घर का माहौल बिगड़ा हुआ था, सोनल सर झुकाए अपराधियों की तरह खड़ी हुई थी। कमरे
में पंखे की घुर्र-घुर्र की आवाज़ के सिवा कोई आवाज़ सुनाई नहीं दे रही थी। हर
सांस पर मानो पापा के मौन का पहरा था। किताबों के बीच पापा को कार्तिक की लिखी
हुई चिट्ठी मिल गई थी। एक सुर्ख सूखा गुलाब उस चिट्ठी के साथ मुस्कुरा रहा था,
मोती से सुंदर अक्षर उस गुलाबी पन्ने पर टिमटिमा आ रहे थे, साथ जीने मरने की
कसमें एक सुनहरे भविष्य के सपने सिर्फ कागज पर नहीं उसके मन में भी जगमगा रहे
थे पर क्या मालूम था उन सपनों की उम्र बस इतनी ही थी। उसके सपने उस सुर्ख गुलाब
की तरह ही सूखने वाले थे। उसे हमेशा लगता था कि पापा शायद कार्तिक को स्वीकार
कर लेंगे। दुनिया चाँद पर पहुँच गई पर उसका चाँद न जाने क्यों रूठा हुआ था।
सपनों का वज़न बादलों की तरह हल्का होता है पर जब वह टूटते हैं तो उसकी लाश का
वज़न कोई कँधा नहीं उठा पाता। आज उसके सपनों के टूटने का दिन था पर एक उम्मीद थी
कि शायद…प्रेम में पड़ी स्त्रियाँ सिर्फ कल्पनाओं में जीती हैं और पुरुष हमेशा
यथार्थ में…स्त्रियों को हमेशा एक चमत्कार की उम्मीद रहती है पर चमत्कार होते
हैं? शायद नहीं…शायद वह उम्र ही ऐसी थी जो उसे कल्पना के हिडोले में झूला झूला
रही थी। वह कार्तिक के साथ जीवन बिताने के सपने देख रही थी और शायद कार्तिक भी…
"कौन है यह लड़का?"
पापा की आवाज़ गूंजी,
"जी कार्तिक मेरे साथ पढ़ता है।"
"क्या कॉलेज में आजकल यही पढ़ाया जाता है?"
पापा की आँखों से अंगार बरस रहे थे, वह चुपचाप सर झुकाए खड़ी थी और अपने अंगूठे
से फर्श को कुरेद रही थी। शायद उनके प्रश्नों का जवाब ढूंढने की कोशिश कर रही
थी।
"तुम सोच भी कैसे सकती हो, उससे शादी के लिए? न हमारी बिरादरी का न हमारे समाज
का…जमीन-आसमान का क्या मेल! क्या खिलाएगा तुम्हें जिसके खुद के रहने-खाने का
ठिकाना नहीं वह तुम्हें क्या आसरा देगा। बाप के सामने हाथ फैलाता होगा ऐसे
लड़के के साथ तुम्हारा क्या भविष्य…!"
"पापा! एक बार मिल कर तो देखिए, बहुत अच्छा लड़का है वह…"
उसने कार्तिक के पक्ष में अपनी दलील दी,
"अच्छा! पढ़ाई-लिखाई की उम्र में जो इस तरह के काम कर रहा है वह कितना अच्छा
होगा, मुझे अच्छी तरह पता है। अपना अच्छा-बुरा समझने की तुम्हारी अभी उम्र ही
क्या है।"
पापा ने बड़ी बेरुखी से कहा पापा उसकी कोई भी बात सुनने को तैयार नहीं थे,
अंततः उसने बोल ही दिया…
"प्यार करता है वह मुझसे और मैं भीss...!"
