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संतलाल करुण


उर्वशी में नर-नारी का निसर्ग-निरूपण

नर-नारी के सम्बन्ध सूत्र में संसृति का समीकरण बहुत विचित्र है। यह सूत्र न केवल दैहिक तृष्णा-तुष्टि का माध्यम बनता है, बल्कि दैहिकोत्तर जीवन के द्वार भी खोलता है। इस सूत्र में संसृति और संसार को अविरल आयाम तो मिलता ही है, नर-नारी प्राकृत सहचर के रूप में जन्म-मृत्यु का विकट अन्तराल झेलने में द्विगुणित भी हो जाते है। इसी सृष्टिगत सूत्र के चलते साहचर्य-निर्वाह के लिए नर को परुषता और नारी को कोमलता का निसर्ग मिला है। परन्तु परुषता, कोमलता और सांसारिक वातावरण में पारस्परिक प्रतिक्रिया भी होती है, इसलिए नर-नारी अपने-अपने स्वभाव की मूल सीमा में बंधकर नहीं रह पाते। वे विचलित होते रहते हैं और उनकी निसर्ग-रेखाएँ अन्यान्य रूपों में उभरती रहती हैं। इसी कारण शील, प्रकृति, गुण, गठन, वासना, कर्म आदि के आधार पर इनके बहुत से निसर्ग-भेद साहित्य और शास्त्रों में चर्चित-निरूपित होते रहे हैं।

'उर्वशी'[1] में नर-नारी का निसर्ग-निरूपण प्रेम के आधार पर हुआ है। एक ऐसा प्रेम जो है तो सीमित ही, पर विस्तार पाने का वैचारिक आवेश लिए रहता है। काम, वासना आदि के घेरे में घूम-घूमकर फेरी लगाते रहने पर भी अंततः समरस और व्यापक प्रेम का वितान तानने में तल्लीन दिखता है। पर है वह रतिमूलक प्रेम ही। ऐसे प्रेमपरक निसर्ग-निरूपण में मोटे तौर पर दो मानवीय प्रकृतियों का रूपायन हुआ है-- पहली भ्रमर प्रकृति और दूसरी, एकनिष्ठ प्रकृति। भ्रमर प्रकृति में स्वच्छन्दता और एकनिष्ठ प्रकृति में सात्विकता की प्रवृत्तियाँ प्रकट हुई हैं। 'उर्वशी' में आए इन दोनों प्रकार के निसर्गो में पाश्चात्य मनोविश्लेषक युंग द्वारा चर्चित मानवीय व्यक्तित्व के दोनों स्वरूपों-- अन्तर्मुखी और बहिर्मुखी[2] की प्रवृत्तियाँ क्रमशः एकनिष्ठ प्रकृति और भ्रमर प्रकृति में सहज ही देखी जा सकती हैं। परन्तु 'उर्वशी' के प्रमुख पात्रों के निसर्ग मात्र उपर्युक्त निसर्ग-भेदों में नहीं रखे जा सकते। क्योंकि उनके निसर्ग दोनों प्रकार की प्रवृत्तियों से आक्रांत हैं। सामान्यतः प्रत्येक व्यक्तित्व में दोनों प्रकार की प्रवृत्तियों के विद्यमान रहने पर भी किसी एक का प्राधान्य रहता है। पर उनमें ऐसा नहीं है। उनके निसर्ग में भ्रमरवृत्ति और एकनिष्ठता को लेकर द्वन्द्व, संघर्ष और खींचतान अधिक है। फिर भी इस प्रकार के परस्पर विरोधी और द्विधात्मक प्रवृत्तिवाले पात्रों के निसर्ग खण्डित नहीं हुए हैं। स्वच्छंदता और एकनिष्ठता दैहिक से दैहिकोत्तर होने का सोपान बनकर उपस्थित हुई है। एक के पश्चात् दूसरे का आविर्भाव हुआ है-- प्रेम और प्रव्रज्या के रूप में, संभोग और निदिध्यासन के रूप में।

'उर्वशी' में परियों का स्वभाव पूर्णतः स्वच्छन्द है। औशीनरी और सुकन्या पूर्ण रूप से एकनिष्ठ नारियाँ हैं। उर्वशी स्वर्ग की अप्सरा है, देवसभा की अनुपम नृत्यांगना, नारी-स्वच्छन्दता की परम प्रतीक। किन्तु धरती पर प्रणय-प्रवास के दिनों में जब उसकी सारी स्वच्छन्दता पुरूरवा के एकरसत्व में आत्मसात हो जाती है, तब वह एकनिष्ठ हो जाती है। इसी प्रकार औशीनरी और उर्वशी के बीच की भ्रमरवृत्ति में पुरूरवा पुरुष-स्वच्छन्दता के ज्वलन्त उदहारण के रूप में दिखाई देता है। किन्तु जब वह धीरे-धीरे उर्वशी से एकात्म स्थापित कर लेता है, यहाँ तक कि उर्वशी के प्रेम से वंचित होते ही संन्यास ले लेता है, तब सात्विक प्रकृति का हो जाता है। अतएव औशीनरी की सामाजिक दृष्टि में देवलोक से आई उर्वशी तो स्वच्छन्द नारी हो सकती है, किन्तु पुरूरवा सम्बन्धी प्रेम की प्रासंगिक दृष्टि से गंधमादन-विहार की उर्वशी नहीं। इसी प्रकार औशीनरी का कामातृप्त पुरूरवा तो स्वच्छन्द पुरुष कहा जा सकता है, किन्तु उर्वशी का प्रेमपुष्ट पुरूरवा नहीं। पुरुष पात्रों में कथित पात्र ऋषि च्यवन का व्यक्तित्व पूर्ण रूप से एकनिष्ठ है।

रन्भा, मेनका, सहजन्या और चित्रलेखा अप्सरा-प्रसिद्ध नारियाँ हैं। प्रेम-समर्पण से पूर्व ही उर्वशी भी इसी में आती है। इन सब के माध्यम से स्वच्छन्द प्रकृति का रूपांकन हुआ है। स्वच्छन्द नारियाँ किसी एक नर के निमित्त धीरज नहीं खोतीं।[3] वे खल-खलकर निर्मुक्त बहती कूलहीन जल होती हैं।[4] ह्रदय-दान पाकर वे झुकती नहीं, प्रेम उनके लिए एक स्वाद है, एक क्रीड़ा है।[5] उनके सारे प्रेम-व्यापार विनोद मात्र होते हैं।[6] नित्य नए-नए फूलों पर उड़ना उनका स्वभाव है।[7] सब के मन में मोद भरते हुए निर्मुक्त भ्रमण करना उनका क्रिया-कलाप है।[8] वह किसी एक गृह में कोमल द्युति की दीपिका बनकर प्रकाश नहीं फेंकतीं, बल्कि रचना की वेदना से सारे जग में उमंग लुटाती फिरती हैं।[9] न जानें कितनों की चाहों में उनका आवास होता है।[10] जिसके कारण उनके इस निजी विनोद से धर्म-पत्नियों को तड़पना पड़ता है।[11] वे अपने रूप और यौवन का जाल चारों ओर फेंकती हुई हँसी-हँसी में पुरुषों के मन का आखेट करतीं हैं।[12] वे विविध पीड़ाओं में आत्म-विसर्जन कभी नहीं करतीं।[13] अपने प्रेमी पुरुषों के क्षुधित अंक में वे स्वयं को बड़े यत्न से समेटती, क्षण-क्षण प्रकट होती, दूर होती, छिपती और फिर-फिरकर चुंबन लेती हैं।[14] उनका प्रेम झूठा और भ्रामक होता है। जो उनकी चाह में बाहें बढ़ाता है, बाद में उसे अन्धेरे के सिवा कुछ नहीं मिलता, आती तो हैं वे सपने की तरह उड़ती-उड़ती, अतीव आकर्षण लिए, किन्तु जब लौटती हैं तो अंधकार में खोती हुई, अता-पता मिटाकर।[15]

पुरुष की स्वच्छन्द प्रकृति का द्योतन पुरूरवा के माध्यम से किया गया है। स्वच्छन्द पुरुष का प्रेम भी स्वच्छन्द नारी की भाँति किसी एक घाट पर नहीं बंधता।[16] साथ ही स्वच्छन्द पुरुष स्वच्छन्द नारी के वश में अधिक रहते हैं।[17] सहधर्मिणी पत्नी में उनका मन कभी नहीं रमता।[18] और वे पुरुष जो प्रकृति-कोष से अधिक तेज लेकर आते हैं, वे और अधिक स्वच्छन्द होते हैं, वे फूलों से अपेक्षाकृत अधिक कट जाया करते हैं।[19] ऐसे पुरुष मादक प्रणय-क्षुधा से सदैव पराजित रहते हैं।[20] नित्य नई-नई सुन्दरताओं पर प्राण देते रहते हैं। वे नित्य मधु के नए-नए क्षणों से भीगना चाहते हैं तथा ओस-कणों से अभिषिक्त एक पुष्प नित्य चूमना चाहते हैं।[21] वे हमेशा नई प्रीति के लिए व्याकुल रहते हैं और जिस पर विजय पा लाते हैं, जो वश में आ जाती है, फिर उससे उनका मन नहीं भरता।[22] उनके गले में जो फूल झूल रहा होता है, उसके प्रति उनमें प्रेम नहीं जागता, जो जुन्हाई उनके क़दमों में न्योछावर हो चुकी होती है, वह उन्हें निस्तेज लगती है-

ग्रीवा में झूलते कुसुम पर प्रीति नहीं जगती है,

जो पद पर चढ़ गई, चाँदनी फीकी वह लगती है।

(उर्वशी, पृ० 33)

औशीनरी, सुकन्या और प्रणय-प्रवासिनी उर्वशी एकनिष्ठ नारियों की श्रेणी में आती हैं। इनके माध्यम से नारी के सात्विक निसर्ग का निरूपण हुआ है। एकनिष्ठ नारियाँ लज्जामयी होती हैं।[23] वे किसी छाया में छिपी हुई-सी होती हैं, प्रेम की खुली धूप में आँख खोलकर चलने में संकोच करती हैं।[24] उनमे जहाँ भी प्रेम उग आता है, बस वहीं उनकी दुनिया रुक जाती है[25] और अपने एकल प्रेम को ही आनंद का धाम मान लेती हैं।[26] ऐसी एकचारिणी नारियाँ प्रेम के विविध स्वाद से दूर रहती हैं।[27] फिर चाहे कितनी ही विपत्तियाँ क्यों न आएँ, कण भर का रस ही उनके लिए पर्याप्त है।[28] उनके केवल एक आराध्य होते हैं। एक ही तरु से लगकर सारी आयु बिता देने में उन्हें असीम सुख मिलता हैं।[29] उन्हें अपने पति से असीम प्रेम होता है, अपने भर्ता का निस्सीम गर्व होता है।[30] वे पति के सिवा किसी को अपना आधार नहीं मानतीं।[31] यहाँ तक कि पति-प्रेम के लिए देवी-देवताओं की आराधना करतीं हैं, व्रत-पालन करतीं हैं।[32] पति की अनुकूल दृष्टि के लिए वे सब कुछ करने के लिए तत्पर रहती हैं।[33] जीवन के सारे पुण्यों को प्रणय-वेदी पर चढ़ा देती हैं और उनका तन, मन, जीवन आराध्य के चरणों में ही अर्पित होता है।[34] तब भी भिखारिन की तरह पति के चेहरे को निहारती हुई प्रिय-नयनों में ही अपने सारे सुख खोजती रहतीं हैं।[35] यद्यपि उनकी यौवनश्री को क्षुधातुर प्रेम दानव रूप में पहले ही गस्से में हड़प लेता है, रूप-सौन्दर्य को अपनी कामासक्त भुजाओं के प्रेम-प्रदाह में समेट कर भून-भानकर रख देता है, जीवन के हरे-भरे बगीचे की चहक-चमक को रसाभिलाषी होठों के उत्ताप से पतझर की उदासीनता में बदल देता है, फिर भी जो ठठरी भर शेष रह जाती है, उसे वह प्रेम के हवाले ही किए रहती हैं। वे सारे घिन, असौन्दर्य और कष्ट ओढ़-बिछा लेती हैं तो केवल एक प्रेम के कारण ही।[36] यदि पति की भ्रमरवृत्ति से उन्हें हार जाना पड़े[37] और प्रेम की ज्वाला में आँसुओं की माला पिरोनी पड़े[38] तो भी वे बाट जोहती हुई पति के मार्ग में फूल की कामना ही करती हैं।[39] वे अश्रुमुखी होकर भी त्रिलोकभरण से स्वामी के कल्याण की भीख ही माँगती हैं।[40] और मन की हूक जीभ पर नहीं लातीं।[41] सारी आपदा को वे किसी भाँति सह लेना चाहती हैं, किन्तु प्रियतम के पाँवों में तुच्छतम कंटक का चुभना उनके लिए असह्य होता है।[42] प्रेमोत्सर्ग में उनका यौवन ढल जाता है, शरीर अशक्त हो जाता है और फिर सन्तान-स्नेह में ऊभ-चूभ होने से अन्तस्सुष्मा तो द्रवित होती ही है--

तन हो जाता शिथिल दान में यौवन गल जाता ,

ममता के रस में प्राणों का वेग पिघल जाता है।

(उर्वशी,पृष्ठ16)

आने वाले रोग, शोक, संताप, जरा के दुर्दिन में,[43] सत्व-भार के असंग निर्वहन में,[44] सन्तति के असंग प्रसव में,[45] उनके देह की सारी शोभा, गठन, प्रकान्ति खो उठती है।[46] फिर भी बर्फ की टुकड़ियाँ नदी का रूप ले सागर तो बन ही जाती हैं, सच है कि दैहिक सौष्ठव गँवाकर सन्तानवती हो जाने से ऐसी ममतामयी नारी इतनी महान हो जाती है, जिसकी कोई सीमा नहीं--

गलती है हिमशिला सत्य है गठन देह की खोकर ,

पर हो जाती वह असीम कितनी पयस्विनी होकर।

(उर्वशी,पृ०19)

