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कविता

बुलावा

रमानाथ अवस्थी


प्यार से मुझको बुलाओगे जहाँ
एक क्या सौ बार आऊँगा वहाँ

पूछने की है नहीं फ़ुरसत मुझे
कौन हो तुम क्या तुम्हारा नाम है
किसलिए मुझको बुलाते हो कहाँ
कौन-सा मुझसे तुम्हारा काम है

फूल-से तुम मुस्कुराओगे जहाँ
मैं भ्रमर-सा गुनगुनाऊँगा वहाँ

कौन मुझको क्या समझता है यहाँ
आज तक इस पर कभी सोचा नहीं
आदमी मेरे लिए सबसे बड़ा
स्वर्ग में या नरक में वह हो कहीं

आदमी को तुम झुकाओगे जहाँ
प्राण की बाजी लगाऊँगा वहाँ

जानता हूँ एक दिन मैं फूल-सा
टूट जाऊँगा बिखरने के लिए
फिर न आऊँगा तुम्हारे रूप की
रोशनी में स्नान करने के लिए

किन्तु तुम मुझको भूलाओगे जहाँ
याद अपनी मैं दिलाऊँगा वहाँ

मैं नहीं कहता कि तुम मुझको मिलो
और मिल कर दूर फिर जाओ चले
चाहता हूँ मैं तुम्हें देखा करूँ
बादलों से दूर जा नभ के तले

सर उठा कर तुम झुकाओगे जहाँ
बूँद बन-बन टूट जाऊँगा वहाँ

 


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