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कहानी

गांधी लड़की

राकेश मिश्र


वैसे लड़की का नाम सुनीता नारायण था, लेकिन लोग उसे गांधी लड़की कहकर बुलाते थे। वैसे वह पैदा उसी शहर में हुई थी, जहाँ गांधी पैदा हुए थे लेकिन गांधी जी या उसके परिवार से उस लड़की या उसके परिवार का दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं था। उसके पिताजी नारायण राम आबकारी विभाग में क्लर्क थे और हर गरीब पिता की तरह उनकी आँखों में एक चमकीला स्वप्न चुभता रहता था कि उनकी लड़की एक दिन कल्पना चावला, अरुंधति राय या सानिया मिर्जा की तरह उनके परिवार, उनके समाज, उनके राज्य और उनके देश का नाम रोशन करेगी। इससे ज्यादा या कम वे नहीं सोच सकते थे क्योंकि सुनीता उनकी एकमात्र बेटी थी और वे अपनी सोच को जितना घटाएँ-बढ़ाएँ वह सुनीता और एकमात्र सुनीता पर आकर ठहर जाती थी, लौट जाती थी। वे अपनी सामर्थ्य भर सुनीता को कोई कमी नहीं महसूस होने देना चाहते थे, बल्कि उन्हें तो इस बात पर भी सख्त एतराज था कि उनकी लड़की किसी भी मामले में खुद को लड़कों से कमतर समझे। वे सुनीता को बेटा या राजा बेटा ही कहकर बुलाते थे लेकिन उनकी पत्नी यानी सुनीता की माँ अपने पति से इन बातों में इत्तेफाक नहीं रखती थी। प्यार या दुलार वे अपनी बेटी से नहीं करती हों, ऐसी बात नहीं थी लेकिन ये लड़कों से बराबरी जैसी बातें या लड़की को इतनी ज्यादा छूट देने जैसी बातों से उनका सख्त विरोध था। हर साधारण माँ की तरह उनकी आँखों में आँसुओं का संचित गुप्त खजाना था जिसे वे बेटी की विदाई के समय लुटाने को आतुर थीं। हरेक जिम्मेवार और जागरूक पिता की तरह नारायण राम अपनी पत्नी की बातों पर कान नहीं देते थे, बल्कि हर संभव समझाने की कोशिश करते कि अब जमाना बदल गया है, लड़कियाँ किसी मामले में लड़कों से कम नहीं हैं और फिर अपना है ही कौन दूसरा आदि-आदि, परंतु इन बातों से अक्सर, बात सुलझने के बजाय उलझ जाती और हारकर नारायण राम को अपने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग करना पड़ता। यह ब्रह्मास्त्र कोई प्रचलित हाथ, पैर, लाठी, ठंडे का उपयोग नहीं था बल्कि वह नारायण राम की एक फुसफुसाती-सी आवाज, 'देखो लड़की अवतारी है। कितनी बार दिखाया है तुमको उसका चमत्कार, लेकिन तुम उसको एकदम से साधारण मान लेती हो। इम लोग तो निमित्त मात्र हैं, यह तो लीला करने आयी है।'

इस फुसफुसाहट और लगभग अस्पष्ट-से लगने वाले वाक्यों में गजब का जादुई संस्पर्श होता और पत्नी का चेहरा एक अनजाने भय से सिहर उठता। इस वाक्य के बाद वह अक्सर पीली पड़ जातीं और थोड़ी देर अन्यमनस्क रहने के बाद हाथ मुँह धोकर गांधी, दुर्गादेवी और बाबासाहब के पंक्तिबद्ध फोटो के आगे धूप या अगरबत्ती जलाने लगतीं। ऐसे में अक्सर उनके होंठों से कुछ बुदबुदाने जैसा निकलता, 'रक्षा माँ भगवती! दुहाई गान्ही बाबा। शरण बाबा साहेब।' उस दिन वह लड़की से नजरें चुराने की कोशिश करतीं या सामने पड़ जाने पर अनावश्यक लाड़ में उसकी नये सिरे से चोटी करने लगतीं या सिर में तेल लगाने लगतीं। ऐसा करते हुए वे अक्सर चुप रहतीं और घर में एक अघोषित सन्नाटा-सा व्याप जाता। नारायण राम इस सन्नाटे से बचना चाहते थे। इसलिए वे इन वाक्यों का प्रयोग स्थिति के बहुत बिगड़ने पर ही करते थे।

