ जनसत्ता का स्वातंत्र्यांकित ध्वज अटल, अचल तथा पवित्र रहा है। यह ध्वज वैसा ही अटल रहे-इस उद्देश्य से मैंने युवा स्विट्जरलैंड नाम से एक संस्था प्रस्थापित की। स्विट्जरलैंड में संयुक्त राज्य प्रद्धति का किंचित् अंश होने के कारण उन विभिन्न राज्यों पर पड़ोसी राष्ट्र अपनी धाक जमाने का प्रयास करते। यह दबदबा समाप्त हो जाए और स्विट्जरलैंड की जनसत्ताक राज्यपद्धति सुदृढ़ बने एतदर्थ मैं प्रयास करने लगा। मेरे विचार से किसी भी दूसरे राष्ट्र के आंतरिक आंदोलन तथा रचना में जानबूझकर हस्तक्षेप करना महापाप है। परंतु जहाँ संपूर्ण यूरोप का प्रश्न है वहाँ और उतना ही उस रचना में परिवर्तनार्थ प्रयास करना प्रत्येक का कर्तव्य है। स्विट्जरलैंड स्वतंत्र रूप में सर्वसमर्थता संपादन करे और यूरोप के अत्याचारी राजाओं को यह प्रकट रूप में बताने का साहस तथा शक्ति उसमें आ जाए। अन्य देश को गुलामी में रखने में सहायता करने का अमंगल कृत्य उस राष्ट्र की जनता को पसंद नहीं तथा ये कृत्य हम नहीं करेंगे। आजकल मेरे सुधारों में से प्रायः सभी संपन्न हो चुके हैं और मैंने जो संस्था प्रस्थापित की उस संस्था के कर्ता पुरुषों के सिर पर उन सुधारों का महत्त्वपूर्ण सेहरा बाँधा जाता है। इस संस्था के मत प्रसारार्थ सन् १८३५ में मैंने एक वृतपत्र निकाला। सप्ताह में दो बार वह प्रकाशित होता-एक जर्मन भाषा में तथा दूसरा फ्रेंच भाषा में। हमने बायेन में एक छापाखाना खरीद लिया। उस छापेखाने में हम निर्वासित देशभक्तों को काम पर लगाते। स्विट्जरलैंड स्थित महत्त्वपूर्ण हस्तियों की एक कमेटी भी हमारी सहायता कर रही थी। हमारे वृतपत्र के अतिरिक्त छोटी-छोटी पुस्तिकाएँ भी हम प्रचुर मात्रा में प्रकाशित कर रहे थे। उस पत्र का नाम था 'युवा स्विट्जरलैंड' और मैं उसका संपादक था। परंतु प्रकट रूप में पत्र पर किसी दूसरे ही सज्जन का नाम था। इस पत्र में हमने राजनीतिक विचारों की चर्चा अत्यंत उदात्त प्रणाली के साथ चलाई थी।
राजनीति धर्म का ही एक हिस्सा है। राजनीति नीतितत्त्वों पर आधारित होती है। जिस शास्त्र से स्वदेश का उद्धार होता है वह शास्त्र भिन्न रूपेण एक बार राजनीति में और एक बार स्वधर्म में प्रकट होता है। रूप और नाम भिन्न हैं, परंतु दोनों शास्त्रों का उद्देश्य समान होने के कारण वे दोनों ही एक ही महत्तर शास्त्रों के अंगोपांग हैं। मानवजाति को प्रगमन की ओर ले जाना सर्वधर्मों की नींव है और स्वेदेशोद्धार, स्वतंत्रता, दास्यमुक्ति की नींव भी मानवजाति की प्रगमनात्मक उन्नति ही है। अत: देश की राजनीति तथा देश का धर्म समान रूपेण ही पवित्र है। इस प्रकार के प्रगल्भ, विचारशील तथा तत्त्वज्ञान युक्त रीति के साथ हम राजनीति को धर्मविचार के उच्च स्वरूप तक ले गए। देशाभिमान और धर्माभिमान में गठबंधन किया। यह सिद्ध किया कि स्वदेश और स्वधर्म एक ही तत्त्व के भिन्न रूप हैं-एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
हमारी इस गंभीर विचार प्रणाली से जनता में हमारे लिए सहानुभूति निर्माण हुई और बड़ी संख्या में लेखक वर्ग हमसे आकर मिला। उनमें से कुछ प्रोटेस्टेंट धर्म के प्रमुख थे। कुछ कर्तृत्ववान युवक थे और विशेष आश्चर्यजनक बात यह कि कई महिलाएं भी इस संस्था में आ गईं। इन महिलाओं में जिस कुलीन मातृवर्ग ने वह समझकर कि किसी भी राजनयिक पक्ष में जलन, फूट के अतिरिक्त अन्य कुछ भी निष्पन्न न होने के कारण अपने बच्चों को किसी भी राजनयिक पक्ष में शामिल नहीं होने दिया था, उसी कुलीन मातृवर्ग ने हमारी संस्था में पढ़ाए जा रहे देशाभिमान तथा राजनीति का धर्म जैसा ही सात्त्विक तथा पवित्र स्वरूप देखकर अपने पुत्रों को राजनीति में निष्ठापूर्वक प्रयास करने के लिए बाध्य किया। लगभग छह महीनों के पश्चात् हमारे प्रयास फलित होने लगे। स्विट्जरलैंड का युवा वर्ग अपने देश की उन्नति के लिए तैयार हो गया। इतना ही नहीं, हमारे इटली देश की स्वतंत्रता हेत लड़ने के लिए भी तैयार हो गए। हमारे द्वारा समय-समय पर प्रकाशित की गई पुस्तकों द्वारा हमारी मत प्रणाली का प्रसार भी शीघ्रतापूर्वक होने लगा। आज तक पेरिस को सभी जनसत्ताक आंदोलनों का केंद्र समझा जाता और उसके अनुसार उस शहर पर सभी सरकारों की नजर रहती। उनके विचार से यद्यपि उधर शांति होने से अन्य किसी भी दिशा से भय नहीं, परंतु हम लोगों की स्विट्जरलैंड में हो रही प्रगति देखकर उनकी नींद उड़ गई। फ्रांस, रूस और ऑस्ट्रिया के राजाओं ने हमारे विरोध में शोर मचाया और स्विस सरकार हमें खोखला करके बाहर निकाल दे इस प्रकार की निर्णायक माँग होने लगी। इस माँग के अनुसार हमें स्विट्जरलैंड से खदेड़ने के लिए कुछ-न-कुछ कारण चाहिए, इसलिए निश्चित युक्ति-प्रयुक्तिया, गुप्तचर तथा अप्रस्तुत आरोपों तक का प्रयोग करना आरंभ हुआ। उस समय एक व्यक्ति की, जिसका नाम लेगिंस था, किसी प्रसिद्ध हत्यारे ने हत्या कर दी। इस अवसर का लाभ उठाकर आप हारे बहू को मारे' इस न्याय से हम पर अत्यंत उपद्रवी, अश्लील, भद्दे आरोप लगाए जाने लगे। हम निर्वासितों ने स्विट्जरलड - हत्यारों की एक गुप्त संस्था प्रस्थापित की है और वहाँ से निकले हुए आदश का पालन सभी देशों की शाखाएँ कर रही हैं इत्यादि-इत्यादि अनेक आरोप लगाए गए। फिर हमारे मुँह से निकले कुछ शब्दों को पकड़ने के लिए तथा हमारे अंदरूनी मुद्दों का विस्फोट करने के लिए हजारों निंदनीय कार्य किए गए। ज्युस नामक कोई व्यक्ति अत्यंत निर्धनता का ढोंग रचाकर हमारे पास नौकरी करने का प्रयास करने लगा। एक जर्मन ज्यू अपना नाम बदलकर गुप्त मंडली की शाखा खोलने के बहाने से लोगों की आँखों में धूल झोंकने लगा। फ्रांस सरकार ने मेरे नाम का एक जाली आज्ञापत्र बनाकर उसे हमारे निर्वासित इटालियन देशभक्तों के पास जगहजगह पर भेज दिया। उसमें इस तरह मजमून ठूसा था कि सेवॉय के आक्रमण के पश्चात् दूर-दूर फैले हुए सभी देशभक्त ग्रेचन (मेरे उस समय वहाँ रहने के कारण) में एकत्र हों ताकि वहाँ आगे आक्रमण किया जा सके। इस प्रकार नीचता भरे तथा झठे सैकड़ों उदाहरण दिए जा सकते हैं। परंतु यह सब अभी तक चरम सीमा तक नहीं पहुँचा था। तारीख २० मई, १८३६ के दिन मुझे अपने एक मित्र से अचानक यह संदेश मिला कि स्विट्जरलैंड में जहाँ मैं रहता था उस इलाके के सिपाहियों को कारतूसें दी गई हैं और वे सरकारी आदेश से कहीं जा रहे हैं। हो सकता है, मेरे संबंध में कुछ गड़बड़ होगी। कुछ ही घंटों में मेरे और रफिनी के निवास स्थान को दो सौ सिपाहियों के दल ने घेर लिया। मुझे मिली प्रथम सूचना तथा इस घेर के दरमियान हरोहेरिंग अचानक वहाँ आ गया था। वह फ्रांस में था। परंतु मेरे नाम का जाली (फरजी) विनती-पत्र उसे मिला था और वह हाथ लगते ही हमें आकर मिलना अपना कर्तव्य समझकर फ्रांस से मेरे पास आया था। उसके पास अंग्रेजी परवाना था। मैंने उसे अपना नाम छिपाने की सलाह दी थी। परंतु हमारे आस-पास चल रही यह पकड़-धकड़ देखकर मेरे इस मित्र ने अपना असली नाम हरोहेरिंग पुलिस को बताकर अपने आप उन सिपाहियों के हाथ गिरफ्तार हो गया जिन्होंने घेरा डाला था। हम सभी को बंदी बनाकर जेल में ठूसा गया। परंतु इधर एक नया नाटक आरंभ हो गया था। हमें गिरफ्तार करने की वार्ता चारों ओर फैली हुई थी। उस स्थान के स्विस युवक संघटित होकर अलग अपना दबदबा बना रहे थे कि हमें मुक्त किया जाए अन्यथा हम स्वयं जेल पर आक्रमण करके उन्हें मुक्त करेंगे। एक प्रहर तक हमारी सराय की बारीकी से जाँच-पड़ताल किए जाने पर भी उसमें एक भी बंदूक, जाहिरनामा या पैंफ्लेट अथवा जर्मनी की उस बनावटी आक्रमण की योजना से संबंधित कोई भी दर्शक नहीं मिला। तब विवश होकर चौबीस घंटों के पश्चात् एक भी प्रश्न पूछे बिना हमें छोड़ दिया गया; परंतु थोड़ी ही देर में वह राज्य छोड़कर जाने का आदेश हमारे हाथ में थमा दिया गया।
उस आदेश के अनुसार हमने स्विट्जरलैंड का वह राज्य छोड़ दिया और उसकी सीमा पार स्रा गाँव में जाकर रहने लगे। वहाँ के प्रोटेस्टेंट धर्मोपदेशक ने हमारा खूब स्वागत किया। उसने इस पूज्य भावना के साथ हमारा प्रबंध किया कि हम ऐसे पवित्र धर्म के पुरोगामी हैं जिस धर्म पर शत्रु द्वारा अत्याचार हुए और जिस धर्म की भावी विजय सुनिश्चित है। परंतु यह पीछा इधर ही समाप्त नहीं हुआ। स्विट्जरलैंड सरकार ने जिन देशभक्तों को सेवॉय के आक्रमण के समय तड़ीपार का दंड दिया था उनमें से कई पुनः गुपचुप उस देश में घुसे हुए स्विस सरकार को दिखाई दिए। उन्होंने फ्रेंच सरकार को प्रसन्न करने के लिए उन देशभक्तों को पुन: खदेडा। परंतु यह देखकर कि स्विस सरकार डर रही है फ्रांस अधिकाधिक उसपर हावी होने लगा। तुमने तड़ीपार देशभक्तों में से अभी तक जिन्हें अंदर रखा है उन्हें खदेडना नहीं चाहते तो फ्रेंच सरकार जबरदस्ती वैसा करने के लिए बाध्य होगी- इस प्रकार का अत्यंत अपमानजनक संदेश स्विट्जरलैंड सरकार को भेजा। यह संदेश भेजने के पश्चात् फ्रेंच सरकार हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठी थी, मुझे पकड़ने के लिए स्विट्जरलैंड से भगा देने के लिए कुछ-न-कुछ बहाना मिल जाए। इसके लिए एक नया षड्यंत्र रचा जाने लगा। यह बात मैं यहाँ जान-बूझकर दे रहा हूँ ताकि कम-से-कम इस उदाहरण से लोग समझ सकें कि राजसत्ता के नीचे कितना अंधेर मचा हुआ होता है।
सन् १८३६ के जुलाई महीने में पुलिस के आदमी को, जिसका नाम कांसील था, फ्रेंच प्रधान ने इटली के निर्वासितों की सख्ती और बारीकी से तलाशी लेने के लिए स्विट्जरलैंड भेजा। उससे कहा गया कि वह प्रथम हमारा स्नेह संपादन करे, हमारा पूरा-पूरा विश्वास प्राप्त करने के लिए फ्रेंच राजा की घात में लगा हत्यारा आलिबाड के हम साथी हैं इस प्रकार हम कांसील को सूचित करें। उसका हमारी मंडली में प्रवेश होने पर फ्रेंच सरकार हमारा स्नेह उजागर करे और आलिबाड का साथी होने से उसे अपने देश से निष्कासित करे-इस प्रकार स्विट्जरलैंड सरकार को सूचित करें।
कांसील राजा की हत्या में शामिल था, इस प्रकार सरकारी तौर पर जाहिर किया जाने से उसका और हमारा स्नेह देखकर अन्यत्र भी हमारा ही उस हत्या से संबंध अवश्य होगा-इस प्रकार अभिमत होना अटल था। यह अभिमत स्विट्जरलैंड सरकार ने जानबूझकर प्रकट करते हुए हमें और उसे तडीपार का दंड एकसाथ दे ताकि उसे भी हमारे मन में किसी भी तरह का संदेह न हो और हम जहाँ भी जाए वह हमारे साथ वहाँ घूम सके। इस प्रकार स्विट्जरलैंड से हमें तड़ीपार करक हा नहीं रुकना था, हमारे लंदन पहुँचने पर भी कांसील हम लोगों में ही रहकर हमारा संपूर्ण गतिविधियाँ फ्रेंच पुलिस को सूचित करे इस प्रकार जाल बुना गया था। 3. पैसे दिए गए और यह तय करके कि अधिकारियों के साथ कैसा पत्र व्यवहार कर, उसे पता दिया गया।
हमारे पास आने के लिए वह ४ जलाई के दिन निकला जैसाकि तय हुआ था, उसपर मिथ्या आरोप लगाकर उसे सिद्ध किया गया और वह सारा मामला स्विट्जरलैंड सरकार के पास आ गया। इधर जलाई की १० तारीख को कांसील बने पहुँच गया। बर्ने में उसने दो-तीन इटालियनों से स्नेह करने का प्रयास किया, जिन्हें देशत्याग का दंड हो गया था। उनमें से आरेलि ओबर्टे इसी तरह एक नीच इटालियन गप्तचर था। कुछ दिनों के पश्चात् मैंने लंदन में उसके निंद्य कृत्य उजागर करते हुए उसे जेल पहुँचवाया। वह उस समय बर्ने में ऐसे देशभक्त का, जिसे देशत्याग का दंड हो गया है, स्वाँग रचाकर रह रहा था। कांसील उन इटालियनों से कहता था कि वह फ्रेंच गुप्त मंडली का सदस्य है और वे बर्ने में शाखा खोल रहे हैं। शीघ्र ही उसने राजा की हत्या से संबंधित बात करना आरंभ किया और उस सिलसिले में मुझसे मिलने की इच्छा व्यक्त की। मैंने तुरंत ही उसकी बगुला भगती भाँप ली। वह व्यक्ति जो आलिबाड की, राजा की हत्या में सहायता कर रहा था, अपनी योजना उसे बताएगा जिससे रास्ते में अथवा दुकान में परिचय हुए अभी आधा घंटा भी नहीं हुआ था, यह सर्वथा असंभव है। इससे मैंने ताड़ लिया कि वह गुप्तचर है और उससे मिलने से साफ इनकार किया। मैंने अपने बर्ने स्थित मित्रों को सूचित किया कि उसे एकांत में पकड़कर तथा मारपीट की धमकी देकर उसके पास से सरकारी कागजात छीन लें। इसके अनुसार ७ अगस्त के दिन उसे एक स्थान पर हमारे इटालियन निर्वासितों ने पकड़ा और जैसाकि मैंने कहा था, उसे खूब पाठ पढ़ाया गया। तब उसने सभी कागजात दे दिए और सारे अपराध स्वीकार किए। वहाँ का फ्रेंच वकील भी इस गुप्तचर की सहायता कर रहा था। उसने इसे एक सूची बनाकर दी थी कि किस-किस पर कड़ी नजर रखनी है। उस सूची में मेरा, रफिनी और कुछ जर्मन देशभक्तों के नाम थे। हमने सारे प्रमाण इकट्ठा करते हुए उसकी स्विट्जरलैंड पुलिस को सूचना दी। तारीख १६ अगस्त के दिन पूछताछ शुरू हुई। उसमें कांसील की साफबयानी तथा अपराध की स्वीकृति की बात प्रसिद्ध है। इतना कुछ होते हुए भी फ्रेंच सरकार ने स्विट्जरलैंड का खुल्लमखुल्ला विरोध करने की योजना बनाई। वह बेहयाई से कहने लगी कि उसका कांसील से रत्ती भर भी संबंध नहीं है। इन षड्यंत्रकारियों की जाति लाज-शरम जैसे घोलकर पी गई है। इन्हें सत्य से परिचय नहीं। इटली का नरम पक्ष इस नीच सरकारी अधिकारियों के हस्तस्पर्श से भी अपने आपको धन्य समझते हैं। परंतु कम-से-कम मुझे तो उनके हाथ के अपवित्र स्पर्श से कभी भी भ्रष्ट नहीं होना है। उनमें से उच्चतम कोटि का मनुष्य भी उस प्रामाणिक मजदूर से, जो गँवार जंगली भाषा में, परंतु सच्चाई के साथ बात करता है तथा कुकृत्यों में रंगे हाथ पकड़े जाने पर लज्जा से स्याह पड़ जाता है, नीच है।
यह देखकर कि कांसील की पूछताछ करने से फ्रेंच सरकार के तन-बदन में आग लगी है, स्विट्जरलैंड सिटपिटाया और उधर फ्रेंच सरकार अधिकाधिक हावी होने लगी। मैंने अपने 'युवा स्विट्जरलैंड' के २ जुलाई, १८३६ के अंक में लिखा कि आपके देश की सुरक्षा तथा स्वाधीनता आपके धैर्य, साहस, अभिजात प्रवृत्ति तथा स्वाभिमान जैसे सद्गुणों पर निर्भर है। जिस स्वाधीनता में आत्मरक्षा की हिम्मत तथा सत्य प्रतिपादन का साहस नहीं उस स्वाधीनता का क्या फायदा ? धिक्कार है उस स्वाधीनता को, जिसके हृदय में भय की धुकधुकी चलती है, जिसके मुख पर लज्जा की कालिमा छाई हैं और जो किसी दासी की तरह राजसत्ता तथा विदेशियों के क्षणिक अस्तित्व की भिक्षा माँगती दर-दर ठोकरें खाती फिरती है। उन नतद्रष्टाओं को ईश्वर देख ले जिन्हें देशत्याग की महत्ता का आकलन नहीं होता, आतिथ्य की पवित्रता जो पैरों तले कुचलते हैं, देशभक्त निर्वासितों को निर्लज्जता के साथ जंगल में खदेड़ने की योजना जो बना रहे हैं, यातना और स्वार्थत्याग से पवित्र हुए मस्तक पर जो काँटों का मुकुट रखना चाहते हैं। जिन लोगों को ऐसा कहने का साहस नहीं होता कि 'देशत्याग किए हुए देशभक्त जन ईश्वर ने हमारे घर भेजे हैं, वे हमारे बंधु हैं। उनके तथा अपने सम्मान का खयाल रखना हमारा कर्तव्य है।' और यह न कहते हुए जो उन निर्वासितों की उपेक्षा करते हैं उनको धिक्कार है। ईसा मसीह ने कहा है, 'क्षुधापीड़ितों को अन्न दो। तृषितों को जल दो।' हमारी आत्माएँ भूखी हैं, हमें अन्न दो। स्वाधीनता आत्मा का अन्न है। वह स्वाधीनता सभी को दो।'
स्विट्जरलैंड में जिस तरह चारों ओर प्राकृतिक संपन्नता है उसी तरह जनपक्ष अधिक समझदार था। स्वदेश के सम्मानार्थ लोक स्वार्थत्याग करने को तैयार हो गए। सभी के मन में फ्रेंच सरकार के लिए रोष भर गया। सभी में प्रतिकार के आवेश का संचार हो गया। रिउन में दस हजार लोगों की तथा वीडीकेन में बीस हजार लोगों की देशाभिमानजन्य सभाएँ सर्वत्र आयोजित होने लगीं। परंतु अंत में स्विट्जरलैंड सरकार हार गई और फ्रांसीसियों पर किए गए आरोप उसने वापस ले लिये। प्रकट रूप में 'यंग स्विट्जरलैंड' पत्र बंद करना असंभव था, अत: उन्हान जर्मन अनुवादकों को, इसके पश्चात् कंपोजिटरों को और इसके पश्चात् पत्र व्यवहार करनेवाले को विभिन्न आरोप लगाकर पकड़कर पत्र चलाना असंभव करते हुए अपना उद्देश्य पूरा किया। विवशता होकर जुलाई सन् १८३६ के अंत में पत्र बद हो गया। अपने अंतिम लेख में मैंने लिखा, 'हम लोगों में से कुछ को इटली तथा कुछ लोगों को अमेरिका चले जाने की ताकीद की गई है। भला क्यों? हमने ऐसा एता कौन सा अपराध किया है, कौन से कानून से हमें यह दंड दिया जा रहा है? कौन सा प्रमाण लिया गया है? हमारे लिए कायदा नहीं, हमारे लिए न्यायासन नहीं। हमारी ओर से कोई भी देशभक्त इस प्रकार पूछता नहीं। 'देशत्याग किए हुए लोगों के भी मूलभूत अधिकार हैं। उन्हें न्याय देने के लिए खुली पूछताछ होनी चाहिए। सार्वजनिक रीति से तथा सुरक्षा का संपूर्ण अधिकार देकर जो न्याय होता है वही सच्चा न्याय है। परंतु गोपनीय ढंग से, मुँह बाँधकर जो फैसला दिया जाता है वह मनष्यजाति तथा ईश्वर के विरोध में किया गया जघन्य अपराध है।
एक सन् १८३४ में एक व्यक्ति मेरे पास आकर कहने लगा, 'मेरा प्रतिपालन करो।' बीस वर्षों से वह तड़ीपार था। वह ऐसी यातनाएँ भुगत चुका था जो एकाकी और निर्धन देशभक्त को वनवास में भुगतनी पड़ती हैं। उसे बर्ने से जिनेवा खदेडा गया, फिर जिनेवा से फ्रांस खदेड़ा गया। परवाना न होने के कारण फ्रांस में उसे पुनः तडीपार किया गया। वहाँ से पैदल चलकर वह पुनः बर्ने आ गया और वहाँ के इटालियनों ने उसका कुछ प्रबंध किया। परंतु कुछ ही दिनों में उसे पकड़कर सरकार ने फिर जिनेवा भेज दिया। वहाँ उसे देखकर अधिकारियों ने आज्ञा के विरुद्ध वापस आने के कारण उसे कुछ दिनों के लिए जेल में रखा। इस दौरान वह मुझसे मिला। सारी रामकहानी सुनाते समय उसके नेत्रों से झरझर आँसू बह रहे थे। मुझे उसपर बहुत तरस आया। कुछ ही दिनों में उसे इंग्लैंड भेज देने के लिए आदेश आ गया। स्विट्जरलैंड और फ्रांस की यात्रा उसने पैदल चलकर की। वह निओपोलिटन (नेपल्स, इटली) का तथा उसका नाम करोसी था। इंग्लैंड जाने के लिए फ्रांस तक पैदल यात्रा करते हुए अंत में वह समुद्रयान में बैठा। इतने में अनंत यातनाएँ झेलकर जर्जर हुई उसकी देह नि:सत्त्व होते-होते इसी समुद्र यात्रा में समाप्त हो गई। उसके मातापिता आज भी जीवित हैं। उसके भाई-बहन हैं। उस देशभक्त पर ईश्वर दया करे जिसने जनसत्ता के लिए तथा देश-स्वतंत्रता के लिए इस तरह की यातनाएँ झेली।
अंत में मुझे सजा हो गई। स्विट्जरलैंड से चली आ रही तड़ीपार होने की सजा। इसकी सूचना मिलते ही मैं सतर्क हो गया और पुन: उधर ही रहा। हजारों पुलिसवालों की छानबीन को ताक पर रखकर मैं उधर ही रह गया और वैसे कितने भी दिन रह सकता था। परंतु सन् १८३६ के दिसंबर में अपने जिन मित्रों के साथ मैं अज्ञातवास में था उनके स्वास्थ्य पर उन भयानक यंत्रणाओं तथा असहनीय दिनक्रम का परिणाम होने लगा, अत: फिर मैं उन दोनों को साथ लेकर सन् १८३७ के जनवरी महीने में लंदन आ गया।
उस वर्ष के पूर्व कुछ महीनों में हमारे संकट चरम सीमा पार कर गए थे। दुर्भाग्य के थपेड़ों से मेरा सर्वांग सुन्न हो गया था। किसी भी विलक्षण मानसिक रचना से हो, परंतु अत्यंत महत्त्वपूर्ण प्रसंगों की तारीखें भी मैं स्मरण नहीं रख सकता था, तथापि उस सन् १८३६ के अंतिम महीने का स्मरण मैं सौ साल के बाद भी कभी नहीं भूलँगा। मेरी आत्मा पर नैतिक बवंडर आया हुआ था और वह विनाश के कगार पर खड़ी थी। इस प्रसंग का उल्लेख मैं बड़ी कठिनाई के साथ इसलिए कर रहा हूँ कि मेरी तरह जिन्हें उस प्रकार की विपत्तियों का सामना करना पड़ा हो उन्हे यह सुनकर कि अपने किसी एक बंधु पर इस तरह का प्रसंग गुजरने से उस बवंडर में यद्यपि उसे ओलों की झड़ी की मार पड़ी और उसका संपूर्ण शरीर लहूलुहान हो गया तथापि अंत में वह सुरक्षित रूप से बेड़ा पार कर गया, ढाढस बंधेगा और संदेह का विनाश होकर आत्मोन्नति का रास्ता सुलभ होगा। मेरे विचार से जिन्होंने अपने आपको स्वयं किसी महत्त्वपूर्ण कार्य के लिए समर्पित किया है, जिनके अंत:करण की प्रेमलता ताजगी से भरपूर है उन सभी को कम-से-कम एक बार संदेह के इस तूफान का सामना करना ही होगा। संदेह का यह तूफान मेरी आत्मा को घेरने लगा। स्वाभाविक रूप में मेरा मन प्रेम का भूखा था। प्रेम रस से मेरा अंत:करण लबाला भरा हुआ था। मेरा मन आज उतना ही उल्लसित तथा प्रसन्न है जितना कि जब वह माँ के वात्सल्य में पलते उल्लसित था। मेरे लिए नहीं, अन्य जनों के कल्याणार्थ वह आशा-उमंग से प्रफुल्लित रहता। परंतु मेरे इस प्रेमाकांक्षी, प्रसन्न तथा उमंग से भरपूर कोमल मन के चारों ओर दुःख, निराशा, हताशा, विश्वास भंग का इतना भयंकर दावानल धधक रहा था कि मेरे जीवन का उत्तरार्ध मुझे स्पष्ट रूप में दिखाई देने लगा। एकाकी वनवास में जिस युद्ध में मैं आजीवन लड़ रहा था, उस लड़ाई में एक भी उत्साहजनक अंश शेष नहीं बचा। मुझे स्पष्ट दिखाई देने लगा कि मुझे इसी स्थिति में जीवनयापन करना होगा। मुझे प्रतीत होने लगा कि मेरे प्रिय इटली देश की सारी आशा-आकांक्षाओं का दीर्घकाल तक तिरस्कार होगा। मेरे पक्ष के नेतृत्वों का सर्वनाश हो गया। स्विट्जरलैंड में हमारे किए हुए कार्य को तहस-नहस किया गया। हमें अलग-अलग करते हुए देश-विदेशों में खदेड़ा गया। दरिद्रनारायण ने हमारा पीछा नहीं छोड़ा। जिस पवित्र कार्य के विजयार्थ हमने कमर कसी थी उस कार्य की पूर्णता में अनंत और अनिवार विघ्न सामने खड़े रहे। इतना ही नहीं, मेरा तत्त्वनिष्ठा भी जो ऐसे संकटों में भी पार होने के लिए आज तक मुझमें शक्ति उत्पन्न करती थी, अब डगमगाने लगी। सारी दिशाएँ संदेह के अंधकार की परतों से भर गईं। जिस मार्ग का श्रीगणेश करने से पहले ही हम जानते थे कि वह दुःखों से भरा है और उस मार्ग का अनुसरण करने की जिन्होंने मेरे साथ शपथ ग्रहण की थी, उनमें से एक-एक करके सभी का विश्वास डगमगाने लगा। जिस कठिन, दुष्कर तथा असाधारण युद्ध में मैं कूद पड़ा था उस युद्ध में लड़ने के संबंध में मेरे उदात्त तथा परार्थपरायण उद्देश्य का मेरे अंतरंग सुहृद् भी मजाक उड़ाने लग। उस समय भी मेरे विरुद्ध चल रहे विशाल जनमत की मैंने परवाह नहीं की। परतु जिनपर मेरे अंत:करण का संपूर्ण विश्वास था, जो मेरे प्रीति के केंद्र बिंदु थे उन दो-तीन व्यक्तियों ने भी जब यह संदेह व्यक्त करना आरंभ किया कि मेरे मन में महत्त्वकांक्षा या उदात्त उद्देश्य नहीं, नीच उद्देश्य का वास है तब मैं निराशा से भर उठा और मेरा जी छटपटाने लगा। मेरे विश्वासु स्नेहियों का इस प्रकार का व्यवहार उसी समय आरंभ हो गया जिस समय मैं विश्वास और प्रेम की तृष्णा से आकुलित था। शत्रु सभी दिशाओं से मुझपर हमले कर रहा था। मेरे सत्कृत्यों पर दुष्ट उद्देश्यों का परदा डाला जा रहा था, तब मुझे उत्कट आशा थी कि मैं अपने अंतरंग सखाओं के सामने अपना अंत:करण व्यक्त करूँगा, उनके संवाद से तथा प्रेमपूर्ण सहानुभूति से मेरी आत्मा उत्साहित होगी। इस विश्व के सारे सुखों को मैंने जान-बूझकर त्याग दिया है-इसका मर्म वे पहचानेंगे और दु:ख संवेदनाओं से मुझे तड़पता देखकर वे अपने प्रेममय मधुर हास्य के शीतल अमृत बिंदु मुझ पर छिड़केंगे। मुझे उत्कट आशा थी कि कम-से-कम मेरे परममित्र तो मेरा साथ नहीं छोड़ेंगे। मेरे इस तृषार्त मन को, मेरी उत्कट आशा को निराशा-हताशा के अतिरिक्त कुछ भी नहीं मिला। अधिक विस्तार टालने के लिए मैं बस इतना ही कहता हूँ कि मेरे दो अत्यंत निकटवर्ती मित्र जो मुझे सहोदरा की तरह प्रिय थे, इस अत्यंत विपत्ति के समय में ही मुझे छोड़कर चलते बने।
जब मैंने देखा कि सारे विश्व में मैं अकेला पड़ गया हूँ, बिलकुल अकेला, सिवा मेरी परम प्रिय माँ के-और वह भी सुदूर इटली में, मेरे लिए तड़पतीछटपटाती-तब इस दारुण शून्यता से चौंककर मैं पीछे मुड़ा। मेरे पीछे संशय खड़ा ही था जिसके मैं अधीन हो गया। किंचित् मैं भूल कर रहा हूँ और सारा विश्व सही है? क्या मेरी कल्पना स्वप्नवत् होगी? मेरा लक्ष्य मनोराज्य होगा? वह अंतिम लक्ष्य नहीं, परंतु क्या मुझे ऐसा लगता होगा कि यह अंतिम लक्ष्य है? क्या मैं अपने संकुचित विचारों को पकड़ के बैठा तो नहीं? मात्र विजय पाने के लिए या कि विजय के उद्देश्य के लिए मैं लड़ रहा हूँ? मेरे अंत:करण स्थित स्वाभाविक प्रेरणा ने सीमित कक्षा में छोटे-छोटे सद्गुण प्राप्त कर लेने के बदले और निकटवर्ती तथा केवल सुलभ कर्तव्य ही करने में संतुष्ट रहने के बदले महत्त्वाकांक्षा अथवा अहंकार के फेर में फँसकर 'प्रांशुलभ्ये फले मोहादुब्दाहुरिव वामनः' इस प्रकार मेरी हास्यास्पद अवस्था तो नहीं हुई होगी?
जिस दिन यह संशय का पिशाच मुझ पर हावी हुआ मुझे बस इतना ही प्रतीत नहीं हुआ कि मैं अभागा हूँ, मुझे यह भी प्रतीत हुआ कि मैं अपराधी हूँ, मैंने घोर अपराध किया है, और इस जघन्य अपराध की चुभन मेरे हृदय हो सतत छलनी कर रही है; परंतु उसका परिमार्जन करने का अवसर हाथ से निकल चुका है और मैं ऐसे जघन्य अपराध का दोषी बन गया हूँ। अलेक्जेंड्रिया और चांपेली में जिन्हें गोलियों से उड़ा दिया गया था उनकी आकृतियाँ पाप और पश्चात्ताप की साकार प्रतिमाएँ मेरी आँखों के सामने खड़ी रहीं। उन्हें पुनः जीवित करने के लिए कोई संजीवनी मेरे पास नहीं थी। कितनी माताओं का 'हाय-हाय' मेरे मस्तक पर गिरि है। कितनी माताओं को मैंने रुलाया है और यदि मैं इटली के युवकों को इस महतकृत्य में अपनी देह समर्पित करने के लिए इसी तरह प्रोत्साहित करता रहा तो और कितनी माताओं को रोना पड़ेगा? और यह कि राष्ट्र, यह स्वतंत्र राष्ट्र, मात्र शेखचिल्ली तो नहीं है? आज तक दो बार भूगोल का ध्वज संभलाने से यदि मेरा इटली देश दर्बल हो गया हो तो उस क्षीणतावश वह अर्वाचीन, युवा तथा शक्तिमान कि राष्ट्रों के अधिकार में रहे इस प्रकार ईश्वर का ही संकेत तो नहीं है और यदि ईश्वरीय संकेतानुरूप इस कर्तव्य की नाक नहीं, ध्वज नहीं-ऐसी अवस्था में इटली का रहना अपरिहार्य होगा तो भविष्य का दायित्व उठाकर उस काल्पनिक लक्ष्य के लिए सैकड़ों, हजारों मनुष्यों को उनकी देह तथा उनकी प्रिय सभी वस्तुओं का सदा के लिए त्याग करने के लिए प्रोत्साहित करने का अधिकार मुझे किसने दिया?
इन सभी संदेहों का मेरे अंत:करण पर कितना भयंकर परिणाम हुआ यह मैं नहीं बता सकता। बस मैं इतना ही कहता हूँ कि इस पश्चात्ताप तथा अनिश्चितता ने मुझे पागल बना दिया। रात को मैं फट से नींद से उठता और वायु के झटके समान दरवाजे की ओर भागता। क्योंकि मुझे आभास होता, मेरा परमप्रिय मित्र जाकोपो रफिनी मुझे बुला रहा है। मैं जानता था, मेरे मित्र जेल में हैं और मुझसे हजारों मील दूर हैं। यह जानते हुए कि वे कितने दूर हैं, वे निकट के कमरे में ही होंगे इस तरह के अपरिहार्य विचार से मैं अपने कमरे से बाहर निकलता। साधारण कारण से, किसी शब्द से किंचित् कठोर स्वर में मैं एकदम रोने लगता। उस समय लंदन में सर्वत्र हिमवृष्टि हो गई थी। मैं सोचता कि पृथ्वी ने शववस्त्र परिधान किया है और मैं भी उसके नीचे आ जाऊँ इसलिए वह मुझे बुला रही है। मेरी यह धारणा होती कि जो मेरे आस-पास हैं, उनके मन में मेरे लिए तिरस्कार उत्पन्न हो गया है। मुझे ऐसा प्रतीत होता कि जीवन सूख रहा है और जीवनी शक्तियाँ क्षीण हो रही हैं। मेरी इस तरह की मन:स्थित और कुछ दिन रहती तो मैं एक तो सदा के लिए पागल बन जाता या आत्महत्या के पाप का भागी बन जाता। मैं अपनी कोठरी में उदास होकर बैठा हूँ इतने में निकटवर्ती कमरे में एक युवती मेरी दुःखस्थिति पहचानकर एक परिचिति व्यक्ति को मेरी उदासी दर करने के लिए ले आई। उस व्यक्ति ने कहा, 'नहीं नहीं। वह तो अपनी ही धुन में मस्त है। षड्यंत्र रचते हए एकांत में बैठने में ही उसका सच्चा सुख निहित है।' हाय! हाय। कितना दर्घट है दसरों की मनःस्थिति को पहचानना। बिना सहानुभूति के वह इस विश्व में दर्लभ है-सच्ची सहानुभूति के बिना दूसरों के मनोविकारों का कितना गलत अर्थ निकाला जाता है।
एक दिन प्रात:काल मेरी आँख खल गई तो मैंने सोचा, मेरा मन समाधान यूक्त तथा मेरी आत्मा शांत हो गई है-जैसे किसी महा संकट से मुक्त हुआ मनुष्य। अन्यथा जिस क्षण मेरी आँख खुलती वही क्षण मुझे अत्यंत दु:खी करता। दु:खमय अस्तित्व को इस जागृति के साथ आरंभ होना था और वह क्षण मेरी अनिर्वचनीय यातनाओं की कतरब्योंत मेरे सामने प्रस्तुत करता जो मुझे पूरे दिन भुगतना होता। जैसाकि मैंने ऊपर वर्णन किया है, इस महीने में नींद खुलते ही इस प्रथम क्षण में मेरा दुःख और अन्यमनस्कता की कोई सीमा नहीं रहती। परंतु उस दिन मुझे आभास होने लगा कि पृथ्वी मुझे सुखी करने के लिए स्मितवती हो गई है और सूर्य का वह शुभ्र प्रकाश मेरी क्षीण देह की जीवनीशक्तियों को प्रफुल्लित करने के लिए अपनी आशीष युक्त किरणों की मुझ पर वर्षा कर रहा है। मेरे मन में पहला विचार यह आया कि 'तुम्हारे सारे दु:ख अहंकार के फल हैं, क्योंकि तुम्हारी जीवन की परिभाषा ही गलत है।' अब मेरा मन किंचित् शांत होने से मैं तत्कालीन परिस्थितियों का तथा अपना आत्मनिरीक्षण करने लगा। अपने नीति शास्त्र की सारी इमारत मैंने पुनश्च खड़ी की। कर्तव्य ही सारे जीवन की प्रमुख नींव है। सारे प्रश्न जीवन की परिभाषा पर निर्भर करते हैं। जीवन के कर्तव्य की सही परिभाषा करना और उस सिद्धांत प्रणाली को समझ लेना प्रमुख बात है, अन्य सारे मुद्दे गौण होते हैं। हिंदुस्थान के प्राचीन धर्म में जीवन ईश्वरध्यानार्थ है इस प्रकार जीवन का कर्तव्य सिद्ध होने से गतिमाद्य, क्रियाशून्यता तथा परमात्मा में जीवात्मा का विस्मरण-यही आर्य जनों का प्रमुख लक्षण हो गया। ईसाई धर्म में जीवन पाप परिमार्जनार्थ है इस प्रकार जीवन की परिभाषा होने के कारण दुःख मनुष्य की परीक्षा लेने आते हैं। विपदाओं को चुपचाप अथवा खुशी-खुशी सहना तथा उन दुःखों का अथवा विपत्तियों का प्रतिकार करना अपना कर्तव्य नहीं-इस प्रकार की मतप्रणाली का प्रतिपादन किया गया। इस परिभाषा में पृथ्वी यातना-भूमि सिद्ध हो गई और मोक्ष प्राप्ति का प्रमुख मार्ग-पार्थिव वस्तु विषयक निरीहता अथवा घृणा, यह धारणा होने लगी। आगे चलकर अठारहवीं शताब्दी में जड़वाद उत्पन्न हो गया और उस जड़वाद ने 'जीवन सुख प्राप्ति के लिए है' इस प्रकार जीवन की परिभाषा प्रकट की। इससे बहुरूपी मनुष्यजाति में अहंकार उत्पन्न हो गया। अखिल मानवजाति के सुख के बहाने युद्ध का आरंभ किया जाता और स्वार्थ साध्य होते ही युद्ध छोड़कर व्यक्ति और राष्ट्र लौट जाते। विपदाओं से घबराकर महत्कृत्य छोड़ दिए जाते और सिद्धांत से अधिक जड़ वस्तुओं को तथा सुख सदृश जड़ विकारों को अधिक महत्त्व दिया जाता। मैंने देखा, इस परिभाषा का अपने मन पर किंचित् नियंत्रण रहा है। 'जीवन सुख है' इस निंद्य तथा अधोगामी विचार से पहले से ही मुझे स्वाभाविक घृणा थी। मैंने अन्य जनों के मन से ये विचार जड़-मूल उखाड़कर फेंक दिए। परंतु मेरे मन में तो वे कुंडली मारकर बैठे हुए थे। मेरो परवाह न करते हुए वे पुन:मेरे निकट आने लगे। परंतु मेरे मन में सुख की जो आकांक्षा थी, वह विषयी सुख के लिए नहीं थी। सुख के उच्चतम स्वरूप में वह इच्छा प्रादुर्भूत हो गई थी। प्रेम-प्रीति के रूप में वह मेरे मन में रस-बस गई थी। प्रेम एक अत्यंत पवित्र वस्तु है और ईश्वरीय आज्ञा से उसका हृदय में जब-जब अवतार होगा तब-तब हमें उसको स्वीकार करना चाहिए। मुझे यह स्वीकारना चाहिए था कि ईश्वर द्वारा हमारे अंत:करण में प्रकाश और उत्साह प्रदान करने के लिए दी हुई देन है। प्रेम मेरा अधिकार अथवा मेरा पुरस्कार नहीं, वरदान है। यह समझने के बदले मैं अनजाने में उस प्रेम की, उस प्रीति की कर्तव्य-पूर्ति के काम में आस लगाए बैठा। प्रेम का वास्तविक स्वरूप मेरी समझ में नहीं आया था। प्रीति में ऐहिक आशा का बंधन न हो। परंतु मैं गलती से प्रेम की पूजा न करते हुए तदुत्पन्न सुख की पूजा करने लगा। जब मैंने देखा, यह सुख मुझे नहीं मिलेगा तब सभी बातों के लिए मैं निराश हो गया। प्रेम के लिए प्रेम यह धारणा छोड़कर मुझे प्रतीत हुआ कि वह इसलिए आवश्यक है कि उससे सुख मिलता है। परंतु यह मेरी भूल थी। आनंद तथा दुःख से मुग्ध होकर अथवा भयभीत होकर अंतिम साध्य के कार्य में बाधा नहीं आनी चाहिए। आत्मा की अमरता पर मेरा विश्वास पूर्णतया दृढ़ नहीं हुआ था। यह जन्म अकस्मात् नहीं आया, न ही एकदम नष्ट होगा। अनंत जन्मों से प्रगमन होते-होते आत्मा का पूर्ण स्वरूप से मिलन होता है। यह जन्म-परंपरागत दुःख जिस पर्वत शिखर पर ईश्वर का निवास है उस पर्वतारोहण कार्य में आवश्यक परिश्रम है। जिस पूर्ण स्वरूप के पृथ्वी पर पवित्र चिह्न दिखाई देते हैं उस पूर्णता तक जाने के लिए जन्म-परंपरा के बिना और उसमें स्थित दु:खों का भोग किए बिना अन्य मार्ग नहीं। इस ऐहिक परंपरा के एक जनम में मेरे व्यक्तिदीप को प्रकाशित करने के लिए कोई किरण नहीं मिला, इसलिए मैं कैसे कह सकता हूँ कि इस विश्व में सूरज ही नहीं है? वह मुझे या तो नहीं मिल रहा था या उसकी ओर देखने का मुझमें साहस नहीं था। इतना ही नहीं अन्य साधारण जन जिस तरह अहंकार की चपेट में आते हैं उसी तरह अपने आपका मुक्त समझते-समझते ही मैं उसकी चपेट में आ गया। अंतर बस इतना ही था कि मेरे मन का अहंकार तनिक उच्च स्तरीय था।
जीवन एक दैवी कार्य है। जीवन एक कर्तव्य है। जीवन को अन्य सभी परिभाषाएँ गलत है। जो उनके अनुगामी हैं उन्हें वे कुपथ की ओर ले जाती है। धर्मशास्त्र तथा दर्शन में अन्य मुद्दों पर भले ही लाख मतभेद हो, पर उन सभी को एक मुद्दे पर एकवाक्यता है कि प्रत्येक अस्तित्व का लक्ष्य है-सभी व्यक्तियों का सपूर्ण विकास करना और उस संपूर्ण विकसित शक्ति की एकतानता तथा एकवाक्यता करते हुए जीवन का अंतिम उद्देश्य खोजने की प्रवृत्ति रखना। यही वह लक्ष्य है। मानवता का अंतिम साध्य साधने के लिए प्रत्येक व्यक्ति को कमर कसनी चाहिए। परंतु कालस्थिति के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को यह अंतिम साध्य साधने के लिए प्रथम दुय्यम स्तर के कर्तव्य करने पड़ते हैं। इन गौण कर्तव्यों की पूर्ति मानव शक्ति के विकास तथा सहकार्य में सहायता करती है और इस प्रकार अबाधित तथा अंतिम सत्य सुलभ होना है। एक व्यक्ति के लिए अपने अति निकटवर्ती व्यक्तियों का नैतिक तथा बौद्धिक विकास करना संभव होता है और इसलिए वही उनका दुय्यम लक्ष्ण होता है। किसी अन्य व्यक्ति को, उसमें विशेष शक्ति होने के कारण अथवा अधिक अनुकूल परिस्थितियों के कारण, राष्ट्र योद्धा बना देना, स्वदेश को संजीवनी प्रदान करना अथवा सामाजिक तथा धार्मिक सत्य का प्रकटीकरण करना संभव होता है और इसलिए उसका लक्ष्य सिद्ध दुय्यम होता है।
आज भी मानवजाति बाल्यावस्था में है, अत: उसका ज्ञान तथा उसकी शक्ति सीमित है। यह निश्चित करना कठिन होता है कि अपने विशेष कर्तव्य कौन से हैं। परंतु प्रत्येक के हिस्से कुछ-न-कुछ विशेष कर्तव्य आया है यह अनुमान द्वारा सिद्ध किया जा सकता है। यदि जीवन मात्र खा-पीकर ही मरने के लिए न हो तो यह बिलकुल साफ है कि इस अस्तित्व में जो कुछ थोड़े से पल अपने हिस्से में आए हैं उनमें जिस रूप में हम समाविष्ट हो गए हैं उसकी यथासंभव उन्नति करने के लिए कमर कसना हमारा कर्तव्य है।
जीवन ईश्वरकृत कार्य है और एतदर्थ कर्तव्य ही जीवन का शासन है। उस दैवी कार्य का संपूर्ण स्वरूप पहचानकर उस कर्तव्य की पूर्ति करने में ही अपने अस्तित्व के प्रगमन के बीज हैं। आत्मा अमर है परंतु अपने पूर्ण स्वरूप को कितने समय में तथा किस तरह वह प्राप्त करे, यह निश्चित करना हमारे हाथ में है। प्रत्येक व्यक्ति किसी मंदिर की तरह अपनी आत्मा को पवित्र रखे। उसे अहंकार का स्पर्श तक नहीं होने दे। अपने जीवन का प्रश्न, उस प्रश्न का अत्यंत महत्त्व तथा उसकी धार्मिक पवित्रता पहचानकर प्रत्येक व्यक्ति अपने सामने रखे, फिर यह अच्छी तरह से देखे कि अपने आस-पास स्थित लोगों को किसकी अत्यंत आवश्यकता है। फिर अपनी शक्ति का यथार्थ मूल्य निश्चित करते हुए इसका अनुमान लगाकर निश्चित करे कि वह उन आवश्यक बातों में से कौन सा हिस्सा उठा सकता है और यही उसके जीवन का कर्तव्य होगा। परंतु यह कर्तव्य निश्चित करते समय कोई भी व्यक्ति विषयक अथवा पक्षपाती विचार ठीक नहीं। पूर्वग्रह अथवा दुराग्रह से विपरीत दिशा में न भटकते हए अखिल मानवता का विचार मन में करते हुए आंतरिक प्रेरणा, जीवन की पवित्रता तथा प्रेम से उमड़ती विचार-जागृति की सहायता से यह कतव्य का प्रश्न सुलझाना चाहिए। जिस कालखंड में और जिन परिस्थितियों में ईश्वर ने तुम्हें जन्म दिया है उस काल में और उन परिस्थितियों में मनुष्यजाति को जिनकी आवश्यकता होगी उन वस्तुओं की प्राप्ति कि लिए अपनी-अपनी शक्तियों के अनुसार अपना हिस्सा निश्चित करो, उसे कर्तव्य रूप में स्वीकारो, समझो कि वह ईश्वरीय कार्य हैं-फिर मेरे युवा बंधुजनों, आपने एक बार उधर अपना जीवन समर्पित करने का निश्चय किया कि फिर किसी भी संकट की परवाह न करें। वह कर्तव्य पूरा करें, फिर इस कर्तव्य पर लोग आपसे प्रेम करें या विद्वेष। वह कर्तव्य पूरा करें, फिर लोग आपकी सहायता करें अथवा यह एकांतवास जो प्रायः तत्त्वनिष्ठा का भाग चुना होता है, आपकी सहायता करे। अपना मार्ग आपने स्पष्ट रूप में चुना है इसलिए दुःख और मोह की परवाह न करते हरा यदि उस मार्ग का आक्रमण करते हुए आप नहीं जाएँगे तो ऐसा सिद्ध होगा कि आप लोग भीरु हैं, कापुरुष हैं। एक पोलिश कवि के एक सुंदर गीत का मुझे स्मरण हो रहा है। उस गीत में उस कवि को उसकी देवी कह रही है, 'जाओ, मुझ पर पूरा भरोसा रखो। अपने वैभव का विचार भी मन में मत लाना, केवल उनके हित का विचार करो जिन्हें मैं तुम्हारे अधीन कर रही हूँ। लोगों ने तुम्हारे प्रति घृणा व्यक्त की, गर्व से तुम्हें तुच्छ-हेय समझा, तुम्हें यंत्रणा, अत्याचार का शिकार बनाया तो भी शांत रहो। क्योंकि ये सारी बातें विनाशी हैं। परंतु तुम्हारा सत्कृत्य अबाधित रहेगा। जाओ, तुम्हारा कर्तव्य आयुष्मान हो। यदि तुम्हारा अंत:करण डगमगाने लगा, यदि तुम्हारे बंधुओं से तुम्हें सहायता मिलना बंद हो गया तो भी तुम सदासर्वदा। कर्तव्य तत्पर रहो। अबाधित, अखंड और सतत कर्तव्यरत रहो। फिर स्वीय सताना में तुम्हारी गणना होगी।' इस सुंदर गीत में बस एक ही दोष है। इसमें पुरस्कार का आशा दी गई है। मेरी इच्छा है कि वह आशा नष्ट हो। जिन्हें महत्कार्य करना हव कभी यह न देखें कि पुरस्कार क्या मिलेगा। ईश्वर द्वारा सत्कार्यार्थ जो पुरस्कार मिलना है वह अवश्य मिलेगा। परंतु हमारे मन में उस पुरस्कार का विचार न आना चाहिए। यह ईश्वर का अधिकार है कि फल देना है या नहीं। हमारा आपका है कर्तव्यपूर्ति । भविष्य धर्मीय अनुज्ञा इस प्रकार है कि 'तू परहितरत हो। अपनी सारी व्यवस्था ईश्वर को सौंप दे।' 'कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलघु कथा मा कर्मफल हेतुर्भूर्माते संगोत्स्व कर्माणि।' यह तत्त्वज्ञान पूरी तरह समझ लेने के लिए कैसे-कैसे बौद्धिक परिश्रम किए इस जीवन के मूल तत्त्वों के अनुसार तब तक आचरण करने का जब तक जान में जान है निश्चय कैसे किया, सेवा के जेल में जो अपना पवित्र कर्तव्य मैंने निश्चित किया वह पवित्र कर्तव्य, मेरे प्रियतम देश लोकसत्तात्मक राष्ट्रैक्य, वह महत्कर्तव्य, भले ही जननिंदा तथा दु:ख की सतत बौछार क्यों न हो तथापि जीवटवृत्ति के साथ तथा निश्चयपूर्वक संपन्न करने का दृढ़ संकल्प करते हुए मैं किस तरह पुनः तत्पर हो गया यह सारा हाल मैं यहाँ बताना नहीं चाहता। उस समय जिन-जिन कठिन परिस्थितियों से मैं गुजरा उन सारे प्रसंगों की टिप्पणियाँ मैंने करके रखी हैं, जो सारे एक अप्रसिद्ध मानव की हकीकत' नामक एक बेनाम पुस्तिका में प्रसिद्ध करनेवाला था। मैंने अत्यंत बारीक अक्षरों में पतले कागज पर वह सारी हकीकत लिखकर रोमन क्रांति के समय अपने साथ लेकर उस शहर गया परंतु वापस आते समय फ्रांस में वह कागज कहीं खो गया। तत्कालीन मनोविकार तथा विचार अब पुनः लिखना असंभव है।
बिना किसी की सहायता के मैं होश में आ गया इसका प्रमुख कारण है कि धार्मिक विचारों तथा इतिहास का तालमेल करते हुए मैंने अपने सिद्धांत निश्चित किए। ईश्वर की परिकल्पना से लेकर मैं विकास प्रगति के सिद्धांत तक आया। इस विश्वप्रगति के सिद्धांत से जीवन की असली परिभाषा पर आ गया। जीवन एक दैवी कर्तव्य है, अत: कर्तव्यपरायणता को ही जीवन का नियम बनाने का मैंने निश्चय किया। जीवन एक पराक्रमी कृति है, जीवन कर्तव्य है इसपर दृढ़ विश्वास होने पर मैंने शपथ ग्रहण की कि मैं अपने जीवन के कर्तव्य में पुन: कभी अविश्वास अथवा आलस्य नहीं करूँगा। कवि डार्न के कथनानुसार स्वात्मार्पण से शांति मिलती है। मुझे स्वीकार है कि यह शांति जबरन तथा निराशा से प्राप्त हुई थी। क्योंकि मैंने तो दुःख से स्नेह संपादन किया और उसका ओढ़ावन करते हुए मैं उसमें दुबककर बैठ गया। परंतु भले ही किसी भी तरह से वह मुझे मिली, परंतु थी तो वह शांति। क्योंकि तब से मैंने यह सीखा कि हो-हल्ला, दुःखयुक्ति न करते हुए किस प्रकार सबकुछ सहना है। मुझमें सहिष्णुता आ गई और मुझे पूर्णतया ज्ञान हो गया कि दुःखयुक्ति तथा स्वात्मलीनता में किस प्रकार जीवन को पहुँचाना है। मैंने ऐहिक सभी सुखों को सदा के लिए हाथ जोड़े। अपने ही हाथों से अपनी कब्र खोदीपरंतु वह प्रेम के लिए नहीं था। क्योंकि ईश्वर साक्षी है कि अब मेरे बाल सफेद हो गए हैं परंतु युवावस्था में मेरा अंत:करण जितना स्नेहमय था उतना अब भी है। अतः प्रीति के लिए नहीं, फल की उत्कंठा, प्रीत्युत्पन्न समाधान की इच्छा को गाड़ने के लिए मैंने वह कब्र खोदी और उसपर अपने हाथों से मिट्टी डाली ताकि दफनाया हुआ अहंकार पुनः अपना सिर न उठाए, न ही कोई उसे देख सके। कुछ ऐसे कारण, जो प्रसिद्ध थे और कुछ किसी को ज्ञात नहीं थे, घटने से मेरा जीवन दु:खमय हो गया था। हाँ, जीवन दुःखमय और यदि वह दुःख शीघ्रतापूर्वक समाप्त नहीं होगा तो दुःखमय ही रहेगा। परंतु उस समय से अपने व्यक्ति विषयक दुःख को मैंने कभी अपने कर्तव्य के आड़े नहीं आने दिया। संपूर्ण जीवन के उत्तरार्ध में जो थोड़ी-बहुत प्रेम की देन (क्योंकि अन्य किसी भी चीज की मुझे आवश्यकता नहीं थी, मैं केवल प्रेम का भूखा था) ईश्वर ने मुझे प्रदान करते हुए मेरे अस्तित्व की असहायता का थोड़ा बोझ कम किया, उस प्रेम की देन के लिए मैं उस विश्वचालक का अत्यंत आभारी हूँ। परंतु प्रेम की इस संतुष्टि से भले ही मैं वंचित था, मुझे विश्वास है कि मैं वैसा ही होता जैसा मैं अब हूँ। इटली के उषाकाल की रमणीयता से अभिमंडित सूर्य मस्तक पर आलोकित हो अथवा उत्तर ध्रुव स्थित मुर्दनी छाया हुआ बर्फमय वातावरण फैला हुआ हो-उससे अपने कर्तव्य में रत्ती भर भी अंतर नहीं आता। ईश्वर इस ऐहिक वातावरण से परे स्वर्गाधिष्ठित हो गया है। उसकी आज्ञानुरूप कर्तव्य, निष्ठा तथा भविष्य का तारा अपने हृदयाकाश पर अखंड चमचमाता रहता है। फिर उसका प्रकाश किसी कब्र के टिमटिमाते दीपक की तरह घोर अंधकार में प्रतिबिंबित हो या न भी हो।
इंग्लैंड में मेरे निवास का प्रथम खंड राजनीतिक दृष्टि से कुछ अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं था। एक तो मेरे मन को नैतिक विपत्तियों से हो रहा कष्ट और दूसरी बात यह कि उस मन की चंचलता को निर्धनता से मिला हुआ समर्थन। मेरे मातापिता ने मुझे जितने भी पैसे भेजे, वे सारे मैंने इटली के कार्यार्थ लिये हुए कर्ज को चुकाने में खर्च किए और इसके अतिरिक्त अन्य लोगों के लिए भी विपुल मात्रा में खर्च किया। सन् १८३७ तथा ३८ में निर्धनता ने मुझे बहुत सताया। मन उदासीन और पेट के लिए अन्न नहीं। अपने माता-पिता को अपनी दु:खद स्थित सूचित करके मैं अपनी मुसीबत टाल सकता था। क्योंकि वे मेरे लिए स्वयं कितना भी कष्ट सहकर मेरी सहायता करते। परंतु इस हतभागी के लिए जिन्होंने आज तक असीम स्वार्थत्याग किया था उन्हें कुछ कष्ट न हो एतदर्थ मैंने अपनी स्थिति उनसे छिपाई। मैं चुपचाप निर्धनता के साथ लड़ रहा था। मेरी माँ अथवा मेरे प्रिय सुहृदयों द्वारा अपनी स्मृति स्वरूप दी गई प्रिय वस्तुओं को भी पुनः वापस मिलने की आशा न रखते हुए मैं गिरवी रखता गया। उसके पश्चात् कप मूल्य की वस्तुओं को गिरवा रखा। आखिर एक दिन शनिवार को अपना पुराना कोट और जूते लेकर मैं एक दुकान पर गया और उसके बदले इतवार के लिए मुझे अन्न मिला। अब मेरे पास कुछ भी नहीं बचा था। तब मेरे कुछ देशवासियों ने मेरी जमानत (प्रतिभूति) दी और मैं प्रत्येक दुकान पर उधार माँगते हुए घूमने लगा। ये दुकानदार दुर्भागियों का सम्पूर्ण सच वित्त-हरण करते हैं। चालीस-पचास प्रतिशत की बोली पर वे मनुष्य के दुर्भाग्य का लाभ उठाकर उसे अल्प रकम देते हैं और शराबी, दुराचारी लोगों से भरा दुकान में प्रति सप्ताह उसकी सूद के साथ चुकता करवाते हैं। इन सारी लज्जास्पद बातों का मैंने क्रमशः अनुभव किया है। यह अनुभूति कभी-कभी एकदम कष्टप्रद होती। परंतु मेरी उस समय की परिस्थिति में तो इस कष्ट की कोई सीमा ही नहीं रहती। मझे कोई जानकारी देनेवाला नहीं, मन स्वस्थ नहीं, पेट के लिए अन्न नहीं। अपरिचित कोलाहल भरे बाजार में दीन अवस्था में खड़ा और लंदन जैसे शहर में रहता था, जहाँ निर्धनता के चंगुल में फँसे मनुष्य के साथ निर्दयतापूर्वक आचरण करने की प्रथा है। परंतु इन भयंकर परिस्थितियों से मैं धैर्य तथा शौर्य से जूझा। इस प्रसंग की हकीकत मैं केवल इसलिए बता रहा हूँ कि मेरे समान जिनपर ऐसे प्रसंग गुजरेंगे वे मुझे देखकर धीरज न खो बैठें, न ही अपने आपको तुच्छ समझें।
मैं चाहता हूँ कि अपने बालकों को ऐसी शिक्षा प्रदान करें कि उनमें कष्ट सहने की शक्ति आ जाए तथा जीवन में सभी संकटों का सामना करने की हिम्मत आए। क्योंकि यूरोप की क्रांतिकारी परिस्थितियों में अपनी तथा अपने सगे-संबंधियों की परिस्थितियों पर नियंत्रण रह पाना सर्वथा असंभव है-ऐसे चंचल काल में बच्चों को विलास तथा ऐशोआराम में पालन-पोषण करने की अपेक्षा यदि माताएँ उन्हें बाल्यावस्था से ही परिश्रमी और सशक्त बनाएँगी तो बालकों का वास्तविक कल्याण होगा। ऐसे अनेक युवक, जो प्राकृतिक रूप में ही विलासी वातावरण में पले-बढ़े हैं, जो सुखमय दिनों के लिए ही योग्य थे, उन्हें जिन संकटों को मैंने हँसते-खेलते झेला, उनसे भयभीत होकर अपराध करने अथवा आत्महत्या करते हुए मैंने देखा है। मेरे विचार से संकट सहने की क्षमता तथा कष्ट सहिष्णुता के अभाव का प्रमुख पाप उनके मातृवर्ग पर है। मेरी माँ ने मुझे इस तरह की शिक्षा दी जिससे कठिनाइयों में भी अटल रहने की शक्ति मुझमें बनी रही। वही प्रेम वास्तविक एवं दूरदर्शी प्रेम है जो अपनी संतान को भविष्य में सुख देनेवाली शिक्षा प्रदान करे।
निर्धनता का पहला आघात सहने के पश्चात् मैं साहित्यिक प्रयासों से कुछ-न-कुछ प्राप्त करने के प्रयास में जुट गया। मैंने कई स्थानों पर नए परिचय किए और अपनी पहचान बनाई। कई मासिक पत्रिकाओं में, पुस्तकों में मेरे लेख लिये गए और इस प्रकार मैं इतना साधन जुटा सका कि साधारण श्रेणी में जीवन जी सकूँ। यह काम पाठकों का ही है कि देखें उन लेखों में कितने दोष हैं और कितने गुण। वे सारे लेख इस श्रृंखला में प्रकाशित किए जा रहे हैं। इटालियन विषय लेकर अथवा अन्य विषयों के बीच-बीच में इटली का संबंध लाते हुए उन लेखों द्वारा मैं इस प्रकार प्रयास करने लगा कि अंग्रेजों का मेरे देश की ओर ध्यान आकर्षित हो। उस समय अंग्रेज लोग इटली के विषय में पूरी तरह उदासीन थे। परंतु इन लेखों से धीरे-धीरे उनमें आंदोलन उत्पन्न हुआ और सन् १८४५ में उनकी इटालियन कार्य के लिए पूरी सहानुभूति प्राप्त करने हेतु एक स्थायी मंडल स्थपित कर सका। अपनी राष्ट्रीय एकता के लिए इंग्लैंड की संपूर्ण सहानुभूति का श्रेय बहुत कुछ मेरे इस मंडल को जाता है।
बहुत दिनों से स्वतंत्रता का प्रशिक्षण प्राप्त होने के कारण इंग्लैंड में व्यक्ति गौरव की उदात्त परिकल्पना तथा व्यक्ति से मात्र संबंधित आदरबुद्धि आदि सद्गुण उत्पन्न होकर बस गए हैं। कभी उन्हें कोई विचार पसंद न हो, फिर भी यदि कोई हृदय से उसका प्रतिपादन करने लगे तो वे उसे आदरपूर्वक सुनने के लिए तैयार होते हैं। उनकी मित्रता पहले तो होती ही नहीं, परंतु एक बार होती है। तब समयो यह कायम हो गई। अतः उनका प्रेम दिखावटी नहीं होता। वह उनके आचरण से व्यक्त होता है और यद्यपि किसी इक्के-दुक्के विचारों पर मतभेद हो तथापि उनका प्रेम अटल होता है। मेरा प्रत्येक विचार उस समय नकारा गया था। परंतु यह समझकर कि मेरे स्वार्थत्यागी चरित्र में इस विचार के प्रति कितनी निष्ठा है मेरी उस आस्था से ही कई महान् अंग्रेज मेरे अभिन्न मित्र बन गए। जिस भूमि (इंग्लैंड) में यह लिख रहा हूँ उस भूमि का नामोच्चारण मैं सदासर्वदा कृतज्ञतापूर्वक करूँगा। क्योंकि मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है कि इंग्लैंड मेरी दूसरी स्वदेश भूमि बन गया है। यह चरित्र मैं अपने व्यक्ति विषयक वृत्तांत के लिए नहीं, तत्कालीन राजनीतिक आंदोलन के वृत्तांत के लिए लिख रहा हूँ और इसीलिए मेरे कई मित्रों की नामावली देने का यह स्थल नहीं। तथापि एक परिवार का, जिसका नाम ॲशर्ट है, नाम दिए बिना रहा नहीं जाता।
अनेक विद्वान् अंग्रेजों से परिचय होने से तथा इटली में चल रही साहित्यिक जागृति से संबंधित इंग्लैंड में प्रथम एक-दो वर्षों में मेरे लिखे लेखों से मेरे मन में बहुत दिनों से अधूरी रही एक इच्छा बलवती होने लगी। फास्कोलो के, जिसके लेखों का इटली पर अत्यंत महत्त्वपूर्ण असर हुआ है, सभी ग्रंथ प्रकाशित करने की मेरी मनीषा थी। फास्कोलो ने इटली में अवसान कालीन साहित्य की रचना की। उसने देशभक्ति तथा स्वदेश कल्पना का बीजारोपण किया। उसे देशत्याग का दंड होने पर उसकी प्रायः आधी-अधूरी छोड़ी गई सारी पुस्तकें इकट्ठा करना मैंने आरंभ किया। फास्कोलो का एक ग्रंथ, जो इटली में उस समय अज्ञात था, मुझे उपलब्ध हो गया। 'लेटेस अपोलोजीटिका' नामक ग्रंथ मिलते ही मैं फुला नहीं समाया। यह देखकर कि आज तक इस ग्रंथ की उपेक्षा की गई है, गुलाम में सड़ रहे राष्ट्र को सद्गुणों के मूल्यों का कितना साधारण आकलन होतो है और अपने महापुरुषों की कृति से संबंधित उनकी कितनी अनास्था होता है मुझे बड़ा दुःख हुआ। उस ग्रंथ के कुछ पन्ने खो गए थे। पर फास्कोला के एक में वे भी मिल ट्रंक में वे भी मिल गए। परंतु यह देखकर कि इतने दिनों धूल-मिट्टी में साने इस ग्रंथ को मैं इतना महत्त्वपूर्ण मान रहा हूँ उस पुस्तक विक्रेता ने अनुरोध किया कि फास्कोलो ने दांते का जो संस्करण प्रकाशित करने की योजना बनाई थी, उस संस्करण को खरीदने पर ही वह यह प्रमुख ग्रंथ देगा और उसका मूल्य चार सौ पौंड माँगने लगा। भई, मुझ जैसे कड़के के पास पूरे चार सौ पेंस तक नहीं थे। आखिर महत्प्रयास के साथ एक इटालियन प्रकाशक को उन दोनों ग्रंथों को खरीदने के लिए तैयार किया। परंतु आगे देखा तो दांते का संस्करण पूरा तैयार नहीं किया गया था। फास्कोलो ने कुछ अंश ही लिखा था और शेष हिस्से पर टिप्पणियाँ आदि देना वैसे ही छोड़ दिया गया था। उसका यह अधूरापन अगर टालियन पुस्तक प्रकाशक को पता चला तो वह खरीदने के लिए कतई तैयार नहीं होगा इसलिए मैंने उस पुस्तक प्रकाशक को कानोकान खबर न करते हुए गुपचुप दांते के काव्य का फास्कोलो द्वारा अधूरा छोड़ा अंश स्वयं टिप्पणियाँ तथा पाठभेद डालकर लिखा। छह महीने में मेरी छोटी सी कोठरी में पांडुलिपि प्रतियों के ढेर-के-ढेर बिखरे पड़े थे। मैंने बहुत सावधानी के साथ तथा फास्कोलो के विचारों से यथासंभव तन्मय होकर यह कार्य पूरा किया था और आखिर 'फास्कोलो के राजनीतिक लेख' शीर्षक पुस्तक प्रकाशित हुई और उन्होंने दांते का संस्करण भी छापा।
अब मुझे प्रतीत हो रहा है कि दांते के संस्करण में मेरा हिस्सा फास्कोलो के हिस्से से भिन्न है-यह प्रकाशित करने में कोई आपत्ति नहीं और इसलिए ही आज मैं यह रहस्योद्घाटन कर रहा हूँ।
सन् १८४० में बंडीएरा बंधुओं ने इटली पर आक्रमण किया। 'बंडीएरा बंधुओं का वृत्तांत' शीर्षक लेख में मैंने उसका संपूर्ण महत्त्वपूर्ण वृत्तांत दिया है। यह लेख उनकी मृत्यु के पश्चात् शीघ्र ही लिखा गया और इस श्रृंखला में प्रकाशित किया गया। अत: इसके संबंध में कुछ विशेष चर्चा नहीं करनी चाहिए तथापि उस समय इंग्लिश पोस्ट खाते ने सरकारी आदेश से मेरे पत्र गोपनीय ढंग से फाड़ने का निंद्य कृत्य किया और इससे संबंधित कुछ सच्चाइयों की चर्चा करना आवश्यक है। मैंने इससे पूर्व कांसील नामक एक गुप्तचर की जो हकीकत बताई है उतना ही नीचतापूर्ण कृत्य अंग्रेज प्रधानमंडल ने किया है। सन् १८४४ के मध्य-जून अथवा जुलाई-में मैंने गौर किया कि मेरे पत्र लगभग घंटा-दो घंटा लेट मिलते हैं। इंग्लैंड में विभिन्न पोस्ट ऑफिस से जनरल पोस्ट ऑफिस में ये पत्र पहँच जाते हैं और उधर जिस घंटे में पत्र पहुँच जाते हैं उस घंटे का ठप्पा मारा जाता है। इसके पश्चात् लगभग एक-दो घंटों में अपने अपने पत्र सभी को प्राप्त हो जाते हैं। मुझे संदेह होने पर जब मैं पत्र पर लगी मुहर आदि गौर से देखने लगा तब मैंने पाया कि मेरे पत्रों पर दो-दो ठप्पे मारने के चिह्न स्पष्ट दिखाई दे रहे थे और उनमें से पहला ठप्पा नष्ट करने के लिए दूसरा मारा गया है। इसका उद्देश्य यह था कि पहला घंटा मिटाकर दसरे ठप्पे से एक-दो घंटे आगे बढ़ा दिया और पहले ठप्पे में अंकित घंटे पहचानना असंभव हो। इतना प्रमाण काफी था। परंतु अन्य लोग इसपर विश्वास नहीं करते। क्योंकि उनका कहना था, ब्रिटिशों की प्रामाणिक वत्ति तो विश्वविख्यात है। वे मेरे संदेह पर हँसने लगे। वे ठप्पे इसी तरह लगाए जाते कि असली घंटे की पहचान किसी भी तरह न हो और यह आभास निर्माण किया जाता कि यह अस्पष्टता मानो जल्दी-जल्दी में ठप्पा मारने से हो गई है। फिर निश्चित छानबीन के लिए लिए मैंने अपने नाम पर कुछ पत्र सवेरे लंदन के एक पोस्ट में डाले। एक पत्र पर पहला अर्थात् सुबह दस बजे का ठप्पा होना चाहिए था, उसके अनुसार वह मारा गया था। परंतु ये पत्र मेरे पास आने से पूर्व सरकारी आदेशानुसार एक गुप्त कचहरी में गए। उन्हें खोलकर पढ़ने के पश्चात् पुनः बंद करके इसके पश्चात् उस कार्य के लिए नियुक्त एक स्वतंत्र सिपाही से ये पत्र मुझे दोपहर दो घंटे देरी से मिले। यह छिपाने के लिए कि इस सारे कृत्य में दो घंटे लगते हैं, दस बजे पत्र मिलने पर ठप्पा जो मारा गया था उसी पर ही हमेशा की तरह एक दूसरा ठप्पा मारा गया था। परंतु जल्दबाजी में इस काम को सफाई से नहीं किया गया था। फिर मैंने साक्षी के समक्ष एक ही समय कुछ पत्र अपने नाम और कुछ उस पते पर जहाँ मैं रहता था, परंतु बनावटी नाम पर पोस्ट किए। साक्षी के सामने मेरे पत्र दो घंटे पीछे से आए और इसका साक्ष्य उसने मुझे लिखकर दिया। इस विश्वासघात की और छानबीन करके प्रमाणों की कड़ियाँ और अधिक मजबूत बनाने के लिए मैंने कुछ अन्य किल्लियाँ ऐंठीं। पत्र में कुछ सिकता कण बारीक बीज अथवा बाल डाले और उन पत्रों में कण इस प्रकार रखे जाते कि बिना पत्र खोले उनका गिरना असंभव होगा। कभीकभी पत्र बंद करते समय जानबूझकर तिरछा बंद किया और यह बात ध्यान में रखा ताकि जब वह पत्र मिलते तब उसका तिरछापन नष्ट हुआ दिखाई दे। इन तथा अन्य कुछ तरीकों से नि:संशय रीति के प्रमाण इकट्ठे करने पर मैंने वह सारा कृत्य थामत स्निसनी नामक पार्लियामेंट के एक सदस्य को बताया और सारे प्रमाण उसक सौंपे। फिर पार्लियामेंट को एक निवेदन पत्र दिया कि इस कृत्य की पूछताछ जाए।
ब्रिटिश सरकार पर मेरे द्वारा लगाए इस आरोप से खलबली मची। प्रश्नो की झड़ी लगाई गई। प्रथम तो वे टालमटोल करते रहे। आगे चलकर सूक्ष्म छानबीन करके जब उन्हें विश्वास हो गया कि बिना सबत इकट्ठा किए मैन यह आरोप नहीं लगाया तब उन्होंने इस नीच कृत्य को स्वीकार किया। परंतु वह भी कितने निद्य तरीके से? पार्लियामेंट में इससे पर्व पत्र खोलने का कानून पास हुआ है इसलिए हमने पत्र खोले, तिसपर मैझिनी दुराचारी है इसलिए हमें ऐसा करना पड़ा-इस तरह बताया गया। सर जेम्स ग्राहम नामक प्रधान ने फ्रांस में मुझ पर किसी हत्यारे की सहायता करने का आरोप लगाया। मैंने इसका उत्तर भेजकर जब सार्वजनिक रूप से चुनौती दी तो सर जेम्स ग्राहम ने भरे हाउस ऑफ कॉमन्स में मुझसे माफी माँगी। (इस समय मैझिनी के आचरण से संबंधित थॉमस कार्लाइल द्वारा 'टाइम्स' को भेजा गया पत्र अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।)
थॉमस कार्लाइल ने लिखा, 'मैझिनी के पत्र से संबंधित लिखते समय आपने कल के अंक में इस निंद्य कति का निषेध किया है यह ठीक ही है। परंतु आपने इस तरह लिखा है कि मैझिनी को आप बिलकुल नहीं जानते। वह अत्यंत नीच श्रेणी का व्यक्ति होने पर भी उसका पत्र खोलना अपराध समान ही है।
अब आपके इस उल्लेख के पश्चात् यदि मैंने मैझिनी की कुछ जानकारी दी तो इसमें कोई संदेह नहीं कि वह जानकारी बहुत उपयुक्त होगी। मैं कहता हूँ कि मैझिनी को प्रायः सभी लोग जानते हैं, वह अत्यंत नीच हो, फिर भी श्रेष्ठ है। बरसों से मैझिनी से परिचय होने का सम्मान मुझे प्राप्त हो और उसके व्यावहारिक ज्ञान से संबंधित चाहे मेरा कुछ भी अभिमत हो फिर भी मैं प्रसन्नतापूर्वक इस प्रकार साथ देने के लिए तैयार हूँ कि आज तक मैंने कोई बुद्धिमान, सद्गुणी, बड़ी योग्यता का धनी, उदारमना नरमणि देखा हो तो वह मैझिनी ही है। उसकी गणना उन देशवीरों में की जाती है जिनकी संख्या दुर्भाग्यवश इस जगत् में बहुत कम है और जो अद्वितीय रूप में सिद्ध हो गए हैं। मैं मैझिनी की गणना उन साधु पुरुषों में करता हूँ जो वीरता का सच्चा अर्थ जानते हैं तथा अधिक हो-हल्ला न करते हुए यथासंभव उदात्तता के साथ उसके अनुसार आचरण करते हैं।
परंतु पत्र व्यवहार से संबंधित जो प्रमुख प्रश्न है उसका अवश्य विचार करना चाहिए। ब्रिटिश पोस्ट ऑफिस पर आज तक हम विश्वास करते थे। उसी तरह पत्रों को अत्यंत पूजनीय माना जाना चाहिए। दूसरों के पत्र चोरी-छिपे खोलने का अपराध जेब कतरने के अपराध से भी भयंकर और राक्षसी है। हाँ, जब किसी नए गनपॉउडर प्लॉट का विध्वंस करना हो अथवा किसी राष्ट्रघाती विश्वासभंग को उजागर किए बिना राष्ट्र विनाश हो रहा हो, ऐसे अपवाद प्रसंगों में चाहे तो पत्र फाड सकते हैं, परंतु अन्य देशों के शहंशाह जब तुम्हारी सहायता माँगने आते हैं तब उन्हें स्पष्ट बता दो कि इस प्रकार की निंद्यनीय प्रणाली से ब्रिटिश राष्ट्र तुम्हारी कोई सहायता करना नहीं चाहता।
धन्यवाद।
आपका आज्ञांकित
तारीख : १५ जून, १८४४
थॉमस कार्लाइल'
पार्लियामेंट के कायदे का जो कारण बताया गया उसके सबंध में पूछताछ करने के लिए मैंने एक कमेटी नियुक्त करवाई। यह भयंकर प्रथा कब से आरंभ हो गई, इसका संपूर्ण इतिहास उजागर हो गया। पार्लियामेंट के दोनों हौसेस की उस कमेटी के फैसले में-यद्यपि वह फैसला बहुत ही संभलकर लिखा गया तथापि यह स्पष्ट रूप से स्वीकार किया गया कि सन् १८०६ से सन् १८४४ तक अधिकारारूढ़ सभी प्रधानों ने यह घणित कृत्य किया है। स्पेन्सर, कैनिंग, मॉर्किस ऑफ लेंस डाउन, लॉर्ड पामर्टन, ड्यूक ऑफ वेलिंग्टन, लॉर्ड रसेल नॉर्चडि और अनेक प्रधानों ने दूसरों के पत्र चोरी-छिपे खोले हैं। और वह भी भयंकर संकट निरवारणार्थ अथवा स्वराष्ट्र संरक्षणार्थ ही नहीं अथवा अन्य देशों में गुलामी का आचार अबाधित चलता रहे इसलिए मेरे ही पत्र अथवा अन्य देशभक्तों के पत्र खोले जा रहे थे ऐसा नहीं अपितु स्वयं अंग्रेजों के, थॉमस डन्कोम के पत्र भी खोले जाते थे और अपराध कानून में जिनके लिए कठोर दंड है ऐसे भयंकर अपराधों से वह पत्र खोलने का कृत्य छिपाया जाता। खोटे ठप्पे मारना, बनावटी मुहर लगाना आदि अपराध जरा सा भी दंड न होते हुए चल रहे थे। फ्रांस और स्विट्जरलैंड में वहाँ की सरकार द्वारा मेरे साथ विश्वासघात करने की हकीकत पीछे ही है। परंतु उन्हें यह आरोप लगाने की गुंजाइश तो थी कि मैं उनकी शासन प्रणाली का विध्वंस करने का प्रयास कर रहा था। परंतु भई, इंग्लैंड में मैंने क्या किया था? उनकी सरकार के विरोध में कोई षड्यंत्र रचने का किंचित् भी संदेह मेरे प्रति उन्हें नहीं हुआ था। तथापि अन्य सरकारों को खुश करने के लिए किसी गुलाम की तरह इंग्लैंड ने मेरे देश पर छाई हुई पराधीनता कायम रखने में सहायता की।
यह स्वीकार करने पर कि मेरे पत्र खोले गए तब तो इस सत्य घटना को सामने लाना ही चाहिए था। परंतु नहीं। पार्लियामेंट में जब इस तरह के प्रश्न पूछे गए कि मेरे पत्रांतर्गत बातें ऑस्ट्रिया आदि विदेशी सत्ताधीशों को सूचित की जाती थीं या नहीं, तब लॉर्ड अबर्डी ने उत्तर दिया, इस सज्जन व्यक्ति का अपनी निश्छलता तथा सत्यप्रेम के कारण संपूर्ण इंग्लैंड सम्मान करता था। उस प्रामाणिक तथा उदार लॉर्ड अबर्डी ने, जिनका शब्द वेदतुल्य माना जाता उत्तर दिया कि 'इस पत्र व्यवहार में से एक अक्षर भी किसी विदेशी सरकार को कभी सचित नहीं किया गया।' तालियों की गड़गड़ाहट हुई। भई, प्रधान के कौन से वाक्य पर तालियों का गड़गड़ाहट नहीं होती? थोडे ही दिनों के पश्चात कमेटी रिपोर्ट प्रकाशित हो गई और उसमें यह लिखा गया था कि इस पत्र व्यवहार में से कछ अंश विदेशी सरकारों को सूचित किया गया (हाउस ऑफ लॉस); विदेशी सरकार के विरुद्ध हो रहे आक्रमण बंद किए जाएँ-बस, इतना ही समाचार सूचित किया जाता (हाउस ऑफ कॉमन्स)।
जिस समय मेरे पत्र खोले जाते थे उस समय बंडीएरा बंधुओं का आक्रमण होनेवाला था। इससे संबंधित मुझे प्राप्त हुए पत्र इंग्लैंड ने इटली की अत्याचारी सरकार को भेजकर उन देशवीर बंधुद्वय के विनाश की तैयारी कराई। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि इंग्लैंड की सरकार ने यह अधम कृत्य किया। राज्य का प्रधान अंग राजकर्ता, परंतु अमल नहीं कराते'। 'शक्तित्रयी के संतुलन में ही विकास का वास्तविक रहस्य है' आदि मूर्खतापूर्ण तथा वही घिसे-पिटे तर्क करते हुए जहाँ सीमित कार्य प्रणाली है उस राष्ट्र में अनीति प्रचलित होगी ही। उसमें से सभी सरकारी अधिकारी व्यक्तिगत दृष्टि से अपने आपको चाहे कितने ही ईमानदार कहलाते होंगे तथापि इस असत्य और अस्वाभाविक राजसत्ता में विश्वास रखने से वे प्रत्येक कृति में अस्थिरतापूर्ण निंद्य आचरण करने लगते हैं। जीवन मापन सीधी रेखा में तथा एकरूपता के साथ करने के बदले वे व्यक्ति और अधिकार में भेद करना सीख जाते हैं। सामान्य जन के लिए जो घोर अपराध सिद्ध होते हैं वही षड्यंत्रकारी तथा मंत्री होने के नाते वे स्वयं धड़ल्ले से करते हैं। इस प्रकार उन राजनीतिकों के अनीति करने लगने से वे अधिकारी भी जो उनके मातहत काम करते हैं अनीति की शरण में जाते हैं। वे तुरंत सोचने लगते हैं कि दूसरों की जायदाद की सरकारी हित में चोरी करना यदि जायज है तो ऐसे ही कृत्य हमारे परिवार के हितार्थ करना वैध क्यों नहीं? इंग्लैंड में इतने पत्र खुल जाते हैं जितने पूरे यूरोप के किसी भी देश में नहीं। जिन पत्रों द्वारा कुछ रकम भेजी जाती उन पत्रों से संबंधित गवाही देते समय उस कमेटी के सामने पोस्ट ऑफिस के सेक्रेटरी कहते, 'अब उन पत्रों के बारे में कुछ भी न कहें, जिनमें रकम होती है, ये पैसे रास्ते में फेंके जाएँ या पोस्ट में फेंके जाएँ एक ही बात है। इस काम में भयंकर लूटमार हो रही है।' आदि। जब लॉर्ड अबर्डीन ने पत्र खोलने का निश्चय किया, तब दुय्यम अधिकारियों को उस षड्यंत्र में सम्मिलित करना पड़ा। लगभग विभिन्न निम्नतर श्रेणी का नौकर वर्ग यह जानता था। इन नौकरों में अज्ञानी तथा निर्धन लोगों की भरमार होने के कारण वे निजी अड़चनों में भी वही करेंगे जो सार्वजनिक विपत्तियों में किया गया था। अंग्रेज नीतिभ्रष्ट हो गए हैं। उनकी यह धारणा बन गई है कि राजनीतिक पापों के ढेर खड़े होने पर भी उनके निजी आचरण को कलंक नहीं लगता। निजी तथा सार्वजनिक आचरण की एकवाक्यता की लाज-शरम होती तो उन्होंने लॉर्ड अबर्डीन के अपराधों का अच्छा-खासा दंड दिया होता। परंतु उस राष्ट्र को उसके लिए थोडी सी भी शरम-हया नहीं है। पार्लियामेंट में जिस दिन उन लॉर्ड महोदय ने धडल्ले से तथा निर्लज्जता के साथ सफेद झूठ कहा उस दिन से यदि सभी ने किसी चोर-उचक्के की तरह उसे अपने घर में पाँव तक रखने न देने का-निश्चय किया होता, उसके साथ सारा नाता तुरत तोड़ डाला होता तो इससे अन्य लोगों पर अच्छी-खासी धाक जमती। परंतु सरकारी प्रतिष्ठा के नाम से चोर-उचकके-गिरी करने में इंग्लैंड को थोड़ी सी भी लाज नहीं आई। इतना ही नहीं, सर्वत्र हँगामा होने पर और ऊपरी तौर पर महा बगुला भगत बनने पर भी उस प्रधान मंडल में रत्ती भर भी अंतर नहीं आया अथवा उसे जरा सा भी घाटा नहीं उठाना पड़ा। इतना ही नहीं, परंतु थोड़ी-बहुत मात्रा में आज भी लोगों के पत्र खोले जा रहे हैं।
परंतु इस प्रसंग का लाभ उठाकर मैंने अपने स्वदेश की स्थिति इंग्लैंटवासियों के सामने प्रस्तुत करना आरंभ किया। आज तक उन्होंने इटली की उपेक्षा ही की थी। परंतु जब से सर जेम्स ग्राहम को मैंने सार्वजनिक पत्र लिखा तब से सभी का ध्यान इटली की ओर बँट गया। तब से मैंने इटली विषयक आंदोलन जारी रखा था। उस आंदोलन का तथा मेरे इटालियन मंडल का अंत में इतना परिणाम हुआ कि सैकड़ों सार्वजनिक सभाएँ आयोजित की गईं। इटली के लिए संस्थाएँ प्रस्थापित की गईं। पार्लियामेंट में मेरे देश के विषय में महत्त्वपूर्ण चर्चाएँ शुरू हो गईं और इस अंग्रेजी सहानुभूति का हमारे अगले प्रयासों में बहुत लाभ हुआ।
(सर जेम्स ग्राहम को भेजे गए सार्वजनिक पत्र का कुछ अंश नीचे दिया है --)
'ऐसा नहीं कि मेरे पत्र खोलने में आपने एक व्यक्ति के विरोध में व्यवहार किया है। केवल व्यक्ति विषयक अधिकारों को ही नहीं, इंग्लैंड ने मेरे राष्ट्र के अधिकारों को पैरों तले कुचल डाला है। आपने व्यक्ति विरोधी अपराध किया है। इतना ही नहीं, आप राष्ट्र नियम के विरुद्ध, विश्व नियम के विरुद्ध, विश्व के संचालक के विरुद्ध अपराधी सिद्ध हो रहे हैं। भलाई और बुराई में से आपने बुराई को चुना है। पशुतुल्य बल के बूते पर अप्रतिहत रूप से हो रहा अन्याय और उस मंत्रणा से मुक्त होने के लिए स्वाभाविक क्रोध से प्रयत्नरत न्याय इन दोनों मस आपने पशुतुल्य अन्याय का चयन किया है। परतंत्रता और स्वतंत्रता के युद्ध में इंग्लैंड परतंत्रता की ओर से लड़ रहा है। चांडाल के पक्ष में मिलकर आप चाडात हो गए हैं। 'संपूर्ण विश्व राजनीतिक तथा धार्मिक स्वतंत्रता से विभूषित हो। २ महामंत्र के बदले 'केवल हम ही स्वतंत्र, शेष सारे गलाम' इस अधम प्रवृत तथा राक्षसी इच्छा को आपने अंगीकार किया है।
'सारे विश्व के साथ मैं आपकी भर्त्सना इसी अपराध के लिए कर रहा हूँ। अब हम सतर्क हो गए हैं। अब आपने पत्र खोले, न खोले, दोना एक ही हैं। हम एक पत्र में महत्त्वपूर्ण बातें नहीं लिखेंगे अथवा डाक से पत्र नहीं भेजेंगे, यह कोई मुददा नहीं। मेरा प्रमुख मुददा यह है कि मेरे राष्ट्र के विरोध में व्यवहार करके आपने अपने चेहरे पर अक्षम्य कालिख पोती है।
'आप समझते हैं कि हम क्रांतिकारी हैं और यह विशेषण निंदा व्यंजक है, परंतु कभी आपने इस बात का विचार किया है कि हम राज्यक्रांतिकारी हैं अर्थात क्या कर रहे हैं। हमारे विचार से लगभग तीन करोड़ जनता पर अस्सी हजार ऑस्ट्रियन राज करें यह लज्जास्पद है। हमारा अभिप्राय है कि इटली देश स्वतंत्र हो। स्वतंत्रता, जिस स्वतंत्रता के लिए आपने राज्यक्रांतियाँ (स्मरण रहे, आप लोगों ने भी राज्यक्रांतियाँ की हैं) की और अब उसका आनंद ले रहे हैं। हमारा अभिप्राय है, उस संपूर्ण स्वतंत्रता की हमें भी कामना है। हमारी माँग है हमें सजीवता चाहिए। हमारी सारी शक्तियों के विकास के साथ हमें सजीवता चाहिए। वह सजीवता चाहिए जो ईश्वर को पसंद है। विश्व के साथ समानाधिकार से हमें प्रगमन चाहिए। हमारे चारों ओर गुप्तचरों के घेरे के बदले स्वदेश बंधुओं का प्रेममंडल चाहिए। हमें सलाहकार चाहिए, न कि स्वामी या मालिक। हमें देश चाहिए!
