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वैचारिकी संग्रह

सावरकर समग्र खंड 9

विनायक दामोदर सावरकर


सावरकर समग्र

स्वातंत्र्यवीर

विनायक दामोदर सावरकर

प्रभात प्रकाशन, दिल्ली

आभार- स्वातंत्र्यवीर सावरकर राष्ट्रीय स्मारक

२५२ स्वातंत्र्यवीर सावरकर मार्ग

शिवाजी उद्यान, दादर, मुंबई-२८

प्रकाशक - प्रभात प्रकाशन

४/१९ आसफ अली रोड

नई दिल्ली-११०००२

संस्करण - २००४

© सौ. हिमानी सावरकर

मूल्य - पाँच सौ रुपए प्रति खंड

पाँच हजार रुपए (दस खंडों का सैट)

मुद्रक - गिर्राज प्रिंटर्स, दिल्ली

SAVARKAR SAMAGRA (Complete Works of Vinayak Damodar Savar Published by Prabhat Prakashan, 4/19 Asaf Ali Road, New Delhi-2

Vol. VIII Rs. 500.00 ISBN 81-7315-328-0

Set of Ten Vols. Rs. 5000.00 ISBN 81-7315-331-0


प्रथम खंड

पूर्व पीठिका, भगूर, नाशिक

शत्रु के शिविर में

लंदन से लिखे पत्र

द्वितीय खंड

मेरा आजीवन कारावास

अंदमान की कालकोठरी से

गांधी वध निवेदन

आत्महत्या या आत्मार्पण

अंतिम इच्छा पत्र

तृतीय खंड

काला पानी

मुझे उससे क्या? अर्थात् मोपला कांड

अंधश्रद्धा निर्मूलक कथाएँ

चतुर्थ खंड

उ:शाप

बोधिवृक्ष

संन्यस्त खड्ग

उत्तरक्रिया

प्राचीन अर्वाचीन महिला

गरमागरम चिवड़ा

गांधी गोंधल

पंचम खंड

१८५७ का स्वातंत्र्य समर

रणदुंदुभि

तेजस्वी तारे

षष्टम खंड

छह स्वर्णिम पृष्ठ

हिंदू पदपादशाही

सप्तम खंड

जातिभंजक निबंध

सामाजिक भाषण

विज्ञाननिष्ठ निबंध

अष्टम खंड

मैझिनी चरित्र

विदेश में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम

क्षकिरणे

ऐतिहासिक निवेदन

अभिनव भारत संबंधी भाषण

नवम खंड

हिंदुत्व हिंदुत्व का प्राण

नेपाली आंदोलन

लिपि सुधार आंदोलन

हुनदु राष्ट्रदर्शन

दशम खंड

कविताएँ

भाषा-शुद्धि लेख

विविध लेख


अनुवाद:

प्रो. निशिकांत मिरजकर, डॉ. ललिता मिरजकर,

डॉ. हेमा जावडेकर, श्री वामन राव पाठक, श्री काशीनाथ जोशी,

श्री शरद दामोदर महाजन, श्री माधव साठे, सौ. कुसुम तांबे,

सौ. सुनीता कुट्टी, सौ. प्रणोति उपासने

संपादन:

प्रो. निशिकांत मिरजकर, डॉ. श्याम बहादुर वर्मा,

श्री रामेश्वर मिश्र 'पंकज', श्री जगदीश उपासने,

श्री काशीनाथ जोशी, श्री धृतिवर्धन गुप्त, श्री अशोक कौशिक

मार्गदर्शन :

श्री त्रिलोकीनाथ चतुर्वेदी, डॉ. हरींद्र श्रीवास्तव,

श्री शिवकुमार गोयल

विनायक दामोदर सावरकर : संक्षिप्त जीवन परिचय

श्री विनायक दामोदर सावरकर भारतीय स्वाधीनता-संग्राम के एक तेजस्वी तथा अग्रणी नक्षत्र थे। 'वीर सावरकर' शब्द साहस, वीरता, देशभक्ति का पर्यायवाची बन गया है। 'वीर सावरकर' शब्द के स्मरण करते ही अनुपम त्याग, अदम्य साहस, महान् वीरता, एक उत्कट देशभक्ति से ओतप्रोत इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठ हमारे सामने साकार होकर खुल पड़ते हैं।

वीर सावरकर न केवल स्वाधीनता-संग्राम के एक तेजस्वी सेनानी थे अपितु वह एक महान् क्रांतिकारी, चिंतक, सिद्धहस्त लेखक, कवि, ओजस्वी वक्ता तथा दूरदर्शी राजनेता भी थे। वह एक ऐसे इतिहासकार भी थे जिन्होंने हिंदू राष्ट्र की विजय के इतिहास को प्रामाणिक ढंग से लिपिबद्ध किया तो '१८५७ के प्रथम स्वातंत्र्य समर' का सनसनीखेज व खोजपूर्ण इतिहास लिखकर ब्रिटिश शासन को हिला डाला था।

इस महान् क्रांतिपुंज का जन्म महाराष्ट्र के नासिक जिले के ग्राम भगूर में चित्तपावन वंशीय ब्राह्मण श्री दामोदर सावरकर के घर २८ मई, १८८३ को हुआ था। गाँव के स्कूल में ही पाँचवीं तक पढ़ने के बाद विनायक आगे पढ़ने के लिए नासिक चले गए।

लोकमान्य तिलक द्वारा संचालित 'केसरी' पत्र की उन दिनों भारी धूम थी। 'केसरी' में प्रकाशित लेखों को पढ़कर विनायक के हृदय में राष्ट्रभक्ति की भावनाएँ हिलोरें लेने लगीं। लेखों, संपादकीयों व कविताओं को पढ़कर उन्होंने जाना कि भारत को दासता के चंगुल में रखकर अंग्रेज किस प्रकार भारत का शोषण कर रहे हैं। वीर सावरकर ने कविताएँ तथा लेख लिखने शुरू कर दिए। उनकी रचनाएँ मराठी पत्रों में नियमित रूप से प्रकाशित होने लगीं। 'काल' के संपादक श्री परांजपे ने अपने पत्र में सावरकर की कुछ रचनाएँ प्रकाशित की, जिन्होंने तहलका मचा दिया।

सन् १९०५ में सावरकर बी.ए. के छात्र थे। उन्होंने एक लेख में विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का आह्वान किया। इसके बाद उन्होंने अपने साथियों के साथ मिलकर विदेशी वस्त्रों की होली जलाने का कार्यक्रम बनाया। लोकमान्य तिलक इस कार्य के लिए आशीर्वाद देने उपस्थित हुए।

सावरकर की योजना थी कि किसी प्रकार विदेश जाकर बम आदि बनाने सीखे जाएँ तथा शस्त्रास्त्र प्राप्त किए जाएँ। तभी श्री श्यामजी कृष्ण वर्मा ने सावरकर को छात्रवृत्ति देने की घोषणा कर दी। ९ जून, १९०६ को सावरकर इंग्लैंड के लिए रवाना हो गए। वह लंदन में इंडिया हाउस' में ठहरे। उन्होंने वहाँ पहुँचते ही अपनी विचारधारा के भारतीय युवकों को एकत्रित करना शुरू कर दिया। उन्होंने 'फ्री इंडिया सोसाइटी' की स्थापना की।

सावरकर 'इंडिया हाउस' में रहते हुए लेख व कविताएँ लिखते रहे। वह गुप्त रूप से बम बनाने की विधि का अध्ययन व प्रयोग भी करते रहे। उन्होंने इटली के महान् देशभक्त मैझिनी का जीवन-चरित्र लिखा। उसका मराठी अनुवाद भारत में छपा तो एक बार तो तहलका ही मच गया था।

१९०७ में सावरकर ने अंग्रेजों के गढ़ लंदन में १८५७ की अर्द्धशती मनाने का व्यापक कार्यक्रम बनाया। १० मई, १९०७ को 'इंडिया हाउस' में सन् १८५७ की क्रांति की स्वर्ण जयंती का आयोजन किया गया। भवन को तोरण-द्वारों से सजाया गया। मंच पर मंगल पांडे, लक्ष्मीबाई, वीर कुँवरसिंह, तात्या टोपे, बहादुरशाह जफर, नानाजी पेशवा आदि भारतीय शहीदों के चित्र थे। भारतीय युवक सीने व बाँहों पर शहीदों के चित्रों के बिल्ले लगाए हुए थे। उनपर अंकित था - '१८५७ के वीर अमर रहें'। इस समारोह में कई सौ भारतीयों ने भाग लेकर १८५७ के स्वाधीनता-संग्राम के शहीदों को श्रद्धांजलि अर्पित की। राष्ट्रीय गान के बाद वीर सावरकर का ओजस्वी भाषण हुआ, जिसमें उन्होंने सप्रमाण सिद्ध किया कि १८५७ में 'गदर' नहीं अपितु भारत की स्वाधीनता का प्रथम महान् संग्राम हुआ था।

सावरकर ने १९०७ में '१८५७ का प्रथम स्वातंत्र्य समर' ग्रंथ लिखना शुरू किया। इंडिया हाउस के पुस्तकालय में बैठकर वह विभिन्न दस्तावेजों व ग्रंथों का अध्ययन करने लगे। उन्होंने लगभग डेढ़ हजार ग्रंथों के गहन अध्ययन के बाद इसे लिखना शुरू किया।

ग्रंथ की पांडुलिपि किसी प्रकार गुप्त रूप से भारत पहुँचा दी गई। महाराष्ट्र में इसे प्रकाशित करने की योजना बनाई गई। 'स्वराज्य' पत्र के संपादक ने इसे प्रकाशित करने का निर्णय लिया; किंतु पुलिस ने प्रेस पर छापा मारकर योजना में बाधा डाल दी। ग्रंथ की पांडुलिपि गुप्त रूप से पेरिस भेज दी गई। वहाँ इसे प्रकाशित कराने का प्रयास किया गया; किंतु ब्रिटिश गुप्तचर वहाँ भी पहुँच गए और ग्रंथ को प्रकाशित न होने दिया गया। ग्रंथ के प्रकाशित होने से पूर्व ही उसपर प्रतिबंध लगा दिया गया। अंतत: १९०९ में ग्रंथ फ्रांस से प्रकाशित हो ही गया।

ब्रिटिश सरकार तीनों सावरकर बंधुओं को 'राजद्रोही' व खतरनाक क्रांतिकारी घोषित कर चुकी थी। सावरकर इंग्लैंड से पेरिस चले गए। पेरिस में उन्हें अपने साथी याद आते। वह सोचते कि उनके संकट में रहते उनका यहाँ सुरक्षित रहना उचित नहीं है। अंतत: वह इंग्लैंड के लिए रवाना हो गए।

१३ मार्च, १९१० को लंदन के रेलवे स्टेशन पर पहुँचते ही सावरकर को बंदी बना लिया गया और ब्रिक्स्टन जेल में बंद कर दिया गया। उनपर लंदन की अदालत में मुकदमा शुरू हुआ। न्यायाधीश ने २२ मई को निर्णय दिया कि क्योंकि सावरकर पर भारत में भी कई मुकदमे हैं, अत: उन्हें भारत ले जाकर वहीं मुकदमा चलाया जाए। अंतत: २९ जून को सावरकर को भारत भेजने का आदेश जारी कर दिया गया।

१ जुलाई, १९१० को 'मोरिया' जलयान से सावरकर को कड़े पहरे में भारत रवाना किया गया। ब्रिटिश सरकार को भनक लग गई थी कि सावरकर को रास्ते में छुड़ाने का प्रयास किया जा सकता है। अत: सुरक्षा प्रबंध बहुत कड़े किए गए। ८ जुलाई को जलयान मार्सेलिस बंदरगाह के निकट पहँचने ही वाला था कि सावरकर शौच जाने के बहाने पाखाने में जा घुसे। फुरती के साथ उछलकर वह पोर्ट हॉल तक पहुँचे और समुद्र में कूद पड़े।

अधिकारियों को जैसे ही उनके समुद्र में कूद जाने की भनक लगी कि अंग्रेज अफसरों के छक्के छूट गए। उन्होंने समुद्र की लहरें चीरकर तैरते हुए सावरकर पर गोलियों की बौछार शुरू कर दी। सावरकर सागर की छाती चीरते हुए फ्रांस के तट की ओर बढ़ने लगे। कुछ ही देर में वह तट तक पहुँचने में सफल हो गए; किंतु उन्हें पुन: बंदी बना लिया गया। १५ सितंबर, १९१० को सावरकर पर मुकदमा शुरू हुआ। सावरकर ने स्पष्ट कहा कि भारत के न्यायालय से उन्हें न्याय की किंचित् भी आशा नहीं है, अत: वह अपना बयान देना व्यर्थ समझते हैं।

१४ दिसंबर को अदालत ने उन्हें ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध षड्यंत्र रचने, बम बनाने तथा रिवॉल्वर आदि शस्त्रास्त्र भारत भेजने आदि आरोपों में आजन्म कारावास की सजा सुना दी। उनकी तमाम संपत्ति भी जब्त कर ली गई।

२३ जनवरी, १९११ को उनके विरुद्ध दूसरे मामले की सुनवाई शुरू हुई। ३० जनवरी को पुनः आजन्म कारावास की सजा सुना दी गई। इस प्रकार सावरकर को दो आजन्म कारावासों का दंड दे दिया गया। सावरकर को जब अंग्रेज न्यायाधीश ने दो आजन्म कारावासों का दंड सुनाया तो उन्होंने हँसते हुए कहा, 'मुझे बहुत प्रसन्नता है कि ईसाई (ब्रिटिश) सरकार ने मुझे दो जीवनों का कारावास दंड देकर पुनर्जन्म के हिंदू सिद्धांत को मान लिया है।'

कुछ माह बाद महाराजा नामक जलयान से सावरकर को अंदमान भेज दिया गया। वे ४ जुलाई, १९११ को अंदमान पहुँचे। अंदमान में उन्हें अमानवीय यातनाएँ दी जाती थीं। कोल्हू में बैल की जगह जोतकर तेल पिरवाया जाता था, मूँज कुटवाई जाती थी। राजनीतिक बंदियों पर वहाँ किस प्रकार अमानवीय अत्याचार ढाए जाते थे, इसका रोमांचकारी वर्णन सावरकरजी ने अपनी पुस्तक 'मेरा आजीवन कारावास' में किया है।

सावरकरजी ने अंदमान में कारावास के दौरान अनुभव किया कि मुसलमान वॉर्डर हिंदू बंदियों को यातनाएँ देकर उनका धर्म-परिवर्तन करने का कुचक्र रचते हैं। उन्होंने इस अन्यायपूर्ण धर्म-परिवर्तन का डटकर विरोध किया तथा बलात् मुसलिम बनाए गए अनेक बंदियों को हिंदू धर्म में दीक्षित करने में सफलता प्राप्त की। उन्होंने अंदमान की कालकोठरी में कविताएँ लिखीं। 'कमला', 'गोमांतक' तथा 'विरहोच्छ्वास' जैसी रचनाएँ उन्होंने जेल की यातनाओं से हुई अनुभूति के वातावरण में ही लिखी थीं। उन्होंने 'मृत्यु' को संबोधित करते हुए जो कविता लिखी वह अत्यंत मार्मिक व देशभक्ति से पूर्ण थी।

सावरकरजी ने अंदमान कारागार में होनेवाले अमानवीय अत्याचारों की सूचना किसी प्रकार भारत के समाचारपत्रों में प्रकाशित कराने में सफलता प्राप्त कर ली। इससे पूरे देश में इन अत्याचारों के विरोध में प्रबल आवाज उठी। जाँच समिति ने अंदमान जाकर जाँच की। अंत में दस वर्ष बाद १९२१ में सावरकरजी को अंदमान से मुक्ति मिली। उन्‍हें अंदमान से लाकर रत्‍नागिरी तथा यरवडा की जेलों में बंद रखा गया। तीन वर्षों तक इन जेलों में रखने के बाद सन् १९२४ में उन्‍हें रत्‍नागिरी में नजरबंद रखने के आदेश हुए। रत्नागिरी में रहकर उन्‍होंने अस्‍पृश्‍यता निवारण, हिंदू संगठन जैसे अनूठे कार्य किए।

'हिंदुत्व', 'हिंदू पदपादशाही', 'उ:श्राप', 'उत्तरक्रिया', 'संन्यस्त खड्ग' आदि ग्रंथ उन्होंने रत्नागिरी में ही लिखे।

१० मई, १९३७ को सावरकरजी की नजरबंदी रद्द की गई।

नजरबंदी से मुक्त होते ही सावरकरजी का भव्य स्वागत किया गया। अनेक नेताओं ने उन्हें कांग्रेस में शामिल करने का प्रयास किया; किंतु उन्होंने स्पष्ट कह दिया, 'कांग्रेस की मुसलिम तुष्टीकरण की नीति पर मेरे तीव्र मतभेद हैं। मैं हिन्दू महासभा का ही नेतृत्व करूँगा।'

३० दिसंबर, १९३७ को अहमदाबाद में आयोजित अखिल भारतीय हिंदू महासभा के अधिवेशन में सावरकरजी सर्वसम्मति से अध्यक्ष चुने गए। उन्होंने 'हिंदू' की सर्वश्रेष्ठ व मान्य परिभाषा की। हिंदू महासभा के मंच से सावरकरजी ने 'राजनीति का हिंदूकरण और हिंदू सैनिकीकरण' का नारा दिया। उन्होंने हिंदू युवकों को अधिक-से-अधिक संख्या में सेना में भरती होने की प्रेरणा दी। उन्होंने तर्क दिया, 'भारतीय सेना के हिंदू सैनिकों पर ही इस देश की रक्षा का भार आएगा, अत: उन्हें आधुनिकतम सैन्य विज्ञान की शिक्षा दी जानी जरूरी है।'

२६ फरवरी, १९६६ को भारतीय इतिहास के इस अलौकिक महापुरुष ने इस संसार से विदा ले ली। अपनी अंतिम वसीयत में भी उन्होंने हिंदू संगठन व सैनिकीकरण के महत्त्व, शुद्धि की आवश्यकता पर प्रकाश डाला। भारत को पुन: अखंड बनाए जाने की उनकी आकांक्षा रही।

ऐसे वीर पुरुष का व्यक्तित्व और कृतित्व आज भी हमारे लिए पथ-प्रदर्शक का काम करने में सक्षम है।

- शिवकुमार गोयल

हिंदुत्‍व के प्रमुखतम अभिलक्षण

नाम का क्‍या महत्त्व है ?

'जी हाँ, हम हिंदू हैं, हिंदू कहलाने में हमें सदैव गर्व का अनुभव होता है', यह बात हम साहस के साथ कहते हैं और आशा करते हैं कि हमारे इस स्‍वाभिमान दर्शक आग्रहपूर्ण वक्‍तव्‍य के लिए वेरोना की वह लावण्‍यवती हमें उदारतापूर्वक क्षमा कर देगी । इस सुंदरी ने 'नाम का क्‍या महत्‍त्‍व है ? पाँव, मुख आदि के समान नाम मानव-शरीर का कोई अंग नहीं है,' ऐसा कहते हुए व्‍याकुल होकर अपने प्रियतम से प्रार्थना की थी कि उसका नाम बदल दिया जाए । यदि हम इस प्रिय मठवासी भिक्षुश्रेष्ठ के स्‍थान पर होते तो हम भी यही कहते कि नाम का क्‍या महत्‍त्‍व है। यदि गुलाब को किसी अन्‍य नाम से संबोधित किया जाएगा, तब भी उसकी सुगंध पूर्ववत् बनी रहेगी । इस बात को आग्रहपूर्वक प्रस्‍तुत करनेवाले रमणीय तर्कशास्‍त्र के सम्‍मुख नतमस्‍तक होकर इस कथन को स्‍वीकार करने का परामर्श भी हम उसके प्रियतम को देते, क्‍योंकि नाम की तुलना में वस्‍तु का महत्‍व अधिक होता है । एक ही वस्‍तु को विभिन्‍न प्रकार के अनेक नामों से संबोधित किया जाता है । शब्‍दों की ध्‍वनि में तथा उससे प्रतीत होनेवाले अर्थ में एक स्‍वाभाविक तथा अपरिहार्य प्रकार का संबंध रहता है-ऐसा कहना स्‍वयं अपना ही औचित्‍य खो देता है । फिर भी उस वस्‍तु में तथा उसे दिए हुए नाम में विद्यमान परस्‍पर संबंध समय के साथ दृढ़ होकर अंतत: चिरस्‍थायी बन जाते हैं तथा वस्‍तु का बोध करानेवाला यह एक माध्‍यम बन जाता है । नाम तथा वस्‍तु प्राय: एकरूप हो जाते हैं । इस वस्‍तु के विषय में उत्‍पन्‍न होनेवाले उपविचार तथा भावनाएँ उस वस्‍तु का और उसके नाम का महत्‍त्‍व एक समान हो जाता है । 'नाम का क्‍या महत्‍त्‍व है' ऐसा प्रश्‍न व्‍याकुल होकर पूछनेवाली कोमलांगी प्रेषिता को अपने पूजनीय प्राणेश्‍वर 'रोमियो को पेरिस' नाम से संबोधित करना उचित नहीं प्रतीत होता, अथवा अपनी प्रियतमा ज्‍युलिएट को अन्‍य किसी नाम से संबांधित करना स्‍वीकार्य नहीं होता । फलों से लदे वृक्ष की शाखाओं को अपने प्रकाश से रजतस्‍नान करानेवाले चंद्र को साक्षी रखकर ज्‍युलिएट का प्रियकर भी क्‍या शपथपूर्वक कह सकता कि ज्‍युलिएट की तरह रोजलिन नाम भी उतना ही मधुर और भावपूर्ण लगता है ।

नाम की अद्भुत महिमा

कुछ शब्‍द ऐसे भी हैं, जो अत्‍यंत गूढ़ कल्‍पना या ध्‍येय-सृष्टि अथवा विशाल तथा अमूर्त सिध्‍दांत के स्‍पर्श से महत्‍वपूर्ण बन जाते हैं । उनका स्‍वतंत्र अस्तित्‍व होता है और वे किसी जीव-जंतु के समान जीते हैं । समय के साथ वे पुष्‍ट होते हैं । हाथ-पाँव अथवा मनुष्‍य के अन्‍य अंगों से ये नाम भिन्‍न होते हैं, क्‍योंकि वे मनुष्‍य की आत्‍मा ही बनकर रहे होते हैं तथा मानवी पीढि़यों से भी वे अधिक चिरंतन बन जाते हैं । जीजस का निधन हो गया, परंतु रोमन साम्राज्‍य की अपेक्षा अथवा किसी भी अन्‍य सम्राट् की तुलना में वह अधिक चिरंतन हो गया । 'मैडोना के किसी चित्र के नीचे 'फातिमा' लिख दिया जाए तो स्‍पैनिश व्‍यक्ति इसे किसी अन्‍य कलापूर्ण चित्र की तरह कौतूहल से देखता रहेगा, परंतु चित्र के 'मैडोना' लिखा होगा तो एक चमत्‍कार घट जाएगा । तनकर खड़ा वह व्‍यक्ति अपने घुटनों के बल झुक जाएगा । उसकी आँखों में कला विषयक जिज्ञासा के स्‍थान पर एक साक्षात्‍कारी भक्तिभाव झलकने लगेगा । उसकी दृष्टि अंतर्मुखी बन जाएगी । मेरी का पवित्र मातृप्रेम तथा वात्‍सल्‍य मूर्तिमंत साकार करनेवाले इस चित्र के दर्शन से उसकी संपूर्ण देह पुलकित हो उठेगी । 'नाम का क्‍या महत्‍त्‍व है' ऐसा कहने में यदि कुछ तथ्‍य है तो अयोध्‍या को होनोलुलु अथवा वहाँ के अमरचरित्र रघुकुल तिलक को 'दगडू' या ऐसा ही कोई अन्‍य नाम देने पर कोई अंतर नहीं आएगा । किसी अमेरिकी को उसके वॉशिंगटन को चंगेज खान कहने में या किसी मुसलमान को स्‍वयं को ज्‍यू कहलाने में जो कष्‍ट होता है, उसे देखकर आप समझ जाएँगे कि 'खुल जा सिमसिम' मंत्र का उच्‍चारण करने से इस प्रकार के प्रश्‍नों का समाधान नहीं हो सकता ।

हिंदुत्‍व कोई सामान्‍य शब्‍द नहीं है

हिंदुत्‍व एक ऐसा शब्‍द है, जो संपूर्ण मानवजाति के लिए आज भी असामान्‍य स्‍फूर्ति तथा चैतन्‍य का स्‍त्रोत बना हुआ है । इसी हिंदुत्‍व के असंदिग्‍ध स्‍वरूप तथा आशय का ज्ञान प्राप्‍त करने का प्रयास आज हम करने जा रहे हैं । इस शब्‍द से संबद्ध विचार, महान् ध्‍येय, रीति-रिवाज तथा भावनाएँ कितनी विविध तथा श्रेष्‍ठ हैं, कितनी प्रभावी तथा सूक्ष्‍मतम हैं । जितनी क्रांतिकारी हैं, उतनी ही भ्रांतिकारक भी हैं; परंतु सुस्‍पष्‍ट है, इस कारण 'हिंदुत्‍व' शब्‍द का विश्‍लेषण कर उसका स्‍पष्‍ट अर्थ ज्ञात करना अत्‍यधिक कठिन बन जाता है । आज हिंदुत्‍व की जो स्थिति सामने दिखाई दे रही है, यह स्थिति उत्‍पन्‍न होने में कम-से-कम चालीस शतकों से स्‍मृतिकार, वीरपुरूष और इतिहासकारों ने इस शब्‍द की परंपरा को अखंडित रखने के लिए किए हुए त्‍याग और बलिदान का योगदान है । उन्‍होंने इसके लिए अपना जीवन व्‍यतीत किया, प्रखर चिंतन किया, युध्‍द किए तथा अपने प्राणों की बाजी भी लगा दी । यह सब इसलिए करना पड़ा कि हम लोग कभी आपस में लड़ते हुए, कभी परस्‍पर सहकार्य करते हुए और कभी एक-दूसरे में पूर्णत: विलीन होकर एकरूप हो गए थे । यह शब्‍द इस प्रकार लिए गए अनगिनत व्‍यावसायिक कार्यों की निष्‍पत्ति है । 'हिंदुत्‍व' कोई सामान्‍य शब्‍द नहीं है । यह एक परंपरा है । एक इतिहास है । यह इतिहास केवल धार्मिक अथवा आध्‍यात्मिक इतिहास नहीं है । अनेक बार 'हिंदुत्‍व' शब्‍द को उसी के समान किसी अन्य शब्‍द के समतुल्‍य मानकर बड़ी भूल की जाती है । वैसा यह इतिहास नहीं है । वह एक सर्वसंग्रही इतिहास है ।

'हिंदुत्‍व' तथा 'हिंदू धर्म' शब्‍दों का भेद

'हिंदू धर्म' यह शब्‍द 'हिंदुत्‍व' से ही उपजा उसी का एक रूप है, उसी का एक अंश है; इसलिए यदि 'हिंदुत्‍व' शब्‍द की स्‍पष्‍ट कल्‍पना करना हम लोगों के लिए संभव नहीं होता तो 'हिंदू धर्म' शब्‍द भी हम लोगों के लिए दुर्बोध तथा अनिश्चित बन जाएगा। इन दो शब्‍दों में विद्यमान अन्‍योन्‍य पृथक्ता ठीक से समझ नहीं पाने के कारण ही कुद सहोदर जातियों में, जिन्‍हें हिंदू संस्‍कृति के अमूल्‍य उत्तराधिकारी प्राप्‍त हुए हैं, अनेक मिथ्‍या धारणाएँ उत्‍पन्‍न हुई हैं ।इन शब्‍दों के अर्थ में मूलत: क्‍या अंतर है यह बात आगे स्‍पष्‍ट होती जाएगी । यहाँ इतना बताना ही पर्याप्‍त होगा कि 'हिंदू धर्म' से सामान्‍यत: जो बोध होता है, वह 'हिंदुत्‍व' के अर्थ से भिन्‍न है । किसी आध्‍यात्मिक अथवा भक्ति संप्रदाय के मतों के अनुसार निर्मित अथवा सीमित आचार-विचार विषयक नीति-नियमों के शास्‍त्र को ही 'हिंदू धर्म' कहा जाता है । 'धर्म' शब्‍द का अर्थ भी यही है । हिंदुत्‍व के मुल तत्‍त्‍वों की चर्चा करते समय किसी एक धार्मिक या ईश्‍वर-प्राप्ति से जुड़ी विचारप्रणाली या पंथ का ही केवल विचार नहीं किया जाता । भाषा की कठिनाई न होती तो हिंदुत्‍व के अर्थ से निकट आनेवाला 'हिंदुपन' शब्‍द का हमने 'हिंदूधर्म' शब्‍द के बदले प्रयोग किया होता । 'हिंदुत्‍व' शब्‍द में एक राष्ट्र तथा हिंदूजाति के अस्तित्‍व का तथा पराक्रम के सम्मिलित होने का बोध होता है । इसीलिए 'हिंदुत्‍व' शब्‍द का निश्चित आशय ज्ञात करने के लिए पहले हम लोगों को यह समझना आवश्‍यक है कि 'हिंदू' किसे कहते हैं । इस शब्‍द ने लाखों लोगों के मानस को किस प्रकार प्रभावित किया है तथा समाज के उत्तमोत्तम पुरूषों ने, शूर तथा साहसी वीरों ने इसी नाम के लिए अपनी भक्तिपूर्ण निष्‍ठा क्‍यों अर्पित की, इसका रहस्‍य ज्ञात करना भी आवश्‍यक है । यहाँ यह बता देना भी आवश्‍यक है कि जो शब्‍द किसी एक पंथ की ओर निर्देश करता है तथा हिंदुत्‍व की तुलना में अधिक संकुचित तथा असंतोषप्रद है, उसकी चर्चा हम नहीं करनेवाले हैं । इस प्रयास में हम कितने यशस्‍वी हो सकेंगे तथा हमारा दृष्टिकोण कितना योग्‍य है-इसका निर्णय आगामी विवेचन समझने के पश्‍चात् ही किया जा सकेगा ।

सप्‍तसिंधु से प्रथमत: उदय होनेवाला आर्य राष्ट्र

साहसी आर्यों के दल ने सिंधुतथ पर आकर वहाँ रहना कब प्रारंभ किया तथा अपने यज्ञ की अग्नि सबसे पहले कब प्रज्‍वलित की-यह बताना आज की प्राच्‍य अनुसंधान की अवस्‍था में साहसपूर्ण कार्य होगा । मिस्‍त्र देश के वासी तथा बैबिलोनवासियों द्वारा अपनी भव्‍य सभ्‍यता की निर्मिति किए जाने से पहले भी सिंधु नदी के पावन तीरों पर नित्‍य ही यज्ञ के सुगंधित धुएँ के आकाशगामी वलय उठते ही रहते थे । आत्‍मा की अद्वैत अनुभूति से प्रेरित मंत्र-पठन की ध्‍वनि सिंधु की घाटियों में गूँज उठती । यह उचित ही था कि उनके पौरूष तथा विश्‍व के गूढ़ अध्‍यात्‍म का विचार करनेवाली उनकी प्रगल्‍भता की विशेषताओं के कारण एक महान् तथा शाश्‍वत संस्‍कृति की स्‍थापना करने का सम्‍मान उन्‍हें प्राप्‍त हुआ । अपने निकट के जाति-बांधवों से, विशेषत: आर्याणवासी पारसिकों से आर्य जब संपूर्णत: स्‍वतंत्र हो गए, तब सप्‍तसिंधु के पार अंतिम सीमा तक उनके उपनिवेशों का विस्‍तार हो चुका था । 'हम लोग एक स्‍वतंत्र राष्ट्र हैं' इस बात का पर्याप्‍त ज्ञान भी उन्‍हें हो चुका था । इसके अतिरिक्‍त इस राष्ट्र की सीमाएँ भी निश्चित हो चुकी थीं । शरीर में फैले हुए ज्ञान-तंतुओं के समान उस भूमि पर विरत रूप से प्रवाहित होनेवाली उन तुष्टि-पुष्टिदायक सप्‍त सरिताओं के कारण ही एक नए संगठित राष्ट्र का निर्माण हुआ था । उन नदियों के प्रति विद्यमान कृत्‍य भक्तिभाव के कारण ही आर्यों ने स्‍वयं को 'सप्‍तसिंधु' कहलाना पसंद किया । विश्‍व के 'ऋृग्‍वेद' जैसे प्राचीनतम ग्रंथ में वेदकालीन भारत को यही नाम दिया गया है । हमें ज्ञात है कि आर्य प्रमुख रूप से कृषि करते थे । अत: इन सप्‍त नदियों के प्रति उनके मन में कितना अवर्णनीय प्रेम तथा भक्तिभाव होगा-इसकी कल्‍पना हम लोग कर सकते हैं । इन नदियों में सर्वश्रेष्‍ठ तथा ज्‍येष्‍ठ नदी सिंधु को वे लोग राष्ट्र तथा संस्‍कृति का मूतिमंत प्रतीक मानते थे ।

इमा आप: शिवतमा इमा राष्ट्रस्‍य भेषजी: ।

इमा राष्ट्रस्‍य वर्धमीरिया राष्ट्रभृतोऽमृता : ।।

सप्‍तसिंधु के लिए आर्यों का भक्तिभाव

भविष्‍य की दिग्विजयों की कालावधि में आर्यों को इन्‍हीं नदियों जैसी अनेक सुख-समृध्दिवर्धक नदियों से लाभ हुआ होगा । परंतु जिन सप्‍तसिंधुओं ने उनके लिए स्‍वतंत्र राष्ट्र स्‍थापित किया और जिनके नामों से प्रभावित होकर उनके पूर्वजनों ने उनकी राष्‍ट्रीयता तथा सांस्‍कृतिक एकता की घोषणा की और उन्‍हें 'सप्‍तसिंधु' नाम भी दिया, उस सप्‍तसिंधु के लिए आर्यों के मन में प्रेम तथा भक्ति विद्यमान थी । तब से आज तक सिंधु अर्थात् हिंदू किसी भी स्‍थान पर क्‍यों न हों, वे चाहते हैं कि उनके पापों का विनाश होकर आत्‍मशुध्दि हो, इसलिए सप्‍तसिंधुओं का सान्निध्‍य उन्‍हें प्राप्‍त होता रहे । इसलिए अत्‍याधिक भक्तिभाव से वह उन सात नदियों शतद्रु, रावी१०, चिनाव११, वितस्‍ता१२, गंगा, यमुना, सरस्‍वती-का स्‍मरण करता रहता है ।

संस्‍कृत के 'सिंधु' का प्राकृत में 'हिंदू' हो जाता है

केवल आर्य ही स्‍वयं को 'सिंधु' कहलाते, ऐसा नहीं था; उनके पड़ोसी राष्ट्र (कम-से-कम एक) भी उन्‍हें इसी नाम से जानते थे । यह बात सिद्ध करने के लिए हम लोगों के पास पर्याप्‍त प्रमाण उपलब्‍ध हैं । संस्‍कृत के 'स' अक्षर का हिंदू तथा अहिंदू प्राकृत भाषाओं में 'ह' ऐसा अपभ्रंश हो जाता है । सप्‍त का हप्‍त हो जाना केवल हिंदू प्राकृत भाषा तक ही सीमित नहीं है । यूरोप की भाषाओं में इस प्रकार की बात देखी जाती है । सप्‍ताह को हम लोग 'हफ्ता' कहते हैं । यूरोपिय भाषाओं में 'सप्‍ताह' 'हप्‍टार्की' बन जाता है । संस्‍कृत का 'केसरी' शब्‍द हिंदी में 'केहरी' में परिवर्तित हो जाता है । 'सरस्‍वती' का रूप 'हरहवती' तथा 'असुर' का 'अहुर' हो जाता है । इसी प्रकार वेदकालीन सप्‍तसिंधु के लिए आर्याणवासी प्राचीन पारसिकों ने अपने धर्म ग्रंथ 'अवेस्‍ता' में 'हप्‍ताहिंदू' नाम का उल्‍लेख किया है । इतिहास के प्रारंभिक काल में भी हम लोग 'सिंधु' अथवा 'हिंदू' राष्ट्र के अंग माने जाते रहे हैं । अनेक म्‍लेच्‍छ (यावनी) भाषाएँ भी संस्‍कृत भाषा से ही उत्‍पन्‍न हुई हैं । इसे स्‍पष्‍ट करते हुए म्‍लेच्‍छ पुराणों में इस बात का उल्‍लेख कुछ इस प्रकारकिया गया है-

संस्‍कृतस्‍य वाणी तु भारतं वर्ष मुह्रयताम् । अन्‍ये खंडे गता सैव म्‍लेच्‍छाह्या नंदिनोऽभवत् ।। पितृपैतर भ्राता च बादर: पतिरेवच । सेति सा यावनी भाषा ह्यश्‍वश्‍चास्‍यस्‍तथा पुन: जानुस्‍थाने जैनु शब्‍द: सप्‍तसिंधुस्‍तथेव च । हप्‍तहिंदुर्यावनी च पुनर्ज्ञेया गुंरूडिका ।।

(प्रतिसर्ग पर्व, अ. ५)

'हिंदू' नाम से ही हमारे राष्ट्र का नामकरण हुआ था

इस प्रकार आर्याणवासी पारसिक वैदिक आर्यों को 'हिंदू' नाम से ही संबोधित करते थे । यह निश्चित जानने के बाद तथा अन्‍य राष्‍ट्रों को हम जिस नाम से जानते हैं वह नाम भी, जिन्‍होंने हमारा उस राष्ट्र से परिचय कराया होता है, उनका ही दिया होता है, यह जानने के उपरांत हम स्‍पष्‍ट अनुमान लगा सकते हैं कि उस समय के विकसित राष्ट्र भी हमारी इस भूमि को पारसियों की तरह हिंदू नाम से ही जानते थे । यह ज्ञात होने के पश्‍चात् हम इस स्‍पष्ट निष्‍कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि उस समय के विकसित राष्ट्र भी हमारी इस भूमि को पारसियों की तरह 'हिंदू' नाम से ही जानते थे । इसके अतिरिक्‍त सप्‍तसिंधु के इस प्रदेश में यहाँ -वहाँ फैली हुई आदिवासियों की टोलियाँ उनकी भाषाओं में भाषा शास्‍त्र के इस नियम के अनुसार आर्यों को 'हिंदू' नाम से ही जानते होंगे । जो प्राकृत भाषाएँ सिंधुओं की तथा उनसे खून का रिश्‍ता जोड़नेवाली जातियों की नित्‍य व्‍यवहार में बोली जानेवाली भाषाएँ बन गई, और जब हिंदी प्राकृत भाषाओं का जन्‍म भी वैदिक संस्‍कृत भाषा से ही हुआ था, तब से यही सिंधु अपने आपको हिंदू कहलवाते थे । अत: जो प्रमाण उपलब्‍ध हैं, उनका आधार लेने पर यह बात निर्विवाद रूप से प्रभावित हो जाती है कि हम लोगों के पितरों तथा पूर्वजों ने हम लोगों के इस राष्ट्र और जाति का नामकरण 'सप्‍तसिंधु' अथवा' हप्‍त हिंदू' ऐसा ही किया था । उस समय के अधिकतर परिचित राष्ट्र हम लोगों को सिंधु अथवा 'हिंदू' नाम से ही जानते थे । यहाँ किसी संदेह के लिए कोई स्‍थान नहीं है ।

कदाचित् प्राकृत के 'हिंदू' को ही बाद में संस्‍कृत भाषा में 'सिंधु' में रूपांतरित किया गया हो

अब तक हम लोगों ने लिखित रूप में विद्यमान प्रमाणों के अनुसार ही विचार किया है, परंतु अब हम तर्क तथा अनुमान की सीमा में संचार करनेवाले हैं । अभी तक हमने आर्यों के मूल स्‍थान के विषय में किसी भी उपपत्ति की पुष्टि आग्रहपूर्वक नहीं की है । अधिकतर लोगों ने स्‍वीकार कर लिया है कि आर्य हिंदुस्‍थान में बाहर से आए हैं । यह हम लोग भी इसे स्‍वीकार करते हैं । आर्यों ने प्रारंभ में अपने निवास के लिए जिस भूमि का चयन किया था तथा उसे जो नाम दिया था, वह नाम उन्‍होंने कहाँ से प्राप्‍त किया था ? इस बारे में हम लोगों को जिज्ञासा होना स्‍वाभाविक है-क्‍या ये नाम आर्यों ने अपनी प्रचलित भाषा से उन्‍हें रूढ़ किया था ? क्‍या यह करना उनके लिए संभव था ? जब हम लोग किसी प्रदेश का दर्शन प्रथम बार करते हैं या प्रथम बार वहाँ पहुँचते हैं, तब वहाँ के निवासी जिस नाम से उस प्रदेश को संबोधित करते हैं, उसी नाम को हम स्‍वीकारते हैं ; परंतु अपनी सुविधानुसार उच्‍चारण आदि में हम लोग कुछ परिवर्तन भी करते हैं । यह भी सच है कि ये नए नाम हमारे पूर्वनामों की स्‍पष्‍ट तथा मधुर स्‍मृतियाँ जाग्रत् करनेवाले होते हैं । एक बात निश्चित तथा स्‍पष्‍ट दिखाई देती है कि जहाँ मनुष्‍यबस्‍ती नहीं है, जहाँ कृषि के संस्‍कार अभी तक नहीं हुए हैं, उन नए भूखंडों पर जब उपविनेश बनते हैं, तब उन्‍हें जो नाम दिए जाते हैं, वे भी इसी प्रकार के ही होते हैं, परंतु नए भूखंडों के नए नाम वहाँ के मूल निवासियों के प्रचलित नाम ही थे-यह जब सिद्ध हो जाएगा, तभी ऊपर निर्दिष्‍ट अपनी उचित होने की बात भी प्रमाणित हो जाएगी; परंतु यह भी सच है कि नए भूखंडों को उनके पूर्व नामों से ही संबोधित करना सभी को स्‍वीकार्य है ।

हम यह निश्चित रूप से जानते हैं कि इस सप्‍तसिंधु के प्रदेश में अनेक आदिवासी टोलियाँ दूर-दूर तक फैली हुई थीं । इन्‍हीं टोलियों में से कुछ इन नवागतों से अत्‍याधिक मित्रता का व्‍यवहार करतीं, इन्‍हीं आदिवासी टोलियों के अनेक लोगों ने इन प्रदेशों के नाम प्राकृतिक स्थिति तथा आवागमन के मार्ग आदि के विषय में आर्यों को व्‍यक्तिगत रूप से जानकारी दी-यह भी सर्वविदित है । कई लोगों ने आर्यों की सहायता की । विद्याधर, दक्ष, राक्षस, गंधर्व, किन्‍नर आदि लोग १३ आर्यों से सर्वदा शत्रुतापूर्ण आचरण करते थे, यह वास्‍तविकता नहीं है, अनेक प्रसंगों में उनका उल्‍लेख करते समय उन्‍हें अत्‍यंत परोपकारी तथा भली जातियाँ कहा गया है । इससे ऐसा प्रतीत होता है कि आदिवासियों ने इन भूखंडों को जो नाम दिए थे, उन्‍हें ही संस्‍कृत रूप देकर आर्यों ने उन्‍हें प्रचलित किया होगा । इस कथन की पुष्टि के लिए अनेक प्रमाण उपलब्‍ध हैं । परस्‍पर सम्मिश्रण के कारण एकरूप होकर आगे चलकर आर्यों की जो जातियाँ संवर्धित हुईं, उनकी भाषाओं में इनका उल्‍लेख किया गया है । शवकंटकख, मलय, मिलिंद अलसंदा (अलेक्‍झांड्रिया), सुलूव (सेल्‍युकस) इत्‍यादि नामों का अवलोकन कीजिए । यदि यह सत्‍य है तो इस भूमि के आदिवासियों ने महानदी सिंधु को 'हिंदू' नाम से संबोधित किया होगा, यह भी संभव है कि आर्यों ने अपने विशिष्‍ट उच्‍चारण के कारण तथा संस्‍कृत भाषा में 'ह' के स्‍थान पर 'स' अक्षर का प्रयोग किया जाता है-इस नियम के अनुसार 'हिंदू' को 'सिंधु' में परिवर्तित किया होगा, तथा इसी नाम को प्रचलित किया होगा । इसीलिए इस भूमि के निवासियों का तथा हिंदू नाम का अस्तित्‍व जितना प्राचीन है, उसकी तुलना में 'सिंधु' नाम वैदिक काल से प्रचलन में होते हुए भी उसके बाद का ही है, ऐसा प्रतीत होता है । 'सिंधु' इतिहास के प्रारंभिक धूमिल प्रकाश में दिखाई देता है तो 'हिंदू' नाम का काल इतना प्राचीन है कि वह कब निर्माण हुआ-यह निश्चित करने में पुराणों ने भी पराजय स्‍वीकार कर ली है ।

पंच नदियों के पार जाकर उपनिवेशों का विस्‍तार करनेवाले आर्य

सिंधु या हिंदुओं जैसे साहसी लोगों का कार्यक्षेत्र अब पंजाब अथवा पंचनद के समान संकुचित क्षेत्र में सीमित हो जाना संभव नहीं था । पंचनद के सम्‍मुख विद्यमान विस्‍तृत तथा उर्वरक क्षेत्र किसी विलक्षण, परिश्रमी और सामर्थ्‍यवान लोगों को तथा उनकी कर्तृत्‍व-शक्ति का आह्वान कर रहे थे । हिंदुओं की अनेक टोलियाँ पंजाब की भूमि को पार कर ऐसे प्रदेश में जा पहुँची, जहाँ मनुष्‍य का वास्‍तव्‍य बहुत कम था । यज्ञ की देवता अग्नि की मदद से उन्‍होंने नए विस्‍तीर्ण प्रदेश पर अधिकार कर लिया । यहाँ के जंगलों की कटाई की गई और कृषि का प्रारंभ भी किया गया । नगरों की उन्‍नति तथा राज्‍यों का उत्‍कर्ष हुआ । मानव-हाथों के स्‍पर्श से यह विशाल, परंतु वीरान बनी हुई प्रकृति का रूप भी परिवर्तित हो गया । इस प्रचंड कार्य को सफलतापूर्वक करते हुए हिंदू एक ऐसी केंद्री राज्‍यसंस्‍था की स्‍थापना करने के प्रयास कर रहे थे, जो इस स्थिति के लिए पूर्ण रूप से सुगठित न होते हुए भी व्‍यक्तियों के स्‍वभाव धर्म के तथा परिवर्तित स्थिति के अनुरूप एवं उपयोगी थी । समय बीतता गया और उनके उपविवेशों का भी विस्‍तार होता रहा । विभिन्‍न उपनिवेश पर्याप्‍त दूर हो गए । अन्‍य तरह से निवास करनेवाले जनसमूहों को वे अपनी संस्‍कृति में सम्मिलित करने लगे । विविध उपनिवेश अपने दिनों का विचार करते हुए स्‍वतंत्र राजकीय जीवन का उपयोग करने लगे । नए संबंध बने, परंतु पुराने नष्‍ट न होकर अधिक दृढ़ तथा स्‍पष्‍ट बन गए । प्राचीन नाम तथा परंपराएँ भी पीछे छूट गईं । कुछ ने स्‍वयं को 'कुरू' तो कुछ ने 'काशी', 'विदेह', 'मगध' कहलाना प्रारंभ किया, इसलिए सिंधुओं के प्राचीन जातिवाचक नामों को झुकाया जाने लगा और अंतत: वे पूर्णत लुप्‍त हो गए; परंतु इससे उनके मन में विद्यमान राष्‍ट्रीय तथा सांस्‍कृतिक एकता की भावना मिट चुकी थी-यह मानना उचित नहीं होगा । इसी भावना के ये विविध रूप तथा विभिन्‍न रूप मात्र थे राजकीय दृष्टि से इनमें सर्वाधिक महत्‍त्‍वपूर्ण तथा विकसित संस्‍था को 'चक्रवर्ती' पद कहा जाता था ।

वही वास्‍तविक रूप से हिंदू राष्ट्र का जन्‍मदिन है

अयोध्‍या के महाप्रतापी राजा ने जिस दिन अपने यशस्‍वी चरण लंका पर रख दिए तथा उत्तर हिंदुस्‍थान से दक्षिण सागर तक के संपूर्ण क्षेत्र पर सत्‍ता प्रस्‍थापित की, उसी दिन सिंधुओं ने जो स्‍वदेश तथा स्‍वराज्‍य-निर्मिति का महान् कार्य करने का प्रण किया था वह पूरा हो गया । यह कार्य संपन्‍न होने के पश्‍चात् भौगोलिक दृष्टि से इस क्षेत्र की अंतिम सीमा पर भी उनका अधिकार हो गया । जिस दिन अवश्‍मेध का अश्‍व १४ कहीं पर भी प्रतिबंधित न होते हुए तथा अजेय होकर वापस लौटा, जिस दिन लोकाभिराम रामचंद्र के सिंहासन पर चक्रवर्ती सम्राट् का भव्‍य श्‍वेत ध्‍वज आरोहित किया गया, जिस दिन स्‍वयं को 'आर्य' कहलानेवाले नृपों के अतिरिक्‍त हनुमान, सुग्रीव, विभीषण आदि ने भी सिंहासन के प्रति अपनी राजनिष्‍ठा अर्पित की, वही दिन वास्‍तविक रूप से हम लोगों के हिंदू राष्ट्र का जन्‍मदिवस था । पहले की सभी पीढि़यों के प्रयास उसी दिन फलीभूत हुए तथा राजनीतिक दृष्टि से भी वे यश के शिखर पर विराजित हुए । इसके पश्‍चात् की सभी पीढि़यों ने जिस ध्‍येय-प्राप्ति के लिए विचारपूर्वक तथा अनजाने में भी युद्ध किए तथा युद्धों में स्‍वयं की बलि चढ़ा दी, उसी एक ध्‍येय तथा एक ही कार्य का दायित्‍व उसी समय हिंदूजाति को परंपरा से प्राप्‍त हुआ ।

आर्यावर्त तथा भारतवर्ष

एकात्‍मता की भावना को यदि कोई ऐसा नाम दिया जा सकता है, जिसके उच्‍चारण से ही उसका संपूर्ण अर्थ व्‍यक्‍त हो सके तो उस भावना को ही एक प्रकार की शक्ति प्राप्‍त हो जाती है । सिंधु से सागरतट तक फैली भूमि में जा नई भावना उत्‍कटता से प्रदर्शित हो रही थी, एक अभिनव राष्ट्र की स्‍थापना का जो संकल्‍प व्‍यक्‍त हो रहा था, इसका यथार्थ स्‍वरूप प्रकट करने हेतु 'आर्यावर्त' अथवा 'ब्रह्मावर्त' शब्‍द पर्याप्‍त नहीं थे । प्राचीन आर्यावर्त की परिभाषा करते समय हिमालय से विंध्‍याचल तक के प्रदेश को 'आर्यावर्त' नाम से संबोधित किया गया था, 'आर्यवर्त: पुण्‍यभूमिर्मध्‍य विन्‍ध्‍य हिमालयो:'-जिस समय यह परिभाषा की गई थी, उस अवस्‍था के लिए यह सर्वस्‍वी अनुरूप थी; परंतु जिस महान् जाति ने आर्यों तथा अनार्यों की एक संयुक्‍त जाति का निर्माण करते हुए अपनी संस्‍कृति और साम्राज्‍य विंध्‍याचल के शिखरों से आगे सुदूर तक पहुँचाया था, उस जाति के लिए यह परिभाषा अब किंचित् भी उपयोगी नहीं थी । उस जाति के लिए तथा सभी को सम्मिलित कर सके-ऐसा नाम व्‍यक्‍त करने में यह परिभाषा उपयोगी सिद्ध नहीं हो सकी। हिंदू राष्ट्र को व्‍यक्‍त करनेवाला तथा उसकी विराट् कल्‍पना को स्‍पष्‍ट करनेवाला कोई सुयोग्‍य नाम खोजने का कार्य भरत द्वारा हिंदू राष्ट्र का अधिपत्‍य संपूर्ण विश्‍व पर स्‍थापित किए जाने के साथ पूरा हुआ । यह भरत वैदिक भरत या जैन पुराणों में वर्णित भरत था । इस विषय में कुछ तर्क देना उचित नहीं होगा । इतना कहना पर्याप्‍त होगा कि आर्यावर्तवासियों ने तथा दक्षिणपंथी लोगों ने यह नाम केवल स्‍वयं के लिए नहीं स्‍वीकारा । यह हम लोगों की मातृभूमि को तथा समान संस्‍कृति और साम्राज्‍य को भी दिया । दक्षिण दिशा में इस साम्राज्‍य का अधिकार नए क्षेत्रों पर भी हो चुका था । ऐसा प्रतीत होता है कि इस पराक्रम तथा सामर्थ्‍य का गुरूत्‍वमध्‍य भी सप्‍तसिंधु से गंगा-क्षेत्र में आकर स्थिर हो गया । उत्तर हिमालय से दक्षिण सागर तक का क्षेत्र समाविष्‍ट किया जा सके-ऐसा 'नामभरत' खंड था । इस राजकीय दृष्टि से सुभव्‍य नाम प्रचलित होते ही 'सप्‍तसिंधु', 'आर्यावर्त' अथवा 'दक्षिणापथ' आदि नाम लुप्‍त हो गए । श्रेष्‍ठ चिंतकों के मन में जब इस विराट् राष्ट्र की कल्‍पना साकार होने लगी थी, तब हम लोगों के राष्ट्र की परिभाषा करने का जो प्रयास किया गया था, वह भी इसी बात को प्रमाणित करती है । 'विष्‍णुपुराण के' एक लघु परंतु स्‍पष्‍ट अनुष्‍टुप में जो परिभाषा दी गई है, उससे अधिक सुंदर तथा औचित्‍यपूर्ण अन्‍य परिभाषा नहीं है-

उत्तरयत्‍समुद्रस्‍य हिमाद्रेश्‍चैव दक्षिणम्

वर्ष तद्भरतं नाम भारती यत्र संतति:।।

संपूर्ण विश्‍व में 'हिंदू' तथा 'हिंदुस्‍थान' नामों को ही स्‍वीकारा गया

'भारतवर्ष' नाम मूल नाम 'सिंधु' का पूरी तरह से स्‍थान नहीं ले सका । जिसकी गोद में खेलकर हमारे पूर्वजों ने जीवन-अमृत पिया, उस सिंधु नदी के पवित्र नाम के प्रति उनके मन में जो प्रेम था, वह कदापि कम नहीं हुआ । आज भी सिंधु के तीरों पर स्थित प्रांत को 'सिंधु' नाम से ही जाना जाता है ।

प्राचीन संस्‍कृत वाड्.मय में 'सिंधु सौवीर' अपने राष्ट्र के अत्‍यंत महत्‍त्‍वपूर्ण और अभिन्‍न घटक हुआ करते थे, ऐसा उल्‍लेख पाया जाता है । 'महाभारत' में सिंधु सौवीर देश के राजा जयद्रध का महत्‍त्‍वपूर्ण उल्‍लेख किया गया है । ऐसा भी कहा गया है कि भरत के साथ उसका निकट का संबंध था । सिंधु राष्ट्र की समीएँ समय-समय पर बदलती रहीं । परंतु वह उस समय एक स्‍वतंत्र जाति थी तथा अब भी है-इसे कोई भी अस्‍वीकार नहीं कर सकता । मुलतान से लेकर समुद्र तट तक सिंधी नामक जो भाषा बोली जाती है, वह इस राष्ट्र की ओर निर्देश करती है तथा यह भी सूचित करती है कि यह भाषा बोलनेवाले सिंधु ही हैं । राजकीय तथा भौगोलिक दृष्टि से उन्‍हें हिंदुओं के समान राष्ट्र के घटक होने का अधिकार प्राप्‍त है ।

हम लोगों के राष्ट्र का मूल नाम 'हिंदुस्‍थान', 'भरतखंड' नाम के कारण कुछ पिछड़ गया था, परंतु अन्‍य राष्‍ट्रों ने इस नए संबोंधन के प्रति विशेष ध्‍यान नहीं दिया था सीमा के निकटवर्ती प्रदेशों के लोगों ने पुराना नाम ही व्‍यवहार में प्रचलित रखा । इसी कारण पारसी, यहूदी (ज्‍यू), ग्रीक आदि पड़ोसियों ने भी हम लोगों का पुराना नाम 'सिंधु' अथवा 'हिंदू' प्रयोग में जारी रखा । केवल सिंधुतट के प्रदेशों को ही वे इस नाम से जानते थे-ऐसा नहीं है । सिंधुओं ने पूर्व में विभिन्‍न घटकों को अपनाकर दिग्विजय करते हुए जिस नए राष्ट्र का संवर्धन किया था, उस संपूर्ण राष्ट्र को ही 'सिंधु' नाम से संबोधित किया जाता था । पारसी हम लोगों को हिंदू नाम से संबोधित करते । 'हिंदू' शब्‍द का कठोर उच्‍चारण त्‍यागकर ग्रीक हमें 'इंडोज' कहते और इन्‍हीं ग्रीकों का अनुकरण करते हुए संपूर्ण यूरोप तथा बाद में अमेरिका भी हम लोगों को 'इंडियंस' ही कहने लगे । हिंदुस्‍थान में बहुत दिनों तक भ्रमण करनेवाला चीनी यात्री ह्रेनसांग हम लोगों को 'शिंतु' अथवा 'हिंदू' ही कहता है । पार्थियन लोग १५ अफगानिस्‍तान को 'श्‍वेत भारत' कहते थे । इस प्रकार के कुछ अपवादों को छोड़कर अधिकरत विदेशी लोग हम लोगों का मूल नाम भूले नहीं थे अथवा यह नया नाम उन्‍होंने स्‍वीकार नहीं किया था । अपनी शेष इच्‍छाएँ पूरी करने हेतु संपूर्ण विश्‍व हम लोगों को 'हिंदू' तथा इस धरती को 'हिंदुस्‍थान' के नाम से ही संबोधित करता है ।

कौन सा नाम रूढ़ हो जाता है ?

कोई भी नाम इसलिए रूढ़ अथवा सुप्रतिष्ठित नाम नहीं बन जाता कि हम लोग उसे पसंद करते हैं, बल्कि इसलिए कि सामान्‍यत: अन्‍य लोग हम लोगों के लिए उसका प्रयोग करते हैं । यही नाम मान्‍यता प्राप्‍त कर लेता है । वास्‍तव में इसी कारण वह प्रचलन में अपना अस्तित्‍व बनाए रखता है । किसी प्रकार का मोहक रंग अथवा रूप न होते हुए भी स्‍वयं की पहचान निरपवाद रूप से बनी रहती है, परंतु यह 'स्‍व' जब दूसरे 'परा' के सान्निध्‍य में आता है अथवा उनमें संघर्ष होता है, तब दूसरे से व्‍यावहारिक संबंध रखने के अथवा दूसरों ने उससे इस प्रकार के संबंध बनाने की आवश्‍यकता उत्‍पन्‍न हो जाती है, तब इस 'स्‍व' के लिए कोई निश्चित नाम होना आवश्‍यक हो जाता है । इस खेल में केवल दो ही व्‍यक्तियों का सहभाग होता है । यदि विश्‍व के लोग शिक्षक के लिए 'अष्‍टावक्र' १६ तथा किसी विनोदी व्‍यक्ति को 'मुल्‍ला दो प्‍याजा' १७ कहना चाहेंगे, तब यही नाम रूढ़हो जाने की संभावना बढ़ जाएगी । दुनिया जिस नाम से हमें संबोधित करती है, वह नाम हम लोगों की इच्‍छा के एकदम विपरीत नहीं होगा तो यह नाम अन्‍य नामों से अधिक प्रचलित हो जाएगा; परंतु यदि दुनिया के लोगों ने हम लोगों को अपने पूर्व वैभव तथा ऋणानुकंकों का स्‍मरण करानेवाला नाम खोज लिया तो यह नाम अन्‍य नामों की तुलना में अधिक प्रचलित तथा चिरस्‍थायी बन जाता है । वास्‍तविक रूप से यह सच है । हम लोगों के 'हिंदू' नाम की प्रसिद्धि असाधारण रूप से इसलिए हुई कि इसी के माध्‍यम से बाहरके लोगों से प्रारंभ में निकट का संपर्क हुआ तथा बाद में कठोर संघर्ष भी हुआ । अत: हम लोगों के अत्‍याधिक प्रिय नाम की 'भरतखंड' का महत्‍त्‍व कम हो गया ।

बौद्ध धर्म के अभ्‍युदय तथा ह्रास के कारण

'हिंदू' नाम को असाधारण महत्‍त्‍व प्राप्‍त हुआ

बौद्ध धर्म के उदय से पूर्व हिंदुओं के बाहरी संबंध दुनिया से अबाधित बने हुए थे-

एतद्देशप्रसूतस्‍य सकाशादग्रजन्‍मन: ।

स्‍वं स्‍वं चरित्र शिक्षरेन् पृथिव्‍यां सर्व मानवा: ।।

(मनु)

यह हम लोगों के राष्‍ट्राभिमानी स्‍मृतिकारों को गर्व के साथ कहने योग्‍य था क्‍योंकि हम लोगों के पराक्रम का क्षेत्र बहुत विस्‍तृत बन चुका था । तब भी प्रस्‍तुत विवेचन के परिप्रेक्ष्‍य में बौद्ध धर्म के अभ्‍युदय के पश्‍चात् हिंदुस्‍थान का अंतरराष्‍ट्रीय जीवन किस प्रकार का था इसपर विचार करना आवश्‍यक हो जाता है । अब समय इतना बदल गया है कि हम लोगों कि इस भूमि के लिए राजकीय आक्रमण तथा विस्‍तार की सभी संभावनाएँ समाप्‍त हो चुकी थीं । राजकीय दिग्विजय के लिए कोई अवसर शेष नहीं बचा था । हम लोगों की राष्‍ट्रीय आकांक्षाएँ देश की सीमाएँ लाँघती हुई विश्‍व के अन्‍य देशों पर आक्रमण करती रहीं । पूर्व इतिहास में ऐसा कोई अन्‍य उदाहरण नहीं दिखाई देता । विदेशों से भी हमारे संबंध अभूतपूर्व रूप से जटिल हो गए । उसी समय विदेशी राष्ट्र भी एक नई उद्दंडता तथा आक्रमण के उद्देश्‍य से हम लोगों के द्वार पर दस्‍तक देने लगे । इन्‍हीं राजकीय घटनाओं के साथ बौद्ध भगवान् के धर्मचक्र प्रवर्तन के महान् अवतार-कार्य का प्रारंभ हुआ । उसी समय हिंदुस्‍थान अन्‍य राष्‍ट्रों का केवल ह्रदय ही नहीं अपितु आत्‍मा भी बन गया । मिस्र से लेकर मेक्सिको तक के लाखों अनगिनत लोगों के लिए सिंधु की यह भूमि उन्‍हें ईश्‍वर तथा संतों की पुण्‍य पावन भूमि प्रतीत होने लगी । दूर-दूर के क्षेत्रों से लक्षवधि भाविक यात्री यहाँ एकत्र होने लगे तथा हजारों विद्वान् धर्मोपदेशक साधु-संत विश्‍व के सभी ज्ञात स्‍थानों पर जाकर संचार करने लगे । विदेशियों ने हमें 'सिंधु' अथवा 'हिंदू' नाम से ही संबोधित करना जारी रखा । इस प्रकार के आवागमन के कारण हम लोगों का पुराना नाम ही राष्‍ट्रीय नाम के रूप में सर्वमान्‍य हो गया । हम लोगों से सिंधु अथवा हिंदू नाम से व्‍यवहार करनेवाले राष्‍ट्रों के साथ हमारे संबंध राजकीय अथवा दैत्‍यकर्म विषयक रखते समय प्रारंभ में भरतखंड के साथ हिंदू नाम का प्रयोग करते; परंतु कुछ समय पश्‍चात् भरतखंड नाम वर्णित कर केवल हिंदू नाम का ही उपयोग करना आवश्‍यक प्रतीत हुआ ।

संपूर्ण विश्‍व में हिंदू नाम का ही प्रसार होने के पीछे तथा हम लोगों के मन में अपने हिंदू होने की भावना अधिकाधिक दृढ़ होने के पीछे बौद्ध धर्म का अभ्‍युदय ही था-ऐसा कहा जाए तो इस बात पर आश्‍चर्य नहीं होता है तथापि बौद्ध धर्म का ह्रास भी इस भावना को अधिक प्रबल बनाने का कारण बन गया था ।

बौद्ध धर्म का ह्रास राजनीतिक कारणों से हुआ था

बौद्ध धर्म का ह्रास जिन घटनाओं के कारण हुआ, उनमें से सर्वाधिक महत्‍त्‍वपूर्ण घटना पर विद्वानों ने सूक्ष्‍मता से विचार नहीं किया । प्रस्‍तुत विषय से उसका निकट का संबंध न होने के कारण अधिक गहराई से विचार करना इस समय आवश्‍यक नहीं है । हम यहाँ इस बात पर सामान्‍य विचार प्रदर्शित करेंगे तथा इसपर सूक्ष्‍मता से विचार करने के पश्‍चात् मतप्रदर्शन का कार्य (अधिकारी व्‍यक्ति द्वारा नहीं किया गया तो) आगामी प्रसंग के लिए छोड़ देते हैं । १८ बौद्ध का तत्‍त्‍वज्ञान भिन्‍न था, इसी कारण क्‍या हमारे राष्ट्र ने उसका विरोध किया ? नहीं, ऐसा नहीं था-इस भूमि में इस प्रकार के भिन्‍न-भिन्‍न पंथ और तत्‍त्‍वज्ञान विद्यमान थे तथा एक साथ होते हुए भी उनका विकास हो रहा था द्य तो क्‍या बौद्ध मठों में वृद्धिंगत होनेवाला भ्रष्‍टाचार तथा बौद्ध धर्म में उत्‍पन्‍न हो रही शिथिलता के कारण ऐसा हुआ ? निश्चित रूप से नहीं । कुछ विहारों में दूसरों की कमाई को स्‍वयं की आजीविका का साधन बनाकर तथा विकास और उपभोग के लिए अन्‍य लोगों के धन का उपयोग करनेवाली स्‍वैराचारी, आलसी तथा नीतिभ्रष्‍ट स्‍त्री-पुरूषों की टोलियाँ रहती थीं, परंतु दूसरी और अध्‍यात्‍म के परमोच्‍च पद पर आसीन अनुभवी लोगों की तथा भिक्षु श्रेष्‍ठों की परंपरा खंडित नहीं हुई थी । यह भी एक सत्‍य है कि केवल बौद्ध विहारों में ही इस प्रकार का दुराचार नहीं था । हम लोगों के राष्‍ट्रीय गौरव तथा अस्तित्‍व के लिए बौद्ध धर्म का राजकीय प्रसार गंभीर संकट उत्‍पन्‍न नहीं करता तो इन दोषों के अतिरिक्‍त अन्‍य दोष होते हुए भी बौद्ध धर्म को इतने कठोर विरोध का सामना नहीं करना पड़ता । उनकी सत्ता पूर्ववत् बनी रहती । जब पूर्व शाक्‍य युवराज बौद्ध धर्म के मंदिर की आधारशिला रख रहा था, तभी उसे उसके छोटे से प्राजक (राज्‍य) के नष्‍ट होने की सूचना मिल गयी थी । कोसल के राजा विद्युत् गर्भ ने शाक्‍य प्राजक पर आक्रमण करके शाक्‍यों का पराभव किया । इस बात से शाक्‍य सिंह १९ अर्थात् राजपुत्र सिद्धार्थ गौतम ने जीवन में जितने दु:ख का अनुभव २० किया, वह आगे आनेवाली विपदाओं की झलक ही तो थी ।

राष्ट्रकार्य के लिए शूर तथा बलशाली व्‍यक्तियों की कमी हो गई

बौद्ध ने अपनी जाति के चुने हुए व्‍यक्तियों को अपने भिक्षु संघ में सम्मिलित कर लिया था । इस कारण शाक्‍य गणतंत्र राष्ट्र में प्रथम श्रेणी के शूर तथा बलशाली व्‍यक्तियों की कमी होने लगी । अत: अधिक सामर्थ्‍यवान तथा अधिक युद्धनिपुण शत्रुओं का सामना करते हुए शाक्‍य सिंह का यह बलशाली राष्ट्र उसी की उपस्थिति में नष्‍ट हो गया । इस समाचार का काई प्रभाव शाक्‍य सिंह पर नहीं हुआ, उस बौद्ध कोटि को प्राप्‍त करनेवाले महात्‍मा को न तो कोई दु:ख हुआ, न किसी सुख का अनुभव । अनेक शतक बीत गए । अब शाक्‍यों का राजा सभी राजाओं का राजाधिराज, अखिल विश्‍व को पदाक्रांत करनेवाला केवल 'लोकजीत' २१ बनकर रह गया । उस छोटे शाक्‍य प्राजक की सीमाएँ हिंदुस्‍थान की सीमाओं का स्‍पर्श करने लगीं । अंतिम दैवी सत्‍य तथा परमोच्‍च न्‍याय के अनुसार कपिलवस्‍तु २२ के प्राजक पर नियति ने जिस प्रकार मृत्‍युपाश डाले थे, वही पाश संपूर्ण भारतवर्ष को जकड़ने लगे । संपूर्णत: बलशाली तथा युद्ध निपुण, परंतु शाक्‍यों जैसे युद्धनिपुण नहीं-लिच्‍छवि और हूण २३ लोगों का भारतवर्ष पर अधिकार हो गया । यह समाचार सुनने के पश्‍चात् भी बौद्ध पद को प्राप्‍त वह शाक्‍य सिंह पहले जैसा ही अप्रभावित रहता । उसे किसी प्रकार का दु:ख नहीं होता । इन लोगों का दुर्दांत हिंसाचार अहिंसा तथा विश्‍वबंधुत्‍व के तत्‍त्‍वज्ञान से शांत नहीं होनेवाला था । उनके खड्गों की धार मृदु तालवृक्षों से तथा शांति के अनुष्‍टुपों से निप्रभ नहीं होनेवाली थी । उन आक्रमणकारियों ने हम लोगों पर जो दास्‍य थोपा था, उसका जहर बौद्ध के समान निर्विकार मन से प्राशन करना संभव नहीं था । इसका अर्थ कदापि यह नहीं है कि भिक्षु संघ द्वारा किया गया विश्‍वबंधुत्‍व का उदात्त कार्य हमारे लिए महत्‍त्‍वपूर्ण नहीं था । उनपर इस प्रकार का कोई आरोप लगाने की कल्‍पना हमने भूलवश भी नहीं की थी । इस महान् युति पर कोई भी इतिहास का अध्‍येता ध्‍यान दिए बिना नहीं रह सकता । इसी युति का निर्देश हम करनेवाले हैं ।

आधुनिक शिक्षित लोगों का इतिहास विषयक बौद्धिक दास्‍य

हमारे कथन के प्रत्‍युत्तर के रूप में कहा जाएगा कि आजतक जितने पराक्रमी तथा महान् (हिंदू) सम्राट् हुए हैं तथा नृपश्रेष्‍ठ ज्ञात हैं, वे सभी बौद्ध काल की ही उपज थे । लेकिन इन सम्राटों को जानता ही कौन था, तो यूरोपीय लोग तथा हममें से कुछ ऐसे लोग, जिन्‍होंने यूरोपीय लोगों के विचारों के साथ-साथ उनके पूर्वग्रह-दूषित दृष्टिकोण भी आँखें मूँदकर अपना लिए हों । एक समय ऐसा भी था कि हिंदुस्‍थान में इतिहास की पाठ्यपुस्‍तकों की शुरूआत ही मुसलमानी आक्रमणों के वर्णन से हुआ करती थी, क्‍योंकि तत्‍कालीन अंग्रेजी लेखक हमारे प्राचीन इतिहास के बारे में कुछ भी नहीं जानते थे । अभी-अभी यूरोपवासियों का सामान्‍य ज्ञान बौद्ध धर्म के अभ्‍युदय के पूर्वकाल तक पहुँचा है । हम लोग भी यही समझते रहे हैं कि हम लोगों के इतिहास का वैभवपूर्ण काल यही था, परंतु इन दोनों बातों में सत्‍य का अभाव है । बौद्ध धर्म तथा उनके भिक्षु संघ के प्रति हमारे मन में जो पूष्‍य प्रेमभाव है, वह अन्‍य लोगों से कम नहीं है । हम लोग बौद्ध के महान् पराक्रमों को अपने ही पराक्रम मानते हैं तथा उनके दायित्‍व भी स्‍वीकार करते हैं । वह देवप्रिय अशोक महान् था तथा बौद्ध भिक्षुओं के दिग्विजय महानतर थे । अशोक २४ के समतुल्‍य दिग्विजयी शुद्धाचरणी तथा राजनीतिकुशल राजा उसके पूर्व भी हो चुके थे । वह इसीलिए महान् कहलाते कि उनमें ये सभी गुण विद्यमान थे । हममें राजनीतिक कुशलता, चरित्रवानता आदि के कारण जो व्‍यक्तित्‍व विकास हुआ था, वह मौर्यों द्वारा बौद्ध धर्म को स्‍वीकार किए जाने के कारण से हुआ था अथवा मौर्यों के साथ वह नष्‍ट हुआ, ऐसा हमें नहीं लगता । बौद्ध धर्म ने भी दिग्विजय प्राप्‍त किए हैं, लेकिन वे सब दूसरे क्षेत्र में प्राप्‍त किए हैं । जहाँ तलवारों की धार आसानी से तेज कराई जा सकती है, ऐसे विश्‍व में नहीं । बहते पानी का सुंदर चित्र देखने भर से प्‍यास नहीं बुझ सकती । इस वास्‍तववादी विश्‍व में उन्‍होंने दिग्विजय प्राप्‍त नहीं किए । बौद्ध धर्म ने भी दिग्विजय प्राप्‍त किए । वे इस विश्‍व से बहुत भिन्‍न विश्‍व में किए गए थे । जब किसी ज्‍वालामुखी के लावा प्रवाह के समान शक और हूण लोग इस देश में घुस आए तथा यहाँ की उन्‍नत और विकसित संस्‍कृति उन्‍होंने जलाकर संपूर्णत: ध्‍वस्‍त कर दी, तब इसी प्रकार के विचार हम लोगों के देशाभिमानी चिंतकों के मन में उत्‍पन्‍न हुए होंगे ।

अग्नि तथा तलवार का तत्‍त्‍वज्ञान

हिंदुओं को उनकी आँखों के सामने, उन्‍होंने जी-जान से सँभालकर रखे सिद्धांत और महान् ध्‍येय, उनके सिंहासन, उनकी राजगद्दीयाँ, यहाँ तक कि उनके परिवार ही नहीं बल्कि अपने पूजनीय देवताओं को भी कुचले जाते हुए देखना पड़ा, अपनी प्रिय और पावन भूमि ध्‍वंस और वीरान होते हुए उन्‍हें देखनी पड़ी । यह किसने किया था ? यह करनेवाले हिंदुओं की तुलना में भाषा, धर्म, तत्‍त्‍वज्ञान, मानवता तथा देवत्‍व के सभी दया-मर्यादि गुणों से अत्‍यंत क्षुद्र थे, परंतु उनमें अधिक बल था । ऐसे हिंसक आक्रमणकारियों के इस नृशंस नया उद्दाम पंथ का सार दो ही शब्‍दों में व्‍यक्‍त किया जा सकता है, 'अग्नि और तलवार' अथवा 'जलाओ और मारो' इस संपुर्ण घटना का निष्‍कर्ष बहुत स्‍पष्‍ट था । 'जलाओ और मारो' जैसे विलक्षण तत्‍त्‍वज्ञान के लिए इस भयावह द्वैतवाद के लिए बौद्ध की न्‍याय-मीमांसा में कोई सार्थक उत्तर नहीं था । इसी कारण इस अपवित्र, निष्‍ठुर तथा विध्‍वंसक अग्नि को नष्‍ट करने हेतु हम लोगों के चिंतकों तथा अग्रणियों को पवित्र यज्ञग्नि प्रज्‍वलित करनी पड़ी । समर्थ शास्‍त्रास्‍त्र प्राप्‍त करने हेतु उन्‍हें अपनी वेदकालीन खानों में खनन करना पड़ा । क्रोधित महाकाल के तुष्‍टीकरण हेतु प्रयोग में आनेवाले शस्‍त्रों को भीषण काली की वेदी पर धार लगाने जाना पड़ा । इस दृष्टि से उनका अपेक्षित तर्क भी गलत सिद्ध नहीं हुआ ।

हिंदू खड्ग का यथोचित प्रत्‍युत्तर

इस बार पुन: प्रकट हुई हिंदू तलवाद की विजय निस्‍संदेह थी । विक्रमादित्‍य २५ ने इस अन्‍य देशीय आक्रमणकारियों को हिंदुस्‍थान की भूमि से खदेड़ दिया तथा ललितादित्‍य, २६ जिसने मंगोलिया व तार्तार की गुफाओं में शत्रुओं को पकड़कर सजा दी, वे दोनों परस्‍पर पूरक थे । जो कार्य केवल शाब्दिक प्रमेयों से सिद्ध नहीं हो सका, वह इन लोगों ने पराक्रम तथा पौरूष से कर दिखाया । एक बार राष्ट्र पुन: पूर्व के यश-शिखर पर जा पहँचा । जीवन के हर क्षेत्र में उसका प्रकाश फैल गया । स्‍वातंत्र्य, सामर्थ्‍य तथा सुयश प्राप्‍त होने का विश्‍वास होते ही नया तत्‍त्‍वज्ञान, कला शिल्‍पकला, कृषि तथा वाणित्‍य विचार, आचार को अप्रत्‍याशित रूप से प्रोत्‍साहन प्राप्‍त होना आरंभ हो गया; परंतु यह प्रतिक्रिया चरम सीमा तक पहुँच जाने से कुछ दोष भी दिखाई देने लगे, 'वैदिक कर्म का पुनरूत्‍थान करो', वेदों पर पुनश्‍च ध्‍यान दो-ये राष्‍ट्रीय घोषवाक्‍य बन गए । उस समय की राजकीय स्थिति में ऐसा होना अत्‍यंत आवश्‍यक था ।

सत्‍यधर्म से विश्‍व पर विजय पाने का बौद्धधर्म का विफल प्रयोग

विश्‍वधर्म का संदेश अखिल विश्‍व में प्रसृत करने का प्रथम विशाल प्रयास बौद्धकर्म द्वारा किया गया, 'हे भिक्षुओ ! जाओ, विश्‍व की दसों दिशाओं में संचार करो । विश्‍व धर्म का संदेश अखिल विश्‍वको दो !' वास्‍तव में यह व्‍यापक स्‍वरूप का विश्‍वकर्म ही था । ये पर्यटन देश पर शासन करने अथवा धन-लाभ की अभिलाषा से नहीं किए जाते । उस धर्म द्वारा किया गया कार्य वास्‍तव में कितना ही महान् क्‍यों न हो; वह मनुष्‍य के अंत:करण से पशुवत् मानसिकता, राजनीतिक इच्‍छा, आकांक्षाएँ या व्‍यक्तिगत स्‍वार्थ के बीज उखाड़कर नष्‍ट कर नहीं सका, जिससे कि हिंदुस्‍थान तलवार को त्‍यागकर, निश्चिंत होकर, हाथ में माला लिये जाप करता । फिर भी, शस्‍त्र द्वारा विजय प्राप्‍त करने के बजाय शांतिपूर्ण मार्ग से तथा सत्‍य के आचरण द्वारा इस विश्‍व को जीतने में ही हिंदुस्‍थान ने अपना विश्‍वास कायम रखा और प्रयास भी किया । लेकिन इसी उदारता के कारण हिंदुस्‍थान लालची लोगों के उपहास का विषय बन गया । सूक्ष्‍म जीव-जंतुओं की जान बचाने के लिए हाथी-घोड़ों को पिलाया जानेवाला पानी भी छानकर दिए जाने की आज्ञा हिंदुस्‍थान के राजाओं ने उस समय दी थी । समुद्र की मछलियों को खिलाने हेतु समुद्र में अन्‍न डाला जाता था । लेकिन क्‍या विश्‍व के अन्‍य लोगों ने मछलियों को चाव से खाना छोड़ दिया या बड़ी मछलियों ने छोटी मछलियों को खाना बंद कर दिया ? हिंसा को पूर्ण रूप से नष्‍ट करने के प्रयास में हिंदुस्‍थान ने अपना ही सिर ओखली में देकर अपने की हाथों में मुसली चलाई । अंतत: तलवार की पात के सामने घास की पात की कुछ नहीं चलती, यह बात हिंदुस्‍थान ने अनुभव से सीखी । जब तक संपूर्ण विश्‍व के दाँत तथा नाखून रक्‍तरंजित हैं और जब तक राष्‍ट्रीय तथा वांशिक भेद मानव को पशुता तक पहुँचाने के लिए पर्याप्‍त रूप से प्रबल हैं तब तक अपनी आत्‍मा के प्रकाश के अनुसार किसी भी प्रकार के आध्‍यात्मिक अथवा राजकीय जीवन में उन्‍नति करनी है तो राष्‍ट्रीय तथा जातीय बंधनों से उत्‍पन्‍न शक्ति की अवहेलना करना हिंदुस्‍थान के लिए उचित नहीं होगा । इसीलिए विश्‍वबंधुत्‍व आदि शब्‍दों का केवल वाणी में ही प्रयोग किए जाने के कारण तथा कृति विहीनता के कारण विद्वानों के मन में घृणा उत्‍पन्‍न हुई । बहुत खेदपूर्वक उन्‍होंने कहा-

'ये त्‍वया देव निहिता असुराश्‍चैव विष्‍णुना ।

ते जाता म्‍लेच्‍छरूपेण पुनरद्य महीतले ।।

व्‍यापादयन्ति ते विप्रान् घ्रन्ति यज्ञादिका: क्रिया: ।

हरन्ति मुनि कन्‍याश्‍च पापा: किं किं न कुर्वन्ति ।।

म्‍लेच्‍छाक्रांते च भूलोके निर्वषट्कारमंगले ।

यज्ञयागादि विच्‍छेदाद्देवलोकेडवसीदति ।।' (गुणाढ्य२७)

जिस नितांत रम्‍य भूमि ने श्रद्धायुक्‍त अंत:करण से भिक्षु वस्‍त्रों को अंगीकृत किया था, खड्ग को त्‍यागकर हाथों में सुमरिनी लेकर भगवान् का नाम जपते हुए अहिंसा की प्रतिज्ञा की थी, उस भूमि को जलाकर जिन्‍होंने वीरान बना दिया, उन शक, हूणों की हिंस्‍त्र टोलियों को सिंधु के पार खदेड़ दिया गया तथा एक नई सुदृढ़ राजसत्‍ता स्‍थापित की गई । उस समय के राष्‍ट्रीय नेताओं को इस बात का अनुभव हुआ होगा कि यदि धर्म ने भी इस कार्य को सहायता दी तो कितना प्रचंड शक्तिसामर्थ्‍य निर्माण किया जा सकता है ।

बौद्धों के 'विश्‍वधर्म' को हिंदुओं के 'राष्ट्रधर्म' का प्रत्‍युत्तर

यह सच है कि शत्रु में तथा हम लोगों में एक भी गुण समान हो तो उससे लड़ने की हमारी शक्ति कम हो जाती है । जो गुण हमें विशेष रूप से प्रिय होते हैं तथा जिन्‍हें आत्‍मसात् करने में हमें गौरव का अनुभव होता है, वे सभी गुण यदि हमारे किसी मित्र में विद्यमान हों, तब वह व्‍यक्ति हमारा सर्वाधिक प्रिय मित्र बन जाता है । इसी तरह जिस शत्रुमें तथा हम में ममत्‍व अथवा समानत्‍व का कोई बंधन नहीं होता, उसका प्रतिकार अधिक कठोरतापूर्वक किया जाता है । विशेषत: उस समय हिंदुस्‍थान विश्‍वबंधुत्‍व तथा अहिंसा के नशे में इतना डूबा हुआ था कि आक्रमणकारियों का प्रतिकार करने की इसकी शक्ति ही नष्‍ट हो चुकी थी । इसी हिंदुस्‍थान में अन्‍याय के प्रति लोगों के मन में कटु द्वेष प्रज्‍वलित करने का तथा शाश्‍वत प्रतिकार-शक्ति का वरदान प्राप्‍त करा देने के लिए दोनों के लिए पूज्‍य, पूजा-प्रार्थना तथा मठ-संस्‍थाओं को नष्‍ट करना आवश्‍यक था । तत्‍पश्‍चात् ही यह कार्य अत्‍युत्तम प्रकार से किया जाना संभव था । जिन लोगों ने हिंदुस्‍थान को एक राष्ट्र के रूप में गला घोंटकर खत्‍म किया था, उन शत्रुओं के साथ ही पूजा-प्रार्थना तथा मठ आदि के माध्‍यम से, हिंदुस्‍थान ने अपने सहधर्मी बंधु कहकर नाता जोड़ने का काम पहले भी किया था । लेकिन ऐसे विश्‍वधर्म का क्‍या उपयोग, जिसने हिंदुस्‍थान को असुरक्षित और असजग अवस्‍था में तो छोड़ा ही, साथ-साथ अन्‍य राष्‍ट्रों की क्रूरता और पशुता भी कम न करा सका । संरक्षण का एकमात्र मार्ग अब नजर आता है, तो वह है-राष्‍ट्रीयता की भावना से उत्‍पन्‍न, बलशाली एवं पराक्रमी पुरूषों की समर्थ शक्ति । अवास्‍तव तत्त्‍वज्ञान के जंजाल में फँसकर हिंदुस्‍थान ने अपना रक्‍त तो बहाया, परंतु उसका परिणाम विपरीत हुआ ।

विदेशियों की दासता को आमंत्रित करनेवाला तथा स्‍वदेश को गर्त में डालनेवाला बौद्ध धर्म

जब बौद्ध धर्म द्वारा बलपूर्वक तथा शास्‍त्रों की सहायता से हिंदुस्‍थान पर अपनी सत्‍ता प्रस्‍थापित करने के प्रयास प्रारंभ किए गए, तब बौद्ध धर्म की विश्‍वबंधुत्‍व की प्रवृत्तियों का विरोध करनेवाले आंदोलन भी अधिक तीव्र तथा बलशाली होने लगे । बाहर से यहाँ आकर हमारे देश पर आक्रमण करनेवालों को हम लोगों ने स्‍वामी के रूप में स्‍वीकार नहीं किया तथा देश की स्‍वतंत्रता का सौदा करना भी देशाभिमानी प्रवृत्ति के लोगों ने स्‍वीकार नहीं किया। स्‍पेन के कैथोलिक इंग्‍लैंड के सिंहासन पर कैथोलिक पंथ के राजा को आसीन करने का प्रयास कर रहे थे । उन्‍हें सहानुभूति दरशानेवाला एक प्रमुख गुट इंग्‍लैंड में प्रत्‍यक्ष रूप से विद्यमान था । उसी प्रकार बौद्ध धर्म के अनुकूल विचार रखनेवाले कुछ आक्रमणकारियों को भी हिंदुस्‍थान में चल रहे युद्ध के समय गुप्‍त रूप से सहानुभूति दिखानेवाले अनेक बौद्धधर्मीय लोग यहाँ भी विद्यमान थे । इसके अतिरिक्‍त बाहर के बौद्धधर्मीय राष्‍ट्रों ने निश्चित राष्‍ट्रीय तथा धार्मिक उद्देश्‍य से हिंदुस्‍थान पर आक्रमण किए थे । इन घटनाओं के स्‍पष्‍ट प्रमाण हम लोगों के प्राचीन ग्रंथों में विभिन्‍न स्‍थानों पर मिलते हैं । हम यहाँ उस काल के समग्र इतिहास का विचार नहीं कर रहे हैं, परंतु इस आर्य देश तथा राष्ट्र पर हूणों के राजा न्‍यूनपति तथा उसके बौद्धपंथीय सहायकों ने एक साथ मिलकर जो आक्रमण किया तथा जिसका लाक्षणिक और यथार्थ, परंतु संक्षिप्‍त वर्णन हम लोगों के प्राचीन ग्रंथों में मिलता है, उसका निर्देश हम यहाँ करनेवाले हैं ।

इस प्राचीन ग्रंथ में कुछ पौराणिक प्रकार से 'हहा नदी के तट पर प्रचंड युद्ध किस प्रकार किया गया, बौद्धों की सेनाओं का शिविर चीन देश में किस कारण स्‍थापित हुआ' (चीन देशमुपागम्‍य युद्धभूमीमकारयत्) विभिन्‍न बौद्ध राष्‍ट्रों की सहायक सेनाएँ उन्‍हें किस प्रकार आकर मिलीं तथा इस कारण उनके सैन्‍य की संख्‍या में कितनी वृद्धि हुई (श्‍याम देशोभ्‍दलक्षास्‍तथा लक्षाश्‍च जापका: । दश लक्ष्‍याश्‍चीनदेश्‍या युद्धाय समुपस्थित: ।।) तथा अंत में बौद्धों को किस प्रकार पराभूत होना पड़ा और इस पराजय के फलस्‍वरूप उन्‍हें कितना जबरदस्‍त्‍ दंड मिला-आदि का वर्णन किया गया है । अंतत: बौद्धों को प्रकट रूप से अपनी राष्‍ट्रीय ध्‍येयाकांक्षाओं को स्‍वीकार करना पड़ा तथा उन्‍हें त्‍यागना पड़ा । भविष्य में किसी प्रकार के राजकीय उद्देश्‍य से हिंदुस्‍थान में प्रवेश न करने की स्‍पष्‍ट तथा बंधनकारक शपथ उन्‍हें लेनी पड़ी । हिंदुस्‍थान सभी के साथ सहिष्‍णुतापूर्वक आचरण करता था । अत: बौद्धों को व्‍यक्तिगत रूप से किसी तरह का भय होने का कोई कारण नहीं था । हिंदुस्‍थान की स्‍वतंत्रता तथा राजनीतिक जीवन के लिए संकट उत्‍पन्‍न करनेवाली सभी आकांक्षाओं का त्‍याग करना उनके लिए संकट उत्‍पन्‍न करनेवाली सभी आकाक्षाओं का त्‍याग करना उनके लिए आवश्‍यक था । 'सवैंश्‍च बौद्धवृदैश्‍च तत्रैव शपथं कृतम् । आर्यदेशं न यास्‍याम: कादाचिद्राष्‍ट्रहेतवे ।।'

(भविष्‍यपुराण, प्रतिसर्ग पर्व)

वैदिक धर्म का प्रतिक्रियात्‍मक पुनरूज्‍जीवन

इस प्रकार हम लोगों की राष्‍ट्रीय विशेषताएँ स्‍पष्‍ट रूप से प्रकट करनेवाली संस्‍थाओं को पुन: प्रारंभ किया गया । बौद्धों की राज्‍यसत्‍ता की अर्जितावस्‍था में भी जो वर्णाश्रम व्‍यवस्‍था पूर्णत: नष्‍ट नहीं की जा सकी थी, उसे अत्‍याधिक उन्‍नत दशा प्राप्‍त हुई । राजाओं तथा सम्राटों ने स्‍वयं की महानता स्‍थापित करने हेतु 'वर्णव्‍यवस्‍थानपर:' (सोनपत ताम्रलेख) तथा 'वर्णाश्रमव्‍यवस्‍थापनप्रवृत्तचक्र:' (मधवत ताम्रपट) आदि उपाधियों का उपयोग अभिमानपूर्वक करना प्रारंभ किया । वर्ण-व्‍यवस्‍था की पुनर्स्‍थापना के लिए इस प्रतिक्रिया से बहुत बल मिला । वह भविष्‍य में इतनी शक्तिशाली बन गई कि वह हम लोगों की राष्‍ट्रीयता की पहचन बन गई । हम लोगों से विदेशी किस प्रकार भिन्‍न थे-इसे इस प्रकार परिभाषित किया गया है-

'चातुर्वर्ण्‍यव्‍यवस्‍थानं यस्मिन्‍देशे न विद्यते ।

तं म्‍लेच्‍छदेशं जानीयात आर्यावर्तस्‍तत: परम् ।।'

ऊपर किए गए विवेचन के परिप्रेक्ष्‍य में इस परिभाषा का अर्थ समझने का प्रयास किया जाना चाहिए। इससे यह ज्ञात होगा कि जो देश हम लोगों की वर्णाश्रम जैसी संस्‍था के लिए अनुकूल नहीं थे तथा इसके लिए उनके मन में शत्रुता की भावना विद्यमान थी और जिन देशों में हम लोगों की धार्मिक संस्‍कृति तथा संस्‍कार जीवित रखने के लिए उचित संरक्षण प्राप्‍त नहीं हो सकता था, उन देशों में न जाने पर प्रतिबंध लगाने हेतु धर्माज्ञा प्रसृत करना आवश्‍यक प्रतीत हुआ । यह प्रतिक्रिया अस्‍पष्‍ट अविचारके कारण ही हुई थी । फिर भी राजनीतिक दृष्टि से विचार करने के पश्‍चात् हम लोगों को भी लगा कि जिन देशों में अपने देशवासियों को अपमानित किया जाता है तथा राष्‍ट्रीय दृष्टि से उन्‍हें नपुंसक बना दिया जाता है, उस देश में किसी को न भेजने का निर्णय तथा वहाँ जाना प्रतिबंधित करना उचित था । इस बात से सहमत होनेवाले चिंतक आज भी विद्यमान हैं ।

हिंदू राष्ट्र को अपने स्‍वतंत्र अस्तित्‍व की पहचान

हिंदुस्‍थान में बौद्ध धर्म के ह्रास के लिए तथा इसके पूरा होने के लिए राष्‍ट्रीय और राजकीय घटनाएँ ही उत्तरदायी थीं । बौद्ध धर्म का अब कोई भौगोलिक केंद्र नहीं था । बौद्ध धर्म को सिर-आँखों पर बैठाकर नर्तन करने से हिंदुस्‍थान का संतुलन बिगड़ गया था । उसे पूर्व स्थिति में लाना अत्‍याधिक आवश्‍यक हो गया था । किसी जीव-जंतु के समान राष्ट्र को अपने अस्तित्‍व की पहचान जब हुई तथा इस अस्तित्‍व को मिटाने हेतु आक्रमण करनेवाली विदेशी शक्ति से युद्ध आरंभ हुआ, तब हमारा निश्चित स्‍थान कौन सा है, इसे प्रदर्शित करना बहुत आवश्‍यक हो गया । हम सामूहिक तथा राष्‍ट्रीय दृष्टि के अतिरिक्‍त भौगोलिक दृष्टि से भी निश्चित ही स्‍वतंत्र राष्ट्र है, ऐसा समूचे विश्‍व को गरजकर कहने के लिए हमने स्‍वयंप्रेरणा से अपने अधीन भूभाग दरशानेवाली, सुस्‍पष्‍ट सीमाएँ दिखानेवाली रेखाएँ खींच डालीं । प्रकृति ने ही हमारे दक्षिण दिशा के सीमांत प्रदेश सुरक्षित बना दिए थे । राजनीतिक गतिविधियों की नजर में वे मान्‍यता प्राप्‍त भी थे और प्रवित्र भी ।

हिंदू राष्ट्र का उत्तर-दक्षिण सीमांत

हम लोगों का दक्षिण द्वीप समुदाय अमर्यादा तथा असीम सागर से परिवेष्टित था । सागरी सौंदर्य के लिए यह अत्‍याधिक उत्‍कृष्‍ट, अतीव रमणीय तथा नितांत काव्‍यमय है । इस समुद्र के दर्शन से हमारी अनेक पीढि़यों के कवियों तथा देशवासियों को दर्शन-सुख मिला, परंतु वायव्‍य सीमा प्रांत में विभिन्‍न जातियों के परस्‍पर संबंधों में इतनी अधिक वृद्धि हुई कि इससे हम लोगों की जातियों का विशुद्ध स्‍वरूप नष्‍ट होने का भय उत्‍पन्‍न हो गया । वहाँ की सीमाएँ भी बहुश: बदलती रहीं । राष्ट्र की सुरक्षा के लिए भी यह एक संकट बन गया । इसमें कोई आश्‍चर्य नहीं कि उज्‍जयनी नगरी के 'महाकाल' के नेतृत्‍व में मिली स्‍वदेशनिर्माण की प्रेरणा से, दक्षिण की तरह उत्तर की सीमारेखा भी सुस्‍पष्‍ट और सुरक्षित करने की ओर देशभक्‍तों का ध्‍यान गया । 'सिंधु' नदी जैसी भव्‍य और रमणीय नदी को लाँघकर आए, उसी दिन से, नदी के उस पार रह रहे परिजनों से उनका कोई नाता नहीं रहा । यहाँ उन्‍होंने नए राष्ट्र की आधारशिला रखी तथा स्‍वतंत्र राष्ट्र के रूप में उनका पुनर्जन्‍म हुआ । नवीन आशा तथा ध्‍येयाकांक्षाओं से प्रेरित होकर उन्‍होंने अन्‍य लोगों को अपने में समा लिया । स्‍वयं की अभिवृद्धि के साथ एक नई जाति तथा राज संस्‍था के रूप में भविष्‍य में अत्‍याधिक विकास तथा उन्‍नति करने की बात एक अटल सत्‍य बन गई । इस नई जाति तथा राज संस्‍था का अन्‍य नाम नहीं था, परंतु ये लोग अत्‍यंत योग्‍य तथा स्‍फूर्तिमय 'सिंधु' अथवा 'हिंदू' नाम ही धारण करेंगे-यह निश्चित हो गया-

सिंधुस्‍थानमितिज्ञेयं राष्ट्रमार्यस्‍य चोत्तमम् ।

सिंधु के प्रवाह के अनुसार हम लोगों का सीमा-निर्धारण कोई अभूतपूर्व घटना नहीं थी । राष्ट्र को नवचैतन्‍य प्रदान करनेवालों ने घोषित किया था कि 'पुन:वेदों की ओर चलो' इस महान् उद्घोषणा की ही वह निष्‍पत्ति थी । वैदिक धर्मानुसार स्‍थापित किए गए तथा वैदिक धर्म पर आधारित राष्ट्र का नाम वैदिक होना अपरिहार्य था । उस समय की संभावनाओं का विचार करते हुए वैदिक प्रथा के अनुसार ही नाम दिया गया । सारांश में इतिहास के निष्‍कर्ष के अनुसार जो घटनाएँ घटीं वे हम लोगों की अपेक्षानुसार, प्रत्‍यक्ष रूप में भी उसी क्रम से घटीं । स्‍वदेश प्रेम से प्रेरित होकर लिखे किसी पुराण में स्‍पष्‍ट उल्‍लेख है कि विक्रमादित्‍य के पोते शालिवाहन ने विदेशियों का हिंदुस्‍थान पर विजय पाने का दूसरा प्रयास विफल किया तथा उन्‍हें सिंधु के पार खदेड़ दिया । एक राजाज्ञा द्वारा उसने घोषित किया कि 'इसके पश्‍चात् हिंदुस्‍थान तथा अन्‍य अहिंदू राष्‍टों के बीच सिंधु ही सीमा रेख मानी जाए ।'

एतस्मिन्‍नंतरे तत्र शालिवाहन भूपति: ।

विक्रमादित्‍यपौत्रश्‍च पितृराज्‍यं प्रपेदिरे ।।

जित्‍या शकान् दुराधर्षान चीनतैत्तिरि देशजान् ।

बाल्हिकान् कामरूपांश्‍च रोमजान् खुरजान् शठान् ।।

तषां कोशान् गृहीत्‍वाच दडयोग्‍यानकारयत् ।

स्‍थापिता तेन मर्यादा म्‍लेच्‍छार्याणां पृथक् पृथक् ।।

सिंधुस्‍थानमितिज्ञेयं राष्ट्रमार्यस्‍य चोत्तमम् ।

म्‍लेच्‍छस्‍थानं परं सिधो: कृतं तेन महात्‍मना ।।

-भविष्‍य पुराण, प्रतिसर्ग, अ. २

सिंधु ही हिंदुस्‍थान की स्‍फूर्ति

हम लोगों के देश का प्राचीनतम नाम 'सप्‍तसिंधु' अथवा 'सिंधु' होने के निश्चित प्रमाण उपलब्‍ध हैं । भारतवर्ष नाम भी इसके पश्‍चात् ही दिया गया था, यह भी प्रमाणित हो चुका है । यह नाम व्‍यक्तिनिष्‍ठ है तथा इसमें किसी व्‍यक्ति के प्रति निष्‍ठा प्रकट की गई है । किसी का व्‍यक्तिगत यश व कीर्ति कितनी भी उज्‍ज्‍वल क्‍यों न हो, समय के साथ उसमें कमी आने लगती है । इस प्रकार के नाम से व्‍यक्ति-विषयक मधुर भावनाओं की स्‍मृतियाँ जुड़ी रहती हैं, तथापि किसी अत्‍यंत कल्‍याणकारी तथा चिरंतन प्राकृतिक कृति से संबद्ध नाम की तुलना में किसी व्‍यक्ति के पराक्रम तथा उसकी महानता के कारण जो नाम महत्‍त्‍वपूर्ण बन जाता है । वह नाम सदैव जाग्रत् रहनेवाले स्‍वत्‍व की पहचान तथा कृतज्ञता का स्‍थायी तथा अधिक प्रभावी स्‍फूर्ति स्‍थान नहीं बन सकता । सम्राट् भरत का निधन हो गया । अन्‍य सम्राटों की भी मृत्‍यु हो गई, परंतु सिंधु अखंड व चिरंतन बनी हुई है । हम लोगों के स्‍वाभिमान को प्रज्‍वलित करती हुई, हम लोगों की कृतज्ञता बुद्धि सदैव जाग्रत् रखती हुई तथा सदैव स्‍फूर्तिदायक बनकर प्रवाहित हो रही है । हम लोगों के प्राचीनतम भूतकाल से हमारे सुदूर भविष्‍यकाल को जोड़नेवाला राष्ट्र का अत्‍याधिक आवश्‍यक तथा जीवभूत पृष्ठवंश का-पठिका-मेरूदंड ही है । हम लोगों के राष्ट्र से इस नदी का संबंध होने के कारण तथा उसके नाम से हम लोग एकरूप हो गए हैं, इसलिए प्रकृति भी हम लोगों का साथ दे रही है, ऐसा कहना गलत नहीं होगा । हम लोगों के राष्ट्र के भविष्‍य का आकार इतना सुदृढ़ है कि मानवी कालगणना के अनुसार यह युगों-युगों तक चिरंजीव बना रहेगा । इसी प्रकार के विचार उस समय के चिंतकों के तथा कृतिवंतों के मन में उत्‍पन्‍न हुए होंगे । इसी कारण हम लोगों के राष्ट्र को प्राचीन वैदिक नाम 'हिंदुस्‍थान' से संबोधित करते हुए अधिक प्रतिष्ठित बनाने का विचार उन्‍हें उचित प्रतीत हुआ होगा । सिंधुस्‍थान 'राष्ट्रमार्यस्‍य चोत्तमम् ।'

उत्तर-दक्षिण सीमांत दरशानेवाला एक ही शब्‍द- 'सिंधु'

सिंधुस्‍थान वैदिक नाम होने के कारण ही महत्‍त्‍वपूर्ण नहीं बना है । उसका एक अतिरिक्‍त महत्‍त्‍व भी है । वह उसे परिस्थितिवश ही प्राप्‍त हुआ है । परंतु वह इतना क्षुद्र भी नहीं है कि उसकी उपेक्षा की जा सके । संस्‍कृत के 'सिंधु' शब्‍द का अर्थ केवल सिंधु नदी तक ही सीमित नहीं है । उसका दूसरा अर्थ होता है सागर, दक्षिण द्वीपसमूह को परिवेष्टित करनेवाला 'समुद्ररशना' भी होता है । इसलिए 'सिंधु' शब्‍द के उच्‍चारण से हम लोगों के सभी सीमांतों का एक साथ बोध होता है । हिमालय के पूर्व तथा पश्चिम पठार से दो पृथक् प्रवाहों में बहनेवाली सिंधु की ही ब्रह्मपुत्र एक शाखा है-ऐसा प्राचीन काल से ही समझा जाता रहा है । हम लोगों ने इसपर विशेष ध्‍यान नहीं दिया; परंतु यह निविर्वाद रूप से सत्‍य है कि सिंधु उत्तर-पश्चिम सीमाओं की परिक्रमा करती हुई अग्रसर होती है । सिंधु से सागर तक की हमारी मातृभूमि आँखों के सामने साकार हो उठती है ।

सिंधुस्‍थान तथा म्‍लेच्‍छस्‍थान

भौगोलिक दृष्टि से सुयोग्‍य होने के कारण ही 'सिंधु' नाम देशप्रेमियों ने स्‍वीकार किया है-ऐसा मानने का कोई आधार नहीं है । इस नाम से केवल भौ‍गोलिक अर्थ ही सूचित नहीं होता । यह निश्चित राष्ट्र की ओर भी संकेत करता है । सिंधुस्‍थान कोई छोटा सा क्षेत्रीय संघ नहीं है । वह एक राष्ट्र है अर्थात् 'राज्ञ:राष्ट्रम्' । इस अर्थ में वह सदा किसी एक शासन के अधीन नहीं रहा, तथापि एकता की भावना के कारण निश्चित रूप से एक अखंड राष्ट्र था । वहाँ जिस संस्‍कृति का विकास हुआ तथा जो लोग इस राष्ट्र के नागरिक बने, उन दोनों को वैदिक काल की प्रथा के अनुसार 'सिंधु' कहा जाता । इस बात के प्रमाण उपलब्‍ध हैं । विदेशी म्‍लेच्‍छस्‍थान से सर्वथा भिन्‍न तथा स्‍वतंत्र राष्ट्र आर्यों का सर्वोंत्तम राष्ट्र बन गया (राष्ट्रमार्यस्‍य चोत्तमम्) तथा 'सिंधुस्‍थान' नाम से पहचाना जाने लगा । यहाँ कह देना आवश्‍यक है कि यह परिभाषा किसी धार्मिक वृथाभिमान अथवा धर्ममतों पर आधारित नहीं है । यहाँ 'आर्य' शब्‍द का प्रयोग इसीलिए किया गया है ताकि सिंधु नहीं के इस ओर के अपने वैभवशाली राष्ट्र के तथा जातियों के सभी अनिवार्य घटकों का उसमें समावेश हो । इसमें वैदिक या अवैदिक, ब्राह्मण अथवा शूद्र आदि भेद नहीं किया गया । केवल समान संस्‍कृति, रक्‍त-संबंध देश तथा राज्‍यसंस्‍था का उत्तराधिकार जिन्‍हें प्राप्‍त हुआ है, वे सभी 'आर्य' कहलाते हैं । इससे विपरीत हिंदुस्‍थान से सर्वथा भिन्‍न म्‍लेच्‍छ स्‍थान का अर्थ कदाचित् धर्म की दृष्टि से नहीं बल्कि राष्‍ट्रीयता तथा जातीय एकात्‍मता की दृष्टि से भिन्‍न तथा परायों का देश ऐसा ही होता है ।

'हिंदुस्‍थान' नाम की अनेक शतकों की परंपरा

यह राजाज्ञा हिंदुस्‍थान की अन्‍य राजाज्ञाओं के समान ही एक लोकप्रिय तथा समर्थ आंदोलन का दृश्‍यफल थी । हिंदुस्‍थान की भूमि के अंतिम सिरे पर अटक बसा था । यदि यह कल्‍पना हमारे राष्ट्र के मस्तिष्‍क की उपज नहीं होती अथवा उसे स्‍वीकार्य नहीं होती तो उसका अस्तित्‍व में आना ही असंभव था । फिर अनेक शतकों तक लोगों का मुखोग्‍दत रहना तो और भी कठिन था । समूचे देशवासियों ने, राजाओं से लेकर गरीब लोगों तक सबने यह धारणा अत्‍याधिक भक्तिभाव से तथा दृढ़तापूर्वक और आग्रहपूर्वक जीवित रखी । इसी कारण हम लोगों ने प्राचीन सिंधु को ही सीमांत के रूप में स्‍वीकार किया । इसे मान्‍यता प्रदान करनेवाला तथा हम लोगों की भूमि को 'सिंधुस्‍थान' नाम निर्धारित करनेवाला कोई राजाज्ञापत्र अधिकृत रूप से प्रसृत किया होगा, ऐसी धारणा ही इस बात का स्‍पष्‍ट प्रमाण है । इस राज्ञानुशासन को तथा जनता की इच्‍छा को धर्म का पवित्र शुभा‍शीर्वाद प्राप्‍त हुआ था । अत: देश के लिए वैदिक नाम प्राप्‍त करने के हम लोगों के प्रयास संभव हुए । इस नाम को चिरंजीव तथा चिरविजयी बनाने का कार्य भी सफल हुआ । सिंधुसभा, सिंधुस्‍थान-इन नामों का भवितव्‍य निश्चित हो जाने के पश्‍चात् इनका उत्‍कर्ष साधने हेतु तथा संपूर्ण राष्ट्र का प्रयोजन स्‍पष्‍ट होने के लिए पर्याप्‍त रूप से प्रबल तथा प्रभावशाली बनकर हम लोगों की जाति के लिए एक अमूल्‍य आधार-स्‍तंभ के रूप में उसकी स्‍थापना अनेक शतकों के पश्‍चात् ही संभव हो सकी । बहुत सी महत्‍त्‍वपूर्ण घटनाएँ होनी थीं । अंतत: उनके प्रयासों से ही संभव हो सका । यह ज्ञात है कि आर्यावर्त तथा भारतवर्ष का वास्‍तविक अर्थ न जाननेवाले आज भी हजारों लोग है, परंतु किसी भी रास्‍ते पर चलनेवाले व्‍यक्ति को हिंदू तथा हिंदुस्‍थान नाम अपने ही लगते हैं । (कृपया परिशिष्‍ट देखें ।)

भगवान् बौद्ध के लिए नितांत आदरयुक्‍त भक्तिभावना

इन नाम के इतिहास में इसके पश्‍चात् क्‍या-क्‍या स्थित्‍यंतर हुए-यह विवेचना करने से पूर्व हमें क्षमा-याचना करने की आवश्‍यकता प्रतीत होती है । अभी तक के विवेचन का यह संपूर्ण भाग लिखते समय हमने अपनी भावनाओं को क्षति पहुँचाई है । इसलिए प्रारंभ में ही यह कहना आवश्‍यक हो जाता है कि बौद्ध धर्म को किस राजनीतिक स्थिति के कारण हिंदुस्‍थान से बाहर खदेड़ दिया गया, इस विषय पर विवेचन करते समय कुछ कठोर शब्‍दों का प्रयोग हमें करना पड़ा था । इसलिए ऐसा मानना उचित नहीं होगा कि हमारे मन में बौद्ध धर्म के प्रती आदरभाव का अभाव है; परंतु यह सच नहीं है । बौद्ध धर्म को दीक्षा ग्रहण करनेवाले किसी भी भिक्षु के समतुल्‍य हम भी उस पावन संघ के एक विनम्र पूजक तथा गुणोपासक हैं । हमने बौद्ध धम्र का अनुयायित्‍व नहीं स्‍वीकारा है, परंतु इसका कारण यह नहीं है कि वह धर्म ही हमारे लिए उचित नहीं है । वह धर्म मंदिर तत्‍त्‍वों की सुदृढ़ नींव पर खड़ा है तथा केवल शिलाओं पर स्थित राजप्रासाद से अधिक समय तक उसका अस्तित्‍व बना रहेगा । उस धर्ममंदिर की सीढ़ी पर चरण रखने की योग्‍यता हममें नहीं है । हिंदुस्‍थान में जनमें, हिंदुस्‍थान में ही परिपक्‍व हुए तथा हिंदुस्‍थान को ही अपनी मातृभूमि मानकर उसे पूजनेवाले अनेक श्रेष्‍ठ अर्हताओं तथा भिक्षुओं के महान् कर्म संघों ने मानव को अपनी मूल पाशवी प्रवृत्तियोंसे दूर करने का प्रथम तथा यशस्‍वी प्रयास करने का संकल्‍प करने के पश्‍चात् उसका प्रयोग अनेक शतकों तक किया । इसी एक बात से हमारी भावनाएँ इस प्रकार आंदोलन हो उठाती हैं कि उन्‍हें शब्‍दों में प्रकट करना असंभव है। जिस संघ के लिए हमारे मन में इस प्रकार की भावनाएँ विद्यमान हैं । उस परमज्ञानी बौद्ध भगवान् के लिए हम किन शब्‍दों में आदर व्‍यक्‍त कर सकते हैं ? हे तथागत बुद्ध ! अत्‍यंत क्षुद्र कोटि के हीनतम मानव के रूप में हमारे दैन्‍य तथा अल्‍पता को ही तुम्‍हारे चरणों पर अर्पण करने हेतु हम तुम्‍हारे सम्‍मुख उपस्थित होने का साहस नहीं कर सकते । तुम्‍हारे उपदेश का सार हमारी बुद्धि ग्रहण नहीं कर सकती । तुम्‍हारे शब्‍द ईश्‍वर के मुख से निकले शब्‍द हैं । हमारी बुद्धि इस प्राकृत तथा व्‍यावहारिक विश्‍व की बातें सुनने की अभ्‍यस्‍त हो चुकी है । कदाचित् तुमने अपना धर्मचक्र प्रवर्तन असमय प्रारंभ किया होगा तथा अपनी धर्मध्‍वजा फहराई होगी । तभी दिन का उदय हो रहा था, अत: तुम्‍हारी गति से चलना इस विश्‍व के लोगों के लिए संभव नहीं हुआ होगा। तुम्‍हारे दैदीप्‍यमान ध्‍वज को देखते ही उनकी दृष्टि चकाचौंध होकर धुँधली बन गई होगी । 'चलानामचला भक्ष्‍या दंष्‍ट्रीणामप्‍यदंष्ट्रिण: । अहस्‍ताश्‍च सहस्‍तानां शूराणा चैव भीरव: ।। (मनु) । यह दुष्‍टता जब तक इस विश्‍व में हावी रहेगी और जब तक आकाश में चमकने वाले तारों की भाँति दूर से ही सुहानेवाले सत्‍य धर्म के विचार इस दुष्‍टता की पराजय नहीं करते, तब तक कोई भी राष्ट्र अपना ध्‍वज त्‍यागकर विश्‍वबंधुत्‍व का ध्‍वज फहराने के लिए मान्‍यता नहीं देगा । फिर भी, हमारे देवी-देवताओं के पूजन से पावन हुए हमारे ध्‍वज के नीचे भगवान् बौद्ध यदि नहीं होते, तो हमारे ध्‍वज की श्रेष्‍ठता में थोड़ी कमी अवश्‍य रह जाती । जिस प्रकार श्रीराम, श्रीकृष्‍ण अथवा महावीर हमें अपने लगते हैं, उसी प्रकार हे भगवान्, तुम भी हमारे ही हो । ये शब्‍द हम लोगों की आत्‍मा की तीव्र भावनाओं से उपजे शब्‍द हैं । तुम्‍हारा दिव्‍य साक्षात्‍कार भी हम लोगों को आया हुआ एक स्‍वप्‍न है । यह इस मानवी भूमि पर सद्धर्म के तत्‍त्‍वज्ञान की विजय हुई तो हे भगवान् ! तुम्‍हारे ध्‍यान में यह आ जाएगा कि जिस भूमि ने तुम्‍हें पालने में झुलाया है, जिस जाति ने तुम्‍हें पाल-पोसकर बड़ा किया है, वही भूमि तथा वही जाति इस सद्धर्म के यश का कारण है । तुम्‍हें जन्‍म देने से यह बात प्रमाणित न हो सकी है तो इन घटनाओं से वह अवश्‍य सिद्ध होगी कि यहाँ की भूमि और लोग इस धर्म के लिए जिम्‍मेदार हैं ।

तं वर्ष भारतं नाम भारती यत्र संतति:

अभी तक हम लोगों ने संस्‍कृत ग्रंथों का आधार लेकर 'सिंधु' शब्‍द किस प्रकार बना-इसे समझने का प्रयास किया । हिंदू राष्ट्र की कल्‍पना में समय-समय पर वृद्धि होने के साथ ऐसा प्रतीत हुआ कि उस समय दिया हुआ 'सिंधुस्‍थान' नाम ही किसी भी अन्‍य नाम से अधिक सार्थक है । इसी स्‍थान पर हम लोगों ने अपना अनुसंधान अधूरा छोड़ दिया था । आयांवर्त के समान इस नाम में भी संकीर्णता तथा एकपक्षीयता का दोष विद्यमान है । ऐसा आरोप यदि लगाया जाता है तो इस आरोप का खंडन करने हेतु 'सिंधुस्‍थान' शब्‍द की परिभाषा करते समय किसी भी पक्षपाती संस्‍था अथवा धार्मिक पंथ का संबंध अस्‍वीकार कर दिया गया । उदाहरण के लिए 'आर्यावर्त'की इस परिभाषा का अवलोकरन करें । 'चातुर्वर्ण्‍यव्‍यवस्‍थानं यस्मिन्‍देशे न विद्यते । तं म्‍लेच्‍छदेशं जानीयादार्भावर्तस्‍तत: परम् ।।' यह व्‍याख्‍या योग्‍य है, परंतु सार्वकालिक नहीं है । संस्‍था समाज के लिए होती है, परंतु समाज तथा उसके ध्‍येय किसी संस्‍था के लिए नहीं होते । हम लोगों का ध्‍येय सफल हो जाने पर अथावा उसके सफल होने की कोई संभावना न रहने पर चातुर्वर्ण्‍य व्‍यवस्‍था कदाचित् लुप्‍त हो जाएगी । तक क्‍या यह भूमि परायों की अथवा म्‍लेच्‍छभूमि बन जाएगी ? संन्‍यासी, आर्यसमाजी, सिख तथा अन्‍य अनेक चातुर्वर्ण्‍य व्‍यवस्‍था को नहीं मानते । उन्‍हें क्‍या इस परिभाषा के अनुसार पराया मानना होगा ? कदापि नहीं । हम लोगों के रक्‍त से ही वे उपजे हैं, एक ही ईश्‍वर मानते हैं, तं वर्ष भारतं नाम । भारती यत्र संतति:।। यह परिभाषा पूर्व की परिभाषा से दस गुणा अधिक सार्थक है । यह अधिक वास्‍तविक है । हम हिंदू लोग एक हैं तथा हम लोगों का राष्ट्र भी एक है । 'भारती संतति:' (हम सब एक ही राष्ट्र की संतति हैं।)

हमारे राष्ट्र की जीवंत मातृभाषा-संस्‍कृतनिष्‍ठ हिंदी

इतिहास के उस काल में बौद्ध धर्म के अभ्‍युदय तथा ह्रास के पश्‍चात् हिंदुस्‍थान में हिंदी प्राकृत भाषाओं का विस्‍तार तथा विकास विलक्षण गति से हुआ । प्राचीन शिक्षित परंपरा की अभेद्य सीमाओं में संस्‍कृत भाषा इस प्रकार जकड़ गई थी कि नवीन शब्‍दों तथा नवीन कल्‍पनाओं का शिष्‍ट (भाषा में) वाड्.मय में प्रयोग करने से पूर्व ही उनका रूपांतर भाषा में करने की प्रथा प्रचलित हो गई । इसी कारण नित्‍य के व्‍यवहार के लिए तथा सामाजिक गतिविधियों के लिए प्राकृत भाषाओं का उपयोग किया जाने लगा । वस्‍तुत: ये प्राकृत भाषाएँ ही लोगों के प्रचलित तथा प्रज्‍वलित विचारों को नवीनता तथा संक्षिप्‍तता देने के लिए सर्वस्वी योग्‍य थीं । इसी कारण 'सिंधु' तथा 'सिंधुस्‍थान' शब्‍द कतिपय संस्‍कृत ग्रंथों में मिलते हैं, परंतु अधिकतर संस्‍कृत ग्रंथकारों ने प्रगल्‍भता निर्देश 'भारत' शब्‍द का ही उपयोग किया है, परंतु सभी प्राकृत बोलियों ने (प्राकृत) आर्यावर्त अथवा भारत जैसे परंपरागत तथा प्रिय नामों को स्‍वीकार नहीं किया तथा हम लोगों की भूमिका ने अधिक लोकप्रिय संबोधन हिंदुस्‍तान (सिंधुस्‍थान) ही प्रचलन में रखा । संस्‍कृत भाषा का 'स' अहिंदू तथा हिंदू प्राकृत भाषाओं में 'ह' में किस प्रकार परिवर्तित हो जाता है, इस विषय का विवेचन यहाँ पुन: प्रस्‍तुत करने की आवश्‍यकता नहीं है । इसीलिए प्राकृत भाषाओं के वाड्.मयों में हिंदू तथा हिंदुस्‍थान का उल्‍लेख कई भिन्‍न स्‍थानों पर किया जाता रहा है । संस्‍कृत भाषा हम लोगों की जाति की अत्‍यंत पवित्र तथा अभिमानास्‍पद चिरंतन आनुवंशिक संपत्ति है, प्रमुख रूप से उसी के सामर्थ्‍य के कारण ही हम लोगों की जाति की मूलभूत एकता बनी रही । हमारे जीवन के सिद्धांत तथा हमारे ध्‍येय, आकांक्षाओं को अधिक उन्‍नत बनाकर देवभाषा संस्‍कृत ने ही हमारे जीवन-प्रवाह विशुद्ध तथा परिपूर्ण बनाए । फिर भी हमारे राष्ट्र के लोगों की जीवंत मातृभाषा बनने का बहुमान संस्‍कृत की ज्‍येष्‍ठ कन्‍या हिंदी को प्राप्‍त हुआ । प्राचीन सिंधुओं अथवा हिंदुओं की राष्‍ट्रीय तथा सांस्‍कृतिक परंपरा चलाते हुए विख्‍यात बने हिंदुओं की भाषा बन गई-आज हिंदी निर्विवाद रूप से हिंदुस्‍थान की भाषा है । हिंदी को राष्ट्रभाषा के सम्राज्ञी पद पर स्‍थापित करने का प्रयास कुद नया नहीं है । यह विवश होकर किया गया प्रयास भी नहीं है । हिंदुस्‍थान में ब्रिटिश साम्राज्‍य की स्‍थापना होने के अनेक शतक पूर्व संपूर्ण हिंदुस्‍थान की व्‍यावहारिक भाषा हिंदी ही थी । इस बात के प्रमाण उपलब्‍ध हैं । रामेश्‍वरम् से निकलकर हरिद्वार की यात्रा पर जानेवाला कोई साधु, संन्‍यासी अथवा कोई व्‍यापारी संपूर्ण यात्रा के समय संपूर्ण हिंदुस्‍थान में इसी भावना का प्रयोग करता गया । अपने मनोभाव व्‍यक्‍त करने में उसे किसी प्रकार की कठिनाई नहीं होती, पंडितों अथवा पृथ्‍वीपतियों की सभाओं में संस्‍कृत के कारण उसे प्रवेश मिलता, परंतु राजसभा में तथा हाट-बाजारों में हिंदी भाषा का ही प्रयोग किया जाता । हिंदी सब लोगों को जोड़नेवाली भाषा थी । किसी नानक २८ को अथवा रामदास को अथवा किसी अन्‍य चैतन्‍यशक्ति २९ व्‍यक्ति को देश की एक सीमा से दूसरी सीमा तक यात्रा करते समय यह प्रतीत होता था कि वह अपने ही प्रदेश में घूम रहा है । अपने तत्‍त्‍वों का अथवा मंत्रणा का मुक्‍त प्रचार करने हेतु इसी भाषा का प्रयोग आवश्‍यक था तथा ऐसा ही किया गया । सिंधुस्‍थान अथवा सिंधु या हिंदुस्‍थान अथवा हिंदू-इन पुराने नामों का पुनरूज्‍जीवन हुआ । ये नाम लोकप्रिय होते गए तथा इसी के साथ हम लोगों की राष्‍ट्रीय भाषा का विकास तथा विस्‍तार भी होता गया । यह संपूर्ण राष्ट्र की संपत्ति बन जाने के पश्‍चात् इसे उचीत रूप से 'हिंदी' नाम दिया गया ।

हिंदू राष्ट्र के वैभव का काल

हूणों तथा शकों को अपने पराक्रम से खदेड़ देनेके पश्‍चात् कई शतकों तक हिंदुस्‍थान निर्भर स्‍वतंत्रता का आश्रय-स्‍थान बना रहा । इस भूमि पर स्‍वातंत्र्य तथा समृद्धि का साम्राज्‍य पुन: स्‍थापित हुआ । राजा तथा रंक-दोनों ही स्‍वराज्‍य और स्‍वातंत्र्य का सुखोपभोग करने लगे । इन हजार वर्षों के इतिहास का वर्णन इस देश के कवियों ने बड़े ही हर्षित भाव से किया है-

ग्रामे-ग्रामे स्थितो देव: देशे देशे स्थितो मख: ।

गेहे गेहे स्थितं द्रव्‍यं धर्मश्‍चैव जने जने ।।

--भविष्‍य पुराण, प्रतिसर्ग पर्व

सिंहल द्वीप से कश्‍मीर तक संपूर्ण हिंदुस्‍थान पर राजपूत वंश के एक ही राजा की सत्‍ता थी । कई बार परस्‍पर विवाहों के कारण राजपरिवारों में अधिक निकट के संबंध बन जाते तथा समान धर्म तथा संस्‍कृति के कारण वे दृढ़ हो जाते । सुख तथा समृद्धि के कारण संपूर्ण राष्ट्र का जीवन मंगलमय, सुसंवादी और सामंजस्‍यपूर्ण बन गया था । राष्ट्रभाषा का उत्‍कर्ष हमारे राष्‍ट्रीय जीवन की एकता व अखंडता का प्रत्‍यक्ष प्रमाण था ।

मुसलमानों के आक्रमण तथा हिंदुओं द्वारा शौर्यपूर्ण प्रतिकार

हिंदुस्‍थान के लोग सुख-समृद्धि के आनंद में मग्‍न होकर, सदा के लिए सुरक्षित होने के भ्रम में रहने के अभ्‍यस्‍त हो चुके थे । ऐसी घटनाएँ इतिहास में कई बार इससे पूर्व भी हो चुकी हैं । जब गजनी के महमूद ३० ने सिंधु को पार करते हुए सिंधुस्‍थान पर आक्रमण किया, तब नींद में कुछ बाधा उत्‍पन्‍न हुई तथा हिंदुस्‍थान भय से जाग्रत् हो उठा । उसी दिन से जीवन-मरण का वास्‍तविक युद्ध प्रारंभ हुआ, पर जब युद्ध करने का प्रसंग आता है, तभी 'स्‍वत:' की पहचान अधिक स्‍पष्‍ट हो जाती है । समान बलशाली शत्रु के कारण राष्‍ट्रीय एकता ३१ बनाए रखने की अथवा एक विशाल राष्ट्र में एकजुट की भावना निर्माण करने की संभावना बढ़ जाती है । इस आक्रमण के कारण सिंधुस्‍थान को अधिक प्रभावी प्रेरणा इससे पूर्व में कभी प्राप्‍त नहीं हुई थी । इससे पूर्व कासिम के नेतृत्‍व में मुसलमान सिंधु पार करने में सफल हुए थे, परंतु उनका प्रहार सतही या शरीर को स्‍पर्श करनेवाला था तथा इससे ह्रदय पर कोई आघात नहीं हुआ था । प्रहार करनेवाले भी कुछ अधिक नहीं करना चाहते थे । निर्णायक संग्राम का प्रारंभ महमूद के साथ हुआ तथा इसका अंत अब्‍दाली ३२ से हुए युद्धके पश्‍चात् ही हो सका । कई वर्षों, दशकों तथा शतकों तक यह संग्राम चलता रहा और इस अविरत चलनेवाले संग्राम में अरबस्‍तान कुद ही वर्षों में नामशेष हो गया । ईरान जलकर राख बन गया । मिस्त्र, सीरिया, अफगानिस्‍थान (गजनी), बलू‍चीस्‍थान, तार्तार तथा (स्‍पेन) ग्रानडा गजनी तक के राष्ट्र तथा संस्‍कृति इसलाम के शांति प्रेमी (श्‍मशान शांति) खड्ग द्वारा संपूर्णत: नष्‍ट कर दी गई, परंतु इन देशों पर निर्णायक विजय प्राप्‍त करने का श्रेय नहीं मिला । उन्‍हें पूर्णत: नष्‍ट करने का श्रेय उसे मिल सका, केवल उनपर आघात करने का संतोष प्रापत हुआ । प्रत्‍येक प्रहार पर जो घाव पड़ जाता वह पुन: प्रहार करने के समय तक ठीक हो जाता । पराजित लोगों की प्रतिकार-क्षमता विजयी आक्रमण से अधिक प्रभावी तथा प्रबल सिंद्ध हुई । हिंदुस्‍थान का यह संग्राम केवल एक जाति से, राष्ट्र से अथवा किसी एक जनशक्ति से नहीं हो रहा था । संपूर्ण एशिया के अधिकतर राष्ट्र तथा उन्‍हें सहायता करनेवाले संपूर्ण यूरोप के राष्ट्र संग्राम में उपस्थित थे । अरबों ने सिंध प्रांत पर अधिकार कर लिया, परंतु इससे कुद अधिक करने की शक्ति उनमें नहीं थी । कुद समय पश्‍चात् अपनी ही भूमि‍ में स्‍वतंत्र रहना अरबों के लिए असंभव हो गया । निकट भविष्‍य में एक स्‍वतंत्र राष्ट्र के रूप में उनकी पहचान नहीं रही, परंतु अरब, पर्शियन, पठान, बलूची, तार्तार, तुर्क, मुगल आदि के जागतिक स्‍वरूप में प्रचंड इंझावात से व्‍याप्‍त सहारा मरुस्‍थल से युद्ध करना पड़ा । धर्म एक अत्‍याधिक प्रभावी शक्ति है । लूटपाट करने की लालसा भी ऐसी ही एक प्रबल शक्ति है । जब यह शक्ति धर्मभावना पर हावी हो जाती है, तब उनके संयोग से एक भयावह दानवी शक्ति उपजती है । वह मानव का संहार करती है तथा प्रदेशों को जलाकर नष्‍ट कर देती है । जब महमूद सिंधु के पार आया तथा आक्रमण करते हुए उसने जिस प्रकार भयंकर संहार किया, इस बात पर आश्‍चर्य हुआ कि स्‍वर्ग तथा नरक इस कार्य के लिए साथी कैसे बन गए । यह भीषण संहार कई शतकों तक चलता रहा और हिंदुस्‍थान को इसका सामना अकेले ही करना पडा । नैतिक तथा सैनिक, दोनों ही दृष्टि से इस लड़ाई के समय अकबर ने जब राजसत्‍ता सँभाल ली और दाराशिकोह ३३ का जन्‍म हुआ, तब हिंदुओं की वास्‍तविक नैतिक विजय हुई । अपनी खोई हुई नैतिक प्रतिष्‍ठा पुन: प्राप्‍त करने हेतु औरंगजेब ने जिस पागलपन का सहारा लिया, उससे तो अपनी सैनिक-श्रेष्‍ठता भी खो देने का खतरा उसके समक्ष उत्‍पन्‍न हो गया । अंतत: सदाशिवराव भाऊ ने मुगल सिंहासन को हथौड़े के प्रहार से खंड-खंड कर दिया । पानीपत की लड़ाई में हिंदुओं को पराजित होना पड़ा, परंतु इस संपूर्ण युद्ध में जीत इन्‍हीं की हुई । तत्‍पश्‍चात् मराठों ने अटक पर विजयी हिंदू ध्‍वज फहराया । सिखों ने इसी ध्‍वज को सिंधु पार से जाते हुए इसे काबुल में गाड़ दिया । (सावरकर समग्र, खंड ३ के, हिंदूपदपादशाही, ग्रंथ में इसका विवरण अधिक विस्‍तार से दिया गया है ।)

हिंदुत्‍व का आत्‍म-साक्षात्‍कार

इस भीषण तथा सुदी काल में जा युद्ध हुए, उनके परिणामस्‍वरूप हम सभी लोगों को हिंदू होने की अपनी पहचान अधिक स्‍पष्‍ट रूप से हो गई । इतिहास काल में पूर्व में ऐसा कभी नहीं हुआ था । संपूर्ण राष्ट्र एक समान राष्‍ट्रीय भावना से जुड़ गया । यह भूलना उचीत नहीं होगा कि हमने अब तक केवल हिंदुओं की गतिविधियों का विचार एकात्‍म रूप से ही किया है । ऐसा करते समय हिंदु धर्म के अतिरिक्‍त हिंदुत्‍व में समाविष्‍ट किसी अन्‍य कर्म का अथवा पंथ का विकार अभिप्रेत हमें नहीं था । सनातनी, ३४ सतनामी, ३५ सिख, आर्य, ३६ मराठा ब्राह्मण, पंचम ३७ आदि सभी ने हिंदू कहलाते हुए ही पराजय स्‍वीकार की थी तथा हिंदू बनकर विजय भी प्राप्‍त की । हम लोगों ने इस भूमि के तथा जाति के अन्‍य सभी नाम त्‍यागकर 'हिंदू' तथा 'हिंदुस्‍थान'-इन्‍हीं नामों को सुप्रतिष्ठित किया । आर्यावर्त दक्षिणापथ अथवा जंबुद्वीप और भारतवर्ष हम लोगों की राजनीतिक अथवा सांस्‍कृतिक विशेषताएँ स्‍पष्‍ट रूप से प्रकट करने हेतु असमर्थ सिद्ध हुए । हिंदुस्‍थान नाम में सामर्थ्‍य विद्यमान थी । सिंधु से सागर तक की भूमि हम लोगों की जन्‍मभूमि है-यह माननेवाले तथा सिंधु के इस तट पर निवास करनेवाले लोगों को स्‍पष्‍ट रूप से ज्ञात हो गया कि इस भूमि को एक ही नाम हिंदुस्‍थान से पहचाना जाता है । हिंदू होने के कारण हम लोगों के शत्रुओं के मन में हमारे प्रति द्वेषभाव था । इस कारण अकस्‍मात् कटक से अटक तक की जातियों को, पंथों को तथा मूल्‍यों को एक साथ सम्मि‍लित करनेवाला एक राष्ट्र अस्तित्‍व में आया । इस समय हम कहना चाहेंगे कि ई.स. १३०० से १८०० तक कश्‍मीर से सीलोन तक तथा सिंधु से बंगाल तक जो गतिविधियाँ तथा घटनाएँ घटीं वे कभी एक-दूसरे से संबद्ध थीं तो कभी उनमें अन्‍यान्‍य समानता दिखाई देती थी । इनसे राष्ट्र की अभिन्‍नता तथा एकरूपता स्‍पष्‍ट रूप से प्रकट हुई । इन गतिविधियों तथा घटनाओं का सूक्ष्‍म अध्‍ययन करते हुए उनकी ऐतिहासिक मीमांसा अथवा समालोचन अभी तक नहीं किया गया है । इसका कारण यह था कि हिंदुस्‍थान की प्रतिष्‍ठा तथा स्‍वातंत्र्य अबाधित केवल हिंदुस्‍थान की ही नहीं, अपितु सारे हिंदुत्‍व की संस्‍कृति तथा र्साजनिक जीवन से जुड़ी एकता को प्रस्थापित करने का का कार्य अधिक महत्‍त्‍वपूर्ण समझा गया था । इसी हिंदुत्‍व के लिए सैकड़ों रणभूमियों पर युद्ध करना पड़ा तथा हर प्रकार की राजनीतिक युक्ति का भी प्रयोग करना पड़ा । 'हिंदुत्‍व' शब्‍द हमारे संपूर्ण राजनैतिक जीन की रीढ़ की हड्डी बन गया । इतना कि कश्‍मीर के ब्राह्मणों की यातनाओं से मलाबार के नायरों की आँखें अश्रुपूरित हो जातीं । हम लोगों के स्‍तुतिपाठक कवियों ने हिंदुओं की पराजय पर शोक काव्‍यों की रचना की । भ‍विष्‍य-द्रष्‍टाओं ने हिंदुओं की भावनाएँ प्रज्‍वलित कीं । वीर योद्धाओं ने युद्ध किए, संत-महात्‍माओं ने हिंदुओं के प्रयासों को शुभाशीष दिए । राजनीतिक नेताओं ने हिंदुओं के परमोच्‍च भवितव्‍य को साकार किया । हम लोगों की माताओं ने युद्ध में जख्‍मों को सहलाया । हिंदुओं के पराक्रम तथा दिग्विजय से उनकी आँखें आनंदाश्रुओं से भर आईं ।

महत्‍त्‍वपूर्ण स्‍फूर्तिदायक उद्धारण

हमारे इन कथनों की पुष्टि करनेवाले तथा उनकी मान्‍यता प्रस्‍तापित करनेवाले उद्धरण, जो हम लोगों के पूर्वजों के ग्रंथों में विद्यमान हैं, उन्‍हें संक्षेप में देना अथवा उन वचनों का उल्‍लेख करना संभवव नहीं है । यदि ऐसा करने के प्रयास किए जाते हैं तो एक पूरा ग्रंथ बन जाएगा । हमारे विवेचन की दृष्टि से यह बहुत आकर्षक प्रतीत होता है । परंतु इस बात पर ध्‍यान देना संभर प्रतीत नहीं होता, तथापि अति योग्‍य हिंदू यक्तियों के मुख से अथवा उनकी रचनाओं में जो आवेशयुक्‍त तथा स्‍फूतिप्रद वचन प्रकट हुए हैं, उनमें से कुद प्रतिनिधिक रूप से उद्धृत करने में ही संतोष का अनुभवव करना आवश्‍यक हो जाता हैं ।

पृथ्‍वीराज रासो

चंदबरदाई द्वारा रचित 'पृथ्‍वीराज रासो' नामक महाकाय के समतुल्‍य प्राचीन तथा अधिकृत अन्‍य ग्रंथ हिंदी भाषा में आज तक लिख गए नए व पुराने ग्रंथों में उपलब्‍ध नहीं है । ऐतिहासिक अनुसंधान का यही निष्‍कर्ष है । इस रचना का केवल एक ही लघुकाव्‍य उपलब्‍ध है, परंतु परम सौभाग्‍य और विलक्षण बात यह है कि प्राकृत भाषा में रचित इस आद्य काव्‍य में हिंदुस्‍थान का उल्‍लेख ज्‍वलंत देशाभिमान से किया गया है । चंदरबरदाई के पिता वेन कवि पृथ्‍वीराज के पिता को, अर्थात अजमेर के राजा को संबोधित करते हुए कहते हैं-

अटल ठाट महिपाठ, अटल तारागढ्थानं

अटल नग्‍न जमेर, अटल हिंदव अस्‍थानं

अटल तेज परताप, अटल लंकागढ डंडिय

अटल आप चहुवान, अटल भूमिजस मंडिय

समरि भूप सोमेस नृप, अटल छत्र ओपै सुसर

कविराय वेन आसीस दे, अटल जगां रफेस कर ।

हिंदी वाड्.मय के आद्यकवि की मान्‍यता प्राप्‍त कवि के रूप में चंदबरदाई का उल्‍लेख किया जाना अपरिहार्य हो जाता है । इस स्‍तुतिपाठक ने, हिंदू ने, 'हिंदवान' अथवा 'हिंद' शब्‍दों का प्रयोग इतनी सहजता से तथा सतत किया है कि ग्‍यारह शतक के पूर्व भी ये संबोधन मान्‍यता प्राप्‍त कर रोज के व्‍यवहार में भी रूढ़ हो चुके थे-ऐसा प्रतीत होता है । तब तक पंजाब में मुसलमानों के पैर जम नहीं पाए थे । इसलिए मुसलमानों द्वारा दिया हुआ यह निदांजनक नाम स्‍वीकारते हुए राजपूतों के लिए यह आवश्‍यक नहीं था कि इस नाम का प्रयोग हमारे राष्ट्र का नाम मानकर उसी नाम से हम लोगों के राष्ट्र को संबोधित करते तथा अभिमानपूर्वक उसका प्रचार करते । हिंदुओं द्वारा शहाबुद्दीन को बाँधकर लाने के पश्‍चात् उसे इस शर्त पर मुक्‍त कर दिया गया कि पुन: हम लोगों की ओर आँखें उठाकर देखेगा भी नहीं । इस संबंध में कवि कहता है-

राखी पंचदिन साहि अदब आदर बहु किन्‍नो

सुज हुसेन गाजी सुपूत हथ्‍यै ग्रहि दिन्‍नो

कियं सलाम तिनबार जाहु अपन्‍ने सुथानह

मति हिंदुपर साहि सज्जि आऔ स्‍वस्‍थानह

परंतु हिंदुओं के परम सौजन्‍य से ठीक रास्‍ते पर शहाबुद्दीन लौटनेवाला नहीं था । वह सतत आक्रमण करता रहा तथा संग्राम होता रहा । इससे देवलोक के कलहप्रिय नारद को अत्‍याधिक हर्ष हुआ होगा ।

जय हिंदुदल जोर हुअ छुट्टी मीरधर भ्रम

असमय अरबस्‍तान चला करन उद्वसाक्रम

और पुन:

जुरे हिंदु मीरं बहे खग्‍ग तारं

मुखे मारंमार कहे सूरसारं

तथा अंत में

हिंदु म्‍लेच्‍छ अधाअि घाअिन

नंची नारद युद्ध चायन !!

हिंदुओं को कुचलकर नामशेष करने के शहाबुद्दीन के प्रयास भी सफल नहीं हुए । एक दिन प्रद्युम्‍न राम द्वारा शहाबुद्दीन का वध करने की वार्ता दिल्‍ली में पहुँची और संपूर्ण दिल्‍ली नगर 'न भूतो न भविष्‍यति' हर्ष से नाचने लगा । हम लोगों के राजराजेश्‍वर पृथ्‍वीराज का अभिनंदन उस संपूर्ण नगर द्वारा किया गया ।

आज भाग चहुआन घर ।

आज भाग हिंदुवानं ।।

इन जीवित दिल्‍लीश्‍वर ।

गंज न सक्‍के आन ।।

आज तक अनेक बार शपथ लेकर उन्‍हें तोड़नेवाला शहाबुद्दीन पुन: शपथ लेकर मुक्‍त हो गया था और उसने पुन: हिंदुस्‍थान पर भयंकर आक्रमण किया था । एक बार झपटकर वह दिल्‍ली तक भी पहुँच गया था । हिंदपति पृथ्‍वीराज ने तत्‍काल अपनी युद्धमंडल की सभा आमंत्रित की । शहाबुद्दीन ने उद्धततापूर्वक युद्ध के लिए ललकारा, रावल और सामंत का क्रोध भड़क उठा । मुसलमान दूत को विवाद करते समय उसे स्‍मरण दिलाते हुए कहा कि शाह ने कई कार हम लोगों के पैरों की धूल चाटी है ।.

निर्लज्‍ज म्‍लेच्‍छ लजे नहिं । हम हिंदु लजवानं ।।

अंतत: वह भीषण दिन समीप आने लगा । अब अनर्थकारक, भीषण निर्णायक युद्ध होगा-इसे दोनों पक्ष निश्चित रूप से समझ गए । हम्‍मीर ने जिस दिन विश्‍वासघात किया, उसी दिन चंदबरदाई स्‍तुतिपाठक दुर्गादेवी के समक्ष उपस्थित हुआ; उसने करुण रस परिप्‍लुत, परंतु देशाभिमान की याचना करते हुए निम्‍न प्रार्थना स्‍तोत्र के रूप में सादर की-

द्रग्‍गे हिंदुराजान बंदीन आयं

जैप जाप जालधरं तू सहायं

नमस्‍ते नमस्‍ते इ जालंधरानी

सुरं आसुरं नागपूजा प्रमानी ।।

इस संग्राम का जो भयंकर निर्णय हुआ, उसका तथा उसके पश्‍चात् चंदबरदाई की जिस चतुर युक्ति से पृथ्‍वीराज ने शहाबुद्दीन का वध किया, उसका समग्र वर्णन करते हुए युद्ध में मरनेवाले उस हिंदू सम्राट् को अपनी अत्‍यंत ह्रदयस्‍पर्शी श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए कवि ने अपना काव्‍य पूर्ण किया है-

धनि हिंदु प्रथिराज, जिन रजवट्ट उजारिय

धनि हिंदु प्रथिराज बोल कलिमझ्झ उगारिय

धनि हिंदु प्रथिराज जेन सुविहान ह संध्‍यो

बारबारह ग्रहिमुक्कि अंतकाल सर बंध्‍यो ।।

श्री रामदास स्‍वामी का गूढ़ स्‍वप्‍न

'रासो' में भारत शब्‍द का प्रयोग अनेक स्‍थानों पर महाभारत के लिए किया गया है, परंतु 'भारतवर्ष' इस अर्थ में इसका उपयोग कम ही हुआ है । यह बात ध्‍यान देने योग्‍य है । यह बात हमारे अत्‍यंत प्राचीन प्राकृत ग्रंथों में दिखाई देती है । महान् हिंदवी क्रांति के बारे में तथा हिंदुओं की स्‍वतंत्रता के लिए मराठों ने जो युद्ध किए के बारे में प्राकृत वाड्.मय में पढ़ने को मिलता है । हिंदवी क्रांति के ज्ञाता तथा श्रेष्‍ठ अधिकारी उपदेशक समर्थ रामदास ने उन्‍होंने देखे हुए एक स्‍वप्‍न का उल्‍लेख भविष्‍यसूचक काय में दिया है । इस स्‍वप्‍न के अधिकांश सत्‍य होने की बात भी कही है-

स्‍वप्‍नी जे देखिले रात्री, ते ते तैसेचि होत से

हिंडता फिरता गेलो, आनंदवन भूवनी ।।1।।

बुडाले सर्वहि पापी हिंदुस्‍थान बळावले

अभक्‍तांचा क्षयो झाला, आनंदवन भूवनी ।।2।।

कल्‍पांत मांडिला मोठा, म्‍लेच्‍छ दैत्‍य बुडावया

कैपक्ष घेतला देवी, आनंदवन भूवनी ।।3।।

येथून वाढला धर्म, राजधर्म समागमे

संतोष मांडिला मोठा, आनंदवनभूवनी ।।4।।

बुडाला औरंग्‍या पापी, म्‍लेच्‍छ संहार जाहला

मोडिली मांडिली छत्रे, आनंदवन भूवनी ।।5।।

बोलणे वाउगे होते चालणे पाहिजे बरे

पुढे घडेल ते खरे, आनंदवन भूवनी ।।6।।

उदंड जाहले पाणी, स्‍नानसंध्‍या करावया

जपतप अनुष्‍ठाने, आनंदवन भूवनी ।।7।।

स्‍मरले लिहिले आहे, बोलता चालता हरी

रामकर्ता रामभोक्‍ता, आनंदवन भूवनी ।।8।।

शिवाजी महाराज का भक्‍तकवि -भूषण

देश की एक सीमा से दूसरी सीमा तक यात्रा करते हुए जिन्‍होंने हिंदुओ को कृति करने हेतु जाग्रत् किया तथा मुक्ति युद्ध करने तथा उसमें यशस्‍वी होने के लिए स्‍फूर्ति दी, उन राष्‍ट्रीय स्‍तुति पाठकों में राष्‍ट्रीय स्‍तुतिपाठ के रूप में अत्‍यंत विख्‍यात कवि भूषण ने औरंगजेब से इस प्रकार का प्रश्‍न पूछ-

लाज धरौ शिवजीसे लरौ सब सैयद सेख पठान पठायके

भूषन ह्यां गढकोटन हारे उहा तुग क्‍यों मठ तोरे रिसायके ।।

हिंदू के पति सोन विसात सतावन हिंदू गरीबन पायके ।

लाजै कलंक न दिल्‍लीके बालम आलम आलमगीर कहायके ।।

एक अन्‍य स्‍थान पर भूषण लिखता है-

'जगत् में जीते महावीर महाराजन ते'

'महाराज बावन हूँ, पातसाह लेवाने ।।

पातसाह बावनौ दिल्‍ली के पातशाह दिल्‍लीपति

पातसाह जीसो हिंदूपति सेवा ने'

दाढी के रखैयन की दाढ़ीसी रहति छाति

वाढी जस मर्याद हद्द हिंदुवाने की

कढि गयि रयतिके मनकी कसम मिट गई

ठसक तमाम तुरकाने की

भूषण भनत दिल्‍लीपति दिल धकलका सुनिसुनि

धाक सिवराज मरदाने की

मोठी भयि चंडि बिन चो‍टी के चबाय सीस

खोटी भई संपति चकताके ३८ घराने की

(गरीब दीन गुसाइयों को, भिखमंगों को पीड़ा पहुँचाने से तथा हिंदुओं के मठ-मंदिरों को नष्‍ट करने में हे औरंगजेब ! तुम इतनी बड़ाई क्‍यों दिखाते हो ? प्रत्‍यक्ष हिंदूपति से संग्राम करने का धैर्य तुममें नहीं है, हिंदू सम्राट् शिवाजी ने तुम्‍हारा घमंड तोड़ दिया । तथापि विश्‍वविजेता, अर्थात् आलमगीर का असत्‍य खिताब अपने नाम के साथ जोड़ने का लांछनास्‍पद कार्य तुम करते रहे।)

शिवाजी महाराज के पराक्रम के विषय में भूषण गाता है-

राखी हिंदूवानो, हिंदूवान के तिलक राख्‍यो

स्‍मृति और पुराण राख्‍यो वेद विधी सुनि मै

राखी रजपूती राजधानी राखी राजन की,

धरामे धरम राख्‍या,राख्‍यो गुण गुणी में

भूषण सुकविजीति हदद मरहट्टकी देस-देस

क‍रिति बखानी तब सुनि मै

साही के सुपूत शिवराज समसेर तेरी दिल्‍लीदल

दाबीक दीवाल ३९ राखी दुनि मै ।।

छत्रसाल का गुणगान

शिवाजी राजा तथा उनके देख के वीरों ने वीरता व पराक्रम के जो कार्य किए थे, उनके संबंध में हिदुस्‍थान के सभी स्‍वकीय हिंदुओं के मन में अभिमान तथा प्रशंसा की भावना विद्यमान थी । भूषण मराठा नहीं था, तथापि शिवाजी राजा से बाजीराव तक के मराठा योद्धाओं द्वारा किए गए आक्रमणों को अपने ही जाति के बांधवों द्वारा किए हुए आक्रमण मानकर उनपर वह गर्व का अनुभव करता था-ऐसा प्रतीत होता है । वह एक सच्‍चा तथा कट्टर हिंदू था । अंत तक वह अखिल हिंदू आंदोलन का महत्‍त्‍व बड़े नेताओं को समझाते हुए उसी प्रकार के स्‍फूर्तिप्रद तथा प्रभावी काव्‍यों की रचना करता रहा । भूषण कवि का अन्‍य प्रिय पुरूष था बुंदेलखंड का छत्रसाल-

हैवर ४० हरट्ट ४१ साजि गैवर ४२ गरट्ट ४३ सम पैदर थट्ट फौज तुरकांनकी

भुषण भनत रायचंपतिको छत्रसाल रोप्‍यो रनख्‍याल

छत्रसाल की जो महिमा यहाँ वर्णित की गई है, उसमें असत्‍य का अंश भी नहीं है । शिवाजी, राजसिंह, गुरूगोविंदसिंह आदि के समान छत्रसाल वास्‍तव में हिंदुओं की रक्षक ढाल था । वह स्‍वयं को 'हिंदुओं का रक्षक' कहलाता था । छत्रसाल कहता है-

हिंदू तुरक दीन द्वै गाये । तिनसो बैर सदाचलि आये ।।

लेख्‍यो सुर-असुर नको जैसो । केहरि करिन बखानो तैसो ।।

जबते शहा तखत पर बैठे । तब ते हिंदुन साँ उर डाठे ।।

सहगेकर तीरथनि लगाये । वेद आपके चित्त कि चाही ।।

आठ पातशाही झुक झौरे । सूबनि बाँधि डांड के ले छौरे ।।

छत्रसाल तथा शिवाजी की ऐतिहासिक भेंट के समय शिवाजी ने उसे प्रोत्‍साहित किया तथा उनको गौरवान्वित करते हुए कहा, 'तुम छत्री सिरताज । जाति अपनी भूमिको करो देश को राज ।। यह बुंदेला वीर जब बुंदेलखंड के प्रबल राजपूत सुजान सिंह से मिला, तब सुजान सिंह ने तत्‍कालीन राजकीय स्थिति का बहुत ह्रदयस्‍पर्शी वर्णन किया-

पातसाह लागे करन, हिंदूधर्म कौनासु

सुधि करि चंपतरायकी लइ बुंदेला सासु

जब तै चंपति करयौ पयानौ, तब तै परयौ हीन हिंदवानो

लग्‍यो होग तुरकजको जोरा, को राखे हिंदुन का तोरा

जब जो तुम कटि कसौ कृपानी, तौ फिरि चढ़े हिंदमुख पानी ।।

इस कथन के पश्‍चात् सुजान सिंह ने अपनी समशीर तथा ह्रदय छत्रसाल को अर्पित किया । उसे उसके अंगीकृत कार्य में सफल होने के लिए आशीर्वाद भी दिए-

यह कहि प्रीति हिय उमगाई । दिए पान किरपान बधाई

दोऊ हाथ माथ पर राखे । पूरन करौं काब अभिलाखे

हिंदुधरम जग जाइ चलावौ । दौरि दिली दल हलनि हलावौ

--(छत्र प्रकाश४४)

सिख गुरू तेगबहादुर का हिंदुत्‍व के प्रति प्रखर अभिमान

वंदनीय गुरू तेगबहादुर ने हिंदूस्‍वातंत्‍य हेतु चल रहे युद्ध में न केवल रूचि ली, बल्कि वे उसमें प्रमुख रूप से सम्मिलित भी हुए । पंजाब में संग्राम जारी रखा तथा उस युद्ध में अपने प्राणों की आहुति भी चढ़ा दी । कश्‍मीर के ब्राह्मणों पर अत्‍याचार किए जाने के पश्‍चात् जब उनसे कहा गया कि या तो मुसलमान बनो या मरने के लिए तैयार हो जाओ, तब उन्‍होंने तेगबहादुर से संपर्क किया । तेग बहादुर से उसने कहा-

तुम सुना दिजेसु ढिग तुर्केसु अबैसु इमगावो

इक पीर हमारा हिंदू भारा भाईचारा लख पावो

है तेग बहादुर जगत उजागार आगर तुर्क करो

तिसपाछे तबही हम फिर सबहि बन है तुरक भरा

(पंथ प्रकाश)

(ब्राह्मणो ! तुम्‍हें पीड़ा देनेवालों से कह दो कि हमारा एक नेता है तेग बहादुर । उसे पहले मुसलमान बना लो । बाद में हम भी मुसलमान बन जाएँगे ।)

जब देश और धर्म के शत्रुओं ने उसे चुनौती दी, तब उस वीर गुरू ने निडरतापूर्वक कहा-

तिन ते सुन श्री तेगबहादुर । धर्म निवाहन विषे बहादुर ।।

उत्तर भनयो कर्म हम हिंदू । अति प्रिय किम करे निकंहु

(सूर्य प्रकाश)

(ये शब्‍द सुनकर गुरू तेगबहादुर ने उत्तर दिया-प्राण से भी प्रिय हिंदू धम्र की अप्रतिष्‍ठा मैं नहीं कर सकता ।)

उन्‍हीं के यशस्‍वी पुत्र गुरूगोविंदसिंह, कवि, द्रष्‍टा तथा हम हिंदुओं के लिए युद्ध करने का प्रण करनेवाला योद्धा अपनी कवितामें कहता है-

सकल जगत् में खालसा पंथ गाजे

जगे हिंदुधर्म सकल भंड भाजे

(विचित्र नाटक, गुरूगोविंदसिंह कृत)

(खालसा पंथ का सर्वत्र प्रसार हो । हिंदू धर्म चिरंजित हो तथा सभी आडंबरों का नाश हो ।)

हम सभी हिंदू हैं । संपूर्ण दक्षिण प्रदेश पर यवनों का अधिकार हो चुका है । उन्‍होंने धर्मस्‍थलों को हानि पहुँचाई । हिंदू धर्म नष्‍ट किया । प्राणों की बाजी लगाकर इस धर्म की रक्षा करनी होगी । नई दौलत प्राप्‍त करनी होगी । यह करने के पश्‍चात्‍ ही अन्‍न सेवन करेंगे । 'यह मार्ग उत्तम है, परंतु इस कार्य में सफल होना अत्‍यंत कठिन है । इस कार्य हेतु प्रतिष्ठित व्‍यक्तियों की आवश्‍यकता होगी, हिंदू राजा तथा हिंदू सेनाएँ सहायता करने वि‍भिन्‍न स्‍थानों पर उपलब्‍ध होना आवश्‍यक है । ईश्‍वर की कृपा तथा सिद्ध पुरूषों के आशीर्वाद से ही यह किया जा सकेगा ।' इस प्रकार का उपदेश महाचतुर तथा विश्‍वासपात्र दादोजी ने दिया था ।

फिर भी दादोजी कोंडदेव इस प्रचंड आंदोलन का प्रमुख मार्गदर्शक था । सन् १६४६ में युवा शिवाजी ने अपने एक युवा देशप्रेमी सहकारी के नाम यह खत लिखा-

'शाह के प्रति आप लोग बेहमानी नहीं कर रहे है । मूल कुलदेवता स्‍वयंभू है, हमें उसी ने यश दिया है । भविष्‍य में हिंदवी राज्‍य की स्‍थापना के रूप में हम लोगों के मनोरथ भी पूरे होंगे । यह राज्‍य स्‍थापित किया जाए, ऐसी 'श्री' की इच्‍छा है ।'

महान् इतिहासकार श्री राजवाडे के पास इस पत्र की मूल प्रति है । उसका अवलोकन करने से हमें ऐसा प्रतीत हुआ कि इस पत्र के रूप में सत्रहवें, अठारहवें शतक में हिंदू स्‍वराज्‍य-स्‍थापना के लिए हुए आंदोलन की मूल आत्‍मा के ही दर्शन हमें हो रहे हैं ।

शिवाजी राजा का हिंदुत्‍व का आंदोलन

शिवाजी और उनके द्वारा चलाए गए राज्‍य के आंदोलन को कुचलने हेतु जब राजपूत सरदार जयसिंह ने आक्रमण किया, तब शिवाजी के प्रतिकार की उग्रता कुछ कम हो गई । हिंदुत्‍व की रक्षावाली ढाल अपने सहधर्मियों के, हिंदूधर्मीय बांधवों का रक्‍त बहाने हेतु तथा मुसलमानों को विजयी बनाने के लिए कटिबद्ध हो गई, तब प्रतीत हुआ कि यह बहुत उद्वेग बढ़ानेवाली घटना है । शिवाजी ने जयसिंह को लिखा-

'जो किले आप चाहते हैं, वे आपको सौंप दूँगा । आपका ध्‍वज भी उनपर फहराऊँगा, परंतु मुसलमानों को यश न दिलाइए । मैं हिंदू हूँ तथा आप राजपूत अर्थात् हिंदू ही हैं । यह राज्‍य मूलत: हिंदुओं का ही है । हिंदू धर्मरक्षकों के सम्‍मुख शत बार नतमस्‍तक हो सकता हूँ, परंतु जिस काम से हिंदू धर्म की अवमानना होती है, वह काम मैं कदापि नहीं करूँगा ।'

जयसिंह पर इस पत्र का निस्‍संदेह प्रभाव पड़ा । प्रत्‍युत्तर देते हुए उसने लिखा, 'औरंगजेब बादशाह पृथ्‍वीपति है । स्‍वयं की तुलना उससे मत कीजिए । शत्रुतापूर्ण व्‍यवहार से इस समस्‍या का समाधान नहीं होगा । हम हिंदू हैं तथा जयपुर नरेश भी हिंदू ही हैं । हम लोग हिंदू धर्म स्‍थापना के तुम्‍हारे कार्य के समर्थक हैं ।'

शिवाजी के नेतृत्‍व में उससे आप सुलह कर लीजिए । हिंदू सत्‍ता का उदय हुआ था । उसके कारण संपूर्ण हिंदुस्‍थान के हिंदुओं के मन में एक नया चैतन्‍य उपजा । अत्‍याचार तथा अन्‍याय से पीडि़त अभागे लोगों को शिवाजी एक उद्धारक तथा प्रति अवतारी पुरूष प्रतीत हुए । मुसलमानों की दासता के जोत के नीचे त्रस्‍त होकर छटपटा रहे सावनूर जिले के निवासियोंने उसे एक प्रार्थनापत्र प्रेषित किया 'यह यूसुफ बहुत प्रजापीड़क है । स्त्रियों तथा बालकों पर अत्‍याचार करता है । गोवध जैसे निंद्य कृत्‍य भी सतत करता रहता है । हम लोग उसके साथ रहते हुए ऊब गए हैं । आप हिंदू धर्म के संस्‍थापक तथा म्‍लेच्‍छों का नाश करनेवाले हैं । इस कारण हम लोगों ने आपसे संपर्क किया है । हम लोगों पर निगरानी रखी जाती है । वे हमारा अन्‍न-जल बंद कर हम लोगों का वध करना चाहते हैं । इसीलिए तुरंत पहुँच जाइए ।'

मुसलमानों की सत्ता भविष्‍य में स्‍वीकार नहीं करने की प्रतिज्ञा करने के पश्‍चात् शिवाजी ने तंजावुर का राज्‍य अपने भाई व्‍यंकोजी को दिया तथा वहाँ की जागीर भी उसे प्रदान की । उस समय शिवाजी ने लिखा, 'हिंदुओं का द्वेष करनेवाले दुष्‍टों को अपने राज्‍य में स्‍थान नहीं देना ।'

मराठों द्वारा की गई हिंदवी क्रां‍ति

स्‍वतंत्रता के लिए धनाजी तथा उसके भाई का कार्य सम्‍मानित करने हेतु छत्रपति राजा राम ने बहिर्जी को अत्‍यंत सम्‍मानजनक तथा प्रतिष्‍ठा देनेवाली 'हिंदूराव' उपाधि से सम्‍मानित किया । उस समय जिंजी का घेरा तोड़कर बाहर आने की इच्‍छुक मराठा सेना उसी समय मुगल सेनाधिकारियों की ओर से युद्ध करनेवाले मराठों को अपनी ओर आकर्षित करने हेतु प्रयास कर रही थी । एक उदाहरण इस प्रकार का है, 'नागोजी राजा से संपर्क किया है कि आप हम लोगों का साथ दीजिए । इससे हम लोग इस सेना को नष्ट कर सकते हैं । वहाँ के लोगों से संबंध-विच्‍छेद करो तथा हम लोगों से मिल जाओ । इसी प्रकार हम लोग हिंदू धर्म की रक्षा कर सकेंगे ।'

नागोजी राजा मुसलमानों की सेना से अलग हो गया । मोरचे उठवा लिये तथा पाँच हजार की फौज लेकर शहर में आ गया । शिर्के मुगलों के अधीन हो गए (क्‍योंकि संभाजी द्वारा उनका सत्‍यानाश किया गया था) इसी समय हम लोगों के तीन पुरूषों को मुगलों ने हाथी के पैरों तले कुचलवा दिया था, 'हम लोग हिंदुओं की दौलत के लिए युद्ध कर रहे हैं, आप भी इसके भागीदार हों ।' तब शिर्के भी मराठों से मिल गए । राजाराम शत्रु का घेरा तोड़कर निकल गया ।

शाहू तथा सवाई जयसिंह ४५ में इस बात पर विवाद हुआ कि उनमें से हिंदू धर्म की रक्षा करने हेतु किसने अधिक काम किया था । यह एक मित्रतापूर्ण विवाद था । (सरदेसाई-मध्‍य विभाग) बाजीराव तथा नाना साहेब के समय की पीढि़यों में भी इसी तरह की चुनौतीपूर्ण स्‍पर्धा थी । एक इतिहासकार लिखता है, 'बहुत से लोगों ने बाजीराव के कार्य का अनुकरण किया तथा उसे आगे बढ़ाया । ब्रह्मेंद्र स्‍वामी, गोविंद दीक्षित आदि संपूर्ण भारत की यात्रा का अनुभव प्राप्‍त करनेवाले साधु-संतों के मन में 'हिंदू पदपादशाही' की भावना उत्‍पन्‍न हो गई थी । वे सभी अपने शिष्‍य वर्ग को इसी भावना से उपदेश देते थे । बाजीराव ने स्‍वयं कहा है, 'ऐसे क्‍या देख रहे हो? जोरदार आक्रमण करते हुए आगे बढ़ो । 'हिंदू पदपादशाही' की स्‍थापना अब अधिक दूर नहीं है ।' (बाजीराव)

हिंदू पदपादशाही की धाक

उस समय के प्रमुख चिंतकों में ब्रह्मेंद्र स्‍वामी ४६ का उच्‍चतम स्‍थान था । हिंदू धर्म का समूल नाश जहाँ हो रहा है, वहाँ जाना उन्‍हें उचित प्रतीत नहीं हुआ । हिंदू साम्राज्‍य में ईश्‍वर तथा ब्राह्मणों पर अत्‍याचार किए जाने की बात कितनी लज्‍जास्‍पद है, इससे स्‍वामीजी ने शाहू को अवगत करा दिया । (सरदेसाई)

मथुराबाई ४७ ने स्‍वामीजी को लिखा है, 'शंकराजी मोहिते, गणोजी शिंदे, खंडोजी नालकर, रामाजी खराडे, कृष्‍णाजी मोड आदि सम्‍मान्‍य सरदारों ने राष्ट्र की रक्षा करते हुए शामलों (हब्शियों) को पराभूत किया तथा कोंकण में सिंधु दुर्ग पर अपना अधिकार बनाए रखा ।' मथुराबाई आंग्रे के पत्र अत्‍यंत ज्‍वलंत देशाभिमान से परिपूर्ण तथा आवेशपूर्ण हैं । महान् हिंदुस्‍थान का वास्‍तविक मर्म ज्ञात करने हेतु इन पत्रों का अवलोकन करना आवश्‍यक हो जाता है ।

पुर्तगालियों ने गोवा में धर्म की आड़ लेकर लोगों को जो कष्‍ट दिए, वह यूरोप में तेरहवीं व चौदहवीं शताब्‍दी में 'इन्क्विजिशन' ४८ नामक धर्मसंस्‍था द्वारा रोमन कैथोलिक पंथ में विश्‍वास न रखनेवाले लोगों पर किए गए घोर अत्‍याचारों के बराबर थे । जब उन्‍होंने हिंदुओं को धार्मिक आचार-विधि आदि करने पर रोक लगा दी, तब लोगों को उनके मूलभूत अधिकारों के प्रति सचेत करानेवाले अंताजी माणकेश्‍वर ने उनकी आज्ञा का स्‍वयं उल्‍लंघन तो किया ही, अन्‍य हिंदुओं को भी इसके लिए प्रेरित किया । वह यह बात भलीभाँति जानता था कि दुर्बलों द्वारा प्रतिकार किए जाने का अर्थ है दुर्बलों द्वारा भाग्‍य में लिखे हुए दु:खों को झेलते रहना तत्‍कालीन दुर्बल परिस्थिति का सामना करने के लिए किसी बाजीराव अथवा चिमाजी अप्‍पा जैसे बलवान् से सहायता प्राप्‍त करना आवश्‍यक था । हिंदुस्‍थान में पुर्तगालव्‍याप्‍त प्रदेश में क्रांति करनेवाला यदि कोई था, तो वह अंताजी माणकेश्‍वर ही था । उसने हिंदू नेताओं की सहानुभूति बाजीराव को प्राप्‍त करवा दी । उसने मराठों पर वास्‍तविक रूप से दबाव डाला । चिमाजी अप्‍पा ने निर्णायक तथा सफल युद्ध द्वारा सारा हिंदू प्रदेश मुक्‍त कराया । अंताजी तो इस सारे आंदोलन का सूत्रधार था ।

(सावरकर समग्र, खंड ७ के 'गोमांतक' नामक काव्‍य में इन घटनाओं का विवरण दिया गया है ।)

प्रथम बाजीराव पेशवा

इसी समय वसई में हार जाने के बाद नादिरशाह ने हिंदुस्‍थान पर आक्रमण किया और दिल्‍ली पर अधिकार कर लिया । बाजीराव के मराठा हस्‍तकों ने उसे लिखा, 'तहमलसपकुलीखान नामक व्‍यक्ति कोई ईश्‍वर नहीं है जो संपूर्ण विश्‍व को काटकर नष्‍ट कर देगा । जबरदस्‍ती करने पर ही वह संधि कर लेगा । अत: शक्तिशाली सेना के साथ यहाँ आ जाइए । प्रारंभ में जबरदस्‍ती और तत्‍पश्‍चात् सुलुक । यदि सारे राजपूत तथा स्‍वामी (बाजीराव) आप एक हो जाएँ तो निर्णय हो जाएगा । समस्‍त हिंदू बुंदेल आदि के एक स्‍थान पर एकत्र होने की योजना बनाना उचित होगा । नादिरशाह अब वापस नहीं जानेवाला है । वह हिंदू राज्‍य पर आक्रमण करेगा । रायाजी (सवाई जयसिंह) राणाजी को सिंहासन पर आरूढ़ कराने के पक्ष में हैं । हिंदू राजा सवाई आदि, स्‍वामीजी, आपक आक्रमण की प्रतीक्षा कर रहे हैं । स्‍वामीजी द्वारा इस बात की पुष्टि हो जाने पर जाटों की सेनाओं को दिल्‍ली की और भेजकर सवाईजी भी दिल्‍ली की ओर प्रस्‍थान करेंगे ।' (धोंड़ो गोविंद का बाजीराव के नाम पत्र)

परंतु वसई पर विजय प्राप्‍त न होने के कारण बाजीराव समय पर नहीं पहुँच सके । 'हिंदुओं के लिए बड़ा संकट उत्‍पन्‍न हो गया है । अभी तक वसई पर अधिकार करना संभव नहीं हो सका है । इसी समय समस्‍त मराठा फौजों का चमेली के पार जाना आवश्‍यक है । उसे (नादिरशाह को) इस पार नहीं आने दिया जाए, ऐसी मेरी मान्‍यता है ।' (बाजीराव का ब्रह्मेंद्र स्‍वामी के नाम पत्र)

परंतु उसका दृढ़ ह्रदय इन सभी संकटों का निवारण करने में सक्षम थात; वह लिखता है, 'हम लोगों को परस्‍पर कलहों से बचना चाहिए (रघुजी को दंडित करने का विचार), हिंदुस्‍थान के लिए अब एकमेव शत्रु उत्‍पन्‍न हुआ है । मैं नर्मदा पार करते हुए संपूर्ण मराठी सेना चंबल तक फैला दूँगा । फिर देखेंगे कि नादिरशाह किस प्रकार नीचे उतर पाएगा ।' (बाजीराव के पत्र)

सवाई जयसिंह अन्‍य नेताओं के समान ही हिंदुस्‍थान के पुनरूत्‍थान के आंदोलन का कट्टर अभिमानी था । बाजीराव को मालवा आने के लिए उसने पहल की, ताकि हिंदू स्‍वातंत्र्य संग्राम वहाँ तक पहँचाना संभव हो सके । शिवाजी महाराज की अनेक पीढि़यों के अनुयायियों ने हिंदू पदपादशाही का महान् ध्‍येय अपने सम्‍मुख रखा तथा उसका प्रचार संपूर्ण हिंदुस्‍थान में करने के लिए बाजीराव का मालवा में जाना बहुत आवश्‍यक था । यह विद्वान, स्‍वदेशाभिमानी राजपूत अपने एक पत्र में लिखता है, 'सिंधिश्री नंदलालजी प्रधान व भाईजी ठाकुर इंदौर अमर गढसु महाराजाधिराज श्री सवाई जयसिंहजी कृत प्रमाण बच जो… सो आपको लिखते हैं कि बादशाह ने चढ़ाई की है तो कुछ चिंता नहीं । श्री परमात्‍मा पार लगावेगा । बाजीराव पेशवा से हमने आपके निसबत कोल-वचन करा लिया है ।' आगे पुन: लिखता है, 'आपको जितनी शाबाशी दी जाए, कम है । सब मालवा सरदारों के एक होकर रहने से हिंदू धर्म का कल्‍याण होगा और मालवा में हिंदू धर्म की वृद्धि होगी । इस बात पर विचार कर मालवा में मुसलमानों की नौमेद कीजिए और हिंदू धर्म कायम रखें ।' (जयसिंह का पत्र, २६ अक्‍तूबर, १७२१ ख्रि.)

हिंदू स्‍वातंत्र्य का अग्रणी नेता नाना साहब

हिंदू स्‍वातंत्र्य तथा हिंदू पदपादशाही के इस महान् युद्ध में विख्‍यात होनेवाले वीरों में बाजीराव का पुत्र नानासाहब सर्वश्रेष्‍ठ अग्रगण्‍य नेता था । उसके लिखे हुए पत्र एक स्‍वतंत्र अध्‍ययन का विषय है । वह जहाँ उपस्थित रहता है, वहाँ हिंदुत्‍व का प्रचार करते हुए दिखाई देता है । ताराबाई को वह लिखता है, 'मुगल केवल हिंदू राज्‍य के शत्रु हैं, उनसे अच्‍छे संबंध बनने की संभावना उत्‍पन्‍न होने पर हम लोगों के सेवक उचित आचरण नहीं करते । यह दोष है ।' (नानासाहब के पत्र)

पानीपत की युद्धभूमि में बड़ी जन-धन की हानि हुई थी, परंतु सर्वनाश नहीं हुआ था, क्‍योंकि उस युद्ध में दो वीर बच गए थे तथा उन्‍होंने हिंदुत्‍व का कार्य सँभाल लिया था ।वे थे नाना फडनवीस तथा महादजी-हिंदू राजसत्ता की बुद्धि, तलवार तथा ढाल! न पानीपत की भीषण पराजय के पश्‍चात् भी-उस तरह का पराभव होने के कारण ही-इन दोनों ने सतत चालीस साल तक अपने विचारों तथा कृति से कठोर संग्राम जारी रखा । पानीपत में विजयी होनेवालों पर भी इतना जबरदस्‍त प्रहार हुआ था कि इसके फलस्‍वरूप हिंदू ही हिंदुस्‍थान के वास्‍तविक राजा सिद्ध हुए । इतिहास में जो सफल अपरिवर्तन हुआ था उसे स्‍पष्‍ट रूप से जान लेना राष्ट्र के विकास के कारण ही संभव था । हिंदू साम्राज्‍य के विषय में तथा हिंदुत्‍व के लिए जो विश्‍वास मन में जागा था, उसके प्रमाण उस समय के बुद्धिमान तथा राजनीतिज्ञों की रचनाओं में स्‍पष्‍ट रूप से दिखाई देता है ।

गोविंदराव काले का फडनवीस के नाम पत्र

नाना फडनवीस तथा महादजी के परस्‍पर मतभेद पूर्णतया समाप्‍त हो जाने से संपूर्ण महाराष्ट्र हर्षित हो गया, यह वार्ता पेशवा के राजदूत गोविंदराव काले के पास पहुँचते ही उन्‍होंने नानासाहब फडनवीस को एक पत्र लिखा-

'पत्र देखते ही रोमांचित हो उठा । संतुष्‍ट भी हुआ, परंतु पत्र में इसे विस्‍तारपूर्वक नहीं लिख सकता । ऐसा करने से कई ग्रंथ बन जाएँगे ! अटक नदी के इस पार से दक्षिण सागर तक हिंदुओं का प्रदेश है । तुर्कस्‍थान नहीं है । हम लोगों की ही श्रृंखला पांडवों से विक्रमादित्‍य तक रही थी । उन्‍होंने इसका उपयोग किया । उसके पश्‍चात् के राजा नादान थे । यवन प्रबल बन गए । चकतों ने (बाबर के वंशज) हस्तिनापुर पर अधिकार जमाया । अंत में आलमगीर के राज में यज्ञोपवीत पर साढ़े तीन रूपए का जजिया कर लगाया गया तथा खाद्य-पदार्थ ही खरीदने की परिस्थिति आ गई ।

'उन दिनों में शिवाजी महाराज ही धर्मरक्षक सिद्ध हुए । उन्‍होंने देश के एक भाग में धर्मरक्षण किया । तत्‍पश्‍चात् कैलाशवासी नानासाहब तथा भाऊसाहब प्रचंड सूर्य के समान अपूर्व प्रतापी हुए । यह सूत्र श्रीमान् के पुण्‍यप्रताप के कारण तथा राजेश्री पाटिलबुवा की बुद्धि तथा तलवार के पराक्रम के कारण घर में हुआ वैभव है; परंतु यह किस प्रकार संभव हुआ ? जो कुछ प्राप्‍त हुआ, उससे अधिक ही सुलभ हो गया । यदि कोई मुसलमान ऐसा करता तो उसकी बहुत प्रशंसा की जाती तथा इस घटना को ऐतिहासिक महत्‍त्‍व प्राप्‍त हो जाता । यवनों द्वारा की गई छोटी सी अच्‍छी घटना को पहाड़ समान बड़ी बताया जाता है । हम हिंदू लोग आकाश जितनी बड़ी घटनाओं का भी उल्‍लेख नहीं करते। यही हम लोगों की प्रथा है ।' अलभ्‍य घटनाएँ हुई, परंतु यह काफरशाही हुई, ऐसा यवनों को प्रतीत हुआ-

'परंतु जिन्‍होंने सिर ऊँचा करने का प्रयास किया, उनके मस्‍तक काट दिए गए । अनपेक्षित रूप से धन प्राप्‍त हुआ । उसकी व्‍यवस्‍था शककर्ता के समान करने के पश्‍चात् उसका उपभोग करना आगे की बात है । कहीं भाग्‍य साथ नहीं देगा तो कहीं किसी की शापवाणी का प्रभाव होगा । कुछ नहीं कहा जा सकता । जो कार्य हुआ है, वह केवल राज्‍य अथवा भूमि प्राप्‍त करने तक ही सीमित नहीं है । वेदशास्‍त्र रक्षण । गो-ब्राह्मण प्रतपालन, सार्वभौमत्‍व की प्राप्ति, नई कीर्ति तथा यश भी सम्मिलित हैं । इसे जतन से रखो । यह अधिकार आपका तथा पाटील बाबा का है । उसमें कुछ बाधा उत्‍पन्‍न होने से दोस्‍त दुश्‍मन बनकर बलशाली हो जाता है । संदेह दूर हो गया । यह अच्‍छी बात हुई । दुश्‍मन निकट ही विद्यमान है । इसके कारण कुछ बेचैन था । आपका पत्र पाकर चिंता दूर हो गई ।' (१७२३ ख्रि.)

इतनी सहज-सुंदर शैली में लिखा गया यह पत्र हमारे इतिहास का अंतरंग दर्शन जिस उत्‍कटता से तथा वास्‍तविक रूप से स्‍पष्‍ट करता है, उतना इतिहास के नीरस ग्रंथों में नहीं मिलता । इस लेखक द्वारा हिंदू तथा हिंदुस्‍थान-नामों की व्‍युत्‍पत्ति कितनी सहजता से दी गई है ! हमारी आखिरी पीढ़ी के पूर्वज भी हिंदू तथा हिंदुस्‍थान-नामों से कितना प्रेम करते थे । कितना भक्तिभाव था, नामों से वे कितने एकरूप हो चुके थे, इन बातों को यह पत्र बड़ी हार्दिक भावना से प्रकट करता है । इसे सिद्ध करने के लिए अन्‍य प्रमाणों की आवश्‍यकता नहीं है ।

'हिंदू' नाम मुसलमानों ने द्वेषपूर्वक दिया है : इस धारणा के लिए कोई आधार नहीं है

हमने अभी तक प्राचीन वैदिक काल से लेकर हिंदू साम्राज्‍य के सन् १८१८ के अंत तक हिंदू तथा हिंदुस्‍थान नामों के इतिहास के सभी अध्‍यायों की क्रमबद्ध जानकारी प्राप्‍त करने का प्रयास किया है । इसके पश्‍चात् हिंदुत्‍व के प्रमुखतम अभिलक्षण नि‍श्चित करने का जो प्रमुख उद्देश है, उसपर ध्‍यान केंद्रित करना होगा । इस कार्य हेतु योग्‍य भूमिका बन गई है । हमारे इस अनुसंधान के प्रारंभ में ही यह निश्चित रूप से ज्ञात हुआ कि हमारे विद्वान्, परंतु अधीर लोगोंकेमन में एक संदेह दृढ़ हो चुका है कि मुसलमानों ने द्वेषपूर्ण भावना से ही हम लोगों को 'हिंदू' नाम दिया है । इस संदेह का संपूर्ण खंडन अब हो चुका है । इस नाम के इतिहास पर इतने समग्र रूप से लिखने के पश्‍चात् यह संदेह बचकाना लगता है; उनका केवल निर्देश करना ही उसका खंडन करने के बराबर है । मोहम्‍मद के जन्‍म से बहुत वर्ष पूर्व तथा अरब राष्‍ट्रों के बारे में विश्‍व के लोगों को किसी प्रकार की जानकारी होने के कई शतक पूर्व इस प्राचीन राष्ट्र को हम लोग तथा अखिल विश्‍व 'सिंधु' अथवा 'हिंदू' नाम से ही जानते थे । जिस प्रकार सिंधु नहीं की खोज करना अरबों के लिए संभव नहीं हुआ, उसी प्रकार सिंधु नाम की खोज करना भी उनके लिए संभव नहीं था । ईरानी, यहूदी तथा अन्‍य लोगों के माध्‍यम से ही अरब इस नाम से परिचित हुए । इतिहास के प्रमाणों द्वारा इस बात का खंडन करने का प्रयास हम छोड़ भी दें, तब भी; यदि यह नाम हमें शत्रुओं द्वारा तिरस्‍कार से दिया हुआ नाम है, जैसा कि कुछ लोगों का विचार है, तब हम लोगों के जातीय सर्वश्रेष्‍ठ तथा पराक्रमी व्‍यक्ति क्‍या भूलवश भी उसे स्‍वीकार करते ? यह धारणा भी मिथ्‍या है कि हम लोगों के पूर्वज अरबीया पर्शियन भाषा से अवगत नहीं थे । मुसलमान हम लोगों को काफिर नाम से संबोंधित करते थे । इस कारण क्‍या हम लोगों ने इस नाम को स्‍वीकारते हुए क्‍या उसे अपना वैशिष्‍ट्यपूर्ण संबोधन कहा था ? अत: हिंदू अथवा हिंदुस्‍थान शब्‍दों से जिस अपमान का बोध होता था, उसे हम लोग क्‍यों सहते रहें ? इसका एक कारण यह भी है कि वे लोग हम लोगों की अपमान-परंपरा से पूरी तरह परिचित थे । हम लोगों में बहुत से लोग ऐसे भी हैं, जो राष्‍ट्रीय कारणों से कहते हैं कि हिंदू शब्‍द संस्‍कृत भाषा का शब्‍द नहीं है, परंतु इस शब्‍द की यह विशेषता नहीं है । संस्‍कृत वाड्मय में किशन, बनारस, मराठा, सिख, गुजरात, पटना, सिया, जमना आदि रोज के व्‍यवहार में प्रयोग किए जानेवाले शब्‍द भी तो नहीं हैं । अन्‍य सैकड़ों शब्‍दों को भी संस्‍कृत भाषा में स्‍थान नहीं है । इस कारण क्‍या ऐसा समझ लेना होगा कि ये शब्‍द अन्‍य पराई भाषा के शब्‍द हैं ? बनारस शब्‍द संस्‍कृत भाषा में नहीं है । परंतु प्राकृत भाषा के स शब्‍द का वाराणसी पर्यायवाची शब्‍द संस्‍कृत भाषा में है ।अत: बनारस मान्‍यता प्राप्‍त शब्‍द है-ऐसा कहना उचित होगा। संस्‍कृत भाषा में प्राकृत शब्‍दों की खोज करना बहुत हास्‍यास्‍पद प्रतीत होता है । हिंदू शब्‍द संस्‍कृत के किसी शब्‍द का प्राकृत रूप है । यह सच है, परंतु यह प्राकृत रूप भी यदाकदा संस्‍कृत वाड्मय में दिखाई देता है । इससे वह प्राकृत शब्‍द कितना महत्‍त्‍वपूर्ण है-यह बात प्रमाणित हो जाती है । उदाहरणार्थ-मेरू तंत्र में 'हिंदू' शब्‍द का प्रयोग हुआ है । महाराष्ट्र के आपटे तथा बंगाल के तर्क वाचस्‍पति जैसे दो विख्‍यात कोशकारों ने इस शब्‍द को अपने कोशों में स्‍थान दिया है, 'शिव-शिव न हिंदुर्न यवन:' इस उक्ति से हम लोगों का परिचय इतना निकट का है कि इसे उभ्‍दृत करना आवश्‍यक नहीं है ।

'सप्‍तसिंधु' 'हप्‍तसिंधु' का ही रूपांतर है

यह भी संभव है कि मुसलमानों की भाषा से प्रभावित फारसी भाषा में 'हिंदू' शब्‍द के साथ तिरस्‍कार की कोई भावना जुड़ गई हो, परंतु इस बात से यह कदापि प्रमाणित नहीं हो सकता कि हिंदू शब्‍द का मूल अर्थ कोई तुच्‍छतापूर्ण तथा -'काला' शब्‍द है । फारसी भाषा में हिंदी अथवा हिंदी शब्‍दों का प्रयोग होता है, परंतु इसका अर्थ 'काला आदमी' होता है, इसका कोई प्रमाण प्राप्‍त नहीं होता । सभी लोगों को ज्ञात है कि ये शब्‍द 'हिंदू' शब्‍द के साथ सिंधु अथवा सिंध इन संस्‍कृत शब्‍दों में उत्‍पन्‍न हुए हैं, यह मान भी लिया जाय कि सिंधु शब्‍द का प्रयोग करना हम लोगों के काले होने से संबंधित है, तब भी हिंदू अथवा हिंदी शब्‍दों का अर्थ 'काला आदमी' ने होते हुए भी उनका प्रयोग हमें संबोधित करने हेतु किया जाता है । 'हिंदू' शब्‍द मुसलमानों की भाषा से प्रभावित फारसी भाषा से उत्‍पन्‍न नहीं हुआ है । ईरान की प्राचीन भाषा के झेंद अवेस्‍ता के छेद से उपजे 'हप्‍त सिंधु' का अर्थ केवल सप्‍तसिंधु ही दिया गया है । हम लोग काले हैं, इस एकमात्र कारण से हम लोगों को यह नाम प्राप्‍त हुआ है, यह बात कदापि संभव नहीं है । इसका एक सीधा सा कारण है, अवेस्‍ताकालीन हिंदू प्राचीन काल से सप्‍तसिंधु उस समय आर्यावर्त के लोगों के समान ही सुंदर थे तथा उनके पड़ोस में ही रहते थे । कभी-कभी उनके साथ भी ख्रिस्‍त काल के प्रारंभ में हम लोगों के सीमा प्रदेश को पर्शियन लोग 'श्‍वेत भारत' कहते थे । इससे यह स्‍पष्‍ट हो जाता है कि 'हिंदू' शब्‍द का 'काला' अर्थ तो किसी समय भी नहीं किया जाता था ।

इस कारण क्‍या 'हिंदू' नाम हम लोगों को त्‍याग देना चाहिए ?

वस्‍तुत: जब मुसलमान अथवा मुसलमानी संस्‍कारों से प्रभावित फारसी शब्‍दों का अस्तित्‍व भी नहीं था, तब से हिंदू अथवा हिंदुस्‍थान नाम हम लोगों की भूमि तथा राष्ट्र के लिए स्‍वाभिमान से तथा गौरवपूर्ण उल्‍लेख करने हेतु प्रयोग किए जा रहे हैं । यह बात पूर्व में दिए हुए विवेचन से भी सिद्ध हो चुकी है । इसी कारण 'हिंदू' नाम की महती तथा हम लोगों के मन में विद्यमान भक्तिभाव का विचार करते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि यदि कुछ अविवेकी लोग इस नाम से कुछ भले बुरे अर्थ जोड़ देते हैं, तब उन्हें विशेष महत्त्व न देकर इस बात पर विचार करने की कुछ भी आवश्यकता नहीं है। किसी समय प्रत्यक्ष इंग्लैंड में अधिकार करनेवाले नॉर्मल लोगों ने 'इंग्लैंड' शब्द को समझना प्रारंभ किया तथा परस्पर दोषारोपण करते समय इसी शब्द का प्रयोग किया जाता, 'मैं क्या इंग्लिश बन जाऊँ ?' ऐसा कहना स्वयं की भयंकर अप्रतिष्ठा करना माना जाता। किसी नॉर्मन व्यक्ति को 'इंग्लिश' नाम से संबोधित किया जाना एक अक्षम्य अपराध था। इसीलिए क्या भूमिका तथा राष्ट्र का नाम परिवर्तित कर नॉमर्ल करने का विचार इंग्लैंड के निवासियों के मन में आया था? भूलकर भी वह नहीं आया होगा अथवा ऐसा करने से क्या वे तत्काल महत्त्वपूर्ण बन जाते ?

उन्होंने दृढ़तापूर्वक अपने नाम तथा वंश के नाम का त्याग नहीं किया। उस समय के तिरस्कृत इंग्लिश लोग तथा उनकी भाषा विश्व के अभूतपूर्व विशाल साम्राज्य के स्वामी बन गए; परंतु इंग्लिश साम्राज्य-वैभव इतना आश्‍चर्यजनक होते हुए भी हिंदू जगत् के अपार वैभव की तुलना करने योग्य इंग्लैंड के पास कुछ भी नहीं था।

हिंदू नाम विश्व के लिए अभिमान का द्योतक है

जब दो राष्ट्रों के परस्पर संबंधों में कुछ विसंगति उत्पन्न हो जाती है, तब वे अपना संतुलन खोकर अनियंत्रित हो जाते हैं। पारसी तथा अन्य कुछ लोग कुछ समय पूर्व यदि हिंदू शब्द 'चोर' अथवा 'काला आदमी'- इसके अर्थ में प्रयोगकरते होंगे तो उन्हें इस बात का स्मरण रखना आवश्यक है कि हिंदू लोग भी 'मुसलमान' शब्द का प्रयोग किसी उच्च समझे जानेवाले व्यक्ति के लिए नहीं करते थे। किसे 'मुसलमान' अथवा 'मुसंडा' कहा जाता है, यदि ऐसा समझा जाता कि उसे पशु मानना भी इससे अधिक अच्छा था। जब आपस में प्राणांतक संग्राम होते हैं, जब क्षुब्ध तथा पाशवी क्रोध की ज्वालाएँ प्रज्वलित होती हैं, तब इस प्रकार के मर्मभेदी तथा कटु अपशब्दों का प्रयोग करते हुए परस्परों पर दोषारोपण करना अपरिहार्य हो जाता है और उस समय यह उचित भी प्रतीत होता है; परंतु जब लोग इस पागलपन से मुक्त होकर पुनः अपनी चेतना प्राप्त कर लेते हैं, तब स्वयं को भले मानव कहलाते हुए इस प्रकार के अपशब्दों को तथा परस्परों पर किए गए दोषारोपणों का विस्मरण कर लेना ही उचित मानते हैं। हम लोगों को इस बात का भी स्‍मरण रखना चाहिए कि प्राचीन ज्यू लोग 'हिंदू' शब्द का प्रयोग सामर्थ्य तथा उत्साह के लिए करते थे, क्योंकि ये गुण हम लोगों की भूमि तथा राष्ट्र के ही गुण हैं। 'सो हाब मो अलक्क' नामक अरबी महाकाव्य में कहा गया है कि अपने ही रक्त के लोगों द्वारा किए गए अत्याचार हिंदुओं के खड्ग से भी अधिक कष्टप्रद तथा वेदनामय होते हैं, 'हिंदुओं के शब्दों में उत्तर देना' यह कहावत ईरान में रूढ़ हो चुकी है। 'हिंदू खड्ग से प्रबल तथा गहरा प्रहार करना यही अर्थ इस कहावत में अभिप्रेत है। प्राचीन बैबिलोनियत लोग अत्युत्तम कपड़े को 'सिंधु' नाम से ही जानते थे। बैबिलोनियत लोग इस शब्द को राष्ट्रीयवाचक अर्थ के अतिरिक्त अन्य अर्थों में भी प्रयोग करते थे, इससे हम अनभिज्ञ थे।

चीनी लोगों को'हिंदू' 'इंदु'के समान ही प्रिय थे

हमारे अत्यंत प्राचीन पड़ोसी चीन राष्ट्र के विख्यात यात्री ह्वेनसांग ने 'हिंदुस्थान' का जो हर्षजनक अर्थ दिया है, उसे सुनकर कोई भी हिंदू गौरवान्वित होगा। उसके अनुसार संस्कृत भाषा का 'इंदु' शब्द हम लोगों को राष्ट्रीय संबोधन हिंदू से सर्वथा एक रूप है। इस कथन की पुष्टि करने हेतु वह कहता है कि विश्व द्वारा इस राष्ट्र को दिया गया 'हिंदू' नाम यथार्थ है। हिंदू तथा उनकी संस्कृति मानव के निराशा तथा निरुत्साही आत्मा को शीतल चंद्रप्रकाश के समान सदैव आनंद तथा उत्साह का स्रोत बनी हुई है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि लोगों के मन में अपने नाम के प्रति आदर उत्पन्न हो जाता है, लोगों के मन में अपने नाम के प्रति आदर उत्पन्न करने का मार्ग उस नाम को त्याग देना अथवा परिवर्तित करने का नहीं है, अपितु अपने पराक्रमी बाहुबल से अपने ध्येय की शुद्ध सात्त्विकता से तथा अपने उच्च आध्यात्मिक पद से उन्हें यह नाम स्वीकारने हेतु बाध्य करना ही उचित मार्ग है। हम कोशों के कुछ बांधवों को 'हिंदू' के स्थान पर 'आर्य' कहलाने की स्वतंत्रता जनगणना के समय दी भी गई, तब भी जब तक हम लोगों को पूर्व वैभव तथा बल प्राप्त नहीं होता, तब तक ऐसा नहीं करना चाहिए। ऐसा करने पर आर्य शब्द का स्तर नीचे आ जाएगा तथा 'गुलाम' और 'मजदूर' शब्दों के समान अर्थ के एक शब्द की वृद्धि शब्दकोश में हो जाएगी।

नाम बदलने का मूर्खतापूर्ण प्रयास

हिंदू तथा हिंदुस्थान नामों को त्याग देने की अप्रासंगिक सूचना पर गंभीरतापूर्वक कोई उत्तर देने का प्रयास न करते हुए 'हिंदू' नाम परदेसियों की द्वेषवृद्धि से ही उपजा है- इस बचकानी उपपत्ति को मान भी लिया जाए, तब भी हम यह पूछ सकते हैं कि इन नामों को त्यागकर दूसरा कौन सा नाम प्रचलित करना हमारे लिए संभव होगा? आज की स्थिति में 'हिंदू' नाम हम लोगों की जाति का ध्वजचिह्न बन चुका है। कश्मीर से कन्याकुमारी पर्यंत और अटक से कटक तक हम लोगों की जाति की एकता प्रस्थापित कर उसे चिरंतन बनाने की दृष्टि से भी इस नाम को एक विशेषता प्राप्त हो चुकी है। जिस सहजता से कोई अपनी टोपी बदल लेता है, उसी सहजता से क्या हम लोग इस नाम को बदल सकेंगे? एक बार किसी सुबुद्ध तथा स्वदेश प्रेमी व्यक्ति ने जनगणना के समय खुद को हिंदू न बताते हुए आर्यन कहा, क्योंकि ईरानी मुसलमान हम लोगों को द्वेषबुद्धि से 'हिंदू' कहते हैं तथा इस शब्द का अर्थ 'चोर' अथवा 'काला आदमी' होता है-ऐसा इस प्रचलित, परंतु असत्य धारणा का शिकार वह हो चुका था। समय की कमी होने के कारण हमने इस नाम की उत्पत्ति के बारे में कुछ भी नहीं कहा, परंतु उससे केवल इतना ही पूछा कि उसका नाम क्या है ? उसने कहा, 'तख्तसिंह'। हिंदू नाम की उपपत्ति पर कितनी ही मतभिन्नता क्यों न हो, परंतु तुम्हारा यह निर्विवाद रूप से एक भ्रष्ट नाम है। मिश्र धर्मीय भी हैं और वह इस प्रकार का होने के कारण उसे बदलकर उसके स्थान पर 'मौद्रलायन' अथवा 'सिंहासनसिंह' जैसा कोई प्राचीन तथा शुद्ध आर्यन नाम पंजीकृत कराना आवश्यक है। प्रारंभ में मूल विषय पर ध्यान न देते हुए इस प्रयोग से उसकी आर्थिक स्थिति किस प्रकार प्रभावित होगी तथा ऐसा करना कितना कठिन है, यह बताना उसने प्रारंभ किया। तत्पश्‍चात् उसने कहा, 'इस नए नाम को अन्य लोग मान्यता देंगे- यह कहना संभव नहीं है, और जब अन्य लोग मुझे तख्तसिंह नाम से ही जानते हैं, तब स्वयं को 'सिंहासन सिंह' कहलानेवाले का घातक प्रयोग करने से विशेष क्या प्राप्त होगा?' हमने तत्काल कहा-'हे भले आदमी! निर्विवाद रूप से जो पराया है, वह तुम्हारा, अर्थात् एक ही व्यक्ति का नाम बदलना तुम्हें इतना कठिन प्रतीत हो रहा है तब किसी विदेशी व्यक्ति द्वारा भी जिसकी खोज नहीं की गई है तथा जिसके लिए हम लोगों में वेदों जैसा ही अपनत्व है, वह हम लोगों को संपूर्ण जाति का नाम बदलना कितना कठिन है ? वह प्रयास कितना अर्थहीन है ? प्राचीन समय से बद्धमूल बना हुआ नाम परिवर्तित करना किस प्रकार का व्यर्थ प्रयास है, इसे स्पष्ट करनेवाला तथा इस व्यक्तिगत उदाहरण से भिन्न तथा बड़ा उदाहरण है पंजाब के सिख बंधुओं का धर्म चलानन संत उबारण, दुष्ट दैत्व के मूल उपाटन यहिकाज धरा में जननम् समझ नेहु साधुक्षम ममनम् ॥' (परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृतां । धर्म संस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे) यह आवश्यक तथा महत्त्वपूर्ण ध्येय पर दृष्टि रखते हुए 'नील वस्त्र के कपड़े फाड़े तुरक पाणी अमल गया' ऐसी विजयी घोषणा करते हुए हमारे उस महान् गुरु ने हिंदुओं के सर्वश्रेष्ठ तथा सर्वोत्तम वीरों की एक स्वतंत्र जाति, एक स्वतंत्र पंथ स्थापित किया, वही 'खालसा' पंथ कहलाता है। 'क्षत्रियाहि धर्म छोडिया म्लेच्छ भाषा गही। सृष्टि सब इत्रवर्ण धर्म की गति रही। ऐसा कहते हुए वह परम साधु नानक शोक से व्याकुल हो गया। उसे ही आज 'वाह गुरुजी की फतह', 'वाह गुरुजी का खालास' ऐसी घोषणाओं के साथ वंदन किया जाता है। दरबार, दिवाण, बहादुर-ये शब्द तो चोरी-छिपे हम लोगों के हरिमंदिर के तक पहुँच गए हैं। हम लोगों के पुराने घाव ठीक हो चुके हैं, परंतु उनके चिह्न शरीर पर दिखाई देते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि ये हमारे शरीर के अंग ही हैं। उन्हें रगड़कर मिटा देने से लाभ होने की संभावना नहीं है। ऐसा करने पर हानि ही अधिक होगी। उन्हें इसी प्रकार सहने का काम हम लोग कर सकते हैं। हम लोगों ने अत्यंत परिश्रमपूर्वक जो संग्राम किया है, ये चिह्न उसमें लगे घावों के हैं।

'हिंदू'तथा'हिंदुस्थान'नामों की परंपरा

यदि कोई शब्द, चाहे वह कितनी भी पवित्र वस्तु से जुड़ा क्यों न हो - बदलना अथवा उनका त्याग करना आवश्यक होता है, तो वे शब्द 'तख्तसिंह' जैसे शब्द ही हैं। वे निर्विवाद रूप से पराए हैं तथा दूसरों की सत्ता के अवशेष हैं। विश्व प्राचीनतम वाड्मय से, अर्थात् वेदों में हम लोगों की जाति के लिए तथा राष्ट्र के लिए 'हिंदू' एवं 'हिंदुस्थान' इन्हीं मूल नामों का प्रयोग किया गया है। जिन लोगों ने इन्हीं नामों को धारण किया तथा उनके लिए प्रेम भावना भी प्रदर्शित की, उन्हीं लोगों ने इन नामों का विरोध करते हुए उन्हें त्याग देना चाहिए कहा, क्या यह विश्वास के योग्य आचरण है? यही नाम सिंधु के दोनों तटों पर निवास करनेवाले हमारे देश बांधवों ने लगभग चालीस शतकों तक बड़े अभिमानपूर्वक धारण किए थे। कश्मीर से कन्याकुमारी तक का तथा अटक से कटक पर्यंत का प्रदेश इसी नाम से ज्ञात था। सिंधुओं की अथवा हिंदुओं की जाति तथा भूमि की भौगोलिक मर्यादा इसी नाम से संचलित भी थी तथा 'राष्टमार्यस्य चोत्तमम्' के अनुसार हम लोगों को सबसे भिन्न प्रकार से स्वतंत्र पहचान प्रदान करनेवाले नाम भी यही थे। इन्हीं नामों के कारण शत्रुओं के मन में हम लोगों के लिए द्वेषभाव विद्यमान था और इन्हीं नामों के लिए शालिवाहन49से लेकर शिवाजी महाराज तक हजारों वीर युद्ध में कूद पड़े तथा उन्होंने शतकों तक इन युद्धों को जारी रखा। यही नाम पद्मिनी तथा चित्तौड़ की चिता भस्म पर प्रकट हुए थे। तुलसीदास, तुकाराम, रामदास तथा रामकृष्ण 50 आदि को इसी हिंदू शब्द पर अभिमान था हिंदू पदपादशाही ही गुरु रामदास का स्वप्न था। शिवाजी का वह जीवन कार्य बन गया। बाजीराव तथा बंदा बहादुर, छत्रसाल और नानासाहब, प्रताप और प्रतापादित्य 51 आदि सभी की ध्येय-आकांक्षाओं का वह अचल लक्ष्य था। जिस ध्वज पर ये शब्द अंकित थे, उस ध्वज की रक्षा करने के लिए हाथों में खड्ग लेकर हजारों हिंदुओं ने भीषण संग्राम किए। पानीपत की युद्धभूमि पर उन्हें वीरोचित मृत्यु प्राप्त हुई। इतने बलिदान तथा संहार के पश्‍चात् अथवा इसी के कारण हिंदू पदपादशाही के लिए नाना और महादजी ने अपने राष्ट्र की नाव चट्टानों से तथा गहरे पानी से बचाते हुए इच्छित स्थान तक सुरक्षित पहुँचाई। नेपाल के सिंहासन पर आसीन सम्राट् से लेकर हाथों में भिक्षापात्र लेकर भीख माँगनेवाले भिखारी तक लक्षावधि लोग इसी हिंदू अथवा हिंदुस्थान नाम के प्रति अपना भक्तिभाव तथा निष्ठा प्रेमपूर्वक अर्पण करते रहे हैं। इन्हीं नामों का त्याग करना, हमारे राष्ट्र का हृदय ही विदीर्ण करने के समान होगा। परंतु तुम ऐसा करने से पूर्व ही निश्चित रूप से मृत हो जाओगे। यह कृत्य न केवल तुम्हारे किए मारक सिद्ध होगा बल्कि वह अर्थहीन भी समझा जाएगा। हिंदू तथा हिंदुस्थान नामों को विस्थापित करना, हिमालय को उसके मूल स्थान से हटाने का प्रयास करने के समान है! भयंकर घटनाएँ तथा उथल-पुथल करनेवाला कोई भूकंप ही यह काम करने की सामर्थ्य रखता है।

'हिंदुइज्म'शब्द के कारण उत्पन्न अस्तव्यस्तता

हिंदू तथा हिंदुस्थान- ये विदेशियों द्वारा हमें दिए गए नाम हैं, ऐसा सोचकर इन नामों पर जो आक्षेप किए जाते हैं, उनका खंडन कुछ अप्रिय ऐतिहासिक प्रमाण प्रस्तुत करने से किया जाना बहुत सहज है। परंतु आक्षेप करनेवालों के मन में भय रहने के कारण ही ऐसा किया जाता है। वे लोग सोचते हैं कि यदि उन्होंने इस नाम को स्वीकार किया, तो हिंदू धर्म इस नाम से जिन आचारों-विचारों का बोध होता है, वे सभी उन्हें स्वीकार्य है, ऐसा माना जाएगा। हिंदू कहलाने वाला प्रत्येक व्यक्ति तथाकथित हिंदू धर्म पर विश्वास करता होगा, इसी भय के कारण (यह भय स्पष्ट रूप से कभी प्रकट नहीं किया जाता) ये नाम पराए लोगों द्वारा नहीं दिए गए हैं। इस वास्तविकता को वे स्वीकार नहीं करते। इस प्रकार का भय सर्वथा काल्पनिक नहीं होता है। परंतु जो स्वयं को हिंदू नहीं कहलाना चाहते, उन लोगों को इस भय को स्पष्ट शब्दों में प्रकट करना चाहिए। संभ्रम उत्पन्न करनेवाले आक्षेपों में इसे छिपाने का प्रयास नहीं करना चाहिए। इससे आपके विचार अधिक स्पष्ट हो जाएँगे। हिंदुत्व तथा हिंदू धर्म-इन शब्दों में दिखाई देनेवाली समानता के कारण हम लोगों के अच्छे-अच्छे विद्वान् हिंदू बांधवों के मन में भी अलगाववादी भावनाएँ उत्पन्न होती हैं। इन दो शब्दों का मूलभूत भेद हम शीघ्र ही स्पष्ट करनेवाले हैं। यहाँ एक बात स्पष्ट रूप से कहनी होगी कि विदेशियों द्वारा जिस शब्द का प्रयोग किया जाता है, वह शब्द है 'हिंदुइजम' (हिंदू धर्म इस अर्थ से), परंतु इस संबोधन के कारण हम लोगों के विचारों में गड़बड़ी उत्पन्न होने का कोई कारण नहीं दिखाई देता स्वतंत्र धर्म ग्रंथ के रूप में वेदों को भी न माननेवाला व्यक्ति भी पूर्णतः हिंदू हो सकता है। जैन लोगों का उदाहरण इस बात का पर्याप्त प्रमाण है। ये जैन बांधव पीढ़ी-दर पीढ़ी स्वयं को हिंदू कहलाते हैं तथा दूसरे किसी भी नाम से संबोधित किए जाने पर उनकी भावनाओं को दुःख पहुंचता है। यह बात केवल एक वास्तविकता होने के कारण यहाँ प्रस्तुत की गई है। इस विषय की संपूर्ण छानबीन करने के पश्‍चात् हमारे कथन का निष्कर्ष क्या है, इसे ज्ञात करते समय किसी प्रकार का पूर्वग्रहदूषित भय नहीं होना चाहिए। अभी तक के विवेचन में हमने किसी एक विशिष्टइज्म का (धर्म) का) विचार नहीं किया है। केवल हिंदुत्व और उसके राष्ट्रीय, जातीय तथा सांस्कृतिक अंगों का विचार हमारे ही विवेचन का प्रमुख विषय था।

हिंदुस्थान अर्थात् हिंदुओं का स्थान

हम अब इस स्थिति में पहुँच गए हैं कि किसी भी मानवी भाषा को अज्ञात, ऐसे एक अत्यधिक व्यापक तथा अत्यंत गूढ़ विचार-परंपरा की समग्र एवं विस्तारपूर्वक चर्चा हम कर सकते हैं । हिंदुत्व शब्द हिंदू शब्द से ही बना है । यह हम देख चुके हैं । हम इससे पूर्व यह भी ज्ञात कर चुके हैं कि हमारे सर्वाधिक पवित्र तथा प्राचीन वाड्मय में सप्तसिंधु अथवा हप्तसिंधु नाम उसी भूमि को दिया गया है जहाँ वैदिक राष्ट्र का उत्कर्ष हुआ था। यह मूल भौगोलिक कल्पना कम या अधिक प्रमाण में, परंतु अविरत रूप से हिंदू तथा हिंदुस्थान शब्दों से ही जुड़ी रही। अब लगभग चार हजार वर्षों के पश्‍चात् हिंदुस्थान का अर्थ सिंधु से सागर तक का संपूर्ण भूखंड इस प्रकार हो गया है। कैसे भी लोगों के समाज में परस्पर प्रेम, सामर्थ्य तथा एकता निर्माण करने हेतु दो महत्त्वपूर्ण बातों का योगदान रहता है-एक है, लोगों की अखंड प्रदेश की तथा स्पष्ट बाह्य सीमा रेखाओं से अपना स्वतंत्र अस्तित्व स्थापित करनेवाली निवसनभूमि दूसरी है, वह 'नाम' जिसका उच्चारण करते ही हम लोगों की ऐतिहासिक काल की मधुर स्मृतियाँ हमारे मन में उपजती हैं तथा अपनी प्रियतम मातृभूमि की मूर्ति साकार हो जाती है। सौभाग्यवश हम लोगों को वे दोनों आवश्यक बातें अनायास ही प्राप्त हो गई हैं। हम लोगों का यह देश इतना विस्तृत होते हुए भी इतना जुड़ा हुआ है कि स्वतंत्र भौगोलिक अस्तित्व की दृष्टि से अन्य प्रदेशों की अपेक्षा सुस्पष्ट सीमाओं से अलग होने के कारण सुरक्षित है। प्रकृति ने अपनी दिव्य अंगुलियों से विश्व के किसी अन्य देश की सीमाएँ इस प्रकार रेखांकित नहीं की हैं। इन सीमाओं के कारण स्वतंत्र अस्तित्व पर कोई संदेह नहीं कर सकता। हिंदू अथवा हिंदुस्थान-नाम प्राप्त होने का भी यही कारण है। इस नाम का उच्चारण करते ही हमारी मातृभूमि की मूर्ति ही हम लोगों के मनःचक्षुओं के सम्मुख आ जाती है। तत्पश्चात् जब उसके भौगोलिक तथा भौतिक स्वरूप का विचार हम लोगों के मन में उठता है तब उसका स्वंतत्र, सजीव अस्तित्व ही हम लोगों को प्रतीत होता है। हिंदुओं का स्थान होने का प्रथम आवश्यक लक्षण भौगोलिक स्थिति ही है। हिंदू प्रथम स्वयं अथवा अपनी पितृ-परंपरा से हिंदुस्थान का नागरिक होता है। इस भूमि को वह अपनी मातृभूमि मानता है। अमेरिका में अथवा फ्रांस में हिंदू शब्द का अर्थ यही है। किसी विशिष्ट धर्म का अथवा संस्कृति से संबंधित न रहते हुए सर्व सामान्य हिंदी-यही अर्थ वहाँ प्रचलित है। यदि सिंधु शब्द से उत्पन्न हुए अन्य शब्दों के समान हिंदू का मूल अर्थ भी यही किया जाता तो हिंदी शब्द जैसा ही उसका अर्थ भी केवल हिंदुस्थान का नागरिक-यही होता।

हिंदुत्व का प्रथम आवश्यक अभिलक्षण

हमने अपना संपूर्ण ध्यान 'अभी क्या हो रहा है' इसी बात की ओर लगाया है, परंतु 'क्या होना संभव था' अथवा 'क्या होना चाहिए' इन बातों का विचार नहीं किया है। इसका अर्थ यह है कि 'क्या होना चाहिए' इसपर चर्चा करना आवश्यक नहीं है, ऐसा कहना उचित नहीं होगा। ऐसी चर्चा स्फूर्तिदायक भी होती है। परंतु इसे और अच्छी तरह से समझने हेतु प्रारंभ में 'क्या हो रहा है' इसका निश्चित रूप से विचार करना आवश्यक हो जाता है। अतः हिंदुत्व के प्रमुख तथा आवश्यक के अभिलक्षण निश्चित करते समय हम लोगों ने वर्तमान समय में इन शब्दों द्वारा प्रत्यक्ष रूप से प्रकट होनेवाली बातों का ही विचार करने की दक्षता हासिल करना आवश्यक हो जाता है। हिंदू शब्द का मूल अर्थ इसी अर्थ के दूसरे शब्द हिंदी के समान केवल 'हिंदुस्थान में निवास करनेवाले इस प्रकार ही किया जाएगा तथा इसी आधार पर हिंदुस्थानवासी किसी मुसलमान को हिंदी कहना प्रारंभ किया तो शब्दों के काम चलाऊ व्यावहारिक अर्थों की इतनी खींचातानी करनी होगी कि हमें भय लगता है कि इन अर्थों से अनर्थ उत्पन्न हो जाएगा। हिंदू हिंदुस्थान का एकमेव है; अन्य कोई भी नहीं है। ऐसी स्थिति उत्पन्न नहीं होगी, ऐसा नहीं कहा जा सकता। परंतु यह तभी संभव होगा जब आक्रमण तथा स्वार्थी प्रवृत्तियों को बढ़ावा देनेवाले जातीय तथा सांस्कृतिक दुराभिमान नष्ट हो जाएँगे तथा सारे धर्म अपनी क्षुद्रता त्यागकर विश्व के आधारभूत सनातन तत्त्वों तथा विचारों का एक जागतिक मंच स्थापित करेंगे। इस संपूर्ण मानव परिवार को एक ही शासन के आधीन रहते हुए वैभवपूर्ण जीवन व्यतीत करने के लिए इसी प्रकार के भेद रहित दृढ़ आधार की आवश्यकता है। परंतु इस सत्य स्थिति की ओर ध्यान न देना मूर्खतापूर्ण आचरण होगा, क्योंकि बहुत आतुरता तथा अपेक्षा से इस घटना की ओर संपूर्ण विश्व ध्यानपूर्वक देख रहा है। मूल प्रवृत्ति से ही जो विचार युद्ध घोषणाओं में परिवर्तित होते हैं, उन आग्रही मतों का जब तक अन्य धर्मों के अनुयायी त्याग नहीं करते, तब तक सांस्कृतिक तथा जातीय दृष्टि से समान घटकों ने जिस नाम और ध्वज से अपार शक्ति एवं सार्थक ऐक्य का लाभ होता है उस नाम तथा ध्वज को अस्थिर करना उचित नहीं होगा। कोई अमेरिकी भविष्य में हिंदुस्थान का नागरिक बन जाने पर तथा यदि वह वास्तविक अर्थ में नागरिक बन जाता है, तब उसे भारतीय अथवा हिंदी समझकर ही उससे उसी प्रकार का व्यवहार किया जाएगा। परंतु जब तक हम लोगों के देश के साथ हम लोगों की सांस्कृतिक तथा आर्थिक परंपरा वह स्वीकार नहीं करता, जब तक रक्त-संबंधों से वह हमसे एकरूप नहीं होता तथा हम लोगों की भूमि उसके केवल प्रेम का ही नहीं, उसकी नितांत भक्ति का विषय नहीं बन जाती, तब तक उसे हिंदूजाति में एक हिंदू के रूप में स्थान प्राप्त होना संभव नहीं है। स्वयं अथवा पितृ परंपरा से जो हिंदुस्थान का नागरिक होता है वह हिंदू है। यह हिंदुत्व का प्रथम तथा आवश्यक अभिलक्षण है। परंतु यह एकमेव अभिलक्षण नहीं हो सकता, क्योंकि उसमें जो भौगोलिक अर्थ अभिप्रेत है, उससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण अर्थ हिंदू शब्द में समाए हैं ।

हम सब एक ही रक्त के हैं

'हिंदू' शब्द 'भारतीय' अथवा 'हिंदी' इन दो शब्दों का समानार्थी शब्द नहीं है। केवल हिंदुस्थान का नागरिक-इस अर्थ से ही उसका उपयोग नहीं किया जा सकता। इस बात की मीमांसा करने के पश्‍चात् हम स्वाभाविकतः हिंदू इस नाम के दूसरे आवश्यक अभिलक्षण का विचार करने की अवस्था में होते हैं। हिंदू हिंदुस्थान के केवल नागरिक की नहीं हैं, मातृभूमि के प्रति प्रेमभाव होने के बंधन के कारण ही नहीं अपितु रक्त संबंधों के कारण भी उनमें परस्पर एकरूपता उत्पन्न हो चुकी है। वे केवल एक राष्ट्र ही नहीं हैं, एक जाति भी हैं। 'जा' धातु से उत्पन्न हुए जाति शब्द का अर्थ है एक ही स्थान पर जन्मे तथा एक ही रक्त और बंधुभाव से जुड़े हुए लोग हमारे पूर्वजों की-सिंधुओं की परंपरा को जीवित रखकर जो पराक्रमी जाति उत्पन्न हुई, उसी का रक्त हमारी धमनियों में प्रवाहित हो रहा है, ऐसा हर हिंदू बहुत अभिमानपूर्वक कहता है बहुत बार कुछ लोग स्वार्थ से प्रेरित होकर कुछ निरर्थक प्रश्न पूछते हैं, 'क्या सचमुच आप लोग एक ही जाति के हो ?'

'आप सबका रक्त एक सा है- ऐसा आप कह सकते हो ?' हम लोग उन्हें ठीक से जानते हैं। हम लोग उनके प्रश्न का उत्तर एक प्रतिप्रश्न के रूप में देंगे, 'क्या इंग्लिश एक वास्तविक जाति है ? क्या इस विश्व में इंग्लिश रक्त, फ्रेंच रक्त, जर्मन रक्त, चीनी रक्त जैसा कोई पदार्थ विद्यमान है? जो लोग विदेशियों से विवाहबद्ध होकर अपने खून में विदेशी रक्त मुक्त रूप से बहने देते हैं। वे क्या ऐसा कह सकते हैं कि वे एक ही रक्त व वंश के हैं? यदि ये ऐसा कह सकते हैं तो हिंदू भी उसी तरह जोर देकर ऐसा कह सकते हैं। जिस जाति-भेद का यथार्थ स्वरूप अज्ञानवश अपनी समझ में नहीं आता, उसी जाति-भेद के कारण एक ही प्रकार का रक्त हम लोगों की नसों में प्रवाहित नहीं होता-ऐसा आप आग्रहपूर्वक कहते हों परंतु वास्तविकता यह है कि किसी प्रकार का रक्त हम लोगों के रक्त से नहीं मिलना चाहिए। यदि ऐसा जातीयता का अभिप्राय है तो इसका अर्थ है कि विदेशी रक्त पर प्रतिबंध लगाया जाना। इसके अतिरिक्त आज जो जाति संस्था अस्तित्व में है वही इस बात का प्रमाण है कि ब्राह्मणों से चांडालों तक के शरीर में प्रवाहित होनेवाला खून एक सा है।

हिंदूजाति की रक्तगंगा का प्रचंडोदात्त प्रवाह

हमारी किसी भी स्मृति पर केवल दृष्टिपात करने से ही हमें यह बात सहज रूप से ज्ञात हो जाएगी कि उस समय में भी अनुलोम व प्रतिलोम विवाह संस्था रूढ़ तथा सुप्रतिष्ठित थी। उसी के फलस्वरूप आज की अधिकांश जातियाँ उत्पन्न हुई हैं। किसी शूद्र स्त्री को किसी क्षत्रिय द्वारा पुत्र प्राप्ति होने पर उग्र जाति का निर्माण होता था। उसी उग्र जाति से क्षत्रियों का संबंध हो जाने पर होनेवाली संतान की जाति श्‍वपच कहलाती तथा ब्राह्मण स्त्री तथा शूद्र पिता से उत्पन्न संतति को चांडाल कहा जाता सत्यकाम जांबालि 52 की वैदिक कथा में महादजी शिंदे 53 तक के हमारे इतिहास में लगभग प्रत्येक पृष्ठ पर ऐसा दृष्टिगोचर होगा कि हम लोगों की जाति के रक्त की यह गंगा वैदिक काल के उत्तुंग गिरि पर्वतों से उद्गम पाकर वर्तमान के इतिहास तक अनेक समतल क्षेत्रों से अनेक भू-भागों को साँचती हुई, विशाल प्रवाह को अपने में मिलाती हुई, अनेक पतिल आत्माओं का उद्धार करती हुई तथा मरुस्थल में लुप्त होने का खतरा टालती हुई आज पहले की तुलना में बहुत द्रुत गति व उत्साह से अग्रसर हो रही है। इस लोगों की जाति भेद व्यवस्था ने जो वौरान तथा अनुपजाऊ क्षेत्र को उपजाऊ तथा संपन्न बनाकर और जो समृद्ध तथा फलने-फूलने की स्थिति में थे, उन्हें हानि न पहुँचाते हुए जो मार्ग हम लोगों के साधुवृत्ति के स्मृति-शास्त्रकारों ने तथा देशाभिमानी राज्यश्रेष्ठों ने अत्यधिक योग्य प्रकार से बताया या उसी मार्ग पर अग्रसर होते हुए हम लोगों की जाति की रक्तगंगा का उदात्त प्रवाह अखंड रूप से प्रवाहित होता रहे, इस बात की व्यवस्था की।

मान्यता प्राप्त अंतरजातीय विवाह

हमारी चार प्रमुख जातियों में होनेवाले अंतरजातीय विवाहों के माध्यम से या फिर चार प्रमुख जातियों व सम्मिश्र उपजातियों में हुए विवाहों के माध्यम से उत्पन्न जातियों के लिए ही नहीं, अपितु प्राचीन इतिहास के काल में जो समाज व जातियाँ थीं, उनके लिए भी यह बात उतनी ही सत्य थी कि हमारी जाति की रक्त गंगा कई विशाल प्रवाहों को अपने में समाते हुए बह रही थी, अधिक संपन्न हो रही थी। नेपाल अथवा मलाबार में जो प्रथाएँ आज तक प्रयोग में आ रही हैं, उनका अवलोकन करना उचित होगा। वहाँ की गैर-आर्य मूल वनवासी स्त्रियों से उच्चवर्णीय पुरुषों को विवाह करने की अनुमति दी गई है। अब ये स्वतंत्र वनवासी जातियाँ हैं- यह कहना सच भी मान लिया जाए, तब भी हिंदू संस्कृति का रक्षण करते समय जिस साहस तथा प्रेम का परिचय उन्होंने दिया, इससे उन्हें हमारी जातियों में ही समाविष्ट किया जाता है। इसके अतिरिक्त वे समान रक्त तथा अपनेपन की भावना से हम लोगों से सदा के लिए संबंद्ध हो गई हैं। नागवंश क्या किसी द्रविड़ वंश का नाम है? अब अग्निवंश के युवकों ने नागकन्याओं को अंगीकार किया तथा चंद्रवंश व सूर्यवंश- दोनों वंशों ने अपने दोनों वंश के युवकों को अपनी कन्याएँ अर्पित कीं, तब परस्पर भेदभाव लुप्त हो गया। उस समय यह प्रतीत होने लगा था कि जातिभेद की संस्था कुछ शिथिल पड़कर अंततः लुप्त हो जाएगी। यह भय बौद्ध धर्म के उत्कर्ष का कुछ शतकों का काल छोड़कर हर्ष के समय तक अंतरजातीय विवाह राजमान्य होने के कारण मिट गया। उदाहरण के लिए पांडवों के ही परिवार की बात लीजिए। पराशर ऋषि ब्राह्मण थे। किसी मछुआरे 54 की सुंदर कन्या से उनका प्रेम हो गया। उस संबंध से जगविख्यात व्यास मुनि उत्पन्न हुए। भविष्य में व्यास को भी अंबा तथा अंबालिका नाम की दो क्षत्रिय राजकन्याओं से दो पुत्र प्राप्त हुए, उनमें एक पंडु था। उसने नियोग पद्धति से पुत्र प्राप्त करने की अनुमति अपनी स्त्रियों को प्रदान की भविष्य में विभिन्न, परंतु अज्ञात जातियों के पुरुषों से प्रेमाराधन करते हुए उन्होंने विख्यात महाकाव्य के नायकों को जन्म दिया। कर्ण, बब्रुवाहन, ५५ घटोत्कच, ५६ विदुर,५७आदि उस समय के इतने विशेष व्यक्तियों का आधुनिक उल्लेख न करते हुए हम चंद्रगुप्त का आधुनिक उदाहरण पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत करते हैं।

आचार कुलमुच्यते

चंद्रगुप्त ने ब्राह्मण कुमारिका से विवाह किया और अशोक के पिता को जन्म दिया ऐसा कहा जाता है। अशोक जब राजकुमार था, तब उसने किसी वैश्य कन्या से विवाह रचाया। वैश्य होते हुए भी हर्ष ने अपनी कन्या का विवाह क्षत्रिय राजपुत्र से कर दिया। व्याधकर्मा व्याध का पुत्र था, उसकी माता एक ब्राह्मण कन्या थी। व्याध से उसका प्रेम हो गया। उसने व्याध से विवाह किया। इन दोनों के संबंध से विक्रमादित्य के 'यज्ञाचार्य का जन्म हुआ। सूरदास कृष्णभट एक ब्राह्मण था, परंतु किसी चांडाल कन्या से उसका प्रेम हो गया, उसने उससे सार्वजनिक रूप से विवाह किया तथा अपनी गृहस्थी प्रारंभ की। वह 'मातंगी पंथ' नामक धार्मिक पंथ के संस्थापक के रूप में विख्यात हुआ। मातंगी पंथ के लोग स्वयं को हिंदू कहते हैं। उन्हें यह अधिकार भी प्राप्त है, परंतु यहीं यह बात खत्म नहीं होती। यदि कोई पुरुष अथवा स्त्री अपने वैयक्तिक आचरण के कारण अपनी जाति से अलग होकर अन्य जाति में गई होगी तो "शुद्री ब्राह्मणतामेति ब्राह्मणश्चैति शूद्रताम्।" "न कुलं कुलामित्याहुराचारं कुलमुच्यते। आचार कुशलो राजन् एहचामुत्र नंदते ॥ उपासते येन पूर्वी द्विजा संध्यां न पश्चिमां सर्वास्तान् धार्मिको राजा शुद्रकर्माणि योजयेत् ॥" यह आज्ञा केवल भय उत्पन्न करने हेतु नहीं प्रसृत की गई थी। अनेक क्षत्रियों ने कृषि तथा अन्य व्यवसाय अपना लिये। इस कारण क्षत्रिय के रूप में उनके प्रति आदर कम हो गया और उनकी गणना अन्य जातियों में की जाने लगी। कुछ शूर लोग यहाँ तक कि कुछ वनवासी जातियाँ अपने शौर्य तथा पराक्रम के कारण क्षत्रियों जैसी योग्यता प्राप्त करती थीं, क्षत्रियों के विशिष्ट अधिकारों के योग्य हो जाने पर कुछ उपाधियों का उपयोगभी कर सकते थे लोग भी उनका क्षत्रियत्व स्वीकार करते । जाति से बहिष्कृत होना नित्य की बात हो गई थी। अर्थात् अन्य किसी जाति में इन बहिष्कृत लोगों को स्थान मिल जाता था।

अवैदिक जाति से वैदिकों के विवाह संबंध

अवैदिक जातियों में वैदिकों के विवाह की प्रथा वैदिक धर्म द्वारा प्रस्थापित जाति संस्था पर विश्वास रखनेवाले हिंदू लोगों में ही केवल प्रचलित नहीं थी बल्कि हिंदुओं में जो अवैदिक जातियाँ थीं उनमें भी इस प्रकार की घटनाएं होती थीं। एक ही परिवार में पिता बौद्ध, माता वैदिक तथा पुत्र जैन होते थे- यह बौद्ध के समय प्रचलित था वैसा आज भी दिखाई देता है। गुजरात में तो वैष्णव तथा जैनों में विवाह-संबंध होते हैं। पंजाब व सिंध में सिख तथा कट्टर सनातनियों में विवाह होते थे। आज का मानभाव अथवा लिंगायत या सनातनी आज का हिंदू है तथा आज का वैदिक हिंदू कल का लिंगायत अथवा सिख होने की संभावना है।

अतः हिंदू के नाम के समान अन्य कोई भी नाम हम लोगों की जातीय तथा वांशिक एकता का यथार्थ प्रदर्शन नहीं कर सकती। हम लोगों में कुछ आर्य थे तो कुछ अनार्य थे; परंतु आयर तथा नायर भी हम लोगों जैसे हिंदू ही थे और रक्त की दृष्टि से भी एक ही थे। हम लोगों में कुछ ब्राह्मण हैं तो कोई नामशूद्र अथवा पंचम भी हैं, परंतु ब्राह्मण हो या चांडाल, हम सभी हिंदू हैं, एक ही रक्त के हैं। हम लोगों में कुछ दाक्षिणात्य हैं तो कुछ गौड़, परंतु गौड़ तथा सारस्वत-सभी हिंदू ही हैं। हम लोगों में कुछ राक्षस थे और कुछ यक्ष भी थे, फिर भी हम सभी हिंदू हैं तथा हम सभी लोगों की नसों में प्रवाहित होनेवाला रक्त भी एक सा ही है। हम लोगों में सारे हिंदू ही हैं, एक ही रक्त है। हम लोगों में कुछ जैन हैं तो कुछ जंगम, परंतु जैन हो या जंगम, हम सभी हिंदू ही हैं तथा एक ही रक्त के हैं-हम लोगों में कोई एकेश्वरवादी है तो कोई सर्वेश्वरवादी और कोई निरीश्वरवादी है, परंतु सभी हिंदू ही हैं तथा एक ही रक्त के हैं। हम लोग केवल एक राष्ट्र ही नहीं हैं, जाति भी हैं, जन्मसिद्ध बंधुभाव का नाता हम लोगों में विद्यमान है। हम लोगों को किसी भी अन्य वस्तु की आवश्यकता नहीं है। यह प्रश्न अपने मन का तथा अंतःकरण का है। हमें यह निश्चित रूप से प्रतीत होता है कि राम और कृष्ण, बौद्ध तथा महावीर, नानक और चैतन्य, बसव ५८ तथा माधव,५९रोहिदास ६० तथा तिरुवेल्लर ६१ आदि की धमनियों में बहनेवाला प्राचीन रक्त आज के समस्त 'हिंदुओं' की सभी धमनियों में प्रवाहित हो रहा है। हृदय-स्पंदन हो रहा है। कारण-हम सभी रक्त के प्रेम संबंधों के फलस्वरूप एक जाति हैं।

वस्तुतः मानवजाति ही विश्व की एकमेव जाति है

वस्तुतः विचार करने पर प्रतीत होता है कि इस विश्व में एक ही जाति है और वह है मानवजाति । एक ही प्रकार के मानवी रक्त के प्रवाहित होने के कारण यह विश्व में आज तक जीवित है। इसके अतिरिक्त दूसरा कोई भी कथन केवल कामचलाऊ और सापेक्षतः सत्य ही कहलाएगा। जाति-जातियों के बीच जो कृत्रिम दीवारें आप लोग खड़ी कर देते हैं, उन्हें गिराकर नष्ट करने का प्रयास प्रकृति अविरत रूप से करती रहती है। विभिन्न लोगों में परस्पर रक्त-संबंध न होने देने हेतु प्रयास करना रेत की नींव पर कोई इमारत खड़ी करने जैसा ही है। स्त्री-पुरुषों का परस्पर आकर्षण किसी भी धर्माचार्य की आज्ञा से प्रबलतर सिद्ध हो चुका है। अंदमान के वनवासी लोगों के रक्त में तथाकथित आर्य ६२ रक्त के बिंदु मिले हुए हैं। (अर्थात् यही बात आर्यों के बारे में भी कही जा सकती है। उनके रक्त में अंदमान के आदिवासियों का रक्त है)। अतः यही सच है कि प्रत्येक के रक्त में वही पुरानी जाति का रक्त ही प्रवाहित हो रहा है। यह बात कोई भी कह सकता है अथवा इतिहास का अध्ययन करने पर उसे ऐसा कहने का अधिकार प्राप्त होगा। उत्तरी ध्रुव से दक्षिणी ध्रुव तक के मानवों में जो एकता मूलरूप से विद्यमान है, वही एकमात्र सत्य है- अन्य सभी सापेक्षतः समझने की बातें हैं।

हिंदुत्व का दूसरा आवश्यक अभिलक्षण

सापेक्षतः कहना होगा कि हिंदू तथा यहूदी लोगों के अतिरिक्त कोई भी ऐसा नहीं कह सकता कि वह एक ही जाति का है तथा उसका यह कथन न्यायोचित है। किसी हिंदू से विवाह-संबंध बनानेवाला दूसरा हिंदू अपनी जाति के लिए पराया हो सकता है, परंतु वह अपने हिंदुत्व से कभी दूर नहीं हो पाता। ईश्वर का अस्तित्व स्वीकार करनेवाले अथवा न करनेवाले किसी भी धर्ममत अथवा तत्त्वज्ञान, सामाजिक पद्धति पर विश्वास करनेवाला यदि कोई हिंदू होगा और वह धर्ममत, तत्त्वज्ञान अथवा सामाजिक पद्धति निर्विवाद रूप से हम लोगों के राष्ट्र में उपजी हुई तथा एकमेव रूप से हिंदू प्रणीत नहीं होगी तो वह हिंदू अपने उस विशिष्ट पंथ का त्याग कर सकेगा; परंतु अपना हिंदुत्व त्यागने का विचार भी उसके मन में नहीं उठेगा ! क्योंकि हिंदुत्व का सबसे प्रमुख और आवश्यक है लक्षण रक्त से हिंदू होना इसी कारण सिंधु से सागर तक फैली हुई इस भूमि में पितृभूमि के रूप में जिन्हें प्रेम है तथा जिस जाति ने दूसरों को अपनाकर, नया संबंध बनाकर बहुत प्राचीन समय से सप्तसिंधु के समय से अब तक उन्नति की है उस जाति का रक्त उन्हें आनुवंशिक रूप से प्राप्त हुआ है। हिंदुत्व के दो प्रमुख अभिलक्षणों को ये प्राप्त कर चुके हैं-ऐसा समझना ही उचित होगा।

समान संस्कृति

कुछ विचार करने पर हम लोगों को यह प्रतीत होगा कि एक राष्ट्र तथा एक जाति केवल ये दो अभिलक्षण ही हिंदुत्व के सर्व अभिलक्षण नहीं हैं। अज्ञानमूलक दुराग्रहों का यदि मुसलमान त्याग कर देंगे तो हिंदुस्थान में निवास करनेवाले अधिकतर मुसलमान हम लोगों की इस भूमि से पितृभूमि की तरह प्रेम करने लगेंगे। उनमें से जो स्वदेशाभिमानी तथा उदार अंतःकरणवाले हैं, उन्होंने आज तक इस प्रकार प्रेम किया है। लाखों लोगों के उदाहरणों से ऐसा ज्ञात होता है कि उनका धर्मांतरण किए जाने के समय बल प्रयोग अथवा जबदरस्ती हुई है। उनके इस धर्मांतरण का इतिहास इतना नया है कि उनकी नसों में हिंदू रक्त का अभिसरण हो रहा है-यह बात चाहने पर भी वे भूल नहीं सकेंगे, परंतु हम लोग केवल सत्य को खोज करने में लगे हैं। वह सत्य क्या है, यह निश्चित करने का जिन लोगों का जरा भी हेतु नहीं है, वे मुसलमानों को हिंदू मूल के क्यों कहें भला? कश्मीर व अन्य स्थानों के मुसलमान तथा दक्षिण भारतीय ईसाई अपने-अपने नियमों का पालन इतनी कट्टरतापूर्वक करते हैं कि अपनी जाति-धर्म के अतिरिक्त अन्य किसी के साथ ये विवाह संबंध नहीं बनाते। इस कारण उनके मूल हिंदू रक्त में पराई जाति के रक्त की मिलावट नहीं हुई है। इसके पश्‍चात् भी उन्हें उस अर्थ में हिंदू नहीं कहा जा सकता, जिस अर्थ में हम लोग 'हिंदू' संबोधन का प्रयोग करते हैं। समान हिंदू भूमि के लिए जो प्रेम हमारे मन में विद्यमान है तथा जो रक्त हम लोगों के हृदय के स्पंदनों को कार्यरत रखता है, वही रक्त हम लोगों की नसों में भी प्रवाहित होता है। इसी कारण हम हिंदू लोग एक-दूसरे से बद्ध नहीं हैं। अपनी जिस महान् संस्कृति का हम सभी लोग भक्तिभाव पूर्वक आदर करते हैं, जिस संस्कृति से हम लोगों के मन में समान रूप से प्रेम है, उसी प्रेम के कारण हम सब हिंदू लोग एक हैं। हम लोगों की हिंदू सभ्यता को (Civilization) संस्कृति कहना अधिक यथार्थ है, क्योंकि इस शब्द में संस्कृत भाषा का अनायास उल्लेख किया गया है। हम लोगों की हिंदूजाति के भूतकाल में जो-जो उत्कृष्ट सराहनीय तथा संग्रहणीय था, उसे हमारी महान् संस्कृति को भी शब्दरूप देकर, उन सभी का जतन करने का अमूल्य साधन संस्कृत भाषा ने हमें दिया है। हम लोगों का एक राष्ट्र है तथा जातियाँ भी एक हैं। इसलिए हम लोगों की संस्कृति भी एक है। इस कारण हम लोग एक हैं।

संस्कृति का अर्थ क्या है ?

परंतु संस्कृति किसे कहते हैं? संस्कृति मानवी मन का आविष्कार है। 'संस्कृति' का अर्थ है मानव द्वारा इस भौतिक सृष्टि पर किए गए संस्कारों का इतिहास। यदि परमेश्वर को इस भौतिक सृष्टि की रचना करनेवाला माना जाए, तो 'संस्कृति' मानव द्वारा निर्मित दूसरी सृष्टि ही मानी जाएगी। संस्कृति का सर्वोच्च विकास, मनुष्य को आत्मा द्वारा भौतिक वस्तुओं तथा मनुष्यों पर पाई हुई विजय में प्रकट होता है। जहाँ तक मनुष्य को अपनी आत्म को सुख की अनुभूति दिलाने के लिए भौतिक सृष्टि की रचना में यश मिलता रहा है, वहीं संस्कृति का सही रूप में प्रारंभ हुआ है। उस संस्कृति की परमोच्च विजय और विकास तभी होता है, जब मनुष्य समृद्ध व संपूर्ण जीवन का उपभोग करता है और सामर्थ्य, सौंदर्य व प्रीति के उपभोग की आत्मिक इच्छाओं की पूर्ति करके अपार आनंद प्राप्त करने के सभी साधनों की वह हस्तगत करता है।

राष्ट्र की संस्कृति का इतिहास उसके विचारों, आचारों तथा उपलब्धियों का इतिहास होता है। वाड्मय तथा कलाओं से राष्ट्र की वैचारिक ऊँचाई की कल्पना की जा सकती है, इतिहास तथा सामाजिक रीति-रिवाजों, उनके रूढ़ आचारों, पराक्रम तथा दिग्विजयों की जानकारी प्राप्त होती है। इन सबमें से मनुष्य को अलग नहीं दिखाया जा सकता, वह तो राष्ट्र की प्रत्येक उपलब्धि का अंग होता है। अंदमान के आदिवासियों द्वारा लकड़ी तराशकर जैसे-तैसे बनाई गई टेढ़ी-मेढ़ी डुंगी का ही सुधारित रूप है। अमेरिकी बनावट की आधुनिक युद्धनौकाओं या विनाशिकाओं का पेरिस की युवतियों की आधुनिक देहभूषा का मूल देखने को मिलता है, आदिवासी 'पातुआ' स्त्री अपने कमरपट्टे में जो पत्तों का गुच्छ खोंसती हैं- और मात्र इतने करने भर से जिसकी देहभूषा व सौंदर्य प्रसाधन पूरी हो जाती है, उस पातुआ स्त्री के पर्ण गुच्छों में!

तथापि 'डुंगी' डुंगी ही बनी रही तथा विनाशिका नौका भी विनाशिका नौका ही हैं। उनमें साम्यता से अधिक भिन्नता अधिक है। हिंदुओं ने भी दूसरों की अनेक बातें स्वीकार की हैं तथा अपनी भी बातें अन्य लोगों को दी हैं। फिर भी उनकी संस्कृति इतनी वैशिष्ट्यपूर्ण है कि अन्य किसी संस्कृति का बाह्य रूप उसके समान रहना सर्वथा असंभव है। उनमें परस्पर भिन्नत्व होते हुए वे भिन्न न रहकर, समान हो गए हैं। समान संस्कृति, वाड्मय तथा इतिहास के कारण विश्व में जो उस समय की अन्य संस्कृतियाँ अस्तित्व में हैं, उनमें से एक स्वतंत्र संस्कृति के रूप में हिंदू संस्कृति का जो स्थान है, वह स्थान अन्य किसी संस्कृति को प्राप्त होगा- ऐसा प्रतीत नहीं होता।

हम लोगों की उज्ज्वल संस्कृति का उत्तराधिकार

'हिंदुओं का इतिहास नहीं है इस प्रकार के पक्षपाती तथा अज्ञानमूलक प्रचार के कारण विश्व के लोग प्रभावित हो रहे हैं। इस प्रचार का प्रभाव जिन लोगों पर पड़ चुका है, उन्हें हमारा यह कथन आश्चर्यकारक तथा विपरीत प्रतीत हो सकता है कि हिंदुओं ने लगभग अकेले ही धरणीक व जलप्रवाहों के कारण उत्पन्न हुई भीषण आपत्तियों का सामना किया है। हिंदूजाति के इतिहास का प्रारंभ वेदों से होता है। प्रत्येक हिंदू लड़की झूले में जिस लोरी को रोज सुनती है, वह साध्वी सीता पर रचा गया है। श्रीरामचंद्र को हममें से कुछ लोग अवतार मानते हैं तो कुछ उन्हें एक लोकोत्तर रणवीर कहकर पूजते हैं; परंतु हम सभी लोग उनसे भक्तिपूर्वक प्रेम करते हैं। मारुति, राम तथा भीमसेन प्रत्येक हिंदू युवक के लिए सर्वकालीन बल या प्रथम स्फूर्तिस्थान बन चुके हैं। उसी प्रकार सावित्री तथा दमयंति प्रत्येक हिंदू कन्या के लिए एकनिष्ठ तथा पवित्र प्रेम की आदर्शभूत सती-साध्वियाँ प्रतीत होती हैं। गाय चरानेवाले उस दिव्य गोपाल से राधा ने जो प्रेम किया है, उसी प्रेम का प्रत्यय हर हिंदू प्रेमी को अपनी प्रियतमा का चुंबन लेते समय होता है।

कौरवों के साथ हुए भीषण संग्राम, अर्जुन, कर्ण, भीम और दुःशासन इनमें हुए चुनौतीपूर्ण द्वंद्व हजारों वर्ष पूर्व कुरुक्षेत्र में हुए थे, तथापि प्रत्येक कुटीर में अथवा राजप्रासादों में भावनाओं का क्षोभ करनेवाले गीत उन सभी रसपूर्ण घटनाओं के साथ आज भी गाए जाते हैं। अभिमन्यु अर्जुन को जितना प्रिय था, उतना ही वह हम लोगों को भी प्रिय लगता है। उस राजीव नेत्र सुकुमार के रणक्षेत्र में हुए निधन में की वार्त्ता सुनते ही शोक से विह्वल होकर आक्रंद करनेवाले उसके पिता ने अश्रुओं से अभिषेक किया होगा। उसी तरह प्रेम तथा शोक से विह्वल होकर लंका व कश्मीर तक सारा हिंदुस्थान अश्रुसिंचन करता है। इससे बढ़कर और क्या उदाहरण हो सकते हैं? इससे अधिक हम कुछ नहीं कह सकते। मुट्ठी भर बालू को सब ओर फेंक दिया जाए, उसी तरह यदि हम सबको दश दिशाओं में बिखेर दिया जाए, तब भी, रामायण व महाभारत -ये दोनों ग्रंथ हमें एकत्रित करने की क्षमता रखते हैं। मैं मैजिनी का चरित्र पढ़ता हूँ, तब कहता हूँ कि वे कितने देशाभिमानी हैं। माधवाचार्य का चरित्र पढ़ने पर अपने आप मेरे मुँह से शब्द निकलते हैं, 'हम कितने स्वदेशभक्त हैं।' पृथ्वीराज का पतन याद करने पर तथा मृत्यु को गले लगानेवाले गोविंदसिंहजी के दोनों पुत्रों का बलिदान याद करने पर महाराष्ट्रीय हो या बंगाली, दोनों ही शोक करते हैं। देश के उत्तरी कोने में रहनेवाले आर्यसमाजी इतिहासकार को ऐसा लगता है कि देश के दक्षिणी छोर में स्थित विजयनगर साम्राज्य के संस्थापक हरिहर व बुक्का हमारे लिए ही तो दुश्मनों से लड़े थे तथा दक्षिणी छोरके सनातनी इतिहासकार को भी ऐसा लगता है कि उत्तर के गुरु तेगबहादुर ने भी हमारे लिए मृत्यु का आलिंगन किया। हम सबके राजा एक ही थे। हमारे राज्य भी एक ही थे। हमने समृद्धि व संपन्नता का भी एक समान उपभोग किया। हम सबने अपने पराक्रम से दिग्विजय प्राप्त किए। विजय हुई, तब तो हम सब एक साथ थे ही, पराजय व आपत्तियों को भी हमने एक साथ रहकर झेला। जहाँ मोका बसाय्या, सूर्याजी पिसाल, जयचंद तथा काला पहाड़ ६३ नामक बंगली ब्राह्मण, जिसको मुसलमान युवती से विवाह रचने के कारण हिंदू धर्म से बाहर कर दिया गया, जिससे क्रोधित होकर उसने मुसलमान धर्म को स्वीकार किया व कई मंदिर नष्ट कर दिए, लोगों को धर्मभ्रष्ट कराया-इन सबके नाम का उच्चारण करना भी हमें पातक सा लगता है, वहीं अशोक, पाणिनि और कपिलमुनि के नामों के उच्चारण के साथ अपने शरीर में नवचेतना जाग उठती है और आत्मगौरव का अनुभव होता है।

कलह और युद्ध क्या आप लोगों में नहीं होते ?

हिंदुओं में जो परस्पर युद्ध हुए, उस विषय में क्या कहना चाहिए। हम इसके प्रत्युत्तर में कहते हैं, 'इंग्लैंड के यॉर्क और लंकेस्टर घरानों ६४ में हुए युद्ध में ध्वजचिह्न गुलाब होने के कारण इन युद्धों को 'गुलाबों का युद्ध' नाम से जाना जाता है, उनके बारे में क्या कहा जाए?' इटली, जर्मनी, फ्रांस, अमेरिका में कई संस्थाओं के बीच विभिन्न पंथों के बीच या फिर समाज के वर्गों के बीच आपसी लड़ाइयाँ हुई, कई बार तो एक पक्ष ने अपने ही देश में रहनेवाले विपक्षी बंधुओं का नामोनिशान मिटाने के लिए विदेशी सहायता भी प्राप्त की, उन सब के बारे में क्या कहा जाए? इतना सबकुछ हो जाने के पश्‍चात् भी सभी एक राष्ट्र तथा एक समान इतिहास के धनी हैं। तब हिंदू भी उसी प्रकार से एक राष्ट्र तथा एक ही जाति हैं, यदि इसी प्रकार हिंदुओं का कोई समान इतिहास नहीं है तो विश्व के अन्य राष्ट्रों का भी इस प्रकार का इतिहास नहीं होना चाहिए!

संस्कृत ही हम लोगों के देश की भाषा है

जिस प्रकार इतिहास का अध्ययन करने से ही हम लोगों को अपनी जाति के पराक्रम एवं दिग्विजय का बोध होता है, उसी प्रकार अपने वाड्मय का संपूर्ण विचार करने के पश्चात् ही हम लोगों को अपनी जाति की विचार-संपत्ति का इतिहास ज्ञात होता है। ऐसा कहते हैं कि विचार व शब्द कोई दो पृथक् चीजें नहीं हैं। इसी कारण हम लोगों का वाड्मय तथा सभी लोगों की समान भाषा-संस्कृत पृथक नहीं हो सकती, वे दोनों अभिन्न हैं। वस्तुतः वह हमारी मातृभाषा है। हमारी माताएँ इसी भाषा का प्रयोग करती थीं तथा इसी भाषा से हम लोगों की आज की प्राकृत भाषाएँ उत्पन्न हुई हैं। हमारे ईश्वरों के संभाषण की भाषा यही देववाणी थी। हम लोगों के कवियों ने संस्कृत भाषा में ही काव्य-रचना की हम लोगों के अत्युत्तम विचार, अत्युत्तम कल्पना अथवा काव्य-रचना अनायास ही संस्कृत में प्रकट किए गए हैं। लाखों लोग आज भी उसे 'देवभाषा' मानते हैं। उसी की शब्द-संपत्ति ने गुजराती तथा गुरुमुखी, सिंधी एवं हिंदी, तमिल तथा तेलुगु, महाराष्ट्री तथा मलयालम, बंगाली और सिंधी आदि भाषा भगिनियों ने अपनी भाषा समृद्ध की। संस्कृत हम लोगों की भावनाओं तथा आशा-आकांक्षाओं को एक प्रकार का मर्यादित सुसंवाद प्रदान करनेवाली केवल एक भाषा ही नहीं हैं, अनेक हिंदुओं को वह किसी मंत्र के समान मुग्ध कर देती है। सभी को वह संगीत के समान मोहित करती है।

हिंदुओं की वाड्मय संपत्ति

वेद जैन लोगों के प्रमाणभूत ग्रंथ नहीं बन सकते, परंतु हम लोगों की जाति के अत्यंत प्राचीन इतिहास ग्रंथों के रूप में हम लोगों के समान वे जैनों के भी ग्रंथ हैं। 'आदिपुराण' किसी सनातनी द्वारा नहीं रचा गया है, परंतु 'आदिपुराण' को सनातनी व जैन दोनों ही मानते हैं। 'बसवपुराण' लिंगायतों का वेद है, परंतु वह लिंगायत तथा लिंगायेतर हिंदुओं का भी है। कानडी भाषा का सबसे प्राचीन तथा ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण उपलब्ध वाड्मय वही है। गुरुगोविंदजी द्वारा रचित 'विचित्र नाटक' को बंगाल के हिंदू अपनी वाड्मय संपत्ति मानते हैं। उसी प्रकार 'चैतन्य चरित्रामृत' को सिख बहुत मूल्यवान समझते हैं। कालीदास तथा भवभूति चरक ६५ और सुश्रुत, ६६ आर्यभट्ट ६७ एवं वराहमिहिर, ६८ भास और अश्वघोष, ६९ जयदेव ७० और जगन्नाथ ७१ आदि ने हम लोगों के लिए लिखा। उनके वाड्मय से हम लोगों को आनंद प्राप्त होता है तथा उनका वाड्मय एक अमूल्य संपत्ति है। तमिल कवि कंब तथा हाफिज७२- इन दोनों का काव्य किसी बंगाली व्यक्ति के सम्मुख एक साथ रखा गया और उससे पूछा गया कि इनमें से तुम्हारा कौन है? तब वह कहेगा कि कंब कवि मेरा है। रवींद्रनाथ तथा शेक्सपियर का वाड्मय देखकर महाराष्ट्रीय हिंदू तत्काल बोल उठेगा-'रवींद्र! रवींद्र मेरा है!"

