मैं सूरथखल में रीजनल इंजीनियरिंग कालेज के गेस्ट हाउस में ठहरा हुआ था। एक सेमिनार के सिलसिले में यहाँ आया था। अब यहाँ से गोवा जाना था मुझे। यदि मैं कालेज के
अधिकारियों से कहता तो वे मेरा सारा प्रबंध कर देते। शायद यहाँ से गोवा तक का किराया भी दे देते। लेकिन यह मुझे उचित नहीं लगा। इसीलिए मैं स्वयं मंगलौर जाकर बस
से अपना रिजर्वेशन करा आया था। रात नौ बजकर पचास मिनट पर बस वहाँ से पणजी के लिए रवाना होती थी।
इस समय आठ बजने वाले थे। मुझे किसी भी सूरत में साढ़े नौ या अधिक से अधिक नौ चालीस तक मंगलौर पहुँच जाना था। वैसे पूर्ण जानकारी न होने के कारण मुझे यह कष्ट
उठाना पड़ रहा था क्योंकि मंगलौर से पणजी जाने वाली बस इसी रास्ते से गुजरती थी और यदि मैं पहले से बस वाले को नोट करा देता कि मैं बस में सूरथखल में बोर्ड
करूँगा तो वह बस यहाँ रोक कर मुझे ले लेता।
लेकिन अब क्या हो सकता था। अब तो मुझे यहाँ से बस पकड़ कर मंगलोर ही जाना था। अपनी मूर्खतापूर्ण आदर्शवादिता के कारण मैंने कालेज के अधिकारियों को कार के लिए भी
मना कर दिया था।
मेरे पास सामान अधिक नहीं था। मात्र एक अटैची। उसे लेकर मैं सड़क के उस पार आ गया जहाँ से मुझे मंगलौर के लिए बस मिलनी थीं। यहाँ एक वृक्ष के नीचे एक चबूतरा सा
बना था। संभवतः बस यात्रियों की सुविधा के लिए ही यह बनाया गया था। एक आदमी वहाँ पहले से बैठा था। मैं भी उसी के बगल में बैठ गया। उसने मुझे, गौर से देखा। तब
पूछा, 'कहाँ जाएँगे आप?' 'मंगलौर' मैंने कहा, 'वहाँ से मुझे पणजी जाना है। अभी रात नौ पचास वाली बस से।' 'रिजर्वेशन है आपका?' 'सो तो सुबह ही करा लिया था।'
मैंने कहा। 'तब तो आपने भूल की। पणजी वाली बस तो इधर से ही जाती है। आप उनको बता देते तो वह आपको यहाँ से ले लेते।' 'हाँ। यह भूल तो हो ही गई। असलियत में तब
मुझे इस बात की जानकारी नहीं थी।' 'खैर अभी समय है आप आराम से पहुँच जाएँगे। बीस-बाईस किलोमीटर की ही तो बात है। बस समय और पैसे का कुछ नुकसान होगा।' 'सही
जानकारी की कमी का इतना मुआवजा तो देना ही चाहिए मुझे।' मैंने कहा।
तभी दाहिनी ओर सड़क पर किसी चौपहिए वाहन का तेज प्रकाश देखकर मैं कुछ सतर्क हो गया कि शायद मंगलौर जाने वाली कोई बस ही हो।' 'बस वाला ऐसे ही रोक देगा या मुझे
हाथ दिखाना होगा।' मैंने उस व्यक्ति से पूछा।
उसने गाड़ी के प्रकाश की ओर देखा। तब बोला, 'यह तो कार है। आप बैठे रहिए। बस आपको अभी थोड़ी देर में मिलेगी। साढ़े आठ पर पहली बस आएगी लेकिन मेरी मानिए तो उसे
आप मत लीजिए। वह स्लो बस है, रुकते-रुकाते जाएगी। कोई ठीक नहीं आपको समय से पहुँचाए भी या नहीं। उसके बाद दूसरी बस नौ बजकर दस मिनट पर मिलेगी। वह एक्सप्रेस बस
है। वह आपको ठीक नौ चालीस पर मंगलौर पहुँचा देगी। यहाँ से छूटी तो सीधे मंगलौर ही रुकेगी।'
तब तक जिस गाड़ी का प्रकाश मैंने देखा था वह हमारे सामने से निकल गई। वास्तव में वह कार ही थी। मुझे आश्चर्य हुआ कि इस आदमी ने इतनी दूर से कैसे जान लिया कि वह
कार ही है।
'आप क्या उत्तर भारत के रहने वाले हैं?' मैंने उससे पूछा। 'क्यों?' 'हिंदी आप बहुत अच्छी बोलते हैं।' वह हँसा। 'हिंदी ही नहीं, मैं कन्नड़ और कोंकणी भी बहुत