'इनमें से आप किस महत्त्वाकांक्षा की निंदा करना चाहते हैं ? इसमें आपको अपवित्र क्या दिखाई देता है? क्या आपके विचार से इटली के लिए ईश्वर नहीं है। क्या इटली का प्रमुख देव ऑस्ट्रिया का राजा है? उसका धिक्कार हो।
'ईसा मसीह ने, महाराज, क्या क्रांति नहीं की ? हमारे समान ही उसने शांति भंग नहीं की? विधर्मी लोग अपने अज्ञानांधकार में शांति के साथ खर्राटे भर रहे थे। ईसा मसीह ने इस शांति को भंग किया। उसने उन लोगों के संस्थापित राज्य के विरोध में आंदोलन छेड़ा। अब हम क्रांति का प्रयास करते हुए शांति भंग करते हैं, तथा संस्थापित राज्यों को पलटना चाहते हैं तो इसे घोर पाप समझनेवाला आपका राष्ट्र शांति भंग तथा संस्थापित राज्य की क्रांति करने के अपराध के लिए ईसा मसीह के विरोध में लड़ने के लिए तैयार होगा?
'अत: जो लोग हम जैसे स्वदेशभक्तों को, जिन्हें देह-त्याग का दंड हो गया है, शांति भंग न करने का उपदेश करते हैं वे अन्याय तथा अत्याचार का समर्थन करते हैं। तब कैसी शांति? अब आनेवाला संग्राम टालना मनुष्य के हाथ में नहीं रहा।
'परंतु संग्राम के अतिरिक्त स्वाधीनता-प्राप्ति का यदि कोई अन्य मार्ग है, शांति से रहकर हमें अपना राष्ट्र मिलेगा यह यदि कोई सिद्ध कर सकता है तो संग्राम से परावृत्त होकर शांति से उसे प्राप्त करने को हम तैयार हैं। वह हमारा कर्तव्य है। परंतु वह मार्ग कौन दिखाता है ? कौन सिद्ध करता है कि हमारा राष्ट्र शांति से ऊपर उठ सकता है? उस मनुष्य को, जिसे मोटी-मोटी जंजीरों से जकड़ा गया है, प्रगमन की इच्छा हो तो उसे प्रथमतः उस मोटी जंजीर के टुकड़े उड़ाने होंगे। उस मोटी श्रृंखला को वैसी ही रखकर भला वह मुक्त कैसे होगा? परवशता का कंठ चीर बिना राष्ट्र स्वतंत्र कैसे होगा?
'आप अंग्रेजों को कुछ लक्ष्य साध्य करना हो तो आपको गुप्त मंडल अथवा क्रांति युद्ध की आवश्यकता नहीं है। क्योंकि आप स्वतंत्र हैं। आपके लिए सार्वजनिक मार्ग खुले हैं। फिर आप षड्यंत्रों के उपमार्गों (छिपे मार्ग) से तथा विद्रोह की दलदल में से क्यों जाएँ? आप सत्य की शक्ति पर विश्वास करते हैं। सुबह-शाम उस सत्य का प्रकट रूप में आदेश करते हैं, वृत्तपत्रों, भाषणों में प्रतिदिन, प्रतिक्षण उसकी चर्चा होती है, महासभाओं, गोष्ठियों में उसपर बहस की जाती है। लोग उसे स्वीकारने लगते हैं। पार्लियामेंट में उस सत्य का सेमर्थन होता है और बहुमत से वह प्रसृत होता है। हम पराधीन लोगों की न पार्लियामेंट है न पीठासन, न ही हमें मुद्रण स्वातंत्र्य अथवा वाक् स्वातंत्र्य है, सभा स्वातंत्र्य भी नहीं। क्या ऐसा एक भी साधन नहीं रखा गया जो हमारे अंत:करण में खौलते विचारों को व्यक्त कर सके। ऐसी स्थितियों का उच्छेद बिना गुप्त मंडली के हम कैसे करें?
'महाराज, इटली देश एक भयंकर कारागृह है। उसके चारों ओर मुट्ठी भर जेल अधिकारियों तथा सिपाहियों का पहरा है। उनमें बंद लोगों को तलवार की नोंक पर नचाया जाता है। हमारे मुँह खोलते ही हमारा मुँह बंद किया जाता है। हमने थोड़ी सी हलचल दिखाई कि हमारी छाती में तलवार घोंप दी जाती है। हम सभी के अंतिम लक्ष्य का आरंभ करते ही उसे घोर अपराध कहा जाता है। हमें मुँह बाँधकर चुपचाप मार खानी पड़ रही है। इन स्थितियों में स्वतंत्रता के जीवनदायी पवित्र वातावरण में-उस ईश्वरीय वातावरण में स्वच्छंद साँस लेने हेतु खुली जगह आने के लिए उस जेल के दरवाजे तोड़ने का, उसकी खिड़कियों की सलाखें उखाड़कर फेंकने का, उस बंदीगृह को मटियामेट करने का तथा उस जेल क अधिकारियों को कुचलकर धराशायी करने का गुप्त तथा दृढ़ संकल्प किए बिना हमारे लिए अन्य मार्ग नहीं।
'साध्य से साधन की परीक्षा करनी पड़ती है यह सिद्धांत जिस प्रकार सामित है उसी तरह शक्ति का उपयोग न किया जाए यह सिद्धांत भी सीमित है। इससे अधिक अनुकरणीय मुझे यह प्रतीत होता है कि जब-तब किसी सत्कृत्य का पूर्ति, मुक्तिवाद का तर्क निष्फल सिद्ध होता है। जो हमें सत्य प्रतीत होता है वह प्रकट रूप में प्रतिपादन करने का स्वाभाविक अधिकार अत्याचार के बल पर आपसे बेधड़क छीन लिया जाता है। जब महान विचार तलवार की नोंक से दबाए जाते हैं तब आपको स्वयं ही अपना न्याय प्राप्त कर लेना चाहिए। जब आपका पक्ष सत्य है इसपर आपका पूरा विश्वास है, परंतु बहुमत आपके पास नहीं तो ऐसा होने से शांति के साथ जेल में अथवा फाँसी पर उस सत्य का प्रतिपादन करें। पर आपसी युद्ध का आपको अधिकार नहीं। लेकिन जब ऐसा होगा कि आपका पक्ष सत्य है, इतना ही नहीं वह बहुमत में है-तब स्वदेश में चैतन्य का संचार करें-चलिए, उठिए और शक्ति के बलबूते पर उच्छेद यदि इन दो हाथों में शक्ति रहने पर भी आप पाशविक अत्याचार भरा अन्याय पनपने देंगे तो अपनी इस कायरता के कारण आप नीच स्तरीय वृषभ कहलाएँगे। पवित्र कार्य में शुद्ध ध्येय से ईश्वरीय शक्ति का प्रयोग नहीं करेंगे तो ईश्वर तथा सत्य की आज्ञा ही भंग करेंगे। ऐसी दैवी शक्ति से घृणा करना कायरता है। स्वदेश के परवशता-पाश में रहते तथा अन्य कोई मार्ग खुला न होने के कारण जो युद्ध से विमुख होने की इच्छा करते हैं वे भूतदया के ढोंग तले अपनी क्लीवता ढकना चाहते हैं।
'आप अंग्रेज हमें बड़ी शान से उपदेश करते हैं कि हमारे लेखों से जनता क्रुद्ध होकर खौलने लगती है। जी हाँ, हमारे लेखों से लोगों में चैतन्य आता है। हम लेख इसलिए लिखते हैं कि जनता में गुलामी के कारण असंतोष फैले। परंतु हमारे देश में भाषण स्वातंत्र्य तथा मुद्रण स्वातंत्र्य न होने के कारण हम गुप्त रूप से उन्हें प्रसृत करते हैं। आप मुझसे कहते हैं कि गुप्त मंडलियाँ प्रस्थापित करना अवैध, गैर-कानूनी है। और उस अधिकार का गोपनीय ढंग से दुरुपयोग कब होता है जब प्रसिद्ध रूप से इस अधिकार का प्रयोग करने की अनुमति हो तब । प्रसिद्ध मंडलियों की संपूर्ण अनुमति हो तब गुप्त मंडलियाँ अवैध हैं। जहाँ सत्य प्रतिपादन पर असत्य ने पाबंदी लगाई है वहाँ गुप्त मंडलियाँ पवित्र हैं।
'जब ईसाइयों को अवैध घोषित किया गया तब धर्माधिकारी देशवीरों की कब्रों में इकट्ठा होने लगे और सभा आयोजित करने लगे। किसलिए ? केवल प्रार्थना के लिए? न, वे जीसस की धर्म प्रणाली किस तरह प्रसृत करें, धर्म रक्षार्थ किन साधनों का आयोजन करें और प्रत्यक्ष अधर्मियों के गुटाधिकारियों को कैसे वश में करें-इन बातों की चर्चा करते हुए गुप्त मंडलियाँ आयोजित करते समय जो सिद्धांत इंग्लैंड की स्थिति पर लागू होते थे वे हमारे देश की असाधारण एवं क्षुब्ध स्थिति पर लागू नहीं होंगे। उस एकमात्र मार्ग की, जो हमारे लिए खुला है, जब आप निंदा करते हैं तब अप्रत्यक्ष रूप से आप यही कहते हैं कि पराधीनता अभिलषणीय है और स्वाधीनता तिरस्करणीय। मैं प्रत्येक अंग्रेज मनुष्य से एक सीधा सा प्रश्न पूछता हूँ कि मान लो जब आप आंदोलन करते हैं तब अस्सी हजार सिपाही आपकी छाती पर मूंग दलने लगें, ऐसी स्थिति में आप कौन से 'शांत तथा वैध' उपायों का अवलंबन करेंगे? हम भी उन्हीं उपायों का अवलंबन कर रहे हैं जो आप करते। इन उपायों की आज आप षड्यंत्र समझकर निंदा कर रहे हैं, कल हमें सफलता मिल गई तो आप ही हमारी जय-जयकार करेंगे।
'आप कह रहे हैं कि आजकल हमें शिक्षा मिल रही है। जिन स्कूलों में 'प्रजा को नौकर की तरह अपने स्वामी का आज्ञाकारी रहना चाहिए; उनके राजा की सत्ता उनके व्यक्ति की जायदाद पर अबाधित रहनी चाहिए' इस प्रकार दुर्बल बनानेवाली शिक्षा दी जाती है, उन स्कूलों तथा उस शिक्षा से हमें क्या लाभ होगा? जिस यूनिवर्सिटी में पढ़ाए जानेवाला इतिहास विदेशी अधमों द्वारा जाँच-पडताल कर लाना पड़ता है उस यूनिवर्सिटी में मात्र नपुसंकता के सिवा क्या खाक मिल सकता है? उसी तरह यह सत्य है कि पहले हम सुधर गए हैं। परंतु वह सधार विदेशियों के प्रयासों का फलित नहीं बल्कि वह उनके उसे विफल करने की क्रिया की प्रतिक्रिया है। हमारे व्यापार तथा अनाज की महँगाई से हमारी दुरवस्था स्पष्ट होती है, परंतु हमारी दुःस्थिति का यह वास्तविक परिणाम नहीं है। जो रोटी, चाहे वह महँगी हो या सस्ती, दूसरे का जूठन है, हम खा रहे हैं। गुलामों को दी हुई रोटी महँगी हो या सस्ती-क्या अंतर पड़ता है? आप आँकड़ों का कतरब्योंत करते हुए यह निर्णय कैसे लेंगे कि हम सुखी हैं या दु:खी? आपके स्थाशास्त्र में कोई ऐसी रकम है जो गुलामी की नीचता गिनती है? गुलामी? हमारे पुरखों के ध्वज पर विदेशियों के नाम खुदनेवाली गुलामी? नीतिमत्ता की विनाशिनी गुलामी ! गुलामी, मेरे राष्ट्र की हत्यारिणी गुलामी!!
'इस गुलामी का विनाश अवश्य होगा। सन् १८२०, १८२१, १८३१ में प्रचंड राष्ट्रीय विद्रोह और तब से प्रतिवर्ष हो रहे आक्रमण यूँ ही नहीं हुए। स्वतंत्रता-प्राप्ति के हमारे प्रयास विफल हो गए। परंतु वे अकारथ नहीं जाएंगे। उन्होंने राष्ट्र को सजीव शिक्षा दी है। सन् १८३२ से 'युवा इटली' ने अपना ध्वज फहराया है। भाषण और मुद्रण द्वारा उस गुप्त सभा ने राष्ट्रीय सिद्धांतों का जोरदार प्रसार किया है। उसने राष्ट्र में नवचेतना उत्पन्न की है। उसके द्वारा प्रसृत राष्ट्राय तत्त्व हमारे राष्ट्रीय पराक्रमी लोगों के अंत:करणों में जड़ पकड़े हुए हैं। इस गुप्त सभा ने बहुतांश में राष्ट्रीय नेताओं में एकवाक्यता निर्माण की है। इटली में तब स घटित प्रत्येक आंदोलन पर थोड़ी-बहुत मात्रा में 'युवा इटली' का प्रभाव दिखाई देता है। अब हमारे आक्रमणों में केंद्रीयता नहीं होती यह महादोष है और इसी कारणवश हमारे पक्ष को आज तक असफलता मिली है। परंतु ईश्वरीय इच्छा से वह केंद्रीयता तथा युग आपेक्ष उत्थान शीघ्र ही होगा और मुझे दृढ़ विश्वास है कि आज तक व्यय किए गए देशवीरों के लहू का प्रतिशोध लिया जाएगा।
'मैं अपने बारे में कहता हूँ कि मेरी जो आयु अब शेष बची होगा, उसके पूर्ववत् मेरे अभागे देश की अभ्युन्नति के लिए, अपने इटली की स्वतंत्रता के लिए भाषण द्वारा, लेखन द्वारा अथवा क्रिया द्वारा मैं दिन-रात अखंड प्रयास करता रहूँगा, चाहे कितनी ही विपदाओं के पहाड़ क्यों न टूट पड़ें। जिन्हें स्वदेशार्थ कुछ भी नहीं करना है वे मुझपर शौक से निंदा की बौछार करते रहें।
मई १८४५
जोसेफ मैझिनी'
मेरे विचारों का गर्भितार्थ यह था कि जनता के लिए प्रयास करना हो तो वह जनता की सहायता से करना है। जनपद के लिए जनपद से ही सारे प्रयास होने चाहिए। मेरे लंदन में आने के पश्चात् वहाँ स्थित इटालियन कामगार वर्ग का मनौदार्य तथा नि:स्वार्थता देखकर मैं उत्साहित हो गया। उस समय तक हमारे देश के उस महत्त्वपूर्ण हिस्से की ओर, कामगार वर्ग की ओर मैंने इतना गौर नहीं किया था जितना करना चाहिए। उनका निरीक्षण करने का आज तक कभी अवसर न मिला था, परंतु अचानक ऐसा मौका मिलते ही मैंने उसका लाभ उठाने का निश्चय किया।
विशाल लंदन शहर के रास्तों से कई छोटे-छोटे बालक बाजा बजाकर अपनी उपजीविका की व्यवस्था करते। उन बालकों से मैं हमेशा बातचीत करता। इस बातचीत द्वारा ही उस भयंकर व्यवसाय का भाँडा फूट गया। लंदन में पाँच-छह इटालियन लोग अच्छे-खासे रच-बस गए थे। उनसे अपना लाभ हो तो कुछ भी कुकर्म करने के लिए तैयार होते। ये लोग कभी-कभी इटली जाते और वहाँ के गरीबों को सब्जबाग दिखाकर उनके छोटे-छोटे, नन्हे-मुन्ने बच्चों को ढाई वर्ष की कालावधि तक का अनुबंध करके अपनी नौकरी में ले आते। इस अनुबंध में यह वचन दिया जाता कि लौटते समय आवश्यक खर्चा तथा आज तक किए गए परिश्रम का भरपूर पारिश्रमिक दिया जाएगा। यह अनुबंध इटली में बिलकुल कानूनी ढंग से लिखकर दिया जाता। परंतु उन अज्ञ, निर्धन लोगों की समझ में यह नहीं आता कि इटली में लिखा गया अनुबंध इंग्लैंड के काउंसिल के हस्ताक्षर के बिना निरुपयोगी होता है। उसके पश्चात् ये भूखे-कंगाल लोग जब लंदन आते तब उनसे गुलाम जैसा व्यवहार किया जाता। उन्हें सुबह चाय की एक प्याली और रोटी का एक टुकड़ा दिया जाता। फिर उन्हें हार्मोनियम की पेटी देकर शहर में भेजा जाता। संध्या समय तक की उनकी कमाई पर उनकी सायंकालीन रोटी निर्भर रहती। जो निश्चित रकम की कमाई नहीं करके लाते उनकी रुई की तरह धुनाई होती और उन्हें रोटी नहीं दी जाती। उस भयंकर यंत्रणा से बच्चे भूख से बिलख-बिलखकर मर जाते। उन्हें निर्धनता का ढोंग और विश्वासघात करना अनिवार्य होता। इस प्रकार हजारों युवा इटालियन नीच, अधम प्रवृत्ति के बन जाते। अंत में कुछ-न-कुछ दोषारोपण करते हुए उस बच्चे को अनुबंध के अंत में एक दमड़ी भी न देते हुए भगा दिया जाता। इटालियन सरकार इस काम में ध्यान देती तो ठीक बंदोबस्त हो जाता।
इस स्थिति को सुधारने के लिए मैंने एक अलग ही उपाय सोचा। उनकी सुरक्षा के लिए मैंने एक संस्था बनाई की और एक नि:शुल्क स्कूल खोला। इस स्कूल में उन्हें राष्ट्रीय प्रशिक्षण दिया जाता जिसपर उनका अधिकार था। कभी-कभी उन्हें सलाह देकर मैंने उनके मालिकों पर अभियोग लगवाए। तब से वे दबकर रहने लगे। यह इटालियन स्कूल सन् १८४१ के नवंबर महीने में खोला गया और सन् १८४८ तक वह सुचारु रूप से चल रहा था। इसके लिए मैं इटली की प्रचंड राज्यक्रांति में उलझता गया और दो वर्ष इटली में हो रहा। आगे भी इटली में ही सारी व्यवस्था संभव होने के कारण उस स्कूल को बद किया। इन सात वर्षों में सैकड़ों युवा इटालियनों को हमने बौद्धिक तथा नैतिक शिक्षा दी। हमारे छोटे से ही पर वे पहले डरते-डरते जिज्ञासा लेकर आते और शीघ्र ही हमारे दयार्द्र आचरण से उनमें बहुत सुधार हो जाता। उन्हें इस बात पर गर्व होने लगा कि अब वे शिक्षित बनकर घर लौटेंगे। रात नौ से दस के दरमियान वे अपने-अपने वाद्य यंत्रों के साथ हमारे घर आते। उन्हें पठन, लेखन, अंकगणित, भूगोल, रेखाशास्त्र की मूलभूत शिक्षा मिलती। रविवार को संध्या समय हम उन सभी को इकट्ठा करते और एक घंटा इटालियन इतिहास पर व्याख्यान देते। उन्हें इस प्रकार के उपदेश करते जिससे गुलामी से ऊबकर उनके मन उदात्त हों। दो वर्षों तक मैं हर रविवार इटली के इतिहास पर व्याख्यान देता। मैं उन्हें ज्योतिष शास्त्र के प्रमेय भी बताता। मेरे विचार से ज्योतिष शास्त्र संपूर्ण धार्मिक विचार है। अपने मन की संकुचित मर्यादा तोड़कर उसे विशाल बनाने के लिए इस विषय के समान अन्य कोई विषय नहीं। इसके लिए अंतरिक्षांतर्गत चमत्कारों की सरल तथा मनोरंजक जानकारी प्राथमिक शिक्षा के साथ सरल, सुलभ भाषा में दी जाए। फिलिपो पिस्टुसी ने 'मानव कर्तव्य' जैस विषय पर सौ से अधिक व्याख्यान दिए। इटली में वे आशु कवि के रूप में विख्यात थे। इन्हें ही मैंने उस स्कूल के व्यवस्थापक के रूप में नियुक्त किया था आर व मा यह कार्य उत्साहपूर्वक करते।
यह कार्य अत्यंत पवित्र था और उतनी ही पवित्रता से उसे सपन्न किया गया। सारी सहायता बिना मूल्य लिये की जाती। व्यवस्थापक, सहायक, अध्यापक जिन्होंने हमारे स्कूल के कार्य में हाथ बँटाया, उनमें से किसी ने भी एक पाई तक नहीं ली। तथापि उन सभी को कष्ट उठाकर परिवार का भरण-पोषण करना पड़ता। प्रतिवर्ष नवंबर में हमारे स्कूल का वार्षिक समारोह होता। सभी छात्रों का पुरस्कार दिए जाते और एक अच्छी-खासी दावत दी जाती। इस भोजन प्रसग में हम अपने हाथों से पंक्तियों में भोजन परोसते। फिर देशाभिमानोत्तेजक गीत और पद गाए जाते। हमारे व्यवस्थापक अपनी आश कविता में राष्टीय स्वातंत्र्योद्दीपक गीत तुरंत रचकर गाते। ऐसे प्रसंगों का मन पर कितना गहरा परिणाम होता हैं? पूरे वर्ष भर शिक्षा ग्रहण करते हुए जो संस्कार मन पर नहीं होता वह एक संध्या में होकर प्रत्येक अंत:करण में स्वदेश की ज्योति प्रदीप्त होती। इन युवकों को, जो दुर्भाग्य तथा गलामी में पले बढ़े, अपनी शक्ति का अब आकलन होने लगा। उन्हें अब विश्वास हो गया कि वे भी मनुष्य हैं, जीवंत हैं, अपने अध्यापक समान उनकी भी आत्माएँ हैं। इस वार्षिक समारोह में कुछ ऐसे लोग भी उपस्थित रहते जिन्हें हमारे संबंध में कुछ आशंका थी और घंटे भर में ही हमारे प्रेमपूर्ण तथा स्वदेशाभिमान से लबालब भरे आचरण को देखकर संतुष्ट होते और स्वयं उदात्ततर बनकर वापस लौटते। हमारे इस स्कूल पर पहले-पहल बड़ा उपद्रव किया गया। जो इटालियन व्यावसायिक थे उन्हें तथा सार्डियन धर्मोपदेशकों को हमारा यह प्रयास पसंद नहीं आया। परंतु उनके सारे प्रयास निष्फल हुए और जब हमारा स्कूल अबाधित रूप से चलता रहा तब उनकी आँखें खुलीं। उन्होंने भी एक स्कूल खोला। इसी बीच अमेरिका में मेरा बहुतों से परिचय हो गया था। उनके द्वारा उधर भी एक स्कूल खोला गया। सन् १८४२ में न्यूयॉर्क (अमेरिका) में मिसीसिपी ने हमारे जैसा ही एक स्कूल खोला और बोस्टन में प्रो. बॅची ने भी एक स्कूल खोला।
इस स्कूल से लंदन स्थित मजदूर इटालियन वर्ग से मेरा मेलजोल शुरू हुआ। उनमें से चुनिंदा लोगों की सहायता से मैंने एक अन्य राष्ट्रीय प्रयत्न में हाथ डाला। मैंने कामगार वर्ग की संस्था स्थापित की और 'ॲपोस्टोल टोपोपोलेरी' नामक शीर्षक वृत्तपत्र शुरू किया। इस पत्र के मेरे लेखों की नीति मेरे 'मानवी कर्तव्य' शीर्षक निबंध से दिखाई देगी। इसी पत्र में यह निबंध प्रकाशित हुआ।
इधर स्विट्जरलैंड तथा पोलैंड में पहले से ही बने हुए हमारे स्नेह संबंध दृढ़ होने लगे और हमने अंतरराष्ट्रीय आंदोलन पुनः जोर-शोर से चलाए।
(इसके आगे का चरित्र मैझिनी ने स्वतंत्र रूप से न देते हुए विभिन्न लेखों में गूंथकर दिया है। लेखक का संपूर्ण अनुवाद प्रस्तुत प्रसंग में उपयुक्त नहीं है। क्योंकि तत्कालीन गतिविधियों की चर्चा उनमें की गई है। परंतु मैझिनी का चरित्र उसी की भाषा में कथन करने से युवा देशभक्तों की समझ में आना असंभव होने के कारण उस महात्मा के चरित्र का अगला अंश उन लेखों से यथासंभव सावधानी तथा सूक्ष्मता से चुनकर नीचे दिया है।)
इस समय मेरे देश में एक रद्दी तथा अनीति पर आधारित पक्ष उत्पन्न हुआ। उस पक्ष का नाम उर्फ दुर्बल पक्ष (Moderate Party) था। इस पक्ष की पूर्व परंपरा नीचता को शोभा देनेवाली ही है। ऑस्ट्रियन ने हमारे देश पर सत्ता प्रस्थापित की यह उनके विचार से बहुत अच्छा हुआ। 'युवा इटली' के सिद्धांतों का व्यापक प्रसार होकर स्वतंत्रता तथा स्वशक्ति के पवित्र तेज से सभी राष्ट्र युवकों को चैतन्य होते देखकर उनका सर्वांग कॅपकॅपाने लगा और इनके 'वैध' आंदोलन का आरंभ हुआ। अत्याचार को तलवार की नोंक से घोंपने और संपूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त करने के बदले इन्होंने जनता को सहनशीलता तथा शांति का उपदेश देना आरंभ किया। नरसी से धीरे-धीरे वैध आंदोलन करो, अन्यथा शासक असंतुष्ट होंगे और फिर हमारे हाथ कुछ भी नहीं लगेगा। यह उनका उपदेश था। राज्यप्रशासक के असंतुष्ट होने से हमें कुछ नहीं मिलेगा? इटली के दो करोड़ लोगों के सिंह गर्जना करने पर क्या स्वतंत्रता नहीं प्राप्त होगी? और वह स्वतंत्रता क्या प्रशासकों को संतुष्ट रखकर मिलेगी। उसका प्रत्येक शब्द एक-एक स्वाभाविक सिद्धांत का प्रतिनिधि है। आज तक राजसत्ता से जो-जो अधिकार छीन लिये गए वे सारे इस दुर्बल कायर पक्ष की भिक्षा देहि से नहीं, हमारे सबल पक्ष की गर्जना से ही यह हुआ। जब-जब जनता जनार्दन ने नृसिंह रूप धारण किया तब-तब ही अधिकार मिलते गए। प्रशासकों ने संतुष्ट होकर वे अधिकार नहीं दिए, भय के मारे थर-थर काँपते हुए दिए हैं। अर्थात् ऐसा नहीं कि प्रशासकों ने उन्हें हमें सौंपा, हमने उन्हें छीन लिया। और आगे भी यदि कुछ प्राप्त होने की आशा हो तो वह लोकशक्ति उन अधिकारों को छीनने के लिए तैयार होगी तभी प्राप्त होंगे। परंतु इस नपुंसक, नामर्द पक्ष का जनता तथा राष्ट्र शक्ति पर विश्वास कहाँ है? गैरीबॉल्डी के आक्रमण करके दक्षिण इटली स्वतंत्र करने तक इस नरम पक्ष ने गैरीबॉल्डी की योजना पर नाक-भौं सिकोड़े। परंतु जनता द्वारा चलाए गए आंदोलनों की पहले निंदा की जाती है तथापि उसमें जनता को किंचित् सफलता मिलते ही इस नरम पक्ष के बुजुर्ग गंभीरतापूर्वक कहते हैं कि यह तो हमारे वैध आंदोलन का फल है।
परंतु आखिर राष्ट्र सत्य तथा स्वतंत्रता के तेज से तेजस्वी होने लगा। सन् १८४६ तथा '४७ में यत्र-तत्र-सर्वत्र ऑस्ट्रिया के विरोध में प्रचंड आंदोलन शुरू हुआ। अंकोना में खुलेआम रास्तों पर गर्जना होने लगी कि 'विदेशियों को खदेड़ो' जिनेवा में चालीस हजार लोगों ने विशाल जुलूस निकाला और संराष्ट्रीय ध्वज फहराकर प्रकटत: नूतन राष्ट्र का जन्मोत्सव मनाया। इसी प्रकार जगह-जगह पर युवको का 'ऑस्ट्रिया से युद्ध' इस प्रकार जयघोष गूंजने लगा। ऐसे समय किसमें स्फूति उत्पन्न नहीं होगी? परंतु इस नामर्द पक्ष को इसका आकलन करना कठिन हो गया। इसी समय जनता पक्ष की चेतना बढ़ाते हुए ईश्वरीय आदेश से राष्ट्र स्वातत्र्य की शुभ प्राप्ति की ओर ध्यान देने के बदले ये नरम पक्षीय लोग राजसत्ता से गुप्त मंत्रणा करने में व्यस्त हो गए। वैध निबंध लिखकर वे देशभक्ति का स्वाँग रच रहे थे। रेलवे की एकाध पटरी बढ़ाने के लिए जी-जान से चेष्टा कर रहे थे और राजसत्ता द्वारा किंचित् सामोपचार से लेने पर खलबली शांत होगी इस प्रकार उपदेश दे रहे थे। जनता के समझदार होने पर उसे सत्ता देंगे, यह कथन सौ प्रतिशत असत्य है।
परसत्ता में सद्गुण असंभव होते हैं, उन सदगुणों के शरीर में प्रवेश करने पर स्वाधीनता प्राप्त होगी? यह असंभव है। लोकसत्ता के सदगुण लोकसत्ता ही सिखाती है यह इन मतिमंदों को समझ में नहीं आया, पर जनता समझ गई। मिलॉन में तो आंदोलन की चरम सीमा पार हो गई। वेनिस में ज्वालामुखी अब फूटा तब फूटा इस प्रकार स्थिति थी। पहले छोटे-मोटे आंदोलन हुए। ऑस्ट्रेलिया ने उन्हें अत्याचार से दबाने का प्रयास किया और राज्यक्रांति धमक उठी। मिलॉन में सारे युवक स्वदेशार्थ तलवार सौंपकर रणभूमि में कूद पड़े। इतने में कुछ साधारण अधिकार राजसत्ता द्वारा देने की वार्ता आ गई। परंतु शाबास, मेरे राष्ट्र युवको, शाबास! उन्होंने भीख के इन टुकड़ों की परवाह नहीं की। मानो कुत्तों के सामने फेंके हुए टुकड़ों पर वे संतुष्ट नहीं हुए। उन्हें ये गुलामी के अनंत अधिकार नहीं चाहिए थे, उन्हें स्वतंत्रता का एक ही अधिकार चाहिए था। वे तैयार हो गए। राज्यक्रांति का ढोल बजने लगा। वे सारे युवक युवा इटली' के सदस्य थे। वे सिद्धांत के लिए प्राण देनेवाले थे। तारीख १८ के दिन उन्होंने राज्यक्रांति का आरंभ किया। मिलॉन शहर में सारे रास्ते नागरिकों ने रोक रखे हैं। युवक रायफल, तलवार, पिस्तौल, खंजर आदि जो हाथ लगे वे सारे शास्त्रास्त्र लिये बाहर निकले हैं। त्रिरंग भूषित राष्ट्र ध्वज उभारे गए हैं। दश दिशाओं से 'इटली की जय-जयकार', 'लोकसत्ता की जय', 'स्वतंत्रता देवी की जय', 'राष्ट्रदेवी की जय' इन जयघोषों से सारा वातावरण गूंज उठा। इस आशय का पत्र इंग्लैंड के वकील ने लिखा था। ट्युरिन को तारीख १९ के दिन खबर आ गई। वहाँ के लोगों का उत्साह ठाठे मारने लगा। युवकों के झुंड मिलॉन की ओर लड़ने के लिए निकल पड़े। तारीख २१ को उस लोकसत्ता का वास्तविक प्रभाव दिखाई दिया और तारीख २२ के दिन उस वीर रस को विजयदेव ने गले में विजयमाला पहनाई। मना ने पोर्टीटोसा जीत लिया। गली-गली में लोकसत्ता का ध्वज फहराया। स्वतंत्रता-सैनिक हमला करते हुए आगे बढ़े। ऑस्ट्रिया की सेना पीछे हटते-हटते अंत में शहर छोड़कर भाग गई। मिलॉन में जनसत्ता प्रस्थापित होने के आसार दिखाई देने लगे।
वहाँ पिडमांट राज्य के राजा ने अपना जहाज घुमाया। मिलॉन में जनसत्ता प्रस्थापित होते ही वह लहर अपने राज्य में भी फैलेगी इस भय से उस राज्य ने सूचित किया कि मिलॉन शहर अपनी सत्ता का स्वीकार करे तो वह उसकी सहायता करने के लिए तैयार है। विदेशियों की चपेट से मुक्त होने के लिए उत्सुक लोगों ने इस सहायता को स्वीकार किया और न केवल जनसत्ताक का बल्कि ऑस्ट्रिया से लड़कर अभी-अभी प्राप्त की हुई स्वतंत्रता का भी विनाश किया। मैझिनी ने कई कागजातों का आधार देकर यह निर्विवाद रूप से सिद्ध किया कि पिडमांट के राजा ने जो सहायता की वह स्वदेश के लिए नहीं, मात्र इसलिए कि लोकसत्ता का नाश हो। अंत में ऑस्ट्रिया से परस्पर संधि करते हुए मिलॉन को विश्वासघात से छोड़कर स्वयं चलता बना। अपनी तरह ही परवशता ग्रस्त दुर्बल राज्य का स्वामिल स्वीकार करते हुए मिलॉन के नेताओं ने अनेक तरह से आत्मनाश किया।
उन्हें इस बात का विस्मरण हुआ कि नामर्द राजा से देश स्वतंत्र नहीं होता। तिसपर मिलॉन की वार्ता सुनकर तथा विद्रोह का राष्ट्रीय स्वरूप देखकर सभी लोग। उससे मिलने के लिए तैयार हो गए और यह विद्रोह एक राज्य का उल्लू सीधा कर रहा है यह देखकर अन्य राज्य भी विद्रोह का विरोध करने लगे। अच्छा, परतंत्रता का आमूलचूल विनाश होता तो वह भी सारे लोग भूल जाते। परंतु वह पराधीनता जनशक्ति से कुचलने के बदले एक दुर्बल राज्य की टूटी-फूटी तलवार पर सबकाल छोड़कर जनता को वापस भेजा गया। गैरीबॉल्डी की तिरस्कारपूर्ण उपेक्षा की गई। युवा स्वयंसेवकों में फूट डालकर उन्हें विसंघटित करते हुए बैठाया गया। अन्य शहरों में विद्रोह का प्रयास छोड़ दिया गया। अतएव विद्रोह की राष्ट्रीयता छोड़कर पुनः परदास्यता की बेड़ियों में अपने आपको जकड़ लिया।
मिलॉन की ऑस्ट्रिया पर प्राप्त विजय की वार्ता हम देशभक्त निर्वासितों को सूचित की गई। यह सुनते ही कि मिलॉन स्वतंत्र हो गया, वनवासी बनी इन लाशों में नए प्राण का संचार हो गया। अनंत यातनाएँ तथा अतीत के दुःखों का विस्मरण हो गया। सभी विश्वासघातियों का विनाश हो गया। केवल एक ही विचार मन में शेष रहा। जिह्वा पर केवल एक ही शब्द शेष रहा कि 'अपना देश कायम है।' हमारा वह इटली देश कायम है जिसकी सेवा के लिए हमारी जीवन का बलिदान किया जा सकता है। और उस इटली की ओर हमने दौड लगाई। गर्व से मस्तक ऊँचा करत हए तथा प्रसन्न-विभोर होकर वनवास जाते समय जिस-जिस प्रदेश से गालिया, अभिशाप झेलते हुए हम आए थे उन सभी प्रदेशों से अब हमारे देश की जय जयकार सुनते हुए हम इटली की ओर दौड़े आए।
हम स्वतंत्रता की समरभूमि की ओर वायवेग से जाने लगे। 'जनसत्ता की जय-जयकार' हमने सुनी। मेरा मिलॉन में आगमन होते ही गतिविधियाँ तेज हो गई। उस समय शहर के लोगों में विलक्षण उत्साह तथा आवेश का संचार हो गया था। राष्ट्रनिधि में हजारों रुपए इकट्ठा हो गए थे। नेताओं को लाखों रुपए बिना सूद के दिए गए। राष्ट्रीय स्वयंसेवकों में नाम दर्ज कराने के लिए होड़ लग गई। इधर युवा स्त्रियों ने तो स्वदेशाभिमान में उन युवकों को भी पीछे छोड़ा। महिलाओ ने कारतूस बनाना आरंभ किया। वे दर-दर भिक्षा माँगने के लिए धूमने लगा। उन्होने घायल देशवीरों की सेवा-शुश्रूषा करने के लिए परिचारिका का कार्य आरंभ किया। नेपल्स में व्यापक आंदोलन शुरू हुआ। यूनिवर्सिटी से छात्रगण निकल पड़े। सेना स्वेदशार्थ मरने-मारने पर उतारू हो गई। मैंने मिलॉन आते ही जनसत्ताक पक्ष को एकजुट किया। परंतु मेरे आने से पहले मिलॉन जनता के हाथ से राज्य प्रशासकों के अधिकार में चला गया था। यद्यपि मैं और मेरे मित्र लोकसत्तावादी थे तथापि विदेशियों को खदेड़ने का कार्य पहले पूरा करने के लिए लोकसत्ता का प्रश्न बिलकुल न छेड़ते हुए चुपचाप बैठे रहे। इतना ही नहीं, ऑस्ट्रिया के विनाशार्थ सभी पक्ष एक हों, इस प्रकार उपदेश देने लगे।
हमारे अंत:करण की पहली इच्छा, हमारे जीवन का पहला कर्तव्य हैपरतंत्रता से मुक्ति। हमारा प्रथम प्रयास विदेशियों के हाथों से स्वदेश को पूरी तरह से कराना था और रहेगा। इसके पश्चात् दूसरा उद्देश्य है-राष्ट्रैक्य। क्योंकि एकराष्ट्रीयता संपादन किए बिना, सदियों से राष्ट्र के बिखरे हुए टुकड़े इकट्ठे किए बिना, इटली एकराष्ट्र हुए बिना स्वतंत्रता कभी नहीं टिकेगी। हमारा तीसरा लक्ष्य है लोकसत्ता। मेरा पूर्ण विश्वास है कि इस लोकसत्ता की विजय भविष्य में निश्चित ही होगी। आज क्या हुआ है? आज जो असंभव है वह संभव होने के लिए भविष्य के उदर में भरपूर जगह है। फिर मैं जल्दी काहे को मचाऊँ? यदि कोई स्वतंत्रता की, राष्ट्रीय एकता की प्रतिभूति ले रहा हो तो मैं प्रसन्नतापूर्वक-मेरी निष्ठा है इसलिए नहीं क्योंकि वैसा होना असंभव है-जनसत्ता के लिए करने का प्रयास स्थगित करेंगे, यह मैंने प्रकट रूप में सभी को सूचित किया है। उन राज्यकर्ताओं को भी मैंने प्रकटतः बताया है कि ऑस्ट्रिया से युद्ध जारी रखने में मैं तुम्हारी मुँहमाँगी सहायता करूँगा।
परंतु उसे मुझ पर विश्वास नहीं हो रहा था। एक दिन उस राजा का अधिकारी मेरे पास आया और मुझसे प्रार्थना करने लगा कि मैं जनसत्ता के पक्ष को राजपक्ष की ओर खींचकर ले आऊँ। मुझे उस राज्य के प्रधानमंत्री का पद देने के लिए वे तैयार हो गए; परंतु मैंने अपना अभिप्राय स्पष्ट शब्दों में सूचित किया कि मैं जनसत्ता पाने तक वैसा ही रहूँगा, जैसा अब हूँ। क्योंकि मुझे पूरा विश्वास है कि इसके बिना स्वदेश की वास्तविक उन्नति नहीं होगी। परंतु मेरा स्वदेश स्वतंत्र हो और एक हो-यह मेरी इच्छा इतनी बलवती है कि राजा ये दोनों बातें किए बिना नहीं रहेगा, इस प्रकार मुझे लिखित वचन दे तो मैं जनसत्ता पक्ष के सारे आंदोलन बंद करके आपके साथ ऑस्ट्रिया की बेड़ियाँ तोड़ने का प्रयास करूँगा। यह मेरा पूर्व नियोजित विचार है और मेरे पक्ष का आचरण इतनी देर तक इसी नीति से चल रहा है। यह लिखित वचन देना स्वीकार किया गया। मैं यह लिखकर दूँ, यह भी तय हो गया। इसके अनुसार मैंने लिखकर भी दे दिया। थोड़े ही दिनों के पश्चात् मुझे सूचित किया गया कि यह वचन देने के लिए राजा तैयार नहीं। तथापि युद्ध में विजय प्राप्त करने के लिए हमने प्राणप्रण से प्रयास किया। मैंने स्विट्ज़रलैंड के स्वयंसेवकों की सहायता देनी चाही, लेकिन उसे नकारा गया। मेरे विरोध में जनता में विद्वेष फैलाने के प्रयास आरंभ हो गए। मेरे विरुद्ध भीति पत्रक लगाए गए की' मैं अपनी माँ के राजनैतिक अभिमतों का धिक्कार करते हुए उसका मुखावलोकन करने भी नहीं गया। मैंने उसका दर्शन नकारा। हाय ! हाय! इसी समय मैं बीस सालों के वनवास के पश्चात् इटली वापस लौटा हूँ यह सुनकर वह ममता की मूरत मेरी माँ मेरे उस वनवास पर, मेरे मस्तक पर तथा मेरी देशनिष्ठा पर शुभाशीर्वादों की वृष्टि करने जिनेवा से निकलकर मिल आने का प्रयास कर रही थी।'
एक दिन रात बारह बजे मुझे मिलन के अधिकारी का बुलावा आ गया। मिलन में नियुक्त अस्थायी सरकार युडिन की पराजय की वार्ता सुनकर सिटपिटाई थी। मैं उनके पास चला गया। वहाँ हमारे जनसत्ताक पक्ष की प्रमुख हस्तियाँ उपस्थित थीं। उस अधिकारी ने विनती की कि 'अब स्वदेश की रक्षा करो।' मैंने एक कागज पर आवश्यक बातों की टिप्पणियाँ लिखीं और उनसे कहा कि जनता का अपमान करने से आप अप्रिय हो गए हैं। अत: लोकप्रिय नेताओं की नियुक्ति करके इन बातों को संपन्न करने से विदेशियों का विनाश सहजतापूर्वक किया जा सकता है। मुझसे नाम बताने की प्रार्थना किए जाने पर मैंने तीन नाम बताए। उन्हें मेरे लोकसत्ता के प्रयासों का संदेह भी न हो इसलिए जानबूझकर हमारे नेताआ क नाम छोड़कर तीन विभिन्न पक्षों के लोग चुन लिये। सेना तैयार करने में अड़चन न आए इसलिए मैंने स्वयं एक हजार युवा स्वयंसेवकों की सेना तैयार करने का दायित्व सँभाला। उन्हें बताया कि केवल मेरे ही हस्ताक्षर में व मेरे हस्ताक्षर का जाहिरनामा मुझे निकालने दें। इतना सबकुछ करके मैं वापस लौटने लगा। तालियों की गड़गड़ाहट में उन्होंने सर्वसम्मति प्रदर्शित की।
दो दिनों के पश्चात् यह सम्मति वापस ले ली गई। क्योंकि राजा हमारी सेना पर विश्वास नहीं करता। अब एकता के लिए कोई तैयार नहीं था-लोकसता राजसत्ताक लोग?
मुझसे कईयों ने मिलन की, अस्थायी सरकार को पलट सपूर्ण सत्ता अपने पक्ष में कर लेने का अनुरोध किया। उस निर्जीव सरकार को पलटने में एक पल भी नहीं लगता; परंतु मैंने यह अनुरोध अस्वीकार कर दिया। मैं किसी भी प्रकार की फूट पड़ने देना नहीं चाहता था, अत: मैंने उनमें हस्तक्षेप नहीं किया।
आखिरकार वही हुआ जो होना था। राजा को मिलन सुरक्षा की कभी चिंता ही नहीं थी। उसने एक दिन पहले मिलन शहर ऑस्ट्रिया के हवाले कर देने का गुप्त अनुबंध किया और दूसरे दिन नीचता की चरम सीमा तक पहुँचते हुए मिलन की जनता के सामने नगर की रक्षार्थ उसने शपथ ग्रहण की और तुरंत गुपचुप पुरा नगर ऑस्ट्रिया को सौंपकर स्वयं भाग गया।
अखंड धन्य हो जनसत्ताक पक्षीय। उन्होंने जो वचन दिया उसे अंत तक निभाया। प्रथम परकीय सत्ता का उच्छेदन और स्वदेश स्वातंत्र्य, फिर स्वदेश की एकता और स्वतंत्रता अबाधित रखने के लिए जनता की अनुज्ञा से जन एकता प्रस्थापित करना-इस कार्यक्रम का हमने अंत तक पालन किया। वीर जनसत्ताक ऑस्ट्रिया से लड़ते समय रणभूमि पर अंत तक टिके हुए थे। मिलन के द्वार पर परकीय शत्रु खड़ा होते हुए भी युद्धोन्मुख हुए युवक जनसत्ताक ही थे और राजा की संधि ताक पर रखकर मिलन की रणभूमि पर जगमगानेवालों में अंतिम शूरवीर गैरीबॉल्डी भी जनसत्ताक ही था। जनसत्ताक पक्ष ने ही मिलन के विद्रोह का आरंभ किया और राजसत्ता से मिलकर भी यथासंभव वे ऑस्ट्रिया से जूझते रहे। इतना ही नहीं, राजसत्ता ने भगोड़ी बनकर अपने प्राण बचाए; फिर भी हमारा पक्ष रणभूमि में कुंडली मारकर बैठा हुआ था।
मिलन में सारी आशाओं पर पानी फिरने के पश्चात् मैंने वह नगरी छोड़ दी। उस समय मेरे मन पर दुःखों का कितना बड़ा पहाड़ टूट पड़ा था यह ईश्वर ही जाने। मोझा गाँव में गैरीबॉल्डी अपनी छोटी सी शूर टोली के साथ खड़ा था। मैं उस टोली से जा मिला। उस टोली का लोकसत्तांकित ध्वज अभी तक लहरा रहा था। उसे उन युवा सिपाहियों ने प्रेमपूर्वक मेरे स्वाधीन किया। वह निशान जो 'ईश्वर और जनपद' मंत्र का उच्चारण करता था, छह महीनों के उपरांत रोम के तट पर दिव्य तेजप्रभा में दमकने वाला था। वह ध्वज मेरे स्वदेश का चिह्न था। मैंने अत्यंत पूज्य भाव से उसे स्वीकारा। उस समय का उत्साही वर्णन सेनापति मेडिस ने दिया है। वह यहाँ लिखता हूँ, 'सेनापति गैरीबॉल्डी कस्टोजा में राज सेना का पराभव होने के उपरांत मोझा गाँव जाने के लिए अपने चार सौ सिपाहियों के साथ सत्वर निकला। इतने में आघाडी की टोली ने, जो मेरे अधिकार में थी, मैझिनी के आने की खबर दी।३ अगस्त , १८४८ के दिन प्रात:काल में यह घटना घटी। देखा तो मैझिनी कंधे पर बंदूक लिये मेरी टोली में साधारण सिपाहियों के स्थान पर अपनी नियुक्ति की अनुमति माँग रहा है। उस महात्मा देशभक्त को देखते ही सर्वत्र जय-जयकार का उद्घोष शुरू हुआ। मेरे सिपाहियों ने सर्वानुमते अपने 'ईश्वर और लोक' इन तत्त्वद्वयों से अंकित ध्वज उसके अधीन किया।'
मैझिनी के आगमन का समाचार मिलते ही सारा गाँव वहीं पहुँच गया। सारे लोग उसके इर्द-गिर्द भीड़ लगाकर खड़े हो गए कि वह कुछ बोले। उस समय उसके द्वारा किया गया उपदेश कानों में अभी तक गुनगुना रह है -'इटली से अखंड, अव्याहत प्रेम करो और संकट आने पर भी निराश मत होना' उसके ये शब्द सुनकर लोगों में विलक्षण आवेश और जोश का संचार हुआ, गाँव की ओर चल पड़े।
सेना के लिए यह प्रवास अत्यंत कष्टप्रद था। वर्षा निरंतर हो रही थी और हम पूरी तरह भीग चुके थे। यद्यपि संपूर्ण समय विद्यार्जन में बीता था तथापि इस असहनीय कष्टप्रद यात्रा में मैझिनी का सातत्य तथा गांभीर्य अलौकिक था। उसकी शारीरिक अवस्था से चिंतित होकर हमने कई बार उसे पीछे रहने के लिए कहा, परंतु उसने एक न सुनी अथवा सेना को छोड़कर बिलकुल सुस्ताया नहीं। एक बार यह भी हुआ कि हममें से किसी युवक को, कुरला न पहनने के कारण उसे सरदी लगती होगी, यह जानकर मैझिनी ने बलपूर्वक उसे अपना कुरता पहनाया। आगे चलकर हमने मिलन की शरण में जाने की वार्ता सुनी और ऑस्ट्रिया ने हमारा पीछा करना आरंभ किया। उस समय मेरी टोली पिछाड़ी की सुरक्षा के लिए नियुक्त की गई थी। अंत तक मेरी टोली ने शत्रु का मुकाबला साहस के साथ किया। इतने भयंकर प्रसंग में मैझिनी का प्रचंड आत्मबल, साहस तथा दृढ़ निश्चय बुलंदी पर था। हममें से अत्यंत शूरवीरों ने भी दाँतों तले अपनी अंगुली दबाई । मैझिनी के साथ संकटों से जूझने में भी हमारी टोली गर्व करती। उसके वास्तव्य, उसके धैर्य, उसके शब्दों से युवा सिपाहियों का उत्साह ठाठे मारने लगता। मुठभेड़ की नौबत आते ही मैझिनी सबसे पहले कूद पड़ता। जिस देशनिष्ठा का वह अध्वर्य था उसके कार्यार्थ अपने प्राणों की बाजी लगाने में हमेशा तत्पर रहता। उसके इन्हीं कृत्यों से सारी सेना सुरक्षित और सुव्यवस्थित रही। ये कार्य मैझिनी के लिए इतने भूषणास्पद है कि उनका अप्रसद्धि रहना ठीक नहीं। हमारा दृढ विश्वास है कि नागरिकत्व के अनत। गुणों से संपन्न इस महापुरुष में एक निष्ठ सिपाही के सदगण भी मिले हुए है। मैझिनी उत्तम नागरिक और एक शूर सिपाही था और ये दोनों गुण उसने स्वतंत्रता देवी के विजयार्थ खर्च किए।
वस्तुतः मिलन के पराभूत होने पर भी विद्रोही धीरज बरतते। परंतु राज्यक्रांति के कार्य में एक अक्षम्य प्रमाद किया जाता है. वह यह कि लोग समझते है कि राजधानी गिर गई अर्थात् सारा राज्य धराशायी हो गया। स्वतंत्रता संग्राम में स्वदेश की वास्तविक राजधानी नहीं होती है जहाँ देशभक्तों का ध्वज फहराता है। स्वतंत्र जावन अथवा पवित्र मरण स्वीकारने का निश्चय करते हा स्वातत्र्यवार ध्वजा जहाँ-जहाँ ले जाते हैं वहाँ-वहाँ राजधानी उनके पीछे-पीछे घूमती है। परंतु उस समय यह बात समझ में नहीं आई और संपर्ण प्रदेश आस्ट्रिया के कब्जे में हुआ। गैरीबॉल्डी ने मानवी प्रयास के लिए यथासंभव रणभूमि का त्याग नहीं किया और जब भी छोड़ा तो किसी भी तरह का अपमानजनक अनुबंध न करते हुए वीरोचित सम्मानपूर्वक छोड़ा। मैं मिलन में था तब वहाँ के युवकों ने मुझे बंडीएरा बंधओं की शहादत की तिथि के दिन व्याख्यान देने के लिए कहा, तब मैंने एक भाषण दिया-
'हे युवको, जब इस पवित्र मंदिर में देशभक्त बंडीएरा बंधुओं के स्मरणार्थ मैं आपके लिए कुछ बोलूँ। आपने मुझे आज्ञा दी तब मैंने सोचा, उन देशभक्तों की सेवा का यह सत्य मार्ग नहीं। भई, शहीदों के लिए शोक क्यों किया जाए? स्वतंत्र्य सेनानियों की वास्तविक पूजा करनी है तो उनके द्वारा आरंभ किए गए महायुद्ध में विजयश्री का वरण करना चाहिए। स्वतंत्रता-वीरों के सम्मान करने का एकमात्र मार्ग है-स्वतंत्रता-प्राप्ति। परंतु क्या आपने वह स्वतंत्रता प्राप्त की है? जिस धरातीर्थ पर उन स्वतंत्रता-वीरों ने अपने प्राण त्यागे, वह कासेंझा की रणभूमि आज भी परंतत्रता में ही है न? जिस भूमि पर स्वतंत्रता-वीरों ने जन्म लिया, वेनिस की वह भूमि आज भी विदेशियों के पैरों तले कुचली ही जा रही है न? फिर ये व्याख्यान किसलिए? चलो, पहले स्वदेश को मुक्त करें। चलो, प्रथम दास्यता का उच्छेदन करें और उस क्षण तक अन्य कोई भी शब्द का उच्चारण न करते हुए केवल हरहर महादेव की ही गर्जना करें।
'परंतु तुरंत एक अन्य विचार मन में आ गया कि अपनी स्वतंत्रता के लिए हम हाथ-पाँव मार रहे हैं फिर भी हमें सफलता नहीं मिलती, इसका कारण ढूँढ़ने के लिए हमें प्रथम आपस में चर्चा करनी होगी। वह कारण यह है कि हमारे जिन देशभक्तों ने अपना लहू देश की स्वतंत्रता के लिए बहाया उनकी तरह मरने-मारने के दृढ़ निश्चय के साथ हमने आक्रमण नहीं किया। वह आवेश और स्वातंत्र्यनिष्ठा हम लोगों में नहीं है। हमारे प्रयास दुर्बल और संदेहग्रस्त हैं। ईश्वर और देश परस्पर विरोधी नहीं, एकरूप ही हैं-यह पूर्ण निष्ठा रखकर आज भी हम आक्रमण करें तो विजयश्री अवश्य पाएँगे। हम स्वतंत्रता प्राप्त करेंगे, फिर जो देशवीर आज तक स्वदेशार्थ छटपटाकर धराशायी हुए हैं, उनसे कहेंगे, 'आपका लहू अकारथ नहीं गया, अपना देश स्वतंत्र हो गया है।' प्रेम करो, युवक जनो, प्रेम ईश्वर के प्रति की जानेवाली सोपान-परंपरा है। अपने परिवार से प्रेम करें, परंतु यह अंध प्रेम न हा। यह प्रेम दैविक, शुद्ध तथा कर्तव्यस्वरूप हो। वह सुख-लालसा न हो, वह प्रेम के लिए प्रेम हो। प्रेम ऐसा हो जो कर्तव्य के आड़े न आए, कर्तव्य के प्रति उत्साहित करे।
'युवको, स्वदेशभूमि से प्रेम करो। तुम्हारी स्वदेशभूमि वही है जहाँ तुम्हारे पूर्वज स्वगीय निद्रालीन हैं। आपका स्वदेशभूमि वही हैं जहाँ जिस भाषा में आपकी प्रेममूर्ति ने आपसे प्रथम प्रेम शब्द का उच्चारण किया और वह भाषा जहां परिवर्जित हो गई। स्वदेश आपको ईश्वर द्वारा दिया हुआ गेह है। स्वदेश तो तूम्हारा अभिमान, तूम्हारा वैभव चिह्न है। उस स्वदेश को अपना विचार, अपना उपदेश, अपना लूह समर्पित करें। उस स्वदेश को अपने पूर्वजों के भविष्य के अनुसार भव्यता की ओर सुंदरता की ओर ले जाएँ। और आप यह विशेष सावधानी बरतें कि उस सुंदर भविष्य को किसी भी तरह का कलंक न लगाते हुए इस जगत् से विदा लेने का दावा कर सकते हैं। आप इस प्रकार सावधानी बरतें कि आपके विदा होने से पहले यह स्वदेश स्वतंत्र हो जाय। यह स्वदेश ईश्वर की तरह एक हो, उसके टुकड़े-टकडे न हों। आपके पीछे एक ऐसा वैभवशाली अतीत खड़ा है और आशा से खिला-खिला भविष्य खड़ा है कि यूरोप के अन्य राष्ट्र जलते रहें। आप ऊपर दृष्टि उठाए तो ऊपर रमणीयतम.आकाश और नीचे दृष्टि झुकाएँ तो कमनीयतम भूमि आपके अभिनंदनार्थ उतावली हो रही है। ईश्वर की अंगुली से आपके राष्ट्र की सीमाएँ अंकित हैं। ईश्वर ने आल्प्स तथा सागर का पहरा तुम्हारे चारों ओर रखा है। इस राष्ट्र में भीम जैसे बलवान वीर लोग उत्पन्न हुए हैं। इसका अतीत बड़ा उज्ज्वल रहा है। अतः जिस आकाश को गुलामी का, दास्यता का धब्बा लगा हो, उस गगन तले रहने के लिए आपके ढाई करोड़ जनों में से एक भी मनुष्य तैयार न हो, एतदर्थ अपना राष्ट्र स्वतंत्र करें और रोम की उस स्वतंत्रता का मंदिर बनने दें।
'मानवजाति से प्रेम करें। स्वदेश आपका पलना है और मानवजाति आपका माता है। उससे प्रेम किए बिना आप पालने में लेटे अपने बंधुओं से प्रेम करना नही सीखेंगे। आल्प्स के उस पार तथा सागर के उस पार अन्य राष्ट्र दास्यता के चगुलर मुक्ति पाने के लिए हाथ-पाँव मार रहे हैं। उनकी भी यथासंभव सहायता कर उनके प्रति दया रखें और युवकजनो, ध्येय से प्रेम करके उसे पूजनीय समय सैद्धांतिक ध्येय के लिए स्वार्थत्याग करें। दुःख से उकताओ नहीं। सक विचलित न हो। जीवन का अर्थ सुख नहीं, जीवन एक कर्तव्य है।
'मेरे युवा बंधुओ, आपके प्रेम से मोहित होकर यदि अपने देशवीर उनके आत्मिक स्वरूप में यहाँ आए हों तो यह शब्द उनके पवित्र तेज से प्रस्फुरित हुए समझकर उनको ग्रहण करें। ईश्वर आपकी सहायता करे तथा इटला को सुखी बनावे।'
मिलन शहर छोड़कर मैं स्विट्जरलैंड वापस पहुँचा ही था कि टसकनी में विद्रोह की ज्वाला धधक उठने का समाचार मिला। रोम से पोप भाग गया। वेनिस अब तक डटा रहा था। टस्कनी में हमारे पक्ष की सत्ता स्थापित होने की संभावना भी। फिर मुझसे रहा नहीं गया। मैं स्विट्जरलैंड छोड़कर जलमार्ग से पुनः इटली की और मडा। इस दौरान मैंने एक सार्वजनिक पत्र से उत्साहपूर्ण वातावरण निर्माण करने का प्रयास किया। मैं तारीख ८ फरवरी, १८४७ के दिन टस्कनी स्थित लेगहॉर्न शहर पहुँचा। इसी दिन टस्कनी के राजा के भाग जाने का समाचार मिला। यह समाचार जन-जन तक पहुँचाने का कार्य लोगों ने मुझको सौंपा।
(लेग्हॉर्न में मैझिनी का भव्य सत्कार किया गया। परंतु अपने सम्मान की हकीकत का एक शब्द भी इस महात्मा ने कहीं नहीं दिया।) अतः तत्कालीन वृत्तपत्र का एक परिच्छेद दे रहा हूँ-
'आज प्रात:काल में हम नागरिकों को अपने जोसेफ मैझिनी का लाभ मिल गया। उस जोसेफ मैझिनी का जिससे सरकार तथा राजे-महाराजे महा विद्वेष करते हैं, जो आज तक अपनी देशनिष्ठा से रत्ती भर भी विचलित नहीं हुआ और जो व्यावसायिक देशभक्तों से अनंत गुना निर्मल तथा उज्ज्वल, स्वतंत्रता-भक्ति से युक्त है-दर्शन होते ही यहाँ-वहाँ सर्वत्र एक ही जय-जयकार गूंज उठी। चर्च की घंटियाँ घनघनाने लगीं और जिस मार्ग से उनके गुजरने की अटकलें थी उधर शहर के नर-नारियों का रेला बहने लगा। सड़कों पर हजारों ध्वज लहराने लगे। देशभक्तों की रायफल सेना व स्वयंसेवकों की सेना पंक्ति में खड़ी करते हुए शहर के अभीअभी जनता द्वारा चुने हुए अधिकारी, जिसका नाम ग्मएराजी था, सार्वजनिक सभागृह के सामने मैझिनी को राष्ट्रीय मानवंदना देने के लिए खड़ा रहा।
'दोपहर में लेगहॉर्न में हजारों लोग 'ईश्वर और जन' का उच्चारण करते हए लक्षावधि राष्ट्रीय ध्वजों को फहराते हुए गर्व से इठलाते सार्वजनिक मैदान की ओर इकट्ठा होने लगे। 'इटली की जय हो', 'मैझिनी की जय हो', 'मैझिनी को लेगहॉर्न जनसत्ताक का अध्यक्ष चुना है।' आदि ध्वनि लहरियों से अंबर निनादित हो गया। जिस मार्ग को रोककर अत्याचारी सत्ता ने जनता पर गोलियाँ चलाई थीं वही मार्ग मैझिनी के आगमनार्थ आरक्षित किया गया था। अहा हा! यह देखते ही, वह रास्ता जो विदेशियों के अत्याचार का आलंबन बना था, अपने पैरों तले रौंदाता हआ मैझिनी आ रहा है। जनता प्रसन्नता से झूम उठी।
'राष्ट्रीय स्वतंत्रता के लिए लड़कर विजयी हुई राष्ट्रीय सेना ने तथा सभी राज्यों के अध्यक्षों ने उस इटालियन महात्मा को देखते ही अभ्युत्थान दिया। फिर माझनी लोगों में जाकर खड़ा हो गया। मंच पर आरूढ़ हुआ तब जनता की जयजयकार से दश दिशाएँ गँज उठीं। मैझिनी ने कहा, 'मैं लेगहॉर्न में वनवास भुगतकर आ गया हूँ। जिन्हें आपने अपने स्वतंत्र शहर के अधिकारी रूप में चुना है-मेरे मित्र बन गए हैं। लेगहॉर्न की स्मृति मेरे मन में हमेशा रही थी और वही लेगहॉर्न स्वातंत्र्यार्थ अपना लहू सींचकर इटली में कृतार्थ नगर होते हुए देखकर गर्व से अभिमान यश मेरी छाती दो गज की हो गई है। आप मेरा जो सत्कार कर रहे हैं, मैं समझता हूँ वह, में जिन सिद्धांतों का, जिस स्वतंत्रता, एकता तथा जनसत्ता आदि सिद्धांतों का अभिमानी हूँ-उन्हीं सिद्धांतों का सम्मान हो रहा है। क्योंकि हमें व्यक्ति को उपेक्षा करते हुए सिद्धांतों का ही सम्मान करना चाहिए। एक खुशी का समाचार देने में मुझे गर्व हो रहा है कि आपकी विजय से घबराकर आपके राज्य ऑस्ट्रिया का हस्तक दुम दबाकर भाग गया। अब स्वतंत्रता की जय-जयकार होने दो। अराजकता की अंधेरनगरी न करते हुए यह सिद्ध करें कि अपनी सत्ता चिरस्थायी है। निद्रा में लीन न होकर युद्ध के लिए तैयार हो जाओ। क्योंकि इटली देश स्वतंत्र होना चाहिए...'
