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कविता

जूते

अशोक वाजपेयी


जूते वहीं थे
उनमें पैर नहीं थे
बीच-बीच में उनमें फफूँद लग जाता था
क्योंकि कोई पहनता नहीं था
निरुपयोग से वे कुछ सख्त भी पड़ गए थे,
उनके तलों में धूल या कीचड़ नहीं लगा था
उन्हें कोई हटाता नहीं था
क्योंकि वे दिवंगत पिता के थे
फिर एक दिन वो बिला गए,
शायद अँधेरे में मौका पाकर
वे खुद ही अंत की ओर चले गए

 


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हिंदी समय में अशोक वाजपेयी की रचनाएँ



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