वैसे इन फुसफुसाहटों और अस्फुट-से लगने वाले वाक्यों का जन्म तब हुआ था, जब लड़की पाँच साल की रही होगी। उनके मुहल्ले में सरस्वती पूजा के समय का शोर और पंडाल में बच्चों की फैंसी ड्रेस प्रतियोगिता का आयोजन था। बच्ची यानी सुनीता भी उस प्रतियोगिता में हिस्सा लेने की जिद कर रही थी और राम दम्पति भालू-बंदर या परी के कपड़ों की भाड़े की कीमत पर सोच रहे थे और तमाम तरीके से उसे समझाने की कोशिश कर रहे थे कि वह प्रतियोगिता उन जैसे लोगों के लिए नहीं है। लेकिन बच्ची अपनी जिद पर अड़ी रही, और शाम को उसने बिस्तर पर पड़ी चादर ओढ़ ली और अपने पिता का चश्मा पहन तैयार हो गयी। उसी क्षण नारायण राम को इलहाम हुआ कि अरे यह लड़की तो गांधी जी बनना चाहती है। वे फौरन भाड़े पर वस्तुएँ मुहैया कराने वाली दुकान पर पहुँचे और पचास रुपये में उसकी नाप की चादर, चश्मा और लाठी लेकर आए। उसकी कमर से उन्होंने अपनी घड़ी भी लटका दी। उस शाम तमाम बंदरों, भालुओं, परियों, राजाओं, राजकुमारियों और जोकरों के बीच में गांधी जी बनी सुनीता अव्वल आयी।

आबकारी विभाग के क्लर्क नारायण राम और उनकी पत्नी उस दिन समूचे मुहल्ले के हीरो बन गए। तालियों की गड़गड़ाहट के बीच जब स्थानीय पार्षद के हाथों सुनीता को पहला पुरस्कार दिया जा रहा था तो नारायण राम का दिल मुश्किल से काबू रह पा रहा था। उन्होंने कसकर अपनी पत्नी का हाथ भींचे रखा और धीरे-धीरे अस्फुट-सी आवाज निकाली थी, 'कहते थे... बाबूजी ठीक कहते थे... एक औतार है अपने खानदान में... मैं ही नहीं मानता था, लेकिन देखो यही है। अपनी सुनीता ही है वह...।' कहते-कहते नारायण राम का हाथ पसीजने लगा था। पत्नी भौंचक-सी उनकी ओर देखती रही। वे क्या कह रहे थे उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था।

रात को पत्नी ने धीरे से पूछा नारायण राम से, 'आप पंडाल में वो क्या कह रहे थे औतार वाली बात' तो यह ताकीद कर कि सुनीता गहरे नींद में सो रही है, नारायण राम ने बताया कि उनके पिताजी अक्सर कहते थे कि उनके खानदान में एक अवतारी पुरुष जन्म लेगा। वह समूचे खानदान और समाज का नाम रोशन करेगा। मैं उनकी बातों को कभी गंभीरता से नहीं लेता था। कहाँ हमारा खानदान और कहाँ अवतार। लेकिन बाबूजी ने मरते वक्त भी यही बात दुहरायी तो थोड़ा-सा यकीन तो मुझे हुआ था उस दिन, क्योंकि मरते वक्त किसी आदमी का यकीन शायद उसकी जिंदगी का सबसे बड़ा यकीन होता है। फिर जब तुम पेट से थी तब मुझे लगा था कि हो न हो बात में कुछ सच्चाई जरूर होगी, क्योंकि आखिरी महीनों में भी तुम्हारे चेहरे पर कोई परेशानी नहीं दिखाई पड़ती थी, बल्कि तुम अक्सर खुश ही रहती थी। जबकि मैं जानता था कि ये दिन औरतों के लिए कितने भारी होते हैं...। बोलते-बोलते नारायण राम चुप हो गए। पत्नी अब भी आश्चर्य से उनकी तरफ ताके जा रही थी। काफी देर तक भी जब नारायण चुप रहे तो पत्नी ने जैसे उन्हें नींद से जगाया, 'फिर... फिर क्या हुआ?'

'फिर क्या... फिर जब दाई ने आकर बताया कि लड़की हुई है... तो... तो मुझे लगा था कि बेकार में इतना सोचता गया! लड़की भी कभी अवतार होती है...! लेकिन आज... आज मुझे लग रहा है... सुनीता की माँ... बाबू की बात में कुछ सत था जरूर। देखो इतने बड़े-बड़े पैसोंवाले के बच्चे थे वहाँ। कितने जगर-जगर करे हुए, नाचते हुए... सब खूब प्रैक्टिस करके आए थे लेकिन सुनीता... कितने ठाठ से गयी वहाँ...! जैसे साक्षात गांधी बाबा उतरे हों मंच पर...! चमत्कार नहीं है यह?'

पत्नी काफी देर तक चुप रही फिर धीरे-से उठकर उसने हाथ-मुँह धोए और गांधी जी, दुर्गाजी और बाबासाहब की पंक्तिबद्ध फोटुओं के आगे अगरबत्ती जला दी, 'दुहाई माँ भगवती, जय गान्ही बाबा...'

