धनी का धन
(पर्दा उठता है। राजा का दरबार लगा है। एक धनी व्यापारी का प्रवेश।)
धनी: महाराज की जय हो।
राजा: अरे धनीलाल तुम! कैसे हो? व्यापार कैसा चल रहा है?
धनी: सब आपकी दुआ है, महाराज। व्यापार प्रगति पर है। ईश्वर की कृपा बनी हुई है।
राजा: राजकोष भी तुम्हारी प्रगति पर निर्भर है। भगवान् की कृपा से तुम्हारी
प्रगति होती रहे। कहो, आज कैसे आना हुआ?
धनी: महाराज, मेरी बिटिया की शादी का आमंत्रण देने आया हूँ।
राजा: अरे, क्या बात है। हमारा आशीर्वाद सदा तुम्हारी बेटी के साथ रहे।
धनी: बहुत धन्यवाद महाराज।
राजा: हम बिलकुल पधारेंगे।
धनी: बस एक विनती है महाराज।
राजा: कहो, संकोच कैसा?
धनी: महाराज, यदि इसी सभागृह में बिटिया की शादी हो जाए, तो इससे बेहतर कुछ
नहीं होगा।
राजा: लेकिन धनीलाल, जो दैनंदिन कार्यक्रम में विघ्न पडेगा, उसकी भरपाई कौन
करेगा?
धनी: वह सब मैं देख लूंगा महाराज। जीवन में ऐसे अवसर दोबारा नहीं आते हैं।
राजा: चलो, ठीक है। एक बार हमारे मंत्री से भी सलाह कर लेना। कहीं ऐसा न हो कि
जिस दिन तुम्हारी बिटिया की शादी है, उसी दिन किसी और प्रदेश के किसी ख़ास
मेहमान का आगमन हो रहा हो।
धनी: जी महाराज, मैं मंत्री जी की सलाह अवश्य ले लूँगा।
(राजा उठकर चला जाता है। मंत्री शुरू से ही वहीँ अपनी गद्दी पर बैठा हुआ है।
वह उठकर धनी के पास आता है।)
मंत्री: प्रणाम धनीलाल।
धनी: प्रणाम, मंत्री जी, कैसे हैं आप?
मंत्री: सब कुशल है।
धनी: आपने तो अभी सुना कि बिटिया की शादी के लिए इसी सभागृह को पसंद किया है।
मंत्री: (हँसते हुए) पसंद किया है, लेकिन निश्चित नहीं है।
धनी: इसके बारे में महाराज की राय है कि आपसे बात करूं।
मंत्री: बहुत बड़ी समस्या है।
धनी: समस्या कैसी है, मंत्री जी?
मंत्री: विवाह के दिन के पूरे दिनभर के कार्य को कहीं और करना पड़ेगा। बड़ा झंझट
वाला काम है।
धनी: किसी बाहर के विशेष मेहमान को तो आमंत्रित नहीं किया है ना?
मंत्री: वो बात तो नहीं है। लेकिन उथल-पुथल मच जायेगी।
धनी: थोड़ा-बहुत इधर-उधर तो होता है। लेकिन उसके बदले मैं राजकोष में जरूरत से
अधिक धनराशी डाल दूंगा।
मंत्री: ह्म्म्म ।।। उससे समस्या का समाधान नहीं होगा।
धनी: कैसी बात कर रहे हैं मंत्री जी, पैसे से तो हर समस्या का समाधान हो जाता
है।
मंत्री: जरूरी नहीं है।
धनी: जो राजकाज के बड़े लोग हैं, उनको भी तो मैं आमंत्रित ही कर रहा हूँ। फिर
कहीं और व्यवस्था की आवश्यकता नहीं है। क्योंकि वे लोग तो यहीं पर रहेंगे। भोजन
का भी प्रबंध यहीं पर होगा।
मंत्री: राजकाज के लोग यहाँ विवाह में रहेंगे, तो राजकाज के काम में एक दिन की
क्षति भी तो होगी।
धनी: उसी लिए तो आर्थिक मुआवजा है।
मंत्री: सभी चीज़ों को आप पैसों से तोल रहे हैं।
धनी: आखिरकार ज़िंदगी में सबसे महत्वपूर्ण चीज तो वही है। सभी काम उसी से सिद्ध
होते हैं।
मंत्री: राजमहल का यह हिस्सा तो आपको तब ही मिल सकता है जब ।।।
धनी: जब क्या मंत्री जी?
मंत्री: जो मैं कहूँगा, वह करने के लिए तैयार हो धनीलाल?
धनी: बिलकुल। मुझे विवाह स्थल के रूप में यही प्रांगढ़ चाहिए।
मंत्री: तो तुमको विवाह में थोड़े परिवर्तन लाने पड़ेंगे।
धनी: किस तरह के परिवर्तन?