और यही नहीं, ऐसी नारियों की गोद जब भर जाती है, तब उनमें नैसर्गिक पूर्णता आ जाती है, अर्थात् उनमें नारी सौन्दर्य अपनी सम्पूर्णता में दिखाई देने लगता है; तब वह दुधमुँहे शिशु को गोद में दुलारती हैं, हलराती हैं और तन्द्रामन्त्रण लय में साँझ से ही लोरी गाती हैं।[47] परन्तु जीवन-क्षेत्र में ऐसी गृहस्थ नारियों का दायित्व गंभीर व कठिन होता है।[48] ऐसी नारियाँ क्रिया-रूप नहीं होती, क्षमाशील, सहिष्णु और करुणामयी होती हैं।[49]

एकनिष्ठ प्रकृति के पुरुषों में कथित पात्र च्यवन तथा उर्वशीनिष्ठ पुरूरवा को लिया जा सकता है। ऐसे पुरुषों का निसर्ग-निरूपण उर्वशी में बहुत कम स्थलों पर, वह भी सांकेतिक रूप में ही हुआ है। ऐसे पुरुष राजमुकुट त्याग सकतें हैं, पर प्रेम की एकनिष्ठता नहीं। पुरषों का संन्यास, संन्यास न होकर उनके एकनिष्ठ प्रेम का परिष्कार मात्र होता है।[50] ऐसे पुरुष आलिंगन के क्षेत्र में इन्द्रिय धरातल की सीमा से ऊपर उठकर अतीन्द्रिय लोक में विचरण करते हैं। नर-नारी के दैहिक द्वैत की सीमा पारकर जाते हैं। ऐसा हो जाने से फिर उन्हें भौतिक आकर्षण स्वच्छन्द नहीं बना पता। एकनिष्ठता उनके ह्रदय में घर कर जाती है। उनकी एकनिष्ठता का महत्वपूर्ण कारण है--

वह निरभ्र आकाश जहाँ की निर्विकल्प सुषमा में

न तो पुरुष मैं पुरुष,न तुम नारी केवल नारी हो ;

(उर्वशी,पृ० 60)

x x x

और निरंजन की समाधि से उन्मीलित होने पर

जिनके दृग दूषते नहीं अंजनवाली आँखों को।

(उर्वशी,पृ०101)

वे भोगी और योगी दोनों हुआ करते हैं, यथावसर प्रेम और संन्यास दोनों मार्गों से गुज़रते हैं।[51] उनके निसर्ग की महत्वपूर्ण पहचान यह भी है कि उनमें नारियों के प्रति सदैव आदर-भाव रहता है।[52] उनमें सन्तान-प्रियता होती है तथा शिशुओं के प्रति अत्यन्त आकर्षण भी।[53]

इस प्रकार उर्वशी में मानवीय निसर्ग के चार स्वरुप सामने आते हैं-- नर-नारी को लेकर स्वच्छन्दता के दो और इसी प्रकार एकनिष्ठता के भी दो। स्वच्छन्द निसर्गों के माध्यम से अनर्गल संभोगेच्छा की समस्या उठाई गई है और एकनिष्ठ निसर्गों के माध्यम से उसका समाधान जुटाया गया है। समस्या रही है शरीर-स्तर के भोग की, यौनिक स्वच्छन्दता की, जो मात्र व्यक्तित्व की बहिर्मुखता का पर्याय नहीं हो सकती और समाधान दिया गया है भौतिक आधार से ऊपर उठकर आत्मा के अंतरिक्ष में पहुँचने का, यौनिक संस्कार का, जो केवल व्यक्तित्व की अन्तर्मुखता से सम्भव नहीं हो पाता। क्योंकि मनुष्य में व्यक्तित्व की बहिर्मुखता और अन्तर्मुखता के गुण सूत्र अन्य प्राणियों की अपेक्षा जटिलतम स्थिति में होते हैं। यदि मनुष्य बहिर्मुखी व्यक्तित्व का न होता तो इतना भौतिक विकास न कर पाता, और यदि उसमें अन्तर्मुखता न होती तो उसके लिए प्रेम-काम की पाशविक शैली से उबर पाना सम्भव न होता। प्रेम-काम के क्षेत्र में उसका अन्तरंग इतना सुन्दर न होता। इसलिए मानवीय "काम" को पशुता से उबारने के लिए जितना महत्त्व उसके व्यक्तित्व की अन्तर्मुखता का है, उतना ही महत्त्व बहिर्मुखता का भी मानना चाहिए। कम-से-कम मानव व्यक्तित्व में उसकी बहिर्मुखता मिटाने की बात सामाजिक दृष्टि से उपयुक्त नहीं हो सकती। उसे सिर्फ अन्तर्मुखता के सामंजस्य से सुसंस्कृत भर करना उचित है। तांत्रिक आचार्यों का दृष्टिकोण लेकर आचार्य द्विवेदी ने लिखा है कि "काम, क्रोध आदि मनोवृत्तियाँ जिन्हें शत्रु कहा जाता है, सुनियन्त्रित होकर परम सहायक मित्र बन जाती हैं।"[54] इसी मनोवैज्ञानिक निसर्ग-संस्कार का उदाहरण बनकर पुरूरवा-उर्वशी का समूचा व्यक्तित्व-युग्म उर्वशी में आया है। यह युग्म समस्याग्रस्त निसर्गों के कुसंस्कार का ऐसा हल है, जिसमें व्यक्तित्व की बहिर्मुखता और अन्तर्मुखता के संतुलन के स्थान पर अन्तर्मुखता का पलड़ा भारी हो गया है।

जैसे ज़रूरत से ज़्यादा भोजन स्वास्थ्य के लिए नुकसानदेह होता है, वैसे ही आवश्यकता से अधिक व्यक्तित्व की बहिर्मुखता या अन्तर्मुखता "काम" के क्षेत्र में समस्याएँ खड़ी करती है। च्यवन और सुकन्या के व्यक्तित्व में दोनों निसर्ग-पहलुओं अर्थात् बहिर्मुखता और अन्तर्मुखता का समान उपयोग हुआ है। जिसमें प्रेम-संन्यास, लोक-परलोक, जीवन-अध्यात्म, समाज के प्रति उन्मुखता-विमुखता संतुलित है और संतुलित है उनकी परस्पर प्रेम की एकनिष्ठता । जैसा कि गोस्वामी जी ने भी सुझाया है--

घर कीन्हे घर जात है,घर छाँड़े घर जाइ।

तुलसी घर-बन बीचहीं,राम प्रेमपुर छाइ। I

(दोहावली,दोहा सं.256)

यह दूसरे किस्म का समाधान है। या यों कहें कि च्यवन-सुकन्या के माध्यम से समस्या रहित निसर्गो के व्यक्तित्व-संतुलन की आदर्श झाँकी प्रस्तुत की गई है, जो पुरूरवा-उर्वशी की अपेक्षा समाजोपयोगी अधिक है; क्योंकि पुरूरवा-उर्वशी के निसर्गों में पहले तो बहिर्मुखता का आधिक्य रहा है, जिससे उनके निसर्ग प्रेम की स्वच्छन्दता से संत्रस्त रहे हैं, फिर जब उनमें अन्तर्मुखता आती है तो इतनी अधिक मात्रा में आती है कि उन्हें संन्यास, परलोक, अध्यात्म और सामाजिक विमुखता की एकांगी दिशा में ढकेल देती है।

इन सभी दृष्टियों से 'उर्वशी' काम-निसर्ग का काव्य सिद्ध होती है। प्रेमपरक निसर्ग की काव्यात्मक व्याख्या प्रमाणित होती है। उसकी संवेदना में रतिमूलक निसर्ग ही घनीभूत है। काम की नैसर्गिक समस्या और समाधान को लेकर ही उसकी सृष्टि हुई है। स्वच्छन्दता और एकनिष्ठता के बीच रत्यात्मक निसर्ग का द्विधात्मक संत्रास और उसकी द्विधामुक्ति ही इसका विचार-विन्दु है। ऐसे विचार-विन्दु के विस्तार में, प्रेम और काम की यौनिक उपपत्तियों के लिए कितने सटीक और पुराण-प्रसिद्ध पात्रों का चयन किया गया, यह कहने की आवश्यकता नहीं। और इसी वैचारिक विन्दु के विस्तृत कामाध्यात्म में कवि की मानसिकता के साथ-साथ भौतिकता भी अनुस्यूत हुई है, जिससे 'उर्वशी' के रूप में सर्वथा नवीन, गुरु-गम्भीर और अद्वितीय काव्य प्रतिफलित हुआ है। काव्य के समस्त उपादान, पुराख्यान, दर्शन, मनोविज्ञान, सामाजिकता आदि सब-के-सब 'उर्वशी' में निसर्गाश्रित हैं।

सन्दर्भ :

1. 1961 में प्रकाशित नाट्यशैली का दिनकरकृत महाकाव्य। श्री शिवपूजन सहाय के

शब्दों में हिन्दी का अभिज्ञानशाकुन्तल, 1972 में ज्ञानपीठ से पुरस्कृत।

2. पाश्चात्य समीक्षा : सिद्धान्त और वाद-- सत्यदेव मिश्र, पृष्ठ- 235

3. 'उर्वशी, पंचम संस्करण, 1973 ई0, पृष्ठ 14

4. वही, पृष्ठ 15

5. वही, पृष्ठ 15

6. वही, पृष्ठ 15

7. वही, पृष्ठ 103

8. वही, पृष्ठ 15

9. वही, पृष्ठ 15

10. वही, पृष्ठ 16

11. वही, पृष्ठ 31

12. उर्वशी, पृष्ठ 31

13. वही, पृष्ठ 15

14. वही, पृष्ठ 33-34

15. वही, पृष्ठ 34

16. वही, पृष्ठ 22

17. वही, पृष्ठ 34

18. वही, पृष्ठ 22

19. वही, पृष्ठ 36

20. वही, पृष्ठ वही

21. वही, पृष्ठ 22

22. वही, पृष्ठ 33

23. उर्वशी, पृष्ठ 154

24. वही, पृष्ठ 152

25. वही, पृष्ठ 15

26. वही, पृष्ठ 103

27. वही, पृष्ठ 103

28. वही, पृष्ठ 17

29. वही, पृष्ठ 103

30. वही, पृष्ठ 101

31. "पति के सिवा योषिता का कोई आधार नहीं है।"

(उर्वशी, पृष्ठ 37)

32. वही पृष्ठ 25

33. उर्वशी, पृष्ठ 27-28 व 34

34. वही, पृष्ठ 34-35

35. तब भी तो भिक्षुणी-सदृश्य जोहा करतीं हैं मुख को,

सदा हेरती रहतीं प्रिय की आँखों में निज सुख को।

(उर्वशी, पृष्ठ 35)

36. जहाँ प्रेम राक्षसी भूख से क्षण-क्षण अकुलाता है,

प्रथम ग्रास में ही यौवन की ज्योति निगल जाता है;

धर देता है भून रूप को दाहक आलिंगन से,

छवि को प्रभाहीन कर देता ताप-तप्त चुंबन से;

पतझर का उपमान बना देता वाटिका हरी को,

और चूसता रहता फिर सुन्दरता की ठठरी को।

x x x

किरणमयी यह परी करेगी यह विरूपता धारण ?

वह भी और नहीं कुछ, केवल एक प्रेम के कारण ?

(उर्वशी, पृष्ठ 17)

37. उर्वशी, पृष्ठ 34

38. वही, पृष्ठ 33

39. वही, पृष्ठ 38

40. उर्वशी, पृष्ठ 15

41. वही, पृष्ठ 38

42. वही, पृष्ठ 151

43. वही, पृष्ठ 16

44. वही, पृष्ठ 112

45. वही, पृष्ठ वही

46. वही, पृष्ठ 17

47. उर्वशी, पृष्ठ 19

48. वही, पृष्ठ 155

49. वही, पृष्ठ 157

50. पुरुरवा का संन्यास-ग्रहण

51. पुरूरवा और च्यवन

52. उर्वशी, पृष्ठ 16

53. वही, पृष्ठ वही

54. अशोक के फूल, घर जोड़ने की माया, पृष्ठ 32

जागरण जंक्शन का वैशिष्ट्य और उसके दशानन

जब ब्लॉग स्पॉट, ट्वीटर, वर्ड प्रेस्, टाइप पैड, फ्रेंड फीड, फ़ेस बुक, माई स्पेस, लाइव जर्नल, आदि अपने-अपने ढंग से लॉग-इन, ब्लॉगिंग की सुविधाएँ लेकर सामने आए और लोगों ने इन पर अपनी आमद दर्ज की, तो इस क्षेत्र में कुछ संस्थाओं द्वारा विशिष्टता के साथ व्यावहारिक होना अप्रत्याशित नहीं था। फलत: एनबीटी ब्लॉग, रचनाकार, गद्य कोश, कविता कोश, ओबीओ आदि नेटवर्क-माध्यम के ऐसे सशक्त मंचों का उद्भव हुआ, जो आज देवनागरी लिपि में हिन्दी वैचारिकता को पूरी तत्परता के साथ विश्व-पटल पर रखने में सक्षम हैं। जागरण जंक्शन उनमें से एक ऐसा मंच है, जो ब्लॉगर को ऐसी स्वतंत्रता प्रदान करता है, जैसा कि अन्यत्र दुर्लभ है। अन्य मंचों की सामग्री जहाँ नपी-तुली, निखरी, शान पर चढ़ाई हुई और अच्छी तरह देखी-भाली हुई होती है, वहीं इस मंच की सामग्री अपनी तद्भवी नवीनता, तात्कालिक उपस्थिति, बेलाग विचार-प्रवाह और अल्हड़पन के रूप-स्वरूप में उन्मुख होती है। इस मंच की ऐसी स्वतंत्रता इसकी श्रेष्ठता भी है और हीनता भी। यद्यपि समय-समय पर सम्पादक-मंडल द्वारा निर्देश दिए जाते हैं, किन्तु फिर भी स्वतंत्रता का छिट-पुट दुरुपयोग प्रकाश में आता है। इस तरह की स्वतंत्रता से सामग्री का स्तर भी प्रभावित हुए बिना नहीं रहता। तब भी जागरण जंक्शन पर श्रेष्ठ ब्लॉगरों की कमी नहीं है और उसकी लोकप्रियता दिनोंदिन बढ़ती जा रही है।