उसी दिन विशेष ट्रेन से मैझिनी आगे आ गया।
मेरा पूर्ण विश्वास है कि पहले से ही लेगहॉर्न शहर में लोकसत्ता प्रिय रही है और भविष्य में इटली की लोकसत्ता की विजय होगी। 'फरवरी के मंगल दिवस पर सर्व लोकानुमत में रोम में जनसत्ताक राज्य की घोषणा की गई। मेरे जीवन के परिश्रम व कष्ट के सार्थक बनने के आसार दिखाई देने लगे। मैं फ्लॉरेन गया और टस्कनी राज्य इस समय रोम की लोकसत्ता से आ मिले-इस प्रकार अनुरोध किया। मैंने उन्हें मन:पूर्वक कहा, अकेले रहोगे तो कल तुम्हारी स्वतंत्रता, जो तुमने जीतोड़ परिश्रम से प्राप्त की है, डूब जाएगी। कितनी बहार आती यदि रोम में मिलकर दोनों राज्य एक हो जाते तो। परंतु उस समय उन्हें यह अच्छा नहीं लगा। इसके पश्चात् उन्होंने उसी का अनुभव किया जो मैं कहता था। मैंने यहाँ से निकलकर रोम में प्रवेश किया। मेरे आने से पूर्व ही लोगों ने मेरा प्रतिनिधि के रूप में चयन किया था।
रोम मेरे यौवन काल का सपना था। मेरे विचारों का उद्भव था। मेरी आत्मा का वह धर्म था। मार्च के आरंभ में एक संध्या समय मैंने रोम में प्रवेश किया। गांभीर्य और आदर से मेरा मन भर आया। इस पवित्र शहर में प्रवेश करते समय मिलन की पराजय तथा फ्लॉरेंस की मूर्खता से मेरा मन जल गया था। परंतु रोम के लोकद्वार से प्रवेश करने लगते ही मेरे तन-बदन में विद्यत प्रवाह का संचार होन लगा। नूतन जीवन का निर्झर झरने लगा। पुनः मझे रोम का दर्शन नहीं होगा, परतु मरते समय मेरा अंतिम विचार अपने रोम-पतन का ही होगा। मेरी अस्थियों चाहे कहीं भी गिरें, मुझे विश्वास है कि जिस दिन रोम पर एकीकत तथा स्वतंत्र इटली का जनसत्तात्मक ध्वज फहराने लगेगा उस दिन मेरी अस्थियों में पुन: चैतन्य का संचार होने लगेगा।
रोम में अभी-अभी लोकसत्ताक राज्य प्रस्थापित होने के कारण सर्वत्र अव्यवस्था थी। सेना में लगभग सोलह हजार सिपाही थे, परंतु उनकी रचना और युद्ध सामग्री अत्यंत घटिया स्तर की थी। तारीख १६ मार्च के दिन लोकसभा के सामने एक सूचना लाई गई कि हमारा आद्य कर्तव्य यह है-प्राप्त स्वतंत्रता की रक्षा तथा स्वदेश के शेष भाग को स्वतंत्र कराना। इन दोनों कर्तव्यों के लिए सबलत्व का संपादन होना चाहिए। इसके लिए आप पाँच जनों का युद्धमंडल चुनकर उस मंडल से युद्ध प्रणाली पर गहराई से विचार करके रोम की जनसत्ता सबल करें। तारीख १८ के दिन इस मंडल का चयन हुआ। पिसाकेन उस मंडल की जान थी। पिसाकेन तथा मेरा संपूर्ण मतैक्य रहता। उसने पैंतालीस हजार तक सेना में वृद्धि की। इसी दौरान ऑस्ट्रिया के पिडमांट की नोवेरा की लड़ाई में संपूर्ण पराजय होने की वार्ता आ गई। तब तारीख २८ मार्च के दिन लोकसभा ने सर्वसत्ता केंद्रीभूत करने के लिए साफी, आर्मिलीनी, मैझिनी में अधिकृतत्रयी का चयन घोषित किया। तारीख २५ अप्रैल तक हमने सेना की यथासंभव तैयारी की। उसी दिन ऑस्ट्रिया के निकट आने की वार्ता आ गई। रोम लड़े या शरण जाए। नहीं, नहीं। रोम शरण जाए और संपूर्ण इटली में अनीति का प्रसार करे उससे अच्छा है, मृत्यु आई तो क्या बुरा है। शरण जाकर जो लाभ या उससे अनंत गुना लाभ मरण स्वीकारने में होता। शरण जाने से परवशता मिलती, परंतु मरण स्वीकारने से स्वतंत्रता प्राप्त होती। रोम की यही मनीषा थी। मैंने एक सेनाधिकारी से पूछा तो उसकी राय युद्ध के विरुद्ध थी। दूसरे दिन सारी सेना को एकत्रित किया और उससे प्रश्न किया-'शरण या युद्ध?' आकाश को चीरती हुई एक ही सिंहगर्जना हुई-'युद्ध!' तब लोकसभा तथा सर्वसम्मति से हमने युद्ध को ही स्वीकार किया। अकेला ऑस्ट्रिया ही हमारा शत्रु होता तो हम उसपर हावी होते; परंतु बीच में फ्रांस ने विश्वासघात से पोप को वापस लाने के लिए हमारे खिलाफ सेना भेजी। इटली में दो-चार के दाँवपेंच शुरू थे।
ऑस्ट्रिया को मिलन आदि में विजय होते ही उसकी सत्ता प्रबल न हो इसलिए फ्रांस ने पोप का बहाना बनाकर रोमन राजनीति में हस्तक्षेप करना आरंभ किया। इस संकट की भी हम परवाह नहीं करते। परंतु फ्रांस ने आखिरी दम तक हमसे विश्वासघात किया। ऑस्ट्रिया के अत्याचारों से रोम के लोकसत्ताक राज्य की रक्षा करने के बहाने हमारे मना करने पर भी हमें मदद भेजने लगे। उसी क्षण उनका कपट हमने भाँप लिया; परंतु ऐसी बाधाओं से क्या हम घबरा जाएँ? क्या हम भीरु कहलाए जाएँ? मेरे विचार से हमें फ्रेंचों के मार्ग में अवरोधक बनना चाहिए था। परंतु मेरा निश्चय था कि बहुमत की अनुमति के बिना कुछ भी नहीं करना। इसीलिए मैंने लोकसभा की बैठक बुलाई। क्वचित् मेरे प्रभाववश लोग मेरे समान ही निर्णय देंगे। इसीलिए उस दिन जान-बूझकर मैं सभा में उपस्थित नहीं रहा।
लोकमत मेरे लिए हमेशा पूजनीय है। अधिकृतत्रयी में से साफी और आमेंलिनी उपस्थित थे। परंतु यह बताने में मुझे गर्व हो रहा है कि उस लोकसभा ने लोकसत्ता की आन पर कालिख नहीं पोती। राजसत्ता शरण जाए तो जाए, परंतु जनसत्ता विजय अथवा मरण इनमें से एक को स्वीकार करती है। हमने रोम के प्रत्येक रास्ते पर युद्ध की तैयारी शुरू की। (उस समय मैझिनी द्वारा निकाला गया जाहिरनामा यहाँ दे रखा हूँ। जनसत्ता का जनपद हो। ऑस्ट्रिया निकट आ रहा है।)
बोलोग्ना गिरा है। आठ दिनों तक स्वार्थ त्याग और वीर रस की चरम सीमा तक पहुँचकर गिरा है। उस शहर की अंतिम गर्जना है 'प्रतिशोध'। प्रत्येक इटालियन अंत:करण से उस पवित्र गर्जना की प्रतिध्वनि करे। मेरे नागरिक, जनसत्ता आपसे शूरता तथा उत्कर्ष की आशा कर रही है। आपने जनसत्ता का उच्चारण किया, अब आचरण करने की बारी आ गई है। अपने वोट पर अपने लहू की मुद्रा अंकित कीजिए, ताकि वे पवित्र वोट अबाधित रहें। प्रत्येक शहर और प्रत्येक गाँव बोलोग्ना का प्रतिशोध लेने खड़ा हो। मंदिर-मंदिर में शत्रुओं के निधन की घंटी बजनी चाहिए। आपके पर्वतों में से इस खाई से उस खाई तक पवित्र क्रोध की गर्जना होनी चाहिए। प्रत्येक शिखर पर गुलामी के शव को जलाने के लिए वैश्वानर की ज्वालाएँ धधकनी चाहिए। स्वतंत्रता के रक्तध्वज शहरों से तथा घर-घर लहराने चाहिए और युद्ध की हर-हर महादेव गर्जना स्वदेश के इस छोर से उस छोर तक गूंज उठनी चाहिए। ईश्वर स्वतंत्रता के पक्ष में है और आप तीन कोटि जन शपथ लेकर स्वदेश के पवित्र कार्यार्थ देह समर्पित करने के लिए तैयार हों। तीन कोटि जन जो करना चाहते हैं वह करने के लिए स्वयं समर्थ हैं । इटली के सुपुत्रो, जनसत्ता के जनपदो, सदियों से प्रयास करते-करते आज वास्तविक पर्वणी आई है। आज का क्षण इतिहास के उन पवित्र क्षणों में से है कि जिस क्षण राष्ट्र के जीवन अथवा मरण का परिणाम एक साथ निकलता है।
'तो फिर जीवित रहेंगे या मरेंगे ? वैभव संपन्न तथा शक्ति संपन्न होंगे या अपने ललाट पर अखंड गुलामी का ठप्पा लगवाएँगे? स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में जगन्मान्य होंगे या चलती-फिरती लाशों के ढेर बनी श्मशान भूमि कहलाना पसंद करेंगे? अपने तथा अपने मंदिरों के, अपने यज्ञदेव के स्वतंत्र स्वामी बनेंगे या अत्याचारी राजाओं की गोशालाओं के मवेशी बनेंगे? सत्किर्ती से अमर होंगे या दुर्लज्जा से अमर बनेंगे? इनमें आप क्या पसंद करेंगे? ईश्वर तथा मानवताआपकी रुचि के अनुसार अपना मूल्य निश्चित करेंगे।
'अत: उठो और जय संपादन करो ! ग्रीस उठ खड़ा हो गया और उसे विजय प्राप्त हो गई। स्पेन ने आक्रमण किया और उसे सुयश प्राप्त हो गया। स्विट्जरलैंड ने आक्रमण करके स्वतंत्रता प्राप्त की, तो फिर इटली को ही स्वतंत्रता भला क्यों नहीं प्राप्त होगी? क्यों नहीं विजय मिलेगी? क्या हम मनुष्य नहीं? तो अब चलो, जो स्वदेशार्थ लहू नहीं बहाएगा वह पापी कहलाएगा। शत्रु के चारों ओर अंगारों तथा वीरानी का घेरा हो। जिस प्रकार अभी तक जनसत्ता शांत थी उसी तरह अब पवित्र क्रोध से वह संतप्त एवं भीम भयावह हो। रोम अटल रहे। इटली की जयजयकार हो!'
२१ मार्च, १८४७ को गैरीबॉल्डी रोम आकर हमें मिला। तारीख २१ के दिन फ्रेंच लोगों का हमला शुरू हो गया। उस समय रोमन लोगों ने जो शौर्य और पराक्रम दिखाया वह इतिहास में अजरामर हो गया। मैझिनी ने लोगों को असाधारण प्रोत्साहित किया। फ्रेंच लोगों के आक्रमण होते हुए भी उस दिन रोमन युवकों ने इतना कमाल दिखाया कि फ्रेंचों को पीछे हटना पड़ा। इतना ही नहीं, उनकी रुई की तरह धुनाई भी हुई। उनके छह सौ सिपाही मारे गए और दो सौ को बंदी बनाया गया। इटली के स्वयंसेवकों में से अधिक-से-अधिक तीन सौ लोग घायल हुए होंगे। इतने में नेपल्स से रोम पर पुन: सेना आने की खबर आ गई। उधर गैरीबॉल्डी शीघ्रतापूर्वक वहाँ गया और उन्हें भगाकर पीछे लौटाया। लोकसभा ने फ्रेंच कैदियों को वापस भेज दिया, तथापि फ्रेंचों ने विश्वासघात करते हुए निश्चित अवधि से पहले ही रोम पर आक्रमण किया। उस समय निकाला हुआ मैझिनी का जाहिरनामा यहाँ दिया है-
'रोमन लोगो, फ्रेंचों ने विश्वासघात किया है। रोकना है उनको, इसीलिए सावधान ! चलो उठो, तट की ओर चलो! नगर-द्वार की ओर चलो। मोची की ओर चलो। संपूर्ण शहर समान विचार से उठ खड़ा हो। प्रत्येक जन लड़े और प्रत्येक व्यक्ति इसपर विश्वास करे कि जय मिलेगी ही। अपने पूर्वजों का स्मरण करो और महान् बनो। सत्य की विजय होने दो और ऑस्ट्रिया के इस नीच-अधम दोस्त का विनाश करो। लोकसत्ता चिरविजयी हो।'
तारीख ३ जून-इस दिन भी इटालियन स्वयंसेवकों के सामने फ्रेंच लोगों को पीछे हटना पड़ा। तुरंत मैझिनी ने दूसरा जाहिरनामा निकाला 'रोमन जनो, शाबाश! आपने इटली की लाज रखी, पूर्वजों की प्रतिष्ठा पर आँच नहीं आने दी। कल ही हमने आपको महान् होने का उपदेश किया। आज हम आपसे कहते हैं, आप महान् हैं। ऐसे ही बने रहें, सातत्य रखते हुए जीवटवृत्ति के साथ काम करें। रोमन लोग अद्भुत चमत्कार करने के लिए समर्थ हैं। रोम अविनाशी है। चलो, तट की ओर चलो! नगर-द्वार का रुख अपनाओ। मोची की ओर चलो। आपकी भू देवी आप पर आस लगाए बैठी है। आपकी राष्ट्र देवी आपका अतुल पराक्रम देख रही है। लोकसत्ता चिरंजीव हो।'
इस युद्ध में रोमन महिलाओं ने जितना पराक्रम किया उतना अन्यत्र पुरुष भी नहीं करते। तारीख ७ जून के जाहिरनामे में मैझिनी कहता है, 'रोमन जनो, आपके प्राणपति आपके बंधुगण, आपकी कोख जायी संतान भी युद्ध में व्यस्त हैं। स्वदेशभूमि को स्वतंत्र कराने के पवित्र कार्य में उलझे हुए हैं। ऐसी अवस्था में आप भी स्वदेश की सेवा करें। क्योंकि आप रोमन स्त्रियाँ हैं।' गैरीबॉल्डी भी अपने पराक्रम की पराकाष्ठा कर रहा था। परंतु ऑस्ट्रिया और फ्रांस इन दो शत्रुओं की विराट् सेना के सामने अकेला रोम कहाँ तक टिक पाएगा? लोगों ने धैर्य की हद कर दी, परंत फ्रेंच एक-एक पग आगे बढ़ ही रहे थे। अंत में युद्ध का विचार निश्चित करने के लिए सेनाधिकारियों ने सभा बुलाई।
उस सभा में मैंने कहा, 'अब हमारे लिए तीन मार्ग खुले हैं-शरण जाना. शहर नामशेष होने तक लड़ना अथवा रोम छोड़कर संपूर्ण सेना के साथ बाहर निकल जाना। इनमें से पहला मार्ग ऐसा है जिससे लोकसत्ता को कलंक लगेगा। दूसरा निरुपयोगी शूरता का है, परंतु मेरे विचार से तीसरा मार्ग योग्य दिखाई देता है। रोम छोड़कर ससैन्य हम बाहर निकलेंगे और असावधान ऑस्ट्रिया पर धावा बोल देंगे। अब हमें घेर लिया गया है, यह घेरा तोड़कर बाहर निकलने पर हम आत्मरक्षार्थ समर्थ बनेंगे। रोम फ्रेंचों के अधिकार में जाएगा, परंतु जनसत्ता हमारे साथ सुरक्षित रहेगी।' मेरे विचारों पर विवाद खड़ा हो गया। एनेझाना आदि ने कहा, 'ऐसे ही लड़ेंगे।' रोसेली (प्रधान सेनापति) पिसाकेनी और गैरीबॉल्डी मेरे विचारों से सहमत हो गए। अखंड कीर्ति से यह कहना पड़ रहा है कि हमारे इन शूर स्वतंत्रता-वीरों में से एक ने भी 'शरणागति' के धारा के नीचे हस्ताक्षर नहीं किया। मैं वह निर्णय लेकर तुरंत लोकसभा गया। उन्हें वह निर्णय और अपना अभिमत बताया। परंतु दुर्भाग्य से उनके कानों में जूं तक नहीं रेंगी। मेरे मित्रों का यह अभिप्राय कि में पहले ही उनमें से सदस्यों के मत परिवर्तन करता तो आज वे विरोध नहीं करत, कुछ हद तक सही है। अंत में उन्होंने फ्रेंचों की शरणागति स्वीकारने का ही निश्चय किया। मुझे फ्रेंचों के पास जाकर यह संदेश देने का आदेश दिया गया। मैंने उत्तर दिया कि 'लोकसत्ता की रक्षा करने के लिए मेरा चयन हआ है, न कि लोकसत्ता का नाश करने के लिए।' इस उत्तर के साथ मैंने अपना त्यागपत्र भेजा। मेरे समान ही अधिकतत्रयी में से शेष दोनों ने भी त्यागपत्र दे दिया। फ्रेंचों की शरण जान से वे रोम की रक्षा करेंगे-लोकसभा आशा कर रही थी। अत: तारीख ३ जुलाई के दिन रोम शहर में फ्रेंचों का प्रवेश हो गया।
उस समय मुझे ऐसा द:ख हआ जैसे किसी व्यक्ति को प्रियतमा का जनाजा निकलने पर होता है। हमारी लोकसभा और अधिकारी एक के पीछे एक वनवास भेजे गए। जिन अस्पतालों में हमारे शूर सिपाही अपने जख्मों से अधिक स्वदेश के जख्मों से कराहते हुए पड़े थे, उन अस्पतालों पर फ्रेंचों द्वारा किए गए हमले में देख रहा था। हाय! हाय! अभी-अभी मेरे देशवीरों द्वारा बहाए हुए लहू पर इन विदेशी लोगों को नाचते जाते हुए मैं देख रहा था। मैं जान-बूझकर रास्तों में भटक रहा था। मुझे यह सिद्ध करना था कि मैंने रोम पर अत्याचार किए और वहाँ मैं अप्रिय हो गया-इस प्रकार मेरे विदेशी शत्रुओं ने जो अफवाहें फैलाईं वे सफेद झूठ हैं। किसी भी खंजर के लिए मैंने अपनी छाती हमेशा खोलकर रखी थी; परंतु रोमनों ने ही नहीं, शत्रु ने भी उसमें खंजर नहीं घोंपा।
क्या नहीं कर रहा था मैं रोम के लिए। मेरी योजनाएँ अभी भी जारी थीं। मैं सेनापति रासेली के पास गया और उससे पूछा कि यदि मैं अपने दायित्व पर लोगों का विद्रोह पुनः खड़ा करूँ तो वे मुझसे मिलेंगे कि नहीं। उन्होंने हामी भरी, परंतु तब तक समय हाथ से निकल चुका था। मैंने पुन: निश्चय किया कि रासेली फ्रेंचों को झगड़ा टालने का बहाना बताकर सेना के दलों को बाहर भेजने की योजना बनाए। मैं वेश बदलकर सेना के साथ जाऊँ। वहाँ थोड़ा विश्राम करते हुए पुनश्च शत्रु को झांसा देकर युद्ध आरंभ करें। यह योजना भी पसंद की गई। परंतु इतने में गैरीबॉल्डी अपने सैनिकों के साथ लड़ते-लड़ते बाहर निकला। यह सुनते ही फ्रेंच सतर्क हो गए और सेना को अपना डेरा-डंडा उखाड़ने का आदेश दिया। शीघ्र ही हमारी सेना छिन्न-भिन्न होकर नामशेष हो गई। ये सारी योजनाएँ विनाशकारी तथा विलक्षण थीं। परंतु उसी क्षण मेरे सारे विचार एक लड़ाई के विचार में विलीन हो गए थे।
मुझे आश्चर्य हो रहा है कि विदेशियों ने मेरा बाल बाँका कैसे नहीं किया ! एक सुशील महिला, जिसका नाम माथ्रेट फुलर था और मेरा प्रिय मित्र गैरियामॉडेना मुझसे रोम छोड़कर जाने के लिए अत्यंत आग्रहपूर्वक विनती करने लगे। अंत में मैं रोम से निकल पड़ा और बिना किसी सूचना के किसी दूसरे शहर चला गया। वहाँ परवाना नहीं मिल रहा था, अत: मैंने देखा कि एक नौका निकल रही है तो मैं उसके अधिकारी से मिला। वह कॉर्सिकन था। उसे मैंने धीरे से अपना नाम बताया। उसने बिना अनुमति-पत्र के मुझे ले चलने का साहस करने की तत्परता दिखाई। मैं गुपचुप उस नौका पर आ गया। वह मार्सेलिस जा रही थी; परंतु उस स्टीमर पर ही एक अप्रिय दृश्य मैंने देखा। रोमन लोगों में से हमारे विपक्षीय लोग अपने शिष्टमंडल के साथ आस्ट्रिया जा रहे थे। मैंने उनकी ओर देखा तक नहीं; परंतु उन्होंने मुझे पहचान लिया। उस अधिकारी को भय हुआ कि हो सकता है ये लोग ऑस्ट्रिया को यह सूचित करेंगे। कुछ भी हो, परंतु उन्होंने मेरा भंडा नहीं फोड़ा और मैं सुरक्षित मार्सेलिस पहुंच गया। अपने शत्रु के प्रदेशों से होकर मैंने कैसी-कैसी कठिनाईयों सहकर यात्रा की और बिना परवाना के किस तरह जिनेवा पहुँचा। यह सारी कहानी यहाँ कहने में कोई अवसरानुकूलता नहीं है।
हमने रोम में जेल व दंड के बिना लोकसत्ता चलाई और एक-दूसरे पर अटल विश्वास किया। विरोधी पक्षों में से किसी ने बाल भी बाँका नहीं किया। इतना ही नहीं, हमारे विरोध में षड्यंत्र रचे जाने की खबर पाकर उस नेता को पकड़ने के बदले मैंने मानिएनी को संदेश भेजा कि आप शत्रु से गुप्त व्यवहार कर रहे हैं। बस इतनी ही सावधानी बरतें कि यह कृत्य लोगों की दृष्टि में न पड़े। इस प्रकार शत्रुओं से संबंध रखना चाहते हैं तो शौक से रखें! वह सारा विश्वास, वह अटल धैर्य, वह हमले में देशवीरों का पराक्रम, ये सद्गुण उच्च ध्येय के परिणाम हैं। स्वातंत्र्य तथा लोकसत्ता की परिकल्पना ही यह है कि उसका पारस-स्पर्श होते ही सारी उदात्त वृत्तियों का विकास हो।
आजकल उस १८४७ साल के रोमन लोगों को स्मरण है या नहीं मैं निश्चित रूप से नहीं बता सकता, परंतु रोमन माताओं को यदि अपना कर्तव्य पूरा करना हो तो वे अपनी संतानों को उन असंख्य देशवीरों की, जो उस स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े हैं, गाथाएँ सुनाएँ। वह पवित्र स्थान दिखाएँ जहाँ लोकपक्ष का युवा कवि ग्रोफ्रेडो मामेली लड़ते-लड़ते धारातीर्थ पर गिर गया। असह्य घाव लगने पर भी अपने अठारह सिपाहियों के साथ तीन सौ फ्रेंचों के दल से मुकाबला करते-करते मानारा जिस स्थान पर धराशायी हो गया, रामोरिनो तथा डेवेरिओ अपने बीस सिपाहियों के साथ सौ फ्रेंचों के हमले की परवाह न करते हुए अपने स्थान पर डटे रहने के कारण जिस स्थान पर मारे गए, विला पॅम्फेली, विला कार्सिनी, रोम शहर की प्रत्येक शिला, वह पूत-पावन बने सारे स्थान जो मुख पर शूरता-वीरता का स्मित तथा जिह्वा पर लोकसत्ता की जय-जयकार खिलाले-खिलाते धारातीर्थ पर देशभक्त वीरों के लहू से सराबोर हो गए हैं-यह सब यदि इटली की माताएँ अपने बालकों को दिखाएंगी तो इटली का एक भी युवक गुलामी को, दास्यता को पूनः सहन नहीं करेगा।
[1] 'प्लीआड का संघ' यह नाम एक तारका समूह का है और फ्रांस आदि देशों में वह सप्त विसमूह से जुड़ गया है।
मैझिनी लिखित महत्त्वपूर्ण लेख
खंजर की उपपत्ति (सन् १८५६)
जीवों का जन्म जिस कर्म से हो उसे कर्म, धर्म समझो॥१॥
जोड़ो धर्म, असत्य वचनों से भी धर्म जोड़ो।
जोड़ा अधर्म सत्य से तो सत्य का संग छोड़ा॥२॥
जिस वन में चोरों ने पकड़ा, उसकी करे मुक्ति।
लेश मात्र विचार न करते बाले वहाँ शतमृषा उक्ति॥३॥
मोरोपंत-महाभारत (कर्ण पर्व)
(राज्यक्रांति तथा स्वतंत्रता युद्ध जैसे अद्भुत प्रसंगों में प्रत्येक राष्ट्र में अत्याचार का प्रतिकार अत्याचार से ही किया जाता है और विद्वेष विद्वेष पर बलि चढ़ता है। ऐसे कई नराधमों को, जिन्होंने असंख्य लोगों को चकनाचूर किया होगा, उनके पापों के प्रायश्चित्तस्वरूप एक देशाभिमानी खंजर देता हूँ। किसी भी विवेकी व्यक्ति को इसको स्वीकार करना होगा कि इस प्रकार के वध में तथा साधारणतः व्यवहार में जिसे हत्या कहते हैं, उसमें विशेष अंतर है। इस प्रकार के राष्ट्रीय वध की उचित मीमांसा करने के लिए मैझिनी ने कई लेख लिखे हैं। इस लेख को एक प्रसिद्ध इटालियन देशभक्त ने, जिसका नाम 'मानिन' था, 'लंदन टाइम्स' वृत्तपत्र में दूषण दिया था। उसे प्रत्युत्तर देने के लिए मैझिनी ने निम्नांकित लेख लिखा। इस लेख में 'हत्या या खून कौन सा' और 'वध' किसे कहते हैं, वह कब दूषणास्पद होता है और उसकी जिम्मेदारी प्रथम उनपर कैसे होती है जो अत्याचार और अन्याय करते हैं-यह मैझिनी के विचार के अनुसार प्रतिपादन किया है।)
सन् १८४८ में जिस समय आप जनसत्ताक राज्य के धुरीण थे उस समय वेनिस की रक्षा के पश्चात् निर्वासन का दंड होने पर आपने दरशाई हुई महानता के कारण आप हम सभी में लोकप्रिय हो गए। परंतु वही आप एक राजा के चरणों के सामने 'मैं जनसत्ताक नहीं कहूँगा, परंतु अपना राष्ट्रीय ध्वज अर्पण करने के लिए तैयार हो गए, यह सुनकर आपके लिए तथा इटली के लिए अत्यंत दु:खी होकर में स्तब्ध रह गया।'
वही चुप्पी मैं कायम रखता, परंतु हाल ही में प्रसिद्ध हुए एक पत्र में। आपने हमारे पक्ष पर इतना भयंकर आरोप लगाया है कि उसका खंडन न करना, उस आरोप को स्वीकार करना अथवा उसकी ओर ध्यान नहीं देना होगा। वह पत्र आपने एक विदेशी पत्र में प्रकाशित कराया है। वह 'लंदन टाइम्स' में प्रकाशित हुआ है। यह वृत्तपत्र राजनैतिक कुटिल षड्यंत्रों में कुशल है। आजकल मध्य व दक्षिण इटली में कुछ स्थानीय सुधारों की आवश्यकता है', इस तरह प्रतिपादन करते हुए अपने राष्ट्रीय उद्देश्यों के विरोध में जा रहा है। इसमें ऑस्ट्रिया से मित्रता जोड़ने का उपदेश किया है। इस पत्र ने इटली की राज्यक्रांति के प्रत्येक प्रयास के विरोध में विद्वेषमूलक लेख लिखने का बीड़ा उठाया है और उसके संबंधित नेताओं के विरोध में निंदाजनक अफवाहें फैलाई हैं। लैंबर्डी के लोगों ने स्वाधीनता-प्राप्ति के लिए किए हुए प्रत्येक महान् प्रयास के समय इसी वृत्तपत्र ने गुस्से से पागल होकर भौंकना आरंभ किया था और बार-बार यही ढिंढोरा पीटा गया था कि हम इटालियन अनीतिमान हैं, स्वाधीनता के लिए अपरिपक्व हैं, योग्य नहीं। मानो सन् १८४८ तथा सन् १८४९ में रोम, मिलन और हमारा वेनिस आदि स्थानों पर लोगों ने अत्याचार व अनीति जैसे लांछनों से अलग रहकर स्वतंत्रता की पात्रता में किसी भी राष्ट्र से कम योग्यता नहीं रखते, यह पूरे यूरोप को कभी दिखाया ही नहीं।
इस प्रकार के इस वृत्तपत्र में अपने तथा राष्ट्रीय सम्मानार्थ तो तुम्हें वह पत्र प्रकाशित नहीं कराना चाहिए था। परंतु जो सारी नीतिमत्ता का ठेका मैंने ही लिया है-यह समझकर घमंड से छाती फुलाता है भला वह कैसे समझ सकता है कि पत्र प्रकाशित करके उसने अपने शत्रु के हाथों में हमारे राष्ट्रीय पक्ष के विरोध में तथा स्वदेश के विरोध में लड़ने के लिए एक भयंकर हथियार दे दिया है। आजकल 'टाइम्स' पत्र के चालक स्थानिक सुधारों का भ्रमजन्य चित्र सामने रखकर अपना ध्यान उस अंतिम साध्य से अर्थात् राष्ट्र स्वातंत्र्य तथा राष्ट्रैक्य के विपरीत दिशा की। ओर बँटा रहे हैं। वही चालक उचित अवसर देखकर तुम्हारी भी आलोचना करग और उसी पत्र के आधार पर यह सिद्ध करने का प्रयास किया जाएगा कि हम इटालियन लोग अत्यंत अनीतिमान तथा यूरोप की सहानुभूति के लिए सर्वथा अयोग्य हैं।
परंतु यह उत्तर मैं अपने लिए नहीं लिख रहा हूँ। मेरे लिए अब निदा। और स्तति एक समान ही हैं। परंतु अपने सभी पक्षों की ओर से मैं तुमसे पूछता हूँ। कि यह खंजर की उत्पत्ति इटली में कब से स्वीकृत की गई? वह किसने प्रतिपादित की? उसपर अमल शब्दों में तथा कृतित्व में करने के लिए कौन सहज ही तैयार हो गया?
खंजर की इस मीमांसा का अर्थ यदि आप निम्नांकित वाक्यानुसार समझते होंगे जो ऐसे लोगों को-जो गुलाम बने हैं, जिनका देश नहीं, जिनको स्वदेश का ध्वज उपदेश नहीं देता हो कि 'अरे उठो, मारो या मरो। आप मनुष्य नहीं, चलतीफिरती मशीन हैं, और उन मशीनों का उपयोग विदेशी सत्ता के विलास के लिए हो रहा है। आप लोग ऐसे गुलामों की नस्ल हैं जिनका कोई राष्ट्र नहीं और जो तिरस्कृत हैं, जिनके आनुवंशिक अधिकार छीन लिये गए हैं। आपका कोई राष्ट्रीय नाम नहीं, आपका राष्ट्रीय धर्म नहीं, आप एक मानवी हाट हैं, आप शून्यवत् हो गए हैं, आपका आद्य कर्तव्य पुरुषत्व संपादन तथा नागरिक होना है। प्रत्येक शिक्षा का श्रीगणेश यहाँ से होना चाहिए। प्रगमन उन्हीं के हाथों से होता है जिनका अस्तित्व है। चलो उठो, उठो तो सही, और अपना अस्तित्व सिद्ध करो। उठो, पशुतुल्य बल के जोर पर जो कोई तुम्हारा गतिरोध करेंगे उनका प्रचंड शक्ति से अथवा ईश्वर - प्रदत्त किसी भी मार्ग से संहार करने के लिए उठो! पवित्र क्रोध से संतप्त होकर उठो! यदि अत्याचारियों ने तुम्हें निहत्था कर दिया है तो नए शस्त्र उत्पन्न करो; अपने क्रूस के लोहे के हथियार बनाओ। जिन कारखानों में तुम काम कर रहे हो, वहाँ के कील, रास्ते के पत्थर भी आपके शस्त्र बनेंगे। अपने कारखानों में हथियारों के रूप में आप छुरियाँ बना सकते हैं। विदेशी अधमों ने जिन शस्त्रों के बलबूते पर आपका मान, आपकी संपत्ति, आपके अधिकार, आपका जीवन छीन लिया, उन्हीं हथियारों को युक्ति-प्रयुक्ति से अथवा अचानक धावा बोलकर फिर से लूटकर ले आइए। बेस्पर के खंजर से लेकर पालफाक्स की छुरी तक तथा बालिता के पत्थरतक जिनके द्वारा शत्रु का संहार होकर आपको स्वतंत्रता प्राप्त होगी, वे सारे अस्त्रशस्त्र आपके हाथों को धन्य करें। इसके इस उपदेश को यदि आप खंजर की मीमांसा कहते हैं तो मैं स्पष्ट कहता हूँ कि ये वाक्य मेरे हैं और वे आपके भी अवश्य होंगे। जिन हथियारों से शस्त्र के कारखाने में मिनकोविच की हत्या हुई उसी हथियार से जिसके विद्रोह का आरंभ हुआ और उसी वेनिस के विद्रोह का धुरीणत्व तुमने स्वीकारा था।'
परंतु जो लागों से यह कहता है कि 'मारो-स्वतंत्रता युद्ध का आरंभ करने के लिए नहीं तो इसलिए कि युद्ध करने के लिए शक्ति नहीं अथवा इच्छा नहीं, केवल घायल करने के लिए ऐसे व्यक्ति विशेषों को मार डालो; अँधेरे में जिनके अस्तित्व से अथवा मृत्यु से राष्ट्रीय मुक्ति में रत्ती भर भी अंतर नहीं पड़ता। उन्नतिकारक षड्यंत्रों के बदले अवनतिमूलक प्रतिशोध लेना आरंभ करो। नागरिकत्व की योग्यता संपादन करने से पहले ही शत्रु को पश्चात्ताप अथवा सुधारने के लिए अवसर न देते हुए दंड देने का स्वयंमन्य अधिकार प्रस्थापित करो।' इस उपदेश को यदि आप खंजर की मीमांसा कहते हैं तो मैं पूछता हूँ कि इस प्रकार की भाषा का प्रयोग किसने किया? इस भयंकर उपपत्ति का उद्धार इटली में किसने किया? यह स्पष्ट कहना अथवा अपना आरोप वापस लेना यह तुम्हारा कर्तव्य है।
केवल एक बार सन् १८४७ में दुष्ट लोगों ने अंकोना में इस भाषा का प्रयोग किया था। हमने, अपने लोकसत्ताक पक्षकों ने अंकोना का घेरा डालकर इसका उत्तर दिया और ऐसा मतभेद व पक्षभेद जो फ्रेंच रेवोल्यूशन के पश्चात् कभी हुआ नहीं, होने पर भी हमने जोरदार तरीके से इस सरफिरी क्रूरता का बंदोबस्त किया। तत्कालीन लोकसत्ताक राज्य ने भयानकता तथा प्रतिशोध से पूर्णतया निर्लिप्त रहकर एवं घेरा डालने पर उस भयंकर स्थिति में भी एक मृत्युदंड पर हस्ताक्षर न करते हुए रोम शहर छोड़ा है।
उस समय से दास्यता के अँधेरे में इटली देश पुनः फँसने से कुछ व्यक्तियों के हाथों अत्याचार के छुटपुट कृत्य कहीं-कहीं हो गए हैं। ये कृत्य अश्रुत और अखंड दासता के संत्रास के उत्तर हैं। कुछ ऐसे व्यक्तियों से, जिनके पिता तथा भाई का बंदूक की गोली से अथवा असहनीय अत्याचार से लश्करी कमीशन ने वध किया है। इन कृत्यों को दोषी ठहराने का अथवा निरर्थक समझकर उनके लिए दुःख प्रदर्शित करने का प्रत्येक को अधिकार है। परंतु उसके सारे ठीकरे किसी एक पक्ष के सिर पर फोड़कर यूरोप के आगे ये सब कभी भी अस्तित्व में न आनेवाले सिद्धांतों के फल हैं, इस तरह कहने का किसी को भी अधिकार नहीं। अनंत उदाहरणों में से मैं एक ही प्रस्तुत करता हूँ। लॉबर्डी स्थित एक व्यक्ति को, जिसका नाम सरव्हिएरी था, प्रतिदिन बीस के हिसाब से एक सप्ताह तक कोड़े बरसाए गए। क्योंकि उसने मॅन्यूआ में कारावास में अपने साथ जेल में रहनेवाले एक देशभक्त बंदी को, जिसका नाम कालवी था, कुछ पैसे देने की व्यवस्था की, ताकि मृत्युदंड से पूर्व ही वह अपना कर्ज चुका सके। ऑस्ट्रियनों ने पैसे देने को नकारा। इतना ही नहीं, वही पैसे फाँसी के फंदे के लिए तथा जल्लाद को देने के लिए रख लिये। अब उस देशभक्त सरव्हिएरी के अथवा कालवी के पिता ने अथवा भाई ने जो भा। हथियार मिले उससे बाजार में उनपर अत्याचार करनेवालों की जाति का जो भी। मनुष्य मिला तो उसकी हत्या की, तो यह कृत्य खंजर की उत्पत्ति का परिणाम है ऐसा कहने का साहस तुम लोग करोगे?
जिस स्थिति में देशभक्ति करना अपराध होता है उस देशभक्ति के अपराधार्थ अशवा अपराध के केवल संदेहार्थ देशभक्तों के जीवन तथा जायदाद को तहसदस किया जाता है। अत्यंत राक्षसी अत्याचार वैचारिक स्वतंत्रता का विनाश करता है। आधे इटली देश में तलवार ही कानून होता है। विदेश सत्ता की उदंडता, उन्मत्तता का जहाँ अंत होता है, पुलिस के अत्यंत कष्टप्रद कानून से तथा निर्लज्ज गप्तचरों की भरमार से संताप, क्रोध में वृद्धि होती है और पग-पग पर हो रहे अपमान से जहाँ विद्वेष की चरम सीमा होती है उस स्थिति में षड्यंत्र के बिना सुरक्षा का अन्य मार्ग नहीं होता। लोगों ने जिससे घृणा की है उस सत्ता द्वारा हो रहे अनन्वित अत्याचार, लोकशिक्षा की कमी, अस्तित्व में रही सभी संस्थाओं के प्रति अपरिहार्य तिरस्कार, गुप्त अत्याचार के विरोध में न्याय मिलने की संपूर्ण असंभवनीयता, शक्तिशाली अधिकारियों की स्वयंमन्य सनक में कल की निश्चिंतता न होने के कारण स्वाभाविकत: उत्पन्न जीवन विषयक घृणा, राष्ट्रीय विचारों की ओर यूरोपियन राजाओं की नीच उपेक्षा और आधे से अधिक शतक तक दबाकर रखने से भी लोकसंघ में उत्पन्न विस्तृत महत्त्वाकांक्षा-इन बातों में खंजर से घटित प्रत्यक्ष परिणामों की वास्तविक जड़ है।
जब कोई व्यक्ति स्वयंस्फूर्ति से इस तरह के कृत्य करता है तब उस प्रेरणा का मूलभूत कारण मुझे ऊपर दी हुई परिस्थितियों में ढूँढना होगा और वह परिस्थिति जब तक कायम है तब तक ये कृत्य भी कायम रहेंगे, यह स्पष्ट शब्दों में कहना अनिवार्य है। जब इटली को स्वतंत्रता के सूर्य की कम-से-कम एक किरण का ही क्यों न हो, स्पर्श हुआ तब-तब प्रत्येक स्थान पर हमारे देशबांधवों ने किस प्रकार क्षमाशीलता दिखाई-इसपर यूरोप का ध्यान आकर्षित करना अनिवार्य है। अभीअभी एक अंग्रेज प्रधान ने हाउस ऑफ कॉमन्स में निकाले हुए उद्गारों में से 'इटली देश के शहर क्षेम पर लोकसत्ताक ध्वज फहराते समय दोषों तथा अपराधों में जितनी कमी हुई उतनी कभी भी नहीं थी।' यह सत्य यूरोप को कहना आवश्यक है। पुनः एक बार अपने भयंकर अत्याचारों का चित्र उकेरना तथा ऑस्ट्रिया लोकसंघ के एकमत से दरशाई हुई इच्छा के विरुद्ध, हठपूर्वक अनधिकृत बातें हड़पने का प्रयास कर रहे हैं-यह गला फाड़-फाड़कर बताना आवश्यक है। रोम में विकास का मार्ग बंद करने से फ्रांस, पोप को वापस लाने की इच्छा अपने राजपत्र में दरर्शाने के कारण इंग्लिश प्रॉटेस्टेट गवर्नमेंट तथा इटली राष्ट्र होने का प्रयास करते समय उसमें बाधा उत्पन्न करने के कारण परा यरोप, यही हमारे देश में अँधेरे में चमकते खंजर के लिए उस ईश्वर के सामने तथा मनुष्य जाति के सामने जिम्मेदार सिद्ध हो रहे हैं। जब-जब अनपढ़, अनाथ तथा दासता से त्रस्त जनों की शिकायत इस प्रकार के खंजर का भयंकर स्वरूप धारण करती है, तब-तब जिन्होंने मानवजाति को दास्यता के नीचे दबा रखा है, उन नराधमों को उन सब दोषों का ठीकरा अपने ही सिर पर फोड़ना होगा।
मेरे विचार से यह स्पष्ट करना तुम्हारा कर्तव्य था। फाँसी की छुरी के नीचे छटपटाते हुए जनों को 'आप अपनी छुरियों का प्रयोग न करें' यह बताना-यह रोममय विषाक्त वातावरण में रह रहे लोगों से यह कहने के समान है जैसे कि 'अपना लहू शांति से अपनी रगों में बहने दो, अपने आप ठीक हो जाओ। जो अति विद्वान् 'राजनैतिक सत्ता में उत्पन्न हुए हैं और उसमें स्थित दासता में ही मग्न रहते हैं उनमें लोकसत्ताचालकत्व के गुण जब तक नहीं आते तब तक लोकसत्ताक राज्य का आरंभ नहीं करना है', कहते हैं, वे जो भूल करते हैं वही भूल उपर्युक्त बातों में होती है।'
व्यक्ति विषयक कार्यों में मेरी रुचि कभी भी नहीं थी। मुझे उन कृत्यों के लिए दुःख होता है, परंतु उनकी निंदा करने का साहस मैं नहीं करता। जब एक व्यक्ति (वन्डोनी) मिलन में आता है, अपने एक मित्र को अत्याग्रहपूर्वक एक इटालियन नेशनल नोट लेने के लिए बाध्य करता है और तुरंत पुलिस के पासविदेशी पुलिस के पास-भागकर उस मित्र को पकड़वाता है तब यदि कोई किसान उठा और उस पापी का भरे बाजार में दिन-दहाड़े गला घोंट दिया तो उस किसान को, जिसने अपने मन के समाज भय और अत्याचार से तिरस्कार का प्रदर्शन करने के लिए मात्र इस सार्वजनिक उद्देश्यार्थ ही अपने आपको संकट में डाला, पत्थर मारने का दुष्कृत्य मुझसे नहीं होता।
किसी पवित्र सिद्धांत के अभ्युदयार्थ ऐसे किसी भी समय जब अत्यंत आवश्यकता न हो, लहू की एक बूंद भी बहाने से मुझे घृणा है। मेरे विचार से तो समाज आत्म-संरक्षणार्थ समर्थ होने के कारण मृत्युदंड देना दोषास्पद है और किसी विजयी जनसत्ताक राज्य में फाँसी बिलकुल बंद करने का आदेश कब निकलेगा, इसकी मैं उत्कंठा से प्रतीक्षा कर रहा हूँ। व्यक्ति विषयक प्रतिशोध संबंधित-फिर वे दुष्ट मनुष्य का प्रतिशोध क्यों न लिया गया हो, वैध इलाज करते-करते बाज आने से क्यों न हो, मुझे अत्यंत दु:ख होता है और एक सिपाही के मृत्युदंड पर वह दंड लश्करी नियमानुसार निश्चित करने पर भी मैंने हस्ताक्षर नहीं किया। इससे मुझे आशा है कि मेरे विचारों का विरोध नहीं किया जाएगा। अत: मैं स्पष्ट कहता हूँ कि राष्ट्रीय जीवन तथा इतिहास में कुछ प्रसंग इतने अपवादात्मक होते हैं कि उस समय समाज के साधारण नीति सिद्धांत अधूरे होते हैं; अत: ऐसे समय पर ईश्वर से तथा अपनी सद्विवेक-बुद्धि से जो प्रेरणा मिलेगी उसके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति व्यवहार इसीलिए ही वह तलवार धन्य है जो जूडिथ [1] के हाथों में दमकती थी तथा कोलोफर्वेस के जीवन का जिसने अंत किया था। हार्मोडियस [2] की गुलाब के पुष्पों में रखी तलवार इसीलिए ही पवित्र है। इसीलिए ही ब्रूटस [3] का खंजर पवित्र है। इसीलिए ही सिसिलियन की छुरी, जिसने उस वेस्पस में आरंभ किया, पवित्र है तथा 'टेल' [4] का तीर पवित्र है। जिस समय न्याय अदृश्य होता है, पवित्र जनमत का प्रतिकार तथा विनाश किसी अत्याचारी प्राणी के भय से होता है, उस ईश्वर का जिसने उन लोगों को स्वतंत्र रहने के लिए उत्पन्न किया होता है-जब इच्छा भंग होती है-ऐसे समय कोई नरोत्तम आगे बढ़ेगा, ऐसे अंत:करण से स्वदेश धर्म के प्रेम से प्रेरित होकर आगे बढ़ेगा। निजी द्वेष तथा अन्य किसी भी बुरे उद्देश्य का कलंक उसे नहीं लग सकता। अपने अंतर्यामी स्थित अखंड और अबाधित सत्त्व का स्मरण करते हुए वह उस अत्याचारी नराधम से पूछेगा, 'हे नीच, मेरे लाखों बंधुओं पर अत्याचार करते हो? ईश्वर ने जो उन्हें स्वाभाविक रूप में दिया है उनसे वह छीनना चाहते हो? उनके शरीर नष्ट और आत्माओं को मलिन करते हो? मेरी प्रिय देशभूमि तेरे कारण मृतप्राय हो गई है। गुलामी, अपमान और अत्याचार की जड़ तुम हो। मैं तुम्हारी बोटी-बोटी करके उस इमारत को मटियामेट करता हूँ। ऐसे उदाहरण में जब कोई यःकश्चिद् व्यक्ति भी लाखों लोगों पर अत्याचार की बराबरी करता है और उसे दंडित कर सकता है तब उस विलक्षण समानता में ईश्वर के अंग का आभास होता है। केवल मुझे ही नहीं, प्राय: सभी के अंत:करण को यही प्रतीत होता है। मैं केवल स्पष्ट रूप में अभिव्यक्त करता हूँ।'
१.
मानिन, इस प्रकार के सत्कृत्यों की आशा छोड़ने के लिए तेरे समान में तैयार नहीं अथवा अन्याय से 'तुम डरपोक हो' यह भी मैं नहीं कहूँगा। अधिक-से-अधिक बस इतना ही कहूँगा, 'किसलिए वध कर रहे हो? यदि मनुष्य को अपने मानव बंधुओं के जीवन का अंत करने का अधिकार है तो गुप्तचर, देशद्रोही और जो विदेशी अधमों से धन स्वीकार कर अपने ही देशबांधवों को अनन्वित यंत्रणा व पीड़ा देते हुए उन्हें फाँसी की ओर खींचना है और स्वदेश की गुलामी न सहने के अपराध का दंड देना चाहता है, इन सभी पर उस अधिकार का इस्तेमाल करने में कोई आपत्ति नहीं। यद्यपि यह सत्य है तथापि उस अकेले को मारने में क्या तुक है? उन सभी को मारने के लिए कुछ तैयारी हो चुकी है। हमें राष्ट्र निर्माण करना है। उस पवित्र कल्पना में तथा उस कार्य में सफलता मिले इसलिए कृतकर्तव्य में ही अपने अधिकार का बीज है। प्रमुख कर्तव्य जो हमें करना चाहिए वह उस अत्याचार के इर्द-गिर्द घूम रहे कुछ उपग्रहों का नाश करना नहीं, उस प्रमुख अत्याचार का नाश करना है। जब तक वह प्रमुख अत्याचार कायम है, जब तक देश में विदेशियों की तलवारें कायम हैं तब तक देशद्रोही भी कायम रहेंगे ही। तो फिर इक्के-दुक्के प्रयत्नों के बदले अपनी सारी शक्ति एकीकृत करो। सभी मिलकर आक्रमण की तैयारी में जुट जाओ। विदेशियों ने धावा बोल दिया है, उधर संघटित शक्ति से एकदम जोश के साथ भिड़ जाओ, फिर आपकी प्रकृतिदत्त भूमि सभी प्रकार के अत्याचारों और नीचता से मुक्त होगी। अपना देश स्वतंत्र करने के लिए लड़ने का अधिकार ईश्वर ने तुम्हें दिया है। एकाध अन्यायी व्यक्ति की हत्या करने में हम अपने आप पर ग्लानि क्यों करते हैं।
इस प्रकार उन लोगों के कृतकों की परीक्षा करनी चाहिए। परंतु तुम उसकी आशा छोड़ना चाहते हो? उनमें से कुछ उठकर तुमसे पूछेगे कि 'मानिन, अन्य नेताओं की तरह ही तुमने हमें विदेशी सत्ता से द्वेष करना सिखाया है, अन्य लोगों की तरह तुमने हमारे मन में स्वदेश-स्वतंत्रता-तृष्णा उत्पन्न की है तो फिर पूर्ववत् ही अब भी हमें वह साध्य प्राप्त करने क्यों नहीं ले जाते? अब हमें क्यों छोड़ देते हो? यदि तुम्हें हमारे खंजर पसंद नहीं तो हमें बंदूक दे दो। तुम तथा हमारे अत्यंत प्रिय शेष नेता एक होकर यह क्यों नहीं कहते कि यह शुभ वेला आई है? क्यों नहीं करते यह सब? तुम्हें क्या प्रतीत होता है? क्या तुम्हें आशा है कि विदेशी सत्ता अपने इटली देश को स्वतंत्र करेगी? नहीं, नहीं। वह कभी संभव ही नहीं।। चलो तो फिर, हमारे हाथों को अपने मस्तिष्क की सहायता दो, तभी तुम्हें हमका उपदेश करने का अधिकार प्राप्त होगा।'
ऐसे प्रश्न का तुम क्या उत्तर दोगे?
कूटनीति युद्ध के नियम (सन् १८३२)
ऐसे सकल हो सिद्ध। तो परचक्र की कैसी हो चिंता।
व्याघ्र आते ही कुरंग। भरे चौकड़ी चारों ओर ।। 2 ।।
(निम्नांकित नियम मैझिनी ने छापामार टोलियों के लिए बनाए थे। यूरोप के विख्यात सेनाधिकारियों ने इन नियमों की भूरि-भूरि प्रशंसा की है। निम्नांकित लेख से यह दिखाई देता है कि मैझिनी ने स्वदेश-स्वातंत्र्यार्थ प्रत्येक साधन का कितना सूक्ष्म अध्ययन किया था और लेखन कला की तरह ही युद्धकला में युवकों को तैयार करने के लिए वह महात्मा किस तरह प्रयत्नशील था। स्वदेश को स्वतंत्र राष्ट्र बनाने के लिए मन और हाथ दोनों स्वतंत्रता की तालीम में तैयार होने चाहिए। मन से स्वतंत्रता का चिंतन करना चाहिए और हाथों से उसकी रक्षा। सच्चा मनुष्य नागरिक और सिपाही दोनों होना चाहिए। जगत् की प्रस्तुत परिस्थितियों में अपना स्वाभाविक तथा न्याय्य अधिकार कायम रखने में मन में उस अधिकार की तथा हाथों में उन अधिकारों को सँभालने की शक्ति होनी चाहिए। 'युवा इटली' जैसी गुप्त संस्था ने अपनी लेखनी से इटली का मन तैयार किया और अपनी तलवार से इटली के हाथ तैयार किए। इस प्रकार जिस राष्ट्र का मन स्वदेशी तथा हाथ सशस्त्र हो गए हैं उस राष्ट्र से भला स्वतंत्रता-लक्ष्मी प्रसन्न क्यों नहीं होगी? मैझिनी का तत्त्वज्ञान उस तरह का था और इसीलिए उसने स्वदेश की मानसिक शिक्षा की तरह ही उसकी शारीरिक शिक्षा की उन्नति करने के लिए उठकर प्रयास किए। जिस राष्ट्र में शक्ति नहीं, उस राष्ट्र का पुरुष दुर्बल है और जो राष्ट्र मरियल है वह अपनी स्वतंत्रता कैसे संपादन करेगा, और संपादन करने पर भी उसे कैसे सँभालेगा? निम्नांकित नियम 'युवा इटली' के पत्र में प्रथम प्रकाशित किए गए।
कूटनीति युद्ध राष्ट्रीय संग्राम की प्रथम सीढ़ी है और इसलिए छापामार टोलियों की व्यूह रचना इस प्रकार से की जाए कि लड़ते-लड़ते उनमें राष्ट्रीय सेना की योग्यता का विकास हो।
कूटनीति युद्ध में ऊपरी तौर पर जो आंदोलन परस्पर भिन्न दिखाई देते हैं उनमें भी आंतरिक रूप में एकवाक्यता होनी चाहिए। इसलिए छापामार टोलियाँ अलग-अलग भले ही फैली हों उन सभी को एकरूपता में लाने के लिए एक प्रमुख केंद्र की नियुक्ति हो। उस प्रमुख केंद्र द्वारा ऐसी व्यवस्था की जाए कि साधारणतः सेनानियों का चयन तथा नियुक्ति सभी टोलियों के लिए आवश्यक नीति-नियम और उन सभी भिन्न-भिन्न दलों में एक तत्त्व की प्रेरणा उत्पन्न होकर उस सिद्धांत की विजय हो, इससे लड़ने में एकमत तथा एकवाक्यता रहेगी।
कुटनीति युद्ध करनेवाली टोलियों का प्रमुख राजनीतिक कर्तव्य यह है कि वे स्वयं सशस्त्र तथा सज्ज होकर अन्य लोगों को लड़ने की प्रेरणा दें। प्रत्येक टोली पर तत्पक्षीय सिद्धांतों तथा नीति की सजीव छाप अंकित होनी चाहिए। अत्यंत कटा अनुशासन बनाए रखना आवश्यक है। इतना ही नहीं, वह तो प्रत्येक का कर्तव्य होना चाहिए। कड़े अनुशासन का पालन करना प्रत्येक का राष्ट्र विषयक पवित्र कर्तव्य है। क्योंकि अनुशासन के अभाव में आपा-धापी, अराजकता तथा अत्याचार शुरू होने से उनके स्वदेश बंधु उनकी सहायता नहीं करेंगे, न ही उनसे सहानभति जताएँगे।
महिलाएँ, दूसरे की जायदाद, व्यक्तिमात्र के अधिकार, बोए हुए खेत आदि को जरा भी क्षति न पहुँचे, इसकी सावधानी विशेषत: बरतनी चाहिए।
छापामार दल राष्ट्र के हँकारे (हँकवारे) हैं। वे स्वतंत्रता संग्राम के लिए ललकारें तथा समस्त राष्ट्र को युद्ध प्रवृत्त करें; परंतु राष्ट्र पर उनकी किसी भी प्रकार की सत्ता नहीं होती। राष्ट्र उनका स्वामी और वे राष्ट्र के सेवक हैं।
एतदर्थ यह निश्चित करने का कि युद्ध किन सिद्धांतों पर चलाएँ तथा कौन से साध्य पर निष्ठा रखें-संपूर्ण अधिकार राष्ट्रीय इच्छा के पास है।
क्षमाशीलता मन:स्वातंत्र्य का निदर्शन है, अतः लोकसत्ताक पक्षीय जन सदासर्वदा क्षमाशील रहें। धार्मिक भावनाओं, मंदिर, भिन्नधर्मीय प्रचार को हवा न दें और जब तक धर्मगुरु तथा उपाध्याय वर्ग हमारे विरोध में नहीं जाते तब तक उनका बाल भी बाँका न करें।
किसी भी व्यक्ति को पिछले अपराधों के लिए क्षमा माँगने के लिए बाध्य करना अथवा उस अपराध के लिए दंड-राष्ट्र का अधिकार है। अत: छापामार टोलियाँ उस अधिकार का प्रयोग न करें। राष्ट्रीय प्रतिशोध राष्ट्र ही लें। व्यक्ति का इसमें हस्तक्षेप अन्याय है।
इन नियमों पर अमल करने के लिए सिपाहियों द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों की उस टोली के कप्तान की अध्यक्षता में एक पंचायत प्रस्थापित की जाए। इस पंचायत से जिन सिपाहियों को अवैध व्यवहार के लिए दंड मिला हो उनके नाम प्रमुख केंद्र के पास भेजे जाएँगे और यथायोग्य समय पर उसके द्वारा उन्हें घोषित किया जाएगा।
प्रत्येक टोली का कप्तान उस टोली के व्यवहार के लिए मख्य केंद्र की ओर से जिम्मेदार समझा जाएगा।
अपराध सिद्ध होने पर वह कप्तान प्रमुख केंद्र की आज्ञानुसार अपने कार्य से निलंबित किया जाएगा अथवा प्रकट रूप में उसे दंड दिया जाएगा।
जब किसी टोली द्वारा निंद्य कृत्य तथा अत्याचार की अनेक व बार-बार शिकायतें आएँगी तब यह निश्चित करते हुए कि उस टोली की राष्ट्रीय स्वतंत्रता के पावन कार्य में लड़ने की योग्यता नहीं है। मुख्य केंद्र उसे नौकरी से निलंबित करे। इस आदेश के बावजूद भी वह टोली ऐसी ही रही तो यह समझा जाए कि यह टोली ऐसे लोगों द्वारा मचाया हुआ उत्पात है जिनका ध्वज नहीं, न कोई उद्देश्य है।
अपनी-अपनी सुरक्षा के लिए यथायोग्य उपाय करने की प्रत्येक टोली को अनुमति है। राष्ट्रीय आक्रमण का प्रसार यथासंभव प्रत्येक व्यक्ति करे। राष्ट्रीय क्रांति के विरोध में जो की कोई आघातक तथा विधातक प्रयास करेंगे, जो कोई ग्रामशत्रुओं को देशभक्तों की गतिविधियाँ सूचित करेंगे और इटालियन देश-बंधुओं के साथ किसी भी तरह का बैर मोल लेंगे उन्हें तुरंत कड़े-से-कड़ा दंड देने का अधिकार प्रत्येक छापामार टोली को हो।
प्रत्येक छापामार दल को अपने अस्तित्व की रक्षा का संपूर्ण अधिकार है और अपने पक्ष को दृढ़ करने के लिए यथासंभव साधन-सामग्री प्राप्त करना उसका कर्तव्य है।
शत्रुपक्ष से प्राप्त लूट, अत्याचारी सत्ता से छीना हुआ खजाना, अपने ही उन लोगों से जो धनवान होते हुए भी राष्ट्रपक्षों की सहायता न करने का आत्मघाती कृत्य करते हैं, बलपूर्वक छीना हुआ धन और जिन-जिन प्रदेशों से देशभक्तों की सेना गुजरती है उन सभी प्रदेशों से माँगी हुई खंडनी पर छापामार टोलियाँ अपनीअपनी आजीविका की व्यवस्था करें।
प्राप्त की हुई लूट पर सभी टोलियों का अधिकार है। एतदर्थ परिस्थिति के अनुसार उस टोली द्वारा ही पसंद किए हुए नियमानुरूप अधिकारी और सिपाहियों में उस लूट का बँटवारा किया जाएगा।
सरकारी खजाना लूटने पर उसपर राष्ट्रपक्ष का अधिकार रहेगा। उस टोली के कप्तान पर उस धनराशि का दायित्व रहेगा। खजांची को कप्तान उस धनराशि से संबंधित चिट्ठी लिखकर दे।
बलपूर्वक उगाही गई मालगुजारी का समाधान मुख्य केंद्र के अनुरोध पर कप्तान ही करे।
प्रत्येक प्रदेश से अनाज की आपूर्ति की जो माँगें करनी हैं यथासंभव वे सीमित मात्रा में ही हों। यह रसद पहुँचते ही यथासंभव प्रयास करके उसके भुगतान की तुरत व्यवस्था की जाए। जब टोलियों के पास धन नहीं हो तो कप्तान अपने नाम की एक चिट्ठी लिखकर 'रसद की प्राप्ति सूचना' उस प्रदेश के अधिकारी को दे। इस प्रकार युद्ध समाप्त होते ही यह तय किया जा सकता है कि किस प्रदेश से कितनी सहायता मिली।
अपनी टोली का किसी भी प्रकार का नुकसान न करते हुए जितनी धनराशि भेजी जा सकती है उतनी कप्तान मुख्य केंद्र को भेज दे।
अपनी टोली के खर्चे का पूरा तथा सुस्पष्ट हिसाब कैप्टल को रखना चाहिए। इस हिसाब की जाँच मुख्य केंद्र द्वारा नियुक्त मुलकी कर्मचारी द्वारा की जाएगी। यह मुलकी अधिकारी इसपर निगरानी करेगा कि लश्करी अमलदार राष्ट्रीय नियम का पालन ठीक-ठाक कर रहे हैं या नहीं।
कूटनीति युद्ध में सभी टोलियाँ बड़े-बड़े शहरों को अपने अधीन करने का प्रयास करें; परंतु छोटे-छोटे गाँवों को प्रकटतः आक्रमण के लिए प्रोत्साहित न करें। क्योंकि शत्रु उन गाँवों पर सहजतापूर्वक भयंकर प्रतिशोध ले सकता है। उस गाँव के जो देशभक्त कूटनीति दलों में शामिल होने के लिए तैयार होंगे, वे देशभक्त गाँव छोड़कर टोली में आकर शामिल रहें। शेष लोग अंदर से सहायता करें।
प्रत्येक टोली यथासंभव अपना मनुष्य-बल बढ़ाए, परंतु केंद्रीय मंडल द्वारा भावी राष्ट्रीय सेना के दलों की जो संख्या निश्चित की गई हो, उतनी भरती होने के पश्चात् नवागत स्वदेशभक्त सिपाहियों से नई टोली की रचना करें।
कूटनीति युद्ध का आरंभ होते ही पहली टोली के कप्तानों का चयन प्रमुख केंद्र द्वारा किया जाएगा अथवा मान्य किया जाएगा। युद्ध में मारे गए अधिकारियों के स्थान पर उन्हीं के ही निम्न वर्गीय अधिकारियों का चयन होकर योजना बनाई। जाए। निश्चित संख्या से अधिक भरती होनेवालों की नई टोली बनाए जाने पर उसके कप्तान का चयन भी पूर्ववर्ती कप्तान तथा उसका निकटवर्तीय अधिकारी करे। भावी राष्ट्रीय सेना में हमें खानापूर्ति करनी है इसलिए किसी भी टोली को ऐसा प्रयोजन आयोजित करने का अधिकार नहीं जिससे कूटनीति योजना में बाधा आएगी।
प्रत्येक टोली पच्चीस से पचास तक सिपाहियों के दल बनाए तथा निश्चित इलाके में अपने-अपने कमांडरों के अधीन रहकर युद्ध जारी रखें, ताकि किसी भी प्रदेश पर कुछ अधिक बोझ न रखते हुए आजीविका चलाई जा सके और तुरंत बिखरकर इधर-उधर जाना संभव हो और छिपकर बैठ भी सकें इतनी फुरती व चपलता शरीर में आ जाए।
इन टोलियों का निश्चित परिवेश है एक शर्ट। युद्ध के पहले भाग में परिवेश के झमेले में न पड़ें। एक छोटा सा राष्ट्रीय चिह्न ही रखा जाए कि समय आने पर बिखरकर जाने के लिए अथवा अचानक नष्ट होने के लिए उस चिह्न को उतारकर फेंकने से नामोनिशान मिट जाता है और शत्रु को 'राष्ट्रयोद्धा कौन है' यह भी पहचानना मुश्किल होता है। दूसरी बात यह कि युद्ध आरंभ होते ही एक विशेष प्रकार के कपड़े की पट्टी का इस प्रकार प्रयोग करें कि दूर से शत्रु को दिखाई नहीं दे। यदि शर्ट पहननी हो तो अधिकारी और सिपाही दोनों समान रंग के ही शर्ट पहनें, ताकि केवल उन अधिकारियों को ही चुनकर मारना असंभव होगा।
एकदम अत्यावश्यक शस्त्रों में प्रत्येक सिपाही के पास एक मस्केट अथवा रायफल बंदूक, एक बायोनेट और एक खंजर अवश्य होना चाहिए। इनके अतिरिक्त प्रत्येक सिपाही के पास कारतूस, रोटी और मदिरा, एक बारीक लेकिन चीमड़ रस्सी, कुछ कीलें और हो सके तो एक छोटी सी कुल्हाड़ी भी-इतने सारे सामान के लिए एक छोटी और हलकी सी पेटी हो। सिपाही के कपड़े इस प्रकार तैयार किए जाएँ कि वह सुलभता से रह सके। उनकी आकृति अति विशिष्ट न हो अन्यथा अलग होने का समय आते ही वे सहजतापूर्वक पकड़े जाएँगे।
सभी तरह की गतिविधियाँ बिगुल बजाकर सूचित की जाएँगी। निम्नांकित गतिविधियाँ अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं, अत: उनके चिह्न पहचानने का प्रशिक्षण सिपाहियों को बढ़िया ढंग से दिया जाए-१. आघाडी का आक्रमण, २. दाहिनी ओर से आक्रमण, ३. बाईं ओर से आक्रमण, ४. एकसंघ होकर आक्रमण, ५. रायफलधारियों का आक्रमण, ६. पुनः संगठित होना, ७. पीछे हाट।
प्रत्येक टोली के कनिष्ठ अधिकारी खाली समय में कूटनीति के लिए अत्यावश्यक कवायद की शिक्षा देंगे। यह कवायद श्रमसाध्य कम, परंतु महत्त्वपूर्ण होती है। जैसे-बंदूक भरने तथा चलाने में चपलता, झट से फूटकर खिसक जाना, तुरंत संगठित होना।
कूटनीति युद्ध नीति की प्रमुख नीति यह हो कि यथासंभव शत्रु की मार टालकर तथा अपने आपको किसी संकट में न फँसाते हुए उलटे शत्रु को लगातार तंग करते-करते यथासाध्य शत्रु का नाश करते रहें। उनके बारूद के संचय को नष्ट करें। उनकी रसद लूटें। उनका धीरज तथा विश्वास डाँवाँडोल करें। उनकी कवायद तितर-बितर करें। सारांशत: उन्हें त्रस्त तथा निराधार स्थिति तक पहुँचाएँ। एक बार वह शत्रु त्रस्त होकर हताश तथा संभ्रमित हो गया कि झट से सारी टोलियाँ एक साथ आक्रमण करके एक प्रलंकारी युद्ध करें।
यह संभव हो एतदर्थ यथासंभव शत्रु के पीछे से बिलकुल आस-पास हमले करें। शत्रु का छोटा दल, आघाड़ी के थाने, भूल से दूर गई हुई टोली किंबहुना इक्का-दुक्का मिला कोई भी छोटा सा हिस्सा देखते ही पूरी शक्ति के साथ उसे दुर्बल बनाएँ। उनकी रसद, बारूद तथा खजाने को लूट ले। मार्ग में घात में रहकर उनके वार्ताहार तथा डाकियों को पकड़कर शत्रु को यातायात व्यवस्था ठप कर दे। पुलों को उड़ा दें, नदी के उतार, जहाँ से चलकर नदी पार की जा सकती है, सभी को नष्ट करें। शत्रु की नींद तथा विश्राम के समय का लाभ उठाकर जोरदार आक्रमण करें। उनके प्रमुख अधिकारियों तथा सेनापतियों पर अचूक निशाना लगाने का प्रयास करें।
कूटनीति युद्ध प्रमुखतः विचारयुक्त साहस का युद्ध है। यह ढाढ़स का युद्ध है, पद-चापल्य का युद्ध है, यह दबक-घात में रहने का युद्ध है।
छापामार टोली का कप्तान सभी मुद्दों पर विचार करते हुए शांति के साथ अपनी रणनीति तय करे और नियोजित कार्यक्रम पर तुरंत अमल करे। बिना विश्राम के टोली के साथ आगे प्रस्थान करता रहे। पलक झपकते ही पीछे मुड़े और सदा शत्रु की गतिविधियों की पूरी-पूरी खबर रखे।
अनुशासनबद्ध युद्ध पद्धति की तरह इस कूटनीति पद्धति में भी प्रमुख ध्यान यातायात कायम रखने की ओर देना चाहिए। एक टोली के विभिन्न दलों में तथा उन विभिन्न टोलियों में सलग यातायात कायम रहने की खबरदारी ले। यह सलग यातायात इतना पक्का हो कि एक ही समय और निश्चित प्रणाली से सब टोलियाँ आक्रमण कर सकें।
अनुशासनबद्ध युद्धप्रणाली में सेनानी का प्रमुख गुण यह होना चाहिए कि वह कब युद्ध करे और विजय प्राप्त करे; परंतु छापामार युद्ध के सेनानी में जिस प्रमुख गुण की आवश्यकता होती है. वह यह कि सतत आक्रमण करना, शत्रु का अधिक-से-अधिक नुकसान करना और संकट अपने ऊपर आता देखकर झट से पीछे मुड़ना।
जिस टोली का घेरा डाला है, समझिए उसका सर्वनाश अटल है। पीछे हटने का मार्ग हमेशा खुला रखना चाहिए। प्रत्येक कप्तान विभाजित होने का समय आते ही सभी सिपाही कहाँ और कब संगठित हों यह स्पष्ट किए बिना शत्रु पर आक्रमण न करे।
शत्रु पर आक्रमण का उत्तम समय है देर रात और विश्राम का समय अथवा किसी लंबे दौरे से थककर चूर होकर जब वह वापस आता है तब।
सेना में अचूक निशानेबाजों की ही भरती करें। दूसरी योजना तैयार करना अनिवार्य हो तब ही हमले के समय छापामार टोलियाँ अपने निशानेबाज सिपा को यथासंभव एक-दूसरे से दूर-दूर फैलाएँ। हमले के समय प्रत्येक सिपा जितना अधिक अंतर होगा उतना ही शत्रु की गोलीबारी का भय कम होता हैं। तीस पर लंबी पंक्ति होने से थोड़ी सेना के द्वारा शत्रु की अधिकाधिक सेना को उलझाया जा सकता है।
जिस प्रदेश में झाड़-झंखाड़, जंगल तथा ऊँचा-नीचा असमतल प्रदेश हो उस प्रदेश में कूटनीति युद्ध के लिए जो प्रकृतिदत्त सुरक्षा का कवच निर्माण होता है वह है खंदक (दुर्ग आदि के चारों ओर का गहरा गड्ढा) तथा छिपने की जगह। प्रत्येक पर्वत श्रेणियाँ उनके किले हैं।
छापामार टोलियों की गतिविधियाँ त्वरित, झटकेबाज, अखंडित तथा अनपेक्षित हों। शत्रु उनके संबंध में सौ प्रतिशत अनभिज्ञ रहना चाहिए। टोलियाँ या तो दुर्ग स्थान में घुसकर बैठे या प्रसंग देखकर निधडल्ले के साथ अलग हो जाएँ, ताकि शत्रु को कभी उनका नामोनिशान तक न मिले।
साधारणतया यह कहा जा सकता है कि छापामार टोलियाँ निम्नांकित आकृति के अनुसार अपना डेरा जमाएँ-
अ
क
ब
'अ' स्थान पर टोली खड़ी रहे, 'ब' स्थान पर शत्रु का अड्डा है। प्रथम पीछे हटने का नाटक करें और शत्रु को यह प्रतीत होते ही कि हम सत्य ही पीछे हट रहे हैं, फिर झट से आगे खिसककर आक्रमण करें। संभ्रमित शत्रु सावधान होकर संघटित होते हुए हमले का जोरदार प्रतिकार करने लगते ही तुरंत पीछे मुड़कर नौ दो ग्यारह हो जाएँ।
प्रत्येक कप्तान निम्नांकित तीन बातों का अभ्यास अवश्य करें-
१. उस प्रदेश की सूक्ष्म जानकारी, जिसमें युद्ध करना है।
२. अपने दल के प्रत्येक व्यक्ति का स्वभाव तथा विशिष्ट योग्यता की संपूर्ण परीक्षा,
३. शत्रु के विभिन्न प्रकार, उनकी रचना, उनके दाँव-पेंच और उनकी संख्या का निश्चित पता लगाना।
प्रत्येक बात के लिए नितांत गोपनीयता रखें। केवल अत्यावश्यक बातें सेना में सूचित करें।
अपनी गतिविधियों के लिए प्रदेश का चयन करते समय उसी प्रदेश को चुनें जहाँ से अपने बहुसंख्य सिपाही आए हुए हैं और बिलकुल विवश होने तक वह प्रदेश छोडकर अन्यत्र न जाएँ। क्योंकि सिपाहियों को उस इलाके का संपूर्ण जान होता है और वहाँ के लोगों में उनके संबंधी तथा स्नेही होने के कारण भरपर सहायता प्राप्त की जा सकती है।
अपनी गतिविधियों की कक्षा में प्रत्येक टोली विभिन्न स्थलों पर कुछ सिपाहियों को कायम रखे। यह इसलिए आवश्यक है कि प्रसंगवश युद्ध के समय उनका आरक्षित सेना के समान उपयोग होता है। सभी तरह की निश्चित वार्ता प्राप्त की जा सकती है। हाँ, इन सिपाहियों की जानकारी कप्तान तथा उसके वार्ताहरों के अतिरिक्त अन्य किसी को भी नहीं होनी चाहिए।
ये सिपाही गोपनीय ढंग से शत्रु की गतिविधियाँ भाँप लें। शत्रु की गतिविधियाँ, सेना की संख्या, योजनाएँ, रसद, गुप्तचर, वेश, स्थल, बड़े-बड़े अधिकारियों के डेरे-इन सभी बातों की निश्चित जानकारी हो। उस इलाके के लोगों की सहानुभूति, उनसे कितनी रसद मिलना संभव है, वहाँ के गुप्त मार्ग तथा दुर्गम स्थल आदि संपूर्ण जानकारी सूक्ष्म तथा गोपनीय ढंग से प्राप्त करके निकटवर्ती टोली के कप्तान को सूचित करें। उस आरक्षित सेना की रचना और उनसे रखा हुआ यातायात संबंध कप्तान अत्यंत सावधानी से निश्चित करे।
जहाँ तक हो सके कप्तान अपने आदेश मौखिक रूप में भेजें। लिखित आदेश यथासंभव टालने का प्रयास करें। जानकारी दो विभिन्न मार्गों से प्राप्त करें, ताकि दूसरे की वार्ता से ज्ञात होगा कि पहले की वार्ता कितनी यथार्थ है। अपने स्वयं के गुप्तचरों के अतिरिक्त स्वयंप्रवृत्त दूतों द्वारा कथित वार्ता पर भरोसा न करें। उसी तरह शत्रु की ओर से संबंध तोड़कर आनेवालों पर भी पूरा भरोसा न करें। प्राय: वह शत्रु द्वारा धोखाधड़ी के प्रयास होते हैं।
यथासंभव सारे प्रयास करके किसान वर्ग से स्नेह एवं प्रेमभाव बनाए रखें। यह हमारा कर्तव्य है और इसी में अपना हित भी है।
शत्रु को क्षति पहुँचाने का असली मार्ग उसके अधिकारी, उनके घोड़े, उनकी रसद आदि का विनाश करते रहना है।
शत्रु के पुरोगामी हिस्से पर सदा सर्वदा हमारे गुप्तचर नजर रखें। इस पुरोगामी हिस्से पर अवसर देखकर आक्रमण की योजना बनाएँ। प्रथमतः अपने कुछ लोग उनके मार्ग में भेजकर निश्चित स्थान पर वृक्षों को तोड़कर-उखाड़कर पत्थर व शिलाखंड लुढ़काकर, रास्ता खोदकर वह मार्ग रोककर रखें। शत्रु सेना। वहाँ पहुँचते ही वह स्वाभाविकतः संभ्रमित होती है। वह आगे नहीं बढ़ सकती। इस
प्रकार पुरोगामी हिस्सा संभ्रमित होने पर अचानक धावा बोल दें। संध्या समय शत्रु चलते-चलते थका-हारा आ रहा हो अथवा किसी पुल, जंगल अथवा खाई से जा रहा हो तो कदकर उसके पास पहुँचें और जोरदार हमला करें।
कभी-कभी शत्रु का अगला हिस्सा जाने दें और फिर अपनी टोली के छोटे से हिस्से के साथ एक निश्चित स्थान पर आक्रमण करने का ढोंग करें। शत्रु उस स्थान पर अपनी सारी शक्ति खर्च करने लगते ही तुरंत बाकी सारी टोली सेना शत्रु केंद्र पर आक्रमण करे। पहला प्रहार अग्रिम गाड़ियों की पहली पंक्ति में स्थित घोड़ों पर करें। जिस मार्ग से उस सेना को प्रमुख सेना की सहायता मिलने की संभावना हो; उनकी विपरीत दिशा से आक्रमण करें, ताकि अपनी टोली के फँस जाने की संभावना नहीं रहती। ऐसे समय में सेना का चौथा हिस्सा आरक्षित रखें।
शत्रु नदी पार करनेवाले मार्ग से भी अगर जा रहा हो तो उपर्युक्त तरीके से आक्रमण करें अथवा छिपे हुए स्थान से भड़भड़ाकर बाहर निकलें अथवा अचानक हमला करें। शत्रु का कुछ हिस्सा उस पानी के उतार से या खाई से अथवा हमारे द्वारा दबाए हुए स्थान से आगे नहीं निकलता तब तक हमला न करें। क्योंकि अन्यथा वे एकदम पीछे हटेंगे। परंतु उसका कुछ हिस्सा अटक जाने से उसमें एकदम संभ्रम उत्पन्न होता है। प्रथम, उनकी ओर एक बार बंदूक दागें और फिर पंक्ति पर टूट पड़ें। हमला इतना निर्णायक तथा द्रुत वेग के साथ करें कि शत्र को कुछ सोचने के लिए अवसर ही न मिले। शत्रु किंचित् होश में आने पर अपने आपको सँभालने लगने से पहले ही स्वयं शीघ्रतापूर्वक वहाँ से अंतर्धान हो जाएँ। जहाँ तक हो सके शत्रु की मार आरंभ होकर उसे अपने पर लेते-लेते पीछे हटने का प्रसंग टालें। परंतु शत्रु से लड़ते-लड़ते पीछे हटना ही पड़े तो निम्नांकित उपाय करें-
अपनी टोली की पंक्तियाँ बनाएँ, उनकी रचना ऐसी करें कि वे सोपान की सीढ़ी समान उतरती जाएँ। उनमें दो गलियों का अंतर हो। यह व्यूह पीछे रहकर चले। शत्रु गोली की कक्षा में निकट आते ही धड़ल्ले से सब मिलकर उसपर बंदूक दागें। इस गोलीबारी से शत्रु के दबते ही तुरंत पीछे हटें; परंतु हटते समय व्यूह को न मोड़े। इस तरह एक स्थान से दूसरे स्थान, एक रुकावट से दूसरी रुकावट में रक्षा करते-करते एकदम निकटवर्तीय मार्ग से निकल जाएँ।
खुले मैदान में कभी न लडें। जब खाई से अथवा किसी भी सँकरे मार्ग से जाना हो, आस-पास की ऊँची पहाड़ियाँ कब्जे में लेकर अथवा यह पक्के तौर पर जांच करते हुए कि अब धोखा नहीं है, तब सेना सहित जाएँ।
यह अच्छी तरह से ध्यान में रखें कि आपके लिए अथवा शत्रु के लिए प्रत्येक पर्वत में कोई-न-कोई रास्ता होता ही है।
हमेशा विपरीत दिशा में आग लगाकर अपने उन गुप्तचरों को जिन पर शत्रु का कोई संदेह नहीं, अन्यत्र कहीं बिगुल बजाकर अपने वास्तविक अड्डे तथा अपनी दिशा का शत्रु को पता भी नहीं लगने देकर उसे धोखे में रखें कि आप कहीं अन्यत्र जा रहे हैं।
जब शत्रु के बंदूकधारियों के सामने अपने सिपाही होते हैं तब उन्हें बंदूक दागने की मात्र धाक दिखाएँ और तब तक गोलीबारी आरंभ न करें जब तक शत्रु की ओर से प्रथम गोलीबारी की शुरुआत नहीं होती। उनकी चिंगारियाँ उड़ते देखकर फिर बंदूक चलाएँ।
साधारणत: ऊँचाई वाले लक्ष्य पर बंदूक चलाते समय निशाना किंचित् अधिक ऊँचा रखें और गहराई में स्थित लक्ष्य पर किंचित् अधिक गहरा निशाना साधे।
शत्रु की सेना की दूरी से गिनती करनी या जाननी हो तो उनकी चाल की आवाज से गिन सकते हैं। साधारण नियम इस प्रकार है कि वह आवाज जितनी एकसमान आती हो उतनी ही शत्रु की संख्या अधिक होती है। उनके पाँवों से उड़ती हुई धूल से भी यह अनुमान ठीक लगाया जा सकता है; परंतु यह धूल, मिट्टी, हवा तथा प्रदेश के धरातल पर निर्भर करती है। भूमि के निकट कान लगाकर सुनने का अभ्यास करने पर प्रायः निश्चित अनुमान लगाया जा सकता है और इसमें जल्दी ही दक्षता हासिल हो जाती है। एक धमाका होने पर औसतन बारह लोग कुल गिने जाते हैं; परंतु कभी-कभी शत्रु जान-बूझकर धोखा देने के लिए भरपूर धमाके करते हैं।
छापामार सेना के लिए रणांगण शत्रु के तथा अपनी लड़ाई की नींव के बीच तैयार करें। युद्ध की नींव अपनी पीठ के पास सुरक्षित रखें।
बंडीएरा बंधु तथा कोसेंझा के अन्य देशवीरों का वृत्तांत
(२५ जुलाई,१८४४)
Who for his country dies, has lived long nough.
