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कविता

भद्रवंश के प्रेत

श्रीकांत वर्मा


छज्जों और आईनों, ट्रेनों और दूरबीन
कारों और पुस्तकों
यानी सुविधाओं के अद्वितीय चश्मों से
मुझे देखने वाले
अपमानित नगरों में सम्मानित नागरिको
मुझे ध्यान से देखो
जेबी झिल्लियाँ सब उतार
मुझे नंगी आँखों देखो
पहिचानो।

 

मैं इस इतिहास के अँधेरे में, एक सड़ी और
फूली लाश सा
घिसटने वाला प्राणी कौन हूँ
ओ विपन्न सदियों के प्रभुजन, संपन्न जन।
मुझको पहिचानो
कुबड़े, बूढ़े, कोढ़ी, दैत्य सा तुम्हारे
हॉलों, शेल्फों, ड्रायर या ड्रेसिंग टेबल में
छिपने वाला प्राणी मैं कौन हूँ
पहिचानो, मुझको पहिचानो।

 

मेरी इस कूबड़ को जरा पास से देखो
मेरी गिलगिली पिलपिली बाँहें अपने
दास्तानों से परे
अँगुलियों से महसूस करो
शायद तुमने इनको ग्रीवा के गिर्द कभी
पुष्प के धनुष सा भेंटा हो।

 

मुझसे मत बिचको
मुझे, घृणा की सिकुड़ी आँखों मत देखो
मुझसे मत भागो।
मेरे सिकुड़े टेढ़े ओठों पर ओठ रखो।
शायद तुमने इनमे कभी
किसी का
पूरा मांसल अस्तित्व कहीं भोगा होगा।
मेरी बह रही लार पर मत घिन लाओ
यह तुम हो
जो मुझसे हो कर गुजरे थे।
मेरी गल रही अँगुलियाँ देखो
पहचानो।
क्या मेरे सारे हस्ताक्षर धुँधला गए?
क्यों तुम मुझसे हरदम कटते हो?
क्यों मैं तुम्हारे सपनों में आ धमकता हूँ?
क्यों मैं तुम्हारे बच्चों को नहीं दिखता?
तुमको ही दिखता हूँ
जाओ
अपने बच्चों से पूछो।

 


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