(1)
संन्यास के उपरांत
जहाँ तक मुझे स्मरण है, मेरे संन्यास की बात पं. हरिनारायण पांडे के अलावे और किसी को पहले मालूम न थी। मगर गाजीपुर से हटते ही सनसनी मची और अगर मैं भूल नहीं करता हूँ तो मैंने संन्यासी होते ही घरवालों को एक पत्र भी लिख दिया कि अब मेरी आशा छोड़ दें। फिर क्या था, उन पर तो वज्र ही गिरा। किन-किन आशाओं से और मनोरथों को ले कर उन लोगों ने मुझे पढ़ाया था। घर-गिरस्ती के काम से मुझे बचपन से ही अलग रखा और मैं उन मामलों में अनभिज्ञ ही रहा।वे समझते थे, लड़का होनहार है, पढ़-लिख के कुछ अच्छा धन और यश कमाएगा और उनके कष्ट और आर्थिक संकट दूर करेगा। लेकिन एकाएक सभी चीजें खत्म हो गईं, जैसे मनोराज्य और सपने की दुनियाँ की रही हो! पीछे मैंने जो कुछ देखा उससे तो यही पता लगा कि सभी लोग अर्ध्दमृत से हो गए और बेहोश थे। श्री हरिनारायण जी पर तो उनके गुस्से का ठिकाना न रहा। क्योंकि उनने जानते हुए भी न बताया यह उन लोगों की धारणा जबर्दस्त थी।
खैर, तो खबर पाते ही कुछ आदमियों के साथ मेरे चचेरे भाई साहब अपारनाथ मठ में आए। उनने बड़ा रोना-गाना फैलाया, तूफान किया और मुझे एक बार घर ले चलना चाहा, ताकि और सबों को समझा-बुझा कर आश्वासन तो दे दूँ। मगर मैं कब सुननेवाला था?फिर गुरु जी को उन लोगों ने जा पकड़ा और किसी प्रकार कह-सुन के उन्हें राजी किया कि एक-दो दिनों के ही लिए मुझे ग्राम पर जाने की अनुमति दे दें। वे राजी हो गए और मुझे कहा कि ''जाने में कोई हर्ज नहीं है, जाओ और सभी को ढाँढ़स और आश्वासन दे कर लौट आना''। फिर तो मुझे तैयार होना ही पड़ा। फलत: उन लोगों के साथ रेल पर बैठ कर एक बार पुन: ग्राम पर पहुँचा। लेकिन वहाँ तो गजब का तूफान था। चारों ओर से रोना-धोना जारी था। अजीब समा थी, निराला वायुमंडल था। देख कर पत्थर भी पिघल जाता। मालूम होता था, घर, दीवार, पेड़, खेत, आदमी सभी रोते और करुणार्द्र थे। लेकिन सर्वोपरि दुखिया पिता जी और चाची जी यही दो थे। उनसे तो बातें करना असंभव था। यद्यपि वैराग्य से मेरा दिल लबालब होने के कारण मोहममता छोड़ बैठा था और सख्त हो गया था। फिर भी कुछ-न-कुछ असर उस अत्यंत करुण वायुमंडल का होके ही रहा।
और लोगों से तो प्रश्नोत्तर हुए ही और मैंने यथाशक्ति सभी को निरुत्तर किया। गाँव और आस-पास के भी लोगों की भीड़ थी और नातेदार एवं सगे-संबंधी भी हाजिर थे। सभी के साथ मेरे इस काम के औचित्य-अनौचित्य के संबंध में वाद-विवाद होता रहा। पं. हरिनारायण पांडे जी भी आए मगर एक तरफ चुपचाप बैठे रहे। केवल उन्हीं को कोई शोक न था और भीतर से वे संभवत: खुश भी थे। वह भी उत्तर-प्रत्युत्तर सुनते रहे। चाची के साथ जो बातचीत हुई उससे मैं उन्हें किसी भी प्रकार आश्वासन देने में आखिर तक असमर्थ ही रहा, मुझे यही लक्षित हुआ। असल में माँ से कम मेरा लाड़-प्यार उन्होंने नहीं किया था और बुढ़ापे में मुझसे सुख की बड़ी आशा उन्हें थी जो पूरी न हुई। स्त्री का दिल बहुत नरम भी होता है। परलोकवाली मेरी बात वह समझ न सकीं और रोती ही रह गईं। इसी दर्द में पीछे कुछ ही वर्षों में उनका देहांत भी हो गया ऐसा मुझे मालूम हुआ। हाँ, पिता जी को तत्काल मैं आश्वासन दे सका ऐसा भान मुझे हुआ। उन्होंने बुढ़ापे में खबर लेने के लिए जब सवाल किए तो मैंने उत्तर दिया कि कई भाई तो अभी मौजूद ही हैं और अगर मेरे साथ आप चलें तो मैं आपकी बराबर सेवा करूँगा। मैंने यह भी कहा कि तीन भाई आपके लिए इस दुनियाँ में फिक्र करेंगे और मुझे परलोक के लिए रखिए। आखिर वहाँ भी तो कोई चाहिए। इस पर उन्होंने पूछा कि ''क्या तुम्हारे इस सुकर्म का फल मुझे परलोक में मिलेगा?'' मैंने उत्तर दिया कि ''जरूर।'' बस, फिर वह चुप हो गए। इसी से मैंने अंदाज किया कि उन्हें आंशिक आश्वासन मिला। मगर वह भी शोक के मारे संग्रहणी से ग्रस्त हुए और पता लगा कि उसी से मरे भी। चाची और पिता दोनों ही पचास वर्ष से कम के शायद न थे और इस महान शोक ने उन्हें संभलने न दिया।
हाँ, इसी दर्म्यान में एक और बात हो गई। लोगों ने मंसूबा बाँध कि होशियार लोगों के द्वारा समझा-बुझा के किसी प्रकार मुझे फिर घर में रख लिया जाए और गैरिक वस्त्र उतार फेंकवाया जाए। इसी दृष्टि से एक खाकी जी, जो बड़े महात्मा, फलाहारी, प्रतापी, पूज्य और प्रवीण माने जाते और आस-पास में ही रहते थे, बुलाए गए। उन्होंने मुझसे बहुत दलीलें कीं भी। असल में वे तो निरे खा कर मानेवाले ही थे, पढ़े-लिखे तो थे नहीं, फलत: तर्क-दलीलों में मेरे सामने टिक न सके। अंत में उन्होंने गाँव-घर के लोगों को कह दिया कि इनको रोक रखने की कोई आशा नहीं। यह विचार आप लोग छोड़ दें। यह काफी सोच-समझ कर इसमें पड़े हैं। इसके बाद ही खाकी जी दिन में जब सोने चले तो मैंने पूछा कि ऐसा क्यों?उन्होंने कहा कि ''मैं तो रात में जगता और दिन में ही सोता हूँ, क्योंकि गीता में कहा हैं कि ''या निशा सर्व भूतानां तस्यां जागर्ति संयमी। यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुने:'' इस पर मैंने उनसे कहा कि गीता का यह वचन इस मामूली नींद और दिन-रात के संबंध में न हो कर विवेकी और अविवेकी के व्यवहार और विचार के बारे में है। मैंने इसे सुरेश्वरवार्तिक के ''काकोलूक निशेवायं संसारोऽध्यात्मवेदिनो'' आदि से सिद्ध किया जिसमें गीता के इसी बचन का उल्लेख है। इसी पर खाकी जी चुप हो गए। इस प्रकार पहली बार मैंने देखा कि साधु-महात्मा कहे जानेवाले लोग किस प्रकार अर्थ का अनर्थ करते हैं। गीता के उस श्लोक की यह निराली और नई व्याख्या मैंने पहले पहल सुनी।
लेकिन इन सभी बातों का असर यह हुआ कि मेरा बेहद सख्त-दिल धीरे-धीरे द्रवीभूत हो चला और मुझे खतरा हुआ कि यदि अधिक दिन ठहरा तो दलीलों और तर्कों से जो बात न हो सकी वह अनायास ही इस करुणापूर्ण वायुमंडल से हो जाएगी। फलत: मैं इस माया-मोह में पड़ कर संन्यास को छोड़ यहीं रहने को लाचार हो जाऊँगा। सच कहिए तो मैं एकाएक दहल उठा और घबरा कर काशी फौरन ही रवाना हो गया। यदि लोगों को इसका पता लगता तो न जाने क्या होता?पर, मैंने बताया नहीं और देर हो रही हैं यही दलील दे कर चलता बना।
वायुमंडल का मनुष्य के दिल और दिमाग पर कैसा आश्चर्यजनक असर होता है। इसका प्रत्यक्ष अनुभव मुझे वहीं पहली बार हुआ। लोग कहा करते हैं मौन प्रार्थना और मूकवेदना की बात और साधु-फकीरों या बड़े लोगों के द्वारा होनेवाले जादू के जैसे प्रभाव की बात। पतंजलि ने योग सूत्रों में योगी के चमत्कार की अनेक बातें लिखी है। कहते हैं कि स्वामी विवेकानंद जैसे घोर नास्तिक और विलक्षण तार्किक के दिल को श्री रामकृष्ण परमहंस के एक साधारण वाक्य ने पलट दिया। असल में वाक्यों, दलीलों, या जादू-मंतर की कोई बात नहीं है। जो बात आप कहते हैं करना चाहते हैं उसे हृदय से कहिए, कीजिए। उसके बारे में ईमानदारी और पूरी सच्चाई से काम लीजिए। जरा भी दिखावटीपना न रहने दीजिए। बाहर और भीतर एक ही ढंग की बात रहे। फिर देखिए कि आप के चारों ओर एक बिजली का सा वायुमंडल पैदा हो जाता है या नहीं और उसका फौरन असर और लोगों पर पड़ता है या नहीं। जो परिस्थिति और जो वायुमंडल अकृत्रिम होगा, स्वाभाविक होगा वह बिजली का सा असर जरूर करेगा। इसीलिए नीतिकारों ने कहा है कि जो बात सोचो, वही बोलो और वही करो तो महात्मा हो गए और अगर इसमें गड़बड़ हो तो दुरात्मा।
'' मनस्येकं वचस्येकं कर्मण्येकं महात्मनाम्।
मनस्यन्य द्वचस्यन्यत्कर्मण्यन्यद्दुरात्मनाम् '' ।
मैं मन (दिमाग), वचन (जबान) और कर्म (काम) के साथ दिल को अपनी ओर से जोड़ देता हूँ। इन चारों में एक ही बात रहने पर─इनमें परस्पर सामंजस्य रहने और मतभेद न रहने पर─इन्सान में अभूतपूर्व शक्ति पैदा हो जाती है। मैंने उस समय से ले कर आज तक इस सिद्धांत को हजारों बार स्वयं अनुभव किया और ऐसा करने के फल को आजमा देखा है। मैं अंग्रेजी की सिन्सीयरिटी (Sincerity) और ऑनेस्टी (Honesty) में ही इन चारों का समावेश मानता हूँ।
(2)
योग और भ्रमण
मैं यहाँ पर यह बता देना चाहता हूँ कि संन्यास लेने के पूर्व मेरे हृदय में रह-रह के यह विचार आता था कि ''आखिर मेरा यह पढ़ना-लिखना सिर्फ इसलिए है न, कि धन कमा कर खाऊँ, पहनूँ या दूसरों को खिलाऊँ, पहनाऊँ?लेकिन जंगल के जानवरों और पशुओं को कौन खिलाता है?वे तो स्वयं न खेतीबारी करते और न खाने-पीने की सामग्री जुटाने की चिंता ही रखते। तो भी अच्छी तरह खाते-पीते ही हैं। फिर मैं क्यों इसके लिए फिक्रमंद हो कर मरूँ?मुझे तो कोई दूसरा ही खिलाए-पिलएगा।'' यही विचार मुझे परेशान कर रहा था और आखिर इसी ने मुझे घर-बार से जुदा किया। मैं तो खाने-पीने की चिंता कतई छोड़ कर भगवान की एकमात्र प्राप्ति के ही लिए दिन-रात प्रयत्न करने के विचार से संन्यासी बना और जंगल की शरण लेने को उद्यत हुआ। दूसरा कोई भी ख्याल मेरे दिल और दिमाग में न था। मैं तो इसी में मस्त था।
हाँ, यह ठीक है कि पहले थोड़ा-बहुत योग का चसका लगा था। इसीलिए फिक्र जरूर थी कि कोई अच्छे योगी को ढूँढ़ कर उससे प्राणायाम और योगाभ्यास सीखूँ। सांसारिक कामों से मुझे ऐसी घोर घृणा थी कि कह नहीं सकता। यह भी जान लेना चाहिए कि सिवाय प्राणायाम, योगाभ्यास, ध्यान, समाधि, वेदांतचिंतन और तत्संबंधी विचारों के बाकी को मैं सांसारिक काम ही मानता था। भोजनाच्छादनादि तो प्राणायाम प्रभृति के साधन थे। फिर भी इन्हें भी मैं बाधक ही माने बैठा था। कारण, कुछ समय तो ये ले ही लेते थे और उतनी देर ध्यान आदि से विमुख होई जाना पड़ता था। इसलिए उन्हें भी भार समझ उनसे लापरवाह ही रहता था। गीता का अभ्यास तो बराबर करता था। अन्य वेदांत ग्रंथ भी कुछ पढ़ चुका था। लेकिन फिर भी यह दशा थी।