कला तथा कलाशिल्प

कला तथा कलाशिल्प भी हम लोगों की जाति की समान संपत्ति है। फिर वह कला व शिल्प किसी भी वैदिक अथवा अवैदिक धर्ममत का पुरस्कार क्यों नकरता हो। जिन शिल्पियों ने ये कला कौशल्य के जो आदर्श स्थापित किए, जिन्होंने तज्ञ मार्गदर्शन किया, जिन्होंने कर के रूप में यह निर्माण करने हेतु धन की आपूर्ति की तथा जिन राजाओं ने ये शिल्प बनाने में प्रेरणा देने का कार्य किया, वे सभी वैदिक हो या अवैदिक, परंतु सभी हिंदू हो थे। आसिंधुसिंधुपर्यता की भूमि की महान् जाति के-हिंदूजाति के ही थे । जो सनातनी कहलाते हैं, उन्होंने उस समय के बौद्ध स्तूपों के तथा कला शिल्पों के कार्य में स्वयं कष्ट सहते हुए तथा द्रव्य देकर पूरे किए हैं तथा उस समय के बौद्धों ने आज के सनातनियों की मंदिर तथा स्मारकों के एवं कला-कौशल के कार्य द्रव्य देकर तथा प्रत्यक्ष अपने श्रम से पूरे किए हैं।

हिंदू निर्बंध-विधान

गौण बातों में यहाँ-वहाँ कुछ मतभेद होते हुए भी रीति-रिवाज तथा समाज नियमन के नीति निर्बंध हम सभी के लिए समान हैं। वे ही हम लोगों की एकता का कारण है; उसका परिणाम तथा प्रयोजन हैं। हिंदू धर्म के शास्त्रों की मूलभूत नींव पर आधारित निर्बंध-विधानों (Hindu law) के संबंध में कितने भी गौण मतभेद हो तथा यहाँ-वहाँ परस्पर विरोधी कुछ बातें भी समाविष्ट की गई हों, तब भी उसको रचना इतनी योग्य प्रकार से की गई है कि उसकी विशेषता स्पष्ट रूप से बनी रहेगी। अमेरिका के विभिन्न राज्यों में तथा ब्रिटिश प्रजासत्ताक राज्य में नए-नए निर्बंध विधान (कानून) तैयार करने तथा उनको स्पष्ट रूप देने हेतु निर्बंध निर्मितासभा (लोकसत्ता आदि) का कार्य भी गति से चलता हो, परंतु धर्मशास्त्र द्वारा व्यवहार में पालन के लिए नीति नियमों के जो सिद्धांत बनाए गए तथा उन सिद्धांतों का विकास होकर संपूर्ण अवस्था को प्राप्त हुई। निर्बंध-विधान को पद्धति को हम आज भी स्वीकार करते हैं। मूलभूत समानता का ही आधार मानकर चलें तो अंग्रेजी निर्बंध विधान का कोई वैशिष्ट्यपूर्ण पहलू उजागर करने लायक शब्द भी याद नहीं आता। अन्य मुसलमान जाति की तरह कई बार, विशेषतः उत्तराधिकारों के मामलों में हिंदू-निर्बंध विधान का आधार खोजा अथवा बोहरी लोगों ने लिया है; परंतु इन विरल तथा घातक अपवादों के होते हुए भी मुसलमानी कानून ने अपनी विशेषता बनाए रखी है। महाराष्ट्र अथवा पंजाब के हिंदुओं के रीति-रिवाज बंगाल अथवा सिंध के हिंदुओं के रीति-रिवाजों से अल्पत भिन्न होने की संभावना है, परंतु अन्य गौण व्यवहारों में इतना साम्य है कि महाराष्ट्र में रूढ़ नीति व्यवहार बंगाल अथवा सिंध के व्यवहार निर्बंध शास्त्र के अनुसार ही होते हैं। ऐसा प्रतीत होता है अथवा बंगाल के व्यवहार महाराष्ट्र के समान ही होते हैं ऐसी धारणा बन सकती है। हम लोगों की किसी एक जाति के आचार-विचार, रूढ़ियों अथवा रीति-रिवाजों को एकत्र किया जाए, तब ऐसा प्रतीत होगा कि युद्ध हम लोगों के हिंदू नीति-व्यवहार न्याय-शास्त्र का एक पृथक् तथा संलग्न अध्याय है। यदि इस अध्याय को इस निर्बंध विधा में सम्मिलित न करने के प्रयास किए जाते हैं तथा बहुत बुद्धिमानी का परिचय देने के पश्चात् ये प्रयास सफल भी होते हैं, तब भी इस अध्याय की पृथक्ता छिपाना संभव नहीं होगा।

त्योहार तथा यात्रा महोत्सव

हम सभी लोगों के त्योहार तथा उत्सव एक समान हैं। हम लोगों के धार्मिक संस्कारों तथा धार्मिक आचारों में समानता है। जहाँ-जहाँ हिंदू वास करते हैं, उन सभी स्थानों पर दशहरा, दीपावली, रक्षाबंधन एवं होली आदि त्योहार अत्यंत आनंदायक माने जाते हैं। सिख तथा जैन, ब्राह्मण एवं पंचम आदि संपूर्ण हिंदू विश्व दीपावली का आनंद उठाने में मग्न रहता है। केवल हिंदुस्थान में ही ऐसा नहीं होता, विश्व के अन्य खंडों में भी जहाँ-जहाँ बृहत्तर भारत का विकास शीघ्र गति से हो रहा है, उस बृहत्तर हिंदुस्थान में भी ऐसा ही होता है। तराई-जंगल में एक भी झोंपड़ी ऐसी नहीं होती, जहाँ एक छोटा दीप जलाकर (मिट्टी का छोटा दीया) उस रात अपने द्वार पर नहीं रखी जाती! रक्षाबंधन के दिन पंजाब की किसी अल्हड़, हर्षित युवती से लेकर मद्रास के किसी स्नानसंध्या शील कर्मठ ब्राह्मण तक प्रत्येक हिंदू, 'एक देश, एक भगवान्, एक जाति, एक मनःप्राण। भाई-भाई का एक ही निश्चय भेद नहीं है, भेद नहीं॥' इस भावना से रेशमी राखी बँधवा रहा है। हिंदुओं में जो सामान्य धार्मिक विचार हैं, उनका हमने अभी तक उल्लेख नहीं किया है। इतना ही नहीं, अभी तक हमने धार्मिक स्वरूप के किसी भी रीति रिवाज का अथवा प्रसंग का या संस्थाओं का भी उल्लेख नहीं किया है, क्योंकि हिंदुत्व के प्रमुख अभिलक्षणों का विचार हमें जातीय दृष्टिकोण से ही करना था। किसी धार्मिक विचारों के अनुसार नहीं, फिर भी राष्ट्रीय तथा जातीय दृष्टि से भी विभिन्न तीर्थक्षेत्र तथा वहाँ लगनेवाली यात्राएँ हिंदूजाति की परंपरागत संपत्ति हैं। जगन्नाथ का रथ-महोत्सव, अमृतसर की वैशाखी, (बैसाखी), कुंभ तथा अर्धकुंभ आदि महायात्राएँ हम लोगों की राष्ट्रदेह में जीवंतता तथा विचारों का अविरत प्रवाह बनाए रखनेवाले विराट् राष्ट्रीय सम्मेलन ही हैं। इन यात्राओं तथा मेलों में जो लोकविलक्षण रीति-रिवाज, विभिन्न समारोह तथा संस्कारों का दर्शन होता है, उनमें कुछ लोग आवश्यक धार्मिक कर्तव्य से, तो कई अन्य लोग उत्सवप्रिय होने के कारण वहाँ मौज-मजा करने हेतु उपस्थित रहते हैं। वहाँ उपस्थित रहनेवाले प्रत्येक व्यक्ति को यह बात ठीक से समझ में आ जाती है कि यदि उसे अपनीजीवन-यात्रा उत्तम प्रकार से पूरी करनी है, तब उसे हिंदूजाति के सामुदायित जीवन से समरस होना पड़ेगा ।

संक्षेप हम लोगों की संस्कृति का यह प्रमुख भाग है तथा इसी कारण हम लोगों की संस्कृति एक स्वतंत्र संस्कृति के रूप में जानी जाती है। प्रस्तुत विषय पर विचार करते हुए बात पर समग्र विचार करना संभव नहीं है। हम लोग 'हिंदू' नामक केवल राष्ट्र नहीं हैं। हम लोग एक विशिष्ट जाति भी हैं तथा इन दोनों के मिलाप से हम लोगों की एक संस्कृति बन है। इस संस्कृति का आविष्कार तथा संरक्षण प्रथमतः और प्रमुख रूप से लोगों की मातृभाषा द्वारा ही किया गया है, जो-जो स्वयं को हिंदू मानता है, वह प्रत्येक व्यक्ति इस संस्कृति का उत्तराधिकार प्राप्त कर जनमा है तथा जिस प्रकार इस भूमि से तथा पूर्वजों के रक्त से उसकी देह बनी है, उसी प्रकार उसका मन भी वास्‍तविक रूप में इसी संस्‍कृति से जनमा है।

हिंदुत्व का तीसरा प्रमुख अभिलक्षण

हिंदू उसे ही कहा जाता है, जिसे सिंधु से समुद्र फैली हुई यह भूमि अपनी मातृभूमि के रूप में अत्यधिक प्रिय होती है । वैदिक सप्तसिंधु के हिमालयीन उच्च प्रदेश में, जिसके प्रारंभ होने का स्पष्ट उपलब्ध है और नए-नए प्रदेशों से आगे बढ़ती हुई, जिनको उसने स्वीकार किया, उसे अपने में समाविष्ट करके उसे आत्मसात् किया, उसे चरमोत्कर्ष तक पहुँचाकर जो जाति-हिंदू नाम से जिसने उत्‍कर्ष किया, उस महान् जाति का रक्त हिंदू नाम के लिए योग्य प्रमाणित होनेवाले प्रत्येक व्यक्ति के शरीर में प्रवाहित होता है। हिंदुओं का तीसरा प्रमुख अभिलक्षण है समान इतिहास, समान वाङ्मय, समान कला, एक ही निर्बंध विधान, एक ही धर्म व्यवहार शास्‍त्र, एक साथ मिलकर मनाए गए उत्सव, एक साथ की गई यात्राएँ, आचारविधि, त्योहार तथा एक जैसे संस्कार। सारांशत: वे, जो हिंदू संस्कृति अपनी प्रतीत होती ही है। ऊपर निर्दिष्ट सभी अभिलक्षण प्रत्येक हिंदू के पास दिखाई देंगे, यह संभव नहीं है, परंतु हिंदू बांधवों में जो परस्पर समानता दिखाई देती है, वह अन्‍य किसी अरब अथवा इंग्लिश व्यक्ति से दिखाई देनेवाली समानता से निश्चित रूप में अधिक होगी । इसी प्रकार हिंदुओं के ये अभिलक्षण किसी अहिंदू में नहीं दिखाई दे सकते, यह बात भी सच नहीं है; परंतु तब भी इन दोनों में समानता की तुलना में असाम्यता अधिक होगी। अतः जो ईसाई अथवा मुसलमान समुदाय तक हिंदू ही था और धर्मांतरित प्रथम पीढ़ी दु:खी व क्रोधपूर्ण धार्मिक जीवन जी रही थी, उन मुसलमान तथा ईसाई जातियों को हिंदूजातियों का शुद्ध रक्त उत्तराधिकारियों के रूप में प्राप्त हुआ है। उन्हें भी अब हिंदू कहलाना संभव नहीं है, क्योंकि जिस दिन उनपर थोपे गए धर्म से उनका प्रत्यक्ष संबंध हुआ उसी दिन वे जातियाँ हिंदू संस्कृति के उत्तराधिकार से वंचित हो गई। हिंदुओं से सर्वथा भिन्न संस्कृति है-ऐसा उन्हें प्रतीत होता है। इस कारण उनके आदर्श वीर और इन वीरों के प्रति उनकी भक्ति-भावना, उनके उत्सव तथा यात्राएँ, उनके ध्येय तथा जीवन विषयक दृष्टिकोण इनमें तथा हम लोगों की कल्पनाओं में कोई भी समानता अब शेष नहीं है। प्रत्येक हिंदू अपनी जाति को विशिष्ट संस्कृति से असामान्य प्रेम करता है तथा नितांत भक्तिभाव दरशाता है। इस अत्यंत आवश्यक अभिलक्षण के कारण हिंदुत्व का शुद्ध स्वरूप निश्चित करना हमारे लिए संभव हो सका।

क्या बोहरी तथा खोजे को'हिंदू'कह सकते हैं?

अब हम उस बोहरी तथा खोजे व्यक्ति का उदाहरण देते हैं, जो हम लोगों के यहाँ रहता है। हिंदुस्थान से वह पितृभूमि के रूप में प्रेम करता है, क्योंकि यह निर्विवाद रूप से उसके पूर्वजों की भूमि है। उसमें और कुछ अन्य लोगों के शरीर में निश्चित रूप से हिंदू रक्त ही विद्यमान है। यदि उसकी पीढ़ी में वही प्रथम होगा, जो मुसलमान हुआ होगा, तब उसके शरीर में उसके हिंदू माँ-बाप का ही रक्त होगा। किसी समझदार तथा जानकार व्यक्ति के समान वह हिंदू इतिहास से एवं ऐतिहासिक पुरुषों से प्रेम करता है। बोहरे तथा खोजे हमारे दशावतारों की पूजा ईश्वर मानकर करते हैं, परंतु इनमें ग्यारहवाँ नाम मोहम्मद का भी जोड़ देते हैं। वह बोहरी अथवा खोजा उसकी संपूर्ण जाति जैसा ही, अपने पूर्वजों के हिंदू निर्बंध विधान को ही आधार मानते हैं। इस प्रकार राष्ट्र, जाति तथा संस्कृति- ये तीन आवश्यक अभिलक्षणों का विचार किया जाए तो उसे हिंदू ही कहना होगा। उसके कुछ त्योहार तथा उत्सव हम लोगों से भिन्न हो सकते हैं तथा अपनी देव-देवताओं और सत्पुरुषों की पंक्ति में वह एक-दो अतिरिक्त व्यक्तियों का समावेश कर सकता है। इन एक-दो मतभेदों के कारण उसे हिंदू संस्कृति को माननेवालों से बाहर नहीं किया जाता है। हिंदुओं की कुछ उपजातियों में कुछ पृथक् रीति-रिवाजों का पालन किया जाता है। कई बार तो इन रीति-रिवाजों में परस्पर विरोधी होने की बात भी देखी जाती है। तब भी वहाँ सभी उपजातियाँ हिंदू ही कहलाती हैं, तब हिंदू धर्म के तीन ऊपर वर्णित अभिलक्षण जिनमें विद्यमान हैं, उन बोहरों को अथवा खोजों को हिंदू कहने में क्या कठिनाई हो सकती है?

वस्तुतः इस प्रकार उन्हें हिंदू कहने में कोई दोष नहीं है, परंतु हिंदुत्व के एक अभिलक्षण के प्रति उनका जो दृष्टिकोण है, उसी कारण उन्हें हिंदू नहीं कहा जा सकता। यह अभिलक्षण संस्कृति शब्द में समाविष्ट हो जाता है। फिर भी अन्य विशेषणों में उसे गौण मानकर उसपर ध्यान न देना उचित नहीं होगा, अर्थात् विचारों की दृष्टि से वह बहुत महत्त्वपूर्ण है। अत: उसका स्वतंत्र विवेचन तथा विश्‍लेषण करना आवश्यक है। इस बात की चर्चा अभी तक इसलिए नहीं की गई क्योंकि उसपर यथोचित विचार करने के पश्चात् सदा के लिए निश्चित एवं परिणामकारक निर्णय लेने का हमारा विचार हिंदुत्व तथा हिंदू धर्म-इन दो शब्‍दों का महत्त्व तथा उनसे व्यक्त होनेवाला अर्थ निश्चित रूप से ज्ञात करने के पश्चात् हम लोग इस स्थिति में पहुँच जाएँगे कि इस शब्द का विश्‍लेषण करने की पूरी साधन-सामग्री हम लोगों को प्राप्त हो गई है-ऐसा कह सकेंगे।

हिंदू धर्म से'हिंदू' की परिभाषा करना अनुचित

हिंदुत्व तथा हिंदू धर्म- ये दोनों ही शब्द हिंदू शब्द से उत्पन्न हुए हैं। अतः उनका अर्थ 'सारी हिंदूजाति' ऐसा ही किया जाना आवश्यक है। हिंदू धर्म को परिभाषा के अनुसार, यदि कोई महत्त्वपूर्ण समाज उसमें सम्मिलित न किया जाता हो अथवा उसे स्वीकारने से हिंदुओं के घटकों को हिंदुत्व से बाहर किया जा रहा हो, तो वह परिभाषा मूलतः ही धिक्कारने योग्य समझी जानी चाहिए। हिंदू धर्म' से हिंदू लोगों में प्रचलित विविध धर्ममतों का बोध होता है। हिंदू लोगों के विभिन्न धार्मिक विचार कौन से हैं अथवा हिंदू धर्म क्या है, इसे निश्चित रूप से समझने के लिए सर्वप्रथम 'हिंदू' शब्द की परिभाषा निश्चित करना आवश्यक है। जो लोग केवल 'हिंदुओं की पूरी तरह से स्वतंत्र विभिन्न धार्मिक सोच-समझ' इतना ही अर्थ मन में लेकर, 'हिंदू धर्म' शब्द से दर्शाए जानेवाले महत्त्वपूर्ण अर्थ की और ध्यान देते हुए हिंदू धर्म के आवश्यक लक्षण निश्चित करने का प्रयास करते हैं, उन्हें इसी बात को लेकर मन में संभ्रम उत्पन्न हो जाता कि किन लक्षणों को आवश्यक माना जाय।

क्योंकि उन्होंने जिन लक्षणों को आवश्यक माना है, उनके सहारे वे सभी हिंदूजातियों का समावेश 'हिंदू' शब्द में नहीं कर सकते। इसके कारण वे क्रोधित होकर, वे जातियाँ 'हिंदू' कभी थीं ही नहीं, ऐसा कहने का दुस्साहस करते हैं, उनकी परिभाषा में इन जातियों का समावेश नहीं किया जा सकता, क्योंकि वह संकीर्ण है, ऐसा कहना उचित नहीं है। जिन तत्त्वों को हिंदू धर्म कहना चाहिए, ऐसा ये सज्जन समझते हैं, वे तत्त्व इन जातियों द्वारा या तो स्वीकार नहीं किए जाते अथवा वे उनका पालन नहीं करतीं, इसलिए 'हिंदू कौन है'- इस प्रश्न का उत्तर देने का यह तरीका सर्वथा विपरीत है। इसी कारण सिख, जैन, देवसमाजी जैसे अवैदिक मतों का पुरस्कार करनेवाले हमारे बांधवों में और प्रगतिक तथा देशप्रेमी आर्यसमाजियों में कुछ कटुता का भाव पैदा हो गया है।

हिंदू किसे कहते हैं ?

हिंदू किसे कहना चाहिए? जो हिंदू धर्म के तत्वों का पालन करता है उसे ही। अब हिंदू धर्म किसे कहना चाहिए? हिंदू लोग जिन तत्त्वों को मानते हैं-उसे! यह व्याख्या है तो न्यायसंगत, परंतु इसी तरह से बार-बार यही कहना कभी न खत्म होनेवाले विवाद का वातावरण बन जाता है। इसी कारण इससे कोई संतोषप्रद निर्णय निकलने की संभावना नहीं है। इस प्रकार गलत मार्ग पर चलनेवाले हम लोगों के बहुत से मित्रों को यह कहना आवश्यक हो जाता है कि 'हिंदू नाम के कोई लोग विश्व में विद्यमान नहीं है।' जिस महाविद्वान्, इंग्लिश व्यक्ति ने 'हिंदूइज्म' शब्द को प्रचलित किया (हिंदू धर्म इस अर्थ में) उसी का अनुकरण करते हुए यदि कोई हिंदी व्यक्ति 'इंग्लिशिज्जम' शब्द का प्रयोग करते हुए इंग्लिश लोगों में रूढ़ धार्मिक कल्पनाओं की जड़ों में कुछ एकता की खोज करने का प्रयास करता है तो ज्यू से जॅकोविनों तक तथा ट्रिनिटी का तत्त्व माननेवाले से उपयुक्ततावादियों तक उसे इतने पंथ, उपपंथ, जातियाँ एवं उपजातियाँ दिखाई देंगी कि क्रोध से वह कहेगा, 'इंग्लिश कहलानेवाला कोई भी व्यक्ति इस विश्व में विद्यमान नहीं है!' तथा इस विश्व में हिंदू नामक कोई व्यक्ति नहीं है-ऐसा कहनेवाले सज्जन की तुलना में वह कम हास्यास्पद नहीं कहा जाएगा। इस विषय के बारे में कितनी भ्रांतियाँ फैल चुकी हैं तथा हिंदुत्व व हिंदू धर्म-इन दो शब्दों का पृथक् विश्‍लेषण करने में यश प्राप्त न होने के कारण इन भ्रांतिपूर्ण विचारों में वृद्धि ही हुई है। इसका अनुभव करना हो तो 'नटेसन कंपनी' द्वारा प्रकाशित 'Essentials of Hinduism' नामक छोटी पुस्तक का अवलोकन करना उचित होगा।

हिंदू धर्म में कई धर्म-पद्धतियों का अंतर्भाव होता है

हिंदू धर्म का अर्थ है-हिंदुओं का धर्म; और जहाँ तक सिंधु शब्द से बने 'हिंदू' शब्द का मूल अर्थ सिंधु से सिंधु तक अर्थात् समुद्र तक फैली हुई इस भूमि में निवास करनेवाले लोग-इस प्रकार होता है। इसीलिए जो धर्म अथवा विशेष रूप से जो धर्म प्रारंभ से ही इस भूमि और यहाँ के निवासियों के धर्म हैं वह धर्म अथवा वे सभी धर्म हिंदू धर्म ही हैं। यदि हम लोगों को इन विभिन्न तत्त्वों एवं विचारों को एक ही धर्म-पद्धति में सम्मिलित करना संभव नहीं दिखाई देता तो दूसरा मार्ग भी अपनाया जा सकता है। हिंदू धर्म इस नाम से एक ही धर्म पद्धति अथवा एक ही धर्म मत का बोध होता है-यह न मानते हुए हिंदू धर्म परस्पर मिलते-जुलते अथवा असमान अथवा परस्पर विरोधी भी-ऐसी अनेक धर्म पद्धतियों का समूह है। हिंदू धर्म की निश्चित व्याख्या आप भले न कर सकते हों; लेकिन आप हिंदू राष्ट्र का अस्तित्व नकार नहीं सकते अथवा इससे भी घातक बात कोई हो, तो हमारे वैदिक और अवैदिक बांधवों की भावनाओं को ठेस पहुँचाकर उनमें से कइयों को अहिंदू कहकर दुतकारने का अपवित्र कृत्य भी आप कर नहीं सकेंगे।

वैदिक धर्म को ही हिंदू धर्म मानना एक भूल है

प्रस्तुत प्रबंध की मर्यादाओं का विचार करने पर यह प्रतीत होता है कि हिंदू धर्म के आवश्यक लक्षण कौन से हैं। इसी विषय पर यहाँ समग्र चर्चा अथवा विवेचन करना संभव नहीं है। इससे पूर्व भी हमने कहा है कि 'हिंदू धर्म क्या है ?" इस प्रश्न पर वस्तुत: चर्चा करना तब ही संभव होगा जब हिंदुत्व के सभी अभिलक्षणों की निश्चित पहचान हो जाने के पश्चात् ही हिंदू कौन है, इस प्रश्न का अचूक उत्तर देना संभव होगा तथा 'हिंदू कौन है' इस प्रश्न का उत्तर निश्चित रूप से हम दे सकेंगे। हिंदुत्व के प्रमुख अभिलक्षणों का ही विचार यहाँ हमें करना है। अतः हिंदू धर्म के स्वरूप के विषय में किसी भी प्रकार की चर्चा यहाँ नहीं की जाएगी। हमारे इस प्रस्तुत विषय में यदि उसका कुछ संबंध है ऐसा प्रतीत होगा, तब उसी संदर्भ में उसका विचार किया जाएगा। हिंदू धर्म' शब्द इतना व्यापक होना चाहिए कि हिंदू लोगों में विद्यमान विभिन्न जातियों तथा उपजातियों के अतिरिक्त, विभिन्न पंथ मत अथवा धार्मिक विचार जो हैं, उन सभी का अंतर्भाव उसमें किया जा सके। सामान्यतः हिंदू धर्म बहुसंख्यक हिंदू लोगों ने जो धर्म पद्धति स्वीकार कर ली हैं उसी के लिए प्रयोग किया जाता है। धर्म, देश अथवा जाति को प्राप्त हुआ नाम उस धर्म, देश अथवा जाति के उत्कर्ष के कारण होता है। यह नाम संभाषण के लिए, संदर्भ तथा उल्लेख की दृष्टि से भी अत्यधिक अनुकूल होता है। परंतु यदि इस अनुकूल संबोधन के कारण कोई भ्रामक, हानिकारक या दिशामूल करनेवाली बात हो सकती है, तो हमें इस बात के लिए सचेत रहना होगा, क्योंकि इस कारण हम लोगों की विचार-शक्ति ही लुप्त हो जाएगी। हिंदू लोगों में बहुसंख्यक लोग जिस धर्म पद्धति को पूजनीय व शिरोधार्य मानते हैं, उसकी संपूर्ण विशेषता स्पष्ट रूप से दरशाने वाले किसी नाम से उसका उल्लेख करना हो, तो उसे ' श्रुतिस्मृति पुराणोक्त' धर्म अथवा 'सनातन धर्म' यही नाम अधिक उचित होगा अथवा इसे 'वैदिक धर्म' कहने पर भी हमें कोई आपत्ति नहीं होगी। परंतु इन बहुसंख्यक हिंदू लोगों के अतिरिक्त ऐसे अनेक हिंदू भी हैं जिनमें से कुछ अंशत: अथवा पूर्णतः पुराणों को तो कुछ स्मृतियों को और कुछ प्रत्यक्ष ऋषियों को भी नहीं मानते। परंतु यदि बहुसंख्यक हिंदुओं का धर्म ही सभी हिंदुओं का धर्म है, ऐसा मानते हुए यदि उसीको हिंदू धर्म कहना चाहोगे तो हिंदू कहलाने वाले, लेकिन अन्य धार्मिक मतों को माननेवाले बांधवों को ऐसा प्रतीत होना स्वाभाविक है कि बहुसंख्यक लोगों ने हिंदुत्व का अपहरण किया है तथा उन्हें हिंदुत्व से बाहर फेंक देने का उनका यह प्रयास क्रोधकारक तथा अन्यायपूर्ण है । अल्‍पसंख्‍यक होने के कारण क्या उनके धर्म का कोई नाम नहीं होगा? परंतु यदि आप लोग इस तथाकथित सनातन धर्म को ही एकमेव हिंदू कहने लगोगे, तब ऐसा कहना अनिवार्य हो जाएगा कि उन अन्‍य मतों को धारण करनेवाले लोगों के नवमतवादी धर्म को हिंदू धर्म कहना संभव नहीं होगा, इसके बाद लोग हिंदू नहीं है, ऐसा कहने का साहस भी करने लगेगे । परंतु पहले में दिए गए तर्कों को नापसंद करते हुए समर्थन देने के अतिरिक्त उनके पास अन्य कोई मार्ग नहीं था और जिन्हें उसे मान्यता देने में कठिनाई लग रही थी, फिर भी उसके अलावा चारा भी नहीं था, उन्हें भी इस निष्कर्ष के कारण धक्‍का लगेगा। हमारे लाखों सिख, जैन, लिंगायत और अन्य समाज के बंधुओं को, जिनके पूर्वजों की नसों में दस पीढ़ियों पूर्व तक तो हिंदू रक्‍त ही बहता था, अचानक 'हिंदू' संज्ञा से नाता तोड़ने की नौबत आने के कारण अत्यंत दुःख हुआ, उसमें से कई लोग तो निश्चित रूप से मानते हैं कि जिन रीति-रिवाजों को उन्होंने नवीन मतों के कारण भ्रामक मानकर त्याग दिया था, उनको या तो पुनः स्वीकार करना चाहिए या फिर उनके पूर्वज जिन जातियों में पैदा हुए थे, उन जातियों को सदा के लिए छोड़ देना चाहिए ।

सभी हिंदू एक ही ध्वज के नीचे एकत्रित होंगे

यह पराया भाव तथा कटुता उत्पन्न होने का कारण हिंदू धर्म के बहुसंख्यक वैदिक लोगों धर्म, इस अर्थ से दुरुपयोग किया जाना ही है । सभी हिंदुओं के विविध धर्म-इस अर्थ में इसका प्रयोग किया जाना चाहिए अन्यथा उसका प्रयोग करना बंद किया जाना चाहिए । बहुसंख्यक हिंदुओं के धर्म का निर्देश सनातन धर्म अथवा श्रुतिस्मृति पुराणोक्त धर्म या वैदिक धर्म-इस प्राचीन तथा पहले से स्वीकृत नामों से उत्तम प्रकार से किया जाता है। शेष अल्पसंख्यक हिंदुओं के धर्म का निर्देश भी उनके पुराने तथा सर्वमान्य सिख धर्म, आर्य धर्म, जैन धर्म अथवा बौद्ध धर्म आदि नामों से ही भविष्य में किया जाना चाहिए । जिस समय इन सभी धर्मों को एक साथ उल्लेख करने का प्रसंग आएगा तब हिंदू धर्म इस समुच्चयवाचक शब्द का प्रयोग किया जाना उचित होगा। बिना किसी शंका के इसे इसी रूप में मान लेना किसी प्रकार से हानिकारक नहीं होगा। इससे इसे अधिक संक्षिप्त रूप में कहना संभव होगा तथा किसी प्रकार की गलती होने का कोई कारण भी नहीं रहेगा । इसी से भविष्य में हिंदुओं की अल्पसंख्यक हिंदूजातियों के पंथों में मन में विद्यमान वैर भाव नष्ट होगा। सभी हिंदू लोग अपनी समान जाति तथा समान संस्कृति का एकमेव चिह्न रहे पुरातन ध्वज के नीचे पुनः एकत्रित हो जाएँगे।

हिंदूजाति द्वारा निर्मित समान समष्टि (समुदाय)

हिंदुस्थान की विभिन्न जातियों के मनुष्य जाति-संबंध में, धर्म वाड्मय में प्राचीनतम उपलब्ध वाड्मय वेद वाड्मय ही है। सप्तसिंधु का, वैदिक परंपरा का यह राष्ट्र अनेक संघों, समुदायों में विभाजित था। आज जिसे हम लोग अपनी सुविधा के लिए वैदिक धर्म कहते हैं, वह उस समय के बहुसंख्य लोगों का धर्म तो था पर सिंधुओं की अल्पसंख्यक जातियों को वह धर्म कभी भी मान्य नहीं था। 'पाणी ७५ दास, ७६ ब्रात्य७७' तथा अन्य अनेक लोग इस धर्म से प्रारंभ से ही अलिप्त रहे थे अथवा इस धर्म से बाहर हो गये थे, यह बात बार-बार दिखाई देती है। फिर भी जातीय तथा राष्ट्रीय रूप से हम सभी एक हैं इस बात की उन्हें समझ थी। वैदिक धर्म नाम का एक धर्म उस समय भी अस्तित्व में था परंतु उस समय उसे सिंधु धर्म के रूप में मान्यता प्राप्त नहीं थी। सिंधु धर्म शब्द यदि उसी समय से रूढ़ हो जाय तब उसका अर्थ सप्तसिंधु में प्रचलित सर्व सनातन अथवा तदितर अन्य धर्म पंचय ऐसा ही समुच्चना दर्शक ही होता। नए की समष्टि कर लेने तथा अवांछित को बाहर फेंक देने की रीति के अनुसार सिंधुओं की जाति का हिंदू में तथा सिंधुस्तान का हिंदुस्थान में रूपांतर हो गया। भविष्य में कई बातों की खोज करके, साहसपूर्वक कई बातों के बारे में ज्ञान प्राप्त करके, अणु से लेकर आत्मा तक और परमाणु से लेकर परब्रह्म तक के सूक्ष्म-से-सूक्ष्म और विशाल-से-विशाल विश्व की खोजबीन की; साथ ही गूढ़ तत्त्वों के बारे में जानकार और परमोच्च समाधि अवस्था में विहार कर ब्रह्मानंद प्राप्त करके सनातनधर्मियों और अन्य धर्ममतों के शिष्यों ने एक ईश्वरवादी और निरीश्वरवादी दोनों प्रकार के लोगों को समजाया जा सके, ऐसी एक विशाल समष्टि (Synthesis) का निर्माण किया। अंतिम सत्य की खोज करना यह उसका ध्येय था तथा प्रत्यक्ष अनुभव उसका मार्ग था। यह समष्टि केवल वैदिक अथवा अवैदिक नहीं थी, परंतु दोनों ही थी। प्रत्यक्ष धर्म का अचूक शास्त्र यही था। वैदिक, सनातनी, जैन, बौद्ध, सिख अथवा देवसमाजी आदि सभी धर्ममतों के सूक्ष्म साक्षात्कार का निष्कर्ष है; उस निष्कर्ष का भी निष्कर्ष है वास्तविक हिंदू धर्म सप्तसिंधु की भूमि में अथवा वैदिककालीन हिंदुस्थान के अन्य क्षेत्रों की अज्ञात जातियों में जो वैदिक अथवा अवैदिक धर्ममत थे, उन्हीं से साक्षात् निर्माण हुए अथवा उन धर्ममतों में परिवर्तन होकर जिन पंथों का उदय हुआ, वे सभी पंथ हिंदूधर्म के नाम से ही ज्ञात है। हिंदू धर्म से अलग न किए जानेवाले वे हिंदू धर्म के अविभाज्य अंग ही हैं।

लोकमान्य तिलक द्वारा की गई हिंदू धर्म की परिभाषा

अतः वैदिक अथवा सनातन धर्म-यह हिंदू धर्म का केवल एक पंथ है, भले ही उस धर्म को माननेवाला बहुसंख्य समाज क्यों न हो। 'प्रामाण्यबुद्धिर्वेदेषु । साधनानामनिकता। उपास्यानामनियमः। एतद धर्मस्य लक्षणम' अनुष्टुप छंद में रचित सनातन धर्म की यह परिभाषा कै. लोकमान्य तिलक की बनाई हुई है। चित्रमयजगत् इस मासिक मराठी पत्रिका में एक विद्वत्ताप्रचुर लेख, जिसमें उनकी बुद्धिमत्ता तथा गंभीर ज्ञान की झलक दिखाई देती थी, उसमें कुछ अपवाद के परिभाषा का स्पष्ट अर्थ समझाते हुए लोकमान्य ने सूचित किया था कि सामान्यतः जिसे हिंदू धर्म कहते हैं, उसी का विचार करने का उनका उद्देश्य था। हिंदुत्व का विचार उन्होंने किया ही नहीं था। इसी के साथ उन्होंने यह भी मान्य किया था कि इस परिभाषा में वास्तविक रूप में जातीय दृष्टि से तथा राष्ट्रीय दृष्टि से आर्यसमाजी जैसे कट्टर हिंदुओं का अथवा उसी प्रकार के अन्य पंथों का समावेश नहीं किया जा सकता। यह परिभाषा अपने आप में सर्वोत्तम तो है पर सत्य की कसौटी पर हिंदू धर्म की परिभाषा नहीं बन सकती। ' हिंदुत्व की तो कभी भी नहीं! सनातन अथवा श्रुतिस्मृति, पुराणों का धर्म हिंदू धर्म में सम्मिलित अन्य धर्मों की अपेक्षा अत्यधिक लोकप्रिय हुआ तथा जिसे धर्म मानने की अयथार्थ प्रथा बन गई, उस सनातन धर्म के लिए यह परिभाषा उचित है।

हिंदू संस्कृति की चिरस्थायी छाप

शब्द व्युत्पत्ति से और वास्तविक परिस्थिति पर ध्यान देते हुए तथा धार्मिक अंगों का विचार करने पर प्रतीत होता है कि हिंदू धर्म हिंदुओं का ही धर्म होने के कारण हिंदुओं की जो प्रमुख विशेषताएँ हैं; वे सभी इस धर्म में दिखाई देनी आवश्यक हैं। हम लोग देख चुके हैं कि हिंदुओं का प्रथम तथा सर्व प्रमुख अभिलक्षण है सिंधु से सागर तक फैली हुई इस भूमिका को अपनी पितृभूमि तथा मातृभूमि मानना। जिन वैदिक अथवा अवैदिक धर्ममतों अथवा पंथों को हम लोग हिंदू धर्म कहते हैं, वे सभी धर्म वास्तविक अर्थ में उन धर्मों अथवा पंथों के विचारों के तत्त्वज्ञान की आपूर्ति करनेवाले अथवा जिन्हें उस धर्म का प्रत्यक्ष ज्ञान हुआ अथवा वह ज्ञान जिन्हें दिखाई दिया, उन द्रष्टा लोगों के समान इसी भूमि में उपजे हैं। सर्व पंथों तथा मतों का जिसमें समावेश किया जाता है उस हिंदू धर्म काआविष्कार प्रथम सिंधुस्थान में हुआ। लौकिक अर्थ में सिंधुस्थान उसकी जन्मभू है। गंगा विष्णु के पदकमलों से निकलती है, परंतु अत्यंत धर्मश्रद्ध व्यक्ति अथवा किसी गूढ़वादी महात्माओं को भी मनुष्य के स्तर पर विचार करने पर प्रतीत होता है कि वह हिमालय को कन्या है। इसी के समान धार्मिक दृष्टि से जिसे हिंदू धर्म का संबोधन दिया गया है, उस तत्त्वज्ञान की यह भूमि जन्मभूमि है, अत: यह मातृभूमि तथा पुण्यभूमि है। हिंदुत्व का दूसरा महत्त्वपूर्ण अभिलक्षण है हिंदू हिंदू माँ-बाप का वंशज होना। प्राचीन सिंधुओं का व उनसे जो जाति उपजी है उस जाति का रक्त उसकी नसों में प्रवाहित होने की बात हर हिंदू अभिमानपूर्वक जानता है। यह अभिलक्षण हिंदुओं के विभिन्न धर्ममतों तथा पंथों के लिए भी सही प्रतीत होता है। ये धर्मतत्त्व हिंदू धर्म के द्रष्टाओं को दिखाई दिए हुए अथवा उन्होंने ही प्रस्थापित किए हुए तत्त्व हैं जो अच्छा है, उसे अपने में सम्मिलित करके जो बुरा है, उसे बाहर फेंकने की क्रिया के अनुसार वे धर्म पंथ अथवा धर्म मत, नैतिक, सांस्कृतिक तथा आध्यात्मिक दृष्टि से सप्तसिंधुओं ने जो वैचारिक प्रगति की, उसी से उपजे हैं- ऐसा प्रतीत होता है। हिंदू धर्म केवल हिंदुओं की प्राकृतिक स्थिति से अथवा विचार परंपरा से परिणत नहीं हुआ है। वह हिंदू संस्कृति का भी ऋणी है। वैदिक काल के प्रसंग हों अथवा बौद्ध या जैनों के इतिहास के प्रसंग हों, इतना ही नहीं चैतन्य, चक्रधर, बसव, नानक, दयानंद या राजाराममोहन जैसे आधुनिक लोगों से संबंधित प्रसंग हों, वे जिस परिवेश में घटे हैं, उसपर तथा हिंदू धर्म की उत्कर अनुभूति को शब्द रूप दिलानेवाली भाषा पर और हिंदू धर्म के पुराणों पर, कल्पनाओं पर तत्त्वज्ञान पर हिंदू संस्कृति ने अपनी अमिट छाप छोड़ी है। इस प्रकार जिसके कई पंथ और उपपंथ, भिन्न मत प्रवाह हैं, वह हिंदू धर्म हिंदू संस्कृति के परिवेश में ही पला-बढ़ा है और विकसित होकर अपना अस्तित्व बनाए रखता है। हिंदुओं का धर्म हिंदुओं की इस भूमि से इतना जुड़ा है, इसी कारण यह भूमि उसे अपनी पितृभूमि तथा पुण्भूमि की लगती है।

ऋषि-मुनियों और साधु पुरुषों की कर्मभूमि

सिंधु से सागर तक फैली हुई यह भारतभूमि, यह सिंधुस्थान हम लोगों को पुण्यभूमि ही है। क्योंकि हम लोगों के धर्म संस्थापकों को तथा वेदों (ज्ञान) की रचना करनेवाले द्रष्टाओं को अर्थात् ऋषियों को-वैदिक ऋषि मुनियों से लेकर महर्षि दयानंद७८तक, जैन मुनियों से लेकर महावीर तक, बौद्ध भगवान् से लेकर बसवेश्वर तक, चक्रधरण ७९ से लेकर चैतन्य तक तथा रामदास से लेकर राममोहन राय ८० तक- साधु-संतों तथा गुरुओं को इस भूमि ने जन्म दिया तथा उन्हें पाल-पोसकर बड़ा किया। इसके मार्गों पर फैली हुई प्रत्येक धूली में से हमारे महात्माओं तथा वंदनीय गुरुओं के पद आज भी हम लोगों के कानों में गूंजते हैं । यहाँ की नदियाँ परम पवित्र हैं। उनके तटों पर निर्मल और पवित्र उद्यान खिल रहे हैं। चाँदनी रात में अधिक रमणीय बने इन नदियों के तट पर अथवा इन्हीं उद्यानों और उपवनों के वृक्षों की छाया में बैठकर किसी बौद्ध ने अथवा किसी शंकराचार्य ने जीवन,जीव,जगदीश, आत्मा, मानव, ब्रह्मा व माया आदि गहन तत्‍वों पर चिंतन तथा चर्चा की होगी। यहाँ दिखाई देनेवाली प्रत्येक गुफा और गिरि-पर्वत किसी कपिल अथवा व्यास या किसी शंकराचार्य अथवा किसी रामदास की स्मृति हम लोगों की आँखों के सामने साकार कर देती है। यहाँ भगीरथ ने राज किया। यहाँ कुरुक्षेत्र है। रामचंद्र ने वनवास गमन के समय प्रथम विराम यहीं किसी जगह किया था । वहाँ जानकी को सुवर्ण मृग के दर्शन हुए तथा उसे प्राप्त करने हेतु उसने आर्यपुत्र से प्रेमपूर्वक हठ किया। इस स्थान पर गोकुल के उस दिव्य गोपाल ने अपनी मुरली बजाई। गोकुल में निवास करनेवाले प्रत्येक व्यक्ति का हृदय मोहित होकर उस मुरली की धुन पर नाच उठा।

हुतात्माओं की वीरभूमि तथा यक्षभूमि

इस स्थान पर स्थित बोधिवृक्ष के नीचे एक मृगोद्यान में महावीर मुक्ति प्राप्त करने हेतु गए थे। यहीं भक्तगणों के समुदाय में गुरु नानक ने 'गगन थाल रविचंद्र दीपक बने' यह भजन गाया। यहीं पर गोपीचंद ने जोगी बनने के लिए दीक्षा ग्रहण की, वह मुट्ठी भर भिक्षा माँगते हुए 'अलख' कहकर अपनी बहन के द्वार पर उपस्थित हुआ। इसी स्थान पर बंदा बहादुर के पुत्र को पिता समक्ष टुकड़ों-टुकड़ों में काटकर मार डाला गया तथा उस बालक का रक्तरंजित हृदय, हिंदू होने के अपराध में उसके पिता के मुँह में जबरदस्ती ठूंस दिया गया। मातृभूमि! तुम्हारी भूमि का हर कण वीर मृत्यु से पावन बना हुआ है। यहाँ कृष्णसार जाति के मृग विद्यमान हैं। कश्मीर सिंहलद्वीप तक यह भूमि ज्ञानयज्ञ अथवा आत्मयज्ञ से परम पवित्र हो गई है। यह वास्तविकतः 'यज्ञीय' भूमि है। अतः संतलों से लेकर साधु तक के सभी हिंदुओं को यह भारतभूमि, यह सिंधुस्थान अपनी पितृभूमि तथा मातृभूमि प्रतीत होती है।

ईसाई अथवा बोहरी अथवा मुसलमान हिंदू नहीं होते

हमारे कुछ मुसलमान अथवा ईसाई देश-बांधवों को पूर्व में जबरदस्ती अहिंदू धर्म को स्वीकार करने को बाध्य किया गया था। इसी कारण अन्य हिंदुओं के समान पितृभूमि, भाषा, निर्बंध-विधान, रीति-रिवाज, प्रचलित आख्यायिका तथा इतिहास- इन सभी से बनने वाली समान संस्कृति का अधिकांश उत्तराधिकार इन्हें प्राप्त हुआ है, परंतु तब भी इन्हें हिंदू मानना संभव नहीं है। हिंदुस्थान उनकी पितृभूमि हो सकती है, परंतु उनको पुण्यभूमि कभी नहीं बन सकती। उनको पुण्यभूमि कहीं सुदूर अरबस्थान अथवा फिलिस्तीन में होती है। उनकी पौराणिक कथाएँ तथा उनके संत, सत्पुरुष, उनके धार्मिक विचार, उनके अवतारी ईश्वर आदि इस भूमि में उत्पन्न नहीं हुए हैं और इस कारण उनको आकांक्षाएँ, उनके नाम आदि में एक परायेपन की झलक दिखाई देती है। इस भूमि से वे संपूर्णतः प्रेम नहीं करते। यदि उनमें से कुछ लोग सदैव घमंड भरी बात करते हैं, और उन्हें ये अपनी बढ़ाइयाँ सत्य प्रतीत होती हों, तब तो उनका कुछ विचार भी करना ही उचित होगा। उन्हें अपनी संपूर्ण श्रद्धा तथा प्रेम पुण्यभूमि को ही अर्पण करना आवश्यक है। पितृभूमि का विचार तो वे उसके बाद करते हैं। इस पर हमें कुछ दुःख नहीं होता है अथवा इसलिए हम उनका धिक्कार नहीं करते। हमने केवल वस्तुस्थिति का ही वर्णन किया है। हमने अभी तक हिंदुत्व के जो अत्यधिक महत्त्वपूर्ण अभिलक्षण निश्चित करने का प्रयास किया है, तब हमें यह प्रतीत हुआ कि बोहरी तथा कुछ अन्य मुसलमानों में हिंदुत्व के एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण अभिलक्षण के सिवाय अन्य सभी अभिलक्षण दिखाई देते हैं। उनका हिंदुस्थान को अपनी पुण्यभूमि के रूप में न स्वीकारना, यही वह अभिलक्षण है।

परधर्म अपनाए हुए बांधवो! पुनः हिंदू धर्म को स्वीकार करो

ईश्वर, आत्मा, मानव संबंधी कुछ नई खोज का निर्देश करनेवाले किसी विशिष्ट धर्मपंथ को स्वीकार करनेवाले किसी भी व्यक्ति के विषय में अभी हम बात नहीं कर रहे हैं, क्योंकि हमें विश्वासपूर्वक ऐसा लगता है कि हिंदू तत्त्वज्ञान में (यहाँ हमें किसी विशिष्ट धर्ममत के विषय में कुछ कहना नहीं है) अज्ञेय के संबंध में नहीं परंतु आजतक जो किसी को ज्ञात नहीं हो सका है, उस संबंध में तथा तत्' एवं 'त्वम्' ८१ में विद्यमान परस्पर संबंधों के विषय पर जितना विचार करना संभव है या मानवी बुद्धि के लिए संभव हो सकता है, उतना सर्व विचार किया जा चुका है। 'आप कौन हो ? अद्वैती एकेश्वरवादी, सर्वेश्वरवादी अथवा निरपेक्षवादी या अज्ञेयवादी ? यहाँ का अनंत अवकाश अभी रिक्त है। हे आत्माराम! तुम कोई भी हो सकते हो। परंतु किसी व्यक्ति विशेष पर नहीं, बल्कि सत्य के विस्तृत तथा शाश्वत आधार पर खड़े इस परम पवित्र और महान् मंदिर में विश्व प्रेम पाने व जिससे अपार शांति प्राप्त होगी, ऐसा परमोच्च विकास करने का पूरा अवसर तुम्हें प्राप्त है। इस स्फटिक समान शुद्ध गंगाप्रवाह के तट पर खड़े होकर भी तुम अपने छोटे पात्र में पानी भरने के लिए दूर-दूर तक के सरोवरों पर क्यों जा रहे हो? तलवार के एक ही प्रहार से क्रूरतापूर्वक जिन्हें मार डाला गया है तथा इस कारण जो तुमसे सदा के लिए दूर हो गए हैं, उस परिचित दृश्यों तथा प्रतिबंधों की स्मृतियों से व्याकुल होकर, हे बंधो, तुम्हारी नसों में बहनेवाला पूर्वजों का रक्त क्यों आक्रोश नहीं करता? बंधो ! पुनश्च हम लोगों में लौट आओ। ये तुम्हारे बंधु और भगिनी, अपने ही रक्त के परंतु भटके हुए तुम्हारे जैसे व्यक्ति का स्वागत करने के लिए इस महाद्वार पर अपनी बाहे फैलाकर खड़े हैं। जिस भूमि पर, महाकाल मंदिर की सीढ़ी पर खड़े होकर चार्वाक ने भी अपने नास्तिकवाद का उपदेश किया था, उस भूमि के अतिरिक्त तुम्हें स्वतंत्र धार्मिक विचार करने की छूट कहाँ प्राप्त हो सकेगी? जिस हिंदू समाज में उड़ीसा के पट्टण से लेकर काशी के पंडित तक तथा संताल से साधू तक प्रत्येक व्यक्ति को विभिन्न प्रकार की समाज रचना निर्माण करने का तथा उसका विकास करने का अवसर प्राप्त होता है; उस हिंदू समाज के अंतिरिक्त इतनी सामाजिक स्वतंत्रता तुम्हें कहाँ प्राप्त हो सकती है? यही सत्य है कि 'यदिहास्ति न सर्वत्र यन्नेहास्ति न कुत्रचित्'। विश्व में प्राप्त होनेवाली सभी चीजें यहाँ विद्यमान हैं और यदि कोई चीज यहाँ प्राप्त करना संभव नहीं है तो वह तीनों खंडों में भी नहीं होगी। इसलिए हे बांधव! एक जाति, एक रक्त, एक संस्कृति तथा एक राष्ट्रीयत्व-ये हिंदुत्व के सभी अभिलक्षण तुम्हारे पास हैं। अत्याचार के शिकंजे में जकड़कर तुम्हें पूर्वजों की छत्रछाया से बलपूर्वक निकाला गया था। इसी कारण आगे चलकर, तुम अपनी मातृभूमि को अपना प्रेम अर्पण करो उसे अपनी पितृभूमि ही नहीं, पुण्यभूमि भी समझने लगो। यह हिंदूजाति तुम्हें भी अपना लेगी!

जो हमारे देशबंधु हैं तथा रक्त के नाते हमारे पुराने भाई हैं, उन बोहरी, खोजी, मेमन और अन्य मुसलमानों तथा ईसाइयों को इस उदार अवसर का लाभ अब उठाना चाहिए। अर्थात् यह सब शुद्ध प्रेम की भूमिका के अनुसार ही किया जाना चाहिए। परंतु जब तक वे लोग इस प्रकार विचार नहीं करेंगे, तब तक उन्हें हिंदू नहीं कहा जा सकता। यहाँ यह बात ध्यान देने योग्य है कि हिंदुत्व शब्द का जो कुछ प्रत्यक्ष अर्थ हम करते हैं उसी के अनुसार हम हिंदुत्व के आवश्यक अंगों का विचार तथा विश्‍लेषण कर रहे हैं। हम लोगों के पूर्वग्रहों को अथवा हमारे द्वारा स्वीकार किए हुए अर्थ को हमें खींचतान करते हुए प्रयोग करना न्याय नहीं होगा।

यही हिंदू धर्म की योग्य तथा संक्षिप्त परिभाषा है

अब तक के विवेचन का संक्षिप्त निष्कर्ष यह है कि हिंदू वही होता है, जो सिंधु से सागर तक फैली हुई इस भूमि को अपनी पितृभूमि मानता है। इसी प्रकार वैदिक सप्तसिंधु के प्रदेश में जिस जाति का प्रारंभ होने का प्रथम तथा स्पष्ट प्रमाण उपलब्ध है तथा जिस जाति ने नए-नए प्रदेशों पर अधिकार करते हुए लोगों को स्वीकार किया और उन्हें अपना लिया, अपनों में समाविष्ट कर लिया और उन्हें परमोच्च अवस्था पर पहुँचाया, उस जाति का रक्त हिंदू नाम के लिए योग्य कहलाने वाले मनुष्यों के शरीर में होता है। समान इतिहास, समान वाड्मय, समान कला, एक ही निर्बंध विधान, एक ही धर्मव्यवहार शास्त्र, मिले-जुले महोत्सव तथा यात्राएँ, मिली-जुली धार्मिक आचार विधि, त्योहार तथा संस्कार आदि विशिष्ट गुणों से ज्ञात हिंदुओं की संस्कृति का परंपरागत उत्तराधिकार उसे प्राप्त होता है। इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण है उसके पूजनीय ऋषि-मुनि, संत-महंत, गुरु तथा अवतारी पुरुष, जहाँ जनमे हैं तथा जहाँ उनके पुण्यकारक यात्रास्थल हैं वह आसिंधु, सिंधु भारत जिसकी पितृभूमि व पुण्यभूमि है, वही हिंदू है! यही हिंदुत्व के आवश्यक अभिलक्षण हैं। समान राष्ट्र, समान जाति, समान संस्कृति- इन अभिलक्षणों को सारांश में इस प्रकार दरशाया जा सकता है। हिंदू वही है जो इस भूमि को केवल अपनी पितृभूमि ही नहीं मानता। इसे वह अपनी पुण्यभूमि भी मानता है। हिंदुत्व के प्रथम दो प्रमुख लक्षण हैं-राष्ट्र तथा जाति। पितृभूमि शब्द से स्पष्ट दिखाई देता है तथा हिंदुत्व का तीसरा लक्षण है-संस्कृति; उसका बोध पुण्यभूमि शब्द से होता है, क्योंकि संस्कृति में ही धार्मिक आचार, रीति-रिवाज तथा संस्कार आदि का अंतर्भाव होता है। इसी कारण यह भूमि हम लोगों की पुण्यभूमि बन जाती है। हिंदुत्व को यही परिभाषा अधिक संक्षिप्त करने हेतु उसे अनुष्टुप में ग्रथित करने का हमने प्रयास किया तो वह अनुचित नहीं होगा, ऐसा हमें विश्वास है -

आसिंधुसिंधुपर्यंता यस्य भारतभूमिका।

पितृभूः पुण्यभूमिश्चैव स वै हिंदूरितिस्मृतः ॥

सिंधु (ब्रह्मपुत्र नदी को भी उसकी उपनदियों के साथ सिंधु कहते हैं।) से सिंधु (सागर) तक फैली हुई यह भारतभूमि, जिसकी पितृभूमि (पूर्वजों की भूमि है' तथा पुण्यभूमि, कर्म के साथ संस्कृति की भूमि) है-वही हिंदू है!

कुछ प्रत्यक्ष उदाहरण

गत परिच्छेदों में हमने हिंदुत्व की कल्पना का स्थूल रूप से जो विवेचन किया है, उससे हिंदुत्व के प्रमुख अभिलक्षणों का अंतर्भाव करनेवाली, हिंदुत्व की कार्यपूर्ति करनेवाली परिभाषा की है। अब यह व्याख्या कसौटी पर किस प्रकार खरी उतरती है इसे देखेंगे। इस व्याख्या की जिस कारण तीव्र आवश्यकता प्रतीत हुई, उनमें से कुछ विशिष्ट उदाहरणों का विचार करेंगे। इस प्रकार से सर्वव्यापी, अस्पष्ट व दिशाभूल करनेवाले वर्गीकरण करते समय जो परिभाषा हम लोगों ने बनाई, उसमें अति व्याप्ती का दोष न रह जाए इस कारण हमने समय-समय पर उचित सावधानी बरती है। अब कुछ उदाहरण लेकर उन्हें इस कसौटी पर परखेंगे। यदि इस परिभाषा के लिए ये पर्याप्ततः योग्य सिद्ध होते हैं, तो इस परिभाषा में संकीर्णता का दोष भी नहीं है ऐसा निश्चित रूप से कहा जा सकेगा। उसमें अतिव्याप्ती का दोष न होने की बात हम लोगों को ज्ञात है, अतः अब केवल अव्याप्ती नहीं है, इसे ही देखने की आवश्यकता है।

हम लोग इस बात को प्रारंभ में ही समझ जाएँगे कि हिंदुओं में जो भौगोलिक विभाग हम लोग देखते हैं, वे सभी इस परिभाषा के अर्थ से सुसंगत हैं। इस परिभाषा की प्रथम मान्यता है कि आसिंधुसिंधुपर्यंता, यह हम लोगों की ही भूमि है। हमारे अनेक बंधु विशेषतः वे लोग जो प्राचीन सिंधुओं के वंशज हैं तथा अभी तक जिन्होंने अपनी जाति तथा भूमि का नाम परिवर्तित नहीं किया है तथा जो पाँच हजार वर्षों के पूर्व समय के समान आज भी स्वयं को सिंधु अथवा सिंधु देश की संतान मानते हैं, वे लोग सिंधु के दोनों तटों पर बसे हुए हैं। इससे एक बात समझना आवश्यक हो जाता । जब सिंधु नदी का उल्लेख किया जाता है तब उसके दोनों ही किनारों का समावेश रहता है। सिंध प्रांत का जो भाग सिंधु के पश्चिम तट पर बसा है, वह भी हिंदुस्थान का एक प्राकृतिक भाग है तथा हम लोगों की परिभाषा में इस पश्चिम भाग का भी समावेश होता है। एक अन्य बात यह है कि प्रमुख देश से जो भूमि जुड़ी हुई रहती है, उसे भी उस प्रमुख देश का नाम दिया जाता है। तीसरी बात यह है कि सिंधु के उस पार रहनेवाले हिंदू लोग प्राचीन इतिहासकाल से इस संपूर्ण भारतवर्ष को ही अपनी वास्तविक पितृभूमि तथा पुण्यभूमि मानते आ रहे हैं। जिस सिंधु के क्षेत्र में वे निवास करते हैं उसी क्षेत्र को अपनी पितृभूमि तथा पुण्यभूमि मानकर मातृ घातकता के दोष के वे कभी भागीदार नहीं बने हैं। इसके अतिरिक्त बनारस, गंगोत्री आदि तीर्थ क्षेत्रों को वे अपने ही तीर्थक्षेत्र मानते आ रहे हैं। प्राचीन वैदिक समय से वे लोग भारतवर्ष का एक अविभाज्य तथा प्रमुख भाग के रूप में पहचाने जाते हैं। 'रामायण' तथा 'महाभारत' में भी सिंधु शिवि सौवीर महान् सिंधु साम्राज्य के अधिकृत घटक होने का उल्लेख किया गया है। वे हमारे राष्ट्र के, हम लोगों की जाति के तथा संस्कृति के ही लोग हैं। इसलिए वह हिंदू ही हैं। इस दृष्टि से हम लोगों की परिभाषा सर्वस्वी यथार्थ है।

हिंदुत्व की भौगोलिक मर्यादाएँ

यदि किसी को ऐसा संदेह हो जाता है कि कोई एक नदी हम लोगों की है इसका अर्थ यह कदापि नहीं होता कि उस नदी के दोनों तट किसी स्पष्ट निर्देश के अभाव में हम लोगों की सीमा में होते हैं। इस कारण भी हमारी परिभाषा में कोई न्यूनता उत्पन्न नहीं होती, क्योंकि हम लोगों के सिंधी बंधुओं के लिए अन्य अनेक कारणों से यह परिभाषा उचित है ऐसा प्रतीत होता है। कुछ समय के लिए सिंधु के उस पार निवास करनेवाले सिंधी बंधुओं के उदाहरण पर विचार नहीं किया जाए, तब भी विश्व के सभी क्षेत्रों में हिंदू लोग लाखों की संख्या में फैले हुए हैं। एक समय ऐसा भी आएगा कि दूसरे स्थानों पर रहनेवाले लोग, जो व्यापार, बुद्धि, कार्यक्षमता तथा संख्या की दृष्टि से जहाँ निवास कर रहे हैं, वहाँ के लोगों से श्रेष्ठ हैं, वे लोग उन प्रदेशों में अपना अधिराज्य स्थापित करते हुए एक स्वतंत्र राष्ट्र का निर्माण करेंगे। क्या हिंदुस्थान के बाहर दूसरे क्षेत्रों में वे निवास करते हैं, इस कारण उन लोगों को अहिंदू समझना चाहिए? निश्चित रूप से 'नहीं' कहना चाहिए, क्योंकि हिंदू हिंदुस्थान के बाहर के प्रदेश का निवासी नहीं होना चाहिए-ऐसा हिंदुत्व के प्रथम अभिलक्षण का अर्थ कदापि नहीं होता। कोई भी व्यक्ति विश्व के किसी भी क्षेत्र में रहने वाला हो। उसने तथा उसके वंशजों ने, सिंधुस्थान ही उसके पूर्वजों की भूमि है, इस बात का स्मरण रखना आवश्यक है। यही हिंदुत्व के प्रथम अभिलक्षण का अर्थ है। यह प्रश्न केवल स्मरण रखने मात्र से जुड़ा हुआ नहीं है। यदि उसके पूर्वज हिंदुस्थान से ही वहाँ गए होंगे तो हिंदुस्थान ही उसकी पितृभूमि निश्चित होती है। इसके अतिरिक्त उसके लिए कोई अन्य पर्याय नहीं है। इसीकारण हिंदुत्व यह परिभाषा, हिंदू लोगों का कितना भी दूर तक प्रसार होने के बाद भी उनके लिए उचित प्रतीत होती है। हमारे उपनिवेशवासी परद्वीपस्थ लोगों को (हिंदुओं ने) महाभारत अथवा बृहत्तर भारत स्थापित करने के अपने प्रयास पहले जैसे ही अविरत रूप में, अपनी सारी शक्ति का उपयोग करते हुए जारी रखना चाहिए। हम लोगों के जो उत्तम, उदात्त, उन्नत तथा मधुर गुण हैं उनको सर्व मानवजाति के उद्धार के लिए उपयोग में लाना चाहिए। आध्रुवध्रुवपर्यंत विस्तृत इस भूमि में वास करनेवाली अखिल मानवजाति की उन्नति के लिए उन्‍हें अपने सद्गुणों का उपयोग करना चाहिए तथा इसी के साथ विश्व में जो-जो सत्य, शिव तथा सुंदर होगा उसे आत्मसात् करते हुए अपनी जाति तथा मातृभूमि को सकल, श्रीसंयुत, सकलेश्वर्य मंडित करना चाहिए। हिमालय के गिरि शिखरों पर उड़ान भरनेवाले गरुड़ के पंख काट डालने का काम हिंदुत्व को नहीं करना है । उसकी उड़ानें अधिक गति से होने के लिए हिंदुत्व चिंता करता है । हे हिंदू बंधुओ! जब तक आप लोग इस बात का स्मरण रखते हैं कि हिंदुस्थान हम लोगों के पितृपूर्वजों की तथा संत-महात्माओं की पावन पितृभूमि तथा पुण्यभूमि है तथा उनकी संस्‍कृति का तथा रक्त का अनमोल उत्तराधिकार हम लोगों को प्राप्त हुआ है, तब तक आपका विकास अवरोधित करनेवाली कोई भी शक्ति इस विश्व में नहीं है, ऐसा स्पष्ट रूप से समझ लीजिए। हिंदुत्व की वास्तविक मर्यादाएँ इस भूलोक की सीमाएँ ही हैं।

हिंदू रक्त तथा हिंदू संस्कृति का समान उत्तराधिकार

हमारे परिभाषा विषयक विचारों में सत्यासत्यता संबंधी कोई गंभीर आक्षेप लेने वाला भूलकर भी कोई व्यक्ति होगा, ऐसा हमें प्रतीत नहीं होता। इंग्लैंड में इबेरियन, केल्ट, अँगल्स, सैक्सनस, डेंस, नॉरमनस लोगों में जाति-भेद होते हुए भी वे आज अंतरजातीय विवाहों के कारण एकरूप तथा एक राष्ट्रीय हो चुके हैं। उसी प्रकार आर्यन, कोलिरियन, द्रवीडीयन अन्य लोगों में जाति विषयक तीव्र मतभेद हैं, ऐसा आज कहा जाता होगा, परंतु निकट भविष्य में वे कदापि नहीं माने जाएँगे। इस संबंध में हमने पूर्व के परिच्छेद में यथावत् चर्चा करते हुए यह स्पष्ट कर दिया था कि हमारे धर्मशास्त्र से मान्यता प्राप्‍त अनुलोम तथा प्रतिलोम विवाह पद्धति से निश्चित रूप से प्रमाणित हो चुका है कि उस समय भी हम लोगों के राष्ट्र-शरीर में समान रक्‍त का प्रवाह, तेजस्वी तथा शक्तिपूर्ण रूप से बह रहा था; क्योंकि जातियाँ परस्पर एकजीव तथा एकरूप हो चुकी थीं। परिवर्तशील कालगति से बदलती रूढ़ियाँ जहाँ-जहाँ स्वीकार नहीं की गईं, वहाँ-वहाँ प्रचलित रूढ़ियों द्वारा खड़ी की गई भेदाभेद की दीवारें प्रबल प्राकृतिक शक्ति के कारण अस्त समय ही ढह गईं । किसी हिडिंबा से प्रेम करने वाला भीमसेन कोई पहला या अंतिम आर्य नहीं था। जिसका हम पहले भी उल्लेख कर चुके हैं। उस व्याधकर्मा को माता ब्राह्मण कन्या- युवा व्याध से प्रेम करनेवाली अकेली आर्यकन्या नहीं थी। इस बीस भील, मच्छीमार अथवा संतलों का कोई पुत्र अथवा कन्या को किसी शहर की पाठशाला में ले जाकर बैठा दो, तब भी उसकी कद-काठी या आचरण से वह किसी विशिष्ट जाति से है ऐसा निश्चयपूर्वक कहना कठिन होगा। जिनका रक्त स्वयं एक-एक स्वतंत्र जाति थी, ऐसे आर्यो, कोलिरियनों, द्रविडों के और हमारे सारे पूर्वजों के रक्त के मिश्रण से जो सम्मिश्र रक्त निर्माण हुआ वह लाभदायक सिद्ध हुआ। उससे नई जाति का जन्म हुआ, उसे आर्यन, कोलिरियन, द्रविड़ियन ऐसा कोई भी नाम नहीं दिया गया। उसे हिंदूजाति हो कहा जाता है। आसिंधुसिंधु तक यह भारतभूमि पुण्यभूमि है तथा जो इस मातृभूमि की संतान होकर यहाँ वास करते हैं, उन लोगों के लिए यह नाम रूड़ हुआ है। इसीलिए संताल, बुनकर, भील, पंचम नामशुद्र तथा अन्य जातियाँ हिंदू ही हैं। इस सिंधुस्थान पर उन तथाकथित आर्यों का जितना अधिकार है उतना ही अधिकार संताल तथा उनके पूर्वजों का भी है। उनमें भी हिंदू रक्त ही है तथा हिंदू संस्कृति उनमें बस गई है, जिन जातियों में, जिनपर पुराणवादी हिंदू संस्कारों का प्रभाव नहीं है, वे जातियाँ आज भी अपने प्राचीन ईश्वर तथा साधु-संतों की ही पूजा करती हैं तथा अपने पुराने धर्म पर उनकी श्रद्धा रहती है। इस भूमि से वे प्रेम जरूर करते हैं। इस कारण यह भूमि उनको पितृभूमि तथा पुण्यभूमि भी बन चुकी है।

हिंदुत्व और हिंदूधर्म, इन दो शब्दों में जो समानता है तथा इस कारण जो भ्रांतियाँ फैली हुई हैं, वे यदि अस्तित्व में ही नहीं होतीं तो हिंदुत्व के किसी भी अंग के लिए कोई विशेष प्रकार की आपत्ति नहीं होती। हिंदुत्व तथा हिंदू धर्म शब्दों का जो दुरुपयोग किया जाता है उस पर भी हमने अपनी तीव्र नाराजगी दरशाई है। हिंदुत्व तथा हिंदू धर्म ये दो पृथक् विचार हैं। उसी प्रकार हिंदू धर्म तथा 'हिंदूइज्म' (वैदिक धर्म इस अर्थ में) ये दो शब्द भी समानार्थी नहीं हैं। हिंदुत्व तथा हिंदू धर्म शब्दों को समानार्थी शब्द मानकर उन दोनों को सनातनी धर्ममतों से जोड़ देना इस दोहरी भूल के कारण असनातनी लोगों को क्रोध आना स्वाभाविक है। उनमें के कुछ गुट इस कल्पना का खंडन न करते हुए इसके विरोध में आगे बढ़कर 'हम हिंदू ही नहीं हैं ऐसा कहना प्रारंभ करते हैं। यह एक बड़ी आत्मघात की भूल वह करते हैं। हमें आशा है कि हम लोगों की परिभाषा के कारण इस प्रकार का मनोमालिन्य उत्पन्न होने की संभावना नगण्य है। हिंदू समाज के सभी सज्जन और विचारवंत लोग इस कथन से सहमत होंगे। इसी उद्देश्य से यह परिभाषा सत्य पर आधारित है।

हमारे सिख बंधुओं का उदाहरण

प्रस्तुत विषय पर सर्वसामान्य प्रकार से चर्चा करते समय जिन विशिष्ट बातों पर पूरी तरह से विचार करना हमारे लिए संभव न था उन्हीं का संपूर्ण विचार हम अभी करने वाले हैं। प्रारंभ में हमारे सिख बंधुओं का उदाहरण लेते हैं। सिंधुस्थान अथवा आसिंधुसिंधु तक की भारतभूमि ही उनकी पितृभूमि थी, पुण्यभूमि थी। इस कथन से असहमत होने की चेष्टा करनेवाला व्यक्ति आज विद्यमान होगा, ऐसा हमें नहीं लगता। लिखित ऐतिहासिक उपलब्ध प्रमाणों के अनुसार इसी भूमि में उनके पूर्वजों का पालन-पोषण हुआ। इसी भूमि से उन्हें प्रेम था तथा यहीं पर उन्होंने अपनी पूजा-अर्चना, उपासना एवं प्रार्थनाएँ कीं। मद्रास के अथवा बंगाल के किसी हिंदू के समान उनकी नसों में भी हिंदू रक्त का ही संचार हो रहा है। महाराष्ट्रीय अथवा बंगालियों की नसों में आर्य रक्त के अतिरिक्त उन सभी अन्य प्राचीन लोगों का रक्त भी है जो इस भूमि में निवास करते थे। इस दृष्टि से सिख वास्तविक रूप से सिंधुओं के प्रत्यक्ष वंशज हैं। इस कारण हिंदूजाति की यह जीवनगंगा समतल प्रदेशों से प्रवाहित होने से पूर्व उसके उत्पत्ति स्थान से उन्होंने उसका जीवनदुग्ध प्राशन किया है, ऐसा कहने का अधिकार केवल सिखों को ही प्राप्त है। तीसरी बात यह है कि हिंदू संस्कृति में उन्होंने भी महत्त्वपूर्ण योगदान देकर उसे वृद्धिंगत किया है। अतः वे भी हिंदू संस्कृति के उत्तराधिकारी व सहयोगी हैं। प्रारंभ में सरस्वती पंजाब की एक नदी का नाम था। बाद में उसे विद्या एवं कला की अधिष्ठात्री देवता समझा जाने लगा। जिस नदी के तटों पर अपनी संस्कृति और सभ्यता के बीज प्रथम समय बोए गए, उस नदी का, हे सिख बांधवो! आप लोगों के पूर्वजों ने अर्थात् हिंदुओं ने कृतज्ञतापूर्वक गुणगान किया तथा उसकी महिमा का वर्णन किया। उनके सुरों में आज के हिंदुस्थान के लाखों लोग अपना भी सुर मिला देते हैं तथा हमारे वेदों के अनुसार 'अंबितमे नदीतमे! देवितमेसरस्वति।' इस प्रकार गायन करते हैं। वे वेद जिस प्रकार हम लोगों के हैं, उसी प्रकार सिखों के भी हैं। वेदों की रचना उनके गुरुओं द्वारा नहीं की गई है, फिर भी आदरणीय ग्रंथों के रूप में उन्हें भी वेद मान्य हैं। उसी प्रकार जिस अज्ञानतिमिर के कारण लोगों अमृतकुंभ के लिए अप्राप्य बन गए थे तथा मानव की सुप्त आत्मा को जाग्रत् करनेवाले ज्ञान सूर्य की किरण भी उन तक पहुँचने में बाधा उत्पन्न हुई थी, अज्ञान के उस गहरे तिमिर से प्रकाश का जो प्रथम भीषण संग्राम हुआ उसका इतिहास भी वेदों में हुआ है। सिखों की कथा का प्रारंभ हमारी तरह वेदों से ही हुआ है। वह कथा राम के अयोध्या के प्रासाद से निकलकर वनवास जानेवाले क्षण की साक्षी है। लंका के रणसंग्राम की साक्षी है। लाहौर की नींव रखते हुए लव की, दुःखी मनुष्य का दुःख हलका करने के लिए कपिलवस्तु से निकले सिद्धार्थ की साक्षी है। पृथ्वीराज के दुःखदायक अंत के लिए हमारे साथ सिख भी अत्यधिक व्यथित हुए। हिंदुओं को जो-जो दुःख भोगने पड़े हैं, जो अपमान उन्हें सहने पड़े हैं, वे सभी उन्होंने भी अनुभव किए हैं। हिंदू कहलाते हुए अन्य लोगों के साथ किसी भी प्रकार का त्याग करने में वे पीछे नहीं रहते। उदासी, निर्मल, गहन गंभीर तथा सिंधी पंथों के लाखों सिख संस्कृत भाषा को अपने पूर्वजों की भाषा के अतिरिक्त इस भूमि की पवित्र भाषा के रूप में पूज्य मानते हैं। उनके अतिरिक्त अन्य सिख, अपने पूर्वजों की तथा जो गुरुमुखी व पंजाबी भाषाएँ बाल्यावस्था में संस्कृत का स्तनपान करती हुई वृद्धिंगत हो रही है, उनकी जननी के रूप में संस्कृत को गौरवान्वित करते हैं। अंत में यह आसिधुसिंधु तक की भूमि उन लोगों की केवल पितृभूमि नहीं है, यह उनकी पुण्यभूमि भी है। गुरु नानक तथा गुरु गोविंद, श्री बंदा तथा रामसिंह आदि इसी भूमि के पुत्र हैं और इसी भूमि ने उनको पाल-पोसकर बड़ा किया है। हिंदुस्थान के तथा मुक्ति के सरोवर (अमृतसर और मुक्तसर) के रूप में आदर करते हैं।

हिंदुस्थान की यह भूमि उनके गुरुओं की तथा गुरुभक्ति की भूमि है अर्थात् उनके गुरुद्वार तथा गुरुगृह यहीं हैं। जिन पर संदेह होने का कोई कारण नहीं है। इस हिंदुस्थान में कोई हिंदू कहलाने योग्य होंगे तो वे हम लोगों के सिखबंधु ही हैं, वे ही सप्तसिंधु के सबसे प्राचीन तथा वही आद्य उपनिवेश स्थापित करनेवाले लोग हैं और सिंधुओं के अथवा हिंदुओं के प्रत्यक्ष वंशज हैं। आज का सिख कल का हिंदू है। कदाचित् हिंदू भविष्य में सिख बन सकता है। रोज के व्यवहार रीति-रिवाज तथा पहनावे में फर्क हो सकता है, परंतु इस कारण रक्त अथवा बीज में कोई फर्क नहीं आता है अथवा इतिहास को संपूर्णतः मिटाकर नष्ट नहीं किया जा सकता।

हमारे सिख बंधुओं का हिंदुत्व स्वयंसिद्ध है। सहजधारी, उदासी, निर्मल तथा सिंधी सिख स्वयं को जाति के तथा राष्ट्रीयता की दृष्टि से हिंदू कहते हैं तथा उन्हें इस बात पर गर्व है। उनके गुरु मूलतः हिंदुओं की संतान होने से किसी ने उन्हें अहिंदू नाम से संबोधित किया तो उन्हें क्रोध न आता होगा, परंतु वे इस बात से कुछ विचलित हो जाते हैं। गुरुग्रंथ को पवित्र मानकर उनका पठन सिखों के समान सनातनी भी करते हैं। दोनों के उत्सव यात्राएँ तथा त्योहार एक समान है। 'सत्खालसा' पंथी सिख उनका संख्याबल ध्यान में रखते हुए 'अपने हिंदू' इस जातिनाम से प्रेम करते हैं तथा हिंदुओं के साथ हिंदुओं जैसा ही व्यवहार करते हैं। यदि आप लोगों को भविष्य में हिंदू नहीं कहा जाएगा, ऐसा उन्हें कहा गया तो इस अकस्मात् निर्णय से उन्हें गहरा धक्का लगेगा। हम लोगों का जातीय ऐक्य इतना असंदिग्ध तथा इतना परिपूर्ण है कि सिख और सनातनियों में परस्पर अंतरजातीय विवाह रूढ़ हो चुके हैं।

सिख वास्तविक रूप में हिंदू ही हैं

कुछ सिख नेताओं को हिंदू कहकर संबोधित किया जाता है, तब कई बार वे क्रोधित हो जाते हैं। यह एक वास्तविकता है। परंतु हिंदू धर्मं तथा सनातन धर्म इन दोनों शब्दों को समानार्थी शब्दों के रूप में प्रयोग करने की भूल हम लोग नहीं करते तो उनके लिए क्रोध का कोई कारण नहीं रहता। इन दो शब्दों के एक ही अर्थ से प्रयोग किए जाने की भूल इसके संभ्रम तथा असंगत विचारों का मूल है। हिंदू लोगों की उपजातियों में जिस प्रकार के भाईचारे के संबंध थे, उनमें बाधा उत्पन्न करने में इस घातक प्रवृत्ति का बड़ा योगदान रहा है। हिंदुत्व किसी एक पंथ की धार्मिक कसौटी पर परखा नहीं जाना चाहिए, यह बात हम स्पष्ट रूप से कह चुके हैं। परंतु यहाँ एक बार पुनः यह बताना हमारे लिए आवश्यक हो जाता है कि सनातन धर्म की जो बातें सिख लोग अज्ञानमूलक तथा अंधविश्वासमूलक मानते हैं उन्हें सिखों को त्याग देना चाहिए। यदि वेदों को अपौरुषेय ग्रंथ के रूप में वे मानते होंगे तो वेदों के प्रति विश्वास दरशाना भी उनके लिए बंधनकारक नहीं होगा। इससे हिंदुओं को विश्वास हो जाएगा कि हम लोगों की परिभाषा के अनुसार सिख भी हिंदू ही हैं। वैष्णव जिस प्रकार वैष्णव बने हुए हैं उसी प्रकार सिख भी सिख बने रहने चाहिए। जैन, वैष्णव या लिंगायत भी अपने को उसी प्रकार अलग समझते हैं। परंतु सांस्कृतिक, जातीय अथवा राष्ट्रीय अर्थ में हम सभी लोग एक हैं और अभिन्न हैं तथा ऐतिहासिक एवं प्राचीन समय से हम लोगों की यथार्थ पहचान हिंदुओं के रूप में ही होती रही है। इस शब्द के अतिरिक्त अन्य कोई भी शब्द हम लोगों के जातीय ऐक्य को इतनी स्पष्टता से नहीं दिखाता है। 'भारतीय' यह शब्द भी पर्याप्त रूप से यह काम नहीं कर सकता, इसका अर्थ भी 'हिंदी' ही होता है तथा यह शब्द अधिक व्यापक है, परंतु हिंदुओं की जातीय एकता इस शब्द से प्रकट नहीं होती। हम लोग सिख हैं, हिंदू हैं तथा भारतीय भी हैं, इन दोनों का समन्वय हम लोगों में विद्यमान है तथापि हम लोगों को स्वतंत्र अस्तित्व प्राप्त नहीं है।

स्वतंत्र प्रतिनिधित्व और सिख समाज

हमें सनातन धर्म के ही अनुयायी मान लिया जाएगा इस भय के अतिरिक्त सिखों का उत्साह बढ़ाने में एक और बात कारण बन गई है। इसीलिए हमें हिंदुओं से पृथक् अस्तित्व प्राप्त होना चाहिए-इस बात पर वे अड़े रहे, यह केवल राजनीतिक कारण था। स्वतंत्र प्रतिनिधित्व प्राप्त होना उचित है अथवा अनुचित, इस बात की चर्चा यहाँ नहीं करनी चाहिए। सिखों को, अपनी जाति का स्वतंत्र रूपसे कल्याण होना आवश्यक है, ऐसा प्रतीत हुआ। 'यदि मुसलमानों को जातीय प्रतिनिधित्व दिया जा सकता है तो हिंदुस्थान की किसी भी महत्वपूर्ण अन्य जाति को इसी प्रकार की सुविधा माँगने का अधिकार क्यों नहीं है, इसे हम लोग नहीं समझ सकते। हम लोगों को यह प्रतीत होता है कि इस प्रकार स्वतंत्र प्रतिनिधित्व की माँग करना तथा हिंदुओं से वे लोग सर्वस्वी भिन्न हैं इस आत्मघातक स्वरूप की तथा अल्प समय तक टिकने वाली भूमिका लेकर इस मांग को उठाना उचित नहीं था। अपनी जाति की हित रक्षा करने हेतु जातीय प्रतिनिधित्व की मांग अल्पसंख्यक तथा महत्त्वपूर्ण जाति के समान सिखों को अपने जन्मसिद्ध हिंदुत्व का त्याग न करते हुए करना संभव था। इस तरह वे सफल भी हो जाते। सिख बंधुओं की जाति मुसलमानों से कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। हम लोग (हिंदू) से उसे हिंदुस्थान की किसी भी अहिंदूजाति की तुलना में वास्तविक रूप से अधिक महत्त्वपूर्ण मानते हैं। जातीय तथा स्वतंत्र प्रतिनिधित्व के कारण जो हानी होती है, वह जातीय पृथक्तावादी वृत्ति के कारण होनेवाली हानि से अधिक नहीं होती। सिख, जैन, लिंगायत, ब्राह्मणों के अलावा अन्य तथा ब्राह्मणों ने भी अपनी जाति विशिष्ट और स्वतंत्र प्रतिनिधित्व की माँग करते हुए संघर्ष करना चाहिए। परंतु यदि अपनी विशिष्ट जाति की उन्नति के लिए यह आवश्यक है ऐसा विश्वास उन्हें होता हो तब ही ऐसा करना उचित होगा। उन्हें इस सूत्र का स्मरण रखना होगा कि उनकी जाति का उत्कर्ष यही हिंदू धर्म उत्कर्ष भी है। प्राचीन समय में भी हमारी चार प्रमुख जातियों को राजसभा में तथा ग्रामसंस्थाओं में जातीयता के आधार पर स्वतंत्र प्रतिनिधित्व प्राप्त होता था। परंतु संपूर्ण समाज में विलीन न होकर स्वतंत्र अस्तित्व बनाए रखने की और हिंदुत्व के अधिक विस्तृत वर्गीकरण से हम लोगों को वर्जित करना चाहिए, ऐसी उनकी धारणा कभी नहीं रही। सिखों की धार्मिक अर्थ में सिखों के रूप में स्वतंत्र पहचान होना उचित है। तथापि सांस्कृतिक, जातीय तथा राष्ट्रीय दृष्टि से उन्हें हिंदू मानना ही आवश्यक है।

हिंदुओं से अलग समझना सिखों के लिए भयंकर हानिकारक होगा

जिन शूरवीरों ने अपने गुरु का शिष्यत्व अस्वीकार न करने के कारण वध करनेवाले जल्लाद की कुल्हाड़ी के नीचे अपने सिर रख दिए 'धर्म हेत शाका जिन किया। शिर दिया पर शिरह न दिया। वे वीर क्या चंद टुकड़ों के लिए अपना बीज अस्वीकार कर देते?' अपने पूर्वजों की झूठी शपथ लेकर ऐसा कहेंगे अथवा जन्मसिद्ध अधिकारों का सौदा करेंगी? शिव! शिव! हम लोगों की अल्पसंख्यकजातियों को यह स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिए कि यदि समर्थता में एकता का बीज होगा तो हिंदुत्व में भी परस्परों को एकत्र करनेवाली प्रेम की इतनी प्रबल शक्ति विद्यमान है कि इस शक्ति से ही चिरंतन बनी रहनेवाली एक बलशाली एकता हममें निर्माण होनेवाली है। अलग रहकर आप लोगों को ऐसा प्रतीत होगा कि यह हम लोगों के लिए अधिक हितावह है, परंतु हम लोगों की प्राचीनतम जाति, संस्कृति एवं आप लोगों को बहुत बड़ी हानि होगी। क्योंकि आप लोगों के हित आपके अन्य हिंदू बंधुओं के हितों से बहुत निकट रूप से जुड़े हुए हैं। विगत ऐतिहासिक प्रसंगों के समान यदि भविष्य में यदि किसी विदेशी आक्रमणकारी ने हिंदू संस्कृति के विरोध में अपनी तलवार उठाई तो यह आपके लिए ध्यान देने योग्य होगा कि अन्य हिंदूजातियों के समान आप पर भी उस तलवार का प्राणघातक प्रहार निश्चित रूप से होगा। जब कभी भविष्य में यह हिंदूजाति पुनः अपनत्व प्रस्थापित करेगी तथा किसी शिवाजी या रणजित के, किसी रामचंद्र अथवा धर्म के; किसी अशोक या अमोघवर्ष के आधिपत्य में नवचेतना एवं शौर्य-पराक्रम से उत्साहित होकर तथा जाग्रत होकर वैभव और उन्नति के शिखर पर आरूढ़ होगी। उस दिन की अपूर्व विजय की प्रभा जिस प्रकार हिंदू राष्ट्र के प्रत्येक अन्य व्यक्ति के मुख पर शोभा देगी उसी प्रकार आपके मुखों को भी शोभायमान कर देगी। अतः बंधुओ! इस प्रकार के अल्प लाभ से फूलकर, कुछ गलत ऐतिहासिक निष्कर्ष निकालकर अथवा अपसिद्धांत बनाकर उनसे प्रभावित न होइए। हम लोगों की भेंट ग्रंथी कहलानेवाले किसी सिख से हुई थी। इस व्यक्ति ने अपने ब्राह्मण साहूकार के घर डाका डालकर उसकी हत्या की थी। इसलिए उसे सजा भी दी गई थी। उसने कहा, 'सिख हिंदू नहीं है तथा गुरु गोविंद सिंह के पुत्रों को ब्राह्मण रसोइए ने धोखा दिया था, इस कारण ब्राह्मण की हत्या करने में कोई दोष नहीं है।' सौभाग्य से उसी समय एक विद्वान् तथा सच्चा ग्रंथी सिख वहाँ उपस्थित था। इस व्यक्ति ने तत्काल विरोध किया और कहा, 'जिन लोगों ने सिख गुरुओं को आश्रय दिया तथा प्रसंग उत्पन्न होने पर उनके लिए प्राणों की बाजी भी लगा ऐसे मतिदास आदि ब्राह्मणों के उदाहरणों से उसे निरुत्तर भी कर दिया। शिवाजी के जाति के ही लोगों ने क्या विश्वासघात नहीं किया? उसके पौते से असत्य आचरण करनेवाला पिसाल क्या अहिंदू था? परंतु इस कारण शिवाजी ने अथवा उसके राष्ट्र ने अपनी जाति या हिंदुत्व से संबंध विच्छेद नहीं किए थे। वीर बंदा से अलग होते समय बहुत से सिखों का आरंभ में उसके प्रति विश्वासघातक आचरण था। तत्पश्चात् किसी अन्य समय जब खालसा सिखों का अंग्रेजों के साथ युद्ध हुआ तब भी सिखों का आचरण इसी प्रकार का था। भयंकर युद्ध हो रहा था, उस समय अनेक सिखों ने गुरुगोविंदसिंह का साथ छोड़ दिया। सिखों के इस विश्वासघात की तथा भारुतापूर्ण आचरण के कारण हम लोगों के सिंह जैसे पराक्रमी गुरु को शत्रुओं का घेरा तोड़कर बाहर आने के लिए बहुत कड़े प्रयास करने पड़े। इसी प्रसंग के कारण ब्राह्मण को गुरुपुत्रों का विश्वासघात करने का अवसर प्राप्त हुआ। इस नीच कृत्य के कारण हम लोगों को हिंदू कहलाने में लज्जा का अनुभव होता है, तब सिखों को नीच आचरण के कारण सिख कहलाने में लज्जा का अनुभव क्यों नहीं होता ?

हिंदुओं की अल्पसंख्यक तथा बहुसंख्यक जातियाँ आकाश से अचानक पृथ्वी पर अवतीर्ण नहीं हुई हैं। एक ही संस्कृति तथा एक ही भूमि में जिसकी जड़ें गहरी पहुंचकर जम चुकी हैं ऐसे किसी महान् वृक्ष के समान उनका विकास हुआ है। किसी बकरी के बच्चे को कच्छा तथा कृपाण बाँधकर उसे सिंह नहीं बनाया जा सकता है। गुरु गोविंदसिंह ने वीर और हुतात्माओं की एक टोली सफलतापूर्वक बना ली। वह जाति हो तेजस्वी व पराक्रमी थी इसी कारण यह संभव हो सका। सिंह के बीज से सिंह ही उपजता है। क्या फूल कभी कह सकता है कि जिस डाली पर वह खिला है, उसका उस पौधे की जड़ों से क्या संबंध है? उस फूल के समान हम लोग भी अपना बीज अथवा रक्त अस्वीकार नहीं कर सकते। जब आप किसी ऐसे सिख का उल्लेख करते हैं जो अपने गुरु के प्रति विश्वास रखता है तब आप किसी ऐसे हिंदू का उल्लेख करते हैं जो अपने गुरु का सच्चा शिष्य है, क्योंकि सिख बनने से पूर्व तथा आज भी वह एक हिंदू ही बना हुआ है। जब तक हम लोगों के सिख बंधु अपने सिख पंथ के सच्चे अनुयायी होंगे तब तक हिंदू बने रहना ही उनके लिए आवश्यक है । तब तक यह आसिंधुसिंधु तक भारतभूमि उनकी पितृभूमि तथा पुण्यभूमि भी बनी रहेगी। जिस समय वे स्वयं को सिख कहलाना बंद कर देंगे उसी समय उन्हें हिंदू नहीं कहा जाएगा।

अब तक हमने अपने सिख बंधुओं का उदाहरण देकर प्रदीर्घ चर्चा की है। हमारी परिभाषा के अनुसार यह विवेचन और विचार सिखों के समान हम लोगों के अन्य अवैदिक जातियों तथा धर्मपंथों के लिए भी उचित है। उदाहरण के लिए देवसमाजी स्वयं अज्ञेयवादी है, परंतु हिंदुत्व का अज्ञेयवाद अथवा निरीश्वरवाद से कोई संबंध नहीं है। देवसमाजी इस भूमि को अपनी पितृभूमि तथा पुण्यभूमि मानते हैं, अत: वे हिंदू ही हैं। इस चर्चा के पश्चात् आर्यसमाजी बंधुओं का विचार करना आवश्यक नहीं लगता, क्योंकि इन लोगों में हिंदुत्व के सभी लक्षण इस प्रकार अत्यधिक स्पष्ट रूप में विद्यमान हैं कि ये कट्टर हिंदू हैं ऐसा ही अनुभव होगा। इस प्रकार किसी कारण से हम लोगों की परिभाषा में अव्याप्ति का दोष है, यह दरशानेवाला एक भी उदाहरण प्राप्त नहीं होता।

एक नाजुक अपवाद

परंतु एक उदाहरण ऐसा है कि उससे किसी संतोषजनक मार्ग का पता नहीं चलता। यह उदाहण है भगिनी निवेदिता ८२ का अपवाद के कारण नियम प्रमाणित होता है, यह यदि सत्य हो, तो इस अपवाद के कारण ऐसा हो रहा है, ऐसा कहना कोई भूल नहीं होगी। हमारी देशाभिमानी तथा विशाल हृदय की सिंधु से सिंधु तक भूमि को अपनी पितृभूमि के रूप में स्वीकारा था। वह इस भूमि से नितांत प्रेम भी करती थी। यदि हम लोगों का देश स्वतंत्र होता, तो हम लोगों ने इस देवतुल्य व्यक्ति को अपने राष्ट्र के नागरिकत्व के अधिकार अर्पित किए होते। हिंदुत्व का प्रथम अभिकरण मर्यादित रूप में इस संबंध में प्रयुक्त किया जा सकता है। इस उदाहरण में हिंदुत्व का दूसरा अभिलक्षण-हिंदू माता-पिता का रक्त शरीर में विद्यमान होना कदापि नहीं मिल सकता। किसी हिंदू से विवाह करने के पश्चात् ही यह न्यूनता हटा देना संभव है, क्योंकि विवाह बंधन के कारण स्त्री-पुरुष परस्पर एकरूप हो जाते हैं। संपूर्ण विश्व में भी इस मार्ग को मान्यता मिली है, परंतु यह दूसरा अभिलक्षण उनमें किसी कारणवश विद्यमान नहीं था। तथापि तीसरे अभिलक्षण के अनुसार वे हिंदू कहलाने की अधिकारी थी। उन्होंने हम लोगों की संस्कृति को स्वीकार किया था तथा इस भूमि से वह पुण्यभूमि के रूप में प्रेम करती थीं। हम हिंदू ही हैं' ऐसा वास्तविक रूप से उन्हें प्रतीत होता था। हिंदुत्व की अन्य सभी शास्त्रीय कसौटियों पर विचार न भी किया जाए तब भी यह एक ही वास्तव तथा महत्त्वपूर्ण कसौटी है ऐसा मानना किसी प्रकार से अनुचित नहीं होगा। परंतु व्यवहार में बहुसंख्यक लोग हिंदुत्व शब्द का जिस अर्थ में प्रयोग करते हैं, उसी पर विचार करने के पश्चात् ही हम लोगों को हिंदुत्व के अभिलक्षण निश्चित करने हैं। इस बात का विस्मरण होना उचित नहीं होगा। इसी कारण अहिंदू माता-पिता की संतान को हिंदू कहलाने का अधिकार तभी दिया जाएगा जब वह व्यक्ति हम लोगों के देश को अपना देश मान लेगा और किसी हिंदू से विवाह करने के पश्चात् इस देश से पितृभूमि के रूप में प्रेम करने लगेगा और नित्य के व्यवहार में हम लोगों की संस्कृति को स्वीकार करते हुए इस देश को पुण्यभूमि के रूप में पूजनीय मानने लगेगा। इस नए दांपत्य की संतानों को भी अन्य बातें समान होने के कारण नि:संदेह रूप से हिंदू कहा जाएगा। इससे अधिक कहने का अधिकार हमारा नहीं है।

निर्दोष परिभाषा

हिंदुओं के किसी भी धर्मपंथ के तत्त्वज्ञान पर जिसकी श्रद्धा है ऐसे किसी भी नवागत को सनातनी, सिख अथवा जैन नाम से ही पहचाना जाएगा, क्योंकि येसभी धर्म अथवा पंथ हिंदुओं द्वारा ही स्थापित किए गए हैं अथवा हिंदुओं के ही विचार की उपज हैं तथा इन सभी को साधारण हिंदू संबोधन ही प्राप्त हुआ है। परंतु इस विदेशी अनुयायी को केवल धार्मिक अर्थ से ही हिंदू कहा जाता है। यहाँ इस बात को ध्यान में रखना आवश्यक है कि इन विदेशी अनुयायियों में जो धार्मिक अथवा सांस्कृतिक दृष्टि से हिंदू कहलाते हैं, केवल एक ही लक्षण दिखाई देता है। इसी कमी के कारण जो हमारी जाति के धार्मिक पंथ का अथवा मतों का अनुयायी अपने आपको समझता है, उसे लोग 'हिंदू' कहने के लिए तैयार रहते हैं। हमारी मातृभूमि की बहुमोल सेवा जिस भगिनी निवेदिता अथवा ऐनी बेसेंट ८३ द्वारा की गई है, उनके लिए हम लोगों के मन में कृतज्ञ भाव रहता है। एक स्वतंत्र जाति के रूप में हम हिंदू लोग मृदु तथा संवेदनशील हैं कि प्रीति के स्पर्श से पुलकित हो जाते हैं। जो व्यक्ति- स्त्री या पुरुष- कोई भी हम लोगों के राष्ट्रीय जीवन में अपना व्यक्तिगत जीवन एकरूप करता है, उसे लगभग बिना विचार किए ही हिंदूजाति में सम्मिलित कर लेते हैं। परंतु यह अपवाद स्वरूप ही किया जाना चाहिए। हमें विश्वास है कि जिन विभिन्न उदाहरणों द्वारा हम लोगों ने हिंदुत्व की जो परिभाषा बनाई है तथा उसका परीक्षण किया है, वह दोनों दृष्टि से संतोषप्रद है और 'अव्याप्ति' व 'अतिव्याप्ति' के दोषों से मुक्त है।

प्रकृति की दिव्य करांगुलियों द्वारा रेखित राष्ट्र के संरक्षक सीमांत

अभी तक की चर्चा में उपयुक्ततावादी दृष्टिकोण को कुछ भी स्थान नहीं दिया गया था। परंतु चर्चा अब समाप्त होने को है, इसलिए हिंदुत्व के जो लक्षण हमने निरूपित किए हैं, वे किस प्रकार उपयोगी है, इसका विचार करना अप्रासंगिक नहीं होगा। जिस प्रकार की भूमिका लेकर हिंदू राष्ट्र को स्वयं का भविष्य सुनिश्चित करने का तथा जब-जब विरोध में तूफान उठेंगे और आक्रमण होंगे, उनका सामना करते हुए उन्हें असफल बनाने का सामर्थ्य उत्पन्न करने की शक्ति इन मूल तत्त्वों में विद्यमान है अथवा नहीं, या हिंदूजाति मिट्टी की खोखली नींव पर खड़ी होकर केवल डींगें मार रही है, इसका विचार करना होगा।

कुछ प्राचीन राष्ट्रों ने अपने देश को एक सुरक्षित किला बनाने हेतु अपने देश के चारों ओर दीवारें खड़ी की थीं। आज वे मजबूत व प्रचंड दीवारें मिट्टी में मिल चुकी हैं तथा वहाँ पड़े मिट्टी के ढेर देखने पर ही उनके अस्तित्व का पता चलता है। आश्चर्य इस बात का है कि जिन लोगों की सुरक्षा करने हेतु ये दीवारें खड़ी की गई थीं, वे लोग भी लुप्तप्राय हो चुके हैं। हम लोगों के अति प्राचीन पड़ोसी देश चीन की कई पीढ़ियों ने मेहनत करके संपूर्ण चीनी साम्राज्य को परिवेष्टित करनेवाली एक विशाल, ऊँची तथा मजबूत दीवार बनाई थी। वह विश्व का एक आश्चर्य बन गई। परंतु वह भी मानवी आश्चर्यकृतियों के समान अपने ही भार से ढह गई। परंतु प्रकृति की बनाई हुई ये दीवारें देखिए वे संपूर्णतः तृप्त बने हुए किसी ऐश्वर्य-संपन्न व्यक्ति के समान गर्व से खड़ी दिखाई देती हैं। वैदिक समय में प्रकृति के स्रोतों की रचना करनेवाले ऋषियों को भी वे ऐसी ही दिखाई देती थीं तथा आज हम लोग भी उन्हें उसी स्वरूप में देखते हैं। हिमालय की प्रचंड पंक्तियाँ हम लोगों की संरक्षक दीवारें हैं। इन्हीं के कारण हमारा देश सुरक्षित दुर्ग सदृश बन गया है।

गागर और मटकियों से आप लोग चरों में पानी भरते हैं तथा इसे आप खाई कहते हैं, परंतु प्रत्यक्ष वरुण ने भूखंडों को दूर हटाते हुए इस रिक्त स्थान को अपने दूसरे हाथ से पानी से भर दिया है। यह हिंदी महासागर, खाड़ियाँ और उपसागर के साथ एक विशाल चर या खंदक की भूमिका निभा रहा है।

ये हम लोगों के देश की सीमाएँ हैं। इस कारण हम लोगों को सागरतट वभूमि दोनों का ही लाभ प्राप्त हुआ है।

परमेश्वर की अत्यधिक लाडली बेटी है हमारी मातृभूमि

सकल सौभाग्य से अलंकृत हम लोगों की यह भूमाता ईश्वर की अत्यधिक लाडली कन्या है। उसकी नदियाँ अथाह तथा अविरत रूप से प्रवाहित होनेवाले जल से परिपूर्ण हैं। हर वर्ष यहाँ खाद्यान्नों का विपुल उत्पादन होता है। उसको प्राकृतिक आवश्यकताएँ अत्यल्प हैं तथा केवल संकेत करने पर इन्हें पूरा करने हेतु प्रकृति दोनों हाथ जोड़कर सदैव तत्पर रहती है। नाना प्रकार के पशु-पक्षी, वन्य पशु तथा विविध प्रकार के फल-फूलों के वृक्ष इस भूमि पर विद्यमान हैं। इन सभी के लिए हमें सूरज से प्रकाश और गरमी उचित मात्रा में प्राप्त होती है। बर्फ के नीचे कई महीनों तक दबे रहनेवाले प्रदेश उन्हें ही लाभकारी हों। शीत जलवायु में कष्टदायक काम करने के लिए उत्साहवर्धक वातावरण बना रहता है, परंतु यहाँ की उष्ण जलवायु के कारण अधिक कष्ट उठाने की आवश्यकता नहीं पड़ती। सदैव शुष्क गले से रहने की तुलना में अपनी तृष्णा शीत मधुर जल पीकर बुझाना हमें अधिक अच्छा लगता है। उन लोगों के पास मूलतः जो नहीं है, उसे कष्टपूर्वक प्राप्त करने के आनंद का उन्हें सुखकर उपभोग करने दीजिए, परंतु जिन्हें अनायास ही कुछ चीजें प्राप्त हो रही हों तो उनका उपभोग करने का अधिकार क्या उन्हें प्राप्त नहीं होता? बर्फ से जमे हुए फादर थेम्स के प्रवाह पर वाहन की सवारी करने का कितना भी सुख क्यों न हो, परंतु हमारी भारतमाता को घाटों पर चाँदनी रात में गंगा के रुपहले जल-प्रवाह में कौमुदी विहार करनेवाली नौकाएँ देखने में अधिक सुख मिलता है। हम लोगों के पास हल, मोर, कमल, हाथी तथा गीता है, इसलिए शीत कटिबंध में निवास करने से जो सुख प्राप्त होते हैं उन्हें त्यागने के लिए भारतभूमि तैयार है। सभी चीजें अपनी सेवा करने हेतु ही बनी हैं, यह बात उसे ज्ञात है। उसके वन तथा उपवन सदा हरे-भरे व शीतल छायायुक्त रहते हैं। उसके खाद्यान्न भंडार सदैव अन्न-धान्य से भरे होते हैं। यहाँ का पानी स्फटिक के समान निर्मल है, फूल सुगंधित और फल रसदार हैं। वनस्पतियाँ औषधि गुणों से युक्त हैं। ऊषा के दिव्य रंगों में वह अपनी तूलिका डुबोती है तथा गोकुल में गायन के आलाप उसकी बाँसुरीसे उत्पन्न होते हैं। नि:संदेह हमारी सकल सौभाग्य से अलंकृत भूदेवी ईश्वर की अत्यधिक लाडली कन्या ही है।

समान वसतिस्थान

इंग्लैंड अथवा फ्रांस ही नहीं, विश्व के अन्य देशों को, चीन तथा अमेरिका के अपवाद के अतिरिक्त किसी भी देश को, हिंदुस्थान जैसी प्राकृतिक रूप से सुरक्षित और संपन्न भूमि प्राप्त नहीं हुई है। समर्थ राष्ट्रीयत्व का प्रथम तथा अत्यंत महत्त्वपूर्ण अभिलक्षण है- सभी को एक समान प्रतीत होनेवाली स्वदेश भूमि तथा सामान्य वसतिस्थान दूरदृष्टि से विश्व के सभी देशों का विचार किया जाए तो प्रतीत होता है कि एक महान् जाति के विकास के लिए अत्यधिक सुयोग्य भूमि अर्पण करने में हमारे राष्ट्र ने जिस उदारता का परिचय दिया है, वह किसी अन्य देश में दिखाई देना असंभव है। ऐसी पितृभूमि के लिए नितांत प्रेम हम हिंदू लोगों का राष्ट्रनिष्ठा का प्रथम और अत्यंत आवश्यक अभिलक्षण है। उस प्रेम का प्रभाव हमारे राष्ट्र को अधिक समृद्ध व बलशाली बनाने में सहायक होता है। इससे हम लोगों को 'न भूतो न भविष्यति' ऐसा पराक्रम करने की स्फूर्ति होती है तथा शक्ति का लाभ होता है।

हम लोगों का संख्याबल

हिंदुत्व के दूसरे अभिलक्षण के कारण हममें अनजाने में एकता और राष्ट्रीय महानता की जो जन्मजात प्रवृत्तियाँ विद्यमान हैं उनका मूल्य बढ़ जाता है। विश्व के किसी भी अन्य देश में चीन का अपवाद छोड़कर, इतनी एकविध, इतनी प्राचीन और फिर भी संख्याबल तथा जीवंतता से समर्थता प्राप्त करनेवाली जाति कहीं भी वास नहीं करती। राष्ट्रीयत्व के मूलाधार के रूप में जो भौगोलिक क्षेत्र हम लोगों को प्राप्त हुआ है उसी प्रकार की भूमि अमेरिका के पास है। परंतु हम लोगों की तुलना में अमेरिका का स्थान नीचे ही है। मुसलमान अथवा ख्रिश्चन एकजाति नहीं है। वे धार्मिक रूप में एक भले ही होते हैं परंतु राष्ट्रीयता अथवा जातीयता में वे भिन्न हैं। इन तीनों बातों का विचार करने पर ज्ञात होता है कि हम हिंदू लोग अपने एक ही अति प्राचीन छत्र के नीचे अखंड रूप से रहते हैं। हम लोगों का संख्याबल एक महान वैशिष्ट्य है।

समान संस्कृति

अब संस्कृति का विचार! शेक्सपीयर इंग्लिश तथा अमेरिकन दोनों केहोने के कारण वे एक-दूसरे को भाई कहते हैं। परंतु केवल कालिदास अथवा भास ही नहीं तो हे हिंदू बांधवो! रामायण तथा महाभारत के अतिरिक्त वेद भी आज सभी लोगों के हैं। अमेरिका में बच्चों को जो राष्ट्रगीत सिखाया जाता है उसकी पार्श्वभूमि होती है अमेरिका के विगत दो शतकों का इतिहास। इस कारण अमेरिका भविष्य में यावतचंद्रदिवाकरौ महान् वैभव से अपने उच्च स्थान पर बना रहेगी, इस प्रकार का भावनोद्दीपक वर्णन किया जाता है। परंतु हिंदू इतिहास केवल कुछ शतकों का इतिहास नहीं है। उसकी गणना युगों से की जाती है ऐसा करते समय हिंदू के मुख से ये शब्द साश्चर्य निकल पड़ते हैं-'रघुपतेः क्व गतोत्तर कोशला। यदुपतेः क्व गता मथुरा पुरी॥ हिंदू मिथ्या गौरव को कोई महत्त्व नहीं देता। सारासार विचार तथा सापेक्षता यही वास्तविक रूप से अंतिम सत्य है, यह बात वह मानता है। इसी कारण वह रॅमसेल अथवा नेबुचाडनेझार से अधिक चिरंजीव बन गया। जिस राष्ट्र का कोई भूतकाल नहीं है उसका भविष्य काल भी नहीं होता।' ऐसा कहने में यदि कुछ तथ्य होगा तब जिस राष्ट्र ने पराक्रमी तथा अवतारी पुरुषों की और उनके भक्त-पूजकों की एक अखंड परंपरा निर्माण की तथा जिस शत्रु ने अपने बल से ग्रीस व रोम, परोहा तथा इनकस लोगों को तथा राष्ट्रों को पूर्णतः नाम शेष किया था, उसी शत्रु से युद्ध करते हुए उसपर विजय पाई थी। उस राष्ट्र के इतिहास में विश्व के किसी भी अन्य राष्ट्र के इतिहास की तुलना में उज्ज्वल भविष्य की हामी दिखाई देती है।

मातृभूमि की तुलना में पुण्यभूमि के प्रति प्रेम श्रेष्ठतर होता है

संस्कृति के साथ ही समान पुण्यभूमि के प्रति प्रेम मातृभूमि के प्रेम से अधिक शक्तिशाली होता है। मुसलमानों का उदाहरण लीजिए। दिल्ली अथवा आगरा की तुलना में वे मक्का से ही अधिक प्यार करते हैं। उनमें से कुछ लोग प्रकट रूप में कहते हैं कि इस्लाम की उन्नति के लिए अथवा अपने धर्म संस्थापकों की पुण्य भूमिका रक्षण करने हेतु प्रसंग आने पर वे सभी हिंदी बातों की आहुति देने के लिए कटिबद्ध हैं। यहूदी लोगों का भी यही विचार रहता है। जिन देशों में उन्हें आश्रम मिला तथा अनेक शतकों तक उत्कर्ष पूर्व जीवन का उपभोग किया, उस भूमि के प्रति उन्होंने कृतज्ञतापूर्वक प्रेम कभी प्रकट नहीं किया। उनकी जन्मभूमि के प्रति उनका आकर्षण नहीं होगा। दूर होते हुए भी उनकी स्वाभाविक सहानुभूति उनकी पुण्यभूमि के लिए होगी तथा यदि यहूदी राष्ट्र व इन देशों में, जिन्हें वे अपना मानते हैं, युद्ध का प्रसंग उत्पन्न होता है। तब ज्यू राष्ट्र से ही उनकी सहानुभूति रहेगी। इस प्रकार से विरोधी पक्षों का साथ देने के इतने उदाहरण इतिहास में विद्यमान हैं कि उनका क्रमानुसार तथा संख्या देना निरर्थक होगा। विभिन्न समय पर जो 'क्रुसेड्स' ८४ हुए (धर्मयुद्ध) उनसे इस बात की पुष्टि हो जाती है कि राष्ट्रीयत्व व भाषा द्वारा भिन्न जाति के लोगों को भी एकत्रित करने में पुण्यभूमि विषयक प्रेम विलक्षण प्रभावी होता है।

राष्ट्र में संपूर्ण स्थिरता तथा एकता का भाव निर्माण होने में यदि कोई आदर्श स्थिति होती तो वह है वहाँ के निवासियों का उस भूमि के प्रति भक्तिभाव होना।उनके पितरों तथा पूर्वजों की भूमि ही उनके ईश्वरों-देवताओं की, ऋषियों तथा धर्म संस्थापक साधु पुरुषों की भी भूमि होनी चाहिए। इसी भूमि में उनके इतिहास को घटनाएँ घटी हुई होनी चाहिए तथा उनके पुराण भी वहीं निर्माण किए गए होने चाहिए।

हिंदू ऐसी एकमेव जाति है जिसे इस प्रकार की आदर्श स्थिति प्राप्त हुई है। उसी के कारण राष्ट्रीय स्थिरता व एकता की भावना तथा कीर्ति संपादन करने हेतु एक निश्चित स्फूर्तिस्थान उन्हें प्राप्त हो चुका है। चीनी लोग भी हम लोगों जैसे भाग्यशाली नहीं हैं। केवल अरेबिया और फिलिस्तीन को ही और भविष्य में अपना राष्ट्र स्थापित करने का यदि यहूदियों को अवसर प्राप्त होता है तब उन्हें इस क्वचित् ही दिखाई देनेवाली युति का लाभ प्राप्त होने की संभावना है। परंतु महान राष्ट्र स्थापित करने हेतु प्राकृतिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक तथा संख्याबल आदि आवश्यक घटकों का विचार करना पूर्णतः गौण प्रतीत होता है। तथापि फिलिस्तीन यहूदी लोगों का स्वप्न फिलिस्तीन राष्ट्र के रूप में साकार हुआ भी, तब भी उपरिनिर्दिष्ट घटकों की कमी उनके लिए सदैव बनी रहेगी।

भाग्यशाली भारतभूमि

इंग्लैंड, फ्रांस, जर्मनी, इटली, तुर्कस्थान, जापान, अफगानिस्तान आज काइजिप्त (पुंटो को प्राचीन वंशज तथा उनका इजिप्त बहुत समय पूर्व ही नष्ट हो चुका है) तथा अन्य संस्थान, मेक्सिको, पेरु, चिली (इनसे छोटे देशों का उल्लेख भी करना आवश्यक नहीं है) आदि सारे देश कुछ सीमा तक एकात्म तथा एकरूप दिखाई देते हैं, परंतु भौगोलिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक तथा समाजविषयक आवश्यक बातों में वे हम लोगों के समान भाग्यशाली नहीं हैं। इसके अतिरिक्त पुण्यवान मातृभूमि प्राप्त करने का दुर्लभ सौभाग्य भी उन्हें प्राप्त नहीं हुआ है। रूस तथा अमेरिका-भौगोलिक अर्थ से विस्तृत भूप्रदेश प्राप्त हुए हैं, परंतु राष्ट्रीयत्व के जो अन्य आवश्यक अभिलक्षण हैं, उनका संपूर्ण अभाव यहाँ दिखाई देता है। आज विश्व के राष्ट्रों में भौगोलिक, जातीय, सांस्कृतिक तथा संख्याबल आदि जो-जो आवश्यक अभिलक्षण हैं वे सभी हिंदुओं के समान यदि किसी अन्य राष्ट्र मेंविद्यमान हो तो केवल चीन का ही निर्देश किया जा सकता है। परंतु संस्कृत जैसी पावन तथा पूर्णत्व को पहुँचनेवाली भाषा का तथा पुण्यवान मातृभूमि का जन्मसिद्ध समान उत्तराधिकार हम लोगों को प्राप्त है इस कारण राष्ट्रीय एकता निर्माण करने की दृष्टि से आवश्यक अभिलक्षणों का अथवा प्रमुख अंगों का विचार करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि हम लोग अधिक सौभाग्यशाली हैं।

हिंदू बंधुओ! संघटित होने पर ही आप जीवित रह सकेंगे

एक बार भूतकाल पर दृष्टिक्षेप डालिए तत्पश्चात् वर्तमान का अवलोकन कीजिए। एशिया की मुसलमानों की संघटना, यूरोप के विभिन्न राष्ट्रों के राजकीय उद्देश्यों से प्रभावित संघ, अफ्रीका तथा अमेरिका में चल रहे एथियोपिक आंदोलन आदि को सतर्कतापूर्वक देखने के पश्चात् हे हिंदू बंधुओ! विचार कीजिए। आपका भवितव्य सदा के लिए इस हिंदुस्थान के भवितव्य से ही जुड़ा हुआ है क्या? तब यह भी सच है कि हिंदुस्थान के भविष्य को भले या बुरे प्रकार से निर्माण करने का काम हिंदुओं को ही करना है। यह हिंदुओं की शक्ति पर ही निर्भर करता है। हिंदू, मुसलमान, पारसी, ईसाई और यहूदी लोगों में वे प्रथम हिंदी हैं तथा बाद में अन्य हैं, इस प्रकार की सभी को सम्मिलित करनेवाली एक विस्तृत राष्ट्रीयत्व की कल्पना निर्माण करने का तथा अधिक विस्तृत राष्ट्रीयत्व से उन्हें प्रेम करने का पाठ देने का प्रयास हम लोग अपनी संपूर्ण शक्ति लगाकर कर रहे हैं। यह आवश्यक भी है। इस ध्येय की दिशा में प्रगति करने हेतु हिंदुस्थान किस सीमा तक सफल हो सकता है यह ज्ञात नहीं है। परंतु एक बात सूर्यप्रकाश के समान साफ दिखाई देती है और यह केवल हिंदुस्थान के संदर्भ में ही नहीं अपितु अखिल विश्व के लिए भी साफ है। किसी भी राष्ट्र की निर्मिति के लिए किसी एक पक्ष की आवश्यकता तो रहती ही है। राष्ट्र का सारा अस्तित्व यदि कहीं प्रकट होता है तो वह राष्ट्र के लोगों में तथा जाति के जीवन से ही प्रकट होता है। उन लोगों के सारे हितसंबंध, भूतकाल का सारा इतिहास तथा भविष्य की सारी आशा-आकांक्षाएँ उस राष्ट्र से तथा उस भूमि से ही जुड़ी रहती हैं। वे उस राष्ट्र मंदिर के प्रथम और अंतिम ही नहीं, एकमेव आकार स्तंभ रहते हैं। तुर्कस्थान का ही उदाहरण लीजिए। राज्यक्रांति के पश्चात् युवा तुर्कों को अपनी लोकसभा तथा सैनिक संघटनाओं में भरती करने हेतु लोगों पर धार्मिक या अन्य कोई भी प्रतिबंध न लगाते हुए तथा केवल अर्हता के आधार पर आर्मेनियन एवं ईसाई लोगों की नियुक्तियाँ कीं। परंतु सर्विया के साथ जब तुर्कस्थान का युद्ध हुआ तब ईसाइयों ने तथा आर्मेनियनों ८५ ने ही प्रथम इसमें बाधा डाली। तत्पश्चात् उनके जो-जो सैन्यदल तुर्की सेना में थे, उन्होंने सर्विया के लोगोंसे अधिक निकट संबंध बना लिये और वे उनसे जा मिले। अमेरिका का उदाहरण भी इसी बात का प्रमाण प्रस्तुत करता है। जर्मनी के साथ युद्ध प्रारंभ होते ही जर्मन मूल के नागरिकों ने अमेरिका का साथ नहीं दिया तथा अमेरिका को इस भीषण दृश्य को देखना पड़ा। वहाँ के नीग्रो लोग अपने श्वेत बंधुओं से सहानुभूति नहीं रखते। उनका हृदय अफ्रीका निवासी नीग्री लोगों के प्रति ही अधिक सहानुभूति दिखाते हैं, अत: अमेरिका का भविष्य उज्ज्वल करने का काम वहाँ के मूल घटकों की एंग्लो सैक्सन शक्ति की तथा कर्तृत्व पर निर्भर करता है। यही हिंदुओं के बारे में भी सच है। जिनका भूत, भविष्य तथा वर्तमान उनकी पितृभूमि व पुण्यभूमि से हिंदुस्थान की भूमि से निकट से जुड़ा हुआ है, वही हिंदू लोग इस भूमि का वास्तविक आकार हैं। वे हिंदू राष्ट्र के एकनिष्ठ व अंत तक रक्षा करनेवाले सैनिक हैं- ऐसा प्रतीत होता है।

देशद्रोही गतिविधियों का कठोरतापूर्वक निर्मूलन करो

हिंदी राष्ट्रीयत्व की दृष्टि से भी हिंदुओ। आप अपना हिंदू राष्ट्रीयत्व अधिक बलशाली तथा समर्थ बनाओ। हम लोगों के अहिंदू बंधुओं को ही नहीं, विश्व के किसी को भी जानबूझकर दुःख देना उचित नहीं है। परंतु हम लोगों की जाति व भूमिका न्याय्य और आवश्यक संरक्षण करने हेतु तथा विभिन्न देशों में जो 'पॅन इझम्स' व्यर्थ में पनप रहे हैं, दूसरे देशों पर किसी-न-किसी मिथ्या कारण से आक्रमण कर रहे हैं, उनकी तथा अपने ही बंधुओं की हमारे देश की बलि चढ़ाने की जो नीच देशद्रोही कारवाइयाँ चल रही हैं उन्हें समूल नष्ट करते समय हमें किसी के क्रोध या खुशी का विचार नहीं करना चाहिए। जब तक हिंदुस्थान में रहते हैं, वे प्रथमतः हिंदुस्थान राष्ट्र के नागरिक हैं तथा बाद में अन्य कुछ भी हैं, ऐसा नहीं कहते, परंतु इससे विपरीत अत्यंत संकुचित हेतु से संरक्षक तथा आक्रामक संघ बना रहे हैं, तब तक, हे हिंदू बंधुओ! जिस कारण तुम्हारी जाति की एकविध तथा एकात्म समाजदेह बनी हुई है, उन ज्ञान-तंतुओं के जाल के समान समाज-देह में विद्यमान सूक्ष्म बंधनों को अधिक बलशाली बनाने का प्रयास कीजिए। आप लोगों में से जो कोई आत्मघात की भावना के कारण अत्यंत महत्त्वपूर्ण रहे, ममता के बंधन तोड़ने के प्रयास कर रहे हैं तथा हिंदू नाम का त्याग करने का विचार कर रहे हैं, उन्हें जबरदस्त सजा होगी। उन्हें तत्पश्चात् ऐसा भी अनुभव होगा कि वे अपनी जाति के जीवन से उत्पन्न होनेवाली जीवंतता और शक्तिसामर्थ्य को खो चुके हैं। हिंदुत्व में अंतर्भूत किए हुए राष्ट्रीयत्व के जिन अभिलक्षणों पर हम लोगों ने विचार किया है, उनमें से कुछ ही, जिन लोगों में विद्यमान हैं, वे स्पेन-पुर्तगाल जैसे राष्ट्र विश्व मेंसिंह-पराक्रम कर सके। अब ये सभी लक्षण विद्यमान होने पर इस विश्व में ऐसी कौन सी बात है, जिसे हिंदुओं के शक्ति-सामर्थ्य से नहीं किया जा सकता ?

हिंदुत्व का आदर्श तत्त्वज्ञान

तीस करोड़ की जनसंख्या, हिंदुस्थान के समान पराक्रम करने हेतु उपयुक्त विस्तृत क्षेत्र, पितृभूमि तथा पुण्यभूमि भी यहाँ है। महान् इतिहास का उत्तराधिकार तथा समान संस्कृति व समान रक्त के बंधनों से एकात्मता पाई हुई प्रचंड जनशक्ति द्वारा इस सामग्री के बल पर विश्व को अपनी बात मानने पर बाध्य किया जा सकता है। भविष्य में किसी दिन यह प्रचंड शक्ति मानवजाति को ज्ञात होगी।

इसी के साथ यह भी उतना ही सत्य है कि जब कभी हिंदुओं को इस प्रकार का स्थान प्राप्त होगा और वे जब संपूर्ण विश्व को अपनी बात मान लेने के लिए बाध्य करेंगे, तब यह कहना सीता के शब्दों से अथवा बौद्ध के उपदेश से कुछ भिन्न नहीं होगा। हिंदू जब एक हिंदू ही नहीं बना रहता तब वास्तविक अर्थ में उच्च अवस्था को प्राप्त हिंदू ही होता है। शंकराचार्य के साथ वह कह सकता है कि यह संपूर्ण विश्व ही हम लोगों की काशी, वाराणसी, मेदिनी है अथवा तुकाराम के समान कहता है-'आमुचा स्वदेश। भुवनत्रया मध्ये वास।' हम लोगों का यह स्वदेश कौन सा है, बंधुओ! इस विश्व की, त्रिभुवनों की जो मर्यादाएँ हैं, वही हमारे देश की सीमा क्षितिज हैं!

संदर्भ सूची

1. 'रोमियो आणि ज्यूलियट' शेक्सपियर के इस नाटक की नायिकों के वाक्यों का कौशल्यपूर्ण उपयोग कर लेखक ने ग्रंथ का प्रारंभ ही इतना नाट्यपूर्ण किया है कि इतनी गंभीर तात्विक चर्चा के विषय में भी उसकी अभिजात कल्पना विकास का प्रमाण हम लोगों को सहज मिल जाता है । रोमियो तथा ज्यूलियट एक-दूसरे के प्रथम दर्शन से ही प्रेम करने लग जाते हैं, परंतु इन दो प्रेमियों के परिवारों में वंशानुगत वैर-भाव होने से इन प्रेमियों को विश्वास हो जाता है कि वे एक-दूसरे से शादी नहीं कर सकेंगे । इसी कारण ज्यूलियट व्याकुल होकर रोमियो से आग्रहपूर्वक कहती है कि उसका नाम ही बदल दिया जाए।

Intict... "It is by thy name that is my enemy. It is nor hand, nor foot, nor arm or any part Belonging to a man, O, he so some other name! What is in a name? That which me call a rose by any other name a would smell as sweet!"

2. इस भिक्षु श्रेष्ठ का नाम था 'फ्रायर लारेंस', जिसने रोमियो और ज्यूलियट का गुप्त विवाह कराया था।

3. The fair Apostle of the Creed. सिद्धांतों की प्रतीक, प्रेषित ।

4. इसी पैरिस के साथ ज्यूलियट का विवाह रचाने की बात ज्यूलियट के माता-पिता ने सोचो थी।

5. रोजलिन रोमिओ की पूर्व प्रियतमा थी।

6. मूल वाक्य-Lady by yonder blessed moon, I swear

That tips with silver all these fruit-tree tops का भाषांतर ।

7. ईसा मसीह की माता 'वर्जिन मेरी'।

8. 'अलीबाबा और चालीस चोर' कहानी में चोरों का नायक 'खुल जा सिम-सिम' मंत्र पढ़कर जादुई गुफा का दरवाजा खोला करता था।

9. सतलुज ।

10. रावी।

11. चिनाब।

12. झेलम।

13. 'विद्याधराप्सरोयक्षरक्षोगंधर्व किन्नराः।' अमरकोश' में इन जातियों को स्वर्ग-वर्ग की जातियाँ कहा गया है, यद्यपि इतिहास के अनुसार विद्याधर, यक्ष आदि जातियाँ हमारे जैसे मनुष्यों को ही थीं और आर्यों के साथ उनका प्रत्यक्ष संबंध भी रहा था।

14. सभी विद्यमान राजाओं को जीतकर सार्वभौम सत्ता प्रस्थापित करनेवाले पराक्रमी राज श्रेष्ठ को 'चक्रवर्ति' की उपाधि प्राप्त होती थी।

15. पार्थिआ देश में रहनेवाले अर्थात् पृथू लोग। कुंती का दूसरा नाम' पृथा' भी था। कदाचित् वह पार्थिआ की राजकन्या थी। पार्थिआ देश कॅस्पियन समुद्र की आग्नेय दिशा में था। ईसा पूर्व १७०-१३९ में प्रथम मिथ्रिडाटिस ने पार्थियन साम्राज्य की नींव रखी।' पार्थिआ' देश विद्यमान खोरासान प्रांत है।

16. अष्टावक्र कहोड ऋषि का पुत्र था। कहोड ऋषि जब अध्ययन कर रहे तब माता के गर्भ से उसने अपने पिता पर टीका-टिप्पणी करते हुए कुत्सित स्वर में उनसे पूछा, 'क्या आप अभी तक अध्ययन ही कर रहे हैं?' जिससे क्रोधित होकर कहोड ऋषि ने अपने पुत्र को 'आठ स्थानों पर तुम्हारा शरीर वक्र हो जाएगा ऐसा शाप दिया। अष्टावक्र का शरीर आठ स्थानों पर वक्र हो गया। आगे चलकर कहोड़ ऋषि ने उसे मधुविला नदी में स्नान करवाकर उसके शरीर को शाप मुक्त कराया।

17. अकबर के दरबार का विदूषक ।

18. अकबर के दरबार का स्तुति पाठक।

19. यह काम स्वयं लेखक वि.दा. सावरकर ने-'छह सुनहरे पृष्ठ' (सहा सोनेरी पाने) ग्रंथ में किया है। उस ग्रंथ के परिच्छेद क्रमांक १५७ से १६० तथा ३५७ से ३५९ और सावरकर खंड से ३, पृष्ठ ५२ से ५९, नया १२२ से १२४ का अवलोकन करें-बाल सावरकर, संपादक।

20. राजपुत्र सिद्धार्थ गौतम ।

21. कोसल के राजा विद्युत्गर्भ ने शाक्य प्रजासत्ताक पर आक्रमण कर उसे पराजित किया । इस विषय पर 'संन्यस्त खड्ग' नामक नाटक अवश्य पढ़िए। समग्र सावरकर खंड ९ ।

22. गौतम बुद्ध का संबोधन ।

23. शाक्यों की राजधानी ।

24. स्कंदगुप्त के समय (ख्रि. ४१५-४८०) में वायव्य दिशा से आकर हूणों ने हिंदुस्थान पर आक्रमण किया। हूणों के नायक तोरमान ने गुप्तों को पराजित करने के पश्चात् उज्जयिनी के राज्य पर अधिकार किया। भविष्य में मालवाले यशोधर्म ने हूणों को खदेड़ दिया। अधिक जानकारी के लिए 'सहा सोनेरी पाने', समग्र सावरकर खंड ३ का अवलोकन कीजिए।

25. सम्राट् अशोक अथवा अशोक वर्धन ने नि, पूर्व २७३-२३७ तक राज किया । चंद्रगुप्त का पुत्र बिंदुसार तथा बिंदुसार के पुत्रादि ने बौद्ध धर्म का प्रसार बहुत कष्ट उठाकर किया।

26. विक्रम संवत्सर इन्हीं का स्मारक है। इस विषय में विद्यमान मतभेदों को समझते हुए सावरकर खंड ३ 'सोनेरी पाने', पृष्ठ २२६ से २३६ का अवलोकन करें।

27. चंद्रापीड के पश्चात् कश्मीर के सिंहासन पर आरूढ़ हुआ । ललितादित्य ने तिब्बत पर अधिकार किया। गोबी के मरुभूमि पार की तथा वहीं उसका निधन हुआ।

28. दूसरे शतक में पैशाची भाषा में रचित बृहत्कथा नामक ग्रंथ का रचयिता। 'कथा सरित्सागर' यह उसी का अनुवाद है।

29. सिखों का धर्मसंस्थापक ई.स. १४६९ से १४३८ । उसके अनुयायी को शिष्य अथवा सिखकहते हैं।

30. वैष्णव धर्म संस्थापक । जातिभेद के बंधन इसे मान्य नहीं थे।

31. गजनी का सुलतान मुहम्मद । इसने ई.स. १००१ से १०३० तक भारत पर आक्रमण किए। सोमनाथ मंदिर ई. स. १०२४ में तोड़ दिया तथा अकृत संपत्ति लूट ली।

32. अहमदशाह अब्दाली (ई.स. १७६१) पानीपत के युद्ध में मराठों का शत्रु था।

33. शाहजहाँ का ज्येष्ठ पुत्र। उसके हिंदुतत्वज्ञान के आकर्षण के कारण औरंगजेब ने उसका वध किया।

34. श्रुतिस्मृति पुराणोक्त सनातन धर्म के अभिमानी।

35. मध्य हिंदुस्थान के एक पंथ का नाम।

36. आर्य समाजी।

37. मद्रास की ओर की एक अस्पृश्य जाति।

38. बाबर के वंश की।

39. देवालय।

40. अश्व ।

41. हृष्टपुष्ट ।

42. गजवर ।

43. संघ।

44. 'छत्रप्रकाश' लाल कवि द्वारा रचित छत्रसाल के कार्यकाल का वर्णन।

45. अंबर (आमेर) का राजपूत राजा (ई.स. १६६९ से १७४३)। मुगलों का सेनापति होकर भी यह गुप्त रूप से बाजीराव के वश में था।

46. बाजीराव प्रथम तथा छत्रपति शाहू महाराज के गुरु (खि १६४९ से १७३८) ये स्वामी सातारा के समीप घावडशी में वास करते थे।

47. कान्होजी आंग्रे की पत्नी।

48. तेरहवीं तथा चौदहवीं सदी में 'इनक्विजिशन' नामक ख्रिस्ती धर्म शासन संस्था ने रोमन कैथोलिक पंथ पर विश्वास न करनेवाले लोगों की खोज की तथा उन्हें भयंकर यातना देने का काम बहुत दिनों तक जारी रखा। परधर्मी अपराधियों को जिंदा जलाया जाता।

49. आंध्र के लोगों के साम्राज्य की स्थापना करनेवाला सुप्रसिद्ध शककर्ता शालिवाहन ई.स. १३० से १५८ तक इसने राज किया। 'रक्षणी ध्वजाच्या ह्याची शालिवाहनाने साची उडविली शकांची शकले समरि त्या क्षणा॥' सावरकर द्वारा रचित इस ध्वजगीत में इसी शालिवाहन को गौरवान्वित किया गया है।

50. स्वामी रामकृष्ण परमहंस ।

51. कर्कोट नामक राजवंश का कश्मीर का एक प्रसिद्ध हिंदू राजा ।

52. इसकी माता का नाम जवाला तथा इसका सत्यकाम था । इसके जन्म के साथ इसके पिताजी का निधन हो गया। इसकी माता को अपने मृत पति का गोत्र आदि ज्ञात नहीं था। इसलिए यह अपनी माता के व स्वयं के नामों के साथ पहचाने जाने लगा।

53. महादजी शिंदे पाटिल युवा इनकी माताजी राजपूत थीं।

54. सत्यवती अर्थात् मत्स्यगंधा। इसके शरीर से सागर की मछलियों की दुर्गंध आती थी। पराशर ऋषि ने इस दुर्गंध को दूर करके उसका शरीर सुगंधित बना दिया। उसके शरीर की सुवाग एक योजन (चार कोस) तक फैल जाती थी। 'बाग योजनागंधा त्या चनदेव पराशरी' (सावरकर कृत 'कमला', समग्र खंड ७) ।

55. चित्रांगदा नामक मणिपुर के राजा की कन्या से उत्पन्न अर्जुन का पुत्र इसी ने पांडवों के अश्वमेध का घोड़ा रोककर अर्जुन से युद्ध किया तथा अर्जुन का वध किया, परंतु पाताल से संजीवनी मणि प्राप्त करके अर्जुन को पुनः जीवित किया।

56. हिडिंबा से उत्पन्न भीम का पुत्र महाभारत के संग्राम में पांडवों के पक्ष में युद्ध करते समय इसने महान् पराक्रम किए। अंततः यह कर्ण द्वारा मारा गया।

57. कृष्ण द्वैपायन व्यास को दासी से प्राप्त पुत्र। यह परम नीतिमान तथा निस्पृह था। इनके द्वारा धृतराष्ट्र को दिया हुआ उपदेश 'विदुरनीति' के रूप में महाभारत के उद्योगपर्व के नी अध्याय में दिया गया है। मांडव्य ऋषि के समान अरण्य में पिशाच बनकर यह सौ वर्षों तक भटकता रहा। तत्पश्चात् उसकी मृत्यु हुई।

58. वीरशैव लिंगायत धर्म का संस्थापक (ई.स. १९६०) । इसकी बहन का विवाह महादेव भट्ट नामक तेलुगु ब्राह्मण के पुत्र से हुआ । विजय राजा की पत्नी इसकी बहन थी, इसी कारण इसे प्रधानपद प्राप्त हुआ था। बसव पंथ में जातिभेद नहीं है।

59. 'पांचरात्र' वैष्णव मत का अनुयायी शंकराचार्य ने विवाद में इसपर विजय प्राप्त की ।

60. कबीर का समकालीन, चर्मकार जाति का एक कृष्णभक्त संत ।

61. तमिल कवि (खि १०० से १३० तक)।

62. हिंदुस्थान के इतिहास काल में अंदमान में पूर्व में गए हुए भारतीय मूल के निवासियों में सुधार करने में असफल होने के पश्चात् स्वयं वन्य बन गए होंगे तथा नए रक्तसंबंध बनाना असंभव हो जाने पर उन वन्य लोगों में ही लुप्त हो गए होंगे अथवा नष्ट हो चुके होंगे। 'माझी जन्मठेप', समग्र खंड २) अंदमान में अर्रा' नामक एक जाति है। उन लोगों का चेहरा, नाक नक्श आदि पंजाबियों से मिलता है। 'अर्रा'- इस नाम से आर्य नाम की प्रतीति होती है। ('राष्ट्र मीमांसा', ग.दा., सावरकृत) ।

63. बंगाल के ढाका नगर में रहनेवाला कट्टर ब्राह्मण युवक, अत्यधिक हिंदू धर्माभिमानी। वहाँ के मुसलमान नवाब की कन्या इससे प्रेम करने लगी। मुसलमान नवाब ने बनाने मुसलमान हेतु इसे जबरदस्ती कारावास में डाल दिया तथा इसका शिरच्छेद करने की आज्ञा भी दी। परंतु वह कन्या इस युवक से अत्यधिक प्रेम करती थी। उसके स्थान पर वह स्वयं अपनी जान देने के लिए तैयार हो गई। इस प्रेम के प्रभाव से उस युवक से उस कन्या से विवाह करने की बातमान ली गई। परंतु सनातनी हिंदू समाज ने उस कन्या को हिंदू बना लेने की बात अस्वीकार कर दी। तब उसने जगन्नाथपुरी जाकर ईश्वर को साक्षी रखकर हिंदू पद्धति से विवाह करने का निश्चय किया। परंतु वहाँ के मंदिर के सनातनी भक्तों को यह भ्रष्टाचार सहन करने की शक्ति नहीं थी। उन्होंने उसे मारपीट कर वहाँ से भगा दिया। इस कारण हिंदू धर्म में रहने को उनकी उत्कट इच्छा होते हुए भी समाज के द्वारा दूर किए जाने के कारण क्रोधित होकर वह एक भ्रष्ट व कट्टर मुसलमान बन गया। इसी ने आगे चलकर हजारों मंदिरों को भ्रष्ट किया तथा अनेक हिंदुओं को मुसलमान बनाया। बंगाल में मुसलमानों की संख्या में वृद्धि करने हेतु यही 'काला पहाड़' एक महत्त्वपूर्ण कारण बना।

64. इंग्लैंड में यॉर्क व लॅकेस्टर वंश में हुए युद्ध (ख्रि. १४५५) ध्वजचिह्न गुलाब था, इसलिए इन युद्धों को 'Wars of Roses' कहा जाता है।

65. (अ) वैद्यशास्त्र विषय का प्राचीन आचार्य।

66. ई.स. पाँचवें शतक में लिखे गए एक वैद्यक विषयक ग्रंथ तथा उसका कर्ता।

67. २३०० वर्ष पूर्व का प्रसिद्ध खगोल शास्त्रज्ञ इसी के आर्य सिद्धांत के अनुसार पृथ्वी ही सूर्य की परिक्रमा करती है, यह स्पष्ट होता है।

68. विक्रम सभा का आठवाँ पंडित रत्न यह एक बड़ा सिद्धान्ति ज्योतिषी था। इसने ज्योतिष विषय पर तीन ग्रंथों की रचना की है

69. 'बौद्धचरित्र' का रचयिता, कवि तथा प्रथम संस्कृत नाट्य रचनाकार ।

70. 'गीत गोविंद' इस शृंगारिक तथा भक्तिपरक काव्य का रचनाकार ।

71. शाहजहाँ के अधीनस्थ ख्यातनाम कवि । 'गंगा लहरी' का कर्ता । इसने शाहजहाँ की राजकन्या लवंगी से विवाह किया था।

72. फारसी महाकवि ।

73. फ्रांस में प्रस्थापित एक पंथ के अनुयायी दहशतवादी क्रांतिकारकों को जॅकोबिन ही कहा जाता है।

74. Union of three persons (Father, son and Holy Spirit.) in one god hand. 'ख्रिस्त धर्म के देवमिनयाकर नाम।

75. पाताल के असुर विशेष। ये आर्यों के शत्रु थे।

76. दस्यु आर्य विरोधी लोग।

77. आर्यों की प्राचीन जातियाँ।

78. आर्य समाज के संस्थापक। 'सत्यार्थ प्रकाश' के रचयिता।

79. महानुभाव पंथ का संस्थापक गोविंद प्रभु का शिष्य। 'लीलाचरित्र' नामक महानुभावीय ग्रंथ का नायक।

80. ब्राह्म समाज के संस्थापक।

81. 'तत्त्वमसि' अद्वैत वेदांत तत्त्वज्ञान (ब्रह्म) तुम हो हो।

82. हिंदूधर्म को स्वीकार करनेवाली स्वामी विवेकानंद की शिष्या मार्गरेट इ. नोबल मूल नाम की अंग्रेज स्त्री ।

83. हिंदी स्वराज्य आंदोलन में लोकमान्य तिलक साथ भाग लेनेवाली अंग्रेज स्त्री सन् १९१७ में कलकत्ता आयोजित कांग्रेस अधिवेशन अध्यक्ष का सम्मान इन्हें हुआ था। थिऑसॉफी उनका प्रिय विषय था। इस विषय पर उन्‍होंने वाड्मय निर्मिति भी की है। सन् १९३३ अडयार इनका निधन हुआ।

84. ईसा की जन्‍मभूमि जेरूसलेम को मुसलमानों से पुनः प्राप्त करने हेतु ग्यारहवें शतक के अंत में यूरोप के ईसाइयों ने एक संगठन बनाया तथा धर्मयुद्ध किए । इन्‍हें 'क्रूसेडस' कहते हैं।

85. रोम कैथोलिक व प्रॉटेस्टेट पंथ के ईसाई लोग । आर्मेनियन ईसाइयों को तुर्कों ने बहुत पीड़ा दी । इस कारण सन् १९९४ में यूरोप के राष्ट्रों से तुर्कस्थान ने युद्ध किया तब आर्मेनियन तुर्कों के विरोध में ईसाई राष्ट्रों के साथ हो गए।

हिंदुत्व की परिभाषा तथा'हिंदू'शब्द का सत्प्रयोग एवं अपप्रयोग

आसिंधुसिंधुपर्यंतायस्यभारतभूमिका

पितृभू: पुण्यभूमिश्चैव स वै हिंदुरितिस्मृतः ।

'हिंदू' शब्द हिंदू संघटन का वास्तविक आधार है। अतः इस शब्द का अर्थ जितना व्यापक या संकुचित, सुगठित या शिथिल, चिरंतन अथवा अनिश्चित होगा, इस आधार पर बननेवाली हिंदू संघटन की इमारत भी उसी मात्रा में व्यापक, मजबूत या चिरस्थायी होगी। 'हिंदू कौन है ?' इस प्रश्न का निश्चित उत्तर प्राप्त किए बिना हिंदू संघटन का कार्य आगे बढ़ाना असंभव है, भले ही वह कार्य हिंदू महासभा द्वारा क्यों न प्रारंभ किया गया हो। ऐसा किया जाना हिंदू महासभा के विकास के लिए भी अनर्थकारक हो सकता है, क्योंकि इस प्रश्न का उत्तर प्राप्त करने के पश्चात् ही यह संघटन सही दिशा में अग्रसर होगा।

अत: आज हिंदू संघटन का कार्य जो लोग कर रहे हैं उन्हीं के उपयोग के लिए इस अत्यधिक महत्त्वपूर्ण शब्द के विषय में हमें जो कुछ जानकारी है, उसे इस लेख में प्रस्तुत करना ही हमारा उद्देश्य है। हमारा विचार है कि जो जानकारी प्रत्येक हिंदू को मुखोद्गत होना आवश्यक है,उसे यहाँ सूत्रबद्ध रूप में प्रस्तुत किया जाना चाहिए। परंतु ऐसा करते समय इस सूत्रमय कथन के विषय में किसी प्रकार का स्पष्टीकरण देना इस संक्षिप्त लेख में संभव नहीं होगा। यदि पाठक इस कथन के स्पष्टीकरण तथा समर्थन को ज्ञात करना चाहते हैं तो उन्हें मेरी प्रार्थना है कि वे मेरे मूल अंग्रेजी ग्रंथ 'हिंदुत्व' की तृतीय आवृत्ति का अवलोकन अवश्य करें। वास्तविकतः यहाँ प्रस्तुत सूत्रबद्ध कथन पर शंका जताने से पूर्व उस ग्रंथ को पढ़ना आवश्यक है। यदि आप इस ग्रंथ को पढ़ लेंगे तो आपकी अनेक शंकाओं के उत्तर आपको अनायास ही प्राप्त हो जाएँगे।

'हिंदू'शब्द की पुरातनता

'हिंदू' शब्द का अन्वेषण मुसलमानों द्वारा न तो किया गया है और न ही हम लोगों के राष्ट्र को इस नाम से संबोधित करने का प्रारंभ मुसलमानों द्वारा किया गया। है। जिस समय 'हिंदू' नाम की व्युत्पत्ति के विषय में अन्वेषण नहीं किया गया था उस समय की यह एक मिथ्या और दुष्ट कपोलकल्पित कथा है। निम्न ऐतिहासिक उपपत्ति से यह बात स्पष्ट हो जाएगी।

हिंदू, हिंदुस्थान, हिंद आदि प्राकृत शब्द ऋग्वेदकालीन मूल शब्द' सप्तसिंधु', जो हम लोगों का प्राचीनतम राष्ट्रीय अभिधान हैं, से उपजे हैं।

'ॠग्वेद' में 'सप्त सिंधवः' शब्द हमारे पूर्वजों ने स्वयं के लिए प्रादेशिक अथवा राष्ट्रीय अभिधान के रूप में स्वीकारा है।

उस प्राचीन समय में हमारे पड़ोसी राष्ट्र, ईरान, बेबिलोन, प्राचीन अरब आदि- हम लोगों को इसी 'सप्तसिंधु' अभिधान से ही पहचानते थे। पारसिकों ने ढाई हजार वर्ष पूर्व के अपने ग्रंथ में हमारे राष्ट्र का उल्लेख 'हप्तहिंदु' नाम से ही किया है। उस समय हमारे देश से निर्यात किए गए मृदु तथा सुंदर वस्त्रों को प्राचीन बेबिलोनियन ग्रंथों में सिंधु' अथवा 'सिंध' कहा गया है।

अलेक्जेंडर से दो सौ वर्ष पूर्व हेकाटेऑस ने हम लोगों के प्राचीन राष्ट्र को 'सिंधु' के स्थान पर 'Indu, India' कहा है। यह ग्रीक भाषा में सिंधु शब्द का रूपांतर है। बौद्ध काल में एक चीनी यात्री ह्वेनसांग भारत आया था। हम लोगों के राष्ट्र के लिए उसने सिंधु नाम के चीनी अपभ्रंश 'शिंदु' का ही प्रयोग किया तथा हम लोगों को 'शिंदु' अभिधान से ही वह संबोधित करता था। महम्मद पैगंबर के जन्म से पूर्व अरब लोग शैव तथा शाक्त पंथ के सदृश किसी धर्म के अनुयायी थे। उस समय मुसलमानों का धर्म अस्तित्व में भी नहीं था। दो हजार वर्ष पूर्व के उस समय के अरब ग्रंथ में हम लोगों के राष्ट्र का उल्लेख गौरवपूर्वक हिंदू तथा हिंद नामों से ही किया गया है। उदाहरणार्थ-लवीबीने अखतक बीने तुर्की की इन पंक्तियों का अवलोकन करें

अया मुबारकल अर्जे यो शैयेनोहा मितल हिंदे ।

या अरा दक्कला हो, मइयो नज्जेला जिक्रतुन ॥ १ ॥

या हल्ल तज्जली यतुन ऐनक सहयि अरब अतुन जिक्रा ।

न हाजे हियोन लज्जेलुर रसूला मिनजा अनल हिंदजुन ॥ २ ॥

दूसरा अरब कवि मुसलमानों के पूर्व के अरब धर्म का अभिमानी था। उमरबीने हाशीम अबुल हकम ने महादेव की प्रशंसा में यह कविता लिखी है।

व अह लोलहा अजरू अरमीमन 'महादेऊ' व मनाजेला इल मुददीने मिनहुम सेयतरू ॥ १॥ न अस्सेर अखलका न असानन कल्ल हुम यन हुआ नजू मुन अंजाअत सुम्मा गाबुल हिंदु ॥ २ ॥ व सहबी कया माफिल मका मिल 'हिंदे' यौमना पकूलूना लात हज्ज न फाअिन्नक्टो वज्जरू ॥ ३ ॥

'भविष्य पुराण'का आधार

इस प्रकार सिंधु तट पर निवास करनेवाले वैदिक समय के हम लोगों के राष्ट्र का नाम 'सिंधु' था तथा उसी से हप्तसिंधु, हिंदू, शिंदु, सिंधु, Indus आदि नाम बने हैं। मूल शब्द 'सप्तसिंधु' ही था, परंतु उसका उच्चारण इन भिन्न नामों से किया जाता था। उसी का एक प्रमाण मूल रूप में आज भी विद्यमान है। सिंधु तट के हम लोगों के राष्ट्र का एक प्रांत आज भी 'सिंधु प्रदेश' नाम धारण किए हुए है।

हिंदू तथा हिंदुस्थान-ये प्राकृत रूप सप्तसिंधु, सिंधु, सिंधु स्थान आदि संस्कृत तथा स्वकीय भाषा के हमारे प्राकृत अभिधान हैं। इसे पुरातन पंडित भी जानते थे। ये नाम किसी प्रकार का कोई संबंध न होते हुए आपस में जोड़ दिए गए हैं, ऐसी कल्पना करना कदापि उचित नहीं होगा। भविष्य पुराण' में इस विषय पर प्रशंसनीय तथा बोध पर उल्लेख किया गया है। सप्तसिंधु का ही प्राकृत रूप 'हप्तहिंदु' है, यह दरशाने वाले निम्न श्‍लोक का अवलोकन कीजिए-

जानुस्थाने जैनुशब्द: सप्तसिंधुस्तथैव च।

हप्तहिंदुर्यावनीति पुनज्ञेया गुरुण्डिका ॥ १ ॥

शालिवाहन वंश के नरेशों की कथा में 'भविष्य पुराण' आगे कहता है -

जित्वा शकान् दुराधर्षान चीन तार्तर देशजान्।

वाहीकान् कामरूपाश्च रोमजान् खुरजान शठान् ॥ १ ॥

तेषां कोशान्गृहीत्वा च देडयोग्यानकारयत्।

स्थापिता तेने मर्यादा म्लेछायाणमि पृथक् पृथक् ॥ २ ॥

सिंधुस्थानमिति प्राहू राष्ट्रमार्यस्य चोत्तमम् ।

म्लेच्छस्थानं परम सिंधोः कृतं तेन महात्मना ॥

(भविष्य पुराण, प्रतिसर्ग पर्व, अ. २)

(भावार्थ: बाहीक, चीन, तर्तार आदि म्लेच्छ शत्रुओं का दमन करने के पश्चात् उस भूपति ने हम लोगों के उत्तम राष्ट्र की सीमा के रूप में सिंधु का चयन किया। सिंधु के इस पार हम लोगों का सिंधु स्थान तथा उस पार म्लेच्छ स्थान था)

अटक को पार न करने का नियम भी बना दिया। 'भविष्य पुराण के एक श्‍लोक में सिंधु पार करने पर पाबंदी लगाने की बात कही गई है। 'नागन्तव्ये त्या भूप पैशाचे देशधूर्तके।'

उस ओर वह सिंधु नदी और इस ओर यह सिंधु-इन दोनों का उल्लंघन करना परदेश गमन के समान निषिद्ध माना गया था। सिंधु उल्लंघन पर बंदी की। सहस्र-डेढ़ सहस्र वर्ष की परंपरा यही दरशाती है कि शास्त्राज्ञ के अनुसार उस प्राचीन समय में हम लोगों के इस सिंधु स्थान की सीमाएँ आसिधुसिंधु तक है, ऐसा समझना चाहिए।

सप्तसिंधु, सिंधु प्रदेश, सिंधु स्थान आदि शब्दों का हिंदू प्राकृत रूप हम लोगों के प्रकृतिकरण के नियमानुसार प्राकृत भाषा में रूढ़ हुआ। संस्कृत शब्दों के 'स' के स्थान पर प्राकृत में विकल्प के रूप में 'ह' का उपयोग किया जाता है। मारवाड़ी आदि बोलियों में इस प्रकार के अनेक उदाहरण हैं। उदाहरणार्थ, केसरी केहरी बन गया है, सप्ताह का हप्ता, सत्तर का हत्तर, दशा का दहा। अस्मे आसे स्मः आदि के प्राकृत रूप भी इसी के उदाहरण हैं। पुरातन पारसी भाषा भी हम लोगों की प्राकृत भाषा के समान ही संस्कृत भाषा का एक प्राकृत रूप होने के कारण उस भाषा में भी हम लोगों की भाषा के समान इसी प्रकार के अनेक रूपांतर दिखाई देते हैं। ये रूप वहीं से आए हैं अथवा नहीं, यह मानना उचित नहीं तथा इसी कारण वे शब्द पराई भाषा के शब्द हैं यह भी सत्य नहीं है। हिंदी भाषा में चाँदभाट के पूर्व को प्राचीन कही जानेवाली कविता में भी हिंदुस्थान शब्द का प्रयोग गौरवपूर्वक किया गया है -

अटल थाट महिपाट अटल तारा गढ़ थानम् ।

अटल नगर अजमेर अटल 'हिंदव' अस्थानम् ॥

'पृथ्वीराज रासो' में पृथ्वीराज के समकालीन चाँदभाट के काव्य में हम लोगों के राष्ट्र का 'हिंदू' अभिधान संपूर्ण राष्ट्र अत्यधिक आदर के साथ लेने की बात प्रत्येक पृष्ठ पर लिखी गई है। हिंदुत्व का अभिमानपूर्वक तथा गौरवपूर्ण उल्लेख किस प्रकार किया गया है, यह निम्न पंक्तियों से स्पष्ट होगा।

धनि (धन्य) हिंदू पृथिराज जिने रजवदृ उजरिया ॥

धनि हिंदु पृथिराज! बोल कलिमइझ उगारिय॥ धनि हिंदु पृथिराज जेनसुविहानह संध्यो ॥ बारबारह गृहिमुक्की अंतःकाल सरबध्यो । आज भाग चहुबान घर आज भाग हिंदवान। इन जीवित दिल्लीश्वर गंज न सक्के आन ॥

हिंदू-यह राष्ट्रीय शब्द ही है

इस समय के बाद कोई विवाद नहीं बचा है। आर्यावर्त, भारत आदि सभी अभिधानों से 'हिंदू' तथा 'हिंदुस्थान' शब्द हम लोगों के राष्ट्र के तथा राष्ट्रीय जीवन के मूर्धन्य आदर्श, अभिमान एवं अभिधान बन गए। प्रासादों से पर्णकुटियों तक 'मैं हिंदू है" यह विचार प्रबल हुआ। मैं आर्य अथवा भारतीय हैं इस बात से अनभिज्ञ लाखों लोग विद्यमान हैं, परंतु 'मैं हिंदू हूँ यह विचार करोड़ों करोड़ों हिंदुओं के अंतर में समा गया। श्री गुरुगोविंदसिंह ने पंजाब में अपना जीवन कार्य स्वयं के शब्दों में कुछ इस प्रकार व्यक्त किया है-

'सकल जगत् में खालसा पंथ गाजे जगे धर्म 'हिंदू' सकल भंड भाजे ॥ महाराष्ट्र में समर्थ (स्वामी रामदास) का आंदोलन भी इसी विचार से चलाया जा रहा था। 'या भूमंडळाचे ठायी हिंदू ऐसा उरला नाही॥' तेगबहादुर जैसे सहस्रावधि हुतात्माओं ने 'हिंदू शब्द का त्याग करो अथवा प्राणों का त्याग करो इस प्रकार की शत्रुओं ने दी हुई धमकी सुनते ही उन्होंने प्राण त्याग दिए, परंतु हिंदू शब्द का त्याग नहीं किया। इस हिंदुत्व के गौरव बनाए रखने हेतु लाखों वीर पुरुष पीढ़ी-दर-पीढ़ी लड़ते रहे, युद्ध करते रहे और अंततः जब अहिंदुओं की बादशाही को पैरों तले नष्ट करते हुए जब उन्होंने हिंदू पदपादशाही की स्थापना की तथा संपूर्ण राष्ट्र में इस विजय का समाचार नगाड़े बजाकर दिया गया तब भी यही कहा गया था कि 'बुडाला औरंग्या पापी, हिंदुस्थान बळावले॥ अभक्तांचा क्षयो झाला आनंदवन भूवनी ॥'

ऊपर प्रस्तुत किए गए 'हिंदू' शब्द के इतिहास से यह स्पष्ट हो जाता है कि हिंदू शब्द मूल रूप से तथा मुख्य रूप से दैशिक तथा राष्ट्रीय है। यह किसी विशिष्ट धर्म मत का निर्देशक नहीं है। मूल वेदकालीन सप्तसिंधु यह शब्द उस देश का तथा वहाँ के निवासियों के राष्ट्र का द्योतक था। हम लोगों के एक प्रांत का सिंधु देश यह नाम भी प्रमुख रूप से दैशिक तथा राष्ट्रीय अभिधान है। परदेशी लोगों ने इसी नाम का उसी अर्थ में हम लोगों के लिए प्रयोग किया।

हिंदुत्व कोई एक धर्ममत नहीं है

वेद, इस धर्म ग्रंथ से उसके अनुयायियों का अभिधान वैदिक हुआ। बौद्ध के नाम पर उसके अनुयायियों को बौद्ध, जिन मतों के अनुयायियों को जैन, मानक के धर्म शिष्यों को सिख, विष्णु के उपासकों को वैष्णव, लिंग पूजकों को लिंगायत कहा जाने लगा। परंतु हिंदू अभिधान किसी भी धर्म ग्रंथ से अथवा धर्मपंथ अथवा धर्ममत मूलतः अथवा प्रमुख रूप उत्पन्न हुआ नाम नहीं है।आसिंधुसिंधु तक जिसका विस्तार है उस देश तथा निवास करनेवाले (लोगों) राष्ट्र को यह निर्देशित करता है । इसी प्रकार धर्म-संस्कृति को भी निर्देशित है।

इसलिए हिंदू शब्द की परिभाषा करते समय उसे किसी धर्म ग्रंथ अथवा धर्ममत से जानबूझकर गलत राह बताने के समान कहा जाएगा। हिंदू शब्द की व्याख्या का ऐतिहासिक मूलाधार आसिंधुसिंधु भारतभूमिका- यही होना चाहिए। वह देश तथा उसमें उपजे धर्मों व संस्कृति के बंधनों से मर्यादित राष्ट्र ये ही दो हिंदुत्व के प्रमुख घटक हैं। इसी कारण इतिहासकार के अनुसार हिंदुत्व की परिभाषा इसी प्रकार की जानी चाहिए।

आसिंधुसिंधु भारतभूमिका जिसकी पितृभूमि व पुण्यभूमि है, वह हिंदू है। इस परिभाषा में प्रयोग किए पितृभूमि तथा पुण्यभूमि शब्दों के कुछ पारिभाषिक अर्थ हैं ।

जिस भूमि में हम लोगों के केवल माता-पिता ही जनमे थे उस भूमि को पितृभूमि नहीं कहा जाता। जिस भूमि में हम लोगों के पूर्वजों की कई पीढ़ियाँ जन्म लेती रही हैं, उसी भूमि को पितृभूमि कहा जाता है। इसी भूमि में हम लोगों के जातीय तथा राष्ट्रीय पूर्वज निवास करते रहे हैं । कुछ लोग तत्काल पूछते हैं कि लोग दो पीढ़ियों से अफ्रीका में रहते हैं, अतः क्या हम लोग हिंदू नहीं हैं? इस परिभाषा के कारण वह प्रश्‍न स्पष्ट रूप से गौण बन जाता है। हम हिंदू लोगों ने भविष्य में अखिल विश्व में उपनिवेश स्थापित किए तो भी उनके प्राचीन, परंपरागत जातीय तथा राष्‍ट्रीय पूर्वजों की पितृभूमि भारतभूमि ही होगी।

पुण्यभूमि का अर्थ इंग्लिश Holy Land शब्द के अर्थ के समान होता है, जिस भूमि में किसी धर्म संस्थापक, ऋषि, अवतार या प्रेषित (पैगंबर) का जन्म हुआ और धर्मोपदेश भी उसी भूमि में निवास करते हुए दिया तथा इस कारण जिस भूमि को धर्मक्षेत्र भी पुण्यत्व प्राप्त हुआ वह भूमि उस धर्म की पुण्यभूमि होती है। अथवा ईसाइयों के लिए पैलेस्टाइन, मुसलमानों की अरेबिया पुण्यभूमि है। इसी अर्थ में पुण्यभूमि शब्द का प्रयोग किया गया है । केवल पवित्रभूमि के अर्थ में नहीं ।

पितृभूमि तथा पुण्यभूमि शब्दों के इस पारिभाषिक अर्थ के अनुसार यहआसिंधुसिंधु भारतभूमिका जिसकी पितृभूमि तथा मातृभूमि वही हिंदू है।

हिंदुत्व की यह परिभाषा जितनी ऐतिहासिक है उतनी ही वर्तमान स्थिति के अनुरूप भी है। जितनी व्यापक है उतनी ही व्यावर्तक भी है।

भ्रांत धारणा का मूल

हिंदुत्व को यदि प्रारंभ में ही इस प्रकार परिभाषित किया गया होता तो जैन तथा आर्य समाजी भी, जो स्वयं को हिंदू कहलाने से समय-समय पर कतराते थे, कभी भी भय पीड़ित नहीं होते। इंग्लिश लोगों के कार्यकाल के पूर्व हम सिख, लोगों के सारे पंथों तथा धर्म संस्थाओं को इसी सीमा में एकजुट होना आवश्यक हो गया था तथा संभवतः यही अभिधान हम लोगों के लिए अत्यधिक गौरवपूर्ण कुलभूषण बन गया, जिसे हम लोगों का संपूर्ण राष्ट्र इसी अभिधान को अभिमानपूर्वक धारण किए हुए है। कुछ अपवादों को छोड़कर मुसलमानों के धर्मद्वेष के कारण उन्होंने अनजाने में हम लोगों के सारे राष्ट्र को एकत्रित करने में बड़ा योगदान दिया है। हिंदुस्थान के करोड़ों लोगों को उस मुसलमान राज की कालावधि में स्वयं की सुविधा के लिए धर्म के पागलपन की नशा के कारण दो टुकड़ों में बँट जाना पड़ा-हिंदू और मुसलमान। जो मुसलमान नहीं है वह हिंदू ही है। इस प्रकार की अनभिज्ञता की परिभाषा परंतु संयोगवश वही परिभाषा सही निरूपित होती गई, हम लोगों के लिए हितकारक भी रही। इस कारण (कुछ अपवाद छोड़कर) जो मुसलमान नहीं था वह हिंदुत्व के ध्वज के नीचे आकर एकत्रित हुआ। इंग्लिश कार्यकाल में हिंदू राष्ट्र के इस प्रचंड संख्याबल के कारण एकजुट हुए गुट में ही जिस प्रकार से भी विघटन किया जाना संभव था उस प्रकार के प्रयास विरोधियों द्वारा प्रारंभ किए गए। तभी से 'हिंदू कौन' इसकी परिभाषा बनाने का विचार हम लोगों के लोकनायकों को करना पड़ा। उस समय दुर्भाग्य से एक बड़ी भूल हो गई। हिंदू शब्द का संबंध हिंदू धर्म से जोड़कर हिंदुत्व की परिभाषा न करते हुए हम लोग हिंदू धर्म को ही परिभाषित करने में जुट गए। हिंदुत्व की सर्वांगीण परिभाषा को राष्ट्रीय तथा सांस्कृतिक रूप न देते हुए तथा उसके प्रमुख पक्ष की उपेक्षा करते हुए प्रत्येक व्यक्ति उसकी धार्मिक परिभाषा ही करने लगा। हिंदू समाज के बहुसंख्य लोग वेदानुयायी ही थे। अतः जो वेदानुयायी हैं वही हिंदू हैं, इस प्रकार हिंदू की परिभाषा की गई। इसके अतिरिक्त बहुजन समाज में मूर्तिपूजा, शिखा धारण करना, गोपूजन आदि हिंदुओं के जो आचार हैं उनमें से जिसे जो प्रत्यायक प्रतीत होता वही हिंदू धर्म की विशेषता है ऐसा मानकर इसे माननेवाला ही हिंदू हैं ऐसी अनेक परिभाषा प्रचलित हुईं। परंतु उस धर्म ग्रंथ तथा धर्ममत को न माननेवाले, परंतु हिंदू राष्ट्र के परंपरागत अंग इन व्याख्याओं के कारण ही हिंदुत्व को त्यागकर अन्यत्र चले गए। हिंदुओं में प्रचलित किसी भी धर्ममत की तुलना में हिंदुत्व अधिक व्यापक होने के कारण बहुसंख्यक धर्ममतों से समानार्थक है ऐसी धारणा होने के परिणामस्वरूप अल्पसंख्यकों को हिंदू शब्द अप्रिय तथा अनिष्ट प्रतीत होने लगा।

विपक्ष की चाल क्यों सफल हुई ?

हिंदू शब्द की परिभाषा यदि 'श्रुति स्मृति पुराणोक्त सनातन धर्म का पालन करनेवाला' ऐसी की गई तो स्मृति पुराणादि को न माननेवाला अथवा सर्वस्वी न माननेवाले आर्य समाजी आदि केवल वैदिक हिंदू शब्द का त्याग करना चाहते । हिंदू का अर्थ यदि 'वेदांत को ही सत्य माननेवाला' ऐसा किया जाए तो आर्य समाजी ही वैदिक होते हुए भी हिंदू माना जाता तथा इसी कारण जैन, सिख, बौद्ध आदि वेद को प्रमाणभूत न माननेवाले, परंतु हिंदू राष्ट्र के रक्तबीज के सहोदर 'हम लोग हिंदू नही हैं' ऐसे निषेधवाचक शब्दों को व्यक्त करते। बौद्ध, आर्यसमाज, ब्रह्मसमाज, देवसमाज आदि अनेकानेक धर्म अथवा पंथ समय-समय पर हिंदू शब्द को अस्वीकार करने लगे, इसका कारण यही था कि हिंदुत्व की परिभाषा धार्मिक दृष्टिकोण से ही करने की भूल हो गई। हिंदुत्व तथा हिंदू धर्म को एक सा समझा गया। इस विघटन में राजकीय षड्यंत्र करनेवालों का भी योगदान रहा। जब तब हिंदू शब्द की परिभाषा विचारपूर्वक करने के प्रयास नहीं किए जाते थे तब तक जो लोग केवल परंपरागत भावना से ही हिंदू राष्ट्र में पूर्णतः सम्मलित थे वे भी हिंदुत्व को धर्मनिष्ठ परिभाषा के कारण शनैः शनैः ही क्रोध के विचार से पृथक् होने लगे। उन्हें पृथक् करने को विपक्ष की चाल सफल होती दिखाई देने लगी।

बहुसंख्यक वैदिक धर्म को ही हिंदू धर्म माननेवालों ने हिंदू धर्म की जो परिभाषा बनाई थी उसमें किसी प्रकार का कोई दुष्ट हेतु नहीं था। समाज के बहुसंख्यक लोगों के लक्षणों को ही उस संघ के लक्षण समझना स्वाभाविक है। तथापि हिंदू राष्ट्र से कोई भी पृथक् न हो तथा यह राष्ट्र अधिक संघटित हो-इस सद्हेतु से ही हम लोगों के पूर्वाचार्यों ने हिंदू राष्ट्र की परिभाषा बनाई थी; परंतु अनभिज्ञता के कारण कुछ भ्रांतियाँ उत्पन्न हुईं तथा न चाहते हुए भी दुष्परिणाम हुआ।

परंतु हिंदुत्व के विषय पर प्रस्तुत इस लेख के शीर्षक में जो परिभाषा दी गई है उससे इस प्रकार की भ्रांतियों के मूल पर ही कुठाराघात हुआ है। परिभाषा के कारण अखंड में खंड पड़ जाता है। भौगोलिक प्रदेशों की सीमाएँ भी दोनों पक्षों के लिए सामान्य ही रहती हैं। मुसलमानों के धर्म में भी ऐसे अनेक पंथ हैं, वे मुसलिम हैं अथवा गैर-मुसलिम हैं यह विवाद किसी भी परिभाषा से समाप्त नहीं हो सकता। उदाहरणार्थ पंजाब में वर्तमान समय में कादियानी पंथ पर चल रहे प्रखर विवाद का विचार करें। एक पक्ष की मान्यता है कि यह पंथ मुसलमान की व्याख्या में सम्मिलित किया जाना चाहिए। परंतु दूसरे पक्ष का विचार है कि ऐसा मानना उचित नहीं है। मारपीट करने तक विवाद बढ़ गया है। ईसाई लोगों में भी इसी प्रकार की स्थिति है। मार्मोन पंथ का उदाहरण लीजिए। इसी तरह हर परिभाषा का सीमांतविवादास्पद होता है। इस परिभाषा में भी यही बात है, तथापि अधिक-से-अधिक अन्य हितकारी तथा सुलभ परिभाषा यही है। अन्य कोई उपलब्ध नहीं है। इस परिभाषा ने धर्म विषयक प्रश्नों के दुर्लघ्य दलदल को साफ टालकर हिंदुओं को एक ही हिंदू ध्वज के नीचे एकजुट होने का राजमार्ग मुक्त कर दिया है।

हिंदू कौन है तथा अहिंदू कौन है ?

श्रुतिस्मृतिपुराणोक्त को माननेवाले सनातनी केवल श्रुतियों को आदर्श माननेवाले वैदिक अपने धर्म को वैदिक धर्म की एक शाखा अथवा इसी धर्म से उत्पन्न धर्म न माननेवाले जैन, सिख, बौद्ध (भारतीय बौद्ध) आदि को अपनी धर्मनिष्ठा अल्पतः भी न छोड़ते हुए हिंदुत्व की परिभाषा के अनुसार 'हम लोग हिंदू हैं' ऐसा सुख तथा संतोषपूर्वक कहने में कोई कठिनाई नहीं होगी। किमपि इस बात को अस्वीकार करना उनके लिए संभव नहीं है। उसी प्रकार मुसलमान, ईसाई, यहूदी आदि अहिंदू हैं तथा इन्हें अहिंदू क्यों कहना चाहिए यह निम्न विवेचन से स्पष्ट हो जाएगा।

जैन हिंदू क्यों हैं? वैदिक समय से ही उनके पितरों की पितृभूमि यही भारत भूमि है। उनके तीर्थकरादिक धर्म गुरुओं ने अपने धर्म इसी भारतभूमि में ही स्थापित किए हैं। इस कारण यह उनकी पुण्यभूमि (Holy Land) भी है। केवल इसी अर्थ में 'हम लोग हिंदू हैं' इस कथन को हम लोगों के बहुसंख्यक जैन बांधव संतोषपूर्वक मान लेंगे। यह एक ऐतिहासिक सत्य है। हम लोगों का धर्म वैदिक धर्म की एक शाखा नहीं है तथा पूर्णतः अवैदिक है ऐसी जिनकी मान्यता है उन्हें भी इस परिभाषा के कारण कोई चोट नहीं पहुँचेगी। लोग हिंदू शब्द को वैदिक मानने की भूल कर रहे थे। तब स्वतंत्र धर्ममतों के द्वारा स्वयं को हिंदू कहलाने में कठिनाई प्रतीत होना अनिवार्य था।

सिख किस प्रकार हिंदू हैं? वैदिक काल से ही सिंधु से सरस्वती तक के आर्यों के मूल स्थान में उनका परंपरागत निवास आज भी है, इस कारण उनकी पितृभूमि यही भारतभूमि है। नानक आदि उनके धर्मगुरुओं ने इसी भूमि में सिख धर्म की स्थापना की। उनके धर्म की जड़ें इसी भूमि में फैली होने के कारण यह भारतभूमि उनकी पुण्यभूमि (Holy Land) है। अतः सिख तो हिंदू ही हैं; वे वेदों को मानते हों अथवा नहीं, मूर्तिपूजा करें अथवा न करें, तो भी वे हिंदू ही हैं।

आर्य समाजी हिंदू क्यों हैं? उनका पितृभूमि का अभिमान अन्यों की तुलना में अधिक है तथा भारतभूमि को पुण्यभूमित्व के रूप में आदर देते हैं वे तो हिंदू ही हैं, फिर वे पुराणों तथा स्मृतियों को मान्यता देते हों अथवा न देते हों।

यही बात लिंगायत, राधास्वामी के अनुयायियों के लिए भी सत्य है। ये हम लोगों के धर्म अथवा धर्मपंथ सभी के लिए ठीक है। इसके अतिरिक्त काल भिल्‍ल संताल, कोकेरियन आदि जो कोई भूतप्रेत अथवा अन्य पदार्थों की (Anirnists) पूजा करनेवाले हैं उनकी भी परंपरागत पितृभूमि भारत ही है। उनके पूजापंथ भी उपलब्ध जानकारी के आधार पर इसी भारतभूमि को पुण्यभूमि मानते हैं। इसी कारण वे भी हिंदू हैं। इस प्रकार इस परिभाषा में सभी हिंदुओं को सम्मिलित किया गया।

फिर मुसलमान, ईसाई तथा यहूदी हिंदू क्यों नहीं हैं? यद्यपि उनमें से अनेक धर्मांतरित लोगों की पितृभूमि भारतभूमि है तथापि उनके धर्म अरबस्थान, पैलेस्टाइन आदि भारत के बाहर के देशों में उपजे हैं तथा ये लोग उस भारत के बाहर के देशों को ही अपनी पुण्यभूमि (Holy Land)समझेंगे। यह भूमि उनको पुण्यभूमि न होने से वे हिंदू नहीं हैं।

इसी प्रकार चीनी-जापानी-स्यामी आदि भी पूर्णतः हिंदू क्यों नहीं है? ये धर्म से हिंदू (बौद्ध) होने के कारण भारतभूमि उनकी पुण्यभूमि है। परंतु भारतभूमि उनकी पितृभूमि नहीं है। हम और वे लोग धर्म के कारण संबंधित हैं, परंतु राष्ट्रभाषा, वंश, इतिहास आदि पूर्णतः भिन्न हैं। हम लोगों के राष्ट्र से वे मूलरूप से संबंधित नहीं हैं इसलिए वे हिंदू धर्म के अंतर्गत होते हुए भी संपूर्ण हिंदुत्व के अधिकारी नहीं हैं और वास्तविकता भी यही है। जापानी अथवा चीनी बौद्ध होने के कारण हिंदू हो सकते हैं, परंतु राष्ट्र के घटक नहीं बन सकते। हिंदू धर्म परिषद् में उन्हें समान स्थान प्राप्त हो सकता है, परंतु हिंदू महासभा में अर्थात् हम लोगों की हिंदू राष्ट्र सभा में उन्हें सम्मिलित नहीं किया जा सकेगा। परंतु वैदिक, सिख, भारतवासी बौद्ध, जैन आदि हम लोग हिंदुत्व के पूर्ण अधिकारी हैं। हम लोग एकराष्ट्रीय भी हैं, क्योंकि भारतभूमि न केवल हम लोगों की पुण्यभूमि है वह हमारी पितृभूमि भी है।

शुद्धीकरण की समस्या का समाधान भी इस परिभाषा द्वारा उसी प्रकार प्राप्त किया जाता है, जो पूर्व में हिंदू थे वे शुद्ध किए जाने के पश्चात् संपूर्ण रूप से हिंदुत्व के अधिकारी बन जाते हैं, क्योंकि उनकी पितृभूमि और पुण्यभूमि भारतभूमि ही है। परंतु अमेरिकी अथवा इंग्लिश आदि परराष्ट्रीय व्यक्ति, जिनकी पितृभूमि भारतभूमि नहीं है, यदि हिंदू धर्म को स्वीकार करते हैं, तब धर्म की दृष्टि से वह हिंदू होंगे, परंतु उनकी राष्ट्रीयता भिन्न होने के कारण उन्हें हिंदुत्व के पूर्ण अधिकार प्राप्त नहीं हो सकते, क्योंकि उनकी पुण्यभूमि भारतभूमि तो हो जाएगी; परंतु उनकी पितृभूमि भिन्न है। उनमें से यदि कोई शरीर संबंध करते हुए हम लोगों से विवाहबद्धहोंगे अर्थात् वंश तथा राष्ट्र को दृष्टि से हम लोगों के रक्तबीज से एकरूप अथवा हिंदुस्थान की नागरिकता स्वीकार करते हुए उसे पितृभूमि मानेंगे तब वे संपूर्णतः हिंदुत्व के अधिकारी हो जाएँगे। अखिल विश्व में हिंदू धर्म का प्रचार करने में यह परिभाषा किसी प्रकार की बाधा उत्पन्न नहीं करेगी।

उपसंहार

इस लेख की मर्यादाओं में यथासंभव विस्तारपूर्वक हिंदू शब्द का विश्लेषणात्मक अध्ययन करते हुए उसकी प्रस्तुत परिभाषा के आधार पर हिंदू कौन है तथा अहिंदू कौन है इस समस्या को निर्विवाद रूप से किस प्रकार समाधान किया जा सकता है, यह दरशाया गया। अब इस हिंदू शब्द का प्रयोग इसी सुनिश्चित अर्थ में ही किया जाएगा। इस बारे में बहुत सावधानी रखना आवश्यक है। उसका प्रयोग सही उचित अर्थ से किस प्रकार तथा क्यों करना चाहिए यह ऊपर निर्दिष्ट विवेचन में स्पष्ट किया गया है। अतः उसका अपप्रयोग किस प्रकार टालना चाहिए यह भी इस विवेचन में बताया जा चुका है। तथापि इस शब्द का एक अत्यंत आत्मघातक प्रयोग टालना हम लोगों के लिए अत्यधिक महत्त्वपूर्ण बात है। उसे स्वतंत्र रूप से दरशाना उचित होगा। किसी नेता के, जिसे हिंदू संघटन के विषय में अत्यधिक प्रेम है, कुछ समाचार पत्रों में तथा प्रत्यक्ष हिंदू महासभा के मंच से 'हिंदू और जैन', हिंदू और सिख', हिंदुओं को अस्पृश्यों से सहानुभूति होनी चाहिए, ऐसे शब्द प्रयोग पहले की आदत के अनुसार बिना सोचे किए गए होंगे-ऐसा प्रतीत होता है। वाक्य कुछ इस प्रकार से कहे जाने चाहिए। स्पृश्यों को अस्पृश्यों के लिए मंदिरों के द्वार खोल देने चाहिए। 'हिंदुओं को अस्पृश्यों के लिए द्वार खोलने चाहिए, यह एक अपप्रयोग है, क्योंकि दोनों ही हिंदू ही हैं, सिखों को उन लोगों की भी महानुभूति है जो हिंदू नहीं हैं। पंजाब में वैदिक तथा सिखों को एक साथ मिलकर मुसलमानों के आक्रमण का प्रतिकार करना आवश्यक है। इस प्रकार के वाक्य प्रयोग होने चाहिए। सिखों को हिंदुओं की सहानुभूति है, सिखों तथा हिंदुओं को एक साथ मिलकर मुसलमानों का प्रतिकार करना चाहिए, ये घातक अपप्रयोग हैं, क्योंकि इन वाक्यों से जो बात सिद्ध करना आवश्यक है उसी को नकारा गया है। सिख तथा हिंदू पृथक् हैं, सिख हिंदू नहीं हैं यह सूचित किया जा सकता है, जो अनुचित है। समाचार पत्र के कुछ वाक्य देखिए-'जैनों से हम हिंदुओं की प्रार्थना है कि उन्हें हिंदू न होने की बात का दुराग्रह नहीं रखना चाहिए। पुरानी आदतों के कारण हमारी लेखनियों पर जंग लग गया है। इन्हें तत्काल फेंक देना चाहिए। हिंदू शब्द का वैदिक अथवा सनातनी, गैर-पाक्षिक अर्थ में प्रयोग न करते हुए उसकाप्रयोग उसके स्वतंत्र व्यापक तथा निश्चित अर्थ में किया जाना चाहिए। कल के ही समाचार पत्र अवलोकन करें। हिंदू तथा सिख दोनों समाज जिल्‍हा से चर्चा कर रहे हैं । ऐसे वाक्य कितने घातक है ? परंतु इस प्रकार के वाक्य सदैव प्रयोग किए जाते हैं। धार्मिक दृष्टि से इस प्रकार के भेद दरशाने के लिए जैन, सिख, वैदिक, आर्य, सनातनी विशिष्ट शब्‍दों का प्रयोग किया जाना चाहिए । हिंदू और आर्यसमाजी ऐसा न करते हुए सनातनी और आर्यसमाजी कहना उचित होगा।

हिंदुत्व की परिभाषा का शासन से भी पंजीयन होनी चाहिए

अपनी मरजी के अनुसार जनगणना के समय किसी को भी हिंदू विभाग से पृथक् कर उसे भिन्न रूप से पंजीकृत करने की शासकीय प्रथा इसलिए संभव होतो है कि हिंदुत्‍व की निश्चित परिभाषा हम लोगों ने नहीं बनाई। इसीलिए इसे बंद करवाने हेतु यह सत्य, सरल तथा अनेक संस्थाओं द्वारा जिसे अब मान्यता प्राप्‍त हो चुकी है, ऐसी हिंदुत्व की परिभाषा एक साथ आगे बढ़ाना आवश्यक है तथा आगामी जनगणना से पूर्व उसका पंजीयन भी करवा लेना चाहिए।

आसिंधु भारतभूमि जिसकी पितृभूमि तथा पुण्यभूमि है, वही हिंदू है। यह बात प्रत्येक हिंदू को कंठस्थ होनी चाहिए तथा हमारी उपासना के श्‍लोक के समान हम लोगों को निम्‍न पंक्तियों को रोज जपना चाहिए -

आसिंधु सिंधुपर्यंता यस्य भारतभूमिका ।

पितृभू: पुण्‍यभूमिश्‍चैव स वै हिंदुरिति स्‍मृत: ॥

- सह्याद्रि, मई १९३६

हमारी राष्ट्रभाषा - संस्कृतनिष्ठ हिंदी

हिंदुस्थानी नहीं तथा उर्दू तो कदापि नहीं

एकता के इच्छुक लोगों ने पीछे हटने के कई प्रयास किए, तब भी मुसलमानों को संतुष्ट करना असंभव प्रतीत होता है। अतः राष्ट्रीय लिपि की समस्या का समाधान प्राप्त करने का इष्टतम मार्ग यही है कि स्पष्ट रूप से तथा निडर होकर प्रत्येक हिंदू को निम्न प्रतिज्ञा करना आवश्यक है -

'हम हिंदू लोगों की राष्ट्रभाषा संस्कृतनिष्ठ हिंदी ही है तथा संस्कृतनिष्ठ नागरी लिपि ही हम हिंदुओं की राष्ट्र लिपि है।'

हिंदुस्थान की राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी को स्थापित करने का आंदोलन जब से प्रारंभ हुआ है और सारे हिंदुस्थान के हिंदुओं में इसका विस्तार हुआ है, तब से भारत के मुसलमानों ने इस आंदोलन को अयशस्वी किए जाने हेतु प्रयास प्रारंभ किए हैं। उनका उद्देश्य यही है कि सात करोड़ मुसलमानों के लिए तेईस करोड़ हिंदुओं को उर्दू को राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार कर लेना चाहिए। हिंदी की तुलना में उर्दू श्रेष्ठ है इस कारण- परंतु इसमें कोई तथ्य नहीं है। उर्दू अपनी दरिद्रता अरबी के आधार पर दूर करना चाहती है। यह इस कारण भी नहीं कहा जा रहा है कि हिंदी भाषा के लिए शब्दों का असीम भंडार जो संस्कृत भाषा है उससे अधिक संपन्न अथवा उसके तुल्य बल अरबी भाषा है। किसी रानी की संपन्नता क्या किसी भिक्षा-जीवी स्त्री के पास हो सकती है? हिंदी के कुछ विशिष्ट गुण उर्दू में विद्यमान हैं यह भी इसका कारण नहीं है। केवल इसलिए कि उर्दू अल्पसंख्यक मुसलमानों की प्रिय भाषा है। इस एक ही कारण से तेईस करोड़ हिंदू बहुसंख्यक राष्ट्र को उर्दू से श्रेष्ठ होते हुए भी हिंदी के स्थान पर उर्दू को ही राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकारना चाहिए ऐसा मुसलमानों का हठ है। यह हठ हम लोगों ने यदि न मान लिया तब ? हम लोग हिंदी अथवा अन्य किसी भी भाषा को राष्ट्रभाषा नहीं बनने देंगे। हमलोगों के परिवारों में कई प्रांतों में हिंदी को मातृभाषा के रूप में मान्यता प्राप्त है। इसे भुलाकर, बदलकर उर्दू को यह स्थान देंगे। नागरी लिपि का उपयोग करना पापसमझा जाएगा, इसके अतिरिक्त जिस किसी भाषा को राष्ट्रभाषा के रूप में मान्यता दी जाएगी, उसके साथ किसी भी रूप में हिंदी नाम का प्रयोग नहीं करने दिया जाएगा। राष्ट्रभाषा का अभिधान उर्दू ही होना चाहिए। प्रारंभ से ही संपूर्ण मुसलमान समाज की यह माँग है।

समझौता

हम हिंदुओं में एक वर्ग कहता है कि किसी भी राष्ट्रीय आंदोलन में जब तक कोई मुसलमान सहभागी नहीं होगा या उसे जबरन कहीं से लाकर वहाँ बैठाया नहीं जाता तब तक उस आंदोलन को राष्ट्रीय आंदोलन कहना उचित नहीं है। इस प्रकार उनकी एक विचित्र मानसिकता होती है। जब उन्हें इस बात का पता चला कि हिंदी को राष्ट्रभाषा तथा नागरी को राष्ट्र लिपि करने पर मुसलमानों का घोर विरोध है तब वे बहुत बेचैन हो गए। हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में मान्यता प्राप्त करने के कार्य में इनमें से बहुत से लोगों ने पर्याप्त कष्ट उठाए हैं। इस वर्ग के नेता हैं महात्मा गांधीजी- इस बात का उल्लेख न करते हुए भी यह स्पष्ट समझ में आनेवाली बात है। जिन लोगों ने हिंदी तथा नागरी का प्रचार करने हेतु कार्य किया है उन राष्ट्रभक्त महोदयों में गांधीजी का कार्य बहुत महत्त्वपूर्ण है। परंतु राष्ट्रीयता के विषय पर उनकी इस प्रकार की विक्षिप्त धारणा है। इसीलिए जो राष्ट्र के हित में है उसे ही राष्ट्रीय कहा जाना चाहिए, इसकी उन्हें कल्पना तक नहीं है ऐसा प्रतीत होता है। अल्पसंख्यक मुसलमानों का जो भी मूर्खतापूर्ण हठ होगा, उसे पूरा करके उनकी हाँ जी-हाँ जी करना वे आवश्यक मानते हैं। ऐसा किए बिना उन्हें चैन नहीं आता। उन्होंने हिंदी के इस प्रश्न पर मुसलमानों को प्रसन्न करने के निरर्थक प्रयास करना जारी रखा तथा मुसलमानों के इस पागल धर्महठ के लिए एक पर्यायी समझौते की बात स्वयं होकर प्रस्तुत की।

एकता लंपट वर्ग

वास्तविकतः जिन दो पक्षों को किसी प्रकार का कार्य करने में सहयोग देना मान्य होता है उनमें समझौते का प्रश्न उठता है। कुछ हम छोड़ देते हैं कुछ आप भी छोड़िए-इस प्रकार से कुछ का त्याग कर जोड़ने को ही समझौता कहा जाता है। इस स्थिति में उर्दू को ही राष्ट्रभाषा तथा उर्दू को ही राष्ट्रलिपि के रूप में मान्यता मिलनी चाहिए ऐसी उनकी धारणा है। इसे ही वे लोग समझौता मानते हैं। इस बातका ध्यान न रखते हुए हिंदुओं के लिए ही अनिष्ट प्रतीत होनेवाला एक समझौता गांधीजी आदि लोगों ने हिंदी साहित्य सम्मेलन के समय प्रस्तुत किया। मुसलमानों ने इसे अस्वीकार कर दिया। परंतु इसे दोनों पक्षों द्वारा स्वीकारा गया है ऐसा भ्रम पालकर हिंदी को तोड़ने-मरोड़ने का कार्य एकता लंपट लोगों द्वारा अत्यधिक श्रद्धा तथा उत्साहपूर्वक प्रारंभ किया गया। इस कारण हिंदी के अभिमानी लोगों के मन में क्रोध उत्पन्न होना स्वाभाविक ही था। राष्ट्रीय भाषा का प्रश्न प्रत्येक प्रांत के लोगों के लिए अंतःकरण के निकट का प्रश्न है। यदि इसमें कुछ अवांछित बात हो जाती है तो इसके अच्छे-बुरे परिणाम प्रत्येक प्रांतीय भाषा व संस्कृति को भुगतने पड़ेंगे। इसलिए महाराष्ट्र की जनता को भी इस बात से अवगत कराना आवश्यक प्रतीत होता है कि किस प्रकार हिंदी को विकृत रूप देते हुए हिंदुओं की भाषा पर मुसलमान संस्कृति को आरूढ़ करवाने का प्रयास एकता लंपट कर रहे हैं। इस प्रकार के विकास का स्वरूप भी जान लेना उनके लिए आवश्यक है।

अच्छा होगा यदि हिंदी न कहते हुए हिंदुस्थानी कहा जाएगा

एक ही राष्ट्रभाषा हो-ऐसा मानकर मुसलमानों को इस बात पर सहमत करने के लिए जो समझौता गांधीजी आदि लोगों ने प्रस्तुत किया था तथा जिसे मुसलमानों द्वारा अस्वीकार किया गया, परंतु उन्होंने इसे स्वीकारा है-इस भोली धारणा से जिस प्रकार हिंदी का विकृतीकरण किया जा रहा है वह समझौता कुछ इस प्रकार का है-यदि मुसलमान किसी भी स्थिति में नागरी लिपि को मान्यता देने के पक्ष में नहीं हैं तो इस विषय में अधिक आग्रह न करते हुए लिपि की बात छोड़ देनी चाहिए। हिंदी राष्ट्रभाषा के लिए हिंदुओं को नागरी लिपि का उपयोग करना चाहिए तथा मुसलमानों को इसके लिए अलिफ में उर्दू का प्रयोग करना चाहिए तथा इन दोनों लिपियों को राष्ट्रीय कहना चाहिए। सभी शासकीय लेखन इन दोनों लिपियों में प्रकाशित किया जाना आवश्यक है। इससे अधिक क्षतिपूर्ण बात तो यह है कि हिंदी भाषा से संस्कृत संपन्नता एवं संस्कृतनिष्ठा की जो दुर्गंध मुसलमानों को विचलित करती है उसे कम करना चाहिए। अतः हिंदी भाषा में संस्कृतजन्य शब्दों के साथ अन्य लाखों अरबी, फारसी आदि उर्दू शब्दों को भी सम्मिलित किया जाना चाहिए तथा तीसरा सुझाव यह है कि हिंदी का नाम परिवर्तित कर उसे हिंदुस्थानी अभिधान देना चाहिए।

इस समझौते से यह स्पष्ट हो जाता है कि यदि किसी को पीछे हटना पड़ा है, तो वह हिंदुओं को हिंदी का विकृतीकरण करना ही होगा तथा केवल हिंदुओं को ही पीछे हटना पड़ रहा है। समझौते का अर्थ होता है दोनों पक्षों द्वारा कुछ पानाया कुछ खोना। इस दृष्टि से मुसलमानों ने पीछे हटना स्वीकारा नहीं है। मुसलमानी द्वारा हिंदी के विकृत स्वरूप के लिए प्रतिमूल्य के रूप में कोई उपकार यदि हम लोगों पर किए जाने की अपेक्षा हिंदुओं ने रखी है, तो वह केवल इतनी ही है कि हिंदी अर्थात् हिंदुस्थानी' को राष्ट्रभाषा के रूप में मान्यता देना। परंतु क्या मुसलमानों द्वारा यह अपेक्षा पूरी की जाएगी? कदापि नहीं, इस बात का विश्‍लेषण कुछ इस प्रकार किया जा सकता है।

नाम में भी उर्दू शब्द

मुसलमानों को हिंदी नाम से बहुत समय से घृणा है इसलिए हम लोगों के भोले-भाले लोगों ने हिंदी नाम परिवर्तित कर उसे समझौता करने हेतु 'हिंदी याने हिंदुस्थानी' का अभिधान दिया। हिंदी अर्थात् हिंदुस्थानी हिंदी अथवा हिंदुस्थानी ऐसा नाम नहीं दिया गया है। यह 'याने' किस चीज को कहते हैं, यह महाराष्ट्र के अथवा मद्रास के लाखों 'हिंदुओं' को तथा लक्षावधि मुसलमानों को ज्ञात नहीं है, परंतु प्रत्येक शब्द समुच्चय में सभी शब्द संकृतोत्पन्न नहीं होने चाहिए क्योंकि इस कारण राष्ट्रभाषा अराष्ट्रभाषा बन जाएगी। प्रत्येक शब्द समुच्चय में कम-से-कम एक विदेशी उर्दू शब्द का होना आवश्यक है। अत: 'याने' यह उर्दू शब्द यहाँ रखा गया है। 'याने' इस उर्दू शब्द का अर्थ है किंवा या अर्थात्। जिन मुसलमानों की मातृभाषा मुगलों के समय से ही हिंदी ही है वे हिंदी को उर्दू लिपि में लिखकर उसे 'हिंदुस्थानी' नाम से, जो स्वयं दिया हुआ अभिधान है, ही जानते हैं। इस कारण 'हिंदी माने हिंदुस्थानी' ऐसा हिंदू-मुसलिम नाम प्रमाणित होता है, ऐसी धारणा कुछ एकता लंपट लोगों ने कर ली तथा हिंदी का नया नामकरण किया। वे मन ही मन कहने लगे कि अब राष्ट्रभाषा की समस्या का समाधान हो चुका है।

देश का नाम भी परिवर्तित कीजिए

यह प्रश्न केवल नाम से ही संबंधित है यह उनकी समझ में आ जाएगा। उर्दूलिपि में छपनेवाले हिंदी के लिए 'हिंदुस्थानी' वह नाम मुसलमानों द्वारा प्रयोगकिया जाता है। परंतु इस समय 'पैन इस्लामिज्म' का भूत का संचार होने के कारणउन मुसलमानों को पहले उनके ही द्वारा दिया गया हिंदुस्थानी नाम भी असह्य लगनेलगा है। यह बात एकता लंपट वर्ग भूल गया। हिंदी के समान हिंदुस्थानी शब्द सेभी हिंदुत्व की दुर्गंध निकलती है ऐसा इस समय मुसलमान कहने लगे हैं। भाषा केअतिरिक्त हिंदुस्थान नाम से इस देश को भी संबोधित करना वे अब नहीं चाहते।उन्होंने यह वाद प्रारंभ किया है तथा उनका यह स्पष्ट प्रस्ताव है कि हिंदुस्थान नामभी एकता का विघातक होने के कारण उसके स्थान पर पावन नाम 'पाकस्थान' दिया जाना चाहिए। उर्दू भाषा में पाक शब्द का अर्थ है मुसलिम धर्मानुसार शुद्ध पाक अर्थात् मुसलिम धर्मानुसार निषिद्ध अर्थात् अशुद्ध जिस देश में मुसलमानों को श्रेष्ठ माना जाता है उसे पाकस्थान कहा जाता है। हिंदुस्थान नाम हिंदुत्व की श्रेष्ठता का प्रतीक है। अतः हिंदुस्थान को 'पाकस्थान' कहा जाना चाहिए। उर्दू साहित्य से पूर्णतः अनभिज्ञ महाराष्ट्र के लागों को कदाचित् लगेगा कि ऊपर निर्दिष्ट विचारधारा विडंबनार्थ अथवा विपर्यस्त है। परंतु यह संपूर्ण सत्य है। आगाखा, इकबाल जैसे महान् मुसलमानों द्वारा तथा लाहौर-लखनऊ के एक पैसे के समाचार पत्रों में हिंदुस्थान शब्द पर किए गई इस आक्षेप को स्पष्ट रूप से तथा कटु शब्दों में प्रसृत किया जा रहा है। नाब, कश्मीर, सिंध, सरसीमा को आज 'पाकस्थान' अर्थात् मुसलिम श्रेष्ठता का देश- यह नाम देना चाहिए, ऐसी माँग वे लगातार उठा रहे हैं। इस प्रकार को मानसिक अवस्था के कारण मुसलमानों को हिंदी नाम जितना अप्रिय है उतना ही अप्रिय है हिंदुस्थान- यह अभिधान भी। अतः राष्ट्रभाषा एक ही हो इस कामना से हिंदी का नाम परिवर्तित कर उसे 'हिंदी माने हिंदुस्थानी' जैसा सम्मिश्र नाम देने के पश्चात् भी यह समस्या वैसी ही बनी हुई है। मुसलमानों का कहना है कि हिंदुस्थानी न कहते हुए पाकस्थानी कहिए।

बाजार की बोली तथा राष्ट्रभाषा

अतः हमारे एकता लंपट वर्ग ने समझौता करने हेतु जो दूसरी सुविधा देना चाही थी वह भी मुसलमानों को संतुष्ट न कर सकी। इससे हिंदी स्वरूप ही विकृत बन जाएगा। हिंदी में अरबी, फारसी, अंग्रेजी आदि भाषाओं के जो शब्द उर्दू में भी प्रयोग किए जाते हैं यही शब्द हिंदी में सम्मिलित किए जाते हैं। इस प्रकार की सम्मिश्र भाषा द्वारा ये लोग अपने विचार दूसरों तक पहुँचाते हैं। बाजारों में बोली जानेवाली इस भाषा को राष्ट्रभाषा कहना किस प्रकार संभव है।

जिस भाषा में किसी राष्ट्र के साहित्य की रचना की जाती है, वही भाषा उस देश की राष्ट्रभाषा कहलाती है। भारत की राष्ट्रभाषा का अर्थ है-वह भाषा जिसमें भारत के अत्युच्च विचार, दर्शन, काव्य, रसायन, वैद्यक, पदार्थ विज्ञान, यंत्रशिल्प, भूगर्भ आदि विभिन्न विज्ञान विषयक तथा राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक जीवन को व्यक्त किया जा सकता है तथा जो संपन्न तथा प्रगत भाषा है। अब इस राष्ट्रीय भाषा में व्यक्त किए जानेवाले अत्युच्च काव्य, तत्त्व, विज्ञान के लिए आवश्यक सहस्रावधि पारिभाषिक तथा अर्थपूर्ण, कोमल तथा रुचिपूर्ण, परंपरा का गूढ़ संदर्भ सूचित करनेवाले, अर्थवाहक तथा ध्वनिपूर्ण शब्द किस रत्नाकर सेप्राप्त करने होंगे? अरबी से? वह स्वयमेव अत्यधिक अकिंचन तथा दरिद्र भाषा है। इतनी दरिद्री है कि संपूर्ण यूरोपीय अर्वाचीन विज्ञान अरबी में अनूदित करने का प्रण जब कमाल अतातुर्क ने किया, तब स्वयं उसे अरबी भाषा इतनी अनुपयोगी प्रतीत हुई कि यदि तुर्कों को साहित्य की आवश्यकता हो तो इस पराई भाषा का त्याग करने के अतिरिक्त अन्य कोई पर्याय नहीं है, इस विचार से उसने तुर्कस्थान से इस भाषा को बाहर निकाल दिया। तुर्क खिलाफत का केंद्र था तथा अरबी खिलाफत की धार्मिक भाषा थी। परंतु तुर्कों की प्रगति और स्वाभिमान के लिए वह अनुपयुक्त प्रतीत होने पर तुर्कों ने स्वयं अरबी को निषिद्ध भाषा ठहरा दिया। उस विदेशी तथा शब्दों की दरिद्री अरबी को क्या हिंदुस्थान के स्वाभिमान तथा प्रगति के लिए उपयुक्त तथा सहायक है ऐसा समझना ? अर्थात् ये सहस्रावधि पारिभाषिक तथा नए शब्द हम लोगों को हिंदी की प्रकृति से सर्वथा अनुकूल तथा जो हिंदी का मूल है उस शब्द-रत्नाकर एवं सुसंपन्न संस्कृत भाषा से ही प्राप्त करना होगा। शब्द-प्रसव की क्षमता में संस्कृत के तुल्य कोई अन्य भाषा संपूर्ण विश्व में विद्यमान नहीं है। उस संस्कृत भाषा का शब्द-रत्नाकर तथा साहित्य क्षीरसागर हम लोगों को उपलब्ध है, फिर हम लोगों को कृपणता का भिक्षापात्र हाथ में उठाकर मरुभूमि के अरबी मरुस्थल में 'पानी! पानी!' ऐसी आवाजे लगाकर व्यर्थ में क्यों भटकना चाहिए?

भाषा में भी जातीयता है

मुसलमानों को संतुष्ट करने हेतु कुछ शब्द अरबी भाषा से लिये जाएँ तथा शेष संस्कृत भाषा से। परंतु हिंदी में कितने अरबी शब्दों को स्थान देना होगा ताकि उसे मुसलमान राष्ट्रीय भाषा के रूप में मान्यता प्रदान करेंगे, इस बारे में किसी भी मुसलमान संस्था द्वारा अथवा प्रमुख लोगों ने किसी प्रकार की कोई तालिका क्या आपके सामने प्रस्तुत की है? जिस प्रकार विधिमंडलों में जातीयता के आधार पर विशेष प्रतिनिधित्व दिया जाता है उसी प्रकार भाषा के लिए भी जातीय प्रतिनिधित्व मुसलमानों को देना आवश्यक है? तथा इसकी प्रतिशत दर क्या होनी चाहिए? पाँच, पचास या पाँच सौ ? इतने शब्दों को हिंदी भाषा में सम्मिलित किए जाने से तथा उसे हिंदी माने हिंदुस्थानी' इस अभिधान से संबोधित करने पर भी मुसलमानों को संतुष्टि नहीं होगी। क्योंकि एक सौ शब्दों के लिए सौ शब्द अरबी, तुर्की आदि। विदेशी भाषाओं से लिये जाने पर ही उन्हें संतोष मिलेगा। अर्थात् हिंदी भाषा को उर्दू में परिवर्तित करने का यह दूसरा नाम है। वे लोग उनकी इस प्रतिज्ञा का स्पष्ट तथा नि:संदिग्ध शब्दों में उच्चारण करते हैं। मुसलमान इतने निर्बुद्धि नहीं हैं कि वेऐसा मान लेंगे कि हमने उनकी प्रतिज्ञा सुनी ही नहीं है। उन्हें किसी प्रकार का कोई समझौता नहीं करना है। अपने स्वयं के बल पर उर्दू को राष्ट्रभाषा बनाने का उनका संकल्प है। पाठकों को इस विषय की पर्याप्त जानकारी नहीं है, उन्हें इसकी संकलित जानकारी तथा युक्तियुक्त समझ भी नहीं है। इसलिए कुछ कामचलाऊ परंतु निर्विवाद प्रमाण प्रस्तुत किए जा रहे हैं।

उर्दू का स्वरूप

जिस उर्दू भाषा को राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार करने के बहुत प्रयास कर रहे हैं वह भाषा किस स्तर की है इसका एक छोटा सा नमूना पाठकों को दिखायाजाए तब वे इस बात से सहमत हो जाएंगे कि बहुसंख्यक हिंदुओं को इस प्रस्ताव का विरोध करना चाहिए। आज की प्रचलित सामान्य रचनाओं से निम्न उदाहरण लिये गए हैं -

'गालिब की शायरी में निहायत जवानी भी जगह-जगह भरी है। मजामीन भी उसने नए शामिल किए हैं, जिसे वह मसायले तसव्वुफ कहता है।'

'इतिल्ला दी जाती है कि सब लोक सायलाने मजकूर की जात या जायजाद के खिलाफ मुताल्लिक दावे रखते हों वे जिस इश्तिहार के तारीख्स हाकिम के आगेतहरीर अर्ज पेश करें। ऐसा न करने पर सायले मजकूर जुमला अगराज व मोरकजात के लिए जरदका मजकूर बाजाब्ता बेवाक मुतसाव्विर होगा।"

अब उर्दू कविता का उदाहरण देखिए -

परत बे खुरसे है शबनम्को फनाकि तालिम।

हम भी हैं एक इनायत की नजर होने तक।

फिर दिल तवाफ कूये मलामत को जाए है।

पिदारका सनम्कदा वीरा किए हुए है।

अब इस प्रकार की उर्दू भाषा बंगाल, बिहार, उड़ीसा, महाराष्ट्र से रामेश्वर तक के कोटयावधि हिंदुओं के ही नहीं, लाखों मुसलमानों के लिए भी अत्यंत दुर्बोध है। हिंदुओं की अधिकांश भाषाओं से वह कितनी विसंगत है। प्रतिकूल तथा अपरिचित है इसे कहने की आवश्यकता अब प्रतीत नहीं होती। उर्दू भाषा के ये उदाहरण हिंदू जनता के लिए मूलत: ही अत्यंत दुर्बोध हैं और उर्दू भाषा के साथ उर्दू लिपि का भी आग्रहपूर्वक हठ मुसलमान कर रहे हैं। परंतु यदि उर्दू लिपि का प्रयोग किया जाता है तो उन्हें समझना तो दूर की बात है, उन्हें पढ़ना भी असंभव होगा। मराठी वाचक भी यह बात समझ चुके होंगे।

यह उर्दू है और यह हिंदी

अब आज के एक लेख का उदाहरण लेते हैं। दोनों भाषाओं में वह कुछ इस प्रकार प्रस्तुत किया गया है। उर्दू में अगर बर तकदीर कोई सही मोशरिक मेरा पैदा होकर इस्तेहकाक जाहिर करे या मुनमिकर कब्जा वाकई न देया किती किफालत मवाखजा की वजह से कब्जे मुर्तेहनान मोसुफमे चे खलला बाके हो तो मुर्तहिनकोयखतियार होगा, कि जुज या कुल जरे रहन मयसूद तारीखे तहरीर वासीका हजासे जायदादे मजकुरावाला व दीगर जायजाद व जात मुनमिकर से वसूल कर लें। और शर्ते इनफिकाक यह है के जब जरे रहना आदा कर दूंगा तो मशहून इमफिकाक करा दूंगा।' हिंदी में-'समस्त धन उक्त अभिगृहिता से (मूर्तहीन) प्राप्त करा लिया। अब कुछ शेष न रहा। आज से उसका स्वामित्व भूमि पार करा दिया। आज से वह अपने आपको मुक्त भूमि का स्वामी करा लेंगे। तब तक अधिगृहिता को अधिकार होंगे वह स्वयं भूमि जोते। उक्त भूमि से वृक्षों की लकड़ी लेता रहे। जो आर्थिक हानि उसको उठानी पड़े उसको हमसे तथा हमारी समस्त चल या अचल संपत्ति से प्राप्त कर ले।'

इन दो भाषाओं में एक ही प्रकार के लिखे गए लेखों से यह स्पष्ट हो जाता है कि पाठकों को कौन सी भाषा सहजतापूर्वक समझ में आ सकती है। यह बात स्वयंसिद्ध है कि हिंदुस्थान की राष्ट्रभाषा बहुसंख्यकों के लिए अनुकूल तथा सुलभ होना आवश्यक है। इसी कारण हिंदी को ही राष्ट्रभाषा के रूप में मान्यता प्राप्त होनी चाहिए। उर्दू एक भाषा के रूप में कितनी उचित अथवा अनुचित है तथा उसमें क्या दोष है यह न सोचते हुए, वह मुसलमानों की एक पंथीय अथवा प्रांतीय भाषा ही है ऐसा कहना उचित होगा। इस रूप में अन्य प्रांतीय भाषाओं के समान उसका उपयोग सुखपूर्वक किया जाए, परंतु यहाँ जो समस्या है वह है हिंदुस्थान की राष्ट्रभाषा कौन सी होगी। उर्दू इस स्थान के लिए सर्वथा अयोग्य, अप्रगत तथा अकिंचन भाषा है, क्योंकि उसकी सहायक भाषा जो अरबी है वह संस्कृत की तुलना में अत्यधिक दोन दिखाई देती है। उसकी लिपि भी नागरी की तुलना में ज्ञात करने के लिए तथा उसे पढ़ने-लिखने या मुद्रित करने की दृष्टि से एकदम त्याज्य है।

मुसलमानों का (हठ) दुराग्रह

हिंदी भाषा तथा नागरी लिपि का मुसलमानों द्वारा विरोध किया जाता है। यह केवल इस कारण कि वह हिंदुओं की संस्कृति की द्योतक है। यदि वे मुसलमान संस्कृति की द्योतक अरबीनिष्ठ उर्दू भाषा तथा लिपि का त्याग कर देंगे तो वे मुसलमान कैसे कहलाएँगे! यह वास्तविकता है। राष्ट्रभाषा बनने योग्य तथा सुलभभाषा है यह आज की समस्या नहीं है। समस्या है दो भिन्न संस्कृतियों में विद्यमान संघर्ष की यह हम लोगों को समझ लेना इसलिए आवश्यक हो जाता है क्योंकि केवल भाषिक चर्चा करने से मुसलमानों का मन परिवर्तन नहीं होगा तथा इसमें हम लोग जो समय नष्ट कर रहे हैं वह बच जाएगा, यह बात समझ में आ जाने के कारण हमारी शक्ति का अपव्यय नहीं होगा। मुसलमानों द्वारा स्वयं अपने लिए उर्दू का प्रयोग करने में हम लोगों को कोई आपत्ति नहीं है। परंतु उर्दू भाषा एवं लिपि को हिंदुओं पर बलपूर्वक थोपने का जो दुराग्रह मुसलमान प्रदर्शित कर रहे हैं उसे हमें नष्ट कर देना चाहिए।

सीमा प्रांत से प्रारंभ कीजिए। इस प्रांत में मुसलमान बहुसंख्यक हैं। सत्ता प्राप्त होते ही उन्होंने बोर्ड द्वारा संचालित सभी पाठशालाओं में हिंदी तथा गुरुमुखी पढ़ाना निषिद्ध करके वैदिक तथा सिख पंथ के हिंदू बच्चों को उर्दू भाषा व लिपि में पढ़ाई करना अनिवार्य कर दिया। शासकीय कार्य भी इसी भाषा में होने लगा। (हिंदू-सिख तथा दूसरे लोग दो बार इस प्रस्ताव का विरोध करते हुए बहिर्गमन कर गए परंतु इस पर किसी ने ध्यान नहीं दिया) मुसलमानों की संख्या अधिक होने के कारण उनके प्रांत में उनकी उर्दू भाषा व लिपि राष्ट्रभाषा तथा राष्ट्र लिपि को मान्यता देना उचित है। फिर गांधी और उनके अनुयायी इस बात का विरोध क्यों नहीं करते थे? फिर उसी न्याय से निजाम के राज में बहुसंख्यक हिंदुओं को उर्दू माध्यम में शिक्षा ग्रहण करनी पड़ती है इस बात का निषेध गांधीजी और उनके अनुयायियों द्वारा किया जाना चाहिए था।

इससे विपरीत जब मराठी लोगों ने निजाम का निषेध करने हेतु एक प्रस्ताव रखा तब गांधीजी तथा उनके अनुयायियों ने उसे दबा दिया। कश्मीर में बहुसंख्यक मुसलमानों के कारण वहाँ के हिंदू राजा ने अपना राज त्याग देने के लिए एक परप्रशंसापूर्ण निवेदन गांधीजी ने किया था। परंतु वही न्याय लगाकर निजाम अथवा भोपाल संस्थानों में हिंदू बहुसंख्यक होने के कारण वहाँ के नवाब को (मुसलमान) राज गद्दी को त्याग देना चाहिए, ऐसा कहने का साहस उनमें नहीं था। भोपाल राम राज्य है। ऐसा स्पष्ट मिथ्या तथा विद्वेषपूर्ण बहाना बनाने में गांधीजी को किसी प्रकार का संकोच नहीं हुआ था।

एक ध्यान देने योग्य भाषण

सीमा प्रांत में हिंदी को निषिद्ध किए जाने संबंधी प्रस्ताव पर विधिमंडल में भाषण देते हुए किसी हिंदू सदस्य ने मुसलमानों से कहा, 'इस प्रांत में आप मुसलमान लोग बहुसंख्यक हैं। अतः यहाँ उर्दू ही राष्ट्रभाषा होगी और हिंदू बच्चोंको भी उसी माध्यम में शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए ऐसा यदि आप लोग कहेंगे तो जिन प्रांतों में हिंदुओं की संख्या अधिक है, वहाँ वे लोग उर्दू भाषा में शिक्षाग्रहण करना निषिद्ध कर देंगे। वहाँ के मुसलमान बच्चों को हिंदी माध्यम मेंशिक्षा लेने को बाध्य करेंगे। अब आप लोग सोचिए। उस हिंदू सदस्य की इस चेतावनी का उत्तर देते हुए एक मुसलमान नेता ने कहा, 'जिन प्रांतों में हिंदू बहुसंख्यक हैं वहाँ उर्दू को निषिद्ध करने का साहस हिंदुओं में नहीं है। हिंदी को निषिद्ध करने की ताकत मुसलमानों में है।' उस मुसलमान नेता के इस मनोगत का प्रत्येक हिंदू को सदैव स्मरण रखना चाहिए। यही हम लोगों की दुर्बलता है। उस नेता के शब्द कटु अवश्य है, परंतु उसने जो कहा है वह सत्य है। बिहार में ८० प्रतिशत लोग हिंदू हैं। वहाँ मुसलमानों द्वारा एक प्रस्ताव रखा गया। शासकीय कार्य उर्दू भाषा में तथा लिपि में ही किया जाना चाहिए।' मुसलमान रुष्ट हो जाएँगे-इस भय से हिंदुओं ने उसका विरोध नहीं किया। आज बंगाल की स्थिति भी इसी प्रकार की है।

बंगाल में उर्दू का विद्रोह

हम लोगों के कुछ अल्पबुद्धि बंधु भाषाशुद्धि का विरोध करते समय यह लिखते हैं कि मुसलमान जनता द्वारा उर्दू का आक्रमण किया जा रहा है यह सत्य नहीं है। बंगाल में सारी मुसलमान जनता बंगाली भाषा को ही अपनी मातृभाषा मानती है। इस बात से वे पूर्णतः अनभिज्ञ हैं कि खिलाफत आंदोलन के समय से, बंगाल के बहुसंख्य मुसलमानों की भाषा उर्दू ही होनी चाहिए, इसलिए कितना बड़ा आंदोलन चलाया जा रहा है। ढाका विश्वविद्यालय के मुसलमानों ने कहना प्रारंभ किया कि बंगाली पाठ्य पुस्तकों के बहुसंख्य बंगाली शब्दों के स्थान पर उर्दू शब्दों का उपयोग किया जाना चाहिए तथा इस प्रकार की पाठ्य पुस्तकें प्रकाशित की जा रही हैं। इतिहास के स्थान पर तवारीख। विकास के लिए तरक्की। देश, राष्ट्र, बहुत जैसे शब्दों के लिए मुल्क, कौम, निहायत शब्दों का प्रयोग किया जाना चाहिए। इसके आगे जाकर शब्दों के अतिरिक्त अर्थ के बारे में भी विवाद प्रारंभ हुआ। रवींद्र के साहित्य पर मुसलमानों ने आघात किए हैं। उपमाओं में भी मुसलमान संस्कृति का दर्शन होना चाहिए। सदैव 'भीम जैसा बलवान' ऐसा ही क्यों कहा जाता है? रुस्तुम जैसा शक्तिशाली क्यों नहीं कहा जाता? विक्रम, चंद्रगुप्त आदि के पाठ क्यों दिए जाते हैं? स्पेन पर विजय पानेवाले तारीक का पाठ दीजिए। गत माह कलकता विश्वविद्यालय का महोत्सव हुआ। वंदेमातरम् राष्ट्रगीत प्रारंभ होते ही मुसलमान छात्रों ने उत्पात मचाना शुरू किया। विद्या को अधिष्ठात्री देवी सरस्वती का चित्रध्वज पर देखते ही वे लोग आक्रोश करते हुए बोले, 'मूर्तिपूजा बुतपरस्ती।' वह चित्र तथा ध्वज को हटाए जाने का दुराग्रह करने लगे।

भूषण कवि पर संकट के बादल

संपूर्ण बंगाली साहित्य पर मुसलमान संस्कृति की छाप लगाने के लिए आतुर बंगाली मुसलमानों को, सरसीमा प्रांत में हिंदू संस्कृति की छाप कम से कम हिंदुओं के लिए रखिए, ऐसी वहाँ रहनेवाले हिंदुओं की माँग असहा हो जाती है। भोपाल तथा हैदराबाद संस्थानों में हिंदू बहुसंख्यक हैं, परंतु वहाँ के हिंदू बच्चों को उर्दू भाषा तथा लिपि पढ़ाई जाती है। मुसलमानों के इस दुराग्रह के परिप्रेक्ष्य में कुछ हिंदुओं की पक्षपाती तथा भीरु वृत्ति देखिए। किसी मुसलमान ने गांधीजी को एक पत्र लिखा, "भूषण के काव्य में मुसलमानों की निंदा की गई है।' गांधीजी ने तत्काल क्या किया? भूषण का काव्य पढ़ा? नहीं पढ़ा। वे कहते हैं, 'मैंने स्वयं भूषण का काव्य पढ़ा नहीं है, उन्हें शिवचरित्र का कोई ज्ञान नहीं था। उस विषय की हास्यास्पद अनभिज्ञता होते हुए भी किसी मुसलमान के पत्र के कारण भूषण जैसे ख्यातनाम कवि का प्रख्यात काव्य निषिद्ध ठहरा दिया तथा हिंदुओं के पाठ्य पुस्तकों में उनके काव्य के अंश नहीं सम्मिलित किए जाने चाहिए ऐसा फतवा निकाला। इंदौर एक हिंदू संस्थान है, परंतु वहाँ के शासकीय न्यायालयों का कार्य आज भी उर्दू भाषा एवं लिपि में ही होता है।

मिथ्या आत्मश्‍लाघा

सबसे दुर्बल तथा पागलपन का युक्तिवाद तो यह है कि हम लोगों के शब्दों को हटाकर जो उर्दू शब्द मराठी तथा हिंदी भाषा में बलपूर्वक डाले गए हैं उन्हें अपनी मानहानि का द्योतक न मानकर, वे हम लोगों के पराक्रम के विजयध्वज हैं, इस प्रकार की आत्मश्‍लाघा कुछ हिंदू रचनाकार प्रदर्शित कर रहे हैं। चित हो जाने पर भी मेरी ही नाक ऊपर है ऐसा कहने जैसा ही यह कहना भी निर्लज्जता का प्रतीक है। वास्तविकतः कबूल, हजर, कायदा आदि उर्दू शब्द अपने शब्दों को हटाकर अपनी भाषा में घुसे हुए शब्द किसी समय की हम लोगों की पराजय के अवशेष हैं। पराजय के इन अवशेषों को, पराजय के उन स्मारकों को नष्ट करना ही हमारा कर्तव्य है। परंतु उर्दू शब्दों का बहिष्कार करना चाहिए ऐसा कहने पर मुसलमान क्रोधित होंगे इस भय से उन्हें निकालने में भय होता है तथा इस भय को अपने युक्तिवाद से छिपाना चाहते हैं। उनका पागलपन का युक्तिवाद कुछ इस प्रकार का है कि हम लोगों की भाषा में घुसे हुए ये मुसलमानी शब्द हम लोगों नेजीतकर लाए हुए मुसलमान बंदीवान, मुसलमानों पर प्राप्त की गई विजयों के द्योतक हैं, छीनकर लाए हुए शत्रु के ध्वज है, उर्दू को उपयोग में लाना हो स्वाभिमान का चिह्न है। उन उर्दू शब्दों का प्रयोग करना ही स्वाभिमान है ऐसा हमें मानना होगा। आज माता, भाई, बहन, पत्नी आदि शब्दों का उपयोग कुछ शिक्षित नहीं करते। मेरी मदर सिक है, वाईफ मायके गई हुई है तथा घर में कुक करनेवाला कोई नहीं है, इस प्रकार की अंग्रेजी शब्दों से बिगाड़ी गई बटलरों की भाषा बोलते हैं। वे सारे छचोर लोग अंग्रेजी भाषा पर भी बड़ी विजय प्राप्त कर रहे हैं, क्योंकि ये लोग अंग्रेजी भाषा के अनेक शब्दों को मराठी भाषा में ला रहे हैं। ये चिह्न अंग्रेज के राजकीय वर्चस्व के कारण पैदा हुई दास्यवृत्ति के हैं। अंग्रेजी के हिंदी, मराठी भाषाओं पर अधिकार पा लेने का यह प्रमाण है अथवा इन्हें अंग्रेजी भाषा में बलपूर्वक प्राप्त किए गए ध्वज कहना चाहिए?

इतिहासकालीन उदाहरण

यही स्थिति मुसलमानों के कार्यकाल में बलशाली बने हुए उर्दू शब्दों की भी है। पुणे के सभी नागरिक बस्तियों के नाम मुसलमानी नाम थे। पुणे जलाकर जब पुनः बसाया गया तब पेशवाओं ने इन बस्तियों को शुक्रवार, शनिवार आदि स्वकीय अभिधान दिए। इसे क्या आप लोग पेशवाओं की पराजय समझेंगे? यदि वे मुसलिम नाम ही पुनः दिए जाते तो क्या उन्हें मराठी के विजय चिह्न समझा जाता? औरंगजेब ने जब सिंहगढ़ पर अधिकार किया तब उसका नाम बदलकर बक्षिदाबक्ष कर दिया गया। मराठों ने केवल उस गढ़ पर पुनः अधिकार नहीं किया उसका नाम भी पुनः सिंहगढ़ कर दिया। आज भी वह इसी नाम से जाना जाता है। क्या यह मराठी की पराजय थी? यदि सिंहगढ़ की आज भी 'बक्षिदाबक्ष' नाम से ही पहचान होती, तो क्या उसे मुसलमानों से बलपूर्वक प्राप्त किया हुआ विजय ध्वज कहा जाता? मुसलमानों ने अपने शासकीय प्रलेखों में नासिक को गुलशनाबाद का नाम दिया। काशी, नालंदा को इस्लामाबाद आदि नाम दिए हिंदुओं ने इन नामों को स्वीकार नहीं किया। काशी, प्रयाग आदि स्वकीय नाम ही निर्धारित किए। परंतु देवगिरि का परिवर्तित नाम दौलताबाद आज भी बदला नहीं है। यह क्या हिंदू संस्कृति की पराजय है? क्या दौलताबाद नाम में हिंदू संस्कृति की विजय दिखाई देती है? दौलताबाद शब्द का उपयोग करना क्या देवगिरि शब्द की पराजय कहा जाएगा? क्या यह प्रश्न प्रमाणित करने योग्य तथा रहस्यमय है? आज हम लोग हजर सिवाय इन मुसलिम शब्दों का उपयोग करने के आदि हो चुके हैं, इन्हें त्यागे बिना ये शब्द प्रयोग में लाने लगे तो क्या यह मराठी भाषा कोतथा उसके विजय की अवहेलना करना कहलाएगा? म्लेच्छ शब्दों का बहिष्कार करने की प्रवृत्ति का शिवाजी महाराज द्वारा पुरस्कार किया जाने के कारण सैकड़ों उर्दू शब्द मराठी भाषा से अस्पष्ट किए गए। शिवाजी महाराज ने मराठी भाषा पर मुसलमानों का अधिकार होने दिया तथा उसे पराजित होने दिया ऐसा अर्थ तो इससे ध्वनित नहीं होता है। इससे विपरीत स्थिति सिंध की है। वहाँ के हिंदू अपनी लिपि का भी उपयोग नहीं कर सकते। आज उन्हें 'रामायण', 'महाभारत' आदि ग्रंथों के अतिरिक्त गायत्री मंत्र छापने के लिपि उर्दू लिपि का उपयोग करना पड़ता है। इसका अर्थ क्या यह होगा कि इन कामों के लिए उर्दू लिपि पर विजय पाकर उसे यह कार्य करने पर बाध्य किया गया है? तथा सिंध के हिंदुओं द्वारा प्रचंड मुसलमान संस्कृति पर फहराए गए ध्वज के रूप में इस घटना का गौरव किया जाना चाहिए? इसे कहते हैं 'उलटी खोपड़ी।

चर्चा का सारांश

1. एक पक्ष है उन मुसलमानों का, जो उर्दू को राष्ट्रभाषा तथा राष्ट्रलिपि बनाने के अपने दुराग्रह पर अडिग है। दूसरा पक्ष है उन लोगों का, जो मुसलमान क्रोधीत हो जाएँगे इस भय से तथा मूल मुसलमानों की पक्षपाती प्रवृत्ति के कारण उर्दू को खुले रूप से तथा कट्टरतापूर्वक विरोध न करने की नीति का पालन करनेवाले भीरु हिंदू हैं। इस कारण हिंदुस्थान में बंगाल, भोपाल, हैदराबाद, बिहार आदि अनेक प्रांतों में उर्दू लिपि तथा भाषा राष्ट्रभाषा-लिपि बन जाएगी। इन विभिन्न प्रांतों में शासकीय कार्य के लिए उर्दू का ही उपयोग किया जाता है। यदि हिंदुओं ने उर्दू का कट्टरतापूर्वक विरोध न किया तो कट्टर मुसलमानों की निश्चित रूप से विजय होगी।

2. मुसलमानों द्वारा नागरी का, राष्ट्रभाषा-लिपि का विरोध किया जाना केवल भाषिक समस्या से ही जुड़ा हुआ नहीं है। उन्हें हिंदुस्थान को पाकस्थान बनाना है तथा इस मतिभ्रष्ट ध्येय से उर्दू को राष्ट्रभाषा लिपि बनाकर मुसलिम संस्कृति की श्रेष्ठता प्रस्थापित कर हिंदू संस्कृति की पराजय करना, यह उनका एक आनुवंशिक तथा अपरिहार्य कार्यक्रम है। यह दो भिन्न संस्कृतियों का संघर्ष है। वहाँ 'हम लोग हिंदी भाषा में सौ-पचास शब्द लेते हैं, अत: आइए, ' इस प्रकार की जड़ी-बूटी या औषधियों से यह रोग ठीक नहीं होनेवाला। अथवा केवल 'हिंदी माने हिंदुस्थानी' कहने से भी कोई प्रभाव नहीं होगा।

3. अत: इस संघर्ष के लिए हिंदुओं को प्रकट रूप में तथा संपूर्ण शक्ति के साथतैयार रहना आवश्यक है। एकता लंपट वर्ग ने भी यह स्वीकार कर लिया हैकि लिपि के विषय में एकमत होना संभव नहीं है तथा दो लिपियाँ नागरी का प्रयोग किया जाएगा, यह मानते हुए केवल हम लोगों के लिए नागरी को राष्ट्र लिपि बनाने हेतु प्रयास किए जा रहे हैं। यही नीति इष्टता संभव है। इसी नीति के अनुसार राष्ट्रभाषा की समस्या का समाधान किया जाना भी आवश्यक है। मुसलमानों को सुखपूर्वक उर्दू भाषा का प्रयोग करने दीजिए। हम हिंदू लोगों को स्पष्ट रूप से यह घोषित करना चाहिए कि हम हिंदुओं की राष्ट्रभाषा हिंदी ही रहेगी तथा हिंदुओं के संदर्भ में इस समस्या का समाधान हो चुका है। हम लोगों को मुसलमानों का स्तुति पाठ नहीं करना चाहिए। इस देश की बहुसंख्यक अर्थात् बाईस करोड़ जनता हिंदू है। इनको जो भाषा है वही अर्थात् हिंदी ही राष्ट्रभाषा है। बहुसंख्यकों से भाषिक व्यवहार संबंध बनाए रखने की आवश्यकता अल्पसंख्यकों को ही अधिक है इसलिए एकता के लिए उन्हें ही प्रयास करने होंगे। इसका उद्देश हम लोगों पर उपकार करना नहीं होना चाहिए। यदि उनकी आवश्यकता हो तो वे एकता कर सकते हैं। साथ दोगे तो तुम्हारे साथ, न ही दोगे तो तुम्हारे बिना तथा विरोध करने पर तुम्हारे विरोध का सामना करते हुए हिंदुओं का भवितव्य अपनी शक्ति के अनुसार बनकर रहेगा। हिंदू-मुसलिम एकता के सभी प्रकरणों में सूत्र का उपयोग करना चाहिए। जब तक बहुसंख्यक हिंदू अल्संख्यक मुसलमानों से एकता करने हेतु उन्हें साष्टांग दंडवत कर रहे हैं, तब तक हिंदुस्थान को पाकस्थान बनाने की एक ही शर्त पर मुसलमान एकता बनाने की बात मान जाने की संभावना है। भाषिक प्रश्न के विषय में भी यह प्रकट तथा अपरिहार्य वास्तविकता है।

4. अब हिंदुओं की राष्ट्रभाषा हिंदी है यह निश्चित करने के बाद मुसलमानों की सम्मति का भारी लंगर, जो उनके गले में डाला जा रहा है, उसे एक बार तोड़ देने से सभी चिंताएँ समाप्त हो जाएँगी। हम हिंदुओं के राष्ट्रभाषा के विश्वविद्यालयों पर हम लोगों की विद्या की अधिष्ठात्री देवी, सरस्वती का ध्वज निःसंकोच तथा मुक्त रूप से लहराता रहेगा। संस्कृत शब्द रत्नाकर में नए-नए तथा आवश्यक पारिभाषिक शब्द उसे अनिरुद्धतापूर्वक प्राप्त हो सकेंगे। उनकी मूल प्रकृति का विकास उसकी रुचि अनुसार तथा उसके लिए योग्य ऐसे सुश्रीक तथा सुश्लिष्ट मात्रा में हो सकेगा। हम लोगों की हिंदू संस्कृति के हृद्गत वह निर्भयतापूर्वक प्रकट कर सकेगी। यदि मुसलमानों को सरस्वती के ध्वज पर आपत्ति है तो उन्हें पृथक् उर्दू विश्वविद्यालय स्थापित करने चाहिए। इसकी चिंता करने का कोई कारण नहीं है। उर्दू तथा हिंदी के पाँव एक-दूसरेके साथ बाँध देने पर दोनों ही भाषाओं का विकास थम जाता है तथा इससे समस्याओं में वृद्धि हो जाती है। मुसलमानों के चाहने पर भी हम लोग अब 'हिंदी माने हिंदुस्थानी' का बोझ नहीं चाहते।

5. बहुसंख्यकों के लिए जो सुलभ तथा अनुकूल होगी वही राष्ट्रभाषा बन सकतीहै। अत: बहुसंख्यक हिंदुओं के हिंदुस्थान में संस्कृतनिष्ठ भाषा यह स्थान पा सकती है। इसलिए हिंदी जितनी अधिक संस्कृतनिष्ठ बनेगी उसकी राष्ट्रभाषा बनने की क्षमता में उतनी ही वृद्धि होगी। अतः हिंदी प्रांतों में भाषाशुद्धि के लिए जिन्हें अभिमान है उनको हिंदी को पूर्णतः संस्कृतनिष्ठ करने का तथा पूर्व के मुसलिम वर्चस्व के द्योतक, जो उर्दू तथा विदेशी शब्द हिंदी में शेष हैं, उन्हें दूध में गिरी हुई मक्खी के समान बाहर फेंककर, प्रकट रूप से इस बहिष्कार को सहयोग देने का दृढ़ निश्चय करना चाहिए। हिंदी भाषा में एक भी अनावश्यक उर्दू या अंग्रेजी शब्द का प्रयोग करने पर पाबंदी लगा देनी चाहिए। इस प्रकार बलात् खींचे बिना विदेशी लोगों की इस भाषिक रस्सीखींच में विजय प्राप्त करना हम लोगों के लिए असंभव हो जाएगा। इसके विपरीत उर्दू में अरबी, फारसी, इंग्लिश आदि विभिन्न भाषाओं के शब्दों को सम्मिलित किया जा रहा है। इस प्रकार की सम्मिश्र भाषा उन्हें उचित प्रतीत हो रही है तथा हम लोगों के लिए भी यह अच्छा ही है। उर्दू में अरबी आदि हिंदुओं के लिए अपरिचित तथा चिंताजनक शब्द जितने अधिक होंगे उतनी वह भाषा बहुसंख्यक हिंदुओं के लिए दुर्बोध तथा अप्रिय बनेगी तथा बंगाल से मद्रास तक की सामान्य जनता इस भाषा को राष्ट्रभाषा बनाने के प्रस्ताव का विरोध करना प्रारंभ कर देगी। उन्हें हिंदी ही अधिक निकट, अपनी तथा सरल प्रतीत होगी।

इन सभी कारणों से राष्ट्रीय भाषा तथा राष्ट्रीय लिपि की समस्या का समाधान प्राप्त करने का यही एक मार्ग है- प्रत्येक हिंदू को प्रकट रूप में तथा बिना किसी भय से निम्न प्रतिज्ञा करनी चाहिए-

'हम हिंदुओं की राष्ट्रभाषा संस्कृतनिष्ठ हिंदी है तथा संस्कृतनिष्ठ नागरीलिपि ही हम हिंदुओं की राष्ट्रलिपि होगी।'

कहो- स्पर्श करूँगा! स्वीकार करूँगा।

कहो-स्पर्श करूँगा !

अस्पृश्योद्धार की समस्या का विचार कीजिए। हिंदू रक्त-धर्म के मात करोड़ बंधुओं के साथ हम लोग किसी अब्दुल रशीद, औरंगजेब तथा पूर्व बंगाल में हिंदुओं का संहार करनेवाले अन्य धर्मीय धर्मोन्मत्त लोगों के साथ जितना अपनापन से व्यवहार करते हैं अथवा उन्हें अपने घरों में जिस प्रकार प्रवेश देते हैं, उस प्रकार से भी आचरण नहीं करते। यदि वे धर्मशत्रु आपके घर आते हैं, तो आप उन्हें आसन पर बिठाकर स्वयं उनके पास बैठ जाएँगे, परंतु इन अस्पृश्य हिंदू में से यदि कोई संत, नीतिमान, पंढरपुर की यात्रा करनेवाला, स्नान करने के पश्चात् आपके द्वार पर आता है, तो आप उसे घर में प्रवेश नहीं देंगे। उसकी छाया तक नहीं पड़ने देंगे। हम लोग कुत्ते, बिल्ली अथवा गाय-भैंस जैसे पालतू पशुओं को स्पर्श करते हैं; परंतु इन सात करोड़ हमारे जैसे मानवों को स्पर्श नहीं करते। इस कारण सात करोड़ का यह मानव समाज हिंदुओं के पक्ष में होते हुए भी हम लोगों के लिए अर्थहीन बन गया है। इस कारण हम पर कोई भयंकर विपदा आनेवाली है। जिस प्रकार हम लोगों के अमानुष बहिष्कार का सामना उन्हें करना पड़ रहा है, उस कारण वे हमारे लिए निरुपयोगी हो चुके हैं और हमारे शत्रु को घर के भेद बताने का वे एक सुलभ साधन बन जाते हैं। अंततः धर्मांतरण करने के पश्चात् हम लोगों के शत्रु बनकर, हमारी अपरिमित हानि का कारण बन जाते हैं। इसलिए, और विशेष रूप से न्याय की दृष्टि से हम लोग स्वयं पहल करते हुए उन्हें उनके मनुष्यत्व के अधिकार प्रदान करेंगे तब विधर्मियों द्वारा चलाए जा रहे भ्रष्टीकरण का आंदोलन पिछड़ जाएगा। तत्पश्चात् आधे अस्पृश्यों को हम स्वीकार करेंगे ऐसा कहनेवाली अल्ली की वाणी तथा सभी अस्पृश्य हमारे ही हैं ऐसा अधिकार दरशानेवाली निजाम अथवा सिंधी मौलवियों की दर्पोक्ति वहीं पर दुर्बल हो जाएगी। ईसाइयों केअधिकांश मिशनों में कोई दिखाई नहीं देगा। यह कार्य दूरगामी परिणाम करनेवाला होगा। क्या हम इस महत्कार्य में सहयोग देने के लिए कारावास की सजा थोड़े ही होगी? कदापि नहीं। फाँसी हो सकती है? फाँसी का तो नाम निर्देश भी न करो। क्या कुछ लाखों की निधि एकत्रित करनी होगी ? नहीं, एक कौड़ी भी खर्च किए बिना तथा एक दिन के लिए भी कारावास की सजा भोगे बिना केवल अपनी इच्छा से ही यह महत्कार्य अपने आप हो जाएगा। मन में एक ही निश्चय करना होगा। मैं महारों को स्पर्श करूंगा। इस एक वाक्य के उच्चारण से आप श्रद्धानंद के प्रतिशोध लेने के काम को आधे से अधिक मात्रा में कर लेंगे कुत्तों को स्पर्श करते हो, साँप को दूध पिलाते हो, चूहों का रक्त प्रतिदिन प्राशन करनेवाली बिल्ली को अपनी थाली में मुँह लगाने देते हो, फिर ये तो हिंदू ही हैं। उस लज्जा का त्याग करो। श्रद्धानंद के हृदय से उस हत्यारे की गोली से बाहर निकलनेवाली रक्त की धारा की शपथ लेकर कहो। मैं स्पर्श करूँगा, महार को मैं स्पर्श करूँगा। किसी अस्पृश्य के पास मैं कम-से-कम सार्वजनिक कार्य में बैठूँगा।

बस, तुमने इच्छा दरशाई, केवल हाथ बढ़ाकर महार को स्पर्श किया और अस्पृश्यता की समस्या का तत्काल समाधान हो गया। पाठशालाओं में, नगर बस्तियों में मार्गों पर, सभाओं के समय अस्पृश्य हिंदू को केवल स्पर्श करने से ही बद्धानंद की हत्या का प्रतिशोध लिया जा सकता है। इतने महत्कार्य को करने का कितना सरल उपाय है यह।

अतः कहो- 'स्पर्श करूंगा' शत्रुओं को 'आइए साहब', 'आइए महाराज' कहते हुए लज्जा का अनुभव न करनेवाला मैं आज मेरे हिंदू बंधु को स्पर्श करने में लज्जा का अनुभव नहीं करूँगा। अभी इसी क्षण उठकर मेरे महार, चमारादिक दीन बंधुओं की पीठ सहलाऊँगा। फिर आकाश से वज्रपात भी होनेवाला हो, तो मुझे उसकी चिंता नहीं होगी।

बस, इस निश्चय के साथ तुम बाहर जाकर उन हीन-दीन हिंदू बंधुओं की पीठ सहलाओ। इस प्रकार का काम करने से तुम इस हिंदूजाति के संपूर्ण प्रारब्ध को प्रभावी रूप से परिवर्तित कर दोगे। इस सत्कृत्य के कारण तुम पर वज्र नहीं गिरेगा, बल्कि आकाश से पारिजात के फूलों की वृष्टि ही होगी।

कहो- स्वीकार करूँगा!

यही बात इस संघटनात्मक कार्य के एक उपांग के लिए भी सत्य दिखाई देती है। अपने पूर्वार्जित घर में यदि अपने रक्त के तथा राष्ट्र के बंधु, जिन्हें किसी समय बलपूर्वक पृथक् किया गया था, सप्रायश्चित्त पुन: इस संयुक्त समाज परिवारमें आते हैं तो उन्हें अपना ही मान लेना, यह इस कार्य का दूसरा उपांग है। इसे शुद्धि कहा जाता है। इसी के कारण श्रद्धानंद की हत्या की गई। यदि इसे अंगीकार कर लेते हैं तो मुसलमान ईसाई आदि विधर्मियों ने प्रारंभ किया हुआ भ्रष्टीकरण का पूर्णतः नष्ट हो जाएगा। यही शुद्धि है। इस आंदोलन के कारण इन दस-बीस वर्षों में लाखों लोगों को हिंदू समाज में तथा राष्ट्र में पुनः सम्मिलित किया जा चुका है। यही शुद्धि कहलाती है। आज तक प्रतिवर्षी लोगों को हिंदू समाज से अलग किया जाता रहा है। यह क्रम अखंड रूप से चलता रहा। प्लेग से सैकड़ों लोग पीड़ित होते, परंतु उनमें से एक को भी बचाकर पुनः घर लाने के लिए किसी औषधि की खोज नहीं हुई थी। परंतु भ्रष्टीकरण द्वारा लाखो लोगों का संहार करनेवाले इस घातक प्लेग के लिए एक अमोघ औषधि अब प्राप्त की गई है, उसे ही शुद्धि कहते हैं। यह संजीवनी हम हिंदुओं की देवसेना के किसी। सैनिक को भ्रष्टाचार के बाण से विद्ध नहीं होने देती तथा पहले जिस प्रकार लाखों लोगों का संहार होता था, उसे भी रोकती है। उसके अतिरिक्त जो हताहत हो चुके हैं ऐसे हमारे धर्ममृत सैनिकों के लाखों शवों को पुनर्जीवित करने का कार्य भी कर रही है। इस संजीवनी की विद्या को श्रद्धानंद

ने देवगुरुपुत्र कच के समान हम लोगों के देव शिविर में लाते ही विधर्मीय भयभीत होकर भ्रमित हो चुके हैं। यह शुद्धि नष्ट हो जाए इसी कारण श्रद्धानंद का कत्ल किया गया। श्रद्धानंद की हत्या का वास्तविक प्रतिशोध लेना हो तो यह बात प्रमाणित करनी होगी कि श्रद्धानंद के मृत्‍यु के पश्चात् भी शुद्धि करने का कार्य चल रहा है।

यह प्रमाणित करने हेतु हे हिंदू बंधु, आपको कोई विशेष कष्ट सहने की आवश्यकता नहीं है। जो हिंदू सत्यवादिता से पुनः हिंदू राष्ट्र में प्रवेश करना चाहते हों उनको पुनः प्रस्थापित कर, उनसे स्नेहपूर्वक आचरण कर उन्हें अपनाना तथा उनका अंतःकरणपूर्वक स्वीकार करना, केवल यही आपको करना है। शुद्धि के कार्य में कभी-कभी धन की आवश्यकता हो सकती है तथा इसे पूरी करनेवाली संस्थाएँ भी विद्यमान हैं। और संस्थाएँ भी स्थापित की जाएँगी। यह कार्य आपमें से जो राष्ट्रनिष्ठ प्रचारक हैं वे लोग कर रहे हैं। आपको या हमें अथवा अन्य किसी हिंदू को इस बात की चिंता करने की आवश्यकता नहीं है। तुम तो केवल इतना ही करो कि मन में यह सोचो कि मैं शुद्धिकृत हिंदू को स्वीकार करूँगा। हे प्रत्येक हिंदू बंधो! तू समाज में जहाँ कहीं है तथा जहाँ तक तेरी दृष्टि पहुँच सकती है वहाँ तक यदि कोई अनाथ हिंदू परधर्मियों की जकड़ में तो नहीं फँस रहा है? कोई हिंदू स्त्री गलत कदम पड़ जाने से भयभीत होकर अपनी हिंदू संतान के साथ चलते-चलते फिसलकर धर्मांतरण के नरक में तो नहीं पड़ रही है? ऐसा ज्ञात होते ही हिंदू समाजको तथा हिंदू सभा को यह अवश्य समाचार देना। यदि उस स्त्री को अथवा उस अनाथ व्यक्ति को धर्मातरण की गर्त से दूर रखने का सामर्थ्‍य तुम में नहीं है, तो कम-से-कम इस बात का समाचार देने का काम तो करो। जो शुद्ध होकर आए हैं। उन्हें प्रेम दो। 'क्यों ठीक तो हो ना?' इतना प्रेमपूर्वक पूछिए। संक्रांति, दशहरा, दीपावली के दिन उन्हें नमस्कार करो। दशहरे का प्रतीक उन्हें कोई नीचा दिखाने का प्रयास करता है, तब उनके पक्ष में बोलते हुए केवल इतना कहो कि भूल किससे नहीं होती है। हम लोगों के पाप अभी छिपे हुए हैं इस कारण जिनके पाप लोगों को ज्ञात हो चुके हैं, उनकी मर्यादा से अधिक निंदा करना ही वास्तविक पतन है। पतित? जो हिंदू पतितपावन के मंदिर में पुनः प्रष्ट हुआ है वह पावन हो जाता है। मेरे जैसा हो रक्त के अंतिम बिंदूपर्यंत हिंदू को चुका है। केवल इतना भी यदि प्रत्येक हिंदू ने किया, तब भी तुमने अपने हिस्से का शुद्धि कार्य कर दिया है, ऐसा समझा जाएगा। इसके लिए धन की आवश्यकता नहीं है, केवल प्रेम की ही आवश्यकता है। बम, मशीनगन, सेना या कार्यकर्ताओं की आवश्यकता नहीं है। शुद्धिकृतों को मैं स्वीकार करूंगा- इतना कहना भी महान कार्य है।

किसी विश्वासार्ह शुद्धिकृत का पत्र हमें प्राप्त हुआ है। लिखते हैं, "संक्रांति के त्योहार पर मिशनरी लोगों ने मुझे 'तिलगुड़' भेजा। मेरे बच्चों के लिए दस-दस रुपयों की मिठाई भेजी, प्रत्येक सप्ताह वे दूर-दूर से मेरा समाचार पूछते रहते हैं। अपने ध्वज के नीचे लाने हेतु यदि वे पराए लोगों से इतनी मधुर बातें करते हैं, तो हम लोगों को हिंदू ध्वज के नीचे अपने लोगों के साथ खड़े तब कितना मधुर संभाषण होना चाहिए। परंतु जब मैं अपने बच्चों के साथ मार्गक्रमण करता हूँ, तब मेरे हिंदू बंधु हमें तिरस्कारपूर्वक देखते हुए दूसरी ओर के छोटे रास्ते से चले जाते है। किसी के चौथरे पर हम लोगों को बैठने नहीं दिया जाता त्योहार के दिनों में कोई ठीक से बात भी नहीं करता। इतना होते हुए भी हिंदू पूर्वजों के निवास में रहता है। इससे जो आत्मिक संतोष प्राप्त हो रहा है उसके कारण विपक्ष के प्रलोभनों से अथवा स्वपक्ष के तिरस्कार से मैं विचलित नहीं होता। मैं हिंदू हूँ-इस भावना से प्राप्त होनेवाला सुख मेरे लिए पर्याप्त है।"

अब शुद्धिकृतों की सामाजिक यातनाओं से उन्हें मुक्ति दिलाने का काम संपूर्णत: आपके ही द्वारा किया जाना चाहिए। संक्रांति के दिन उन्हें 'तिलगुड़' देकर 'त्योहार की शुभकामनाएँ देने में आपका धन खर्च नहीं होगा। इसमें एक क्षण के लिए भी कारावास होने का भय नहीं है। केवल यही कहना पर्याप्त नहीं है कि हम लोग आपको स्वीकार करते हैं। यह भी कहना आवश्यक है कि लाखों शुद्धिकृत हमारे हो गए हैं तथा जो करोड़ों अभी भी पतित हैं, वे यह देखकर कि शुद्धिकृतोंको आप स्वीकारते हैं, स्वयं आपके पास आ जाएँगे।

यह तो आप कर ही सकते हैं। इसमें अंग्रेज बाधक नहीं बन सकते।दरिद्रता अथवा मृत्यु का भय भी बाधक नहीं हो सकता। फांसी का भी कोई भय नहीं है। केवल इतना ही कहना है, 'मैं स्पर्श करूंगा, मैं स्वीकार करूंगा।' हे समस्त हिंदू बंधुओ! तुम अकेले भी कहीं तो हो, वहाँ दूसरों के लिए राह में देखते हुए केवल इतना ही कहो, 'हम लोग कोटि-कोटि अस्पृश्यों को स्पर्श करेंगे तथा शुद्धिकृतों को स्वीकार करेंगे।' इससे 'अस्पृश्योद्धार तथा शुद्धि' ये दोनों महत्त्वपूर्ण कार्य पूरे हो जाएँगे।

ऐसा कहो कि जो हाथ मैं अपने कुत्ते की पीठ पर रखता हूँ, उन्हीं हाथों से मैं अस्पृश्य समझे जानेवाले हिंदू धर्मियों के तथा अपने ही रक्त के राष्ट्र के बंधुओं की पीठ सहलाऊँगा। कहो- मैं स्पर्श करूँगा! इससे अस्पृश्यता का लोप हो जाएगा!

