सर्वार्पण
हे परमेश्वर !
अपने समान तन-मन, बल-बुद्धि
ज्ञान-विवेक, दृष्टि-दर्शन
अपने समान हाथ-पाँव, गुण-धर्म
ध्वंस-निर्माण का पुरुषार्थ
तुमने ही दिया ।
तुमने ही दिया
अपने जैसा हृदय, वेदना
वैसी ही भावना, अनुभूति
शब्द, वाणी, रोदन-हास्य
श्रवण-कथन का माधुर्य
वेद-पुराण, गीता-गायत्री ।
तुमने ही तो दिया
कर्मक्षेत्र अपनी तरह
बहुरूप कर्त्ता-धर्ता बनाया
कर्मफल दिए मधुर-विषाक्त
आकर्ष-विकर्ष दिया
सब कुछ भोगने के लिए ।
तुमने सब कुछ तो दिया
घर-आँगन, लहर-पतवार
स्वर्ण-रजत, फूल-काँटे
मिलन-विछोह, शैल-सिकता
दूरागत आलोक-पथ की अंतहीन यात्रा
जीवन-नाद का अपने-जैसा संधान ।
तुमने क्या-क्या नहीं दिया
सूर्य-चन्द्र, नभ-नक्षत्र, अग्नि-जल
दिवा-रात्रि, ऋतुएँ, वायु-प्रवाह
अनमोल समय का सहचार
सर्वोर्वरा रत्नगर्भा धरती
अपना रचा-गढ़ा सारा संसार ।
हे परमसर्जक !
लो, तुम्हें अर्पित करता हूँ, तुम्हारा ही दिया
दर्प-दर्पण, रूप-अपरूप अपना-तुम्हारा
वह सब, जो तुमने दिया
वह भी, जो तुमने नहीं दिया
मैंने स्वयं रचा, तुम्हारा अनुभूत सत्य, तुम्हारे लिए ।
कस लो कलाई,मेरे गाँव !
कभी पाँव धँसे, टूट गए
खजूर के काँटों-जैसे तीखे
कभी भरतू बाँस की तेल पी हुई
लाठी की मार-जैसे कठोर
मगर मौके पर
कुएँ की दूब-जैसे नरम
मन के जल में झाँकते मेरे गाँव !
तुम्हारी मदार के फूलों-जैसी निरभिमान
सोंधी मिट्टी-जैसी ॠतुगंधा
नीम की छाया-जैसी शीतल
बरगद की जटाओं-जैसी धरतीपकड़
बस्ती सरीखी डाल से
सेमल की रूई की तरह उखड़कर
भूख, प्यास, पैसे की
नई कसबिन हवाओं के साथ
मैं उड़ा तो उड़ता ही रहा
..पर तुम बिसरे कहाँ, मेरे गाँव !
इस उड़ान में मैं कितना बदला
पर तुम भी कम नहीं बदले, मेरे गाँव !
जैसे झील सूख गई हो
और पानी की जगह पैसा
और मछलियों की जगह भीड़
और कमलों की जगह धूर्त मुखड़े
भर दिए गए हों
नेता, अफ़सर, माफ़िया मछुआरों की भूमिका में हों
मैं और तुम एक-दूसरे से
दूर होते गए मेरे गाँव !
तुम्हारे वे सादगी भरे घर-मुहारे
लौकी-कुम्हड़े के फूलों से लदे छान-छप्पर
काली-डीह के थान
जेठ-बैसाख के दिन
सावन-भादों की बरसातें
रातें पूस-माघ की
पुरुवा-पछुवाँ के झोंके
मचान और पयाल पर सोने का नैसर्गिक सुख
मकई की रोटी, बथुए की दाल
राब का सिखरन, दहेंड़ी की खुरचन
अलस साँझ पीठ पर फिरते
दादी माँ के सुखद खुरदरे हाथ
...मुझे याद है, मुझे याद है मेरे गाँव !
मुझे याद है मेरे गाँव !
लट्टू-भँवरे की तरह नाचता
नरकुल-अमोले की पिपिहरी की तरह बजता
गुल्ली-डंडे की तरह व्यस्त
लच्चीडाँड़ी की तरह उल्लसित
किन्तु हड़ा-हड़वाई की तरह
इधर से आया, उधर को गया
तुम्हारा धूसर-मटीला बचपन
जो दीवाली पर फुलझड़ी-सा हँसता-हँसाता
होली पर बाँस की पिचकारी-सा छूटता-रंग बरसता
तुम्हारी अबोध अभिलाषाएँ
आँखमिचौनी-सी कितनी निश्छल, कितनी सरल होतीं
कुछ दिन के लिए
माटी के छोटे-से घर-घरौंदे में
हाथी-घोड़े तक पालती-पोसतीं
वे कभी गुलता-गुलेल
कभी गोली-गिट्टक, कौड़ी-कंजे की
अपनी दुनिया में बिना किसी का हिस्सा हड़पे
न जाने कितने सपने स्वप्नलोक से उतार लेतीं
तुम अपने नन्हें हाथों में
कभी धनुही-तीर
कभी बीन-बाँसुरी
तो कभी फिरकी के रूप में
आम के पत्ते का सुदर्शन चक्र साधे
गद्गद भाव से निष्काम कैसे तन्मय रहते
..मुझे याद है, मुझे सब याद है I
मुझे अच्छी तरह याद है मेरे गाँव !
टिकोरे का मौसम
जिसे तुम नमक-मिर्च के साथ गाँठते
महुआरी की मादक गंध
जो दूर से ही मन तक भर जाती
जामुन, बेल, फ़ालसे से
निहाल होती तुम्हारी कच्ची उम्र
आँवले-करोंदे की खटास
जिनसे मुँह कैसे बन-बन जाता
मुँहचढ़ी-मज़ेदार मकोय
जिसे तुम इधर-उधर खोजते फिरते
एक-एक पेहँटुल्ले के लिए
तुम्हारी छीना-झपटी, मारा मारी
डहकाती-लुभाती तितलियों के पीछे मुग्धमन
दूर-दूर तक की धमा-चौकड़ी
केंचुआ देख जी मिचलाना
राम की घोड़ी को छेड़ना
ग्वालिन को गोल होने के लिए तंग करना
मुझे याद है, मुझे अच्छी तरह याद है
..मैं तुम्हारी साँसों की कतरनों का पुलिंदा हूँ I
मुझे ख़ूब याद है
तुम धान की जरई के संग कैसे जनम लेते
ज्वार-बाजरे के गाभे से कढ़ती कलँगी के साथ
कैसे किशोर होते
साँवा-काकुन की झूमती बालियों बीच
कैसे जवान हो जाते
लेकिन घाम-बतास, साँझ-सकारे
हल से छूट कुदाल से विश्राम करते
तुम असमय ही कैसे ढल जाते
मुझे ख़ूब याद है पूरी उमर
एड़ी-चोटी एक करता
पसीने-पसीने होता
पेट-अधपेट खेत-खलियानों में
अथ होता, अस्त होता तुम्हारा कठिन जीवन
..मैं तुम्हारे दर्द का जीता-जागता टुकड़ा हूँ I
मेरे गाँव ! मैं हारिल की लकरी की तरह
अब भी तुम्हें जी रहा हूँ
तुम जैसे सेठे की कलम से
दुद्धी से पुतारे, घोटे-चमकाए
लकड़ी की तख्ती पर
खड़िया से लिखे दूधिया अक्षरों के समान
मेरे भीतर अंकित हो
और मैं भोली नज़रों से तुम्हें पढ़ रहा हूँ
पर तुम कहाँ खो गए
और कहाँ खो गया मैं
तुम्हें किसकी नज़र लग गई
और मुझे किन हरकतों ने पचा लिया
मैं सेमल की रुई की तरह
तुम्हारा बीज लिये-लिये
कब तक उड़ता रहूँ मेरे गाँव !
शहरों के गमले सेमल का बोझ
नहीं सह सकते
..और न ही उनकी मिट्टी मुझे रास आएगी I
मेरे गाँव ! मैं तुम्हें जीना चाहता हूँ
इससे पहले कि तुम्हारी ओर बढ़ती
शहरों से लिपटी नागफनी
तुम्हारे रहे-सहे अस्तित्व को बींध डाले
मैं तुम्हें सचमुच जीना चाहता हूँ
भरपूर दधिकाँदो के समवेत स्वरों में
हाथी, घोड़ा, पालकी
जै कन्हैयालाल की सारी अनुगूँज
जैसे मेरे कानों में घुल रही है
मेरे भीतर गूलर का एक फूल
जैसे मुखरित हो रहा है
तुम कस लो कलाई, मेरे गाँव !
और मुझे मटकी-फोड़ घोषित करो
लौटा दो मेरा जीवन
मेरी धरती, मेरा आकाश, मेरा मुक्त हास
..मैं तुम्हारे जीवन का भटका हुआ हिस्सा हूँ I
मैं मील का पत्थर हूँ !
मैं मील का पत्थर हूँ
ज़मीन में आधा गड़ा
आधा ज़िन्दा, आधा मुर्दा
चल नहीं सकता
सिर्फ़ देख सकता हूँ
राहगीरों को आते-जाते ।
मैं कैसे चलूँ
सड़क भटक जाए
मैं कैसे दौड़ूँ
चौराहा दिशाएँ भूल जाए
मेरी किस्म्त में गति कहाँ !
मैं दर निगोड़ा हूँ
बस एक जगह
निराश्रित ठूँठे गड़े रहना
मेरी नियति है ।
मील का पत्थर होना
मुझे बहुत भारी पड़ा
लोग सरपट चलते चले गए
चढ़ गए ऊँची-ऊँची मंजिलें
मेरे एक इशारे पर
लेकिन ठहर गया समय
जैसे मर गया मेरे लिए
मेरे मुर्दा गड़े पैरों में
मेरी कोई मंजिल नहीं ।
मैं मील का पत्थर
ऐसे नहीं बना
क्रूर बारूदों ने तोड़ा
अलग कर दिया मुझे
मेरी हमज़मीन से
बेरहम हथौड़े पड़े तन-मन पर
माथे पर इबारत डाल
मुझे गाड़ दिया गया सरे-आम ।
मुझे हर मौसम ने पथराया
ठंडी, गर्मी, बरसात सब ने
दिल बैठ गया
दिमाग सुन्न हो गया
ख़ून जम गया
मैं मील-मील होता गया
सारे दुख-दर्द सहता रहा
मगर मेरे पथराए सिर पर
किसी ने हाथ न रखा
मैं मील का पत्थर हूँ
जहाँ थूक भी देते हैं
लोग-बाग मुझ पर
जहाँ उठा देते हैं टाँग
कुत्ते तक मेरे ऊपर
वहीं मेरे इशारे पर
अपनी राह तय करती निगाहें
मुझे सलाम करती हैं ।
वह कौन-सी निश्छलता है !