आज जो अर्थ गीता का मैं समझता हूँ उसे निराला ही समझता था उन दिनों। नहीं तो वह हालत नहीं होती। गीता के बारे में आगे अवसर पा कर ज्यादा लिखा जाएगा। चाहे कितना ही उच्चकोटि का परोपकारी काम क्यों न हो, उस समय मेरी दृष्टि में वह नाचीज सांसारिक काम ही था! फिर देश कोश की बात का कहना ही क्या?जैसा आज के अधिकांश या प्राय: सभी साधुनामधारी देशसेवा आदि को छोटी चीज तथा अपना अकर्तव्य समझते हैं, वही दशा उस वक्त मेरी समझिए। फर्क इतना ही था कि देशसेवा आदि को तब जानता तक न था कि वह कोई खास चीज या काम है, जिससे मेरा कोई संबंध होना चाहिए। मेरा तो एकमात्र कर्तव्य था भगवान की प्राप्ति। मैं तो पागलों की तरह उसे ही ढूँढ़ने निकला था।
हाँ, तो मैं ग्राम से लौट कर काशी में ही गर्मियों में ठहरा। कह नहीं सकता कि पहले से ही या संन्यास लेने के बाद ग्राम पर जाने पर ही, मुझे मालूम था कि गर्मी बीतते न बीतते पं. हरिनारायण जी भी संन्यास लेंगे। दोनों की राय यही थी कि संन्यासी होने के बाद ही भारत में भ्रमण करेंगे। और सबसे पहले एक अच्छे योगी को, जहाँ कहीं हो, प्राप्त करेंगे। पंडित जी एकाध योगी के बारे में कुछ जानते भी थे। इसीलिए उन्हीं की प्रतीक्षा में मैं काशी में किसी प्रकार दिन काटता रहा। इसी बीच में ही मुझे घसीट कर लोग गाजीपुर भी ले गए, जिसके सिलसिले में श्री सरयू प्रसाद जी मास्टर की बात पहले लिखी जा चुकी है। क्योंकि फिर तो बरसात आते ही हम दोनों भ्रमण में निकले तो कई वर्षों के बाद काशी लौट सके।
एक दिन एकाएक अपारनाथ मठ में देखता हूँ कि एक परिचित जैसे व्यक्ति गैरिकवस्त्र पहने आ निकले और मुझे पूछ कर मेरे पास आए। सहसा मैं भौंचक सा रह गया और देखा कि संन्यासी के वेश में वही श्री हरिनारायण जी हैं बस, अब क्या था?मेरी खुशी का ठिकाना न रहा। अभी आषाढ़ की बूँदाबाँदी हुई ही थी और हम लोग चुपचाप मठवालों से बिना कहे ही फौरन प्रयाग की ओर चल पड़े उन्होंने किसी दंडी संन्यासी से दीक्षा ली थी सही। मगर दंड उनके हाथ में भी न था। अपने गुरु महाराज से बिना कहे ही वह भी चले आए। मैंने भी यहाँ मठ में गुरु जी से नहीं कहा और चुपके से दोनों ही चल पड़े। पहले घरवालों से छिपा कर संन्यासी बने दोनों ही, और संन्यासियों से भी छिपा कर भागे। बात यह थी कि जानने पर बाधा जरूर होती। क्योंकि बाबा लोग कहते कि चातुर्मास्य (वर्ष) में संन्यासी को भ्रमण करना शास्त्र निषिद्ध हैं। फिर तो विवश होना पड़ता।
मगर यहाँ तो भगवान और योगी से शीघ्र ही मिलने की बेचैनी थी, प्रीतम के दर्शनों के लिए आँखें प्यासी थीं। फिर धर्मशास्त्र कैसा?क्या विचित्र बात है धर्मशास्त्र के अनुसार संसार से विरक्त संन्यासी बने और जरूरत होने पर उसी धर्मशास्त्र को जानबूझ कर ठुकराया, जब यह पता चला कि वह आगे बाधक होगा! यह किसी नास्तिक की बात नहीं है। तब तो हम दोनों पूरे आस्तिक थे और सभी पोथी-पुराणों को पूरा-पूरा मानते थे। असल में ध्येय और स्वार्थ दुनियाँ में सबसे बड़ी चीज है और उसकी वेदी पर बड़े-से-बड़े पदार्थ जान या अनजान में बलिदान होई जाते या कर ही दिए जाते हैं। उस समय हमने यह महान सत्य हृदयंगम किया न था। हालाँकि, अमल किया उसी के अनुसार। इसे तो ईधर आ कर समझा है। फिर भी स्वभाववश, या यों कहिए, कार्य-कारणवश यही बात पहले उस समय अकस्मात हो गई।
आगे बढ़ने के पहले मैं अपारनाथ मठ के बारे में भी कुछ बातें कह देना चाहता हूँ। वह कोई आज के प्रचलित मानी में मठ न था। आजकल जैसे मठाधीश साधुनामधारी बनते हैं और बड़ी-बड़ी जाएदादें रखके गुलछर्रे उड़ाते हैं, सो बात उस मठ के बारे में न थी। वह किसी मठाधीश की संपत्ति न थी। असल में, कहते हैं, पहले काशी में बाबा अपारनाथ नामक कोई सिद्ध महापुरुष रहते थे। उन्हीं के चमत्कार से मुग्ध हो कर किन्हीं श्रीमान लोगों ने उनके निवास के नाम से दो आलीशान पत्थरों के बने बड़े-बड़े मकान बनवा दिए, जिनमें एक का नाम अपारनाथ का टेकरा और दूसरे का नाम अपारनाथ मठ है। दोनों ही में बिना आश्रय और घर-बार के विरागी संन्यासी रहते थे। शायद आज भी रहते हैं, गो कि, ईधर सुना था, कुछ लोगों ने किसी बहाने उन मठों पर आंशिक प्रभुत्व जमाने की कोशिश की थी। ऐसे संन्यासी कुछ दिन वहाँ रहते थे। फिर बाहर घूमघाम आते थे। भ्रमण के बाद शायद कोई-कोई थोड़े-बहुत पैसे भी लाते थे और वहाँ रह के उन्हीं से काम चलाते थे। यों तो सभी के लिए जहाँ-तहाँ अन्नसत्रों या अन्यक्षेत्रों में बना-बनाया भोजन दिन-रात में एक बार मिलता था। शाम के लिए केवल कहीं-कहीं जलपान मात्र का प्रबंध था। अधिकांश विरक्त और संस्कृत व्याकरण, दर्शनादि पढ़नेवाले ही बूढ़े-जवान और कम उम्र के भी गेरुवाधारी वहाँ रहते थे। काशी की यह भी परिपाटी है कि रह-रह के भंडारा के नाम पर इन साधुओं के बड़े-बड़े भोज, हलवा, पूड़ी आदि के होते रहते हैं। उनमें साल भर के लिए कामचलाऊ वस्त्र मिल ही जाते हैं। पढ़ने-लिखनेवालों को कभी-कभी श्रीमान लोग रुपए-पैसे या पुस्तकादि भी दिया करते हैं। ऐसा भी होता है कि अधिकांश पढ़ने-लिखनेवालों के अभिभावक या तो उनके गुरु महाराज होते हैं और उन्हें कोई फिक्र नहीं रहती, या बाहर से भक्तों और भक्तानियों या चेले-चाटियों के पास से पैसे ला कर वे लोग काम चलाते हैं।
अपारनाथ मठ ऐसा ही है। उसके आँगन में एक तुलसी-चौरा जैसी ऊँची जगह बनी है। उसमें एक बड़ा-सा ताक है। उस पर मिट्टी के बहुत बड़े दीपक में सेरों तेल भरा रहता है और अखंड दीपक जलता रहता है। वह कभी बुझने नहीं पाता। एक साधु बराबर उसकी फिक्र में रहता है। वहीं बगल की कोठरी में बनी अपारनाथ-बाबा की समाधि की पूजा भी वही बराबर करता है। उस दीपक के बारे में यह प्रसिद्धि है कि किसी भी कुत्ता, सियार आदि जहरीले जानवर के काट खाने पर जख्म पर उस दीपक का तेल मालिश करने और अच्छा न होने तक उस स्थान को पानी से बचा देने से जख्म अच्छा हो जाता और जहर भी शांत हो जाता है। जो उसमें से तेल लेता है वही उसमें दूसरा डाल कर भर देता है। यही नियम वहाँ चालू था। शायद आज भी होगा। मैंने वहाँ दो बार मिला कर वर्षों गुजारे हैं। काशी में तो बराबर बहुत वर्ष रहा हूँ। मैंने हजारों लोगों को तेल ले जाते देखा है। दूर-दूर से आ कर लोग ले जाते थे।
सन 1907 ई. की बरसात का दिन था और हम दोनों ही पैदल चल पड़े। गंगा के उत्तर किनारे चलते-चलते हम लोग दो-चार दिनों में इलाहाबाद के पास गंगा के पूर्व किनारे झूँसी जा पहुँचे। रास्ते की कहानी याद नहीं। यह ठीक है कि संन्यासी के रूप में हम दोनों की यह पहली यात्रा थी, हालाँकि, श्री हरिनारायण जी तीर्थ-यात्रा के बहाने पहले भी काफी भ्रमण कर चुके थे। वैराग्य का भूत सिर पर सवार था। इसलिए हमें कष्टों की परवाह क्या थी?न रहने का ठिकाना और न खाने का। दूसरे के घर में रात में ठहरना और खाना भी, चाहे कोई ठहराए और खिलाए या टका सा जवाब दे। चारा तो कोई था नहीं। हम दोनों ही थे भी पूरे मस्त राम। दबाव डाल कर माँगने का हक भी न था। सिर्फ भिक्षावृत्ति थी और धर्म की राह थी। पास में न तो पैसा था और न कोई सामान। कपड़ा भी नाममात्र को ही था। किसी प्रकार कामचलाऊ। छाता तो रखना मना था ही। फिर अगर कपड़े भीगे तो और भी दुर्गति। आखिर संन्यासी का धर्म ही तो ठहरा और हमें तो पूरी आस्था थी इस धर्म पालन में। फलत: हमने तो तय कर लिया था कि चाहे जो हो, पूरा-पूरा धर्म निभाएँगे।
हमें याद नहीं कि झूँसी पहुँचने तक किसी विशेष संकट का सामना करना पड़ा, कभी भोजन न मिला या कपड़े लथपथ होने से दिक्कत हुई। भोजन भी तो एक ही समय चौबीस घंटे में करना था। न तो कोई नाश्ता और न जलपान। चाय-पानी का तो सवाल ही न था। पंडित जी भी यद्यपि जवान ही थे। लेकिन मेरी तो केवल अट्ठारह-उन्नीस वर्ष की अवस्था थी, जिसमें भूख-प्यास बहुत सताती है। लेकिन, आखिर, दृढ़ संकल्प भी तो कोई चीज है। इस अवस्था में तो कई बार भोजन चाहिए, नहीं तो भूख से सिर और कलेजा फटा पड़ता है। मगर निश्चय कर लिया था कि एक ही बार चौबीस घंटे में खाना। और अगर एक-दो बार कोशिश करने पर एक दिन न मिला तो फिर बार-बार उसकी परवाह छोड़ अगले दिन के लिए तय कर के उस दिन चुपचाप बैठ या सो जाना। झूँसी तक तो नहीं, लेकिन आगे चल कर ऐसे मौके बहुत बार आए, जब दिन-रात गुजर चुकने पर ही भोजन मिल सका।30, 36 या 40 घंटे तक कभी-कभी गुजरे और एक बार तो पूरे 52 घंटों के बाद भोजन मिल सका। इससे एक फायदा जरूर हुआ कि भूख पर हमारा अधिकार हो गया। अब वह हमें खुल के सता नहीं सकती थी। खाना-पीना न मिलने पर क्या होगा, यह जो डर का महाभूत सभी के सिर सवार रहता है और हम पर भी था, वह सदा के लिए हट गया। इस मानी में तो हम पक्के संन्यासी बन गए।
हमने देखा है, जो संन्यासी यों भ्रमण नहीं करते,वे बराबर कमजोरी दिखलाते हैं। वे लोग अच्छे पढ़े-लिखे, ज्ञानी-विरागी होने पर भी खाने-पीने के मामले में हिम्मत हार बैठते हैं। साथ ही, हम तो उस समय पक्के भाग्यवादी और भगवानवादी थे। हमारा तो विश्वास था कि न तो भगवान मरा है और न हमारा भाग्य जल गया है या बंधक रखा जा चुका है। फिर खाने-पहनने की क्या फिक्र?हमें तो ख्याल था कि ─
'' का चिंता मम जीवने यदि हरिर्विश्वंभरो गीयते ''
फिर हम चिंता क्यों करते?नतीजा हुआ कि मस्ती के साथ आगे बढ़ते गए। पास में था सिर्फ एक कमंडलु, और शायद कुछ गीता आदि पुस्तकें। इस प्रकार झूँसी पहुँचे और वहाँ एक मठ में जा ठहरे।
