हे प्रजातंत्र के प्रहरीगण,
लोकतंत्र के इस विशाल नाटक का पटाक्षेप हो गया है। नाटक जहाँ झूठे वायदों की
दुंदभी के आगे सच्चे संकल्प और भाव की तूती की आवाज दबकर रह गई थी। यह
लोकतंत्र का आईना है, जिसमें आपको चेहरा वही दिखाया जाता है जो आप देखना पसंद
करते हैं। जाहिर है, प्रत्येक उम्मीदवार अपनी उम्मीदों के घोड़े पर सवार होकर
सत्ता की सीढ़ियों को चढ़ने का प्रयास कर रहा था। प्रत्येक वोट अपनी व्यक्तिगत
और संकीर्ण महत्वाकांक्षाओं के आगे सामाजिक दायित्व को दरकिनार करने के लिए
मजबूर प्रतीत होता है।
राजनीतिक रंगमंच के अद्भुत कलाकार जानते हैं कि जनता को कैसा मनोरंजन पसंद है।
जैसे राम लीला के रंगमंच पर असली तालियाँ बीच-बीच में जोकर पात्र की मसखरी और
नर्तकी के भोंडे नृत्य पर बजती हैं, यहाँ भी कुछ-कुछ ऐसा ही होता है। मतपेटिका
में बंद मतों की अपनी कहानी से शुरू यह नाटक, जिसके अंत को सुखांत या दुखांत
दोनों ही श्रेणी में रखा जा सकता है। काश ऐसा होता कि मतपेटिका में बंद
लोकतंत्र का यह किस्सा कभी उजागर ही नहीं होता। चुनावी रणक्षेत्र की धूल अब
बैठ चुकी है, परिणामों की गणना संपन्न हो चुकी है। मतगणना के दिन जब सभी
मतपेटियाँ अपने हिस्से की कहानियाँ गढ़ रही थीं, गिनती के साथ ही जनादेश की
धधकती ज्वाला में कोई अपनी रोटी सेंक रहा था, तो कोई अपने खून के आँसू रो रहा
था।
पिछले तीन दिनों से टेलीविजन के पर्दे पर नटी नृत्य करते एग्जिट पोल्स ने
जन-जन की धड़कनें थाम दी थीं, मानो समय के सागर में एक भयानक तूफ़ान आ गया हो।
अब जब सब कुछ शांत है, तो चलिए इंतज़ार करते हैं इस रंगमंच के नाटक के
क्लाइमेक्स सीन का, जो अब इस लोकतंत्र की बागडोर संभाले हुए जनसेवक निर्णय
करेंगे।
समय है स्वप्नद्रष्टा धरातल पर उतरें और चुनावी नतीजों के बाद, जनता की आशाओं
के सारथी अपने वादों के घोड़े पर सवार होकर क्रियान्वयन की ओर अग्रसर हो जाएँ!
समय है नव-निर्वाचित सरकार के समक्ष नीतियों के नृत्य प्रदर्शन का, समय-समय पर
इस लय के बदलने का, कभी तेज़, तो कभी मंथर ताकि यह नृत्य एकरस न होकर जनता का
रसास्वादन करता रहे। चुनावी समर में किए गए आश्वासनों की अग्नि परीक्षा का समय
है। नवनिर्वाचित सरकार को नीतियों की नौका को स्थिर पानी में ले जाने का
चुनौतीपूर्ण कार्य सौंपा गया है, ताकि आरोप-प्रत्यारोप के भंवर में भी नौका
पार कर ली जाए।
हा! जहाँ एक ओर कुछ 'पप्पू' के पास होने की खुशियाँ मना रहे हैं, वहीं दूसरी
ओर कुछ 'टॉपर' के चूक जाने का मातम। यह जोड़-तोड़ की राजनीति, झूठे नैरेटिव का
खेल, बस एक भ्रांति है कि लोकतंत्र की बागडोर जनता के हाथों में है, जबकि
असलियत यह है कि इसे चंद हाथों ने अपने झूठे वादों, अनर्गल प्रलापों और आशंकाओं
की चादर से ढँक दिया है।
इस लोकतंत्र का क्या कहना, जहाँ कौन अर्श से फर्श पर और कौन फर्श से अर्श पर एक
झटके में आ जाए, पता नहीं चलता। जहाँ मुद्दों से भटकाव एक कला है। यह कला न
केवल सरकारी गतिविधियों को नई दिशा दिखाती है, बल्कि उसके मायने भी बदल देती
है। इस बार का चुनाव आत्म-विश्लेषण का चुनाव है, जहाँ देश की असली तस्वीर साफ़
होती दिख रही है।
अविश्वास और डर की वह लहर, जो न केवल स्थितियों से, बल्कि लोगों के खुद के
नजरिये और मानसिकता से भी उपजी है, और इसे समाज में फैलाने में पार्टियों ने
एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया था, काफी हद तक अपने प्रयोजन में सफल भी हुए हैं।
इसे पाटना अब अत्यंत आवश्यक है। नई सरकार को चाहिए कि वह नीतियाँ तय करते समय
जनता के सहयोग और स्वीकृति का गहराई से मनन करे। हर किसी की आवाज को सुनना, उन
छुपे हुए 'जयचंदों' को ढूंढना जरूरी है, जो समाज को खोखला करने में लगे हैं।
सभी को साथ लेकर चलने का यही सही समय है।
लोकतंत्र न केवल एक अभिनय कला की प्रदर्शनी है, बल्कि एक दर्पण भी है, जो हमें
न केवल समाज की, बल्कि हमारी अपनी भी वास्तविकता दिखाता है।