शरारती बन्दर
(दृश्य: एक जंगल, जहां एक मंदिर का निर्माण कार्य शुरू है। मंदिर में लगाए जाने
वाले खंबे दिख रहे हैं, ईंटें पड़ी हुई हैं, कामगार मन लगाकर काम कर रहे हैं।
एक अमीर व्यक्ति का प्रवेश।)
अमीर: (किसी कामगार को संबोधित करते हुए) अरे हरिया, अब तक काम कर रहे हो!
तुम्हारा दोपहर का खाना खाने का समय हो गया है।
हरिया: (अमीर के पास आते हुए) सेठ जी, मेरे कामगार मन लगाकर काम कर रहे हैं,
फिलहाल मैं उनकी ले को रोकना नहीं चाहता हूँ।
अमीर: हरिया, तुम इन मजदूरों के मुखिया हो। जो तुम बोलोगे, वो ये सुनेंगे। जब
तुम इन्हें खाने के लिए कहोगे, तब ये खायेंगे। लेकिन तुम्हें इन्हें वक़्त पर
खाने का आदेश देना चाहिए। वरना इनके पेट में चूहे कूदेंगे और इनका ध्यान काम
में नहीं लगेगा।
हरिया: (सेठ जी की बात सुनकर सभी मजदूरों को आदेश देते हुए) अरे सब लोग, काम
बंद करो और खाने पर चलो। एक घंटे का समय है तुम्हारे पास खाने के लिए।
(सभी मजदूर काम छोड़ कर खाना खाने के लिए मंच से बाहर चले जाते हैं।)
अमीर: हरिया, तुम्हारी नज़र में मंदिर का काम कैसा चल रहा है?
हरिया: बिलकुल समय पर चल रहा है। आप की कृपा से इस जंगल में मंदिर बन रहा है।
सेठ जी, अगर बुरा न मानें तो यह बताएंगे कि आप इस जंगल में मंदिर क्यों बना रहे
हैं?
अमीर: हरिया, मैंने बहुत पाप किये हैं। ज्यादा पैसे होने से इंसान में पाप करने
की प्रवृत्ति उत्पन्न हो जाती है। इसीलिए मैं ईश्वर से क्षमा मांगना चाहता
हूँ। उन्हीं की स्तुति करने के लिए मैं यह मंदिर बना रहा हूँ।
हरिया: बहुत नेक ख़याल है आपका सेठ जी। श्रमिकों को भी इस नेक काम की वजह से
काम मिल गया है। यह मंदिर उनकी रोजी-रोटी का साधन बन गया है। इस मंदिर की वजह
से उनके परिवार वालों का पेट भर रहा है।
अमीर: बहुत ही अच्छी बात है। चलो अब तुम भी खाना खा लो। एक घंटे के बाद वापिस
काम शुरू करना है।
(हरिया मंच से बाहर चला जाता है।)
अमीर: (मंदिर को देखकर उसकी सराहना करते हुए) वाह! अति सुन्दर! जब यह पूरा
बनकर तैयार हो जाएगा, तो शानदार हो जाएगा!
(अमीर मंदिर को देखते हुए मंच से बाहर चला जाता है।)
(उसके जाते ही एक शरारती बन्दर अपने चेहरे पर कुटिल मुस्कान लिए हुए प्रवेश
करता है।)
बन्दर: (उत्साहित होकर इधर-उधर उछल-कूद करते हुए) इस जगह को देखो! कितनी
प्यारी जगह है! मौज-मस्ती करने के लिए एकदम उपयुक्त स्थान!
(बन्दर यहाँ-वहाँ खोजबीन करना जारी रखता है। उसे एक लकड़ी का टुकडा मिलता है।)
बन्दर: अरे, यह क्या? यह तो कील से कटा हुआ लट्ठा है!
(अपनी जिज्ञासा में वह अपने हाथों से अर्ध-कटे हुए लट्ठे के दो टुकड़े करने का
प्रयत्न करता है। लेकिन सफल नहीं हो पाता है।)
बन्दर: (कुंठा में) ये टूट क्यों नहीं रहा है?
(वह और यत्न करता है। लेकिन लट्ठा नहीं टूट रहा है। वह गुस्से में आकर लट्ठे
को जमीन पर फेंक देता है।)
बन्दर: जमीन पर इतनी जोर से फेंका, तो भी कुछ नहीं हुआ! यह लट्ठा तो बड़ा ही
ज़िद्दी लग रहा है! अभी तेरे को सबक सिखाता हूँ!