मठ में कुछ साधु लोग रहते थे और कोई संपत्ति विशेष हमारे जानते न थी। शायद भक्तों की भेंट और चढ़ावे वगैरह से ही काम चलता था। हम वहाँ प्राय: महीनों रह गए। मठ के सभी लोग और उसके प्रबंधक, मैं नाम भूल गया, बहुत ही सज्जन थे। वह हमसे प्रेम करते थे। वहीं हमने पहले सन 1905 ई. वाले बंगभंग के आंदोलन और उससे पैदा होनेवाले तूफान की खबर यों ही किसी प्रकार सुनी। यह बात हमें ठीक-ठीक याद है। मगर उसमें हमें तो कोई स्वाद न था।'असल में बंदर अदरक का स्वाद क्या जाने' वाली बात भी थी, साधु-संन्यासियों की दुनियाँ कैसी निराली होती है?यों तो अच्छा भोजन, वस्त्र और मठ जरूर चाहिए, जो साधारण गृहस्थों को दुर्लभ हो। फिर भी ''दुनियाँ से हमें क्या काम?इन सांसारिक झंझटों से हमें क्या लेना-देना है?'' कह के देशसेवा और सार्वजनिक काम से वे घृणा करते हैं! गोया सुंदर अन्न-वस्त्र दुनियाँ से बाहर है, इसीलिए उनसे विमुख नहीं होते! लेकिन हमारी तो वह हालत थी नहीं। हमे प्रचंड वैराग्य था। फलत: उस राजनीतिक आंदोलन ने हमें जरा भी प्रभावित नहीं किया। मेरी तो और भी विचित्र दशा थी। अंग्रेजी से तो ऐसी घृणा थी कि कुछ पूछिए ही न। उसे तो मैं बिल्कुल ही भुला देना चाहता था। इसीलिए अँग्रेजी का एक शब्दोचारण भी मेरे लिए असह्म था। नतीजा भी यही हुआ कि आठ-दस वर्षों के भीतर मैं उसे भूल-सा गया। मालूम होता था, उसके ज्ञान पर एक पर्दा-सा पड़ गया है और उसके नीचे वह धुँधला-सा नजर आता है। आगे चल कर फिर मेरी प्रवृत्ति अंग्रेजी की ओर कैसे हुई, किस प्रकार मेरे भीतर उसका सुप्तप्राय ज्ञान जगा और धीरे-धीरे पुष्ट हुआ, यह आगे लिखा जाएगा।
झूँसी में प्राय: मठ की छत पर मैं बिना कोई बिस्तर डाले ही रात को सोया करता था। आषाढ़ की गर्मी तो बुरी होती ही है और पानी पड़ने के बाद छत ठंडी हो जाने से उस पर सोना अच्छा लगता है। मैंने यही किया। पर, कुछ दिनों बाद शरीर में बहुत दर्द होने के साथ ही खूब तेज बुखार आया, जो महीनों बना रहा। लोगों ने दर्द को सर्दी के कारण समझ पहली बार इस जीवन में मुझे चाय पिला दी। उससे दर्द तो खत्म हो गया। लेकिन उसी जगह तेज बुखार ने ले ली। ज्वर की गर्मी इतनी तेज हुई कि मैं बेचैन और थोड़ी देर में बेहोश हो गया। पहली बार की चाय का यह कटु अनुभव हुआ। लोग कहते हैं, वह ज्वर दूर करती है। पर मेरे सिर तो उलटी गुजरी। जीवन भर में इसके सिवाय एक बार और चाय पीने का मौका लगा हैं, जबकि मैं योगी की तलाश में घूमता-घूमता मध्यभारत की देहात में राजगढ़ ब्यावरा पहुँचा और वहाँ की देहात में एक जगह जाड़ों में ठहरा था। वहाँ के लोगों को चाय पीने की सख्त आदत है। जाड़ा ज्यादा होता है। मुझे भी एक दिन उन्होंने चाय पिला दी। बस, फिर क्या था, पेशाब में सुर्खी आ गई और डर कर फौरन मैंने चाय बंद कर दी। फिर तो सुर्खी चली गई। तब से कभी चाय पीने का नाम मैं नहीं लेता। उसकी हिम्मत ही नहीं होती। असल में वह इतनी गर्म है कि मेरा शरीर उसे बर्दाश्त नहीं कर सकता।
हाँ, तो ज्वर पीछे घटा सही, मगर कुछ-न-कुछ बना रहा। इस बीच एक कषायवस्त्रधारी जवान संन्यासी बाबा वहीं आ पधारे। उन्होंने मुझे देखा और दवा दी कि ज्वर हट जाए। फिर वह चलते बने। मैं उनकी दवा खाता रहा। कई खुराक खाने के बाद एक दूसरे अनुभवी संन्यासी बाबा आ गए। उन्होंने वह दवा देख ली। वह तो देखते ही चौंक उठे और मुझे कहा कि ''यह जहर क्यों खा रहे हैं?यह तो कच्चे लोहे का भस्म है। तवा के जले पेंदे का बुरादा बना कर भस्म के नाम पर कोई नादान आप को दे गया है। यह तो मार डालेगा।'' मेरा ज्वर तो छूटा नहीं और यह नई बला मालूम हो गई। मैंने उसे उठा फेंका। मुझे रोज ज्वर नहीं आता था। एक या दो दिन का अंतर दे कर आता था। हम दोनों ने तय कर लिया कि यहाँ से अब चल ही देना ठीक है, और चल पड़े, त्रिवेणी पार हो कर प्रयाग से चित्रकूट जानेवाली पक्की सड़क पकड़ कर उसी ओर, हमारी इच्छा थी कि चित्रकूट होते आगे बढ़ें। तुलसीकृत रामायण में उसका बहुत ही सुंदर वर्णन पढ़ा था। कामदगिरि आदि का बार-बार उल्लेख वहाँ आया था। इसीलिए वहाँ जाने की उत्कट अभिलाषा थी। ठीक याद नहीं, शायद एक या दो दिनों के बाद ही शंकरगढ़ स्टेशन (जी. आई. पी. रेल्वे) के पासवाले गाँव में हम लोग जा पहुँचे। कह नहीं सकते, वही गाँव शंकरगढ़ है या दूसरा। बहुत दिन गुजरने पर स्मृति ठीक नहीं रही। वहाँ वर्ष में हम लोग ठहर गए। पहाड़ की तली में वह गाँव है। पहाड़ तो ज्यादा ऊँचा नहीं है। हाँ, गाँव की अपेक्षा ऊँचा जरूर है। रात में हम लोग गाँव में ही, एक स्थान पर सोते थे। वहाँवाले झाल, ढोल वगैरह की सहायता से उसी जगह खूब ही मस्त हो कर रामायण गाते थे। मैंने बचपन में और उसके बाद भी रामायण का गाना बहुत ही सुना है। मगर दो ही स्थानों का खूब चित्ताकर्षक और सुंदर पाया है। एक तो वहाँ का और दूसरा उसके दो-तीन वर्ष बाद बलिया जिले में, गंगा तट पर, भरौली गाँव का, जिसे उजियार-भरौली भी कहते हैं। दोनों जगह लोग बहुत ही अच्छा गाते थे। लेकिन अब तो शायद वह परिपाटी प्राय: उठ ही गई।
हाँ, तो रात में गाँव में रहते और दिन भर, सिवाय खाने-पीने के समय के, पहाड़ी पर पड़े रहते। बरसात के दिनों में पहाड़ी स्थान बहुत ही रमणीय लगता है। एक बात जरूर थी कि न जाने कहाँ से इतनी ज्यादा मक्खियाँ उस गाँव में थीं कि खाने-पीने में बड़ी दिक्कत होती थी। उतनी मक्खियाँ मैंने आज तक और कहीं नहीं देखी हैं। इसलिए भी दिन बाहर ही काटते थे।
कुछ दिन ठहर कर आगे बढ़े और करबी होते चित्रकूट पहुँचे। चित्रकूट गाँव के पासवाली नदी को मंदाकिनी कहते हैं। उसी के तट पर वह बसा है। उस समय वहाँ के पेड़े की बड़ी प्रसिद्धि थी, जैसा मथुरा के पेड़ों की। न जाने अब क्या दशा है। हम लोग आगे चल के कामदगिरि के पास पहुँचे। वर्षा का समय और रात में बाहर टिकना यह ठीक न समझ हमने कामदगिरि की परिक्रमा में उसकी चारों ओर बने वैष्णव साधु नामधारियों के मंदिरों और मठों के द्वार खटखटाए कि वे रात में ठहरने दें। मगर एक स्वर से सभी ने नाहीं की। हालाँकि, यह जान कर हमारे क्रोध और घृणा की सीमा न रही कि सभी मठों में न जाने कितनी ही माई-दाईयाँ रहा करती हैं। फिर तो बाबा लोगों के चरित्र का खुदा ही हाफिज। हार कर किसी टूटे-फूटे लावारिस स्थान में जैसे-जैसे रात गुजारी।
आज भी कामदगिरि बहुत ही सुंदर लगता है। खास कर वर्षाकाल में उसके ऊपर कोई चढ़ने नहीं पाता। कहते हैं, उसके शिखर पर श्री रामचंद्र की चरणपादुका बनी है। कामदगिरि को वहाँ कामतानाथ कहते हैं।
दूसरे दिन अनुसूया नामक स्थान देखने के लिए प्रमोद वन होते ही हम लोग चले। असल में तो हनुमान धारा नामक स्थान, जहाँ पानी का प्रपात पहाड़ से जारी रहता है, सबसे दर्शनीय और रमणीय है। मगर वर्ष में वहाँ घोर जंगल में जाना असंभव है। अत: दूर से उसका दर्शन कर संतोष किया और अनुसूया पहुँचे। घूमते-घामते देर लगी और चौथे पहर कामदगिरि को लौटे। सामने कामदगिरि था। बहुत ही निकट मालूम हुआ। लेकिन पहाड़ दूरी की दृष्टि से कितना धोखा देते हैं, यह बात पहले-पहल हमें उसी दिन विदित हुई। हमें चलते-चलते कई घंटे लग गए और रात होते-होते हम वहाँ मुश्किल से पहुँच सके। बीच का रास्ता भी इतना बीहड़ था कि कुछ कहिए मत। न जाने बीसियों नदी-नाले मिले, सो भी काफी चौड़े। खैरियत यही थी कि उनमें ज्यादा पानी न था। नहीं तो लौटना असंभव हो जाता! असल में पहाड़ी नदी-नाले वर्षा होती रहने पर ही भरे होते हैं और वह हटी कि इनके सूखते देर नहीं लगती।
जब हम अनुसूया गए तो हमें पता लगा कि वहाँ जो एक पुराना वैष्णव साधु रहता था, उसके पास सोलह या बीस हजार रुपए जमा थे। वह अकेला ही था। लोभ के मारे किसी को पास न रखता था कि खर्च होगा। लोगों को बताता भी न था कि इतने पैसे पास में हैं। उस समय वह मर चुका था। चोरों को किसी प्रकार पता चल गया कि उसके पास पैसे हैं। असल में उन लोगों को रुपए की महक मिलती है। फिर क्या था, एक रात को धीरे से दो-चार चोर वहाँ पहुँचे और कुटिया की छत पर, जहाँ वैरागी बाबा रहते थे, चढ़ गए। बाबा को जगा कर खजाने का पता पूछा और ले कर चल देना चाहा। मगर वह तो नाहीनुकुर करते ही रहे कि बच्चा साधुओं के पास कैसे कहाँ?फिर भी, उन जैसे साधुओं को तो वे लोग खूब ही पहचानते हैं। फलत:, आखिरकार उन्हें मार कर छत से नीचे गिरा दिया और सभी रुपए ले कर चलते बने। उन्होंने शायद सोचा कि जिंदा रहने पर चिल्लाएगा और पीछे पुलिस को खबर देगा। इसलिए 'रहे न बाँस, न बाजे बाँसूरी'। ऐसे रुपयों का तो कुछ ऐसा ही अंत होना चाहिए। साधु लोग भी इस प्रकार पैसे रखते हैं और इस प्रकार भ्रष्ट होते हैं, यह बात अनुसूया और कामदगिरि के मठों की बातें जान कर मुझे पहले-पहल ज्ञात हुई।
प्रमोद वन आचारी वैष्णवों का अच्छा अव माना जाता है। जब तक हम वहाँ रहे, हमारे साथ उनकी कुछ शास्त्र चर्चा भी होती थी। लेकिन हमें तो वहाँ टिकना न था। सोचा, अब फिर यमुना पार हो कर फतहपुर, कानपुर की ओर चलें। इसलिए चल पड़े।
चित्रकूट के नजदीक की ही कहानी है। एक दिन मैदान में ही थे कि भयं कर आँधी-पानी का सामना हुआ, ऐसा भयं कर कि आज तक भूला नहीं। दौड़ कर गाँव में जाना भी असंभव था। पास के खेत में एक छतरीनुमा झोंपड़ी थी-बहुत ही छोटी थी। दौड़ कर उसके नीचे खड़े हो गए। तूफान था कि गजब और बिजली ऐसी कड़कती थी कि कलेजा दहला देती थी। बहुत देर तक यह बला रही। वह छतरीनुमा झोंपड़ी नीचे तथा चारों ओर खुली थी। उधर ऐसी ही बनती है। इसलिए पानी के झंकोरों ने हमें बुरी तरह भिगा दिया था। मालूम होता था, हर बार कि बिजली हम पर गिरी और वह झोंपड़ी ही एक प्रकार से उससे बचाती हुई मालूम पड़ी। बहुत देर तक आँधी-पानी की इस बला का सामना करना पड़ा। शाम होते-न-होते जब वह हटी तो पानी से लथपथ हम दोनों पास के गाँव में गए और जैसे-तैसे रात गुजारी।
हमने उसी रास्ते में जीवन में पहली बार देखा कि बुंदेलखंडी लोग निराले जूते बनाते हैं, जो एड़ी की तरफ ऊपर तक चढ़े होते हैं। पुश्तपाँव के ऊपर भी आगे से आया हुआ हाथी के कान जैसा चमड़ा पड़ा रहता है। असल में वहाँ काँटे बहुत होते हैं। खेत भी उनसे भरे होते हैं। उनसे बचने के लिए ये बनते हैं। हलवाहे और मजदूर-मर्द, औरत, बच्चे सभी─ये स्वदेशी जूते पहनते हैं। नहीं तो काँटों से पाँव खून-खून हो जाए। उत्तर की ओर चलते-चलते हम यमुना के तट पर राजापुर गाँव में पहुँचे। असल में चित्रकूट से एक सड़क यमुना पार जाने के लिए राजापुर आती हैं। पहले तो कच्ची थी। अब, न जानें, उसकी क्या दशा है। इसलिए अनजान में ही हम वहाँ अकस्मात आ पहुँचे। हमें अत्यंत प्रसन्नता हुई कि जिस तुलसीदास की रामायण में हमें अपार भक्ति रही उसी तुलसीदास की जन्मभूमि में पहुँच गए। हम पढ़ा करते थे कि ''राजापुर यमुना के तीरा, तुलसी वहाँ बसै मतिधीरा।'' आज उसका साक्षात्कार हो गया। हमने बहुत कोशिश की कि उनके हाथ की लिखी रामायण की प्रति वहाँ मिले तो देखें या अगर उनका कोई खास दर्शनीय स्थान हो तो, उसका ही दर्शन करें। मगर महज मामूली जगह के सिवाय और ऐसी कोई बात हमें नहीं दिखाई या बताई जा सकी। न जानें, इस समय वहाँ उनके जन्म-स्थान की स्मृति में कुछ विशेष बातें ढूँढ़-ढाँढ़ कर निकाली गई हैं या नहीं और कोई विशेष आयोजन वहाँ है या नहीं। आज तो ऐसी बातों का युग है, मगर तीस-चालीस वर्ष पूर्व यह बात न थी। देखा कि जितना प्रेम तुलसीदास और उनकी भूमि से हमें है उसका शतांश भी वहाँवालों को नहीं है।