"सड़ाक…"
घर में सन्नाटा पसर गया, पापा को इतने गुस्से में पहली बार देखा…पापा जब बहुत
गुस्से में होते तो अपने आप को कमरे में बंद कर लेते, खाना-पीना छोड़ देते।
पापा के गुस्से को हमेशा मौन ही देखा था पर आज पहली बार उस मौन को भाषा मिलते
देखा था। पापा घंटों चीखते-चिल्लाते रहे, उनकी आवाज से घर की दीवारें हिल गई
मौन कहीं कोने में खड़ा थरथर कांप रहा था। वह सोच रही थी प्यार ने तो इस संसार
को जोड़ कर रखा है पर प्यार समाज, जाति, बिरादरी और स्तर देखकर भी किया जाता है
यह पहली बार सोचा था। क्या सपनों में सिर्फ राजकुमार ही आने चाहिए एक मजदूर,एक
चाय वाला,एक खोमचे वाला नहीं…हम क्यों अपनी बेटियों को यह कहते हैं कि उन्हें
कोई राजकुमार ब्याह कर ले जाएगा। हम क्यों अपने बेटों से कहते हैं कोई परी सात
समंदर पार से आएगी और तुमसे शादी करेगी। हम क्यों नहीं कह पाते ऐशो-आराम,
धन-दौलत तुम्हे भले कम मिले पर जिसके साथ दिल मिले जिसके साथ मानसिक स्तर
मिले…तुम उसके साथ जीवन गुजारना।
क्या यह बात माता-पिता और समाज के लिए काफी नहीं कि वह लड़का उनकी लड़की को
प्यार करता है सम्मान करता था। क्या यही सबसे ज्यादा जरूरी है कि प्यार करने
वाला अपनी बिरादरी, अपने समाज या अपने स्तर का हो। एक अनदेखे, अनिश्चित भविष्य
के लिए माता-पिता का डरना स्वाभाविक था आखिर अपने कलेजे के टुकड़े को एक
अनिश्चित भविष्य के हाथों में कैसे सौंप सकते थे पर इस बात की भी गारंटी कौन
देगा कि जिन हाथों में वह अपने कलेजे के टुकड़े को सौंप रहे हैं उसके साथ वह
हमेशा खुश ही रहेगी और उसका भविष्य अनंत काल तक सुरक्षित होगा। एक पीढ़ी का
पाखण्ड अगली पीढ़ी की परम्परा बन जाता है और शायद वह भी उस परंपरा की भेंट चढ़
गई थी।
उसे दृढ़ता से खड़ा देखकर पापा टूट रहे थे,
"अगर तुम ने फैसला कर ही लिया है तो तुम उसके साथ जा सकती हो। इस घर के दरवाजे
तुम्हारे लिए हमेशा के लिए बंद है। भूल जाना कि तुम्हारा भी कोई घर है…भूल जाना
कि तुम्हारे कोई माता-पिता है… भूल जाना कि तुम्हारा कोई हमसे संबंध है!"
पापा यही चूक गए थे,उन्होंने उसे घर के दरवाजे बंद करने की धमकी दी थी। चाहती
तो यह दरवाजा वह भी बंद कर सकती थी, वह भी यह कुंडी अपनी तरफ से लगा सकती थी
क्योंकि लोग अक्सर भूल जाते हैं कि दरवाजे को बंद करने के लिए कुंडिया दोनों
तरफ से होती हैं। वह दृढ़ता के साथ अपने प्रेम के लिए खड़ी थी।उसे कमजोर पड़ता
ना देख पापा ने अंतिम शस्त्र फेंका था।
"ये दिन देखने से तो अच्छा है कि मैं नदी में कूदकर मर जाऊॅं या गले में फंदा
लगाकर जान दे दूँ।"
माँ पापा के शब्द सुन बिलबिला गई थी,
"कैसी औलाद है तू क्या अपने बाप की अर्थी पर अपनी सुहाग की सेज सजाना चाहती है,
उन पर अपने सपनों का महल बनते देखना चाहती है।"
वह टूट गई थी ऐसा तो उसने कभी भी न चाहा था। अपनों का साथ छूट रहा था जो परिवार
उसका संबल था एक-एक कर सब अपना हाथ उस से छुड़ा रहे थे,जिन उंगलियों को पकड़कर
उसने चलना सीखा था वह उंगलियाँ उसे आज अजनबी लग रही थी। वह टूट गई,उसने घुटने
टेक दिए।
"जैसा आप कहें!"
माँ ने कहा था,
"दुनिया देखी है हमने…हम तुम्हारा बुरा नहीं चाहते। कल को कुछ होता है तो हम है
न…"
पर क्या सचमुच!याद है उसे आज भी वह दिन… पहली बार जब अभिनव ने उसके ऊपर हाथ
उठाया था। कुछ समय के लिए वह जड़ हो गई थी। कई दिनों तक उसे यह समझने में लगा
कि आखिर इतनी छोटी सी बात पर अभिनव नाराज कैसे हो सकते हैं। सब्जी में नमक ही
तो ज्यादा हुआ था। चुप रह गई थी वो उस दिन उसके मौन ने उसे बढ़ावा दे दिया था।
धीरे-धीरे उनकी भड़क खुलती चली गई और वह हर छोटी-बड़ी बातों पर हाथ उठाने लगे
थे, वह हफ्तों-हफ्तों तक नहीं सो नहीं पाती थी। माँ ने कहा था कुछ भी होगा तो
वे लोग हैं पर क्या सचमुच! बड़ी उम्मीद से एक दिन उसने माँ को फोन कर और अपना
दिल का हाल बयां किया था।
"पति-पत्नी के बीच तो यह सब होता ही रहता है, इतनी जरा-जरा सी बात पर अगर रूठ
जाओगी तो गृहस्थी कैसे संभालोगी। तुम्हारे पापा एक पिता के रूप में बेहतर इंसान
है पर पति…तुम सबने उनका मौन देखा है पर मैंने उनका मौन भोगा है। अंतर्मन तक
भेद जाता है उनका मौन… चीर जाता है दिल को, छलनी कर जाता है भावों को… तो क्या
मैं घर छोड़ कर चली गई। नाराज होते हैं तो प्यार भी तो करते हैं। अभिनव भी तो
तुम्हें प्यार करते हैं, तुम्हीं ने बताया था तुम्हारे पिछले जन्मदिन पर हीरे
की अंगूठी दिलाई थी और इस दीपावली पर तेरे नाम से एक मकान की रजिस्ट्री करवाई
है। ये प्यार नहीं है तो और क्या है!"