उस रात श्री एवं श्रीमती नारायण राम काफी देर तक सुनीता के जन्म के बाद उनके जीवन में आए बदलावों के बारे में सोचते रहे... बात करते रहे। उन्हें यह जानकर आश्चर्य हुआ कि उनके जीवन में हुए तमाम उल्लेखनीय परिवर्तन सुनीता के जन्म के बाद ही हुए हैं। किराये की कोठरी से सरकारी क्वार्टर तक के सफर में ऐसी ढेरों स्मृतियाँ दोनों के जेहन से नदी के ठाठों की तरह निकलती रहीं और दोनों सारी रात उसमें ऊभ-चूभ करते रहे।

सुबह जब नारायण राम सोकर उठे तो उन्होंने पाया कि समूचे मुहल्ले में वे प्रसिद्ध हो चुके थे। यह ऐश्वर्या राय, सुष्मिता सेन या सानिया मिर्जा के पिताओं से कम की प्रसिद्धि उस मुहल्ले के लिए नहीं थी। लोग उन्हें देखकर कहते - देखो, गांधी के पापा जा रहे हैं। बच्चे उन्हें गांधी वाले अंकल कहने लगे थे। नारायण राम को पहले तो थोड़ी झिझक हुई, बल्कि ग्लानि ही महसूस हुई, क्योंकि महात्मा गांधी तो उनके लिए गान्ही बाबा थे, और उनके पिताजी ने ही पूजा घर में गांधी जी और अम्बेडकर जी का फोटो लगाया था, और नियमित वे उन फोटुओं के आगे अगरबत्ती जलाते थे। उन्हीं गांधी जी के बाप के रूप में संबोधित होना उन्हें सिहरा जाता था। गांधी जी तो राष्ट्रपिता थे, अब उनका डैडी या पापा... नारायण राम कभी-कभी अकेले में मुस्कराते सोचते थे कि इतनी प्रसिद्धि गांधी जी की यदि उनके वास्तविक पिताजी अपने जीते-जी देख लेते तो शायद उनको भी गांधी जी का बाप कहलाने में हिचक होती। फिर वे तो नारायण राम हैं, आबकारी विभाग में जूनियर क्लर्क, सप्ताह में एकाध बार अद्धा-पौवा पीते हैं, दोस्तों के दबाव में तीन पत्ती भी खेलते हैं और अक्सर इन मामलों में बीवी से साप्ताहिक झगड़ा भी कर लेते हैं। लेकिन उस दिन के बाद से वे अपने दुर्गुणों के प्रति थोड़ी झिझक महसूस करने लगे थे। इसका अहसास उन्हें तब हुआ जब तीन-चार सप्ताह बाद वे अपने विभाग के दोस्तों के साथ अपने परिचित अड्डे पर बैठे थे।

अभी पहला ही पेग उन्होंने पिया था कि उनकी आँखों के आगे गांधी जी बनी सुनीता का चेहरा घूम गया। धीरे-धीरे सुनीता का चेहरा एकदम से गांधी जी का चेहरा हो गया, वही झुर्रीदार मुस्कराता हुआ। फिर उनका चेहरा एकदम से कठोर हो गया। आज तक किसी भी फोटो में नारायण राम ने गांधी जी का ऐसा चेहरा नहीं देखा था। गांधी की आँखों से जैसे अंगारे निकल रहे थे। नारायण राम ने सिर झटककर अपनी चेतना के ऊपर छाते इस विचित्र प्रभाव को झटकना चाहा बल्कि उन्होंने अपने मित्रों से पूछा भी कि यार, आज ये कौन-सी ब्रांड है। मित्रों ने चौंककर उन्हें देखा, 'क्या हो गया है तुम्हें! वही तो है जो हमलोग अक्सर लेते हैं।'

'नहीं, कुछ नहीं, पेग बनाओ।' अगला पेग लेते ही उनके कानों में भयानक शोर सुनाई देने लगा। यह छोड़ो छोड़ो जैसे कोई शोर था। उन्होंने आस-पास देखा, माहौल में शोर तो था लेकिन वह तो आम शोर था और उनकी कुछ भी समझ आने लायक नहीं था लेकिन यहाँ तो साफ-साफ सुनाई दे रहा था। फिर उनके कानों का शोर बढ़ता ही गया। उस शोर में लोगों के हँसने और ताने मारने का शोर भी शामिल हो गया, 'देखो गांधी का बाप दारू पी रहा है। मारो इसको, देखो यह कितना कमीना है!'