अस्तु, एक ही दिन वहाँ हम ठहरे और बरसात में लबालब भरी यमुना को अगले दिन पार किया। राजापुर यमुना के ठीक किनारे पर था और गाँव धीरे-धीरे कट कर गिर रहा था। नहीं मालूम आज उसकी क्या हालत है, गिर कर और जगह जा बसा या यमुना माई ने रहम की और बच गया।
एक दिन की बात है। फतहपुर जिले के खागानगर में दोपहर की भिक्षा (संन्यासी लोग भोजन को भिक्षा कहते हैं) कर के हम लोग आगे बढ़े और कुछ दूर जा कर एक गाँव से बाहर पेड़ों की छाया में सोए थे कि ठंडी हवा के साथ तेज बारिश आई। भागते हुए गाँव में पहुँचे तो कहीं ठहरने को स्थान न मिला। एक जर्जर मकान धर्मशाले के नाम से था। वहाँ गए तो उसे कूड़े करकट से भरा पाया और खूब चूता भी था। ईधर मुझे ज्वर भी तेज था। एक बात भूल ही गया। उस दिन किसी भक्त जन ने खूब मिठाई-पूरी खिलाई थी। ज्वर की बारी उसी दिन थी। दूसरी चीज खाने को मिली नहीं और एक ही बार चौबीस घंटे में खाना था, फिर करते क्या?हाँ, तो लाचार हो कर सब कूड़ा एक कोने में, जहाँ चूता न था, जमा किया, क्योंकि समूचा मकान पानी से भरा था, और उसी पर पाँव रख के दीवार के सहारे खड़ा हो गया। बैठने के लिए जगह कहाँ?देह ज्वर से जलती थी। हवा-पानी दोनों ही गजब के थे और मैं खड़ा था। उस दशा का अनुभव कौन कर सकता है?लेकिन उसी तरह खड़े-खड़े पानी की मूसलाधार गुजार ली और पानी छूटते ही आगे बढ़ना चाहते थे। ज्वर उतर चुका था। मगर शाम हो चुकी थी और गाँव के किसी सज्जन ने वहाँ आ कर अपने घर पर चलने को कहा। फलत: रात वहीं कटी। सुबह होते ही आगे चल पड़े।
हमारे साथी ने कहा था कि ज्वर कैसा भी क्यों न हो यदि महादेव बाबा के सामने बैठ कर उनका ध्यान किया जाए तो तीन दिनों के ध्यान के बाद ही वह जरूर हट जाता है। हम दो दिन ध्यान कर चुके थे। तीसरे दिन फिर ज्वर आया रास्ते में ही ज्वर से दबे हुए हम जैसे-तैसे फतहपुर के पुराने शिव मंदिर में शाम को पहुँचे और शिव जी के सामने जा डटे। हम तो धार्मिक ठहरे ही हमें पूरा विश्वास था। कुछ देर के बाद पसीना शुरू हुआ और हम लथपथ हो गए। फिर भी बैठे रहे। अंत में ज्वर जो उस दिन गया जो सदा के लिए विदा हुआ, कम-से-कम बहुत समय के लिए तो जरूर ही। यह भी आश्चर्य की बात है कि मिठाई-पूड़ी खा के और पानी में लथपथ हो के खड़े-खड़े जिस ज्वर को एक रोज बर्दाश्त करना पड़ा वही एकाएक उस दिन खत्म हो गया! हमारे जानते उसके बाद भी बहुतों के ज्वर इस प्रकार की आराधना से छूटे हैं। दिमागदार लोग चाहे इसका कारण दिमाग की तद्विषयक दृढ़ धारणा को ही बताएँ या और कुछ कहें। हमें उससे मतलब नहीं। हम तो कोई सिद्धांत स्थापित करने चले हैं नहीं। किंतु अपने जीवन के संघर्ष की एक अनुभूत घटना का उल्लेख मात्र करना हमारा काम है।
यहाँ एक बात और भी कह देनी है। जब-जब चलने में परिश्रम होता था तो मैं देखता था कि शरीर के ऊपर पानी के शीकर जैसी कोई चीज निकल आती थी। उसके ऊपर निहायत ही बारीक सफेद पर्दा जैसा होता था। हाथ से मसलते ही यह चीज खत्म हो जाती थी। पर, पुन: पैदा हो जाती थी। मैंने अंदाज किया कि कच्चे लोहे का ही यह असर था। बचपन में जिस पित्त के प्रकोप और संग्रह (जमा होने) की बात पहले कही है और हिंदी मिड्ल की पढ़ाई के समय जो ज्यादा कुनाइन खाई थी। इन दोनों के साथ मिल कर यह कच्चा लोहा गजब करने पर आमादा हो गया। इस भयं कर त्रिपुटी ने मुझे भयभीत कर दिया। लक्षणों से ऐसा लगता था कि पेशाब की तथा दूसरी इंद्रियों पर भी इसका भयं कर असर होगा, जिससे लोग खामखाह कहेंगे कि यह जवान संन्यासी कहीं व्यभिचार में फँस कर सिफलिस और सुजाक से आक्रांत हैं।इस धारणा ने मुझे बहुत ही विचलित किया। मगर हिम्मत मैंने न हारी और साथी को भी कुछ न बताया। केवल ताकीद और संयम से रहने लगा। फलत: कुछ ही दिनों के बाद वे सभी कुलक्षण खत्म हो गए और मैंने न जाने किसे-किसे धन्यवाद दिया। यह ठीक है कि खून में उसकी गर्मी घुस गई और शरीर के अष्टधातुओं पर उसने खूब असर किया। मगर बाहरी चिद्द फिर कोई भी दृष्टिगोचर न हुए।
हम पैदल ही फतहपुर से आगे बढ़े और कानपुर में कई दिन ठहरे। रात में एक बाग में रहते और दिन में शहर में भिक्षा कर आते। सरसैयाघाट की पहले-पहल जानकारी मुझे उसी समय सन 1907 ई. की वर्ष के दिनों में हुई। पीछे तो कानपुर जाने का मौका सैकड़ों बार लगा है। कानपुर से आगे गंगा का किनारा छोड़ झाँसीवाली लाइन की बगल से जाना हमने तय किया। क्योंकि हमारा विचार था मध्यप्रांत के खंडवा जिले के ओंकारेश्वर में जा कर हिंदुओं के द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक श्री ओंकारेश्वर नाथ जी का दर्शन नर्मदा के बीच में करना और वहीं पास के जंगल में श्री कमल भारती नामक योगी से मिल कर योगाभ्यास सीखना। पैसे पास थे नहीं। शास्त्रों के अनुसार न तो हमें पैसे रखने की आज्ञा थी और न हमारी इच्छा ही थी कि रखें। पैदल यात्रा में अनुभव और मजा भी था। अत: पैदल ही बढ़े।
(3)
क्षुधा के अनुभव ─ अन्य घटनाएँ
हमारी यात्रा उरई आदि स्थानों से हो कर हुई। हम ज्यों-त्यों आगे बढ़ते गए खाने-पीने का कष्ट विशेष होने लगा। फलस्वरूप हमें एक-एक दिन में बहुत ज्यादा चलना पड़ता था। क्योंकि जंगली प्रदेश होने से हम समझते थे कि दूर जाने पर शायद कोई शहर या संपन्न गाँव मिले और भोजन की प्राप्ति आसानी से हो जाए। परिणाम यह हुआ कि हम झाँसी होते ललितपुर तक किसी प्रकार पहुँच सके। हम दोनों काफी कमजोर हो गए और चलने की हिम्मत न होती थी। अब तो चौबीस घंटे का प्रश्न ही न था। प्राय: डेढ़ और दो दिनों पर एक बार मुश्किल से यदि भोजन मिल जाता तो हम गनीमत समझते! सभी जातियों के यहाँ भोजन करते थे भी नहीं। सिर्फ ब्राह्मण के ही घर भरसक करते थे और ऐसा न होने पर क्षत्रिय के घर में शायद ही कभी। कट्टरपन जो था और पोथी-पत्रो का ज्ञान भी तो ताजा ही था।
ललितपुर में, हमें ख्याल है, कई दिन ठहरे और जरा थकावट दूर की। असल में गंगा के किनारे तो लोग संन्यासियों को जानते-मानते हैं। क्योंकि सह्त्रो वर्षों से असंख्य संन्यासी बराबर पैदल ही गंगा तट में घूमते रहे हैं। हजारों स्थान पर उनकी कुटिया भी बनी है। इसीलिए उधर ठीक रहता है अब भी। मगर झाँसी और बुंदेलखंड के जंगलों में संन्यासी क्यों जाने लगे?इसीलिए वहाँ के लोग समझ भी नहीं पाते थे कि हम कौन और क्या हैं और हमें क्यों खिलाना-पिलाना चाहिए। इसी से ज्यादा कष्ट हुआ और ललितपुर में विश्राम करने की नौबत आई।
वहाँ एक ठाकुरबाड़ी में, जो सजी-धजी थी, हम एक दिन गए। वह शहर से बाहर तालाब के किनारे थी ऐसी याद-सी है। हमने वैष्णव साधुओं की तरह ठाकुर जी को जमीन पर लोट कर (साष्टांग) दंडवत नहीं किया। किंतु यों ही जरा सिर झुका लिया। फिर बैठ गए। पुजारी पढ़े-लिखे थे। उन्हें यह बात रुची तो नहीं। फिर भी सभ्यतापूर्वक कहने लगे कि महापुरुष (संन्यासी को महापुरुष कहते हैं), लोग भगवान को साष्टांग क्यों नहीं करते?इस पर हम लोगों का उनके साथ कुछ देर तक मनोविनोद और शास्त्रीय कथनोपकथन होता रहा। वह खूब दिलचस्प था।
आखिर, एक स्थान पर ज्यादा टिकना अवांछनीय समझ हमने बीना होते सागर और वहाँ से नर्मदा पहुँचने की सोची। मगर चलने की तो हिम्मत न थी। इसलिए ललितपुर के स्टेशन मास्टर से कहा कि किसी प्रकार बीना तक हमें पहुँचा देने का यत्न करें। हमने उसे अपनी मजबूरी सुना दी। वह बेचारा तैयार हो गया। पैसा तो कहाँ खर्च करता। उसने कहा कि ट्रेन आते ही गार्ड से कह दूँगा और आप लोग निरबाधा चले जाएगे। ट्रेन आई। मैं उसके पास ही था। उसने गार्ड से अंग्रेजी में, कुछ कहा भी जो मैं सुनता था। गार्ड का चमड़ा गोरा था, उसने अंग्रेजी में, मुझे देख कर, उत्तर दे दिया कि यह साधु नहीं, यह तो लड़का मात्र हैं "He is not a Sadhu, but a more child" कुछ इसी ढंग के उसके शब्द थे जिनमें एकाध आज बत्तीस वर्षों के बाद कदाचित भूलने पर भी वे आज तक कानों में गूँजते हैं। गार्ड ने क्या समझा कि ये शब्द मैं समझूँगा और इन्हें अमर बना रखूँगा। मगर यह निराली घटना थी जो जीवन में पहली-बार हुई। अब तक कभी मुफ्त रेल में चढ़ने की इच्छा न की थी और इस बार यदि की भी, तो बेबसी थी। फिर भी चोरी से न चढ़ कर गार्ड की दया का भिखारी बने। लेकिन उसने वह प्रार्थना ठुकरा दी। उसे अपनी अक्ल का घमंड था कि वह साधुओं को पहचानता था। मुझे तो उसने निरा लड़का समझा।
लेकिन इससे हमारा निश्चय और भी पक्का हो गया कि जरूर गाड़ी से चलेंगे। चुपके-चोरी हजारों रेल में चढ़ते और निकल भागते हैं। कोई गार्ड नहीं कहता कि ये लड़के हैं, साधु नहीं हैं, वे ऐसा मौका देते ही नहीं। क्योंकि काफी चतुर-यार होते हैं। मगर हमने जब चोरी से चढ़ना ठीक न समझा तो घृणापूर्वक ठुकराए गए। बस, फिर क्या था, हम दोनों गाड़ी में जा बैठे। स्टेशन मास्टर ने भी अपना फर्ज अदा कर दिया था, गार्ड से कहने मात्र से ही। उसे हमारी क्या फिक्र?मगर एक गरीब प्वांइट्स मैन ने कहा कि बीना से एक स्टेशन पहले ही आप लोग उत्तर जाइएगा, नहीं तो बीना में टिकट का झमेला होगा। उसने यह भी कहा कि वहाँ (पहले स्टेशन) का स्टेशन मास्टर भला है। ठीक ही है, प्वाइंट्समैन तो गरीब दुखिया था। फिर वह हमारे जैसे दुखियों का कष्ट क्यों न पहचानता?