संसार में आम के पेड़ बहुत हैं
तो बबूल के भी कम नहीं
या यों कहें
बबूल के पेड़ बहुत हैं
तो आम के भी हैं
ग्रह-नक्षत्रों से भरा आकाश
पराया तो नहीं
पर कितना अपना है
हाथ उठाने पर पता चलता है I
पीड़ा जब सुई बनकर ह्रदय में सालती है
तो पलकें बोझिल हो जाती हैं
आँखों पर स्याह पर्दा छाने लगता है
मन गहराने लगता है
हाथ-पाँव बँध-से जाते हैं
और ज़िन्दगी-जैसे कफ़न ओढ़कर लेट जाती है
हठ करके न उठने के लिए I
कौन होता है तब उस समय पास
कोई तो नहीं
भरे-पूरे संसार में सगे-से-सगा भी नहीं
न अपना, न पराया, न धन-दौलत
न घर-बार, न पद-प्रतिष्ठा
कोई नहीं, कुछ भी नहीं
तन-मन तक उस समय
साथ छोड़े हुए होते हैं I
उस उचाट में इस लोक से
भागने की विचित्र इच्छा होती है
पर ऐसा क्यों होता है
यह पता नहीं होता
भूख-प्यास कुछ नहीं लगती
रोना भी नहीं आता, न कुछ कह पाना
बस बहुत गहरी नींद में
सो जाने की अधूरी कोशिश होती है I
मैंने आम के पेड़ से
एक परी उतरते देखा
साँवले झाँईदार चेहरेवाली परी
घुटने तक अधोवस्त्र
हाथों में मंजरी लिए हुए
वह कौन-सी निश्छलता है
जिसे बाहों में भरकर मैं रोता हूँ
वह देर तक सीने से लगी रही I
फिर एक बियाबान
एक रास्ता, एक पगडण्डी
जिस पर बैलगाड़ी के चक्कों की लकीरें हैं
दूर-दूर इक्की-दुक्की झोपड़ियाँ
बबूल के तमाम काँटेदार बड़े-बड़े झपके पेड़
नदी का ऊबड़-खाबड़ कछार
जहाँ हर साल बाढ़ आती है
उसी में वह कहीं खो गई I
पहले तो मैं उसे इधर-उधर खोजता हूँ
आवाजें लगता हूँ
पर जब वह नहीं मिलती
तो बबूल की टहनियाँ नोचने लगता हूँ
काँटों को कोसने लगता हूँ
बड़बड़ाने लगता हूँ
पागलों-जैसी हरकतें करने लगता हूँ
तभी बबूल की कुछ टहनियाँ मेरी ओर बढ़ी
मुझे पकड़कर ऊपर हवा में उठा लिया
आकाश की ऊँचाई तक ले गई
ग्रह-नक्षत्र हँसते रहे
फिर फटकारते हुए नीचे पटक दीया -
मरना है तो मरो
पर इस तरह चीखो-चिल्लाओ नहीं
तुन्हें पता नहीं, तुम्हारी इन हरकतों से
वातावरण भंग होता है I
बहुत हुआ
मूद्दों की बात मत करो
बहुत हुआ I
अब मत उछालो हवा में
मुद्दों के संखिया भरे हरे-हरे गोलगप्पे
हम इन्हें आँख उठा-उठाकर देखते रहे
मुँह बाते रहे, दौड़ते रहे, खाते रहे, मरते रहे
पर अब बहुत हुआ I
तुम्हारी सियासत की दूकान पर बेइंतहा
मजमे का लगे रहना
तुम्हारे वोटों की मुरादाबादी तिजोरी का भरते रहना
तुम्हारे मुद्दों के शो-रूम का रह-रहकर दमकते रहना
बहुत हुआ, बहुत हुआ, बहुत हुआ I
एक अरसा हुआ मुद्दों का चलन
घावों पर मरहम-पट्टी का दिखावा
बहुत हुआ I
तुम पिटते हो ढिंढोरा देश की अखण्डता का
और घोंपते हो देश के अंग-अंग में ज़हर-बुझे भाले
तुम करते हो मुनादी स्थायी सरकार की
और लंगड़ी मार-मारकर गिराते हो सरकारें
तुम डुगडुगी बजाते हो राममंदिर की
और ठहाका मरते हो सोने की लंका में
तुम दुहाई देते हो धर्म-निरपेक्षता की
और तोड़ते-तुड़वाते हो अम्बेडकर की मूर्ति
गांधी की समाधि
निर्वस्त्र कर गाँव भर में घुमाते हो बुधुआ की औरत
ऊपर से पंडिताऊ हवाला देते हो वेद-पुराण का
तुलसी-चाणक्य का
बरकरार रखना चाहते हो बाबरी मिजाज़ कदम-कदम पर
धरम की आड़ में अहं का कृपाण चमकाना चाहते हो
लोकसभा के बीचोबीच
तुम चिल्लाते हो डंके की चोट पर देश बचाओ
ग़रीबी हटाओ /राष्ट्रभाषा /समाजवाद
साक्षरता /रोज़गार /आरक्षण
मगर करते हो मूँछाबोर देश-भक्षण
अब मत गर्माओ मुद्दों का बाज़ार
ओ मुद्देबाजो ! ओ आदमखोरो !
बहुत हुआ, बहुत हुआ, बहुत हुआ I
लोकतन्त्र के झण्डाबरदार बिजूको,
अब बहुत हुआ I
तुम कब तक भेड़-खाल में छिपकर पैदा होते रहोगे
क्या तुन्हारी ठग-विद्या हमेशा कामयाब रहेगी
अन हम मुहर मारकर निठल्ले बैठनेवाले नहीं
अब सरे बाज़ार तुम्हारी दोग़ली खाल उतारी जाएगी
अब तुम्हारी दिग्विजय का कला घोड़ा गाहे-बेगाहे
हर चौराहे पर रोका जाएगा
अब केवल तुम्हारी पगड़ी का
अब केवल तुम्हारी टोपी का
अब केवल तुम्हारी दाढ़ी का
अब केवल तुम्हारी क्लीन फ़ेस का
जादू चलनेवाला नहीं
बहुत हुआ, बहुत हुआ, बहुत हुआ I
पहचानो मैं कौन हूँ !
कभी जाड़े की धूप
कभी बरसाती घाम
कभी दुपहरिया गर्मी की होती हूँ
रहती हूँ वैसे
पूसी चाँदनी के भेष में I
आँचल में दूध नहीं
डिब्बे का दूध है
आँखों में पानी नहीं
पूसी बरसात है
स्मित में सुबह नहीं
ज़हर छहर जाता है
हाथों में कोंपल नहीं
शूलों की चुभन है
वक्ष के घरौंदे में
फूल नहीं, कली नहीं, मौसम नहीं
किसी मूरत की गढ़न नहीं
पत्थर-ही-पत्थर है I
पाँव तले रहते
चौराहों के पाँवड़े
रहती हूँ नए
कन्हइयों के गाँव रे
बुद्धि-गोरू-सी
नंगेपन में आसक्ति है
रुपहली-जगमगी
दुनिया से भक्ति है I
पैरों में रुनझुन नहीं
मेंहदी की विहँस नहीं
फिर भी तो बहुत-से
पीछे लगे रहते हैं
घूँघट-आली नहीं हूँ
नकाबवाली नहीं हूँ
क्रीम से, पाउडर से, सेंट से
कजरारी धार से
लिपिस्टिक की गाढ़ से
अभिनव संस्कार से
छाती के दाग़ छिपा लेती हूँ
चेहरे पर रंग चढ़ा लेती हूँ I
कठमस्त आँखों से
चाँद नहीं दिखता
अमावस के तारे ही
चुनती-बदलती हूँ
वैसे तो अधरों का
डिनर बहुत भाता है
फिर भी कोई स्वाद
नहीं टिकता
नाचते हैं उंगलियों पर
बहुतेरे लीलाकलम
इकहरे सुगन्ध से
मन नहीं भरता
कोई दिल तक
नहीं उतरता I
बच्चों की झंझट की
होती कम चाह मुझे
रंग उतर जाता है
साख बिगड़ जाती है
होते जो मुझे नहीं
आया को रोते-निहारते हैं
मेरे हसबैंड रात एक बजे
झूमते-झामते घर पहुँचते हैं
उनके मुखड़े पर
काजल के सब चीन्हे
लाली के सब धब्बे
देखती हूँ अच्छी तरह
पूछती नहीं I
शिव के इकार में
सिंदूरी भार में
कितना कुछ बची हूँ
कितना चुक गई हूँ
इसका एहसास यही-
कोकीनी राहों में
गर्त-गर्त हो-होकर
चढ़ती हूँ डोली पर
गन्ने की खोई-सी
आगे फिर पेरते हैं
सेंठा-सा सूखा मन
लौट वही अँधियारे
फिर उन्हीं मुखौटों से
फिर उन्हीं गलियारों में I
बेहया की पौध हुई
चलनी-सी प्यास मेरी
बुझा नहीं पाते जिसे
अपनों के फ़ासले
रिश्ते-नातों के
डीह पड़े मकबरे
बाहरी उजालों में
जो कुछ भी हाथ लगा
हाँफ रही उसे लिए
भाग रही शहर-शहर I
भोगे हुए सच
मुझे बेगाने लगते हैं
बीते की पाटी पर
किसी भी पल के
कहीं कोई चिह्न नहीं रुक पाते
फिर भी निचोड़ती हूँ
रीते निश्शेष को
कटी पतंग की तरह
ओर-छोर विहीन
बे-सिर-पैर की ज़िंदगी
बेहद पसंद मुझे I
मैं पार्वती नहीं
मरती रहूँ जनम-जनम
एक बौरहे पर
सोने की लंका में
बाट जोहूँ सीता नहीं
संख्या में बँध जाऊँ
सम्मुख समाज के
ऐसी द्रोपदी नहीं
उर्वशी नहीं
जो एक पुरूरवा के लिए
इन्द्रपुरी छोड़ दूँ
छल्ले की क्या बिसात
कई दुश्यन्त हैं
मेरी निगाहों में I
मैं विकृति हूँ
सिनेमा-हॉल की
बहुरंगी रूपसी
चौपाटी-ढाल की
घटती हूँ छद्म-सी
तिलस्म-सी, ऐय्यारी-सी
पावों में टूट गए
नागफनी काँटे-सी
कभी-कभी पेड़ पर
छाई अमरबेल-सी
कभी-कभी मुँहबोली
लिपट गई घुँघची-सी
और कभी राह चले
सिगरेटी धुआँ-सी
रत्ती भर दर्द को
क्षण का भी टुकड़ा नहीं
सुख की दहलीज़ पर
मनचाही यायावरी I
मैं नागरी राधा बताती हूँ
अपने हर चहेते से
पर सखियों से तनिक भी
इज़हार नहीं करती हूँ
हर छलिया कृष्ण का
कुछ ही समय भोगती हूँ
किसी के छलावे की
आह नहीं भरती हूँ I
वार-वनिता नहीं हूँ
पूरी तरह घरेलू भी नहीं
पर बाज़ार हूँ
अब तो बताओ
मैं कितनी साकार हूँ
कितनी मौलिक हूँ
कितनी नवीन हूँ ?
क्या नहीं जानते
पहचानते नहीं
मैं कितनी सर्वमान्य हूँ
नवजन-आकर्ष की
विकसित आन-बान हूँ !
आखिर क्यों नहीं बोलते
क्या अब भी अजनबी हूँ
सोच क्या रहे हो -
मैं पंचवटी की छलना हूँ ?
अपने ही अस्तित्व की विरोधनी
युग-युगीन परित: पोषित नारी-अतिमा ?
नहीं, नहीं --
देखो मेरी कितनी लंबी नाक है
रोज़-बरोज़ बढ़ रही है
मुझे पहचानने के लिए भी
नव दृष्टि चाहिए
सब के बस की नहीं
नवीनों की प्यारी हूँ
ओवर-सूटवालों की
हिप्पी हेयरवालों की
डिस्को-बिअर वालों की
कैबरे मतवालों की
तुम से तो बाज आई
ओ भारत-भोंदू,
बाय ! बाय !
