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कविता

चार ग़ज़लें-एक,दो,तीन, चार

असरारुल हक़ मजाज़


[एक]

हुस्न को बेहिजाब होना था
शौक़ को कामयाब होना था

हिज्र में कैफ़-ए-इज़्तिराब न पूछो
ख़ून-ए-दिल भी शराब होना था।

तेरे जलवों में घिर गया आख़िर
ज़र्रे को आफ़ताब होना था।

कुछ तुम्हारी निगाह काफ़िर थी
कुछ मुझे भी ख़राब होना था।

[दो]

कमाल-ए-इश्क़ है दीवानः हो गया हूँ मैं
ये किसके हाथ से दामन छुड़ा रहा हूँ मैं

तुम्हीं तो हो जिसे कहती है नाख़ुदा दुनिया
बचा सको तो बचा लो, कि डूबता हूँ मैं

ये मेरे इश्क़ मजबूरियाँ मा'ज़ अल्लाह
तुम्हारा राज़ तुम्हीं से छुपा रहा हूँ मैं

इस इक हिजाब पे सौ बेहिजाबियाँ सदक़े
जहाँ से चाहता हूँ तुमको देखता हूँ मैं

बनाने वाले वहीं पर बनाते हैं मंज़िल
हज़ार बार जहाँ से गुज़र चुका हूँ मैं

कभी ये ज़ौम कि तू मुझसे छिप नहीं सकता
कभी ये वहम कि ख़ुद भी छिपा हुआ हूँ मैं

मुझे सुने न कोई मस्त-ए-बादः ए-इशरत
मजाज़ टूटे हुए दिल की इक सदा हूँ मैं

 

[तीन]

हुस्न फिर फ़ित्न (त्‌न) ग़र है क्या कहिए,
दिल की जानिब नज़र है क्या कहिए।

फिर वही रहगुज़र है क्या कहिए,
ज़िंदगी राह पर है क्या कहिए।

हुस्न ख़ुद पर्दादर है क्या कहिए,
ये हमारी नज़र है क्या कहिए।

आह तो बेअसर थी बरसों से,
नग़्म भी बेअसर है क्या कहिए।

हुस्न है अब न हुस्न के जलवे,
अब नज़र ही नज़र है क्या कहिए।

आज भी है मजाज़ ख़ाकनशीन,
और नज़र अर्श पर है क्या कहिए।

[चार]

कुछ तुझको ख़बर है हम क्या-क्या, ऐ शोरिश-ए-दौरां भूल गये।
वो ज़ुल्फ़-ए-परीशां भूल गये, वो दीदः-ए-गिरियां भूल गये।

ऐ शौक़-ए-नज़ारा क्या कहिए, नज़ारों में कोई सूरत ही नहीं।
ऐ ज़ौक़-ए-तसव्वुर क्या कहिए,हम सूरत-ए-जानां भूल गये।

अब गुल से नज़र मिलती ही नहीं, अब दिल की कली खिलती ही नहीं।
ऐ फ़स्ल-ए-बहारां रूख़सत हो, हम लुत्फ़-ए-बहारां भूल गये।

सबका तो मदावा कर डाला, अपना ही मदावा कर न सके।
सबके तो गरेबां सी डाले, अपना ही गरेबां भूल गये।

ये अपनी वफ़ा का आलम है, अब उनकी जफ़ा को क्या कहिए
इक नश्तर-ए-ज़हर आगीं रखकर नज़दीक-ए-रग-ए-जां भूल गये।


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