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व्यंग्य

तीये की रस्म

मुकेश असीमित


मैं बाथरूम में अपनी देह को चुल्लू भर पानी से भिगोने के लिए जा रहा था। जी, वैसे भी नलों में आजकल चुल्लू भर पानी ही आ रहा है, वो भी एक दिन छोड़कर एक दिन। बिजली, पानी, गैस बचाने का यह ऑड-ईवन फॉर्मूला हमारे शहर में भी लागू हो चुका था। रसोई से प्रसारित पत्नी की आवाज़ ने मेरे तेज कदमों में लड़खड़ाहट ला दी, "अरे, अभी कहाँ घुस रहे हो बाथरूम में? याद नहीं है, तीये की रस्म में जाना है, वहाँ से आकर नहा लेना।"

ओह, याद आया, आज हमारे ही एक परिचित और पड़ोसी जिनकी देह को उनके घरवाले दो दिन पहले पंचतत्व में विलीन कर आए थे, आत्मा तो उनकी काफी पहले ही मर चुकी थी। नाम था उनका 'माया राम', जीवनभर माया के ही पीछे लगे रहे, राम नाम से तो जैसे राम-राम ही कर ली थी। हालांकि, जीते जी पूरे शहर में मुफ़्त की रेवड़ी जैसी सलाह बांटने वाले सलाहचंदों ने उन्हें सलाह दे देकर कान पका दिए थे, "अरे माया राम, अब तो उम्र हो गई है, पैर कब्र में लटक रहे हैं, अब तो छोड़ो माया का चक्कर और राम नाम लो, यही सत्य है।"

लेकिन एक तो वो हिंदू थे, उन्हें पता था उनके पैर कब्र में नहीं लटक रहे। दूसरा, एक बार जबरदस्ती उनसे चार कुर्सियाँ मोक्षधाम के लिए डोनेट करवा ली थी तो उनको यह विश्वास था कि मोक्षधाम में उनकी छाती से किसी प्रकार से छूटी यह दान राशि बनाम रिश्वत शायद उन्हें इस धाम में एंट्री से वंचित रखेगी। लेकिन ऐसा हुआ नहीं और एक दिन राम नाम सत्य हो ही गया!

पता तो हमें भी चल गया था कि उनका राम नाम सत्य हो गया, लेकिन थोड़ा लेट पता चला, तब तक उनकी एंट्री मोक्षधाम में हो चुकी थी और उनके मायावी शरीर को पंचतत्व में विलीन कर चुके थे। हमने सोशल मीडिया पर तो उनके बेटे के प्रोफाइल पर एक रिप का संदेश चिपका दिया था, और अत्यंत वेदना का प्रदर्शन करते हुए एक संदेश जो कि कमेंट बॉक्स में ऊपर किसी ने डाल दिया था, शायद कोई नया-नया रचनाकार होगा और इस बहाने अपनी लेखनी की प्रतिभा को मांज रहा होगा, हमने उसी का संदेश फोटोकॉपी करके चिपका दिया था। लेकिन आज लोक लिहाज की दुहाई भरे पत्नी के निर्देशों से हमें लगा कि तीये की रस्म में जाना ज़रूरी है।

हमने अपने कदम वापस किए और उन कदमों में चप्पल डालकर अपनी स्कूटी से पहुंच लिए मोक्षधाम में। पहुंचे तब तक काफी लोग एकत्रित हो गए थे। हमने अपना मोबाइल निकाला और उन्हीं की डोनेट की हुई कुर्सी पर, मेरे ही जैसी और कई प्रतीक्षारत आत्माओं के बीच, जगह बनाकर धंस गया। रस्म की तैयारियाँ चल रही थीं, दाह संस्कार स्थल पर पानी से दिवंगत शरीर के फूलों को ठंडा किया जा रहा था। गर्मी का समय था, अभी भी चिता की आग पूरी तरह ठंडी नहीं हुई थी। आसपास रिश्तेदार और दाह संस्कार की सभी रस्मों के एक्सपर्ट अपनी-अपनी राय भी पानी के साथ-साथ उंडेल रहे थे।