काली नदी के उस पार
जो मैं खोजता रहा अपने आकाश का घनसार-पाटल
अपनी धरती का कँवल-पंख
तो बस मैं खोजता ही रहा
सबकुछ उड़ाए लिए जाती हवाओं के बहकावे में
एकटक आँखों में सूना आसमान साधे
कटी नाभिवाले अधमरे जवान मृग की तरह I
काले बदलों ने चाँद ढक लिया
पहले अधाधुंध अंधड़
दसों दिशाएँ मिलकर एक हो गई
फिर मूसलाधार वर्षा जिसने रात-दिन एक कर दिया
जिसमें भीगता-भागता, गिरता-पड़ता
उखड़े-पुखड़े पेड़-पौधों पर आँसू बहता
मैं बस नापता रहा मृत्यु-पथ
कहीं कोई मददगार न मिला I
एक-एक कर सारे रास्ते आँखें मूँदने लगे
न मोड़, न चौराहे, न कोई अंत
काँटों, रोड़ों, कत्तलों से लहूलुहान
मेरे धड़ाम से ढेर हुए पत्थर हो गए बोझ को छोड़
समय चलता चला गया दूर बहुत दूर
न तो उसने मुड़कर देखा
न रुका
न मेरी गुहार सुनी I
सुना है किसी दूर देश में
मेरे मन का हरसिंगार खिलता है
अपने रंग-सगंध के साथ
मैं वहाँ जाना चाहता हूँ
बड़ा अनोखा मौसम है उस देश का
मैं निहारना चाहता हूँ उस देश का आकाश
देखना चाहता हूँ उस देश की धरती
मैं ह्रदय से छूना चाहता हूँ
उस पुष्पवृक्ष का तना, डालें, पत्तियाँ और मन
जिसके बिना मैं यहाँ पत्थर-सा रह गया हूँ I
मेरे और उस देश के बीच
एक नदी बहती है
काली नदी
जो हर साँझ, हर सुबह
वासंती हो जाती है
जन्म लेने लगती है उसमे सुनहरी तरंगें
और वह नदी हँस उठती है
बाकी समय उसकी स्याह सूरत से
बहुत डर लगता है
साहस नहीं होता उसके तट तक जाने का I
पर अब साँझ को
या सुबह को क्या देखना
अब क्या देखना घड़ी की सुइयाँ बार-बार
मैंने कर्म के देवता को क़रीब से जाना है
भाग्य के देवता को बहुत परखा है
अब तो हर समय साँझ है
हर समय सुबह है मेरे लिए
मैं इस झूठी धरती
इस झूठे आकाश
और इन झूठी हवाओं के बहकावे में
और अधिक नहीं ठहरना चाहता I
साबुत बदलाव के लिए
धर्म और मज़हब से
कहीं बहुत ऊपर
आज़ाद और आबाद
होने की चाहत ने
उठाना चाहा अपना सिर
ज़िंदादिल करना चाहा
अपना सीना
मगर चल गई
मज़हब की तलवार
हो गए उसके टुकड़े
फिर टुकड़े से
टुकड़ा पैदा किया
कुछ वैसी ही तलवार ने
अब फिर
कुछ वैसी ही तलवार
टेस्ट-ट्यूब टुकड़ों के
गर्भाधान में कगी है I
क्या आज़ाद
हिन्दुस्तान की संसद में
अंग्रेज़ों से अधिक
सफ़ेद अंग्रेज़ नहीं ?
पकिस्तान में
गैर मज़हबी औलिया नहीं ?
बांग्लादेश में
बागी और तानाशाह नहीं ?
क्या खालिस्तान
जम्मू-कश्मीर के नाम
खौफ़नाक सरगर्मी बुनती
शराफ़त की नज़रें
सिक्ख-मुस्लिम घरों की
बहू बेटियों पर नहीं ?
जो गुलामी में
कद्दावर थे
वे ही आज़ादी में भी क्यों ?
जो हिन्दुस्तान में
बदहाल थे
वे ही पाकिस्तान में भी क्यों ?
वे ही बंगलादेश में भी क्यों ?
आख़िर क्यों ?
चश्मा बदलने से
बदलती नहीं निगाह
धूप-छाँह के नज़ारे
बदलाव नहीं होते
झोपड़पट्टियों में बच्चे
जहाँ मरते भूख से
पाँच-सितारा रौनक को
रौनक नहीं कहते
सोती हो जहाँ भीड़
फुटपाथ पर नंगी
सीमेण्ट के जंगल को
बँबीठा ही कहेंगे I
हथकड़ी भी टूटी
बेड़ी भी टूटी
कैदख़ाना भी टूटा
कैदी भी छूटे
ख़ुदाई भी हुई
जुदाई भी हुई
वतन भी बँटा
सरहद भी खिंची
मगर हालाSत ?
न बदले
तो न बदले !
भेड़ियों की रहनुमाई
उनकी पाक-साफ़ डकारें
उनके गोलम-गोल हाज़में
आदम भीड़ को
आगे कहाँ बढ़ाते हैं
वे तो सब्ज़बाग दिखाते हुए
बड़ी सफ़ाई से
लंगड़ी मारकर
उसे वहीं-कि-वहीं
हज़म कर जाते हैं
जहाँ वह खड़ी होती है
वह तो तक़दीर होती है
कभी उसकी मौत
दो क़दम आगे भी होती है I
आदमी पहुँचा है
कहाँ-से-कहाँ
तो अपने बल-बूते पहुँचा है
आदमियत के
बल-बूते पहुँचा है
जो हाथ उठाकर
कहती रही है
मदद की बात मत करो
पहले अपनी मदद करो
डरो नहीं बिल्कुल
शैतान की आँत में
ऐसे-वैसे नहीं
पूरा ज़हर बन मरो I
आया था कभी समय
तख़्तोताज के मुक़ाबले
रहनुमाई का
कभी का आया है समय
रहनुमाई के मुक़ाबले
आम आदमी का
उसकी भीड़ का
शाही पंजों से
अधिक खूँख़ार
हो चुके रहनुमाई मुखौटे
तो क्या हुआ --
भीतर उतरो
अपने-अपने भीतर
आदमी
बालिग होना चाहिए
उसकी भीड़ का
हर हिस्सा
बालिग होना चाहिए I
असम के
जम्मू-कश्मीर के नुस्ख़े
रहनुमाई नुस्ख़े हैं
नए किस्म के
कुछ और नुस्ख़े
हरे-भरे हर्फ़ों में
सब्ज़ाज़ार के इश्तिहार !
हालात
बदलने के नुस्ख़े
तो सिर्फ़
आम आदमी के पास हैं
उसकी सोच में
उसकी मेहनत-मशक्क़त में
आदमखोरों के ख़िलाफ़
उसकी अपनी कुव्वत में I
शाही नुस्ख़े
कब के
इतिहास बन चुके
रहनुमाई नुस्खों की
पोल भी
अब खुलने लगी है
साबुत बदलाव के लिए I
कोई दरख़्त कम नहीं
साबुत बदलाव के लिए
हर दरख़्त जंगल है
साबुत बदलाव के लिए
शर्त सिर्फ़ इतनी है --
खून बहे जंगल का
हरे कटे दरख़्त से
हर दरख़्त अपने में
खून हो महसूस करे
साबुत बदलाव के लिए I
खुला अपहार
हे मेरे देश !
तुम्हारे गर्द-गुबार भरे बिखरे-बिखरे बाल
धुँधली, निस्तेज, उदास-उदास आँखें
झुर्रीदार, पिचके-पिचके गाल तब्दील किए जा रहे हैं
इमामों-मठाधीशों के कढे-सवरें बालों
तेली के बैल की बड़ी-ढकी आँखों
उधार के भरे-उजले यूरोपियन गालों में
ऐसा करके तुम्हारा गौरव बढ़ाया जा रहा है
वे कहते है I
हे मेरे देश !
तुम्हारी टूक-टूक होती घायल छाती
बेहिसाब बोझ से झुकी नंगी पीठ
भुनाई जा रही हैं नव नगद न तेरह उधार के रास्ते
जिससे धन्नासेठों के आसमान चढ़ते पेट
भावी भारत-रत्नों की पीठें उतान-वितान हो रहे हैं
ऐसा करके तुम्हारी साख बढ़ाई जा रही है
वे कहते हैं I
हे मेरे देश !
काटकर तुम्हारी ज़बान प्रतिष्ठित कर दी गई है राजमन्दिर में
राजपुजारी ज़बरदस्ती पूजा में तुले हैं
जबकि राजभवन के पिछवाड़े से लपलपाती
एक दूसरी ज़बान तेल लगाकर छोड़ दी गई है
समूचे राजनगर को चाटने केलिए
ऐसा करके तुम्हें अंतर-राष्ट्रीय ऊँचाई दी जा रही है
वे कहते हैं I
हे मेरे अपने देश !
वे कुछ भी कहें, पर खुलेआम --
क्या तुम्हारा चेहरा दागी नहीं किया जा रहा !
क्या तुम्हारा यथार्थ अँधेरे में नहीं घसीटा जा रहा !
क्या तुम्हारे विचारों की बोलती बंद नहीं की जा रही !
तप रही दोपहरी बीच
मेरी घिग्गी बँधी है
घुट-घुटकर मर रहा हूँ I
जैसे कोई आत्म-हत्यारा
नदी में कूदकर
फिर किनारा पाने के लिए
तड़फड़ा रहा हो !
जैसे कोई ख़ुदकश
फाँसी का फंदा लगाकर
फिर पैरों के आधार के लिए
छटपटा रहा हो !