तथा यह निश्चय भी करो कि शुद्धिकृत हिंदू से कहूँगा कि तुम मेरे हो तथा मैं तुमको स्वीकार करूँगा। इससे शुद्धि दृढमूल हो जाएगी।

इतना महँगा कर्तव्य इतने कम धन में कभी नहीं हो सका था। इसलिए केवल इतना ही करो, यह तुम्हारे सामर्थ्य की बात है। स्पर्श करूँगा तथा स्वीकार करूँगा।

संख्याबल भी एक शक्ति है

असाराणां हिवस्तूनां संहतिः कार्यसाधिका।

तृणैराबध्यते रज्जुस्तेन नागोऽपि बध्यते ॥

हिंदू संगठन पर किसी-न-किसी प्रकार से कोई आक्षेप लेकर उसका विरोध करने की दुर्भाग्यपूर्ण प्रवृत्ति कुछ लोगों में दिखाई देती है। उसमें से कुछ अस्पृश्यता निवारण तथा शुद्धि-इस संगठन के दो महत्त्वपूर्ण उपांगों पर अन्य आक्षेप निरस्त हो जाने पर कुछ इस प्रकार का तमोवृत आक्षेप करते हैं, 'अस्पृश्यों के धर्मातरण के कारण हिंदुओं की संख्या कम होने से अथवा पतितों को परावर्तित कर शुद्धि कार्य को अंगीकार न करने से हिंदू समाज की वृद्धि न भी हुई तो किस प्रकार की त्रुटि उत्पन्न होगी? केवल संख्या का क्या महत्त्व है? आज हम हिंदू लोग जितने शेष रह गए हैं उन्हीं की उन्नति कर लेना ही पर्याप्त है। मुट्ठी भर अंग्रेज आज विश्व पर शासन कर रहे हैं। अत: संख्या में शक्ति नहीं होती। समाज में जो लोग हैं उनमें कितना तेज है, इस पर ही बल का होना निर्भर करता है। अत: हिंदू समाज के कुछ लोग परधर्म को स्वीकार करते हैं, इस पर निष्कारण आक्रोश न करते हुए जो ऐसा करना चाहते हैं उन्हें सुखपूर्वक जाने दें तथा जो शेष रहेंगे उनकी उन्नति ही करते रहें।'

यहाँ तक इन आक्षेपकों की भाषा एक सी रहती है। परंतु इसके पश्चात् कुछ लोग भिन्न अर्थ की बातें करने लगते हैं। जो आक्षेपक 'पुराना ही सोना होता है' ऐसा माननेवाले प्राचीन रूढ़ियों के अंध अनुयायी होते हैं, वे कहते हैं, 'इस प्रकार हिंदू समाज की संख्या घट जाती है, यह भय निरर्थक होता है तथा केवल संख्या का कुछ महत्त्व न होने के कारण आप लोगों को अस्पृश्यता निवारण तथा शुद्धि की नई प्रथाएँ चलाने के प्रयासों को त्याग देना चाहिए। लोगों की संख्या का कोई महत्त्व नहीं है। इस सिद्धांत से अनुमित उपसिद्धांत विसंगत नहीं प्रतीत होता। इन आक्षेपकोंमें ऐसे भी कई हैं जो जीवन में किसी अन्य प्रकरण में रूढ़ियों 'रामायण' अथवा 'महाभारत' ऐतिहासिक ग्रंथ नहीं हैं। ये केवल आध्यात्मिक रुपक हैं। शिवाजी, प्रताप आदि आधुनिक राष्ट्र पुरुष तथा राम, कृष्ण आदि को भी (यदि ये वास्तविक तथा देहधारी व्यक्ति होते तब) कहते कि आपने रावण, कंस, अफस आदि की हत्या की। वे उन्हें ही दोषी मानते, यदि ये उस काल में विद्यमान होते इस प्रकार के कार्य हिंसात्मक तथा पापात्मक होने की बात भी कहते। इस प्रकार के प्राचीनत्व, शास्त्रों अथवा रूढ़ियों के कट्टर विरोधक कहते हैं, 'देखिए, संख्या का महत्त्व है ? जो हिंदू परधर्म में गए हैं तथा जो जा रहे हैं, उन्हें प्रतिबंधित क्यों करना चाहिए तथा उन्हें पुन: हिंदू धर्म में लौटाने के प्रयास क्यों करते हो? इससे अन्य धर्मियों को तथा विशेष रूप से मुसलमानों को मानसिक कष्ट होता है। हिंदुओं को धर्मातरण करने से क्यों रोकते हैं? परधर्म में धर्मांतरण करने के कार्य के पश्चात् जो शेष हैं अथवा शेष रह जाएँगे-उन्हें शारीरिक, मानसिक, आत्मिक आदि सर्वांगीण उन्नति करने के अवसर प्राप्त होते रहने चाहिए। संख्या तो अर्थहीन है; इस शुद्धि तथा संगठन को छोड़ दीजिए। ये लोग अस्पृश्य निवारण के विषय में कोई बात नहीं करते, परंतु शुद्धीकरण के विरोध में इस सिद्धांत का उपयोग करते हैं।।

इन दो पक्षों में से एक पक्ष रूढ़ियों का अंध-अनुयायी होने के कारण अस्पृश्यता तथा शुद्धि-इन दोनों ही आंदोलनों का विरोध करता है। उसका आक्षेप भ्रामक प्रतीत होते हुए भी सुसंगत है। परंतु दूसरे पक्ष का संख्याबल के विरोध में लिया गया आक्षेप जब केवल शुद्धीकरण के विरोध में ही होता है तब वह केवल भ्रामक नहीं होता। विशेषतः मुसलमानों को पुनः हिंदू करने के विरोध में जब आपत्ति उठाई जाती है तब भ्रामक तो होता ही है, अप्रकट अर्थ भी छिपा रहता है। इस वर्ग के लोग अस्पृश्यता निवारण के लिए आवाज उठाते हैं तथा कुछ तो अस्पृश्यों के साथ भोजनादि व्यवहार भी करते हैं। उन्हें इन सुधारों से भय नहीं होता। वे प्रचलित राजनीति के अच्छे ज्ञाता होते हैं। मुसलमान, ईसाई ही नहीं, विश्व का प्रत्येक समाज तथा संस्कृति अपने संख्याबल में वृद्धि करने के प्रयास कर रहा है यह उन्हें ज्ञात होता है। परंतु ये लोग भी शुद्धि के विरोध में ही बोलते हैं तथा संख्या का कुछ भी महत्त्व नहीं है ऐसा कहते हैं। परंतु इसके परिप्रेक्ष्य में मुसलमान नाराज हो जाएँगे यह कारण रहता है। इसी कारण 'शुद्धि को छोड़िए' ऐसा वे किसी गीत के ध्रुपद के समान बार-बार दुहराते रहते हैं। उस समय यह आक्षेप असत्य होता है। उस पर विश्वास नहीं किया जा सकता। यह तो मुसलमानों को अपने पक्ष के अनुकूल बनाने हेतु रची गई एक युक्ति है। परंतु यह इतनी आत्मघातक है कि इसके भयावह परिणाम गत छह वर्षों से हिंदुस्थान को भुगतने पड़ रहे हैं। हिंदूसमाज की अपरिमित हानि हुई है। फिर भी ये लोग आज भी 'केवल संख्या का क्या महत्त्व' ऐसा रटा-रटाया उपदेश देते हुए लोगों को शुद्धि के विरोध में तैयार करने का अमंगल कार्य भी करने में पीछे नहीं रहते। अतः उनके इन तर्कों को पूर्ण रूप से निष्प्रभ करना आवश्यक हो गया है।

"संख्या का क्या महत्त्व है?' शुद्धि करने का काम बंद कर दो। ऐसा कहनेवालों में हिंदुओं के दो वर्गों के साथ हसन निजामी आदि मुसलमान भी हैं। उनका भी यही कहना है। प्रारंभ में ही इस बात का ध्यान रखना आवश्यक है कि हसन निजामी आदि उपद्रवी दुर्जन प्रचारक स्वयं मुसलमानों की संख्या में वृद्धि करने का कार्य अव्याहत रूप से तथा अनेक सुष्ट-दुष्ट युक्तियों का सहारा लेते हुए कर रहे हैं। परंतु हिंदुओं को शिष्टतापूर्वक उपदेश देते हैं कि हे हिंदुओ! शुद्धि का व्यर्थ कार्य करते हुए हम मुसलमानों से शत्रुता क्यों मोल लेते हो? आप अभी भी बाईस कोटि हैं, अतः उनकी उन्नति तथा गुणवर्धन कीजिए। इतना भी पर्याप्त होगा। शुद्धि का संकट क्यों? संख्या का ऐसा क्या महत्त्व है? उनके इस दांभिक साधुत्व का मर्म इस पाप नीति के मुर्गी के बच्चे जैसा निष्कपट प्राणी भी समझता है, तथापि इसे न समझने का आभास निर्माण करते हुए मुसलमानों के क्रोध से भयभीत होकर अपने ही लोगों के विरोध में जो चाहे बकवास करते हैं। यही साधुत्व का चिह्न है, इस भ्रामक कल्पना से कुछ हिंदू लोग ही विपक्ष के इस दांभिकतापूर्ण तर्क को अनुसरण करते हुए हिंदुओं से कहते हैं, 'अरे, संख्या का वास्तविक महत्त्व ही नहीं है। अपने गुणों में वृद्धि करो।'

यदि केवल संख्या का वास्तविक महत्त्व कुछ भी नहीं है तो ये महान् पुरुष नव अविष्कृत महान् तत्त्व अपने प्रिय मुसलमानों तथा ईसाइयों को क्यों नहीं पढ़ाते? किसी घातक रोग के लिए कोई रामबाण औषधि है तो वह औषधि जिन लोगों को यह रोग नहीं है उन्हें अथवा होने की संभावना दिखाई देती है;परंतु जिसका निश्चित निदान नहीं हो पाया है उसे बलपूर्वक पिला देना क्या उचित है ? उस वैद्य को ऐसे रोगियों को यह औषधि देना आवश्यक है, जो इस रोग से अत्यधिक पीड़ित हैं अथवा उन्हें बचाने के लिए कुछ त्वरित औषधोपचार करना आवश्यक प्रतीत होता है तथा औषधि के बिना उनका अंत होने का भय है। उन्हें इस संकट से मुक्त करने हेतु उनके घर जाकर इस औषधि की कुछ खुराकें देना अधिक परोपकार का तथा समयोचित कार्य है। हिंदुओं द्वारा किया जानेवाला शुद्धि का कार्य इतना गौण है कि सारे हिंदुस्थान में प्रति सप्ताह संख्याबल में वृद्धि करने के लिए दस-बारह लोगों से अधिक लोगों की शुद्धि नहीं होती। हिंदुओं की आँख में पड़ा हुआ यह तिनका आपको दिखाई देता है तथा शल्य चिकित्सा द्वारा इसेनिकालने के लिए आपने प्रयोग का प्रारंभ किया है। यह तो हम लोगों पर बड़ा उपकार होगा। परंतु हम यह कहना चाहते हैं कि हम लोगों के मुसलमान व मिशनरी बंधुओं की आँखों में संख्याबल में वृद्धि करने की लालसा रूपी मूसल है उसपर भी ध्यान दीजिए। वे इस कारण बहुत विचलित हैं, अतः उन्हें इस यातना से मुक्त करने के प्रयास आप जैसे भूतदया प्रेमियों को करने चाहिए। शुद्धि के तिनके से होनेवाला कष्ट हम सह लेंगे, परंतु मुसलमानादि बंधुओं की आँखों में तझीम तथा तबालिक का मूसल घुसा हुआ है और मिशनरियों को बहाला इतने बड़े मूसल से कष्ट हो रहा है। इन मूसलों के कारण उन्हें जो कष्ट हो रहा है उससे वे व्याकुल हो रहे हैं। त्वरित उपाय न किए जाएँ, तो उनकी बुद्धि की आँखें संपूर्णतः धर्माधि हो जाएँगी संभवतः ऐसा हो भी चुका है। तो उपकारी सज्जनो! आप अपनी रामबाण औषधि लेकर उस ओर तत्काल प्रयाण करें तथा उनसे कहें, 'हे भ्रांतमतियो! संख्याबल का अर्थ वास्तविक बल नहीं होता। गुणों का बल ही वास्तविक बल है। उस तझीम का त्याग करो और यह मिशन भी समाप्त कर दो।' परंतु गुजरात में आगाखान कीकरतूतों पर ध्यान दीजिए। आगाखानी मुसलमानों ने हिंदुओं का धर्म भ्रष्ट कर अपना संख्याबल बढ़ाने का कार्य इस सीमा तक तेज कर दिया है कि हजारों-लाखों रुपयों का व्यय करते हुए लिखी गई एक छोटी पुस्तक हजारों की संख्या में बाँट रहे हैं। इस पुस्तक में हिंदू धर्म पर झूठे तथा दुष्ट आरोप लगाए गए हैं। सैकड़ों भोले व निष्पाप हिंदू बालकों को मुसलमान बनाते हुए घूम रहे हैं। अब हसन निजामी का जाल भी देखिए, वेश्याओं की मदद से नीच वासनाओं के साधनों का उपयोग भी बिना किसी झिझक के किए जा रहा है। सिंध तथा बंगाल की उन मुसलमान टोलियों को देखिए, तलवार, छुरी के भय से तथा बलात्कार द्वारा हिंदू कुमारिकों को भ्रष्ट किया जा रहा है। हिंदू बच्चों का अपहरण तक करके ये बड़ा उत्पात मचा रहे हैं। न्यायालयों में भी अब सजा देने की शक्ति नहीं है। दिल्ली की मुसलमानी परिषदों में दिए गए भाषण तथा पारित प्रस्तावों पर ध्यान दीजिए। महम्मद अली से लेकर गाँव के बदमाशों तक, प्रत्येक मुसलमान यही आक्रोश कर रहा है कि उसे न्यूनतम दस-बारह हिंदुओं का धर्म परिवर्तन कराना चाहिए। उनका लक्ष्य यही है कि हिंदुस्थान में मुसलमानों की संख्या अधिक होनी आवश्यक है। सात करोड़ से पंद्रह करोड़ और फिर बीस करोड़ तक यह संख्या पहुँचानी होगी। फिर हम लोगों को अधिक अधिकार प्राप्त होंगे। हिंदुस्थान का स्वामित्व और राज्य हम मुसलमानों के हाथों में होगा। यह स्पष्ट रूप से कहा जा रहा है, ऐसी प्रत्यक्ष में प्रतिज्ञा की जा रही है। अब मिशनों में क्या किया जा रहा है इसपर दृष्टिक्षेप करते हैं। मुंबई कलकत्ता जैसे बड़े-बड़े नगरों से आसाम, छोटा नागपुर के जंगलों में निवासकरनेवाले हिंदुओं को ईसाई बनाकर ईसाइयों की संख्या में इस वर्ष की वृद्धि हुई है, इसे बताकर इंग्लैंड अमेरिका में उत्सव मनाने की बाढ़ सी आ गई है। प्रत्येक वर्ष अनुमानतः दस लाख लोगों को ईसाई समाज में सम्मिलित किया जा रहा है। इसमें अविरत रूप से वृद्धि हो रही है। क्या ये सभी दस लाख लोग गुणवान है ? इस कारण इन्हें ईसाइयों ने अपने में समा लिया है? कदापि नहीं। अकाल पीड़ितमरणासन्न दरिद्री स्त्रियों से लेकर दस बार सजा भुगतनेवाले तथा सश्रम कारावास के बाद जिनके हाथों पर घावों के निशान आज भी दिखाई देते हैं, ऐसे सज्जनों तक जो हिंदू इनके हाथ लग जाएगा, उसे पकड़कर ईसाई बनाने का काम तीव्र गति से किया जा रहा है।

यह क्या हम लोग देख नहीं सकते? प्रत्येक सप्ताह में दस-बारह परधर्मियों को शुद्ध करनेवाला शुद्धि का यह तिनका आपकी दृष्टि में किसी धूमकेतु के समानविस्तृत रूप में दिखाई देता है। आपकी उसी दृष्टि से आपको मुसलमान तथा मिशनरियों के किसी पर्वत के समान मूसल नहीं दिखाई देता है यह सत्य नहीं है। फिर आप लोग उनकी तबलीध परिषदों में तथा मिशन हॉल में जाकर भाषण क्यों नहीं देते कि संख्याबल तुच्छ है। मतिमंदो केवल संख्या में वृद्धि क्यों कर रहे हो ? आपमें से कुछ लोग शुद्धिकृत होकर हिंदुओं में सम्मिलित हो जाओ। आप लोगों की संख्या घट भी जाएगी तब शेष लोगों की गुणवत्ता में वृद्धि करने का कार्य अधिक सीमित तथा आसान बन जाएगा।

जिना, अब्दुल रहीम तथा गजनवी पर ध्यान दीजिए। कारागृह से चोरी करने के अपराध में दस बार सजा भुगतने के पश्चात् चोरी करने का अवसर ढूँढ़नेवाले इस बदमाश पर दृष्टिक्षेप कीजिए। ग्यारहवीं चोरी करने का अवसर प्राप्त होने तक स्वयंसेवक के रूप में खिलाफत आंदोलन में सम्मिलित इस गुंडे को देखिए ये सभी मुसलमान 'संख्या-संख्या' की गर्जना कर रहे हैं। "हम लोगों की संख्या अधिक होने के कारण पंजाब तथा बंगाल में अधिकार से हमें अधिक स्थान दिए जाने चाहिए। हम लोगों की संख्या कम है इस कारण मुंबई तथा मद्रास में विशिष्ट हितों की रक्षा करने हेतु अधिक स्थान दीजिए। गाँवों में लोकल बोडों में संख्यानुसार हम लोगों को स्थान दीजिए। नगरों में इतनी संख्या होने के कारण नगर सभा में, प्रांत में इतनी है इस कारण विधिमंडल में हम लोगों को अधिक स्थान प्राप्त होना चाहिए। गवर्नर से चपरासी तक के स्थान हम लोगों की संख्यानुसार आरक्षित किए जाने चाहिए। इसलिए प्रत्येक मुसलमान के मुख से, मस्तिष्क से, मन से संख्या संख्या वृद्धि करो।'' 'संख्या' का अविरत आक्रोश निकल रहा है। यह आक्रोश क्या उन कानों तक नहीं पहुँच रहा है जो संभवतः हिंदुओं शुद्धीकरण की अत्यंत मंदआवाज सुनने के कारण बधिर हो चुके हैं। फिर आप लोग अपने इस अनमोल का उपदेश उन्हें क्यों नहीं देते? मुसलमान मेरे बंधु हैं, ईसाई मेरे स्नेही कहनेवाली है भूतदया! संख्याबल के कारण मतिभ्रष्ट होकर उन्मत्त हुए इन बच्चे की ओर आपकी कृपा का प्रवाह तू क्यों नहीं मोड़ देती? हर दिन संख्या में बंद करने हेतु हिंदू बच्चों को तथा कुँवारी लड़कियों को गुंडों द्वारा अपहरण किए जाने के समाचार प्रकाशित हो रहे हैं। अनेक प्रकरण न्यायालयों में प्रविष्ट किए जा रहे हैं। परंतु तुम्हारे पत्रों में अथवा मुख से इसका उल्लेख नहीं किया जाता। ऐसा किस कारण ? हिंदुओं पर तुम इतनी कृपा किस कारण कर रही हो ? कुछ दया करो। हिंदुओं पर समय-असमय वर्चस्व दिखाते हुए संख्याबल के दुराग्रह से जर्जर हो चुके तझीम-तबलीक की ओर कटाक्ष करो। हे वैद्यराज! कुछ समय के लिए आप हम लोगों का स्मरण न करें।

केवल संख्याबल का महत्त्व कुछ भी नहीं है ऐसा कहनेवाले धूर्ती को एक बार यह स्पष्ट रूप से कह देना आवश्यक है कि आपके कथनानुसार शुद्धि का अर्थ केवल संख्याबल में ही वृद्धि करना है। इसे स्वीकार भी किया जाए तब भी इस बात का ध्यान रखना आवश्यक है कि संख्याबल में भी शक्ति होती है। समाज का अस्तित्व होगा तभी उसके गुणबल में वृद्धि करना संभव होगा। परधर्मियों द्वारा सहस्र वर्षों से चल रहे, और विरोध न किया जाए तो भविष्य में भी चालू रहनेवाले इस बलात् किए जानेवाले कार्य के कारण यदि सभी हिंदुओं को परधर्म स्वीकार करने को बाध्य किया जाता है, तब यदि कोई समाज ही शेष नहीं रहा तो किसकी उन्नति करोगे? जो कुछ शेष है उसकी? यदि ये लोग भी अन्यत्र चले गए, यदि प्रतिकार न किया गया तो, तथा अन्यों के समान नष्ट अथवा भ्रष्ट हो गए तो? गुणबल में वृद्धि सीमित मात्रा में ही की जा सकती है। चींटी को शारीरिक या में मानसिक पोषक आहार बड़ी मात्रा में भी दिया जाए तब भी वह कोई हाथी तो नहीं बन जाएगी। एक तुच्छ तिनका खाद देने पर भी वैसा ही रहेगा। हाथी पर अधिकार करना उसके लिए संभव नहीं है। गुणवृद्धि की भी प्राकृतिक मर्यादाएँ होती हैं। इन्हें लाँघना संभव नहीं होता। तृण का एक टुकड़ा स्वयं दुर्बल होता है, परंतु यदि अनेक टुकड़ों को एकत्र कर बाँध दिया जाए तब वह मजबूत रस्सी बन जाती है अर्थात् यह बल संख्या में वृद्धि होने के कारण ही उत्पन्न हुआ है। धान के एकमात्र पौधे को खाद-पानी देकर उसका गुणवर्धन करने पर भी उससे जो बीज उत्पन्न होगा वह किसी परिवार के तो क्या किसी एक व्यक्ति के भोजन के लिए भी पर्याप्त नहीं होगा। परंतु ऐसे अनेक पौधे एक साथ लगाए जाएँ तो प्राप्त होनेवाला धान पर्याप्त रूप से अधिक होगा तथा इस संख्याबल के कारण वह क्षुधा-पूर्ति का काम करसकेगा। यदि कोई सज्जन आपसे कहता है, 'अरे, बोरियों में चावल क्यों एकत्रित कर रहे हो ? पागल हो। संख्याबल तुच्छ है में चावल का एक दाना लेकर उसके गुणवर्धन पर ध्यान देता हूँ तथा उससे एक पूरा पतीला भरकर भात बनाकर तुम्हें देता है। चोरों को बोरियाँ भर-भरकर चावल ले जाने दो अन्यथा वे क्रोधित हो जाएंगे। क्या इस प्रकार का प्रयोग सफल होगा ? तथा केवल एक दाने से पूरा पतीला भरकर चावल बनाना संभव होगा? यह जितना दुर्घट है उतना ही अर्थहीन तथा मतिभ्रष्टता का प्रदर्शन करनेवाला है; उनका तत्त्वज्ञान भी दुर्घट है जब वे कहते हैं, 'जो भ्रष्ट किए जा रहे हैं उन्हें भ्रष्ट होने दो। जो शेष रह जाएंगे उनके गुणवर्धन की ओर हमें ध्यान देना चाहिए।'

इसी कारण महान् अवतारों को भी संख्याबल की सहायता प्राप्त किए बिना अपने विपक्षीय समाज से टक्कर लेना संभव नहीं था। एकवचनी अवतारी श्री रामचंद्र को भी लंका पर आक्रमण करते समय वानरों से सहायता प्राप्त करना आवश्यक था। वानरों जैसे असंस्कृत जाति का संख्याबल प्राप्त न होता तो रामचंद्र स्वयं एक अवतारी पुरुष होते हुए भी पंगु हो जाते। रावण स्वयं शरीर गुणवर्धन की पराकाष्ठा था। बीस हाथ और दस मुँह! परंतु हजारों राक्षसों के संख्याबल के बिना इतने दिनों तक लंका का संग्राम चलाना उसके लिए संभव था? कृष्ण सुदर्शनधारी थे। परंतु उन्हें अपने बल पर महाभारत का युद्ध करना संभव न था। इस संग्राम के लिए सव्यसाची अर्जुन के अतिरिक्त दानव घटोत्कच तथा अन्य सैकड़ों लोगों तथा लाखों सैनिकों का संख्याबल एकत्रित करना आवश्यक प्रतीत हुआ। गुणोत्कर्ष प्राप्त करनेवाले श्रीकृष्ण जैसे विभूतियों को भी संख्याबल की उपेक्षा करना संभव न हुआ। अब महम्मद पैगंबर को देखिए। मक्का में अकेला होने पर भी वह पैगंबर ही था, परंतु संख्याबल के बिना इतना दीन था कि नमाज भी उसे चोरी छुपे ही अदा करनी पड़ती। परंतु जब दीन-दरिद्री, गुणी-अवगुणी जो भी कोई साथ देना चाहता, तो उन्हें अपने अनुयायी बनाकर वह मदीना के संख्याबल की सहायता से मक्का में नमाज प्रकट रूप में अदा करने लगा। वह भी संख्याबल के महत्त्व से अनभिज्ञ नहीं था। इसी कारण संख्याबल में वृद्धि करने हेतु उसने जो प्रयास किए, वे मुसलमान समाज का गुणबल बढ़ाने के उसके प्रयत्न के समान ही महत्त्वपूर्ण थे। मुसलमानों का संपूर्ण इतिहास संख्याबल बढ़ाने की लालसा के (रक्त) लाल अक्षरों में ही लिखा गया है। अफ्रीका के किसी भी क्षेत्र पर अधिकार करने के पश्चात् मुसलमान विजेता जो कर लगाता (खंडणी), उसमें से आधा धन के रूप में तथा शेष जीते हुए देश की स्त्रियों के रूप में प्राप्त किया जाता। स्त्रियों के रूप में प्राप्त किया गया यह कर सैनिकों में वितरित किया जाता, क्योंकि इससे संतति उत्पन्न होकर मुसलमानोंकी संख्या में वृद्धि करती। बड़े-बूढ़े अथवा बच्चों को या स्त्रियों को बलात्‍कार से इसी लालच में मुसलमान अथवा ईसाई बनाया जाता है। इसका उद्देश्य यह तो न है कि उस व्यक्तित्व का तत्काल गुणवर्धन किया जा सके अथवा इस प्रकार के नीच लोगों को समाज में स्थान देने से समाज का गुणवर्धन होता है ऐसा भी अर्थ नहीं है। प्रमुख रूप से संख्यावर्धन के लिए ही ऐसा किया जाता है। जिस स्थान पर उनका एक भी अनुयायी विद्यमान नहीं था वहाँ उनके करोड़ों अनुयायी आज दिखाई दे रहे है, इसका कारण भी उन्होंने संख्याबल में वृद्धि करने पर संपूर्ण ध्यान दिया, यही है। कोई भी इस बात को अस्वीकार नहीं कर सकता। यदि महम्मद पैगंबर इस संख्याबल वृद्धि हेतु आक्रमक प्रवृत्ति नहीं अपनाता तो अंत तक वह एकमेव महम्मद पैगंबर बना रहता। आज विश्व में विभिन्न क्षेत्रों में रहनेवाले मुसलमानों की संख्या बीस करोड़ हो चुकी है। यह कभी संभव न होता। गत विश्वयुद्ध में अन्य राष्ट्रों को तुलना में जर्मन लोग सैनिक गुणबल में क्या कम थे ? शास्त्र, शस्त्र तथा शौर्य में व्यक्तिशः अथवा सामाजिक दृष्टि से भी वे श्रेष्ठ थे, परंतु विपक्ष ने उनपर जो विजय पाई उसका प्रमुख कारण क्या संख्याबल ही नहीं था? अमेरिका के युद्ध घोषित करते ही संयुक्त राष्ट्रों का संख्याबल अचानक जर्मनी के एकाकी संख्याबल से असीमित रूप में अधिक हो गया, जो जर्मनी की पराजय का एक प्रमुख कारण है। यह वस्तुस्थिति स्पष्ट रूप से दिखाई देने के पश्चात् भी तथा विपक्ष के लोग संख्याबल में वृद्धि करने के जी तोड़ प्रयास कर रहे हैं, तब भी केवल हिंदुओं से कहा जा रहा है कि संख्या में कुछ अर्थ नहीं है। धर्मांतरण होने दो। लूटने दो। जो शेष रह जाएंगे उनका गुणबल वृद्धिंगत करो।' उस राक्षस की मुट्ठी में सबकुछ नहीं समा जाएगा यह बात तो निष्पाप, मासूम बच्चे की भी समझ में आती है कि हम लोगों में से कुछ तो अवश्य बचे रहेंगे। परंतु संख्याबल का इतना सरल महत्त्व भी उन प्रतिष्ठित व सूज्ञ बालकों को समझ में नहीं आता, कितनी आश्चर्यकारक बात है अथवा यह आश्चर्यकारक भी नहीं है। मुसलमानों को संतुष्ट करना है तो शुद्धि के विरोध में कुछ-न-कुछ कहना आवश्यक हो जाता है। न्याय अधिकार से शुद्धि के विरोध में कुछ कहना अब संभव नहीं है। इसलिए पुष्पित और रहस्यमय निवेदन किया जाता है कि हिंदुओ! शुद्धि की बात छोड़िए! देखिए, संख्या में क्या है? करोड़ों ने धर्मांतरण किया भी तो उन्हें भ्रष्ट होने दीजिए। हम लोग जो मुट्ठी भर शेष रह जाएँगे उन्हीं के गुणबल में अत्यधिक वृद्धि कीजिए। क्या इसका अर्थ यह भी है कि अन्य लोगों का गुणबल अविरत रूप से घटनेवाला है? वे भी तो अपना गुणबल बढ़ाने के प्रयास करेंगे तथा जब तुल्य गुणबल के लोगों में संग्राम होगा तब राष्ट्र का तथा समाज के जीवन-मृत्यु का प्रश्न संख्याबल पर ही निर्भर करेगा।

यदि इस विषय में कोई ऐसा कहता है कि हम लोगों को केवल संख्याबल में ही वृद्धि करनी है, तब यह कहना उचित होगा कि केवल संख्या में वृद्धि करने से काम नहीं बनेगा, गुणबल की ओर भी ध्यान देना आवश्यक है। परंतु शुद्धि का आंदोलन अथवा अस्पृश्य निवारण के प्रयास केवल संख्याबल में वृद्धि करने हेतु ही किए जा रहे हैं, गुणबल हमें नहीं चाहिए-यह बात आपको किसने बताई है ?

गुणबल की दृष्टि से पर्याप्ततः श्रेष्ठ ऐसे सौ लोगों की एक टोली, जिसमेंप्रत्येक व्यक्ति श्रीकृष्ण के समान चतुर तथा भीम के समान बलवान होगा ऐसा मान लिया जाए तब भी यदि गुणबल से व्यक्तिशः न्यून होनेवाले एक हजार लोगों से उनकी मुठभेड़ होने पर उनकी पराजय ही होगी। टिड्डी मानव की तुलना में गुणबल की दृष्टि से एक कनिष्ठ तथा क्षुद्र कीटक है। परंतु 'असाराणां हि वस्तूनां संहतिः' जैसे अगणित टिड्डियों के दलों द्वारा मानव पर आक्रमण किया जाता है तब अनेक गाँवों और प्रांतों को वीरान बनाकर वे निकल जाते हैं। शिवाजी, रामदास गुणबल से दैवी गुणबल की साक्षात् प्रतिमाएँ थीं। परंतु उन्हें औरंगजेब से व अफजलखाँ की सेनाओं का एकाकी सामना करना संभव नहीं हुआ। यह कार्य तभी संभव हुआ जब विद्रोही और विप्लवकारियों के नेताओं तक सब लोगों के साथ हजारों को एकत्रित किया गया। इस बात को उपेक्षित करने की केवल एक ही धूर्तता ये शुद्धि संगठन पर मिथ्या आक्षेप लगानेवाले नहीं करते। संख्याबल में क्या है? गुणबल में वृद्धि करो ऐसा जब वे पुनः पुनः कहते हैं तब ऐसा प्रतीत होता है कि इस कपटपूर्ण अथवा सरल उपदेश में एक और हेत्वाभास छिपा हुआ है। केवल संख्याबल में वृद्धि करने के ही प्रयास वे लोग कर रहे हैं, परंतु इस आक्षेप में यह बात सत्य है-ऐसा माननेवाले जो भोले लोग हैं उन्हें हम आश्वासन देते हैं कि संगठन के आंदोलन का प्रमुखतम ध्येय वैयक्तिक तथा राष्ट्रीय गुणबल में वृद्धि करना ही है। हम लोगों को हिंदुओं के संख्याबल में वृद्धि तो करनी ही है, परंतु उनके राष्ट्रीय गुणबल में भी हम लोग वृद्धि करना चाहते हैं।

संगठन शब्द से क्या गुणबल का बोध नहीं होता? राष्ट्रीय गुणों में संगठन को एक श्रेष्ठ गुण के रूप में निरूपित किया जाना आवश्यक है। अस्पृश्योद्धार की बात लीजिए। केवल संख्याबल बढ़ाने के लिए अस्पृश्यता निवारण किया जाना चाहिए ऐसा प्रस्ताव किए जाने के बाद भी हजारों लोगों में से कितनों ने अस्पृश्यता का त्याग किया? खादी में लिपटे हुए लोगों को जब अस्पृश्यों के साथ रहने का प्रसंग आता तब उन्होंने जिस प्रकार से विरोध किया वह रेशमी वस्त्र पहने हुए सनातनी भिक्षुओं द्वारा हुए विरोध से किसी अर्थ में कम तीव्र नहीं था। यह बात प्रत्येक अस्पृश्यता निवारक को ज्ञात है। परंतु यही आंदोलन हिंदू संगठन कापुरस्कार करनेवालों ने अपनाया तब किस प्रकार इसमें अंतर आ गया, इस बात पर ध्यान दीजिए। अनेक स्थानों पर इस संगठन की ओर से पाठशालाएँ खोली गई। महारों की बस्तियों में जाकर भजन आदि का कार्यक्रम होता है। जमीदारों के अत्याचारों से उन्हें मुक्त कराने के लिए न्यायालयों में उनका पक्ष बिना कोई पैसा लिये प्रस्तुत किया जा रहा है। उनके लिए विस्तृत भूमि खरीदकर वहाँ सुदंर झोपड़ियाँ बनाकर प्रत्येक में आरोग्य तथा स्वच्छतावर्धक साधनों की व्यवस्था कर दी गई है। इस प्रकार उनकी स्वतंत्र बस्तियाँ बनाई जा रही हैं। दूषित आहार लेने से उन्हें सचेत किया जा रहा है। सार्वजनिक सभाओं में तथा नगर संस्थाओं में उन्हें प्रवेश प्राप्त होने के कारण उनकी राष्ट्रीय भावना तथा अनुभवों का विकास हो रहा है। उनके अधिकार दिलाने के लिए एकजुट होकर सत्याग्रह किए जा रहे हैं। ये सभी आंदोलन हिंदू संगठन का पुरस्कार करनेवालों द्वारा चलाए जा रहे हैं। इन अस्पृश्यों के गुणबल का व्यावहारिक उपयोग कर उन्हें स्पृश्य बना रहे हैं तथा उस अनुपात में शिक्षा, स्वाभिमान की भावना, स्वच्छता, आरोग्य विषयक तथा संगठित होने के गुणों का विकास उन पूर्वास्पृश्यों में हो रहा है। यही स्थिति हिंदू संगठन ने अंगीकार किए हुए शारीरिक बलवृद्धि के प्रयासों में भी दिखाई देती है। इस प्रकार से हिंदू जाग्रत् हो जाने के पश्चात् अनेक स्थानों पर व्यायामशालाएँ प्रारंभ की जा रही हैं। क्या इसे शारीरिक गुणवत्ता में वृद्धि करना नहीं कहा जाएगा? यही स्थिति स्पृश्य वर्ग के अंतः सुधार की है। बाल विवाहों पर प्रतिबंध लगाने हेतु हिंदू संगठन ने बहुत प्रयास किए। जाति-जातियों में जिस प्रकार का द्वेष तथा भेद विद्यमान है उन्हें दूर करते हुए सभी हिंदुओं को एकता की राष्ट्रीय भावना से स्फूर्ति देने का कार्य करने के प्रयास यह संगठन कर रहा है। गीता जयंती, शिव जयंती आदि का संयोजन करने से राष्ट्रीय वृत्ति तथा महानता की भावना हिंदू समाज में वह विकसित करता है। देवालयों के सुधार के लिए आंदोलन करते हुए कुंभ मेले जैसी अनेक यात्राओं के लिए सुव्यवस्था का कार्य करता है तथा महान् विद्वानों द्वारा धर्म, तेज तथा इतिहास की शिक्षा लाखों लोगों तक प्रसृत करता है। यह सब कार्य क्या हिंदुओं का गुणबल वर्धित करने का कार्य नहीं है? शुद्धि तो हिंदू समाज के संख्याबल तथा गुणवत्ता में एक साथ वृद्धि करने के लिए किए जानेवाले आंदोलन की परमावधि ही है। हिंदू समाज की कूपमंडूक वृत्ति के कारण व अहिंदुओं के बलात् रोकने के कारण धर्मांतरण करनेवाला एक व्यक्ति यदि पुनः हिंदू समाज में स्थापित किया जाता है तब इसी एक ही आघात से हिंदू समाज के दुर्गुणों पर एक साथ आघात होता है तथा उसी मात्रा में गुणबल में भी वृद्धि होती है। शुद्धिकृत व्यक्ति में इस संस्कार के कारण ही हिंदू पूर्वजों के लिए, हिंदुस्थान देश के लिएहिंदू संस्कृति के लिए अपनापन तथा पुण्यबुद्धि उत्पन्न होती है। इस प्रकार उसके राष्ट्रीय गुणों में वृद्धि होती है। हिंदू समाज में विद्यमान कूपमंडूक वृत्ति उसी अनुपात में नष्ट हो जाती है। जातिभेद के तीव्र बंधन उस मात्रा में शिथिल पड़ जाते हैं। जो हिंदू हैं वह मेरा बंधु है, यह भावना उपजती है। संपूर्ण हिंदू समाज आंदोलित हो उठता है और वर्तमान के जातीय संकट की जानकारी तथा समझ उत्पन्न होती है। पूर्व और वर्तमान की तुलना करने की बुद्धि जाग्रत् होती है तथा हिंदुत्व की रक्षा करने हेतु लड़ने की वीर वृत्ति वृद्धिंगत होती है। यह प्रत्येक परिणाम हिंदू समाज के दुर्गुणों का लय होने में तथा राष्ट्रीय गुणों के विकास के लिए मौलिक सहायता प्रदान करता है। गाँव अथवा नगर में यदि शुद्धि समारोह आयोजित किया जाता है तब जो क्षोभ उत्पन्न होता है, उसे जिन्होंने देखा होगा उन्हें इस बात का विश्वास हो जाएगा कि राजनीतिक सभाओं के कारण समाज के उच्च स्तर में भी जो उपविप्लव नहीं दिखाई देता, वह इस एकमात्र शुद्धि समारोह से हो जाता है। नगर के छोटे-से छोटे कृषक, मजदूर, महार माँगों तक सभी आंदोलित हो जाते हैं। यह सारा कार्य क्या राष्ट्रीय गुणवर्धन का कार्य नहीं है? हिंदू संगठन जो अनाथालय प्रारंभ करती है उसमें, आज के जो दुदैवी बालक मृत्यु के पाश में अंततः पड़ जाते अथवा जो भूख से व्याकुल होकर भटकते रहते, उनकी शारीरिक, सैनिक, मानसिक तथा आत्मिक देखभाल यहाँ की जाती है। इसके कारण हिंदू समाज के गुणबल में वृद्धि नहीं होती है? अथवा वह गुणबल में कमी होने का कारण बन जाता है ? ऐसे अनेक राष्ट्रीय गुणवर्धक आंदोलन हिंदू संगठन के जिन पुरस्कर्ताओं ने चलाए हैं तथा परदेश गमन से लेकर शुद्धि तक जो सैकड़ों सुधार उन्होंने हिंदू समाज में किए हैं वह केवल कोई प्रस्ताव पारित किया कार्य नहीं है। प्रत्यक्ष आचरण से ये सुधार प्रस्तुत किए गए हैं, क्योंकि उन्हें हिंदू समाज का गुणबल भी वृद्धिंगत करना आवश्यक है, यह बात समझ में आ गई है। उन्हें इस बात की शिक्षा देने हेतु किसी में अल्पशिक्षित और अल्पदीक्षित गुरु की आवश्यकता नहीं है।

हम लोग हिंदू राष्ट्र की संख्या में भी कमी नहीं होने देंगे तथा गुणों में भी नहीं। अस्पृश्यता निवारण एवं शुद्धि, इन दोनों में हम लोग संख्याबल तथा गुणबल दोनों में ही वृद्धि करेंगे। केवल संख्याबल में क्या है यह धूर्त समझदारी की शिक्षा हम लोगों को न दीजिए। आपको ऐसा किए बिना यदि संतोष नहीं होता तो आप मुसलमानों व अपने बंधुओं को किसी मसजिद में जाकर बताइए। उन्हें इस प्रकार की शिक्षा की बहुत आवश्यकता है। परंतु यह तभी संभव होगा जब आप में मसजिद की सीढ़ियाँ चढ़ने का साहस हो।

हिंदुओं में प्रत्याघात करने का साहस नहीं है ऐसी धारणा बनाना उचित नहीं होगा

नहीं! हिंदू धर्म नपुंसकों की गाथा नहीं है। हिंदू धर्म निस्संदेह क्षमाशील है। हिंदू धर्म क्रोधशील भी है इसमें कोई संदेह नहीं है। 'क्लैबर्य मा स्म गमः पार्थ' यह हिंदू धर्म की गर्जना है। 'अहिंसा परमो धर्मः' यह जिस हिंदू धर्म को परिभाषा है उसी हिंदू धर्म की आवश्यकता तथा तेजस्वी आज्ञा है कि 'आततायिनमायन्त हन्यादेवाविचारयन्' इन दोनों आज्ञाओं का समन्वय करना हिंदू धर्मज्ञ को अच्छी तरह ज्ञात है। हिंसा तथा अहिंसा शब्दों का प्रयोग करते समय आजकल के गांधीजी जैसे अपक्व आचार्यों द्वारा जो अव्यवस्था का वातावरण निर्माण किया जा रहा है, इस कारण ये वचन परस्पर विरोधी प्रतीत होते हैं, परंतु हिंदू धर्म के मर्मज्ञ आचार्य पूर्व समय से इन शब्दों का जिस अर्थ में प्रयोग कर रहे हैं, उसे ध्यान में रखने से 'तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय, युद्धाय कृतनिश्चयः ऐसी गर्जना करनेवाला, अपना सुदर्शन चक्र उठानेवाला कंसकंदन कृष्ण तथा उसकी गीता-ये दोनों ही हिंदू धर्म तथा राष्ट्र के प्रमुखतम आराध्य देव क्यों बन गए यह बात सभी के ध्यान में रखने योग्य है।

इस समय इतना कहना ही पर्याप्त होगा कि रावण का वध करने के पश्चात् श्रीराम की विजय होने पर सीता देवी जब उनके पास आई थीं तब जनरीति के अनुसार उनको अंगीकार करें अथवा नहीं, इस संदेह से ग्रस्त होकर विषण्ण रामचंद्र ने कहा था, 'सीते, तुम लौट जाओ। तुम्हें प्राप्त करने हेतु मैंने रावण का वध नहीं किया है। रावण ने रघुकुल का महान् उपमर्द किया था, उसका प्रतिशोध लेने हेतु मैंने रावण का वध किया। सर्प जब काटता है तब उसका उद्देश्य रक्त प्राशन करना नहीं होता। वह होता है पुच्छाघात के शत्रुत्व के प्रतिशोध के कारण । ऐसा कहनेवाले श्रीराम को हिंदू धर्म आदर्श पुरुष कहकर पूजा करता है।'

जिस युधिष्ठिर का उदाहरण गांधीजी ने अपनी सदा संभ्रमित प्रवृत्ति से हिंदू लोगों को इस समय एक अनुकरणीय उदाहरण के रूप में दिया है, उसी युधिष्ठिर ने ही अठारह दिन तक महाभारत के युद्ध का संचालन किया। अर्जुन को कर्ण का वध करने में विलंब हुआ, इस कारण क्षमा की मूर्ति माने जानेवाले युधिष्ठिर ने क्रोधित होकर अर्जुन के पौरुष को धिक्कारा। उसका नाम 'क्षमा स्थिर' न होकर 'युधिष्ठिर' हैं अर्थात् क्षमा की दुर्बल परिभाषा से विचलित न होते हुए 'युद्ध में स्थिर रहनेवाला'। उस युधिष्ठिर की उपमा गांधीजी ने अपने लेख में दी है। अत्यंत क्षमा की मूर्ति के रूप में युधिष्ठिर का उपमान गांधीजी ने हिंदुओं के समक्ष प्रस्तुत किया है। इसका अर्थ तो यही होगा कि स्वयं के वाक्यों का विपरीत अर्थ व्यक्त करना। शकार की उपमाएँ भी इतनी निरर्थक तथा हास्यास्पद नहीं होती थीं।

हिंदू मुसलमानों के समान मतिभ्रष्ट कट्टर नहीं हैं, परंतु कट्टर हैं। हिंदू मुसलमान के समान धर्मोन्मत्त वीर नहीं हैं, परंतु हिंदू धर्मवीर हैं। ऐसा न होता तो वह इस जीवन-कलह में आज तक जिंदा न रहते। प्राचीन इतिहास की घटनाओं पर विचार न किया जाए तब भी इन दस-बीस वर्षों में एक-दो नहीं, सैकड़ों हिंदू नवयुवक ऐसे भी हुए हैं जिन्होंने हिंदुस्थान की स्वतंत्रता के लिए हँसते-हँसते फाँसी के फँदे को अपने गले में डाल लिया। गवर्नर जनरल को हजारों गोरे सैनिकों की नंगी तलवारों की सुरक्षा होते हुए भी हाथी के आसन में ही हताहत कर दिया अठारह साल के एक युवक ने। जिस डिंगरा के देशभक्ति और अतुलनीय साहस की प्रशंसा करते हुए चर्चिल और लॉड जॉर्ज ने उसकी तुलना रोम के श्रेष्ठतम हुतात्मा से की, वह एक हिंदू था यह मत भूलिए। हिंदुओं में स्वतंत्रता के ध्येय के लिए फाँसी पर चढ़नेवाले अथवा अंदमान में मृत्यु के समक्ष क्रांतिगीत तथा स्वतंत्रता स्तोत्र का गायन करनेवाले सैकड़ों नवयुवक तथा वृद्ध लोग उत्पन्न हुए थे तथा आज भी उपज रहे हैं।

- श्रद्धानंद, १०.२.२७

धर्म का स्थान हृदय है,पेट नहीं

वास्तविक बात तो यह है कि किसी हिंदू ने मुसलमान अथवा ईसाइयों का अन्न ग्रहण किया अथवा जल प्राशन किया तो वह भ्रष्ट हो जाता है, यह धारणा मात्र भ्रम में डालनेवाली कल्पना है; क्योंकि धर्म का स्थान पेट न होकर हृदय है। जिस व्यक्ति के मन में धर्म के प्रति भक्तिभाव कभी भी लुप्त नहीं हुआ हो वह मुसलमान के यहाँ एक सहस्र बार भी भोजन ग्रहण करता है तब भी वह भ्रष्ट होता। मुसलमान हिंदुओं का अन्न किसी भूल के कारण ही नहीं खाते, वे तो उनका अन्न लूटकर भी खाते हैं। फिर भी वे मुसलमान मुसलमान ही बने रहते हैं। किंबहुना हिंदुओं के अन्न पर उपजीविका करते हुए आवश्यकता उत्पन्न होने पर उन्हीं हिंदुओं को ' काफर' कहते हैं। ऐसा कहना उनके लिए एक परंपरा बन गई है। फिर मुसलमानों के यहाँ का मात्र अन्न ग्रहण करने से हिंदुओं का धर्म नष्ट हो जाता है, इतनी हिंदू समाज की पाचन क्रिया क्षीण क्यों हो? अब इस पाचन शक्ति को हमें अगस्ति के समान संपूर्ण विश्व पचाने लायक तेजस्वी और प्रदीप्त करना आवश्यक है। इस प्रकार से केवल अन्नोदक ग्रहण करने के कारण भ्रष्ट समझे जानेवाले व्यक्ति को शुद्ध करने की कोई आवश्यकता नहीं प्रतीत होती। आज हम लोग इसे एक गौण बात मानते हैं और इसे गौण समझना ही हम लोगों की वृद्धिंगत होनेवालो शक्ति का प्रतीक है। अपितु जब तक समाज के हजारों लोगों के मन में इस प्रकार का संभ्रम बना हुआ है तब तक शुद्धि समारोह आयोजित किए जाने चाहिए। इस प्रकार के समारोह आयोजित करने के पीछे एक अतिरिक्त परंतु महत्त्वपूर्ण कारण भी है। इन समारोहों का उचित प्रचार भी किया जाना आवश्यक है। हिंदुओं के मन में एक ऐसी भ्रांतिपूर्ण धारणा बन गई है कि किसी के मुख में पानी की एक बूँद भी पड़ जाती है, तब वह व्यक्ति आजन्म ही नहीं अपितु वंश-परंपरागत रूप से कई पीढ़ियों तक भ्रष्ट हो जाता है। इसी प्रकार मुसलमानादि अहिंदू समाज यह मानते हैं कि किसी हिंदू को पागलपन की अथवा भूखी अवस्था में यदि मुसलमान' भोजन करा देता है तब हिंदू समाज के लोग स्वयं ऐसा समझने लगेंगे कि वह व्यक्ति स्वयं भ्रष्ट हो चुका है और फिर उसे मुसलमान अथवा ईसाई समाज में सम्मिलित करा देते हैं।

अपने अन्नोदक व्यवहार को किसी प्रकार का महत्त्व न देना इस विषय मेंबने समाजहितकारक विचार क्रांति के निर्देशक हैं। अतः अन्न ग्रहण करने मात्र से धर्म भ्रष्ट हो जाता है यह धारणा एक विभ्रम है, ऐसे क्रांतिकारी विचारों को अहिंदुओं तक पहुँचाने के लिए सतत शुद्धीकरण समारोह आयोजित करना आवश्यक है। इस शुद्धीकरण से अहिंदुओं को शीघ्र ही यह ज्ञात हो जाएगा कि हिंदुओं को भ्रष्ट करने हेतु वे जो अन्न वितरित कर रहे हैं, वह अब निरुपयोगी है। इस प्रकार दो-तीन वर्ष तक अनुभव करने के बाद अकाल, भूख तथा पागल लोगों को भ्रष्ट करने की दुष्ट कामना अन्न देने के व्यर्थ को वे बंद कर देंगे। अब समय बदल चुका है। अब किसी हिंदू को इतने अल्प मूल्य में खरीदना असंभव है, यह सचाई मुसलमान आदि के ध्यान में आ जाने पर अमेरिका के लोग भी इस विफल साधन के लिए करोड़ों का व्यय नहीं करेंगे। आज के हिंदू को खाना खिलाने के पश्चात् दस साल अन्न ग्रहण करते हुए भी अवसर पाते ही एक तुलसीपत्र खाते ही वह पुन: हिंदू बन जाता है। यह बात समझ में आते ही पादरी तथा पीर भ्रष्टाचार की अपनी दुकानें शीघ्रतापूर्वक समेटने लगेंगे। हम लोग प्रत्येक हिंदू को प्रकट रूप से कहते हैं कि यदि अन्य उपाय न हो तो बिना किसी भय से मुसलमानों के यहाँ तृप्ति होने तक भोजन करो, पानी प्राशन करो, अंग्रेजों के यहाँ भी खाओ-पीओ। भोजन के बाद मुख शुद्धि के लिए एक तुलसीपत्र मुँह में रखते ही मुख शुद्धि के साथ आत्मशुद्धि भी हो जाएगी। भोजन भी अच्छी तरह पच जाएगा। आप हिंदू ही बने रहोगे। आज तक संपूर्ण विश्व को हिंदुओं ने खिलाया है। बदले में हिंदुओं को लूटा गया है। इसलिए आप लोग विश्व के लोगों से इस ऋण को वसूल कर लीजिए। विश्व में कहीं भी भोजन करो और इसके बाद भी हिंदू ही बने रहो। क्योंकि हिंदू धर्म उसके पेट में नहीं, उसके हृदय में बसा हुआ है। इसका अस्तित्व रक्त में तथा बीज में भी है, आत्मा में भी है। यह हिंदू रक्त, हृदय, बीज तथा आत्मा मुसलमान आदि के एक बूँद पानी से तो क्या पूरे सागर में भी डूब जाना असंभव है। जिस राम नाम के आधार से भवसागर पर शिलाएँ तैरने लगीं, उसी राम नाम के पश्चातप्त अंतकरणपूर्वक उच्चारण से महत्पाप भी भस्म हो जाएँगे। तब मुसलमानों के दिए हुए चावल के एक कौर को महत्त्वहीन ही माना जाना चाहिए।

जो मात्र दर्शन करने पर भ्रष्ट हो जाता है,किस प्रकार का ईश्वर है!

मुंबई की ब्राह्मण संस्था ने अपनी २८ अगस्त की सभा में पारित प्रस्ताव में कहा कि गणेशजी के सामने अस्पृश्य बंधुओं के मिलन का कार्यक्रम रखा जाना चाहिए। इस समाचार से संपूर्ण महाराष्ट्र के संगठन पुरस्कर्ताओं को बड़ा हर्ष हुआ है। सभा द्वारा पारित इस प्रस्ताव के लिए आश्चर्य प्रतीत होने की बात भी आश्चर्यजनक नहीं है। मुंबई के टाई-कॉलर से भूषित बहुत से बी.ए. तथा एम.ए. शिक्षित व्यक्ति तथा अशिक्षित ब्राह्मण ईरानी उपहारगृहों में चाय का आस्वाद लेते हुए कोंकण को अविकसित तथा पुराणप्रिय प्रदेश कहकर तुच्‍छ समझते हैं, उसी कोंकण के रत्नागिरि नगर में आज संगठन के आंदोलन के कारण अस्पृश्य लोगों के गायन-वादन करनेवाले समुदाय गणपति के दर्शन के लिए ही नहीं, पालकी के समीप तथा उसे स्पर्श करते हुए वहाँ पहुँच सकते हैं। नासिक जैसे धर्म के गढ़ में- तीर्थ क्षेत्र में आज तीन वर्षों से ब्राह्मणादि स्पृश्यों के सभी गणपतियों के अग्रस्थान पर अस्पृश्यों का गणपति रहता है तथा हजारों की उपस्थिति में प्रेमपूर्वक मार्ग क्रमण करता रहता है। इस स्थिति में ईरानी उपहारग्रहों में चाय पीनेवाले ट्राम तथा रेलगाड़ियों में समय व्यतीत करनेवाले और जो पूजा के रेशमी वस्त्रों को तथा सुबह की ध्यान धारणा के लिए प्रयोग में आनेवाली पत्नी को (एक विशिष्ट प्रकार का चम्मच) अस्पृश्यों से भी कुछ अधिक अस्पृश्य समझनेवाले सैकड़ों मंदबुद्धि ब्राह्मणों को अस्पृश्यों के गायकों-वादकों को गणपति के दर्शन हेतु मान्यता देने का प्रश्न मुंबई जैसे नगर में विचार करने योग्य लगा, यह बात भी लज्जाजनक प्रतीत हुई । अस्पृश्यों के देवदर्शन से ईश्वर भ्रष्ट होता है यह उनकी मान्यता है। जिस जाति में तत्त्वज्ञान का उदय हुआ है, ऐसा प्रचार विश्व भर में करनेवाली ब्राह्मण जाति को इस प्रश्न पर चर्चा करनीपड़ी, यही अत्यंत लज्जाजनक प्रसंग है। जिसे ब्रह्मज्ञान प्राप्त हुआ है वही ब्राह्म कहलाता है। फिर जिसे ब्रह्मज्ञान प्राप्त हो चुका है उसी के भक्तों के दर्शन करने से ईश्वर भ्रष्ट हो जाता है-यह कहना किसी सुंदर आँखोवाले व्यक्ति के दिन को रात मानना जितना हास्यास्पद है, उतना ही हास्यास्पद यह कथन भी है। यदि ब्रह्मज्ञान के बिना ब्राह्मणत्व प्राप्त होता है ऐसा कहा जाए, तो इन नामधारी ब्राह्मणों तथा अस्पृश्यों में देहेंद्रियादि मनुष्यत्व के अन्य लक्षण समान होने के साथ कौन सी असमानता बाकी रहती है ? ब्रह्मज्ञान, शील अथवा उत्कट लोकहित तत्परता का अभाव होते हुए भी स्वयं को ब्राह्मण कहलानेवाले लोगों में तथा अस्पृश्यों में केवल एक ही असमानता होती है, वह यह कि तथाकथित ब्राह्मणों का हृदय पत्थरों से भी कठोर बन जाता है और अस्पृश्यों का हृदय तुलना में इतना कठोर नहीं प्रतीत हो। हम लोग पतित हैं यह माननेवाला अस्पृश्य स्वयं लीन होता है, परंतु यह नामधारी ब्राह्मण पतित होते हुए भी 'हम लोग बहुत बड़े पावक हैं' इस धारणा से स्वभावतः से भी अधिक अस्पृश्य बन जाता है। उद्धृत होता है तथा इसी कारण वह अस्पृश्यों से भी अधिक अस्‍पृश्‍य बन जाता है ।

यह स्थिति न होती तो 'दर्शन करने से ईश्वर भ्रष्ट हो जाता है' यह प्रश्न ब्राह्मणों में उपजता ही नहीं। और ईश्वर भी कितना विचित्र है। यदि अस्पृश्यों के स्पर्श से वह भ्रष्ट हो जाता, तो जिस समय उसने इन अस्पृश्यों को जन्म दिया, उसी समय से ही वह भ्रष्ट हो चुका है। भगवान् का सबसे प्रिय नाम है पतितपावन। फिर उसके स्पर्श से पतित ही पावन हो जाएँगे या फिर उनके स्पर्श से वह पावन ही पतित हो जाएगा? हम लोगों का ईश्वर गोबर या मोम का बना हुआ तो नहीं है कि पापियों के तप्त क्रोधित हाथों का स्पर्श होते ही वह पिघल जाएगा? महाराज, आप लोग अपने ही ईश्वर की जो निर्भत्सना कर रहे हैं, उसे सुनने के पश्चात् तो नास्तिक भी लज्जित हो जाएँगे। हम लोगों का ईश्वर गोबर तथा मोम से बना हुआ नहीं है। उसका चित्र या मूर्ति कदाचित् गोबर-मोम से बनी होगी, परंतु यह भगवान् पतितों के स्पर्श से पतित नहीं होगा अपितु अपने दिव्य स्पर्श से पतितों को ही पावन कर देगा। इसी कारण उसे ईश्वर कहते हैं। वह 'अच्छेद्योऽयम्, अहाह्मोऽयम्, अक्लद्योऽशोष्य ऐव च।' है। उसे शस्त्र से काट डालना संभव नहीं है उसी प्रकार स्पर्श से वह भ्रष्ट नहीं होता।

आप ब्राह्मण स्वयं भूदेव हो। फिर अपने मुख से कहते हो कि महारों के पर्श से ही नहीं, बल्कि दर्शन करने से ही आप लोग तथा आपका ईश्वर भ्रष्ट हो जाता है। ईश्वर पतितपावन है। आपको भी पतितपावन होना चाहिए। पतितों के स्पर्शमात्र से वे ही पावन हो जाने चाहिए। फिर इसके विपरीत उनके स्पर्श से आपको किस प्रकार का भय लगता है। यदि शीत अग्नि के संपर्क में आ जाए तो क्या अग्नि शीतल हो जाएगी? यदि ऐसा होता हो तो वह अग्नि ही नहीं है। दीप के स्पर्श से तिमिर दिव्य बनता है न कि दीप स्वयं अंधा बन जाता है। यदि ऐसा होता है तो वह दीप ही नहीं है। गंगा को पानी के किसी छोटे प्रवाह ने स्पर्श कर लिया तब क्या गंगा अपवित्र बन जाएगी? फिर 'गंगा गंगेति या ब्रूयात योजनानां शतैरपि मुच्यते सर्वपापेभ्यो' यह स्मृति मिथ्या प्रमाणित होगी। छोटे प्रवाह को जो पावनकरती है, वहीं भागीरथी है। इसी प्रकार से पतितों का स्पर्श होने पर जो पतितों को ही पावन बनाता है वही भगवान् है। वही ब्राह्मण जाति के पितृ-पितामहों ने 'वेदै: सांगपदक्रमोपनिषदः' गाया है। श्री हरी के स्पर्श से गजेंद्र जैसे पशुओं का उद्धार हुआ। इस कथा को प्रमाण माननेवालों ने महारमांगादि लोगों को तथा जो अपने देश के, हम लोगों के बंधु व सहोदर हैं, उन्हें भगवान् के दर्शन के लिए स्पर्श की बात ही नहीं है, परंतु दर्शन से भी प्रतिबंधित करना कितने खेद और अज्ञान से भरे दंभ की बात है।

केवल शुद्धता का ही प्रश्न है तब ब्राह्मणादि स्पृश्यों में जो पापी हैं उनके मंदिर प्रवेश पर भी प्रतिबंध लगाया जाना आवश्यक है। जिस प्रकार ब्राह्मणादि लोगों में जो ज्ञानी और सुशील हैं, उन्हें जिस प्रकार दर्शन करने दिया जाता है उसी प्रकार सज्जन महार-मांगों को भी दर्शन की सुविधाएँ दी जानी चाहिए, क्योंकि महारादिकों में भी धर्मभीरु होते हैं तथा सच्छील लोग ईश्वर के लिए यात्राएँ करनेवाले व तलवार चलानेवाले शूर लोग हैं जिनकी पदरज को स्पृश्यों में विद्यमान कई सूर्याजी पिसाळ जैसे (देशद्रोही) लोगों द्वारा माथे पर लगाई जानी चाहिए। अतः महार अथवा मांग, चमार इन जातियों पर अशुद्धता के कारण अस्पृश्यता की छाप नहीं लगाई जा सकती। केवल अशुद्धता की ही बात होगी तो उस गायक-वादक समुदाय का प्रत्येक युवक प्रत्येक दिवस प्रातः समय उत्तमोत्तम साबुन से स्नान करेगा। उत्तम वस्त्र धारण करेगा तथा इस प्रभाव के कारण 'शतजन्मकृत पापं विनश्यति न संशयः' इस प्रकार राम नाम का जप करते हुए आपके गणपति मंदिर में प्रवेश करेगा। इसपर तो कोई आपत्ति नहीं होगी आपको? जिस गणपति मंदिर में अस्वच्छ तथा चोरों को भी, वे ब्राह्मण कहलाते हैं, इस कारण प्रवेश दिया जाता है तथा जिनके दर्शन से गणपति भ्रष्ट नहीं होता, उस गणपति के मंडप में इस प्रकार सुस्नात महार बंधुओं का भजन आयोजित करने पर आकाश से वज्रपात तो होनेवाला नहीं है अथवा भूचाल भी नहीं आनेवाला है। यह बात दृढ़तापूर्वक कहने में कोई कठिनाई प्रतीत नहीं होती।

महारों की बात छोड़िए, परंतु जिसकी माता रोज प्रातः सार्वजनिक मलक्षालन का अत्यधिक लोकोपयोगी कार्य करती है. ऐसे भंगी का एक पुत्र रत्नागिरि के पूर्व स्पृश्यों के गायक-वादक समूह की धुरा वहन कर रहा है। उसके उच्चारण, आचार तथा विचार तथा उसकी बुद्धिमत्ता देखकर बताने पर भी वह क्या कोई भंगी है यह प्रश्न पूछने से लोक हिचकते हैं। वह भंगी बालक परसों गणेश चतुर्थी के दिन रत्नागिरि के सार्वजनिक गणपति के ही नहीं तो ब्राह्मणों के गणपति को समारोहपूर्वक जब लाया जा रहा था, तब पालकी के पीछे उस समूह में भजन कर रहा था। रात के उत्सव के समय सारे समाज में देवालय के प्रांगण में और चबूतरे पर हिंदुत्व का जय-जयकार करनेवाले हजारों स्पृश्यों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर वह जय-जयकार कर रहा था। दिंडियो के मिश्र भजनों में मग्‍न था। परंतु भंगी के दर्शन से अभी तक गणपति अप्रसन्न हुए हैं, ऐसा प्रतीत नहीं होता। रत्नागिरि पर आकाश से कोई बिजली नहीं गिरी है अथवा भूमि ने रत्नागिरि को निगल नहीं लिया है।

वास्तविक रूप से गत दो-तीन सालों में अस्पृश्यता के हानिकारक गुणों को जितनी चर्चा की गई है, उसका समर्थन करनेवाला कोई ससंगत विचार किसी के पास शेष नहीं है। अभी भी किन्हीं हिंदुओं को अस्पृश्यों को स्पर्श करने में किसी प्रकार की कठिनाई हो, तो उसे युक्तिसंगत अथवा तात्त्विक उपपत्ति का आधार न होकर केवल आदत का हो यह प्रभाव है। बीड़ी पीने की आदत लग जाने पर, यह काम खराब है ऐसा लगने पर भी, उससे मुक्ति पाना संभव नहीं होता। यह अस्पृश्यता केवल एक रूढ़ि हो गई है, स्मृति नहीं।

यदि कोई यह प्रश्न पूछता है कि क्या इस प्रकार की स्मृतियाँ नहीं हैं तो उसे इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि हाँ ऐसी स्मृतियाँ भी हैं, 'न वदेद्यावनीं भाषां प्राणैः कंठगतैरपि।' कितने ब्राह्मणों के बच्चों ने अंग्रेजी पढ़ना बंद कर दिया है? म्लेच्छों की दास्यता में रहनेवाले, मुसलमानों द्वारा अपनी बहू-बेटियों को अपहृत किए जाने पर भी आपत्ति न करनेवाले, अपने देवालयों तथा सिंहासनों को परकीय उन्माद पावों तले कुचल रहे हों, तब भी पूँछ हिलाने वाले व टुकड़ों पर जीवित रहनेवाले लोग या फिर सदैव साहब लोगों के कार्यालयों में चुपचाप अपशब्द सुननेवाले लिपिकों से लेकर शॉल ओढ़कर महाविद्यालयों में अंग्रेजों को वेदविक्रय करनेवाले महामहोपाध्यायों तक इस पीढ़ी के किसी भी हिंदू को स्मृति का उल्लेख करने का भी अधिकार नहीं है। अस्पृश्यों के विषय में स्मृति का स्मरण होते ही आप अपनी आत्मा को सहज पूछिए कि आज प्रातः समय से लेकर संध्या तक मैंने कितने कर्म स्मृति के भय से किए हैं। इससे प्रत्येक स्मृति भक्तों की समझ में आ जाएगी यह बात कि अस्पृश्यता का पालन करो ऐसा कहनेवाली प्रत्येक स्मृति श्‍लोक के लिए अस्पृश्यता का त्याग करो ऐसा कहनेवाली स्मृतियों की संख्या अधिक बढ़े।

ब्राह्मणो, क्षत्रियो! ये सात कोटि लोग आपके अधर्म के, रक्त के बंधु हैं, जो ईश्वर की पूजा करने हेतु हम लोगों को प्रवेश दीजिए, ऐसी करुण स्वर में प्रार्थना कर रहे हैं। न्याय के लिए उन्हें प्रेमपूर्वक प्रवेश दीजिए। कुत्ते को हम लोग स्पर्श करते हैं तथा उसके मुँह को भी हम स्पर्श करते हैं। ये लोग तो हम लोगों जैसे ही मानव हैं। तीर्थाटन करनेवाले यात्री हैं। यदि प्रेमपूर्वक प्रवेश देना संभव नहीं है तो किसी भय के कारण ही उन्हें ईश्वर दर्शन करने दीजिए। आज वे ईश्वर-भजन की समस्या लेकर सत्याग्रह करने की बात सोच रहे हैं। परंतु कल वे किन्हीं पाखंडियों द्वारा प्रोत्साहित किए जाने पर ईश्वर का भजन करते हुए शस्त्राग्रह करेंगे। इस बात का अवश्य ध्यान रखिए। परधर्म के लोग उनका बुद्धिभेद कर रहे हैं। आठ करोड़ मुसलमान व ईसाइयों की तरह हमें अठारह करोड़ मूर्तिभंजक तो तैयार नहीं करने हैं? जो अस्पृश्य इस अपमानजनक आचरण के कारण भ्रष्ट होगा, वह स्वयं तथा हिंदू राष्ट्र की आत्मा का भी घात करने का काम निडरतापूर्वक करेगा। यह किस सीमा तक तथा किस प्रकार से कहना होगा? जिसे आप लोग अपना ईश्वर मानते हो, उसके भक्तों की संख्या में वृद्धि करना आपका कर्तव्य है या यह संख्या घटाना?

कीनिया में विदेशी तथा परधर्मीय यूरोपियन आप लोगों को अस्पृश्य समझते हैं। आपको उनपर बहुत क्रोध आता है और यह न्याय्य भी है। परंतु फिर उसी मुँह से तथा उसी तर्क के विपरीत अपने स्वधर्मियों को अपने ही देश में आप लोग धिक्कारते हो, तब परमेश्वर आपकी इस अहंकारी दांभिकता से संतुष्ट ही होता होगा। यह अन्याय क्या श्रुति-स्मृतियों को सम्मत है? इस पर कुछ विचार कीजिए। कौन सी श्रुति और कौन सी स्मृति ! श्रुति-स्मृतियों का अस्तित्व ही समाप्त करने का तथा हिंदू राष्ट्र को नामशेष कर देने का प्रसंग यहाँ उत्पन्न हुआ है। यहाँ जिन उपायों द्वारा रक्षा करना संभव है वह साधन स्मार्त तथा श्रीत है। प्राचीन स्मृतियाँ भी अनुकूल हैं। यदि नहीं हैं तो ये नई बनाई जानी चाहिए थी। राष्ट्र के लिए स्मृतियाँ होती हैं। जो राष्ट्र के नाश का कारण बनती हैं, वे स्मृतियाँ कैसे हो सकती हैं, वह स्मृति-भ्रम कहलाता है। जो धारणा नहीं करता वह धर्म ही नहीं है, वह विधर्म है।

ईश्वर पतितपावन है, अतः पतितों को इसका दर्शन करने दो। न्याय के लिए तथा वे हम लोगों के हिंदू धर्मीय बंधु हैं, इसलिए उन्हें प्रवेश करने दो। परधर्मियों के प्रभाव में आकर उन्हें नर्क में पड़ने से रोकने के लिए उन्हें ईश्वर के दर्शन सेवंचित मत कीजिए। दूर से ही ईश्वर दर्शन! अस्पृश्यों की यह माँग भीजिन्हें अयोग्य प्रतीत होती है, वे वास्तविक अर्थ मेंअस्पृश्य हैं,फिर उन्हें चारों वेदमुखोद्गत क्यों नहो।

लोगों मेंपरस्पर अस्पृश्यता हो सकती है। ईश्वर के दर्शन करने में अस्पृश्यता कैसी ? भक्तों के दर्शन से देव भ्रष्ट होजाता है,यह तो कोरी मति भ्रांति है। सभी हिंदू देवताओं के दर्शन के अधिकारी हैं, क्योंकि दर्शनमात्र से जो भ्रष्ट होजाता है वह ईश्वर ही नहीं है ।

- श्रद्धानंद, सितंबर, १९२७

स्वराज्य के लिए ही संगठन आवश्यक है

कुछ सत्यहृदयी लोगों को संदेह हो जाता है कि जाति विषयक भावनाओं को प्रबलतम बनानेवाले इस संगठन के आंदोलन के कारण राष्ट्रीय भावना पर हानिकारक प्रभाव तो नहीं होगा ? हिंदू, मुसलमान आदि सभी धर्मों के तथा जातियों के लोग जब तक एकत्रित होकर राष्ट्र जीवन बने रहने के लिए अथवा उस जीवन को प्राप्त करने हेतु संग्राम करते हुए मरने के लिए तैयार नहीं हो जाते और जब तक स्वराज्य को प्राप्त करना असंभव प्रतीत होता हो, तब किसी भी प्रकार का हिंदी (हिंदी जाति विशिष्ट) आंदोलन चलाकर हिंदुस्थान की विभिन्न जातियों में वैरभाव उत्पन्न करने के प्रयास राष्ट्र के लिए घातक होंगे। स्वराज्य प्राप्ति के लिए संगठन विषयक आंदोलन को बंद कर देना ही बुद्धिमानी होगी। यह राजनीतिक दृष्टि से भी अत्यंत आवश्यक है। यदि कुछ समय तक मुसलमानों की सभी प्रकार की माँगें हमने पूरी कीं तथा उनकी सारी शर्तें मान लीं, तो हिंदू-मुसलमानों में एकता उत्पन्न होगी तथा स्वराज्य प्रस्थापित करना संभव होगा। इस महान् ध्येय-प्राप्ति के कारण हम लोगों का राष्ट्र इस प्रकार लाभान्वित होगा कि उसे प्राप्त करने हेतु किसी भी प्रकार का समझौता करना व स्वार्थ त्याग द्वारा उसका मूल्य चुकाना उचित होगा। अतः स्वराज्य-प्राप्ति के लिए हिंदू संगठन का आंदोलन बंद कर देना आवश्यक है. क्योंकि हिंदू मुसलमानों की एकता के बिना यह संभव नहीं होगा। राजनीतिक दृष्टि से भी वह हम लोगों के राष्ट्र के लिए हितकारक होगा।

इस प्रकार के संदेह से विचलित होनेवाले जो सत्यहृदयी लोग हिंदू संगठन पर उपर्युक्त आक्षेप करते हैं तब हिंदू संगठन के पक्षपाती तत्काल उत्तर देते हैं कि 'स्वराज्य-प्राप्ति के कार्य में संगठन बाधा उत्पन्न करता है, इस कारण वह त्याज्य है। ऐसा आप कहते हैं, परंतु आपकी यह धारणा मूलतः ही असत्य है। हम लोगों को स्वराज्य प्राप्ति से भी अधिक एकता की आवश्यकता है। हिंदुस्थान के अभिमानी नेतागण समय-समय पर यह बात लिखते रहते हैं कि 'स्वराज्य हिंदू-मुसलमानों की एकता पर निर्भर करता है, परंतु इस हेतु मुसलमान जो हिंदुओं के लिए विघातक शर्तें रख रहे हैं, उनको कदापि स्वीकार नहीं किया जाएगा। एक सहस्र वर्षों तक भी स्वराज्य प्राप्त न हो सकता तब भी ये शर्त मान्य नहीं की जाएँगी।

कभी-कभी कोई प्रश्न इस व्यग्रता से पूछा जाता है कि उस प्रश्न का उत्तर उसके हेत्वाभास के कारण ही अनुचित होता है। इसी प्रकार का एक प्रश्न पूछकर कारावासी पठानों को भ्रमित किया जाता है। कुछ विनोदी लोग किसी नवागत पठान से पूछते हैं, तुम पठान हो या मुसलमान ?' वह तत्काल उत्तर देता, 'पठान।' फिर तुम मुसलमान नहीं हो। यह सुनकर वह कुछ भ्रमित होता है तो आस-पास के लोग यह देखकर हँसने लगते हैं। पठान और मुसलमान होना कोई परस्पर विरोधी बातें नहीं हैं। अत: इस प्रश्न का वास्तविक उत्तर है, 'मैं दोनों हूँ। परंतु प्रश्न के हेत्वाभास के कारण भ्रमित होकर वह गलत जवाब देता है। बच्चे भी इस प्रकार का एक खेल खेलते हैं, प्रारंभ में पाँच-दस प्रश्न ऐसे पूछे जाते हैं, "तू पुरुष है कि स्त्री ?' इन सभी प्रश्नों में प्रथम पर्याय सच होता है, फिर उससे जब पूछा जाता है, "तू गर्दभ है कि गधा ?' वह कहता है, 'मैं गर्दभ हूँ।' धूर्ततापूर्वक प्रश्न का पूर्वार्ध समझने के बाद भी उसके मुख से अनायास ही निकल पड़ता है 'गधा'।

स्वराज्य चाहिए कि संगठन, यह प्रश्न भी इसी प्रकार के हेत्वाभास का एक दृषित उदाहरण है। इसी कारण संगठनवादी तत्काल उत्तर देते हुए कहते हैं कि स्वराज्य न भी प्राप्त हुआ तो कोई चिंता नहीं होगी। परंतु हम लोग संगठन का त्याग नहीं करनेवाले। अर्थात् 'स्वराज्य चाहिए अथवा संगठन ?' इस प्रश्न के हेत्वाभास के कारण ही 'स्वराज्य नहीं, संगठन चाहिए' यह असत्य उत्तर तत्काल दिया जाता है। इस प्रकार उत्तर देने में भूल हो रही है यह जानते हुए भी इस प्रश्न का उत्तर किस प्रकार टालना चाहिए, यह बात स्वराज्य तथा संगठन दोनों से ही उत्कट प्रेम करनेवाले बहुत से सत्यहृदयी लोगों को सहज समझ में नहीं आती है।

परंतु 'स्वराज्य चाहिए अथवा संगठन' का हेत्वाभासार स्पष्ट रूप से विवृत्त करने के पश्चात् उपर्युक्त उत्तर का विचार विभ्रम सहजतापूर्वक टाला जा सकता है। स्वराज्य चाहिए अथवा संगठन ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि इन दोनों में मूलतः कोई अंतर नहीं है। संगठन साधन है तथा स्वराज्य साध्य है। स्वराज्य अथवा संगठन यह आज की समस्या नहीं है। आज की जो स्थिति है उसमें संगठन के बिना स्वराज्य प्राप्त करना असंभव है। हम लोगों को संगठन तथा स्वराज्य-इन दोनों की आवश्यकता है, क्योंकि हम हिंदू लोगों को जिस प्रकार का स्वराज्य अभिप्रेत है वह हिंदू संगठन के अभाव में प्राप्त करना असंभव है। कुछ विचारशील देशभक्तों का ध्यान इस ओर पूर्व में ही जा चुका है। आज यह बात मध्याह्न के दिवस के समान प्रत्येक हिंदू के ध्यान में आ रही है।

हम लोग जिस स्वराज्य के लिए प्रयास कर रहे हैं, जिस स्वराज्य के लिए सन् सत्तावन के क्रांतियुद्ध के समय से सहस्रों क्रांतिकारी हिंदू बोरों ने सशस्त्र प्रतिकार किया तथा अपना जीवन अर्पित किया। फांसी पर लटक गए, अंदमान में सड़ गए, कारागृह में रहे, अकिंचन् बन गए। जिस स्वराज्य के लिए राष्ट्रीय सभी की स्थापना से लेकर असहकार के आंदोलन तक सैकड़ों नरम दल हिंदू नेताओं के साथ मिलकर निःशस्त्र प्रतिकार करते रहे तथा लोकमान्य तिलक से लेकर गांधीजी तक प्रयासरत रहे, वह स्वराज्य हिंदुस्थान देश का एक राष्ट्रीय स्वायत्त, लोकसत्ताक स्वतंत्र राज्य ही है। इस स्वराज्य में प्रत्येक स्त्री-पुरुष हिंदी नागरिक का जातिपंद निर्विशेष का स्वत्व सुरक्षित रखा जाएगा। प्रत्येक जाति को अपनी संख्या के अनुपात में जिन न्याय्य अधिकारों का उपभोग करते हैं, उन्हें समान रूप से प्रयोग करना संभव होगा। यह स्वराज्य केवल हिंदुओं का स्वराज्य नहीं होगा। इस पर अहिंदुओं का भी समान अधिकार होगा तथा प्रत्येक हिंदी नागरिक का भी होगा तथा प्रत्येक व्यक्ति अपना न्याय्य सत्त्व न त्यागते हुए रह सकेगा।

क्या इसी स्वरूप का स्वराज्य आप लोगों को भी अभिप्रेत है? फिर संगठन का ध्येय भी इसी प्रकार का स्वराज्य है। इस कारण 'संगठन अथवा स्वराज्य' यह वैकल्पिक प्रश्न असंगत है, यह बात प्रमाणित कही होती, परंतु स्वराज्य के लिए ही संगठन की आवश्यकता होती है यह बात तो प्रमाणित होती है।

स्वराज्य में हिंदू अथवा मुसलमान इस प्रकार का कोई धार्मिक भेदभाव नहीं होना चाहिए और उसमें योग्य अनुपात में न्याय्य स्वत्व की रक्षा की जानी चाहिए ऐसी आपकी धारणा है, तो इस स्वराज्य में प्रत्येक धर्मपंथ के स्वत्व की रक्षा की जाएगी। तब हिंदू धर्म का स्वत्व भी उचित प्रकार से तथा यथान्याय सुरक्षित होना चाहिए। हिदुस्थान की जनसंख्या में दो तृतीयांश संख्या जिन हिंदुओं की है, उनका स्वत्व यदि स्वराज्य के अन्य अत्यल्प अथवा अल्प अहिंदू समाज को स्वत्व विषयक अतिवादी माँगों के लिए बलि बना दिया जाए, उसे स्वराज्य के रूप में मान्यता नहीं देनी चाहिए। इस प्रमेय से एक दूसरा प्रमेय स्वयंमेव अनुमानित होता है कि इस प्रकार हिंदुओं के स्वत्व की अन्य अहिंदू समाज की अवास्तव तथा अनुपात से विसंगत होनेवाली माँगों के कारण हम लोग बलि नहीं देंगे। इसी के साथ हम लोगों के राष्ट्रबंधुओं की न्याय्य माँगों का प्रतिकार न करते हुए पंथ स्वातंत्र्य के जो अधिकार हम उपभोगना चाहते हैं उन्हें इन लोगों को भी उपभोगने देंगे। अत: प्रतिज्ञाबद्ध हिंदू संगठन इस स्वराज्य का विरोधी नहीं है। उसे प्राप्त करने के लिए वह अपने प्राणों की बाजी लगाकर प्रयासरत है। संगठन स्वराज्य के लिए हानिप्रद है, यह प्रश्न हेत्वाभास के कारण इतना दुष्ट हो चुका है कि संगठन किए बिना स्वराज्य संभव नहीं है, यह विपरीत कथन ही उसका उचित उत्तर हो सकता है। क्योंकि उपयुक्त विवरण के अनुसार वहाँ हिंदुओं का स्वत्व कम-से-कम अन्य लोगों के स्वत्व की तुलना में अबाधित रहेगा। वही स्वराज्य अभिप्रेत होने के कारण उसी उद्देश्य से प्रयासरत संलग्न हिंदू संगठन उसी स्वराज्य का एक अत्यंत अपकारक साधन है यह प्रमाणित होता है। संगठन का उद्देश्य सफल होते ही स्वराज्य की प्राप्ति होगी, क्योंकि यह उद्देश्य कोई अन्य उद्देश्य न होकर स्वयं स्वराज्य ही है।

परंतु स्वराज्य वही होगा, जिसमें हम हिंदुओं का स्वत्व स्थिर और अभंग रहेगा तथा अन्य राष्ट्रबंधुओं के साथ हमें सहनागरिकत्व का उपभोग करना संभव होगा। स्वराज्य प्राप्ति के लिए मुसलमानों से किसी भी शर्त पर एकता करनी चाहिए-इस भीरुतापूर्ण विचारधारा का हिंदू संगठन तिरस्कार करता है। खिलाफत जैसा मुसलमानों का शुद्ध धार्मिक आंदोलन तथा अन्य ऐसा कोई आंदोलन, जिसका मूल तत्त्व हिंदी राष्ट्रीय विचारों के लिए अत्यधिक घातक है, उसे भी केवल मुसलमानों को प्रसन्न करने हेतु अपनाया जाना हिंदू संगठन की दृष्टि से आत्मघातक प्रतीत होता है। हम लोगों के खलीफाओं से युद्ध करना हम लोगों के मुसलमान धर्म का विरोध करने के बराबर है। ऐसी धारणा राष्ट्रीय विचारों के लिए अत्यधिक घातक है। इस आंदोलन का मूलाधार यही धारणा है। यदि स्वातंत्र्य प्राप्ति के पश्चात् हिंदुस्थान और तुर्कस्थान में युद्ध होना है अथवा अन्य किसी देश-जैसे मोरक्को-जहाँ कोई खलीफा विद्यमान है, तब इसी तत्त्व से प्रस्फुरित हिंदी मुसलमान इसी तत्त्वरूपी कट्यार को हिंदुस्थान के पेट में घोंपते हुए तुर्कस्थान के अथवा मोरोक्को के पक्ष में सम्मिलित हो जाएगा। हिंदुस्थान के स्वराज्य के विरोध में वे सभी आपस में मिलकर विद्रोह करेंगे। इस प्रकार के राष्ट्रघातक तथा धर्मोन्मत्त आंदोलन के लिए हिंदुओं द्वारा लाखों रुपए व्यय किए गए तथा सैकड़ों लोगों को कारावास भोगना पड़ा। यह सहायता किस कारण? ऐसा करने पर मुसलमान संतुष्ट होंगे, इस कारण एकता होगी तथा इस एकता द्वारा स्वराज्य प्राप्त किया जा सकेगा। आज कहेंगे कि प्राचीन मसजिद के सामने प्रार्थना के समय बाजा नहीं बजाना, कल कहेंगे कि सारे समय बंदिस्त बने रहो तथा परसों कहेंगे- नई मसजिद के सामने भी बाजा बजाना बंद करो तथा उसके पश्चात् नगर के अधिकांश राजमार्गों पर मसजिदें बन जाने के कारण वाद्य बजाने का अपना अधिकार बिलकुल भूल जाओ। वाद्यों के कारण हम लोगों के नमाज अदा करने में बाधा उत्पन्न होती है, इसलिए वाद्य बजाने पर प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए। इसी प्रकार आप लोग अपने घरों में भी शंख,मंजरी, घंटा आदि जोरों से मत बजाइए। भजन भी सांधिक रूप में मत करो, क्योंकि हम लोगों के पड़ोसी के यहाँ अथवा मसजिद में नमाज अदा करते समय इससे हमलोगों की व्यग्रता भंग होती है। हम मुसलमानों से एकता करने के लिए इसका पालन करो। यह कोई कल्पना मात्र नहीं है। उत्तर हिंदुस्थान में सदैव इस प्रकार की शर्तें रखी जाती हैं ऐसे समाचार प्राप्त हो रहे हैं। हिंदुओं के घरों में बलपूर्वक प्रवेश कर इन शर्तों का पालन करने पर उन्हें बाध्य किया जा रहा है। बंगाल के गांवों में तो हिंदू बस्तियों में जाकर यह कहा जा रहा है कि एकता चाहते हो, तो कोई विशिष्ट कन्या मुसलमानों को देना आवश्यक है। कई स्थानों पर इसकी पूर्ति की गई है। उन विशिष्ट कन्याओं का बलात् अपहरण किया गया है। हिंदुओं को वे बस्तियाँ मार-पीट तथा आगजनी से ध्वस्त कर दी गई हैं। इसके समाचारद्धानंद में समय-समय पर प्रकाशित भी हुए हैं। यह अत्याचार हम लोगों को क्यों सहन चाहिए? इससे एकता होगी तथा एकता से स्वराज्य प्राप्त होगा। मलाबार में हुए जनसंहार पर हम लोगों को मौन धारण करना चाहिए। लारखान, बंगाल, कोहाट के सदैव होनेवाले राक्षसी दंगों का तथा धर्माधि और मूर्खतापूर्ण आचरण से उपजे करने का प्रतिकार कोई बात कहकर अथवा स्पष्ट रूप से धिक्कार करते हुए करना तो दूर, हिंदुओं को ही दोष देनेवाले अत्यंत असत्य और भीरुतापूर्ण निवेदन गांधीजी जैसों के द्वारा किए जाते हैं। यह किस उद्देश्य से? उस कारण एकता होगी तथा स्वराज्य प्राप्त होगा। हिंदुओं को भ्रष्ट करना मुसलमानों का तो धर्म ही है, उन्हें ऐसा करने दो, परंतु आप हिंदुओं के द्वारा शुद्धि करना उचित नहीं है। यदि ऐसा किया गया तो और न्यायालय द्वारा आपका अधिकार भी प्रस्थापित किया गया, तब भी हम लोग लारखाना सदृश आपके मस्तकों पर आघात करते हुए, आगजनी करते हुए दंगे करेंगे। यदि आपको एकता की आवश्यकता है तो यह सब आपको सहना होगा। हम लोगों को आज विधिमंडलों में पाँच स्थान अधिक दो। कल पचास दो तथा परसों सिंध जैसा कोई प्रांत हम लोगों को स्वतंत्र रूप से पृथक् करके दो। क्योंकि हम लोग मुसलमान हैं। हम लोगों को हिंदुओं से अधिक विशिष्ट अधिकार प्राप्त होने चाहिए, अन्यथा एकता नहीं होगी तथा एकता के बिना स्वराज्य भी प्राप्त नहीं होगा। इससे भी आगे की बात सुनते किसी भी हिंदू का रक्त क्रोध से उबलने लगेगा अथवा लज्जा के कारण जम जाएगा। ऐसी बात हमारे कानों में भाई है कि एकता के लिए हिंदुओं को मुसलमान धर्म को अंगीकार करना चाहिए।

यदि इस प्रकार की शर्तों पर स्वराज्य प्राप्त करना संभव होगा तो उस स्वराज्य को आग लग जाना ही उचित है। जिस जिह्वा ने इन शब्दों का उच्चारण किया है वह भी टूटकर गिर जानी चाहिए। जिस स्वराज्य के लिए हिंदुओं को मुसलमान बनना पड़े, उस स्वराज्य का दर्शन तक करना हिंदू संगठन को मान्य नहीं होगा, क्योंकि हिंदुओं के धर्म परिवर्तन से अथवा उपर्युक्त शर्तों का पालन हिंदुओं द्वारा किए जाने पर हिंदुओं को मुसलमानों के पूर्णतः अधीन होकर रहना पड़ेगा। यह किसी भी अर्थ में स्वराज्य नहीं होगा वह होगा एक मुसलमानी राज्य जहाँ स्वत्व अबाधित रह सकेगा, वहीं स्वराज्य होगा। जहाँ हम लोगों को अपने प्राणों से भी अधिक प्रिय हमारे स्वत्व, हमारे हिंदुत्व का त्याग करना पड़ेगा, वह स्वराज्य नहीं होगा। वह मुसलमानों का ही राज्य होगा। हम लोगों के स्वत्व के समान मुसलमानों को न्याय्य अधिकार प्राप्त होकर उनका स्वत्व-न्याय्य स्वत्व- जहाँ सुरक्षित बना रहेगा, ऐसे स्वराज्य को हम लोग अपनी निष्ठा अर्पित करेंगे। अपितु हिंदू संगठन का यही ध्येय है। परंतु प्रत्येक समय अपमान के कारण नतमस्तक होने पर बाध्य करनेवाली उपर्युक्त घातक व गर्वयुक्त शर्तों पर एकता व स्वराज्य भले ही पाप्त हो सकेगा, परंतु इस प्रकार से प्राप्त किए गए स्वराज्य का हम हिंदू लोग धिक्कार करते हैं। इस प्रकार की घातक और गर्वयुक्त शर्ते अपनी इस परतंत्र तथा पतित अवस्था में जो मुसलमान रखते हैं, तो उनकी शर्तों का पालन किए जाने के पश्चात् स्वराज्य प्राप्त होने पर जब मुसलमान सबल तथा स्वतंत्र हो जाएँगे, उस समय वे इन शर्तों से भी अधिक भयंकर शर्तें रखेंगे और हिंदुओं पर इससे भी भयंकर अत्याचार करेंगे। उस स्वराज्य को औरंगजेब की बादशाही का स्वरूप देने में भी उन्हें कोई हिचक नहीं होगी। मुसलमान बनकर जो प्राप्त होगा, वही यदि स्वराज्य कहलाता है तब इतने कष्टदायक प्रयास करने की आवश्यकता नहीं है। आज ईसाई धर्म स्वीकार कर तथा बिना शर्त दास्यता स्वीकारने के पश्चात् अंग्रेजो राज्य भी स्वधर्मी राज्य-स्वराज्य- ही होगा।

कदापि नहीं। इन शर्तों पर प्राप्त होनेवाला स्वराज्य तो क्या, हम लोग इंद्र का राज्य भी नहीं चाहेंगे। हिंदुओं के रूप में ही हम लोगों को स्वतंत्र होना है तथा हिंदुत्व की रक्षा भी करनी है। जहाँ हम लोगों का हिंदू स्वत्व सुरक्षित होगा, वही स्वराज्य कहलाएगा।

क्या इस हिंदुत्व का सौदा हम लोग करेंगे? शिवाजी तथा प्रताप, संग और पृथ्वीराज भी तो यहीं उपजे थे। पानीपत के युद्ध में क्या दो लाख हिंदू अकारण ही वीरगति को प्राप्त हुए थे? भाऊसाहब के हथौड़े के प्रहार से क्या दिल्ली का सिंहासन तोड़ा नहीं गया था? गुरु गोविंदसिंह के वीर पुत्रों को क्या दीवारों में चुनवाया नहीं गया था? इसका प्रतिशोध क्या वीरभद्र द्वारा नहीं किया गया? क्या हिंदुओं ने उस समय के विस्तृत मुसलमान साम्राज्यों पर विजय प्राप्त नहीं की थी? वे अपने पराक्रम के घोड़ों के पैरों तले टूटकर चकनाचूर हो चुके साम्राज्यों की धूली पर अटक से रामेश्वर पर्यंत नाचते हुए पहुंचे नहीं थे? जब तक इस इतिहास का एक पृष्ठ या एक पंक्ति, जहाँ तक कि एक स्मृति भी शेष है, तब तक हिंदू लोगों को इस प्रकार की अपमानास्पद तथा निर्लज्जता की शर्तें स्वीकार करने का कोई कारण नहीं है। मुसलमान यदि एकता चाहते हैं आप तभी आइए जहाँ हम दोनों लोगों का स्वत्व सुरक्षित रहेगा। उसी स्वराज्य की स्थापना करेंगे तथा साथ मिलकर रहेंगे। न चाहने पर आप लोग कहीं अन्यत्र जा सकते हैं। हम हिंदू लोग आप से एकता किए बिना भी जीवित रह सकेंगे। जिस प्रकार शिवाजी आपका साथ न मिलने पर भी जीवित रहे, हम हिंदू लोग अपने सामर्थ्य से आपके ही नहीं, अंग्रेजों की दास्यता से मुक्त होकर स्वराज्य स्थापित करने में सफल होंगे। जिस प्रकार ग्रीकों से मुक्त होकर यशोवर्धन ने स्वराज्य की स्थापना की थी। जिनकी सहानुभूति प्राप्त करने की आवश्यकता उसे प्रतीत नहीं हुई। वह शिवा हसन निजामी के नीच जाल में फँसा नहीं था, अथवा मोपलों की गुंडई से भयभीत होकर अपनी कन्याओं का सौदा करते हुए उसने एकता की कीमत नहीं चुकाई थी। उस चंद्रगुप्त तथा यशोवर्धन के हम हिंदू लोग वंशज हैं। हम लोग संगठित होकर, यदि प्रसंग आता है तब एकाकी युद्ध करते हुए, मरते हुए मुक्त होंगे, स्वतंत्र हो जाएँगे। हम संगठनवादियों का सिद्धांत है कि जिसमें स्वत्व अबाधित बना रहता है, वही स्वराज्य इष्ट है तथा हिंदू-मुसलमान एक हुए बिना वह प्राप्त नहीं किया जा सकता- यह नपुंसकता का महामंत्र भ्रामक है।

- श्रद्धानंद, ५ मई, १९२७

स्वतंत्रता-प्राप्ति के लिए संगठन आवश्यक है

प्रसंग आने पर हिंदू स्वयं अकेले ही स्वराज्य प्राप्त कर सकते हैं। स्वराज्य प्राप्ति हेतु संगठन की आवश्यकता है। इस लेख के पूर्वार्ध में हमने यह प्रमाणित कर दिया है कि स्वराज्य की उचित परिभाषा भौगोलिक नहीं है। वह सांस्कृतिक होना चाहिए। स्वराज्य का अर्थ केवल इतना ही नहीं किया जाना चाहिए कि वह हिंदुस्थान का राज्य है। हिंदुस्थान की भूमि हम लोगों की पितृभूमि व पुण्यभूमि है, अर्थात् वह हिंदू संस्कृति का सनातनी अधिष्ठान है। हम लोगों के हिंदू राष्ट्र की वह जननी है तथा हम लोगों की देखभाल करती है। इसी कारण वह प्रिय एवं पूजनीय है। यदि हिंदुस्थान की स्वतंत्रता व स्वराज्य में हम लोगों की हिंदू संस्कृति तथा हिंदू राष्ट्र की स्वतंत्रता और स्वराज्य सम्मिलित है, तभी यह संभव है कि हिंदुस्थान की स्वतंत्रता हम लोगों की स्वतंत्रता होगी तथा हिंदुस्थान का स्वराज्य हम लोगों का स्वराज्य होगा। अन्यथा हिंदुस्थान देश की स्वतंत्रता अथवा स्वराज्य हम लोगों की स्वतंत्रता अथवा स्वराज्य नहीं होगा। मुगलों के प्राचीन समय में भी हिंदुस्थान देश मुसलमानों की दृष्टि से स्वतंत्र ही था तथा जागतिक राष्ट्र मंडल द्वारा उसे उनका स्वराज्य भी मान लिया था, परंतु वह स्वराज्य हम लोगों का स्वराज्य नहीं था। वह एक मुसलमानी राज्य था। आज अंग्रेज भी हिंदुस्थान को ब्रिटिश साम्राज्य का एक अंग मानकर उसके अंतर्गत एक भू-भाग के रूप में तथा साम्राज्य की स्वतंत्रता को भाषा में वह एक स्वतंत्र प्रदेश है ऐसा कह सकते हैं तथा ऐसा कहना चाहेंगे भी, परंतु इस कारण वह स्वतंत्रता हम लोगों की स्वतंत्रता नहीं बन सकती। यदि निकट भविष्य में हिंदुस्थान देश अंग्रेजों की पकड़ से मुक्त होकर संयोगवश यहाँ के मुसलमानों के अधिकार में आ गया, तो उसे भौगोलिक दृष्टि से स्वतंत्र अथवा स्वराज्यशाली कहा जा सकता है। फिर भी वह हम लोगों को औरंगजेब के अधीन था तब जितना परतंत्र तथा परराज्यदलित प्रतीत होता था, उतना ही परतंत्र प्रतीत होगा। हम हिंदुओं का स्वत्व सुरक्षित न रहते हुए पराई संस्कृति के राक्षसी अत्याचारोंअथवा उससे भी अधिक भयानक अत्याचारों के तले हमारी हिंदू संस्कृति कुचल जाएगी। इस कारण यह परराज्य प्रतीत होगा। इतने अर्थ में ही नहीं अपितु सांस्कृतिक अर्थ में भी जो स्वतंत्र तथा स्वराज्य बन सकता है, वही स्वराज्य कहलाएगा उसमें हिंदुओं का स्वत्व सुरक्षित रहकर वृद्धिंगत हो सकेगा। वह स्वराज्य ऐसा होगा जिसके लिए हम हिंदू लोग पीढ़ियों से प्रयासरत व युद्धरत है। उस स्वराज्य में इस हिंदुस्थान में हिंदुओं को अपना हिंदुत्व न छोड़ते हुए हम लोगों की हिंदू संस्कृति का ध्वज फहराना संभव होगा। यही वास्तविक भारतीय साम्राज्य है। उस साम्राज्य में भारत की अन्य संस्कृतियों को भी न्याय्य अधिकारों का उपभोग करना संभव होगा तथा उनका स्वत्व भी उसी न्याय्य अनुपात में अबाधित रहेगा; परंतु हम हिंदुओं का स्वत्व भी किसी के सम्मुख नतमस्तक न होते हुए भी अन्यों के समान ही इस भारतभूमि में बना रहेगा। स्वराज्य की यही परिभाषा हम लोगों को अभिप्रेत है। स्वराज्य के लिए जब मुसलमानों से एकता करने हेतु संभ्रमित होकर इस स्वत्व की बलि देने की बात कोई करता है तब हम लोग उसका तीव्र प्रतिकार करते हुए उसकी भर्त्सना करते हैं। जहाँ स्वत्व सुरक्षित होगा वहीं स्वराज्य कहलाएगा। जिस स्वराज्य में मुसलमानों की हठधर्मिता के कारण हिंदुओं के स्वत्व की बलि देकर एकता प्राप्त करने में सफलता प्राप्त होती है, वह स्वराज्य नहीं होगा। वह स्वराज्य न होकर मुसलमानों का राज्य है। वह हम लोगों के लिए अंग्रेजी राज्य से भी अधिक हानिकारक तथा घृणित प्रतीत होता है, इस प्रकार की एकता व स्वराज्य का हम लोग शतशः धिक्कार करते हैं।

परंतु अनेक सत्यहृदयी लोग जब इस बात पर विचार करते हैं तब उनकी धारणा कुछ इस प्रकार की बन जाती है कि यदि हम लोग हिंदू स्वत्व के लिए मुसलमानों को अहंकारपूर्वक बात नहीं कहने देते और हम लोगों ने मुसलमानों को क्रोध आने पर भी शुद्धि संगठन आदि आंदोलन बंद नहीं किए तब एकता में बाधा पड़ जाएगी। किसी भी रूप से स्वराज्य प्राप्त करना असंभव होगा। अतः इस दोहरे संकट से मुक्ति का मार्ग निकालना चाहिए। एकता करने से हिंदुस्थान को मुसलमान राज्य बनाने की आकांक्षा पूर्ण होने तक तथा हिंदुस्थान में मुसलमान राज्य स्थापित हुए बिना मुसलमानों को संतोष नहीं होगा। हम लोगों को उनके अधीन रहना पड़ेगा। एकता न हुई तो स्वराज्य प्राप्त करना असंभव होकर हम लोगों को अंग्रेजों के पाँव तले रहना पड़ेगा। इसके लिए क्या उपाय करना चाहिए।

वही उपाय बताना इस लेख का उद्देश्य है। उपर्युक्त विवेचन के अनुसार हम लोगों के जिन हिंदू बंधुओं को यह दोहरा संकट भयग्रस्त कर रहा है, उनकी विचारधारा में एक हेत्वाभास यह है कि हिंदू-मुसलमानों में एकता न होने परस्वराज्य अथवा स्वतंत्रता प्राप्त करना असंभव है। यह बात वे मानकर ही चलते हैं। इस हेत्वाभास के पाश से अपनी बुद्धि को मुक्त करने में ही इस दोहरे संकट से मुक्त होने का उपाय भी विद्यमान है।

यह कहना गलत नहीं है कि यदि मुसलमानों के हृदय में भी राष्ट्रीय भावना प्रबल होती और वे भी समान अधिकारों से संतुष्ट रहते तथा हम लोगों के स्वत्व का त्याग न करते हुए केवल हिंदुस्थान के राष्ट्रीय स्वराज्य की स्थापना करने के कार्य में वे हम लोगों के साथ प्रयास करते, तो इस एकता के कारण स्वराज्य शीघ्र प्राप्त होता। वह बहुत सुलभ था। परंतु यदि अंग्रेज भी स्वयं ही यहाँ से चले जाते अथवा हिंदुस्थान को परतंत्रता में डालने यहाँ आते ही नहीं, यह तो उससे भी अच्छी बात होती। परंतु अब प्रश्न यह नहीं है कि क्या होता तो उत्तम होता, वह यह है कि आज की स्थिति में कोई बाधा न होना। परंतु बाधा तो उत्पन्न हो चुकी है। इसका सामना किस प्रकार किया जाना चाहिए, यही विचारणीय प्रश्न है।

अब यह एक स्वयंसिद्ध तथ्य है कि हिंदुस्थान का राज्य त्यागकर अंग्रेज स्वयं वापस जानेवाले नहीं हैं। उसी प्रकार मुसलमान भी हिंदुस्थान में इसलामी राज्य की स्थापना करने की अपनी राक्षसी महत्त्वाकांक्षा पालकर हिंदुओं को मुसलमान बनाने का प्रयास त्यागनेवाले नहीं है। किसी एक व्यक्ति का यह प्रश्न नहीं है, संपूर्ण समाज का है। मुसलिम समाज तुष्टीकरण के असीम प्रयास करने पर भी ईंधन के साथ वृद्धिंगत होनेवाली आग के समान है। आप जितनी मृदुता दिखाएँगे, उतना ही अधिक लाभ उठाने के प्रयास करेगा। हत्या, स्त्रियों का अपहरण, दंगे करना, गाँव के गाँव ध्वस्त करना, बलात्कार करना, धर्म परिवर्तन कराना तथा सर्वमान्य हिंदू नेताओं के प्राण हरण करने के लिए उसके समीप यमदूतों जैसा विचरण करना, धमकियाँ देना आदि साधनों द्वारा हिंदू संस्कृति को नष्ट करने के हिंस्र-अत्याचारी कृत्य हर दिन हिंदुस्थान में मुसलमानों द्वारा किए जा रहे हैं। किसी भी मुसलमान संस्था ने अथवा समाज ने इन बातों को निष्कपट निषेध नहीं किया है। ऐसा करना उनकी विपर्यस्त धर्मांधता के कारण संभव नहीं है। अतः यदि हिंदू और मुसलमान एकजुट होते तो कितना भला होता, यह कहना इस वास्तविकता को अनदेखा करना होगा। यही भ्रांतिपूर्ण लालसा 'अंग्रेज यदि हिंदुस्थान में आते ही नहीं तो ?' इस स्तुतिपूर्ण भ्रांति के समान त्याग देना चाहिए।

जिस स्वराज्य में हिंदुओं का स्वत्व अक्षुण्ण रहेगा, उस स्वराज्य की स्थापना हेतु मुसलमान हम लोगों का साथ नहीं देंगे, परंतु हिंदुओं को स्वराज्य की स्थापना तो करनी ही है। जब तक केवल एक भी हिंदू जीवित रहेगा तब तक यह पितृपरंपरागत आकांक्षा, यह राष्ट्रीय ध्येय नहीं मरेगा। फिर इसके लिए केवल एक ही उपाय है। हिंदूओं को स्वबल से ही उसे प्राप्त करना चाहिए। क्या यह असंभव है? हाँ, आज के हिंदू समाज की आत्मविस्मृत असंगठित अवस्था में यह असंभव कदाचित् नहीं होगा, परंतु ऐसा करना पर्याप्त रूप में दुर्घट होगा। परंतु यदि यह हिंदू समाज तथा महान् हिंदू राष्ट्र संगठित और आत्मावलंबी बन जाते हैं तब वह दुर्घट कार्य भी साध्य हो सकता है, इसीलिए ही हम कहते हैं कि स्वराज्य के लिए ही संगठन आवश्यक होता है, क्योंकि संगठित हिंदू राष्ट्र प्रसंग आने पर-और ऐसा प्रसंग उत्पन्न हो चुका है- अपने ही बल पर एकाकी लड़कर भी स्वराज्य प्राप्त कर सकेगा।

"यह किस प्रकार प्राप्त होगा। इस विषय पर चर्चा करने से पूर्व हम यह देखना चाहेंगे कि इस विश्व में जिन-जिन देशों ने स्वतंत्रता अथवा स्वराज्य की स्थापना की तो उन्होंने अपनी स्वतंत्रता किस बल के आधार पर प्राप्त की ?

इटली, अमेरिका, जर्मनी अथवा शिवकालीन महाराष्ट्र ने स्वतंत्रता के लिए युद्ध किए उस समय क्या उन देशों का हर नागरिक देशभक्त स्वतंत्र होने का इच्छुक बनकर तथा सारा राष्ट्र एकजुट होकर एक साथ युद्ध में उतर पड़ने के लिए तत्पर था? कदापि नहीं।

परतंत्रता के समय किसी भी राष्ट्र में संपूर्ण एकता होना संभव नहीं है। जिसराष्ट्र का प्रत्येक नागरिक स्वतंत्रता की इच्छुक तथा स्वतंत्रता के लिए स्वार्थ त्याग करनेवाला होता है वह राष्ट्र परतंत्र नहीं होता। एकता की संभावना स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् ही अधिक रहती है। परतंत्रता के समय राष्ट्र में फूट रहती है। दास्य सुलभ कापुरुषता, राष्ट्रद्रोह तथा अव्यवस्था आदि इन दुर्गुणों का संपूर्ण उच्छेद परतंत्रता के समय में किसी भी राष्ट्र में नहीं हो सकता। फिर वे राष्ट्र किस बल पर स्वतंत्र हुए? अखंड एकता अथवा बहुमत के बल पर नहीं; तो उन राष्ट्रों के प्रभावी अल्पमत के बल पर जो कुछ लोग संगठन व वीरता के बल पर कर्तव्यसमर में उतर पड़े तथा कृतिनिश्चय से प्रयासरत रहे, उन अल्पसंख्यक लोगों ने अपने-अपने राष्ट्र को स्वतंत्र कराया है। बहुत से उदासीन थे, कुछ विरोधी भी थे, कई शत्रुओं का साथ देने लगे थे। परंतु उन सहस्रों में एक ही सही, अपना सर्वस्व त्यागने का निश्चय कर उठा तथा उसने अन्य निश्चयी लोगों के साथ लड़ते हुए राष्ट्र के लिए स्वतंत्रता की प्राप्ति की। अमेरिका में भी सैकड़ों लोग अंग्रेजों के पक्षपाती थे। इटली में तो एक प्रांत दूसरे प्रांत से लड़ता था। नेपल्स का संहार पिडमॉट पिडमॉट का और रोम संहार कर रहे थे, फिर भी इस यादवी तथा परशत्रु के सम्मुख, इन दोहरे संग्राम में वहाँ के कुछ स्वातंत्र्य वीरों ने उन राष्ट्रों को स्वतंत्र राष्ट्र बनाया। शिवाजी ने जब अपना आंदोलन प्रारंभ किया था तब क्या वहाँ का प्रत्येक मनुष्य एकता में विश्वास करता था? उस समय मुसलमान शत्रुओं के अतिरिक्त हिंदुओं में ही नहीं, मराठों में भी उसका विरोध करनेवाले थे। सहस्रों की संख्या में लोग उदासीन थे। प्रत्येक व्यक्ति अपने काका-मामा का भी साथ नहीं देता था फिर दूसरों की बात क्या करें ? परंतु उतने बहुमत के विषय में विचार न करते हुए अल्पमत को संघटित किया गया तथा इस बल के आधार पर उसने कार्य कर दिखाया। तब यह सिद्धांत है कि सारे राष्ट्र में दास्यता का विष कई पीढ़ियों से शरीर के अंदर तक पहुंच चुकने के बाद अचानक स्वातंत्र्यप्रवण नहीं हो सकता। यादवी तथा परशत्रुओं से एक समयावच्छेदन से लड़ते हुए -

'अर्थ वा साधयेत्, देहं वा पातयेत्'

ऐसी निष्ठा रखनेवाला, यथाप्रमाण अल्पसंख्यकों का एक संघ स्वतंत्रता संग्राम में कूदकर राष्ट्र को स्वतंत्र कराता है।

फिर बहुसंख्यक भी अनुकूल बन जाते हैं, अर्थात् अल्पसंख्यक बहुत अल्प होने से भी सफलता प्राप्त नहीं होती है। इसीलिए हम लोग यथाप्रमाण अर्थात् जो शत्रु संख्या होगी उस अनुपात में होने से कार्य सफल हो सकता है।

हिंदुस्थान के स्वतंत्रता संग्राम के लिए भी इसी नियम का ध्यान रखना चाहिए। तीस करोड़ लोग एक होने के पश्चात् ही हम लोग स्वातंत्र्य प्राप्त करेंगे, ऐसा कहना उसी प्रकार असंभव तथा हास्यास्पद होगा जब कुछ लोग कहते हैं कि घर-घर में चरखा चलाने से हम लोग एक वर्ष की अवधि में स्वराज्य प्राप्त कर लेंगे। जब भी हिंदुस्थान स्वतंत्र होगा, तब बहुसंख्यक स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए स्वार्थ त्याग करने हेतु उद्यत थे, इसलिए स्वराज्य प्राप्त नहीं हुआ है, क्योंकि परतंत्र देश के बहुसंख्यक लोग सदैव दरिद्री होते हैं तथा राष्ट्रीय दृष्टि से निर्बल, पापी, दास्य प्रवण और असंगठित होते हैं। किसी संगठित, निर्भय तथा कृतनिश्चयी वीरों के अल्पसंख्या का संघ ही- यथाप्रमाण अल्पसंख्यक संघ ही-अन्य लोगों के लिए न रुकते हुए, शत्रु का सामना करते हुए जब हिंदू स्वातंत्र्यार्थ कर्तव्यसमर में कूद पड़ेगा तभी हिंदुस्थान स्वतंत्र होगा।

अब इस प्रकार के अल्पसंख्यकों को किस जाति या पंथ में संघटित करना अधिक आसान है? मुसलमानों में या हिंदुओं में? कभी कोई मुसलमान राष्ट्रीय वृत्ति का हो सकता है, परंतु एक सहस्र मुसलमानों में अरेबिया को पुण्यभूमि माननेवालों की संख्या निश्चित रूप से अधिक होगी। खलीफा के साथ हिंदुस्थान के युद्ध करने का प्रसंग उत्पन्न होने पर हम लोग खलीफा के पक्ष में ही लड़ेंगे, क्योंकि वह हम लोगों का धर्म है, अफगानिस्तान के नेतृत्व में भारत पर मुसलिम सत्ता स्थापित होने की बात इसलाम के गौरव की बात होगी तथा हम मुसलमानों के ध्वजों पर हिंदुओं की ओर से आघात नहीं करेंगे। हिंदू का अपहरण यदि मुसलमान किन्हीं मोपलों - द्वारा किया जाता है तब भी इस प्रकार उन्हें अपह्त कर उनपर अत्याचार करनेवालों को हम लोग गौरवान्वित करेंगे और यदि उन कन्याओं में से किसी कन्या को पुन: हिंदुओं द्वारा हिंदू धर्म में वापस ले जाने के प्रयास किए गए तो लारखाना के समान हम लोग की संपूर्ण बस्ती वीरान कर देंगे। ऐसा कहनेवाले एक सहस्र में से नौ सौ निन्‍यानबे होंगे। इसका अनुभव हमें हो चुका है। मुसलमानों के शास्त्र के अनुसार विश्व के अमुसलमानी क्षेत्र में हिंदुस्थान पड़ता है। उसमें जबतक हिंदू निवास कर रहे है तबतक अथवा जबतक उनपर मुसलमानों की सत्ता नहीं हो जाती उस समय तक वह उन लोगों का देश नहीं बन सकता। यदि इन सारे हिंदुओं को मुसलमानी सत्ता के अधीन किया जाता है, उस समय तक वह मुसलमानों को पवित्र भूमि नहीं बन सकता तथा इस हिंदुस्थान से वे लोग स्वराज्य के रूप में प्रेम नहीं कर सकते। यह वास्तविकता है।

अब हिंदुओं की स्थिति देखिए। उनके सहस्र लोगों में नौ सौ निन्यानबे की पितृभूमि व पुण्यभूमि हिंदुस्थान ही है। जन्मतः ही उससे प्रेम करने की शिक्षा उसे प्राप्त हुई है। राष्ट्र की कल्पना करते ही वे स्वयं ही कहेंगे कि यही हम लोगों का राष्ट्र है। यही हम लोगों का देश है। यह भी एक वास्तविकता है। इसमें कुछ भी काल्पनिक नहीं है।

अतः हिंदुस्थान की स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए कृतनिश्चयी, विश्वासार्ह तथा सुसंघटित अल्पसंख्यक राष्ट्रवीरों का दल उत्पन्न करना होगा, तो वह अल्प प्रयास करते हुए सापेक्षतः अल्प परिश्रम से कहाँ उत्पन्न किया जा सकता है? मुसलमानों की धर्मांधता दूर करने के लिए कितने भी प्रयास किए गए, फिर भी वे जब तक मुसलमान हैं तब तक हिंदूभूमि उनकी पुण्यभूमि नहीं बन सकती। उनकी प्रीति सदैव द्विधा ही होगी। हिंदू जब तक हिंदू बना रहेगा तब तक उसे ही पितृभूमि एवं पुण्यभूमि कहेगा। उसकी धर्मांधता के कारण उसकी राष्ट्रप्रीति उत्कट ही होगी। हिंदू राष्ट्र ही हिंदुस्थान का प्रमुख आधार है। हिंदुस्थान का ही नहीं अपितु हिंदू राष्ट्र के जीवनगाथा का प्रमुख प्रवाह हिंदूजाति है। जिस प्रकार तुर्कस्थान में तुर्क जाति तथा अमेरिका में एंग्लो सेक्सन, मुसलमान, पारसी, यहूदी आदि हम लोगों के बंधुओं की संस्कृति के प्रवाह भविष्य में उससे मिल जाते हैं; परंतु वे जिस जीवनगंगा के उपांग हैं, उनके मिलन से पूर्व अथवा वे शुष्क हो जाने के पश्चात् भी हिंदूजाति यही हिंदुस्थान की राष्ट्रगंगा का प्रमुख जीवन था तथा भविष्यमें भी रहेगा। अतः इस हिंदूराष्ट्र को स्वतंत्रता प्राप्त हो, इस कारण अन्य विष्ठा से प्रयास करनेवाली वह यथाप्रमाण अल्पसंख्या इस हिंदूजाति में ही उत्पन होना अधिक संभव है तथा शीघ्रातिशीघ्र साध्य होगा, यह सत्य सूर्य प्रकाश के समान स्पष्ट है।

इस अर्थ में इस प्रकार की कृतनिश्चयी अल्पसंख्या उत्पन्न करने हेतु जो प्रयास करने होंगे वे हिंदूजाति में विशेष रूप से किए जाने चाहिए। अन्य किसी भी जाति का अथवा हिंदी राष्ट्र के किसी भी अहिंदू घटक का अकारण ही धिक्कार करके नहीं तथा उसकी अन्याय्य मृगया करके नहीं; परंतु इस कारण कि हिंदी राष्ट्र के हितार्थ जिस किसी जाति में से अधिक-से-अधिक तथा शीघ्रातिशीघ्र सैनिकों की भरती करना संभव हो, उसी जाति में से उन्हें भरती कर लेना चाहिए। यह राष्ट्रीय दृष्टि से अपरिहार्य कर्तव्य है। सर्वप्रथम हिंदूजाति में स्वातंत्र्य वीरों को सेना बनाने के लिए प्रचंड जागृति तथा संगठन करने की आवश्यकता है। यह न्याय, राजनीति तथा व्यवहारपटुता की दृष्टि से भी उचित है।

प्रत्येक देश को परतंत्रता से मुक्त कराने का कार्य अंततः वहाँ के कृतनिश्चय तथा शक्तिशाली अल्पसंख्यकों की यथाप्रमाण सेना को ही करना पड़ता है। इस प्रकार के स्वातंत्र्य वीरों की अल्पसंख्या हिंदी राष्ट्र की विशिष्ट अवस्था में हिंदूजाति में ही, सापेक्षतः अल्प प्रयास से तथा अधिकृत शीघ्रता से उत्पन्न एवं सुसज्ज करना संभव होगा। इस प्रकार उसे उत्पन्न करने के लिए संगठन प्रयासरत है। इसीलिए हम कहते हैं कि प्रसंगोपात हिंदू अकेले भी युद्ध कर स्वतः स्वातंत्र्य एवं स्वराज्य स्थापित कर सकते हैं। यह एक सत्य है। अत: हिंदू संगठन स्वराज्य का ही एक प्रभावी साधन है, स्वराज्य के लिए वह आवश्यक ही है।

खड्ग,तुम्हारी विजय हो!

'नैतिक कृत्य किसे कहना चाहिए' इस विषय की चर्चा विस्तारपूर्वक नहीं की जा सकती, क्योंकि यहाँ स्थल तथा काल का अभाव है। नीति का शास्त्र आत्मस्फूर्ति, साक्षात्कार अथवा व्यावहारिक सुविधा से किसी भी तत्त्व पर अधिष्ठित हो, उसका व्यावहारिक पक्ष जिसे सभी नीतिशास्त्रवेत्ताओं ने मान्यता प्रदान की है, तथा जिसके द्वारा नीति व अनीति किसे कहना चाहिए? इस बात का निर्णय किया जाता है, वह कसौटी व्यावहारिक बातों पर अधिष्ठित की गई है। इसके अनुसार मानवी जीवन के लिए जो विचार अथवा आचार उपकारक है उन्हें नीति अथवा सद्गुण कहा जाना चाहिए तथा इसका विरोधी जो होगा, उसे अनीति अथवा दुर्गुण समझना चाहिए। यही न्याय सभी नीतिशास्त्रवेत्ताओं ने मान्य किया है, इसका अर्थ यही है कि नीति की कल्पना प्रमुख रूप से मानवी जीवन पर ही अधिष्ठित है। इस पूर्णत: व्यावहारिक तथा आधारभूत कसौटी के अनुसार जिस अहिंसावाद में अन्याय्य आक्रमण के विरोध में किया जानेवाला सशस्त्र प्रतिकार भी अन्याय्य निरूपित किया जाता है, अहिंसा का वह तत्त्वज्ञान पूर्णतया अव्यवहार्य, मानव जीवन के लिए घातक, अतः पूर्णतः अनीतिमय है, ऐसा ही मानना चाहिए। छोटा बालक निद्राविहीन हो और वहाँ कोई साँप अथवा पागल कुत्ता घुस आए, तो आप उसे मार सकते हैं। परंतु आप उसे जान से नहीं मारते और उसे अपनी आत्यंतिक अहिंसा के तत्त्वज्ञान से प्रोत्साहित करते हैं। आपके कृत्य से वह साँप अथवा पागल कुत्ता मनुष्यों को डसकर उनके प्राण लेता है। अतः एक साँप अथवा कुत्ते की जान बचाकर आप अनेक मनुष्य प्राणियों की जान बचाने का अवसर खो देते हो तथा साँप अथवा कुत्ते को अपनी सुविधानुसार अनेक मानवों की जान लेने हेतु स्वतंत्र रहने देते हो। इस कारण आप दोहरे पापों के धनी बन जाते हैं। यदि आपने उसी समय कुत्ते अथवा साँप को मार डाला होता तो मनुष्य का अंत नहीं हुआ होता। किसी के भी जीवन का किसी भी समय वध नहीं करना चाहिए, इस तत्त्व के विरोध में आपने आचरण किया, यह पाप आपने किया। इस एकमात्र उदाहरण से आत्यंतिक अहिंसा का तत्‍वपूर्णत: अव्यवहार्य मानवी जीवन के लिए घातक तथा इसी कारण पूर्णतः अनीतिकारक है- यह प्रमाणित होता है ।जो बात व्यक्तिगत रूप से उपयोगी है वह राष्ट्र के लिए भी उचित है। इस बात का भी ध्यान रखना आवश्यक है कि जो धर्म अनत्याचार, अहिंसा आदि का असीमित रूप से गुणगान करते हैं, उन्हें भी इस नियम के अपवादों से मान्य करने की आवश्यकता हुई है। किसी भी प्रकार के अन्याय अत्याचारों का यदि सशस्त्र प्रतिकार किया जाता है तो उसका निषेध नहीं करना चाहिए। इस प्रकार से निषेध करना सच्ची अहिंसा का गुण नहीं हो सकता ।

मर्यादित अहिंसा एक गुण है : आत्यंतिक अहिंसा पाप है।

तथापि मर्यादित अहिंसा संपूर्ण मानवी जीवन के लिए अत्यधिक उपकारक होने के कारण वह एक महत्त्वपूर्ण गुण है; हम लोगों का व्यक्तिगत व सामाजिक जीवन उसी पर निर्भर करता है। अपितु हम लोगों की सभी सुख-सुविधाएँ उसी पर आधारित है, परंतु किसी भी समय या प्रसंग में वह अनीतिकारक है, अत: उसे त्याज्य मानना चाहिए। जिन नीति तत्त्ववेत्ताओं ने समयादि स्वरूप की अहिंसा को एक महत्त्वपूर्ण गुण माना है, उन्हीं ने आत्यंतिक अहिंसा को त्याज्य मानकर उसका निषेध भी किया है।

जैन धर्म की अहिंसा गांधीजी से भिन्न है!

बौद्ध तथा जैन धर्मों ने अहिंसा धर्म का जिस प्रकार प्रतिपादन किया है वह गांधीजी द्वारा प्रतिपादित सभी स्थितियों में सशस्त्र प्रतिकार का निषेध करनेवाली आत्यंतिक अहिंसा से भिन्न है, विरोधी है। जिन जैनों ने राज्य स्थापित किए, वीर तथा वीरांगनाओं को जन्म दिया, वे समरभूमि पर शस्त्रों की सहायता से ही लड़े और जिन जैन सेनापतियों ने सैन्य का संचालन किया उनका जैन आचार्यों द्वारा कहीं पर अथवा किसी समय भी निषेध नहीं किया गया, यही एक तथ्य इस बात का प्रमाण है कि उनकी अहिंसा गांधीवादी कुत्सित अहिंसा से भिन्न है। अपितु अन्याय्य आक्रमण का सशस्त्र प्रतिकार करना केवल न्याय्य ही नहीं है, वह आवश्यक भी है। यह बात जैन धर्म ने भी प्रकट रूप में प्रतिपादित की है। यदि कोई सशस्त्र तथा अतिरेकी व्यक्ति किसी साधू का वध करना चाहता है, तो साधू के प्राण बचाने के लिए उस उग्रवादी व्यक्ति को मार डालना चाहिए। इस प्रकार की हिंसा एक प्रकार की अहिंसा ही होती है, ऐसा मानकर जैन धर्मग्रंथ उसका समर्थन करते हैं। 'मनुस्मृति' के कथन के समान जैन धर्म ग्रंथों की भी यही मान्यता है कि इस हत्या का पाप जो मूलतः ही हत्या करता है, उसी के लिए पापी माना जाता है। हत्या करनेवाले का वध करनेवाला पापी नहीं होता। 'मन्युस्तन् मन्युमर्हति'। भगवान् बौद्ध ने भी इसी प्रकार का उपदेश दिया है। एक बार किसी टोली के लोग उनके पास जाकर उनसे इस बात की अनुमति माँगने लगे कि अन्य टोली के लोगों ने उन पर आक्रमण किया है, इसलिए ये उनका सशस्त्र प्रतिकार करना चाहते हैं। इसके लिए आप अनुमति दीजिए। भगवान् बौद्ध बोले, 'सशस्त्र आक्रमण का प्रतिकार करते समय क्षत्रियों का युद्ध करना उचित है। इस प्रकार उन्हें सशस्त्र प्रतिकार करने की अनुज्ञा प्रदान की। यदि वे सत्कार्य के लिए सशस्त्र युद्ध करेंगे तो वे पापी नहीं होंगे।

मनुष्य की संरक्षक तलवार

आप इसे प्रकृति का नियम कहिए अथवा ईश्वर की इच्छा मानिए, परंतु प्रकृति में आत्यंतिक अहिंसा का कोई स्थान नहीं है। यह पूर्ण रूप से सत्य है, यदि इस प्रकार की स्थिति नहीं होती तो मानव प्राणी जीवित नहीं रहता। अधिक से-अधिक किसी कीटक के समान विश्व में अपनी जान की रक्षा करता रहता, परंतु उसने अपने मूल सामर्थ्य को कृत्रिम शस्त्रों का निर्माण करके अधिक शक्तिशाली बनाया, जिसके कारण उसे आज की अवस्था प्राप्त हो सकी है। भौतिक शास्त्र के अनुसार जब मनुष्य जीवन अस्तित्व में आया था, तब वह अत्यंत क्रूर पशुओं से तथा रेंगनेवाले जीवों से घिरा हुआ था। उनकी तुलना में केवल व्यक्ति के रूप में वह अत्यधिक दुर्बल प्राणी था। जिस समय वह प्रथम उत्पन्न हुआ तब उसके आस-पास के जंगलों में जीने के प्रयास करनेवाले सभी प्राणियों की तुलना में शरीरतः वह अत्यधिक दुर्बल था। उसके शरीर में सींग अथवा तीक्ष्ण नाखूनों का अभाव था। हम लोग गाय को स्वभावतः एवं शरीर से भी अत्यंत निरुपद्रवी तथा स्वरक्षण करने के लिए असमर्थ प्राणी मानते हैं। तथापि यदि गाय और मनुष्य में संघर्ष हुआ, तो ऐसी निरुपद्रवी गाय भी मनुष्य के पेट में सींग घोंपकर उसे मार देगी, परंतु मनुष्य कुछ भी नहीं कर सकेगा। मनुष्य की महानता इसी बात में है कि अपने शारीरिक अंगों को समर्थ करने और शक्ति प्राप्त करने हेतु उसने कृत्रिम शस्त्रों का निर्माण किया है। इसी कारण वह सभी पशुओं पर विजय पा सका। शेर, सिंह, हाथी, भेड़िया, साँप, कछुआ आदि सभी पर अधिकार करते हुए उसने पानी तथा जमीन पर अपना प्रभुत्व स्थापित किया। अत्यंत प्राचीन युग से लेकर लौहयुग तक मनुष्य अन्यों पर अपना अधिकार जताते हुए अपना विस्तार कर सका और इस पृथ्वी का स्वामी बन गया। यह शक्ति केवल शस्त्रों की सहायता से ही संभव हुई। स्वयं की रक्षा करने हेतु बनाई तलवार ही उसकी सही अर्थ में रक्षणकर्ती बन चुकी है।

प्रकृति के नियम ही शाश्वत होते हैं

आत्यंतिक अहिंसावाद में विश्वास करते हुए किसी भी प्रकार के आक्रमण का सशस्त्र प्रतिकार करने का निषेध करना महात्मा पद का अथवा साधुता का अभिलक्षण नहीं है। वह केवल मिथ्यावाद व मुर्खता का लक्षण है । यही बात पशु जगत् से लड़ने के लिए तथा मानवों के आपस में लड़ते हुए जीवित रहने के लिए उपयोगी थी। किसी टोली का अन्य राष्ट्र के साथ संग्राम इसी बात का प्रमाण है। इतिहास के हर पृष्ठ पर एक ही बात प्रमाणित हो चुकी है कि जो राष्ट्र सैनिक दृष्टि से समर्थ होंगे, वे ही जीवंत रह सकेंगे तथा जो इस दृष्टि से दुर्बल होंगे, वे दास्यता में पड़ जाएंगे अथवा उनका नाम अथवा निशान भी शेष नहीं रहेगा। एक नया तत्वज्ञान हम प्रसृत करनेवाले हैं, ऐसा कहना भीरुतापूर्ण है। आप कदाचित् इतिहास में कुछ नई चीज का अंतर्भाव कर सकोगे, परंतु प्रकृति के नियमों में रत्ती भर भी परिवर्तन नहीं कर सकोगे। यदि मनुष्य ने शेरों और भेडियों को ऐसा आश्वासन दिया कि हम लोग पूर्ण रूप से अहिंसा का पालन करते हुए किसी भी प्राणी की हत्या नहीं करेंगे तथा शस्त्रों का प्रयोग नहीं करेंगे तो ये भेडिए और शेर भी आपके मंदिर और मसजिदें, आपकी संस्कृति, आपके लहलहाते खेत, आपने बनाए हुए आवास और आश्रम आदि को ध्वस्त करते हुए बारह वर्ष के समय में साधु तथा पापियों का भोजन कर डालेंगे। निसर्ग का यही नियम है। अत: इस प्रकार का आत्यंतिक अहिंसा का, मानव जीवन के लिए घातक सिद्ध होनेवाले आक्रमण का सशस्त्र प्रतिकार मत कीजिए, ऐसी शिक्षा देनेवाला तत्त्वज्ञान कितना अनीतिपूर्ण तथा पापकारक है यह क्या अलग से कहना होगा?

खोखली कल्पना

तथापि आश्चर्य की बात यह है कि जो लोग आत्यंतिक अहिंसा के तत्त्वज्ञान को अव्यवहार्य समझते हैं तथा इसी कारण वे उसका निषेध भी करते हैं। वे लोग कहते हैं कि हम व्यवहारी लोगों के लिए यह तत्त्वज्ञान अव्यवहार्य है, तब भी यह मूलत: महत्त्वपूर्ण नीति का लक्षण है तथा जो कोई इस तत्त्व को अंगीकार करता है तो वह महात्मा धन्य है। उसमें श्रेष्ठ मानव के सभी सद्गुण पाए जाते हैं। यह धारणा तत्काल बदलनी चाहिए। इस प्रकार के विलक्षण मत का प्रतिपादन करनेवाले इन प्रेषितों को सामान्य लोग देवदूत मानने लगते हैं और जीवन को अधिक श्रेष्ठ बनाने के लिए उन्होंने नए नीति नियमों की खोज की है, ऐसा मानने लगते हैं। जो उनके विचार आचरण में नहीं ला सकते, ये उनके इस विलक्षण गुण की साधुता का लक्षण समझते हैं। ऐसा होने पर ये लोग भी स्वयं के महात्मा होने की बात हैं। तत्पश्चात् वे सुखेनैव अनियंत्रित होकर गंभीरतापूर्वक कहते हैं कि भारतीय लोगों के लिए हाथ में कोई लकड़ी भी उठाना पाप है तथा स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी सैन्य की आवश्यकता नहीं होगी अथवा हिंदुस्थान की सीमाओं की रक्षा करने हेतु किसी युद्धपोत की आवश्यकता नहीं होगी, ऐसा अखंड प्रतिपादन करना प्रारंभ कर देते हैं। विदेशियों की जकड़ से भारत को स्वातंत्र्य प्राप्त करने का उनका मार्ग है सूत कताई; इसके अनुसार कोई सैन्य, नाविक दल अथवा वैमानिक नहीं होगा तब विश्व के किसी राष्ट्र द्वारा हिंदुस्थान पर आक्रमण नहीं होगा और ऐसा किया गया तो उनके सामने चक्राकार घूमनेवाले चरखे की आवाज पर गानेवाली देश सेविकाओं की टोली खड़ी करते हुए उन्हें वापस जाने पर बाध्य कर सकेंगे ऐसी उनकी धारणा है!

साक्षेप अहिंसा की आवश्यकता है!

बात जब इतनी बढ़ जाती है कि इन जैसे लोग जब सर्वसामान्य भोले-भाले लोगों के विश्वस्त प्रतिनिधि बनकर गोलमेज परिषदों में पहुँचकर, विदेश में भी इसी प्रकार के गंभीरतापूर्वक मतिभ्रष्ट निवेदन हिंदुस्थान की ओर से देते हैं, तब विदेशी राजनीतिज्ञ तथा यूरोप, अमेरिका की सामान्य जनता भी इनके पागलपन पर हँसने लगती है। इसी कारण इस मत का गंभीरतापूर्वक प्रतिकार करने का समय आ चुका है। इस मत के प्लेग को अब शीघ्रतापूर्वक समाधिस्थ करना चाहिए। हम लोगों ने इन्हें क्षमा याचना करने की मुद्रा से नहीं अपितु बहुत स्पष्ट रूप से यह कहना आवश्यक है कि आप लोगों का आत्यंतिक अहिंसा का यह पागलपन केवल अव्यवहार्य तथा अनैतिक ही नहीं है, इसमें साधुत्व का अंश कहीं पर भी नहीं है, वह संपूर्णतः मूर्खतापूर्ण है। जब विश्व में सभी लोग आत्यंतिक अंहिसा का पालन करेंगे उस समय कोई युद्ध नहीं होगा तथा सशस्त्र सैनिकों की भी आवश्यकता नहीं होगी, ऐसा ये लोग कहते हैं; परंतु इस प्रकार के तत्त्वज्ञान के निवेदन में अधिक बुद्धिमत्ता की आवश्यकता नहीं होती। हम लोगों का ध्येय मर्यादित अहिंसावाद है इस कारण मानव संरक्षण के लिए प्रथम साधन के रूप में हम लोग तलवार की पूजा करते हैं, उपासना करते हैं। इसी धारणा से हिंदू लोग शक्ति देवता कालीमाता के चिह्न के रूप में शस्त्रों की पूजा करते हैं। गुरु गोबिंदसिंह ने तलवार को संबोधित करते हुए निम्न काव्य पंक्तियाँ कही हैं -

'सुखसंताकरणं दुर्मतिहरणं खलदलदलनं जयतेगम् ।

हम लोग भी इस महान गुरु के गान में अपना सुर मिलाकर कहते हैं कि 'है, खड्ग तुम्हारी विजय हो।"

जन्मजात जातिभेद नष्ट करने का अर्थ क्या है ?

जो लोग हिंदू समाज में प्रचलित जातिभेद को इष्ट मानते हैं, उन्हें यह किस प्रकार से और किस मर्यादा तक अनिष्ट है, यह बताना इस लेख का उद्देश्य नहीं है।

जिन्हें यह जन्मजात कहा जानेवाला, परंतु वास्तविक रूप से केवल पोथी जात जातिभेद अत्यंत अनिष्ट है ऐसा प्रतीत होता है, वह नष्ट करना चाहिए। यह कर्तव्य भी मान्य है, परंतु उसे नष्ट करने के लिए क्या करना चाहिए? तथा हम अपने लिए कहाँ से प्रारंभ करें? यह प्रश्न उनके मन में उठते हैं। 'जातिभेद तोड़ दो ऐसा कहना ठीक है, परंतु इन सहस्र वर्षों की रचना तोड़ देने से इतनी अव्यवस्था उत्पन्न होगी कि हिंदू राष्ट्र का अस्तित्व भी उस अव्यवस्था के कारण नामशेष हो जाएगा। उसे किस प्रकार प्रतिबंधित किया जाएगा, इस भय के कारण वे इस काम का प्रारंभ करने से बचना चाहते हैं। उनके प्रश्नों के उत्तर देने तथा उस भय का विचार करने के लिए हम यह लेख लिख रहे हैं।

"जन्मजात जातिभेद की इष्टानिष्टता' इस विषय पर हमारी एक लेखमाला 'केसरी' (लो. तिलक का समाचारपत्र) में प्रकाशित होने के पश्चात् तथा रत्नागिरि में सामूहिक रूप से जातिभेद तोड़ने हेतु एक प्रयोग बहुत प्रचार के बाद जब से प्रारंभ हुआ है तब से हमें उपर्युक्त प्रश्न सैकड़ों लोगों ने लिखित रूप में अथवा संभाषण करते हुए पूछे हैं। दूसरी बात यह है कि जातिभेद नष्ट करना ठीक नहीं है, ऐसा कहनेवालों का एक बड़ा पक्ष पैदा हुआ है, परंतु उनके पास किसी प्रकार का कोई निश्चित काम न होने के कारण भ्रमित हो चुका है। उनके लिए एक साधारण कार्यक्रम की रूपरेखा इस लेख में प्रस्तुत करनी है।

जन्मजात जातिभेदों को दूर करने का अर्थ है-जन्मजात रूप में जिस उच्च नीचता को हम मान लेते हैं उसी को दूर हटाना।

प्रथम तो हम लोगों को इस बात का ध्यान रखना होगा कि जन्मजात जातिभेदों में से राष्ट्रीय दृष्टि में जो अनिष्ट हैं, उन्हें प्रमुख रूप से हटाना है। वह आज की उच्च जातियों में विद्यमान जन्म लेना-इतनी केवल उपपत्ति की भावना नहीं है। उससे जुड़ी हुई मानवी उच्च नीचता की एवं विशिष्टाधिकार की भावना भी है। कोई मनुष्य केवल ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुआ है, इसी कारण उसमें कोई विशिष्ट गुण न होते हुए भी उसे अग्रपूजा का, वेदोक्त का तथा प्राचीन निबंधानुसार अवध्यत्व आदि विशिष्ट जन्मजात अधिकार प्राप्त होते हैं तथा कई सुविधाएँ भी प्रदान की जाती हैं, उन्हें बंद करना है। किसी का जन्म क्षत्रिय में हुआ है, अतः उसे सिंहासन का एवं वेदोक्त राज्याभिषेक का अधिकारी मान लेना, तथापि शिवाजी जैसा पराक्रम स्वतंत्र राज्य की स्थापना करने पर भी, वह क्षत्रिय नहीं है अतः यह सिंहासन का अधिकारी नहीं बन सकता तथा उसे हम लोग राज्याभिषेक नहीं करेंगे, ऐसा कहना शुद्ध मूर्खता तो है ही, साथ घातक भी है। अतः क्षत्रियों को जो अधिकार जन्मजात प्राप्त हैं उन्हें छीन लेना चाहिए।

कोई भी जाति मूलतः ही श्रेष्ठ अथवा कनिष्ठ होती है, इसे हम लोग इसलिए सत्य मानकर चलते हैं क्योंकि ऐसा पोथियों में लिखा है।

जातिभेद में से केवल जन्ममूलक व काल्पनिक उच्च नीचता की भावना और प्रकट गुणों के अभाव में भी प्राप्त होनेवाले विशेषाधिकार यदि निकाल दिए जाते हैं, तो आज के जातिभेद के जो अन्य अनेक लक्षण हैं-वे कई वर्षों तक भी अपना अस्तित्व बनाए रखते हैं तब भी उनसे कोई विशेष हानि नहीं होगी। विशिष्ट जातियों के व्यवसाय, नाम, विशिष्ट व्रत, कुल, धर्म, कुलाचार, गोत्र परंपरा आदि सैकड़ों जातिविषयक बंधन उन जातियों में कुछ समय तक अपरिवर्तित रहने दिए जाएँ, तब भी उस कारण अखिल हिंदू राष्ट्र की कोई बड़ी हानि नहीं होगी।

इस प्रकार की जातियों के समुदाय (समाज) आज के कुलों जैसे ही निरुपद्रवी होंगे। ब्राह्मण जाति के होते हुए भी गुणों के अभाव में यदि विशिष्ट अधिकार समाज के किसी भी व्यक्ति को प्राप्त नहीं होंगे अथवा कोई भंगी जाति का होते हुए भी, परंतु गुणवान व योग्य होने के कारण उसे विशेष अधिकारों से वंचित नहीं रखा जाएगा, तब किसी समुदाय ने स्वयं को ब्राह्मण कहलाया अथवा मराठा, वैश्य, महार भी कहा, तब परस्पर ईर्ष्या अथवा द्वेष उत्पन्न होने के लिए कोई कारण शेष नहीं होगा। आज किसी का उपनाम रानडे, तो किसी का दिवेकर होता है। यदि रानडे कुल के पुरुष को गुणों के अभाव में भी पूजा का बहुमान अथवा वैद्यभूषण उपाधि प्रदान की जाएगी, परंतु दिवेकर कुल का पुरुष रानडे की तुलना में कितना भी सच्छिल तथा वैद्यकत्व क्यों न हो, उसे इन अधिकारों से वंचित रहना होगा तब इस स्थिति के कारण रानडे तथा दिवेकर कुलों में ईर्ष्या तथा द्वेष उत्पन्न होना अनिवार्य है। प्रत्येक व्यक्ति का नाम एवं कुल का उपनाम (आडनाव) भिन्न होते हैं, परंतु इस कारण उन्हें जन्मतः किसी प्रकार के कोई विशेषाधिकार प्राप्त नहीं होते। जाति-जाति के समुदायों में भी यही स्थिति पाई जाएगी। जिस प्रकार नाम भिन्‍नता के कारण कोई विशेष अधिकार प्राप्त नहीं होते, उसी प्रकार जाति-जातियों के जन्मजात विशेष अधिकार समाप्त होने पर उनमें भी ईर्ष्या या द्वेष का कोई कारण शेष नहीं रहेगा। अतः जन्मजात जातिभेदों को मिटाने का अर्थ है उन जातियों में विद्यमान परस्पर उच्च-नीच भावना का तदा तदनुषंगित विशेषाधिकारों को समाप्‍त करना। प्रत्येक व्यक्ति को इस भावना से कार्य करना आवश्यक है कि जिस किसी जाति में कोई विशिष्ट गुण प्रकट होगा तभी तथा उसी मात्रा में, उसे योग्य मानकर तदनुषंगिक अधिकार प्रदान किए जाने चाहिए। मोटर को एक कुशल चालक होना आवश्यक है। रस के पिता, नाना- दादा अथवा परदादा बहुत कुशल मोटरचालक होने के कारण यह गुण उसमें आनुवंशिक रूप से उत्पन्न हुआ होगा ऐसा मानकर कोई बुद्धिमान (!) व्यक्ति उसकी गाड़ी में बैठता है, तो अधिकांश समय मृत्यु से भेंट होने का ही भय रहेगा। क्या आपके पास गाड़ी चलाने के लिए आवश्यक प्रमाणपत्र है? यह प्रश्न प्रारंभ में ही पूछ लेना चाहिए। यदि यह गुण आनुवंशिक रूप से प्राप्त हुआ हो तो वह प्रकट ही हुआ होना चाहिए। वह यदि सुप्त हो तो मोटर चलाने का कार्य करने का अधिकार उसे नहीं देना चाहिए। यही स्थिति है राष्ट्रीय मोटर रूपी प्रगति की इस काम में प्रकट रूप से जो प्रवीण होगा, वही राष्ट्र की धुरा वहन करेगा। उसकी ब्राह्मण या क्षत्रिय अथवा अन्य जाति से इस बात का कोई संबंध नहीं है जो उत्तम रूप से कपड़ा सिलता है, वही दरजी होगा"। वह तथा कथित दरजी जाति का है अथवा नहीं, या वह बनिया है, इस बात का महत्त्व नहीं है।

वर्तमान समय में जातिभेद का कौन सा अत्यधिक घातक घटक हम लोगों को नष्ट करता है, यह बात निश्चित हो जाने पर अब हम लोगों के हिंदू राष्ट्र के संगठन के लिए बाधक बननेवाली जो रूढ़िया दृश्य रूप में जातिभेद के इन घटकों में सम्मिलित हैं अथवा जिनका प्रभाव अभी भी बना हुआ है, वे कौन सी हैं तथा उनका संपूर्ण नाश किस प्रकार करना होगा, इसका मार्गदर्शन किया जाएगा।

व्यवसाय बंदी

यह प्रथा आज के समय अस्तित्व में नहीं है। चार वंश या जातियों से सहस्र जातियाँ उत्पन्न हुई तथा पुनः उपजातियाँ भी बनती रहीं, वे व्यवसाय बंदी की घातक प्रथा के कारण ही बनी। खड़े होकर बुननेवालों की एक जाति, तो बैठकर बुननेवालों की दूसरी; दूध, दही, मक्खन बेचनेवालों की एक जाति, परंतु जो लोग उबाले हुए दूध से मक्खन निकालते हैं वे अन्य जाति के! यह अनर्थ परंपरा भविष्य में बनी रहने की संभावना अब बहुत क्षीण हो गई है। किसी को भी मनचाहा व्यवसाय करने में जातिबंधन नहीं है। जाति दरजी व्यवसाय तांबे का काम जाति ब्राह्मण व्यवसाय लोहे का कारखाना, जाति बनिया काम शिक्षक का - ऐसी वास्तविक स्थिति सब दूर दिखाई देती है। जिस धंधे में अर्हता पात्र हो उसी को अपनाने का स्वातंत्र्य प्राप्त हो चुका है। आज वकील, मोटरचालक, डॉक्टर, रेलवे के कार्यकर्ता, तार वितरण करनेवाले आदि नए व्यवसाय करने में जाति कोई बाधा नहीं बनती तथा प्राचीन समय स्मृति के अनुसार अथवा रूढ़ियों के कारण जो व्यवसाय करने में जाति का बंधन होता था, उन धंधों को अपनाने में इस समय कोई बंधन नहीं है, महार सिपाही बनते हैं, ब्राह्मण क्षत्रिय दूध का व्यापार करते हैं। इसके अतिरिक्त दुकानों में विलायती बूट, चप्पल तथा जूते भी बेचते हैं, फिर भी उनकी जाति नष्ट नहीं होती।

किसी जाति के लिए कोई विशिष्ट व्यवसाय करने पर काव्य करना हम लोगों के प्राचीन जातिभेद की प्रथा थी। इसके समर्थन में ऐसा कहा जाता है कि इससे दो भिन्न प्रकार के लाभ होते हैं। उस व्यवसाय में अथवा कला के लिए अनुरूप प्राविण्य पीढ़ी-दर-पीढ़ी आनुवंशिकता के कारण भविष्य के प्रत्येक व्यक्ति में प्रकर्षित होता है। दूसरा लाभ यह है कि पौराहित्य करनेवाले अथवा चमार का व्यवसाय, यहाँ यह व्यवसाय पीढ़िगत किया जाना हो तो आनेवाली पीढ़ी को इससे लाभ होता है तथा इन दो लाभों के कारण अपनी गुणाधिष्ठित पद्धति त्यागने की आवश्यकता नहीं होगी। प्राचीन जातीय व्यवसाय पद्धति का लोप होने पर भी व्यवहार स्वातंत्र्य की हम लोगों की नई पद्धति में भी अपने पूर्वजों का धंधा करने पर कोई प्रतिबंध नहीं है तथा इन दोनों लाभों को उसी अनुपात में प्राप्त करना संभव हो सकता है। उत्कृष्ट संगीतरत्न गायक का पुत्र यदि जन्मत: ही गायक होगा, तब उसके सुखपूर्वक गायन का व्यवसाय करना चाहिए। इस गुण में निष्णात बनने पर उसे भी 'संगीतरत्न' की उपाधि प्राप्त होगी, परंतु यदि सात पीढ़ियों में गायकी का गुण होने पर भी यदि पुत्र की आवाज गायन के लिए योग्य न हो, तो भी उसे 'संगीतरत्न' की पीढ़िजात उपाधि प्रदान नहीं की जाएगी तथा राजदरबार में गायक का पीढ़िजात स्थान देने की महान् भूल इस नई गुणाधिष्ठित पद्धति में नहीं की जाएगी। हर पीढ़ी में पिछली पीढ़ियों के गुण सुप्त रूप में विद्यमान होते हैं, इस कथन का व्यावहारिकत: कुछ भी महत्त्व नहीं है। व्यवहार में प्रकट गुणों पर ही ध्यान दिया जाता है इस कारण कोई वकील न्यायालय का आश्रय नहीं लेगा। उसे अपनी वकालत की परीक्षा में सफल होना आवश्यक है। वकील के पुत्र में वकीली बनने के आनुवंशिक गुण हों अथवा नहीं, इस कारण उसे कोई न्यायालय में वकील नहीं देगा। जिसमें ये गुण विद्यमान हैं वह वकीली की परीक्षा में सफल होगा। जातिबद्ध व्यवसाय टूट जाने से उपर्युक्त दोनों कामों से वंचित न होते हुए भी अपने जातिबद्ध धंधे की तुलना में अधिक अच्छा काम करने का अवसर प्राप्त होता है। गुणों पर ही व्यवसाय तथा उससे उत्पन्न कार्य निर्भर होंगे तथा इस स्पर्धा में जो टिक पाएगा वही धन तथा सम्मान का स्वामी बनेगा। इसका उत्कर्ष होता रहेगा। योग्य व्यक्ति को उचित काम मिलने की अधिक संभावना इस व्यवसाय स्वातंत्र्य की होती है। अतः राष्ट्र की क्षमता पूर्णतया वृद्धिंगत होती रहती है। सैनिकों के लिए आवश्यक गुणों का अभाव होने के कारण किसी दाभाडे कुल में हिंदूपदपादशाही का सेनापति पद पीढ़ी-दर-पीढ़ी सड़ता नहीं रहता। निरक्षर भट्टाचार्यों को प्रथम गंध की अग्रपूजा करने का वंशपरंपरागत सम्मान प्राप्त नहीं होता।

परंतु अब क्या होगा,यह समझ में नहीं आता

जातिनिष्ठ व्यवसाय पद्धति की प्रथा टूटकर गुणनिष्ठ व्यवसाय स्वातंत्र्य कीप्रथा प्रारंभ करने से समाज पर कोई भयंकर विपदा तो नहीं आएगी। सर्व दूर अव्यवस्था तो नहीं फैल जाएगी? पाप का विस्तार होने से ईश्वरी कोप तो नहीं होगा? कुछ समझ में नहीं आ रहा! इस प्रकार का भय भी अब नहीं होना चाहिए, 'मनुस्मृति' के अनुसार धंधों का जाति पर आधारित किया गया विभाजन तथा प्रत्यक्ष रूप से आज के व्यवहार में उन धंधों की हो रही गफलत, इस गलत धारणा पर एक समय विचार किया जाए। व्यवसाय बंदी का प्रमुख मापदंड या जाति तथा उपजातियों में विद्यमान भेदों के कारण दरजी, सुनार, लौहार, दुग्ध व्यवसायी, बनिया, भट, बुनकर आदि लोगों की जातियाँ अब लुप्त हो चुका हैं तथा उनकी स्मृतियाँ भी किसी के पास शेष नहीं हैं यह बात आपकी समझ में आ जाएगी। इन जातियों के व्यवसाय आज कोई भी कर रहा है तथा वे जातियाँ अपने दरजी सुनार आदि अभिधान तथा जातिसंघ सभी स्थानों पर चलाते हुए अन्य व्यवसाय कर रहे हैं। और उनके सनातनी लोगों में जातिभेद आज भी जीवित है और सुधारक लोग ही उसे पुन: तोड़ना चाहते हैं, ऐसा अभियोग लगा रहे हैं। इस प्रकार की व्यवसाय बंदी तथा जातीयता की भिन्नता की लोगों को आदत पड़ गई है। मनु के समय छपाई कला ज्ञात नहीं थी इसलिए वह व्यवसाय ब्राह्मणों को अपनाया चाहिए अथवा नहीं, इस बात पर कोई निर्देश नहीं दिए गए हैं, परंतु मनु त्रिकालज्ञ, उसकी स्मृति त्रिकालाबाधित तथा अपरिवर्तनीय, ऐसा कहनेवाले सनातनी ब्राह्मण पत्रकार मनु भगवान् ने मुद्रणालयों का संचालन करना चाहिए ऐसा निर्देश नहीं दिया था, तब भी मुद्रणालयों का संचालन कर रहे हैं तथा हम लोग तो ब्राह्मणों के ब्राह्मण भी हैं ऐसा कहते हुए 'जातिभेद ही हिंदूधर्म का आधार है तथा उसे कदापि नष्ट नहीं करना चाहिए, 'मनुस्मृति' के निर्बंधों के अनुसार धर्म अपरिवर्तनीय रहना आवश्यक है, इसलिए हम लोग चातुर्वीर्य नामक मुद्रणालय में इस 'मनुस्मृति' को मुद्रित कर हैं, 'इस प्रकार को घोषणा साहस के साथ कर रहे हैं। व्यवहार बंदी टूट जाने के कारण आधे से अधिक जातिभेद मूलतः ही लुप्त हो चुके हैं। उसकी नींव ही हिल चुकी है तथा उसकी स्मृति भी किसी को नहीं होती, इस सीमा तक गुणनिष्ठ व्यवसाय स्वतंत्रता रूढ हो चुकी है। अर्थात् व्यवसाय बंदी टूट जाने से क्‍या होगा, यह भय आज नहीं होना चाहिए क्योंकि उसके टूटने से समाज की जो अवस्था हो सकती थी आज हो ही गई है तथा यह आपको, हमको तथा सभी को उचित भी प्रतीत हो रहा है, क्योंकि उस व्यवसाय बंदी की श्रृंखला आपने भी प्रत्येक कदम पर प्रकट रूप से तोड़कर व्यवसाय स्वतंत्रता रूढ करने में अपना योगदान दिया है। इस कारण जाति धर्म का किसी प्रकार से उल्लंघन होता है ऐसा संदेह भी आपने कभी व्यक्त नहीं किया है।

सारा विश्व,विशेषतः यूरोप-अमेरिका देखिए!

गुणनिष्ठ व्यवसाय स्वतंत्रता की प्रथा के सुपरिणाम ज्ञात करने हेतु एक बार वर्तमान यूरोप-अमेरिका की ओर देखिए, इससे आपको इस बात की जानकारी हो जाएगी कि जातिनिष्ठ व्यवसाय बंदी टूटने पर क्या होगा और किस प्रकार होगा तथा इस बात पर जो संदेह आपके मन में उत्पन्न हुआ है वह भी खत्म हो जाएगा। इस कारण राष्ट्रीय बल, उद्यम, संपत्ति, कर्तृत्व, कला, क्षमता आदि सभी दृष्टि से राष्ट्र की उन्नति ही होती है- ऐसा विश्वास आपके मन में उत्पन्न होगा। केवल हिंदुस्थान में ही जातिनिष्ठ व्यवसाय बंदी चालू है। जापान, चीन, तुर्क, सारा यूरोप, संपूर्ण अमेरिका आदि देशों में इस प्रथा का नाम तक कोई नहीं जानता। हिंदुस्थान के अतिरिक्त यह सारा विश्व गुणनिष्ठ व्यवसाय स्वातंत्र्य का अनुयायी है तथा इस जाति आदि के अभाव में उन्हें कोई कठिनाई नहीं हुई है। इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि गुणनिष्ठ व्यवसाय स्वतंत्रता के कारण कम-से-कम यूरोप तथा अमेरिका हम लोगों से पाँच हजार वर्ष आगे निकल चुके हैं। गुणनिष्ठ निर्वाचन के कारण संघटित किया हुआ उनका सैन्यबल हम लोगों के केवल क्षत्रिय जातिनिष्ठ सैन्य से हजार गुना अधिक युद्ध निपुण है। उनका गुणनिष्ठ निर्वाचन से संघटित किया हुआ बुद्धिबल परसों वाष्प युग में, तो कल विद्युत् युग में तथा आज रेडियम युग के अति दर्शन, अति श्रवण की सिद्धियों का संपादन करते हुए हम लोगों को सपनों में भी न दिखाई देनेवाले आश्चर्य, वे दूरभाष, वह दूरदर्शन, वह ध्वनिक्षेपक, वे पनडुब्बियाँ, वे विमान, वे ध्‍वनि लेख, वह तार, वह बेतार व्यवस्था, वे मशीनगन्स आज सत्यसृष्टि के खिलौने बन चुके हैं। शिल्प, वाणिज्य, ललितकला आदि उनके यहाँ हम लोगों की तुलना में सौ गुना उन्नति कर चुके हैं अर्थात केवल जातिबद्ध व्यवसाय बंदी तोड़ने से ब्राह्मण, राजन्य, वाणिज्यादि गुणों तथा शक्ति में व्यवसाय स्वातंत्र्य के कारण अपकर्ष नहीं होता। इसके विपरीत गुणनिष्ठ व्यवसाय स्वातंत्र्य के कारण हो उनका उत्कर्ष होता है यह अब प्रयोग द्वारा प्रमाणित हो चुका है।

भट भी भंगी!

जन्मजात जातिभेद को नष्ट करने में अत्यंत आवश्यक काम हे व्यवसाय बंदी का नाश। यह काम अधिकांश रूप से हो चुका है तथा किसी के कोई भी व्यवसाय करने में उसकी जाति बाधा नहीं बन सकती। इसीलिए अब हम लोगों में कुछ अधिक झगड़ा जातिभेद के कारण शेष नहीं है। यदि आगे चलकर व्यवसाय बंदी के कारण कुछ बाधा उत्पन्न की जाती है तो वह अस्पृश्यों के प्रकरण में ही की जाती है, परंतु उसका विचार स्पर्श बंदी के प्रकरण का होने के कारण यहाँ उसका केवल उल्लेख करना ही पर्याप्त होगा। अब अस्पृश्यों में भी चमार-महार आदि के परंपरागत व्यवसायों में इतनी बंदी नहीं रही है। चमार का धंधा होते हुए भी कुछ अन्य जातियाँ कुछ सीमा तक जूते, चप्पल आदि की दुकानें संचालित करते हैं तथा चमार, महार गुणानुरूप शालेय शिक्षक भी बन सकते हैं। व्यवसाय बंदी तीव्र रूप में केवल अस्पृश्यों की जाति में भंगियों के व्यवसाय में विद्यमान है तथा अस्पृश्यों के समान ही स्पृश्यों में, भटों में उनका काम दूसरी जाति का कोई अन्य व्यक्ति करना नहीं चाहता तथा भटों का काम अन्य जाति में किसी को भी करने नहीं दिया जाता। इन दो जातियों को एकाधिकार प्राप्त हुआ है। अपना काम कोई अन्य नहीं करता, यह निश्चित होने के कारण कलकत्ता जैसी विशाल महानगरपालिका को भी वह झुका सकता है, फिर साधारण घरों की क्या बात? नगर संस्था के अध्यक्ष द्वारा हड़ताल की गई तो उसे भी तोड़ना कदाचित् संभव होगा। उस स्थान के लिए दस प्रार्थनापत्र प्राप्त हो जाएँगे, परंतु भंगियों द्वारा यदि हड़ताल की जाती है तब उनकी माँगें मान लेने के अतिरिक्त हड़ताल समाप्त कराने का कोई अन्य पर्याय ही नहीं है। क्योंकि अन्य कोई भी उसका काम नहीं करनेवाला। यही बात भटों के लिए भी लागू होती है। भट यदि किसी विशिष्ट जाति का नहीं है तथा भिन्न वृत्ति का है तब धर्म कार्य (संस्कार) जिस प्रकार से किया जाना चाहिए उस प्रकार से नहीं किया गया है, इस बात की चिंता यजमान को ही अधिक हो जाती है। व्यवसाय बंदी को यदि तोड़ना शेष है तो केवल इन दो प्रकरणों में ही !

इनमें से भंगियों को ठीक रास्ते पर लाना आवश्यक है !

भंगियों का काम अन्य कोई नहीं करेगा, यह धारणा भंगियों की जाति को उस व्यवसाय में एकाधिकार देने के लिए समर्थ है। ऐसा कोई निर्बंध नहीं है, नही कोई कानून। अतः कुछ समय तक जातिभेद तोड़ने के इच्छुक लोगों को भंगिया का काम करके दिखाना आवश्यक है। प्रारंभ में सेनापति बापट तत्पश्चात् महात्मा गांधी, अप्पाराव पटवर्धन आदि कुछ महत्त्वपूर्ण नेताओं में वह प्रथा कायम की थी। पूर्व में किसी समय कलकत्ता में भंगियों की बड़ी हड़ताल हुई। सारा नगर गंदगी एकत्रित होने के कारण हतबुद्ध हुआ। उस समय सैकड़ों भद्र युवकों ने (उच्च वंश के युवकों ने) अपने-अपने क्षेत्र में भंगियों का काम करना प्रारंभ किया। इसका परिणाम हड़ताल खत्म होने में सहायक हुआ। उच्च मानी जानेवाली जातियों ने इस काम को अंगीकार किया केवल तत्त्व के लिए ही तो भंगियों के निकट की अस्पृश्य जातियाँ भी यह काम करने हेतु आगे आती हैं ऐसा अनुभव हो चुका है; क्योंकि पूर्वास्पृश्यों में धंधे में धन कमाने की दृष्टि से आज भंगियों का व्यवसाय ही उन्नति कर रहा है। एक ही परिवार के पुरुष तथा स्त्रियाँ नौकर के रूप में पंजीकृत होकर प्रतिमाह पचास-साठ रुपए कमा लेते हैं, अतः यदि कुछ सुशिक्षित नवयुवक कुछ समय तक यह कार्य करते हैं तो वे तहसीलदार के कार्यालय के लिपिकों से अथवा शालेय शिक्षकों से अधिक दोहरी पगार पाएँगे। एक ओर से भंगियों का काम प्रत्यक्ष रूप से करनेवाले लोगों को आगे आना चाहिए तथा दूसरी ओर से अन्य सुधारकों को भंगी काम करनेवालों को किसी अन्य व्यक्ति समान इन लोगों के साथ समानता का आचरण करना चाहिए। प्रत्यक्ष व्यवहार में इस प्रकार का आचरण करनेवाले पाच-पचास सुधारकों का गुट भी निर्भयतापूर्वक काम करेगा, तब समाज की सहस्र वर्षों की भंगियों को माननेवाली धार्मिक भावना कितनी शीघ्र परिवर्तित होती है इसका आश्चर्यकारक अनुभव रत्नागिरि में गत चार वर्षों में किया गया काम देखकर हो सकता है। भंगी बच्चे भी शाला में सब बच्चों के साथ मिलकर बैठते हैं। अपना काम समाप्त होने के बाद अखिल हिंदू उपहारगृह में प्रत्येक दिन मध्याह्न में तथा संध्या के समय ब्राह्मण, बनिया, मराठा आदि के साथ चाय-चिवड़ा खाते हुए भंगी लोग आनंदपूर्वक बैठे हुए दिखाई देते हैं। भंगी कीर्तनकार हजारों लोगों की उपस्थिति में मंदिर के सभामंडप में कीर्तन करते हैं, ब्राह्मणादि स्त्रियाँ इन भंगी कीर्तनकारों को फूलमालाएँ अर्पण करती हैं तथा ब्राह्मणादि सैकड़ों नागरिक अन्य कीर्तनकारों के समान इनके पैर छूकर प्रणाम करते हैं तथा इनकी परिक्रमा भी करते हैं। जो भंगी स्त्री दस बजे मैले का डिब्बा भरकर चली जाती है वह ग्यारह बजे स्नान करने के पश्चात् सुवस्त्र धारण कर सहभोजन समारोह में भोजन करने हेतु मंदिर में उपस्थित होती है तथा सैकड़ों प्रतिष्ठित उनके समेत मिलकर एक साथ खाना खाती हैं। इस प्रकार के प्रसंग समय-समय पर होते रहते हैं। इसी रत्नागिरि में सात वर्ष पूर्व कुमकुम तिलक लगाने हेतु मात्र पाँच त्रैवर्णिक कन्याएँ तैयार हुई थीं। यहाँ आज यात्राओं, उत्सव, मंदिरों में सहस्र स्त्रियों के समुदाय में भंगी स्त्रियाँ उनके साथ मिल जाती हैं, कुमकुम तिलक लगाती हैं और सभाओं में निर्विशेष समरूपता से एकसाथ बैठती है। यह रूढ़ि वहाँ बन रही है।

अत: समाज के लिए जो अत्यधिक हितकारक तथा अपरिहार्य है वह भंगी काम नीचता का द्योतक नहीं है। यह धंधा करनेवाला अन्य धंधा करनेवालों के समान स्वच्छ तथा शुद्ध होगा तो समता से सव्यवहार्य होता है, ऐसा प्रत्येक सुधारक को स्वयं के आचरण से सदा दिखाना चाहिए। ऐसा करने पर अन्य जातियाँ भी इस धंधे को अंगीकार करेंगी तथा जो व्यवहार केवल दो ही व्यवसायों में जातिबद्ध रूप में विद्यमान है। वह भंगियों के लिए टूट जाएगी। अब केवल भट ही शेष रहते हैं।

परंतु भटों को सीधे रास्ते पर लाना हो तो प्रथम यजमानों को सीधे रास्ते परलाना होगा, क्योंकि यदि कोई ऐसा सोचता है कि वास्तविक रूप में आज भट समाज के सिर पर चढ़ बैठा है तो उसे यह समझ लेना चाहिए कि वह स्वयं के प्रयास से ऐसा नहीं कर पाया है। उसे यहाँ स्थापित करने के लिए हम लोगों ने ही अपने भोलेपन के कारण प्रोत्साहित करते हुए उसे सहायता दी है। वास्तविक रूप से भट एक निरुपद्रवी प्राणी है। वह पुलिस की सहायता लेकर तो हमारे घर में प्रवेश नहीं करता। जब तक हम लोग कई बार आमंत्रित कर उसे आने हेतु प्रार्थना नहीं करते, तब तक वह हमारे घर नहीं आता तथा उसके आगमन बिना हम लोगों को संतोष प्राप्त भी नहीं होता है। इस कारण यह दोष भट का नहीं है। हम यजमान लोग ही इसके दोषी हैं। भट को समय-असमय दोषी मानने का काम अविरत रूप में करनेवाले हम 'समाज सेवी तथा सुधारक भी, विवाह, मौज बंधन, श्राद्ध पक्ष, गौरी-गणपति आदि अवसरों पर भटों के यहाँ चक्कर लगाते रहते हैं तथा उसके न आने पर उससे क्रोधित होकर उसे कोसते रहते हैं। दोपहर दो बजे तक भूखे रहते हैं, परंतु भट द्वारा पूजाविधि संपन्न किए जाने के पश्चात् ही अन्न ग्रहण करते हैं। यदि इस प्रकार की भ्रांतिपूर्ण धारणा का हम जब तक त्याग नहीं करते, तब तक भट सिर पर चढ़ा हुआ ही रहेगा। अतः यजमान की यह आदत छूटे बिना भट भी सीधे रास्ते पर आना संभव नहीं है। आज के भट यदि बदल भी दिए, तो कल के नए भट सिर पर चढ़ बैठेंगे।

क्योंकि भट कहने से प्रारंभ में ब्राह्मण का ही विचार किया जाता है तथापिगुरव, गुरु, जुगल तथा महारों में भी भट होते हैं। ये सब अब्राह्मण है, परंतु भटशाही ही है। भट का पुत्र भट बन जाता है, उसमें यह गुण विद्यमान हो नहीं, उसका यह परंपरागत उत्तराधिकार है। अन्य जाति, कुल अथवा व्यक्ति को संस्कार (कार्य, धार्मिक) करने का अधिकार नहीं है। यह स्थिति जहाँ-तहाँ विद्यमान है वह इस कारण है कि वहाँ के भोले समाज को इसकी आवश्यकता है।

इसलिए भटों की जातीय व्यवसाय बंदी तोड़ने का प्रमुख उपाय है कि संगठनाभिमानी सुधारकों को इस भ्रम का त्याग करना चाहिए कि हम लोगों के धार्मिक संस्कार विशिष्ट जाति व कुल के भट के बिना नहीं हो सकते। इस भ्रामक कल्पना को त्यागकर यह सुधार प्रत्यक्ष आचरण में सम्मिलित करना चाहिए। प्रारंभ में अनेक धार्मिक संस्कारों के लिए भट को आमंत्रित न किया जाए। पूजा, पाठ, गौरी, गणपति, श्राद्ध, संक्रांति, द्वादशी, दशहरा, दीवाली आदि सैकड़ों प्रसंगों के लिए भट की आवश्यकता नहीं होती। स्वयं पोथी का पाठ करते हुए शुद्ध मराठी (अथवा हिंदी) भाषा में उन शब्दों तथा भाव को व्यक्त करते हुए पूजा कीजिए। इस हेतु दी जानेवाली दक्षिणा किसी उपयुक्त संस्था को दी जा सकती। है। श्राद्ध पक्ष के समय पितरों का गुण-संकीर्तन करते हुए उनकी स्मृति में हिंदू राष्ट्र को बलशाली करने का कार्य करनेवाली किसी संस्था को भेंट के रूप में कुछ धन दीजिए अथवा उस दिन राष्ट्रसत्ता को पितृसेवा अर्पित कीजिए तथा स्वयं कुछ राष्ट्रकार्य कीजिए। पितृराष्ट्र के लिए प्रयासरत रहकर पितृऋण से उऋण होने का अधिक श्रेयस्कर साधन कौन सा हो सकता है? विवाह नैबंधिक पंजीयन से किए जाएँ। भटों को प्रारंभ में प्रार्थना करते हुए आप स्वयं ही आमंत्रित करते हैं तथा बाद में उन्हें दोष देते हैं। भटों को कुछ भी महत्त्व नहीं दिया जाए, तो भटशाही स्वयंमेव लुप्त हो जाएगी।

यदि ऐसा करना संभव न हो तथा उपाध्याय वर्ग की आवश्यकता प्रतीत होती हो, तब हम लोगों के आर्य समाजीय बंधु अनेक वर्षों से अपने धर्मोपाध्याय वर्ग, जिस पद्धति से निर्माण करते उस पद्धति का प्रयोग कीजिए। श्रुति स्मृति यक्ष प्रक्रिया में जो परीक्षा में सफल होगा उस उपाधि मात्र का ही नहीं, याज्ञिकी चलाने का अधिकार उस व्यक्ति को प्रमाणपत्र के साथ अर्पित किया जाना चाहिए। उस व्यक्ति के कुल कर तथा जाति का विचार नहीं किया जाना चाहिए। आज डॉक्टर किसी जाति के आधार पर नहीं बनता। जिसे डॉक्टरी का ज्ञानार्जित प्रमाणपत्र प्राप्त होता है, वही डॉक्टर कहलाता है। इसी प्रकार भविष्य में वैदिक, याज्ञिक, उपाध्याय अथवा पुरोहित बनेंगे। श्रीमान् श्रद्धानंद द्वारा स्थापित किए हुए गुरुकुल के अस्पृश्य विद्यार्थी (ब्रह्मचारी) आज वेदालंकार, तर्कतीर्थ, विद्यानिधि, याज्ञिक तथा उपाध्याय बन रहे हैं। ब्राह्मण तर्कतीर्थो, विद्यानिधियों, याज्ञिकों तथा उपाध्यायों को मान-सम्मान दिया जाता है वह इन्हें भी प्राप्त होना चाहिए। अतः यदि भट के बिना कार्य संपन्न नहीं हो सकता तब सुधारका द्वारा किसी विशिष्ट जाति के भट का चयन न करते हुए गुणों के आधार पर ही उसका चयन किया जाना आवश्यक है। जिस प्रकार सुनार या वैद्य का व्यवसाय सभी जातियों के लोग करते हैं उसी प्रकार याज्ञिकी अथवा भट का कार्य भी जातिनिष्ठ न होकर गुणनिष्ठ होना चाहिए।

आज व्यवसाय बंदी इन दो ही व्यवसायों तक जातिबद्ध है। भंगियों की व्यवसाय बंदी तोड़ना कदाचित् कुछ कठिन हो सकता है, परंतु इन दिनों भटों की व्यवसाय बंदी तोड़ना कठिन प्रतीत नहीं होना चाहिए। क्योंकि भटों को आमंत्रित नहीं किया तो बात समाप्त हो जाती है, परंतु भंगी के न आने से काम रुक जाता है। स्वयं भंगी आज के समाज-भावना के अनुसार अपमानार्ह होगा, परंतु स्वयं के लिए स्वयं भट का कार्य करने की बात सर्वस्वी सम्मानदायक समझी जाएगी। भगवान् की पूजा-पाठ, व्रतादि मराठी या हिंदी भाषा का उपयोग करके पूरे किए जा सकते है अथवा किसी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, चमार, महार आदि जाति के बी.ए., एम.ए. संस्कृत विषय की उपाधि प्राप्त करनेवाले किसी विद्वान् सदाचारी हिंदू सेवक मित्र द्वारा अथवा आर्य समाजी जातीय पद्धति के अनुसार गुणनिष्ठ तथा जातिनिर्विशेष प्रकार से बने हुए पुरोहित विद्यालय से प्रमाणपत्र प्राप्त करनेवाले किसी उपाध्याय से करवाए जा सकते हैं।

व्यवसाय बंदी तोड़ने के कार्य में सुधारकों की भूमिका यहीं तक सीमित है। केवल वार्तालाप का आश्रय न लेते हुए जो ऐसा कहेगा कि 'दूसरे इस प्रकार का आचरण करें अथवा न करें, मैं स्वयं के लिए यह सुधार प्रत्यक्ष रूप से आचरण से कर दिखाऊँगा।' इस प्रकार का आचरण करनेवाला वास्तविक रूप से सुधारक होता है। अब जातिभेद के उच्चाटन के लिए स्पर्शबंदी आदि शेष प्रकरणों में क्या किया जाना चाहिए, इसे इस लेख के उत्तरार्ध में निर्वाचित किया है।

जन्मजात जातिभेद को नष्ट करने का अर्थ क्या है ?

उपर्युक्त विषय से संबंधित जिस कथन का प्रतिपादन किया गया है उसका इस लेख से निकट का संबंध है। इस प्रमुख विषय की पुनरुक्ति इस कारण आवश्यक हो जाती है कि इससे यह विषय पाठकों के मन में उचित रूप से प्रभाव छोड़ सके। यह बात उपयुक्त है, अतः प्रारंभ के लेखक जो तर्क संपूर्ण विषय के अनुसंधानार्थ दिए गए हैं उन्हें पुनः प्रस्तुत करना आवश्यक है।

आज का जातिभेद जन्मजात कहा जाता है, परंतु वह वास्तव में केवल 'पोथीजात' है। जन्मतः प्रकट होनेवाला रूपगुणधर्म की भिन्नता के कारण आज की जातियाँ पृथक जातियाँ हैं, ऐसा निर्णय नहीं किया जा सकता। परंतु किसी विशिष्ट गुट में कोई उपजा है इस कारण वह श्रेष्ठ अथवा स्पृश्य और कोई अन्य कनिष्ठ या अस्पृश्य माना जाना चाहिए यह बात पोथी में कही गई है, अत: उसे वैसा ही मान लिया जाता है। आज का जातिभेद जन्मजात नहीं है, केवल पोथीजात है।

आज के जातिभेद का यह जन्मजात डंक मारनेवाला बिच्छु का विषाक्त काँटा तोड़ देने के पश्चात् ये जातियाँ तथा उपजातियाँ कुछ समय तक बनी भी रहती हैं, तब भी विशेष हानि नहीं होगी। प्रत्येक कुल का उपनाम भिन्न होता है। परंतु उस कुल को प्रत्यक्ष गुणों का विकास किए बिना कुछ भी अधिकार प्राप्त नहीं होते। अत: उन जातियों के गुटों के भिन्न अभिधान इसके पश्चात् भी चलते रहे तथा उनकी विशिष्ट सभाएँ, सम्मेलन, संघ, त्योहार तथा संस्कार इसके बाद भी होते रहे, तब भी प्रकट गुणों के अभाव में प्रत्यक्ष व्यवहार में किसी अधिकार का उपभोग करना संभव नहीं होगा। यदि संपूर्ण अधिकार तथा व्यवसाय सभी जातियों ने प्रारंभ किए होंगे, तब इस प्रकार के घरेलू गुटों के कारण राष्ट्रीय संगठन की हानि होने की संभावना भी शेष नहीं रहेगी। इसके विपरीत, अपरिहार्य रूप से डंक टूटी हुई इन जातियों के गुटों का उपयोग भी राष्ट्रीय संगठन के लिए उसी प्रकार किया जा सकता है जिस प्रकार जनपद, जिला आदि भौतिक गुटों का उपयोग राष्ट्र के संगठन के लिए किया जाता है।

जाति परिषद् भी राष्ट्रीय दृष्टि से विघटक न होकर यदि संघटक बन सकती हो तो वे परिषद् तथा जातियों की संख्या निम्न दिए गए प्रमुख सूत्रों को अपने मूल उद्देश्य पत्रिका में दो ध्रुवों के समान अडिगता से उल्लेखित करें। प्रत्येक परिषद् को प्रथम प्रतिज्ञा, प्रारंभिक सूत्र यह होना चाहिए, 'हम लोग किसी भी जाति को केवल जन्म के आधार पर हीन नहीं मानते अथवा उच्च भी नहीं समझते।' दूसरी प्रतिज्ञा यह होगी कि 'प्रत्येक व्यक्ति में जो गुण प्रकट रूप से तथा प्रत्यक्ष विद्यमान हैं, उसी आधार पर लोगों की पात्रापात्रता निर्धारित की जानी चाहिए। हम लोगों को अधिष्ठान प्राप्त होना चाहिए, दूसरों के समान ही उन गुणों की सार्थकता होनी चाहिए तथा अन्यों के समान उन गुणों का संपादन व संवर्धन करने की स्वतंत्रता प्राप्त होनी चाहिए। गुणों की कसौटी के अतिरिक्त अन्य किसी भी पोथीजात जाति-निष्ठता के पक्षपात में हम लोगों को न्याय्य अधिकार प्राप्त करने की लालसा हम लोगों में नहीं है।' प्रत्येक जाति संघ ने इन दो स्पष्ट प्रतिज्ञाओं के आधार पर अपनी जाति संघटना की, तो वह किसी अन्य जाति के लिए हानिकारक नहीं होगी। इसके अतिरिक्त इन दो सूत्रों की सीमाओं में आनेवाली प्रत्येक जाति की शिक्षा, आरोग्यता, शक्ति संपन्नता, सहकार्य में होनेवाली वृद्धि आदि हम लोगों के अखिल हिंदू राष्ट्र के लिए संघटना की दृष्टि से सहायक होने की भी पर्याप्त संभावना होगी। हम लोगों की राष्ट्रीय महासेना की विभिन्न उपसेनाएँ अपनी-अपनी परंपरागत छावनियों में विभिन्न गुटों के अनुसार संघटित तथा तैयार होती रहीं, तो वह अधिक अनिष्ट नहीं है। राष्ट्रीय ध्वज के नीचे, राष्ट्रीय ध्येय के लिए राष्ट्र के युद्ध की सूचना मिलते ही वे उपसेनाएँ शीघ्रतापूर्वक एकत्रित होकर महासैन्य का सुसंगत संचलन करने में उनकी गुटबद्ध पूर्व तैयारी उपयोगी सिद्ध होगी। जब तक ये जातियाँ टूटती नहीं हैं, तब तक उनकी परंपरागत अभिरुचियों में विद्यमान विरोध को कम-से-कम हानिकारक बनाने के लिए आज यही एकमेव मार्ग शेष है। उपर्युक्त दो सूत्रों के आधार पर ही यह संभव होगा।

इस दृष्टि से रत्नागिरि के चित्तपावन संघ का उदाहरण उल्लेखनीय है। इस संघ के उद्देश्य पत्रिकाओं में इन उपर्युक्त सूत्रों को सम्मिलित किया गया है। हाल ही में संपन्न हुई उनकी वार्षिक सभा में इनका सबल पुरस्कार किया है। यह जातीय संघ हिंदू राष्ट्र की किसी भी जाति को जन्मतः उच्च अथवा नीच नहीं मानता। प्रत्यक्ष प्रकट होनेवाले गुणावगुणों से व्यक्तियों की पात्रता निर्धारित की जाती है। किसी भी जाति में या व्यक्ति में प्रकट गुणों का अभाव होते हुए भी केवल जन्म के कारण ही किसी प्रकार का विशेषाधिकार उसे प्राप्त नहीं होना चाहिए, या ऐसा कोई विशेषाधिकार उसपर लाद देना भी उचित नहीं है, यह इस संघ की प्रतिज्ञा है। इस प्रकार की घोषणा संघ के अधिकांश सदस्यों ने उस सभा के समय की थी। यह स्तुत्य है, यदि यह संघ उनकी लिखित प्रतिज्ञा सच्चे अर्थ में व्यवहार में भी ला सकेगा तथा वैश्य, सारस्वत, मराठा, भंडारी आदि जाति संघ यदि इसी प्रतिज्ञा को शिरोधार्य मान लेंगे तब जाति परिषद् तथा जाति संघ अखिल हिंदू राष्ट्र के राष्ट्रीय विघटन का कारण बनने का भय नहीं रहेगा। विपरीततः हिंदू संघटना के महाकार्य के लिए वे कदाचित् उसमें कारक भी बन सकेंगे।

जन्मजात जातिभेद के चार पाँव

अत: आज हिंदू राष्ट्र के लिए अत्यधिक अपायकारक बने जन्मजात जातिभेद को समाप्त करने के लिए केवल मान्यता प्राप्त इस पोथीजात उच्चनीचता को महत्व देनेवाली तथा व्यक्ति के प्रत्यक्ष तथा प्रकट गुणों का विचार न करते हुए उसे कोई भी विशेषाधिकार अथवा विशिष्ट हानि पहुँचाने के लिए जो रूढ़ियाँ प्रचलित है, उनको समूल नष्ट करना हम लोगों के लिए आवश्यक है। इन रूढ़ियों में अत्यधिक व्यापक एवं हिंदू राष्ट्र की संघटना के लिए मूलतः घातक होनेवाली चार रूड़ियाँ हैं- व्यवसाय बंदी, स्पर्श बंदी, रोटी बंदी तथा बेटी बंदी।

व्यवसाय बंदी

व्यवसाय बंदी तोड़ने के लिए क्या करना चाहिए? इसकी विस्तृत चर्चा गत लेख में की गई है। जन्मजात जातिभेद का प्रबल आधार यह व्यवसाय बंदी को रूढ़ि ही थी। परंतु सौभाग्य से आज वह लगभग समाप्त हो चुकी है। किसी भी जाति का व्यक्ति आज कोई भी व्यवसाय कर सकता है तथा उसे गुणानुरूप प्रतिष्ठा भी प्राप्त होती है। कानून के निर्बंध के कारण उसे किसी प्रकार की बाधा अब नहीं पहुँचती। कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो उसे उसकी जाति द्वारा भी कोई बाधा नहीं पहुँचाई जाती ब्राह्मण अब दरजी, सुनार, डॉक्टर, बनिया आदि का कोई भी व्यवसाय निर्बंधों के अनुसार तो कर ही सकता है, परंतु उसकी जाति नियमों से भी उसे निर्बंध से कोई कठिनाई नहीं होती। वह ये सब व्यवसाय करने पर भी ब्राह्मण ही बना रहता है। यहाँ स्थिति अन्य वर्णों के लिए भी सार्थक है। पूर्वास्पृश्यों के लिए भी कोई कठिनाई शेष नहीं है। आज कोई भी अस्पृश्य कोई भी व्यवसाय कर सकता है। निर्बंधों के कारण उसे कोई कठिनाई नहीं होती। समाज का अप्रत्यक्ष उपद्रव उसे आज भी सहना पड़ता है, परंतु इसका सामना उसी को करना चाहिए तथा उचित समय पर नैबंधिक सहायता लेते हुए उस उपद्रव को नष्ट करना चाहिए। व्यवसाय बंदी आज भी भट तथा भंगी का व्यवसाय करने के लिए विद्यमान हैं। इन दो अपवादों का उच्छेद करने का काम सुधारकों के लिए शेष है। यह उन्हें कराना ही है तथा उन्हीं के द्वारा यह होना चाहिए। इनमें भंगी के व्यवसाय का एकाधिकार (मोनोपली) तोड़ने के दो उपाय हैं, एक है भंगियों के साथ प्रत्येक प्रसंग में सम्मानपूर्वक आचरण करना। उसका हाथ पकड़कर उसे हेतुपूर्वक अपने साथ घुमाइए । स्पृश्यों को अपने मकान में जिस तरह प्रवेश दिया जाता है उसी प्रकार से उसका भी स्वागत कीजिए। प्रत्येक समय समाज का ध्यान आकर्षित करने हेतु स्पष्ट तथा प्रकट रूप से उसे ले जाइए। इससे भंगी का काम एक निद्य कार्य है यह भावना नष्ट हो जाएगी तथा अन्य लोग भी यह व्यवसाय करने में भय का अनुभव नहीं करेंगे। अन्य उपाय यह है कि सुधारकों को विशेष प्रसंगों पर प्रकट रूप से यह व्यवसाय करना चाहिए तथा कुछ समय तक वही नौकरी करनी चाहिए। सुशिक्षित सुधारकों ने भंगियों की हड़ताल के समय सारा काम स्वयं संभालकर नगर तथा गाँव स्वच्छ रखना चाहिए। स्वयं के लिए आप ही भंगी बन जाते हो। त्रिकाल स्नान करनेवाला स्नातक भी स्वयं अपने लिए यह काम करता है। महान् चक्रवर्ती राजा भी अन्य सभी काम दूसरों से करवा सकता है, परंतु स्वयं का भंगी काम उसे ही करना पड़ता है। यह काम दूसरों पर सौंपना असंभव है। यह शिक्षा सुधारकों को वार्तालाप के माध्यम से औरों को देनी ही होगी, परंतु स्वयं प्रकट रूप में भंगी काम समयानुसार करते हुए आचरण से दरशाना भी चाहिए।

भटों की व्यवसाय बंदी तोड़ने के उपाय हैं-ब्राह्मण सुधारकों के द्वारा संभव हो तो भटों को आमंत्रित नहीं करना चाहिए। अपने यहाँ के सारे व्रत, सत्यनारायण की पूजा तथा अन्य पूजा-पाठों का संचालन स्वयं करना चाहिए। विवाह निर्बंध (कानून) पंजीयन पद्धति से किए जाना चाहिए। ब्राह्मण सुधारकों के लिए सहभोजन में प्रकट रूप से सम्मिलित होने में किसी प्रकार की कठिनाई नहीं होगी। ऐसा कुछ कहने पर भट हम लोगों के यहाँ नहीं आएगा, यह भय भी शेष नहीं रहेगा। दूसरा उपाय यह है- ब्राह्मणोत्तर सुधारकों द्वारा भटों को इसी शर्त पर आमंत्रित किया जाना चाहिए कि आपको वेदोक्त संस्कारों के अनुसार पूजा-पाठ करना होगा। गौरी-गणपति आदि प्रत्येक प्रसंग पर वेदोक्त पूजा करवाई जाती है, तब वेदोक्त बंदी भी टूट जाएगी। बड़े-बड़े सेठ लोग अथवा सरदार, श्रीमान् अब्राह्मण आदि के यहाँ वेदोक्त कार्य करने के लिए ब्राह्मण मिल जाते हैं, इस भय से कि ऐसा न किया जाए तो उनके व्यवसाय में घाटा हो जाएगा। यह प्रयोगसिद्ध बात है। उदाहरणार्थ, रत्नागिरि में यह प्रथा है, परंतु ब्राह्मणेतर सुधारक भी ब्राह्मणों पर यह शर्त लगाने के लिए तत्पर नहीं दिखाई देते। वहाँ भटों से भी अधिक दोषी ये वाचाल सुधारक ही होते हैं, ऐसा कहना अनुचित होगा। जहाँ संभव होगा वहाँ भटों की व्यवसाय बंदी समाप्त करने हेतु विद्वान् सुधारकों को पौरोहित्य का, अर्थात् भटों के विषय का अध्‍ययन करना चाहिए। गुरव, जंगम, जोशी आदि अब्राह्मण भटों की भी भटशाही इसी प्रकार के उपायों से समाप्त की जानी चाहिए। इसमें भट का अपराध तो बहुत थोड़ा ही है। सारे ब्राह्मणों को निरर्थक व्रत आदि को त्याग देना चाहिए। विवाहादि नैर्वाधिक करार के रूप में पंजीयन द्वारा किए जाने चाहिए। सारी पूजा-प्रार्थना अपनी भाषा में भक्तिभावपूर्वक स्वतंत्र रूप से की जाए।

स्पर्श बंदी

जन्मजात जातिभेद का दूसरा पाँव है स्पर्श बंदी। वह व्यवसाय बंदी के समान आज पहले से ही पंगु नहीं हुआ है। उसपर चारों ओर प्रहार किए जा रहे हैं। इस कारण वह भी पर्याप्त रूप से दुर्बल बन चुका है तथापि सुधारकों को यह स्पर्शबंदी तोड़ने के लिए अभी भी दस-बारह वर्षों तक पराकाष्ठा से प्रयास करने होंगे। स्पर्श बंदी भी व्यवसाय बंदी के समान यच्ययावत् हिंदू समाज के लिए कष्टदायक नहीं है। स्पृश्य कहलानेवाले बीस करोड़ हिंदुओं को इस रोग से मुक्ति मिल चुकी है। शेष तीन-चार करोड़ हिंदुओं को जन्मत: उन्हें कोई रोग न होते हुए भी इस महारोग की विषैली सूई समाज द्वारा बलात् लगाई जाती है तथा उनका जीवन कोढ़ियों से भी दुर्भाग्यपूर्ण एवं दुर्धर, तिरस्कृत और अमंगल बना देते हैं।

परंतु केवल स्पृश्यों द्वारा ही इस प्रकार का प्रवचन नहीं किया जाता। एक अस्पृश्य दूसरे अस्पृश्य के साथ भी ऐसा ही व्यवहार करता है। गाँव के कुएँ पर कुत्ते घूमते रहते हैं तथा वहाँ पानी भी पीते हैं, परंतु मध्याह्न में प्यास से व्याकुल किसी महार को पानी को स्पर्श करने पर अपशब्द कहकर वहाँ से भगा दिया जाता है। उस समय वह महार उन ब्राह्मणों तथा मराठों को क्रूर कहता है। यह कोई अपशब्द नहीं है, केवल सत्य कथन है। परंतु यदि महारों की बस्ती के कुएँ पर दोपहर के समय कोई भंगी प्यास से तड़पते हुए पानी पीने पहुँचता है तब महार लोग भी उसके साथ उसी प्रकार का व्यवहार करते हैं जो ब्राह्मणों द्वारा उनके साथ किया गया था, वह उस भंगी के लिए ब्राह्मण बन जाता है तथा भंगी का प्रवंचन करता है। नासिक के राममंदिर सत्याग्रह के समय महार लोग इसमें घुस पड़े और अस्पृश्यों के दर्शन से ईश्वर भ्रष्ट न हो इस कारण 'स्पृश्य' तथा ' अस्पृश्य' ऐसे दो वर्ग बनाए तब कुछ भटजी-सेठों द्वारा महारों के सिर पर लाठियों से हमला किया गया। इसपर महारों को सात्त्विक क्रोध आया और वे भी अत्यधिक उत्तेजित हुए। उन्हें यह भीभूलना नहीं चाहिए कि यदि महार जाति के मरी आई के मंदिर में दर्शनार्थ हिंदुत्व के उसी अधिकार से भंगी लोग प्रवेश करने लगते हैं, तो महार भी लाठियों से उनके करतलों पर प्रहार करने से नहीं चूकते।

अर्थात् स्पर्श बंदी तोड़ने के लिए 'स्पृश्य' सुधारकों के साथ अस्पृश्य सुधारकों को भी सहयोग करते हुए प्रयत्नों को पराकाष्ठा करना आवश्यक है। स्पर्श बंदी तोड़ने का दायित्व स्पृश्यों के समान अस्पृश्यों का भी होता है।

इस छोटे से लेख में कम महत्त्वपूर्ण उपायों का उल्लेख करना संभव नहीं होगा। साधारण रूपरेखा देता हुआ दिग्दर्शन हेतु कुछ महत्त्वपूर्ण उपाय सुझाना ही संभव है। यहाँ इतना कहना ही पर्याप्त होगा कि अस्पृश्यता दूर करने का अर्थ है। उन्हें स्पर्श करना। अस्पृश्योद्धार उन्हें शिक्षा नौकरियाँ, घर आदि देने की बात भी (अस्पृश्योद्धार) जातिभेद का विषय नहीं है। इसका संबंध प्रत्यक्ष रूप से जातिभेदोच्छेदन से जन्मजात अस्पृश्यता तोड़ने से ही है। स्पर्श न करना अस्पृश्यता है अर्थात् स्पर्श करना अस्पृश्यता तोड़ना होता है। रोटी बंदी, बेटी बंदी, वेदोक्त बंदी आदि अन्य सुधारवाद के सुधारों की सीढ़ियाँ हैं, वे स्पृश्यों के लिए ही लागू होती है। अस्पृश्यों के गुटों को स्पृश्य करते ही अस्पृश्यता का लोप हो जाएगा। अर्थात् अनेक समस्याएँ इस समस्या में उलझी हुई है, अतः स्पर्शबंदी की श्रृंखला तोड़ देना एक तरफ से सरल दिखाई देता है तो उसका दूसरा पक्ष अधिक जटिल प्रतीत होता है। केवल स्पर्श करने से ही यह काम बहुत सरलतापूर्वक हो जाता है। ऐसा करते ही जातिभेद का एक पाश तत्काल टूट जाता है। चार करोड़ हिंदू बांधवों को मानवता का अधिकार देने का महाकृत्य स्वयं की ओर से करने का पुण्य उस व्यक्ति को प्राप्त होता है। हे हिंदू घटक! अन्य कोई कुछ भी क्यों न करता हो, तुम स्वयं अपने लिए यह प्रण करो कि जिस उँगली से कुत्ते को भी स्पर्श किया जाता है उससे मेरे अस्पृश्य बंधुओं को मैं सदैव स्पर्श करता रहूँगा। इससे तुमने अपनी ओर से अस्पृश्यता के पाप से हिंदूजाति को मुक्त करने का पुण्य प्राप्त किया है। सामान्य समृश्यों के घरों में हम लोगों के समान ही अस्पृश्यों को भी प्रवेश प्राप्त होना चाहिए। किराए पर दिए जानेवाले मकान स्पृश्यों के समान अस्पृश्यों को भी दिए जाने चाहिए। जिनके स्वयं के कुएँ होंगे, उन्हें स्पृश्यों के समान अस्पृश्यों को भी इन कुओं पर पानी भरने पर किसी प्रकार का प्रतिबंध नहीं लगाना चाहिए। प्रदर्शन करने के लिए जान-बूझकर महार, भंगी आदि धर्मबांधवों को हाथों में हाथ डालकर जब संभव हो तब मार्गों पर, बाजारों में तथा यात्राओं में अपने साथ ले जाना चाहिए जो कोई अस्पृश्य मिल जाता है उसे स्पृश्य के समतुल्य मानकर उससे उसी प्रकार का आचरण किए बिना तथा सभी के समक्ष किए बगैर आपका दैनिक कार्यपूरा हुआ है ऐसा न मानिए। अस्पृश्य सुधारकों को उन निम्न जाति के अस्पृश्यों के साथ इसी प्रकार का प्रण करते हुए, यही आचरण करना चाहिए। चमार द्वारा पेड़ को, महार द्वारा भंगी को समान अधिकार देते हुए स्पर्श करना चाहिए। संघटक सुधारकों में प्रत्येक व्यक्ति केवल वार्तालाप करना छोड़कर सदैव इसी प्रकार का आचरण करता है, तो स्वयं की दृष्टि में अस्पृश्यों को उसने पूर्णतः पूर्वापृश्य बना दिया है, इस प्रकार इसका अर्थ होगा। इससे दस वर्षों के काल में अस्पृश्यता का कोई निशान भी शेष नहीं रहेगा। आज संघटक सुधारकों की संख्या इतनी अधिक हो चुकी है।

अस्पृश्य सुधारकों को व्यक्तिगत रूप से एक प्रण और करना चाहिए। आज के निर्बंधों के कारण अनेक शालाएं, कचहरियाँ, धर्मशालाएँ, कुएँ, वाहन आदि सार्वजनकि स्थानों पर अस्पृश्यता का निष्कासन हो चुका है। उन सारी नैबंधिक कानूनी-सुविधाओं का लाभ प्रत्येक अस्पृश्य सुधारक को लड़-झगड़कर भी लेना। चाहिए तथा उन्हें आत्मसात् करना चाहिए। ऐसा करना सुलभ है, क्योंकि उसे निर्बंध से सहायता प्राप्त हो सकती है। श्री राजभोज बोर्ड के कुएँ पर अस्पृश्यों द्वारा पानी भरवाने के लिए जो प्रयास किए जा रहे हैं तथा नागपुर आदि प्रांतों में निर्बंधानुरूप खोले गए तालाब आदि स्थानों का प्रत्यक्ष उपाय करने की प्रथा वहाँ के अस्पृश्य नेता आक्रमक होकर तथा प्रसंग उत्पन्न होने पर सत्याग्रह द्वारा भी स्थापित कर रहे हैं, उसी दृष्टिकोण का प्रत्येक 'अस्पृश्य' द्वारा यहाँ-वहाँ, सभी स्थानों पर अंगीकार किया जाना चाहिए।

आज निर्बंध के अनुसार जो अधिकार प्राप्त हुए हैं उनमें अत्यंत प्रभावी अधिकार है-पाठशालाओं में बच्चों को मिलकर बैठाने का अधिकार। तालाब, कुएँ आदि के अधिकार से भी इस अधिकार का उपयोग किया जाना चाहिए। पाठशालाओं के छात्र स्पृश्यास्पृश्य भावना को भूल जाने की बात सीख लेते हैं, तो अगली पीढ़ियों के बच्चों को धोबी आदि लोगों के समान महार, मांग भी उन्हें सहज ही स्पृश्य प्रतीत होंगे। वे किसी समय अस्पृश्य थे इसकी स्मृति भी उन्हें शेष नहीं रहेगी। बाल्यकाल से ही सबसे मिलकर आनंदपूर्वक रहने के कारण अस्पृश्य बच्चों से खोत, वकील तथा सेठों के बच्चों के साथ रहने से समान स्तर पर रहने के कारण अस्पृश्य बच्चों का रहन-सहन भी सुधर जाता है तथा बुद्धिमानी की स्पर्धा में अस्पृश्य बच्चों का क्रमांक ब्राह्मण आदि के ऊपर होता है। इस कारण अस्पृश्यों का आत्मविश्वास वृद्धिंगत होता है तथा स्पृश्यों का अहंकार भी छूट जाता है। आज पाठशालाओं में बच्चे एक साथ बैठते हैं। कब इन्हीं अस्पृश्यों के पूर्वास्पृश्य हो जाएँगे? शासकीय निर्बंध अस्पृश्यों का पक्षपाती होने के कारण मंदिर प्रवेश की तुलना में अधिक प्रभावी होते हुए भी अधिक सहज साध्य है।

इस कारण पाठशाला-प्रवेश की तुलना में मंदिर प्रवेश के प्रश्न को अभी गौण समझना ही उचित होगा। क्योंकि मंदिर प्रवेश में वर्तमान प्रथा, व्यक्तिक मत आदि प्रत्येक प्रकरण में निर्बंध अस्पृश्यों के विरोधी होंगे। मंदिर प्रवेश की समस्या पर आक्रमण करते हुए उसे उड़ा देने का अत्यल्प विरोध तथा अधिक प्रभावी मार्ग रत्नागिरि के पतितपावन मंदिर का है। अनेक अखिल हिंदू देवालय जाति निर्विशेष समानता के दृढ़ आधार पर प्रत्येक नगर में स्थापित करने चाहिए। यह काम सफलतापूर्वक करना है। प्राचीन मंदिर तत्काल खोल दिए जाने चाहिए। परंतु यह काम उनपर सामने से चढ़ाई करने से नहीं बल्कि अखिल हिंदू देवालयों अथवा धर्मालयों की सुरंग लगाकर उसके मर्मस्थान को स्फोट द्वारा उड़ा देने से, समाज की भावनाओं में क्रांति लाने से यह काम सुलभतापूर्वक किया जा सकता है इस वर्ष किसी समय रत्नागिरि के जाति उच्छेदक आंदोलन के प्रयोग की प्रत्यक्ष फलश्रुति हम एक स्वतंत्र लेख में देना चाहते हैं। उसमें श्रीपतितपावन जैसी अखिल हिंदू संस्था का परिणाम कितना दूरगामी होता है यह भी स्पष्ट रूप से कहा जाएगा।

रोटी बंदी

रोटी बंदी तोड़ना जन्मजात जातिभेद को नष्ट करना ही है, क्योंकि व्यवसाय बंदी टूट चुकी है। स्पर्श बंदी भी संपूर्ण हिंदू समाज में लागू नहीं होती। वह केवल अस्पृश्यों तक ही सीमित है। वह भी अब टूट रही है तथा रोटी बंदी टूटकर यदि ब्राह्मण किसी महार के साथ भोजन करने लगे तब वह महार को स्पर्श करेगा अथवा नहीं, यह प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होगा। खानेवाला टुकड़ा खाने के लिए क्यों भयभीत होगा? तथा बेटी बंदी, रोटी बंदी तोड़ने के समान ही क्यों आवश्यक है, इसे हम आगामी विवेचन में बतानेवाले भी हैं। इस प्रकार आज के जातिभेद के चारों पैरों में से जिस पाँव पर प्रहार करने से यह विशाल शरीर टूटकर गिर जाएगा, वह पाँव है रोटी बंदी का। आज की हजारों जातियों को एक-दूसरे से पृथक् करनेवाला प्रमुख तथा सर्वगामी लक्षण है रोटी बंदी और बेटी बंदी। इसमें रोटी बंदी बहुत अल्प प्रकरणों में सार्वजनिक तथा त्वर्य (अर्जंट) काम में बाधा बनती है। यह बाद में देखेंगे, शेष रोटी बंदी को केवल तत्काल तोड़ना चाहिए। यह हो जाने पर जन्मजात जातिभेद में आज जो थोड़ी-बहुत जान बची है उसके मर्मस्थान पर घातक प्रहार होगा ऐसा, समझ लीजिए।

रोटी बंदी तोड़ने का उपाय भी अविश्वसनीय रूप से सरल है। केवल भोजन करना। भिन्न जाति के लोगों के साथ भोजन करना। ऐसा किया जाने पर इतना दुर्गम, दुःसाध्य प्रतीत होनेवाला जातिभेद का प्रथम दुर्ग चरमराकर नष्ट हो जाएगा। इस कारण प्रत्येक सुधारक को ऐसा घोषित करना आवश्यक है कि जो पदार्थ रुचिपूर्ण तथा पाच्य है, उसे वैद्यकीय दृष्टि से किसी भी योग्य मनुष्य के यहाँ ग्रहण किया जाना चाहिए। वह हिंदू है अथवा मुसलमान या अंदमान का निवासी हो, तब भी किसी के साथ भी भोजन ग्रहण करने अथवा पीने से, सहस्र भोजन समारोह में साथ पीने से जाति भ्रष्ट नहीं होती है। धर्म डूबता नहीं है। सहपान अथवा सहभोजन एक वैद्यशास्त्रीय प्रश्न है। संपूर्ण जाति अथवा धर्म चावल में उठे (Soup) बुलबुलों में डूबेगा नहीं। धर्म डूबता नहीं है। यह प्रश्न ऐसा भोला कथन करनेवाले धर्मशास्त्र की भी नहीं है। यदि कोई संघटक सुधारक पूछता है कि आज के स्वरूप में जो जातिभेद विद्यमान है, उसकी निश्चित मृत्यु किस उपाय से होगी, तो हम एक ही शब्द में प्रयोगसिद्ध सत्य के रूप में उसे कहेंगे कि 'सहभोजन सहभोजन !! सहभोजन !!!'

इस पोथीजात जातिभेद का अंत सहभोजन से ही होगा। उसे इन शर्तों परआयोजित करना होगा -

1. हम लोगों को सहभोजन का तत्त्व मान्य है, इस प्रकार बोलते हुए सहभोजन में सहभागी होने का भय आपको नहीं होना चाहिए। सहभोजन में अन्य कोई भी सहभागी होता है, तब भी अन्य जाति का एक भी व्यक्ति वहाँ उपस्थित हो तो उसके साथ आप स्वयं भोजन करो और अपनी दृष्टि से रोटी बंदी तोड़ दो।

2. यह जन्मजात रूढ़ि किसी अन्य समय तोड़ेंगे, अभी ऐसा करने की आवश्यकता है? इस प्रकार प्रश्न पूछकर बाद में आजन्म सहभोजन में सम्मिलित न होने का भीरुत्व अथवा सभ्यत्व निरुपयोगी है। यह मानते हुए प्रत्येक दिन सहभोजन का अवसर प्राप्त होता है, तब प्रत्येक दिन सहभोजन करना चाहिए। सदैव ब्राह्मण भोजन का आयोजन करनेवाला यदि अधिक पुण्यवान समझा जाता है तो इसी प्रकार सहभोजनों का आयोजन करनेवाले को दुराग्रही क्यों माना जाता है ? जो नित्य ब्राह्मण भोज में सहभागी होता है, वह जब पुण्यवान माना जाता है, उसी प्रकार नित्य सहभोज में भाग लेने वाले को भी पुण्यवान माना जाना चाहिए।

3. प्रत्यक्ष सहभोजन प्रकट रूप से घोषित किए जाने के पश्चात् होना आवश्यक है। सहभागी होनेवालों के नाम छपने चाहिए। ईरानियों की दुकानों में जिस प्रकार भटजी मिल जाते हैं, कॉलेजों में अथवा कलेक्टर साहब के साथ चुपके से भोजन करनेवाले वकील अथवा उपाधिकारक प्रकट रूप से हम लोगों की रोटीबंदी संस्कृति की प्रशंसा करते हुए जिस प्रकार पाए जाते हैं। उसी प्रकार मिथ्याचारी सुधारक भी दुर्लभ नहीं हैं। (उनका उपयोग क्या है ?)

4. प्रत्येक सहभोजन में (संभवतः) अस्पृश्य मनुष्य होना चाहिए। सहभोजन की यही उचित क्षार परीक्षा (एसिड टेस्ट) है। अन्यथा ब्राह्मणों के साथ सहभोजन करने हेतु ललचानेवाले लोग जब महारों के साथ बैठते ही कहते हैं-'आज पेट में कुछ गड़बड़ी है, थोड़ा दूध ही ले लेता हूँ।' इस प्रकार से बात करनेवाले ढोंगी लोगों की कमी नहीं है।

हम अनुभवजन्य निश्चितता से कहते हैं कि इस प्रकार का आचरण करनेवाले पाँच सौ संघटक सुधारक बार-बार सहभोजन का आयोजन करते रहेंगे तो पाँच हजार निवासियों के नगर से रोटी बंदी की रूढ़ि समाप्त कर सकते हैं। यह किस प्रकार संभव है उसे लेखकीय मर्यादा के कारण विस्तारपूर्वक हम नहीं बताएँगे तथा विस्तृत चर्चा आवश्यक भी नहीं है। सच्चे संघटक सुधारकों को हम आश्वासन देते हैं कि यह काम शुरू कीजिए और यदि आपको इसका फल प्राप्त न हुआ तो इस बात का विस्तारपूर्ण समर्थन करना होगा। परंतु पाँच सौ निरंतर आग्रहशील सुधारकों पर बहिष्कार करनेवाला पाँच हजार का बहुजन समाज भी अंततः हार मान लेता है, क्योंकि बहिष्कार ऐसा शस्त्र है जो चलानेवाले को भी काटता है। सच्चा सुधारक निश्चितार्थ होता है। बहुजन समाज वैसा नहीं होता है। बहुजन समाज इस रोटी बंदी के विषय में विशेष रूप से आग्रही नहीं दिखाई देता और कुछ समय पश्चात् उसका दृष्टिकोण भी कुछ परिवर्तित होता है तथा उसे अब रोटीबंदी के लिए बहुत क्रोध नहीं होता। उसका महत्त्व कम हो जाता है। जहाज में छुआछूत नहीं है यह एक नया शास्त्र उपजा है, उसी प्रकार सहभोजन के कारण जातिभ्रष्ट नहीं होते हैं, यह तत्त्व भी अनायास समझ में आ जाता है तथा मान्य हो जाता है।

बेटी बंदी

जातिभेद तोड़ना है, ऐसा कहने पर सामान्य लोगों को भय हो जाता है कि इससे बेटी बंदी भी समाप्त हो जाएगी तथा इससे बहुत अव्यवस्था होगी। अब सैकड़ों ब्राह्मण कन्याओं को महारों के घरों में बंद कर देना होगा तथा चमारों की मराठों के घरों में देना होगा, इसी प्रकार की एक भयावह कल्पना जातिभेद तोड़ने का उल्लेख करते ही उत्पन्न हो जाती है। वे लोग भयभीत हो जाते हैं। परंतु कुछ सुधारक, विशेषतः जहालपथीय अस्पृश्य जातिभेद तोड़ने का अर्थ ही यह करते हैं कि ब्राह्मण कन्याओं की शादी अस्पृश्यों से रचा देनी चाहिए। वे बहुत जोर देकर यह बात कहते हैं।

परंतु वास्तविक सत्य यह है कि पहले का भय तथा इस दूसरे की आकांक्षा दोनों ही मिथ्या तथा अतिवादी हैं। बेटी बंदी का अर्थ यह कदापि नहीं है कि किसी विशिष्ट जाति की कन्याओं का विवाह किसी अन्य जाति के युवकों से कराया जाना ब्राह्मण अथवा वैश्य कन्याओं के विवाह अस्पृश्यों के साथ रचा देना, ऐसा इसका अर्थ होता है, ऐसा कहनेवाले भी जब इस व्यवहार में प्रतिमूल्य का प्रश्न उपजते ही भय से अब कहते हैं कि 'नहीं, नहीं, ऐसा करना आवश्यक नहीं है, उन्हें ही यह प्रतिमूल्य उचित नहीं प्रतीत होता। यदि जातिभेद नष्ट करने हेतु ब्राह्मण-वैश्यों की सौ कन्याएँ महारों के यहाँ ब्याही जाएँगी, तो इसी शर्त के अनुसार महार चमारों की सौ कन्याओं का विवाह भगियों तथा धेड़ों से भी रचा देना होगा। अतः यदि भंगी इस तरह की माँग करते हैं तो महारों को यह बात समझ में आ जाती है। उन्हें प्रतीत होता है कि हमारे द्वारा इस तरह माँग करने पर उसका अत्यधिक मूल्य चुकाना होगा तथा वे भी विवेकपूर्ण बातें करना प्रारंभ कर देते हैं।'

यह विचार कुछ इस प्रकार का है- किसी विशिष्ट जाति द्वारा अन्य जातियों में अपनी कन्याओं का विवाह रचाने की बात आज के समय में असह्य और असंभव प्रतीत होती है। आज की उपवर कन्याएँ अपने लिए स्वयं वर ढूँढ लेंगी। हम लोगों का विवाह रचानेवाले आप कौन होते हो, ऐसा प्रश्न वे माता-पिता को भी पूछ सकती हैं, वहाँ किसी अन्य ऐरे-गैरे की बात का कुछ भी महत्त्व नहीं है। दूसरी बात यह है कि महार, वैश्य, बंगाली अथवा मराठों ने पास बैठकर सहभोजन में अन्न ग्रहण करना तथा भाषा, वेशभूषा, आचार तथा आहार भिन्न होनेवाली कन्या को दूसरे अपरिचित वातावरण में जबरन भेजना- दो भिन्न बातें हैं-काल निर्बंध द्वारा रोटी बंदी तोड़ देने से महाराष्ट्र की ब्राह्मण कन्या का विवाह बंगाली ब्राह्मण नवयुवक के साथ रचा देना, यह बात हजारों में से नौ सौ निन्यानबे लोगों के लिए ठीक नहीं होगी। जाति का विचार भी नहीं किया जाता है तब भी आज के विवाह जैसे शरीर संबंधों में सुविधाओं का विचार अवश्य किया जाएगा। उन मराठी तथा बंगाली वर-वधू की रुचियाँ भिन्न होंगी-एक सी होना दुर्घट है। मराठी वधू उस बंगाली के घर और इधर अपने बंगाली ससुराल में मराठी पति एक की बात दूसरा नहीं समझता। स्नान के पश्चात् साड़ी पहनते समय बंगाली सास पाँच गज की साड़ी पहनती है, इसे नौ गज की साड़ी पहनने की आदत होते हुए यह साड़ी पहनकर घर में घूमना उचित नहीं प्रतीत होता। सास खाना पकाते समय उसे कहती में है-'जरा ये चार मछलियाँ तो साफ कर देना।' खाते समय वे बंगाली ब्राह्मण मछली का झोल चाव से खाते हैं, तो वह मराठी कन्या मछलियों के दुर्गंध से ही वमन कर देगी। यदि मायके जाना हो तो तब किसी विवाह में करना पड़ता है उतना व्यय करना पड़ेगा। यह बात तो हुई एक प्रांत की लड़कों का स्वजातीय लड़के से परंतु दूसरे प्रांत में विवाह होने को। वैसा ही गाँव की महार लड़की वहाँ पर किसी मराठा या चमार के यहाँ देने पर होगा। इसमें भाषा, रहन-सहन की भिन्नता तथा सुविधाएं अथवा उसके अभाव तथा रुचियों में पृथकता होने के कारण बेटी बंदी तत्त्वतः टूट जाने पर भी, एक जाति की सैकड़ों कन्याएँ दूसरी जात में बलात् भेजने के बारे में भय विद्यमान है, तब भी ऐसा होना कदापि संभव नहीं होगा। यह भय केवल काल्पनिक है। इंग्लैंड तथा स्कॉटलैंड में जाति के कारण बेटी बंदी नहीं है। परंतु इस असुविधा के कारण लंदन में रहनेवाली हजारों इंग्लिश कन्याओं में स्कॉटलैंड में बहू बनकर जाने की बात संदेहास्पद प्रतीत होती है। लंदन की लड़कियाँ लंदन के पास का ही कोई वर अपने लिए ढूँढ लेती हैं। वही स्थिति बेटी बंदी तत्त्वतः टूट जाने पर भी बनी रहेगी। पुणे, मद्रास, कलकत्ता अथवा रत्नागिरि की कन्याएँ अपने लिए पड़ोस के नगर में ही तथा स्वजाति की ससुराल ढूँढ़ेंगी, स्वयंवर रचाएँगी। अतः बेटी बंदी टूट जाने से सदा के व्यवहार में कोई अचानक बड़ा परिवर्तन नहीं होगा। फिर बेटी बंदी तोड़ने का अर्थ क्या है ? इसका अर्थ है 'बेटी बंदी तोड़ना किसी विशिष्ट जाति की कन्याएँ किसी अन्य विशिष्ट जातियों की बहुएँ होना आवश्यक है ऐसी कोई आज्ञा नहीं होगी। किसी हिंदू ने प्रेमशील, सुप्रजनक्षमता आदि वैवाहिक गुणानुकूल अन्य जाति का वधू या वर पसंद किया तो केवल जाति भिन्न है, इस कारण ही उस विवाह का निषेध नहीं किया जाना चाहिए तथा उन वधू-वरों को पूर्णतः सव्यवहार्य मानने में किसी प्रकार की कठिनाई नहीं होनी चाहिए ऐसी एक अनुज्ञा है।'

इस प्रकार की अनुज्ञा जन्मजात जातिभेद तोड़ने के लिए ही नहीं, परंतु शुद्धि आंदोलन को आत्मसात् करने हेतु भी अत्यंत आवश्यक है तथा हिंदू राष्ट्र के संगठन के लिए उपकारक और अपरिहार्य है।

बेटी बंदी तोड़ने की एक मर्यादा का मनुष्य प्रगति के वर्तमान स्थिति में तथा हिंदू राष्ट्र की आज की विशिष्ट अवस्था में निरपवाद रूप से पालन किया जाना आवश्यक है। किसी हिंदू द्वारा किसी भी अन्य जाति में विवाह करना किसी चिंता का विषय नहीं है, परंतु अपनी सीमा से बाहर जाकर किसी ने भी मुसलमानों अथवा ईसाइयों से विवाह नहीं रचाना चाहिए। जब तक मुसलमान मुसलमान ही बने रहना चाहते हैं, तब तक हिंदुओं को भी हिंदू ही बने रहना होगा। उन्हें हिंदू करने के पश्चात् ही अहिंदुओं से विवाह रचाना हम लोगों के हिंदू राष्ट्र के सामुदायिक हित के विरोध में होगा। उस समय तक जब ये दुराग्रही अहिंदू केवल मानवधर्म की पूजा करना प्रारंभ नहीं करते अथवा अपनी मुसलमानी विचारधारा का त्याग नहीं करते तथा मानवता में सम्मिलित नहीं होते तब तक हिंदुओं को मानव धर्म के अनुसार मानवता का संबंध उनसे नहीं बनाना चाहिए। तत्पश्चात् किसी जाति धर्म, देश के भिन्न भाव को न मानते हुए केवल मानवता का संबंध रखना चाहिए। परंतु आज हिंदुओं ने इस प्रकार का प्रातिपूर्ण आचरण करना मानवता का विरोध करने के समान है।

बम से नहीं,बूँदी के लड्डुओं से!

यदि इन तीनों लेखों में दिए हुए कार्यक्रम के अनुसार प्रत्येक संगठन अन्य किसी के लिए न रुकते हुए स्वयं ही इन सुधारों को अपने दैनिक आचरण का अंग बना लेगा तथा प्रत्यक्ष रूप से इस प्रकार का व्यवहार करने लगेगा, तब जन्मजात जातिभेद इस लेख में दिए गए अर्थ में नष्ट होना कोई मुश्किल नहीं है। उसे अपने निर्माण किए जातिभेद आज ही तोड़ देना संभव होगा। जातिभेद का जो पाँव आज भी कार्यरत है, वह है रोटी बंदी। इसे प्रत्येक सुधारक को तत्काल तथा सदेव तोड़ते रहने की आवश्यकता है। सहभोजन जातिभेद के भूत को मिटानेवाला प्रथम मंत्र है। केवल शास्त्राधार जैसे व्यर्थ उपाय से जातिभेद नष्ट नहीं होगा। परंतु प्रत्यक्ष शास्त्राधार के नैबंधिक सख्ती से भी उसे मारना दुर्घट तथा अनिष्ट भी है। यदि उचित रूप से उसका वध करना हो तो, हे सुधारक! तू स्वयं रोटी बंदी को तत्काल तोड़ दे। यह साधन कितना सरल है! ब्राह्मण तथा महारों के साथ बैठकर बूँदी के लड्डू खाने से जातिभेद नष्ट होने में समय नहीं लगेगा। जातिभेद के इस दुर्ग को यह शाप दिया गया है, 'तू शतकों तक बम वर्षा से भी नहीं टूटेगा, परंतु अंततः बूँदी के लड्डुओं से तू टूटकर गिर पड़ेगा।

हिंदू ध्वज

'स भूमिम् विश्वतोवृत्वा अत्यातिष्ठत् दशांगुलम्' प्रत्येक ध्येय, प्रत्येक समष्टि, प्रत्येक नवीन महान् कार्य के लिए उसका रहस्य व्यक्त करनेवाला तथा अपनी स्फूर्ति से उसके अंतःकरण को उद्दीप्त करनेवाला जो संस्कार तथा जो स्वतंत्र प्रतीक होना आवश्यक है, उन सबमें उस ध्येय, समष्टि अथवा महान् विचारों का द्योतक तथा प्रवर्तक उसका ध्वज ही प्रतीक होता है।

एक सा वेष, एक राष्ट्र तथा एक संस्कृति, एक रक्त, एक बीज, एक भूतकाल तथा एक ही भविष्य आदि अखंडनीय संबंधों से एक बने हुए इस एक गुटके बाईस करोड़ हिंदूजाति के महान् समष्टि का तथा उसकी संघटना के महान कार्य का उद्देश्य तथा संदेश, बल तथा तेज अखिल मानवजाति के लिए व्यक्त करनेवाला प्रतीक है हम लोगों को हिंदूजाति का अभिनव हिंदू ध्वज ।

हम हिंदुओं के भिन्न प्रांतों में भिन्न पंथों के वैशिष्ट्य रूप अनेक भिन्न ध्वज बन चुके हैं। ये ध्वज आज भी उन प्रांतों तथा पंथों में प्रचलित है। मराठों का ध्वज भगवा ध्वज है। राजपूतों के दस-पाँच केसरी ध्वज हैं। गुरखों का सूर्यचंद्रांकित ध्वज है। सिखों, जैनों, वैष्णवों, आर्यों के तथा अनार्यों के हम लोगों के इस महान् हिंदूजाति के प्रत्येक पंथ का तथा प्रांत का पृथक् ध्वज है। वे सभी हम लोगों के लिए पूजनीय तथा आदरणीय हैं। उन भिन्न पंथों तथा उपजातियों के विशिष्ट ध्येयों को व्यक्त करनेवाले ये सभी ध्वज भविष्य में भी भिन्न भाषाओं के समान उन भाषाओं में लहराते रहेंगे। परंतु भिन्न प्रांतों के भाषा संघों का समन्वय करनेवाली 'हम हिंदुओं की' कहकर गौरवान्वित की गई गीर्वाण संस्कृत अथवा यह प्राकृत हिंदी हम हिंदुओं की जातीय भाषा है। हिंदू भाषा है उसी प्रकार हम लोगों के इन पंथों के तथा प्रांतों के विशिष्ट ध्वजों के भिन्न-भिन्न वैशिष्ट्य जिसमें समन्वित किए हुए हैं तथा सर्व पंथ, प्रांत, वर्ण, जातिर्विशेष आदि सभी की महान् पूर्तता करनेवाली यह हम लोगों की हिंदूजाति उसका अपना महान् हेतु है। स्पृश्य या अस्पृश्य, ब्राह्मण या अब्राह्मण, मराठी अथवा बंगाली, वैदिक या अवैदिक, जिनके पितर इस आसिंधुसिंधु तक पावनभूमि में निवास करते आए हैं और इसी कारण यह जिनकी पितृभूमि तथा उन्हीं पितरों के उदर से जन्म लेकर अपना धर्मपंथ स्थापित करने में सफल हुए-इसी कारण यह जिनकी पुण्यभूमि (Holyland) है। धर्मभूमि उन सभी हिंदुओं की महान् समष्टि जो हिंदूजाति, उसके जागतिक संदेश का, अंतर्हित मर्म का तथा व्यावहारिक प्रवृत्ति का द्योतक और प्रवर्तक है हिंदू ध्वज जिस ध्वज की एक बाजू पर कुंडलिनी तथा दूसरी पर कृपाण है वह भगवा ध्वज ही अभिनव हिंदू ध्वज है !

इस हिंदू ध्वज का भारतीय राष्ट्र के हिंदू ध्वज से किसी प्रकार का विरोध नहीं है। ये दोनों प्रतीक विभिन्न होते हुए भी दो संबद्ध स्वतंत्र प्रतीक हैं तथा अपनी मर्यादाओं में अपने कर्तव्यों का निर्वाह करते हुए एक-दूसरे के पूरक हैं। हिंदी राष्ट्रीय ध्वज के होते हुए भी जिस मात्रा में तथा धार्मिक व सांस्कृतिक प्रकरणों में ईसाइयों का क्रास अथवा मुसलमानों के हरित अर्धचंद्र अंकित किए हुए उनके जातीय ध्वज अस्तित्व में रहेंगे, उसी प्रकार उसी मात्रा में जो बाईस करोड़ संख्या की हिंदूजाति है तथा उस हिंदू राष्ट्र की प्रबलतम घटक है, उस हिंदूजाति के जातीय, सांस्कृतिक और धार्मिक संबंधों में यह हिंदू ध्वज ही हिंदुत्व के गौरव तथा आकांक्षाओं का साक्षी बना रहेगा। हिंदू होने के कारण हिंदुत्व को अपनी प्राणपूजा अर्पण करेगा।

हिंदू ध्वज का स्वीकार तथा स्वागत

पहले कभी भी इतनी उत्कंठा से हिंदुत्व की प्रतीती नहीं हुई थी तथा अखिल हिंदू मत को एक प्रचंड समष्टि को संघटित करने की तीव्र आकांक्षा हिंदू संगठन के महान आंदोलन द्वारा प्रदीप्त करते ही उस अखिल संगठन के दिव्य भव्य, नव ध्येय का मर्म व्यक्त करनेवाला यह अभिनव हिंदू ध्वज प्रकट हुआ। उस समय से उसको विभिन्न स्थानों पर स्वीकार किया जा रहा है और स्वागत भी सन् १९२९ में हिंदू सभा का सम्मेलन सूरत में आयोजित किया गया था। उस सम्मेलन में सभा के वयोवद्ध तथा ज्ञानवृद्ध अध्यक्ष श्रीमान रामनंद चटर्जी के कर कमलों द्वारा यह हिंदू ध्वज जब फहराया गया, तब उस महासभा ने खड़े होकर सभामंडप को हिला देनेवाले जय-जयकार से उसका स्वागत किया। उसे जातीय उत्थापन तथा जातीय वंदना दी।

यह हिंदू ध्वज केवल हिंदूजाति का ही प्रतीक नहीं है, हिंदू धर्म का भी प्रतीक है। अत: वह इस धर्म की सर्वांगीण उदारता के समान ही विस्तृत है। हिंदू धर्म के ध्येय के समान वह भी 'सभूमि विश्वतो वृत्वा अत्यातिष्ठत् दशांगुलम्' केवल हिंदू ही नहीं बल्कि संपूर्ण मानव जाति, नास्तिक से आस्तिक तक, हॉटेटार से हिंदुओं तक, वर्ण, जाति पंथ निर्विशेष उसकी अमृतोपम शीतल छाया के नीचे समाविष्ट होकर 'श्रेय परम' प्राप्त करने में सफल होगी। इतना वह विस्तृत तथा भव्य, उदात्त उच्चतम तथा दिव्य है।

क्योंकि लोगों को जो धारण करता है वह धर्म धारण में धर्ममित्याहु: धर्मो धारयति प्रजाः! उस धर्म के दो साध्य हैं अभ्युदय तथा निश्रेयसः। ऐहिक मुक्त पारलौकिक निश्रेयस, अतींद्रिय आनंद, पारमार्थिक परम गंतव्य का जो द्योतक है, उसे इस ध्वज पर अंकित किया है।

कुंडलिनी

यह है, यह किसी वर्ण की अथवा जाति की सत्ता नहीं है, परंतु सभी मनुष्यों में अंतर्हित है। अपनी पीठ की हड्डी को मेरुदंड कहते हैं। उसके दोनों ओर ज्ञानतंतुओं से बनी दो नाड़ियाँ हैं। उन्हें इडा तथा पिंगला (The affarant and the offerent) कहा जाता है। अंग्रेजी आठ के अंक के आकार की अस्थियों की जो पंक्ति है उसमें सुषुम्ना नामक तीसरी नाड़ी होती है, उसे erobrospinal axis ऐसा कोई अंग्रेजी नाम दिया गया है। इडा तथा पिंगला इन नाड़ियों से हम के विभिन्न स्थान के ज्ञानतंतुओं के उपकेंद्र जुड़े हुए है। (Nerve plexuses) उन्हें ही यौगिक भाषा में कमले कहा गया होगा। उनकी संख्या शाक्तों के कुंडलिनी योग में बहुत होने का उल्लेख है, परंतु उनकी संख्या सात है। मूलाधार (Sacral plexus), स्वाधिष्ठान मणिपुर (Naval), अनाहत विशुद्ध, आज्ञा, सहस्रार (Pineal gland where the spinal cord ends in a sort of ball floating in a fluid in the brain.) मूलाधार स्थित सुप्त शक्ति, जो कुंडलिनी, वह योगध्यान से जाग्रत् होते ही प्रत्येक केंद्र से ऊपर चढ़ते हुए अलौकित सिद्धि तथा अनुभव उपभोगते हुए सहस्रार के अंतिम केंद्र पर पहुँच जाती है। वहाँ जब वह पहुँच जाती उस समय साधक को एक अलौकिक अतींद्रिय, अगाध आनंद की प्राप्ति होती है। इसे योगी केवल्यानंद कहेंगे। वज्रयानी महासुख, अद्वितीय ब्रह्मानंद, भक्त प्रेमानंद कहेंगे तथा नास्तिक तथा भौतिक अथवा भौतिक परिभाषा केवल परमानंद (An ecstacy) कहेगी। परंतु यह अनुभव सभी को होना आवश्यक है। फिर वह किसी पैगंबर में, अवतार में, ग्रंथ में, पंथिक मतमतांतर में विश्वास रखता हो अथवा नहीं। इस कारण हम लोगों के हिंदू धर्म के चार्वाकपंथी लोकायतिका सहित संपूर्ण पंथों का कुंडलिनी योग को लेकर कोई मतभेद नहीं है। वैदिक सनातनी, जैन, सिख, ब्राह्मो, आर्य इत्यादि सभी पंथों को कुंडलिनी योग मान्य है, क्योंकि यह प्रत्यक्ष तथा प्रयोगात्मक शास्त्र है, केवल कोई तार्किक मतवाद नहीं है।

इस कारण हिंदू धर्म का जो प्रथम पारलौकिक ध्येय है उसका द्योतक हो सके, अति उत्तम चिह्न कुंडलिनी ही हो सकता है; क्योंकि यह केवल सभी हिंदुओं के लिए ही नहीं, संपूर्ण मानवजाति के लिए बुद्धिगम्य तथा अनुभव करने का तत्त्व है। स्वास्तिक एक जाति विशिष्ट अथवा पंथ विशिष्ट संकेत है। बुद्धिगम्य स्पष्टीकरण ऐसा किया जाए, तो प्रत्येक मनुष्य को प्राप्त होनेवाला प्राकृतिक अतींद्रिय यह शक्ति, यह साधन ही उत्कृष्ट द्योतक है।

हिंदू धर्म की प्रमुख प्रतिज्ञा, प्रमुख वैशिष्ट्य तथा उद्देश्य परमेश्वर से साक्षात्कार, भगवान् से प्रत्यक्ष परिचय, परमात्मा से आत्मा की भेंट करवाना ही है। शक्ति का यह जो संयोग होता है, उसे ही योग कहते हैं। इसी कारण हिंदू धर्म और जाति का पारलौकिक गंतव्य तथा विश्व में पहुँचाने के लिए दैवी संदेश यदि किसी एक शब्द से, स्पष्ट मत से व्यक्त करना होगा तो वह शब्द है योग। इस योग का प्रमुख प्रतीक है कुंडलिनी। इसी अर्थ में हिंदू धर्म तथा जाति का प्रथम ध्येय, जो निश्रेयस है, उसे सुव्यक्त करने का सामर्थ्य हिंदू ध्वज पर अंकित इस कुंडलिनी में ही है, उत्कटतापूर्वक सम्मिलित होना है।

पारलौकिक दृष्टि का विचार कुछ समय नहीं भी किया जाता तब भी हमारी हिंदुजाति ने विश्व को जो अमूल्य ऐहिक दान दिए हैं, उनमें सर्वोत्कृष्ट दान है योगशास्त्र । तात्विक मतभेदों को भिन्न मतों की गड़बड़ी कहा जा सकता है, परंतु योग के लिए ऐसा नहीं कहा जा सकता क्योंकि योग भौतिक परिभाषा के अनुसार केवल परिमाणों में व्यक्त किया जानेवाला एक प्रयोगात्मक प्रत्यक्ष तथा आनुभाव्य शास्त्र है। भौतिक दृष्टि से भी देखा जाए तो मनुष्य की आत्मिक तथा मानसिक ही नहीं, अपितु दैहिक शक्ति भी कितनी आश्चर्यकारक उन्नति कर सकती है, कितनी अद्भुत सिद्धि प्राप्त कर सकती है। मन एक अनिर्वाच्य 'यंलब्धा चापरं लाभ मन्यते न ततोधिक' ऐसे आनंद (Ecstacy) का उपभोग कर सकता है। यह सहस्रों वर्षों के अनवरत प्रयोगों ने संभव तथा प्रमाणित कर दिखाया है। यह योगशास्त्र विश्व संस्कृति के लिए हम लोगों ने प्रदान किया है, यह बात कितनी गौरवपूर्ण है! अपने उसी जातीय गौरव को हम लोगों के राष्ट्रीय ध्वज पर अंकित कुंडलिनी व्यक्त कर रही है।

हम लोगों के हिंदू धर्म तथा जाति का जो पारलौकिक ध्येय नियम है उसे कुंडलिनी द्वारा इस प्रकार व्यक्त करने के पश्चात् उस धर्म का जो ऐहिक साध्य है-अभ्युदय, उसे हम लोगों के ध्वज पर व्यक्त करनेवाला उत्कृष्ट चिन्‍ह है कृपाण ।

यह चिह्न कृपाण ही हो सकता है

प्रत्यक्ष धर्म कृपाण की दंड शक्ति के आधार पर ही सुरक्षित है। इस कृपाण, इस शक्ति तथा ऐहिक अभ्युदय का विस्मरण होना ही हम लोगों को हिंदूजाति की अवनति होने का प्रमुख कारण है। हम लोगों ने कृपाण का ध्यान नहीं रखा। यह एक अपराध ही था। अवनति होने का यही प्रमुख कारण है, इसलिए भविष्य में ऐसा न करने का निश्चय हम हिंदुओं ने कर लिया है। यह सभी शत्रुओं तथा मित्रों को साफ-साफ बताने के लिए अपने हिंदू संगठन के इस ध्वज पर कृपाण अंकित किया जाना आवश्यक है। हम लोगों के धर्म की परिभाषा के अनुसार निश्रेयस तथा अभ्युदय, मुक्ति तथा भुक्ति-ये उसके दो चरण हैं। परंतु दुर्भाग्यवश हम लोगों ने अभ्युदय, भुक्ति तथा जिन साधनों द्वारा ये साध्य किए जा सकते हैं। उस शक्ति को हम लोगों ने पर्याप्त महत्त्व ही नहीं दिया। इस कारण हमारा धर्म पंगु बन गया। उस कारण समाज का ऐहिक तथा पारलौकिक रूप धारण करने की उसकी कर्तव्य क्षमता उसी अनुपात में घट गई। यह भूल भविष्य में नहीं होगी। भविष्य में जिस शक्ति से राज्य प्राप्त किए जा सकते हैं वह शक्ति, वह राष्ट्र शक्ति, वह ऐहिक मुक्ति की तलवार हम लोग भाँग के नशे को ही समाधि मानकर उस अचेतन अवस्था में अपने हाथों से त्यागने वाले नहीं है। वह कुंडलिनी तथा यह कृपाण वह मुक्ति, यह भुक्ति! वह शांति, यह शक्ति! वह योग, यह भोग। वह निचेयस, यह अभ्युदय! वह क्षमा, यह निवृत्ति ! यह ध्येय, वह धारणा। वह औपनिवादिक विद्या, यह औपनिवादिक अविद्या! वह योगेश्वर कृष्ण, यह धनुर्धारी पार्थ! वह ज्ञानयोग की कुंडलिनी, यह कर्मयोग का कृपाण परित्राणाय साधूनाम् विनाशाय च दुष्कृताम्। इंशावास्यइदं सर्व यत्किंच जगत्या जगत्, तेन त्यक्तेन भुञ्जीयाः ! यही हिंदुस्थान का जागतिक संदेश और नई जातीय घोषणा है। कुंडलिनी तथा कृपाण ऐसी ही घोषणा कर रहे हैं।

इस कृपाण की शक्ति द्वारा प्राप्त होनेवाला राज्यसामर्थ्य धन बुद्धिभ्रष्ट लोगों के कलंक से दूषित नहीं हो इस कारण 'तेन त्यक्तेन भुंजीयाः मागृधः कत्याचिद धन' यह नीतिमत्ता का सार तत्त्व सदैव सम्मुख रहना चाहिए, इस कारण इस कृपाण के इस हिंदुध्वज का रंग गैरिक अर्थात् भगवा है। यह रंग त्याग का है, साधुत्व का है। योग न होगा, क्षेम का अभाव होगा तो त्याग किस बात का करना है? अतः यह योगक्षेम का कृपाण हिंदूजाति ने उठाया है। परंतु वह 'आदानं हि विसर्गाय सतो वारि मुच्चरिव' हम लोग स्वतंत्र होंगे, शक्तिसंपन्न होंगे, मुक्त होंगे, परंतु हम लोगों की संपन्नता का ध्वज त्यागी है, भगवा है, गेरुआ है।

गेरुआ अर्थात् भगवा

इस भगवे पर एक ओर ओंकार युक्त कुंडलिनी है तथा दूसरी ओर कृपाण अंकित है। उस जाति के हिंदू ध्वज का संकेत कथन ही गूढार्थ है। यह तात्त्विक रहस्य है तथा तात्त्विक रहस्य के समान इस ध्वज का ऐतिहासिक महत्त्व भी अल्प नहीं। क्योंकि हिंदूजाति में जो भिन्न-भिन्न ध्वज आज तक प्रचलित हैं, उनकी परंपरा का ही यह विकास है, पूर्तता है। हिंदूजाति वर्ग को मुसलमानी आक्रमण के समय जिस उग्र आंदोलन द्वारा हिंदू संगठन का सफलतापूर्वक पुरस्कार किया गया, उस महाराष्ट्रीय हिंदूपदपादशाही का ध्वज भगवा ही था। वह जिस राष्ट्रगुरु ने राष्ट्रवीर शिवाजी को दिया उन समर्थ स्वामी रामदासजी ने उस कार्य की निम्नानुसार परिभाषा की है -

सामर्थ्य आहे चळवळीचे। जो जो करील तयाचे ।

परंतु तेथे भगवंताचे अधिष्ठान पाहिजे ॥ १ ॥

पहिले ते हरिकथा निरुपण । दुसरे ते राजकारण।

तिसरे सावधपण। सर्व विषयी ॥ २ ॥

महाराष्ट्रीय भगवा ध्वज में निगूढ़ अर्थ इस हिंदू ध्वज में प्रकट होता है। यह ओंकार युक्त कुंडलिनी भगवंत के अधिष्ठान को दरशाती है। वहीं हरिकथा का निरूपण है। और यह कृपाण- उसी आंदोलन का सामर्थ्य, वही राजकारण, वही सर्व कार्यों में सावधानता को प्रकट करता है। अर्थात् महान् हिंदू साम्राज्य के भगवा रंग में स्वामी समर्थ का मूल संदेश अंतर्हित था। उसी को प्रकट घोषणा हिंदू करता है। उसमें कुछ भी भिन्नता नहीं है।

महाराष्ट्रीय भगवा ध्वज पर सिखों का कृपाण भी अंकित होने के कारण हिंदू जाति के दूसरे महान संरक्षक, गुरु गोविंदसिंह की भी मुद्रा उसपर अंकित है। गुरु गोविंदसिंह अपनी कमर में दो खड्ग बाँधते थे और कहते थे कि एक खग योग का है तथा दूसरा भोग का यह शांति का और यह जाति के पुष्टि तुष्टिका है, यही संदेश यह हिंदू ध्वज घोषित करता है। वह योग का खड्ग, यह कुंडलिनी धार्मिक परंपरा की साक्षी देती है, वही भोग का खड्ग है यह कृपाण!

सभी प्रांतों तथा पंथों के जाति, वर्ण निर्विशेष हिंदुओं के लिए पूजनीय तथा उसका प्रतिनिधित्व करनेवाली, हिंदूजाति के महान् ध्येय की घोषणा करनेवाली, भूतकाल की हितावह परंपरा को जरा भी न छोड़ते हुए हिंदूजाति की धार्मिक और महान् राष्ट्रीय भविष्य की आकांक्षाओं को प्रकट करनेवाली व स्फूर्तिदायक कुंडलिनी और कृपाण हिंदू ध्वज पर अंकित है। अखिल मानवजाति के लिए बुद्धिवाद से भौतिक शास्त्रों की परिभाषा में प्रमाणित की जानेवाली यह ओंकार युक्त कुंडलिनी कृपाण के भव्य चिह्न जिस ध्वज पर अंकित हैं, वही यह हिंदू ध्वज है। करोड़ों वीरों के प्रतापों से अंकित होते हुए, परित्राणाय साधूनाम् विनाशायच दुष्कृताम्' मानवों का परम मंगल साध्य करनेवाला ध्वज, इस आध्रुव पृथ्वी पर सर्वत्र तथा सर्वदा विजयी हो!

स्फुट लेख

लेखांक- १

प्रत्येक कार्य को विशिष्ट चालना प्राप्त होने के लिए विशेष प्रसंगों को आवश्यकता होती है। हिंदुओं को राष्ट्रीय तथा धार्मिक दृष्टि से संगठित करने की आवश्यकता प्रथम ९९७ के वर्ष से प्रतीत होने लगी; परंतु प्रत्यक्ष जिनका सामना करना पड़े, ऐसे उत्पन्न हुए स्थानीय संकटों के अतिरिक्त घातक आक्रमणों का विचार करके विराट् रूप में हिंदू लोगों ने प्रयास किए हैं, ऐसा कुछ अपवादों को छोड़कर कभी दिखाई नहीं दिया। उस कारण इन संकटों के लिए अपनी इच्छानुसार तथा जिस प्रकार संभव हो, उस प्रकार से हिंदूजाति पर होनेवाले आक्रमण की राक्षसी महत्त्वाकांक्षा का पाठ आजतक अविरत रूप से चलाने का कार्य करना संभव हुआ।

स्वार्थाधि जयचंद ने अपना स्वार्थ सिद्धि करते हुए मोहवश इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि भावी संकट संपूर्ण जाति और राष्ट्र को नष्ट कर सकता है। नीच भावना ने देशद्रोह और जातिद्रोह को जन्म दिया। उसके बोये हुए ये बीज सदैव गौण या प्रकट रूप में पूरे हिंदुस्थान में अंकुरित हो रहे हैं। उन जाति घातक स्वार्थी ज्वालाओं में संपूर्ण देश झुलसने लगा। पृथ्वीराज का अंत हुआ। उत्तर हिंदुस्थान मुसलमानों के अधिकार में आ गया। दक्षिण हिंदुस्थान चुप रहा। तब भी शेष राजपूत निद्रिस्त ही रहे-दक्षिण के आधे प्रदेश पर मुसलमानों के पाँव जम चुके थे। इन्हें उखाड़ने हेतु तथा पुनः हिंदूपदपादशाही की स्थापना करने हेतु जब अथक प्रयास समर्थ रामदास की सहायता से शिवाजी द्वारा किए जा रहे थे, तब पंचद्रविड प्रांत (मद्रास, मलाबार, मैसूर आदि) निद्रिस्त थे, क्योंकि 'मुसलमानों का भय अथवा संकट हम लोगों को नहीं दिखाई देता है। हम लोगों के धर्मचक्षुओं को प्रत्यक्ष दिखाई देनेवाला, हम लोगों की माँ-बहनों पर हमारी उपस्थिति में बलात्कार करनेवाले कोई भी हमें दिखाई नहीं देता, ऐसे मतिभ्रष्ट भीरू लोगों की ओर कौन ध्यान देता? कोई दूरदृष्टि से भावी संकट आने की बात भी कहता होगा, परंतु वे वीर पुरुष विद्यमान संकट का अस्तित्व जो नकार रहे थे, उन भविष्य में आनेवाले संकट का प्रभाव पड़ता ? इस प्रकार के आत्मघातकी के कारण मुसलमानों ने पूरे देश में आतंक फैलाया। सैनिक आक्रमणों द्वारा हमारी देह से मांस के टुकड़े काटकर हमें दुर्बल बना दिया तथा अपनी संख्या में वृद्धि के लिए कपट व बल से अथवा मोहजाल में फँसाकर, विशेषतः अत्याचारों करोड़ों हिंदुओं को उनके धर्म से बलात् खींचकर ले गए। इन दो शक्तियों के संघर्ष के समय एक तीसरी शक्ति उत्पन्न हुई। संकटों का सामना करते हुए उस शत्रु को उस शक्ति ने इस प्रकार मात दी कि इस संघर्ष से कुछ परिहार मिलने से पूर्व यह तीसरी शक्ति बल के स्थान पर विभेदक नीति का पूर्ण सामर्थ्‍य से उपयोग करते हुए और हिंदू शक्ति का उपयोग उन्हीं के विरोध में करते हुए, सभी को मात देते हुए स्वयं स्थिर हो गई। इस समय भी हिंदूजाति की केवल अपनी ही चिंता करने की आत्मघातक वृत्ति उनके नाश का कारण बन गई। शिंदों ने युद्ध किया, तब शेष सभी चुप थे। होलकरों ने तलवार उठाई तो बाकी के तमाशा देखते रहे। पेशवाओं ने कुछ किया तो सतारा के भोंसलों को राजसत्ता से इतना मोह हो गया कि वे अंग्रेजों से मित्रता करने लगे। सिखों ने हाथ-पाँव हिलाना प्रारंभ किया, तो अन्य सभी आँखें बंद करके बैठ गए। इस प्रकार सत्यानाश हुआ। सन् १८५७ के संग्राम का ज्वालामुखी जब उत्तर हिंदुस्थान में लावा उगलने लगा तब दक्षिण हिंदुस्थान के मराठों ने कहा, 'वहाँ की घटनाएँ देखते हैं। अन्यथा तत्पश्चात् हम लोग हैं ही। बाद में क्यों? मरने के लिए ही न? और उस और सिख तथा गुरखा इस विद्रोह के विरोध में सशस्त्र सज्ज! यदि हिंदुस्थान के उस समय के प्रयास सफल होते तो क्या इन्हें मार डाला जाता? तथा उस विद्रोह का विरोध करने के कारण क्या वे अजरामर हुए हैं ?'

और आपकी स्थिति क्या है? संकीर्ण दृष्टि से आत्मलाभ का विचार करते हुए, भावी संकटों का दूरदृष्टि से आकलन न करते हुए निद्राधीन हुई हमारी बुद्धि मंद तथा नशे में धुत्त हो चुकी है। हिंदू मुसलमानों का प्रश्न पंजाब में तीव्र है, परंतु महाराष्ट्र में ऐसा नहीं है। मलाबार में हिंदुओं पर अत्याचार और बलात्कार हुए हैं, परंतु यहाँ के मुसलमान ऐसा नहीं करते। निजामशाह तथा भोपाल की बेगम मुसलमान होने के कारण हिंदू प्रजाजनों से अन्याय्य व्यवहार करती है, परंतु हम लोगों को इस बात पर क्यों सोचना चाहिए? हम लोगों के संस्थानिक हिंदू हैं तो फिर हम लोगों को विचार नहीं करना चाहिए। इस प्रकार की आश्चर्यकारक बातें हम लोग ही करते हैं, परंतु यह बात उनकी समझ में नहीं आ रही है कि जाति-जातियों में संघर्ष प्रारंभ हो चुका है। इस समय यहाँ के मुसलमान तथा वहाँ के मुसलमान, यहाँ का प्रांत अथवा वहाँ का प्रांत-ऐसा भेद करने से आत्मघात ही होगा ।मराठी में एक कहावत है कि 'नाक दबाए बिना मुख नहीं खुलता।' जहाँ मुसलमानों का संख्याबल अथवा सत्ताबल हिंदुओं से अधिक है वहाँ वे प्रकट रूप से हिंदुओं पर अत्याचार व अन्याय कर रहे हैं। यदि इसे बंद कराना है तो जहाँ वे संख्या तथा सत्ता की दृष्टि से कम हैं वहाँ हम लोगों को उनपर अधिक दबाव डालना चाहिए। ऐसा करने पर ही उनकी समझ में आ जाएगा कि हम लोगों से भी इसी प्रकार का व्यवहार किया जा सकता है। इतनी सामान्य बात भी क्या हम लोगों की समझ में नहीं आ सकती? क्या हम लोग इतने मंदबुद्धि हैं ?