जागरण जंक्शन एक प्रभावशाली मंच के रूप में कार्य करता है, किन्तु इसका हमेशा के लिए मात्र अभ्यास-मंच बने रहना ठीक नहीं है। इसकी प्रतिभाओं का ब्लॉगिंग कोटर से निकलकर बाहर सामाजिक परिदृश्य में उजागर होना भी अपेक्षित है। ऐसा तभी हो सकता है जब ब्लॉग-लेखक कथ्य और शिल्प दोनों दृष्टियों से सशक्त प्रदर्शन करने में सक्षम हों। ऐसा भी लगता है कि दैनिक जागरण अपने ब्लॉग पोर्टल का इस्तेमाल दैनिक पत्र की पाठक-संख्या बढ़ाने के लिए करता है। वर्तमान मीडिया में परस्पर स्पर्धा और उसके बाज़ार-तंत्र को देखते हुए ऐसा करना अनुचित नहीं है। किन्तु जागरण जंक्शन के ब्लॉगरों को निम्न स्तरीय वामपंथी मान कर उनके प्रति हीन दृष्टि वाला व्यवहार भी उचित नहीं। परिहासपरक अभिप्राय यह कि दैनिक जागरण ब्लॉग संबंधी उत्कृष्ट आलेखों को अपने सम्पादकीय पृष्ठ पर निम्न स्तरीय ( नीचे की ओर ) वामपंथी ( बाएँ कोने पर स्थित कॉलम में ) संक्षिप्त स्थान देकर अपने दायित्व की इतिश्री मान लेता है। जबकि वासुदेव त्रिपाठी-जैसे ब्लॉग-लेखक बिना किसी सम्पादन-श्रम के सम्पादकीय पृष्ठ के प्रमुख लेखों की जगह स्थान पाने की प्रतिभा रखते हैं। ऐसा प्रकाशन भी कभी-कभी होना चाहिए, परन्तु ऐसा एक भी उदाहरण नहीं है कि ब्लॉगरों के लेखन को विस्तृत रूप में छापकर आगे बढ़ने में प्रोत्साहित किया गया हो।

इधर सद्गुरुजी ने कई किश्तों में अपनी प्रेम-कथा और जीवन-संघर्ष के रेखांकन से सब का ध्यान आकृष्ट किया है। उन्होंने प्रेम-प्रसंगों के आरंभिक जीवन-प्रवाह को बड़े रोचक रूप में कहा तो है, किन्तु जिस प्रकार अनुभुक्त और ठोस सामग्री उनके पास है, उस प्रकार अनुभूति की शिथिल सम्प्रेषणीयता के कारण वे सफल नहीं हो पाए हैं। ब्लॉग पर कच्ची अवस्था में तड़ातड़ पोस्ट डालते जाने की त्वरा ने एक महत्तवपूर्ण रचनात्मकता के प्रभाव को कम कर दिया है, जिसमें पुनर्लेखन का पर्याप्त अवकाश है। सद्गुरुजी-जैसे आत्म-कथा शिल्पियों को डॉ. हरिवंश राय बच्चन की चार खण्डों में विस्तृत आत्म-कथा, अज्ञेय के उपन्यास 'शेखर एक जीवनी' और धर्मवीर भारती के उपन्यास 'गुनाहों का देवता'-जैसी कृतियों का अध्ययन अवश्य करना चाहिए।

इस मंच पर ब्लॉग और पोस्ट का आधिक्य इतना भारी-भरकम है कि सबसे होकर गुज़रना और सब पर समालोचनात्मक दृष्टि डालना अत्यंत कठिन है। जो ब्लॉगर बार-बार दृष्टि पर चढ़ते हैं और ब्लॉगिंग परिक्षेत्र की सुदीर्घता के उपरान्त ध्यान आकृष्ट करते हैं, उनमें सर्वश्री ए.के. रक्ताले, चातक, तमन्ना, मनोरंजन ठाकुर, आ.एन. शाही, दिनेश आस्तिक, रेखा एफ.डी, रोशनी, विनीता शुक्ला, डॉ. सूर्य बाली 'सूरज', निखिल पाण्डेय, पीयूष कुमार पन्त, महिमा श्री, मलिक प्रवीन, सोनम सैनी, रीता सिंह सर्जना, डॉ. आशुतोष शुक्ल, पापी हरीश चौहान, दीपा सिंह, आशीष गोंडा, आचार्य विजय गुंजन, सुरेश शुक्ल ब्रह्मात्मज, सुधा जयसवाल, डॉ. भूपेन्द्र, आनंद प्रवीण, सुषमा गुप्ता, महा भूत, पीताम्बर थक्वानी, मनीषा सिंह राघव, सीमा कँवल, रचना वर्मा, भरोदिया, के.पी.सिंह गोराई, अजय यादव, मोहिंदर कुमार, उत्कर्ष सिंह, प्रदीप कुशवाहा, मदन मोहन सक्सेना, राजेश दुबे, यतीन्द्र नाथ चतुर्वेदी, सुषमा गुप्ता, भानु प्रकाश शर्मा, फूल सिंह, तौफेल ए. सिद्दीकी, विद्या सुरेंदर पाल, अनुराग शर्मा, अलका, अमन कुमार, ओम दीक्षित, संतोष कुमार, मीनू झा, शालिनी कौशिक, वन्दना बरनवाल, सत्यशील अग्रवाल, भगवान बाबू, उषा तनेजा, अनामिका, जयश्री, अमरसिन, उदयराज, सद्गुरुजी, अनिल कुमार 'अलीन', चित्र कुमार गुप्ता, संकल्प दुबे, अक़बर महफ़ूज आलम, डॉ. एस. शंकर सिंह, राजेश काश्यप, डॉ. कुमारेन्द्र सिंह सेंगर, बृज किशोर, उषा तनेजा, दीपक तिवारी, सीमा सचदेव, रंजना गुप्ता, अनिल कुमार, डॉ. रामरक्षा मिश्र 'विमल आदि उल्लेखनीय हैं ।

जागरण जंक्शन द्वारा लेटेस्ट, मोस्ट व्यूड, मोस्ट कमेंटेड और फीचर्ड तथा इसी प्रकार ज्यादा चर्चित, ज्यादा पठित और अधिमूल्यित संबंधी जो प्रचारात्मक एवं प्रोत्साहनपरक कॉलम प्रदर्शित किए जाते हैं, वे किसी सीमा तक ही ब्लॉग, ब्लॉगर और पोस्ट का मूल्यांकन करते हैं, उन्हें अंतिम मानक नहीं बनाया जा सकता। क्योंकि मोस्ट व्यूड में 'रिश्तों की उधेड़बुन', 'लड़की पटाने के तरीके', 'कुछ गंदे चुटकुले लेकिन हँसना है तो पढ़ो', 'पुत्र प्राप्ति के सरल उपाय'-जैसे आलेखों की अधिकता है। ठीक वैसे, जैसे अखबारों में काम संबंधी दवाइयों और उपकरणों के विज्ञापन अधिक पढ़े जाते हैं। एक और उदाहरण शशिभूषण की 23 अगस्त 2013 को पोस्ट की गई बेहतरीन गेयात्मक कविता पर महज तीन टिप्पणियाँ उपलब्ध हैं। ऐसे में ब्लॉग और पोस्ट के सम्बन्ध में सटीक समालोचना मंचीय रेखांकनों से हटकर वस्तुपरक अध्ययन की माँग करती है। पोस्ट के अंत में 'रेट दिस आर्टकिल' का आंकड़ा भी आलोच्य परिधि से बाहर का विषय है।

इस प्रकार उपर्युक्त दृष्टिकोण तथा तथ्यों के आलोक में और अत्यंत सीमित प्रारूप में जागरण जंक्शन पर दशानन की खोज तो और भी दुष्कर कार्य है। गत वर्ष हमने किसी ब्लॉगर महानुभाव पर सुधारात्मक दृष्टिकोण से टिप्पणी कर दी थी, किन्तु तब प्रत्युत्तर में ऐसी टिप्पणी मिली कि मैनें कान पकड़ लिया था। यदि आचार्य शुक्ल ने गोस्वामी तुलसीदास और सूफी कवि मलिक मुहम्मद जायसी, डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने संत कबीर तथा डॉ. नामवर सिंह ने नई कविता के सशक्त हस्ताक्षर मुक्तिबोध की आलोचना न की होती, तो इन महान साहित्यकारों की विचाशीलता वैश्विक स्तर के ज्ञानवान मानस में कैसे स्थापित होती ? इसलिए जोख़िम भरा दुस्साहस कर रहा हूँ और तमाम चेहरों में से जागरण जंकशन के दशानन को प्रतिमान के रूप में सामने लाने का विनम्र प्रयास कर रहा हूँ। इनमें किसी को छोटा-बड़ा कहना 'को बड़ छोट कहत अपराधू' के समान है। सभी श्रेष्ठ हैं और सब की अपनी विशिष्टता है। कोई अत्यधिक सक्रियता, कोई तार्किक क्षमता, कोई बेजोड़ प्रस्तुति, कोई रोचकता, कोई उदाहरण-उद्धरण सहित स्पस्टीकरण, तो कोई भाषिक आकर्षण से अपनी पहचान बनाता है। यह भी कि पसंदीदा आलेखों को आधार बनाकर इनकी श्रेष्ठताओं को रेखांकित किया जा रहा है, न कि इनकी कमियों को और यह भी कि अधिक श्रम और व्यापक अध्ययन से इनमें और नाम जोड़े जा सकते हैं।

प्रथम : वासुदेव त्रिपाठी

चयनित पोस्ट : हिन्दी का लैमार्कवादी विकास: राष्ट्रीय आत्मघात का एक अध्याय(1-2)

उत्कृष्टता : वासुदेव त्रिपाठी विचार, भाषा और तथ्य की दृष्टि से अत्यंत सुदृढ़ लेखन के साथ सामने आते हैं। वे उदाहरणों, सटीक प्रसंगों, मानक आँकड़ों आदि के शोधपरक विवरण देते हुए अपने विचार पुष्ट करते चलते हैं। उनमें सधी हुई श्रेष्ठ लेखकीय क्षमता परिलक्षित होती है। राजनीति, समाज, भाषा आदि विषयों से जुड़ी विसंगतियों पर उनकी पैनी दृष्टि रहती है तथा तार्किक विश्लेषण व निष्कर्ष से वे अपने लेखों को विशिष्टता प्रदान करते हैं।

'हिन्दी का लैमार्कवादी विकास: राष्ट्रीय आत्मघात का एक अध्याय(1-2)' में भारत और उसकी प्रमुख वाणी हिन्दी के पारस्परिक संबंधों की आधार-भूमि में सांस्कृतिक पतन का मौलिक रेखांकन किया गया है। भाषागत पतन के पीछे छिपी सूक्ष्म मानसिकता को बड़ी पैनी दृष्टि से पहचाना और उजागर किया है। विस्तृत लेख दो भागों में है तथा गम्भीरता के साथ पढ़ने की अपेक्षा रखता है।

द्वितीय : शशिभूषण

चयनित पोस्ट : आतंकवादी अंकल को चिठ्ठी !

उत्कृष्टता : शशिभूषण समय के कंगूरे पर खड़े, ओजस्वी स्वर के धनी गीतकार हैं। इनके यहाँ गेयात्मकता छंद विधान के साथ सुगठित रूप में शब्द की सवारी करती है। प्रत्येक गीत सामयिक चेहरा लिए हुए होता है और व्यंजित भावानुभाव में आम जनता की संवेदना समाई होती है।

'आतंकवादी अंकल को चिठ्ठी !'-जैसी गीतात्मक कविता आतंकवाद के प्रति मार्मिक भावनाओं का सम्प्रेषण प्रस्तुत करती है। आतंकवाद की निर्मम और बूचड़खाने-सरीखी हृदयहीनता से नन्हें, भोले-भाले बच्चों की कोमल भावनाओं के माध्यम से आया विस्तृत संलाप कुछ अत्यंत आवश्यक और मर्मस्पर्शी प्रश्नों को उकेरता है और क्रूरता को मानवता के पक्ष में सोचने के लिए प्रयास करता है -

"किस कारन खून बहाते हो, वह लिख कर हमको बतलाना !

जब बड़े बनेंगे हम आकर, वह चीज हमीं से ले जाना !

हीरा-मोती, सोना-चाँदी, जो भी चाहोगे दे देंगे !

पर आज खेलने-पढ़ने दो, उस दिन जो चाहो ले देंगे !

x x x

इतनी सी विनती है अंकल, आशा है इसे मान लोगे !

वह हँसी हमारे अधरों की, लौटेगी अगर ध्यान दोगे !

हम तुमसे कुट्टी कर लेंगे, जो बात नहीं मानी सुन लो !

अथवा जीने दो ख़ुशी-ख़ुशी, दो में से एक तुम्हीं चुन लो !"

तृतीय : सरिता सिन्हा

चयनित पोस्ट : निकलो न बेनक़ाब

उत्कृष्टता : सरिता सिन्हा जैविक-सामाजिक तंतुओं की सूक्ष्म अध्येता-दृष्टि लिए विचार-प्रवाह में पूरे मनोयोग और आनंद के साथ शब्दानुशासन करती हैं। वे अछूते मार्मिक विषयों को विद्वता के साथ न केवल उठाती हैं, बल्कि उसे सार्थक उपसंहार तक ले जाती हैं। उनका लेखन दिलचस्प, ज्ञानवर्धक और संदेशपरक होता है।

'निकालो न बेनक़ाब' में उन्होंने जैविक-सांस्कृतिक उप्पत्तियों के आधार पर अति अधुनातन और अतिरेकी मिजाज़ की नव नारियों के बेहद खुलेपन, स्वभाव, चाल-चलन, पहनावे आदि को उच्छ्रंखल तथा अभद्र पुरुषों को अनर्गल लैंगिक व्यवहारों के लिए उकसाने वाला सिद्ध करने का प्रयास किया है। उनकी भेदक दृष्टि का एक अवलोकन दृष्टव्य है-- "बेपर्दगी व अनियंत्रित व्यवहार की कोई सीमा नहीं रह गयी है..कपड़े तन को छुपाने के बजाय द्वितीयक लक्षणों को उभारने के लिए प्रयुक्त होने लगे हैं.." xxxxx "पुरुषों की बराबरी करने के लिए पैन्ट्स पहननी आवश्यक है, लेकिन उसे इतना लो किया जाता है कि ज़रा-सा झुकने पर विभाजक रेखा का दर्शन होने लगता है …"

चतुर्थ : निशा मित्तल

चयनित पोस्ट : बच्चे हमारा कल हैं,परन्तु?