मैं भौतिकता की
तप रही दोपहरी बीच
अपनी आत्महंता उठा-पटक में
झुलस रहा हूँ I
मेरी चढ़ती उसाँस
लगातार टूट रही --
एक रत्ती साँझ के लिए
एक रत्ती चाँद के लिए
एक रत्ती भोर के लिए I
दूसरा चेहरा
धरती
नारी
प्रकृति
मेरी हवस का
सबसे ज़्यादा शिकार हुईं I
आकाश
पर्वत
समुद्र
मैंने किसी को
नहीं छोड़ा I
अंतरिक्ष
चाँद-सितारे
ग्रह-उपग्रह
सब मेरी पहुँच के
दायरे में हैं I
मैं निचोड़ता हूँ
ब्रह्माण्ड
अपने सुख के लिए I
अंधे-मरकहे
बैल की
सींग-जैसी
अपनी महत्त्वाकांक्षा के
तपते-भुनते
तंग चौबारे से
मैं अपने
भरी-भरकम
आणविक शब्द
दुनिया के
कानों पर
विस्फोट करता हूँ I
मैं कभी
धर्म
कभी आपद्धर्म
और कभी
धर्मयुद्ध के
जैव-रासायनिक अस्त्र
फेकता हूँ
उनकी सोच की
मुँडेरों पर
जो मेरे द्वारा
गढ़ी गई परिभाषाएँ
लाँघने की
जुर्अत करते हैं I
राज
उसकी गद्दी
समाज
उसके चबूतरे
मैंने बनाए हैं
कल-बल-छल के
तंबू-कनात
मैंने खड़े किए हैं
मंदिर-मस्जिद के
छतखम्भ
मैंने तराशे हैं
मज़बूत गाड़े हैं I
प्रतिबद्ध देवता
उनकी सत्ता
शैतान-मसान
उनका भय
सब को
अस्तित्व
मैंने दिया है
सब पर
सत्य-असत्य की
कलई
मैंने चढ़ाई है I
धरती माँ है
आसमान पिता है
मुझे पता है
पर मेरी निगाह
आसमान पर
अच्छी तरह है
और धरती
मेरे पैरों के
नीचे है
उसकी कोख पर
उसकी गोद पर
गोद की
किलकारियों पर
मेरे तेवर
निगरानी रखते हैं
सब को
मेरे हिसाब से
बड़ा होना है
जो बड़े हैं
मेरे हिसाब से
हँसना-रोना है
या मेरी
त्योरियों के कोप से
नेपथ्य में
दफ़न होना है I
जब मुझे
पुरुषार्थ कोई
दूर नज़र आता है
बाधाएँ बढ़-चढ़कर
लाग-डाँट करती हैं
तब मेरी
आँखों में
ख़ून उतर आता है
मुख-विवर
विषदंत काढ़
फैल-फैल जाता है
हाथ-पैर
बहुगुने हो
हिंसक हो जाते हैं
तब इंसान क्या
उसकी दो पल की
जान क्या
सारा आचार-विचार
सारी इंसानियत
मेरे लिए
महज़ मूली-गाजर
हो जाती है
मैं उसे
बथुए की तरह
एक झटके में
उखाड़ फेंकता हूँ I
मैं बहुत सभ्य
ऊपर-ऊपर हूँ
भीतर नाख़ून बड़े
दाँत बड़े
आँत बड़ी
पशु-जैसे बाल बड़े
मन के
अँधेरे में
काले पहाड़ बड़े
अंधी गुफाएँ हैं
जंगल हैं
विकट बड़े
भीतर-ही-भीतर
मैं नग्न
विकल रीछ-सा
बाहर से
दिखने में
मर्द की औलाद हूँ I
मैं समय के
घोड़े पर
चाबुक बरसाता हूँ
दौड़ाता हूँ
अपनी मनमानी राह पर
गाँव पड़े
शहर पड़े
सुख-चैन
नींद पड़े
दर्द-आह
चीख पड़े
बेकाबू टाप
कहाँ रुकते हैं
बनते-बिगड़ते हैं
राज व समाज
मेरे कदमों के साथ
मगर ख़ून के
निशान छोड़
आगे बढ़ जाता हूँ I
आते उग बाल
जब सुअर के
मेरी आँखों में
पिता-पुत्र
भ्राता-पति
कोई नहीं होता मैं
अपने-पराए का
भेद नहीं होता कुछ
आते हैं मौके तो
ख़ुद को
खा जाता हूँ I
न इस पार का
न उस पार का
लोक-परलोक
मैं कहीं का
कभी होता नहीं
न राजा का
न प्रजा का
न घर का
न बनिज का
हर घेरे-बसेरे में
मतलब का यार हूँ I
झुकते संबंध सब
आकर
मेरी शर्तों पर
बाकी को
झाड़ू लगा
कूड़े की राह
दिखा देता हूँ
सब की आशा
सब की निष्ठा
सब की सेवा
नाम-दाम वाली
ऊँची बोली के
झटपट बाज़ार में
बेच-बाचकर
मैं अपने
मन के नाचघर में
अहं की
नर्तकी के आगे
घोर निजता का
मदप्याला थामे
बस झूमता
रहता हूँ
झूमता रहता हूँ I
प्रश्न यह नहीं है
कि मैं
किस देश का हूँ
किस धर्म का हूँ
किस जाति का हूँ
प्रश्न यह है
कि इस
भीड़-भाड़ में
मेरी पक्की
पहचान क्या है
और यह पूरी भीड़
जो मेरी
धमा-चौकड़ी से
एड़ी से चोटी तक
लहू-लुहान है
मेरी पहचान
मेरी लुप्तमुद्रा की
पक्की पहचान
ज़रा मैं भी तो सुनूँ
बताती क्या है I
"नीच ! नराधम !
दुरात्मा !"
क्या कहा ?
अरे भाई,
मैं आदमी नहीं हूँ
मैं कोई
पापी-दुराचारी नहीं
कोई दुष्कर्म
मैंने नहीं किया
दुनिया का
कोई अधर्म-अपराध
मेरे नाम
नहीं लिखा जा सकता
मैं पूरी तरह
बेदाग़ हूँ I
मैं न आदमी हूँ
न ही नर-कापालिक
न ही मैं
नर-पिशाच हूँ
मैं तो सिर्फ
चेहरा हूँ, चेहरा
वह भी गायब चेहरा
जो अक्सर
दिखाई नहीं देता
लेकिन होता है
सभ्य आदमी के
पास होता है
उसका चेहरा
उसका दूसरा चेहरा I
नृत्यताल
भूगोल लगा
घूमने अब
तुम्हारे ही क़दमों के साथ
मगर इतिहास ?
उसकी तो हमेशा से
अंगारनुमा आँखें तुम पर
नई पीढ़ी भी
दिखाती नए-नए तेवर
सावधा S न !
शंबूक / रामबाण
मंगल पाण्डेय / बंदूक की गोली
एकलव्य / अंगुष्ठ-दक्षिणा
नमक-सत्याग्रह / कारागाह
तुहारे जेल की दोपहरी दीवार
नायक-अम्बेडकर-से जल उठे मशाल
उठा दलित का नाम
लिंबाराम, लिंबाराम,
पुरस्का S र !
फिर भी
पत्थर-पर-पत्थर
नीचे दबी दूब-घास अब भी
मण्डेला / गोरी सरकार अब भी
नाम तुम्हारे अपमान-निंदा के रटंता
नए याज्ञवल्क्य-मनु
तुलसी-कौटिल्य अब भी
कैक्टसी पंजे कल-बल-छल सहित
संघर्ष ! संघर्ष !
लहूलुहान शिरोच्छेदन
बूँद-बूँद लहू आकाश
लहू-लहू अँगूठा-दान
लहू-लहू दूब-घास
तनिक हरि हुई घास
त्यों ही यों नेत्र-आग ?
दलन-दमन चक्रवात ?
ओ नीलकंठ, हाथ-पैर रुद्रकर
नृत्यताल ! नृत्यताल !
रक्तदीप
वह रक्तदीप जलता आया
सारी उम्र
अँधेरों से जूझता
कभी झूठ तो कभी
झूठे सच से घिरा
निपट अकेला
भीड़-भाड़ भरी बस्ती में I
वह मंदिर का
धातु का बना
देवत्व उजागर करता
पवित्र घृतदीप नहीं I
न तेल, न बाती, न दीवट
कच्ची बेरंग मिट्टी का
छोटा-सा रक्तदीप
जो माटी के घरौंदे में
झुक-झुक जाता
लहर सँभालता
तिल-तिल संघर्ष करता
बस जलता आया I
जिन हाथों ने बाती दी
स्नेह डाला
ज्योति जगाई
हथेली से ओट किया
उनके साए उठ गए
जो झूमती लौ के साथ
कुछ क्षण मुस्कुराए
छोड़कर जाने कहाँ चले गए
काठ का जर्जर दीवट
दो दिन टिका, ढह गया
औचक गिरा ज़मीन पर
तेल-बाती सब बिखर गए
पर जलता आया
वह जीवट का धनी रक्तदीप I
अपना रक्त पीता
वह हठी रक्तदीप
रोशनी की भाँग खाए
बस जलता आया I
सितारे हँसते
चाँद हँसता
जुगनू कानों तक हँस-हँस जाते
कभी-कभी अभागेपन की
मार से आहत
संज्ञाहीन होकर
वह स्वयं पागल हँसी हँसता
पर जलता आया, जलता आया
जलता ही आया I
वह रक्दीप
छलनाओं के आगे आँख मूँदे
निरन्तर जलता आया
अबोध विश्वास के साथ
आलोक-पथ के लिए
तत्वज्ञान के लिए
संसार-सार के लिए
और छलनाएँ ठगी-ठगी देखती रहीं
उसे जलते हुए I
पथवृक्ष
लट्टू नचाकर अलग हुई
हवा में लहर खाती डोर-सा
मैं काँप रहा हूँ
और नाच-नाचकर निढाल हुए
लट्टू की तरह
मैं ही धरती पर पसरा हूँ
तुम जा सकते हो, बँधु !
क्योंकि मैं हाथ नहीं हूँ I
सौगन्ध ! भरी रातों में
भर-भर आए उन होठों की
जिन पर झुके गाढ़-मादक चुबनों में
दुनिया के सारे रस, गंध, वैभव, गौरव
एक साथ समाहित हो जाते
मैंने कब चाहा
कि प्यार, दोस्ती, साथ
मुझसे दूर चले जाएँ
किन्तु भरी भीड़ में मैं अकेला हूँ
और मेरी मुट्ठी खाली है I
सघन-कँटीली झाड़ियों में भरज़ोर
फेंके गए कच्चे ढेले की तरह
बिन घाव, बिन खून, बिन आँसू
मैं भीतर तक छिल रहा हूँ
क्योंकि मैं हाथ नहीं हूँ I
हाथ मिलाने का साथ
हँसने-हँसाने का साथ
दुखों का बोझ हिल-मिल उठाने का साथ
या फिर गर्म बाँहों के घेरे में
चढ़ती साँसों के परस्पर संजीव का साथ
जीवन इन सब का होता है
इन सब का हाथ गहकर चलता है
किन्तु एक झटके में तोड़
अपनी रौ में नोच-नोचकर
फेंकते जाने के खेल में कुशल हाथ
कितना निष्ठुरता से
तार-तार करके चले गए
और मैं सूनी राह पर
उखड़ी पंखुड़ियों की तरह बिखरा हूँ
जीवन की इस विडम्बना पर
कि कोई साथ अंततः ठहरता नहीं
एक और हस्ताक्षर करके
तुम जा सकते हो, बँधु !
क्योंकि मैं हाथ नहीं हूँ I
मैं हाथ नहीं हूँ, बँधु !
पथ हूँ, पैर हूँ, दृष्टि हूँ
पर डग नहीं हूँ
गति नहीं हूँ
मेरा दर्द हवा की उन काँपती हुई
पागल तरंगों से क्यों नहीं पूछते
जिसमें फूल की गंध विदद्यमान रह गई है
हर बार अपना सिर पटकती उन्हीं वायु-तरंगों-सा
टूटकर शेष रह गया हूँ मैं I
समय के घोड़े पर सवार
सारे प्यार, सारी दोस्ती, सारे साथ
मैं ह्रदय-पथवृक्ष की डाल-डाल
झकझोर कर भाग खड़े हुए
और संवेदनाओं की मेरी जड़ें
इतनी जड़ हो गई हैं
कि एक क़दम भी नहीं चल सकतीं I
इसलिए जाओ , बँधु ! जाओ
मैं अभिशप्त हूँ
तुम्हें भी जाते हुए देखने के लिए
क्योंकि मैं हाथ नहीं हूँ I
एलिसी पैलेस से लौटे राष्ट्राध्यक्ष
मैं एक अछूत हूँ
अछूत राष्ट्रपति के रूप में भी
मेरी फ्रांस-यात्रा ऐतिहासिक रही
वहाँ के लोग
जाति-व्यवस्था से परिचित नहीं
पर यहाँ के लोगों ने
जानकारी देने में कोई कसर नहीं छोड़ी
नहीं तो मेरा अछूतपन इस तरह
कहाँ उजागर हो पाता !