अच्छी बोल लेता हूँ। इसके अलावा मराठी, मलयालम, पंजाबी, असमिया और बंगला भी टूटी-फूटी बोल लेता हूँ। लेकिन मैं कहाँ का हूँ, मेरे माता-पिता कौन थे, क्या भाषा
बोलते थे, उनका धर्म क्या था, यह मैं आज तक नहीं जानता।' 'ऐसा कैसे?' मुझे आश्चर्य हुआ। 'बहुत पुरानी बात है।' उसने इस प्रकार कहना शुरू किया जैसे वह कहीं बहुत
पीछे किसी अँधेरे अतीत में डुबकी लगा रहा हो। 'आज से कोई पचास-बावन वर्ष पहले इसी मंगलौर पणजी मार्ग पर एक बहुत भयानक बस दुर्घटना हुई थी। आप शायद तब पैदा भी
नहीं हुए होंगे।' उसने मेरी ओर गौर से देखा तब बोला, 'पहले कभी इस रूट पर यात्रा की है आपने?' 'नहीं।' मैंने कहा। 'तब आपको यह यात्रा दिन में करनी चाहिए थी। इस
देश की बहुत ही खूबसूरत यात्राओं में से एक है यह। पूरा मार्ग वेस्टर्न घाट्स के बीच से गुजरता है। दोनों ओर पहाड़, घाटियाँ, झरने जंगल, फल और फूलों से लदे हुए
वृक्ष। अगर हल्की बारिश हो रही हो तब तो यात्रा का आनंद और भी बढ़ जाता है।' 'आप किसी दुर्घटना की बात कर रहे थे!' 'हाँ। आज से पचास-बावन वर्ष पहले की बात है।
इस मार्ग के लगभग बीचोबीच एक स्थान पर सड़क लगभग यू टर्न लेती है। उसी स्थान पर यह दुर्घटना घटी थी।'
सड़क पर किसी वाहन का प्रकाश देखकर मैं फिर उस ओर देखने लगा। 'ट्रक है।' उसने कहा। मुझे लगा जैसे मैं चोरी करते पकड़ा गया हूँ। 'क्षमा कीजिएगा।' मैंने कहा, 'आप
दुर्घटना की बात कर रहे थे।' 'वही बात कर रहा हूँ। सवारियों से पूरी तरह लदी हुई बस तेज रफ्तार से भागी चली जा रही थी। तभी क्या हुआ यह तो आज तक कोई बता नहीं
पाया। बहरहाल, उसी यू टर्न के पास बस अचानक एक गहरे खड्डे में जा गिरी। कोई दो हजार फुट गहरा खड्डा रहा होगा। नीचे घाटी तक पहुँचने से पहले ही बस में आग लग गई
और आग की भयंकर लपटों से घिरे एक विशाल गोले की तरह बस लुढ़कती हुई नीचे घाटी में जा गिरी। सारे यात्री बस में ही जल कर मर गए। एक प्राणी भी नहीं बचा। बचा तो बस
एक डेढ़ साल का बच्चा जिसे एक खरोंच तक नहीं आई।'
मुझे उसकी बात पर आश्चर्य हुआ। तभी वह गाड़ी हमारे सामने से गुजरी और मैंने देखा वास्तव में ही ट्रक था। 'अरे यह तो बड़े आश्चर्य की बात है कि बच्चे को जरा सी
खराश भी नहीं आई।' मैने कहा। 'हाँ।' उसने कहा, 'असलियत में इधर फालसाही रंग का एक तरह के फूल का वृक्ष होता है बिल्कुल गुलमोहर जैसा। लेकिन ऊँचाई में उससे काफी
छोटा। सितंबर के महीने में, जिन दिनों की बात है वह, अपने पूरे शबाब पर होता है। पूरा पेड़ फूलों का एक स्तूप सा लगने लगता है। इस मार्ग पर यह पेड़ बहुतायत से
पाया जाता है।
संभवतः वह बच्चा बस में खिड़की के पास अपनी माँ या पिता की गोद में बैठा उन फूलों की ओर लपकता रहा होगा और जैसे ही बस खड्डे में गिरने को हुई बिल्कुल उसी क्षण
वह बच्चा फूलों की ओर लपका और फूलों की एक डाल उसकी पकड़ में आ गई और इधर बस खड्डे की ओर लुढ़की और उधर वह बच्चा फूलों की डाल पकड़े खिड़की से बाहर हो गया। जब
बस के गिरने की आवाज सुनकर पास के गाँव में रहने वाले लोग दौड़ कर आए तो उन्होंने फूलों के उस वृक्ष की एक डाल से उस बच्चे को लटकता हुआ पाया।