इस समय हिंदुओं पर आने वाले के संकटों की परमावधि है। इस संकट का सामना आँखें खोलकर, सुसंघटित तथा प्रबल बनकर यदि हिंदू लोगों द्वारा नहीं किया जाता, तो मृत्यु निश्चित रूप से होगी। इस स्थिति में उचित प्रयास न करते हुए सहज गति से आनेवाली आपत्ति के भँवर में चक्कर खाते हुए वह यदि इसी प्रकार बनी रही तो पच्चीस-तीस वर्षों के समय में वह इस विश्व से नष्ट हो चुकी होगी अथवा मृत्यु के मुँह में पड़कर पीसी जा रही होगी।

संकट किस प्रकार का है? इसका आकलन होना चाहिए। इसके बिना संकट का स्‍वरूप उचित रूप से समझ में नहीं आता तथा उससे मुक्त होने के लिए कौन से उपाय करने होंगे यह भी नहीं समझता ।परतंत्रता का संकट हिंदुस्थान को पीस रहा था। कुचल रहा था। यह संकट अब कायम हो रहा है और इसी अवस्था में इससे भी अधिक भयावह तथा नाशकारी विपदा अधिक प्रबल गति से हिंदूजाति पर आक्रमण कर रही है। मुसलमान जाति आज हजार वर्षों से हिंदूजाति को कभी सख्ती से तो कभी बलपूर्वक, कभी मोहिनी में फँसाकर, तो कभी अखंड रूप से कष्ट देते हुए अथवा अनुनय से व्यक्तिगत तथा सांधिक प्रयासों द्वारा कुचल रहे हैं। और जिस देश में सारे हिंदू ही हैं, हिंदुओं के उसी हिंदुस्थान में विदेश से आए हुए मुसलमानों की संख्या पचास लाख थी; परंतु अब सात करोड़ है, अर्थात् नौ से ग्यारह करोड़ मुसलमान हिंदुओं के धर्म परिवर्तन का ही परिणाम है। हिंदूजाति के अंग-उपांगों के वे नौ से ग्यारह करोड़ मांस के पिंड उस दृष्ट संकट ने हरण कर लिये हैं। अब हिंदूजाति दुर्बल हो गई है तथा एक दुर्बल जीवन व्यतीत करती हुई परस्पर द्वेष भावनाओं के दुःख से विह्वल होकर साँस ले रही है। कब कोई भयंकर आघात उसकी इस आघातग्रस्त गरदन पर होगा और उसे धरती पर पटक देगा- यह नहीं कहा जा सकता।

लेखांक- 2

कौरव और पांडवों के आपसी कलह में कौरव सौ और पांडवी होंगे, परंतु शत्रु के सामने वे एक सौ पाँच हुआ करते थे।

इस अर्थ की मोरोपंत (एक मराठी कवि) की काव्योक्ति ध्यान में रखते हुएतथा तदनुसार निरपवाद प्रयास करते हुए अपनी माता का दुःख कम करते हुए उसे दुःख मुक्त करने का प्रयत्न करेंगे तो शीघ्र ही यह सनातन धर्मद्वार आश्वासित तथा प्रतिपालित जाति पुनः अपने शरीर की जरा त्यागकर दुष्ट की आँखों का काँटा और साधुओं के नेत्रों के लिए सुखदायक हो जाएगी। परमेश्वर के अवतार कार्य का यहाँ फल है। उसका अभिवचन है -

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।

अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्

धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे ॥

परंतु पांडव उद्योग पर्व से पारित हो जाते हैं। जब अर्जुन युद्धकला में कृतेविद्य हो जाता है। जब सभी पांडव अपना बल संग्रहित, सुसज्जित तथा सिद्ध करते हैं। प्रतिपक्ष की भीष्म प्रतिज्ञा सेनापति से सामना करनेवाले तुल्यबल भीम कर्म सेनापति के नियंत्रण में कार्य करना प्रारंभ करते हैं, तब धर्म का माथा और अधर्म का काल कार्यरथ के सूत्र में अपने हाथों से लेकर दिव्य रथचालक बनकर पांडव पक्ष को यश के शिखर पर विराजित करता है। परमेश्वर अपने अभिवचन के अनुसार धर्मरक्षण का कार्य करने समुधुक्त हैं। केवल स्वयं की पूर्व सिद्धता से सामर्थ्ययुक्त आह्वान मंत्रों का उच्चारण हम लोगों द्वारा किया जाना चाहिए।

ईसाई तथा मुसलमान लोगों ने आजतक हिंदुओं के धर्म मंदिर पर पुन: पुनः आक्रमण करते हुए उसका कुछ भाग तोड़ दिया है। इसके पश्चात् भी हिंदू अहंकार के नशे में सजग नहीं रहे। इतना पर्याप्त न था। जिस प्रबलतर समाज ने हिंदूजाति के शरीर के टुकड़े तोड़ते हुए साढ़े छह करोड़ मांसपिंड का हरण किया, उसी समाज को जब वह किंचितमात्र जाग्रत, अस्त-व्यस्त तथा निद्रित पड़ा हुआ था, उस समय इस अवस्था का लाभ न उठाते हुए उसे खिलाफत के आंदोलन का दूध पिलाकर उसको संगठन-सामर्थ्य युक्त बना दिया! खिलाफत आंदोलन का पुरस्कार करनेवाले, उसके परामर्शदाता, उपदेशक तथा इस आंदोलन के कार्यवाह भी हिंदू ही थे। खिलाफत के लिए बहुत साधन हिंदुओं द्वारा ही दिया गया था, इस धर्मांध साँप को अपना फन उठाकर विषदंश करने का सामर्थ्य प्रदान किया। मुसलमान समाज जाग्रत् होना आवश्यक था। हिंदुस्थान के मुसलमान रहेंगे तो हिंदुस्थान में ही और यहाँ अपनी देह छोड़ेंगे। हिंदुस्थान का अन्न ग्रहण करते हुए ही बड़े होंगे। इसी कारण उनके अंतःकरण में हिंदुस्थान एक भक्तिकेंद्र होना स्वाभाविक तथा सुयोग्य था परंतु वास्तविकता इससे बिलकुल विपरीत है। जब इटली तथा तुर्कों में कलह उत्पन्न हो गया, तब जिस भक्तिपूर्ण भावना से तुर्की के भले-बुरे पर दृष्टि रखे हुए थे, उसकी तुलना में हिंदुस्थान पर आए संकट के समय उनके अंतःकरण में किसी प्रकार का कष्ट नहीं हुआ था। हिंदुस्थान के राष्ट्रीय आंदोलन के समय मुसलमान 'पटरानी' का स्थान प्राप्त करने के प्रयास कर रहे थे। परंतु इंग्लैंड द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से इटली को तुर्कों के विरुद्ध लड़ाई में सहायता मिल रही है, ऐसा समझते ही यह प्रिय पटरानी उस प्रिय पति पर गुर्राने लगी थी। अर्थात् हिंदुस्थान के हितानहित से अपनेपन का संबंध न रखते हुए ये हिंदुस्थान के मुसलमान बाहर के देशों के हितानहित में आत्मीय संबंध रखते थे। यह बात अस्वाभाविक तथा हिंदू राष्ट्र विरोधी है। यह भविष्य में हिंदूजाति के लिए प्रत्यक्ष रूप से हानिकारक होगा यह स्पष्ट सत्य हिंदुओं की तामसी बुद्धि की समझ में नहीं आया, क्योंकि वह सात्विकता के कंबल के नीचे छिपी हुई थी। इसी कारण आत्मघात की होनेवाली खिलाफत आंदोलन की 'आफत' (आफत इस उर्दू शब्द का अर्थ है संकट) अपने मस्तक पर असमर्थ हाथों से उठाई हुई गदा के समान आघात करेगा, यह न समझने के कारण उस खिलाफत आंदोलन का समर्थन करते हुए मुसलमानों द्वारा हिंदुस्थान के बाहर स्थापित होनेवाले भक्तिकेंद्र को हिंदुओं ने स्वयं समर्थन दिया और पराए देश के हितचिंतकों के क्षेत्र में स्थिर किया जिसने हिंदुस्थान के राष्ट्रीय हित के लिए भयंकर संकट उत्पन्न कर दिया। तुर्कस्थान की समस्या का समाधान होने की बात पर मुसलमानों की कारणवश प्रकट होनेवाली आत्मीय वृत्ति डगमगाने लगी। मुसलमानों में विद्यमान धर्माध मतिभ्रष्टता को खिलाफत को प्राप्त असामान्य चाल के कारण तीव्र स्वरूप आने लगा। हिंदुस्थान के राजकीय आंदोलन के ध्येय स्थान पर स्थिति 'स्वराज्य' का अर्थ मुसलमानों के मन-ही-मन में 'मुसलमानों का राज्य' ऐसा ही होता था। उसका प्रत्यक्ष प्रत्यंतर मलाबार में प्रकट हुआ। मैं प्रथम मुसलमान हूँ तथा बाद में हिंदी हूँ, 'इस्लाम को वैभव प्राप्त हो इसलिए हिंदुस्थान के हितों का विचार मेरे लिए गौण है' (हिंदुस्थान की गरदन पर किसी भी मुसलमान सत्ता के दाँत घुस जाना यह भी 'इसलाम के वैभव' का प्रतीक है, इन शब्दों की व्याप्ति पर हिंदुओं को पर्याप्त ध्यान देना चाहिए) कोई भी दुराचारी मुसलमान भी-केवल वह मुसलमान है इस कारण-हिंदुस्थान के महात्मा पद का सम्मान प्राप्त करनेवाले गांधीजी से भी श्रेष्ठ है, इत्यादि अंतस्थ विचारों को चित्रित करनेवाले वाक्य तथा कांग्रेस के अध्यक्ष पद से हिंदुओं की मातृभूमि पर पैर पटकते हुए 'सात करोड़ अस्पृश्यों में से साढ़े तीन करोड़ अस्पृश्य हम लोगों को दे दीजिए तथा साढ़े तीन करोड़ आप रख लीजिए।' इस प्रकार हिंदूजाति का एक भाग तोड़कर लेने हेतु उच्चारित की गई अपहारोति- यह हिंदू मुसलमानों की एकता के स्वर महमूद अली के मुख से नशे की अवस्था में बाहर आते हैं-'हिंदू-मुसलामनों की एकता से प्रेरित हो चुका हूँ।" ऐसा स्वमुख से कहनेवाले शौकतअली, 'आज हजार साल तक हिंदुओं को हम लोगों का ताड़न सहना पड़ा है। हिंदुओं को मुसलमानों से समझौता करना ही चाहिए। हम लोग हिंदुओं को भ्रष्ट करते रहे हैं। भविष्य में भी यह काम चलता रहेगा। यह हमारा धर्म ही है। हम लोग मुसलमानों को संघटित तो अवश्य करेंगे। हिंदुओं को हम लोगों का प्रतिकार करना बंद कर देना चाहिए। हिंदू संगठन तथा शब्द आंदोलन भी बंद करना आवश्यक है। इस प्रकार का भ्रांतिपूर्ण उपदेश देते हैं। डॉ. किचलू - 'मैं मूर्तिपूजा का विरोधक हूँ' ऐसा कहकर लोकमान्य तिलक के चित्र को सभास्थल से हटा देते हैं तथा कल को पेशावर में आयोजित सभा में (मुसलमानों द्वारा) सर्वप्रिय (?) हिंदू बंधुओं को आह्वान करते हुए कहते हैं कि मुसलमान जो अधिकार माँग रहे हैं वे उन्हें हिंदुओं को कोई आपत्ति किए बिना प्रदान करने चाहिए। अन्यथा अफगानिस्तान या अन्य किसी मुसलमान सत्ता की सहायता से हम लोग हिंदुस्थान पर मुसलमानी राज्य स्थापित करेंगे।' यह मैं सात करोड़ मुसलमानों के प्रतिनिधि के नाते तथा अली बंधु, अबुल कलाम आजाद आदि मुसलमान नेताओं की ओर से कह रहा हूँ, 'यह कथा है हिंदू-मुसलमानों में एकता होनी चाहिए, ऐसा प्रतिपादन करनेवाले नेताओं की! अब हिंदूजाति का नाश करने की दृढ़ प्रतिज्ञा करनेवाले आगाखान हसन इसलामी आदि ने एक घटना पत्रक बनाया है। उस बारे में इस पत्रक के अनुसार उनके नियंत्रण में हजारों मुसलमान विभिन्न स्थानों पर कपट से अथवा बलपूर्वक हिंदुस्थान के लोगों को भ्रष्ट कर मुसलमान करने हेतु पराकोटि के प्रयास कर रहे हैं। हिंदूजाति के सात करोड़ लोगों को भ्रष्ट करने के पश्चात् निर्धारित समय में उन्हें मुसलमान बनाने हेतु कटिबद्ध हैं। आगाखान की करतूतें तो गुजरात में सर्वविदित ही हैं। अब अन्य क्षेत्रों में भी यही उपक्रम उसने प्रारंभ कर दिया है। इस तरह हिंदूजाति की संख्या कम करने हेतु उन्हें बलात् हरण करने के लिए एक करोड़ रुपए की राशि एकत्रित कर इस राशि से हिंदुओं को भ्रष्ट करने का बीड़ा उठाया है। यह हुई नेताओं की स्थिति। अब मुसलमान समाज के सामान्य लोगों की ओर दृष्टिपात करें, जीवन में किसी भी प्रकार का पाप किया हो अथवा किया जा सकता हो तब एक भी काफर (मुसलमानों द्वारा दिया गया विशेषतः हिंदुओं के लिए संबोधन) को मुसलमान बना लिया, तो सभी पापों के लिए क्षमा प्रदान की जाएगी तथा स्वर्गसुख की प्राप्ति होगी। इस धर्माधि भावना से प्रेरित होकर प्रत्येक मुसलमान अवसर मिलते ही कोई भी उपाय से हिंदुओं को भ्रष्ट करने के प्रयास करता है। उसके इस धार्मिक भ्रम को खिलाफत के आंदोलन ने प्रज्वलित कर दिया है। दिल्ली, सहारनपुर, नंदुरबार, मालेगाँव, कोहट, गुलबर्गा जैसे छोटे-मोटे तथा कम अधिक भयंकर दंगे भड़क उठते हैं।'

लेखांक- 3

नागपुर हिंदुओं का मणिबंध है। तीन-चार बार उन्हें भयभीत कर उनपर अत्याचार करने के प्रयास करते समय वहाँ के मुसलमानों को वे हिंदू जब मजबूत तथा सामर्थ्यवान प्रतीत हुए, तब मुसलमान बंधुओं की समझ में आ गया कि हम लोगों के पाशवी वृत्ति के लिए यहाँ कोई स्थान नहीं है, कदाचित् हम लोगों के मस्तक ही रक्तरंजित होने की संभावना है, ऐसी धारणा बनाकर उन्होंने सानुभव समझदारी से कहा, 'हिंदू लोग जिस रीति से समझौता करना चाहते हैं, वह हमें स्वीकार्य होगा। हम लोग अपनी ओर से कोई भी शर्त नहीं रखेंगे, कुछ भी तकरार नहीं करेंगे। हम लोग समझौता करने हेतु तैयार हैं। हिंदुओं ने भी अपनी प्रबलता से अवास्तव लाभ न उठाते हुए न्याय के अनुसार योग्य समझौता किया। तत्पश्चात् हिंदुओं की किसी भी शोभायात्रा के समय कोई बाधा उत्पन्न नहीं हुई। अब इसी के साथ निजाम के क्षेत्र में गुलबर्गा और कोहट का उदाहरण लीजिए। निजाम द्वारा नियुक्त कमिशन के अध्यक्ष ने गुलबर्गा के राक्षसी समाचार के लिए जिम्मेदार अपराधियों तथा अन्य सदस्यों को बताते हुए अपराधी मुसलमानों को मुसलमान निजाम द्वारा दोषमुक्त ठहराकर मुक्त कर दिया। इस कृत्य का परिणाम यह हुआ कि उन्हें पुनः हिंदू देवालयों तथा हिंदुओं पर आक्रमण करने का प्रोत्साहन प्राप्त हुआ। कोहट के प्रमुख नेता गांधीजी और शौकतअली के सम्मुख उपस्थित होकर कहते हैं, 'इतने समय से हम लोग हिंदुओं को भ्रष्ट कर रहे थे तथा हिंदू महिलाओं का हरण कर उनके साथ निकाह करते थे; परंतु आजकल हम लोगों द्वारा भगाकर लाई गई उनकी स्त्रियों पर वे अपना अधिकार होने की बात करते हैं। भ्रष्ट हिंदुओं की शुद्धि करते हैं। इस कारण हम लोगों की एकता भंग हो गई है। उसका पर्यवसान दंगों में हुआ। किसी भी हिंदू स्त्री को मुसलमान द्वारा स्पर्श किए जाने पर उसपर उसके पूर्व पति का अधिकार खत्म हो जाता है तथा भ्रष्ट हिंदू मुसलमान हो जाता है-ऐसा हम लोगों की कुरान में कहा गया है। हिंदुओं द्वारा हम लोगों के इस काम में बाधा पहुँचाना हमारे धर्म पर आक्रमण है। हम इसे किस प्रकार सह सकते हैं? कोहट तथा नागपुर के मुसलमानों का कुरान क्या भिन्न है? नहीं, कुरान भी नहीं है तथा उसका रचयिता महम्मद भी नहीं है। अंतर है केवल हिंदुओं के सामर्थ्‍य का । कोहट के अथवा गुलबर्गा के हिंदू असावधान व अस्त-व्यस्त है और नागपुर के संघटित और सावधान। अतः सामर्थ्य युक्त इसी कारण नागपुर के मुसलमानों में जो समझदारी है वह कोहट और गुलबर्गा आदि स्थानों से भिन्न है। अतः 'सामर्थ्य मेंशांति है और शांति के लिए सामर्थ्य यह सिद्धांत हिंदुओं को ध्यान में रखना आवश्यक है।

हिंदू धर्म पर आक्रमण करते हुए उसे मिट्टी में मिला देने की भीष्म प्रतिज्ञा करनेवाले अग्रणियों के नेतृत्व में कटिबद्ध होकर मुसलमान समाज (हसन-ए-शामी द्वारा तैयार की गई संघ का सत्य स्वरूप क्या है इसे दरशाने हेतु खतर का बेटा नामक आर्य समाज द्वारा प्रकाशित पुस्तक का अवलोकन करें।) मुसलमान समाज हिंदू धर्म और हिंदुओं का नाश करने का निश्चय करते हुए उनके जीवन पर आक्रमण करने का निश्चय कर चुका है। इतना ही पर्याप्त नहीं है। इस संकट का स्वरूप तीव्रतर हो चुका है। हिंदुओं को दबाकर उनसे उनके अधिकार छिनकर अपनी इच्छानुसार आचरण करने का स्वातंत्र्य माँगते हुए समझौता न करने की बात का दोष हिंदुओं का ही है अथवा उनके पास अन्य पर्याय न होने से ऐसा हो रहा है ऐसा कहते हैं। वे प्रकट रूप से कहते हैं कि उन्हें इसके अतिरिक्त अन्य कोई पर्याय नहीं दिखाई देता कि अफगानिस्तान अथवा अन्य मुसलमानी सत्ता की सहायता लेकर ही उन्हें अब हिंदुस्थान पर मुसलमानी राज्य स्थापित करना होगा। इसका अर्थ केवल इतना ही है कि प्रकट अथवा गुप्त रूप से, हिंदुस्थान पर मुसलमानों का शासन स्थापित करने का उनका उद्देश्य है और उसी दिशा में उनके प्रयास प्रारंभ हो चुके हैं। दूसरा विश्वयुद्ध होने के संकेत स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहे हैं। राजनीति के अध्ययनकर्ताओं को इस बात की कल्पना बहुत पहले ही हो चुकी थी। तुर्कस्थान, अरबस्तान, अफगानिस्तान में सक्रिय राजनीति में कार्यरत उनके राजनीतिज्ञ परस्परों से भेंट कर रहे हैं, इस कारण मान्य नेताओं को इस बात की भनक लग चुकी है। विश्व में पुनः होनेवाले महायुद्ध की सर्वव्यापी साम्राज्य के हिताहित की उलझनों में इंग्लैंड भी निश्चित रूप से खींचा जाएगा, यह भी लगभग निश्चित हो चुका है। हिंदुस्थान के अंदर से सात करोड़ मुसलमानों के संघटित बल से बलवान साह्यग्रस्त तथा बाहर से अफगानी स्थान की तृष्णा के हुल्लड़ आदि का एक साथ मिलकर हिंदुस्थान को मुसलमानग्रस्त करने की चाल वे चल रहे हैं। अथवा हम लोगों को ऐसा करना संभव होगा, इस मधुर कल्पना से वे प्रयासरत हुए हैं।

ऐसे समय हिंदूजाति की वर्तमान विपन्न स्थिति इस नए भावी संकट के कारण कितनी अधिक बिगड़ जाएगी इसकी कल्पना भी हिंदू कर सकते हैं? यदि उन्हें अपनी दैन्यावस्था दूर करनी हो, विश्व में अपनी जाति का अस्तित्व बनाए रखना हो तथा निर्धारित करना हो तब उपर्युक्त संकट का यथार्थ एवं संपूर्ण स्वरूप पहचानकर हिंदुओं का समर्थ, स्वसंरक्षणक्षम तथा सुसंघटित होना आवश्यक है। इसके लिए यही एकमेव उपाय है। अपने ऊपर होनेवाले आघात को प्रत्याघात से निष्प्रभावी बना देना है। हम लोगों के बाहर चले गए बंधुओं को लौटाकर लाना है। अखिल हिंदू समाज को सुसंघटित तथा समर्थ बनाना है। यथाकदाचित् प्रसंग आने पर, क्योंकि इस प्रकार की घटनाएँ होने की संभावनाएँ बहुत हैं, कोहट, गुलबर्गा, नंदुरबार, येवले, मलावार आदि दंगों से और मुसलमानों के स्वभावसिद्ध धर्मोन्माद के बार-बार होनेवाले विस्फोटों से उनकी भावनाएँ स्पष्ट हो जाती है। इस कारण इस प्रकार के प्रसंग उत्पन्न होना अपरिहार्य हो जाता है। न उत्पन्न होना अपवाद हो कहा जाएगा इस प्रकार की वर्तमान स्थिति है। इसलिए व्यूह रचना करने हेतु कवायद आदि के द्वारा प्रशिक्षित करते हुए संघटित, समर्थ, सर्वव्यापो, दक्ष तथा समाज संरक्षणोयुक्त हिंदूजाति का युवावर्ग का एक महान संरक्षक दल स्थापित करना है। यह सब हम लोगों ने जो खोया है उसे पुनः प्राप्त करने के लिए जो कुछ है, उसे बनाए रखने के उद्देश्य से निर्मित किया जा रहा है; हम लोगों के समाज को अन्य आक्रमणकारी उन्मादियों के आक्रमण से सुरक्षित तथा निर्भय बनाने हेतु इंट का जबाव पत्थर से दिया जाएगा, इसलिए हिंदुओं से छेड़छाड़ नहीं करनी चाहिए तथा उनसे कोई कलह उत्पन्न होनेवाली बात नहीं करनी चाहिए अन्यथा वे हम लोगों का संपूर्ण नाश कर देंगे-ऐसा सानुभव भय दूसरों के मन में उत्पन्न होना आवश्यक है। यह कार्य सभी हिंदुओं को करना चाहिए। दूसरों का अपहार करना तथा अन्यों पर आक्रमण करना हिंदुओं का स्वभाव-धर्म नहीं है। गत इतिहास इसका प्रमाण है। इस ऐतिहासिक सत्य को देखते हुए तथा हिंदुओं के स्वाभाविक व्यवहार ध्यान रखने पर हिंदुओं के वृद्धिंगत होनेवाले सामर्थ्य के कारण किसी को भयभीत होने का कोई कारण नहीं दिखाई देता सामर्थ्य के साथ मन की संतुलित (वृत्ति) बुद्धि, पराक्रम के साथ क्षमा, वैभव में सुघड़ता आदि इसी तरह के गुण संतुलन प्रदर्शित करनेवाले कृत्यों से हिंदुओं का इतिहास भरा पड़ा है। आज भी वही स्थिति बनी हुई है। मुसलमानों का वर्चस्व जिन-जिन क्षेत्रों में होता है वहाँ मुसलमानी तामसी वृत्ति की भयावह तलवार हिंदुओं के मस्तक पर कब आघात करेगी तथा उसे कब अपनी जान गँवानी पड़ जाएगी, इसका कोई नियम नहीं है। वहाँ की हिंदू जनता मुसलमानों के संभावित अत्याचार से भयभीत रहती है। प्रत्येक समय मुसलमान डाट-डपट करते हैं। हिंदुओं के साथ वे अन्याय्य तथा दबाव का आचरण करते रहते हैं। इसके संदर्भ में नागपुर जैसे स्थान में हिंदू स्वरक्षणक्षम, आघात पर प्रत्याघात करते हुए आघात करनेवाले हाथों को भी छाँट देने के समर्थ तथा प्रबलतर होते हुए भी हिंदुओं द्वारा निष्कारण आक्रमण नहीं किए जाएगा तथा हम लोगों पर किसी प्रकार का अन्याय नहीं होगा, इसे स्वानुभव से जानकर नागपुर के मुसलमान इस बारे में विश्वस्त होकर, निर्भयतापूर्वक तथा शांतचित्त से व्यवहार कर रहे हैं। यह वर्तमान समय का प्रत्यक्ष अनुभव है। इसलिए हिंदुओं की सामर्थ्य वृद्धि से किसी समाज को भयभीत होने का कोई कारण नहीं है, तथा यह बात हर समाज पूर्ण रूप से जानता है।

लेखांक- ४

हिंदू समाज के पूर्ण सामर्थ्य तथा वैभव काल में ईसाइयों के धर्मोन्माद के कारण जिन यहूदियों ने हिंदुस्थान में आश्रय लिया, वे निर्भय तथा सुस्थिर हुए। उन्हें धार्मिक, सामाजिक और अन्य सभी बातों के लिए उस समय के सामर्थ्यवान और बलशाली हिंदू समाज से किसी प्रकार का और किसी समय भी कोई कष्‍ट नहीं हुआ तथा आजतक वे अपने धर्म का प्रतिपादन करते हुए रह रहे हैं। यहाँ इस बात का उल्लेख करना भी आवश्यक है कि उस समाज ने भी आजतक कृतघ्नता से हिंदुओं को कोई कष्ट नहीं पहुँचाया है। वे पूर्णतः कृतज्ञ ही बने रहे। मांटेग्यू चेम्सफोर्ड सुधारों के समय प्रत्येक समाज को अन्य समाज से पृथक् करनेवाली जातिवार प्रतिनिधित्व की घातक और विभेदक नीति का सहारा लिया गया। उसके अनुसार यहाँ बेणे इजरायल नाम से जो ज्ञात थे उन यहूदी लोगों ने जातिवार प्रतिनिधित्व के प्रश्न पर जो उत्तर दिया वह उनके विशाल मन का द्योतक है उसी प्रकार निरपराध तथा मित्रवत् रहनेवाले विदेशी समाज के लोगों को भी हजारों साल हिंदुओं के साथ रहते हुए एक भी प्रसंग में कभी किसी प्रकार का कष्ट अथवा अन्याय न करने की नीति पर चलकर उन्हें हिंदुओं द्वारा किसी प्रकार की हानि नहीं पहुँचाई गई है, इस बात का महत्त्वपूर्ण प्रमाण होने की बात भी स्पष्ट हो जाती है। यह उत्तर निःपक्षपाती पराए लोगों की ओर से दिया गया प्रमाणपत्र हैं, 'आज हजारों वर्षों से हम लोग हिंदूसमाज के साथ रहते हैं, उनकी ओर से हम लोगों के हित संबंधों को किसी प्रकार धक्का नहीं लगा है तथा भविष्य में भी लगने की संभावना नहीं है। अतः हम लोगों को पृथक् प्रतिनिधित्व की आवश्यकता नहीं है। हम लोगों से कोई भी प्रतिनिधित्व के रूप में निर्वाचित होता है तब किसी प्रकार की परस्पर हानि होने की संभावना नहीं है। इसके अतिरिक्त हम लोगों पर परस्पर विश्वास है। अतः हम लोग पृथक् रूप से प्रतिनिधित्व नहीं चाहते।' इस उत्तर से हिंदूजाति की उदार मानसिकता की पहचान होती है। इसका अन्य उदाहरण है पारसी लोगों का मुसलमानों के पाशवी अत्याचारों से कई देशों का विनाश हुआ। उन्ही में पर्शिया (ईरान) भी एक देश है। वहाँ के पारसी लोगों में जो लोग मुसलमानों के पाशवी अत्याचार से बच निकले, वे निर्भयता से आश्रय के लिए भारत की सीमा की ओर चल पड़े। वहाँ पहुँचने पर गुजरात के नरेश ने उनसे एक आश्वासन प्राप्त करने की शर्त पर उन्हें आश्रय दिया, आप लोग राजनीति में रुचि लेकर हिंदुओं को किसी प्रकार का कष्ट नहीं पहुँचाओगे। इस प्रकार राजनीति से पृथक् रहते हुए उनके स्वाभिमान को धक्का पहुँचाने का काम नहीं करोगे।' इस प्रकार उनका अहंकार भी बना रहा तथा इस प्रकार के नियमों का पालन करने का अभिवचन उन लोगों से प्राप्त करने के पश्चात् ही उन्हें आश्रय दिया। वे लोग भी आज हजार से भी अधिक वर्षों तक हिंदुस्थान में सुखपूर्वक निवास कर रहे हैं। परंतु पूर्व में एक समय स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में जिसका अस्तित्व था, वह जीवंत जाति मुसलमानों के राक्षसी अत्याचारों के दाँतों तले चूर-चूर होकर आज स्मृतिशेष हो चुकी है। एक समय जो भाग्यशाली थी वह पारसी जाति हिंदुस्थान के सात्विक उदार मनस्क, दयापूर्ण शीतल छाया में सुरक्षित तथा संरक्षित रह सकी। दूसरी कौन सी जाति है जो इस प्रकार के दैवी पुण्यकृत्य के स्मारक दिखा सकेगी? अन्य जातियाँ क्रूरता, हिंसा तथा राक्षसी वृत्ति से परिपूर्ण हैं। परंतु हिंदूजाति इस मृत्यु लोक की एकमात्र स्वर्गीय जाति है। हिंदूजाति ने यहूदी तथा पारसी इन अल्पसंख्यकों को आश्रय देने के पश्चात् किसी प्रकार की बाधा नहीं पहुँचाई; संख्या के कारण तथा अन्य सामर्थ्य के नशे में कभी भी और किसी भी प्रकार कष्ट नहीं दिए-यह सूर्य प्रकाश जैसा ही स्पष्ट है। मुसलमानों ने हिंदुस्थान में आकर अनिंदित कार्य किए, लाखों ब्राह्मणों को बाँधकर भ्रष्ट किया। सैकड़ों स्त्रियों तथा बच्चों को पकड़कर अपने देश में ले जाकर गुलामों के रूप में बेच दिया। राजपूतों की हजारों स्त्रियों को इनकी पाशवी क्रूरता के कारण जौहर करते हुए ज्वालामुखी सदृश अग्नि में कूदना पड़ा। राजपूत, मराठा, सिख आदि लाखों लोगों को इन मुसलमानों के भयंकर हिंस्र हमलों से देश का जीवन सुरक्षित रखने हेतु तथा धर्मरक्षण हेतु पीढ़ी-दर-पीढ़ी इनसे संघर्ष करते हुए अपने खून की नदियाँ बहाना पड़ीं। इतनी धर्म विषयक कल्पनाएँ जंगली होने के कारण, कुरान के सिवाय अन्य ग्रंथों का अस्तित्व उचित नहीं है, इस कल्पना से हिंदुस्थान के अनेक अनमोल ग्रंथों को इन लोगों ने आग में डालकर राख कर डाला। हजारों मंदिर धूल में मिला दिए; हिंदुस्थान से अगणित संपत्ति लूटकर ले गए। मुसलमानों द्वारा इस प्रकार का अति भयंकर अपराधी आचरण ले किए जाने के बाद मराठों, राजपूतों, सिखों और हिंदूजाति की अन्य शाखाओं ने भी मुसलमानों पर प्राप्त कर उन्हें पाँवों तले दबाया; परंतु किसी भी समय उन्होंने कुरान नहीं जलाया, मसजिदों को नष्‍ट नहीं किया । स्त्रियों की और वक्रदृष्टि से देखा तक नहीं। हालांकि ऐसा करना न्याय होता, परंतु असामान्य उदारतापूर्वक तथा दयाबुद्धि से उन्होंने ऐसा आचरण नहीं किया। अत: हिंदू संगठन के कारण हिंदूजाति प्रबलतर होने से किसी अन्य जाति को भयभीत होने का कोई कारण नहीं है। वे लोग इस सत्य को पूर्णत: जानते हैं; परंतु वे जिन बातों की मांग कर रहे हैं, उसे मिथ्या ही मानना चाहिए। परंतु हम लोगों में मतिभ्रष्ट लोग हैं। वे कहते हैं, 'उन्‍हेंयदि भय होता है तो उन्हें दुखाना उचित नहीं है । इससे एकता भंग हो जाएगी। इस समय किसी भी कीमत पर एकता बनाए रखना आवश्यक है । इतने समय तक देवालय भ्रष्ट होते रहे । लोगों को धर्मांतरण करने पर बाध्य किया गया। स्त्रियों पर बलात्कार किए गए, तब हम लोगों ने क्‍या किया? हम लोग चुप ही रहे । उसी प्रकार कुछ समय तक प्रतीक्षा करना उचित होगा । जो कुछ होगा, उसे होने दीजिए। परंतु आपस में बैर नहीं चाहिए,'आदि भ्रांतिपूर्ण वाक्य कहकर हिंदूजाति के कार्यकर्ताओं का तेजोभंग करने का प्रयास वे लोग अनजाने में कर रहे हैं। हिंदूजाति के अस्तित्व पर ही गदा प्रहार हो रहे हैं, तब रुकना क्या संभव है? एकता दोनों का अस्तित्व बना होता है तब तक ही होती है । एक को दूसरा खाकर नष्ट करते हुए शेष अकेला रह जाना है तब इस एकमेव अस्तित्व को एकता नहीं कहा जाता! इस प्रकार का युक्तिवाद निर्बुद्धों को पढ़ाना होगा। इन पढ़े-लिखे व्यवहारशून्य लोगों ने अपने धकधक करनेवाले हृदय को भयग्रस्त होते देखकर केवल नींद का ढोंग करना प्रारंभ किया है । ऐसी अवस्था में उन्हें कौन जगा सकता है? अतः हिंदूजाति ने अन्य जाति की दांभिक तथा धूर्त लोगों की बातों को महत्त्व न देते हुए स्वजातियों पर आए हुए संकट को तथा जातीय आपत्ति को दूर करने हेतु अपनी जाति में बहिष्कृत, समर्थ, संरक्षणक्षम तथा निर्भय बनाने के लिए अत्याचार का उत्तर अत्याचार से देने की बुद्धि नहीं होगी, इस सीमा तक बनाने के लिए हिंदुओं को अपना बल, कार्यक्षेत्र तथा सर्वव्यापी जातीय संगठन करना आवश्यक है। दूसरे किसी से हानि या कष्ट हम लोगों को नहीं होना चाहिए इसलिए सभी दृष्टि से जो कल्याणकारी और हितकारक है, वह हिंदू संगठन होना ही चाहिए। तभी हिंदूजाति जीवित रहेगी। प्रतिपक्ष के सामने हम सभी एकजुट होकर शत्रुओं के लिए हम पाँच नहीं, एक सौ पाँच हैं, 'इस प्रतिज्ञा का ध्‍यान दृढनिश्चय के साथ अर्जुन के समान कर्तव्यपरायण, रण के लिए तैयार अपनी सुसंगठित शक्ति के साथ वह भक्‍तों का पक्षपाती योगेश्रवर सूत्रों को अपने हाथों में रखकर सुरक्षित रीति से हम लोगों को पांडवों के समान अतुल वैभव के शिखर पर विराजमान करेगा। इस बात में यत्किंचित् संदेह नहीं है। अतः हे हिंदू बांधवो! संकट का गंभीर स्वरूप पहचाना तथा एक क्षण का भी विलंब न करते हुए उस योगेश्वर के सहायक हाथों पर दृढ़निष्ठा रखते हुए इस धर्म संग्राम में कूद पड़ो तथा अपना कल्याण प्राप्त करो। परमेश्वर हम सभी को यश दे। वंदे मातरम्।

हिंदू संगठना तथा दो भामक निवेदन

२२ जुलाई, १९४४ के 'न्यूयॉर्क टाइम्स' नामक अमेरिकी समाचारपत्र में मि. अर्थर हंटर नाम के किसी लेखक का हिंदुस्थान के विषय में एक लेख प्रकाशित हुआ है। हिंदुस्थान से संबंधित उस कथन का सारांश यहाँ के अनेक समाचारपत्रों में भी प्रकाशित हुआ है। उनका प्रतिपादन यह है कि मुसलमान संख्या में हिंदुओं से एक पंचमांश होते हुए भी हिंदुओं से अधिक बलवान हैं। यदि अंग्रेज हिंदुस्थान छोड़कर शीघ्र निकल जाएँगे तो वही (मुसलमान) हिंदुस्थान के शासक बन जाएंगे। यह कथन अमेरिका के एक अपूर्ण तथा हिंदू इतिहास के अनभिज्ञ व्यक्ति द्वारा किया गया है, इसलिए उपेक्षनीय है। परंतु मुसलमान समाचारपत्रों में उसका यह कथन बड़े-बड़े भड़क अक्षरों में छापा जा रहा है तथा इस आधार पर उन लोगों के समाचारपत्र उसके इस मत का समर्थन करने के प्रयास कर रहे हैं। इस कारण सिंध, बंगाल, मद्रास तथा अन्य प्रांतों में भी इस मत का अनेक अनभिज हिंदू युवकों पर प्रभाव हो रहा है। उनमें अनावश्यक दुर्बलता उत्पन्न होने की संभावना होने के कारण तथा विशेषतः मुसलमान गुंडों की, केवल अशिक्षित ही नहीं, सुशिक्षित गुंडों की भी गतिविधियाँ 'हमलोग हैं ही बलवान' इस गर्वोक्ति से अधिक तीव्र हो रही हैं। अतः इस दुष्ट, असत्य तथा तेजोभंग करनेवाले कथन का तीव्र निषेध करना आवश्यक हो गया है।

जातिभेद तथा अस्पृश्यता ये द्विधाभाव प्रदर्शित करनेवाले भयंकर रोग हिंदू समाज के लिए भारी पड़ रहे हैं। इन्हें स्वयं से अथवा विश्व के लोगों से छिपाकर रखने की हमारी इच्छा भी नहीं है। अपना दौर्बल्य वही छिपाता है, जिसे यह भय रहता है कि यदि विपक्ष इसके विषय में जानने लगेगा तो हमें नष्ट कर सकता है। जातिभेद तथा अस्पृश्यता के रोग कितने भी दुर्धर क्यों न हों, हम लोगों का हिंदू राष्ट्र मूलतः ही इतना सामर्थ्यवान, दैवीसंपत्ति युक्त तथा सनातन जीवनशक्ति से परिपूर्ण है कि वह अपनी इस रोगग्रस्त अवस्था में भी मुसलमान आघातों से कुचल जाएगा- ऐसी चिंता करने के लिए अभी तक कोई घटना नहीं घटी है। हाथी को यदि कभी किसी दिन बुखार हो गया हो, अथवा चूहों द्वारा उसे कष्ट पहुँचाया गया हो, तब भी हाथी हाथी ही बना रहेगा तथा उसके 'अपरिचत मणिगात्रम्' ही खड़े रहते हुए पड़ने वाले एक दो कदमों के भार में भी मतिभ्रष्ट चूहों की संपूर्ण सेना कुचलने का सामर्थ्य रहता है। संपूर्ण हिंदुस्थान के सिंहासन का बल मुसलमानों के पक्ष में था। उस समय उनकी लाखों की चतरंग सेनाएँ अनेक प्रबल नादिर औरंगजेब-अब्दाली अथवा तैमूर का आदेश होते की नगरों में जनसंहार करती थीं। उस समय भी मुसलमान हिंदुस्थान के वास्तविक शासक हो गए थे। परंतु वे इस प्रकार नहीं बने रह सके। फिर आज तो उनकी अवस्था हिंदुओं से भी कई गुना अधिक दयनीय हो चुकी है। आज वे हिंदुओं के शासक बन जाएँगे यह भय इतना निर्मूल पहले कभी नहीं था, जितना आज है। जिस काम को गजनी का महमूद भी न कर सका, उसे मुहमदअली क्या कर पाएँगे? जो काम निजाम के पितर-पूर्वजन कर सके, वह हसन निजामी किस प्रकार साध्य करेगा? हिंदुओं में विद्यमान जातिभेद तथा अस्पृश्यता उस समय भी हिंदूराष्ट्र के शरीर में कदाचित् अधिक तीव्रता से प्रविष्ट थी। यह उस समय की स्थिति है, जब मुसलमानी राष्ट्र 'कवची, धन्वी, खड्गी, सायुध, बलवान, अजिक्य' था, तब भी इस महाराष्ट्र ने, बुंदेलों ने, सिखों ने इन सब जातिभेदों एवं अस्पृश्यता को ताक पर रखते हुए युद्धभूमि पर औरंगजेब से लेकर अर्काट के नबाव तक जहाँ भी, जो भी मुसलमान युद्धोन्मुख मिला, उसे मात दी। अब तो उनका कवच खंडित हो चुका है, धनुष्य भंग हो चुका है, उनका सहारा भी जबाव दे चुका है। अब इस अवस्था में अंग्रेजों के हिंदुस्थान से चले जाने के पश्चात् मुसलमान हिंदू राष्ट्र को दास बना सकेंगे अथवा हिंदू धर्म का उच्छेद कर सकेंगे-यह भय मिथ्या है। अस्पृश्यता तथा जातिभेद अथवा हिंदू समाज जिन अन्य रोगों से पीड़ित है, उस पर हम लोग एक प्रभावी औषधोपचार कर रहे हैं। इससे रोगों में सुधार होगा तथा शुद्धि और संगठन दो रामबाण उपायों से जिस हिंदू समाज का बल समयानुसार वृद्धिंगत हो रहा है, उस उदयोन्मुख नवजीवन धारी हिंदू समाज में संख्याबल से पाँच गुना कम अर्थात् एक पंचमांश मुसलमानों के बल का भय दिखाकर हिंदू समाज का तेजोभंग करने का प्रयास कोई भी क्यों न करे, वह व्यर्थ सिद्ध होगा।

हे हिंदुओ! तुम दुर्बल हो, ऐसा आध्रुवध्रुव विश्व कहता भी हो, तो भी आप तेजोभंग होने से बचिए। इस शाब्दिक आक्रोश को समाप्त करने का सामर्थ्य विक्रमादित्य के केवल नाम में ही है। ये सभी खोखली धमकियाँ शिवाजी के पुण्य स्मरण करते ही लुप्त हो जाएँगी। आपका इतिहास ऐसे अनेक विक्रमादित्यों, समुद्रगुप्तों से तथा शिवाजियों से भरा पड़ा है। आप लोग केवल संगठन करो, विचार करो कि पाँच हजार वर्षों से आप जिस प्रकार दूसरों की पराजय करते हुए अपना अस्तित्व बनाए हुए हो, उसी प्रकार उस कोदंडधारी रावण का वध करनेवाले श्रीरामचंद्र की चेतना से तथा धनुष से आगामी पाँच हजार वर्षों तक सभी को मात देते रहोगे!

इस उपयुक्त कथन के समान, इतना ही भ्रामक तथा कदाचित् इससे भी अधिक उपायकारक विधान महात्मा गांधीजी के 'नवजीवन' समाचारपत्र में छपा हिंदूजाति को नामशेष करने का बीड़ा जिसने उठाया है, उस दिल्ली के हसन निजामी जैसे कट्टर मुसलमान धर्म प्रचारक से भेंट हुई, तब गांधीजी ने कहा, 'मुझे मुसलमान धर्म प्रसार का मर्म ज्ञात है। मैं यह जानता हूँ कि मुसलमान धर्म का प्रसार तलवार के बल पर नहीं हुआ है। वह फकीरों के उपदेश का परिणाम है। मुसलमानों ने धर्म का रक्षण तलवार से ही किया है। इस बात का प्रचार गत पचास वर्षों से मुसलमान लोगों द्वारा ही किया जा रहा है। इस मायावी भ्रांतिपूर्ण बाज से भ्रमित होकर सैकड़ों हिंदू युवक मुसलमानों के पंजों में फँसने की बात हमें ज्ञात है। यह कथन गांधीजी द्वारा किए जाने के कारण पंजाब तथा सिंध के इन युवकों के अतिरिक्त अन्य प्रांतों के अर्धशिक्षित हिंदू युवक के मुसलमानों के संस्कारों तथा धर्म के पंजों में फँसने की संभावना है। अतः इस कथन का निषेध करना हमारा कर्तव्य बन जाता है। अन्यथा वैद्यकशास्त्र, समाजशास्त्र आदि शास्त्रों से संबंधित गांधीजी द्वारा किए गए अपक्व तथा अपूर्ण कथनों के समान इस ऐतिहासिक कथन की भी उपेक्षा ही की जाती। मुसलमान समाज में अनेक साधु पुरुष हुए हैं इसे अस्वीकार करने का अनौदार्य हम कभी प्रकट नहीं कर सकते। मुसलमानों का अथवा अन्य कोई भी धर्म ऐसा नहीं है जिसमें अत्यंत महान् सच्चरित्र तथा साधु नहीं उपजे हैं। अंदमान के 'जरी' लोगों में भी भले लोग विद्यमान हैं। इन साधुओं के चरित्रों के प्रभाव से मुसलमानों में से धर्म से भी, जिनके धर्म के तत्त्व अधिक अच्छे थे, वे कुछ लोग मुसलमान बने, यह सत्य है। परंतु मुसलमानों के धर्मग्रंथ तथा इतिहास का जिन्हें कुछ प्रत्यक्ष ज्ञान है, उनके इस ज्ञान का स्रोत अमीर अली का ग्रंथ 'स्पिरिट ऑफ इस्लाम' नहीं है तथा मीठे-मीठे शब्दों का प्रयोग करनेवाले मुसलमानों के कथनों पर जो अबलंवित नहीं है, ऐसा कोई भी व्यक्ति 'मुसलमानी धर्म साधुत्व के प्रभाव से अग्रसर हुआ। तलवार से उसका प्रचार नहीं किया गया, उसका केवल रक्षण किया गया। यह विधान पढ़कर बिना किसी उपहास किए रह नहीं सकेगा। इस धर्म का प्रसार किस प्रकार किया गया, यह रक्तरंजित तलवार की धार से लिखा गया वृत्त कहा जाए, तो एक ग्रंथ ही बन जाएगा। परंतु सामान्य पाठकों और महात्मा गांधीजी के मुसलमानों के इतिहास विषयक संकीर्ण ज्ञान की सीमा में रहकर भी दस-पाँच प्रश्न पूछने से अधिक कुछ करने की आवश्यकता इस उतावले, साहस युक्त गूढ़ अज्ञान का उचित अर्थ प्राप्त करने हेतु नहीं होगी। गजनी के महम्मद ने सोमनाथ आदि मंदिर ध्वस्त कर दिए, वह धर्म का रक्षण था, धर्म का प्रचार-प्रसार था ? इस अत्याचार की प्रशंसा करते हुए मुसलमान इतिहासकारों ने उसे धर्म प्रचारक की गौरवपूर्ण उपाधि दी है। जीते हुए प्रदेश से लूटा गया धन विद्यमान मुसलमानों में अथवा जो मुसलमान बन जाएंगे उनमें वितरित किया जाना चाहिए यह नियम प्रसारार्थ बनाया गया था अथवा नहीं ? अलाउद्दीन खिलजी ने हिंदू लोगों की जो दीन अवस्था कर दी वह क्या केवल प्रचार हेतु अथवा रक्षणार्थ की थी ? महात्मा गांधी ने सिखों के इतिहास की कोई पुस्तक अभी-अभी पढ़ी है ऐसा वे बताते हैं। उस ग्रंथ में कश्मीर के ब्राह्मण, गुरु तेगबहादुर से आक्रोश करते हुए 'रक्षण कीजिए अन्यथा मुसलमान बनना पड़ेगा' कहते हुए शरण जाने की बात का उल्लेख है। वे क्या मुसलमान साधु पुरुषों के समय मुसलमान साधुओं के प्रभाव के कारण ? गुरु तेगबहादुर, वीरबंदा, शूर संभाजी आदि हजारों बलिदानियों के रक्त की नदियाँ बहीं, वह 'मुसलमान बनो अन्यथा' ऐसी अंतिमोत्तर मिलने पर ही मुसलमान बनने पर मृत्युदंड से मुक्ति मिलती, वह किस कारण? धर्म के प्रचारार्थ अथवा रक्षणार्थ ? पारसी लोग स्वदेश छोड़कर यहाँ आए थे, उन्हें स्वदेश से प्रेम नहीं था इस कारण आए थे, अथवा मुसलमानों के अत्याचार असह्य होने के कारण ? बजाजी नेबालकर भ्रष्ट हुए तो क्या अवलियों के उपदेश से अथवा धर्म क्रूरता के बलात्कार के कारण ? नेताजी पालकर क्या मुसलिम धर्म से प्रभावित या मोहित होकर मुसलमान बने थे? टीपू के आक्रमण के समय शांतदीन मुसलमान फकीरों के प्रभाव से तथा मंत्रों से हजारों हिंदू त्रावणकोर में मुसलमान बन गए यह क्या सत्य है ? और मलाबार ?

मलाबार के विषय में दो वर्ष तक अध्ययन करने के पश्चात् गांधीजी ने कहा, 'वहाँ केवल एकमात्र हिंदू बलात्कार से भ्रष्ट किया गया है!' क्योंकि कोई मुसलमान नेता ऐसा कहता है। धर्मवीर डॉ. मुंजे शंकराचार्य, आर्यसमाज के प्रतिनिवेदन का उल्लेख करना भी उन्होंने नहीं चाहा। बलात्कार से भ्रष्ट की गई सैकड़ों हिंदू कुमारियों के आक्रोश तथा वृद्धों का रुदन उन्हें सुनाई नहीं दिया। बलात्कार से धर्म परिवर्तन नहीं करूंगा, चाहो तो मार डालो- ऐसा कहते हुए मुसलमानी तलवार से मस्तक कटते समय भी अचल रहनेवाले मलाबार के धर्मवीरों के बलिदानों का तेज उन्हें नहीं दिखाई दिया। केवल एक ही हिंदू भ्रष्ट हुआ है संकोच करते हुए कह रहा हो, तब भी उसका उल्लेख करते समय उस अंध साहसी को कठिनाई नहीं हुई। उसी साहस से मुसलमानों का धर्म तलवार के बल से कभी भी प्रचारित नहीं किया गया, यह कथन भी किया गया है। इस कथन की ऐतिहासिक मिथ्यता प्रमाणित करने हेतु एक भी अक्षर लिखना अनावश्यक है।

यह तो हुई एक साधारण सी बात हिंदुओ, कुरान के सैकड़ों वाक्यों के आधार पर मुसलमानों के लाखों मौलवी धर्म प्रचारक तथा सैनिक आजतक न प्राप्त करने की बात से एवं बलात्कार करते हुए मुसलमान धर्म का प्रचार कर रहे है तथा इसे अपना कर्तव्य समझते हैं। इस बात को ध्यान में रखिए। अन्यथा मिथ्या महानता और घातक सुरक्षिता के भ्रम मार्गभ्रष्ट हो जाओ, मुसलमानों को दोष मत दीजिए। उनसे अन्याय्य, द्वेषभाव भी न रखिए। परंतु बलात्कार से धर्म प्रचार करने की उनकी प्रथा उनका एक प्रण बन चुकी है। इस ऐतिहासिक सत्य को ध्यान में रखते हुए अपने बल में इतनी वृद्धि कीजिए कि आपके संघटित वज्र रूपी कवच पर उनके बलात्कार के शस्त्र की धार सर्वस्वी कुंठित होकर निस्तेज हो जाएगी। नागपुर में हिंदू संगठन के कारण ही बार-बार प्रयास करने पर भी हम लोगों के मंदिरों का गिराना संभव न हुआ। परंतु गुलबर्गा में हिंदू संगठन के अभाव में भगवान् की मूर्ति तथा मंदिर ध्वस्त किए गए। अत: संगठन करो। मुसलमानों जैसा अनिष्ट बल हिंदू समाज में उत्पन्न होना उचित नहीं है। बलात्कार से हम लोगों की हानि होगी ऐसा विचार अन्याय करनेवालों के मन में उत्पन्न होना, इतना ही बल पर्याप्त है। जब न्याय के पक्ष में केवल आत्मिक ही नहीं, शारीरिक बल भी उत्पन्न होता है, तब इस विश्व में न्याय का अस्तित्व बना रह सकता है। मनुष्य प्राणी इस विश्व में हिंस्र पशुओं से सामना करते हुए निश्चिंत रहा, वह केवल आत्मिक बल के कारण ही! अर्थात् शेर के सामने गीता का पाठ करने से नहीं, बल्कि आत्मिक बल की प्रेरणा से बुद्धिबलपूर्वक अपने शारीरिक दौर्बल्य को नए-नए आयुधों की सहायता से शक्ति में परिवर्तित करते हुए अपनी संगठन शक्ति स्थापित करने से ही मनुष्य टिक पाएगा!

उद्गार चिह्न !!

हिंदू मुसलमानों की एकता के लिए पंडित नेहरू ने हिंदू संगठन का भरपूर उपहास करते हुए हिंदुओं पर बड़ा उपकार किया। तत्पश्चात् राष्ट्रीय सभा की अनुमति लिये विधानमंडल में (कौंसिल में) प्रवेश करने पर हिंदुओं पर पाबंदी लगा दी, परंतु मुसलमानों को प्रवेश के लिए अवसर देकर हिंदुओं पर दूसरा उपकार किया। उसके पश्चात् जहाँ दंगे होने की संभावना हो, वहाँ सुरक्षा हेतु लोगों को शिष्टाचार से आचरण करने पर पाबंदी लगा देनी चाहिए। तब दंगों के समय हिंदू लोग भी मुसलमानों के समान ज्वलंत तथा उन्मादी होते हैं, यह सूचित कर तीसरा उपकार किया। परंतु फिर भी संगठन जिंदा रहा। वह उचित रूप से बलशाली हो रहा है। हिंदू लोगों को इस रोग से बचाने हेतु पंडित नेहरू तथा अबुल कलाम आजाद इन वैद्य द्वयों ने एक एकता मंडल की स्थापना की तथा सभी पांधिक तथा धार्मिक पक्षों को एक जगह आने के लिए आमंत्रण दिया। यह चौथा उपकार है। अतः हिंदुओ, सावधान! नानारूपधाराः कौलाः विचरन्ति महीतले।

बंगाल व पंजाब के कुछ समझदार और सबके साथ मिल-जुलकर रहनेवाले कुछ मुसलमान नेताओं ने कहा है कि हिंदू-मुसलमानों के परस्पर कलहों का निराकरण करने हेतु हिंदुओं को साठ प्रतिशत स्थान मुसलमानों के लिए सभी अधिकार के पदों के लिए सुरक्षित रखने चाहिए। वाह वा! चालीस ही फिर कमक्यों, शत प्रतिशत ही ठीक होगा।

राष्ट्रीय सभा की वर्तमान अध्यक्षा सरोजिनी बाई ने, मदनमोहन तथा मुंजे बंगाल में घूम रहे थे तब कहा था, 'ये बाहरी लोग बंगाल में जाकर द्वेष के बीज बोते हैं, इसी कारण ये संकट उत्पन्न होते हैं। सत्य है। मुंबई में इसी प्रकार की दूसरे प्रांतों में जनमी स्त्रियों का पदार्पण होने के कारण बहुत से संकट उत्पन्न हुए हैं। ये संकट पराकोटि तक पहुंचने से पूर्व क्या ये स्त्रियाँ उनके स्वप्रांत में प्रस्थापन कर जाएँगी? इनके बिना मुंबई में कुछ कार्य अधूरा रह जाएगा, ऐसा नहीं प्रतीत होता!

परंतु बंगाल प्रांत के लिए महाराष्ट्रीयन 'पराया' अथवा 'विदेशी' है यह कथन राष्ट्रीय सभा के अध्यक्ष पदाधिष्ठित रहते हुए श्रीमती सरोजिनी नायडू द्वारा किया जाना, वे उस सम्मान के लिए कितनी अनुरूप योग्य हैं, इस बात को स्वयमेव प्रमाणित करता है। बंगाल में मुंजे पराये तथा मुंबई में सरोजिनी पराई, इसे कहते हैं हम लोगों का एक राष्ट्रीयत्व!

मो. कुतुबुद्दीन अहमद ने जो पत्रक प्रकाशित किया है, उसमें स्पष्टतः कहा है कि वाद्यों को बजाना हिंदुओं का अधिकार है, परंतु हिंदुओं को मुसलमानों से प्रेम का व्यवहार किया जाना चाहिए यह बात हिंदुओं के लिए भी सूचित की। हिंदू भाई, दिल्ली में आयोजित खिलाफत आंदोलन के समय परिषद् में उपस्थित सैकड़ों प्रतिनिधियों के समक्ष हिंदुओं को भाई कहा जाता? उस परिषद् के दौरान किसी वक्ता को एक भयानक प्रसंग का सामना करना पड़ा। उसके द्वारा हिंदुओं को भाई कहने पर उसके जीवन के लिए संकट उत्पन्न हो गया। उसे संपूर्णतः अपने शब्द बदलने पड़े। 'हिंदू भाई नहीं, वे काफर हैं! वे कैसे भाई हो सकते हैं?' ऐसा आक्रोश करते हुए सैकड़ों मौलाना, मौलवी आक्रामक बन गए। इस प्रकार हम पर भी ये आक्रमण कर सकते हैं। (इस भय से) हिंदुओं ने मुसलमानों को भाई कहना चाहिए। नहीं, इस प्रकार संबोधित किया जाना आवश्यक है। परंतु मुसलमानों द्वारा हिंदुओं को किस प्रकार से बंधु कहकर संबोधित करना चाहिए? छोड़िए! यह कुरान के अनुसार नहीं होगा । कौंसिल में प्रतिनिधित्व करना भी तो किसी समय कुरान का विरोध करना कहा जाता !

किसी समय महम्मद अली ने दुःख प्रकट करते हुए कहा कि मेरे समकालीन अन्य मुसलमान बंधु वाइसराय के समीप बैठते हैं तथा मोटरकारों में घूमते हैं, परंतु मैं अपने वाहन में रास्तों पर घूमता हूँ। कुछ समय पश्चात् वे हज की यात्रा पर गए तब हम लोगों को बहुत आशा थी कि जिस इब्न साऊद की वे प्रशंसा कर रहे थे, वह उन्हें घूमने के लिए एक मीटर अवश्य प्रदान करेगा, परंतु...!

अली बंधु हज गए। विश्व इसलाम परिषद् में भी गए, परंतु वहाँ इब्न साऊद के अरबों ने उनका उपहास करना प्रारंभ किया। अली अंग्रेजी में संभाषण करने लगते, तब वे जोर-जोर से कहते, 'अरबी में बोलो!' तब क्रोधित होकर महमूद अली अधिक जोर से अंग्रेजी में बोलना प्रारंभ करते। तब कुछ लोगों ने चिल्लाकर कहा, 'क्या यही आपका स्वाभिमान है? अरबी न जाननेवाला यह अंग्रेज मौलवी देखिए!' यह सुनते ही सारी सभा हँसने लगी। उनकी बात पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। वापस आते समय का प्रसंग तो और भी अधिक अपमानजनक था। अली बंधुओं को कार के स्थान पर दो अरबी घोड़े इब्न साऊद द्वारा भेंट दिए गए।

प्राचीन समय में किसी उपरोध स्वरूप भेंट देने हेतु सफेद हाथी का प्रयोग किया जाता। वही बात उन घोड़ों के कारण अली महाशय के साथ हुई। अन्य अपमान केवल मानसिक ही थे, परंतु घोड़े के उपहास में आर्थिक अपमान था। क्योंकि वाहन का उपयोग बिना अधिक व्यय के किया जा सकता है। परंतु उन घोड़ों के लिए जेब से खर्च करना पड़ेगा तथा सवारी करना भी व्यर्थ ही होगा। क्योंकि बड़े भाई एकबार घोड़े पर सवार हो गए तो घोड़े को भी हानि पहुँच सकती हैं। घोड़ा एकबार नीचे बैठ जाएगा तो दुबारा उठेगा नहीं। इब्न साऊद द्वारा दिए गए घोड़ों का उपयोग कैसे किया जाए, यह मेरी समझ में आ रहा है। उन्हें इसकी सूचना देता हूँ। "खिलाफत के कार्यक्रम के सामने इस घोड़ों को बाँध दिया जाए तो उनके लिए अन्य लोगों द्वारा व्यय किया जाना संभव है। अथवा खिलाफत के साथी के रूप में किसी एक घोड़े को नियुक्त कर देना चाहिए। इससे सार्वजनिक निधि का अपव्यय करने का आरोप भी नहीं लग सकेगा। छोटे भाई का घोड़ा अभी-अभी लुप्त 'हमदर्द' के सहायक संपादक पद पर नियुक्त किया जाए, ताकि 'हमदर्द' इसपर सवार होकर आगे बढ़ सके! बिना मोटरकार प्राप्त किए अली बंधु दिल्ली सुरक्षित आ पहुँचे। उस दिन उनका सम्मान किया जाना आवश्यक था। अतः दिल्ली के सभी मार्ग शृंगारित किए जाते परंतु ऐसा नहीं किया गया। वर्षा का समय था, अतः प्राकृतिक शृंगार प्राप्त होने की अपेक्षा से मितव्ययी दिल्ली ने किसी प्रकार का कृत्रिम शृंगार नहीं किया ।

परंतु उस दिन स्टेशन पर प्रचंड जनसमूह उमड़ पड़ा था। एकता की दृष्टि से एक अभिनंदनीय बात दिखाई दे रही थी। उस जनसमूह में हिंदू-ही-हिंदू दिखाई दे रहे थे। उस दिन गंगाजी का मेला था तथा अधिकांश गाँववाले अली बंधुओं का नाम तक नहीं जानते थे। वे गंगा मैया का जयघोष करते हुए गाड़ी में चढ़ रहे थे स्टेशन पर उतर रहे थे। ऐसा ही अवसर देखकर अली बंधु दिल्ली पहुंचे थे जिससे यह लगे कि उन्हीं के स्वागत में इतना जनसमूह एकत्र हुआ है। यह सब उनके विनयी स्वभाव के लिए शोभा देनेवाला था।

उत्तर हिंदुस्थान के जिन समाचारपत्रों में उपर्युक्त समाचार हमने पढ़ा, उन्हीं में से किसी एक में, एक लेखक द्वारा प्रस्तुत नेताओं के लिए स्वर्ग से प्राप्त कुछ उपाधियाँ भी छपी हैं। उनमें से कुछ उल्लेखनीय इस प्रकार हैं -

पं. मोतीलालजी- कौंसिलमित्ररि !

पं. मदनमोहनजी-अज्ञेयवाद!

लाला लाजपतरायजी- दोलायमान !

श्री सेनगुप्त-दासध्वजी!

डॉ. मुंजे-लोहे का चना !

न्याय्यतः श्रीमती सरोजिनी बाई राष्ट्रीय सभा की अध्यक्षा होते हुए भी उनका समावेश न किया जाना, यह स्वर्गीय पदवीदान अधिकारी को शोभा नहीं देता। अतः उनके लिए उचित उपाधि है 'महात्मीण' भेजा गया, क्योंकि हिंदू महासभा द्वारा विधिमंडल में निर्वाचन हेतु उनके प्रतिनिधियों को भेजा गया, इस कारण उन्होंने भयंकर क्रोध प्रकट किया। इसके अतिरिक्त वे बार-बार यह बात कहती रहीं कि मुसलमानों को खिलाफत आंदोलन की ओर से अपने प्रतिनिधियों को खड़ा करना चाहिए तथा राष्ट्र सभा द्वारा इन्हें ही सहायता दी जानी चाहिए। उन्हें प्रोत्साहित करना चाहिए। पवनार में मुसलमानी द्वारा जो लूटपाट की गई, उसका दोष तथा कलकत्ता की मुसलमानी अशांति का सारा दोष भी प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष उन्होंने डॉ. मुंजे और मालवीय पर मढ़ दिया। सारांश में महात्मीण बनने के लिए स्वकीय हिंदूजाति का जितना धिक्कार तथा परायों का पक्षपात करना आवश्यक है, उतना उन्होंने किया है! अत: उपर्युक्त देवदूत द्वारा सरोजिनी बाई को 'महात्मीण' उपाधि देना आवश्यक हो जाता है! अर्थात् आगामी वर्ष में देवदूत को भी ' छिद्रान्वेषी' उपाधि से सम्मानित किया जाएगा।

हसन निजामी ने भी ऐसा प्रकाशित किया है कि मुसलमानों द्वारा हिंदुओं को वाद्य बजाने के लिए मना करना अथवा इस बात पर बाधा उत्पन्न करना अन्याय्य है तथा मुसलमानों के धर्म में इस प्रकार की कोई आज्ञा नहीं दी गई है। वे स्वयं उस विषय में बड़ा आंदोलन चलाकर हिंदू मुसलमानों में विद्यमान दुष्ट भाव को नष्ट करनेवाले हैं। शुभस्य शीघ्रम् वैसा तो पुराणकाल में भी पूतना को प्यार हो ही गया था!

दुर्लभं भारते जन्म,मनुष्यं का दुर्लभम्

समय १९ सितंबर, १९०२ अर्थात् चौदह साल की आयु में लिखा हुआ लेख! शासकीय सेवा करते समय 'देश' शब्द का उच्चारण भी नहीं करना चाहिए इस उद्वेगजनक विचार से उस समय के अत्यरूप शासकीय सेवकों के मन अलिप्त थे। ऐसे ही एक व्यक्ति से एक-दो दिन पूर्व संभाषण करने का अवसर मुझे प्राप्त हुआ। संभाषण का विषय शासन तथा देश की स्थिति ही था। इस विषय पर प्रदीर्घ चर्चा के पश्चात् वह निराश होकर बोला, 'मैं इस अभागे देश में जन्म न लेते हुए यदि इंग्लैंड में ही पैदा हुआ होता, तो कितना अच्छा होता ? फिर यह परतंत्रता का दुःख, वर्तमान स्थिति विषयक चिंता, यह दरिद्रता इनका उल्लेख करने की भी आवश्यकता नहीं होती। यदि में इंग्लैंड में जन्म लेता तो यहाँ कोई गर्वनर अथवा कर्नल बनकर आता तथा आज जिस प्रकार अन्य साहब लोग मजे उड़ा रहे हैं उसी प्रकार मैं भी मौज मस्ती करता। स्वदेश वापस लौटते समय उनकी तरह ही लाखों रुपयों से भरी हुई थैलियाँ साथ ले जाता। आज यदि मैं अंग्रेज होता तो इस विशाल ब्रिटिश साम्राज्य पर मुझे कितना गर्व होता! पराजयीभूत सैनिकों पर मैं तुच्छतादर्शक दृष्टिपात करता तथा राज्यारोहण के भोजन समारोहों में अत्यंत अभिमान से सम्मिलित होता!"

दुर्दैवी तथा दरिद्री हिंदुस्थान! ये शब्द सुनते ही मेरे मन में विचारों की आग भड़क उठी। इस अवस्था में मित्र को कोई भी उत्तर दिए बिना कार्यवश घर जाना आवश्यक है ऐसा कहकर मैं तत्काल अपने बँगले में वापस लौटा तथा इन शब्दों में वास्तविक कितना तथ्य है यह देखने लगा।

सांपत्तिक, सामाजिक, राजकीय आदि किसी भी दृष्टि से विचार करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि इन सभी स्पर्धाओं में वर्तमान समय में हिंदुओं का घोड़ा पिछड़ चुका है। उसपर कोई भी अपना अधिकार होने की बात कहकर उसे लगाम डालकर उसपर सवारी कर ले। यदि युद्ध खर्च करने की स्थिति न हो तो वह यह खर्च उस बेगार के घोड़े पर लाद देता है। जिस किसी को अपनी राज्यतृष्णा की तृप्ति करने के लिए विभिन्न खंडों में घूमने की इच्छा हो, तो ईश्वर ने यह घोड़ा उसके लिए रखा ही है! उसपर सवार होकर विदेशी लोग अफगानिस्थान जाते हैं। पीकिंग में प्रवेश करते हैं तथा प्रिटोरिया भी देख आते हैं। अपनी 'पीठ पर पराए लोगों का बोझ ढोने के लिए इस घोड़े को क्या प्राप्त होता है? पीठ पर पड़नेवाले परतंत्रता रूपी प्रहार! इस स्थिति में यदि कोई इस घोड़े को अभागा कहे तो वह उचित ही होगा। इस घोड़े की यह अवस्था इसके दुर्भाग्य के कारण ही हुई हैं। उसी समय मेरे मन में विचार उठा कि यदि इस घोड़े का वास्तविक धनी बलशाली तथा मजबूत होता तो उसे यह अवस्था निश्चय ही प्राप्त नहीं हुई होती। अत: उसे दुःख सागर में फेंकनेवाला उसका दुर्भाग्य नहीं है, बल्कि उसका हताश, निराभिमानी तथा नामर्द धनी ही है। इतना होते हुए भी यह विश्वसनीय घोड़ा अपने उस नामर्द धनी से कोई उलाहना न देते हुए स्वामी भक्ति की पराकाष्ठा करते हुए इतना दुर्धर जीवन अकेला सह रहा है। उसका वास्तविक धनी अर्थात् हिंदू लोग अपनी नामर्दता छिपाने के लिए उस घोड़े को ही 'तुम ही अभागी हो' ऐसा कहते हुए किंचित् भी हिचकते नहीं हैं अथवा स्वयं के दुर्गुणों का दोष दूसरों पर डालने का नौच कृत्य भी करते हैं। अधोगति की ओर जा रहे मनुष्य का यही धर्म है।

सारांश, यह घोड़ा अभागा नहीं है। उसके धनी ही अभागे हैं। परंतु यह अभागा न होने पर भी दरिद्री हो सकता है। अतः मेरा मित्र उससे ऊब गया है। परंतु हिंदुस्थान अकिंचन किस कारण बना? भागीरथी, ब्रह्मपुत्र, नर्मदा, कावेरी आदि नदियाँ तो आज भी बह रही हैं, फिर इस दरिद्रता का क्या कारण है ? देखिए हिमालय पर पाई जानेवाली सारी वनस्पतियाँ आज भी विद्यमान हैं न ? फिर हिंदुस्थान क्यों दरिद्री बन गया ? पूर्व तथा पश्चिम सागर जल से संपूर्ण है न ? फिर हिंदुस्थान क्यों अकिंचन है ? हिंदुस्थान आज भी पूर्ववत् ही धनवान है। वह अकिंचन नहीं है अथवा ऐसा होने की संभावना भी नहीं है। जो अकिंचन हुआ है, वह है यहाँ के लोग तथा अपने दुष्कृत्यों के कारण अधिक दरिद्री बनेंगे यहाँ के लोग परतंत्रता को चक्की में पीसे जानेवाले, अकाल से पीड़ित तथा घर के झगड़े जैसे-तैसे समाप्त करते-करते बाहरी शक्तियों को आमंत्रित करनेवाले हिंदुस्थान के ये लोग अकिंचन हैं। इनके पापों का विचार करने पर ऐसा प्रतीत होना अनुचित नहीं होगा कि दरिद्रता तथा दुर्दैव को इनका साथ कभी भी नहीं छोड़ना चाहिए। वे इंग्लैंड में जन्म लेते हैं अथवा प्रत्यक्ष अमरावती में वे सदैव दरिद्र तथा दुर्दैवी ही बने रहेंगे! जब तक वे अपनी आर्य माता को दोष देने के लिए प्रवृत्त हो रहे हैं अथवा उसकी परम पवित्र कोख जहाँ से वे उपजे हैं, को दोष दे रहे हैं तथा दूसरी कोख से जनम लेने की इच्छा कर रहे हैं। जब तक वे इसी प्रकार से विचार करते रहेंगे तब तक वे दरिद्र तथा अभागे ही बने रहेंगे।

आर्यभूमि जैसे देश में उत्पन्न होने का सौभाग्य प्राप्त होने के बाद भी वे इंग्लैंड में जन्म लेने की बात सोचकर किस प्रकार का लाभ पाने की इच्छा करते हैं? इस आर्यभूमि में जन्म लेना कोई साधारण बात नहीं है। ऐसा किसी महद भाग्य के कारण ही संभव होता है। इस आर्यभूमि में उत्पन्न होने के कारण ही हम लोगों को वसिष्ठ के वंशज कहलाने का सम्मान प्राप्त हुआ है तथा पाणिनि, आर्यभट्ट, भास्कराचार्य आदि के वंशज भी बौद्ध धर्म, ख्रिस्ती धर्म तथा मुसलमानो धर्म आदि सभी परंपराओं का जनक जो वैदिक धर्म है वह इसी भूमि का धर्म है। चार लाख वर्षों पूर्व इसी भूमि में ऋषिवृंदों द्वारा छंदोबद्ध ऋचाओं का गायन किया गया। धर्मराज ने यहीं राज किया। कालिदास ने 'शाकुंतल' की रचना यहाँ की तथा वर्तमान समय में राजपूतों की तलवार तथा मराठों का भाला भी यहाँ चमका ! आर्यभूमि के इस वैभव की तुलना में इंग्लैंड के पास क्या है? इंग्लैंड का अस्तित्व चार लाख वर्ष पूर्व तो क्या एक हजार साल पूर्व भी नहीं था। इंग्लैंड में कोई वसिष्ठ पैदा नहीं हुआ है। इंग्लैंड के पास इनमें से क्या है? उनके लोग लाखों रुपयों से भरी थैलियाँ ले जाते हैं। परंतु यह पराया धन में व्यर्थ ले जा रहा हूँ, 'सद्विवेक के इस प्रकार के असा डंकों के प्रहारों से उनके मन विकल हो चुके होंगे। आयरलैंड पर किए प्रहारों से उनके मन विकल हो चुके होंगे। आयरलैंड को हम लोगों ने जकड़ लिया है तथा बोअर लोगों की बलात् स्वतंत्रता छीन ली है, इन कृत्यों का विचार करते हुए जिनके मन शततः विदीर्ण हुए होंगे, उनकी कोख में जन्म लेने की इच्छा क्यों करना ? मिथ्या सुख के पीछे पड़ जाने से असहा दुःख की खाई में पड़ना क्या उचित होगा।

इस प्रकार के विचार मेरे मन में उत्पन्न हुए और मुझे विश्वास हो गया कि हिंदुस्थान की दरिद्रता तथा अनावस्था का संपूर्ण दायित्व हिंदू लोगों पर ही है। परंतु यदि उन्हें अपना गत वैभव पुनः प्राप्त करना है तो उन्हें हिंदू बने रहना आवश्यक है। अपने दुष्कृत्यों का दोष हिंदुस्थान के दुर्भाग्य पर मढ़कर यदि वे इंग्लैंड में जन्म लेना चाहेंगे तो, 'लोह परिसा रूसले, सोने पणासी मुकले!' (लोह परीस से रूठकर बैठा और सोना बनने से रह गया।) ऐसी उनकी अशरण अवस्था हो जाएगी।

इस प्रकार विश्वास हो जाने पर इस भारतमाता की कोख से जन्म प्राप्त होने पर मेरी आँखें आनंदाश्रुओं से भर आई। मैंने उस जगन्नियंता के प्रति आभार व्यक्त किया तथा पुनः अनुरोध किया कि 'हे भगवान् ! अखिल विश्व की प्रगति का उत्पन्न स्थान, अनादि काल से अनंत शास्त्रों का अधिष्ठान, श्रीरामचंद्र का वसतिस्थान, सद्गुणों का आश्रयस्थान, प्राकृतिक संपत्ति का केवल प्रकर्ष, जहाँ व्यास ने भारत का गायन किया, जहाँ शंकराचार्य का उदय हुआ, जहाँ राजपूत स्त्रियों ने जौहर किए और जहाँ वैदिक धर्म का साम्राज्य है उस आर्यभूमि में ही मेरा पूरा जीवन बीते। उस पर आए हुए अथवा हम लोगों ने मुखतापूर्वक उत्पन्न किए हुए दुर्धर संकटों से उसे मुक्त कराने की शक्ति प्राप्त हो और अंततः उसी के कारण यह देह भी खत्म हो। इसके अतिरिक्त मेरे संचित प्रारब्ध का पूर्ण क्षालन होने तक मुझे जितने भिन्न जन्म लेने पड़ेंगे, उतने सभी इस भारतमाता की कोख से ही हों तथा सभी उसी के लिए हों!'

सिंध तथा बंगाल का विभाजन

सिंध प्रांत के हिंदू बांधवों को आजकल जिस हृदय-पोड़ा ने व्याकुल करदिया है, वह है सिंध को मुंबई से पृथक् कर उसे एक स्वतंत्र प्रांत बनाने की योजना मुसलमानों के दुराग्रह के कारण तथा उसे अनुकूल होनेवाले हिंदुओं ने इस प्रकार की योजना बनाई है। हिंदुस्थान के जो प्रांत आज बने हुए हैं वे किसी तत्त्व के आधार पर अथवा किन्हीं मानदंड के अनुसार नहीं बनाए गए हैं। वे विभाग हिंदुस्थान की साधारण राज्य रचना के समान ही अत्यधिक अपरिष्कृत व अप्राकृतिक व्यवस्था के प्रमुख उदाहरण हैं। देश की राष्ट्रीय भावनाओं का पोषण करने के लिए ये प्रांत नहीं बनाए गए हैं। भाषा अथवा संस्कृति सदृश्य अथवा फ्रेंच राज्य क्रांति के समय सभी भेदभावों को मिटाने हेतु संख्या एवं व्यवस्था की दृष्टि से जिस प्रकार फ्रांस के उपांग बनाए गए थे उस तात्त्विक आधार पर भी इन प्रांतों की रचना नहीं की गई है। यह केवल एक संयोग ही था। अंग्रेजों ने जिस प्रकार सत्ता प्राप्त की तथा जिस प्रकार वह अधिकाधिक भू-भागों पर होती गई, उन्हीं भू-भागों का एक प्रांत बना दिया। आगे चलकर दूसरा बंगाल, बिहार पर प्रारंभ में अधिकार हुआ तब उसका एक प्रांत बना दिया। फिर अयोध्या, लखनऊ प्राप्त हुए, उन्हें एकसाथ रखकर दूसरा प्रांत बना दिया तथा इस प्रांत को एक विचित्र नाम भी दिया, 'संयुक्त प्रांत!' इधर मुंबईवासियों के हाथ जो कुछ लगा, वह मुंबईवासियों के हाथ लगा इसलिए एक पृथक् प्रांत बनाकर उसमें गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक, सिंध आदि को सम्मिलित कर उसे एक इलाका बना दिया! वर्तमान प्रांत विभाजन इस प्रकार से किसी बौद्धिक तर्कशास्त्र के आधार पर नहीं किया गया है। वह किसी उपयोग का नहीं है। यह केवल संयोग की बात है। अंग्रेजों के राज्य का विस्तार किस प्रकार हुआ इसे दरशानेवाली वह एक भौगोलिक सूची है। आजतक समय-समय पर इस तर्कहीन अव्यवस्था के कारण घोटाले उत्पन्न हुए, परंतु इस अव्यवस्था को त्यागकर कुछ-न-कुछ सुसंगत, व्यवस्थित विभाजन करने के स्थान पर इसी प्रकार का कोई अन्य तर्कहीन पर्याय खोजकर तात्कालिक काम चलाया जा रहा है। भविष्य में बंगाल के विभाजन के समय यह प्रश्न प्रमुख रूप से राजकीय नेताओं को दिखाई देने लगा। परंतु उस समय भी इस प्रश्न का सर्व सामान्य स्वरूप न देखते हुए उसकी व्याप्ति बंगाल तक ही सीमित रह गई । परंतु प्रांत के विभाजन की बात एक बार प्रारंभ होने पर इस कल्पना का उल्लेख किसी-न-किसी रूप में पुनः पुनः किया जाने लगा। अब आंध्र प्रांत का स्वतंत्र अस्तित्व होना चाहिए, इसलिए आंध्र में एक स्वतंत्र आंदोलन प्रारंभ किया गया। बंगाल के विभाजन का प्रश्न सुलझाते हुए उसी तात्त्विक आधार पर बिहार, उड़ीसा तथा असम को पृथक् कर दिया गया। उसी प्रकार आंध्र भी पृथक् होना चाहिए ऐसी माँग उठी। धीरे-धीरे इसी प्रकार कर्नाटक, उड़ीसा तथा अन्य प्रांतों में भी ऐसी ही माँग उठी कि उनके प्रांत भी स्वतंत्र प्रांत हो जाने चाहिए। अंतत: आज सिंध प्रांत के विभाजन का विरोध करते हुए सिंध प्रांत मुंबई से पृथक् किया जाना चाहिए इसलिए आंदोलन प्रारंभ किया गया। भाषावार प्रांत रचना कीजिए' यह माँग चारों ओर उठते ही राष्ट्रीय सभा में भी इसकी प्रतिध्वनि होते ही 'प्रांत विभाजन में भाषा को ही केवल एक मापदंड न मानते हुए, उसे अनन्य मानदंड समझना चाहिए' ऐसा कहते हुए राष्ट्रीय सभा ने भी इस हेतु आग्रहपूर्वक निवेदन किया। परंतु यह एक बड़ी भूल थी क्योंकि राष्ट्रीय भावना का पोषण करनेवाली प्रांत रचना करने में बहुत से स्थानों पर 'भाषा को ही अनन्य मापदंड समझना चाहिए' यह बात राष्ट्रहित के लिए घातक थी। यह बहुत स्पष्ट है। आज हिंदुस्थान में छप्पन भाषाएँ तथा एक सौ बारह उपभाषाएँ हैं। यदि भाषावार प्रांत रचना ही करनी हो तो इन सभी भाषियों के लिए एक पृथक् प्रांत बनाना होगा। केवल भाषा की दृष्टि से ही विचार किया जाए तब भी यदि तमिल, आंध्र तथा कर्नाटक के लिए स्वतंत्र प्रांत का निर्माण किया जाता है, तो मलयालम भाषा को भी स्वतंत्र प्रांत देना आवश्यक हो जाता है। कई बार कोई प्रांत किसी जिले जैसा छोटा होगा तो हिंदी भाषी करोड़ों लोगों के लिए निर्मित प्रांत किसी विस्तीर्ण देश के समान होगा। इस कठिनाई में दूसरा अत्यंत महत्त्वपूर्ण आक्षेप यह है कि भाषा विभिन्नता, संस्कृति भिन्नता, जाति भिन्नता आदि भिन्नत्व का विचार करनेवाली विभाजक प्रवृत्तियों को हरसंभव नष्ट करने का प्रयास करते हुए ही हम लोग राष्ट्रीय एकात्मता की स्थापना तथा राष्ट्र संगठन कर सकते हैं। अतः इस विभाजक प्रवृत्ति को प्रोत्साहन देते हुए हम लोगों को हितकारक और संभवनीय सीमा तक प्रयास करने चाहिए। परंतु भाषा को ही अनन्य मापदंड मानकर उसके अनुसार प्रांतों का विभाजन किया जाना है तो उपर्युक्त राष्ट्रीय एकात्मता के लिए घातक विभाजक प्रवृत्तियों में से अत्यंत प्रभावी- जो भाषा भिन्नता का विघटक तत्त्व है-उसे प्रबल प्रोत्साहन प्राप्त होता है। इन दोनों कठिनाइयों को टालना हो तो केवल भाषिक एकता को ही प्रांत विभाजन का तत्त्व न समझकर, संख्या, राज्य व्यवस्थानुकूलता, सांस्कृतिक समानता आदि अनेक मापदंडों से सीमित किया जाना चाहिए। अतः प्रांत रचना कीजिए ऐसी गर्जना करनेवालों को भी संख्याबल का महत्व मानना पड़ा। एक करोड़ अथवा दो करोड लोग जो भाषा बोलते हैं, उस भाषा को ही स्वतंत्र प्रांत माँगने का अधिकार देना चाहिए। इस हेतु राष्ट्रीय सभा को भी कुछ व्यर्थ व्यवस्था करनी पड़ी; परंतु केवल भाषा तथा संख्या- ये दो मापदंड ही पर्याप्त नहीं हैं। हम लोगों को प्रारंभ में यह बात समझ लेना आवश्यक है कि हमारा प्रमुख ध्येय राष्ट्रीय विघटन नहीं है, वह राष्ट्रीय संगठन है, अतः हम लोगों के सभी प्रयासों का लक्ष्य प्रांतीय अभिमान, भाषीय भिन्नता आदि विघटक प्रवृत्तियों का यथासंभव निर्मूलना करना होना चाहिए। कभी ऐसा सुदिन भी आएगा जब आसेतु हिमाचल अखिल हिंदुस्थान की एक ही भाषा हो। यह हम लोगों का राष्ट्रध्येय होना चाहिए। अचानक सभी प्रांतीय भाषाओं का नाश हो जाए, यह तो हमें अभिप्रेत नहीं है। परंतु युगों-युगों के समय में भाषा रीति-जाति आदि राष्ट्र विरोधी प्रवृत्तियों को अधिक बल प्राप्त होगा तथा गत इतिहास के कारण उत्पन्न प्रांतीय भेदभाव तीव्र होंगे; ऐसा कोई भी कार्य हम लोगों द्वारा नहीं किया जाना चाहिए। परिस्थिति पर धीरे-धीरे नियंत्रण करने हेतु निरुपाय स्वरूप ये भेदभाव हम लोग ध्यान में रखेंगे, उन्हें यथासंभव उचित अवसर भी देंगे; परंतु उन्हें किसी प्रकार का प्रोत्साहन नहीं दिया जाना चाहिए। वर्तमान स्थिति में प्रांत विभाजन के लिए 'भाषा' एक प्रमुख मापदंड है यह हम भी मानते हैं, परंतु उसे 'अनन्य मापदंड' कहकर अवांछित महत्त्व देना राष्ट्रीय एकता के ध्येय के लिए हानिकारक है। विभिन्न भाषाभाषियों में पृथक् रहने की हठी प्रवृत्ति जहाँ विद्यमान है, जहाँ दो-तीन भाषाएँ बोलनेवालों की संख्या, राज्यव्यवस्था तथा संस्कृति के लिए अनुकूल होगा वहाँ एक ही प्रांत आवश्यक तथा हितकारक होगा। अर्थात् यह स्थिति शनैः शनैः सिखानी होगी, इस कारण उस ओर ध्यान न देना योग्य नहीं है। इस समस्या का समाधान करने हेतु आज तक जो अनेक भाषी लोग एक ही प्रांत में अथवा इलाके में एक साथ रहने का अभ्यास कर चुके हैं अथवा यह बात सीख रहे हैं, उन्हें पृथक् न करते हुए एक साथ रहने देने से प्राप्त हो सकेगा। परंतु भाषा को अत्यधिक तथा अनुचित महत्त्व देकर सैकड़ों वर्षों से साथ रहनेवाले लोगों को भी पृथक् करते हुए मरणासन्न हुई सैकड़ों भावनाएँ जान-बूझकर उदीप्त की जाती हैं। संख्या, राज्य व्यवस्था, इतिहास तथा विशेषतः लोकमत आदि घटकों पर भी भाषा के घटक के समान प्रांत विभाजन के प्रयास करते समय हम लोगों को ध्यान देना चाहिए। यदि भिन्न जातियों के लोग एक ही प्रांत के निवासी हैं तथा अभी तक एक साथ रहना चाहते हैं, तो अन्य सभी दृष्टि से विशेषतः राष्ट्रीय हित को देखते हुए यह उचित प्रतीत होता हो- अब उन्हें एक ही प्रांत में संघटित होने देना चाहिए। इसके अतिरिक्त उनके इस कार्य की प्रशंसा भी की जानी चाहिए। यदि कोई भिन्न भाषीय पृथक् होना चाहते हो तो यथासंभव उन्हें ऐसा न करने की बात समझा देनी चाहिए। इसके पश्चात् भी संख्या राज्यव्यवस्था, संस्कृति आदि की दृष्टि से कोई विशेष कठिनाई नहीं हो और संस्कृति की किसी महत्त्वपूर्ण भाषा के अनुयायी सब मिलकर स्वतंत्र प्रांत की माँग कर रहे हैं। उन्हें भाषा के आधार पर स्वतंत्र प्रांत बना दिया जाए। इसी नीति के अनुसार आज आंध्र, कर्नाटक तथा क्वचित् उड़ीसा स्वतंत्र प्रांत बन जाने पर कोई आपत्ति नहीं है। संख्या, राज्यव्यवस्था, उन सभी लोगों की इस प्रकार की मांग, जिस प्रांत से वे पृथक् होना चाहते हैं वहाँ के लोगों का उनकी इस माँग का विरोध किया जाना आदि सारी बातें ध्यान में रखते हुए इस बात पर कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। परंतु इस प्रकार से पृथक् प्रति बनाने का अनन्य कारण यह नहीं है कि वे एक ही भाषा बोलते हैं, परंतु यह है कि उनके प्रांत स्वतंत्र हो जाने पर अन्य किसी संस्कृति अथवा जनसंघ के हित की अथवा राष्ट्रीय एकता की कोई विशेष हानि नहीं होगी। यही उस प्रांत-विभाजन का प्रमुख समर्थन है। आंध्र आदि प्रांतों की स्वतंत्र रचना इतनी आक्षेपार्ह नहीं है परंतु सिंध का प्रकरण एकदम भिन्न है। आंध्र और कर्नाटक के समान सिंध को एक भाषाभाषी होने के कारण पृथक करना चाहिए, यह माँग वहाँ के लोगों की नहीं है अपितु अन्य प्रांतों के मुसलमानों ने यह माँग उठाई है। पूर्व बंगाल तथा पश्चिम बंगाल-ये दो पृथक् प्रांत बनने चाहिए, ऐसी माँग यदि पंजाब के लोगों द्वारा की जाती है तब कितना विचित्र प्रतीत होगा। इतनी ही विचित्र माँग मुंबई के जिना तथा बंगाल के अब्दुल रहीम द्वारा सिंध को स्वतंत्र प्रांत बनाने की माँग करने पर प्रतीत होगा। यह इस आधार पर कहा जा रहा है कि वहाँ के लोग एक ही भाषा बोलते हैं अर्थात् इस माँग का समर्थन इतना सरल नहीं है कि मुसलमान भाषानुसार प्रांत विभाजन के विषय में सोच रहे हैं। इस निष्कपट दिखाई देनेवाले अर्थ के पीछे एक अन्य कपट की बात वे सोचते हैं, यह कपटी षड्यंत्र हम लोगों को स्पष्ट दिखाई भी दे रहा है। भाषानुरूप विभाजन की आड़ में सिंध को स्वतंत्र प्रांत बनाने की जो माँग की जा रही है, उसका सही अर्थ है मुसलमानी षड्यंत्र के लिए ऐसा किया जा रहा है। भाषिक आधार को महत्त्व न देते हुए हम लोगों को सिंध को स्वतंत्र प्रांत बनाने का विरोध करना ही होगा। भाषानुसार आंध्र, कर्नाटक, उड़ीसा को स्वतंत्र प्रांत बना दिया गया, उसी प्रकार सिंध को भी स्वतंत्र प्रांत बनाना चाहिए ऐसा कहना पाणिनि मुनि के एक ही सूत्र में 'एकसूत्रे श्वानं युवानं मघवानमाह' रखने जैसा ही होगा। इस तीनों प्रांतों का एक ही वर्ग में समावेश करना पूर्णतः अप्रयोजकता का द्योतक होगा। आंध्र तथा कर्नाटक केसमान सिंध की जनता जब तक बहमत के आधार पर इस प्रकार की मांग नहीं करती, तब तक आंध्र तथा कर्नाटक को पृथक किए जाने पर मुंबई सिंध को पृथक करने का अधिकार किसी को भी प्राप्त नहीं है। आंध्र तथा कर्नाटक प्रांतों में जनता का कोई भी महत्त्वपूर्ण संघ उस विभाजन के कारण हम लोगों के धार्मिक अथवा सांस्कृतिक व आर्थिक हिताहित का विरोध करता है, ऐसा यथार्थ प्रतिपादन निरंतर कर रहे हैं। सिंध के विभाजन का मुसलमानी कारण भी यही है। इस षड्यंत्र द्वारा अरबस्थान से ब्लूचिस्तान तक विस्तारित अखंड मुसलमान सत्ता तथा संस्कृति के जबड़ों में सिंध को धकेल देने के पश्चात् इसलामी उन्मत्त टोलियों राजपूताना के दरवाजे पर आ धमकेंगी। (तौबा! तौबा !) सिंध को स्वतंत्र प्रांत बना देने के पश्चात् वहाँ के बहुसंख्यक मुसलमान अपने पुराने धर्मोन्माद से सिंध की हिंदू संस्कृति को छल-कपट द्वारा नष्ट करने में अधिक समय नहीं लगाएंगे। इस प्रकार अरबस्तान के ब्लूचिस्थान तक संपूर्ण देश पर अधिकार करने के पश्चात् अखंड रूप से राजपूताना तक शुद्ध मुसलमानी जगत् बनाने का मुसलमानों का हेतु है। हिंदुओं आधारहीन नहीं है। सिंध को स्वतंत्र प्रांतीयता प्राप्त होते ही हिंदुओं को किस-किस प्रकार से हानि होगी यह हम एक लेख में विशेष रूप से बतानेवाले हैं। इस कारण यहाँ इस बात का केवल उल्लेख करना ही उचित होगा। उपर्युक्त संकट में केवल भाषाई एकता के तत्त्व के कारण सिंध को धकेलना हिंदू संस्कृति के विरोध में एक भयंकर अपराध करना होगा। आंध्र तथा कर्नाटक के लिए भाषा के तत्त्व का उपयोग किया जाने का यह अर्थ कदापि नहीं है कि सिंधु के लिए भी यही तत्त्व प्रयोग किया जाए। सिंध के सभी लोग एक साथ मिलकर यदि इस प्रकार की माँग करते हैं तब ऐसा करना उचित होगा- केवल इतना ही कहा जा सकता है, क्योंकि उपर्युक्त कथन के अनुसार प्रांत विभाजन केवल भाषा के आधार पर किया जाना हम लोगों के राष्ट्र के लिए कई प्रसंगों पर घातक सिद्ध होगा। यह बात हम लोगों के राष्ट्रीय नेताओं को कभी भी नहीं भूलनी चाहिए।

सिंध की अधिकांश जनता इस विभाजन का विरोध करती है। उसके अंतस्थ विचार हमने उपर्युक्त चर्चा के समय प्रकट किए हैं। सिंध के मुसलमानों के अतिरिक्त संपूर्ण हिंदुस्थान के मुसलमान सिंध को मुंबई प्रांत से पृथक् करने हेतु अविरत प्रयास क्यों कर रहे हैं। इसे भी हमने स्पष्ट बता दिया है। सिंध प्रांत एक भाषी है, अतः उसे मुंबई से पृथक् कर संघटित किया जाना चाहिए ऐसा मुसलमान कहते हैं, इस बात में छिपा कपट एक विस्मृत प्रसंग से स्पष्ट रूप से प्रकट हो जाएगा। इन्हीं मुसलमानों ने एकभाषी बंगाल का स्वतंत्र प्रांत विभाजित कर उसके दो प्रांत करने का आंदोलन इसी तरह चलाया था। सिंध तथा बंगाल का विभाजन भाषा की दृष्टि से मुसलमानों के लिए परस्पर विरोधी थे। ये विभाजन स्वीकार थे तो ये घटनाएँ मान्य करने का कारण या इसके परिप्रेक्ष्य में युद्ध था, तो विद्यमान मुसलमानों की वर्चस्व प्राप्त करने की आकांक्षा बंगाल की भाषा एक थी, प्रांत भी एक ही था, परंतु उसका विभाजन करने हेतु मुसलामानों ने शासन का साथ दिया और हिंदुओं के प्रचंड आंदोलन को यथासंभव विरोध किया क्योंकि पूर्व बंगाल यदि पश्चिम बंगाल से विभक्त किया जाता है तो उस प्रति में मुसलमानों का बहुमत होगा। उनके धर्मोन्माद को हिंदुओं की सहिष्णुता पर हावी होना सरल बन जाएगा। अतः उस भाषिक एकता के प्रश्न का गला घोंटकर मारने के लिए, मुसलमान आगे बढ़े। आज हम हिंदू नेताओं द्वारा इस बात का विस्मरण किए बिना आंध्र तथा कर्नाटक अथवा उड़ीसा आदि प्रांतों के साथ एक ही वर्ग में सिंध को रखने की भूल नहीं करनी चाहिए। जिस कारण बंगाल के विभाजन का संपूर्ण हिंदू समाज ने विरोध किया, उसी कारण से सिंध के विभाजन का विरोध भी दृढ़ता से करना चाहिए। बंगाल के हिंदू बहुसंख्यकों के लिए यह विभाजन प्रतिकूल था तथा इसी कारण शासन द्वारा उनपर यह बलपूर्वक लादना अन्याय्य था, ऐसा अभिमत संपूर्ण हिंदुस्थान ने उस समय प्रकट किया था। इसी प्रकार इस समय भी सभी को यह कहना चाहिए कि सिंध के हिंदू अथवा मुसलमानों का इतना बड़ा बहुमत इस विभाजन के लिए प्रतिकूल है अथवा किसी भी प्रांत के हिंदुओं का अथवा मुसलमानों का इतना प्रचंड बहुमत इतने उचित रूप में तथा न्याय्य कारणों के लिए इस प्रांत के विभाजन का विरोधी है, तब यह विभाजन किसी अति महत्त्वपूर्ण राष्ट्रीय कारण के बिना करने का अधिकार शासन को राष्ट्रीय सभा को अथवा अन्य किसी को भी प्राप्त नहीं है। अतः सिंध को मुंबई इलाके से विभक्त करना सर्वथा अनुचित है।

वर्तमान स्थिति में सिंध को मुंबई इलाके में संयुक्त होकर ही रहना चाहिए। भविष्य में जब स्वतंत्र रचना होगी, तब सिंध को भाषा तथा संस्कृति की दृष्टि से निकट प्रतीत होनेवाले कठियावाड़ से मुलतान के क्षेत्र में सम्मिलित किया जाना संभव होगा तथा कच्छ, कठियावाड़ से मुलतान तक का एक प्रांत बनाना संभव होगा। ऐसा किया जाने पर कठियावाड़ में हिंदुओं की संख्या में वृद्धि होगी तथा इस प्रांत में भाषा एवं संस्कृति की समानता की दृष्टि से एक से लोगों को सम्मिलित किया जाएगा। इस कारण बहुसंख्य मुसलमानों के उन्मादी भंय से वह कुछ मुक्त रह सकेगा। कच्छ, काठियावाड़ से मुलतान तक भाषा की तथा इतिहास की दृष्टि से एक विशेषता दिखाई देती है। सिंधु उसी भू-भाग का एक प्राकृतिक तथा ऐतिहासिक विभाग भी है। भविष्य में यह संभव होगा, परंतु आज की स्थिति में सिंध को मुंबई इलाके के साथ ही जुड़ा रहना चाहिए।

यहाँ एक अतिरिक्त बात का उल्लेख करना आवश्यक है। हिंदुओं की संघटित शक्ति में वृद्धि न होने देने की शासकीय प्रवृत्ति के कारण बंगाल के विभाजन के समय शासन द्वारा मुसलामनों को सहायता दी गई। उसी प्रवृत्ति के प्रभाव में आकर शासन मुसलमानों को तृप्ति कराने हेतु सिंध का स्वतंत्र प्रांत बनाकर वहाँ के हिंदूजाति के लिए जातीय संकट उत्पन्न करने में भी पीछे नहीं हटेगा। परंतु हम शासन को उचित समय पर चेतावनी देते हैं कि शासन द्वारा ऐसी भूल की गई तो उसका परिणाम हिंदुओं के ही नहीं, अंग्रेजी सत्ता के हितों को भी संकट में डालने वाला हो सकता है। क्योंकि इस विषय में हिंदुओं और शासन का हिताहित एक ही नीति पर निर्भर करता है। बंगाल के हिंदुओं की शक्ति को घटाने की नीति अपनाने के कारण हिंदुओं को शासन का घोर विरोध करना पड़ा। परंतु सिंध में हिंदू जनता का संगठन जितना प्रबल होगा, हिंदू जनता जितनी अधिक सशक्त तथा सामर्थ्यवान बनेगी, उतना ही अधिक अनुकूल वह अंग्रेजों के सीमावर्ती राजनीति के लिए सहायक बनेगा। हम लोगों को अंग्रेजों से यह कहने की आवश्यकता नहीं प्रतीत होती कि यदि जर्मन महायुद्ध जैसा कोई विश्वयुद्ध प्रारंभ होता है तब हिंदुस्थान की सुरक्षा के लिए यूरोप से कोई सेना भेजना असंभव होगा। एशिया को सहायता लेकर अफगानिस्तान कई वर्षों से प्रयास कर रहा है। ऐसा प्रसंग आने पर सिंध का मुसलमान विद्रोह करते हुए अफगानिस्तान को अवश्य जा मिलेगा। इस कारण सिंध का शासन तंत्र मुसलमानों का वर्चस्व जिस सीमा तक बढ़ने देगा उसी अनुपात में अफगानिस्थान द्वारा अंग्रेजों की सत्ता पर आक्रमण किए जाने के समय उन्हें यश मिलने की संभावना भी अधिक होगी। परंतु यदि सिंध में शासन हिंदुओं का सामर्थ्य संगठन तथा वर्चस्व वृद्धिंगत करने की नीति अपनाती है, तो किसी भी मुसलमान आक्रमण के विरोध में सिंध के हिंदू आज भी उसी तरह एकजुट होकर करेंगे जैसा उनके पूर्वजों ने दाहिरा के आधिपत्य में पूर्व के मुसलमान आक्रमणों युद्ध के विरोध में किया था। इस प्रकार सिंध में मुसलमानों के कदम आगे न बढ़ने में हिंदुओं तथा अंग्रेजों का हिताहित एक समान है। अतः शासन द्वारा समय रहते दूरदृष्टि रखते हुए सिंध के विभाजन को मान्य न करते हुए सिंध को मुंबई प्रांत से संलग्न रखना चाहिए। यह तब तक बनाए रखना होगा जब तक वहाँ के हिंदुओं के हित तथा सामर्थ्य को नष्ट न करते हुए सिंध को स्वतंत्र अथवा दूसरे प्रांत से संलग्न करनेवाली तथा सिंध के अधिकांश हिंदू निवासियों को स्वीकार्य हो, ऐसी कोई अन्य योजना तैयार करना संभव नहीं हो जाता।

- श्रद्धानंद, मुंबई, गुरुवार २१ जुलाई, १९२७

स्याम की हिंदू संस्कृति

प्राचीन समय भारत की अखिल हिंदू संस्कृति ने संपूर्ण ज्ञात विश्व पर अपना वर्चस्व स्थापित कर, अखिल विश्व को हिंदू संस्कृति के पाठ पढ़ाते हुए, मनुष्य को इस धरती के कर्तव्य किस प्रकार करने चाहिए तथा मानव जन्म को किस प्रकार सार्थक करना चाहिए, इसके लिए सुगम मार्ग-हिंदू धर्म का उदात्त स्वरूप सभी को दिखाया। उस समय विश्व में अन्य कोई धर्म नहीं था। दूसरी संस्कृति भी नहीं थी। केवल हिंदू धर्म का प्रभाव संपूर्ण मानवजाति के आचार-विचारों में प्रतिबिंबित हुआ था। इसमें किसी प्रकार की अतिशयोक्ति नहीं है। परंतु आज की हीन अवस्था में आत्मवंचक बने हुए हम लोगों के कुछ पाठक ही सत्य के प्रति संदेह प्रदर्शित करते हैं, परंतु कूपमंडूक वृत्ति त्यागकर आत्मविश्वासपूर्वक पूर्वजों के दिव्य कार्यों का निरीक्षण किया जाए तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि जिस प्रकार ईसाई लोग विश्व के अधिकांश स्थानों पर जाकर ईसाई धर्म का प्रचार करते हैं, उसी प्रकार उस समय हिंदू तपाचरणी, साधक, संन्यासी आदि लोग विश्व के सभी भागों में इस दिव्य हिंदू धर्म का प्रसार-प्रचार करते थे। मेक्सिको में वहाँ के मूल निवासियों के समान आज भी रावण की एक प्रतिज्ञा बनाकर उसे जलाने की प्रथा आज भी चालू है, तथा रामायण की अनेक कथाएँ वहाँ के निवासियों में प्रचलित हैं। दक्षिणी अमेरिका के चिली देश में एक विशाल सूर्य मंदिर है। जिन्हें रेड इंडियन कहा जाता है, वे लोग भी आर्य जाति के चेहरों से पर्याप्त रूप से सादृष्य रखते हैं तथा सामूहिक बुद्धिमत्ता, स्वतंत्रता विषयक प्रेम, शौर्य आदि गुणों की दृष्टि से उनमें आर्य वंश से अधिक समानता है। कोलंबस जैसे संशोधक को अमेरिका हिंदुस्थान जैसा प्रतीत हुआ तथा वहाँ के निवासियों को वह इंडियंस संबोधित करने लगा। इस कल्पित कथा पर हम विश्वास नहीं करते। इतना महान् संशोधक इस प्रकार की भूल करेगा तथा यह भूल है यह जानने के पश्चात् भी वह उसे बनाए रखेगा, यह संभव नहीं दिखाई देता। कोलंबस जब हिंदुस्थान की खोज करने निकल पड़ा उस समय उसने हिंदुस्थान के विषय में संपूर्ण जानकारी प्राप्त कर ली थी। यहाँ का रहन-सहन, रीति-रिवाज के विषय में अनेक यात्रियों से इसका पर्याप्त परिचय प्राप्त किया था। अतः जब वह प्रथम अमेरिका के मेक्सिको की ओर गया तब वहाँ उसे जो लोग मिले उनका आचरण तथा रीति-रिवाज इसी प्रकार का लगा और इसी कारण उसने उन्हें इंडियंस कहा होगा! निर्जीव भूमि को देखकर क्या इसे कोई नाम दिया जा सकता है? जीवंत लोगों के रहन-सहन की पद्धति, कार्य शैली तथा विचारधारा में हिंदी लोगों से कोई साम्य दिखाई दिया होगा। इसी कारण उसने उन्हें 'इंडियंस' रेड इंडियंस कहा हो, यही अधिक संभव दिखाई देता है।

सारांश में प्राचीन समय में इस हिंदू संस्कृति ने जल-स्थल-आकाश को व्याप्त कर लिया था। बाद में अनंतकाल आक्रमण से संपूर्ण विश्व बदल गया। ज्वालामुखी, भूचाल आदि प्रकोपों के प्रभाव से संपूर्ण भू-प्रदेशों में बदलाव उत्पन्न हुआ। भीड़ भरे, कोलाहलपूर्ण नगरों के स्थान पर अरण्य तथा मरुभूमियाँ उत्पन्न हुई। हिंदुस्थान का, हिंदू संस्कृति के जन्मस्थान से संबंध-विच्छेद हो गया, अन्य उपनिवेशों से भी संपर्क नहीं रहा। इस कारण अनाथ, एकाकी बनी हिंदू संस्कृति की शाखाएँ सुख गई। आज वे इतनी सूक्ष्म बन चुकी हैं कि उन्हें देखने हेतु संशोधन की सूक्ष्म दूरबीन की आवश्यकता प्रतीत होती है। इसका अनुभव निम्न प्रसंग में होता है। गोबी के मरुस्थल से बौद्ध संस्कृति के प्रथम अवशेष प्राप्त हुए हैं। उनकी जानकारी प्राप्त करने पर ज्ञात हो जाएगा कि यहाँ तथा सिंध के 'मोहनजोदड़ा नगर के आस-पास भूमिगत हुए प्रचंड नगर आज खनन द्वारा बाहर निकाले जा रहे हैं। उन्हें देखकर ऐसा प्रमाणित हो जाता है कि लोन तथा इजिप्ट के मीनारों की ईसापूर्व साढ़े तीन हजार वर्ष की संस्कृति इसी हिंदुस्थान की ही उपज है।

कोई यह भी कह सकता है कि पूर्वजों की प्राचीन कथाएँ बताने से क्या लाभ है? आज की दीनता नष्ट करने हेतु स्फूर्ति देने तथा यह कार्य संपन्न होने के लिए गतकाल के दिव्य वैभव का ज्ञान सहायक होता है। इसी कारण इन कथाओं की आवश्यकता होती है। 'तुम मूर्ख हो, तुम्हारा बाप भी मूर्ख था, तुम्हारा शिवाजी चोर, तुम्हारा धर्म व्यर्थ का पाखंड है, तुम्हारा देश दासत्व में ही पड़ा हुआ है।' इस प्रकार के योजनाबद्ध निवेदन करने का प्रयास प्रतिपक्षों द्वारा आज तक भी कई पीढ़ियों से किया जा रहा है। अर्धबुद्धि और मतिभ्रष्ट लोग इसके शिकार बन जाते हैं। उस समय यह स्पष्ट रूप से कहना आवश्यक होता है कि 'तुम मूर्ख हो, परंतु तुम्हारा बाप चतुर था, तुम्हारा शिवाजी धर्मवीर तथा देशवीर था। तुम्हारा देश किसी समय पूर्व ज्ञात विश्व का अधिराज था। अतः हे आज के मूर्ख! उठो और अपने प्राचीन बाप-दादाओं की अग्रपूजा का उत्तराधिकार ग्रहण करो। हे आज के दास! पूर्व के समान तू कल का शासनकर्ता बन जा। आज भेड़-बकरी जैसी आवाज करते हुए दीन होकर घूमनेवाले सिंह के शावक! उठो तथा अपना यह विराट् स्वरूप देखो। उस बीज का तू वंशज है। हे सिंह! उठो, यह क्षुद्र दीनता को कुचलकर और डुबोकर नष्ट करो तथा पुनः पूर्व के अधिराज पद पर अपने स्वामित्व के सिंहासन पर अधिष्ठित हो जाओ! इसीलिए उस पूर्व वैभव व पराक्रम की कथाएँ सुनना तथा पढ़ना आवश्यक है। अत: आज हम लोगों के पाठकों के लिए निकटवर्ती और अधिकांश रूप से हिंदू संस्कृति से संलग्न आपके स्याम की संक्षिप्त जानकारी दे रहे हैं। इस जानकारी का आधार स्रोत' भूगोल' नामक हिंदी मासिक पत्रिका है तथा हम इस पत्रिका के आभारी हैं।"

आज के सुशिक्षित लोगों की स्याम विषयक जानकारी बाल्यकाल में भूगोल की पुस्तक से याद की हुई जानकारी तक ही सीमित है। वहाँ के नगर, राजा आदि के नाम भी अज्ञात हैं। किसी देशभक्त को कमालपाशा के बब्बरजी का अथवा अमीर अमातुल्ला खान के श्वानरक्षक का नाम भी मुखोद्गत रहने की संभावना अधिक है। परंतु स्याम स्वतंत्र होने के पश्चात् वही आज साँतवें 'राम' राजा राज करते हैं इस बात की संपूर्ण अनभिज्ञता है! 'रूटर' जैसे वार्ताहर भी अमीर अमानुल्ला खान के भृत्यों की सूची नामानुसार प्रकाशित करेंगे, परंतु स्याम के 'राम' राजा हिंदुस्थान अथवा यूरोप की यात्रा पर जब प्रयाण करते हैं तब उनका निर्देश केवल 'स्याम का राजा', 'स्याम का राजपुत्र' इस प्रकार से करते हैं। किसी भी नाम का उल्लेख तक नहीं करते। अतः इस प्रकार की आस-पास की स्वत्वनाशक अवस्था में जो-जो हम लोगों का अपना है, उसकी जानकारी अवश्य कर लेनी चाहिए।

स्याम की भौगोलिक जानकारी हम नहीं दे रहे हैं। इसके प्राचीन इतिहास का विशेष ज्ञान किसी को भी नहीं है, क्योंकि यह इतिहास उपलब्ध नहीं है। परंतु धर्म की लहर जब ब्रह्मदेश, चीन, मलाया आदि देशों में पहुँची तब इस देश में भी धर्म का प्रसार हुआ। परंतु तेलंराणा, मद्रास आदि से आनेवाले हिंदू उपनिवेशवादियों द्वारा यहाँ हिंदू संस्कृति का अधिष्ठान स्थिर करने के कारण स्याम आज भी हिंदू संस्कृति का ही पुरस्कार कर रहा है। स्याम में बौद्ध शतक चल रहा है। सन् १३५० में स्याम के लोगों ने राष्ट्रीय संगठन करते हुए ब्रह्मी, पुर्तगाली तथा हज लोगों से युद्ध किया और अपने देश को स्वतंत्र कराते हुए 'अयोध्या' को उनकी राजधानी संबोधित किया। तब से ४३ विभिन्न राजाओं ने स्याम पर राज किया। तत्पश्चात् सन् १७७७ में लव वंश के स्याम के अंतिम राजा सूर्यमालिन को पराजित किया। सूर्य मालिन को ब्रह्मदेश के मॉंगलौंग नामक राजा द्वारा पराजित होने के पश्चात् लोगों से समक्ष उपस्थित न होते हुए वह जंगल में चला गया तथा वहाँ उपोष्ण के कारण उसकी मृत्यु हो गई। 'पारतंत्र्यान्मरणं वर' इसी उदात्त तत्त्व का उसने आचरण किया। कुछ समय पश्चात् 'लुअंकातक' नाम से चीने सरदार ने माँगलौंग को पराजित किया तथा स्वयं राजगद्दी पर जबरन अधिकार किया और 'धनपुरी' को अपनी राजधानी बनाया। आज इसे ही बैंकॉक में नोय (नया) कहते हैं। उसने चौदह साल तक राज किया, परंतु अंतत: उन्माद में उसकी मृत्यु हो गई। तत्पश्चात् एक प्रतापी पुरुष का उदय हुआ और वही वर्तमान राजवंश का मूल पुरुष है। लॉर्ड क्लाइव अथवा हैदरअली का चरित्र पढ़कर आश्चर्यचकित होनेवाले मूर्खो, देखो, विदेश में जाकर राज्य तथा राजवंश स्थापित करने के महा पराक्रमी पुरुष आप लोगों में भी उपजे हैं। बहुत प्राचीन प्रसंग नहीं है केवल सवा सौ वर्ष पूर्व का यह प्रसंग है। जिस समय नाना और महादजी हिंदू स्वातंत्र्य की रक्षा करते हुए उसी समय तथा असमय ही स्वर्ग सिधार गए। इस कारण हिंदू सत्ता डगमगाने लगी थी। ठीक उसी समय स्याम में एक प्रतापी हिंदू संतान अपने पराक्रम और चातुर्य से-क्लाइव के समान कपटनीति से नहीं अथवा हैदर के समान क्रौर्य से नहीं-एक स्वतंत्र राज्य तथा राजवंश की स्थापना कर रही थी। उसका 'राम' नामक एक चौदह वर्षीय पुत्र प्रथम सामान्य सैनिक बना, तत्पश्चात् स्वपराक्रम से प्रथम सेनापति व प्रधान बना। 'लुअक ताक' इस चीनी राजा के पश्चात् राजा बन गया। यह सन् १८०६ की घटना है। उसी प्रतापी पुरुष का नाम था 'राम'; उसी का वंश आज स्याम का सिंहासन अलंकृत कर रहा है। इस बीच छह 'रामों' ने राजपाट चलाया। कुछ वर्ष पूर्व ही आज के सातवें राम इस प्रतापी वंश के सिंहासन पर आरूढ़ हुए।

यह केवल स्याम के हिंदू राजवंश का इतिहास है। वहाँ की संस्कृति अधिकांशत: हिंदू संस्कृति ही है। हमारे यहाँ के समाचारपत्रों में बहुधा स्थानाभाव ही रहता है। अतः केवल उल्लेखों से ही पाठकों को तृप्त होना चाहिए।

बैंकॉक में बहुत प्राचीन समय से बसा हुआ एक हिंदू परिवार है। परिवार के प्रधान का नाम है 'वरराज गुरु वामदेव'। स्याम में ब्राह्मण को अपभ्रष्ट रूप में 'फ्राम' कहते हैं। ये लोग स्वच्छ धोती पहनते हैं तथा सिर पर चोटी यानी शिखा धारण करते हैं। ये गोमांस का सेवन नहीं करते। इनका यज्ञोपवीत भी है, परंतु उसका उपयोग संस्कार करते समय तथा हवन के समय किया जाता है। अन्य समय इसे स्पर्श नहीं किया जाता राजवंश की ओर से प्रत्येक ब्राह्मण को तीस रुपए की राशि दक्षिणास्वरूप दी जाती है। राजदरबार में ये हवकाव्य जैसे धार्मिक संस्कारों में जाते हैं। इनका एक स्वतंत्र धर्म मंदिर है। उसका नाम है 'बाट-फ्राम' (ब्राह्मणों का धर्म मंदिर)। इसमें पंचांग की नवग्रह तथा दशावतारों की प्रतिमाएँ हैं। हम लोगों के समान यहाँ विधिपूर्वक पूजा-अर्चना होती है। वरराज गुरु वामदेव भारत से बहुत प्रेम करते हैं।

इसी प्रकार संस्कृत भाषा तथा साहित्य का प्रसार स्याम में पर्याप्त रूप से हुआ है। स्याम के लोगों तथा अन्य बौद्धों में बहुत अंतर दिखाई देता है। स्यामी लोग हिंदुओं के समान शवों का दाह संस्कार करते हैं। उसकी अंतिम क्रिया हिंदुओं के समान ही होती है। विवाहादि संस्कार भी अधिकांशतः हिंदुओं के समान ही हैं। बौद्ध मंदिर में भी प्रथमतः गणेशजी की उत्तुंग तथा भव्य प्रतिमा है। इस मंदिर का नाम 'सरश्रीरत्न सदाराम' है। 'थाई क्षेत्र' नामक एक मासिक पत्रिका के मुख पृष्ठ पर गणपति का पंचरंगी चित्र दिया है। 'Water work' को 'प्रपात - ऐसा संस्कृत अभिधान है तथा उसपर गंगा की सुंदर मूर्ति है। 'रामायण' तथा 'महाभारत' के योद्धाओं के नाम मंदिरों पर खुदे हुए हैं। उसी प्रकार 'कथासरिता सागर', 'हितोपदेश', 'नीतिशास्त्र' आदि संस्कृत ग्रंथ तथा उनका थाई (स्यामी भाषा में अनुवाद भी हो चुका है। गत राजा छठवें राम ने स्वयं 'नलोपाख्यान, 'अभिज्ञानशाकुंतलम्' आदि ग्रंथों पर थाई भाषा में टीका लिखी हैं!) बैंकॉक के राजवंश का एक प्रचंड पुस्‍तकालय है। उसमें दो लाख से भी अधिक ग्रंथ संगृहीत हैं। इनमें संस्कृत के अनेक दुर्लभ ग्रंथ- आदित्य, चान (चंद्र) भी हैं। इन लोगों की थाई लिपि नागरी लिपि का रूपातर है। वर्ण, स्वर आदि का क्रम नागरी जैसा ही है। पारिभाषिक शब्द भी संस्कृत भाषा से ही लिये गए हैं। उदाहरणार्थ, Water work (प्रपात), दूरभाष (telephone), बुरी सभा (पुरी सभा Municipality), संथानी (station), बोरिशद (परिषद् parliament) आदि। व्यक्तियों, नगरों के नाम भी संस्कृत में ही हैं। जैसे राणी वल्लभा देवी, रामराघव, यमराज, विष्णुलोक, अयोध्या, लवपुरी इत्यादि।

स्यामी वाड्मय में भी मराठी तथा बंगाल के समान बहुत से संस्कृत शब्द हैं। किसी ग्रंथ का एक भाग नीचे उद्धृत किया है, 'वरपाद महासमस्त वंश, महासमस्त वंश, अतिय वंश, विमल रत्नवर क्षत्रियराज निकरात्तेम पतुरन्त महाचक्रवर्ति राजसकाश उमतो सुजात ।'

इसे पढ़कर किसी को भी यह प्रतीत होगा कि यह 'दशकुमारचरित' का अनुकरण है। यहीं पर इसे पूर्ण करना चाहिए। इस कथा में जो बोध तथा स्फूर्ति है, उसे प्रत्येक हिंदू को ग्रहण करना चाहिए। बस, इतनी ही प्रार्थना करते हुए यह लेख समाप्त करता हूँ।

अखिल भारतीय हिंदू महासभा का उन्नीसवाँ वार्षिक अधिवेशन,कर्णावती

अखिल भारतीय हिंदू महासभा के उन्नीसवें अधिवेशन के लिए मुझे अध्यक्ष के रूप में चुनकर आप लोगों ने मुझ पर विशेष विश्वास प्रकट किया है, इसके लिए प्रथमतः आपका मनःपूर्वक आभार मानता हूँ। इसका अर्थ केवल इतना ही नहीं है। मेरे पास अभी तक जो शक्ति शेष है उसके सदुपयोग के लिए हिंदुस्थान सहित अखिल हिंदू जगत् की मातृभूमि तथा पुण्यभूमि के संरक्षण तथा राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम को संपूर्ण शक्ति से एवं अंत तक आगे बढ़ाने के पवित्र कार्य हेतु यह आज्ञा है-ऐसा मैं मानता हूँ। केवल हिंदुओं के बारे में विचार करें तो हम लोगों के राष्ट्रीय तथा जातीय दोनों प्रकार के कर्तव्यों में रत्ती भर भी भेद अथवा विरोध होने की संभावना नहीं है, क्योंकि हिंदू जगत् के सारे हित-संबंध अखिल हिंदुस्थान के हित-संबंधों से पूर्णतः एकरूप हैं। जब तक अपनी मातृभूमि स्वतंत्र नहीं हुई है, जब तक एक प्रवल हिंदी राज्य के रूप में उसे स्थिरता प्राप्त नहीं हुई है और वह हिंदी राज्य भी ऐसा, जहाँ हम लोगों के सभी देश-बांधवों से, फिर वे किसी भी धर्म के अथवा पंथ के क्यों न हों, पूर्ण समानता से व्यवहार किया जाएगा तथा प्रत्येक शाक्ति जब तक संपूर्ण हिंदी राष्ट्र के संबंध में अपना सर्वसामान्य ऋण एवं कर्तव्यों का पालन कर रहा है, तब तक उसे कोई भी स्वतंत्र नागरिक को प्राप्त होनेवाले न्‍याय तथा समान अधिकारों से वंचित नहीं रखा जाएगा अथवा किसी भी अन्य व्यक्ति पर अन्याय, अतिक्रमण नहीं करने दिया जाएगा, तब तक हिंदुस्थान को अपने जीवन का नियमकार्य प्रगत अथवा परिपूर्ण करना संभव नहीं होगा, इस कारण कोई भी हिंदू-हिंदू के रूप में स्वयं जितना ईमानदार होगा उसे राष्ट्रीय रूप से ईमानदार रहने के अलावा कोई पर्याय नहीं है। अपने भाषण में आगे चलकर मैं यह बात प्रमाणित करूंगा।

इस विश्व व्यापक विचार के अनुसार हिंदू संघटन के आंदोलन की कुछ मूलभूत बातों का इस महासभा के विषयानुरूप अथवा मेरी समझ के अनुसार में अपने इस अध्यक्षीय भाषण में मुख्य रूप से विवेचन करने वाला हूँ। अन्य गौण व आनुषंगिक प्रश्नों का विचार तथा निर्णय में इस अधिवेशन में पधारे आप जैसे प्रतिनिधियों को सौंपना चाहता हूँ।

नेपाल के स्वतंत्र हिंदू नरेश का अभिनंदन

आगे के अन्य विवेचन प्रारंभ करने से पूर्व अखिल हिंदुस्थान की ओर से नेपाल के परमपूज्य नरेश, नेपाल के प्रधानमंत्री श्रीयुत शमशेर राणाजी, वहाँ के अपने सभी समधर्मी देश-बांधव, इन सभी के प्रति अपने एकनिष्ठ प्यार से अभिनंदन करना मैं अपना कर्तव्य समझता हूँ, क्योंकि इतिहास के इस पराकोटि की अवनति के समय एक हिंदू राज्यसत्ता के रूप में वे ही टिके हुए हैं तथा हिंदू स्वातंत्र्य का ध्वज हिमराज के उच्च शिखर पर निष्कलंक रूप से फहराने में उन्होंने महान यश प्राप्त किया है। नेपाल का यह एकमात्र हिंदू राज्य आज इस धरती पर विद्यमान है। इसे इंग्लैंड, फ्रांस, इटली तथा ऐसे ही अन्य शक्तिशाली राष्ट्रों से स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में मान्यता प्राप्त हुई है। इस पीढ़ी के लगभग पच्चीस करोड़ हिंदुओं में नेपाल के परमपूज्य नरेश ही सबसे अग्रणी हैं तथा वही एकमात्र ऐसे नरेश हैं जिनके लिए विश्व के स्वतंत्र राष्ट्रों के राजाओं, सम्राटों और अध्यक्षों के समुदाय में अपना सिर ऊँचा रखकर बराबरी के नाते से प्रवेश करना संभव है। प्रचलित राजनीति की अवस्था प्रतिकूल क्यों न हो, हम लोगों की मातृभूमि तथा पुण्यभूमि एक ही होने के कारण एकवंश, एकभाषा तथा एक संस्कृति इन सभी आत्मीय बंधनों से नेपाल हिंदुस्थान से जुड़ा हुआ है, हम लोगों का जीवन एक सा है। जिन बातों से समग्र हिंदुस्थान का सामर्थ्य बढ़ेगा वे बातें नेपाल के सामर्थ्य में भी वृद्धि करेंगी तथा जो प्रगति नेपाल करेगा उससे हिंदुस्थान भी उन्नत होगा। इस कारण यह एकमेव स्वतंत्र हिंदू राज्य अपने आस-पास सभी ओर चल रहे राष्ट्रीय जीवन-कलह में अपना स्थान अचल बनाए रखने तथा आगे बढ़ते हुए आगामी वैभवशाली भविष्य प्राप्त करने हेतु समर्थ होने की दृष्टि से उसकी राजकीय सामाजिक तथा इन सबसे महत्त्वपूर्ण सैनिक एवं वैमानिक साधन-सिद्धता शीघ्रतापूर्वक आधुनिक बनाने में सफल हो- यह देखने की सभी संघटनी हिंदुओं की प्रबल आकांक्षा है।

वृहत्तर हिंदुस्थान के हिंदुओं को सहानुभूति का संदेश

इसी प्रकार अपने सहधर्मीय देश-बांधवों में से जो अफ्रीका, अमेरिका, मॉरिशस तथा विश्व के अन्य क्षेत्रों में जाकर किसी प्रकार का प्रचार न करते हुए बृहत्तर हिंदुस्थान निर्मित कर रहे हैं और इसी प्रकार बाली द्वीप के समान आज भी हिंदू जाति के प्राचीन जागतिक साम्राज्य के अभिमानास्पद अवशेषों को संभालकर रखने का कार्य कर रहे हैं, उन सभी को सहानुभूति तथा प्रेममय स्मृति का संदेश रंजना हिंदू महासभा की यह बैठक भूल नहीं सकती। उनका भाग्य भी समग्र हिंदू जगत् को पितृभूमि तथा पुण्यभूमि भारतवर्ष की स्वतंत्रता, सामर्थ्य तथा महत्ता से अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है।

हिंदुस्थान को सदैव एक तथा अविभाज्य ही रहना चाहिए

उसी प्रकार हिंदुस्थान के तथाकथित 'फ्रेंच हिंदुस्थान' तथा 'पोर्तुगीज हिंदुस्थान' नामक क्षेत्रों में निवास करनेवाले हिंदुओं का भी हिंदू को विस्मरण होना संभव नहीं है। सच तो यह है कि उनके क्षेत्रों के ये नाम हम लोगों को सर्वथा मूर्खतापूर्ण तथा अत्यंत अपमानजनक प्रतीत होते हैं। आज के इस कृत्रिम तथा बलात्कृत राजकीय विभाजन का विचार न किया जाए तो हम सभी लोग रक्त, धर्म तथा देश जैसे शाश्वत बंधनों में अविभाज्य रूप से बँधे हुए हैं। अतः हम लोगों के लिए अपने ध्येय के रूप में निश्चयपूर्वक यह घोषित करना आवश्यक है कि कल का हिंदुस्थान कश्मीर से रामेश्वरम् तक तथा सिंध से असम तक केवल संयुक्त ही नहीं, उसे अभिन्न भी रखेंगे तथा वह अविभाज्य ही रहना चाहिए। मुझे आशा है कि अकेली हिंदू महासभा को ही नहीं, 'हिंदी राष्ट्रसभा' और अन्य राष्ट्रीय संस्थाओं को भी ऐसा कहने में कुछ संकोच नहीं होगा कि गोमांतक, पांडिचेरी तथा हिंदुस्थान के तत्सम अन्य क्षेत्र महाराष्ट्र अथवा बंगाल या पंजाब के समान हम लोगों के राष्ट्र के ऐसे क्षेत्र हैं जिन्हें तोड़कर दूसरों को नहीं दिया जा सकता, क्योंकि वे हिंदुस्थान के अंगीभूत क्षेत्र हैं।

हिंदू शब्द की परिभाषा

'हिंदू महासभा' के निश्चित तथा अधिकृत कार्य की पूरी इमारत 'हिंदू' शब्द की सही परिभाषा पर ही आधारित है। अतः प्रारंभ में ही हम लोगों के लिए 'हिंदुत्व' का अर्थ स्पष्ट जान लेना आवश्यक है। एक बार इस शब्द का अर्थ तथा व्याप्ति परिभाषित की गई कि हम लोगों के पक्ष में विद्यमान अनेक शंकाओं का सरलतापूर्वक समाधान हो जाएगा तथा हम लोगों के विरोधियों के पक्ष से हमारे विरोध में प्रस्तुत आरोपों एवं गलत धारणाओं को उचित उत्तर प्राप्त होगा और वे भी मौन हो जाएँगे। सौभाग्य से काफी परिश्रम के पश्चात् 'हिंदू' शब्द की एक परिभाषा हम लोगों को प्राप्त हो चुकी है। ऐसी व्यापक संज्ञाओं के लिए ऐतिहासिक तार्किक दृष्टि से जितनी संपर्क परिभाषा करना संभव है उतनी संपर्क परिभाषा यह है ही, इसके अतिरिक्त यह तात्कालिक उपयोगक्षम भी है। 'हिंदू' शब्द की यह व्याख्या है -

' आसिन्धु सिन्धुपर्यन्ता यस्य भारत भूमिका।

पितृभूः पुण्यभूश्चैव स वै हिन्दूरिति स्मृतः ॥'

(अर्थात् जो कोई सिंधु से सागर तक फैली हुई इस भारतभूति को अपनी पितृभूमि तथा पुण्यभूमि मानता है तथा अधिकारपूर्वक ऐसा कह सकता है कि वह 'हिंदू' है।)

यहाँ मेरे लिए यह बताना उचित होगा कि हिंदुस्थान में उदित हुए किसी भी धर्म के अनुयायी को हिंदू कहना अनुचित होगा, क्योंकि हिंदुत्व वह केवल एक अंग अथवा अभिलक्षण है। यदि हम लोग इस परिभाषा को अस्पष्ट अथवा मिथ्या नहीं होने देना चाहते तो संकल्प के उतने ही महत्त्वपूर्ण घटक को हम लोग महत्त्वहीन नहीं मान सकते अथवा उसकी उपेक्षा नहीं कर सकते। किसी व्यक्ति को हिंदुस्थान में उदित हुए किसी धर्म का अनुयायी कहलाना अर्थात् हिंदुस्थान को केवल अपनी पुण्यभूमि समझना पर्याप्त नहीं है। उसे इस देश को अपनी पितृभूमि समझना ही आवश्यक है। यह अवसर इस प्रश्न की संपूर्ण चर्चा करने का नहीं है। अतः मैं अपनी अंग्रेजी पुस्तक 'हिंदुत्व' की ओर आपका ध्यान आकर्षित करना चाहूँगा। उस पुस्तक में इस विषय के सभी कथन ठीक प्रकार से देते हुए इस प्रश्न का अत्यधिक विस्तारपूर्वक विवेचन किया गया है।

एक स्वयंसिद्ध राष्ट्र तथा स्वतंत्र लोक समाज

अभी केवल इतना ही कहना मेरी दृष्टि में पर्याप्त है कि जहाँ उनका धर्म उदित हुआ उस पुण्यभूमि के केवल इसी बंधन के कारण नहीं अपितु एक संस्कृति, एक भाषा, एक इतिहास तथा विशेष रूप से एक पितृभूमि के कारण भी हिंदू जगत् से स्वयमेव जुड़ा हुआ है और इसी कारण वह एक स्वयंसिद्ध राष्ट्र तथा स्वतंत्र लोक समाज कहलाता है। ये दो घटक मिलकर ही हम लोगों का हिंदुत्व उत्पन्न करते हैं। तथा इन घटकों के मिलाप से ही हम लोग विश्व के अन्य लोगों से भिन्न हो जाते हैं। उदाहरण के लिए जापानी तथा चीनी लोग स्वयं को हिंदुओं से पूर्णतः एकात्म नहीं मानते, उन्हें वैसा मानना भी संभव नहीं है। वे दोनों ही अपने धर्म के जन्मस्थान हिंदुस्थान- को अपनी पुण्यभूमि मानते हैं, परंतु वे इसी हिंदुस्थान को अपनी पितृभूमि नहीं मानते। उन्हें ऐसा मानना असंभव प्रतीत होता है। वे हम लोगों के सहधर्मीय है, परंतु स्वदेश बंधु नहीं हैं और हो भी नहीं सकते । हम हिंदू लोग केवल सहधर्मीय नहीं है। हम लोग एक-दूसरे के स्वदेश बंधु भी हैं। वंश परंपरा, भाषा, संस्कृति, इतिहास तथा देश आदि जापानी तथा चीनी लोगों के लिए भिन्न है। तथा वे हम लोगों के एक राष्ट्रीय जीवन बनने के लिए पूर्णतः निबद्ध भी नहीं हैं। हिंदुओं के किसी धार्मिक समारोह में, किसी हिंदू महासभा में पुण्यभूमि एक ही होने के कारण हम लोगों के धर्म-बांधवों के रूप में वे हम लोगों से मिल सकते हैं; परंतु सभी हिंदुओं को एक साथ जोड़नेवाली तथा उनके राष्ट्रीय जीवन का प्रतिनिधित्व करनेवाली किसी हिंदू सभा से उन्हें लगाव नहीं होगा, इस कार्यक्रम में वे समान रूप से सम्मिलित नहीं होंगे। वे इस प्रकार का आचरण कर भी नहीं सकेंगे।

कोई भी परिभाषा प्रमुख रूप से वस्तुस्थिति के अनुरूप ही होनी चाहिए। हिंदुस्थान के मुसलमान, ज्यू, ख्रिस्त, पारसी हिंदुस्थान को अपनी पितृभूमि मानते हैं परंतु उन्हें स्वयं को हिंदू कहलाने का अधिकार नहीं है, क्योंकि हिंदुत्व के प्रथम घटक के अनुसार इसे उनकी अनन्य पुण्यभूमि होना भी आवश्यक है। उसी प्रकार हम लोगों की परिभाषा के दूसरे पक्ष के अनुसार अनन्य पितृभूमि होना यह दूसरा घटक जापानी, चीनी आदि लोगों को, हम लोगों की पुण्यभूमि एक ही होने के बाद भी, हिंदू समुदाय के बाहर ही रखा जाता है। उपर्युक्त परिभाषा नागपुर, पुणे, रत्नागिरी आदि स्थानों की हिंदू महासभा के समान बहुत से अन्य प्रमुख स्थानों की हिंदू सभाओं ने इससे पूर्व ही स्वीकार की है। हिंदू महासभा की प्रचलित घटना में हिंदुस्थान में जिसका जन्म हुआ है, किसी भी धर्म का अनुयायी कहलानेवाला कोई भी व्यक्ति-ऐसा 'हिंदू' शब्द का असंयुक्त तथा असंबद्ध विशदीकरण किया गया तब भी उनके सम्मुख यह परिभाषा विद्यमान थी, परंतु हम लोगों को अधिक निर्दोष बनने की आवश्यकता है। इसी कारण उस एकांगी परिभाषा का त्याग करते हुए। उसके स्थान पर निर्दोष तथा संपर्क परिभाषा की योजना हम लोगों को करनी चाहिए। अतः उपर्युक्त संपूर्ण श्‍लोक ही उसी रूप में हम लोगों की घटना में समाविष्ट किया जाना चाहिए- ऐसा अपना विचार मैं आपके सम्मुख प्रस्तुत करना चाहता हूँ।

हिंदू शब्द का असंगत तथा अपायकारक अपप्रयोग टालना आवश्यक है

'हिंदू' शब्द की परिशुद्ध परिभाषा के अनुसार यह आवश्यक हो जाता है कि 'हिंदू' शब्द का उपयोग इस परिभाषा में निहित सामान्य अर्थ के रूप में तथा निश्चित किए गए अर्थ के अनुसार ही किया जाए, किसी पंथ विशिष्ट का अर्थ करते हुए उसका दुरुपयोग न हो, इस बात की सावधानी रखना हम लोगों के लिए बहुत आवश्यक हो जाता है। हम लोगों के अवैदिक धार्मिक संप्रदाय भी समान हिंदू बधुत्व में समाविष्ट होते हैं ऐसी बड़ी श्रद्धा से कहनेवाले हम लोगों के महान नेता तथा ग्रंथकार जब अपने सामान्य संवादों के दौरान 'हिंदू तथा सिख', 'हिंदू तथा जैन' जैसे शब्दों का प्रयोग करते हैं तब यह गलत है- ऐसा प्रतीत होता है। ऐसे शब्द-प्रयोगों के कारण केवल वैदिक अथवा सनातनी ही हिंदू है ऐसा स्पष्ट अर्थ निकलता है; परंतु यह बात उनकी समझ में नहीं आती। ऐसा करने से धार्मिक बंधुत्व के अन्य घटकों के मन में विभेद का प्राणघातक जहर घोला जा रहा है तथा इस कारण इन सभी पटकों का एक सुसंघटित एवं एकजीव समूह कर हम लोगों के अधिकांश का नाश करने का कार्य भी वे अनजाने में करते हैं।

शब्दों की संभांति से आगे चलकर विचारों में भी क्रांति उत्पन्न होती है

हम लोगों में वैदिक संप्रदाय के लोग बहुसंख्यक हैं। यदि हिंदू शब्द की व्याप्ति केवल इसी संप्रदाय तक सीमित न रखने की ओर ध्यान दिया जाए तो सिख जैन आदि हम लोगों के अवैदिक बंधुओं को भी स्वयं को हिंदू कहलाने में संकोच होने का कोई कारण नहीं बचेगा।

पुण्यभूमि तथा पितृभूमि दोनों दृष्टियों से वे इस भरतभूमि को अपना मानते हैं। उन सभी के लिए यदि हिंदू शब्द का उपयोग किया जाने लगा तो हिंदू बंधुत्व के घटक सिख, जैन तथा इसी प्रकार के अन्य धर्म वेदों के आद्यरूप अथवा वेदसंभूत धर्म न होकर वे स्वतंत्र धर्म हैं-ऐसा कहनेवाले लोगों को भी स्वयं को हिंदू कहलाते समय धर्मसंप्रदाय विशिष्ट स्वातंत्र्य खो देने का भय अथवा संदेह होने का कोई कारण नहीं बचेगा। जब-जब समग्र हिंदू जगत् के इन घटकों का भेद बताना होगा तभी वैदिक तथा सिख अथवा हिंदू तथा जैन ऐसा उनका उल्लेख करना उचित होगा; परंतु हिंदू तथा सिख अथवा हिंदू तथा जैन ऐसा कहना हिंदू तथा ब्राह्मण अथवा जैन तथा दिगंबर अथवा सिख और अकाली ऐसा कहने के समान स्वयं विरोधी तथा दिशाभूल करने जैसा है। हिंदू शब्द का इस प्रकार का हानिकारक प्रयोग हम लोगों को हिंदू महासभा के भाषणों तथा प्रस्तावों में और अन्य लेखों में भी ध्यानपूर्वक टालना आवश्यक है।

'हिंदू'शब्द वैदिक प्रस्तावना अथवा भूमिका का ही शब्द है

यहाँ इस बात का उल्लेख करना चाहता हूँ कि 'हिंदू' शब्द हम लोगों को तिरस्कारपूर्ण अथवा तुच्छतापूर्ण उल्लेख करने हेतु परकीयों द्वारा दिया गया अभिधाम नहीं है। मैंने अपनी 'सपनासिंधु' नामक पुस्तक में इस विषय का संपूर्ण विवेचन किया है। सिंधु तट पर स्थित हम लोगों के एक प्रति तथा लोगों के नाम से ही इस बात को सत्यता सिद्ध होती है। आज तक उनके लिए 'सिंध' तथा 'सिंधी' नाम ही प्रचलित है।

'हिंदू महासभा'धार्मिक नहीं,मूलतः राष्ट्रीय संस्था है

अब तक की चर्चा से यह स्पष्ट हो जाता है कि हिंदुत्व' (हिंदूपन) संज्ञ का आशय 'हिंदूइज्म (हिंदू धर्म) से बहुत अधिक व्यापक है। इस भेद को और जानबूझकर आप लोगों का ध्यान आकर्षित करने हेतु मैंने हिंदू शब्द को परिभाषा की रचना करते समय 'हिंदुत्व', 'सर्वहिंदवी' तथा 'हिंदू जगत्' जैसे स्वतंत्र शब्दों का निर्माण किया । 'हिंदूइज्म' (हिंदू धर्म) शब्द हिंदुओं की धार्मिक व्यवहार पद्धति उनका अध्यात्मशास्त्र तथा उनके श्रद्धातत्त्व आदि से संबद्ध दिखाई देता है; परंतु यह भाग ऐसा है कि 'हिंदू महासभा पूर्णतः इसे उन व्यक्तियों की अथवा समुदाय को विवेक बुद्धि तथा श्रद्धा पर ही छोड़ देती है, हिंदू महासभा की भूमिका किसी भी श्रद्धातत्त्व अथवा किसी भी विविक्षित ग्रंथ पर अथवा सर्वेश्वरवादी या एकेश्वरवादी जैसे किसी भी दार्शनिक संप्रदाय पर आधारित नहीं है। किसी भी 'इज्म' (पंथ) से उसका संबंध अखिल हिंदुस्थान को अपनी पुण्यभूमि, अपने श्रद्धेय मतों का मूलपीठ तथा मंदिर मानने तक ही सीमित है। यह सामान्य अभिलक्षण इस बात के कारण ही है कि प्रत्येक हिंदू के संबंध में वह जिस धर्म का अनुयायी है वह धर्म हिंदुस्थान में ही उपजा है।

इस प्रकार 'हिंदुत्व' के अनेक उपांगों में से केवल एक ही उपांग से हिंदू महासभा का 'हिंदूइज्म' से अप्रत्यक्षतः संबंध हो आता है। वह प्रमुख रूप से 'हिंदुत्व' के अन्य उपांगों से संबंध रखती है। ये उपांग 'अनन्य पितृभूमि' के दूसरे घटक से ही उत्पन्न हुए हैं। ज्ञान रूप से वह एक 'हिंदू राष्ट्रसभा' है-सामाजिक, राजनीतिक तथा सांस्कृतिक आदि भूमिका करती हुई हिंदू राष्ट्र के भविष्य को सँवारनेवाली एक अखिल हिंदू संघटना (पैन हिंदू ऑर्गनाइजेशन) है। जो कोई 'हिंदू महासभा' को केवल एक धार्मिक संस्था समझने की भूल करेगा या कर रहा होगा उसको इस भेद को अब ठीक से समझ लेना आवश्यक है।

'हिंदू'स्वयमेव एकराष्ट्र है

'हिंदू महासभा' का नियत कार्य जिस प्रकार मैं समझता हूँ तो वह प्रमुख रूप से एक राष्ट्रीय सभा ही है। मेरी इस भूमिका को कुछ लोग दोषपूर्ण मानकर एक प्रश्न उपस्थित करेंगे । जीवन की प्रत्येक छोटी-मोटी बात में जिन लोगों में मतभेद है उन हिंदुओं को एकराष्ट्र के रूप में संबोधित करना किस प्रकार संभव है? इस आह्वानात्मक प्रश्न का सीधा उत्तर यह है कि भाषा, संस्कृति, धर्म इन सभी विषयों में संपूर्ण एकात्मता होने जैसी समानता विश्व के लोगों में कहीं भी नहीं है। कोई भी समाज या देश उसमें विद्यमान परस्पर विसंवादी भेदों के अभाव के कारण राष्ट्र कहलाने के लिए पात्र नहीं होता। अन्य आपसी भेदों से भी अधिक स्‍पष्‍ट दिखाई देनेवाली उनकी अन्य लोगों से भिन्नता के कारण ही वह इस संज्ञा के लिए पात्र होता है।

हिंदुओं को राष्ट्र के रूप में अस्वीकार करनेवाले लोग ग्रेट ब्रिटेन, यूनाइटेड स्टेट्स, रशिया, जर्मनी तथा अन्य उन्हें राष्ट्र के रूप में मानते हैं। मैं उनसे पूछना चाहता हूँ कि जिन लोगों को स्वयमेव राष्ट्र कहा जाता है वह किस कारण ? ग्रेट ब्रिटेन का ही उदाहरण लीजिए। वहाँ तीन भिन्न-भिन्न भाषाएँ बोली जाती है। गत काल में उनमें आपस में ही भयंकर युद्ध हुए, उनमें भिन्न बीज, रक्त तथा जाति का भी पता चलता है। ये सभी चीजें विद्यमान होते हुए भी वे एकदेश, एकभाषा, एक संस्कृति तथा अनन्य रूप से एक पितृभूमि हैं। इसी एकमात्र कारण से यदि आप लोग उन्हें एकराष्ट्र के रूप में स्वीकारते हैं तब हिंदुओं का भी हिंदुस्थान एक अनन्य पितृभूमि है। जिससे उनकी सभी प्रचलित भाषाओं का जन्म हुआ है तथा ये शक्तिसंपन्न बन रही हैं, जो आज भी उनके धर्मग्रंथों एवं वाड्मय की भाषा बनी हुई हैं तथा पूर्वजों के कथनों का पवित्रतम संकलन के रूप में जिसका गौरव किया जाता है, वह संस्कृत भाषा उनके पास है। अनुलोम तथा प्रतिलोम विवाहों के कारण उनका बीज व रक्त मनु के समय से सतत रूप से सम्मिश्र होता आ रहा है। उनके सामाजिक उत्सव तथा संस्कार विधि इंग्लैंड में पाए जानेवाले विधियों या उत्सवों से किसी भी दृष्टि से समान ही कहलाते हैं। वैदिक ऋषि तो अभिमान के विषय है, पाणिनि तथा पतंजलि जिसके व्याकरणकार हैं। भवभूति तथा कालिदास उनके कवि, श्रीराम तथा श्रीकृष्ण, शिवाजी और प्रताप, गुरु गोविंद तथा बंदा वैरागी आदि उनकी वीर विभूतियाँ हैं, ये सभी उनके प्रेरणास्रोत हैं, बुद्ध तथा महावीर, कणाद तथा शंकराचार्य उनके अवतारी पुरुष हैं, दार्शनिक हैं तथा इन्हें समान रूप से सम्मान प्राप्त होता है; संस्कृत जैसी उनकी प्राचीन तथा पवित्र भाषा के समान ही उनकी लिपियाँ भी एक ही मूलाक्षर से प्रारंभ होती हैं तथा उनकी नागरी लिपि गत काल के अनेक शतकों से उनके पवित्र लेखन का समान साधन बनी हुई है, उनका प्राचीन तथा अर्वाचीन इतिहास भी एक सा है, उनके मित्र तथा शत्रु भी समान हैं, उन्होंने एक ही विपदा से टक्कर ली है तथा एकसाथ विजय भी प्राप्त किए हैं,राष्ट्रीय वैभव के समय तथा राष्ट्रीय संकटों के समय भी एक साथ रहे तथा राष्ट्रीय निराशा के समय साथ रहकर राष्ट्रीय आशा-आकांक्षाएँ भी एक रही है।

हिंदू अब एकसंघ हो चुके हैं

परंतु इससे भी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि समान पितृभूमि तथा एक समान पुण्यभूमि के प्रियतम तथा सर्वाधिक चिरकालिक बंधनों से हिंदू एक-दूसरे से दोहरे रूप में बंध गए हैं। ये दोनों बंधन-ये दोनों ही स्थान- हम लोगों की भरतभूमि, हम लोगों का हिंदुस्थान-इस एक ही देश से एकरूपता पाने के कारण हिंदुओं की एकता तथा एकजातीयता दो गुना हो जाती है। तोम्रो, जर्मन तथा एंग्लो-सेक्सन जैसे एक-दूसरे से अविरत रूप से झगड़नेवाले लोकसमूहों में बसे हुए तथा केवल चार-पाँच शतकों से पूर्व जिनका अस्तित्व अथवा भूतकाल नहीं था ऐसे अमेरिका का संयुक्त संस्थान यदि एकराष्ट्र के रूप में जाना जा सकता है। तो हिंदुओं को उनकी उच्च प्रतिष्ठा के कारण एकराष्ट्र के रूप में मान्यता प्राप्त होना अनिवार्य हो जाता है।

वास्तव में एक स्वतंत्र लोकसमाज की दृष्टि से हिंदू अपनी आपसी पृथक्ता से अधिक विश्व के अन्य लोकसमाज से एक धर्म, एक भाषा जैसी जिस कसौटी के कारण लोकसमाज राष्ट्र बनने के लिए योग्य बनता है, उन सभी कसौटियों से हिंदुओं का राष्ट्र कहलाने का अधिकार अधिक स्पष्ट रूप से प्रस्थापित होता है। हिंदुओं की आपसी फूट के लिए उत्तरदायी भेदभाव भी राष्ट्रीयता को समझने के लिए उत्पन्न पुनर्जागृति तथा आजकल के संघटन एवं सामाजिक सुधारके आंदोलनों के कारण शीघ्रतापूर्वक नष्ट हो रहे हैं।

अतएव जिस हिंदू महासभा ने अपनी संघटना में स्पष्ट रूप से इस बात का उल्लेख किया है कि 'हिंदू राष्ट्र की प्रगति तथा वैभवोत्कर्ष प्राप्त करने हेतु हिंदू जाति, हिंदू संस्कृति तथा हिंदू बुद्धिमत्ता का पोषण, रक्षण तथा पुरोनयन' करना अपना कार्य है, वह हिंदू महासभा संपूर्ण हिंदू राष्ट्र की प्रतिनिधि राष्ट्रीय संस्था बन जाती है।

'हिंदू महासभा'का नियत कार्य हिंदी-विरोधी नहीं है

सद्हेतु के साथ विचारशीलता का अभाव है तभी कुछ हिंदी देशभक्त 'हिंदू महासभा' को हिंदू जगत् का प्रतिनिधित्व करनेवाली तथा यह उनके न्याय्य अधिकारों के लिए संघर्ष करती है इस कारण उसे जातिनिष्ठ, संकुचित तथा हिंदी विरोधी कलंक का टीका लगाकर तुच्छ मानते हैं, परंतु वे उस समय यह भूल जाते हैं कि जातिनिष्ठ अथवा क्षोभनिष्ठ ये संज्ञाएँ केवल सापेक्ष होने के कारण उनमें निषेध अथवा शाप जैसा कोई गर्भित अर्थ नहीं है। जो लोग समय-असमय हिंदी राष्ट्रीय के नाम से कसमें खाते हैं स्वयं भी इसी क्षेत्रनिष्ठा के आरोप के लिए पात्र नहीं है? हिंदू महासभा यदि केवल हिंदू राष्ट्र का ही प्रतिनिधित्व करती है तो वे लोग भी तो स्वयं हिंदी राष्ट्र के ही प्रतिनिधि होने की बात कहते हैं।

परंतु मानव-राज्य का विचार किया जाए तो यह हिंदी राष्ट्र एक क्षेत्रनिष्ठ संकेत ही कहलाएगा। सच तो यह है कि यह धरती ही हम लोगों की मातृभूमि है। तथा मानवजाति हम लोगों का राष्ट्र है। अब वेदांती तो इससे भी आगे जाकर कहता है कि यह विश्व ही मेरा देश है तथा तारों से पत्थर तक सभी चीजें स्वयं का वास यही बात संत तुकाराम भी कहते हैं, फिर अन्य मानवों से हम लोगों को दूर रखनेवाली हिमालय की सीमा किस कारण मानी जाए? और जो सर्वथा हम लोगों के मानव-बंधु ही हैं उनमें से प्रत्येक अल्प देशवासी से तथा विशेष रूप से अंग्रेजी से किस कारण झगड़ना ? फिर विशालतर राजकीय संघवाले ब्रिटिश साम्राज्य के हितसंबंधों के लिए हिंदुस्थान के हितसंबंधों की आहुति क्यों नहीं देते? परंतु सच बात तो यही है कि किसी भी प्रकार का देशाभिमान कम-अधिक रूप से क्षेत्रनिष्ठ तथा जातिनिष्ठ होता है और इसी के कारण भयंकर युद्ध हुए हैं। मानवी इतिहास यही दरशाता है, अतः जो हिंदी देशभक्त किसी वैश्विक आंदोलन को प्रारंभ करने से पूर्व ही उससे जुड़ने के बजाय किसी हिंदी आंदोलन से जुड़कर 'हिंदू संघटना' संकुचित तथा जातिनिष्ठ और क्षोभनिष्ठ है ऐसा कहते हुए उसका मजाक उड़ाते हैं वे केवल स्वयं का ही मजाक उड़ाने में यशस्वी होते हैं।

हिंदी देशाभिमान का समर्थन करने हेतु ऐसा कहा जाता है कि हिंदुस्थान देश में निवास करनेवाले लोगों के समान वृत्तांत, एक भाषा, एक संस्कृति तथा एक इतिहास आदि बंधनों से जुड़े हुए हैं तथा इस कारण हिंदुस्थान के बाहर के किसी भी देश के लोगों से अधिक निकट का संबंध रखते हैं। अतः अन्य अहिंदी राष्ट्र के वर्चस्व एवं अतिक्रमण से हम लोगों के राष्ट्र की रक्षा करना हम हिंदी लोगों का प्रथम कर्तव्य है, यही बात हिंदू संघटन के आंदोलन के समर्थकों के लिए भी पूर्णतः सही जान पड़ती है।

राष्ट्रनिष्ठ आंदोलन मानवता के लिए किस समयहानिकारक होते हैं ?

कोई भी आंदोलन इसलिए निषिद्ध नहीं बन जाता कि वह किसी एक विभाग तक ही सीमित होता है। जब तक वह आंदोलन किसी विशिष्ट राष्ट्र के अथवा लोगों के या जाति के न्याय्य तथा मूलभूत अधिकारों का दूसरे लोगों के अथवा दूसरे मानवी संघों के उग्र अतिक्रमण से रक्षा करने हेतु कार्यरत है तथा दूसरों के न्याय तथा समान अधिकारों को अथवा स्वातंत्र्य के लिए बाधा नहीं बन जाता तब तक वह राष्ट्र अथवा जाति केवल एक छोटा संघ है इसी कारण से वह आंदोलन तुच्छ अथवा निषिद्ध नहीं कहा जा सकता। जब कोई राष्ट्र या जाति दूसरे बंधुराष्ट्र या बधुजाति के अधिकार रौंदती है तथा मानवजाति के अधिक बड़े गुट तथा संघ बनाने के मार्ग में उम्रतापूर्वक बाधा उत्पन्न करती है तभी उसका राष्ट्रवाद अथवा जातिवाद मानवता की दृष्टि से धिक्कार योग्य कहलाता है। राष्ट्रवाद अथवा जातिवाद समर्थनीय अथवा असमर्थनीय है अथवा नहीं, यह तय करने के लिए यही कसौटी उचित है, हिंदू संघटन के आंदोलन को आप अपनी इच्छानुसार राष्ट्रनिपट, जातिनिपट अथवा क्षेत्रनिपट कुछ भी नाम दें, इस कसौटी पर परखने के पश्चात् वह हिंदी देशाभिमान के समान ही समर्थनीय मानी जाएगी।

हिंदू महासभा पूर्णतः राष्‍ट्रीय है

हिंदू महासभा का ध्येय क्या है इसपर ध्यान दीजिए? हिंदू जगत् की राष्ट्रीय प्रतिनिधि संस्था के रूप में हिंदू लोगों का सर्वांगीण पुनरुज्जीवन अथवा पुनर्घटन करना इसका लक्ष्य है; परंतु हिंदू जगत् का सर्वांगीण पुनरुज्जीवन करने हेतु हिंदुस्थान की शुद्ध राजकीय स्वातंत्र्य की अपरिहार्य आवश्यकता है। हम हिंदुओं का दैव तथा भवितव्य इस हिंदुस्थान देश से हम लोगों के अन्य किसी भी अहिंदू वर्ग के देश बांधवों की तुलना में अधिक दृढ़ रूप से आबद्ध हो चुका है। सभी दृष्टि से विचार करने पर यह प्रतीत होता है कि जिस आधार पर स्वतंत्र हिंदी राज्य स्थापित करना संभव है वह आधार, नींव का पत्थर, हिंदू ही है। आगामी कुछ शतकों के पश्चात् क्या होगा यह नहीं कहा जा सकता। कम-से-कम आज हिंदुस्थान के लोगों के मन पर धर्म का प्रभाव पर्याय रूप से प्रबल है और विशेष रूप से मुसलमानों के संबंध में तो यह धर्मप्रेम समय-समय पर उन्माद की सीमा तक पहुँच जाता है। यह एक वासना है जिसपर विचार न करना उचित नहीं होगा। मातृभूमि के रूप में हिंदुस्थान के लिए मुसलमानों को जितना प्रेम है वह हिंदुस्थान के बाहर स्थित उनकी पुण्यभूमि के प्रेम की तुलना में नगण्य है।

मुसलमान सदा मक्का तथा मदीना की ओर देखते हैं

हिंदुओं की पुण्यभूमि तथा पितृभूमि होने के कारण हिंदुस्थान के लिए उनके मन में जो प्यार है वह अखंडित तथा उन्मुक्त है। हिंदी लोगों में वे बहुसंख्य हैं। इतना ही नहीं, वे ही देश कार्य के सच्चे विश्वसनीय तथा वीर है। किसी भी मुसलमान की बात कीजिए, उनके मन में बहिर्देशीय राज्यनिष्ठा ही समय-समय पर दिखाई देती है। राष्ट्र के नाते हिंदुस्थान से संबंधित घटनाओं की तुलना में वह पैलेस्टाइन में हो रही घटनाओं के कारण अधिक विचलित होता है। हिंदुस्थान के पड़ोसी तथा देशबांधवों के कल्याण से भी अधिक चिंता उन्हें अरबों के कल्याण की रहती है और इसी चिंता के कारण वह अधिक भयभीत रहते हैं। यदि इस भूमि पर मुसलमानी राज्यसत्ता प्रस्थापित होने की संभावना हो तब सहना मुसलमान हिंदुस्थान पर परकीय आक्रमण करवाने के उद्देश्य से तुर्कस्थान के खिलाफतवाले तथा अफगान लोगों से गुप्त षड्यंत्र करते हुए पाए जाना संभव है; परंतु कोई भी हिंदू हिंदुस्थान को हो सर्वधा अपना राष्ट्रीय अस्तित्व मानता है। इस देश पर इंग्लैंड का जो राजकीय अधिराज्य है उसे हटाने के लिए जो आंदोलन चल रहा है उसमें हिंदुओं के प्रमुख रूप से सम्मिलित होने का यही कारण है। हिंदुस्थान के स्वातंत्र्य संग्राम में जो-जो फाँसी के तख्तों पर झूल गए, जिन सैकड़ों लोगों ने अंदमान के काले पानी का सामना किया अथवा सहस्रों की संख्या में जिन्होंने कारावास को चुना वे सारे हिंदू ही थे, प्रत्यक्ष हिंदी राष्ट्रीय सभा का जन्म भी हिंदू मस्तिष्क में ही हुआ है। उसका विकास भी हिंदुओं की आहुतियों का ही परिणाम है तथा उसे आज जो प्रतिष्ठा प्राप्त हुई है वह भी हिंदुओं के प्रयासों के कारण ही प्राप्त हुई है। कोई भी हिंदू देशभक्त कभी भी हिंदी देशभक्त ही होता है, इसके बिना वह जिंदा नहीं रह सकता। इस तरह देखा जाए तो हिंदू राष्ट्र का दृढीकरण तथा स्वतंत्रता- यह केवल समस्त हिंदी राष्ट्र के स्वातंत्र्य का ही पर्याय नाम है, ऐसा प्रतीत होता है।)

हिंदुस्थान के स्वातंत्र्य का क्या अर्थ है ?

सामान्य संभाषण में 'स्वराज्य' शब्द का अर्थ है अपने देश की, अपनी भूमि की राजकीय मुक्तता, हिंदुस्थान नाम से जाने जानेवाले एक भौगोलिक परिमाण का स्वातंत्र्य; परंतु इस वाक्य का संपूर्ण पृथक्करण करने के पश्चात् उसका उचित अर्थ समझ लेने का समय अब आ चुका है। कोई भी देश अथवा भौगोलिक परिमाण एक स्वयमेव राष्ट्र नहीं बन सकता। अपना देश, अपनी जाति का, अपने लोगों का, अपने प्रियतम तथा निकटवर्ती आप्त स्वकीयों का निवास स्थान होने के कारण हम लोगों को प्रिय होता है। इसी दृष्टि से केवल आलंकारिक भाषा में उसका उल्लेख करते समय उसे हम लोगों का राष्ट्रीय अस्तित्व कहते हैं। अर्थात् हिंदुस्थान के स्वातंत्र्य का अर्थ है-हम लोगों की जाति तथा राष्ट्र का स्वातंत्र्य यही होता है। अर्थात् हिंदी स्वराज्य' अथवा ' हिंदी स्वातंत्र्य' का अर्थ भी हिंदू राष्ट्र के संबंध में हिंदुओं का राजकीय स्वातंत्र्य हिंदुओं को उनके संपूर्ण उत्कर्ष के लिए तथा विकास करने हेतु समर्थ बनानेवाली मुक्तता- यही होता है।

केवल भौगोलिक दृष्टि से विचार करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि अलाउद्दीन खिलजी अथवा औरंगजेब के कार्यकाल में दूसरी किसी अहिंदू सत्ता से भूमि तथा राज्य के नाते से हिंदुस्थान पूर्णतः स्वतंत्र था; परंतु हिंदुस्थान का उस प्रकार का स्वातंत्र्य हिंदू राष्ट्र के लिए वास्तविक रूप से मृत्यु का आमंत्रण अथवा आज्ञा ही थी । संग तथा प्रताप, गुरु गोविंद सिंह और वीर बंदा, शिवाजी तथा बाजीराव आदि ने अपनी इस मातृभूमि में सब स्थानों पर युद्ध किया और वीरगति को प्राप्तः हुए तथा अंत में विजयी होकर मराठा, राजपूत, सिख एवं गुरखाओं की सत्ता में हिंदू साम्राज्य की स्थापना करने में सफल हुए। अहिंदू आक्रमणकारियों की जकड़ से उन्होंने हम लोगों के हिंदू जगत् की रक्षा की उसका कारण भी यही है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि हिंदुस्थान का अर्थ केवल भौगोलिक स्वातंत्र्य अथवा स्वराज्य का अर्थ हिंदू राष्ट्र का स्वातंत्र्य ऐसा कदापि नहीं होता। इसके विपरीत कभी उनकी जाति के लिए यह एक दारुण शाप था यह बात क्या सिद्ध नहीं होती ?

प्रारंभ से ही हिंदुस्थान हिंदू जाति का निवास स्थान रहा है। यह हम लोगों के धर्मप्रवर्तक ऋषि-मुनियों तथा पुरुषों की, ईश्वरों की तथा संत-महंतों की जन्मभूमि है। इसी कारण वह हम लोगों को प्रिय है । केवल भूमि की दृष्टि से ही विचार किया जाए तो विश्व में ऐसे अनेक सोना-चाँदी से संपन्न देश हैं। केवल नदी को नदी के रूप में ही देखना हो तो मिसिसिपी भी गंगा के समान ही निर्मल है तथा उसका जल भी कुछ कड़वा नहीं है। हिंदुस्थान के पत्थर, वृक्ष तथा हरियाली दूसरे देशों के उसी प्रकार के पत्थर, वृक्ष तथा हरियाली जैसे ही उत्कृष्ट अथवा निकृष्ट होंगे।

हिंदुस्थान हम लोगों की पितृभूमि तथा पुण्यभूमि इसलिए नहीं कहलाता कि वह अन्य किसी भी भूमि से पूर्णतः विसदृश भूमि है। हम लोगों के इतिहास से उसको बहुत ममता है तथा वह हम लोगों के पूर्वजों का कई पीढ़ियों का घर है जहाँ हम लोगों की माताओं ने पीढ़ी-दर-पीढ़ी हमें हृदय से लगाकर अपना दूध पिलाया है और हम लोगों के पिताओं ने गोद में उठाकर सहलाया है-इस कारण ।

वांशिक तथा सांस्कृतिक आत्मीयता का प्रबलतम बंधन

जहाँ अपने प्रिय लोग रहते हैं वह कुटिया भी अन्य स्थान के राजमहल की तुलना में हम लोगों को प्रिय प्रतीत होती है; परंतु यहाँ के प्रिय मुख कमल यदि दिखाई नहीं देंगे तथा अन्य स्थान पर निवास करने चले जाएँ तो वीह पूर्व की झोंपड़ी हम लोगों को एक उजाड़ झोंपड़ी दिखाई देती है। हम लोग उसे त्याग देते हैं तथा अपने प्रिय व्यक्तियों को ढूँढ़ते हुए उनके नए निवास स्थान की ओर प्रस्थान करते हैं। यही बात राष्ट्र के लिए भी लागू है। ज्यू अथवा पारमियों का ही उदाहरण लीजिए। जब अरबों ने उनपर आक्रमण किया तब अपनी भूमि अथवा अपनी वांशिक और सांस्कृतिक आत्मीयता में से किस बात का त्‍याग किया जाए यह तय करना ही उनके पास बचा था। तब अपनी धार्मिक तथा वांशिक आत्मीयता के स्थान पर वे अपनी भूमिका त्यागकर अपने धर्मग्रंथ एवं अपनी संस्कृति के साथ कोई अन्य अधिक हितकर निवास स्थान खोजते हुए बाहर निकल पड़े। केवल कांजी अथवा शोखे के मिट्टी के छोटे बरतन के लिए मिट्टी के एक निर्जीव टुकड़े के लिए उन्होंने अपने वांशिक आत्मा का सौद करना स्वीकार नहीं किया।

हिंदुस्थान नामक मिट्टी के एक टुकड़े का स्वातंत्र्य यह स्वराज्य का सही अर्थ नहीं है। जिसमें हिंदुओं को उनका हिंदुत्व, उनकी धार्मिक, वांशिक और सांस्कृतिक एकात्मता अबाधित रह सकती है वही स्वातंत्र्य उन्हें कीमती प्रतीत होगा। हम लोगों के स्वत्व तथा साक्षात् हिंदुत्व की कीमत देने पर जो प्राप्त हो सकता है उस स्वातंत्र्य के लिए हम लोग युद्ध करने अथवा मरने के लिए तैयार नहीं हैं।

संयुक्त हिंदी राज्य और अल्पसंख्यकों की सहकारिता

यदि इस योग्य तथा वास्तविक अर्थ से स्वराज्य अभिप्रेत होगा तब हिंदी स्वातंत्र्य के लिए चलाए जा रहे आंदोलन में, संघर्ष में तथा एक संयुक्त हिंदी राज्य स्थापना करने के कार्य में हिंदू सबसे आगे ही रहे हैं। संयुक्त हिंदी राज्य का स्वप्न सर्वप्रथम उन्होंने ही देखा है। अपने त्याग और संघर्ष से यदि किसी ने यह राज्य व्यवहार्य राजकारण के दायरे में लाया जा सका है तो वह भी हिंदुओं द्वारा ही, अपने बल का उचित विचार करते हुए एक समान तथा संयुक्त हिंदी राज्य स्थापना हेतु चल रहे इस सार्वलौकिक संघर्ष में अहिंदू वर्ग के देश-बांधवों से सहकार्य प्राप्त करने हेतु हिंदू सदैव अनुकूल थे और हैं भी हिंदुस्थान में हम बहुत बहुसंख्यक हैं, परंतु अहिंदू वर्ग एवं मुसलमान राष्ट्रीय संघर्ष में कहीं भी दिखाई नहीं देते, जबकि उस संघर्ष से प्राप्त फल प्राप्त करने में अग्रणी रहते हैं तथा हम लोग ही अकेले आज तक सभी संघर्ष करते हुए उसके आघात सह रहे हैं। ये सभी बातें भुलाकर हिंदू एक संयुक्त हिंदी राष्ट्र स्थापना करने को उत्सुक है तथा अपने लिए रखे हुए स्वतंत्र हक अथवा सत्ता का अधिकार हिंदुस्थान के अहिंदू वर्ग पर जबरन थोपना नहीं चाहते।

हिंदी राज्य के नागरिक सर्वप्रथम हम लोग ही होंगे

परंतु वह हिंदी राज्य एक निर्मल हिंदी राज्य ही हो। उस राज्य को मताधिकार, नौकरियों, अधिकार के पद, कर आदि के संबंध में धर्म अथवा जातीय तत्वों पर किसी प्रकार के द्वेष को उत्तेजना देनेवाले भेदों से दूर रहना चाहिए। कोई व्यक्ति हिंदू है या मुसलमान अथवा ख्रिस्ती है या ज्यू-इस बात पर ध्यान नहीं दिया जाना चाहिए। उस हिंदी राज्य में सर्वसामान्य नागरिकों का जनसंख्या में कितना प्रतिशत है इसका विचार न करते हुए उनके गुणानुसार उनसे व्यवहार किया जाना चाहिए। इंग्लैंड अथवा अमेरिका के संयुक्त संस्थानों के समान, अन्य राष्ट्रों के समान देश की बहुसंख्य जनता जो भाषा समझती है वही भाषा-लिपि इस हिंदी राज्य की राष्ट्रीय भाषा एवं राष्ट्रीय लिपि बननी चाहिए, किसी भी प्रकार से थोपे गए व गलत संस्कारों के कारण वह भाषा-लिपि भ्रष्ट करने हेतु किसी धार्मिक कारण से स्वातंत्र्य नहीं मिलना चाहिए। कोई भी जाति अथवा पंथ, वंश अथवा धर्म का खयाल न करते हुए 'एक व्यक्ति, एक मत' इस तरह का सामान्य नियम बनना चाहिए। इस प्रकार का हिंदी राज्य यदि बननेवाला हो तो हिंदू संघटनवादी स्वयं हिंदू संघटन के हितार्थ इस राज्य को अंतःकरणपूर्ण प्रारंभ से ही अपनी निष्ठा अर्पण करेंगे। मैंने स्वयं तथा मुझ जैसे सहस्रों 'हिंदू सभा' वालों ने अपने राजकीय कार्यारंभ से इस प्रकार के हिंदी राज्य का आदर्श राजकीय साध्य के रूप में आपके सामने रखा है तथा हम लोगों के जीवन के अंत तक इसकी परिपूर्ति के लिए हम लोग संघर्ष करते रहेंगे। राज्य के लिए इससे अधिक राष्ट्रीय कल्पना क्या की जा सकती है ?

सत्य प्रतिपादन के कर्तव्य के अनुसार मैं यह स्पष्ट रूप से घोषित करना चाहूँगा कि हिंदी राज्य के विषय में 'हिंदू महासभा' का नियत कार्य प्रत्यक्ष हिंदी राष्ट्रीय सभा के सद्यःकालीन व्यवहार से अधिक राष्ट्रीय है।

हम लोग हिंदू हैं और हिंदी जनसंख्या में अन्य अहिंदू वर्ग के देश-बांधवों से हमारी जनसंख्या बहुत अधिक है, इस विशेष कारण से हिंदी नागरिक के रूप में जो प्राप्त होगा हिंदू उससे अधिक कुछ भी नहीं माँगते। हम लोग हिंदू नहीं हैं, परंतु मुसलमान होने का विशेष गुण हम में है इस धर्मांध कारण से विशेष लाभ अथवा संरक्षण अथवा मताधिक्य न माँगते हुए इस वास्तविक हिंदी राज्य में मिल जाने हेतु क्या मुसलमान तैयार हैं?

मुसलमानों के अराष्ट्रीय हेतु

हिंदुओं के सौभाग्य से मि. जिन्ना तथा अन्य मुसलिम लोगवालों ने इस वर्ष मुसलिम लीग के लखनऊ अधिवेशन में अपने पूर्व सत्य की तुलना में अधिक अधिकृत रूप में, अधिक खुलकर तथा अधिक साहस से प्रस्तुत किए हैं । इसलिए मैं उनका आभारी हूँ, साथ रहनेवाले किसी संदिग्ध मित्र से असंदिग्ध शत्रु अधिक अच्छा होता है। लखनऊ में पारित किए गए प्रस्ताव हम लोगों के लिए कुछ नई नहीं है, परंतु मुसलमानों की अराष्ट्रीय प्रवृत्ति तथा उनकी 'इसलाम की जागतिक संघटना' (Pan Islam) की आकांक्षाएँ सिद्ध करने का दायित्व जो अभी तक कुछ कम-अधिक सीमा तक हिंदुओं पर ही था उसकी अपने आप पूर्ति हो गई। अब मुसलमानों की सभी हिंदू विरोधी, हिंदी विरोधी तथा बहिर्देशीय गतिविधियों को स्पष्ट रूप से ज्ञात करने हेतु लखनऊ की बैठकों में दिए गए लीगियों के अधिकृत भाषणों का तथा पारित प्रस्तावों का संदर्भ देना ही पर्याप्त होगा। हम लोगों को इससे अधिक कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं है। उन्हें शुद्ध उर्दू को ही राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी राज्य को राष्ट्रभाषा बनाने की तमन्ना है। दो करोड़ मुसलमान भी मातृभाषा के रूप में इसका प्रयोग नहीं करते। मुसलमानों की संख्या मिलाकर भी लगभग बीस करोड़ लोग उसे नहीं समझते तथा लगभग दस करोड़ लोगों को सुलभतापूर्वक समझ में आनेवाली हिंदी भाषा के वाड्मयीन गुणों में भी वह दुर्बल है। इन बातों में से किसी भी बात पर वे विचार करने की इच्छा नहीं रखते। उर्दू जिस भाषा पर निर्भर करती है उस भाषा को साक्षात् खलीफाओं की भूमि में ही कमाल ने बहिष्कृत कर दिया है; परंतु इधर लगभग पच्चीस करोड़ हिंदुओं को उर्दू सीखनी चाहिए तथा उसे अपनी राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकृत करना चाहिए ऐसी मुसलमानों की अपेक्षा है। राष्ट्रीय लिपि के रूप में भी उर्दू लिपि को स्वीकार किया जाना चाहिए- ऐसा मुसलमान आग्रहपूर्वक कहते हैं और किसी भी स्थिति में नागरी लिपि से उनका किसी प्रकार का संबंध नहीं है ऐसा क्यों? अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति न करने के कारण कमाल ने प्रत्यक्ष अरबी लिपि का त्याग न किया हो, नागरी अधिक शास्त्रशुद्ध तथा अधिक मुद्रणक्षम क्यों न हो, वह सरलतापूर्वक क्यों न सीखी जा सकती हो, हिंदुस्थान के लगभग पच्चीस करोड़ लोगों में वह प्रचलित क्यों न हो अथवा उन्हें यह समझ में क्यों न आती हो, फिर भी मुसलमान उर्दू लिपि को अपनी सांस्कृतिक सत्ता मानते हैं। इस एक ही गुण के लिए उर्दू लिपि ही राष्ट्र लिपि तथा उर्दू भाषा ही राष्ट्रभाषा होनी चाहिए तथा उन्हें यह स्थान देने के लिए हिंदुस्थान के हिंदू एवं अन्य मुसलमानेतर वर्गों की संस्कृति का खयाल करने की आवश्यकता नहीं है।

राष्ट्रगीत को काटकर छोटा करने से उन्हें संतोष नहीं होगा

मुसलमानों को वंदेमातरम् गीत भी असह्य हो रहा है। ऐक्य के लिए आशा करनेवाले बेचारे हिंदू उन्होंने इस गीत को काटकर छोटा बनाने में विलंब नहीं किया, परंतु आज्ञा के अनुसार छोटा किया हुआ गीत भी मुसलमानों को सहन होगा अथवा नहीं यह कहा नहीं जा सकता। आप वह संपूर्ण गीत ही निकाल दीजिए, परंतु इसके बाद केवल 'वंदेमातरम्' इन शब्दों से अपना मूर्तिमंत अपमान होने की बात कहनेवाले मुसलमान भी मिल जाएंगे रवींद्र जैसे अत्यंत उदार व्यक्ति द्वारा किसी नए गीत की रचना किए जाने पर भी मुसलमानों का उस गाँत से किसी प्रकार का संबंध नहीं होगा, क्योंकि रवींद्र आखिरकार एक हिंदू व्यक्ति होने के कारण "को' के स्थान पर 'जाति' अथवा 'पाकिस्तान' के स्थान पर भारत अथवा हिंदुस्थान जैसे कुछ संस्कृत शब्दों का प्रयोग करने का घीर अपराध अवश्य करेगा। किसी इकबाल अथवा जिन्न द्वारा शुद्ध उर्दू में रचा गया तथा हिंदुस्थान को पाकस्थान मुसलिम अधिराज्य को अर्पण की गई भूमि- कहकर उसकी जय-जयकार करनेवाला कोई राष्ट्रगीत बनने से ही उन्हें संतोष प्राप्त होगा।

मुसलमानों के इस असंतोष की मूल समस्या का समाधान यहाँ का कोई शब्द या वहाँ का एरवादा गीत परिवर्तित करने से नहीं होगा। यह बात हम लोगों में विद्यमान ऐक्य के भूखे लोगों की समझ में कब आएगी? हिंदुस्थान की एकता तथा वीरवृत्ति में यदि वृद्धि होने की संभावना होती तो हम लोगों ने बारा गीत तथा सौ शब्दों का स्वयं त्याग किया होता; परंतु यह प्रश्न जितना सामान्य दिखाई देता है उतना साधारण है नहीं, यह हम लोग जान चुके हैं।

यह दो भिन्न संस्कृतियों तथा राष्ट्रों के बीच का संघर्ष है तथा ये गौण बातें मुसलमानों के मन में गहराई से विद्यमान इस रोग के प्रकट तथा क्षुद्र लक्षण हैं। उन्हें हिंदू जगत् तथा हिंदुस्थान के अन्य मुसलमानेतर वर्गों के भाव पर मुसलिम वर्चस्व की एवं आत्म-शरणागति की तप्त मुद्रा रखनी है; परंतु हम हिंदू केवल हिंदू जगत् के हितार्थ नहीं, हिंदी राष्ट्र के हितार्थ भी भविष्य में इसे कदापि सहन नहीं करेंगे।

मुसलमानों द्वारा यातना देने का प्रत्युत्तर उन्हें यातना देना ही है

यदि हम लोग यह बात सहन नहीं करते तो क्या होगा? इसका उत्तर माननीय फजलुल हक ने लखनऊ में तत्काल कह डाला। मुख्यमंत्री के उच्च पद से उन्होंने साफ शब्दों में कहा तथा आश्वासन दिया कि यदि अन्य हिंदुओं ने कही भी मुसलिम लीग' की आज्ञाओं को मानने से अस्वीकार किया तो वे बंगाल के हिंदुओं को सताएंगे। (मैं हिंदुओं को सताऊँगा) वस्तुतः अपने हौतात्‍म एवं त्याग से बंगाल के मुख्यमंत्री का पद हिंदू देशभक्तों के संघर्ष करते हुए अंग्रेजों से प्राप्त किए गए सुधारों का ही फल है, अन्य स्थानों के समान यहाँ के मुसलमानों ने भी इन विभिन्न कष्टों और त्याग में किसी प्रकार का कोई हिस्सा नहीं लिया है तथा कोई भार भी नहीं उठाया है परंतु सुधार होते ही मुख्यमंत्री पद पर कौन योग्य ठहराया गया तथा कौन इस पद पर जबरन आसीन हुआ? माननीय फजलुल हक और जिन्होंने सर्वाधिक संघर्ष किया, कष्ट उठाए और वास्तविक रूप से माननीय हक का पद भी जिनके कष्टों का ही फल है उन बंगाल के हिंदुओं को माननीय हक अब कष्ट देने से लेकर दवा दन तक सभी तरह से सताने की धमकी दे रहे हैं। माननीय फजलुल हक को में निश्चयपूर्वक कहना चाहूंगा कि बंगाल के हिंदू टूटेंगे नहीं, क्योंकि वे बहुत कठोर कवच धारण किए हुए हैं, उनका काम बहुत कठिन है, उन्होंने कभी-कभी बलाढ्य ब्रिटिश साम्राज्य से संघर्ष करते हुए लॉर्ड कर्जन जैसे अश्वारूढ यूरोपीय अधिकारियों को भी अपने अस्व से नीचे उतरने पर बाध्य किया है।

यदि फजलुल हक द्वारा बंगाली हिंदुओं को यातना दी जाती है तो हम हिंदू लोग महाराष्ट्र तथा अन्य स्थानों पर उसी परिमाण में उनके मुसलिम जाति बांधयों से उसी प्रकार का व्यवहार करेंगे-यह उन्हें भूलना नहीं चाहिए।

कहाँ गए वे मुगल सिंहासन और कहाँ गया वह औरंगजेब ?

सांप्रदायिक निर्णय (कम्युनल अवॉर्ड) तथा 'संयुक्त राज्य घटना' (फेडरेशन) के संबंध में मुसलमानों की प्रवृत्ति का यहाँ उल्लेख करने की आवश्यकता नहीं है। इस संबंध में भी उनका विचार हिंदुओं को पूर्णतः झुकाने का है। मैं आप लोगों को अनेक प्रकार के आँकड़े देकर हैरान नहीं करना चाहता, आप लोगों को वे ज्ञात ही हैं, कश्मीर, पंजाब, पेशावर तथा सिंध प्रांतों को मिलाकर 'पाकस्थान' नामक एक पृथक् मुसलमान राष्ट्र के उद्देश्य से मुसलमानों द्वारा हिंदुस्थान नामक हम लोगों को मातृभूमि के राज्यमंडल में ही दो टुकड़े करने की निर्लज्ज सूचना पर मुसलिम लीग में जो चर्चा हुई उसका आप लोगों को स्मरण दिलाना ही पर्याप्त होगा।

मुसलमानो! सोचकर आगे बढ़ो! इस प्रकार यदि हिंदुओं को उनके अपने देश में ही दास बनाने की आपकी आकांक्षा हो तो यह बात ध्यान में रखना उचित होगा कि राज्यसत्ता पर आसीन होते हुए भी औरंगजेबों तक की श्रृंखला यह विलक्षण कृत्य करने में असफल रही तथा इस योजना को पूरा करने के प्रयास करते हुए उन्होंने स्वयं के लिए ही कब्रे खोदने में यश प्राप्त किया। अनेक औरंगजेब जिस काम को न कर सके वह काम उनके जिन्ना तथा अनेक डक निस्संदेह पूरा नहीं कर सकते।

वास्तविक एका मुसलमानों को आवश्यकता होने पर ही संभव !

हिंदुओं को इस बात का ख्याल रखना चाहिए कि इस कुचेष्टा तथा अहितकारी व्यवहार का वास्तविक कारण हिंदू-मुसलिम ऐक्यरूपी पिशाच्च दीपिका बिलो ऑफ द विसप) के पीछे दौड़ने की हिंदुओं को आकांक्षा ही है। जिस दिन हम लोगों ने यह बात मुसलमानों को समझा दी कि मुसलमानों के सहकार्य बिना स्वराज्य प्राप्त नहीं हो सकता, उसी दिन से हम लोगों ने सम्मानपूर्वक ऐक्य करना असंभव बना दिया है।

जब किसी देश के प्रचंड बहुसंख्यक लोग मुसलमानों जैसे विरोधी अल्पसंख्यकों के समक्ष घुटने टेककर सहायता की याचना करने लगते हैं तथा उसके अभाव में अपनी बहुसंख्यक जाति के निश्चित रूप से मर जाने की बात। निस्संदेह रूप से करते हैं तब यदि अल्पसंख्यक जाति ने अपनी सहायता की कीमत बहुत ऊँची नहीं रखी तथा उस बहुसंख्यक जाति का निश्चित भविष्य शीघ्रता से घटित नहीं करवाया तथा उस देश में अपना राजनीतिक वर्चस्व प्रस्थापित नहीं किया तो बड़ी आश्चर्य की बात होगी।

मुसलमान समय-समय पर हिंदुओं को जिस परिणाम का डर दिखाते हैं, वह केवल इतना ही है कि उनकी अराष्ट्रीय तथा अवास्तव माँगें उसी समय पूरी किए बिना वे हिंदी स्वातंत्र्य संग्राम में हिंदुओं का साथ नहीं देंगे। हिंदुओं को एक बार उन्हें साफ-साफ कह देना आवश्यक है कि 'मित्रो! हम लोगों को केवल इसी प्रकार की एकता आवश्यक प्रतीत होती थी तथा आज भी प्रतीत होती है जिसमें जाति या पंथ अथवा धर्म या वंश का विचार न करते हुए एक व्यक्ति, एक मत' इस तल पर सभी नागरिकों से समान रूप से व्यवहार किया जाएगा, ऐसा हिंदी राज्य निर्माण करना।'

इस देश में हमारी प्रचंड संख्या होते हुए भी हम लोग हिंदुओं के लिए किसी प्रकार के विशेष अधिकार नहीं माँग रहे हैं। इसके अतिरिक्त अपने घरों में अपने मार्ग पर चलते हुए हिंदुस्थान की अन्य जातियों के अधिकार में हस्तक्षेप नहीं किया जाएगा, अथवा हिंदुओं को झुकाकर उनपर किसी प्रकार का वर्चस्व स्थापित करने के प्रयास नहीं करेंगे-ऐसा वचन मुसलमान यदि देंगे तब उनकी भाषा तथा संस्कृति को विशेष संरक्षण देने के लिए भी हम लोग तैयार हैं।

हमारा स्वत्व जहाँ सुरक्षित रहेगा,वही वास्तविक स्वराज्य होगा

परंतु अभी-अभी आक्रामक तथा परस्पर संधियों से जुड़े हुए अरबस्थान में अफगानिस्थान तक के मुसलमानों की श्रृंखला बन गई है तथा सलाम के आंदोलन द्वारा हिंद विरोधी योजनाओं से तथा धार्मिक-सांस्कृतिक द्वेष से हिंदुओ को मिटाने के लिए उत्तर पश्चिम सीमा की टोलियों की क्रूर प्रवृत्ति से हम हिंदू लोग पूर्णतः परिचित हैं। इस कारण भविष्य में आप लोगों पर विश्वास करते हुए किसी प्रकार के निरंक कागज हम लोग आपको नहीं देंगे। अन्य सभी घटकों के स्वत्व के साथ हम लोगों का स्वत्व जहां सुरक्षित रहेगा, वह स्वराज्य के लिए हम लोग कटिबद्ध हैं।

केवल इस कारण कि एक धनी के जाने पर उसके स्थान पर दूसरा कोई धनी आ जाए हम लोग इंग्लैंड से संघर्ष करने के लिए उद्धत नहीं है। अपने घर के स्वामी हम लोग ही हों यही हम हिंदुओं का सोचना है। शरण जाकर तथा अपने हिंदुत्व की कीमत देकर यदि स्वराज्य प्राप्त होता है तो वह हम लोगों को आत्मघात के समान प्रतीत होगा।

परकीय अधिराज्य से हिंदुस्थान स्वतंत्र नहीं होता तो हिंदी मुसलमानों को स्वयं दास बनने के अलावा अन्य कोई रास्ता नहीं है। यदि वे इस सत्य को समझ जाएँगे तथा जब हिंदुओं की सहायता बिना और उनको सदिच्छा के बिना हम लोग का काम नहीं बन पाएगा, यह समझ में आ जाएगा तब उन्हें उस समय एकता करने की आवश्यकता प्रतीत होगी और हिंदुओं पर उपकार करने की नीयत से नहीं, स्वयं पर उपकार करने हेतु उनके ऐसी माँग करने पर ही जिस प्रकार की हिंदू-मुसलिम एकता होगी वही बहुत कीमती होगी। मुसलिमों के तलवे चाटकर उनके पीछे पड़कर एकता करने के प्रयास करने से एकता नहीं हो सकती। यह बात हिंदुओं ने बहुत कीमत देकर समझ ली है।

भविष्य में हिंदू-मुसलिम एकता का हिंदुओं का सूत्र होगा, 'साथ दोगे तो तुम्हारे साथ, न दोगे तो तुम्हारे बिना और विरोध करोगे तो तुम्हारा विरोध करते हुए हिंदू राष्ट्र अपना भविष्य जैसा होगा वैसा बनाएगा।'

हिंदुस्थान की मुसलमानेतर अल्पसंख्यक जातियाँ

हिंदुस्थान के अन्य अल्पसंख्यकों के कारण हिंदी राष्ट्र को दृढ़ बनाने के कार्य में बहुत कठिनाई उत्पन्न नहीं होगी, अंग्रेजों के अधिराज्य के विरोध में पारसी हिंदुओं के कंधे से कंधा मिलाकर सदैव कार्य कर रहे हैं, वे धर्मांध अथवा अविचार से कार्य करनेवाले नहीं है। महात्मा दादाभाई नौरोजी जैसे ख्यातिप्राप्त क्रांतिकारी कामाबाई तक सभी पारसियों ने हिंदी देशभक्ति की अपनी भूमिका पूर्णत: निभाई हैं, उनके वंश को वास्तविक रूप से तारनेवाले हिंदू राष्ट्र के लिए सदिच्छा के अलावा दूसरी कोई वृत्ति उन्होंने प्रकट नहीं की है। सांस्कृतिक दृष्टि से भी वे हम लोगों के निकटस्थ हैं। हिंदी ख्रिस्तों के लिए भी कुछ अल्प परिमाण में यही कहा जा सकता है। आज तक राष्ट्रीय संघर्ष में उन्होंने बहुत कम हिस्सा लिया है, परंतु हमारे लिए बाधा बन सकेंगे ऐसा उनका आचरण कभी भी नहीं रहा है, वे कुछ कम धर्मप्रेमी हैं तथा राजनीतिक तर्कबुद्धि को अधिक मान देते हैं। ज्यू लोगों की संख्या बहुत ही अल्प है तथा वे हम लोगों की राष्ट्रीय आकांक्षा के विरोधी भी नहीं हैं। हम लोगों के ये सभी अल्पसंख्यक देश-बांधव हिंदी राज्य में ईमानदार तथा देशाभिमानी नागरिक बनकर रहेंगे, इस बारे में हम निश्चिंत हैं।

हिंदुओं तथा हिंदू महासभा पर जातिनिष्ठा के आरोप लगानेवालों को यह बात ठीक से समझ लेनी होगी कि हिंदुओं ने इस अहिंदुओं की मित्र भावना प्रदर्शित करने में कभी भी कृपणता का प्रदर्शन नहीं किया है, अथवा अपने उन देश-बांधवों के न्यायतः प्राप्त होनेवाली किसी चीज या अधिकार के बारे में कभी भी असंतोष प्रकट नहीं किया।

सावधान

आंग्ल-हिंदी (एंग्लो-इंडियन) लोगों के संबंध में यह स्पष्ट है कि उनकी वर्तमान उद्धतता, अहंकार तथा प्रचलित सुधार-कानून (रिफॉर्म एक्ट) के कारण उन्हें प्राप्त मताधिकारों का सर्वाधिक हिस्सा (Lions Share) आदि इंग्लैंड का वर्चस्व समाप्त होते ही एक क्षण में ही शेष नहीं हो रहेंगे। उनकी जन्मजात राजनीतिक तथा सही बुद्धि उन्हें शीघ्र ही अन्य हिंदी नागरिकों की पंक्ति में खींच लेगी, अन्यथा उन्हें आसानी से होश में लाया जा सकता है।

परंतु मुसलमानों का प्रकरण सर्वथा भिन्न है। मैं हिंदुओं से स्पष्ट रूप से कहना चाहूँगा कि जब इंग्लैंड की सत्ता समाप्त होगी तब भी मुसलमान के हिंदू राष्ट्र के लिए तथा समान हिंदी राष्ट्र के अस्तित्व के लिए बहुत बड़ा खतरा बनने की संभावना है। हिंदुस्थान में मुसलिम राज्य की स्थापना करने की उनकी भ्रांतिपूर्ण धार्मिक योजना की मन में आस्था रखने का उस जाति का लक्ष्य पूर्ववत् कायम है। इस वस्तुस्थिति की ओर हम लोगों को सतर्कतापूर्वक ध्यान देना आवश्यक है। हम लोग एकता के लिए लगातार प्रयत्नशील रहेंगे, अच्छे परिणाम के लिए आशान्वित परंतु उसी समय सावधान रहना भी बहुत आवश्यक है।

हिंदुस्थान में दो विरोधी राष्ट्र विद्यमान है

कुछ अपरिपक्व लोग इस प्रकार की आशा करते हैं कि पूर्व में ही यह विसंवाद रहित राष्ट्र बन चुका है अथवा ऐसा होने वाला है। ऐसा मानने में वे स्वयं को धन्य समझने की भूल कर रहे हैं। हम लोगों के ये सद्हेतुपूरित. परंतु अविचारी मित्र अपने सपनों को सच मानकर चलते हैं। इस कारण जातीय उलझनों से ये लोग गड़बड़ा जाते हैं तथा इन उलझनों को जातीय संघटनों के मत्थे डाल देते हैं; परंतु जिन्हें जातीय प्रश्न कहा जाता है, वे वस्तुतः हिंदू तथा मुसलमान मध्य शतकों से सांस्कृतिक, धार्मिक तथा राष्ट्रीय विरोध का कारण रहे हैं। उचित समय आने पर आप लोगों को इन प्रश्नों का समाधान प्राप्त करना संभव होगा; परंतु इन प्रश्नों का मूल अस्तित्व नकारकर आप लोग इन्हें दबा नहीं सकते। किसी भी पुराने रोग को ओर ध्यान न देने की तुलना में उसका निदान करना, उसपर आवश्यक चर्चा करना ही अधिक सुरक्षित होता है, जो स्थिति बनी हुई है उसका हम लोगों को डटकर मुकाबला करना चाहिए। हिंदुस्थान राष्ट्र एकतापूर्ण तथा विसंवाद रहित राष्ट्र है यह बात आज वास्तविक नहीं प्रतीत होती। इसके विपरीत हिंदुस्थान में हिंदू तथा मुसलमान ऐसे दो राष्ट्र विद्यमान हैं। इसी स्थिति में विश्व के अन्य राष्ट्रों में जो हुआ उसी के अनुसार वर्तमान समय में हम लोग अधिक-से-अधिक यही कर सकते हैंकि ऐसा हिंदी राष्ट्र स्थापित किया जाए जहाँ किसी को भी कोई विशेष मताधिक्य प्राप्त नहीं होगा अथवा प्रतिनिधित्व नहीं मिलेगा तथा किसी को भी वास्तविक मोल से अधिक कीमत देकर अपनी सत्यनिष्ठा खरीदनी नहीं पड़ेगी। मातृभूमि की रक्षा के लिए भाड़े के सैनिक खरीदना संभव है, परंतु उनके पुत्र नहीं। हिंदू लोग एकराष्ट्र के नाते से समान भूमिका निभाते हुए समान हिंदी राष्ट्र के लिए अपना कर्तव्य करने के लिए पूर्णतः तैयार हैं।

परंतु यदि मुसलमान देश-बांधव हिंदुओं के साथ जातीय बखेड़ा करनेवाले हों अथवा जातीय वर्चस्व स्थापित करने के प्रयास करते हुए हिंदी विरोधी बहिर्देशीय योजनाएँ बना रहे हों, तब हिंदुओं को अपना ही विचार करना चाहिए। स्वयं के पैरों पर खड़े होकर अंग्रेज या मुसलमान या अन्य किसी भी अहिंदू सत्ता से हिंदुस्थान को मुक्त कराने हेतु अपनी संपूर्ण शक्ति से अकेले ही संघर्ष करना उचित होगा।

हिंदुत्व की सुरक्षा का वचन देनेवाले तथा इस कसौटी पर खरे उतरनेवाले हिंदू संघटन को ही अपना मत दीजिए

यह अंतिम ध्येय सामने रखते हुए मैं आप सभी लोगों को स्पष्ट रूप से कहना चाहता हूँ कि आप लोग 'हम हिंदू हैं' ऐसा स्पष्ट कहते जाइए, क्षमा याचक की अथवा शरमिंदगी की प्रवृत्ति संपूर्णत: नष्ट कर दीजिए, क्योंकि इस कारण हम लोगों में से अनेक हिंदू कहलाने में शर्म का अनुभव करते हैं जैसे ऐसा कहना कोई अराष्ट्रीय बात है अथवा शिवाजी व प्रताप और गोविंदसिंह की परंपरा में जन्म लेना कोई बड़ा कलंक है।

हम हिंदू लोगों का भी इस सूर्यमालिका में स्वयं का देश होना आवश्यक है तथा वहाँ हिंदू के रूप में बलशाली एवं प्रतापी लोगों के वंशज होने से हमें अखंडरूप से रहना चाहिए। तत्पश्चात् शुद्धि का पुरस्कार कीजिए। शुद्धि का महत्त्व केवल धार्मिक नहीं है। राजनीतिक दृष्टि से भी वह उतना ही महत्त्वपूर्ण है। संघटन का पुरस्कार कीजिए। उसे प्राप्त करने हेतु हम लोगों ने गतकालीन प्रयासों के फलस्वरूप जो कुछ राजनीतिक सत्ता प्रचलित सुधार कानूनों के रूप में हमें देने हेतु बाध्य किया था वह प्राप्त करना हम हिंदू लोगों का कर्तव्य है। जो मुक्त रूप से, साहस से मुसलमानों की सुरक्षा का तथा अतिक्रमण करते हुए भी उन्हें अधिक अधिकार प्राप्त कराने का दायित्व ग्रहण करता है, से अपना मत देते हैं, परंतु हम हिंदू लोग उन्हें मत देने की भूल करते हैं जो स्वयं हिंदू अथवा मुसलमान न होने की बात स्पष्टत: घोषित करते हैं और फिर भी मुसलमानों की संघटनाओं को मान्यता देकर उनसे व्यवहार करते समय कभी तकलीफ का अनुभव नहीं करते एवं हिंदुओं की और से हिंदुओं के हितसंबंधों के लिए विघातक समझौते करते हुए हिंदुओं की असह्य मानखंडना करते हैं। भविष्य में आप लोगों को अपने मतों का दुरुपयोग नहीं करना चाहिए।

आपको अब उन्हें ही मत देना चाहिए जिन्हें स्वयं को हिंदू कहलाने में लज्जा का अनुभव नहीं होता; जो स्पष्ट रूप से हिंदुओं के समर्थन के लिए खड़े होंगे तथा हिंदुओं की धन-संपत्ति बेचकर किसी अपमानकारक क्षुद्र व्यक्ति की भक्ति नहीं करने का वचन देंगे।

'वर्णाश्रम स्वराज्य संघ', 'हिंदू महासभा', 'शिरोमणि सिख सभा' तथा 'आर्य समाजी', 'लोकशाही स्वराज्य पक्ष' जैसे सम्मान्य, ऐक्य एवं वास्तविक राष्ट्रीय हिंदी राज्य, इनका समर्थन करनेवाली राजनीतिक संस्थाएँ, हिंदुत्व पर अधिष्ठित बड़े आश्रम एवं संघ तथा जातीय सभा आदि सभी को मिलाकर विधिमंडल में एक 'संयुक्त हिंदू पक्ष' स्थापित हो और एक भी हिंदू का मत संगठन से बाहर रहनेवाले किसी को भी न प्राप्त हो। ऐसा होने पर जिस प्रकार मुसलमानों के मंत्रिमंडल उनके हितार्थ प्रयासरत हैं उसी प्रकार आप लोगों के मंत्रिमंडल भी हिंदू राष्ट्र का न्याय्य कार्य करते हुए आप लोगों को दिखाई देंगे। यहाँ एकमात्र उपाय है। हम हिंदू लोग ही हिंदी राज्य के प्रमुख आकार हैं और रहेंगे भी। अल्पसंख्यकों को धर्म, संस्कृति तथा भाषा की सुरक्षा देने का दायित्व हम लोग लेते हैं, परंतु उसी प्रकार अपना धर्म, संस्कृति तथा भाषा की सुरक्षा करने के हिंदुओं के स्वातंत्र्य पर भविष्य में होनेवाला किसी भी प्रकार का अतिक्रमण हम लोग सहन नहीं करेंगे। यदि अल्पसंख्यकों की सुरक्षा होना आवश्यक है तो हिंदुस्थान के किसी भी आक्रामक अल्पसंख्यक से हिंदुओं की सुरक्षा असंदिग्ध रूप से किया जाना आवश्यक है।

एक बार फिर हिमालय पर हिंदू ध्वज फहराएँगे

और अंत में हे हिंदू बांधवो! मैं आप लोगों को विश्वासपूर्वक कहता हूँ कि यदि आप लोग अपना आत्मविश्वास नष्ट न होने देंगे तथा समय पर जागकर काम में लग जाएँगे तो आप लोगों ने जो खो दिया है वह आपको पुनः प्राप्त होगा। आप लोगों के वंश में ऐसा आनुवंशिक पौरुष तथा दृढ़ता है जिसके समान विश्व के इतिहास में बहुत कम लोगों के पास होगी। आप लोगों के पौराणिक एवं प्रागैतिहासिक समय में आप लोगों द्वारा पराभूत होकर मिट्टी में मिल जानेवाले दैत्यों तथा असुरों की बात न भी करें तब भी आप लोगों का साक्षात् इतिहास ख्रिस्त पूर्व दो हजार वर्षों का है-उसमें यह नियम है कि जो सर्व समर्थ है वही जीवित रहता है। इंकास तथा फाराव्ह और नेबुजडनेरजार इन जैसे शक्तिशाली लोगों के राष्ट्र कब के नष्ट हो गए। तथा उनका कोई चिह्न भी अब बचा नहीं है।

परंतु आप लोग उस राष्ट्रीय प्रलय में बचकर अभी तक जिंदा हैं, वह इस कारण कि आप लोग जिंदा रहने के लिए सर्वथा समर्थ थे। प्रत्येक राष्ट्र के जीवन में प्रगति तथा अवनति दोनों ही होते रहते हैं। आज एक बड़े साम्राज्य की सत्ता पर आसीन इंग्लैंड भी कई बार रोमन, डेंस, डच तथा नॉर्मन लोगों का शिकार हो चुका है। हम लोगों को भी बड़े-बड़े राष्ट्रीय उत्पातों का सामना करना पड़ा है; परंतु हर समय हम लोग ऊपर उठे तथा उन उत्पातों को मात दी। सिकंदर जैसे वीर के नेतृत्व में ग्रीक लोग अखिल विश्व जीतते हुए भारत आए, परंतु उन्हें भारत को जीतना संभव नहीं हुआ। तब चंद्रगुप्त ने संघर्ष करते हुए ग्रीकों को सामरिक तथा सांस्कृतिक दोनों ही क्षेत्रों में पराजित कर ग्रीकों को खदेड़ दिया। तत्पश्चात् तीन शतकों के अंतराल से किसी हिमवर्षाव के समान हूण लोगों ने हम लोगों पर आक्रमण किया। संपूर्ण यूरोप तथा आधा एशिया उनके 'चरणों पर' झुक चुका था। उन्होंने रोमन साम्राज्य के टुकड़े-टुकड़े कर दिए; परंतु लगभग दो शतकों तक उनसे कड़ा संघर्ष होता रहा और अंततः महाराज विक्रमादित्य के नेतृत्व में हम लोगों ने उन्हें पूर्णतः पराजित किया। शकों को भी इससे अधिक अच्छा अनुभव नहीं हुआ। शालिवाहन तथा यशोवर्धन की पराक्रमी बाहुओं ने उन्हें पूर्णत: पीस डाला। उस समय के हमारे शत्रु व हूण तथा पार्थियन और शक आज कहाँ हैं? उनके नाम तक लोग भूल गए. हैं। वे हिंदुस्थान की तथा विश्व की नजरों से ओझल हो चुके हैं। हम लोगों ने वंश का पौरुष तथा दृढ़ता इन सभी पर विजय पाई है।

उसके कुछ शतक पश्चात् मुसलमानों ने हिंदुस्थान पर आक्रमण किया तथा संपूर्ण देश पर अपना अधिकार जमाया। उनके राज्यों तथा साम्राज्यों की निरंकुश सत्ता यहाँ प्रारंभ हुई; परंतु हम लोग पुनः एकत्र हुए तथा शिवाजी के जन्म से आगे चलते हुए प्रत्यक्ष समर-देवता ही हम लोगों के साथ हो गया। एक के बाद एक करते हुए हम लोगों ने मुसलमानों को अनेक लड़ाइयों के रणक्षेत्रों में मात दी। उनके राज्य तथा साम्राज्य, नवाब तथा शाह और बादशाहों को हम लोगों के वीर योद्धाओं ने घुटने टेककर शरण आने पर बाध्य किया। अंत में हिंदुओं के प्रमुख सेनापति भाऊ साहब ने प्रतीक के रूप में अपना बन दिल्ली के मुगलों के बादशाही तख्त पर मारते हुए उसे चकनाचूर कर दिया। महादजी सिंधिया ने निर्बुद्ध मुगल बादशाहों को बंदी बनाकर अपने अधीन रख लिया तथा संपूर्ण देश पर हिंदुओं का सर्वसत्ताधीशत्व प्रस्थापित हो गया।

मुसलमानों से किए गए सैकड़ों वर्षों के संघर्ष के पश्चात् हम लोगों में नया उत्साह व जोश आने से पूर्व ही अंग्रेजों ने हम लोगों पर आक्रमण किया और सभी और से हमें जीत लिया। उनकी इस विजय के कारण हम लोगों को कोई शिकायत नहीं है अथवा उनके लिए हम लोगों के मन में दुर्भावना भी नहीं है, क्योंकि कल हम लोग समरभूमि पर पराजित हुए हैं तब भी आज युद्ध करने की इच्छा हम लोगों के मन में विद्यमान है। हार जाने के कारण हम लोगों ने संघर्ष न करने का निर्णय नहीं लिया है। बल्कि पुनः लड़ने हेतु हम लोग युद्ध प्रारंभ भी कर चुके हैं।

किसे ज्ञात है? अपनी इसी हिंदू सभा का भविष्य में होनेवाला अधिक भाग्यशाली अध्यक्ष आगामी अपनी संतानों की पीढ़ी में उस समय के भावी अधिवेशन में खड़े होकर इस प्रकार विजय की वार्ता उच्च स्वर में करने में समर्थ नहीं होगा। हूण, ग्रीक तथा शकों की पूर्व जो अवस्था हुई थी उसी प्रकार ब्रिटिश वर्चस्व का इस देश में अब कुछ भी नहीं बचा है। हिंदू जगत् का ध्वज हिमालय के उच्च शिखर पर ऊँचा फहरा रहा है! हिंदू पुनश्च स्वतंत्र तथा हिंदू जगत् विजयी हुआ है !!

अखिल भारतीय हिंदू महासभा का बीसवाँ वार्षिक अधिवेशन,नागपुर

(विक्रम संवत् १९९५,सन् १९३८)

अध्यक्षीय भाषण

हिंदू महासभा के प्रतिनिधियों तथा सभासदो !

अखिल भारतीय हिंदू महासभा के इस बीसवें अधिवेशन का अध्यक्ष पद स्वीकारने हेतु मुझे आमंत्रित कर आप लोगों ने मुझ पर जो विश्वास व्यक्त किया है उसके लिए मैं आप लोगों का कृतज्ञतापूर्वक आभार मानता हूँ। इसी के साथ मैं अतःकरण से ऐसा अभिवचन देता हूँ कि मुझ जैसे व्यक्ति के मर्यादित सामर्थ्य का पूर्णत: उपयोग किया जा सके, इस विचार से मुझ पर प्रकट किए गए विश्वास के योग्य बनने के मैं सभी प्रयास आवश्यक रूप से करूँगा।

बंधुओ और बहनो, हम हिंदू लोगों को पेशावर से रामेश्वर तक प्रतिदिन जिन भयानक आपत्तियों से संघर्ष करना पड़ता है, इन भयानक घटनाओं को यथार्थ तथा संपूर्ण रूप से चित्रित करने आप लोग यहाँ एकत्रित हुए हैं, अतः इस चित्र को दिखाने की कोई आवश्यकता प्रतीत नहीं होती। केवल प्रदर्शन अथवा तमाशा देखनेवालों को अथवा स्वार्थसाधू कार्यकर्ताओं को यहाँ आने के लिए मोहित करनेवाला कोई भी प्रलोभन यहाँ नहीं है। इस दृष्टि से हिंदू महासभा का यह अधिवेशन अंतिम क्रम पर होगा। सत्ता, संपत्ति तथा लोकप्रियता के सारे प्रवेश मार्ग कहीं और जा रहे हैं।

हिंदू संघटनी बनना आज के लिए लाभदायक व्यवसाय नहीं है

आज स्वयं प्रेरणा से हिंदू महासभा का प्रतिनिधि बन जाने का परिणाम होगा सत्ताधीशों के क्रोध का शिकार बन जाना किसी अहिंदू हत्यारे के किसी भाई अब्दुल रशीद के छुरे को पाचारण करना, शूर मोपला देशभक्तों में से किसी के हाथों कट जाता है अथवा किसी अहिंदू हत्यारे के खंजर से भी हृदय को अधिक कष्टदायक तथा असह्य बात तो यह है कि जिस प्रकार अंग्रेज लोग अंग्रेज जाति पर, जर्मन लोग जर्मनों के कार्य पर, जापानी लोग जापानी आत्मा पर और मुसलमान अपने धर्म तथा समाज पर जिस एकनिष्ठता से तथा मानवता से प्यार करते हैं उसी निष्ठा से हिंदुओं में प्यार करने और उनकी सुरक्षा हेतु साहस करने का अनन्य अपराध के लिए हम हिंदुओं के रक्त-मांस से बने लाखों लोग उनका पोछा करते हुए उन्हें बहिष्कृत करते हैं। आज हिंदुस्थान में हिंदू ध्वज फहराना एक भयंकर राजद्रोह का कृत्य माना जा रहा है; स्वयं को हिंदू कहलाना स्वयं के लाखों हिंदुओं द्वारा क्षुद्र कार्य निरूपित किया जा रहा है। इस स्थिति में हिंदू सभा के इस अधिवेशन में प्रतिनिधियों के रूप में उपस्थित होकर हिंदवी ध्वज के पास एकत्रित होने का साहस आप लोगों ने दिखाया है-यह बात निर्विवाद रूप से सिद्ध करती है कि आप लोगों के कर्तव्य के शक्तिपूर्ण विचारों से प्रभावित हुए बिना ऐसा नहीं हुआ है। हम हिंदू लोगों के जाति की उत्तरोत्तर की जानेवाली असह्य मानखंडना से आपलोग पूर्णत: परिचित हैं तथा इससे आप लोगों के हृदय को वेदना होती है। हिंदू इस नाते से, स्वकीय राष्ट्र-इस नाते से आप लोगों के साक्षात् अस्तित्व को ही नष्ट करने के तथाकथित हिंदी देशभक्ति की निरंकुश अपेक्षाओं का प्रतिकार करने हेतु भी आप लोग पूर्ण रूप से तैयार हैं।

दो सवाल

अतः हिंदूहित संबंधों को बाधा पहुँचानेवाले प्रचलित दुःखों तथा स्थानीय प्रश्नों का सविस्तर विवेचन करने का दायित्व मैं इस अधिवेशन में स्वतंत्र रूप से पारित किए जानेवाले प्रस्तावों एवं उनपर किए जानेवाले भाषणों पर डालना चाहता हूँ।

आजकल प्रमुख रूप से जिन दो प्रश्नों पर विचार नहीं किया गया है मैं अपने भाषण के दौरान उन्हीं पर चर्चा करने की मर्यादा का पालन करूंगा । हम लोगों के हिंदू राष्ट्र का विकास किस कारण रुक गया है तथा उसका शीघ्रता से ह्रास करनेवाली वर्तमान की दुःस्थिति जो हिंदुओं को प्राप्त हुई है उसका मूल कारण क्या है तथा अभी भी हिंदू कार्य दुःसाध्य बनने से रोकनेवाला तात्कालिक उपाय क्या है - यही वे दो प्रश्न हैं ।

तथापि जो हिंदू अभी तक हिंदू महासभा के परिसर के बाहर हैं, सामान्यतः हिंदुत्व के लिए अचल श्रद्धा मन में होते हुए भी जिन्हें सभी ओर से आनेवाले संकटों की पूर्ण कल्पना नहीं है तथा इसी कारण हिंदू सभावादियों ने इस अल्प कारण से इतना बड़ा आक्रोश क्यों प्रारंभ किया है इससे उन्हें आश्चर्य होता है । उन जैसे लोगों के लिए यह भाषण दिया जा रहा है, अत: उन्हें परिस्थिति की वास्तविक भीषणता की कुछ कल्पना हो और वे विचार करने हेतु प्रवृत्त हो जाएँ तथा मैं इस भाषण में आगे चलकर जो कुछ कहनेवाला हूँ उसका महत्त्व समझने की मानसिक अवस्था में पहुँचा देने हेतु कुछ बातों से संक्षिप्त परिचय करा देना मेरा कर्तव्य है ऐसा मैं मानता हूँ । उदाहरणस्वरूप सर्वप्रथम आज की प्रचलित राज्य घटना ही विचार करते हैं ।

ब्रिटिश अभिशासन का शाप

इस घटना द्वारा हिंदुओं को उनकी जनसंख्या के आधार पर प्रतिनिधित्व न देते हुए दूसरी ओर मुसलमान, क्रिश्‍चयन, यूरोपियनों को न्यायतः प्राप्त होनेवाली सत्ता से अधिक राजनीतिक सत्ता प्राप्त होगी, इस उद्देश्य से स्वतंत्र मतदाता संघ विशिष्ट मताधिकार धरोहर आदि का वर्णन करते हुए हिंदुस्थान में प्रचंड बहुसंख्यक हिंदुओं का मूलतः प्राप्त राजकीय वर्चस्व ब्रिटिशों ने विचारपूर्वक नष्ट कर दिया है । हिंदुओं की राजनीतिक प्रगति को रोकने हेतु हिंदू मतदाता संघों को तोड़कर उनमें ही अप्रवेश्य (Water tight) विभाग बना दिए हैं । इतना ही पर्याप्त न समझकर उन्होंने हमारे देश की मतगणना की योजना में स्वतंत्र, अविच्छिन्न तथा समन्वित हिंदुओं को न्याय एवं आवश्यक मान्यता भी विचारपूर्वक प्रदान नहीं की है । सुविधाओं से परिपूर्ण तथा सम्मानपूर्वक नाम निर्देशित किए हुए महल अलसंख्यकों के लिए सुरक्षित रखे गए हैं । बहुसंख्य तथा प्रत्यक्ष रूप से मालिक हैं, वे हिंदू सर्वसामान्य मतदाता संघ नामक निकृष्ट कमरों में जिनका कोई नाम नहीं है । हिंदुओं में विद्यमान सामरिक गुणों को नष्ट करने के उद्देश्य से ब्रिटिश शासन सेना तथा पुलिस में उनके लिए कम स्थान दे रहा है । इस कारण इन दोनों प्रिय शक्ति केंद्रों में अल्पसंख्य मुसलमानों की संख्या बढ़ रही है और वे अधिक प्रबल बन रहे हैं । पंजाब तथा कुछ अन्य क्षेत्रों में 'भूसत्तांतरण निबंधों' (लँड ऑलिएनेशन) जैसे उपायों से हिंदुओं को आर्थिक दृष्टि से कुचला जा रहा है । शासकीय सेवाओं में मुसलमानों के लिए ६० प्रतिशत स्थान आरक्षित करनेवाला एक अन्य निर्लज्जता का निर्बंध बंगाल में पारित किया जा रहा है ।

मुसलमानों के रक्तपातकारक दंगे तथा अतिक्रमण

हैदराबाद, भोपाल आदि मुसलिम रियासतों में हिंदुओं को धार्मिक तथा सांस्कृतिक पीड़ा इतनी निष्ठुरतापूर्वक दी जा रही है कि उसे देखकर औरंगजेब अथवा अलाउद्दीन के कार्यकाल का स्मरण किसी को भी होगा । हिंदुस्थान के सभी नगरों और ग्रामों के मुसलमानों की उन्मत्त प्रवृत्ति की तुष्टि करने हेतु हिंदुओं के नागरिक तथा धार्मिक अधिकारों को पैरों तले कुचला जा रहा है । मलाबार तथा कोहट में हिंदुओं पर भ्रांतमति मुसलमानों की ओर से जो खूनी दंगे किए गए उन्हें सहना पड़ा । इसी प्रकार के दंगे तथा अतिक्रमण अखिल हिंदुस्थान के अन्य प्रांतों के राजकर्मियों में भी हो रहे हैं । सीमा प्रांतों की मुसलमान टोलियाँ उस क्षेत्र के काफिरों को उखाड़ फेंकने के निश्चित उद्देश्य से वहाँ हिंदुओं पर आक्रमण तथा आनंदित अत्याचार कर रही हैं । केवल हिंदू व्यापारियों को ही लूटा जा रहा है । केवल हिंदुओं की ही हत्या की जाती है । केवल हिंदुओं की स्त्रियों तथा बच्चों का अपहरण किया जाता है तथा उन्हें आर्थिक दंड दिया जाता है अथवा उन्हें बलात्कार से भ्रष्ट कर मुसलमान बनाया जाता है ।

कांग्रेसियों का ढोंगी राष्ट्रवाद

इन सभी को मात देनेवाले कांग्रेसियों के ढोंगी राष्ट्रवाद पर विचार करें । ये कांग्रेसी इन सभी मुसलमानी अत्याचारों के लिए क्षमा याचना करते हैं । इस प्रकार के मुसलमानी आक्रमणों के सामने हिंदू विरोधी कुछ भी नहीं हैं । उन टोलियों की आर्थिक तथा लैंगिक भूख उन्हें उस प्रकार के अपराध करने को बाध्य करती है । उन भूखे लोगों की क्षुधा शांति हम लोगों द्वारा की गई तो वे भी उत्तम नागरिक बन जाएँगे !' इस प्रकार की असत्य कारण मीमांसा खोजकर इन अत्याचारों की उपपत्ति लगाने के प्रयास करते हैं । यदि यह कारण मीमांसा वास्तविक होती तो उन निर्धन, भूखे डाकुओं ने नगर के धनवान मुसलमान व्यापारियों को नहीं लूटना, युवा मुसलमान सुंदरी अपहरण करने के लिए प्राप्त न होना, केवल मुसलमानों के ही मकान जलाने हेतु न दिखाई देना और किसी काफिर को आश्रय न देनेवाले किसी भी मुसलमान का बाल तक बाँका न होना- इस प्रकार के आश्वासन प्रकट रूप से गाजे-बाजे के साथ मुसलमानों को देते हुए घूमना क्या विलक्षण नहीं प्रतीत होता ? इन बातों की संगति कैसे बिठाई जाएगी ? सिंध प्रांत के दादू जिले में अभी-अभी घटी एक घटना देखिए । वहाँ श्री मजूमदार के नेतृत्व में कार्यरत तथा संपूर्णतः निरुपद्रवी पुराण-वस्तु संशोधनों की एक टोली पर मुसलमान आक्रमणकारियों ने हमला किया । 'क्या तुम हिंदू हो' ऐसा सवाल उन्होंने प्रत्येक व्यक्ति से पूछा । 'हाँ' कहने पर उस व्यक्ति की गोली मारकर हत्या कर दी । एक हिंदू के 'वह हिंदू नहीं है' ऐसा असत्य कहने पर उसे जिंदा छोड़ दिया गया । उसे किसी प्रकार से सतायानहीं गया । अखिल हिंदुस्थान में इस प्रकार की सहस्रों घटनाएँ घट रही हैं । उन घटनाओं का यह एक उदाहरण मात्र है ।

मुसलमानों का नग्न तथा अत्याचारी राष्ट्रद्रोह

मलावार से पेशावर तक, सिंध से असम तक तथा वर्ष भर होनेवाले मुसलमानी दंगों और आक्रमणों में यह नित्य का क्रम होता है । इसमें ख्रिस्ती धर्म प्रचारकों की अखिल भारतीय संघटना तथा आगारवानी, हसननिजामी, पीर मोनामिये इनसे लगाकर छोटे गाँवों के मुसलमान गुंडों तक की विभिन्न मुसलमानी संघटनाओं तथा आंदोलनों को जोड़ दीजिए । इन सभी आंदोलनों द्वारा लाखों हिंदुओं को शांतिपूर्वक अथवा बेईमानी से अथवा बलात्कारों द्वारा भी परधर्म में खींचकर ले जाना, हिंदुओं के धार्मिक, वांशिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक सामर्थ्य को नष्ट करने का कार्य किया जा रहा है और इसमें उन्हें सफलता भी प्राप्त हो रही है । इसके साथ मुसलमानी रियासतों तथा मुसलिम लीगियों के राजनीतिक आंदोलनों को जोड़ दीजिए । इन दोनों ने हिंदुस्थान के मुसलमानी संघ शासन तथा हिंदू संघ शासन ऐसे दो विभाग बना दिए हैं । इनमें से दूसरे अर्थात् हिंदू शासन पर हिंदुस्थान के बाह्य रुके किसी पराए मुसलमानी राष्ट्र द्वारा आक्रमण करवाकर संपूर्णत: नष्ट करने के प्रस्ताव प्रकट रूप से पारित किए हैं, सबसे मुख्य बात यही है । वर्तमान समय में हिंदुस्थान में हिंदुओं के स्वयं के देश में ही हिंदुओं की अवस्था ऐसी हो चुकी है । परंतु इससे भी अधिक बुरी घटनाएँ हो रही हैं ।

अभी तक इस सबमें सर्वाधिक बुरी घटना के विषय में कुछ भी नहीं कहा गया है । हिंदू हर दिन जिन ज्यादतियों का शिकार हो रहे हैं इसका केवल उल्लेख करना भी एक अहिंदी संप्रदाय की ओर से स्वयं को राष्ट्रवादी कहलाते हुए भी पालन के रूप में धिक्कारा जा रहा है । मुसलमानों को कुछ भी करने की छूट देते हुए (कोरे कागज) उसी समय हिंदुओं को कहा जा रहा है कि लुटे जाने के पश्चात् इस घटना का समाचार कहीं मत दीजिए, मारे जाने के बाद भी हल्ला मत मचाओ । हिंदू होने के कारण आप पर अत्याचार भी किए गए तो भी उसका प्रतिकार करने हेतु कोई संघटना मत बनाइए, अन्यथा हम लोगों के हिंदी राष्ट्रीयत्व के कार्य के लिए आप द्रोह कर रहे हैं- ऐसा आपका धिक्कार किया जाएगा । इस प्रकार प्रतिज्ञापूर्वक कहनेवाले ही आजकल हिंदी राष्ट्रीय सभा में कांग्रेस के नेता हुए हैं । ये सब बातें स्पष्ट रूप से सामने होते हुए भी 'हिंदू महासभा' अवास्तव आक्रोश कर रही है । मूलतः जिनका अभाव है ऐसे दुःखों की कल्पना कर रही है अथवा व्यर्थ में कुछ भ्रांतिमय एवं अर्थशून्य धार्मिक अथवा जातीय घोषणाएँ कररही है- इस प्रकार का आरोप करनेवाला एक मूर्ख ही होगा अथवा शत्रु होगा । अन्य कोई ऐसा नहीं कह सकता ।

आत्मविस्मृति की मूर्च्छा से जाग्रत् होनेवाला हिंदू आत्मा

यह वस्तुस्थिति होते हुए भी जो हिंदुओं में अपनी गणना होने की बात मानते हैं, परंतु जो हृदय से उनके हिंदूपन के लिए आंदोलित नहीं होते अथवा जो प्रकट रूप से हिंदू जगत् से किसी प्रकार का संबंध होने की बात अस्वीकार करते हैं, उनका विचार न भी किया जाए तब भी जिनके जीवन का हर छोटा सा हिस्सा भी यह समझकर आंदोलित होता है ऐसे करोड़ों हिंदू आज यह प्रश्न उत्कंठापूर्वक पूछ रहे हैं कि ' यह दुःस्थिति हम लोग किस प्रकार सुधार सकते हैं ? हम लोगों का पतन क्यों हुआ? हम लोग अब हिंदुओं के रूप में पुन: किस प्रकार ऊपर उठकर विश्व के राष्ट्रों में एक महान् राष्ट्र की प्रतिष्ठा पुनः प्राप्त कर सकते हैं ?' अपने मन को टटोलने का यह अभी-अभी प्रारंभ होनेवाला उपक्रम एक उत्साहवर्धक लक्षण कहा जाना चाहिए । हिंदू लोगों की जाति का आत्मा आत्मविस्मृति की मरणप्राय मूर्च्छा से पुनश्च जाग्रत् होने का ही प्रमाण है । आत्मस्मृति का पुनर्लाभ प्राप्त होने पर स्वयं का स्थान क्या है इस संबंध में भ्रांति उत्पन्न करनेवाले तथा पीड़ा देनेवाले ऐसे प्रश्न उनके द्वारा उत्पन्न किए जाना स्वाभाविक प्रतीत होता है ।

सभी ओर से प्रत्येक दिन अविरत रूप से नई उत्सुकता से पूछे जानेवाले इन प्रश्नों की सविस्तार चर्चा करना आज के मर्यादित भाषण में संभव नहीं लगता । परंतु हम लोगों को इस दुःखदायी दुर्दशा में पहुँचानेवाली बातों का मूल कारण तथा इस दुर्दशा से बाहर आने का उपाय- जो हमारे लिए संभव है तथा जो हम लोगों के सौभाग्य से हम लोग कर सकते हैं- ऐसे तात्कालिक उपाय की ओर आप लोगों का ध्यान आकर्षित करने में भी सफल हो सका, तो मेरे इस भाषण का उद्देश्य भलीभाँति सफल होगा- ऐसी मेरी धारणा है ।

वह मूल कारण है जिसने हम लोगों को सभी आगामी भूलों की सूची में बैठाया तथा एक बात जो जानने की हम लोगों की शक्ति भी नष्ट कर दी कि हम लोगों का कुछ स्वतंत्र अस्तित्व है । इस मूलभूत भूल को खोजने के लिए हम लोगों को अपने वांशिक इतिहास पर एक दृष्टिक्षेप करना आवश्यक है ।

हम लोगों के इतिहास पर दृष्टिक्षेप

हम लोगों के इस हिंदू राष्ट्र के लगभग पाँच हजार वर्षों तक के वैदिक काल तक की निरपवाद रूप से ऐतिहासिक खोज की जा सकती है । हम लोगों के राष्ट्रीय पूर्वज उस समय सप्त सिंधु के तट पर निवास करते हुए प्रगति कर रहे थे । इस प्रकार विकास करते हुए भविष्य में एक बलशाली हिंदू राष्ट्र के रूप में ख्याति प्राप्त करनेवाले राष्ट्र को मंत्रों की सहायता से स्थापना कर रहे थे । वांशिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से उन्हें आर्य नाम से संबोधित किया जाता, परंतु प्रादेशिक दृष्टि से वे सिंध अथवा सप्त सिंधु का नाम धारण करते थे । हम लोगों के वे पूर्वज गंगा, विंध्याचल, गोदावरी को पार करते हुए उत्साहपूर्वक तथा साहस से अपने उपनिवेश बनाते हुए, विजय प्राप्त करते हुए इस हिंदुस्थान की दक्षिण तथा पूर्व और पश्चित सीमा तक पहुँच गए । राजनीतिक, वांशिक तथा सांस्कृतिक दृष्टि से संग्रहण को पृथक्ता बतानेवाले तथा दृढ़ीकरण की प्रशंसनीय पद्धति से उन्होंने सिंधु से पूर्व सागर तक तथा हिमालय से दक्षिण सागर तक की अपनी इस भूमि के क्रम में जिनसे संबंध हुए थे तथा जिनसे संघर्ष हुआ था ऐसे सभी अनार्यों को आत्मसात् करते हुए उनका स्वतंत्र राष्ट्र स्थापित किया । अंत में एक धर्म, एक भाषा, एक संस्कृति, एक पितृभूमि तथा एक पुण्यभूमि के समान बंधनों से जुड़े हुए सभी को मिलाकर राष्ट्रीय स्वरूप का स्वतंत्र अस्तित्व निर्माण करने के विचार से राजनीतिक तथा धार्मिक स्तरों पर उन्होंने उस समय आपस में स्पर्धा की ।

'चार धामों' का ही उदाहरण लीजिए । बद्रीकेश्वर, द्वारका, रामेश्वर तथा जगन्नाथ- ये अपनी पुण्यभूमि की चतुःसीमा दरशानेवाले तीर्थक्षेत्र हैं । ये उस समय की अपनी पुण्यभूमि की चतुःसीमाएँ भी उचित रूप से दिखाते हैं । उस पौराणिक समय को छोड़ भी दें तो हम लोगों के निश्चित इतिहास के काल में भी चंद्रगुप्त मौर्य, द्वितीय चंद्रगुप्त, विक्रमादित्य, यशोवर्धन, पुलकेशी, श्रीहर्ष, अन्य अनेक बड़े सम्राट् तथा चक्रवर्ती आदि के केंद्रीभूत साम्राज्यों ने हम लोगों की दृढ़ता को अधिकाधिक बढ़ाकर उन्हें एक समान राजनीतिक एवं राष्ट्रीय अस्तित्व की प्रबल चेतना से आंदोलित किया है । एक समान संकट के भय से हम लोगों को डरानेवाले ग्रीक, शक, हूण आदि के आक्रमणों और उनसे उत्पन्न संकटों को नष्ट करने हेतु हम लोगों को कभी-कभी एक शतक से भी अधिक समय तक अकेले ही महत्तर युद्ध करना पड़ा । इसके फलस्वरूप अंदरूनी भेद होते हुए भी अन्य अहिंदू राष्ट्रों से स्पर्धा करनेवाला हम लोगों का भी एकराष्ट्र है यह बात उचित रूप से प्रकट होकर अपनी सांस्कृतिक, राजनीतिक, वांशिक तथा धार्मिक एकात्मता विषयक उनके विचार अधिक संवर्धित हुए । हूणों पर विजय प्राप्त करने के पश्चात् मुसलमानों द्वारा हिंदुस्थान पर किए गए आक्रमण के बीच का प्रदीर्घ कालखंड संकटों के बिना शांतिपूर्ण ढंग से बीता । उनका उपयोग प्रमुख रूप से समाज के दृढ़ीकरण के लिए ही हुआ, इस कारण उनकी धार्मिक सांस्कृतिक, वांशिक तथा राजनीतिक एकता इतनी शास्त्रशुद्ध, निश्चित एवं जाग्रत् स्वरूप की हो गई कि मुसलमानों ने जब आक्रमण किया तब उन्हें पूर्णतः प्रगल्भ हिंदुस्थान एकात्म हिंदू राष्ट्र के रूप में शोभा देता हुआ दिखाई दिया ।

हिंदुओं की भारतीय दिग्विजय

मुसलमानों के आक्रमण तथा उनके फलस्वरूप बननेवाले दिल्ली के बलशाली मुसलमानी साम्राज्य के प्रहारों के कारण कश्मीर से रामेश्वर तथा सिंध से बंगाल पर्यंत हिंदुओं का राजनीतिक ऐक्य अधिक दृढ़ हुआ तथा वैदिक सप्तसिंधू से उत्पन्न 'हिंदू' नाम पृथ्वीराज के पूर्व काल से आगे चलकर हम लोगों की जाति का सम्मानित तथा प्रिय अभिधाम बन गया । हम लोगों के सहस्रों हुतात्माओं ने हिंदू धर्म का सम्मान बनाए रखने हेतु 'हिंदू' कहलाते हुए मृत्यु को गले लगाया । हजारों राजा तथा कृषक सभी 'हिंदू' होने के नाते हिंदूध्वज के नीचे एकत्रित हुए, उन्होंने विद्रोह का रास्ता अपनाया तथा अपने अहिंदू शत्रुओं से लड़े और लड़ते-लड़ते समाप्त हो गए । फिर शिवाजी महाराज का जन्म हुआ । हिंदू विजय का समय आया; मुसलमानों के वर्चस्व की समाप्ति का समय आ गया । हिंदू इस एक ही नाम से 'हिंदूध्वज' के नीचे एक हिंदू के नेतृत्व के अधीन, 'हिंदू पदपादशाही' की प्रस्तावना करने के एक ही ध्येय से तथा 'हिंदुस्थान' का राजकीय बंध विमोचन तथा अपनी समान मातृभूमि तथा पुण्यभूमि की दास्यमुक्ति जैसे एक ही साध्य को सामने रखते हुए विभिन्न प्रांतों के हिंदू जाग्रत् हुए तथा अंततः मराठों का साम्राज्य मुसलमान नवाबों को, निजामों को, बादशाहों तथा पादशाहों को सैकड़ों रणक्षेत्रों में पराजित करने में संपूर्णत: सफल हुआ । मराठे पूर्व-पश्चिम-उत्तर-दक्षिण चारों दिशाओं में विजय प्राप्त करते हुए तथा मार्ग में आनेवाले तंजावूर, गुंती, कोल्हापुर, बड़ौदा, धार, ग्वालियर, इंदौर, झाँसी आदि नगरों को उपराजधानियाँ बनाते हुए सीधे अटक तक जा पहुँचे । उन्होंने दिल्ली पर भी राज किया तथा मुगल बादशाह को अपनी छावनी में बंदी, निवृत्तभृतिक तथा भिखारी भी बना दिया । सिख हिंदुओं ने पंजाब में, गुरखा हिंदुओं ने नेपाल में, राजपूत हिंदुओं ने राजस्थान में तथा मराठा हिंदुओं ने दिल्ली से तंजावूर तथा द्वारका से जगन्नाथ तक के राज्य पर अपना प्रभुत्व स्थापित किया । इस प्रकार वैदिक सिंधु आगे चलकर बलशाली हिंदू लोकसमाज, स्वतंत्र हिंदू राष्ट्र, हिंदू पदपादशाही जैसा परिपक्व रूप पा गए ।

'हिंदू पदपादशाही' शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम बाजीराव द्वारा ही किया गया । वह प्रचंड आंदोलन हिंदुत्व के उत्कट विचारों से किस प्रकार प्रभावित था, पृथ्वीराज, प्रताप, शिवाजी, गुरुगोविंद, बंदा आदि से नाना फड़नवीस तथा महादजी सिंधिया के समय तक हम लोगों के सभी हुतात्मा और विजेता हिंदू होने के नाते अपने राष्ट्रीय तथा धार्मिक एकत्व में ही किस प्रकार का गर्व अनुभव करते थे यह आपको समझना तथा इसकी प्रतीति करनी हो तो कोई अन्य अच्छा ग्रंथ प्रकाशित होने तक मेरी 'हिंदू पदपादशाही' पुस्तक अवश्य पढ़ें ।

यहाँ का स्थान मर्यादित है, अत: निजाम के यहाँ के गोविंदराव काले नामका मराठा प्रतिनिधि द्वारा खिताब्द सन् १७९३ में नाना फड़नवीस को जो पत्र लिखा गया था उसके एक अनुच्छेद को यहाँ उद्धृत कर रहा हूँ । इससे उन्हीं के शब्दों में उनके विचार तथा भावनाएँ आप लोगों को ज्ञात हो सकेंगी।

'अटक नदी की इस ओर दक्षिण सागर तक हिंदुओं का स्थान है- तुर्कस्थान नहीं है । उन्होंने पांडवों से विक्रमादित्य तक इस सीमा का रक्षण करते हुए उसका उपभोग किया है, उसके बाद के राज्यकर्ता नादान निकले । यवनों का प्राबल्य हुआ, परंतु अब श्रीमान पेशवा के पुण्य प्रताप से तथा महादजी सिंधिया की बुद्धि एवं तलवार के पराक्रम के फलस्वरूप सभी पुनः प्राप्त हुआ जिन-जिन लोगों ने हिंदुस्थान के विरोध में सिर उठाए उन्हें सिंधिया ने चीर दिया । इससे सार्वभौमत्व प्राप्त हुआ, यश तथा कीर्ति के नगाड़े बज उठे, इतनी उपलब्धियाँ प्राप्त हुई ।

हिंदू राष्ट्र स्वयंसिद्ध जीवंतता का विकास है,केवल टुकड़ों पर नहीं खड़ा किया गया है!

