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कविता

मैं आता रहूँगा तुम्हारे लिए

चंद्रकांत देवताले


मेरे होने के प्रगाढ़ अँधेरे को
पता नहीं कैसे जगमगा देती हो तुम
अपने देखने भर के करिश्मे से

कुछ तो है तुम्हारे भीतर
जिससे अपने बियाबान सन्नाटे को
तुम सितार सा बजा लेती हो समुद्र की छाती में

अपने असंभव आकाश में
तुम आजाद चिड़िया की तरह खेल रही हो
उसकी आवाज की परछाई के साथ
जो लगभग गूँगा है
और मैं कविता के बंदरगाह पर खड़ा
आँखे खोल रहा हूँ गहरी धुंध में

लगता है काल्पनिक खुशी का भी
अंत हो चुका है
पता नहीं कहाँ किस चट्टान पर बैठी
तुम फूलों को नोंच रही हो
मैं यहाँ दुःख की सूखी आँखों पर
पानी के छींटे मार रहा हूँ
हमारे बीच तितलियों का अभेद्य परदा है शायद

जो भी हो
मैं आता रहूँगा उजली रातों में
चंद्रमा को गिटार सा बजाऊँगा
तुम्हारे लिए
और वसंत के पूरे समय
वसंत को रुई की तरह धुनकता रहूँगा
तुम्हारे लिए

 


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