बच्चा जोर-जोर से रो रहा था। एक गाँव वाले ने पेड़ से लटकते हुए उस बच्चे को गोद में लेकर उतारा। दूसरे लोग नीचे खड्डे में उतर गए। किसी तरह जलती हुई बस को
उन्होंने बुझाया। लेकिन तब तक देर हो चुकी थी। सब कुछ जलकर राख हो चुका था। लाशें भी इस सीमा तक जल चुकी थीं कि किसी को भी पहचानना असंभव था। पुलिस आई। उसने
सारी चीजों का मुआयना किया।'
'बच्चे के वस्त्रों आदि को देखकर लगता था कि वह किसी अच्छे घर का है। लेकिन सिवाय 'अम्मा' 'बाबा' के वह कुछ बोल नहीं सकता था। ऐसी स्थिति में यह पता लगा पाना कि
वह कौन था, बड़ा मुश्किल था। बस में जो भी सामान आदि जलने से रह गया था उसे पुलिस वालों ने गौर से देखा कि शायद किसी बक्से में बच्चे की साइज के कुछ वस्त्र आदि
मिलें, साथ ही कुछ ऐसा जिससे उसके बारे में कुछ जाना जा सके यह भी ट्रक है।' उसने सड़क पर आते एक और वाहन की रोशनी को देखते हुए कहा।
'उस बच्चे का क्या हुआ?' 'दूसरे दिन अखबारों में बस दुर्घटना की खबर के साथ बच्चे का बड़ा सा फोटो भी छपा। लेकिन कुछ फायदा नहीं हुआ। कई दिन निकल गए। लेकिन कोई
उसे क्लेम करने नहीं आया। हाँ उसे गोद लेने के लिए कई लोग आगे आए मगर इसमें एक कानूनी अड़चन थी। बच्चा या तो माँ-बाप की अनुमति से गोद लिया जा सकता है या फिर वह
पूरी तरह लावारिस हो। यहाँ समस्या यह थी कि कानूनी तौर से बच्चा लावारिस भी नहीं कहा जा सकता था क्योंकि हो सकता था कि कुछ दिनों बाद उसके हकदार आ ही जाएँ और
कौन जाने बच्चे के माँ-बाप दोनों नहीं तो उनमें से एक अभी जीवित ही हो। अतः मजिस्ट्रेट ने यह आदेश दिया कि बच्चे का फोटो सुरक्षित रख लिया जाए तथा एक छोटा फोटो
ताबीज के रूप में बच्चे के गले में पहना दिया जाए और पालन-पोषण के लिए किसी अच्छे अनाथ आश्रम भेज दिया जाए। अतः कुछ दिन पुलिस कस्टडी में रहने के बाद बच्चे को
एक अनाथ आश्रम भेज दिया गया।'
इस बीच वह वाहन हमारे सामने से निकला तो मैंने देखा वह वास्तव में ट्रक था। मैं उस व्यक्ति के बारे में सोचने लगा कि आखिर यह है कौन जो दूर से वाहनों के प्रकाश
को देखकर ही उनके स्वरूप को पहचान लेता है। 'आपको बताऊँ वह बच्चा कौन था?' मैंने उसकी ओर गौर से देखा। 'वह बच्चा आपके सामने बैठा है।' और यह कहकर उसने अपने गले
में पड़ा हुआ ताबीज मेरे सामने कर दिया। 'आप?' 'जी हाँ मैं।' 'तो आपको बाद में कुछ पता चला।' 'नहीं।' उसने कहा। 'मैं कोई चार-पाँच साल उस अनाथालय में रहा तब
वहाँ से भाग आया। असलियत में उसे अनाथालय कहना ही गलत था। वास्तव में वह बच्चों द्वारा भीख मँगवाए जाने का एक अड्डा था। सुबह सब बच्चे अलग-अलग टोलियाँ बनाकर
बैंड बाजे के साथ निकलते और शाम को भीख में पाए हुए पैसे लाकर मैनेजर के पास जमा कर देते। यदि कोई बच्चा कम पैसे लाता तो उसे सजा दी जाती। खाना भी ठीक से नहीं
मिलता था। यही सब देखकर मैं वहाँ से एक दिन चोरी से भाग निकला अब आपकी बस आ रही है, लेकिन यह पैसेंजर बस है, मेरी राय में आप इसे मत पकड़िए।'
'ठीक है।' मैंने कहा। 'अनाथालय से निकलने के बाद आप कहाँ गए?'