वो मुस्करा दी थी, प्यार! प्यार की इतनी बड़ी कीमत उसे अपने शरीर पर पड़ते
निशानों के साथ चुकानी पड़ रही थी।
वह माँ से चीख-चीख कर कहना चाहती थी,
"किस प्यार की बात करती हैं आप…आइए आपको दिखाऊँ अपने तन के घावों को, मन के
छालों को शायद उन्हें गिनते-गिनते आपके हाथ के पोर भी कम पड़ जाए। पुराना घाव
सूखता नहीं कि नए घाव मुस्कुराते हुए अपनी उपस्थिति दर्ज़ करा देते हैं।"
उसका दम घुटा जा रहा था, शब्द कहीं खो से गए थे। वह कुछ क्षण के लिए ख़ामोश हो
गई थी।
"हेलो-हेलो, सुन रही है न मेरी बात…ख़ामोश क्यों हो गई।"
जो शब्दों के अर्थ को नहीं समझते वह उसकी खामोशी को क्या समझेंगे। वह कहना
चाहती थी, मेरी खामोशियों का लिहाज कीजिए जिस दिन मैंने मुँह खोला लफ्ज़ आपसे
बर्दाश्त नहीं होंगे। उसने कई बार फोन को उठाया और कांटेक्ट लिस्ट पर अपने इष्ट
मित्रों के नामों को देखा। इष्ट मित्रों की संख्या बहुत ज्यादा थी पर जो उसके
दर्द को समझ सके एक भी इष्ट उसमें नहीं था, जो कह सके हाँ मैं तुम्हारे साथ
हूँ। कोई ऐसा न था जो मेरे बोलने से पहले ही मेरे दर्द को समझ सके। जो मेरी
दर्द की कहानी को अल्फाजों में नहीं मेरी आँखों में पढ़ सके। एक शोर भरा था
उसके सीने में पर उसे अब सिर्फ खामोशी पसंद थी। कितना खौफ रहा होगा उस दर्द का
उसने चीखने-चिल्लाने की जगह खामोशी को चुना। कोई ऐसा नहीं था जो उससे पूछे,तू
ठीक है न और वह उससे खुल कर बेझिझक कह सके ठीक नहीं परेशान हूँ मैं…!
वो इस भरे-पूरे परिवार में अकेली रह गई थी बिल्कुल अकेली…आज उसे अपनी दादी की
बहुत याद आ रही थी। बाबा के इस संसार से जाने के बाद भरे-पूरे परिवार के बीच
में भी वह अकेली रह गई थी। बाबा सालों से बिस्तर पर थे पर थे तो… उनका होना ही
दादी के लिए काफी था, दादी की सुबह बाबा की चाय के साथ होती थी और रातें बाबा
के पैर दबाने के साथ… बाबा के जाने के बाद वह टूट गई थी। मानो कोई काम नहीं रह
गया था, दिनभर कामों से जूझने वाली दादी को तलाश करने पर भी काम नहीं मिलता,वह
झुंझला कर बैठ जाती। उनकी इस झुंझलाहट को कोई नहीं समझ पा रहा था। अकेलापन
सिर्फ़ अकेले रहने वालों को ही महसूस नहीं होता, कभी-कभी भीड़ के बीच रहते हुए
भी इंसान पूरी तरीके से अकेला होता है। काश! काश उस दिन पापा ने उसे और उसके मन
को समझा होता,
""माता-पिता बच्चों का भला ही चाहते हैं।"
माँ की कहीं बात उसके कानों में गूंज रही थी। उसने आदमकद शीशे में अपने वजूद को
तलाशने की कोशिश की। चेहरे पर काले और नीले निशान पड़े थे वह मुस्कुरा रही थी।
"ऐसा भला…?"
पापा कार्तिक से उसकी शादी के लिए नहीं माने क्योंकि उसकी जाति अलग थी। उसने
शीशे में देख कर कहा-
"पापा! आज आप खुश है ना कि आपकी लड़की अपनी जाति के लड़के से पिट रही है।"
रिश्तों की सियन एक-एक कर टूट गई थी, टूटी हुई सियन को चाहे जितना भी संभाल कर
तुरपन करो उनमें पहली जैसी बात नहीं आती। वह दिन था और आज का दिन…माँ तुमने तो
कहा था, हम है तुम्हारे साथ पर…?