वहाँ के अख़बारों ने वही लिखा
जो भारतीय अख़बार
पिछले तीन सालों से लिखते रहे
मुझे ऐसी टिप्पणियों से
फ़र्क़ नहीं पड़ता
मैं इनका आदी हो चुका हूँ
अब तो फ्रांसवाले भी जान गए
कि भारत में अस्पृश्यता
राष्ट्रपति-भवन तक
पीछा नहीं छोड़ती I
मुझे शंबूकों-एकलव्यों-जैसे
अपने चहरे-मोहरे का पता है
मुझे अच्छी तरह पता है
मेरा देश अछूतपन के बिना
मुझे सटीक पहचान नहीं देता
मैं अध्यापन, पत्रकारिता, राजनय
कुलाचार्यत्व के कर्मों से
जीवन भर जुड़ा रहकर भी
अछूत-का-अछूत ही रहा
मैं इंग्लैण्ड, आस्ट्रेलिया, वियतनाम
चीन, तुर्की, थाइलैण्ड
और जहाँ कहीं भी गया
अछूतपन से मेरा पिण्ड कहाँ छूटा I
व्यवस्था की आड़ में
राज, समाज, धर्म को खड़ाकर
मेरे जीवन को बाँधे रखने की
अनेक नागपाश नीतियाँ
कब नहीं प्रायोजित की गईं
जिन्हें अपने जीवन से बार-बार मेटकर भी
मैं अछूतपन से कब उबर पाया
शिक्षा-दीक्षा, धन-धाम, पद-प्रतिष्ठा
किसी से भी मेरा कितना उद्धार हो सका
कोई मुझे भीतर तक छूकर
देख सके तो देखे
मैं इस देश का
सबसे बड़ा अछूत हूँ I
मैं एक अछूत हूँ
मुझ-जैसे अछूतों का यह हाल है
तो उन अछूतों का क्या होता होगा
जो अछूतपन के चक्रव्यूह में
चारों ओर से घिरे हैं
जिनके खून-पसीने का रंग
यहाँ सबसे सस्ता है
जिनके बच्चों के गले में
पैदा होते ही
अछूत के नाम का पट्टा
डाल दिया जाता है
अपना मतलब गाँठने के लिए I
मैं एक अछूत हूँ
मैं दुनिया से नहीं डरता
दुनिया के बड़े-से-बड़े
झूठ से नहीं डरता
ज्ञान, संघर्ष, विवेक सब मुझसे
बराबर हाथ मिलाते हैं
पर मैं इस देश को
अपने ही देश को
छूने से डरता हूँ
मेरे निकट मत आओ
मेरे पास मत बैठो
मुझे छूओ मत
मुझे छूने भर से पाप लगता है
मेरा छूआ
अन्न, जल, भूमि सब कुछ
अपवित्र हो जाता है
अब तो मैं घर-बाहर, देश-विदेश
हर कहीं अछूत हूँ I
यह क्या हो गया है !
यह हमारी ज़बान को क्या हो गया है
कि इस पर से सजी-सँवरी धूप का विश्वास उठ रहा है
इससे सोंधी मिट्टी की आशा टूट रही है
इस पर नक्षत्र चढ़ते कदम भरोसा नहीं करते
इससे नई निगाहों को आगे राह नहीं दिखती I
यह हमारी ज़बान को क्या हो गया है
कि इसके रहते एक सफ़ेद मुँहचढ़ी ज़बान
देश की अलिजिहा तक का रंग
सफ़ेद डाइ की तरह बदल रही है
वह शब्दों के तैलीय तरण-ताल में नहाकर
गावों तक आधुनिकता की कुलाँचे मार रही है
जगह-जगह भूमण्डलीकरण के कैम्प लगाकर
सब की नसों में कोकीन डाल रही है
और एक अरब लोगों की चेतना कोम्-आ में पहुँचाकर
उसके खून-पसीने की सारी रंगत दुह रही है I
यह हमारी ज़बान को क्या हो गया है
कि इसके ऊपर एक तेज़ी से फ़ैलानेवाली बहुत महीन
असाध्य, परजीवी पर्त उग आई है
जो दिनोंदिन और ढीठ होती जा रही है I
सिर पर मंडरा रही है
आँखों में धूल झोंक रही है
कानों में कौड़ी डाल रही है
होंठों पे थिरक रही है
छाती पर मूँग दल रही है
जो हाथों को धोखे से बाँध रही है
पैरों पर कुल्हाड़ी चला रही है
और जो विषकन्या की तरह
हमारे देश के साथ अपघात कर रही है I
यह हमारी ज़बान को क्या हो गया है
कि केवल पद्राह वर्षों का झाँसा देनेवाली
जैसे अब घर-बैठे बैठने पर तुल गई है
वह आज भी हमारी जीभ पर
षड्यन्त्र का कच्चा जमींकंद पीस रही है
हमारी सारी सोच-समझ हलक़ के गर्त में ढकेल
ख़ुद बाहर बेलगाम हो रही है
जो हमारे मन की नहीं कहती
हमारे मुख को नहीं खोलती
हमारे चेहरे की नहीं लगती
और जो आकाशबेल की तरह
हमारे देश के मानासवृक्ष पर फैलती जा रही है I
यह हमारी ज़बान को क्या हो गया है
कि इसे सभी राजनगर हर साल एक बार
अपनी कमर झुकाकर प्रणाम करते है
स्तुति का आयोजन करते हैं
गले में वचन-मालाएँ लाद देते हैं
कुछ दिनों के तर्पण से कितना तृप्त करते हैं
फिर पूरे साल यह पिछलग्गू बनी दौड़ती फिरती है
राजमहिषी का पद छोड़ चाकरी करती है
और जो दूसरे सिरचढ़ी है, जिसकी तूती बोलती है
देश की बोलती बंद करने का दहशत फैलाती है I
यह हमारी ज़बान को क्या हो गया है
जो रूपवान-गुणवती भिखारिन की तरह
गली-कूचे में धक्के खा रही है
हर कहीं बे-आबरू हो रही है
हर मोड़ पर आंसू बहा रही है
जिसे देख पालतू कुत्ते भौंकते हैं
आवारा दौड़ा-दौड़कर नोचते हैं
आख़िर, यह सब क्या हो गया है
यह हमारी ज़बान को क्या हो गया है I
शंबूक की खोपड़ी
पंडितों की दृष्टि में शंबूक का सिर
मेघनाद के सिर-सा नहीं था
न ही कुम्भकर्ण के सिर-सा
न ही रावण के सिर-सा
पंडितों ने रामकथा-वटवृक्ष के नीचे
रावणों के सिरों को
श्रध्दा-सम्मान सहित दफ़नाया
पर शंबूक की खोपड़ी को
नीच बता उसी वटवृक्ष पर टांग दिया I
तपोवृद्ध ऋषि सत्याग्रही
कोपभाजन पंडितों का बन गया I
संवेदना सिर्फ़ रामों की पीड़ा समझती
सुलोचनाओं की महार्घ पात्रता
कनक-प्रसादों में निबद्ध थी
लेखनी उपनयन में थी बँधी
नहीं तो शंबूक सिर हतभाग्य भी
सिद्ध होता तपोगति गौरव अमर्त्य I
रक्तरंजित जा गिरा उत्तरापथ में
अंत-श्रध्दा का भी न प्रारब्ध पाया
युग-विधाता पंडितों के नीति-बल से
रामकथा-वृक्ष पर टाँगा गया I
शिरोच्छेदन का सबक पा गया था
संतोष नहीं था पंडितों को
शंबूक तो शंबूक ठहरा
उसकी नराधम खोपड़ी तक को
सिखाना चाहते थे पाठ ऐसा
वंशज भी कोई न कर सके साहस कभी I
खोजी पंडितों ने टाँग दी
उसी वट में खोपड़ी शंबूक की
जिसकी जड़ों पर पीठ पावन
सत्य का, सद्धर्म का, सन्मार्ग का
प्रतिष्ठित कीर्ति-प्रतिमा राम की
झुकाते शीश सुर, नर, मुनि
चढ़ाते देवराज पुष्प
त्रिदेव भी करबद्ध वंदना करते
जहाँ उस पीठ के समतुल
दफ़न थे रावणों के सिर I
समय की शिला पर से
युगों के भारी क़दम-के-क़दम गुज़रे
कूट चिह्न मिटे नहीं पंडितों के
आज भी कथावृक्ष पर टँगी वह खोपड़ी
आज भी वहीँ प्रतिष्ठित कीर्ति-प्रतिमा राम की
आज भी वहीं समादृत रावणों के सिर सभी I
पर शंबूक की खोपड़ी
हँसती ठहाके की हँसी
युग-युगीन यातना के बाद भी
नसीहत नहीं स्वीकार की
हँसती सदा भेदक हँसी - -
"धन्य, धन्य, राम ! धन्य राम-पंडितो !"
लगाती कहकहे बार-बार
हँसना उसकी नियति हो जैसे
हँसना उसका कर्म हो जैसे
हँसना उसका कर्म-फल हो जैसे I
वह हँसती जब पंडित कोई
उसे टाँगता एक से दूसरी डाल पर
जब छद्म की रस्सी टूट जाने से
डालों से टकराती
गिर आती नीचे
जब नए पंडित
उसे फिर टाँग देते नए जतन से
जब बड़े पंडित
छेड़ते धर्म, दर्शन, व्यवस्था, अध्यात्म की
बड़ी-बड़ी लग्गियों से I
जब मझोले पंडित
उसे न छेड़ने की देते सलाह
जब अधुनातन पंडित
उसे सदा के लिए डाल से उतार
ज़मीन की गहराईं में
गाड़ देने की चलाते हाल की चर्चा
जब सनातन पंडित
उसे ऊपर ही टाँग रखने की
परम्परा पर देते ज़ोर I
क्या कहा जाए शंबूक की
चोटी-नाक मुंडित निगोड़ी खोपड़ी को
पंडितों के ब्रम्ह्मान्य इंगित पर
राम-जैसे राजा के राजदण्ड का
उनके परम अचूक बाण का
मज़ा चखकर भी हँसती है I
वह शंबूक पर भी हँसती
शंबूक के लिए बेहतर
नाम आँखे दिखानेवालों पर भी
ऐसे शंबूक पर भी जो शंबूक की तरह
न जी सकते, न मर सकते
ऐसे भी जो शंबूक से पंडित हो
आपाद-मस्तक पंडित हो गए I
वह खुलकर ख़ूब हँसी
जब द्रोण ने
एकलव्य से अंगुष्ठ-दक्षिणा माँगी
जब मंगल पाण्डेय को
ब्रिटिश पंडितों ने फाँसी चढ़ाया
जब नमक-सत्याग्रही गांधी को
उन्होंने बंदी बनाया I
जब फुले ने
आर्यवर्त की धरती पर पाठशाला खोली
जब अम्बेडकर ने
मनुस्मृतिवाले देश का संविधान लिखा
जब लिंबाराम को
बीसवीं सदी के हस्तिनापुर ने स्वीकार किया
वह हँसती रही, हँसती रही
ऊँचे कानों को बाँग देती अज़ान पागल हँसी
अनेक कालातीत गुंबदों से अनवरत I
शंबूक की खोपड़ी की
अज़ान पागल हँसी से
ऊँचे कानवाले भी
पागल हुए बिना न रह सके
एक समय तो उसकी लाज़वाब हँसी से
पंडितों की चौहद्दी काँप उठी I
फिर उसे रामकथा के बरगद से उतार
ज़मीन में गाड़ने का टोटका शुरू हुआ
पर उसे सूंघकर खोद निकालनेवाले
फिर से उसी पेड़ पर टाँगनेवाले
उसी पेड़ के नीचे
रामराज्य की स्थापना में
ठोकरें लगा-लगाकर खेलनेवाले
पंडितों की भी कमी नहीं रही I
वह कभी पेड़ पर
कभी ज़मीन पर
कभी ज़मीन के भीतर
त्रिताप झेलती हुई
कभी हँसती, कभी मौन
कभी ठोकरें खाती
कभी अपने, कभी राम के
कभी रामपंडितों के
कथा-गुंफ में शाश्वत उत्तर-सी
जीती रही, जीती रही, जीती रही I
तुलसी बाबा ने आसन जमाने से पहले
रामकथा के वटवृक्ष से चुपचाप उतार
ज़मीन की गहराई में गाड़ दी खोपड़ी
मगर बाबा पंडित ही नहीं महापंडित थे
बड़ी सफ़ाई से लेनी चाही ख़बर
खोपड़ी की आद-औलाद तक की I
जब बाबा लगे फेंकने
शब्द-बाण अप्रत्यक्ष - -
"शूद्र गँवार ढोल पशु नारी"
खोपड़ी भीतर से ही हँस पड़ी ठठाकर I
जब बाबा की सर्वजनीन मंगलाशा
व्यक्त होने लगी
कौटिल्य की तर्ज़ पर - -
"शूद्र न गुन गन ग्यान प्रवीना"
तो फिर उन पर पुरज़ोर ठठाई I
जब बाबा ने पैंतरा बदला - -
"नीच-नीच सब तरि गए
जे रहे नाम लवलीन"
तो हँस पड़ी फिर एक बार
ज़मीन-फाड़ हँसी - -
किसके नाम में बाबा, भगवान के
या भगवान के पंडितों के!