(बन्दर उस लट्ठे के ऊपर चढ़ जाता है और धमाचौकड़ी करने लगता है।)
(एक बूढ़े गिद्ध का प्रवेश। वह बन्दर को लट्ठे को तोड़ने का प्रयास करते हुए
देखता है।)
गिद्ध: अरे, क्या कर रहे हो तुम?
बन्दर: (गिद्ध को देखते हुए) गिद्ध दादाजी, यह लट्ठा तो बड़ा ही ढीठ है! कितना
मैं इसे अलग करने की कोशिश कर रहा हूँ, लेकिन हो ही नहीं रहा है!
गिद्ध: लेकिन तुम इसे अलग करना ही क्यों चाहते हो?
बन्दर: ताकि इसके दो हिस्से करके दोनों हिस्सों के साथ खेल सकूं।
गिद्ध: उन दो हिस्सों से तुम क्या खेलोगे?
बन्दर: (गिद्ध के प्रश्न पूछने से परेशान होकर) अरे उससे क्या मतलब है? कुछ भी
खेलूंगा। सल्लू को बुलाकार एक हिस्सा उसे दूंगा और एक मैं रखूंगा, और हम दोनों
इससे गेंद को मारने का प्रयास करेंगे।
गिद्ध: लेकिन इतने प्रयास करने के बावजूद जो चीज़ नहीं हो रही है, उसे छोड़कर
अपनी ऊर्जा किसी और ऐसी चीज में लगा देनी चाहिए जो आसानी से हो सक रही हो, और
जिसका जीवन में कोई उपयोग हो।
बन्दर: मेरे जीवन में इस लट्ठे के दो हिस्सों का बड़ा उपयोग है!
गिद्ध: यह तुम्हारे लिए मनोरंजन का साधन बनेगा?
बन्दर: चाहे कुछ बने या न बने, अब तो इसकी ढीठता मैं तोड़कर ही रहूँगा।
गिद्ध: देखो, संभालना। मैं तो तुमको पहले से ही सावधान कर रहा हूँ।
(बन्दर नहीं सुनता है, और जहां लट्ठे में कील फंसी हुई है, वहाँ जोर से पैरों
से मारता है।)
गिद्ध: अरे रे रे ।।। संभालो ।।।
(गिद्ध का इतना कहना था कि बन्दर का पैर लट्ठे में फंस जाता है।)
बन्दर: (जोर से चिल्लाते हुए) आह! मेरा पैर फंस गया!
गिद्ध: देखा! हुई न गलत बात!
बन्दर: (दर्द से कराहते हुए) मेरा पैर!
(बन्दर हाथ-पैर चलाकर अपने पैर को अर्ध-कटे हुए लट्ठे से छुटाने का प्रयास
करता है।)
गिद्ध: ठहरो। यह ऐसे नहीं निकलेगा, तुम्हारा पूरा पैर ही छिल जाएगा ऐसा करते
रहोगे तो।
बन्दर: (दर्द में) तो मैं क्या करूं दादाजी?
गिद्ध: मैं देखता हूँ।
(बूढा गिद्ध लट्ठे के करीब आकर देखता है, लेकिन उसे हाथ नहीं लगाता है।)
गिद्ध: इस लट्ठे ने तो तुम्हारे पैर को दोनों ओर से काफी अच्छे से जकड लिया
है।
(गिलहरी का मंच पर प्रवेश।)
गिलहरी: यहाँ जोर से किसी के कराहने की आवाज आई। (फिर, बन्दर का फंसा पैर
देखकर) अरे तुम्हारा तो पैर ही इस लट्ठे में फंस गया है!
(तोते का प्रवेश। वह भी नज़ारा देखता है।)
तोता: मैं उड़कर जाता हूँ, और जल्दी से किसी को बुलाता हूँ।
गिद्ध: हमें जल्दी से कार्यवाई करनी चाहिए।
गिलहरी: हाँ, बेचारे बन्दर को हमारी मदद की जरूरत है।
(तोता मंच से जाता है।)
गिद्ध: (गिलहरी से) मैंने तो इसे इतना समझाया। फिर भी यह बाज नहीं आया।
गिलहरी: मैं तो हमेशा अपने से बड़ों का सुनने की कोशिश करती हूँ। सही सलाह देते
हैं वे लोग।
(तोता, खरगोश के साथ प्रवेश करता है।)
खरगोश: बन्दर भैय्या, फंस गए तुम तो! अब पेड़ों पर उछल-कूद कैसे करोगे?