नारायण राम घबरा गये। उनकी आँखें लाल हो गयी थीं, उनके कानों के लव सुर्ख हो गए थे, उनकी भर्रायी-सी आवाज निकली, 'बस-बस अब नहीं।' उनके दोस्तों ने फिर चौंककर उनको देखा। दो पेग में ये हालत! जबकि नारायण अच्छे पियाक समझे जाते थे। फिर आज तो उनका और भी लंबा-चौड़ा कार्यक्रम था। आज अम्बेडकर जयन्ती थी। और यहाँ से पीने के बाद उन्हें अपने एक मित्र के यहाँ भी जाना था, जहाँ और पीने-पिलाने और बकरे का भी इंतजाम था। लेकिन नारायण राम की ऐसी हालत देखकर उन लोगों ने उनसे घर चले जाने को कहा। उस दो पेग के नशे में ही लगभग लड़खड़ाते और झूमते नारायण राम किसी तरह घर पहुँचे। घर पहुँचते ही पत्नी ने उन्हें देखकर कुछ कहना चाहा, लेकिन उनकी हालत देखकर वे घबरा गयीं। उस रात नारायण राम ने भयानक उल्टियाँ कीं। हरेक उल्टी के बाद वे कान पकड़कर गुहार लगाने वाले अंदाज में कराहते थे, 'अब नहीं। बस... अब और नहीं।' सुबह उनकी पत्नी ने उन्हें बताया कि रात भर वे सुनीता का नाम लेकर बार-बार माफी माँग रहे थे और उठकर उसका पैर पकड़ना चाह रहे थे। सुबह उनको यह भी पता चला कि अड्डे से अपने मित्र के यहाँ जाते वक्त उनके मित्रों का एक्सीडेंट हो गया और दो लोग अस्पताल में थे। उस दिन के बाद नारायण राम ने शराब से तौबा कर ली और बाद में मित्रों के लाख आग्रह के बाद भी तीन पत्ती खेलने से भी न कर दिया।

नारायण राम के जीवन में आए इन बदलावों से पत्नी पर्याप्त खुश थीं। उन्हें अब सुनीता को अवतारी मान लेने में रत्ती भर भी गुंजाइश नहीं रह गयी थी। अपनी आदतों, अपने शौक और अपने मित्रों से निवृत्त होने के बाद अब नारायण राम की सोच हमेशा सुनीता के इर्द-गिर्द ही घूमने लगी थी। वे हमेशा उसे कुछ अलग करते हुए देखना चाहते थे लेकिन अपने हिसाब से वे उस पर कुछ थोपना भी नहीं चाहते थे। वैसे भी लड़की हमेशा औरों से अलग ही दिखती थी। मुहल्ले के अन्य बच्चे उसे 'गांधी बाबा-गांधी बाबा' कहते थे। पहले तो यह संबोधन के स्तर तक था लेकिन बाद में यह स्वर चिढ़ाने का-सा हो गया, लेकिन लड़की ने कभी इस पर चिढ़ नहीं व्यक्त की। वह अपने में खोयी-खोयी सी रहती। मुहल्ले के बच्चों से उसका मेलजोल भी कम ही था। नारायण राम अक्सर उसे गांधी जी एवं अन्य महापुरुषों की कहानियाँ सुनाते। उन्हें थोड़ा अजीब भी लगता कि लड़की झाँसी की रानी या इंदिरा गांधी की तरह नहीं बनकर गांधी जी क्यों बनना चाहती है। लेकिन लड़की की रुचि और उसके अवतारवाली बात उन्हें कुछ और नहीं सोचने देती।

नारायण राम की चिंताएँ और लड़की की उम्र दोनों ही चन्द्रमा के शुक्ल पक्ष की बढ़त में थे। लड़की मिडिल स्कूल में थी लेकिन स्कूल में भी उसके स्वभाव और आदतों में कोई फर्क नहीं आया। वह पढ़ने-लिखने में उतनी तेज नहीं थी लेकिन अपना काम ईमानदारी से करने की कोशिश करती। उसके गांधी लड़की होने का लेबल यहाँ भी चस्पाँ था। उसकी नजर कमजोर थी और इस लिहाज से उसे चश्मा लगाना पड़ता था, जो उसे और गांधी जी का खिताब दिलवाने में मदद करता। अन्य बच्चों को झगड़ते, एक-दूसरे का टिफिन चुराकर खाने या बैग से किताब, कापी या ज्योमेट्री बॉक्स चुराते देख उसे बहुत दुख होता। अक्सर ऐसी शिकायतें वह नारायण राम से करती। नारायण राम उसकी शिकायतों को गौर से सुनते और समझाते कि उसे इन बातों से कोई मतलब नहीं होना चाहिए, बल्कि उसे अपने पढ़ने-लिखने में मन लगाना चाहिए। लेकिन लड़की अपने आसपास की इन चीजों से लगातार दुखी रहने लगी और एक बार तो हद हो गयी। सुनीता की क्लास में ही उसके क्लास टीचर की बेटी रूपा गुप्ता भी पढ़ती थी। वह काफी बदतमीज और बददिमाग लड़की थी। अपनी माँ के टीचर होने का रौब वह अन्य बच्चों पर खूब जमाती थी और टिफिन चुराने और ज्योमेट्री बॉक्स उड़ाने में वह तमाम बच्चों की सरदारन थी। उसकी माँ यानी क्लास टीचर अपनी बेटी की इन हरकतों से वाकिफ थीं लेकिन बेटी के मोह में कुछ कहती न थीं। एक दिन रूपा ने सुनीता के सामने ही टिफिन की छुट्टी में एक लड़के की कापियाँ फाड़ डालीं, उसका टिफिन उठा लिया और उसके ज्योमेट्री बॉक्स को बाथरूम में छुपा आयी। उस लड़के ने इसकी शिकायत प्रिंसिपल से कर दी। प्रिंसिपल ने ऐसी घटना को शर्मनाक मानते हुए उस क्लास में सभी शिक्षकों को भी बुलाया और इस पर तमाम बच्चों को काफी फटकारा तथा यह प्रोत्साहन भी दिया कि यदि किसी ने किसी को भी ऐसी गंदी हरकत करते देखा है तो वह बिना डरे उसका नाम बता दे। क्लास टीचर अपनी बेटी की करतूतों से सिहरी-सी थीं, लेकिन बिंदास बैठी थीं कि किसमें हिम्मत है जो उसके खिलाफ कुछ बोले और फिर उस समय क्लास में था ही कौन - यही चश्मिल्ली गांधी!