(4)
सीनाजोरी और अजीब घटनाएँ
फिर तो चोरी के बजाए सीनाजोरी कर के हम लोग ट्रेन पर चढ़े। हमें जिद्द हो गई कि चाहे कुछ हो, चढ़े बिना नहीं मानेंगे। मैं तो इस प्रकार के अपने स्वभाव का उल्लेख पहले ही कर चुकाहूँ। मनुष्य को समय-समय पर निर्भीक, लापरवाह और साहसी तो होना ही चाहिए। नहीं तो फिर वह मनुष्य ही कैसा?खैर, हमारी ट्रेन चल पड़ी। तेज गाड़ी थी। दोपहर के पहले का समय था। शायद ज्यादा दिन न आया था। जब प्वाइंट्समैन के बताए स्टेशन पर ट्रेन लगी तो हम दोनों ही उसके कहे मुताबिक निश्चिंत हो कर उतरे ही थे कि हमसे स्टेशनवालों ने टिकट माँगा और न दे सकने पर स्टेशन मास्टर ने बिगड़ कर कहा कि ''ये दोनों चोर हैं, गार्ड साहब, बीना ले जा कर इनसे झाँसी (क्योंकि जंक्शन है) तक का चार्ज लीजिए'' फिर उसने हमें गार्ड के हवाले कर पुन: ट्रेन में चढ़ने को विवश किया। पता नहीं गार्ड ने क्या सोचा। उसने हमें ललितपुर में देखा तो था ही और 'केवल बच्चा' बताया था। वहाँ की बात उलटी हुई। जो स्टेशन मास्टर हमें शरण देनेवाला बताया गया वह पुलिस का पक्का आदमी जैसा निकला। शायद बेचारे प्वाइंट्समैन की जानकारी ठीक न थी, या इस बीच में पहला स्टेशनमास्टर बदल कर कोई नया आया था। मगर उस स्टेशन पर और किसी ने भी हमारे साथ हमदर्दी न दिखाई।
जो हो, हम लोग फिर ट्रेन में बैठे और थोड़ी देर में बीना पहुँच गए। ट्रेन लगते ही हम दोनों फौरन उतर कर जो फाटक पर पहुँचे तो टिकट जमा करनेवाले ने टिकट माँगा। हमने अपनी बात साफ कह दी और उसने कहा ''जाइए महाराज'' फिर क्या था, हमारी खुशी का ठिकाना न रहा। यहाँ भी उलटी बात हुई फँसने का खतरा पूरा-पूरा था। मगर बाल-बाल बचे। न जाने वह गार्ड बेचारा कहाँ रहा। हम तो स्टेशन के बाहर चले आए और हमें उसका पता क्या?शायद उसने पीछे हमारी खबर ली हो और सोचा हो कि शिकार भाग गया। पर हम तो सामने से आए और साफ कह के आए। कोई छिप-छिपाके तो आए नहीं। और हमारा कोई यह फर्ज भी न था कि गार्ड से कहने जाते, या उसकी इंतजार करते और उसके तशरीफ लाने पर ही बाहर आने की कोशिश करते। हमने तो उन सबों की ऐंठ और निराली समझ देख जिद्दवश यह मार्ग पकड़ा था और साहस के बल हम अपनी सफलता उन्हें दिखाना चाहते थे। सो तो सफल हुए ही।
स्टेशन से बाहर होते ही शहर की ओर चले, क्योंकि भोजन का समय हो गया था। हम यह जानते थे कि उधर शहरों में घीवालों की आढ़तें होती हैं। हमने यह भी अनुभव किया था कि घी-वाले हमारे जैसे साधुओं को देखते ही फौरन पूड़ी-मिठाई खिला कर विदा कर देते थे। बस, हम भी घी के एक आढ़तिया को ढूँढ़ते हुए पहुँचे और उसने फौरन हमें खूब डँट के मिठाई-पूड़ी का भोजन कराया। भोजन के समय भी और उसके बाद भी आज तक याद आने पर हमने सैकड़ों बार सोचा है कि यदि बीना से पहलेवाले स्टेशन पर ही हम उतर पड़ते और कोई छेड़ता नहीं, तो बीनावाली वह मिठाई-पूड़ी कौन खाता?मालूम होता है, उसी ने वहाँ बाधा डाल उतरने न दिया और बीना तक पहुँचा दिया। जहाँ झाँसी तक के चार्ज की वसूली तो खटाई में पड़ी रही ही उलटे हमने अच्छी तरह भोजन किया। ऐसे ही मौकों पर तो लोग भाग्यवाद और तकदीर का सहारा लेते हैं। ऐसे ही मौकों के अनुभव से किसी कवि ने कह दिया है कि,
'' अंदलीबो को कफस में आबोदाना ले गया ''
(5)
बावन घंटे के बाद
बीना से हम सागर की ओर बढ़े। क्योंकि हमें नर्मदा पार कर के नरसिंहपुर की देहात में कड़कबेल स्टेशन के पास माने गाँव जा कर वहाँ से खंडवा होते ओंकारेश्वर जाना था, जैसा कि पहले कह चुके हैं। रास्ता बिलकुल ही जंगली था। जंगली और तथाकथित छोटी कोमों के ही लोगों की बस्तियाँ कहीं-कहीं मिलती थीं। उनमें अगर कोई कहीं दीखने में अच्छे (सुखी) लोग मिलते तो वे प्राय: जैनी होते थे। फलत: भोजन मिलना मुहाल हो गया। हमें अपनी सारी जिंदगी और सारी यात्रा में वैसे कष्ट का सामना कभी नहीं करना पड़ा। बड़ी ही सख्त परीक्षा थी। गाँवों के लोग तुलसीकृत रामायण जैसी अत्यंत लोकप्रिय पुस्तक तक को नहीं जानते और हमसे प्रश्न करते थे कि आप लोगों की जाति क्या हैं?फिर खिलाता कौन?इसीलिए भूख से परेशान हो जाना पड़ता था। जिस प्रकार ललितपुर से पहले भूख की गर्मी से नाक से खून तक गिरने लगा था। वही हालत ईधर भी होने लगी। एक दिन तो यह नौबत गुजरी कि पूरे बावन घंटे तक हमें खाना न मिला। जब रास्ते में छोटे-छोटे जंगली करौंदों को तोड़ कर हमने खाना चाहा तो उनमें बीज ही बीज पाया। उससे पूर्व एक दिन छत्तीस या चालीस घंटे के भीतर दोनों को मिला कर सिर्फ एक छटाँक चना मिल सका था। तब कहीं भोजन मिला। खैर, बावन घंटों में हमें पूरे अट्ठाईस मील चलने भी पड़े। उसके बाद नर्मदा के किनारे के एक शहर में, जिसका नाम भूलता हूँ, हम पहुँचे। वहाँ एक दाक्षिणात्य ब्राह्मण के घर किसी भोज में हमें भरपेट अच्छा खाना मिला।
वहाँ पर ठीक उस भोजन के समय भी एक अजीब घटना हो गई। हम खा रहे थे। एक चतुर आदमी ने हमसे प्रश्न किया कि आपको रुपए भेजने हों तो हमसे कहिए, हम भिजवा देंगे। हम यह बात समझ न सके। उसने कई बार ऐसा ही कहा। तब हमने पूछा कि बात क्या है?आखिर में रहस्य खुला कि बहुत से गेरुवाधारी लोग रुपए जमा करते रहते हैं और बाल-बच्चों के पास भेजा करते हैं। उधर नर्मदा तट में ऐसा होता है और वह मनुष्य यह बात जानता था। इसी से उसने हमसे मन-ही-मन मजाक के रूप में ऐसा कहा। पर, उसे पता क्या हम पैसों से कितनी दूर थे। हमने उसे सब बातें स्पष्ट कह दीं। लेकिन हमारे जीवन में यह पहला ही मौका था जब हमने साधु-संन्यासियों के ऐसे घृणित कर्मों का पता पाया।
सागर के बाद रास्ते में एक और मजा भी आया। एक दिन हम पैदल चलते-चलते जंगल से गुजर रहे थे। वह बड़ा ही घना था। उसके बीच के सड़क से हम जा रहे थे। जाड़े के दिन थे। एकाएक शाम हो गई और किसी गाँव का पता न लगा। अंदाजा हुआ कि गाँव दूर है। बस, हमने पक्की सड़क पर जंगल में ही ठहर जाना ठीक समझा। मगर कपड़े कम थे और रात में जानवरों के खतरे भी थे। इतने में ही एकाएक हमें सड़क पर ही आग नजर आई। गाड़ीवान लोग वहीं ठहरे थे और जलती आग छोड़ कर चले गए थे। ऐसा हमें अंदाज लगा। बस, जैसे-तैसे लकड़ियाँ जला कर हमने रात काटी और अपनी जान बचाई। आग के पास जानवर नहीं आते यह हमें ज्ञात था। शाम से सुबह तक एक आदमी भी उस रास्ते आता-जाता न दीखा। इससे हमने समझा कि वह रास्ता रात के चलने का न था।
(6)
नर्मदा पार माने गाँव में
हमने नर्मदा के उत्तर तटवर्ती उस शहर में रात गुजारी और अगले दिन उसे पार किया। जीवन में पहलीबार उस नर्मदा माई का दर्शन हुआ जिसकी महिमा बहुत सुना करते थे। हमें बचपन में यह भी बताया गया था कि जो वैष्णव आचारी बहुत ही कट्टर होते हैं वह नर्मदा में पाँव नहीं देते। उनकी धारणा है कि नर्मदा में तो असंख्य शिवलिंग (शिवमूर्तियाँ) हैं। अत: उनके संपर्कवाला जल स्पर्श करने से धर्म चला जाएगा। वैष्णवों और शैवों की इस नादानी और मूर्खतापूर्ण कट्टरता को क्या कहा जाए?धर्म के नाम पर ही ऐसी बेवकूफी संभव है।
खैर, हमने नर्मदा की तेज धारा की अनवरत रगड़ से गोल और चिकने पत्थरों का समूह वहाँ देखा और समझ लिया कि इन्हें ही शिवलिंग के नाम से पूजा जाता है। नर्मदा पार हो कर नरसिंहपुर पहुँचे और रात में वहीं ठहरे। दूसरे दिन पूर्व की ओर चले और ख्याल नहीं कि एक या दो दिनों में मानेगाँव पहुँचे। इसका उल्लेख पहले किया है। आगे बढ़ने के पूर्व यह कह देना है कि लगातार कई महीनों के मस्ताना पर्यटन ने हमें पक्का बना दिया। अनुभव भी खूब हुए। पहले तो हमें भूख इतना सताती थी कि बेचैन हो जाते थे। अगर एक समय भोजन न मिले तो आफत। एकादशी या उपवास करना भी असंभव था। फलाहार करने पर भी हम तिलमिला जाते थे। मगर यह सभी बातें जाती रहीं। अब तो यदि चौबीस घंटे में एक बार भोजन मिल जाता तो हम मस्त रहते।
नरसिंहपुर जिले (मध्यप्रांत) के मानेगाँव नामक ग्राम में एक बहुत ही संपन्न क्षत्रिय मालगुजार रहते थे। बिहार, बंगाल, युक्तप्रांत के जमींदारों के ही स्थान पर करीब-करीब उनके जैसे ही मध्यप्रांत के मालगुजार होते हैं। खेद है, मैं इस समय उनका नाम भूल रहा हूँ। उनके चार सुयोग्य लड़के थे जब हम वहाँ पहुँचे। हमारे साथी एक बार गृहस्थ की दशा में जा चुके थे। इसीलिए फिर हम दोनों गए। वे संन्यासियों के बड़े ही सेवक थे। पहले तो नहीं, पर, पीछे हमारे साथी को उन्होंने पहचाना और उन्हें संन्यासी देख खुश हुए। उन्होंने घर के सामने ही लंबेबाग में दो मंदिर शिव और विष्णु के पूर्व पश्चिम बनवा रखे थे। उन दोनों के बीच में पक्की लंबी फर्श थी। इससे साफ था कि उनके यहाँ शैव वैष्णव के झगड़े की नादानी की गुंजाईश न थी। स्वयं उन्हें वेदांत-दर्शन का बड़ा-ही शौक था। हालाँकि, संस्कृत के अनभिज्ञ थे। लेकिन वेदांत के जितने ग्रंथ हिंदी में लिखे गए, या संस्कृत आदि से जिनका कहीं भी अनुवाद हिंदी में हुआ था उन्हें उनने ढूँढ़ कर मँगा लिया था। इतना ही नहीं सबों को पढ़ा और समझा था। उनके गुरु एक अच्छे विद्वान विरक्त संन्यासी थे। उनसे ही उन्होंने सब ग्रंथ पढ़े थे और ज्ञान प्राप्त किया था। इसीलिए उस संन्यासी के और उसके करते अन्य संन्यासियों के भी परम भक्त वे बन गए थे।