-एमिलिओ बंडीएरा
स्वदेश स्वतंत्रतार्थ लड़ते-लड़ते जो मरता है, वही मनुज इस शुभ मरण को चिरंजीव होता है।
-विनायक
'आकोपो रफिनी जो सन् १८१३ में इटली के देशयुद्ध में शहीद होकर देशवीर हो गया। मेरे प्रियतम बंधुओ, तुम्हारा नाम मेरे जिहा पर तथा तुम्हारी पवित्र मूर्ति मेरे मनोमंदिर में क्रीड़ा करते समय लिखे गए ये पुष्ट मेरी तुम्हारे लिए पूज्य भावनाओं के निदर्शकस्वरूप तुम्हें अर्पण करता हूँ। इस विश्व में जो निष्ठा तथा सत्यार्पण जैसे सदगुणों से अभिमंडित हुए हैं इन सभी में मुझे तुम्हारे जैसा पुरुष नहीं मिला। प्रियतम रफिनी, इस ऐहिक अस्तित्व में होते हुए तुम मुझसे प्रेम करते थे उसी तरह आज भी करते हो? अब तुम तो देवदूत बन गए होगे। अब उझे ऐसा प्रतीत होता है कि मैं तुम्हारे प्रेम के लिए योग्य नहीं रहा हूँ। तथापि देशावीरत्व से तुम धन्यता तक जब से गए हो, तब दो-तीन बार यही हुआ है कि जब मैं अपने स्वदेश तथा अपने दुःख एवं आशा-भंग से त्रस्त हो गया था, जब मेरी आत्मा संशय पिशाच की चपेट में फंस गई थी, पर पूरी तरह से नष्ट नहीं हुई थी, तब मेरे विचार से तुमने मेरी ओर से ईश्वर से विनती की और जिस योग से अचानक उस त्रस्त अवस्था से मुक्त होने में तथा अपने पवित्र युद्धार्थ पुनः तैयार होने के लिए मैं सक्षम हो गया हूँ, उस अविनाशी निष्ठा-समर्थता का तुम्हारे उस दर्भागी मित्र के मस्तक का प्रेमपूर्वक चुंबन लेते हुए तुमने उसके हृदय में संचार कराया है।'
मेरी सहायता करो, मेरी सहायता करो ताकि मैं निराशा में बंदी न बनें। जिस मंगल में हमारे विश्व से, उच्चतर शक्ति से तथा अनन्य प्रेम से भूषित तुम्हारी दिव्य देह आजकल वास्तव्य कर रही हो और जिस मंडल में तुम्हारे बाद स्वतंत्र युद्ध में धराशायी हुए देशवीर तुमसे मिलने आए होंगे, उस मंडल से उन सभी देशवीरों के साथ तुम ईश्वर से, उस जगद्गुरु से प्रार्थना करो कि इटली में उसी की इच्छा से प्राप्त प्रकृतिदत्त स्वतंत्रता एवं वैभव देने के लिए वह अविलंब पधारे।
परंतु जिस धुंधले प्रकाश को मैं इतने दिनों तक उषाकाल का निदर्शक समझता रहा था वह आलोक यदि किसी टूटे हुए तारे की अंतिम चमक हो: यदि इटली पर ईश्वरी स्वतंत्रता की किरणें गिरने से पहले दुःख तथा दुर्दशा की रात्रि के वे कितने सारे अकुलाहट भरे वर्ष अभी जाने ही हैं। यदि तुम्हारी मुझसे जो अखंड प्रीति थी और भविष्य में भी होगी-उस प्रेम के लिए हे प्रिय बंधु, मेरी सहायता करो। आज तुम्हारा मित्र इस तरह विचार करे, इस प्रकार जिए और इसी प्रकार मरे कि उसे भावज्जन्म पाप का स्पर्श भी न हो। विपत्तियाँ असहनीय हो गईं इसलिए अथवा आशा-भंग की चरम सीमा हो गई, इसलिए वह अपनी सिद्धांत-निष्ठा कभी न छोडे। ईश्वर और वह मानवजाति, जो उसके शासन से प्रगमन करती है, इन तत्त्वों पर उसकी निष्ठा सदा-सर्वदा अटल रहे और जन्म परंपरा से जाते-जाते जब वह दिव्य योनि तक आकर पनः मिलेगा तब उससे इस विश्व में किए हुए प्रेम के लिए उपकृत होकर तुम्हें तुम्हारे पंखों से तुम्हारा दिव्य सुख ढकने का प्रसंग न आए, इसलिए तुम मेरी सहायता करो।
(लंदन, अक्तूबर १८४४)
मैं यह निम्नांकित पृष्ठ बंडीएरा बंधुओं की अंतिम इच्छार्थ तथा अपने स्वातंत्र्यार्थ, जिन्होंने देह त्याग किया, वे देशवीर कैसे थे इसका संपूर्ण ज्ञान इटली को हो, इसलिए लिख रहा हूँ। वस्तुत: कुछ और वर्षों के उपरांत कोसेंझा के इन देशवीरों का वृत्तांत मैं लिखनेवाला था, परंतु वह कर्तव्य अभी ही करने का कारण यह है कि ऑस्ट्रियन पत्र और इटली की पुलिस देशवीर बंडीएरा बंधुओं के विषय में निंदात्मक अफवाहें फैला रहे हैं। इस निंदा का पुनरुच्चार और प्रतिध्वनि करते हुए सैकड़ों डरपोक एवं असंख्य मूर्ख लोग जीवित व्यक्तियों के विरोध में नहीं, क्योंकि इस तरह की निंदा की हम थोड़े ही परवाह करेंगे-परंतु जिन देशवीरों का पवित्र नामोच्चारण प्रत्येक इटालियन नतमस्तक होकर ही करे, उन शहीद देशवीरों के विरुद्ध उनकी कीर्ति को कालिख पोतने का प्रयास कर रहे हैं।
बंडीएरा बंधुओं ने अधीरता दिखाई इसलिए हम भीरु लोग हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठे, तो इस प्रसंग का लाभ उठाकर वे सभी प्रकार के आक्रमण का धिक्कार करने लगते हैं। विवेकी होने की शान से इठलाकर अपनी कायरता छिपाना चाहते हैं। वे उपदेश करने लगते हैं कि इटली में अपनी स्वतंत्रता प्राप्त करने की शक्ति नहीं और इसलिए वह उसे भिक्षा माँगकर प्राप्त करे। आक्रमण और स्वतंत्रता संग्राम को नीच कृत्य कहा जाता है और जो-जो इसमें हिस्सा लेंगे अथवा इसे प्रोत्साहित करेंगे वे सब लोग पापी कहलाते हैं। यह पक्ष कृति तत्परता से इतना भयभीत होता है कि कहना मुश्किल है। इस प्रकार का पौरुषत्व दिखाने का साहस उनमें नहीं है। परंतु अपनी कायरता को स्वीकार करने में उन्हें लज्जा आती है। आक्रमण के समय उसकी सहायता के दायित्व के भय से ये दिवाभीत कायर आक्रमण करना ही कितना मुर्खतापूर्ण कृत्य है इस तरह का प्रतिपादन करने लगते हैं। अपनी भीरुता, कायरता छिपाने के लिए मर्दानगी, पौरुषत्व महा दर्गुण है इस प्रकार सिखाया जा रहा है, जिससे हमारे युवा अंत:करणों से सारा तेज, सारा ओज लुप्त हो रहा है।
'जिन इने-गिने देशभक्तों ने स्वात्मार्पण के उदात्त उदाहरण प्रस्तुत किए हैं उनकी जय-जयकार करने के बदले उनकी निंदा हो रही है। कतिवंदों की निंदा होने से युवा जन भी कर्तव्य-शून्य हो रहे हैं और संपूर्ण राष्ट्र में शिथिलता आने की संभावना है। इस तरह हमें ढुलमुल और सुस्त बनते हुए देखकर आश्चर्य नहीं हमारे शत्रुओं का जोश बढ़ रहा है। मुझ पर जो घणित लांछन लगाए जा रहे हैं, मैं उनकी रत्ती भर भी परवाह नहीं करता और परवाह करता भी तो भी मैं व्यक्तिगत लेख लिखकर सर्वश्रेष्ठ देशवीरों को समर्पित पृष्ठों को कभी भ्रष्ट नहीं करता। हमारा यही कर्तव्य है कि भावी पीढ़ियों को बंडीएरा बंधुओं के नाम किसी भी दोष से निष्कलंक तथा स्वतंत्रता प्रेम से विभूषित बनी पवित्र भाषा में ही सुनाई दे। हमारे युवक पक्षांध लोग समझे जाने के बदले उनकी वास्तविक योग्यता पहचानकर वे देशवीरों की पदवी से पहचाने जाएँ। शत्रु पर अपनी धाक जमाने तथा मित्रों को प्रोत्साहित करने एवं सारे विश्व को स्पष्ट शब्दों में सूचित करें कि इटली की स्वतंत्रता की कल्पना जान-बूझकर थोपे बिना, घर के विरुद्ध अत्याचार की परवाह न करते हुए लश्करी दुष्परिणामों को अस्वीकार करते हुए अपने ही लोगों द्वारा अविश्वास प्रकट होते हुए भी तथा एकाकीपन में भी अपने स्वाभाविक प्रेम की उचित ऋतु आते ही प्रत्येक युवा खेत में लहलहाने लगा। इस लेख में उसके पत्र के जो थोड़े से परिच्छेद दिए हैं उनसे यही सिद्ध होगा। वे मूल पत्र मैंने अपने पास सुरक्षित रखे हैं। ऐसे विभूति का, जिसकी आत्मा को निर्मल प्रीति तथा उच्च स्वार्थ-त्याग से पवित्रता प्राप्त हुई है-आज दस वर्ष मुझे जो संगति-लाभ हुआ उनके स्मारकस्वरूप वह पत्र मैं धार्मिक पूज्य बुद्धि से अपने पास ही इसी तरह सुरक्षित रखूगा।
ऑटिलिओ और एमिलिओ-इन बंडीएरा बंधुओं का, जिस शहर में उनका जन्म हुआ, उनके पिता का नाम वारन बंडीएरा था। यह सर्वश्रुत ही है कि उसने इटली के देशभक्तों का विश्वासघात करके उन्हें बंदी बनाया था। अपने बाल्यकाल से ही ये बंडीएरा द्वय इटली का राष्ट्रैक्य हो इसलिए कैसी योजना बनाएँ, इसका विचार कर रहे थे। उनके द्वारा मेरे लिए लिखे हुए पत्र मैं यहाँ दे देता, परंतु उनमें उल्लेखित कुछ नामों को उजागर करना अभी उचित न होने के कारण तथा उनके आयोजित कुछ कार्यक्रमों को आज ही प्रकट करने से देश की हानि होने की संभावना होने के कारण उतना अंश मुझे छोड़ना पड़ रहा है। परंतु शेष अंश ज्योंका-ज्यों दे रहा हूँ। उसमें मेरे विषय में जो भी उद्गार हों, वे कितने ही अर्थहीन हों तथा मेरे धैर्य, हिम्मत तथा निष्ठा की उन्होंने की हुई प्रशंसा एक बार तडीपार का दंड देने पर फिर स्वातंत्र्य मत प्रकट करने में कुछ विशेष स्वार्थत्याग करना नहीं पड़ा। अतः कितना भी अवास्तव क्यों न हो, इस व्यक्ति विषयक प्रश्न को बीच में छेड़कर मैं उसके पवित्र शब्दों को छोड़ना नहीं चाहता। सन् १८४२ के अंत में ऑटिलिओ ने एक उपनाम धारण करके मुझे निम्नांकित पत्र भेजा-
'महाराज, आज बहुत साल हो गए। मैं तुम्हारे प्रति प्रेम और पूज्य बुद्धि रखता हूँ। हमारे इटली देश को परकीय सत्ता का जो कलंक लग गया है उसे धोने के लिए जो देशभक्त अथक परिश्रम कर रहे हैं, उनका धुरीणत्व आपके पास है, यह मेरी धारणा है। मुझे यह ज्ञात है कि युवा इटली' जैसी गुप्त मंडली के आप संस्थापक हैं और युवा इटली' पत्र का संपादकत्व भी आपके पास है। उस पत्र का एक भी अंक आज तक मुझे नहीं मिला था। परंतु अभी-अभी मुझे आपके 'अपास्टोलेटो पोपोलर्रा' पत्र के कुछ अंक मिल गए, उन्हें पढ़कर मुझे दोहरी प्रसन्नता मिली। एक तो मेरे विचार आप जैसे महान् पुरुषों को भी स्वीकार हैं यह देखकर मैं संतुष्ट हो गया। दूसरा यह कि अप्रत्यक्षतः क्यों न हो, परंतु आपसे पत्र व्यवहार करना संभव हो गया।
'कम-से-कम एक वर्ष हुआ होगा, मैं अपने ठौर-ठिकाने की खोज में हूँ। इस कार्यार्थ मैंने नाना तरह से प्रयास किए। कुछ दिन पूर्व मेरा एक मित्र इंग्लैंड जा रहा था। लंदन आकर वह आपकी तलाश करेगा और आपको मेरी रामकहानी सुनाकर आपसे पत्र-व्यवहार करने की मेरी इच्छा आपको सूचित करेगा। यदि आप अनुमति दें तो मैं पत्र व्यवहार शुरू करूँगा। क्योंकि आपसे स्वदेश कल्याण के लिए कुछ सहायता की मुझे आशा है। परंतु आपसे पत्र व्यवहार आरंभ करने से पूर्व मैं आपको अपनी कुछ हकीकत सूचित करूँगा। क्योंकि आगे-पीछे एक अपरिचित व्यक्ति पर एकदम व्यर्थ ही भरोसा किया, इस प्रकार का पश्चात्ताप करने का प्रसंग आप पर न आए। यदि मेरा मित्र निश्चित योजना के अनुसार आपसे मिला तो इस समय तक प्राय: आपको मेरी हकीकत का पता चल ही गया होगा। परंतु उसे कार्यबाहुल्य और समय की कमी होने के कारण हो सकता है किंचित् वह आपके दर्शन करने में असमर्थ रहा हो।
'मैं इटालियन हूँ और अद्यापि वधार्ह सिद्ध नहीं हुआ हूँ। मैंने लश्करी व्यवसाय में प्रवेश किया है। ईश्वर के अस्तित्व पर मैं विश्वास करता हूँ। पुनर्जन्म और मनुष्यगमन ये तत्त्व मुझे स्वीकार हैं। मेरी विचार-परंपरा इस प्रकार निश्चित हो गई है कि प्रथम मानवजाति का उसके पश्चात् स्वराष्ट्र कल्याण, फिर कुटुंब कल्याण और फिर व्यक्ति कल्याण-यह मनुष्य कर्तव्य की सोपान पंक्ति है। प्रत्येक अधिकार को न्याय का समर्थन मिले इस प्रकार की मेरी निष्ठा होने के कारण मेरे विचार से इटली पर हो रहे अत्याचार का निर्दलन करने में हम मानव जाति के कल्याणार्थ संघर्ष कर रहे हैं। इस स्वतः सिद्ध सत्य के समर्थनार्थ इटली पर कितने अनार्यों की मार पड़ रही है इस ओर गौर करना पर्याप्त है। यह मानकर कि इटली की मुक्ति मनुष्यजाति की मुक्ति का ही एक अंश है, प्रस्तुत संकट के संबंध । में मैं समाधान मानता हूँ। स्वाभाविक रूप से ही निर्भय विचार और त्वरित कृति यह मेरा स्वभाव होने के कारण और उपयुक्त तत्त्व विचारों में मेरा विश्वास होने के कारण मैं उन तत्त्वों की विजय हो, एतदर्थ मैंने अपना सारा जीवन उसी के लिए समर्पित करने का निश्चय किया। मेरे देश की सद्य:स्थिति का सूक्ष्म निरीक्षण करते सीमो निश्चित रूप में पता चला कि अपने देश के उद्धार का सच्चा प्रयास करने के लिए गोपनीयता के अतिरिक्त अन्य मार्ग ही नहीं बचा। षड्यंत्र के अतिरिक्त अत्याचारों तले कुचले गए परवश लोगों को स्वतंत्रता संपादन का युद्ध साहित्य तैयार करने के लिए अन्य मार्ग कहाँ से मिलेगा?
अपना जीवन जब से स्वदेश को अर्पण किया तब से मेरी हार्दिक कामना यह थी कि जिन-जिनको स्वदेश स्वतंत्रता की लालसा हो और जो-जो उसके लिए प्राण देने के लिए भी तैयार हों उन सभी को एकता भवन में संगठित करें। कोई भी प्रकट प्रयास करने से पहले सभी परस्पर विचार से एवं शक्ति एकत्रित करते हुए सर्वमान्य एवं स्थिर मार्ग निश्चित करें। ऐसा न करने से शीघ्र अथवा विलंब से भी विभिन्न नेताओं में, जो हमारे उद्देश्य के लिए अत्यंत घातक हैं, हड़कंप मचे बिना नहीं रहेगा। आपका परिचय पाने के लिए मैं आपके शब्दों का उच्चारण करते हुए आ रहा हूँ, 'हम संगठित हो जाएँगे, चर्चा करेंगे और बंधुभाव से कर्तव्य-पूर्ति तक कमर कसेंगे।' मेरी विनती को अस्वीकार न करें। क्वचित् आपको प्रतीत होगा कि इटली के स्वातंत्र्य युद्ध में सबसे प्रथम उठा हुआ हाथ मेरा ही होगा।'
यह पत्र जब मुझे मिला उसी समय जिस मित्र ने 'ऑटिलिओ ने मेरी भेंट लेकर मुझे मौखिक जानकारी देने के लिए कहा है-उस मित्र ने अपना काम पूरा किया। इसका नाम 'डोमेनिको मोरो' था, यह लश्कर में लेफ्टिनेंट था और इसका भी जन्म वेनिस में ही हुआ था। अपने अन्य मित्रों के साथ इस देशभक्त ने कोसेंझा में देशवीरों के मरण को गले लगाया। कुछ दिनों के पश्चात् मुझे 'एमिलिओ बंडीएरा' का पत्र आया। यह कनिष्ठ बंधु उसमें लिखता है, 'मेरा और मेरे बंधु का विश्वास है कि अपने दुर्भागी इटली देश को मुक्त करने के लिए अपना सर्वस्व अर्पण करना ही हम प्रत्येक का प्रमुख कर्तव्य है। हमने सुना था कि युवा इटली' नामक गुप्त मंडली स्वतंत्रता समर की तैयारी कर रही है और इसलिए इस मंडली में प्रवेश पाने के लिए हम प्रयत्नरत थे। तीन वर्षों तक सारे प्रयास व्यर्थ सिद्ध हुए। आपके लेख इटली में प्रसारित करना बंद हो गया और सरकार ने सभी लोगों को समझाया कि 'सेवॉय के आक्रमण को असफलता मिलने के कारण 'युवा इटली' में काई सी फट गई और मंडली का विलय हो गया। उस समय हमें आपके प्रमुख सिद्धांत की जानकारी नहीं थी तथापि हमारे सिद्धांत भी आपसे पूर्णतया एकरूप थे। हमारी भी यही इच्छा थी और है कि हमारी प्रिय देश स्वतंत्र, एकीभूत एवं लोकसत्ताक हो। हमने भी अपनी सारी आशाएँ अपनी आत्मनिर्भरता पर केंद्रित की थीं। हमारी योजना विदेशियों के द्वार पर भीख माँगते न घूमते हुए सबल होकर रणांगण में कूदकर शत्रु को ललकारने की थी।
बंडीएरा बंधुओं का नीतिशास्त्र ईश्वर, मानवता तथा स्वदेशभूमि की नींव पर खड़ा था। ईश्वर के अस्तित्व से अर्थात् उन्होंने यह सिद्ध किया कि सभी मनुष्य-जाति बंधुत्व और सहकरण के आचरण करने पर ही उन्नति तक जाएगी। अखिल विश्व प्रगमनोन्मुख है। यह प्रगमन एक-दूसरे का सिर फोड़कर नहीं होगा बल्कि परस्पर प्रेम तथा सहयोग से ही होगा। मानवजाति का यह परस्पर स्नेहमय एव सहकार आचरण उचित तरीके से संपन्न करने के लिए कर्तव्य के पावन तत्त्व को स्वीकार करना चाहिए। इस प्रकार मानवजाति का प्रगमन उद्देश्य और कर्तव्य यही आचरण नीति निश्चित करते हुए उससे प्रत्येक देश के लिए कौन सा विशेष कार्य हो रहा है इसका निश्चय उन्होंने किया और स्वदेश के लिए सौंपा गया विशेष कर्तव्य, जो मानवजाति की उन्नति के लिए प्रवर्तक है-पहचानकर उसके अनुसार व्यक्ति विषयक कर्तव्य कौन सा हो-यह उन्होंने निश्चित किया। यह कर्तव्य बुद्धि और तत्त्व विचार यद्यपि बौद्धिक मार्ग से दूर होकर लश्करी खाते में प्रविष्ट हो गए थे तथापि उनके मन में भी उत्पन्न हो गए। उनकी आत्मा भूतदया, देश-प्रीति, कर्तव्यनिष्ठा से पवित्र हो गई थी। दोनों अपनी माता से अटूट प्रेम करते थे, परंतु यह प्रेम मनुष्य को देवदूत की योग्यता तक ले जानेवाला प्रेम था, न कि उसे पशुता की नीचता तक ले जानेवाली लंपटता। यह प्रेम मनुष्य के उच्चतम कर्तव्य में बाधा स्वरूप नहीं था तो वह उस कर्तव्य की पूर्ति करने के लिए हृदयस्थ अहंकार को पूरी तरह से खदेड़कर उसके स्थान पर जो उन्नत तथा सुंदर हो, उसी का अधिष्ठान करवाना चाहता था। ऑटिलिओ का विवाह हो चुका था और उसकी एक संतान भी थी। परंतु इस बालक के रूप में ईश्वर ने ऑटिलिओ को एक युवा जीव को शिक्षा देने का जो कर्तव्य दिया था उस कर्तव्य ने ऑटिलिओ को स्वदेश सेवा के लिए प्रोत्साहित किया। इस बालक को देखकर ऑटिलिआ स्वदेश सेवा से विचलित नहीं हुआ। इतना ही नहीं, यह जानकर कि उस बालक को शिक्षा देना अपनी कृति पर निर्भर है वह अधिक जोर लगाकर स्वदेश सेवार्थ तैयार हो गया। उसकी सुशील पत्नी की उसके विरह में मृत्यु हो गई-यह में आगे बताऊँगा-वह उसको अपने प्राणों से भी अधिक प्रिय थी। वह उसके अंत:करण का विश्राम थी। उसके पास वह विश्वासपूर्वक अपनी सारी योजनाए। यथासंभव बताता।
इसके पश्चात् हमारे बीच जो पत्र व्यवहार हुआ वह में कुछ कारणों से उजागर नहीं कर सकता। तथापि सन् १८४३ के अंत में प्राप्त एक पत्र का परिच्छेद दे रहा हूँ। ऑदिलिओ लिखता है, 'इटली में धुंध छटने लगी है इसका मुझे प्राप्त वार्ता से पता चला। यदि यह सत्य होगा तो अपने सौभाग्य की स्वतंत्रता के सूर्योंदय की पौ फटने लगी है। ऐसे समय प्रत्येक सच्चे स्वदेशभक्त को अपना कर्तव्य पूरा करने के लिए तैयार होना चाहिए। अत: उस स्थान पर प्रत्यक्ष उपस्थित रहने के लिए, उधर जाने के लिए मैं साधन ढूँढ़ रहा हूँ। यदि मेरे कार्य में असफलता मिली तो इसमें मेरा अपराध नहीं। मेरा उद्देश्य यह है कि मैं उस इलाके में प्रवेश करते ही एक छापामार टोली तैयार करूँ। उसका नेतृत्व कर पर्वत में शरण लेकर और फिर वहाँ से स्वदेशार्थ तब तक लड़ें जब तक मृत्यु नहीं आती। मुझे यह पता है कि इस साहस से लाभ कुछ विशेष नहीं होगा, परंतु इस कृत्य का नैतिक परिणाम विलक्षण होगा इसमें कोई संदेह नहीं। क्योंकि इससे हमारा यह अधम शत्रु निश्चय ही भयभीत हो जाएगा। मैं उस शत्रु की विश्वस्त सेना में होने के कारण मेरे आक्रमण करते ही, जिस सेना के बलबूते पर यह विदेशी इतना मदोन्मत्त हो गया है, उसी सेना में अविश्वास उत्पन्न होने से वह निश्चित रूप से विचलित होगा और उसकी आधी शक्ति नष्ट हो जाएगी। दूसरी बात यह है कि मेरी तरह जो अन्य इटालियन लोग विदेशी सत्ता को उखाड़ने के लिए मूर्खतापूर्ण तथा पापकारक सैनिक शपथों के कारण डर रहे हैं। उन सभी के सामने मैं एक उदाहरण बन जाऊँगा। तीसरी बात यह है कि हमारे पक्ष के लोग शत्रु द्वारा अपनी शक्ति की बढ़ा-चढ़ाकर फैलाई गई बातों से हिम्मत हारकर बैठ जाते हैं जब वे शत्रु सेना में ही विद्रोह की ज्वाला धधकती हुई देखेंगे तो उनमें आवेश का संचार होगा।'
इस पत्र से यह दिखाई देता है कि ऑटिलिओ को आक्रमण करने के लिए किसी ने भड़काया नहीं था, वही स्वयंस्फूर्ति से कितना आतुर हो गया था। पाठकों को स्मरण होगा कि सन् १८४३ में उपयुक्त पत्र लेखन के समय इटली में भयंकर असंतोष फैला हुआ था। गुप्त मंडलों की पूरी-पूरी तैयारी थी। सरकारी अत्याचार इन षड्यंत्रों को ध्वस्त करने के लिए जैसे-जैसे बढ़ने लगा वैसे ही असंतोष और लोकक्षोभ अधिकाधिक तीव्र होने लगा। इस स्थिति का लाभ उठाकर, उस असंतोष से धधकती ज्वालाओं को अगर व्यवस्थित स्वरूप दिया जाता तो इटली की राज्यक्रांति का श्रीगणेश यहीं से होता। इस असंतोष की तथा रोमाग्ना के प्रमुख शहरों में सरकारी सेना से लोगों की हो रही छुटपुट झड़पों की वार्ता आते ही इन बंधुओं को प्रतीत होने लगा कि अंतिम दिन निकट आ रहा है। इतने में मुराटारी की छापामार टोलियाँ ही बाहर निकल पड़ीं जो राज्यक्रांति के लिए अत्यंत उपयुक्त थी और मध्य इटली में विद्रोह की आग भड़कने का समाचार सर्वत्र फैल गया। हर तरह से प्रयास करके अंत में बंडीएरा बंधुओं ने उस आंदोलन के कुछ नेताओं से संपर्क किया। परंतु उन नेताओं ने इनके सुझाए हुए मार्ग को स्वीकार नहीं किया। प्रथम 'आगे देखा जाएगा' इस तरह टालमटोल की। उसके पश्चात् बिना किसी कारण के टालमटोल जारी ही रखी और अंत में एक सर्वव्यापी आक्रमण के विपरीत तथा असंभवनीय योजना के पीछे पड़कर उन नेताओं ने जनता का आवेश व्यर्थ गँवाया। बंडीएरा बंधुओं को जो एक छोटी सी रकम चाहिए थी उसे भी देने से मना कर दिया गया। परंतु ऑटिलिओ ने अपने साथ हुई धोखाधड़ी के बारे में मेरे पास एक शब्द भी नहीं लिखा। हो सकता है उनके विरोध में जो मेरे परम मित्र थे इसीलिए लिखने का साहस वह नहीं कर सका अथवा अपने उदात्त स्वभाव के अनुरूप व्यर्थ पिष्टपेषण करने से वह ऊब चुका हो। पिछले आठ-नौ। वर्षों से इटली में एक नूतन वर्ग देशभक्ति का ढोंग रचाने में कुशल है। परंतु वस्तुत: अपनी तथा अपने देश का दुलौकिक करने के काम के अतिरिक्त अन्य किसी भी काम में वह तत्पर नहीं है। वे मित्र हैं, इतना ही नहीं, वे ढोंगी भी हैं। ये लोग अधिकार अथवा संपत्ति से बड़े प्रतिष्ठित समझे जाते हैं; परंतु कुछ अंश में राज्यक्रांति शास्त्र का क ख ग भी समझने की बुद्धि न होने के कारण, परंतु बहुतांशी अपनी भीरुता के कारण किसी भी सशक्त आंदोलन के विरुद्ध होते हैं। दुर्भाग्यवश इस भीरु, कायर पक्ष को ही नेता के रूप में सिर पर चढ़ाया जाता है और परिणामतः हमारा युवा वर्ग स्वाभाविक रूप में ही उनके उपदेश पर गौर करते हैं। इन स्वयंमन्य नामर्द नेताओं में अपने बलबूते पर स्वदेश की उन्नति करने की शक्ति है ही नहीं, परंतु यदि कुछ साहसी तथा स्वार्थत्यागी देशभक्तों ने स्वदेश स्वातंत्र्य-प्राप्ति का एकमेव उपाय योजना की प्रक्रिया आरंभ करते ही ये वह योजना विफल बनाने के लिए तैयार हो जाते हैं। वे कहते हैं, स्वतंत्रता उत्तम है, परंतु उसे जल्दबाजी करके प्राप्त नहीं करना चाहिए। उनके विचार से हमारे युवकों का आचरण नैतिक दृष्टि से सुधरना चाहिए। शत्रु का सामर्थ्य प्रचंड है। सांख्यिकी शास्त्र के ये लोग चाहते हैं कि आँकड़ों की कतरब्योंत, गिनती करके अंत में तीन गुनी संस्था होने तक इनका गणित चलता है। अस्सी हजार ऑस्ट्रियन स्वयं इटली में हैं, अस्सी हजार से अधिक ऑस्ट्रिया से आनेवाले हैं, अस्सी हजार ऑस्ट्रियन इधर से-उधर से, कहाँ से, ईश्वर ही जाने-आएँगे। वे इस प्रकार वास्तविक संस्था से तीन गुना सिपाही दिखाकर उत्साह, आवेश तथा ताजगी से भरपूर शूर युवकों के सामने निराशा का दुखड़ा रोया करते हैं। इतना होते हुए भी लोकक्षोभ की ज्वालाएँ भड़क उठी हीं तो अवसर देखकर ये लोग उसका किचित् अनुवाद करने लगते हैं और उसका नेतृत्व हाथ में आते ही फिर 'कैसे' और 'क्यों' इस विषय पर उपदेश देने लगते हैं। इस समय उनके विश्वासघाती कार्यों की जितनी निंदा की जाए, उतनी कम ही है। क्योंकि यदि यह आंदोलन वर्षा में आरंभ हो तो वे 'बसंत की प्रतीक्षा करना' ठीक समझते हैं और बसंत ऋतु में फूल खिलते हैं और तब शरीर से किंचित् लहू बहने से स्वास्थ्य के लिए सुखकारक ही होता है। अच्छा, यदि यह जनप्रक्षोभ का आंदोलन बसंत ऋतु में आरंभ हो गया तो फिर वर्षा की प्रतीक्षा वे ठीक समझते हैं। वर्षा ऋतु में नदी-नाले लबालब भरकर उमड़-उमड़कर बहते हैं और अंगूरों के बागों की ओट में छिपना हितकर होता है। जिन लोगों को क्रांतिशास्त्र का ज्ञान है उनकी सरल-सुलभ योजनाएं मिटा दी जाती हैं और बड़ी-बड़ी, भव्य योजनाएं बनाने की शान का प्रदर्शन किया जाता है। प्रदेशों से आक्रमण करने के बदले बड़ी-बड़ी राजधानियों से आक्रमण करने के सपने दिखाए जाते हैं। परस्पर विरोधी पक्षों का एकीकरण करने पर फिर आक्रमण करने की द्रविड़ प्राणायाम की योजना, जो पहले ही एकमत हुए हैं उन्हें ही लेकर आरंभ करने के सुलभ मार्ग के बदले किया जाता है। इस प्रकार इस पखवाड़े से उस पखवाड़े तक टालमटोल शुरू होती है और परिणामस्वरूप जनक्षोभ की अनियमित ज्वाला बुझने लगती है। आपसी मतभेद तथा पक्ष-विपक्ष होते हैं और अंत में आक्रमण का सारा आवेश ही ठंडा पड़ जाता है। जो युवक कुछ कर दिखाने के लिए छटपटाते हैं प्रायः इस विलंब से निराश होने लगते हैं और फिर वे भी आवश्यकता से अधिक विचारी बन जाते हैं। ऐसे देशभक्त युवक जो सच्चे तेज से चैतन्ययुक्त होते हैं, निराशा से भरे धैर्य के साथ कुछ भी अविचारी साहसी कृत्य करने के लिए तैयार होते हैं। इस दौरान लोकक्षोभ की टोह लगते ही विदेशी सरकार के कान खड़े होते हैं। वह अपने गुप्तचरों की संख्या बढ़ाती है। सेना तैयार करती है। धीरे-धीरे बड़ी सतर्कता के साथ ऐसे लोगों को बंदी बनाती है जिनसे उन्हें विशेष भय प्रतीत होता है और इस प्रकार लोगों के सारे षड्यंत्र उजागर होते देखकर सारे देश में भगदड़ मचती है। जो कायर तथा दुर्बल नेता हैं वे अपनी कायरता के कारण इस संकट को आमंत्रित करते हैं और वही पुन: इठलाते हुए आगे बढ़ते हैं। वे इस विफल आक्रमण की ओर अँगुली उठाकर कहते हैं, 'भई, हम तो पहले से ही कहते थे कि इस प्रकार के प्रयासों से देश नहीं उभर सकता।' अलल बछेड़े भोले-भाले लोग यह सुनकर धोखा खाते हैं और स्वयं भी उनकी यह कहते हुए हाँ-में-हाँ मिलाते हैं-'संपूर्ण स्वतंत्रता तो एक मनोराज्य है।'
फिर हमारी माताएँ फाँसी पर चढ़े देशवीर पुत्रों के लिए बिलख-बिलखकर रोने लगती हैं। इधर उन देशवीरों के शवों का भी प्रतिशोध लेने के लिए अधम पुलिस तैयार होती है। लोकक्षोभ को दबाने के लिए सरकार कुछ अधिकार देने की अफवाह फैलाती है। उसे सुनकर जो नेता बसंत की प्रतीक्षा करते हैं वे जनता को शांत होने का उपदेश देते हैं और उनकी अस्सी हजार ऑस्ट्रियन सेना को तीन से जरब देकर और पुन: जरब देकर अंकों की गिनती आरंभ करते हैं। इटली में आज तक जो सैकड़ों आक्रमण विफल हुए हैं उनका यही इतिहास है।
इटली को सफलता मिले यह यदि लोगों की मन:पूर्वक कामना हो तो वे भलीभाँति स्मरण रखें कि अहिन कुल की तरह परस्पर विरोधी पक्षों का सम्मेलन (संघटन) होने की व्यर्थ आशा वे कदापि न करें। उनमें से प्रत्येक का ध्येय अलग-अलग होने के कारण उसके एकीकरण पर आक्रमण निर्भर करें तो इसमें कोई संदेह नहीं कि वह उसी तरह गर्भावस्था में रहेगा। विद्रोह का आरंभ राजधानियों से न करें। क्योंकि राजधानियों में स्वाभाविक रूप से शत्रु सेना डेरा डालकर बैठती है। वहाँ गुप्तचर तथा पुलिस की भरमार होती है, वहाँ आरंभ करने से उसे विफल बनाना विदेशियों के लिए बहुत आसान होता है। विद्रोह ऐसे स्थान पर खड़ा करें जहाँ प्रथम हम विजयी हों। कितना भी छोटा क्यों न हो, परंतु आरंभ के आक्रमण की जय होनी ही चाहिए, ताकि विद्रोह की ज्वाला प्रचंड रूप से फैलती जाए, फिर लाख अपजय का सामना क्यों न करना पड़े पहली विजय तथा प्रस्तुत बल के आधार पर लोगों का मनोबल वृद्धिंगत होता है। अत: जो लोग स्वदेशार्थ प्राण त्याग करने के लिए तैयार हों और जिनका ध्येय संपूर्ण स्वतंत्रता हो-बस उतने ही मर्द देशभक्तों ने कायर नेताओं से बिना पूछे जिस स्थान पर प्रथम प्रयास सफल होने की संभावना हो वहाँ एकदम अवसर देखकर रणभूमि में कूटनीति से कूद पड़ें। जो लोग ये डींगें हाँकते हैं कि लोग शिक्षित हो जाएँ, नीतिमान हों, स्वतंत्रता के लिए योग्य हो जाएँ तो हम आक्रमण करेंगे-यह समझें कि उन्हें परिस्थितियों का रत्ती भर भी ज्ञान नहीं। शिक्षा प्राप्त होने पर स्वतंत्रता प्राप्त करना, परंतु स्वतंत्रता मिले बिना शिक्षा कैसी मिलेगी? जहाँ स्वदेश मरा हुआ है, जहाँ स्वराष्ट्र चैतन्यविरहित है, जहाँ शिक्षा के साधन ऑस्ट्रियनों के हाथों में हैं। वहाँ भला शिक्षा मिलेगी कैसे? ऑस्ट्रियन लोग आपको स्वतंत्रता के लिए योग्य शिक्षा कैसे देंगे? कैसी दिलाएँगे? ऐसी अवस्था में शिक्षा का पहला पाठ विद्रोह करना? जब तक परवशता है तब तक स्वतंत्रता शिक्षा नहीं। अत: स्वतंत्रता शिक्षा की पहली सीढ़ी है परवशता पर आघात करना। यह सच है कि लोगों में सद्गुण नहीं हैं, इसलिए ही विद्रोह की आवश्यकता है। लोग सद्गुणी होते तो उन्हें विद्रोह करना ही नहीं पड़ता। क्योंकि लोग सद्गुणी होते तो वे परतंत्र ही नहीं होते। ऐसी परिस्थितियों में राष्ट्र को पहला सद्गुण सिखाना हो तो वह परतत्रता के विनाश का ही है। सन् १७८९ में फ्रेंच, सन् १८०८ में स्पॅनिअर्ड लोग और सन् १८२१ में ग्रीक लोग हमारे इटली देश की सद्य:स्थिति से अधिक सुशिक्षित बिलकुल नहीं थे। फिर भी उन्होंने, शिक्षा को आरंभ कहाँ से किया जाए, यह पहचानते ही परतंत्रता का विनाश करने के लिए वे रणांगण में कूद पड़े। उन्होंने पराक्रम का उत्कर्ष करके दिखाया, स्वात्मार्पण की चरम सीमा की, स्वतंत्रता की जय-जयकार की और वे लोग शिक्षित हुए।
अत: इटली में सफल आक्रमण करने के लिए मूर्खतापूर्ण आपत्तियों की परवाह करके ढील देने में कोई तुक नहीं। मुख्य विचार बस यही करना है कि चारों ओर अंसतोष फैला है कि नहीं, देशाभिमान की ज्योति जल रही है या नहीं, लोग स्वतंत्रता-समर के लिए उत्सुक व तैयार हैं या नहीं। लोगों की इस तरह की उत्सकता तथा तैयारी गुप्त अथवा प्रकट रूप से करने पर फिर इसकी कोई आवश्यकता ही नहीं रहती कि वे कहाँ तक पढ़ सकते और उन्हें अंकगणित का कितना ज्ञान है। स्वतंत्रता की अभिरुचि तथा उसके लिए देहपात करने की योग्यता आई कि आक्रमण की नौबत धड़धड़ाने में कोई आपत्ति नहीं है। इटली में नौबत झड़ने का अवसर आया है, इसका बंडीएरा बंधुओं को विश्वास था और मेरा भी यही विश्वास है। इटली तैयार है, 'युवा इटली कर्तव्य का प्रदर्शन करने के लिए तैयार है' और 'बसंत की प्रतीक्षा में बैठे' वे नामर्द नेता यदि बीच में टाँग नहीं अड़ाते तो इससे पूर्व ही यह कर्तव्य भी संपन्न हो जाता।
जैसा कि पूर्व में लिखा है-ऑटिलिओ-एमिलिओ की योजना को मध्य इटली के नेताओं ने स्वीकार नहीं किया अथवा उन्हें धन की मदद भी नहीं की। वह आक्रमण असफल ही हुआ। परंतु इस योग से ऑस्ट्रियन लश्करी अधिकारियों का ध्यान इन बंडीएरा बंधुओं की ओर आकर्षित हुआ। उन्हें गोपनीय ढंग से पकड़ने की व्यवस्था हो रही है-इसकी भनक पड़ते ही दोनों बंधु २८ मार्च, १८४४ के दिन इटली से भाग गए। उस समय एमिलिओ ने मुझे लिखा-
'मैं नहीं जानता, किससे अपराध हुआ है। तथापि हमारी सहायता नहीं की गई। जिस योग से क्वचित् संपूर्ण विजय प्राप्त होती उस योजना से ही उन्होंने घणा की। सत्य ही हम आक्रमण करते तो हमारे इस उदात्त उदाहण से प्रेरित होकर हमारे चालीस हजार देश बंध, जो ऑस्टिया की सेना में उस ढोंगी और पापी सेना में शपथबद्ध हैं, परंत जिनका अंत:करण स्वदेश की ओर खिंचा जा रहा है, वे सारे उस बंधन की धज्जियाँ उड़ाने के लिए तैयार होते। प्रकटत: हमारा बाल भी बाँका करने का शत्रु का साहस नहीं होता। हमें अचानक बंदी बनाने की मूर्खतापूर्ण आज्ञा (ऑस्ट्रिया यह आदेश देने का साहस करता?) होती तो उस योग से हमारे संरक्षकों की संख्या और अधिक बढती। परंतु अंत में सब टॉय-टाँय फिस्स हो गया। बोलोग्नी जनों को खदेड़ा गया। गतिविधियाँ आरंभ हो गई और जो स्वदेशार्थ लड़ने के लिए अधीर हो गए थे और जिनके आचरण पर सरकार ने गौर किया था ऐसे नेताओं से परिहासजनक तथा जैसे सब्जीवाले को बताएँ संदेश आया कि 'बसंत की प्रतीक्षा करो,' परंतु हम निराश नहीं हुए। इस योजना के लिए एक छोटी सी रकम चाहिए थी। मेरे भाई को वह कहीं नहीं मिल रही थी। इधर सरकार ने इसकी परी-पूरी तसल्ली करते हुए कि हम राजद्रोही हैं, परंतु प्रकटतः हमें गिरफ्तार करने का साहस न होने के कारण युक्ति से पकड़ने की योजना बनाई। उन्होंने मेरे भाई को वेनिस आने की आज्ञा की। रास्ते में उसपर जर्मन गुप्तचरों का पहरा रखा गया। मेरे भाई ने पुनः एक बार धनार्जन का तथा चाहे कुछ भी संकट आ जाए फिर भी आक्रमण करने का प्रयास किया। परंतु सबकुछ व्यर्थ होते देखकर जिस दिन वेनिस उपस्थित रहने का आदेश हुआ था उस दिन से पहले ही वह भाग गया। उसी समय मैं भी ट्रिस्टी से भाग गया, इस संकट का सारा पाप उन विश्वासघाती नेताओं को लगे। उन्हें मेरे मित्र ने सूचित किया कि अब यदि आप सहायता नहीं देंगे तो उनका विनाश अटल है। तब इन्होंने लिखा कि उसका सर्वनाश जैसे हो ही चुका है। मुझे यह ज्ञात है कि तुम्हें इस सुस्ती की तथा धोखेबाजी की कुछ भी जानकारी नहीं है। इसलिए आप पूर्णतया निर्दोष हैं। परंतु जिन्होंने यह विश्वासघात किया उन बगुला भगतों को मैं अपना इटली देश स्वतंत्र होते ही लोक पक्षीय न्यायासन के सामने खींचकर ले आऊँगा और उनपर देशद्रोह का आरोप लगाऊँगा। ये देशद्रोही, जो परतंत्रता तथा अपमान अधिक-से-अधिक दिन कैसे टिकाएँ इसी का विचार करते हैं, स्वतंत्र इटली के सामने थर-थर काँपने लगेंगे।'
'सिरा' से ऑटिलिओ लिखते हैं-
'विगत जनवरी से (सन् १८४४) मेरे विषय में तथा मेरे कार्य से संबंधित बहुत महत्त्वपूर्ण घटनाएँ घट रही हैं। मिझिरेली नाम के एक व्यक्ति ने मेरी सारी योजनाएँ सरकार को सूचित की हैं-इस आदेश के अनुसार मुझे वेनिस जाना पड़ा। वहाँ जा रही छोटी नौका ३ मार्च को तैयार हो गई। उसमें पाँव रखने से मुझे वेनिस के बदले काल कोठरी ही देखने को मिलती यह मैं भलीभाँति जानता था। अतः अधिक संकट टूट पड़ने से पहले ही मैं गुपचुप भाग गया। अनंत यातनाएं भुगतते हुए आखिर में सुरक्षित यहाँ पहुँच गया। उस समय मेरा भाई वेनिस में था। उसे संदेश भेजने में में सफल हो गया। वह विश्वासघाती मेरे भाई का आचरण जानता था और इसलिए मेरा भाई भी संकट टालने के लिए मेरा अनुकरण कर यह संदेश मैंने उस भजा। परतु अब तक मुझे उसकी कुछ भी खबर नहीं मिली थी। इस संकट की वार्ता को सुनते ही मेरी स्नेहमयी माँ तथा मेरी सुशील पत्नी की कैसी अवस्था होगी? वे यह दुःख कैसे सहेंगी? हाय! हाय! मानवजाति और स्वदेश भूमि का कल्याण करना-मेरा आद्य कर्तव्य है, यह मैं अच्छी तरह से जानता हूँ और मुझे आशा है कि मेरा व्यवहार उसी के अनुसार रहेगा। परंतु मुझे यह स्वीकार करना पड़ रहा है कि इस कर्तव्य पालन में मुझे भारी मूल्य चुकाना पड़ रहा है।'
ऑटिलिओ यह पत्र लिख रहा था उसी समय उसकी स्नेहमयी पत्नी की उस दु:ख के आघात से मृत्यु हो गई थी। एमिलिओ के द्वारा यह खबर देते ही कि ऑटिलिओ भाग गया है, उसका हृदय विदीर्ण हो गया। विरह का असहनीय दुःख उसे भीतर-ही-भीतर दग्ध कर रहा था। परंतु अपने प्रिय पति के सुरक्षित पहुँचने का पत्र आते ही उसका कलेजा छलनी हो गया और वह आक्रोश करने लगी। वह कोमल लता जलने लगी और कुछ दिनों के भीतर ही वह साध्वी घुट-घुटकर मर गई। जो उसे जानते थे वे सभी उसकी प्रशंसा करते थकते नहीं थे। वे बताते हैं कि वह सुंदरता में जितनी अद्वितीय थी उतनी ही बौद्धिक तथा नैतिक सद्गुणों में श्रेष्ठ थी। इटली में स्वदेश स्वतंत्रतार्थ जो कई महिलाएँ बलि चढ़ गईं उनमें इसका भी बलिदान हो गया। इन हतभागिनियों की जानकारी का जिन हतभागियों को उनके विरह का दुःख भुगतना पड़ता है, उनके अतिरिक्त किसी को भी नहीं होती। इटली की इस नीच परवशता में देशभक्तों को अपने ही नहीं बल्कि अपनी प्रियतमाओं की भी बलि चढ़ानी पड़ रही हैं।
ऑटिलिओ के संदेश के अनुसार एमिलिओ भी वहाँ से भागकर का! आ गया। परंतु इन देशभक्तों को वनवास का इतना ही संकट नहीं सहना था बल्कि उससे भी भयंकर दूसरा संकट उनके सामने खड़ा हो गया। इन दोनों बंधुओं के सेना से पलायन से ऑस्ट्रिया की सेना में खलबली मच गई। अचानक अदृश्य हुए इन बंधुओं का क्वचित् अन्य युवा सिपाही भी अनुकरण करेंगे-यह एक भय तथा दूसरी भयंकर दहशत कि जिस सेना पर संपूर्ण दारोमदार रखा उस सेना में स्वातंत्र्येच्छा तथा राष्ट्र षड्यंत्र का प्रवेश होने का कृत्य उजागर हो गया। इस खलबली को दबाने का एक ही मार्ग था। बंडीएरा बंधुओं के इस पलायन को बचपना समझकर उसे राष्ट्रीय प्रयासों का स्वरूप ही नहीं देना और इसे एक निजी बात समझकर आई-गई करने का नाटक करना-यही ऑस्ट्रियन सरकार ने योजना बनाकर आरंभ किया। इसकी हकीकत एमिलिओ के (२२ अप्रैल, १८४४) के पत्र से ज्यों-की-त्यों देता हूँ-
'आजकल मैं कार्य में हैं। लॉबर्डी तथा वेनिस राज्य का प्रमुख राज्यपाल आर्चायुक्त ऐनिएरी ने मेरी माँ के पास एक संदेशवाहक भेजा। माता-पिता का अपने पुत्र पर जो अधिकार होता है वह सारा खर्च करके यदि वह (मेरी माँ) कर्फ़्यू से वेनिस आने के लिए मेरा मन अनुकूल बना सके तो उसके निजी सम्मान की शपथ लेकर उसने वचन दिया कि एमिलिओ को न केवल क्षमा कर दिया जाएगा बल्कि उसे फिर से नौकरी पर भी रख लिया जाएगा। दुष्ट गुप्त मंडली की संगत में बिगड़े हुए इस युवक को कुछ भी दंड न देते हुए उससे सम्मानजनक व्यवहार किया जाएगा। यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि ऑटिलिओ को क्षमा किया जाएगा तथापि बहुतांशी राजा के उदार स्वभावानुरूप क्षमा करवाने के प्रयास में यश मिलेगा।
'यह सुनते ही उसपर विश्वास करके और बड़ी आस लेकर मेरी माँ मेरे पास आ गई। उस समय कल्पना करें, मेरा मन कितने भयंकर बवंडर में फँसा होगा।
'अपनी माँ से मैंने बार-बार कहा कि मेरे कर्तव्य की आज्ञा है कि मैं यहीं पर रहूँ। अहा हा ! मैं अपने स्वदेश लौटू यह तो मेरे मन की उत्कटतम इच्छा है, परंतु जब मैं स्वदेश लौटूंगा तब माँ, गुलामी के नरक में कीड़े-मकोड़ों की तरह जीने के लिए नहीं बल्कि सम्माननीय स्वतंत्रता युद्ध में मरने के लिए आऊँगा। मैं इटली में आ जाऊँ इसलिए ये गुलामी के परवाने उचित नहीं हैं। इटली देश में आने के लिए मेरे पास एक ही परवाना है-मेरे हाथों को तीक्ष्ण खड्ग। माँ, मैं तुमसे अपने प्राणों से भी अधिक प्रेम करता हूँ, परंतु मैंने अपने हाथ में जो महान् कार्य पूरा करने का प्रण लिया है, उसमें किसी भी तरह निर्मल प्रेम आड़े नहीं आना चाहिए। मैं तो राजा का ध्वज छोड़कर भागा हूँ। हम राजा का ध्वज छोड़ सकते हैं, परंतु स्वदेश भूमि का ध्वज कदापि नहीं छोड़ सकते।
'माँ को मैंने ये सारी बातें बता दी। दुःख से त्रस्त तथा ममता से बावली बनी मेरी माँ को समझ में नहीं आ रहा था कि मैं क्या कह रहा हूँ। उसके नेत्रों से झरझर आँसू बह रहे थे। वह मुझ पर दोष लगा रही थी। उसके अश्रुपूरित नयन देखकर मेरा जी भारी हो गया। मैं निर्दोष होते हुए भी उसने मुझ पर लगे दोष पर विश्वास किया, इससे मेरे अंत:करण पर तलवार के आघात जैसी पीड़ा हुई। मेरी माँ मुझे कृतघ्न, अमानुष, राक्षसी, हत्यारा कहती है। उसके रोदन से मैं तड़पने लगा, परंतु उस तड़प का मेरी विवेक-बुद्धि पर रंचमात्र भी असर नहीं हुआ। मैं यह जानता हूँ कि उसके दुःख तथा आँसुओं का दायित्व मुझ पर नहीं, उन विदेशी अधम चांडालों । पर है। इतने दिन मैं अपने प्रिय देश के प्रेम से ही सज्ज हुआ था। परंतु अब मेरी मा की ऐसी दुरवस्था से? जिस दुष्ट की राक्षसी महत्त्वाकांक्षा से मेरे प्रिय देश पर परवशता थोपकर हमारे प्रिय परिवार को इस तरह के असहनीय संकट में ढकेला उस दुष्ट का गला घोंटने के लिए मैं दुगुने जोश से सज्जित हुआ हूँ। मेरे देश का प्रतिशोध और मेरी माँ का प्रतिशोध । मुझे विदेशी अधमों से दो प्रतिशोध लेने हैं।
"मेरी संतुष्टि के लिए आप एक शब्द तो बोलें। यह सोचकर कि आपकी सहानभूति से सैकड़ों मूर्ख तथा हजारों कायरों के लिए हुए अनंत आक्षेपों का निरसन हुआ, मेरा मन उत्साहित होगा।'
भविष्य काल में अपना नाम अजरामर करने के लिए जो-जो उदात्त कृत्य अपनी मृत्यु के साथ बंडीएरा बंधुओं ने किए उन सब में माँ की विनती अस्वीकार करने का कृत्य अत्यंत उदात्त है। मेरा यह विचार सैकड़ों को स्वीकार नहीं होगा, यह मैं जानता हूँ। ऐसे नाजुक प्रसंगों में सैकड़ों लोग अपना धीरज खो बैठते। इतना ही नहीं, उस कृत्य का मीठे-मीठे शब्दों में मंडन भी करते कि एक लहू का तथा एक मांस का बंधन पूजनीय है। पारिवारिक प्रेम का अन्य सभी कर्तव्यों पर अबाधित नियंत्रण है, आदि वाक्यों के नीचे वे अपनी दुर्बलता छिपाने का प्रयास करते। ऊपर-ऊपर विचार करनेवाले को ये वाक्य सत्य प्रतीत हों, परंतु मुझे उसका तात्पर्य इसी तरह प्रतीत होता है कि 'हम केवल स्वार्थ ही देखते हैं और इस अहंकार तथा स्वार्थ को सद्गुणों का स्वरूप देने का हमारा प्रयास है।'
साधारणत: आजकल मनुष्य प्रेम ही नहीं करता। प्रेम ईश्वर द्वारा मनुष्य को दी गई सर्वोत्तम देन है। प्रेम उच्चतर योनि के अंतर्गत अस्तित्व का वचनपत्र है। परंतु उस पवित्र प्रेम को नास्तिकों ने लंपटता का, पशुबुद्धि का तथा तामसी आदतों का स्वरूप दिया है। जगत्कर्ता के उत्सर्जन का यह प्रमुख चिह्न है। सृष्टि का जो मूल है, समाज का जो बीज है वह कुटुंब परम पवित्र है। परंतु इस तरह के कुटुंब का कर्तव्य कुछ भी नहीं? पुरुष और स्त्री विश्व के दो तत्त्व हैं और एतदर्थ विश्वोन्नति के कार्य में उनके जिम्मे व्यक्ति विषयक सुख से उन्नतर कर्तव्य आए हैं। परंतु आजकल जहाँ देखो वहाँ इस कुटुंब कर्तव्य को विष-लंपटता का गंदा स्वरूप प्राप्त हो गया है। स्त्री और पुरुष-ये नाम मिटाकर नर और मादा इन नामों का उच्चारण हो रहा है।
इटली का वर्तमान दुर्भागी मातृवर्ग इसी तरह संकुचित शिक्षा में पला-बढ़ा है। समाज रचना में स्त्री वर्ग के पास आनेवाले कर्तव्य का उन्हें भयंकर अज्ञान है। गुलामी में पली-बढ़ी माताएँ अपने बच्चों को भी भयभीत होकर यही सिखाने लगती हैं कि जिस किसी की सत्ता तुमपर हो उसकी नौकरी करो। इधर इटली का पितृवर्ग यह जानकर कि प्रत्येक परिवार की चौकसी पर सरकारी गुप्तचर लगे हैं अपने बच्चों को अविश्वास तथा अकेलेपन की शिक्षा देने लगता है। मातृवर्ग उन बच्चों को गुलामी के पाठ पढ़ाएँगे तथा पितृवर्ग उन्हें आवश्यकता से अधिक संदेही व रूखा बनाकर रखेंगे। आगे चलकर इटली की युवतियाँ युवाजनों से 'मैं केवल तुम्हारे लिए जीवित रहूँगी इस प्रकार शपथ लेंगी। परंतु विषय-लालसा का पहला पहर समाप्त होते ही उन युवतियों को पता चलता है कि पति उनकी ओर ध्यान नहीं देता क्योंकि जो नीच नागरिक हैं वे नोच पति तथा स्नेहशून्य मित्र सिद्ध होंगे ही। जहाँ राजनैतिक परतंत्रता है वहाँ सत्यतित्व कभी नहीं मिल सकता।
परंतु यदि इटली को युवतियाँ अपने प्रियतम को यह बताएँगी कि तुम्हारा कर्तव्य मेरे साथ केवल जीवित रहना नहीं बल्कि उच्च आनंद का अनुभव करना ही है। अत: आपको जब दुःख हो तब आप उसके समनार्थ हमारे पास आ जाया करो। हम दो शरीर एकजीव करके यह पवित्र जीवन आगे बढ़ाएगे। दह दा, परत अतरात्मा एक है-इस प्रकार अपना संयुक्त जीवन उस प्रत्येक वस्तु को अर्पण करगे जो उन्नत-उदात्त और ईश्वरी हो। यदि हमारा पितृवर्ग अपने युवकों को इस प्रकार उपदेश करेगा कि जीवन की सच्ची परिभाषा सुख-लंपटता नहीं बल्कि इस विश्व के उच्च कर्तव्य संपन्न करते हुए भावी उच्चतर योनि में प्रगति करने की एक सीढ़ी है। यदि हमारी माताएँ बालकों को बताएँगी कि 'तुम जीसस का अनुकरण करो। मानवजाति के लिए वह प्रसन्नतापूर्वक फाँसी पर चढ़ा। वधस्तंभ से सत्य का उपदेश किया। प्रेम का वास्तविक चिह्न यही है। सत्य के लिए सत्प्रेम आत्मार्पण करवाता है। अगर ऐसा होगा तो कुटुंब-प्रेम का वास्तविक उद्देश्य सफल हुआ समझो। कुटुंब-प्रेम की उच्च कल्पना यदि मातृवर्ग, पितृवर्ग तथा पत्नीवर्ग को आएगी तो हमारा देश देशवीरों के पराक्रम से स्वतंत्र होगा और फिर फाँसी पर लटके अथवा वनवास में तिल-तिलकर मरे हुए युवकों के लिए युवतियों को रोने का प्रसंग पुनरपि कदापि नहीं आएगा। यही है प्रेम की वास्तविक परिभाषा। मेरे विचार से प्रेम वही है जो उच्चतम सत्य का समर्थन करता है। वह प्रेम उस सत्य की विजय के लिए सतत प्रयत्नरत रहता है, अपनी प्रिय वस्तु को भी उस सत्य की सफलता के लिए प्रयत्न करवाता है। ऑटिलिओ तथा एमिलिओ के मतों के विरोध में एक भी शब्द का उच्चारण करने के भयंकर पाप से ईश्वर मुझे क्षमा करे। परंतु मेरी यही इच्छा है कि वह मेरा यह लेख पढ़े। मुझे दृढ़ विश्वास है कि इस जन्म में अथवा उच्चतर जन्म में उसे अवश्य ज्ञात होगा कि उसके पुत्रों ने यदि उससे अंत:करणपूर्वक प्रेम किया हो तो वह तब जब उन्होंने आर्कड्यूक रेनीएरी की विनती के बावजूद भी क्षमा माँगना नकारा।
इस प्रकार बंडीएरा बंधुओं ने शत्रु की निंदाजनक माफी माँगना नकारने के पश्चात् ऑस्ट्रिया की सरकार ने उनपर राजद्रोह का आरोप लगाया। बंडीएरा बंधु 'युवा इटली' जैसी गुप्त सभा से मिले हैं और उन्होंने उस राजद्रोही संस्था द्वारा भयंकर राजद्रोह किया है। इस आरोप विषयक शिकायत के लिए वे वेनिस में सरकारी न्यायासन के सामने नब्बे दिनों के अंदर उपस्थित हों-इस प्रकार जाहिरनामा निकाला। इस जाहिरनामा का बंडीएरा बंधुओं ने वृत्तपत्र द्वारा उत्तर दिया, 'हमारे जिस कत्य को तुम राजद्रोह का दोष कह रहे हो वह कृत्य करने में हमें धन्यता प्रतीत हो रही है। विदेशी सत्ता का उच्छेद करना तथा स्वदेश की स्वाभाविक स्वतंत्रता प्राप्त करना एक अत्यंत पवित्र कार्य है। हमारे सामने ईश्वर ने दो तत्त्व रखे थे-राजद्रोह और देशद्रोह। उनमें से हमने राजद्रोह को चुना। क्योंकि देशद्रोह के भयंकर नरकगामी पाप को स्पर्श करने का साहस हम नहीं कर सके। हम यह जानते हैं कि हमारी मृत्यु अटल है। वैसे भी मरण आनेवाला ही था। तो फिर स्वदेश की दास्यता में ढकेलनेवाले अधम शत्रु के ध्वज तले मरकर नरक जाएँ या स्वदेश का ध्वज पकड़े हुए मृत्यु का वरण करते हुए स्वर्ग लोक सिधारें? हमने इस स्वर्गगामी मरण को स्वीकार किया है।' इस उत्तर के पश्चात् थोड़े ही दिनों में और एक युवक ऑस्ट्रियन सेना से भागकर बंडीएरा बंधुओं में आ मिला। यह युवक वही है जो उन बंधुओं की तरफ से लंदन आकर मुझसे मिला था और जिसका नाम डोमेनिको मोरो था। यह सेना में लेफ्टिनेंट के पद पर था। इसकी आयु केवल बाईस वर्ष की थी। इस युवक की मुद्रा अत्यंत मनोहर थी। उसे देखते ही दांते के 'उसकी कांति गौर, मुद्रा रमणीय और आचरण विनयशील विनम्र होता' इस वर्णन का स्मरण हो आता है। कुँवारी कन्या की विनम्रता तथा वनराज की शूरता का सुंदर संगम इस युवक में होने के कारण वह किसी देवदूत समान प्रतीत होता।
इधर इटली में असंतोष अधिकाधिक बढ़ने लगा। सन् १८४३ में दबाया गया जन आंदोलन पुनः अब सन् १८४४ में उभरने लगा। अब वह अल्प मात्रा में नहीं था। मध्य प्रदेश में पूरी तरह छाकर अब वह दक्षिण तक फैला हुआ था। कोसंजा में तोवहाँ के लोगों में से कुछ युवक सशस्त्र होकर बाहर निकले। वह आक्रमण सहजतापूर्वक दबाया गया, परंतु उसका जनता पर अत्यंत विलक्षण प्रभाव हुआ। सिसिली पर भी अत्याचार का अतिरेक होने के कारण वह प्रदेश विद्रोह के लिए आतुर हो गया था। उस समय सिसिली में आक्रमण की इच्छा इतनी प्रबल हो गई थी कि 'बसंत ऋतु की प्रतीक्षा में नयन बिछानेवाले' यदि बीच में नहीं आते तो विद्रोह की ज्वाला त्वरित भड़क उठती। वृत्तपत्रों में जनता के चैतन्य का मार्ग स्पष्ट दिखाई देने लगा। कुछ पत्रों से तो स्पष्ट भविष्यवाणी भी हुई कि अब विद्रोह होगा। ऐसे समय इस तरह के लेखों का उपयोग बहुत होता है। इस योग से लोगों में आवेश ठसाठस भरने लगता है। जो घोडे बेचकर सोए होते हैं वे भी जाग जाते हैं और यूरोप तथा देश को सहजतापूर्वक तैयार रहने की सूचना मिलती है। अचानक विद्रोह होने से उस आघात से लोग सकपकाते हैं। परंतु 'विद्रोह होगा', 'विद्रोह होगा' इस प्रकार लोकवार्ता चलने से लोग वह आघात सहने का साहस करते है, इतना ही नहीं बल्कि ऐसी तैयारी भी करते हैं कि वह आघात शत्रु के गले तक पहुँचे। इधर शत्रु का धीरज तो मात्र वार्ता से ही जवाब देने लगता है। हाँ, इतनी सावधानी बरतें कि इस प्रकार शत्रु के हड़बड़ाने से पूर्व अच्छी-खासी तैयारी रखें। तिस पर 'विद्रोह होगा' की गर्जना बार-बार करने से शत्रु इस गर्जना पर भरोसा नहीं करता और वह सतर्क होने के बदले दुर्लक्ष्य करने लगता है। इस प्रकार दो बार धोखा देने के पश्चात् एकदम आक्रमण करें। सारांश इस प्रकार की लोकवार्ता से विद्रोह का भय कम होता है और शत्रु की आँखों में धूल झोंककर उसे असावधान स्थिति में पकड़ सकते हैं। परंतु 'बसंत के प्रतीक्षकों' को यह समझ में नहीं आया। उन्होंने उन पत्रों की निंदा करना आरंभ किया और आलस्य व विलंब से आंदोलन का असली जोश खो दिया। परंतु रोम में विलक्षण जोर दिखाई देने लगा। यह वार्ता कायूं में बंडीएरा बंधुओं को मिली। उन्होंने रणभूमि में कूदने की ठान ली और सर्वानुमति से वे उसकी तैयारी में जुट गए।
इस निश्चय के पीछे उन बंधुद्वय का असली उद्देश्य किसी की समझ में नहीं आया। बंडीएरा बंधुओं को विश्वास था कि इटली की ही विजय होगी। परंतु इस विजय का आरंभ होने के लिए इटालियन लोगों की कथनी और करनी में तालमेल होना चाहिए यही उनकी राय थी। स्वतंत्रता के लिए केवल बात नहीं बल्कि मरने के लिए भी तैयार रहना चाहिए। इटली के लोगों में अद्यापि जीवन की एकवाक्यता नहीं। 'चित्ते वाचिक्रियायाच महतामेकरूपता' यह एकरूपता इटली के लोगों में नहीं। जड़वाद से मनुष्य की उच्च शक्ति तथा उदात्त बुद्धि का विनाश होता है। इस जड़वाद से ही इटली के नेताओं में एक ऐसा पक्ष तैयार हो गया जो हवा का रुख देखकर चलता था। ध्येय के लिए प्राण देनेवाली निष्ठा का नाश होकर सर्वत्र कायरता तथा अल्प संतुष्ट अंधों का बाजार गरम है। यह देखने के बदले कि अमुक तत्त्व सत्य है या नहीं, पहले यह निश्चित करने की प्रवृत्ति हो गई है कि वह सुलभ है या नहीं। कर्तव्य क्या है, यह निश्चित करने के बदले किसमें अधिक लाभ होगा इसपर ज्यादा गौर किया जाता है। इसीलिए दांते ने अपनी सूक्ष्म दृष्टि से देखा हुआ इटली का ध्येय इस अदूरदृष्टि वाले अंधों को दिखाई नहीं देता। ईश्वर ने इटली को कितना महान् कार्य सौंपा है। उसके ईश्वरदत्त अधिकार कितने पवित्र हैं। जब ईश्वर राष्ट्र को उसके जन्मसिद्ध अधिकार देता ह तब वह उन्हें संपन्न करने की शक्ति भी देता है। स्वदेशाभिमान इतना सुलभ नहा। वह महान् कर्तव्य है, परंतु उन्हें चाहिए सुलभ देशाभिमान। भला वह कैसे मिलेगा? स्वदेशाभिमान पवित्र, भय तथा निर्धारयुक्त कठोर व्रत है। स्वदेशाभिमान धर्म है। यह प्रगमन का, प्रगति का, उत्क्रांति का मार्ग है। शीघ्रता से न भागते हुए, परंतु आलसी होकर न ठहरते हुए, आकाश के तारों की तरह वह ईश्वर ध्येय की ओर, फिर वह ध्येय निकट हो अथवा दूर, सतत जा रहा है। उनका स्वदेशाभिमान इस प्रकार का नहीं। तनिक संकट क्या आ गया-वे उससे अपना मुँह मोड़ लेते हैं। उन्हीं का उदाहरण देखकर कई युवक आक्रमण के आरंभ में उचित आवेश दिखाते हैं; परंतु थोड़ी सी असफलता मिलते ही धीरज खोकर चुपचाप हाथ पर हाथ धरकर बैठ जाते हैं। इस दोष का परिमार्जन किए बिना इटली देश स्वतंत्र नहीं होगा। जोर तथा जीवटवृत्ति ही विजय के आधार-स्तंभ हैं। संकटों से डरकर कर्तव्य से जी चुराने की बुरी आदत इटालियनों को छोड़नी होगी। वे सब स्वातंत्र्याभिमानी भले ही हों तथापि स्वातंत्र्यकृति के समय यदि उनके हाथ-पाँव ठंडे पड़े तो इस 'क्रिया बिन वाचालता' का कुछ भी उपयोग नहीं। बंडीएरा बंधुओं का दृढ़ विश्वास था कि इटली देश, जिसे वैभवयुक्त तथा विजयशाली अतीत प्राप्त हुआ है, भविष्यकाल में भी वह उतनी ही महनीय होगी। ईश्वरी आज्ञा से प्राप्त स्वतंत्रता उसे प्राप्त होगी और उसका उपयोग वह मनुष्यजाति के प्रगमनार्थ करेगा। इस प्रकार की निष्ठा के साथ उस बंधुद्वय ने कातरता तथा अस्थिरता का दोष-जो अंतिम विजय में बाधा बन रहा था-इटालियन युवकों से निकल जाए, इसलिए अपना ध्येय स्वदेश देवता को अर्पण करने की इच्छा व्यक्त की। अपने आत्मार्पण से इटालियन युवकों के सामने एक आदर्श प्रस्तुत हो और वे भी स्वातंत्र्य के लिए 'जान चली जाए या रहे' इस प्रकार निश्चय करें-इतना ही उनका उद्देश्य था। बस इतना कार्य सफल हो गया तो अपना जीवन सार्थक होगा-यह समझकर तत्काल विजयार्थ नहीं, तथापि केवल देश-वीरत्व प्राप्त करने के लिए वे तैयार हो गए।
कार्फ़्यू आने के पश्चात् कुछ ही दिनों में तारीख १० मई, १८४४ के दिन ऑटिलिओ ने मुझे एक पत्र लिखा-
'माल्टा से आया हुआ आपका पत्र मिला। मेरी आप बहुत चिंता करते हैं इसलिए मैं
आपका आभारी हूँ। आपके प्रेम से सत्कृत्य करने के लिए कितना आवेश भर आता है यह
कैसे कहूँ। आप दोनों को जो सिद्धांत स्वीकार हैं उनकी सत्यासत्यता का संदेह भी
मुझे होगा-ऐसी बात कभी मन में भी नहीं लाना। इटली स्वतंत्र, दास्यमुक्त,
एकीकृत, लोकसत्ता विभूषित इटली जिसकी राजधानी रोमटे-यह मेरी राष्ट्र धर्म की
दीक्षा है। अपने देश बंधुओं की 'शस्त्र उठाओ' की गर्जना मेरे कानों में गूंज
रही है और उनके साथ लड़ने तथा आवश्यकता पड़ने पर मरने की तैयारी भी मैंने कर
ली है। यह व्यवस्था करने में व्यस्त होने के कारण मैं अपनी योजना विस्तारपूर्वक
नहीं दे सकता। परंतु महत्त्वपूर्ण बातें आपको अवश्य सूचित करूँगा। मैंने दो
योजनाएँ लगभग तैयार की हैं-एक और दूसरी कंटालेब्रिाआ पर उतरना। पहली योजना के
लिए अधिक समय और पैसे की आवश्यकता होगी। परिस्थितिवश मुझे दूसरी योजना
स्वीकारनी पड़ रही है। इस योजना के लिए पैसे प्राप्त करने के लिए मैंने और
मेरे बंधु, जो कुछ वस्तुएँ हम साथ ले आए थे, वे सारी चीजें उस कीमत पर बेच रहे
हैं। परंतु उनका कुल मूल्य पाँच सौ फ्रेंक भी नहीं मिलेगा और हमें तीन हजार की
आवश्यकता है। अतः अब आपके पास मुझे उन तीन हजार फ्रेंक की माँग करनी पड़ेगी जो
आप हमें कभी देना चाहते थे। मैंने 'नायको ला फॅब्रिजि (मैझिनी का परम मित्र) को
यह रकम भेजने के लिए लिखा है। बिना पूर्व अनुमति के लिए क्षमस्व। यह कृत्य मैं
अपने कल्याणार्थ नहीं कर रहा बल्कि अपने कार्य के कल्याणार्थ कर रहा हूँ।
मैंने अपनी यह धारणा बनाई है कि स्वदेशाभिमान के प्रत्येक प्रयास को आप अनुमति
तथा सहायता अवश्य देंगे। अब मैं आपसे विदा लेता हूँ और यदि यह हमारी अंतिम
भेंट ही हो तो महाराज, मैं आपसे अलविदा करता हूँ।' इस पत्र के अंत में एक
प्रेम के प्रबल मनोवेग से अंत:करण उमड़-उमड़कर बहने लगने से एमिलिओ ने
निम्नांकित पंक्तियाँ लिखीं हैं-'मेरे बंधो, तुम्हें मैं भी एक पंक्ति लिखता
हूँ, क्योंकि हो सकता है ये हमारे तुम्हें लिखे हुए अंतिम शब्द हों। तुमने
हमारे देश पर जो-जो उपकार किए हैं उनके लिए ईश्वर तुम्हें धन्य करें। मृत्यु
के मुख में कूदने से पूर्व मैं यह स्पष्ट रूप से घोषणा करता हूँ कि प्रत्येक
इटालियन अंत:करण में तुम्हारे लिए पूज्य तथा कृत्य भावना होनी चाहिए। मुझे इस
बात पर गर्व है कि आपके भी वही सिद्धांत हैं जो हमारे हैं। जब मैं स्वदेश में
पग रखूगा तब तलवार सँभालकर रणांगण में उतरूँगा और वही गर्जना करूँगा जो आज तक
आप करते आए हैं। प्रत्येक बात में हम निर्धन हैं तथापि हम आपको अपने
मृत्युपत्र के प्रबंधक के रूप में नियुक्त करते हैं। ऐसा प्रबंध हो कि हमारे
देशबंधुओं के अंत:करण में हमारी स्मृति चिरकाल तक रहे !