तभी सुनीता ने अपना हाथ ऊपर उठाया। क्लास टीचर का चेहरा फक्क पड़ गया। सुनीता ने न सिर्फ पूरी घटना बतायी बल्कि पहले की उसकी करतूतों का चिट्ठा भी खोल दिया। उसने प्रिंसिपल साहब को वह जगह भी दिखायी जहाँ वह ज्योमेट्री बॉक्स छुपाकर रखा गया था।

भरी कक्षा में प्रिंसिपल साहब ने सुनीता की पीठ ठोकी और क्लास टीचर को उसकी बेटी की हरकतों के लिए सबके सामने खरी-खोटी सुनायी और रूपा पर सौ रुपये का जुर्माना भी लगाया।

इस घटना के बाद से क्लास टीचर उससे बदला लेने की फिराक में रहने लगीं और एक दिन होमवर्क पूरा करके न लाने पर उसे पूरी घंटी मुर्गा बनाए रखा और घंटी खत्म होने पर जमकर पीटा। सुनीता जानती थी कि वह सिर्फ होमवर्क नहीं कर पाने की सजा नहीं है, वह उस दिन उसके सच बोलने की कीमत है। उस क्लास टीचर के अन्य मित्र अध्यापक भी सुनीता से बैर रखने लगे और गाहे-बगाहे उससे बदला निकालने लगे। सुनीता हर घटना और उससे जुड़े दुख अपने पिता को बताती। यह भी कि लोग उसे हरामी, गांधी की औलाद, चमारन और न जाने क्या-क्या कहते हैं! नारायण राम अपनी बेटी की हर शिकायत पर गम खा जाते थे। उन्हें एकदम से महसूस होता था कि उनकी लड़की गलत समय में पैदा हो गयी है। अभी गांधी जी का वक्त नहीं था। यदि सचमुच के गांधी जी भी अभी जीवित होते तो सत्ता, तंत्र और ताकत के इस गठजोड़ वाले समय में इतिहास के किसी हाशिए पर पड़े कराह रहे होते। वे अपनी बेटी को सबकुछ बताना चाहते थे, यह भी कि यह समय स्कूलों, दोस्तों और परिवार से चालाकियाँ सीखने का समय है, यह अपने अंदर के सद्गुणों को उभारने का नहीं बल्कि अपनी मक्कारी, धूर्तता और मौकापरस्ती पर सान चढ़ाने का समय है। मेरी बेटी, तुम यह क्या सीख समझ रही हो और पता नहीं समूचा जीवन तुम कैसे जीओगी लेकिन वे सिर्फ बेटी की शिकायतों पर टुकुर-टुकुर उसका मुँह ताकते रह जाते। सुनीता अपने पिता को अपने स्कूल का किस्सा बताते-बताते रोने लग जाती। कई बार तो वह नारायण राम की गोद में सुबकते-सुबकते सो जाती। नारायण राम की समूची कमीज उसके आँसुओं से भीग जाती। समूचा दिन नारायण राम को लगता कि वे भीगी कमीज पहने घूम रहे हैं और एक दिन तो सुनीता ने जो बताया उससे तो नारायण राम की कमीज आँसुओं की बजाय खून से तर हो गयी। टिफिन की छुट्टी में सुनीता के गणित मास्टर ने उसे होमवर्क देने के बहाने क्लास में ही रोक लिया और उस वक्त जबकि कमरे में कोई नहीं था वह सुनीता को विचित्र तरीकों से सहलाने लगा। सुनीता उसकी इस हरकत से बुरी तरह घबरा गयी, उसका छूना और चूमना उसके पिता के स्पर्श से पूरी तरह अलग था। वह अपनी ही धुन में बड़बड़ा रहा था - 'कुछ नहीं होगा तुम्हें बेटा, मेरी जान कोई परेशान नहीं करेगा तुम्हें!' वह जबरदस्ती सुनीता को अपनी गोद में बिठाना चाह रहा था, उसका विरोध करते-करते सुनीता अचानक जड़ हो गयी। वह बिल्कुल पथरायी आँखों के साथ ऐसे खड़ी हो गयी जैसी किसी ने उसे स्टेच्यू कह दिया हो। उसकी ऐसी हालत देखकर मास्टर घबरा गया और वह सुनीता को वहीं क्लास रूप में छोड़कर भाग गया। इस घटना को जानकर नारायण राम की आत्मा से खून रिसने लगा। वे फौरन प्रिंसिपल के पास गए थे और उस शिक्षक की हरकत के बारे में शिकायत करनी चाही।