'तब तक मुझे बस एक्सीडेंट के बारे में सारी बातें पता चल चुकी थीं और जाने क्यों मैं लौटकर उसी स्थान पहुँच गया जहाँ एक्सीडेंट हुआ था और वहाँ से कुछ दूर सड़क
किनारे बने एक होटल में काम करने लगा। मेरे गले में मेरा उस समय का फोटो अभी भी ताबीज में मढ़ा लटका था। उसे देखकर कुछ लोगों ने मुझे पहचान लिया कि मैं वही
बच्चा हूँ जो बस दुर्घटना में बच गया था। सभी मुझे बहुत ही उत्सुकता से देखते। बस के ड्राइवरों-कंडक्टरों को तो मुझमें विशेष रुचि थी। वह मुझे बहुत ही भाग्यशाली
समझते और कभी-कभी मुझे अपने साथ अपनी बस में बिठा लेते। कुछ दूर जाकर किसी स्टाप पर मैं उधर से आने वाली बस पर बैठकर वापस आ जाता।'
बस आकर वहाँ रुक गई। वह खचाखच भरी हुई थी। दो-एक मुसाफिर उससे उतरे। 'आप जाना चाहें तो इससे जा सकते हैं। हो सकता है समय से यह पहुँचा भी दे। लेकिन मेरे ख्याल
से आप रिस्क न लें। एक्सप्रेस बस ही पकड़ें।'
'ठीक है मैं एक्सप्रेस बस से ही जाऊँगा।' मैंने कहा।
बस चली गई। 'फिर क्या हुआ?' मैंने पूछा। 'फिर तो यह रोज का ही सिलसिला हो गया। मैं आराम से किसी भी बस में सवार हो जाता। ड्राइवर और कंडक्टर मेरे भोजन का प्रबंध
करते। नींद लगने पर मैं बस में सो भी जाता। धीरे-धीरे मैं रोज ही मंगलौर से पणजी और पणजी से मंगलौर का चक्कर लगाने लगा। बरसों तक यह सिलसिला जारी रहा। इस रूट के
सारे होटल तथा अन्य दुकान वाले यहाँ तक कि अकसर आने-जाने वाले पैसेंजर भी मुझे पहचानने लगे। सभी मुझे सहानुभूति की दृष्टि से देखते, महिलाएँ मुझे अपने पास बिठा
लेतीं और मुझे खाने को फल, बिस्कुट आदि देतीं। साथ में इस तरह के रिमार्क करतीं 'बेचारा बिना माँ-बाप का है च् च्।' शुरू में यह सहानुभूति मुझे अच्छी लगी लेकिन
जैसे-जैसे मैं बड़ा होने लगा यह सहानुभूति मुझे अखरने लगी।'
'इस बीच मैंने बस के ड्राइवरों की कृपा से ड्राइविंग भी सीख ली थी और सत्रह-अठ्ठारह का होते-होते बड़ी से बड़ी गाड़ियाँ चलाने में दक्ष हो गया। तभी मुझे मंगलौर
की एक ट्रांसपोर्ट कंपनी में ड्राइवर की नौकरी मिल गई और माल से लदा हुआ ट्रक मंगलौर से जयपुर, अमृतसर, दिल्ली, कलकत्ता, बंबई, गौहाटी, मद्रास तक लाने ले जाने
लगा। कभी-कभी एक यात्रा में मुझे एक-एक महीना लग जाता। मेरी हिंदी के बारे में आप बात कर रहे थे, वह मैंने इसी दौरान सीखी। और भाषाएँ भी सीखीं। लेकिन चूँकि और
भाषाओं का सीमित उपयोग ही था इसलिए उन्हें इतनी अधिक नहीं सीख पाया जबकि हिंदी पूरे देश में ही चलती और समझी जाती है इसलिए हिंदी मुझे अच्छी तरह आ गई।'
'यह कौन-सी गाड़ी है?' एक वाहन की लाइट देखकर मैंने पूछा।
वह देर तक उसे देखता रहा। 'यह तो बस ही लगती है लेकिन अभी तो बस का टाइम हुआ नहीं।' वह कुछ सोच में पड़ गया 'क्या टाइम हुआ?' 'आठ चालीस।' 'तब तो बस का टाइम नहीं