मंत्री: दूल्हा कौन है?
धनी: बचपन के ही एक मित्र का सुपुत्र है। बड़ा होनहार है।
मंत्री: तुम्हारी 'होनहार' की परिभाषा को मैं जानता हूँ। तुम्हारा मतलब है कि
बहुत पैसा कमाता है, है ना?
धनी: वो तो है ही, मंत्री जी। पैसा कमाना भी तो एक हुनर है। जिसमें यह हुनर
रहता है, उसी को दुनिया सलाम करती है।
मंत्री: तो इसी में तुमको परिवर्तन करने पड़ेंगे ।। अगर यह राजस्थल चाहिए तो।
धनी: इसी में मतलब?
मंत्री: मतलब कि दुल्हे में।
धनी: दुल्हे में? मैं समझा नहीं। दुल्हा तो निश्चित है।
मंत्री: दुल्हा बदलना पड़ेगा धनीलाल।
धनी: कैसी बात कर रहे हैं मंत्री जी! दुल्हा कैसे बदला जा सकता है?! सभी को
पता है कि दुल्हा कौन है।
मंत्री: भई देखो, ऐसा है कि दुल्हा बदले बिना यह स्थल विवाह के लिए तुमको नहीं
दिया जा सकता है।
धनी: (क्रोधित होकर) मैं दुल्हा कैसे बदल सकता हूँ? वर-वधू एक दूसरे को अच्छे
से जानते हैं। मेरा बचपन का मित्र है, उसे मैं वचन दे चुका हूँ। और फिर शादी
की सारी तैयारियों में उसी वर का नाम लिखा है।
मंत्री: वह सब कुछ तो बदला जा सकता है। वह कोई बड़ी बात नहीं है।
धनी: कैसे बड़ी बात नहीं है हुज़ूर! ऐसे कैसे बदला जा सकता है? मैं अपने वचन से
कैसे मुकर सकता हूँ? और मेरी जग-हंसाई भी हो जायेगी।
मंत्री: कोई नहीं हंसेगा। फेर-बदल तो होते रहते हैं।
धनी: दोनों की कुंडलियाँ भी मिल गई हैं। सब ग्रह मिलते हैं। मिलन सौभाग्यपूर्ण
बनता है।
मंत्री: ज्योतिषी को थोड़े ज्यादा पैसा दे दो तो सब ग्रह अपने आप मिल जाते हैं।
धनी: ऎसी बात नहीं है। स्वाभाविक मेल है वर-वधू का।
मंत्री: आपने अन्य किसी वर का मेल करके देखा नहीं है।
धनी: मुझे जरूरत ही महसूस नहीं हुई।
मंत्री: यही तो बात है। अपनी बेटी को भी आपने कोई और विकल्प चुनने ही नहीं
दिया।
धनी: विकल्पों का वो क्या करती जब इतना अच्छा वर बगल में ही है?
मंत्री: पिता का यह कर्तव्य होता है कि अपनी बेटी के आगे विकल्प रखे और बेटी
को ही चुनने दे। आपने ऐसा नहीं किया।
धनी: उपयुक्त वर मिल गया इसीलिए जरूरत नहीं लगी।
मंत्री: उपयुक्त वर तो और भी हो सकते हैं।
धनी: जैसे कि?
मंत्री: अब इस राजघराने में ही ले लो।
धनी: राजघराने में कौन ऐसा है जो व्यापार में इतना पैसा कमा सकेगा जितना मेरा
घनिष्ठ मित्र करता है?
मंत्री: तुम्हारी सुई सिर्फ पैसा कमाने पर अटकी है। राजघराने से जुड़ने पर
तुम्हारे लिए कई रास्ते खुल जायेंगे।
धनी: मेरे खुद के पैसे से ही मेरे कई रास्ते खुल गए हैं। मुझे किसी और का
मोहताज होने की जरूरत नहीं है।
मंत्री: राजघराने से रिश्ता बनाने पर बेटी को भी राजघराने की बहु कहलाने का
मौक़ा मिलेगा।
धनी: ऐसा कौन है जिसकी आप पैरवी कर रहे हैं? महाराज का सुपुत्र तो अभी बहुत
छोटा है।
मंत्री: मैं महाराज के सुपुत्र की बात नहीं कर रहा हूँ। उसे तो अभी सालों हैं
विवाह के लिए।
धनी: तो फिर?
मंत्री: मेरा अपना बेटा है ।।।
धनी: हरगिज़ नहीं!
मंत्री: (आहत होकर) क्यों नहीं?
धनी: मैंने आपके बेटे को देखा है। वह कोई कामकाज नहीं करता है।
मंत्री: आप कह रहे हैं कि मेरा बेटा निकम्मा है?