तुलसी, याज्ञवल्क्य, कौटिल्य, मनु
कोई भी नहीं बचा
शंबूक की खोपड़ी से
वह सब पर हँसती आ रही
आज नए तुलसी, नए याज्ञवल्क्य
नए कौटिल्य, नए मनु की बिसात क्या!
अब तो राम कथा के
शाखा-पत्रों पर भी
लिपिबद्ध होने लगा
उसकी हँसी का मर्म - -
मेरे सत्याग्रह पर
रामबाण सधवानेवाले पंडितो!
मुझे धड़ से अलग करवाकर
तुम सतत पराजित हो चुके हो
वह सिर तो तुम्हारे निशाने पर ही था I
वह छाती तो नंगी थी ही
तुम कितने ही गांधियों को भूनो
सत्याग्रह कभी नहीं मरता, कभी नहीं
वह दिनोंदिन और अमर होता है
फैलता-उठता, अपना वितान तानता हर कहीं I
अब तो रामकथा के शाखा-पत्र
बाँचने भी लगे हैं
उसकी हँसी का मर्म - -
युग-विधाता पंडितो!
मैं शंबूक की खोपड़ी
शोषित मानवता की पुरातन शक्ति हूँ
यदि शोषकों के कँटीले हाथ
दुनिया से जाने का नाम नहीं लेते
तो मैं भी रामकथा की ऊँचाई से
उनके कँटीले हाथो को
अपनी अपराजेय हँसी से आहत करती
कभी चुप नहीं रहूँगी I
बिक रही हैं लड़कियाँ
बिक रही हैं लड़कियाँ
धड़ल्ले से वेश-वृति में
बस उनका ख़रीद-फ़रोख्त
कोठे-मुजरे से हटकर
सौन्दर्य के नाम पर
अंग-प्रतियोगिताओं
अंग-मॉडलिंग, अंग-सिनेमा
अंग-प्रदर्शन के और तमाम
नए-से-नए कामुक लक-दक में
बड़ी सफ़ाई से
तब्दील हो गया है I
बिक रही हैं लड़कियाँ
धड़ल्ले से वेश-वृति में
शिखर आधुनिकता के
शौकीन महाजनों की
अति सम्मानित, भद्र भड़ुओं की
पारखी निगाहें
उनकी जवानी पर
उनके अंग-अंग पर
अंगों के उतर-चढ़ाव पर
अच्छी तरह लगी हुई हैं
सहभागी डिज़ाइनरों ने
उनके ख़ातिर
ऊँची एड़ी की सैंडल
कामुकता के उत्थान में
इसलिए डिज़ाइन की
कि चलते समय
वक्षोज और आगे उभर आएँ
नितम्ब और पीछे उभर जाएँ
कमर में और अधिक लचक आ जाए
चाल हंस की तरह हो जाए
जिससे बिकवाली में तेज़ी आए
सेंसेक्स ऊपर उठे
और निवेशकों के कारोबार में
भारी इज़ाफ़ा हो I
बिक रही हैं लड़कियाँ
धड़ल्ले से वेश-वृति में
अब तो उनके वज़न
लम्बाई-कमर
टांगों-जाघों के
बाकायदा मानदण्ड निर्धारित किए गए हैं
निर्धारित मानदण्ड के लिए
'योगा', व्यायाम, डायटिंग की
लोकल, राष्ट्रीय, अंतर-राष्ट्रीय दुकानें
तेज़ी के साथ फल-फूल रही हैं I
रंडी शब्द अपने आप में
कितना अश्लील है
कितना भोंडा है
कितना बिकाऊ अर्थात् लिए हुए है
समाज में इसकी बेहतरी के लिए
कारपोरेट-जगत के
देवताओं के इशारों पर
मॉर्डन बाज़ारवाद के नाम से
पुलिस पुराने ढंग के कोठों पर
रे'ड डालती है
पीटती है
पुराने ढंग की रंडियों को
उनके पुराने पड़ गए भड़ुओं को
लेकिन नए ज़माने का लाइसेंस लिए
भारी भीड़ के सामने
भरी जवानी में
अंगों का शो करनेवाली लड़कियाँ
पुलिस के सुरक्षा घेरे में चलती हैं
कमाती हैं लाखों-करोड़ों
पाती हैं बड़े-बड़े पुरस्कार
उनके टीम के
गाजे-बाजों के
उनके सारे तमाशों के
आधुनिक आयोजकों को
मिलता है बड़ा-बड़ा नाम
नोटों की बड़ी-बड़ी गड्डियाँ I
बिक रही हैं लड़कियाँ
धड़ल्ले से वेश-वृति में
उनके अंग-प्रत्यंग
अलग-अलग कोणों से
नए-नए फ़ैशन-ग्लैमर के साथ
वैभव की ऊँची-से-ऊँची
खिलखिलाती साज़-सज्जा में
रंगीन रोशनी के घने चकमक में
जुटाई गई
ख़ास भीड़ के सामने
अर्ध नग्न बिकते हैं
ऊपर-नीचे के लज्जा-अंग
बहुत महीन, बहुत पारदर्शी, बहुत कम
डिज़ाइन किए गए कपड़ों में
बहुतायत से बिकने लगे हैं
जबकि कमतरीन कपड़ों को
बर्ख़ास्त कर
अत्याधुनिक शैली के चहेते
सैर-सपाटे के खुलेपन तक
पूरी नग्नता के फ़ैशन की
एक और नई किस्म
खोज चुके हैं
बाज़ार में उस नई किस्म के
आने भर की देर है I
नामदारों के हस्ताक्षर
क्या नहीं कर सकते
पैसा और यौवन और बुद्धि और बल
अगर एक ही ध्रुव पर
इकट्ठे हो जाएँ
उनकी सुरक्षा का पहरा
शासन के हाथ में हो
तो किसकी मजाल
तनिक मुँह बिचका सके
उन पर उँगली उठा सके
इसलिए बिक रही हैं लड़कियाँ
धड़ल्ले से वेश-वृति में I
जंगल के हर मुहाने पर
यदि एक भेड़िया मारने पर
लाखों का इनाम घोषित हो
तब भी भेड़ें कोई भेड़िया नहीं मार सकतीं
बकरी, ख़रगोश, हिरन
सब के दांत गोंठिल हैं
ज़्यादा-से-ज़्यादा
वे चर सकते हैं
दूब और मुलायम पत्तियाँ
या चाभ सकते हैं
फेंकी हुई घास
अधिक-से-अधिक भर सकते हैं चौकड़ी
अपने मेमनों के साथ
बबरों-गब्बरों के लिए
खाई खोदने. गाड़ा बैठने, जागने की
फ़ितरत उनमें कहाँ
उन्हें तो हर रात
मैथुन और नींद चाहिए I
आहार खोजते हुए
आहार हो जाता है
उनकी भीड़ का कुछ हिस्सा हर रोज़
लेकिन वे नहीं गिरा सकते
एक भी बाघ, एक भी चीता
अगर सोता हुआ मिल जाए तब भी
बल्कि उसके दुम के नीचे की जगह
चाट-चाटकर उसे जगा देते हैं
और जब वह उठ बैठता है
तो उसके आगे
निपोरते हैं दांत भीड़ के ही सियार
हिलाते हैं दुम भीड़ के ही कुत्ते
जिससे रँगे हात पकड़ा जाकर भी
वह डरता नहीं
मूँछें फुलाकर गुर्राता है
कि मेरी असलियत जानने के लिए
कुतियों का इस्तेमाल क्यों किया गया I
इसके लिए जल्द-से-जल्द
गिद्धराज को पकड़ा जाए
फोड़ दी जाएँ उसकी आँखें
काट दिए जाएँ
उसके पंख, पंजे और जननांग I
गिद्धों का काम
अब तीन बंदरों से लिया जाए
जिनमें से एक की आँखों पर
दूसरे के कानों पर
तीसरे के मुँह पर
उनके अपने ही हाथों का सख्त पहरा हो I
पेड़ से गिरे हुए लकड़बग्घों की
हर बार मरहम-पट्टी करती हैं लोमड़ियाँ
ऑक्सीजन देते हैं अजगर
जल्दी भूल जाते हैं गधे
उनका काला कारनामा
पेड़ पर फिर चढ़ा देते हैं उन्हें
चूहों, चींटियों, गोरुओं के भींड़-हाथ
और कानों तक फटे खूँख़ार मुँह
पेड़ की ऊँचाई से
अपनी आसमानी भाषा बोलने हैं
कान लगाकर सुनती हैं
जंगल की जमातें
हर बार वही आप्तवचन --
कि जंगल में घास की कमी नहीं है
कि इस साल अच्छी बारिश के आसार हैं
कि अब हरियाली में
दो-से-तीन गुना तक की बढ़ोत्तरी होगी
कि जंगल का हरापन
तबाह करनेवाली नीलगायों को
मुख्यधारा में लाया जा रहा है
कि सीमा-पार से आनेवाले गैंडों से
सख्ती से निपटा जाएगा
की कहीं से चिंता की कोई बात नहीं I
भेड़ियों के प्राण उनके दांतों में होते हैं
उनके खून लगे दांतों में
और उनकी ताक़त भेड़ों के खून में
मोटे तौर पर एक भेड़िया
इतना चालाक होता है
कि एक करोड़ भेड़ों को मात दे सकता है
यदि किसी तरह फँसकर
एक-आध शिकार होता भी है
तो ज़मीन पर
रक्तबीज टपकाए बिना नहीं मरता
जिससे भेड़ों की करोड़ों-करोड़ों की संख्या
उनका कुछ नहीं बिगाड़ पाती
जो कोई आगे बढ़ता है
वह उनके जबड़ों-बीच शहीद होता है I
भेड़-चाल में महज़ दिनौंधी होती है
रतजगा बिल्कुल नहीं होता
भय और फुटमत के कारण
जंगल की इससे बड़ी विडम्बना
और क्या हो सकती है
कि हर हाल में मारी जाती हैं भेड़ें
और उनके भाई-बंद
चरते हुए, सोते-सुस्ताते हुए
खोह-खड्ड में छिपे हुए
या सारे जंगल केसामने बाग़ी करार करके
और आँसू बहाया जाता है घड़ियालों द्वारा
शोक-संवेदना प्रकट करते हैं तेंदुए
श्रद्धा के फूल चढ़ाता है बड़कन्ना सिंह
जबकि अधिसंख्य भेड़-भीड़
ठगी आँखों से
हर रोज़ देखती-सुनती है
जंगल के हर मुहाने पर
धूर्तों का उठता, लहराता, स्थापित
व्ही भेड़िया -पताका, नारा और हाथी-दांत I
खण्डित नीलपर्वत
अब भी
उन सुदूर नील पर्वतों से
बातें करता मन
निस्संज्ञ हो जाता है
बातों-बातों में
मधुमय निश्शब्दता
असंख्य अस्फुट नूपुरों से छमकते
छाया-लास्य की तरह
मुझे तन्मय कर देती है
फिर उन विराट क्षणों में
उन नीली ऊँचाइयों तक
उन्हीं के बराबर
मैं बहुत ऊपर
उठ जाया करता हूँ I
अब भी
वे नीलकांत चोटियाँ
अपनी ऊँचाई पर
कसकर बाँध लेती हैं मुझे
जीवन-संस्पर्श देती
उनकी उत्फुल्ल
नील-लोहित आभा का
उनकी प्रियदर्शन
घाटियों की सुघढ़ता का
वैसे ही थिर
अभिराम सौन्दर्य
मुझे देर-देर तक
टस-से-मस
नहीं होने देता I
अब भी
वे अप्रतिम एकांत पहाड़ियाँ
जीवन का रंगस्थल लगती हैं
उनका नील-हरित आँचल
उतना ही निकट लगता है
उतना ही हृदमाल
लगती हैं उनकी मृदुल बाँहें
धुँधले-धुँधले क्षितिज से
ऊपर उठती
बहुरंगी चित्रलेख की ततः
ढेरों बातें करतीं वे पर्वत शिखाएँ
कितनी मौन, कितनी मुखर होती हैं
पूरी तरह अब भी
मेरा सामना किए हुए I
पर अब
उन नील पर्वतों से
भूलकर भी नहीं उभरता
एक भी इन्द्रधनुष
नहीं कौंधती एक भी तड़ित
अब उनकी शिखाओं पर नहीं घिरते
शीतल, जलद मेघ
अब उनकी चोटियों की फाँकों में
नहीं उगता
चंदमुख
अब वहाँ
तारा कोई नहीं दिखता I
ओ मेरे मन के देवता
मैंने ऐसा
टूटा हुआ
नीलगिरि नहीं माँगा था
मैंने नहीं माँगी थी
ऐसी नेत्रविहीन
सिर-कटे धड़-जैसी सपनीली चोटियाँ
जहाँ से निर्दय बेहेलिए के समान
सरे स्वर्णिम-रजतमय सौन्दर्य पर
वज्रपात कर
मेघ, चन्द्र, तारक, तड़ित
तुमने सब काटकर
फेंक दिए I
हे देवता !
