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कविता

तिरंगा प्यारा ले लो

बोधिसत्व


आज पंद्रह अगस्त
ईसवी सन दो हजार सात है
मैं कांदीवली अपने घर से अंधेरी के लिए निकला हूँ
कुछ काम है
अभी मिठ चौकी पर पहुँचा हूँ भीड़ है
ट्रैफिक जाम है
घिरे हैं गहरे काले बादल आसमान में
कुछ देर पहले बरसा है पानी
सड़क अभी तक गीली है।

बहुत सारे बच्चों
छोटे-छोटे बच्चों के साथ
एक बुढ़िया भी बेच रही है तिरंगे।
एक दस साल का लड़का
एक सात साल की लड़की
एक तीस पैंतीस का नौ जवान बेच रहा है झंडा
इन सब के साथ ही
यह बुढ़िया भी बेच रही है यह नया आइटम।

उम्र होगी पैंसठ से सत्तर के बीच
आँख में चमक से ज्यादा है कीच
नंगे पाँव में फटी बिवाई है
यह किसकी बहन बेटी माई है ?
यह किस घर पैदा हुई
कैसे कैसे यहाँ तक आई है ?

परसों तक बेच रही थी
टोने-टोटके से बचानेवाला नीबू-मिर्च
उसके पहले कभी बेचती थी कंघी
कभी चूरन कभी गुब्बारे।

कई दाम के तिरंगे हैं इसके पास
कुछ एकदम सस्ते कुछ अच्छे खास
उस पर भी तैयार है वह मोल-भाव के लिए
हर एक से गिड़गिड़ाती
कभी पिचका पेट दिखाती
लगा रही है खरीदने की गुहार
कभी दे रही है बुढ़ापे पर तरस की सीख
ऐसे जैसे झंडे के बदले
मांग रही है भीख।
मैं उस बुढ़िया को छोड़ आगे निकल आया हूँ

यहाँ आसमान साफ है...लेकिन
पीछे घिरे हैं घन घोर

बरस सकता है पानी जोर..
भीड़ में अलग से सुनाई दे रही है
अब भी बुढ़िया की गुहार थकी पुरानी।

सड़क के कीचड़ पांक में सनी बुढ़िया
कलेजे से लगा कर
बचा रही रही होगी झंडे की चमक को
और पुकार रही होगी लगातार
हर एक को-
'ले लो तिरंगा प्यारा ले लो'


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