धनी: आप चाहेजो भी सोचें।
मंत्री: वह जल्द ही राजकाज संभालेगा।
धनी: उस समय आप उपयुक्त कन्या देखकर उसका विवाह कर दीजिएगा। मेरी बेटी से तो
इस वक़्त संभव नहीं है।
मंत्री: तो फिर इस राजस्थल का भी आपको विवाह के लिए मिलना संभव नहीं है।
धनी: ऐसे कैसे संभव नहीं है? हर वर्ष राजकोष में मैं इतना धन देते रहता हूँ।
मेरा हक़ बनता है।
मंत्री: आपका कोई हक़ नहीं बनता है। आपसे कह दिया है। अब आप कहीं और जाकर अपनी
बेटी की शादी का मंडप लगाइए।
धनी: मैं महाराज से गुहार करूंगा।
मंत्री: कोई फायदा नहीं। यह काम मेरे जिम्मे है।
धनी: मैं महाराज के राजकोष में दुगुनी रकम डालूँगा।
मंत्री: उससे कुछ लाभ नहीं है। जितनी रकम आप देंगे, उतनी तो हमें एक ही बार
के किसी छोटे से गाँव से क़र्ज़ में मिल जाती है।
(अचानक महाराज पधारते हैं और अपनी कुर्सी पर विराजमान हो जाते हैं।)
धनी: महाराज, आदरपूर्वक मैं यह कहना चाहता हूँ कि राजस्थल विवाह के लिए मुझे
सौंपा जाए।
महाराज: (मंत्री से) मंत्री जी, इनके राजस्थल वाला मामला अभी तक नहीं निपटा?
मंत्री: महाराज, राजस्थल विवाह के लिए देना संभव नहीं हो पा रहा है।
धनी: महाराज, मैं धनराशी दुगुनी कर रहा हूँ। मुझे यही स्थल चाहिए।
महाराज: लेकिन धनीलाल, मंत्री जी के अनुसार, यह संभव नहीं है।
धनी: महाराज, मंत्री जी का अपना ही कोई स्वार्थ है ।।।
महाराज: (बात काटते हुए) लेकिन धनीलाल, जो मंत्री जी ने कह दिया। बस अब मुझे
और भी काम हैं।
धनी: परन्तु महाराज ।।।
महाराज: (धनीलाल की बात न सुनते हुए) मंत्री जी, आज का अगला मुद्दा क्या है?
मंत्री: महाराज,किश्बारा के निवासीफसल न पूरी होने पर कर्ज-माफी की दुहाई कर
रहे हैं।
महाराज: (धनीलाल से) धनीलाल, आप जा सकते हैं। (मंत्री से) मंत्री जी, किश्बारा
के निवासियों को बुलाइए।
(धनीलाल छोटा-सा मूंह लेकर चला जाता है। उसे अपमानित महसूस होता है। मंत्री,
किश्बारा के निवासियों को आमंत्रित करता है।)
मंत्री: महाराज, धनीलाल को अपने पैसों पर बहुत घमंड है। इसीलिए, उसका घमंड
तोड़ने के लिए मैंने उससे कहा कि वह अपनी बेटी का विवाह मेरे पुत्र से कर दे।
महाराज: (हंसकर) फिर क्या हुआ? धनीलाल की क्या प्रतिक्रिया हुई?
मंत्री: (हँसते हुए) आग-बबूला हो गया।
महाराज: (हँसते हुए) जाहिर-सी बात है, शादी के इतने करीब आकर कोई कहेगा कि
दूल्हा बदल दो,तो नाराजगी तो जायज है!
मंत्री: (मुस्कुराते हुए) दरअसल उसकी दी हुई दुगुनी रकम हमारे काम में आ सकती
थी।
महाराज: (मुस्कुराते हुए) उसकी चिंता करने की जरूरत नहीं है। जो क़र्ज़ किश्बारा
के निवासी नहीं दे सकते हैं, उसी के लिए धनीलाल की दुगुनी धनराशी का किसी तरह
इस्तेमाल कर लेंगे। (थोड़ा रूककर) तुमने उसे बताया नहीं कि तुम्हारे बेटे की
मंगनी तो हिर्गंधा प्रदेश की राजकुमारी के साथ हो चुकी है!
मंत्री: (मुस्कुराते हुए) नहीं महाराज। धनीलाल की प्रतिक्रया देखने लायक थी।
उसे एहसास होना चाहिए कि पैसे से सब कुछ नहीं खरीदा जा सकता है। अपने पैसे के
बल पर वह राजस्थल खरीदने चला आया था और गर्व से पैसा फेंकने पर उतारू हो गया
था।
महाराज: चलो, अगली बार जब वह दुगुनी रकम देने की बात कहेगा, तो मंजूर कर
लेंगे।
(दोनों हँसते हैं। पर्दा गिरता है।)