सिकुड़ गए दिन
ठंडक से
सिकुड़ गए दिन
हवा हुई शरारती - चुभो रही पिन
रंग सभी धूप के
हो गए धुआँ
मन के फैलाव सभी
हो गये कुआँ
कितनी हैं यात्राएँ
साँस रही गिन
सूनी पगडंडी पर
भाग रहे पाँव
क्षितिजों के पार बसे
सूरज के गाँव
आँखों में
सन्नाटों के हैं पल-छिन
बाँह में जमाव-बिंदु
पलकों में बर्फ
उँगलियाँ हैं बाँच रहीं
काँटों के हर्फ
धुंधों के खेत खड़ीं
किरणें कमसिन
कोहरा है मैदान में
कोहरा है मैदान में
उड़कर आये इधर कबूतर
बैठे रोशनदान में
रहे खोजते वे सूरज को
सुबह-सुबह
पाला लटका हुआ पेड़ से
जगह-जगह
कोहरा है मैदान में
दिन चुस्की ले रहा चाय की
नुक्कड़ की दूकान में
आग तापते कुछ साये
दिख रहे उधर
घने धुंध में, लगता
तैर रहे हैं घर
कोहरा है मैदान में
एक-एक कर टपक रहे
चंपा के पत्ते लॉन में
कोहरे में सब कुछ
तिलिस्म-सा लगता है
पिंजरे में तोता भी
सोता-जगता है
कोहरा है मैदान में
डूबी हैं सारी आकृतियाँ
जैसे गहरे ध्यान में
सब कुछ डूबा है कोहरे में
सब कुछ डूबा है कोहरे में
यानी
जंगल, झील, हवाएँ - अँधियारा भी
अभी दिखी थी
अभी हुई ओझल पगडंडी
कहीं नहीं दिख रही
बड़े मन्दिर की झंडी
यहीं पास में था
मस्जिद का बूढ़ा गुंबद
उसके दीये का आखिर-दम उजियारा भी
लुकाछिपी का जादू-सा
हर ओर हो गया
अभी इधर से दिखता बच्चा
किधर खो गया
अरे, छिप गया
किसी अलौकिक गहरी घाटी में जाकर
उगता तारा भी
उस कोने से झरने की
आहट आती है
वहीं भैरवी राग
सुबह छिपकर गाती है
दिखता सब कुछ सपने जैसा
यानी बस्ती
दूर पहाड़ी पर छज्जू का चौबारा भी
दिन ठंडा है
दिन ठंडा है
आओ, तापें
जरा देर सूरज को चलकर
कमरे में बैठे-बैठे
हो रहे बर्फ हम
सँजो रहे हैं
दुनिया भर के साँसों के गम
बहर देखो
हुआ सुनहरा
धूप सेंककर चिड़िया का घर
ओस-नहाये
खिले फूल को छूकर तितली
अभी-अभी
खिड़की के आगे से है निकली
सँग कबूतरी के
बैठा है
पंख उठाये हुए कबूतर
उधर घास पर ओस पी रही
चपल गिलहरी
देखो, कैसे
धूप पीठ पर उसके ठहरी
चलो
संग उसके हम बाँचें
लिखे जोत के जो हैं आखर
शांत जंगल है
राह सूनी
शांत जंगल है
हवा भी चुप खड़ी है
मौन है आकाश
झरने धुंध की चादर लपेटे
झील पर सुख से बिरछ
परछाइयों को लिए लेटे
पास के
बाजार में भी
नहीं कोई हड़बड़ी है
सो रहे हैं बर्फ के नीचे
अभी मधुमास के दिन
मुँह-ढँके छिपकर कहीं
बैठी अकेली धूप कमसिन
इधर पिछली
रात की
बीमार परछाईं पड़ी है
जप रहा है रोशनी के मंत्र
पर्वत का शिखर वह
सूर्यरथ का बावरा घोड़ा
सिहरता उधर रह-रह
पास के इस
पेड़ की भी
आखिरी पत्ती झड़ी है
रात-भर हम
रात-भर हम
रहे सूरज के भरोसे
सुबह तो वह आयेगा ही
पर सुबह ने ठगी की
वह धुंध ओढ़े हुए आई
बावरे आकाश ने भी
बर्फ की चादर बिछाई
और हम
बैठे रहे इस बात में ही
धूप का देवा कभी मुस्काएगा ही
ओस की बूँदें जमी हैं
पत्तियों पर
घास पर भी
रहा गुमसुम-मौन जंगल
और सूना देवघर भी
सोचते हम -
गाँव का बूढ़ा भिखारी
अभी कबिरा का भजन तो गाएगा ही
घोसले में दुबककर
बैठा हुआ है सगुनपाखी
नदी भी थिर दे रही
अंधे समय की मूक साखी
याद आई
दुआ हमको पूर्वजों की
कभी तो यह समय भी कट जाएगा ही
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