उस विरक्त महात्मा की भी विचित्र कथा है। हमसे बाबू साहब ने कहा कि लाख कोशिश करने पर भी वे यहाँ ठहरते ही नहीं। महीना-आधा महीना रह के चुपचाप निकल जाते हैं और भटकते फिरते है, कष्ट भोगते हैं। फिर कुछ दिनों बाद अचानक आ जाते और उसी तरह चले भी जाते हैं। सौभाग्यवश वे वहीं थे उसी सामनेवाले बाग में जो सुंदर पक्का बँगला था उसी में ठहरते थे। हम लोग उनसे मिलने गए। देखा कि बँगले के भीतर दीवारों में अलमारियाँ बनी हैं और उनमें पुस्तकें सजी-सजाई हैं। ठाकुर साहब की सभी पुस्तकें यहीं थीं। महात्मा जी संस्कृत पढ़े-लिखे थे। हमारे वार्तालाप में उनने बताया कि क्यों बराबर वहाँ टिकते नहीं।
उनका कहना था और हमारे आज तक के अनेक अनुभवों ने उसे ठीक माना है कि गृहस्थ लोग पहले तो खूब ही प्रेम करते और जी-जान से सेवा करते हैं। वे ऐसा करते-करते विरागी साधु-संतों को फँसा लेते हैं। लेकिन जब देखते हैं कि ये महात्मा लोग एक प्रकार से उनके आश्रित और आलसी बन गए, फलत: बाहर जा नहीं सकते तो जान या अनजान में अनादर करना शुरू कर देते हैं। साधु बेचारा भी लाचार बर्दाश्त करता है। क्योंकि आराम के जीवन ने बहुत दिनों के बाद साधारण गृहस्थ और उसमें वस्तुगत्या कोई अंतर रख छोड़ा ही नहीं। इसलिए कहीं चले जाने में उन्हें कष्टों और भूख-प्यास का महान भय सताता रहता है। इस पर हमने उनसे कहा कि इन बातों को जानते हुए भी आप कैसे फँस सकते हैं?सजग रहिए और जब ऐसा देखिए तो सटक सीताराम हो जाइए। यों रह-रह के भागने का क्या मतलब?आप अपने को इतना दुर्बल दिल का क्यों मानते हैं कि फँस जाएगे?उन्होंने उत्तर दिया कि जब बिजली एकाएक चमकती है तो मजबूत से मजबूत दिलवालों की आँखें खामख्वाह झप जाती है। यही हालत इंद्रिय-सुखों की है। वे बड़े से बड़े त्यागी, विरागी और विवेकी तक को फँसा लेते और बंधन में डाल देते हैं। इसीलिए मैं रह-रह के बाहर भागता और क्षुधा-तृषा आदि के कष्टों का सामना करता हुआ अपने को भीतर और बाहर दोनों ही तरफ से दृढ़ रखना चाहता हूँ। बात तो ठीक ही है। हमने सह्त्रो संन्यासी देखे हैं जो प्रारंभ में विरागी और त्यागी होते हुए भी इसी प्रकार सांसारिक बन गए। हालाँकि, अंत तक अपने आप को महात्मा ही समझते रहे।
उस त्यागी संन्यासी का उसके प्राय: वर्षों बाद अचानक दर्शन हमें हृषीकेश में मिला। मगर फिर वहाँ से भी वे एकाएक चलते बने। जहाँ तक स्मृति बताती है। हम लोग मानेगाँव महीनों रह गए। वहाँ खूब वेदांत चर्चा होती थी। ठाकुर साहब चतुर और पठित पुरुष थे। इसलिए तर्क-वितर्क और वेदांत के सूक्ष्म प्रश्नों पर उनसे वार्तालाप खूब ही होता था। ठाकुर साहब का कहना था कि यथाशक्ति मैं चार दान करता हूँ। बाहर से जो कोई साधु-फकीर या भूखा-नंगा आता है उसे अन्न-वस्त्र देता हूँ। कोई भी निराश लौटने नहीं पाता। मुक्त दवा देने का भी प्रबंध कर रखा है, जिससे देहातों में असहायों को औषधि दान कर सकूँ। पुस्तकालय और वेदांत ग्रंथों का संग्रह कर के लोगों को ज्ञान देता हूँ। आनरेरी मजिस्ट्रेट की हैंसियत से निष्पक्ष और सुलभ न्याय का दान करता हूँ। बातें भी ठीक ही थीं। हमने अपनी आँखों देखा। अपने चारों सुपुत्रों को भी उनने यही शिक्षा दी थी कि बराबर चारों दान जारी रखें। इस प्रकार मैंने उन्हें कोरा वेदांती नहीं पाया। किंतु वेदांत ज्ञान का व्यावहारिक रूप उनमें देखा। असल में वे आदर्श गृहस्थ थे।
काश, और लोग भी उनसे यह शिक्षा ग्रहण करते और वैसे ही वेदांती हमारे देश में असंख्य पाए जाते! यहाँ तो वेदांत ज्ञान विषयलालसा, धन संग्रह और कर्तव्य विमुखता का साधन बन गया है। वेदांती कहा करते हैं कि हम तो अखंड निर्लेप ब्रह्मस्वरूप हैं। हमारा कोई कर्तव्य है नहीं। कहते हैं कि वेदांतियों के मुहल्ले में कोई मुर्गी कहीं से भटक कर आ निकली तो उन्होंने उसे उदरस्थ कर लिया और पीछे पूछने पर उत्तर दिया कि संसार तो स्वप्नवत मिथ्या है। फिर तुम्हारी मुर्गी कहाँ से आई?
मैं भी जब आज इतने दिनों के बाद उक्त ठाकुर साहब के चारों दानों और वेदांत ज्ञान का विचार करता हूँ तो अपने ऊपर तरस आता है कि उन दिनों तो मैं पक्का वेदांती था, फिर भी उन जैसा कर्तव्यपरायण और व्यावहारिक मनुष्य क्यों न बना?आखिर उन्हें देख कर भी मुझे यह अक्ल बहुत दिनों तक-प्राय: दस वर्षों तक-क्यों न सूझी और भटकता फिरा?असल में मेरा वेदांत तब अपरिपक्व था और उनका था परिपक्व। इसी से मुझे तब यह बात न सूझी। पीछे परिपक्व होने पर सूझी है। लेकिन मैंने उनके उन चारों दानों को हृदय से पसंद किया यह इसकी सूचना थी कि मेरे भीतर कोई प्रसुप्त सी चीज है जो कालांतर में उस ओर मुझे घसीटेगी।
अस्तु जीवन में पहली बार वहीं पर हमने खीर खाई जिसमें नमक भी मिला था। कहा गया कि ईधर यह चाल है। पता नहीं, अब है या नहीं।
(7)
ओंकारेश्वर की ओर
महीनों बाद एक दिन हमने ठाकुर साहब से विदाई ली और फिर पश्चिम की ओर चल पड़े। खंडवा जाना था। जहाँ तक हमें याद है, बाबू साहब ने कड़कबेल स्टेशन पर अपने आदमी को भेज हम-दोनों के लिए खंडवा या ओंकारेश्वर तक का टिकट दिलवा कर ट्रेन पर चढ़ा दिया। अत: हम आसानी से ओंकारेश्वर तो जरूर पहुँच गए। परंतु भ्रमणवाला मजा न मिल सका। खंडवा से छोटी लाइन ओंकारेश्वर होती उज्जैन की तरफ जाती है। हम उसी से ओंकारेश्वर पहुँच गए। नर्मदा जी में स्नान कर के मध्यधार में स्थित पहाड़ी पर जा कर बाबा ओेंकारेश्वरनाथ जी का दर्शन किया और उन पर नर्मदा जी का जल चढ़ाया।
लोग कहते हैं कि श्री शंकराचार्य और श्री मंडन मिश्र का जो प्रसिद्ध शास्त्रर्थ हुआ था और जिसमें हार कर श्री मंडन मिश्र श्री सुरेश्वराचार्य के नाम से शंकर के शिष्य हो गए थे, वह माहिष्मती पुरी में हुआ था। शंकर दिग्विजय में लिखा भी गया है कि ''माहिष्मतीं मंडन मंडितां स:''। हमने ओंकारेश्वर में ही माहिष्मती का पता पाया जो उससे कुछ पश्चिम नर्मदा के तट पर है। उस 'विजय' में यह भी लिखा है कि रेवा (नर्मदा) की लहरों से शीतल वायु माहिष्मती में बहती थी─रेवा मरुत्कंपित सालमाल:। फिर समझ में नहीं आता कि मिथिला में क्यों कर मंडन मिश्र को घसीटने की कोशिश होती है। शायद 'मिश्र' उपाधि देख कर ही। परंतु हजारों वर्ष पूर्व आजवाली वंश-परंपरागत मिश्रादि उपाधियों का तो नाम भी न था। तब तो (मिश्र) और (पाद) शब्द आदर और विद्वत्ता के अर्थ में कभी-कभी प्रयुक्त होते थे। ऐसा मुझे पुराने ग्रंथों में मिला है।
ओंकारेश्वर जी के दर्शन के बाद हमें बाबा कमलभारती जी के दर्शन की चिंता हुई। वह वहीं पर नर्मदा के उत्तर तट में जंगलों में कुटी बना कर रहते और योगाभ्यास करते थे। ऐसा हमें बताया गया था। परंतु वहाँ पूछने से पता चला कि वे योगी-ओगी न थे। उन्होंने तो केवल औषधियों और संयम के बल से कालाकल्प मात्र किया था। इससे तगड़े एवं हृष्टपुष्ट हो गए थे। इसी से उनके भक्तों ने उनके योगी होने की घोषणा कर डाली थी। लेकिन गाँव-घर और पास-पड़ोस के लोग तो आदमियों या वस्तुओं का पूरा आदर नहीं करते हैं यह समझ हमने पूछा कि उनके शिष्य कोई हैं या नहीं। बताया गया कि एक नागा नौजवान खूब खाक रमानेवाले उनके उत्तराधिकारी हैं। बस, हमारे लिए यह काफी था और हम उस कुटिया पर गए। पता लगा कि नागा महाराज गुफा में बंद हैं, पीछे निकलेंगे, शाम को या रात में। हमने समझा योगाभ्यास करने गए होंगे। अत: रात में वहीं ठहरना पड़ा। जब निकले तो उनसे बातें होने पर वे कोरे साबित हुए। हमें पता लगा कि कमल भारतीवाली गुफा में घुस कर वे खूब सोते और आराम करते हैं। इसे ही सीधे-सादे भक्तजन मानते हैं कि योगाभ्यास करते हैं। बस, इतने से उनकी पूजा-प्रतिष्ठा होती रहती है।
वहाँ हमें जो निराशा हुई वह वर्णनातीत हैं। जिस बात के लिए इतनी खाक छानी और अपार कष्ट झेले वह बेबुनियाद सिद्ध हुई। लेकिन बस था ही क्या?हमने देखा है कि यों ही योगी और सिद्ध महात्मा होने की प्रसिद्धि करा के धार्मिक और अंधविश्वासी आसानी से संसार में ठगा जाता है। फिर भी इस पहले धक्के से हमारा विश्वास सच्चे योगियों के अस्तित्व से न डिगा और हमने आगे बढ़ने की ठानी।