उत्कृष्टता : निशा मित्तल 'जागरण जंक्शन' की सक्रिय ब्लॉगरों में से एक हैं। वे सन्देश परक घटनात्मक कहानियाँ तथा विचारोत्तेजक लेखों के साथ बराबर 'रीडर ब्लॉग' की फ़ेहरिस्त में दिख जाती हैं। संस्कारहीनता और गिरते जीवन-मूल्यों का चिंतन इनके कथ्य का मेरुदंड होता है, जिसकी बारम्बार परिक्रमा से मौलिक विचार आकार ग्रहण करते हैं।

"बच्चे हमारा कल हैं,परन्तु? " में निशा मित्तल ने आज के आम घरों में छीझते संस्कारों, बच्चों में पनपती अस्वस्थ चेतना, मांता-पिताओं और बड़ों द्वारा ज़िद्दी लाड़-प्यार का पोषण तथा जाने-अनजाने में चारित्रिक निर्माण की जगह उसके पतन के लिए प्रोत्साहन देने की विसंगति को घटित दृष्टांत के साथ प्रस्तुत किया गया है।

पंचम : यमुना पाठक

चयनित पोस्ट : फूलतोड़ना मना है

उत्कृष्टता : यमुना पाठक 'जागरण जंक्शन' की सक्रिय ब्लॉगर हैं। वे मौलिक और अछूते विषयों को बड़ी गंभीरता से उठाती हैं और निष्कर्ष-विन्दु तक भाषिक कौशल के साथ ले जाती हैं। उनकी ख़ूबी पाठकों के लिए रुचिकर भूमिका के साथ तथ्यात्मक लेख-विस्तार और उसके प्रस्तुतीकरण में भी दिखाई देती है।

'फूल तोड़ना मना है' में यमुना पाठक ने नारी के अंत: और बाह्य सौन्दर्य की सत्यता और शिवता का पुरज़ोर समर्थन किया है। उन्होंने नारी को पुष्प से उपमित करते हुए उसके विरुद्ध सदियों से चली आ रही और वर्तमान में और बढ़ रही विषमता को विस्तृत रूप में स्पष्ट किया है। उनके अनुसार जैसे हृदय व संस्कार दोनों से हीन लोग पुष्प को अकारण बेतरतीब से तोड़ते चलते हैं, उसकी पंखुड़ियों को बिखेरते जाते हैं तथा बेरहमी से पैरों से कुचल कर आगे बढ़ जाते हैं; वैसे ही गिरे हुए चरित्रहीन पुरुष नारियों से अमानवीय अश्लील व्यवहार करते हैं और बलात्कार तक की घटना को अंजाम देते हैं।

षष्ठ : अलका गुप्ता

चयनित पोस्ट : मानव प्रकृति और फाल्स सीलिंग!

उत्कृष्टता : अलका गुप्ता जिस तरह शब्दों को साधती हैं, वह अत्यंत श्लाघनीय है। पहले छपास के रोगी प्रकाशन घरानों की लाभेच्छा के चलते स्तर बनाए रखने के कड़े निर्देश और संपादकों की कड़ी नज़र के कारण सिर्फ़ रोगी बनकर रह जाते थे; किन्तु जब से ब्लॉगिंग की दुनिया ईज़ाद हुई और जागरण जंक्शन-जैसे मंच सामने आए, तब से ब्लॉगर महोदय ख़ुद ही सम्पादकश्री होने लगे और अलका गुप्ता-जैसे ब्लॉगरों को छोड़ कुछ लोग जीवंत शब्दों की जगह शब्दों की लाश पाटने में जुट गए। ऐसे भीड़-भाड़ से अलग अलका गुप्ता पहले विषयपरक तथ्यों को भली-भाँति समझने की प्रक्रिया अपनाती हैं, फिर आबद्ध सोच पर अंत:करण की भावना देती हैं और फिर सप्राणता की आँच से निसृत परिपक्व विचारों के दर्शन कराती हैं।

'मानव प्रकृति और फाल्स सीलिंग ! ' में अलका गुप्ता ने सहज और कृत्रिम व्यवहार वाले व्यक्तियों के अंतर को स्पष्ट किया है। वे असली छत और फाल्स सीलिंग की स्थितियों के आधार पर अंत: सौन्दर्य और बनावटीपन को समझने-समझाने का प्रयास करती हैं। उनका यह लेख आत्म-व्यंजना का पुट लिए हुए है। वे हृदय में कटुता, संकीर्णता और स्वार्थीपन तथा बाहर से अच्छाई ओढ़े कृत्रिम व्यक्तित्त्व की अपेक्षा आतंरिक रूप से व्यवस्थित, दृढ-प्रतिज्ञ और शुद्ध हृदय वाले सरल व्यक्तित्व को महत्त्व देती हैं और कृत्रिम व्यवहार में सुधार-संस्कार की बात करती हैं।

सप्तम : योगी सारस्वत

चयनित पोस्ट : वहाँ ज़िंदगी क़दम-क़दम रोती होगी

उत्कृष्टता : योगी सारस्वत जागरण जंक्शन के सुपरिचित ब्लॉगर हैं। वे देश-विदेश और समाज के रूप-स्वरूप, गति, क्रिया-प्रतिक्रिया आदि पर अंतरवर्ती दृष्टिपात करते हैं और रोज-बरोज की वैश्विक हलचल से प्रासंगिक विषय पर विचार करते हैं। उनकी संवेदना मानव-वेदना की न केवल थाह लेती है, बल्कि उसे मर्मभेदी चेतना के साथ सार्वजनिक भी करती है।

'वहाँ ज़िंदगी क़दम-क़दम रोती होगी' में योगी सारस्वत ने पाकिस्तान और कुछ अन्य देशों में रह रहे वहाँ के हिन्दू नागरिकों की दुर्दशा पर विचारणीय चर्चा की है। वहाँ हिन्दुओं की सहिष्णुता, सौहार्द, भाईचारा और धार्मिक समभाव के बदले अच्छा बर्ताव नहीं होता, उलटे मज़हबी ठेकेदारों और उनकी कट्टरता के चलते आए दिन अपमानित जीवन और मौत का सामना करना पड़ता है।

अष्टम : जे. एल. सिंह

चयनित पोस्ट : मलाला का मलाल

उत्कृष्टता : जे. एल. सिंह हास-परिहास, व्यंग्य, देश-विदेश की समस्या, ज्वलंत घटनाओं आदि पर आधारित विषयों के तात्कालिक और त्वरित ब्लॉगरों में से एक हैं। वे '2014 का भारत' तथा 'जागरण नगर में होली की हुडदंग !' में अनेक ब्लॉगरों की खैर-ख़बर लेने में गज़ब की दिलचस्पी दिखाते हैं। गंभीर और व्यापक संवेदनाएँ भी उनकी अभिव्यक्ति से परिपाक लेकर पठनीय आलेख का आकार ग्रहण करती हैं।

'मलाला का मलाल' के माध्यम से जे. एल. सिंह ने युग-युग से पुरुषों के दंभ की दासता में जकड़ी नारी-चेतना के कैशोर्य उत्साह, पराक्रम और बलिदान की कीमत पर बढ़े हुए कदमों को अब न रुकने देने और समानता के धरातल पर नारी-सार्थकता का परचम लहरा देने की अनुपम जिजीविषा और संघर्ष को शाब्दिक स्वरूप दिया है।

नवम : फिरदौस खान

चयनित पोस्ट : एक शाम फ्योदोर दोस्तोयेवस्की के नाम

उत्कृष्टता : फिरदौस खान बड़ी ही साफ़-सुथरी भाषा और झरने की तरह निर्मल विचारों के साथ पाठक के अंतस्तल में गहराई तक उतरती हैं। 'एनबीटी' की अपेक्षा 'जागरण जंक्शन' के ब्लॉगर ख़ुद ही प्रस्तोता और ख़ुद ही सम्पादक होने के कारण 'राजा' हैं। कुछ तो दिग्विजयी राजा हैं - यहाँ तक कि एक पोस्ट कई बार पोस्ट कर देते हैं। कुछ तो न जाने क्या-क्या लिखने के लिए ब्लॉग पर आते हैं -आँय-बाँय-साँय सब लेकर, हमारे देश के भीड़तंत्र की मनमानी की तरह। इन सब के विरुद्ध फिरदौस खान की प्रत्येक प्रस्तुति पठनीयता की दृष्टि से बहुत आकृष्ट करती है।

'एक शाम फ्योदोर दोस्तोयेवस्की के नाम …' में फिरदौस खान ने मशहूर रूसी लेखक फ्योदोर दोस्तोयेवस्की की किताब के हवाले से उनके संक्षिप्त जीवनवृत्त और साहित्य का रोचक वर्णन किया है और उनके साहित्य से जुड़े कुछ मार्मिक प्रसंग दिए हैं। भाषा और कथ्य की सहजता तथा दर्पण की तरह प्रस्तुति की स्वच्छता लेख की प्रमुख विशेषता है।

दशम : डॉ. शिखा कौशिक

चनित पोस्ट : श्री राम ने सिया को त्याग दिया ?

उत्कृष्टता : शिखा कौशिक प्राचीन-अर्वाचीन दोनों ही अवधारणाओं की कवयित्री हैं। सामाजिक-राजनीतिक उठापटक पर भी वे गंभीर और काव्योक्तियों से पुष्ट चुटीले विचार रखती हैं। उनकी ख़ूबी इस बात में है कि वे युवा मानसिकता के उपरांत पुराने भारतीय मूल्यों की पक्षधर हैं। कथ्य के कसाव और तेवरवाली भाषा की दृष्टि से उनके ब्लॉग पठनीय होते हैं।

'श्री राम ने सिया को त्याग दिया ?' में शिखा कौशिक ने सीता-निर्वासन के विवाद पर एक अनूठी उद्भावना का परिचय दिया है। दर असल यह एक ऐसा विवाद है जिस पर संस्कृत और अन्य भारतीय साहित्य में न जाने कितने पृष्ठ सर्फ़ किए गए हैं। पर शिखा कौशिक ने रामकथा की परस्थितियों, प्रसंग, राम-सीता के नैतिक निसर्ग आदि के आधार पर अपनी तर्कना के निकष पर विवादित तथ्य को कसते हुए ऐसी नवीन उद्भावना स्थापित की है, जैसी कदाचित् समाज और साहित्य में पहले नहीं कही-सुनी गई। इस सम्बन्ध में शिखा कौशिक द्वारा उक्त कविता की प्रस्तावना के रूप में प्रतुत विचार भी ध्यातव्य है -"सदैव से इस प्रसंग पर मन में ये विचार आते रहे हैं कि क्या आर्य-कुल नारी भगवती माता सीता को भी कोई त्याग सकता है। वो भी नारी सम्मान के रक्षक श्री राम ? मेरे मन में जो विचार आए व तर्क की कसौटी पर खरे उतरे उन्हें इस रचना के माध्यम से मैंने प्रकट करने का छोटा-सा प्रयास किया है।" और कविता के समापक दो बंधों में कवयित्री की अनुपम उद्भावना देखते बनती है-

"होकर करबद्ध सिया ने तब

श्रीराम को मौन प्रणाम किया;

सब सुख-समृद्धि त्याग सिया ने

नारी गरिमा को मान दिया।

मध्यरात्रि लखन के संग

त्याग अयोध्या गयी सिया;

प्रजा में भ्रान्ति ये फैल गयी

'श्री राम ने सिया को त्याग दिया'।"

अंतत: अल्पज्ञता, वैयक्तिक अभिरुचि, स्थानाभाव के कारण जिन ब्लॉगों का उल्लेख यहाँ न हो सका, उनका महत्त्व मेरे इस प्रयास से किसी तरह कम नहीं होता। मैं जागरण जंक्शन के सभी पठित-अपठित ब्लॉगरों के प्रति सम्मान प्रकट करते हुए आभार मानता हूँ कि उनकी वैचारिक चेतना के चलते ही इस आलेख में कुछ कहना संभव हुआ। अब ब्लॉगिंग लेखन पर भी गहन आलोचना-दृष्टि डालने की आवश्यकता है। इससे मुद्रित वांड्मय की तरह ब्लॉगिंग संसार की भी श्रीवृद्धि होगी।

गँवई गंध-गुमान : ग्रामीण जन-जीवन का एक सच्चा दर्पण

प्राथमिक पृष्ठों से गुज़रते हुए 'गँवई गंध-गुमान' में 'गुमान' शब्द का प्रयोग विरोधाभासी और भ्रामक लगता है। "इस गाँव में न तो अतीत में ऐसा कुछ था और न ही वर्तमान में कुछ है जिस पर मैं गर्व कर सकूँ कि हाँ यह मेरा गाँव है। इस गाँव के खाते में सचमुच कुछ भी नहीं है, फिर भी पता नहीं क्यों यह मुझे बहुत परेशान करता है। जब भी मैं लिखने के लिए कोई विषय उठाता हूँ तो यह किसी न किसी बहाने मेरी आँखों के सामने आकर खड़ा हो जाता है मेरे बूढ़े बाप की तरह, मेरे चेहरे पर घृणा से ताकता है और पच्च से जमीन पर थूक देता है।"-- यह है लेखक का पृष्ठभौमिक कथन। फिर 'गुमान' शब्द क्यों और कहाँ से आ गया ! और आगे भी लेखक का दुराव-भरा दृष्टिकोण देखिए- "मुझे अपने गाँव से लगाव है, ऐसा मुझे कभी लगा ही नहीं। X X X प्रेम और आत्मीयता जिसके बूते हर तरह की मुसीबतें झेल ली जाती हैं लेकिन यहाँ प्रेम और आत्मीयता नाम की चीज एक कतरा भी नहीं मिलेगी, न घर के भीतर और न ही बाहर। X X X क्या है इस लिखने के पीछे मैं खुद भी नहीं जानता लेकिन इतना मैं जरूर जानता हूँ कि इस गाँव के बारे में इतना कुछ जानता हूँ कि इस पर एक पोथा लिख दूँ और शायद इसीलिए मैं इस पर लिख रहा हूँ।" इस प्रकार स्वानुभूति के उद्रेक में आरम्भ के कुछ पृष्ठ तिरस्कार की भावना से महज़ यह दिखाने के लिए सर्फ़ किए गए हैं कि लेखक को अपने गाँव पर कोई गर्व नहीं हैं। फिर उसी की ग्राम्यता पर 'गुमान' कैसा और क्यों ! फिर तो इस कथाकृति को सिर्फ़ 'गँवईगंध' कहना अधिक समीचीन होता, पर वस्तुत: ऐसा नहीं है।