-एमिलिओ'
इस पत्र के एक ओर ये दोनों बंधु और दूसरी ओर मैं और मेरा मित्र फॅब्रिजी-इस
प्रकार खींचातानी आरंभ हो गई। हम उन्हें उनके असहाय तथा जल्दबाजी से किए
जानेवाले कार्य से परावृत्त कर रहे थे और वे इस योजना सिद्धि के लिए भगीरथ
प्रयास कर रहे थे। जो तीन हजार फ्रेंक बंडीएरा बंधुओं के इटली के वास्तव्य के
समय देने की इच्छा की गई थी, अब समय निकल जाने के कारण भेजने से फ्रेंब्रिजी
ने इनकार कर दिया। इस प्रकार उनकी मई में निकल पड़ने की योजना हमने विफल की।
तारीख २१ मई के दिन ऑटिलिओ ने मुझे और एक निराशा से भरा पत्र लिखा-
.....परंतु यह सारी तैयारी नामकोला के इसी पत्र से विफल हो गई। उसने तीन हजार
फ्रेंक नहीं दिए जो आप देना चाहते थे और हमारे मित्रों को सूचित किया कि हमारे
इस मुर्खतापूर्ण एवं विनाशकारी योजना की सहायता न करें परंतु निर्धनता से हम
धीरज खो बैठेंगे, ऐसा मत समझें। हमें केवल दुःख इसी बात का हो रहा है कि हमारे
बलिदान निरर्थक जाएँगे। यदि संभव होता तो इससे पूर्व ही कुछ विशेष कर दिखाते।
परंतु यद्यपि अब वह असंभव है तथापि हमारे स्वदेश को देने के लिए ऐसा कुछ तो है
जो हमारा अपना है। अब अन्य कुछ पास न होने के कारण दुःख और दुर्दशा से पीड़ित
हमारे ये शरीर हम मानवता तथा मातृभूमि को अर्पण करेंगे। उधर बोलोग्ना प्रदेश
में पुनः पकड़-धकड़ आरंभ हो गई है। क्या सनातन न्याय देवता अभी तक यही समझता
है कि हमारे पूर्वजों के अपराधों के लिए अभी तक हमें पूरा दंड नहीं मिला है ?
हमारा परिणाम कुछ भी हो। हम युवा पीढ़ी के सामने अटल जीवटवृत्ति तथा अखंड
निश्चय का आदर्श अवश्य रखेंगे। अंग्रेजी डाक व्यवस्था की पूरी प्रामाणिकता पर
भरोसा रखकर आप मुझे इधर पत्र लिखते रहें।
-ऑटिलिओ'
ऑटिलिओ के इस 'अंग्रेज पोस्ट की पूरी प्रामाणिकता पर' रखे विश्वास को
अंग्रेज राष्ट्र ने बहुत प्रशंसनीय उत्तर दिया। सतत सात महीने अत्यंत नीच
गुप्तचरों को लज्जा आएगी इस प्रकार भयंकर हथकंडे अपनाकर पत्र खोलकर और पुनः बंद
करके अंग्रेज राष्ट्र के 'आदरणीय' लोगों ने मेरा पत्र व्यवहार मुझे बिना बताए
खोला है और उसमें लिखी सारी वार्ताएँ ऑस्ट्रिया को सूचित की हैं। ऑटिलिओ और
एमिलिओ जैसे युवा वीरों के सर्वनाश का कारण यह अंग्रेजी 'सम्माननीय' विश्वासघात
ही है। धनाभाव के कारण इन बंधुद्वय की सारी योजनाएँ धराशायी हो गईं। परंतु
उनका निश्चय वैसा ही अडिग-अटल रहा। इटली से असंतोष तथा लोकक्षोभ भडकने की
वार्ताएँ उन्हें प्रतिदिन मिलने लगीं। नामकोला फॅब्रिजी ने इन देशवीरों का मत
परिवर्तन करने के लिए भगीरथ प्रयास किए, परंतु व्यर्थ! उसी समय एक देशभक्त
ने, जिसका नाम रेसिओटी था, लंदन से कार्य्य में प्रयाण किया। इस देशभक्त का
जन्म सन् १८०० में हुआ था। जब वह अठारह वर्ष का था तब से इटली के राष्टैक्य की
कल्पना उसके अंत:करण में पनपने लगी और उसे सिद्ध करने की उसने शपथ ली। आज तक
मैंने लोगों को शपथ तोड़ने के लिए हा लेते हुए देखा है। परंतु रेसिओटी ने शपथ
ग्रहण की तो उसका पालन भी किया। सन् १८२१ में उससे मेरा परिचय हआ। वह
सीधा-सादा, सरल तथा प्रामाणिक था, उसकी बुद्धिमत्ता श्रेष्ठ थी। उसमें अंतःकरण
की बुद्धि थी। मात्र मस्तिष्क की बुद्धि अनीतिमान् हो सकती है; परंतु अंत:करण
की यह बुद्धि स्वात्मार्पण करने के लिए भी तैयार होती है। जीवनपर्यंत उसका
जीवन दुःखों की एक मालिका ही थी। तथापि मैंने उसे इटली में जैसा देखा वैसा ही
सन् १८४४ में लंदन में पाया। उसकी विवेक-बुद्धि उतनी ही शांत और पवित्र थी
जितनी उस समय थी। जो सदगुण अन्य लोगों को अत्यंत यत्नपूर्वक सीखने पड़ते हैं
वे उसके स्वभाव में थे। उसकी वह शुद्ध और शांतमुद्रा देखने पर किसी को भी यह
नहीं लगता कि इस मनुष्य ने घनघोर तथा दुर्धट संकट में मृत्यु से जूझते हुए
अपना सारा जीवन बिताया है और इस क्षण भी यह बहादुर लंदन शहर छोड़कर मृत्यु से
दो हाथ करने इतनी शीघ्रतापूर्वक जा रहा है। उससे मेरा परिचय होने पर सन् १८२५
में उसने युद्ध का प्रशिक्षण पाने के लिए स्पेन में देशभक्तों की सेना में
नौकरी की। वह अपने बीवी-बच्चों को लिखता है-'मैं पुन: एक बार स्वतंत्रता के
लिए स्पेन के समर' में लड़ूँगा। यदि नियति ने कृपा की तो वहाँ मुझे जो अनुभविक
युद्धकला का ज्ञान प्राप्त होगा उसे स्वदेश स्वतंत्रतार्थ अर्पण करने का मेरा
उद्देश्य है।' इसके पश्चात् शीघ्र ही इटली से उत्साहवर्धक वार्ता आने से उसने
स्पेन देश छोड़कर स्वदेश लौटने का प्रयास किया। परंतु वह इटली में प्रवेश करते
समय फ्रेंचों के चंगुल में फँस गया और पार्सेलिस में उसे बंदीशाला में रखा
गया। कुछ दिनों के पश्चात् वहाँ से मुक्त होने पर वह लंदन आ गया। यहाँ पुनश्च
हरिओम के साथ सारा प्रबंध करते हुए वह उत्साह और उत्सुकता के साथ माल्टा और
का! जाने के लिए निकल पड़ा।
ऑटिलिओ तारीख ६ जून को लिखता है-'रेसिओटी से भेंट हो गई है। उसे इटली को
सुरक्षित रवाना करता हूँ। परंतु भला वह अकेला क्यों जाए? बीस दृढ़ निश्चयी
देशभक्त यहाँ पर हैं। वे और हम साथ-साथ ही जाएँगे।' दूसरे दिन एमिलिओ का पत्र
आ गया-'रेसिओटी के साथ जो कृपापत्र आपने भेजा उसके लिए हम आभारी हैं। महाराज,
'युवा इटली' के अंक जिस समय मुझे मिलते और अन्य कुछ भी न कर सकने के कारण मैं
ये अंक युवकों को पढ़कर सुनाता और उन्हें इन विदेशी अधमों को कुचलने के लिए
प्रोत्साहित करता, तब से मैं आपसे अखंड प्रेम करता हूँ। मेरा चाहे कुछ भी हो
तथापि मेरा निश्चय अटल रहेगा। इटली को मेरा मन, मेरा अंत:करण, मेरी भुजाएँ
समर्पित हैं। जिन्होंने इटली को सम्मानजनक स्थिति प्रदान की है मैंने उनको बंधु
प्रेम अर्पण किया है। रेसिओटी तथा हम वह जटिल प्रश्न सुलझाने का प्रयास कर रहे
हैं। अब आपसे आज्ञा चाहता हूँ।
आपका स्नेहाकांक्षी
एमिलिओ'
इसके पश्चात् तारीख १२, १३ के दिन बंडीएरा बंधु और अन्य बीस देशभक्त रेसिओटी
के साथ कार्गों से इटली की ओर निकल पड़े। उनका अंतिम पत्र नीचे दे रहा हूँ-
काप!, ११ जून, १८४४
'अत्यंत प्रिय मित्र, रेसिओटी को पूर्व नियोजित स्थान पर भेजने के लिए हमने
भरसक कोशिश की, परंतु सारे प्रयास निष्फल रहे। जहाज नहीं मिल रहा था। इतने में
कॅलेब्रिया से उत्साहवर्धक वार्ता आ गई कि नेताओं की दुविधावृत्ति अस्थिर हो
रही है। ऐसे समय दृढ़ निश्चय का उदाहरण सामने रखने के लिए कुछ ही घंटों में हम
उधर जाने का साहस कर रहे हैं। यदि हम सुरक्षित पहुँच गए तो ऐसा आचरण करेंगे जो
किसी योद्धा तथा कूटनीतिक को शोभा देगा। अन्य अठारह देशभक्त इटालियन प्रायः
निर्वासितों में से हमारे साथ हैं। हमें कल एक ऐसा मार्गदर्शक मिला है जिसे
कॅलेब्रिया प्रदेश की पूरी-पूरी जानकारी है। यदि हम इटली में सुरक्षित पहुँच
गए तो विश्वास करें कि हम उन्हीं सिद्धांतों को अपनाएँगे जिनपर आज तक आपने
गर्व किया और आपको दृढ़ विश्वास है कि जिन सिद्धांतों से ही हमारा देश
प्रस्तुत दास्यता से विजयशाली स्वतंत्रता तक ले जा सकते हैं। यदि हम रणभूमि
में धराशायी हो गए तो हमारा यह आत्मार्पण उदाहरण देकर हमारे परमप्रिय
देशबंधुओं को अनुकरण करने के लिए कहें। क्योंकि जीवन उदात्तता तथा उपयुक्तता
से खर्च करने के लिए प्राप्त हुआ है और हम जिस कार्य में संघर्ष करनेवाले हैं
और मरनेवाले हैं, वह स्वदेश स्वतंत्रता का कार्य विश्व के मनुष्यमात्र के लिए
स्पृहणीय सभी कर्तव्यों से अत्यंत पवित्रतम तथा पूज्यतम कर्तव्य है। यह स्वदेश
कार्य है। यह स्वतंत्रता का कार्य है। यह समता का कार्य है। यह मानवी
उत्क्रांति का कार्य है।
अन्य देशभक्तों के नाम, जो हमारे साथ आनेवाले हैं, नीचे दिए हैं-
१. डोमेनिको मोरो, २. नार्डी-यह सन् १८३१ से तड़ीपार हो गया है। ३. मिलन-सन्
१८३२ से तड़ीपार है। ४. व्युपाटेली-सन् १८३१ में जेल में बंद हो गया और उसके
पश्चात् निर्वासित हुआ। ५. नटोली। ६. बर्टी आदि। अब इतना कुछ करके भी असफलता
मिली तो दोष भाग्य का ही है।
भवदीय
नायकोला रेसिओटी
एमिलिओ बंडीएरा'
इस पत्र से मैं संभ्रमित हो गया। ठीक तरह से मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि
उनका कार्यक्रम परिवर्तन कैसे हो गया। परंतु अब कुछ बातें उजागर हो गईं।
अंग्रेज सरकार ने नीचता दिखाते हुए मेरे पत्र खोले और उसमें आयोजित हमारे सारे
कार्यक्रम ऑस्ट्रिया को सूचित किए। इससे ऑस्ट्रिया को निश्चित रूप में पता चला
कि निर्वासितों में से कुछ लोग इटली में विद्रोह की गर्जना होते ही वहाँ जाने
के लिए पूरी तरह से तैयार हैं। परंतु सरकार को निश्चित कार्यक्रम अथवा पता ठीक
तरह से समझ में नहीं आया। ऐसी अवस्था में उत्तम युक्ति यही थी कि उस निर्वासित
को कुछ अप्रस्तुत आशादायी वार्ता सूचित करते हुए जान-बूझकर इटली ले आए और फिर
झट से उन्हें पकड़कर उनका नाश करे। इस योग से फूट डालकर और धोखा देकर यह
देशभक्तों का वर्गबलवान होने से पहले ही कुचला जा सकता है। दूसरी बात यह है कि
अन्य निर्वासित लोग पुनरपि इटली के लोकक्षोभ पर विश्वास नहीं रखेंगे। बंडीएरा
बंधुओं के तीव्र स्वतंत्रता प्रेम के कारण उनमें अधीरता कूट-कूटकर भरी थी,
परिणामतः वे इस जाल में सहजतापूर्वक फँस गए। इस समय इतनी सूक्ष्म घटनाएं घटीं
कि उससे यह कहा जा सकता है कि ऑस्ट्रिया ने बंडीएरा बंधुओं से विश्वासघात किया।
कायूं में कॅलेब्रिआ से एक के पीछे एक दो जहाज आए। उनके कप्तान ने कॅलेब्रिआ
में जंगलों में देशभक्तों के आक्रमण करने की वार्ता दी। परंतु उन्हें नेता लोग
नहीं मिलते और वे कह रहे हैं कि निर्वासित देशभक्तों ने हमें धोखा दिया है।'
इतना कहकर उन कप्तानों ने प्रार्थना की कि 'कायूं से उन देशभक्तों का, जिन्हें
युद्ध का पूर्वानुभव है, जाना अत्यंत श्रेयस्कर होगा। इसके अतिरिक्त
उन्होंने कहा कि किनारे पर बहुत कड़ा पहरा नहीं है। इसके पश्चात् तुरंत एक
मनुष्य आ गया। अर्थात् इसे ही बंडीएरा बंधुओं के उत्साह में अधीर करने के लिए
भेजा गया था। उपयुक्त कप्तानों की ढोंगी वार्ताएँ सुनकर धोखे में आए उन
देशभक्तों को यह व्यक्ति कॅलेब्रिआ के जंगल में, जहाँ स्वदेशभक्त सशस्त्र होकर
इकट्ठा हुए थे, ले जाने के लिए एक स्वयंसेवक मार्गदर्शक' बन गया। निश्चित स्थल
पर अचानक एक जहाज भी आ गया। ये सभी पूर्व नियोजित कार्यक्रम के अनुसार कायूं
से निकल पड़े और कॅलेब्रिआ में उतरे। तथापि बंडीएरा तथा अन्य देशभक्त वैसे ही
आगे चल पड़े। पाँच दिन सफर करने के पश्चात् वे थककर चूर हो गए। मार्ग में उनपर
छुटपुट हमले हुए। उनका निवारण करते-करते वे घाटी में आ गए। वहाँ पर देखा तो
उनके पाँच गुना अधिक शत्रु सेना ने उन्हें घेर लिया। जो लड़े उनमें से कुछ लोग
धारातीर्थ पर गिरकर धन्य हो गए। शेष शत्रु ने कैद कर लिये। उनकी लश्करी पूछताछ
हुई। अंत में उन्हें गोली से उडाने का आदेश हो गया।
इससे थोड़े समय बंडीएरा तथा रेसिओटी दोनों के हस्ताक्षरित एक पर जाहिरनामा
निकाला गया था। उसका शीर्षक था-'स्वतंत्रता, समता, दास्यमुका, राष्ट्रकता तथा
जनसत्ता'। उसका प्रारूप-
स्वतंत्रता, समता, दास्यमुक्ति, राष्ट्रैकता तथा जनसत्ता। इसके आगे राजा का
अस्तित्व नहीं रखना है। इटालियन लोगो, ईश्वर ने सभी मनुष्यों को समान उत्पन्न
किया है। हम सभी उसी के अंश हैं। उसके बिना हम पर अन्य किसी का भी स्वामित्व
नहीं है। राजा-महाराजाओं ने आप लोगों को मसलने-कुचलने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं
किया। स्वदेश दास्यता में दब गया है। अपमान से जल रहा है। उठो! स्वतंत्रता
प्राप्त करो तथा राजसत्ता को लताड़कर लोकसत्ता का विश्वास दिलाओ।'
'सैनिकी पछताछ के चलते उनकी मुखमुद्रा तथा वाणी में रम्यता, शुचिता तथा उनके
आचरण की गंभीरता देखकर सभी के मन में पूज्यभाव एवं विस्मय उत्पन्न होता।' इस
तरह एक इतिहासकार ने लिखा है। दंड की आज्ञा होने पर उन देशवीरों के मुख पर एक
तरह की विलक्षण कांति झलकने लगी। उन महात्माओं की तरह जो सत्य न्यायार्थ बलि
चढ़ते हैं, ये सारे देशवीर अटल, नि:स्तब्ध शांति से खड़े थे। जिस दिन उन्हें
गोली से उड़ाने का आदेश किया गया था उस दिन वे सवेरे से गहरी नींद में सोए थे।
इसके पश्चात् उन्हें जगाने पर उन्होंने बड़े चाव से अपने बाल सँवारे। एकदम
सुस्नात होकर वे तैयार हो गए जैसे किसी पवित्र धार्मिक समारोह में उन्हें जाना
है। तारीख २५ जुलाई, यही वह पुण्यदिवस था। एक धर्मोपदेशक उनके पास आया। शिष्ट
भाषा में वापस जाने के लिए कहा। नार्डी ने उससे कहा, आपसे ज्यादा हमें बाइबिल
का पर्याप्त ज्ञान है। रेसिओटी आदि ने कहा कि जीसस द्वारा मुक्त मनुष्यजाति को
पुनर्मुक्त करने के लिए हम मृत्यु का वरण कर रहे हैं तब हमें धर्मोपदेश करने की
अपेक्षा उन अधम राजाओं को ही धर्मोपदेश दिया जाए जिन्होंने मानवजाति को परवशता
के पाश में जकड़ा है। ये देशवीर, जिनकी मुखमुद्रा पर सद्सद्विवेक-बुद्धि की
प्रसन्नता का स्मित विलास है, जिनमें शांत चित्त से तत्त्व विचार हो रहा
है-देवदूत समान हँसते-हँसते गोली की पहँच के अंदर आकर खडे रहे। एमिलिओ ने कहा,
'पितृभूमि की विजय हो' सभी ने वही जय-जयकार की। अब गोलियाँ चलने ही वाली थीं कि
एमिलिओ ने राष्ट्रगीत की गर्जना की 'देश स्वतंत्रतार्थ लड़ते-लड़ते जो मरता
है, वही वीर इस शुभ मरण से चिरंजीव होता है।' इतने में बंदक की पहली गोली चल
गई। परंतु ऑटिलिओ पर लगाया हुआ निशाना चक गया। पल-दो पल में ही दूसरी गोली आकर
उस दशवीर की छाती में घस गई। 'इटली की जय, स्वतंत्रता देवी की जय' कहते-कहते
उसने प्राण त्याग किया।
'इटली की जय' यह थी उसकी अंतिम गर्जना-ईश्वर और उसके स्वदेश बंधुओं ने वह सुनी
है।
'इटली की जय' युवा देशबंधुओ, क्या यह जय-जयकार अकारथ जाएगी ? यह शब्द व्यर्थ
जाने देंगे या उन्हें अपने लहू में घोलकर कोसेंझा के देशवीरों की आत्माओं को
शांत करेंगे? मैं आपसे तुम्हारे स्वदेश का वास्ता देकर पछता हूँ- जिन
देशवीरों ने अपनी देह प्रिय इटली के लिए अर्पण की उन सारे देशवीरों के नाम से
मैं तुमसे पूछता हूँ कि यह स्वदेश की जय-जयकार, स्वतंत्रता देवी की जयजयकार आप
जेल, फाँसी, वनवास तथा अत्याचारों की छाती पर मूंग दलकर सत्य सिद्ध करोगे या
गुलामी, दास्यता के नरक में कीड़े-मकोड़ों की तरह जीवनयापन करोगे? युवा हृदयो,
'इटली की जय, स्वतंत्रता देवी की जय' इस तरह मंगल जयजयकार करोगे या 'परवशता की
जय, ऑस्ट्रिया चिरंतन रहे' इस प्रकार की अमंगल शंख ध्वनि करोगे?
आपके बीच कुछ ढोंगी, पाखंडी लोग उपस्थित हैं। वे आपसे बंडीएरा बंधुओं की
मृत्यु के लिए घडियाली आँस बहाते हए कहेंगे, 'यह वाहियात धैर्य है. ऐसा साहस
किसी काम का नहीं और यह देशवीरत्व निष्फल है। वे कहेंगे कि कर्तव्यवान लोगों
के तात्कालिक लाभ के बिना किए गए बलिदान अंतिम साध्य निकट लाने के बजाय दूर ले
जाते हैं। इस तरह का देशवीरत्व मूर्खता है।
'ऐसे ढोंगी उपदेशकों की ओर रत्ती भर भी ध्यान मत दो। इन भीरु और कायरों तथा
षड्यंत्रकारियों की एवं भ्रष्ट नास्तिकों की अपवित्र व अमंगल सलाह सुनकर आप
अपने निर्मल अंत:करण की शुचिता न गँवाएँ। जीसस का सूली पर चढ़ना भी इनकी
दृष्टि में अपवित्र सिद्ध होगा। यदि उसने कुछ घपलेबाजी करके फाँसी के प्रसंग
को टाल दिया होता तो इनके उस विचार से वह बड़ा कूटनीतिज्ञ सिद्ध होता। ऐसे
स्वात्मार्पण की नैतिक दिव्यता भला ये संख्या शास्त्रज्ञ क्या जानें?'
नहीं, नहीं, देशवीरता कभी बाँझ नहीं होती। महासत्य सिद्ध करने के लिए
आत्मार्पण करना की नीतिशास्त्र की चरम सीमा है। दास्यता का नशा चढ़कर सभी लोग
नीचता में लोटे रहने पर जब कोई नरमणि उठकर खड़ा होता है और कहता है-यह सत्य है
और उसकी पूजा बाँधने के लिए मैं अपना ध्येयपुष्प अर्पण करता हूँ।' तब उसके
देहार्पण से, उसके उस तेजस्वी मरण से एक दिव्य ज्योति निकलती है और वह अखिल
मनुष्यजाति में नवचेतना भर देती है।
कोसेंझा के देशवीरों ने हमें इस तरह की शिक्षा दी है कि अपने कर्तव्य के लिए
ही मनुष्य को जीवन रखना चाहिए। उन्होंने अखिल जगत् को सिद्ध करके दिखाया है कि
इटालियन लोग जानते हैं-मृत्यु को कैसे गले लगाया जाए। उन्हान यूरोप को विश्वास
दिलाया कि अब इटली अवश्य स्वतंत्र होगी। कोई प्रेमलालुप अपनी प्रियतमा से
मिलने जितनी उत्सुकता से जाता है उतनी ही उत्सुकता से इन देशविरों ने मृत्यु
से भेंट की, जो कि इसलिए नहीं कि वे मूर्ख थे, पागल थे बल्कि उनका वह पवित्र
मरण देशधर्म का बीज है। वह परमेश्वरी आज्ञापत्रक है। भला उनकी देह व्यर्थ कैसे
जाएँगी। मृत्यु की सहायता से अब वे अपनी कब्रों से अत्यंत महत्त्वपूर्ण
देशसेवा कर रहे हैं। उनकी समाधि से देशाभिमान की अनंत ज्वालाएँ धधक रही हैं।
शीघ्र ही इटली पर नियुक्त देवदूत उन ज्वालाओं में से एक ज्वाला हाथ में लेकर
क्रोधावेश की अग्नि सतत प्रज्वलित करेंगे। उस पवित्र हुताशनी में दास्यता जलकर
राख बनेगी। रोम उस अधमाधम नीच पोप का रोम नहीं बल्कि जनसत्ता का रोम प्रकाशमान
होगा और उस रोम पत्तन के दिव्यालोक से मनुष्यजाति सन्मार्ग का अनुसरण करने
लगेगी।
इस प्रकार उदात्त मरण को स्वीकार करके कोसेंझा के देशवीर स्वर्गलोक चले गए।
इटली की स्वतंत्रता, इटली की जनसत्ता, इटली की दास्यमुक्ति और इटली की
जय-जयकार तथा इस राष्ट्र धर्मार्थ उन्होंने मृत्यु को गले लगाया। और इसी
राष्ट्रधर्मार्थ मैं अपनी तुच्छ परंतु देशप्रेम से लबालब भरी देह अर्पण
करनेवाला हूँ।
देशवीरत्व की नैतिक शक्ति यह परम सामर्थ्य देती है। देशवीरता कभी विफल नहीं
होती। तथापि मैं आपसे यह अनुरोध नहीं करता कि आप देश के लिए केवल बलिदान करो।
देशवीरत्व को पूज्य समझा जाए। परंतु उसका उपदेश करना खतरे से खाली नहीं।
क्योंकि आपकी केवल बलि चढ़े यह मेरी इच्छा नहीं। आप लड़कर विजयी हों यही मेरी
कामना है। इस विजय के लिए आप अत्यावश्यक होने पर मृत्यु से साक्षात्कार करें,
मृत्यु को तुच्छ समझें और 'हित वा प्राप्स्यसि स्वर्ग जित्वा वा भोक्ष्य से
महाम्' इस निश्चय के साथ युद्ध के लिए तैयार हों, इसलिए इन कोसेंझा के देशवीरों
का, जिन्होंने मृत्यु का डर उतारकर फेंक दिया है, और किस तरह स्वदेश को देह
अर्पण करें यह इटली के युवकों को सिखाया है। आप अभिनंदन करें यही मेरी इच्छा
है। मृत्यु के मुख में व्यर्थ न पड़ें। परंतु समय आने पर पीछे भी न हटें।
मत्यवेला स्वदेश का नुकसान करके भी खटाई में न डालें। हमेशा खोखला विचार न
करते हुए कार्यारंभ करें। भरसक प्रयास करें। जीवटवृत्ति के साथ शत्रु का गला
घोंटे। इस प्रकार सतत आक्रमण से शत्रु भयभीत होता है। वह अधिकाधिक अत्याचार
करने लगता है। अधिक अत्याचारों से अधिक लोकक्षोभ उत्पन्न होता है। लोकक्षोभ से
साहस, हिम्मत आती है और हिम्मत से कार्य सिद्धि होता है। ऐसे महत्कार्य में
इक्का-दक्का अथवा सैकड़ों पराभवों से भले ही सामना करना पड़े, परंतु उनसे
विचलित न हों। धीरज रखो, क्योंकि हमारा कार्य सफल होना ही चाहिए। हमारा शत्रु
यह जानता है। अत: वह हमें पानी पीकर कोस रहा है। उसके ये अभिशाप व सत्त्वहीन
बीजों की तरह व्यर्थ चले जाएँगे। परंतु आप जो बीज बो रहे हैं वह निष्फल नहीं
होगा। ईश्वर उसकी निगरानी करेगा। उन बीजों पर देशवीरों के लहू की वर्षा होगी,
उसमें ये बीज अंकुरित होंगे और जब उनमें बहार आएगी, चाहे वह अपनी कब्र पर भी
क्यों न हो-ईश्वर का आभार ही है क्योंकि हमें अन्यत्र कहीं कृतार्थता का समाधान
प्राप्त होगा।
हम अपने शत्रुओं से कहते हैं कि तुम अत्याचार करो। परंतु तुमसे डरना नहीं
चाहिए। जब रोमन सीनेट ने 'क्रेम्युशियस का?' का इतिहास जलाने का आदेश दिया तब
एक रोमन आगे बढ़कर कहने लगा, 'भई, मुझे भी जला दो, क्योंकि मैंने उस इतिहास को
कंठस्थ किया है।' इन मदांधों को हमारा भी वैसा ही उत्तर है। अरे, कितने लोगों
को मारेंगे आप? आप मनुष्य हानि कर सकते हैं, मनुष्य को मार सकते हैं, परंतु
क्या आप ध्येय की हत्या कर सकते हैं? ध्येय अजरामर है। भला ध्येय का नाश कौन
करेगा? उस स्वतंत्रता ध्येय का संचार होकर बस एक बार जनशक्ति का सागर खौलने लग
जाए फिर हे बेचारो, तुम्हारी दुर्दशा की कोई सीमा नहीं है!!
स्फुट लेख
प्रकरण-१
हिंदी क्रांतिकारियों का विदेशी आंदोलन
पूर्वार्ध
उन हिंदी शरणार्थियों का-जो देश-विदेशों में अपने देश की स्वाधीनता के लिए
अपने प्राण हथेली पर लिये जूझते, लड़ते, कष्ट झेलते, दर-दर भटकते रहते
हैं-नाम भी कोई उतनी आत्मीयता से नहीं लेता जितना किसी होनहार अभिनेता का।
अभिनेता का नाम तो जिस-तिस के मुख पर थिरकता रहता है। इतना ही नहीं, न उनके
सामने क्रांतिकारियों का संपूर्ण कार्यक्रम होता है, न ही उन्हें इतिहास तथा
राजनीति का सम्यक् ज्ञान होता है, जिससे वे अपने सामने मौजूद अपर्याप्त
कार्यक्रम का मर्म बोध कर सकें। फिर भी कहीं-कहीं ये नौसिखिए हिंदी राज्य
क्रांतिकारी संस्थाओं पर दोषारोपण करके छोटा मुँह बड़ी बात करने का साहस करते
पाए जाते हैं। लाला लाजपत राय के 'पीपल' शीर्षक पत्रिका में प्रकाशित
निम्नांकित लेख का अंग्रेजी से मराठी अनुवाद हम इसलिए कर रहे हैं ताकि
(शीर्षक-हिंदी क्रांतिकारियों का ऐतिहासिक उल्लेख) इस दुःखद अवस्था में
अंशमात्र ही क्यों न हो, सुधार आ सके। इस (मूल) लेख को व्याख्यान के रूप में
बर्लिन में अॅग्नेस मेडले नामक एक अमेरिकी विदुषी ने पढ़ा था। यह विदुषी बरसों
से चीनी राज्यक्रांति एवं हिंदी राज्यक्रांति में भी यथासंभव समर्थन तथा
सहानुभूति पाने के लिए प्रयत्नरत हैं। इन प्रयासों में से ही एक प्रयास यह भा
है कि जर्मनी स्थित युवा चीनी छात्रों के समक्ष हिंदी राज्य क्रांति तथा
स्वतंत्रताप्राप्ति के लिए चल रहे संग्राम के इतिहास का स्वरूप यथासंभव एवं
यथाशक्ति स्पष्ट करने के लिए उक्त अमेरिकन विदुषी ने जुलाई १९२७ में यह भाषण
दिया था जिससे उसके विशेष महत्त्व पर भी पाठक गौर कर सकते हैं। इस महिला ने
हिंदुस्थान के एक महान् देशभक्त से विवाह किया था और आज भी वह हिंदुस्तान से
अपनी मातृभूमि के समान प्रेम करती हैं।
अॅग्नेस मेडले के भाषण का लालाजी की'People'पत्रिका
सेउद्धतकुछ अंश
इस इतिहास का श्रीगणेश सन् १८५७ के हिंदी स्वतंत्रता संग्राम से किया जा सकता
है। इस वर्ष हिंदी राष्ट्र ने इंग्लैंड की दासता का जुआ उतार फेंकने का प्रयास
किया; परंतु इसमें वह असफल रहा। उस समय हिंदी राष्ट्रीय नेताओं के प्रतिनिधि
विदेश गए। उस समय से साधारणत: स्वतंत्रता-प्राप्ति के लिए किए गए प्रत्येक
राजनयिक आंदोलन से ऐसे लोग बाहर निकले कि जिन्हें हिंदुस्थान में या तो
अज्ञातवासी होना पड़ा या किसी विदेश की शरण में जाना पड़ा। प्रायः ये सभी लोग
ध्येय से प्रेरित, स्वाभिमानी, धुन के पक्के, तेजस्वी जन थे। यदि हिंदुस्थान
में प्रकट रूप में ये लोग राजनीतिक आंदोलन छेड़ते तो उन्हें या तो बंदीगृह में
सड़ना पड़ता या फाँसी पर लटकना पड़ता। मैं उन सज्जनों के बारे में कहना चाहती
हूँ जो विदेश में रहते थे, क्योंकि ये लोग महत्त्वपूर्ण व्यक्ति थे। कई वर्षों
तक ये 'विदेश स्थित क्रांतिकारी' हिंदी क्रांतिकारियों के आंदोलन के केंद्रीय
व्यक्तित्व बने रहे। इसका उत्तरदायित्व मुख्यतः ब्रिटिशों के उस अन्यायपूर्ण
तथा घृणास्पद शासन प्रणाली पर है जिससे क्रांतिकार्य हिंदुस्थान में रहकर करना
असंभव हो गया था।
क्रांतिकारी विचारों का केंद्र विदेश में रहा
स्वयं हिंदुस्थान में कुछ ऐसे लोग थे जिन्होंने अपना संपूर्ण जीवन क्रांति को
समर्पित कर दिया था। इनमें से एक लोकमान्य तिलक थे। परंतु उनके जीवन का
महत्त्वपूर्ण अंश कारावास में व्यतीत हुआ।अत: युद्ध सामग्री जुटाने तक
क्रांतिकारियों के विचारों एवं आंदोलन का प्रधान केंद्र विदेशस्थ शरणार्थी
हिंदी जन ही थे। मात्र उन्हीं के विचारों एवं आंदोलनों के कारण हिंदी युवकों
के मन में स्वतंत्रता विषयक भावनाएँ उद्दीप्त हो रही थीं। यूरोपीय युद्ध
समाप्ति तक हिंदुस्थान केवल राजनीतिकआर्थिक ही नहीं अपितु मानसिक दासता में भी
रहा था। आज तक वह उसी दशा में सड़ रहा है। प्राय: सभी हिंदी नेता आज भी
इंग्लैंड अथवा अन्य किसी ब्रिटिश राजनीतिक पक्ष की सहायता की अपेक्षा करते
हैं। सन् १८५७ के स्वतंत्रता संग्राम के पश्चात् सन् १८८४ में महाराजा
दिलीपसिंह ने विदेशी सरकार से साँठ-गाठ करने का पहली बार प्रयास किया। वे बचपन
से इंग्लैंड में पले-बढ़े थे तथापि हिंदुस्थान की दास्य प्रवण तथा लज्जास्पद
अवस्था का उन्हें कभी भी विस्मरण नहीं हुआ था। उन्होंने ब्रिटिश प्रशासन पलटने
का तथा रूस की गुप्त रूप से सहायता प्राप्त करने का प्रयास किया। परंतु
उन्हें सफलता नहीं मिली। इसके पश्चात् इसी तरह के कुछ प्रयास हिंदुस्थान की
सीमा पर भी किए गए। परंतु मुझे उनकी निश्चित जानकारी नहीं है।
अजितसिंह तथा अंबाप्रसाद
राजनीतिक शरणार्थियों में से सबसे पहला संघ दो या तीन व्यक्तियों का था। लगभग
बीस वर्ष पूर्व ये लोग ईरान में भाग गए और वहाँ उन्होंने अपने आंदोलन का
केंद्र स्थापित करने का प्रयास किया। ईरान में उनके आंदोलन के दो प्रकार थे।
प्रथमतः, उन्होंने क्रांतिकारी वृत्तपत्र प्रकाशित किए और उन्हें इस तरीके से
हिंदुस्थान भेजा कि वे कॉलेज के छात्र तथा फौजियों के हाथ में पड़े। दूसरा यह
कि उन्होंने ईरानी प्राजक्त आंदोलन को अपनाया। पाठशाला तथा गृह निवास आदि
बनाए, वृत्तपत्र निकाले और युवा ईरानी पीढी को शिक्षित किया। ईरानी प्राजक्त
आंदोलन अंग्रेजों के विरोध में छेड़ा गया था, अत: उसमें इनका सम्मिलित होना
स्वाभाविक ही था; किंतु उनकी संकल्पनाएँ भी उन्हें पसंद थीं।
पंजाब के सूफी अंबाप्रसाद और अजितसिंह इनमें प्रमुख थे। हिंदुस्थान में इन
दोनों को भी सरकार की ओर से बहुत उत्पीड़न, उपद्रव सहना पड़ा था। सूफी
अंबाप्रसाद पर्शियन अध्यापक तथा संघटक के रूप में विख्यात हो गया। कुछ वर्षों
के पश्चात् सन् १९०५ में जब ईरानी विद्रोह छिड़ गया तब एक मराठा, जिसने महम्मद
अली छद्म मुसलमानी नाम धारण किया था-एक सैनिक दल का सेनापति था, इस फौज ने
तेहरान पर कब्जा किया था। इस संघ में महाराष्ट्र के भी कुछ लोग थे, परंतु उनके
नाम बताने की आवश्यकता नहीं। सन् १९०५ से १९११ के बीच छिड़े राजनीतिक आंदोलन
के कारण यह एक नया ही वर्ग बन गया और उसने क्रांति आंदोलन का केंद्र यरोप,
अमेरिका, चीन, जापान आदि देशों में प्रस्थापित करने का प्रयास किया।
राज्य क्रांतिकारी शरणार्थी
सन् १९०४ में जापान ने रूस जैसे यूरोपीयन राष्ट्र को पराभूत किया। इससे उन्हें
यह स्पष्ट रूप में ज्ञात हो गया कि एक एशियाई राष्ट्र यूरोपीय राष्ट्र को
पराजित कर सकता है; और पराधीनता कोई एशिया के ही राष्ट्रों का ललाट-लेख नहीं,
वह का एक ऐसा प्रश्न था जो शस्त्र, संघ आदि बातों पर निर्भर था। सन् १९०५ के
पश्चात् जो षड्यंत्र रचा गया तथा जो भयंकर आंदोलन छिड़ा, उसका कई अन्य
राजनीतिक एवं आर्थिक कारणों के साथ एक यह भी महत्त्वपूर्ण कारण था। अखिल विश्व
के संबंध में सन् १९०५ का एक ऐतिहासिक महत्त्व था। इसी वर्ष रूस, ईरान
मेक्सिको, ऑयरलैंड, य.एस.ए. में हिंदी क्रांतिकारियों की एक संस्था प्रस्थापित
की गई और इसी वर्ष हिंदुस्थान के भीषण आंदोलन का श्रीगणेश हो गया।
यहाँ इस बात पर गौर करना आवश्यक है कि मैंने जब 'क्रांति' और 'क्रांतिकारी'
शब्दों का प्रयोग किया, उस समय उनका उद्दिष्ट अर्थ 'राष्ट्रीय क्रांति' ही है।
मात्र शाब्दिक अर्थ से हिंदुस्थान के भीषण अथवा राष्ट्रीय आंदोलन को
क्रांतिकारी आंदोलन कहना असंभव है। यूरोप में 'क्रांति' तथा 'क्रांतिकारी'
जैसे शब्दों को आर्थिक एवं सामाजिक महत्त्व प्राप्त हो गया है।
परंतु यूरोपीय युद्धांत तक तथा रूसी क्रांति की विजय तक हिंदी शरणार्थियों में
केवल पाँच या छह ही 'समाजसत्तावादी' (Socialist) थे।
छात्रगणों की बहुसंख्या
सन् १९०५ के पश्चात् के कालखंड में बहुसंख्य हिंदी जन चीन, जापान, अमेरिका,
फ्रांस तथा अन्य यूरोपीय देशों में शरणार्थी के रूप में रहते हुए पाए जाते
हैं। उदाहरणार्थ, फ्रांस और इंग्लैंड जैसे देशों में कई व्यक्ति ऐसे थे कि जो
हिंदी स्वाधीनता के लिए प्रयत्नरत रहने के कारण निष्कासित किए गए थे। इन दोनों
देशों में गुप्त हिंदी क्रांतिकारियों के बहुत बड़े संघ थे। इनमें से प्रायः
सभी छात्र थे। हिंदुस्थान का वयस्क वर्ग आज भी इंग्लैंड के सामने दो कौर रोटी
के लिए गिड़गिड़ाकर हाथ फैला रहा था। परंतु युवा वर्ग इस 'भिक्षां देही'
प्रवृत्ति से संतुष्ट नहीं था। अपने गुप्त संघटनों के द्वारा उन्होंने द्रव्य
इकट्ठा किया था, गुप्त क्रांतिकारी वृत्तपत्र प्रसिद्ध किए थे और हिंदुस्थान
स्थित उन नगरों में गुप्त रूप से उन्हें प्रसृत किया था जहाँ विश्वविद्यालय
थे। इनमें से एक वृत्तपत्र का नाम 'तलवार' (यह 'अभिनव भारत' का मुखपत्र था) था,
उसे अब पंद्रह से बीस वर्ष हो चुके हैं। परंतु आज भी उसे पढ़ते समय उनमें से
कुछ लेख आश्चर्य उत्पन्न किए बिना नहीं रहते। अंतरराष्ट्रीय राजनीति एवं
आर्थिक विकास से संबंधित इस वृत्तपत्र का ज्ञान इतना गहरा था कि किसी के भी
मुख से इस तरह के उद्गार निकले बिना नहीं रहते कि यदि अंतरराष्ट्रीय कार्य
संबंध में हिंदुस्थान इन विदेशस्थ देशभक्तों पर निर्भर रहता तो वह निश्चित रूप
में आज परतंत्र नहीं रहता। उदाहरणार्थ, सन् १९०९ में इस वृत्तपत्र में एक लेख
था, उसमें इंग्लैंड तथा जर्मनी के बीच बढ़ते मनमुटाव की मीमांसा इस तरह स्पष्ट
की गई है कि भविष्य में इन दोनों राष्ट्रों में निश्चित रूप में युद्ध छिड़ेगा
और हिंदुस्थान की स्वाधीनता-प्राप्ति हेत् यत्न करने के लिए इससे बढ़िया
स्वर्णावसर और कोई नहीं हो सकता। यह लेख यूरोप का तत्कालीन राजनीतिक एवं
आर्थिक विकास का सुस्पष्ट एवं ठोस विवरण है। इस प्रकार ऐसे क्रांतिकारियों
जिनका ज्ञान तथा सामर्थ्य विशाल है, साथ कार्य न करने से हिंदुस्थान की
कल्पनातीत हानि हो गई है।
स्वाधीनता संग्राम का प्रथम इतिहास
इंग्लैंड स्थित हिंदी संघ द्वारा सन् १८५७ के स्वाधीनता संग्राम का हिंदी
दृष्टिकोण से लिखा हुआ पहला इतिहास हॉलैंड में गुपचुप प्रकाशित किया गया;
क्योंकि सत्य स्थिति का ज्ञान ब्रिटिश लोगों के लिए तथा उनके लिए जिन्होंने
इसे प्रसिद्ध किया, बहुत खतरनाक होता। हिंदुस्थान तथा इंग्लैंड इन दोनों देशों
में उसका प्रचार प्रचुर मात्रा में किंतु गुपचुप होना स्वाभाविक ही था। इस
ग्रंथ को लिखने का श्रेय इंग्लैंड स्थित हिंदी संघ के प्रमुख श्री विनायकराव
सावरकर को जाता है। आज साहित्यिक तथा ऐतिहासिक संशोधनात्मक दृष्टि से यह
पुस्तक अनमोल है। हिंदुस्थान के जन्मजात शत्रु सर वॅलेंटाइन चिरौल ने इस
पुस्तक से संबंधित अपना अभिप्राय व्यक्त किया है। उन्होंने कहा है, "इस पुस्तक
में संशोधन और ऐतिहासिक तथ्यों का विपर्यास, अतिशयित साहित्यिक शक्ति एवं
आत्यंतिक बर्बर, अशिष्ट, जंगली, विद्वेष आदि बातों का संगम पाया जाता है।"
थॉमसन महोदय ने अपनी 'अदर साइड ऑफ दि मेडल' शीर्षक पुस्तक में कहा है, "श्री
सावरकर के सर पर उस पागलपन की प्रबलता थी और इस प्रकार की पुस्तक जब्त होना ही
उचित होने के कारण उसे जब्त किया गया।" परंतु अंग्रेजों की इस प्रकार की हुई
निंदा को हम प्रशंसा के फूल ही समझते हैं। वह बात तो अवश्य ही सत्य होगी जिसका
वे डटकर विरोध करते हैं। अंग्रेजों का लिखा हुआ तथा आजकल स्कूलों-कॉलेजों में
जो पढाया जाता है-हिंदी स्वाधीनता संग्राम का अत्यंत विपर्यस्त इतिहास, जिसके
विरोध को हम सत्य का निदर्शक समझते हैं-हिंदी पाठकों को उनके लिए लज्जा से सिर
झुकाने को बाध्य करता है, जिन्होंने सन् १८५७ में हिंदी स्वाधीनता-प्राप्ति के
लिए अपने प्राण हथेली पर लेकर प्रयास किए थे। इतना ही नहीं अपितु इन हतात्माओं
को वे 'राजद्रोही' समझने का भी प्रयास करते हैं। हिदुस्थान स्थित सभी
शरणार्थियों एवं क्रांतिकारियों का यही महान् अपवाद है कि उन्होंने अपने
देश-बांधवों को किसी भी तरह की दासता से घृणा, तिरस्कार तथा विद्वेष करना और
हिंदी स्वाधीनता के लिए प्रयत्नरत रहना सिखाया।
इंग्लैंड स्थित हिंदी क्रांतिकारी संघ के सदस्य सभी विश्वविद्यालयों में थे।
ब्रिटिश सरकार ने उनपर आरोप लगाया कि उन्होंने पिस्तौल खरीदे और हिंदुस्थान
के भयप्रद आंदोलन की सहायता करने के उद्देश्य से उन्हें हिंदुस्थान में भेज
दिया। हो सकता है उन्होंने वैसे किया भी हो। इससे पूर्व अमेरिकी
क्रांतिकारियों ने वही किया था। अंतर बस इतना ही था कि उन्होंने बड़ी मात्रा
में उन्हें फ्रांस से प्राप्त किया और अमेरिका स्थित क्रांतिकारियों के पास
भेज दिया। अतर केवल परिमाण का है।
मदनलाल धींगरा
१ जुलाई, १९०९ के दिन लंदन स्थित हिंदी (अभिनव भारत) क्रांतिकारी संघ का एक
सदस्य-श्री मदनलाल धींगरा-ने ब्रिटिश गुप्तचर कर्जन वायली की. जिसे हिंदी
छात्रों के विरुद्ध आयोग में लाया जा रहा था, लंदन शहर में हत्या की। धींगरा
को १७ अगस्त के दिन फाँसी हुई और उसके देश-बांधवों की उसके अंतिम संस्कार
विषयक माँग को ठुकराकर उसे कारागृह के आहाते में ही दफनाया गया। वह गर्वोन्नत
मस्तक से वधस्तंभ की ओर गया और अपनी सहायता के लिए आगे बढ़नेवाले लोगों से हाथ
मिलाते हुए उसने कहा, "मैं मृत्यु से रत्ती भर भी भयभीत नहीं हूँ।" वधस्थल पर
जब उससे कहा गया कि वह कुछ कहना चाहता है तो कह सकता है, तब उसने गरजते हुए
कहा, "वंदेमातरम्।" केवल एक ही हिंदी व्यक्ति को वहाँ उपस्थित रहने की अनुमति
दी गई थी और वह भी ब्रिटिश सरकार का जासूस था। परंतु धींगरा का मनोबल और
निडरता देखकर उसके मन पर भी विलक्षण परिणाम हुआ।
इसके पश्चात् ब्रिटिश सरकार ने लंदन स्थित हिंदी लोगों के विरोध में अभियान
आरंभ किया। कइयों को फ्रांस में भागना पड़ा और आज भी वे यूरोप में हैं। सावरकर
इंग्लैंड में पकड़े गए और उन्हें पूछताछ के लिए हिंदुस्थान भेजा गया। जब उनका
जहाज मार्सेल्स बंदरगाह में था तब बड़े साहस एवं चतुराई के साथ उन्होंने
समुद्र में छलाँग लगाकर अपने आपको मुक्त किया और तैरकर वे फ्रांस के किनारे
पहुँचे। अंतरराष्ट्रीय कानूनी निर्बंधों के अनुसार वे आश्रय के अधिकारी थे;
परंतु ब्रिटिशों ने उनका पीछा करके उन्हें कैद किया और अंतरराष्ट्रीय निबंध की
अवमानना करते हुए हिंदुस्थान के साइबेरिया जैसे अंदमान द्वीप में उन्हें दो-दा
आजीवन कारावास का दंड दिया। ट्यूबरक्यूलॉसिस के अत्यधिक कष्ट के कारण दो वर्ष
पूर्व उन्हें मुक्त किया गया। आजकल वे मुंबई इलाके में रत्नागिरी बंदरगाह में
नजरबंद हैं। सावरकर के साथियों में से एक ना.वी.वी.एस. अय्यर पांडिचेरी
(फ्रेंच हिंदुस्थान) में थे। आगे चलकर सरकार ने उन्हें क्षमादान दिया और
देश-बांधवों की सेवा में संलग्न रहते हुए लगभग डेढ़ वर्ष पूर्व उनका बड़े
दुःखद रूप में अंत हो गया।
फ्रांस में अभिनव भारत की शाखा
उस समय अर्थात् सावरकर के दंडकाल में ही हिंदुस्थान के अन्य बंदियों को भी
दस-दस, पंद्रह-पंद्रह वर्षों का दंड देकर अंदमान भेजा गया। परंतु यहाँ पर केवल
विदेशस्थ क्रांतिकारियों का ही इतिहास कथन करने का उद्देश्य होने के कारण मैं
उनके संबंध में कुछ नहीं कहती।
जिस कालखंड में इंग्लैंड स्थित हिंदी छात्र आंदोलन कर रहे थे उसी कालखंड में
फ्रांस में उसी प्रकार की एक संस्था 'अभिनव भारत' के सदस्य चला रहे थे-जिसकी
प्रमुख मैडम कामा नामक एक हिंदी महिला थीं। यह महिला आज भी (सन् १९२७ में)
पेरिस में वृद्धावस्था में हैं। इन्होंने फ्रांस में चल रहे स्वतंत्रता आंदोलन
के कार्य की बहुत आर्थिक सहायता की। कालांतर में इंग्लैंड से आए हिंदी युवा
शरणार्थी संघ के साथ कार्य करने लगे। फ्रेंच संघ भी मिस्र में चल रहे राष्ट्रीय
आंदोलन के सहयोग में कार्यरत था। मिस्र में राष्ट्रीय पक्ष की ब्रुसेल्स में
दूसरी कांग्रेस (सन् १९१०) के अधिवेशन में हिंदी लोगों ने उत्साह से कार्य
किया। ऑयरिश प्रतिनिधि भी उपस्थित थे और उनका भी इसमें महत्त्वपूर्ण योगदान
रहा।
इस बात का उल्लेख करना मैं आवश्यक समझती हूँ कि इंग्लैंड और फ्रांस स्थित
हिंदी राष्ट्रीय क्रांतिकारी ऑयरिश क्रांतिकारियों के साथ भी कार्य करते और
बहुसंख्य ऑयरिश स्त्री-पुरुष उनके विश्वसनीय सुहृद् थे।
जापान और चीन के आंदोलन
सन् १९१२ में लॉर्ड हार्डिंग्ज राजधानी दिल्ली में प्रवेश कर रहे थे कि उनपर
बम फेंका गया। मोटे-मोटे पुरस्कार घोषित किए गए परंतु वह अपराधी पकड़ा नहीं
गया। वह जापान भाग गया और वहाँ से उसने स्वदेश की स्वतंत्रता का कार्य जारी
रखा। उसी समय चीन और जापान के अनेक लोग मातृभाषा में वृत्तपत्र प्रसिद्ध करके
गुप्त रूप से उन्हें हिंदुस्थान में भेजने के आंदोलन में लगे थे। इनमें से एक
वृत्तपत्र का नाम 'न्यू इसलाम' था। इसका संपादक एक हिंदी मुसलमान था और वह
मुसलमानों में राष्ट्रीयत्व की चेतना जगाकर हिंदुस्थान की स्वतंत्रता हेतु
प्रयास करने के लिए उन्हें प्रवृत्त कर रहा था।
चीन के जिन-जिन शहरों में ब्रिटिशों द्वारा चीनियों को दासता में रखने के लिए
हिंदी सैनिकों को काम में लाया जाता, वहाँ-वहाँ उन्हें इसका अहसास दिलाने में
कि अपने इस तरह इस्तेमाल में लाए जाने से वे कितना अक्षम्य पापाचरण कर रहे थे,
हिंदी आंदोलनकारी बहुत परिश्रम कर रहे थे।
सन् १९११ में भी हिंदी क्रांतिकारियों तथा शरणार्थियों के एक वर्ग का उदय हो
रहा था। आर्थिक कठिनाई के कारण उत्तर हिंदुस्थान का बहुत बड़ा किसान वर्ग
यूनाइटेड स्टेट्स तथा प. कनाडा में आकर रच-बस गया था। इसी देश समय इसी में
फौजियों का वह समूह (जत्था) जिसने शंघाई अथवा सिंगापुर में विद्रोह की चिनगारी
सुलगाई थी अथवा जिन्होंने नौकरी छोड़कर किसान वर्ग में क्रांति का बीज बो
दिया। सन् १९११ से १९१३ तक लगभग पाँच हजार सिपाही तथा किसान अमेरिका गए।
शिक्षित शरणार्थी हिंदी जनों ने 'हिंदुस्थान गदर पार्टी' नामक एक सुसंगठित
संस्था स्थापित करके उन्हें स्वाधीनता के विचारों से प्रशिक्षित किया।
(लेखन १९२७; पुनः प्रसिद्ध दैनिक मराठा; ५ मई, १९६३)
उत्तरार्ध
महायुद्ध के आरंभ काल में जर्मनी में बसे बहुसंख्य हिंदी जनों ने (उनमें से
कुछ लंदन स्थित पुराने क्रांतिकारियों में से थे) सोचा कि हिंदुस्थान की
स्वाधीनताप्राप्ति के लिए इस अवसर का लाभ उठाया जाए। यद्यपि हिंदुस्थान
निहत्था था तथापि सन १९१५ में निर्मित क्रांति की प्रवृत्ति इतनी तीव्र थी की
शस्त्र, बारूद की आपूर्ति से हिंदुस्थान में क्रांतिकारी आंदोलन सफल होगा-ऐसा
उन्हें लगने लगा था, अत: उन्होंने उसे खड़ा करने का प्रयास किया।
अपने कार्य की दिशा निश्चित करके उन्होंने जर्मन सरकार को सहयोग देने का विचार
किया। विश्व के कोन-कोने में रह रहे क्रांतिकारियों की उन्होंने बर्लिन में एक
सभा आयोजित की। सभी क्रांतिकारी बर्लिन में इकट्ठे हुए और जो आने में असमर्थ
रहे थे, उन्होंने सहयोग की इच्छा व्यक्त की। इनमें सभी प्रकार के राजनीतिक और
सामाजिक मतों के हिंदी जन थे। परंतु वे सभी जिन-जिन उपायों से
स्वाधीनताप्राप्ति संभव हो, उन साधनों का अथवा उपायों का सहारा लेने में
विश्वास रखते थे। जर्मन सरकार यावत्काल उपाय, योजना, कार्यक्रम आदि विषय में
उन्हें संपूर्ण स्वतंत्रता देने के लिए तैयार थी। उस समय तक वे भी सरकार को
सहयोग देने के लिए प्रस्तुत थे। उन्होंने 'इंडियन इंडिपेंडेंस कमेटी ऑफ यूरोप'
(यूरोपीय हिंदी स्वतंत्रता समिति) नामक संस्था स्थापित की और सुना है,
हिंदुस्थान के स्वतंत्र होने पर वापस लौटाने की शर्तों पर उन्होंने जर्मन
सरकार से कुछ कर्ज भी लिया। अपने सभी कार्यक्रमों तथा आंदोलनों में वे
संपूर्णतया स्वायत्त थे। वे जर्मनी के सहायक के रूप में कार्य नहीं कर रहे थे।
जब-जब उन्हें जरूरत हुई, जर्मन सरकार ने उनकी सेना से और अन्य सभी तरह की
सहायता की। उन्होंने इंग्लैंड के विरोध में तीव्र अंतरराष्ट्रीय आंदोलन
छेड़ा। उन्होंने ईरान, अफगानिस्तान, चीन, तुर्कस्तान, स्विट्जरलैंड, इंग्लैंड,
स्वीडन, मेक्सिको, ऑयरलैंड, अमेरिका प्रत्येक स्थान पर जहाँ-जहाँ संभव हुआ
वहाँ-वहाँ हिंदी राष्ट्रीय संस्था, संघ अथवा व्यक्ति के सहयोग से यथासंभव
आंदोलन किया। हिंदुस्थान में जो क्रांतिकारी अस्तित्व में हैं उन्हें शस्त्र
तथा बारूद किस प्रकार भेजा जाए इस विषय पर उनसे विचार विनिमय करने के लिए
उन्होंने संघटक भेजे। हिंदुस्थान में पहुँचने के उद्देश्य से उन्होंने
अफगानिस्तान और ईरान से अनेक दल भेजे। परंतु वे कभी भी हिंदुस्थान में नहीं
पहँचे। उनमें से अत्यंत शूर और निर्भीक वीर लडे; परंतु अंत में पकड़े गए और
ब्रिटिश सरकार ने उन्हें फाँसी की सजा दी। यूरोप स्थित हिंदी समिति ने अमेरिका
के गदर पक्ष द्वारा अमेरिका के तट से शस्त्रों से लदी दो नौकाएँ भी भेजीं,
परंतु वे भी पकड़ी गईं। यहाँ पर इस बात का उल्लेख करना उचित होगा कि जिन बातों
की आज 'इतिहास' के रूप में गणना नहीं होती ऐसी बातों का जिक्र यहाँ नहीं किया
जा रहा है। ये घटनाएँ अंग्रेजों ने क्रांतिकारियों के विरुद्ध युद्ध में
विपर्यस्त स्वरूप में कथन की हैं। मैं केवल वही सत्य कथन कर रहा हूँ जो मुझे
ज्ञात है। सन् १९१५ में अमेरिका से बंदूकें भेजी गईं और आगे चलकर जब अमेरिका
युद्ध में कूद पड़ा तब अंग्रेजों ने उन सभी हिंदी लोगों की अमेरिका से माँग की
जिनपर उन्हें संदेह था। ब्रिटिशों की गुप्तचर संस्था बहुत ही अच्छी थी और उसके
पास प्राय: सभी लोगों के नाम और पते थे। उन्होंने माँग की कि अमेरिका के तटस्थ
प्रवृत्ति के निबंधों को भंग किए बिना इन लोगों को बद्ध किया जाए; और यह माँग
अमेरिका ने पूरी की।
इंग्लैंड ने अमेरिका की तटस्थ वृत्ति के दिनों में स्वयं ही फौज तैयार रखकर
उसे गोला-बारूद की आपूर्ति करते हुए इंग्लैंड भेजकर स्वयं तटस्थ वृत्ति का
उल्लंघन किया। ब्रिटिशों ने जो कुछ भी किया वह अन्य जनों को दास्यबद्ध करने के
लिए ही किया।
इसी कालखंड में दिल्ली, लाहौर, बनारस, मांडले आदि स्थानों पर षड्यंत्र रचने
के आरोप में अनेक स्वतंत्रता सेनानियों को पकड़ा गया और उनकी जाँचपड़ताल करते
हुए कुछ को फाँसी पर चढ़ाया गया। निश्चित संख्या की जानकारी नहीं है, परंतु वे
बहुसंख्य थे। इधर दस-पाँच स्थानों पर, उधर दस-बीस स्थानों पर इस तरह उन्हें
फाँसी दी गई। अनेकों को कई वर्षों की अवधि (मियाद) पर अंदमान भेजा गया। यहाँ
पर मुझे इस तथ्य का उल्लेख करना आवश्यक है कि मृत्यु के द्वार पर खड़े रहते
हुए भी हिंदी क्रांतिकारियों का आचरण उतना ही धीरोदात्त था जितना पूर्ववर्ती
आंदोलनों में था। हो सकता है, जिस समय उन्होंने अपने आपको स्वतंत्रता आंदोलन
को समर्पित किया तभी उन्हें ज्ञात था कि कभी-न-कभी उन्हें मृत्यु को गले लगाना
ही होगा। हाँ, इस जगत् में कुछ ऐसी वस्तुएँ भी होती हैं जिनका मोल प्राणों से
भी अधिक होता है।
यूरोप स्थित 'हिंदवी स्वतंत्रता समिति' ने जर्मनी और तुर्कस्थान में पकड़े गए
हिंदी सेना के बंदी वर्गों में शिक्षा प्रसार का कार्य जारी रखा। उस कार्य का
महत्त्वपूर्ण केंद्र कॉन्स्टांटिनोपल नगर था और तुर्की सरकार के सहयोग से वे
अपना कार्य कर रहे थे।
ईरान स्थित लोग शस्त्रों का प्रयोग करते हुए दक्षिण की ईरानी टोलियों में
इंग्लैंड के विरुद्ध लड़े। सूफी अंबाप्रसाद, जिसका उल्लेख मैंने पहले ही किया
था उनमें एक था। उसकी आयु साठ से अधिक थी और वह दूंठा (लुंज) था। परंत वह बाएँ
हाथ से निशाना (लक्ष्य) बाँधना सीख गया था। वह एक शूर योद्धा था और अपने साथ
बंदूक रखता था। वह तभी कार्य परावृत्त हो पाया जब ब्रिटिश सरकार ने उसे पकड़कर
दक्षिण ईरान के एक किले में फाँसी पर चढ़ाया। उसने जीर्ण ईरानी वृत्तपत्र के
हाशिए में लिखकर अपने मित्रों को अंतिम संदेश सूचित किया।
"मैंने अपना कर्तव्य पूरा किया है। मेरा अंत समीप आ चुका है। आप जैसे युवकों
को तब तक यह युद्ध जारी रखना होगा जब तक हिंदुस्थान स्वतंत्र नहीं होता।"
युद्धकाल में चीन स्थित क्रांतिकारियों ने भी हर पल अपना जीवन संकट में डालकर
शंघाई, हांगकांग, कैटन स्थित सैनिकों में आंदोलन जारी रखकर अपने कर्तव्य का
पालन किया। उन्हें सफलता नहीं मिली, इसका कारण है हिंदुस्थान को कंगाली, जिसके
कारण वहाँ के निवासियों को अपने परिवार के लिए दो जून की रोटी जुटाने हेतु
पंद्रह रुपल्ली के लिए फौज में भरती होना पड़ा।
'यूरोपीय हिंदवी समिति' ने यूरोप और अमेरिका स्थित जनता में हिंदुस्थान विषयक
सूचना का प्रचुर मात्रा में प्रसारण किया। उन्होंने विभिन्न भाषाआ म हजार-हजार
पुस्तकें, पांडुलिपियाँ एवं लेख प्रकाशित किए। यूरोप और अमारका की जनता को आज
हिंदी लोगों के बारे में जितनी जानकारी है उसके लिए कारणीभूत शरणार्थियों के
साथ जिन विदेशियों ने कार्य किया उनमें बहुसंख्य ऑयरिश, स्वीडिश, जर्मन तथा
अमेरिकी लोग थे।
जैसाकि मैंने पहले कहा, अमेरिका में हिंदुस्थान गदर पक्ष के कई सदस्यों को
तथा अन्य हिंदी गृहस्थों को कारागृह में बंदी बनाया गया था। उनके कारावास के
चलते ही उनका कार्य जारी रखने के लिए तथा उस निर्वासन को जो उन्हें हौवा दिखा
रहा था, प्रतिबंधित करने के लिए अमेरिकी लोगों ने एक मंडल स्थापना की।
इंग्लैंड ने इन लोगों को हिंदुस्थान को सौंपने की अमेरिका को सूचना दी थी
अर्थात् उन्होंने राजनीतिक अपराधियों को आश्रय देने के संबंध में अपना अधिकार
अक्षुण्ण रखा था। इस मंडल का नाम 'फ्रेंड्स ऑफ फ्रीडम फॉर इंडिया' (हिंदवी
स्वाधीनता के मित्र) था। इस मंडल ने हिंदी लोगों की सुरक्षा के लिए सोशलिस्ट,
आयरिश आंदोलन संघटित किए और व्याख्यान तथा लेखों द्वारा जहाँ-जहाँ संभव
हुआ उन सभी स्थानों पर महिला संघ, छात्र संघ आदि आंदोलन छेड़े। बहुसंख्य
बुद्धिमान पुरुषों ने इसमें हिस्सा लिया था। इस मंडल का महत्त्वपूर्ण उद्देश्य
हिंदी लोगों को पन: हिंदुस्थान भेजने के विरोध में प्रयास करना तथा इन
व्यक्तियों ने जो शिक्षा कार्य आरंभ किया था उसे जारी रखना था और अंत में सभी
हिंदी बंधन मुक्त किए गए।
अंततोगत्वा युद्ध समाप्त हो गया। हिंदुस्थान ने विद्रोह नहीं किया। हिंदुस्थान
में बहुत ही कम बंदूकें पहुंची थीं। जिन हवाई जहाज आदि साधनों का प्रयोग
जर्मनी के विरोध में लड़ने के लिए किया जा रहा था, वही साधन अब हिंदुस्थान
के स्वतंत्रता आंदोलन को नष्ट करने के लिए प्रयोग में लाए गए।
अखिल हिंदवी क्रांतिकारियों के आंदोलन की यही विशेषता है कि युद्ध समाप्ति के
पश्चात् इस आंदोलन को विदेश में नहीं, स्वयं हिंदुस्थान में दर्ज किया गया है।
यह एक अच्छी और महत्त्वपूर्ण बात है। हिंदी युवक अपने विचार एवं कार्यों के
लिए विदेशियों पर निर्भर नहीं हैं। हिंदुस्थान बाह्य जगत् से असंबद्ध देश है
और उसे बाह्य जगत् से संबंधित जानकारी देने के कार्य में निर्वासित जनों का यह
संघ आज भी एक महत्त्वपूर्ण केंद्र है। निर्वासित हिंदी जनों में से प्रायः सभी
व्यक्तियों को हिंदुस्थान के अति महत्त्वपूर्ण नेताओं से भी यह अधिक भलीभाँति
ज्ञान होता है कि हिंदुस्थान को स्वाधीनता प्राप्त होने के लिए कौन-कौन सी
राजनयिक तथा आर्थिक शक्तियाँ कारणीभूत हो सकेंगी। प्रायः सभी हिंदी नेता
अंग्रेजी शिक्षा अथवा विश्व में हो रहे आंदोलन के अज्ञान वश अंग्रेजों पर
निर्भर रहने से संभ्रमित बुद्धि के हो गए हैं। निर्वासित हिंदी व्यक्ति अनेक
देशों में रहने के कारण तथा बहुभाषी होने के कारण विश्व की गतिविधियों की ओर
हिंदी उपनेत्रों से देख सकते हैं। परंतु ऐसा प्रतीत होता है कि अनेक नेता
विश्व के आंदोलन की ओर इंगलिश उपनेत्र छोडकर अन्य दृष्टि से देखना खतरनाक तथा
न्यूनता-बोधक समझते हैं, साथ ही यह भी कि उनकी यही मूर्खतापूर्ण धारणा बनी है
कि यह हिदुस्थान जिसे सबसे अलग-थलग रखा गया है, बाह्य जगत् वियुक्त देश है।
उदाहरणार्थ, नवचीनी सरकार से संबंधित वार्ताएँ हिंदुस्थान में आकर दी जाती
हैं। परिणामतः हिंदुस्थान अज्ञान तथा आध्यात्मिक दासता से ग्रस्त है। इतनी
अड़चनें होने पर भी आर्थिक शक्तियाँ कार्य कर रही हैं और सांघिक क्रांति का
आंदोलन उत्पन्न कर रही हैं।
