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कविता

कल की बात

बोधिसत्व


कल संझा की बात है
ऐसी ही एक बात है....
कुछ उलझन से भर कर
बैठा था बिल्डिंग की छत पर
कुछ सोच रहा था ऐसे ही,
मेरे बगल की बिल्डिंग की
दूसरे तल्ले की एक खिड़की
खुली हुई थी थोड़ी सी।
जूड़ा बाँधे एक लड़की
तलती थी कुछ चूल्हे पर
तलती थी कुछ गाती थी
गाती थी कुछ तलती थी
तभी पीछे से आकर
उसको बाहों में भर कर
बोला उससे कुछ सहचर।

पकड़-धकड़ में खुला जूड़ा
हाथ बढ़ा बुझा चूल्हा
चले गए दोनों भीतर
बैठा रहा मैं छत पर....
कल संझा की बात है...
ऐसी ही एक बात है...


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