एक बात तो समझ में आई, दाह संस्कार स्थल पर इन सभी रायचंदों की एक्सपर्ट राय से ऐसा लगता है जैसे इन सभी को पिछले जन्मों की याद है क्योंकि इस जन्म में तो पंचतत्व विलीन का ऐसा कोई अनुभव शायद रहा नहीं होगा। सबसे ज्यादा एक्सपर्ट सलाह तो फूल समेटने में नजर आती है। हड्डियों के अवशेष निकाल-बिकाल कर उन्हें पहचानने के तरीके से कोई हाथ की, कोई पैर की उंगलियां, कोई जबड़े की, कोई दांत बता रहा था, ऐसा लग रहा था जैसे फर्स्ट एमबीबीएस में एनाटॉमी का बोन आइडेंटिफिकेशन का वाइवा चल रहा हो। मैं पीछे खड़ा था, जब किसी को याद आया कि मैं हड्डियों का इलाज करता हूँ। एक दाह संस्कारी वेत्ता ने मुझे टोका, "अरे डॉक्टर साहब, पीछे क्यों खड़े हो? आओ न, आप बताओ जरा, मुख्यतः दांत ढूंढने हैं।" अभी भी भस्म ठंडी नहीं हुई थी, मुझे लगा दिया फूल ढूंढवाने में। बड़ी मुश्किल से उनके मुंह में बचे हुए दो दांत ढूंढ पाए, वैसे भी बाकी के दांत तो उन्होंने पहले ही जीते जी डेंटिस्ट के हवाले कर दिए थे।

कुड्डी बना दी गयी थी | बेटा भी अपने केशविहीन सिर को लोगों की राय के मुताबिक हिला-हिलाकर रस्मों की पूर्ति में लगा रहा। पंडित जी मंत्रोच्चार से सब कार्य संपन्न करवा रहे थे, एक ही मंत्र जो जीवन, मरण, विवाह संस्कार सब में पंडित जी को आता है, 'ॐ भूर्भुवः स्वः' का उच्चारण बड़े मनोयोग से कर रहे थे। जैसे ही कुड्डी बनी, उसे माला, गुलाल, रंग, फूलों से सजाया गया। ऊपर टिक्की रखी, उसके ऊपर मटका रखने का समय आ गया। अब मटके में छेद कौन करे? छेद के समय मटका टूट जाए तो अपशकुन माना जाएगा, सभी के हाथ-पैर कांपने लगे। कोई भी मटके में छेद करने को तैयार नहीं। तभी बेटे ने एक मटका निकाला, जिसमें पहले से ही छेद घर पर कर लिया था, शायद इसीलिए कि कहीं यहाँ छेद किया और मटका फूट गया तो अपशकुन होगा। पूर्व छिद्रित मटके को देखकर सभी की सांस में सांस वापस आ गई। मटके में पानी भरा गया, एक मिट्टी की पारी में रोटी और उसके ऊपर चावल और घी-बूरे के मिश्रण का भोग रख दिया गया।

पहली बार पता लगा कि माया राम जी को माया के अलावा चाय, बीड़ी, सिगरेट, तंबाकू का भी शौक था और हाँ, कलाकंद का भी। ये सारी चीजें उनके पास रख दी गईं। साथ में तिजोरी की चाबी, जो हमेशा उनके हृदय के पास रहती थी, उसे रखना नहीं भूले। बेटे ने चाबी रखी लेकिन साथ ही एक बच्चे को चाबी की निगरानी के लिए वहीं नियुक्त कर दिया। बेटे को डर था कि कहीं बाप परलोक में भी चाबी देवदूतों के हाथों मंगवा न ले। अब बाप की विरासत इस माया के दरवाजे की चाबी की हिफाजत उसे ही करनी थी। अब कोई राजा महाराजा तो है नहीं कि ताज और तलवार की हिफाजत करनी हो।