कुछ पृष्ठों में आए आख्यानक स्थल दर्शनीय हैं, जहाँ उसी गाँव में मानवीय चरित्र की सुगन्धित बयार भी कभी-कभी बहती है-

"भागवत जूधन को चुप रहने की हिदायत देकर पेड़ पर चढ़े थे और ऊपर से उतार कर नीचे लाए थे। तीन दिनों का भूखा प्यासा जूधन लश्त, चलने की ताकत नहीं थी, भागवत उसे घोड़इयाँ लाद कर घर लाए थे।"

"खेतों में फसल पकने के साथ-साथ महुआ की भीनी सुवास और आम के बौर की गमक चारों तरफ अजीब सी मस्ती भर गया था। लोग भूल गए थे ठंड और भूख व हर कोई व्यस्त हो गया था फसल की कटाई में। आधा बैसाख आते-आते कइयों गृहस्थों के यहाँ दौनी खत्म हो गई थी और जिनके यहाँ बाकी था वे भी ओर मेड़ पर थे। घर में अन्न, आम के पेड़ों में वजनी होते टिकोलें, महुआ के कूचों से झाँकती कोइया, पगलाई नीम की पात-पात, फूलों से भरे जंगल में करवंद, कटाय और बरकटे अपने फूल झाड़ फलों से लद गए थे। फिर ऐसे मौसम में आदमी क्यों न पगलाए चारों तरफ।"

"गाँव में तीन तीन शादियाँ, एक चमरौटी में पतई चमार के यहाँ, एक धनी नाऊ के यहाँ और एक बभनटोली में चौहर्जा के यहाँ। सुबह से ही चारों तरफ भागम भाग, गाँव में सभी लोगों में गहन व्यस्तता। तीनों शादियाँ लड़कियों की है। इज्जत की बात है। गाँव की इज्जत की बात। बड़े बुजुर्गों ने लोगों को बाँट दिया है तुम और तुम बाबा के यहाँ डटे रहोगे और तुम धनी नाऊ के यहाँ... इस भीड़ में ख्याल रखना पतई चमार भूल न जाए... पतई चमार को सुबह ही बुला बोल दिया गया था किसी चीज की जरुरत पड़े झट गाँव में खबर कर देना।"

"बैशाख का झाँव झाँव करता लू... घंटे भर हलक के नीचे पानी न जाए तो हलक सूखकर काँटा हो जाती है लेकिन लड़कियों के पाँव पूजने का फल, जिन्दगी में सात चमार की लड़की का पाँव पूज लो तो सीधा बैकुंठ मिलता है। किसको मिलेगा यह सौभाग्य अपनी जिन्दगी में कि सात चमार कन्याओं के पौपुजी का सौभाग्य मिले। इसीलिए लोग गिनती में सभी जातियों की लड़कियों को गिनने की छूट ले लेते हैं। अगर गाँव में सिर्फ बामन कन्या की बात होती तो बहुत से लोग पौपुजी का बखेड़ा नहीं करते लेकिन चमार और नाऊ की लड़की के पौपुजी का झोली में आया फल कैसे बहा दें। इसलिए गाँव में ज्यादातर औरत-मर्द निराजल उपवास पर हैं आज। यहाँ तक कि दस बारह बरस की लड़कियाँ भी...I"

"काकी थार, परात, कठौता, बाल्टी, खटिया, दरी गलैचा, जो है घर में दै देव ...I"

"ओसारे में मर्दों की पाँत बैठी है, थाली परात कठौते में आटा ले लोई तैयार करने में दरवाजे और आंगन में जाजिम बिछा पत्तल पर औरतों का समूह सभी उम्र की औरतें, बूढ़ी, जवान, लड़कियां, सब अपने घर से चौका बेलना लेकर आई हैं। जिनके पास चौका बेलना नहीं है वे चकई काटने में जुटी हैं। कोने में... सुरक्षित जगह में कड़ाह चढ़ा हुआ है और उसमें टीना, दो टीना घी खाप दिया गया है। मर्दों में हँसी मजाक हो हो हा हा चल रहा है बाहर ओसारे में। दरवाजे में और आंगन में औरतें पूड़ियाँ बेल रही हैं और गीत भजन पुरवी नटका उलार बन्ना गाने में जुटी हुई हैं।"

इस तरह "गाँव में पिताजी के निहायत घटिया वजूद की तरह।" और "शायद पिताजी का घृणा से बिगड़ गया उनका चेहरा और जमीन पर उनका पच्च से थूकना कि उनके मुंह में कोई बड़ी भयानक बदबूदार चीज घुस गई हो," और "उलटे जब भी कभी गाँव जाता हूँ, तो दो तीन दिन में मन ऊब उठता है, मन होता है भाग चलूँ यहाँ से क्योंकि जब मैं अपने घर में होता हूँ जिसमें मैं पैदा हुआ तो घर के भीतर और बाहर मक्खियों की भिनभिनाहट, खाने बैठिए तो एक हाथ से मक्खियाँ हड़ाते रहिए।" और "गर्मी के दिनों में उमस और लू। लगता है दम घुटा जा रहा है। बरसात में चारों तरफ कीचड़ और गंदगी, न दिन में चैन न रात में। बिस्तरे में जाइए तो मच्छरों का आक्रमण, गर्मी ऊपर से।" और इस तरह भी कि जहाँ "विद्वेष, ईर्ष्या, डाह और जलन लोहे की दीवार बन खड़ी हो गई हैं आपसी रिश्तों के बीच।" और "रिकग्निशन" की जगह "प्रताड़ना और दुत्कार"-जैसी अनेक सहज-स्वाभाविक, नैसर्गिक, सुख-सुविधाओं से हीन, सभ्यता-विहीन, मलिन और मनोमालिन्य ग्रामीणता के अरुचिकर परिवेश से दूर भागती स्वानुभूत संवेदनाओं की अभिव्यक्ति करते-करते 'गँवईगंध' के कुछ उपर्युक्त 'गुमान' इस कथाकृति में हठात् आख्यायित हो उठे हैं, जिससे सोमेश शेखर की तिर्यक रचनाशीलता की प्रखरता तो सिद्ध होती ही है, इस उपन्यास के शीर्षक में गुँथा 'गुमान' शब्द का विरोधाभास और भ्रम भी दूर होता है। फिर आगे संघटित होता है एक आख्यात्मक, किन्तु अनूठा उपन्यास-- 'गँवई गंध-गुमान'। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि 'गँवई गंध-गुमान' के आरम्भ में प्राकृत ग्रामीणता के अनेकानेक अवगुणों से दूर भागती लेखकीय संवेदनाओं में प्रकारांतर व्यंग्य निहित है, जो (शहरी सभ्यता का नेपथ्यपरक समर्थन करते हुए) कथा-विस्तार में भारतीय समाज के दो अतिशय पीड़ाजनक तथा विषमय अपकृत्योंको प्रमुखता और अत्यंत सूक्ष्मता से उकेरता है, जिनसे इस उपन्यास की अभीष्टता और विशिष्टता द्योतित होती है। हमारे देश की सामाजिकता में गहराई में अपनी जड़ों के साथ व्याप्त वे दो अतिशय पीड़ाजनक तथा विषमय अपकृत्य हैं-- दलित-शोषण तथा नारी-यातना।

यथा नाम तथा गुण... "सुलतानपुर से उत्तर इलाहाबाद फैजाबाद रोड पर, जहाँ दसवें किलोमीटर का पत्थर गड़ा है, वहाँ खड़े होकर पश्चिम की तरफ देखें, तो आधे किलोमीटर की दूरी पर रेलवे लाइन से सटा गाँव है चंदौली। उत्तर इसके अहीरों और कुर्मियों का गाँव है बहिरा, पश्चिम में कुम्हारों की एक छोटी बस्ती है, दक्षिण में किलोमीटर भर की दूरी पर मुसलमानों का वैसा ही एक छोटा पुरवा है, पूरब में रेलवे लाइन और जंगी सड़क। गाँव में इस समय पचासी घर हैं, जिसमें तीन घर नाइयों का है और चार कहाँरों का। गाँव के दक्षिण कोने पर चमरटोली है जिसमें दस घर चमार हैं बाकी गाँव की आबादी ब्राह्मणों की है। यही है मेरा गाँव, इसकी चौहद्दी और इसके बासिन्दे।"...और वही चंदौली इस उपन्यास का मेरुदण्ड है। आदि से अंत तक, कथाकार की समस्त जानी-परखी सघन गंध उसी चन्दौली की, उसकी चौहद्दी और बासिंदों की तथा उसी के इर्द-गिर्द की है, जिसमें कोई एक नायक-नायिका नहीं है, कोई एक प्रधान चरित्र नहीं है। चंदौली के उसी गन्धवाही अंचल में बस 'गँवार और गँवईपन' की प्रधानता है। और वही 'गँवार और गँवईपन' का प्राधान्य विभिन्न रंग-रूपों, दाग-धब्बों, गंध-सुगंध तथा गहरे तक चुभने वाले अनुभव के रूप में समस्त कथापृष्ठों में प्रतिच्छायित हुआ है।

गाँव-गँवई की निन्द्य-अनिन्द्य गंध के बहुत-से चित्रबिंब इस उपन्यास की कथात्मकता को प्रभावी बनाने में सफल रहे हैं ...पाठक का साक्षात्कार जिस चंदौली की गाँव-गँवई से होता है, वहाँ कीचड़ और गंदगी है, दरिद्रता है, आर्थिक पिछड़ापन है, 'रिकग्निशन' के बजाय 'प्रताड़ना और दुत्कार' है। अनेक जातियों, धर्म और टोलों में बँटे लोग, खटकती पट्टीदारी, "आपसी विग्रह और घर के भीतर औरतों में काँव-कचर" और "जहाँ मेहरारू आते ही बेटों की बुद्धि औरतों के टेट में कैद हो जाती है।" "और जनाना को कब्जे में करके रखना उसका कर्तव्य है और जनाना को कब्जे में करके कैसे रखना होता है वह उसे पैदा होते ही घुट्टी पिला दी" जाती है- "डंडा हमेशा नरेटी पर हुरे रहो देखो गुर गुर करके काँपेगी साली, जहाँ जरा सा दाहिने बाएँ हिले, लाल कर दो पीठ बीच बीच में, बस टेंकुए की तरह सीधी रहेगी।" "अगहन का हुरहुरा, पूस माघ का ठंड"...भुखमरी ऐसी कि सकरकंदी और उसकी सूता-सुतरी के लिए "औड़िहारों की झुंड की झुंड झौली लिए टूट पड़ते हैं खेतों पर।" भूख ऐसी कि 'पेट में महामाई का कोप' औलियाता है। यहाँ तक कि 'बखरिहा' भी बर्रे और महुआ का लाटा बना बनाकर कुल घर खाते हैं। ऐसे में उधारी... वह भी बेर्रा की, मात्र एक पसेरी की, वह भी बड़े हिम्मत से हो पाती है। 'जेठ और अषाढ़ तक'- शादी-ब्याह, गौना, पौपुजी... "लोग मतुआए, खुली देह गंदी धोती जिसे वे घर पर पहनते हैं उसे पहन धराऊँ धोती कुर्ता झोले में डाल, एक लाठी काँधे पर और लाठी में फँसा झोला पीठ पर लटकता हुआ और लाठी के ठीक ऊपरी सिरे पर जोड़ी चमरौधे का।" "एक जोड़ी धोती, गमछा, गुड़, चावल, आटा, रूपया।" "लड़कियों की शादी है ...पौपुजी करना है तीन तीन लड़कियों की...", "जिन्दगी में सात चमार की लड़की का पाँव पूज लो तो सीधा बैकुंठ मिलता है।" "इसलिए गाँव में ज्यादातर औरत मर्द निराजल उपवास पर हैं आज। यहाँ तक की दस बारह बरस की लड़कियाँ भी...I" बन्ना, नटका, उलार, कहँरवा, भजन, नउआ झाकड़, रंडी की नाच, तबला और सारंगी, मजीरे की ताल, मृदंग, झाँझ, सिंघी, खड़ताल, नगाड़ा... और "एक फूल फूलै आसमानी अबहि मोर बारी जवानी", "बनरा हो आया आधी रात", "बराती एक्कौ मने कै नाहीं", ...हुद्दा बाजा -- "खइया के आड़े आड़े आड़े आड़े खइया के खइया के आड़े आड़े आड़े।" "चौहर्जा की बारात काफी सजी हुई अच्छी लगी थी, दूल्हा वैसे खास बखान करने लायक नहीं था फिर भी लड़की की तुलना में ठीक था, उम्र 11 वर्ष।" "धनी नाऊ के यहाँ लड़के की उम्र भी नौ दस साल से ऊपर नहीं रही होगी।" "पतई चमार के यहाँ का हो या धनी नाऊ के यहाँ का या कि चौहर्जा के यहाँ का औरतों में देखने की सबसे बड़ी जिज्ञासा होती है सो उन्होंने पतई चमार के दूल्हे को भी देखा जो अभी भी माँ का दूध पीता था और माँ की गोदी छूटते ही हिन हिनाकर रोता था, नंगई करता था।"

