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कविता

चुप रहिए

रमानाथ अवस्थी


देख रहे हैं जो भी किसी से मत कहिए
मौसम ठीक नहीं है आजकल चुप रहिए

कल कुछ देर किसी सूने में मैंने कीं ख़ुद से कुछ बातें
लगा कि जैसे मुझे बुलाएँ बिन बाजों वाली बारातें
कोई नहीं मिला जो सुनता मुझसे मेरी हैरानी को
देखा सबने मुझे न देखा मेरी आँखों के पानी को

रोने लगीं मुझी पर जब मेरी आँखें
हँसकर बोले लोग माँग मत जो चहिए

चारों ओर हमारे जितनी दूर तलक जीवन फैला है
बाहर से जितना उजला वह भीतर उतना ही मैला है
मिलने वालों से मिलकर तो बढ़ जाती है और उदासी
हार गए ज़िन्दगी जहाँ हम पता चला वह बात ज़रा-सी

मन कहता है दर्द कभी स्वीकार न कर
मज़बूरी हर रोज़ कहे इसको सहिए

फुलवारी में फूलों से भी ज़्यादा साँपों के पहरे हैं
रंगों के शौकीन आजकल जलते जंगल में ठहरे हैं
जिनके लिए समन्दर छोड़ा वे बादल भी काम न आए
नई सुबह का वादा करके लोग अँधेरों तक ले आए

भूलो यह भी दर्द चलो कुछ और जिएँ
जाने कब रुक जाएँ ज़िन्दगी के पहिए

जनता तो है राम भरोसे राजा उसको लूट रहा है
देश फँस गया अँधियारों में भूले हम गौतम-गांधी को
काले कर्मों में फँसकर हम भूले उजली परिपाटी को

बारम्बार हमें समझाते लोग यहाँ
जैसे बहे बयार आप वैसे बहिए

 


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