हम लोगों के इस सरसरे दृष्टिपात से अब यह प्रतीत हो रहा है कि वैदिक काल से कम-से-कम पाँच हजार वर्षों तक हम लोगों के पूर्वज अपने लोगों का धार्मिक, वांशिक, सांस्कृतिक तथा राजनीतिक एकात्मता का स्वतंत्र समूह बनाकर उसे विकसित कर रहे थे । इस क्रिया की स्वाभाविक उन्नति से उसे जो परिपक्व रूप प्राप्त हुआ, वही है आज का हिंदू राष्ट्र । यह वैदिक समय के उस सिंधु क्षेत्र का ही संपूर्ण हिंदुस्थान में विस्तारित तथा हिंदुस्थान को ही अपनी एकमेव पितृभूमि व पुण्यभूमि माननेवाला हिंदू राष्ट्र है । कदाचित् चीनी राष्ट्र के अतिरिक्त विश्व किसी भी अन्य राष्ट्र को हम लोगों के हिंदू राष्ट्र के समान अपने जीवन तथा विकास के इतने अखंड सातत्य पर अधिकार जताना संभव नहीं है । हिंदू राष्ट्र का उदय बरसात के कुकुरमुत्ते के समान नहीं हुआ है । वह किसी समझौते के फलस्वरूप उत्पन्न नहीं हुआ है । यह केवल कागजों का खेल नहीं है । किसी वस्तु के समान वह माँग के अनुसार नहीं बनाया गया है । अथवा वह परदेश से प्राप्त की गई कोई अस्थिर सुविधा भी नहीं है । वह इसी भूमि से उपजा है, उसकी जड़ें इसी भूमि में दूर-दूर तक तथा गहराई में फैली हुई है । मुसलमानों अथवा विश्व के किसी अन्य देश से द्वेष करने हेतु खोजा हुआ तथा रचा हुआ वह कोई पाखंड नहीं है । वह अपनी उत्तरी सीमा का रक्षण करनेवाले हिमालय के समान भव्य तथा मजबूत सत्य घटना है ।

इस बात की चिंता करने का कोई औचित्य नहीं है कि इस राष्ट्र के विभिन्न घरों में पंथ, वर्ग आदि की दृष्टि से अनेक भेद थे और आज भी विद्यमान हैं । यह कोई विशेष बात नहीं है । कौन सा राष्ट्र इस बात से अलिप्त है? किसी भी राष्ट्र का राष्ट्रत्व इस बात पर निर्भर नहीं करता कि उसके लोगों में आपस में भिन्न भाव नहीं हैं अथवा अंदरूनी भेद नहीं हैं । उनमें एकात्मता दिखाई देती है तथा उनके परस्पर भेद जो विश्व के अन्य लोगों की तुलना में भिन्न हैं इस कारण ही उनका स्वतंत्र राष्ट्रत्व ठहराया जाता है । विश्व में स्वतंत्र राष्ट्र के लिए यही एकमेव कसौटी है । हिंदुओं की एक ही समान पितृभूमि तथा एक ही समान पुण्यभूमि होने से तथा ये दोनों एक ही हैं इसलिए उनका राष्ट्रत्व निश्चित रूप से दो गुना हो जाता है तथा इस कसौटी पर यह दोहरापन भी खरा उतरता है । हम लोगों के इतिहास की इस संक्षिप्त रूपरेखा से यह बात ठीक-ठीक समझ में आ जाती है कि हम हिंदू लोगों को इस बात की समझ थी कि उनका एक स्वकीय तथा स्वतंत्र लोक समाज, एक स्वकीय राष्ट्र इस नाते से धार्मिक, सांस्कृतिक एवं राजकीय व देशाभिमानात्मक एकात्मता विद्यमान थी । यहाँ विशेष रूप से यह बात ध्यान में रखना उचित होगा कि प्रत्यक्ष मराठी साम्राज्य का पतन होने तक राजा, राष्ट्रभक्त, महंत, कवि, राज कर्मचारी आदि सभी ने हिंदू राष्ट्र की कल्पना वृद्धिंगत तथा दृढ़ करने के लिए संपूर्ण समझदारी से तथा अविरत प्रयास करते हुए हिंदुओं की प्रत्यक्ष 'हिंदू पदपादशाही'- स्वतंत्र हिंदू साम्राज्य की स्थापना करने हेतु जी जान से परिश्रम किए ।

अपने इस प्रतिपादन को मैं अभी यहीं रोकता हूँ । हम लोगों को जिन प्रश्नों का अभी सामना करना है उनकी चर्चा करते समय जब इसका विशेष महत्त्व मुझे प्रतीत होगा तब मैं इसपर पुनः चर्चा करूंगा ।

'हिंदी राष्ट्र'की कल्पना का उदय

हम लोगों ने हिंदू राष्ट्र के स्वाभाविक विकास का, परिपक्वता का, ख्रिस्ताब्द के सन् १८१८ में हुए उसके पतन का तथा उस कारण हिंदुस्थान में ब्रिटिशों का आगमन होने तक का संक्षिप्त विवेचन किया । पंजाब में सिख हिंदुओं के पतन ने भी ब्रिटिशों को संपूर्ण देश में अपना निर्विवाद वर्चस्व स्थापित करने के लिए समर्थबना दिया (जीतने के लिए सभी भयंकर युद्ध हिंदू राजाओं के साथ ही लड़ने पड़े थे, यह बात ब्रिटिशों को भलीभाँति ज्ञात थी। राजकीय घटक के रूप में मुसलमानों का उन्हें कहीं भी सामना नहीं करना पड़ा था। राजकीय सत्ता के रूप में मुसलमानों को मराठों ने ही पराजित किया था), केवल प्लासी की एक ही लड़ाई उन्हें अकेले में मुसलमानों से लड़नी पड़ी थी; परंतु वह भी इतनी सुगम थी कि ब्रिटिश सेनाधिकारी ने अपनी नींद में ही उसमें विजय पा ली थी-ऐसा कहते हैं। (इस कारण ब्रिटिशों की सर्वप्रथम चिंता थी हिंदू राष्ट्र के नीचे किस प्रकार बारूद रखी जाए, उनकी धार्मिक तथा राजकीय गुट के रूप में विद्यमान दृढ़ता को किस प्रकार तोड़ा जाए) मुसलमानों का इस मंच पर जो प्रवेश हुआ वह ब्रिटिशों की योजना में सहायता देनेवाले एक सुविधाजनक उपकरण अथवा साधन के रूप में ही हुआ। हिंदुस्थान में कार्यरत ख्रिस्ती धर्म प्रचारकों को राजसत्ता का राजनीतिक समर्थन देकर अर्थात् प्रत्यक्ष रूप से सहायता देकर हिंदुओं को ख्रिस्ती बनाने का मार्ग भी ब्रिटिशों ने अपनाकर देखा; परंतु खिताब्द सन् १८५७ में अधिकतर हिंदू नेताओं द्वारा किए गए क्रांति उत्थान के कारण ब्रिटिशों को पूरी तरह समझ में आ गया कि हिंदुओं तथा मुसलमानों के भी धर्म पर प्रकट रूप से आक्रमण करना बहुत आपत्तिपूर्ण है। तब से ब्रिटिश राज द्वारा ख्रिस्ती मिशनों को प्रकट रूप से सहायता देना बंद करना पड़ा। उसके बाद हिंदुस्थान को अराष्ट्रीय बनानेवाली शिक्षा की योजना प्रारंभ करते हुए हिंदू युवकों की उदीयमान पीढ़ियों के मन की साक्षात् हिंदू विषयक कल्पनाओं को ही भ्रष्ट करने की विचार शैली उन्होंने अपनाई। स्वयं मैकाले ने एक पत्र में कहा है, 'हम लोगों की पाश्चात्य शिक्षा की योजना पर अमल करते रहने से हिंदू युवकों को स्वयं होकर ख्रिस्ती धर्म स्वीकारना, अंतर्बाह्य पाश्चात्य बनना तथा अंततः ब्रिटिश लोगों से जुड़ जाना और उनसे समरस होना प्रिय प्रतीत होने लगेगा।' हिंदुओं के दुर्भाग्य से उनकी ये अपेक्षाएँ किंचित् भी विफल नहीं हुई। हिंदू युवकों की जिन पीढ़ियों ने लालचवश आतुरता से इस पाश्चात्य शिक्षा को ग्रहण किया, वे सभी हिंदुत्व के पूर्व के ध्येय से वास्तविक रूप से पृथक् हो गईं। वे हिंदू इतिहास, हिंदू धर्म, हिंदू संस्कृति के विषय में पूर्णत: अनभिज्ञ बन गए। हिंदुत्व के विषय में उन्हें जो कुछ ज्ञात हुआ अथवा ज्ञात है ऐसा उनका कहना है कि उस विषय में उन्हें लज्जा का अनुभव होगा। इस प्रकार धूर्ततापूर्वक उन्हें दिखाए जानेवाले सारभूत तत्त्वों में दोष ही थे। इसके विपरीत मुसलमानों को इस प्रकार की शिक्षा से दूर रखा गया और इस कारण उनकी जातीय दृढ़ता का आधार टूटा नहीं।

तथापि हिंदुस्थान में पाश्चात्य शिक्षा का प्रवेश होना विशुद्ध अपायकारक सिद्ध नहीं हुआ। उसकी मूल पुरस्कर्ताओं की अपेक्षाओं के विपरीत उसका उद्देश्यकार्य व्यर्थ हुआ तथा हिंदुओं के सामर्थ्य में वृद्धि करनेवाली कुछ नई प्रेरणाएँ भी उसके कारण प्रचलित हुई, परंतु इस समय हम लोग उस शिक्षा के तात्कालिक परिणामों का ही विचार करनेवाले हैं।

अंग्रेजों का अंधानुकरण

पाश्चिमात्य शिक्षा का तात्कालिक परिणाम यह हुआ कि इस शिक्षा से प्रभावित हिंदुओं की दो प्रारंभिक पीढ़ियाँ पूर्णतः पथभ्रष्ट हुई। सभी पाश्चात्य बातें उन्हें प्रिय प्रतीत होने लगीं तथा ब्रिटिश राज को वे ईश्वर प्रेरित मानने लगीं। उस राज्य के चिरस्थायित्व के लिए वे प्रार्थना करते रहे। पाश्चिमात्य वाड्मय तथा पाश्चिमात्य इतिहास के कारण ही जिंदा रहते हुए और हिंदू दर्शन तथा राजनीति से संबंध भंग हो जाने से उन्होंने यह सुगमतापूर्वक समझ लिया कि व्यक्तिगत एवं सामुदायिक जीवन में प्रत्येक छोटी-मोटी बात में हम लोगों द्वारा पाश्चिमात्यों का और विशेष रूप से अंग्रेजों का अनुकरण करने से ही देश का वास्तविक हित संवर्द्धन तथा सुरक्षा होगी ।

उपरिनिर्दिष्ट लोगों को सार्वजनिक व्यथा नहीं होती थी अथवा वे बुद्धिमान नहीं थे ऐसी बात नहीं थी । इसके अतिरिक्त अंग्रेजी शिक्षित हिंदुओं की प्रथम पीढ़ी के लोगों को अंग्रेजों ने सामाजिक तथा शासकीय मान्यता प्रदत्त उच्च पदों पर आसीन होने का अवसर दिया तथा हिंदुस्थान के लोगों को बुद्धिपुरस्स भविष्य में ब्रिटिश लोगों के स्तुतिस्तोत्र गाते हुए ब्रिटिश राज्य के लिए एकनिष्ठता का प्रदर्शन करना चाहिए, इसलिए उन्हें सभी प्रकार की सुविधाएँ दीं । इससे भारतीय लोगों पर अपना गहरा प्रभाव डालने के अवसर उन्हें प्राप्त हुए ।

उन्हें अपनी ओर से अपने लोगों का एवं राष्ट्र का हित करने की हार्दिक इच्छा थी; परंतु इस हित के विषय में उनकी कल्पना तथा अपने राष्ट्र का अर्थ क्या है इस बारे में उनके विचार पूर्णतः पराए- ब्रिटिश-थे । हिंदुस्थान की वस्तुस्थिति से उनका संबंध नहीं था ।

अपने देश को ही वे अपना राष्ट्र मानते थे । उसका भी यही कारण था । उनकी अन्य कल्पनाओं व भावनाओं के समान उनकी राष्ट्राभिमान की कल्पना भी पूर्वनिष्पन्न, ब्रिटिशों द्वारा बनाई गई तथा उनसे उधार ली हुई ही थी । उन्हें ऐसा दिखाई दिया कि अंग्रेज जिसे राष्ट्राभिमान मानते हैं वह अपने देश के लिए- वे जिस भौगोलिक भूमि में निवास करते हैं उसके लिए प्रतीत होनेवाली भक्ति ही है । इंग्लैंड में जो निवास करते हैं उन सबको मिलाकर धर्म, वंश, संस्कृति आदि का एक निरपेक्ष संयुक्त राष्ट्र बन गया है तथा वे समझते हैं कि इसी कारण इंग्लैंड एक बलिष्ठ राष्ट्र बन गया है । उनकी यह तुलना जितनी आकर्षक थी उतनी सरल भी थी अर्थात् हम लोगों को भी यदि धर्म, वंश, संस्कृति आदि दृष्टि से निरपेक्ष रूप से हिंदुस्थान का एकीकरण करना संभव है तो हम लोग भी मजबूत और बलशाली "हिंदी राष्ट्र' की प्रतिष्ठा प्राप्त कर सकेंगे- ऐसा वे समझते थे । तत्कालीन यूरोप में भी इसका राष्ट्रीय प्रभाव यह था कि फ्रांस में अधिक संख्या में रहनेवाले सभी फ्रेंच, जर्मन, स्पेन में स्पेनिश तथा इंग्लैंड में रहनेवाले अंग्रेज कहलाते । इसी क्रम से प्रत्येक देश में लोगों का वह लोकराष्ट्र समझा जाता । तथापि बिना विचार किए वे ऐसा मानने लगे कि प्रादेशिक एकता इसी एक बंधन तथा एक भौगोलिक क्षेत्र में निवास करना है । यही एक बात उन लोगों को स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में मान्यता देने के लिए पर्याप्त है । वही एक आवश्यक मूल घटक है ।

हिंदू देशभक्ति का प्रारंभ

"ठीक ! तो फिर हिंदुस्थान के हिंदू, मुसलमान, ख्रिस्ती, पारसी आदि सब लोग हिंदुस्थान में अनेक सालों से निवास कर रहे हैं अर्थात् ये सब लोग एक स्वयमेव राष्ट्र ही होना चाहिए । धर्म, भाषा, संस्कृति, वंश तथा ऐतिहासिक विकास इन बातों में उनमें किसी भी प्रकार की समानता अथवा संबंध नहीं है । प्रादेशिक एकता, एक समान देश यही एकराष्ट्रत्व को सिद्ध करते तथा बलशाली बनाने के लिए आवश्यक प्रारंभ है; प्रादेशिक संख्याबल यही राष्ट्रीयत्व का प्रमाण होना चाहिए । इंग्लैंड, फ्रांस, अमेरिका को देखिए, ' ऐसा कहकर वे समर्थन करते थे ।

ऐसा मानकर चलने से एक उपसिद्धांत का उत्पन्न होना भी अपरिहार्य था । हिंदुस्थान, यह एक प्रादेशिक परिमाण होने के कारण देश के अभिधाम के लिए भी पात्र है, इसलिए वह एक राष्ट्रीय मानक होना ही चाहिए । अतः हम सभी लोगों को हिंदी होना चाहिए अथवा हम सभी लोग हिंदी ही हैं तथा हिंदू अथवा मुसलमान या ख्रिस्ती अथवा पारसी होना समाप्त होना चाहिए ।

अर्थात् आंग्ल शिक्षित लोगों की प्रारंभिक पीढ़ियों ने स्वयं हिंदू होते हुए भी एड़ी-चोटी का जोर लगाकर हिंदू न कहलाने के प्रयास किए तथा हिंदू अथवा मुसलमान जैसे भेदों का विचार करना भी हेय मानकर वे एकदम हिंदी देशभक्त ही बन गए ।

हिंदू कहलाना छोड़ देना उनके लिए बहुत सरल भी था । उन्हें पाश्चिमात्य शिक्षा के अतिरिक्त अन्य किसी प्रकार की शिक्षा नहीं दी गई थी और इस कारण हिंदुत्व हिंदू धर्म के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है तथा वह धर्म भी भ्रामक कल्पनाओं का पुलिंदा ही है- यही उन्हें बताया गया था । थोड़ा रुककर वांशिक, सांस्कृतिक तथा ऐतिहासिक दृष्टिकोणों से हिंदुत्व के अन्य तथा सर्वाधिक मूलभूत विषय पर उन्हें कभी विचार नहीं करना पड़ा था ।

हिंदू हिंदूपन को भूल गए

उन लोगों को अपना हिंदूपन छोड़ देना तथा 'हम लोग हिंदी तथा केवल हिंदी ही हैं' इस प्रकार के विचारों में निमग्न होना सुलभ प्रतीत हुआ । अतः मुसलमानों को भी वे मुसलमान हैं यह भूलकर हिंदी लोगों में-हिंदी राष्ट्र में पूर्णतया एकरूप होना उतना ही सुलभ प्रतीत होता था । यह बात हिंदी देशभक्तों को हिंदुस्थान-मात्रक जैसी पूर्व से ही तय लग रही थी ।

यहाँ यह बताना आवश्यक है कि हमारी यह सारी आलोचना केवल सामुदायिक अर्थ में ही लागू है । व्यक्तिगत अथवा कृति विषयक सविस्तार तथा सापवाद विवेचन करना इस बहुत मर्यादित भाषण में संभव नहीं है ।

यह पाश्चिमात्य शिक्षा का हिंदुओं में जिस शीघ्रता से प्रसार होने लगा उसी शीघ्रता से 'हिंदी राष्ट्रत्व' की कल्पना के लिए भी बड़ी संख्या में अधिकाधिक अनुयायी मिलने लगे ।

अर्थात् इसके विपरीत हिंदुओं का हिंदू होने के नाते, राजकीय मात्रक के नाते, स्वयमेव राष्ट्र के नाते जो एकात्मता थी वह अधिकाधिक क्षीण होने लगी तथा केवल अनास्था के कारण वह लगभग नष्ट हो गई ।

परिस्थिति में आए इस परिवर्तन के कारण ब्रिटिशों को हार्दिक खुशी हुई । (ऐसी स्थिति में हिंदू राष्ट्र के राजकीय पुनरुज्जीवन तथा हिंदू सार्वभौमत्व के ध्येय का पुनरोदय हुआ तो अपने राजकीय वर्चस्व को खतरा उत्पन्न हो सकता है यह बात ब्रिटिश लोग पूर्णतया जानते थे । परंतु हिंदू होने को राजकीय दृष्टि से भी अभिमान की बात समझनेवाला हिंदू खिताब्द सन् १८५७ के बाद भी संदेहास्पद व्यक्ति माना जाता रहा । यह एक सत्य है, क्योंकि वह हिंदी राज्य की हानि के विषय में नित्य चिंतन करता था, अतः उसे प्राथमिक क्रांतिकारी मानकर उसपर निगरानी रखी जाती ।) सन् १८५७ के क्रांतियुद्ध में पराजित होने के पश्चात् भी पंजाब में रामसिंह तथा महाराष्ट्र में वासुदेव बलवंत फड़के द्वारा किए गए सशक्त उत्थान के कारण ब्रिटिशों का संदेह और भी दृढ़ हो गया था ।

'हिंदी राष्ट्रीय सभा'का जन्म

शिवाजी के समान स्वतंत्र हिंदू राज्यों को पुरुज्जीवित करने के उद्देश्य से वासुदेव बलवंत फड़के द्वारा किया गया उत्थान कुचल डालने के बाद तत्काल हिंदी राष्ट्रीय सभा अर्थात् कांग्रेस का जन्म हुआ ।

यहाँ यह ध्यान में रखना आवश्यक है कि ब्रिटिश सरकार कांग्रेस की स्थापना के लिए अनुकूल थी; एक वाइसराय द्वारा उसका आत्मीय भाव से स्वागत किया गया था । ए.ओ. हयूम, वेडरवर्न आदि अनेक ब्रिटिश नागरिक सेवकों ने उसका नेतृत्व कई सालों तक किया बड़े-बड़े हिंदू नेताओं ने अत्यधिक लोकहित विचारों से प्रेरित होकर उसकी उन्नति के प्रयास किए और इसी कारण 'हिंदी' देशभक्तों के इस नए संप्रदाय की वह संघटित तथा अधिकृत प्रतिनिधि बन गई ।

ब्रिटिश लोग हिंदू राष्ट्राभिमान के संभाव्य पुनरुज्जीवन का पर्याय मानकर इस हिंदी उपक्रम का समर्थन करते थे; परंतु इस नए राष्ट्रवादी संप्रदाय के संपर्क में आकर मुसलमानों की मुसलमान होने के नाते बनी हुई एकात्मकता में बाधा नहीं पहुंचेगी । इस बात में भी वे दक्षतापूर्ण सतर्कता बरतते थे क्योंकि यदि मुसलमान इस संप्रदाय में हिंदुओं के समान गतः विचारपूर्वक जुड़ जाते हैं तब यह घटना हिंदुस्थान में विद्यमान ब्रिटिश वर्चस्व के लिए हिंदुओं के एकाकी पुनरुज्जीवन से भी कदाचित् अधिक घातक हो सकता है- यह बात ब्रिटिश लोग अच्छी तरह जानते थे हिंदी राष्ट्राभिमान के वास्तविक सत्य तथा फलदायी हिंदू राष्ट्राभिमान के पुनरुज्जीवन से अधिक न हो, परंतु उनका तो भय ब्रिटिशों को लग रहा था तथा वे इसका विरोध करते थे (इसलिए एक ओर से उन्होंने मुसलमानों में विद्यमान भ्रांतिपूर्ण द्वेष, शत्रुता तथा अविश्वास को गुप्त रूप से हवा देकर किसी भी प्रकार का वास्तविक हिंदी राष्ट्रीय ऐक्य मृगजल के समान भ्रामक बना दिया तथा दूसरी ओर से शुद्ध हिंदू राष्ट्र की स्थापना का विचार व्यावहारिक राजनीति की परिधि से बाहर रहे, इसलिए हिंदुओं को 'राष्ट्रवाद' रूपी मृगजल के पीछे अतृप्ततापूर्वक भगाने हेतु प्रोत्साहित किया) हिंदी राष्ट्रवाद को प्रोत्साहन देने का ब्रिटिशों का विचार प्रारंभ में अपेक्षाकृत सफल नहीं हुआ तथा इस कारण आगे चलकर उन्हें यह व्यवहार बदलना पड़ा । परंतु इस कारण मेरी उपरिनिर्दिष्ट बात झूठ नहीं ठहराई जा सकती ।

'हिंदी राष्ट्रवाद'का ध्येय वस्तुतः उदात्त ही था

संपूर्ण हिंदुस्थान की एकता स्थापित करते हुए एक सुसंघटित राजनीतिक क्षेत्र बनाने का ध्येय हिंदुओं को भी अपेक्षित प्रतीत नहीं हुआ । यह पूर्णतः स्वाभाविक ही था, क्योंकि नित्य विश्वव्यापक दृष्टि से तत्त्व विचार करनेवाले तथा लोकसंग्रह की प्रवृत्ति होने के कारण वह हिंदुओं की प्रवृत्ति के अनुकूल ही था ।

यह भी सच है कि एक ही मानवी राज्य, संपूर्ण मानव जाति-ये उसके नागरिक तथा पृथ्वी, यह उनकी मातृभूमि-ऐसा ही राजनीति का ध्येय होना चाहिए । अखिल मानव जाति के एक पंचमांश संख्या का यह हिंदुस्थान देश धार्मिक, वांशिक तथा सांस्कृतिक रूप से भिन्न भावों का विचार न करते हुए उन सभी को एक ही एकात्म समूह में लाते हुए एक हो तो वह सभी मानवी राजनीतिक ध्येय प्राप्त करने की दिशा में एक बड़ा कदम उठाने के समान होगा । इस कल्पना का विचार केवल भाषा तथा चित्र तक ही किया जाए तब भी सर्व खल्विदं ब्रह्म - यह सब केवल एक तथा अविभाज्य ही होगा । इस प्रकार के धार्मिक तथा सांस्कृतिक दर्शन का प्रतिपादन करनेवाले हिंदू जैसे लोगों को वह आकर्षक प्रतीत होने के अतिरिक्त क्या हो सकता है ? परंतु उसका दर्शन की दृष्टि के समान राजनीतिक विचार के अनुसार 'माया' नामक विभाजक तत्त्व का दूसरा अंग भी है, परंतु इस ध्येय विषयक उत्साह के कारण उन हिंदू देशभक्तों का इसी विशिष्ट बात की और ध्यान नहीं रहा । 'यदि संपूर्ण हिंदुस्थान एक हो गया । हाँ, परंतु इस यदि के कारण ही बड़ी भ्रांति उत्पन्न हुई । 'हिंदी राष्ट्र' यह नई कल्पना हिंदुस्थान के प्रादेशिक एकता के एकमेव और समान बंधन पर स्थापित की गई थी । किसी भी हिंदू को उसकी धर्म विषयक, संस्कृति विषयक अथवा वंश संबंधी अत्युत्कट भावनाओं की विरोधी कोई भी बात इस तथ्य रूप से मानी हुई कल्पना में नहीं दिखाई पड़ी, क्योंकि उनका राष्ट्रीय अस्तित्व हिंदुस्थान के प्रादेशिक परिमाण से पूर्व में ही एकरूप हो चुका था । हिंदुस्थान उनकी केवल निवास भूमि ही नहीं थी । वह उनका साक्षात् निवास, पितृभूमि, मातृभूमि तथा एकमेव पुण्यभूमि भी थी । हिंदी देशभक्ति उन्हें 'हिंदू राष्ट्रभक्ति' का ही अन्य पर्यायवाचक शब्द लगता था । प्रादेशिक परिमाण भी वांशिक, धार्मिक तथा सांस्कृतिक परिणाम से इस प्रकार पूर्णतः एकरूप हो चुका था कि उनके विचार से 'हिंदी राष्ट्र' भी 'हिंदू राष्ट्र' की प्रादेशिक संज्ञा थी, हिंदुस्थान को 'इंडिया' के नाम से भी संबोधित किया जाता, तब भी वह हिंदुस्थान ही बना रहता । उनमें कोई भी अंतर नहीं होता । अतः व्यावहारिक रूप से इस बात की ओर किसी ने ध्यान नहीं दिया ।

पाश्चिमात्य शिक्षा में होते हुए भी जो हिंदूपन की भावना से अपेक्षित थे; धर्म, वंश तथा संस्कृति से हिंदू होने पर जिन्हें अभिमान था, वे हिंदू नेता भी उस राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़ गए। कांग्रेस के कार्य में वे अंतःकरण से सहभागी हुए तथा हिंदुस्थान के अन्य अहिंदू अल्पसंख्यकों से न्याय आधार पर एवं सम्मानित साथियों के रूप में समानता रखनेवाले वास्तविक संयुक्त राज्य प्रस्थापित करने की दृष्टि से ब्रिटिश शासन के हाथों से राजकीय सत्ता छीनने हेतु दीर्घ प्रयास करते हुए संघर्ष करनेवाली संपूर्ण राजकीय संख्या का, कांग्रेस का नेतृत्व जिन्होंने किया उन सभी बातों का कारण उपरिनिर्दिष्ट कथन में मैंने दिया है।

हिंदी राष्ट्रवाद मुसलमानों को व्यर्थ प्रतीत होने लगा

यद्यपि सभी हिंदू निस्संदेह उत्साह से उस 'हिंदी राष्ट्रीय सभा' के साथ जुड़ गए तथा उसके मूल में विद्यमान प्रादेशिक राष्ट्रत्व (Geographical Naturality) के तत्त्व को भी उन्होंने अपनी सच्ची निष्ठा अर्पित की तो भी हिंदुस्थान के मुसलमानों को समझाने के संबंध में वह तत्त्व अत्यंत असफल सिद्ध हुआ। उनका संपूर्ण समाज प्रारंभ से ही कांग्रेस से दूर होता दिखाई दिया और समय बीतने के साथ वह उससे पूर्णतः क्रुद्ध होने लगा, किसी भी प्रकार से राजनीतिक दृष्टि से एक गुट बनाने हेतु अपना-अपना वांशिक तथा धार्मिक व्यक्तित्व हिंदी राष्ट्र में विलीन करने की आवश्यकता कांग्रेस द्वारा हिंदी लोगों के लिए आग्रहपूर्वक बताई जाने लगी । मुसलमान भी अधिकाधिक अविश्वस्त तथा स्वैर बनने लगे । क्योंकि 'हिंदी देशभक्ति' की जो परिभाषा कांग्रेस द्वारा की गई थी उसके कारण उनकी धार्मिक, वांशिक तथा सांस्कृतिक आकांक्षाओं पर, उनके मुसलमानी राष्ट्राभिमान पर जबरदस्त प्रहार होगा- ऐसा उनका सोचना था । ब्रिटिश शासन ने अपना उल्लू सीधा करने के लिए उनकी इस कांग्रेस विरोधी प्रवृत्ति को भड़काया ।

हिंदू देशभक्तों के अथक प्रयासों के फलस्वरूप कांग्रेस का राजनीतिक महत्त्व ज्यों-ज्यों बढ़ता गया । उनकी माँगें जैसे-जैसे अधिकाधिक आग्रहपूर्वक की जाने लगी तथा उन माँगों की निरंतरता बनाए रखने की उसकी शक्ति में वृद्धि तथा प्रबलता दिखाई देने लगी, त्यों-त्यों मुसलमानों द्वारा अधिक स्पष्ट शब्दों में उसका विरोध किया जाने लगा और 'हिंदी राष्ट्रीय सभा' का आंदोलन निर्माण करने की कार्यनीति अंततः असफल हो गई । अपनी अपेक्षाएँ अधिकांशत व्यर्थ सिद्ध होने की बात निराश ब्रिटिश शासन को स्वीकार करनी पड़ी । ब्रिटिश शासन द्वारा मुसलमानों को अधिकाधिक आग्रहपूर्वक प्रोत्साहन तथा गुप्त रूप से अधिक सहायता दी जाने लगी ।

अंग्रेजों की कुटिल चाल उनके ही लिए प्रतिकूल सिद्ध हुई

'हिंदी राष्ट्रीय सभा' के आंदोलन से, हिंदू दृष्टि से भी हम हिंदू लोगों को जो लाभ हुआ है उसे न पहचाननेवाला व्यक्ति मैं नहीं हूँ- मूल उद्देश्य न होते हुए भी केवल आपात्रिक रूप से क्यों नहीं उसने प्रांतिक, भाषिक तथा पंथविशिष्ट द्वेष, भेद तथा भिन्नता को परमार्जित करते हुए संपूर्ण हिंदू जगत् का पूरी तरह दृढ़ीकरण घटित करवाने में बहुत बड़ी भूमिका निभाई है । एक सार्वजनिक राजनीतिक मंच भी हिंदुओं के लिए उपलब्ध करा दिया है । संयुक्त तथा मध्यवर्ती राज्य के निश्चित ध्येय के साथ समान राष्ट्रीय अस्तित्व को समझने के लिए उन्हें सचेत भी किया है । यदि कुछ दोष इसमें आ गए हैं तो उन्हें सुधारा जा सकता है; परंतु जो कुछ अच्छा निष्पन्न हुआ है उसे अस्वीकार करने का कोई कारण नहीं है । हिंदुस्थान में जो पाश्चिमात्य शिक्षा दी जा रही है उसके लिए भी मेरे पास अपशब्द नहीं हैं अथवा मैं उसे शाप नहीं देता । उस प्रकार की शिक्षा का प्रारंभ करने में ब्रिटिशों का हेतु बहुत संशयास्पद था; परंतु अंततः हम हिंदू लोग अंग्रेजों की चाल को मात देने में सफल हुए हैं, इस कारण से पाश्चिमात्य लोगों से हम लोगों का संबंध हुआ । इससे हम लोग लाभान्वित हुए ऐसा कहने की स्थिति में आज हम लोग हैं ।

तथापि पश्चिम से हम लोगों का जो संबंध आया था उससे शासकीय तथा विश्वविद्यालय में अंग्रेजी शिक्षा के पुनरुज्जीवन से हम लोगों को जो लाभ प्राप्त हुआ था इसे प्राप्त करते समय ब्रिटिश शासन के दुष्ट ध्येय की चिंता न करते हुए हम लोगों ने प्राप्त किया था । उसी प्रकार हिंदू राष्ट्र को दृढ़ बनाने के रूप में हम हिंदू लोगों का जो कल्याण हुआ वह भी 'हिंदी राष्ट्र' के उस संप्रदाय अथवा हिंदी राष्ट्रीय सभा के घोषित उद्देश्यों के फलस्वरूप नहीं हुआ है । वह इसलिए हम लोगों को प्राप्त हुआ है कि हिंदू होने के नाते अपनी धार्मिक तथा वांशिक समझ को दबा देने के उसके प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष न्यास लिये जाते हुए भी प्राप्त हुआ है । प्रादेशिक देशभक्त तो यही चाहते थे कि हम लोगों का हिंदू बने रहना कम-से-कम राष्ट्रीय अथवा राजनीतिक समूह के रूप में संपन्न हो जाना चाहिए । उसमें से कुछ लोगों को हिंदू होने की बात अस्वीकार करने में ही साक्षात् अभिमान की बात प्रतीत होती थी । वे केवल हिंदी (इंडियन) ही थे ऐसा करने से हम लोग देशभक्ति का एक महान् आदर्श प्रस्तुत कर रहे हैं- ऐसा मानकर इसके फलस्वरूप हम लोग मुसलमानों को उनका जातीय अस्तित्व छोड़ने के लिए उस प्रादेशिक राष्ट्र में केवल उल्लेख करते हुए विलीन होने के लिए उन्हें सहमत कर लेंगे- वे ऐसी कल्पनाएँ करने लगे ।

परंतु मुसलमान आरंभ से अंत तक मुसलमान ही बने रहे, वे हिंदी कभी भी नहीं बने । इस ध्येय से प्रभावित होकर लाखों हिंदू कारावास में बंद रहे । सहस्रों अंदमान में पहुँचे तथा सैकड़ों फाँसी पर झूल गए । वे सर्व हिंदी लोगों के लिए समान राष्ट्रीय अधिकार वश में करने के हेतु से ब्रिटिशों से संघर्ष कर रहे थे तब तक मुसलमान पृथक् रहकर तमाशा देख रहे थे । दूसरी ओर कांग्रेसनिष्ठ हिंदुओं द्वारा तथा हिंदू क्रांतिकारियों द्वारा चलाया जा रहा सशस्त्र आंदोलन अधिक प्रभावी बन जाने से प्राणों पर खेले जानेवाले इस संघर्ष के कारण तथा ब्रिटिश शासन पर पर्याप्त दबाव डालने से हिंदुओं को कुछ ठोस सत्ता प्राप्त होने का समय आते ही मुसलमान शीघ्रतापूर्वक भागकर प्रस्तुत हुए तथा 'हम लोग हिंदी हैं, हम लोगों को हमारा उचित हिस्सा पूर्ण रूप से प्राप्त होना चाहिए । ऐसा अधिकार जताने लगे ।

अंततः स्थिति यहाँ तक पहुँच गई कि साक्षात् ' मुसलिम लीग' जैसी मुसलमानों की प्रतिनिधि संस्था द्वारा हिंदुस्थान के मुसलमानी हिंदुस्थान तथा हिंदू हिंदुस्थान नामक दो टुकड़ों में विभाजित करने का निर्लज्ज सुझाव दिया गया । हिंदुओं के विरोध में अहिंदी मुसलमानी राष्ट्रों के साथ संयुक्त विचार करने की घोषणा प्रकट रूप से की गई । अत्यधिक शुद्ध उद्देश्य से, परंतु विवेकशून्य श्रद्धा तथा विचारशून्य कार्यनीति से धर्म, जाति तथा संस्कृति से पूर्ण एवं केवल प्रादेशिक एकता के एक ही समान नियम पर आधारित सारे हिंदी लोगों को मिलाकर एक ही अविभक्त राज्य का निर्माण करने के लिए उपर्युक्त हिंदू देशभक्तों को सभी आशाओं का यह ऐसा दुःख पर्यवसायी भवितव्य था !

प्रादेशिक एकता राष्ट्रवाद का एकमेव कारक नहीं है

तथापि संयुक्त हिंदी राष्ट्र में विलीन होने के लिए मुसलमानों को अनुकूल होना चाहिए, इसलिए उनकी आराधना करने का तथा प्रथम हिंदी तथा तत्पश्चात् मुसलमान कहलाने की बात पर उन्हें अनुकूल बनाने के लिए कांग्रेस द्वारा गत पचास वर्षों से किए गए प्रयासों को सफलता क्यों प्राप्त न हो सकी ? इसका मूल कारण क्या है ? एक संयुक्त हिंदी राष्ट्र की स्थापना के लिए मुसलमान अनुकूल नहीं हैं अथवा उन्हें यह आवश्यक प्रतीत नहीं होता, ऐसी कोई बात नहीं है; परंतु हिंदुस्थान की राष्ट्रीय एकता के विषय में उनकी कल्पना उनकी प्रादेशिक एकता पर आधारित नहीं है । यदि किसी मुसलमान ने अपने मन की बात स्पष्ट शब्दों में प्रकट की होगी तो वह मोपलों के नेता अली मुसलियार ने ही प्रकट की है ।

सहस्रों हिंदुओं को बलात्कार द्वारा भ्रष्ट करने अथवा पुरुष स्त्रियाँ, बच्चे इन सभी का एक साथ तलवार से वध करनेवाले अपने अत्याचारों की घटनाओं का समर्थन करते हुए उसने ऐसा घोषित किया कि संपूर्ण हिंदुस्थान को मिलाकर यदि एकराष्ट्र बनना आवश्यक हो तो उस हेतु हिंदू-मुसलमानों में एकता स्थापित करने का एक ही अनन्य मार्ग है- सभी हिंदुओं द्वारा मुसलमान धर्म स्वीकारने का जो हिंदू ऐसा करना स्वीकार नहीं करते वे हिंदी एकता के कार्य का विश्वासघात करने के दोषी होंगे तथा मृत्युदंड के पात्र होंगे ।

शाब्दिक मायाजाल से अपरिचित अली मुसलियार ने अपनी मुसलमानी भाषा में ही स्पष्टतः ऐसा कहा । महमद अली तथा अन्य कुछ ऐसे ही शिष्टाचारी मुसलमानों की भाषा सुसंस्कृत लैटिन अथवा ग्रीक के समान होती है, परंतु सभी का मतितार्थ एक ही होता है ।

केवल प्रादेशिक एकता पर्याप्त नहीं है । धार्मिक, वांशिक तथा सांस्कृतिक एकता का ही राष्ट्रीय एकता स्थापना के लिए अधिक महत्त्व प्रतीत होता है । इसे ठीक से समझ लेने में कांग्रेस की भूल हुई और यही उसके अपयश का मूल कारण भी है ।

राष्ट्रों की निर्मिति के लिए प्रादेशिक एकता अर्थात् एक ही समान निवास भूमि में रहने से भी अधिक महत्त्वपूर्ण यह है कि धार्मिक, वांशिक, सांस्कृतिक तथा ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में इस मूलभूत सामाजिक एवं राजनीतिक तत्त्व को समझने में बहुत बड़ी भूल कांग्रेस ने प्रारंभ में ही कर दी । प्रादेशिक एकता इन्हीं घटकों में एक घटक होती है; परंतु अधिकांश स्थानों पर वह सामान्य रूप से एकमेव घटक नहीं बन सकता । इंग्लैंड और कुछ अन्य यूरोपियन राष्ट्रों का उदाहरण लीजिए । इन्हीं उदाहरणों ने 'हिंदी राष्ट्रीय सभा' के हिंदू संस्थापकों को गलत रास्ते पर डाल दिया । इस भाषण में उपरिनिर्दिष्ट परिच्छेद के विवेचन के अनुसार वे ठीक से समझ में नहीं आई । इंग्लैंड आज जो एक संयुक्त राष्ट्र बना हुआ है वह केवल संपूर्ण प्रादेशिक परिमाण होने के एकमात्र कारण से नहीं, वहाँ के लोगों का प्रादेशिक राष्ट्राभिमान भी पर्याप्त कारण नहीं है; परंतु वह उनके अन्य सामाजिक तथा राजकीय आप्त संबंधों का कार्य अर्थात् परिणाम है । उदाहरणार्थ, पूर्व के समय में भी इंग्लैंड इसी प्रकार का प्रादेशिक परिमाण था । परंतु जिस समय धर्म-भावना अत्यधिक तीव्र हो गई तब आंग्ल-कैथोलिक तथा प्रोटस्टेंटों को ऐसा अनुभव हुआ कि वे अपने देश-बांधवों से अधिक अपने-अपने बाह्य देशीय सहधर्मियों की ओर अधिक आकर्षित हो रहे हैं । आंग्ल कैथोलिकों को इंग्लैंड में रहनेवाले अपने आंग्ल परंतु प्रोटस्टेंट राजा से भी अधिक चिंता रोम के पोप के लिए ही थी । आंग्ल प्रोटस्टेंटों ने रोमन कैथोलिक पंथ के आंग्ल राजा के स्थान पर हॉलैंड के बुइस्यम को ही राजा बनाने के लिए प्रयास किया । उसी प्रकार हॉलैंड के लोग भी एक ही प्रदेश के होते हुए भी इतिहास काल के धार्मिक क्षेत्र के अभिमान से प्रेरित होकर संपूर्ण राष्ट्र के रूप में एक नहीं हो सके । वहाँ के कैथोलिक अपने ही प्रोटस्टेंट राजा बुइस्यम के विरोध में स्पेन का साथ देने लगे । ऑस्ट्रिया-हंगरी का भी उदाहरण लीजिए । वहाँ के लोगों को प्रादेशिक रूप से विभाजित करनेवाली कोई बात नहीं थी । उन सभी लोगों ने एकत्रित होकर अपना एक साम्राज्य स्थापित किया था तथा एक ही शासन के अधीन वे एक स्वतंत्र गुट के रूप में अनेक शतकों तक रहे; परंतु उनमें आत्मीयता उत्पन्न करनेवाले वांशिक, सांस्कृतिक, भाषिक तथा ऐतिहासिक स्वरूप के कोई आत्मीय संबंध नहीं थे । अतः इस कारण उचित अवसर प्राप्त होते ही उनकी राष्ट्रीय तथा राजनीतिक एकता तत्काल टूट गई ।

अथवा ऐसा भी नहीं कहा जा सकता कि 'आपका यह धार्मिक तथा वांशिक वृथाभिमान अब पुरानी बात हो चुकी है । अब दुनिया बहुत प्रगत हो गई है । कोई भी आधुनिक व्यक्ति अब इन बातों पर किंचित् भी ध्यान नहीं देता ।' इस साधारण घोषणा में हम लोग अपना सुर मिला देते हैं । हिंदू मुसलमान (इंडियन) ये क्या वर्तमान जर्मन अथवा आयरिश लोगों से अधिक आधुनिक हैं ? जर्मन अथवा आयरिश विश्व के सर्वाधिक उन्नत देशों की श्रेणी में आते हैं । फिर भी वे जर्मन अथवा आयरिश वर्तमान समय में भी समान देश, भाषा, संस्कृति अथवा इतिहास की तुलना में प्रादेशिक एकता को अधिक महत्त्व देते हैं ऐसा दिखाई देता है ।

सुदेवन जर्मन तथा आस्टराइट के सबसे आधुनिक उदाहरण

सुदेतन जर्मन तथा प्रशियन जर्मनों को भी बहुत समय तक राजनीतिक एकराष्ट्र प्राप्त नहीं हुआ था । वे एक ही राज्य में कभी भी एक साथ नहीं रहे । युद्ध में जर्मनी को दुर्बल बनाने के पश्चात् जर्मनी के शत्रुओं ने उसके टुकड़े कर दिए । राष्ट्र के रूप में एक 'गठरी' बना दी और उसे किसी प्रादेशिक क्षेत्र में फेंक दिया । उसे चेकोस्लोवाकिया ऐसा नाम देकर उसमें सुदेतन जर्मन, पोल, हंगेरियन, चेक, स्लोवाक आदि लोगों की खिचड़ी बना दी । परंतु क्या उन्हें इस प्रकार राष्ट्र नाम की कोई वस्तु उत्पन्न करने में सफलता प्राप्त हुई ? सुदेतन जर्मनों को प्रादेशिक एकता की भ्रांतिपूर्ण कल्पना के कारण प्रशियन जर्मनी से बाहर कर दिया गया था; परंतु फिर भी वे इस बात को न मानते हुए प्रशियन जर्मनी से ही एक होने के लिए तत्परतापूर्ण आशा रखते थे, और प्रादेशिक व राजनीतिक एकत्व के नाते से एक ही चित्र में दिखाए जाने पर पड़ोस के चेकों के विरुद्ध विद्रोह कर प्राण संकट का भय त्यागकर प्रशियनों से ही जा मिले ।

सुदेतन जर्मनों ने इस प्रकार का आचरण क्यों किया ? चेक लोगों से अथवा स्लोवाकिया के प्रशियन लोगों से उन सुदेतन जर्मनों का अधिक निश्चित स्वरूप का प्रादेशिक संबंध था इस कारण कदापि नहीं, परंतु इसलिए कि जर्मनी में निवास करनेवाले जर्मनों से सांस्कृतिक, ऐतिहासिक तथा वांशिक रूप से उनके अधिक निकट के आत्मबंध थे तथा जर्मन लोगों का ही एक अंग बनने में उन्हें अभिमान का अनुभव होता था ।

इसके विपरीत जर्मनों के ज्यू लोगों की बात सोचिए । ये जर्मन ज्यू प्रादेशिक एकता के बंधन द्वारा जर्मन से जुड़े हुए थे तथा इसी कारण वे जर्मन भूमि में अनेक शतकों से जर्मनों के साथ रहते थे । इसके अतिरिक्त वे जर्मन राज्य में प्रत्यक्ष समविष्ट किए गए थे ।

राजनीति की दृष्टि से भी उन्हें जर्मन ही माना जाता । जर्मनी में नागरिक अधिकारों का वे समान रूप से उपभोग करते थे और राष्ट्रीय जर्मन विधिशासक के घटक के रूप में जर्मन राज्य पर भी उनका वर्चस्व था ।

इसके अतिरिक्त आयरिश लोगों का उदाहरण लीजिए । आर्यलँड तथा इंग्लैंड दोनों का एक ही राजकीय गुट है तथा दोनों का कितने शतकों से एक ही राज्य तथा एक ही पार्लियामेंट हैं । इंग्लिश लोग आयलैंड में बेटी व्यवहार, रोटी व्यवहार तथा एक ही भाषा में वाग्व्यहार करते आए हैं । अस्टाइट अंग्रेज लोग तथा आयरिश लोग इन दोनों का प्रादेशिक संबंध एक ही है तथा दोनों की स्पष्टतः परिसीमित भूमि भी आयरलैंड ही है । उनका धर्म भी एक ही है अथवा महाद्वीप पर आयरलैंड कोई बड़ा भूभाग नहीं है । वह भारत के किसी प्रांत के बराबर होगा । परंतु इन सारे निकट के घटक तथा इतने समीप निवास करने से क्या उनका एक राज्य बन पाया है ? नहीं । आयरलैंड में भी नहीं तथा ब्रिटेन में भी नहीं । आयरिश लोगों ने विद्रोह किया । ब्रिटिशों के प्राप्त होनेवाली बादशाही सुविधाओं को तुच्छ मानते हुए अपनी मृतप्राय आयरिश भाषा को उन्होंने फिर से जीवित किया और अपना स्वतंत्र आयरिश राष्ट्रीय राज्य पुनः प्रस्थापित किया । अल्साइट अंग्रेज भी जिसके साथ अनेक शतकों से रहा था, अपने पड़ोस के आयरिश व्यक्ति से भी राष्ट्रीय संबंध रखना स्वीकार नहीं करता; परंतु जिस व्यक्ति को उसने कभी देखा तक नहीं है तथा जो उससे दूर सागर पार रहता है उस इंग्लिश बांधव से मिलने हेतु वह दुःखी रहता है ।

आयरिश तथा अंग्रेजों की प्रादेशिक एकता उन्हें जितना आकर्षित कर सकती है उससे भी कहीं अधिक उनका वांशिक, सांस्कृतिक तथा ऐतिहासिक आत्मीय संबंध का अभाव उन्हें पृथक् करता है ।

सभी राष्ट्रों के इन कुछ उदाहरणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि धार्मिक, वांशिक, सांस्कृतिक तथा आत्मीय भिन्नता वाले लोगों के केवल प्रादेशिक एकत्व अथवा एक ही निवासस्थान होने की बात कभी भी एक राष्ट्रीयता नहीं बना सकती ।

धार्मिक, वांशिक, सांस्कृतिक, भाषिक अथवा ऐतिहासिक आत्मबंध मानवों में अपनापन उत्पन्न करते हैं यह सत्य राजनीतिक न होकर मानवीय है । यदि उसका एक साथ रहना अन्य आत्मबंधों में वृद्धि करता हो तो बात कुछ और बन जाती है । एकराष्ट्र बनने के लिए आवश्यक बातों की चर्चा के लिए एक ही आलेख पर्याप्त नहीं है । आप्तबंध होने की प्रवृत्ति की जड़ें मानव तथा अन्य प्राणियों की प्रकृति में भी गहराई तक पहुँची हुई हैं; परंतु इसलिए इसपर मानस शास्त्रीय चर्चा करने का यह अवसर नहीं है ।

इतना कहना ही पर्याप्त होगा कि लोगों का अपने प्राकृतिक गुणों के आधार पर राष्ट्र बनाने के लिए सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण घटक है एकात्म और एकराष्ट्र बनाने की उसकी इच्छा ।

यह इच्छा हमारे द्वारा यहाँ तक निर्देशित प्रकार से आत्मबंधों के कारण ही एक ही देश के वास्तव्य से भी बहुत अधिक प्रमुखतापूर्वक प्रज्वलित की जाती है ।

परंतु हिंदुओं से एक होने की यह इच्छा भी क्या हिंदी मुसलमानों में विद्यमान है ?

फिर हिंदुओं से एक होने की इच्छा भी क्या हिंदी मुसलमानों में विद्यमान है ? यह सबसे बड़ा प्रश्न है और कांग्रेसनिष्ठ हिंदू हिंदी आंदोलन के प्रारंभ में इस प्रश्न पर विचार करने के लिए नहीं रुके अथवा आज भी मुसलमानों के प्रार्थना के समय से मेल बैठाने के लिए वे इस प्रश्न पर विचार नहीं करते । 'मुसलिम लीग' एक जातिनिष्ठ संस्था है यह घोषित करने का कुछ उपयोग नहीं है । वह कुछ नई बात नहीं है । सच तो यह है कि कांग्रेसवाले मुसलमान भी सारे के सारे अन्य मुसलमानों जैसे ही जातिनिष्ठ हैं । यह समझ लेना आवश्यक है कि वे इस प्रकार जातिनिष्ठ क्यों हैं ? कांग्रेसनिष्ठ हिंदुओं में इतना साहस नहीं है कि वे इस प्रश्न का अध्ययन कर सकें । क्योंकि इस प्रकार का अध्ययन उनके प्रादेशिक राष्ट्रत्व की उनकी समझ के अनुसार हिंदी एकता के लिए आखिरी साँस सिद्ध होगा । 'धर्मांधता, भ्रांतमतित्व' ऐसा आक्रोश आप लोग करते हैं, परंतु धर्मांधता तथा भ्रांतमतित्व आदि बातें मुसलमानों के लिए ठोस एवं तथ्यपूर्ण बातें हैं । उसे भला-बुरा कहकर आप लोग उसका निवारण नहीं कर सकते । आप लोगों को उसका प्रकट रूप से सामना करना होगा । मुसलमानों का इतिहास, उनका दर्शन तथा उनकी राजनीतिक प्रवृत्ति इस विषय में पूर्णतः अनभिज्ञ ऐसे कांग्रेसवालों ने जिस प्रादेशिक राष्ट्र की कल्पना की है इसके प्रति मुसलमान प्रारंभ से ही उदासीन रहे हैं । मैं सोचता हूँ कि यह मनुष्य की प्रकृति के अनुरूप ही है । यदि आप निम्न बातों पर ध्यान देंगे तो मुसलमानों की यह विरोधी वृत्ति इतनी साफ-साफ दिखाई देगी कि आप सोचेंगे कि आप कोई चीज दूरबीन से ही देख रहे हैं -

1. अतिरेकी धर्मनिष्ठा तथा राज्य के विषय में भावुकतापूर्ण कल्पना का त्याग करने की दृष्टि से हिंदी मुसलमानों में पर्याप्त विवेक नहीं है ।

2. उनके धार्मिक दर्शन तथा कुरानपरस्त राजनीति के कारण मानव विश्व के केवल दो ही विभाग हैं । एक मुसलमानी भूमि तथा दूसरी शत्रुओं की भूमि जिस क्षेत्र में केवल मुसलमान निवास करते हैं तथा जहाँ मुसलमान शासन करते हैं वह मुसलमान भूमि है तथा मुसलमानों के अतिरिक्त अन्य सत्ता का जहाँ शासन है वह प्रदेश शत्रुओं की भूमि कहलाती है । इस भूमि के लिए किसी भी निष्ठावान मुसलमान को किसी भी प्रकार की निष्ठा नहीं रखनी चाहिए । इसके अतिरिक्त उसने अपनी शक्तिनुसार युक्ति से, बलात्कार से अथवा कपट द्वारा अर्थात् किसी भी प्रकार से वहाँ के मुसलमानेतरों को मुसलमान धर्म में लाने के लिए तथा किसी मुसलमान राष्ट्र द्वारा उस प्रदेश पर राजकीय आक्रमण करने और उसपर विजय पाने के लिए उसे चुनौती देने का कार्य करने की बात भी कही गई है । इस कथन के विरोध में मुसलमानी पुस्तकों के यहाँ-वहाँ के वाक्यों का संदर्भ देना उचित नहीं होगा । संपूर्ण कुरान का अध्ययन करने पर ही उसकी संपूर्ण प्रवृत्ति ज्ञात हो सकेगी । और हमें किसी पुस्तक से कुछ भी लेना-देना नहीं है । यहाँ तो यही देखना है कि उस पुस्तक के अनुयायी अपने व्यवहार में उसका किस प्रकार अनुकरण करते हैं । आप लोगों को बाद में अनुभव कि समग्र मुसलमानी इतिहास तथा उनका नित्य का आचरण अन्यत्र वर्णन किए हुए चित्र के अनुसार ही होता है । अर्थात् मुसलमानों के धर्म पर वे आधारित नहीं हैं सो प्रादेशिक राष्ट्रभक्ति का अर्थ मुसलमानों की समझ में नहीं आता । अफगान राष्ट्रभक्त हो सकते हैं अथवा होते हैं, क्योंकि अफगानिस्थान आज भी एक मुसलमानी प्रदेश है । परंतु मुसलमान- सच्चे मुसलमान-समाज के नाते से अत्यंत धर्मश्रद्धालु होते ही हैं- तब देश अथवा राष्ट्र अथवा राज्य के रूप में हिंदुस्थान के लिए धर्म के अनुसार वह निष्ठा नहीं रख सकता, क्योंकि आज उसके शत्रुओं का देश है, वहाँ के बहुसंख्यक मुसलमान नहीं हैं तथा वहाँ मुसलमान राष्ट्र अथवा राज्य नहीं है । अतः दोनों ओर से वह पृथक् ही है । मुसलमानों को यह प्रारंभ से ही शत्रुभूमि प्रतीत होती है ।

3. इसके साथ यह भी जोड़ दीजिए कि मुसलमानों के अतिरिक्त सभी लोगों में मुसलमान दार्शनिकों ने हिंदुओं को ही सर्वाधिक धिक्कारा है । में क्योंकि ख्रिस्ती अथवा ज्यू कैसे भी क्यों न हों, उनके धर्मग्रंथ कुरान से कुछ समानता दरशाते हैं अर्थात् वे 'किताबी' हैं, परंतु संपूर्णत: काफिर हैं । क्योंकि जब तक हिंदुस्थान पर मुसलमानों का राज्य प्रारंभ नहीं होता अथवा जब तक सभी हिंदुओं ने इसलाम धर्म स्वीकार नहीं किया है तब तक प्रमुख रूप से वह शत्रुभूमि ही कहलाएगा । अभी भी धर्मनिष्ठा की भ्रांतिपूर्ण कल्पना करनेवाले हिंदी मुसलमानों की यही धार्मिक मनोवृत्ति है; उनकी इस प्रवृत्ति को महमूद अली आदि लोग प्रज्वलित कर रहे हैं । अतः मुसलिम संघशासन स्थापित करने के लिए 'हिंदी हिंदुओं की तुलना में अहिंदी मुसलमानी देशों से मित्रता करने का अपना उद्देश्य मुसलिम लीग द्वारा प्रकट रूप से घोषित करने पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए । उनके विचारों के फलस्वरूप उनपर हिंदुस्थान से द्रोह करने का आरोप उनकी निष्ठा के अनुसार नहीं लगाया जा सकता; क्योंकि उन्होंने हम लोगों के वर्तमान हिंदुस्थान को स्वदेश अथवा राष्ट्र के रूप में कभी भी स्वीकार नहीं किया है । उन्हें प्रारंभ से यह एक परायी तथा शत्रुभूमि ही प्रतीत होती रही है ।

हिंदुओं के विरोध में ब्रिटिशों तथा मुसलमानों की मजबूत मोरचाबंदी

4. यह मुसलमानों की धार्मिक तथा वास्तविक (जीवंत) मनोवृत्ति है, अर्थात् इसके अनुसार उनकी राजनीति तथा सांस्कृतिक मनः प्रवृत्ति भी प्रमुख रूप से हिंदू विरोधी ही है, जब तक वे 'मुसलमान' तथा निष्ठावान बने रहेंगे तब तक इसमें कोई परिवर्तन नहीं होगा, यह बात भी निश्चित है । उन्होंने एक विजेता के रूप में भारत में प्रवेश किया तथा हिंदुओं को अपनी राजसत्ता के अधीन भी बना लिया । इस बात का उन्हें पूर्ण स्मरण है तथा उन्हें विलक्षण स्मृति का भी वरदान प्राप्त है । परंतु अपने पराभव तथा दुर्दशा की याद दिलानेवाली सभी घटनाओं का उन्हें विस्मरण हो चुका है । इसी भाषण के गत परिच्छेद में बताया गया है कि हिंदुओं ने उन्हें सैकड़ों रण क्षेत्रों पर पराजित कर ध्वस्त करते हुए सारा हिंदुस्थान मुसलमानों के आधिपत्य से मुक्त किया तथा पुन: हिंदू पदपादशाही की स्थापना की । परंतु इस घटना का उन्हें विस्मरण हो जाएगा । हिंदुस्थान में उनका प्रभावी अल्पमत है यह उन्हें ज्ञात है । उनकी जनसंख्या प्रत्येक जनगणना के समय बढ़ रही है । हिंदू संघटनवादियों को इस बात पर ध्यान देना विशेष रूप से आवश्यक है कि हम हिंदुओं में प्रचलित भ्रांतिपूर्ण धार्मिक एवं सामाजिक रूढ़ियों के कारण जैसे अस्पृश्यता शुद्धि पर रोक, विधवा विवाह का अवरोध, उन्हें भ्रष्ट करने के लिए तथा मुसलमानी धर्मांतरण के लिए एक अच्छा क्षेत्र प्राप्त हुआ है । अतः इस वर्तमान स्थिति में हिंदुओं की संख्या घटाने की तथा अपनी संख्या में शीघ्रतापूर्वक वृद्धि करने की आशा करना उनके लिए स्वाभाविक है-ऐसा कहना अनुचित नहीं होगा । हिंदुओं के उदय तथा राजनीतिक आकांक्षाओं से ब्रिटिश लोग भयभीत हैं इसलिए हिंदुओं के विरोध में अपना पक्ष सुदृढ़ बनाने हेतु प्रत्येक प्रकार की सुविधा प्राप्त होगी यह बात मुसलमान भलीभाँति जानते हैं । उन्हें यह भी ठीक से ज्ञात है कि केवल प्रादेशिक एकता अव्यवहार्य तथा समान कानून पर आधारित हिंदू-मुसलमानों की एकता स्थापित करने की भ्रांतिपूर्ण निकृष्ट प्रवृत्ति का पीछा करनेवाले कांग्रेसनिष्ठ हिंदू मुसलमानों के विशिष्ट तथा सीमातीत प्रतिनिधित्व आदि से संबंधित तथा हम लोगों को अभी चुभनेवाले हिंदू संघटन के आंदोलन को दबाने के विषय में हम लोगों की धमकियों का समर्थन प्राप्त होनेवाली हम लोगों की माँगों को मान लेंगे ऐसा विश्वासपूर्वक उन्हें प्रतीत होता है । अल्पसंख्यक होते हुए भी हिंदी सेना और पुलिस सेवा में उन्हें ६० प्रतिशत स्थान प्राप्त होने के कारण अपने वर्चस्व की बात वे जानते हैं । ये सभी बातें अनुकूल होने के कारण अथवा इसे न जानकर भी उन्हें इस बात का पूर्ण विश्वास है कि यदि किसी जागतिक महायुद्ध में ब्रिटिशों की पराजय होती है तो हिंदुस्थान की सीमा पर स्थित अहिंदी मुसलमानी राष्ट्र की सहायता से मुसलमान ही ब्रिटिशों से हिंदुस्थान की सार्वभौम सत्ता छीनकर वहाँ पुनः मुसलमानी साम्राज्य प्रस्थापित करेंगे, तभी वे मुसलमानी भूमि-स्वदेश- के रूप में हिंदुस्थान पर वार कर सकेंगे और वे ऐसा करेंगे भी तथा 'भारत हमारा देश है' अथवा 'हिंदुस्थान हमारा' ऐसे गाने गाएँगे । परंतु तब तक यह देश किसी भी मुसलमान को अर्थात् सच्चे अतिरेकी धर्मनिष्ठ मुसलमान को 'शत्रुभूमि' ही लगता रहेगा ।

ब्रिटिशों को चेतावनी

मुझे प्रतीत होता है कि गत परिच्छेद के अंत की बातों पर ब्रिटिशों को भी ध्यान देना चाहिए तथा मुसलमानों को अनेक हिंदू विरोधी आंदोलन में असामान्य रूप से प्रोत्साहन देने की अपनी कार्यनीति पर भी समय रहते अंकुश लगाना चाहिए । हिंदुस्थान का विभाजन करना, मुसलिम संघशासन की स्थापना करने हेतु हिंदुस्थान के बाहर बसनेवाले पराए मुसलमान राष्ट्रों की सलाह लेना तथा हिंदुस्थान में एक स्वतंत्र मुसलमानी राज्य स्थापित करना इस विषयक मुसलिम लीग की घोषणा पर विचार करते हुए ब्रिटिशों को भी हिंदुओं का उन्मूलन करने के लिए अपनी इस प्रियतम पत्नी पर अधिक विश्वास करने से पूर्व दो बार सोच लेना उचित होगा । मुसलमानी इतिहास के परदे के पीछे किए गए षड्यंत्र लोगों को भलीभाँति ज्ञात हैं, कहीं ऐसा न हो जाए कि हिंदुओं का उन्मूलन करने हेतु मुसलमानों के विभक्तीकरण को दिया गया प्रोत्साहन स्वयं ब्रिटिशों को ही उखड़ने के लिए उपयोगी सिद्ध हो जाए । यह बात काफी विलंब से ब्रिटिशों की समझ में आ सकती है । तथापि यह समस्या ब्रिटिशों की समस्या है तथा इस बारे में वे सतर्क रहेंगे ।

हम हिंदू लोगों की इच्छा है कि हमें अब ब्रिटिशों का दास बनकर रहना नहीं है । अपने इस घर के इस हिंदुस्थान के, हिंदुओं की भूमि के वास्तविक स्वामी बनना है । इस प्रकार का निश्चय हमें करना चाहिए।

हम लोगों का तात्कालिक कार्यक्रम क्या होना चाहिए ?

प्रादेशिक एकता जैसे एक ही समान तत्त्व पर आधारित हिंदुस्थान में समान उद्देश्य रखनेवाला कोई भी एकराष्ट्र स्थापित करने के कार्य में हिंदी मुसलमान केवल प्रादेशिक राष्ट्रभक्ति से प्रेरित होकर हिंदुओं से सहकार्य करेंगे, यह कभी भी संभव नहीं है । इस बात को निश्चित रूप से समझने के पश्चात् हम हिंदू संघटनवादियों को सर्वप्रथम अपनी मूल भूल, अपना मूल पाप सुधारना होगा । इस प्रादेशिक 'हिंदी राष्ट्र' रूपी मृगमरीचिका के पीछे भागते रहना तथा इस प्रकार पीछा करना सफल करने में स्वभाव सिद्ध हिंदू राष्ट्र का विकास बाधा उत्पन्न करता है, ऐसा मानकर उसे नष्ट करने की बात सोचना ही वह भूल है । हम लोगों के हिंदू कांग्रेसवादियों ने प्रारंभ में यह सब अनच्छिा से किया और अब भी ये लोग यही कर रहे हैं । मैंने अपने भाषण के पूर्व के परिच्छेद में बताया था कि हम लोगों के पितरों ने मराठा तथा सिख हिंदू साम्राज्य के पतन के समय विद्यमान राष्ट्रीय जीवन का सूत्र वहीं छोड़ दिया था । उसी सूत्र को हम लोग अब हाथ में लेकर आगे बढ़ेंगे । आत्म-विस्मृति के कारण आकस्मिक रूप से खंडित हो गए. हम लोगों के आत्म-जाग्रत् हिंदू राष्ट्र का जीवित तथा उसका प्राकृतिक विकास हम लोगों को पुनः प्राप्त करना चाहिए ।

इसलिए इसके पूर्व के परिच्छेद में गोविंदराव काले के सन् १७९३ में लिखे गए पत्र के शब्दों में ही हम लोग साहस के साथ घोषणा करें कि 'सिंध से दक्षिण सागर तक फैली हुई भूमि यह हिंदुस्थान, हिंदुओं का स्थान है तथा हम हिंदू लोग उस भूमि के स्वामी होते हुए हिंदू राष्ट्र हैं, यदि आप इसे 'हिंदी राष्ट्र' के नाम से संबोधित करेंगे तो वह 'हिंदू राष्ट्र' इस शब्द का केवल एक अंग्रेजी पर्यायवाचक शब्द होगा । हम लोगों को (हिंदुओं को) 'हिंदुस्थान' तथा 'हिंदोस्थान (इंडिया) एक ही प्रतीत होता है । हम लोग 'हिंदी' हैं इसी कारण हम लोग 'हिंदी' (इंडियन) हैं तथा हिंदी हैं इस कारण हिंदू हैं ।

जी हाँ, हम हिंदू लोग स्वयमेव एकराष्ट्र हैं, क्योंकि धार्मिक, वांशिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक आदि सभी आत्मबंधों से हम लोग एकात्म एकराष्ट्र बन चुके हैं । इसके साथ प्रादेशिक एकता का वरदान भी हमें सदैव प्राप्त है । हम लोगों का वांशिक अस्तित्व हिंदुस्थान हम लोगों की प्रिय पितृभूमि तथा पुण्यभूमि से एकरूप हो चुका है ।

परंतु इन सभी से अधिक महत्त्वपूर्ण बात है हम लोगों को यह इच्छा कि हम लोग हिंदू राष्ट्र हैं इसी कारण हम लोग एकराष्ट्र हैं ।

हम तीस करोड़ हिंदू यदि इस प्रकार की इच्छा प्रकट करते हैं तो हम लोगों के इस एकराष्ट्रत्व को चुनौती देने का अथवा इसके लिए प्रमाण माँगने का अधिकार किसी को भी नहीं है ।

हिंदुस्थान में हम लोगों को एक जाति (Community) के रूप में संबोधित करना अनुचित होगा । जर्मन जर्मनी में एकराष्ट्र है तथा ज्यू वहाँ को एक जाति है । तुर्की तुर्कस्थान में एकराष्ट्र है तथा वहाँ के अल्पसंख्यक अरब अथवा आर्मेनियन वहाँ की जातियाँ हैं । उसी प्रकार हिंदू भी हिंदुस्थान में एकराष्ट्र है तथा अल्पसंख्यक मुसलमान एक जाति (Community) है ।

लीग को आवश्यक रूप से पाठ सिखाएँगे

जर्मनी का ही एक उदाहरण लेते हुए मुसलिम लीग के नेताओं ने उनके कराची अधिवेशन के समय अभी-अभी इस प्रकार की धमकी दी है कि हिंदुओं का अतिक्रमण करनेवाली उनकी माँगें यदि हिंदुस्थान में पूरी नहीं की जातीं तो सुदेतन जर्मनों का अनुकरण करते हुए, जिस प्रकार सुदेतन जर्मनों ने जर्मनी को जर्मनों के सुदेतन में आमंत्रित किया उसी प्रकार ये मुसलमान सीमा के बाहर के मुसलमानी राष्ट्रों को अपनी सहायता के लिए हिंदुस्थान में आने के लिए आमंत्रित करेंगे । परंतु मुसलिम लीग के लोगों द्वारा अपना स्थान दृढ़ करने से पूर्व ही इस प्रकार का आक्रोश करना उचित नहीं है । उन्हें इस बात को भी समझना आवश्यक है कि उनके द्वारा प्रस्तुत किया उदाहरण दोनों पक्षों के लिए प्रयुक्त किया जा सकता है । मुसलिम यदि बलशाली होंगे तो वे सुदेतन जर्मनी की भूमिका उचित रूप से करेंगे । परंतु यदि हिंदू उचित समय पर बलशाली हो जाएँगे तब हम लोगों के इस लोगी मित्रों को जर्मन ज्यू लोगों की भूमिका ही निभानी पड़ेगी । हम हिंदुओं ने शकों तथा हूणों को गतकाल में यह भूमिका करने की उचित शिक्षा दी है । अतः ऐसा अवसर उत्पन्न होने से पूर्व ही इस प्रकार के शब्दों का प्रयोग करने से कोई लाभ नहीं होगा । खिचड़ी का स्वाद उसे खाने के बाद ही समझ में आता है ।

मानवता की दृष्टि से'हिंदी राष्ट्रवाद'भी जातिनिष्ठता ही है

हिंदू राष्ट्रवादियों को इस भूमिका पर कांग्रेस से प्रभावित कोई हिंदी राष्ट्रवादी यदि इस प्रकार का आक्षेप लगाता है कि हिंदू तथा मुसलमान यह जाति अथवा यह धर्म इस पृथक् भावना से विचार करना बहुत क्षुद्रता का द्योतक है, हम सभी मानव एक हैं, हम लोगों को केवल एक विश्वबंधुत्व का ही विचार करना चाहिए, तब उस व्यक्ति से कहिए, बंधो ! विश्वबंधुत्व, हम हिंदू लोग इसे दोष समझा जाने तक इसकी पूजा कर रहे हैं; परंतु हे हिंदी राष्ट्रवादी, आप किसी-न-किसी प्रकार से हिंदी राष्ट्र का ही विचार इस भेद वृत्ति से क्यों करते हैं ? क्या हिंदुस्थान एक प्रादेशिक परिमाण है इस कारण ? फिर विश्व में अन्य प्रादेशिक परिमाण भी तो हैं । फिर आप हिंदी राष्ट्रभक्त क्यों बने हो ? अवीसीनिद राष्ट्रभक्त बनकर वहाँ उनकी स्वतंत्रता के लिए संघर्ष क्यों नहीं करते ? क्योंकि जन्म, साथ रहना तथा शिक्षा आदि के कारण आप लोगों को वांशिक, धार्मिक अथवा सांस्कृतिक आप्त संबंध हिंदी लोगों से अन्य लोगों की तुलना में अधिक निकट का प्रतीत होता है, इसी कारण आप ऐसा करते हैं । कदाचित् आप लोगों को इस बात की कल्पना तक नहीं होगी कि आप लोग ऐसे ईश्वर की पूजा कर रहे हैं जिसे आप जानते न हों अथवा हिंदी अथवा अन्य राष्ट्राभिमान अखिल मानवता की दृष्टि से जातीय ही निरूपित किया जाता है यह कदाचित् आप लोग नहीं जानते । क्या राष्ट्रत्व भी वांशिक अथवा धार्मिक अथवा सांस्कृतिक जाति के समान मानवता को विभाजित करनेवाला प्रबल तत्त्व नहीं है ?

हिंदी राष्ट्र के नागरिकों को हिंदू जातीय कहलाने में भय का अनुभव नहीं करना चाहिए

वास्तविक राष्ट्रीयत्व तथा जातिनिष्ठता दोनों ही तत्त्वतः समान रूप से समर्थनीय तथा मानव प्रकृति के अनुसार ही हैं और यदि नहीं हैं तो दोनों ही वैसे नहीं हैं । यदि राष्ट्रीयत्व का स्वरूप आक्रामक होगा तो वह उतना ही अनैतिक होगा जितनी अनैतिक होगी वह जातिनिष्ठता, जो दूसरों के न्याय अधिकारों पर आक्रमण करते हुए अपने लिए सभी प्रकार के लाभ प्राप्त करना चाहती है । परंतु यदि जातीयता केवल स्वसंरक्षण होगी तो विचारशील राष्ट्रीयत्व के समान वह भी न्याय ही है ।

हिंदू राष्ट्रवादी कभी दूसरों से कोई चीज अपहरण द्वारा प्राप्त करने की बात नहीं सोचते; अत: उन्हें हिंदू जातिनिष्ट कहा जाने पर भी उनकी जातिनिष्ठता समर्थनीय होती है तथा वे वास्तव में सच्चे हिंदी राष्ट्रीय कहलाने योग्य है । हिंदी राष्ट्र के घटकमूल समाज की ओर समान व्यवहार करनेवाले राष्ट्रीयत्व को हो न्याय्य राष्ट्रीयत्व कहा जाता है । इसी कारण केवल मुसलमान हो अन्याय्य, राष्ट्रविरोधी तथा राष्ट्रद्रोही अर्थ से भी जातिनिष्ठ हैं; क्योंकि दूसरों के अधिकार छीनने की लालसा उन्होंने ही प्रकट की है । हिंदू महासभा तथा मुसलिम संघ इन दोनों को एक साथ जातिनिष्ठता के अपेक्षिक दुष्ट अर्थ से एक समान जातिनिष्ठ निरूपित करने से राष्ट्रीय सभा ने स्वयं को ही अराष्ट्रीय कहलाकर यह दोष स्वयं पर लगा लिया है ।

(इस कारण स्वयं की भूमि में अपने न्याय्य तथा उचित अधिकारों की रक्षा करना यदि हिंदुओं के लिए जातीयता कहलाएगी तो हम हिंदू तो कट्टर जातिनिष्ठ हैं तथा एकनिष्ठ हिंदू जातीय कहलाने में हमें गौरव का अनुभव होता है; क्योंकि हम लोगों को प्रतीत होता है कि इस प्रकार की जातिनिष्ठता वास्तविक रूप में अत्यधिक न्याय्य राष्ट्रीयता ही है ।)

आज का हम लोगों का कार्यक्रम

इस प्रकार सुसंघटित हिंदू राष्ट्र की कल्पना का निश्चित रूप से पुनरुज्जीवन करना तथा उसके जीवन क्रम में नया उत्साह जगाना- हम लोगों के कार्यक्रम का अनिवार्य तथा प्रथम कार्य है । यह निश्चित हो जाने पर उसके पश्चात् का स्वाभाविक कार्य है सामाजिक जीवन के प्रत्येक पक्ष का केवल हिंदू हितों की दृष्टि से तथा किसी प्रकार की गड़बड़ी न करते हुए पुनः परीक्षण करना । ये बातें क्रमानुसार ही की जाएँगी । मसजिद के सामने वाद्यवादन के स्थानिक स्वरूप को छोटी-छोटी समस्याओं से प्रत्यक्ष हिंदी संयुक्त राज्य की घटना तक के महत्त्वपूर्ण प्रश्नों तक और हिंदुस्थान की अंदरूनी राजनीतिक कार्यनीति से प्रत्यक्ष परराष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय कार्यनीति तक सब समय हम लोग स्वतंत्रतापूर्वक हिंदू कहलाते हुए अपना आसन स्थिर करेंगे तथा कौन सी भूमिका हमें निभानी होगी- ये बातें केवल हिंदुओं के हित को ध्यान में रखते हुए ही की जाएँगी । हम लोगों का भविष्य का राजकारण केवल शुद्ध हिंदू राजकरण ही रहेगा तथा उसे मूर्त रूप देने के लिए ऐसा मार्ग चुना जाएगा जो हिंदू परिभाषा के अनुसार हिंदू समाज का दृढीकरण, स्वातंत्र्य तथा जीवनवृद्धि आदि को सहायक होगा ।

ऐसा होने पर ही'हिंदी राज्य'वास्तविक होगा

हम लोगों से तात्कालिक कार्यक्रम की तीसरी बात है देश के विभिन्न समाजों की एकता के विषय में अपना विचार पुनः घोषित करना। हिंदू राष्ट्र स्वयं का हित ध्यान में रखते हुए संयुक्त हिंदी राष्ट्र की स्थापना जिस मार्ग से की जा सकती है उसे बंद नहीं कर सकता। परंतु यह संयुक्त हिंदी राष्ट्र न्याय तथा समानता पर आधारित होना चाहिए। (हिंदुस्थान के सभी अल्पसंख्यक वर्गों को विधिमंडल, नौकरियाँ, सामाजिक तथा राजकीय अधिकार आदि से संबंधित जनसंख्या एवं गुणों के अनुसार योग्यता के अनुपात में मताधिकार तथा प्रतिनिधित्व देने हेतु हिंदू राष्ट्र सदैव तत्पर रहेगा। इस देश में हिंदू समाज बहुसंख्य होते हुए भी स्वयं के लिए किसी प्रकार के विशेष अधिकार अथवा स्वतंत्र सुविधाएँ प्राप्त करने का अपना अधिकार भी त्याग देगा। अन्य देशों में इस प्रकार के बहुसंख्य समाज को स्वतंत्र सुविधाएँ तथा विशेष अधिकार दिए जाते हैं।)

परंतु यदि अल्पसंख्यक समाज ऐसी सुविधाओं, भ्रामक मताधिकार की भ्रांतिपूर्ण तथा कहीं भी किसी द्वारा न की हुई माँग करते हैं जो बहुसंख्य समाज को भी प्राप्त नहीं हैं तो हिंदू समाज इसे अब सहन नहीं करेगा। संयुक्त हिंदी राष्ट्र की स्थापना के लिए धर्म, वंश तथा संस्कृति का विचार न करते हुए 'एक व्यक्ति एक मत' इस राष्ट्रीय तत्त्व को अंगीकार करने के लिए हिंदू समाज तत्पर है। परंतु एक मुसलमान तीन मत तथा तीन हिंदू एक मत एक प्रकार की राजनीतिक अधिकार की माँग, लूटमार को वह नष्ट कर देगा।

मुसलमानों को इस प्रकार की राजनीतिक अथवा कोई अन्य संस्कृति विषयक माँग हिंदू संस्कृति का इतिहास, भाषा, वंश तथा धर्म आदि की दृष्टि से विरोधक, अपमानकारक है तथा हम लोगों को कुचलने के लिए ही की जाती रही है। अल्पसंख्यकों को अपने धर्म का पालन करने, अपनी भाषा बोलने तथा स्वयं तक मर्यादित रखते हुए अपनी संस्कृति विकसित करने की स्वतंत्रता प्राप्त होगी। परंतु ऐसा करते समय दूसरे समाजों के इसी प्रकार के अधिकारों पर अतिक्रमण नहीं होना चाहिए अथवा सार्वजनिक शांति अथवा नीतिमत्ता को भंग नहीं होना चाहिए। इस न्याय्य शर्त पर यदि मुसलमान हम लोगों का साथ देने के लिए सहमत हैं तो ठीक है। ऐसा न हो सका तो हम लोगों की घोषणाएँ तैयार हैं। (आप लोग साथ दोगे तो आपको साथ लेकर, आप साथ नहीं दोगे तो आपके बिना, परंतु यदि आपविरोध करोगे तो आपका विरोध करते हुए हम हिंदू लोग अकेले ही हिंदुस्थान में स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए सफलता प्राप्त होने तक संघर्ष करते रहेंगे ।)

हम लोगों की विदेश नीति भी स्पष्ट तथा शुद्ध हिंदू दृष्टि से ही निर्धारित की जाएगी । जो राष्ट्र हिंदू राष्ट्र से मैत्री का व्यवहार करेंगे तथा जो उसे सहायता देने की स्थिति में होंगे उन्हें मित्र तथा सहकारी समझा जाएगा । इससे विपरीत जो हिंदू राष्ट्र का विरोध करेंगे अथवा हिंदुओं के हितसंबंधों के लिए बाधक सिद्ध होंगे उन सभी का हम लोग विरोध करेंगे । इसके अतिरिक्त जो तटस्थ रहेंगे उनसे हम उसी प्रकार का व्यवहार करेंगे, फिर वे स्वयं किसी भी राजनीतिक मतों के प्रभाव में क्यों न हों । हम लोगों की विदेश नीति निर्धारित करते समय हम लोग लोकतंत्र, राष्ट्रीय समाज सत्तावाद अर्थात् नाजीज्म, फासिज्म आदि व्यर्थ घोषणाओं का विचार नहीं करेंगे । हिंदुओं का हित ही हम लोगों की कसौटी होगी । खिलाफत, पैलेस्टाइन, अरबों की समस्या आदि भ्रमोत्पादक विषयों पर व्यर्थ विचार करते हुए उन्हें सहानुभूति दिखाने का आत्मघाती कार्य हम नहीं करेंगे । इंग्लैंड से भविष्य में जो संबंध स्थापित करेंगे वे हिंदू हित अर्थात् हिंदू राष्ट्र के पूर्ण स्वातंत्र्य का विचार करने निर्धारित किए जाएँगे

अल्पसंख्य समाज के विषय में हम लोगों के विचार

आज की स्थिति का विचार करने पर यह प्रतीत होगा कि इसमें भिन्न-भिन्न भाव प्रदर्शित होंगे । मुसलमान, ख्रिस्ती अथवा हिंदवासी यूरोपियन इनमें से हम लोग किसी का भी द्वेष नहीं करते इस प्रकार का आश्वासन हिंदुओं द्वारा उन्हें दिया जाएगा । परंतु इसी के साथ इस अल्पसंख्यक समाज में हिंदुओं को हीन मानने अथवा उन्हें कष्ट देने का साहस तो कोई नहीं कर रहा है यह बात भविष्य में हिंदू समाज जागरूक रहकर देखता रहेगा ।

पारसी लोग वंश, धर्म, भाषा, संस्कृति आदि की दृष्टि से हम लोगों के बहुत निकट हैं । वे हिंदुस्थान से कृतज्ञतापूर्वक एकनिष्ठ रहे हैं तथा हिंदुस्थान को ही वे अपना एकमेव घर मानते हैं । दादाभाई नौरोजी जैसे सर्वश्रेष्ठ देशभक्त तथा कामाबाई जैसे क्रांतिकारी उनमें पैदा हुए हैं । उन्हें संयुक्त हिंदी राष्ट्र में सम्मिलित किया जाना चाहिए तथा उन्हें संपूर्ण अधिकार प्रदान करते हुए उन्हें एक प्रकार सम्मिलित किया भी जाएगा ।

ख्रिस्ती अल्पसंख्यक समाज शांतिप्रिय है तथा देश के बाहर के लोगों से संबंध प्रस्थापित कर हिंदुस्थान विरोधी राजनीतिक चाल वह नहीं चलता । भाषा तथा संस्कृति की दृष्टि से वह हिंदू विरोधी नहीं है । अतः उसे भी राजनीतिक दृष्टि से हम लोगों को समाविष्ट करना पड़ेगा । हम लोगों में केवल धर्म के बारे में ही भेद है । उनके धर्म के अनुसार परधर्मियों को अपने धर्म में लाने के लिए प्रयास किए जाते हैं । अतः धर्म के विषय में हिंदुओं को सतर्क रहकर उनके धर्म प्रचारकों को अपना आंदोलन चलाने के लिए अंधे होकर अवसर नहीं देना चाहिए अर्थात् विचारपूर्वक किए गए धर्मांतरण की समस्या इससे भिन्न है । परंतु उसी तात्त्विक विचार से हिंदुओं को भी ख्रिस्ती बने हुए हिंदुओं को पुनः हिंदू बनाने का कार्य जारी रखना होगा । अर्थात् शुद्धीकरण का आंदोलन चलाना चाहिए । ख्रिस्ती लोगों में हिंदुओं के विरोध में कार्य करने की घटना त्रावणकोर में जन्म ले रही है । अत: वहाँ हिंदुओं को पूर्ण विश्वास के साथ (राजनीतिक दृष्टि से) व्यवहार नहीं करने देना चाहिए । अन्य प्रांतों के ख्रिस्ती लोगों के समान वे जब तक हिंदुओं की दृष्टि से असंदिग्ध नहीं हो जाते, उन्हें राजनीति में अधिक अवसर प्रदान करना उचित नहीं होगा ।

यहूदियों का विचार किया जाए तो प्रारंभ में ही प्रतीत होता है कि उनकी संख्या अत्यल्प है । उन्होंने राजनीतिक अथवा सांस्कृतिक दृष्टि से हिंदुओं को कभी किसी प्रकार का कष्ट नहीं दिया है तथा वे प्रमुख रूप से धर्मांतरण करानेवाले भी नहीं हैं । उन्हें जब आश्रय देनेवाला कोई नहीं था तब हिंदुओं ने उन्हें आश्रय दिया था । इस बात का स्मरण करते हुए वे हिंदुओं के साथ स्नेहपूर्ण आचरण करना चाहते हैं । अर्थात् हिंदुओं द्वारा उन्हें संयुक्त हिंदी राष्ट्र में समाविष्ट किया जा सकता है ।

परंतु हम लोगों के पूर्वजों ने अहिंदी समाज को पृथक् उपनिवेश बनाने देने में जो भूल की थी उसकी पुनरावृत्ति नहीं की जानी चाहिए । हिंदुस्थान के बाहर यहूदियों से सहानुभूति दिखाते हुए उन्हें नए उपनिवेश बनाने देने की कांग्रेस की वर्तमान नीति का विरोध किया जाना चाहिए । हिंदुस्थान हिंदुओं की ही भूमि बनी रहना चाहिए । हिंदुओं की बढ़ती जनसंख्या के लिए हिंदुस्थान में कई स्थानों पर उचित अवसर प्राप्त नहीं होते । ऐसी स्थिति में बाहर के अहिंदू लोगों को आमंत्रित कर उन्हें विरल जनसंख्या के क्षेत्रों में बसाने की कल्पना कितनी भ्रांतिपूर्ण है ! जनसंख्या को नियंत्रित करने हेतु एक ओर से संतति नियमन की शिक्षा समाज को देते हुए दूसरी ओर कई स्थानों पर उपनिवेश बनाने हेतु बाहर के यहूदियों को आमंत्रित करनेवाले अनेक राष्ट्रीय सभावालों की बुद्धिमत्ता की जितनी प्रशंसा की जाए उतनी कम ही होगी ।

इसलिए कोचीन राज्य के सम्माननीय दीवान को हम लोगों को आग्रहपूर्वक कहना होगा कि 'महाशय ! त्रावणकोर के इतिहास से उचित सबक सीखिए । बाहर के यहूदी लोगों को कोचीन की भूमि पर उपनिवेश बनाने हेतु आमंत्रित करने की योजना का तथा बाहर से ऐसा करने के लिए आग्रहपूर्वक कहनेवालों का विरोध कीजिए ।'

अब मुसलमानी अल्पसंख्यक समाज ही शेष बचा है । इस विषय का संपूर्ण विवेचन में पूर्व में ही कर चुका हूँ । पुनः संक्षेप में इतना ही कहा जा सकता है कि उस समाज की ओर हम लोगों को सभी पक्षों का विचार करते समय संदेह की दृष्टि से ही देखना चाहिए । किसी भी समाज के किसी भी व्यक्ति से समानता की भूमिका के अनुसार जिस प्रकार का व्यवहार किया जाना चाहिए उस प्रकार का व्यवहार उनसे भी किया जाना आवश्यक है । परंतु अन्य लोगों को प्राप्त न होनेवाली सुविधा राजनीतिक अथवा सांस्कृतिक संबंध में उन्हें कठोरतापूर्वक न देना भी आवश्यक है । हिंदुस्थान के स्वतंत्रता संग्राम में हम लोग व्यस्त हैं, तब स्वतंत्रता प्राप्त होने के बाद भी उन्हें हम लोगों को संदेह के परे नहीं मानना चाहिए ।

हिंदुस्थान की उत्तर-पूर्व सीमा प्रांतों का संरक्षण साहसी हिंदू सैनिक उचित रूप से कर रहे हैं अथवा नहीं, इस बात पर ठीक से ध्यान दिया जाना चाहिए । अन्यथा हिंदी मुसलमान सिंधु नदी के पार रहनेवाले बाहरी मुसलमानी राष्ट्रों से मिलकर विश्वासघात से हिंदुस्थान को पुनः अहिंदू शत्रुओं के अधीन करने का संकट उत्पन्न करेंगे ।

बिल्ली के गले में घंटी कौन बाँधेगा ?

मेरा यह कथन सुनते समय तथा आगे चलकर हिंदू समाज की कार्यनीति के प्रभाव से यहाँ उपस्थित हिंदू संघटनवादियों के मन में एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न बड़ी व्याकुलता उत्पन्न कर रहा होगा । वह प्रश्न है 'बिल्ली के गले में घंटी कैसे बाँधे ?' हिंदुओं की यह कार्यनीति किस प्रकार आचरण में लानी होगी ? और इसके लिए साधन किस प्रकार जुटाने होंगे ? हम लोगों का वर्तमान संघटन आंदोलन दुर्बल है, उसे कुचलने के प्रयास किए जा रहे हैं । ऐसी अवस्था में हम लोगों के विचारों के अनुकूल घटनाएँ होंगी ऐसी सबल स्थिति निर्माण करने का सामर्थ्य हम लोगों को किस समय प्राप्त होगा ? परंतु मित्रो, इस कारण आप लोगों को दुःखी होने का कोई कारण दिखाई नहीं देता । इस प्रकार की सामर्थ्य प्राप्त करने की प्रभावी हथियार हम लोगों के पास है । जरा हाथ बढ़ाकर देखिए, वह आपके हाथ में आ जाएगा । तो फिर हम लोग मूल से ही प्रारंभ करते हैं । आज जो राजनीतिक सत्ता हमें उपलब्ध हो रही है उसे हाथ में लेते हैं ।

वर्तमान राज्य घटना के अनुसार नगरपालिका, जिलामंडल तथा विधिमंडल आदि में हम हिंदू लोगों को जो स्थान दिए गए हैं उन सभी स्थानों पर हम हिंदू हैं संघटनवादियों ने अधिकार कर लिया तो हिंदू आंदोलन को इतना बड़ा प्रोत्साहन प्राप्त होगा कि आज की इस बुरी अवस्था से निकलकर वह एक बलशाली स्थिति में पहुंच जाएगा । अब आप मिलकर कहेंगे कि आप तो हम लोगों को और भी अधिक ऊँची छलाँग लगाने के लिए कह रहे हैं । हिंदुओं को प्राप्त होनेवाली संपूर्ण राजनीतिक सत्ता पर हम लोग किस प्रकार अधिकार कर सकेंगे ? परंतु महाशय । इसका यही जवाब है कि हिंदुओं को जो सत्ता प्राप्त हुई थी वह हम लोगों ने ही आत्मविस्मरण के आवेग में कांग्रेसवादियों को प्रदान करने की पहल की थी ।

क्या हम हिंदुओं ने ही कांग्रेस का वर्तमान स्वरूप स्थापित नहीं किया है ? परंतु जिन हिंदुओं के कारण कांग्रेस हिंदुस्थान के सात प्रांतों में सत्ताधारी बनी है उन्हीं हिंदुओं के विरोध में आज वह खड़ी है । हिंदू राष्ट्र की कल्पना तक उसे असह्य हो रही है । हिंदू महासभा को जातीय संस्था निरूपित करते हुए लाखों कांग्रेसनिष्ठ हिंदुओं ने इस संस्था से किसी प्रकार का संबंध न रखने के लिए आदेश भी जारी किया है (और ऐसा भी घोषित कर सकते हैं कि हिंदू संघटन का आंदोलन ही कांग्रेस विरोधी राष्ट्रद्रोही होने जैसा महान् अपराध है), क्योंकि उन्होंने हिंदी देशाभिमान की भ्रांतिपूर्ण विचारधारा अपनाई है; परंतु आज कांग्रेस हम लोगों की तुलना में बहुत बलशाली बन चुकी है तथा जो राजनीतिक सत्ता वास्तविक रूप से हम हिंदुओं के अधिकार में थी उसे पुनः प्राप्त करना बहुत कठिन बन चुका है ।

संपूर्ण हिंदुस्थान के प्रत्येक हिंदू संघटनवादी के समक्ष यह कठिनाई हौआ बनकर खड़ी है । कांग्रेस का आज का स्वरूप किसी हिंदू विरोधी मजबूत मोरचे के समान हो चुका है, यह सच है; परंतु मैं आप लोगों को विश्वासपूर्वक कहना चाहूँगा कि यह केवल एक चित्र है और परदा हटाने पर यह चित्र नष्ट हो जाएगा ।

कांग्रेस का बहिष्कार कीजिए तब उनको होश आएगा !

कांग्रेस के हाथों में जो राजनीतिक सत्ता है वह छीनकर तथा हिंदू संघटन का विरोध करने की उसकी सामर्थ्य स्पष्ट दिखा देने का काम करने के पश्चात् हम लोगों को स्पष्ट शब्दों में यह घोषित करना चाहिए कि राष्ट्रीय सभा का, उसके नेताओं का अथवा अनुयायियों का धिक्कार करने का बीड़ा हम लोगों ने नहीं उठाया है । कांग्रेस अपने जन्म से आज तक एक हिंदू संस्था है और उसको वर्तमान स्थिति एवं विकास हिंदू व्यक्ति, हिंदुओं के धन तथा हिंदुओं के ही स्वार्थत्याग आदि पर आधारित है, मुहम्मद अली जिन्ना का यह कथन पूर्णतः सत्य है । कांग्रेस के आज के अधिकांश नेता राष्ट्राभिमानी हैं । वे भूल कर रहे हैं, परंतु उन्हें दुष्ट नहीं कहा जा सकता । वे लगभग सब-के-सब हम लोगों के रक्त-मांस से बने हैं ।

कांग्रेस में जो थोड़े मुसलमान नेता हैं उन्हें हिंदू नेताओं के आत्मघाती भ्रांतमतित्व के के कारण कांग्रेस पर प्रभाव जमाने का अवसर प्राप्त हो जाता है । परंतु ये नेता केवल नाम के नेता हैं तथा 'संयुक्त हिंदी राष्ट्र' का झूठा आभास दिखाने के लिए ही उन्हें वहाँ स्थान दिया गया है । हम लोग संस्था के रूप में कांग्रेस का धिक्कार नहीं करना चाहते । परंतु उसके हिंदू विरोधी नीति के लिए उन्हें फटकार लगाना चाहते हैं, ताकि सत्य, विशुद्ध सत्य, एकमेव अद्वितीय सत्य के नाम से सीना तानकर चलने के उनके दंभ से इसे मुक्त कराना है । सत्य के समान अनत्याचार के साथ लाठियों तथा ब्रिटिश संगीनों के प्रहार सहन करने का विचारपूर्वक किया हुआ व्रत अथवा संकल्प तथा विशुद्ध शांति पाठ का अंगीकार करने का पागलपन करते हुए जो दांभिक आचरण किया जा रहा है उससे भी हम लोगों को ही उसे मुक्त कराना होगा ।

सारांश में ऐसा कहना पड़ता है कि आज की स्थिति में कांग्रेस हम लोगों को संस्था नहीं है तथा हिंदुओं का प्रतिनिधित्व करने का उसे किसी प्रकार का अधिकार नहीं है । उसी के व्यवहार के कारण हम लोग ऐसा कहने के लिए बाध्य हुए हैं । उनके नेताओं ने हिंदू समाज तथा हिंदू महासभा को जो चुनौती मूर्खता के कारण दी है उसे स्वीकार करना हम लोगों के लिए आवश्यक हो चुका है ।

मेरे हिंदू संघटनवादी बंधुओ ! जरा सोचकर बताइए कि कांग्रेस को जो इतना महत्त्व प्राप्त हुआ है वह किस कारण ? हिंदुओं द्वारा किए गए भरण-पोषण के कारण ही इस बात पर ध्यान दीजिए कि कांग्रेस को अनुयायी, धन तथा मत आदि सारी चीजों की आपूर्ति हिंदुओं द्वारा ही की जा रही है । यह आपूर्ति बंद कर दीजिए । कांग्रेस ने हिंदू विरोधी नीति अपनाई है और आज वह जो अभेद्य मानी जा रही है तो वह तत्काल धराशायी हो जाएगी ।

वर्तमान समय में विधिमंडलों और प्रधानमंडल में बहुमत की शक्ति के कारण कांग्रेस को जो महत्त्व व राजनीति सत्ता प्राप्त हुई है वह केवल हिंदू मतदाता संघों के समर्थन के कारण ही प्राप्त हुई है । मुसलमानों का एक भी मत कांग्रेसनिष्ठ हिंदुओं को प्राप्त होने की संभावना नहीं है, क्योंकि यह राज्य घटना ही जातिनिष्ठ है । केवल मुसलमान ही मुसलमान को अपना मत दे सकता है । ख्रिस्ती किसी ख्रिस्ती को तथा अन्य किसी जाति का मतदाता केवल अपने जाति बांधव को ही अपना मत दे सकेगा । कांग्रेसनिष्ठ लोग भी हिंदू ही हैं- हिंदुओं के मतों पर ही वे विधिमंडल, नगरपालिकाओं, जिलामंडल आदि संस्थाओं में चुनकर जाते हैं । अतः कांग्रेस के किसी भी प्रतिनिधि को मत न देने का निर्णय यदि हिंदुओं ने किया तो एक भी कांग्रेसनिष्ठ व्यक्ति विधिमंडल आदि संस्थाओं में चुकर नहीं जा सकता । कांग्रेसनिष्ठ सज्जन हिंदू के रूप में ही हिंदुओं के कंधों पर खड़े होकर इन मंडलों के उच्च स्थान तक प्राप्त कर लेते हैं और एक बार वह वहाँ पहुँच गए कि वे हिंदुओं को लात मारकर दूर हटा देते हैं। इन लोगों से हम लोगों का कोई नाता नहीं है ऐसा कहकर हिंदुओं की संस्थाओं को जातिनिष्ठ तथा इसी कारण दोषपूर्ण निरूपित करते हैं। वे कदम-कदम पर हिंदुओं से विश्वासघात करते हैं और मुसलमानों के इर्दगिर्द पूँछ हिलाते हुए नाचते हैं! परंतु यदि हम हिंदू लोगों ने उन्हें अपने कंधों का जो आधार दिया है उसे निकाल लेंगे तो कांग्रेस की वह राजनीतिक सत्ता तथा राजनीतिक महत्त्व मृतवत् हो जाएगा।

कांग्रेसवालों की हर बात जातिनिष्ठ होती है

मुसलमान, ख्रिस्ती, यूरोपियन आदि अल्पसंख्यकों को उन्होंने सुरक्षा का पूर्ण आश्वासन दिया है। इसे क्या देशाभिमान कहना होगा? सच्चा हिंदी देशभक्त वही है जो मुसलमान अल्पसंख्यक तथा हिंदू बहुसंख्या में भेद नहीं जानता। उसको नजरों में सभी हिंदी ही होते हैं। परंतु यदि धर्मबद्ध या जातिबद्ध समाज की ओर ध्यान देना उन्हें आवश्यक प्रतीत होना हो तो वे हिंदू समाज की ओर ध्यान देने से क्यों कतराते हैं? और इस प्रकार का आचरण करनेवालों को हेय क्यों समझते हैं ? यदि कोई वास्तविक अर्थ से राष्ट्राभिमानी है तथा ईमानदार भी है तो वह मुसलमान, ख्रिस्तीतर आदि जातीय नाम से ज्ञात मतदाता संघों के पास याचना करने कदापि नहीं जाएगा। क्योंकि इस प्रकार के मतदाता संघ को मुसलमान संघ, मुसलमानेतर संघ, ख्रिस्ती संघ, सामन्येतर संघ, विशिष्ट संघ आदि खंडों में विभाजित नहीं किया जा सकता। वास्तविक हिंदी राष्ट्रीय मतदाता संघ को अराष्ट्रीय जातिनिष्ठता की अथवा धर्मनिष्ठा की बू तक नहीं आनी चाहिए।

राष्ट्रीय सभावाले यदि सचमुच 'हिंदी राष्ट्रीय' हैं तो वर्तमान समय के जातिनिष्ठ मतदाता संघों से चुनाव लड़ना ही उन्हें अस्वीकार कर देना चाहिए तथा जातिनिष्ठ होने का कलंक धारण करनेवाले स्थान भी तत्काल त्याग देने चाहिए। इस प्रकार अपना कलंकित जातिनिष्ठ स्थान त्याग देने का जोखिम उठानेवाला एक भी राष्ट्रीय सभावाला प्रमुख मंत्री अथवा सभासद विद्यमान है? नहीं, कदापि नहीं। इस बारे में बात करना भी व्यर्थ है।

'हिंदी'कांग्रेसवाला चुनकर आता है और हिंदुओं से विश्वासघात करता है

आगामी चुनाव के समय जब यह सज्जन आपके घर पर मत याचना करने पहुँचेंगे तब आप उन्हें विनयपूर्वक तथा ईमानदारी से कह दीजिए कि हे कांग्रेसनिष्ठ महाभाग! आप हिंदी राष्ट्रभिमानी हो तथा मैं हिंदू हूँ और मेरा मतदाता संघ भी हिंदू हैं। आप मेरा जातिनिष्ठ कलंकित मत किस प्रकार ले सकेंगे! आप कृपया वास्तविक हिंदी राष्ट्राभिमानी मतदाता संघ के पास ही जाइए और यदि इस प्रकार का मतदाता संघ आपको कहीं भी नहीं दिखाई देता है तो वास्तविक हिंदी राष्ट्रीय संघ अस्तित्व में आने तक आप रुकिए। क्या ऐसे ईमानदार कांग्रेस भक्त, जिनकी गिनती हाथ की अँगुलियों पर की जा सकती है, विद्यमान होंगे? नहीं, कदापि नहीं। दूसरी बात यह है कि चुनाव में खड़े होनेवाले हर व्यक्ति को अपना धर्म, जाति आदि लिखित रूप में देना पड़ता है तथा उसका नाम हिंदू, मुसलमान, ख्रिस्ती आदि भिन्न-भिन्न संघों में रखा जाना है। कांग्रेसनिष्ठ हिंदू उम्मीदवार चुनाव के समय अपनी जाति हिंदू है यह काम चुपके से लिख देते हैं तथा घरों को भी ब्राह्मण, मराठा, भंगी आदि जातिवाचक नाम देकर उनकी ओर इच्छुक व्यक्तियों को भेजते हैं। जाति के नाम पर पर्याप्त मत प्राप्त करना ही इसका उद्देश्य होता है। जाति का अभिमान तथा अन्य जातियों से द्वेष आदि भावनाओं का भी वे यथासंभव उपयोग करते हैं।

चुनाव के समय वे कट्टर जातिनिष्ठ होते हैं, परंतु जैसे ही चुनाव संपन्न हो जाते हैं ये कांग्रेस भक्त हिंदी राष्ट्रीयत्व का पहनावा पुनः धारण करते हुए-हिंदुओं को स्वयं को हिंदू कहलाना कितना लज्जास्पद है-ऐसा कहकर जिन हिंदुओं के पास जाकर उन्होंने मत याचना की थी उन्हीं का हिंदू सभा का सभासद बन जाने पर मखौल उड़ाते हैं!

परंतु यदि आप लोग इन्हें स्पष्टतः यह दरशा देंगे कि आप लोग हिंदू होने के कारण अपना मत इन्हें कदापि नहीं देंगे; हिंदू के रूप में जनमे, इसी रूप में बड़े हुए तथा चुनावों के पश्चात् भी हिंदू समाज से ईमानदारीपूर्वक हिंदुत्व के नाते से व्यवहार करनेवाले व्यक्ति को ही देंगे अर्थात् इस सज्जन को एक बार निश्चित रूप से यह समझ में आ गया कि हिंदू महासभा का सदस्य बने बिना वे हिंदुओं के मतों से कभी भी चुनाव नहीं जीतेंगे, तब कौन सी विचित्र घटना होगी ऐसा आप लोग सोचते हैं? मैं आप लोगों को निश्चित रूप से कह सकता हूँ कि इन कांग्रेसनिष्ठ हिंदी राष्ट्राभिमानियों के कम-से-कम ७५ प्रतिशत सज्जन हिंदू महासभा के सदस्य बनने हेतु रातोरात भागते हुए उपस्थित होकर आज़न्म हिंदू कहलाने की प्रतिज्ञा करेंगे, क्योंकि मंत्रिमंडल की सदस्यता अथवा शासकीय कार्य में कुछ पद प्राप्त करने का अवसर छोड़ देना उन्हें गवारा नहीं होगा।

पहले कांग्रेस का बहिष्कार कीजिए

राष्ट्रीय सभा का राष्ट्रीयित्व का व्यर्थ पागलपन दूर करने का, उसे सही मार्ग पर लाने का हिंदू समाज की योग्यता तत्काल बढ़ाने का और उसे समर्थ बनाने का अत्यधिक सरल एवं एकमात्र रास्ता आज की स्थिति में यही है -

1. कांग्रेस का बहिष्कार करना।

2. कांग्रेस के गुट के किसी भी व्यक्ति को मत नहीं देना।

3. कट्टर, योग्य तथा गुणी हिंदू राष्ट्रवादी को मत देना।

एक भी हिंदू संघटनवादी को कांग्रेस के लिए एक पाई भी नहीं देनी चाहिए। उसका एक भी सदस्य नहीं बनना चाहिए तथा एक भी मत नहीं देना चाहिए। हम लोग अपने अनुभव के आधार पर यह जानते हैं कि कट्टर हिंदू भी जब कांग्रेस में प्रवेश करता है तब उसे भी हिंदू विरोधी बनना पड़ता है; परंतु हिंदुओं के बजार में कांग्रेसी टोपी का महत्त्व बहुत घट जाता है। यह बात कांग्रेसनिष्ठों की समझ में आने पर तथा विधिमंडल अथवा स्थानीय संस्थाओं का सभासद बनने के लिए कांग्रेसी होना आवश्यक नहीं है,ऐसा निश्चित रूप से पता चल जाने पर हिंदू टोपियाँ भी शीघ्र सभी धारण करना प्रारंभ करेंगे और हिंदू सभा के टिकटों की भी अत्यधिक माँग होने लगेगी।

खाने के लिए हम और लड़ने के लिए मेरा बड़ा भाई हिंदू !

संक्षेप में कहा जाए तो स्थिति इस प्रकार की है कि मुसलमानों के हितोंकी रक्षा करने के लिए मुसलमानी मतदाता संघ है। उसी प्रकार हिंदू मतदाता संघ भी है, परंतु हिंदुओं को चिढ़ाने के लिए उन्हें सामान्य संघ कहा जाता है। तब भी उसका उपयोग हिंदुओं के हित रक्षण के लिए किया जा सकता है। तीन प्रांतों में मुसलमानों का बहुमत होने के कारण जो मुसलमान मुसलमानों के हितों की रक्षा करेंगे उन्हें ही चुनाव में विजयी बनाया जाएगा। हम हिंदू लोग अन्य सात प्रांतों में बहुतसंख्यक हैं, परंतु हम लोगों ने अपने मत उन लोगों को देने की भूल की जो लोग हिंदुओं के न्याय्य हितों की रक्षा करने का वचन नहीं देते तथा जो प्रकट रूप से हिंदू विरोधी हैं।

इसके परिणामस्वरूप हम बहुसंख्य हैं। उन सात प्रांतों में भी तीन मुसलमान प्रांतों के समान हिंदुस्थान में सर्वत्र हिंदुओं को दास बनना पड़ रहा है। बंगाल तथा सीमा प्रांत जैसे क्षेत्रों में हिंदुओं के जान-माल के लिए सभी समय धोखा उत्पन्न हो रहा है तथा उनकी स्त्रियों की दुर्दशा हो रही है। इस प्रकार गत पचास वर्षों से कड़ा संघर्ष करते हुए, स्वार्थ त्याग करते हुए हिंदू देशभक्तों ने जो कुछ राजनीतिक सत्ता प्राप्त की है और जो नगण्य नहीं कही जा सकती, हम हिंदू लोगों ने वह कृष्णार्पण कर दी। मुसलिम दीवान प्रकट रूप से मुसलिम लीग के सदस्य बन सकते हैं, इसके अतिरिक्त वे नेता भी बन सकते हैं तथा मुसलमानों के हितों का रक्षण करने की गारंटी भी दे सकते हैं। इसके अतिरिक्त हिंदुओं के सताने को धमकियाँ भी वे दे सकते हैं तथा बंगाल में ६० प्रतिशत शासकीय नौकरियाँ मुसलमानों के लिए आरक्षित होनी चाहिए-ऐसा भी वे पारित कर सकते हैं। अब हिंदुओं के हित संरक्षणार्थ हिंदू मतदाता संघ से विधिमंडल के लिए चुने गए कांग्रेसनिष्ठ हिंदू मंत्रियों तथा सदस्यों ने किस प्रकार का आचरण किया इसे देखिए। उन्होंने बंगाल में मुसलमानों के लिए आरक्षित स्थानों के लिए अपनी सहमति जताई। मुसलमानों के पक्षपाती जातीय निवाडा (कम्युनल अवार्ड) भी मान्य कर लिया तथा इसके विरोध में आंदोलन चलानेवाली हिंदू सभा का निषेध किया। जब-जब मुसलमानों द्वारा हिंदुओं के हितसंबंधों पर आघात किया गया तब-तब उन्होंने मुसलमानों का ही समर्थन किया और यह सब किसलिए? केवल यह बताने के लिए कि हम लोग हिंदी देशभक्त हैं, हिंदू नहीं हैं।

परंतु इस प्रकार की अराष्ट्रीय व मुसलमानों की पक्षपाती नीति तथा वृत्ति भी जातीय निष्ठा का ही लक्षण था। हिंदुओं के मतों पर विजय पाकर चुने जानेवाले कांग्रेसनिष्ठ व्यक्ति के लिए तो इस प्रकार का आचरण निंदाजनक है ही, साथ ही यह एक विश्वासघात भी था।

हिंदुओं का मजबूत संघटन बनाओ

कांग्रेस की हिंदू विरोधी तथा अराष्ट्रीय प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने का एकमात्र उपाय है (आज की स्थिति का विचार करते हुए) हिंदू राष्ट्रीय मोरचा बनाना हम सभी लोगों को अर्थात् साधु, सनातनी, आर्यसमाजी, संघटनवादी संघ आदि को कांग्रेसनिष्ठ व्यक्ति को अपना मत न देते हुए अपना मत केवल हिंदू राष्ट्रवादी व्यक्ति को ही देने का निर्णय करना चाहिए। आज यदि इस पक्ष के मतदाताओं की गिनती की जाती है तो उनकी संख्या कई लाख तक पहुँच जाएगी। तब हिंदुओं के बहुमतवाले सभी प्रांतों में हम लोगों को विधिमंडलों में हिंदुओं का बहुमत निसंदिग्ध रूप से स्थापित करना संभव होगा। कुछ स्थानों पर हिंदुओं की मूर्खता के कारण इस प्रकार के बंघ न बन सके तो भी हिंदू एक मजबूत अल्पसंख्यक अवश्य बन पाएँगे। अतः किसी भी पक्ष को हिंदुओं से समर्थन प्राप्त किए बिना काम करना कठिन होगा।

यदि हम लोग इतना कर सकें तो हमारे वास्तविक हिंदू प्रधानमंडल बन जाएँगे, अर्थात् राष्ट्रीय हिंदू प्रधानमंडल तथा सात प्रांतों में हिंदुओं के हितों की रक्षा करने का मार्ग खुल जाएगा।

ऐसा होने पर हिंदुओं के कार्य के महत्त्व में वृद्धि होकर हिंदू महासभा को देश की सर्वसमर्थ राजनीतिक सभा का स्थान प्राप्त होगा। तत्पश्चात् हिंदुत्व का वास्तविक लाभ प्राप्त होने की बात अपनी समझ में आ जाएगी। हिंदू सभा का वर्तमान समय का उपेक्षित स्वरूप परिवर्तित होकर उसे हिंदुस्थान का भविष्य बनानेवाली महत्त्वपूर्ण संस्था का स्थान प्राप्त होगा। अपने महत्त्व का ज्ञान होने पर प्रत्येक हिंदू अपना मस्तक उठाकर तथा सीना तानकर चल सकेगा। क्योंकि उसे यह ज्ञात रहेगा कि उसे शासकीय सत्ता का समर्थन प्राप्त है। इस करण उसे भविष्य में धार्मिक, जाति विषयक तथा सांस्कृतिक आदि सभी प्रकार के अपने अधिकारों का रक्षण करना संभव होगा तथा उनका प्रयोग भी वह कर सकेगा।

यदि किसी हिंदू युवती को किसी भी स्थान पर मुसलमान गुंडों द्वारा सताया जाता है तो उन्हें तत्काल इतनी कड़ी सजा दी जाएगी कि कोई भी अन्य गुंडा इस प्रकार दूसरी हिंदू युवती को कही भी स्पर्श करने में भी भय का अनुभव करेगा। जिस प्रकार किसी अंग्रेज युवती से छेड़छाड़ करने में उसे भय लगता है उसी प्रकार हिंदू युवती से छेड़छाड़ करना भी उसे भयकारक प्रतीत होगा। मुसलमानों की धर्म विक्षिप्तता के कारण हिंदुओं पर जुल्म किए जाने के फलस्वरूप यदि उन्हें अपने नागरिकता के अधिकार खो देने का प्रसंग उत्पन्न होता है तो सशस्त्र पुलिस तथा सेना को इन दंगाइयों पर तत्काल काररवाई करने हेतु अधिकृत किया जाएगा तथा इस काररवाई के कारण मुसलमानी दंगा केवल एक ऐतिहासिक घटना बनी रहेगी। राजमार्ग पर स्थित मसजिदों के सामने वाद्यवादन करने की घटनाएँ मुसलमान लोग इतनी सहजता से सहन करेंगे कि ऐसा लगेगा कि वह अंग्रेजी अथवा शासकीय जुलूसों में होनेवाला बैंडवादन ही है!

कृषकों तथा मजदूरों को राष्ट्रीय जीवन के उद्योगों एवं व्यापार का आधार होने के कारण जो उचित प्राप्य होगा वह सब उन्हें प्राप्त होगा। हिंदुओं की भाषा तथा लिपि सुरक्षित रहेगी। हिंदुओं का जातीय धर्म भी सुरक्षित रहेगा तथा अहिंदुओं की ओर से हिंदुओं पर धर्मांतरण करने का प्रयास कदापि सहन नहीं किया जाएगा। एकता के लिए हिंदुओं को मुसलमानों के सामने दामन फैलाकर याचना नहीं करनी पड़ेगी। क्योंकि स्वयं के स्वार्थ त्याग से हिंदी स्वातंत्र्य प्राप्त करने का सामर्थ्य हिंदुओं के पास होगा। इस विश्वास से हिंदू राष्ट्रीय संख्या स्वातंत्र्य के मार्ग में अवरोध उत्पन्न करनेवाले किसी भी अहिंदू समाज को दूर हटाने के लिए अग्रसर होगी। बलशाली हिंदू राष्ट्र की कल्पना मात्र से हिंदू समाज की वीरता में वृद्धि होगी तथा उनमें इतनी कार्यशक्ति उत्पन्न होगी कि जो किसी अन्य प्रकार से उत्पन्न होना संभव नहीं है। मुसलिम बहुल बंगाल में ६० प्रतिशत स्थान मुसलमानों के लिए आरक्षित करने का कानून बनाया गया तो अन्य प्रांतों के राष्ट्रीय हिंदू प्रधानमंडल हिंदूओं की जनसंख्या ८० प्रतिशत होते हुए भी ९० प्रतिशत स्थान हिंदुओं के लिए आरक्षित करेंगे। इस प्रकार से वे विरोध करने लगें तो केवल हिंदू प्रांतों में ही नहीं, मुसलिम बहुल प्रांतों में भी मुसलमान लोग अपना आचरण सुधारने पर विवश हो जाएंगे। इस तरह हिंदुओं के अधिकारों एवं शील की रक्षा भी हो सकेगी।

हिंदुओं पर किए गए अन्याय की प्रतिक्रिया अंततः अपने पर ही होनी है, इस बात को समझने के पश्चात् मुसलमानों का आचरण ठीक हो जाएगा और वे स्वयं एकता के लिए हिंदुओं से संवाद करने की पहल करेंगे। हम लोग हिंदुस्थान में वास्तविक रूप से अल्पसंख्यक हैं; हमारे समाज को जबरन धर्मांतरण कराने के सपने नहीं देखने चाहिए-एक बार ऐसा समझ लेने के पश्चात् उनकी मनोवृत्ति अपने आप बदल जाएगी तथा हिंदुओं के न्याय्य अधिकारों को बाधा न पहुँचाते हुए हिंदू-मुसलिम एकता के विषय पर वे बातचीत करना प्रारंभ करेंगे।

जो हिंदुओं के हितसंबंधों के प्रति जागरूक रहेगा उससे हम लोग सहकार्य करेंगे

पंजाब तथा सीमा प्रांत में हम लोगों के सिख बांधवों का पक्ष सहायक पक्ष सिद्ध होगा। आज सिखों का स्वतंत्र मतदाता संघ है। वर्तमान स्थिति में वह उचित ही है।

उनकी और हम लोगों की संस्कृति एक ही है। हम लोग एक-दूसरे से हाथ मिलाकर सीमा पार से होनेवाले अहिंदुओं के आक्रमणों का विरोध करेंगे। यदि हम लोग मध्यवर्ती विधिमंडल में पर्याप्त संख्या में हिंदू राष्ट्रीय व्यक्तियों को चुनकर भेजते हैं तो केंद्रीय शासन को भी सीमा की मुसलमान जाति पर कठोर काररवाई कर उनका इलाज करना पड़ेगा और तत्पश्चात् वह मुट्ठी भर यूरोपियन जिस प्रकार सुरक्षित हैं उसी प्रकार हिंदुओं को भी सुरक्षापूर्वक रहना संभव होगा। महाराष्ट्र में हम लोग लोकशाही पक्ष से सहयोग करेंगे। उनके तथा राष्ट्रीय नीति के आधारस्तंभ श्री जमनालाल मेहता संप्रति मुंबई के विधिमंडल के सरकार विरोधी पक्ष के नेता हैं। उसी प्रकार डॉ. अंबेडकर से भी हम लोग सहयोग करेंगे। अन्य प्रांतों में भी जो पक्ष राष्ट्रीय दृष्टि से हिंदू हितसंबंधों के प्रति जागरूक रहेगा उसके साथ हम लोग सहकार्य करेंगे।

यह संयुक्त राष्ट्रीय संगठन ब्रिटिश साम्राज्यशाही के सामने नष्ट जो जाएगा, इस प्रकार का भय होने का कोई कारण नहीं दिखाई देता। आज की कांग्रेस का संगठन केवल दिखावटी है। वह ताश का महल है। परंतु हिंदुओं का संयुक्त संगटन एक वास्तविक व जीवंत संगठन होगा तथा उसके कारण हिंदू राष्ट्रीय संबंध भी उसी प्रकार के होंगे। सशस्त्र सैन्य हटाकर इस प्रांत का संरक्षण करने की बात सोचनेवाली कांग्रेस की विक्षिप्त नीति का,ऐसा नहीं किया जा सकता इसी कारण तिरस्कार करते हुए वस्तुनिष्ठ व्यावहारिक नीति का अर्थात् हिंदू संयुक्त संगठन नीति का हम लोगों को उपाय करना होगा।

हिंदू बंधुओ! यह बात ध्यान में रखिए कि आप लोग हिंदू राष्ट्रीय संघटन के ध्वज को फहराने में अपने न्याय्य अधिकारों का प्रयोग करते हैं। अतः आप लोग किसी प्रकार का अपराध नहीं करते तथा इस कारण किसी को भी अपमानित नहीं कर रहे हैं। प्रत्येक हिंदू व्यक्ति को अपना मत किसी को भी देने का स्वतंत्र अधिकार प्राप्त हुआ है। अतः जब तक संगीनों का भय दिखाकर आपको आपकी सहमति के बिना मत प्राप्त करने का प्रयास नहीं किया जाता तब तक राष्ट्रीय हिंदुओं को मत देना एक सरल तथा पूर्णतः वैधानिक कार्य है। यदि प्रत्येक हिंदू इस प्रकार आचरण करेगा तो वह हिंदुत्व की रक्षा ही करेगा ऐसा मानना चाहिए।

परंतु यदि हिंदुओं द्वारा आत्मघात की वृत्ति को अपनाया जाता है और हिंदू विरोधी व्यक्ति को मत दिया जाता है तो स्पष्ट है कि ब्रह्मा भी आपकी रक्षा नहीं कर सकेगा।

संयुक्त हिंदू संघटन (मोरचा)

केवल हिंदू संघटनवादी बंधुओ! आप लोगों को यदि ऐसा निश्चित रूप से प्रतीत हो रहा हो कि हिंदुत्व के मार्ग पर अगला कदम बढ़ाना चाहिए तब प्रारंभ से ही इस कार्य को करने की पहल कीजिए। संयुक्त हिंदू मोरचा बनाकर आज जो राजनीतिक सत्ता उपलब्ध है उसे प्राप्त कर लीजिए। केवल राष्ट्रीय हिंदुओं को ही अपना मत दीजिए, इससे सात प्रांतों और केंद्रीय शासन में विद्यमान हिंदू प्रधानमंडलों के केवल दर्शन से ही आप लोगों की स्थानीय समस्याओं का समाधान हो जाएगा। इतना करने पश्चात् आप लोगों को बहुत कुछ प्राप्त होगा। और एक दिन ऐसा आएगा कि आप लोग बलशाली स्वतंत्र हिंदू राष्ट्र के आगमन की घोषणा करेंगे। इस राष्ट्र का आधार होगा संपूर्ण समानता तथा सिंधु नदी के पूर्व समुद्र तक सभी ईमानदार नागरिकों को धर्म एवं वंश का विचार किए बिना समान अधिकार प्रदान करनेवाला बलशाली हिंदी राष्ट्र। क्राइस्ट ने कहा है, 'जिसके पास कुछ थोड़ा सा है उसे अधिक प्राप्त होगा, परंतु जिसके पास कुछ नहीं है उससे जो कुछ उसके पास होगा उसे भी छीन लिया जाएगा। यह व्यावहारिक 'दुविधा का अबाध्य नियम है।' अतः जो कुछ राजनीतिक सत्ता उपलब्ध है उसे प्राप्त कर उसका उपयोग कीजिए। हिंदू राष्ट्र का ध्वज फहराइए हिंदुस्थान सदैव हिंदुओं का राष्ट्र बना रहना चाहिए। पाकिस्तान नहीं होना चाहिए और इंग्लिश्तान तो कदापि नहीं बनना चाहिए।

अखिल भारतीय हिंदू महासभा का इक्कीसवाँ अधिवेशन,कलकत्ता

(विक्रम संवत् १९९६,सन् १९३९)

अध्यक्षीय भाषण

विश्व की समस्त मानव जाति को विभाजित करनेवाले धार्मिक, वंश विषयक, राष्ट्रीय तथा अन्य शत्रुता की भावनाओं को दूर करने के लिए आर्थिक हितसंबंधों का बंधन ही सर्वोत्तम और एकमात्र साधन है-ऐसा कम्युनिस्ट कहते हैं। इस प्रकार के किताबी वैज्ञानिक उपाय का खंडन करते हुए हिंदू राष्ट्र के आर्थिक हितसंबंधों की शुद्ध चर्चा करते समय वीर सावरकर ने कहा है, 'हर व्यक्ति का पेट होता है, परंतु पेट कोई संपूर्ण व्यक्ति नहीं है। पूँजीपति तथा श्रमिकों में कलह पैदा करने से नहीं, अपितु दोनों के हितसंबंधों की उचित रूप से रक्षा करने पर ही राष्ट्र का विकास होगा।' यह सिद्धांत प्रस्तुत करने के पश्चात् उन्होंने यह भाषण किया। यंत्रयुग का हार्दिक स्वागत किया। अहिंदुओं से हिंदू आर्थिक संबंधों पर आक्रमण होने का भय जिस समय उत्पन्न होगा तब उन हिंदू हितसंबंधों की रक्षा करना ही हिंदू संघटनवादी अर्थशास्त्र का उद्देश्य होगा। उनके द्वारा इस प्रकार प्रकट की गई निर्भीक भूमिका ही विधर्मियों के संघटित, जातीय, आर्थिक आक्रमण तथा शोषण से हिंदू राष्ट्र की रक्षा करेगी-ऐसा विश्वास होता है।

हिंदू महासभा के प्रतिनिधियो तथा सदस्यो! लगातार तीसरी बार इस अधिवेशन के अध्यक्ष पद पर मुझे चुनकर-मैंने गत दो वर्षों में हिंदुओं के हित में जो भी कुछ कार्य किया है उसका आप लोग गौरव कर रहे हैं। मैं इसके लिए कृतज्ञ हूँ तथा इसको आदरपूर्वक स्वीकार करता हूँ। आप लोगों की महान् आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए अधिक कार्य करने की आवश्यकता है और मैंने जो कुछ किया है वह इसकी तुलना में कितना नगण्य है मैं इस बात का अनुभव कर रहा है तथा इस विचार से में बहुत दुःखी हो जाता हूँ । इस प्रकार व्यग्र होकर मैं सोचता हूँ कि हिंदुत्व के आंदोलन का भार किसी अन्य बलिष्ठ भीमतुल्य व्यक्ति पर डालकर में सामान्य सैनिकों की पंक्ति में खड़ा हो जाऊँ। मेरी इस इच्छा से आप अनभिज्ञ नहीं हैं; परंतु नेता भी आंशिक रूप से एक सैनिक ही होता है, उसे सार्वजनिक इच्छाशक्ति की आज्ञाओं का पालन करना पड़ता है। यह एक विचार है तथा आज की हम लोगों की पीढ़ी को अत्यधिक विरोधी परिस्थितियों का सामना करते हुए अपने-अपने स्थानों पर अडिग रहकर जो कुछ अल्पस्वल्प कार्य करना संभव हो उसे करते रहना चाहिए। यह अन्य विचार है। उसी प्रकार वर्तमान पीढ़ी के जीवन में ही हिंदुओं का ध्येय प्राप्त करने के लिए राणा प्रताप जैसी निष्ठा से कार्य करेंगे, ऐसा आश्वासन देनेवाले हजारों प्रमुख वीर तथा आत्मीयता से कार्य करनेवाले कार्यकर्ता कार्यक्षेत्र में प्रवेश कर रहे हैं। इसका प्रत्यक्ष दर्शन निजाम निःशस्त्र प्रतिकार के युद्ध में हो चुका है। इस विचार से आप लोगों के प्यार तथा अनुरोध को मानकर मैं तीसरी बार हिंदू महासभा का अध्यक्ष पद स्वीकार करता हूँ।

निजाम निःशस्त्र प्रतिकार का आंदोलन

इस वर्ष में जो घटनाएँ घटीं उनमें हिंदुओं की दृष्टि से सर्वोच्च और हम लोगों के आगामी कार्यक्रम तथा नीति में सदैव सम्मिलित की जानेवाली घटना है-इस वर्ष के पूरे छह माह तक निजामी राज्य के हिंदू विरोधी कार्यनीति का सामना करने हेतु हम लोगों द्वारा चलाया गया निःशस्त्र प्रतिकार का आंदोलन। वह एक धर्मयुद्ध (क्रूसेड) या उतना ही पावन तथा शौर्यपूर्ण घटना थी। हम लोगों के आर्यसमाजी बांधवों को युद्ध की अग्रपंक्ति के आघात सहने पड़े। दस सहस्र से भी अधिक आर्य समाजी इस संघर्ष में प्रविष्ट हुए तथा साहस के साथ इस युद्ध को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने प्रमाणित कर दिया कि वर्तमान समय के अग्रगण्य हिंदू संघटन, दयानंद सरस्वती द्वारा प्रज्वलित किया गया यज्ञ दिन-प्रतिदिन अधिक प्रज्वलित हो रहा है तथा उसका अंगीकृत कार्य योग्य व्यक्तियों के हाथों में ही है। हिंदू महासभा की ओर से पाँच सहस्र प्रतिकारियों ने निजाम निर्मित हिंदू विरोधी कानूनों को भंग करते हुए अद्वितीय साहस तथा प्रशंसनीय कार्यनीति से संघर्ष जारी रखा। इस प्रकार आर्यसमाज तथा हिंदू सभा द्वारा प्रमुख रूप से इस युद्ध का भार उठाया गया; परंतु इससे भी अधिक प्रोत्साहित करनेवाली बात यह है कि केवल आर्यसमाज अथवा हिंदू सभा ही नहीं, सभी हिंदुत्वनिष्ठ हिंदुओं ने हिंदी ध्वज के नीचे सम्मिलित होकर अभिरुचि से इस युद्ध में भाग किया। यदि अखिल भारत के हिंदुओं की त्यागबुद्धि तथा सहानुभूति हम लोगों को प्राप्त नहीं होती तो इस युद्ध को इस प्रकार चलाना हम लोगों के लिए संभव न होता। हिंदू संघटनवादियों ने निजामी सत्ता को जो अपनी माँग मान्य करने पर बाध्य किया तथा इसके अतिरिक्त उपरिनिर्दिष्ट घटना ही मेरे मतानुसार निर्देश योग्य है। यह हम लोगों की स्थायी यश प्राप्ति है, क्योंकि पवित्र हिंदू कार्यार्थ चलाए गए इस धर्मयुद्ध ने यह प्रत्यक्ष रूप से विश्वास दिलाया है कि जाति तथा पंथ संप्रदाय तथा मार्ग भिन्न होते हुए भी सर्वव्यापक हिंदुत्वयुक्त समाज, सामान्य राष्ट्रीय जीवन के साथ अभी भी प्रज्वलित है।

जिन्हें कभी देखा तक न था अथवा जिनसे कोई परिचय भी नहीं था ऐसे निजाम राज्य में रहनेवाले अपने स्वधर्मीय तथा स्वराष्ट्रीय लोगों को मुक्त करने हेतु अपना जीवन दाँव पर लगाकर अपने घर-बार तथा आप्त स्वकीयों का त्याग कर सहस्रों-सहस्र हिंदू दौड़कर वहाँ पहुँचे। पंजाबी तथा सिंधी, बंगाली और बिहारी, मराठे तथा मद्रासी, ब्राह्मण और भंगी, सनातनी, आर्य समाजी, सिख, जैन, लिंगायत, धनिक तथा निर्धन आदि जो हिंदू कहलाने में गर्व का अनुभव करते थे वे सभी केवल एक ही ध्येय से प्रेरित होकर, एक ही समान हिंदू ध्वज के नीचे एकत्रित हुए और हिंदुओं के सम्मान की रक्षा करने के लिए तत्पर हुए। असंख्य आपत्तियों, भय, दंगों, लाठीचार्ज, भूख-प्यास तथा मृत्यु की परवाह न करते हुए आखिरी साँस तक 'हिंदू धर्म की जय' तथा 'हिंदुस्थान हिंदुओं का' आदि घोषणाएँ करते रहे।

उदाहरणार्थ, 'वंदे मातरम्' अथवा 'हिंदुस्थान हिंदुओं का' ऐसी घोषणा करने पर जिन्हें बेंतों के आघात झेलना पड़े, वे श्री रेड्डी अथवा अन्य हिंदू संघटकों की बात लीजिए। बेंत के प्रत्येक प्रहार के साथ ये लोग 'वंदे मातरम्' तथा 'हिंदुस्थान हिंदुओं का' की घोषणा करते रहे। जो अनेक शूर युवक इस प्रकार की यंत्रणाओं का सामना कर रहे थे, उनमें कुमार सदाशिव पाठक नामक सोलह वर्षीय एक महाराष्ट्रीय युवक भी था। सीने में भयंकर दर्द होने की शिकायत कर रहा था। उसे लगातार भारी पत्थर ढोने के लिए कहा गया। तब भी उसने शरण आना अस्वीकार कर दिया और अपने प्राण त्याग दिए। आर्यसमाज तथा हिंदू सभा दोनों ने ही एक संघर्ष का इतिहास प्रकाशित करने का विश्वसनीय संकल्प लिया है। उसमें शौर्य के अनेक उदाहरण हम लोगों को पढ़ने का अवसर प्राप्त होगा। दूर जाने की आवश्यकता नहीं है। इसी मंडप में निष्कलंक चारित्र्य संपन्न तथा साहसी नेता उपस्थित हैं जो हिंदू धर्मनिष्ठा, हिंदू सम्मान एवं स्वातंत्र्य की रक्षा करने के लिए चलाए गए इस धर्म संग्राम में सेनानी अथवा सैनिकों के रूप में हिस्सा लेते हुए कारावास में रहते समय प्रत्यक्ष इस हादसे से गुजरे हैं।

इन धर्म योद्धाओं को किसी प्रकार का वेतन प्राप्त नहीं हुआ अथवा उनके परिवारों को वृत्तिवेतन देने का आश्वासन भी नहीं दिया गया। इनमें से अनेक ने उद्योगों अथवा अधिकार के पदों का त्याग किया था। उन्हें यह विदित था कि निःशस्त्र रहकर उन्हें सशस्त्र दलों का सामना करना था। आगे गए हुए लोगों के अनुभवों से उन्हें यह भी ज्ञात हो चुका था कि उन्हें यंत्रणाएँ दी जाएँगी। लाठीचार्ज तथा संगीनों का विरोध करना होगा, उन्हें भूखा रहना पड़ेगा। फिर भी वे आगे बढ़ते रहे। उनपर नैतिक नियोजन के अतिरिक्त कोई अन्य बंधन नहीं था। आप लोगों को यह ज्ञात होगा कि औरंगाबाद के हिंदू संघटक बंदियों पर भयंकर लाठीचार्ज का समाचार प्राप्त होने पर भी अपने शिविरों में प्रवेश करने हेतु अधिकाधिक संख्या में स्वयंसैनिक आ रहे थे। एक बार प्रतिकार करने पर दी गई सजा की अवधि समाप्त होते ही वे पुनः निजाम के हिंदू विरोधी कानूनों को भंग करने हेतु जाने के लिए अनुनय करते थे। हिंदू संघटन पक्ष का संग्राम प्रारंभ होने की सूचना प्राप्त होते ही चौदह-पंद्रह हजार प्रतिकार करनेवालों का यह हिंदू बल तैयार हो गया। इससे हम लोगों को तथा जो हम लोगों की माँगों की अवमानना करते हैं उन्हें भी सबक लेना चाहिए। नैतिक दृष्टि से यह पंद्रह हजार हिंदू संघटन की शक्ति आज यूरोप में संघर्षरत इंग्लिश अथवा जर्मनों की सेनाओं से भी अधिक गुणों से युक्त है। यदि यह केवल निःशस्त्र प्रतिकार का आंदोलन न होता तो हम लोग सशस्त्र प्रतिकार करने में भी यूरोपियन सैनिकों से बेहतर सिद्ध होते।

परंतु इस संभावना का विचार न भी किया गया तो भी जो घटनाएँ प्रत्यक्ष रूप से घटीं, उनके फलस्वरूप हिंदुस्थान के हिंदू संघटनवादी पक्ष में आत्मविश्वास तथा नैतिक विजय प्राप्त करने की प्रोत्साहक समझ उत्पन्न हुई तो इसमें कोई संदेह नहीं है। पूर्व के हिंदू सभा के प्रस्ताव गौण माने जाते, परंतु इस समय ऐसा मानने से पहले पर्याप्त विचार करना आवश्यक हो चुका है। गत वर्ष नागपुर तथा सोलापुर में प्रस्ताव के रूप में हम लोगों ने शौर्य के जिन शब्दों का प्रयोग किया था, वे आज पुनः कलकत्ता में एकत्रित होने से नव वर्ष के पूर्व ही शूरत्व की कृति के रूप में परिणत हो चुके हैं।

हिंदुत्वनिष्ठों द्वारा कांग्रेस की विरोधी भूमिका पर भी किया गया स्वतंत्र संघर्ष

इस संघर्ष का एक और अंश विशेष रूप से उल्लेखनीय है, क्योंकि उस कारण आंदोलन के आगामी कार्यक्रम पर विशुद्धिकारक परिणाम होने वाला है। गत बीस वर्षों से एक घातक मूढ़ ग्रह हिंदुओं के अंगभूत गुणों से हिंदुओं के मन को कुप्रभावित कर रहा है। कोई कार्य अंगभूत गुणों के कारण हिंदुओं की दृष्टि से कितना भी उदात क्यों न हो, जब तक उस कार्य को कांग्रेस द्वारा राष्ट्रीय कार्य के रूप में मान्यता देने का मनोलोक्य नहीं दिखाया तब तक उस कार्य को उचित नहीं मानना है। इस संबंध में सौ में से निन्यानवे घटनाओं में राष्ट्रीय शब्द का अर्थ हिंदू विरोधी ही होता था। संपूर्ण हिंदुस्थान में कोई भी आंदोलन सफलतापूर्वक आयोजित करना हो तो कांग्रेस के ध्वज के नीचे ही आयोजित किया जाना चाहिए, निजाय निःशस्त्र प्रतिकार के आंदोलन ने यह भ्रम दूर कर दिया। इससे पूर्व कोहट में मुसलमानों द्वारा जो हत्याकांड किया गया अथवा मलाबार के विभिन्न गाँवों में मोपलों ने सभी हिंदुओं की जो हत्या की उस समय भी अखिल भारतीय अथवा अखिल हिंदुओं की भूमिका निभाते हुए इस मुसलमानी पागल धर्म प्रेम का धिक्कार करने का साहस हिंदुओं ने नहीं दिखाया था । क्योंकि ऐसा करने को 'राष्ट्रीय' निरूपित करने हेतु कांग्रेस ने कोई आज्ञा प्रसारित नहीं की थी! कांग्रेस का विचार वही चाल निजामी आंदोलन के समय चलने का था। उसने निजाम निःशस्त्र आंदोलन को सर्वाधिकार की भावना से जातीय तथा अराष्ट्रीय निरूपित किया। परंतु उस समय हिंदू संघटन पक्ष की अपनी स्वतंत्र तत्त्वनिष्ठा थी। तर्कबुद्धि से राष्ट्रीय किसे कहना तथा अराष्ट्रीय क्या इस बात की उचित कल्पना उसने की थी। उसी प्रकार हिमालय के समान भूल करने का जिसमें निश्चित अवसर रहता ऐसा स्वयं मान लेनेवालों की 'अंदर की आवाज', अंधकार को भी पर्याप्त रूप दूर न करनेवाला 'नया प्रकाश' अथवा कांग्रेस रूपी पोप द्वारा प्रसृत किए गए आज्ञापत्र आदि को आँख मूँदकर स्वीकार करने की प्रवृत्ति से हिंदू संघटन पक्ष मुक्त हो चुका था। इसी कारण निजाम के राज्य के अपने धर्म-बांधवों को तथा राष्ट्र बांधवों को मुक्त करने हिंदू ध्वज के नीचे अग्रसर हुआ। पेशावर से मद्रास तक संपूर्ण देश में यह आंदोलन सभी दिशाओं में फैल गया। उदाहरणार्थ, एक ही हिंदू संघटन पक्ष की आज्ञा सभी प्रांतों के प्रमुख नगरों में मिलकर एक साथ निजाम निषेध दिवस तथा हिंदू राष्ट्र दिवस का आयोजन करने के लिए एक करोड़ से अधिक हिंदू एकत्रित हुए थे। उनके इस आंदोलन को कांग्रेस द्वारा जातीय तथा अराष्ट्रीय कहकर जैसे-जैसे विरोध होता गया वैसे-वैसे यह आंदोलन अधिक बढ़ता गया।

कांग्रेस द्वारा इस आंदोलन का विरोध क्यों किया गया? कांग्रेस राज्यों में सुधार करने की इच्छा रखती है न? तो फिर हैदराबाद हिंदुस्थान का सबसे बड़ा राज्य है और यहाँ सर्वाधिक दुर्व्यवस्था व अनियमितता थी। राजकोट राज्य किसी तहसील जितना छोटा होते हुए भी वहाँ घटनात्मक सुधार प्रस्थापित कर नागरिक स्वातंत्र्य दिलाना आवश्यक था, उतनी ही आवश्यकता निजामी राज्य में भी निश्चित रूप से थी। क्षुद्र राजकोट राज्य सुधारने के लिए किए गए आंदोलन ने अखिल भारतीय समस्या का प्रचंड रूप धारण किया था तथा वीरावाला के चाय के कप में समग्र हिंदी महासागर को आग लगी है- यह आभास गांधीजी द्वारा ही पैदा किया गया था। तब भी निजाम राज्य के लगभग एक करोड़ प्रजाजनों के लिए घटनात्मक सुधार की माँग पर हिंदू सभा द्वारा चलाया गया आंदोलन गांधीजी को हिंदी समस्या से इतना पृथक् तथा असंबद्ध प्रतीत हुआ कि अफ्रीका के हब्शी तथा यूरोप के स्पेनिश अथवा इनके लोगों के लिए गांधीजी को जितनी सहानुभूति व आत्मीयता का अनुभव हुआ उतनी थी इस आंदोलन के लिए दिखाने की आवश्यकता उन्हें प्रतीत नहीं हुई। केवल गांधीजी ही नहीं, प्रतिगामी, पुरोगामी अथवा अंदरूनी गुट का कोई भी कांग्रेसवाला अथवा उनके नेता औरंगाबाद बंदीगृह में किए गए अमानुषिक लाठीचार्ज के पश्चात् अथवा हैदराबाद के खूनी दंगों के पश्चात् इनका निषेध करने आगे नहीं आए। क्या उसी प्रकार कांग्रेस ने नागरिक अधिकारों का पुरस्कार नहीं किया है ? तथा निजाम के राज्य में लाखों हिंदुओं की जान-माल को सदैव संकटों का सामना प्रतिदिन करना पड़ रहा था; किसी प्रकार का भाषण, पूजा अथवा संघ आदि को स्वतंत्रता भी वहाँ नहीं थी यह वस्तुस्थिति क्या सच नहीं है? फिर इस राज्य में नागरिक स्वातंत्र्य प्राप्त करने हेतु जो संघर्ष जिंदगी को दाँव पर लगाते हुए हिंदू संघटनवादियों द्वारा चलाया जा रहा था उससे कांग्रेस ने सहकार्य क्यों नहीं किया? उनकी माँगों को न्यायिक समर्थन देने हेतु प्रस्ताव तक पारित क्यों नहीं किए? हिंदू संघटनवादी लोग हिंदी कहते हुए नहीं, हिंदू कहलाते हुए युद्ध क्षेत्र में कूद पड़े - इसी कारण से तो ऐसा नहीं किया गया? यदि हिंदू के रूप में पुण्यकर्म करना भी हिंदुओं का पाप होगा तब भी केवल चुनाव के समय स्वयं 'हिंदू है' ऐसा लिख देनेवाले तथा हिंदू मतदाता संघ से चुनाव लड़नेवाले कांग्रेसवाले को हिंदुओं को अपना मत देना चाहिए। परंतु जब कश्मीर के मुसलमान बाहर के मुसलमानों की सहायता से वहाँ के हिंदू राजा के विरोध में सशस्त्र विद्रोह करने खड़े हुए तब लोकसत्ता का जन्मजात पुरस्कार करनेवाले गांधीजी ने लिखा था कि 'यदि ७५ प्रतिशत मुसलमान प्रजा का असंतोष दूर कर उन्हें संतोष देना कश्मीर के राजा को असंभव प्रतीत हो रहा है तो उसे राज करने का कुछ भी नैतिक अधिकार नहीं है। तथा उसे राज त्याग करते हुए काशी को सीधा प्रयाण कर देना चाहिए।' फिर निजाम के राज्य में भी ८५ प्रतिशत से अधिक जनसंख्या हिंदुओं की है तथा उन्होंने राज्य के बाहर रहनेवाले अपने धर्म-बांधवों की सहायता से अब असह्य प्रतीत होनेवाली धार्मिक, सांस्कृतिक तथा राजनीतिक यंत्रणाओं का प्रतिकार करने हेतु निःशस्त्र आंदोलन चलाया था, परंतु इन्हीं जन्मजात लोकसत्तावादी गांधी ने निजाम को राजत्याग करने के पश्चात् निवृत्त होकर मक्का की ओर कुछ करने को सलाह नहीं दी। इसके विपरीत उन्होंने स्पष्ट शब्दों में लिखा कि उन्हें इस निःशस्त्र प्रतिकार आंदोलन के कारण 'आला हजरत निजाम' को किसी प्रकार का कष्ट न पहुँचना चाहिए, इसलिए वे आंदोलन के प्रारंभ से ही चिंतित थे।

नृशंस निजाम का समर्थन करनेवाली कांग्रेस

निजामी राज्य में हिंदू विरोधी नीति का विरोध करने हेतु हिंदू संघटनवादियों द्वारा चलाया गया आंदोलन असफल हो इस विचार से राष्ट्रीय छाप कांग्रेसवालों ने जो अनेक घातक कार्य किए, यह मैं आप लोगों के समक्ष प्रस्तुत कर सकता हूँ; परंतु यह मेरे भाषण का उद्देश्य नहीं है।

मैं केवल इतना ही बताना चाहूँगा कि इंग्लिश पार्लियामेंट के कुछ सदस्यों ने हिंदू महासभा के लिए सहानुभूति प्रकट की, औरंगाबाद के बंदीगृह में तथा भागलपुर के दंगों में जिन यंत्रणाओं का सामना करना पड़ा उसके लिए निषेध प्रकट करने हेतु भी वे प्रवृत्त हुए; परंतु सात प्रांतों के किसी भी कांग्रेसी मंत्री ने इस विषय का उल्लेख भी नहीं किया। विधिमंडलों में अथवा कांग्रेस में इस समस्या पर किसी ने चर्चा तक नहीं की, अथवा निजामी सत्ता के विरोध और हिंदुओं के समर्थन में एक भी शब्द नहीं कहा गया। परंतु क्षुद्र राजकोट की घटना के लिए कांग्रेस मंत्रियों द्वारा तत्काल त्यागपत्र देने का भय दिखाया गया।

इसका अर्थ स्पष्ट है तथा उसे और स्पष्ट रूप से बताना भी आवश्यक है। जब तक आप समान मिथ्या राष्ट्रीयत्व की तत्त्वनिष्ठा से जुड़े रहेंगे तब तक उसकी नीति हिंदू विरोधी ही रहेगी तथा हिंदुओं का हित कितना भी न्याय्य अथवा उचित हो वह उसकी वंचना ही करती रहेगी। यह बात निश्चित है ऐसा समझना उचित होगा। एक पल सोचने पर आपकी समझ में आ जाएगा कि यदि हिंदू मतदाता संघों द्वारा हिंदू संघटनवादी प्रतिनिधियों को ही चुना जाता तथा इस कारण मुंबई और मद्रास में हिंदू सभा के मंत्रिमंडल कार्यरत होते तो निजामी राज्य में हिंदुओं को दी जानेवाली यंत्रणाओं के संबंध में वे पूर्णतः उदासीन बने रहते ? निश्चय ही वे निजामी राजसत्ता पर पर्याप्त रूप से दबाव डालकर इन कष्टों से छुटकारा दिला देते।

भागानगर में हम लोगों का राजकोट नहीं हुआ !

कांग्रेस से पृथक् तथा स्वतंत्र हिंदू ध्वज के नीचे हिंदू संघटनवादी नेताओं ने निजामी निःशस्त्र प्रतिकार आंदोलन में हिस्सा लिया, इसका प्रमुख ध्येय यह स्पष्ट करना था कि जब हिंदुओं को कष्ट भोगना पड़ता है, विशेषत: मुसलमानों द्वारा दी गई यंत्रणाओं के कारण, तब हिंदुओं के रक्षणार्थ कांग्रेस अल्पतम प्रयास भी नहीं करेगी। अत: हिंदुओं की सुरक्षा करने का काम हिंदू संघटनवादियों को स्वयं ही करना चाहिए। यदि उन्होंने यह बात करने का निश्चय कर लिया तो कांग्रेस के विरोध अथवा उदासीनता पर ध्यान न देते हुए वे ऐसा कर सकेंगे। आगामी हिंदू संग्राहक आंदोलन के प्रथम प्रत्यक्ष अनुभव के लिए ही भागानगर का युद्ध किया गया। इसमें हम लोगों का राजकोट नहीं हुआ। इसके विपरीत हम लोग इस संघर्ष की अग्नि परीक्षा में विजयी हुए; क्योंकि गत एक सौ वर्षों से आत्मविस्मृति के मोह के कारण हम लोगों की शुद्ध राष्ट्रीय आत्मनिष्ठा तथा सांस्कृतिक व जातीय एकजीवता नष्टप्राय हो चुकी थी। उसे हम लोगों ने इस संघर्ष के समय पुनरुज्जीवित किया और उसका अनुभव भी किया। निजाम शासन ने जिन राजनीतिक अधिकारों की घोषणा की तथा हिंदुओं को नागरिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक स्वातंत्र्य देने का आश्वासन दिया उसपर विचार करते हुए तथा निजाम शासन द्वारा अपने घोषणापत्र में जिस प्रतियोगी सहकारिता एवं सहानुभूति की नीति अपनाने की माँग की उस नीति के अनुसार हिंदू महासभा ने अपना निःशस्त्र प्रतिकार का आंदोलन स्थगित किया। इस बारे में दो बातें कहना आवश्यक है। हिंदू आंदोलनकारियों की निजाम शासन से मुक्ति हुई। इसलिए हिंदू सभा आभारी है। क्योंकि यह उचित बात थी। परंतु मूलतः अधूरे सुधारों को प्रत्यक्ष व्यवहार में लाने की दृष्टि से तथा राज्य में हिंदू व मुसलमानों के मध्य स्थायी शांति निर्माण करने हेतु कुछ मार्ग निकलना चाहिए ऐसी चिंता हिंदू महासभा को है। अतः निजाम शासन का ध्यान आकर्षित करते हुए यह चेतावनी देना चाहती है कि इन सुधारों के निष्पादन में यदि अक्षम्य विलंब किया जाता है तो उसके अनिष्ट परिणाम होंगे तथा तीव्र असंतोष भी उत्पन्न होगा। दूसरी अत्यंत आवश्यक बात यह है कि धर्मप्रेमी विक्षिप्त मुसलमान अधिकारी केंद्रीय शासन द्वारा समर्थन प्राप्त होगा। ऐसा निश्चित रूप से मानकर अभी भी हिंदुओं को कष्ट पहुँचा रहे हैं। ऐसे अधिकारियों पर निजाम शासन को अंकुश लगाना चाहिए। स्थानीय मुसलमान गुंडे तथा उपरिनिर्दिष्ट अधिकारियों पर निजाम शासन ने संपूर्ण राज्य में कड़ाई से व्यवहार करने की बात लागू की तो धर्मप्रेमी विक्षिप्त मुसलमान ठीक रास्ते पर चलने लगेंगे। जिस समझदारी के व्यवहार की अपेक्षा करते हुए मैं यह सूचित कर रहा हूँ निजाम शासन उसका विचार उसी प्रकार करेगा- ऐसी मैं आशा करता हूँ।

दिल्ली का शिवमंदिर सत्याग्रह

शिवमंदिर के प्रसंग में दिल्ली के हिंदुओं द्वारा सहनशीलता से आंदोलन चलाया जा रहा है उसके लिए सारे हिंदुस्थान में उन्हें धन्यवाद प्राप्त होना चाहिए। अहिंदुओं के आक्रमण से हिंदू हितों का संरक्षण कांग्रेस द्वारा नहीं किया जाता तथा वे लोग ऐसा करेंगे भी नहीं, ऐसा करने का सामर्थ्य भी उनमें नहीं है-इस घटना से यही तात्पर्य निकलता है। किसी भी स्थिति में दिल्लीवासियों ने नगरपालिका के लिए प्रतिनिधियों का चुनाव करते समय यदि हिंदू हितसंबंधों की रक्षा करने का वचन देनेवालों का तथा कांग्रेस से जुड़े न होकर हिंदू संघटन से बद्ध प्रतिनिधियों का ही हिंदुओं ने चयन किया तो ही शिवमंदिर की घटना में हिंदुओं द्वारा द्रव्य, मनुष्य बल का व्यय तथा त्याग व्यर्थ न जाएगा, उसका सदुपयोग किया गया ऐसा मानना पड़ेगा। इस संघर्ष के कारण अखिल हिंदू एकता की जो समझ उत्पन्न हुई है वही शिव स्वरूपी होगी। जिस स्थान पर केवल एक बाँसों की बनी झोंपड़ी थी तथा जिसे अत्यंत उदंतापूर्वक तोड़ दिया गया था, उसी स्थान पर पुनः भव्य शिवमंदिर बनेगा और सहस्रों याज्ञिक जन पूजा के लिए वहाँ एकत्रित होंगे ऐसा चित्र मेरे मनःचक्षुओं के सामने दिखाई दे रहा है। अपने न्याय्य अधिकारों के रक्षणार्थ खामगाँव, महाड़, भागलपुर आदि जगहों के अनेक हिंदुओं ने जो सफल प्रतिकार किए वे भी महत्त्वपूर्ण थे तथा इनके कारण यह सिद्ध हो चुका है कि हिंदू महासभा के नेतृत्व में हिंदू एक जाति हो चुकी है तथा उनमें आत्म-प्रत्यय की निष्ठा निर्माण हो चुकी हैं। परंतु इन संकीर्ण घटनाओं का वर्णन करने में अधिक समय न खर्च करते हुए इस भाषण के लिए मैंने जो विषय प्रमुख रूप से प्रतिपाद्य विषय के रूप में चुने हैं उसकी ओर ध्यान देना मुझे आवश्यक प्रतीत हो रहा है। आगामी एक दो वर्षों में हम सभी लोगों को जिस मूलभूत आधार पर सर्वसामान्य कार्यनीति तथा कार्यक्रम पर अपना ध्यान केंद्रित करना है, मेरे विचारों के अनुसार आवश्यक है, उसी का यह विवेचन है।

हिंदू आंदोलन के कुछ मूलतत्त्व तथा सूत्र

कांग्रेस के अंदरूनी समूहों में प्रचलित मिथ्या राष्ट्रीय ध्येयनिष्ठा (Pseudo Nationality) की मर्यादाओं में ही जो बचपन से रहकर बड़े हुए हैं तथा इस कारण जिनके मन में हिंदुत्व से संबंधित किसी भी बात के विषय में इतनी विपरीत धारणाएँ बन गई हैं कि हिंदू शब्द के उच्चारण के साथ उसे लोकभ्रमात्मक, प्रतिगामी तथा पुरोगामी देशभक्त के लिए अशोभनीय मानकर जो विरोधी बन गए हैं ऐसे सहस्रों लोग आज हिंदू महासभा, असली नीति तथा प्रत्यक्ष कार्यक्रम आदि को समझने की सच्ची इच्छा व्यक्त कर रहे हैं। यह बात उत्साहवर्धक है। दो माह पूर्व ही जिनके शोचनीय निधन पर अखिल मुंबई नगर ने दुःख प्रकट किया उन श्री तरेसी का उदाहरण जानने योग्य है। मुंबई के प्रमुख नागरिकों में उनकी गणना होती थी तथा वे बुद्धिजीवियों व कांग्रेसनिष्ठों में भी प्रमुख थे; परंतु अपने नागपुर के अध्यक्षीय भाषण में मैंने जिस हिंदू संघटन विषयक तत्त्वनिष्ठा का प्रतिपादन किया था, उसके बारे में जब मैंने उन्हें क्रमबद्ध प्रकार से समझाया तब उन्होंने प्रकट रूप से घोषित किया कि हिंदू शब्द तथा हिंदू संघटन एक प्रकार का सीधा-सादापन होने के कारण त्याज्य है, जिस बुद्धिवाद के कारण उन्हें ऐसा प्रतीत होता है वह बुद्धिजीवी स्वयं ही बड़ा सीधा सादा होता है। वे स्वयं हम लोगों के पक्ष में सम्मिलित हुए तथा उन्होंने मुंबई प्रांत के हिंदू सभा के अध्यक्ष का पद भी अभिमानपूर्वक स्वीकार किया। मेरी दूर-दूर की यात्राओं में मुझे सर्वत्र बुद्धिजीवी वर्ग के सहस्रों लोग मिले जो हिंदू कल्पना का उच्चारण करते ही उसका विरोध करने लगते; परंतु वही कल्पना प्रभावी रूप से पुनः प्रस्तुत करने पर वे संशयग्रस्त होकर आँखें मलने लगते तथा इनमें से आधे इस कल्पना का अधिक आकलन करने की इच्छा व्यक्त करते तो शेष आधे तीसरी बार उल्लेख करते ही वश में हो जाते। हिंदू सभा तथा उसके उद्देश्य और कार्यक्रम के बारे में कुछ-न-कुछ जानने की इच्छा संपूर्ण देश में अभी-अभी अधिक मात्रा में दिखाई देने लगी है, इस प्रकार की जिज्ञासा कई बार विदेशों से भी प्रकट की जाती है। अतः मैं इस भाषण में जिन प्रमुख तत्त्वों तथा सूत्रों पर हिंदुत्व का आंदोलन आधारित है वे तत्त्व क्रमशः प्रस्तुत कर उसकी सर्वसामान्य नीति का दिग्दर्शन करते हुए उसके कार्यक्रम के प्रमुख गुण कौन से हैं यह बताने वाला हूँ। इस विवेचन का उपयोग आप लोगों की समस्याओं का समर्थन करनेवाले पत्रक के समान होगा। उसी प्रकार विधिमंडल के भावी संघटित हिंदू पक्ष की चुनावी घोषणा के लिए यह विवेचन आधार भी सिद्ध होगा। उसी प्रकार वृत्तपत्रों में तथा मंच से प्रचार करनेवालों के लिए भी यह एक सुलभ मार्गदर्शक होगा।

इसमें कुछ पुनरोक्ति तो होगी, परंतु यदि सारे जन समुदाय की मनोवृत्ति को हम लोग अपने मन के अनुसार वांछित रूप देना चाहें तो ऐसा करने का एकमात्र साधन है किसी सत्य का अगणित बार पुनरुच्चार करते रहना। जब तक प्रचार के क्षेत्र को असत्य ने घेरा हुआ है तब तक उस असत्य को निरुत्तर करने के लिए उतनी ही बार सत्य का भी पुनरुच्चार होना चाहिए जितनी बार उस असत्य का पुनरुच्चार किया जाता है।

हिंदुत्व के आंदोलन की भूमिका तथा कुछ मूलतत्त्व

1. वह प्रत्येक व्यक्ति हिंदू है जो इस भारतभूमि को, सिंधु से सागर तक की इस भूमि को अपनी पितृभूमि तथा पुण्यभूमि मानता है । पुण्यभूमि का अर्थ है-वह भूमि जिसमें उसका धर्म उत्पन्न हुआ तथा विकसित हुआ।

इसी कारण वैदिक, सनातनी, जैन, लिंगायत, बौद्ध तथा सिख धर्म और आर्य, ब्रह्मो, देव, प्रार्थना समाज तथा इसी प्रकार के हिंदुस्थान में उत्पन्न अन्य धर्म के अनुयायी आदि सभी हिंदू हैं। इन सभी को मिलाकर संकलित रूप से हिंदू समाज बनता है।

आदिवासी अथवा वन्य जाति के रूप में रहनेवाले सभी हिंदू ही हैं, क्योंकि वे कोई भी धर्म अथवा पूजाविधि मानते हों तब भी उनकी पितृभूमि या पुण्यभूमि हिंदुस्थान ही है।

इस कारण इसी परिभाषा को शासन द्वारा मान्यता प्रदान की जानी चाहिए तथा आगामी जनगणना के समय हिंदुओं की जनसंख्या की गिनती करते समय हिंदुत्व के बोधक के रूप में इसी परिभाषा को मान्यता प्राप्त होनी चाहिए। संस्कृत भाषा में यह परिभाषा निम्नानुसार है -

आसिन्धु सिन्धुपर्यन्ता यस्य भारत भूमिका ।

पितृभूः पुण्यभूश्चैव सवै हिन्दुरितिस्मृतः ॥

2. हिंदू शब्द मूलतः विदेशी शब्द नहीं है अथवा हिंदुस्थान में मुसलमानों के आगमन से उसका किसी प्रकार का कोई संबंध नहीं है। कुछ क्षुद्र विदेशी लेखकों के धातुक प्रतिपादन के कारण कुछ समय तक भूलवश इस प्रकार सोचा जाता रहा था, परंतु हम लोगों के वैदिक ऋषियों ने भी इस भूमि को सिंधु अथवा सप्तसिंधु कहा है। उदाहरणार्थ, 'ऋग्वेद' की निम्न ऋचा यह कथन पूर्णतः प्रमाणित करने के लिए पर्याप्त है -

आऋक्षा देह सो मुचद्यो कर्यात्सदत सिन्धुषु ।

वद्यदसिस्य नुविननृम्णननिमः ॥

(ऋग्वेद, ६-८)

मुसलमानी पैगंबर मुहम्मद के जन्म से सहस्रों वर्ष प्राचीन बेबिलोनियन लोग हम लोगों को सिंधु ही कहते थे तथा प्राचीन जेंदावेस्ता में सिंधु के रूप में हम लोगों का उल्लेख किया गया है। सिंधु नदी के इस पार हम लोगों का एक प्रांत आज भी इसी नाम से संबोधित किया जाता है। उस प्रांत को आज तक सिंधु देश कहते हैं तथा वहाँ के निवासियों को सिंधु (सिंधी) कहा जाता था। हम लोगों की अर्वाचीन भाषा संस्कृत के सं का रूपांतर कई बार 'ह' में हो जाता है। जिस प्रकार केसरी तथा कृष्ण हिंदी प्राकृत भाषा में केहरी तथा कान्हा में रूपांतरित हो गए। जिस किसी को इस विषय का अधिक सांगोपांग तथा परिपूर्ण विवेचन की आवश्यकता प्रतीत होती हो तो उन्हें मेरी (अंग्रेजी) पुस्तक 'हिंदुत्व' देखनी चाहिए।

हिंदू धर्म,हिंदुत्व तथा हिंदू राष्ट्र

हिंदू आंदोलन का ध्येयवाद विवेचित करते समय इन तीन शब्दों द्वारा व्यक्त किए जानेवाले यथातथ्य अर्थ को समझना नितांत आवश्यक है। हिंदू शब्द से अंग्रेजी का 'हिंदूइज्म' शब्द बनाया गया है। उसका अर्थ है हिंदू लोग जिस धार्मिक पंथ या मार्ग का अनुसरण करते हैं वह पंथ या मार्ग दूसरा शब्द है हिंदुत्व यह उसको तुलना में अत्यधिक व्यापक और संग्राहक है। हिंदू धर्म शब्द के समान केवल हिंदू लोगों की धार्मिक दृष्टि का विचार उसमें नहीं है तथा सांस्कृतिक, भाषिक, सामाजिक एवं राजकीय दृष्टि का भी अंतर्भाव उसमें किया गया है। वह अधिकांश अर्थ में Hindu Polity इस अंग्रेजी शब्द का समानार्थी है। अंग्रेजी में उसका अधिक निकट का अनुवाद होगा Hindu-तीसरा शब्द है Hindudom इसका अर्थ है संकलित रूप में हिंदू अभियान कारण करनेवाले सभी लोग हिंदू जगत् का संकलित रूप से निर्देश करनेवाला यह एक संबोधन है। जिस प्रकार 'इसलाम' कहने पर मुसलमान जगत् का बोध होता है।

हम हिंदू स्वयमेव एकराष्ट्र हैं

प्रादेशिक एकता का अर्थ प्रदेश में निवास करनेवाले लोग यही एकमेव राष्ट्रीयत्व के घटक हैं। यह मानने से राष्ट्रीय सभा के ध्येयवाद में मूलतः ही दोष उत्पन्न हुआ है। यह बात हिंदुस्थान के अर्वाचीन राजनीतिक इतिहास में प्रथम बार मैंने अपने नागपुर के अध्यक्षीय भाषण में प्रस्तुत की। जिस यूरोप से इस प्रादेशिक राष्ट्रीयता (Geographical Nationality) की कल्पना को कोई परिवर्तन किए बिना मूल स्वरूप में ही हिंदुस्थान के लिए लाने के पश्चात् वहीं पर (यूरोप में) इस पर बड़ा आघात हुआ है तथा वर्तमान युद्ध ने मेरे प्रतिपादन को ही वास्तविक निरूपित कर उस कल्पना का संपूर्ण रूप से खंडन किया है। प्रादेशिक एकता के कारण जबरन जिस राष्ट्र को एक साथ बाँध दिया गया, वह नष्ट हो चुका है तथा वह ताश के महल जैसा धराशायी हो चुका है। संस्कृति, वंश, परंपरा आदि एकता करनेवाले सामान्य बंधनों से जुड़े न होने से तथा एकराष्ट्र के रूप में संकलित रूप से रहने की सामान्य प्रेरणा न होने के कारण प्रादेशिक एकता की अस्थिर व शिथिल रेल पर आधारित राष्ट्रीयत्व की कल्पना करते हुए विभिन्न समाज की खिचड़ी के समान राष्ट्र बनाने का कार्य करनेवालों को पोलैंड तथा चेकोस्लोवाकिया के उदाहरणों ने स्पष्ट रूप से सावधान कर दिया है। युद्धोत्तर संधि के समय बने हुए ये राष्ट्र प्रथम अवसर प्राप्त होते ही पृथक् हो गए। जर्मन हिस्सा जर्मनी में मिल गया तथा एशियन भाग एशिया में; चेक, चेकोस्लोवाकिया तथा पोल पोलैंड में चले गए। सांस्कृतिक, भाषिक, वांशिक एवं तत्सदृश बंधन प्रादेशिक बंधनों की तुलना में अधिक प्रभावी सिद्ध हुए। यूरोप में गत तीन-चार शतकों में प्रादेशिक एकता के अभाव में भी वंश, भाषा, संस्कृति तथा इसी प्रकार के अन्य बंधनों की परिणति होकर एकजीव होने की इच्छाशक्ति उत्पन्न हुई। वे ही राष्ट्र गत तीन-चार शतकों में अपना स्वतंत्र राष्ट्रीय अस्तित्व तथा एकजीविता को बनाए रखने में सफल हुए हैं। उदाहरणार्थ, इंग्लैंड, फ्रांस, जर्मनी, इटली, पुर्तगाल आदि।

एकजीव तथा स्वयंभू राष्ट्र निर्मिति के लिए अकेले या संयुक्त रूप से उपयोगी पड़नेवाले ऊपरी लक्षणों का विचार करने पर प्रतीत होता है कि हिंदुस्थान में हम हिंदू लोग एक स्वयंभू व स्थायी राष्ट्र ही हैं। हम लोगों की एक ही पितृभूमि है तथा हम लोगों को प्रादेशिक अखंडता भी प्राप्त है, परंतु इसके अतिरिक्त विश्व के अन्य क्षेत्रों में कदाचित ही प्राप्त होनेवाली अपने समान पितृभूमि से समव्याप्त पुण्यभूमि भी प्राप्त हुई है। इस प्रकार से हम लोगों की संस्कृति, धर्म, इतिहास, भाषा एवं वंश के प्रिय बंधन हैं तथा अगणित शतकों से चल रहे सहवास्तव्य और समिश्रण की परिणति होकर हम लोगों के एकजीव तथा स्वयंभू राष्ट्र का निर्माण हुआ है।

सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि एक साथ और अखंडित राष्ट्रीय जीवन व्यतीत करने की इच्छाशक्ति उत्पन्न हुई। हिंदू राष्ट्र केवल युद्धोत्तर संधि के समय रचा गया कागजी राष्ट्र नहीं है। वह एक जीवंत तथा स्वयंभू राष्ट्र है। एक अन्य तर्क का भी खंडन करना आवश्यक है, क्योंकि उसके कारण हम लोगों के कांग्रेसनिष्ठ बंधुओं की दिशा भूल होती रहती है। राष्ट्रीय अस्तित्व प्रमाणित करने हेतु अखंडता उत्तरदायी है इसका अर्थ कदापि ऐसा नहीं होता कि उसमें विद्यमान विभिन्न पंथों में भाषा तथा वंश आदि में अंदरूनी भेदों का सर्वस्वी अभाव रहना चाहिए। इसका अर्थ केवल इतना ही है कि उसकी राष्ट्रीय घटक के रूप में अन्यों से जो भिन्नता है वह अंदरूनी भेदों की तुलना में पर्याप्त रूप से अधिक होती है। ब्रिटेन, फ्रांस जैसे आज के एकजीव राष्ट्रों में भी धार्मिक, भाषिक, सांस्कृतिक, वांशिक आदि रूप में भेद दिखाई देते हैं तथा ये आपस में भेदों से पूर्णतः मुक्त नहीं हैं। सामुदायिक दृष्टि से कोई भी अन्य जन समुदाय से उनकी जो भिन्नता दिखाई देती है उसकी तुलना में विद्यमान उनकी एकता ही राष्ट्रीय अखंडता है।

हम हिंदुओं में हजारों अंदरूनी भेद होते हुए भी हम लोग धार्मिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक, वांशिक, भाषिक तथा अन्य कई बंधनों से जुड़े हुए हैं। अंग्रेज, जापानी अथवा हिंदुस्थान के मुसलमान आदि की तुलना में निश्चित रूप से अधिक स्वतंत्र तथा एकजीव हैं। आज कश्मीर से मद्रास तक, सिंध से असम तक हम हिंदू लोग स्वयमेव राष्ट्र के रूप में रहने की इच्छा प्रकट करते हैं तो वह इसी कारण। इसके विपरीत जर्मनी के ज्यू की तरह भारत के मुसलमानों में सामान्यतः हिंदुस्थान के बाहर के मुसलमानों तथा उनके हितसंबंधों के लिए जितनी आत्मीयता में है वैसी आत्मीयता पड़ोस के हिंदुस्थान के लिए नहीं है।

एकता की बालोचित कल्पना

कुछ विश्वसनीय परंतु भोले-भाले हिंदू इस प्रकार की सुखदायक इच्छा करने में निमग्न हैं कि 'हिंदुस्थान के बहुसंख्य मुसलमान वंश तथा भाषा की दृष्टि से हम लोगों के एकरूप हैं। इस पीढ़ी के कुछ लोगों ने मुसलिम धर्म अभी-अभी स्वीकारा है। उन्हें हिंदुओं से रक्त संबंध व एकजीवता मानने पर तथा एक ही राष्ट्रीय जीवन में सम्मिलित होने पर प्रवृत्त किया जा सकता है। हम लोगों द्वारा उन्हें इन बंधनों की याद दिलाकर उसी के आधार पर अनुरोध करते ही काम बन जाएगा!' इन बालोचित बुद्धि के लोगों पर वस्तुतः दया आना चाहिए। क्या मुसलमान इस स्थिति से परिचित नहीं हैं? वास्तविक बात तो यह है कि मुसलमानों को ये सभी बंधन ज्ञात हैं, परंतु ध्यान देने योग्य भेद केवल इतना ही है कि हिंदुओं को आपस में एकत्रित करनेवाले इन बंधनों से हिंदुओं को अपनापन लगता है तथा इसका अभिमान भी उन्हें है; परंतु मुसलमान इन बंधनों का निर्देश करते ही तिरस्कार व्यक्त करते हैं तथा उनकी स्मृति भी आमूलाग्र नष्ट करने के प्रयत्न करते हैं। उसी समय कुछ काल्पनिक इतिहास तथा वंशवृक्ष के आकार से अरबों अथवा तुर्कों से संबंधित होने की बात करते हैं।

मुसलमानों को अपना मानकर आप लोग उन्हें गले लगाना चाहेंगे,परंतु वे स्वयं आप लोगों की अपनेपन की भावना नहीं समझते

वे लोग अपनी स्वतंत्र भाषा का निर्माण करने के प्रयास कर रहे हैं तथा अरबी भाषा के मूल तने से किसी परजीवी की तरह उसे जोड़ना चाहते हैं। कोंकण जैसे प्रांत में धर्मांतरित मुसलमानों के ताँबे, मोडक आदि प्रचलित नाम हटाकर उन्हें उनके अरबी नाम देने के प्रयास किए जा रहे हैं। इस प्रकार सामान्य हिंदू वंश से थे लोग संबंधित थे इसका प्रत्येक स्मृतिचिह्न मिटाकर हिंदू-मुसलमानों के भेदभावों को अधिक विस्तृत बना रहे हैं।

हिंदू काफिरों को धर्मांतरण द्वारा मुसलमान बनना चाहिए अथवा इस देश में मुसलमानी राज्यसत्ता प्रस्थापित होकर उसे 'जजिया' कर देनेवाले दास बनना चाहिए। ऐसा होने तक हिंदुस्थान देश को दार-उल-इसलाम अर्थात् इसलामियों को प्यार करने लायक देश नहीं कहा जा सकता। मुसलमानों के मन पर उनकी धार्मिक तथा परंपरागत कल्पनाओं की सहायता से इस बात का प्रभाव डाला जा रहा है। 'हिंदुस्थान' शब्द भी उन्हें किसी राज्य के समान चुभता है। मैं ये बातें यहाँ समर्थन प्राप्त करने के हेतु से नहीं बना रहा हूँ अथवा निषेध करने हेतु भी नहीं, किसी भी मुसलमान को सरलता से जिसे अस्वीकार करना संभव नहीं है, यह उस सामान्य स्थिति का ही वर्णन है।

हिंदुओं से किसी प्रकार का सामान्य बंधन न रखते हुए उनके पृथक्, परंतु हिंदुस्थान के एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में आगे आने के प्रयास मुसलमान जान बूझकर कर रहे हैं। अतः ईमानदार और भोले-भाले हिंदुओं को इस बात को स्पष्ट रूप से समझ लेना आवश्यक है कि मुसलमान यदि एक सर्वसामान्य राष्ट्रीय जीवन से समरस होना स्वीकार नहीं करते तो शेष हिंदुओं का एक स्वयंभू अपने आप उत्पन्न हो जाना है।

जहाँ हम लोगों के स्वत्व की रक्षा होगी वही हम लोगोंका स्वराज्य होगा

हिंदुस्थान के किसी क्षेत्र में निवास करनेवाले अथवा बाहर के किसी अन्य अहिंदू लोगों का वर्चस्व न रहते हुए जहाँ हम लोगों का स्वत्व अर्थात् हिंदुत्व का प्रभाव स्थापित किया जा सकेगा, वही हिंदुओं का एकमात्र स्वराज्य होगा। हिंदुस्थान में जन्म लेने कारण कुछ अंग्रेज हिंदी हैं, परंतु क्या इन 'एंग्लो-इंडियन' के वर्चस्व को हिंदुओं का स्वराज्य कहना संभव है? औरंगजेब तथा टीपू जन्मजात हिंदी ही इसके अतिरिक्त वे धर्मांतरित हिंदू माताओं के ही पुत्र थे, परंतु क्या इसी कारण औरंगजेब अथवा टीपू का राज्य हिंदुओं का स्वराज्य बन गया? कदापि नहीं। प्रादेशिक रूप से वे हिंदी होते हुए भी हिंदुस्थान के सर्वाधिक घातक शत्रु सिद्ध हुए। अतः शिवाजी, गुरु गोविंदसिंह, राणा प्रताप तथा पेशवा आदि को मुसलमानों से युद्ध करते हुए यथार्थ रीति से हिंदुओं का स्वराज्य प्रस्थापित करना पड़ा।

अतः वर्तमान अवस्था में 'हिंदी राष्ट्रीय राज्य' का विचार किया जाए तो उसका अर्थ केवल यही होगा कि हिंदुस्थान में निवास करनेवाले मुसलमान अल्पसंख्यकों को समान नागरिक अधिकार प्राप्त होंगे तथा संख्या के अनुसार नागरिक जीवन में अधिकार प्राप्त होंगे। किसी भी अहिंदू अल्पसंख्यक के न्याय्य अधिकारों पर बहुसंख्यक हिंदू अतिक्रमण नहीं करेंगे, परंतु लोकसत्ता तथा न्याय्य घटना के अनुसार बहुसंख्य होने के नाते अधिकारों का प्रयोग करने हेतु प्राप्त सत्ता का त्याग हिंदू नहीं करेंगे।

मुसलमानों का अल्पसंख्यक होना किसी प्रकार से हिंदुओं पर किया गया उपकार नहीं माना जा सकता। अतः राजनीतिक, नागरिक अधिकारों का उचित एवं न्याय्य हिस्सा लेते हुए अपना न्याय्य तथा योग्य स्थान प्राप्त कर उन्हें संतुष्ट होना चाहिए। बहुसंख्यकों के न्याय्य अधिकार और सत्ता न मानने का अधिकार अल्पसंख्यक मुसलमानों को देकर इस घटना को स्वराज्य कहना सर्वथा गलत है। हिंदुओं की इच्छा एक धनी के स्थान पर दूसरा धनी लाने की नहीं है, हिंदुस्थान में जन्म लिया है इसलिए एडवर्ड के स्थान पर औरंगजेब की स्थापना करने के लिए युद्ध करते हुए प्राणत्याग करने के लिए हिंदू तैयार नहीं हैं।

अपने देश में अपना स्वयं का स्वामित्व स्थापित करने की एकमात्र बात हम हिंदू चाहते हैं।

हम लोगों के देश का हिंदुस्थान नाम ही सदैव चलना चाहिए

मूल सिंध शब्द से बने 'इंडियन' अथवा 'हिंद' शब्दों का प्रयोग करने में कोई समस्या नहीं है, परंतु उनका उपयोग केवल हिंदुओं का देश, हिंदू राष्ट्र का निवास स्थान इन्हीं अर्थों में किया जा सकेगा। आर्यावर्त, भारतभूमि आदि नाम ही सुसंस्कृत लोगों में प्रिय होगा। हम लोगों की मातृभूमि को हिंदुस्थान नाम से ही संबोधित किया जाना चाहिए-ऐसा आग्रहपूर्वक करने में अपने अहिंदू देश बांधवों पर अतिक्रमण करना अथवा उनकी मानहानि करना हम लोगों का उद्देश्य नहीं है। हम लोगों के पारसी तथा ख्रिश्चन देशबंधु आज भी सांस्कृतिक दृष्टि से हम लोगों से इतने समान हैं, इतने स्वदेशभक्त हैं तथा एंग्लो इंडियन इतने समझदार हैं कि वे हिंदुओं की इस न्याय्य भूमिका से सहमत होना अस्वीकार नहीं करेंगे। हम लोगों के मुसलिम देश-बांधवों के विषय में कहा जा सकता है कि हिंदू-मुसलिम एकता के मार्ग में हिंदुस्थान नाम की दुर्लघ्य पर्वत जैसी एक कठिनाई है- ऐसा माननेवाले बहुत से मुसलमान विद्यमान हैं। उस वास्तविक स्थिति को छिपाना उचित नहीं होगा। उन्हें इस बात पर ध्यान देना आवश्यक है कि मुसलमान केवल हिंदुस्थान में निवास करते हैं ऐसी बात नहीं है अथवा मुसलमानों में केवल हिंदी मुसलमान ही मात्र निष्ठावान मुसलमान शेष नहीं बचे हैं। चीन में करोड़ों मुसलमान हैं। उसी प्रकार ग्रीस, पेलेस्टाइन, हंगरी तथा पोलैंड में भी उनके राष्ट्र घटकों में हजारों मुसलमान समाविष्ट हैं। परंतु वहाँ वे अल्पसंख्यक होने के कारण केवल एक जाति बनकर रहते हैं। इन देशों में बहुसंख्य वंशों के आवास स्थानों के नाम रूढ़ हो चुके हैं तथा प्राचीन नामों को हटाने के लिए अल्पसंख्य जातियों का अस्तित्व कारण नहीं बनता। पोल लोगों के देश का नाम पोलैंड तथा ग्रीकों का ग्रीस नाम प्रचलित है। वहाँ के मुसलमानों ने इन नामों को विकृत नहीं किया है अथवा ऐसा करने का साहस उन्होंने नहीं दिखाया; परंतु प्रसंगवश वे स्वयं को पोलिश मुसलमान, ग्रीस मुसलमान अथवा चीनी मुसलमान कहलाने से संतुष्ट हैं। उसी प्रकार हम लोगों के मुसलमान देश-बांधवों को भी राष्ट्रीय तथा प्रादेशिक दृष्टि से अपना निर्देश करते समय हिंदुस्थानी मुसलमान कहलाने में संतुष्टि का अनुभव करना चाहिए। ऐसा करते समय उनके धार्मिक एवं सांस्कृतिक स्वतंत्र अस्तित्व को जरा भी बाधा नहीं पहुँचती। हिंदुस्थान में आने के समय से मुसलमान इस देश को हिंदुस्थान ही कहते हैं।

परंतु इन बातों को अस्वीकार करते हुए अपने देश-बांधवों में से कुछ दुराग्रही मुसलमान हम लोगों के देश के नाम को ही स्वीकार नहीं करते; परंतु इस बात के कारण अपना विवेक त्यागकर हम लोगों को आत्म-प्रत्ययहीन बनने की आवश्यकता नहीं है। हिंदुस्थान नाम हम लोगों की मातृभूमि के लिए रूढ़ हो चुका है। मातृभूमि के इस नाम से ऋग्वेदकालीन सिंधु से हम लोगों की पीढ़ी के हिंदू शब्द तक जो अखंड परंपरा व्यक्त होती है उसे भंग करने अथवा उससे विरत होने के लिए हिंदुओं को तत्पर नहीं होना चाहिए। जर्मनों का देश जिस प्रकार जर्मनी, अंग्रेजों का इंग्लैंड, तुर्की का तुर्कस्थान तथा अफगानों का अफगानिस्तान-उसी प्रकार हिंदुओं का देश होने के कारण हिंदुस्थान इस नाम से ही हम लोगों को अपना स्थान विश्व के आलेख (नक्शे) में स्थायी रूप से अंकित करना चाहिए।

अखिल हिंदू ध्वज

कुंडलिनी-कृपाणांकित भगवा ध्वज ही हिंदू राष्ट्र का ध्वज होगा- उसपर अंकित ओम्, स्वस्तिक, कृपाणादि चिह्नों के कारण वैदिक काल से चली आ रही हम लोगों की हिंदू जाति की भावनाओं में वृद्धि होती है। जिन्हें इस ध्वज का अंगभूत हेतु और उसपर अंकित आकृतियों के बारे में तथा प्रतीकों के विषय में अधिक जानकारी प्राप्त करना हो एवं इनकी आवश्यकता क्या है यह समझना हो तो उन्हें इस विषय पर प्रकाशित पुस्तिका का अवलोकन करना चाहिए।

इस संबंध में यह बात स्पष्ट की जानी चाहिए कि इस ध्वज के अतिरिक्त हिंदुओं में अन्य ध्वज भी प्रचलित हैं। अखिल हिंदू जाति के सनातनी, जैन, सिख, आर्य आदि जो घटक हैं उनके अपने प्रतीक हैं। प्रत्येक हिंदू को उन्हें भी आदर देना चाहिए क्योंकि उनमें भी सामान्य अखिल हिंदुस्थान की भावनाओं का प्रकर्ष हुआ है।

हम लोगों के अहिंदू देश-बांधवों के अन्य रंगों के जो ध्वज हैं उनका प्रतिस्पर्धी विरोधक यह हिंदू ध्वज है ऐसा समझने का कोई औचित्य नहीं है। परंतु यह हिंदू ध्वज अखिल हिंदू राष्ट्र का एकमात्र प्रतिनिधि प्रतीक है।

संस्कृतनिष्ठ हिंदी ही हम लोगों की राष्ट्रभाषा

संस्कृत हम लोगों की देवभाषा अथवा पवित्र भाषा है। संस्कृतनिष्ठ हिंदी का अर्थ है संस्कृत से उत्पन्न तथा संस्कृत से ही विकसित हुई हिंदी भाषा यह भाषा ही हम लोगों की प्रचलित राष्ट्र भाषा है। विश्व की प्राचीन भाषाओं में संस्कृत सर्वाधिक संपन्न सुसंस्कृत भाषा है तथा हम हिंदुओं के लिए तो पूज्यतम भाषा है। हम लोगों के धर्मग्रंथ, इतिहास, दर्शन तथा वाड्मय की जड़ें इस भाषा में इतनी गहराई तक पहुँच चुकी हैं कि यह भाषा हिंदुस्थान का उत्तमांग है। हम लोगों की प्रचलित मातृभाषाओं में अधिकांश की वह जननी है तथा उसने इन भाषाओं को अपना दुग्ध पिलाकर उनका पोषण किया है। आज हिंदुओं में जो भाषाएँ प्रचलित हैं वे संस्कृत से उत्पन्न हुई हैं अथवा संस्कृत से संबद्ध हैं। उनका विकास व उन्नति संस्कृत भाषा से प्राप्त किए जीवनरस के कारण ही हुआ है। अतः हिंदू युवकों की उच्च शिक्षा में संस्कृत भाषा का भाग चिरकाल तक एवं अनिवार्य रूप से रहना चाहिए।

हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में अंगीकार करते समय किसी अन्य प्रांतिक भाषाओं की अवमानना अभिप्रेत नहीं है। हिंदी के समान अपनी-अपनी प्रांतिक भाषाएँ भी हमें प्रिय हैं तथा अपने-अपने क्षेत्रों में उनका संवर्धन व प्रगति होती ही रहेगी। उनमें से कुछ प्रांतिक भाषाएँ आज भी हिंदी से अधिक प्रगत तथा वाड्मय संपन्न हैं; परंतु सभी दृष्टियों से विचार किया जाए तो ऐसा प्रतीत होता है कि हिंदुओं की राष्ट्रभाषा बनने के लिए हिंदी की पात्रता सर्वाधिक है। इस बात पर भी ध्यान देना आवश्यक है कि हिंदी माँग के अनुसार कृत्रिम बनाई गई राष्ट्रभाषा नहीं है। अंग्रेज अथवा मुसलमान के हिंदुस्थान में आने से पूर्व ही संपूर्ण हिंदुस्थान में सामान्य स्वरूप की हिंदी भाषा को राष्ट्रभाषा का स्थान प्राप्त हो चुका था। हिंदुस्थानी पर्यटक, व्यापारी, सैनिक व पंडित जब बंगाल से सिंध अथवा कश्मीर से रामेश्‍वर तक संचार करते तब भिन्न-भिन्न प्रदेशों में अपना आशय व्यक्त करने हेतु वे हिंदी की सहायता लेते। उसी प्रकार सुबुद्ध हिंदू क्षेत्रों में संस्कृत तथा सामान्य हिंदू जातियों में गत सहस्र वर्षों से हिंदी ही राष्ट्र भाषा के रूप में प्रचलित है। इसके परिणामस्वरूप आज भी किसी भी अन्य हिंदू भाषा की तुलना में हिंदी को मातृभाषा माननेवालों की संख्या बहुत अधिक है। इसीलिए प्रांतिक भाषाओं के अध्ययन की उपेक्षा न करते हुए हिंदू छात्रों को अखिल हिंदुओं की राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी की शिक्षा अनिवार्य विषय के रूप में दी जानी चाहिए।

हिंदी का अर्थ है शुद्ध संस्कृतनिष्ठ हिंदी

उदाहरणार्थ, महर्षि दयानंद द्वारा 'सत्यार्थ प्रकाश' में दिखाई देनेवाली हिंदीही वास्तविक रूप से हिंदी है, ऐसा हम मानते हैं। यह हिंदी भाषा कितनी सरल है, अनावश्यक विदेशी शब्दों से अलिप्त है और फिर भी बहुत अर्थवान है। हिंदुस्थान के अखिल हिंदुओं की राष्ट्र भाषा हिंदी होनी चाहिए-इस विचार हेतुपूर्वक तथा निश्चिततापूर्वक पुरस्कार करनेवाले प्रथम हिंदू नेता दयानंदजी ही हैं। इस बात का यहाँ निर्देश करना उचित होगा।

वर्धा की रंधनशाला में पक रही तथाकथित हिंदुस्थानी की खिचड़ी से हिंदी का कुछ भी संबंध नहीं है। वह हिंदुस्थानी भाषिक विघटना का एक अत्याचार है तथा उसे निष्ठुरतापूर्वक नामशेष कर देना आवश्यक है। प्रांतिक व प्रादेशिक भाषाओं से अंग्रेजी, अरबी आदि अनावश्यक विदेशी शब्द निष्ठुरतापूर्वक निकाल देने चाहिए। हम लोग अंग्रेजी अथवा किसी भी भाषा का विरोध नहीं करते; परंतु जागतिक वाड्मय का परिचय करने के सुलभ साधन के रूप में तथा आवश्यक होने के कारण अंग्रेजी भाषा का अध्ययन करना आवश्यक है। ऐसा प्रतिपादन हम करते हैं। परकीय शब्दों का मूल्यांकन करने के बाद तथा उसकी अनिवार्यता प्रमाणित होने के पश्चात् ही उन्हें अपनी भाषा में शामिल करना चाहिए अन्यथा नहीं। इस प्रकार के अनावश्यक विदेशी शब्दों के अशुद्ध मिश्रण से बंगाली वाड्मय ने प्रशंसनीय अलिप्तता बनाए रखी है। अन्य प्रांतिक भाषाओं तथा वाड्मयों के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता।

नागरी लिपि ही हिंदू राष्ट्रीय लिपि

हम लोगों की संस्कृत भाषा का मूलाक्षर संघ शास्त्र की दृष्टि से आज तक विश्व में निर्माण हुए किन्हीं भी मूलाक्षरों की तुलना में अत्यधिक पूर्णता को पहुँचा हुआ है तथा आज हिंदुस्थान में प्रचलित अधिकांश लिपियों में उसी का अनुकरण किया गया है। नागरी लिपियों में भी इसी मूलाक्षर संघ का उपयोग किया गया है। सहस्र वर्षों तक संपूर्ण हिंदुस्थान में हिंदू साहित्य क्षेत्र में हिंदी भाषा के समान नागरी लिपि भी प्रचलित रही है। हम लोगों के धर्मग्रंथों की लिपि होने के कारण उसे 'शास्त्री लिपि' का नामाभिधान भी प्राप्त हो चुका है। कुछ थोड़े स्थानों पर छोटे छोटे सुधार किए जाने पर रोमन लिपि के समान वह भी यांत्रिक मुद्रण के लिए सुलभ बन जाएगी।

श्री वैद्य आदि सज्जनों ने महाराष्ट्र में चालीस वर्ष पूर्व लिपि सुधार आंदोलन प्रारंभ किया। तत्पश्चात् मुझसे प्रेरणा लेकर इस आंदोलन ने एक संघटित आंदोलन का रूप लिया। प्रत्यक्ष व्यवहार में इस सुधार को प्रचलित करने का श्रेय पर्याप्त रूप में प्राप्त हुआ। नागरी लिपि सर्वत्र रूढ़ करने हेतु प्रथम प्रयास के रूप में विभिन्न प्रांतों के हिंदू समाचारपत्रों में प्रत्येक दिन दो स्तंभ प्रांतिक भाषा मुद्रण नागरी लिपि में करना चाहिए ऐसा मेरा आग्रह है। बंगाली तथा गुजराती भाषाएँ नागरी लिपि में मुद्रित की जाने पर भी पाठकों को पढ़ने में विशेष कठिनाई नहीं होगी। संपूर्ण हिंदुस्थान की एकमेव भाषा करना अव्यवहार्य एवं अनभिज्ञता का कार्य होगा। परंतु हिंदुस्थान में सर्व सामान्य तथा एकमेव लिपि के रूप में नागरी लिपि को मान्यता प्रदान करना व्यावहारिक होगा; परंतु यह भी ध्यान में रखना होगा कि विभिन्न प्रांतों में आज की प्रचलित लिपियों का स्थान भविष्य में भी बना रहेगा तथा नागरी के साथ उनका भी विकास होगा। हिंदू जगत् की दृष्टि से हिंदी भाषा के साथ नगरी लिपि भी प्रत्येक शाला में विद्यार्थियों के लिए अनिवार्य विषय कर दिया जाना चाहिए और इस बात पर तत्काल ध्यान दिया जाना चाहिए।

घर में कामधेनु है,परंतु मही की याचना करते हैं

राष्ट्रभाषा तथा राष्ट्रलिपि की समस्या का समाधान करने हेतु दो विख्यात कांग्रेस अध्यक्षों द्वारा कौन सा उपाय सुझाया गया है इसपर विचार करना आवश्यक है। अबुल कलाम आजाद हिंदुस्थानी भाषा का पक्ष लेकर कहते हैं कि यह भाषा निश्चित रूप से उर्दू ही होगी। पंडित नेहरू एक कदम आगे बढ़कर कहते हैं कि अट्ठाईस करोड़ हिंदुओं के हिंदुस्थान की राष्ट्रीय भाषा बनने के लिए उस्मानिया अथवा अलीगढ़ विश्वविद्यालयों में प्रचलित अत्यधिक अरबी प्रचुर उर्दू भाषा ही सबसे अधिक योग्य है। देश के गौरव सुभाष बाबू ने पंडितजी को मान देते हुए हिंदी राष्ट्रीय सभा के अध्यक्ष पद से सूचना दी थी कि रोमन लिपि ही हिंदुस्थान के लिए सुलभ राष्ट्रीय लिपि के रूप में सर्वोकृष्ट सिद्ध होगी! हिंदुस्थान की राष्ट्र लिपि रोमन! कितनी व्यावहारिक सूचना है। 'बसुमति', 'आनंद बाजार पत्रिका' तथा आप लोगों के अन्य बंगाली समाचारपत्र हर रोज रोमन लिपि में प्रकाशित होंगे। इस नई पद्धति के अनुसार वंदेमातरम् गीत 'टोमारी प्रॉटिमा घाडी के म्यॉडिरे' तथा वे भी आकर्षक आवरण में प्रारंभ होंगे! Dharmakshetre Kurukshetre Shameveth yuyutsa इत्यादि। अरबी लिपि मुद्रण के लिए सुलभ न होने के कारण कमाल पाशा ने उसे नष्ट कर रोमन लिपि को स्वीकार किया, यह बात सुभाष बाबू ने बताई। यह सत्य है। परंतु उस बात से उर्दू लिपि के लिए प्रेम प्रकट करनेवाले हम लोगों के मुसलमान बांधवों को ही सबक लेना चाहिए। परंतु यहाँ वे एक ऐसी लिपि परिपूर्ण राष्ट्र लिपि के रूप में हिंदुओं पर थोपना चाहते हैं जिसका किसी भी प्रकार का संबंध हिंदुओं से नहीं है। कमाल पाशा ने रोमन लिपि को चुना, क्योंकि इसके बिना तुर्कों को कोई अन्य आधार नहीं था।

अंदमान के लोग कौड़ियाँ जमा करके उनसे हार बनाते हैं, परंतु इसलिए कुबेर को भी ऐसा करना उचित होगा? इसके विपरीत अरबस्थान तथा यूरोप को हम हिंदू लोगों को ही नागरी लिपि तथा हिंदू भाषा का अनुसरण करने का उपदेश देना चाहिए।

सभी आर्यसमाजी गुरुकुलों में वेदाध्ययन के लिए रोमन लिपि का प्रयोग किया जाना चाहिए तथा सभी मराठों की राष्ट्र भाषा उर्दू होनी चाहिए आदि सूचनाएँ गंभीरतापूर्वक अत्यधिक व्यवहार्य मानकर करनेवाले हम लोगों के महान् आशावादी लोगों को तो मेरी उपरिनिर्दिष्ट सूचना अव्यवहार्य प्रतीत नहीं होनी चाहिए।

हिंदू महासभा हिंदू जगत् की राष्ट्रीय संघटना है

किसी ख्रिस्ती मिशन के समान हिंदू सभा केवल एक धार्मिक संघटन है, इस भ्रांत कल्पना से अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त करनेवाला हिंदुओं का एक बड़ा वर्ग हिंदू महासभा से अलिप्त रहता है। उसी प्रकार हिंदुस्थान के तथा बाहर के राजनीतिक कार्यकर्ता हिंदू महासभा के विषय में उदासीन होते हैं यह मेरी समझ में आया है। परंतु इस प्रकार की कल्पना करना वास्तविक स्थिति से पूर्णतः भिन्न है। हिंदू महासभा किसी प्रकार का हिंदू मिशन नहीं है। हिंदू सभा ईश्वरी, एकेश्वरी, सर्वेश्वरी, निरीक्षरी आदि धार्मिक प्रश्न विभिन्न धार्मिक संप्रदायों को ही सौंप देती है। वह हिंदू धर्म महासभा नहीं है। यह हिंदू राष्ट्रीय महासभा । अतः उसके गठन के अनुसार हिंदुस्थान के किसी भी विशिष्ट पंथ अथवा संप्रदाय की पक्षपाती बनकर आगे आने का हिंदू सभा पर प्रतिबंध है। हिंदुस्थान में निर्माण हुए सभी धर्मों का समावेश करनेवाला राष्ट्रीय हिंदू धर्मपीठ (चर्च) का अहिंदुओं के आघातों से संरक्षण करना तथा उसका प्रसार करने का कार्य हिंदुओं की राष्ट्रीय संस्था के रूप में हिंदू महासभा करेगी। परंतु केवल धार्मिक संस्था से उसका कार्यक्षेत्र अत्यधिक व्यापक और संग्राहक है। हिंदू जगत् के सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और इन सभी के ऊपर के राजनीतिक क्षेत्र के साथ हिंदू जगत् के समग्र राष्ट्रीय जीवन से हिंदू महासभा तादात्म्य रखती है। हिंदू राष्ट्र का स्वातंत्र्य बल तथा वैभव का जिस कारण संवर्धन होगा उन सभी बातों का रक्षण एवं समर्थन करने हिंदू महासभा कटिबद्ध है। इस ध्येयपूर्ति के लिए सभी न्याय्य व उचित मार्गों से हिंदुस्थान का विशुद्ध राजकीय स्वातंत्र्य अथवा पूर्ण स्वराज्य हिंदू महासभा को प्राप्त करना है।

हिंदुस्थान राजकीय दृष्टि से स्वतंत्र हो जाने पर भी हिंदू सभा को अपना अंगीकृत कार्य करना जारी रखना होगा

अनेक अल्पमति टीकाकारों की यह कल्पना है कि मुसलिम लीग अथवा कांग्रेस की वर्तमान हिंदू विरोधी नीतियों का प्रतिरोध करने की शक्ति के रूप में ही हिंदूसभा का आयोजन किया गया है तथा यह बाहरी समर्थन देनेवाला कारण दूर होते ही वह पूजा के बासी फूलों के समान अपने आप समाप्त हो जाएगी। परंतु इस सभा के ध्येय तथा उद्देश्य में कुछ अर्थ है तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि केवल किसी तात्कालिक पक्ष का विरोध करने हेतु अथवा कोई शिकायत दूर करने के लिए क्षणिक उत्साह उत्पन्न होने से यह निर्माण नहीं हुई है। वास्तविक स्थिति यह है कि कोई भी व्यक्ति या संस्था जीवित होकर भविष्य में जीवित कहने योग्य हो तो जब वह बदलती परिस्थिति के विरोधी आवरण में खड़ी होती है उस समय उसके संरक्षक तथा आक्रामक ये उभयविध अंग उपस्थित होते हैं। उसी प्रकार हिंदू राष्ट्र भी कांग्रेस छाप भ्रांतिपूर्ण राष्ट्र कल्पना की दमघोंटू परिवेष्टन से मुक्त होकर अपने पाँवों पर खड़ा रहा, तब आधुनिक समय की भिन्न परिस्थिति में जीवन संग्राम में संघर्ष करने हेतु उसने एक नया साधन निर्माण किया। वही साधन है यह हिंदू महासभा। वह क्षणिक प्रसंग से नहीं बनी है। राष्ट्रीय जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं से ही वह उत्पन्न हुई है। उसके उद्देश्य तथा ध्येय के विविध अंगों को देखने से यह स्पष्ट होगा कि राष्ट्र के जीवन के समान ही उसका कार्य भी चिरस्थायी है। रोज की अस्थिर राजनीतिक घटनाओं का सामना करने हेतु अपनी नीति निर्धारित करने की दैनंदिन आवश्यकता का विचार करने से यह प्रतीत होता है कि हिंदुओं के हितसंबंधों की सावधानीपूर्वक रक्षा करना तथा विपदाओं से उन्हें बचाने हेतु हिंदू जगत् के लिए इसी प्रकार की एक स्वतंत्र तथा केवल हिंदुओं की ही एक संघटना की आवश्यकता है जो किसी भी अहिंदू अथवा उभयान्वयी संस्था के नैतिक एवं बौद्धिक वर्चस्व से प्रभावित नहीं होनी चाहिए। हिंदुस्थान की वर्तमान परतंत्र राजनीतिक अवस्था के लिए ही यह आवश्यक नहीं है बल्कि हिंदुस्थान पूर्णतः अथवा अंशतः स्वतंत्र होकर अपने राजनीतिक भविष्य का नियंत्रण राष्ट्रीय विधिमंडलों के माध्यम से करने लगेगा, तब भी हिंदू महासभा के समान केवल हिंदुओं को एक ऐसी संघटना कम-से-कम दो शतकों तक द्वार रक्षक दुर्ग के समान अवश्य होगी, फिर वह वर्तमान हिंदुस्थान हो अथवा अन्य कोई भी हो।

क्योंकि कुछ सर्वस्वी अघटित तथा व्यवहार्य राजनीति के दृष्टिपथ में न आनेवाली घटना होने के फलस्वरूप विश्व की राजनीति की वर्तमान स्थिति, आमूलाग्रतः जब तक विघटित नहीं होती तब तक निकट भविष्य में ऐसी अपेक्षा करना संभव होगा कि हम हिंदू लोग अंग्रेजों पर प्रभाव डालकर उनके लिए यह मानना अनिवार्य कर देंगे कि वेस्ट मिनिस्टर के नियमानुसार हिंदुस्थान एक स्वयंशासित घटक के समान योग्यता रखता है। इस स्वायत्त हिंदुस्थान के राष्ट्रीय विधिमंडल में मतदाता संघ का स्वरूप आज जैसा ही प्रतिबिंबित होगा अर्थात् हिंदू तथा मुसलमान जिस प्रकार आज हैं वैसे ही रहेंगे। कदाचित् उनके आपसी संबंधों में कुछ सुधार होगा अथवा अल्पतः वे कुछ बिगड़ जाएँगे। मुसलमानों द्वारा देश में बाहर के लोगों के साथ किए जानेवाले षड्यंत्र एवं हिंदुस्थान को मुसलिम राज्य में परिवर्तित करने की उनकी गुप्त प्रेरणा के फलस्वरूप स्वराज्य के पश्चात् के हिंदुस्थानी राज्य के लिए कभी-न-कभी मुसलमानों द्वारा पराए आक्रमणकारियों को आमंत्रित करने के अथवा आंतरिक युद्ध प्रसंग उत्पन्न होगा कोई भी व्यवहारकुशल व्यक्ति ऐसी संभावनाओं को अनदेखा नहीं कर सकता। हम लोगों को दूरदर्शिता से काम करना होगा। स्वायत्त राष्ट्रों की पंक्ति में हिंदुस्थान के आ जाने पर भी हम लोगों को उपरिनिर्दिष्ट संभावित संकट को सदैव ध्यान में रखना चाहिए। इस संकट का सामना करने हेतु हिंदू महासभा के समकक्ष केवल हिंदुस्थान की बलशाली संघटना हम लोगों की शक्ति वृद्धिंगत करने के निश्चित रूप से उपयोगी सिद्ध होगी। किसी भी समय आधार अवलंबन होने के लिए कुछ समय के लिए सहेजकर रखी हुई शक्ति के रूप में उसका उपयोग हो सकेगा। संयुक्त विधिमंडलों से अधिक प्रभावी रीति से हिंदुओं के दुःख उजागर करने तथा आगामी संकटों की समय पर पहचान करने के पश्चात् हिंदुओं को उचित समय पर सावधान करने तथा संयुक्त राज्य की भूल के कारण किसी राष्ट्रघाती व्यूह में फँसने लगे तो उस व्यूह का प्रतिरोध करने के लिए इस प्रकार की संस्था की आवश्यकता होगी।

सुगठित हिंदू संघटना ही आज तथा भविष्य में सहायक होगी

हिंदुस्थान के हिंदू मुसलमानों के समान जहाँ किसी राज्य में दो या अधिक परस्पर विरोधी घटक निवास करते हों, वहाँ अधिक सतर्क घटक बलशाली विरोधी गुट द्वारा राज्य पर आक्रमण करने अथवा उत्पात करने के प्रयासों का विरोध करने के लिए बलशाली और पूर्णतः कुशल अपनी एक स्वतंत्र संघटना स्थापित करनी चाहिए। इस प्रकार के विरोधी गुट राष्ट्रीयत्व की भावना से भविष्य में संयुक्त राष्ट्र में विलीन हो सकते हैं। तब तक ऐसे संयुक्त राज्य के घटकों में उपद्रव चलता ही रहेगा। हिंदुओं ने इस व्यावहारिक सत्य को ध्यान में रखा जो आज हिंदू मनोभूमि में बद्धमूल हो चुकी हैं तथा बलशाली बन रही हैं। ऐसी अखिल हिंदू संघटना को सुगठित करने के अधिकाधिक प्रयास हिंदुओं द्वारा किए जाएँगे। जैसे-जैसे आप लोग स्वराज्य के निकट पहुँचेंगे वैसे-वैसे आपको एक बलशाली तथा एकजीव हिंदू संघटन की आवश्यकता प्रतीत होगी अथवा अखिल हिंदुओं को संघटना जैसे-जैसे प्रबलतर होगी वैसे-वैसे आप लोग स्वराज्य के निकट पहुँचेंगे !

हिंदू आंदोलन की व्यावहारिक कार्यनीति

मैंने अब तक अपने विचारों के अनुसार हिंदू संघटन के आंदोलन के राष्ट्रीय राजनीतिक ध्येयवाद, उसके मूलतत्त्व तथा प्रमेय विवेचित किए। हम लोगों को हिंदू आंदोलन की यह ध्येयनिष्ठा तथा कल्पना ही उचित रूप में लोगों के समक्ष रखनी पड़ रही है। इसके साथ हिंदी राज्य की घटना की वर्तमान योजना में क्रांति करने के समान हिंदू लोगों के सार्वजनिक जीवन में परिवर्तन कराना ही इस ध्येय का अर्थ है। इसको करने पर भी हम लोग पहला कदम ही रख रहे हैं। इसे देखते हुए हम लोगों की परिभाषा के अनुसार स्वतंत्र हिंदुस्थान निर्माण करने का हम लोगों का ध्येय प्राप्त करना संभव होने से पूर्व हम लोगों को किस प्रकार सातत्य से एवं परिश्रमपूर्वक संघर्ष करना होगा यह स्पष्ट हो जाएगा। एक बार ध्येय निश्चित हो जाने पर युद्ध की ओर संपूर्ण ध्यान केंद्रित करना होगा तथा यह युद्ध अधिकाधिक प्रभावी रूप से किस प्रकार लड़ना होगा तथा होनेवाला विरोध यथासंभव किस प्रकार मर्यादित किया जा सकेगा - इस संबंध की कार्यनीति हम लोगों को शीघ्रातिशीघ्रनिर्धारित करनी होगी।

यह भी ध्यान में रखना आवश्यक है कि ध्येय अचल रहते हुए भी उसे प्राप्त करने का मार्ग किसी सीधी रेखा के समान होगा, यह संभव नहीं है। कभी समन्वय, किसी समय युद्ध तो किसी समय पीछे हटते हुए कटिबद्ध रहना आदि बातें करनी पड़ेंगी।

किसी समय अपने प्रतिपक्ष के किसी घटक के साथ विशिष्ट विधेयक के समय सहमत होना पड़ेगा और भविष्य में उसका विरोध भी करना होगा। इन सभी बातों का विचार करते हुए यदि इष्ट प्राप्ति की दृष्टि से इसी क्रम से हम लोग आगे बढ़ते गए तब अपने ध्येय तक पहुँचने के लिए किए जानेवाले कार्य की संगति बन जाएगी। मैं आपके सम्मुख जो कार्यनीति प्रस्तुत करने वाला हूँ उसे उपरिनिर्दिष्ट व्यवहार चातुर्य की दृष्टि से देखिए। यह नीति केवल हम लोगों की वर्तमान अवस्था से जुड़ी हुई है। उसे त्रिकालबाधित निश्चितता मत मानिए अपना यह आंदोलन इसी प्रकार आगे बढ़ते-बढ़ते किसी समय ऐसा स्थान प्राप्त कर लेगा तथा प्रचंड बल से आगे बढ़ते हुए अधिकार वाणी तथा अपार शौर्य से इस प्रकार की वांछित बातें करने में समर्थ होगा, जिन्हें प्रकट करना भी हम लोगों के वर्तमान प्रारंभिक समय में संभव नहीं है। यह मेरा व्यक्तिगत अभिप्राय है। हिंदू सभा द्वारा सामुदायिक रूप से प्रस्ताव पारित किए बिना वह उसके लिए अपरिहार्य नहीं होगा।

अखंड हिंदुस्थान ही ध्येय

1. हिंदुस्थान की अविभाज्यता बनाए रखना हम लोगों के राजनीतिक कार्य का प्रथम और प्रमुख लक्ष्य होना चाहिए। हिंदुस्थान का अर्थ तथाकथित ब्रिटिश हिंदुस्थान नहीं है। उसमें फ्रेंच तथा पुर्तगालियों के अधीन क्षेत्रों का भी अंतर्भाव होता है। जैसे महाराष्ट्र तथा बंगाल उसी प्रकार गोमांतक एवं पांडिचेरी भी हम लोगों की मातृभूमि के अविभाज्य अंग हैं। सिंधु से हिमालय तथा आगे के तिब्बत व ब्रह्मदेश तथा ब्रह्मदेश से दक्षिण और पश्चिम समुद्र से पार हम लोगों के देश की सीमारेखा जाती है। कश्मीर, नेपाल, गोमांतक और पांडिचेरी तथा फ्रेंच प्रदेश इन सभी को मिलाकर हम लोगों का राष्ट्रीय भौगोलिक क्षेत्र बनता है। वह संपूर्ण क्षेत्र एक स्वतंत्र केंद्रीय सत्ता के राज्य में संघटित रूप से समाविष्ट होना चाहिए। वह चिरंतन रूप से अविभाज्य रहना चाहिए। हिंदुस्थान का यह प्रादेशिक तथा राष्ट्रीय अविभाज्यत्व तोड़ने का कोई भी प्रयास, उदाहरणार्थ हिंदू तथा मुसलमानों के अधिकार क्षेत्रों में टुकड़े करने के आज के प्रयास करनेवाले सभी प्रवर्तकों को अपने संपूर्ण सामर्थ्य से प्रतिरोध करना तथा राष्ट्रघातक एवं राष्ट्रवंचक होने के कारण उन्हें सजा देना आवश्यक है।

2. पूर्वसीमा पर स्थित ब्रह्मदेश, तिब्बत आदि पाश्‍व निवासी राज्यों के संबंध में हम लोगों की नीति भिन्नता होगी तथा उनकी इच्छा होगी तो राजनीतिक सहमति भी होगी। वे हम लोगों के धर्म बांधव हैं तथा हम लोगों के राजनीतिक संबंध भी मूलतः विरोधी नहीं हैं। यदि हम लोग राजनीतिक सहमति से कार्य करेंगे तो हम लोगों की परस्पर राजनीतिक शक्ति में सामान्यतः वृद्धि होगी।

3. परंतु वायव्य सीमा पर स्थित मुसलिम राज्य के विषय में तथा जाति के बारे में हमें सतर्कता की नीति अपनानी होगी । गत अनेक शतकों से उन लोगों की प्रवृत्ति धर्मप्रेम के कारण हिंदुओं से शत्रुतापूर्ण व्यवहार करने की रही है तथा आगामी एक शतक तक वह उसी प्रकार की रहने की संभावना है।

हम लोगों की इस वायव्य सीमा को मुसलमानी सेना पर कभी भी अवलंबित न रखते हुए उसे स्वधर्मी हिंदू सेना द्वारा ही सुरक्षित रखना चाहिए। इसका हिंदू संघटन पक्ष द्वारा सदैव ध्यान रखा जाना चाहिए।

उस सीमावर्ती राज्य से मित्रतापूर्ण संबंध बनाने के लिए हम लोगों को सदैव तैयार रहना चाहिए तथा अनावश्यक वैरभाव के लिए अवसर नहीं देना चाहिए। परंतु उस मुसलमान जाति द्वारा किए जानेवाले आकस्मिक आक्रमण के लिए और उस घाटी में आने की इच्छा करनेवाले किसी भी हिंदू विरोधी विदेशी के अपकारक हस्तक्षेप का प्रतिरोध करने के लिए वहाँ तैनात हिंदू सेनाएँ सदैव दक्ष तथा युद्ध के लिए तैयार रहनी चाहिए।

हिंदू राष्ट्र का आशास्थान-नेपाल !

4. नेपाल के स्वतंत्र हिंदू राज्य से संपूर्ण हिंदू जगत् अत्यधिक निष्ठा से जुड़ा हुआ है तथा उस राज्य का अखंडत्व एवं सम्मान बनाए रखने हेतु हिंदू जगत् अपनी संपूर्ण शक्ति जुटाकर प्रयास करेगा। अवमानकारक पराए तथा अहिंदू ध्वज से कभी भी कलंकित न हुए वास्तविक धर्मक्षेत्र का अभिधान जिसे दिया जा सकता है वह हम लोगों की मातृभूमि का एकमात्र क्षेत्र आज तक बना हुआ है। एक पराक्रमी हिंदू जाति का निवास स्थान होने के कारण नेपाली हिंदू राज्य के स्वातंत्र्य में हिंदुओं की आशा तथा अभिमान भी केंद्रित हो चुके हैं।

नेपाल के सामर्थ्य में वृद्धि करनेवाली प्रत्येक शक्ति का संपूर्ण हिंदू जगत् में सम्मान बढ़ाकर उसकी भूमिका को ऊपर उठाते हुए सबल बनाना है। हिंदुस्थान में किसी भी अन्य हिंदू जगत् को दुर्बल या उपेक्षित करनेवाली किसी भी घटना के कारण नेपाल की सत्ता में कमी होना अपरिहार्य है। उदाहरणार्थ, वायव्य सीमा का मुसलमानों का उत्थान नेपाल के हिंदू राज्य के लिए सदैव बना रहनेवाला संकट ही है, हिंदू इतिहास से इतनी भी दूरदर्शिता यदि हम लोगों को प्राप्त नहीं हुई है तो गजनी तथा गोरी आदि के आक्रमण की घटनाओं से जो बोध आप लोगों को प्राप्त होता था वह व्यर्थ ही चला गया- ऐसा कहना पड़ेगा।

फिर भी ब्रिटिश राज्य के हिंदुस्थानी प्रदेश की संकीर्ण एवं भ्रमग्रस्त राजकरण द्वारा की गई विकृतियों में नेपाल को खींचने के लिए कोई भी कदम हम लोगों ने उठाया तो यह बात मूर्खता ही होगी। नेपाल जैसी स्थिति के स्वतंत्र राज्य की प्रसंगोपात नीति के लिए परतंत्र जाति की राजनीति मार्गदर्शक नहीं हो सकती। किसी भी अहिंदू आक्रमण से सुरक्षित रहने के लिए नेपाल के राज्य ने ब्रिटिशों से राजनीतिक सहमति से रहने की तथा ब्रिटिश राज्य से मैत्रीपूर्ण संबंध रखने की जो नीति प्रचलित की है उसका समर्थन करने में मुझे किसी प्रकार का संकोच नहीं होता। इसीलिए स्वयं की सुरक्षा तथा सामर्थ्य अबाधित रखते हुए जितने नेपाली सैनिक हिंदी सेना को दिए जा सकते हैं उतने की पूर्ति करने की नेपाल की नीति अत्यधिक बुद्धिमानी की है। यूरोप तथा अतिपूर्व के देशों में राजनीतिक उलझनों के कारण ब्रिटिश राज्य सत्ता को भी हिंदुस्थान की रक्षा निश्चित करने हेतु नेपाल से वृद्धिंगत होनेवाली मित्रता एवं सैन्य विषयक सहायता पर निर्भर करना आवश्यक होगा, ऐसा निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है।

इस संबंध में एक और बात विचारणीय है। नेपाल की सीमा के जो प्रदेश ब्रिटिशों ने हथिया लिये थे उनमें से कुछ प्रदेश ब्रिटिशों को नेपाल नरेश को लौटा देने चाहिए। इस कार्य से दोनों राष्ट्रों में विद्यमान मित्रता इतनी दृढ़ होगी कि अन्य किसी भी कार्य से ऐसा होना संभव नहीं है।

उदयशील राष्ट्र के लिए आवश्यक भविष्यभेदी दूरदर्शिता नेपाल को होगी तथा वह समय पर सतर्क हो जाएगा तो नेपाल का भविष्य काल निःसंशय उज्ज्वल है। नेपाल को अपना सैन्यबल आधुनिक यूरोपियन सैन्य के समान बनाना चाहिए। जमीन से होनेवाले आक्रमण के अतिरिक्त हवाई मार्ग से होनेवाले आक्रमण का सामना करने हेतु उस देश को प्रबल वैज्ञानिक दल प्राप्त करना चाहिए। नेपाल का सामर्थ्य एक मित्र राष्ट्र का ही सामर्थ्य होने के कारण वर्तमान स्थिति में ब्रिटिश शासन इससे आश्वस्त होकर नेपाल के प्रयासों में बाधा न डालते हुए उसकी इस योजना में उसे सहायता ही प्रदान करेगा। नेपाल के संबंध में एक विशाल ग्रंथ लिखनेवाले मि. पर्सिव्हल लॅग्डन नामक प्रख्यात ग्रंथकार के शब्दों से आगामी समय में नेपाल का हिंदी राजनीति पर क्या प्रभाव होना संभव है यह ज्ञात हो सकेगा।

मि. लॅग्डन के विचार

'वर्तमान समय में नेपाल को जो महत्त्व प्राप्त हुआ है उसे दुर्लक्षित करना मूर्खता ही होगी। सर्वोच्च भूमिका और हिंदुस्थान को आज की स्थिति में जिन प्रश्नों ने पीड़ित किया है उनके उत्तर प्राप्त करने में आगामी समय में नेपाल को प्राप्त होनेवाला अधिकाधिक महत्त्व आदि समझने के प्रयास अंग्रेजों द्वारा किए जाने चाहिए। नेपाल आज उदयोन्मुख राष्ट्र है तथा उसका भविष्य काल उसे एक ही दिशा की ओर अग्रसर कर रहा है। हिंदी राजनीति के विभिन्न क्षेत्रों को देखते हुए नेपाल के अंतिम भवितव्य से अधिक उन्हें आकर्षित करनेवाली कोई अन्य बात दिखाई नहीं देती।

'हिंदुस्थान से धीरे-धीरे दूर होने की ब्रिटिशों की नीति इसी प्रकार चालू रही तो नेपाल का महत्त्व उत्तरोत्तर बढ़ना अपरिहार्य है। हिंदुस्थान के भवितव्य पर नियंत्रण रखने के हेतु से पात्र को पाचारण कोई असंभव बात नहीं है।'

हिंदुस्थान की राजकीय घटना

हिंदू संघटन पक्ष के अनुसार हिंदुस्थान की भावी राज्य घटना निम्न व्यापक तत्त्वों पर आधारित होगी। सभी नागरिकों के अधिकार तथा कर्तव्य एक समान रहेंगे, चाहे उनकी जात या धर्म कोई भी हो। इसके लिए उन्हें इस हिंदुस्थानी राज्य से एकनिष्ठ रहने की प्रतिज्ञा करनी चाहिए तथा उसपर निष्ठा रखनी चाहिए। भाषण, विचार, धर्म तथा संघ आदि से संबंधित स्वतंत्रता के मूलभूत अधिकार का उपभोग सभी नागरिकों को समान रूप से करना संभव होगा। सार्वजनिक शांति, सुव्यवस्था तथा राष्ट्रीय आवश्यकता आदि के लिए इन अधिकारों पर जो बंधन डाले जाएँगे वे धार्मिक तथा जातीय विचारों के आधार पर न होकर सर्वसामान्य राष्ट्रीय कारणों के लिए डाले जाएँगे। प्रादेशिक दृष्टि से भी इस नीति से अधिक राष्ट्रीय नीति अन्य कोई नहीं हो सकेगी तथा यही नीति एक व्यक्ति एक मत के सूत्र से संक्षेप में दरशाई जाती है।

इससे यह स्पष्ट हो जाएगा कि सामान्य हिंदी राष्ट्र के विकास के लिए हिंदू राष्ट्र की कल्पना किसी भी अर्थ में असंगत नहीं है, क्योंकि इस हिंदी राष्ट्र में सभी पंथ, उपपंथ, वंश, जाति, धर्म तथा संप्रदाय हिंदू, मुसलमान, एंग्लो-इंडियन, ख्रिश्चन आदि सभी को एक ही राजनीतिक घटना में समानता तथा अखंड रूप से एकत्रित करना संभव होगा। इस प्रकार का संयुक्त हिंदी राज्य ही हिंदी राष्ट्र है।

हिंदुस्थानी राष्ट्रीय राज्य घटना विषयक हिंदू महासभा की नीति निश्चित रूप से और अर्थपूर्णता की दृष्टि से मुसलिम लीग अथवा कांग्रेस की नीतियों से अधिक राष्ट्रीय है। स्वयं को राष्ट्रीय कहलानेवाली कांग्रेस भी जितनी स्पष्टता से राष्ट्रीय नीति प्रस्तुत नहीं कर सकती, उतनी स्पष्ट राष्ट्रीय नीति जिसे अराष्ट्रीय दुराग्रही, जातीय कहकर लोग तथा कांग्रेस ने अस्वीकार कर दिया है उसी हिंदू महासभा की (नीति) है। वस्तुत: कांग्रेस ही सरल अर्थ में एक जातीय संस्था है। इतना ही नहीं, वह विपरीत रूप से जातीय है, क्योंकि हिंदू बहुसंख्य व मुसलमान अल्पसंख्य इन विभागों को मान्यता देकर पुनः सांस्कृतिक अधिकार, मतदान, राज्य संघ के घटक आदि में बहुसंख्यकों का न्याय्य मात्रा में दिया जानेवाला अंश निकालकर धार्मिक दृष्टि से अपसंख्यक मुसलमानों को देने के लिए कांग्रेस दबाव डालती है तथा वह मूल्य देकर मुसलमानों से देशभक्ति तथा संयुक्त राष्ट्रीय राज्य के लिए निष्ठा खरीदना चाहती है। दूसरी ओर मुसलिम लीग राष्ट्रीयत्व की भूमिका के कारण जो न्याय्य अधिकार प्राप्त होते हैं उनसे बहुत अधिक अधिकार हिंदुओं के हित का विधान करती हुई स्वतंत्र घटक के रूप में माँगती है और यदि ऐसा न किया गया तो दुस्साहस से पृथक् होकर परायी शक्ति से गठजोड़ करने की धमकी देती है। सारांश में मुसलिम लीग की अराष्ट्रीय भूमिका कपटपूर्ण और विश्वासघात की सीमा तक पहुँच चुकी है।

एक मुसलमान के लिए तीन मतों की माँग करते समय मुसलिम लीग भयंकर जातीयता ही प्रकट करती है और तीन हिंदुओं को मिलाकर एक मत देने की बात करनेवाली कांग्रेस भी शरणागति स्वीकार कर जातीयवाद को ही प्रकट करती है। ये ही दोनों संस्थाएँ, एक मिथ्या राष्ट्रीय कांग्रेस तथा दूसरी स्पष्ट रूप से राष्ट्र विघातक बनी हुई मुसलिम लीग-हिंदू संघटना पक्षों को जातीय तथा अराष्ट्रीय कहकर उनकी निंदा करती हैं।

रोटी के छोटे टुकड़े के लिए अपना जन्मसिद्ध अधिकार छोड़ देना हिंदू संघटनी पक्ष को मान्य नहीं है। वह पक्ष मुसलिम लीग के साथ उनकी हाँ में हाँ नहीं मिलाता तथा कांग्रेस से प्राप्त होनेवाले अनुपयोगी राष्ट्रीयत्व के प्रशंसापत्र की भी अपेक्षा नहीं रखता।

अहिंदू अल्पसंख्यकों के अधिकार

एक बार हिंदू महासभा ने 'एक व्यक्ति, एक मत' का तत्त्व स्वीकार कर उसका पुरस्कार किया है-अतः राज्य तंत्र के सेवकों की नियुक्ति केवल गुणों के आधार पर ही की गई और मूलभूत अधिकार एवं कर्तव्यों में धर्म व जाति का भेद न करते हुए सभी के कर्तव्य समान माने गए तो अल्पसंख्यकों को अधिक अधिकारों के लिए मांग करना अनावश्यक व आत्मविरोधी होगा। फिर भी व्यावहारिक राजनीति के अनुसार हम लोगों के अहिंदू देश-बांधवों के संदेह का भूत जाग्रत् न हो ऐसा हिंदू संघटकों को प्रतीत होता है। अतः हम लोग यह स्पष्ट रूप से कहने को तत्पर हैं कि धर्म, संस्कृति तथा भाषा के संबंध में अल्पसंख्यकों के न्याय्य अधिकारों के विषय में उल्लेखपूर्वक निश्चित घोषणा की जाएगी। इस कारण इस शर्त का पालन करना होगा कि तत्सदृश बहुसंख्यकों के समान अधिकारों में बाधा नहीं पहुंचाई जाएगी और उनपर आक्रमण भी नहीं किया जा सकेगा। प्रत्येक अल्पसंख्यक वर्ग अपने बच्चों को भाषा की शिक्षा देने हेतु विद्यालय प्रारंभ कर सकेगा तथा धार्मिक व सांस्कृतिक संस्थाएँ भी चला सकेगा। उन्हें राज्य से आंशिक आर्थिक सहायता भी प्राप्त होगी; परंतु उसकी मात्रा उस जाति द्वारा अर्थ कोष में जो धन दिया जाएगा उसपर निर्भर करेगी। यही तत्त्व बहुसंख्य वर्ग पर भी समान रूप से लागू होगा।

इसके साथ 'एक व्यक्ति, एक मत' इस विशुद्ध राष्ट्रीय तत्त्व के अनुसार संयुक्त मतदाता संघ राज्य को घटना का आधार मानते हुए, 'जातीय विभाजन' का तत्त्व मानते हुए जिन अल्पसंख्यकों को पृथक् मतदान संघ तथा आरक्षित प्रतिनिधि संख्या चाहिए उन्हें वह प्राप्त होगी। परंतु केवल उनकी संख्या के अनुपात में तथा इस शर्त पर कि यथाप्रमाण प्रतिनिधित्व के कारण बहुसंख्यकों के अधिकारों में बाधा नहीं उत्पन्न होती।

इस प्रकार ऊपर दी हुई सामान्य रूपरेखा के अनुसार संगठन बनाने पर मुसलमानों के अतिरिक्त ख्रिस्ती, ज्यू, पारसी तथा अल्पसंख्यकों को तुष्टि होगी। क्योंकि क्रिश्‍चयन, ज्यू और विशेषतः पारसी संस्कृति की दृष्टि से बहुत संलग्न तथा देशाभिमानी हैं एवं एंग्लो-इंडियन समझदार हैं। उन्हें यह प्रतीत होगा कि राष्ट्रीय राज्य का अबाधित अधिकार, एकजीवता तथा सामर्थ्य बनाए रखनेवाली कोई भी घटना इस सीमा से बाहर नहीं जा सकेगी। बहुसंख्यकों से भिन्न दिखाई देनेवाले अल्पसंख्यकों के विशेष अधिकारों की रक्षा करने के लिए उपरिनिर्दिष्ट सूचनाएँ पर्याप्त हैं, यह बात भी इन अन्य अल्पसंख्यकों की समझ में आ जाएगी। परंतु जो अल्पसंख्यक जाति राज्य में फूट डालने की मुक्त इच्छा रखती है, राज्य में ही दूसरा स्वतंत्र राज्य स्थापित करना चाहती है अथवा राष्ट्रीय राज्य को समाप्त कर इन सब पर वर्चस्व जमाना चाहती है, उस जाति की ओर से एक के बाद दूसरी माँग लगातार आती रहेगी, ये निश्चित मानिए। मुसलमानों के अतिरिक्त उपरिनिर्दिष्ट अहिंदू अल्पसंख्यक जाति में से कोई भी इस प्रकार का राष्ट्रघाती व्यूह अपने मन में नहीं रखती। परंतु मुसलमानों के विषय में ऐसा विश्वास नहीं किया जा सकता।

वर्तमान आर्थिक कार्यक्रम तथा कार्यनीति

चुनाव घोषणापत्र प्रस्तुत करते समय हिंदू महासभा को अपना आर्थिक नीति विषयक कार्यक्रम शीघ्र ही बनाना पड़ेगा। मैं इस समय कुछ सामान्य बातें ही सुझाने का काम कर सकता हूँ। स्थलाभाव के कारण अधिक विस्तारपूर्वक नहीं कहूँगा। प्रारंभ में ही यह बात ध्यान में रखना होगी कि मनुष्य केवल आर्थिक जीव नहीं है। मानव केवल रोटी पर ही जिंदा नहीं रहता, ऐसा ख्रिस्तन ने कहा है। वह समर्पक है। यह वचन आध्यात्मिक दृष्टि से सच है उसी प्रकार वांशिक, सांस्कृतिक, राष्ट्रीय तथा अन्य अनेक मानवी अंशों के लिए भी यह सार्थक है। इसलिए सभी मानवी व्यवहार और इतिहास आर्थिक सूत्रों में समाविष्ट करना सर्वस्वी एकांगी है। इसका अर्थ यह होगा कि भूख के अतिरिक्त जीवन की दूसरी कोई प्रेरणा नहीं है। मनुष्य को रोटी की समस्या तथा भूख के अतिरिक्त उतनी ही मूलभूत इच्छाएँ वैषयिक, बौद्धिक, भावनानिष्ठ होती हैं। उनमें से कुछ स्वाभाविक हैं तो कुछ कृत्रिम, कुछ व्यक्तिगत तो कुछ सामाजिक हैं। उनके कारण जीवन व इतिहास भी संकीर्ण हो गया है। मनुष्य को पेट है, परंतु पेट ही केवल मनुष्य नहीं है।

इस कारण मनुष्य जाति का विभाजन करनेवाले धार्मिक, वंश विषयक, राष्ट्रीय तथा अन्य वैरभावों को टालने हेतु आर्थिक हितसंबंधों के बंधन ही सर्वोत्तम साधन हैं ऐसा सुझाव कभी-कभी दिया जाता है। यह केवल सतही तथा अपूर्णता का लक्षण है।

जिस यूरोप में इस पंथ के निर्माता हुए, जहाँ उन्होंने अपना उपदेश कार्य किया, जहाँ सभी मानवी संस्थाओं में क्रांति की तथा उनको आर्थिक साँचे में ढालकर पुनर्घटित करने के लिए प्रचंड प्रयास किए, वहाँ भी धार्मिक वंश संबंधी एवं राष्ट्रीय भेदों में अत्यधिक वृद्धि हुई है। शतकों से आर्थिक हितसंबंधों पर अधिक जोर डालते हुए वहाँ अविरत प्रचार किया जा रहा है; परंतु जर्मनी, इटली, फ्रांस, पोलैंड, इंग्लैंड, स्पेन आदि देशों में इन धार्मिक, वांशिक तथा राष्ट्रीय भेदों का दमन करना संभव दिखाई नहीं देता है। इस एक ही बात से यह स्पष्ट हो जाता है कि धार्मिक, वंश विषयक तथा राष्ट्रीय घटक तत्काल समाप्त करना आप लोगों के लिए संभव नहीं होगा। कुछ लोग इस प्रकार का सुलभ तर्क प्रस्तुत करते हैं कि 'सभी लोगों को एक ही आर्थिक भूमि पर एकत्रित कीजिए, संस्कृति आदि भ्रममूलक भेदों का विस्मरण करने हेतु प्रवृत्त कीजिए और यदि यह संभव हो सके तो...' इत्यादि। परंतु ये लोग मुसलमानों का विचार तात्त्विक दृष्टि से नहीं करते, यह भी उनके कथन में प्रयुक्त 'यदि, तो' शब्दों से ही प्रतीत होता है। अत:सभी हिंदू संघटनवादियों को इस भ्रम में नहीं रहना चाहिए कि हिंदुस्थान मेंउत्पन्न होनेवाले सांस्कृतिक, वंश विषयक तथा राष्ट्रीय जटिल प्रश्न आर्थिक कार्यक्रम से सुलझ जाएँगे।

केवल आर्थिक हितसंबंधों का विचार करने से धार्मिक,जातीय तथा वांशिक समस्याओं का समाधान नहीं किया जा सकेगा

उन्हें इस बात पर भी ध्यान देना आवश्यक है कि हिंदुस्थान की वर्तमान अवस्था में आर्थिक प्रश्न भी धार्मिक तथा वंश विषयक विघटन से जुड़े हुए हैं। हिंदू संघटन क्षेत्र में कार्यकर्ताओं को स्वयं के अनुभव से ऐसे हजारों उदाहरण ज्ञात हैं कि जो व्यवसाय पूर्णतः मुसलमानों के हाथों में है उसे यदि कोई हिंदू करना चाहता है तो उसे यंत्रणा दी जाती है। हिंदू यदि रुई धुनने का अथवा ताँगा चलाने का काम करता है तो उसे मारने का भय दिखाया जाता है। सीमाप्रांत में मुसलमान लुटेरे नगरों तथा गाँवों को लूटने के पश्चात् नगाड़े बजाकर घोषणा करते हैं कि 'हम लोग केवल हिंदुओं को ही लूटेंगे। किसी भी मुसलमान व्यापारी अथवा साहूकार को नहीं छेड़ेंगे।' इस प्रकार के सैकड़ों उदाहरण प्रस्तुत करना संभव है। यदि इन हिंदुओं को तत्काल सुरक्षा देना अथवा सहायता देनी हो तो हिंदुओं के रूप में ही उनका संघटन बनाना होगा। मुसलमान पुलिस मुसलमान होने के कारण उनकी रक्षा नहीं करते। यह एक धार्मिक, जातीय तथा वंश विषयक रोग है। अर्थवादी रामबाण गोलियों से उसका निवारण नहीं हो सकता। इन लाखों धर्मप्रेमी विक्षिप्त लोगों को उदाहरणार्थ सक्कर क्षेत्र के गुंडों, हिंदुओं के आर्थिक संबंध एक हैं ऐसा उपदेश करने से उनमें बंधुभाव उत्पन्न करना क्या संभव होगा? जिन्हें जो उपाय उचित प्रतीत होता हो उसे आजमाकर देखना उचित होगा। परंतु यह सफल होने में कितने शतक बीत जाएँगे? और इस समय में हिंदुओं की अवस्था क्या होगी? चरखे की सहायता से संपूर्ण विश्व को सदा के लिए शस्त्रहीन करने की बात सोचनेवाले गांधीजी के एकपक्षीय भ्रांतिपूर्ण उपाय के समान ही यह उपाय भी है। फिर भी बिल्ली के गले में घंटी बाँधने का काम उस कल्पक चूहे पर छोड़कर अन्य लोगों को उस बीच व्यावहारिक उपाय तथा साधनों के लिए प्रयास जारी रखना चाहिए।

सभी के हितसंबंधों की एकता पर जोर देते हुए तथा कम-से-कम हिंदुस्थान के सभी लोगों को एक आर्थिक भूमि पर एकत्रित करने से सारे धार्मिक, वंश विषयक, राष्ट्रीय तथा सांस्कृतिक वैरभाव चुटकी बजाते ही समाप्त हो जाएँगे। इस प्रकार की मृगमरीचिका के पीछे पड़कर और मानवी आर्थिक पक्ष उत्पन्न करने का किताबी शास्त्रीय उपाय त्यागकर हिंदू संघटनी लोगों को व्यावहारिक राजनीतिक नीति से केवल हिंदू राष्ट्र की आर्थिक उन्नति के लिए ही अपना तात्कालिक आर्थिक कार्यक्रम सीमित रखना चाहिए।

हिंदुस्थान में विद्यमान विशिष्ट परिस्थिति तथा सामाजिक प्रगति का हम लोगों का स्तर देखते हुए निकट भविष्य में हम लोगों की आकांक्षाओं के अनुरूप यदि कोई अर्थशास्त्र विषयक संप्रदाय है तो वह राष्ट्रीयवादी अर्थशास्त्र का ही होगा।

मेरा विचार है कि हम लोगों की आर्थिक नीति के प्रमुख घटकों को एक सुलभ सूत्र में प्रस्तुत करना होगा तो उसे 'वर्गहितों का राष्ट्रीय समन्वय' नाम देने में चाहिए। यह हिंदू संघटनी भूमिका का आर्थिक पक्ष है।

हम लोगों की आर्थिक नीति वर्गहितों का राष्ट्रीय समन्वय

1. हम लोग प्रथम यंत्रों का स्वागत करते हैं, क्योंकि यह यंत्र युग है। हस्त व्यवसायों का भी एक स्थान है तथा वह प्रेरणास्रोत है। परंतु राष्ट्रीय उत्पादन यथासंभव अधिकतम विस्तृत यांत्रिक स्तर पर ही होगा।

2. कृषक तथा श्रमिक वर्ग ही राष्ट्रीय संपन्नता, शक्ति एवं आरोग्य का प्रमुख आधार है, क्योंकि देश को आरोग्य तथा संपत्ति की पूर्ति करनेवाले इन्हीं दोवर्गों पर बलिष्ठ सेना के भरती केंद्र प्रमुख रूप से निर्भर रहते हैं। अत: उनवर्गों की शक्ति तथा उनके निवास स्थान होने के कारण गाँवों का पुनरुज्जीवन किया जाना आवश्यक है।

केवल जीवनोपयोगी आवश्यक वस्तुएँ उन्हें मिलना पर्याप्त नहीं है। सर्वसामान्य सुख-सुविधओं का लाभ भी उन्हें मिलना चाहिए तथा यह प्राप्त करने में समर्थ बनाने के लिए राष्ट्रीय संपत्ति के बँटवारे में उन्हें उनका उचित भाग प्राप्त कराने हेतु समुचित व्यवस्था होनी आवश्यक है।

फिर भी इस बात का ध्यान रखना भी आवश्यक है कि वे सर्वसामान्य राष्ट्र के ही अंग हैं और इसी कारण उन्हें अपने कर्तव्य व उत्तरदायित्व काहिस्सा भी ग्रहण करना होगा। इसी कारण राष्ट्रीय उद्योग, उत्पादन, संपत्ति की सुरक्षा तथा संपूर्ण समाज की प्रगति से सुसंगत प्रतीत होनेवाला उनका अंशभाग ही उन्हें दिया जाएगा।

3. राष्ट्रीय उद्योग तथा उत्पादन के लिए राष्ट्रीय पूँजी होना अपरिहार्य है। वर्तमान परिस्थिति में वह पूँजी प्रमुख रूप से व्यक्तिगत है। उसे भी आजकी परिस्थिति में प्रोत्साहन तथा उचित पुरस्कार दिया जाएगा।

4. परंतु पूँजी और श्रम इन दोनों के हितसंबंध संपूर्ण राष्ट्र की सामान्य आवश्यकताके लिए पूरक हैं, ऐसा माना जाएगा।

5. किसी फले-फूले उद्योग के लाभ का बड़ा हिस्सा श्रमिकों को प्राप्त होगा,परंतु यदि वह उद्योग आर्थिक दृष्टि से हानिकारक होता है तब केवल पूँजीपति को ही नहीं, श्रमिकों को भी अल्प लाभ पर ही संतुष्ट रहना होगा ।

इसका उद्देश्य यही है कि पूँजीपति और श्रमिकों के अवास्तव स्वार्थी वर्ग हित की नीति के कारण राष्ट्रीय उद्योगों का सर्वनाश न हो।

सारांशत: पूँजी तथा श्रम की आकांक्षाओं का समय-समय पर समन्वय कर सभी राष्ट्रीय उद्योग एवं उत्पादन का संवर्धन तथा राष्ट्र स्वयं पूर्ण या आत्मनिर्भर हो, ऐसे प्रयास किए जाएँगे।

6. व्यक्तिगत प्रयासों की तुलना में जो उद्योग अधिक कार्यक्षमता से चलाए जा सकते हैं तथा जो उद्योग सरकार स्वयं चला सकती है उन प्रमुख उद्योगों का पूर्ण राष्ट्रीयकरण किया जाएगा।

7. यही नीति कृषि के लिए भी लागू की जाएगी। जमीन का मालिक तथा उस जमीन को बोनेवाला कृषक-इन दोनों के स्वार्थ विषयक संबंधों का द्वंद्र न होने के लिए जमीन के मालिक तथा कृषकों के हितसंबंधों का समन्वय इसप्रकार किया जाएगा कि जिससे राष्ट्रीय कृषि की आय में वृद्धि हो।

8. बड़े यंत्रों की सहायता से बड़े पैमाने पर शास्त्रीय पद्धति से राज्य द्वारा भीजमीन खरीदकर कृषि की जाएगी। यह कार्य कृषकों को कृषि संबंधी शिक्षा देने के उद्देश्य से ही किया जाएगा।

9. राष्ट्रीय आर्थिक शक्ति क्षीण न हो, सामान्यतः राष्ट्रीय उद्योग तथा उत्पादन की हानि होना अपरिहार्य दिखाई न दें, इस रीति से अथवा वैसे ही उद्देश्य से जो हड़ताल अथवा तालाबंदी की जाएगी उसका निर्णय राष्ट्रीय पंचायत के माध्यम से किया जाएगा और गंभीर स्थिति उत्पन्न होने पर उसे सख्ती से प्रतिबंधित किया जाएगा।

10. व्यक्तिगत प्राप्ति सामान्यतः सुरक्षित मानी जाएगी।

11. किसी भी स्थिति में उचित मूल्य दिए बिना सरकार इस प्रकार की व्यक्तिगत प्राप्ति का अपहार नहीं करेगी।

12. विरोधी एवं पराए उद्योगों से राष्ट्रीय उद्योगों को संरक्षण देने हेतु सभी प्रयास किए जाएँगे।

उपरिनिर्दिष्ट बातें उदाहरण के लिए दी गई हैं। राष्ट्र की आर्थिक शक्ति कासंवर्धन होने के लिए तथा वह आर्थिक दृष्टि से स्वावलंबी बने इन दो प्रमुख सूत्रों पर यह नीति आधारित है।

अहिंदुओं द्वारा आर्थिक आक्रमण किए जाने का भय जिस समय हिंदुओं के आर्थिक हितसंबंधों के लिए उत्पन्न होगी, उस समय उन हितसंबंधों की रक्षा करना निस्संदेह रूप से हिंदू संघटनवादी अर्थशास्त्र का भाग होगा।

निजामी राज्य, पंजाब, भोपाल, असम तथा हिंदुस्थान के अनेक अन्य विभागों में इस प्रकार का हेतुपूर्वक आर्थिक आक्रमण किया जा रहा है। सभी स्थानों की हिंदू सभाओं द्वारा इसपर ध्यान देते हुए हिंदू कृषक, हिंदू व्यापारी, हिंदू श्रमिक- इन्हें अहिंदू आक्रमण से हानि न हो तथा हिंदुओं के परस्पर विरोधी बननेवाले आर्थिक हितसंबंध उपरिनिर्देशित सामान्य तत्त्वों की सहायता से हल किए जाने चाहिए।

आगामी दो वर्षों के लिए हम लोगों का आज का कार्यक्रम

यूरोप में चल रहे युद्ध के विषय में हम लोगों की नीति क्या होनी चाहिए इस संबंध में हिंदू महासभा के कार्यकारिणी मंडल ने दो प्रस्ताव पारित किए हैं। तत्पश्चात् कोई नई घटना न होने से इस विषय पर कुछ कहने के लिए शेष नहीं है। ब्रिटिश सरकार से मैं पुनः आग्रहपूर्वक कहता हूँ कि वेस्ट मिनिस्टर के कानूनों के अनुसार स्वायत्त उपनिवेश की प्रतिष्ठा स्थानयुद्ध समाप्त होते ही हिंदुस्थान को प्रदान करना चाहिए। वर्तमान युद्ध के लिए हिंदुओं की सहानुभूति प्राप्त करने व स्वतंत्र हिंदुस्थान को भी राष्ट्रमंडल में समानता से सम्मिलित होने के लिए प्रवृत्त करने का यही सर्वोत्तम मार्ग है। यदि यह निर्णय शीघ्र नहीं किया गया तो हिंदुस्थान के अंतिम राजनीतिक ध्येय की दिशा में अग्रसर होने के लिए हिंदुस्थान को समर्थ बनाने के लिए उसे उपनिवेश का स्थान देने में विलंब होगा जो ब्रिटिश राष्ट्रमंडल की एकता की भावना के लिए भी घातक सिद्ध होगा। पूर्व की ओर जापान का उदय और शीघ्रतापूर्वक होनेवाली उसकी उन्नति तथा पश्चिम की ओर एशिया, इटली एवं जर्मनी की प्रगति ब्रिटेन के लिए अनिष्ट सूचक है। ब्रिटेन विरोधी किसी व्यूह का सामना करने हेतु ब्रिटिशों की भूमिका सबल हो इसी आकांक्षा से हिंदुस्थान के स्वतंत्र व स्वायत्त होने की बात ब्रिटेन के लिए शक्तिवर्धक होगी। परंतु केवल राजनीतिक शब्दाडंबर से हिंदुस्थान का असंतोष समाप्त नहीं होगा और ब्रिटिशों के अधिक रहने की अपमानजनक स्थिति हिंदुस्थान सहन नहीं करेगा। हिंदुस्थान के बहुसंख्यक हिंदू एवं अल्पसंख्यक मुसलमानों में प्रतिनिधित्व के अनुपात तथा उद्योग नीति को लेकर सहमति नहीं हो रही है। इस गौण कारण से तत्काल उपनिवेश का स्थान देने में विलंब करना न्याय्य है, ऐसी किसी भी तरह से प्रत्याशा करने पर भी हिंदुस्थान विश्वास करेगा ऐसी आशा भविष्य में आप लोगों को नहीं करनी चाहिए।

ब्रिटिशों का राजनीतिक कपट

ब्रिटिश राजनीतिक नेताओं ने अभी-अभी कहा है कि 'हिंदुस्थान के अल्पसंख्यक अर्थात् मुसलमानों के विरोध में उनपर एक भी संधि करने की योजना थोपना उचित नहीं है। हिंदू तथा मुसलमानों को स्वयं प्रेरणा से सहमत किए बिना हम लोग कदापि आगे कदम नहीं बढ़ाएँगे। अंग्रेज राजनीतिज्ञ किसी भी समाज पर उनकी इच्छा का विरोध करते हुए कोई भी चीज थोपना नहीं चाहते, इतने वे लोकसभा के प्रेमी तथा पापभीरु एक ही रात में हो गए यह एक आश्चर्य की बात है। उन्हें यह पूछना चाहता हूँ कि आप लोगों ने जब अपनी अनियंत्रित राजनीतिक सत्ता हिंदुस्थान पर थोपी थी तब हिंदुस्थान के लोगों का मन जानने हेतु क्या आपने सार्वभौमिक जनमतों की गणना की थी? केवल दो माह पूर्व ही कलम की एक चेष्टा से आपने प्रांतिक स्वायत्ता को समाप्त कर दिया तथा गर्वनरों को अपनी इच्छा से राज्य चलाने का अधिकार प्रदान किया-क्या उस समय आपने जनमत संग्रह किया था? (क्या अल्पसंख्यकों तथा बहुसंख्यकों ने मिलकर आपसे संयुक्त रूप से ऐसी प्रार्थना की थी ?) हिंदुस्थान पर आप लोगों ने विशुद्ध अनियंत्रित सत्ता तथा पारतंत्र्य थोपा, हिंदुस्थान को अधीन रखा तब यदि बहुसंख्य लोग इस प्रकार की माँग कर रहे हैं तो ऐसे समय अल्पसंख्यकों की अनिच्छा को अनदेखा करते हुए आप लोग उपनिवेशगत स्वराज्य क्यों नहीं थोप सकते ?

आप लोगों ने हिंदुस्थान के मस्तक पर शाप थोपे तो क्या आप वरदान नहीं दे सकते ?

जब तक हिंदुस्थान राजनीतिक प्रगति के उत्क्रांति के मार्ग पर चल रहा है। तब तक तथा यथासंभव शीघ्रता से हिंदुस्थान के जन्मसिद्ध अधिकार देने की अनिच्छा छिपाने हेतु अल्पसंख्यक मुसलमानों के हेतु का उपयोग करना और उपरिनिर्दिष्ट तरीके से खोखला राजनीतिक कपट करना यदि ब्रिटिश लोग रोक देंगे तो वह उनके लिए एवं हिंदुस्थान के लिए भी हितकर होगा। सर्वसामान्य प्रगति में अवरोध उत्पन्न करने का निर्णायक अधिकार मुसलमानों को प्रदान कर हिंदुओं का मार्ग ही बंद कर दिया जाएगा तो जटिल अवस्था उत्पन्न हो सकती है। परंतु वह कुछ ही समय तक चलेगी, क्योंकि यदि प्रगति करना असंभव बना दिया जाता है तो काल शक्ति का वर्धमान सामर्थ्य दूसरे अधिक भयानक मार्ग का उपयोग करेगा।

हिंदू सभावालों को दो वर्षों का विधायक कार्यक्रम

यदि कुछ अनपेक्षित व नितांत आवश्यक कर्तव्य करने की आवश्यकता नपड़ जाए तो इस बीच के समय में प्राथमिक प्रांतिक तथा मध्यवर्ती हिंदू सभाओं को विभिन्न विधायक कार्यक्रम प्रमुख रूप से हाथ में लेना चाहिए। अपनी दृष्टि से उपयुक्त तथा आवश्यक ऐसे अगणित कार्य हम लोगों के सामने पड़े हैं। परंतु प्राथमिक बातों से प्रारंभ करना सदैव हितकारी होता है। एक साथ सभी कार्य करने में तथा उसमें हर कार्य अधूरा, अपूर्ण या विकृत बनाकर छोड़ने में अथवा दिखाई देनेवाले अधिक कार्य प्रारंभ करने तथा उपांगों में ही उलझकर हतबुद्ध होना उचित नहीं है, उससे तो यही ठीक होगा कि अधिक मूलग्राही, विशेष प्रभावी एवं आज की स्थिति में वर्तमान सामर्थ्य तथा साधनों से जो किया जाना संभव है ऐसा कार्यक्रम चुनकर उसी कार्यक्रम पर प्रमुख रूप से अपने श्रम केंद्रित करने की योजना बनाना ही उचित होगा।

अपनी शक्ति जब तक नहीं बढ़ती है तब तक क्षोभ एवं दिखावा उत्पन्न करने के लिए युद्ध प्रारंभ करना कभी भी उचित नहीं होता। ऐसा करने से निष्कारण पराजय होने की अनिष्ट संभावना रहती है। नाविक लोग जल प्रवाह के रुख के अनुसार ही मार्ग तय करते हैं। सिंह भी उचित अवसर प्राप्त होने तक छिपकर रहता है। असंख्य मुखों से गर्जनापूर्वक अग्निवर्षा करते हुए प्रतिपक्ष को नष्ट करनेवाली प्रचंड युद्ध नौकाएँ यह कार्य करने से पूर्व शांत तथा अज्ञात स्थान पर तैयार होती हैं।

निम्न कार्य विभाग अकस्मात् अथवा दैवयोग से नहीं चुने गए हैं। उनकाचुनाव करते समय उपरिनिर्दिष्ट सभी विचारणीय बातों का खयाल रखा गया है। ये तीन कार्यक्रम अत्यधिक मूलग्राही व आवश्यक हैं तथा प्रसंग के अनुसार आवश्यक कार्य करने की मनीषा रखनेवाले प्रत्येक हिंदू संघटनवादी के लिए इन्हें करने में कोई कठिनाई उत्पन्न नहीं होगी। ये कार्यक्रम प्रारंभ में विशेष आकर्षक प्रतीत नहीं होंगे, परंतु अपने सम्मान की रक्षा करने और स्वातंत्र्य के लिए उचित समय पर सामना करने हेतु अखिल हिंदू जगत् को तैयार होना चाहिए, ऐसी सामर्थ्य वे आपको निश्चित रूप से प्राप्त करा देंगे। इन कार्यक्रमों के साथ संघटन के अन्य कार्य भी हाथ में लेना जिनके लिए संभव है उन्हें ऐसा करने में कोई समस्या नहीं है। परंतु आगामी दो वर्षों तक तो प्रारंभ में आप लोग अपना पूरा ध्यान इन कार्यक्रमों पर ही केंद्रित कीजिए। अन्य समस्याओं को आज ही हाथ में लेने के संबंध में इन तीन कार्यक्रमों पर कार्य करते हुए गत दो वर्षों में आप लोगों ने जोप्रगति की उसके फलस्वरूप आपको एक ऐसी प्रभावी भूमिका प्राप्त होगी कि आप लोग इसी के कारण अधिक कार्यक्षमता से अन्य समस्याओं का समाधान करने हेतु स्वयं को अधिक समर्थ पाएंगे। अतः प्रत्येक नगर, उपनगर तथा गाँव में निम्न बातों के लिए जोर-शोर से प्रचार करने का प्रयास किया जाना चाहिए -

1. अस्पृश्यता दूर करना ।

2. सभी शालाओं, विश्वविद्यालयों तथा महाविद्यालय में सैनिक शिक्षा अनिवार्य करने पर इन्हें बाध्य कीजिए। अपने हिंदू युवकों को किसी भी मार्ग से नाविक, वैमानिक अथवा सेना के दलों में प्रवेश प्राप्त करवा दीजिए।

3. हिंदुओं के मतदाता संघों को इस प्रकार अधिक-से-अधिक प्रवृत्त कीजिए कि हिंदू हितसंबंधों की रक्षा करने हेतु प्रकट रूप से स्वयं को बाँध लेनेवाले हिंदू संघटनी लोगों को ही उनके मत प्राप्त होने चाहिए। कांग्रेस के प्रतिनिधि जब तक कांग्रेस के अनुशासन से जुड़े हैं तथा कांग्रेस के टिकिट के कारण फँसे हुए हैं तब तक इच्छा रहते भी अथवा उनके वचन देने पर भी साहस के साथ और स्वतंत्रतापूर्वक हिंदू हितों में वृद्धि करने का कार्य वे कदापि नहीं कर सकेंगे। अतः हिंदू मतदाता संघ में कांग्रेस को मत न देने का विचार ही दृढ़ता से पैदा कीजिए।

यह कलंक धो डालिए

हिंदू जगत् के अन्य किसी भी विभाग के समान जो अपने बांधव हैं, धार्मिक, सांस्कृतिक राष्ट्रीय तथा अन्य सभी दृष्टि से अपने लोग हैं ऐसे कम-से कम दो करोड़ लोगों को अपने संघटन में समाविष्ट करने का कार्य ऊपर के प्रथम कार्यक्रम द्वारा पूर्ण किया जाएगा। सार्वजनिक जीवन में सभी नागरिकों को अर्थात् अहिंदुओं को भी जो मूलभूत अधिकार प्राप्त हैं वे सभी अपने तथाकथित अस्पृश्य बंधुओं को प्राप्त करवाकर उन्हें तथाकथित स्पृश्यों की समान भूमिका पर तत्काल लाने के प्रयास प्रत्येक हिंदू सभा को अपने-अपने क्षेत्र में करना चाहिए। केवल जन्म पर आधारित अस्पृश्यता के आधार पर किसी भी प्रकार से हम लोगों के अस्पृश्य बंधुओं को यंत्रणाएँ दी जाती रहेंगी हम लोगों को उनका पक्ष लेकर विरोध करना चाहिए तथा उन्हें भी ऐसा आचरण करने हेतु प्रवृत्त करना चाहिए और यदि आवश्यक हो तो इस प्रश्न को न्यायालय तक ले जाना चाहिए। परंतु हम लोगों के सनातनी बंधुओं के व्यक्तिगत स्वातंत्र्य पर बाधा लाकर उनकी भावनाओं की अवमानना अथवा उनमें हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। वस्तुतः सार्वजनिक जीवन के प्रत्येक अंग में केवल अस्पृश्य होने के कारण किसी भी हिंदू को दूसरे हिंदू के सार्वजनिक अधिकार में बाधा उत्पन्न करना असंभव बन जाना चाहिए। मुसलमान तथा अन्य अहिंदू लोगों से हम हिंदू लोग जिस सामाजिक समानता से व्यवहार करते हैं, उतनी ही समानता किसी भी जाति के हिंदू बांधव के लिए न्याय से ही प्राप्त होनी चाहिए। इसके विपरीत आचरण करना वस्तुतः हम लोगों के सामान्य हिंदुत्व का अपमान होगा।

यहाँ इस बात का उल्लेख करना आवश्यक है कि आज जिन्हें अस्पृश्य कहा जाता है वे स्पृश्य लोग भी इस पाप के इतने ही भागी हैं क्योंकि दूसरे लोगों से उन्हें जिस निर्दयता का व्यवहार मिलता है प्रत्येक अस्पृश्य किसी कनिष्ठ जाति को अस्पृश्य कहकर उससे इसी प्रकार का निर्दयता का व्यवहार करता है। यह पाप हम सभी लोगों को समान रूप से पीड़ा दे रहा है। अतः हम सभी लोगों को सभी प्रकार के प्रयास करते हुए इस भयंकर दोष को निश्चयपूर्वक और परस्पर मिलकर दूर करने के लिए प्रयास करना चाहिए।

इस बीच हम लोगों के सनातनी बांधवों को इस बारे में निश्चिंत हो जाना चाहिए कि प्रत्येक नागरिक को न्याय न प्राप्त होने के मूलभूत कारणों के अतिरिक्त कोई भी धार्मिक सुधार अस्पृश्यता के संबंध में भी हिंदुत्व के सीमा पर आनेवाले किसी भी पंथ पर थोपने के लिए सत्ता व कानून का प्रयोग नहीं किया जाएगा। परंतु अस्पृश्यता के कारण हुई और आज भी हो रही अपरिमित हानि के संबंध में जिन हिंदू संघटनवादियों को निश्चिंतता है वे भी अपने स्वयं के व्यवहार में अपनी विवेक-बुद्धि के अनुसार आचरण करने के लिए स्वतंत्र होंगे।

गांधीजी का हरिजनोद्धार तथा हिंदू संघटनवादियों का अस्पृश्यता निवारण

अस्पृश्यता निवारण का आंदोलन कौन-कौन से मार्ग से चलाना चाहिए यह समय-समय पर स्पष्ट किया जाएगा। यहाँ व्यक्तिगत उल्लेख को दोष मान लेते हुए कहता हूँ कि जिनके लिए संभव होगा उन लोगों ने, रत्नागिरी हिंदू सभा ने गत दस वर्षों से मेरी प्रेरणा के अनुसार अस्पृश्यता निवारण का आंदोलन तीव्रता से चलाकर जो यश प्राप्त किया है उसे इस कथन से समझ लीजिए। इससे यह भी स्पष्ट हो जाएगा कि गांधीनिष्ठ अस्पृश्यता निवारण तथा हिंदू संघटनवादियों की इस प्रश्न के संबंध की दृष्टि इसमें मूलतः भेद नहीं हैं तथा उनसे सहकार करने में हम लोगों को समस्या नहीं है तथापि गांधीनिष्ठ आंदोलन के साथ हम लोगों का आंदोलन एकरूप नहीं किया जाना चाहिए। गत दो सौ वर्षों में अस्पृश्यता निवारण के लिए किए गए कार्य से भी अधिक कार्य आगामी दो वर्षों में हिंदू संघटनवादियों द्वारा किया जाना चाहिए।

अन्य विधायक कार्यक्रमों के संबंध में महासभा की अखिल भारतीय समिति तथा कार्यकारी मंडल में समय-समय पर योजनाएँ बनाई जाएँगी।

तीसरा कार्यक्रम इन सभी कार्यक्रमों के मेरुमणि जैसा है। जब तक हिंदू मतदाता संघ विधिमंडल एवं स्थानिक स्वराज्य संस्थाओं में हिंदू संघटनवादी प्रतिनिधियों को न भेजकर राजसत्ता के सम्मुख अपना प्रतिनिधित्व करने का अधिकार, कांग्रेस को दे रहे हैं तब तक हिंदुस्थान में हिंदुओं की अवस्था राजनीतिक असहायता की होगी। गतकाल के समान हिंदू लोग ही भविष्य में बड़ी संख्या में राजनीतिक अधिकारों के लिए संघर्ष करेंगे और सफल भी होंगे, परंतु मतदान के समय उस अधिकार का त्याग करते हुए कांग्रेस को अधिकार प्रदान करने की आत्मघाती मूर्खता से हिंदू जब तक मुक्त नहीं होते तब तक हिंदुस्थान में हिंदू जगत् की न्याय्य भूमिका कभी भी बलशाली नहीं बनेगी। इसके विपरीत हिंदू महत्त्वहीन हो जाएँगे और उनके द्वारा प्राप्त किए हुए अधिकारों का लाभ मुसलमानों को ही अधिक होगा। इस प्रकार बढ़नेवाली सामर्थ्य से वे लोग हिंदुओं को पीछे खींचेंगे।

इस बात का भी ध्यान रखिए कि निकट भविष्य में कोई गोलमेज परिषद् अथवा एक प्रकार की समिति बुलाई जाने वाली है। जब तक हम लोग प्रतिनिधि के रूप में कांग्रेस को चुनेंगे तब तक राज्यकर्ता भी कांग्रेस को न्यायत: ही हिंदू मतों की प्रतिनिधि मानेंगे। फिर चाहे कांग्रेसवाले इस बात को अस्वीकार क्यों न करें।

हिंदू संघटनवादियों का ही चयन करो

कांग्रेस ने सर्वराष्ट्रीय प्रतिनिधित्व का कितना भी दावा किया तो भी कांग्रेस मुसलमानों का अथवा संपूर्ण राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करती है, यह बात राज्यकर्ता कदापि स्वीकार नहीं करेंगे, क्योंकि कांग्रेस की टिकट पर चुनाव लड़नेवाले मुसलमान उम्मीदवार को मुसलमान नहीं चुनता।

कांग्रेस के टिकट पर खड़े होने के कारण ही डॉ. किचलू भी मुसलिम मतदाता संघ में पराजित हुए। ऐसी अवस्था में मुसलमनों की माँगों की पूर्ति करने हेतु हिंदुओं के अधिकारों में भविष्य में बहुत कटौती की जाएगी। आज भी हिंदुओं के प्रांतों में भी मुसलमान समान स्थानों की माँग कर रहे हैं।

कांग्रेस संस्था की यह नीति व्यक्तिगत रूप से अमान्य करनेवाले कांग्रेसी हिंदुओं की गुप्त रूप से चलनेवाली उनकी विरोधी बातचीत कुछ भी उपयोग नहीं है तथा हिंदू संघटनवादियों का इस नीति का केवल निषेध करना भी पर्याप्त नहीं होगा; क्योंकि गोलमेज परिषद् में मुसलिम लीग के प्रतिनिधि जिस प्रकार स्वतंत्रतापूर्वक नि: संगतापूर्वक तथा निर्भयता से अपने अधिकारों का समर्थन करेंगे उस प्रकार हिंदुओं के न्याय्य अधिकारों का समर्थन करनेवाला पक्ष (हिंदू मतदाता संघ का अधिकृत पक्ष) जब तक नहीं है तब तक कुछ भी नहीं किया जा सकता।

हिंदू ही राजा बनेंगे

परंतु यदि हिंदू मतदाता संघ को भविष्य में किसी समय चेतना आएगी और कांग्रेसनिष्ठ प्रतिनिधियों को चुनने के लिए वह मना कर देते हैं तथा केवल हिंदू संघटनावादी प्रतिनिधियों को ही बहुमतों से विजयी बनाते हैं तो पंजाब, बंगाल आदि जिस प्रकार के मुसलमानी राज्य आज हैं उसी प्रकार का राज्य सात प्रांतों में हिंदू संघटनावादियों का होगा।

और ऐसा हो जाने पर संयुक्त प्रांत जैसे बहुसंख्य हिंदू प्रांत में भी कांग्रेस राज्य होने के कारण हिंदू जिन अन्यायों के विरोध में आक्रोश कर रहे हैं उनमें से ७५ प्रतिशत अन्याय दूर करने के लिए पर्याप्त राजनीतिक सत्ता हिंदुओं को प्राप्त होगी। प्रांतिक पुलिस एवं राज्य के सभी सेवक हिंदू संघटनवादी मंत्रियों के नियंत्रण में रहेंगे और हिंदुओं के अधिकार दुर्लक्षित कर उन्हें दबा देना उनके लिए संभव नहीं होगा। संभवतः मुसलमान हिंदुओं के अधिकारों पर अतिक्रमण करने का साहस नहीं करेंगे अथवा हिंदू विरोधी अथवा राष्ट्र विरोधी अक्षम्य माँगें भी नहीं करेंगे। अल्पसंख्यक मुसलमानों को उनके न्याय्य अधिकार प्रदान करने का हिंदू लोग विरोध नहीं करते तथा हिंदू संघटनी लोग हिंदुस्थान के देश-बांधवों से सम्मानीय मित्रता का व्यवहार करना चाहते हैं; अतः अल्पसंख्यक मुसलमानों को उनके न्याय्य अधिकार संबंधी सभी प्रकार का संरक्षण प्राप्त होगा।

इसीलिए आगामी दो या तीन वर्षों तक हम लोगों के सारे प्रयास का इन बातों पर ही केंद्रित होना आवश्यक है। हिंदू मतदाताओं को किसी भी चुनाव में कांग्रेसनिष्ठों को मत न देते हुए केवल हिंदू संघटनवादियों को ही अपना मत देना न चाहिए। इस हेतु हिंदू संघटन के कार्य के लिए समर्पित समाचारपत्र तथा केंद्रीय निधि की आवश्यकता होगी; परंतु इन सभी के पहले हम लोगों को हिंदू पक्ष की स्थापना करनी होगी। जो हिंदू सभा के संघटन में प्रत्यक्ष रूप से संबद्ध नहीं हैं परंतु जो हिंदू सभावालों के समान ही हिंदू संघटनवादी हैं ऐसे सनातनी, आर्यसमाजी तथा अन्य अनेक हिंदू पंथोपंथों तथा गुटों का समावेश इस हिंदू पक्ष में किया जाएगा। यह किस प्रकार और किन साधनों द्वारा किया जा सकता है इसपर विचार एवं योजना स्थानिक प्रांतीय तथा मध्यवर्ती हिंदू सभा और विशेषतः सभी हिंदू संघटनावादियों को करना चाहिए, फिर वे हिंदू सभा के नियमित सदस्य हो अथवा न हों।

पराजय में भी ध्येयनिष्ठा का होताम्य हम वरण करेंगे !