चंदौली की गाँव-गँवई की और भी अनेक मार्मिक प्रतिच्छवियाँ हैं। किशोरावस्था के उन्माद में रामनिहोर, रतिया और रधिया का एकान्तिक संलाप तथा रात के अँधेरे में रामनिहोर का कामुक हस्त-चापल्य और लखिया के अंत की त्रासदी का स्मरण होते ही वर्जना और त्राण की त्वरा में औचक दैहिक संसर्ग का रसाभास- "रामनिहोर का दिमाग सनसना रहा था... उसे इस बात की सपने में भी उम्मीद नहीं थी कि रधिया और रतिया खुद उसे एकांत बाग में ले जाएँगी। X X X रामनिहोर का डर अब पूरी तरह खत्म हो गया था, अब उसने रधिया को अपनी देह से सटा लिया और उसकी छातियाँ दबाने लगा था, रतिया जो इतनी देर तक रामनिहोर से थोड़ा अलग खड़ी थी उसकी देह से सट गई थी। X X X वह रधिया की छातियाँ छोड़ अपने हाथ नीचे उसके पेट के नीचे से सरकाता उसकी धोतियाँ ऊपर उठाया था लेकिन... X X X रधिया छिटककर अलग खड़ी हो गई थी। नहीं वह छोड़ और सब कुछ कर सकते हो। X X X तूने लखिया को देखा नहीं... क्या हम लोगों को जिंदा नहीं रहने देना चाहते हो क्या ?" और जनवासे के बीच अन्यत्र से जुड़ी ज़ेवर-गहने की उज़्रदारी-- "पंचों अगर आप लोगों की इजाजत हो तो मेरी एक उजुर है पेश करूँ।" और बरात में करिंगा का स्वांग और नगाड़े-बाजों की सामूहिक ध्न्यात्मकता-- "फेरई ने अपनी पूरी ताकत से बिहाड़ी की पीठ पर बोलवाई सटकार दिया। फटाक की बड़े जोर की आवाज हुई और इस आवाज के साथ सभी बाजे गड़ गड़ाकर झाम किए और चुप हो गए।" और बरातियों-घरातियों की नोक-झोंक, व्यंग्य-बाण, दबाव-आपाधापी, गीत-गवनई और नेगचार-- "लड़के वालों ने माँग, लेन देन, खाना पीना जैसी बातों को लेकर लड़की वालों पर ज्यादती की और लड़की वालों ने बारातियों को अच्छत दिखा दिया (विदाई का आदेश)।" "लो चमारों खरमिटाव कर लो...(हलवाहों को सुबह नौ बजे नाश्ता दिया जाता था उसी सेंस में इसे खरमिटाव कहते थे)"। "बस अभी आ गया ददई वह देखो।" "दूलहा खिचड़ी न खाए मोहर बिना... औरतें गीत गा रही थीं।" "चौहर्जा... सोने का कंठा और सिकड़ी और भैंस, दूध खाने को...", "चमैनी के आगे ढीढ़ा न छुपाओ पंडित शेष नारायन।" "...होते हवाते समधी मान गया था, देखा था उसने अब इसके आगे ऐंठने में कोई रस निकलना नहीं है।" ...इत्यादि के भिन्न-भिन्न चित्रण में पर्याप्त खरापन है, जिससे गाँव-देहात का घटित दृश्य-परिदृश्य आँखों के सामने उतर आता है।

दलित-शोषण और नारी-यातना 'गँवई गंध-गुमान' के प्रमुख विषयों में से हैं, जिसका प्रस्तुतीकरण सोमेश शेखर ने यथातथ्य और बड़ी संजीदगी से किया है। मैंने बड़े-बड़े शास्त्रज्ञों, प्रकांड पंडितों, महान साहित्यकारों, विशाल-से-विशाल पंडालों और उच्च मंचों से धर्मधुरंधर प्रवचनकर्त्ताओं आदि को 'ताड़ना' शब्द और उसके प्रासंगिक प्रयोग पर शब्दार्थ की कला में पारंगत होते पाया है और उनकी विद्वता से बहुत बार चमत्कृत और धन्य हुआ हूँ। किन्तु इस उपन्यास में 'ताड़ना' का प्रसंग आने पर मेरे साथ वैसा कुछ भी नहीं हुआ, बस दर्पण की सच्चाई से मेरा मन नतमस्तक हुआ है-

"किस्सा इस तरह से है कि इसकी सास बड़ी निष्ठुर थी। वह इसे दिन रात ताड़ना दिया करती थी। घर में इसे खूब खटवाती थी और खाने के नाम पर कभी दो दिन तो कभी तीन दिन में दो चार रोटियाँ इसके सामने फेंक दिया करती थी।" X X X "सास उसे तुरंत पकड़ लेगी और फिर इसकी सास तो बड़ी खराब थी वह इसकी ताड़ना करने के लिए हमेशा इसके पीछे पड़ी रहती थी।"

"माँ की बात सुन बेटे को क्रोध आ गया था उसने उठाया घसपिटना और बहू को इतना मारा इतना मारा इतना मारा कि वह मर गई।

मर गई ?

हाँ मर गई।

इतना मारा कि मर गई ?

हाँ रे मारते मारते उसने मार ही डाला।

अच्छा तब क्या हुआ ?"

"मरने के बाद बहू ने इसी चिड़िया का जन्म लिया और जनम लेने के बाद वह अपना वही पुराना हाल सोच सोच रोती है सास सगवे थोर थोर, सास सगवे थोर थोर ...I"

"बहन का सुनाया हुआ यह किस्सा और इसी तरह के कईयों किस्से इसी जमीन से जन्मे हैं। ताड़ना, बेबसी, मजबूरी के किस्से कभी महोख चिड़िया की बोली पर तो कभी किसी जानवर की। यहाँ तक कि चूहा चुहिया को माध्यम बना कइयों किस्से कहानियाँ गाँव में प्रचलित थीं। प्रचलित किस्से कहानियों के अलावा भी गाँव में औरतों में इतनी घुटन और मजबूरी और बेबसी थी कि उन्होंने उसे भोगते हुए जितना तक जिंदा रह सकीं थीं जिंदा रहीं और जब उनसे बर्दाश्त नहीं हुआ तो वे या तो तारा इनारा लेकर अपने को खत्म कर लीं या फिर बहन की तरह रई की बीमारी से ग्रस्त हो अट्ठारह साल की उम्र में ही सिधार गईं।"

दलितों की बात की जाय तो जूधन, फकीरी, बिसराम, पल्टू, पतई, बिहाड़ी, कबडू, धनी नाऊ, दतई चमार, सुखरमवा आदि प्रमुख और कथित पात्रों के माध्यम से दलित-जीवन का संघर्ष इस उपन्यास में भली-भाँति अनुस्यूत है। दलितों के असीम शोषण की घटित बर्बरता से आवरण उठाते हुए तथ्यात्मक, सहित चेतना जिस प्रकार यहाँ व्यक्त हुई है, साहित्य के सन्दर्भ में वह और भी श्लाघनीय है; क्योंकि साहित्य की गति युग-युगीन तथा गंभीर होती है- "पहले जब भी घर आता था, जूधन इसी तरह मेरे पाँव पकड़कर बैठ जाता था मेरी खैर पूछता था, कुछ नई पुरानी बातें होती थीं और इन्हीं बातों के क्रम में वह मुझसे अपनी फटी खाकी की कमीज या धोती दिखा मुझसे एक उतारन के लिए एक निहोरा कर बैठता था।" X X X "उस समय जूधन मेरी नजरों में सिर्फ एक जाचक हुआ करता था..." X X X "खैर फकीरी की आँख जब धोखा दे गई तो उन्होंने बाबा से हाथ जोड़ लिया था, दादा अब मेरा दाना पानी रूठ गया इस घर से।" X X X फकीरी का गला रुँध चुका था, वह फूका फाड़ रो न पड़े इसे रोकने के लिए अपनी आँख और मुँह बुरी तरह अपने टेहुने पर रगड़ने लगा था। लेकिन उसका रोना रुका नहीं था, वह ई ईं S S करके रोने लगा था।" X X X "रोओ नहीं फकीरी यह सब भगवान की पीड़ा है कोई बहुत बड़ा पाप हो गया होगा तुमसे उस जनम में जिसे अब भोगना पड़ रहा है।" X X X "तो तुम्हें कौन छुड़ा रहा है फकीरी, लेकिन तुम आँधर हो चुके हो... कर सकते हो कुछ यहाँ... अभी भी तुमसे ढेर काम नहीं होता, जुधना है कि सब खेये जा रहे हो... तुम्हारी आँख भी दिन बदिन धोखा देती जा रही है... ऐसे में...", X X X "बाबा के दरवाजे जुधना जब पहुँचा तो सुकवा लग्गी भर ऊपर चढ़ आया था। सुबह होने में अब ज्यादा देर नहीं थी गाँव के सभी हलवाहे हल लेकर खेत को जा चुके थे, गाँव में कइयों घरों में जाँत का घुरूर घुरूर चलना और मूसलों की धम्म धम्म सुनाई पड़ रही थी।" X X X "नहीं ई ससुरा रोज देर से आता है जब तक इसका हाथ गोड़ एक दफा टूट नहीं जाएगा, यह सुधरेगा नहीं।" X X X "जुधना कुछ बोला नहीं था, हल और जुवाठ उठा, सरिया के पास ले जाकर रखा था और बैलों को खोलने के लिए आगे बढ़ा था कि बाबा उसके गाल पर तड़ाक तड़ाक तीन चार झापड़ धर दिए थे।" X X X "जूधन को एक दफा मैं भी मारा था तीन चार डंडे, उसकी पीठ पर। दर असल उस समय मुझे भी हलवाहे की जरूरत थी, जूधन खाली था, हलवाही की बात चलाने पर इनकार कर गया था और उसके इनकार का कारण था मेरे यहाँ ज्यादा खेत नहीं था इतने कम खेत में कोई हलवाहा हलवाही थामने पर राजी नहीं होता था। जूधन के इनकार करने पर मेरे अभिमान को ठेस लगी थी। मुझे लगा था जूधन मेरी कमजोरी का मखौल उड़ा रहा है। इसलिए मैंने भी जूधन की पीठ पर घपा घप तीन चार गोदाहा जड़ दिया था, साले देखता हूँ तुम्हें अगर तुम मेरे मेड़ खेत पर दिखाई पड़े तो तोड़ दूँगा तुम्हारे हाथ पाँव..."

"ठीक है कल तक मेरे पैसे वसूल हो जाने चाहिए अब मैं तुझे हलवाही तो रखूँगा नहीं देखता हूँ गाँव में दूसरा कोई तुझे हलवाही कौन रखता है, और पल्टू तुम अगर कल से मेरी बाग या खेत मेंड़ पर दिखाई पड़े तो मैं तुम्हारा हाथ गोड़ तोड़ कर बैठा दूँगा।" X X X "चन्दर का गुस्सा देख पल्टू काँप उठा था ..., वह वहाँ से जान बचाकर गाँव की तरफ भगा था, लेकिन दस पंद्रह कदम दौड़ने तक चन्दर भेड़िए की तरह लपकता पल्टू के पास आ पहुँचा था और कंधे पर धरी लाठी घुमा पल्टू की पीठ पर धड़ाम से दे मारा था। पल्टू बापू बापू चिल्लाता जमीन पर गिर गया था और गिरे गिरे ही पल्टनियाँ खाता, चन्दर की दूसरी लाठी उसकी देह पर पड़ती उसके पहले ही उसने चन्दर का पाँव पकड़ लिया था।" X X X "नहीं भइया, जान बक्सो, भइया मैं आप के यहाँ ही हलवाही करूँगा। पल्टू बो-बो करके रो रहा था चन्दर का पाँव पकड़े और चन्दर था कि उसका क्रोध पल्टू के पाँव पकड़ने और रोने और घिघियाने पर और ज्यादा बढ़ता जा रहा था।"

"उम्मीद में बिसराम घर पर बैठे रहते हैं, मेहरारू उनकी सुबह होते ही पन्न की तरफ निकल जाती है सकरकंदी औड़ारने। कल दिन भर भंहछने के बाद तीन चार किलो सकरकंदी मिली थी सकरकंदी क्या कहेंगे उसे कहिए संता सुतरी मिली थी।" "अगर इतनी ही भूख लगती है तो किसी राजा दइयु के यहाँ पैदा होना था। चमार के यहाँ क्यों पैदा हुई ?" X X X "खाता होगा भइया लेकिन बिसराम के नसीब में होता तो चमार के घर नहीं पैदा होता। हम चमार न हैं भइया गेहूँ मुझे पचवै नहीं करेगा...I" X X X "पूस और माघ महीना किसी तरह कट गया था, चमरौटी का किसी ने कहीं ठीका में माटी ढोकर पेट पाला था तो कोई सकरकंदी औड़ार कर कोई चने और सरसों का साग खाकर मरभुख महीना काटा था तो कोई अमृतनाथ के यहाँ से ब्योहर लाकर। कटा सबका। फागुन आया तो बखरी से मिले खेत में चना और मटर जो सबसे पहले होने वाले अन्न थे वे तैयार हो गए थे। फागुन कट गया किसी तरह खींच तान करके। चैत आया तो चमरौटी में नए खून का संचार हो गया था।"

वस्तुत: अतिवृष्टि और अनावृष्टि की तरह अतिपोषण और कुपोषण को समझे बिना शोषण को नहीं समझा जा सकता है। चिकित्सा-विज्ञान में ऐसे अतिपोषित लोगों की चर्बी घटाने और आहार-नलिका को संकुंचित करने की सर्जरी और उपचार की सुविधा है, जो एक से अधिक लोगों का भोज्य खा सकने में समर्थ होते हैं तथा अत्यधिक मोटे, थुल-थुले व वजनी होते हैं और जिन्हें चलने-फिरने तक में कष्ट होता है। इसी प्रकार जो अस्थि-मज्जा में कमतर, रक्त की कमी से कमजोर, बहुत कम चर्बी के दुबले-पतले कुपोषित होते हैं, उनका इलाज चिकित्सा विज्ञान वनस्पतियों, विभिन्न खनिज तथा जीव-जंतुओं के रक्त आदि से तैयार दवाइयों से करता है। पर विडम्बना यह है कि हमारे देश में अस्थि-मज्जा में कमतर, रक्त की कमी से कमजोर, बहुत कम चर्बी के दुबले-पतले कुपोषित समाज का रक्त, जब अत्यधिक मोटे, थुल-थुले व वजनी और औरों का भोज्य खा सकने में समर्थ लोगों के शरीर में जाता है, तो पैदा होता है दलित-शोषण, जो मारने और रोने न देने के शस्त्र और शास्त्र दोनों में प्रवीण है। भारतीय समाज में निरीह, किन्तु प्राय: मृत्यु के मुख में जाते हुए पद-मर्दित प्राणियों का रक्तपान इतने धर्म, इतने सत्कर्म और इतनी पवित्रता के साथ किया जाता है कि ऐसे जघन्य अपराधियों का अस्तित्व पूजनीय हो जाता है और वह, जो हिंस्र पशुओं के शिकार की तरह आत्मरक्षा में रोता-कराहता ग्रास बन जाता है, उसे पूर्व जन्म के फल के हवाले से निकृष्ट मनुष्य की संज्ञा दे दी जाती है। सोमेश शेखर ने बड़ी दक्षता से क्या जूधन, क्या फकीरी, क्या पल्टू, क्या बिसराम किसी को ले लीजिए, लगभग सभी में ऐसे ही कीड़े-मकोड़े सदृश निकृष्ट मनुष्य और शोषण से ग्रस्त उनकी अकथ कहानी का आरोपण किया है।

