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	जुनून-ए-शौक़ अब भी कम नहीं हैमगर वो आज भी बरहम नहीं है
 
 बहुत मुश्किल है दुनिया का सँवरना
 तेरी ज़ुल्फ़ों का पेच-ओ-ख़म नहीं है
 
 मेरी बर्बादियों के हमनशीनों
 तुम्हें क्या ख़ुद मुझे भी ग़म नहीं है
 
 अभी बज़्म-ए-तरब से क्या उठूँ मैं,
 अभी तो आँख भी पुरनम नहीं है
 
 'मजाज़' इक बादाकश तो है यक़ीनन
 जो हम सुनते थे वो आलम नहीं है
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