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कविता

जुनून-ए-शौक़ अब भी कम नहीं है

असरारुल हक़ मजाज़


जुनून-ए-शौक़ अब भी कम नहीं है
मगर वो आज भी बरहम नहीं है

बहुत मुश्किल है दुनिया का सँवरना
तेरी ज़ुल्फ़ों का पेच-ओ-ख़म नहीं है

मेरी बर्बादियों के हमनशीनों
तुम्हें क्या ख़ुद मुझे भी ग़म नहीं है

अभी बज़्म-ए-तरब से क्या उठूँ मैं,
अभी तो आँख भी पुरनम नहीं है

'मजाज़' इक बादाकश तो है यक़ीनन
जो हम सुनते थे वो आलम नहीं है


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