सन् १९१७ की रूसी क्रांति से और युद्ध समाप्ति से यह दिखाई देता है कि हिंदी
शरणार्थी अब उतने संघटित नहीं रहे जितने पहले थे। इसका प्रमुख कारण यह है कि
विश्व का प्रमुख आंदोलन आज वर्ग विषयक (पूँजीवादी तथा कामगार आदि) है। रूसी
क्रांति तथा संपूर्ण विश्व भर में फैली हुई समाज सत्तावादी सोशलिस्ट आंदोलन
में ऐसे अनेक हिंदी जन हैं जिनके मन अभी दोलायमान अवस्था में हैं। वे पुनः एक
बार अपनी जीवन विषयक विचारधारा जाँच-परखकर उसे सुधार रहे हैं। इसी कारण वे
संघटित नहीं हैं। उनमें अराजकतावादियों से लेकर सामाजिक उदारमतवादियों तक सभी
प्रकार हैं। उदाहरणार्थ, जर्मनी के 'राइट पार्टीज' जो स्वयं ही साम्राज्यवादी
हैं, इस तरह के लोगों को साधारण जन समूह से रत्ती भर भी सहानुभूति नहीं होती और
सोशलिज्म' का कोई भी आंदोलन, व्यापार, संघ स्थापना आदि को वे कालापव्यय समझते
हैं। उनके अनुसार साधारण जनता 'हीन, तुच्छ प्राणी है'।
हिंदी शरणार्थियों में से अराजक अथवा समाज सत्तावादी आंदोलन करनेवाले उत्साही
जन प्रायः लेखक ही हैं। इंग्लैंड में ऐसे कुछ हिंदी लोग हैं जो सोशल डेमोक्रेट
होकर ब्रिटिश लेबर पार्टी में काम करते हैं। वे शरणार्थियों में से नहीं हैं
क्योंकि ऐसे जन इंग्लैंड के लिए कभी भयंकर नहीं होते। इंग्लैंड में तीन-चार
कम्युनिस्ट भी हैं और वे ब्रिटिश कम्युनिस्ट पक्ष में समाविष्ट होते हैं।
इनमें 'लेबर मंथली' (Labour Monthly) नामक पत्रिका के संपादक सचमुच एक महान्
कर्तृत्ववान तथा विद्वान् सज्जन हैं। एक अन्य सज्जन ब्रिटिश संसद् सदस्य हैं।
मेक्सिको में हिंदी शरणार्थी पर्याप्त संख्या में हैं। परंतु वे हिंदी आंदोलन
में कुछ अधिक रुचि नहीं लेते। तथापि उनमें से कई अमेरिकी तथा ब्रिटिश
साम्राज्य के विरोध में चल रहे संघर्ष में मेक्सिकन लोगों को सहयोग देते हैं
और वे इस या उस वर्ग के समाजसत्तावादी (Socialist) हैं।
हिंदी क्रांतिकारियों में से बहुसंख्य लोग मास्को नगरी में रहते हैं। उनमें से
कुछ 'इंडियन कम्युनिस्ट' पक्ष के सदस्य हैं और उनके प्रतिनिधि अंतरराष्ट्रीय
कम्युनिस्ट संस्था में हैं। 'हिंदुस्थान गदर पक्ष' के कुछ सदस्य भी मास्को में
रहते हैं। रूसी क्रांति से 'हिंदुस्थान गदर पक्ष' का झुकाव कम्युनिज्म की ओर
दिखाई देता है। मास्को स्थित हिंदी कम्युनिस्ट पक्ष अंग्रेजी भाषा में दी
मासेस ऑफ इंडिया' नामक एक पत्रिका प्रकाशित करता है। यह एक अच्छा-खासा
समीक्षात्मक वृत्तपत्र है। वह संक्षिप्त अवश्य है परंतु उसकी नीति प्राय:
बौद्धिक तथा समीक्षात्मक है। उसकी कुछ प्रतियाँ कभी-कभी हिंदुस्थान में आती
हैं, परंतु उन्हें जब्त कर लिया गया है। हिंदुस्थान में भी एक कम्युनिस्ट पक्ष
है जो छोटा होने पर भी कार्यशील है। परंतु मेरे विचार से ऐसी संस्थाओं के
आंदोलन विषयक कुछ लिखने का मुझे अधिकार नहीं है।
सन १९१०-११ में हिंदी युवकों का एक दल एशिया के ब्रिटिश सत्ता के विरोध में
एकत्रित एवं संघटित प्रयास करने के लिए मास्को गया था। परंतु उसका कुछ भी
परिणाम नहीं हुआ। इसका कारण केवल हिंदी जनों के आपसी मतभेद हैं। कार्यक्रम कौन
सा रखा जाए, इसका आयोजन कैसे करें, इसकी किसी को कल्पना ही नहीं थी। इस सभा
में विभिन्न सामाजिक मतवादी उपस्थित थे और अंतरराष्ट्रीय कम्यूयनिस्टों का
कार्यक्रम अंगीकार करना उनमें से अनेक ने अस्वीकार किया। वे हिंदी
परिस्थितियों के अनुरूप कार्य करना चाहते थे। एकत्रित कार्यक्रम के लिए उन्हें
अवकाश नहीं मिल रहा था। इस समय इंग्लैंड के विचार से हिंदी क्रांतिकारियों को
रूस का समर्थन है, परंतु यह सत्य नहीं था। लॉर्ड कर्जन के पत्रों का रूसी
सरकार ने 'हम हिंदी क्रांतिकारियों को किसी भी तरह का समर्थन नहीं दे रहे इस
तरह का जो उत्तर दिया, वही सत्य था। आज भी रूस में बहुत से कम्युनिस्ट हैं,
परंतु वे किसी भी कम्युनिस्ट पक्ष में समाविष्ट नहीं हैं।
यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि चीन स्थित हिंदी क्रांतिकारी किस
प्रकार का आंदोलन कर रहे हैं। क्रांति के आरंभ से कॅन्टन हॅको और शंघाई स्थित
एक हिंदी मंडल ने बहुत अच्छा कार्य किया है। कुछ महीनों पूर्व कई हिंदी सैनिक
मजदूरों पर मुकदमे दायर किए गए थे। यह बात हिंदुस्थान से छिपाई गई थी। इसी एक
घटना से स्पष्ट है कि वह मंडल अपना कर्तव्य कितने बढ़िया ढंग से निभा रहा था।
१८ जून के दिन शंघाई से आए एक टेलीग्राम से ज्ञात होता है कि एक हिंदी
क्रांतिकारी ने, जिसका नाम हरबतसिंह था, शंघाई स्थित हिंदी पुलिस प्रमुख की
हत्या की और इसके लिए ब्रिटिश सरकार ने उसपर फौजी मुकदमा दायर करके उसे देहांत
का दंड दिया। एक ऐसी भी वार्ता का पता चल गया है कि कुछ मास पूर्व लगभग सत्तर
हिंदी पलिस जन कैटन सरकार से जा मिले। एकदम ताजा वार्ता यह है कि एक संपूर्ण
पलटन, उसके सैनिक विश्वसनीय न होने के कारण, हिंदुस्थान वापस भेजी गई। उसके
स्थान पर ब्रिटिश तथा अमेरिकी सैनिक भरती किए गए।
ऐसा प्रतीत होता है कि जापान में भी हिंदी लोग जाग्रत् हो गए हैं। तथापि वे
सारे जापानी मत प्रणाली के हैं और स्वयं जापानी लोग ही साम्राज्यवादी हैं।
जापान स्थित हिंदी लोग अगस्त महीने में आयोजित पॅन एशियाटिक परिषद के कार्य
में प्रमुख हिस्सा ले रहे थे। हिंदी शरणार्थियों में से ही एक व्यक्ति उस सभा
के आद्य संस्थापकों में से एक था।
जर्मनी में जैसाकि मैंने इससे पूर्व ही कहा था, उत्तर ध्रुव से लेकर दक्षिण
ध्रुव भिन्न-भिन्न मत-प्रणालियों के हिंदी जन हैं। इनमें कुछ छात्र हैं। पिछली
फरवरी में ब्रुसेल्स में स्थापित उस संघ में वे काम करते हैं जो साम्राज्यवाद
का विरोधी है। यूरोप-इंग्लैंड स्थित छात्र संघ, हिंदुस्थान गदर पक्ष की तरह
हिंदी राष्ट्रीय सभा ने भी अपना प्रतिनिधि इस संघ में भेजा था। विश्व के
कोने-कोने में ऐसे शरणार्थी हिंदी जन हैं जो अपने देश की स्वाधीनता के लिए
यथासंभव प्रयास करते हैं। मैं यह तो नहीं कह सकती कि भविष्य में भी वे कार्य
करेंगे या नहीं। हो सकता है बहुसंख्य लोग अपना पूर्ववर्ती कार्यक्रम ही जारी
रखेंगे। कुछ लोग युद्ध में इंग्लैंड के विरुद्ध रूस की यथासंभव सहायता करेंगे।
हिंदी क्रांतिकारियों के आंदोलन के पीछे इतिहास है और वह इतना पराक्रमी है कि
उसपर प्रत्येक हिंदवासी को गर्व होना चाहिए। अद्यपि उसके अध्ययन की दृष्टि से
कोई भी कदम नहीं उठाया गया तथापि वह आज अस्तित्व में है और तब तक अस्तित्व में
रहेगा जब तक हिंदी लोग विश्व के सामने एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में खड़े
नहीं होंगे।
(लेखन १९२७; पुनः प्रसिद्ध दैनिक मराठा; १२ मई, १९६३)
प्रकरण-२
आगामी महायुद्ध का स्वर्णावसर हाथ से
निकलने न दें
लेखांक-१
मान लीजिए एक राष्ट्र किसी विदेशी बलशाली साम्राज्य की परतंत्रता की बेडियों
में जकड़ा हुआ है, उसे उन बेड़ियों को तोड़कर स्वतंत्र होने के लिए प्राप्त
सभी अवसरों में सबसे अनुकूल अवसर तब मिलता है जब वह विदेशी बलशाली राष्ट्र
अथवा साम्राज्य किसी अन्य शक्ति से घमासान युद्ध में उलझा हुआ होता है। वह
अन्य शक्ति उससे भी अधिक बलशाली अथवा तुल्य बल हो। विदेशी साम्राज्य का जो
संकट वही पराधीन राष्ट्र का अवसर। पिछले महायुद्ध में इंग्लैंड के राजा ने
'England's difficulty is India's Opportunity' इस प्रकार प्रकट रूप में जो
घोषित किया था, उसका अर्थ भी यही था। इसके लिए प्रत्येक पराधीन राष्ट्र को
अपने अभ्युदयार्थ, संघर्ष करने के क्रम में विश्व के अन्य राष्ट्रों की
गतिविधियों की ओर तथा जिस साम्राज्य के जुए के नीचे वह दबा हुआ है उस
साम्राज्य के शत्रुमित्रादिक पड़ोसियों की गतिविधियों पर कड़ी दृष्टि रखनी
पड़ती है। उस राष्ट्र की वैध माँगें आपसी संधि से अथवा उस अकेले के बलबूते पर
यदि उस साम्राज्य द्वारा स्वीकृत नहीं हुई तो विश्व के राष्ट्रों की आपसी
गतिविधियों के क्रम में जब वह विदेशी साम्राज्य किसी महायुद्ध में फँसेगा तब
उन परिस्थितियों का अपनी शक्ति के अनुसार लाभ उठाकर उसे अपनी माँगें स्वीकृत
करवानी पड़ती हैं जब तक वह साम्राज्य उस संकटापन्न अवस्था में है। रोमन
साम्राज्य के पूर्वकालीन प्लेवियन और पाट्राशयन लोगों के उदाहरणों की तरह अथवा
आगे चलकर नागरिक और दास के कलह की तरह कभी-कभी ये अधिकार और ये माँगें परतंत्र
राष्ट्र द्वारा विदेशी साम्राज्य को अपने शत्रु से लड़ते समय उसकी सहायता न कर
अथवा लढाई के दौरान ही आंतरिक कलह उत्पन्न करके मंजूर करवाई जाती हैं। कभी-कभी
इटली, जर्मनी, अमेरिका आदि राष्ट्रों की तरह प्रकट रूप में विद्रोह करते हुए
और उस साम्राज्य के शत्रुओं से मित्रता स्थापित कर वे परतंत्र राष्ट्र
सम्मिलित शानि से रणक्षेत्र के ताम्रपट्ट (पत्र) पर अपनी स्वाधीनता प्रस्थापित
कर सकते हैं।
राजनीतिशास्त्र के इस तत्त्व के अनुरूप प्रत्येक परतंत्र राष्ट्र को अपनी
आंतरिक संघटना इस प्रकार और इतने पहले से ही करनी चाहिए कि उस परकीय साम्राज्य
की अन्य किसी भी शक्तिशाली राज्य के साथ भिड़त होते ही इस या उस पक्ष की
यथासंभव सहायता करने की समर्थता उसमें हो और सहायता भी ऐसी कि जो दोनों पक्षों
को अच्छी लगे। किंबहुना वह इतनी प्रबल हो कि दोनों पक्ष उसे अटल, अपरिहार्य ही
समझें। इस प्रकार अंत:संघटन करते हुए वह परतंत्र राष्ट्र परराष्ट्रीय
गतिविधियों में यथासंभव हिस्सा लेते हुए प्रत्येक राष्ट्र से पराधीन अवस्था
में अपने उत्पीड़न की दुःख भरी गाथा कहता फिरे। वह अपनी स्वतंत्रता की
आकांक्षा तथा प्रतिज्ञा की घोषणा का उद्घोष करता रहे। इस कार्यार्थ जो-जो
विद्या और जो-जो सहायता उन विश्व के शत्रु-मित्रादि राष्ट्रों से प्राप्त करने
योग्य हो वह सब प्राप्त करने का तन-मन लगाकर प्रयास करना चाहिए। यद्यपि
राष्ट्रीय रूप से संधि-विग्रह वह परतंत्र राष्ट्र नहीं कर सकता तथापि बौद्धिक,
शाब्दिक एवं मानसिक संधि-विग्रह कर वह अन्य राष्ट्रों के साथ मिलकर अपना एक
मित्र संघ निर्माण करे। यह सारी तैयारी विदेशी साम्राज्य के किसी-न-किसी महान्
शक्ति से युद्ध छिड़ने के बहुत पहले से हो तभी उसके कुछ-कुछ फलीभूत होने की
संभावना होती है अन्यथा उस परकीय साम्राज्य से अन्य राष्ट्रों का युद्ध छिड़ने
के पश्चात् नेत्र खुलने से रत्ती भर भी महत्त्वपूर्ण लाभ की संभावना नहीं
होती।
पिछले जर्मन महायुद्ध के समय हिंदुस्थान ने यही भारी भूल की। यह महायुद्ध
प्रारंभ होने तक उसका यथासंभव लाभ उठाने का एक भी सर्वव्यापी तथा प्रबल प्रयास
करने की बुद्धि हिंदुस्थान के किसी नेता को नहीं हुई। हिंदुस्थान के बाहरी
क्रांतिकारी पक्ष ने विश्व के राष्ट्रों में हिंदुस्थान की
स्वातंत्र्याकांक्षा की घोषणा करके उस महायुद्ध में अंग्रेजों को रोकने के लिए
एड़ी-चोटी एक की। परंतु हिंदुस्थान के करोड़ों लोगों की तथा उनके नेताओं को भी
इस तरह के अंतरराष्ट्रीय राजनीति का महत्त्व ग्रहण करने की योग्यता न होने के
कारण या यूँ कहिए गए दिशा ही उन्हें अवगत न होने के कारण उन मुट्ठी भर
क्रांतिकारियों द्वारा किए गए आंदोलन को उतनी सफलता नहीं मिली जितनी मिलनी
चाहिए थी।
तथापि उन क्रांतिकारियों ने अपने प्राणों पर खेलकर प्रयास किए और उन मुटुठी भर
लोगों के प्रयासों से भी राष्ट्र-राष्ट्र के झगड़ों में इंग्लैंड कई बार संकट
में फँस गया। कई बार 'छोटे राष्ट्रों की स्वाधीनता के लिए हम लड़े' इस तरह वे
जो डींगें डाँकते थे, उसकी पोल खुल गई और अंत में प्रेसिडेंट विल्सन को भेजी
गई अंतरराष्ट्रीय दृष्टि से महत्त्वपूर्ण माँग में जर्मन मित्र संघ की ओर से
स्वयं जर्मन कैसर ने यह मांग की कि यदि युद्ध विराम करना हो तो जिन शर्तों का
पालन अंग्रेजों को करना है, उनमें यह शर्त भी होनी चाहिए कि हिंदुस्थान की
स्वाधीनता को स्वीकार किया जाए। भई, यह फलित भी कुछ कम नहीं कि हिंदुस्थान की
स्वाधीनता के प्रश्न को उन दिनों अंतरराष्ट्रीय महत्त्व प्राप्त हो गया। उस
घटना का ही एक महत्त्वपूर्ण परिणाम यह हुआ कि चतुर अंग्रेजों ने इस बात पर गौर
किया कि हिंदुस्थान की सहिष्णुता को यहाँ तक खींचना खतरे से खाली नहीं; वह टूट
जाए। उन्होंने सुधारवादी किस्म की एक-दो किस्तें दी और राष्ट्र संघ के
अंतरराष्ट्रीय राष्ट्र मंडल (aleague of nations) में दिखावटी क्यों न हो,
परंतु कुछ महत्त्वपूर्ण मान्यताएँ हिंदी राष्ट्र को दी गईं।
परंतु जब जर्मन महायुद्ध के समान अत्यंत विकट संकट में इंग्लैंड फँस गया था,
तब जिन सामदामादि उपायों के कारण हिंदुस्थान की स्वाधीनता की आकांक्षा पूरी
करने का अवसर हमारे हाथों से फिसल गया, वैसा भविष्य में कभी न हो, इसलिए अभी
से सतर्क रहना ही यदि हम सीख गए तो भी जर्मन महायुद्ध के समय अपनी राजनीतिक
शून्यतावश हो चुकी हानि की किंचित् मात्रा में ही क्यों न हो, क्षतिपूर्ति
होगी। इस प्रकार का महायुद्ध स्वतंत्रता प्राप्त करने का स्वर्णावसर होता है।
इस तरह का अवसर शताब्दी में किसी इक्के-दुक्के प्रसंगों में ही परतंत्र
राष्ट्र के लिए उपलब्ध होता है। एक बार भाग्योदय का अवसर खो दिया तो पुन: दलित
राष्ट्र को दास्य जीवन में हाय-हाय करते हुए जीना पड़ता है। इस प्रकार का
स्वर्णावसर जर्मन महायुद्ध में हमारे हाथ चला गया, परंतु राजनीतिक वातावरण में
बह रही अनुकूल-प्रतिकूल हवा की गति से इस तरह के लक्षण दिखाई दे रहे हैं कि इस
महायुद्ध समान ही भयंकर महायुद्ध पुनः विश्व भर में प्रारंभ होने की संभावना
है। अत: कम-से-कम उस आगामी महायुद्ध में तो हमें अभी से इस बात की चिंता करनी
चाहिए कि जर्मन महायुद्ध के समय हिंदुस्थान की परिस्थितियों से कितनी मात्रा
में उसका संघर्ष हो सकता है और उस आगामी महायुद्ध में स्वतंत्रता की आकांक्षा
परिपूर्ण करने के लिए किए जानेवाले हमारे प्रयत्नों के लिए परिस्थितियाँ कितनी
अनुकूल अथवा प्रतिकूल हैं। इसके साथ हमें यह भी निश्चित करना होगा कि अपने
बलाबल का विचार करते हुए उस महायुद्ध में अपनी प्रिय मातृभूमि के उद्धारार्थ
हम कौन सी राष्ट्रीय नीति अपना सकते हैं।
(श्रद्धानंद, १६ फरवरी, १९२८)
लेखांक-२
पिछले लेखांक में इस विधान का विशदीकरण किया था कि परकीय साम्राज्य पर जब किसी
महायुद्ध के संकट के बादल मंडराने लगते हैं तब साम्राज्य के परतंत्र देशों को
अपनी स्वाधीनता प्राप्त करने के लिए सभी अवसरों में अत्यंत परिणामकारी एवं
सुलभतम स्वर्णावसर प्राप्त होता है। अब यह तो सर्वश्रुत है कि ऐसा नहीं कि सभी
महायुद्ध परतंत्र देश को समान रूप से सहायक होते हैं। इस दृष्टि से देखा जाए तो
विगत महायुद्ध में हिंदुस्थान को स्वराज्य प्राप्ति का अवसर प्राप्त हो गया था
और हिंदस्थान के दर्भाग्य से मर्खतावश उसने अपने हाथ से उसे गँवाया। इस अवसर
से आगामी रूसी युद्ध में (यदि हुआ तो) उसे पुनः प्राप्त होनेवाला महान् अवसर
कितनी मात्रा में अधिक अनुकूल अथवा प्रतिकूल होगा और इस प्रसंग का स्मरण रखते
हुए पिछले प्रसंग में की हुई भूलों को हम किस प्रकार सुधार सकते हैं, फिर
अपनाई हुई नीतियों को किस प्रकार और कहाँ तक बदलना होगा, सर्वप्रथम इन बातों की
स्पष्ट रूपेण विवेचना करना आवश्यक है।
आगामी महायुद्ध जो अब गला फाड़कर संपूर्ण यूरोप और विशेषतः संपूर्ण एशिया के
लिए हौवा बनकर खड़ा है-वह निन्यानबे प्रतिशत इंग्लैंड और रूस दो राष्ट्रों में
होगा, इसके लिए ऐसा कतई नहीं कि किसी भविष्यवादी का ही आधार लिया जाए। सत्य है
कि राजनीति के आकाश में बवंडर, भौतिक तूफानों की तरह कभी-कभी अनिश्चित तथा
अप्रत्याशित रूप में उभरते हैं, बिगड़ते हैं तथापि उन षड्यंत्रकारी, कुचक्री
लोगों को जिनमें उन भौतिक बवंडरों की तरह सूक्ष्मतापूर्वक अवलोकन करने की
बुद्धिमानी होती है, उन्हें अचूक ताड़ सकते हैं, यह भी उतना ही सत्य है।
रूसी महायुद्ध होगा ही, यह कोई शपथ लेकर नहीं बता सकता तथापि वातावरण में बह
रही हवा से भविष्य इतिहासज्ञ मनुष्य निश्चयपूर्वक बता सकेगा कि यह युद्ध निकट
भविष्य में निन्यानबे प्रतिशत होगा। इंग्लैंड, रूस, अमेरिका आदि राष्ट्र इस
युद्ध को गृहीत रखकर ही नहीं, इसे प्रत्यक्ष रूप देने के लिए ही अपने-अपने
राष्ट्रकारण की नीतियाँ तथा सेना सुसज्ज कर रहे हैं। ऐसी स्थितियों में
हिंदुस्थान की बुद्धिमानी इसी में है कि वह यह समझकर ही कि यह युद्ध निश्चित
रूप में अटल है-अपना राष्ट्रकारण तय करे। अच्छा, यदि यह महायुद्ध नहीं हुआ तो
अन्य कौन सा युद्ध होगा? विशेषत: जब तक विश्व में बलात्कारी तथा बलिष्ठ
साम्राज्य अस्तित्व में है तब तक तो ये (तानाशाह) महायुद्ध अपरिहार्य हैं।
आजकल ही इंग्लैंड के सेनापति ने गुरखों के स्मारक का अवसर साधकर यह स्पष्ट रूप
में घोषित किया कि महायुद्ध अटल है-इसे हमने 'श्रद्धानंद' में उस भाषण के
परिच्छेद में दिया था-पाठकों को उसका स्मरण होगा ही। उस समय यद्यपि रूसी
महायुद्ध होगा ही इस प्रकट वास्तविकता ने कुछ अप्रत्याशित कारणों से पलटी खाई
तथापि महायुद्धों के विश्व कलह में हिंदुस्थान को भी हिस्सा लेना कितना आवश्यक
है, क्यों आवश्यक है और इस बहती गंगा में अपने हाथ धो लेने के कौन-कौन से मार्ग
होते हैं, कम-से-कम इसकी साधारण चर्चा भी जनता में आरंभ हो तो इस लेख का
उद्देश्य सफल हो जाएगा। एतदर्थ वह साधारण चर्चा करने के लिए निमित्त मात्र को
आज प्रायः प्रारंभ ही होनेवाले इस आगामी एंग्लो-रूसी युद्ध की ही बहुशः
अवश्यंभावी घटना गृहीत कर रखने में कोई आपत्ति नहीं। एंग्लो-रूसी युद्ध
संपूर्ण विश्व के लिए अवश्यंभावी होते हुए और तदनुरोध से यहाँ-वहाँ प्रचंड फौज
तथा सामरिक गतिविधियों के चलते हिंदुस्थान के कई सुस्त, निद्रालु नेता उबासी
लेते-लेते पूछ रहे हैं, "भई, आप दावे के साथ कैसे कह सकते हैं कि यह होगा ही
होगा?" बस इसी एक कारणवश भी यह चर्चा अभी से ही नि:संदिग्ध रूप में और अन्य सभी
छिटपुट प्रश्नों को परे हटाकर सौ गुना गंभीरता से विचार करना आवश्यक है। यदि
रूसी युद्ध नहीं हुआ तो इस तरह का प्रश्न पूछनेवाले आलसीराम के लिए 'यदि हुआ
तो बस इतना ही उत्तर पर्याप्त है। यह महायुद्ध होकर ही रहेगा इस तरह विश्व का
विश्वास होने के कारण और उसे संपन्न करने के लिए इंग्लैंड आदि राष्ट्रों के
अपर्याप्त प्रयासों के चलते हमें इतनी तैयारी करते हुए उस स्वर्णावसर का लाभ
उठाने के लिए इतना तैयार ही रहना चाहिए कि यदि वह कल ही आरंभ हो जाए तो भी हम
उस स्वर्णावसर का तत्काल लाभ उठा सकें।
जर्मन महायुद्ध तथा आगामी रूसी युद्ध की तुलना में प्रथम हमें इसी बात पर गौर
करना होगा, क्योंकि जर्मन महायुद्ध का पूरा-पूरा लाभ जो हिंदुस्थान नहीं ले
सका उसका अत्यंत प्रबल कारण यही हुआ कि उस महायुद्ध की संभवनीयता का हमारे
हिंदस्थान को उसके आरंभ होने तक इतना सा भी ज्ञान नहीं था। हिंदुस्थान के कई
प्रमुख पत्र संपादक तथा नेताओं ने प्रामाणिकता के साथ कहा है कि तीन मास पूर्व
यदि किसी ने कहा होता कि यह युद्ध होगा तो हम इसे चंडूखाने की गप ही समझ
बैठते।
तत्कालीन नेताओं में स्व. गोखले के नरम पक्ष के कार्यक्रम में और बहशः मन में
भी महायुद्धादि गतिविधियों का अंतर्भाव नहीं था। उन्हें यह मार्ग ही इतना
भयंकर तथा निंदनीय प्रतीत होता कि वे समझते कि कोई भी शिष्ट हिंदी नागरिक उसका
मन में भी उच्चारण न करे। इस तरह की शिक्षा उन्हें घुट्टी में ही पिलाई गई थी।
आजकल के ही उदयोन्मख गांधी पक्ष की तब तक तो धारणा थी कि ब्रिटिश साम्राज्य एक
ऐसी संस्था है जो विश्व के कल्याणार्थ अवतीर्ण हुई है, उसकी विनाश की कामना
करना भी महापाप है। अतः उस समय भी वे समझते थे कि बोअर युद्ध में और जुलू
युद्ध में जिस तरह अंग्रेज साम्राज्य की सहायता करना हिंदी नागरिक के नाते
स्वकर्तव्य था उसी तरह इस समय भी है। जिस तरह असंतप पत्नी का घर में पति से
मनमुटाव होता है उसी तरह हिंदुस्थान के भीतर-ही-भीतर उनकी यहाँ के अधिकारियों
के साथ 'तू-तू, मैं-मैं होती। परंतु कुल मिलाकर वे ब्रिटिश साम्राज्य के सुहाग
से कतई उकताए नहीं थे और परराष्ट्रीय राजनीति गृहस्वामी को सौंपना छोड़कर
स्वयं उसमें मुँह मारना किसी कुलीन रमणी की तरह उन्हें अच्छा नहीं लगता।
ब्रिटिश साम्राज्य के वे राजनिष्ठ नागरिक थे। इतने स्वामीनिष्ठ कि ब्रिटिश
साम्राज्य और जर्मनी इन दोनों में युद्ध छिड़ने के पश्चात् भी उसमें
हिंदुस्थान के अधिकार बढ़ाएँगे तभी हम सहायता करेंगे इस प्रकार हिंदी
देशप्रेमियों द्वारा माँग करते ही उन राजनिष्ठ जनों को स्वदेश से भी ब्रिटिश
साम्राज्य की निष्ठा ही अधिक पुण्यश्लोक और प्रिय प्रतीत हुई। अंग्रेजों के इस
युद्ध में बिना शर्त सहायता करो, बिना शर्त सेना दो, बिना शर्त उनके युद्ध
लड़ो-यही स्वराज्य प्राप्ति का सीधा मार्ग है-A Straight way to Swarajya. इस
प्रकार गांधीजी के तत्कालीन भाषणांतर्गत वाक्य कइयों को स्मरण होंगे। तीसरा
महत्त्वपूर्ण पक्ष लोकमान्य तिलक का है। परंतु वे युद्ध से पाँच-छह वर्ष पूर्व
ही दूर कारावास में बंदी हो गए थे। उनके पीछे उस पक्ष के साथियों का सरकारी
बुलडोजर के नीचे कचूमर हो गया था और जो थोड़े से डटे रहे थे उन्हें भी पहले से
परराष्ट्रीय राजनीति का हिंदुस्थान के स्वराज्य की दृष्टि से अध्ययन घुट्टी
में न मिलने के कारण जर्मन महायुद्ध होने से पहले ही उन्हें उसकी कुछ अधिक भनक
नहीं लगी थी। फिर उन प्रचंड गतिविधियों से हिंदुस्थान का संबंध जोड़ने की
पूर्वसिद्धता की बात ही दूर रही। कुछेक लोग यह समझते थे परंतु उनमें साहस नहीं
था। प्रायः बहुसंख्य लोगों के लिए यह अनाकलनीय ही था।
सत्तावन का राष्ट्रीय क्रांति युद्ध
हिंदुस्थान के भाग्य के निर्णयार्थ राष्ट्रीय शक्ति का जिस तरह लाभ उठाना था,
उसी तरह परराष्ट्रीय शक्ति का भी लाभ उठाना होगा इस नीति की परंपरा ही
हिंदुस्थान में मृत हो चुकी थी। सत्तावन की राष्ट्रीय क्रांति के समय यूरोप
में रूस से तथा तुर्कस्तान से साँठ-गाँठ बाँधने का जो टूटा-फूटा प्रयास
श्रीमान नानासाहेब की ओर से उनके दूत अजीमुल्ला तथा रंगो बापूजी ने किया वही इस
परंपरा का अंतिम प्रयास था। उस समय उस क्रांति युद्ध के नेताओं की यही स्पष्ट
योजना थी कि अंग्रेज-रूस युद्ध छिड़ने के पश्चात् चढ़ाई करें। यह योजना युद्ध
की सेना में ही नहीं अपितु साधारण ग्रामीण जनता तक मौखिक रूप से किस तरह
पहुँच गई यह 'थॉमसन' जैसे अंग्रेज इतिहासकार ने ग्रंथित करके रखा है। रूस
हमारे नानासाहेब की सहायतार्थ भूमार्ग से आनेवाला है, कम-से-कम अंग्रेज सेना को
उधर रोकनेवाला है, इस तरह गाँव-गाँव में भी लोग उस क्रांति युद्ध में व्यक्त
कर रहे थे। यूरोप में यह युद्ध इतना विख्यात हो गया था कि विशेषत सेनापति
तात्या टोपे का ताजा वृत्त सुनने के लिए पेरिस नगरी के लोग उत्सुकता से दैनिक
पढ़ते। गैरीबॉल्डी से संबंधित इस प्रकार जनश्रुति है कि जिस समय हिंदुस्थान के
राष्ट्रीय क्रांति युद्ध के दिनोदिन अधिकाधिक चरम सीमा के वृत्त मिलने
लगे-हिंदुस्थान का यह विद्रोह सैनिकों का कोई साधारण झगड़ा (A mutiny) नहीं
है, अपितु वह एक राष्ट्रीय क्रांति युद्ध (Anational revolt) है, इस प्रकार
उसकी निश्चिति हो गई। उस समय वह भी इटली की स्वाधीनता के लिए ऐसे ही खड़े किए
गए और असफल बने एक क्रांति युद्ध में उलझ गए थे। कई पीढ़ियों से दास्य प्रवणता
में सड़ रही हमारी परप्रत्ययेन बुद्धि को अंग्रेजी पुस्तकांतर्गत सिपाही
विद्रोह Sepoy mutiny आज भी गुंडागर्दी ही प्रतीत होता है तथापि 'गुणिनं
वेत्ति गुणज्ञो' जैसी कहावत के अनुसार गैरीबॉल्डी ने तुरंत पहचाना कि सत्तावन
का वह क्रांति युद्ध राष्ट्रीय क्रांति युद्ध ही था और इटालियन युद्ध से फुरसत
मिलते ही हिंदी क्रांतिकारियों से मिलने का उन्होंने निश्चय किया। आगे चलकर वह
प्रयास असफल रहा। गैरीबॉल्डी उसमें से मुक्त हो गए, परंतु उसी समय हिंदुस्थान
का भी वह क्रांति यत्न असफल होने के कारण सेनापति गैरीबॉल्डी का इधर आने का
प्रश्न ही समाप्त हो गया। इसके पश्चात् गैरीबॉल्डी ने दक्षिण अमेरिका के युद्ध
में भाग लिया था-यह सर्वश्रुत ही है।
परराष्ट्रीय राजनीति के साथ संबंध जोड़ने की राजनीति की परंपरा सत्तावन के
पश्चात् मृत हो गई। रामसिंह कूका, वासुदेव बलवंत, चापेकर बंधु आदि परम साहसी
देशभक्तों ने आगे चलकर जो-जो क्रांतिकारी आंदोलन किए वे सारे सत्तावन के
क्रांति युद्ध का व्यापक स्वरूप लेने से पहले ही दबा दिए गए। परराष्ट्रीय
राजनीति से संबंध जोड़ने की व्यापक रूपरेखा प्राप्त होने की सीढ़ी तक ये
आंदोलन पहुँच नहीं सके। उनकी शक्ति बुद्धि के अनुसार अपने कर्तव्य का बोध करते
हुए वे उनका पालन करके चले गए और इधर राष्ट्रीय सभा की राजनीति एक ऐसी निराली
नीति पर उभारी गई जो उनके नाम का उच्चारण करने से ही थर्राती थी। अतः जर्मन
महायुद्धों तक परराष्ट्रीय राजनीति में सामदामादि उपायों से प्रत्यक्ष हिस्सा
लेने का प्रयास भी किसी ने नहीं किया। इतना ही नहीं अपितु अत्यंत लज्जास्पद
बात यह है कि इन प्रयासों की आवश्यकता ही बहुसंख्य जनों को प्रतीत नहीं हुई।
कइयों को तो यह विचार भी असभ्य तथा निंद्य लगता। ये अनुभवजन्य बातें ही हम लिख
रहे हैं। तत्कालीन अनेक नेताओं के उद्गार हमले सुने हैं। हमने उनसे इस तरह की
चर्चाएँ भी की है।
अभिनव भारत
अब शेष रहा क्रांतिकारी पक्ष। 'अभिनव भारत' की परदेशस्थ क्रांतिकारी
गतिविधियों ने ऐसी खलबली मचाई कि सत्तावन के क्रांति युद्ध के पश्चात्
हिंदुस्थानी राजनीति की गूंज यूरोपीय राष्ट्रों के प्रबल हो हल्ले में भी
स्पष्ट रूप से प्रतिध्वनित हो। हिंदुस्थान की राजनीति की ओर यूरोप तथा अन्य
महाद्वीपांतर्गत परराष्ट्रों का ध्यान आकर्षित कराने का उपक्रम प्रथमत: अभिनव
भारत ने ही किया। अपने जिस भयंकर साहस से उन्होंने इंग्लैंड सरकार की नींद
उड़ाई थी; उनके अनेक कर्तृत्ववान नेताओं द्वारा फ्रांस, जर्मनी, स्विट्जरलैंड,
अमेरिका आदि देशों में हिंदुस्थान की स्वतंत्रता की आकांक्षा की प्रबल स्वरों
में की गई घोषणा; ऑयरलैंड, मिस्र, चीन आदि तत्कालीन परतंत्र राष्ट्रों के
क्रांतिकारियों से उनके द्वारा स्थापित संबंध और उस संस्था के अनेक देशवीरों
के तेजस्वी पराक्रमवश हिंदुस्थान की राजनीति जीवंत होने का यूरोप को हो रहा
निश्चित विश्वास-इन सारी घटनाओं से हिंदुस्थानी राजनीति जागतिक राजनीति में एक
महत्त्वपूर्ण घटक बन गई। स्वयं रौलट रिपोर्ट से भी इसकी प्रतीति हो सकती है।
अय्यर, आचार्य श्यामजी कृष्णवर्मा, मैडम कामा, हरदयाल, चट्टोपाध्याय आदि और
अभिनव भारत के ऐसे अनेक देशभक्त व देशवीर, जिनके नामों का उल्लेख किया जा सकता
है और जिनका नाम लिया जाना अभी असंभव है-यूरोप तथा अमेरिका की प्रत्येक
राजधानी में घुस गए और अपनी असाधारण बुद्धि, शक्ति तथा स्वार्थ त्याग की
सीमा पार करते हुए परराष्ट्रीय राजनीति का हिंदुस्थान की स्वतंत्रता के कार्य
में यथासंभव उपयोग करने का प्रयास अव्याहत रूप में चलाते रहे। आगे चलकर
हिंदुस्थान के अन्य प्रांतीय, विशेषतः बंगाल, पंजाब के क्रांतिकारी भी परदेश
में इकट्ठा होने से उन सभी ने स्याम, चीन से लेकर न्यूयॉर्क तक तथा पेरिस से
पर्शिया तक जर्मन महायुद्ध के समय ऐसा हड़कंप मचाया कि हिंदी इतिहास में वह
चिरंतन रहेगा।
इस क्रांतिकारी पक्ष को इस बात का पूरा अहसास था कि हिंदुस्थान की राजनीति में
परराष्ट्रीय गतिविधियों का समर्थन प्राप्त करना कितना आवश्यक है। यह प्रश्न
अलग है कि उनके मार्ग श्रेयस्कर थे या नहीं। यहाँ बस इतना ही संक्षेप में
देखना है कि जर्मन महायुद्ध के समय क्या हुआ और क्या नहीं हुआ। केवल इस
जानकारी से ही यह बोध नहीं हो सकता कि आज उन्हीं मार्गों का अवलंब करना उचित
है या अनुचित। इसके लिए उन्हीं परिस्थितियों के भेदाभेद की चर्चा करनी होगी।
परंतु चाहे किसी भी मार्ग का सहारा लें, जब जर्मन महायुद्ध जैसे किसी प्रचंड
महायद्ध की दुर्दुभी विश्व भर में गूंज उठती है तब उस जागतिक युद्ध में
हिंदुस्तान अपनी परिस्थितियों में यथाशक्ति किसी भी प्रकार से सम्मिलित हो बस
इतना ही प्रतिपादन करना है और यह विधान करने के लिए जर्मन युद्ध पूर्व
हिन्दुस्तानी राजनीति के परराष्ट्रीय संबंध का उल्लेख यहाँ करना आवश्यक है।
श्रीमती कामा
जर्मन राष्ट्र में हिंदुस्थान के स्वतंत्रता संपादन के दृढ़ निश्चय की प्रथम
घोषणा श्रीमती कामा जैसी एक तेजस्वी पारसी महिला ने की-यह बात विचारणीय है। सन
१९०८-९ के समय श्रीमती कामा ने अभिनव भारत का तिरंगा (स्वतंत्रता ध्वज) अपने
हाथों में थामे जर्मनी में पग रखा और वहाँ के सोशलिस्टों के एक सम्मेलन में
भाषण देने का सम्मानपूर्वक आया हुया निमंत्रण उन्होंने स्वीकार किया। मंच पर
उस छोटे से ध्वज को फहराते हुए अत्यंत आवेशपूर्ण भाषण में उन्होंने जर्मन जनता
को बताया कि हम हिंदी लोगों ने अपनी स्वाधीनता प्राप्त करने का दृढ़ निश्चय
किया है। देखिए, यह हिंदी स्वतंत्रता का ध्वज। इस ध्वज की शक्ति पर विश्वास
रखो। क्योंकि यह नन्हा सा ध्वज पहले से ही कई शहीदों के लहू से रँगा है। हमारे
प्रतिस्पर्धी वही हैं जो आपके हैं। हमें आपके राष्ट्र की सहानुभूति तथा सहायता
दे दीजिए। श्रीमती कामा के इस वाक्य के साथ ही जर्मन सोशलिस्टों के उस सम्मेलन
का मंडप तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा। वृत्तपत्रों में उस एक इंडियन
राजकुमारी का' (हिंदी राजकुमारी का) कुतूहल से भरा उल्लेख होने लगा।
हिंदुस्थान की स्वतंत्रता का ध्वज प्रकट रूप में फहराने का पहला सम्मान इस
पारसी महिला को मिलता है। वह महिला थी और पारसी भी। हिंदी राष्ट्रीयत्व की
संभवनीयता का इससे अधिक प्रभावशाली प्रमाण भला अन्य कौन सा हो सकता है?
इस प्रसंग से पहले से छिटपुट तथा बाद में विस्तृत रूप से जर्मनी में
हिंदुस्थान से संबंधित जागृति अभिनव भारत के नेताओं के प्रयासों से सतत होती
गई। वहाँ के वृत्तपत्रों को हिंदुस्थान विषयक लेख दिए जाते। अभिनव भारत के
प्रमुख वृत्तपत्र 'तलवार' के सन् १९०८ के प्रथम अंक में ही भावी महायुद्ध
जर्मनी से ही प्रारंभ होने संबंधी चर्चा एक स्वतंत्र निबंध में की गई थी। उसी
समय हद से बढ़ा हुआ कील के नहर (कील कैनल) कांड का विवेचन किया गया था। जर्मन
महायुद्ध शुरू होने से चार-पाँच वर्ष पूर्व अभिनव भारत के नेताओं ने अपने
परराष्ट्रीय लेखों में उस महायुद्ध के समय ही हिंदुस्थान अपने भाग्य निर्णय का
अवसर प्राप्त करे इसके लिए अपनी शक्ति एवं युक्ति की चरम सीमा तक प्रयास किए
थे।
आगे चलकर श्री हरदयाल तथा एक-दो अन्य नेताओं ने पेरिस से अमेरिका जाते हुए जब
'गदर पक्ष' स्थापित किया तब उस पक्ष के 'गदर' नामक वृत्तपत्र में, जो चार
भाषाओं में प्रकाशित होता था, सन् १९१३ से आगामी जर्मन महायुद्ध और उस समय
हिंदुस्थान क्या कर सकता है इस विषय पर इतनी चर्चा करवाई थी कि ब्रिटिश सरकार
द्वारा जारी किए गए 'रौलट रिपोर्ट' में उसके विषय में प्रमुख उल्लेख करते हुए
कहा है कि युद्ध से छह महीने पूर्व हिंदी क्रांतिकारियों को इसका पता था
अर्थात् युद्ध करने की जर्मनी ने पहले से ही ठान ली होगी और इस 'गदर' पत्र के
संस्थापक भी जर्मन लोग ही होंगे। कहने की आवश्यकता नहीं कि ब्रिटिशों ने इस
अनुमान का ऐसा अर्थ निकाला जैसे उलटा चोर कोतवाल को ही डॉटे। क्योंकि हिंदी
क्रांतिकारियों को जर्मन महायुद्ध होने की संभावना यदि दिखाई दी तो वह जर्मन
लोगों के राजनीतिक अध्ययन से भी अधिक ब्रिटिश राजनीति की तत्कालीन गुप्त तथा
प्रकट गतिविधियों से ही अधिक उत्कटतापूर्वक व्यक्त हुई थी। जर्मनी को नाकाम
करने का ब्रिटिशों का क्रुद्ध एवं मत्सरी निश्चय उन्हीं के पत्रों, राजनीतिक
दाँव-पेंचों एवं सामरिक सज्जता से स्पष्ट होता था। महायुद्ध प्रारंभ होने के
पश्चात् जर्मनी तथा गदर पक्ष के प्रत्यक्ष सरकारी संबंध जुड़ गए। उससे पहले वह
पत्र और हिंदी क्रांतिकारियों के अन्य आंदोलन उनके अपने ही बलबूते पर चल रहे
थे।
सन् १९१४ के बंगाली,पंजाबी आदि
हिंदी क्रांतिकारी
इसी अवसर पर बंगाल तथा पंजाब से आए हिंदी क्रांतिकारियों के प्रयासों से
हिंदुस्थान स्थित क्रांतिकारी संस्थाओं द्वारा जर्मन महायुद्ध के समय ही
हिंदुस्थान में सशस्त्र क्रांति की नीति अपनाना निश्चित हो गया। इसके परिणाम
कितने दूर-दूर तक पहुँचे, वे प्रयास कहाँ तक सफल अथवा निष्फल हुए, सशस्त्र
क्रांति का मार्ग उन्हें अँच गया, इसलिए वही उचित या अनुचित ये प्रश्न अत्यंत
महत्त्वपूर्ण होते हुए भी अप्रस्तुत होने के कारण अभी उन्हें एक ओर रखते हुए
यहाँ बस इतना ही कहना पर्याप्त है कि जर्मन महायुद्ध के समय हिंदुस्थान को
अपना स्वराज्य प्राप्त करने के महान् अवसर पर केवल एक क्रांतिकारी पक्ष ने ही
ध्यान दिया था।
गुबरैली कुलबुलाहट
परंतु हिंदुस्थान की तीस कोटि जनता के सामने वह ऐसे थे जैसे दरिया में खसखस।
वे केवल मुट्ठी भर ही तो थे। उनमें से प्राय: सभी युवकों की आयु बीस-पच्चीस की
साधारण अवस्था ही थी। उनमें से बहुसंख्य संत्रस्त एवं पीडित देशभक्त थे। बलाबल
का विचार उनके लिए असंभव सा हो गया था, क्योंकि सम्पूर्ण हिंदुस्तान मृतप्राय
या अचेतन अवस्था में पड़ा हुआ था। इस हिंदुस्थान के मस्तिष्क में किसी भी
महान् साहस का विचार ही नहीं आ रहा था। यदि किसी ने ऐसा सुझाव दिया तो उसकी
संपूर्ण देह में कँपकँपी छूटती। गुबरैले कीडे-मकोडों की तरह हिंदुस्थान के ये
कोटि-कोटि लोग गोबर में ही कुलबुलाते रहते। परंतु वनराज शार्दुल जैसी छलाँग
मारने की गूढ शक्ति भी उनमें सुप्त रूप से है, उन्हें उसका अहसास ही नहीं था।
हिंदुस्थान की यह सुप्त शक्ति अंग्रेज जानते थे। अतः उन्हीं ढीठ, बेमुरब्बत
लोगों को सेना में भरती करते हुए उन्हीं के हाथों अपनी लडाइयाँ अंग्रेज लड़
सके। अंग्रेजों के लिए वे जर्मनों पर शेर बनकर टूट पड़े। तुर्की सेना से कराल
काल बनकर टकराए। अंग्रेजों के लिए लाखों की संख्या में मर गए। परंतु
हिंदुस्थान के लिए मर मिटने का नाम लेते ही थरथर काँपने लगे। हिंदुस्थान के
लिए लड़ते समय गोबर में कुलबुलाने के अतिरिक्त उनके हाथों से कुछ भी नहीं हुआ।
उस गुबरैली कुलबुलाहट के अतिरिक्त कुछ करना चाहिए यह विचार भी वे ग्रहण नहीं
कर सके। इसके विपरीत क्रांतिकारियों के मुट्ठी भर वीर दल ने, जो प्रयास उन्हें
उचित लगा वह, सशस्त्र क्रांति का प्रयास किया। वह भी वहाँ प्रत्यक्ष स्वराज्य
प्राप्ति के प्रश्न तक निष्फल ही सिद्ध हुआ और इधर इन कोटि-कोटि लोगों की
'गुबरैली कुलबुलाहट' पर, जिसको वे 'स्वराज्य का सीधा मार्ग' कहते हुए गौरव कर
रहे थे, डायर तथा ओडवायर के फल आ गए।
सारांशतः, जर्मन महायुद्ध के समय हिंदुस्थान थोड़ा सा भी महत्त्वपूर्ण लाभ
नहीं उठा सका। लिथुआनिया, पोलैंड, आर्मेनिया, सर्विया ने अनेक दाँवपेंच लड़ाकर
अपनी-अपनी स्वतंत्रता और सत्ता जिस महायुद्ध के महान् अवसर में प्राप्त की और
बढ़ाई, उस महान् अवसर में यह विस्तीर्ण हिंदुस्थान शुष्क, दासानुदास तथा
बेमुरब्बत ही रहा। इस अत्यंत उद्वेगजनक घटना का पहला प्रमुख कारण यह है कि
परराष्ट्रों की जागतिक काररवाइयों का अपने भाग्योदय के कार्य में लाभ उठाया जा
सकता है, इसका ज्ञान ही नहीं था। 'परकीय साम्राज्य का संकट ही परतंत्र देशों से
समझौता है-इस राजनीति का हिंदुस्थान को पूरी तरह विस्मरण हो गया था। हिंदस्थान
के लिए परराष्ट्रीय राजनीति कुछ भी शेष नहीं रह गई थी। परकीय साम्राज्य की ही
नहीं अपितु परतंत्र देश की परराष्ट्रीय राजनीति होती ही नहीं। भई, परराष्ट्रों
से हमें क्या लेना-देना? इस प्रकार कूपमंडूकी टर्र-टर्र को ही राजनीति का
सारसर्वस्व माना जाता था। जर्मन महायुद्ध का आरंभ होने से पहले उसकी संभवनीयता
की भनक भी इधर नहीं लगी थी। अच्छा, यह वार्ता मिलने पर भी उसका अर्थ समझने की
योग्यता नहीं थी। इसीलिए ही उस महायुद्ध के चार वर्षों तक चलते भी उसका लाभ
उठाने का साहस, संघटन और जागरूकता उत्पन्न नहीं हो सकी।
स्वयं जर्मनी का हाथ हिंदुस्थान तक पहुँचना दुःसाध्य था। जब जर्मन महायुद्ध
हुआ उस समय हिंदुस्थान की राजनीति की यह अंध दुरवस्था तथा भीरु असज्जता जिस
तरह एक प्रमुख कारण था उसी तरह उस महायुद्ध का महत्त्वपूर्ण लाभ उठाने की
हमारी अक्षमता का दूसरा कारण जर्मन और इंग्लैंड दोनों की शक्ति का अंतर तथा
जर्मनी का मुख्यतः एक भौमिक शक्ति होना था। उसकी सागरी शक्ति उतनी मजबूत नहीं
हुई थी जितनी इंग्लैंड की। हिंदुस्थान जमीनी तौर पर जर्मनी का निकटवर्ती न
होने के कारण जर्मनी का हाथ हिंदुस्थान तक भूमार्ग द्वारा पहुँचना असंभव था।
अतः जर्मनी से ऑस्ट्रिया, बुल्गेरिया तथा तुर्कस्तान-इन तीन देशों को एक ही
श्रृंखला में उलझाने के लिए एड़ी-चोटी एक की। वह बहुतांश में सफल भी हो गया।
परंतु इस श्रृंखला को जोड़कर उस सुरंग की पंक्ति की बत्ती हिंदुस्थान के तट पर
पहुँचाने के लिए उस शृंखला को ईरान अथवा अफगानिस्तान की कड़ियों से जुड़ना
आवश्यक था। इसके लिए ही राजा महेंद्र प्रताप आदि हिंदी क्रांतिकारियों के हाथ
अपनी राजमुद्रा के पत्र देकर स्वयं कैसर ने अमीर के पास भिजवाए थे और ईरान में
भी जर्मन सेनापति तुर्की सेना के साथ घुसने लगे। परंतु इधर अमीर अंग्रेजों के
विरोध में लड़ने का साहस जुटा नहीं पा रहा था और उधर जिन तुर्कों के आधार पर
हिंदुस्थान के तट को छूने का साहस जर्मनी ने जुटाया था उन तुर्कों के पाँव ही
रणभूमि से उखड़ने लगे थे। तुर्कों द्वारा अंग्रेजों को हिंदुस्थान के तट पर शह
देने की अपेक्षा जर्मनी को ही उस पंगु, विकलांग तुर्कों की सुरक्षा के लिए
अस्त्र-शस्त्र तथा सेना भेजते-भेजते नाकों दम आ गया। अत: बगदाद मार्ग से अथवा
काबुल मार्ग से बर्लिन का बलिष्ठ हाथ हिंदुस्थान के तट तक पहुँचना असंभव हो
गया। आगे चलकर रूस में महान् राज्यक्रांति हुई और जर्मनी ने उसे पादाक्रांत
किया। तब रूसी क्रांति के संचालकों से यदि जर्मनी का मनपूर्वक लड़ाकू समझौता
होता तो साइबेरिया से रूसी और जर्मन सेना हिंदुस्थान तक पहुँच सकती थी। परंतु
वैसा नहीं हुआ, तब तक जर्मनी और रूस दोनों भी थककर चूर हो गए थे। फ्रांस में ही
जूझना उनके लिए कठिन हो गया था।
इस प्रकार जर्मनी का हिंदुस्थान के तट तक भूमार्ग से हाथ पहुँचना असंभव था।
जर्मनी मुख्यतः भौमिक शक्ति-Aland power थी। परंतु भूमार्ग के दुर्लध्यत्व के
कारण उसकी शक्ति का हिंदुस्थान को लाभ मिलना कठिन था। अब शेष रहा सागरी मार्ग।
परंतु जर्मनी की सागरी शक्ति इंग्लैंड की तुलना में कम थी। आंग्ल भूमि सागर की
अनभिषिक्त स्वामिनी होने पर भी जर्मनी ने हिंदी क्रांतिकारियों से साँठ-गाँठ
करके उधर युद्ध नौका भेजने का प्रयास किया। अस्त्र-शस्त्रों से ठसाठस भरे जहाज
व्यापार-नौकाओं के बहाने हिंदुस्थान के तट तक पहुँचाने के प्रयास में कुछ पकडे
गए, कुछ डुबाए गए। सिंगापुर, स्याम, बालासोरा, हांगकांग के सैनिकों ने तथा
क्रांतिकारियों ने मिल-जुलकर छोटे-मोटे आक्रमण और मुठभेड़ करवाई। वह भी जर्मनी
की युद्ध नौका की अपेक्षित सहायता के ही बलबूते पर। अम्डेन ने तो अंदमान पर
छापा मारकर वहाँ के बंदियों तथा क्रांतिकारियों को उड़ाकर रंगून पर आक्रमण
करने और वहाँ क्रांति का झंडा फहराते हुए हिंदुस्थान में प्रवेश करने की
महायोजना हिंदी क्रांतिकारियों की सहायता से बनाई थी। इसके लिए बहुत परिश्रम
भी किए। परंतु अंग्रेज युद्धपोतों का बेड़ा, नौ साधनों की प्रबल एवं सर्वगामी
शक्ति के सामने उन चार-पाँच जर्मन युद्ध नौकाओं की दाल नहीं गली, इसमें कोई
आश्चर्य नहीं।
इतने से भी इंग्लैंड चक्कर में पड़ गया
तथापि जो थोड़ा-बहुत जर्मन नौकाएँ तथा भू सेना कर सकी, उसके चक्कर में
इंग्लैंड को थोड़ा-बहुत उलझना ही पड़ा। उन टुटपुँजिए प्रयासों को निष्प्रभ
करने के लिए भी इंग्लैंड को कम कष्ट नहीं उठाने पड़े। उनकी कई रणतरियाँ और
रणसेना एशियन जल में तथा स्थलों में अटकी रहीं। हिंदी क्रांतिकारियों के
मुट्ठी भर लोगों के आंदोलनों से अंग्रेजों की हिंदी सेना में एक बार तो
महाविप्लव होतेहोते रह गया। फिर भी कितनी पलटनों का चाल-ढंग बिगड़ा, उन्होंने
इधर-उधर आक्रमण किए। इससे अंग्रेजों का हिंदी सेना के आधार पर विश्वास उठ गया।
बाहर अंग्रेजों पर सन् १९१७ के महायुद्ध का जानलेवा संकट बीता ही था कि
हिंदुस्थान के भीतर सन् १८५७ की पुनरावृत्ति की आशंका उन्हें अहोरात्र दीमक की
तरह चाटने लगी थी। परंतु बाहर सन् १९१७ तथा भीतर सन् १८५७ जैसा दुर्धर प्रसंग
आने से इंग्लैंड बच गया अन्यथा न केवल हिंदुस्थान बल्कि संपूर्ण विश्व
इंग्लैंड के हाथों से निकल जाता।
जर्मन युद्धकालीन इंग्लैंड की तथा उसके शत्रु की हिंदुस्थान से संबंधित बलाबल
की परिस्थितियाँ ध्यान में रखते हुए, फिर आगामी रूसी युद्ध के भविष्य के परदे
से यथासंभव निरीक्षण करने पर, जहाँ तक हिंदुस्थान का प्रश्न है-यह एक अत्यंत
महत्त्वपूर्ण अंतर दिखाई देता है। उसका स्वरूप अत्यंत सावधानी एवं सूक्ष्मता
के साथ नाप-तौलकर रखना अंग्रेजों तथा भारतीयों-दोनों की दृष्टि अत्यावश्यक
है-इसका अहसास अंग्रेजों को है। भारतीयों को इसका रत्ती भर भी भान नहीं है।
एतदर्थ उन आगामी परिस्थितियों की रूपरेखा भारत की दृष्टि के सामने अभी से
अंकित करनी होगी। उसे आँकने का काम अब अगले लेखांक में।
(श्रद्धानंद, २३ फरवरी, १९२८)
लेखांक-३
जहाँ तक हिंदुस्थान की परिस्थितियों का प्रश्न है-जर्मन महायुद्ध और आगामी
रूसी महायुद्ध में प्रमुख अंतर यह होगा कि जर्मन महायुद्ध यूरोपीय युद्ध था और
आगामी युद्ध रूसी युद्ध होगा। यद्यपि यह गृहीत किया कि रूस स्वयं युद्ध आरंभ
नहीं करेगा तथापि उसके जन्म से लेकर रूसी बोल्शेविक के विरोध में यूरोपीय
राष्ट्र जो भयंकर षड्यंत्र कर रहे हैं, वे सब रूस को युद्ध करने के लिए अवश्य
बाध्य करेंगे। इंग्लैंड के साम्राज्य का तब जर्मनी की शक्ति ही एकमेव शत्रु
थी। परंतु अब रूस की शक्ति ही नहीं, उसके सिद्धांत भी इंग्लैंड के विनाश के
कारण बन रहे हैं। जर्मनी तलवार के साथ ही इंग्लैंड से लड़ा। परंतु दोनों में
ही साम्राज्य तृष्णा थी-सिद्धांतत: यही उनमें एकता थी।
परंतु तलवार और सिद्धांत इन दोनों भयंकर साधनों के साथ रूस इंग्लैंड के
साम्राज्य पर आक्रमण करनेवाला था। इसीलिए इंग्लैंड को रूस से जर्मनी ठीक लगता
था। एतदर्थ इच्छा से अथवा निरुपायवश जब कभी रूस इंग्लैंड से लड़ने उतरेगा तब
उसे एशिया के रणक्षेत्र में ही उतरना पड़ेगा, क्योंकि यूरोप में सागर मार्ग
से, बाल्कन द्वीप से और संभवतः पोलैंड से इंग्लैंड रूस पर प्रत्यक्ष आघात कर
सकेगा। परंतु रूस के लिए, जो सागरी शक्ति में दुर्बल है, इंग्लैंड पर प्रत्यक्ष
आघात करने के लिए यूरोप में थोड़ी सी भी जगह नहीं है। उसकी भरपाई एशिया में
करनी होगी। क्योंकि यद्यपि यूरोप में ठेठ इंग्लैंड तक रूस का हाथ नहीं पहुँच
सकता, तथापि इंग्लैंड को संकट में डालना उसे सहज संभव है और उस स्थलशक्ति से
ही हिंदुस्थान पर आघात करते हुए इंग्लैंड को भयभीत करना रूस के लिए संभव था।
स्थलशक्ति से ही वह हिंदुस्थान पर आघात करता हुआ इंग्लैंड को चक्कर में फँसा
सकता है। इस परिस्थिति में भावी युद्ध हिंदुस्थान को इस पार या उस पार करने के
लिए हिंदुस्थान की सीमा पर होगा; एशिया को ही उसका प्रमुख रणक्षेत्र बनाकर अन्य
रणागंण और उपकरण क्षेत्र तैयार होने वाले हैं।
इससे अगले युद्ध में हिंदुस्थान का महत्त्व अत्यंत उत्कटता से बढ़ेगा। विगत
जर्मन युद्ध में एशिया की अवस्था अत्यंत दुर्बल थी। हिंदुस्थान की दृष्टि से
वह अत्यंत प्रतिकूल थी। जापान विद्रोह पर उतारू हुआ, चीन निद्रा में,
अफगानिस्तान भयभीत, ईरान विजेता, तुर्क विजीत और रूस तो इंग्लैंड का दाहिना
हाथ। हिंदुस्थान के सीमावर्ती राष्ट्रों की तथा पुनः उनके सीमावर्ती राष्ट्रों
की ऐसी अवस्था हो गई थी जो इंग्लैंड के लिए सर्वथा अनुकूल थी। इसलिए महायुद्ध
के वड़वानल की चिंगारी भी हिंदुस्थान में आकर गिरना असंभव हो गया था। परंतु इस
आगामी रूसी महायद्ध में ये परिस्थितियाँ इंग्लैंड के उतनी ही प्रतिकूल जाने
वाली हैं। किसी के लिए यह निश्चित रूप से कहना असंभव था कि प्रत्यक्ष प्रसंग
में राजनीतिक स्थित्यंतर क्या होंगे? परंतु उनकी सद्य:प्रवृत्तियों से साधारण
रूपरेखा किस तरह आँकी जाए यह हमें देखना पड़ेगा। उस दृष्टि से विचार करने पर
आज यह स्पष्ट दिखाई देता है कि एशिया स्थित और विशेषतः हिंदुस्थान के
सीमावर्ती बहसंख्य राष्ट्र इंग्लैंड विरोधी पक्ष से मिलनेवाले हैं।
अफगानिस्तान, ईरान और तर्कस्तान का आज ही रूस से यह समझौता हुआ है कि यदि रूस
का किसी से युद्ध छिड़ गया तो ये राष्ट्र रूस के विरुद्ध न जाते हुए तटस्थ
रहें। इससे वे इंग्लैंड से तो मिलेंगे ही नहीं; परंतु प्रायः तटस्थ भी न रहते
हुए रूस से मिलेंगे। क्योंकि अफगानिस्तान के मन में हिंदुस्थान के अपहार की
महत्त्वाकांक्षा उत्पन्न होने के कारण उन्हें अपने आप ही खुजली चुप बैठने नहीं
देगी। वह रूस की बलिष्ठ सहायता का स्वर्णावसर देखकर उसके अस्तित्व पर सदा के
लिए आरोपण किए हए हिंदुस्थान के अंग्रेजी साम्राज्य के पिस्तौल को इंग्लैंड के
हाथों से छीन लेने का प्रयास किए बिना नहीं रहेगा। ईरानी समुद्र में अंग्रेजों
को हस्तक्षेप किए बिना अन्य कोई चारा न होने से और ईरानी उपसागर में रूस के
विरोध में खड़े ईरान द्वारा रूस के साथ स्पष्ट और अत्यंत महत्त्वपूर्ण
करारनामा आजकल ही करने के कारण उसे अंग्रेजों के विरोध में जाने के लिए बाध्य
करना इंग्लैंड के लिए आवश्यक होगा। इंग्लैंड द्वारा हड़प किए हुए अपने प्रदेश
पुनः प्राप्त करने का अवसर ढूँढ़ने के लिए तुर्कस्तान भी प्रयास करेगा। युद्ध
के आरंभ में न सही, तथापि युद्ध यदि इंग्लैंड के विरोध में किंचित् मात्र भी
गया तो तुर्कस्तान युद्ध में निश्चित ही कूद पडेगा। इस प्रकार संपूर्ण एशिया
रूस से साँठ-गाँठ करेगा। हिंदुस्थान के पूरब की ओर स्वेज तक एशिया अंग्रेजों
पर टूट पड़ेगा।
संपूर्ण रूस राष्ट्र तो महायुद्ध के रणयज्ञ का प्रमुख जजमान ही है। अपनी
विराट् भौमिक सेना और प्रचंड वैमानिक शक्ति के साथ हिंदुस्थान के कश्मीर से
तिब्बत तक अंग से अंग लगाकर संपूर्ण जर्मनी के हाथ हिंदुस्थान तट तक पहुँचने
में एक संपूर्ण महाद्वीप के रूप में वह बाधा बनकर आया था। परंतु रूस का हाथ
हिंदुस्थान के तट से हमेशा ही चिपका हुआ था। युद्ध के आह्वान के पश्चात् एक
सप्ताह के भीतर रूसी सेना कश्मीर से बने पाल से तिब्बत तक हिंदस्थान की सिमाए
घेर लेगी। आगे बढो' का सिग्नल मिलते ही वह हिंदुस्थान में प्रवेश करेगी। किसी
भी प्रकार के शस्त्रास्त्र, हवाई जहाज, हजारों सैनिक, सेनापति रूस हिंदुस्तान
में पानी की तरह बहा सकता है।हिदुस्थान पर आक्रमण करना जर्मनी लिए जितना दुष्कर
था उतना ही रूस के लिए सुविधाजनक है। उसपर रूस की शक्ति अंग्रेजों की शक्ति
से जर्मनी की तरह ही कम-से-कम भौमिक सामर्थ्य की दृष्टि से बिलकुल कम नहीं,
बल्कि थोड़ी अधिक ही है।
रूस के पास वायुयानों की शक्ति भी उपलब्ध है जो जर्मनी को प्राप्त नहीं।
जर्मनी के लिए हिंदुस्थान पर भौमिक आक्रमण असंभव था, परंतु इस देश को
महायुद्ध के दो-चार प्रचंड धक्के मारकर उसे झकझोरने के लिए जर्मनी अधिकसे-अधिक
एकाध एम्डन भेज सका। परंतु हवाई जहाज के बलबूते हिंदुस्थान स्थित अंग्रेज छावनी
पर, शस्त्रागार पर, सरकारी केंद्र पर हवाई हमले कर उनपर घटो तक बमबारी करते
हुए संपूर्ण देश भर में घमासान युद्ध करके रूस को हवाई छावनी कश्मीर से
कन्याकुमारी तक आवाजाही कर सके, इसके लिए हिंदुस्थानवासियों को उनकी इच्छा हो
या न हो, परंतु प्रचंड खलबली मचाकर उन्हें युद्धोन्मुख बनाया जाएगा।
संपूर्ण हिंदुस्थान में क्रांति की लहरें चाहे उमड़ें या न उमड़ें, उनके
उमड़ने की इच्छा हमारे मन में हो या न हो, परंतु यह गाँठ में रखने के बिना कोई
चारा नहीं कि कहीं-कहीं तो, चाहे मुट्ठी भर हों या ढेर सारे, ये क्रांतिकारी
दल उस महायुद्ध की आपाधापी में मुग्ध अथवा प्रकट आक्रमण करेंगे या नहीं?