ऐसा भी मान लें कि हम लोगों को चुनाव में एक भी स्थान प्राप्त नहीं हुआ और हम लोगों की पूर्णतः पराजय हो गई तब ? तब भी धीरज रखिए। हम लोग अपनी पराजय मान्य करते हुए सार्वजनिक अपमान सहन करेंगे, परंतु हम लोग अभिमान से यह कह सकेंगे कि प्रचंड प्रतिरोधी शक्ति के सामने भी हम लोगों ने अपनी विवेक- बुद्धि से संघर्ष किया । चुनाव में प्राप्त अल्प जय तथा अपमान का घोष हिंदू मतदाता संघ के मस्तक पर लगेगा। हिंदू पक्ष को मत देनेवालों को इस प्रकार से दोषी नहीं माना जा सकता। न्याय्य प्रश्नों के साथ चुनाव में कांग्रेस की स्पर्धा करनेवाला कोई पक्ष खड़ा हुआ है इस बात का भय उत्पन्न होने के कारण मिथ्या राष्ट्रीयत्व की कुकल्पना से हिंदुओं के हितसंबंधों को बलि देने के लिए, कांग्रेस अधिकाधिक भय का अनुभव करेगी।

जय प्राप्त होने के समय राष्ट्रीय संघर्ष में प्रविष्ट होना भी देशभक्ति का लक्षण है। परंतु जिस समय कोई न्याय्य पक्ष युद्ध में लगभग पराजित होता दिखाई देता है उस समय अपनी विवेक बुद्धि से पराजय की चिंता न करते हुए आग्रहपूर्वक उसी ध्वज के नीचे खड़े होना ही साहस का कार्य होगा और ईमानदार सैनिक केवल यही कर सकता है। उसे विजयी होने का आनंद प्राप्त नहीं होता तो भी 'अपना कर्तव्य मैंने किया है इस बात से प्राप्त होनेवाला परम संतोष किसी भी बात से नष्ट नहीं होगा। वर्तमान अवस्था में हिंदू संघटनवादियों को इसी प्रकार की निष्ठा से अपना संघर्ष जारी रखना चाहिए और हम लोग किसी भी स्थिति में निष्ठावान हिंदू संगठनवादी पथक बनने का निश्चय करें।

अखिल भारतीय हिंदू महासभा का बाईसवाँ वार्षिक अधिवेशन,मदुरै

(विक्रम संवत् १९९७,सन् १९४०)

अध्यक्षीय भाषण

सामान्य सभासद तथा प्रतिनिधि बंधुओ!

अखिल भारतीय हिंदू महासभा के अध्यक्ष पद पर मुझे लगातार चौथी बार चुनकर आप लोगों ने मेरे प्रति जो विश्वास प्रकट किया है उसके लिए मैं किस प्रकार ऋणमुक्त हो सकूँगा, यह मेरी समझ में नहीं आ रहा है। गत तीन वर्षों में जब-जब आप लोगों ने अध्यक्ष पद स्वीकारने की आज्ञा मुझे दी उस समय मुझे विश्वास होता था कि मैंने जिस कार्य को करने का भार उठाया है उसे में उचित प्रकार से कर सकूँगा। आप लोगों द्वारा अध्यक्ष पद के लिए किया गया चयन उचित होने का संतोष आपको प्राप्त हो तथा मेरी बुद्धि को भी कर्तव्य पालन से तुष्टि मिले, इसके लिए आवश्यक लगनेवाले सभी कार्य पूर्ण करने का विश्वास मुझे होता था; परंतु इस वर्ष बिस्तर पर पड़ा हूँ, मेरी बीमारी शीघ्र ठीक होने की संभावना भी न होने के कारण आप लोगों ने इस वर्ष भी अध्यक्ष पद के लिए मुझे चुना है यह जानकर मेरा मन कुछ विचलित हुआ है। हम लोगों के नेता डॉ. पी. वरदराजुनू नायडू को मैंने तत्काल खबर कर दी कि मैं अध्यक्ष पद से तार द्वारा त्यागपत्र देना चाहता हूँ, क्योंकि आज की परिस्थिति में बीमारी की अवस्था में हिंदू महासभा के अध्यक्ष के कार्य जिस उत्साह तथा दक्षता से किए जाने चाहिए, मैं उतनी भाग-दौड़ और श्रम कर पाने में असमर्थ हूँ। मेरा मन इसलिए बहुत बेचैन भी था, परंतु डॉ. वरदराजुनू नायडू ने मुझे तार द्वारा सूचित किया कि मुझे त्यागपत्र देने का विचार नहीं करना चाहिए।

मेरे त्यागपत्र का प्रभाव यहाँ होनेवाले अधिवेशन के लिए घातक सिद्ध होगा ऐसी उनको धारणा थी। केवल उन्होंने नहीं, हम लोगों के अनेक सामान्य नेताओं तथा बांधवों ने तार द्वारा मुझे सूचित किया है कि मुझे त्यागपत्र देने का विचार नहीं करना चाहिए। हिंदू सभा के अध्यक्ष पद पर बने रहना हिंदू संघटना के कार्य की दृष्टि से मेरे लिए आवश्यक है। अतः मुझे उनकी इच्छाओं का सम्मान करना पड़ा। एक और विचार मेरे मन में था। यदि ऐसे समय पर मैंने अध्यक्ष पद स्वीकारना मना कर दिया तो यह अधिवेशन यशस्वी रीति से संपन्न होना अधिक कठिन हो जाएगा, ऐसा भय डॉ. वरदराजुनू नायडू, उनके हिंदू संघटनवादी कार्यकर्ता, स्वागत समिति के सदस्य तथा अध्यक्ष आदि सभी के मन में विद्यमान था। तमिलनाडु प्रांत में हिंदू महासभा का यह प्रथम अधिवेशन होने के कारण इन सभी लोगों ने जी खोलकर परिश्रम किया है। अतः इन सभी बातों का खयाल करते हुए तथा जनता की इच्छा का विरोध न करने के विचार से मैंने इस अधिवेशन का अध्यक्ष पद स्वीकारने को अंततोगत्वा तैयार हुआ।

यदि मेरे स्वास्थ्य में सुधार होता है तब आप लोगों ने मुझ पर विश्वास करते हुए जो कार्य करने का भार सौंपा है उसे सीधे किसी प्रकार की अल्पतम कमी न करते हुए मैं आरंभ कर दूंगा तथा अनुकूल या प्रतिकूल स्थिति में अपनी शक्ति के अनुसार, हिंदू सभा का आंदोलन आगे बढ़ाने के प्रयास करूंगा; परंतु यदि मेरे स्वास्थ्य में सुधार नहीं हुआ तो अध्यक्ष पद से चिपकने का मोह क्षण भर के लिए भी मुझे नहीं होगा तथा यह कार्य सुचारु रूप से होता रहे, इसके लिए मैं अपने से अधिक सामर्थ्यवान तथा योग्य प्रतिनिधि को सौंप देने की इच्छा व्यक्त करूंगा। वे कैसे भी क्यों न हों आप लोगों को यह मानकर चलना चाहिए कि हिंदू महासभा का अध्यक्ष न होते हुए भी मैं हिंदू संघटन के कार्य के लिए पूर्ण समर्पित एक सैनिक के रूप में कार्य करता रहूँगा।

महासभा के कार्य का वर्द्धमान क्षेत्र

इस वर्ष हिंदू महासभा के कार्य का विस्तार बहुत अधिक बढ़ चुका है। यह बताते हुए मुझे संतोष का अनुभव हो रहा है। इस वर्ष की विभिन्न घटनाओं पर एक सहज दृष्टिपात करने से ही इस बात के प्रमाण प्राप्त हो जाते हैं।

तमिलनाडु के विशिष्ट मध्य क्षेत्र में इस अधिवेशन का आयोजन किए जाने के कारण इस प्रांत के हिंदू लोगों के मन में अखिल भरतखंड में हिंदू केवल एक हैं इस श्रेष्ठ तत्त्व की जागृति उत्पन्न हुई इसका यह स्पष्ट प्रमाण है। आज प्रातः हिंदुस्थान की सिंधु, सरस्वती, गंगा, कृष्णा, कावेरी आदि पवित्र नदियों का जल मदुरै में एकत्र किया गया तथा एक बड़ी यात्रा निकाली गई। उसी का यहाँ एकीकरण हुआ है ऐसी बात नहीं है। हिंदुओं के जीवन के सभी स्थान के प्रवाह भी इस अखिल हिंदुओं के समुदाय में एकत्र हुए हैं। यहाँ एकत्र हुए प्रत्येक हिंदू की नाड़ी से निकलनेवाली धड़कन में ऐसी आवाज निकल रही है कि धर्म से, जाति से तथा राजनीति से 'हिंदू सभी एक हैं' यह भावना अखिल हिंदुओं में जाग्रत हुई है। संपूर्ण हिंदुओं का जो ध्वज इस मंडप पर लहरा रहा है वह भी ऐसा ही प्रकट कर रहा है कि हिंदू राष्ट्र अपनी दीर्घ निद्रा से जाग गया है और शीघ्र ही वह अपने प्रभाव के कारण चमकने लगेगा।

निजाम हिंदू मंडल

राज्य की हिंदू सभाओं, विशेषतः निजाम हिंदू मंडल के कार्य का विशेष उल्लेख करना आवश्यक है। इस संस्था के कार्य से ही नहीं उसके केवल अस्तित्व से ही एक बात प्रमाणित होती है कि निजाम निःशस्त्र प्रतिकार आंदोलन के पश्चात् इस राज्य के हिंदुओं का सामर्थ्य, नैतिक दृष्टि से तथा व्यवहार में भी बहुत बढ़ गया है। निःशस्त्र प्रतिकार आंदोलन के पूर्व नागरिक तथा धार्मिक अधिकार जो हिंदुओं के लिए अप्राप्य थे वे अब मर्यादित स्वरूप में क्यों न हों, वहाँ के हिंदुओं को प्राप्त हो चुके हैं। इनकी सहायता से वहाँ के हिंदू अपना आंदोलन मजबूत बना सकेंगे, स्वतंत्रता के लिए अधिकार प्राप्त कर सकेंगे तथा आज संपूर्ण राज्य में दुःसाहसी मुसलमान गुंडों द्वारा जो भयंकर अव्यवस्था फैलाई जा रही है, उससे वे बच सकेंगे। वहाँ के हिंदू मंडल ने बड़े-बड़े नगरों में अपनी शाखाएँ स्थापित की हैं। वहाँ हिंदू संघटना का कार्य शीघ्रता से चलाया जा रहा है। निःशस्त्र प्रतिकार के आंदोलन के कारण उस राज्य के हिंदुओं में स्वरक्षा के लिए आत्मविश्वास पैदा हुआ है।

इस वर्ष हिंदुओं पर अनेक स्थानों पर आघात किए गए, उनमें से कइयों को उन्होंने प्रत्याघात से विफल कर दिया। इसके अतिरिक्त पूर्व समय में जो मुसलमान गुंडे हिंदुओं के विरोध में दंगे करते हुए लूटपाट कर सम्मानपूर्वक मुक्त हो जाते, उन्हें प्रतिकारक आंदोलन से अपनी शरण आने पर बाध्य करते हुए अनेक स्थानों पर उनका बंदोबस्त भी किया।

महासभा का प्रचार कार्य

इस वर्ष पूर्व के किसी भी वर्ष की तुलना में प्रचार कार्य अधिक बड़े पैमाने पर किया गया। हम लोगों के प्रगण्य नेता डॉ. मुंजे को हमें धन्यवाद देना चाहिए, उन्होंने अपनी ढलती उम्र की चिंता न करते हुए वर्ष भर विभिन्न प्रांतों में सतत प्रचार कार्य जारी रखा सर मन्मथनाथ मुकर्जी, डॉ. श्यामाप्रसाद मुकर्जी, धर्मबीर भोपटकर जैसे बड़े-बड़े प्रतिष्ठित नेता तथा सैकड़ों प्रांतिक नेता एवं कार्यकर्ताओं ने तपस्वी के समान निष्ठापूर्वक दिन-रात प्रयास किए और महासभा के कार्य हेतु लंबे-लंबे दौरों पर जाकर प्रचार जारी रखा। इस साल सौ से भी अधिक स्थानों पर परिषदों का आयोजन किया गया। स्थानिक सभाओं की संख्या तो हजारों में ही गिनती पड़ेगी। हिंदू संघटन का साहित्य गाड़ियाँ भर-भर कर बड़े-बड़े केंद्रों में और लगभग हिंदुस्थान के सभी स्थानों पर बिना मूल्य वितरित किया गया।

चुनाव के क्षेत्र में भी इस वर्ष हिंदू महासभा को कई स्थानों पर गौरवशाली यश प्राप्त हुआ है। हिंदू समाज के बुद्धिमान मतदाता संघ को एक बात पर ध्यान देना चाहिए। यदि हिंदुओं का हित करना है तो हिंदू संघटनवादी प्रतिनिधि को ही मत देकर चुनाव जिताना चाहिए। जब तक कांग्रेस को चाहनेवाला कांग्रेस के तत्त्वों से जुड़ा हुआ है तब-तब उसे मत देना आत्मघात करने के समान होगा। यह बात जिसकी समझ में आ चुकी है उसके लिए कलकत्ता कॉरपोरेशन के चुनाव का उदाहरण दिया जा सकता है। वह चुनाव अत्यधिक कड़े मुकाबले का रहा। बंगाल हिंदू सभा ने इस चुनाव में प्रथम बार ही हिस्सा लिया था, परंतु कई स्थानों पर उसे अभिनंदनीय यश प्राप्त हुआ। कितने स्थान पर तो उदाहरणार्थ, सिंघ तथा महाड में हम लोगों ने कांग्रेसवालों का संपूर्ण पराभव किया और हमें स्पष्ट बहुमत प्राप्त हुआ।

अनेक स्थानों पर हिंदू सभा को अपयश भी प्राप्त हुआ; परंतु यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है। कुछ और समय तक आगामी चुनाव में हम लोगों को आघात सहने पड़ेंगे। यह मानते हुए इसी के लिए तैयार होकर ही हम लोगों को चुनाव में हिस्सा लेना चाहिए। हिंदू मतदाता संघों को बहुत सी पुरानी बातों को भुला देना होगा और नई बातों को सीखना होगा। आज तक उनके मन पर एक ही बात का बहुत प्रभाव है। आँखें मूंदकर, जबान पर ताला डालकर तथा किसी भी प्रकार से कोई विचार न करते हुए कांग्रेस को मत देना। उसका प्रभाव इतनी शीघ्रता से समाप्त नहीं होगा तथापि इस पराजय से भी हम लोगों को उचित सबक लेना चाहिए, अर्थात् कर्णावती की नगरपालिका के चुनाव में इस माह हिंदू सभा द्वारा खड़े किए गए सभी प्रत्याशी हार गए, यह ठीक ही हुआ।

इस बारे में एक बात ध्यान में रखनी होगी कि कांग्रेस की चुनाव की एक सत्तात्मकता को इस समय हिंदुस्थान ने प्रथम बार चुनौती दी थी। कांग्रेस केवल खुद को राष्ट्रीय कहती है, परंतु उसने अपना एक भी प्रतिनिधि मुसलमान मतदाता संघ से खड़ा नहीं किया था। चुनाव के दिन इन सभी कांग्रेसवालों ने स्वयं को हिंदू कहा और केवल हिंदुओं के मतों के लिए ही याचना की। उस दिन खुद को हिंदू कहते समय उनकी राष्ट्रीयता को किसी प्रकार की कमी का अनुभव नहीं हुआ। अन्य अवसरों पर खुद को हिंदू कहलाना उनके राष्ट्रीयत्व की प्रतिष्ठा के लिए अत्यंत हानिकारक प्रतीत होता है, परंतु चुनाव का दिन आते ही वे यह बात भूल जाते हैं। हिंदू महासभा ने इस चुनाव में इतना कड़ा संघर्ष किया कि कांग्रेस को अपनी सारी पुण्याई खर्च करनी पड़ी। देशभक्त वल्लभभाई पटेल को कर्णावती में ही चुनाव के कुछ समय पूर्व सोच-समझकर कारावास की सजा दी गई तथा उन्हें बंदी बनाते ही उनके अंतिम संदेश के रूप में सभी नागरिकों को संबोधित करते हुए, घोषित किया गया कि किसी भी मतदाता ने हिंदू सभा को एक भी मत नहीं देना चाहिए। ऐसा प्रतीत हुआ कि देशभक्त पटेल केवल इसीलिए कारावास में गए तथा हिंदू सभा को मत न देने से कांग्रेस सत्याग्रही लोगों के कार्य को समाप्ति हो गई और हिंदुस्थान को सभी वांछित भी प्राप्त हो गया।

तथापि इस चुनाव का हिंदू महासभा के प्रचार की दृष्टि से एक बड़ा लाभ हुआ। हिंदू सभा के तत्त्वज्ञान का प्रसार करने के लिए यह अच्छा अवसर प्राप्त हुआ और जैसे-जैसे कांग्रेसवाले अपना संतुलन खोने लगे वैसे-वैसे हिंदू सभावाले कहना क्या चाहते हैं यह जानने हेतु हिंदू सभा की सभाओं में अधिकाधिक श्रोता उपस्थित होने लगे। कुछ सभाएँ तो बहुत विशाल थीं। चंद्रगुप्त वेदालंकार तथा प्रा. देशपांडे जैसे महासभा के लोकप्रिय वक्ता जहाँ-जहाँ गए वहाँ-वहाँ उनको सभाओं में कांग्रेस की किसी भी सभा से अधिक संख्या में श्रोता सम्मिलित हुए। अंततः कांग्रेसवालों ने अपने अंतिम हथियार का, जिसका प्रयोग चुनाव के प्रत्येक आंदोलन के लिए करते हैं अर्थात् गुंडापन का खुलकर उपयोग किया। हिंदू सभा की कई प्रकट सभाएँ उन्होंने हुल्लड़ करते हुए भंग कर दीं तथा सभाओं में हुल्लड़ करने की बात नित्य की बात बन गई। चुनाव के समय हिंदू सभा के मतदाताओं के साथ उन्होंने बहुत उपद्रव किया। इतना ही पर्याप्त न मानकर कांग्रेस के गुंडों ने अहिंसक धर्म के सर्वश्रेष्ठ आधार के रूप में हिंदू सभा के कार्यालय पर धावा बोल दिया। इस आक्रमण के फलस्वरूप कई लोगों को भयंकर चोटें आईं और उन्हें रुग्णालय में पहुँचाना पड़ा। पुलिस ने बीच-बचाव करते हुए हिंदू सभा का कार्यालय अपने संरक्षण में लिया। चुनाव के बाद भी एक-दो दिनों तक इस मार्ग पर पुलिस का पहरा लगाना पड़ा।

अहिंसा तथा भाषण स्वातंत्र्य

कांग्रेस ने चुनाव के समय गुंडों का पर्याप्त उपयोग किया, परंतु चुनाव में कांग्रेस को जो यश प्राप्त हुआ उसका श्रेय केवल गुडापन को ही देने की भूल हम लोगों को नहीं करनी चाहिए। कांग्रेस एक बहुत पुरानी संस्था है। केवल इसी कारण से मत देते समय उससे प्रसन्न होने की आत्मघाती मूर्खता करने की वृति आज भी बहुत बड़े हिंदू मतदाता संघों में स्वतंत्र रूप और समझदारी से विद्यमान है। वह अभी तक समाप्त नहीं हुई है। उसे समाप्त होने में अभी भी कुछ समय की आवश्यकता है। अतः कर्णावती (अहमदाबाद) जैसे स्थान के चुनाव में अपयश प्राप्त होने से निराश नहीं होना चाहिए। साथ ही सिंध प्रांतों में, कलकत्ता, दिल्ली, महाड आदि स्थानों में प्राप्त हुए यश के कारण हर्षित न होते हुए हम हिंदू संघटनवादी लोगों को कम-से-कम इस समय यशापयश की चिंता किए बिना चुनाव लड़ना जारी रखना चाहिए। चुनाव में यश प्राप्त होना न होना मतदाता संघ की बुद्धिमत्ता पर अथवा मूर्खता पर निर्भर करता है। मतदाता संघ को उचित मार्ग पर लाने के लिए भी चुनाव लड़ते रहना आवश्यक है, क्योंकि अपने मतों का प्रचार करने का वह एक अच्छा अवसर होता है, उसका लाभ हम लोगों को अवश्य लेना चाहिए।

वर्तमान समय के बड़े-बड़े और प्रबल पक्षों के नाजी, फासिस्ट अथवा बोल्शेविकों को भी चुटकी बजाते ही चुनाव जीतना संभव नहीं था। प्रारंभ में उन्हें भी असफलता प्राप्त हुई थी। परंतु यदि हम लोगों ने सावधानी बरती, बड़े-बड़े स्थान के चुनाव की मुहिम किस प्रकार चलाई जाती है इस तंत्र का अध्ययन किया, तत्पश्चात् चुनाव लड़े तो वर्तमान स्थिति में भी हम लोगों को अल्पसंख्यकों का एक प्रभावी गुट विभिन्न स्थानों के विधिमंडलों और स्थानिक स्वराज्य संस्थाओं में निर्माण करना संभव है। इस प्रकार का निष्ठावंत हिंदू संघटनवादी गुट का अल्पसंख्यक होने के बाद भी बहुमतवाले कांग्रेसियों पर दबाव निश्चित रूप से बन जाएगा। वह हिंदुओं के दुःख प्रकट कर सकेगा तथा राजनीतिक सत्ता प्राप्त करने का मार्ग भी बना सकेगा।

इतना ही नहीं, यदि चुनाव में एक भी इच्छुक व्यक्ति चुना नहीं जाता तो भी चुनाव लड़ने से ही उसके लिए किए गए श्रमों का फल प्राप्त होगा। इस कारण जो प्रचार होता है उसी से कांग्रेसवालों की स्वेच्छाचारिता समाप्त हो जाएगी।

चुनाव लड़े बिना जीतना असंभव है। इस बात को वे समझ गए कि इसी कारण हिंदू मतदाता संघ के समक्ष कांग्रेसवालों को यह प्रमाणित करना पड़ेगा कि वे किस प्रकार हिंदू विरोधी नहीं हैं तथा उसपर प्रतिस्पर्धी हिंदू संघटनवादी उनका कच्चा चिट्ठा खोलने लगेगा। तब चुनाव जीतने के लिए क्यों न हो, मिथ्या राष्ट्रवाद की कल्पना से बहक जानेवाले कांग्रेसियों को हिंदू हित विरोधी कृत्य करने का साहस नहीं होगा। यदि हिंदू संघटन पक्ष सतत चुनाव लड़ने लगेगा तो एक दिन ऐसा आएगा कि यह हिंदू कांग्रेसवाले माथे पर टीका लगाकर हाथों में तुलसी की मालाएँ लिये मतदाता संघ की ओर जाकर संघटनवादी हिंदू कितने नास्तिक हैं तथा हम कांग्रेसवाले हिंदू कितने धर्म प्रेमी हैं इस बात का प्रदर्शन करना प्रारंभ कर देंगे।

इसीलिए कर्णावती के हिंदुओं ने इतनी विरोधी स्थिति में भी चुनाव लड़ा। इस कारण मैं उनका बहुत-बहुत अभिनंदन करता हूँ। चुनाव में यश प्राप्त नहीं होगा इस भय से चुनाव न लड़ने का निर्णय उन्होंने नहीं किया तथा अपनी विचार प्रणाली से विरत न होते हुए उन्होंने अंत तक तीव्र संघर्ष जारी रखा। इसमें अपना सबकुछ दाँव पर लगा दिया। जिन मतदाता संघों ने हिंदू हित का विरोध करनेवाले कांग्रेसियों को अपने मत दिए उन्हें निकट भविष्य में इस भूल की क्षतिपूर्ति करनी पड़ेगी। कर्णावती (अहमदाबाद) के चुनाव के पहले सप्ताह में ही यह क्षतिपूर्ति किस प्रकार की जानी चाहिए यह स्पष्ट हो गया है। कांग्रेसवालों के कारण वहाँ के हिंदुओं को लज्जा से सिर नीचे करने के प्रसंग का सामना करना पड़ रहा है। यह प्रसंग गौण ही है, परंतु इस एक दाने से ही संपूर्ण चावल की हाँड़ी की परीक्षा हो जाएगी। कर्णावती की किसी शिक्षा संस्था में लगभग ग्यारह सौ हिंदू विद्यार्थी हैं। उस संख्या के किसी समारोह के समय वंदे मातरम् गीत का प्रथम भाग गाने की अनुमति कांग्रेसवालों ने भी दी थी- यह हिस्सा संपूर्णत: अधातुक है ऐसा भी कहा था परंतु वंदे मातरम् के गाने के लिए ही मुसलमान विद्यार्थियों ने आपत्ति की। बस इतना ही पर्याप्त था। उस समय कांग्रेस का राज था। उस समय इस संबंध का एक पत्रक शाला के चालकों ने अपनी फाइल से निकाला कि यदि मुसलमानों ने विरोध किया है तो वंदे मातरम् गीत पूर्णतः अथवा आंशिक रूप से नहीं गाना चाहिए ऐसा प्रमाण उस पत्रक को सहायता से दिखाकर वंदे मातरम् गाना ही छोड़ दिया। हिंदू विद्यार्थी क्रोधित हुए, परंतु उस पद का वह भाग गाने की बात समाप्त हो चुकी थी। इस प्रकार केवल अस्सी मुसलमान विद्यार्थियों की भावनाओं के लिए एक हजार एक सौ हिंदू छात्रों की भावनाएँ तुच्छ समझी गईं। इसे ही कांग्रेस की लोकशाही पद्धति कहते हैं।

सिंध में हिंदुओं की सुरक्षा

गत वर्ष के हिंदू संघटन के कार्य का विचार करते समय सिंध प्रांत की हिंदू सभा तथा वहाँ के हिंदू संघटनवादी पक्ष, हिंदी पंचायत, धर्म सभा आदि का उल्लेख विशेष रूप से किया जाना चाहिए। ये सभी लोग अभिनंदन के पात्र हैं। सिंध प्रांत में खूनी प्रवृत्ति के धर्म प्रेमी विक्षिप्तों ने मुसलमानों ने वर्ष भर हिंदू विरोधी हत्याकांड चलाया है। उससे भयभीत न होते हुए अपनी मृत्यु प्रत्येक दिन सामने आती देखकर भी अपने धर्म से जुड़े रहे। वे वास्तव में धन्य है। हम लोग सिंध के हिंदुओं को इससे अधिक किसी प्रकार की सहायता नहीं दे सकते। इस दुर्बल अवस्था की हम लोगों को बहुत दुःखद समझ है इसे सभी जानते हैं, परंतु आप लोग यह जान लीजिए कि सशस्त्र प्रतिकार के अतिरिक्त सभी प्रकार से हिंदू सभा अथवा अधिक उचित कहा जाए तो हिंदू संघटनवादो पक्ष प्रतिकार कर रहा है। सिंध के हिंदुओं का हित संरक्षण करने के लिए जो कुछ करना संभव है वह सब हिंदू महासभा कर रही है।

लगभग बीस वर्ष पूर्व मैं सिंध प्रांत के हैदराबाद, कराची, सक्कर, शिकारपुर, रोहरी आदि क्षेत्रों में गया था। मैंने वहाँ की स्थानिक स्थिति का अध्ययन किया था। तब मैंने सिंध प्रांतिक हिंदू सभा के चक्कर में होनेवाले अधिवेशन का अध्यक्ष पद स्वीकारा था। उस परिषद् के समय ही मुसलमानों द्वारा मँझलगा पर किए गए आक्रमण का विरोध करने का निश्चय किया गया था। उसी समय अपनी पीड़ाओं को प्रस्तुत करने तथा मुसलमानी आक्रमण को सिंध प्रांत की बली चढ़ाने की कांग्रेसवालों की काररवाई का सामना करने के लिए हिंदू संघटनवादियों ने मजबूत मोरचा बनाने का निश्चय किया। प्रांतिक हिंदू सभा की पुनर्घटना करते हुए उसमें सनातन सभा, सिख, आर्य समाजी तथा अन्य हिंदू संघटनवादी पक्षों को समाविष्ट किया गया। इन सभी को मिलाकर एक हिंदू पक्ष तैयार हुआ। उस समय से हम लोग हिंदुओं का प्रतिनिधित्व भी करते हैं। यह बताने की कांग्रेस की काररवाई सिंध प्रांतिक हिंदू सभा द्वारा किंचित् भी चलने नहीं दी और हिंदुत्व की भूमिका से प्रांतिक विधिमंडल में, स्थानिक स्वराज्य संस्थाओं में अपने प्रतिनिधि चुनने के लिए चुनाव लड़ना प्रारंभ किया। तब से उन्होंने कांग्रेस के इच्छुकों को कई स्थानों पर पराभूत किया। वहाँ के प्रांतिक विधिमंडल तथा स्थानिक स्वराज्य संस्थाओं में हिंदू संघटनवादियों का अल्पसंख्यक परंतु इतना प्रबल पक्ष बनाया है कि उसकी सहायता के बिना प्रांत के मुसलिम प्रधानमंडल का स्थान भी स्थिर रहना कभी कभी असंभव हो गया। इसके अतिरिक्त वहाँ के मंत्रिमंडल के दो-तीन हिंदू मंत्री हिंदुत्व के प्रतिनिधित्व से जुड़े हुए हैं। इस प्रकार वहाँ के हिंदू अधिकाधिक संघटित होकर मँझलगा की समस्या पर अपना तीव्र विरोध प्रकट करने लगे। नव मुसलमानों ने प्रकट रूप से विभिन्न स्थानों पर विद्रोह किए और हिंदुओं के जीवन व संपत्ति की रक्षा करना असंभव बना दिया।

कांग्रेसवालों ने प्रकट रूप से हिंदुओं को उपदेश दिया था कि उन्हें सिंध प्रांत छोड़ देना चाहिए, परंतु इसे हिंदू संघटनवादियों ने तिरस्कृत कर अपने मकानों और संपत्ति का संरक्षण करने का निश्चय किया है। कोई भी स्थिति क्यों न हो जब तक सिंध प्रांत में एक भी हिंदू जिंदा रहेगा तब तक सिंधु नदी के तट पर हिंदुत्व का ध्वज लहराएगा- ऐसा उनका विचार है।

तब से मुसलमानों को खुली प्रवृत्ति को चेतना प्राप्त हुई और उन्होंने विभिन्न गाँवों में दंगे प्रारंभ किए हैं; परंतु सिंध प्रांतिक हिंदू सभा के कार्यकर्ताओं ने अपनी जान हथेली पर लेकर हिंदुओं की रक्षा करने के लिए अधिक प्रयास किए। हिंदू संघटनवादियों, उनके नेताओं तथा अनुयायियों को यंत्रणाएँ दी गई। उनपर मुकदमे चलाए गए, अनेकों को सीमा छोड़ने की सजा दी गई। कइयों को कारावास मिला तथा अनेक शस्त्रों के प्रहार से घायल हुए। तथापि इस स्थिति में भी कि किस समय जान खतरे में पड़ जाएगी इसका भरोसा नहीं था, उन्होंने प्रतिकार का आंदोलन प्रारंभ किया और सशस्त्र प्रतिकार के सिवाय सभी मार्गों पर चलते हुए उन्होंने मुसलमानों का विद्रोह समाप्त किया तथा हिंदुओं का साहस बढ़ाया।

अन्य प्रांतों की सिंधु सभाओं ने भी सिंध प्रांत के हिंदू संघटनवादियों के प्रति यथासंभव सभी प्रकार से सहानुभूति दरशाई। उन्होंने उनके समर्थन में सैकड़ों स्थानों पर सभाओं का आयोजन किया, प्रस्ताव पारित किए तथा निधि एकत्रित कर .सिंध प्रांत के निराश्रित हिंदू लोगों के लिए धन भेजा। शासन की ओर शिष्टमंडल भेजे गए तथा हिंदूसभा की बात उनके कानों में डाल दी गई। मैंने स्वयं वाइसराय तथा वहाँ के गवर्नर को आग्रहपूर्वक संदेश भेजा कि सिंध प्रांत की प्रांतिक स्वायत्तता तथा मुसलमानी मंत्रिमंडल का विसर्जन कर वहाँ का राज्य कारोबार गवर्नर को अपने हाथों में लेना चाहिए। मैंने वाइसराय को इस प्रकार लिखा कि सिंध प्रांत में आज जिस प्रकार हिंदुओं की हत्याएँ हो रही हैं तथा उन्हें लूटा जा रहा है उस प्रकार की हत्याएँ यदि ब्रिटिश स्त्री-पुरुषों की होतीं तो क्या शासन इसी प्रकार मूक दर्शक बना बैठा रहता? इसी प्रकार का व्यवहार क्या शासन द्वारा किया जाता? मुसलमानों द्वारा किए गए खूनी षड्यंत्र का उचित प्रतिकार करने हेतु वह मुसलमान लोगों के मकान क्या नष्ट नहीं करता? हिंदू महासभावादियों के आंदोलन के फलस्वरूप वहाँ के शासन को झुकना पड़ा और वहाँ के गवर्नर द्वारा मुसलमान मंत्रिमंडल को प्रमुख दंगाइयों के लिए कड़े उपाय करने के लिए बाध्य किया गया। गाँवों में रहनेवाले हिंदुओं की सुरक्षा हेतु व्यवस्था की गई तथा मुसलमान गुंडों के मन में भय उत्पन्न किया गया। इसी के परिणाम स्वरूप मुसलमान धर्मप्रेमी विक्षिप्त लोगों के सिंध के हिंदू विरोधी आंदोलन में कमी आई है।

सिंध प्रांत के हिंदुओं पर आए हुए इस प्रसंग का दायित्व कांग्रेस पर है। जब वहाँ की हिंदू जनता पर इस प्रकार के भयंकर आघात हो रहे थे तब ये कांग्रेसी हिंदू सभा को इस प्रकार दोष देने का साहस करते हैं कि सिंध के हिंदुओं की रक्षा करने हेतु आप लोगों ने क्या किया ? तब इन कांग्रेसवालों को इस प्रकार पूछना चाहूँगा कि मुंबई प्रांत से सिंध को पृथक् करने हेतु आप लोगों ने ही क्या आग्रहपूर्वक नहीं कहा था और इस काररवाई को पूरा नहीं किया था? क्या यह पाप प्रथम बार आप लोगों द्वारा नहीं किया गया था? हिंदू सभा ने सिंध के विभाजन का अपनी ओर से तीव्र विरोध किया था तथा कांग्रेसवालों को स्पष्ट कहा था कि आप जो कुछ कर रहे हैं उस कारण वहाँ के हिंदुओं पर कल्पनातीत संकट आने वाला है। सिंध प्रांत को पृथक् करने से मुसलमानों के षड्यंत्र का एक प्रमुख अंश सफल हो रहा था। सिंध पृथक् करना हो उनके द्वारा पाकिस्तान की योजना की नींव डालना था। सिंध पृथक् होते ही वहाँ की सीमा पर राह तकते बैठे हुए मुसलमान हत्यारों की टोली वहाँ के अल्पसंख्यक हिंदुओं पर टूट पड़ेगी। यह बात उस समय भी दिखाई दे रही थी और ऐसा हो जाने पर संपूर्ण हिंदुस्थान में फैले हुए सुसंस्कृत मुसलमान भी सीमा पर की इन जंगली टोलियों का विरोध करते हुए कुछ नहीं कहेंगे यह भी ज्ञात था। इतना ही पर्याप्त नहीं है। उस प्रांत के समस्त हिंदू जब बाहर भाग जाएँगे अथवा नामशेष हो जाएँगे तथा वह संपूर्ण प्रांत शुद्ध दार-उल-इसलाम अर्थात् मुसलिम प्रदेश बन जाएगा उस समय के लिए ये लोग रुके हुए हैं। यह बात किसी प्रकार से रहस्यमय नहीं थी। सिंध प्रांत को पृथक् करने के लिए महासभा का तीव्र विरोध रहते हुए भी केवल मुसलमानों को संतुष्ट करने के लिए कांग्रेसवालों ने सिंध प्रांत पृथक् करने हेतु अपनी सहमति प्रकट की। अब उनके अपकृत्य को फल लगने पर ये कांग्रेसवाले ही पूछ रहे हैं कि सिंध के हिंदुओं के लिए हिंदू सभा क्या कर रही है?

जिसने गाँव में आग लगा दी है वही अब गाँववालों से पूछ रहा है कि आप लोग आग बुझाने के लिए क्या कर रहे हैं? सिंध प्रांत में हिंदुओं पर होनेवाले अत्याचारों की करुण कहानियाँ जब हर रोज प्रकाशित होने लगीं तब भी कांग्रेस वर्किंग कमेटी ने उसका निषेध करने हेतु कुछ भी नहीं कहा।

सिंध के हिंदुओं पर इतने अत्याचार हुए परंतु इन अत्याचारों का निषेध करने हेतु संपूर्ण हिंदुस्थान में कहीं भी उन्होंने किसी भी सभा का आयोजन नहीं किया। अंत में जब हिंदू महासभा के आंदोलन के कारण शासन पर दबाव पड़ा और मुसलमान गुंडों के विरोध में कड़े उपाय करने का आग्रह किया गया तथा वहाँ की प्रांतिक स्वायत्तता समाप्त कर गवर्नर ने संपूर्ण सत्ता अपने हाथों में लेनी चाहिए, ऐसी लगातार माँग की जाने लगी तब उन्होंने भाग-दौड़ प्रारंभ की । गांधीजी ने तत्काल मौलाना आजाद को सिंध में भेज दिया। परंतु किसलिए?

मौलाना आजाद सिंध क्यों गए ?

मौलाना आजाद का सिंध जाने का उद्देश्य वहाँ के हिंदुओं को ढाढ़स प्राप्त कराना नहीं था, वहाँ का मंत्रिमंडल किस प्रकार स्थिर बना रहेगा यह देखना था। हिंदुओं के संरक्षण के लिए अथवा उनकी आपत्तियों का निराकरण करने हेतु उन्होंने किसी प्रकार की कोई योजना नहीं बनाई अथवा मुसलमान गुंडों का निषेध करने के लिए एक भी शब्द नहीं कहा। उनकी एकमात्र चिंता थी वहाँ का मुसलमान मंत्रिमंडल किस प्रकार स्थिर रहेगा। गांधीजी के कहने पर वहाँ केवल उतना ही काम उन्होंने किया।

उन्हें आशंका थी कि हिंदू महासभा के आंदोलन का जोर बढ़ा और सिंध प्रांत पुनः बंबई इलाके से जोड़ देने के लिए सरकार को बाध्य किया गया अथवा सर्वसत्ता गवर्नर ने ही अपने पास रखी तो ? मुसलमानों को यदि सिंध प्रांत में स्थिर सरकार बनाना संभव न हुआ तो हम लोग भी ब्रिटिशों के समान पाकिस्तान पर शासन कर सकेंगे। इस बात का प्रमाण ब्रिटिश शासन को किस प्रकार दिया जाएगा? इसीलिए मौलाना आजाद सिंध जाना चाहते थे।

यदि यह उद्देश्य नहीं होता तब मुसलमान पक्ष के हाथ में वहाँ का शासन आते ही उन्होंने हिंदुओं का जीवन अशक्यप्राय बना दिया; उन्हीं के हाथों में वहाँ का शासन स्थिर करने के प्रयास मौलाना आजाद क्यों कर रहे हैं तथा वैसा होने पर वहाँ के अल्पसंख्यक हिंदुओं के जीवन और संपत्ति की रक्षा किस प्रकार की जाएगी? अथवा वहाँ की स्थिति किस प्रकार सुधरेगी ?

यदि वहाँ के मुसलमान पक्ष में एकता होकर उनके हाथों में शासन स्थिर हो जाता है तो हिंदुओं के जीवन के लिए अधिक घातक होगा। इस समय सिंध प्रांत में अपराधियों द्वारा चलाया जा रहा आंदोलन कुछ दबा हुआ प्रतीत होता है। इसका कारण है वहाँ के गवर्नर द्वारा किए जानेवाले कड़े उपाय। मौलाना आजाद के सिंध आगमन से पूर्व ही वहाँ के गवर्नर के डाँटने पर वहाँ के मुसलमान गुंडों की धरपकड़ प्रारंभ हो चुकी थी। सिंध प्रांत में यदि मुसलमान मंत्रिमंडल स्थिर हो जाता है तो वहाँ के अल्पसंख्यक हिंदुओं के कानूनी अधिकारों का उचित संरक्षण होना संभव नहीं है। इसके लिए केवल एक ही मार्ग है कि सिंध का वह प्रांत पुनः बंबई इलाके में जोड़ देना।

इस वर्ष कार्य का विचार करते समय एक और महत्त्वपूर्ण बात का विचार करना चाहिए। हिंदू राजा हिंदू महासभा के आंदोलन को सहानुभूति से देखने लगे हैं। अखिल हिंदू सब एक हैं यह कल्पना अब मजबूत हो गई है तथा हम लोगों के पूर्वजों के पराक्रम की ज्योति के प्रकाश में संपूर्ण हिंदू समाज एवं उसके पूर्वजों के वंशज भी पूर्णतः जाग्रत् हो चुके हैं। हिंदू संस्थानिकों को हिंदू आंदोलन के लिए सहानुभूति लगने लगी है तथा वे अपने कर्तव्यों को भी समझने लगे हैं। उनमें से जो द्रष्टा तथा चतुर कूटनीतिज्ञ हैं वे एक बात समझ चुके हैं कि देश में अखिल हिंदुत्व का जो आंदोलन दिन-ब-दिन बड़े पैमाने पर चल रहा है उसी से एकरूप होने में ही हम लोगों का आधुनिक तथा भविष्यकालीन भाग्योदय हो सकेगा।

उसी प्रकार मुसलमान संस्थानिक हिंदुस्थान के मुसलमानों द्वारा चलाए जा रहे राजनीतिक आंदोलन से एकरूप हो गए तथा समस्त मुसलमान एक हैं ऐसी महत्त्वाकांक्षा उन्होंने रखी। हिंदू संस्थानिकों को ऐसा न करने के लिए केवल उनपर ही इसका दायित्व डालना उचित नहीं है। सर्व सामान्य हिंदू समाज और विशेषतः कांग्रेसी हिंदुओं ने हिंदू संस्थानिकों के लिए कभी भी कोई प्यार की बात नहीं की। अथवा उनके महत्त्व पर भी ध्यान नहीं दिया। इसके विपरीत अब मुसलमान समाज को देखिए, उन्हें राजनीति के वास्तववाद के विषय की जानकारी होने के कारण हिंदुस्थान में जो कुछ थोड़े से मुसलमानी संस्थान हैं उनके लिए उन्हें कितना अभिमान है और मुसलमानी सामर्थ्य के संघटित केंद्र के रूप में उनकी और वे अभिमान से देखते हैं।

देशाभिमान का सारा ठेका हम लोगों को ही मिला है उन्होंने ऐसा वृथाभिमान व्यक्त किया। हिंदू संस्थानिक देश की प्रगति में अवरोध उत्पन्न करनेवाले हैं यह मानते हुए वे जितनी जल्दी हट जाएँगे उतना ही भला होगा, ऐसी गतिविधियाँ वे कर रहे हैं।

अपने नवाब तथा निजाम का सामर्थ्य व रोब बढ़े इसके लिए वे काफी प्रयास करते हैं।

उसी प्रकार हिंदुस्थान में राजनीतिक आंदोलन चलानेवाले मुसलमानों द्वारा अखिल मुसलमान एक हैं इस आशय का आंदोलन चलाए जाने के सामर्थ्य पर ही हम लोगों का भविष्य निर्भर करता है यह बात यहाँ के मुसलमानी संचालकों की समझ में भी आ चुका है, अतः इस आंदोलन से वे एकरूप हो चुके हैं।

परंतु यदि हिंदू संघटनावादी राजनीतिक नेताओं को वास्तविक दृष्टि प्राप्त हुई है तब यह बात तत्काल उनके ध्यान में आ जाएगी कि देश के हिंदू संस्थान ही संघटित स्वरूप, सैनिक सामर्थ्य तथा सत्ता केंद्र हैं। हिंदुओं के सामर्थ्य का एक प्रबल आकार है, भविष्य में हिंदू राष्ट्र का पुनरुत्थान करने में जोरदार तथा प्रभावी रीति से केवल इन्हीं का उपयोग किया जा सकेगा। आज भी हम लोगों के यहाँ राजनीतिक अधिकार जतानेवाले तथा मौखिक दर्शन (तत्त्वज्ञान) पर जोर देनेवाले नेता देश के लिए सामाजिक, औद्योगिक अथवा सैनिकी दृष्टि से क्या कर सके हैं ?

बड़ौदा, मैसूर, त्रावणकोर अथवा ग्वालियर आदि ने जिस प्रकार से प्रगति कर दिखाई है, उस प्रकार की प्रगति क्या इन राजनीतिक पक्षों ने की है?

यह अवसर इस विषय का विवेचन करने का नहीं और यह प्रसंग भी इस प्रकार का नहीं है। मेरी इच्छा केवल इतनी ही है कि हिंदुस्थान के सभी हिंदू संघटनवादियों को एक बात भविष्य में याद रखनी चाहिए। हिंदू संस्थानिकों के अंतःकरण में अखिल हिंदुत्व के विचारों का तत्त्वज्ञान आज मान्यता पा रहा है। उसका उन्हें स्वागत करना चाहिए, क्योंकि जिस प्रकार के संस्थान बलशाली तथा सामर्थ्यवान बनते जाएँगे उसी प्रकार इस देश में यदि कभी अराजकता उत्पन्न हुई अथवा इस देश पर हिंदू विरोधी आक्रमण किया गया तो उससे इस देश की रक्षा करने हेतु हिंदू संस्थान जितने अधिक सामर्थ्यवान होंगे उतना ही वह संकट कम होता जाएगा।

हिंदुस्थान में हिंदुओं के पुनरुत्थान आंदोलन को बलशाली बनाने में जो साधन उपलब्ध होंगे उनमें हिंदू संस्थानिकों का भाग बहुत बड़ा होगा।

हिंदुस्थान में मुसलमानों की उल्लेखनीय दो या तीन ऐसी संस्थाएँ हैं। मुसलमानों का बड़ा विश्वास है कि यदि उनके आक्रमण का प्रतिकार हिंदुओं द्वारा नहीं किया जाता तो इस मुसलमानी सत्ता के केंद्र की सहायता से संपूर्ण हिंदुस्थान पर मुसलमान सत्ता प्रस्थापित करने की आशा रखेंगे। इसमें असंभव भी क्या है?

परंतु इस दृष्टि से हम हिंदू लोगों ने हिंदू संस्थानों की और कभी ध्यान नहीं दिया। आज इस देश में पचास हिंदू संस्थान इस प्रकार के हैं जिनके पास सेनाएँ हैं। पुलिस बल हैं, धन है, राजयंत्र है तथा कम-से-कम मुसलमानी संस्था के समान वे कार्यक्षम भी हैं, उनमें से अनेक राज्य विस्तार की दृष्टि से यूरोप के कुछ स्वतंत्र देशों के बराबर हैं। जब हम यह सुनते हैं कि खाकसार लोग तथा सीमा पर रहनेवाले पठान निजाम के ध्वज के नीचे एकत्र होने का षड्यंत्र रच रहे हैं तथा स्वतंत्र राज्य का स्थान प्राप्त करने के प्रयास कर रहे हैं तब हम लोगों का मन भयभीत हो जाता है तथा इस भयानक प्रसंग का सामना किस प्रकार करना होगा यह समझ में नहीं आता।

निजाम को स्वतंत्र राज्य पर आसीन करने के लिए मुसलमान हवाई किले बना रहे हैं, तब भी उसका विरोध करनेवाले भी कुछ लोग हैं। आज भी नेपाल का स्वतंत्र राज्य एक लाख फौज के साथ हिंदुत्व के रक्षणार्थ कंधों पर बंदूक रखकर तैयार है। अपने पास आत्मरक्षा हेतु साधन नहीं हैं, यह मानकर हम लोग निराश तथा दीन बन जाते हैं; परंतु यह सच नहीं है। हम लोगों को राजनीति की वास्तविक दृष्टिन होने से अपने साधन कहाँ है तथा हम लोग उनका उपयोग किस प्रकार कर सकेंगे यह हम नहीं समझते। वस्तुतः हम लोगों की राजनीतिक दृष्टि नष्ट हो चुकी है।

नेपाल का स्वतंत्र हिंदू राज्य

यह बात विचारणीय है कि हजारों कांग्रेसी हिंदू होकर भी प्रकट रूप से ऐसा कहते हैं कि नेपाली हिंदू हम लोगों के कोई नहीं लगते, वे पराए हैं तथा सीमा पार के मुसलमानी पठानों को दीनतापूर्वक याचना करने हेतु वे जी-जान लगाकर प्रयास कर रहे हैं, क्योंकि वे पठान उन्हें अपने लगते हैं।

कुछ ही समय पूर्व गांधीजी ने स्पष्ट कहा था कि सीमा पार स्थित पठानों की सहायता से निजाम यदि स्वतंत्र हिंदुस्थान का बादशाह बन जाता है तो हम उसके राज्य को होमरूल अर्थात १०० प्रतिशत स्वतंत्र राज्य मानेंगे।

इसका यह अर्थ है कि सीमा पार के पठान कांग्रेस की राष्ट्रीयत्व की कल्पना को बाधा नहीं पहुंचा सकते; परंतु नेपाल के हिंदू गुरखे कदापि नहीं। उनका नाम तक मत लीजिए। ये गुरखा लोग राजपूतों के प्रत्यक्ष वंशज हैं जो लगभग तीन सौ साल पूर्व नेपाल गए। उस गुरखा से संबंध आते ही राष्ट्रीयत्व संपूर्णत: नष्ट हो गया ऐसा कहना क्या दरशाता है ? यह राजनीतिक पागलपन आज कांग्रेस के हिंदुओं पर हावी हो रहा है तथा हम लोगों पर जो आपत्ति आज आई हुई है उसका मूल कारण भी यही है। इसका केवल एक ही उपाय है-अखिल हिंदुत्व की कल्पना का विकास एक बार यह तत्त्वज्ञान मान्य हो जाता है तो हम लोगों के आंदोलनों में जीवंतता का स्वर उत्पन्न होगा। फिर हम लोगों के पास आज की स्थिति में भी कितने विभिन्न साधन उपलब्ध हैं, हम लोगों को इसका ज्ञान हो जाएगा, इन हिंदू संस्थानिकों की सामर्थ्य कितनी बड़ी है तथा यह कितना प्रभावी साधन है यह हम लोगों को दिखाई देगा।

यदि हिंदुस्थान का नाश हो जाता है तब हिंदू संस्थानिकों राज्य भी धराशायी होंगे तथा मृत शरीर के अंग जिस प्रकार सड़ जाते हैं उसी प्रकार इस समाज में हिंदुत्व नष्ट होने पर उसके शरीर के अंग बने हुए ये संस्थान भी नामशेष हो जाएँगे।

महासभा की राजनीति

गत दो वर्षों से हिंदू महासभा के आंदोलन का किस प्रकार विस्तार हो रहा है, इस बात की ऊपर दी गई जानकारी के कारण यहाँ के लोग तथा ब्रिटिश शासनकर्ता भी अनभिज्ञ नहीं रहेंगे।

इस वर्ष शासन द्वारा हिंदू महासभा को राजनीतिक क्षेत्र में मुसलिम लीग तथा कांग्रेस के समकक्ष महत्त्वपूर्ण स्थान देकर समय-समय पर उससे राय ली जाएगी, ऐसा आश्वासन दिया है। यह घटना हिंदू महासभा के इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण बात मानी जानी चाहिए।

आज तक कांग्रेस तथा मुसलिम लीग-ये दो संस्थाएँ ही शासन के विचाराधीन थीं तथा इनका मत सारे हिंदुस्थान का मत है ऐसा माना जाता है। शासन द्वारा कांग्रेस मुसलिम लीग संपूर्ण हिंदुस्थान। यह समीकरण याद कर लिया गया था। इसमें मुसलमानों का मत प्रस्तुत करने का काम लीग को दिया गया था, क्योंकि लोग प्रकट रूप से प्रचार करती है कि मुसलमानों के हितसंबंध की रक्षा करना और उनमें वृद्धि करने का काम हम लोग करते हैं। इस कारण हिंदुओं का मत जानने हेतु कांग्रेस से संपर्क करना होगा, ऐसी शासन की मान्यता थी। कांग्रेस तथा मुसलिम लीग मिलकर संपूर्ण हिंदुस्थान है ऐसा मानकर यदि मुसलिम लीग मुसलमानों का मत प्रस्तुत करती है तो कांग्रेस मुसलमानों के अतिरिक्त समाज का मत प्रस्तुत करने का संस्थान है यह मानना शासन के लिए स्वाभाविक ही था। परंतु हम लोग हिंदुओं के प्रतिनिधि हैं, इस आरोप का कांग्रेसियों ने ही प्रकट रूप से तिरस्कार करते हुए अपना भ्रांतिपूर्ण राष्ट्रीयत्व सिद्ध करने हेतु सैकड़ों बार हिंदुत्व के हितसंबंधों की बलि चढ़ा दी है। सिंध विभाजन के समय, जातिदर प्रतिनिधित्व के समय सीमा की राजनीतिक नीति निर्धारित करने में, हिंदुस्थानी भाषा के संबंध आदि अनेक प्रसंगों पर उन्होंने हिंदुओं के प्रति दगाबाजी का सहारा लिया है। इतना सबकुछ हो जाने पर भी शासन यही कहता रहा कि हिंदुस्थान के हिंदू-मुसलमानों का प्रतिनिधि मत कांग्रेस तथा मुसलिम लीग का मत है।

इस प्रकार जिन कांग्रेसियों को हिंदुत्व के प्रतिनिधित्व से अत्यधिक घृणा थी उसी कांग्रेस का यह मत हिंदुओं का ही मत है- ऐसा शासन मानता था।

इसके फलस्वरूप हिंदुओं का वास्तविक प्रतिनिधि कोई नहीं रहा। इतना ही नहीं, शासन के सभी घटनात्मक विचार विनिमय के समय तथा गोलमेज परिषदों में हिंदुओं का पक्ष प्रकट रूप से विकृत स्वरूप में प्रस्तुत किया गया।

परंतु हिंदू सभा के बढ़ते आंदोलन के कारण, महत्त्व के कारण तथा प्रभावी कार्य से शासन को एक बात हम लोग अंततः समझा सके। वह यह थी कि भविष्य में कांग्रेस हिंदुओं की प्रतिनिधि संस्था नहीं होगी। हिंदू महासभा की हिंदुओं की एकमात्र प्रतिनिधि संस्था है तथा जब हिंदुस्थान की राजनीतिक समस्याओं का सर्वांगपूर्ण विचार किया जाता है उस समय हिंदुओं का मत ज्ञात करने के लिए हिंदू महासभा के मत का विचार किया जाना चाहिए। शासन का पूर्व का समीकरण था-कांग्रेस+ लीग = हिंदुस्थान प्रतिनिधि मत; परंतु अब यह बदलकर निम्नानुसार हो गया है- हिंदू सभा + लीग + कांग्रेस = हिंदुस्थान का प्रतिनिधि मत ।

इसी समीकरण को शासन ने मान्यता प्रदान की है। हिंदुस्थान की वर्तमान राजनीतिक स्थिति में यही समीकरण उचित है ऐसा वाइसराय ने विचारपूर्वक कहा है। उन्होंने निश्चित रूप से हिंदू महासभा को एकमात्र प्रतिनिधि न मानकर एक प्रमुख राजनीतिक संस्था के रूप में मान्यता प्रदान की है, इसलिए मैं उनका आभारी हूँ।

मुसलिम लीग मुसलमानों के हितसंबंधों का प्रतिनिधित्व करती है। हिंदू सभा हिंदुओं के हितसंबंधों का प्रतिनिधित्व करती है व कांग्रेस दूसरे किसी का प्रतिनिधित्व नहीं करती; परंतु उसका कुछ, इसका कुछ इस प्रकार से पूर्णत: किसी का नहीं इस प्रकार के अपूर्ण कांग्रेसवालों का प्रतिनिधित्व करती है।

भारत मंत्री की संभावित समझ

आज हिंदुस्थान शासन ने इस नए समीकरण को मान्यता प्रदान की है; परंतु इस समीकरण को शासन द्वारा पूर्ण रूप से समझा नहीं गया है। इसका प्रमाण है भारत मंत्री की भाषा। वे आज भी कांग्रेस तथा लीग अथवा लीग और कांग्रेस ऐसा ही कहते हुए दिखाई देते हैं। हिंदुस्थान के जनमत के विषय में बोलते समय शासन द्वारा मान्य किया गया नया तथा उचित समीकरण उनकी भाषा में अभी भी नहीं रहता; परंतु धीरे-धीरे यह उनकी भी समझ में आ रहा है। हिंदुस्थान के जनमत के बारे में पार्लियामेंट में बोलते समय गत नवंबर माह में उन्होंने कांग्रेस, लीग तथा महासभा इस समीकरण का उपयोग किया यह सच है; परंतु उसका वास्तविक अर्थ उनके ध्यान में आने के कारण हिंदू महासभा-इस नए नाम के बारे में पार्लियामेंट में बोलते हुए, उन्होंने एक नई उपपत्ति बनाई। मुसलिम लीग मुसलमानों की प्रतिनिधि संस्था है यह बात भारतमंत्री को ठीक से समझ में आई; परंतु कांग्रेस हिंदुओं की प्रतिनिधि संस्था है, वे ऐसा मानकर चल रहे थे। यदि कांग्रेस हिंदुओं की प्रतिनिधि संस्था है तो हिंदू महासभा किसका प्रतिनिधित्व करती है यह सवाल उनके मन में उत्पन्न हुआ। तब उन्हें जो निकट तथा सुविधापूर्ण लगा वह तय करते हुए पार्लियामेंट में उन्होंने कहा कि कांग्रेस सामान्यतः आधुनिक हिंदुओं की प्रतिनिधि संस्था है तथा हिंदू सभा सनातनी वृत्ति के हिंदुओं की संस्था है। 'सनातन' हिंदुओं की संस्था के रूप में पार्लियामेंट में हिंदू सभा का परिचय कराया गया; परंतु अॅमेरी साहब को यदि इस बात का पता चल जाए कि हिंदू महासभा का अध्यक्ष एक सुधारक है तथा जन्म से ब्राह्मण होकर भी अपने व्यक्तिगत दायित्व पर अस्पृश्य समाज के साथ निस्संकोच भोजन करना है तो कितना मजा आएगा। उन्होंने जब दूसरी बार हिंदू महासभा का उल्लेख किया उस समय वास्तविक पहचान करा दी। हम लोग कौन हैं तथा हिंदू महासभा का तत्त्वज्ञान क्या है? इससे ब्रिटिश लोगों को अवगत कराने का कार्य हम लोगों को ही करना है। इस ध्येय के लिए लंदन में हिंदू प्रचार के लिए एक स्थायी केंद्र की स्थापना की जानी चाहिए।

ब्रिटिश लोगों तथा शासन द्वारा हम लोगों को इस बात का विश्वास दिलाना चाहिए कि हिंदू सभा सनातनी नहीं है अथवा नास्तिकवादी भी नहीं है। वह किसी भी 'वाद' का समर्थन नहीं करती। हिंदू महासभा कोई हिंदू धर्म सभा अथवा किसी प्रकार की धर्म संस्था नहीं है। हिंदू महासभा एक हिंदू राष्ट्र सभा है। इस संस्थान का उद्देश्य अखिल हिंदू राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करना है तथा उसमें आस्तिकवाद से नास्तिकवाद तक के सभी तत्त्वों का समावेश होता है।

शासन ने हिंदू महासभा को हिंदुओं को प्रतिनिधि संस्था के रूप में मान्यता प्रदान की तथा समय-समय पर उससे विचार विनिमय भी किया, इसका बहुत दूरगामी परिणाम समस्त हिंदू आंदोलन पर होने वाला है। इससे एक बात प्रमाणित हो चुकी है कि हिंदुओं का प्रतिनिधित्व हिंदुओं के रूप में कांग्रेस नहीं करती। मुसलमानों का मत ज्ञात करने के लिए जिस प्रकार मुसलिम लीग अथवा कांग्रेस या अतिरिक्त कोई अन्य मुसलिम संस्था है उसी प्रकार हिंदुओं के हितसंबंधों की रक्षा करनेवाली हिंदुओं की प्रतिनिधि संस्था कांग्रेस के अतिरिक्त है तथा वह है हिंदू महासभा, यह बात मान्य हो गई है और प्रमाणित भी हो चुकी है। यह तत्त्व लगभग संपूर्ण समाज को भी मान्य है। कांग्रेस केवल एक पुरानी संस्था है इस एक कारण से हिंदुओं को उसे सम्मान देना बंद कर देना चाहिए तथा उसके प्रभाव से स्वयं को मुक्त कर लेना चाहिए। इसी से हिंदुओं के राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक तथा अन्य हितसंबंधों के प्रति कांग्रेस अथवा अन्य कोई भी उपेक्षा से नहीं देख सकेगा। जब भी कभी गोलमेज परिषद् होगी अथवा सर्वपक्षीय परिषद् का आयोजन किया जाएगा उस समय अथवा घटनात्मक परिषद् में हिंदुस्थान की राज्य घटना का सर्वांगीण विचार किया जाएगा। उस समय हिंदू महासभा एक आवश्यक घटक के रूप में लीग तथा कांग्रेस के साथ वहाँ उपस्थित होगी और जब तक हिंदू सभा को मान्यता प्राप्त नहीं हो जाती, अन्य लोगों द्वारा किया गया कोई भी समझौता, प्रस्ताव अथवा योजना हिंदू सभा के लिए बंधनकारी नहीं होगी। भविष्य में किसी भी प्रकार की कांग्रेस-लीग में हुई सुलह हिंदुओं के लिए बंधनकारी नहीं होगी। हिंदू महासभा की सहमति के बिना उन्हें हिंदुओं के हितसंबंध बेच देना संभव नहीं होगा तथा इस बात के लिए किसी प्रकार की सौदेबाजी करना भी संभव नहीं होगा।

भारत का अखंडत्व

एक अन्य बात पर भी आप लोगों को ध्यान देना आवश्यक है। हिंदुस्थान शासन तथा ब्रिटिश शासन इन दोनों ने ही यह मान लिया है कि हिंदुओं के हितसंबंधों की प्रतिनिधि संस्था के रूप में हिंदू सभा का कार्य करेगी तथा कांग्रेस उनका प्रतिनिधित्व नहीं करेगी। एक अन्य बात को भी उन्होंने मान्यता प्रदान की है। भारत मंत्री ने अभी-अभी जो भाषण दिया है, उसमें उन्होंने कहा कि हिंदुस्थान का राजनीतिक तथा राष्ट्रीय अखंडत्व बना रहना चाहिए। इस विषय में हिंदू महासभा तथा सिखों की संस्था द्वारा शासन पर दबाव डालने से ही यह हो सका है। हिंदू देश,राष्ट्र अथवा राज्य घटना को खंडित करने की पाकिस्तान की योजना के अनुसार इस दुष्ट वासना को ब्रिटिश शासन का समर्थन प्राप्त नहीं हुआ तथा उनकी पाकिस्तान बनाने की योजना को शासन द्वारा मान्यता प्राप्त नहीं हुई। यह हिंदू महासभा के आंदोलन की महान् सफलता है। मुसलिम लीगवालों ने पाकिस्तान का आंदोलन चलाया था तथा कांग्रेस नेताओं ने उनके अनेक राजाजी तथा प्रधानजी द्वारा यदि पाकिस्तान बनाने हेतु मुसलमान अटल हैं तो हम लोग भी उसके विरोध में आग्रहपूर्वक कुछ नहीं कहेंगे। पाकिस्तान की इस योजना के लिए कांग्रेस के हिंदुओं ने इस तत्परता से अपनी सहमति दरशाई थी कि प्रत्यक्ष ब्रिटिश लोगों ने भी उसे इतना महत्त्व नहीं दिया था। प्रारंभ में उन्होंने पाकिस्तान की योजना के लिए स्पष्ट शब्दों में मतभेद व्यक्त नहीं किया था तथा भारतमंत्री अॅमेरी ने भी एक माह पूर्व दिए गए अपने भाषण में मुसलमानों को असंतुष्ट न करने के लिए विचारपूर्वक कुछ भी नहीं कहा था। इसके अतिरिक्त जिससे हिंदुस्थान तथा मुसलिम हिंदुस्थान इस प्रकार के दो टुकड़े करने की उनकी कल्पना को बल मिलेगा- ऐसी भाषा का ही प्रयोग किया था; परंतु कुछ दिनों में यह सबकुछ परिवर्तित हो गया। अब यही भारतमंत्री हिंदुस्थान का प्रादेशिक अखंडत्व ही सभी लोगों के हितों की दृष्टि से बना रहना चाहिए तथा इसी मूलभूत आधार पर हिंदुस्थान की भावी राज्य घटना तैयार की जानी चाहिए ऐसा कहने लगे हैं- इसका कारण क्या हो सकता है ?

इसका कारण है हिंदू महासभा, सिख संस्था, सनातनी मंडल आदि ने अर्थात् अखिल हिंदू संघटन पक्ष ने पाकिस्तान विरोधी जो आंदोलन चलाया तथा इस योजना के लिए आप लोगों की नीति क्या है यह स्पष्ट करने के लिए शासन को लगातार कहा, उसी के परिणामस्वरूप भारतमंत्री ने यह घोषणा की। पाकिस्तान की इस योजना के विरोध में या इसका निषेध करने हेतु एक भी शब्द कांग्रेस के किसी भी प्रस्ताव में, परिषद् में अथवा भाषण में आप लोगों को नहीं दिखाई देगा; परंतु हिंदू सभा ने इस विषय पर अत्यधिक आग्रहपूर्वक कहा था, 'शासन को युद्ध समितियों में तथा युद्ध कार्य में यदि हिंदू सभा से सहकार्य प्राप्त करना होगा तो शासन द्वारा अखिल हिंदुस्थान का अखंडत्व तथा प्रादेशिक अविभाज्य का सर्वप्रथम मान्य करना चाहिए। यह महासभा की शर्त थी। इसी कारण गत नवंबर माह में अपने पार्लियामेंट के भाषण में भारतमंत्री अमेरी द्वारा जिस प्रकार की संदिग्ध भाषा का प्रयोग किया गया था उसे उन्हें इस माह के भाषण के समय बदलना पड़ा तथा 'हिंदुस्थान का प्रथम विचार' इस नाम से जो प्रवचन दिया उसमें उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि भारत के अखंडत्व की बात से वे सहमत हैं। कारण कुछ भी क्यों न हो, परंतु भारतमंत्री अमेरी द्वारा भारत के अखंडत्व तथा अविभान्यता के विषय में जो नीति स्पष्ट रूप से प्रकट की गई है उसके लिए मैं उनका मनःपूर्वक अभिनंदन करता हूँ। उसी प्रकार मुसलिम लीग द्वारा वाइसराय के सम्मुख हिंदू विरोधी व आक्रामक स्वरूप की जो अनेक योजनाएँ प्रस्तुत की गई तथा युद्ध समितियाँ एवं कार्यकारी मंडल में वृद्धि करने हेतु जो अनगिनत शर्तें रखी गई थीं, उन सभी को वाइसराय ने निश्चयपूर्वक अस्वीकार कर दिया, इसके लिए मैं उनका भी अभिनंदन करता हूँ। यह परिवर्तन क्या अपने आप हुआ, ऐसा तो आप लोग नहीं मानते होंगे। इसके लिए विचारों का पर्याप्त आदान-प्रदान किया गया। हिंदू महासभा में मुसलमानों की आक्रामक माँगों का जो विरोध दरशाया तथा अपनी योग्य मार्ग प्रस्तुत की उसी कारण यह सब संभव हुआ है। इस संबंध में मुसलमानों की माँगमान्य न हों इसलिए कांग्रेस द्वारा कुछ भी नहीं कहा गया।

सच बात तो यह है कि हिंदू सभा यदि विरोध न करती तो मुसलमानों को सभी आक्रामक माँगें आज पूरी हो जातीं।

हिंदुत्वनिष्ठ इच्छुक को ही हिंदू अपना मत दें

हिंदुओं को अब एक रोग से अपनी मुक्ति करा लेनी चाहिए। उन्हें यदि खुद के अधिकारों की रक्षा करने की इच्छा हो तो चुनाव के समय उन्हें हिंदुत्वनिष्ठ इच्छुकों को ही अपने मत देने चाहिए। आज की घटना के अनुसार कांग्रेस भविष्य में हिंदुओं के न्याय्य हितसंबंधों का कभी भी प्रतिनिधित्व नहीं कर सकेगी। यह रक्षा जिस निष्ठा एवं साहस से करने की आवश्यकता है उस प्रकार केवल हिंदुत्वनिष्ठ प्रतिनिधि ही कर सकेंगे। यदि हिंदू मतदाता संघ से हिंदुत्वनिष्ठ इच्छुक ही बहुसंख्या से विधिमंडल तथा स्थानिक स्वराज्य संस्थाओं में चुने जाते हैं तो शासन को हिंदू महासभा अथवा हिंदू संघटनवादी पक्ष को ही हिंदुओं का एकमेव प्रतिनिधि पक्ष के रूप में मान्यता प्रदान करनी होगी।

हिंदू महासभा बलशाली हो ऐसी कांग्रेसवादी हिंदुओं की इच्छा

आजकल बहुत से कांग्रेसवाले हिंदू भी दिल से चाहते हैं कि हिंदू महासभा एक प्रभावी राजनीतिक संस्था बने। इस वर्ष सैकड़ों कांग्रेसी ख्यातनाम हिंदू नेताओं ने हिंदू महासभा का अध्यक्ष होने के कारण मेरे पास स्वयं आकर महासभा द्वारा किए जानेवाले कार्य के लिए मेरा अभिनंदन किया। यद्यपि इन कांग्रेसी सज्जनों को हिंदुत्वनिष्ठ विचार पूर्णतः उचित प्रतीत होते हैं, कांग्रेस ने हिंदुओं का किस प्रकार अहित किया है इस बात से वे दुःखी है तथा कांग्रेस को दोष देते हैं और हिंदू सभी का आभार मानते हैं तथापि वे कांग्रेस के दबाव से बाहर नहीं निकल सकते, ऐसा क्यों? अभी भी लोग सीधे आकर हिंदू सभा में सम्मिलित क्यों नहीं हो जाते ? इस प्रश्न का उत्तर देना सरल नहीं उनकी एक ही कठिनाई है। कांग्रेस त्यागकर हिंदू महासभा से मिल जाने के मार्ग में एक दीवार खड़ी है। यह केवल एक इंच की दीवार लाँघकर दूसरी ओर नहीं जा सकते। यह दीवार है कांग्रेस टिकट की। उन्हें ऐसा प्रतीत होता है कि कांग्रेस टिकट पर चुनाव लड़ने से वे निश्चित रूप से चुने जाएँगे। स्थानिक स्वराज्य संस्था अथवा विधिमंडल में चुने जाने के लिए यह टिकट उनकी मदद करेगा, ऐसी उनकी धारणा है। इससे उनके मान-सम्मान तथा उत्कर्ष का रास्ता साफ हो जाता है। इसका एक ही उपाय है कि चुनाव में बगैर सोचे-समझे कांग्रेस को मत देने की घातक वृत्ति को हिंदू मतदाता संघों को त्याग देना चाहिए तथा हिंदू हितों के लिए हिंदुत्वनिष्ठ प्रत्याशियों को ही मत प्राप्त हो ऐसी स्थिति बनानी चाहिए। एक बार यदि सभी को निश्चित रूप में समझ में आ जाएगा तो आज के यही दोलायमान हिंदू बांधव, जो आज कांग्रेस में हैं उन सभी को कांग्रेस छोड़ने का साहस होगा तथा वे प्रकट रूप से हिंदू महासभा में आ मिलेंगे।

आज कांग्रेस की नीति अनुचित है, अतः उसे छोड़ देना चाहिए- ऐसा जो लोग दिल से चाहते हैं, परंतु व्यक्तिगत स्वार्थवश ऐसा करने का साहस नहीं करते, उन हजारों हिंदू बांधवों से फिर भी मैं विनती करता हूँ कि आप लोग अपनी मनोदेवता की अवमानना न करें। आप लोग कर्तव्य पालन करना सीखिए। सत्ता लोकप्रियता जैसी क्षुद्र विचारधारा (भावनाओं) को न मानते हुए हिंदू राष्ट्र, जाति तथा धर्म की रक्षा करने हेतु अपना कर्तव्य करने के लिए तैयार होकर दूसरों के लिए आदर्श निर्माण कीजिए।

इस प्रकार गत वर्ष के हिंदू सभा के अनेकविध आंदोलन तथा कार्यों का सिंहावलोकन किया जाए तो हम लोगों को यह बात दिखाई देगी कि हिंदुत्वनिष्ठ आंदोलन तेजी से बढ़ रहा है, परंतु हम लोगों का वास्तविक यश किसमें है, अपनी प्रगति कहाँ तक पहुँच चुकी है, अपने आंदोलन का वास्तविक दोष क्या है तथा उसका निराकरण किस प्रकार किया जाना चाहिए इन बातों पर हम लोगों को विचार करना चाहिए। इस प्रकार के आत्मशोधन आवश्यक होते हुए भी में हम लोगों के दोषों तथा दुर्बलता का प्रदर्शन करना नहीं चाहता। वर्तमान स्थिति में हर कोई यही कहते हुए पाया जाता है कि हिंदू कितने बुरे हैं। हम लोगों के मित्रों तथा शत्रुओं ने हम लोगों के दोषों को इतना बढ़ा-चढ़ाकर कहना जारी रखा है। इससे हम लोग ऊब गए तथा हम लोगों में वास्तव में कुछ कमी है ऐसा मतिभ्रम हिंदुओं में उत्पन्न हो गया है। इसलिए हम लोगों की जितनी प्रगति आज हुई है उसे कम बताना हम लोगों के लिए उचित नहीं है। उसी प्रकार हम लोग बहुत दुर्बल हैं, ऐसा भी हम लोगों को नहीं सोचना चाहिए।

हिंदुओं के हितों की रक्षा किस प्रकार होगी ?

युद्धकाल की आज की परिस्थिति में हम लोगों को क्या करना चाहिए इस महत्त्वपूर्ण प्रश्न की ओर मैं आपको ले चलता हूँ। जिस अवस्था में आज हम लोग रहते हैं उसमें हम लोगों को तत्काल क्या करना चाहिए, कौन सी नीति अपनानी चाहिए, हम लोगों का युद्धकालीन कार्यक्रम क्या होना चाहिए, जिससे हिंदुओं के हितसंबंधों की रक्षा होगी तथा उनका हित-वर्धन भी हो सकेगा? इस विषय पर विचार करना आवश्यक है।

इस प्रकरण के आरंभ में ही यह स्पष्ट करना चाहूँगा कि मैं जो विचार आपके सामने रख रहा हूँ वे मैं हिंदू महासभा के अध्यक्ष पद से प्रस्तुत कर रहा हूँ; परंतु ये मेरे व्यक्तिगत विचार हैं और इन्हें इसी प्रकार आप लोग मान लेंगे। इस अधिवेशन के प्रतिनिधियों को मेरे विचारों को हिंदू महासभा के अध्यक्ष का अनुरोध, अधिकृत घोषणा अथवा आज्ञा नहीं मानना चाहिए। किसी नीति अथवा कार्यक्रम का समर्थन करना चाहिए यह बात इष्ट होते भी विशेष प्रसंग में नीति तथा कार्यक्रम निश्चित करते हुए महासभा के अध्यक्ष को उसका पालन करने की आज्ञा देनी चाहिए तथा जिस सभा का वह अध्यक्ष है उसका नेता बनना मान्य करना चाहिए यह सच है। अध्यक्ष के लिए दूसरी कोई व्यवस्था न हो तब ऐसी सभा के प्रतिनिधि एकत्र होकर विचार विनिमय करते हैं तथा उसके अनुसार प्रस्ताव पारित करते हैं। सबसे बड़े अधिकारी के नाते से काम करना भी इसका एक महत्त्वपूर्ण कर्तव्य होता है। अध्यक्ष के इस कर्तव्य को समझकर तथा उसके अनुसार आप लोग युद्ध के संबंध में जो निश्चित नीति तय करेंगे उसे मैं अपनी शक्ति के अनुसार व्यवहार में लाने का प्रयास करूंगा, चाहे वह मेरे व्यक्तिगत विचारों के अनुरूप हो अथवा न हो। आप लोगों के तथा मेरे विचारों में मतभेद हुआ तो भी उस बारे में किसी प्रकार से शिकायत न करते हुए अथवा अध्यक्ष पद की साख का उसके लिए प्रयोग न करते हुए आप लोग जो कुछ निर्णय लेंगे में वही कार्यवाही में रखूँगा। मेरा आपसे केवल इतना ही अनुरोध है कि मैं आप लोगों में से ही एक हूँ। ये विचार अध्यक्ष के विचार हैं ऐसा मत मानिए।

सभी चोर हैं

इस संबंध में पहला विधेय यह है कि वर्तमान जागतिक युद्ध में जो राष्ट्र एक-दूसरे से संघर्ष कर रहे हैं उनमें से किसी को भी नैतिक दृष्टि से सहायता देने के लिए हम लोग बाध्य नहीं हैं, फिर वह देश इंग्लैंड हो या जर्मनी, जापान हो या रूस, चीन हो अथवा कोई भी अन्य युद्धरत देश इंग्लैंड तथा अमेरिका का कहना है कि उनका पक्ष उदात्त नीति पर चल रहा है, अतः दूसरों को उनकी सहायता करनी चाहिए। उनकी बात छोड़ दें तब भी यहाँ के कुछ कांग्रेसी नेता तथा कुछ अन्य नेता भी इसी विचारधारा का समर्थन कर रहे हैं। इस प्रकरण में हिंदू सभा ने अपनी भूमिका युद्ध प्रारंभ होने से एक माह बाद अर्थात् सितंबर १९३९ में आयोजित कार्यकारी समिति की सभा में एक प्रस्ताव पारित करके स्पष्ट कर दी थी।

कांग्रेस के स्वयंभू कर्तुमकर्तु सर्वाधिकारी गांधीजी ने अंग्रेजों से विनती करना प्रारंभ किया तथा ऐसा भी प्रतिपादन किया कि इस समय हिंदुस्थान की स्वतंत्रता की विचार करना भी उचित नहीं है। अब हम लोगों को केवल एक ही विचार करना चाहिए-इंग्लैंड तथा फ्रांस की सुरक्षा किस प्रकार की जाएगी? विश्व में लोकतंत्र के विरोध में जो तूफान उठा है उसे शांत करने के लिए हम लोग शासन को बिना शर्त सहयोग देने के लिए तत्पर हैं। ब्रिटिश तथा फ्रेंच जैसे लोकतांत्रिक राष्ट्रों को सहायता देने के लिए भारतीयों को तैयार रहना चाहिए, क्योंकि पोलैंड तथा अन्य स्वतंत्र राष्ट्रों पर साम्राज्यवादी जर्मनी ने आक्रमण किया है ऐसा पंडित नेहरू ने आग्रहपूर्वक कहा था।

फॉरवर्ड ब्लॉक, कम्युनिस्ट राइटिस्ट जैसे इस देश के अन्य पक्षों को भी पोलैंड, रशिया आदि राष्ट्रों से किंचित् मात्र भी राजनीतिक लोभ नहीं है। वे साम्राज्यवादी नहीं हैं ऐसा भी वे कह रहे थे। इस समय केवल हिंदू महासभा ही एकमेव संघटित तथा प्रमुख संस्था थी जिसने दूरदर्शिता का परिचय दिया। महासभा ने ही देश को तथा प्रत्यक्ष कांग्रेस को भी उचित राह दिखाई। उसने स्पष्ट रूप से यह घोषित किया कि यूरोप के युद्धरत राष्ट्र फिर वह इंग्लैंड, फ्रांस, पोलैंड, रूस आदि में से कोई भी हो, युद्ध करने जो तैयार हुए वह किसी नैतिक कारण से लोकतंत्र की प्रस्थापना करने हेतु अथवा किसी विशेष तत्त्वज्ञान की प्रतिष्ठापना करने के उद्देश्य से नहीं। युद्ध करने का उनका उद्देश्य केवल स्वयं का स्वार्थ व महत्त्व प्रस्थापित करने का ही है। इसके विपरीत इंग्लैंड इस युद्ध में इस कारण सम्मिलित हुआ कि इंग्लैंड या अन्य राष्ट्रों के विरुद्ध जो आक्रमण किया जा रहा है उसका प्रतिकार तथा लोकतंत्र के उदात्त तत्त्वों की रक्षा की जा सके। इससे कुछ भौतिक लाभ प्राप्त करने की उसकी इच्छा नहीं है। विश्व के अंतरराष्ट्रीय संबंध अधिक दृढ़ आधार पर स्थापित करने के लिए तथा विश्व में स्थायी शांति संभव हो इसलिए लड़ रहे हैं। ऐसा वाइसराय तथा भारतमंत्री ने अपने अनेक भाषणों द्वारा हमें विश्वास दिलाने का प्रयास किया; परंतु ये सभी घोषणाएँ व्यर्थ थीं। उदात्त तत्त्वों की प्रतिष्ठापना के लिए ग्रेट ब्रिटेन युद्ध में सम्मिलित नहीं हुआ है। इसे प्रमाणित करने का उत्कृष्ट प्रमाण यह है कि जब चेंबर्लेन ने हिटलर को पोलैंड को स्वतंत्र करने को कहा, तब हिटलर ने उत्तर दिया कि 'मैं पोलैंड छोड़ देता हूँ, परंतु आप हिंदुस्थान छोड़ेंगे क्या?' इसमें सबकुछ कहा गया है, चोर ही चोर की चाल समझता है।

युद्ध संबंधी कांग्रेस की भ्रांति

इसलिए ग्रेट ब्रिटेन को अपने युद्ध का उद्देश्य प्रकट करना चाहिए। ऐसीमाँग पंडित नेहरू जैसे नेता द्वारा किया जाना मुझे शुद्ध पागलपन लगा। ब्रिटिश लोग अपने युद्ध विषयक सामान्य उद्देश्यों का इतनी बार पुनरुच्चार कर चुके हैं कि सुननेवालों के कान पक चुके हैं। दूसरी बात यह है कि उदात्त तत्त्वों की इस घोषणा का कोई मतलब भी नहीं है। यदि उनकी यह घोषणा कुछ मायने रखती तो उन्होंने उसके अनुसार व्यवहार भी किया होता।

यदि इंग्लैंड लोकतंत्र की प्रतिष्ठापना के लिए लड़ रहा होता तो उन्होंने आज भारत को स्वतंत्र करते हुए यहाँ लोकतंत्र पद्धति की राज्य घटना कानूनों में भी लाई होती।

परंतु उन्होंने इस प्रकार कुछ भी नहीं किया है। इस युद्ध में सम्मिलित होनेवाले सभी राष्ट्रों का ध्येय तथा वर्तमान समय के प्रत्येक राष्ट्र का ध्येय स्वयं का स्वार्थ सिद्ध करना और उसमें वृद्धि करना मात्र है। विश्व में जहाँ भी अपना वर्चस्व प्रस्थापित करना संभव है वहाँ उसे प्रस्थापित करने हेतु वे लड़ रहे हैं। यह आईने के समान साफ है।

आज हिटलर तथा मुसोलिनी केवल इसीलिए युद्ध कर रहे हैं कि धरती पर अपने लोगों को अधिक स्थान प्राप्त होना चाहिए। उसी प्रकार चर्चिल, स्टालिन अथवा रूजवेल्ट भी इसीलिए लड़ रहे हैं कि उनका प्रस्थापित साम्राज्य चिरंतन बन जाए।

अपने इस वास्तविक उद्देश्य को छिपाने के लिए उन्होंने अनेक लुभावने नाम दिए हैं परंतु उन सभी का अंतिम ध्येय एक ही है। कोई उन्हें साम्राज्य कहेगा तो कोई लोकतांत्रिक राज्य के नाम से संबोधित करेगा और कोई इसे सोशलिस्ट लोकतांत्रिक राज्य का अभिधाम देगा; परंतु ये सभी राष्ट्र दूसरों के क्षेत्रों पर उनकी इच्छा के विरोध में स्वयं तलवार के बल पर अपने देश का वर्चस्व थोपने का प्रयास कर रहे हैं। फ्रांस लोकतांत्रिक राज्य नहीं है ? परंतु इसी फ्रांस द्वारा अनेक देशों की स्वतंत्रता का हरण किया गया है। हम लोगों के पांडिचेरी तथा चंद्रनगर उनके अधीन हैं। उपनिवेशों की दृष्टि से उनका क्रमांक इंग्लैंड के बाद आता है। रूस केवल लोकतांत्रिक राष्ट्र नहीं है, सोशलिस्ट लोकतांत्रिक राष्ट्र होते हुए भी उसने तलवार के बल पर एक विशाल प्रदेश पर अधिकार कर लिया है। जर्मनी की भूख न मिटनेवाली है, उसने भी पोलैंड तथा अन्य छोटे राज्यों पर अधिकार कर लिया है।

हिंदुस्थान के लिए जो उपयोगी होगा वही हम लोगों का मित्र होगा

इसी प्रकार जो विभिन्न 'वाद' हैं, उदाहरणार्थ लोकतंत्र, साम्राज्यवाद आदि उनके प्रतिपादक सभी एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं। इन 'वादों' को कुछ भी नाम दीजिए। बोल्शेविज्म कहिए या नाजिज्म, फासिस्टवाद कहिए अथवा जनसत्तावाद अथवा पार्लियामेंटरी प्रथा कहिए-इन सभी ने अपनी तलवार के सामर्थ्य से अन्य लोगों को जीतकर अथवा अभी तक जीता नहीं हो तो जीतने की इच्छा रखते हुए प्रमाणित किया है कि सभी वादों का एक ही अर्थ है, और वह है लाठी की शक्ति से राज्य करना। ऐसी स्थिति में विभिन्न नामों अथवा घोषणाओं से प्रभावित होते हुए उनके वास्तविक उद्देश्य क्या हैं यह न समझना आत्मघाती मूर्खता है।

हिटलर नाजी होने के कारण एक राक्षस है तथा चर्चिल जनतंत्रवाला है, इसलिए कोई देवदूत है ऐसा मानने का कोई कारण नहीं है। जिस स्थिति में जर्मनी जकड़ा हुआ था उससे अपना उद्धार करने हेतु उसे नाजीवाद का ही आश्रय लेना पड़ा। बोल्शेविज्म रूस के लिए लाभदायक सिद्ध हुआ। इंग्लैंड में आज जो लोकतंत्र की सत्ता है उसके लिए इंग्लैंड को कितनी कीमत चुकानी पड़ी है इसे हम लोग भलीभाँति जानते हैं।

वास्तविक राजनीतिक कार्यनीति किस प्रकार व्यावहारिक होनी चाहिए ?

राजनीति शास्त्र तथा विश्व इतिहास इन दोनों में एक निश्चित सिद्धांत प्रस्थापित हो चुका है।

विश्व के सभी लोगों को सर्वदा उपयोगी हो ऐसी कोई भी घटना अथवासमाज रचना पद्धति शाश्वत है ऐसा कहना संभव नहीं है।

अंग्रेज लोगों के समान व्यक्तिगत स्वतंत्रता तथा लोकतंत्र के प्रेमी इस विश्व में कोई अन्य लोग नहीं है, परंतु युद्ध प्रारंभ होते ही उन्होंने अपनी उस लोकतंत्र की कल्पना तथा घटना का त्याग करते हुए केवल एक ही दिन में शुद्ध एकतंत्री सत्ता की स्थापना क्यों नहीं की? आज जर्मनी में हिटलर का शब्द किसी कानून के समान माना जाता है, लगभग उसी प्रकार की स्थिति इंग्लैंड में चर्चिल के लिए है।

अतः जर्मन लोग नाजी तथा साम्राज्यवादी हैं इसलिए उनसे लड़ना भारतीयों का कर्तव्य है अथवा अंग्रेज, फ्रेंच अथवा अमेरिकन लोग जनतंत्र के समर्थक है इसलिए उनसे प्यार करना आवश्यक है- ऐसा कहने में कुछ भी सत्य नहीं है।

इस विषय में हम लोगों की राजनीतिक तथा व्यावहारिक वास्तविक नीति इस प्रकार की होनी चाहिए कि जो कोई देश, फिर वह किसी भी बाद का समर्थक क्यों न हो, हम लोगों के देश का हित करने हेतु हम लोगों के लिए उपयोगी होगा तथा जिस समय तक उपयोगी रहेगा तब तक उसे मित्र कहना चाहिए।

नाजी तथा बोल्शेविक लोग तात्त्विक भूमिकाओं का विचार करने की दृष्टि से परस्पर कट्टर शत्रु थे, परंतु इस युद्ध के समग्र पोलैंड के प्रश्न पर तथा अन्य स्वार्थ सिद्धि के लिए उनके हितसंबंध एक हो गए तथा रातोरात उन्होंने एक-दूसरे से मित्रता की, तत्काल संधि कर ली;परंतु यदि इंग्लैंड व रूस में युद्ध छिड़ जाता तथा हिटलर ने अंग्रेजों का साथ दिया होता तो क्या अंग्रेज जर्मनी की मुक्त कंठ से प्रशंसा नहीं करते? पूर्व में फ्रांस में क्रांति होने के बाद वहाँ जनतंत्र की स्थापना की गई तथा तीसरे नेपोलियन की हार होने तक इंग्लैंड और फ्रांस में शत्रुता थी। उस समय अर्थात् बिस्मार्क की कार्यवधि में जर्मनी एक साम्राज्यवादी देश के रूप में विख्यात था, इसमें और फ्रांस में युद्ध प्रारंभ होते ही अंग्रेजों ने उस जर्मनी के स्तुति स्तोत्र गाए। यही अमेरिकी लोग अंग्रेजों के भाईबंधु थे, परंतु जब उन्होंने अंग्रेजों के विरोध में विद्रोह करते हुए अपने देश में छोटे-छोटे राज्यों की स्थापना की तथा अपना स्वातंत्र्य घोषित किया तब क्या इन्हीं अंग्रेज लोगों ने अमेरिकी लोगों को देशद्रोही तथा मानव जाति की दुष्टता के पुतले बनाकर उनकी निंदा नहीं की थी? परंतु वर्तमान स्थिति को देखिए। इन अपराधियों से वे केवल मित्रता बनाए हुए हैं. क्योंकि इस युद्ध में इंग्लैंड की दुर्दशा होने से बचने के लिए अमेरिकी सहायता हो एकमात्र उपाय है इसे वे समझते हैं। इसी कारण इस इंग्लैंड को अमेरिका से कितना प्यार हो गया है। इंग्लैंड का जॉन वुल तथा अमेरिका का अंकल सैम अब एक दूसरे को गले लगाए बैठे हैं। इतना ही नहीं, जिस बोल्शेविक रूस का इंग्लैंड द्वारा उपहास किया जाता रहा है तथा उसे शाप दिए जाते थे उसी रूस की ओर आज इंग्लैंड सहायता प्राप्त करने ललचाई आँखों से देख रहा है। अभी भी यदि रूस ने इंग्लैंड को सहायता देना स्वीकार किया तो अंग्रेज लोग इन्हीं बोल्शेविकों को 'हमारे प्यारे भाई' कहकर उनसे प्यार दिखाने लगेंगे।

अंग्रेजों का असत्य और कपटपूर्ण आचरण

'देखिए! अन्यथा जर्मन लोग भारत को जीत लेंगे। इस प्रकार का भय आजकल अंग्रेज लोग हम लोगों को दिखा रहे हैं। उनकी इस बच्चों को डर दिखाने के लिए बनाई हुई तलवार से हमें भयभीत होने का कोई कारण नहीं है। हम लोगों को इन युद्धकालीन परिस्थितियों में अपनी तात्कालिक नीति निर्धारित करते समय विचार करने की आवश्यकता नहीं है।

आज की स्थिति को देखकर ऐसा प्रतीत नहीं होता कि इस युद्ध में अंग्रेजों की पराजय होगी। ऐसा कहा जाता है कि जब कोलंबस प्रथम बार अमेरिकी भूमि पर कदम रखने लगा, जब वहाँ के लोग उससे लड़ने हेतु भागकर उसके पास पहुँचे, वह समय सूर्यग्रहण का था, यह कोलंबस जानता था-तब उसने ऐसा दरशाया कि वह ईश्वर का प्रतिनिधि है तथा उससे युद्ध करने हेतु आए हुए लोगों को उसने कहा कि यदि आप लोग मेरा स्वागत नहीं करेंगे, तथा इस भूमि पर उतरने में मेरी सहायता नहीं करेंगे तो इस बात पर ध्यान दें कि मैं आकाश से सूर्य को ही हरण कर लूंगा, तथा यहाँ सदैव अँधेरा ही हो जाएगा। वहाँ के स्थानिक लोग विरोध करने आए थे। वे सूर्य को ग्रहण लगते ही हुए अँधेरे के कारण भयभीत होकर संभ्रमित हुए तथा अब यहाँ केवल अँधेरा ही हो जाएगा इस भय से भागते हुए जाकर वे कोलंबस के लिए फूल, पत्र तथा अन्य भेंट वस्तुएँ किनारे पर ले आए तथा उसे भूमि पर उतरने में सहायता दी। अंग्रेज लोग इसी प्रकार का भय हिंदुस्थान लोगों को दिखा रहे हैं। 'देखिए, हमारी सहायता करिए अन्यथा हिटलर आ जाएगा।' परंतु कोलंबस ने अमेरिका के लोगों को 'मेरी सहायता करो अन्यथा अब अंधकार सदा के लिए हो जाएगा।' ऐसा जो कहा था, उसी के स्थान पर यह कथन भी शुद्ध असत्य, कपटपूर्ण तथा तिरस्कार्य है। इसके अतिरिक्त अंग्रेज लोग दुनियावालों को यह कह रहे हैं कि हम लोग हिटलर को अंततः पराभूत करेंगे; परंतु उसी समय हम लोगों से कहते हैं कि हमारी सहायता करो, अन्यथा जर्मन लोग हिंदुस्थान को जीतने से बाज नहीं आएँगे। इनमें से सत्य बात कौन सी है?

सच तो यह है कि यदि अंग्रेजों को वास्तव में ऐसा प्रतीत होता है कि भारतीयों की सहायता बिना हिंदुस्थान उन्हें खोना पड़ेगा तब वे भारत को उपनिवेश का स्वराज्य तो प्रदान करते ही, इसके साथ जिस प्रकार के लोग अमेरिकियों को उपनिवेश देने की पहल कर हैं उसी प्रकार वे हम लोगों को भी अधिक कुछ देते। और यदि यह भी मान लिया जाए कि इस युद्ध की स्थिति विपरीत हो गई तब भी जर्मन लोग हिंदुस्थान पर आक्रमण करेंगे। इस दूर की संभावना को सत्य मानकर हम लोग क्यों चलेंगे? तथा अंग्रेजों को खदेड़कर जर्मनी हिंदुस्थान को अपने अधीन कर लेगा ऐसा क्यों मानना चाहिए? इस विश्व में जब-जब राजनीतिक भूकंप आते हैं, तब-तब अनेक साम्राज्य टुकड़ों में बँटकर धराशायी हो जाते हैं; इतिहास का कहना यह है कि कई बार दासता में, दयनीय अवस्था में पड़े हुए राष्ट्रों को अपना स्वातंत्र्य प्राप्त करने हेतु दो राष्ट्रों के मध्य चल रहे प्रबल संघर्ष को बनाए रखकर दोनों के ही आक्रामक सामर्थ्य को नष्ट करते हुए स्वयं को स्वातंत्र्य प्रस्थापित करना कई बार संभव होता है और यदि इस युद्ध में ब्रिटिशों को हिंदुस्थान से जाना पड़ जाए तथा जर्मनी अथवा किसी अन्य सामर्थ्यवान देश ने इस देश पर तत्काल आक्रमण नहीं किया तो इस देश में आंतरिक अराजकता उत्पन्न होगी; उसके परिणामस्वरूप हिंदू-मुसलमानों में युद्ध होगा। कई बार इस प्रकार से हम लोगों को भय दिखाते हैं, परंतु यदि इस प्रकार की स्थिति निर्माण हुई भी तो उससे बाहर आना हम हिंदू लोगों के लिए संभव है और ऐसा होने पर हम लोग अपने घर के निर्विवाद रूप से मालिक बन जाएँगे।

तात्पर्य यह है कि ये नैतिक अथवा तात्त्विक विवाद अथवा ऐसा हुआ तो वैसा होगा इस प्रकार की संभाव्य बातों का उद्देश्य है हम लोगों में भय उत्पन्न करना तथा हम लोगों को ब्रिटिशों के युद्ध कार्य में बिना शर्त एवं स्वेच्छापूर्वक सहायता देना चाहिए, इसलिए यह सारी कारवाई की जा रही है। इस बात का हम लोगों को खयाल न करना चाहिए, ऐसी बात नहीं है; परंतु हम लोगों को देश के हितों का ध्यान रखकर व्यावहारिक दृष्टि से इनपर विचार करने के पश्चात् अपनी नीति निर्धारित करनी चाहिए।

इस युद्ध काल में अपना कार्यक्रम निश्चित करते समय अपनी ओर से जिस प्रकार हो सके तथा संभव हो, इस रीति से इस युद्ध का लाभ हम लोगों के देश का हित प्राप्त करने किस प्रकार किया जा सकता है, हम लोग किस प्रकार स्वयं के लिए उपयोगी हो सकेंगे तथा हम लोगों का कितना उपयोग किया जा सकेगा, अपनेहितसंबंधों की रक्षा किस प्रकार कर सकते हैं तथा यथासंभव हिंदुत्व का अभ्युत्थानहम लोग किस प्रकार कर सकेंगे-इसी दिशा में हम लोगों को विचार करना होगा।

इस प्रकार का आचरण करते समय व्यर्थ, निरुपयोगी तथा मातक शाब्दिक मायाजाल के भुलावे में नहीं आना चाहिए। वर्तमान परिस्थिति में हम लोग कितने दुर्बल हैं इस बात को समझना चाहिए, उसी प्रकार आज जो कुछ सामर्थ्य हम लोगों के पास है अथवा युद्ध के वर्द्धमान प्रसार के कारण जो हम लोगों को उपलब्ध होने जा रहा है, उसे गौण मानना अथवा जो है उसे भी नहीं के बराबर मानना पागलपन है तथा हम लोगों को ऐसा नहीं करना चाहिए। इन दोनों मर्यादाओं का ध्यान रखते हुए आज आप लोगों के सामने जो मार्ग दिखाई दे रहे हैं अथवा जिनका उपयोग किया जा रहा है, इन सभी बातों का आप लोगों को योग्य विचार करना चाहिए।

सशस्त्र क्रांतियुद्ध

एक मार्ग संपूर्ण राष्ट्र में सशस्त्र विद्रोह करना भी है। दासता में हतोत्साहित होकर जीनेवाले किसी भी राष्ट्र के लिए स्वयं का स्वातंत्र्य प्रस्थापित करने हेतु अपने शत्रु को किसी अन्य प्रबल शत्रु से संघर्ष में व्यस्त पाकर उसके विरोध में सशस्त्र विद्रोह करना- यह युक्ति सुकरात द्वारा समझाई गई है और यह एक प्रभावी मार्ग है।

परंतु हम लोगों को निःशस्त्र बना दिया गया है। आपसी झगड़ों के कारण पीड़ित लोगों द्वारा इंग्लैंड के विरोध में पूरे देश में सशस्त्र आंदोलन करने की संभावना ही नहीं है। इसके अतिरिक्त हम लोगों की इस सभा के, कांग्रेस के अथवा अन्य किसी भी सभा के खुले अधिवेशन में सशस्त्र विद्रोह का विचार करना भी संभव नहीं होगा, तथापि उन्होंने अपने कार्य के लिए जो मर्यादाएँ निर्धारित की हैं उस दृष्टि से भी यह संभव नहीं है। यह मार्ग नैतिक दृष्टि से अनुचित है, इसलिए नहीं, परंतु व्यावहारिक राजनीति की दृष्टि से भी इस अधिवेशन में तथा इस प्रकट प्रसंग में उसपर विचार नहीं करना चाहिए।

गांधी-सत्याग्रह तथा संपूर्ण अहिंसावाद

दूसरा मार्ग है- अहिंसावाद का व्यक्तिगत पागलपन तथा भ्रांति का मार्ग। उसपर कुछ भी विचार करना आवश्यक नहीं है। अहिंसा अव्यवहार्य होने के कारण सशस्त्र विद्रोह करना चाहिए। सशस्त्र क्रांति को त्याज्य कहनेवाला यह दूसरा मार्ग भी केवल व्यावहारिक दृष्टि से नहीं, परंतु नैतिक दृष्टि से भी त्याज्य मानकर छोड़ देना चाहिए।

नैतिक कृत्य किसे कहना चाहिए, इस विवाद का यह उचित स्थान नहीं है तथा समय का भी अभाव होने के कारण मैं इस बात की गहन चर्चा नहीं करना चाहता। नीति शास्त्र आत्मस्फूर्ति से, साक्षात्कार से अथवा व्यावहारिक सुविधाओं जैसी किसी भी तत्त्व पर आधारित होता है, तथापि उसका व्यावहारिक पक्ष जो नीतिशास्त्रवेत्ता एक साथ मान्य करते हैं तथा जिससे नीति कौन सी है तथा अनीति कौन सी, सद्गुण दुर्गुण से किस प्रकार भिन्न है और अच्छे-बुरे का निर्णय किया जाता है वह कसौटी केवल व्यावहारिक बातों पर अधिष्ठित की गई है तथा वह सही है।

मानवी जीवन के लिए जो विचार अथवा आचार उपकारक होंगे उन्हें सभी को अच्छा व्यवहार व सद्गुण कहना चाहिए तथा उसके विपरीत जो होगा उसे अनीति अथवा दुर्गुण माना जाए। इसे सभी नीतिवक्ताओं ने न्याय के रूप में मान्यता प्रदान की है। इसका अर्थ यही है कि नीति की कल्पना मानवी जीवन पर ही मुख्यत: अधिष्ठित है।

इस संपूर्ण व्यावहारिक तथा मूलतः ही शुद्ध कसौटी के अनुसार इस अहिंसावाद में अन्याय्य आक्रमण का सशस्त्र प्रतिकार भी त्याज्य माना जाता है। अहिंसा का यह तत्त्वज्ञान पूर्णतः अव्यवहार्य, मानवी जीवन के लिए घातक तथा इसी कारण पूर्णतया अनीतिमय ही माना जाना चाहिए। बच्चे सो रहे हों और कोई साँप उनके बिस्तर में घुस जाए अथवा कोई पागल कुत्ता ही एकाएक घुस जाए तो उसे खत्म करना संभव है। फिर भी आप लोग साँप को अथवा कुत्ते को बचाने के लिए अनेक लोगों को जान बचाने की ओर ध्यान नहीं देते तथा उन्हें अपनी मरजी के अनुसार अनेक की जान लेने हेतु जिंदा तथा स्वतंत्र रखते हैं तब आप लोग दोहरे पाप के भागीदार बन जाते हैं। इसके विपरीत यदि आप लोग उस साँप को या कुत्ते को मार डालते हैं तो किसी भी जीव का किसी भी कारण से वध नहीं करना ऐसा तत्त्व विरोधी आचरण आप लोग करते हैं। यह पाप ही है तथा इस एक ही उदाहरण से अहिंसा का तत्त्व पूर्णतः अव्यवहार्य, मानवी जीवन के लिए घातक अतः पूर्णत: अनीतिकारक है यह बात प्रमाणित हो जाती है। जो बात व्यक्तिगत रूप से सच है वह राष्ट्र के लिए भी सच है। यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि जो धर्म अत्याचार, अहिंसा आदि का गुणगान करते हैं उन्हें भी इन नियमों के लिए कुछ अपवाद छोड़ना पड़ता है। किसी भी अन्यायी आक्रमण का सशस्त्र प्रतिकार किया जाए तो वे उसका विरोध नहीं करते तथा इस प्रकार का विरोध करना वास्तविक अहिंसा का गुण भी नहीं हो सकता।

मर्यादित अहिंसा पुण्य है,परोपकारी अहिंसा पाप है!

तथापि मर्यादित अहिंसा संपूर्ण मानवी जीवन के लिए अत्यधिक उपकारक होने के कारण उसे एक बड़ा गुण माना जाता है। हम लोगों का व्यक्तिगत अथवा सामाजिक जीवन एवं हम लोगों की सभी सामाजिक सुख-सुविधाएँ उसी पर आधारित हैं परंतु किसी समय अथवा प्रसंग पर यदि अहिंसा का पालन किया जाता है तो वह व्यक्तिगत अथवा राष्ट्रीय स्वरूप के मानवी जीवन के लिए अत्यधिक हानिकारक होती है तथा वह अनीतिकारक है, अतः उसे त्याज्य कहना चाहिए। जिन नीतिशास्त्रवेत्ताओं ने मर्यादित अहिंसा को एक बड़ा सद्गुण कहा है उन्होंने ही अहिंसा को त्याज्य मानकर उनका निषेध किया है।

जैन-बौद्धों की अहिंसा गांधीजी से भिन्न

बौद्ध धर्म अथवा जैन धर्म ने अहिंसावाद का जो प्रतिपादन किया है वह गांधीजी द्वारा सभी स्थितियों में सशस्त्र प्रतिकार का निषेध करनेवाली अहिंसा से पूर्णतः विपरीत है। जिन जैन लोगों ने राज्यों की स्थापना की, वीर तथा वीरांगनाओं को जन्म दिया वे उस समय भूमि पर शस्त्रों से ही लड़े तथा जिन जैन सेनापतियों ने जैन सेना को युद्ध के लिए प्रवृत्त किया उनका जैन आचार्यों ने कभी भी तथा कहीं भी निषेध नहीं किया है। यह एक ही बात यह दरशाने के लिए पर्याप्त है कि उनकी अहिंसा गांधी की अनुचित अहिंसा से स्पष्ट रूप से भिन्न है। किंबहुना अन्याय्य आक्रमण का सशस्त्र प्रतिकार करना केवल न्याय्य ही नहीं है आवश्यक भी है, ऐसा जैन धर्मियों ने प्रकट रूप से कहा है। यदि कोई सशस्त्र तथा दुःसाहसी व्यक्ति किसी साधु की हत्या करने का प्रयास कर रहा हो तो उस साधु की जान बचाने हेतु इस प्रकार के व्यक्ति का वध करना आवश्यक हो तो उसे नि:संकोचपूर्वक मार डालना चाहिए। इस प्रकार की हिंसा एक प्रकार से अहिंसा ही है। ऐसा कहते हुए जैन धर्म ग्रंथ उसका समर्थन करते हैं। 'मनुस्मृति' में जो कहा गया है उसी प्रकार जैन धर्म द्वारा भी ऐसा ही कहा गया है कि इस प्रसंग में हत्या का पाप मूल हत्या करनेवाले को लगता है। हत्या करनेवाले का वध करनेवाले को नहीं लगता। 'मन्युस्तन मन्युमर्हती' भगवान् बुद्ध ने भी इसी प्रकार का उपदेश दिया है। किसी समय एक टोली के नेता बुद्ध के पास जाकर दूसरी टोली के लोगों द्वारा किए गए सशस्त्र आक्रमण का सशस्त्र प्रतिकार करने हेतु अनुज्ञा माँगने लगे। बुद्ध ने उन्हें सशस्त्र प्रतिकार करने की आज्ञा दी और कहा, 'सशस्त्र आक्रमण का विरोध करते हुए क्षत्रियों को युद्ध करना अनुचित नहीं है। यदि वे सत्कार्य के पक्ष में सशस्त्र होकर लड़ेंगे तब उन्हें पाप नहीं लगेगा।'

आप लोग इसे प्रकृति का नियम मानिए अथवा ईश्वर की इच्छा कहिए प्रकृति में पूर्ण अहिंसा के लिए कोई स्थान नहीं है। यह एक सच है अन्यथा मानव प्राणी जिंदा नहीं बचता और यदि बचता भी तो धरती पर किसी भयभीत प्राणी के समान अथवा किसी कटिक के समान धरती के किसी गौण स्थान पर जान बचाकर रहता। परंतु उसे उसके मूल सामर्थ्य को कृत्रिम शस्त्रों की सहायता से आज की स्थिति प्राप्त हुई है। भौतिक शास्त्र के अनुसार जब प्राणी को मानवी रूप प्राप्त हुआ उस समय रेंगनेवाले प्राणी संपूर्ण दुनिया में फैले हुए थे। उनकी तुलना में व्यक्ति के रूप में वह बहुत दुर्बल था। जब वह प्रथमतः उत्पन्न हुआ था तब उसके आस-पास विद्यमान प्रचंड वन में जीने के लिए प्रयासरत सभी प्राणियों के अनुपात में शारीरिक दृष्टि से वह अत्यधिक दुर्बल था। उसके विषैले दाँत नहीं थे अथवा सूँड़ नहीं थी, उसके सींग नहीं थे अथवा नाखून भी नहीं थे। हम लोग गाय को स्वभावतः तथा शारीरिक दृष्टि से भी एक निरुपद्रवी व स्वरक्षा करने में अत्यधिक अयोग्य प्राणी मानते हैं, तथापि गाय तथा मनुष्य के बीच झगड़ा होने पर गाय भी मनुष्य के पेट में सींग घुसाकर उसकी हत्या कर देगी। मनुष्य कुछ भी नहीं कर सकेगा।

मनुष्य का अस्तित्व जिस चीज से संभव हुआ है वह अपने शारीरिक अंगों को सामर्थ्य प्राप्त कराने हेतु जो कृत्रिम शस्त्र उसने बनाए उसमें है। इन्हीं की सहायता से वह पशुओं को मात दे सका।

बाघ, सिंह, हाथी, भेड़िया, साँप, मगर आदि प्राणियों को मात देकर उसने भूमि तथा जल पर अपना प्रभुत्व स्थापित किया। प्राचीन समय से लौह युग तक के संपूर्ण कालखंड में मनुष्य अन्य प्राणियों पर अपना रोब जमाता रहा, अपना क्षेत्र विस्तारित कर सका तथा इस धरती का स्वामी बन सका। यह केवल शस्त्रों की सहायता से ही संभव था। वस्तुतः स्वयं की रक्षा करने उत्पन्न की गई तलवार ही मनुष्य का संरक्षक देवता है।

पूर्ण अहिंसा को मानकर उसके लिए किसी भी प्रकार के आक्रमण के सशस्त्र प्रतिकार का निषेध करना महात्मा पद का अथवा साधुत्व का लक्षण नहीं है। वह केवल मिथ्यावाद तथा मूर्खता का लक्षण है।

यशस्वी जगत् से संघर्ष करते हुए जिस प्रकार का आचरण मनुष्य द्वारा किया गया वही बात मानवों में परस्पर संघर्ष में जीवित रहने हेतु उसके लिए उपयोगी सिद्ध हुई। एक टोली का दूसरी टोली से, एक वंश का दूसरे वंश से अथवा किसी राष्ट्र का किसी अन्य राष्ट्र के साथ होनेवाला संघर्ष आज तक इसी बात की ओर संकेत करता है। इतिहास के प्रत्येक पृष्ठ पर तथा अंतिम पृष्ठ तक एक ही बात दिखाई देती है। अन्य बातों में समानता होते हुए भी जो राष्ट्र सैनिक दृष्टि से सामर्थ्यवान होंगे वे ही जिंदा बचेंगे तथा जो दुर्बल होंगे वे दासता में पड़ेंगे अथवा नामशेष हो जाएंगे में दुनिया के इतिहास में एक नया तत्वज्ञान प्रसृत करने जा रहा हूँ ऐसा कहना नादानी है। आप कदाचित इतिहास में कुछ नई बातों की पूर्ति कर सकेंगे; परंतु निसर्ग का जो नियम बना हुआ है उसमें अल्‍प परिवर्तन भी नहीं कर सकते।

यदि मनुष्य ने बाघों अथवा भेड़ियों को ऐसा असंदिग्ध आश्वासन दिया कि वह पूर्णत: अहिंसावादी रहेगा, किसी भी जीव की कभी भी हत्या नहीं करेगा तथा शस्त्र का उपयोग नहीं करेगा तब वे भेड़िए या बाघ भी आप लोगों के मंदिर, मसजिदें, संस्कृति, आपके तैयार खेत, मकान तथा आश्रम आदि को नष्ट कर देंगे तथा बारासालों में ही पापी लोगों, साधुओं आदि को खा जाएँगे।

प्रकृति का यही नियम है, अत: इस प्रकार की अहिंसा का मानवी जीवन के लिए घातक तथा आक्रमण का सशस्त्र प्रतिकार न करने का उपदेश देनेवाला तत्त्वज्ञान कितना अनीतिपूर्ण व पापकारक है यह पृथक् रूप से कहने की आवश्यकता नहीं है।

फिर भी आश्चर्य इस बात पर होता है कि जिन लोगों को अहिंसा का तत्त्वज्ञान अव्यवहार्य लगता है तथा इसीलिए वे उसका निषेध भी करते हैं। कई लोग बोलते समय ऐसा कहते हैं कि हम व्यवहारी लोगों के लिए यदि वह तत्त्वज्ञान अव्यवहार्य है तब भी मूलत: वह एक बड़ी नीति का कारण है, जो कोई इस तत्व को अंगीकार करेगा वह वस्तुतः महात्मा होगा, वह धन्य है; उसमें मानव श्रेष्ठों के सद्गुण विद्यमान हैं-इस मनोवृत्ति को तत्काल बदलना चाहिए। इस प्रकार के भ्रांतिपूर्ण मतों को प्रतिपादित करनेवालों को सामान्य लोग देवदूत समझने लग जाते हैं तथा मानव जीवन को अधिक ऊँचा बनाने हेतु उन्होंने कुछ नए नीति नियम खोजे हैं, ऐसा मानने लगते हैं।

जिन लोगों को इस नीति के अनुसार आचरण करना संभव नहीं है, वे लोग इनके पागलपन को साधुत्व का लक्षण मानते हैं तथा ऐसा होने पर इन लोगों को भी लगता है कि वे कोई बड़े महात्मा हैं। वे असंदिग्ध रूप से गंभीरतापूर्वक प्रतिपादन करना प्रारंभ करते हैं कि भारतीय लोगों के लिए हाथ में लाठी रखना भी पाप है, तथा स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हिंदुस्थान के लिए एक भी सिपाही की आवश्यकता नहीं होगी अथवा हिंदुस्थान के सागर तटों की रक्षा करने के लिए एक भी युद्ध नौका रखने की आवश्यकता नहीं होगी-ऐसी बातें बेहिचक कहते हैं।

परदेसियों के शासन से मुक्त कराकर हिंदुस्थान को स्वतंत्रता प्राप्ति का मार्ग इनके अनुसार है सूत कातने का चरखा, और यदि इस पराकोटि की अहिंसावादी कल्पना पर विश्वास करते हुए सेना, नौसेना अथवा वैमानिक दल नहीं रखा गया तो विश्व का कोई भी राष्ट्र हिंदुस्थान पर आक्रमण नहीं करेगा अथवा कोई आक्रमण हुआ भी तो हम लोग वृत्ताकार घूमनेवाले चरखे की आवाज पर गाना गानेवाली देश-सेविकाओं का समूह खड़ा कर उन्हें वापस जाने पर बाध्य कर सकेंगे- ऐसी इनकी विचारधारा है।

जब बातें इस सीमा तक पहुँच जाती हैं तथा भंगेड़ी लोग सामान्य भोले-भाले लोगों के प्रतिनिधि बनकर गोलमेज परिषद् जैसी परिषदों में जाते हैं तथा परदेशों में भी इस प्रकार के पागल कथन हिंदुस्थान की ओर से बड़ी गंभीरतापूर्वक कहते हैं तब विदेशी राजनीतिज्ञ तथा यूरोप अमेरिका की सामान्य जनता इस मूर्खता पर हँसती है।

अत: इन मतों का गंभीरतापूर्वक सामना करने का समय आ चुका है। इस मत के प्लेग को अब यथाशीघ्र नष्ट कर देना चाहिए। हम लोगों ने इन्हें क्षमा याचना के शब्दों में नहीं, स्पष्ट रूप से यह कहना होगा कि आप लोगों का यह पराकोटि की अहिंसा का पागलपन अव्यावहारिक तथा अनैतिक होने के अतिरिक्त उसमें साधुता का कोई चिह्न नहीं दिखाई देता, उसमें सारी मूर्खता ही भरी हुई है।

जब विश्व के सभी लोग पराकोटि की अहिंसा का पालन करेंगे तब दुनिया में कोई युद्ध नहीं होगा तथा उस समय सशस्त्र सैनिकों की भी आवश्यकता नहीं होगी; परंतु यह तत्त्वज्ञान बताने हेतु कुछ विशेष बुद्धिमानी की आवश्यकता नहीं है। यदि प्रत्येक व्यक्ति ने चिरंजीव बनने का निश्चय किया तो दुनिया में किसी की भी मृत्यु नहीं होगी- यह ऐसा कहने के समान ही है। हम लोग जब आपकी पराकोटि की अहिंसा के तत्त्वज्ञान का विचार करते हैं वह इसलिए नहीं कि साधुत्व की दृष्टि से हम लोग आप लोगों से निम्न श्रेणी के हैं, परंतु इसलिए कि हम लोग अधिक बुद्धिमान हैं। हम लोगों का ध्येय मर्यादित अहिंसावाद है तथा इसी कारण मनुष्य की सुरक्षा करने के प्रथम साधन के रूप में हम लोग तलवार की पूजा करते हैं।

इस विचार से हिंदू लोग काली माता के चिह्न के रूप में शस्त्रों की पूजा करते हैं। गुरु गोविंदसिंह ने अपने खड्ग को संबोधित करते हुए काव्य रूप में कहा है -

सुख संताकरणं दुर्मतिहरणम्

खलदल दलनं जयतेगम्।

और हम लोग भी शोरगुल के इस गान में अपना सुर मिलाकर कहते हैं 'खड्ग तुम्हारी विजय हो'।

शस्‍त्रवाद की विचारधारा

अतः शस्त्रवाद की इस विचारधारा के अनुसार हिंदुओं को पुनः सचेतन होकर अपनी वीरवृत्ति की उचित देखभाल करनी चाहिए। अपने नीति-नियमों को बनानेवाले भगवान् मनु व श्रीकृष्ण हैं तथा हम लोगों की सेना के सेनापति श्रीराम हैं। उन्होंने हम लोगों को शौर्य के जो पाठ पढ़ाए हैं उनका अभ्यास करें, ताकि हम लोगों का यह हिंदू राष्ट्र एक बार पुनः जिजीविषु तथा अजेय बन जाएगा। जब से लोग हमारे नायक थे तब हम लोगों ने पूर्व में ऐसा प्रमाणित किया है।

हम लोगों का तत्वज्ञान है जो भी कोई हम लोगों पर आक्रमण करेगा उनसे विजय प्राप्त करना। परंतु हम लोग ऐसे लोगों पर आक्रमण नहीं करेंगे जो हम से शांति बनाए रखते हैं। उन लोगों के प्रति किसी प्रकार के पापी विचार मन में न रखते हुए। भय के कारण नहीं, परंतु उदार नीति के अनुसार मित्रतापूर्ण व्यवहार करना जारी रखेंगे।

हिंदू संघटनवादियों की इस भूमिका के कारण वे कहीं भी गांधीवादी सत्याग्रह के आंदोलन में सम्मिलित नहीं हो सकते। गांधीजी के सत्याग्रह का मूलभूत तत्त्वज्ञान यह है कि परदेशी आक्रमण होने पर भी उसका सशस्त्र प्रतिकार कदापि नहीं करना है। उनकी माँग अहिंसा का प्रचार करने की है, परंतु यह तत्त्वज्ञान ही मूलतः पापमय है, साथ ही हम हिंदू लोगों के हितसंबंधों के लिए अत्यंत नाशकारक है। शासन के हितसंबंधों के लिए वह कदाचित् अल्पतः घातक हो सकता है, परंतु हम हिंदू लोगों के हितसंबंधों के लिए वह अत्यधिक घातक है। ब्रिटिशों की राजनीति कपटपूर्ण होने के कारण यदि इसी देश का कोई व्यक्ति हिंदू लोगों को इस प्रकार का उपदेश देने लगता है कि संघर्ष करने की प्रवृत्ति से चरखे पर सूत कातना अधिक दैवी स्वरूप का है तथा आक्रमणकारी की हत्या न करते हुए खुद मर जाने से मानवी जीवन की पराकोटि विशेष रूप से सिद्ध होती है तो इस प्रकार का प्रतिपादन अंग्रेजों को मनःपूर्वक उचित लगता है। इसमें उन्हें पर्याप्त लाभ मिलता है। यदि गांधीजी ने ब्रिटिश शासन को इस प्रकार का आश्वासन दिया कि हम लोग वर्तमान युद्ध के विरोध में एक शब्द भी नहीं बोलेंगे, तो यह शासन उन्हें (आत्यंतिक) पराकोटि के तत्त्वज्ञान का प्रचार करने की अनुमति सुलभतापूर्वक देगा। किंबहुना शासन द्वारा ही इस प्रकार का समझौता करने की बात सुझाई गई थी तथा सत्याग्रह का प्रारंभिक जोर कम हो जाने पर सत्याग्रह की विजय बताने के लिए शासन द्वारा सुझाई गई बात को विजय के लक्षण के रूप में स्वीकार भी कर लेंगे। परंतु शासन ने शस्त्रवाद का विरोधी प्रचार करने हेतु इन लोगों को अनुमति प्रदान की तो हिंदू संघटनवादियों को स्वयं के हित रक्षणार्थ इस धातुक तत्त्वज्ञान का विरोध करने हेतु सभी न्याय्य मार्गों से हमेशा विरोध करना चाहिए। आज केवल इसी बात की आवश्यकता है। हिंदू संघटनवादियों को अपने आंदोलन का इसे एक प्रमुख अंग निरूपित करना चाहिए।

सैनिकीकरण तथा औद्योगिकीकरण ही भावी आधार

वर्तमान युद्धकालीन स्थिति में हम लोगों का ध्येय होगा हिंदू लोगों का अधिकाधिक संख्या में सेना में प्रवेश करना तथा औद्योगिकीकरण में अधिकाधिक भाग लेना। वर्तमान स्थिति में अनुकूल तथा प्रतिकूल प्रत्येक दृष्टि से विचार करने पर प्रतीत होता है कि इस युद्ध के परिणामस्वरूप जो नया अवसर प्राप्त हुआ है उसका अधिकाधिक लाभ उठाना आवश्यक है। इस दृष्टि से आज शासन स्वयं के संरक्षण या आत्मरक्षा के लिए जो सैनिकीकरण तथा औद्योगिकीकरण करने में व्यस्त है उसका लाभ हम लोगों को उठाना चाहिए। युद्ध के कारण एक वर्ष की अवधि में हम लोगों को अच्छा अवसर प्राप्त हुआ है। इस प्रकार का संयोग गत पचास वर्षों में भी नहीं आया था तथा भावी पचास वर्षों में भी हम लोग अपनी शाब्दिक माँगों से एवं कानूनों से प्राप्त नहीं कर सकते थे। केवल गांधीवाद के दबाव के कारण इस देश के लोगों का सामाजिक सामर्थ्य बढ़ाने के प्रश्न पर कांग्रेस ध्यान नहीं दे रही है। इस सीमा तक कि पूर्व में कांग्रेस जब प्रांतिकों के प्रभाव में थी तब उसने सैनिकीकरण के विषय में जो प्रस्ताव पारित करने के लिए इच्छुक थी, पर आज नहीं है। इस संबंध में गांधीजी की निराधार अहिंसक सेना की तुलना में वे अधिक कट्टर व दूरदर्शितापूर्ण होते हैं ऐसा कहना होगा। उन्होंने आग्रहपूर्वक कहा था कि शस्त्रवादी प्रावधान निकाल दीजिए तथा सभा का हिंदीकरण कीजिए; परंतु गांधी ने वहाँ पहुँचने के बाद बीस वर्षों तक कांग्रेस के माध्यम से शस्त्रवाद का धिक्कार ही किया है। कांग्रेस ने विभिन्न प्रांतों में अपने मंत्रिमंडल बनाए, परंतु उन्होंने लोगों की सैन्य विषयक हितसंबंधों की सुरक्षा नहीं की। इसकी तुलना में मुसलमानों को देखिए, गांधीजी के दबाव में आकर कांग्रेसवाले अहिंसा, अविरोध, असहकार आदि मूर्खतापूर्ण बातें करने में व्यस्त थे। तब मुसलमानों ने इस ओर कुछ भी ध्यान नहीं दिया। उन्होंने सेना एवं सशस्त्र पुलिस दल में जितना संभव था उनके लोग भरती करवा लिये। कांग्रेस के इस पागलपन पर प्रतिबंध लगाने के प्रयास डॉ. मुंजे, भाई परमानंद तथा हिंदू महासभा के अन्य नेताओं द्वारा किए जा रहे थे।

पर इस गांधीवाद के आंदोलन का कुल प्रभाव हिंदुओं के लिए बहुत घातक सिद्ध हुआ। इसके अतिरिक्त इस सत्याग्रह को लुभावने नाम या अनीति की जो घातक शिक्षा दी गई उसके परिणामस्वरूप हिंदू जाति की सैनिकी मनोवृत्ति भी कुछ सीमा तक नष्ट हुई, इसलिए हिंदू महासभा के अध्यक्ष के नाते मैं जब दौरे पर गया तब प्रतिपल अपना कर्तव्य मानकर मैंने इस और हिंदुओं का ध्यान आकर्षित किया। मैंने अपने भाषणों में पंजाब से मद्रास तक हजारों हिंदुओं को सैनिक मनोवृत्ति को बनाए रखने को कहा और इस बात का कुछ प्रभाव भी पड़ा। उस समय हम लोगों की समस्या यह थी कि युवा हिंदू संघटनवादियों को केवल एक ही दिन में आधुनिक सैनिक शिक्षा का व्यावहारिक पक्ष किस प्रकार सिखाया जा सकेगा तथा ऐसा करने हेतु हम लोगों को क्या करना होगा। इसी विचार में हम लोग व्यस्त थे। इसी बीच युद्ध प्रारंभ हो गया और ब्रिटिश शासन को अपनी आवश्यकता के लिए इस देश में विशाल पैमाने पर सेना में भरती प्रारंभ करनी पड़ी। तब हिंदू महासभा को अपेक्षित अवसर अनायास ही प्राप्त हुआ। हिंदुस्थान की रक्षा करने हेतु ब्रिटिश शासन जो कुछ बातें करेगा उस कार्य में सहभागी होने के लिए हम लोग तत्पर हैं, यह बात हिंदू महासभा ने अपनी व्यावहारिक नीति के अनुसार शासन को बता दी। मैं निश्चित रूप से कह सकता हूँ कि हम लोगों की इस नीति से गत एक साल में हमें जो फल प्राप्त हुआ है वह उत्साहवर्द्धक है।

युद्धकालीन सहयोग के परिणाम

हम लोगों को यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि ब्रिटिश लोग इस देश में औद्योगिकीकरण कर रहे हैं अथवा सेना में वृद्धि कर रहे हैं, उसका उद्देश्य हिंदी लोगों की सहायता करना नहीं है। युद्ध के कारण उत्पन्न स्थिति का सामना करने के लिए ऐसा किया जा रहा है। हम लोग भी इस युद्ध में शासन से सहयोग कर रहे हैं। कम-से-कम विरोध करना टाल रहे हैं। यह ब्रिटिशों को सहायता करने के हेतु से नहीं किया जा रहा है। इसमें हम लोगों का स्वार्थ है। मैंने सभी बातें आपके सामने स्पष्ट रूप से रख दी हैं। इसका उद्देश्य केवल इतना ही है कि हम लोगों के विचार स्पष्ट हो जाएँ। वर्तमान में इस देश के लोगों में एक घातक आदत बन रही है। जिस प्रकार हिंदुस्थान के हितसंबंध सामान्यतः ब्रिटिशों के हितसंबंधों से विरोधी हैं उस प्रकार ब्रिटिशों से सहयोग करने हेतु एक भी बात की जाती है तो तत्काल वह कृत्य शरणागति का राष्ट्रद्रोही एवं शासन का समर्थन करनेवाला कार्य माना जाता है। ब्रिटिश शासन से किसी भी स्थिति में तथा किसी भी समय सहयोग करना देश को डुबो देने का निषिद्ध आचरण है ऐसा मानना मूर्खता ही है।

जिन कांग्रेसवालों ने शासन को आलिंगन देते हुए, राज्य निष्ठा की शपथ लेकर उनके मंत्री पदों पर आसीन होकर कार्य किया वे ही कांग्रेसवाले कह रहे हैं कि बैस्ट मिनिस्टर अब नष्ट हो जाएगा। इसलिए जिन्हें बहुत दुःख हुआ था तथागत महायुद्ध में ब्रिटिशों के सेना-भरती के अधिकारी के रूप में जिन्होंने सेवा की तथा आज भी ब्रिटिश शासन उनसे लाड़ करेगा तो वे शासन से पूर्ण सहयोग करने हेतु आज भी तैयार हैं तथा वे ब्रिटिशों के लिए किसी भी प्रकार की कठिनाई उत्पन्न करना नहीं चाहते। उन लोगों का इस प्रकार की बात करना आश्चर्यजनक ही है।

परंतु हिंदू संघटनवादी नेताओं को किसी स्थिति में अर्थ शून्य उद्दंडता कौन सी तथा शौर्य का कृत्य कौन सा है इन बातों में फर्क करना चाहिए। ऊपर के कथन के अनुसार, व्यावहारिक राजनीति में किन्हीं दो पक्षों में जब संधि हो जाती है तब जिन प्रश्नों पर उनमें एकमत हो जाता है उसी प्रश्न के लिए एवं उसी समय तक ही वह सीमित होती है। अन्य हितसंबंधों में आपस में विरोध करते हुए भी उसके कुछ प्रश्नों में उनकी मित्रता हो सकती है। हिटलर अथवा स्टालिन क्या शौर्य की दृष्टि से कम थे? परंतु उनमें प्रारंभ से ही भयंकर वैर होते हुए भी वे इस समय तक क्यों एक हो गए? उनके हितसंबंध की अनेक बातों में विरोध था, परंतु इस युद्ध के समय उनमें कुछ समान हितसंबंध उत्पन्न हुए इसी कारण क्या वे एक साथ नहीं काम करने लगे ?

यदि किसी व्यक्ति को सदैव यह भय रहता है कि दूसरे व्यक्ति उसे ठगना चाहते हैं तो उसे मूर्ख ही कहा जाना चाहिए, वह सदैव ही ठगा जाएगा।

हिंदू संघटनवादियों को अपनी राजनीतिक बुद्धिमत्ता पर इतना विश्वास है कि इंग्लैंड जैसे गुरुतुल्य राजनीतिक नेताओं द्वारा हम लोग ठगे नहीं जा सकते इस बात का उन्हें पूरा-पूरा विश्वास है; अतः ब्रिटिश लोगों के युद्ध कार्य में अधिक-से-अधिक भाग लेने में कोई भूल नहीं होती है ऐसा वे निश्चित रूप से कह सकते हैं। जब तक इस प्रकार के सहकार्य से हम लोगों को अन्य कार्य की तुलना में अधिक लाभ हो रहा है तब तक हम लोगों को इसी मार्ग पर चलना उचित होगा।

इस दृष्टि से विचार करने पर ऐसा कहना उचित होगा कि हिंदू सभा की युद्ध में सहकार्य करने की नीति का परिणाम विशेष रूप से हिंदुओं के सैनिकीकरण के लिए अच्छा हुआ है। गत वर्ष शासन द्वारा एक लाख लोगों को सेना में भरती किया गया। पूर्व के समय में सेना के विभिन्न विभागों में मुसलमानों की संख्या ७५ प्रतिशत तक पहुँच गई थी। पर इस नई भरती में हिंदुओं की संख्या नब्बे हजार है तथा मुसलमानों की केवल तीस हजार वैमानिक दल में भी हिंदुओं की संख्या में तीन गुना वृद्धि हुई है तथा दिनोदिन इसमें वृद्धि हो रही है। वैमानिक दल में भरती होने के लिए हिंदुओं में विशेष रुचि है तथा वैमानिक दल में भरती होने के लिए वे बड़ी संख्या में अपने नाम दर्ज करा रहे हैं। इन वैमानिकों में से अनेक लोग आज भी युद्ध में भाग ले रहे हैं और मजबूत जर्मनी पर हमले कर रहे हैं। नौसेना के प्रति हिंदुओं ने अभी तक कोई विशेष ध्यान नहीं दिया था। इस विभाग में जो थोड़े से लोगों ने प्रवेश किया था उनमें ७५ प्रतिशत मुसलमान थे। इसलिए इस पक्षपाती आचरण का विरोध करते हुए हिंदू महासभा ने शासन का ध्यान इस बात की और आकर्षित किया। गत समय में मराठा साम्राज्य काल में समुद्र पर क्रीड़ा करनेवाले कोंकण के साहसी हिंदुओं ने बड़े-बड़े पराक्रम किए हैं तथा अंग्रेजों की जल सेना से टक्कर लेकर उन्हें पराजित किया है; परंतु अंग्रेजों ने इन लोगों को आज तक अनदेखा किया। इसका कारण कदाचित् पूर्व का वैर ही था; परंतु अब उन लोगों को भी जल सेना में प्रवेश देने की बात हिंदू सभा द्वारा जोर देकर कही जा रही है। कोंकण तट पर रहनेवाले बुनकर, भंडारी, आंग्रे आदि सामुदिक कार्य में प्रवीण लोगों में सैकड़ों सभाओं का आयोजन कर हिंदू महासभा ने इस विषय का प्रचार किया तथा 'हम लोग नाविक दल के इच्छुक हैं, हम लोगों को प्रवेश दीजिए' ऐसी प्रतियाँ हजारों के हस्ताक्षर से शासन की ओर प्रेषित कीं। कोंकण सागरतट पर जहाज बनाने, टैंक आदि की स्थापना तथा जलसेना का तल आदि बनाने का कार्य शासन को तुरंत प्रारंभ करना चाहिए, इसके लिए हिंदू सभा द्वारा लगातार कहा गया। इसके परिणामस्वरूप शासन द्वारा जाति विषयक भेद न करते हुए हिंदुओं को जलसेना में प्रवेश देना स्वीकार किया गया। अब हिंदू लोग इस विभाग में अधिक संख्या में भरती हो रहे हैं तथा उन्होंने यह भी कहा है कि उन्हें जलसेना भी अच्छी लगती है।

बड़े पैमाने पर सैनिक युद्ध सामग्री की वृद्धि करने के लिए नए उद्योग बड़ी संख्या में प्रारंभ करना शासन द्वारा निश्चित किया गया है। इस कार्य के लिए तट कर्मचारियों की आवश्यकता होगी। उनकी यहाँ कमी होने से विभिन्न विषयों का प्रशिक्षण देना शासन ने तय किया है तथा पंद्रह हजार लोगों को प्रशिक्षण देने की व्यवस्था की है। इस देश में आधुनिक प्रकार का रण साहित्य निर्माण करने के लिए विभिन्न स्थानों से ऐसे लोगों को एकत्र किया गया जो इस प्रकार के प्रशिक्षण दे सकते थे। इंग्लैंड से भी इस प्रकार के लोगों को बुला लिया गया। यहाँ के कुछ कर्मचारियों को इस विषय का आधुनिक ज्ञान प्राप्त करने हेतु इंग्लैंड भेजने की बात पर भी विचार किया गया। इन लोगों का व्यय सरकार द्वारा ही उठाया जाएगा तथा वहाँ के ब्रिटिश लोगों के समकक्ष उनसे व्यवहार किया जाएगा। शासन ने इसलिए एक लाख लोगों को भरती करने की योजना बनाई थी जो लगभग पूरी हो चुकी है तथा उन लोगों की सैनिक शिक्षा भी पूरी हो चुकी है। इसके बाद इस संख्या में पाँच लाख तक वृद्धि किए जाने पर विचार किया जा रहा है।

शिक्षा का बढ़ता हुआ क्षेत्र

इसलिए आज दो लाख अतिरिक्त लोगों की भरती की जा रही है तथा युद्ध अधिक जटिल होने पर शासन द्वारा इसमें अधिक वृद्धि करनी पड़ेगी । शीघ्र ही हिंदुस्थान की सेना सभी प्रकार की सैनिक शिक्षा से परिपूर्ण व सुसज होगी और उसकी संख्या दस लाख तक पहुँच जाएगी। इसके अतिरिक्त लड़ाई की जटिलता का विचार करते हुए यहाँ के विभिन्न राजाओं को अपनी-अपनी सेना में वृद्धि करने की सुविधा भी शासन द्वारा दी गई है। उन्होंने भी अपनी सेनाओं में वृद्धि की है। आज लगभग चालीस सेना दल इस युद्ध में विभिन्न स्थानों पर लड़ रहे हैं, उन्हें आधुनिक युद्धकला की शिक्षा प्राप्त हो रही है। हिंदू राजा अपनी सेना विषयक प्राचीन कल्पना बदलकर अपनी सेनाओं को आधुनिक बना रहे हैं।

सेना की संख्या दो लाख से दस लाख तक पहुँच जाने के कारण कमीशन प्राप्त अधिकारियों की आवश्यकता भी अपने आप बढ़ गई। सेना की निश्चित टुकड़ियों के लिए हिंदी अधिकारियों की नियुक्त करने की पुरानी नीति अब समाप्त हो गई है तथा किसी भी विभाग में हिंदी अधिकारी नियुक्त करने की नीति अपनाई जा रही है। वाइसराय कमीशन प्राप्त अधिकारी की नए सिरे से व्यवस्था की गई तथा अब ब्रिटिश अधिकारियों के साथ बराबरी के अधिकारी के रूप में कार्य करने हेतु उन्हें पर्याप्त अवसर प्राप्त होते हैं। इस प्रकार प्रत्यक्ष सेना में अधिकारी एवं सैनिकों को मिलाकर लगभग दस लाख जवान हैं। इसके अतिरिक्त 'इंडियन टेरिटोरियल फोर्स' का भी पुनर्गठन हो रहा है।

हाई स्कूल तथा कॉलेजों के विद्यार्थियों के लिए सैनिक शिक्षा अनिवार्य करने के संबंध में हिंदुस्थान शासन अभी तक तैयार नहीं है; परंतु सभी विश्वविद्यालयों की समितियों ने स्कूल तथा कॉलेजों में सैनिक शिक्षा अनिवार्य करने की माँग की है तथा वे शासन का दरवाजा पीट रहे हैं। यह स्पष्ट है कि युद्ध में फँसा शासन इसे भी मान्यता देगा।

एक वर्ष पूर्व यही हिंदुस्थान शासन कह रहा था कि हिंदुस्थान के लोगों की सैनिक मनोवृत्ति नष्ट हो चुकी है तथा इतनी बड़ी संख्या में सैनिक शिक्षा देने के लिए पचास साल का समय लगेगा; परंतु युद्ध प्रारंभ हुआ और उन्हें लगा कि यह संभव है। यूरोप के लोगों के समान यहाँ के लोगों से एक माह के समय में लाखों सैनिक एवं अधिकारी प्राप्त किए जा सकेंगे तथा उन्हें यूरोपियन लोगों से बराबरी से युद्ध करना आता है यह बात प्रमाणित हो चुकी है। आवश्यकता पड़ने पर कुछ भी करने पर विचार किया जा सकता है।

युद्ध की जटिलता में जैसे-जैसे वृद्धि होगी तथा अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक परिस्थिति जिस प्रकार अधिक कठिन बनती जाएगी, वैसे ही अंग्रेजों को यह बात समझ में आ जाएगी कि हिंदुस्थान में केवल दस लाख ही नहीं, दस करोड़ लोग भी उत्तम सैनिक एवं अधिकारी केवल दो वर्षों में तैयार करना संभव है।

इस देश में अब युद्ध सामग्री भी बड़े पैमाने पर तैयार होने लगी है। कर्मचारी तथा विशेषज्ञों के लिए आधुनिक राइफलें, तोपें, टैंक, गोला-बारूद आदितथा विविध प्रकार के यंत्र तैयार करना संभव है।

युद्ध से संबंधित उद्योगों के अतिरिक्त अन्य धंधों के बारे में भी यही दिखाई देता है कि युद्ध के कारण कई रासायनिक उद्योगों को कागज के कारखानों को तथा अनेक अन्य उद्योग-धंधों को उत्तेजना मिली और जितनी उनको गत बारह सालों में नहीं हुई थी वह केवल एक ही साल में पूरी हो गई। आज तक हिंदुस्थान को स्वयं पूर्ण बनने हेतु यहाँ का शासन एक अवरोध बना हुआ था, परंतु अब खुद की आवश्यकता के लिए उन्हें इन उद्योगों को महत्व देना पड़ रहा है। महायुद्ध की आपत्ति के कारण ब्रिटिश शासन को हिंदुस्थान को स्वयंपूर्ण बनाने की आवश्यकता प्रतीत होने लगी है तथा हिंदुस्थान को एक बड़ा सैनिक तक बनाने की आवश्यकता प्रतीत हो रही है। पश्चिम में मिस्र तथा ऑस्ट्रेलिया तक सारे ब्रिटिश साम्राज्य की रक्षा हेतु यूरोप में उनका आवागमन बंद होने पर भी सब काम स्वतंत्रतापूर्वक चालू रहने के लिए उन्हें हिंदुस्थान को अपना बनाना होगा। इसलिए सभी प्रकार के सामरिक कारखाने व अन्य उद्योगों में उन्हें वृद्धि करनी पड़ेगी तथा सभी प्रकार का आधुनिक सेना बल भी बहुत बड़े पैमाने पर सुसज्ज रखना आवश्यक है।

गंभीर समस्या

अब मैं आपसे पूछना चाहूँगा कि हम लोगों को जो साधन उपलब्ध हैं उनकी सहायता से एक वर्ष की अवधि में इस प्रकार की सैनिक व औद्योगिक प्रगति करना संभव होगा? कांग्रेस को, महासभा को अथवा किसी भी अन्य संस्था के लिए पाँच लाख की सेना की भरती करना, उसे सैनिक प्रशिक्षण देना, सभी प्रकार के साधनों से सुसज्जित करना तथा वास्तविक युद्ध करने की शिक्षा देना क्यों संभव था? और आप लोगों ने ऐसा करने का विचार भी किया होता तो क्या ब्रिटिश शासन आप लोगों को इस प्रकार करने देता? इतने बड़े पैमाने पर हम लोगों को अपने साधनों द्वारा सामान्य लाठीसंघ भी चलाना संभव नहीं होता। गत वर्ष भी हम लोगों ने अपने लोगों को सैनिक शिक्षा देने की बात पर क्या विचार नहीं किया था? तथा गत वर्ष हम लोगों को सैनिक शिक्षा देनेवाली छह शालाएँ भी चलाना संभव नहीं हुआ था तथा एक हजार विद्यार्थियों को भी सेना की शिक्षा देना हम लोगों के लिए संभव नहीं था। क्या यह सच नहीं है? और अब तो इस युद्ध के कारण लाखों हिंदू युवकों को सेना में-जल सेना तथा नाविक दल में प्रवेश कर वहाँ जाकर आधुनिक सैनिक एवं अधिकारी बनने का सुअवसर प्राप्त हुआ है। क्या हम लोग इसे हाथ से जाने देंगे? क्या इससे हम लोगों को लाभ नहीं उठाना चाहिए? सेना में भरती नहीं होना चाहिए? सैनिक कारखानों का बहिष्कार करना चाहिए? क्या इसीलिए कि कुछ मूर्ख लोग ऐसा कहते हैं कि ऐसा करना शासन से सहयोग करना होगा अथवा कुछ पागल कहते हैं कि यह हिंसा का कृत्य होगा? यदि हम लोग इस प्रकार का आचरण करेंगे तो हम लोग भी इन्हीं मूर्खों और पागलों की पंक्ति में खड़े हो जाएँगे।

एक और बात पर आप लोग ध्यान दीजिए। इस युद्ध से उत्पन्न स्थिति के फलस्वरूप इस देश के लाखों लोगों को सेना तथा उद्योगों के क्षेत्रों में रोजगार प्राप्त हो रहा है। इसी कारण उन्हें खाना-कपड़ा मिल रहा है तथा आधा करोड़ लोगों का जीवन सुसह्य बन गया है। ये लोग जिस वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं उस वर्ग में नितांत दरिद्रता तथा बेकारी है, इसपर आप लोग ध्यान दीजिए। रोजगार प्राप्त होने पर कंगाल बन गए कृषकों का भार उसी तरह कम हो गया है।

जापान के सान्निध्य का परिणाम

जब जापान हिंदुस्थान की सीमा के समीप पहुँचने लगेगा तब उसका प्रभाव तत्काल दिखाई देने लगेगा। इस अवस्था में इंग्लैंड को सेना के लिए तथा अन्य साधन सामग्री के लिए हिंदुस्थान पर ही निर्भर रहना पड़ेगा। ब्रिटिश शासन, जो हम लोगों के राष्ट्र का सैनिकीकरण करने का विरोध गत वर्ष तक कर रहा था और आज इसीलिए तत्पर दिखाई देता है कि उन्हें हम लोगों की भलाई की चिंता हो गई, ऐसा नहीं है; परंतु यह नई नीति अपनाने का कारण युद्ध जन्य परिस्थितियाँ ही हैं। यूरोप में चल रहा वर्तमान युद्ध जब तक यूरोप खंड तक ही सीमित था तब तक ब्रिटिशों को भारतीय सहायता की आवश्यकता नहीं थी तथा इस हेतु वे हिंदुस्थान पर निर्भर नहीं थे। गत दो सौ सालों की उनकी यूरोप खंड की युद्ध विषयक नीति बहुत सरल थी। यूरोप के कुछ देशों से सहयोग करते हुए उन्हें अन्य देशों से संघर्ष करने पर बाध्य करना इतना ही वे करते रहे। इस युद्ध के लिए उन्होंने हिंदुस्थान में सेना तैयार की होती तथा युद्ध साहित्य का निर्माण किया होता तब भी यह सब इतने बड़े पैमाने पर वहाँ ले जाना उनके लिए सुलभ नहीं था। अतः उन्होंने आज तक सेना में हिंदी लोगों को इतनी बड़ी संख्या में भरती करने का जोखिम नहीं उठाया। उसी प्रकार इतने बड़े पैमाने पर तथा तैयार स्वरूप केसैन्य निर्माण कर उसका आज जैसा विश्वास करने हेतु भी वे तैयार नहीं थे; परंतु नाटे जापानी लोगों की दीर्घ छाया आज बंगाल के उपसागर पर पड़ने लगी है, इस कारण अंग्रेजों के हिंदुस्थान के वर्चस्व के लिए एक नया संकट उत्पन्न हुआ है। अतः आज तक इस बारे में अंग्रेजों की जो नीति थी उससे उपरिनिर्दिष्ट मूल बातों में हमारी नीति एशिया खंड को यूरोपियनों के वर्चस्व से मुक्त कराने की है। ऐसा घोषित करने के कारण इंग्लैंड की समझ में यह बात आ गई है कि निकट भविष्य में अपने साम्राज्य की रक्षा करने हेतु जापान के साथ अरब है। ब्रिटिश लोग बहुत चालाक माने जाते हैं, वे तुरंत समझ गए कि निकट भविष्य में यदि जापान से युद्ध करना पड़ा तो उस समय सभी प्रकार की युद्ध विषयक साधन सामग्री का केंद्र हिंदुस्थान को ही बनाना पड़ेगा। जिस प्रकार यूरोप बड़े पैमाने पर चल रहे युद्ध के समय हिंदुस्थान से सेना तथा युद्ध साहित्य को पाना कठिन था उसी प्रकार पौर्वात्य युद्ध में यूरोप से बड़ी सेना तथा युद्ध साहित्य मिलना भी कठिन होगा। इसके अतिरिक्त वहाँ जर्मनी, इटली, रूस आदि सामर्थ्यशाली राष्ट्र सजग होने के कारण और इंग्लैंड पर आक्रमण को तत्पर होने से इंग्लैंड इस ओर के क्षेत्र की सुरक्षा हेतु सेना तथा बड़े पैमाने पर युद्ध सामग्री इधर नहीं भेज सकता।

इसलिए जापान का सामना करने हेतु उस संबंध में सभी तैयारी हिंदुस्थान में ही करनी आवश्यक है। यहाँ के युद्ध के लिए यहीं पर सेना खड़ी करनी होगी तथा युद्ध साहित्य भी यहीं बनाना चाहिए। इसीलिए इंग्लैंड को हिंदुस्थान की सेना पर तथा युद्ध साहित्य पर निर्भर रहना होगा। स्वेच्छापूर्वक नहीं, परंतु स्थिति इंग्लैंड को ऐसा करने पर बाध्य कर रही है, इसलिए आगामी समय में बड़े पैमाने पर इस देश की सेना में वृद्धि होने वाली है यह निश्चित है। इस समय यदि हम लोग शासन से सहयोग करते हैं तो हम लोगों के सैनिक सामर्थ्य में वृद्धि करने की बात शासन द्वारा मान्य की जाएगी। अब स्थिति ऐसी है कि जितनी शीघ्रता से जापान हम लोगों की सीमा की ओर बढ़ता दिखाई देगा उसी तेजी से शासन को यहाँ की सेना में वृद्धि करनी पड़ेगी तथा शीघ्र ही उसकी संख्या बीस लाख तक पहुँच जाएगी।

इस प्रकार की स्थिति उत्पन्न होने से मैं आप लोगों से यह पूछना चाहूँगा कि हम लोगों को अपने लिए अपना लश्करी सामर्थ्य बढ़ाने का यह स्वर्ण अवसर व्यर्थ ही अपने हाथ से जाने देना चाहिए? अपने भावी उत्कर्ष के लिए इस प्रकार के लश्करीकरण की बहुत आवश्यकता है तथा ऐसा करने के लिए ब्रिटिश शासन आज बाध्य है।

अब कुछ बाल-बुद्धि लोग इसमें शासन से सहयोग होने की बात कहते हुए तथा कुछ मूर्ख लोग इसमें हिंसा होती है ऐसा कहकर कुछ न करने का उपदेश देते हैं। क्या इस प्रकार हम लोग चुप बैठे रहेंगे अथवा बुद्धिमानी का रास्ता अपनाकर सेना में हिंदू संघटनवादियों को प्रवेश प्राप्त करने का अवसर देकर हिंदू राष्ट्र में पुनः वीर वृत्ति का प्रसार करने में सहायता करेंगे तथा हम लोगों का नष्ट हो चुका सैनिकी सामर्थ्य पुनः प्रस्थापित करेंगे ?

आज हम लोगों के सामने अनेक वैकल्पिक मार्ग हैं। उनमें से आप लोग इसी मार्ग से चलें, ऐसा मैं आग्रहपूर्वक और निश्चित रूप से कहता हूँ। आज इस देश का सैनिकीकरण व औद्योगिकीकरण करने का स्वर्ण अवसर प्राप्त हो चुका है; उससे हिंदू संघटनवादियों को आवश्यकतानुसार एवं संपूर्णतः लाभ उठाना चाहिए। इस प्रकार का अवसर हम लोगों को दिया जाना ब्रिटिशों को अपने हितों के लिए आवश्यक हो चुका है।

हम लोगों को इस बात ओर ध्यान देना आवश्यक है कि यदि सेना में-जल सेना अथवा नाविक दल में-हिंदुओं ने प्रेवश नहीं किया तो उनके स्थान पर मुसलमान आसीन होंगे। ब्रिटिश शासन को कमजोर बनाने के प्रयासों में स्वयं प्रबल न बनते हुए किसी अन्य शत्रु को सामर्थ्यवान बनाकर हम लोग अपने देश में ही सदा के लिए दास बन जाएँगे।

कांग्रेस के सत्याग्रह का परिणाम

हिंदू सभा पुरस्कृत इस कार्यक्रम के अतिरिक्त अन्य कौन सा कार्यक्रम है? कुछ घोषणा करने के पश्चात् कारावास का अंगीकार करना? कांग्रेस के जो लोग इस मार्ग पर चल रहे हैं उनकी देशभक्ति की मैं प्रशंसा करता हूँ। वे यंत्रणा सह रहे हैं इसलिए मुझे उनसे सहानुभूति है; परंतु मुझे यह स्पष्ट रूप से कहना पड़ेगा कि उन्होंने जो सत्याग्रही मुहिम चलाई है उससे इस देश को किसी प्रकार का लाभ नहीं मिलेगा। आगामी चुनाव के लिए हुल्लड़ के रूप में ही वह प्रारंभ किया गया होगा; परंतु क्या इस हुल्लड़ का उत्तर हुल्लड़ से देना चाहिए, ऐसा तो हिंदू संघटनवादियों का विचार नहीं है। हम लोगों का उस प्रकार का आचरण उचित होगा, परंतु हिंदू सभा के लिए ये दोनों बातें साथ-साथ करना संभव नहीं है। इस युद्ध द्वारा प्राप्त हुए अवसर का लाभ उठाते हुए इस देश का सैनिकीकरण व औद्योगिकीकरण करना तथा उससे देश को प्राप्त होनेवाले बड़े लाभ प्राप्त करने के लिए शासन से आवश्यक सहयोग करना हम लोगों की नीति का हिस्सा है। अब इस नीति के अनुसार कार्य करना तथा तत्काल उससे पूर्णत: विरोधी व घातक स्वरूप का शासन विरोधी निःशस्त्र प्रतिकार का आंदोलन भी चलाना- ये दोनों बातें एक ही समय करना संभव नहीं है। यदि आप लोग देश के सैनिकीकरण एवं औद्योगिकीकरण से अधिक निःशस्त्र प्रतिकार के आंदोलन को महत्त्वपूर्ण मानते हैं तो आप लोग उस मार्ग पर चलने के लिए स्वतंत्र हैं।

महासभावालों की लड़ाकू वृति

हिंदू महासभा के अधिकांश प्रमुख कार्यकर्ताओं व प्रतिनिधियों से मैंने इस विषय पर पर्याप्त चर्चा की है। हिंदू महासभा को जोरदार तथा प्रभावी कार्यक्रम बनाना चाहिए ऐसी उनकी विशेषतः युवा कार्यकर्ताओं की बहुत इच्छा है; क्योंकि कांग्रेस के सत्याग्रह का आंदोलन प्रारंभ करने से हम लोग भी लड़ाकूपन में पीछे नहीं हैं। ऐसा प्रमाणित करने की उनकी इच्छा है। उन्हें यह भय है कि कांग्रेस ने सत्याग्रह करते हुए 'अ' तथा 'ब' वर्ग का कारावास भोगकर देश में हुल्लड़ मचाया है उसका प्रभाव आगामी चुनाव पर पड़ेगा। इसीलिए उनकी बराबरी करने हेतु हम लोगों को भी ऐसा ही करना आवश्यक है। परंतु हिंदू सभावादियों द्वारा प्रथम इस प्रकार सोचा जाना चाहिए कि हम लोगों को चुनाव किस उद्देश्य से जीतना है? अपने देश का हित उत्तम प्रकार से साध्य करने हेतु से ही न ? आप लोग यह बात मान लेंगे कि चुनाव जीतने का महत्त्व आप लोगों से मुझे अधिक महत्त्वपूर्ण प्रतीत होता है, परंतु यदि चुनाव के कारण हम लोग हिंदुओं के हितों की बात करने लग जाएँ तब उस चुनाव को दुर्लक्षित करना क्या हम लोगों का कर्तव्य नहीं हो जाता? यदि हम लोग शासन से युद्ध कार्य में सहकार्य करते हुए देश का सैनिकीकरण तथा औद्योगिकीकरण का लाभ न उठाते हुए आज जिससे विशेष लाभ नहीं है ऐसे निःशस्त्र प्रतिकार आंदोलन में भाग लेने लगे और चुनाव जीतने के लिए मूर्खता को बनाए रखना पड़ रहा हो तो मतदाता संघों की मूर्खता की परख करते हुए चुनाव जीतने से बचकर उन्हें राम-राम करते हुए हिंदुइज्म साध्य करना हम लोगों का स्पष्ट कर्तव्य है।

निजाम निःशस्त्र प्रतिकार आंदोलन से समझदार हुए मतदाता संघ से अभी बड़ा तथा ताजा प्रमाण प्राप्त हुआ है। यदि कारावास भोगना ही शौर्य और देशभक्ति का प्रमाण हो तो हिंदू संघटनवादी इस प्रकरण में कांग्रेसवालों से अधिक शूर तथा देशाभिमानी हैं यह बात इस संघर्ष से प्रमाणित हो चुकी है। हजारों हिंदुत्वनिष्ठों ने निजामी कारागृहों में बड़ी निर्भयतापूर्वक यातनाएँ सहन की हैं, वे अब ब्रिटिशों के कारागृहों के 'अ' के अथवा 'क' वर्गों में प्राप्त होनेवाला लड्डूमार निश्चित रूप से सह सकेंगे तथा कांग्रेसवालों के साथ कंधे से कंधा लगाकर हम लोग भी कारावास सह सकते हैं, यह कह सकेंगे। यदि हिंदू संघटनवादी लोगों को प्रधानमंडल, सत्ता आदि हथियाने के लिए ही चुनाव जीतने होंगे तो यह बात बहुत सामान्य है; परंतु हम लोगों को सत्ता प्राप्त नहीं भी होती है तथा हम लोग लोकप्रिय होते हैं अथवा नहीं तब भी हिंदुत्व के हितों के लिए बाधक बननेवाली कोई भी बात नहीं करनी चाहिए। ऐसा करने पर आगामी चुनावों में भी हम लोग विजयी नहीं होते तब भी मुझे उसकी चिंता नहीं होगी ।

मतदाता संघ की मूर्खता की कल्पनाओं की प्रशंसा करते हुए उसे उचित दिशा दिखाकर सीधे मार्ग पर लाने का कार्य करते हुए चुनाव में पराजय होना भी अधिक देशभक्ति का लक्षण है, ऐसा मैं मानता हूँ।

मैं और एक प्रकरण को और स्पष्ट करना चाहूँगा हिंदू महासभा को एक संघटित संस्था के रूप में उपरिनिर्दिष्ट कार्यक्रम आचरण में लाना चाहिए, परंतु यदि किसी हिंदू संघटनवादी को कोई अन्य लड़ाकू कार्यक्रम प्रारंभ करना इष्ट तथा आवश्यक प्रतीत होता हो तो उसे वे लोग अपने व्यक्तिगत दायित्व कर अवश्य करें। मुझे उसके लिए हर्ष ही होगा, हिंदू महासभा की यह इच्छा है कि नई पीढ़ी अधिक पराक्रमी तथा वीर्यशाली हो, परंतु उसके साथ-साथ वह अधिक बुद्धिमान भी हो।

मैं आपके सम्मुख अपना जो कार्यक्रम मान्यता प्राप्ति के लिए प्रस्तुत कर रहा हूँ, उसपर तत्काल काररवाई की जानी चाहिए।

तत्काल व्यवहार के लिए कार्यक्रम

1. सेना, जल सेनाएँ तथा वैमानिक दल में अधिक से अधिक हिंदुओं को भरती कराना।

2. युद्ध साहित्य के कारखानों में तथा उस विश्व में अपने जितने लोग भेजना संभव है उतने, भरती कराने के लिए प्राप्त सुविधाओं का लाभ उठाना ।

3. शाला-कॉलेजों में सैनिक शिक्षा अनिवार्य करना ।

4. राम सेना का संगठन जोरदार बनाना तथा उसमें वृद्धि करना।

5. नागरिक दलों में प्रवेश करना तथा इस प्रकार हम लोगों के आंतरिक संघर्ष तथा परकीय आक्रमण से रक्षा करना। इस प्रकरण में जिस बात पर ध्यान देना आवश्यक है, वह यह है कि हिंदुस्थान के किसी भी देशभक्ति-प्रेरित राजनीतिक आंदोलन समाप्त करने अथवा हिंदुओं के न्याय्य हितसंबंधों के विरोध में इस नागरिक दल को कार्य न करना पड़े इस बारे में सतर्कता बनाए रखना।

6. नए उद्योग-धंधों को बड़े पैमाने पर प्रारंभ कर आज जो सामान विदेशों से प्राप्त नहीं होता उसकी आपूर्ति करना।

7. विदेशी वस्तुओं तथा देशी वस्तुओं के बीच स्पर्धा रोकने के लिए उनका बहिष्कार करना।

8. आगामी जनगणना के समय हिंदुओं की जनसंख्या उचित प्रकार से लिखाने के लिए पूरे हिंदुस्थान में आंदोलन न करना तथा संदक, गोंड, सिंहल जैसे मूल हिंदू लोगों का जनगणना के समय स्वतंत्र अथवा पहाड़ी टोलियों के रूप में समावेश न करते हुए हिंदुओं के रूप में समावेश करना और इस संबंध में हम लोगों का प्रमुख उद्देश्य जिस प्रकार हासिल हो सकेगा वे सभी बातें करना।

हिंदू संघटनवादियों को संपूर्ण हिंदुस्थान में इस उपरिनिर्दिष्ट समस्या पर अपनी पूर्ण शक्ति से विचार करना आवश्यक है, ऐसा मुझे प्रतीत होता है।

अखिल भारतीय हिंदू महासभा का तेईसवाँ वार्षिक अधिवेशन,भागलपुर

(विक्रम संवत् १९९८,सन् १९४१)

अध्यक्षीय भाषण

मेरे हिंदुत्वनिष्ठ बंधुओ,

आप लोगों ने मुझे लगातार पाँचवीं बार अखिल भारतीय हिंदू महासभा के अध्यक्ष पद का गौरव देकर मुझ पर जो विश्वास प्रकट किया है उसके लिए मैं आपका कृतज्ञ हूँ। गत वर्ष मैंने दो बार अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दिया था तथा मेरे बिगड़ते स्वास्थ्य एवं हिंदुत्वनिष्ठ कार्य का वर्धमान क्षेत्र इन दोनों बातों का विचार करते हुए मुझे विश्राम देकर हिंदू सभा का नेतृत्व किसी अन्य योग्यतर तथा अधिक समर्थ व्यक्ति को देने के लिए अनुरोध किया था। परंतु संपूर्ण हिंदुस्थान के कार्यकर्ताओं का आग्रह एवं अखिल भारतीय हिंदू महासभा समिति द्वारा व्यक्त की गई इच्छा का आदर करते हुए मैंने अध्यक्ष पद का दायित्व सँभालने का प्रयास करने का निश्चय किया हिंदुस्थान के अतिरिक्त परदेशों से भी हिंदू संघटनों ने मुझ पर नितांत विश्वास करते हुए मेरे प्रति जो प्रेमादर दिखाया है उसके अनुरूप मेरा व्यवहार हो इसलिए प्रयास किए। इस बार भी जब नूतन वर्ष के लिए अध्यक्ष चुनने का समय समीप आया तब मैंने 'इस वर्ष मुझे अध्यक्षीय चुनाव से दूर रखिए' ऐसा लिखित अनुरोध किया था तथा जनता इससे अनभिज्ञ नहीं है। चुनाव संपन्न होने पर भी त्यागपत्र देने का मेरा निश्चय हो चुका था। परंतु उसी समय भागलपुर में आयोजित में हिंदू महासभा के अधिवेशन पर जो पाबंदी लगी हुई थी उसे समाप्त करने की बात शासन द्वारा अस्वीकार कर दी गई। इस शासकीय पाबंदी के कारण ही अध्यक्ष पद से त्यागपत्र देने का विचार मुझे त्यागना पड़ा।

यह पाबंदी हिंदुत्वाभिमानी लोगों के लिए असह्य, अवांछित तथा अन्याव्य आघात होने के कारण उसे हटाने के लिए हम लोगों को संभवतः सभी वैध प्रयास करने चाहिए। प्रत्येक हिंदुत्वनिष्ठ कार्यकर्ता के लिए भी ऐसा करना आवश्यक है। इस प्रकार भागलपुर अधिवेशन के लिए चुने गए अध्यक्ष के नाते अपने स्थान पर साहस के साथ डटे रहना मेरा कर्तव्य भी हो गया और इसलिए गत वर्ष पाँचवी बार अखिल भारतीय हिंदू सभा के अध्यक्ष पद का दायित्व संभालने का काम एवं नेतृत्व का बंधन मैंने स्वेच्छापूर्वक स्वीकारा है।

सरकार द्वारा लगाई गई अपमानकारक तथा अनैतिक पाबंदी

जिस समय मदुरै के अधिवेशन में आगामी अखिल भारतीय अधिवेशन बिहार प्रांत में आयोजित करने पर सहमति हो गई तथा अधिवेशन के लिए भागलपुर निश्चित किया गया उस समय भागलपुर में रहनेवाले मुट्ठी भर मुसलमानों के बकरीद के त्यौहार के समय वहाँ को जमात की शांति भंग करने का विचार भी हिंदू महासभा के मन में कभी उत्पन्न नहीं हुआ था। सारे हिंदुस्थान में बकरीद मनाई जाती है, अतः भागलपुर जैसे छोटे गाँव के मुसलमानों का इस प्रकार विरोध करने का कोई भी कारण नहीं था। परंतु जब भागलपुर में उपलब्ध कोई विशेष सुविधाओं एवं कुछ अन्य बातों का विचार पूर्णतया करते समय भागलपुर में अधिवेशन आयोजित करने की बात निश्चित की गई तब बिहार शासन अपनी नींद से तत्काल जाग पड़ा और इस अधिवेशन पर पाबंदी लगानेवाला तथा १ दिसंबर, १९४९ से १० जनवरी, १९४२ तक यह अधिवेशन बिहार प्रांत के जिलों में व भागलपुर नगर में आयोजित नहीं किया जाना चाहिए-ऐसी आज्ञा प्रसारित की। बिहार शासन ने यह तर्क दिया कि बकरीद तथा अधिवेशन एक ही समय पर होने के कारण यदि जातीय दंगे भड़क उठे तो पुलिस की अपर्याप्त संख्या के कारण शांति-सुव्यवस्था बनाए रखना कठिन हो जाएगा।

बकरीद को अवास्तव महत्त्व तथा मुसलमानों का कांड

दोनों एक ही समय आ रहे हैं इस भय के कारण उसी के बारे में कहना पड़ेगा कि मुसलमानों के आक्रमण पक्ष को भी सत्य का आभास निर्माण करनेवाला कोई कारण न मिल जाए इस भावना से अखिल भारतीय हिंदू महासभा की कार्यकारिणी द्वारा अत्यधिक समझदारी से ऐसा निश्चय किया कि यह अधिवेशन उस समय आयोजित नहीं किया जाएगा जब भागलपुर में बकरीद सामान्यतः मनाई जाती है; यह अधिवेशन नाताल के अवकाश के समय अर्थात् २४ से २७ दिसंबर तक आयोजित किया जाए। इस व्यवस्था के कारण हिंदू सभा का अधिवेशन बकरीद प्रारंभ होने से दो दिन पूर्व संपन्न होने वाला था। इस कारण मुसलमानों को बकरीद का उत्सव अपनी इच्छानुसार मनाने की स्वतंत्रता थी। परंतु एक समय आनेवाले इन उत्सवों के दिन छोड़कर अधिवेशन आयोजित किया जाना भी जातीय वैर तथा भावनाओं का उद्रेक उत्पन्न करने को पर्याप्त है तथा बकरीद शांति से मनाई जाने में बाधा उत्पन्न हो सकती है यह कारण बताकर शासन द्वारा पूर्व में लगाई गई पाबंदी उठाना स्वीकार नहीं किया। अधिवेशन से पूर्व बकरीद मनाई जाती है तो जातीय भावनाएँ अधिक प्रज्वलित होंगी तथा जातीय दंगे प्रारंभ होने की संभावना अधिक रहेगी; अत: यह अधिवेशन बकरीद के तत्काल पश्चात् आयोजित करने में अधिक खतरा है यह बात शासन के ध्यान में नहीं आई ऐसा नहीं है। शासन ने जान-बूझकर इसे दुर्लक्षित किया। वस्तुतः जातीय खलबली मचाने के लिए तथा मुसलमानों की हठधर्मिता के कारण होनेवाले दंगों के लिए बकरीद कुप्रसिद्ध है। यह सत्य अस्वीकार नहीं किया जा सकता। बिहार शासन ने अभी-अभी एक पत्रक द्वारा पाबंदी की आज्ञा में परिवर्तन करते हुए कहा है कि १० जनवरी, १९४२ के स्थान पर दिनांक ३ जनवरी को अधिवेशन आयोजित किया जाए। परंतु इस पत्रक में भी असंदिग्ध रूप से यह नहीं कहा गया कि हिंदू सभा के अधिवेशन में बाधा उत्पन्न करने हेतु यदि जातीय खलबली मचाई जाती है तब शासन बंदी आज्ञा पूर्ववत् पुनः प्रसारित नहीं की जाएगी। अर्थात् अधिवेशन बकरीद से पूर्व अथवा पश्चात् कभी भी आयोजित किया जाए हेमाक्लिस की तलवार के समान हिंदू सभा के सिर पर टँगी हुई पाबंदी का सामना करना हम लोगों के लिए अपरिहार्य हो गया है।

पर्याप्त पुलिस दल न होने का तर्क शासन द्वारा कियाजानेवाला असमर्थनीय आक्रोश

बिहार शासन पुलिस की संख्या पर्याप्त न होने का बहाना कर रहा है। इस बारे में यही कहना पर्याप्त होगा कि शासन द्वारा जोर देकर कहा जा रहा है कि पाबंदी तोड़कर यदि अधिवेशन आयोजित करने के प्रयास किए जाते हैं तो अपने पास के सारे साधनों तथा शास्त्र का उपयोग कर शासन इस प्रकार के प्रयत्नों को समाप्त कर देगा। अब शासन की मान्यता के अनुसार अखिल भारतीय हिंदू महासभा के अधिवेशन के लिए हिंदुस्थान के सभी भागों से भारी संख्या में जनता तथा महान् नेता भी उपस्थित रहेंगे। इस अधिवेशन को कुचलने का सामर्थ्य यदि शासन के पास है-और यह सामर्थ्य उसके पास है इस बारे में हम लोगों को किंचित् भी संदेह नहीं है तब भी हिंदू महासभा को अपना अधिवेशन भागलपुर में आयोजित कर परस्पर मुक्त रूप से विचार विनिमय करने का न्याय्य अधिकार के उपभोग हेतु शासन द्वारा सम्मति प्राप्त हो जाने के पश्चात् मुसलमानों में खलबली मचती है तथा वे जतीय दंगे करने की धमकी भी देते हैं। भागलपुर के मुट्ठी भर सिरफिरे मुसलमानों को सही रास्ते पर लाने के लिए इस शक्ति का उपयोग करते समय वह पर्याप्त नहीं है ऐसा मानना किस प्रकार संभव है? इसी वर्ष मद्रास में मुसलिम लीग का अधिवेशन आयोजित किया गया था। उस समय भड़काऊ हिंदू विरोधी भाषण तथा प्रस्ताव पारित करने के उपरांत भी यह लीग का अधिवेशन शांति से संपन्न हो जाए इसलिए हिंदुओं को सभाएँ करने, प्राणघातक शस्त्र रखने तथा पाँच से अधिक व्यक्तियों के एकत्र होने पर दफा १४४ के नियमानुसार हिंदुओं पर मद्रास में पाबंदी लगा दी गई। हिंदू महासभा के अखिल भारतीय अधिवेशन के समय यहाँ क्या किया गया? मुसलमानों की बकरीद के त्यौहार के समय भागलपुर में रहनेवाले मुट्ठी भर मुसलमानों की जमात में शांति को बाधा उत्पन्न करने का विचार हिंदू सभा के मन में आना भी असंभव है यह बात शासन को भी स्वीकार करनी पड़ेगी। सारे हिंदुस्थान में मुसलमान लोग बकरीद मनाते हैं फिर हिंदुस्थान के अल्प स्थानों को दुर्लक्षित कर भागलपुर जैसे किसी गाँव में रहनेवाले मुट्ठी भर मुसलमानों का विरोध करने का कोई विशेष औचित्य नहीं था। फिर भी भागलपुर में उपलब्ध कुछ सुविधाएँ का समग्र विचार करने पर जब यह स्थान निश्चित किया गया तब बिहार शासन नींद से जाग उठा तथा इस अधिवेशन पर पाबंदी लगानेवाली तथा १ दिसंबर, १९४१ से १० जनवरी, १९४२ तक यह अधिवेशन बिहार के कुछ जिलों में, विशेषत: भागलपुर नगर में आयोजित न करने हेतु एक आज्ञा प्रसारित की। बिहार शासन का यह तर्क था कि बकरीद तथा अधिवेशन एक ही समय होने के कारण यदि जातीय दंगे प्रारंभ हो जाते हैं तो पुलिस को अपर्याप्त संख्या होने से शांति सुव्यवस्था बनाए रखना कठिन हो जाएगा।

हिंदुओं द्वारा अपने नागरिकत्व के मूलभूत अधिकारों का उपयोग किया जाना भी अपराध है।

संपूर्ण भारतवर्ष में इसी प्रकार की भेदनीति, पक्षपाती तथा हिंदू विरोधी नीति शासन द्वारा चलाई जा रही है। आक्रामक मुसलमान समुदाय की अमेरिकी गुंडई के लिए अवसर प्राप्त न हो इसलिए हिंदुओं की शोभायात्रा, मूर्ति विसर्जन तथा परिषदों पर पाबंदी लगाने हेतु आज्ञाएँ जारी की जा रही हैं। इस हिंदू विरोधी नीति का समर्थन करने के पक्ष में एक ही सामान्य कारण दिया जाता है।

शांति तथा सुव्यवस्था की रक्षा करना शासन का कर्तव्य है, परंतु इसे करते समय इस बात का ध्यान रखना आवश्यक है कि कानून के अनुसार व्यवहार करने की जनता को अपने सभी न्याय्य अधिकारों का उपयोग करने में कोई कठिनाई नहीं होती इसी प्रकार यह कर्तव्य करना चाहिए। इसके विपरीत आक्रामक तथा अपराधी लोगों को संतुष्ट करने, कानूनों की सीमा में ही व्यवहार करनेवाली जनता को अपने मूलभूत अधिकार भी त्यागने पर बाध्य करते हुए शांति-सुव्यवस्था निर्माण करना ही वास्तविक अशांति तथा अव्यवस्था कहलाएगी।

इस प्रकार की पक्षपाती नीति शासन द्वारा संपूर्ण हिंदुस्थान के लिए स्वीकार करने का मूल कारण यह है कि हठी, अतिरेकी मुसलमानों की तुलना में हिंदू लोग पूर्णतः शांत तथा विधिशील होने के कारण उनपर इस प्रकार की अपमानकारक एवं अन्याय्य शर्ते लगाकर उनका पालन चुपचाप रहकर करवाना अधिक सुलभ है।

हिंदू, ख्रिस्ती तथा पारसियों के धार्मिक उत्सव इतनी शांति से मनाए जाते हैंकि हिंदुस्थान की सभी जमीनों के लोगों के लिए आनंद देनेवाले प्रसंग उसमें रहते हैं; परंतु जब बकरीद अथवा मोहर्रम जैसे कोई भी मुसलमानी धार्मिक तथा सामाजिक उत्सव होते हैं उनमें हिंदुओं का रक्तपात तथा हिंदू विरोधी विद्रोह का अतिरेक किया जाना सदा की घटनाएँ हैं। केवल हिंदुओं के लिए ही नहीं, अन्य सभी मुसलमानेतर जमातों के लिए ये उत्सव धन तथा जीवन के लिए एक सतत संकट हो होता है। इसका दायित्व केवल दंगाई मुसलमान गुंडों पर ही नहीं है। उसके लिए शासन की मूर्खता तथा हिंदू विरोधी पक्षपात की नीति भी उत्तरदायी है क्योंकि ऐसे समय मुसलमानों की दंगे करने की प्रवृत्ति को न रोकते हुए हिंदुओं को ही नागरिकता के अपने अधिकार त्यागने के लिए आज्ञा प्रसृत कर एक प्रकार से इस गुंडई को बढ़ावा देने की नीति शासन द्वारा स्वीकृत की जा रही है।

हिंदू महासभा के भागलपुर अधिवेशन पर पाबंदी लगाने का एक और स्पष्टीकरण शासन द्वारा दिया जा रहा है। यह इस प्रकार की पाबंदी इसीलिए लगाई गई है कि केवल अकेले भागलपुर नगर के मुसलमानों की बकरीद शांतिपूर्ण ढंग से मनाई जाए, अन्य किसी भी त्याज्य अथवा शीघ्रता के कारण से नहीं अखिल भारतीय हिंदू सभा का अधिवेशन बकरीद से पूर्व आयोजित करने दिया तथा हिंदुओं को इस न्याय्य अधिकार का उपभोग करने दिया जाता है यह देखकर जिन लोगों के मन में खलबली मचती है उन आक्रामक तथा असहिष्णु गुंडों को सजा देकर उनपर दबाव डालना शासन का कर्तव्य है। इस समय में किसी ख्रिस्ती को मनस्ताप होने की बात कहीं सुनने में नहीं आई है। इसके अतिरिक्त हिंदुओं के त्यौहारों की छुट्टियों के समान ख्रिस्ती लोगों को मिलनेवाले इस अवकाश के समय इस प्रकार की अखिल भारतीय परिषद् आयोजित करने हेतु विशेष सहूलियतें प्राप्त होती हैं। मुसलमान गुंडों को समर्थन देने की इस शासकीय नीति के कारण ही मुसलमान लोग इतने असहिष्णु तथा धर्मप्रेमी विक्षिप्त बन गए हैं। उदाहरणार्थ, नेलोर के शासकीय न्यायालय ने प्रकट रूप से मान्य किया है कि हिंदुओं के न्याय्य अधिकारों के प्रकरणों में मुसलमानों से कानूनी आज्ञाओं का पालन करवाने में अधिकारी वर्ग असमर्थ है।

जिस शासन के अधिकारी न्यायालय द्वारा मुसलमानों के अवरोधों के विरोध में दिए गए निर्णय प्रत्यक्ष कार्यवाही में लाना अस्वीकार करते हैं तथा मुसलमानों के आक्रमणों को समाप्त कर हिंदुओं के न्यायसंगत अधिकारों की रक्षा करना स्वीकार करते हैं तथा ऐसा न किया जाए तो दंगे भड़क उठेंगे, ऐसा कहते हुए अपने आचरण का समर्थन करते हैं ऐसे शासन का राज चलाने का नैतिक अधिकार पूर्णतः समाप्त हो चुका है हमें ऐसा कहना पड़ता है।

प्रतिबंध शासन की सबसे बड़ी वैधानिक भूल

इस पाबंदी का वैधानिक अस्तित्व भी संदेहास्पद है। भारत सुरक्षा नियमों के अनुसार प्रांतिक शासनों द्वारा जनता में शांति तथा सुव्यवस्था बनाए रखने हेतु जिन अधिकारों का प्रयोग करना होता है वे ब्रिटिशों के आधिपत्य में रहनेवाले हिंदुस्थान के संरक्षण की निश्चिंतता के लिए तथा 'युद्ध की प्रगति के लिए इस प्रकार की आवश्यता होने पर' उपयोग में लाने होते हैं। मस्तिष्क पर पर्याप्त भार डालते हुए विचार करने पर भी शासन के लिए ऐसा कभी भी उचित नहीं होगा युद्ध की प्रगति तथा ब्रिटिश हिंदुस्थान की सुरक्षा में बाधा पहुँचानेवाला कोई कार्य हिंदू महासभा के अधिवेशन द्वारा हो सकता था। इनके अतिरिक्त अखिल भारतीय स्तर की प्रमुख संस्थाओं में केवल हिंदू महासभा ने ही हिंदुस्थान की सुरक्षा के लिए शासन से प्रतिसहकार की नीति का प्रचंड पुरस्कार किया है। इसपर भी विचार करना होगा। हिंदू महासभा के अधिकांश प्रथम श्रेणी के नेता संपूर्ण देश में दौरे करते हुए केवल वर्तमान स्थिति में हिंदू हित संरक्षण करने के लिए यह सहयोग आवश्यक है इसी कल्पना मात्र से नहीं अपितु प्रतियोगी सहकारिता की वास्तविक इच्छा से सभी हिंदुओं को सेना के सभी विभागों में प्रवेश करने का आदेश दे रहे हैं तथा सहस्रों सदस्यों ने थल, जल अथवा हवाई सेनाओं में प्रवेश पा लिया है। अतः हिंदुस्थान की सुरक्षा अथवा युद्ध प्रगति के मार्ग में अवरोध उत्पन्न करने अथवा इसका विरोध करने का हिंदू सभा का विचार होगा, ऐसा मानने के लिए कोई आधार नहीं है। शासन द्वारा अपनी पाबंदी की आज्ञा में इस प्रकार के कारणों का उल्लेख भी नहीं किया गया है। इससे प्रतीत होता है कि यह भारत संरक्षण विधि के दायरे में नहीं आ सकता तथा इसी कारण हिंदुस्थान के महान् विधि पंडितों द्वारा यह पाबंदी मूलत: अवैधानिक है ऐसा दृष्टिकोण अपनाने से यह प्रमाणित हो जाता है कि बिहार शासन द्वारा केवल राजनीतिक नहीं बल्कि सबसे बड़ी वैधानिक भूल है।

अतः सर्वसाधारण जनता के, विशेष रूप से हिंदुओं के नागरिकता के मूलभूत अधिकारों का प्रत्यक्ष उपयोग करने हेतु इस अन्याय्य अपमानास्पद तथा अनैतिक पाबंदी की आज्ञा का पालन न करते हुए हम लोगों का अधिवेशन भागलपुर में ही तथा पूर्व निश्चित तिथियों पर ही आयोजित करने का निश्चय महासभा द्वारा किया गया है। हम लोग भागलपुर जा रहे है उसका कारण केवल शासन को चुनौती देना नहीं है। हम लोगों के वैधानिक अधिकार का उपभोग करने के लिए हम लोग ऐसा कर रहे हैं।

हिंदुओं को नागरिक तथा धार्मिक अधिकारों पर किसी भी प्रकार का आक्रमण मौन रहकर सहने को बाध्य करने की तरह धर्मप्रेमी विक्षिप्त मुसलमानों पर भी किसी भी प्रकार का अन्याय करना सरल होता है, इसीलिए शांति तथा सुव्यवस्था बनाए रखने का यह एक सुलभ मार्ग है ऐसी शासन की भ्रांतिपूर्ण धारणा बन गई है और उसे सुधारने का समय अब आ चुका है। नागरिकता के मजबूत तथा वैधानिक अधिकारों का उपयोग करने के प्रयास करते समय यदि शासन अत्यंत अन्यायपूर्वक पुलिस को हिंदुओं पर आक्रमण करने भेजकर उन्हें भयभीत करने के प्रयास करता है तथा इस प्रकार की हिंदुओं के स्वाभिमान पर आघात करनेवाली घटनाएँ जहाँ-जहाँ तथा जब-जब होंगी उसी स्थान पर व उसी समय हम लोगों को संभवतः सभी वैधानिक मार्गों से शासन की अथवा किसी अन्य की हिंदू विरोधी नीति का प्रतिकार करने का उदाहरण हिंदुओं द्वारा दिखाया जाना चाहिए।

फिर मुझे एक बात स्पष्ट रूप से कहनी चाहिए। हिंदू महासभावादी लोग समय रहते शासन द्वारा यह पाबंदी खत्म नहीं की गई तो भी-भागलपुर के इस अधिवेशन को आयोजित करने जा रहे हैं। इसका उद्देश्य शासन को चुनौती देना नहीं है अथवा किसी भी अतिरेकी पद्धति से न्याय्य अधिकारों की कुचेष्टा करना नहीं है। सभा संहति का न्याय्य अधिकार (The right of Association) प्रस्थापित करने के लिए ही हम लोग भागलपुर में फहराए जानेवाले हिंदू ध्वज के नीचे एकत्रित होंगे। जातीय भावना प्रज्वलित होने के लिए उत्तरदायी कोई भी भूल हम लोग नहीं करेंगे अथवा हम लोगों के नागरिक अधिकारों की मांग करने के अतिरिक्त कुछ भी करने का हम लोगों का उद्देश्य नहीं है। शांति तथा सुव्यवस्था का निष्पक्षता से तथा वैधानिक दृष्टि से अर्थ लगाया जाए तो उसका रक्षण करने हेतु शासन के समान हिंदू महासभावादी भी उत्सुक हैं और अन्य जमातों के न्याय्य अधिकारों पर आक्रमण नहीं होने देंगे। अधिवेशन का कार्य चलाने हेतु जो वैधानिक अधिकार है उसे प्रस्थापित करने हेतु निःशस्त्र प्रतिकार का शस्त्र उठाया है। इसके अतिरिक्त हम लोग किसी प्रकार शारीरिक विरोध का प्रदर्शन अथवा उसका प्रत्यक्ष प्रयोग भी नहीं करेंगे। शासन ने हम पर पाबंदी लगाकर हम लोगों के विरोध में पाशवी शक्ति का उपयोग किया तब भी पकड़े जाने पर जेल जाने का तथा तत्पश्चात् भी जो कुछ होगा उसका सामना करने का निश्चय हम लोगों ने किया है।

केवल हिंदुओं को ही नहीं ख्रिस्ती, पारसी तथा ज्यू देश-बंधुओं का भी विक्षिप्त धर्मप्रेमी गुंडों को समर्थन देकर सत्यप्रिय तथा विधिशील नागरिकों के मूलभूत अधिकारों को कुचलने की शासकीय नीति सभी नागरिकों के लिए समान रूप से घातक है, ऐसा जिन-जिन लोगों को प्रतीत हो रहा है वे सभी हिंदवासी अपनी सहानुभूति तथा सहयोग करते हुए इस वर्तमान संघर्ष में हिंदू सभावादियों के हाथ मजबूत बनाएँगे- मैं ऐसी आशा करता हूँ।

यदि हिंदुस्थान के सभी विभागों से हिंदू संघटनवादी प्रबलतम संख्या में भागलपुर में एकत्रित होंगे तथा इस सामुदायिक विरोध का संघर्ष उपरनिर्दिष्ट वैधानिक दायरे में शौर्य के दृढ़ निश्चय से तथा कारावास और लाठीचार्ज का भय न रखते हुए एवं अखिल हिंदू ध्वज की सुरक्षा में कोई भी त्याग करने हेतु तत्पर रहते हुए वास्तविक अनुशासन तथा सम्माननीय शांति पर आक्रमण हो ऐसी कोई भी वैधानिक भूल नहीं करेंगे तो हिंदू महासभा का यह तेईसवाँ अधिवेशन आज तक हो चुके सभी अधिवेशनों से अधिक यशस्वी होगा।

यह भाषण भागलपुर के अधिवेशन में अधिकृत रूप से पढ़े जाने की संभावना लगभग न होने के कारण तथा अब उसे विस्तारपूर्वक लिखने हेतु समय का भी अभाव होने से विभिन्न दिशाओं की ओर जानेवाले मार्गों के मध्य जिस प्रकार मार्गदर्शक फलक लगाए जाते हैं उसी प्रकार भविष्य में हिंदू आंदोलन के लिए मार्गदर्शक होनेवाली अत्यधिक महत्त्वपूर्ण बातों का ही मैं यहाँ विवेचन करने वाला हूँ।

नेपाल के सम्राटाधिपति का राजनिष्ठा का प्रमाण

हिंदुओं के वैभवशाली इतिहास का प्रतीक तथा कल के अधिकतर वैभव का आशास्थान माने जानेवाले हिंदुओं के एकमात्र स्वतंत्र हिंदू राज्य के अधिपति तथा हिंदू धर्म रक्षक नेपाल के महाराजाधिराज को मैं अखिल हिंदुस्थान की ओर से राजनिष्ठा के लिए प्रणाम करता हूँ। उनके मजबूत हाथों में हिंदुओं का हित निश्चित रूप से सुरक्षित होगा। आज नेपाल के अधिपति इस प्रकार के मार्गदर्शक हैं। महाराजा शमशेर जंग बहादुर हम लोगों के नेपाल शासन के मुख्य प्रधान अन्य किसी भी व्यक्ति से अधिक उचित रूप से जानते हैं कि नेपाल का हिंदू राज्य कल का समस्त हिंदुत्व के लिए भवितव्य से पूरी तरह विजड़ित है। वस्तुतः हिंदू इस देश के राष्ट्रीय घटक हैं तथा उनके भवितव्य को आज किसी भी प्रकार का स्वरूप देना नेपाल शासन के हाथों में है। इस युद्ध के कारण हम लोगों के चारों ओर खतरा ही दिखाई देता है फिर भी इसी युद्ध ने बहुत से अवसर भी दिए हैं। हिंदुओं का पुनश्च संपूर्ण एकीकरण करने का अंतिम ध्येय दृष्टि के सामने रखकर नेपाल के हिंदू राजा ने ब्रिटिश शासन से स्नेह करने की बात निश्चित की और अपनी शूर गुरखा सेना हिंदुस्थान की सीमा की सुरक्षा करने एवं अन्य समरक्षेत्रों में पराए शत्रुओं के आक्रमण का निवारण करने हेतु भेज दी। यह कार्य राजनीति के अनुसार ही किया गया है। अंतः यह हिंदू हित संवर्धक ही सिद्ध होगा। राजाधिराज नेपाल सम्राट् ने यह जो प्रभावी सहायता दी है इसके लिए पारितोषित के रूप में नेपाल के अधिराज्य में एकभाव पूर्ण सम्मिलित तथा कुछ समय पश्चात् ब्रिटिश शासकों के अपने साम्राज्य से जोड़े गए पंजाब तथा बंगाल के जिले वापस देकर इस उपकार से मुक्त होना चाहा।

यह बात भी उत्साहवर्धक है कि नेपाल के स्थल सैनिक युद्धोपयोगी गुणों में तथा पराकोटि की प्रतिकार क्षमता में विश्व के किसी भी अन्य राष्ट्र से स्पर्धा करने में दक्ष तथा आधुनिक हैं। परंतु नेपाल के वायु सैनिक भी स्वयं का ही नहीं समस्त हिंदू राष्ट्र का संरक्षण करने हेतु जिस दिन आधुनिक तथा बलशाली हो जाएँगे उस दिन की हम लोग प्रतीक्षा कर रहे हैं। हिंदुस्थान की पूर्व सीमा के किसी भी प्रांत के समान नेपाल को भी हवाई आक्रमण होने का भय है। हिंदुस्थान के किनारों तक युद्ध पहुँच चुका है तथा इस कारण एक साथ एक भय और एक अवसर उत्पन्न हुआ है। मुझे दृढ़ विश्वास है कि नेपाल के सूत्र एवं दूरदृष्टि प्रधान इस अवसर का सदुपयोग करेंगे तथा निकट भविष्य में नेपाल का एक सशक्त वायुदल स्थापित करेंगे।

मुसलमानी आक्रमण के रहस्यपूर्ण कदम

जिस अन्य बात की ओर मैं नेपाल शासन का ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ वह तुलनात्मक दृष्टि से कदाचित् महत्त्वपूर्ण नहीं होगा, परंतु दुर्लक्षणीय नहीं है। कुछ साधारण विश्वसनीय लोगों से यह पता चलता है कि मुसलमान लोग सदा की तरह चोरी-छिपे नेपाल में अपना संख्याबल बढ़ाने तथा अपने अस्तित्व की प्रबलता का आभास निर्माण कर रहे हैं। नेपाल में मसजिदों की संख्या अधिक है यह कहते हुए वहाँ की असावधान अथवा अनाथ हिंदू लड़कियों व बच्चों को बहकाकर अपहरण कर उन्हें आस-पास के जिलों में टोलियों के पास भेज दिया जाता है जहाँ उन्हें भ्रष्ट कर मुसलमान बनाया जाता है। अपना संख्याबल बढ़ाने के लिए इस हिंदू राज्य में मुसलमान बहुत समय से योजनाएँ चला रहे हैं। मसजिदों का निर्माण प्रारंभ में प्रार्थना स्थलों के रूप में किया जाता है, परंतु शीघ्र ही वे हिंदू विरोधी भावनाएँ भड़काने के पीठ बन जाती हैं। इस प्रकार का अनुभव हम लोगों को भारत में भी हो चुका है। बच्चों का अपहरण करना अथवा स्त्रियों का अपहरण करना सामान्यतः एक व्यक्तिगत अपराध माना जाता है, परंतु इतिहास का सबक यही है कि इसी मार्ग का उपयोग मुसलमानों ने अपनी संख्या बढ़ाने के लिए तथा हिंदुस्थान में अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए किया है तथा आज भी कर रहे हैं। किसी हिंदू राजा के मसजिद बनाने की अनुमति देने पर उसकी 'सर्वधर्म निर्विशेष' कहकर असीमित स्तुति की जाती है, परंतु इस प्रकार का उदात्त प्रेम केवल आत्मघाती मूर्खता है इसे पहचानकर हिंदुओं को इस वृत्ति से घृणा करना सीखने का समय अब आ चुका है। उदारता के इस रोग से पीड़ित होने पर ही पूर्व में हिंदू राजाओं ने विश्व के विभिन्न में भागों से परदेशियों को हिंदुस्थान में प्रवेश करने दिया। उनके साथ भाइयों अथवा बांधवों जैसा आचरण किया तथा उन्हें सुरक्षा प्रदान करते हुए अपने हिंदू बांधवों के समतुल्य श्रेष्ठता दी। इसके भयंकर परिणाम अब हम लोगों के लिए भय उत्पन्न कर रहे हैं। कुछ समय के लिए आए हुए अतिथि अब घर के मालिक को ही बाहर निकाल देने की धमकी दे रहे हैं। अतः नेपाल शासन को इस प्रकार के सभी लोगों से स्पष्ट शब्दों में कहना चाहिए कि किसी भी हिंदू विरोधी कृत्य अथवा आंदोलन के लिए 'नेपाल में' क्षमा नहीं की जाएगी तथा अप्रतिहत रूप से बड़ी सर्तकतापूर्वक इस बात पर निगरानी रखी जाएगी कि किसी भी अहिंदू सम्मान की, विशेषतः मुसलमानों की संख्या में नेपाल में वृद्धि तो नहीं हो रही है तथा अच्छा हो यदि उसमें कमी आ जाए!

हिंदू सभा का शीघ्रतापूर्वक बढ़नेवाला आंदोलन

गत वर्ष की घटनाओं का समग्र विचार करने पर ज्ञात होता है कि महासभा के नेतृत्व में चल रहा हिंदुत्व का आंदोलन समस्त हिंदुस्थान में फैल रहा है। अस्पृश्यता निवारण के लिए किए गए यशस्वी भगीरथ प्रयास, संपूर्ण हिंदुस्थान में सतत प्रयास करते हुए सफल बनाया हुआ जनगणना का कार्यक्रम हिंदुस्थान के अधिकांश क्षेत्रों में तथा कथित पाकिस्तानी विद्रोह की योजनाओं का सामना करते हुए हिंदुओं के सामाजिक तथा धार्मिक अधिकारों का सैकड़ों विभागों में जाकर संरक्षण करना एवं अपने रक्तपाती अत्याचार अपने लिए ही महँगे सिद्ध हुए तथा हिंदुओं के आंदोलन को नष्ट करना संभव नहीं होगा यह बात उन पाशवी शक्तियों की समझ में आ जाना, नगरपालिका तथा विधिमंडल के चुनावों में महाराष्ट्र, बंगाल, असम तथा हिंदुस्थान के अन्य विभागों में महासभावालों को पाँच-पच्चीस स्थानों पर प्राप्त हुआ यश तथा विदर्भ के समान एक-दो स्थानों पर हुई हार-सभी घटनाओं एक साथ विचार करने पर निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि अब हिंदू सभा एक ऐसा प्रचंड शक्ति केंद्र बन रहा है कि इसकी ओर विपक्ष के लोगों को दुर्लक्ष करना संभव नहीं होगा। गत पचास सालों से दंगों कर संपूर्ण हिंदुस्थान में अशांति फैलानेवाली पाशवी शक्तियों का प्रतिकार करने में समर्थ हो चुकी है हिंदू महासभा ।

हिंदुस्थान हिंदुओं का

परंतु महासभा के यशो मंदिर का शिखर इन प्रत्यक्ष दिखाई देनेवाली अस्फुट घटनाओं में नहीं है। उनके विशुद्ध तत्त्वज्ञान एवं प्रचार द्वारा जिसे मानसिक क्रांति कहना ही उचित होगा ऐसा आश्चर्यकारी परिणाम हिंदुओं के मन पर करनेवाली घटना में है। हिंदू महासभाध्यक्ष तथा हिंदुस्थान के सभी क्षेत्रों से आए प्रथम श्रेणी के नेताओं का स्वागत करते समय करोड़ों सुशिक्षित एवं सामान्य जनता के मुखों से निकलनेवाली 'हिंदू धर्म की जय', 'हिंदुस्थान हिंदुओं का' के वातावरण में दिन रात होती रही घोषणाओं में दिखाई देता है। इस उत्सुकता से प्रमाणित हुआ कि हिंदुओं को अपनी राष्ट्रीय जागृति का ज्ञान पुनः हो गया है। इस मानसिक उत्क्रांति का वैशिष्ट्यपूर्ण प्रकटीकरण 'हिंदुस्थान हिंदुओं का' इस घोषणा के सिवाय अन्य शब्दों से करना संभव नहीं होता।

महासभा के आंदोलन के फलस्वरूप निर्माण हुई हिंदुत्व की इस भावना से कांग्रेस की सुरक्षा दीवार के अंदर की ओर गहरा गड्ढा बन रहा है। गांधी प्रणीत भ्रांतिपूर्ण राष्ट्रीयत्व की कल्पना के अफीमी नशे में हम हिंदू लोग हैं यह बात भी जो लोग पूर्णतः भूल चुके थे ऐसे हजारों कांग्रेसी हिंदुओं ने अपना हृदय टटोलकर देखना प्रारंभ किया है तथा हिंदुत्व का सफल आंदोलन चलाने के लिए अपने हृदय के अंतस्थ कोने से हिंदू महासभा को धन्यवाद दे रहे हैं। कुछ ही समय पश्चात् वे हम लोगों के शिविर में सम्मिलित हो जाएँगे ऐसा निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है। हिंदू सभा के इस प्रचार का परिणाम यह है कि जो कांग्रेसवाले हिंदू महासभा निष्ठावंतों को अपना मत हिंदू हितों की रक्षा करने का अभिवचन देनेवालों को ही दीजिए' ऐसा हिंदू मतदाताओं से कहकर चुनावों को जातीयता से गंधित करने के लिए दोषी मानते थे वे ही अब ऐसा कहने पर बाध्य हो रहे हैं कि 'यद्यपि हम लोग कांग्रेस की टिकटों पर सर्वसाधारण प्रतिनिधि के रूप में चुनाव लड़ रहे हैं तथापि हम लोग हिंदू महासभा की इच्छा से भी विमुख नहीं होंगे।' यह अनुनय निश्चित रूप से हिंदुओं के मत प्राप्त करने हेतु किया गया है। कांग्रेस को हिंदू महासभा का एक उपांग के रूप में ही अपना अस्तित्व बनाए रखना होगा अथवा हिंदुओं के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष प्रतिनिधित्व के अधिकार पर पानी छोड़कर सामुदायिक प्रतिनिधित्व का दावा करना पूर्णतः समाप्त कर देना चाहिए।

मुसलमानों को जनसंख्या के अनुपात में दिए गए प्रतिनिधित्व पर संतोष करना चाहिए

हिंदूसभा की तीसरी अत्यधिक महत्त्वपूर्ण विजय यह है कि सामान्य मुसलमान तथा विशेषतः मुसलिम लीग की अतिरेकी महत्त्वाकांक्षाओं के प्रतिस्पर्धी के रूप में हिंदू सभा का स्थान सभी को मान्य हो जाता।

कार्यकारी मंडल (Executive Council) के विस्तारीकरण का प्रश्न हो अथवा राष्ट्रीय संरक्षण मंडल (National Defence Council) अथवा सुरक्षा परामर्श समिति (Defence Advisory Communities) गठन करने का प्रश्न हो, मुसलिम लीग के नेताओं ने भी यह मान्य कर लिया है कि उनकी अवास्तव माँगे दुर्लक्षित की गई तथा उनका अपमान किया गया। मि. अॅमेरी ने स्वायत्त पाकिस्तान योजना को दुर्लक्षित न करने का अभिवचन तोड़कर तथा प्रथम हिंदुस्थान पर प्रवचन करते हुए हम लोगों का विश्वासघात किया है इस बात पर मि. जिन्ना क्रोधित हो रहे हैं। इधर बंगाल में 'हिंदुओं को सताएँगे' जैसी गर्जना करनेवाले फजलूल हक अब नरम पड़ गए हैं तथा होश में आकर ऐसा कहने लगे हैं कि मुसलिम लीग से तलाक मिलने का भय होते हुए भी हिंदू सभा से सहकार्य करना अधिक अच्छा है। असम में सर साहुलारनान की दाल न गलने के कारण उन्हें रातोरात मुख्य प्रधान पद से त्यागपत्र देकर तत्काल जाना पड़ा। इस प्रांत का तथा कथित लोग मंत्रिमंडल ताश के महल सा धराशायी हो गया। अतः मुसलिम लीग को प्रतीत हो रहा है कि वह अगण्य अवस्था में पहुँच गई है तथा उसे लग रहा है कि कहीं अपनी सभी महत्त्वाकांक्षाएँ, नष्ट तो नहीं हो जाएँगी। लीग को चारों ओर से आज निराश तथा अगतिक स्थिति का सामना करना पड़ रहा है। इस बात को अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि हिंदू महासभा ने लीग का जो विरोध किया है उसका यह एक अतिप्रमुख कारण है। सभी हिंदू लोग समयानुसार हिंदू महासभा की तत्त्वप्रणाली की ओर झुकने लगे हैं अर्थात् सभी हिंदू विरोधी आक्रमणों का सामना करने हेतु अधिक संघटित तथा बलशाली हो रहे हैं। इस बात का विचार करने पर प्रतीत होता है कि भविष्य में भी लीग के लिए कोई आशावादी वातावरण नहीं है।

मुसलिमों की व्यर्थ की धमकियाँ

हिंदुस्थान के इसलामीकरण की आशाएँ भी इस युद्ध के कारण निष्फल हो गई हैं। अभी-अभी अप्रैल माह में मुसलिम लीग का अधिवेशन मद्रास में आयोजित किया गया था। मि. जिन्ना ने शासन तथा हिंदुओं को एक गंभीर सूचना देते हुए कहा कि 'यदि आप लोग मुझे न करने देंगे तो अन्य लोग आकर उसे पूरा करेंगे तथा हिंदुस्थान में अनेक पाकिस्तान निर्माण किए जाएँगे।' इस घोषणा का समर्थन करते हुए अन्य मुसलमान नेताओं ने भी यही कहा कि हिंदुस्थान की सीमा पर आज बलशाली मुसलमान राष्ट्रों का अस्तित्व बना हुआ है तथा हिंदुस्थान के हिंदुओं द्वारा दी गई यंत्रणाओं से हम लोगों को मुक्त करनेवाले विधिनियम बने हैं। इस प्रकार से हिंदुस्थान के मुसलमान उन्हें सदा देखते हैं। अत: उनसे संधि करने में हम लोगों को कुछ अधिक सोचने की आवश्यकता नहीं होगी।' परंतु यह 'अन्य लोग' अथवा हिंदुस्थान की सीमा पार के 'बलशाली राष्ट्र' इनमें से कोई भी स्थिर नहीं है। गत महायुद्ध के समय उस समय का अमीर अमानुष मुसलमानों का स्वातंत्र्यदाता बन रहा था तथा गांधीजी के आत्मघाती रहस्यमय एवं हिंदूद्वेषी पागलपन के कारण इन दो राष्ट्रीय नेताओं ने अली बंधुओं ने उसे दिल्ली में हिंदुस्थान के भावी सम्राट् के रूप में लाने का षड्यंत्र रचा; परंतु बच्चाई सक्कू ने, किसी पानी भरनेवाले पुत्र ने ही हिंदुस्थान का सम्राट् बनने के इच्छुक उस अमीर को समाप्त कर दिया। उस समय जिसने नाजियों से मित्रता की थी वह ईरान का शाह अब उन अन्य लोगों' में सम्मिलित हो रहा होगा तथा हिंदुओं द्वारा दी जानेवाली यंत्रणाओं से मुक्त करानेवाले दूसरे क्रमांक के मुक्तिराजा के रूप में सब उसकी ओर देख रहे होंगे। परंतु उसका अता-पता किसी को भी नहीं है तथा हिंदुस्थान की ओर आनेवाली गाड़ी पकड़ने की जगह उसने मॉरिशस जानेवाली गाड़ी पकड़ ली होगी, ऐसा प्रतीत होता है। हिंदुस्थान का मुक्तिदाता होते-होते वह गरीब बेचारा रजाशाह स्वयं को मुक्ति के लिए अगतिक होकर दूसरों की ओर देख रहा है। तुर्क लोग बेचारे एक ओर से जर्मन तथा दूसरी ओर से ब्रिटिश सेना की कैची में फँसे हुए हैं। उन्हें अपने भविष्य की कल्पना करना कठिन दिखाई दे रहा है तथा उनके सामने 'हॉबसन चॉइस' अर्थात् एक ही मार्ग है-इन दोनों आगे बढ़नेवाले दो यूरोपियनों में से किसी एक की शरण जाना। हिंदुओं ने जो अस्वीकार कर दिया है उसे तथा हिंदुस्थान के पाकिस्तान की पद्धति के अनुसार टुकड़े करने हेतु बाहर से आने की किसी मुसलमान राष्ट्र की अभी भी इच्छा हो तो, उसका आज अता-पता तथा नाम आदि लीग द्वारा बताया जा सकता हो तो हम लोगों को बहुत हर्ष होगा क्या हिंदुस्थान के सिंहासन पर आसीन होने के लिए हम लोगों के घर के ही हिज एक्सॉल्टेड हाइनेस निजाम तो खड़े नहीं हो रहे हैं? यदि यह सच है तो इस मोम की गुड़िया का आधार लेनेवाली पाकिस्तानी आकांक्षा पर दया आना अपरिहार्य है।

पाकिस्तान प्राप्त नहीं होगा,परंतु अफगानिस्तान खोना पड़ेगा

ऐसा कहने में कोई हर्ज नहीं है कि हम लोगों के मुसलमान बांधवों को इस प्रकार की व्यर्थ आशाएँ मन में रखने का मनोरंजन करना छोड़कर अपने हितों के लिए जो अपरिहार्य है उसे स्वीकृत करना चाहिए। इस वास्तविकता को अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि मुसलमान अल्पसंख्यक हैं तथा आज की हिंदुओं को प्रचंड बहुसंख्या में अब कमी आने की किंचित् भी संभावना नहीं बची है। शुद्धि का आंदोलन तथा हिंदुओं में आई प्रचंड जागृति की शक्ति से डर-डरकर चल रहे इसलामीकरण पर सदा के लिए रोक लग गई है। कोई औरंगजेब अथवा अलाउद्दीन भी पुनः प्रकट होता है तब भी उसे अब मुट्ठी भर हिंदुओं को भी बलात अथवा कपट से मुसलमान बनाकर रखना संभव नहीं होगा। ढाका में इस वर्ष हुए दंगों में बंगाल में जबरदस्ती मुसलमान बनाए गए लोगों का उदाहरण लीजिए। अनेक गाँवों के सैकड़ों हिंदू परिवारों का बलपूर्वक इसलामीकरण किया गया तथा इन दंगाइयों को लगा कि ये गाँव पाकिस्तान में सदा के लिए सम्मिलित कर लिये जाएँगे। दो साल पूर्व ऐसी अवस्था थी कि वे गाँव पाकिस्तान में सम्मिलित किए जाते। परंतु दंगा खत्म होकर शांति स्थापित होते ही इन मुसलमानों को निराशा का सामना करना पड़ा। भ्रष्ट लोगों की तत्काल शुद्धि की गई और वे सभी अधिक प्रखर हिंदुत्वनिष्ठ बनकर तथा इसलामी धर्म के पागलपन के अधिक कट्टर शत्रु बनकर अपने पवित्र हिंदू धर्म में आए। यह बात एक बार ठीक से समझ में आ जाने के पश्चात् यह स्पष्ट हो जाता है कि हिंदुस्थान के मुसलमान सदैव अल्पसंख्यक ही बने रहेंगे। और उसी प्रकार अपने राजनीतिक कार्यक्रम उन लोगों को निश्चित करना चाहिए। विधिमंडल अथवा शासकीय समितियों में अपने लिए आज की संख्या के अनुपात में प्राप्त होनेवाले स्थानों से एक भी अधिक स्थान प्राप्त करने की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए तथा पंजाब व बंगाल जैसे कुछ अन्य प्रांतों को हिंदुस्थान से पृथक् कर पाकिस्तान में सम्मिलित करने की उनकी जो चाल है उस विषय में इतना कहना ही पर्याप्त होगा कि यह विचार उतना ही हवाई है जितना हिंदुओं द्वारा अफगानिस्तान को हिंदुस्थान में जोड़ने का तथा हिंदुस्थान की सीमा हिंदूकुश के पार ले जाने का।

हम लोगों का तात्कालिक कार्यक्रम

शुद्धि, अस्पृश्यता निवारण, प्रत्येक नगर के हिंदुओं की स्थानिक आवश्यकताओं तथा शिकायतों पर विचार करना, प्रचार कार्य के लिए दौरे, सभा आदि सभी प्रकार का संघटना कार्य अथवा इसी प्रकार के सैकड़ों कार्यक्रम, जो हिंदू महासभा की शाखाओं-उपशाखाओं को सदैव करने पड़ते हैं, उनके विषय में एक भी शब्द न बोलते हुए जिन कार्यों पर सभी हिंदू संघटनों ने आगामी कुछ वर्षों तक अपना कक्ष तथा शक्ति केंद्रित करना चाहिए ऐसे दो ही विधेयों का मैं आज विवेचन करने जा रहा हूँ। इनमें पहला विधेय है चुनावों के क्षेत्र में हिंदू महासभा के स्वतंत्र मंच की स्थापना करना तथा दूसरा है सैनिकीकरण ।

चुनाव में केवल हिंदुत्वनिष्ठों को ही मत दीजिए

जो हिंदू इच्छुक हिंदुओं के अधिकारों की सुरक्षा करने की प्रतिज्ञा करेंगे, हिंदू ध्वज के लिए व हिंदू महासभा की ओर से खड़े होंगे उन्हें ही अपने मत सभी हिंदुओं को देना आवश्यक है। इस प्रकार से हिंदू महासभा को प्रथम श्रेणी का तथा अग्रगण्य प्रतिनिधित्व का अचल एवं अप्रतिम विधेय स्थान प्राप्त होगा और आज के विधिमंडलों में जो अधिकार अस्तित्व में हैं तथा जो भविष्य में प्राप्त होने की अपेक्षा है वे सब हिंदुओं को प्राप्त होंगे। जब तक कांग्रेस विधिमंडलों में हिंदुओं का प्रतिनिधित्व कर रही है तब तक यह बात ठीक से समझ लेना आवश्यक है कि हिंदुओं के अधिकार तथा कुछ समय पश्चात् उनका अस्तित्व भी नष्ट हो जाएगा।

जब तक चुनाव जातीय पद्धति से कराए जाते हैं तब तक जो हिंदुत्वनिष्ठ भी प्रतिज्ञापत्रक पर हस्ताक्षर करने के पश्चात् खड़े हुए हैं तथा जो अखिल हिंदुत्व के अधिकारों की सुरक्षा तथा संवर्धन करने की शपथ न लेनेवाली किसी भी अन्य संस्था का बंधन नहीं मानते ऐसे ही प्रत्याशियों को नहीं चुना गया तो हिंदुओं को अपने विशिष्ट अधिकार तथा इच्छा विधिमंडलों में प्रकट करना कदापि संभव नहीं होगा। हिंदुस्थान के समस्त हिंदुओं को तथाकथित राष्ट्रीय अधिकार एवं हिंदुओं के अधिकार इन दो में भेद करना संभव नहीं होगा।

हिंदुस्थान का स्वातंत्र्य, हिंदुस्थान का अखंडत्व, जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व, सभी नागरिकों को पूजा स्वातंत्र्य, भाषण स्वातंत्र्य, लिपि स्वातंत्र्य आदि मूलभूत अधिकारों की अभेद निश्चिति ये सभी बातें हिंदू सभा जिस नीति पर चल रही है उसमें से कुछ हैं। वह यह बात जानती है कि हिंदुओं के विशेषाधिकारों के संरक्षण के लिए इस स्थिति में हिंदुस्थान राष्ट्र की तथा हिंदुस्थान की शासकीय राज्य की स्थापना इन उपरिनिर्दिष्ट मूलभूत एवं प्राथमिक आधार पर ही की जानी आवश्यक है।

जो लोग जातीय अथवा धार्मिक विचारों को अवास्तव महत्त्व नहीं देते ऐसे लोगों की राष्ट्रीयत्व की कल्पना इससे भिन्न नहीं हो सकती तथा हिंदू विशेषाधिकार तथा 'हिंदू राष्ट्र के विशेषाधिकार' भिन्न नहीं हो सकते, ऐसा हिंदू महासभा का सिद्धांत है।

विशुद्ध राष्ट्रीयत्व का त्याग करनेवाली नामधारी राष्ट्रीय संस्था

इसी के साथ राष्ट्रीयत्व की वास्तविक तथा परिशुद्ध न्याय्य भावना से यह भी अपने आप सिद्ध हो जाता है कि हिंदू महासभा की राष्ट्रीय एकता का बहाना दिखाकर मुसलमान अथवा किसी अन्य को, वे केवल हिंदू नहीं हैं इस कारण से हिंदुओं के न्याय्य अधिकारों को छीनकर एक भी अधिक उन्हें अर्पित नहीं करना चाहिए। परंतु कांग्रेस, फॉरवर्ड ब्लॉक तथा ऐसी ही अन्य संस्थाओं ने अपनी भौगोलिक राष्ट्रीयत्व की भ्रामक कल्पनाओं के कारण इस वास्तविक एवं विशुद्ध राष्ट्रीयत्व का त्याग करने का पाप किया है। देशभक्ति का दिखावा करते हुए हिंदुओं के न्याय्य अधिकारों को कुचलनेवाली उनको एक निश्चित नीति तथा तत्त्वज्ञान है। हम लोग जातीय वादों के परे हैं यह प्रमाणित करने के प्रयास करते समय इन संस्थाओं के अनुयायियों को स्वयं को हिंदू मतदाताओं का प्रतिनिधि कहने में भी लज्जा का अनुभव होता है।

परंतु उसी जातीय भूमिका पर होनेवाले चुनावों में हिस्सा लेने में उन्हें शर्म नहीं आती, क्या यह बात कुछ अटपटी नहीं प्रतीत होती? इस प्रकार वे राष्ट्रीयत्व का तथा जिन हिंदुओं ने उन्हें अपने अधिकारों की रक्षा व प्रतिनिधित्व करने हेतु चुना है उन हिंदू मतदाताओं से भी विश्वाघात करते हैं।

जब तक चुनाव जातीय पद्धति पर हो विभाजित हैं तब तक इन राष्ट्रीय कहलानेवाली संस्थाओं का यह कर्तव्य है कि आज जो जातीय मतदाता संघ अस्तित्व में हैं उनकी ओर से चुनाव लड़ने की बात अस्वीकार कर देना चाहिए। जब तक वास्तविक अर्थ में राष्ट्रीय मतदाता संघ स्थापित नहीं होते तब तक उन्हें रुकना चाहिए। परंतु कांग्रेस, फॉरवर्ड ब्लॉक अथवा ऐसी ही अन्य तथाकथित राष्ट्रीय संस्थाओं के दो मुँहे व्यवहार तथा अनुचित नीति के कारण केवल हिंदुओं के ही राष्ट्रीय अधिकारों की अपरिमित हानि हुई है। कांग्रेस, उसके सभी आंतरिक पक्ष तथा उनके नेता इनकी इस भ्रांतिपूर्ण राष्ट्रीयत्व की गलत कल्पनाओं का एक परिणाम यह भी है कि हिंदुओं का हिंदुओं के रूप में सभी स्थानों से प्रतिनिधित्व संपूर्णतः लुप्त हो गया।

इसके विपरीत विधिमंडल समितियाँ अथवा गोलमेज परिषदों के लिए मुसलमान प्रतिनिधि लीग की ओर से खड़े होनेवाले अथवा जिन इच्छुकों ने पराकोटि के आक्रमण तक जाते हुए मुसलमान समाज के हितसंबंधों की रक्षा तथा संवर्धन करना प्रकट रूप से एवं हृदय से स्वीकार किया है वे ही चुने जाते हैं। इधर कांग्रेस, फॉरवर्ड ब्लॉक अथवा अन्य पक्षों के भ्रांत राष्ट्रीयत्व के विचारों से प्रभावित हिंदुओं के प्रतिनिधियों के रूप में हिंदू मतदाताओं के मतों पर विजयी होकर विधिमंडल अथवा गोलमेज परिषदों में अथवा दैनंदिन राजनीति में जब हिंदू हित संबंधों की बात आती है तब वे हिंदुओं का पक्ष प्रस्तुत करना स्पष्टतः अस्वीकार कर देते हैं। इसके अतिरिक्त शासन यदि उन्हें हिंदुओं के प्रतिनिधि मानता है तो इसे वे अपनी मानहानि समझते हैं।

देशभक्त भी मूर्ख अथवा भोले हो सकते हैं

श्री कृपलानी ने ऐसा प्रकट रूप से कहा कि जनगणना एक जातीय प्रश्न होने के कारण कांग्रेस का उससे किसी प्रकार का कोई संबंध नहीं है। इस घटना के समय स्वयं हिंदुओं के मतों पर विजयी होते हुए भी इन भ्रांत राष्ट्रीय संस्थाओं ने हिंदू हितों का घात किया है। मुझे व्यक्तिगत रूप से यह ज्ञात है कि गत वर्ष इसी फॉरवर्ड ब्लॉक के कुछ प्रथम श्रेणी के नेता कांग्रेस के अधिकृत अधिकारियों से एक कदम बढ़कर केवल शासन के समक्ष हिंदू-मुसलमान एकता का दिखावा करने के लिए हिंदू हितों का होम करते हुए लीग को अपनी ओर करने के प्रयास कर रहे थे। इन भ्रांत राष्ट्रीय संस्थाओं के नेताओं के उद्देश्य व्यक्तिगत हितसंबंधों से जुड़े हुए नहीं थे तथा वे देशभक्तिपूर्ण भी थे; परंतु देशभक्त भी मूर्ख अथवा अनभिज्ञ हो सकते हैं। तत्त्वज्ञान, नीति अथवा अन्य कारणों से ऐसा किया गया हो, परंतु इसका परिणाम निश्चित रूप से हिंदुओं की जो हानि हो चुकी है उसमें वृद्धि करने के लिए ही होती है तथा जब तक भ्रांत राष्ट्रीय संस्थाओं ने अनुशासन एवं तत्त्वप्रणाली इनसे प्रतिज्ञापूर्वक जुड़े हुए इच्छुकों को विजयी बनाने की मूर्खता का हिंदू मतदाता त्याग नहीं करते तब तक ऐसा ही होता रहेगा। हिंदुओं ने हमें चुनाव में विजयी बनाया तो हम उनके हितों की रक्षा करेंगे-ऐसा अभिवचन कांग्रेस, फॉरवर्ड ब्लॉक की ओर से खड़े हुए किसी इच्छुक द्वारा दिया जाना भी पर्याप्त नहीं है। क्योंकि जब तक वह इन संस्थाओं के भ्रांत तत्त्वज्ञान, अनुशासन तथा नीति से बाध्य है तब तक स्वयं की इच्छा होते हुए भी उसे अपना वचन निभाना संभव नहीं होगा। मैं यह बात आश्वासनपूर्वक कहता हूँ कि जो लोग ऐसा मानते हैं कि अपनी ही पितृभूमि तथा पुण्यभूमि में हिंदुओं को स्वतंत्र, उन्नत तथा बलशाली बनने का अधिकार है उन लोगों के लिए वर्तमान स्थिति में सर्वाधिक सरल तथा सुलभ उपाय यही है कि हिंदू महासभा के नेतृत्व में हिंदू हितरक्षण तथा संवर्धन से प्रतिज्ञापूर्वक जुड़े हुए प्रतिनिधियों को ही विजयी बनाने की नीति का पालन किया जाए। ऐसा करने से ही शासन को यह मान्य करना होगा कि हिंदू महासभा ही समस्त हिंदुओं का प्रतिनिधित्व करनेवाली एकमात्र संस्था है। अब कांग्रेस को हिंदुओं के पक्ष में बोलने का नैतिक व वैधानिक अधिकार नहीं होगा।

हिंदू महासभा ही आप लोगों का वास्तविक प्रतिनिधित्व करेगी

मुसलमान मतदाता कांग्रेस के प्रत्याशियों को कभी भी मत नहीं देते। जो प्रत्याशी इन राष्ट्रीय संस्थाओं के बंधनों से जकड़ा हुआ नहीं है तथा जो मुसलमानों के हितों की रक्षा करने का वचन प्रकट रूप से देता है उसे ही अपने मत बिना कोई भूल किए देते हैं। इसी एक निर्विवाद सत्य के कारण शासन आग्रहपूर्वक कहता है कि कांग्रेस मुसलमानों का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकती।

ये चुनाव शासन द्वारा हिंदू मतदाताओं को दी गई एक चुनौती है कि वेप्रमाणित करें कि हिंदू महासभा ही हम लोगों का प्रतिनिधित्व करती है।

हिंदुस्थान की भावी घटना निश्चित करने हेतु शीघ्र ही कुछ परिषदों का आयोजन किया जाएगा। यदि हिंदू महासभा संपूर्ण हिंदुस्थान में इस मतदान की परीक्षा में सौ प्रतिशत उत्तीर्ण हो गई तथा हिंदुओं ने अपने प्रतिनिधि के रूप में हिंदुत्वनिष्ठों को ही चुना तो शासन को भी इस प्रकार की परिषदों में हिंदू महासभा को भी मुसलिम लीग के समतुल्य महत्त्व देना पड़ेगा। इतना होने पर कोरे चैक जातीय मतदाता संघ, पाकिस्तान योजना अनुपात से अधिक प्रतिनिधित्व आदि में एक भी योजना अथव घटना केवल कांग्रेस द्वारा मान्य करने के कारण हिंदुओं पर बंधनकारक नहीं होगी। धार्मिक, राजनीतिक, आर्थिक हितसंबंध तथा उसी प्रकार संस्कृति, भाषा, लिपि स्वाभिमान, सर्व हिंदुओं का भवितव्य अथवा कोई भी घटना, विधान अथवा समझौता हिंदू महासभा की स्वाक्षरी के साथ मान्यता दिए बिना हिंदुओं पर बंधनकारक नहीं हो सकेगी। हिंदू बहुसंख्य प्रांतों में हिंदुत्वनिष्ठों के मंत्रिमंडल स्थापित होंगे तथा हिंदू अल्पसंख्यक प्रांतों में भी एक मजबूत गुट बन जाने के कारण मुसलमान मंत्रिमंडल के अहिंदू आक्रमण का प्रभावी रूप से विरोध कर सकेंगे। इसलिए सभी आगामी चुनावों में इस अखिल हिंदू दृष्टिकोण का महत्त्व हिंदुओं को ध्यान में रखना होगा, ऐसा मेरा आदेश है।

हिंदुओं का सैनिकीकरण

जिस पर सभी हिंदुओं का ध्यान गया और सारी शक्ति हिंदुओं पर केंद्रित करनी चाहिए ऐसा अत्यधिक महत्त्वपूर्ण कार्यक्रम है हिंदुओं का सैनिकीकरण। इसे शीघ्र ही हाथ में लेना आवश्यक है। युद्ध की ज्वालाएँ हम लोगों के तट तक पहुँच चुकी हैं। इससे हमारे लिए एक तात्कालिक खतरा उत्पन्न हो गया है तथा उसी के साथ सुअवसर भी प्राप्त हुआ है। इस समय हिंदू महासभा के प्रत्येक नगर तथा गाँव की शाखा के हिंदू लोगों को भू एवं वायु दलों में भरती करने हेतु और युद्धोपयोगी युद्ध साहित्य बनानेवाले उद्योगों में प्रवेश करने हेतु प्रोत्साहित करना चाहिए। उनके मन में चैतन्य निर्माण करना चाहिए।

ब्रिटेन तथा अमेरिका के विरोध में जपान के युद्ध में पदार्पण करने के कारण हिंदू महासभा की हिंदुस्थान की सुरक्षा संबंधी युद्ध नीति में कुछ परिवर्तन करना आवश्यक नहीं है। हिंदू महासभा को पूरा विश्वास है कि जिस प्रकार ब्रिटेन, जर्मनी, इटली, अमेरिका तथा रूस आदि राष्ट्रों में से कोई भी इस युद्ध में परोपकार करने के उद्देश्य से नहीं लड़ रहा है अपितु अपने-अपने हितसंबंधों की रक्षा करना ही उनका लक्ष्य है, उसी प्रकार जापान तथा अन्य राष्ट्रों का उद्देश्य भी एक समान ही है।

जिस समय विश्व का प्रत्येक राष्ट्र स्वहित रक्षा तथा आक्रमण की नीति पर चल रहा है उस समय हिंदुस्थान को भी अपने राष्ट्र के हितसंबंधों को वर्तमान व भविष्य में भी सुरक्षित रखने हेतु और उनका संवर्धन करने के लिए उचित नीति का सहारा लेना होगा। इसके अलावा कोई उपाय नहीं है। इस दृष्टि से विचार करने पर हम हिंदू लोग आज जिस स्थिति में हैं उसमें हिंदुस्थान के संरक्षण के लिए भू, नो, वायु दलों में अधिकाधिक संख्या में भरती होकर तथा युद्ध साहित्य तथा गोला बारूद के केंद्रों में एवं युद्ध साहित्य के उद्योगों में प्रवेश पाने के प्रयास करते हुए नि:संदेह रूप से प्रतियोगी सहकारिता की नीति के अनुसार हिंदुस्थान शासन के युद्ध प्रयासों में सहायता करना आवश्यक हो जाता है।

यदि जागतिक स्थिति का उपयोग हिंदू हित रक्षण के लिए करना है तो जिन्हें हम लोगों को शीघ्र हस्तगत करना होगा वे विभाग हैं राष्ट्र का सैनिकीकरण तथा औद्योगिकीकरण ।आज की हम लोगों की संभावनाओं के दायरे में यही है। ऐसा कहना पड़ेगा। जापान के युद्ध में प्रवेश करने के कारण ब्रिटिशों के शत्रुओं द्वारा हिंदुस्थान पर आक्रमण किए जाने की शीघ्र संभावना बन चुकी है। अतः हम लोगों की इच्छा हो अथवा न हो, युद्ध की आपत्ति से सुरक्षा करना अनिवार्य बन गया है। हिंदुस्थान की सुरक्षा संबंधी शासन द्वारा जो प्रयास किए जा रहे हैं उन्हें अधिकाधिक सहायता देने से ही यह उचित रूप से किया जा सकेगा। इसी कारण हिंदुत्वनिष्ठों को एक पल भी व्यर्थ न गवाते हुए हिंदुओं के सैनिकीकरण के लिए विशेषतः बंगाल तथा असम प्रांतों में दिन-रात प्रयासरत रहना चाहिए।

राजनीति को हिंदुत्वमय बना दो

हिंदुओ! आप लोग इस सूचना के अनुसार आचरण करना प्रारंभ करेंगे तो मैं निश्चयपूर्वक कह सकता हूँ कि हम लोगों के इस हिंदू धर्म का, जाति का तथा राष्ट्र का भविष्य प्राचीन समय से भी अधिक प्रभावशाली होगा। मैंने अभी तक जिन बातों पर विशेष जोर दिया है, वे हैं-१. कांग्रेस को एक भी हिंदू को मत न देते हुए वास्तविक हिंदुत्वनिष्ठ प्रत्याशियों को ही मत देकर आज राष्ट्र में अस्तित्व में रहनेवाली राजनीतिक सत्ता तथा शासकीय राजयंत्र हस्तगत करना। २. जिनका मन हिंदुत्वमय हुआ है ऐसे लाखों हिंदू योद्धाओं को भू, नौ, वायु दलों में भरती करना। ये दोनों प्रारंभिक कदम हैं; परंतु ये दो बातें ही हम लोगों को एकदम तथा इतने उच्च स्थान तक ले जाएँगी कि केवल पाँच वर्षों में ही संपूर्ण राजनीतिक वातावरण हिंदुत्वमय बनकर हिंदुओं के मजबूत नेतृत्व तथा कम-अधिक मात्रा में हिंदुओं के एकमात्र अधिकार की बात दिखाई देगी।

इस महायुद्ध के कारण सभी अन्य प्रश्नों को गौण महत्त्व प्राप्त हुआ है तथा इस जागतिक उलझन में विजय किसकी होगी यह भी निश्चित रूप से कोई नहीं बता सकता। परंतु संभवत एक बात की और आपका ध्यान आकर्षित करना होगा। हिंदू यदि इस युद्ध स्थिति का संपूर्ण रूप से उपयोग कर सकेंगे तथा हिंदू संघटन का ध्येय पूर्णतया आँखों के सामने रखकर हिंदू जाति के सैनिकीकरण के लिए प्रयास करेंगे और उपरिनिर्दिष्ट कार्यक्रम से जुड़े रहेंगे तो हम लोगों का हिंदू राष्ट्र युद्धोत्तर कठिन समस्याओं का सामना करने-फिर वह हिंदू विरोधी दंगल हो अथवा घटनात्मक उलझनें हों या सशस्त्र क्रांति का आंदोलन हो-संघटित अतुलनीय एवं लाभदायक स्थिति में विद्यमान हम लोगों का हिंदू राष्ट्र कल्पना से भी अधिक सबल होने की बात दिखाई देगी।

इस रात के गहरे काले अंधकार से ही उषा का सुवर्ण प्रभात जन्म लेता है। यह कहना सत्य हैं और वैसा ही समय आज आ चुका है। अपने राष्ट्र के पूर्व तट पर आ पहुँचे हुए तथा पश्चिम की ओर से यहाँ पहुँचने की जिसकी भी संभावना है इस युद्ध का विस्तार, विध्वंस तथा परिणाम के संबंध में अतुलनीय स्वरूप का खतरा उत्पन्न होगा; परंतु इसी से विश्व के लिए एक नए दिन का उदय होगा तथा इस जागतिक अवस्था से केवल एक नई ही नहीं, परंतु अधिक अच्छी सुव्यवस्था उत्पन्न होगी। जिन्होंने अपना सर्वस्व खो दिया है उन्हें पर्याप्त रूप में कुछ अधिक प्राप्त होने की संभावना है। हम लोगों को इस सुअवसर के लिए रुकना चाहिए। हम लोग प्रार्थना करें कि उत्तमोत्तम कार्य के लिए हमारा श्रम खर्च हो ।

(भागलपुर अधिवेशन पर लगाई गई पाबंदी उठाने के लिए किया गया पत्र व्यवहार तथा न उठाने पर उसे भंग करने हेतु की गई तैयारी को समझने हेतु 'ऐतिहासिक कथन' का संकलित भाग देखिए) ।

अखिल भारतीय हिंदू महासभा का चौबीसवाँ अधिवेशन,कानपुर

(विक्रम संवत् १९९०,सन् १९४२)

अध्यक्षीय भाषण

माननीय प्रतिनिधि तथा हिंदू महासभा के सदस्यो!

अखिल भारतीय हिंदू महासभा के अध्यक्ष पद पर आप लोगों ने पुनः मुझे छठवीं बार चुना है। इसलिए मैं आप लोगों का बहुत बहुत आभारी हूँ। मेरी सेवा अत्यल्प होते हुए भी आप लोगों ने हिंदुओं के लिए अभी जो अति उच्च है वह मुझे प्रदान किया, इसलिए मैं बहुत कृतज्ञ हूँ। आज तक मैंने अनेक बार त्यागपत्र दिया, परंतु आज मैं यह पद स्वीकार कर रहा हूँ। इसके कई कारण हैं। हिंदू महासभा में सम्मिलित न होनेवाले बहुत से व्यक्ति आज हिंदू महासभा को कपटपूर्ण व्यवहार करते हुए अनुचित मार्ग पर ले जाकर तत्पश्चात् षड्यंत्र करते हुए हिंदू महासभा पर अधिकार करने का प्रयास कर रहे हैं। कुछ डरा-धमकाकर उसे झुकाने के प्रयास कर रहे हैं तो कुछ प्यार दिखाकर उसे नष्ट करने का विचार कर रहे हैं। आज हम हिंदुओं की पितृभूमि तथा पुण्यभूमि की रक्षा करनेवाली एकमेव संस्था हिंदू महासभा ही है। कांग्रेस से भिन्न तथा हिंदुओं का प्रतिनिधित्व करनेवाली और उपरनिर्दिष्ट तत्त्वों की रक्षा करनेवाली हिंदू महासभा ही एकमेव संस्था है। इस संस्था को एवं हिंदुत्व के ध्येयवाद को नष्ट करने हेतु ये सभी निश्चित रूप से एक साथ आगे बढ़ गए। अत: हिंदू राष्ट्र की रक्षा करनेवाली हिंदू महासभा के इस मंदिर के प्रत्येक खंड की रक्षा करने हेतु वहाँ प्रत्येक हिंदू को सदैव तैयार रहना चाहिए। वर्तमान स्थिति इसी प्रकार की है। हिंदुत्व की रक्षा करने का दायित्व जिन क्षेत्रों के कंधों पर है उन सभी को स्वेच्छा से अपने स्थान पर रहते हुए हिंदुत्व केइस पवित्र मंदिर की रक्षा करनी चाहिए। केवल इसी कर्तव्य बुद्धि से मैं दायित्व का यह स्थान स्वीकार रहा हूँ।

भागलपुर का असामान्य अधिवेशन

आज की हम लोगों की भूमिका क्या है तथा भू विषयों में हम लोगों को क्या करना है इसकी संपूर्ण कल्पना होने के लिए हिंदू महासभा से जुड़ी विविध घटनाओं की समीक्षा में प्रारंभ मैं हर करने जा रहा हूँ। इस वर्ष का प्रारंभ ही भागलपुर के प्रतिकार आंदोलन से हुआ। इस आंदोलन से एक बात निर्विवाद रूप से प्रमाणित हो चुकी है कि हम हिंदू लोगों के सर्वसामान्य राष्ट्रीयत्व के विचार जाग्रत् हैं तथा प्रसंग आने पर हिंदू राष्ट्र के हित रक्षणार्थ जाति, वंश भेद व ऊँच नीच आदि का कोई भेदभाव न करते हुए हम लोग आत्मविश्वासपूर्वक, निश्चयपूर्वक तथा एकजुट होकर तैयार रहते हैं। हिंदुओं की एकता के लिए महासभा आज तक सतत प्रयासरत थी। वह अब जाग्रत् हो चुकी है तथा अहिंदुओं को जिस प्रकार की गड़बड़ी करना संभव था वह स्थिति अब बदल चुकी है। इसके अतिरिक्त इस प्रकार के अहिंदू सामर्थ्‍यों को अपने संकट की बात पर झुकाने का सामर्थ्य हिंदुओं में उत्पन्न होने की प्रतीति भी हो चुकी है। भागलपुर में हिंदू ध्वज के गौरव रक्षणार्थ हिंदुस्थान के हर कोने से अनेक हिंदू आगे आए। इस संघर्ष में हम लोगों के माननीय नेता श्यामाप्रसाद मुखर्जी भी सम्मिलित हुए। उसी प्रकार अनेक अनाम हिंदू वीरों ने कीर्ति की अपेक्षा न करते हुए अपने प्राणों की बाजी लगा दी। धनवान से गरीब तक, मालिक से श्रमिकों तक सभी हिंदू, सिख, सनातनी, जैन तथा आर्य इस संग्राम में समाविष्ट हुए थे। संघर्ष भी केवल भागलपुर तक ही सीमित नहीं रहा; जिन छह जिलों में प्रतिबंध थे वहाँ भी होता रहा। इस संघर्ष का प्रभाव अखिल हिंदुस्थान में दिखाई दिया। हिंदुत्व रक्षण के प्रति जाग्रत् प्रेम के कारण घुड़सवारों का भी भय उन्हें नहीं लगा। जुलूस में सम्मिलित हजारों स्त्रियों और बच्चों पर में निर्दयतापूर्वक घोड़ों से आक्रमण किया गया तथा गाँव-गाँव में गोलीबारी की गई। परंतु इन सभी को हिंदू प्रतिकारियों ने साहस से सहन किया।

कांग्रेस को मिलाकर सभी संघटनों के जो अधिवेशन आज तक आयोजित किए गए हैं, उनमें हिंदू महासभा का तेईसवाँ अधिवेशन अपूर्व तथा अद्वितीय था ऐसा कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी।

इस अपूर्व अधिवेशन में जिन हिंदू वीरों ने प्राणार्पण किया अथवा जिनके शरीर पर इस धर्मयुद्ध के चिह्न अभी तक विद्यमान हैं उनके लिए हिंदू महासभा के अध्यक्ष के नाते मैंने कृतज्ञता नहीं प्रकट की तो मैं अपने कर्तव्य करने में भूल कररहा हूँ ऐसा प्रतीत होगा।

इस धर्मयुद्ध में जो मृत हुए वे हुतात्मा बन गए हैं तथा जो घायल हुए उनके जख्म ही उनके सम्मान में दिए पदक सिद्ध हुए। महासभा आज की स्थिति में उनका गौरव करने से अधिक कुछ करने में असमर्थ है अतः मैं उनके लिए अपनी ओर से हार्दिक कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ।

इस संग्राम के विषय में यहाँ एक और बात पर ध्यान देना आवश्यक है। वह संग्राम केवल हिंदुओं के अधिकारों के रक्षार्थ तथा हिंदुत्व के विशुद्ध नेतृत्व में ही लड़ा गया। निजाम राज्य का निःशस्त्र प्रतिकार तथा भागलपुर के इस संग्राम ने गत चालीस वर्षों को राष्ट्रीयत्व को भ्रांत कल्पना पर प्रहार किया। राष्ट्रीयत्व की इस भ्रांत कल्पना के अनुसार हिंदुओं के अधिकारों की रक्षा करना एकराष्ट्र अपराध निरूपित किया गया था। हिंदुओं की शिकायतों को दबा दिया जाता था इस कारण इस देश के हिंदुओं को अनाथ बच्चों जैसा राजनीतिक जीवन बिताने पर बाध्य किया जा रहा था। हिंदुत्व के इन दो संघर्षों ने इस भ्रांत राष्ट्रीयत्व को पूर्णत: नष्ट कर दिया है।

निःशस्त्र प्रतिकार उचित समय पर किस प्रकार प्रारंभ करना चाहिए तथा विजय प्राप्त करने हेतु किस प्रकार चलाया जाना चाहिए, इसे हिंदुइज्म भलीभाँति समझती है। इन दो संग्रामों में यह बात प्रमाणित हो चुकी है। हिंदुओं के अधिकारों की रक्षा करने हेतु अखिल भारतीय स्वरूप के सामुदायिक आंदोलन महासभा भी प्रारंभ कर सकती है, यह भी इन प्रसंगों से सिद्ध हो चुका है।

भागलपुर अधिवेशन के पश्चात् दो माह से भी कम समय में लखनऊ में मुसलमानों द्वारा दंगा किए जाने पर भी हिंदू महासभा की अखिल भारतीय समिति की बैठक शांति से संपन्न हुई। यह घटना गत फरवरी माह की है।

क्रिप्स से बातचीत

मार्च के अंत में क्रिप्स समिति यहाँ पहुँची। कांग्रेस हिंदुओं का तथा लीग मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करती है यह कई वर्षों से ब्रिटिश शासन की धारणा थी। इस विचारधारा के अनुसार ही हिंदुस्थान का प्रतिनिधित्व कांग्रेस या लीग ही करती है ऐसा समीकरण बन गया था।

हिंदू महासभा ने अपने प्रभाव से ब्रिटिशों को यह मानने पर बाध्य किया कि महासभा इस देश का तीसरा प्रबल राजनीतिक पक्ष है। प्रसंगोपात हिंदू हितरक्षक के लिए कांग्रेस अथवा लीग का आह्वान कर हिंदू सभा ने अपना यह स्थान निश्चित कर लिया था।

हिंदुओं का प्रतिनिधित्व अब हिंदू महासभा ही करेगी। कांग्रेस तथा अन्य पक्षों को क्रिप्स योजना में विचारार्थ ऐसी कुछ बात दिखाई देगी। उन्हें ऐसी आशा थी कि इस राजनीतिक मरुस्थल में, कहीं-न-कहीं नमी अवश्य होगी। परंतु क्रिप्स महाशय अमेरिकी जनता के लिए दिखावा कर रहे हैं और हिंदी नेताओं से बातचीत करते हुए उन्हें अपनी मरजी के अनुसार नचाना चाहते थे। यह बात प्रारंभ में ही महासभा ने जान ली थी एवं इस लुभावनी योजना में कौन सा हलाहल भरा है यह बात भी महासभा ने ही प्रारंभ में समझ ली।

प्रांतों को हिंदुस्थान से स्वयं के मताधिक्य से पृथक होने का स्वयं निर्णय का अधिकार है इसे हिंदुओं द्वारा मान्यता देने पर ही ब्रिटिश शासन भारतीय स्वातंत्र्य की घोषणा करेगा-इसी परिच्छेद में यह विष भरा हुआ था।

हिंदुस्थान एक अखंड तथा अविभाज्य राष्ट्र है, यह विधान इस मूल कल्पना के पेट में खंजर घुसाने जैसा ही था। अतः महासभा ने व्यर्थ का शोर न मचाते हुए उसे साफ-साफ अस्वीकार कर दिया। उसी के साथ संपूर्ण योजना का भी त्याग कर दिया; परंतु कांग्रेस तथा अन्य पक्षों ने यह विषपान किया तथा कष्टपूर्वक किसी एक या अन्य खाने को प्राप्त करने हेतु बातचीत करते रहे।

परंतु महासभा ने वास्तविक समस्या को पहचानकर इस योजना का त्याग किया। व्यर्थ आश्वासनों के बादलों में भारतीय स्वातंत्र्य एक ओर निष्फल लटकता रहा तथा दूसरी ओर भारत के अखंडत्व के पीठ में छुरा घोंपने की तैयारी चल रही थी। परंतु महासभा के इस प्रश्न पर स्पष्ट नकार देते ही अन्य पक्षों ने भी कुछ समय तक विचार करते हुए यही निर्णय किया। इसी समय हिंदू महासभा कार्यकारिणी समिति ने ऐसा स्पष्ट प्रस्ताव पारित किया कि विश्व की राजनीतिक स्थिति में द्रुतगति से जो परिवर्तन हो रहे हैं उसी को देखते हुए भारतीय स्वातंत्र्य की घोषणा तत्काल करने से ही इस देश के मनुष्यों के तथा साहित्य के बल का स्वयंस्फूर्त उपयोग इस युद्ध में हो सकेगा। इससे भारतीयों को भी यह युद्ध ब्रिटिशों के समान ही अपना लगेगा।

हिंदू सभा के दो मूलभूत तत्त्व

पितृभूमि का अखंडत्व तथा स्वातंत्र्य जैसे दो मूलभूत मुद्दों पर ही महासभा ने क्रिप्स योजना अस्वीकार कर दी। इन दो तत्त्वों को हिंदू संघटनवादियों का सर्वाधिक समर्थन है यह अभी तक प्रकट नहीं हुआ था। इसलिए १० मई, १९४२ का दिन पाकिस्तान विरोधी दिन के रूप में संपूर्ण हिंदुस्थान में मनाने की योजना हिंदू महासभा ने निश्चित की। सन् १८५७ के राष्ट्रीय आंदोलन का स्मृति दिन ही स्वातंत्र्य दिन के रूप में हिंदू सभा आज तक मनाती है। अतः इसी दिन 'पाकिस्तान विरोधी दिवस' संपूर्ण हिंदुस्थान में मनाया जाना चाहिए, यह हिंदू महासभा के निश्चित किया ।हिंदू महासभा के नेतृत्व में अखिल हिंदुस्थान में यह दिन बड़ी धूमधाम से मनाया गया। जम्मू, पेशावर, पुणे, अमृतसर, लाहौर, दिल्ली, लखनऊ, पटना, कलकत्ता, मुंबई, नागपुर, मद्रास आदि सभी राजधानियों एवं अन्य नगरों में तथा गाँवों में भी यह दिन उत्साहपूर्वक मनाया गया। उस दिन लाखों हिंदुओं ने हिंदू महासभा के उपरिनिर्दिष्ट दोनों तत्वों का समर्थन किया। एक ओर मुसलमान अपने पाकिस्तान का आग्रहपूर्वक प्रचार कर रहे तथा राजगोपालाचार्य की ओर से भी विच्छेदीकरण का हार्दिक प्रचार किया जा रहा था, परंतु पटना, आरा तथा अन्य कई स्थानों पर केवल पाकिस्तान विरोधी निदर्शनों पर पक्षपातपूर्ण पाबंदी लगाई गई थी। हिंदू महासभा के अनुयायियों ने यह अन्याय्य बंदी आज्ञा न मानते हुए अनेक स्थानों पर अपने न्याय्य अधिकारों के रक्षणार्थ निश्चित किया गया कार्यक्रम पूरा करते हुए कारावास में जाना पसंद किया। इस दिन के निदर्शनों से हिंदू जगत् ने पितृभूमि के विच्छेदीकरण का कड़ा विरोध किया। स्वयं निर्णय के नाम पर इस कार्य को सिद्ध करनेवाली किसी भी योजना को हिंदू जगत् का स्पष्ट विरोध है। हिंदू लोगों के मन पर हिंदू महासभा के इस आग्रहपूर्ण कथन का कितना बड़ा प्रभाव है यह बात यह दिन मनाने से प्रमाणित हो गई। स्वयं को राष्ट्रीय कहलानेवाली कांग्रेस से हिंदुओं का प्रतिनिधित्व करने का अधिकार हिंदू सभा को किस प्रकार से अधिक है यह बात उसी दिन सिद्ध हो गई।

आज का भारतीय आंदोलन

इस बीच कांग्रेस मुसलमानों के दबाव के कारण झुक गई तथा उनका यदि आग्रह ही होगा तो प्रांतों के स्वयं निर्णय के अधिकारों का विरोध न करने की बात मान गई। ऐसा लगा कि इससे पूर्व मुसलमानों द्वारा इस प्रकार का आग्रह नहीं किया गया था अथवा कांग्रेस को किसी प्रकार से धमकाया भी नहीं था! राजगोपालाचार्य तो पाकिस्तानी मनोवृत्ति से अति प्रभावित हो चुके थे। अपने पाकिस्तानी पागलपन के प्रचार हेतु विजयी दौरा करने की योजना बनाकर उन्होंने प्रारंभ के लिए खुद के प्रांत को ही इस कार्य के लिए चुना। परंतु सभी स्थानों के हिंदुत्वनिष्ठ जाग रहे थे। मद्रास से मुंबई तक सर्वत्र उनका पीछा किया गया। धर्मवीर डॉ. मुंजे, प्रा. देशपांडे को, जो हिंदू राष्ट्रवाद के कट्टर समर्थक हैं, मद्रास प्रांत में दौरा करने हेतु नियोजित किया गया तथा श्री वरदराजनू नायडू का अथक सहयोग उन्हें मिलता रहा और उन सभी ने प्रत्येक सभा मंच पर राजाजी को पराजित किया। अतः राजाजी ने सभा मंच छोड़कर आरामकुरसी पर बैठकर ही पत्रक निकालने की नीति अपनाई। मुसलमानों की माँग न्याय्य है। पाकिस्तान स्वराज्य की सर्व कुंजी (मास्टर की) है अर्थात् दो और दो मिलाकर चार नहीं पाँच होते हैं ऐसा हिंदुओं को समझाने हेतु राजाजी एक के बाद एक पत्रक निकाल रहे हैं।

इसी समय कांग्रेस ने सविनय अवज्ञा आंदोलन प्रारंभ करने का अपना संकल्प प्रकट किया। अंग्रेजों को यह देश छोड़ने के लिए प्रकट रूप से आज्ञा देने संबंधी कांग्रेस के इस आंदोलन के प्रति हिंदू महासभा पक्ष के लोगों में कौतूहल उत्पन्न हुआ था। हिंदुस्थान का संपूर्ण स्वातंत्र्य यह जिस आंदोलन का ध्येय हो उसमें सम्मिलित होना प्रत्येक हिंदू राष्ट्रभक्त का कर्तव्य ही था। परंतु इस प्रकार के आंदोलन का समय तथा उसकी कार्य पद्धति भी उतनी ही महत्त्वपूर्ण थी, और इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण प्रश्न था वह साध्य जिसे प्राप्त करने हेतु इस संघर्ष का आयोजन किया जा रहा था। यह प्रारंभ में ही स्पष्ट हो जाना आवश्यक था। मुसलमानों को प्रसन्न करने के लिए तथा उन्हें आंदोलन में सम्मिलित होने के लिए तैयार करने हेतु कांग्रेस इससे पूर्व ही हिंदुस्थान के अखंडत्व पर पानी छोड़ने को तैयार हो चुकी थी!