है। लेकिन है यह बस ही।'
तभी गाड़ी पास आई तो हमने देखा वह वास्तव में बस ही थी। लेकिन किसी टूरिस्ट सेवा की प्राइवेट बस थी।' बत्ती देखकर आप कैसे जान लेते हैं?' 'जिंदगी में यही किया
और सीखा है।' उसने कहा।
वह कुछ देर शांत रहा तो मैंने उसे कुरेदा, 'आप बता रहे थे कि आपने एक ट्रांसपोर्ट कंपनी में नौकरी कर ली।' 'हाँ। लेकिन तीन-चार साल में ही मेरा मन उससे उचट गया।
महीनों क्लीनर और हेल्पर के साथ रात-दिन ट्रक पर ही गुजारना पड़ता। कभी-कभी तो ट्रक खराब हो जाने पर कई-कई दिनों तक सुनसान सड़क पर अकेले रहना पड़ता जहाँ
खाने-पीने का भी कोई प्रबंध नहीं होता। इसी सबसे ऊबकर मैंने एक दिन वह नौकरी छोड़ दी। कुछ दिन बेकार रहा तब पणजी में एक टूरिस्ट बस सर्विस में ड्राइवर की नौकरी
कर ली।' 'यह नौकरी अच्छी थी। सुबह आठ बजे एक स्थान से टूरिस्टों को लेकर निकलता और उन्हें लवर्स प्वाइंट, दक्षिण गोवा के गिरजाघर, सी-बीच, माइम, गोवा, मजगाँव
डाक्स, फोर्ट अगोंदा वगैरह घुमाते हुए शाम को वापस लौट आता। वहीं पणजी में ही एक क्रिश्चियन परिवार में पेइंग गेस्ट बनकर रहने लगा।'
कुल तीन जनों का परिवार था वह। बूढ़े माँ-बाप और उनकी एक बेटी। एक बेटा भी था पहले लेकिन गोआ की आजादी की लड़ाई के दौरान वह मारा गया था। डिसूजा परिवार था वह।
लड़की जूली डिसूजा मुझसे आयु में एक-दो वर्ष कम ही रही होगी। वह बहुत अच्छा डांस करती। गिटार और पियानो भी बजाती। धीरे-धीरे हम दोनों एक-दूसरे के बहुत निकट आ गए
और जूली के माँ-बाप की रजामंदी से एक दिन हम लोगों ने चर्च में जाकर विवाह कर लिया।
मेरी सिगरेट समाप्त हो गई थी। 'कहीं सिगरेट मिलेगी यहाँ?' मैंने उससे पूछा। 'कह नहीं सकता।' उसने कहा 'चलिए चलकर देखते हैं।'
सौभाग्य से थोड़ी दूर पर ही एक दुकान खुली मिल गई। सिगरेट लेकर हम वापस उसी स्थान पर आ गए। 'आप कह रहे थे आपने चर्च में जाकर शादी कर ली।' मैंने उसे कथा का छूटा
हुआ सूत्र याद दिलाया। 'हाँ।' उसने कहा 'शादी करने के बाद हमलोग आराम से उसी मकान में रहने लगे। तभी छह साल के अंदर हमारे तीन बेटे पैदा हुए। तीनों ही एक से एक
खूबसूरत। मैंने मन में तय किया कि मैं तीनों को पढ़ा-लिखाकर बड़ा आदमी बनाऊँगा। लेकिन मेरे बेटों को एक ही धुन थी। मोटर ड्राइवरी करने की। आखिर जब पहले बेटे ने
बड़े होकर बहुत जिद की तो जूली की राय से हमने अपना मकान गिरवी रखकर उसे एक टैक्सी दिला दी और वह टैक्सी चलाने लगा। तब तक दूसरा बेटा भी बड़ा हो गया था। अब
दोनों उसी टैक्सी को बारी-बारी से चलाने लगे। लेकिन टैक्सी को लेकर उनमें झगड़ा होने लगा। और दूसरे बेटे ने भी टैक्सी की माँग की। अब दूसरी टैक्सी लेने की ताकत
मुझमें नहीं थी। अतः मैंने साफ मना कर दिया। इस पर दूसरा बेटा एक ट्रांसपोर्ट कंपनी में ड्राइवर हो गया। मैंने उसे बहुत समझाया कि यह बहुत कठिन जिंदगी है लेकिन
