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कविता

सुन के ऐसी ही सी एक बात

शमशेर बहादुर सिंह


[हिन्दी साहित्यिकों में गुटबन्दी के एक घृणित रूप की प्रतिक्रिया]

क्‍या यही होगा जवाब एक कलाकार के पास
रक्‍खा जाएगा कलम जूती ओ पैजार के पास
क्‍या यही जोड़े हैं संस्‍कार के संस्‍कार के पास
यही संकेत है साहित्‍य के व्‍यापार के पास
        सुनके ऐसी ही-सी इक बात...
               कहूँ क्‍या, बस, अब।
        दुःख औ कष्‍ट से मैं सोच रहा था यह सब!

 

नये मानों की, नये शिल्‍प, नये चेतन की
नये युग-लोक में क्‍या अब यही व्‍याख्‍या होगी?
जो कला कहती थी 'जय होगी तो होगी मेरी!'
आज अधरों प' है उसके ही य' बोली कैसी!!
      इन बड़ों का नहीं साहित्‍य का सर झुकता है।
      'अपने' पाठक के हैं ये - सोचते दम रुकता है!

 

देवताओ मेरे साहित्‍य के युग-युग के, सुनो :
साधनाओं की परम शक्तियो, इतना वर दो -
(अपने भक्‍तों की चरणधूलि जो समझो मुझको)
एक क्षण भी मेरा व्‍यय ऐसों की संगत में न हो!
      एक वरदान यही दो जो हो दाया मुझपर :
      स्‍वप्‍न में भी न पड़े ऐसों की छाया मुझपर!

 

 


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