इतना करने के बाद भी कांग्रेस की माँग क्या रही? ब्रिटिशों के यहाँ से निकल जाने की परंतु उन्हें ब्रिटिश तथा अमेरिकी सेना को यहीं छोड़ देना होगा। वह किस कारण ? जर्मनी तथा जापान के आक्रमण से रक्षा करने हेतु कांग्रेस आंदोलन का इत्यर्थ यह था कि अंग्रेजों को आंग्ल-अमेरिकी सेना यहाँ तैनात करनी चाहिए तथा हिंदुस्थान की स्वतंत्रता की घोषणा करनी चाहिए। इस आंदोलन से क्या प्राप्त होने की अपेक्षा थी? हिंदुस्थान के अखंडत्व की समाप्ति। इसलिए स्वातंत्र्य के ध्येय का स्वतंत्र रूप से पुरस्कार करनेवाला आंदोलन होते हुए भी हिंदू महासभा जैसी संस्था इस आंदोलन में सहभागी होने से पूर्व-मूलभूत ध्येय अधिक स्पष्ट करने की आवश्यकता है ऐसा कहने लगी। अतः २ अगस्त को पुणे में बाजीराव मार्ग पर आयोजित विशाल सभा में मैंने कुछ माँगें रखीं। ऑ.इ.कां. कमेटी की बैठक मुंबई में प्रारंभ होने से पूर्व हिंदुस्थान के ही नहीं, विदेशी समाचारपत्रों में भी ये माँगें प्रकाशित की गईं। इनमें से प्रमुख माँगें निम्नानुसार थीं- १. हिंदुस्थान के अखंडत्व तथा अविभाज्यता की कांग्रेस को निश्चिति देना चाहिए। २. इसलिए प्रांतों को स्वयं निर्णय का अधिकार है ऐसा कहना कांग्रेस को स्पष्ट रूप से छोड़ देना चाहिए। ३. विधिमंडलों में तथा लोक प्रतिनिधिभूत अन्य संस्थाओं में जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व होना आवश्यक है। ४. नौकरियाँ केवल गुणानुसार दी जाना चाहिए। ५. हिंदू सभाओं को हिंदुओं की प्रतिनिधि के रूप में मान्यता प्राप्त होनी चाहिए; अतः जहाँ जहाँ हिंदुओं के हितसंबंधों की बात आती है वहाँ-वहाँ उसकी सम्पति बिना कोई निर्णय नहीं लिया जाना चाहिए। ६. प्रत्येक अल्पसंख्यक को भाषा, धर्म, संस्कृति आदि की रक्षा करने हेतु संरक्षण बंधन प्रदान किए जाने चाहिए, परंतु किसी भी अल्पसंख्यक को बहुसंख्यकों के अधिकार पर बाधा डालकर दूसरा राष्ट्र निर्माण करने का अधिकार नहीं दिया जाना चाहिए। ७. शेषाधिकार केंद्रीय शासन के अधीन रहना चाहिए।

गांधीजी की घातक उदारता

यदि ये माँग कांग्रेस द्वारा स्वीकार की जाती तो किस व्यावहारिक भूमिका से कांग्रेस से सहकार्य करना होगा, इस बात का विचार हिंदू सभा को करना संभव होता। इन माँगों का स्वरूप इतना राष्ट्रीय है कि कांग्रेस द्वारा ही इनकी प्रथम घोषणा की जानी चाहिए थी। परंतु कांग्रेस ने इन माँगों की ओर पूर्णतः दुर्लक्ष किया। इसके अतिरिक्त ऑ.ई. कां. कमेटी की मुंबई में आयोजित सभा में कांग्रेस ने शेषाधिकार भी प्रांतों को दिए जाने हेतु सहमति दिखाई। स्वनिर्णय के नाम पर पाकिस्तान बनाने की अनुमति देकर तत्पश्चात् पाकिस्तानवालों को संतोष देने हेतु यह परिशिष्ट भी जोड़ दिया। इसके पश्चात् सबसे ऊँची बात हुई। कांग्रेस के गांधीजी को सर्वाधिकारी नियुक्त करने पर उन्होंने (मुसलिम लीग को) पत्र लिखा। उसमें संस्थानों (राज्यों) के साथ सर्व हिंदुस्थान शासन मुसलिम लीग को अर्पित करने की तत्परता दिखाई। यहाँ लागू होनेवाला उस पत्र का महत्त्वपूर्ण भाग में उद्धृत कर रहा हूँ। मुसलिम लीग को गांधीजी कहते हैं -

'संपूर्ण ईमानदारी से मैं पुनः एक बार आप लोगों से कहता हूँ कि तत्काल स्वातंत्र्य प्राप्ति हेतु लीग कांग्रेस से सहयोग करने को तैयार हो और ब्रिटिश शासन ने अपना सभी कारोबार सारे हिंदुस्थान के लिए लीग को सौंप दिया तो भी कांग्रेस इसपर कोई भी आपत्ति नहीं करेगी। अर्थात् जर्मनी जापान के आक्रमण से हिंदुस्थान की रक्षा करने तथा इस प्रकार चीन व रूस को सहायता पहुँचाने हेतु दोस्त राष्ट्रों की सेना यहाँ रहने के लिए अनुमति प्राप्त होना आवश्यक है और यह इस व्यवहार की शर्त है। संस्थानों के साथ सारे हिंदुस्थान का कारोबार लीग को सुपुर्द करने पर कांग्रेस को कोई आपत्ति नहीं होगी। लोगों की ओर से लीग जो शासन प्रस्थापित करेगी उसमें कांग्रेस बाधा उत्पन्न न करते हुए शासन में कांग्रेस सम्मिलित होगी। संपूर्ण गंभीरतापूर्वक तथा विश्वास के साथ मैं यह लिख रहा हूँ।' -मो.क. गांधी ।

इस पत्र पर और कुछ कहना व्यर्थ होगा। हिंदू हित का अथवा वास्तविक राष्ट्रीयत्व का इससे बड़ा विश्वासघात दूसरा कौन हो सकता है? यदि इस समय आपात स्थिति न होती तथा स्वातंत्र्य जैसे मूल प्रश्न पर संघर्ष नहीं होता तो इस प्रकार के पत्र से प्रक्षुब्ध हुए हिंदुओं ने हजारों स्थानों पर इस प्रकार के पत्रों की होली जलाई होती। अपनी मातृभूमि के विध्वंस का ध्येय जिस आंदोलन का होगा उस आंदोलन में हिंदू संघटनावादी जान बूझकर क्यों सम्मिलित होंगे? इसके अतिरिक्त उचित समय, आंदोलन की पद्धति, स्थिति और विजय प्राप्ति हेतु आवश्यक हिसाब करना आदि बातों का महत्त्व कुछ कम नहीं था। अतः हिंदू महासभा को इस आंदोलन के समय कांग्रेस से पूर्णतः सहमत होना संभव नहीं था।

परंतु प्रारंभ से ही चल रहे उग्र प्रदर्शनों से कांग्रेस का कुछ भी संबंध नहीं है यह बात स्वयं कांग्रेसवाले ही कहने लगे। अतः इस आंदोलन का श्रेय कांग्रेस पर थोपने का हम लोगों को भी कोई कारण नहीं दिखाई देता और इस स्थिति में इस आंदोलन में सम्मिलित होने की अथवा न होने की कोई बाध्यता महासभा के समक्ष नहीं है।

स्वातंत्र्य संग्राम में सहभागी होनेवालों का अपराध

आगे तत्काल गांधीजी सहित सैकड़ों नेताओं को पकड़ा गया, असंतोष सारे देश में दिखाई देने लगा। इस लहर के कारण तथा शासन द्वारा इसे कुचलने की नीति अपनाई जाने के फलस्वरूप देश में अत्यधिक कोलाहल मच गया। आज कांग्रेस के तथा अन्य हिंदू बंधु हजारों की संख्या में कारावास से लेकर मृत्युपर्यंत सभी कष्ट भोग रहे हैं।

देशभक्ति से प्रेरित होकर अथवा एक देशप्रेमी आंदोलन में सम्मिलित होने पर हम लोगों के इन बांधवों को जो यंत्रणा सहनी पड़ी है उसके लिए हम लोगों कोसहानुभूति है ही, वेदना भी होती है।

अर्थात् इस प्रकार के विशाल आंदोलनों के परिणामस्वरूप जो गुंडई उत्पन्न हो जाती है उसके लिए हम लोगों को सहानुभूति न होने की बात स्पष्ट है। परंतु यह संघर्ष प्रमुख रूप से लोगों द्वारा अपने देश के स्वातंत्र्य के लिए चलाया है यह बात ब्रिटिश शासन तथा जनता दोनों को मान्य करनी पड़ी है।

मातृभूमि के स्वातंत्र्य के लिए लड़ना यदि कोई अपराध होगा तो हम सभी लोग इस प्रकार से संघर्ष करते आए हैं तथा इस प्रकार के अपराध करने में हम लोगों को गर्व का अनुभव होता है।

आत्मनिरीक्षण कीजिए

परंतु शुद्ध राष्ट्रप्रेम में होश खोकर हम लोगों को व्यावहारिक बातों पर ध्यान न देने की भूल नहीं करनी चाहिए। बिना समझे-बुझे कुछ करने से हिंदू राष्ट्र की ही हानि होगी, अतः ऐसे किसी भी आंदोलन में कूद पड़ने की बड़ी भूल हमें नहीं करनी चाहिए। यह भी राष्ट्रप्रेम का ही कर्तव्य है। गलत प्रश्न पर एकता करते हुए राष्ट्रीय संकट को निमंत्रण देना देशभक्ति का लक्षण नहीं है। इस कारण राष्ट्रीय कर्तव्य की क्षति होती है। कांग्रेस राष्ट्रकार्य करती है तथा एकता बनाए रखने के लिए हिंदू महासभा को दोष देती है। उन्हें सामान्य व्यवहार के लिए एक बात ध्यान में रखनी आवश्यक है कि मनुष्य से भूल हो जाने की संभावना बनी रहती है इस नियम के लिए राष्ट्रभक्त अपवाद नहीं हैं। किसी व्यक्ति को आज की स्थिति में किसी मार्ग पर विश्वास नहीं है और वह उस उचित प्रतीत होनेवाली कार्यनीति पर चल रहा हो तो उसे दोषी मानना उचित नहीं है। इस सामान्य विचार को दुर्लक्षित कर कांग्रेसी समाचारपत्र समय-असमय हिंदू महासभा के लिए कटुता निर्माण करने के प्रयास करते हैं। उनकी टिप्पणियाँ जिस समय तर्कनिष्ठ एवं न्याय्य होंगी तब उन्हें उपरिनिर्दिष्ट उत्तर दिया जा सकता है; परंतु अधिकांश कांग्रेसी समाचारपत्र शिष्टता को ताक पर रखते हुए भ्रांत, घातक तथा कुत्सित प्रचार करने की नीति अपनाए हुए हैं। हिंदू महासभा की भूमिका की न्याय्य सुरक्षा करने हेतु इस प्रचार का उत्तर भी देना आवश्यक है तथा उन्हें प्रतिबंधित करने के प्रयास किए जाने चाहिए। सैन्य रहने दो और देश छोड़ो-ऐसी गर्जना गांधीजी द्वारा किए जाते ही हिंदू महासभा के नेता कारावास की दीवारें लाँघकर तत्काल अंदर नहीं पहुँचे। इस बात पर विचार करने से वे लोग अपने आपे से बाहर हो गए होंगे।

अंग्रेजों को चले जाने के लिए कहना ही स्वतंत्रता हो तो ऐसा कहा जा सकता है कि वर्तमान समय में हिंदू महासभा के अनेक नेताओं तथा सदस्यों ने सर्वप्रथम प्रकट रूप से स्वातंत्र्य का ध्वज फहराकर सशस्त्र विद्रोह की तैयारी की थी।

जिस समय गांधीजी तथा उनके सहकारी स्वयं को ब्रिटिश साम्राज्य के एकनिष्ठ नागरिक कहलाने में गौरव का अनुभव करते थे तथा अपने स्वातंत्र्य के लिए संघर्षरत जुलू तथा बोअर लोगों के विरोध में अंग्रेजों की सहायता कर रहे थे तब ये क्रांतिकारी स्वातंत्र्य की पूजा कर रहे थे। उस समय अनेक क्रांतिकारी अंदमान में आजन्म कारावास की सजाएँ काट रहे थे, अनेक के गलों में फाँसी के फंदे पड़ चुके थे। उस समय गांधीजी द्वारा इन क्रांतिकारियों से एकजुट न होकर अंग्रेजों से सहयोग करने की नीति अपनाई! परंतु इतनी दूर जाने की आवश्यकता नहीं है। हिंदुओं के मूलभूत अधिकारों के रक्षणार्थ भागलपुर में जो संघर्ष किया गया उससे ये कांग्रेसी दूरी बनाए हुए थे। इसके अतिरिक्त उन्होंने निजाम से सहयोग करते हुए उसे किसी प्रकार से कष्ट न पहुँचाने का आश्वासन दिया था। जब सहस्रों हिंदू अपने सामान्य अधिकारों के लिए यंत्रणाएँ सहते हुए संघर्ष कर रहे थे तब अनेक कांग्रेस नेता तथा अनुयायी ब्रिटिश शासन के मंत्रियों के रूप में विशाल वेतन पा रहे थे और आराम की जिंदगी व्यतीत कर रहे थे यह बात क्या सच नहीं है? बिहार शासन द्वारा पाबंदी लगाकर गोली चलाना, लाठी चार्ज, घोड़ों का उपयोग तथा कोड़े मारना आदि साधनों का उपयोग किया था तब भी प्रतिबंधित सभी छह जिलों में लाखों हिंदू संघटकों ने अपने न्याय्य मूलभूत अधिकारों के लिए संघर्ष किया। उस समय भी कांग्रेसवालों का व्यवहार कैसा था?

उनमें साहस का अभाव था अथवा जनता की सेवा करने की इच्छा नहीं थी ऐसा नहीं कहा जा सकता। कांग्रेस के हिंदू महासभा के तत्त्व तथा कार्य प्रणाली के विषय पर मतभेद थे। केवल इसी कारण कांग्रेस ने यह नीति अपनाई थी, ऐसा कहना कांग्रेसवाले चाहते हैं तो तथा एक क्यों नहीं हो सकी इस बात का समर्थन करना चाहते हो तो हिंदू महासभा की आज की नीति का समर्थन उसी प्रकार से किया जा सकेगा- यह समझने की चतुराई कांग्रेसवालों को दिखानी चाहिए। कांग्रेस के नैतिक दास बनकर उसके प्रस्ताव तथा कार्यक्रमों के साथ अपनी भी दुर्गति हो यह बात हिंदुत्वनिष्ठ कदापि पसंद नहीं कर सकते।

अधिकार पदों की समस्या

वर्तमान स्थिति में हिंदू महासभा गौण अधिकार पदों पर बनी रहती है यह आक्षेपकों के लिए तथा क्षति प्रचार के लिए एक दूसरा विषय बन जाता है। परंतु यह आरोप वूमरॅंग के समान उनपर ही अधिक तीव्रता से आघात करता है। यह बात कांग्रेसियों के ध्यान में नहीं आती।

अभी-अभी हिंदू महासभा द्वारा चुने गए अथवा महासभा का समर्थन प्राप्त होनेवाले प्रतिनिधि राजनीतिक समितियाँ, विधिमंडल, मंत्रिमंडल आदि स्थानों में संचार करते दिखाई देते हैं तथा प्राय: इन्हीं बातों के कारण राजनीतिक क्षेत्रों में हिंदू महासभा को और उसके कारण हिंदुत्व को महत्त्व प्राप्त हुआ है।

इस कारण कुछ बेकार कांग्रेसियों के क्रोधित होकर हिंदू महासभावादियों को 'नौकरीवाले' कहने के लिए प्रवृत्त होने की संभावना है। उनके इस प्रक्षोभ पर हम लोगों को दया आती है। परंतु इसलिए हम लोग उन्हें साधुत्व का दिखावा नहीं करने देंगे, क्योंकि अवसर प्राप्त होते ही स्वयं इन्हीं नौकरियों के लिए तथा अधिकार प्राप्त करने हेतु इनके मुँह में पानी आ जाने की बात हम लोग जानते हैं।

कुछ ही दिन पूर्व स्वयं कांग्रेस ने संपूर्ण हिंदुस्थान में यही कार्य किया था। राजा के स्थान पर प्रधान बनना क्या उन्होंने स्वीकार नहीं किया ?प्रधान ही नहीं, प्रत्यक्ष ब्रिटिश राज्य के नौकर के, गवर्नर के प्रधान बनने कांग्रेसी तैयार हो चुके थे ?आज वे लोग हिंदू महासभा पर साम्राज्यशाही से सहयोग करने का आरोप लगा रहे हैं। उन्होंने ही उस सम्राट् से एकनिष्‍ठ रहने के लिए शपथ लेते हुए बड़ा वेतन पाया तथा अपने अनुयायियों को बड़ी संख्या में नौकरियाँ व अधिकार दिए थे। गवर्नर को अधिक-से-अधिक जितना उचित प्रतीत होता उतना ही इन लोगों को करने दिया जाता। जिस घटना का उन्होंने कड़ा विरोध किया, उसी के लिए उन्होंने काम किया; परंतु जब किसी बात पर जनता को संतुष्ट करना उनके लिए संभव न हुआ तो उन्होंने स्वयं अपने मर्यादित अधिकारों के प्रति जनता का ध्यान आकर्षित किया अथवा विरोध करनेवालों पर गोलियाँ चलाने की अथवा लाठी चार्ज करने की आज्ञा दी। उस समय किसी व्यक्ति ने निषेध करने हेतु उनके दरवाजे के सामने अनशन किया तब इन कांग्रेसियों ने उनसे स्पष्टत: कहा कि 'आप मृत्युपर्यंत यहाँ सुख से बैठे रहें, मुझे अपने कार्यालय में जाकर अपना काम करना ही होगा।" शासन का प्रथम कर्तव्य शासकीय कार्य चलाना है ऐसा स्वयं राजाजी ने कांग्रेस मंत्रिमंडल के समर्थनार्थ कहा था।

इस नौकरी- संशोधन के लिए क्या आप लोग इन कांग्रेसियों का निषेध करते हैं ? अथवा आप ऐसा तो नहीं मानते कि यह सब देशभक्ति के लिए उचित ही है ?

जितना भी जनहित करना संभव है उतना करने हेतु मर्यादित अधिकार क्षेत्र के अधिकारों का उपयोग भी किया जाना चाहिए, क्या इस प्रकार का स्पष्टीकरण कांग्रेसी देते हैं? ऐसा होगा तो आप लोग ही हिंदू महासभा की भूमिका का समर्थन कर रहे हैं ऐसा कहना पड़ेगा मर्यादित क्यों न हो, जो अधिकार प्राप्त हो रहे हैं, उन्हें लेते हुए अब अधिक अधिकार प्राप्त करने हेतु संघर्ष करना हिंदू महासभा की नीति है। आप लोग उसी नीति का समर्थन कर रहे हैं।

प्रतिसहकार का सूत्र

हिंदू महासभा की भूमिका यह है कि व्यावहारिक राजनीति का प्रमुख सूत्र है प्रतिसहकार तथा इसी कारण विधिमंडलों में अथवा मंत्रिमंडलों में रहते हुए जो हिंदू आज दूसरों के अधिकारों पर आक्रमण करते हुए हिंदुओं के हिस्से की तथा न्याय्य अधिकारों की रक्षा कर रहे हैं वे राष्ट्र की सेवा ही कर रहे हैं ऐसा हिंदू महासभा मानती है। हिंदू महासभा इस कार्य की मर्यादा से परिचित है और इसी कारण उस मर्यादा में रहकर अधिक कार्य जब तक वे करते रहेंगे तब तक अपने कर्तव्य का पालन कर रहे हैं ऐसी हिंदू महासभा की मान्यता है। ये सीमाएँ धीरे-धीर आकुंचित होकर अंततः पूर्णत: नष्ट होनेवाली है।

यद्यपि कुछ कांग्रेसवालों के लिए मेरी यह आलोचना उचित है, परंतु यह सभी लोगों के लिए लागू नहीं है। यदि मैं इसे स्पष्ट न करूँ तो यह प्रतारणा करने के समान होगा। हिंदुओं का हित ही हम लोगों का हित है तथा हिंदुत्व का अभिमान ही हम लोगों का भी अभिमान है ऐसा समझनेवाले अनेक कांग्रेसी विद्यमान हैं इसे मैं जानता हूँ।

इसके अतिरिक्त इनमें से कई लोग हिंदू महासभा की शक्ति पहचानते हैं तथा जब-जब कांग्रेस हिंदुओं के सांस्कृतिक अभिमान पर आषात करने का कोई कार्य करती है अथवा अपने न्याय्य अधिकारों संबंधी हिंदुओं को पीछे हटने का आदेश देती है उस समय ऐसे कांग्रेसियों को आश्चर्य होता है। आज हिंदुत्व के ध्वज के नीचे एकत्रित हुए लोगों में कांग्रेस के हजारों अनुयायी तथा नेता समाविष्ट हैं। यह बात भी उपरिनिर्दिष्ट कथन का समर्थन करती है। कांग्रेस के शिविरों में ऐसे लाखों हिंदुओं का अस्तित्व स्वाभाविक ही कहा जाएगा। परंतु उन्हें कांग्रेस की छावनी से बाहर आकर हिंदू महासभा में सम्मिलित होने का साहस नहीं है। बस इतना ही !

परंतु आज तक के पूर्वानुभवों के कारण मुझे ऐसा विश्वास होने लगा है कि मातृभूमि, संस्कृति आदि के लिए गौरव का अनुभव करनेवाले सहस्रों से अधिक हिंदू बंधु अभी तक कांग्रेस के गुट में हैं। उन्हें वहाँ से शीघ्रता से बाहर आना पड़ेगा, तत्पश्चात् अपनी अंतः भावनाओं के कारण हिंदुत्व का रक्षण करनेवाली हिंदू महासभा के मंदिर की ओर उनके कदम अपने आप निश्चित रूप से मुड़ जाएँगे उस मंदिर की रक्षा करने में उनके हजारों हाथ कार्यरत होंगे।

हिंदू महासभा का प्रथम कार्य

शासन द्वारा कांग्रेस को अवैध घोषित किए जाने के पश्चात् प्रकट राजनीति के क्षेत्र से कांग्रेस दूर हो गई, तब हिंदुस्थान के राष्ट्रीय आंदोलन का जो कुछ भाग अपने दायरे में आता होगा उसे चालू रखने का दायित्व अपने आप हिंदू महासभा पर आ गया। वह भार मुसलिम लीग पर डालने से उस संस्था का अपमान होता। कांग्रेस को हिंदुओं की संख्या कहने का अर्थ उसका अपमान करना ही होता उसी प्रकार हिंदुस्थान के अखंडत्व पर जिसकी निष्ठा नहीं है उस मुसलिम लीग पर राष्ट्रीय आंदोलन का दायित्व सौंपना भी उस संस्था का अपमान करना ही होता। परंतु हिंदुस्थान के अविभाज्य राष्ट्रीयत्व पर स्वयं को राष्ट्रीय कहलानेवाली कांग्रेस की जितनी श्रद्धा है उससे भी अधिक श्रद्धा हिंदू महासभा की है। अतः इस आंदोलन का संचालन करने का काम हिंदू महासभा को ही करना पड़ा। इस समय का प्रथम कार्य ब्रिटिश प्रचार का प्रतिकार करना है। क्रिप्स की योजना असफल होने के कारण ब्रिटिश सत्ता दान करने हेतु तैयार नहीं थी, ऐसा नहीं था अपितु हिंदुस्थान में हो रहे आंतरिक कलह ही उसका कारण था, यह बात सारे विश्व तथा विशेषतः अमेरिका को समझाने के प्रयास ब्रिटिश प्रसार माध्यमों द्वारा किया जा रहा था।

संयुक्त राष्ट्रीय माँग

यदि हम लोग संयुक्त रूप से कोई राष्ट्रीय माँग करते हैं तो उसे ठुकराना अंग्रेजों के लिए असंभव हो जाएगा- यह माननेवाला एक बड़ा गुट कांग्रेसियों में तथा हिंदुओं में भी निर्माण हो चुका है। यह एक विशेष बात है। इसी विचार से कांग्रेस ने कई बार मुसलिम लीग के सामने घुटने टेक दिए। इसी वृत्ति के कारण अनेक सर्वपक्षीय अथवा अपक्षीय परिषदों का जन्म हुआ है तथा हो रहा है।

इस प्रकार से स्वयं को धोखा देने की जो वृत्ति हिंदुस्थान में जोर पकड़ रही थी उसके पाशों से हिंदुओं को मुक्त कराने हेतु अखिल भारतीय स्तर पर कोई व्यापक प्रयास करना अत्यावश्यक हो गया था।

इसी प्रकार हिंदुस्थान में विविध पक्षों में जो मतभेद हैं उनकी मर्यादा क्या है तथा सभी पर लागू होनेवाली एक-दो समस्याओं के प्रति उनकी भूमिका क्या है, यह ठीक से जान लेना भी लाभदायक होता। इसी विचार से हिंदू महासभा ने कुछ समय पूर्व ही जो तीन प्रमुख माँगों को निश्चित किया था उनपर विविध पक्षों के साथ तथा व्यक्तियों से बातचीत करने की योजना को स्वीकार किया - १. भारतीय स्वतंत्रता की तत्काल घोषणा की जाए। २. प्रत्यक्ष रणक्षेत्र में युद्ध संचालन के अतिरिक्त अन्य सभी विभाग राष्ट्रीय शासन को सौंपकर राष्ट्रीय शासन की स्थापना करना। ३. युद्ध की समाप्ति के तत्काल पश्चात् समिति गठित कर ली जाए। ये तीन प्रमुख माँगें थीं।

हिंदू सभा को जितना यश मिला वह प्रयासों के अनुपात में कुछ कम नहीं था। वैधानिक प्रयासों के रूप में भी इनका महत्त्व था। जो लोग दुःखी थे उन सभी को इस बात से संतोष प्राप्त हुआ। हिंदुस्थान एक अखंड राष्ट्र है, यह बात ब्रिटिश शासन को तत्काल मान्य करनी चाहिए। हिंदुस्थान के सभी लोग संयुक्त रूप से यह माँग कर रहे हैं। राष्ट्र द्वारा की गई इस संयुक्त माँग में यह समिति सफल हुई।

'हिंदू महासभा इस देश की दूसरे क्रमांक की संस्था है' यह उप-भारतमंत्री ने स्वीकार किया है तथा सिख, मोमिन, प्रगतिशील क्रिश्चयन, नेशनल लीग आदि संस्थाओं के सर्वमान्य नेताओं ने इस माँग पर हस्ताक्षर किए हैं अथवा उसका समर्थन किया है। सिंध, बंगाल के मंत्री, विधिमंडलों के प्रमुख सदस्य तथा शासन संस्था में कार्यरत प्रमुख व्यक्तियों ने इस माँग का समर्थन किया है। अत: यह माँग संयुक्त राष्ट्रीय स्वरूप की माँग बन गई है। कांग्रेस के इस माँग के प्रमुख घटकों को समर्थन करनेवाले प्रस्ताव के कारण इस माँग का राष्ट्रीय स्वरूप अधिक मजबूत हो जाता है। केवल लीग अथवा अन्य किसी पक्ष का समर्थन प्राप्त न होने के कारण यदि इस माँग को राष्ट्रीय नहीं कहता है तो किसी भी देश में किसी भी समय इस प्रकार की संयुक्त माँग नहीं की गई थी, ऐसा कहना उचित होगा।

कनाडा, अफ्रीका अथवा अमेरिका में फेडरेशनों की स्थापना करते समय की मतगणना का विचार किया जाए तो यह स्पष्ट हो जाता है कि वह भी एक स्वर से की गई संयुक्त माँग नहीं थी। वहाँ भी विरोधी मत एवं पक्ष विद्यमान थे। वास्तविकता यह है कि किसी भी माँग को राष्ट्रीय माँग कहने के लिए यह देखना आवश्यक हो जाता है कि उस माँग को बहुसंख्यकों का समर्थन प्राप्त है अथवा नहीं। मत भिन्नता रखनेवाले अल्पसंख्यकों का विचार उस समय नहीं किया जाता।

यह निश्चित माँग प्रस्थापित करने में जब हिंदू महासभा को सफलता प्राप्त हुई तब उसका तत्काल प्रभाव दिखाई दिया। चीन, अमेरिका तथा हिंदुस्थान के लोक प्रवाह जाग्रत् हुए तथा ब्रिटिशों की चाल वे समझ गए क्रिप्स योजना की वापसी का कारण इस देश में चल रही कलह न होकर ब्रिटिशों को अपनी सत्ता वास्तविक रूप में त्यागना नहीं है यही सच कारण था यह बात भी अनेक लोगों की समझ में आ गई।

हिंदू महासभा के अध्यक्ष के नाते मैंने इस माँग की खास चर्चा की ओर प्रेषित कर दी। इस तार को स्वीकार करते समय चर्चिल साहब ने हिंदू महासभा से एकता स्थापित करने के प्रयासों पर संतोष व्यक्त किया है; परंतु प्रमुख पक्षों का समर्थन प्राप्त है ऐसी कोई निश्चित योजना हिंदू सभा प्रसृत करने में सफल न हो सकी, ऐसा उनका कहना था।

लीग के विरोध का स्थान

इस उत्तर पर पृथक् रूप से टीका करना व्यर्थ है। इस प्रश्न पर पर्याप्त चर्चा हो चुकी है। यहाँ केवल एक ही बात का उल्लेख करना आवश्यक हो जाता है कि हम लोगों को समर्थन देनेवाला प्रमुख पक्ष मुसलिम लीग था- मुसलमान नहीं थे, क्योंकि हमारे माँगपत्र पर हस्ताक्षर करनेवालों में प्रमुख मुसलिम संघटनों का समावेश था । लीग जैसे केवल एक ही पक्ष द्वारा अन्य सभी से सहमत होना अस्वीकार किया इसी एक कारण से माँग को राष्ट्रीय माँग का दर्जा न दिया जाए तो संपूर्ण राष्ट्र की इच्छा को दबा देने का अधिकार इस संस्था को प्रदान किया गया है, ऐसा ही इसका अर्थ होगा। लीग को इतना अधिक महत्त्व देते समय चर्चिल साहब की जबान लड़खड़ा रही होगी यह बात लोग भी जानती है।

ब्रिटिश हितसंबंधों को बाधक होने की कोई माँग लीग द्वारा की जाती है अथवा इस प्रकार की माँग को लीग का समर्थन प्राप्त होता है तो चर्चिल यह कहने से बाज नहीं आएँगे कि मुसलमानों की ओर से बोलने का अधिकार लीग को नहीं है।

महासभा पर लगाया गया एक अन्य आरोप

इस चर्चा के कारण हिंदू महासभा पर कांग्रेसी तथा अन्य अनेक लोग जो आरोप लगा रहे थे उसका उत्तर प्राप्त हो गया है। हिंदू महासभा एक जातीय संस्था है, अतः उसका राष्ट्रीय कार्यक्रम अथवा नीति नहीं होगी अथवा वह राष्ट्र का नेतृत्व कदापि नहीं कर सकती यही वह आक्षेप है। इस चर्चा से यह प्रमाणित हो चुका है कि हिंदू महासभा केवल राष्ट्रीय संस्था नहीं है तथा कांग्रेस के समान वह विविध चालों से प्रभावित नहीं होती अथवा लीग के समान वह जातीय स्वार्थ का शिकार भी नहीं हो सकती। व्यावहारिक राजनीति में तर्कनिष्ठ समझौते के मार्ग पर ही चलना पड़ता है यह भी हिंदू महासभा जानती है। सिंध में लोग के साथ सहयोग करते हुए मंत्रिमंडल का भार लेने को हिंदू महासभा तैयार हुई इससे यही बात प्रमाणित जोती है। बंगाल का उदाहरण तो काफी नहीं है। कांग्रेस की शरणागति से जिस उद्धत लीगवालों को संतोष नहीं हुआ वे हिंदू महासभा से समझौता करने तथा समझदारी से अव्यवहार करने सहमत हो गए। फजलूल हक के मुख्यमंत्रित्व के अधीन रहकर तथा हिंदू महासभा के ख्यातिप्राप्त नेता डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी के नेतृत्व में एक वर्ष तक दोनों जातिया आनंदपूर्वक एक साथ रहती थीं। हिंदू महासभावाले केवल जनहित का विचार करते हुए सत्ता केंद्रों पर अधिकार करते हैं। यह बात निम्न घटनाओं से प्रमाणित होती है। जनसेवा करना असंभव प्रतीत होते ही तथा स्वाभिमानपूर्वक मंत्रिमंडल में बने रहना असंभव दिखाई देने लगते ही डॉ. मुखर्जी ने अधिकार वस्त्रों का त्याग कर निर्भयतापूर्वक तथा किसी बात की चिंता न करते हुए जो पत्र प्रकाशित किया उसे देखने से यह बात समझ में आ जाएगी।

परराष्ट्रों के प्रचार करने की समस्या

राजनीतिक न्याय अथवा मानवजाति के प्रेम के कारण अमेरिका, रूस अथवा कोई भी विदेशी राष्ट्र हिंदुस्थान को स्वतंत्र करने अथवा अपने हितसंबंधों पर आँच आने के लिए सिद्ध होगा, इस प्रकार की व्यर्थ आशा करना हम लोगों को उचित नहीं प्रतीत होता; परंतु अहिंदू संघटनों तथा अन्य पक्षों के सर्वदशों में प्रचार करते हुए वहाँ जो भ्रांतियाँ फैलाने के प्रयास करना जारी रखा है, उनका प्रतिकार करते हुए देश की वास्तविक स्थिति की सही कल्पना निर्माण करना व्यावहारिक दृष्टि से अत्यधिक आवश्यक है।

विश्व के प्रत्येक राष्ट्र एवं देश के हितसंबंध एक-दूसरे से इतने एकरूप हो गए हैं कि प्रत्येक राष्ट्र यही सोचता है कि परस्पर हितसंबंधों के विषय में तथा राजनीतिक स्थिति का सम्यक् और सत्य ज्ञान उसे है। स्वयं के हित संरक्षणार्थ यह ज्ञान उसके लिए आवश्यक है। विश्व में अन्य देशों की वास्तविक राजनीतिक जानकारी हो तो राष्ट्रीय हितसंबंधों का ध्यान रखकर संधि अथवा विग्रह करते हुए राष्ट्रीय गुट बनाना संभव होता है।

ये युद्ध प्रारंभ होते ही इंग्लैंड द्वारा संपूर्ण विश्व में इस प्रकार का प्रचार करना प्रारंभ किया कि हम लोग दुनिया के सभी स्थानों को जनतंत्र तथा स्वातंत्र्य के लिए संघर्ष कर रहे हैं। हिंदू महासभा ने इस प्रचार पर कभी विश्वास नहीं किया तथा ऐसा स्पष्ट रूप से किसी प्रस्ताव द्वारा प्रकट भी किया। तब इंग्लैंड को अमेरिका के समक्ष प्रमाणित करने के लिए यह कहना पड़ा कि हिंदुस्थान को इसी समय तत्काल स्वातंत्र्य न देने के लिए स्वयं हिंदुस्थान दोषी है। परंतु इसके विपरीत अमेरिकी सोच रही थी कि यदि हिंदुस्थान को संतुष्ट किया जा सकता हो तो यह युद्ध जीतने के लिए सेना तथा साहित्य का बड़ा भंडार हम लोगों को प्राप्त होगा। अमेरिका की दृष्टि से हिंदुस्थान का संतोष बहुत आवश्यक था, इसलिए हिंदुस्थान की स्थिति के विषय में अधिक जानकारी प्राप्त करना उनके लिए अधिक आवश्यक था। हिंदुस्थान में कांग्रेस हिंदुओं की व मुसलिम लीग मुसलमानों की संस्था है तथा इन दोनों का मत हिंदुस्थान का मत होता है इस बात की अस्पष्ट कल्पना अमेरिका को युद्धारंभ के समय थी। बीच-बीच में उन्हें हिंदू महासभा की भी कुछ खबर मिलती थी, परंतु वर्तमान स्थिति में हिंदू सभा का क्या स्थान हो सकता है यह बात उनकी समझ के परे थी। हिंदुस्थान की राजनीति में महासभा ने एक प्रमुख स्थान प्राप्त कर लिया है। परंतु मेरे मि. रूजवेलट को भेजे गए तार को अमेरिकी समाचारपत्रों तथा उसी के कारण विश्व के अन्य समाचारपत्रों में प्रकाशित किया गया। इस बात से अमेरिकी समाचारपत्र तथा जनता का ध्यान हिंदू सभा की ओर अधिक बारीकी से आकर्षित हुआ। हिंदू महासभा का ध्येयवाद, नीति तथा उसे प्राप्त होनेवाले महत्त्व को समझने हेतु विदेशों में अधिक उत्सुकता उत्पन्न हुई। अमेरिका, ब्रिटेन तथा चीन से इस देश की सामान्य परिस्थिति जानने हेतु जो पत्रपंडित अथवा अन्य विद्वान् यात्री आए उन्होंने हिंदू महासभा के नेताओं से भेंट की। तत्पश्चात् उनमें से अनेक ने स्वदेश में समाचार भेजते हुए कहा कि जिस प्रकार मुसलिम लीग मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करती है उसी प्रकार हिंदू महासभा हिंदुओं का प्रतिनिधित्व करती है। इसी से हिंदू महासभा के ध्येयवाद एवं नीति से विदेशी परिचित हो गए। विभिन्न प्रसंगों पर हिंदू महासभा के कार्यालय और विविध केंद्रों से तार द्वारा जो खबर दी गई। उसे अमेरिकी समाचारपत्रों में बहुत बड़ा प्रचार मिला। अमेरिकी पत्रपंडितों ने अपना दिया आश्वासन पूरा किया। हिंदू महासभा का कार्यालय तथा रोज के कार्य के चित्र भी अमेरीकी चित्रपट प्रतिनिधियों द्वारा लिये गए तथा अब उन्हें अमेरिका में दिखाया जा रहा है। चर्चा के विदेशी समय भी पत्रपंडितों ने बहुत सूक्ष्मतापूर्वक इन बातों पर ध्यान रखा तथा महासभा के प्रयासों को संपूर्ण विश्व में पर्याप्त प्रसिद्धि प्राप्त हुई।

इस प्रकार चीन, अमेरिकी तथा स्वयं ब्रिटेन के प्रमुख व्यक्तियों से जो संबंध बन गए हैं उससे उन्हें इस बात की प्रतीती हो गई है कि कांग्रेस द्वारा किए गए किसी भी करार पर जब तक हिंदू महासभा सहमत नहीं होती तब तक वह हिंदुओं पर बंधनकारक नहीं होगा अथवा केवल कांग्रेस तथा लींग के साथ किया हुआ कोई भी करार हिंदुस्थान से किया हुआ करार नहीं माना जा सकता।

युद्ध समाप्त होने पर विभिन्न राष्ट्रों के प्रतिनिधि जब नई स्थिति पर विचार विमर्श करेंगे तब यदि हिंदुस्थान के भविष्य का प्रश्न कार्यक्रम पत्रिका में सम्मिलित किया गया होगा तो उपरिनिर्दिष्ट घटनाओं का लाभ हिंदू महासभा को अवश्य ही होगा।

विदेशों में प्रचार का प्रयास

उपरिनिर्दिष्ट कारणों के लिए कम-से-कम चीन, इंग्लैंड, अमेरिका आदि देशों में ब्रिटिश प्रचार का प्रतिकार करने हेतु हिंदू महासभा को अपने प्रतिनिधि भेजना आवश्यक था। अमेरिकी जनता को हिंदू महासभा का ध्येयवाद तथा नीति का परिचय कराने की दृष्टि से भी यह आवश्यक था। उन देशों में कांग्रेस, लीग और अन्य भारतीय समस्याओं के लिए जिन्हें जिज्ञासा है, उन्हें हिंदू महासभा की जानकारी देना आवश्यक था। इसलिए डॉ. मुंजे तथा बालाराव खापर्डे के नेतृत्व में एक शिष्टमंडल अमेरिका भेजने का निर्णय किया गया। राजाजी इंग्लैंड जाने के प्रयास कर रहे थे तथा उनकी काररवाई से कुछ हानि न हो इसलिए श्री नायडू के नेतृत्व में एक शिष्टमंडल इंग्लैंड भी भेजने का निर्णय लिया गया। परंतु राजाजी द्वारा सुविधाओं की माँग नहीं की गई अथवा उन्हें अनुज्ञा प्राप्त नहीं हुई इस डॉ. वरदराजुनू नायडू के अनुज्ञापत्र के लिए आग्रह नहीं किया गया। बंगाल, पंजाब, संयुक्त प्रांत आदि के नेताओं ने इस विषय पर विचार विनिमय किया था परंतु प्रारंभ में ही बाबाराव खापर्डे आदि के लिए स्वीकृति प्राप्त न होने के कारण यह प्रयास यहाँ समाप्त कर दिया गया। इसके लिए शासन द्वारा विविध कारण दिए गए। परंतु महासभा के इस प्रश्न पर कांग्रेस तथा अन्य सभी द्वारा जो आक्षेप किया गया वह यह था कि इस प्रकार के शिष्टमंडल बाहर भेजने के परिणामस्वरूप ब्रिटिशों के विदेशी प्रचार का समर्थन होगा हिंदुस्थान में मतभेद है-इसी बात का प्रदर्शन विदेशों में अधिक होगा। सार्वजनिक जीवन की इस गंदगी का प्रदर्शन करने से हम लोगों की प्रतिष्ठा को आघात पहुँचेगा। अपने घर का कचरा चौक में फेंकना बुरी बात है, परंतु सवाल यह है कि इसका प्रारंभ किसने किया? क्रिप्स योजना असफल होते ही ब्रिटिश समाचारपत्र तथा प्रचार विभाग ने विश्व में जाकर हजारों मुखों से क्या ऐसा प्रचार नहीं किया कि हिंदुस्थान में भयंकर जाति भेद है? क्या आप लोग ऐसा तो नहीं सोच रहे हैं कि हिंदुस्थान में विद्यमान हजारों चीनी तथा अमेरिकी व्यक्ति अपने कान व आँखें स्वदेश में ही रखकर यहाँ आए हैं? जर्मन और जापानी क्या कर रहे हैं?

यहाँ जाति भेद हैं यह संपूर्ण विश्व जानता है तथा संपूर्ण विश्व को यह भी ज्ञात होना चाहिए। ऐसा ज्ञात होगा भी कि प्रत्येक राष्ट्र को अपने ऐतिहासिक काल में किसी-न-किसी समय जातीय मतभेदों की अवस्था से गुजरना पड़ा है और उन राष्ट्रों में जातीय अधिकार के लिए संघर्ष भी हुए।

मूल प्रश्न यह है कि हिंदुस्थान की इच्छा न होते हुए भी मतभेद है इस कारण इंग्लैंड को हिंदुस्थान पर गुलामगिरी का शाप लगाना संभव होता है, तब मतभेद होते हुए भी स्वातंत्र्य का वरदान इंग्लैंड द्वारा हिंदुस्थान को दिया जाना चाहिए। हिंदुस्थान की गुलामी की रक्षा यदि इंग्लैंड संगीनों की सहायता से कर रहा है तो हिंदुस्थान की स्वतंत्रता की रक्षा भी इंग्लैंड द्वारा इसी प्रकार की जानी चाहिए अथवा स्पष्ट रूप से यह कह देना चाहिए कि हम लोगों के मतभेदों के कारण नहीं बल्कि इंग्लैंड की साम्राज्यवादी आकांक्षाओं के कारण ब्रिटेन की इच्छा हिंदुस्थान को स्वतंत्र करने की नहीं है। हिंदू महासभा का शिष्ट संघ यदि अमेरिका जाता तो यहाँ मतभेद विद्यमान हैं यह वार्ता अमेरिका को प्रथम बार थोड़े ही मिलती! परंतु यह मतभेद क्यों तथा किस कारण उत्पन्न हुए हैं इसपर हिंदू महासभा क्या उपाय कर रही है यह अमेरिकी लोगों की समझ में आता। इससे काली भेड़ और भूरे भेड़िए का फर्क उनकी समझ में आ जाता।

सीमा प्रांतिक हिंदू महासभा के अध्यक्ष रायबहादुर मेहरचंद खन्ना को पैसिफिक रिलेशंस कमेटी के लिए भेजे जानेवाले प्रतिनिधि शिष्टमंडल में सम्मिलित किया गया है। यह अच्छी बात है। भारतीय प्रतिनिधि मंडल इससे पूर्व कनाडा में पहुँच गया होगा तथा रायबहादुर खन्ना को 'पाकिस्तान तथा हिंदुओं का दृष्टिकोण' विषय पर बहुत प्रसिद्धि भी मिली होगी।

इंग्लैंड तथा अन्य प्रदेशों में हिंदू महासभा ने शीघ्र ही अपने लिए स्थान बना लिया है। इसका प्रमाण कूपलैंड द्वारा हिंदुस्थान के सूक्ष्म निरीक्षण में प्रदर्शित किए गए उनके अभिप्राय में दिखाई देता है। उनकी पुस्तक के निम्नलिखित दो उद्धरणों पर ध्यान दीजिए -

1. ..और उससे भी अधिक निश्चय संपूर्ण हिंदुस्थान हिंदुओं का है यह कहनेवाली हिंदू सभा हिंदुओं को युयुत्सु संघटना है । जिस अजातीयता को कांग्रेस सद्गुण मानती है उसका दुर्गुण मानकर त्याग करने का कार्य हिंदू महासभा के नेताओं द्वारा अंगीकार किया गया है । कांग्रेस हिंदुओं का विश्वासघात करनेवाली संस्था है ऐसा हिंदू नेता कहते हैं । हिंदू महासभा के सदस्यों की संख्या तथा हिंदी राजनीति में उसका प्रभुत्व आजकल शीघ्रता से बढ़ रहा है । इसी से यह स्पष्ट दिखाई देता है कि भारत में जातीयता कितना उग्र स्वरूप धारण कर रही है

हिंदू सभा की नीति प्रकट रूप में जातीय है। उसके उग्रपंथी अध्यक्ष श्री सावरकर कहते हैं। हम लोगों के मुसलमान देश बांधवों को भी अपने निर्णय लेते समय अटल बातों को ध्यान में रखना चाहिए ऐसा मैं उनसे कहना चाहूँगा। (पृष्ठ १६)

2. युयुत्सु हिंदुत्व अधिक निर्भीक होता है । हिंदुस्थान एक अविभाज्य राष्ट्र है, यह हिंदू महासभा का मूलभूत तत्त्व है तथा इस कारण हिंदुस्थान का राजनीतिक विभाजन किसी भी तरह जिस योजना में होगा उससे हिंदू महासभा सहमत नहीं होगी, ऐसा महासभा की कार्यकारिणी का मत है । (पृष्ठ ३७)

उप-भारतमंत्री ड्यूक ऑफ डेन्हनशायर ने भी' अखिल स्वरूप की हिंदुओं की दूसरी संस्था के रूप में महासभा का उल्लेख किया है। कांग्रेसियों को प्राप्त होनेवाले प्रशंसापत्रकों का प्रदर्शन करने में कुछ आपत्ति नहीं होती तो प्रसंगोपात दूसरे का हम लोगों के आंदोलन के बारे में क्या खयाल है इसे उद्धृत करने में कौन सी असंगति होगी ?"

पाकिस्तान के हिंदू पुरस्कर्ता

दो साल पूर्व तक केवल अनेक मुसलमान ही पाकिस्तान के लिए आग्रह करते थे तथा इसका उत्तर देते हुए हम लोगों को केवल उन्हें ही संबोधित करना पड़ता था; परंतु क्रिप्स को यात्रा के समय से तथा कांग्रेस के पाकिस्तान की माँग पर शरणागति को नीति अपनाने पर चामत्कारिक स्थिति उत्पन्न हुई है।

स्वयं हिंदुओं में ही पाकिस्तान के समर्थक एक गुट की बहुत बुरे स्वरूप की निर्मिति हुई है तथा किसी भी संक्रामक रोग की शीघ्रता से यह गुट हिंदुओं के मन पर इस विष का प्रभाव करने के प्रयास कर रहा है।

इन कांग्रेसवालों में कुछ हिंदू सत्प्रवृत्ति के लोग हैं, परंतु उन्हें धोखा देकर ऐसा समझाया गया है कि मुसलमानों को पृथक् प्रांत बनाने की स्वतंत्रता देकर उनसे अंतिम स्वरूप का समझौता करने में ही हिंदुओं का हित है। इसके अतिरिक्त कुछ बड़े व्यक्ति स्वयं को राजनीतिक कूटनीतिज्ञ कहते हैं तथा वे किसी भी पक्ष में सम्मिलित नहीं होने की बात करते हैं; परंतु उनके मत अभी भी हिंदुओं के मत ही माने जाते हैं। इन लोगों में से कुछ का प्रांतिक स्वयंनिर्णय को मान्यता देकर बड़ी कूटनीति से हिंदुत्व का घात करने के लिए तत्पर हो जाना बहुत खेदजनक घटना है। राष्ट्रीयत्व के उपासक होते हुए भी उनके इस मार्ग पर अग्रसर होने से बहुत दुःख होता है। ये पाकिस्तान समर्थक हिंदू प्रसंग पड़ने पर शासकीय दबाव से भी अपने बांधवों को पाकिस्तान स्वीकारने के प्रयास किस प्रकार कर रहे हैं, इसका उत्कृष्ट नमूना राजगोपालाचार्य की हलचलों में दिखाई देगा।

वर्तमान स्थिति में हिंदुस्थान के अखंडत्व को वास्तविक खतरा पाकिस्तानवाले मुसलमानों से भी अधिक पाकिस्तान समर्थक हिंदुओं की ओर से ही है। उनका हिंदू हृदय अभी भी जाग्रत है, परंतु उनके विचारों पर कांग्रेस की छाप है। इन लोगों के मन पर जिन विचारों का अधिक प्रभाव है मैं उनके चुने हुए उत्तर देने का प्रयास कर रहा हूँ।

प्रांतिक पुनर्घटना की समस्या

1. प्रांतिक पुनर्रचना तथा पृथक् होने का प्रांतों का स्वयं निर्णय का अधिकार इनमें मूलगामी भेद है । परंतु दूसरी घटना का स्वरूप कुछ भी क्यों न हो उसकी परिणति पाकिस्तान में ही होती है । किसी भी न्याय्य भूमिका से प्रांतों की पुनर्रचना करनी हो तथा इस पुनर्रचना का उद्देश्य यदि अहिंदुओं अथवा अराष्ट्रीयों को प्रबल बनाने का गुप्त उद्देश्य नहीं होगा तब हिंदू महासभा इसका विरोध नहीं करेगी । इस प्रकार की कोशिश प्रांत भाषा के आधार पर अथवा सैनिक या आर्थिक कारणों से भले की जा रही हो हिंदुस्थान को दुर्बल बनाने का उसका उद्देश्य नहीं होना चाहिए। परंतु प्रांतिक स्वयं निर्णय के बहाने से प्रांतों के केंद्रीय शासन से पृथक होने की बात कभी भी स्वीकार नहीं की जाएगी क्योंकि इस तत्व को मान्यता दिए जाने के केवल एक शतक के समय में हिंदुस्थान विदोर्ण हो जाएगा।

2. दूसरी बात यह है कि इस प्रकार प्रांतिक स्वयं निर्णय पाकिस्तान की माँग से भी अधिक घातक है। पाकिस्तान की माँग में केवल मुसलमानों को बहुसंख्यकता होनेवाले निश्चित क्षेत्रों के ही पृथक् होने की माँग है। परंतु उपरिनिर्दिष्ट तत्त्व में इस प्रकार का प्रतिबंध नहीं है। हम लोगों की पाकिस्तान की माँग का भी यथासंभव बलपूर्वक विरोध करना चाहिए और फिर उसमें प्रांतिक स्वयं निर्णय को समाविष्ट किया गया तो केंद्रीय शासन को सदैव अपने सिर पर तलवार देंगे जैसा प्रतीत होता रहेगा। कोई प्रांत अपनी इच्छानुसार हिंदुस्थान शासन से तत्काल मुक्त हो सकेगा। पाकिस्तान की माँग मुसलमान बहुमत पर ही आधारित है, परंतु इसलिए स्वयं निर्णय की बात स्वीकार की गई तो कोई भी प्रांत किसी भी समय आर्थिक, राजनीतिक अन्य किसी अन्य कारण से केंद्रीय शासन से पृथक् होने की माँग करेगा। एक बात अवश्य ध्यान में रखनी होगी। केंद्रीय मध्यवर्ती शासन की नींव अभी मजबूत नहीं है। केंद्रीय शासन आज भी बहुत संवेदनशील मिट्टी के ढेर पर खड़ा है।

मुसलमानों का बहुमत न होने पर भी किसी भी प्रांत में अलगाववादी प्रवृत्ति उत्पन्न होकर केंद्रीय शासन से पृथक् होने का वह आग्रह नहीं करेगा यह बात निश्चित रूप से जानना संभव नहीं है। इस प्रकरण में रूस, अमेरिका आदि अनेक राष्ट्रों के इतिहास से हमें शिक्षा लेनी चाहिए। इन राष्ट्रों को भी इस प्रकार की समस्या का सामना करना पड़ा है। इस प्रकार की अलगाववादी प्रवृत्ति को पूर्णतः नष्ट करने की सामर्थ्य जब मध्यवर्ती शासन को प्राप्त हुई तभी वर्तमान केंद्रीय शासन स्थिर हुआ।

सैनिकी दृष्टि से भविष्य का विचार

3. जो हिंदू लोग वायव्य हिंदुस्थान में मुसलमानों को स्वतंत्र शासन स्थापित करने हेतु मान्यता प्रदान कर रहे हैं उनके लिए सैनिकी दृष्टि से वर्तमान शरणागति अंततः किस प्रकार आत्मनाश करनेवाली होगी, इस बात का विचार करना चाहिए । हम लोगों से अलग होने की तथा हम लोगों पर वंश परंपरा का प्रभुत्व रखने की वृत्ति जिनमें विद्यमान है ऐसे लोगों को अपनी सुरक्षित सरसीमा स्वेच्छापूर्वक देने का एक भी उदाहरण विश्व के इतिहास में नहीं होगा। और पाकिस्तान के पश्चात् पठानिस्तान बनने की बात भी सुनाई दे रही है इसपर ध्यान रखना भी आवश्यक है। यदि इन सरसीमा पर स्थित प्रांतों को केंद्रीय शासन से पृथक् होने दिया जाता है तो अल्प समय में ही ये लोग टोलियों से मिलकर हिंदुकुश से सतलज तक के क्षेत्र में पठानिस्तान स्थापित करेंगे। ये सरसीमाएँ हम लोगों की पुरातन राष्ट्रीय सीमाएँ हैं तथा जब तक हम लोग इन सीमाओं का त्याग नहीं करते तब तक हिंदुस्थान के भविष्य के लिए विघातक बननेवाली इन घटनाओं का बीज मूलतः ही नष्ट हो जाएगा। हम लोगों को सरसीमाएँ त्यागने का विचार भी क्यों करना? ताकि मुसलमान अलग न हो जाएँ इसलिए ही न? परंतु केवल दान के रूप में हम लोगों ने मुसलमानों को सरसीमा पर अधिकार करने की बात मान भी ली तब भी उनकी आकांक्षाएँ तृप्त होंगी तथा वे बढ़ेंगी नहीं, इस बात की गारंटी कहाँ है? आज की दुर्बल अवस्था में भी जो लोग संघर्ष करने की बात करते हैं अथवा पृथक् होने की धमकियाँ दे रहे हैं वे कल शासन के रूप में स्वतंत्र होकर अपनी सरसीमा के पहाड़ी क्षेत्र में पैर जमाकर संघटित होकर प्रबल बन जाएँगे, तब सरसीमाओं से पीछे आनेवाली हम लोगों की शक्ति अनुपात से क्षीण होगी।

अतः जिस एकता के कारण हम लोगों के राष्ट्र को अधिक खतराहै ऐसी एकता प्रकट शत्रुता से भी अधिक घातक होती है।

4. हम लोगों के कुछ विद्वान् पंडितों ने गहराई से विचार करने के पश्चात् प्रतिपादन किया है कि मुसलमानों को पृथक् होकर वायव्य सीमा प्रांत तथा बंगाल में स्वतंत्र शासन स्थापित करने दिया जाए । क्योंकि इसके बाद उनकी आर्थिक स्थिति बहुत खराब हो जाएगी और वे हम लोगों की शरण में आकर पश्चात्ताप करने लगेंगे; परंतु इन अर्ध पंडितों की अपेक्षानुसार आर्थिक दुर्बलता से केवल पश्चात्ताप ही उत्पन्न नहीं होगा । मुसलमानों के असंतोष के भय से काल्पनिक एकता को निमित्त बनाकर अपनी मातृभूमि को खंडित होने दें-इतने दुर्बल जब तक हैं तब तक इस दारिद्र्य के कारण यह मुसलमान सरकार हिंदुस्थान पर आक्रमण करते हुए अपनी कठिनाई दूर करने को तैयार नहीं होगी ? सरसीमा पर स्थित टोलियों की धर्मांधता आज जाग्रत् करते हुए पठानिस्तान के ध्येय से प्रेरित होकर यह संघटित सामर्थ्य ही अमीरों के नेतृत्व में हिंदुस्थान पर आक्रमण करने की धमकी देगा तथा पंजाब से दिल्ली तक के हिंदू प्रदेश के लिए माँग करेगा । सरसीमा पर स्थित पूर्व की टोलियों का उदाहरण आप लोगों के समक्ष है। अभी वे लोग हिंदुस्थान में आकर लूटमार करते हैं तथा मुसलिम मूल्य की माँग करते हुए हिंदुओं का अपहरण करते हैं। ये लुटेरे धर्माधि मुसलमान जब ये कृत्य करते हैं तब हम लोगों के कांग्रेसी उनकी तरफदारी करते हुए कहते हैं कि इसका कारण उन लोगों का दारिद्र्य तथा व्यक्तिगत रूप से भूखे रहने की स्थिति ही है। यह केवल नादानी ही है। कितना भी लज्जास्पद क्यों न हो परंतु मैं प्रत्यक्ष घटनाओं के उदाहरण ही प्रस्तुत करने जा रहा हूँ। ये कपोलकल्पित दंतकथा नहीं हैं। यदि आज जो सामर्थ्य उनमें नहीं है ऐसा सामर्थ्य प्राप्त कर ये पठानिस्तानवाले हिंदू प्रांतों पर आक्रमण करते हैं तो उपरिनिर्दिष्ट प्रवृत्ति के ये भीरु हिंदू नेताओं का पथक एक भी गोली न दागते हुए दिल्ली तक का क्षेत्र उन्हें सुपुर्द करते हुए हिंदू-मुसलमान एकता का निर्लज्ज दिखावा करने में क्या भूल करेगा? वर्तमान में विद्यमान शरणागति की तथा कुछ भी देकर हिंदू-मुसलमान एकता बनाने की प्रवृत्ति जब तक होगी तब तक उपरिनिर्दिष्ट घटना न होने पर ही आश्चर्य होना चाहिए। आज भी पूर्व बंगाल के दरिद्री मुसलमान अवसर मिलते ही दारिद्र्य का बहाना बनाकर धर्मांधता के कारण हिंदुओं को लूटने तथा उन्हें सताने से बाज नहीं आते।

फिर उन्हें एक बार आप लोग स्वतंत्र राज्य प्रस्थापित करने का संघटित होने का अवसर प्रदान करेंगे तब ये मुसलमान भी अपनी भुखमरी टालने के लिए पश्चिम बंगाल पर आक्रमण करेंगे।

और आप लोगों को बंगाल के किसी सघन टुकड़े पर उदक छोड़कर उनका दारिद्र्य नष्ट करना चाहिए अथवा उनकी सदैव बढ़ती रहनेवाली भूख का प्रतिकार करने हेतु तैयार रहना चाहिए।

पाकिस्तान की मान्यता राजनीतिक चाल के रूप में भी त्याज्य

5. मेरे कुछ पाकिस्तानवादी मित्र मेरे कान में धीरे से कहते हैं कि केवल राजनीतिक चाल के रूप में ही हम लोग मुसलमानों को पृथक् होने दे रहे हैं । एक बार ब्रिटिशों के चले जाने पर हम लोग स्वतंत्र हो जाएँगे तब इस शीघ्रता से हम लोग शेष हिंदुओं को संघटित कर सैनिक सामर्थ्य प्रमाणित करेंगे कि मुसलिम प्रांतों को केवल हम लोगों के देखने से ही भय होगा । आज की हम लोगों की यह कपट नीति है । ऐसे मित्रों को खुद से केवल एक ही प्रश्न पूछना चाहिए। क्या आप लोग ब्रिटिशों का विचार नहीं कर रहे हैं? क्या उन्होंने आप लोगों को यह निश्चित रूप से कहा है कि पाकिस्तान बनने के तुरंत बाद वे यहाँ से निकल जाएँगे? तथा आप लोगों को अपनी इच्छानुसार हिंदुओं को संघटित करने देंगे?

कुछ समय तक यह मान भी लिया जाए तब भी जब तक हजारों हिंदुओं पर कांग्रेस की मनोवृत्ति का प्रभाव है तब तक इस प्रकार का प्रबल हिंदू संघटन निर्माण करने के लिए आवश्यक जादू की छड़ी कहाँ प्राप्त होगी? आप भी सभी हिंदुओं में एक हिंदू हैं यह मानकर एक प्रबल हिंदू सैनिकी सत्ता स्थापित करने का सपना आप देख रहे हैं इसलिए हम लोग आपके आभारी हैं।

परंतु इस बीच मुसलमान क्या निष्क्रिय बनकर बैठे रहेंगे? ऐसा तो आपलोग नहीं सोच रहे हैं? वे भी अपनी सत्ता में वृद्धि करते हुए प्रबल होंगे तथा सरसीमाओं के पार रहनेवाले अपने भाई-बंदों से सहमति बनाते हुए प्रथल पठानिस्तान तथा पाकिस्तान बनाने हेतु तैयार हो जाएँगे।

निष्ठावान हिंदू के रूप में आपको किसी-न-किसी समय मुसलमानों का विरोध करना ही पड़ेगा, इसका ज्ञान हो तो आज मुसलमान दुर्बल हैं, तथा इस समयउनकी अपमानकारक माँगे समूल उखाड़ फेंकना ही क्या बुद्धिमत्ता का काम नहींहै ?

आज हम लोग कुछ मात्रा में सबल हैं तथा इसी कारण शरण जाने की मनोवृत्ति त्यागकर यदि हम लोग हिंदू संघटनवाद के निश्चित ध्येयवाद को स्वीकार करते हुए आक्रामक मुसलमानों को उनका योग्य स्थान दिखा देंगे तथा जो मिल चुका है उससे अधिक कुछ भी प्राप्त नहीं होगा ऐसी आज्ञा देंगे तो क्या यह अधिक दूरदर्शिता की बात नहीं होगी?

अॅल्स्टर की अनुचित उपमा

6. पाकिस्तान की समस्या आयरलैंड के अॅल्स्टर जैसी है ऐसा हम लोगों के कई विद्वान् कहते हैं । परंतु वे इन दो घटनाओं की तुलना करने में ही बड़ी भूल कर रहे हैं । अॅल्स्टर नामक एक प्रांत पृथक् करना ही उसका स्वरूप था, परंतु पाकिस्तान की माँग के द्वारा हिंदुस्थान में अनेक मुसलमानी राज्य निर्माण करते हुए केंद्रीय हिंदुस्थानी शासन ही नष्ट करने का षड्यंत्र है । प्रांतिक स्वयं निर्णय के विषय में तो आयरिश वार्ता के समय उपस्थित तक नहीं हुआ था । यदि एक तत्त्व को आयरिश लोग मान लेते तो आज एक संघ आयरलैंड का अस्तित्व भी नहीं होता । प्रांतिक स्वयं निर्णय का तत्त्व यदि हिंदू स्वीकार कर लेंगे तो वह राष्ट्रीय एकता अथवा सुसंगतता का गला घोंटने के समान ही कार्य होगा।

मूर्खता की आशा पर आधारित मत प्रणाली

7. इन पाकिस्तानवाले हिंदुओं के विचार को श्रृंखला कमजोर कड़ियों से बनी है ऐसा प्रतीत होता है। हम लोग स्वराज्य चाहते हैं। हिंदू तथा मुसलमानों के एक साथ संयुक्त रूप से संगठन किए बिना तथा उनकी संयुक्त माँग बिना इंग्लैंड स्वतंत्रता देने हेतु तैयार नहीं है। हिंदुस्थान के अखंडत्व का त्याग करते हुए पाकिस्तान शासन प्रस्थापित किए बिना मुसलमान इस प्रकार की संयुक्त माँग पर विचार नहीं करेंगे ऐसा उन्होंने स्पष्ट रूप से कह दिया है। अतः हम लोगों को मुसलमानों को संतुष्ट करना आवश्यक है। अतः हमें उनकी पाकिस्तान की माँग मान्य करते हुए, स्वराज्य प्राप्त करना चाहिए।

इस विचारधारा की प्रत्येक कड़ी गलत है तथा यह संपूर्ण विचारधारा मूर्खता की आशा पर टिकी हुई है। हम लोगों को जिस स्वराज्य की आवश्यकता है वह स्वराज्य हिंदुस्थानी स्वराज्य होना चाहिए अर्थात् इस स्वराज्य में हिंदू मुसलमान तथा सभी अन्य नागरिकों को समान उत्तरदायित्व, समान कर्तव्य तथा एकसमान अधिकार प्राप्त होने चाहिए। इस प्रकार के स्वराज्य में यदि किसी जाति ने धार्मिक कारणों के लिए पृथक् होकर अलग राज्य बनाने का विचार प्रकट किया होता तो उसे कदापि सहन नहीं किया जाता तथा इस प्रकार की माँग करना विश्वासघात करना है ऐसा कहते हुए उसे मूलतः ही दबा दिया जाता। दूसरी बात यह है कि हिंदुस्थान छोड़ने से पूर्व वे हम लोगों की इस संयुक्त माँग के लिए ही क्या रुके हुए हैं और क्या उस प्रकार का लिखित प्रमाण प्राप्त होते ही वह तत्काल चले जाएँगे? मैं एक बार पुनः जोर देकर आप से कहना चाहूँगा कि कांग्रेस, हिंदू सभा तथा लीग इन सभी के मिलकर देश के करोड़ों लोगों के हस्ताक्षर द्वारा एक साथ संयुक्त माँग करने पर ब्रिटेन स्वतंत्रता नहीं देनेवाला। कांग्रेस तथा लीग द्वारा एक होकर कोई भी माँग करने पर उसे पूरा किया जाएगा इस भ्रांत समझ के कारण ही लीग को अवास्तव महत्त्व दिया जा रहा है।

यह महत्त्व अब सभी मर्यादाओं को पार कर चुका है। लीग व कांग्रेस एक होकर तथा संपूर्ण हिंदुस्थान उठकर इंग्लैंड में पहुँचकर स्वातंत्र्य के लिए संयुक्त माँग करेंगे तब भी इंग्लैंड कहेगा, 'धन्य! धन्य! बालको! आप सभी बहुत बुद्धिमान हैं। हिंदू-मुसलमान सभी ने एक साथ तथा एक होकर स्वातंत्र्य प्राप्त करने हेतु माँग की, परंतु आप सभी अभी तक निराधार, निःशस्त्र एवं आत्मसंरक्षणार्थ असमर्थ हैं, अतः विदेशी आक्रमण तथा आंतरिक अराजकता से आप लोगों की सुरक्षा करने हेतु ब्रिटेन को आप लोगों पर राज करना अनिवार्य है। संक्षेप में इसका अर्थ है कि जो चीज आप लोग प्राप्त नहीं कर सकते यह स्पष्ट दिखाई देते हुए भी आप लोगों ने उसी के लिए भयंकर सौदा किया है। और यह मूल्य कौन सा है? मातृभूमि तथा पुण्यभूमि का विच्छेदन कर आध्यात्मिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक पुनरुत्थान पर पानी फेरकर पुनः समर्थ बनने की संभावना भी नष्ट करना।'

कुछ समय के लिए यह मान भी लिया जाए कि संस्कृति, स्वाभिमान तथा भविष्य इनका भयंकर मूल्य देकर आप लोगों को स्वराज्य प्राप्त भी हो जाता है तो वह मुसलमानों की शर्तों पर प्राप्त करना होगा। फिर उसका स्वरूप क्या होगा ? हिंदुओं के हिंदुत्व की रक्षा वहाँ नहीं की जाएगी। यह बात मैं पूर्व में बता चुका हूँ। यह बात कहने की आवश्यकता नहीं है कि प्रांतिक स्वयं निर्णय की बात को मान्यता प्रदान कर प्राप्त होनेवाला स्वातंत्र्य उतना ही शाश्वत होगा जितना ज्वालामुखी के मुँह पर बना कोई घर शाश्वत होता है।

वाइसराय का भाषण तथा उसके दोष

मैं इस बात से प्रसन्न हुआ कि वाइसराय ने अपने भाषण में हिंदुस्थान की अखंडता पर जोर दिया और व्यावहारिक राजनीति की दृष्टि से राजनीतिक एकता की सुरक्षा करने हेतु आग्रह प्रतिपादित किया। राष्ट्रसंघ ने अपने एक पत्रक में अल्पसंख्यकों को उचित संरक्षण देना चाहिए ऐसा कहते हुए इन बंधनों का स्वरूप क्या होना चाहिए इस विषय पर स्पष्टतः टिप्पणी की है, परंतु संरक्षक बंधनों के लिए वाइसराय ने एक गलत विशेषण का प्रयोग किया है। न्याय्य तथा संरक्षण बंधन न कहते हुए उन्होंने इन्हें अल्पसंख्यकों को पूर्णतः संतुष्ट करनेवाले बंधन' कहा है। उचित बंधनों को निश्चित रूप देने हेतु हिंदू सभा सदैव तैयार है तथा पारसी, ज्यू, क्रिश्चियन आदि संरक्षक बंधनों से संतुष्ट हैं। प्रश्न है केवल मुसलमान अल्पसंख्यकों का तथा इन मुसलमानों को भी पूर्णत: संतुष्ट करनेवाले बंधन' ऐसा शब्द प्रयोग करने से वाइसराय के भाषण का महत्त्व पूर्णत: नष्ट हो चुका है। क्योंकि देश की अखंडता पर आघात किए बिना मुसलमानों को संतुष्टि नहीं होगी, यह उन्होंने स्पष्ट किया है तथा उन्हें संतुष्ट कर देश का अखंडत्व बनाए रखने की बात करना निरर्थक प्रतीत होता है। इस प्रकार हम लोगों को चक्रव्यूह में फँसाना ही होगा। अपनी कन्याओं के बड़ा होने पर उनके शील को कोई हानि न हो इसलिए उन्हें जन्मते ही मार डालने की प्रथा किसी एक जाति में प्रचलित है। उसी प्रकार मुसलमानों को संतुष्ट करने के लिए हिंदुस्थान की अखंडता बनाए रखने हेतु हिंदुस्थान का विभाजन करने का उपाय करने जैसी ही वह बात है।

अतः इस विवेचन के पश्चात् जो कोई मुक्त मन से विचार करेंगे उनकोसमझ में यह बात आ जाएगी कि प्रांतिक स्वयं निर्णय अथवा पाकिस्तान को मान्यता देने से हिंदू-मुसलमानों को एकता नहीं होगी बल्कि हिंदुओं को अधिक बड़े संकट का सामना करना पड़ेगा। कोई भी सुविधा देने से हिंदू-मुसलमानों की "स्थायी एकता होगी, यह आशा करना नादानी है। जब आप लोग शरणागति की वृत्ति का त्याग नहीं करते तब तक हिंदुस्थान पर आक्रमण करने की आकांक्षा में कमी करने की मूर्खता मुसलमानों के द्वारा नहीं की जाएगी। काफिरों पर आक्रमण करना उनका एक मूल गुण है। पूर्व में किए गए आक्रमण तथा मुहिमों की तुलना में अपने प्रतिपक्ष से अपनी क्षति अधिक होगी यह बात जब तक उनकी समझ में नहीं आती तब तक इस वृत्ति को नष्ट करना संभव नहीं दिखाई देता।

अपने नेताओं की सभा में भेंट स्वरूप प्राप्त हुई तलवार को हवा में चलाते हुए वै. जिन्ना हिंदुओं को सिकंदर जैसी धमकियाँ देते रहते हैं, परंतु अंग्रेजों को सशस्त्र विद्रोह करने की धमकियाँ नहीं देते, इसका रहस्य यही है कि उसके तत्काल परिणाम बहुत भयंकर होंगे यह बात वे भलीभाँति जानते हैं। परंतु अंग्रेज आज मुगलों की गद्दी पर ही आसीन हैं और संपूर्ण हिंदुस्थान में उन्होंने मुगल साम्राज्य का एक भी अवशेष नहीं रहने दिया है; परंतु इसलिए भी बै. जिन्ना उन्हें धमकियाँ नहीं देते इसका रहस्य भी यही है।

चित्तौड़ के होतातम्य से रायगढ़ की विजय की ओर

हिंदुस्थान के टुकड़े करने के मुसलमानों के प्रयासों के परिणाम कितने भयंकर होंगे यह बात स्पष्ट रूप से कहने का काम यदि कोई संघटित संस्था कर रही है तो वह केवल हिंदू सभा ही है। अब हिंदू सभा ही हिंदुओं की आशा तथा भवितव्य का आश्रय स्थान बनी हुई एकमात्र संस्था है। असंख्य विघटनवादी हिंदुओं के समुदाय में पवित्र हिंदुत्व के सम्मान की रक्षा करने का भार हिंदुत्ववादियों और हिंदू संघटनवादियों के कंधों पर आ पड़ा है। चित्तौड़ में आपात स्थिति में हम लोगों के पूर्वजों ने जिस दृढ़ता एवं साहस से हिंदुत्व की रक्षा की अब वही कार्य करने का दायित्व हिंदू सभा की सेना पर है। आप लोग भी यदि हिंदुत्ववादियों से विश्वासघात नहीं करेंगे तो निकट भविष्य में हम लोग चित्तौड़ के हौतातम्य से रायगढ़ की विजय तक पहुँच जाएँगे, इस बात का विश्वास रखिए और हिंदुत्व की ओर से साहस के साथ यह कहिए कि अमेरिका, जर्मनी, चीन तथा अन्य किसी भी राष्ट्र के समानहिंदुस्थान में हिंदू ही राष्ट्र हैं तथा अन्य लोगों के समान मुसलमान अल्पसंख्य ही हैं। अत: जिन संरक्षक बंधनों से अन्य अल्पसंख्यक संतुष्ट हैं वही बंधन मान्य करते हुए राष्ट्रसंघ द्वारा बताई गई योजना में सुविधानुसार थोड़े से परिवर्तन कर दिए गए, बंधन मान्य करते हुए ही मुसलमानों को यहाँ रहना चाहिए। केंद्रीय अथवा प्रांतिक शासन में सम्मिलित होने के लिए किसी भी जाति को हिंदुस्थान के अखंडत्व को बाधा पहुँचानेवाली कोई भी शर्त रखना संभव नहीं होगा। किसी भी प्रांत को हिंदुस्थान के केंद्रीय शासन से पृथक होने का अधिकार नहीं है। हिंदुस्थान को राष्ट्र के रूप में स्वयं निर्णय का अधिकार है, परंतु किसी प्रांत को, जिले को अथवा तहसील को स्वयं निर्णय की ओर संकेत करते हुए पृथक् होकर बाहर निकलने का अधिकार नहीं है।

'एक व्यक्ति एक मत' यह सर्व सामान्य नियम हिंदुस्थान के प्रत्येक नागरिक के लिए लागू होगा। एक कदम आगे बढ़कर जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व इतनी ही बात मुसलमानों की इच्छा के लिए मान्य की जाएगी। हम लोगों को यह ज्ञात है कि पारसी, क्रिश्चियन तथा अन्य अल्पसंख्यक जमातों द्वारा एकात्मक, अखंड तथा अविभाज्य हिंदुस्थान राष्ट्र का समर्थन किया गया है तथा वे लोग हिंदुओं के कंधे से कंधा मिलाकर भारतीय स्वतंत्रता के लिए प्रयास करने के लिए तैयार हैं। मुसलमानों को भी अपने हित के लिए यही भूमिका स्वीकार कर लेनी चाहिए। परंतु कांग्रेस की भ्रांत राष्ट्रीयत्व की भूमिका ही सभी हिंदुओं की भूमिका है ऐसा मानकर मुसलमान यदि अपनी पाकिस्तान की अथवा प्रांतिक स्वयं निर्णय की अपमानकारक व विश्वासघात करनेवाली माँग पर अड़े रहेंगे तो हम हिंदू संघटनवादियों को हिमालय के उच्च शिखर से अपनी घोषणा की गगनभेदी स्वर में गर्जना करनी चाहिए।

'आप लोग साथ देंगे तो आपको साथ लेकर, नहीं साथ देंगे तो आप लोगों के बिना अथवा आप लोग यदि विरोध करेंगे तो आप लोगों का विरोध करते हुए हम लोग हिंदुस्थान की अखंडता तथा स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करते रहेंगे।'

नीग्रोस्तान का कोई आंदोलन जिस प्रकार अमेरिका कुचल देगा उसी प्रकार हिंदुस्थान के विभाजन का कोई भी आंदोलन विश्वासघात तक होने के कारण निष्ठुरता से दबा दिया जाएगा तथा हिंदुस्थान का अखंडत्व और उससे प्राप्त हुआ सामर्थ्य स्थिर रखा जाएगा। इस प्रकार का निश्चय हिंदुओं द्वारा किया जाना चाहिए।

हिंदुओं के इतिहास का उदाहरण

सभी सिद्धांत सर्वसामान्य निरीक्षणों पर ही आधारित रहते हैं। हिंदुओं केइतिहास का अध्ययन करने पर यही बात दिखाई देती है कि हिंदू राष्ट्र में पुन के लिए आश्चर्यजनक सामर्थ्य विद्यमान है। अहिंदुओं के पराकोटि के प्रयासों के फलस्वरूप हिंदू राष्ट्र के नष्ट होने का समय आ चुका है ऐसा आभास जब भी हुआ तब प्रबल हिंदू राष्ट्र का पुनर्जन्म होता है। हिंदुओं का पुनरुत्थान होता है। पौराणिक उदाहरण इस प्रकार से दिया जा सकता है कि भयंकर अंधेरी रात में श्रीकृष्ण का जन्म हुआ। एक अवतार ने जन्म लिया। यही सूत्र हिंदू राष्ट्र के जीवन में भी दिखाई देता है। हिंदू राष्ट्र की विशेष बात यही है कि इसी आत्मिक बल पर सभी ओर अहिंदू प्रवृत्तियों की शक्ति वर्तमान समय में भी हिंदू राष्ट्र का अस्तित्य बना रहा मैं कोई निराधार कथाएँ नहीं कह रहा हूँ। पुराणों के समय से केवल हूण अथवा शकों का काल वर्ज्य करते हुए हम लोग मुसलमानों के समय का भी विचार करें तो यही सूत्र सर्वज्ञ दिखाई देता है। विश्वसनीय हिंदू इतिहास से भी यही निष्कर्ष निकाला जा सकता है।

मुसलमान यहाँ विजेता के रूप में आए थे, परंतु अधिक समय बीतने से पूर्व ही हजारों रणक्षेत्रों में उन्हें हिंदुओं द्वारा पराजित किया गया। मुगल साम्राज्य का दीपस्तंभ किसी कच्चे मीनार जैसा धराशायी हो गया। हिंदुओं के विजयी घोड़े अटक से रामेश्वर तक तथा द्वारका से जगन्नाथ तक निर्बाध दौड़ पड़े थे, इस ऐतिहासिक सत्य को समझने के लिए निम्न दो चित्रों का अवलोकन करें।

सन् १६०० के हिंदुस्थान का मानचित्र (नक्शा) लीजिए। संपूर्ण हिंदुस्थान पर मुसलमानों का राज्य था। संपूर्ण हिंदुस्थान नष्ट हो चुका था तथा एक-दो प्रांत में ही नहीं, सभी प्रांतों में पाकिस्तान स्थापित हो चुका था।

बाद के सन् १७०० से १७९८ तक के हिंदुस्थान के मानचित्र पर दृष्टिपात कीजिए। अब आप लोगों को क्या दिखाई देगा? संपूर्ण हिंदुस्थान में हिंदू सेनाओं का संचरण हो रहा है। मराठों के सेनापति सदाशिवराव भाऊ ने दिल्ली तख्त को हथौड़े से तोड़कर उसके टुकड़े कर दिए हैं। अंत में हिंदू-सिख भ्रातृभाव के कारण पंजाब भी मुसलमानों की दासता से मुक्त किया गया तथा तिब्बत से काबुल की सीमा तक हिंदुओं का राज्य बन गया। नेपाल में हिंदू गुरखाओं का राज्य था। मराठों ने दिल्ली से रामेश्वर तक की प्रत्येक राजधानी में हिंदू ध्वज फहराया। मुसलमानों द्वारा प्रत्यक्ष रूप से प्रस्थापित पाकिस्तान दफना दिया गया तथा हिंदुओं का पुनर्जन्म हुआ हिंदुओं का पुनरुत्थान हुआ। विजयी मुसलमान इस पुनरुत्थान के कारण इतने भयभीत हो गए कि उन्हें अपने भविष्य की चिंता सताने लगी। इस चिंता से वे लोग काँपने लगे।

यदि मुसलमान इस ऐतिहासिक सत्य का महत्त्व समझ जाएँगे तो उनकेलिए यह लाभदायक होगा। संपूर्ण हिंदुस्थान को पाकिस्तान में बदल देने के पश्चात भी उन्हें दुर्भाग्य से आज का दिन देखना पड़ा। इस बात को उन्हें महत्व देना पड़ेगा। यदि वर्तमान स्थिति में भी वे लोग पाकिस्तान बनाने पर अड़े रहेंगे तो भविष्य में उन्हें किन बातों का सामना करना पड़ेगा इसका विचार उन्हें स्वयं ही करना होगा।

हिंदूनिष्ठों पर पड़नेवाला कर्तव्यों का भार

हिंदू महासभावादियों को यह ध्यान में रखना होगा कि पाकिस्तान की स्थापना के लिए मुसलमान विद्रोह करने की जो धमकियाँ दे रहे हैं उस विद्रोह का अर्थ कुछ भी हो, परंतु पाकिस्तान की प्रस्थापना के किसी भी प्रयास का विरोध तथा प्रतिकार करने का संपूर्ण भार तथा यशापयश का पूरा श्रेय उन्हें ही लेना होगा। यह मत भूलिए कि कांग्रेसवाले भ्रांत राष्ट्रीयत्व के समर्थक हिंदू-मुसलमानों की शरण में चले जाएँगे तथा केवल तटस्थ नहीं बने रहेंगे इसकी भी संभावना है और आप लोगों से संघर्ष भी करेंगे। अतः हिंदुस्थान की इस अखंडता के लिए होनेवाली लड़ाई के लिए आप हिंदूनिष्ठ लोगों को अपने सारे सामर्थ्य का संचय करना चाहिए। आप लोगों में विद्यमान इस निष्ठा में किंचित् भी कमी न होनी चाहिए। हिंदुस्थान का विभाजन होने के पश्चात् प्राप्त होनेवाला स्वराज्य किसी काम का नहीं रहेगा।

ब्रिटिशों का राज्य जिस प्रकार हम लोगों पर थोपा गया उसी प्रकार विभाजन का यह स्वराज्य भी हम लोगों पर थोपा जा सकता है। परंतु अंग्रेजी राज्य हम पर थोपा गया था इस कारण से हम लोगों को अंग्रेजों से स्वतंत्रता प्राप्त करने के प्रयास बंद नहीं करने पड़े उसी प्रकार स्वयं होकर बरसात में उगनेवाले कुकुरमुत्तों के समान बननेवाली विविध योजनाओं में किसी से प्रभावित नहीं होने तथा पितृभूमि की स्वतंत्रता तथा अखंडता की दोनों माँगों के लिए हम लोग संघर्ष कर सकेंगे तथा स्वयं के सामर्थ्य पर इन्हें प्राप्त भी कर लेंगे- ऐसा विश्वास कीजिए।

वर्तमान जागतिक युद्ध

ये सभी आंदोलन जागतिक युद्ध के उपांगों के समान हैं । उस प्रमुख समस्या पर ऐसा कहा जा सकता है कि जब तक मित्र राष्ट्र अथवा संयुक्त मोरचे को निर्विवाद यश प्राप्त नहीं होता तब तक हम लोगों के हिंदुस्थान जैसी जिनकी अवस्था है उन राष्ट्रों की नीति इस प्रकार की होनी चाहिए कि आँख भर देखते हुए सुसंघटित होकर, तटस्थ रहकर युद्ध का निर्णय क्या होता है। यह देखते हुए जो भी कुछ होगा उसमें लाभ उठाना हम लोगों के राष्ट्र को किस प्रकार संभव होगा, यहदेखकर उसके अनुसार कदम बढ़ाना चाहिए।

इस प्रकार युद्ध की स्थिति अनिश्चित है। पाकिस्तान आंदोलन का विरोधअकेले ही करने का प्रसंग कब उपस्थित होगा यह कहना संभव नहीं है। केवल अपने सामर्थ्य से इस जागतिक युद्ध में सम्मिलित होकर स्वयं स्वतंत्रता प्राप्त करने की शक्ति हम लोगों के पास आज नहीं है। इस स्वेदजनक वास्तविकता समय तथा इस स्थिति में हिंदू संघटनावादियों को किसी भी प्रकार का निर्णय न लेते हुए निम्न नीति पर चलना ही दूरदर्शिता होगी।

हिंदुत्वनिष्ठों के लिए कार्यक्रम

1. हिंदुओं का सैनिकीकरण सौ गुना अधिक जोर से करना चाहिए। इसलिए सेना, नौदल, विमान दल, गोला-बारूद के कारखानों आदि में अधिकाधिक संख्या में प्रविष्ट होना आवश्यक है। यह आंदोलन इतना यशस्वी बन चुका है कि उनका समर्थन करने हेतु कुछ नई बात कहना अब अनावश्यक प्रतीत होता है। युद्ध के प्रारंभिक समय में मुसलमानों की संख्या सेना में ९२ प्रतिशत तक घातक पद्धति से बढ़ा दी गई थी। गांधीजी की ही शिक्षा का यह परिणाम है। सैनिक एक शैतान है और सूत कातनेवाला एक वास्तविक आध्यात्मिक सैनिक है तथा वह अपने बल पर हिटलर, स्टालिन, चर्चिल, तोजो आदि का मत परिवर्तन करेगा। यह गांधीजी की शिक्षा थी। परंतु थल, जल तथा वायु सेनाओं के एवं कारखानों के दरवाजे खोल देने पर अंग्रेजों को इस युद्ध के कारण बाध्य होना पड़ा। यह देखते ही हिंदू महासभा ने हिंदुओं के सैनिक गुणों का आह्वान किया तथा सेना की विविध शाखाओं में हजारों हिंदुओं को प्रविष्ट कराया। इसके परिणामस्वरूप मुसलमानों की संख्या ९२ प्रतिशत से घटकर ३२ प्रतिशत हो गई। यह संख्या २५ प्रतिशत नीचे लाना आवश्यक है।

क्योंकि हिंदुस्थान में मुसलमानों की संख्या भी २५ प्रतिशत ही है। सभी साहसी तथा एकनिष्ठ हिंदुओं को सेना में भेजने हेतु सभी स्थानों की हिंदू सभाओं को सैनिकीकरण समितियों की स्थापना करनी चाहिए। इस प्रकरण में जो भी आदर्श दीख पड़ता हो, तो उसे पुणे की सैनिकीकरण समिति के कार्य का अध्ययन करना चाहिए। इस शाखा का कार्य हिंदू महासभावादी नेता माननीय ल.ब. भोपटकर के मार्गदर्शन में चल रहा है। इस समिति के माध्यम से सैकड़ों हिंदू युवकों ने वाइसराय तथा किंग्ज कमीशन प्राप्त किए हैं। ये हिंदू युवक अनेक रणक्षेत्रों में ज्ञान प्राप्त करतेहुए यशस्वी नेतृत्व कर रहे हैं। विमान दल के विषय में भी ऐसा ही कहना संभव है। युद्ध के पश्चात् भी यह सैनिकीकरण आंदोलन हिंदुस्थान के लिए सर्वाधिक उपयोगी सिद्ध होगा। यह बात निश्चित रूप से समझ लेना आवश्यक है। आज सेना में नाविक दल अथवा विमान दल में कार्यरत प्रत्येक हिंदू युवक को मैं आश्वस्त करना चाहूँगा कि उसका यह कार्य देशभक्ति की दृष्टि से कारावास से अधिक न सही, पर कारावास के समतुल्य अवश्य है। इसके अतिरिक्त जब तक ब्रिटिश सेना युद्ध में टिकी हुई है तब तक अपने घर-मकानों की सुरक्षा की दृष्टि से उनसे सहयोग करना भी आवश्यक है।

2. स्थानिक स्वराज्य विधिमंडल, संरक्षण समितियाँ, मंत्रिमंडल अथवा सत्ता केंद्रों पर अधिकार करना संभव हो, उनपर हिंदुओं को अपना अधिकार जमाना चाहिए। सत्ता केंद्रों पर हिंदू महासभाओं की ओर से चुने हुए व्यक्ति अथवा हिंदू महासभा का समर्थन जिन्हें प्राप्त है ऐसे व्यक्तियों को ही रखना चाहिए। हिंदुओं को अपना प्रतिनिधित्व करने का अवसर भ्रांत राष्ट्रीयत्व के अनुयायियों को-जो हिंदू हित घातक हिंदू हैं-कदापि नहीं देना चाहिए। क्योंकि ऐसा व्यक्ति मुसलिम आक्रमण से हिंदू हितों की रक्षा करने के बजाय हिंदुओं के अधिकारों के साथ विश्वासघात करने में ही गौरव का अनुभव करता है।

3. आप लोग अपना उत्साह तथा अपना हिंदू संघटनवादी का सामर्थ्य किसी भी निस्सार घोषणानिष्ठ आंदोलन में खर्च मत कीजिए, क्योंकि घोषणाओं से वास्तविक सामर्थ्य का महत्त्व अधिक होता है। विश्व में आज युद्ध का वातावरण बना हुआ है। इस समय केवल भावनोद्दीपक घोषणाओं द्वारा कुछ भी कार्य नहीं किया जा सकता। सभी घटनाएँ शस्त्रों द्वारा ही होती हैं। इसका पूरा ध्यान रखिए।

4. अस्पृश्यता निवारण का कार्य जितना सुलभ है उतना ही हिंदू संघटन में वृद्धि करनेवाला भी है यह बात कदापि न भूलिए । पाँच वर्षों के दीर्घ समय में हम लोगों ने अस्पृश्यता को नष्ट कर दिया तथा कुछ धर्म-बांधवों को जिन कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है, उन्हें समाप्त कर दिया तो यह कार्य रणक्षेत्र में विजय प्राप्त करने जैसा ही महत्त्वपूर्ण होगा । ऐसा करना प्रारंभ में असंभव प्रतीत होगा, परंतु मनःप्रवृत्ति परिवर्तित होने पर यह कार्य सहजता से पूरा हो सकता है । यदि प्रत्येक हिंदू सभावाला ऐसा कहेगा कि मेरे धर्म-बंधुओं से किसी को भी मैं किसी विशिष्ट जाति में जन्म लेने के कारण अस्पृश्य नहीं मानूँगा तो एक पाई भी खर्च किए बिना इस समस्या का समाधान प्राप्त हो सकता है तथा करोड़ों हिंदू बंधु हिंदू ध्वज के मान की रक्षा के लिए हम लोगों से कंधा मिलाते हुए सत्य संघर्ष करना प्रारंभ करेंगे।

जब तक वर्तमान युद्ध ने कोई निर्णायक स्वरूप धारण नहीं किया है तब तक अथवा हम लोगों की पितृभूमि के संबंध में कोई भी क्रांतिकारी युद्ध घटना नहीं घटी है तब तक रणनीति की दृष्टि से उपरिनिर्दिष्ट कार्यक्रम ही हिंदू सभावादियों व हिंदू संघटकों को चलाना चाहिए।

हिंदुस्थान का सार्वभौमत्व युद्ध में विजयी ब्रिटेन के पास ही होगा, इस विचार से उन्होंने अपने आज के सभी कार्यक्रम निश्चित किए हैं। यह बात अलग से बताने की आवश्यकता नहीं है। इस भूमिका को ठेस लगनेवाली कोई घटना अभी तक नहीं घटी है। परंतु हिंदुस्थान की पूर्व सीमा पर जापानी सेना आज भी खड़ी है और उनकी अभी तक किसी प्रकार की पीछे हटने की बात भी दिखाई नहीं दे रही है तथा मित्र राष्ट्रों को असंतुष्ट राष्ट्रों ने इस प्रकार घेर लिया है कि कोई भी कूटनीतिज्ञ, सेनानी अथवा सर्वाधिकारी इस युद्ध का निश्चित अंत किस प्रकार होगा इस बारे में भविष्यवाणी नहीं कर सकता। इस प्रकार की स्थिति में युद्धरत राष्ट्रों में किसी भी एक प्रबल राष्ट्र से जिसका भविष्य जुड़ा है ऐसे हिंदुस्थान जैसे राष्ट्र को हवा का रुख देखकर उसका सामना करने की नीति का ही अवलंबन करना चाहिए।

क्रांतिकारी भवितव्य का सामना करने की सिद्धता

भविष्य के पासे रणांगण पर निडरतापूर्वक फेंके गए हैं। अभी राष्ट्रों के भवितव्य अधर में लटके पड़े हैं। महासागरों में आग लगी हुई है तथा पूरी रात नभ में चमक दिखाई देती है। इस युद्ध के पश्चात् कोई भी राष्ट्र पूर्ववत् नहीं रह पाएगा। वैभव के शिखर पर आसीन अनेक राष्ट्र मिट्टी में मिल जाएँगे तथा मिट्टी में पड़े हुए अनेक राष्ट्रों को पल भर में अपना पूर्व वैभव प्राप्त करने का अवसर मिलेगा।

विश्व की पूरी स्थिति क्रांतिकारी रूप में परिवर्तित होगी, परंतु यह सब अभी तक रणचंडी के अधीन है। इसी क्रांति में हम लोगों के भविष्य के बीज भी पड़े हुए हैं। यह निर्विवाद है, परंतु इन बीजों का स्वरूप आज हम लोगों को ज्ञात नहीं है। इस क्रांति की क्या-क्या संभावनाएँ हैं, इसका पूरा विचार लोगों ने किया है-इसपर विश्वास करें।

इस बात को निश्चित रूप से समझ लीजिए कि किसी भी क्रांतिकारी परिवर्तन का फिर वह अभी हो जाए अथवा कुछ समय बाद हो, विचार तथा सिद्धताहिंदू सभा द्वारा किया जा चुका है।

अब तक के हिंदू इतिहास में जिस प्रकार अवतारों द्वारा हिंदुओं का पुनरुत्थान होता था उसी प्रकार कोई अवतार हिंदुओं का पुनरुत्थान कर सकता है और सभी अहिंदू सामर्थ्य से टक्कर लेते हुए पुनः अपने पूर्व वैभव को प्राप्त कर लेंगे ऐसी प्रबल संभावना दिखाई दे रही है। अत्यधिक चुनौती के समय ही अवतार उत्पन्न होते हैं।

संभावना के विषय में बुद्धिमान लोगों को कभी भी निश्चयपूर्वक कोई बात नहीं करनी चाहिए। उन्हें अपने राष्ट्र-सामर्थ्य में वृद्धि करते हुए उसे बनाए रखना चाहिए तथा इसलिए उसमें कम-अधिक होने की बात पर ध्यान रखना चाहिए एवं अवसर प्राप्त होते ही उसे पाने के लिए सदैव सजग रहना चाहिए।

किसी भी स्थिति में हिंदू संघटन के ध्येय से जुड़े रहिए। वही आपकी रक्षा करेगा तथा भविष्य का सामना करने में आपको समर्थ बनाएगा। उसका सूत्र है हिंदुओं का सैनिकीकरण तथा राजनीति का हिंदूकरण !!

अखिल भारतीय हिंदू महासभा का पच्चीसवाँ वार्षिक अधिवेशन,अमृतसर

(विक्रम संवत् २०००,सन् १९४३)

लगातार सात बार अध्यक्ष के रूप में चुने जाने के बाद भी अधिकाधिक क्षीण स्वास्थ्य के कारण वीर सावरकर इस अधिवेशन में उपस्थित भी न हो सके। उन्हें अपना भाषण लिखना भी संभव नहीं हुआ। अध्यक्षीय कार्य के बढ़ते बंधन से मुक्त कर देने की बात कहते हुए उन्होंने इस कार्य की धुरी किसी अन्य समर्थ व्यक्ति के कंधों पर देने का अनुरोध किया था तथा सन् १९४३ में ही अपने पद से त्यागपत्र से दिया था, फिर भी जनता ने उन्हें ही पुन: चुना। परंतु सन् १९४४ में स्वास्थ्य अत्यधिक बिगड़ जाने के कारण आगामी अधिवेशन के लिए डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी को ही सब लोगों द्वारा अध्यक्ष चुनना चाहिए। इस आशय का एक बिनती पत्र प्रकाशित किया। वीर सावरकर के त्यागपत्र के संबंध में उनके अशेष अध्यक्षीय भाषण के तीन वक्तव्य इस संकलन व ग्रंथ के समारोप के लिए अधिक उचित हैं।

पत्र क्रमांक - १

हिंदू महासभा के अध्यक्षीय पद का मेरा छठा वर्ष भी समाप्त हो रहा है। अतः मेरा अध्यक्ष पद से त्यागपत्र देने का निर्णय प्रकाशित करने का समय आ चुका है। इस कारण आगामी वर्ष के अध्यक्षीय चुनाव में मेरा नाम प्रथम समय के मतदान के लिए भी न रखते हुए इस कार्य से मुझे मुक्त किया जाए, ऐसा मेरा अनुरोध है। महासभा के मतदाताओं के उनके नेता चुनने के अधिकार पर किसी भी प्रकार का दबाव न डालते हुए मैं यह प्रार्थना कर रहा हूँ।

छह वर्षों तक अध्यक्ष पद की धुरा का वहन करते हुए मेरे स्वास्थ्य पर जो प्रभाव पड़ा है उससे यह कार्य मेरी सामर्थ्य के परे है मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है। मैंनेइससे पूर्व भी त्यागपत्र प्रेषित कर आप लोगों को यह सूचित किया था कि मुझे ही पहल करते हुए अपने समर्थ सहकारियों से आगामी वर्ष के लिए हिंदू सभा का अध्यक्ष पद देने हेतु मतदाताओं की सहायता करनी होगी।

इस त्यागपत्र को मेरा अंतिम त्यागपत्र माना जाए, परंतु में यह बात स्पष्ट करना चाहूँगा कि मैंने प्रथम बार यह त्यागपत्र नहीं दिया है । अगस्त १९४० में मैं गंभीर रूप से अस्वस्थ था तथा उसी समय मदुरै में होनेवाले सम्मेलन के लिए मुझे अध्यक्ष बनाया गया। वह त्यागपत्र देने का प्रथम अवसर था, परंतु अखिल हिंदुस्थान के हिंदू संघटनी लोगों के प्यार व आग्रहपूर्वक अनुरोध के कारण मदुरै की स्वागत समिति के इस कथन पर कि यदि आप अध्यक्ष पद स्वीकार नहीं करेंगे तो अधिवेशन सफल होना संभव नहीं है' मैंने चतुर्थ समय भी अध्यक्ष पद स्वीकार कर लिया। उस समय अधिवेशन में जाते समय तथा वहाँ से लौटते समय मुझे खाट पर ही सोना पड़ता था। सन् १९४१ में मैंने दूसरी बार त्यागपत्र दिया, परंतु सर्वसम्मति से मैं पाँचवीं बार अध्यक्ष पद पर चयनित हुआ। वह समय भागलपुर के संघर्ष का समय था। भागलपुर के निःशस्त्र प्रतिकार आंदोलन के लिए मुझे सर्वाधिकार प्रदान किए गए। उस संघर्ष में जो हजारों हिंदू संघटक योद्धा सम्मिलित होकर एक-दूसरे से स्पर्धा करते हुए लड़ रहे थे उनका नेतृत्व करना स्वीकार करते हुए मैंने कारावास भी भोगा। जुलाई १९४२ में तीसरे समय मैंने पुनः त्यागपत्र दिया, परंतु कार्यकारिणी द्वारा उसे अस्वीकार कर दिया गया तथा मैं जब तक उसे वापस न ले लूँ तब तक आगे कुछ काम न करने का निश्चय प्रकट किया।

इसी समय कांग्रेस ने व्यर्थ में कहना प्रारंभ कर दिया था कि हिंदुस्थान छोड़ दो, परंतु अपनी सेना यहीं रहने दो।' आगे चलकर मेरी समझ में यह बात भी आ गई कि कांग्रेस के दास के रूप में हिंदू महासभा के कार्य न करने का निश्चय करने पर कारागृह से बाहर विद्यमान अनेक कांग्रेसी नेताओं ने हिंदू महासभा पर अधिकार करने का षड्यंत्र रचा। उनकी यह उत्कट इच्छा थी कि कांग्रेस के समान हिंदू महासभा को भी अपनी नाक कटवा लेनी चाहिए तथा पाकिस्तान को कम-से-कम तत्त्वतः मान्यता देनी चाहिए। उस समय मैंने जो तर्क दिए थे उनकी पुष्टि तत्पश्चात् होनेवाली घटनाओं से हो जाती है। समय रहते इस खतरे से हिंदू सभा को दूर रखने, उस भयसूचक घंटे का निनाद भरतखंड में फैलाने तथा इस षड्यंत्र को नष्ट करने हेतु ही मैंने त्यागपत्र न देने का निश्चय किया अपितु मैंने चुनाव लड़ने का भी निश्चय किया। गत छह-सात वर्षों में मैं प्रत्यक्ष चुनाव में प्रथम बार ही खड़ा हुआ। हिंदू महासभा के मतदाताओं के बुद्धिनिष्ठ एवं प्रेमनिदर्शक समर्थन के कारण पुनः लगभग सर्वसम्मति से छठवीं बार मैं अध्यक्ष पद के लिएचुना गया। कानपुर अधिवेशन में केवल पाकिस्तान की योजना के विरोध में ही नहीं अपितु मध्यमवर्ती शासन से पृथक होने के प्रांतिक स्वयं निर्णय के अधिकार का भी विरोध करनेवाला प्रस्ताव पारित हुआ। हिंदुओं के सैनिकीकरण आंदोलन को अपूर्व समर्थन प्राप्त हुआ तथा हिंदू सभा का कांग्रेसीकरण करने की कल्पना को दफना दिया गया। इससे सी. राजगोपालाचार्य जैसे बड़े कांग्रेसी आधारस्तंभ भी हिल गए। सी. राजगोपालाचारी ने खेद प्रकट करते हुए कहा, 'हिंदू-मुसलमान एकता निर्माण करने हेतु पाकिस्तान को मान्यता देने की मेरी योजना के प्रति हिंदू महासभा के कुछ नेता, जिनकी संख्य अत्यल्प थी, सहानुभूति प्रकट करते थे, वे भी कानपुर अधिवेशन के पश्चात् जन कोलाहल (Crowd Psychology) की विचारधारा के बलि बन गए।

उपरिनिर्दिष्ट विवेचन से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि दूसरे परिच्छेदों में दिए गए कारणों के लिए अध्यक्ष पद का यह दायित्व अब उतार देने का निश्चय मैंने कई बार किया है, परंतु आज त्यागपत्र देने का मेरा निर्णय अंतिम तथा निश्चित है। इतना दीर्घ स्पष्टीकरण देने का एक ही कारण है। मेरे इस त्यागपत्र के लिए उपरिनिर्दिष्ट कारणों के अतिरिक्त कुछ अन्य कारण भी हो सकते हैं ऐसी गलत धारणा न बने तथा कपट से किसी व्यक्ति द्वारा आप लोगों का बुद्धि भेद करने का प्रयास न किया जाए और ऐसा किया जाने पर आप लोग उसमें विश्वास न करें इसी दृढ़ धारणा से मैंने ऐसा किया है। मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि आज हिंदू महासभा संस्था पूर्व की तुलना में अधिक प्रबल हुई हैं, विचारधारा में भी अधिक समर्थ है तथा अनुप्राणित हो चुकी है। अतः इस समय में त्यागपत्र देने का निश्चय कर चुका हूँ। संपूर्णत: पूर्वदूषित तथा विरोधी दृष्टिकोण से विचार करनेवाले प्रा. कूपकांड क्रिप्स प्रतिनिधि मंडल के एक सदस्य थे। उन्होंने 'क्रिप्स मिशन' नामक अपनी नई किताब में लिखा है कि 'हिंदू महासभा लड़ाकू हिंदुओं की एक मजबूत संघटना है तथा सदस्य संख्या एवं सामाजिक प्रभाव की दृष्टि से वह तेजी से आगे बढ़ रही है।"

यह त्यागपत्र प्रेषित करते समय मुझे इस बात का विशेष हर्ष हो रहा है कि त्यागपत्र देने के इस समय पर हिंदुस्थान हिंदू संघटक जगत् में मेरे प्रति संपूर्ण विश्वास तथा प्रेमयुक्त आदर है। मेरी साठवीं वर्षगाँठ पर गत माह में आयोजित समारोह में लाखों देश-बांधवों तथा धर्म-बांधवों ने हिस्सा लिया। संपूर्ण हिंदुस्थान के नगरों में और गाँवों में आयोजित हजारों सभाएँ, स्थानिक विधिमंडल, समितियाँ तथा वाड्मय केंद्र एवं धार्मिक संस्थाओं के द्वारा दिए गए मानपत्र, हिंदू सभा के अधिकृत सदस्य अथवा सदस्य न रहनेवाले अनेक नेताओं शुभ चिंतन पर संदेश,राष्ट्र के प्रमुख नियतकालीनों के विशेषांक तथा समाचारपत्रों के अग्रलेख आदि सभी के द्वारा हिंदुत्व के लिए मैंने जो अल्प कार्य किया है उसकी प्रशंसा प्रेमपूर्ण शब्दों में व्यक्त की गई है। मुझमें तथा में जिस हिंदू संघटन के बारे में बात करता हूँ उसमें असीम विश्वास तथा अपने भविष्य संबंधी दुर्दम्य आशा होने का आश्वासन उनसे प्राप्त हुआ है।

अखिल भारतीय हिंदू संघटक जनता द्वारा उसी प्रकार मेरे सहयोगियों, मित्र आदि ने मेरे प्रति असीम प्रेम दरशाया तथा आदर और विश्वास प्रकट किया, मेरे दोष दुर्लक्षित कर सहनशीलता का प्रदर्शन किया, इसके लिए मैं इन सभी का विनयपूर्वक आभार मानता हूँ।

मुझे यह प्रतीत नहीं होता कि मैंने अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दिया है, परंतु मेंहिंदू महासभा के सर्वसाधारण सैनिकों में से एक सेवक बनकर हिंदुत्व की प्रगतिके लिए चलाए जा रहे आंदोलन में तन-मन-धन से सम्मिलित नहीं हो सकूँगा।

हिंदू सभा चिरायु हो!

हिंदू राष्ट्र चिरायु हो !

- वि. दा. सावरकर

सावरकर सदन

अध्यक्षीय कार्यालय

मुंबई- २८

दिनांक ३१.७.१९४३

पत्र क्रमांक - २

कार्यकारिणी के समक्ष मेरा त्यागपत्र होते हुए भी महासभा के अध्यक्ष पद पर मुझे चुनकर मतदाताओं ने जिस प्रेम, विश्वास तथा मेरे किए हुए काम के प्रति कृतज्ञता प्रत्यक्ष रूप से प्रकट की है इसलिए मैं आभारी हूँ, परंतु मुझे जिस प्रकार का भय था उसी प्रकार मेरा स्वास्थ्य क्रमश: बिगड़ रहा है और गत पंद्रह दिनों से फेफड़ों में विकार उत्पन्न होने से मैं बिस्तर नहीं छोड़ सका हूँ।

चिकित्सकों ने दूर की यात्रा करने पर विशेषत: जहाँ सर्दी का प्रकोप होता है वहाँ की यात्रा करने पर प्रतिबंध लगा दिया है। अत: अमृतसर में आयोजित इस भव्य महोत्सव अधिवेशन में उपस्थित नहीं हो सकूँगा; इसलिए हिंदू संघटनवादियों को मुझे क्षमादान देना चाहिए।

स्वागत समिति तथा कार्यवाह डॉ. मुंजे को मैंने यह बात कुछ समय पूर्व हीबता चुका हूँ। डॉ. मुंजे को सरकार्यवाहक के नाते घटना के अनुसार कार्यकारिणी की सभा नियंत्रित कर इस प्रश्न पर विचार विमर्श करना चाहिए तथा अपने किसी प्रथम श्रेणी के नेता को इस अभिवेशन के लिए अध्यक्ष बनाना चाहिए, ऐसी सूचना मैंने दी है। इस बारे में मेरा व्यक्तिगत मत यह है कि मेरे स्थान पर डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी को कार्यकारी अध्यक्ष के रूप में सर्वसम्मति से चुना जाए। मेरा स्वास्थ्य सुधरकर मूल स्थिति में आने के लिए तथा मुझे पूर्व कार्य करने की शक्ति प्राप्त होने में अधिक समय लगेगा यह ध्यान में रखकर मेरी सूचना पर अमल करना अधिक उचित होगा।

फिर भी कार्यकारिणी का निर्णय अंतिम होगा यथासंभव सभी हिंदू संघटनों को अमृतसर के अधिवेशन में उपस्थित होना चाहिए। अमृतसर की स्वागत समिति द्वारा इस भव्य महोत्सव को यशस्वी बनाने हेतु आवश्यक सभी छोटी-छोटी चीजें अभी से लाकर रखी है। मेरे स्वास्थ्य की इस स्थिति में इस स्थान पर इस अधिवेशन को विशेष महत्व क्यों प्राप्त हुआ है तथा हिंदू राष्ट्र की मानसिक स्थिति में हुई अपूर्व क्रांति का अपूर्व निदर्शन करने हेतु इस भव्य महोत्सवी अधिवेशन में अखिल हिंदू ध्वज के नीचे समस्त हिंदू लोगों को एकत्र होना किस प्रकार आवश्यक है? इसका विस्तृत विवेचन करना संभव नहीं है।

इस अत्यधिक संक्षिप्त पत्र में केवल इतना ही कह सकता हूँ कि यदि समस्त हिंदू लोग पूर्व के इतिहास में सैकड़ों बार जो घटनाएँ हुई उसी प्रकार प्राप्त स्थिति का सामाना करने हेतु दृढ़तापूर्वक खड़े रहेंगे तो किसी अवतार के जन्मदिन के समान हिंदू महासभा का जन्मदिन भी हिंदुओं के इतिहास में नए 'पुगला'- हिंदू युग-का प्रारंभ दिन के रूप में स्वर्ण अक्षरों में लिखे जाने का सुयोग प्राप्त होगा।

-वि.दा. सावरकर

सावरकर सदन

अध्यक्षीय कार्यालय

मुंबई - २८

दिनांक १७.१२.१९४२

पत्र क्रमांक - 3

डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी के आगमन के समय पुणे की स्वागत समिति के प्रमुख धर्मवीर भोपटकर को १.८.१७४४ के दिन अपने मुंबई के अध्यक्षीय कार्यालय से निम्न विद्युत् संदेश वीर सावरकर द्वारा भेजा गया -

'मैं डॉ. मुखर्जी महाशय के सत्कार में सहभागी हूँ। उनके द्वारा की गई असीम सेवा केंद्रीय शासन से पृथक् होने के प्रांतिक स्वयं निर्णय का उनके द्वारा किया गया तीव्र विरोध तथा हिंदुस्थान के विच्छेदीकरण के विरोध करने हेतु व्यक्तकिया हुआ उनका निश्चय आदि के लिए समस्त हिंदू उनके कृतज्ञ हैं। आज हिंदू राष्ट्र के पास सर्वोच्च सम्मानदर्शक जो एकमात्र प्रतीक बचा हुआ है, उस हिंदू महासभा के अध्यक्ष पद का कंटकमय मुकुट आगामी अधिवेशन के समय उनके मस्तक पर रखा जाए यह मेरी व्यक्तिगत इच्छा है।

हिंदू धर्म की जय!

हिंदू राष्ट्र की जय!"

- वि.दा. सावरकर

हिंदू संघटनात्मक नेपाली आंदोलन का उपक्रम

(दूसरी आवृत्ति के बारे में चार शब्द )

जब स्वातंत्र्यवीर सावरकरजी रत्नागिरी में स्थानबद्ध थे तब उनपर राजनीति में हिस्सा लेने पर प्रतिबंध था। यह प्रतिबंध उन्होंने कारावास से मुक्त होने की अपरिहार्य शर्त के रूप में राजनीति की एक युक्ति के रूप में स्वीकार किया था। वीर सावरकरजी की राजनीति के गुप्त और प्रकट दो हिस्से थे। मेरे द्वारा लिखे हुए वीर सावरकरजी के चरित्र के चारों खंडों में मैंने उनकी इस नीति के उदाहरण दिए हैं। इस पुस्तक के नाम में 'हिंदू संघटनात्मक' शब्द में वैसी ही दूरदर्शिता तथा युक्ति है। इस पुस्तक के लेख पढ़कर पाठक तय करें कि मेरा यह मत उचित है या अनुचित इसमें शामिल लेख शालिवाहन संवत् १८४७ से ५२ (सन् १९२५ से ३०) तक के कालखंड में लिखे गए हैं। यह पुस्तक रूप में सर्वप्रथम रत्नागिरी के बलवंत मुद्रणालय में श्री ग.वि. पटवर्धनजी के नाम पर प्रकाशित की गई थी और मुंबई से श्री गणेश दामोदर सावरकरजी के नाम से शालिवाहन संवत् १८५३ (सन् १९३१) में प्रकाशित की गई। पुस्तक की प्रस्तावना भी श्री गणेश दामोदर सावरकरजी के नाम से छापी गई है। राजनीतिक लेख अनाम, उपनाम या दूसरे लेखक के नाम पर प्रकाशित करने के मार्ग सशस्त्र क्रांतिकारियों के प्रेरणास्रोत श्री विनायक दामोदर सावरकरजी उपाख्य तात्याराव सावरकर अनेक बार अपनाते थे। यह पुस्तक भी वैसे ही है। इसमें से कुछ लेख सचमुच ही अन्य लेखकों के हैं। मूल पुस्तक में कुल तैंतीस लेख हैं। उनमें से तीन लेखों पर लेखांक २, २ अ और २ ब लिखा है, इसका अर्थ है दो अधिक हैं। क्रमांक इकतीस परिशिष्ट के रूप में दिया है और उसमें सन् अंग्रेजी में छपे हुए हैं। इन अंग्रेजी लेखों में छपे हुए विधेय मराठी में १९२३ का आंग्ल-नेपाल समझौता मराठी में ही मुद्रित किया है। इनमें से पाँच लेख हैं। वैसे ही मूल पुस्तक में लेख संख्या ७ 'महाराष्ट्र के खत्री नेपाली ही हैं। श्री समाविष्ट होने से मूल अंग्रेजी लेख अथवा उनके अनुवाद लेखों में नहीं लिये गए गोविंद बलवंत वाकलेजी के नाम से छापा हुआ होने के कारण वह भी यहाँ नहीं छापा गया। बाकी बचे हुए लेख श्री वि.दा. सावरकरजी ने ही लिखे हैं, यह समझकर इस पुस्तक में छापे गए हैं। इन लेखों में से कुछ लेखों के अनुवाद देहरादून से प्रकाशित होनेवाले 'तरुण गोरखा' नेपाली वृत्तपत्र में और 'हिमालयन टाइम्स' नामक अंग्रेजी वृत्तपत्र में प्रकाशित होते थे।

अकोला में सन् १९३१ में हिंदी सभा का अधिवेशन हुआ था। उसमें गुरखा संघ के ठाकुर चंदन सिंह के साथ-साथ उस अधिवेशन में रत्नागिरी के हिंदी सभा के डॉ. शिंदे भी उपस्थित थे। अधिवेशन के बाद डॉ. शिंदे, ठाकुर चंदन सिंह और समशेर सिंहजी के 'नेपाल और हिंदू संघटन' विषय पर नागपुर और अमरावती में स्वतंत्र भाषण हुए। उस समय वीर सावरकरजी द्वारा निर्मित कुंडलिनी-कृपाणांकित अखिल हिंदू ध्वज भी फहराया गया था। रत्नागिरी के अखिल हिंदू गणेशोत्सव में ठाकुर चंदन सिंहजी और राणा समशेर सिंह का सम्मान किया गया, उनके भाषण भी हुए उसी २२ सितंबर, १९३१ की सभा में

एक भविष्य के लिए

कोटि-कोटि हिंदू जाति चली रण में

स्वयं मुक्त होकर वह मुक्त करेगी जगत् को

समता के ममता के सृजन रक्षा के लिए

कोटि-कोटि हिंदू जाति रण में चली

यह स्वातंत्र्यवीर वि.दा. सावरकरजी रचित गीत खुलेआम गाया गया। (रत्नागिरी पर्व, पृ. २४६) ।

उसके बाद हिंदू संघटक स्वातंत्र्यवीर सावरकरजी सन् १९३७ में अखिल भारतीय हिंदू महासभा के अध्यक्ष चुने गए। हिंदू महासभा के वार्षिक अधिवेशन के अध्यक्षीय भाषण से आपने नेपाल का प्रश्न निरंतर सामने रखा है। अभी पाँच-छह वर्ष पूर्व नेपाल में विश्व हिंदू महासंघ की स्थापना हुई है। उस महासंघ की कार्यकारिणी का मैं भी एक सदस्य हूँ और महासंघ के नेपाल, प्रयाग, रायपुर, मॉरीशस और लंदन की सभाओं में मैं भी उपस्थित रहा हूँ। नेपाली लोकतंत्र सम्मत नई राज्य घटना में नेपाल हिंदू राज्य है-इस तरह का स्पष्ट उल्लेख किया गया है। राज्य अब आधुनिक से सुसज्जित हो जाए। समृद्ध हो जाए और हिंदू विचारों का प्रभाव दुनिया भर में फैलाने में सफल हो जाए, यही प्रार्थना है।

मकर संक्रांति, युगाब्ध ५०९४ -बाल सावरकर संपादक

१४ जनवरी, १९९३

प्रथम आवृत्ति की प्रस्तावना

हिंदू संगठन की दृष्टि से भारत का अवश्यंभावी भविष्य निर्माण करते समय नेपाल के एकमेव हिंदू राज्य की शक्ति का कितना महान् उपयोग होने डाला है, इस बात की ओर नेपाल के साथ अखिल हिंदू जगत् का ध्यान आकर्षित करने के लिए और अगर संभव हो तो उस दिशा से नेपाल में यह संघटनीय नवचैतन्य का संचार कराकर उस शक्ति को हिंदू भूमि के कार्योन्मुख शस्त्रागार में काम में लाने के उद्देश्य से इस पुस्तक में संकलित लेख गत पाँच वर्षों में समय-समय पर लिखे गए हैं। ये लेख 'स्वातंत्र्य' (नागपुर), 'केसर', 'मराठा' (पुणे), 'श्रद्धानंद' (मुंबई) इत्यादि समाचारपत्रों में प्रकाशित हुए हैं, उन समाचारपत्रों के हम आभारी हैं। इस संकलन के समय हम फिर से उनका मनःपूर्वक आभार प्रदर्शित करते हैं।

इन सबका संकलित समालोचन करने पर यह बात ध्यान में आएगी कि उन लेखों के कारण अवतीर्ण नेपालीय आंदोलन की तीन अवस्थाएँ उसमें प्रतिबिंबित होती हैं। प्रथम, डेढ़-दो वर्षों के लेखों में अखिल हिंदू समाज में नेपाल की समस्या की तीव्र समझ निर्माण की गई है। ये लेख प्रथम महाराष्ट्रीय समाचारपत्रों से प्रकाशित होते थे, अतः यह स्वाभाविक ही है कि यह समझ, यह प्रतीति प्रथमतः महाराष्ट्र को ही हो जाए; और धीरे-धीरे अनेक महाराष्ट्रीय हिंदी सभाओं, संघटनीय समाचारपत्रों और नेताओं ने उसका समर्थन किया हो। दूसरी अवस्था का आरंभ तब हुआ जब नेपाल की समस्या की समझ अखिल हिंदुस्थान में प्रसृत हुई और हिंदी के प्रमुख देशभाषीय समाचारपत्रों से उन नेपालीय आंदोलन के धक्के भारत को लगने लगे तथा हिंदू महासभा और हिंदू राष्ट्र दोनों को नेपालीय शक्ति का यथासंभव उपयोग राष्ट्रीय आंदोलन में कर लेने की उत्कट लालसा उत्पन्न हुई। नेपालीय आंदोलन की तीसरी और महत्त्वपूर्ण अवस्था गत दो वर्षों के लेखों में वर्णित है। प्रथम दो खंडों के लेखों के अस्तित्व में लाया हुआ और प्रवर्धमान किया हुआ यह नेपाली आंदोलन अंत में अपेक्षानुसार प्रत्यक्ष नेपालीय हिंदुओं के हृदय में ही प्रतिध्वनित हाने लगा। भारत की महान् आकांक्षाएँ नेपाल के आज तक भारतीय संवेदनाओं से वंचित अंतःकरण में फिर से प्रज्वलित होने लगीं। हिंदू जगत् के, हिंदू राष्ट्र के स्वातंत्र्य गीतों के ध्रुपद की ताल का नेपाल का पदविन्यास बीच-बीच में साथ देने लगा। नेपालीय आंदोलन की दुंदुभि नेपाल का विचारवंत वीरवर्ग जाग्रत् हुआ।

नेपालीय आंदोलन का संदेश नेपाल तक पहुँचाने के साधन के रूप में ये लेख काम आए, यह देखकर लेखक को कृतार्थता की प्रतीति हुई। प्रथम महाराष्ट्रीय समाचारपत्रों में छपे हुए इन लेखों का उस काल में हिंदी में अनुवाद होता था और कभी-कभी तो नेपाल की गुरखाली भाषा में ही उनका अनुवाद कराया जाता था। आगे चलकर जब तीन-चार साल पहले नेपाली लोगों में ही भारतीय जागृति की लहर फैलने लगी और 'गुरखा लीग' नामक संघटित संस्था की स्थापना हुई और उनकी ओर से एक-दो समाचारपत्र भी गुरखाली में निकलने प्रारंभ हुए तब इन लेखों का भाषांतर गुरखा समाचारपत्रों में नित्य प्रकाशित होता था।

ब्रिटिश सत्ता से भारत का जो वर्तमान संघर्ष चल रहा है, उसमें नेपाल की शक्ति को राष्ट्रीय पक्ष के लिए उपयोग में लाने का प्रथम महत्त्वपूर्ण प्रयत्न सन् १८५७ के स्वातंत्र्य समर के समय श्रीमंत नानासाहब पेशवा के पक्ष के क्रांतिकारियों द्वारा किया गया था; परंतु दुर्दैव से नेपाल के समशेरजंग ने अंग्रेजों का पक्ष लेकर क्रांतिकारियों पर ही अवध या अयोध्या की ओर से हमला किया। फिर भी अंत में क्रांतिकारियों को जब पीछे हटना पड़ रहा था और जब हजारों सैनिक तराई के आस-पास एकत्रित हुए थे तब उनकी तरफ से श्रीमंत नानासाहब पेशवा ने नेपाल की हिंदू सत्ता को क्रांतिकारियों के साथ मिल जाने के बारे में बड़ी आस्था से पत्र लिखकर महत्त्वपूर्ण प्रयत्न किया था। उन्होंने लिखा था-'हम हिंदू हैं, आप भी हिंदू हैं! हम पेशवाओं के उत्तराधिकारी, पेशवाओं से आपका पूर्व समझौते के अनुसार मित्रता का नाता है। यह क्रांतियुद्ध हमने स्वधर्म के लिए स्वीकारा है। हिंदवी स्वराज्य ही हमारा पावन उद्देश्य है। हमारी इच्छा इस हिंदुस्थान से अंग्रेज को बाहर निकाल देने की है। उनके स्थान पर वह राज्य हमें मिल जाए यह भी हमारा आग्रह नहीं है। आप हमें केवल 'हाँ' भर दीजिए कि हम हजारों क्रांतिकारियों को साथ लेकर बिहार पर आक्रमण करेंगे, वहाँ से बंगाल तक सारा मैदान खाली हो गया है (क्योंकि अंग्रेज सेना कानपुर, झाँसी, दिल्ली और लखनऊ में लड़ रही थी)। हम प्राणपण से लड़ेंगे। अपना खर्च हम स्वयं ही वहन करेंगे। हम वह प्रदेश जीत लेंगे और वह जीत होते ही उसे हम नेपाल के राज्य से जोड़ देंगे। इन हजारों क्रांतिकारियों को केवल आपका कृपा छत्र चाहिए, और किसी भी तरह की सहायता नहीं चाहिए।' इस आशय का एक विस्तृत पत्र नानासाहब पेशवा की राजमुद्रा से अंकित कर नेपाल सरकार को भेज दिया गया। वह पत्र मूल अंग्रेज़ी में है, वै. सावरकरजी की अंग्रेजी पुस्तक 'सत्तावन साल का स्वातंत्र्य समर' में यह प्रकाशित हुआ है। यह ज्ञात ही है कि इस पत्र का कुछ भी उपयोग नहीं हुआ। जब क्रांतिकारियों की सर्वत्र जीत हो रही थी तब जिस जंगबहादुर ने अंग्रेजों से हाथ मिलाकर पचास हजार गुरखा सैनिकों को लेकर क्रांतिकारियों पर आक्रमण किया, उसे राष्ट्रीय स्वातंत्र्य युद्ध में सहायता करने की उदारता कहाँ से आएगी? उसमें इतना राष्ट्राभिमान यकायक कैसे निर्माण होगा ?

इसके आगे भारतीय राजनीति में, राष्ट्रीय सभा की याचक वृत्ति में अलग ही मोड़ आया। उस समय ब्रिटिश भारत यानी समूचे भारत में यह समझ इतनी बलवती हुई थी कि भारत में विद्यमान रियासतें भी राष्ट्रीय सभा की परिधि के बाहर हो गईं, ऐसे में नेपाल को परदेश मानने लगे तो क्या आश्चर्य? राष्ट्रीय सभा के ख्यातनाम चालाक नेताओं के मस्तिष्क में नेपाल का उतना विचार भी न आया होगा जितना तिब्बत का, क्योंकि उनकी सोचने की दिशा ही अलग थी। ब्रिटिशों के अधिराज्य में 'माँ-बाप' सरकार के सामने अपने दुःख बताने का ही उनका ध्येय था; अतः वहाँ अर्जियाँ, विनय, शिष्टमंडल यही साधन उनके सामने थे। वे अर्जियाँ भेजते समय अर्जी पर नेपाल के हस्ताक्षर की भी उनको आवश्यकता न थी या उन्हें जिनको वे अर्जियाँ भेजनी हैं उन तक नेपाल का कोई वसीला नहीं है।

सन् १९०० के आस-पास राष्ट्र में राज्यक्रांति का संचार पुनरपि होने लगा और भारतीय स्वातंत्र्य लक्ष्मी के जय-जयकार से भारतीय आकाश गूंज उठा, तब भारतीय राजनीति की दृष्टि फिर एक बार विस्तृत और दिव्यदर्शी हो गई। 'ब्रिटिश भारत' के दरिद्र स्वाँग का धिक्कार करते हुए आसिंधु-सिंधु भारतभूमि ने जब उसका सत्य स्वरूप युवकों को दिखाया, तब भारत' के कार्यक्रम में क्रांतिकारी पंथ के विशिष्ट ध्येय धारण से नेपाल के उत्थान का एक स्वतंत्र विभाग निर्माण किया गया। सिक्ख सैनिकों को उत्तेजित करने के लिए क्रांतिकारी साहित्य के हजारों पत्रक जिस समय डाक द्वारा विलायत से आते थे, वे पंजाब के रेजिमेंट में बाँटे जाते थे, बाँटनेवाले पकड़े जाते थे, फिर भी पढ़े जाते थे। उसी समय गुरखों के लिए भी गुरखा पलटन में उसी तरह से पत्रक बाँटने का जोखिम भरा काम अभिनव भारत के विदेशी केंद्रों द्वारा किया जाता था। नेपाली विद्यार्थी या नेपाली ऑफिसर जब विलायत में मिल जाता था तब उसे क्रांति का कार्यक्रम सुनाया जाता था। सन् १९०८ के आस-पास नेपाल के भूतपूर्व प्रधान महाराज चंद्र समशेरजंग बहादुरजी इंग्लैंड गए थे। लंदन में उनकी छावनी पर एकमात्र हिंदू ध्वज फहरा हुआ देखकर अभिनव भारत के युवा सदस्यों के मन में कृतार्थता का भाव जाग उठा था। उसी उत्साह की उमंग उनको आगे का पत्र भेजा गया, 'हिंदुस्थान के स्वातंत्र्य समर में अगर आपने प्रकट रूप से नेतृत्व किया तो भारतीय साम्राज्य का देदीप्यमान मुकुट नेपालाधिपति के सिर पर विराजमान होगा। आप हिंदुस्थान के हिक्टर एमान्युअल हो जाएंगे। बस, उतना ही साहस कीजिए।' इस आशय का पत्र उन युवा क्रांतिकारियों के नेता ने लिख दिया। क्रांति की परंपरा को फीकी (पानीदार) स्याही शोभा नहीं देती। ऐसे पत्र को और महत्त्व देने के लिए उन निर्वासित, निराश्रित देशभक्तों के पास कोई राजमान्य मुद्रा नहीं थी. अतः यह कमी दूर करने के लिए और अपनी अत्युग्र परंपरा का सम्मान करने के लिए तय हुआ कि रक्तार्द्र स्याही से हस्ताक्षर करके पत्र भेजा जाए। क्रांतिकारियों ने अपनी अँगुलियों पर घाव करके उस रक्त से पत्र पर हस्ताक्षर किए और वह पत्र महाराज की छावनी पर पहुँचा दिया-पत्र पहुँचानेवाले थे देशवीर मदनलाल ढींगराजी! ईश्वर ही जानता है कि छावनी पर होनेवाले पहरेदार ने महाराजा को पत्र पहुँचाया या पत्र को फाड़ दिया। पर दूसरे दिन उस पत्र का उत्तर माँगने के लिए गए हुए देशभक्त से पहरेदार ने कहा कि 'पत्र प्राप्त हुआ! परमेश्वर की जो इच्छा होगी वही होगा!' अब तक कोई नहीं जानता कि वह पत्र प्रधान महाराज तक पहुँचा या पहरेदार महाशय को पहुँचा।

इसके बाद अभिनव भारत संस्था ने अंग्रेजी में भारतीय राजपुत्रो! चुन लीजिए!!' (चूज ओ इंडियन प्रिंसेस) नामक पुस्तिका सभी रियासतों को उद्देश्य करके प्रकाशित की। उसमें अभिनव भारत की भविष्य की राज्य घटना की रूपरेखा अंकित की और रियासतों को अत्यंत स्फूर्तिदायक तथा आवेशपूर्ण रीति से बताया गया कि 'ग्वालियर रियासत में अभिनव भारत के एक युवक को हिस्सा लेने के लिए सजा दी गई थी, उसमें अभिनव भारत पर आरोप लगाया गया था कि यह संस्था लोकसत्तावादी है। यह बात झूठ नहीं है। लोकसत्ता यानी लोगों गुप्त षड्यंत्र में के मत के अनुसार चलनेवाली शासन संस्था ! उसका प्रमुख अधिकारी परिस्थित्यनुरूप सम्राट् कहलाया जाए या सर्वाध्यक्ष कहलाया जाए, उसके बारे में वाद-विवाद आज अभिनव भारत करना नहीं चाहता। लोकमत के वर्चस्व से चलनेवाली लोकसत्ता (पार्लियामेंट) सच्चा शासन केंद्र होने के कारण उतनी तो अस्तित्व में आनी ही चाहिए। जो रियासत नरेश इस तरह की नियंत्रित लोकसभा की स्थापना करेगा, जो नरेश स्वातंत्र्य समर में विशेष साहस दिखाएगा और स्वार्थ त्याग करेगा और कार्यभार को वहन करेगा, वही नरेश भारतीय साम्राज्य का देदीप्यमान मुकुट धारण करने का अधिकारी होगा, वह राष्ट्र का पदसिद्ध सम्राट् होगा! परंतु इस तरह की सहायता करना तो दूर ही रहा, उलटे कोई इस क्रांति के प्रबल वेग को रोकने लगा तो इस प्रबल वेग के क्रुद्ध भँवर में फँसकर वह नाश का भक्ष हुए बिना नहीं रहेगा। अगर स्वीकारेंगे तो यह असामान्य वैभव का आमंत्रण है, नहीं तो भयंकर विनाश का आह्वान! बोलिए, क्या चाहते हैं? आमंत्रण या आह्वान? 'हे भारतीय राजपुत्रो! चुनिए' नामक पुस्तिका भी सभी रियासत नरेशों के साथ एक विशेष पत्र लिखकर नेपाल के महाराजा को भी भेजी गई थी। इस पुस्तिका का उल्लेख इलेंटाईन के 'भारती अशांतता' (इंडियन अनरेस्ट) नामक अंग्रेजी पुस्तक में उन्होंने किया है, और उसमें से कई परिच्छेद भी उद्धृत किए हैं, कुछ उत्तर भी उन्होंने दिए हैं। बै सावरकरजी की 'जन्मठेप' (कालापानी) पुस्तक में भी यह स्पष्ट होता है कि अंदमान के काले पानी पर भी नेपाल समस्या की चिंता वै. सावरकरजी को सता रही थी और वहाँ की कैद से मुक्त होनेवाले देशभक्तों को नेपाल के बारे में। कुछ न-कुछ कार्य करने का आग्रह वे सतत करते रहे थे।

इस तरह की क्रांतिकारी जागृति के लिए नहीं, परंतु आर्यसमाज के कुछ नेताओं ने नेपाल की धार्मिक, शैक्षिक और सर्वसामान्य जागृति के लिए नेपाल से संबंध जोड़ने का प्रयत्न किया था। लोकमान्य तिलकजी का भी कभी-कभी नेपाल के प्रश्नों की तरफ ध्यान आकर्षित होता था। श्रीमान सरदार अजित सिंह नामक देशभक्त और उनके बंधु सरदार किसन सिंह पर राजद्रोह का वारंट निकला था, तब किसन सिंह ने नेपाल में आश्रय लिया। वहाँ उनके साथ अच्छा बरताव किया गया, उनको पकड़ा नहीं गया, फिर भी नेपाल छोड़कर चले जाने की आज्ञा हुई, ये सारी बातें नेपाल का स्वातंत्र्य ब्रिटिशों द्वारा मान्य करने से पहले की हैं।

इन सब छोटी-छोटी तात्कालिक बातों का और टूटी-छूटी घटनाओं का उल्लेख यहाँ इसलिए किया है कि पाठक को क्रांतिकारी देशभक्त और नेपाल के संबंधों की सामान्य पूर्वसूचना हो। आज के नेपालीय आंदोलन का प्रबल प्रारंभ चार-पाँच साल पहले हिंदू संघटन के सर्वग्राही कार्यक्रमों में इस प्रश्न के समावेश से हुआ। उसके बारे में अगले लेख संग्रह के प्रथम के कुछ लेखों में स्पष्ट रूप से विचार किया गया है और लेखों के उत्तरार्ध से स्पष्ट होगा कि आंदोलन का विस्तार किस तरह से हुआ।

प्रस्तुत लेख का उद्देश्य नेपाल के इतिहास या भूगोल की जानकारी देना नहीं है, फिर भी हिंदू संघटन के कार्यक्रम में वह जानकारी कौन सा स्थान ले सकती है, यह समझने के लिए प्रस्तावना के रूप में कुछ महत्त्व की बातें मालूम होना आवश्यक है। वे संक्षेप में इस तरह हैं।

नेपाल का क्षेत्रफल यानी क्षेत्र विस्तार लगभग चौवन हजार वर्ग मील है। और जनसंख्या नेपाली जनगणना के अनुसार एक करोड़ है। अफगानिस्तान की जनसंख्या पौने करोड़ से कम है। यूरोप के स्वतंत्र ही नहीं, बलवान गिने जानेवाले अनेक देश नेपाल से भी छोटे हैं। स्विटजरलैंड को ही देखिए, क्षेत्रफल केवल सोलह हजार वर्ग मील और जनसंख्या केवल तीस लाख बेल्जियम देश की जनसंख्या केवल साठ लाख, हॉलैंड देश की पचास लाख, स्वीडन की पचास लाख और नार्वे देश की जनसंख्या तो केवल बीस लाख ही है, तो फिर पोलैंड, लिथिओनिया, हंगरी की बात ही अलग है। अमेरिका में पाराग्वे देश की जनसंख्या केवल अस्सी लाख, बोलीह्वाओ की तेईस लाख और युराग्वे की केवल दस लाख जनसंख्या है, फिर भी उनके हाथों में बड़े-बड़े विस्तृत देशों का स्वामित्व है। भूबल, सिंधुबल, नभोबल की राजशक्ति के सभी साधनों से वे छोटे-छोटे राष्ट्र सुसज्ज हैं, नवीन से नवीन शस्त्र, अनुशासन शास्त्र, कला, उद्यम आदि में भी सुसंपन्न हैं; परंतु नेपाल की निगूढ़ शक्ति और धन-संपन्नता उतनी ही होते हुए भी दुनिया में वह देश कः पदार्थ माना जाता है। हिंदू राष्ट्र के पास इतना प्रबल साधन होते हुए भी वह साधन केवल धूल चाट रहा है और वह हिंदू राष्ट्र उस साधन को ही निरुपयुक्त कहकर रोना रो रहा है, ऐसी स्थिति में वह साधन क्या करेगा? साधन का उपयोग बहुलांश में साधक पर ही अवलंबित होता है। एक खड्ग ही देखिए, शंकर के हाथ में आ जाने से खिलौने जैसा निर्वीर्य हो जाता है और श्रीकृष्ण के हाथ में आ जाने से कंस का शिरच्छेद कर सकता है। वही मगध की शक्ति का साधन जब तक नंद के हाथ में था तब तक अंतःपुर के कलह मिटा देने जितनी भी उसकी धाक न थी, पर वही चंद्रगुप्त के हाथ में आ जाने से सिकंदर के दिग्विजयी सैन्यभार के दाँत खट्टे करने में समर्थ हुआ। बहुधा ' कार्यकर्ता' के गुणों पर ही कार्य निर्भर करता है।

यही तत्त्व नेपाल के इतिहास की अर्वाचीन घटनाओं से भी प्रकट होता है। नेपाल का राज्य सन् १७४२ में पृथ्वीनारायण शाह नामक उदयपुर के सिसोदिया राजपूतों के एक वंशज ने स्थापित किया। उनसे पहले वहाँ अनेक छोटे-छोटे राजपूत और दाक्षिणात्य वंश के राजा राज्य कर रहे थे। उन सबको एक-एक करके जीतकर नेपाल पर एकाधिकार सत्ता राजा पृथ्वीनारायण और उनके बाद उनके पराक्रमी पोते- राजा रणबहादुर शाह ने स्थापित की। सन् १७९१ के लगभग नेपाली वीरों ने हिंदुस्थान की सीमा लाँघकर कुछ संघर्षों के कारण तिब्बत पर आक्रमण किया। नेपाल और तिब्बत के इस संघर्ष में चीन के सम्राट ने उनके मातहत तिब्बत का पक्ष लेकर नेपाल से युद्ध की घोषणा की; परंतु जितपुर फेदी के घमासान युद्ध चीन और तिब्बत की संयुक्त सेना को नेपाल की सेना ने पूर्ण रूप पराभूत करके पुरभत, प्रीसिंग, इस्नीया, धुल्लू, आक, प्रीस्तीआ इत्यादि अनेक गाँव स्वराज्य में समाविष्ट कर लिये; गढ़वाल आदि हिंदुस्थान के नवीन इलाके भी जीत लिये। अर्वाचीन इतिहास में हिंदुस्थान के अंदरूनी हिस्से में मुसलमानी साम्राज्य उलटकर हिंदुओं ने पुनरपि हिंदुस्थान के बाहर जाकर जो दो आक्रमण किए उनमें नेपाल का तिब्बत पर आक्रमण पहला आक्रमण था और पंजाब के महाराजा रणजीतसिंह द्वारा काबुल नदी तक प्राप्त विजय और स्थापित सत्ता दूसरा आक्रमण था।

नेपाल की श्रेष्ठता का आधार जब तक ऐसे वीर और साहसी नेता थे तब तक उनकी आकांक्षा और सत्ता इस तरह विजयी और वर्धमान होती गई। अगर वैसे ही पराक्रमी नेता फिर से नेपाल में उदित होंगे या उस राष्ट्र में स्वयं नेतृत्व की राष्ट्रीय आकांक्षा अगर प्रबल होगी, तो नेपाल पहले से अधिक दिग्विजयी यश आज भी प्राप्त कर सकेगा और संपूर्ण हिंदू जगत् का ध्वज वैभवशाली हिमालय के शिखर पर फहराएगा।

अगर निरपेक्ष दृष्टि से देखा जाए तो यह आशा सफल करने की सामर्थ्य आज अन्य हिंदू प्रदेशों की अपेक्षा ईश्वर की कृपा से नेपाल में अधिक प्रमाण में वास करती है। हिंदू संघटन के तूणीर में नेपाल का रामबाण है, पर उस बाण को थोड़ा जंग लग गया है और बाण का स्वामी भी अपने तूणीर के उस बाण का उपयोग भूल गया है। अगर ये दोनों कार्य संपन्न हुए तो यह लेखमाला पूर्णरूप से कृतार्थ हो जाएगी। परंतु यद्यपि नेपाल को हिंदू ध्वज का धुरिणत्व स्वीकारने की शक्ति और सामर्थ्य न प्राप्त हो, इतनी प्रचंड सामर्थ्य न प्राप्त हो, तो भी कम-से कम हिंदू जगत् के इन एक करोड़ वीरों को उनकी अपनी उन्नति करने की सामर्थ्य प्राप्त हुई, वह एक करोड़ का समाज भी अगर संघटित हुआ और हिंदू भवितव्य के सांस्कृतिक संग्राम में एक सैनिक के नाते लड़ने का प्रत्येक हिंदू का सर्वसामान्य कर्तव्य करने के लिए भी क्यों न हो अगर हमारे कुछ नेपाली बंधुओं में से कुछ तैयार हुए तो भी नेपालीय आंदोलन को अस्तित्व में लाने और उसको अभी प्रगति बिंदु तक पहुँचानेवाला प्रमुखता से कारणीभूत यह लेख संग्रह व्यर्थ नहीं जाएगा।

राजनीतिक दूरदृष्‍टी में अंग्रेजों का कोई सानी नहीं है। हिंदुस्‍थान की राजीनति में नेपाल का महत्त्व आज तरह जानते हैं। नेपाली आंदोलन राजनीतिक दूरदृष्टि में अंग्रेजों का कोई सानी नहीं है। हिंदुस्थान की राजनीति होते ही पर्सिव्हल लैग्डन साहब ने 'नेपाल' नामक सात सौ पृष्ठों का ग्रंथ दो खंडों अभी-अभी प्रकाशित किया है। उसमें उन्होंने दुबकते-दुबकते अंग्रेजों को नेपाल के बारे में जो चेतावनी दी है, वह देखिए और उसी नेपाल के बारे में सत्तर पृष्ठों की एकाध पुस्तक हममें से किसी ने नहीं लिखी, यह हमारी नेपाल के प्रति अनास्था देखिए! वह अंग्रेज ग्रंथकार लिखता है-'भारत को अगर गृहसत्ता दे दी तो यहाँ जातीय संघर्ष हो जाएगा, इसी से नेपाल को जो महत्त्व मिलेगा उसकी तरफ ध्यान न देना मुर्खता होगी। दक्षिण एशिया के शक्ति संतुलन में नेपाल का आज का और आनेवाला महत्त्व पहचानने का प्रयत्न अंग्रेजों को करना चाहिए।'

-गणेश दामोदर सावरकर

लेखांक-१

हिंदू संघटनात्मक नेपाली आंदोलन का प्रारंभ

(सन् १९२४-२५)

अखिल भारतवर्ष में इन एक-दो वर्षों में अत्यंत महत्त्व का और उज्ज्वल भविष्य रखनेवाला अगर कोई आंदोलन आरंभ हुआ, तो वह है हिंदू संघटन का आंदोलन। इस आंदोलन का सभी तरह से विकास और परिपोष अगर समुचित प्रमाण में और लगातार होता गया तो उसके सुपरिणाम केवल भारत को ही नहीं अपितु समस्त मनुष्य जाति को सदाचारी और हितकारी मोड़ देगा, इसमें हमें कोई शक नहीं है। संसार भर में हर किसी जाति में संघटन बनाने की उमंग उठ रही है। सभी स्लाव जाति की पैन स्लाविज्म, सभी नीग्रो लोगों की पैन एथिओपिज्म, सभी मुसलमानों की पैन इस्लामिज्म- इस तरह अनेक जातियाँ और धर्म अपना-अपना समूह और अपनी-अपनी छावनियाँ अच्छी तरह से और हिम्मत के साथ मजबूत बना रहे हैं। देर से ही क्यों न हो, पर हिंदू जाति भी अब अपने संघटन के लिए तैयार हुई है। यद्यपि सबसे पीछे उसने संघटन प्रारंभ किया है फिर भी पिछले इतिहास के अनुभव से हम आशा कर सकते हैं कि सबसे पीछे प्रारंभ करके वह सबसे आगे निकल जाएगी और सब पर उसका वर्चस्व स्थापित होगा। अगर इस हिदू संघटना को उचित व्यापक स्वरूप प्राप्त हुआ तो हिंदुत्व की अत्यंत हितकर ही नहीं, अपितु अत्यंत यथार्थ व्याख्या -

आसिन्धु - सिन्धु-पर्यन्ता यस्य भारत भूमिका।

पितृभू: पुण्यभूश्चैव सर्वै हिन्दू रिति स्मृतः ॥

की चौड़ी, गहरी और बलवान नींव पर इस संघटन का भव्य मंदिर निर्माण होगा। अनवरत उत्साह और उद्यम से इस कार्य के लिए यदि वह समर्पित हुई तो दुनिया में ऐसी एक प्रचंड शक्ति निर्माण होगी कि एक नहीं बल्कि दस 'खिलाफत' जैसी आफतें उत्तर से या चारों ओर से हिंदुस्थान पर टूट पड़ें, तो भी उसका समर्थ प्रतिकार करने के लिए हमारा हिंदुस्थान और हिंदू धर्म पूर्णत: सक्षम होगा। इतना हो नहीं, वे पूर्व के अपने बुद्धधर्मीय बांधवों के हाथ में हाथ डालकर पुनरपि अखिल मनुष्य जाति के अभ्युदय के लिए पुरोगमन और मार्गदर्शन का दायित्व स्वीकारने के लिए सामर्थ्यशाली होंगे।

हिंदू संघटना के विभाग-उपविभागों में अनेक आवश्यक विभागों को तरफ हममें से अनेक नेताओं, कार्यकर्ताओं का ध्यान यद्यपि आज आकर्षित हुआ है, फिर भी शुद्धीकरण, अंत्यजोद्धार, स्वयंसैनिक दल, देवस्थान इत्यादि से संबंधित विविध सुधारों की उन्नति के लिए कुछ लोग प्रयत्न कर रहे हैं और इनमें से भी विशेषतः शुद्धीकरण और अंत्यजोद्धार विभाग महत्त्व के हैं। इन विभागों की तरफ लोगों का ध्यान चला गया है, अतः यहाँ उनका अधिक विचार करने का कोई औचित्य नहीं है। आज यहाँ मुख्य रूप से हिंदू संघटन के उस एक विभाग पर विचार करना है जो शुद्धीकरण के जितना ही प्रतिकार सामर्थ्य से संपन्न है और अंत्यजोद्धार की उतनी ही निवारक शक्ति रखता है; परंतु ऐसा होते हुए भी आज तक लोगों का ध्यान उसकी तरफ बिलकुल नहीं गया है। हिंदू संघटना का यह महत्त्व का विभाग यद्यपि आज लोगों के ध्यान में नहीं है, और आज अगर उनका ध्यान उसकी तरफ आकर्षित करने का प्रयत्न किया गया तो भी उसका महत्त्व लोगों की समझ में नहीं आएगा, फिर भी थोड़े समय के बाद और थोड़े प्रयत्न करने पर अपनी हिंदू संघटना का यह महत्त्वपूर्ण अंग भी हो सकता है, सबसे महत्त्वपूर्ण विभाग हो सकता है, वह विभाग है 'नेपाल'।

कितनी आश्चर्य की बात है, कितना खेदजनक अपराध है कि हम हिंदुओं को आज तुर्कस्तान के खलीफा के लिए चलनेवाले आंदोलन की जितनी आस्था या जानकारी या स्मृति है, उतनी नेपाल की-जो अपने देश का, महाराष्ट्र, बंगाल के जैसा प्रत्यक्ष हिस्सा है-उस हिंदू रियासत की और उस रियासत में रहनेवाले लाखों हिंदू भाई-बहनों के प्रति आस्था न हो? हे हिंदू बंधुओ। आज इस सारी दुनिया में हिंदुत्व का ध्वज टूटा-फूटा, फटा-पुराना क्यों न हो- अगर कहीं शान से फहराता है तो वह नेपाल के पशुपतिनाथ पर ही है। आज यद्यपि सारे जगत् में हिंदू संघटन मरणासन्न पड़ा हुआ है, फिर भी वह पूर्ण रूप से मृत नहीं है, वह अभी तक आशा का श्वास ले रहा है। हे हिंदू बांधव, अगर कहीं वह श्वास ले रहा है तो इस नेपाल की भूमि के अंक पर ही ले रहा है। तुर्कस्तान के खलीफा के एक महल में क्या उथल-पुथल हो रही है, अरबीस्तान के कोने में एक जिले के जितने प्रदेश के रियासत के प्रधान का नाम, उसके बाप का नाम, वह कल कहाँ घूमने गया था, आज कहाँ जानेवाला है, ऐसे-ऐसे अनावश्यक समाचार छापने और उनकी चर्चा करने में हिंदू समाचारपत्र मग्न हैं, परंतु उन समाचारपत्रों के वर्षों के अंक देखने के बाद मालूम होगा कि उनमें नेपाल का कहीं नाम तक नहीं है। पैलेस्टाइन के किसी शहर में अभी-अभी कोई मसजिद गिर गई, उसके धक्के से हिंदू पत्रकारों की लेखनी के हृदय को इतना जोर का धक्का लगा कि उस मसजिद के लिए निधि संकलित करके उसके पुरुद्धार की प्रतिज्ञा का समाचार, दूरध्वनि संदेश, तरह-तरह को टिप्पणियाँ आदि विपुल मात्रा में हिंदू समाचारपत्रों में प्रकाशित हो रहे हैं। परंतु अभी-अभी नेपाल के हिंदू महाराजा के साथ इंग्लैंड ने एक नया समझौता किया, उसके बारे में कोई स्फुट या विश्वसनीय समाचार देश के हजारों हिंदू समाचारपत्रों में से किसी एक ने भी नहीं प्राप्त किया, न प्रकाशित किया, उसकी जानकारी प्राप्त करना आवश्यक है ऐसी सूचना भी किसी ने नहीं दी, न आवश्यकता समझी। तुर्कस्तान में कुछ लोग बिलकुल निर्धन हो गए हैं, उनको अन्न-वस्त्र देने के लिए चंदा इकट्ठा किया जाएगा। हिंदुस्थान में चंदा इकट्ठा करने के लिए कुछ लोगों का एक मंडल वहाँ से यहाँ आ रहा है, यह सब तो ठीक ही है, क्योंकि हिंदुस्थान में आजकल धनधान्य इतना विपुल हुआ है कि समस्त तीस करोड़ जनता का पेट भरकर बाकी बचा हुआ धान्य कहाँ रखा जाए इसकी राष्ट्रीय समस्या खड़ी हो गई थी, अगर उसको संगृहीत किया तो वह खराब होकर सड़ जाएगा और उस सड़न से यहाँ की जलवायु दूषित होने की भयंकर आशंका सभी देशभक्तों को सता रही थी। वह आशंका निराधार भी नहीं थी, क्योंकि इसके पहले प्लेग, इन्फ्लुएंजा, महामारी आदि की जो बीमारियाँ फैल गई थीं और अब भी कुछ फैल रही हैं, उन सारी बीमारियों की जड़ यह नहीं है कि लोगों को खाने को नहीं मिलता, भरपेट नहीं मिलता बल्कि यह है कि लोगों को अपच होने तक खाने को मिलता है और फिर भी अनाज बच जाता है, बचा हुआ अनाज यों ही सड़ जाता है और उससे हवा प्रदूषित होती है, इससे तरह-तरह की बीमारियाँ फैलती हैं। तब ऐसी स्थिति में तुर्कस्तान के अकाल के लिए हिंदुस्थान में चंदा इकट्ठा किया जाए तो यह ठीक ही है। आज के इस महोदर में (विशाल हृदय, पिशाल पेट होनेवाले काल में) स्वदेश की अपेक्षा विदेश की अधिक चिंता करनेवाले साधु बनने का आसान और • सस्ता साधन भी उपलब्ध हुआ है। परंतु यह सूचना किसी के द्वारा सामने नहीं लाई गई कि अगर तुर्कस्तान अकाल की सहायता के लिए वहाँ से यहाँ सहायता-मंडल भेज देता है, तो उसी समय क्यों न हिंदुस्थान के अकाल के लिए यहाँ से वहाँ भी एक हिंदू मंडल भेजकर साधुत्व प्राप्त करने का पुण्य अवसर दिया जाए? तुर्कस्तान, अफगानिस्तान, अरबीस्तान आदि के लिए नित्य ही समाचारपत्रों में स्तंभ-के-स्तंभ लिखनेवालों को, अंशतः व पूर्णतः हिंदुओं की लेखनी से लिखे जानेवाले समाचारपत्र को नेपाल में होनेवाले हमारे बंधु-बांधवों की या उनमें से कोई अधभूखा या भूखा मर रहा है इसकी याद भी नहीं होती। यह बस साधुत्व के आजकल की दांभिक परिभाषा को और उसके पंजे में अटके हुए भोले निर्बुद्ध को ही शोभा देता है; परंतु जिनको स्वदेश से कम-से-कम विदेश के जितना भी क्यों न हो, प्रेम करना पाप नहीं लगता, जिनको अपने उचित और न्याय्य वैभव यथा सम्मान की कम-से-कम विदेशी वैभव के जितनी भी फिक्र है और आज जो हिंदू संघटन को परजातीय या परधर्म के संघटन के जितना आवश्यक समझते हैं, कम-से-कम वे पत्रकार, लेखक और लोग इसके आगे हिंदू संघटन के इस विभाग के मुख्य अंग की तरफ, नेपाल के अपने एक ही देश के, एक ही रक्त के, एक ही जाति के, एक धर्म के लाखों बंधुओं की शक्ति की तरफ, भविष्य की तरफ, उन्नति की तरफ अधिक ध्यान दें और यह आवश्यक है कि अब तक उनकी तरफ ध्यान न देने की जो हमने गलती की है, जो अन्याय किया है, उसका परिमार्जन करें- यह कर्तव्य समझकर हिंदू जनता में नेपाल के लोगों के साथ एकात्मता की भावना निर्माण करने के लिए ही यह लेखमाला प्रारंभ की है।

अंग्रेजी में एक कहावत है कि अगर असत्य हमसे छूट गया उसे फिर से पकड़ने के लिए बार-बार असत्य का ही आश्रय लेना पड़ता है। सत्य पकड़ में नहीं आता, असत्य की पुनरुक्ति होती रहती है। स्वयंभू सामर्थ्य के बल पर सत्य ने असत्य का अगर निषेध नहीं किया तो इतिहास में भी यह पाया गया है कि सत्य की अपेक्षा असत्य की ही छाप लोगों पर अधिक होती है। 'हिंदुस्थान' नामक कोई देश नहीं है, यह विधान भी कुछ देर हिंदुस्थान के अंग्रेजी लेखकों के या तद्नुषंगिक हिंदू लेखकों के भेजे में गूँज रहा था, और आज भी कभी-कभी उसकी प्रतिध्वनियाँ गूँजती नहीं हैं, ऐसा नहीं है। एक ने कहा, 'सिक्ख हिंदू नहीं हैं।' दूसरे ने कहा, तीसरे ने कहा और ने आत्म प्रतिष्ठित मौन धारण करके उसका निषेध नहीं किया। धीरे-धीरे सिक्खों में ही यह भावना दृढ़ हुई कि वे हिंदू नहीं हैं और इस मत के आज हजारों सिक्ख हैं। आजकल उनका हिंदुत्व उनको समझाकर देने का प्रयत्न करनेवाले व्याख्यान दिए जाने लगे हैं, लेख लिखे जाने लगे हैं, परिणामस्वरूप अब काफी सिक्ख लोग फिर से अपने को हिंदू मानने लगे हैं।

एक समय या जब स्वामी श्रद्धानंदजी और सभी आर्यसमाजी लोग हिंदू शब्द से द्वेष किया करते थे और जोर-जोर से प्रतिपादन करते थे कि वे हिंदू नहीं हैं; पर अब हिंदू शब्द का मूल स्वरूप, उत्पत्ति और मर्म का विशद विश्लेषण करने के बाद उनपर सत्य का प्रभाव हो गया और हजारों आर्यसमाजी निर्विकार मन से मानने लगे हैं कि वे हिंदू ही हैं। दुनिया की यह रीति ही है कि जो अपने माल का बड़बोलापन करेगा उसका मंडुआ तक बिक जाएगा और जो चुपचाप बैठेगा उसके अच्छे-से-अच्छे गेहूँ की भी खपत नहीं होगी। नेपाल हिंदुस्थान का हिस्सा नहीं है, नेपाली लोग और उनका देश हिंदुस्थान से अलग सामाजिक और जातीय दृष्टि से स्वतंत्र राष्ट्र है, एशिया में जैसे ईरान से, जापान से जैसा और जितना हिंदुस्थान विभक्त है, उतना ही नेपाल से हिंदुस्थान विभक्त है- इस तरह का हो-हल्ला अभी-अभी कुछ स्वार्थपरायण लोगों ने शुरू किया है-इस निषेध का समय पर ही प्रतिनिषेध करना हमें अपना आवश्यक कर्तव्य मानना चाहिए। आश्चर्य की बात यह है कि नेपाल हिंदुस्थान का हिस्सा नहीं है, वह अलग देश है, अलग ही राष्ट्र है यह मत प्रतिपादित करने की अगुवाई यद्यपि अंग्रेजी लेखकों ने की है तथापि आज इस बात की प्रतिध्वनि अनेक हिंदू और हिंदू कहलानेवाले अल्पज्ञ लोगों में उद्भावित होने लगी है। थोड़े ही दिनों में एशिया की उथल-पुथल में नेपाल को बड़ा महत्त्व दिए जाने की संभावना है और हिंदू संघटना का वह एक शक्तिमान घटक तथा बलशाली आधार हुआ होता, अतः स्वार्थलंपट आकांक्षा रखनेवालों को यह आवश्यक प्रतीत हुआ कि हिंदू जाति के समूह से नेपाल को अलग किया जाए। अब नेपाली लोग हिंदुस्थानी नहीं हैं, इस तरह की सियारों की बोली दिन-ब-दिन बुलंद होने लगेगी। अगर समय पर ही यह बोलती बंद न की गई तो नेपाल की अल्पज्ञ स्थिति में उसका तदनुकूल परिणाम हुए बिना नहीं रहेगा, इस असत्य बात की पोल न खोलना हानिकारक हुए बिना नहीं रहेगा।

भौगोलिक दृष्टि से अमुक प्रदेश अमुक देश का घटक है- यह कहना हमेशा आसान होता है, ऐसी बात नहीं है। विस्तीर्ण समुद्र, उत्तुंग पर्वत के जैसी कुछ स्पष्ट मर्यादाएँ एक देश से दूसरे देश को विभक्त कर सकती हैं। हिंदुस्थान अरबीस्थान को अपना एक प्रदेश नहीं समझ सकता। यद्यपि अरबीस्थान में हिंदू संस्कृति का संचार हुआ अथवा हिंदू जाति वहाँ प्रत्यक्ष जाकर निवास करने लगी तो भी अरबीस्थान को हिंदुस्थान देश का कोई प्रांत समझना अशक्य है। क्योंकि ऐसे उदाहरण में संस्कृति, जाति, राष्ट्र इत्यादि देशैक्य के अन्य लक्षणों से भौगोलिक वैषम्य इतना बलवत्तर होता है कि अन्य सभी लक्षण उस भौगोलिक भेद को भूलकर उस जनपद को एकदेशीयत्व नहीं दे सकते।

परंतु जहाँ इस तरह के स्पष्ट, चिरंतन और निसर्गकृत भेद नहीं होते वहाँ एक जनपद दूसरे जनपद का इलाका है, प्रदेश है या स्वतंत्र भिन्न देश ही है यह तो भौगोलिक लक्षणों के अभाव में जाति, संस्कृति, राष्ट्र, इतिहास, सम्मति या लक्षणों के पर ही तय करना होता है। जर्मनी और फ्रांस दोनों देशों में भौगोलिक भिन्नता दर्शक भी स्पष्ट चिह्न होने कारण कौन सा प्रदेश किस देश का है आज हजारों वर्ष के रणांगण विवाद करके तय नहीं पाया वहाँ जर्मनी और फ्रांस में जिसके इतिहास से, संस्कृति जो अधिक मिलता-जुलता हो प्रदेश उस देश का लक्षण निर्णायक समझा जाता वही स्थिति पोलैंड की, रूस की, अमेरिका की, मेक्सिको की, कोरिया की या चीन है।

भौगोलिक लक्षणों का यह बलाबल ध्यान में लेने पर नेपाल हिंदुस्थान का प्रदेश या नहीं यह विवाद उपस्थित नहीं होता क्योंकि हिमालय जैसे दुर्लघ्य पर्वत एशिया नेपाल को अत्यंत स्पष्ट रूप अलग करता है। भौगोलिक दृष्टि नेपाल एशिया के अन्य जनपदों जितना अलग है, वह हिंदुस्थान से जुड़ा एक बार दक्षिण हिंदुस्थान को केवल भौगोलिक दृष्टिकोण से देखा उत्तर हिंदुस्थान से वह अलग देश सकता है, नेपाल, बिहार आदि को हिंदुस्थानी प्रदेशों से भिन्न नहीं कर सकते; क्‍योंकि उन प्रदेशों विंध्यादि जैसी प्रचंडतर बाधा नहीं बुंदेलखंड, बिहारादि प्रांतों भिन्न, स्वतंत्र मान सकते हैं परंतु नेपाल को नहीं मान सकते। क्योंकि एकदेशीयत्व को छेद देनेवाली गंगा, यमुना, द्रोण के जैसी विस्तीर्ण नदियाँ उन प्रदेशों के बीच फैली हुई नहीं है।

ऊपर बताया गया है कि देशों की मर्यादाएँ भौगोलिक कारणों तय होती हैं; परंतु उससे भी अधिक वे मर्यादाएँ इतिहास, संस्कृति, जाति और सम्मति से ही बहुधा तय होती हैं, फिर भौगोलिक भेद उन्हें केवल आनुषंगिक सहायता देता है। भौगोलिक विभेदक अस्तित्व में होने पर भी अगर पंजाब और मद्रास एक मातृभूमि का अंग बन सकते हैं, एक ही देश के प्रदेश की हैसियत से गिने जाते हैं, तो उसी कारण से जिनमें भौगोलिक विभेदक नहीं है ऐसे नेपाल और हिंदुस्थानी प्रदेश एक ही पुण्य और प्रिय भारतभूमि के अंग क्यों नहीं हो सकते? वे वैसे हैं ही। विदेशी उन्हें मानें-न-मानें। क्योंकि संस्कृति और इतिहासादिक देशैक्य के निर्णायक लक्षण हिंदुस्थान के किसी भी प्रांत या प्रदेश पर उतने ही लागू हो सकते हैं, य सिद्ध करने के लिए प्रथमतः हम संस्कृति और ऐतिहासिक संबंधों पर थोड़ा विचार करेंगे।

हिमालय के प्रचंड प्रकार के बाहुवेष्टन में नेपाल को आलिंगन में रखकर प्रकृति ने नेपाल को बाह्य जगत् के आँगन से उठाकर भारतभूमि की गोद में जिस दिन दिया, उस दिन से नेपाल का हम भारतभूमि के संतानों से अच्छेद्य, अखंड और प्रेममय सहोदर के जैसा संबंध जुड़ गया। उस दिन से ही वैदिक, पौराणिक, बौद्धकाल में वह संबंध अविच्छिन्न होकर संस्कृति के प्रेमपाश से अधिक दृढ़त होता गया। आज नेपाल में आर्य हिंदुओं का और हिंदू राजश्री का जो गौरव है वह काशी-प्रयाग में भी बचा नहीं है। हिंदू संस्कृति जिस वैदिक काल से निर्माण हुई उस अत्यंत पुरातन काल में भी नेपाल उसका आधारस्तंभ था और उसके देवर्षियों द्वारा रचे हुए महामंदिर का महाद्वार था। पूर्वेतिहास इन कथाओं का साक्षी है। वैदिक संस्कृति का मूलतः हिंदुस्थान में ही उद्गम हुआ है इसके बारे में दो मत हैं, क्षण भर को यह मतभेद अलग रखा जाए तो भी यह निश्चित है कि आर्यों के उपनिवेश हिंदुस्थान में वास करते-करते और सुधरते-सुधरते, प्रगत होते-होते जिस महान् संस्कृति को उन्होंने जन्म दिया और जो रूपांतर एवं रूप विकास के क्रम में आज की हिंदू संस्कृति में परिवर्तित हुई है, उस संस्कृति को जन्म देनेवाले उन गोत्रर्षियों के चरणों से पावन होने का मान अखिल हिंदुस्थान में जितना पंजाब का है, करीबन उतना ही नेपाल का भी है। क्योंकि ईरान, अफगानिस्तान की तरफ से आर्य हिंदुस्थान में आए थे, कश्मीर की तरफ से वे हिंदुस्थान में उतर गए, इन दोनों मतों के लिए जितना ऐतिहासिक प्रमाण पुरातन ग्रंथों में मिल जाता है, उतना ही प्रमाण इस बात की पुष्टि करता है कि आर्यों के कुछ संघ तिब्बत, नेपाल से हिमालय पार करके आगे प्रवेश करते गए। त्रिविष्टप शब्द तिब्बत शब्द का संस्कृत का मूल रूप है और त्रिविष्टप देवताओं का मूल निवासस्थान बताया गया है, इससे स्पष्ट है कि हममें से कुछ संघ को स्मरण है कि उनके पूर्वज तिब्बत से हिंदुस्थान में आए। प्राचीन ग्रंथों में यह बात क्वचित् ही पाई जाती है कि अफगानिस्तान के किसी ऊपर के प्रदेश में कोई बड़ा धर्मक्षेत्र या पुण्यक्षेत्र प्रसिद्ध है; परंतु कश्मीर विशेषतः ऊपर नेपाल और हिमालय में हमारे अनेक पवित्र स्थल, धर्मक्षेत्र, पावन नदियाँ पौराणिक काल से आज तक प्रसिद्ध और पूज्य मानी जाती हैं। मानसरोवर, गौरीशंकर, कैलाश, पशुपतिनाथ- ये सब तीर्थ क्षेत्र बहुत पुरातन और कभी-न-कभी अपने पूर्वजों के, देवताओं के निवास के लिए सुयोग्य स्थान रहे होंगे। उत्तर कुरु नाम से भी ध्यान में आ जाता है कि यहाँ के यानी दक्षिण कुरु के वंशजों का संबंध कश्मीर से नेपाल तक की भूमि के समांतर हिमालय के बाजू के देशों से कभी-न-कभी रहा होगा। इस तरह का अनुमान हम निकाल सकते हैं और अन्य अनेक कारणों से कुछ इतिहासकारों का मत ऐसा है कि कश्मीर कुमा मार्ग से आर्यों के कुछ संघ हिंदुस्थान में निवास करने के लिए आए होंगे, वैसे ही उन्हीं आर्यों के अन्य कुछ संघ त्रिविष्टप या तिब्बत से नेपाल में और इर्द-गिर्द के प्रदेश में हस्तिनापुर की तरफ गए होंगे। इससे आगे जाकर ऐसा कह सकते कि कश्मीर कुमा आए हुए आर्यों के संघ अपेक्षा नेपाल दिशा नीचे उतरनेवाले आर्य के मूल जातियों अधिक सम्मिश्र होते-होते आगे होंगे उन्हीं द्रविड़ से पश्चिम आए हुए आर्यों संबोधित किया होगा। इसके सिवा यह भी नहीं भूलना चाहिए यक्ष, गंधर्व, किन्नर और भूतगण से संबोधित किए जानेवाली जातियों बस्तियाँ हिमालय तलहटी बसी हुई थी और उनका सम्मिश्रण होते-होते आज हिंदू जातीय संस्कृति निर्माण है।

यहाँ एक और तर्क रखना उचित होगा वैदिक पौराणिक में किए गए पृथ्वी वर्णन, उसपर होनेवाले देश-जाति-खंड विभागों वर्णन आज कितने उलझन या अर्थशून्य न लगते फिर भी मूलत: काल में लिखे तब अक्षरशः सच न होंगे, ऐसा नहीं सकते। चलकर वर्णनों अंध-परंपरा वश अनेक अर्थशून्य वर्णन गलती या अतिशयोक्ति प्रक्षेपित कर दिए गए होंगे। परंतु अगर हम मूल तरफ गए तो उसमें हम अधिक सत्य पा सकेंगे। आज हम पृथ्वी पाँच खंड मानते पर किसी भौगोलिक आघात जहाँ अभी-अभी टोकियो शहर वहाँ अगर समुद्र गया, वैसे ही मान कि एकाध खंड समुद्र विलीन गया- आज के भूगोल को भविष्यकालीन जनता अगर झूठ ठहराने का प्रयत्न करने लगी वह गलत होगा, वैसे ही पृथ्वी-देश-जाति इत्यादि कालांतर प्राप्त के नामरूप अगर पुराने नामरूप मिलते-जुलते हैं इस कारण यह कहना गलत कि केवल कल्पित या अज्ञानी लोगों लिखे थे। 'महाभारत' में दिए हुए पृथ्वी के वर्णन उस काल (महाभारत काल नहीं जब महाभारत लिखा गया उस काल में) यथार्थ और वास्तव रहे होंगे; इतना नहीं, उनको यथार्थ मानकर अन्य प्रमाणों उनकी संगति बैठाने का प्रयत्न करने उससे कभी-कभी महत्त्वपूर्ण सत्य का उद्घाटन हो सकता है।

इस दृष्टि अगर विचार किया जाए मानना पड़ेगा कि यक्ष-रक्ष-गंधर्व, किन्नर, ऋक्ष, वानर इत्यादि नामों अनेक रूढ़ अर्थों पुट चढ़े हुए होने पर भी पुराने किसी एक काल वे सचमुच ही अलग-अलग मनुष्य जातियों नाम थे। रक्ष राक्षस नाम संबंध अब बहुलांश एकवाक्यता कि वह तथा उसी जैसे रामायणकालीन वानर, ऋक्ष नाम उन मनुष्य जातियों रहे होंगे। हमें स्मरण कि हमने समाजशास्त्र अंग्रेजी ग्रंथ पढ़ा कि सिलोन रक्का (Rakkas) नाम एक जंगली जाति आज निवास करती रही है। वही बात यक्षों की है। हिमाचल तराई नेपाल नजदीक 'यक्का' नामक लोग आज भी रहते हैं और उस जाति के विवाहादि रस्म-रिवाज पुराणों के यक्षों के रीति रिवाजों से मिलते-जुलते हैं। 'यक्ष' शब्द का ही अपभ्रष्ट रूप 'यक्का' हो सकता है। इस दृष्टि से देखने पर हमें यह संशय हो जाता है कि हमारे पुराने ग्रंथों में 'किन्नर' जाति के जिन लोगों का वर्णन आता है वे ही किन्नर धीरे-धीरे हिमालय की तलहटी छोड़कर वैदिक संस्कृति के साथ लेन-देन करते हुए एकात्म होकर आगे चलकर 'कन्नड़' नाम से संबोधित किए जाने लगे। यह ध्यान में रखने की बात है कि कश्मीर से नेपाल तक हिमालय की तलहटी में रहनेवाले इस यक्ष किन्नर-गंधर्व जाति के उल्लेख हमारे ग्रंथों में राक्षसादि के उल्लेख से जैसे द्वेष सूचक या निंदागर्भित न होकर कौतूहलपूर्ण, स्नेहमय, क्वचित् आदरभाव व्यक्त करनेवाले हैं। किन्नर जाति का ही संस्कृत साहित्य में प्रसिद्ध 'कर्नाटक' रूपांतर हुआ होगा। यह अलग से कहना न होगा कि यह उल्लेख हमारी शब्द सादृश्य कल्पना के अनुसार है, उसको जब तक ऐतिहासिक विश्वसनीयता नहीं मिलती तब तक केवल चर्चा के लिए एक कल्पना के रूप में सामने रखा जा रहा है। केवल शब्द सादृश्य की दृष्टि से ही देखना हो तो 'कनाडा' भी कर्नाटक और शब्द का रूपांतर हो सकता है, तो क्या यह कह सकते हैं कि 'कन्नड़' लोग वहाँ वास करते थे ? अतः शब्द साम्य को जब तक अर्थसाम्य और ऐतिहासिक प्रमाण प्राप्त न हो, किसी का भी उल्लेख निर्णायक सिद्धांत के रूप में नहीं कर सकते।

जो हो पूर्वग्रंथों से एक बात एकदम स्पष्ट है कि आज जो संस्कृति हिंदू संस्कृति नाम से संबोधित की जाती है वह आर्य संस्कृति का रूप विकसन ही है, फिर भी उसमें अनार्य, द्रविड़, यक्ष, किन्नर इत्यादि पुराने ग्रंथों में उल्लेखित अनेक अन्य जातियों का, वंश का, रक्त का, विचारों का विकारों का और कर्तृव्य का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई देता है और ये सभी जातियाँ नेपाल से कश्मीर तक बसी हुई थीं, तब ही कुछ आर्य संघ-समुदाय इस पूर्व मार्ग से हिमालय से हिंदुस्थान में उतरे होंगे-यह बात सिद्ध व सूचित करनेवाले अनेक प्रमाण पुरातन ग्रंथों में दिखाई देते हैं; अत: यह स्पष्टत: सूचित होता है कि हिंदू राष्ट्रों का नेपाल से और नेपाल का हिंदू राष्ट्रों से जातीय संबंध अत्यंत पुराने काल से प्रारंभ हुआ है।

हमें ऐसा लगता है कि संस्कृत में मूल शब्द का बाद में राक्षस शब्द के जैसे गुणवाचक और दुर्गुणवाचक अर्थ लगाया गया होगा, फिर भी राक्षस शब्द के जैसे ही 'भूत' शब्द भी प्रारंभ में जातिबोधक ही था। यक्ष, गंधर्व, किन्नर, किरात किया है, उतना न भी हो तो भी भूत जाति का उल्लेख संस्कृत में आर्येतर परंतु आदि हिमालयीन जातियों का उल्लेख संस्कृत साहित्य में जितने कौतुक से, प्रेम से हमेशा आर्यों से संबंधित लोगों के नाते किया गया है। किन्नरों के विपरीत भूत शब्द अपमानजनक और संस्कृतभाषियों को संत्रास पहुँचानेवाले तथा काफी जंगली अवस्था में रहनेवाले लोगों के लिए उपयोग में लाया गया है। आगे चलकर उसका जो अर्ध परिवर्तित हुआ और लक्षणा से वह मृतात्माओं के लिए, जो भूत जातीय मनुष्य के जैसे विचित्र और विक्षिप्त प्रकार मरणोत्तर रचते हैं- उपयोग में लाया जाने लगा। प्रथमत: 'भूट' नामक लोग हिमालय की तलहटी में निवास करते होंगे, यह हमारा तर्क किन्नर शब्द की उत्पत्ति के तर्क से भी अधिक दृढतर है; क्योंकि नेपाल के पास होनेवाले एक देश का नाम आज भी यथारूप है। हमें ऐसा लगता है कि 'भूटान' शब्द 'भूटस्थान' शब्द से तैयार हुआ होगा। वहाँ के लोग आज भी करीबन जंगली अवस्था में ही हैं। अब भी शारीरिक दृष्टि से भी वे उसी अवस्था में हैं। कुछ यात्री बताते हैं कि उस स्थान पर शरीर पर अत्यंत घने बाल होनेवाले कुछ मानव कभी-कभी उन्हें दिखाई दिए हैं। उनकी रीति-रस्में वैदिक पद्धति से एकदम भिन्न और विलक्षण हैं। वे इतनी विलक्षण हैं कि हजारों वर्ष पूर्व आर्यों ने जितने आश्चर्य से उनको विक्षिप्त कहा, भूट कहा; उतने ही आश्चर्य से आज हमारे मुँह से वही 'भूट' शब्द लाक्षणिक अर्थ से उच्चारित होगा। भूत-इस जातिवाचक शब्द का इस तरह का लाक्षणिक अर्थ होकर जीवितों का मृतों से साधर्म्य स्थापित हुआ, इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। पिशाच्च शब्द का इतिहास इस बात को सहज प्रमाणित करेगा। आज पिशाच्च का अर्थ है मृत-भूत, जो अत्यंत त्रासदायक हो-हम व्यवहार में यही समझते हैं; परंतु पिशाच्च शब्द का यह अर्थ रूढ़ होने से पहले वह शब्द एक जाति को, एक भाषा को, एक देश को संबोधित किया जाता था- यह सिद्ध है। पुराणों में स्पष्ट रूप से वायव्य सीमा पर होनेवाले जंगली, क्रूर, असंस्कृत लोगों के देश को पिशाच्च देश कहा गया है। 'गंतव्यं त्वया भूत' देश धूर्तके' इस तरह का उल्लेख सिंधु के पार होनेवाले सीमा क्षेत्र के जंगली ' धूर्त' पैशाचे जाति के बारे में पुराणों में राजा विक्रम के बाद के काल में पाया जाता है। पैशाच भाषा का उल्लेख तो अनेक स्थानों पर किया गया है। हमें ऐसा लगता है कि ' पुश्तु' भाषा का यह अर्वाचीन नाम पैशाची शब्द से ही लिया गया होगा। पिशाच्च स्थान पिश्तान- पिश्त पुश्तु- इस तरह से क्रम हो सकता है, क्योंकि पैशाची भाषा उसी सीमा निवासी ' पिशाच्च' लोगों की भाषा अब भी है। यह पिशाच्च या पैशाची जाति उदंड, त्रासदायक और धूर्त स्वभाव की है। आजकल की पठान जाति पिशाच्च और पार्थीयनों के मिश्रण की जाति है। पिशाच्च जाति के स्वभाव को ध्यान में रखते हुए मरने के बाद भी सतानेवाली आत्मा को 'पिशाच्च' कहने लगे, वैसे ही मूल शब्द के साथ हुआ होगा। और भी एक जातिवाचक शब्द का उल्लेख यहाँ कर सकते हैं। तिर्यक् योनि शब्द नीच योनि की हैसियत से प्रसिद्ध है। भूत या पिशाच्च योनि के जैसे तिर्यक् योनि उतनी त्रासदायक जाति नहीं समझी जाती थी, फिर भी यह समझा जाता था कि जाति गंदी, नीच और विक्षिप्त है। हमें ऐसा लगता है कि मलाबार में अत्यंत निचली जाति है, जिसको आज भी, हिंदू होते हुए भी, आयर, नायर आदि सभी हिंदू जाति उसे अस्पृश्य या कहीं अदृश्य समझती है। उसका नाम थिय्यर या दिया है, वह तिर्यक् जाति होगी। इस जाति के लोगों में राक्षसादि लोगों के रीति-रस्मों जैसे 'मायावी रूप धारण करने की प्रथा आज तक दिखाई देती है। पुराने काल में 'मायावी रूप' धारण किया जाता था यानी मनुष्य को डर लगे ऐसे विलक्षण स्वाँग-गधा, बंदर, भैंस, अर्धगर्दभ, अर्धमर्कट जैसे पशु-पक्षियों के स्वाँग-धारण करके, सिर पर टोप लगाकर रात-बेरात एकाकी मनुष्य को भय दिखाने की प्रवृत्ति सर्वत्र विद्यमान थी। कभी-कभी कोई ढीठ मनुष्य उसे पकड़कर उसके बालों का टोप और मुखौटा छीनकर उसका असली स्वरूप दिखाता था, जाहिर करता था, उसका भंडा फोड़ देता था; परंतु कोई पागल, मूर्खतापूर्ण समझ एक बार समाज में घुस गई तो उसे निकालना आज की अपेक्षा उस काल में अत्यंत में कठिन था, क्योंकि प्रसिद्धि और प्रचार के इतने विपुल साधन उपलब्ध नहीं थे, अत: वह तिर्यक् योनि यानी अर्ध मनुष्य, अर्ध पशु या पंछी कोई विक्षिप्त योनि है, इस तरह समझा गया होगा। यह तिर्यक् योनि ही आजकल के थिया या थिय्यर लोग अगर हों तो वे आर्य और द्रविड़ दोनों से पहले ही हिंदुस्थान के अत्यंत घने जंगल में वन्य स्थिति में रहे होंगे और 'भूत' शब्द के जैसे ही इस जाति का नाम भी आगे चलकर लाक्षणिक अर्थ में विचित्र कल्पनाओं और विचारों का निदर्शक कर तिर्यक् योनि की कल्पना में परिवर्तित हुआ होगा।

यक्ष, रक्ष, किन्नर, पिशाच्च, भूत, तिर्यक् इत्यादि नामों की उपपत्ति का प्रश्न यहाँ अनुषंग रूप से आया है; अतः उसके बारे में हमारे तर्क का निर्देश ही काफी है और इतना ही कहना ठीक है कि उनमें से अधिकांश जातियाँ वैदिक काल के अंत में और पौराणिक काल के प्रारंभ में हिमालय की तलहटी में निवास करती थीं; और अत्यंत प्राचीन काल से नेपाल और उसके आजू-बाजू के प्रदेश में निवास करनेवाली इन जातियों के रक्त, संस्कृति और जीवन शैली का संबंध वैदिक रक्त, संस्कृति और जीवन शैली से हुआ होगा और दोनों का सम्मिश्रण होता आया होगा। वैदिक संस्कृति के और अपने को आर्य कहलानेवाले अनेक जनसमुदाय पंजाब में निवास कर रहे थे, यह कहने के लिए जितना ऐतिहासिक प्रमाण है, करीबन उतना ही प्रमाण इस बात के लिए मिल जाता है कि उनमें से कुछ संघ नेपाल में भी निवास कर रहे थे।

भौगोलिक दृष्टि से भूटान भी नेपाल के जैसा ही हिंदुस्थान देश का एक उपक्षेत्र हैं, तथापि संस्कृति की दृष्टि से नेपाल हिंदुस्थान देश का केवल एक भौगोलिक उपक्षेत्र हो न होकर हमारे हिंदू राष्ट्र का एक प्रमुख अंग ही है। वैदिक काल के अंत में और पौराणिक काल के प्रारंभ में तत्रस्थ जातीय वंश जिस तरह हिंदू संस्कृति में एकात्म होते गए उसी तरह उस समय तिब्बत से नीचे उतरते. हुए वहाँ स्थायी निवास करनेवाले समुदाय भी हिंदुत्व में विलीन होते गए। तिब्बत से नीचे उतरनेवाला समुदाय अपने को हिंदू कहलाकर उस महान् संस्था में (हिंदुत्व में) किसी उपजाति की जोड़ लगाकर अंतर्भूत होता है, इस तरह को आज भी रूढ़ दिखनेवाली रोति से इस बात का पता चलता है कि पुराने काल में भी नेपाल के महाद्वार से हिंदू संस्कृति में कैसे वृद्धि होती गई होगी। नेपाल के आचार-विचारों का भारतीय संस्कृति और भारतीय संस्कृति पर तत्रस्थ संस्कृति का कैसे सदैव परिणाम होता गया होगा और उससे अंत में इन आर्य, अनार्य, द्रविड़, गौड़, भिल्ल इत्यादि नानाविध जातियों के सम्मिश्रण से निर्मित संस्कृति पर जितना हम महाराष्ट्रियों, बंगालियों, पंजाब का, उतना ही नेपाल का भी पैतृक उत्तराधिकार है, यह सिद्ध होता है।

तथापि सांस्कृतिक दृष्टि से नेपाल हिंदुस्थान, हमारी हिंदू जाति और राष्ट्र का एक अविच्छिन्न हिस्सा है। यह सिद्ध करने के लिए पौराणिक इतिहास के इस आनुमानिक आधार पर अवलंबित रहने का कोई कारण नहीं है। ऊपर उल्लेखित उपपत्तियाँ और अनुमान कितने सत्य एवं ग्राह्य हैं यह सिद्ध करने का अवसर नहीं है, अतः हमने केवल उनका नाम निर्देश ही किया है; परंतु जो घटनाएँ पौराणिक इतिहास के अँधेरे में नहीं रही हैं, जिनकी वास्तविकता अर्वाचीन इतिहास में लगभग सर्वमान्य हो चुकी है, उनसे भी यह निर्विवाद सिद्ध होता है कि नेपाल भारत के ज्ञात इतिहास में अविच्छिन्न रूप से भारतीय राष्ट्र, संस्कृति और देश का एक प्रांत या प्रदेश है।

सम्राट् अशोक के बाद दूसरे गुप्त साम्राज्य तक जो-जो राज्यक्रांतियाँ भारत में हुईं, उनके धक्के नेपाल को सहने पड़े। जो-जो धर्ममत, जो-जो काव्य पद्धति, जो-जो शिल्पकारी भारत में निर्माण और अस्त हुई, उनके उदय का परिणाम जितना अंग-वंग-कलिंग आदि भारत के अंग-प्रत्यंग पर हुआ उतना ही वह नेपाल पर भी हुआ है। भारत नामक विस्तीर्ण विराट् पुरुष की जो-जो वेदनाएँ और भावनाएँ होती गईं, उनकी संवेदना हमारे जैसे नेपाल को भी हुई थी। नेपाल के इतिहास का विवरण देने का यह प्रसंग न होने के कारण मुख्य घटनाओं का ही उल्लेख नेपाल का भारत साथ होनेवाला बुद्धकालीन तादात्म्य और देशैक्य सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है। बौद्ध काल के अंत में श्रीहर्ष के साम्राज्य में नेपाल अंतर्भूत था। ऐसी कथा कही जाती है कि सम्राट् श्रीहर्ष स्वयं वहाँ गए थे। वहाँ भारतीय कालगणना उपयोग में लाई जाती थी। इतिहास बताता है कि सम्राट् श्रीहर्ष के बाद राज्य क्रांति हुई और नेपाल पर चीन के बौद्धधर्मियों ने बहुत बड़ा आक्रमण किया। परंतु अंत में इस आक्रमण का नेपाल पर या भारत पर चिरकालीन कुछ भी परिणाम नहीं हुआ और नेपाल में फिर भारतीय सत्ता ही राज करने लगी। उस काल से राजपूत काल तक और राजपूत काल से मुसलमानी राजसत्ता आने तक नेपाल पर हिंदू संस्कृति का, हिंदू राजसत्ता का ध्वज अप्रतिहत फहराता रहा।

कभी-कभी चीन और तिब्बत से नेपाल का युद्ध होता था, कभी-कभी एकाध हाथी और थोड़ा सा धन प्राप्त करने जितनी विजय चीन की होती थी तो कभी हमारे नेपाली वीर सीमा पार करके तिब्बत में घुसकर विदेशी सेना की धज्जियाँ उड़ाते थे और उनका गर्वहरण करते थे। पुराने काल में गौड़ देश के प्रचंड देव और उनके अनुयायियों ने नेपाल पर राज्य किया। उनके बाद कर्नाटक के राजा नाच्यदेव अपने हजारों अनुयायियों के साथ नेपाल में आकर वास करने लगे। तेलंगण प्रदेश के हमारे आंध्र बंधु भी नेपाल में आकर सत्ताधारी हुए थे। आज भी नेपाल में तेलंगाणी भाषा और उस भाषा में लिखे हुए लेख प्राप्त होते हैं। हरि सिंह देव नामक राजा अयोध्या से सन् १३२४ में नेपाल में आकर बस गए थे। राजा ने अपने साथ अपनी महाराष्ट्रीय देवता 'तुलजाभवानी' नेपाल में स्थापित की और उसके पूजन के लिए महिषवध प्रारंभ किया। यह राजा और उसकी तुलजाभवानी के महाराष्ट्रीयन भक्त नेपाल में कुछ दिनों तक सत्ताधारी थे। उनके बाद रुद्रदेव, नरेंद्रदेव इत्यादि राजपूत राजा और बँगलादेश के राजा अपने अनुयायियों के साथ नेपाल में राजसत्ता का उपभोग करते रहे। अंत में उदयपुर के घराने का गुरखा वंश सन् १७६८ में नेपाल में सत्ताधारी हुआ। महाराज पृथ्वीनारायण सिंह से आज तक इसी वंश का नेपाल पर अधिराज्य है।

नेपाल के इस संक्षिप्त दिग्दर्शन से यह बात स्पष्ट है कि वैदिक, पौराणिक काल को अलग रखने पर भी अर्वाचीन इतिहास के निर्विवाद साक्ष्य से यह सिद्ध होता है कि नेपाल हिंदुस्थान से गत दो हजार वर्षों से राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक बंधनों से बँधा हुआ है और केवल इस देश का ही नहीं अपितु इस जाति का, रक्त का, संस्कृति का अभिन्न हिस्सा है जितना कि पंजाब, बंगाल, महाराष्ट्र और मद्रास हैं। अगर आज का अभी तक जीवंत नेपाली हिंदू राज्य हिंदुस्थान के अन्य प्रांतों के जैसे मृत हुआ होता-ईश्वर अमंगल का निवारण करे-यदि मद्रास का मानचित्र (नक्शा) भी लाल हुआ होता (अंग्रेज सत्ता में आ जाता) तो नेपाल हिंदुस्थान का हिस्सा है या नहीं ऐसी शंका भी किसी लेखक को न होती, जैसे बिहार प्रांत के बारे में नहीं होती। आश्चर्य की बात यह है कि जाति, रंग और शीर्षमापन की दृष्टि से स्पष्ट रूप से हिंदुस्थानवासियों से एकदम विजातीय दीखनेवाला ब्रह्मदेश हिंदुस्थान ही एक प्रांत है, यह बात जिनकी बुद्धि के नीचे झट से उतरती है, उन्हीं की बुद्धि यह स्वीकार नहीं करती कि रक्त, रूप, रंग, इतिहास, संस्कृति इत्यादि देशैक्य, राष्ट्रैक्य और जात्यैक के सभी लक्षणों से भारत का ही औरसपुत्र नेपाल हिंदुस्थान का ही एक प्रांत है। ब्रह्मदेश पर लाल स्याही छिटक गई है (वहाँ अंग्रेजों का राज है) इसलिए वह हिंदुस्थान का प्रांत हो गया और नेपाल पर स्वतंत्रता की सुनहली तालिका फिर रही है इसलिए वह विदेशी। हिंदुस्थान की ऐसी व्याख्या ये लोग क्यों करते हैं कि जो समाज स्वतंत्र है, वह हिंदुस्थान का हिस्सा ही नहीं है?

इस लेख का उद्देश्य यह बताना नहीं है कि प्रचलित राज्यव्यवस्था में नेपाल हिंदुस्थान का प्रांत या प्रदेश माना जाए या नहीं? किंबहुना वह प्रश्न आज हमारे सामने होनेवाले प्रश्न से एकदम स्वतंत्र होने के कारण एक ही राज्यव्यवस्था में जो विभाग हैं, वे ही देशैक्य में समाविष्ट हो सकते हैं-इस मत की अधिक चर्चा करने का भी कोई कारण नहीं है। प्रचलित राज्यव्यवस्था में नेपाल हिंदुस्थान का प्रांत नहीं है, यह कहने के लिए ब्रह्मदेव की आवश्यकता नहीं है, यह बात तो प्राथमिक पाठशाला का कोई बच्चा भी कह सकता है। और नेपाल आगे चलकर कभी हिंदुस्थान देश का एक छायांकित राजनीतिक प्रांत होगा ही नहीं यह कहने के लिए अगर प्रत्यक्ष ब्रह्मदेव भी उतर आएँ तो भी वह बात विश्वसनीय नहीं होगी। अलसेस और लेरिन नामक दोनों प्रांत फ्रांस से जर्मनी ने जीतकर उनको जर्मन राज्य में समाविष्ट किया था। प्रचलित राज्यव्यवस्था में वे प्रांत और फ्रांस देश भिन्न माने गए हैं इससे क्या किसी ने यह कहा था कि वे फ्रांस देश से भिन्न देश हैं? क्या फ्रेंच लोग यही चिल्लाकर नहीं कह रहे थे कि वे प्रदेश फ्रांस के अखंड और अविच्छेद्य अंग हैं? फ्रांस की राजधानी में मातृभूमि के प्रख्यात व्यासपीठ पर इन दो प्रांतों की सुंदर मूर्तियाँ अन्य प्रांतों की मूर्तियों के पास ही खड़ी की गई थीं। फ्रांस देश का उन प्रांतों पर होनेवाला प्रेम चालीस वर्षों तक उन मूर्तियों के सामने विरह के वेष में घुटने टेक रहा था और उन प्रांतों के प्रतिनिधि यद्यपि प्रचलित राज्यव्यवस्था में नहीं थे फिर भी फ्रांस देशीय सामाजिक, धार्मिक, जातीय, राष्ट्रीय और सांस्कृतिक प्रत्येक फ्रांस देशीय समारोहों और उत्सवों में तथा अर्थ कार्यों अन्य फ्रेंच प्रांतीय प्रतिनिधियों के साथ समान अधिकार, भक्ति तथा प्रीति का स्थान वे प्रतिनिधि प्राप्त करते थे। जर्मनी ने यह तय करने का प्रयत्न किया कि वे प्रांत जर्मन देशीय हैं। वह प्रयत्न भी इस दिशा से नहीं था कि वे प्रांत जर्मनी के प्रचलित राज्यव्यवस्था में आते हैं, अतः वे जर्मन हैं, फ्रांस के नहीं हैं, अपितु उन प्रांतों की संस्कृति, इतिहास आदि के साक्ष्य से वे प्रांत जर्मन ही है-इस सिद्धांत के अनुकूल प्रमाण तैयार करके यह सिद्ध करना कि वे जर्मन ही हैं। इस कार्य के लिए जर्मनी ने प्रख्यात प्रोफेसर इतिहासज्ञ ट्रिश्के की नियुक्ति की और उनको एक विशाल ग्रंथ लिखने की आज्ञा हुई। इस ग्रंथ में प्रतिपादन किया गया है कि कौन सा समाज या प्रदेश किस देश का या समाज का हिस्सा है या प्रांत है-यह प्रचलित और चंचल राज्यव्यवस्था में तय नहीं हो, वह तय होता है उपरिनिर्दिष्ट अनेक कारणों के सम्मिश्रण से।

अलसेस और लोरेन नामक दोनों प्रांत फ्रांस देशीय न होकर जर्मन देशीय हैं यह सिद्ध करने के लिए जितना प्रमाण प्रोफेसर ट्रिश्के को मिला होगा, उसके एक चौथाई प्रमाण भी इस बात का नहीं है कि नेपाल हिंदुस्थानीय प्रांत नहीं है और वह किसी अन्य देश का प्रांत या भिन्न देश है। सीमा पर होनेवाले प्रदेशों में-जिन दो देशों के बीच वह प्रांत या प्रदेश होता है, उनकी उभय जातियाँ और संस्कृति का थोड़ा सम्मिश्रण होता ही है। उसी तरह नेपाल के कुछ इने-गिने लोग कहते होंगे कि वे चीन से आए हैं और कुछ इने-गिने संघों की भाषा चीन के जैसी या तिब्बत के जैसे मंगोलियन भाषा वंश की हो, फिर भी नेपाल तिब्बत का या चीन का प्रांत या प्रदेश नहीं हो सकता। यह इतना स्पष्ट है कि इस तरह कहने का साहस अंग्रेज लेखकों तक को अभी नहीं हुआ है तो चीनी और तिब्बती लोगों का कैसे होगा? शीर्षमापनादि शरीरशास्त्र के अनुसार तो किसी चीनी मनुष्य के सामने अगर कोई नेपाली मनुष्य खड़ा कर दिया तो चीनी मनुष्य की पिचकी आँखों को यह बात क्षणार्ध में समझ आ जाएगी कि श्यामल वर्ण नेपाली अपना नहीं है; परंतु अगर वही नेपाली पटना या बनारस शहर में छोड़ दिया तो पटना या बनारस के व्यक्ति के साथ रंग, रूप, भाषा, संस्कृति आदि के बारे में उस नेपाली की उतनी ही भिन्नता होगी, जितनी किसी महाराष्ट्रीय, पंजाबी या मद्रासी व्यक्ति की। उसका कारण यह है कि हमने ऊपर जो नेपाल का संक्षिप्त इतिहास दिया है उससे सप्ष्ट है कि नेपाल में आंध्र, कर्नाटक, महाराष्ट्र, बंग, अंग, कलिंग, राजस्थान, मगध आदि प्रदेशों के भारतीय जाति के झुंड-के-झुंड गत दो हजार वर्षों से जाकर रहने लगे। वैदिक काल और किरातार्जुनीय पौराणिक कथाओं को छोड़ भी दिया जाए तो भी दो हजार वर्षों से भारतीय जन वहाँ जाकर स्थायी होते आए हैं। इतना ही नहीं, तटस्थ लोगों ने इनके साथ विवाहादि संबंध अनुलोम-प्रतिलोम पद्धति से रखे थे और इस जातीय दृष्टि से नेपाल का रक्त हमारा ही रक्त है, और हमारा रक्त नेपाल का रक्त है; अतः शीर्षमापनादि शरीर परीक्षा में भी नेपाल हिंदुस्थान का हिस्सा है, यह स्पष्ट होता है।

इस तरह कोई भी यह नहीं कह सकता कि भौगोलिक, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, शारीरिक और जातीय लक्षणों का विचार करने पर नेपाल हिंदुस्थान, देश का, राष्ट्र का अविच्छिन्न और अविच्छेद्य प्रदेश या प्रांत नहीं है, फिर भी अगर कोई दुराग्रह से यह कहने लगा कि नेपाल-हिंदुस्थान का और हिंदुस्थान-नेपाल का संबंधी हो ही नहीं सकता, तो हम उसे यह कहते हैं कि हमारा कौन है और हम किसके हैं यह प्रश्न मुख्यत: परस्पर अनुमोदन का, सम्मति का, हृदय का है। हमारा हृदय कहता है कि नेपाल हमारा है। उसके नाम लेने से ही हमारा हृदय प्रेम से, ममत्व से भर आता है, अत: नेपाल हमारा है। हिंदुस्थान नेपाल की पितृभूमि है, पुण्यभूमि है। नेपाल के बच्चे का जन्म होते ही उसकी माता उसे हिंदू वीरों के, महात्माओं के और हुतात्माओं के गीत सुनाती है और मनुष्य की मृत्यु होने पर नेपाली बांधव मृतक की अस्थियाँ तीर्थक्षेत्र गया में या बनारस की गंगा में भक्तिभाव से प्रवाहित कर देते हैं, क्योंकि मृतात्मा परलोक की पुण्यभूमि में प्रविष्ट हो जाए, इसीलिए नेपाल हिंदुस्थान का है। हमारी प्रीति का और ममत्व का एक ही भू, जल, वायु, तेज और आकाश पंचमहाभूत लालन-पालन करते हैं और उनकी अकृत्रिमता का प्रमाण स्वयं इतिहास देता है; अतः नेपाल हमारा है और हम नेपाल के हैं। कश्मीर का प्रदेश जितना और जैसे हिंदुस्थान का है, उतना ही और वैसे ही नेपाल हिंदुस्थान का है, तीर्थक्षेत्र द्वारका जितना हिंदुस्थान का है उतना ही पुशपतिनाथ का तीर्थक्षेत्र हिंदुस्थान का है और जब तक हिंदुस्थान और नेपाल में हिंदू संस्कृति जीवित रहेगी और जब तक प्रकृति का कोई प्रचंड प्रकोप कोई विस्तृत समुद्र खोदकर या कोई दुर्लघ्य पर्वत बीच में खड़ा करके नेपाल हमसे छीनकर नहीं लेगा तब तक नेपाल हमारे हिंदुस्थान देश का अविच्छेद्य विभाग ही रहेगा। नेपाल को हिंदुस्थान से किसी लेखनी की फटकार से अलग करना किसी मनुष्य के लिए संभव नहीं है।

हिमालय के प्रचंड प्राकार से बाहुवेष्टन में पकड़कर नेपाल को प्रकृति ने बाह्य जगत् के आँगन से उठाकर भारतभूमि के अंक में जिस दिन रख दिया, उसी दिन से नेपाल का भारतभूमि की संतानों से अखंड प्रेममय सहोदर का संबंध स्थापित हुआ। उस दिन से वैदिक, पौराणिक और बौद्ध काल में वह संबंध अविच्छिन्न था और संस्कृति के प्रेमपाश से वह और अधिक मजबूत होता गया। आज नेपाल में हम हिंदुओं का, हमारी हिंदू राजश्री का जो गौरव है वह प्रत्यक्ष काशी, प्रयाग में भी नहीं बचा है। काशी-प्रयाग का पानी अनेक बार विदेशियों के उन्मत्त पदप्रक्षालन से गंदा और अपवित्र हुआ है। जहाँ काशी विश्वेश्वर के मंदिर से सटकर ही मसजिद निर्माण हुई, वहाँ अन्य मंदिरों की क्या बात है? परंतु ईश्वर की कृपा से श्रीपशुपतिनाथ के मंदिर का कलश स्थिर नींव पर और शक्तिशाली मुहूर्त पर स्थापित हुआ है। वैदिक काल में वैदिक संस्कृति का ही एक हिस्सा रहनेवाले अफगानिस्तान जैसे देश आज इस संस्कृति से ही हाथ धो बैठे हैं। अफगानिस्तान पर सत्ता चलानेवाले हिंदुओं का शाही राज जिस दिन मुसलमानों के लौहधन के नीचे चकनाचूर हुआ, उस दिन से एक-दो शतकों के भीतर ही अफगानिस्तान हिंदुत्व को केवल भूल ही नहीं गया अपितु वह हिंदुत्व का परम विद्वेषी बन गया। उस मुसलमानी दावानल की होली में हजारों एरंड के वृक्ष जलकर राख हो गए, परंतु किसी फौलादी किले की भाँति नेपाल हजारों वर्ष अपना अस्तित्व बनाए रखते हुए हिंदुत्व की रक्षा करता रहा। इतना ही नहीं, आज भी वह हिंदुत्व के अभिमान से सीना तानकर खड़ा है। उसकी धमनियों में हिंदू रक्त आज भी हिंदुत्व के प्रेम और भक्ति से उछल रहा है।

नेपाल की प्रजा में आज दो धर्मपंथ प्रचलित हैं, दो भिन्न धर्म नहीं। उनमें से जो लोग बौद्धधर्म के अनुयायी समझे जाते हैं वे अपने को हिंदू कहलाने में ही नहीं, मानने में भी बिलकुल नहीं शरमाते हैं। मूलतः बौद्ध धर्म हिंदू धर्म के अनेक पंथों में से एक पंथ रहा है, वह अलग धर्म कभी नहीं था। अब भी नहीं है, परंतु विशेषतः नेपाल के बौद्धधर्मियों की पूजाविधि, तत्त्वज्ञान और देवी-देवताओं में हिंदू धर्म से इतना सादृश्य है कि दोनों हिंदू धर्म के एक ही पंथ के अनुयायी नहीं हैं यह बताने पर भी विश्वास नहीं होगा। सनातन हिंदू और बौद्ध-दोनों पंथों के जो अनेक उपग्रंथ हैं, वे भी हिंदुस्थान के किसी अन्य प्रदेश के जैसे नेपाल में भी अपने भावों के अनुसार भगवान् की प्राप्ति का मार्ग ढूँढ़ते हुए राजमार्ग से निकलकर उसी को कहीं-न-कहीं आकर मिलनेवाले अन्य मार्ग पर यात्रा करनेवाले अंतरजीवों से सहिष्णुता से संवाद करते चलते हैं।

सामाजिक दृष्टि से नेपाल में गुरखा और नेवारी नामक दो भेद हैं। गुरखा लोग पिछले जमाने में मेवाड़ में मुसलमानों के द्वारा त्रस्त होने के कारण अपनी पुरातन छोड़कर नेपाल में आकर यह राज्य स्थापित करनेवाले राजपूतों के वंशज हैं। उनका नाम उनके गो ब्राह्मण प्रतिपालकत्व में महाब्रीद के कारण गोरखा पड़ने की संभावना प्रबल रही है। 'गोरक्षण' को अपना महत्त्व का कर्तव्य समझकर बुद्धानुयायियों ने मंगोलिया, ब्रह्मदेश, चीन, जापान इत्यादि देशों में अभी तक चलनेवाले गोमांसभक्षण का नेपाल में तीव्र विरोध और निषेध किया होगा और इसी से उनका वैशिष्ट्य 'गोरक्षण' नाम का संक्षेप होता गया। आगे चलकर गोरक्ष शब्द से 'गुरखा' अपभ्रंश शब्द उनका जातिवाचक शब्द हुआ होगा। गुरखों की सब रीति-रस्में, उनका शौर्य, ढाढ़स, उनकी विवाह पद्धति, उनकी राज्यरचना, विरुदावली सभी आर्यकुल की ही हैं, वे हिंदू धर्म के कट्टर अनुयायी हैं। दूसरी जाति है। नेवारी नेवारी लोग गुरखों के आने से पहले के नेपाल निवासी हैं। संभवतः नेवारी नाम से ही उस देश को 'नेपाल' नाम मिला होगा; यद्यपि 'नृपाल' शब्द से भी नेपाल नाम हो सकता है, फिर भी नृपाल का नेपाल कब और कैसे हुआ यह ऐतिहासिक प्रमाण के अभाव में समझना कठिन है। नेपाल के नेवारी लोग भी हिंदू धर्म और हिंदुत्व के कट्टर अभिमानी हैं। गुरखा लोग हिंदू धर्म के सनातन पंथ के हैं, पर नेवारी लोग कुछ बौद्ध और कुछ सनातनपंथी हैं। पंथ कोई भी हो, वे हिंदू ही है और बौद्ध पूजा विधि भी सनातनपंथियों के समान ही है, यह ऊपर बताया गया है। उनकी विवाहादि रीति-रस्में ऊपर बताई हुई पद्धति के अनुसार हैं, वैदिक और पौराणिक काल में नेपाल में निवास करनेवाले यक्ष, गंधर्व, किन्नर, भूट, किरातादि मूल जाति के रीति-रिवाजों के वे अवशेष हो सकते हैं अथवा तिब्बत से बार-बार नेपाल में आनेवाली उपजातियाँ हिंदू धर्म में और हिंदू जाति में विलीन होते समय उनके पहले के रीति-रिवाजों के अवशेष होंगे या हिंदू रूप होंगे। गुरखाओं में विवाह-संबंध के बारे में नियम एकदम कड़े हैं, स्त्री को एकपतित्व अनिवार्य है, परंतु नेवारी लोगों में वे नियम दोनों ओर से ढीले हैं और नारी को पुरुष के जितना ही लिंग स्वातंत्र्य देनेवाले हैं। नेवारी विवाह जब तक स्त्री या पुरुष प्रेम से और स्वेच्छा से एकत्र रहने के लिए इच्छुक हैं तब तक ही टिकते हैं। पुरुष को या स्त्री को किसी एक को भी अगर लगा कि अब यहाँ रहना संभव नहीं है तो पुरुष स्त्री की इच्छा का गला घोंटकर भी उसको उसके साथ जबरदस्ती तिरस्करणीय और प्रेमशून्य संभोग करने के लिए विवश नहीं कर सकता। वह नारी केवल एक सुपारी रात को अपने पति के सिरहाने रखकर चली जाती है। सुबह उठकर पति जब सुपारी देखता है तो वह और उसका समाज समझता है कि वे दोनों पुनर्विवाह करने के लिए या अविवाहित रहने के लिए स्वतंत्र हैं। उनके विवाह की यह पद्धति देखकर यक्ष-गंधर्वादि नारियों के पुराणों में वर्णित लिंग स्वतांत्र्य की पद्धतियाँ याद आने लगती हैं और यह अनुमान दृढ़ होता है कि ये लोग उन यक्ष-गंधर्वादि जातियों के ही अवशेष होंगे। प्रीतिविवाह के लिए गंधर्व विवाह नाम इन गंधर्वों में रूप पद्धति के कारण ही प्राप्त हुआ होगा। तथापि तिब्बत में आज भी प्रचलित वैवाहिक पद्धति का अनुकरण या सभी पांडवों के मिलकर एक ही सती द्रौपदी से विवाह करने को पद्धति नहीं पाई जाती।

जैसे मलाबार में नारियों को बहुपतित्व का अधिकार है वैसे ही यहाँ नायर जाति की नारी से ब्राह्मणों का अनुलोम विवाह अब भी प्रचलित है। मलाबार में काफी पहले जब ब्राह्मणों के साथ आए हुए लोग और तत्रस्थ मूल जातियों की संघटना आरंभ हुई तब इस अनुलोम विवाह से ब्राह्मणों और उनके रक्त संबंधी श्रेष्ठ जाति के श्रेष्ठ गुण व बीज नष्ट न होते हुए कनिष्ठों को मात्र अधिकाधिक उच्चत्व की ओर ले जा सकते हैं इस आशा से तय किया गया कि ब्राह्मणों को अपने ज्येष्ठ पुत्र का विवाह ब्राह्मणी से कर देना चाहिए। अन्य ब्राह्मण पुत्र अपने विवाह नायर कन्याओं से प्रेमानुरूप या नायर कन्याओं की रुचि के अनुसार शरीर संबंध कर लें, यही पद्धति रूढ़ हुई। समान परिस्थितियों में समान उपाय सहज ही सूझते हैं। आर्यों के पूर्व इतिहास के अनुभव से उस परिस्थिति में उत्कृष्ट मानी गई यह अनुलोम विवाह की पद्धति समाजशास्त्र को भी सम्मत होने योग्य है, अतः नेपाल में भी उच्च संस्कृति के राजपूत, गुरखा और उस संस्कृति के साथ तादात्म्य स्थापित करने के इच्छुक पर किंचित् कनिष्ठ जाति के नेवारी के मिश्रण से एकजीव और एकप्राण राष्ट्र निर्माण करने के लिए अनुलोम पद्धति को ही स्वीकार किया गया, यह हमारी हिंदू परंपरा के उपयुक्त ही था। आज इन दो जातियों का रक्त ही नहीं, भाषा, स्वरूप और संस्कृति भी एक हैं। मलाबार में या हिंदुस्थान के अन्य प्रांतों में ब्राह्मण कौन है और शूद्र कौन है, यह बताए बिना पहचानना अनेक बार कठिन हो जाता है, इतनी साफ रीति से मूल और नवागत लोगों के मिश्रण से एक राष्ट्रीयता उत्पन्न हुई है। इसी तरह नेपाल में भी बहुलांश यही हुआ है। यह हिंदुओं की प्रवृत्ति जो परकीय विदेशी जाति को अपने विशाल हृदय के बाहुओं में शीघ्र ही समा लेती है- आज भी वहाँ यही कार्य, उसी क्रम से कर रही है। हर दस-बारह वर्षों के बाद तिब्बत की टोलियाँ नेपाल में बसते-बसते हिंदू उपाध्यायों के पूजन में लग जाती हैं, पूजाविधि, संकट या आधि-व्याधि निवारण के समय वे हिंदू उपाध्यायों का ही आश्रय लेते हैं और हिंदू समाज की रीति-रस्म अपनाते हैं। ये जातियाँ हिंदू समाज में इतनी सफाई से एकरूप होती हैं कि दो-तीन पीढ़ियों में वह नवागत की टोली अपने को हिंदू समझने लगती है और हिंदुओं में और एक नई जाति बनकर या किसी पुरानी जाति में मिलकर विलीन हो जाती है। इस तरह नेपाल में हिंदू धर्म और हिंदू जाति का स्वरूप वर्धमान रहने के लिए वहाँ की सहिष्णु रीत-रस्में जितनी कारणीभूत हैं, उतना ही उन लोगों का शौर्य, धैर्यादि सद्गुण और राजनीतिक शक्ति-संपन्नता भी कारणीभूत हुई है।

आज अनेक शतकों से नेपाल पर पूर्ण स्वातंत्र्य का या स्वातंत्र्यप्राय होनवाला ध्वज फहरा रहा है। पुराने समय में कभी-कभी चीनी सम्राटों की नाममात्र, एक-दो हाथी या एकाध शॉल सम्राट् को भेंट चढ़ाने जितनी सत्ता नेपाल पर हो जाती थी, तो कभी-कभी नेपाली वीर सीमा का उल्लंघन करके तिब्बत में उतरकर अपने शौर्य को धाक जमाते थे और अपनी तलवार का पानी दिखाते थे। आगे चलकर नेपाल की अंग्रेजों के साथ एक-दो लड़ाइयाँ हुई, उन लड़ाइयों में नेपाल ने अपने शौर्य की परम सोमा दिखाई और इसी से वह पूर्ण रूप से अंग्रेजों के पंजे में नहीं अटका नेपाल के राजमहल में बार-बार अनेक झंझट निर्माण होते थे। ऐसे ही झंझटों और अंतःकलह का लाभ उठाकर जब अंग्रेज फिर से चढ़ाई करने लगे तब उस ठोकर से नेपाल ने सही पाठ सीख लिया और यह कहना अत्युक्ति न होगी कि गत पचास से पचहत्तर वर्षों में नेपाल के राज्य में एक बार भी अंतःकलह नहीं हुआ है।

नेपाल की राज्यव्यवस्था के अनुसार नेपाल के मुख्य महाराजा राज्य के सेनापतित्व तक का सारा कारोबार अपने मुख्य प्रधान पर सौंपते हैं। मराठों के शाह छत्रपति के जैसे ही नेपाल के महाराजा ने भी यह अधिकार वंश-परंपरा से अपने प्रधान को सौंप दिया है; अतः राज्य और राष्ट्र का धुरीणत्व मुख्य प्रधान के कंधों एवं कर्तृव्य पर अवलंबित होता है। आज के प्रधान ही नहीं, महाराजा भी कर्तव्यदक्ष, देश-विदेश का पर्यटन किए हुए और दुनिया के परिवर्तन से, क्रांतियों से परिचित हैं। नेपाल का सैन्य बल यद्यपि संख्या में कम है, फिर भी हिंदुओं की अन्य रियासतों में सैन्य केवल शोभा के लिए, प्रदर्शन के लिए होता है; नेपाल का सैन्य वैसा न होकर सचमुच का सैन्य है। वह थोड़ा है, फिर भी गुरखा सैन्य है। सैन्य को शक्तिशाली और कार्यक्षम बनाने का प्रयत्न महाराजा और प्रधान दोनों करते हैं, अत: वह लाखों बाजारू सेना को भारी पड़नेवाला है। सैन्य के लिए जैसे ही नवीन शस्त्र - अस्त्र आवश्यक होते हैं, उतने भले ही न हों पर जहाँ तक हो सके सुसज्ज रखे जाते हैं और बढ़ा लिये जाते हैं। नेपाल के अनेक विद्यार्थी राजाज्ञा से जापान में थे। वे यूरोप में नई तोपें तैयार करने की विद्या सीखने के लिए, नवीन शस्त्रास्त्रों और सैनिक शास्त्र की विद्या प्राप्त करने के लिए बीच-बीच में थोड़ी संख्या में भी क्यों न हों, चले जाते हैं। गत लड़ाई में महाराजा ने भेंट के रूप में उत्कृष्ट वायुयानों का एक संच अंग्रेजों को दिया था और कुछ उत्कृष्ट वायुयान स्वराज्य में भी रखे थे। थोड़े ही दिनों में स्वराज्य के लिए आवश्यक वायुयान निर्माण करने का कारखाना अभी बना नहीं है, फिर भी बनने की पूर्ण संभावना है।

नेपाल की सामर्थ्य और शक्ति उनकी इस सेना की तैयारी से नहीं नापी जाती। नेपाल में जितनी तैयार सेना है, उससे कई गुना अधिक नेपाल के सैनिक ब्रिटिशों की सेवा में शिक्षा ले रहे हैं। महाराजा के नेपाल राज्य से गुरखा युवक ब्रिटिशों की सेना में भरती होकर अनेक लड़ाइयों का प्रत्यक्ष अनुभव लेकर आज तक के उत्कृष्ट सैनिक खोजों एवं शास्त्रों का प्रत्यक्ष उपयोग करके और में गुरखा पेंशन लेने पर नेपाल में अपने गाँव जाकर रहने लगते हैं। गत महायुद्ध प्रत्यक्ष जर्मन सेना के साथ लड़े हुए और महासमर में भी सामरिक दाँव-पेंच, साहस और आत्मविश्वास का अनुभव प्राप्त किए हुए हजारों शूर गुरखा नेपाल के देहातों में अपनी नई युवा पीढ़ी और गाँववालों को अपने शौर्य के अनुभव गर्व से बताते हुए मिल जाएँगे। अनेक पीढ़ियों तक वे यही काम करते आए हैं, अत: सामरिक शिक्षा और युद्ध क्षमता गुरखों के बाएँ हाथ का खेल है। नेपाल में प्रत्येक कुटिया में प्रत्यक्ष लड़ाई देखा हुआ एकाध बूढ़ा नेपाली वीर, प्रत्यक्ष लड़ाई पर होनेवाला एक वयस्क और बचपन से लड़ाई की वौरोत्कर्षक कथाएँ व घटनाएँ सुनते हुए तलवार, घोड़ा, बंदूक, कवायत इन खिलौनों से खेलते हुए बड़ा हुआ और समर शिविर में भरती होने के लिए उत्सुक एक युवक अवश्य वास करता है। इस तरह गुरखों की पूरी जमात ही एक बड़ी स्थायी सेना है और उस सेना का महाराजा को और उनके राष्ट्र को प्रेम एवं सामर्थ्य का बहुत बड़ा आधार है। यह निश्चित है कि गुरखा युवक नेपाल की स्वराज्य की सेना में भरती होगा या ब्रिटिशों की सेना में दाखिल होगा।

यह भी तय है कि जो युवक ब्रिटिश सेना में भरती होंगे वे ब्रिटिशों की आज्ञा पालन की शपथ लेते समय स्पष्ट रूप से बताते हैं कि 'अगर कभी ब्रिटिशों और नेपाल के महाराजा की लड़ाई हुई तो स्वकीय, स्वधर्मीय और स्वराष्ट्रीय हमारे नेपाल के महाराजा के साथ लड़ने के लिए हम इस शपथ से बँधे हुए नहीं हैं।' इस तरह आज नेपाल में यूरोप के राष्ट्रों के जैसे न्यूनाधिक प्रमाण में घर-घर में अनिवार्य सैनिकी शिक्षा प्राप्त हो जाती है और इसीलिए यद्यपि स्थायी सेना थोड़ी कम है (यद्यपि वह थोड़ी है फिर भी अन्य किसी भी हिंदी रियासतों की अपेक्षा अधिक है, कहना नहीं होगा संख्या से भी अधिक है), अगर नेपाल की स्वतंत्रता पर संकट आया तो सभी गुरखा लोग, गुरखा जाति नई-से-नई सैनिक शिक्षा प्राप्त सेना का एक समूह ही होगी।

हिंदू बंधुओ! क्या इस बात का महत्त्व सौ रुपए की खद्दर की बिक्री के बराबर भी नहीं है? और अगर होगा तो दो रुपए की खद्दर पूरे दिन में अगर बेची गई तो कृतार्थता माननेवाले इस बुद्ध और मूर्ख युवा पीढ़ी के मस्तिष्क में नेपाल से हुए समझौते का समाचार सुनकर एक क्षण को भी क्यों न हो, कुछ तेजस्वी विचार, कुछ तीक्ष्ण दुःख, कुछ महान् आशाएँ, कुछ साहसिक योजनाएँ क्या निर्माण हुई थीं? कदाचित् हजारों-लाखों में किसी के मस्तिष्क में विचार आया होगा।

तीन-चार वर्ष पहले अंग्रेजों ने अफगान से एक नया समझौता किया और अंग्रेजों ने उनका स्वातंत्र्य मान्य किया, इससे अफगानिस्तान को इतना आनंद हुआ कि प्रतिवर्ष उस दिन की स्मृति में एक स्वातंत्र्योत्सव मनाया जाता है जिसकी प्रतिध्वनि हिंदुस्थान में भी गूंज उठती है। इस साल भी उस स्वातंत्र्य समारोह के लिए हिंदुस्थान में प्रमुख मुसलमानों और हिंदुओं ने भी कुछ ही दिन पहले भोजन समारोह आयोजित किया था। अधिक क्या कह ? पर हैदराबाद के निजाम भी अपना स्वातंत्र्योत्सव मनाते हैं और उसमें बड़े-बड़े मुसलमान नेताओं के वाहियात भाषण होते हैं। जिस हिंदुस्थान में हैदराबाद के निजाम के राज्य स्थापना का समारोह होता है और अफगानिस्तान की स्वतंत्रता के लिए भोजन समारोह होते हैं, उसी हिंदुस्थान में नेपाल की स्वतंत्रता के लिए - शाब्दिक भी क्यों न, पर ब्रिटिशों ने मान्यता दी है-पेड़ की पत्ती तक आनंद से नहीं डोलती!

क्या नेपाल का स्वातंत्र्य दिखावटी है? अगर होगा भी तो हैदराबाद के स्वतांत्र्य से तो कम दिखावटी है। 'नेपाल का स्वातंत्र्य शाब्दिक है।' होगा, पर हैदराबाद को तो शाब्दिक स्वातंत्रता भी नहीं है। सभी हिंदू जनता में आज शाब्दिक स्वातंत्र्य से सच्चे स्वातंत्र्य की ओर ले चलने का प्रयत्न करना हमारा कर्तव्य है, वह कर्तव्य हमें प्राणपण से पूरा करना होगा। क्या हम वह स्वातंत्र्य शाब्दिक है इसलिए उसकी तरफ नाक-भौं सिकोड़कर देखें? नेपाल के साथ जो समझौता हुआ है उसके बारे में अगर हमने चारों ओर सभाएँ आयोजित की होतीं, उन सभाओं में उस समझौते के बारे में कुछ भला-बुरा कहकर खुलेआम और स्पष्ट समाचार प्रसिद्ध करके उसके बारे में चर्चा की होती और प्रेम से नेपाल के इस गौरव का सभी तरह से अभिनंदन करके नेपाल के महाराजा को हम सब हिंदुओं ने हिंदू महासभा की तरफ से हमारा अभिनंदन पहुँचा दिया होता तो नेपाल को अखिल हिंदुओं के समर्थन से अधिक नैतिक शक्ति प्राप्त हुई होती। इससे उनका हिंदू संघटन के आंदोलन की तरफ ध्यान गया होता और हमारे गुरखा बंधुओं के मन में हमारे बारे में राष्ट्र प्रेम और जातीय अभिमान उत्पन्न हुआ होता।

हमेशा यह आक्षेप किया जाता है कि गुरखा लोग हमारे साथ बड़ा रूखा व्यवहार करते हैं, समय पड़ने पर हमारे खिलाफ भी होते हैं; पर इसका दोष जितना गुरखों को दिया जाता है उतना ही वह हमारा भी है। हमने गुरखाओं को कब कितनी और किस प्रकार की सहानुभूति दिखाई है कि जिसके कारण उनके मन में हमारे बारे में जातीय प्रेम उपजे! हमारी राष्ट्रीय सभा को तो नेपाल हिंदुस्थान का ही एक हिस्सा है, ऐसा भी नहीं लगता। इतना ही नहीं, जिन हिंदू संघटनाओं का कार्य नेपाल को उस आंदोलन का केंद्र मानने से शक्तिशाली और द्रुतगति से यशस्वी होने की संभावना है और अखिल हिंदुओं का संघटन करना ही जिनका उद्देश्य है, उन हिंदू संघटनाओं के नेताओं ने भी अब तक नेपाल की सहानुभूति प्राप्त करने के लिए, नेपाल में हिंदुत्व का आंदोलन प्रारंभ करने के लिए कोई भी हलचल नहीं की है। तो फिर गुरखा लोगों में नेपाल के बाहर के हिंदुस्थान के बारे में अगर उदासीनता हो तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है?

हमें अच्छी तरह याद है कि लगभग सोलह वर्ष पहले (लंदन में) एक सिक्ख व्यक्ति से जातीय जागृति के बारे में हमारी बातचीत हुई थी, तब प्रश्न यह उठा था कि पंजाब में जागृति कैसे की जाए? वे सिक्ख उत्कट देशाभिमानी थे, निराशा से गरदन हिलाते हुए उन्होंने कहा, 'आप कुछ भी कीजिए, पंजाब के सिक्खों में जागृति निर्माण करना कठिन काम है।' सचमुच ही उस समय का सिक्ख समाज शैथिल्य, कूपमंडूकता और देशाभिमान शून्यता में ठीक गुरखों के उलट था। हमने उस सिक्ख मित्र की पीठ थपथपाते हुए कहा, 'देखिए, हम जो तय कर रहे हैं, इतनी बातें अगर हमने कीं, तो पाँच वर्षों के भीतर सिक्ख समाज जाग्रत् होकर हड़बड़ाकर उठ ही जाएगा! पाँच वर्षों के भीतर सिक्ख लोग जातीय कार्य के लिए आज के सनातनी युवकों के जैसे ही बलिदान करेंगे। पाँच वर्षों में यह कार्य सिद्ध होगा।'

सिक्ख समाज में प्रचार करने का कार्य तय किए हुए मार्ग से हुआ और पाँच वर्षों के अंदर सिक्ख समाज जातीय जागृति से हड़बड़ाकर जाग्रत् हुआ।

हिंदुत्व के अभिमान, जातीय प्रेम और अपनेपन से अगर हम गुरखाओं को भी अपने हिंदू संघटन की कल्पना का प्रचार उनमें करने के लिए उनसे विनय करें, उनके मन में हिंदू पूर्वजों के पराक्रम, उनकी स्मृति जाग्रत् करनेवाले भाषण और तदनुसार स्नेहमय कार्य करें तो जैसे सिक्ख पाँच वर्षों में हममें शामिल हुए वैसे ही गुरखा भी निश्चय ही हममें सम्मिलित होंगे। यह अंशत: सच है कि उनमें और हममें प्रस्तुत राजनीति का समदुःखोत्पन्न ऐक्य नहीं है, परंतु एक तरह से यह बात आनंददायी भी है। हमारे जैसे उनकी नाक साफ कटी हुई नहीं है, वे हमारे अन्य रियासतों के राजाओं के जैसे अर्थश: नहीं, अक्षरशः परतंत्र नहीं हुए हैं। तीर्थक्षेत्रों की रक्षा करने के लिए उन्हें अभी विधर्मी और विजातीय लोगों के राजपुरुषों की सहायता नहीं लेनी पड़ती और पंढरपुर के मार्ग पर मुसलमानों ने भूमि खरीदकर पंढरी की यात्रा की मनाही करने की भाषा जैसे खुलेआम शुरू की है, वैसे पशुपतिनाथ की यात्रा को जानेवाले लाखों यात्रियों को रोकने की किसी अहिंदू की हिम्मत नहीं है, यह हमारा सद्भाग्य है। इस अर्थ से प्रचलित और मूर्खता की राजनीति और धर्मनीति में नेपाल हमारा सम सुखी-दुःखी नहीं है, यही अच्छा है, क्योंकि उसमें सब दुःख ही है, सुख का नामोनिशान तक नहीं है। हम यहाँ दुःख में डूब गए हैं, यह तो ठीक है, पर कम-से-कम मारा एक भाई वहाँ स्वतंत्रप्राय है और हमसे अनेक गुना सम्मान एवं सुख से जीवन यापन कर रहा है, यही हमारा भाग्य है, फिर भी इस प्रचलित और मूर्खता की राजनीति में सम सुखी-दुःखी न होने पर भी नेपाल हमारी सच्ची राजनीति और धर्मनीति में हमारा असली हिस्सेदार और सम सुखी-दुःखी है ही। नेपाल हिंदू राष्ट्र है और आज हिंदुओं की जो अधोगति हमें चुभती है, वह कल उन्हें भी चुभे बिना नहीं रहेगी। हिंदुओं के हृदय में संघटन के कारण निर्मित विलोभनीय आकांक्षाएँ सफल होने पर उसमें नेपाल की शक्ति भी वृद्धिंगत और संघटित होगी। यद्यपि राजनीति में ऊपरी तौर पर उनका संबंध दिखाई नहीं देता, फिर भी धर्मनीति में नेपाल और हिंदुस्थान के हिताहित में भाव भावना में किंचित् भो भिन्नता नहीं है। पूर्व बंगाल में सन् १९०९ में स्वदेशों आंदोलन के समय जब मुसलमान गुंडों और गुरखों को सहायता लेकर मंदिर में घुसकर हिंदुओं को मारने को बात तय हुई, तब मुसलमान गुंडों ने बेहिचक मंदिर में घुसकर हिंदुओं को यातनाएँ देना शुरू किया, पर यह कर्म गुरखों से सहा नहीं गया। बंगाल में काली माता के मंदिर केवल बंगालियों के ही नहीं हैं, वे तो सभी हिंदुओं के हैं। ऐसे मंदिरों में मुसलमान गुंडों को घुसते हुए देखते ही गुरखों का धर्माभिमान तुरत जाग्रत् हुआ और हिंदुओं का पक्ष लेकर, अपने अधिकारियों की अनुज्ञा की प्रतीक्षा न करते हुए मुसलमान गुंडों पर टूट पड़े और इन गुरखाओं ने मंदिर की रक्षा की। वही स्थिति मलाबार में हुई। दो-तीन साल पहले मोपला लोगों ने जब अत्याचार आरंभ किए और पागल कुत्ते की तरह हिंदुओं पर टूट पड़े तथा हिंदू देवता और धर्म का विनाश आरंभ किया, तब व्यवस्था के लिए भेजे गए गुरखाओं ने हिंदू मंदिरों और हिंदू धर्म की रक्षा इतनी आस्था से की कि हिंदुओं को लगा कि कोई धर्मरक्षक ही प्रकट हुआ है। ध्वस्त मंदिर देखकर और धर्मांतर का दुःख सुनकर वह प्रसंग मानो नेपाल पर ही आ गया है, इस तरह उनका हृदय तिलमिलाने लगा और उन्होंने मोपला लोगों को यथायोग्य सजा दी। ऐसे उत्कट धर्माभिमानी बंधुओं से अगर हमने जाकर उनकी सहानुभूति और हिंदू संघटना के लिए याचना की तो आज न सही कल वह मिल ही जाएगी।

गुरखा लोगों का और हमारा समझौता होगा ही नहीं यह कहना भी असंगत होगा। बीस हजार मील आकर अगर अंग्रेजों ने उनका परिचय प्राप्त कर लिया, उनकी भाषा सीख सके, उनके राजमहल की बड़ी बारीकी से जानकारी प्राप्त कर सके तो हमें हमारे सगे भाई-बंद का, एक घर में रहनेवाले का परिचय नहीं होगा, प्रयत्न करने पर भी नहीं होगा, यह कहना हमारी दुर्बलता की, उत्साह शून्यता की और आलस्य की चरम सीमा होगी। प्रत्येक वर्ष हजारों यात्री नेपाल में पशुपतिनाथ की यात्रा करने जाते हैं और वापस लौट आते हैं। एक-दो नहीं हजारों व्यापारी, व्यवसायी लोगों के समूह तरह-तरह की वस्तुएँ एवं धन ले आते हैं, ले जाते हैं। नेपाल में डॉक्टर, उपदेशक, उपाध्याय, यांत्रिक, शिल्पी, फोटोग्राफर्स (प्रकाश लेखक), गायक, व्यवस्थापक आदि सैकड़ों प्रकार के अधिकार पद पर भारत के सुशिक्षित लोग लाए जाते हैं और आप कहते हैं कि नेपाल से परिचय होना कठिन काम है! वह भी ठीक है, पर हजारों गुरखा ब्रिटिशों की सत्ता में होनेवाले हिंदू प्रांतों में रहते हैं। श्री काशी में गुरखों की एक स्वतंत्र बस्ती बसी हुई है और उनके निमित्त से गरीब से लेकर स्वयं श्रीमंत प्रधानसाहब तक गुरखों का आवागमन वहाँ होता रहता है। बाजार-बाजार में, बड़े-बड़े सैनिक छावनी में, नगरों में वे आपके घर में, मंदिर में मिलते हैं, दुकान में बैठते हैं, तीर्थ में स्नान करते हैं, उत्सव में सम्मिलित होते हैं। उनसे मिलने की बस आपको इच्छा होनी चाहिए। नेपाल से परिचय करना क्या कठिन है ? नेपाल से ही क्यों, उत्तरी ध्रुव पर यदि पाँच हिंदुओं की भी बस्ती क्यों न हो फिर भी वहाँ जाकर उनका परिचय प्राप्त कर लेना हिंदू संघटना का कर्तव्य है। हिंदू जाति के अन्य बांधव एकत्रित हुए हैं, पर हमारे नेपाली बंधु उनमें क्यों भला सम्मिलित नहीं हुए? मातृभूमि और स्वधर्म की रक्षा के लिए पंजाब, महाराष्ट्र, बँगला, सिंध, मद्रास की संतान इकट्ठा होकर सुसज्जित होना चाहती हैं और ऐसे समय उसके नेपाल की लाड़ली संतान कहाँ रह गई? इस आस्था से अगर हम उन्हें ढूँढ़ने के लिए निकलें, उन्हें पुकारें तो इसमें कोई शक नहीं है कि वे हमारे धर्मबंधु शीघ्रता से हम में सम्मिलित होंगे।

परंतु हिंदुस्थान पर पोते गए ब्रिटिश शौर्य का रक्तरंग देखने की जिनको आजन्म आदत हो गई है, उन्हें हिंदुस्थान की लाल रंग की सीमा ही हिंदुस्थान की सीमा लगे और उसके पार का पीला-सुनहला स्वातंत्र्य का रंग देखकर उस रंग का देश हिंदुस्थान के बाहर का कोई देश है ऐसा लगे, यह दुर्दैव से जिनकी आँखों पर पट्टियाँ बँधी हुई हैं उनके लिए स्वाभाविक ही है। अकेले व्यक्ति की ही बात क्यों करें? संघ और संस्थाओं की बुद्धि भी इस विषय में उतनी ही अंधी और बहरी हो गई है। राष्ट्रीय सभा के प्रांतों में नेपाल की गणना नहीं है। हिंदुस्थान के स्वराज्य का विचार करनेवालों के मस्तिष्क में और नित्य सैकड़ों की संख्या में जन्म लेनेवाली एवं नष्ट होनेवाली स्वराज्य की हजारों योजनाओं में नेपाल की गिनती नहीं है। इतना ही नहीं, उन्हें नेपाल का स्मरण भी नहीं होता और वह विदेश का ही एक हिस्सा समझकर उसको कोई महत्त्व नहीं देतीं; क्योंकि अफगानिस्तान, ईरान, तुर्कस्थान अथवा फिलीपींस और फिजी देशों के विचारों-स्मृतियों से भरे हुए हिंदू समाचारपत्रों में नेपाल के बारे में एकाध स्फुट लेख बारह-बारह वर्षों में लिखने की आवश्यकता किसी को महसूस नहीं होती। इसका क्या कारण है? क्योंकि नेपाल अभी तक स्वतंत्र है, नेपाल में हिंदुओं की सत्ता है, नेपाल में हिंदू मंदिर की मूर्तियाँ गजनवी की तलवारों से तोड़ी नहीं गई हैं। नेपाल में हिंदू भक्तों के धार्मिक उत्सवों की शोभायात्रा को और हरिभजन गानेवाले जनसमूह को मसजिद के रास्ते पर से जाते समय 'वाद्यों की आवाज बंद करो' कहने की और अगर हिंदुओं ने सुना नहीं, तो उनके सिर फोड़कर, पालकियाँ तोड़कर 'अल्ला हो अकबर' की गर्जना करने की किसकी हिम्मत है? नेपाल का रंग अभी तक पीला है, नेपाल की राज दुंदुभियाँ अभी तक फूटी नहीं हैं। जितनी हमारी नाक कट गई है उतनी नेपाल की नाक नहीं कटी है। अभी तक नेपाल संपूर्ण रूप से पराजित नहीं हुआ है, इसीलिए यह स्वाभाविक है कि भारत के नकटे-चिपटे, दब्बू और मुखदुर्बल हिंदुओं को नेपाल अपना नहीं लगता। अगर इन्हीं कारणों से नेपाल हिंदुस्थान के बाहर का समझा जाता है, तो भगवान् करे वह यावच्चंद्र दिवाकरौ ऐसे ही हिंदुस्थान के बाहर ही रहे, और संपूर्ण रूप से बाहर रहे। हिंदू धर्म और हिंदूश्री पर श्वेत छत्र धरते हुए इससे भी दूर रहे; नहीं तो हिंदुस्थानी स्पर्शजन्य दास्य छूत की बीमारी के उत्ताप से हिंदुओं की आशा की यह अंतिम कोंपल भी मुरझा जाएगी।

राष्ट्रीय सभा के मंडप में प्रत्येक प्रांत के लिए विभाग आरक्षित हैं। हिंदुस्थान के सभी प्रांत एक हैं। मातृभूमि के मंदिर में उसकी पूजा के लिए सभी पुत्र एकत्रित हुए हैं; परंतु उन पुत्रों में नेपाल को स्थान क्यों नहीं दिया गया? क्या नेपाल हिंदुस्थान के बाहर है? अन्य प्रांतों के समान उस मंडप में एक हिस्सा अन्य प्रांतों जैसे नेपाल का क्यों नहीं आरक्षित रखा गया? अगर यह किया होता और 'नेपाल का स्वागत है' इस करुणामय आमंत्रण के अक्षरों से चिह्नित ध्वजा वहाँ फहराई होती, तो उस दृश्य यहाँ हिंदुओं के मन पर और वहाँ नेपाली बांधवों के मन पर ने कितना नैतिक परिणाम दिया होता। कम-से-कम हिंदू महासभा तो अगले साल से यह व्यवस्था अवश्य करे। जब तक नेपाल के जैसे हाड़-मांसवाला हिंदुओं का प्रदेश और जाति हमारे संघटन में प्रविष्ट नहीं होती और उसकी याद भी हमें नहीं होती, तब तक हमारा हिंदू संघटन पूर्ण नहीं होगा। एतदर्थ अब प्रत्येक हिंदू इस बात का प्रयत्न करे कि वहाँ से नेपाल और हिंदू प्रांतों का संबंध घनिष्ठ-से-घनिष्ठ होगा और यहाँ की नवजीवन की लहरियाँ वहाँ पहुँचेंगी। हिंदू समाचारपत्रों को चाहिए कि वे नेपाल के समाचार, उनका इतिहास, उनकी हलचल, उथल-पुथल आदि बातों पर फुटकर लेख लिखें। नेपाल से वापस लौटे हुए यात्रियों के प्रवास वर्णन, यात्रा वर्णन छापें। नेपाल में कभी न गए हुए लोग पुराने काल के लोगों की तरह पशुपतिनाथ की यात्रा के लिए धार्मिक कर्तव्य की तरह चले जाएँ और हिंदू धर्म के पुनरुज्जीवनार्थ एवं नेपाल के महाराजा की दीर्घायु के लिए प्रार्थनाएँ करें। हिंदू स्वतंत्रता के ध्वज का वह एक छोर गत वैभव की स्मृति जाग्रत् रखने का और उत्तेजित करने का कार्य कर रहा है, इसलिए आनंद प्रकट करना चाहिए। गुरखों में होनेवाले विद्वान् पंडितों और देशभक्तों को आमंत्रण देकर हिंदुस्थान में उनके व्याख्यान आयोजित करें। जहाँ गुरखा मिले वहाँ उसे विनीत भाव से कह देना चाहिए कि 'तुम हिंदू हो, मैं भी हिंदू हूँ। हे बंधु तुम्हारा और मेरा रक्त एक ही है, हम दोनों एक ही हिंदू बीज के हैं, श्रीकृष्ण के भक्त हैं, हम दोनों को एक ही मातृभूमि ने जन्म दिया है। भारत हम दोनों की पुण्यभूमि है। उस भूमि पर, उस धर्म पर, उस जाति पर, उस हिंदुत्व पर आज अवनति की छाया पड़ गई है। मुसलमान कहते हैं कि वे अपनी हिंदू संस्कृति की सुंता करेंगे, तो ईसाई उसे बपतिस्मा देने के इच्छुक हैं। परवशता उसका गला घोंटना चाहती है, दुर्बलता उसका हृदय निचोड़ना चाहती है! हे बंधु, जाग्रत् हो जा, जाग्रत् हो जा। अगर तुम उठ खड़े हुए तो पशुपतिनाथ के मंदिर में हिंदू संघटन का कार्यालय स्थापित किया जाएगा और नेपाल का ध्वज विजयी होगा। तो हे बंधु! तुम्हारी और मेरी मातृभूमि के भाग्य का उदय निकट आ गया है-यह समझ ले और जाग्रत् हो जा।' (विश्व हिंदू महासंघ का कार्य पाँच वर्ष पहले ही श्री पशुपतिनाथ मंदिर के प्रांगण में प्रारंभ हुआ और गत चार वर्षों से मैं उनके कार्यकारी मंडल का सदस्य हूँ। बाल सावरकर, संपादक विक्रम संवत् २०५० / सन् १९५३) ।

हिंदुस्थान के यज्ञागार में अन्य ऋत्विज इकट्ठा हुए हैं, केवल तुम्हारी ही राह देख रहे हैं। अगर मेरी आशाएँ तुम्हारे हृदय में भी उद्दीप्त होंगी तो अपनी हिंदू जाति की वह अत्युच्च और आज असंभव लगनेवाली आकांक्षा भी यशस्वी हो जाएगी। कौन सी आकांक्षा, वह तुम्हें बाद में बताऊँगा।

लेखांक - २

भारत के एक प्रांत की हैसियत से नेपाल की गिनती राष्ट्रीय सभा-कांग्रेस को करनी ही चाहिए

अपने एकमात्र स्वतंत्र राज्य के बारे में हमारे हिंदू लोगों में कितनी अनास्था है, यह अपने लोगों के मन पर अंकित करने के लिए ही खिलाफत के संचालकों ने यह परंपरा आरंभ की है कि अफगानिस्तान का जो कोई राजनीतिक यात्री हिंदुस्थान के मार्ग से आते-जाते मिल जाएगा उसका भरपूर स्वागत किया जाए। कुछ दिन पहले खुद अमीर ही हिंदुस्थान आए थे। नेपाल के राजनीतिक अधिकारी अनेक बार आते-जाते हैं, परंतु उनका गौरव या स्वागत करने की बुद्धि हिंदुओं की एक भी संस्था को अब तक क्यों नहीं आई? नेपाल पर हिंदू स्वातंत्र्य का ध्वज फहर रहा है, अब भी वह शान से हवा में लहरा रहा है, आज भी नेपाल में उत्कृष्ट यूरोपियन सैनिकी शिक्षा में निपुण और जर्मन सैनिकों के साथ वायुयानों से, युद्ध रथों से जी जान से लड़े हुए साठ हजार हिंदू सैनिक हिंदू सेनापति की आज्ञा में हिंदू ध्वज के नीचे तैयार हैं। यह सब छोड़ भी दें तो भी नेपाल में आज हमारे सगे भाई बंधु आधा करोड़ की संख्या में निवास कर रहे हैं, इतनी ही बात हमारा ध्यान आकर्षित करने के लिए काफी है तथापि हिंदू राजनीति में नेपाल का नाम तक नहीं लिया जाता। ऐसा कहा जाता है कि बंगलौर शहर में नेपाल के कर्नल राजा जय पृथ्वी सिंह बहादुर के शुभ कर-कमलों द्वारा पौर्वात्य वस्तुओं के प्रदर्शन का उद्घाटक होने वाला है। अब हिंदुओं की अनेक संस्थाओं में से कुछ संस्थाओं ने अगर अपने इस हिंदू वीर से, कर्नल महाशय से मुलाकात की और उनके मार्ग का पता लगाकर स्थान-स्थान पर उनका स्वागत किया तो नेपाल में और हम में होनेवाला मनोमालिन्य दूर न हो जाएगा तथा हमारा प्रेम और ऐक्य भावना उद्दीप्तहोकर अखिल हिंदू राष्ट्र की संघटना निर्माण होने में क्या कुछ-न-कुछ सहायता नहीं मिलेगी? प्रस्तुत प्रश्न केवल राजा जय पृथ्वी सिंह का ही नहीं है, अपितु जब जब हमारे नेपाली बंधुओं के नेता यहाँ भारत में आएँ तब-तब उनका इसी तरह सामाजिक सम्मान करना, राजनीतिक न होने पर भी राष्ट्रीय स्वागत करना हमारी हिंदू संघटनाओं के लिए अत्यंत लाभदायक ही होगा। इतना ही नहीं, यह हमारा निरपेक्ष जातीय कर्तव्य है।

हिंदू महासभा का भी यह कर्तव्य है कि हिंदू महासभा के आगामी अधिवेशन में नेपाल के कुछ प्रतिनिधि बुलाने की व्यवस्था की जाए। हिंदुओं के उस एकमात्र और स्वतंत्र राज्य का, उस स्वतंत्रता का अभीष्ट चिंतन व अभिनंदन करनेवाला उद्बोधक प्रस्ताव अगर हिंदू महासभा की बैठक में लाया गया और उसके अनुसार हिंदू महासभा के अध्यक्ष यदि नेपाल के महाराजा को उनके अभीष्ट चिंतन का एवं अभिनंदन का प्रस्ताव पोस्टल टेलीग्राफ से या विशेष प्रतिनिधि द्वारा भेज देंगे। तो अपने उस दूरस्थ देशबंधु को, जातिबंधु को, धर्मबंधु को कितना आनंद होगा, कितना अभिमान होगा? हिंदू संघटन कोई परावलंबी संघटन नहीं है। क्या कोई ऐसा तो नहीं समझ रहा है कि गुलामगिरी में जकड़ने का महत्कार्य गुरखों से नहीं हुआ, अतः हमारे नेपाली गुरखा हिंदुत्व से ही हाथ धो बैठे हैं? अगर ऐसा नहीं है, तो फिर जबकि प्रत्येक स्थानीय या प्रांतीय हिंदूसभा में नेपाल की स्वतंत्रता को ब्रिटिशों ने मान्यता दी है, आनंद और अभिमानदर्शक प्रस्ताव क्यों नहीं प्रस्तुत किए जाते ?