वह नहीं माना। तभी एक दुर्घटना घट गई।' 'क्या?' मैंने पूछा। 'मेरा सबसे बड़ा बेटा एक दिन अपनी टैक्सी पर कुछ सवारियों को लेकर पणजी से मंगलौर जा रहा था। तभी
उसकी टैक्सी एक ट्रक से टकरा गई। मुसाफिरों को तो कोई चोट नहीं आई लेकिन मेरे बेटे की दुर्घटनास्थल पर ही मृत्यु हो गई। यह लगभग वही स्थान था जहाँ पहली बार बस
दुर्घटना के समय मैं पेड़ की डाल से लटकता हुआ पाया गया था। उस समय मेरे बेटे की उमर थी तेईस साल ग्यारह महीने और तेरह दिन।'
'बहुत अफसोस हुआ मुझे सुनकर' मैंने कहा। 'मुझे भी बहुत सदमा पहुँचा। मैंने अपने दूसरे बेटे को समझाया कि वह ट्रक चलाना छोड़ दे। लेकिन उसकी बात तो दूर रही, मेरा
तीसरा बेटा जिद करने लगा कि मैं दुर्घटनाग्रस्त टैक्सी को जल्दी से ठीक करा दूँ ताकि वह उसको चला सके।'
'इस बीच जूली के माता-पिता की मृत्यु हो चुकी थी। उसे भी अपने बड़े बेटे की मृत्यु का बहुत सदमा था लेकिन वह मेरी तरह अंधविश्वासी नहीं थी और उसने सबसे छोटे को
टैक्सी ठीक कराने के लिए उपयुक्त धन दे दिया। अब मँझला बेटा ट्रक और छोटा बेटा टैक्सी चलाने लगा। तभी दूसरी दुर्घटना घटी।'
मैंने आश्चर्य से उसकी ओर देखा।
'हुआ यह कि मेरा मँझला बेटा खाली ट्रक लेकर मंगलौर से पणजी आ रहा था। तभी लगभग उसी स्थान पर जहाँ बड़े बेटे की मृत्यु हुई थी उसका ट्रक सड़क पर फिसला और नीचे
खड्डे में जा गिरा। क्लीनर को बस मामूली चोटें आईं लेकिन मेरे बेटे ने वहीं दम तोड़ दिया।' वह एक क्षण रुका तब बोला, 'जानते हैं उस समय मेरे बेटे की उम्र क्या
थी?' 'क्या?' मैंने पूछा। 'तेईस साल ग्यारह महीने और तेरह दिन।' उसने कहा।
एक क्षण हम दोनों ही खामोश रहे। तब उसने आगे कहना शुरू किया, 'इसके बाद तो मेरा दिमाग ही खराब हो गया। जूली भी बहुत पछताई कि उसने मेरी बात क्यों नहीं मानी और
इसी गम में वह पागल हो गई। मुझे उसे पागलों के अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा। साथ ही तीसरे बेटे को लेकर मेरे मन में आशंकाएँ उभरने लगीं कि यह कौन सी शैतानी
शक्ति थी जो इतनी निर्दयता से मेरे बेटों को मुझसे छीन रही थी। मैंने तय किया कि कुछ भी हो अब मैं माइकेल को टैक्सी नहीं चलाने दूँगा। जी हाँ, माइकेल मेरे सबसे
छोटे बेटे का नाम है। मैंने उसे बहुत समझाया लेकिन वह नहीं माना। आखिर एक दिन मैंने उसे जबरदस्ती कमरे में बंद कर दिया और तब तक बंद रखा जब तक टैक्सी मैंने बेच
नहीं दी। इसके बाद मैंने उसे कमरे से बाहर निकाला और उसे अपने पास बिठाकर समझाया कि टैक्सी मैंने बेच दी है, अब इन पैसों से जो भी धंधा वह करना चाहे करे। वह कुछ
नहीं बोला और पैसे मुझसे लेकर जेब में रखकर घर से बाहर चला गया।' 'मैं समझता था वह चार-छह घंटों में लौट आएगा लेकिन एक दिन गुजरा, दो दिन गुजरे और फिर सप्ताह और
