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कविता

छिप गया वह मुख

शमशेर बहादुर सिंह


                छिप गया वह मुख
         ढँक लिया जल आँचलों ने बादलों के
(आज काजल रात-भर बरसा करेगा क्‍या?)

         नम गयी पृथ्‍वी बिछा कर फूल के सुख
सीप सी रंगीन लहरों के हृदय में, डोल
                चमकीले पलों में,
         हास्‍य के अनमोल मोती, रोल
     तट की रेत, अपने आप कैसे टूटते हैं :
     बुलबुलों में, सहज-इंगित मुद्रिकाओं के नगीने
             भाव-अनुरंजित; न जाने सहज कैसे
     हवा के उन्‍मुक्‍त उर में फूटते हैं!
(मौन मानव। बोल को तरसा करेगा क्‍या?)

 

रिक्‍त रक्तिम हृदय आँचल में समेटे
     घिरा नारी मन उचाटों में,
भूल-धूमिल जाल मानस पर लपेटे
     नागफन के धूल काँटों में :
खड़ी विजड़ित चरण... सन्ध्या, मूल प्राणों की...
     छाँह जीवन-वनकुसुम की, स्थिर।
(वास्‍तव को स्‍वप्‍न ही परसा करेगा क्‍या?)
[1945]

 

 


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