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कविता

छाता

अशोक वाजपेयी


छाते से बाहर ढेर सारी धूप थी
छाता-भर धूप सिर पर आने से रुक गई थी
तेज हवा को छाता
अपने-भर रोक पाता था
बारिश में इतने सारे छाते थे
कि लगता था कि लोग घर बैठे हैं
और छाते ही सड़क पर चल रहे हैं
अगर धूप, तेज हवा और बारिश न हो
तो किसी को याद नहीं रहता
कि छाते कहाँ दुबके पड़े हैं

 


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हिंदी समय में अशोक वाजपेयी की रचनाएँ



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