प्रिंसिपल ने उनकी बातें गौर से सुनीं और फिर अचानक आपे से बाहर हो गए, 'देखिए मिस्टर राम। आप जानते नहीं कि आप क्या कह रहे हैं! पिछले पच्चीस सालों से हमारा स्कूल शैक्षणिक और सांस्कृतिक गतिविधियों में मानक रहा है। हम डॉक्टरों और इंजीनियरों की बुनियाद बनाते हैं यहाँ। आप पता नहीं किस नीयत और किनकी शह पर यह आरोप हम पर लगा रहे हैं।' नारायण राम की एक घुटी कराह प्रतिरोध के रूप में निकली, 'सर! मैं एक आम आदमी हूँ, मेरी कोई नीयत और किसी की शह नहीं है, इस तरह की बात करने की। आपके स्कूल में मेरी बच्ची के साथ पिछले कई महीनों से...' नारायण राम फफक पड़े।

'क्या पिछले कई महीनों से... बोलिए! एक तो आपकी लड़की पढ़ने-लिखने में डल है। कोटे के तहत उसे एडमिशन देना हमारी मजबूरी थी, नहीं तो एक बिलो स्टैंडर्ड स्टूडेंट को झेलने में समूचे स्टाफ को कितनी माथापच्ची करनी पड़ती है, पता है आपको?' बिलो स्टैंडर्ड.. कोटा...! ये शब्द नारायण राम के कानों में हथौड़े की तरह बज रहे थे। वे कुछ कहना चाहते थे मसलन कि यह कोटा उन्हें कोई भीख में नहीं मिला है या कि बिलो स्टैंडर्ड, किसी की कमजोरी नहीं बल्कि सामाजिक स्थितियों में उन जैसे लोगों को पीछे ढकेलते रखने का प्रतिफलन है, आदि... आदि। लेकिन उनके मुँह से झाग निकलने लगा। उनकी जुबान लटपटाने लगी। प्रिंसिपल की फिर एक भारी-भरकम आवाज आयी, 'बेहतर होगा मि. राम, आप बच्ची को घर ले जाएँ और उसका एडमिशन किसी दूसरे स्कूल में कराने की कोशिश करें।'

नारायण राम का सिर चकराने लगा। कहाँ तो प्रिंसिपल को अपने उस शिक्षक को बुलाकर उसे इस कृत्य की सजा देनी चाहिए थी और कहाँ उन्हें ही सुनीता को स्कूल से निकाले जाने की सजा सुनायी जा रही है। उस स्कूल के उस असुरक्षित माहौल में सुनीता को बनाए रखने का कोई मतलब नहीं था। स्कूल का क्लर्क जब सुनीता का सी.एल.सी. बना रहा था तो नारायण राम के मुँह से वही अस्पष्ट और अस्फुट-सी आवाज आ रही थी, 'आप जानते नहीं हैं सर... वह लड़की अवतारी है... वह मास्टर नहीं बचेगा... देखिएगा... उसका कुछ ना कुछ अनिष्ट हो जाएगा...।' क्लर्क उजबक-सा उनका मुँह ताक रहा था। क्या कह रहा है, यह आदमी... उसने पूछा भी, 'ए भाई, क्या बड़बड़ा रहे हो?' लेकिन नारायण राम ने उसके सवाल को अनसुना कर दिया। वे चुपचाप सुनीता को वापस घर ले आए। पत्नी ने कुछ पूछा नहीं। उदासी, अनहोनी और दुख लोग बिना बताये भी समझ जाते हैं।