तोता: अब ज्यादा ताने मारने की जरूरत नहीं है बेचारे को। किसी की मुसीबत के
समय में उसका उपहास उड़ाने से कोई फायदा नहीं। आड़े वक़्त पर उसे सहारे की जरूरत
होती है।
खरगोश: कोई ऐसी युक्ति लगानी पड़ेगी कि बिना बन्दर के पैर को कुछ हुए यह लट्ठा
निकल जाए।
तोता: (खरगोश से) तुम अपने दांतों से इस लट्ठे को कुतर सकते हो?
खरगोश: नहीं। लेकिन कछुआ बहुत समझदार है। उसके पास बहुत सी युक्तियाँ हैं।
उसको बुलाना चाहिए।
तोता: मैं जल्दी से उड़कर जाता हूँ, और उसे बुलाकर लाता हूँ।
खरगोश: यहीं पास में है वह, अभी-अभी मुझे रस्ते पर ही दिखा।
(तोता जाता है, और फौरान कछुए के साथ लौटता है।)
कछुआ: (मंजर देखते हुए) गलत हो गया।
गिद्ध: सब शरारत का नतीजा है।
गिलहरी: कछुए भैय्या, कुछ करो।
कछुआ: (सोचते हुए) इस लट्ठे के बीच में से किसी पतले लेकिन मजबूत टुकड़े को
जाना चाहिए।
(सब लोग यहाँ-वहाँ, मंदिर के बन रहे सामानों में ऐसी किसी टुकड़े को ढूँढने
लगते हैं।)
कछुआ: (एक मजबूत लकड़ी की छड को हाथ में लेकर) इससे काम बन जाएगा।
(सब लोग वापिस बन्दर की ओर आते हैं, और उत्सुकता से कछुए की ओर देखते हैं।
कछुआ, लकड़ी को लट्ठे के दो हिस्सों के बीच डालता है।)
कछुआ: (सभी से) अब कुछ लोग इस लकड़ी को एक तरफ जोर से खींचो।
(गिलहरी और खरगोश लकड़ी को एक ओर खींचते हैं।)
कछुआ: तोताराम, तुम और मैं लट्ठे के दूसरे हिस्से को खींचते हैं।
(दोनों लट्ठे को खींचते हैं। बूढा गिद्ध खडा रहकर देखता है।)
कछुआ: देखो हमारे खींचने से कैसे लट्ठे के बीच की दरार बढ़ती जा रही है।
गिलहरी: हाँ, बिलकुल। बस थोड़ा और जोर लगाकर।
(जानवरों के प्रयत्न से लट्ठे का पाट काफी हद तक खुल जाता है। बन्दर तुरंत
अपना पैर लट्ठे से निकाल कर अलग कर देता है। गिलहरी और खरगोश लकड़ी को छोड़ देते
हैं, कछुआ और तोता लट्ठे को छोड़ देते हैं।)
बन्दर: (राहत से, लेकिन कराहते हुए) भगवान का लाख-लाख शुक्र है!
गिद्ध: शरारत करना एक हद तक ही ठीक होता है। जबरदस्ती किसी भी अनजान वस्तु के
साथ छेड़खानी नहीं करनी चाहिए।
गिलहरी: बिलकुल।
तोता: वैसे तो यदि किसी चीज के गुण-अवगुण का पता नहीं होता है, तो हम उसके
साथ प्रयोग करते हैं कि क्या-क्या करने से इस चीज पर कैसा-कैसा परिणाम होता
है।
कछुआ: ऐसे प्रयोग करते रहना अच्छी बात है, लेकिन सब कुछ सावधानी से करना चाहिए।
खरगोश: चलो, अब जल्दी से यहाँ से निकल जाएँ, मंदिर बनाने वाले कारीगरों के आने
का समय हो गया है।
गिलहरी: बन्दर भैया, तुम चल सकने की स्थिति में हो या नहीं?
बन्दर: (कराहते हुए) मुझे लंगडा-लंगडा कर चलना पड़ेगा।
तोता: मैं तुम्हें सहारा देता हूँ।
(सभी जानवर, बन्दर के साथ, मंच से बाहर चले जाते हैं।)
(मंच पर कामगार वापिस आते हैं।)
हरिया: (लट्ठे को हाथ में उठाते हुए) यह यहाँ क्या कर रहा है? और इसके बीच
में यह लकड़ी क्यों फंसी हुई है?
बढई: मेरा लकड़ी का काम अधूरा रह गया था। लेकिन यह लट्ठा तो दूसरी ओर पडा हुआ
था।
हरिया: (सोचते हुए) जरूर कोई शरारती जानवर हमारे पीछे आकर कोई कारस्तानी कर
गया है।
(पर्दा गिरता है।)