'गँवई गंध-गुमान' में बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध का चित्रण है। तब सती-प्रथा का प्रभाव समाप्त हो चुका था, किन्तु विधवा-विवाह प्राय: प्रचलन में नहीं था। माता-पिता द्वारा पालन-पोषण की वय में ही श्रम, श्लीलता और वर्जना का संस्कार नारियों को ज़िन्दगी का भारी-से-भारी बोझ उठाने के लिए तैयार कर देता था। जीवन का बोझ गँवई गंध-गुमान की कई नारी पात्र न केवल ढोती हैं, बल्कि हृदय की गह्वर पीड़ा लिए हुए सामाजिक संभार के साथ ढोती हैं। जो नहीं ढो पातीं उन्हें असमय काल-कवलित होना पड़ता है। गाँव की गँवई में उन्हें अपनी जान और कलेजे के टुकड़े से भी अधिक चिंता लक्ष्मण-रेखा की करनी पड़ती है। उनके जीवन में उठते-बैठते, सोते-जागते अग्नि की परीक्षा-ही-परीक्षा का संकट होता है। आज-कल तो जन्म से यौवन और प्रौढ़ता तक उनकी पशुओं से अधिक पुरुष-पशुओं से रक्षा कौन करे, यह समस्या घर-बाहर, दिन-रात उनका पीछा नहीं छोड़ती। यहाँ उनके सुकुमार, कैशोर्य-जीवन की असुरक्षा और उनके प्रति असामाजिक, निर्मम दंड की हृदय-विदारक त्रासदी लखिया के माध्यम से सामने आती है। अट्ठारह वर्ष की उम्र में रई की बीमारी से बहन का असहाय, निरुपाय, मूक होकर असमय मृत्यु के मुख में समाते हुए देखना पाठक के चित्त पर गहरी रेखा अंकित करता है। सीता-सावित्री के इस देश में नारी की अपवित्रता का कलंक रामसुख की पत्नी को किस तरह क्षण-मात्र में इच्छा-मृत्यु का बोध करा देता है, यह नारी के प्रति अग्नि-परीक्षा-जैसी सामाजिक कठोरता और हृदयहीनता को उजागर करता है। सुरजी अइया और चिंता के छोटे भाई की बहू छोटकी-जैसी बाल विधवाओं तथा छोटकी काकी-जैसी बाल परित्यक्ताओं का अभिशप्त पहाड़-जैसा जीवन भारत के पुराख्यान में ही संभव हैं, जो नारी के समाजोत्तर चरित्र को चरितार्थ करता है। छोटकी बहू का संकोच शिक्षा से दूर उस गाँव का निदर्शन कराता है, जहाँ वह बहू होने की अनुजता और लज्जा-अवगुंठन की लोकरूढ़ि में अपनी कोख के दुधमुँहे शिशु को कुएँ में डूबने से बचाने के लिए आगे नहीं बढ़ना चाहती। अशिक्षा, पारिवारिक कलह, शारीरिक-मानसिक यातना से जूझता ग्रामीण अबलाओं का जीवन इतना दयनीय होता है कि पराजय की उनकी हर भावभूमि पर पुरुष-वर्चस्व की विजय-पताका लहराती दिखाई देती है। इस उपन्यास में गँवई-गंध भरे दुःख-दैन्य से अपने अस्तित्व और अस्मिता के पद-चिह्न छोड़ती ऐसी ही नारियाँ हैं-- पितियान यानी कि सुरजी अइया, छोटकी काकी यानी कि रामकिशुन-बौ या उड़ंकी, चिंता के छोटे भाई की बहू छोटकी, रामसुख की पत्नी और बेटियाँ, रमरतिया, रधिया, बिसराम की मेहरारू और बेटी झमनी, कोइली-उरेहिया-अनरिया, उरेहिया की माँ, रामधन की छोटी बहू ...आदि-इत्यादि। कथित नारी-चरित्र जिनसे, पंगु नारी-जीवन की अथाह व्यथा प्रकट हुई है, उनमें मुख्य हैं-- 'काकी' मेरी माँ और 'मेरी बहन'।

"लखिया की असली माँ मर चुकी थी। जब वह छोटी ही थी। मैभा माँ थी वह टाड़ना करती थी लखिया की। घर का जितना काम था वह सब लखिया के जिम्मे, जो था वह तो था ही, भैंस चराना, बैलों को कोयर पानी देना, हलवाहे के साथ खेत से चरी काटकर लाना, सकरकंद खोदना सारा काम लखिया के गले बंधा था। हलवाहे के साथ खेत जाने और चरी लेहड़रा काटने के क्रम में वह कमजोर पड़ गई थी और उसका पेट फूल गया था।" X X X "लखिया ने एक दफा अपने टेटुवे पर कसे बापू के लौह पंज से छुटकारा पाने के लिए ऊँह ऊँह करके अपने दोनों हाथों से टेटुवा छुड़ाने का असफल प्रयास किया था, लेकिन उसके टेटुवे पर बापू का लौह पंज इस तरह जकड़ा हुआ था कि वह उसे छुड़ा नहीं पाई थी, थोड़ी देर तक हाथ पाँव छटपटाया था उसका और वह शांत हो गई थी।"

"विदा करते समय माँ ने उसे समझाया था उलाहने दिए थे, जाकर वहाँ खूब कूद कूदकर काम करना अब तुम अच्छी हो गई हो, वही तुम्हारा घर है नैहर की तरफ लड़कियों को ज्यादा नहीं देखना चाहिए। मैं तुझे बचपन से जानती हूँ तू काम से कितना भागती है। वहाँ तुझे काम करने को पड़ता होगा इसलिए बीमारी का छछंद कर लेती है, इसीलिए लोगों ने वहाँ से तुझे खदेड़ दिया... माँ के उलाहने सुन बहन का पीला रुग्ण चेहरा किस तरह उदास हो उठा था वह चेहरा आज भी मेरी आँखों के सामने अटका टंगा हुआ है।" X X X "भइया... मैं जा रही हूँ माँ ने जो कुछ कहा है मैंने गाँठ बाँध लिया है अब मैं कभी छछंद करके बिस्तरे पर नहीं पड़ूँगी। कूद कूदकर काम करूँगी... जाते समय बहन मेरे पाँव पकड़ बड़ी देर तक रोई थी, माँ को भी पकड़ वह बड़ी देर तक रोई थी और उस दफा ससुराल जाने के बाद वह फिर वापस मेरे घर नहीं लौटी थी।"

"लेकिन यह आक्षेप सुनकर उसकी देह कुचले हुए साँप की तरह ऐंठी थी अपनी जगह, लेकिन कुछ न कह पाने की मजबूरी, लाचारी और बेबसी, उसके कलेजे में गरम लोहे की तरह पिघला था, भीतर कहीं बहुत भीतर सारी पृथ्वी को क्षार क्षार कर देने के ताप पर लेकिन बेबसी लाचारी और मजबूरी ने उसे ठंडा कर दिया था और वह पिघली चीज, लावा, पिघलता लोहा गरम आँसुओं के रूप में उसकी आंखों से झर झर झरने लगा था।"

"सुरजी जब ग्यारह बरस की हुई थी तो बापू ने, उसकी शादी दयाल मिसिर के बड़े पिता जी से कर दिया था। चौदह बरस में उनका गौना आना था लेकिन गौना आने के पहले ही इनके पति की मृत्यु हो गई थी। हुआ यूँ कि उस साल गाँव में बड़ी जोरों की हैजा फैली थी और उस हैजा की चपेट में उसका पति भी आ गया था।" X X X "काट दिया उसने अपनी जिन्दगी और अब वह पचहत्तर के उम्र में पहुँच गई हैं। जरा, कष्ट जो आदमी को बुढ़ापे में आ घेरता है, घेर रखा था सुरजी को और वे दिन रात भगवान से प्रार्थना किया करती थीं हे भगवान, मेरा कागद कहाँ भुलवा रखे हो। क्या मुझे लरकाई में ही विधवा बना, तुम्हारा मन नहीं भरा ? यह किस जनम के पाप का फल भोगवा रहे हो भगवान, एक तो वृद्धावस्था ऐसे ही नींद कम आती है ऊपर से हँफनी, जरा सा आँख बंद हुई नहीं कि गला साँय साँय करने लगता है और फिर खाँसी का दौरा आ पड़ता है, खटिया में पड़ी पड़ी सोचती है सुरजी अइया।"

"छोटे भाई की बहू रांड हो गई है। गौना आने के साल भर के भीतर ही। तीन साल पहले कितनी कुलच्छनी है यह बहू ससुराल आते ही पति को खाकर बैठ गई। X X X सुबह सुबह अगर किसी ने उसका मुंह देख लिया तो वह त्रस्त हो जाता है। हे भगवान, आज दाना पानी भी मिलेगा या नहीं ? कैसी कुलच्छनी का मुंह दिखा दिए सुबह-सुबह। इन सब तानों उतन्नों और लोगों के मुंह बिचकाने से बचने के लिए छोटकी मुँह अंधेरे के पहले अपना सारा काम निपटा लेती है और बर्तन लेकर पिछवाड़े चली जाती है लेकिन फिर भी उसे सुनना पड़ता है। छोटकी दिन भर की थकान डाँट डपट और तानों उतन्नों को सोच रात में रोती है दबे कंठ से कीं कीं करके और उसका यह रोना भी लोगों को बर्दाश्त नहीं है।"

"काकी के रो पड़ने से माहौल एकदम गंभीर हो उठा था और इस माहौल को हल्का करने के लिए मैं काकी से कुछ पूछने वाला था लेकिन क्या पूछता उससे, क्या, कुछ समझ में ही नहीं आया, क्योंकि काकी की देह और उनकी यह कोठली छोड़ इस पृथ्वी पर उनका कुछ था ही नहीं और वह दोनों मेरी आँखों के सामने था।" X X X "गोल मटोल काकी, तीखे नाक नक्स लेकिन रंग उनका साँवला था। गाँव की औरतें देखते ही मुंह बिचका दी थीं, कोइल आई है घर में, अरे बहिनी लड़का इतना गोरा गबरू और एक यह ? ई तो पूरे परिवार की नसल ही बदल देगी और यहीं से शुरू हो गई थी काकी के साथ त्रासदी।" X X X "काकी की आँखों से झर झर आँसू झड़ने लगे थे और वे सर झुका इस व्यवस्था को कबूल ली थीं। क्योँ कि वे जानती थीं कि इस घर में वे ब्याह कर आई हैं और यही उनका घर है और यहीं से उनकी अर्थी उठना चाहिए।" X X X "उन्हें मैंने देखा है कि वे सारी जिन्दगी वही गोबर काढ़ना, उपले पाथना, गाय बैलों को सानी पानी करना, घर में झाड़ू पोंछा करती रही हैं और सहती रही हैं पेट की जलन, सास ससुर की टाड़ना, गाँव में भी लोग उन्हें देख भाग खड़े होते हैं, काकी बज्र टोनही हैं।"

"छोटकी किवाड़े की ओट में खड़ी थी बाबूलाल छोटकी के पद में भसुर लगते थे ड्योढ़ी के भीतर पाँव रखते ही उसकी नजर औरत पर पड़ी थी औरत दरवाजे के एक कोने में हाथ भर घूँघट काढ़े दुबकी खड़ी थी। अरे बेहूदी औरत बच्चा ऐसे छोड़ा जाता है यह तो कुशल हुआ मैं पहुँच गया नहीं तो यह कुएँ में गिर गया था। छोटकी बहू का कलेजा अभी भी धड़क रहा था, बाबूलाल भसुर, उनकी गोद से दौड़कर वह बच्चे को ले भी नहीं सकती थी क्योंकि भसुर की परछाई तक छूने से उसे परहेज करना था, ऐसे में वह उनकी गोद से बच्चा कैसे पकड़ सकती है।"

बीसवीं सदी तक भारतीय गाँव खुलेपन के लिए जाने जाते थे। खुले घर-आँगन, खुले बरामदे, मुख्य द्वार का अधिकतर खुला रहना, हर किसी के यहाँ आने-जाने का खुलापन, गाँव-जन का आपसी खुला व्यवहार, शादी-ब्याह, मरनी-करनी, होली-दिवाली में परस्पर सौहार्द गँवई जीवन की विशेषता थी। किन्तु उसी खुलेपन में बात आ जाने पर जाति-पाँत, छोटे-बड़े का भेदभाव, पट्टी-पट्टीदारी आदि के अहं भी पुरजोर टकराते थे। संयुक्त परिवार दीर्घायु होते थे, पर कभी-कभी बड़के, मझले, छोटकू में कौन अधिक कमाता है कौन कम, कौन पूरी कमाई घर-मालिक के हाथ पर रख देता है, कौन सारा पैसा बाप को नहीं देता, कुछ-न-कुछ दबा लेता है; सास-बहू की महत्त्वाकांक्षा की लड़-झगड़, बूढ़ा-बूढ़ी माँ-बाप की दो अँख्खी का शक-शुबहा, बड़के-मझले-छोटके और बड़की बहू, मझली बहू, छोटकी बहू में आए दिन की अनबन, बात अधिक बिगड़ने पर भाई-भाई यहाँ तक कि बाप-बेटे तक में बाँट-बखरा; टोले-मोहल्ले में छोटे बच्चों की मारपीट को लेकर औरतों में कहा-सुनी, गाली-गलौज के बाद मर्दों में तनाव और फिर घर की औरतों की पिटाई आदि के बखेड़ों के बिना गाँव वालों को चैन नहीं पड़ता था। कुँवारी लड़कियाँ घर से बाहर हों, वे चाहे कितने ही ज़रूरी काम से बाहर निकली हों, दिन डूबते ही माता-पिता की धुकधुकी बढ़ जाती थी। अनुज-बधू के छू जाने का निषेध, बड़ों के सामने कुछ कह पाने का संकोच, अपनी ही पत्नी से घर के बड़ों के सामने बात न कर पाना-झिझकना, औरतों के सिर पर आँचल, नई नवेली दुल्हनों का हाथ भर लंबा घूँघट और रात पत्नी की कोठरी में घर वालों से बहुत लुक-छिपकर जाने का रिवाज़ गाँवों की ख़ासियत थी। पहले के समय में गरीबी ने गाँवों को जैसे अपना बसेरा बना रखा था, कुछ घरों में तो विवाह और मृत्यु-भोज जैसे काम-काज चल-अचल संपत्ति को गिरवी-रेहन रखे बिना नहीं हो पाते थे और विपिन्नता में दीर्घ अवधि तक रेहन-गिरवी न छुड़ा पाने की विवशता का लाभ उठाकर सेठ-साहूकार निर्धन की बची-खुची धरोहर भी हड़पने में रहम नहीं करते थे।