महीने गुजरने लगे मगर वह लौटकर नहीं आया। आज तक नहीं आया।'
'आज तक नहीं आया?' 'हाँ। मैं बराबर उसकी तलाश में हूँ। आज सत्रह तारीख है न।' 'हाँ,' मैंने कहा।' आज वह अपनी जिंदगी के तेईस साल ग्यारह महीने और आठ दिन पूरे
करेगा। पाँच दिनों में वह इधर जरूर आएगा। चार दिन बाद मैं उस स्थान पहुँच जाऊँगा जहाँ पहली दुर्घटनाएँ घट चुकी हैं। हर गाड़ी को रोकूँगा मैं। जैसे भी हो उसे
तलाश करूँगा। मुझे भरोसा है मैं उसे बचा लूँगा।' 'आपका ख्याल है वह अपनी आयु के तेईस वर्ष ग्यारह महीने और तेरहवें दिन वहाँ जरूर पहुँचेगा।' 'मेरा मन कहता है और
मैं अपनी पूरी कोशिश करूँगा उसे बचाने की।' 'आपकी पत्नी?' 'उसे दुबारा पागलखाने में भर्ती कराना पड़ा। वह भी दिन गिन रही है। उसे डर है कि माइकेल बचेगा नहीं
लेकिन मैं उससे वायदा करके आया हूँ कि मैं उसे बचाऊँगा। जैसे भी हो लीजिए आपकी बस आ रही है।'
मैंने देखा सड़क पर दो बड़ी-बडी बत्तियाँ चमक रही थीं। गाड़ी निकट आने पर उसने सड़क पर खड़े होकर हाथ हिलाना शुरू कर दिया 'एक्सप्रेस बस हाथ हिलाने से ही यहाँ
रुकती है।' उसने कहा।
बस आकर जोरों के ब्रेक के साथ रुक गई। 'आइए,' उसने कहा। मैं अटैची लेकर बस पर चढ़ गया। 'नमस्कार,' उसने कहा।
बस चली तो वह देर तक हवा में हाथ हिलाता रहा।
उसने ठीक ही कहा था। पहले वाली बस मुझे रास्ते में एक जगह खड़ी मिली। अगर मैं उसे पकड़ता तो अटक ही जाता। इस बस ने मुझे समय से पहुँचा दिया और मुझे पणजी वाली बस
आराम से मिल गई। पणजी जाते समय जब हमारी बस उस स्थान से गुजरी तो मैंने देखा वह उसी चबूतरे पर बैठा था। अकेला।
रास्ते भर मैं उसके बारे में सोचता रहा। अगर उसने मुझसे कुछ रुपये आदि माँगे होते तो एक बार मुझे यह भी लगता कि वह कहानी गढ़ रहा था। लेकिन ऐसा कुछ नहीं था।
पणजी पहुँचकर मैं घूमने-फिरने में लग गया। एक प्रकार से मैं उसके बारे में सब कुछ भूल ही गया था। तभी जिस दिन मुझे वहाँ से लौटना था और मैं अपने होटल के लाउंज
में बैठा पणजी की अंतिम चाय पी रहा था, अचानक मेरी निगाह अखबार में प्रकाशित एक समाचार पर पड़ी 'ट्रक दुर्घटना में ड्राइवर की मृत्यु।'
मैंने अखबार उठा लिया। हेडिंग के नीचे लिखा था - 'कल मंगलौर से पणजी आते हुए लगभग आधे रास्ते पर बीच सड़क पर खड़े एक बूढ़े व्यक्ति को बचाने के प्रयास में एक
ट्रक खड्डे में जा गिरा। क्लीनर को मामूली चोटें आईं लेकिन ड्राइवर की दुर्घटनास्थल पर ही मृत्यु हो गई। ड्राइवर का नाम माइकेल डिसूजा था। उसकी आयु लगभग चौबीस
वर्ष थी।'
मैं सकते में आ गया। तो क्या उसे बचाने के चक्कर में उसने ही उसके प्राण ले लिए।
मै पूरी तौर से नास्तिक हूँ। किसी दैवी शक्ति में मेरा कोई विश्वास नहीं हैं। तब इसे क्या कहूँ? संयोग? या नियति? या... आप ही बताएँ।