जैसे ही बेटे ने भोग लगाया, सभी एकदम भोग लगाने के लिए टूट पड़े। बेटा बेचारा मनुहार करता रहा, "अरे, सब एक-एक करके लगाओ, रोटी गिर जाएगी, मटका ढुलक जाएगा, अपशकुन हो जाएगा।" बेटा बहुत गंभीर हो गया, एक ही चिंता सताए जा रही थी कि कहीं कोई अपशकुन न हो जाए। तभी बेटे ने एक और विनय की, "सभी पीछे हट जाओ, कौवे को आने दो, आप लोग सब पीछे बैठ जाओ, शोर मत मचाओ।" यह कौआ खीर खाने की रस्म बहुत ही डरावनी होती है। वैसे भी शहरों में आजकल कौवे ज्यादा रहे नहीं, चीलें ज्यादा हो गई हैं। पुराणों में कलियुग के हिसाब से चील भी प्रसाद पा ले तो उसे समतुल्य मान्यता प्रदान करनी चाहिए थी।

खैर, सभी पीछे हट लिए, आपस में खुसर-पुसर शुरू हो गई थी। आधा घंटा माया राम और उनके पूरे खानदान के कर्मों, कुकर्मों, आचरण का पोस्टमार्टम करने में सभी व्यस्त रहे। आधे घंटे बाद जो बातें होने लगीं वो इस प्रकार की थीं, एक कह रहा था, "मेरे पिताजी के तीये की रस्म में तो जैसे ही भोग लगा कर हटे, एक कौआ जैसे इंतजार ही कर रहा था, तुरंत भोग लगा गया।" एक कह रहा था, "अरे, आजकल कौन मानता है ये रस्में पुरानी हो गई हैं।" शायद उसे जल्दी थी घर पर दुकान खोलने की, कोई ग्राहक का शायद फोन आ गया था। बेटा बेचारा कभी भोग को देखता, कभी आकाश में, कभी पेड़ों की झुरमुट में, कहीं कोई कौआ नजर नहीं आ रहा था। इसी बीच एक कुत्ता आ गया, उसे बड़ी मुश्किल से डंडे से पीटकर भोग लगाने से वंचित किया। एक गिलहरी भी आ गई थी, उसे भगाया गया। कौआ तो जैसे धरती निगल गई, आसमान खा गया, क्या कहें, हड़ताल पर तो नहीं चले गए? बेटे के माथे की शिकन बढ़ती जा रही थी।

आधे घंटे बाद एक रिश्तेदार ने कहा कि भोग को दाह स्थल, जो कि शेडेड था, से उठाकर खुले में मुंडेर के ऊपर रख दो। ऐसा ही किया गया | वहाँ देखा तो कबूतर, गिलहरी, चिड़ियों के झुंड जैसे तैयार बैठे थे, भोग पर टूट पड़े। बेटा एक हाथ में डंडी लेकर बार-बार उन्हें भगाने में व्यस्त हो गया, कौआ कहीं नजर नहीं आ रहा था। धीरे-धीरे रस्म में शामिल भीड़ का शोर बढ़ता गया, अधीरता बढ़ रही थी, लोग बैठे-बैठे अकड़ गए थे, कुछ सीधे होकर अंगड़ाई लेने लगे, कुछ बहुमूत्र के शिकार सामूहिक मूत्रदान प्रक्रिया में लग गए। बेटे ने लोगों की तकलीफ को समझ लिया था, उसने हाथ जोड़कर सभी से कहा, "आप सब लोग जाएं, मैं और कुछ मेरे परिवार के अन्य सदस्य रुक जाएंगे।" सभी को बेटे के इस रहमोकरम पर दिल से आभार व्यक्त कर वहाँ से ऐसे छूटे जैसे बंद जेल में से सभी कैदियों को पैरोल पर छोड़ा हो। लेकिन जाते-जाते एक सम्मलित स्वर में जो निष्कर्ष दिया जा रहा था वो कुछ ऐसा ही था, "अरे भाई, कौवे ऐसे ही हर किसी की खीर नहीं खाते, बड़े पुण्य कर्म करने होते हैं! पूरी जिंदगी जिसने माया जुटाने में लगा दी हो उसकी खीर कैसे कौवे खा लेंगे?"


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