क्योंकि यदि आज भी वे बालसोरा में एकाकी लड़ते हैं, काकोरी में ट्रेनें उड़ाते
हैं, चार पिस्तौलों की चोरी करके क्रांति के षड्यंत्र रचते हैं और आज पच्चीस
वर्षों के सरकारी दबाव से, यातनाओं तथा निर्यातनाओं से, आशा तथा निराशा से उनका
निर्मूलन नहीं होता, तो इस प्रकार के अनेक द्वीपों को अपनी लपटों में
लपेटनेवाले विस्फोट में आग-बबूला नहीं होंगे-ऐसा सोचना हिंदी जनों तथा
अंग्रेजों दोनों के हित के लिए ऐन समय पर अनर्थकारी नहीं होगा? हिंदुस्थान में
इस प्रकार के आक्रमण कुछ शीघ्रकोपी क्रांतिकारा करेंगे-यह गृहीत रखकर ही, किस
तरह उनका बंदोबस्त किया जा सकता है, उनकी शक्ति क्यों बढ़ सकती है और कैसे
घट सकती है? मन-ही-मन इसका विचार करना हिंदी तथा अंग्रेजी नेताओं का कर्तव्य
है। इस दृष्टि से इस विषय का विस्तृत विचार करना यहाँ उचित नहीं अथवा इस लेख
का वह उद्देश्य भी नहीं, तथापि उपर्युक्त पंक्तियों में रूस की जिस हवाई शक्ति
के प्रश्न की चर्चा की है उसके अनुषंग में यहाँ बस इतना ही कहना पर्याप्त है
कि इस प्रकार के क्रांतिकारियों के छिटपुट आक्रमण हो भी गए तो उन्हें विषैले
धुएँ के सभी साधन, अल्प मात्रा में परंतु भयंकर रूप में देने के लिए रूसी हवाई
जहाजों की शक्ति समर्थ बनेगी।
इतना ही नहीं अपितु हिंदुस्थान के किसी भी स्थल पर अचानक उडते हुए आकार वह रसद
पहुँचाकर पुनः लौटना सुलभ होगा। रूस में कई हिंदी क्रांतिकारी शस्त्रास्त्रों
एवं यद्ध संचालन का प्रशिक्षण ले रहे हैं, इस प्रकार कभी-कभी अंग्रेज वृतपत्र
जो हो-हल्ला मचाते हैं, उससे यह दिखाई देता है। उन्हें तथा अन्य निर्वासित
क्रातिकारियों को रूसी हवाई जहाज, युद्ध आरंभ होते ही जहाँ-जहाँ क्रांति का
स्फुल्लिंग उड़ेगा, वहाँ-वहाँ उसपर फूंक मारने के लिए अचानक लाकर छोडेंगे अथवा
हिंदुस्थान से बाहर ले जा सकेंगे। यह बात जर्मन युद्ध में असंभव थी। जर्मनी
अधिक-से-अधिक सागर तट पर शस्त्रास्त्र लाकर डाल सकता है। परंतु आगे, देश के
मध्य प्रदेश में उन्हें लाना दुःसाध्य होता था। अब हिंदी क्रांतिकारी यदि चीन
में अथवा साइबेरिया में केंद्र बनाते हुए दो हवाई जहाज लेकर सुबह निकले तो
शिमला दस बजे आएँगे, घंटा-दो घंटा बमबारी करते हुए पुनः खिसकते हुए चीन जा
बैठेंगे। बंगाल में एकाध छिटपुट चढ़ाई हो गई तो एकदम बीड़न स्केयर में छोटे
मशीनगंस अथवा विषैले धुआँ अस्त्र आदि क्रांतिकारियों को देकर वे खिसक सकते
हैं। इस हवाई शक्ति का अभ्युदय इस महायुद्ध में एक भयंकर नया घटक होगा और
इंग्लैंड जिस तरह इसका उपयोग कर सकता है उसी तरह रूस भी कर सकता है। विशेषत:
यह हवाई शक्ति हिंदुस्थान के अंतर्गत क्रांति के हमलों के लिए बहुत सहायता
करेगी और उस मात्रा में अंग्रेजों को चक्कर में फँसाएगी। अभी से इस बात का
विचार इंग्लैंड और हिंदुस्थान दोनों की जनता को अपने हित के लिए करना आवश्यक
है।
जर्मनी का हाथ हिंदुस्थान तक पहुँचना उसकी सामुद्रिक शक्ति की दुर्बलता, भौमिक
शक्ति की सुदरता तथा हवाई शक्ति के अभाव ने असंभव किया और इसीलिए अंग्रेजी
सत्ता कुछ अधिक संकट में नहीं आई। परंतु रूस की सीमा उत्तर की ओर बहुत अधिक
मात्रा में हिंदुस्थान की सीमा से सटी हुई थी, अफगान आदि राष्ट्र अंग्रेजों
के विरोध में रूस से मिले हुए थे और इसी कारण युद्ध आरंभ होने से पूर्व दो-तीन
सप्ताहों के भीतर रूसी सीमा लाँघकर हिंदुस्थान में घुसने के लिए रूस के पास
ऐसी फौज तैयार थी जो अंग्रेजों के तुल्यबल युक्त नवीनतम युद्ध साधनों से लैस
थी; वह हिंदुस्थान के भीतरी प्रदेश में कहीं भी छापे मारते, धक्के मारकर
आंतरिक क्रांति के आक्रमण करवाने के लिए रूस के पास वायु दल की शक्ति थी। इन
सभी कारणों से आगामी महायुद्ध में अंग्रेजी साम्राज्य के हृदय-हिंदुस्थान-पर
आघात करना अंग्रेजों के शत्रओं को जर्मनी से कई गुना अधिक सुलभ हो गया है। यहा
तक इसका विवेचन किया। परंत ऐसा नहीं कि पश्चिमोत्तर सीमा से अफगान और उत्तर
सीमा से रूस हिंदस्थान पर आक्रमण कर सके-बस, इतना ही संकट इस युद्ध में
अंग्रेजों के सामने खड़ा रहेगा।
महायुद्ध की भूकंपीय गतिविधियों में किस पर क्या बीतेगी, यह भविष्य निश्चित
रूप में बताना इतिहासज्ञों के लिए अथवा राजनीतिज्ञों के लिए भी असंभव है, फिर
ज्योतिष शास्त्रज्ञों की, जो स्वयमेव ही अनिश्चित हैं, बात ही दूर है। अत: आज
जो जिस तरह स्पष्ट दिखाई दे रहा है वह कथन करने पर इसका भी संक्षिप्त विवेचन
करना ही होगा कि आज जो धुंधला सा दिखाई देता है, उसका स्पष्ट रूप किस प्रकार
होगा और उसका अनुकूल-प्रतिकूल परिणाम किस तरह होगा। इस दृष्टि से देखा जाए तो
हिंदुस्थान की पश्चिमोत्तर सीमाओं पर अंग्रेजों के विरोध में तुर्क, ईरान,
अफगान, रूस की सशस्त्र और जीवंत दीवार ही खड़ी हो गई और उसके चांगदेव के
सम्मुख भित्ति की तरह अनिवार्यता से धावा बोलने की संभावना है। उसी तरह यह भी
दावे के साथ नहीं कहा जा सकता कि पूर्वोत्तर सीमा पर भी अंग्रेजों के विरोध
में कोई भी खड़ा नहीं होगा।
इसका कारण है नेपाल। नेपाल आज अंग्रेजों का मित्र है; परंतु नेपाल स्वतंत्र
है। अफगानिस्तान भी अपने आपको अंग्रेजों का मित्र कहता था, परंतु अब उसके मन
में हिंदी साम्राज्य को जीतने की एक नई भयंकर महत्त्वाकांक्षा का उदय हो चुका
है। नेपाल के मन में भी महायुद्ध के भूकंपीय उथल-पुथल के हंगामे में ऐसी ही
महत्त्वाकांक्षा का उदय क्या नहीं हो सकता? जिस तरह यह निश्चयपूर्वक कहा जा
सकता है कि अफगानिस्तान अंग्रेजों के विरोध में होगा, उसी तरह यह नहीं कहा जा
सकता कि नेपाल भी अंग्रेजों के विरोध में खड़ा होगा। परंतु यह भी निश्चयपूर्वक
नहीं कहा जा सकता कि नेपाल अंग्रेजों के विरुद्ध जाएगा ही नहीं अथवा अंग्रेजों
के विरुद्ध जाने के लिए उसे बाध्य किया ही नहीं जाएगा।
यदि नेपाल अंग्रेजों का मित्र रहा तो अंग्रेजों के लिए बड़ा आधार होगा। आज
महायुद्ध में कम-से-कम नेपाल को वही महत्त्व प्राप्त हुआ है जो बेल्जियम,
हॉलैंड को प्राप्त हो गया था। उसपर नेपाल की तिरेसठ हजार से अधिक सेना भी खड़ी
है और युद्धकाल में प्रत्येक युवा गुरखा शूरवीर योद्धा होने वाला है। इससे भी
अधिक महत्त्वपूर्ण एक बात है जो अंग्रेजों को संकट में डाल सकती है-वह यह है
कि आज ब्रिटिशों की हिंदी सेना का प्रमुख आधार गुरखे हैं। यदि नेपाल से
मित्रता अक्षुण्ण रही तभी ये सारी बातें अंग्रेजों के लिए अनुकूल रहेंगी।
परंतु यदि नेपाल से मित्रता टूटेगी, रूस के षड्यंत्र से अथवा सामर्थ्य से अथवा
नेपाल के मन में अफगानिस्तान के संसर्ग से हिंदी साम्राज्य की अथवा कम-से-कम
उसके बिहार, बनारस के प्रदेश तक नेपाली सत्ता बढ़ाने की नई साहसी
महत्त्वाकांक्षा उत्पन्न हो गई तो ये सभी बातें अंग्रेजों को बहुत भारी
पड़ेंगी। क्योंकि यदि नेपाल की भूकुटी तनी तो रूस, जो उसके पीठ से ही सटकर खड़ा
है और उसके मन में अंग्रेजों के विरुद्ध आकांक्षा उत्पन्न करने के कार्य में
हाथ धोकर पीछे पड़ा है, उधर से वह अफगानिस्तान और नेपाल को सेना,
शस्त्रास्त्र, हवाई जहाज तथा द्रव्य पहुँचाने में समर्थ है। अत: यदि अंग्रेजों
के नेपाल से संबंध बिगड़ गए तो नेपाल एकाएक बिहार पर उतरेगा। नेपाल जैसे
कट्टर, योद्धा तथा जीवंत सैनिकों की पचास-साठ सहस्र सेना और उसे रूस के धन-जन
तथा अस्त्र-शस्त्रों का समर्थन यह सब देखते हुए कहा जा सकता है कि नेपाल के
बिहार पर धावा बोलने की देरी है कि बंगाल तक साफ मैदान ही है। वे हजारों गुरखे
किसी हिमसंहती की तरह कलकत्ता पर टकराएँगे। उसी समय अंग्रेजों की सेना का
प्रमुख आधार गुरखा लोगों की भी गड़बड़ हुए बिना नहीं रहेगी। क्योंकि गुरखा
सैनिक अंग्रेजी सेना में प्रवेश करता है, तब जो वह शपथ ग्रहण करता है कि नेपाल
के महाराज के विरुद्ध मैं नहीं लगा-इस तरह की बात अपवाद ही होती है। अत:
अंग्रेजों के म्यान में उनकी हिंदी तलवार भोथरी होकर ऐन समय टूटने की भावना
रहती है। नेपाल के इस संभाव्य आक्रमण से गुरखा पलटनें उन्हें आकर मिल सकती
हैं। इतना ही नहीं अपितु उस अभूतपूर्व क्रांति की प्रेरणा से प्रोत्साहित होकर
हिंदी लोगों में गुप्त रूप से जो कुछ क्रांतिकारियों की टोलियाँ घूम रही हैं
जैसाकि पुलिस का दावा है, वे भी उस नेपाली सेना को तत्काल जाकर मिले बिना नहीं
रहेंगी। इस प्रकार महान घमासान युद्ध होना असंभव नहीं और यदि यह घमासान लड़ाई
हो गई तो हिंदुस्थान स्थित ब्रिटिश साम्राज्य पर कितना भारी संकट का पहाड़
टूटेगा, उसकी नींव भी किस तरह झकझोरकर, हिलाकर ढहा दी जाएगी इसकी सही-सही
कल्पना यदि हिंदुस्थान में किसी को आना संभव हो तो वह एक अंग्रेज ही है।
क्योंकि अंग्रेज आठों गाँठ कुम्मैत हैं। साम्राज्य जीतना तथा उन्हें चलाने की
कला भी अंग्रेज बालकों को मानो घुट्टी में ही पिलाई जाती है। सन् १८५७ से
अंग्रेज अपने नेपाल का उपयोग हिंदुस्थान के विरोध में कर रहे हैं। परंतु नेपाल
का लाभ उठाने की बुद्धि ब्रिटिश हिंदुस्थान स्थित हम हिंदुओं को आज भी नहीं
सूझती। उसपर भी दुर्भाग्य की बात यह कि नेपाल का महत्त्व स्वयं नेपाल भी नहीं
जानता-स्वयं ही अपना लाभ उठाने की बुद्धि उसे नहीं सूझती। यदि अन्य किसी ने
सुझाई तो यह बात सुनने से भी उसकी सिट्टी-पिट्टी गुम होती है। मद्रास
राष्ट्रसभा में काबुल के अमीर का नाम बीच-बीच में निकला, परंतु उसी समय
ब्रिटिश हिंदुस्थान में आए हुए नेपाल के महाराजा का स्मरण किसी को भी नहीं
हुआ। आगामी महायुद्ध में ही नहीं अपितु आगामी राजनीति में भी नेपाल से कितना
लाभ होने वाला है इसका अनुमान वर्तमान नेताओं को तो नहीं ही हैं, उनके
अनुयायियों को भी नहीं है। नेपाल से होनेवाले उस लाभ की रूपरेखा उनके सामने
निकाली गई तो जिस तरह किसी अँधेरे कमरे को किसी ने एकदम खोल दिया तो हम उसमें
शून्यवत् झाँककर पुनः उधर देखते भी नहीं, उसी तरह अंधकारमय होकर वे कष्ट से
हाँ में हाँ मिलाकर पुनः किसी विभाजन का प्रस्ताव, सायमन सात अथवा आयर्विन आठ
के चिरपरिचित और चिरविफलित राजनीतिक बच्चों के खेल में मग्न होते हैं। यह
बच्चों का खेल घर-गृहस्थी के लिए ही उपयुक्त है। परंतु बच्चों का खेल पूरी
गृहस्थी नहीं बन सकती। नन्ही-नन्ही बालिकाओं को वह खेल शोभा देता है। परंतु
उसे ही वास्तविक गृहस्थी समझकर उसी में सारा घर-बार रम गया तो घर का दीवाला
निकलने में समय नहीं लगेगा। परंतु आज हिंदी राजनीति इस तरह लड़क-खेल हो गया है
कि इसमें से मुक्त होकर नेपाल जैसे दूर-दूर तक परिणामकारी आंदोलनों की ओर देश
की आपराधिक उपेक्षा हो रही है। यद्यपि यह सत्य है तथापि ऐसा नहीं है कि यह
स्थिति सदा के लिए रहेगी। नेपाल की जागृति के लक्षण दिखाई दे रहे हैं। हिंदू
संघटना की दुंदुभि उन्हें आज या कल झकझोरकर जाएगी। उसके अतिरिक्त आगामी
महायुद्ध में अंततः नेपाल निद्राधीन नहीं हो सकता। क्योंकि उधर से रूस उसे
दबोच लेगा अथवा इधर से इंग्लैंड झकझोरेगा। यह पत्थर की लकीर है कि नेपाल को
महायुद्ध हाथ पर हाथ धरे बैठने नहीं देगा। हिंदू समाज को भी इस युद्ध का
अधिक-से-अधिक लाभ उठाने के लिए संघबली बनकर तैयार होना चाहिए।
(श्रद्धानंद, १ मार्च, १९२८)
लेखांक-४
पिछले तीन लेखांक के विवेचन से इतना स्पष्ट होता है कि निकट भविष्य में जो
एंग्लो-रूसी युद्ध के आसार दिखाई देते हैं, उसका आरंभ होते ही ईरान और
तुर्कस्तान प्रत्यक्ष वा अप्रत्यक्ष रूप से रूस की ओर जाएँगे। अफगानिस्तान सरे
बाजार रूस से हाथ मिलाकर हिंदुस्थान में उतरने के लिए तैयार होगा और स्वयं रूस
कश्मीर से तिब्बत तक आक्रमण करते हुए हिंदुस्थान की संपूर्ण उत्तर सीमा को
अपना प्रचंड रणक्षेत्र बनाएगा। इसमें यदि आज अपनी जागृति से संभवनीय संजोग
साधकर नेपाल भी उसकी भव्य-दिव्य भवितव्यता के दीप्तिमान दृश्य से आकर्षित हो
अथवा रूस के दबाव से बाध्य होकर रूस से हाथ मिलाया तो हिंदुस्थान स्थित
अंग्रेजी साम्राज्य पर विकट प्रसंग गुजरेगा। इस प्राणलेवा संकट से पार पड़ना
अंग्रेजों के लिए अत्यंत कठिन होगा। यदि नेपाल अंग्रेजों की ओर रहा तो
अंग्रेजों का पक्ष तनिक सँभल जाएगा।
हिंदुस्तान की पश्चिमोत्तर सीमाओं पर इस घटना के चलते पूर्व सीमा स्थित
राष्ट्रों में भी अंग्रेजों का समर्थक कोई भी नहीं दिखाई देता। क्योंकि आजकल
चीन अंग्रेजों का कट्टर शत्रु बना हुआ है। उसपर वह गृहकलह में उलझा हुआ है। इस
विस्तीर्ण देश की उत्तर अथवा दक्षिण सरकारों में से किसी को भी न अंग्रेजों की
सहायतार्थ आने की इच्छा है, न फुरसत। चीन की जनता ने तो यह भलीभाँति गाँठ में
बाँध लिया है कि उनके राष्ट्र का अपहार करने के लिए इंग्लैंड ताक में बैठा है।
ब्रह्मदेश की सीमा पर चल रही अंग्रेजों की गतिविधियाँ चीनी साम्राज्य के पेट
में घोंपा गया अंग्रेजी खंजर है। यदि चीन को अपनी स्वतंत्रता अबाधित रखनी है
तो हिंदुस्थान में अंग्रेजों को प्रतिबंध होना ही चाहिए। यह सत्य सन्यात्सेन
के समय से चीनी राष्ट्रीय पक्ष के सामने आया था कि अंग्रेजों पर आक्रमण करने
यदि चीन आगे नहीं भी बढ़ सका तथापि अंग्रेजों के चंगुल से स्वदेश को पूर्णतया
मुक्त करने के लिए तो वह अपना बल खर्च करेगा, साथ ही ब्रिटिश हिंदी साम्राज्य
के, जो अपने अस्तित्व के लिए सदैव धोखे की घंटी है, रूस के आघातों के नीचे
चकनाचूर होने के इस स्वर्ण अवसर को सार्थक करने हेतु सैनिकों के अभाव में भी
मानसिक, आर्थिक और राजनीतिक सहायता देने के लिए एक पाँव पर तैयार रहेगा।
इस प्रकार यह सोलह आने निश्चित है कि कॉकेशस से कैटन तक संपूर्ण एशिया
अंग्रेजों के विरोध में खड़ा रहेगा और हिंदुस्थान के सीमावर्ती राष्ट्र हिंदी
ब्रिटिश साम्राज्य के अस्तित्व पर अति भयंकर और मारक आक्रमण करेंगे। संपूर्ण
एशिया में जापान ही एक ऐसा बलाढ्य राष्ट्र है कि जिसकी नीति के संबंध में आज
कुछ भी कहा नहीं जा सकता। इसे छोड़ देने पर भी पता चलता है कि अंग्रेजों का
एशिया में एक भी मित्र शेष नहीं रहा है। वैसे आज तक एशिया में उनका एक भी
मित्र नहीं था। परंतु जर्मन महायुद्ध तक उनके विषय में मन-ही-मन में जल-भुनने
वाले राष्ट्र स्वयं ही इतने निर्बल और बेसुध थे कि अंग्रेजों को उनकी मित्रता
का न मूल्य था, न ही उनके शत्रुत्व से भय। परंतु इस आगामी महासमर में रूस,
अफगानिस्तान, तुर्कस्तान, चीन आदि राष्ट्रों की शक्ति, संघटन तथा आंग्ल-द्वेष
इतना बढ़ गया है कि अब उनकी शत्रुता की उपेक्षा करना इंग्लैंड के लिए असंभव है।
इतना ही नहीं, अब इंग्लैंड को ज्ञात हो चुका है कि इस शत्रुता से प्राणों का
खतरा उठाकर भी जूझना ही होगा।
अंग्रेजों के हिंदस्थानी साम्राज्य पर आगामी महायुद्ध में ऐसा भयंकर प्रसंग
आने वाला है जैसा पहले कभी नहीं आया था। यह उपर्युक्त विवेचन से जाहिर ही है।
जब से हिंदी साम्राज्य स्थापित हुआ तब से हिंदुस्थान के बाहर जो महायुद्ध हुए
वे सभी यूरोप में ही हए थे। अत: हिंदस्थान स्थित अंग्रेजी सत्ता के सिर पर ही
कोई भी प्रचंड आघात नहीं हो सका। हिंदुस्थान के भीतर एकमेव प्राणांतिक संकट
आया था; परंतु सन् १८५७ के उस क्रांति युद्ध के प्रसंग में हिंदुस्थान के भीतर
के विद्रोह पर उतारू होते बाहर से भी शत्रुओं ने आक्रमण नहीं किया जो अंग्रेजी
प्रशासन पर मारक आघात करता। अत: आज तक हिंदुस्थान से अथवा हिंदुस्थानेतर अकेले
शत्रु से अंग्रेज लड़ सके। परंतु इस महायुद्ध में इंग्लैंड पर हिंदुस्थान और
हिंदुस्थान के बाहरी शत्रुओं के साथ एक ही समय में प्रचंड युद्ध करने का कठिन
प्रसंग बीतने वाला है। इस तरह का संकट आज तक हिंदुस्थानांतर्गत अंग्रेज सत्ता
पर कभी नहीं आया था।
इन सभी लेखांकों में हम यह नहीं कह रहे हैं कि क्या होना चाहिए, हम यही कथन
करते आए हैं कि क्या होना अधिक संभव है।
इस दृष्टि से देखा जाए तो हिंद और इंग्लैंड दोनों को ही स्मरण रखना होगा कि
चाहे उन्हें भला लगे या बुरा, परंतु इस आगामी महायुद्ध में रूस और अफगानिस्तान
ने यदि हिंदुस्थान पर आक्रमण किया तो उपर्युक्त कारणवश हिंदुस्थान के प्रांतों
से भी युद्ध के दंगा-फसाद और प्रसंग विशेष क्रांति की लपटें तथा हुल्लड़ उठे
बिना नहीं रहेंगे। क्योंकि ये ज्वालाएँ यदि हिंदी लोग स्वेच्छा से नहीं
जलाएंगे तो अंग्रेजों के शत्रु बलपूर्वक जलाएँगे। अफगानिस्तान के असंख्य
दूतधर्म की आड़ में मद्रास तक टंटा-बखेड़ा मचाएंगे। रूस के हवाई जहाज
हिंदुस्थान पर छापा मारकर इधरउधर भयंकर उत्तेजना फैलाकर अशांति और अव्यवस्था का
दलभार उभारेंगेउसपर यदि नेपाल अंग्रेजों के विरोध में गया अथवा उसे ऐसा करने के
लिए बाध्य किया गया तो हिंदुस्थान में हड़कंप मचेगा।
हिंदुस्थान में इन दो-तीन पीढ़ियों की स्मृति में इस प्रकार कोई भूकंपीय
राजनीतिक प्रलय का अनुभव नहीं किया गया। यह सत्य है कि हमारी आज की दुर्बल और
अंधपीढ़ी प्रयत्न करके भी उसकी सही कल्पना नहीं कर सकेगी तथापि हमारे
हिंदुस्थान के विगत इतिहास में साम्राज्यों की ऐसी कितनी सारी गतिविधियाँ
सदी-अर्द्ध सदी के पीछे घटती आ रही हैं, इसका विस्मरण नहीं होना चाहिए। काबुल
से कोलंबो तक अशोक का साम्राज्य तथा प्रभुत्व इसी तरह स्थापित हुआ था-जो अमर
प्रतीत हो रहा था; पर अब कहाँ है वह? राजपूत साम्राज्य कितना बलशाली था;
हिंदूकुश से लेकर सिंहल तक कितनी मजबूत थी उनकी श्रृंखला जो दिग्गजों को भी
जकड़ सकती थी। परंतु महम्मद गोरी के एक ही सशक्त आक्रमण के साथ दिल्ली जो
हिंदुओं के हाथों से फिसल गई तो वह सदा के लिए ही गई। फिर कभी उनके हाथ नहीं
लगी। अकबर का वह सिंहासन जिसपर विराजमान होने के बाद राजपूत भी अपनी कन्याएँ
देकर उसे जगदीश्वर के रूप में गौरवान्वित करते, कितना अटल लगता था, परतु भाऊक
प्रचड आघात से बूरे के लड्ड़ जैसा चकनाचूर हो ही गया न? खर्ड की अपूर्व विजय के
पश्चात् जब मराठी साम्राज्य की विजयी सेना पुणे में विजयोत्सव का जुलूस
निकालते हुए सवाई माधवराव पर सुवर्ण-मौक्तिक पुष्पों की वर्षा करती हुई
शनिवारवाड़ा में प्रविष्ट हुई, उस दिन उन नाख-डेढ लाख मराठी घोड़ों तथा
तोपखानों के तथा तलवारों के विशाल जंगल में से राह निकालते हुए बीस वर्षों के
भीतर ही एक अंग्रेज उस शनिवारवाड़े में घुसकर पेशवा को धत्ता बताकर स्वयं उस
गद्दी पर विराजमान हुआ। लेकिन यह किसे सत्य प्रतीत होता है? कश्मीर-काबुल से
सतलज तक जिसका वचन शस्त्राज्ञा थी, वह रणजीतसिंह तथा उसके बलाढ्य सिक्ख! परंतु
युद्ध की चुटकी के साथ वे मिट्टी में मिल गए न? और वह राज्य! आज लाहौर में
उसका क्या शेष रहा है? हिंदुस्थान राजनीतिक ज्वालामुखी के विस्फोट का एक अड्डा
है। उसमें कब क्या होगा इसका क्या नियम!
जर्मन युद्ध में, यूरोप खंड में चार वर्षों में कितने मन्वंतर हुए। पोलैंड
तीन राक्षसों के पाँवों तले कुचला गया-रूस, जर्मनी, ऑस्ट्रिया। भई, एक से लड़ना
मुश्किल होता है, फिर तीनों की बात ही क्या है ? इस प्रकार तीन सौ वर्षों से
जूझते, मरते वे सड़ रहे थे। परंतु उस महायुद्ध के अवसर का उसने लाभ उठाया और
चार सौ वर्षों का प्रश्न चार वर्षों में ही चुटकी बजाते हुए हल करते हुए इन
तीनों सुंदोपसुंदों के परस्पर विनाश की कोख से स्वतंत्र पोलैंड का जन्म हुआ।
सर्विया का कितना विस्तार हुआ! इसके विपरीत तुर्कों के टुकड़े-टुकड़े बिखर गए।
कभी किसी ने सोचा भी था कि आर्मेनिया स्वतंत्र होगा? पाँच सौ वर्षों से अधिक
समय तक वह परतंत्रता में सड़ रहा था और एक झटके के साथ परराष्ट्रीय राजनीति की
सुरंग उड़ते ही और तुर्क के परस्पर खींचातानी में नीचे गिरते ही वह तपाक से
ऊपर उठा जैसे किसी स्प्रिंग पर मनुष्य के गिरते ही वह केवल प्रतिक्रिया के लिए
झट से ऊपर जाती है। इसके विपरीत वह बलाढ्य जर्मन बादशाह और उसकी बादशाही! उसका
तो नामोनिशान तक मिट गया। उसी तरह आनेवाले इस प्रचंड महायुद्ध में संपूर्ण
एशिया में कालशक्ति से ठसाठस भरी हुई सुरंग की भयंकर पंक्ति ही उठेगी और उसकी
भीषण लपटों में तथा विस्फोट में हिंदुस्थान की धज्जियाँ उड़ेंगी या उसके जो
टुकड़े थे, वे जुड़ जाएँगे-इसके संबंध में निश्चित रूप से कौन कह सकता है?
अथवा अफगानिस्तान के आक्रमण के साथ-साथ ही संपूर्ण मुसलमान उठ खड़े होते और
भीषण आक्रोश होता? अथवा नेपाल के वीर गुरखों का बिहार-बगाल पर आक्रमण होकर
किसी महान् हिंदू शक्ति का निर्माण होता या ये दोनों अपूर्व स्थित्यंतर एक साथ
होकर हिंदुस्थान का विभाजन होता या रूसी ध्वज दिल्ली तक पहुँचाते हुए कोई
सामाजिक अथवा आर्थिक क्रांति हिंदुस्थान के भीतर हो आपस में सिर फोड़कर भीषण
हड़कंप मचाती अथवा उसका लाभ उठाकर इंग्लैंड जो उन सभी की छाती पर मूंग दल रहा
है, पुनः उनसे भी वह बहुत बलशाली हो जाता? यह सब कौन निश्चित रूप से बता
सकता है ? निश्चित न भा हो तो भी ये दो बातें ही लगभग निश्चित रूप से बताई जा
सकती हैं कि इस सारी संभवनीयता की छानबीन हिंदुस्थान ने आज से नहीं की और उन
प्रचंड घटनाओं के झपट्टे में हमें क्या निर्माण करना है और क्या तोड़ना है,
इसकी रूपरेखा अभी से तयार करके और तुरंत उसके अनुसार काम करना आरंभ करके इस
जागतिक प्रलय में सही ढंग से कूद पड़ने का निश्चय नहीं किया तो हिंदुस्थान यह
स्वर्णावसर, जो जर्मन महायुद्ध से कई गुना अनुकूल है, खो बैठेगा तो सागर से
सूखा ही सूखा बाहर निकलेगा अथवा यह इच्छा से कुछ विपरीत होकर ही रहेगा। अन्यथा
वह अभी से इस जागतिक प्रलय की वायुमापनादि साधनों से यथासंभव छानबीन करे और
उसका किस तरह से और कहाँ सामना करे-इसका निश्चय करते हुए अपने साहस का नौ साधन
अपनी आकांक्षाओं की नौ सेना ईश्वर का नाम स्मरण करते हुए सागर में छोड़ दे तो
बहुशः यह भारत अपने अभीष्ट गंतव्य तक जा पहुंचेगा। पतित भारत का पावन महाभारत
होगा।
(श्रद्धानंद, ८ मार्च, १९२८)
प्रकरण-३
स्वतंत्रता सेनानी वीर सावरकर के विविध भाषण
रत्नागिरी से विदाई
(१८ जून, १९३७ के दिन वीर सावरकर को विदा करते समय रत्नागिरी के नागरिकों की
ओर से एक मानपत्र और पाँच सौ एक रुपयों की थैली उन्हें अर्पण की गई। इस
मानपत्र तथा सत्कार के उत्तर स्वरूप वीर सावरकर ने निम्नांकित भाषण किया-)
"जिस स्थान पर मैंने दस वर्ष बिताए, जहाँ सार्वजनिक कार्य के उपलक्ष्य में
विभिन्न लोगों से परिचय हुआ, उनसे दूर जाते समय, उनसे विदा लेते समय मेरी
मानसिक अवस्था कैसी हुई होगी उसी का वर्णन करने की सूचना अध्यक्ष श्री रा.ब.
परुलेकर ने दी है। अतः सर्वप्रथम उसी के संबंध में मैं कहता हूँ। मुझे सदा ही
वही कार्य करने पड़े जो लोगों को अप्रिय प्रतीत होते हैं। मेरे बाल्यकाल में
'स्वाधीनता' शब्द का उच्चारण उतना ही कठिन था जितना आज वर्तमान युग में जातिभेद
का निषेध करना। परंतु हमने वह कार्य करने के लिए कभी पीछे नहीं देखा, जो हमें
प्रामाणिक रूप से उचित प्रतीत हुआ। इसीलिए मुझे भले-भले सज्जनों से भी विवाद
करना पड़ा। उस समय लोग मुझे दुत्कारते। मेरे संबंधी जन भी मुझसे कन्नी काटते,
परंतु अब उन परिस्थितियों में परिवर्तन आ गया है। अब सभी हमें अपना समझने लगे
हैं। राजनीति से निकालकर मुझे यहाँ पर रखने के पश्चात् प्रथम इधर भी मुझे
अप्रिय बातें ही करनी पड़ीं। हो सकता है कि मेरे कारण कभी-कभी पिता-पुत्र में,
भाई-भाइयों में अनबन भी हुई होगी। इसके लिए म क्षमाप्रार्थी हूँ। परंतु अब
मुझे संतोष हुआ है कि वही अप्रिय बातें लोगों को प्रिय लगने लगी हैं। मानपत्र
में मेरी प्रशंसा के पुल बाँधे जा रहे हैं। ऐसा नहीं कि आप मेरी निंदा करना
चाहते तो नहीं कर सकते। परंतु मैं समझता हूँ, आपको मेरी सेवा प्रिय है।
रत्नागिरी की तुलना में पाँच सौ रुपए की थैली मैं बहुत छोटी नहीं समझता।
रत्नागिरी जैसे शहर में अपने पसीने की कमाई से प्राप्त पैसों से पाई-पाई
जोड़ते जोड़ते दो-तीन दिनों में पाँच सौ रुपए इकट्ठे हो गए यही बहुत है। उस
दव्य से अधिक उनके परिषम का मोल है जिन्होंने ये पैसे इकट्ठे किए हैं, इसके
लिए मैं आपका आभारी हूँ। अब आप यह सुनने के लिए बहुत उत्सुक हैं कि आगे चलकर
मेरी क्या योजना है। यही मार्ग सुनिश्चित है कि राज्य कैसे लिया जाए? केवल उसे
लेने के लिए हमें शक्ति जुटानी है। इस दृष्टि से तीन-तीन वर्षों का एक-एक
कार्यक्रम में आयोजित करूँगा और ये कार्यक्रम सम्पन्न होते गए तो कुछ-न-कुछ तो
अवश्य होगा। केवल सावरकर की मुक्ति से कुछ नहीं होगा। राजनीति वही है जिसका
अपने दैनंदिन व्यवहार से कुछ लेना-देना नहीं-इस प्रकार की एक विकत धारणा लोगों
के मस्तिष्क में बैठी है। परंतु राजनीति की दृष्टि से कई-कई हितकारी छोटे-मोटे
कार्य हम कर सकते हैं। मिशनरियों से कैसा व्यवहार करें, मुस्लिमों से कैसे
टक्कर लें। भाषाशुद्धि के संबंध में क्या करें, यह मैंने बार-बार आपसे कहा ही
है। राजनीति की दृष्टि से भी वह सब आवश्यक है। उसमें से मुसलमानों से संबंधित
नीति में अधिक स्पष्ट करता हूँ। अल्पसंख्यक होते हुए भी वे हिंदुओं पर अधिक
रोब जमाते हैं। मुझे यह पसंद नहीं। मैं राष्ट्रीय सभा (कांग्रेस) में कभी गया
तो वहाँ जाने से पहले यह देखूगा कि राष्ट्रीय सभा में मुसलमानों का एकाधिकार
दूर हुआ है या नहीं। तथापि मैं किसी भी पक्ष में चला गया तो हिंदुओं का पक्ष
नहीं छोडूंगा। मैं केवल हिंदुओं का मित्र ही नहीं अपितु हिंदुओं का पुत्र भी
हूँ और हिंदू के रूप में ही जीऊँगा।"
हथकड़ियाँ बनीं फूलों की लड़ियाँ
(२५ जून, १९३७ के दिन पुणे के नागरिकों की ओर से नए पूल के निकट शिवाजी अखाड़े
में वीर सावरकर का भव्य सत्कार किया गया; उस प्रसंग में किया गया भाषण-)
"धर्मबंधो तथा देशबंधो ! इनते कष्ट, यातनाएँ भुगतने पर पुणे शहर ने मेरा
सम्मान किया, यह देखकर मुझे बहुत प्रसन्नता हुई है। रत्नागिरि से निकलने के बाद
पिछले सात-आठ दिन सतत यात्रा करनी पड़ी। गाँव-गाँव घूमना पड़ा। सतत भाषण देने
पड़े। उससे मेरा स्वास्थ्य गिर गया है, गला भी खराब हो गया है। अतः मेरे लिए
विश्राम की नितांत आवश्यकता है। परंतु महाराष्ट्र के पारंपरिक विधान के अनुसार
कोई भी विशेष कार्य सर्वप्रथम राजा के सामने प्रस्तुत करना होता है। उसके
अनुसार-इतने दिनों के कारावास से मुक्त होने के पश्चात् मैं सबसे पहले छत्रपती
के कोल्हापूर गया था। वहाँ से पंत-प्रतिनिधि के मिरज-सांगली में उपस्थिति
लगाकर आज पुणे में पंत प्रधान पेशवा की राजधानी में आया हूँ। शनिवारवाडा देखकर
मेरा हृदय भर आया। दारुण यातनाएँ भुगतकर मेरे पुणे में आ जाने का अर्थ आप समझ
सकते हैं। इस शनिवारवाड़े का दर्शन करते ही मेरी दृष्टि के सामने पहले बाजीराव
और नानाराव आए, जिन्होंने दिल्ली पर आक्रमण किया। फिर सदाशिव भाऊ, जिन्होंने
दिल्ली का इसलामी तख्त तोड़ा तथा मराठी सेना जो खर्डा की लड़ाई पर निकल पड़ी
थी और महादजी-ये सारे दृश्य दिखाई देते हैं। इस दरबार में यदि मैं होता तो
एकाध जागीर भी मुझे मिलती, परंतु अब समय में परिवर्तन आ चुका है। अतः आपने
मेरा पुष्पहारों से सत्कार किया है। यह पुष्पहार देखकर इसका अनुभव हो रहा है
कि किस तरह कविता भी सत्य सिद्ध होती है। अपनी एक कविता में मैंने लिखा
है-'बेझिझक हथकड़ियाँ पहनाओ-समय के फेरे में उनमें भी परिवर्तन आएगा और उन्हीं
के बनेंगे फूल।' आज वह कवि की कल्पना सत्य सिद्ध हो गई। बेड़ियों के भार से
झुकी हुई इस देह पर आज फूलों के हारों की बौछार हो रही है। मुझे प्रसन्नता है
कि हथकड़ियाँ भी फूल बन गईं। परंतु तुरंत इसका भान दु:ख भी देता है कि इस
प्रत्येक फूल में काँटे हैं। क्योंकि मेरे साथ जो-जो इस युद्ध में कूदे,
उनमें से एक भी आज इन फूलों को स्वीकार करने के लिए उपस्थिति नहीं है। मैं उस
संकट, उन कष्टों से उबर गया, बच गया। ऐसी आशा नहीं थी, न ही इच्छा। हाँ, मेरे
जीवित रहने से एक बात सिद्ध होती है-इतने कष्ट झेलकर भी हम राष्ट्र के लिए ही
जीवित रह सकते हैं। आपने मुझे जो पुष्पहार अर्पण किए, उनमें से तीन चौथाई
हिस्सा उन वीरात्माओं तथा हुतात्माओं का है जिन्होंने मेरे साथ कार्य किया।
उन्हें फूलमालाएँ अर्पण करते हुए शेष हार ही मैं स्वीकार करता हूँ। मैंने सुना
है, लोकमान्य तिलक कभी-कभी मुझे आवारा लड़का कहते थे। यदि आज वे होते तो मेरी
पीठ पर हाथ फेरकर मुझसे कई घटनाएँ पूछते। सन् १९१० में स्वतंत्रता का जो ध्वज
मुझसे खिसक गया था, मेरी मुक्ति के पश्चात् चौबीस घंटों के भीतर मैंने पुन:
उसे थामा है। मैं चाहे कहीं भी रहूँ। हिंदू राष्ट्र को छोड़कर कहीं भी नहीं
जाऊँगा। हिंदुस्थान के उद्धार के लिए ही मेरा जीवन समर्पित है।"
मैं बढ़ता ही रहूँगा
(२८ जून, १९३७ के दिन बंबई के नागरिकों की ओर से वीर सावरकर का मानपत्र के साथ
भव्य सत्कार किया गया। उस प्रसंग में उनका भाषण-)
"यह समारोह अद्भुत है। क्योंकि यहा विभिन्न मतों के प्रमुख व्यक्ति उपस्थित
हैं। हमें देखना होगा कि उनके भाषण में कौन से समान विचार और एकसूत्रता है।
मेरा सम्मान मेरे द्वारा उठाए गए कष्टों और झेली गई अनंत यातनाओं का सम्मान
है। मैं आपको आश्वस्त करता हूँ कि आपने मुझसे जो अपेक्षा की है। वह मैं अवश्य
पूरी करूँगा। भई, मुझसे ऐसा क्या अपराध हुआ है कि आपकी यह धारणा हो गई कि मैं
संघर्ष में पीछे रहूँगा। एक शूर नागरिक ने अपनी स्मृतिशाला पर यह खुदवाया कि
मुझसे भी अधिक श्रेष्ठ शूर योद्धा हो गए थे। मैं भी यही कहता हूँ। परंतु
इसीलिए मैं एक पग भी पीछे नहीं रहूँगा। स्वाधीनता के लिए आमरण जूझने के
अतिरिक्त मुझे जीवन में कोई रुचि नहीं है। जिन्हें यह भय लगता है कि
स्वतंत्रता संग्राम में मैं पीछे हटूगा, वे इस तरह की धारणा बनाने का कम-से-कम
एक प्रमाण तो दिखाएँ। में जब किसी का आलोचना करता हूँ तब उस आलोचना के लिए
आवश्यक प्रमाण दिखा सकता हूँ। कोई शिवाजी महाराज आकर ही मेरे कान मरोड़ें;
परंतु जिनकी उतनी योग्यता नहीं वे मेरी भविष्यकालीन कार्य विषयक चिंता क्यों
करें? श्री राय नरीमन से लेकर तेरसी तक मैं बता सकता हूँ कि आप जो भी करतब
दिखाएँगे, उसमें रत्ती भर भी मैं पीछे नहीं रहूँगा। संदेह प्रदर्शित करते समय
आपका उद्देश्य बुरा नहीं, परंतु वह सौ प्रतिशत निराधार है।
"अपने जीवन की गाड़ी उतार-चढ़ाव, खाई-कंदराओं में से मैंने आगे बढ़ाई है। अत:
कठिनाइयों का सामना करने का मैं आदी रहा हूँ। मेरे मित्र श्री राय भी कभी नहीं
कहेंगे कि समाजसत्तावाद में केवल आर्थिक पहलू ही महत्त्वपूर्ण है। अस्पृश्यता
अब केवल आर्थिक प्रश्न नहीं रहा। आंबेडकर-कांजरोलकर निर्धन नहीं हैं। मेरा
अस्पृश्योद्धार का आंदोलन समाजसत्तावाद का पूरक ही है। समाजसत्तावादी कहते
होंगे कि कोई भी धर्म मत रखो; तो मैं ना नहीं करता, परंतु मुझे यह कदापि
स्वीकार नहीं कि एक धर्म पर-हिंदू धर्म पर अन्य धर्मियों द्वारा सतत आक्रमण
होते रहें और उसकी उपेक्षा की जाए। हिंदी के रूप में एक ही जाओ, राष्ट्रीय ध्वज
तले एक हो, परंतु वहाँ एक बार आने पर सभी को समान अधिकार हो। किसी एक समाज को
अधिक अधिकार देते समय अन्य समाज के अधिकारों के अतिक्रमण का राष्ट्रीय सभा
विरोध करे, यही मेरी एकता की परिभाषा है। मेरी कतई इच्छा नहीं कि राष्ट्रीय
सभा हिंदू सभा बन जाए; परंतु वह ऐसी संस्था भी न बने जो अन्य समाज के लिए
हिंदुओं पर अन्याय करे। मैं ऐसी ही राष्ट्रीय सभा का समर्थन करूँगा जो जाति,
धर्म, पथभेद न मानते हुए सभी से समान रूप से व्यवहार करे।"
छात्रों के सामने भाषण
(वीर सावरकर के राजनीतिक विचार मान्य नहीं, परंतु सन् १९०८ के क्रांतिकारी
सावरकर हमें चाहिए-इस तरह प्रखरतापूर्वक कहनेवाले तथाकथित पुरोगामी छात्रों ने
३१ अगस्त, १९३७ के दिन सावरकर को मानपत्र देने का कार्यक्रम आयोजित किया था।
उसके उपलक्ष्य में वीर सावरकर द्वारा किया हुआ भाषण-)
"छात्र होने के नाते शंका व्यक्त करने का आपको पूरा-पूरा अधिकार है। आज आप
मुझे यह जो मानपत्र दे रहे हैं-अपमान पत्र नहीं, उसे मैं मानपत्र ही समझता
हूँ। आपको मेरी मत प्रणाली जंचती नहीं तो न सही, आपको जो विचार प्रणाली ठीक
लगती है, उस मार्ग से देशोद्धार का कार्य करो। परंतु मेरे विचार आपको मान्य
नहीं इसलिए वे गलत सिद्ध नहीं होते। सन् १९०८ के मेरे विचार उस समय कितने
लोगों को मान्य थे? मुझे प्रसन्नता हुई है कि आज उन विचारों को आपने स्वीकार
किया है; परंतु केवल इतना कहकर मत रुकना कि सन् १९०८ के मेरे विचार ही मान्य
हैं। यह बताइए कि उसके अनुसार काम करने के लिए आपमें से कौन-कौन तैयार हैं?
आपमें से पाँच युवक भी यदि हुतात्मा मदनलाल धींगरा अथवा अनंत कान्हेरे की तरह
कार्य करने आगे बढ़े तो मैं समझूगा देश का भाग्योदय हो गया। आप यदि आगे बढ़े
तो आप द्वारा किए गए मेरे निषेध के विरोध में मैं आवाज नहीं उठाऊँगा चाहे मेरी
देह की धज्जियाँ क्यों न उड़ जाएँ। हाँ, उस सिद्धांत को ठीक तरह से समझ लो और
बताओ कि आपमें से कौन-कौन उसके अनुसार आचरण के लिए तैयार हैं? बोलो, खड़े रहो,
हाथ ऊपर उठाओ।"
(इतना कहकर सावरकर तनिक रुक गए। परंतु हममें से किसी का भी हाथ ऊपर उठाने का
साहस नहीं हुआ। इस प्रकार श्री रामभाऊ उटगीश ने, जो 'दैनिक मराठा' के संपादक
थे, इस सभा से संबंधित एक स्मृति मुझे बताई। श्री भाऊ फाटक ने उसका समर्थन
किया था-बाल सावरकर)
प्रकट रूप में किसी को भी हाथ ऊपर उठाते न देखकर सावरकर ने कहा, "यदि प्रकट
रूप में आगे बढ़ने में आप हिचकिचाते हैं-इस भय से कि, कोई आप की चुगली खाएगा
तो किसी भी समय मुझसे अकेले में मिलो अथवा मुझसे मिले बिना कार्य करो। उस
ध्येय का केवल मौखिक उच्चारण मत करते रहना। यदि इसमें से कुछ भी करना नहीं
चाहते तो समझो, इस मानपत्र में आप द्वारा प्रयोग की गई भाषा मेरे लिए अपमानजनक
नहीं अपितु आपके लिए अपमानजनक है।
"आपका कहना है, मेरे सारे राजनीतिक विचार आपको स्वीकार नहीं, परंतु क्या आपने
मेरे राजनीतिक विचारों को समझने का प्रयास किया है ? मेरा ठोस मत है कि
हिंदुस्थान को स्वतंत्रता मिलनी चाहिए। संपूर्ण स्वाधीनता मिलनी चाहिए। यह
विचार आपको स्वीकार नहीं?"
उनके इस प्रश्न पर कुछ छात्रों ने गड़बड़ करने का प्रयास किया। तब सावरकर ने
कहा, "आपके विचार मैंने शांति से सुने; अब आप मेरे विचार सुनेंयही सभी का
अनुशासन है। स्वाधीनता-प्राप्ति के लिए, जितने साधन मिलेंगे सभी प्राप्त कर
लेने चाहिए और सैनिकी शांति भी प्राप्त कर लेनी चाहिए-मेरा यह दूसरा मत तो
आपको अस्वीकार नहीं है न?
"मेरा तीसरा विचार-स्वतंत्र हिंदुस्थान के विधिमंडल में जाति, धर्म, निर्विशेष
सभी को समान रूप से व्यवहार करना चाहिए। उस विधिमंडल में मैं चार हिंदुओं के
लिए पाँच मत नहीं माँगता; परंतु आज चार मुसलमानों को जो छह मत दिए जा रहे हैं
वह भी मुझे स्वीकार नहीं। धर्म को यदि अफीम की टिकिया समझा जाता हो तो उसे
फेंकने के लिए मैं हमेशा तैयार हूँ। परंतु यह न्याय केवल हिंदू धर्म पर ही
लागू करने से नहीं चलेगा-वह सभी धर्मों पर लागू कीजिए-मेरा यह विचार आपको
स्वीकार नहीं है?" वीर सावरकर के इस भाषण से अनेक विरोधी ठंडे हो गए। उस सभा का
वृत्त देते समय दैनिक सकाल ने कहा है, "यह सभा शांति से संपन्न हो गई; इसका
सेहरा वि. सावरकर के व्यक्तित्व पर बाँधना होगा।"
(हिंदू सभा पर्व, पृष्ठ ४१)
इकसठी के उपलक्ष्य में सत्कार
(बंबई में;सन्
१९४३)
"मेरे जीवन में जो अनेक विचित्र चमत्कारी प्रसंग मन पर चिरंतन छाप छोड़ गए
उन्हींमें से यह एक प्रसंग है। जिनके विद्यालय में मैं एक समय एक निठल्ला,
आवारा छात्र के रूप में था (कहकहे) मेरे उन्हीं विद्वान् प्राध्यापक की
अध्यक्षता में मुझे आज यह मानपत्र अर्पण किया जा रहा है। (तालियाँ) गणित विषय
तो मैं केवल परीक्षा में उत्तीर्ण होने के लिए ही लेता। और उस समय मेरे गलत
उदाहरणों को उन्होंने ठीक किया होगा। परंतु आज भी वे स्वीकार कर रहे हैं कि
मेरे राष्ट्रीय उदाहरण सही हैं। आज यहाँ ब्राह्मण, अस्पृश्य, सिख, जैन आदि
विभिन्न वर्गों और जातियों के प्रतिनिधि इकट्ठे हुए हैं और हिंदुत्व के
एकमात्र नेता के रूप में मेरा सत्कार कर रहे हैं, यह विगत पाँच वर्षों में
हिंदुत्व की जो जागृति हुई है उसी का परिणाम है। आज मैं हिंदुओं का अधिकृत
नेता हूँ, फिर भी वीर नरीमन मेरे सत्कार में सम्मिलित हुए हैं, इसी से यह सिद्ध
होता है कि मेरी भूमिका राष्ट्रीय है। मूसलमानों से मैं इसलिए विद्वेष नहीं
करता कि वे मुसलमान हैं। अंग्रेजों से भी नहीं। वे भारत छोड़कर जाएँगे तो
(वैसे उन्हें भगाए बिना वे नहीं जाएँगे।) मैं उनसे भी विद्वेष नहीं करूँगा।
जिन चार वर्षों तक मैंने इंग्लैंड में अत्यंत कष्ट और दर्गति में दिन बिताए उन
चार वर्षों में कुछ भले अंग्रेज मित्र भी मझे मिले। इतना ही नहीं अपितु पृथ्वी
ही अपना देश और मानव ही अपना धर्म-यह भूमिका भी मुझे ध्येय के रूप में
स्वीकार है। परंतु न्याय के लिए ही आज राष्ट्र के लिए हिंदुओं को राजकाज करना
होगा। भाई रॉय से, जो मेरे बहुत चहेते थे, मैंने पूछा था, 'क्या आप हिंदी है?'
उस समय उन्होंने 'हाँ' की। फिर कॉकेशस छोड़कर हिमालय के इस तरफ की भूमि के
टुकड़े पर अभिमान विश्वकुटुंब समा लेनेवाले कम्युनिज्म के समर्थक करें-यह
विचित्र नहीं है? क्योंकि वह भी एक तरह का जातीयत्व ही है। परंतु सभी राष्ट्र
स्वार्थी हैं। जो रूस के कमिंटर्न की घोषणा से सिद्ध हुआ है वह हम पहले से ही
कह रहे थे। हिंदू महासभा का इस प्रकार के अभिप्राय का प्रस्ताव हमने युद्धारंभ
में ही किया था। रूस पर किए गए अत्याचारों से रूसी लोग द्रवित होते हैं,
अंग्रेजों पर किए गए आक्रमण के प्रतिकारार्थ अंग्रेज तैयार हो गया है, फिर भला
हिंदुओं पर हो रहे अत्याचारों का प्रतिकार होना ही चाहिए यह कहने में पाप
कैसा? आज हिटलर अंग्रेजों का शत्रु होगा, परंतु अपने राष्ट्र का वह एक महान्
पराक्रमी नेता है इसे नकारा कैसे जा सकता है? आपका स्वस्तिक चिह्न और आपके
आर्यवंश का अभिमान शान से दिखाकर उसने अपने मृतप्राय जर्मन राष्ट्र को फूंक
मारकर इतने समृद्धि के शिखर तक पहुँचाया है। हम भी जीवित हैं। हमने भी इतिहास
का डंका बजाया है। इसी स्वस्तिक तले वेदकाल से हमारे अनेक साम्राज्य रस-बस गए
हैं। हमने शक और हूणों को हज्म किया है और शत्रु के तख्त फोड़ दिए हैं।
पराक्रमी बेबीलोन, रोम, यूनान, मिस्र की संस्कृति का अस्तित्व कहाँ है?
परंतु हम हिंदू राष्ट्र के रूप में अभी तक जीवित हैं। और वह भी किसी के उपकार
से नहीं अपितु अपने पराक्रम से जीवित हैं (तालियाँ)। सात सौ वर्षों से चले आ
रहे संघर्ष के पश्चात् हमने मुसलमानों को पराभूत किया था। इतने में ब्रिटिश
जैसा शक्तिशाली शत्रु हमारे सामने आ खड़ा हुआ। इतना ही नहीं अपितु एक पीढी के
अंदर ही यदि आप राष्ट्र के रूप में खड़े रहे तो अनेक शत्रुओं की तरह अंग्रेज
को भी उसी श्मशान का मार्ग अपनाना होगा। यह मेरा वृथाभिमान नहीं। यह सत्य
इतिहास है और वह भी इसलिए कि हमारे शत्र अपने अत्यंत ऐतिहासिक श्रेष्ठत्व के
पवाड़े गाते हैं।
कई बार जिन्ना कहते हैं कि वे अल्पसंख्यकों की ओर से बोल रहे हैं। फिरोज़शाह
मेहता, दादाभाई नौरोजी. वाच्छा से लेकर वीर नरीमन तक पारसियों ने कभी हमसे
शत्रुता नहीं की। ईसाइयों ने कभी अपनी खिचड़ी अलग नहीं पकाई। इसके विपरीत
हमारे शत्रुओं ने ही ईरान से पारसियों की अग्नि-ज्योति बुझाई न? उन्हें आश्रम
दिया हमने। इन सभी अल्पसंख्यकों में हिंदू विरोध की शक्ति नहीं, न ही इच्छा।
अत: 'अल्पसंख्यकों की लड़ाई' यह जिन्ना का हो-हल्ला मिथ्या है। मात्र एक ही
अल्पसंख्यक का यह हो-हल्ला है-मुसलमानों का। मैं कहता हूँपाकिस्तान यदि
अस्तित्व में आएगा तो वह अंग्रेजों के कारण नहीं। राज्य व्यवस्था. प्रादेशिक
एकता के लिए उन्हें वह महँगा पड़ेगा। मुसलमानों के लिए तो यह कार्य ही असंभव
है। भला उनके हाथ में हिंदुओं से अधिक कितना शस्त्र सामर्थ्य है ? कितनी तोपें
हैं ? कितने हवाई जहाज हैं? ले-देकर छुरे में ही उनका सारा बल समाया हुआ है। एक
हाथ में पीनल कोड थामकर उस शस्त्र के साथ उसी हथियार से लड़ने के लिए अब हिंदू
पूर्णतया समर्थ हैं। (तालियों की गड़गड़ाहट)
"आपकी आत्मशक्ति के अतिरिक्त अन्य कोई भी आपको अपने कार्य में सहायता नहीं
करेगा। स्पेन और चीन को नेहरू ने दवाइयों की शीशियाँ भेजीं। वही नेहरू आज
सलाखों के पीछे हैं। चीन के च्याँग-काई-शेक ने उन्हें क्विनाइन की एक पुड़िया
भी नहीं भेजी। मुसलमानों को कोरा चेक देने की भाषा अब बंद करो। 'अहिंसा
सर्वश्रेष्ठ है' यह निरर्थक एवं वाहियात धारणा है। आत्यंतिक अहिंसा आत्यंतिक
पाप है न कि पुण्य । इस प्रकार की नई घोषणा अब हिंदुओं में प्रचलित हो गई
है-उपर्युक्त वाहियात अनर्गल घोषणा अब मिटा दो और दूसरी तरह की सत्य घोषणा
रूढ़ करो।
"हमें बाहरी आसरा है। ईरान, अफगानिस्तान से हम जा मिलेंगे-इस तरह मुसलमानों का
हो-हल्ला व्यर्थ है। जापान और चीन-ये हमारे सहधर्मी-बुद्धधर्मी हैं-हमारे लिए
जितने उपयुक्त हैं, उतना ही लाभ उपर्युक्त राष्ट्रों से मुसलमानों को होगा।
(ठहाके)
"युवावस्था में मैंने सशस्त्र क्रांति के जो प्रयास किए उसका मुझे रत्ती भर भी
पछतावा नहीं हो रहा है। मार्लो-मिंटो सुधार पढ़िए। तत्कालीन अन्य राजनीतिक लेख
पढ़िए। फिर यह स्पष्ट होगा कि वर्तमान राजनयिक सुधार हमारे ही प्रयासों का फल
है।
"आंबेडकर कहते हैं, हमें अस्पृश्य के स्थान चाहिए। उन्होंने मुझे अपनी माँगें
बताई हैं। यदि अछूतों ने जंगल में भी उपनिवेश किया तो भी व्यवहार के लिए
उन्हें हिंदुओं के पास ही आना होगा। उनकी अन्य माँगें ऐसी नहीं हैं कि जिन्हें
अस्वीकार किया जाए। वे भी हमारे बंधु ही हैं। हम उन्हें वह अवश्य देंगे जो
न्याय्य है। परंतु पाकिस्तान और स्वयं निर्णय-हिंदू कदापि मान्य नहीं करेंगे
(तालियाँ)। पाकिस्तान से भी अधिक घातक है स्वयं निर्णय का सिद्धांत । क्योंकि
उससे एक ही क्यों, अनेक पाकिस्तान अस्तित्व में आएँगे। उस दिन नेता परिषद्
छोड़कर मैं इसी कारण चला गया क्योंकि राजबंदियों की मुक्ति की माँग महासभा ने
इससे पूर्व ही की थी। परंतु वह मुक्ति वैधानिक संकट का निवारण करने के लिए हो
और यह संकट निवारण पाकिस्तान को मान्यता देकर जिन्ना को साष्टांग दंडवत्
करना-परिषद की इस चाल को मैं कदापि मान्य नहीं करता। To solve deadlock in
that way, would have been a deadlock for Hindus. अल्पसंख्याओं को जनसंख्या की
मात्रा में प्रतिनिधित्व का समान नागरिक अधिकार और उनकी भाषा, उनका धर्म और
उनकी संस्कृति को वह सुरक्षा देने के लिए मैं प्रस्तुत हूँ जिसपर हिंदुओ को
कोई भी एतराज न हो। परंतु अब भविष्य में हिंदुत्वनिष्ठ राजनीति के लिए हम
मुसलमानों की एक भी अधिक माँग मान्य नहीं करेंगे। इस युद्ध के पश्चात् जब
चुनाव आएँगे, उस समय कट्टर हिंदू संघटकों को ही हिंदुओं ने निर्वाचित किया तो
पाकिस्तान की बोलती चुटकी बजाते ही बंद हो जाएगी। हिंदू मतदाताओं का यह एक
प्रमुख कर्तव्य है।
"आपने मेरा जो सत्कार किया उसको व्यक्ति के रूप में मैं स्वीकार नहीं करता
अपितु मेरे ही लहू के उन देशभक्तों के एक प्रतिनिधि के रूप में मैं इस सत्कार
को स्वीकार करता हूँ जो सन् १८५७ के स्वाधीनता संग्राम में हुतात्माएँ बन गए;
चापेकर, कान्हेरे जो फाँसी पर चढ़ गए और जो आभी बंदीगृह में कष्ट झेल रहे हैं।"
(स्वा. वीर सावरकर का जन्म वैशाख वदी ६ विक्रम संवत् १९३७ अर्थात् २८ मई, १८८३
में हुआ। विक्रम संवत् १९९९ अर्थात् मई १९४३ में सावरकर की षष्ठपद्वी पूर्ति
के उपलक्ष्य में सर्वत्र सत्कार किया गया। युवावस्था में सावरकर पुणे के
फर्ग्युसन महाविद्यालय में पढ़ते थे। उस समय सन् १९०३ में उन्होंने विदेशी
वस्त्रों की होली जलाई। इसे एक अपराध समझकर फर्ग्युसन के तत्कालीन प्राचार्य
रँगलर रघुनाथराव परांजपे ने उन्हें दस रुपए का अर्थदंड दिया। वही गुरुवर्य
परांजपे इस समय सावरकर के सत्कार समारोह के अध्यक्ष थे। आज उन्हीं के करकमलों
द्वारा सावरकर को थैली अर्पण की गई। इस सत्कार प्रसंग में अनेक संस्थाओं की
और से उन्हें पुष्पहार अर्पित किए गए। गजेंद्र शुंडे (हाथी) से भी सावरकर को
पुष्पमाला अर्पित कराई गई। मख्य वक्ताओं के भाषण हुए। इस सत्कार का
स्वातंत्र्यवीर द्वारा दिया गया उत्तर ऊपर दिया है।
ऐसे ही सत्कार पणे, नागपर आदि स्थानों पर हुए। उस समय के भाषण आगे दिए हुए
हैं।)
वीर सावरकर की भूमिका में सुसंगति
(इकसठी के उपलक्ष्य में सत्कार : पुणे)
"प्रिय बंधु, भगिनी।
"विगत तीन-चार महीनों से परिश्रमपूर्वक आपने मेरा जो सत्कार किया उसके कारण
अत्यंत आदरयुक्त प्रेमवश मेरे मुख से शब्द निकलना कठिन हो गया है। कुछ भावनाएँ
इतनी गहरी और कोमल होती हैं कि उनसे शब्दों का स्पर्श भी सहा नहीं जाता। भाई
को अपनी बहन मिल गई, पिता को अपना खोया हुआ पुत्र मिल गया, साजन को सजनी मिल
गई अथवा अपने मरणासन्न पुत्र का स्वास्थ्य सुधर रहा है, तुम निश्चिंत मन से सो
जाओ-इस तरह किसी माता की डॉक्टर द्वारा आश्वस्त होने पर जो भावना होती है वह
शब्दों से व्यक्त नहीं की जाती। बालक की ओर देखने से ही दृष्टि में वह भावना
व्यक्त होती है। इस प्रसंग का वर्णन करने में कालिदास, भवभूति अथवा वायरन की
प्रतिभा अथवा कल्पनाविलास अधूरा रहेगा। यह प्रसंग ही ऐसा है कि कलेजा पसीज
जाएगा। यह आदर केवल महाराष्ट्र ने ही व्यक्त नहीं किया अपितु कश्मीर से मद्रास
तक और द्वारका से असम तक लाखों लोगों ने यह आदर व्यक्त किया है। यह पढ़कर और
यह दृश्य देखकर मेरा मन गद्गद हो उठा है। समझ में नहीं आ रहा, किन शब्दों में
कृतज्ञता व्यक्त करूँ। मैंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि इस सुशोभित
विजयद्वार से आपके सम्मुख आना होगा और इस प्रकार मेरा सत्कार किया जाएगा। किसी
ज्योतिषी ने ही नहीं, परंतु स्वयं वायसराय यदि मुझे पुनर्विचार का पत्र लिखता
तो भी मेरा उसपर कदापि विश्वास नहीं होता। क्योंकि जिस दिन मैंने अंदमान के
कारागृह में प्रवेश किया, उसी दिन मैंने यह गिरह में बाँध लिया कि अब यहाँ से
मेरी अरथी ही निकलेगी। मुझे पूरी तरह विश्वास हो गया है कि मैं काल के उदर में
पूरा-पूरा पहुँच गया हूँ। जैसे मैं कब्र में जीवित वास कर रहा था। (कब्र में
दिन गिन रहा था।) वह मेरी चिता के भस्म रूप में उधर विचरण कर रहा था। यही
भावना मन में सँजोए हुए मैंने अंदमान में कालक्रमण किया कि मैं मृत्यु में
जीवित था। तुम्हारा कभी कोई इकसठवाँ जन्मदिवस मनाकर तुम्हें थैली अर्पण
करनेवाला है यह भावना मन में रखता तो मुह को खाना पड़ता। क्वचित् मोहवश
देशद्रोह की कुबुद्धि होती। जिन्होंने इस तरह की काररवाइयाँ की होंगी उन्हें
मैं कुछ अधिक दोष नहीं दूंगा। क्योंकि वे परिस्थितियों के पाश से इतने कसकर
जकड़े गए थे कि किसी को इस तरह की बुद्धि होना स्वाभाविक है। यदि ऐसी बुद्धि न
होती तो वह प्रशंसा पात्र सिद्ध होता।
"जीवित रहने के लिए यदि हम भीतर चले जाते तो मरने के सिवा और कोई चारा नहीं
था। हम कब्र में जी रहे थे। जैसे हम मृत्यु के घर में रहते थे। काल के इस
शिकंजे से भी हम बाहर निकले। कराल काल की कैद से हम बाहर निकले। मुक्त होने के
पश्चात् मैंने देखा, मैं स्वयं व्यक्ति के रूप में शेष नहीं बचा था। मैं
स्वयं कोई नहीं-व्यक्ति रूप शेष नहीं-मात्र हिंदुत्व की चीख बनकर शेष रहा था।
मक्ति के पश्चात् मन में आई योजना का सुसंगत विचार कथन करने का निश्चय किया।
स्वतंत्रता के उच्चारण के लिए हमने अनेक यातनाएँ झेलीं। आज आप इसका निर्भीकता
के साथ उच्चारण कर रहे हैं यह देखकर मैं धन्य हूँ। हम सभी को यह घोषणा कोई नई
बात नहीं लगती। ऐसी विकट परिस्थितियों में सशस्त्र विद्रोह का गठन किया और उसे
करके भी दिखाया। इसका मुझे रत्ती भर भी खेद नहीं है। क्या कहा जा सकता है,
पुनः उसी मार्ग से जाना पड़ा तो भी हम झिझकेंगे नहीं। मुझे अपने उस कृत्य का न
कभी पश्चात्ताप होगा और न ही हुआ था। लंदन के कोर्ट में मुझ पर एक से बढ़कर एक
आरोप लगाए गए तब वहाँ के वकीलों ने 'हाय-हाय' का शोर मचाया। तथापि मेरे मन की
शांति कभी भंग नहीं हुई। उस समय स्वतंत्रता शब्द का उच्चारण मात्र घोर पाप
समझा जाता था। आज सहस्र मुखों से सरेआम, सरेबाजार, निर्भीकता से स्वाधीनता की
घोषणाएँ सुनीं। 'स्वतंत्रता अमर है', 'क्रांति अमर है' ये घोषणाएँ सुनीं, तब
भला मुझसे अधिक प्रसन्नता किसे होगी? इन घोषणाओं को सुनने के बाद यह मेरे पक्ष
का महामंत्र आज आप लोगों को छाती ठोंककर उच्चारण करते हुए देखकर यदि मैंने कहा
कि मैं और मेरा पक्ष विजयी हो गया तो इसमें अतिशयोक्ति नहीं होगी। इस एक शब्द
की खातिर मेरे पक्ष के देश-बांधव फाँसी पर चढ़ गए। अंदमान में सड़ते रहे अथवा
घायल (जामबंदी) हो गए। परंतु उस त्याग का परिपाक हुआ और 'स्वतंत्रता' यह शब्द
सदा के लिए उत्कीर्ण किया गया।
"जब तक लोकमान्य तिलक जीवित थे तब तक विशुद्ध राष्ट्रीयत्व की धारणा चल
रही.थी। परंतु लोकमान्य के पश्चात् खिलाफत आंदोलन आदि झमेले राजनीति में घुसकर
भीड़ करने लगे। यद्यपि उस समय मैं अंदमान में था तथापि ये घटनाएँ मेरे कानों
तक पहुँच रही थीं। यह एक बड़ा रहस्य ही है कि तिलक के गुजरते ही हिंदू-मुसलमान
एकता का क्यों निर्माण हो गया? गांधी आदि के अनुसार स्वराज्य आंदोलन न करते
हुए मात्र खिलाफल आंदोलनार्थ निरपेक्ष बुद्धि से समर्पित होना चाहिए। श्री
केलकरदास आदि नेताओं ने 'स्वराज्य' शब्द का आग्रह किया था। गांधी के अनुसार एक
केवल स्वराज्य प्राप्ति न भी हो तो कोई बात नहीं; परंतु खिलाफत आंदोलन के
लिए झगड़ा करना होगा ताकि चुटकी बजाते ही हिंदू मुसलिम एक होंगे। यह उनका भ्रम
था। उनका यह ऐतिहासिक अज्ञान था। उस समय कई स्थानों पर जातीय दंगे हुए। मोपलों
की बगावत में हिंदुओं की लाशों के ढेर लग गए और उनके फतवे निकलते कि इन
दंगा-फसादों में हिंदुओं का बाल भी बांका नहीं हुआ। कितना सफेद झूठ! उनकी यह
अलल बछेड़ी धारणा थी कि सत्य घटना कहने से मुसलमान नाराज होंगे और एकता भंग
होगी। अदमान से मुक्त होने के पश्चात् मैं यह सब तमाशा देख रहा था।
"जिस विशुद्ध लोकतंत्र के लिए दादाभाई नौरोजी, लाला लाजपतराय आदि नामवर
कांग्रेसी नेताओं ने आकाश-पाताल के कुलावे एक किए थे, उनके पश्चात् कांग्रेस की
गलत भावनाओं का शिकार होकर गांधीजी ने उसे गड्ढे में ढकेल दिया। हिंदू-मुसलमान
अलग हैं यह आवरण प्रथम कांग्रेस ने निर्माण किया और यह पाप मैंने देखा।
स्वराज्य और स्वाधीनता की भावनाएँ अस्त होती गईं और नए विशेष को प्रसन्न करने
के लिए ही हिंदू हित का होम होने लगा। जिस राष्ट्र में जो लोग बहुसंख्य होते
हैं वही करते हैं-इस तरह का सिद्धांत है। परंतु इस तत्त्व पर हरताल फेरा हुआ
दिखाई देने लगा। अतः यह भूल दिखानी पड़ी और हिंदू महासभा ने यह भूल दिखाकर
उनके नेत्रों में तीखा अंजन डाला। भई, हमें अलग खिचड़ी पकाने की आवश्यकता ही
क्या थी? लोकतंत्र के सिद्धांत के अनुसार यदि मुसलमान हिंदुस्थान में रहें तो
हमारा विरोध नहीं। परंतु एक मुसलमान को तीन वोट और तीन हिंदुओं को एक वोट-यह
हम कभी नहीं सहेंगे। परंतु कांग्रेस उनसे अभिभूत हुई और दो जातियों में विभाजन
हो गया। औरंगजेब अथवा महम्मद गोरी को चर्चिल साहब ने तार भेजकर मंदिर की
तोड़फोड़ का न्योता तो नहीं भेजा था। यह विधान कतई युक्तिसंगत नहीं कि तीसरा
पक्ष हम दोनों का झगड़ा करवाता है। कांग्रेस के निर्मित होते ही सर सैयद अहमद
ने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि कांग्रेस में जाएँ। क्योंकि लोकतंत्र के
सिद्धांत के अनुसार हिंदुओं का राज हमपर होगा। इस प्रकार उन्होंने स्पष्ट
चेतावनी दी थी। इससे इसकी संगति लगती है कि उनके मन में किस तरह शैतान हुड़दंग
मचा रहा था। (खंड १, पूर्वपीठिका देखें, संपादक)
"यदि आपकी कांग्रेस विशुद्ध समिति है तो सभी को समभाव समता दिखाएँ। स्वामी
श्रद्धानंद की हत्या में हत्यारे रशीद के प्रति दया दिखाने के लिए स्वामीजी के
पुत्र से प्रार्थना की गई-इसका अर्थ यह हुआ कि और दस-पाँच श्रद्धानंद भी मारे
गए तो भी अन्याय सहते हुए एकता साधने के लिए हिंदुओं को हाथ पर हाथ धरे बैठना
चाहिए। एक-दो-तीन-चार अन्याय हिंदुओं ने सहे-इससे आगे वे कदापि नहीं सहेंगे।
वास्तविक अर्थ में हम राष्ट्रीय बन गए हैं। जिस देश में जो जाति बहुसंख्य हो
तो देश उसी का होगा-यह सिद्धांत है। इसपर हिंदुस्थान स्वतंत्र अथवा परतंत्र
रखना यह अन्य किसी के भी हाथ में नहीं, केवल हिंदओं के ही हाथ में है। अंग्रेज
तथा मुसलमान एक हो गए फिर भी अट्ठाईस कोटि हिंदू शूर बन गए तो हिंदू उनके लिए
भारी पड़ेंगे और वे स्वतंत्रता हासिल करेंगे।
"हमारी राष्ट्रीयत्व की यही व्याख्या है। आज या कल मुसलमान तो विरोधी बनेंगे
ही। हम स्पष्ट संकेत देते हैं कि इस देश में सभी लोगों का स्वत्व रहेगा। किंतु
प्रथम स्वत्व हिंदुओं का रहेगा-वही स्वराज्य है। यही हमारी टेक है। अत: महासभा
ने राजनीति के सूत्र अपने हाथों में लिये और महाराष्ट्र में इस कार्य को
जोरदार गति मिल गई। देश का जो कुछ भला-बुरा हुआ वह महाराष्ट्र से और इसी पुणे
से हुआ। श्री शिवाजी महाराज को दादाजी कोंडदेव ने स्वतंत्रता के पाठ पढ़ाए,
बालाजी विश्वनाथ पुणे में पेशवा हो गए, सदाशिवराव भाऊ प्रचंड सेना लेकर यहीं
से रवाना हुए। यह जैसे भला हुआ, वैसे पुणे में बुरा भी हुआ था। इसी पुण्य नगरी
में पेशवाई का अस्त हुआ। उसपर लोकहितवादी आगरकर आदि पुणे से बाहर निकल गए।
हुतात्मा चापेकर पुणे की ही देन हैं। मैंने बाहर निकलने के बाद चारों ओर देखा।
लोकमान्य की शिक्षा की धरोहर मुझे महाराष्ट्र में दिखाई दी। मुझे कौतुक भरी
प्रसन्नता हुई।
"पूर्ण चंद्रमा की पूजा कोई नहीं करता। पतली सी चंद्रकला पूजनीया होती है और
पल भर के लिए मुझे महाराष्ट्र में उसका दर्शन हुआ। वास्तविक अर्थ में
महाराष्ट्र ने राष्ट्रीय भावना का संरक्षण-संवर्धन किया। मैं मिथ्या
राष्ट्रीयत्व को हाथ जोड़कर यहाँ आ गया। जब कभी राजनीति की बागडोर महाराष्ट्र
के हाथ में आई तब राजनीति हिंदुओं के अभ्युदय की ही हुई है। जिन्ना कहते हैं,
सावरकर ने मुझे दो राष्ट्रों की सीख दी। यदि जिन्ना मुझे अपना गुरु समझते हैं
तो पूर्ण रूप से समझें। गुरु संपूर्णतया मानना चाहिए न कि आधा-अधूरा। मुसलमान
यदि न्याय अधिकार माँगकर एकराष्ट्र मानने के लिए तैयार हों तो भी अब हम उनपर
विश्वास रखने के लिए तैयार नहीं। मेरे हिंदु बंधुओं को हिंदुत्व का सिद्धांत
मान्य हुआ है। कांग्रेस के कुछ बंधुओं के हृदय में भयवश इस प्रकार की उलझन
निर्माण हो गई है कि हिंदूसभा या कांग्रेस। शीघ्र ही उनका भ्रम दूर होगा।
हमारे आचरण और ध्येय में कहीं भी विसंवादी सुर नहीं है। हमने बाल्यकाल में
श्रीदेवी के सामने जो शपथ ली उसका आज इकसठ वर्ष तक पालन करता आ रहा हूँ और आज
भी हमारी वही शपथ कायम है। नीति के रूप में हम कभी दो कदम पीछे जाएँगे तो कभी
चार कदम आगे बढ़ेंगे-यह युद्धनीति है। सच्चा शूर चतुराई तथा बुद्धिमानी से
दाँव-पेच लड़ाता है और कुछ लोग उस शूरता का प्रदर्शन करने के आवेश में गधे
बनते हैं। हम पहले से जो नीति कहते आए हैं वही आज भी कहते हैं। मात्र धागे से
वर्ष भर में ही स्वराज्य प्राप्ति होगी, इस प्रकार हमने कभी नहीं कहा। इसके
विपरीत बिना शस्त्रों के स्वराज्य नहीं; सत्ता उसी की, जिसके पास सेना है-यही
हम कहते आए हैं और आज भी कहते हैं। युद्ध के कारण देश में कारखाने खुल चुके
हैं। सैनिकीकरण का द्वार जो आज तक हमारे लिए बंद था वह अब पूर्णतया खुला हुआ
है। अत्याधुनिक साधनों का लाभ उठाने का यह अवसर है। हमारी नीति में रत्ती भर
भी अंतर नहीं आया। देशकाल परिस्थितियों के अनुरूप हमने सही नीति का आयोजन किया
है।"
इकसठवीं वर्षगाँठ के उपलक्ष्य में सत्कार : नागपुर
"आपकी नगर संस्था ने एकमत से मुझे मानपत्र देने में जो एकात्मकता का प्रदर्शन
किया यह एक संतोषजनक घटना है तथापि इस एकमत का सप्रयोजन उल्लेख करना पड़ा यह
दुःख की बात है। इसका अर्थ है कि हिंदू-मुसलमानों में ऐक्य मत नहीं है और वह
कहीं दिखाई भी दिया तो वह एक असंभवनीय आश्चर्य है। मेरे विचार से दोनों समाज
प्रेम से मिलजुलकर रहें तथा परस्पर समाज के महान् नेताओं का आदर करें। हाँ,
परंतु एक समाज सतत दूसरे समाज से समझौता, तालमेल रखने का प्रयास करे और दूसरा
समाज हमेशा उसपर हावी होकर उसके सुख समाधान से खेले यह मैं कदापि सहन नहीं
करूँगा। हो सकता है विधिमंडलादि स्थान मतभेदातीत नहीं रह सकते। परंतु नगर
संस्थाओं जैसी संस्थाओं में एकमत से कार्य करने का अभ्यास होना आवश्यक है।
क्योंकि हिंदू-मुसलमान दोनों के लिए नागरिक जीवन की आवश्यकताएँ समान ही होती
हैं।
आर्थिक समस्या पर हिंदुस्थान के जातीय प्रश्न सुलझाए जा सकते हैं या नहीं? इस
प्रश्न का उत्तर देते समय स्वतंत्रता सेनानी सावरकर ने कहा कि "हिंदुस्थान के
प्रश्न केवल आर्थिक नहीं हैं। इधर आर्थिक प्रश्न के साथ सांस्कृतिक और अन्य
प्रश्नों की भी मिलावट हुई है। आर्थिक समस्याओं पर अधिक बल देने से कुछ
समस्याएँ सुलझ सकती हैं तथापि सभी समस्याओं को सुलझाने का वही एकमात्र उपाय
नहीं हो सकता। मनुष्य केवल पैसे पर जीवित नहीं रहता। उदाहरण के लिए रेलवे
फेडरेशन की ओर देखें। हिंदू और मुसलमान रेल कर्मचारियों के हित-संबंध एक होते
हुए भी उसमें हिंदू फेडरेशन और मुसलमान फेडरेशन ये दो विभाग कैसे हो गए?"
