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कविता

टूटी पड़ी है परंपरा

श्रीकांत वर्मा


टूटी पड़ी है परंपरा
शिव के धनुष-सी रखी रही परंपरा
कितने निपुण आए-गए
धनुर्धारी।
कौन इसे बौहे? और कौन इसे
कानों तक खींचे?
एक प्रश्नचिह्न-सी पड़ी रही परंपरा।
मैं सबमें छोटा और सबसे अल्पायु -
मैं भविष्यवासी।
मैंने छुआ ही था, जीवित हो उठी।
मैंने जो प्रत्यंचा खींची
तो टूट गई परंपरा।
मुझ पर दायित्व
कंधों पर मेरे ज्यों, सहसा रख दी हो
किसी ने वसुंधरा।
सौंप मुझे मर्यादाहीन लोक
टूटी पड़ी है परंपरा।

 


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