तुम अपने किस देवत्व के बल पर
मुझे इस ऊँचाई पर
इस नीले, अंध शून्य में
उठा लाए हो
जहाँ से न धरती दिखती है
न धरातल
न ही आसमान का वह आलोक
जिसे पाने का
मैंने वरदान माँगा था I
(लो ! अब हर लो तुम,
अपना यह खण्डित नीलपर्वत भी )
संभव तृण रूप हरित,संभव
सुनो प्रिये, अब नहीं चहकते प्राणों के पाँखी होठों पर
नहीं सरसते लय-नीड़ों में साँसों के सहमे सुवास
कैसे तुम्हें सहेजूँ प्रिय, अब बढ़कर पात-पात से आगे
मृगछौनों से भीतर-बाहर सारे गरल कुलाँच रहे I
ओ प्राण प्रिये! ओ हृद-लतिके! ओ कुक्षि-ज्योति संसृति की!
अब बुद्धि-वह्नि की दाहकता अंतस्तल में भी व्याप गई
चलो छिपा दूँ त्याग तुम्हें उस अदृश् देव के अन्तःपुर में
जहाँ से आई हो धरती पर मुझ मृणमय की साध सजाने I
तुम देख रही युग खींच रहा परमाणु सधी बम-प्रत्यंचा
आ रहा चला कैसा प्रवात उच्छृंखल अट्टहास लेकर
छल-बल का डंका पीट रहा निर्मम हाथों ले क्रूर काल
विकलित निरीह संवासिनियों-सी डरी दिशाएँ काँप रहींI
ओ सुनो सुधे, अच्छा ही है आ रहे दिवस काले भी हों
धरती से फूटे मार्तंड बिन नभ की नील- पिछौरी के
न अमानिशा कुंतल खोले फैला हो फिर भी अंधकार
कितना भी राकाशशि चमके पूनम फिर भी धुर काली हो I
अच्छा है निर्दय विज्ञ दनुज बरसा दे संचित आयुध सब
और स्वयं हो जाय भस्म अपने वैभव के फूत्कार में
विषधर वरदानी मणिमाया में झूम उठे दानव-प्रतिभा
और उठाकर धरे हाथ फिर वही स्वयं अपने सर पर I
फिर विहान के नव नभ में जब खिल आये नव नीलकला
जब नवल उषा स्मित फेरे, जब नव संध्या संकेत करे
फिर सोहर गाती इठलाती जब नव ऋतुएँ नाचें-गायें
जब सूरज हँस सोना बाँटे, जब चंदा चाँदी छितराए I
धर रूप प्रिये, तृण की हरीतिमा का आना
मैं भी मोती बन आ तुम पर छा जाऊँगा
तुम पलकों से छूकर अमरत्व पिला देना
मैं होठों से तुमको छू फिर जी जाऊँगा I
वे महान नहीं थे
यदि तुम्हारा आशय
सिकन्दर और उसके जैसे महानों से है
तो मुझसे मत पूछो
महानों के नाम I
जिन्होंने अपने खेतों में काम किया
अपने घर का अन्न खाया
अपने घड़े का पानी पिया
अपने गाँव की सीमा कभी पार नहीं की
ऐसों के हत्यारे हैं तुम्हारे महान I
सुबह की हवा ऐसे कथित महानों को
कभी ताज़ा नहीं लगी होगी
साँझ कभी उतरी नहीं होगी उनके घर
उन्होंने कभी जाना नहीं होगा
कितनी भोली होतीं हैं रातें
कितने हँसमुख होते हैं दिन
उनके तो चौबीसों घण्टे कानों में बजता रहा होगा बाजा
अहं के जय-पराजय का
वे कैसे महान हो सकते हैं I
किताबें भला किसी की शत्रु हो सकतीं हैं
वे तो अनमोल अक्षरों के मोती बिखेरकर
सच्चे मित्र-जैसा खुल जाती हैं सामने सब के
ऐसे मित्रों के गढ़ जलाकर ख़ाक कर देना
राज,ताज और जवान बोटी के लिए
दुनिया के खिले, आबाद हिस्सों में
भूखे भेड़ियों की तरह घात लगाना, चक्कर काटना
कभी महानता नहीं हो सकती I
उन्हें वीर कहना वीरता का अपमान है
असल में उनकी दिमाग़ी हालत ठीक नहीं थी
जब उन्हें ज़रूरत थी दावा-दारू की
तब वे अपने ही बीमार सपनों से टकराए
और टकराकर की राह में आनेवाले
खेत-खलियान, घर-बार, बाग़-बगीचे उजाड़ते गए I
कभी देखा है पाकड़ की कोंपलें
या नीम की फूली डाल
आम का बौर ध्यान से देखा है
जो कभी किसी को नुकसान नहीं पहुँचाते
इतराते हैं तो अपनी सीमाओं में
जीते हैं तो सिर्फ़ औरों के लिए
क्या ऐसे निर्दोष थे तुम्हारे वे महान I
तुम तो बस
खून से भीगे साँय-साँय करते युद्ध-क्षेत्रों में
कटे सिरों के बीच शीर्षासन लगाकर
अपने बाएँ पैर के अँगूठे से
हवा में महानता का इतिहास लिखते रहे हो I
अब भी समय है
दुरुस्त करो महानता की अपनी परिभाषा
जिसे तोतों की तरह लोग सदियों से रट रहे हैं
शीर्षासन छोड़ सीधी करो अपनी दृष्टि
कम-से-कम बालपोथियों में
तुम उन्हें महान मत लिखो I
तुम कहाँ हो गीतात्मा !
तुम नहीं हो --
दिन गया
साँझ हुई
रात बीती
सबेरा हुआ
तुम नहीं हो I
तुम नहीं हो --
मैं हूँ
घर-बार
फूल-पत्तियाँ हैं
लोग हैं
दुनिया है
दुनियावी धन्धे हैं
तुम नहीं हो I
तुम नहीं हो --
होता हूँ
कभी घर
कभी बाहर
कभी यहाँ
कभी वहाँ
हर कहीं
तुम्हारा भ्रम है
तुम नहीं हो I
तुम नहीं हो --
मौसम आया
लीची का
चला गया
दीवाली आई
चली गई
तुम नहीं हो I
तुम नहीं हो --
भूख है
मरी हुई
नींद है
कुचली गई
सबेरा है
उजड़ा हुआ
अधमरे दिन हैं
नियति है
तुम नहीं हो I
तुम नहीं है --
वह अंत
वह साँझ
वह रात
वह सुबह
वे साँसें
वह प्यास
वह डूबती
एक आस
सब कुछ
कितना सामने है
तुम नहीं हो I
तुम नहीं हो
अदेह गीते !
पर तुम्हारी
ये अर्थगूँज
नहीं जाती,
नहीं जाती
ये अनश्वर
ये हृदव्यापी
ये कालजयी
गंसीली अर्थगूँज
नहीं जाती I
ओ सुनो,
तुम कहाँ हो
गीतात्मा !
ये भावपृष्ठ
ये नेह-वेदना
ये अक्षर
ये शब्द
ये ब्रह्म
ये सारा
अतल-स्पर्श
ये मेरे सारे
स्वर-संभार
तुम्हारे लिए हैं
मेरे जन्म -
जन्म का
पण्य-फल
तुम्हारा है I
सहचरित मानव जीवन
परिवार-समाज-जाति-राष्ट्र
या मानव
कभी-कभी कितने विनाशक
हो जाते हैं !
इतिहास के अंतस्तल में
बहुत-से ऐसे घाव हैं
जब राष्ट्रवाद से
धरती का बहुत-कुछ जीवन
ना जाने कितनी बार
इतना अधिक तहस-नहस हुआ
कि अनेक राष्ट्रों की आत्मा
चीत्कार कर उठी ।
एक जाति-एक परिवार-एक समाज
जब प्रकृति के विरुद्ध
अराजक हो जाता है
जब वह दूसरों का दुख-दर्द
नहीं समझता
अपना विस्तार, अपनी ऊँचाई
नापने की दृष्टिहीन स्पर्धा में
सारा चिंतन, सारी ऊर्जा
झोंक देता है
तब वह और उसके-जैसी
अन्य परिसीमाएँ भी
उतनी ही विनाशकारी हो जाती हैं ।
मानव और उसकी मानवता
अपने आहार-विहार-आचार के लिए
अपने निजी संसार के लिए
मानवजाति से इतर
अन्यान्य थल-चरों, जल-चरों, नभ-चरों
भूमिगत जीवों की अकाल मृत्यु के
सम्यक समाहार का
अहर्निश क्या-क्या प्रबंध
नहीं करते !
मानवजाति की
सम-वेदना कितनी पाषाण है !