स्कूल से निकलने के बाद सुनीता और ज्यादा गुमसुम रहने लगी। नारायण राम देखते कि वह अक्सर एक ही मुद्रा में घंटे-घंटे भर खड़ी रह जाती। जैसे वह कोई मूर्ति हो। गौर से देखने पर सिर्फ उसके हाथ में डंडा पकड़ने की कमी रहती और उसके कपड़े बदलने की। वह एकदम से स्थिर जड़वत गांधीजी की ही मूर्ति लगती। नारायण राम को लगता जैसे लड़की के अंदर कोई मजबूत बर्फ की सिल्ली जम गयी हो। वे अपने प्रेम की समूची ऊष्मा से उस बर्फ को पिघला देना चाहते थे। अपने जीवन को जलाकर भी यदि इतनी गर्मी मिल सके जिससे वह इस बर्फ के ठंडेपन से मुक्त हो सके।

वे घंटों सुनीता को अपने पास बिठाते, उसे महापुरुषों की कहानियाँ सुनाते कि कैसे गांधी जी को अंग्रेजों ने दक्षिण अफ्रीका में ट्रेन से नीचे फेंक दिया था। लेकिन उन्होंने उस अंग्रेज से बदला लेने की नहीं सोची। उन्होंने अपने अंदर की ताकत को संचित किया और अंत में अंग्रेजों को यहाँ से भागना पड़ा। फिर तुम भी तो गांधी ही हो बेटा... उन्हीं की तरह बहादुर... उन्हीं की तरह अवतारी।

उनकी कोशिशों का नतीजा निकला। सुनीता धीरे-धीरे आतंक और दहशत की उस छाया से मुक्त होनी शुरू हुई। वह पहले की तरह हँसने-बोलने भी लगी, लेकिन वह उसकी घंटों एक ही मुद्रा में खड़े रहने की आदत वैसी ही बरकरार रही। नारायण राम ने डॉक्टरों से भी इस संबंध में पूछताछ की लेकिन उन्होंने भी इसे साधारण ही कहा और आश्वस्त किया कि वक्त के साथ-साथ, उसके बड़ी होने के साथ-साथ ही उसकी यह आदत भी जाती रहेगी। नारायण राम अपनी बेटी को घंटों उस मुद्रा में निहारते रहते। कभी-कभी तो वह उस मुद्रा में इतनी सजीव मूर्ति की तरह दिखती कि नारायण राम की इच्छा उसके चरण छू लेने की होती। सिर्फ नारायण राम ही क्यों, लड़की उस मुद्रा में ऐसी निश्चल खड़ी रहती कि कई लोगों को उसके मूर्ति होने का भ्रम हो जाता। उस साल 26 जनवरी को सारे सरकारी विभागों की झाँकी निकलनी थी। झाँकी सजीव होनी चाहिए थी। नारायण राम आबकारी विभाग में थे। उनके साहब ने तय किया था कि वे शराबबंदी पर गांधी जी के उपदेशों की झाँकी निकालेंगे। वे सुनीता की उस विलक्षण क्षमता से परिचित थे। एक बार तो वह भी उसे देखकर मूर्ति के भ्रम में आ गए थे।

नारायण राम एक हिचक में थे। लड़की पता नहीं उस सदमे से बाहर निकल पायी है कि नहीं। उन्होंने झिझकते हुए सुनीता से झाँकी के बारे में पूछा। वह तुरंत तैयार हो गयी। नारायण राम खुश थे, उनकी पत्नी खुश थी। 26 जनवरी को, जो कि देश का गणतंत्र दिवस था, उस राज्य के तमाम विभागों से झाँकियाँ निकलीं। आबकारी विभाग, जो शराब से सरकार को आय पहुँचाने का सबसे बड़ा विभाग था, उसने शराबबंदी पर गांधी जी के उपदेशों का सर्वोत्तम चित्र प्रस्तुत किया। गांधी जी की मूर्ति बनी हुई सुनीता अपने तीन बंदरों के द्वारा दुनिया को इस बुराई से बचाने की अपील करती दिख रही थी। उस झाँकी में उस राज्य के मुख्यमंत्री तक आए हुए थे। पिछले दिनों ही इस मुख्यमंत्री के नाम के साथ 'हत्यारा' शब्द चिपका था। वह उसी राज्य का मुख्यमंत्री था, जिस राज्य में गांधी जी पैदा हुए थे। लोग गांधी की जन्मभूमि में पैदा होने पर पहली बार शर्म महसूस कर रहे थे क्योंकि वह हत्यारा वहाँ का मुख्यमंत्री था। जो वह बोलता था तो उसके मुँह से खून के फव्वारे उड़ते थे। जो वह हँसता था, तो बमों के धमाके जैसी गूँज पैदा होती थी। वह कभी रोता नहीं था। उसके पसीने से तेजाब की तेज गंध फूटती थी। वह मुख्यमंत्री उस गणतंत्र दिवस का मुख्य अतिथि था। आबकारी विभागवाली उस झाँकी को देखकर वह अपने सचिव के कान में फुसफुसाया, 'झाँकियों में मूर्ति का प्रयोग नहीं होना चाहिए था।'

'नहीं सर। ये मूर्ति नहीं है। मूर्ति जैसी लड़की है... मैंने चेक कर लिया है...!'

