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कविता

राग

शमशेर बहादुर सिंह


1
मैंने शाम से पूछा -
             या शाम ने मुझसे पूछा :
                  इन बातों का मतलब?
मैंने कहा -
शाम ने मुझसे कहा :
              राग अपना है।

 

2
आँखें मुँद गयीं।
सरलता का आकाश था
जैसे त्रिलोचन की रचनाएँ।
नींद ही इच्‍छाएँ।

 

3
मैने उससे पूछा -
उसने मुझसे :
            कब?
मैंने कहा -
उसने मुझसे कहा :
            समय अपना राग है।

4
तुमने 'धरती' का पद्य पढ़ा है?
उसकी सहजता प्राण है।
तुमने अपनी यादों की पुस्‍तक खोली है?
जब यादें मिटती हुई एकाएक स्‍पष्‍ट हो गयी हों?
जब आँसू छलक न जाकर
आकाश का फूल बन गया हो?
- वह मेरी कविताओं-सा मुझे लगेगा :
तब तुम मुझे क्‍या कहोगे?

 

5
उसने मुझसे पूछा, तुम्‍हारी कविताओं का क्‍या मतलब है?
मैंने कहा - कुछ नहीं।
उसने पूछा - फिर तुम इन्‍हें क्‍यों लिखते हो?
मैंने कहा - ये लिख जाती हैं। तब
इनकी रक्षा कैसे हो जाती है?
                    उसने क्‍यों यह प्रश्‍न किया?

 

मैंने पूछा :
मेरी रक्षा कहाँ होती है? मेरी साँस तो -
तुम्‍हारी कविताएँ हैं : उसने कहा। पर -

 

इन साँसों की रक्षा कैसे होती आई?
वे साँसों में बँध गये; शायद ऐसी ही रक्षा
          होती आई। फिर बहुत-से गीत
          खो गये।

 

6
वह अनायास मेरा पद गुनगुनाता हुआ बैठा
         रहा, और मैंने उसकी ओर
         देखा, और मैं समझ गया।
और यह संग्रह उसी के हाथों में खो गया।

 

7
उसने मुझसे पूछा, इन शब्‍दों का क्‍या
     मतलब है? मैंने कहा : शब्‍द
     कहाँ है? वह मौन मेरी ओर
     देखता चुप रहा। फिर मैंने
     श्रम-पूर्वक बोलते हुए कहा - कि :
     शाम हो गयी है। उसने मेरी
     आँखों में देखा, और फिर - एकटक देखता
     ही रहा। क्‍यों फिर उसने मेरा संग्रह
     अपनी धुँधली गोद में खोला और
     मुझसे कुछ भी पूछना भूल गया।
     मुझको भी नहीं मालूम, कौन था
     वह। केवल वह मुझे याद है।

 

8
तब छंदों के तार खिंचे-खिंचे थे,
राग बँधा-बँधा था,
प्‍यास उँगलियों में विकल थी -
कि मेघ गरजे;
और मोर दूर और कई दिशाओं से
बोलने लगे - पीयूअ! पीयूअ! उनकी
हीरे-नीलम की गर्दनें बिजलियों की तरह
हरियाली के आगे चमक रही थीं।
कहीं छिपा हुआ बहता पानी
बोल रहा था : अपने स्‍पष्‍टमधुर
प्रवाहित बोल।
[1945]

 


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