लेबड़िहा बाबा का काली को भद्दी गाली देना, काली के परिवार में सेंध मार उस परिवार को छिन्न-भिन्न कर देने की चाहत, "काली को अपनी तरफ मिला उनके ठीक छाती के ऊपर कील गाड़, उस पर दाल दलने की उनकी योजना" और काली का पहले हँसना, फिर बुदबुदाना-"जल-जल कर मरो बुड्ढे नहीं बर्दाश्त होता तो छाती पर सिल बाँध कुएँ में छलाँग लगा दो," -गँवई पट्टीदारी की जलन का ज्वलंत उदाहण है। चन्दर मिसिर, उनकी बहुओं, बेटों, उनकी पत्नी और पोतों के कार्य-व्यवहार से उत्पन्न खटपट और दुर्भाव में ख़ासा गृहकलह दिखाई देता है। जदुनाथ और सम्भू, दोनों की माँओं और दोनों की औरतों की भिड़ंत और बवाल खेल-कूद में बच्चों के आपस में उलझने और मारपीट को लेकर अंत में बड़ों के शामिल हो जाने और गाँव-घर का माहौल बिगड़ जाने की गाँव-गाँव की कहानी है। उरेहिया की माँ का उरेहिया को छेछड़ी कहने के पीछे कोइली और उरेहिया-जैसी अपनी जवान-ज़हीन, कुँवारी बेटियों की सुरक्षा की चिंता है। झमनी और फकीरी की जनाना यानी सास-बहू और बेटा जूधन और जूधन के बाप फकीरी के परस्पर शब्द-अपशब्द और गँवरपन में घोर निर्धनता में महज़ हंडिया-कुंडिया के बँटवारे तथा बाप-बेटे के अलगाव के दुःखांत का दृश्य है। इसी प्रकार रामधन की गृहकथा, स्वयं लेखक की आपबीती आदि में गाँवों में बसे जन-जन के जीवन-निर्वाह से जुड़े पीड़न-उत्पीड़न के मर्मभेदी वृत्तांत हर प्रकार से औपन्यासिक मुद्रा तथा भावोन्मेष के साथ उन्मुख हुए हैं।

इस प्रकार चाहे चौबीसे घंटे खटकटी पट्टीदारी में काली सहाय और लेबड़िहा बाबा के परस्पर बर्दाश्त से बाहर की मनोग्रंथि हो या रमनी और फकीरी की जनाना के बीच सास-बहू की तना-तनी व एकाधिकार की मनोवांछा या चौहर्जा और उदित नारायण के मध्य विवाह संबंधी लेनदेन व नेगचार की मनोगति हो या रामनिहोर और रतिया-रधिया के यौवन के आकर्षण व उन्माद का मनोवेग या बिसराम के घर में भुखमरी और अमृतनाथ के घर ड्योढ़ी-व्योहर की मनोवृत्ति हो या रामसुख और उनकी पत्नी के संयोग-वियोग में लांछन व अग्नि-परीक्षा का मनोविकार या फिर उरेहिया की माँ, लखिया के बापू चन्दर, सुरजी अइया, चिंता के छोटे भाई की बहू छोटकी, छोटकी काकी, काकी मेरी माँ, मेरी बहन आदि तथा देवी-देवता या भूत-प्रेत के आवेश से अभुआने वाली औरतों की मनोदशाएँ हों-- लशुन-प्याज के छिलकों को जिस तरह उतारा जाता है, उसी तरह सोमेश शेखर पात्रों के मन-मस्तिष्क की परतों को कुरेद-कुरेद इस प्रकार अनावृत कर देते हैं कि जैसे छिलके उतर जाने पर लशुन-प्याज की गंघ सँभाले नहीं सँभलती, वैसे ही कथा-पात्रों की भिन्न-भिन्न चारित्रिक मन:स्थतियाँ पूरी तरह खुलकर सवाक् हो जाती हैं।

प्रबंध रचनाओं में नायक-नायिका की अपेक्षा होती है, ताकि ग्रहों की भाँति अन्य सभी पात्र प्रधान चरित्र की परिक्रमा करते रहें, जिससे आतंरिक सक्रियता के उपरांत रचना की कड़ियाँ परस्पर दृढ़ता से संबद्ध हों; उसका कलेवर ठोस और गठित हो तथा उसकी वैचारिक धारा निर्बाध, अविछिन्न और लक्ष्यगामी हो। 'गँवई गंध-गुमान' में किसी चरित्र की प्रधानता नहीं है। इसलिए गाँव की समस्त कथाएँ-उपकथाएँ एक के बाद एक 'अलबम' की तरह नियोजित की गई हैं। आद्योपांत पूरा उपन्यास पढ़ने के पश्चात् यह निष्कर्ष भी जेहन में आता है कि इसमें लेखकीय नायकत्व का निष्फल प्रभाव है। आरम्भ और अंत में 'मैं-शैली' में कही गई गाँव की अंतर्कथाएँ इस तथ्य के प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। किन्तु उपन्यासकार की पात्र के रूप में उपस्थिति सभी पात्रों और कथानक का केन्द्रक नहीं हो पाई है। चरित्रता में 'मैं' को मिटाकर 'स्व' के चारित्रिक तान-वितान की साधना के रूप में लिखी गई आत्माभिव्यंजित प्रबंध रचना 'शेखर एक जीवनी' अत्यंत प्रभावशाली उपन्यास है। किन्तु यहाँ 'मैं' और 'स्वकथन' से चले कथाक्रम में अंतिम बन्ध--रामधन, बड़ा बेटा-बड़कू, छोटकू, कच्चे कुएँ की जगत पर बच्चे का चढ़ना, छोटकी के हृदय में अपने बच्चे की रक्षा के लिए उमड़ती ममता और लोक-लाज की लक्ष्मण-रेखा में अंतर्द्वन्द्व और बाबूलाल भसुर की कथा में 'मैं' किस कदर गायब हो गया है, कहने की आवश्यकता नहीं। इस कड़ी में किसी-न-किसी रूप में 'मैं' की नितांत आवश्यकता थी, जिसके बिना आख़िरी कड़ी पैबंद-सी लगती है। इसी प्रकार 'हबुआना' का ज़िक्र और "एक औरत को मैं बड़े नजदीक से जानता हूँ, उसके ससुराल से नहीं, उसके मायके से भी।''- का प्रसंग कथा-तारतम्य में भूले-बिसरे की जोड़-गाँठ-सा प्रतीत होता है।

भाषिक संरचना की दृष्टि से भी यह उपन्यास कहीं-कहीं निराश करता है। भाषा में कसावट की कमी भी रह गई है। समूचा कथातंत्र अवधी भावभूमि पर फैला हुआ है, गाँव-गँवई के कथ्य को उद्घाटित करते अवधी के क्षेत्रीय धरातल के शब्द, पदबंध, वाक्य और मुहावरे-लोकोक्तियाँ निश्चित ही शब्द-शक्ति, संप्रेषणीयता और भाषा-कौशल के बेजोड़ उदाहरण के रूप में प्रयुक्त हुए हैं-जैसे कि मुचड़े कालर, कोड़वाई रोपना, करिंगई, डड़ियवा, खटकती पट्टीदारी, कोयर-भूसा, कइयों दफा, नेसुहा, गोदरी, ओनाना, गोहराना, भाकस, टंटा, मोहार, तन्नाह, पन्न से बैलों के टिटकोरने की आवाज, कनगुरी का खेल, फुट-फैर, कुलैन, कुढ़-जैसा मुँह, नाकिस औरत, राढ़ और चख-चख, बियहुती, बखरिहा, औड़ारना, राजा दइयु, मरभुखी, लाटा, कछ्छुट, गोड़वारी, पौपुजी, कोकहट, नउआ झाकड़, पंडितों की कटबैठी, फर-फरवार, टाड़ना, डेहरी, मैभा, खरमिटाव, सिखरन, ददई, गोबर की गौर घप्प, खरदास, अदहन देइया, मेहदरी, कोठली, छेछड़ी, पितियान, ओसारा, मुआ चिरई, भतारकाटी, औसेफ, रामकिशुन-बौ, भरापोखन, खरबाद, चिरकुट, दिन-रात घर में लूकी खोंसना, बांटा पुत्र पड़ोसी बाउन, पोसाई पड़ना, अच्छत दिखाना, भीड़ परोजन पड़ना, बोलवाई सटकारना, कुदुवा पहुँचना, बुकुर-बुकुर मुँह निहारना, घुघुवाकर चढ़ बैठना, उजुर पड़ना, परदेशी की मेहरी और सेठ की जूतियाँ धरे धरे ही बुढ़ाना, मुँह से बकरना, धराऊँ रखना, चुनुक-मुनुक होना, मुँह में लबेदा हुरना, देह का रोवाँ रोवाँ बेचना, पेट में महामाई का कोप औलियाना, मेउवा बनना, लुवाठी थाने में खोंसना इत्यादि। परन्तु यत्र-तत्र व्याकरण और मानकता संबंधी भूल-चूक को अनदेखा नहीं किया जा सकता है। अवध-क्षेत्र में गँवई बोली में मदरसा तालीम से निकला व्यक्ति भी यदि अरबी-फ़ारसी-लहज़े, नुक़ता आदि का प्रयोग करता है, तो बनावटीपन लगता है। इसी तरह अवधी में संस्कृत के पंडित यदि कुछ तत्सम शब्दों के मानक उच्चारण की विद्वता प्रदर्शित करते हैं, तो गँवई बोल-चाल की सहजता में अनुपयुक्त रंग चढ़ने लगता है। अवधी की प्रकृति ऐसी है कि 'रामचरित मानस' के किसी भी दोहे-चौपाई में तालव्य 'श' का प्रयोग नहीं हुआ है। अवधी में मूर्धन्य 'ष' और 'ण' प्राय: अपना मानक उच्चारण छोड़ क्रमशः 'ख' और 'न' की ध्वनियाँ धारण कर लेते हैं। यही कारण है कि जायसी आषाढ़ या अषाढ़ नहीं 'असाढ़' लिखते हैं- "चढ़ा असाढ़ गगन घन साजा।" गँवई गंध-गुमान में कम-से-कम पात्र-कथित ग्रामीण वातावरण को उभारने और पात्रों के संवाद में अवधी की प्रकृति का ध्यान और अधिक सजगता से रखना चाहिए था। इसके अतिरिक्त सार्वनामिक असंतुलन तथा लिंग, वचन, अनुस्वार-अनुनासिक, वर्तनी आदि के अनुचित प्रयोगों पर भी दृष्टि जाती है। पर कुशल है कि ऐसी शिथिलिता अधिक नहीं है। हाँ, विराम तथा समासक चिह्नों की कृपणता पूरे उपन्यास में खटकती है; एक-दो उदाहरण दृष्टव्य हैं-"हम लोगों का एक जमाना था कि औरत बुजरी की हिम्मत ही नहीं थी कि जो सास ससुर के सामने जुबान खोल दे अगर जरा सा भी कभी जुबान खुल भी जाती तो या तो उसका हाथ गोड़ तोड़ बैठा दिया जाता था या चुत्तड़ पर चार डंडा लगा उसे बहिया दिया जाता था।" (हम लोगों का एक जमाना था कि औरत बुजरी की हिम्मत ही नहीं थी कि जो सास-ससुर के सामने जुबान खोल दे, अगर जरा-सा भी कभी जुबान खुल भी जाती, तो या तो उसका हाथ-गोड़ तोड़ बैठा दिया जाता था, या चुत्तड़ पर चार डंडा लगा उसे बहिया दिया जाता था।)। "जरा सी बात पर उनका खून उबल जाया करता है लेकिन सुबह जिस बात को लेकर वे बिगड़ खड़े हुए थे वह कोई छोटी बात नहीं थी जिसे चन्दर मिसिर या कोई भी बर्दाश्त कर सकता था तो चन्दर मिसिर तो खुद कट्टाह आदमी हैं वे इस बात को कैसे बर्दाश्त कर जाते।" (जरा-सी बात पर उनका खून उबल जाया करता है, लेकिन सुबह जिस बात को लेकर वे बिगड़ खड़े हुए थे, वह कोई छोटी बात नहीं थी, जिसे चन्दर मिसिर या कोई भी बर्दाश्त कर सकता था, तो चन्दर मिसिर तो खुद कट्टाह आदमी हैं, वे इस बात को कैसे बर्दाश्त कर जाते)।

अंतत: प्रबंधात्मकता और भाषागत कुछ इंगित विन्दुओं को छोड़कर गँवई गंध-गुमान अवध क्षेत्र के ग्राम्य जीवन का एक ऐसा मुखर दर्पण है, जो सच्चाई के साथ गाँव-गँवई के अन्यान्य, ढेर सारे रंग-रूप और भिन्न-भिन्न स्थितियों के बहुतेरे अन्तरंग को साहचर्य, संज्ञान और अंतर्भुक्ति से पूर्णत: खोलकर एक रुचिकर चित्रफलक पर फैला देता है। इसमें गाँव के ठेठ प्राकृतिक जीवन की अहर्निश पीड़ा, दुःख-दैन्य, दारिद्र्य और क्षुधा-संत्रास, खेतों में फसल पकने के समय का उल्लास, टोला-पट्टी की तनातनी और टंटा, घर-घर की कलह, शादी-ब्याह का लोकाचार, कुँवारेपन में वर्जनाओं की उपादेयता और अनियंत्रण की त्रासदी, नारी और दलित जीवन की असह्य वेदना, परित्यक्त और वैधव्य नारी-जीवन की कठोरता, गँवार नारियों के शीश पर दैवीय आवेश का मनोविश्लेषण, लोकलाज और लक्षमण-रेखा की विचित्र विडम्बना आदि के परिदृश्य साफ़-साफ़ दिखाई देते हैं। कदाचित् पिता का निहायत घटिया वजूद और बचपन की नादानी में बहन के हिस्से की रोटियाँ उपन्यासकार को बहुत भारी पड़ा है, जिसकी स्मृति और व्यतीत के ताप में इस कथाकृति का सृजन हुआ है और निश्चित ही इस साहित्यिक दर्पण का खाटी-खरा दर्प पाठकों के मन-मानस पर गहरा प्रभाव छोड़ने में समर्थ है।


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हिंदी समय में संतलाल करुण की रचनाएँ