'अच्छा!' मुख्यमंत्री का मुँह हैरत से खुला रह गया।

आबकारी विभाग की वह झाँकी समूचे राज्य में प्रथम आयी। मुख्यमंत्री स्वयं सुनीता को पुरस्कार देंगे, ऐसी घोषणा हुई। पुरस्कार समारोह में मुख्यमंत्री के निर्देशानुसार सुनीता को वैसे ही मूर्ति बनाकर खड़ा रखा गया। लोग एकदम आश्चर्य और चमत्कार से मूर्ति बनी हुई सुनीता को देख रहे थे। कच्ची मिट्टी के लेप से लेपी हुई उस आकृति को देखकर कोई नहीं कह सकता था कि वह गांधी जी की मूर्ति नहीं बल्कि एक जीती-जागती लड़की है।

पुरस्कार समारोह शुरू हुआ। संचालक, जो कि महात्मा गांधी के नाम पर बने हुए एक संस्थान का डायरेक्टर था और जिसने उस मुख्यमंत्री की चमचागीरी से डॉक्टरेट की डिग्री हासिल कर रखी थी, ने मुख्यमंत्री के गुणगान में आकाश-पाताल एक कर दिया। वह फाँस-फाँस भौंव-भौंव की आवाज में चिंघाड़ रहा था। उसके समूचे भाषण का सारांश था कि उस राज्य के गुजरने वाले समंदर की लहरें भी मुख्यमंत्री के आशीर्वाद से ही इतने ठाठ से हिलोरें मारती हैं। उसके बाद राज्य के मुख्य सचिव का भाषण हुआ, जिसने पिछले दिनों में नरसंहार को राष्ट्रीय गौरव बताते हुए राज्य के विकास में मुख्यमंत्री के योगदान को गिनाते हुए अपने राज्य को देश का आदर्श और सिरमौर राज्य घोषित किया। कार्यक्रम खिंचता ही चला जा रहा था। नारायण राम भी उस जलसे में बैठे थे। उन्हें रह-रहकर हूक उठ रही थी कि अब बहुत देर हो गयी है। ठीक है कि लड़की को मूर्ति बने रहने का अभ्यास है, लेकिन उसकी भी तो एक सीमा होगी। वे लगभग दस बार बगल वाले से फुसफुसा चुके थे, 'देखिए... ये हमारी बेटी है... अवतारी है... बचपन से ही यह गांधी जी बनती है... आज भी देखिए कैसी निश्चल खड़ी है।'

अंत में मुख्यमंत्री बोलने के लिए खड़े हुए। सबसे पहले उन्होंने सुनीता की ही तारीफ की जो एक चमत्कार की तरह इतनी देर तक मूर्ति बनी खड़ी रही। उन्होंने कहा कि धन्य हैं वे माँ-बाप जिन्होंने सुनीता जैसी लड़की को पैदा किया, जो इतनी संस्कारी एवं दृढ़प्रतिज्ञ है। फिर उन्होंने गांधी जी की मूर्ति बनी हुई सुनीता के पैरों पर अपना गुलदस्ता चढ़ा दिया। सारे हॉल में जोरों की तालियाँ बजीं। लोगों ने मुख्यमंत्री जिंदाबाद के नारे भी लगाए। मुख्यमंत्री ने फिर अपना भाषण शुरू किया कि कैसे महात्मा गांधी के प्रताप से यह राज्य इतनी तरक्की कर रहा है... पिछले दिनों कैसे कुछ लोगों ने इस राज्य की गरिमा कम करने की कोशिश...

तभी उस हॉल में आगे की पंक्ति में बैठी हुई एक महिला जैसे चीख पड़ी। 'ओ माई गॉड! स्टॉप इट। हटाओ जल्दी से इसे यहाँ से... शी इज ब्लीडिंग! ओ माई गॉड...!' मंच से सब लोग उस लड़की सुनीता की तरफ दौड़े। उसके शरीर से खून बह रहा था लेकिन वह वैसी ही अविचल खड़ी रही थी। नारायण राम यह देखकर धड़ाम से गिर पड़े। वे बेहोश हो गए... होश में आने पर लोगों ने उन्हें लाख समझाया कि यह एक नार्मल स्थिति है। इस उम्र में लड़कियों को इस अनुभव से गुजरना ही पड़ता है। यही उसका दिन था। लेकिन नारायण राम चीखते हुए कहते हैं, 'अनुभव, कैसा अनुभव? मैंने साफ देखा था, मुख्यमंत्री के मुँह से गोली निकली थी और खून सुनीता के सीने से गिरा था और फिर वह गिरते समय कराही भी तो थी - हे राम!'

उन्हें एकदम आश्चर्य होता है... इतने लोग वहाँ थे। सब एक साथ अंधे और बहरे कैसे हो सकते हैं?


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