जब वहाँ से उत्तर पैदल ही बढ़े तो होल कर (इंदौर) की रियासत में हो कर चलने लगे। एक स्थान, जिसका नाम हम ठीक याद नहीं कर पाते, पर शायद बढ़वान है, में हमें एक सुंदर जगह मिली। वहाँ एक पतला झरना बह कर सुंदर कुंड में गिरता दीखा। लोगों का कहना है, यह सरस्वती की धारा है। इसीलिए तीर्थ स्थान की तरह वहाँ लोग स्नानादि करते हैं। यह सरस्वती विचित्र हैं। जगह-जगह इसकी धाराएँ बताई जाती हैं। कहते हैं कि यह नदी तो गुप्त है। केवल स्थान-स्थान पर प्रकट हो जाती है। हम आगे फिर इस सरस्वती की बात लिखेंगे जो सिद्धपुर में, जहाँ कपिल महाराज ने अवतार लिया, ऐसा माना जाता है, दूर तक फैली हुई बहती है। हालाँकि, उसमें जल नाममात्र को ही रहता है। फिर मेहसाना के निकट पाटन (बड़ौदा-स्टेट) में भी हमें वही सिद्धपुरवाली धारा मिली।
खैर, जो हो, वहाँ रह के हम आगे बढ़े और मऊ छावनी होते खास इंदौर में पहुँच गए। उधर हमने जैन मतवालों के स्थान और मकान बहुत देखे और मंदिर भी। उनके साधु भी नजर आए। वे नाक के ऊपर से एक छोटे कपड़े का पर्दा मुँह के नीचे तक लटकाए रहते हैं। एक लंबे धागे में छोटा कपड़ा लगा कर धागा सिर के पीछे बाँध देते हैं और कपड़ा नाक-मुँह पर लटका रहता हैं। कहते हैं कि उससे गर्म साँस दूर तक फैल कर वायु में व्याप्त जीवों का नाश नहीं कर पाती। यह और कुछ नहीं सिर्फ अहिंसा की पूजा का नतीजा है! वे छोटे डंडे में बँधे सूतों के गुच्छेवाली झाड़ू भी साथ में रखते हैं। उन्हें जहाँ बैठना होता हैं उसी से झाड़ कर बैठते हैं, ताकि कीड़े-मकोड़े दब कर चूतड़ के नीचे मर न जाएँ! सूत की झाड़ू नरम होती हैं। इससे उससे कीड़े नहीं मरते। मगर चलने में क्या होता है?वहाँ कौन सी झाड़ू दे कर पाँव उठाते और डालते हैं?यदि चलना-फिरना और साँस लेना ही बंद कर दिया जाए तभी उनकी अहिंसा शायद पूरी होगी। वे लोग हाथ में एक लंबा काष्ठ दंड भी रखते हैं। उसका अभिप्राय गलत या सही मुझे बताया गया कि मार्ग में कहीं विष्ठा मिलने पर वे उसी से उसे फैला देते हैं, ताकि शीघ्र सूख जाए, जिसके सड़ कर उसमें कीड़े पैदा होने और मरने से बच जाए। औरतें भी उसी सूरत में मिलीं। कुछ जैन साधु-साधुनियों को श्वेत वस्त्र पहने देखा और कुछ को पीत। मगर सिर पर बाल शायद ही किसी को रहा हो। जैसे लंबे ज्वर के बाद सिर के बाल गिर पड़ते हैं और एकाध ही जहाँ-तहाँ नजर आते हैं और चेहरा भी पीला एवं मनहूस नजर आता हैं। हू-ब-हू वही हालत सबों की देखी! कहते है कि नहाने धोने में देह, वस्त्रादि मलने-दलने से हिंसा होती है। इसीलिए वे लोग शायद ही कभी नहाते हों। फलत: देह में गर्मी ज्यादा रहने से चेहरा फीका पड़ जाता और बाल गिर पड़ते हैं। बात क्या है, कह नहीं सकता। मगर सबों की सूरत देख कर मुझे हैंरत हुई कि वह धर्म किस काम का जिसमें जीते जी ऐसी दुर्दशा हो?कम-से-कम शरीर चुस्त हो, चेहरे में रौनक हो, वह हँसता हो, शरीर-वस्त्रादि स्वच्छ हों तो समझा जाए कि मन भी स्वच्छ और स्वस्थ होगा। क्योंकि मन का घर तो शरीर ही हैं और अगर घर ही डगमग या गंदा है तो उसमें रहनेवाले की क्या हालत होगी यह सहज ही जान सकते हैं।
सन 1907 के जाड़ों के दिन थे, या कि सन 1908 का श्रीगणेश था, कह नहीं सकता, जब हम इंदौर पहुँचे। वहाँ हमने बादशाही बाग में पले चीते वगैरह देखे। उन्हें लोहे के घेरे के भीतर रोज मांस खाने को दिया जाता था। हमने एक दिन देखा कि भीतर घुस के एक मेहतर सफाई कर रहा था। जब बड़ा-सा चीता उसकी ओर चला तो उसने हाथ में रखी पतली-सी मामूली छड़ी से उसे मारा और वह हट गया! हमें आश्चर्य हुआ। शायद वही रोज चीते को मांस देता था। इसलिए एक प्रकार का नाता जुट जाने से चीता उसका लिहाज करता था। नहीं तो पतली लकड़ी की परवाह न कर उसे चबा जाता।
जाड़ों में हमारे ओठ फटने लगे थे। इसलिए आँख के सिवाय सभी चेहरों को कपड़े से ढँक कर हम चलते थे। एक दिन रास्ते में इंदौर राज्य की पुलिस ने हमसे कहा कि मुँह खोल कर चलना होगा शायद उसे ख्याल हो कि हम कोई भगोड़े या फरार मुँह छिपाए चल रहे हैं। लेकिन हम तो दो ही एक रोज में वहाँ से आगे उज्जैन की ओर बढ़ चले। फलत: पुलिस से कोई भिड़ंत हमारी न हो सकी।
(8)
महाकाल का दर्शन
आखिर चलते-चलाते और रास्ते में अनेक कष्ट भोगते, क्योंकि खाने-पीने में प्राय: कष्ट होता था, हम हिंदुओं के द्वादशज्योतिर्लिगों में गिने जानेवाले बाबा महा कालेश्वर की पुरी उज्जैन में पहुँचे। जाड़ों के ही दिन थे। रास्ते में कई महीने से हमारे सिर के बाल नहीं बने थे। साथ ही, धूल पड़ने से सिर की अजीब दशा थी। हमें जरूरत थी कि कोई चतुर हजाम हमारा सिरमुंडन करे और हमें शांति दे। एक बूढ़ा नाई मिल ही तो गया। सिर पर पतली-सी पगड़ी बाँधे हुए। उसकी बात हमें भूलती नहीं। वैसा चतुर और कारीगर नाई हमें तो फिर नहीं मिला। पतले से छुरे से बात की बात में धूल मिट्टी से लदे हमारे सिर को उसने साफ कर दिया। छुरा भी उतना ही तेज और अच्छा था। सिर पर एक किनारे से दूसरे तक सर्रसर्र चलता था जैसे कोई बेफिक्र घास गढ़ता हो। हमने हजाम को भर पेट धन्यवाद दिया।
उज्जैन में क्षिप्रा नदी है जिसे सिप्रा भी कहते हैं। वह राजा भोज की पुरी भी मानी जाती है। हमने पुराने गढ़ आदि देखे। बाबा महाकालेश्वर शिव का दर्शन किया। वे बहुत ही छोटे-से मंदिर में उस समय थे। सिप्रा में स्नान करते, दर्शन करते और जूना महाकाल के मंदिर में रात में ठहरते थे। कहते हैं कि महाकाल दो है। आजकल नए महाकाल की ही प्रतिष्ठा और पूजा है। जूने (पुराने) महाकाल को अब लोगों ने छोड़-सा दिया है। उन्हीं के मंदिर में हम रहते थे। मंदिर सादे पत्थरों का था। बहुत पुराना नहीं मालूम होता था। हालाँकि जूना कहे जाने से तो उसे पुराना ही होना चाहिए था। हमें ठीक-ठीक स्मरण नहीं कि कितने दिन वहाँ ठहरे। लेकिन शायद पंद्रह दिन या ज्यादा ठहरे होंगे। फिर हम ऊब गए और आगे प्रस्थान करने की हमने सोची।
अब मथुरा पहुँचने का हमारा विचार हुआ और इसी दृष्टि से उज्जैन से निकल पड़े। आगे एक विचित्र घटना हुई। शाम के समय शायद उसी दिन या दूसरे दिन एक शहर में पहुँचे। खा-पी चुके थे ही और चौबीस घंटों में एक ही बार खाते थे। इसीलिए शहर के भीतर न जा कर बाहर ही एक मंदिर पर ठहरे। वहाँ एक पत्थरों की बनी गुफा थी। सोचा इसी में कुछ समय ठहरेंगे। शहर में भिक्षा एक बार करेंगे और यहीं अभ्यास करेंगे एकांत में। पास में ही कुछ हट कर एक लंबे तालाब के तट पर हमने राख की ढेरें देखीं। पूछने से पता चला कि जैनी लोग अपने मुर्दों को यों ही लकड़ी और उपलों के बीच में रख के जलाते और वहीं छोड़ देते हैं। राख को कहीं और नदी-नाले में नहीं बहाते।
अस्तु, दूसरे दिन खाने के समय जब हम शहर में गए तो अजीब बात हुई। चारों ओर जैनी लोग ही नजर आए। ब्राह्मण या हिंदू कहीं एकाध दीखे, सो भी गरीब। फलत: हमें किसी ने भी खाने को न पूछा। हमारे सब मनोरथों पर पानी फिर गया। लाचार हम वहाँ से रवाना हो गए और पक्की सड़क पकड़ कर पूर्व ओर बढ़े। तीसरे पहर एक और गाँव में हमने कुछ खाने की कोशिश की। मगर असफल रहे। फिर तो हमने उस दिन और यत्न करना छोड़ ही दिया।
(9)
वह भोजन
शाम होते-होते एक गाँव में पहुँचे और जैसा कि उधर का कायदा है, किसी के दरवाजे पर न ठहर कर गाँव के बीच में बनी मिट्टी की धर्मशाले में जा ठहरे। नहीं खाने-पीने से कुछ मनहूसी तो थी ही। इतने में एक ने आके पूछा कि आप लोग कौन हैं। हमने बताया। उससे पूछने पर उसने अपने आपको ब्राह्मण बताया। फिर चला गया। हम भी सब आशा छोड़ सोने की कोशिश में मुँह ढँके पड़े थे। रात के नौ-दस बजे होंगे। अचानक उसने आके हमें जगाया और कहा कि चलिए भोजन कीजिए। उस समय की हम अपनी मनोवृत्ति का क्या वर्णन करें। हमने समझा कि यह भगवान हैं या कौन हैं। खैर, हम दोनों उसके घर गए। पहले तो गर्म पानी से उसने हम दोनों के पाँव धोए। इस प्रकार जाड़े के रास्ते की थकावट हटाई। फिर खाना परोसा। उसकी पत्नी ज्वार की पतली-पतली रोटियाँ बनाती जाती थी और गर्मागर्म रोटियाँ हमें वह ब्राह्मण देता जाता था। कुछ गुड़, कोई साग और कुछ ऐसी ही चीजें थीं जिनका उन रोटियों से मेल मिलता था। हमने खूब खाया-बहुत ज्यादा खाया। वह रोटियाँ इतनी मीठी लगीं कि अब तक भूलीं नहीं। एक तो भूख थी दूसरे उसकी अपार श्रद्धा थी। तीसरे उधर ज्वार ही ज्यादा होती है और वे लोग उसकी रोटियाँ बनाना जानते हैं। इन तीनों के करते उसमें मिठास बेहद था। भोजन के बाद हमने हृदय खोल के उस गरीब ब्राह्मण को आशीर्वाद दिया। जिंदगी में वह एक ही घटना थी और आशीर्वाद भी फिर हमने कभी किसी को उस प्रकार दिया ही नहीं। सिवाय एक और के जो आगे मिलेगा। फिर रात में धर्मशाले में सोए और सुबह चुपचाप रवाना हो गए।
(10)
गुरुडम की माया