हिंदू महासभा के संचालकों में कोई ऐसा समझे या न समझे, पर राष्ट्रीय सभा (कांग्रेस) में ऐसी समझ होगी, क्योंकि हिंदुस्थान देश का जो भाषा के अनुसार प्रांत विभाजन किया है, उसमें नेपाल का बिलकुल उल्लेख नहीं है। राष्ट्रीय सभा अपने को हिंदुस्थान की राष्ट्रीय सभा कहती है, तो फिर केवल ब्रिटिश हिंदुस्थानी ही नहीं, हिंदुस्थान के सभी राष्ट्रभक्तों को उसमें प्रवेश करने का अधिकार है। गोमांतक, पांडिचेरी इत्यादि विदेशी राजसत्ता के अधीन होनेवाले प्रदेश हिंदुस्थान के साथ एकजीव होने चाहिए। हिंदुस्थान का भविष्य निश्चित करने का अधिकार जितना ब्रिटिश हिंदुस्थान के लोगों को है उतना ही पुर्तगाल और फ्रेंच हिंदुस्थान को भी है और पराधीनता में दबे हुए निर्जीव हिंदुस्थान को अगर यह अधिकार है तो उस सजीव स्वतंत्र हिंदुस्थान को, नेपाल के हिंदू राज्य को हिंदुस्थान की राष्ट्रीय भवितव्यता देखने का अधिकार नहीं है-ऐसा कहने की किसकी हिम्मत है ? सभी भारतीयों का अखंड भारतीय राष्ट्र है, देशी रियासतें उस राष्ट्र के घटक प्रदेश हैं। स्वतंत्र नेपाल भी उस राष्ट्र का एक घटक ही है। तो फिर जो राष्ट्रीय सभा उस राष्ट्रका भविष्य आज निर्माण रही देशी रियासतों को अपने कार्य क्षेत्र हिस्सा समझती उसको हिंदुस्थान किसी विभाग अपनी कक्षा बाहर समझने का अधिकार नहीं रह जाता। हिमालय से तक और सिंधु से ब्रह्मपुत्र तक एक भी अणुरेणु कोई उसमें से अलग नहीं कर सकता। अगर यह करना हम जब प्राण वैसा नहीं होने अखिल भारत की एकता बल्कि एकात्मता प्रस्थापित करने हमारे ध्येय, निष्ठा निश्चय की सार्वजनिक घोषणा राष्ट्रीय को, अगर उसे राष्ट्रीय कहलाना है तो, करनी चाहिए। उसने जो भाषा के अनुसार तय हैं, जैसे समाविष्ट हैं किसी मिथ्या कारणों अथवा राजनीतिक गड़बड़ियों से न डरते हुए गोमांतक, हिंदुस्थान नेपाल समावेश करना ही होगा। उनके राष्ट्रीय सभा में भेजने अधिकार देना ही होगा। इस की सभा में यह के हमारे हजारों देशबंधुओं को अपनी राष्ट्रीय एकता की महत्ता समझ आ जाएगी और उससे भी अधिक महत्त्व की बात यह है कि गुरखों के जैसे लाखों देशबंधुओं के विस्मरण का पाप परिमार्जित होगा। इस साल राष्ट्रीय सभा के अधिवेशन के मंडप में नेपाल, गोमांतक, पांडिचेरी आदि हिंदुस्थानी प्रदेशों लिए अन्य प्रांतों के विभागों के जैसे क्या स्वतंत्र विभाग आरक्षित किए जाएँगे? लेखक आशा करता है कि वैसे विभाग दिए जाएँगे।

लेखांक-३

हिंदू सभा का आनेवाला अधिवेशन और नेपाल के बारे में प्रस्ताव (सन् १९२४-२५)

अनेक नेताओं तथा हिंदू सभा ने अपना यह मत पहले ही प्रचारित किया है। कि बेलगाँव में होनेवाले हिंदू महासभा के विशिष्ट अधिवेशन में जो प्रस्ताव अवश्य आने चाहिए, उनके लिए सार्वजनिक सूचनाएँ प्राप्त हुई हैं। पर उन सभी में नेपाल विषयक प्रस्ताव को अग्रस्थान देना चाहिए, किंतु एक-दो स्थानों से इस प्रस्ताव के बारे में जो कुछ शंकाएँ उपस्थित की गई हैं, उनका समाधान सार्वजनिक रूप से करना चाहिए।

'नेपाल के हिंदू महाराजा का स्वातंत्र्य ब्रिटिश सरकार ने मान्य किया, इसके लिए सभी हिंदुओं को अभिमान और आनंद हुआ है और जीर्ण-शीर्ण भी क्यों न हो, परंतु हिंदुत्व का एकमात्र स्वतंत्र ध्वज नेपाल पर फहरा रहा है, यह देखकर प्रत्येक हिंदू के मन में जो आशाएँ और जातीय आकांक्षाएँ जाग्रत् होती हैं, उनको व्यक्त और सूचित करने के लिए नेपाल के महाराजाधिराज को अभिनंदन और अभीष्ट चिंतन विषयक पत्र लिखकर एक प्रतिनिधिमंडल के द्वारा महाराजा की सेवा में प्रस्तुत किया जाए, कम-से-कम डाक द्वारा प्रेषित किया जाए।' यह प्रस्ताव लगभग इन्हीं शब्दों में रत्नागिरी की हिंदू सभा ने, नासिक की हिंदू सभा ने और अन्य अनेक हिंदू सभाओं ने मान्य किया है। यह प्रस्ताव अधिवेशन में भी मान्य किया जाए, इस तरह का मत डॉ. मुंजे, श्री अणे, श्री शंकराचार्य आदि मान्यवरों ने अभी-अभी रखा है। फिर भी अभी किसी को शंकाएँ हों तो निम्नलिखितकारणों का विचार करने से उनकी शंकाओं का समाधान होगा-

१. इस प्रस्ताव से नेपाल की तरफ सभी हिंदू जनता का ध्यान आकृष्ट होगा, किंतु उसके बारे में ब्रिटिश सरकार को नेपाल के बारे में दुर्भावनिर्माण होने का कोई कारण नहीं है, कम-से-कम कोई न्याय्य कारण नहीं है (अतः अंग्रेजों के मन में दुर्भाव होगा यह भय व्यर्थ है), क्योंकि इस प्रस्ताव में वर्णित नेपाल की स्वतंत्रता ब्रिटिशों ने मान्य की है, अतः उसके लिए किया हुआ अभिनंदन दोनों के हिस्से का कार्य का है। इंग्लैंड के राजा तथा नेपाल के राजा ने एक-दूसरे के लिए सहेतु परस्पर टेलीग्राम भेज दिए। उनमें 'His Majesty the king of England' और 'His Majesty the king of Nepal'. इस तरह ही उल्लेख किया गया है, यह बात 'फॉरवर्ड' समाचारपत्र में प्रकाशित हुई है; अतः यह अभिनंदन दोनों के, ब्रिटिशों के भी सौजन्य का है।

२. इस प्रस्ताव का राजनीति से कोई संबंध नहीं है। नेपाल की स्वतंत्रता के कारण हिंदू समाज को सामाजिक, धार्मिक और जातीय गौरव प्राप्त हुआ है और इससे हिंदू संघटना को एक शक्तिशाली, आर्थिक, नैतिक आधार प्राप्त होने वाला है, अतः यह स्वाभाविक ही है कि इसके कारण नेपाल के हिंदू महाराजा का अभिनंदन सभी हिंदू समाज के लिए धार्मिक और जातीय दृष्टि से आवश्यक लगे। यह प्रस्ताव इतना ही सूचित करता है। इसलिए उसके कारण किसी तरह की राजनीतिक गड़बड़ी होना एकदम असंभव है।

३. यदि इस समय हम मौन धारण कर लें तो भी कभी-न-कभी हिंदू संघटन के आंदोलन में नेपाल का समर्थन हमें प्राप्त करना ही चाहिए और जब हम किसी भी तरह से नेपाल विषयक सार्वत्रिक जागृति का प्रयास करने लगेंगे तब आप नेपाल को राजनीतिक झंझट में डाल देंगे- यह चिल्लानेवाला काल्पनिक भय सामने खड़ा हो ही जाएगा। क्या इसलिए नेपाल की जागृति का आंदोलन हमेशा के लिए छोड़ दें?

४. इस तरह के और भी काल्पनिक और कारणरहित भय से डर जाए ऐसानेपाल का राज्य गोबर गणेश नहीं है।

५. इस तरह की अन्यायकारक रीति से अगर कोई धमकी देने लगा तो हमारे नेपाली बंधु अनायास अकल्पित रूप से जाग्रत् हो जाएँगे और स्वसंरक्षण के लिए वे अधिक तैयार और समर्थ होंगे तथा इस तरह की धमकी इष्टापत्ति ही होगी।

६. एक अत्यंत महत्त्व की बात यह है कि यह प्रस्ताव जो हम पेश कर रहे हैं इसमें नेपाल के महाराजा का कोई हाथ नहीं है, उसका उत्तरदायित्व संपूर्ण रूप से हम पर है; अत: कोई इसके लिए नेपाल के महाराजा को उत्तरदायी नहीं माने। राष्ट्रीय सभा ब्रिटिशों के अधीन रियासतों कोअपनी ही समझकर उनके बारे में चाहे जो चर्चा करती है इसलिए ब्रिटिशों ने इसके लिए क्या उन रियासतों को उत्तरदायी ठहराया है ? नेपाल तो स्वतंत्र राज्य है। हमने जो अच्छा-बुरा कह दिया उसके लिए नेपाल को कौन उत्तरदायी ठहराएगा?

७. अंत में, यह ध्यान में रखना होगा कि प्रस्ताव अब नए रूप में प्रसिद्ध होने वाला है, ऐसी बात नहीं है। गत वर्ष से सारे हिंदुस्थान में सौभाग्य से नेपाल विषयक चर्चा प्रारंभ हुई है और इस तरह की इच्छा प्रकट की गई है तथा उसके लिए सार्वजनिक रूप से प्रयत्न प्रारंभ हुए हैं कि नेपाल के हिंदू राज्य को हिंदू संघटना का केंद्र, आधार, कम-से-कम सदस्य तो बनाया ही जाए। यही प्रस्ताव शब्दशः नासिक की हिंदू सभा ने और अन्य अनेक हिंदू सभाओं ने मान्य किया है और उसकी अनुकूल चर्चा 'लोकमान्य', 'स्वधर्म', 'भारतमित्र', 'अग्रसर' आदि महाराष्ट्र, बंगाल, पंजाब के समाचारपत्रों ने स्फुट लेखों से और अग्रलेखों से पहले ही की है। दूसरी बात यह है कि नेपाल के महाराजा को हिंदू सभा का अध्यक्ष स्थान प्रदान करने की इच्छा बड़ी-बड़ी प्रांतीय हिंदू सभाओं, परिषदों ने जताई है। 'फॉरवर्ड' को बै. सावरकरजी द्वारा इसी अर्थ का दिया हुआ टेलीग्राम भी उस वृत्तपत्र में प्रकाशित हुआ है। इसका अर्थ यह है कि हिंदू संघटनाओं का ध्यान नेपाल की तरफ प्रमुखता से लगा हुआ है और वह लगेगा ही-यह बात स्पष्ट रूप से सारी दुनिया को मालूम हुई है और इसके जो कुछ परिणाम होने वाले हैं, वे इस काल्पनिक भीति की तरफ देखकर लगता है, पहले ही हुए हैं और होनेवाले हैं; अतः हिंदू महासभा ने यह प्रस्ताव स्वीकार करने में कोई नई बात की है, ऐसा नहीं है। यह प्रस्ताव स्वीकार कर उसने केवल अपना न्याय्य कर्तव्य किया।

ये सब कारण विवेचन देखकर भी अगर किसी को इस प्रस्ताव का विरोध करने की इच्छा हुई, तो केवल उस व्यक्ति के लिए इस प्रस्ताव को रद्द करना कभी उचित नहीं होगा। विरोध ही हुआ तो कसकर विरोध करके यह प्रस्ताव स्वीकार कर ही लेना चाहिए। फॉरवर्ड में डी.ए. धर्माचार्य नामक नेपाली सद्गृहस्थ ने ही अपना यह मत व्यक्त किया है कि नेपाल के महाराजा को हिंदू संघटन का नेतृत्व स्वीकार करने में कोई हर्ज नहीं होना चाहिए; अतः स्वयं नेपाली लोगों को जो डर छू तक नहीं गया है, उसका यों ही हौआ बनाकर हम जागृति करने का महत्कार्य करने के लिए हिचकिचाएँ, यह बात सर्वथा असंगत है।

लेखांक- ४

नेपाल के आंदोलन पर विपक्ष की आलोचना

इलाहाबाद के 'लीडर' समाचारपत्र में किसी अंग्रेज गृहस्थ द्वारा की गई अपूर्व खोज का मनोरंजक वृत्तांत प्रकाशित हुआ है कि नेपाल हिंदुस्थान का हिस्सा नहीं है। इस गृहस्थ के दृष्टिपथ में यह खोज अभी कैसे उदित हुई, यह जानने की जिज्ञासा सभी के मन में जाग्रत् होना स्वाभाविक ही है।

कोई भी महत्त्वपूर्ण आंदोलन यशस्वी होने से पहले उसको तीन आपदाओं से अपना मार्ग निकालना पड़ता है; इस सामान्य नियम के अनुसार देखा जाए तो नेपाल के बारे में हिंदुस्थान में जो जागृति गत वर्ष हुई, उससे विपक्ष का क्रोध भड़का और इसे सुचिह्न ही समझना चाहिए कि विपक्ष आंदोलन का विरोध करने के लिए आगे आए, क्योंकि इससे नेपाल विषयक आंदोलन उपेक्षा और उपहास की आपदाओं से सुरक्षित बाहर आ जाएगा और यह सिद्ध होगा कि ऊपर उल्लेख की हुई आपदाओं में से अंतिम आपदा का सामना करने योग्य वह सबल हो गया है।

नेपाल की स्वतंत्रता को ब्रिटिश सरकार ने मान्यता दी है, इस बात को करीबन दो साल बीत गए हैं, परंतु फिर भी नेपाल के स्वतंत्र हिंदू राज्य के बारे में भारत के हिंदू लोगों में इतनी अनास्था और हिंदू संघटना के कार्य में उनकी सबल और सुसंघटित सत्ता का कितना महत्त्व का उपयोग होगा-इसके बारे में इतना अज्ञान था कि इस प्रश्न की तरफ किसी हिंदू संस्था का ध्यान नहीं गया। गत साल से महाराष्ट्र के वृत्तपत्रों द्वारा जब यह विषय चर्चा में लाया गया, 'स्वातंत्र्य' (नागपुर), 'लोकमान्य', 'स्वधर्म' इत्यादि समाचारपत्रों ने नेपाल विषयक लेख लिखे और रत्नागिरी, नासिक, पुणे, नागपुर इत्यादि स्थानों की हिंदू सभाओं ने महासभा को नेपाल के स्वातंत्र्य के बारे में अभिनंदन प्रस्ताव पारित करने की और अगर संभव हो तो वहाँ के महाराजा को ही महासभा का अध्यक्ष पद पर सुशोभित करने की विनयकरनेवाला आमंत्रण भेज देने की प्रार्थना की, तब इस जागृति की लहर पंजाब, बंगाल, दिल्ली के हिंदू समाचारपत्रों तक पहुँच गई। बाद में नेपाल विषयक लेख सर्वत्र प्रकाशित होने लगे। हिंदू संघटन का कार्य नेपाल में भी आरंभ करके नेपाल और यहाँ के आज तक अलग हुए हिंदू बांधवों को फिर से एकबार एक ही ध्येय से उत्स्फूर्त और एक ही शक्ति से समर्थ और संघटित करने का अखिल हिंदू समाज का उद्दिष्ट कार्य करना सुलभ होगा, यह बात हिंदू समाज के ध्यान में कुछ-कुछ आने लगी है। अंत में बेलगाँव में हिंदू महासभा के अधिकारी अध्यक्ष पंडित मालवीय जैसे पूजनीय महाशय ने अपनी धुँधली भावना का अस्पष्ट उच्चार करके नेपाल के एकमात्र स्वतंत्र हिंदू राज्य के बारे में अखिल हिंदुओं के मन में होनेवाला आदर और निर्माण होनेवाली आशाएँ प्रदर्शित करनेवाला प्रस्ताव महासभा के सामने रखा और महासभा ने वह एकमत से पास किया।

परंतु हिंदू समाज में जब नेपाल विषयक जागृति हो रही थी, उसका (जागृति का) महत्त्व अस्पष्ट रीति से हिंदू समाज को समझ में आने लगा था तब विपक्ष को उससे कई गुना महत्त्व स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगा था; अतः इस जागृति की आँखों में धूल झोंकने के प्रयत्न उन्होंने अभी-अभी आरंभ भी किए हैं। सिक्खों को सिखाया गया कि वे हिंदू नहीं हैं, वैसे ही गुरखों को भी कि वे हिंदुस्थान के कोई नहीं हैं, यह सीख दी जाने लगी और यह सिद्ध करने के लिए कि नेपाल भौगोलिक, ऐतिहासिक और राजनीतिक दृष्टि से स्वतंत्र राष्ट्र है, लेखों की एक श्रृंखला एक अंग्रेज महाशय ने लिखने का कार्य आज ही हाथ में ले लिया है अथवा उसे सौंपा गया है, यह बात ऊपर का वृत्तांत पढ़कर पाठकों की समझ में सहज आ जाएगी।

इस अंग्रेज महाशय के विचित्र मतों का खोखलापन दिखाने का प्रयत्न उतना ही व्यर्थ और निरर्थक सिद्ध होगा जितना ईश्वर कृपा और अपने पौरुष से अगर महाराष्ट्र स्वतंत्र होता और इसलिए वह हिंदुस्थान का हिस्सा न होकर सिथिया का एक हिस्सा है, ऐसा मत कोई इतिहासज्ञ 'लीडर' (समाचारपत्र) के ऊँट पर बैठकर कहने लगता और हमने उसके मत का निषेध किया होता, तो वह व्यर्थ और निरर्थक होता। इस मत का उल्लेख करने का महत्त्व इतना ही है कि यह बात हमें ध्यान में रखनी चाहिए कि हिंदू संघटन के आंदोलन की तरफ, विशेषत: नेपाल के हिंदू राज्य के ध्वज की छाया में आने के बाद उसको प्राप्त होनेवाले धार्मिक, सामाजिक और जातीय महत्त्व के बारे में संघटन के प्रतिस्पर्धी आँखों में तेल डालकर सजग और सावधान होकर बैठे हैं।

नेपाल हिंदुस्थान का हिस्सा नहीं है, यह कहने की आज जिसकी हिम्मतहुई, उसी के जैसा दूसरा कल यह भी कहने का साहस करेगा कि नेपाली हिंदू ही नहीं हैं। अत: यह दूसरा अपूर्व अन्वेषण होने से पहले ही नेपाल के हमारे हिंदू बंधु वहाँ हिंदू सभा की स्थापना करें। उस हिंदू सभा की तरफ से कुछ प्रमुख नेपाली प्रतिनिधि हिंदू महासभा में भेज दें और आक्षेपकों के मुँह खुलने से पहले ही बंद कर दें। उसी तरह कानपुर की राष्ट्रीय सभा भी यह अधिकारयुक्त वाणी से घोषित कर दे कि नेपाल हिंदुस्थान का अविच्छेद्य और अखंड हिस्सा है

लेखांक -- ५

नेपाल के महाराजा का उत्तर

'हिंदुओं की उन्नति ही मेरी उन्नति है और उनकी अवनति ही मेरी अवनति है।' -महाराजा नेपाल।

रत्नागिरी की हिंदूसभा ने जो कार्य अपने हाथों में लिये थे, उन कार्यों में से नेपालीय आंदोलन भी एक कार्य था। उस कार्य की सफलता के लिए संस्था अपनी शक्ति के अनुसार पहले से ही प्रयत्नशील है। गत वर्ष राखी पूर्णिमा या नारियल पूर्णिमा (श्रावण पूर्णिमा के दिन इस संस्था ने अनेक सम्माननीय नेताओं को राखियाँ भेजी थीं, उसमें अग्रपूजा का सम्मान नेपाल के महाराजा को दिया था। नेपाल नरेश ने उस सुंदर राखी को स्वीकार भी प्रेमपूर्वक पत्र भेजकर किया था। गुरखा संघ की स्थापना होते ही उसका स्वागत सर्वप्रथम इस सभा ने महाराष्ट्र में किया था और उसके एक नेता ने संघ को अभी-अभी पंद्रह रुपए भेज दिए हैं।

उसके बाद इस सभा ने मुंबई में होनेवाले प्रांतीय हिंदू परिषद् के अधिवेशन में एक प्रस्ताव भेजा था कि उस समय नेपाल के किसी प्रमुख नेता को आमंत्रित करके यह जाना जाए कि वहाँ के हिंदू बांधवों में हिंदू संघटना के प्रति कितना प्रेम है, कितना सम्मान है। उस प्रस्ताव के अनुसार मुंबई हिंदू सभा के संचालकों ने श्री आगमगिरी नामक एक गुरखा नेता को कलकत्ता से आमंत्रित करके सम्माननीय मेहमान के नाते एक सभा बुलाई थी। मुंबई हिंदू परिषद् में उनका भाषण हुआ। उस भाषण के समय उनका प्रचंड हिंदू सदस्यों के समुदाय ने जो उत्स्फूर्त स्वागत किया उससे स्पष्ट मालूम होता है कि नेपाल के हिंदू संघटन के बारे में लोकमत कितना अनुकूल होता जा रहा है। श्री आगमगिरी के भाषण का परिणाम दूर-दूर तक हो रहा है। उनके भाषण का अनुवाद 'गुरखाली' नामक नेपाल की मुख्य भाषा में प्रकाशित हुआ है। उन्होंने मुंबई हिंदू सभा के अधिवेशन में हिस्सा लिया और भाषण किया इस बात से नेपाली लोगों में अधिक जागृति आ रही है और परिणामस्वरूप दार्जिलिंग के गुरखा भी हिंदी सभा में समाविष्ट हों, इसलिए गुरखाओं के लेख प्रकाशित हो रहे हैं। दार्जिलिंग के आस-पास के प्रदेश में नेपाली हिंदू लड़कियाँ परधर्मीय लोगों के घर पहले सेविका के नाते काम पर रखी जाती हैं और बाद में उनका धर्मातरण किया जाता है, इस बात ने अब उनका ध्यान आकर्षित किया है और वहाँ हिंदू सभा स्थापित करके संघटित रूप से इस भयंकर घटना का विरोध किया जाए, यह निश्चय किया जा रहा है।

इसी तरह सन् १९२६ के फरवरी महीने में दिल्ली में होनेवाले हिंदू महासभा के अधिवेशन का अध्यक्ष पद नेपाल के महाराजा को ही दिया जाए, इस तरह की सूचना प्रथमतः इसी सभा ने सभी हिंदुओं को दी थी, वह दिल्ली के 'अर्जुन' समाचारपत्र ने श्री गणेशपंत सावरकरजी के पत्र के साथ प्रकाशित की है। उसके परिणामस्वरूप जिन प्रांतों ने अन्य नामों के सुझाव दिए थे, उन्होंने वे नाम वापस ले-लेकर महाराजा का ही नाम सुझाया और अंत में अखिल भारतीय हिंदू महासभा ने महाराजा को अध्यक्ष पद के लिए सादर आमंत्रित किया। यद्यपि वह पद महाराजा को स्वीकारना संभव नहीं हुआ, तथापि हिंदू महासभा को उनकी तरफ से जो उत्तर प्राप्त हुआ, उसमें उन्होंने अध्यक्ष पद पर से जो कहना था, कह ही दिया है। (वह उत्तर लेख के प्रारंभ में ही दिया है।)

हिंदुस्थान में हिंदू संघटन का आंदोलन शुरू होने पर इस संसार के एकमात्र स्वतंत्र नेपाल के हिंदू राज्य को भी इस संघटन के आंदोलन के धक्के लगेंगे ही, उन धक्कों से उनमें नए चैतन्य की जागृति होना भी निश्चित है। दो वर्ष पहले नेपाल का नाम बहुत कम लोगों को मालूम था। नेपाल की हिंदू राज्यशक्ति का अगर समुचित उपयोग किया गया तो हिंदू संघटन को उस शक्ति के कल्पनातीत उपयोग का जो बोध हिंदुस्थान में पाँच-दस लोगों को ही था वह और अधिक लोगों में फैलेगा। गत दो वर्षों से नेपाल विषयक लेखों, चर्चा ने और नेपाल की गुरखा लीग संस्था ने, हिंदू संघटन के वाङ्मय के प्रचार ने गुरखा लोगों में 'हम हिंदू हैं और अखिल हिंदुस्थान का जो सुख-दुःख वही अपना सुख-दुःख है।'- यह भावना तीव्रता से उत्पन्न की है। नेपाल के महाराजा का स्वातंत्र्य जब अंग्रेज सरकार ने भी मान्य किया तब हैदराबाद की हिंदू सभा ने भी महाराजा के अभिनंदन का प्रस्ताव पास किया। उस प्रस्ताव के उत्तर में और अभी दिल्ली में हुई सभा में हिंदू महासभा का अध्यक्ष पद नेपाल के महाराजा को देने का प्रस्ताव सर्वसम्मति से पास हुआ, उस प्रस्ताव के उत्तर में स्वयं नेपाल के महाराजा से भी हिंदुत्व के अभिमान की भावना व्यक्त किए बिना नहीं रहा गया।

'मैं समझता हूँ कि अखिल हिंदू मात्र मेरा धर्मबंधु है, उसकी उन्नति मेरी उन्नति है और उसकी अवनति मेरी अवनति है, अतः हिंदू जाति की उन्नति के लिए मेरा हृदय सदैव चिंता करता है और उस कार्य के लिए मेरे हस्तयत्न सदैव तत्पर रहेंगे।' इस तरह का अभिवचन उस उत्तर में नेपाल के महाराजा ने दिया है।

कुछ दिन पहले जब कलकत्ता में दंगा हुआ था तब सभी हिंदुओं पर आसमान टूट पड़ा, उस समय उसका प्रतिकार करने के लिए गुरखा लोग पहले के जैसे तटस्थ नहीं रहे, हिंदुओं के कंधे से कंधा मिलाकर देवालय की रक्षा के लिए और आततायी विधर्मियों का प्रतिशोध लेने में तत्पर दिखाई दिए। मुंबई की प्रांतीय सभा में नेपाल के जिस प्रतिनिधि को हेतुपूर्वक आमंत्रित किया गया था, उस प्रतिनिधि ने श्री आगमगिरी में जो थर्रानेवाला भाषण दिया था, वह जिन्होंने सुना और पढ़ा, उनको स्पष्ट मालूम हुआ होगा कि गत दो वर्षों के आंदोलन के कारण नेपाली धर्मबंधुओं को हिंदुत्व का, हिंदू राष्ट्र के प्रगाढ़ प्रेम का और उनकी उन्नति के लिए हमें भी जी भर के प्रयत्न करना चाहिए, इस निश्चय का कितना भान हुआ है। यह भविष्य में होनेवाले कार्य का प्रारंभ या सूतोवाच है।

लेखांक- ६

नेपाल की जागृति (सन् १९२७)

गत तीन वर्षों में नेपाल के अपने विस्मृत देश-बांधवों के बारे में अपने नेपालेतर हिंदू प्रांतों में एक-दूसरे के बारे में समझ निर्माण हो रही है, उसी प्रकार और अंशतः उस समझ के कारण तथा नेपाल विषयक जागृति के कारण नेपाली बंधुओं में भी अखिल हिंदू समाज के बारे में उत्कट सहानुभूति एवं ममत्व निर्माण हो रहा है। हिंदू संघटना की प्रसिद्धि की प्रतिध्वनि नेपाल के बड़े नेताओं और विचारवंतों के मन व कृति में अधिकाधिक स्पष्ट हो रहे हैं। तीन वर्षों के पूर्व हिंदुस्थान भर में फैले हुए अपने लाखों गुरखा बंधुओं के मन में यह भावना लगभग न के बराबर थी कि अन्य हिंदू समाज के सुख-दुःखों से अपना सुख-दुःख और हिंदुओं के भवितव्य के साथ अपना भी भवितव्य अविच्छेद्य रूप से जुड़ा हुआ है; अतः वे नेपाली बंधु हिंदुओं के प्रति उदासीन रहते थे। हममें होनेवाले अनेक उत्क्षोभक आंदोलनों में भी वे हमारे साथ संवेदना व्यक्त तक नहीं करते थे। अखिल हिंदू जगत् की आशाओं व आकांक्षाओं को वे तटस्थ होकर विदेशी समाज की तरह निर्विकार होकर देखते थे। इतना ही नहीं, राष्ट्रीय भावना से प्रेरित संघटनात्मक प्रयत्न कोई नहीं करता था; परंतु गत तीन वर्षों से नेपाल हिंदू समाज के अविच्छेद्य हिस्से के रूप में अखिल हिंदू जगत् में अपनी स्वतंत्रता अब तक स्व पराक्रम से अबाधित रखी है, इसलिए उनको अग्रपूजा का सम्मान प्राप्त होना चाहिए, इस प्रवृत्ति से प्रेरित नेपाल विषयक जो आंदोलन चलते आए हैं, उससे नेपालेतर हिंदुओं को नेपाल का महत्त्व समझ में आने लगा है। इतना ही नहीं, नेपाली हिंदुओं को भी अपना महत्त्व इससे पहले ज्ञात नहीं था, ऐसा स्पष्ट दिखाई देता है। हमारे सुख-दुःख के साथ वे भी समरस होना चाहते हैं। हमारी आशाएँ उनके भी हृदय में अंकुरित होने लगी हैं। हमारी तरफ से दिया गया अग्रपूजा का सम्मान स्वीकारते समय उस अग्रपूजा के द्वारा ध्वनित सभी हिंदुओं का प्रमुखत्व पानेवाले पर सभी हिंदुओं के उस महान् ध्येय के लिए परिश्रम करने का उत्तरदायित्व आ जाता है, यह बात भी उनकी समझ में आ गई है। ये हिंदू, हम भी हिंदू। यह हिंदुस्थान हम हिंदुओं की पितृभूमि और पुण्यभूमि है। इसके लिए प्राणों की बाजी लगाना अन्य प्रदेशों के हिंदुओं के जैसे ही हमारा भी परम कर्तव्य है।' नेपालेतर हिंदू और नेपाली हिंदू यह भेद भी केवल राजनीतिक परिस्थिति के तात्कालिक योगायोग से हुआ है, यह स्वाभाविक भेद नहीं है; जैसे बंगाल, जैसे महाराष्ट्र-वैसे ही नेपाल इस आसिंधु-सिंधु हिंदू भूमि का एक प्रांत, हिंदुस्थान देश का एक प्रदेश, इस हिंदू राष्ट्र का केवल एक नागरिक मात्र है, इस तरह की राष्ट्रैक्य की भावना, इस तरह की हिंदुत्व की उत्कट संवेदना नेपाल के अनेक विचारवंतों के हृदय में संचार करने लगी है और हिंदू संघटना के महान् ध्वज के नीचे हम सब हिंदुओं के साथ सुख दुःख के समान हिस्सेदार होकर हिंदू जगत् की महान् आकांक्षा सफल करने के लिए प्रकट रूप से सम्मिलित होने की इच्छा व्यक्त करते हैं।

इस नवीन आशा का उदय होते ही और इस नवीन कार्य की प्रतीति निर्माण होते ही आज तक न देनेवाली जागृति आज नेपाली समाज में दिखाई देने लगी है। महान् ध्येय के दर्शन से ही राष्ट्रीय व्यक्तित्व में महान् शक्तियों का संचार होने लगता है। नेपाल में राष्ट्रीय जागृति के पैदा होनेवाले चिह्न कौन से हैं, उनमें क्या उथल-पुथल चल रही है और हिंदू संघटन की दृष्टि से उनका क्या उपयोग है, यह बात आप सबको विदित होना आवश्यक है, उसी तरह अपने आंदोलन की प्रतिध्वनि उनमें निर्माण करने की भी उतनी ही आवश्यकता है। इन दोनों कमियों को दूर करने के लिए परस्पर विचारों और आचारों से संलग्न वृत्तपत्र वहाँ और यहाँ प्रकाशित होने चाहिए और यह सुनकर किसी भी हिंदू को आनंद ही होगा कि इस बात के लिए गत तीन वर्षों के यत्नों के परिणामस्वरूप केवल गुरखा जाति में ही नहीं बल्कि सभी नेपाली जनता में इस प्रकार के वृत्तपत्र की रुचि जाग्रत् हुई है। बिखरे हुए लगभग दस लाख नेपाली हिंदुओं को संघटित करने के प्रयत्न प्रारंभ अपना महत्त्व उनके ध्यान में आने पर उनमें से प्रमुख लोगों ने ब्रिटिश हिंदुस्थान में किए हैं। परिणामस्वरूप कलकत्ता और देहरादून में संघ स्थापित हुए हैं और देहरादून के संघ ने आंदोलन को अच्छा स्वरूप दिया है। उनके द्वारा दो उत्तम समाचारपत्र प्रकाशित होने लगे हैं, उनमें से अंग्रेजी समाचारपत्र का नाम 'Hymalyan Times' है और वह नेपाली भाषा और देवनागरी लिपि में प्रकाशित होता है; वह भाषा अपने संस्कृतोत्पन्न हिंदू भाषा संघ में से ही होने के कारण हिंदी के जैसी थोड़े से परिचय के बाद समझ में आ सकती है। इन दोनों समाचारपत्रों के प्रकाशित चार-पाँच अंक नियमित रूप से उनके संपादक श्री ठाकुर चंदनसिंह नामक विद्वान् और देशभक्त-सद्गृहस्थ ने मेरे पास भेजे हैं। उन्होंने स्मरण रखकर अंक भेज दिए इसलिए मैं उनको धन्यवाद देता हूँ। इन समाचारपत्रों के माध्यम से हमारे लोगों को उनके विचार जानने का अच्छा साधन मिल गया है और उन वृत्तपत्रों में प्रकाशित महत्त्व के लेख एवं वृत्तांत समय-समय पर हम अपने वृत्तपत्रों में पाठकों के लिए प्रकाशित करनेवाले हैं।

निम्नलिखित भाषांतरित लेखों से स्पष्ट होता है कि हिंदू संघटन की लहर नेपाल में फैलाने के प्रयत्नों को कितना यश प्राप्त होने लगा है और नेपाली जनता में हमारी आशाओं एवं कोशिशों का प्रतिबिंब स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगा है। जिनको गत तीन वर्षों के नेपालीय आंदोलन का ज्ञान है उनके ध्यान में ये बातें तुरंत आ जाएँगी। ऊपर उल्लेख किए हुए नेपाली लेखक ठाकुर चंदनसिंह अपने 'हिमालयन टाइम्स' नामक अंग्रेजी समाचारपत्र में लिखते हैं-

'हिंदुस्थानी साम्राज्य के उत्तर, पूर्व और वायव्य-इन तीन दिशाओं में तीन भिन्न देशों, तीन भिन्न संस्कृतियों और धर्मों के प्रतिनिधि निवास कर रहे हैं। अफगानिस्तान, स्याम और नेपाल- तीनों स्वतंत्र राज्य हैं। हिंदुस्थान के हिंदू जगत् के हित-संबंध और ममत्व की दृष्टि से इन तीनों में नेपाल का राज्य अत्यंत महत्त्व का गिना जाता है। यद्यपि नेपाल का राज्य आगरा, अयोध्या, बिहार और बंगाल से सटकर बसा है, फिर भी नेपाल की जानकारी और परिचय नेपालेतर हिंदुओं को न के बराबर है। सौभाग्य की बात यह है कि अभी-अभी मात्र नेपालेतर हिंदुओं के हृदय में नेपाली बंधुओं और नेपाल के महाराजा के बारे में उत्कट प्रीति जाग्रत् होने लगी है और नेपाल के प्रति अपना प्रेम वे बार-बार प्रदर्शित करने लगे हैं। नेपाल के महाराजा की वर्षगाँठ हिंदुस्थान में अनेक स्थानों पर उत्साह से मनाई गई। नेपाली राजघराने का या सत्ताधिकारियों में से कोई भी उच्चपदस्थ व्यक्ति जब ब्रिटिश हिंदुस्थान में आता है तब हिंदू जनता बड़े प्रेम से उसका स्वागत करती है और नेपालीय हिंदू जनता के बारे में नेपालेतर हिंदुओं के हृदय में अधिकाधिक प्रेमभाव बढ़ने लगा है। हमें लगता है कि यह प्रवृत्ति एकदम स्वाभाविक ही है, क्योंकि इस जगत् के सभी राष्ट्रों में अपने हिंदुस्थान की परिस्थिति बहुत शोचनीय है।

संसार भर की राजनीति में आज ईसाई राष्ट्र सबसे अधिक ताकतवर और अग्रगण्य हो गए हैं। आज इसलामी सत्ता निम्न स्तर पर होने पर भी ईरान, अफगानिस्तान और तुर्कस्तान के बल पर-वे फिर से कभी-न-कभी अपना सिर ऊपर उठाएँगे और ऐसी भी उत्कट महत्त्वाकांक्षा अब भी उनको घेरे हुए है कि सभी एशियाई देशों में वे इसलामी सत्ता स्थापित करेंगे। जापान, चीन और स्याम आदि बौद्ध राष्ट्र भी प्रगति पथ पर हैं और प्रबल हो रहे हैं।

परंतु हिंदू राष्ट्र की स्थिति कितनी शोचनीय है। एक समय था जब इस हिंदुस्थान में हिंदू हो निवास करता था, परंतु अवनति के फेरे में उस स्थिति में परिवर्तन हुआ और आज एक तिहाई जनसंख्या इसलामी पंजे में जकड़ गई है। ऐसी स्थिति में जब प्रत्येक राष्ट्र अपने भविष्य के बारे में प्रयत्नशील है तब इस स्पर्धा में यह स्वाभाविक ही है कि हमारा क्या होगा-इस विचार से, चिंता से हिंदू जनता विचलित हो जाती है। उनके मन में यह विचार आना स्वाभाविक है कि जब अपना राज्य धूल में मिल गया है, जिस आक्रमणशील धर्म के-जिस धर्म को अन्य धर्म के लोगों को साम-दाम-दंड द्वारा अपने धर्म में सम्मिलित करने में कृतार्थता महसूस होती है- लोग हिंदुस्थान में घुस बैठे हैं, घर कर बैठे हैं, और जगत् में नैतिक अथवा राजनीतिक सहायता या सहानुभूति देनेवाली कोई अन्य जाति अस्तित्व में नहीं है, ऐसी परिस्थिति में जो एक छोटा किंतु प्रबल हिंदू राष्ट्र अभी जीवंत बाकी है यह नेपाल का हिंदू राज्य हमें आधार दे। इस तरह के आधार की अपेक्षा करना उनका अधिकार है। नेपाल के उस हिंदू राज्य का यह कर्तव्य है कि वह आधार और स्फूर्ति अपने उन लोगों को, उस राष्ट्र को दे। इस बात के बारे में हमारे मन में बिलकुल शंका नहीं है कि नेपाली जनता के मन में भी अपने ही धर्म के, अपनी ही संस्कृति के, अपने ही इतिहास के, अपने ही रक्त के इस पुरातन हिंदू राष्ट्र के बारे में अत्यंत प्रीति और ममत्व भरा है। अपने इन दोनों देशों के कल्याण के लिए यह बात अत्यंत आवश्यक हो गई है कि नेपाल और हिंदुस्थान दोनों देशों के लोगों में निसर्गतः वास करनेवाला यह प्रेम और ममत्व जिस बात से सतत वृद्धिंगत होता रहेगा, उस प्रकार के प्रयत्न दोनों राष्ट्रों की तरफ से सदैव किए जाने चाहिए। आवागमन के साधनों में सुधार होना चाहिए और अपने इन दो हिंदू देशों में घनिष्ठ बंधुभाव कायम होना चाहिए।

ऊपर उल्लेखित नेपाली संपादक के भाषांतरित लेख के अंत में और बीच में भी नेपाल और हिंदुस्थान दो भिन्न देश हैं-इस तरह की ध्वनि उत्पन्न करनेवाले कुछ वाक्य आए हैं, पर वे अनजान से हैं, इसमें कोई शक नहीं है। परंतु यह नियम हानिकारक है कि शब्दों के अस्पष्ट और हानिकारक उपयोग से विचार भी धीरे-धीरे बन जाते हैं, अत: इस तरह के अत्यंत महत्त्व के विषय के बारे में बोलते समय हम सभी को ध्यान में रखना चाहिए कि शब्द तौल-तौलकर उपयोग में लाएँ। सभी हिंदू लेखकों को हमारी यह प्रेमपूर्वक प्रार्थना है। नेपाल और हिंदुस्थान दो देश हैं, यही हमारे विपक्षी हमारे दिमाग में ठूँस-ठूँसकर भरना चाहते हैं और हम सब यह सिद्ध करना चाहते हैं नेपाल और नेपालेतर हिंदुस्थान एकजीव, एकप्राण अखंड राष्ट्र है। अत: 'महाराष्ट्र और हिंदुस्थान' देश हैं 'बंगाल हिंदुस्थान' ये दो देश अथवा यार्कशायर और इंग्लैंड दो देश हैं या प्रशिया और जर्मनी' दो देश हैं-ये वाक्य जैसे बदतोव्याघात दोष ग्रस्त और इसलिए त्याज्य वैसे नेपाल और हिंदुस्थान ये दो देश हैं, वाक्य सबको त्याज्य ही मानना चाहिए। नेपाल हिंदुस्थान का एक प्रदेश या प्रांत सुदैव आज नेपाल स्वतंत्र और दुर्दैव अन्य प्रांत स्वतंत्र नहीं जैसे महाराष्ट्र अगर स्वतंत्र बचा होता वह इसी कारण हिंदुस्थान बाहर का स्वतंत्र भिन्न देश न होता, वैसे नेपाल नहीं सकता। अगर भेद दिखाना ही है तो कहा जाए कि नेपाल और हिंदुस्थान स्वतंत्र राज्य हैं, राष्ट्र एक है-हिंदुस्थान योगायोग आज चंचल राजनीतिक परिस्थिति कारण खंडत्व प्राप्त कर सकता; हिंदुस्थान और नेपाल अखंड है सब हिंदू यह ध्यान में रखें और बात की स्पष्ट अभिव्यक्ति जाएगी। ऐसी भाषा पहले से उपयोग लाएँ इस तरह की हमारी हिंदू साग्रह विनय सभी हिंदू लेखक ध्यान रखेंगे; हम बात की हार्दिक आशा रखते

लेखांक-७

नेपाली हिंदुओं में संघटन की ज्योति (अप्रैल १९२७)

यह बात हमें अवश्य ध्यान में रखनी चाहिए कि अपना नेपाल प्रांत हिंदुस्थान देश के विस्तार की तुलना में हमें यद्यपि छोटा लगता है, फिर भी जगत् के अनेक स्वतंत्र देशों से उसका विस्तार और जनसंख्या अधिक है। उसका कुल क्षेत्रफल नब्बे हजार वर्ग मील है। नेपाली लेखकों का यह आक्षेप है कि अंग्रेजी ग्रंथों और प्रतिवृत्तों में नेपाल के विस्तार और जनसंख्या को जहाँ तक संभव हो वहाँ तक होन और अल्प करके दिखाने का प्रयत्न किया जाता है। यह स्वाभाविक ही है, क्योंकि इस अखिल हिंदुस्थान में अपना भविष्य फिर से उज्ज्वल करने के लिए जो राष्ट्रीय शक्ति हमारे लिए उपयुक्त हो सकती है, उसमें नेपाल के स्वतंत्र और संघटित राष्ट्र की गिनती प्रमुखता से हो जाती है, इसीलिए उस राष्ट्र की शक्ति की तरफ हमारा ध्यान आकर्षित न हो-यह भावना विपक्ष के मन में होना स्वाभाविक ही है। अंग्रेजों के जैसे राजनीतिपटु लोगों को इसीलिए नेपाल का सामर्थ्य न्यून से-न्यून दिखाने की आवश्यकता पड़ती है; परंतु वस्तुस्थिति वैसी नहीं है। नेपाल की जनसंख्या अंग्रेजी गिनती के अनुसार कितनी भी अल्प दिखाई तो भी नेपाली लेखकों के मत से नेपाल की जनसंख्या एक करोड़ है, इसमें कोई शक नहीं है। हॉलँड, स्पेन, पुर्तगाल, स्विटजरलैंड या सर्बिया, बल्गारिया इत्यादि राष्ट्रों की जनसंख्या और सामर्थ्य से हमारा नेपाल का स्वतंत्र हिंदू राज्य किंचित् भी कम नहीं है तथा पराक्रम की दृष्टि से तो नेपाल उन सभी राष्ट्रों से निश्चित ही श्रेष्ठ है। यह बात प्रत्यक्ष यूरोप के रणांगण में जर्मनों जैसे शूरवीर राष्ट्रों से किए गए। है। समर में नेपालियों ने आजकल ही सिद्ध करके दिखाई है। इस एक करोड़ के हिंदू राष्ट्र में दस लाख सैनिक-लड़ाई और समर शिविरों में निष्णात हुए सैनिक-से रणांगण में उतर जाएँगे, नेपाल की सामरिक शक्ति इतनी प्रबल है। नेपाल की सैनिक होता है प्रत्येक कुटी एक शिविर होता है, उसमें रहनेवाला वृद्ध पुरुष सैनिक पेंशन पानेवाला कुशल सैनिक होता है, युवा नेपाल की या अंग्रेजों की सेना और किशोर बचपन से अपने पिता या दादा के द्वारा लड़ाई में प्रत्यक्ष अनुभव पर आधारित रणकथाएँ सुनता है और कृपाण, कुर्की से या नई से नई बंदूक से खेलता रहता है। नेपाल का समूचा राष्ट्र ही एक सैनिक छावनी है। अब तो उन्होंने अपने राज्य में ही बंदूक, तोपें और अन्य शस्त्रों के कारखाने निर्माण किए हैं, उन कारखानों में नेपाली शिल्पयांत्रिक स्वयं ही तोपें तैयार करते हैं और नेपाली कारीगर शस्त्र तैयार करते हैं। वायुयान की कला भी उन्हें आती है, और इस बात के लिए वे प्रयत्नशील हैं कि वायुयान विभाग की जल्द से जल्द उन्नति करें। नए समझौते के अनुसार नेपाल को चाहे जिस देश से शस्त्रास्त्र खरीदने की स्वतंत्रता है। अंग्रेजों ने ऐसा मान्य किया है।

इस तरह इस सापेक्षतः प्रबल शक्ति का सदुपयोग हिंदुस्थान की महान् आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए कैसे किया जाए? अगर वह कर्म-कुशलता हमारे पास होगी तो हिंदुस्थान के परमोच्च भाग्य का वह दिन हम एक शतक के पहले हो ला सकते हैं।

एतदर्थ ही नेपाली आंदोलन का प्रारंभ हुआ है और उसका प्रथम चरण है, उस महान् शक्ति के अस्तित्व का बोध जिस मारक संकट की लपट में हमारा हिंदू राष्ट्र आज विह्वल हो रहा है, उसी को मारने के लिए हमारे हाथ के नजदीक ही जो साधन पड़ा हुआ है, उस साधन का बोध कराना हमारा पहला काम था। हिंदू संघटन की लहरें नेपाल में पहुँचाकर नेपाली बंधुओं और धर्म बंधुओं में हमारे बारे में होनेवाला नैसर्गिक महत्त्व जाग्रत् करना चाहिए था और नेपालेतर प्रदेशों के हिंदुओं को नेपाल के स्वतंत्र हिंदू राज्य की शक्ति के विनियोग का मंत्र बताना चाहिए था। हिंदू संघटन के प्रत्येक समर्थक को यह बात नया उत्साह दिए बिना नहीं रहेगी कि वह राष्ट्रीय महत्त्व, अखिल हिंदू अभिमान और उसके बारे में उनके कर्तव्य का बोध नेपाली जनता में द्रुत गति से जाग्रत् हो रहा है। नेपाल का महत्त्व और अखिल हिंदू दृष्टि से अपने राष्ट्रीय जीवन का स्वरूप तय करने को उत्कट इच्छा नेपाल में बलवती होने लगी है। नेपाली हृदय में हिंदू संघटन की प्रबल प्रतिध्वनि उठने लगी है।

कुछ दिनों पहले नेपाली जनता में अखिल हिंदू जागृति किस तरह हो रही है, इसके बारे में जानकारी थी। उन्होंने नए नेपाली समाचापत्र प्रारंभ किए हैं, कुछ स्थानों पर गुरखा संघ भी स्थापित हुए हैं। यह जानकारी हमने अपने पहले लेख में दी थी। उसी तरह हिंदुत्व और हिंदू राष्ट्र का गौरव वृद्धिंगत करने का नेपाल का पवित्र कर्तव्य है यह बोध नेपाली लेखकों के लेख में कैसे उत्पन्न हुआ है यह बताने के लिए उन लेखकों के लेखों के एक-दो परिच्छेद भी उद्धृत किए थे। हिंदू संघटन की तरफ नेपाली लोगों का ध्यान कैसे आकृष्ट होने लगा है, यह गत दो महीने पूर्व देहरादून में जो शुद्धि समारोह हुआ, उस समय नेपाल संघ के नेता श्री ठाकुर चंदनसिंहजी द्वारा दिए गए भाषण से प्रकट होता है। उन्होंने कहा, 'इस सभा में मैं गुरखा संघ के प्रतिनिधि के नाते उपस्थित हूँ। स्वामी श्रद्धानंदजी के बलिदान से हम सब हिंदुओं को एक होने और विधर्मी लोगों को हिंदू धर्म की दीक्षा देने के आंदोलन को एक प्रकार की धार्मिक पवित्रता प्राप्त हुई है। अब ऐसा समय आ गया है कि किसी भी विचार के हिंदू शुद्धि से अलग न रहें। इसलामी पुरुषों को शुद्ध करने की अपेक्षा इसलामी स्त्रियों को शुद्ध कर लेने की तरफ हमारा ध्यान अधिक रहना चाहिए। हम गुरखा सनातनपंथीय हैं, पंरतु शुद्धि आंदोलन में हम किसी के भी पीछे नहीं रहेंगे।'

इस तरह से गुरखा संघ के द्वारा चलनेवाले हिंदू संघटन के कार्य के बारे में ठाकुर चंदनसिंहजी ने जो आश्वासन दिया उसकी प्रतीति स्थान-स्थान पर हो रही है। पलुआखाली के सत्याग्रह की जानकारी 'श्रद्धानंद' के पाठकों को है ही। (खंड छठवाँ-'गरमा गरम चिवडा' पुस्तक में लेख क्रम-२ देखिए।) जिस दृढ़ता से अपने हिंदू बांधवों ने गत छह महीनों से हर रोज भजनी मेले वाद्यों को बजाते हुए मसजिदों के रास्तों पर से चलाए और अपना वाद्य बजाने का अधिकार सरकार को, सशस्त्र सिपाहियों को इसलामी गुंडागर्दी की परवाह करते हुए जताते आए हैं उस वीरोचित संघर्ष को देखकर वीर गुरखाओं का रक्त न उबलने लगा होता तो ही आश्चर्य था। नैनीताल के गुरखा समाज ने हमारे हिंदू बांधवों के सत्याग्रह मंडल को लिखित दिया है कि वे हमारी सहायता के लिए आ रहे हैं। उनमें से अनेक ने उस सत्याग्रह में प्रत्यक्ष भाग लेने की बात तय करके गुरखा वीरों की प्रथम टोली पत्वाखाली में सत्याग्रह करने के लिए शीघ्र ही जानेवाली है, इस समय तक समझें वह टोली वहाँ पत्वाखाली में पहुँच गई है। पत्वाखाली सत्याग्रह में या कलकत्ता कोहाट के दंगे के स्थान पर पहले राजनीतिक या धार्मिक किसी भी तरह के आंदोलन के समय शांति रक्षा के नाम पर हिंदुओं के अधिकार पाँवों तले रौंदने के लिए जब-जब सशस्त्र सेना भेजने का प्रसंग आ जाता था तब-तब गुरखा सैनिकों को भेज दिया जाता था; परंतु आज तक उनमें अखिल हिंदुत्व की और हिंदी देशाभिमान की समझ जाग्रत् नहीं हुई थी, अतः उनका बरताव किसी किराए परलाए विदेशियों के जैसा होता था। गत दो तीन वर्षों से नेपाली आंदोलन के परिणामस्वरूप और सार्वजनिक जागृति के कारण हमारे नेपाली बंधुओं में हिंदूल और हिंदू राष्ट्रक्य का उत्कट बोध एवं योग्य अभिमान उत्पन्न होने लगा है। अब पत्वाखाली गाँव में जो घटित हुआ, उसी के समान स्थान स्थान पर होने लगेगा, इसमें कोई शक नहीं है। एक तरफ सरकार की सेना में होनेवाले सशस्त्र गुरखा मसजिद पर से जाते समय हिंदू वाद्यों को बंद करने के लिए संगीनें लेकर खड़े हो जाएँगे तो दूसरी तरफ देशभक्त और धर्मसेवक गुरखा अखिल हिंदू ध्वज की छाया में लड़ते-लड़ते संगीनों के सिर भोथरे कर देंगे। इस तरह धीरे-धीरे इन धर्माभिमानी गुरखों का हिंदुत्व का प्रेम और तेज देखकर स्वजनों के खिलाफ लड़नेवाली गुरखा सेना में भी स्वदेश प्रेम से हिंदुत्व का प्रेम और धर्म-वीरत्व का तेज प्रस्फुटित होगा और तब आज जैसे उनका उपयोग हिंदू धर्म और स्वदेश ही की आकांक्षा के खिलाफ सहजता और खुलेपन से करते हैं वैसा उपयोग वे आगे चलकर नहीं पाएँगे, क्योंकि 'जो हिंदुस्थान देश का हिताहित वही अपना हिताहित है और हिंदू जगत् की उन्नति-पतन ही अपनी उन्नति-पतन है।' यह बात अपने गुरखा बंधुओं को तिलमिलाती आस्था से कहते हैं। उनकी गुरखा लीग का प्रमुख पत्र 'गोरखा संसार' (१५ फरवरी, १९२७) लिखता है-

'हाय! हाय! हम हिंदू लोगों का यह कितना पतन! मुट्ठी भर मुसलमान खैबर घाट से आते हैं और हिंदुस्थान को जीत लेते हैं, महदाश्चर्य! अब भी हम अपना संघटन करके उसमें अस्पृश्यों को, इन कोटि-कोटि धर्म-बंधुओं को अगर अपना नहीं बनाएँगे, तो शीघ्र ही यह हमारा हिंदुस्थान हिंदुस्थान न रहकर इसलामीस्थान हो जाएगा।

'हिंदू बांधवो, अब भी जाग्रत् हो जाओ! हे गुरखा वीरो, आज तक हिंदू जाति को जीवंत रखने के लिए, हिंदू जाति में उत्तेजना लाने के लिए, उसकी रक्षा करने के लिए, इस भारतवर्ष में भविष्य में हिंदू धर्म का जयध्वज गौरव से फहराने के लिए अगर लड़ाई करनी पड़े इसके लिए आज हिंदू समाज में अगर किसी जाति में अन्य जातियों से अधिक शक्ति है तो हे गुरखावीर, तुममें ही है। आज हमारी गुरखा जाति में विद्या का अभाव है, पर हम बलवान और शूरवीर हैं। हमें, हिंदुओं के शत्रु गुरखे मस्तिष्क शून्य जापानी (Japs without brains) कहते हैं। अगर हमने धैर्य धारण करके अपनी वर्तमान स्थिति में सुधार किए तो यह जगत् हमें कहेगा जैसे आज जापानी लोगों को कहते हैं कि ये प्रज्ञावंत और पराक्रमी गुरखालोग हैं। These enlightend and enterprising Gurkhas.

'हे गुरखा जाति, जाग्रत् हो उठ जा। जाग्रत् !! बुद्धि और शक्ति दोनों कासंपादन कर। इस जगत् में इन गुणों से युक्त होकर तू अपना हिंदू धर्म और अपने • आर्यावर्त देश को गौरव के उच्च शिखर पर पहुँचा दे। हर क्षण अपने इस कर्तव्य का स्मरण रखें, तो भविष्य काल में स्वदेश और स्वधर्म का कल्याण हो जाएगा। अगर भी अप्रसन्न होकर ध्येय को भूल जाएगा, तो न तो हिंदू धर्म बाकी रहेगा, न तू हिंदुस्थान।'

ऊपर के परिच्छेद से यह सहज ही ध्यान में आता है कि नेपाली बंधुओं में हिंदुस्थान और हिंदू धर्म के भवितव्य का भार, अन्य किसी की अपेक्षा हमारे सिर पर ही अधिक है और उस कर्तव्य-सागर में हिंदू राष्ट्र का अग्रसरत्व लेकर हमें धर्मक्षेत्र में उतर जाना चाहिए तभी हम हिंदू कहलाएँगे, इस बात का बोध होने लगा है। नेपाली बंधुओं के हृदय में-'इस भूमंडल पर कहीं हिंदू आज बचा नहीं। हिंदू धर्म बच जाएगा अगर तुमने चाहा।' इस मंत्र का गूढ़ दिव्यार्थ प्रस्फुटित होने लगा है। नेपाली आंदोलन सफल होने लगा है।

फिर भी अभी कुछ नहीं हुआ है, यह केवल बीज बोया गया है। कार्य तो आगे होना बाकी है। धर्मक्षेत्र में अभी पराक्रम की बरसात होना बाकी है। फसल काटने का हंगामा तो उससे भी आगे होना है। नेपाली लेखक कहता है, 'जापान का उदाहरण हमारे सामने है। अगर हम गुरखा प्रयत्न करने लगें तो हमारा हिंदू राष्ट्र भी जापान के जैसा ही संसार भर में वर्चस्व प्राप्त करेगा।'

बंधु, तथास्तु ! यह आकांक्षा, यह आत्मविश्वास तुममें निर्माण हो, तुम्हारा सुप्त पराक्रम जाग्रत् हो जाए, इसीलिए तो सारी रात तुम्हें करुणश्व से पुकारता हुआ तुम्हारे भवितव्य पर पहरा देता हुआ बैठा था।

गत फरवरी महीने में नेपाल के इतिहास में लिखने योग्य एक और घटना घटित हुई। नेपाल के राज्य में रेलगाड़ी का प्रवेश हुआ। नेपाल सरकार ने अपनी देख-रेख और अपनी सत्ता की प्रथम रेलवे तैयार करके उसका एक दिन महाराजाधिराज के शुभ कर-कमलों से उद्घाटन समारोह संपन्न किया। नेपाली सेना ने अपने स्वतंत्र अधिपति का प्रचंड उत्साह से और बंदूकों की सलामी देते हुए स्वागत करके उनका विशाल जुलूस निकाला। उस समय महाराजाधिराज के मार्ग पर फूलों के पाँवड़े बिछाए गए थे। इस रेलगाड़ी के कारण नेपाल की यात्रा बहुत ही सुखकर हुई है, इससे भारतीय नवविचारों की यात्रा भी उतनी ही द्रुतगति से हो जाएगी। यह लोहपथ नेपाली और नेपालेतर हिंदुओं के हृदय को और क्रिया को जोड़नेवाला एक प्रबल ज्ञानतंतु ही सिद्ध होगा।

लेखांक-८

श्रीयुत रामानंद चटर्जी

'प्रवासी' नामक बँगला मासिक पत्रिका में श्री रामानंद चटर्जी का 'नेपाल और अफगानिस्तान' नामक विषय पर एक लेख प्रकाशित हुआ है। उसमें उन्होंने नेपाल और अफगानिस्तान की तुलना की है। अफगानिस्तान की जनसंख्या अधिक से-अधिक चौंसठ लाख है और उसमें लड़ाई के काम आनेवाले अधिक-से अधिक तीस लाख शस्त्रधारी होंगे। नेपाल की जनसंख्या भी अंग्रेजी ग्रंथकारों के अनुसार उनसठ लाख है (पर स्वयं नेपाली लेखक नब्बे लाख या एक करोड़ तक बताते हैं)। साहस, पराक्रम और रणकौशल की दृष्टि से नेपाली लोग अफगानों के बराबर हैं। मुसलमान लोग अफगानों का हिंदुस्थान पर कब आक्रमण होगा, इस अवसर की उत्सुकता से प्रतीक्षा कर रहे हैं और वह आक्रमण होते ही अफगानी से मुसलमानों के लिए ही वे अंग्रेजी राज्य को खत्म करना चाहते हैं, और हिंदुस्थान में अफगानी-मुसलमानी राज्य स्थापना करना चाहते हैं- हिंदी मुसलमान बड़े चाव से ये मन के लड्डू खा रहे हैं।

'परंतु' आगे चलकर प्रवासीकार लिखते हैं कि किसी भी हिंदू ने स्वप्न में भी नहीं देखा कि अंग्रेजों का राज्य समाप्त होने पर नेपाल का हिंदू राष्ट्र हिंदुस्थान पर राज्य करने लगेगा। हम हिंदू लोग चिंतन करते हैं कि जब भारतवर्ष से अंग्रेज चले जाएँगे तब हमारा देश स्वाधीन होगा और अफगानिस्तान, नेपाल, तिब्बत, चीन आदि पड़ोसी देशों से बंधु प्रेम विकसित करेगा!'

क्या हिंदुस्थान और नेपाल दो हैं ?

हमें रह-रहकर आश्चर्य होता है कि रामानंद चटर्जी जैसे विज्ञ, अनुभवी और विचारवान लेखक से ऊपर उल्लिखित वाक्य लिखा जाए। यह हम जानते हैं कि राजनीति की पुरानी परंपरा में आजन्म भटकने के कारण जिनकी नवीन भौतिक, साहसिक और क्रांतिकारी या किसी भी नए विचार को ग्रहण करने की शक्ति ही नष्ट हो गई है ऐसे हिंदू प्रमुख समझे जानेवाले सैकड़ों लोगों की यही अनाड़ी कल्पना है कि हिंदुस्थान एक देश है और नेपाल-तिब्बत, चीन की तरह ही दूसरा देश है। परंतु श्री चटर्जी जिनमें अपने प्रसंगों में स्वतंत्र और विशाल विचारों को ग्रहण करने की शक्ति है, ऐसे लेखक भी यदि यह समझते हैं कि नेपाल और हिंदुस्थान दो अलग-अलग देश हैं तो हमें इस बात केवल आश्चर्य ही नहीं, तीव्र दुःख होता है।

बचपन में भूगोल में नेपाल 'स्वतंत्र' देश है- सातवें वर्ष जो कंठस्थ किया था अब सत्रहवें वर्ष में भी हमारे लोग भूल नहीं सकते। भारतीयों की स्मृतिशक्ति श्रेष्ठतम है, इसलिए जगत् में उनका यों ही गौरव नहीं होता है। नेपाल 'स्वतंत्र' देश है यानी हिंदुस्थान के अन्य प्रांतों के जैसे ब्रिटिशों के पंजे में फँसकर परतंत्र नहीं हुआ, इतना ही उसका अर्थ होता है, यह बात हमारे विद्वानों की समझ में भी अभी तक कैसे नहीं आती? हम उनसे यह पूछते हैं कि आप किन कारणों से नेपाल को हिंदुस्थान का पड़ोसी दूसरा देश कहते हैं ?' ब्रिटिश हिंदुस्थान ही हिंदुस्थान है' ऐसी विकृत व्याख्या हमारे सबके मस्तिष्क में गहरी जा बैठी है, क्या यह उसी का परिणाम है। हिंदुस्थान के अनेक प्रांतों की तरह नेपाल भी एक प्रांत होते हुए भी हम उसे पड़ोसी विदेशी देश क्यों समझते हैं? क्योंकि वह प्रांत सुदैव से अभी तक स्वतंत्र है इसके अलावा दूसरा कौन सा प्रमाण उपलब्ध हुआ है? ब्रिटिशों के पंजों में न जकड़ना यानी हिंदुस्थान राष्ट्र से अलग होना, क्या यही स्वराष्ट्र और विराष्ट्र की परिभाषा है? हिंदुस्थान यानी परतंत्र देश! जो स्वतंत्र है, वह दूसरा देश ही होना चाहिए, इस तरह की अत्यंत दास्य प्रवण और दास्य सुलभ विचार प्रणाली नेपाल को विदेश कहनेवाले के उन विचारों में अंतर्भूत है। इस विचार विभ्रम से मुक्ति पाने के लिए वे लोग केवल अपने से इतना ही पूछें कि अगर दुर्दैव से यह बाकी बचा हुआ एकमात्र स्वतंत्र राज्य पंजाब के जैसे ही युद्ध में हारकर अंग्रेजों के पंजे में आ जाता और वह भी अंग्रेजों के गवर्नर जनरल को सत्ता में आ जाता और विधिमंडल में उनके चुनकर आए हुए सहकारी प्रतिनिधि तथा राष्ट्रीय सभा में उनके चुनाव में हारे हुए असहकारी प्रतिनिधि आते-जाते तो नेपाल हिंदुस्थान से विलग विदेश है, एक परराष्ट्र है, क्या ऐसा कभी हमने सोचा होता? बंगाली, मराठी या पंजाबी जैसे एक राष्ट्र के घटक के नाते राष्ट्रीय सभा में एकत्रित बैठ जाते हैं, वैसे ही नेपाली भी बैठ जाते। अगर ऐसा होता तो उनको विदेशी के नाते चुनने के लिए दूसरा कोई प्रमाण प्राप्त होना क्या संभव हो सकता? परंतु केवल ब्रिटिशों द्वारा वध किए हुए अपने स्वातंत्र्य के रक्त का लाल रंग बिहार तक ही सीमित है, अतः हिंदुस्थानी भूगोल लाल रंग का दिखाई देता है। नेपाल तक उसके छींटे दिखाई नहीं देते, इसी से क्या नेपाल विदेशी लगने लगा ? स्वतंत्रता गँवा देनेवाले लापरवाह कर्तृत्व से हम मराठी, बंगाली, पंजाबी आदि हिंदुस्थान देश के नागरिकत्व से वंचित हुए हैं। नहीं, नेपाल ने अपना स्वातंत्र्य नहीं गँवाया हिंदुत्व ध्वज अपने दृढ़ बाहुओं के बल पर अब भी सम्मान के साथ गौरव के आकाश में फहराए रखा है। इस पाप के लिए वह हिंदुस्थान के नागरिकत्व से हाथ धो बैठा। हमने उसे भारतवर्ष के बाहर निकाल दिया, क्योंकि भारतवर्ष का मुख्य राष्ट्रीय लक्षण है 'गँवाना'- वह लक्षण नेपाल में उत्कटता से दिखाई नहीं देता। अंग्रेजों के भूगोल में वे नेपाल को भले ही विदेशी कहें, पर नेपाल अंग्रेजों के हाथ नहीं आया, इसलिए क्या हम नेपाल को विदेशी समझें?

नेपाल ही सच्चा हिंदुस्थान है

अगर देखा जाए तो आज हम हिंदुस्थान के राष्ट्रीयत्व के अधिकार से पदच्युत हो गए हैं। असली या सच्चा भारतवर्ष अगर कहीं जीवंत है, तो वह नेपाल में ही है। बंगाल, महाराष्ट्र, पंजाब आदि हमारे प्रांत भारतवर्ष के श्मशान हैं, क्योंकि हमने भारत का स्वातंत्र्य और हिंदू राष्ट्र का ध्वज परतंत्रता की चिता पर भस्मसात किया है। श्रीकृष्ण और वेद भगवान् के भारत का आज उनके भी साक्ष्य से बड़ा स्वदेश का उत्तराधिकारी होने योग्य कोई उत्तराधिकारी है- तो वह नेपाल ही है। इस पितृ-परंपरागत भारत पर हम सब डुबानेवाले और अकर्मण्य कुलांगारों की अपेक्षा उन वीरवर कुलदीपकों का ही अधिक अधिकार है।

स्वतंत्र होने के कारण नेपाल ब्रिटिश हिंदुस्थान के बाहर होगा ,

पर हिंदुस्थान के बाहर नहीं होगा

स्वतंत्र रहने के कारण भारतवर्ष में समाविष्ट होने का अधिकार नहीं है, तो परतंत्र होने के कारण हमें भी भारतवर्ष का नाम लेने का अधिकार नहीं है। राजनीति के काकतालीय घटना से (संयोग से) नेपाल आज हमारे हिंदुस्थान के अन्य प्रांत संघ के बाहर अकेला पड़ा है, इसलिए वह हिंदुस्थान देश का एक प्रांत न होकर एक विदेश है, ऐसा अभी किसी को लगता हो, तो वह अपने से यह प्रश्न यदि आज महाराष्ट्र या बंगाल स्वतंत्र होता तो केवल इसी कारण क्या हम उसको कि 'विदेश' मानते? स्वदेश कौन सा और विदेश कौन सा? यह बात राजनीतिक उथल-पुथल की दुर्घटना से तय नहीं होती तो वह जाति, भू-जल, निसर्ग, इतिहास और मुख्यतः इच्छा आदि कारणों से निश्चित होती है। कितने आश्चर्य की बात हैकि यह हममें से बहुश्रुत विद्वानों को बताना पड़े।

और अगर किसी हिंदू लेखक को जाति, भू-जल, निसर्ग, इतिहास आदि कारणों से ही नेपाल हिंदुस्थान से भिन्न विदेश लगता हो तो वह बात ऊपर प्रमुख से भी अधिक आश्चर्यकारक समझनी चाहिए। गत दो-तीन वर्ष इस विषय की इतनी चर्चा हिंदुस्थान के प्रत्येक अंग्रेजी और देशी समाचारपत्र में प्रकाशित हुई है। कि मासिक पुस्तक के संपादक जैसे व्यक्ति को, जिसे अद्यावधि (up to date) जानकारी आवश्यक रूप से होती है, इस बात की जानकारी न हो, ऐसा बहुधा नहीं होगा। नेपाल हिंदुस्थान का ही एक प्रांत है और जब हिंदुस्थान स्वतंत्र होगा और उसके सभी भाग-विभाग संयुक्त, एकत्रित करके राष्ट्र बनाया जाएगा, तब महाराष्ट्र के जैसे ही नेपाल भी उस राष्ट्र में नैसर्गिक अधिकार से ही समाविष्ट होगा। यह बात गत दो-तीन वर्षों के आंदोलन से अधिकांश हिंदी नेताओं और सुशिक्षितों के कानों तक पहुँच गई है और उनको जँच रही है। इतना ही नहीं, उसका इतना समर्थन हुआ है कि मुसलमानों को भी नेपाल विषयक हिंदू जागृति से डर लगे।

दिल्ली की खिलाफत परिषद् के अध्यक्ष

इन्होंने भी एक वर्ष पहले हिंदू महासभा के नेता पर ऐसा आक्षेप किया था कि 'मुसलमानों की अफगानिस्तान के विषय में आकांक्षा के प्रत्युत्तर के रूप में हिंदू लोग - नेपाल भारतवर्ष का सहजसिद्ध प्रांत है-इस बात का प्रचार करने लगे हैं। मुसलमानों को इस नए संकट का भी सामना करना पड़ेगा।' खिलाफत परिषद् के अध्यक्षीय भाषण में हमें तो कुछ भी आक्षेप योग्य नहीं लगता। नेपाल के साथ हमारा समझौता होगा ही, क्योंकि वह किसी का प्रत्युत्तर नहीं, वह हमारा आरंभ से ही स्वाभाविक संबंध है।

हिंदुस्थान और नेपाल दो देश ही नहीं हैं

जैसे हिंदुस्थान और बंगाल दो देश नहीं हैं, बंगाल, महाराष्ट्र, पंजाब और मद्रास का एकीकरण करके जैसे प्रकृति ने एक ही हिंदुस्थानी राष्ट्र को अविभाज्य और सहज बनाया है, वैसे ही नेपाल के साथ हमारा एकीकरण सहजता से हुआ है। हिंदुस्थान, नेपाल, बंगाल, महाराष्ट्र इत्यादि हिंदू मात्र का स्वदेश है। हम सब हिंदू एक राष्ट्र हैं, थे और रहेंगे।

आप किन कारणों से नेपाल को विदेश कहते हैं ?

वह हिंदुस्थान के उत्तर की तरफ पर्वतों पर बसा है इसलिए? तो फिर कश्मीर कहाँ बसा हुआ है? कैसे उसको हिंदुस्थान का एक विभाग कहते हैं? नेपाल में तिब्बत मानव वंश का सम्मिश्रण होने के कारण ? पर बंगाल में मंगोलों का, महाराष्ट्र में सिथियन का, राजपूताना में हूणों का, पंजाब में पिशाचों का सम्मिश्रण है ही, इस बात के साक्ष्य के लिए सैकड़ों कथाएँ और दंतकथाएँ क्या प्रचलित नहीं हैं? बंगाल या महाराष्ट्र का हिंदू, तिब्बती या अंग्रेजी मनुष्य से भिन्न और एक-दूसरे से अभिन्न भी दिखाई देता है। नेपाल में मराठी, राजपूत, बंगाल, आंध्र आदि अनेक हिंदू प्रांत के उपनिवेश जाकर वहाँ के लोगों के साथ रक्त-मांस से एकजीव हुए हैं और नेपाल में से अनेक उपनिवेश महाराष्ट्र में आकर हमारे साथ एकजीव हो गए हैं। इतिहास की बात करनी हो तो पांडवों के काल से चंद्रगुप्त तक, पौराणिक प्रमाणों से और गुप्तों से गुरखों तक ऐतिहासिक प्रमाण से भारतवर्ष का या हिंदुस्थान राष्ट्र का नेपाल, महाराष्ट्र, पंजाब, बंगाल के समान ही अविच्छिन्न हिस्सा है। किंबहुना वह चंद्रगुप्त के भारतीय साम्राज्य का निकटवर्ती आधार और उपांग था। अतः किस आधार पर और किस कारण के लिए आप बिहार तक ही हिंदुस्थान की सीमा रेखा मानकर हमारे रक्त के, बीज के और धर्म के नेपाल को हिंदुस्थान के बाहर निकालते हैं? यह विक्षिप्त कल्पना केवल ब्रिटिश हिंदुस्थान के भूगोल में (नक्शे पर भी) नेपाल का उल्लेख नहीं है इसीलिए लोगों के मस्तिष्क में अनजाने घुस गई है। विदेशियों द्वारा रचे हुए भूगोल पत्रक के कागज के लघु टुकड़े से निकाल दिया जाएगा इतना नेपाल का और हमारा एकजीव रक्ताभिसरण कमजोर नहीं है। अतः सभी हिंदू जनता से हमारी इतनी ही विनती है कि नेपाल हिंदुस्थान का अविच्छेद्य भाग है, हमारे राष्ट्र जीवन का, राष्ट्र शरीर का एकजीवी उपांग है, यह भावना रात-दिन जाग्रत् रखिए। ब्रिटिश हिंदुस्थान के भूगोल की रद्दी कॉपी आज है तो कल फट जाएगी। ब्रिटिश हिंदुस्थान के भूगोल के सिवा प्रकृति द्वारा निर्मित हिंदुस्थान दूसरा अमर भूगोल है और उस हिंदू हिंदुस्थान के भूगोल में नेपाल का उल्लेख है। वह तो किसी के धाक या दबाव से मिटाया नहीं जाएगा। हिंदुस्थान और नेपाल- ऐसी भाषा भी अनजाने राष्ट्रद्रोह का ही लक्षण है। जैसे हिंदुस्थान और महाराष्ट्र वदतोव्याघात है, वैसे ही ऊपर का वाक्य भी है। नेपाली बंधुओं और स्वधर्म बंधुओं से हमारी विनती है कि ऐसी भाषा का प्रतिवाद और निषेध जैसा हम करते हैं वैसे वे भी प्रकट रूप से निषेध करें। गत दो-तीन सालों से नेपाल विषयक जागृति के कारण नेपाली लोगों में हिंदू संघटन के तत्त्व विकसित हो रहे हैं, उनके संघ बन रहे हैं। देहरादून से प्रकाशित 'गोरखा समाचार' और 'हिमालयन टाइम्स' नामक राष्ट्रवादी समाचारपत्र, जो हिंदुस्थान को अपना स्वदेश समझते हैं, नेपाल के कर्तव्यनिष्ठ महाशय चला रहे हैं, वे ही कहने लगे हैं कि नेपाल हिंदुस्थान का महाराष्ट्र के समान ही नैसर्गिक, ऐतिहासिक और जातीय विभाग नहीं है। इस अर्थ के प्रतिपादन का तीव्र निषेध करें। नेपाल ब्रिटिश हिंदुस्थान का हिस्सा न होगा, पर हिंदू हिंदुस्थान का भाग है ही। भारत का वह अविभाज्य और राष्ट्रीय पूर्वजपूजित शिरोभूषण है। भारत का जो भवितव्य है वही नेपाल का सच्चा भवितव्य है। नेपाली लोग हमारे लिए विदेशी नहीं हैं, वे तो स्वदेशीय बंगाली, पंजाबी लोगों के जैसे हमारे राष्ट्रबंधु हैं, इसीलिए राष्ट्रीय सभा में भी (कांग्रेस में भी) नेपाल को स्थान मिलना ही चाहिए। जैसे मुंबई, बंगाल इत्यादि विभागों के समूह, गुट रखे जाते हैं, वैसे ही नेपाल के नाम से राष्ट्रीय महामंदिर के सभामंडप में एक उपमंडप आरक्षित रखा जाए और नेपाली प्रतिनिधियों को आमंत्रित करके राष्ट्रीय सभा में समाविष्ट होने का उनका राष्ट्रीय अधिकार उन्हें दे दिया जाए। राष्ट्रीय सभा 'भारतीय राष्ट्रसभा है। वह अपने को 'ब्रिटिश इंडियन कांग्रेस' नहीं कहलाती, 'इंडियन नेशनल कांग्रेस' कहलाती है; अतः पांडिचेरी-गोमांतक को जैसे उसमें समाविष्ट होने का अधिकार है, वैसे ही नेपाल को भी है। इतना ही नहीं, बंगाल, महाराष्ट्र आदि किसी भी प्रांत की अपेक्षा नेपाल को भारतीय राष्ट्रीय सभा में प्रवेश करने का अधिकार अधिक है, क्योंकि भारतीय राष्ट्र का स्वातंत्र्य नेपाल ने अपने विभाग में सुरक्षित रखा है। जिसने भारतीय स्वतंत्रता का ध्वज अब तक परशत्रु के सामने न झुकाते हुए, किसी तरह भी क्यों न हो पर स्वतंत्रता से फहरा रखा है, उस नेपाल को भारतीय राष्ट्र सभा में केवल समाविष्ट करने से काम नहीं चलेगा, नेपाल को अग्रपूजा का सम्मान मिलना चाहिए।

लेखांक- ९

डरना मत,नेपाल,जाग्रत् होकर उठ जा और अपना दरवाजा खटखटानेवाली भाग्यश्री का

स्वागत कर (दिसंबर १९२७)

'साहसे श्रीः प्रतिवसति' भावी महायुद्ध का मुख्य रणांगण रूस होगा। उस रूस और अन्य राष्ट्रों का अंग्रेजी साम्राज्य पर जोरदार आक्रमण होगा। अतः ब्रिटिश साम्राज्य का हृदय हिंदुस्थान की उत्तर सीमा के आस-पास के छोटे-छोटे राष्ट्रों को, जिसमें अफगानिस्तान और नेपाल प्रमुख हैं, युद्ध की दृष्टि से अत्यंत महत्त्व प्राप्त होनेवाला है, यह स्पष्ट है। यह महत्त्व अफगानिस्तान ने पहचाना है-पर नेपाल?

आज नेपाल हिंदुओं की आशा का खड्ग है। उसने अगर समय पर यह महत्त्व जाना और इस अवसर का लाभ उठाने के लिए वीरोचित साहस से प्रयत्न किया तो हिंदू ध्वज भाग्य के परमोच्च बिंदु पर पहुँचाने का अभूतपूर्व सुअवसरसाध सकते हैं, पर क्या नेपाल में यह महत्त्वाकांक्षा जाग्रत् हुई है?

गत दो-तीन वर्षों में हिंदू संघटन की बिजली का झटका नेपाली राष्ट्र को भी थोड़ा-थोड़ा लग गया है और यह संतोष की बात है कि हमारी गुरखा जाति में भी कुछ नवचैतन्य का स्फुरण हुआ है। नए रूप से स्थापित गुरखा संघ की द्वितीय वार्षिक सभा दिसंबर में देहरादून में संपन्न होने वाली है, पर उसमें केवल विधवा विवाह, दहेज आदि रसोईघर की उथल-पुथल की चर्चा होगी, इसलिए उस सभा में कोई विशेष दम नहीं है। ये सुधार उपयुक्त हैं, पर ये काम तो महिलाएँ भी कर सकती हैं। गुरखों के वीर बाहुओं को बेलन-चकले धोने के लिए भगवान् ने उत्पन्न नहीं किया, भगवान् ने उन्हें आज एक महान् राष्ट्र के उद्धार का चुनौतीपूर्ण कार्यसौंपा है। उस कार्य के सुयोग्य भव्य, विशाल महत्त्वाकांक्षा उस संघ में एकत्रित होनेवाले गुरखा वीर क्या अपने मन में दृढ़ता से धारण करेंगे? नेपाल एक स्वतंत्र राष्ट्र है-दुनिया की स्वतंत्र पराक्रमी स्पर्धा में क्या नेपाल का विजयाश्व निर्भयता से कूद पड़ेगा? सभी गुरखा सर्व नेपाल हिंदुत्व के देवता को मस्तिष्क पर धारण करके कार्य क्षेत्र में हो-हल्ला करने के लिए यदि आगे बढ़ेंगे और उथल-पुथल कर प्रचंड गोरखा संघ निर्माण करेंगे तो उनका जन्म सार्थक जाएगा।

दो महीने पूर्व अफगानिस्तान ने अपना स्वातंत्र्योत्सव मनाया। उस समय के राजा के पैरों में सलाम करके एक मुसलमान ने गद्गद होकर पूछा, काबुल 'काबुल के बादशाह! आपके मस्तिष्क पर हिंदुस्थान का बादशाही मुकुट चढ़ने का धन्य दिन कब आएगा ?' उस मुसलमान का यह प्रश्न अफगानिस्तान के ही नहीं, हिंदुस्थान के भी लाखों मुसलमानों के हृदय की गुप्त आशा की प्रतिध्वनि था। उस प्रश्न का जो उत्तर राजा ने दिया वह ऊपर से तो मीठा था, पर गत जर्मन युद्ध से अफगान की गुप्त राजनीति जिनको मालूम है, वे इसमें फँसेंगे नहीं, अंग्रेज तो नहीं ही फँसेंगे। वे सब जानते हैं कि हिंदुस्थान का बादशाह होने की भयानक महत्त्वाकांक्षा अफगानिस्तान के राजा से लेकर रंक तक सबको पागल कर रही है। जान-बूझकर हिंदुस्थान में फैलाए हुए इस समाचार से क्या नेपाल की आँखें खुल जाएँगी? इसका भोषण अर्थ और उससे होनेवाले परिणामों का बोध क्या नेपाल को नहीं हो जाना चाहिए? इस समाचार से गुरखों की नस-नस में क्या नवचैतन्य की विद्युत् प्रवाहमान नहीं होनी चाहिए?

अफगानिस्तान और नेपाल! इन दोनों राज्यों के चैतन्य और कर्तृत्व में कितना अंतर पड़ने लगा है। वास्तविक रूप से अफगानिस्तान की जनसंख्या लगभग नब्बे लाख है और नेपाल के हिंदू राज्य में भी कम-से-कम उतनी ही है। अफगानिस्तान को पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त हुई है, वैसे नेपाल भी आज पूर्ण रूप से स्वतंत्र है। नेपाल में प्रत्येक नागरिक सशस्त्र है; इतना ही नहीं, प्रत्येक सज्ञान युवक एक सैनिक ही है। नेपाल का झोंपड़ा तक एक छोटा सा शिविर है, एक छोटी सी सैनिक छावनी है, क्योंकि उसमें रहनेवाले दादा अंग्रेजों की या नेपाल की सेना में युद्धकर्म में जीवन बिताकर अब निवृत्तिवेतन लेनेवाला कोई वृद्ध वीर होता है, उस झॉपड़े के मुख्य निवृत्त वृद्ध वीर का बेटा, भतीजा नेपाल की या अंग्रेजों की सेना में कहीं-न-कहीं नौकरी करनेवाला या किसी के रणांगण में प्रत्यक्ष लड़ाई लड़नेवाला शूरवीर होता है और झोंपड़े में वास करनेवाले किशोर नाती, उस लड़ाकू वीर का बच्चा अपने दादा और पिता के मुँह से युद्ध के वर्णन सुनते हुए अपनी तलवार की खुरकी या बंदूक से खेलता है। ये सैनिक हमारे यहाँ के परतंत्र रियासतों में होनेवाले भाड़े केटट्टू नहीं होते, उनके द्वारा खेले हुए रण में अर्वाचीन युद्धकला के आधुनिक से आधुनिक आयुधों का उपयोग किया होता है। ये सैनिक शूर से शूर जर्मन तोपों पर टूट पड़ते हैं और अफगान के कट्टर-से-कट्टर सीमांत पर खड़े उजड्डों की छाती में खुरकी घोंप खड़े रह जाते हैं, विषैले धुओं के वातावरण में डटे रहते हुए संघर्ष करते हैं, ऊपर से भयानक नए स्फोटकों की वर्षा करनेवाले जर्मन वायुयान को नीचे से गोलियाँ दागकर पंछी के जैसे जमीन पर गिरा देते हैं। हमारे यहाँ के जो सैनिक अंग्रेजी सैनिकों के साथ यूरोपीय युद्ध में पीछे न हटते हुए लड़ते रहे वैसे ही नेपाली सैनिक लड़ते रहते हैं। हमारे यहाँ के हिंदी सिपाहियों को अंग्रेजों के आधिपत्य में ही शत्रु से टक्कर लेने की परावलंबी आदत सी पड़ गई है। स्वतंत्रता से लड़ाई करने का कभी मौका न मिलने के कारण ऐसा हुआ है। यह आदत हमारे नेपाल के हिंदू सैनिकों को नहीं लगी; अतः वे अपने हिंदू सेनापति की आज्ञा के अनुसार स्वतंत्रता से और अनुशासन से लड़ सकते हैं। नेपाल में केवल सैनिक ही नहीं, प्रबल हिंदू सेनानी, सेनापति भी हैं जिन्होंने सैन्य संचालन में यूरोप जैसे युद्ध शास्त्र में अग्रणी भू-खंड में भी अपना सेनापतित्व निपुण रीति से दिखाया है। नेपाल में जापान आदि देशों से शिक्षा प्राप्त युद्ध सामग्री तैयार करनेवाले शिल्पी हैं। इतना ही नहीं, नई तोपें तैयार करनेवाले और तोपों के अन्य अग्निनलिकाओं की रचना में सुधार करके नवीन शस्त्र निर्माण करनेवाले कल्पक भी हैं। पहले नेपाल को सभी शास्त्रस्त्र ब्रिटिश हिंदुस्थान से ही लेने पड़ते थे; परंतु अब नेपाल ने वह शर्त अमान्य कर दी है, अब नेपाल दूसरे किसी स्वतंत्र राष्ट्र के जैसे शास्त्रास्त्र चाहे जिस देश से आयात कर सकता है। अफगानिस्तान में कुल लड़ाकू सैनिक अधिक-से-अधिक पच्चीस लाख तैयार कर सकते हैं, नेपाल में भी उतने ही लड़ाकू निर्माण कर सकते हैं। नेपाल और अफगानिस्तान के आर्थिक सामर्थ्य और प्राकृतिक सामर्थ्य में कोई विशेष फर्क नहीं है। हिमालय की दुर्लघ्य घाटियों से नेपाल को सुरक्षा प्राप्त होती है। नेपाल को समुद्र किनारा न होने के कारण उसका गतिरोध होता है, तो अफगानिस्तान में वही स्थिति है और इसीलिए अफगानिस्तान कराची बंदरगाह को अपने कब्जे में लेना चाहता है।

आज की जागतिक राजनीति के उथल-पुथल में नेपाल से अधिक अफगानिस्तान का भाग्य नहीं खुला है। अफगानिस्तान की एक बाजू में अंग्रेज खड़े हैं, वैसे नेपाल के भी बाजू में अंग्रेज हैं ही। अफगानिस्तान के पीछे रूस की बलाढ्य और अंग्रेजों का उच्चाटन करने के लिए उत्सुक प्रजासत्तात्मक शक्ति है, तो नेपाली सीमा पर वही शक्ति नेपालियों का समर्थन करने के लिए उत्सुक है। रूस के योद्धा, वायुयान, सेनापति, अपार शस्त्र सामग्री जैसे दरवाजा खुलते हीअफगानिस्तान में उड़ेली जा सकती है वैसे ही ये सब सामग्री एक घंटे के अंदर नेपाल में भी पहुँच सकती है। अफगानिस्तान की पश्चिम दिशा में उसकी संस्कृति के और उन्हीं के जैसे ईरान, तुर्कों के राष्ट्र हैं, तो नेपाल के भी पूर्व दिशा में चीन का विस्तृत जीवंत-समर्थ और नेपाल की हिंदू संस्कृति को देव संस्कृति के समान पूज्य माननेवाला बौद्ध राष्ट्र नेपाल से हाथ में हाथ मिलाने के लिए तैयार खड़ा है। अफगानिस्तान को हिंदुस्थान के अफगान धर्मबंधु सात करोड़ मुसलमान सुयश की शुभेच्छा करते हैं तो नेपाल के हिंदुओं को, उनके स्वदेश बंधु-बाईस करोड़ हिंदू जनता सुयश की शुभेच्छा देती है।

नेपाल और अफगानिस्तान इस तरह बल में समान होते हुए भी और दोनों के दरवाजे पर एक अत्यंत भव्य, दिव्य और महान् भवितव्य की विजयमाला हाथ में लेकर खड़े होते हुए भी, उस विजयलक्ष्मी के स्वागत के लिए अफगानिस्तान का हृदय क्यों इतना उतावला, साहसी और उत्कट हुआ है? और नेपाल का हृदय क्यों इतना चंचल, भयभीत और उद्विग्न होने लगा? उस महान् भवितव्य का तेज देखते ही अफगानिस्तान की आँखों में वीरश्री का पानी चमकने लगा है और उसी तेज से नेपाल के नेत्र चकाचौंध हो गए हैं। उस तेजस्वी महत्त्वाकांक्षा का संचार होते ही अफगानिस्तान के वीर बाहु फुरफराने लगे हैं; पर नेपाल के बाहु कंपायमान हैं और उसका सरसंधान विचलित हो रहा है। किसी अद्भुत आशा के शिखर पर चढ़ चढ़कर अफगानिस्तान भावी भाग्यश्री की दुंदुभि का निनाद सुनने के लिए ललचा रहा है, तो नेपाल उस निनाद की प्रतिध्वनि जैसे-जैसे नजदीक आती जाती है, वैसे वैसे अधिक संत्रस्त होकर कानों में अंगुलियाँ डाल रहा है। ऐसा क्यों होता है ?

हे नेपाल, ऐसा मत करना। भारतश्री तुम्हारा दरवाजा खटखटा रही है। हे नेपाल, उठो, डरना मत, श्रीरामचंद्र और सम्राट् विक्रम के वंश की शोभा बढ़ानेवाले पराक्रम और साहस से उसका स्वागत करो। वह विजयश्री की माला तुम्हारे गले का कंठहार बने इसलिए भारतीय आशा की सीता उत्कंठित हुई है! हे हिंदू वीर, अब हिंदुत्व की लज्जा की रक्षा करो। तुम उदयपुर के महाराणा के वंशज हो, उदयपुर के महाराजा अपने को हिंदू पति कहलाते आए हैं। अब वह सम्मान तुम्हारा ही है। जब हम सबके हाथ टूट गए तब हिंदू स्वतंत्रता का ध्वज भगवान् ने तुम्हारे हाथों में सौंप दिया, वह ध्वज तुमने आज तक फहरा रखा है, तो फिर अब भाग्य का और विजय का मुहूर्त नजदीक आने पर यह व्यामोह तुम्हें शोभा नहीं देता। हे नेपाल, जाग्रत् हो जाओ, डरना मत ! 'साहसे श्रीः प्रतिवसति ।'

नेपाल के महाराजा और अफगानिस्तान के अमीर दोनों कालगति से आजकल ऐसे भाग्यबिंदु पर आ पहुँचे हैं कि एक पाँव भी गलत हुआ या एक क्षण के लिएभी पिछड़ गया, तो सहस्र-सहस्र वर्षों के बाद एकाध ही बार सामने आनेवाली राष्ट्रलक्ष्मी पीठ दिखाकर चली जाएगी; परंतु सुनिश्चित साहस का दृढ़ हाथ आगे बढ़ाने का सुअवसर, सहस्रों-सहस्र वर्षों की राष्ट्रीय तपस्या अगर फलोन्मुख हो गई तो ही-एकाध वीर पुरुष को प्राप्त हो सकता है। विजयश्री उसके मस्तिष्क पर एक देदीप्यमान महान् मुकुट रखेगी।

ऐसे निर्णायक क्षण में इन दोनों राष्ट्रों के कार्यक्रम और साहस में कितना अंतर पड़ने लगा है। इस दिसंबर में काबुल के राजा और नेपाल के महाराजा दोनों दौरे पर जा रहे हैं; पर काबुल के राजा हिंदुस्थान का गिद्ध निरीक्षण करके तुरंत यूरोपीय देशों की राजधानियों की यात्रा करने वाले हैं। वे इंग्लैंड जाएँगे और इंग्लैंड के सम्राट् के साथ गाड़ी में एक स्वतंत्र राष्ट्र के अधिपति के अधिकार से शान दिखाकर घूमेंगे और इंग्लैंड ने उनका स्वातंत्र्य मान्य किया है, इस बात की नाटकीय ठाठ-बाट से घोषणा करेंगे। वे फ्रेंच अध्यक्ष से मिलेंगे, जर्मन राष्ट्राध्यक्ष वीरवर हिडेनबर्ग से बातचीत करेंगे और बहुधा रूस के बलाढ्य और उनके साथ स्नेह संबंध स्थापित किए हुए सोवियत संघ के लोगों से मिलेंगे और केवल अंग्रेजों को चिढ़ाने के लिए मास्को के जनसमूह से होनेवाले जयघोष का स्वीकार करेंगे और मुसोलिनी नहीं, तुर्कस्थान के कमालपाशा से स्वयं मिलकर आएँगे। इस तरह जिस 'अफगानिस्तान' नामक एक निर्जीव देश का नाम दुनिया ने केवल सुना था, वह अफगानिस्तान एक जीवंत राष्ट्र है, दुनिया की उथल-पुथल में उसका एक स्वतंत्र स्थान है। इतना ही नहीं, दुनिया के बलाढ्य राष्ट्रों से जिसके बारे में चर्चा करना आवश्यक है और जिसकी धाक बलाढ्य राष्ट्रों पर भी हो सकती है, इस तरह की महान् महत्त्वाकांक्षा राजा अमीर के मन में जाग्रत् हुई है। वे इतने प्रबल हो गए हैं कि जगत् को इस तरह की प्रत्यक्ष प्रतीति देकर रहेंगे।

वास्तविक रूप से अफगानिस्तान एक बित्ते भर का देश है, न समुद्र किनारा है, न सरोवर, न सोन गंगा जैसे नद-नदियाँ। पर इंग्लैंड के जैसे प्रबल सुंद की रूस के जैसे प्रबल उपसुंद से जो टक्कर हो रही है वह अब जल्द ही बेकाबू हो जाएगी, इन दोनों के संघर्ष में छोटे से अफगानिस्तान का स्तोम सहजता से इतना बढ़ गया है कि मास्को और लंदन जैसी बलाढ्य राजधानियों में जर्मनी या अमेरिका की जितनी चर्चा चलती है, भावी संग्राम के लिए उतनी ही अफगानिस्तान के शत्रुत्व और मित्रत्व की होती है। अफगानिस्तान ने भी अपनी भाग्यश्री की असंभ उन्नति की छलाँग पहचानी है और उसके हिंडोले लेने से न चक्कर खाकर, न घबराकर, वह उसका पूर्ण रूप से उपयोग कर लेने का साहस कर सका है। इसी में उसके आज के सुयश की और भावी विजय की मुख्य कुंजी है। भावी महायुद्ध की अभूतपूर्वउथल-पुथल में अपना भाग्य चमकाने के लिए ही अफगानिस्तान का अमीर यूरोप जा रहा है। वह वहाँ राजधानियों में घूमकर अंतरराष्ट्रीय समझौते करके गुप्त और प्रकट षड्यंत्र रचकर अंतरराष्ट्रीय बाजार अपने कर्तृत्व का मंडुआ (नाचण्या) जोर-जोर से चिल्लाकर अधिक-से-अधिक भाव में बेचे बिना नहीं रहेगा (मराठी में कहावत है- जो जोर-जोर से चिल्लाकर समझाकर ग्राहक को बुलाएगा उसका मंडुआ भी जो बहुत ही गरीब लोग खाते हैं-बिक जाएगा, पर जो चुपचाप अपने माल की प्रशंसा और प्रदर्शन नहीं करता उसके उत्तम-से-उत्तम गेहूँ भी नहीं बिकेंगे।) नेपाल के गेहूँ से अधिक भाव पर अफगानिस्तान के मंडुआ बेचे ही जाएँगे। इसका कारण यह है कि अफगानिस्तान यूरोप के अंतरराष्ट्रीय बाजार में राज्यों के लेन-देन की भाषा निर्भयता से, साहस और स्पष्टता से बोलने लगा है।

और नेपाल क्या कर रहा है? नेपाल अंतरराष्ट्रीय बाजार तो दूर रहा इस तरह की साहसी लेन-देन की भाषा अपने मन से भी बोलने में घबराता है। दूसरे लोग अपना मंडुआ भी जोर-जोर से चिल्लाकर बेचते हैं, पर नेपाल अपना उत्तम-से उत्तम गेहूँ दुनिया को दिखाने से झिझक रहा है। बाजार भाव टिकाऊ नहीं होते, अतः शंकाविह्वल हृदय से हम अपने नेपाली देश-बंधुओं को चेतावनी देते हैं कि आप वीर हैं, समय रहते ही सावधान हो जाइए, नहीं तो वे परकीय मंडुआ पर साम्राज्य खरीद लेंगे और एक बार यह अवसर निकल गया, तो आपके गेहूँ को कोई पूछेगा भी नहीं।

अफगानिस्तान के राजा यूरोप के बलवान राष्ट्रों से भावी महायुद्ध के कूट संबंध रचने के लिए लंदन से मास्को तक का दौरा करेंगे और नेपाल के महाराजा ? वे भी दिसंबर में ही दौरे पर निकलने वाले हैं, पर उनका दौरा कहाँ तक है? कलकत्ता के बाड़ तक ! कहा जाता है कि वहाँ से वाइसराय से कुछ बातचीत करके नेपाल वापस जाएँगे। क्यों? अफगानिस्तान का राजा बड़ी शान से अपनी स्वतंत्रता का ध्वज फहराते हुए काबुल से यूरोप खंड की अनेक राजधानियों की यात्रा करने के लिए निकलेगा और नेपाल के महाराजा शेर की खाल ओढ़कर कलकत्ता की बाड़ तक रेंगकर रुक जाएँ? यह ऐसा क्यों? जो महत्त्वाकांक्षा अमीर को, अफगानिस्तान के बाहर वीरश्री का संचार कराती है, तत्समान किसी महान् आशा-आकांक्षा का स्पर्श क्या नेपाल के हृदय को नहीं हुआ? अगर नहीं तो इस पक्षाघात का, लकवे का क्या कारण है? इसका दोष किसको देंगे और इसका क्या निदान है?

इसका कारण यह है कि साहस की शक्ति ही, आत्मविश्वास की दुर्दम्यता ही हिंदुओं के ललाट पर भाग्यश्री का महान् भवितव्य लिखेगी-यह भावना ही हिंदू जाति में नामशेष हो गई है, यही उसका कारण है। आर्य चाणक्य की, सम्राट्चंद्रगुप्त की, महाराजा विक्रम की परंपरा ही मृतप्राय हो गई है-यह भी एक कारण है।

यह दोष अकेले नेपाल के महाराजा का या किसी अधिकारी का न होकर सारी हिंदू जाति का है। नेपाल के महाराजा या केवल एक व्यक्ति सारे राष्ट्र के समर्थन के बिना क्या करेगा? और समर्थन प्राप्त होते हुए भी वह एक व्यक्ति आगे पीछे करने लगा तो उसकी क्या कथा है ? राष्ट्र द्वारा किया गया निश्चय और साहस अगर वह नहीं झेल सकता तो उस व्यक्ति को दूर करके राज्य शक्ति से संपन्न कोई दूसरा अग्रणी राष्ट्र नायक चुन सकेगा।

इसका अब एक ही उपाय है कि हिंदू जाति की अकर्मण्य भीरुता के कारण उत्पन्न इस लकवे के रोग को निरस्त करके उसमें नवचैतन्य भरना होगा और नवचैतन्य भरने के लिए हिंदू जाति की वीरता का, संघटना का और स्वातंत्र्य के सामर्थ्य का प्रमाण सापेक्षतः जिनमें अधिक निवास करता है ऐसे हमारे नेपाली वीरवर गुरखा जाति हिंदुओं का प्रकट नेतृत्व करके जगत में जो राज्य साम्राज्य के लेन-देन की भीषण स्पर्धा चल रही है, उसमें निर्भीकता से हिस्सा लें। वे स्वतंत्र हैं राजस हैं, वीर हैं, अफगानिस्तान की प्रतिस्पर्धा में उनको हराकर भाग्यश्री को वरमाला का वरण करने का सामर्थ्य उनमें हैं, इसीलिए हम सभी गुरखा जाति से साग्रह विनती करते हैं कि वे उनके द्वार ठकठकाती खड़े महान् भवितव्य का स्वागत करें। इसके लिए हिंदुत्व का ध्वज ऊपर उठाकर और 'देव मस्तक पर' धारण करके कर्मक्षेत्र में उतर पड़ें, अटल स्थान प्राप्त करें और अचूक शरसंधान करें।

अगर नेपाल के गुरखाओं को प्रकट रूप से अपनी महत्त्वाकांक्षाएँ समझ में नहीं आतीं तो गुरखाओं के नेता उनको समझाएँ। अफगानिस्तान जिस निर्भय साहस से आगे बढ़ रहा है उसी गति और परिस्थिति के अनुकूल या समान साधनों एवं मार्गों से नेताओं को नेपाल राष्ट्र को रणक्षेत्र में उतरने के लिए तैयार करना चाहिए।

जो सुनहला अवसर अफगानिस्तान को पुकार रहा है, वही सुवर्ण वेला नेपाल को भी पुकार रही है। दोनों का बल समान है, शत्रु-मित्र समान हैं। अफगानिस्तान अपना स्वातंत्र्योत्सव जितनी शान से मनाता है तो नेपाल उतनी ही शान से क्यों नहीं मनाता ? अफगानिस्तान ने रूस आदि राष्ट्रों के युद्ध शास्त्र में पारंगत वैज्ञानिक, सैनिक, सामुद्रिक और आर्थिक तत्त्व अपने देश में बुलाकर अपना वैमानिक, सैनिक सामर्थ्य बढ़ाया, वैसे ही नेपाल भी अंग्रेज, जापान, रूस आदि राष्ट्रों के 'तत्त्वों को बुला सकता है और और किसी भी शक्ति को सरजोर होने तक किसी भी एक राष्ट्र के निष्णात लोगों के हाथों में अपनी चोटी न देते हुए वैमानिक और सैनिक सिद्धता कम-से-कम अफगानिस्तान के समान प्रबल बनने का प्रयत्न नेपाल क्यों नहीं करता? जैसे अफगानिस्तान ने यूरोप में फ्रांस, जर्मनी, इटली आदि राष्ट्रों में अपना राष्ट्र प्रतिनिधि नियुक्त करके स्वतंत्र राष्ट्र का अधिकार जताया, वैसे ही नेपाल भी अपने राष्ट्र प्रतिनिधि यूरोप के राष्ट्रों की राजधानियों में क्यों नहीं भेजता ?

इस एक बात के भी दूर-दूर तक परिणाम हो सकते हैं। सारे जगत् में यह कल्पना ही लुप्त हो गई है कि हिंदुओं का स्वतंत्र राष्ट्र हो सकता है। नेपाल का स्वतंत्र हिंदू ध्वज पेरिस, बर्लिन, मास्को, लंदन, रोम, न्यूयॉर्क में उन देशों के होनेवाले अपने कॉन्सलेट पर फहराता रहेगा और अगर ऐसा हुआ तो अब भी हिंदुओं का एक स्वतंत्र राष्ट्र जीवंत है, यह घोषणा सारे जगत् में हो जाएगी। हिंदुओं की प्रतिष्ठा सारे जगत् में वृद्धिंगत होगी। इतना ही नहीं, यह ज्ञान होते ही आज अफगानिस्तान को जो महत्ता दुनिया में महसूस हो रही है वैसे नेपाल की भी महत्ता वे जान पाएँगे और नेपाल की स्वतंत्रता को वे धड़ल्ले से मान्यता देने लगेंगे। पेशवाओं की पुणे में हार होने के बाद परराष्ट्र के राजदूतों का हिंदुओं के राजमहल में आना-जाना बंद हुआ था, वे फिर से आने-जाने लगेंगे। काठमांडू के हिंदू राजप्रासाद के महाद्वार पर फ्रेंच, जर्मन और रूसी राजदूत आकर प्रतीक्षा में खड़े रहेंगे और अफगानिस्तान के साथ परराष्ट्रीय राजनीति की चर्चा करके उनकी मित्रता की जैसी याचना करते हैं, वैसे ही नेपाल की याचना करने लगेंगे, इससे नेपाल के राष्ट्रबल को जागतिक नैतिक बल का समर्थन प्राप्त होगा और अंग्रेजों को उनसे मित्रता संबंध अधिक प्रबल करने की इच्छा होगी।

वैसे ही अफगानिस्तान के समान ही नेपाल भी राष्ट्र संघ में, लीग ऑफ नेशन में अपने स्वतंत्र राष्ट्र का प्रतिनिधि भेज अपना स्वातंत्र्य क्यों नहीं प्रस्थापित करता? यूरोप में जर्मन युद्ध के समय हमारे गुरखाओं ने जो पराक्रम दिखाया, उससे उनके वीरत्व के बारे में आदर ही नहीं, एक धाक उत्पन्न हुई है, पर वे समझते हैं कि गुरखा अंग्रेजों के दास हैं, यह समझ नेपाल झुठलाता क्यों नहीं? रूस के साथ बलिश्त भर का अफगानिस्तान बराबरी का समझौता करता है, नेपाल वैसा न कर सके तो कम-से-कम व्यापारिक समझौता स्वतंत्र रूप से क्यों नहीं करता? आज नेपाल का स्वातंत्र्य लंदन के कागजों पर दर्ज किया गया है; लेकिन उसका लाभ उठाने की इच्छा न हो तो उसका क्या उपयोग? अफगानिस्तान जैसे तुर्कस्तान, चीन, ईरान और अगर संभव हो तो जापान से भी अपने लिए हितकर समझौता क्यों नहीं करता ? कम-से-कम एक बार स्वयं नेपाल के महाराजा, प्रधान महाशय यूरोप के राष्ट्रों से स्वतंत्र राष्ट्र के सत्ताधीशों के अधिकार से एक बार जाकर मिलते क्यों नहीं? क्यों नहीं सुनते कि मुसोलिनी क्या कहता है? हिंडेनबर्ग से हस्तांदोलन करके, ट्रॉस्की की बातें सुनकर, फ्रेंच अध्यक्ष से मंत्रणा करके, लंदन के सम्राट् के साथ कुरसी-से-कुरसी लगाकर बैठकर, कमालपाशा का अंतरंग जानकर नेपाल के वीर प्रधान क्यों नहीं वापस आते? केवल कलकत्ता की बाड़ तक जाकर क्यों यह गिरगिट वापस आ जाता है? क्यों यह मुल्ला मसजिद तक ही दौड़ता है ? (मराठी में कहावत है-सरडयाची धाव कुंपणा पर्यंत । अर्थ है-मुल्ला की दौड़ मसजिद तक) क्यों? क्या डरता है ? किससे डरता है? क्यों? एक बार यूरोप को अंतरराष्ट्रीय घटनाओं पर जरा नजर रखिए तो हे हिंदूपति! आपका भय नष्ट हो जाएगा और सामर्थ्य प्राप्त होगी! थोड़ा साहस कीजिए, उससे आपके पूर्वजों की दस-दस पीढ़ियों के भाग्य के स्वप्न आज इस पीढ़ी में सच होंगे और सुवर्ण दिन उदित होगा। गिरगिट के जैसे नहीं, अब शेर के जैसे चलिए।

इंग्लैंड आपका मित्र राष्ट्र है। न्यायिक महत्त्वाकांक्षा की सहायता करना ही मित्र का कर्तव्य होता है, वैसे तो आप स्वतंत्र भी हैं। अफगानिस्तान की आकांक्षाओं की वे आज भी परवाह नहीं करते। निर्भयता से आप भी न्याय्य आकांक्षाएँ संपादन करने में लगिए। शूर गुरखों का वीर राष्ट्र आपका है और ये बाईस करोड़ हिंदू आपके साथ हैं। अंतरराष्ट्रीय भव्य भीषण परिवर्तन का अवसर आपके सामने खड़ा है।

अतः ईश्वर पर विश्वास रखकर हे गुरखा जाति! अपना भाग्य अपने हाथों से लिख डालो। आज इंग्लैंड तुम्हारा मित्र है, उससे दस गुना मित्रता वही तुम्हारे साथ तब दिखाने लगेगा, जब जिस क्षण तुम अपने दरवाजे ठकठकानेवाली भारत की भाग्यश्री का स्वागत करने के लिए अपने सुशुप्त वीर बाहु फैलाओगे। अतः इसी क्षण उपेक्षणीय हृदय की दुर्बलता का त्याग करो, उत्तिष्ठ परंतप!! तुम्हारा न्याय्य (Just) है। तुम्हारे साधन वैध (legitimate) हैं। हे नेपाल! विजयश्री हाथों में माला लेकर तुम्हें पुकार रही है। कार्य

लेखांक - १०

अमीरजी,आप इतना मधुर बोले कि हमें

आपका संशय होने लगा है (५ जनवरी,१९२८)

'साध्वाचारो साधुना प्रत्युपेयः ! मायाचारो मायया बाधितव्यः ॥' काबुल के अमीरजी ने विदेशों की यात्रा करने के लिए दूरदर्शितापूर्वक हिंदुस्थान के मार्ग से जाना तय किया था, इसमें कोई शक नहीं है कि उनके मन का उद्देश्य आशातीत रूप से सफल हुआ है। कराची से मुंबई तक लाखों मुसलमानों ने उनका प्रचंड स्वागत किया, मनःपूर्वक स्वागत किया। अमीर उनके मन की जिन भावनाओं की थाह लेना चाहते थे, उन भावनाओं के उत्कट अस्तित्व की प्रतीति अमीरजी को हुई। न बोलते हुए अमीरजी ने जो पूछा था उसका हिंदी मुसलमानों ने मौन उत्तर दे दिया।

सरकार ने भी अमीरजी के भव्य स्वागत में कोई कसर न रखी। वास्तविक रूप से अमीरजी की अपेक्षा हैदराबाद के निजाम धनी हैं और अमीरजी जितने प्रदेश पर या जनसंख्या पर राज कर रहे हैं उसने या उतने से भी अधिक प्रदेश पर और अधिक जनसंख्या पर राज करनेवाले राजा भी हिंदुस्थान में अलभ्य नहीं हैं; परंतु हैदराबाद का निजाम या मैसूर के महाराज या सूर्य कुलोत्पन्न उदयपुर के राणा मुंबई में कब आते हैं और कब जाते हैं इसका सामान्य जनता को पता न लगे-इतनी उपेक्षा जो सरकार करती है, वही सरकार और उसके वाइसराय अपनी पत्नी और बच्चों के साथ किसी सम्राट् के जैसे अमीरजी के स्वागत में तल्लीन थे। उनका महत्त्व का कारण है स्वातंत्र्य। अफगान स्वतंत्र है। अतः उसने पाँच-दस वर्षों के पहले अंग्रेजों से खुल्लमखुल्ला युद्ध किया था, फिर भी उसका घनिष्ठ मित्र के जैसा स्वागत किया जाता है। और उसके ही जैसे आमदनी और उतनी ही प्रजा काधनी, हैदराबाद के निजाम के बीच में अंग्रेजों की नजर से नजर मिलाने का प्रयत्न करते ही, उसकी गरदन पुलिस के डंडे से पुनः नीचे झुकाई गई।

अमीरजी स्वतंत्र हैं इसीलिए अंग्रेज सरकार ने उनकी खुशामद की। यहसच है, फिर भी उनके आगमन को इतना महत्त्व देने का दूसरा भी एक कारण है. यह हमें भूलना नहीं चाहिए। वह कारण है कि अफगानिस्तान के इर्द-गिर्द रूस, तुर्कस्तान, ईरान आदि राष्ट्रों द्वारा अंग्रेजों के खिलाफ रचा हुआ कूट कारस्थान है। अगर संभव होता तो सरकार ने अमीरजी का हिंदुस्थान में सार्वजनिक स्वागत स्वीकारते हुए बाजारी सेवकों के मन में अंग्रेजी सत्ता की क्षुद्रता और अफगान की प्रबलता का विकृत परिणाम न होने दिया होता; और हिंदी मुसलमानों की आँखें चकाचौंध करनेवाली, अफगानिस्तान का राज्य हिंदुस्थान पर होने की भयंकर महत्त्वाकांक्षा जाग्रत् करने की गलती न की होती। अमीरजी के स्वागत का अवसर पाकर हजारों खिलाफती गुंडों ने मुसलमानों में मुसलमानी बादशाही के बारे में घातक लालसा निर्माण करने का सफल प्रयत्न किया।

यह बात अंग्रेज जानते नहीं हैं, ऐसा नहीं है। अमीरजी और उनके आगे पीछे नाचनेवाले खिलाफती नेताओं के मन में क्या चल रहा है इसका पता भी न लगे इतने वे भोले नहीं थे या अंग्रेजों की दृष्टि इतनी अंधी नहीं थी कि उन उथले मन की थाह न ले सके। अंग्रेज कोई हिंदू राजनीतिक नारियों के जैसे नहीं थे, फिर भी उन्होंने अमीरजी का स्वागत बड़ी शान से किया और हिंदी मुसलमानों को वह स्वागत करने देने का धातुक परिणाम दिखाई देते हुए भी अंग्रेजों को अमीरजी को सार्वजनिक रूप से हिंदुस्थान में गाजे-बाजे के साथ समारोहपूर्वक घुमाते हुए जाने देना पड़ा, क्योंकि उनके पीछे तुर्कस्तान और मुख्य रूप से रूस है। अगर अमीरजी को हिंदुस्थान में शान से न घूमने देते तो वे ईर्ष्या से अधिक ही जलभुन उठते और मार्ग में यूरोप में उतरकर उनके मन में उद्दीप्त साम्राज्य की महत्त्वाकांक्षा सफल करने के लिए इंग्लैंड के शत्रुओं से, रूस आदि से और अधिक अपनापन बढ़ाने लगते। अतः ऊपरी तौर से परस्पर मधुरता बिगाड़ देने की गलती अंग्रेजों ने नहीं की। अमीरजी के स्वागत के लिए, सलामी के लिए जो अंग्रेजी तोपें दागी गई थीं वे अमीरजी के प्रेम का प्रतीक उतनी नहीं थीं, पर वे रूस के प्रतिस्पर्धा भय संकुल संशय की द्योतक थीं।

अमीरजी के दौरे का जो इतना स्वागत हुआ उससे मुसलमानी बाजारू सेवकों से खिलाफती नेताओं तक दुनिया में अखंड मुसलमानी बादशाही स्थापित करने के बारे में सदा घुमड़नेवाली धर्मांध महत्त्वाकांक्षा का अमीरजी में प्रबल होने की संभावना है, यह उस स्वागत का एक कारण है। अफगानिस्तान स्वतंत्र औरबलवान है, अतः उसका गौरव करना थोड़ा-बहुत आवश्यक ही था और अगर ऐसा नहीं किया तो वह रूस के हाथ में अधिक त्वरित गति से चला जाएगा और आगे कभी हिंदुस्थान पर रूस ने हमला किया तो वह अंग्रेजों के खिलाफ रूस के हाथ में एक प्रबल साधन बन जाएगा, यह समस्या अंग्रेज सरकार के सामने थी-यह उनके शानदार स्वागत का दूसरा कारण था। दौरे के शानदार स्वागत का तीसरा कारण था अमीर का व्यक्तित्व। काबुल के सिंहासन पर बैठे हुए राजाओं में अमीरजी अत्यंत कर्तृत्ववान और महत्त्वाकांक्षी व्यक्ति हैं, इसमें कोई शंका नहीं है। यह निश्चित है कि नादिरशाह और अहमदशाह के जैसे वे हिंदुस्थान के बादशाह बनने के मन के लड्डू पहले से ही खा रहे थे और यह भी निश्चित है कि वे उन्हीं के जैसे महत्त्वाकांक्षी भी हैं। महत्त्वाकांक्षा के व्यवहार में वह नादिरशाह और अहमदशाह की बराबरी कर सकते हैं या नहीं यह बात अभी सिद्ध होनी है। फिर भी काबुल का सिंहासन हस्तगत करने में, अफगानिस्तान ही नहीं, सभी हिंदी मुसलमानों की धार्मिक और राजनीतिक आशा का केंद्र अपनी तरफ खींच लेने में रूस के जैसे अंग्रेजों के शत्रुओं से खुल्लमखुल्ला सूत्र जोड़कर उन्होंने अंग्रेजों पर बड़े साहस से अपनी धाक जमाई है, वह साहस दिखाते समय उन्होंने अपनी कर्तृव्यशक्ति पहले ही प्रकट की है। उनकी यह प्रगतिप्रियता कमाल बादशाह के पदचिह्नों पर चल रही है, अत: यह स्वाभाविक ही है कि इस तरह के कर्तृत्ववान, राजनीतिज्ञ, महत्त्वाकांक्षी और साहसी राजा के तेज की स्तुति किए बिना शत्रु से भी नहीं रहा जाएगा। इसीलिए उनका इतना स्वागत करने का राजनीतिक रिवाज घातक हो सकता है, यह बात मन में चुभते हुए भी काबुल के इस पौरुषशाली अफगान राजा का वैयक्तिक भी क्यों न हो, स्वागत करने की वृत्ति पराक्रम की प्रशंसा करनेवाले मनुष्य की सहज प्रवृत्ति का ही द्योतक है।

जिस व्यक्तित्व ने अमीरजी का स्वागत इतनी शान से करवा लिया उसी व्यक्तित्व ने उस प्रचंड स्वागत का जैसे करस्थानी उपयोग कर लेना चाहिए था, वैसे करवा लेने का गंभीर और मर्मभेदक अभिनय करने की शक्ति भी अमीरजी को दे दी है। मुसलमान लोग मन-ही-मन अफगान राजा को अपना बादशाह मानते ही हैं और उस राजा की भारतीय राजनीति विषयक भयानक आकांक्षा को सक्रिय सहानुभूति मिलने वाली है, अमीरजी को इस बात का आभास गत महायुद्ध में मिल ही गया है, फिर भी वे आजमाना चाहते थे कि हिंदू जनता के मन में उनके बारे में क्या भावनाएँ हैं? हिंदुओं की सहानुभूति प्राप्त करनी थी, और इस उद्देश्य को वे कदापि भूले नहीं, जब लाखों मुसलमानों ने 'अल्ला हो अकबर' और 'अफगानी बादशाह की जय' की गर्जनाओं से आसमान निनादित किया। उस लोकसमुद्र की अपूर्व लहरोंपर आरूढ़ होते हुए भी उन्होंने अपना आसन कभी हिलने नहीं दिया। इस तरह का स्वागत अपना जन्मसिद्ध अधिकार ही है-ऐसी सहज शान से उन्होंने स्वागत को स्वीकार किया और हिंदुओं के मन को भी जो सहजता से वश में कर ले ऐसा बरताव और भाषण उन्होंने निर्भयता से किया। वास्तविक रूप से देखा जाए तो अमीरजी हिंदुओं के बारे में इतनी आत्मीयता से शब्द न निकालते तो भो हजारों हिंदू उनके स्वागतार्थ इकट्ठा हो ही जाते और सैकड़ों चमचे और खुशामदी लोग उनके सामने लार टपकाते ही रहते; क्योंकि भिखारी जीवन जीने का हिंदुओं में एक नया प्रचलन हो रहा है। हिंदुओं की इस वृत्ति को अफगान के विलक्षण चतुर राजा ने तत्काल पहचान लिया और लगभग बीस-बाईस मधुर वाक्यों में उन्होंने लाखों मुसलमानों के समान ही लाखों हिंदुओं को भी अपने वर्चस्व का दास बनाया। उन बीस-बाईस वाक्यों ने अफगान के अमीरजी के राजनीतिक रवैये का सुराग जिनको मालूम है उन वृत्तपत्रकारों को भी उसका विस्मरण करा दिया। सभी हिंदू मुद्रणालय (The press) अमीरजी ने बीस-बाईस वाक्यों में खरीद लिये। आजकल की लतखोर उदारता तो उन वाक्यों पर इतनी सम्मोहित हुई कि उन वाक्यों को नए वेद का आविर्भाव समझकर उनका श्रवण, मनन आदि करने के लिए परमभक्ति भाव से उन वाक्यों के साप्ताहिक और दैनिक पारायण शुरू किए।

हिंदुओं के खिलाफ अगर अमीरजी कुछ बुरा बोल देते तो उनको कौन रोकनेवाला था? फिर भी वे हिंदुओं के बारे में इतनी न्याय्य दृष्टि से बोले कि किसी को ऐसा ही लगेगा कि वे कितने महान् हैं। इसमें कोई शक नहीं है कि एक स्वतंत्र राष्ट्र के राजा की दृष्टि से भी उनके कुछ वाक्य स्मरणीय हैं। 'मैं प्रजा का सेवक हूँ' वाक्य वे शक्यतः अपने राज्य में अमल में लाते हैं, इसमें कोई शक नहीं है। उन्होंने मुसलमानों को स्पष्ट उपदेश दिया कि 'अगर आप लोग हिंदू धर्म को सम्मान देंगे तो हिंदू भी आपको सम्मान देंगे। अगर आप उनसे दुर्व्यवहार करने लगे तो आप मुसलिम धर्म को कलंक लगा हैं। धर्मांधता का बीज बोनेवाले मुल्ला-मौलवी ही आपके असली शत्रु हैं, हिंदू नहीं।' इस तरह उन्होंने लाखों मुसलमानों को डटकर समझाया। मुसलमानों को इतना डटकर कहने का साहस अब तक किसी हिंदू को भी नहीं हुआ, परंतु वह कार्य उस वीर अफगान राजा ने किया। के जय-जयकार से अभिभूत होकर उनको दूर करने के भय से हिंदुओं की सहानुभूति । मुसलामनों प्राप्त करने के अपने उद्देश्य से अमीरजी किंचित् भी विचलित नहीं हुए। इस धीरोदात्त, चतुर, न्याय्य और समयोचित बरताव के लिए हिंदू जनता को आभार । उनके प्रकट करना चाहिए, किसी को भी ऐसा नहीं लगेगा। परंतु अमीरजी के स्वागत बारे में इतनी चर्चा करने के बाद भी हिंदुओं के बारे में उनके न्याय्य उद्गारों को केसचमुच हिंदू कितना महत्त्व दे तथा अमीरजी के इस दौरे के हिंदुस्थान की राजनीतिक परिस्थिति पर जो इष्ट-निष्ट परिणाम होंगे, उनका समर्थन या परिहार कैसे करना है। यह निश्चित रूप से तय नहीं कर सकते।

प्रथमतः हमें यह ध्यान में रखना चाहिए, जो लाखों हिंदी मुसलमान लोग अमीरजी को जान-बूझकर अपने बादशाह के जैसा सम्मान दे रहे थे, वे सभी हम हिंदुओं के पूर्ण परिचय के ही लोग हैं। उनकी खिलाफती आकांक्षाएँ और सहारनपुर तक खींची हुई सीमा रेखा भी अभी हम भूले नहीं हैं, हमें मालूम हैं। इन लोगों ने प्रकट रूप से यह भी कहा था कि अगर अमीरजी हिंदुस्थान पर आक्रमण करेंगे तो इसलामी गौरव के लिए हम उनके खिलाफ नहीं लड़ेंगे, उनके यश का ही चिंतन करेंगे। इनमें से सैकड़ों लोग मुसलमान ही हिंदुस्थान पर राज करेगा, यह धर्ममत माननेवाले हैं। जिस अफगानिस्तान पर अमीरजी राज्य करते हैं और जिनके आधार पर वे अपनी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं के मीनार रच रहे हैं वे अफगान हिंदुओं के बारे में क्या सोचते हैं और वे किस प्रकार के लोग हैं यह कोहाट और पेशावर के अग्निकांड में दिखाई दिया ही है। इस अग्निकांड में भी अगर किसी को दिखाई न दिया हो, वे मनुष्य नहीं, निर्जीव प्रेत ही होंगे। अफगान यानी पठान किस तरह की जाति होती है यह बंबई और कलकत्ता के किसी पानवाले हिंदू को भी मालूम है। उद्दंड और हिंदुओं के बारे में निर्दय तिरस्कार तथा जन्मजात द्वेष करनेवाले पठानों की सेना के अमीरजी सेनापति हैं और हिंदुस्थान को इसलाममय करने का दृढ़ प्रयत्न करनेवाले लाखों मुसलमानों का नेतृत्व प्रकट रूप से करने की इच्छा करनेवाले हैं। इतनी एक भी बात अगर हम हिंदुओं में से प्रत्येक व्यक्ति ध्यान में रखेगा, तो भी सहज ही उसकी समझ में आएगा कि हिंदुओं के साथ न्याय्य बरताव करने का अमीरजी का उपदेश शब्दशः कितना भी अच्छा हो-और इस अच्छाई के लिए हम अमीरजी के आभारी हैं-तथापि उस उपदेश का अंदरूनी हेतु अलग है। हम हिंदुओं के मन में अमीरजी के बारे में प्रेम निर्माण करके उसके आधार पर हिंदुस्थान के राज्य पर काबुल की जो आँख लगी हुई है, उस उद्देश्य के मीनार रचने का हेतु होगा, नहीं लगभग होगा ही। अमीरजी का पूर्वचरित्र आपको मालूम है ही। इनके पूर्व के अमीर ने महायुद्ध में हिंदुस्थान पर आक्रमण करके मुसलमानी बादशाही स्थापित करने का महान् अवसर प्राप्त नहीं किया। इसलिए हिंदुस्थान के खिलाफत पंथीय धर्मांध मुसलमान और सारे अफगान मुसलमान उस पहले अमीर पर अत्यंत चिढ़ गए थे। उनकी हत्या होते ही उस क्रांतिकारी उथल-पुथल में उस लोक-क्षोभ के समर्थक के नाते ही आज के अमीरजी काबुल के राजा बन सके। आज भी उनकी लोकप्रियता इस एक ही आशा से प्रेरित होकर बनी रही है कि वेहिंदुस्थान पर आक्रमण करके मुसलमानी बादशाही का रम्याद्भुत युग फिर से ला सकेंगे। यह बात, लाखों मुसलमानों और पठानों के मुँह से जो उद्गार निकलते हैं, उनसे निर्विवाद रूप से सिद्ध हुई है। इन्हीं अमीरजी ने जब हिंदुस्थान पर प्रकट रूप से आक्रमण किया था तब हिंदी मुसलमानों ने समझौता करके उनके हिंदुस्थान में उतरते ही स्थान-स्थान पर 'अल्ला हो अकबर' कहकर प्रचंड विद्रोह करने का षड्यंत्र रचा था। उस समय विफल हुई वह महत्त्वाकांक्षा अब उन्होंने छोड़ दी है. यह दरशानेवाला एक भी कारण आज तक घटित नहीं हुआ है, उलटे उनके उस भयंकर दाँव में अब अधिक ही रंग भरने लगा है। जैसे-जैसे रूस और अंग्रेजों का असंतुष्ट बढ़ने लगा है और महायुद्ध नजदीक आने लगा है, वैसे-वैसे हिंदुस्थान पर ऐसे महायुद्ध में इस अफगान आक्रमण की भीषण निश्चितता भी बढ़ती ही जा रही है। अमीरजी की, उनकी धर्मोन्मत्त प्रजा की, सहायकों की और हिंदुस्थान में दिल्ली से मद्रास तक के प्रमुख मुसलमान बंबई में आकर एकत्रित होकर अमीरजी का जो जय-जयकार करते रहे, उन हिंदी मुसलमानों की हिंदी-भारत विद्वेषी प्रवृत्ति हिंदू भारत के हित में अत्यंत भयप्रद वस्तुस्थिति और परिस्थिति स्पष्टता से और निर्भीकता से हिंदू बांधवों के सामने रखकर मैं हिंदू बांधवों से पूछता हूँ कि इस परिस्थिति के प्रकाश में अमीरजी के भाषण पढ़ने पर उनका उस भाषण का असली उद्देश्य सही-सही समझ में आ जाएगा, क्या यह स्पष्ट नहीं है?

अमीर साहब, आप इतना मीठा बोलते हैं तो हमें आप पर बड़ा संशय हो जाता है। आपने यह बार-बार हमें बताया कि आपने अपने राज्य में गो-वध बंद किया है, इसके लिए हम आपके आभारी हैं। आप हिंदू-मुसलमानों के साथ समानता से बरताव करते हैं, यह सुनकर भी हमें गुदगुदी हुई, परंतु आपने यह क्यों नहीं बताया कि आपके राज्य में हिंदुओं को जजिया कर अभी भी देना पड़ता है। जजिया यानी जो मुसलमान नहीं हैं, वे काफिर हैं और इसलिए काफिरों से लिया जानेवाला विशिष्ट कर। इस उपमर्द कारक कर का औरंगजेब द्वारा केवल नाम निकालने पर ही राजपूताना और महाराष्ट्र अपनी संतप्त तलवार लेकर रणांगण में उतर गए थे। वह जजिया 'काफिरों का कर' अफगानिस्तान में हिंदुओं को देना पड़ता है न? उसी तरह अफगानी राज्य मुसलमानी राज्य होने के कारण वहाँ के मुल्ला-मौलवी को मुसलमानी धर्म का प्रचार करने के लिए को मुसलमान बनाने की इजाजत होती है। परंतु हिंदू को अपने धर्म का उपदेश देकर मुसलमानों को हिंदू बनाने की कड़ी मनाही होती है, यह बात सत्य है या नहीं? हिंदुओं और मुसलमानों में मैं कुछ भी फर्क नहीं करता यह कहने में क्या आपका उद्देश्य यह तो नहीं कि आपके राज्य में धर्म के पागलपन का लवलेश भी बाकी नहीं रहा औरसभी नागरिक अपने-अपने धर्ममत निर्बाध रूप से आचरण में ला सकते हैं? तो फिर हम पूछते हैं कि हिंदुओं की तो बात दूर, वे तो प्रत्येक पठान की दृष्टि में काफिर ही रहेंगे, उनको तो जजिया कर देना ही पड़ेगा; परंतु जो मुसलमान हैं उनके लिए क्या आपके राज्य में समान निर्बंध हैं? मुसलमानी अहमदिया या कादियानी पंथ सुन्नी पंथ से कुछ विषयों में भिन्न होने के कारण मुसलमानों ने भी कुछ मत वैभिन्य हैं, इसलिए उनको संगसारी से, पत्थरों से कुचल-कुचलकर मारने की सजा इन एक-दो वर्षों में ही दी गई है और मुसलमानी नियमों का अनुसरण करके, आपने कुरानी न्याय का अनुसरण करके सात-आठ कादियानी मुसलमानों को पत्थर मार-मारकर मरवा दिया क्या यह सच नहीं है? ये बातें स्पष्ट रूप से सामने होते हुए भी आपने केवल गो-वध बंद किया है, वह तो उत्तम ही किया है; अतः आपके पठान राज्य में राक्षसी धर्माधिता का उच्छेद हुआ है और हिंदू रामराज्य में विचर रहे हैं इस तरह की मायावी वार्त्ता पर कौन बुद्धिमान मनुष्य विश्वास कर सकता है? परंतु आश्चर्य है कि अमीरजी के भाषण के मायावी मृग को देखते ही उसपर लट्टू होनेवाली हिंदुओं की लतखोर भोलेपन की प्रवृत्ति इस मायामृग को सचमुच का सोने का हिरण समझकर, 'हमें वही चाहिए' की इच्छा वृत्तपत्रों में प्रदर्शित कर रहे हैं।

समझ लीजिए कि अमीरजी साधु पुरुष और न्यायी राजा हैं, पर उनकी प्रजा? वे उग्र मुसलमान पीढ़ी-दर-पीढ़ी पालने में ही हिंदू द्वेष की घुट्टी पिए हुए और हिंदुस्थान की महिलाएँ तथा संपत्ति लूटना ही जिनका पूर्वार्जित उत्तराधिकार और अभिलाषणीय पराक्रम है, इस तरह की लोरियाँ सुने हुए ये पठान! ये कोहाट के हों या पेशावर के, इसी छमाही में धर्मोन्मुख हुए हिंदुओं की सारी बस्ती ध्वस्त करके उनको देश निकाला देनेवाले ये सीमांतवासी पठान! अगर हिंदुस्थान में तलवार उठाकर यह पिशाच्च दल कभी घुस गया, तो यह मानने के बाद भी कि अमीरजी एकदम साधुवृत्ति के हैं, इस भूत-पिशाच्च दल के द्वारा हिंदुस्थान का सर्वनाश नहीं होगा क्या? अहमदशाह, नादिरशाह और महमूद गौरी के समय का और उन्हीं के भाष्य का कुरान अफगान बच्चा भी पढ़ रहा है, उसपर विश्वास रखता है। अत: उनका टिड्डी दल आज भी हिंदुस्थान के लिए उतना ही या उससे भी अधिक भयप्रद होगा जितना गौरी के समय हुआ था। बारह शतकों के हलाहल की कड़वी राक्षसी वृत्ति पर अमीरजी की दस-बारह मीठी-मीठी बातें क्या असर करनेवाली हैं? इस अनुभवजन्य भय के हलाहल की गोली को वे वाक्य कैसे मीठा कर सकते हैं? अमीर के ये वाक्य क्या अर्थ रखते हैं कि वे हिंदुओं के साथ समानता से बरताव करते हैं, अपने राज्य में उन्होंने गो-वध बंद करवा दिया है और मुसलमानोंको हिंदुओं से मित्रता से रहने के लिए सिखाते हैं। पुनः पुनः इन बातों को बताने का अमीरजी का अगर यह उद्देश्य हो कि इन वाक्यों से हिंदुओं के मुँह में पानी आ जाएगा और इस तरह की बातूनी आशा उत्पन्न होगी कि अफगानी बादशाही अगर हिंदुस्थान पर राज करने लगी तो वह केवल रामराज्य ही होगा और मुसलमानों की धमांधता से उनको मुक्ति मिलेगी, अगर यही उनका हेतु होगा कि भविष्य में भारत पर किए गए आक्रमणा के समय हिंदी मुसलमानों के जैसे ही हिंदुओं की भी सक्रिय सहानुभूति प्राप्त करेंगे, तो अमीरजी! आपका यह उद्देश्य विफल होनेवाला है। वह हेतु हिंदू हित के लिए अत्यंत घातक है। आपके इस हेतु को रावण के जैसे हमले का अवसर आपको प्राप्त हो, इसीलिए आप इन मीठे-मीठे भाषणों के मायावी कांचन मृग को हिंदुओं की आशा की सीता के सामने नचाते हैं, यह बात आपको स्पष्ट रूप से बताने का साहस करना हम अपना पवित्र कर्तव्य समझते हैं।

बारह मधुर वाक्यों का क्या है? इंग्लैंड जब हिंदुस्थान के घर में घुसने के लिए ललचाया था तब उनके राजाओं और गवर्नरों ने ऐसे ही मीठे-मीठे बारह सौ वाक्य उच्चारित किए थे। उन्होंने भी भगवान् की शपथ दिलाकर हजार बार कहा था कि हम सभी धर्मों की प्रजा के साथ समानता से बरताव करते हैं और करेंगे। वे यही कहते थे कि हिंदुस्थान का कल्याण ही हमारा उद्देश्य है, हम तो केवल व्यापारी हैं, राज्य का हमें किंचित् भी लोभ नहीं है। वे ऐसे ही गोरे चिट्टे दिखाई देते थे और ऐसे ही मीठे वचनों के कांचन मृग के मायावी सौंदर्य से हिंदी आशा को सम्मोहित किया और उनका विवेक भ्रमित होने पर उनकी राजश्री पर झपट्टा मार दिया। अधिक दूर तक जाने की आवश्यकता नहीं है, अभी के महायुद्ध में भी इंग्लैंड छोटे राष्ट्रों के स्वातंत्र्य के लिए ही क्या महायुद्ध में नहीं उतरा था और बाद में अंत में अनेक छोटे राष्ट्रों को गटागट निगलकर मुँह पोंछते हुए बाहर आया।

अमीरजी ने बहुत ही मीठी-मीठी बातें कहीं। उत्तम ही है। वे स्वयं अपनी प्रजा के साथ समानता का बरताव करते हैं। अगर यह सच है तो हम हिंदू उनका अभिनंदन करते हैं-पर दूर से! वे अपने को प्रजा का सेवक कहलाते हैं। हम हिंदू इसके लिए उनकी प्रशंसा करते हैं पर दूर से ही साँप, बिच्छू सबमें नारायण का वास होता है, अतः हम उनकी वंदना करते हैं-पर दूर से ही !

पर यदि वे यह आशा करते होंगे कि हिंदू हिंदुस्थान का मन उनके 'प्रजा के साथ समानता से बरताव करना' के औदार्य का उपभोग लेने के लिए भुलावे में आ जाएगा तो उनकी आँखें जितनी जल्द खुल जाएँ उतना ही अच्छा है। हिंदू हिंदुस्थान को किसी की भी प्रजा की समानता का उपभोग नहीं चाहिए। अब उसको राजापन का स्वातंत्र्य चाहिए। उस राजापन की स्वतंत्रता के कार्य के लिए हिंदुस्थानअफगानिस्तान के यथाशक्ति उपयोग कर लेगा, दूर से अगर विरोध करने आया तो विरोध करने के लिए भी वह आगे-पीछे नहीं देखेगा। उस नादिरशाही और अहमदशाही महत्त्वाकांक्षा का तख्त जिस हथौड़े तोड़कर चकनाचूर किया वह हथौड़ा की कृपा से उस के नए अवतार के मनोरथ का वैसे चूर्ण करने के लिए समर्थ होगा। अहिंदू साध्वाचार का हमारा हिंदू साध्वाचार अभिनंदन करेगा ही, पर मायाचार को मायाचार से मार गिराएगा।

लेखांक- ११

नेपाल विषयक चर्चा (१९ जनवरी,१९२८)

यह अत्यंत आनंद की बात कि नेपाल स्वतंत्र राज्य के बारे में हिंदू राष्ट्र में दिनोदिन अधिकाधिक चर्चा रही है।

अगर कभी अंग्रेजों और रूस की लड़ाई और जो निकट भविष्य में होने के चिह्न दिखाई देने लगे हैं-तो नेपाल और अफगानिस्तान राज्यों को सैनिकी दृष्टि से अत्यंत महत्त्व प्राप्त होगा। राष्ट्रों के महायुद्ध ये दोनों राज्य रणक्षेत्र बने बिना नहीं रहेंगे। हाथों ही हिंदुस्थान साम्राज्य चाबियाँ अंग्रेजी साम्राज्य के मुख्य युद्ध का का जो अपूर्व योग इतनी तेजी रहा उसका यही एक मुख्य कारण नेपाल महाराजा समय कलकत्ता में आगमन आकस्मिक घटना होकर यह है कि आगमन की आड़ जा रहे हैं। एक-दो परिच्छेदों स्पष्ट हो रही है कि इस विषय की ओर हिंदुस्थान के लोगों का ध्यान धीरे-धीरे आकर्षित हो रहा है।

कलकत्ता शीर्षक संपादकीय अग्रलेख लिखता कि 'अफगान अमीर आगमन बाद लगभग उतनी महत्त्व को एक घटना घटित वाली उत्तर-पश्चिमी यदि अफगान अमीर रहे हैं तो उत्तर-पूर्व नेपाल महाराजा रहे अफगान अमीर कराची और बंबई वाइसराय आतिथ्य करके चार दिनों चले जाएंगे। परंतु नेपाल के महाराजा वाइसराय का आतिथ्य ग्रहण करने बाद भी यहाँ स्वतंत्र रूप रहेंगे। उनका विचार कलकत्ता में पंद्रह दिनों तक रहने का है। २९ दिसंबर को महाराजा का यहाँ शुभागमन होगा। हमारे सहधर्मी और स्वाधीन हिंदुस्थान के विधाताश्री महाराज चंद्र शमशेर जंग बहादुर राणा का उस अवसर पर कलकत्तावासियों की ओर से, कलकत्ता कॉरपोरेशन की ओर से तथा कलकत्ता के हिंदुओं की ओर से भव्य स्वागत होना चाहिए। नेपाल के महाराजा अपने सेनापतियों के साथ आ रहे हैं। नेपाल के महाराजा, नेपाल के सेनापति, ब्रिटिश सरकार के युद्ध मंत्री तथा वायुयान मंत्री इन सब युद्ध देवताओं का एक साथ भारत में आगमन हो, यह कोई साधारण समाचार नहीं हो सकता। यह कोई महान् राजनीतिक घटना है। अफगान अमीर के आगमन और विदेश भ्रमण का जो राजनीतिक महत्त्व है वही नेपाल के महाराजा के आगमन का भी है। नेपाल को स्वाधीन हिंदू राज्य, हिंदू स्वाधीनता और गौरव का अधिकार प्राप्त है और प्रकृति के नियमानुसार उसका फिर से वैसा ही या उससे भी अधिक विस्तार होना अवश्यंभावी है।'

'श्रीकृष्ण संदेश' में और भी लिखा है कि 'अफगानिस्तान के अमीरजी बहुत महत्त्वाकांक्षी पुरुष हैं। उसपर अंग्रेजों का कट्टर द्वेष्टा राष्ट्र रूस के अफगानिस्तान के समर्थक होने के कारण आज उस परिस्थिति का पूर्ण रूप से लाभ उठाने का अमीरजी का निश्चय दिखाई देता है और उनमें वैसा साहस भी है। कुल मिलाकर अफगान के अमीरजी के आगमन और विदेश यात्रा का जो राजनीतिक महत्त्व है, वही नेपाल के महाराजा का भी है। नेपाल का हिंदू राज्य हिंदू स्वातंत्र्य के गौरव का जो संकुचन होता आया है उसका अंतिम अंश है और इसीलिए प्रकृति के नियम के अनुसार संकुचन के उस अंतिम बिंदु से हिंदू स्वातंत्र्य का पहले जैसा या उससे भी अधिक विकास और विस्तार फिर से होना आवश्यक है।'

इस पत्र के समान ही गुरखा लीग का मुखपत्र 'हिमालयन टाइम्स' इस अवसर का अर्थ अच्छी तरह जानता है। उस पत्र ने भी संपादकीय लेख या अग्रलेख लिखकर कहा है कि जब नेपाल के महाराजा कलकत्ता में आएँगे तब हिंदुस्थान के लाखों गुरखा लोग उनके चरणों पर अपनी उत्कट राजनिष्ठा व्यक्त करें। अकेले कलकत्ता में ही पचास हजार गुरखा हैं।

नेपाली लोगों में गत दो-तीन वर्षों में जो जागृति आ रही है वह कितने महत्त्व की बात है, उसका प्रमाण है हिंदू जनता का उनकी तरफ बढ़ा हुआ आकर्षण। हिंदू जनता का ध्यान नेपाली जनता की तरफ अधिक आकर्षित हो रहा हैं, इसके बारे में कृपालु ब्रिटिश सेवक सत्ता (ब्यूरोक्रेसी) का एक उदार प्रमाणपत्र अभी-अभी प्राप्त हुआ है। क्योंकि गुरखा सघ पर गुप्त पुलिस विभाग की वक्र दृष्टि होना प्रारंभ हुई है। वह संस्था राजद्रोही कार्यवाहियाँ करनेवाली (seditious body) है, इस तरह गुप्त पुलिस प्रतिवृत्त उसके खिलाफ है, यह सूचना संघ को तरफ से ही प्रसारित हुई है। हिंदुस्थान में कोई भी संस्था यदि थोड़ा-बहुत उपयुक्त काम करने लगी तो उसको सी. आई. डी. की तरफ से 'राजद्रोही' या 'संदेहजनक' उपाधि प्राप्त होगो, यह बात तय है। इसी सिद्धांत का उपसिद्धांत यह है कि गुप्त पुलिस ने अगर किसी संस्था को 'राजद्रोही' या 'संदेहजनक' कहा तो बहुधा वह संस्था राष्ट्र के उपयुक्त कुछ कार्य कर रही है, यह विश्वास लोग मन में स्पष्ट रूप से धारण करें। इस उपसिद्धांत के अनुसार सी. आई.डी. की वक्र दृष्टि गुरखा संघ पर पड़ी है, यह इस बात का द्योतक है कि उस संस्था के द्वारा जीवंतता की शोभा बढ़ानेवाला राष्ट्र कार्य किया जा रहा है। यह सचमुच इस संस्था के लिए गौरव करने लायक बात है कि उसकी उपयुक्तता का प्रमाणपत्र सरकारी मुद्रा के साथ गोरखा संघ को इतनी शीघ्रता से प्राप्त हुआ है। प्रत्येक हिंदू को इस बात का हार्दिक आनंद है कि नेपाल के हमारे धर्म बंधुओं को सी.आई.डी. 'संदेहजनक' कहे, इतनी जागृति नेपाली लोगों में हो रही है।

नेपाल के हिंदू राष्ट्र को अंग्रेज सरकार ने ही यह प्रमाणपत्र दिया है ऐसी बात नहीं है, पहले जर्मन के कैंसर ने भी इस हिंदू राष्ट्र के महत्त्व की सराहना की थी। सन् १९१४ से १९१८ के वर्षों में जो महायुद्ध चल रहा था, उसमें श्रीयुत राजा महेंद्र प्रताप के द्वारा जर्मन सम्राट् ने नेपाल के महाराजा को एक और अमीरजी को एक-दो पत्र एक साथ ही दिए थे। उसमें आश्वासन दिया गया था कि अफगान के अमीरजी के जैसे ही नेपाल के हिंदू महाराजा को भी स्वतंत्र राष्ट्र के अधिपति के नाते गौरवान्वित करके नेपाल का स्वातंत्र्य जर्मन सरकार मानती हैं और मानती रहेगी। नेपाल के महाराजा को 'His Majesty' जैसे बराबरी का दर्जा अंग्रेज राजा द्वारा देने से पहले ही जर्मन सम्राट ने वैसे संबोधित किया था और यह भी उत्कट इच्छा प्रकट की थी कि नेपाल राज्य का विस्तार दिनोदिन बढ़ता जाए। अंग्रेजों की कूटनीति कारण श्री महेंद्र प्रताजी को तिबेर से ही वापस लौटाकर वह पत्र नेपाल के महाराजा के हाथों न पड़ने देने का जो कुत्सित प्रयत्न किया गया वह यो ही नहीं था।

जर्मन सम्राट्, अंग्रेजी गुप्तचर पुलिस और इंग्लैंड के मुख्य युद्ध सचिव (The Minister of War) को जिस नेपाल के राजनीतिक भविष्य के बारे में इतनी चिंता करने की इच्छा होती है और उनकी जागृति की तरफ ध्यान देना अत्यंत महत्त्व का और आवश्यक लगता है, उस नेपाल की राजनीति की केवल पूछताछ करने के लिए भी हमारी राष्ट्रीय सभा को फुरसत क्यों नहीं होती? इस बात के लिए अनेक को आश्चर्य होगा, पर इसमें उनका दोष नहीं है। 'रॉयल कमीशन' पर गवाही दे दें या न दें और नील के पुतले पर हथौड़ा चलाएँ या केवल कीचड़ फेंकें इस प्रकार के अत्यंत विकट और राष्ट्र का जीवन जिसपर अवलंबित है, ऐसे महत्त्व के प्रश्नों, राष्ट्रीय कथ्यहीन विषयों की चर्चा करने का काम छोड़कर अफगान और नेपाल की सीमाओं पर रूस वहाँ से और इंग्लैंड यहाँ क्या दाँव खेल रहे हैं-यह बच्चों के खेल में समय गँवानेवाले वे अदूरदृष्टि लोग नहीं हैं। इस तरह के बच्चों के खेल इंग्लैंड के युद्ध सचिव के जैसे आवारा और बेकार लोग खेलें। हमारे नेताओं के जैसे महान् गजनीतिज्ञ और उत्तरदायी लोगों को ऐसे प्रश्नों पर ध्यान देना शोभनीय नहीं होगा, वे भी ऐसे बेकार और स्वप्नाविष्ट (dreamy) उद्योग करने लगे तो नील के पुतले पर कीचड़ कौन फेंकेगा? हिंदुस्थान में इतना कीचड़ होते हुए वह कीचड़ नील के पुतले पर फेंकना छोड़कर हिंदुस्थान के स्वातंत्र्य के लिए इंग्लैंड और रूस को धक्का-धक्की में पड़ने का क्या कारण है? उसके लिए चरखा और कीचड़ ये साधन ही काफी हैं।

परंतु गुरखा लोगों के राजनीति के इस कीचड़ में अभी हमारी तरह आकंठ डूबे हुए न होने के कारण उनकी राजनीतिक जागृति अलग ही रूप लेने लगी है, यह बात ऊपर दी हुई जानकारी से और विशेषत: सी. आई.डी. के प्रमाणपत्र से स्पष्ट होती है। उसका और भी एक द्योतक है कि नेपालेतर हिंदुस्थान में नागरिक के नाते निवास करनेवाले नेपाली लोगों को भी विधि सभा में प्रतिनिधित्व प्राप्त हो, इसलिए नेपाली लोगों में एक महत्त्वपूर्ण आंदोलन शुरू हुआ। ब्रिटिश हिंदुस्थान में लगभग दस लाख नेपाली लोग रहते हैं। ऐसे ही अल्पसंख्यक सिख हिंदुओं को अगर अपना विशिष्ट प्रतिनिधि भेजने का अधिकार है, तो नेपाली हिंदुओं को भी प्रतिनिधि भेजने का अधिकार अवश्य प्राप्त होना चाहिए। जाति विशेष का प्रतिनिधित्व पूर्णतः बंद हुआ तो सर्वोत्तम होगा; पर यदि मुसलमान आदि को वह प्रतिनिधित्व दिया जाता है तो फिर हिंदुओं को भी कुछ समय तक देना आवश्यक है। विशेषतः नेपाली प्रतिनिधि विधानसभा में नियुक्त होना ही चाहिए। रॉयल कमीशन हिंदुस्थान में आते ही गुरखों की तरफ से यह प्रश्न उसके सामने रखा जाने वाला है। नेपाली हिंदुस्थान से ब्रिटिश हिंदुस्थान में आकर निवास करनेवाले दस लाख नेपाली हिंदुओं को अभी दोनों तरफ के अधिकारों से और प्रतिनिधि सत्ता से वंचित रहना पड़ता है, यह अन्याय है। इसलिए विधिमंडल और कलकत्ता, देहरादून, काशी इत्यादि स्थानों से जहाँ नेपाली लोगों की संख्या काफी है-वहाँ की स्थानीय संस्थाओं से गुरखाओं को उनके विशिष्ट प्रतिनिधि भेजने का अधिकार प्राप्त होना चाहिए। हमारे नेपाली बंधुओं से हमारा यही आग्रह है कि वे राष्ट्रीय सभा में भी गुरखा संघ के द्वारा अपना प्रतिनिधि भेजना आरंभ करें। विधिमंडल, स्थानीय संस्थाओं और राष्ट्रीय सभा में गुरखाओं के विशिष्ट प्रतिनिधि जैसे ही जाने लगेंगे वैसे ही हिंदी राजनीति से उनका जीवन समरस हो जाएगा। हमारे राजनीतिक सुख दुःख की प्रतिध्वनि हमारे इधर के नेपाली बंधुओं के खून में उछलने लगेगी। और उसकी भाव-भावनाओं से वहाँ के नेपालस्थ गुरखाओं के हृदय जाग्रत् होने लगेंगे और इस तरह से नेपाल के नेपालेतर हिंदी विभाग का राजनीतिक जीवन एक चेतना से दहकने लगेगा-कम-से-कम समस्त हिंदू हिंदुस्थान तो एक ही ध्येय से प्रेरित होकर अपने स्वतंत्र प्रयत्न से अपना भाग्यशाली भविष्य निर्माण करने लगेगा।

संपूर्ण जगत् में हिंदुओं को अभिमान करने लायक नेपाल ही एकमात्र हिंदू राष्ट्र है। उस राष्ट्र के लोग नवयुग की गति के साथ चलने लगे हैं। धातुक रूढ़ियों के कारण इस उत्थान में यद्यपि विलंब ही रहा है फिर भी नेपाल के स्वतंत्र राज्य के अनेक वीर परिश्रम कर रहे हैं। ऐसे वीर पुरुषों में नेपाल के महाराजा सर चंद्रसेन शेरजंग बहादुर राणा का नाम अग्रणी है। वे अभी-अभी जब कलकत्ता आए थे तब उनका जो सम्मान-सत्कार हुआ वह सुप्रसिद्ध ही है। आज उनकी आयु यद्यपि पैंसठ वर्षों की है फिर भी मुख्य प्रधान के नाते वे अपना काम अत्यंत कुशलता से कर रहे हैं। गत पच्चीस वर्ष उन्होंने अत्यंत परिश्रम करके राज्य कारोबार का उत्तरदायित्व अत्यंत यशस्विता से निभाया है, इससे उनके मन में लोगों के बारे में प्रेम ही प्रकट होता है। काठमांडू के जैसे प्राकृतिक सौंदर्य से ओत-प्रोत, नितांत रम्य नगरी में सिंह दरबार नामक राजप्रासाद में आधुनिक सुधार के साधन यद्यपि विपुलता से दिखाई देते हैं फिर भी महाराजा का रहन-सहन अत्यंत सीधा-सादा है। कोई भी व्यक्ति जाकर उनसे मिल सकता है, अपने सुख-दुःख और शिकायतें उनको बता सकता है। दोपहर के समय वे अपने दलबल के साथ हर रोज नगर प्रदक्षिणा के लिए बाहर जाते हैं और प्रजा के प्रणाम स्वीकारते हुए वापस लौट आते हैं। कर्मनिष्ठ ब्राह्मण के समान उनका यह रोज का कार्यक्रम और व्यवहार होता है। प्रजा पर उनका विलक्षण प्रभाव है और निष्पक्ष न्यायाधीश के नाते उनकी कीर्ति सर्वत्र गूँज रही है। महाराजा के आठ सुपुत्र नेपाल में अपने स्वतंत्र राष्ट्र की सेवा में रत होकर उनका गौरव बढ़ा रहे हैं। सेनापति सर मोहन और सर बाबर सैनिक दल के प्रमुख हैं। सर कैंसर राज्य कारोबार के एक विभाग का काम देखते हैं और सेनापति सिंह धर्मार्थ संस्थाओं के प्रमुख हैं। सेनापति कृष्ण, सेनापति विष्णु, सेनापति शंकर और मदन- ये चारों उनके सुपुत्र नेपाल की सेना में वरिष्ठ अधिकारी हैं। पुराने काल से चली आई गुलामों के व्यापार की प्रथा महाराजा ने बंद करवा दी के है, इस बात के लिए संपूर्ण जगत् में उनकी कीर्ति-सुगंध फैल गई है। उसी तरह नेपाल राज्य में रेलवे प्रारंभ करने का सम्मान भी महाराजा को ही प्राप्त हुआ है। काठमांडू के आसमंत के किसी पर्वत शिखर के नगर की तरफ देख लिया तो कोई भी सोचेगा कि यह नगरी नए सुधारों से सुसज्जित हो गई है। हमारे इस स्वतंत्र हिंदू राज्य के कर्तृत्ववान पुरुष को दीर्घायु का लाभ प्राप्त हो-किसी हिंदू बांधव की ऐसी इच्छा होना स्वाभाविक हो है।

लेखांक- १२

अखिल भारतीय गुरखा संघ का तृतीय

अधिवेशन और नेपाल के महाराजा का

कर्तव्य (सन् १९२८)

'अफगानिस्तान को विश्व राजनीति में जो महत्ता प्राप्त हुई है, वह अफगानिस्तान के समान समबल या तुल्यबल नेपाल को प्राप्त नहीं हुई, यह देखकर गुरखाओं के हृदय में एक व्याकुलता अनुभव हुई है। नेपाल हिंदू राष्ट्र की ढाल है, सुरक्षा कवच है। आज सारे हिंदू जगत् की आशा का केंद्रबिंदु है। एक महान् भवितव्य नेपाल को पुकार रहा है। अगर नेपाल ने उसका स्वागत करने का साहस न किया तो संपूर्ण हिंदू राष्ट्र का इतिहास अश्रुओं और रक्त-बिंदुओं से लिखा जाएगा। और अगर हिंदू राष्ट्र विनष्ट हुआ तो उसके साथ नेपाल का भी विनाश होगा। जो हिंदू राष्ट्र का विनाश वही नेपाल का भी विनाश।' इस तरह के आस्थापूर्ण और हृदय को हिला देनेवाले उद्गार ऊपर के परिच्छेद में गुरखाओं के प्रमुख नेता ने व्यक्त किए हैं।

गुरखा जाति के एकमात्र प्रमुख समाचारपत्र में ऊपर का परिच्छेद देखकर हमें अत्यंत आनंद प्राप्त हुआ। दो-तीन सालों से चले आ रहे त्रुटिपूर्ण और एकाकी प्रयत्न भी इतने फलदायी हो सकते हैं, देखकर मन को अधिक प्रयत्न करने का उत्साह प्राप्त होता है। अब निश्चित रूप से ऐसा लगने लगा है और दो-तीन साल तक अधिक प्रबलता से और अधिक प्रयत्न किए गए तो हिंदुओं का यह एकमात्र • स्वतंत्र राज्य, हमारे गुरखा नेता ने जो कहा कि नेपाल हिंदू राष्ट्र की ढाल है, वह तलवार भी हो जाएगा।

गुरखा राष्ट्र के उद्धार के लिए जो थोड़े से देशभक्त अखिल हिंदुस्थान के अभिमान से प्रेरित हैं और आज के जगत् की परिस्थिति का मर्म पहचानने की पात्रता एवं प्रगतिप्रियता के साथ लोग प्रयत्न कर रहे हैं, उनमें ऊपर के परिच्छेद के लेखक ठाकुर चंदन सिंह एक हैं। गत तीन वर्षों में नेपाली लोगों में जो नई जागृति आई है उसको केंद्रीभूत करने के कार्य में ठाकुरजी के 'हिमालय टाइम्स' और 'गुरखा समाचार' इन दो समाचारपत्रों ने बहुत बड़ा सहयोग दिया है। आजकल नेपाली संपादकों द्वारा प्रकाशित होनेवाले वही दो समाचारपत्र हैं। इसके अतिरिक्त गुरखाओं की जातीय संघटना के लिए 'गुरखा समाचारपत्र' का काफी उपयोग हुआ है। इसके अलावा गुरखाओं के जातीय संघटन के लिए 'गुरखा संघ' नामक संस्था गत दो-तीन वर्ष पहले स्थापित हुई है। उस संस्था के प्रमुख संचालकों में ठाकुर चंदन सिंह का नाम अग्रणी है। ऐसे प्रमुख गुरखा नेता ने ऊपर का परिच्छेद लिखा है, इससे स्पष्ट होता है कि गुरखा जाति में हिंदू संघटन के तत्त्वों और महत्त्वाकांक्षाओं का संचार कितनी तेज गति से हो रहा है।

इसी आशा से 'श्रद्धानंद' भी गत वर्ष से नेपाल को जाग्रत् करने का प्रयत्न करता आया है। श्रद्धानंद में अमीरजी के आगमन के बारे में लिखे गए और नेपाल के उद्बोधन के लिए आस्था से पुकारनेवाले लेख दिल्ली के 'अर्जुन' कलकत्ता के 'श्रीकृष्ण', पंजाब के आर्यसमाजी उर्दू पत्र और 'गुरखा समाचार' में प्रकाशित लेख अनूदित होकर तथा अन्य साधनों के द्वारा नेपाल के कानों तक वर्ष भर ध्वनित होते रहे हैं। आज उनकी प्रतिध्वनि नेपाल के अंतःकरण से स्पष्ट रूप में निनादित हो रही है। हिंदू राष्ट्र के उद्धार का उत्तरदायित्व आज परमेश्वर ने नेपाल को सौंप दिया है। यह अहसास नेपाल के नेताओं को आज हुआ है। आरंभ तो अच्छा ही हुआ है। नेपाल की राष्ट्रीय कर्तव्य परामुखता को लगाया हुआ यह पहला बारूदी सुरंग तो ठीक तरह से लग गया !

हजारों गुरखाओं का राष्ट्रीय उत्साह

और उस सुरंग के उड़ने से उस महान् महत्त्वाकांक्षा की प्रतिध्वनि केवल कुछ चुने हुए नेताओं के हृदय में ही गूंज उठी ऐसी बात नहीं है, बल्कि हजारों गुरखाओं के रक्त में उस सुरंग की आवाज निनादित हुई है। जिन्होंने गुरखा संघ का देहरादून में संपन्न हुआ तृतीय अधिवेशन देखा है उनके ध्यान में यह बात आई है। उस अधिवेशन के अध्यक्ष सरदार जीवन सिंह थे। कत्तेल आमर के महायुद्ध में वे स्वयं लड़ रहे थे और उसमें से बचकर बहुत ही कम लोग वापस लौटे थे, बचे हुए लोगों में से वे भी एक शूरवीर योद्धा हैं। उसी तरह गुरखा सेना के अन्य अनेकसूबेदार और वरिष्ठ अधिकारी इस अधिवेशन में शामिल हुए थे, इसी से इस आंदोलन के कारण अंग्रेजी सत्ता के कलेजे पर साँप लोटने लगा, यह स्वाभाविक ही था।

नेपाल की जागृति की विशेषता यह है कि यह आंदोलन अंग्रेजों को हिंदुस्थान में सबसे विश्वस्त एवं आरक्षित सेना में ही फैलने वाला है। क्योंकि हिंदुस्थान को अपनी मुट्ठी में रखने के लिए जिस हिंदी सेना का अंग्रेजों ने उपयोग किया उसमें कल तक मुख्य रूप से सिक्ख और गुरखा पलटनें एकदम अंध आज्ञाकारी होने के कारण विशेष रूप से आरक्षित होती थीं। सन् १८५७ का क्रांतियुद्ध सिक्ख और गुरखा पलटनों की तलवारों से ही अंग्रेजों ने जीत लिया था। उनमें सन् १९०५ से १९१० तक के राष्ट्रीय आंदोलन के धक्के से सिक्ख जाग्रत् हुए, आज भी वे सैनिक हैं, पर अब वे देशभक्त भी हो गए हैं, परंतु गुरखा सैनिक आज भी किसी यंत्र के समान एक शब्द की आज्ञा पर बंदूक चलानेवाला हृदयशून्य सैनिक ही रहा था।

सिक्ख और गुरखा

अंग्रेजी सत्ता की हिंदुस्थान में विषैली तलवार की दो धाराएँ थीं। उनमें से एक सिक्ख सैनिक जब देशभक्त हुए तब उस तलवार की एक बाजू की धारा का विष उतर गया। बाकी बचा था गुरखा, वह भी अब देशभक्ति से ओत-प्रोत होने लगा तो उस की दूसरी बाजू भी भोथरी हो जाएगी। गुरखा जाग्रत् हृदय होने पर भी सैनिक ही रहेगा, पर वह एक देशभक्त सैनिक होकर रहेगा। पहले जैसे अंध अन्याय के विष का पानी चढ़ाई हुई तलवार वह हाथ में नहीं लेगा और ऐसा होने की संभावना दिखाई देने से ही कुछ अन्याय प्रवण और स्वार्थाध अंग्रेज राजनीतिज्ञों के गुरखाओं की राष्ट्र जागृति देखते ही होश उड़ जाते हैं; परंतु सुदैव से देहरादून के अधिवेशन के प्रसंग में अंग्रेजी अधिकारियों ने इतना खींचने का पागलपन न करते हुए यह तय किया कि वीर गुरखाओं की न्याय्य आकांक्षाओं को वाणी के द्वारा मुक्त होने दिया जाए। उस अधिवेशन में अनेक गुरखा सैनिक सूबेदार और अन्य सेनानियों को प्रकट रूप से सहयोग देने के लिए वहाँ के अंग्रेज सैनिक अधिकारियों ने रुकावट नहीं डाली। महाराजा नाभा अधिवेशन में उपस्थित थे। अनेक गुरखा रेजिमेंट के स्थान-स्थान से अभिनंदन के संदेश आए थे। झालाबाद के महाराजा, गढ़वाल के महाराजा, सरकारी के महाराजा, सिक्किम के महाराजा और अन्य महान् व्यक्तियों के भी सहानुभूति के संदेश तार द्वारा प्राप्त हुए थे। जो प्रस्ताव पारित हुए उनमें मुख्य इस प्रकार हैं-

परदेशगमन निषेध का निषेध

यह प्रस्ताव हमें एक सामान्य सुधार का प्रस्ताव लगेगा, पर नेपाल की परिस्थिति में इस प्रस्ताव का अत्यधिक राष्ट्रीय महत्त्व है। आज नेपाल के स्वतंत्र हिंदू राज्यवृक्ष का संवर्धन रोकनेवाला एक विषैला कीड़ा या घुन है किंचित् दिखाई देनेवाली पांडित्यहीन पंडितों की परदेशगमन निषेध की आज्ञा ! स्वतंत्र राष्ट्र होने पर भी नेपाल, रूस, इटली, अमेरिका, फ्रांस आदि राष्ट्रों में अपने राजदूत तथा दूस स्थापित नहीं कर सकता; क्योंकि परदेशगमन निषिद्ध। अतः नेपाल के राजा की तो बात दूर, प्रधान के दामाद को भी मास्को जाकर स्टालिन, मुसोलिनी और कमाल से मुलाकात करना संभव नहीं है। अपने सैकड़ों कर्मचारियों को वहाँ भेजकर नई-से नई सैनिकी और शास्त्रीय कला तथा साधन सामग्री के निर्माण की कला सीखना संभव नहीं होता; क्योंकि परदेशगमन निषिद्धता का पवित्र स्वाँग जो है। रूस के जैसे राष्ट्रों में जाकर प्रत्यक्ष परिस्थिति का अवलोकन करके उनके साथ संबंध जोड़ नसकने के कारण नेपाल आज अंग्रेजों के हाथों की कठपुतली बन रहा है। अफगानिस्तान का परिचय और मित्रता समस्त जगत् के साथ स्थापित होते ही रूस के द्वारा अंग्रेजों को और अंग्रेजों के द्वारा रूस को वह धमका सकता है; परंतु हिंदुस्थान के कुएँ के बाहर ही न जा सकने के कारण नेपाल को उसी कूप से सभी मंडूकों को बड़े अंग्रेजी कूपमंडूक की 'हाँ जी, हाँ जी' करनी पड़ती है। सर हेनरी कॉटन के जैसे कुछ अंग्रेजों से भी कहे बिना नहीं रहा जाता कि अंग्रेजों ने नेपाल के साथ कितना अन्यायपूर्ण बरताव किया है, उन्होंने 'मित्र का विश्वासघात' इस आशय की नेपाल के विषय में कड़ी आलोचना अपने लेखों द्वारा बीच-बीच में अभिव्यक्त की है। नेपाल को परराष्ट्रीय व्यापार, परराष्ट्रीय राजनीति, परराष्ट्रीय गौरव कुछ भी करना मुश्किल है, नेपाल के पैर परदेशगमन निषिद्धता की डोर से बँधे हुए हैं। नेपाल राज्य की शक्ति के कंठ को एक क्षुद्र रूढ़ि फाँसी के फंदे के समान कसकर बाँधी हुई है। नेपाल के हिंदू राष्ट्र की और परिणामस्वरूप हिंदू जगत् के स्वातंत्र्य एवं वैभव की उत्तुंग आकांक्षा की एक रद्दी पोथी से फटे पन्ने पर धुँधली पंक्ति रुकावट बन जाती है और वह विजयोत्सुक राष्ट्र के रथ को रोके रखती है। कमाल है! परंतु बात वैसे ही घटित हो रही है। नेपाल राज्य के प्रमुख प्रधानजी ने सप्रमाण प्रसिद्ध किया है कि परराष्ट्रों में राजदूतावास स्थापित करके नेपाल की शक्ति बढ़ाने के लिए नेपाली लोगों को परदेश में भेजना अत्यंत आवश्यक है; पर वह करना दुष्कर है, क्योंकि हमारे राजपंडितों ने 'परदेशगमन निषिद्ध' होने की घोषणा की है।

इन राजपंडितों की यह घर छालन शुचिता

यह शुचिता अब जला देनी चाहिए। परदेश में जाने उनकी स्वदेशी शुचिता अपवित्र हो जाती है, भ्रष्ट हो जाती है; परंतु परदेश को अपने देश में आने देने में उनकी शुचिता भंग नहीं होती। हिंदुस्थानी दूसरे म्लेच्छ देश में न जाएँ, पर दूसरे म्लेच्छ हिंदुस्थान में आकर उनके सिंहासन पर आसीन हो जाते हैं तब उनका धर्म भ्रष्ट नहीं होता। इस तरह आत्मघात की कूपमंडूक वृत्ति का निषेध इससे पहले ही होना चाहिए था; पर देर से भी क्यों न हो, गुरखाओं के गत अधिवेशन में हुआ यह सब अत्यंत संतोष की बात है।

तीन-चार हजार गुरखों ने एकमत से गर्जना की और घोषित किया कि हम परदेश गमन करेंगे। हम जागतिक उथल-पुथल में सहभागी हो जाएंगे। इस प्रस्ताव के साथ यह भी प्रस्ताव पारित हुआ कि ब्रिटिश हिंदुस्थान में निवास करनेवाले तीन लाख गुरखाओं को विधिमंडल में प्रतिनिधिक अधिकार दे दिए जाएँ। अस्पृश्यों के एक प्रतिनिधिमंडल ने संघ के अधिवेशन में प्रवेश करके अपने दुःख बताए, तब शुद्धि, अस्पृश्यता निवारण और संघटन-इन तीन आंदोलनों को भी गुरखा जाति का पूर्ण समर्थन गुरखा संघ ने घोषित किया। हिंदू जाति के जीवन-मरण का प्रश्न शुद्धि-संघटन से संबद्ध है। अगर हम हिंदुओं ने शुद्धि-संघटन किया तो ही हम हिंदू जीवित रहेंगे, इस तरह असंदिग्ध समर्थन गुरखाओं ने दिया। अन्य अनेक उपयुक्त और प्रगमनशील प्रस्ताव पास किए गए। अखिल हिंदू संघटन के नवचैतन्य का संचार होते ही गुरखा जाति कैसे हड़वड़ाकर जाग्रत् हो रही है, यह बात किसी के भी ध्यान में आएगी, इस तरह के अपूर्व उत्साह में यह अधिवेशन संपन्न हुआ। अब इस उत्साह का लाभ उठाने का नेपाल के महाराजा का कर्तव्य है। उनके राष्ट्र का संपूर्ण समर्थन उनको प्राप्त है। वे अब अफगानिस्तान के जैसे परराष्ट्रीय राजनीति में उत्साह से हिस्सा लेना आरंभ करें। मृत और मारक युग के पोथे रद्दी के टोकरे में फेंककर नवयुग की नई स्मृति की पोथियाँ खोलें। आगामी महायुद्ध में अगर अंग्रेजों में से मित्रता का व्यवहार करना हो तो जिससे वह मित्रता नेपाल के और अखिल हिंदू राष्ट्र के लाभ और गौरव के अनुकूल होगी, इस रीति से ही करना होगा। अंग्रेजों को दृढ़ता से कहना होगा कि नेपाल इसके आगे दुर्बलदास के समान बिना शर्त सहायता नहीं देगा।

महायुद्ध में अंग्रेजों को नेपाल की मित्रता की अत्यंत आवश्यकता है, अतः नेपाल के महाराजा निस्संकोच अंग्रेजों से कह दें कि गतकाल में ब्रिटिशों ने शिमला के बाजू के प्रांत और नेपाल के कुछ अन्य प्रदेश अपने राज्य में सम्मिलित किए थे, वे नेपाल के प्रदेश वापस लौटाए जाएँ। कलकत्ता में कारस्तानी चल रही है, उसी समय महाराजा को जो कुछ बोलना है, वह खुल्लमखुल्ला और निर्भयता से बोल देना चाहिए। एक समय नेपाल के राजा पटना नगरी में निवास करते थे। अगर नेपाल अंग्रेजों का मित्र है तो पूर्वजों का वह पूर्वार्जित घर अंग्रेज नेपाल को वापस क्यों न दें? नेपाल की लड़ाई में नेपाल का जो प्रदेश शत्रु के नाते अंग्रेजों ने जीत लिया था, वह प्रदेश आज दो पीढ़ियों के मित्र के नाते अंग्रेज नेपाल को वापस क्यों न करें? महायुद्ध में सहायता लेने के लिए अगर 'Our allies', हमारे 'स्वतंत्र साथी' कहकर नेपाल का गौरव करना हो तो ऐसा खोखला साथ कौड़ी मोल का भी नहीं है। 'तेरा जो है मेरा है और मेरा तो मेरा ही है' का दाँव अंग्रेज सरकार अगर खेलेगी तो नेपाल के महाराजा उस दाँव का विनाश करने में डरें नहीं। परिणाम जो होगा सो होगा! गुरखा जाति के हृदय में नया उत्साह, नई आकांक्षा, नया सामर्थ्य संचरण कर रहा है। हिंदू राष्ट्र का महाराजा के न्याय्य पक्ष को समर्थन है। अतः नेपाल के बढ़ते विस्तार, महत्त्व और महान् आकांक्षाओं को उपयुक्त एवं अनुकूल होगी, उसी तरह की स्वहितकारण मित्रता करूंगा, नहीं तो किसी झंझट में हमें हिस्सा नहीं लेना है, ऐसा कहना महाराजा न भूलें-इस तरह की हमारी उनसे साग्रह विनती है।

लेखांक - १३

देखिए,इस छद्म'शुचिता'का परिणाम !

(सन् १९२८)

विदेशियों ने हिंदुस्थान के पाँव परतंत्रता की जंजीर से जकड़ दिए हैं। वे परकीय बेड़ियाँ अत्यंत भारी और कष्टदायी हैं; परंतु आज हिंदुस्थान का हृदय उस परकीय दासता की जंजीर से भी अधिक तीव्रता से व्याकुल हो जाता है, इस बात से कि शुचिता पागलपर की बेड़ियाँ हमने अपने ही हाथों से अपने पैरों में जकड़ दी हैं। परकीय दासता की बेड़ियाँ तो हैं ही, पर 'शुचिता के पागलपर' की इन बेड़ियों ने तो हमारे हृदय को ही जकड़ लिया है।

खान-पान की शुचिता के पागलपर के कारण धर्म-के-धर्म, जाति-की जाति, वंश-के-वंश हिंदुत्व से वंचित हो जाते हैं। इस तरह की बेकार और विमूढ़ समझ के कारण पाँच करोड़ से अधिक हिंदू विदेशियों ने धर्मभ्रष्ट किए हैं। जिन आठ-नौ करोड़ हिंदुओं को स्वधर्म से वंचित करके हमने जबरदस्ती परधर्म में धकेल दिया और उन्हें हमारा शत्रु बनया, उन नौ करोड़ों में कम-से-कम पाँच करोड़ हिंदू केवल ' शुचिता के पागलपर' के कारण ही धर्मभ्रष्ट किए गए। ईसाइयों या मुसलमानों के हाथ से छुआ हुआ पानी पीया हुआ धर्मभ्रष्ट, उनके घर का ब्रेड या भात खाया हुए धर्मभ्रष्ट- यह कहाँ की शुचिता ? इस शुचिता के पागलपर के कारण ही हम वंश-परंपराओं तक उनसे वंचित हुए और आज भी हो रहे हैं।

इस शुचिता के पागलपर के कारण (१)

एक ब्राह्मण वर्ण के एक हजार ब्राह्मण वर्ण हुए, एक क्षत्रिय वर्ण के एक हजार क्षत्रिय वर्ण हुए। बंगाली ब्राह्मण, कनौजी ब्राह्मण, सारस्वत ब्राह्मण, मद्रासी ब्राह्मण-आपस में खानपान तथा रोटी-बेटी व्यवहार बंद। बहुलांश में खानपान की भिन्नता के कारण जो हम नहीं खाते वह दूसरा अगर खाता है तो उसके पंक्ति स्पर्श से हम धर्मभ्रष्ट होने लगे, हमारी शुचिता नष्ट होने लगी और इसी विलक्षण मूर्खतापूर्ण समझ के कारण मुख्यतः आज चातुर्वर्ण्य के चार हजार वर्ण करनेवाले राष्ट्र विघातक जातिभेद उत्पन्न हुए।

इस शुचिता के पागलपर के कारण (२)

परदेशगमन निषिद्ध हुआ। परदेश में शुचि अन्न और शुचि पानी नहीं मिलेगा यानी परधर्मियों द्वारा हुआ हुआ अन्न और पानी ग्रहण करना पड़ेगा और हुआछूत, शुचिता-अशुचिता होगी और इससे धर्मभ्रष्ट होगा, अतः परदेश गमन निषिद्ध हुआ। इसी से देश-विदेश में होनेवाले परिवर्तन मालूम नहीं हुए, उनके बारे में अज्ञान ही रहा और हम अपनी शुचिता के पागलपर से चिपके रहे। पर सहवास से भ्रष्टता आती है, उसके कारण हिंदुत्व का रेशमी वस्त्र धर्मभ्रष्ट होता है, कितना बड़ा आश्चर्य !! आश्चर्य इस बात का कि वह धर्मभ्रष्टता परदेशगमन से ही होती है। परकीयों के हमारे देश में घुस आने से नहीं होती। आज अरब में जितने मुसलमान होंगे, उससे कहीं अधिक मुसलमान हिंदुस्थान में हैं। उत्तर में तो हिंदुओं के घरों से सटकर मुसलमानों के घर की दीवारें हैं, पर इससे शुचिता भंग नहीं होती। परकीय देश में विदेश में जाकर वहाँ से पैसे या कुछ सोना कमाना या दो-चार राज्य कमाने में शुचिता का भंग होता है, परंतु विदेशियों को अपने देश में प्रवेश देकर अपने पैसे गँवाना, सोना दे देना (देना नहीं पड़ता, वे तो लूट लेते हैं), दो-चार ही क्यों राज्य के राज्य उनको देने में शुचिता नहीं होती, वाह, यह तो एकदम धर्मकृत्य हुआ! वास्तव में देखा जाए तो विदेश के मनुष्य को अपने देश को छूने देने में भी हिंदुओं ने अगर शुचिता भ्रष्टता मानी होती तो वे इतने अुसभ्य और आत्मघाती न रहते। पर उनकी बुद्धि उलटी चली। हिंदुओं को अटक नदी के पार नहीं जाना है। राघोबा दादा पेशवा के सिंधु नदी के पार उड़ना चाहनेवाले घोड़े को भी अटक पार नहीं करना चाहिए था (वह परदेशगमन होगा), नहीं तो उनकी हिंदू जाति भ्रष्ट हो जाती। परंतु मुसलमानों के महमूद गौरी और गजनी तथा ईसाइयों के सेंट जेवियर और लार्ड क्लाइव हमारी जमीन में घुस आए, राज्य के राज्य लुट गए, लेकिन उन बातों में शुचिता भंग नहीं होती, हिंदुओं की जाति भ्रष्ट नहीं होती!! अंतिम बाजीराव पेशवा के समय तक अंग्रेजों के इने-गिने लोग भारत में नहीं घुसे थे, बड़ी-बड़ी सेनाएँ हिंदुस्थान में घुस आई थीं। हिंदुस्थान के राज्यों की राजधानियों की, राजप्रासादों की बिलकुल बारीकी के साथ जानकारी-उनकी सेना कितनी है,उनके राजप्रासाद में कितने कमरे हैं, रानियाँ कितनी हैं-कौन सी रानी कहाँ, किस कमरे में रहती हैं, उनकी दासियों कितनी हैं, उन दासियों में कौन दासी मुँहफट और वश में होने योग्य है और राजमहल के सच्चे और विश्वसनीय समाचार दे सकती है आदि बातों की सूक्ष्म-से-सूक्ष्म जानकारी अंग्रेजों के पास थी, तब हिंदुओं की जाति भ्रष्ट नहीं हुई, हिंदुओं का रेशमी वस्त्र भ्रष्ट नहीं हुआ; परंतु राघोबा दादा पेशवा ने अपने दो हिंदू प्रतिनिधि विलायत-इंग्लैंड के राज्य लेने के लिए नहीं, केवल राजनीतिक बातचीत करने के लिए भेजे थे, तो उन हिंदू प्रतिनिधियों को 'जाति भ्रष्ट' हुई, शुचिता भंग हुई, उनको प्रायश्चित्त के बाद प्रायश्चित्त लेते-लेते मरणी 'मरण' प्राप्त हुआ और 'योनि प्रवेश' करना पड़ा! बंबई में बहुत बड़ी पत्थर की योनि बनाई गई और उस पत्थर की योनि से लाक्षणिक पुनर्जन्म लेना पड़ा। अगर ऐसी स्थिति थी तो क्या आश्चर्य कि अंग्रेज यूरोप में क्या दाँव खेल रहे हैं, उनपर हम क्या दाँव लगा सकते हैं, इसके बारे में ज्ञान तो दूर, इंग्लैंड की जनसंख्या कितनी है, इसकी भी जानकारी हिंदुओं को प्राप्त नहीं हुई। उस समय के उनके एक पत्र के परिच्छेद में आश्चर्य से वे एक-दूसरे को पूछते हैं कि ये अंग्रेज हैं भी कितने ? उसका कारण यह है कि शुचिता के पागलपर में विदेशगमन निषिद्ध था।

शुचिता के पागलपर के कारण (३)

हमें मुकुट की अपेक्षा मुकटे (पूजा आदि के अवसर पर पहनी जानेवाली रेशमी धोती) की चिंता अधिक थी। विदेश के राज्य जीत लेने के लिए भी विदेश जाने से शुचिता भंग। परंतु विदेशी स्वदेश में आकर स्वदेश का राज्य अपने अधीन कर लेते हैं तो तब क्यों नहीं होती शुचिता भंग? मुकुट जाने से शुचिता भंग नहीं होती, पर मुकुटा शुचि रहना चाहिए। इस मुकटे के लिए हमने मुकुट गँवाए। परदेशगमन निषिद्ध मानकर, परकीय राजनीति से अक्षरभिज्ञ रहकर राज्य के राज्य गँवाए। अरब में मुसलमानों के रेतीले तूफान का प्रथम समाचार आते ही हिंदू सेना अगर अरब पर आक्रमण करती तो? उस समय बलूचिस्तान हिंदू था, अफगानिस्तान पर हिंदू राज्य था, पर उसी समय परदेशगमन निषिद्धता की अवदशा अवतीर्ण हुई, फिर अरब का समाचार ही कैसे प्राप्त होगा? आगे चलकर अफगानिस्तान से हाथ धो बैठे, हिंदुओं का अटक पार करने का नित्य का अटकाव हुआ और मुसलमान स्वदेश में घुस आए। पर हिंदू बाहर जाने के लिए तैयार नहीं था। अगर बाहर जाता तो मुकटे की शुचिता भंग हो जाती। उस समय का परदेश के बारे में हमारा आत्मघातक अज्ञान का एक व्यंग्य चित्र 'गोमांतक' काव्य में चित्रित किया है, वह अत्यंत यथार्थ है। सर्वसामान्य जनता को विदेश विषयक जानकारी कितनी औरकैसी प्राप्त होती थी, उसकी कल्पना एक भ्रमण करनेवाले साधु के कथन से स्पष्ट होती है। गाँव के हनुमान मंदिर में या पीपल, बरगद के चबूतरे पर कोई रागी या साधु आ जाते, तो गाँव के लोग उनके इर्द-गिर्द इकट्ठा होते और उनसे प्रश्न पूछते-

'वह घुमक्कड़ साधु बैठा धूनी जलाकर चबूतरे पर

लोग देश-विदेश की बातें पूछते जाते,

चिलम पीते-पीते, छोड़ते धुआँ

विलायत कैसी ?

काशी के ही आगे है जरा।'

(ये तिये फिरता साधूः धुनी पेटवुनी बसे।

प्रार्थिता बहुती सांगे, लव देश कुठे अुसे ॥

वेद चिलमीच्या शब्दी खब्दी सोडीत तो धुरा।

विलायत काशी आहे, काशीच्याच पुढे जरा।।)

जिस समय उसी विलायत के हजारों लोग हिंदुस्थान में घुसकर हमारा व्यापार गले के नीचे उतार रहे थे, हमारे संघर्ष सुन रहे थे, हमारे किलों की बड़ी बड़ी सेंधें इंच-इंच से नापकर ध्यानपूर्वक देख रहे थे और अंत में अंतिम बाजीराव के सिंहासन पर अपना एक पैर जमाकर चढ़ भी गए थे, उसी समय उन्हीं अंग्रेजों के देश के बारे में और उनके शत्रु देश के बारे में हमारी सामान्य जनता में इतना घोर अज्ञान फैला हुआ था! राज्यों के विनाश के अनेक कारणों में यह परदेश गमन निषिद्धता का कारण प्रमुख है, इसमें किसी को शंका होने की क्या संभावना है? सचमुच इस शुचिता के पागलपर के कारण, मुकटे के कारण हमने मुकुट गँवाया! यह तो गतकाल की बात हुई, पर अत्यंत दुर्दैव की बात तो आगे है।

आज भी इस शुचिता के पागलपर के कारण हिंदू का एकमात्र अवशिष्ट मुकुट (नेपाल का मुकुट) भी विनाश के जबड़े की छाया में निस्तेज होकर पड़ा है। वह मुकुट नेपाल का राजमुकुट है और वह विनाश की छाया है शुचिता का पागलपर। नेपाल और अफगानिस्तान की तुलना करते हुए लिखा गया ' श्रद्धानंद' का वह लेख पाठकों को स्मरण होगा। उसमें यह बताया गया है कि अमीरजी यूरोप में जाकर कितने महत्त्व की राजनीतिक उलट-पुलट कर रहे हैं, नेपाल के महाराजा भी यदि यूरोप में ऐसे ही स्वतंत्र महाराजा के नाते जाते तो हिंदू राष्ट्र का कितना बड़ा गौरव और हितवर्धन होने की संभावना थी। पर नेपाल के महाराजा हिंदू! सुदैव से उनके पैरों में परदास्य की विदेशी श्रृंखलाएँ भले ही न हों, पर स्वकीयों की शुचिताके पागलपर की विषैली जंजरें उनके हृदय को जकड़े हुए हैं, शुचिता का उन्हें परदेश परदेश गमन निषिद्ध, गमन शुचिता भ्रष्ट हो जाएगी। केवल महाराजा नहीं, उनके एक दामाद इस के शिकार दामाद विलायत-यूरोप जाना चाहते उनको पंडित की आज्ञा विलायत की यात्रा लिए किसी महान् अपराधों जैसे प्रतिबंध लगाया गया है। महाराज सही, उनके दामाद यूरोप जाते हिंदुओं एक भी हो स्वतंत्र बाकी बचा है, बात यूरोपियनों ज्ञात होती और उनके तैयार किया जा सकता!

इस शुचिता के पागलपर की निर्लज्जता की पराकाष्ठा को व्यक्त करनेवालो घटना हुई थी। काल में जर्मन युद्ध के समय ही महाराजा, प्रधान हजारों गुरखाओं की पलटनें में गई पर तब अंग्रेजों की आज्ञा हुई अंग्रेजों आज्ञा होने पर राजपंडित और स्मृति ग्रंथ सब चुप हो थे। जाति के हिंदुओं छूने भर शुचिता भंग होती है, अंग्रेज कारण शुचिता भंग नहीं होती! ही अंग्रेजों की तरफ से अंग्रेजों के गौरव लिए परदेश चलता उससे इनके मुकटे शुचिता भंग नहीं होती; अपने राज्य के लिए, अपने की स्वतंत्रता के गौरवार्थ परदेश निषिद्ध है! खान-पान अत्यंत वाहियात, शुचिता के पागलपर के कारण-पाँच करोड़ हिंदू हुए! अस्पृश्यता, जातिभेद इत्यादि गधेपर फूट हिंदू राष्ट्र जीवन करके उसके टुकड़े-टुकड़े किए हैं। परदेश गमन निषिद्ध मानकर मुकटे शुचिता लिए मुकुट गँवाए। यह कैसे हुआ? और कैसे रहा है? छुआछूत अवदशा राष्ट्र का पैर आगे पड़ने ही देती। तरह से परदास्य की जंजीर आसान पर हृदय को कसकर जकड़नेवाला यह जातीय शुचिता पागलपर का गले में पड़ा मुकटे का फंदा तोड़ना कितना मुश्किल है-यह उदाहरण होता कि नेपाल के के दामाद परदेश गमन मनाही वह सारा जामाता बताता हूँ।

नेपाल के मुख्यमंत्री के इकलौते दामाद और नेपाल राज्य के बेजंग प्रदेश एक समय के अधिपति राजा कर्नल जयपृथ्वी बहादुर सिंहजी की डेली पोस्ट' प्रतिनिधि ने बंगलौर अभी-अभी नेपाल मंत्रीजी साथ जब कर्नल कलकत्ता छावनी में थे अचानक आश्चर्य कारक रूप वे गायब हो गए। इस घटना के बारे समाचारपत्रों नेअभी-अभी नाना प्रकार के तर्क-वितर्क छापे थे, इस घटना की सच्चाई जानने के लिए 'बंगलौर डेली पोस्ट' ने उनसे मुलाकात की। सचमुच वस्तुस्थिति क्या थी, उसके बारे में राजा साहब कहते हैं-

'मैं एक विद्वान् पंडित की सहायता से 'मनुष्य स्वभाव' विषय पर मनुष्य जीवन और मनुष्य ज्ञान की सविस्तार चर्चा करनेवाली एक शास्त्रीय पुस्तक लिख रहा हूँ। वह पुस्तक लगभग पूरी होने को है। बार-बार दोहराया जानेवाला धार्मिक सिरफिरापर, जातीय विषमता, राष्ट्रीय ईर्ष्या-द्वेष आदि बातों से मनुष्य को किस तरह की भयंकर यातनाएँ सहनी पड़ती हैं यह बात ध्यान में आने पर मेरे मन में एक अलग ही विचार आया, और वह विचार था कि मनुष्य जाति के इस संकट की तीव्रता कम करने के उद्देश्य से एक सार्वजनिक संस्था की स्थापना की जाए। ऐसे इच्छित ध्येय का प्रयत्न करते समय जगत् के अलग-अलग देशों के तत्त्वज्ञों और शास्त्रीय संस्थाओं की जानकारी प्राप्त कर लेना अपरिहार्य है। इस तरह विचार आने पर और उसी के साथ मेरी उस पुस्तक पर लोगों का मत जानने के लिए मैंने दुनिया भर की यात्रा करने का निश्चय किया।

'परंतु मेरे देश-बांधव नेपाल राज्य के एक भी हिंदू मनुष्य को, हिंदू धर्म ने जो निर्बंध और रूढ़ियाँ बनाई हैं, उनका उल्लंघन करने की छूट नहीं देते और देंगे भी नहीं। जलमार्ग से अत्यंत दूर के देश में जाकर हिंदू उच्चवर्णीयेतर लोगों के हाथ का बनाया हुआ खाना खाना हिंदू धर्म का उल्लंघन माना जाता है। तात्त्विक दृष्टि से मैं किसी भी हिंदू के समान ही हिंदू हूँ, फिर भी हिंदुओं की धार्मिक अंध श्रद्धाएँ और धर्म के बारे में भोलापर मुझे कभी मान्य नहीं है और इसीलिए मेरा काम पूर्ण करने के लिए मेरे सामने दो में से एक ही मार्ग खुला था। एक तो यह कि महाराजा से इजाजत माँगना और अगर उन्होंने इनकार किया तो 'मुझे आपकी इजाजत की आवश्यकता नहीं है' कहकर निष्फल जाना; परंतु यह बात मुझे अच्छी न लगी और दूसरा मार्ग था-आप उसे उचित कहें या अनुचित-किसी भी तरह से लोकापवाद टालने के लिए किसी को भी न बताते हुए भाग जाना। उनमें से मैंने दूसरा मार्ग पसंद किया और अपनी गतिविधियों का किसी को भी किंचित् भी पता न बताते हुए, मैं कलकत्ता से भाग गया। मेरी खोज के लिए हिंदी समाचारपत्रों ने कुछ दिनों तक खलबली मचाई। मैं बंबई में हूँ-यह समाचार पाते ही नेपाल मंत्री ने मेरी अपेक्षा के अनुसार मुझे रोकने का प्रयत्न किया। बंधन और रूढ़ि समय-समय पर बदलने योग्य होती है, इतना ही नहीं दूसरे देशों में इनमें परिवर्तन होता आया है, यह बात यद्यपि मुझे ज्ञात है, फिर भी मुझे यह मान्य करना पड़ेगा कि महाराजा (नेपाल मंत्री) तय करने के लिए मुझसे अधिक सुयोग्य व्यक्ति हैं कि इस तरह के बंधन तोड़नेजितनी सामर्थ्य नेपाल की है या नहीं? मैं यह बात अपने उत्तरदायित्व पर हीकरनेवाला हूँ और गत चौदह साल से मैं हिंदुस्थान में रहता आया हूँ फिर भी मेरीयह इच्छा है कि मेरे किसी भी कार्य से नेपाली लोगों को कभी दुःख न पहुँचे। अतःमैं आशा करता हूँ कि महाराजा और मैं-दोनों मिलकर इस समस्या का कोई-न-कोई हल निकालेंगे। इस तरह के समझौते के बिना हिंदुस्थान छोड़ना मेरे लिए कभीश्रेयस्कर नहीं होगा।

'कुछ समाचारपत्रों में प्रकाशित किए गए समाचार के अनुसार मेरी आँखों के लिए औषधोपचार करना भी मेरे परदेश गमन के अनेक हेतुओं में से एक था। मेरी प्रबल इच्छा है कि मैं मानवता की सेवा करूँ। और उसके लिए Humanistic मंडल शुरू करने का मेरा विचार है। इस मंडल के उद्देश्य जल्द ही प्रकाशित किए जाएँगे, यद्यपि इसके पहले मेरा विचार संपूर्ण जगत् की यात्रा करने के बाद उन उद्देश्यों को प्रकाशित करने का था।' इस तरह की शुचिता भंग की कल्पना का त्याग हम कब तक कर पाएँगे?

लेखांक- १४

नेपाल को शल्य चुभने लगा!(सन् १९२८)

यह उनका अफगानिस्तान और यह हमारा नेपाल। दोनों देश संख्या, क्षेत्रफल, परंपरा, शौर्य, स्वातंत्र्य इत्यादि बातों में बराबर होते हुए भी यकायक अफगानिस्तान का चारों ओर इतना ढिंढोरा क्यों पीटा जा रहा है? इसकी महत्त्वाकांक्षा का साहस वह प्रकट रूप से कैसे कर सकता है? यूरोप के महाशक्तिशाली राष्ट्रों के साथ समानता से संधिविग्रह करने की या न करने की शक्ति उसमें कहाँ से संचारित हुई ? और हमारा यह नेपाल अंग्रेजों के सामने भीगी बिल्ली बनकर जगत् में किसी के भी साथ बोलने का साहस न करते हुए नीचे गरदन झुकाकर क्यों बैठा है? यह अत्यंत लम्जास्पद स्थिति, यह विषैला शल्य अंत में हमारे नेपाली बंधुओं के हृदय में चुभने लगा है, यह बात सही है।

आज तक जिस अत्यंत अनुकूल परिस्थिति ने नेपाल को अंतरराष्ट्रीय राजनीति में लाकर खड़ा किया है, उसका बोध भी स्पष्ट रूप से नेपाल को न हो, इतनी चैतन्यहीन स्थिति में अपने ये वीरवर जाति बंधु पहुँच गए थे। अपनी अवनति का बोध तक नष्ट होने जैसी दूसरी भयंकर अवनति नहीं है। गड़े हुए शल्य का दुःख या चुभन तक न होना, व्यथा या वेदना का अंत होना ही मरण है। नेपाल ने अपने राष्ट्रीय महत्त्व की दृष्टि से अपने अस्तित्व की पहचान तक खो दी थी। हिंदू स्वतंत्रता का ध्वज उनके हाथ में था, फिर भी नेपाल स्वयं निश्चिंत पड़ा दीखता था। यह देखकर विह्वल, व्याकुल हृदय से हम उसको जगाने लगे, व्याकुल आशा और भयंकर डर से, बड़ी आस्था से उसे पुकारने लगे, 'उठ ! नेपाल जाग्रत् हो जा और द्वार ठकठकानेवाली भारत की भाग्यश्री का स्वागत कर!!'

हिंदू जाति की व्याकुल आशा के स्पर्श से नेपाल का हृदय थरथराने लगा। उस महान् महत्त्वाकांक्षा की प्रतिध्वनि धीरे-धीरे और अस्पष्ट रूप से भी क्यों न होनेपाल के हृदय में उठने लगी।

नेपाल जाग्रत् होने लगा। आँखें किंचित् खोलकर देखने लगा। उसे जापान की, काबुल की, ईरान की, इतना ही नहीं तिब्बत की परिस्थिति भी दिखाई दी, उसे अपनी भी परिस्थिति दिखाई देने लगी और विषाद होने लगा कि 'अरे! यह क्या है? मैं तो स्वतंत्र हूँ न ? यह हिंदू स्वतंत्रता का ध्वज मेरे हाथों में देकर भगवान् ने मुझे हिंदुस्थान की राजश्री के भवितव्य पर पहरा देने के लिए यहाँ नियुक्त किया है न? तो फिर मैं किसी कामचोर और आलसी सैनिक के समान वह ध्वज हाथ में पकड़कर खड़े-खड़े झपकियों ले रहा हूँ, क्या यह उचित है? यह अफगान अपना मंडुआ दुनिया के बाजार में चिल्ला-चिल्लाकर बेच रहा है और मेरे पास होनेवाले ये उत्तम-से-उत्तम गेहूँ वैसे ही पड़े हैं।' यह सत्य है कि यह अत्यंत लज्जास्पद स्थिति भेद, यह विषैला शल्य नेपाल को चुभने लगा है।

इस बात की प्रतीति अगर किसी को करनी हो तो वे गुरखा संघ का मुखपत्र 'गुरखा संसार' में प्रकाशित होनेवाले आजकल के लेख देखें। नेपाली लोगों का यही एक संघटित संघ है। यद्यपि उसका नाम 'गुरखा संघ' है, फिर भी हमारी यह उत्कट इच्छा है कि हिंदू मात्र को संघटित करनेवाला एक 'नेपाल संघ' जल्द ही किया जाए। फिर भी आज नेपाली बंधुओं में हमारी भाव-भावनाओं का प्रतिबिंब कितना पड़ रहा है, उसको आजमाने के लिए नेपाल के इस एकमात्र अक्षरन्य संघ के उद्गारों के सिवा दूसरा कोई साधन ही नहीं है। इस गुरखा संघ का 'गुरखा संसार' मुखपत्र नेपाली बंधुओं द्वारा प्रकाशित होनेवाले समाचारपत्रों में प्रमुख समाचारपत्र है। उसका संचालकत्व श्री सूबेदार चंदन सिंह जैसे सुशिक्षित और महायुद्ध के दौरान यूरोप में बड़े-बड़े ब्रिटिश आदि सैनिक अधिकारियों से परिचित एवं रणांगण में कसौटी पर कसकर यशस्वी हुए सैनिक संपादक, एक वीर लेखक के हाथों में है। इस समाचारपत्र का प्रसार गुरखा जनता में नागरिकों और सैनिकों में भी हुआ है, इससे सभी के ध्यान में आएगा कि वह समाचारपत्र गुरखा समाज की प्रवृत्ति और परिस्थिति का एकमात्र उपलब्ध प्रामाणिक स्रोत है।

इसी समाचारपत्र में गत महीने २९ जून, १९२८ के अेक में एक स्थान पर लिखा है-

'...रोगी जब तक जीवित है तब तक ही उसे औषध देने का उपयोग है! यह बेचारी गुरखा जाति आज समय पर जो उसको औषध देगा वही उसका सच्चा त्राता होगा। दुःख, दारिद्र्य, अज्ञान आदि रोगों से वह जर्जर है, त्रस्त है। अब उसे तत्काल उपचार की आवश्यकता है। यह कर्तव्य राजा का है और राजा के लिए •जिनकी सहायता के बिना कुछ करना कठिन है, ऐसे राष्ट्र के समस्त विचारवान समाज का यह कर्तव्य है।

'राजा के हाथों में बल, धन, अधिकार, अवसर आदि सभी साधन उपलब्ध होते हैं और उन साधनों से वह थोड़े ही समय में राष्ट्र का कल्याण कर सकता है। सुशिक्षित समाज का कर्तव्य है कि वह प्रजा के सुख-दुःख की पुकार राजा तक पहुँचाकर संघटना के सामर्थ्य से उसे राष्ट्रीय प्रगति के लिए समय पर सहायता करने के लिए विवश करे। राजा को भी यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि प्रजा सदैव चुपचाप नहीं बैठी रह सकती, सदैव सबकुछ नहीं सह सकती। प्रजा को भी ध्यान में रखना चाहिए कि चीखे-चिल्लाए, रोए-धोए बगैर माता तक बच्चे को दूध नहीं पिलाती। जिन देशों में राजा प्रजा के हित का उत्तरदायित्व भूलकर स्वेच्छाचारी होता है, उन देशों में किसी-न-किसी दिन प्रचंड उथल-पुथल होकर राजद्रोह की ज्वालाएँ भड़क उठती हैं, क्रांतियुद्ध हो जाते हैं। उस क्रांतियुद्ध में राजा, प्रजा तथा देश- सब के बेचिराग होने की संभावना होती है। इस तरह की घटना नेपाल में न घटित हो इसके लिए हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं। हमें राजा और प्रजा दोनों के बारे में चिंता होती है। नेपाल के महाराजा हिंदुओं के सच्चे महाराजा हैं। 'घर में घुसा चोर और हमने मारा राजा।' ऐसी स्थिति नेपाल में नहीं है; अतः हम राजा तथा प्रजा दोनों के कुशल-क्षेम के लिए ईश्वर से प्रार्थना करते हैं।

'हमारी गुरखा जाति, हमारे समाज, हमारे देश से, हमारे सुशिक्षित बंधुओं से हम साग्रह विनती करते हैं कि हे बंधु! जिस प्रकार अपना घर, अपना खेत, अपने बैल, अपना अलंकार, अपना धन आदि अपना समझकर उनकी सुरक्षा के लिए और प्रवर्धन के लिए आप प्रयत्न करते हैं, उसी तरह अपने देश को भी अपना ही समझकर उसकी सुरक्षा करना हमारा कर्तव्य है। इस बात को ध्यान में रखिए। जिस तरह अपना पुत्र, पुत्री, माँ, बहन, इष्ट मित्रों को संकट से बचाने के लिए हम अपने प्राण भी संकट में डालकर लड़ने के लिए प्रवृत्त होते हैं, बिलकुल वैसे ही हमें अपने प्राणों की बाजी लगाकर देश के लिए संघर्ष करना चाहिए। मेरा देश ही मेरा घर है, मेरा किला है, मेरी जाति है, मेरा परिवार है, मेरे देश के लिए प्राणार्पण करना मेरा कर्तव्य है, इस तरह के विचार जब प्रत्येक गुरखा नर-नारी के मन में उठेंगे, जब स्वदेशाभिमान की ज्योति उनके हृदय में प्रज्वलित हो जाएगी तब देशोन्नति को अधिक समय न लगेगा। सुशिक्षित समाज को अब जाति संघटन का कार्य करना चाहिए। शिक्षा और राजनीति दोनों शक्तियों का समन्वय होना चाहिए। केवल शिक्षा को लेकर क्या आग लगानी है? राजा और प्रजा दोनों शक्तियाँ जब संयुक्त बल से देशोन्नति करने के लिए प्रयत्नशील होती हैं, तब देशोन्नति कितनी सहज और सत्वर होती है, यह बात हमें जापान देश के उदाहरण से सीखनी चाहिए।'

इस तरह की प्रस्तावना देकर इस समाचारपत्र में उसके देशभक्त संपादक ने जापान के इतिहास की समालोचना करनेवाली एक लेखमाला प्रारंभ की है। उसमें उन्होंने लिखा है कि 'जो जापान पचास वर्ष पूर्व आज जितना नेपाल है, उतना न सही पर एक अवनत देश था और अमेरिका के मुट्ठी भर सैनिकों को देखकर भय से थरथराता था, वही जापान आज उसी अमेरिका पर भारी पड़ रहा है। वैसे ही अगर नेपाल में भी राजा और प्रजाजन संयुक्त सामर्थ्य से प्रयत्न करेंगे तो क्यों नहीं दुनिया में नाम कमाएँगे ?'

हम भी अपने नेपाली बंधुओं को प्रतिज्ञापूर्वक बता सकते हैं कि नेपाल जापान से भी अधिक बलिष्ठ हो जाएगा; क्योंकि नेपाल की जनसंख्या चार करोड़ है, पर नेपाल के पीछे उसके बाईस करोड़ हिंदू हैं यानी नेपाल बाईस करोड़ जनसंख्या का देश है! अगर आर्य चाणक्य की दृष्टि (राजनीतिक दूरदृष्टि) की एक ज्योति कोई नेपाल की दृष्टि से दीप में प्रज्वलित करेगा तो यह संपूर्ण हिंदुस्थान नेपाल का होगा। नेपाल हिंदुस्थान में विलीन होकर हिंदुस्थान ही होने वाला है! इस आज के नेपाल में वह शक्ति है, उसमें भी परिस्थिति ने वह शक्ति- बता नहीं सकते-बढ़ाई है। अब उसमें केवल आत्मविश्वास चाहिए, साहस चाहिए! केवल नेपाल में ही नहीं, संपूर्ण भारत में यह होना चाहिए!

और वह विश्वास निर्माण हो इसके लिए केवल नेपाल को ही नहीं, हम सबको अब नेपाल के दाँव की बाजी लगाकर खेलना चाहिए। हमें पराकाष्ठा के प्रयत्न करने चाहिए। उस चेतना की थोड़ी सी झाँकी ऊपर के परिच्छेद में दिखाई देती है। पर वह शतगुना अधिक जाज्ज्वल्यता एवं शीघ्रता से प्रवर्धमान हुई तो ही उसका उपयोग होगा! नहीं तो जैसा कि 'गुरखा संसार' के संपादक ने कहा, 'रोगी मर जाने पर वैद्य किस काम का?' भारत के भाग्योदय का यह महान् सुवर्ण अवसर हाथ से चला जाने से पहले नेपाल का दाँव अचूक खेला जाना चाहिए। वह एक ही हुकुम का ताश अब हमारे हाथ में बाकी है, पर वह ताश का पत्ता हुकुम का इक्का है, अगर समय पर खेला गया तो दाँव जीत ही गए, समझिए; परंतु अत्यंत दुःख की बात यह है कि कोई भी उसपर ध्यान देने के लिए तैयार नहीं है। हर कोई अपनी अपनी घर-गृहस्थी में मग्न! जहाँ-तहाँ केवल ट्राँव-ट्राँव चल रहा है। तूणीर में पड़े रामबाण को भूलकर लेखनी था सरकंडे के बाण लिये छुटपुट लड़ाई में सब कोई मग्न! नेपाल आज के भारत का चंद्रगुप्त है, उसको चेतना देनेवाले चाणक्य का काम हे भगवन्! अब तू ही कर ले।

लेखांक- १५

'गुरखा संसार'और'श्रद्धानंद' (सन् १९२८)

नेपाल की जागृति के बारे में और भारतीय राजनीति में नेपाल के जैसा परिणामकारक साधन आज हम हिंदू जाति के हाथ में है, इसका बोध हिंदू मात्र को कराने के लिए मराठी समाचारपत्र 'श्रद्धानंद' में जो लेख प्रकाशित होते हैं, उनके बारे में अनेक सद् गृहस्थ पूछते हैं कि ये विचार नेपाली जनता में कैसे पहुँच जाएँगे? इस ईमानदार शंका के समाधान के लिए हम सर्वप्रथम यह उत्तर देते हैं कि नेपाल का, अपने एकमात्र स्वतंत्र हिंदू राज्य का अत्यंत महत्त्वपूर्ण उपयोग हिंदू जाति के भाग्योदय के कार्य के लिए करना, न करना केवल अकेले नेपाल के हाथ में नहीं है। इस विषय की जानकारी नेपालेतर हिंदुओं को, महाराष्ट्रीयनों को भी होना उतनी ही है जितनी नेपाल के अपने स्वबंधुओं को। इसके लिए मराठी 'श्रद्धानंद' ने महाराष्ट्र में इस प्रश्न की तरफ सभी का ध्यान आकर्षित करने का कार्य किया, तो भी वह अत्यंत उपयुक्त है। उस शंका का दूसरा उत्तर यह है कि नेपाल के सुप्रसिद्ध नेताओं से कुछ अंश में विचार-विनिमय इन लेखों के द्वारा प्रारंभ हुआ है। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि 'श्रद्धानंद' में प्रकाशित मराठी लेखों का हिंदी अनुवाद हिंदी समाचारपत्र कर रहे हैं, वे कभी-कभी गुरखा जनता भी पढ़ लेती है, पर अब हिंदी श्रद्धानंद' प्रकाशित होने लगा है, इससे वे विचार तत्काल नेपाल के बाहर बसे हुए गुरखों के द्वारा पढ़े जाते हैं। हिंदी न जाननेवाले अपने नेपाली हिंदू बंधुओं के लिए वे लेख पढ़ने की सुविधा हो, इसके लिए इन दो वर्षों से प्रकाशित होनेवाले वृत्तपत्र 'गुरखा संसार', 'श्रद्धानंद' में छपे हुए लेखों का अनुवाद 'गुरखाली' भाषा में करने की देश-हितैषी तत्परता दिखा रहा है। 'शल्य चुभने लगा' शीर्षक के लेख में हमने 'गुरखा संसार' वृत्तपत्र और उसके वीर विद्वान् गुरखा संपादक की पहचान करा दी है। इस वृत्तपत्र में 'गुरखाली' भाषा में अभी-अभी 'श्रद्धानंद' में छपा हुआ 'नेपाल के महाराजा का कर्तव्य' लेख का अनुवाद किया जा रहा है और उसके प्रारंभ में नीचे उद्धृत की हुई संपादकीय टिप्पणी भी दी गई है, उसके लिए हम संपादक के आभारी हैं। इससे पाठकों के ध्यान में आएगा कि ' श्रद्धानंद' का हृदय नेपाल के हृदय में किस तरह से प्रतिबिंबित होने लगा है। उसके विपरीत, नेपाल का हृदय नेपालेतर हिंदू हृदय में प्रतिबिंबित हो इसलिए हम भी गुरखाओं के उस प्रमुख 'गुरखा संसार' वृत्तपत्र के 'हिमालयन टाइम्स' के लेखों का संदेश मराठी और हिंदी 'श्रद्धानंद' वृत्तपत्र में छापते रहते हैं।

'गुरखा संसार' के संपादक उस टिप्पणी में लिखते हैं-

'नीचे छपा हुआ लेख बंबई के प्रसिद्ध समाचारपत्र 'हिंदी श्रद्धानंद' के २३ जून, १९२८ के अेक से उद्धृत किया है। इस समाचारपत्र में गुरखा जाति की उन्नति के बारे में प्राय: अति मनोहर और विचारणीय लेख प्रकाशित होते रहते हैं, उनका अनुवाद हम समय-समय पर 'गोरखा संसार' के पाठक वर्ग के लाभार्थ प्रकाशित करते रहनेवाले हैं।

लेखांक-१६

नेपाल क्या सोचता है? (सन् १९२८)

'गुरखा संसार' समाचारपत्र अपने अफगानिस्तान विषयक अग्रलेख या रंपादकीय लेख में लिखता है कि 'अफगानिस्तान और नेपाल भारत के दो स्वतंत्र पड़ोसी राज्य हैं। अफगानिस्तान मुसलिम राज्य और नेपाल हिंदूराज्य भारतवर्ष में दो मुख्य जातियाँ हैं हिंदू और मुसलमान, वे दोनों जातियाँ दोनों स्वतंत्र राज्य की अच्छी-बुरी परिस्थितियों के बारे में, कीर्ति, उन्नति, अवनति के बारे में सोचती रहती हैं। हिंदुओं को नेपाल पर गर्व है तो मुसलमानों को काबुल का अभिमान है; परंतु दुर्दैव से नेपाल की हलचल का पता संसार को तो दूर ही रहा स्वयं हिंदुस्थान को ही नहीं, सभी नेपाली जनता तक को मालूम नहीं होता; पर काबुल में कुछ सुधार हुए तो सारे जगत् में उसका डंका पीटा जाता है।'

सच देखा जाए तो सभ्यता, धनधान्य, जनसंख्या आदि सभी बातों में नेपाल बढ़-चढ़कर होते हुए भी इस समय सम्मान काबुल के बादशाह का हो रहा है, क्योंकि उन्होंने सारे जगत् में यात्रा की और बराबरी के नाते तुर्की, रूस, जर्मनी, इटली आदि राष्ट्रों के राष्ट्राधिपतियों से सुसंवाद किया। उसकी तुलना में नेपाल के महाराजा का सम्मान कम हो रहा है।

मानव सभ्यता में हम हिंदू धर्मावलंबी लोग काबुल के लोगों की अपेक्षा अधिक बढ़-चढ़कर हैं, पर 'जंगली' विशेषण से संबोधित इस काबुल ने गत पाँच वर्षों में कितने भिन्न-भिन्न सुधार किए! कितना आश्चर्यजनक काम किया है।

पेशावर का 'सरहद' नामक वृत्तपत्र लिखता है कि काबुल में विद्या प्रसार अनिवार्य (compulsory) किया गया है। बालक-बालिकाओं को पाठशाला में भेजना ही चाहिए। विश्वविद्यालय स्थापित किए जा रहे हैं। देश भर में दूरध्वनि (Telephone), बेतार का तार, मोटरमार्ग निर्माण किए जा रहे हैं। नोटों की स्थिति सुधर रही है। महिलाओं के परदे के बारे में पुराने लोगों का मतभेद होने पर भी सुधार होने वाले हैं। इटली से सौ मोटरगाड़ियाँ अभी-अभी मँगाई गई हैं। उद्यम व्यापार जोरों पर है। शिल्प शास्त्र में प्रगति हो रही है। जर्मन, फ्रेंच आदि अनेक भाषाओं के अध्यापकों को आमंत्रित करके उन भाषाओं की शिक्षा दी जा रही है। तुर्कस्तान से सैनिक शास्त्रज्ञों का विशिष्ट स्टाफ बुलाकर अफगान सेना यूरोप की बराबरी की बनाई जा रही है। जगत् के अन्य राष्ट्रों के प्रतिनिधि काबुल में आकर निवास करते हैं और काबुल के राजदूत दूसरे देशों में जाकर रहते हैं। प्रतिवर्ष सैकड़ों अफगान युवक यूरोप, अमेरिका से नई शिक्षा लेकर काबुल वापस आ रहे हैं।

'असंतोषः श्रीयोर्मूलम्'। नेपाली मन में अभी की विमूढ़ अवस्था के बारे में कितना असंतोष व्याप्त हो रहा है, यह बात ऊपर के गुरखाली भाषा के परिच्छेद से ज्ञात होती है और उस असंतोष में ही क्रांति का बीज है। ऊपर के परिच्छेद के एक वाक्य के बारे में हमें साग्रह सूचित करना है कि 'भारतवर्ष के पड़ोस में नेपाल है' इस तरह के भ्रमोत्पादक वाक्य कभी गलती से भी न लिखें; क्योंकि नेपाल भारतवर्ष का पड़ोसी नहीं है, नेपाल भारतवर्ष में ही है। नेपाल भारतवर्ष का एक अवयव है। नेपाल और भारतवर्ष दो नहीं है। अंगांगी भाव से संबद्ध वह एकजीवी राष्ट्र है। बंगाल भारतवर्ष का पड़ोसी है, यह कहना जितना गलत है, उतना ही यह कहना गलत है कि नेपाल भारतवर्ष का पड़ोसी है। शत्रु को इस तरह कहने दें। परंतु कुलभंग का, गृहभंग का वह पाप हमसे स्वप्न में भी नहीं होगा, हमें इस तरह की सावधानी बरतनी होगी। हमें यह 'गुरखा संसार' के स्वदेशाभिमानी हिंदू नेता को कहना नहीं पड़ेगा। असावधानतावश सिक्ख और हिंदू, नेपाल और हिंदुस्थान इस तरह के शब्द प्रयोग में लाए जाते हैं, पर वे बड़े घातक होते हैं।

सिक्ख हिंदू और सिक्खेतर हिंदू-यह शब्द रचना ठीक है, पर सिक्ख और हिंदू यह रचना गलत और कुलोच्छेदक है, क्योंकि सिक्ख हिंदू ही हैं, वैसे ही नेपाली भारतवर्ष और नेपालेतर भारतवर्ष यह रचना ठीक है, पर नेपाल और भारतवर्ष पर रचना गृहोच्छेदक है, क्योंकि नेपाल भारतवर्ष में ही है।

लेखांक - १७

नेपाल! तुझे राज्य करने की आवश्यकता अभी है न? (२० सितंबर,१९२८)

'काकोऽपि जीवति चिरायबलिच भङ्कते।'

नेपाल की वस्तुस्थित का वर्णन अभी-अभी अपनी आँखों से देखकर आए हुए प्रसिद्ध वैज्ञानिक कैप्टन पटवर्धनजी ने किया है, उनका वह साक्षात्कार और उनकी दी हुई जानकारी पुणे के प्रसिद्ध समाचारपत्र 'केसरी' ने प्रकाशित की है। वैज्ञानिक पटवर्धन वायुयान के विषय में निपुण माने जाते हैं। यूरोप में और उसके बाद कुछ दिनों तक अफगानिस्तान के वायुयान विभाग में स्वयं नौकरी करनेवाले वे ख्यातिप्राप्त वायुयान संचालक । हिंदुस्थान में इस नई कला और शास्त्र का अध्ययन करके उसमें प्रवीणता प्राप्त करनेवाले प्रथम चार वैमानिक शास्त्रज्ञों में कैप्टन पटवर्धनजी की गणना की जाती है। अपने एकमात्र स्वतंत्र हिंदू राज्य के अभ्युदय की अत्यंत स्पृहणीय महत्त्वाकांक्षा मन में धारण करके ये शूर देशभक्त अनेक कष्टों को सहते हुए नेपाल पहुँचे और वहाँ के महाराजा ने उनसे कहा कि "विमान से संबंधित ज्ञान की अभी उन्हें आवश्यकता नहीं लगती।'

छह-सात हजार वर्ष पहले कुबेर का पुष्पक विमान उधार लेकर एक बार उसमें बैठने की और वह पुष्पक विमान अयोध्या में ले आने की आवश्यकता महाराजाधिराज श्रीरामचंद्रजी को हुई थी; परंतु छह-सात हजार वर्षों के बीत जाने पर भी नेपाल के महाराजा को विमानों की आवश्यकता अभी नहीं लगती है। यूरोप में छोटे बच्चों के लिए उड़नेवाले साइकिल पद्धति के छोटे-छोटे विमान वाइसिकल के समान ही छर-छर दिखाई देने लगे हैं फिर भी नेपाल को एक भी वैमानिक की या विमान की आवश्यकता अनुभव नहीं होती। विमान विद्या अफगानिस्तान में लाने की उनको इतनी जल्दी हुई है कि विमान अपने ही घर में, अपने ही देश में निर्माण करने के कारखाने खोलने का ज्ञान प्राप्त करने के लिए उन्होंने अपने लोग परदेश भेज दिए हैं, और उनके वापस लौटने की राह तक न देखते हुए इटली के जैसे पर राष्ट्रीय विशेषज्ञों को हजारों रुपए देकर उन्होंने अपने देश में आमंत्रित किया और उत्तमोत्तम विमान परदेश से खरीद लिये। परंतु अफगानिस्तान के बराबरी का स्थान रखनेवाले हिंदू नेपाली को, अपने सामर्थ्य से वह विद्या प्राप्त करके स्वदेशीय और स्वधर्मीय वैमानिक को प्रोत्साहन देने की आवश्यकता आज भी महसूस नहीं हो रही है। कैप्टन पटवर्धन अहिंदू अफगानिस्तान को आवश्यक प्रतीत हुए, वहाँ उनको नौकरी पर रख लिया गया, वे ही पटवर्धनजी म्लेच्छ सत्ता की अपेक्षा स्वकीय हिंदू सत्ता को प्रबल बनाने की महनीय आकांक्षा मन में धारण करके नेपाल में गए, वहाँ उस हिंदू स्वतंत्र महाराजा को उनकी आवश्यकता प्रतीत नहीं हुई। दरवाजा बंद करके कैप्टन साहब को विदा कर दिया।

जगत् में भू युद्ध और समुद्र युद्ध दोयम स्थान पर पहुँचानेवाले और इसीलिए आगामी युद्ध में जिन युद्ध साधनों का महत्त्व सभी युद्ध साधनों से अधिक होने वाला है, उस वैमानिक सामर्थ्य में वृद्धि करने के लिए करोड़ों रुपए पानी की तरह बहाकर वायुयान भयंकर शास्त्रास्त्रों से सज्जित रखने में अंग्रेज आदि राष्ट्र लगे हुए हैं, उन वैमानिक साधनों की क्या नेपाल के महाराजा को अभी आवश्यकता हो अनुभव नहीं होती? महाराजा, आपको विमानों की आवश्यकता अभी नहीं है पर राज्य करने की आवश्यकता तो अभी तक आपको प्रतीत होती है न ? या अंतिम बाजीराव पेशवा की तरह आठ-नौ लाख रुपयों का निवृत्ति वेतन लेकर ब्रह्मावर्त में हरिभजन करते रहने का विचार मन में आ रहा है? अगर ऐसा न हो तो, अगर अभी तक आपको अपने सिर पर रखा स्वतंत्र हिंदुओं के स्वतंत्र राज्य का वह स्वर्ण छत्र बोझिल न लगता हो तो विमानों के बिना कैसे चलेगा? अभी तक आवश्यकता ही अनुभव नहीं होती यानी क्या? एक हजार वर्षों के पूर्व अरबस्तान में मुसलमानी तूफान उठा था, वह क्या प्रकरण है यह समझ लेने की आवश्यकता हिंदुओं को 'अभी' प्रतीत नहीं हुई थी, उस समय बलूचिस्तान, अफगानिस्तान दोनों राष्ट्र हिंदुओं के थे। उसी समय अगर वह आवश्यकता अनुभव की होती तो अरबों को अरबस्तान के आगे पैर तक न रखने देने का अवसर हिंदुओं को संभव था; परंतु तब वह आवश्यकता उन्हें नहीं लगी। उन्हें सीमा पार की वार्त्ता तक की भनक नहीं मिली। जब बलूचिस्तान गले के नीचे उतारकर वे अरब लोग सिंध से टकराए और अफगानिस्तान निगलकर पंजाब के हृदय में उनका पंजा घुस गया तब वे कौन हैं, यह जानने की आवश्यकता हिंदुओं को थोड़ी सी प्रतीत हुई। अगर पहले ही हमने उनपर आक्रमण किया होता, जैसे चंद्रगुप्त ने किया, तो क्या ऐसी दुर्दशा हुई होती? पर' अभी' आवश्यकता ही महसूस नहीं हुई। वृत्ति को क्या कहें? आगे चलकर मुसेलमानों बंदूकों और बारूद बहुत बड़ी मात्रा और नवीन रूप से भारत में उपयोग किया। यद्यपि यह कला इसके पूर्व भारत में नहीं थी फिर वह कला तत्काल आत्मसात् करने की आवश्यकता हिंदुओं को प्रतीत नहीं हुई। लगभग संपूर्ण हिंदुस्थान मुसलमानों द्वारा निगलने के बाद आँखें खुल गईं फिर बहुत सारी बंदूकें विदेश से यहाँ आती थीं। हिंदू कारीगरों की और अधिकारियों की देखभाल उन शस्त्रों के कुछ कारखाने चल रहे थे, आगे चलकर यूरोप की पलटनें आईं, पर यूरोप कहाँ है, यह जानने उनको 'अभी' आवश्यकता नहीं हुई, तो फिर उन पलटनों से वह पद्धति सीखने की बात तो दूर ही रही। स्वदेश के पूर्व के आधे प्रांत और दक्षिण का आधा प्रदेश यूरोप ने निगल लिया तब कहीं हिंदुओं पलटनों की आवश्यकता होने लगी, तब भी ये पलटनें रखने की, उनके संचालकत्व की कला यूरोपियनों के ही हाथों में थी। वे विदेशी लोग स्वदेश में आकर स्वयं बन बैठे, तब तक हिंदुओं को आयुश्वादि 'अभी' आवश्यकता ही नहीं प्रतीत हुई। अब स्वातंत्र्य चले जाने के बाद वह आवश्यकता प्रतीत होने लगी है। स्वातंत्र्य जाने के बाद अंग्रेजों का राज आने पर अब अंग्रेजों के विधिमंडल में हम प्रस्ताव पेश करते हैं कि हमें सैनिकी शिक्षा की आवश्यकता है। अपनी सेना नामशेष होने पर सेनापति होने की आवश्यकता हमें प्रतीत हुई है। हमारा स्वराज्य चला जाने बाद स्वराज्य की योजना करने का समय आया है, ऐसा हम समझते हैं। ब्रह्मावर्त के चले जाने पर पेशवा विद्रोह कर उठे। मरने के बाद औषधि ले लेते हैं। यह हिंदुओं का पिछला इतिहास है, यह अंगीभूत पैतृक डुबो देनेवाला ढीलापर, यह भाँग का नशा, म्याऊँ घरघुसनापर, महाराजा क्या आपको दिखाई नहीं देता? आपकी समझ नहीं आता? क्या आपको चुभता नहीं? विमानों की आवश्यकता 'अभी' प्रतीत कैसे नहीं होती? छह हजार पूर्व महाराजाधिराज प्रभु रामचंद्र के पुष्पक विमान की केवल गप्पें हाँकने की आवश्यकता नित्य ही हमें महसूस होती है!

वायुयानों की 'अभी' सचमुच ही आवश्यकता नहीं है। अंग्रेजों के वायुयान नीचे से, रूस के वायुयान ऊपर से, चीन के विमान पूर्व से और अफगानिस्तान के विमान पश्चिम से भयंकर स्फोटकों और विषैली वायु की वर्षा करते हुए समूह के समूह नेपाल पर उड़कर, चढ़कर और आपस के संघर्ष के भयंकर अंधकार में नेपाल का-इस स्‍वतंत्र हिंदू राष्ट्र का-श्वास बंद करके उसे डुबोने का शुभ अवसर 'अभी' प्रत्‍यक्ष में थोड़े ही आया है? वह समय आया तो नेपाल भी महाराष्ट्रादि प्रांतों के समान ही किसी परकीय साम्राज्य द्वारा स्थापित विधिमंडल में नेपाल के परतंत्र प्रजा के प्रतिनिधि-जैसे आज हम याचना करते हैं वैसे ही प्रस्ताव लाएँगे कि क्या नेपाल के दो-तीन विद्यार्थियों को वैमानिक विभाग में लेने की कृपा करेंगे? और तब परकीय गर्वनर बताएगा कि 'एकदम दो-तीन विद्यार्थियों को तो नहीं ले सकते, पर आधा-पौना छात्र हर सिंहस्थ पर्वणी में ले लेंगे।' तब आपको विमानों की आवश्यकता प्रतीत होगी। राज्य चला जाने पर जैसे हमें अब राज्य का शौक पैदा हुआ है वैसे ही आपके दाँत और नाखून उखड़ जाएँगे और जब नेपाल निःशस्त्र, निर्वीर्य हो जाएगा तब उसको विमानादिक शस्त्रों की आवश्यकता महसूस होगी। यही उनका भविष्य का सोचना है, नहीं तो यह भीख माँगने की इच्छा हममें क्यों पैदा होती? हम यह जानते हैं कि वास्तविक रूप से देखने पर नेपाल को आवश्यकता नहीं प्रतीत होती ऐसा नहीं है, नेपाल को डर लगता है कि यदि हम विमानादि शस्त्रास्त्र तैनात करने लगे तो हमपर किसी शनि ग्रह की वक्र दृष्टि पड़ जाएगी। हमें ऐसा लगता है कि इस तरह का डर होना ही अभाग्य के आने के लक्षण हैं। अगर इस तरह के भय से कुछ लाभ होता तो अलग बात थी, पर आज स्थिति ऐसी है कि डर गए तो भी मरण, न डरे तो भी मरण, तो फिर डरने की क्या जरूरत है? 'किमुत मुधा मलिन यशः कुरुध्वे'? आज अगर नेपाल का भाग्योदय होना ही है, तो शायद भय छोड़कर ही होगा, यह बात डर को मन में रखने की अपेक्षा सौ गुना अधिक संभव है। भय से मात्र मृत्यु निश्चित है। अफगानिस्तान को देखिए, अब भी नेपाल में वह तुल्यबल है, उसका घोड़ा रेस में अभी तक काफी दूर नहीं गया है। अफगानिस्तान ने भय को छोड़ दिया और नेपाल ने उसको छोड़ा नहीं, बस इतना ही फर्क है। अब भी अगर नेपाल भय छोड़कर शूरवीरों की तरह आगे बढ़ेगा तो अफगानिस्तान के बराबर होकर, शायद उसे पीछे छोड़कर एक महत्तम राष्ट्र की राजश्री का स्वामी बन जाएगा, कम-से-कम वीरोचित कार्य करके जगत् में अपना नाम ऊँचा करेगा। यह समय ऐसा है कि जितना है उतना जतन करने का, उत्तम मार्ग' आगे चलकर और प्राप्त करने के लिए साहस से कर्मक्षेत्र में उतर पड़ना। घरघुसनेपर से जो है वह भी डूब जाएगा। श्री पटवर्धनजी कहते हैं कि नेपाल में पुराने प्रकार की तोपें बनाने का एक कारखाना है। तोपों के उस कारखाने में एक जर्मन कारीगर बुलाकर आधुनिक सुधार करने का नेपाल जब विचार करने लगा तो अंग्रेज जरा गुस्सा हुआ है।

वह क्यों ? नेपाल पर अंग्रेज गुस्सा क्यों करता है? एक जर्मन कारीगर बुलाकर नई तोपें नेपाल निर्माण करने लगा, क्या इसीलिए? पर अफगानिस्तान के उस अमीर ने लड़ाकू मोटरें, लड़ाकू वायुयान, लड़ाकू सेनानी, लड़ाकू तोपें सैकड़ों की संख्या में यूरोप से खरीदीं; जर्मन, इटालियन, रूसी, तुर्की आदि अंग्रेजों के दुश्मन राष्ट्रों से सैकड़ों चुने हुए सैनिक अधिकारी और अध्यापक बुलाकर सैनिकी सुसज्जता के कारखानों का डंका बजा दिया, सीमा पर अंग्रेजों की नाक पर पाँव रखकर नए किले बनवाने का उपक्रम किया, फिर भी उस अमीर पर अंग्रेज कभी क्यों गुस्सा नहीं हुआ। इसका अर्थ यह है कि नेपाल अंग्रेजों के गुस्से की परवाह करता है, इसी से अंग्रेज उसपर गुस्सा होता है। क्या यह बात स्पष्ट नहीं है? अगर सचमुच ही अंग्रेज इस तरह के दुःसाहस से गुस्सा होता होगा तो नेपाल भी अफगानिस्तान के अमीर के जैसे अंग्रेज गुस्से को ताक पर रखकर आगे बढ़ने का प्रयत्न करे। अंग्रेज और नेपाल मित्र राष्ट्र कहलाते हैं, तो फिर नेपाल की बढ़ती हुई सामर्थ्य को देखकर अंग्रेज के मन में गुस्सा क्यों निर्माण हुआ? और अगर गुस्सा लगता है यह मित्रता किस काम की? जो द्वेष शत्रु करता है, वही अगर मित्र करने लगा तो फिर यह मित्र गुस्सा होने पर अधिक क्या करेगा? अंग्रेजों के भौंहों के कोने के जरा इधर-उधर सरकने के आधार पर अगर नेपाल अपना कार्य करता है तो हिंदुस्थान के अंग्रेजों के अधीन नरेशों में और नेपाल के महाराजा में क्या फर्क रहा?

वास्तविकता यह है कि अंग्रेज गुस्सा करता है, इसलिए नेपाल डरता नहीं, नेपाल डरता है इसलिए कि अंग्रेज गुस्सा होता है।

अतः नेपाल की प्रगति के मार्ग का रोड़ा अंग्रेजों का गुस्सा न होकर उनका अपना भय-डरपोकपर है। अगर अंग्रेजों का रोड़ा होता तो अमीर का मार्ग भी उसने बंद किया होता। अंग्रेजों के गुस्से की चिंता न करनेवाले अन्य राष्ट्र इस जगत् में विद्यमान हैं ही। अंग्रेजों के प्रेम के बिना रूस मृत नहीं हुआ, जापान सूख नहीं गया, चीन पीछे नहीं पड़ गया, अफगानिस्तान नहीं हार गया तो फिर नेपाल को ही इतनी क्या कठिनाई है? नेपाल में साहस नहीं है। नहीं तो नेपाल के महाराजा अंग्रेजों के आँगन के मुरगे के जैसे कलकत्ते के बाड़ तक आकर वापस क्यों गए? नेपाल के प्रतिनिधि देश-विदेश में जाकर विविध राष्ट्रों के साथ समझौता स्थापित करके अपना स्वातंत्र्य चरितार्थ क्यों नहीं करते? आज अंग्रेजों से मित्रता तोड़नी ही चाहिए-ऐसी बात नहीं है। पर अंग्रेजों से लगनेवाला भय छोड़ देना चाहिए, यह हमारा कहने का आशय है। दो मुख्य बातें नेपाल के राजनीतिक धुरंधरों को अपने मन में बैठा लेनी चाहिए। डरते रहे तो जाएँगे-यह भ्रम छोड़ देना चाहिए। इसलिए नेपाल के लिए ध्यान में रखने की पहली बात यह है कि अगर नेपाल अफगानिस्तान जैसा पराक्रमी साहस न करेगा तो नेपाल का नाम शेष होने की अधिक संभावना है।

जो है, उसी की रक्षा करेंगे कहनेवाले घरघुसनेपर से जो है वह भी गँवाना पड़ेगा। अपना द्वार खोलकर अगर नेपाल बाहर नहीं आया तो दूसरे उसका द्वार तोड़कर अंदर घुसे बिना नहीं रहेंगे? चोर के डर से ओढ़ावन ओढ़कर सोनेवाले कायर का धन चोर अधिक निश्चिंतता से लूट लेता है। आपने परदेश गमन नहीं किया, इसलिए क्या परदेशियों का संग आपको नहीं मिला? आप उनके घर नहीं गए तो क्या हुआ? वे तो आपके यहाँ आकर आपके घर में घुस ही जाएँगे। आपके देश में घुसकर उसी को उन्होंने 'परदेश' बनाया। आप परदेश गमन नहीं करेंगे, क्योंकि उससे 'संस्कृति' भ्रष्ट होती है; पर परकीय अगर स्वदेश में घुसकर इसी देश में ही उस 'संस्कृति' को छू गए, फिर उसका क्या करना? अरबस्थान या इंग्लैंड जिस तरह म्लेच्छ भूमि है, उसी तरह क्या आज हिंदुस्थान म्लेच्छ भूमि नहीं हुई? घर से घर सट गया है, मंदिर से मसजिद सट गई, श्मशान से कब्रिस्तान सट गया, धर्मासन के साथ सिंहासन लूटा गया, इसलिए क्या घर, मंदिर, श्मशान भ्रष्ट हो गया है? इसलिए अब जो भी बचा है उसी की रक्षा करनी हो तो भी आगे अधिक प्राप्त करने के लिए बाहर निकलना ही होगा। पराक्रमी साहस करके, सज्जन, महाजनों से मित्रता का संधिसूत्र जोड़कर, उनकी सहायता लेकर हमें चोर को मार्ग में ही पकड़ना होगा। नहीं तो चोरों के बड़े हथौड़े से द्वार टूट जाएगा और यकायक हमें उनके हाथ में पड़ना पड़ेगा। यह निश्चित है कि अगर आपने दरवाजा नहीं खोला तो वह वापस जानेवाला नहीं है।

नेपाल को एक दूसरी बात ध्यान में रखनी है, वह यह है कि नेपाल को अगर किसी से कम डरने का समय अगर कभी है तो वह आज ही है। किसी से कम डरने की सुवर्ण संधि आ गई है। नेपाल के इर्दगिर्द सभी पक्ष-विपक्षों के मोरचे बाँधे जा रहे हैं। वहाँ रूस, यहाँ चीन, वहाँ अफगान तो नीचे अंग्रेज। परस्पर टालमटोल, परस्पर छेदाछेदी, एक-दूसरे के लिए सुंद-उपसुंद। एक-दूसरे को शह देकर अनुकूलता के स्थान पर परस्पर समझौता करके स्वयं अलग होने का यह आज तक कभी न आया हुआ अवसर। ऐसे सुअवसर का भी जो लाभ नहीं उठा सकते उनको जीवंत मनुष्य कैसे कहा जा सकता है? अधिक क्या कहें? वह देखिए, आग नेपाल के आँगन तक पहुँच चुकी है। वह तिब्बत हिल चुका है। कर्जन के काल से तिब्बत के युवक परदेश चले गए, किसी को पता तक नहीं लगा। परंतु अंदर से सुरंग में बारूद भरी जा रही है। वह सुरंग जलाने की चाबी-सुरंग को लगाई जानेवाली बत्ती अंग्रेजों को लगा कि अपने ही हाथ में है; परंतु इतने में रूस चेत गया, चीन जाग्रत् हुआ और तिब्बत को आग लग गई, अंग्रेजों को जैसी नहीं चाहिए थी जहाँ नहीं चाहिए थी, वहाँ आग जल उठी। तिब्बत के किसान विद्रोह कर रहे हैं, सरकार को कर नहीं देते। चीन की सेना की सहायता से विद्रोह कर रहे हैं। चीन से क्रांति की लहर तिब्बत में उतर रही है, नेपाल के आँगन में आ गई है। चीन की स्थिति और शस्त्र, रूस के सेनानी तिब्बत को चुप कैसे बैठने देंगे! उनकी आग नेपाल के आँगन तक आ गई है, तो भी हमारे महाराजा को किसी भी बात की 'अभी आवश्यकता' प्रतीत नहीं होती। इसीलिए पूछ रहा हूँ कि अब भी राज्य करने की आवश्यकता प्रतीत हो रही है या नहीं? अगर आवश्यकता होगी तो आगे कहा जाएगा।

और वह आगे की बात अब इस या उस व्यक्ति से नहीं। महाराजा भी एक व्यक्ति ही है! अगर राष्ट्र का बल और समर्थन न हो तो वे भी क्या कुछ कर सकेंगे ? और राष्ट्र का बल होने पर भी उनका कहा हुआ कौन सुनता है? किसी को क्या पड़ी है? इसलिए अब नेपाल के भविष्य के बारे में आगे की बात, नेपाली युवको! हम आपसे कहेंगे।

हम आपसे पूछते हैं कि नेपाल की इस कायरता की, विमानों का इनकार करने की या महाराजा के कलकत्ता से वापस जाने की इस घरघुसनेपर पर क्या आपको शर्म नहीं आती? वह अमीर जगत् में गरजता है और अपना यह गुरखाओं का स्वतंत्र हिंदू राज्य-उसको दुनिया में कोई पूछता तक नहीं। इस बात की आपको शर्म नहीं आती है? युवा नेपाल, अगर शर्म लगती है तो जाग्रत् हो जाइए, उठ जाइए और कार्य के लिए तैयार हो जाइए। उस कार्य की रूपरेखा के बारे में अब आगे आपसे ही बात करनी है। सुदैव से आपको थोड़ी सी शर्म आती है, यह बात श्री पटवर्धनजी द्वारा बताए गए संदेश से स्पष्ट हो रही है। श्री पटवर्धनजी लिखते हैं-

'नेपाल की युवा पीढ़ी के बारे में राष्ट्र को निश्चित रूप से आशा है। युवा गुरखा वृद्ध गुरखों के पुराने मतों से ऊब गए हैं, युवा मस्तिष्क में नित्य ही नवविचारों की हलचल मच रही है। पड़ोस के (समुद्र गमन निषिद्धता के) शास्त्राधार का वृद्ध नेपाली विचार कर रहा है, इस बात से भी वह युवा उकता गया है। परदेश में गमन करें, वहाँ से ज्ञान, विज्ञान, कला प्राप्त करके नेपाली हिंदू राष्ट्र का जगत् में अखंड जय-जयकार करें, इस तरह की महत्त्वाकांक्षा उनमें बलवती हो रही है।'

तथास्तु! कार्य की रूपरेखा समझकर उसके अनुसार हिंदू जाति के उद्धार के लिए कटिबद्ध होनेवाला नेपाली तरुण तैयार हो रहा है। उससे ही अब हमारी बात होगी।

लेखांक - १८

नेपाल के नए महाराजा को हम हिंदू बांधवों की सहानुभूति से बढ़कर अन्य कुछ भी संतोषप्रद नहीं है (श्रद्धानंद, ८ फरवरी, १९३०)

नेपाल के विगत प्रधान महाराजा चंद्र समशेरजंगजी की मृत्यु के बाद उनके स्थान पर उनके बंधु राणा भूमि समशेरजंगजी नेपाल के स्वतंत्र हिंदू राज्य के मुख्य प्रधान हुए हैं। यह वार्त्ता पाठकों को ज्ञात हुई ही होगी। नेपाल के राणा वंश का यह नियम ही है कि वंश में जो ज्येष्ठ होगा वह महाराजा पद का उत्तराधिकारी होता है, भले ही वह पुत्र हो या भ्राता। इस नियम के अनुसार महाराजा चंद्र समशेरजंगजी के पश्चात् उनके कुल का ज्येष्ठ पुरुष उनके बंधु भीम समशेरजंगजी का प्रधान पद का अभिषेक नेपाल में बड़े उत्साह से संपन्न हुआ। भीम समशेरजंगजी इसके पहले नेपाल के सेनापति (कमांडर इन चीफ) थे। नेपाल में हाल ही की राज्य घटनानुसार महाराजाधिराज श्री त्रिभुवन विक्रमदेव सिंहासनाधीश्वर समझे जाते हैं। अब उनके मुख्य प्रधान भीम समशेरजंगजी हुए हैं और जो मुख्य प्रधान होंगे। उनके भावी उत्तराधिकारी यानी उनके कुल के उनसे दूसरे नंबर पर होनेवाले ज्येष्ठ पुरुष मुख्य सेनापति पद पर नियुक्त किए जाते हैं।

नेपाल के विगत महाराजाजी ने नेपाल की स्वातंत्र्य शक्ति को अखंड बनाए रखा; इतना ही नहीं, उसमें किंचित् वृद्धि भी की। फिर भी बड़े खेद से कहना पड़ता है कि जगत् की सभी जातियाँ और राष्ट्र और उनमें भी एशिया के अपने सभी पड़ोसी एक-एक शतक के अंदर का फासला एक-एक वर्ष में तय कर रहे हैं, उनकी उस प्रगति की तुलना में विगत प्रधान महाराजा के कालखंड में नेपाल की प्रगति लज्जास्पद मंद गति से हुई है। महाराजा चंद्र समशेरजंगजी जब नेपाल पर शासन कर रहे थे तभी चीन, वह एशिया का अफीमी सुत यकायक हड़बड़ाकर जाग उठा और दस वर्षों के घमासान युद्ध और फूट के बाद न थकते हुए प्रगति के मार्ग पर सतत अग्रसर हो रहा है। चीन के सैनिकों ने तोड़ेदार बंदूकें फेंक मशीनगंस ले लिये। माँचू की विदेशी बादशाही उखाड़कर फेंक दी और स्वदेशी लोकसत्ता की स्थापना की। विदेशियों की 'हाँ जी, हाँ जी' बंद करके उन्हीं को कड़ी आज्ञा दी कि वे जल्द-से-जल्द देश से निकल जाएँ। बैलगाड़ी छोड़कर चीन की राष्ट्र शक्ति वायुयान से प्रगति का पीछा करने लगी। उधर अफगान 'अमीर' का अफगान बादशाह हुआ। यूरोप में वह बीमार तुर्क यूरोप का प्रबल और प्रगमनशील स्वतंत्र नागरिक हुआ। रूस की अनियंत्रित राजसत्ता अनियंत्रित समाज सत्ता हो गई, जार का लेनिन हुआ। सभी दिशाओं में प्रगति और बदलाव इतनी द्रुत गति से हो रहे हैं। जिस कालावधि में ये बदलाव चल रहे थे और चल रहे हैं, उस कालावधि में नेपाल आज भी पुराने खटारे में बैठकर 'रे रे' करके चल रहा है। यह कहे बिना अब दूसरा कोई पर्याय ही नहीं है कि यह बात नेपाल के प्रधानजी की तथा नेपाल की प्रजा की अकर्मण्यता की साक्षी है। इस कथन से यह स्पष्ट होता है। नेपाल की अधिक प्रगति नहीं हुई यह अत्यंत निराशाजनक बात है, फिर भी विगत महाराजा ने कम से-कम नेपाल की स्वतंत्रता को नहीं गँवाया। जिस विषम परिस्थिति के और जिस अंदरूनी अकर्मण्य दुर्बलता के और बाहर के प्रबल आक्रमण की उलझन में अभी नेपाल की हिंदू जनता फँस गई है, उस परिस्थिति में नेपाल ने स्वतंत्रता की रक्षा की है, यह बात भी संतोषप्रद ही है। इसी बात के लिए भी सभी हिंदू जाति विगत महाराजा चंद्र समशेरजंग बहादुरजी का कृतज्ञता से ही स्मरण करेगी।

परंतु अब नए महाराजाजी से हिंदू जाति इससे अधिक पराक्रम की अपेक्षा कर रही है। राष्ट्र को जीवंत रखना ही चाहिए, पर केवल जीवंत रहने की अपेक्षा जीवंत रहने जैसा कोई नाम कमाना चाहिए। जो अपने पास है उसकी तो रक्षा करनी ही चाहिए; पर जो गया है वह तथा और कुछ नया प्राप्त भी करना चाहिए। हिंदुओं का राष्ट्र जगत् के अन्य प्रबल राष्ट्रों के जैसा तथा प्रबल राष्ट्रों की प्रगति और राक्रम में अग्र स्थान पर होना चाहिए।

क्या आप इस आकांक्षा को अतिशयोक्ति, व्यर्थ की बकबास समझते हैं ? क्यों? चार करोड़ अंग्रेज आधे संसार पर राज्य करते हैं, वे क्या आकाश से उतरकर आए हैं? यह चीन देखते-देखते बलशाली हो गया है। लाखों सैनिकों की सेना उत्तम-से-उत्तम शस्त्रास्त्रों से सुसज्ज होकर उस देश में संचरण कर रही है। वह जापान, चुटकी भर अफगानिस्तान ? और हम हिंदू बाईस करोड़ होकर एक राष्ट्र, एक प्रबल राष्ट्र, कम-से-कम दो करोड़ इटली-फिटली के समान प्रबल राष्ट्र हो जाएँगे इस कथन में अतिशयोक्ति क्या है? और वह व्यर्थ बकबास है ऐसे हिंदुओं को ही क्यों लगता है?

हिंदुओं की अतंरबाह्य दुर्बलता ही अत्यधिक निराशाजनक है, इसलिए क्या आपको ऐसा लगा कि यह अजीब इच्छा व्यर्थ वल्गना है? यह भी सच ही है। हमारी प्रस्तुत अंतर्बाह्य दुर्बलता अत्यंत निराशाजनक है; परंतु उस निराशा और दुर्बलता के जो कारण हैं उनमें मुख्य कारण हिंदुओ, यह है कि कोई इच्छा करने की शक्ति भी आपमें बाकी नहीं रही है। हमारी दुर्बलता का आधा कारण यह है कि हमारे राष्ट्र की इच्छाशक्ति ही मारी गई है। यह बाईस करोड़ का हिंदू राष्ट्र प्रबलतम होगा, यह आशा ही नहीं, तो वैसे होने की इच्छा भी आपको व्यर्थ लगने लगी है। एक मुसोलिनी, एक लेनिन, एक नेपोलियन, एक कमालपाशा, अघटित आकांक्षा धारण करनेवाला और उसके लिए अपना सिर अपनी हथेली पर लेकर चलनेवाला एक-एक पुरुष क्या कर सकता है, यह क्या आपको दिखाई नहीं देता? इसमें खतरा है? होगा। पर केवल मृतकों के समान जीवंत रहने की अपेक्षा इस तरह के दैवी उन्माद के खतरे में आनेवाला मरण ही सच्चे अर्थ से जीवित रहना है। नहीं तो 'काकोपि जीवति चिराय बलि च भुक्ते'। वह काक और चिड़िया कुछ भी कह दे, परंतु गरुड यही इच्छा करेगा कि विषधर का विष मथने की हवस मेरे मन में है, दोपहर को कड़कती धूप में दिव्य मार्ग से घूमने की मेरी इच्छा है, तूफान के झोंकों के साथ खेलने से ही मुझमें उत्साह निर्माण होता है। अभागे काक के जैसा जीवन मेरे लिए तो मृत्यु के समान ही है। (समग्र सावरकर, खंड-७, कविता-आकांक्षा पद परिच्छेद चवालीसवाँ)।

हमारी यह अत्यंत उत्कट इच्छा है कि नेपाल के महाराजा इस तरह की कोई महत्त्वाकांक्षा अपने मन में धारण करें, वे कुछ महान् पराक्रम करें, उनके कर्तृव्य से हिंदुओं के राष्ट्र का नाम जगत् के राष्ट्रों में फिर एक बार उज्ज्वल हो जाए। नेपाली आंदोलन के गत चार वर्षों के प्रयत्नों से नेपाल के बारे में अखिल हिंदू जगत् में जो ममत्व बुद्धि निर्माण हुई है वह अब एक नई शक्ति के रूप में नेपाल के महाराजा का सामर्थ्य पहले से कई गुना वृद्धिंगत कर रही है। अगर महाराजा उसका कुशलता से उपयोग कर लेंगे तो नेपाल के शत्रुओं को पहले जैसे नेपाल की तरफ उपेक्षा से, धिक्कार की दृष्टि से देखने का साहस नहीं होगा, नेपाल के साथ उस तरह का बरताव करने की हिम्मत नहीं होगी। नेपाल की वृद्धि को ही नहीं, परिस्थिति को भी इस बल का काफी उपयोग होगा। इसीलिए नेपाल 'संशयात्मा विनश्यति' ध्यान में रखकर कर्तव्यसागर में अवसर प्राप्त होते ही ढिठाई से अपने पाँव आगे रखे। इतना ही नहीं, वह सुअवसर खोजकर प्राप्त करके अपने सामने ले आएँ। नए महाराजाजी को उनके राज्य सूत्र धारण करने के आनंदकारी अवसर पर, अत्यंत उत्तरदायी प्रसंग पर अखिल हिंदू जनता की तरफ से यह अत्यंत महत्त्वपूर्ण संदेश देना चाहते हैं और इसे ही हम नेपाल के एकमात्र स्वतंत्र हिंदू राष्ट्र के बारे में अपनी राष्ट्रीय ममता और राष्ट्रीय आशा का द्योतक समझते हैं।

नेपाल के महाराजाजी को हिंदुस्थान की अनेक हिंदू सभाओं की तरफ से शुभचिंतन करनेवाले संदेश भेजे गए हैं। अनेक हिंदू समाचारपत्रों ने महाराजाजी के अभिनंदन के लेख लिखे हैं। यह बात भी इस बात का निर्देश करती है कि अखिल हिंदू मात्र में नेपाल के भविष्य के बारे में एक ममत्वबुद्धि जो पहले नहीं थी उसका और विश्वास का निर्माण हुआ है। इन सारे लेखपत्रों में और उनमें से जिनको महाराजाजी ने प्रत्युत्तर भेजे हैं, उन प्रत्युत्तरों में रत्नागिरी के हिंदू महासभा द्वारा महाराजाजी को भेजे गए अभिनंदन प्रस्ताव का महाराजाजी का प्रत्युत्तर हमारे इस लेख के मुख्य कथन को प्रमुखता से मुखरित करनेवाला है।


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