हिंदुओं की संस्कृति और सांस्कृतिक अवशेषों की सुरक्षा करने का कार्य हिंदू
महासभा के कार्यक्रम में समाविष्ट है या नहीं? उसके लिए वह क्या प्रयास कर रही
हैं? इस प्रश्न का उत्तर देते समय उन्होंने कहा, "हिंदू महासभा कोई ऐसी सभा
नहीं जो हवा में लहराती हो। महासभा की इच्छा होते हुए भी कुछ बातें वह नहीं कर
सकती और इसका कारण है मनुष्य बल तथा साधनों का अभाव। सभी हिंदू यदि एक ध्वज तले
एकत्रित हो गए तो वह हिंदू जीवन की सारी समस्याएँ सुलझाने में सफल होगी।
हिंदुओं का सर्वांगीण पुनरोत्थान करना महासभा का ध्येय है। हिंदु महासभा ने
क्या कि या यह प्रश्न हमसे करने से पहले बड़ी संख्या में वे हमसे आकर मिलें
ताकि सभी के प्रयत्नों से यह पहाड़ हम उठा सकें।"
जिन्ना के इस विचार से संबंधित कि हिंदू और मुसलमान दो भिन्न राष्ट्र हैं आपकी
क्या राय है? इस प्रश्न का उत्तर देते समय राष्ट्रवीर सावरकर ने कहा कि "जी
हाँ, ये दो भिन्न राष्ट्र हैं-यह ऐतिहासिक सत्य ही है और यह गाँठ में बाँधकर
ही हिंदुओं को अपनी स्वतंत्र संघटना खड़ी करने के कार्य में जूझना होगा। इसका
अर्थ यह नहीं कि हिंदुस्थान को दो टुकड़ों में बाँटना चाहिए। जर्मनी में अथवा
ग्रेट ब्रिटेन में इस प्रकार के दो भिन्न राष्ट्र एक ही साधारण राज्यतंत्र के
घटक के रूप में रह सकते हैं। उसी तरह हम भी हिंदुस्थान में क्यों नहीं रह
सकते? अथवा उसके बिना हमें चारा ही नहीं। कुछ भी हो हम अपनी राष्ट्रमाता की
देह के टुकड़े कदापि नहीं होने देंगे। जिन्ना के इस आह्वान को स्वीकार करके हम
अपनी संघटना मजबूत करेंगे और फिर एक व्यक्ति एक मत' सिद्धांत के अनुसार जो
हमें सहयोग देने को उत्सुक हो उसके आगे सहयोग का हाथ बढ़ाएँगे।
हिंदुस्थान मात्र हिंदुओं का ही देश है। इस सिद्धांत पर मेरा प्रगाढ़ विश्वास
है और इस थैली में बस उन्हीं के पैसे हों जिनका मेरे समान ही इस सिद्धांत पर
विश्वास है-यदि ऐसा न हो तो उन पैसों को छूने की भी मेरी इच्छा नहीं है। वे
उन्हें ले जाएँ जिनके वे हैं। आपका यह सत्कार 'सावरकर' नामक व्यक्ति का नहीं
अपितु सन् १८५७ से आज तक जिन्होंने देश की स्वतंत्रता के लिए प्रज्वलित किए गए
संघर्ष के यज्ञकुंड में अपने प्राणों की आहुति दी, जिन्होंने सशस्त्र अथवा
नि:शस्त्र टक्कर देकर आपदाओं को सहा और कारावास भुगता तथा उसी कार्यफल को आज
भी भुगत रहे हैं, उन सभी का सत्कार इसमें अभिप्रेत है-इसी धारणा से उनकी ओर से
मैं इसे स्वीकार करता हूँ। असंख्य संस्थाओं के पुष्पहार मेरे गले में पड़े हैं
(मेरे गले की शोभा बने हैं।) परंतु जब से मैं नागपुर में आ गया तब से उन भावकर
की मूर्ति जो मेरे स्वागत की गड़बड़ी में अपने प्राण गँवा बैठे, जिनकी चारों
ओर लहू का तालाब भर गया था और मेरे स्वागत का हार जिनके हाथों में पसा का वैसा
ही रह गया था यह दृश्य मेरी दृष्टि के सामने जैसे स्थिर हो गया है। उनके
परिवार के लिए प्रेमोपहार के रूप में इस थैली में से दो सौ रुपए अर्पण करता
हूँ। उसी तरह जगन्नाथ प्रसाद वर्मा के, जिन्होंने अपने स्वास्थ्य एवं भविष्य
की परवाह न करते हुए हिंदुत्व के कार्यार्थ अपने प्राणों का बलिदान दिया,
परिवार को भी प्रेमोपहार के रूप में दो सौ रुपए अर्पण करता हूँ।" इसके पश्चात्
वर्तमान परिस्थितियों की ओर मुड़कर उन्होंने कहा कि "इस युद्ध का अन्त चाहे
कुछ भी हो परंतु उसके परिणामस्वरूप हिंदुस्थान का पग राजनीतिक प्रगति के मार्ग
पर आगे ही बढ़ेगा-इसे पत्थर की लकीर समझिए। यदि अंग्रेज युद्ध जीत गए तो
आत्महित की दृष्टि से उन्हें हिंदुस्थान को राजनीतिक अधिकार देने ही पड़ेंगे;
चाहे उनके मन में हो या न हो। हिंदू महासभा के प्रचार के कारण आज सेना में साठ
प्रतिशत हिंदुओं की भरती हो गई है। युद्ध समाप्ति के पश्चात् कल इस हिंदू सेना
के स्वदेश लौटने पर राजनीतिक घटना में हिंदुओं का ही दबदबा होगा; इसमें कोई
संदेह नहीं। इससे पूर्व पंजाबी मुसलमान और उनके पश्चात् सिखों का सिक्का
भारतीय राजनीति में क्यों जम गया इसका शांति से विचार करने पर मेरी बात आपको
समझ आ जाएगी। हिंदुओं को यदि राजसत्ता की कामना हो तो उन्हें सेना में
अधिकाधिक भारतीय होने का क्रम जारी रखना होगा और अत्यंत महत्त्वपूर्ण सूचना यह
कि जिस सिमय युद्धोत्तर काल में हिंदुस्थान की राज्य घटना संपन्न करने का
प्रसंग आएगा तब, अभी से आपको इस बात की चिंता करनी होगी कि, वहाँ ऐसा ही
प्रतिनिधि जाएगा जो हिंदू हित की रक्षा करेगा और जो हिंदू माता-पिता का नाम
गर्व से सीना तानकर बताएगा।"
महाराष्ट्र को हिंदुस्थान का खड्गहस्त होना चाहिए
(मृत्युंजय दिन सत्कार)
(स्वतंत्रता सेनानी सावरकर ब्रिटिश सरकार द्वारा दिए गए दो आजन्म कारावास के
पचास वर्ष के कालखंड से ही उबर गए। इस उपलक्ष्य में स्वतंत्रता सेनानी का
मृत्युंजय दिवस पुणे में भव्य रूप से संपन्न किया गया-(१५ जनवरी, १९६१ के दिन।
उस समय अपने अंतिम सार्वजनिक भाषण में उन्होंने कहा-)
"सभा समाप्त हो रही है। सभा में बैठने की मेरी शक्ति भी अब समाप्त हो रही है।
अत्यंत क्षीण अवस्था में मुझे महाराष्ट्र के अनुरोध के कारण पुणे आना पड़ा।
क्योंकि मेरे सत्कार निधि मंडल की सभी शाखाओं के सदस्यों ने पुणे आने का
आश्वासन दिया था। मैंने कहा, मैं कोई भी एक सभा लूँगा और आ गया।
"परंतु अब मुझसे थोड़ा सा बोला नहीं जाता। मेरे पेट में बहुत पीड़ा होती है।
आप जिसे व्याख्यान-व्याख्यान कह रहे हैं और यहाँ पुणे की गली-गली में मैंने
दो-दो घंटे व्याख्यान दिए हैं-पर ऐसा व्याख्यान अब मुझसे नहीं होगा। आप यहाँ
आए यह भी एक व्याख्यान ही है-अपनी कृतज्ञता का, विनय का त्याग करके मानता हूँ
कि-हमने इतना तो किया है कि थोड़ी-बहुत कृतज्ञता आप में है। सत्य के लिए विनय
के लिए असत्य नहीं बोलना चाहिए। आवश्यक हो तो यथावश्यक सत्य कथन करें। भले ही
विनय एक ओर रहे। उसी तरह हमारे तात्या (सेनापति बापट)-भई, उन्हें भी ऐसी क्या
पड़ी थी? इस गोमंतक में हुल्लड़ निकलते ही, पाखलों (पोर्तुगीज) की गोलियाँ
सहनी पड़ें तो कोई बात नहीं; पर जाना आवश्यक है। मेरी दृष्टि से यह सरासर गलत
था। परंतु बापट उधर गए ही, इसलिए कि कोई उन्हें कामचोर न समझे। अत: मैं
समझता हूँ, जब तक ऐसे निर्भीक लोगों की उपस्थिति है, ऐसे लोगों के संबंध में
जिनके मन में कृतज्ञता बुद्धि है-उस समाज का कुछ-न-कुछ भविष्य है। इससे अधिक
कुछ बोलने की जरूरत नहीं, किंतु लंबे समय से बोलते-बोलते मेरा ही मन ऐसा हो
गया है कि कुछ बातें बताए बिना रहा नहीं जाता। इसीलिए मेरी अपने राष्ट्र विषय
में जो भावना है वह मैं आपके सामने केवल गद्य में व्यक्त करना चाहता हूँ।
उसमें उपमा नहीं, अलंकार नहीं, वक्तृत्व नहीं जैसे सेनापति बापट कहते हैं।
उनसे भी अधिक प्रभावहीन शब्दों में कथन करूँगा। यह सत्य है कि हमारे देश को
कुछ थकावट, सुस्ती के दिन आ गए हैं, परंतु आप लोगों के सामने थकावट न रखें।
दोनों पहलू रखें। भारत का तीन चौथाई हिस्सा आज स्वतंत्र है परंतु समर्थ
नहीं-एक का छोर दूसरा नहीं देख सकता। यह दक्षिण देखो-भाऊसाहब ने उद्गीर की
लड़ाई जीतने के पश्चात् पानीपत से पत्र आने से पहले प्रतिज्ञा की थी-अगले वर्ष
संपूर्ण दक्षिण मुक्त करेंगे ताकि निजाम को-जो थोड़ा सा बचा-खुचा है-एकदम भगा
सकें। भाऊसाहब गए, पेशवाई गई, अंग्रेजाई गई तथापि निजाम अभी बचा हुआ है। हमारे
पटेल-यदि उनके हाथ में राज्यसत्ता होती तो आज बेरुबारी नहीं जाती। परंतु आप ही
ने उस नपुंसक नेहरू के हाथ में सत्ता सौंपी और अब क्यों रो रहे हैं? निढाल हो
गए हैं-कहते हैं? किसने वोट दिए नेहरू को? आपने दिए। यही वोट पटेल को मिलते
तो? उन्होंने चुटकी बजाते ही निजाम को धूल चटाई, पेट में बने नासूर का विनाश
किया। नेहरू ने इसका विरोध किया था, मैं आपको अंदर का इतिहास बताता हूँ। जाओ
जाकर पुस्तक पढ़ो। रात बारह बजे तक नेहरू ने इसकी स्वीकृति नहीं दी थी-भई,
कछन-कुछ समझौता करो। मुसलमान जो ठहरा। परंतु पटेल ने दो टूक उत्तर दिया कि
मेरे पेट में ही शूल है यह, इसे मैं नहीं सह सकता-यह लो मेरा त्यागपत्र। तब
कहीं रात बारह बजे सेना को आदेश मिला और उसके अनुसार सेना ने जाकर निजाम को
लोहे के घाट उतार दिया। अब कहाँ पड़ा है, मैं नहीं जानता; परंतु स्मरण रहे उसकी
मिट्टी पलीद की गई। एक बार पेशवा ने भी निजाम की इसी तरह मुटाई झाड़कर उससे
अपना लोहा मनवाया था। उस समय भी वह इसी तरह मृतवत् पड़ा था। परंतु समय आते ही
उसने मराठों के विरोध में फण निकाला, जो आज भी उधर ही है। यदि आयूब खान का
छोटा या मोटा आक्रमण आप पर हो गया तो अपने ही देश में उत्पन्न आपके सभी
शत्रुओं का यह निजाम नेता बनेगा और पुनः निजामशाही स्थापित करके ही रहेगा।
अपने शत्रु की इन गतिविधियों पर गौर करना होगा।
"परंतु इस घड़ी में संपूर्ण दक्षिण मुक्त है-उसे तुम्हारी पीढ़ी ने ही मुक्त
किया है। सभी पक्षों ने मिलकर यथासंभव जो प्रयास किए उनका संकलित संयुक्त फल
है कि आज संपूर्ण दक्खन भाऊ के कथनानुसार मुक्त है। एक शिद्दी वहाँ से आया।
भई, कहाँ अफ्रीका, कहाँ हिंदुस्थान ! परंतु उनमें से एक ने आकर राज्य की
स्थापना की-बस, दस गाँव का। उसने पुर्तगालियों के सामने घुटने नहीं टेके।
शिवाजी के सामने वह झुका नहीं। क्योंकि बीच में अंग्रेज रहते। जंजीरा का अर्थ
है-सिंधु दुर्ग। महाराज ने इस नाम में परिवर्तन किया। वे अपने दुर्गों को कभी
जंजीरा नहीं कहते। चिमाजी अप्पा ने कितने प्रयास किए। आखिर बाजीराव गया। परंतु
शिद्दी अपने स्थान पर जैसे थे वैसे ही रहे। अंग्रेज चले गए। जंजीरा ज्यों की
त्यों। परंतु हमने देखा, जहाँ से अंग्रेज लोगों ने हिंदुस्थान पर आक्रमण किया
उसी सिंधु मार्ग से हमें पीठ दिखाते हुए उनकी सेना जहाज में बैठकर चलती बनी।
यह भी कोई साधारण पराक्रम नहीं।
"तो जंजीरा गया, अंग्रेज गए, निजाम गया, उत्तर हिंदुस्थान में भोपाल का
मुसलमान नवाब गया, रामदुर्ग का नवाब गया। जिन दो सत्ताओं ने आप पर ग्यारहबारह
सौ वर्ष दासता थोपी वे मुसलमान और अंग्रेज दोनों की सत्ता आपने पलटी है-क्या
यह धन्य दिवस नहीं है। विचार करो, मैं जी रहा हूँ, वह कुछ इसी धन्यता, इसी
सार्थकता में और ऐसा नहीं भी होता तो भी मुझे उसका अफसोस नहीं होता। मैं तो
अपने कर्तव्य का पालन करके जानेवाला था। परंतु आज वह सुदिन देखने का भाग्य
मुझे मिल रहा है। अतः जब मेरे अपने द्वारा मेरा आदर-सम्मान हो रहा है; मेरे
प्रेम के कारण ही वे आवेदन करते हैं कि उनकी जागीर मुक्त करो, उन्हें अपना घर
लौटा दो, उन्हें भारतरत्न उपाधि दो; तब ऐसा प्रतीत होता है कि अब मेरे लिए ऐसी
उपाधियों का क्या महत्त्व? भारतरत्न जैसे शब्द मेरी छाती पर विराजमान भी होंगे
तो क्या होगा? मेरे पास पदवियों का, उपाधियों का अंबार खड़ा है। मैं नागपुर
का ए.एल.डी. हूँ। मुंबई से पुनः बी.ए. हुआ और कोई भी परीक्षा न देते हुए भी
पुणे का डॉक्टर हूँ मैं। परंतु इन सारी उपधियों का मेरे लिए कुछ उपयोग है? कुछ
भी नहीं ! मैं पूर्णतया संतुष्ट हूँ। यदि किसी ने पूछा तो मैं कहता हूँ, मुझे
जागीर नहीं चाहिए।। यह तीन चौथाई हिंदुस्थान पुनः प्राप्त हो गया, क्या उसमें
मेरी जागीर भी नहीं आई। जा बेचारा उसका भोग कर रहा हो, सुख से करे ! उसे मेरे
आशीर्वाद हैं। उसका वंश मेरी जागीर में फला-फूला तो समझो, मेरा ही वंश फल-फूल
रहा है। एक समय ऐसा था कि मेरा वंश ही नहीं था। 'निर्वंश होकर सिद्ध होगा अखंड
वंश' इस ध्येय से प्रेरित थे हम लोग। अब हमें संतति प्राप्त हो गई सो हो गई,
अन्यथा हमने किसी से मन्नत तो नहीं माँगी थी।
अध्यक्ष बन गया तो दो वर्षों में देश को समर्थ बनाऊँगा-
ये बातें सेना की हैं,शक्ति की हैं
"इस तरह मैं पूर्णतया संतुष्ट हूँ। अध्यक्ष आदि बनने का भी मेरे मन में विचार
नहीं। पूछिए क्यों? आप सोचेंगे यह तो आसान है। इन्हें कोई चुनाव में जीतने
नहीं देता इसीलिए महाशय अध्यक्ष नहीं होते। पर ऐसा नहीं है। यदि आपने चनाव में
मुझे निर्वाचित किया तो हो भी जाऊँगा। यदि आप चाहेंगे तो मैं अध्यक्ष भी
बनूँगा और दो वर्षों के भीतर इस देश को खुश्चेव के रूस से भी अधिक बलशाली
बनाकर दिखाऊँगा। हाँ, मात्र दो वर्षों के भीतर; हाँ-हाँ, दो वर्षों के भीतर-जिस
तरह उसने विश्व को जूता दिखाया उसी तरह मैं अपना जूता उठाकर पूरे विश्व को
दिखाऊँगा!! अरे भाई, ये बातें शक्ति की, सेना की होती हैं। नेहरू के पीछे शक्ति
नहीं, अन्यथा वह भला मानुस है। गोरा-चिट्टा परंतु उसके पीछे शक्ति नहीं और
इसका उसे भान है, अतः वह जिस-तिस के 'ॐ' मात्र कहने से दुम दबाकर पीछे हट जाता
है-हाँ, यह वास्तविकता है।
"परंतु मैं कभी खड़ा नहीं रहा। इसका कारण बहुत भिन्न है। ये मेरे जीवन साथी
यहाँ बैठे हैं, ये बताएँगे कि यह सत्य है कि नहीं। एक बार मैंने बापट से पूछा
था कि 'अरे, तुम एक पिस्तौल ले आए, परंतु इस तरह एक-एक पिस्तौल लाकर तुम लोग
अंग्रेजों से किस तरह लड़ोगे?' परंतु हमारी धारणा रहती कि देश भविष्य में
विजयी हो-देश का ध्वज आगे ले जानेवाली यशस्विनी सेना आगे बढ़े। इसलिए
सर्वप्रथम एक ऐसी पीढ़ी का निर्माण होना आवश्यक होता है जिसे 'पायोनियर्स',
'सपर्स एंड मायनर्स' कहा जाता है और जो सेना का मार्ग निष्कंटक करती है। वह
पीढ़ी मरने के लिए ही जन्म लेती है। ये देशभक्त विशुद्ध देशप्रेमी हैं। मेरे
कहने का यह अर्थ नहीं कि पीछे आनेवाले देशभक्तों की भक्ति में मिलावट है, वे
खोटे हैं। परंतु यदि तुलना ही करनी हो तो इनकी देशभक्ति निर्मल होती है-यही
उनकी मनीषा होती है। वे अत्यंत उत्सुक, उतावले होते हैं। स्वानुभव से ही कह रहा
हूँ में ये युवक इतने उत्सुक होते हैं कि बार-बार पूछते रहते हैं, 'भई, मुझे
क्यों नहीं बताया यह काम? मझे काम सौंपिए। मुझे मरना है।' अनंत कान्हेरे को
देखें देखने में इतना सुंदर-सलोना बालक कि स्कूल के नाटक में स्त्री की भूमिका
निभाता। इतना बाँका युवक। परंतु उसे मरने की, हुतात्मा बनने की तीव्र इच्छा
थी। ऐसे-ऐसे लोग थे। उनकी शपथ यह रहती कि सबसे पहले मैं मरूँगा-यही प्रतिमा
रहती। जीवन का वास्तविक आनंद युद्ध में आगे रहकर शत्रु का संहार करते-करते
मृत्युमुखी हो जाना ताकि पीछे आनेवाली सेना यशस्वी हो। उसमें जो सुख है उसे
अनुभव करने की पात्रता-विश्व की सर्वोत्कृष्ट पात्रता-वही सर्वोत्तम सुख । फिर
संजोग से कोई मरेंगे, कोई जीएँगे। जो होना है सो होगा-यही आकांक्षा रहती।
धींगरा, वासुदेव बलवंत, गोगटे को यही सिखाया गया। आज गोगटे महापौर हैं। परंतु
उस समय एक कामचोर लड़का था। एक बार रत्नागिरी आया था तब इस संबंध में उससे
मेरी बातचीत हुई थी। तब मैंने उसे महाविद्यालय में वापस भेजा। और बताया कि इस
समय तुम इसमें मत पड़ना। जब ऐसा समय आएगा कि तुम्हारी बराबरी का व्यक्ति सामने
आए और जो तुम्हें साध्य हो उसी का शिकार करो। उसी के अनुसार सोलापुर के लोगों
को फाँसी हो गई। इसीलिए इस सुंदर युवक ने महाविद्यालयीन शिक्षा ग्रहण करते
हुए, घर में किसी चीज की कमी न होते हुए भी रिवॉल्वर निकालकर दागा। क्यों?
इसलिए कि उसे सोलापुर हत्याकांड का प्रतिशोध जो लेना था। इसे कहते हैं
देशप्रेम, एकता। इस दृष्टि से जो राज्यक्रांति हमने चलाई, जो संस्थाएँ हमने
चलाईं उनमें हमने शपथ ग्रहण की थी। अब दुर्भाग्य से अथवा सौभाग्य से कहिए वे
मारे गए। अपनी एक कविता में मैंने कहा है-'अंदमान की ओर मैंने प्रस्थान किया
तब-मित्रो, अब मेरा यह अंतिम राम-राम । जा रहा हूँ मैं। कहीं भी मेरी अस्थियाँ
गिरीं तो एक ही बात है। मेरी और मेरे जैसों की। यह मत समझें कि अंदमान में मैं
अकेला गया था। मेरे पश्चात् भी भर-भर के जहाज आए हैं अंदमान में। रूस के जहाज
साइबेरिया नहीं गए थे? अतः राज्यक्रांति अवश्य होगी। और ईश्वरेच्छा से कहिए
या किसी की भी इच्छा से हो, हमारे राष्ट्र में वह शक्ति आ गई। ये गदर पार्टी
के लोग-संपूर्ण जहाज भर-भर के आए थे। उस समय मैं कोल्हू चला रहा था। मैं हमेशा
सोचता, यह कोल्हू का तेल मेरे लहू का, मेरे पसीने का है। यह मेरे देश-बांधवों
के काम आ सकता है? तुम्हारे देश में जो आग भड़क उठी है उसमें इस तेल की
बूंद-बूँद सूक्ष्म रूप में जाकर गिर तो नहीं रही? परंतु गदर पार्टी के लोग
वहाँ आ गए। उन्होंने गीत सुनाए, 'आपका कोल्हू चलाते समय का जो चित्र था, हमने
वह कल्पना से छापा और उसकी लाखों प्रतियाँ बाँटी और देखिए यह उसपर विरचित
गीत-एवं गुण विशेष संपन्न हमारा यह अमुक-तमुक वीर वहाँ कोल्हू पीस रहा है और जन
हो, आप यहाँ हल चलाए बैठे हैं ? फेंक दो यह हल और उठो, चलो, देश को स्वतंत्र
करने!!' इस प्रकार गर्जना करते हुए और इस महायुद्ध का अवसर पाकर आपके ही कहने
के अनुसार हम देश में घुसे गे। पकडे गए और अंदमान में आ गए। ऐसा मत समझिए कि
तब अंदमान में मैं अकेला ही गया। ऐसे सैकड़ों देशभक्त गए हैं। उनमें से कई
फाँसी पर लटकाए गए। कइयों ने अंदमान में आत्महत्या की। हमारे नेत्रों के सामने
जिन्हें हाथ पकड़कर मीठी बातों से विदा दी, कोठरी में भेजा, सुबह वार्त्ता मिली
कि उनकी लाश लटक रही है। उनमें से एक ने अपने जनेऊ के लिए आत्महत्या की। सच्चा
ब्राह्मण वही था। उसका जनेऊ वे निकालते। मेरा वहाँ जाने के बाद निकाल ही दिया
गया था परंतु मुझे उसका कुछ दु:ख नहीं हुआ। परंतु वह कट्टर ब्राह्मणबीज का
ब्राह्मण-उसने जनेऊ को हाथ नहीं लगाने दिया। अत: उसे दारुण यातना दी गई। कठोर
काम दिया गया। इसने काम करना नकारा तो उसे कोठरी में बंद किया गया। ठीक है वह
कोठरी में रहने लगा। पर उसने अपनी गायत्री, अपना जनेऊ निकालने नहीं दिया। इसने
वही किया जो औरंगजेब के समय हमारे पुरखों ने धर्म की खातिर अपने प्राणों की
आहुति देकर स्वधर्म की रक्षा करते हुए किया था। अन्ततोगत्वा उसपर कोड़े बरसाए
जाने लगे। जिस दिन उसे कोड़े बरसाने के लिए निकाला गया उस रात इसने गले में
फंदा डालकर आत्महत्या कर ली।
"ऐसे-ऐसे वीरपुंगवों ने अपनी देह त्यागी है। उनमें से हम बच गए। ना, ना, डरकर
नहीं, यह तो आप जानते ही हैं। वास्तव में हमने फाँसी के फंदे के खंबे को
झिंझोड़ा, परंतु मरे नहीं-यह संजोग की बात है। हम यहाँ आ गए, परंतु वह शपथ
थी-हमने अच्छा दिवस देखने के लिए जन्म नहीं लिया, हिंदुस्थान की स्वाधीनता
देखने के लिए जन्म नहीं लिया अपितु उस स्वाधीनता की खातिर लड़तेलड़ते मरने के
लिए जन्म लिया है। हमने उधर जो पुस्तकें लिखीं, इनकी गीता बन गई हैं। ऐसे लोग
भगवान् को प्रिय हो गए। उनमें अब मैं शेष रहा। क्या वह इनकी गवर्नरी के लिए?
अध्यक्ष पद के लिए? जो हमने ही उन्हें दिलवाई उन बातों की आस हम ही रखें? मैं
आपसे, लाखों लोगों से पूछता हूँ कि ऐसा कौन पराक्रमी है-जिसने राज्य क्रांति
के रण से अधिक पराक्रम किया है ? वह आगे बढ़े। एक भी व्यक्ति आगे बढ़ने योग्य
नहीं है। परंतु हमने जो उन्हें राजपाट दिया उसका वे सुख से भोग करें। परंतु
उन्हें निकाल दो, जो बुद्धिमान नहीं हैं। परंतु आपमें से कोई राजा बने। ऐसा न
कहते हुए हमने यदि राज करने, अध्यक्ष होने, भारत भूषण होने की लालसा की तो
ऐसा होगा कि हमने ही अपनी शपथ तोड़ी, अपने संगी-साथियों का विश्वासघात किया,
उन्हें मृत्यु के घाट उतारकर हम राज्योपभोग करने जीवित रहे-यही भय मुझे सदा के
लिए खाए जा रहा है।
"बेचारे राजेंद्र प्रसाद ! अध्यक्ष पद पाकर जितने सुखी होंगे और नहीं भी
होंगे, उतना ही किसी भी तरह का सम्मान न पाकर मैं भी अपने घर में सुखी हूँ,
संतुष्ट हूँ और इस सुख की यदि तुलना ही हो तो वह मेरे पास है, बापट के पास भी
वह तुलना है-इन सभी क्रांतिकारियों के पास वह तुलना है।
"फिर मैं उसमें प्रजापक्ष, कम्युनिस्ट सभी को सम्मिलित करता हूँ। उन सभी के
पास वह तुलना है। भले ही उनके अन्य विचार कुछ भी हों। हम सभी अत्यंत संतुष्ट
रहकर कालक्रमण कर रहे हैं। कुछ कहा नहीं जा सकता कि कब ऊपर से बुलावा आ जाएगा।
परंतु मेरी इच्छा यही है, शीघ्र ही मृत्यु आ जाए। ससुरी को पचासों बार बुलाया,
परंतु आती ही नहीं। गद्य में उसे निमंत्रित किया, पद्य में बुलाया, गालियों की
बौछार करके बुलाया, मन्नत-मनुहार से बुलाया। अब बुढ़ापे की यातनाएँ, पीड़ा मैं
नहीं चाहता। जाना ही है तो झट से चले जाना चाहिए।
"परंतु जैसाकि ऊपर मैंने कहा, वे अपने अध्यक्ष पद का, जितनी उनकी स्वाधीनता है,
उतना ही भोग कर सकते हैं। इसके विपरीत आप जैसे लाखों लोग बिन बुलाए यहाँ आते
हैं, आजकल मैं झल्लाता हूँ, चिड़चिड़ापन दिखाता हूँ, रूखा व्यवहार करता
हूँ-अर्थात् यह सारा ऊपर-ऊपर दिखावटी होता है, परंतु किसी से बात भी नहीं करता,
फिर भी आठ-आठ लोग 'दर्शन होना ही चाहिए, दर्शन होना ही चाहिए' करते हुए मेरे घर
के सामने धरना देकर जो बैठते हैं-क्या यह विजय का चिह्न नहीं है? क्या यह
राजमुकुट नहीं है ? इससे अधिक मनुष्य क्या प्राप्त कर सकता है ? उनके मोतियों
के हार उन्हें मुबारक। हमारी ये फूल-पत्तियों की मालाएँ, ये पुष्पवर, इसी में
हम अति प्रसऽऽन्न हैं।
प्रशासन शक्तिशाली हो
"हाँ, जाते-जाते एक ही बात कहता हूँ कि आप आगे क्या करेंगे? यह बताए बिना मैं
कभी व्याख्यान समाप्त ही नहीं कर सका। आगे क्या करेंगे? बस। स्वाधीनता प्राप्त
हो गई। भाग्य की चरम सीमा हो गई। परंतु इसका कोई भरोसा नहीं कि यह कब हाथ से
फिसल जाएगी। आप यदि ऐसे ही 'वोट' देते रहे तो ढीले-ढाले में, बेढंगेपन में और
इसी तरह के नपुंसक, भीरु, प्रशासक सत्ता में आ गए तो? प्रशासन का पहला
कर्तव्य है अच्छा राज करना। उसके अनुसार किसी का भी सत्ताधारी राज्य हो लेकिन
वह एकसत्ताक क्यों न हो मैं प्रसन्नतापूर्वक उसको स्वीकार करूँगा। उस लोकतंत्र
राज्य से अधिक जो प्रत्येक आक्रमणकारी के सम्मुख शरणागति को स्वीकार करता है,
मुझे शक्तिशाली एकतंत्र प्रशासन स्वीकार है। उसे मैं सर्वश्रेष्ठ मानता हूँ।
किसी भी तरीके से क्यों न हो, देश समर्थ होगा और रणभूमि में छाती तानकर खड़ा
रहेगा। फिर उस एकतंत्र को ही मारने के लिए वही देश उसी शक्ति के साथ आगे
बढ़ेगा। नेपोलियन का क्या हुआ? अत: मेरा अंतिम बार कहना है कि प्राप्त
स्वतंत्रता की रक्षा करना आप जैसे युवकों का कर्तव्य है। मुझे बढ़ी प्रसन्नता
हो रही है कि आजकल सभाओं में युवाजन तथा युवतियाँ बड़ी संख्या में उपस्थित
रहती हैं। मेरे घर भी जन्मदिवस पर आती हैं तब बहुत भीड भड़क्का होता है। श्री
म. जोशी से मुझे यही कहना है कि थकावट आदि कुछ भी नहीं। स्पष्ट बोलिए और
स्पष्ट कहिए। इसी समाज में से ऐसे युवक-युवतियाँ निर्माण होंगे कि जो राज्य
क्रांतिकारियों से भी अधिक पराक्रमी निकलेंगे। गोवा कांड के समय क्या हुआ?
कहाँ से आ गए वे लोग? इसी महाराष्ट्र से और वह भी पागलपन का भूत सवार होने से।
गोलियाँ खाईं, किंतु शत्रु को मारना नहीं। अजी, गोलियाँ खाने यदि देश में
इतने लोग निकलते हैं तो मारने के लिए क्यों नहीं निकलेंगे? अवश्य निकलेंगे।
उन्हीं की सेना कहा जाता है। वह सेना अत्याधुनिक भी चाहिए। अब हम सबकुछ
अत्याधुनिक ही चाहते हैं। उसपर दामले के लिए मेरे मन में आदर है, क्योंकि वे
आज सैनिकीकरण का प्रयास कर रहे हैं। उन्होंने पूछा कि उन्होंने जो घर, मीनार
बनाया है उसपर कौन सा चित्र उकेरूँ? हमारे पुराने अस्त्र-शस्त्र-बंदूक, तोप,
धनुष-बाण, ढेलबाँस (गोफना) उकेरूँ या और कुछ? मैंने कहा, नहीं-नहीं, वह कुछ
नहीं। भीम की गदा गई। अब हमें अत्याधुनिक शस्त्र-अस्त्र चाहिए-हाइड्रोजन बम
उकेरो, ऑक्सीजन बम उकेरो।
"ऐसा कुछ नया ढूँढ़ निकालो जो उन्हें नहीं मिला। परंतु अत्याधुनिक रहो। युवकों
के सामने वह आदर्श रखो। तुम सब क्वचित् लँगड़े, लूले, विकलांग भी रहे, तो कोई
बात नहीं, युवा कहलाते हैं तो वह तमाशा नहीं, नाटक नहीं; यह सब अच्छा है,
विपरीत अर्थ मत निकालें। चित्रकला नहीं, महाविद्यालय की परीक्षा नहीं अपितु
आपका सबसे अहम कर्तव्य सैनिक होना चाहिए। यूरोप में प्रत्येक युवक को जबरदस्ती
फौज में भरती, सैनिकीकरण, सैनिकी प्रशिक्षण दिया जा रहा है। आप जितने
महाविद्यालय में हैं उतने ही एन.सी.सी. में जाओ-सौभाग्य से नेहरू की
वक्रदृष्टि कहें या भयदृष्टि अभी तक उधर नहीं मुड़ी। नेहरू डरते हैं। क्या वे
नहीं समझते कि बिना सेना के राष्ट्र खड़ा नहीं रह सकता। परंतु उन्हें भय लग
रहा है कि आस-पास सभी सैनिकी राष्ट्र हैं। मैं ठीक जानता हूँ। वे कहें कि यह
असत्य है। वह मोबुक्षु । अजी वही कांगोवाला! परंतु उसके हाथ में तलवार थी। वह
तीन-चार सौ लोगों के साथ कांगो को हाथों में रखे 'यूनो' को डरा-धमका रहा है।
क्यों, वे सब फौजी जो थे। नेहरू को यह भय है कि सेना के सिद्धांत का एक बार
जनता में संचार हो गया तो जाने उनके अपने राजकर्ताओं की कोठी पर ही उलटेगा और
यह जो झूठमूठ का लोकतंत्र है धैं-धु जल उठेगा। क्योंकि आस-पास, चारों ओर, यहाँ
वहाँ साऽऽरे आयूबखान जो दूंसे गए हैं। यह तुर्कस्तान, यह फ्रांस का गाल-सभी
बलपूर्वक आए हैं। अत: यदि सेना न हो तो आपका लोकतंत्र भी, भले ही वह
अत्युत्कृष्ट घटना ही क्यों न हो, आपको हजम नहीं होगी। लोकतंत्र के पीछे भी
शक्ति चाहिए, वह राज क्या जहाँ शक्ति नहीं। अत: आप सब जो विद्यालय में जाते
हैं-वे एन.सी.सी. में अवश्य जाएँ।"
(भगूर, पृ.६०)
महाराष्ट्र को हिंदुस्थान का खड्गहस्त होना चाहिए
"भारत में जो गुण नहीं उसकी पूर्ति महाराष्ट्र को करनी होगी-वह गुण आप में है।
आपने कभी राज्य किया था। उसे दो पीढ़ियाँ नहीं चला पाई। अंग्रेजों का यह
राजपाट उड़ाया गया। अंग्रेजों का राज्य-नजर के सामने चुटकी बजाते ही
उड़ानेवाले लोग आप हैं, इसलिए संख्या की दृष्टि से सेना में महाराष्ट्रीयों का
बहुमत न भी हुआ हो तो एक-एक महाराष्ट्रीय सौ-सौ बँगला और अन्य लोगों को
तेजस्वी करके छोड़ेंगे। परंतु यदि आप ही यहाँ बैठकर 'हम थक चुके हैं, हमें किसी
का मार्गदर्शन नहीं'-इस तरह दुःखड़ा रोते रहेंगे तो आपकी थकावट कौन दूर करेगा
भला? उठिए ! आपके लिए यही एकमात्र मार्ग है। एक बार मैंने गोगटे के हाथों यही
संदेश भेजा था कि 'महाराष्ट्र को भारत का खड्गहस्त होना चाहिए।' महाराष्ट्र
भारत का खड्गहस्त था। शिवाजी महाराज के समय। इसीलिए तो मुसलमानों के हाथों आप
मुक्त हो गए अन्यथा कभी नहीं होते। आज सुरक्षा सेना कहती है-असत्य बात है।
सेना हमेशा आक्रामक ही होनी चाहिए। सेना आक्रामक हो तभी वह राष्ट्र की रक्षा
कर एकेगी। दूसरों को यह भय लगना चाहिए कि यदि हिंदुस्थान का बाल भी बाँका करें
तो उसकी सेना उनपर टूट पड़ेगी। चीन आया था आपकी सुरक्षा-शांति देखने। आप क्यों
नहीं गए उधर? बहाना बनाने लगे कि वह निर्मनुष्य भूमि थी। चीन को भी ज्ञात था
कि वह निर्जन भूमि थी। कश्मीर के मुख्यमंत्री गुलाम महम्मद ने सरे बाजार कहा था
कि उन्होंने स्वयं नेहरू को चीनी। सीमा से संबंधित सारी गतिविधियाँ सूचित की
थीं। उन्होंने बात छिपाई-कहीं अपने मत्थे दोष न आ जाए; और चीन को फुसलाया कि
वह निर्जन भूमि है। चाहा तो ले लो। भई, हमें अपनी सीमाएँ नहीं बढ़ानीं। मैं
कहता हूँ, ऐसे-ऐसे हिजड़ों ना आपके राज्य गवाएँ हैं।" (यह भाषण सन् १९६१-६२ में
चीनी आक्रमण के समय किया गया था।)
"जब हिंदुस्थान स्वतंत्र हुआ तब मैंने पत्रक निकाला था-यदि मैं अध्यक्ष होता
तो पहले दिन दो मानचित्र अपनी दृष्टि के सामने रखता। प्रथम यह निश्चित करना
कि हिंदुस्तान की सीमाएँ कौन सी हैं-वह भी मेरी अपनी परिभाषा के अनुसार। उसमें
अरब सागर को अरब सागर' यह नाम नहीं क्योंकि वह कोई अरबों की बपौती नहीं-उसे
'सिंधु सागर' करता और उसके पश्चात् यह मानसरोवर, यह चीन हमारे समस्त पुराणों को
निकालकर यह देखता कि हमारी सरसीमाएँ कहाँ तक थीं-फिर यह जो निर्जन भूमि
थी-हिंदू भूमि वह हिंदू बंधु लेते और वहाँ मैं हमारी सेना तैनात करता। यह
चीन-दस वर्ष की आयु है-कहाँ था यह चीन? वह फार्मोसा ले नहीं सकता। चीन कोई
'अद्वितीय प्रकरण' नहीं। उसी का टूटा हुए एक हिस्सा-फार्मोसा-जैसे हमारा टूटा
हुआ हिस्सा है-पाकिस्तान। चीन फार्मोसा नहीं ले सकता क्योंकि उसके पीछे अमेरिका
है। पुर्तगालियों का यत्किंचित् 'मकाव' बंदरगाह-यद्यपि उसे भी चीन हथिया नहीं
सकता क्योंकि पुर्तगाल नाटो में है, उसे बस छूने की देरी है। संपूर्ण यूरोप ढह
जाएगा।
"बेचारा नेहरू ! माओ उसके पास आया, दो-चार चिकनी-चुपड़ी चाशनी में पगी गप
ठोंकी-सहजीवन, सहअस्तित्व। अरे, सहजीवन दो प्रकार का होता है। एक-दूसरे के समीप
बैठकर समान रूप से आचरण करना भी सहजीवन है और एक-दूसरे के पेट में घुसकर भी
सहजीवन होता है। शेर भेड़-बकरी को खाता है। तब संपूर्ण सहजीवन होता है। परंतु
यह 'बुद्धराम' समझा-चीन वही करेगा जो हम कहेंगे और हम वहीं करेंगे जो चीन
कहेगा। परंतु नेहरू जानते थे कि उधर चीन रास्ते बना रहा है। चार-चार सौ मील
मोटर-रेल के रास्ते, सैनिकी रास्ते उधर बनाए जा रहे थे तब आपका गुप्तचर विभाग
क्या घास चरने गया था? नेहरू ने सफेद झूठ कहा, 'मुझे कुछ भी पता नहीं था।' यदि
पता नहीं था तो प्रधानमंत्री होने के लिए तुम अयोग्य थे। क्या गुप्तचर विभाग
इसे कहते हैं? और यदि तुम्हें पता होगा तो सारे देश से यह बात तुमने छिपाकर
क्यों रखी? तुमने लगे हाथ उधर सेना क्यों नहीं भेजी? मैं हमेशा आपसे कहता हूँ,
जब कभी युद्ध करना हो तो शत्रु पर आक्रमण करें। कहा जाता है जो चढ़ाई करता है,
आक्रमण करता है वह आधी लड़ाई जीतता है।
" 'गीता' के सिद्धांतों को समझ-बूझकर उनका प्रयोग करें। केवल यह लोकतंत्र, वह
लोकतंत्र, यह न्याय, वह न्याय। अजी इस विश्व में न्याय जैसी कोई वस्तु ही नहीं।
जब तक सारा विश्व अन्यायी है तब तक अन्याय को अन्याय से ही उत्तर देना पड़ता
है। जब तक संपूर्ण विश्व आक्रामक है तब तक आक्रमण को प्रत्याक्रमण से ही
प्रत्युत्तर देना आवश्यक है।
"नेहरू ने चीन को आश्वस्त किया, उस सीमा तक तुम्हें कुछ कष्ट नहीं देंगे। अतः
आज चीन ने मानस सरोवर हथिया लिया। इसी मानस सरोवर पर कालिदास ने कविताएँ लिखीं
जिसमें हमारी देवांगनाओं ने जलक्रीड़ा की। नेहरू कहते हैं-उस मानस सरोवर की
यात्रा मत करो; क्योंकि वहाँ दंगा-फसाद है और हज की यात्रा सुलभ है इसलिए उसके
पैसे हमारे राज्य से दिए जाते हैं। आपकेहमारे करों में से उनकी हज यात्राएँ
संपन्न होती हैं, परंतु मानस सरोवर की यात्रा मत करो क्योंकि वहाँ दंगा-फसाद
होते हैं। अरे, दंगा-फसाद हो रहे हैं तो यहाँ से सेना भेजो। क्या कर रही है
तैनात की हुई सेना? परंतु आपसे कहता हूँ, सेना को दोष मत देना। हमारी वर्तमान
सेना एकदम खरा सोना है।
"यही है वह चावलभोजी ! कांग्रेस में इन्हें भारवाहक कहा गया। ये थिमय्या, ये
येथोरात, ये करिअप्पा सभी उस समय सीख रहे थे, हम भी सीख रहे थे, लेनिन भी सीख
रहा था। तब देशभक्त कांग्रेस में इकट्ठे होकर ये ब्रिटिश सेना के सैनिक
चावलभोजी हैं, कहते। उस समय मैं कहता, वे पेटपेसुवे भाड़े के टटू नहीं हैं। वे
केवल ब्रिटिशों की सेवा ही नहीं करते अपितु युद्धशास्त्र का ज्ञान भी प्राप्त
कर रहे हैं। एक बार उन्हें सैनिकी शिक्षा मिल गई, नवनवीन तथा अत्याधुनिक
अस्त्रशस्त्रों का ज्ञान उन्होंने प्राप्त कर लिया कि स्वतंत्रता संग्राम में
यही सैनिक मोरचे पर लड़ेंगे।
"सुभाषचंद्र बोस को जो सेना मिली, वे सारे तथाकथित पेटपेसुवे, भाड़े के टैटू
ही थे। इंग्लैंड के स्कूल में इंग्लैंड की तोपें, बंदूकें लेकर उन्होंने
युद्धशास्त्र सीखा था और आज वही इनकी रक्षा कर रहे हैं। अरे, एक मंत्री क्या
निकला कि उसके पीछे जो समुदाय चलता है वे सारे पेटपेसुवे इन्हें अच्छे लगते
हैं।
"इस सेना ने बहुत कष्ट उठाए हैं। आप लोगों से गालियों की बौछार सही है। आप में
भी कुछ लोग ऐसे होंगे कि जिन्होंने उनपर अंग्रेजों के लिए लड़ने का दोष लगाया
होगा। परंतु उस समय शस्त्रविद्या सीखने का वही एकमात्र मार्ग था। कच के लिए भी
शुक्राचार्य का शिष्यत्व स्वीकार करना ही एकमात्र मार्ग था। उसी के अनुसार
ब्रिटिशों से उत्तमोत्तम विद्या-क्योंकि, उस समय वे अत्याधुनिक थे अद्यापि
ससुरे अत्याधुनिक हैं उनकी विद्या सीखने के लिए हमें अन्य मार्ग सुलभ नहीं था।
इसीलिए हम उनके पास जा रहे थे, उनमें हिलमिल गए थे, उनकी लड़ाइयाँ लड़ रहे थे।
किसके विरुद्ध ? भई, वह जर्मन हमारा क्या लगता था? मरा तो जर्मन, जीता तो
अंग्रेज! हम विद्या ग्रहण करके आ गए। यही दृष्टिकोण था। जो लोग इसे समझ नहीं
पाए उन्होंने सेना को व्यर्थ गालियाँ दीं। अब सुनहरा दिन आया है, अब तो सेना
को परखो। उन्हें धन्यवाद दो कि आज सेना है इसीलिए अब देश में कहीं भी शांति से
बैठ सकते हैं। परंतु आप उनके साथ कैसा आचरण कर रहे हैं? नागालैंड से संबंधित
नेहरू ने प्रथम जो आदेश दिया की तुम लोग गोली खाओ, परंतु उलटा वार मत करो। हे
सेना, हे मेरे फौजी भाईयो, तुम इस तरह शूर सिपाही बनो कि स्वयं गोली का लक्ष्य
बनो, परंतु मारना नहीं। उसी के अनुसार यत्कश्चित् नागा लोगों ने, जिनका एक
सप्ताह के अंदर आप बंदोबस्त कर सकते थे-चार हवाई जहाज भेजकर अजी, अब वे हवाई
जहाज खरीद सकते हैं क्योंकि बाहर के लोग उनके निकट पहुँच चुके हैं परंतु पहले
उनके पास कुछ भी नहीं था। मैं स्वयं वहाँ घूमा-फिरा हूँ-मैं कह नहीं सकता कि
सत्य कथन करने से आप उनपर विश्वास करेंगे कि नहीं। परंतु 'हिंदुओं का महाराजा
आया' कहते हुए वे मेरे चरण छूते। नाथूराम ने, पंडित नाथूराम ने तत्कालीन
वृत्तपत्र 'केसरी' में प्रकाशित किया है-उसे पढ़िए फिर पता चलेगा कि यह सत्य
है या मिथ्या-एक सप्ताह के भीतर इस प्रश्न को मिटाना था। नेहरू को सुझाव दिया
था कि हवाई जहाज भेजें। जहाँ होंगे वहाँ धावा बोलकर एक सप्ताह के भीतर हम
उन्हें जीतेंगे। परंतु नेहरू ने उत्तर दिया, 'अजी, वे अपने ही हैं न? भई, उनपर
हवाई आक्रमण कैसे करें?' अच्छा है, यदि उन्हें समझायाबुझाया जा सके। हृदय
परिवर्तन-यह नेहरू के हाथ का अंतिम बम है। हृदय परिवर्तन ! वे उलटे गोलियों की
बौछार करने लगे और नित्य यह पढ़कर सिर नीचे झुकाना पड़ना। हमारे आठ लोग मारे
गए, हमारे दस लोगों, दो गाँवों पर कब्जा किया। अब तो हवाई जहाज से बममारी करने
लगे परंतु कभी ऐसा समाचार नहीं आता कि कोई नागा मारा गया !! वही कथा पाकिस्तान
की । प्रत्येक समय वहाँ से लोग हमारी सीमा में घुसपैठ करते। अरे, जमीन के तौर
पर उन्हें पकड़कर रखना था। परंतु लड़ाई की घोषणा हमें नहीं करनी। संसद् में
प्रकट रूप में कहे कि हमें युद्ध घोषणा नहीं करनी। फिर शत्रु पर भला आपकी कैसी
धाक जमेगी? आप अपने मुख से कहते हैं कि भई, हम आपसे नहीं लड़ेंगे। आने दो
तुम्हारे हवाई जहाज-हाँ, हम बस इतना करेंगे पहला निषेधपत्र। दूसरा निषेधपत्र!
कठोर निषेधपत्र एकदम कड़कड़-कड़ाके का निषेधपत्र। परंतु उसके अतिरिक्त हमारे
पास कोई भी पत्र नहीं रहा "यह जो वह लोकसभा में कहता है-आश्वासन देता है, मुझे
आश्चर्य होता है कि उसके राज्य का प्रत्येक प्रांत अभी तक कैसे नहीं गया। मुझे
आश्चर्य इस बात पर होता है कि ऐसा साहस अभी तक कोई कैसे नहीं करता।
प्रथमतः, पहले धड़ाके में सिक्कम, नेपाल, भूटान, नागालैंड तो किस झाड की
पत्ती! ब्रह्मदेश-ये हमारी ओर झके थे। जब हिंदुस्थान स्वतंत्र हआ तब इधर-उधर
फैले हुए हमारे जो हिंद जन हैं, जो अब हमारे ही वास्तविक उपनिवेश हो चुक
है-सभी यदि कोई बलशाली. दढ मनस्क व्यक्ति अध्यक्ष अथवा प्रधानमंत्री होता तो
मॉरीशस, डचगायना-ये सारे हिंदुस्थान का ध्वज फहराते हुए आपके पास आए थे। वह
ब्रह्मदेश का उ-नू भी नेहरू का ही ममेरा भाई लगता है। उसमें भी कोई दम
नहीं-कभी संन्यास लेता है तो कभी राज्य पर बैठता है। वह भी आया था। परंतु
नेहरू की यह ढुलमुल, नपुंसक नीति देखकर इस हताशा के साथ अब चीन से मिल रहे हैं
कि जो देश पाकिस्तान के हवाई जहाजों से आत्मरक्षा नहीं कर सकता, यत्कश्चित्
नागा लोगों से नहीं कर सकता, वह देश हमारी रक्षा चीनियों से. पूर्व पाकिस्तान
से नहीं कर सकेगा। आज यही भय खाए जा रहा है कि कब चीन नेपाल मार्ग से उतरता
है, कब सिक्किम उसे जाकर मिलता है। जैसे जातीय दृष्टि से सिक्किम, भूटान उन्हीं
के पास ही है। नेपाल सोलह आने हमारा है।
"ये सारे लोग हाथ से निकल गए और इस भ्रांत नीति से जो बचा-खुचा पराक्रम हममें
था उसे इन्होंने गँवाया है। मैं आमरण यही आशा करता हूँ कि आप सेना में प्रवेश
करके पुरुषार्थ, पराक्रम की वृद्धि करेंगे, परंतु वर्तमान सेना अकारथ नहीं है।
इन्होंने कभी युद्ध जीते थे। जर्मनों से युद्ध किए थे, कंधे से कंधा मिलाकर
उन्होंने अपनी बराबरी सिद्ध की है। जाओ यूरोप में और गुरखों के संबंध में पूछो।
सुनो वे क्या कहते हैं।
सेना में भर्ती "आजकल मैं पढ़ता हूँ कि एक लिपिक के स्थान के लिए बारह-बारह सौ
आवेदन आते हैं। सेना में जगह है। वहाँ जाओ न। सेना में भरती हो जाओ। परंतु
सेना जैसे कोई हौवा है-वह अपना मार्ग ही नहीं अब लड़कियाँ आगे आ गईंवे भी तय
करती हैं। मैट्रिक होने के पश्चात् कहीं लिपिक बनकर चिपकती हैं। वे यह ध्येय
नहीं रखतीं कि मैं जिजामाता बनूँगी, जिजामाता का गीत गाऊँगी-गीत का समरगीत
करूँगी। जो शिवाजी रणभूमि में जाकर मृत्यु को चुनौती देता और वह उसे भेजती,
तो एकाध शिवाजी निर्माण करना तुम्हारा कर्तव्य नहीं है? परंतु उन कन्याओं के
मन को यह कल्पना तक नहीं छूती । वे अपना यह काम समझती हैं कि पुरुष समाज में
मैं भी नौकरी करूँगी। .
"अतः मेरा यही कहना है कि महाराष्ट्र को भारत का खड्गहस्त होना चाहिए। आपकी
सेना भारतीय सेना में अत्यंत पराक्रमी सिद्ध होनी चाहिए। जोशी और अत्रे ने यह
जो संयुक्त महाराष्ट्र का आंदोलन छेड़ा, मेरी उससे संपूर्ण सहानुभूति थी। तब
मेरे परप्रांतीय मित्र-जिन्होंने मेरे साथ काम किया था-मुझसे पूछते, 'क्या आप
भी प्रांतीय बन गए?' मैंने कहा, 'ना बाबा, मैं प्रांतीय नहीं हुआ। में
महाराष्ट्र को ही भारत समझता हूँ। अरे, परंतु मैं महाराष्ट्र को खड्गहस्त होने
के लिए क्यों कहता हूँ? क्योंकि यदि सेना तुम्हारी हो तो भारत को किसी से भय
नहीं। मराठे अपने देश को मुक्त करने अटक तक गए। शिवाजी महाराज के समय से इस
प्रकार आक्रमण करने का, शत्रु पर धावा बोलने का यह साहस हम लोगों में था। हमने
नर्मदा पार की, यह पर्याप्त नहीं हुआ, चंबल पहुँचे, दिल्ली गए, हिमालय पर गए यह
जिज्ञासा, चित्त की यह आक्रामक प्रवृत्ति एक महाराष्ट्र में ही थी, अन्य
राज्यों में नहीं।
"अत: कल संसद् में इस प्रकार का नियम पारित किया गया कि महाराष्ट्र को भारत से
अलग करो, तो शस्त्रास्त्रों सहित हम आप पर आक्रमण करेंगे कि भारत हमारा है,
आपका कहाँ से हुआ जी? इतनी महाराष्ट्र की स्वतंत्रता को तोड़ोगे तो हम भारत की
ही माँग करेंगे। क्योंकि वही हमारा वास्तविक देश है। इसीलिए यदि आपकी सेना हो
गई और सेना का अर्थ है वह सत्ता जिसके हाथ राज्य की बागडोर है, तो शेष सब
व्यर्थ है। अरे, बड़े-बड़े कारखाने खोलते हो, पागलो! चौडी सड़कें बनाते हो।
मुझे यह सब मान्य है, यह सब तो करना ही चाहिए। इस संसार में इन सबकी आवश्यकता
है-चूल्हा-चौका, बरतन सबकुछ। परंतु यदि कोई-मैं अयूबखान का नाम नहीं लेता-वह
तो एक अति साधारण व्यक्ति है। परंतु यदि किसी अन्य राष्ट्र ने आप पर आक्रमण
किया तो? तो आपकी यह धुआँकश यंत्र सामग्री मिलकर, क्या उनसे लड़ेंगे? ये जो
लंबी-चौड़ी सड़कें पड़ी हैं, क्या खड़ी रहकर लड़ेंगी उनसे? कौन टक्कर लेगा
उनसे? आपके अस्त्र-शस्त्र, आपका लोहा, इस्पात, फौलाद ही उनसे दो हाथ करेंगे।
मुझे अणु अस्त्र चाहिए उन्हें प्राप्त करना ही है-वे उनसे लड़ेंगे और फिर आप
स्वनिर्मित खेती, मार्ग, सेतू, कारखानों का भरपूर भोग कर सकेंगे। अन्यथा यह सब
व्यर्थ है। एक बात कहता हूँ। कभी किसी युग में आपके इस देश को सुवर्णभूमि कहा
जाता था-'सुवर्णभूमि' की उपाधि प्राप्त होने से पश्चिम, पूर्व दोनों ओर के
चोर-उचक्के, लुटेरे, डाकू आकर आपको लूटते-खसोटते, क्योंकि यह सुवर्णभूमि जो
ठहरी। अच्छा चलो, देखें वहाँ तक हाथ पहुँचता है या नहीं। क्योंकि उन्होंने तब
तक आपको लूटाखसोटा जब तक आपके पास अस्त्र-शस्त्र, शक्ति नहीं थी। हिमालय को
छोड़िए, वह तो निर्जीव है। उसपर वायुयान जा रहे हैं। अत: वायु दल, भू दल, नौ
दलों के साथ ऐसी सेना खड़ी करो जो सारे वार अपनी छाती पर झेलेगी। विज्ञान के
आधार से नया ज्ञान सीखो। अजी, अब वह असंभवनीय नहीं रहा। आज एक-दूसरे को अणुबम
दिए जा रहे हैं। एक पुर्तगाल को दे रहा है तो दूसरा स्पेन को दे रहा है। अत:
इस तरह संधि-विग्रह करते हुए आप अपनी शक्ति बढ़ाएँ। प्रथम यह काम करो और फिर
कारखाने बनाओ। साथ-साथ भी कर सकते हो। परंतु सेनाशक्ति होगी तो शत्रु को
बाहर-ही-बाहर रोककर इन कारखानों, मिलों, सड़कों-सारी संपत्ति का भोग कर सकते
हैं आप। अन्यथा यह सब होना न होना एक ही बात होगी। अतः युवा मराठी जनों को यही
आकांक्षा रखनी चाहिए। महाराष्ट्रीयन भारतीय तो अवश्य ही होगा, अत: सेना में
आपकी प्रबलता होनी चाहिए। संख्या के संबंध में नहीं अपितु पराक्रम में। मेनन
लिखित कश्मीर की पुस्तक आप अवश्य पढ़ें। महार (अछूत) पलटन के विषय में वे
लिखते हैं, 'यह महार लोगों की पलटन-आंबेडकर बहुत दूर की सोचते हैं। उन्होंने
महारों की ही एक पलटन बनाई और नेहरू के पास अस्पृश्यता वसीला गाँठकर उसे
कश्मीर भेज दिया। देखें, हमारे लोग कितने शूर हैं।' कितना बड़ा पराक्रम किया
उन्होंने कश्मीर को बचाने के लिए। अत: आपके पास भारतीयता तो घुट्टी में मिली
होने के कारण आपकी सेना भारत में श्रेष्ठ हो। यदि आपके हाथ बम आ गया तो वह
भारत के शत्रु पर ही गिरेगा और उसपर तब तक ही गिरेगा जब तक वह भारत का शत्रु
है और एक-दो-चार दिवस इधर-उधर होकर गिरने से भी कोई बात नहीं, परंतु पक्के
मित्र बने इसलिए? इसीलिए मेरी आकांक्षा है कि आप ही को खड्गहस्त होना चाहिए
और आशा करता हूँ-आप ही भविष्य की पीढ़ी बनकर वह आकांक्षा पूरी करेंगे।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ-गुरुपूर्णिमा उत्सव,पुणे
(३० जुलाई, १९३९ के दिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पुणे शाखा का गुरुपूनम
उत्सव संपन्न हो गया। उस प्रसंग में वीर सावरकर के मुख्य भाषण से कुछ
महत्त्वपूर्ण अंश-)
"हिंदुत्व के अथाह सागर पर संकल्प-विकल्प, पक्षोपपक्ष, जयपराजय की कितनी ही
लहरें टकराई तथापि सागर जैसे थे वैसे ही निश्चल हैं। इसपर संघ के आद्य प्रणेता
डॉ हेडगेवार ने गौर किया और उन्होंने इस संघ की प्राणप्रतिष्ठा की, इसके लिए
मैं उनका मन:पूर्वक आभारी हूँ। मनु की अंजुली में समाई हुई मछली बढ़ते-बढ़ते
बहुत विशालकाय बनकर प्रलयकाल में मनु की नौका बचा सकी। उसी तरह डॉ. हेडगेवार
द्वारा अल्प मात्रा में आरंभ की हुई यह संघटना आज विराट स्वरूप धारण करके
राष्ट्र का उद्धार कर सकेगी, यह मेरा दृढ़ विश्वास है।
इसका भान हमें रखना चाहिए कि संपूर्ण विश्व में क्या हो रहा है। हिटलर लिखित
आत्मवृत्त में है-जर्मनी में नाजी पक्ष का उदय किस तरह हुआ। उसने प्रथम
दस-बारह जनों के साथ ही अपना संघ स्थापित किया। उस समय जर्मनी निराशा के
बादलों से घिरी हुई थी। विश्वबंधुत्व की धारणा विकसित होकर जर्मन राष्ट्र के
लिए जो लड़ें, बर्लिन शहर में उनका उपरोध होने लगा था। जो वीर रणभूमि से लौटे
उनका सरेआम अपमान होने लगा। इतना ही नहीं, उनके तमगे भी लोग छीन लेते। इस
स्थिति पर गौर करते हुए भविष्य में जर्मनी का उदय किस तरह से होगा इसकी धुँधली
सी कल्पना हिटलर के मन में झाँकने लगी और उसने उसे मूर्त स्वरूप देने का
निश्चय किया। प्रथम उसके निकट दस-पंद्रह लोग इकट्ठा हो गए। परंतु उसने न
डगमगाते हुए अपना कार्य हिम्मत से आगे बढ़ाया।
"आज वहाँ क्या दिखाई देता है ? ऑस्ट्रिया के एकीकरण का विचार आज चार-पाँच सौ
वर्ष पूर्व का है। वह अभी तक साकार नहीं हो पाया था। परंतु अपने पराक्रम से
हिटलर ने यह विचार सत्य और साकार करके दिखाया है। वाकई इसके लिए वह प्रशंसा
भाजन है। उसने यह महत्त्वाकांक्षा धारण की है कि जर्मनभाषी तथा जर्मन संस्कृति
के लोग एकत्रित हों। अत: जातीय आधार पर हिंदुओं का तिरस्कार करने में कोई तुक
नहीं। विश्व के सभी राष्ट्र यही कर रहे हैं। मान लीजिए, आज इंग्लैंड में कुछ
मुसलमान हैं। उन्होंने अपने लिए कुछ विशेष अधिकारों की माँग की और डेमोक्रेसी
के युग में वह उचित भी है, फिर भी क्या आप सोचते हैं कि इंग्लैंड उन्हें
प्रसन्नतापूर्वक वह अधिकार देंगे? यदि आप ऐसा सोचते हैं तो वह आपकी भूल है। इस
तथ्य पर गौर करना चाहिए कि डेमोक्रेसी मात्र इंग्लैंड के लोगों के लिए ही है।
जो अपने आपको अमुक एक जाति विशेष का घटक कहलाता है तो हमें उसकी वह विशेष जाति
माननी ही होगी। जर्मनों को जर्मन संस्कृति पर गर्व है। ज्यू लोग भी आज सदियों
से वहाँ रस-बस गए हैं। फिर भी जर्मन लोगों के मन में उनके लिए आत्मीयता नहीं
है। इसपर गौर करें कि इसका मर्म क्या है? भई, अडोस-पड़ोस में रहने से प्रेमभाव
थोड़े ही उत्पन्न होता है। हैदराबाद में बरसों से हिंदू-मुसलमान एक-दूसरे के
निकट रह रहे हैं। फिर भी आज वहाँ कैसा दृश्य दिखाई देता है? वे दोनों
एक-दूसरे के कट्टर शत्रु बन गए हैं। मुसलमानों का मुख उस छोटे से अरबस्तान की
ओर है। इसके लिए मुझे रत्ती भर भी आश्चर्य नहीं हो रहा। यूरोप में भी आज इसी
दृष्टि से राष्ट्र बन रहे हैं। लोगों को इसमें जातीयता की गंध आ रही हो तो कोई
बात नहीं। विश्व के नक्शे में भी जर्मनों के लिए जर्मनी, अंग्रेजों के लिए
इंग्लैंड, इटालियनों के लिए इटली इस प्रकार एक-एक कोना आरक्षित है। उसी तरह
विश्व के इतिहास में हिंदुओं के लिए ही यह देश मात्र हिंदुओं का है।
हिंदुस्थान स्थित राजनीतिक पक्ष के जो लोग हैं उनकी राष्ट्रीयता की धारणा चाहे
जो भी हो, मेरा ठोस विचार है कि हिंदुस्थान हिंदुओं का ही है। इसी राष्ट्रीय
भावना पर निर्भर रहकर यह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कार्यरत है। उसका कार्य
उत्तरोत्तर सफल हो और भारत की आकांक्षा फलित हो-यही किसी की भी मनीषा होगी।"
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ,सांगली
शाखा
"विपदाओं के पाषाण लौटाने के लिए वज्र-कठोर कुठार निर्माण हों, इसलिए पूजनीय
डॉक्टर साहब ने आमरण परिश्रम किए, इसी का परिपाक है यह संघटना। किसान जिस
कुशलता के साथ बाढ़, पर्जन्य का उपयोग करता है उसी तरह व सामूहिक जागृति का लाभ
उठाते हैं। राजनीति से तटस्थ रहने की जो लक्ष्मण रेखा मूलभूत संस्थापक डॉ.
हेडगेवार ने खींची है उसका सावधानी के साथ पालन करते हुए भी नागरिक होने के
नाते जो कुछ हिंदुत्वहिताय कार्य होंगे उन्हें हम करेंगे।
"आपके संघ का कार्य देखकर मैं संतुष्ट हूँ। जिन दो-तीन मार्गों से हिंदू
संघटना का कार्य हो रहा है, उनमें से एक संघ है। ऐसे कई परस्थ लोगों और
कांग्रेसियों को संघ कार्य से संबंधित प्रशंसोद्गार निकालते हुए मैंने सुना है
जिनका हिंदुत्व पर विश्वास नहीं। आपकी सांगली शाखा के अब चार सौ ही स्वयंसेवक
हैं-उनकी संख्या इस संख्या से बढ़नी चाहिए ताकि संघटन कार्य को तीव्र गति
प्राप्त हो सके। संघटन के बिना हम रह नहीं सकते।
"यह कहने की आवश्यकता नहीं कि प्रत्येक को आत्मरक्षा की आवश्यकता क्यों है।
हमने अपने हाथों में जो लाठियाँ थामी हैं वे आत्मरक्षार्थ ही पकड़ी हैं न ?
आत्मरक्षा के लिए इससे भी बड़े साधन हैं। रायफल आदि का प्रयोग करने की अनुमति
नहीं थी इसलिए हमने लाठियाँ पकड़ीं। अब रायफलों का प्रयोग करने की अनुमति मिली
तो उसका अवश्य लाभ उठाओ। केवल लाठी थामने से काम नहीं चलेगा। उसके साथ बुद्धि
का भी प्रयोग करना चाहिए। कल्पना और कृति, मस्तिष्क और हाथों का साहचर्य हो तो
उनका उपयोग है।
"आज हमें परिस्थितियों का विचार करना होगा। आज स्वयं सरकार हमसे सेना में भरती
होने का आह्वान कर रही है। आज तक हमारी इच्छा होते हुए भी हम ऐसा नहीं कर सकते
थे। वह स्वर्णावसर अब आ गया है। यह अवसर यदि हमने खो दिया तो आजीवन पछताना
पड़ेगा। पहले केवल बम चोरी करने से पच्चीस वर्षों का दंड होता था। परंतु इसके
विपरीत आज सरकार चौबीस रुपए की छात्रवृत्ति देकर आमंत्रित कर रही है।
"सेना में प्रवेश पाकर हम ब्रिटिशों की सार्वभौम सत्ता वृद्धिंगत करते हैं इस
तरह का आक्षेप कोई उठाएगा परंतु वास्तव में सेना के बाहर रहकर भी हम उनको
सत्ता वृद्धिंगत करने के लिए कारणीभूत होते हैं। भला किस बात में हम पर उनका
सिक्का नहीं जमा है? अतः इस दास्यता को कम करने का मार्ग है सेना में भरती
होगा। सेना में प्रवेश पाने से ब्रिटिशों का थोड़ा-बहुत फायदा हो रहा है तथापि
ऐसा नहीं की हम उन्हीं के फायदे के लिए सेना में भरती हो रहे हैं। हमें ध्यान
में रखना चाहिए कि हम अपने फायदे के लिए सेना में प्रविष्ट हो रहे हैं।"
आर्थिक सूत्र
(२४ अगस्त, १९३९ के दिन गिरगाँव ब्राह्मण सभा के गणेशोत्सव में हमारा अगला पग'
इस विषय पर वीर सावरकर का भाषण हुआ। वर्तमान परिस्थितियों का सिंहावलोकन करने
के पश्चात् उन्होंने आगे कहा-)
"अब मैं अपना आर्थिक कार्यक्रम बताता हूँ। इससे संबंधित हिंदू महासभा की
अधिकृत नीति स्पष्ट होगी। मजदूर (श्रमिक) और किसान ही समाज की नींव होने के
कारण उनका विस्मरण नहीं होना चाहिए। मेरे विचार से राष्ट्रनिष्ठ वर्ग समन्वय
की कसौटी पर अपने आर्थिक कार्यक्रम की नीति आँके।