कि सप्राण होते हुए
प्राणिगत सम-पीड़ा
मानव-हृदय को
तब तनिक भी नहीं अनुभूत होती
जब वह असंख्य
निर्दोष जीवों की हत्या
अपनी जनसांख्यिकी जिह्वा के
फैलाव में नित्यप्रति करता है ।
तब कहाँ चली जाती हैं
उसकी समस्त संवेदनाएँ
कहाँ चला जाता है
अपनों के लिए ममत्व-जैसा
उसका वैश्वानर-विवेक
जब वह निर्दय होकर
खेलते-खाते, चहकते-विचरते
अपनी दुनिया में मग्न
निरपराध पशु-पक्षियों,
कीट-पतंगों, जल-जीवों को
उनके जीवन-क्षेत्र में
अनिधकार जा-जाकर
नित्यप्रति अपनी बुभुक्षा, आस्वाद
और संसाधनों के महा कुंड में
बलात् खींच लेता है ।
आजतक
उसकी मनस्वी
आचार-संहिताओं द्वारा
ऐसे क्रूर कृत्य पर
अमानवीय जगत के
ऐसे क्रूर हनन पर
अंकुश लगाने के लिए
नैतिक अनुशासन का
न्यायिक दंडविधान का
समुचित प्रभावी उपाय
ना हो सका
तो ना हो सका ।
इन हजारों-लाखों वर्षोँ के
जीव-जगत के अविरल
साहचर्य में
असंख्य निर्जल मीन की
असंख्य सिर-कटे छाग की
तत्क्षणिक व्याकुलता के तीर से
सर्वाधिक भावप्रवण मानव-हृदय
ना बिंध सका
तो ना बिंध सका ।
हे मानवजाति,
समस्त चराचर प्राणियों के
अखिल विस्तार में
औरों का भाग छोड़कर
अपने घर-परिवार को
बस उचित भाग देते हुए
जीवधर्म के साथ
सत्व-तत्व का सदाचार
आखिर तू क्यों नहीं
अपना सकती !
हे मानवजाति,
अपनी इन्द्रियों को
इन निरीह, निस्सहाय
जीवों की विविध जीवंतता में
उनके संहारक-शिखर पर
चढ़ने से रोकते हुए
आखिर, तू क्यों नहीं
जी सकती सकती
प्राणिधर्म का
एक सकल, संतुलित
सहचरित, उदात्त जीवन !
..आखिर क्यों नहीं !
कठोर मानव-यात्रा
मानव ढंग से ठहर कर
कभी सोच न पाया
कि वह संसार को
कितना गंदला करता आया है
जल-थल-नभ-वायु सभी को ।
ऊपर से तुर्रा विकास का
विकास के मॉडल का
विकास की गति का
कि हमारी छलाँगें कितनी लंबी हैं
कि हमारा धमाका कितना विध्वंसक है
कि धरती हमारे पैरों तले है
कि आकाश हमारे सिर से ऊँचा नहीं है
और हम जिसे जैसा चाहेंगे
वैसा निचोड़ेंगे
वैसा दुहेंगे
वैसा मथेंगे
ये नदी, पहाड़, वन, समुद्र
ये रात-दिन, ये सुबह-शाम
सब के सब जो प्रकृति के
बड़े हिमायती बनते हैं
बड़े पिछलग्गू बनते हैं
इन सब का सामना
हम हैं कि एक साथ कर सकते हैं ।
लेकिन अगले वर्ष
वह विकास की डींगें
आखिर कैसे मारेगा
कि हमने ये तीर मारा
कि हमने वो तीर मारा
कि देखो हमारे
अमलों-हमलों की
नई-नई सफलताएँ
कि हम कितना विस्तार पा गए हैं
कितना आकार पा गए हैं
कि हम कितनी ऊँचाई पर हैं ।
कोरोना वायरस से हताहत
आज के मानव पर
समय तो
तनिक भी नहीं पसीजा
तनिक भी नहीं ठहरा
ना तरस खाया
ना पीठ पर हाथ फेरा
ना दवा-दारू में हाथ बँटाया
ना ही रोया
उसकी अर्थ-व्यवस्था पर ।
कदाचित समय से भी अधिक
मारक-दाहक-भक्षक
जो हो रहा मानव
समय से भी अधिक
कठोर जो रही मानव-यात्रा
पृथ्वी और ग्रहों
और समय की धुरी के प्रति ।
दुष्यन्त की प्रेम-याचना
अहो, मनोरथ-प्रिया !
नहीं तुम ग्रीष्म-ताप से तप्त
काम जो मुझे जलाता है
वही है किए तुम्हें संतप्त I
आश्रम में है शान्ति
किन्तु मेरा मन है आक्रान्त
यहाँ के वृक्ष तुम्हारे भ्रात
लता-बेलों की सगी बहना
तभी हो नव मल्लिका समान
मधुर यह रूप, मदिर ये नयन
दे गया मुझे नेत्र-निर्वाण I
यही समय है, यही घड़ी है
गाढ़ रूप आलिंगन का प्रिय !
कमल-सुवासित सुखद वायु
मालिनी का तट, यह लताकुंज
कितना अभीप्सु यह प्रांत
अभीप्सित है इसका एकांत
सुरक्षित यहाँ गहन मधुपान
जो कितनी तृषा बढ़ाता है
मिलन का राग जगाता है I
हे, करभोरु ! यही समय है
यही घड़ी है, छोड़ो भय
कहो, कमलिनी के पत्ते से
पंखा झलकर ठंडी-ठंडी हवा करूँ
या कहो, तुम्हारे कमल सरिस
इन लाल-लाल चरणों को
अपनी गोद में रख कर
जिस प्रकार सुख मिले दबाऊँ
पृथु नितम्ब तक धीरे-धीरे I
आज चन्द्र शीतल किरणों से
अग्नि-बाण-सा गिरा रहा है
कामदेव फूलों को देखो
वज्र-बाण-सा बना रहा है
खींच रहा है ज्यों कानों तक
फेंक रहा है अनल निरंतर
छोड़ तुम्हारे चरण प्रिये !
अब कहीं नहीं है शरण प्रिये !
हे पुष्पप्रिया ! तुम अनाघ्रात
नख-चिह्न रहित किसलय-जैसी
ना बींधे गए रत्न सम हो
मैं देख रहा हूँ निर्निमेष
तुम ललित पदों की रचना हो
रूप की राशि अनुपमा हो
भौंहें ऊपर उठी हुई हैं
और मेरा अनुराग प्रकट में
छलक रहा हर्षित कपोल पर I
दो शिरीष के पुष्प सुष्ठ
मकरंद सहित डंठल वाले
दोनों कानों में कर्णफूल-से
सजे लटकते गालों तक
अधरोष्ठ रस भरे बिम्बा फल
खस का लेप उरोजों पर
कमलपत्र आवरण वक्ष पर
कमलनाल का कंगन ऊपर
खींचता बार-बार है दृष्टि
वक्ष का यह कर्षक विस्तार
सहे कैसे यह वल्कल भार I
डाली-सी भुजाएँ हैं कोमल
जैसे है हथेली रक्त कमल
नयनों में हरिणी-सी चितवन
अंगों में फूलों का यौवन
गह्वर त्रिवली में तिरता है
यह कैसा दृष्टि-विहार
कुचों के बीच सुकोमल
शरच्चंद्र-सा कमलनाल का हार I
आम्रवृक्ष पर चढ़ती है
माधवी लता संगिनि होकर
गिरती है रत्नाकर में ज्यों
महानदी सर्वस्व लुटाकर
वैसे प्रिय ! अब भुजा खोल
कर लो धारण वपुमान प्रखर
प्रिय मुझे पिलाओ अधरामृत
हो जाऊँ अमर पीकर छककर I
जैसे मृगशावक को हे, प्रिय !
दोने में कमलिनी-पातों के
निज कर से नीर पिलाती हो
वैसे अधरोष्ठ पत्र करके
सुरतोत्सव का ले सुरा-पात्र
मधु-दान करो अंतर्मन से I
मैं बिंधा काम के बाणों से
तुम समझ रही अन्यथा अभी
जब झुकी सुराही अधरों पर
फिर ना-नकार क्या बात रही !
हो गया आज जब प्रकट प्रेम
जब प्रणय-प्रार्थना है समान
हट गया बीच का पट सारा
ना-नुकर का ये कैसा है स्वाँग !
राजभवन का चहल-पहल
है कई वल्लभावों से शोभित
किन्तु प्रिये ! यह पृथ्वी
और प्राणप्रिये ! तुम ही दोनों
कुल की मेरी प्रतिष्ठा हो I
छोड़ो भय, प्रिय ! छोड़ो भय
गुरु जन दोष नहीं मानेंगे
पाया जब अनुराग परस्पर
सम हृदयज्ञ का सम आकर्षण
गन्धर्व विवाह कर लिया
बहुत-सी कन्याओं ने, फिर
सहमति दे दी मात-पिता ने
बंधु-बांधव, गुरुजन ने I
हे, कामसुधा ! इसलिए
नहीं अब छोड़ सकूँगा
छककर क्षाम हुए बिन
नहीं सुधे ! अब नहीं, नहीं
यह देह बहुत आकुल है
जैसे भ्रमर पिया करते हैं
इठलाते सुमनों का रस
मदमाते हैं अधर तुम्हारे
दया बहुत आती है इन पर
पीना है अब कुसुम सरीखे
इन अक्षत अधरों का मद
पी-पीकर मदमत्त भ्रमर-सा
भीतर तक धँस जाना है I
जीने का जैविक अर्थात्
घरों में आ घुसा है
जितना कोई
बहुरूप घुसपैठिया
..बाहर खुली-खुली हैं
उतनी ही हवाएँ
खुली हैं उतनी ही चिड़ियाएँ I
पेड़-पौधे, नदी-निर्झर
जंगल-पहाड़
यहाँ तक कि
शहरों के गमलों वाले
पैबंद बगीचे भी
बाग-बाग हो रहे हैं I
अब ऐसे में
इधर या उधर होना ही है
हल्के पासंग को
अपने भार के साथ
..गावों की ओर लौटता रेला
शायद तभी मर्माहत है I
ये धरती का
कैसा धर्मकाँटा है
कि एक के खुलेपन के लिए
दूसरे का घुसपैठिया होना
जैसे जरूरी हो गया है !
..और जरूरी हो गया है
जीवन के भारी-भरकम भार
और उसके पासंग का
विकास के पलड़ों से उतर
दीवारों के बीच
ठहराव के साथ रुक जाना
बढ़ते अतिवाद से
अंतहीन प्रमाद से
कुछ दूर, गतिहीन कहीं !
बहुरूप घुसपैठिया भी
इधर-उधर
भागा फिर रहा
अपनी जान बचाने के चक्कर में
और अभी यह तय नहीं
कि अतिवादी है कौन ?
औरों के घरों में
घुसपैठ कराने वाले..
या फिर घरों में
दीवारों-छतों से घिरे
दूसरे जमाती..
जो धरती-आकाश को
चाँद-सितारों को
अपनी ताकत दिखाकर
विक्षुब्ध करने में
किसी से कम नहीं !
वैसे सभी के घर
यहाँ शीशे के हैं
और ये ठहराव..
अतिवाद.. और प्रमाद..
तो हो सकता है..
देर-सबेर
कालक्रम में
कालांतर में
या फिर युगांतर में
आगे के किसी मोड़ पर
सामने लाकर पटक ही दे
..आग और पानी के बीच
घरों को घोसलों के साथ
जीने का जैविक अर्थात् !