हम एक बात कहना भूल गए। असल में समय का नोट हमारे पास नहीं होने से यह बात हो गई। उज्जैन आने के पहले हम मध्यभारत की एक छोटी-सी रियासत राजकोट में पहुँचे।राजकोट कई होने के कारण उसके पास के ब्यावरा नामक स्थान को मिला कर उसे राजकोट ब्यावरा कहते हैं। ब्यावरा में हमने एक वैष्णव मठ में देखा कि एक साधु दिन में कभी भूमि पर बैठता या लेटता न था ─बराबर खड़ा ही रहता था। कहते थे कि बारह वर्ष तक ऐसा ही रखने का उसने संकल्प किया है। रात में सोने के समय एक ऊँचे चबूतरे पर सिर रख के गर्दन झुका देता और उसे हाथ से पकड़ के कुछ सो लेता। उसके घुटनों के नीचे स्थान-स्थान पर जख्म हो गए थे जिनसे पानी जैसा निकलाकरता था। वह स्थान फूले से थे। नश्तर के जरिए वह स्वयं उन भागों से खून या पानी निकलवाया करता था। उसके द्वारा प्रकृति पुकारती थी कि बैठो, सोओ। मगर उसका हठ था कि नहीं। सुनते हैं, बारह वर्ष तक बराबर खड़े रहनेवाले वैरागी साधु (ठड़ेसरी) कहे जाते और किसी महंत के मठ में अधिकारी होने के हकदार हो जाते हैं। इस तपस्या से मुक्ति तो निकट होई जाती है। कैसी मूर्खता और अंधभक्ति है। धर्म के नाम पर क्या नहीं हो सकता है।
जब हम राजकोट पहुँचे तो दैवात भोजन का समय होने से राजा के दीवान के घर जा पहुँचे। एक कायस्थ महाशय उनके दीवान थे। हमारे भोजनादि का प्रबंध उनने किया। उसके बाद कुछ धर्मचर्चा चली। उन्होंने हमसे पूछा कि गीता जानते हैं?हमारा उत्तर था कि वह तो हमारी खास चीज है। बस, अब क्या था, उन्होंने हमें बड़े प्रेम से रोका और कहा कि राज दरबार में गीता के एक श्लोक को ले कर परेशानी है। उर्दू, फारसी, अंग्रेजी आदि की कई टीकाएँ हैं। मगर राजा साहब को उनसे संतोष नहीं हो रहा है। काम रुका-सा है। मैं जा कर खबर देता हूँ। फिर आप लोग वहाँ बुलाए जाएगे। इतना कह के वे चले गए। पीछे हमारी बुलाहट दरबार में हुई। हम गए और बहुत आदर के साथ बैठाए गए। गीता के─ ''कर्मण्यकर्म य: पश्येदकर्मणि च कर्म य:। स बुद्धिमान मनुष्येषु स युक्त: कृत्स्नकर्मकृत'' (4। 18) श्लोक पर ही वहाँ झमेला था। हम लोगों ने फौरन उसे सुलझा दिया और देर तक व्याख्या कर के सभी को संतुष्ट किया। फिर तो हमारी बड़ी प्रतिष्ठा हुई। दीवान जी को राजा साहब ने कहा कि महात्मा लोगों को आराम से यहाँ रखिए कुछ दिनों तक जरूर।
वहाँ से दीवान साहब के घर आए। वहाँ पर उनकी बूढ़ी माँ ने हठ किया कि मैं अभी तक गुरुमुख नहीं हुई हूँ। मुझे मंत्र दे दीजिए। घर के और लोग भी चाहते थे। धीरे-धीरे वह बाजार बढ़ता जैसे कि लक्षण थे। हम बुरी तरह घबराए और सोचा कि कहाँ आ फँसे। ख्याल आया कि अब तो राजधनी के बहुत लोगों के साथ और राजा के साथ भी फँस के यहीं रह जाना पड़ेगा। फलत: 'आए थे हरिभजन को, ओटन लगे कपास' चरितार्थ होगा। दो-बार दिन तक हमने टालमटूल किया कि अब मंत्र देंगे, तब मंत्र देंगे। फिर एक दिन तड़के वहाँ से चुपचाप भाग निकले। इस प्रकार उस महाजाल से बचे।
उस दिन वहाँ से चल के कुछ दूर पर जालखेड़ी या कुछ ऐसे ही नाम के गाँव में जा पहुँचे। वहाँ एक वैश्य सज्जन वेदांत के सत्संगी थे। वह राजकोट से भी संबंध रखते थे। वहीं पर कुछ दिन ठहर गए। वहीं जाड़े की अधिकता के कारण चाय पीने की परिपाटी मालूम हुई। हमें भी कुछ कह-सुन के एक-दो बार चाय पिलाई गई। जीवन में यह चाय पीने का दूसरा अवसर था। आखिर जब हमारी पेशाब में सुर्खी नजर आने लगी तो सभी घबराए तब कहीं हमें चाय से फुर्सत मिली। फिर तो सुर्खी जाती रही, और हमने सदा के लिए चाय महारानी से असहयोग कर लिया।
हमने उधर यह भी देखा कि लालमिर्च लोग बहुत ही खाते हैं। एक आदमी के खाने में उसकी मात्रा एक छटाँक तो होती ही है। हम भी अपेक्षाकृत कुछ ज्यादा ही मिर्चा खा जाते थे। फलत: पाखाने के समय गुदामार्ग में एक प्रकार की जलन सी होती थी। हर चीज में वह पड़ती थी ही और कोशिश करने पर भी उससे बचना असंभव हो जाता था।
(11)
मथुरा की तरफ
हाँ, तो उस गरीब ब्राह्मण के घर रात में ज्वार की रोटी का सबसे मीठा भोजन कर के हम लोग अगले दिन आगे बढ़े। कुछ दूर चलने के बाद किसी रेल्वे स्टेशन पर एक सज्जन ने ट्रेन में बिठा दिया जिससे हम लोग मथुरा चले आए। ब्रज में घूम-घाम कर हाथरस के रास्ते गंगा तट पहुँच हरद्वार जाने का निश्चय किया। वहाँ से हृषीकेश होते बदरीनारायण के दर्शनों का विचार था। हाथरस में हमें पहली बार ऐसा गहरा कुआँ मिला जिसमें साठ हाथ से कम गहराई में पानी न था। हमारी लंबी रस्सी खत्म हो गई! फिर भी हमारा कमंडलु (जलपात्रा, जो दरियाई नारियल का होता है) पानी तक पहुँच न सका। हमें पास के कपड़े जोड़ कर किसी प्रकार पानी निकालना पड़ा। यह भी एक अनुभव था कि इतनी गहराई से पानी निकलता है। बंबई के पास टापुओं में सिंघाड़े की तरह की एक चीज पानी में होती है। फर्क यही है कि उसके फल बहुत ही लंबे होते और दो-दो एक में जुटे होते हैं। वही दरियाई नारियल है। वह बड़ा ही सख्त होता है, ऐसा कि काटना मुश्किल है। वजनी भी होता है और पानी रहने पर सड़ता भी नहीं। उसके भीतर की गूदी (गिरी) दवा के काम आती है और ऊपर का ढाँचा कमंडलु वगैरह के काम। कहते हैं कि उस गिरी या अंततोगत्वा कमंडलु को ही घिस कर पिला देने से हैंजे का शमन होता है। संन्यासी लोग, और अब तो दूसरे साधु भी, वही कमंडलु, उसमें काठ का हैंडल वगैरह लगा कर अपने काम में लाते हैं। संन्यासियों को धातु के पात्रा रखने की आज्ञा शास्त्रों में नहीं है, ऐसा माना जाता है।
(12)
हमारे साथी की कहानी
अपने साथी श्री हरिनारायण जी के बारे में यहीं पर कुछ कह देना चाहता हूँ, घर में उनको कोई लड़का न था। सिर्फ लड़कियाँ, स्त्री और फूआ थीं। फूआ बूढ़ी विधवा थीं और वहीं रहती थीं। वे कभी-कभी एकाध पत्र स्त्री को सांत्वना देने के लिए लिख दिया करते थे और यह साफ नहीं लिखते थे कि संन्यासी हो गए। मैं यह चीज पसंद नहीं करता था, पर करता क्या?वे श्रेष्ठ थे और मुझे बहुत कुछ उनने सिखाया था। फिर भी मैंने यहाँ तक ख्याल नहीं किया कि उसका परिणाम बहुत दूर तक जाएगा। लेकिन हुआ वही। जब सन 1908 ई. में हम और वह बदरीनारायण की यात्रा में अलग हो गए तो वह वहाँ से लौट कर घूमते-घूमते काशी आए, घर जा पहँचे और गाँव से दूर कुटी बनवा कर रहने लगे। पीछे तो गेरुआ फेंक कर गृहस्थ भी बन गए! बहाना यह निकाला कि जमीन-जायेदाद की कोई लिखा-पढ़ी न होने के कारण स्त्री को कष्ट होगा और दूसरे संबंधी जायेदाद ले लेंगे। उन्होंने जायेदाद की लिखा-पढ़ी की। शायद एकाध संतति भी पैदा की। फिर दोबारा संन्यासी बने और मुझसे मिले। इस बार मेरे गुरु जी से ही दंडी बने। तब तक मैं भी दंडी हो चुका था। यह बात यथास्थान आगे आएगी।
मैंने काशी में दर्शन काफी पढ़े और व्याकरण भी। फिर दोनों साथ ही भ्रमण के लिए निकले। साथ में बहुत ज्यादा दर्शन ग्रंथों का गट्ठर भी लाद लिया। क्योंकि इस बार उन्हें ये ग्रंथ पढ़ने थे और मुझ पढ़ाने। अंत में गुजरात में वर्ष के कई मास पाटन में रह के वे फिर मुझसे अलग हो गए। मैं तो काशी फिर आ गया और वे भी कुछ दिनों के बाद पुन: घर पहुँचे और वहीं रह के संन्यासी के वेष में ही गृह प्रबंध करने लगे। मुझे खबर लगी तो वहाँ गया और वे मुझसे मिले। मैंने समझाया कि यह पाखंड क्यों करते हैं, गृहस्थ बन कर रहिए और फिर यहाँ से न हटिए। उन्होंने बात मान लीव। लेकिन कुछ दिनों बाद फिर संन्यासी बने और आखिर में पुन: घर आ गए तब से बराबर वहीं रहने लगे।
ईधर जब कभी भेंट हुई मैंने उन्हें साहस बँधाया। मैं जानता था कि उनमें यह कमजोरी है। इससे वे लज्जित भी बहुत रहते थे। अच्छे विद्वान और धर्म-कर्म के ज्ञाता हो कर भी उनकी यह दशा हुई। इससे हमें शिक्षा मिलती है। उनकी पहली बार जो यह हरकत हुई और घर चले गए उससे मेरे संबंधियों को भी साहस हुआ कि मुझ पर भी दबाव डाल कर घर ला बैठाएँ। मगर मैं इसमें कब पड़नेवाला था?पीछे तो उन लोगों ने सदा के लिए यह विचार छोड़ ही दिया। वह उनका अंतिम प्रयत्न था। तब से मुझे कितनी ही बार उधर जाने का अवसर मिला है। मगर गाँव घर के लोगों के भाव अब दूसरे ही पाए गए हैं।
(13)
हरिद्वार और हृषीकेश
हाथरस से पैदल चल कर हम लोग सोरों पहुँचे ठेठ गंगा माई के किनारे। जहाँ तक याद है महाशिवरात्रि का मेला था। लोग गंगा स्नान कर रहे थे?हमने जीवन में पहली ही बार आश्चर्यचकित नेत्रों से देखा कि लोग यों ही गंगा के आरपार चले जा रहे हैं। नाव की जरूरत हुई नहीं। क्योंकि जल नदारद! हम समझ न सके कि इसका क्या रहस्य है। पीछे पता चला कि गंगा से दो-दो नहरें निकाले जाने के कारण जाड़े और गर्मी में पानी उसमें रहता ही नहीं। हाँ, कानपुर के पास इन नहरों का बचा-बचाया हुआ पानी फिर उसमें जब जा गिरता है तो जल नजर आता है।
अस्तु, हम गंगा के तट को पकड़ कर उत्तर मुँह चले। रास्ते में वे स्थान देखे जहाँ से नहरें निकली हैं। जब हम अनूपशहर पहुँचे तो देखा कि कच्ची रोटियों की दूकानें लगी हैं और हलवाई की दूकानों की तरह लोग वहाँ बैठ कर पूड़ियों के बजाए दाल, रोटी, साग, तरकारी खाते हैं। हमारे ध्यान में भी यह बात अब तक नहीं आ सकी थी कि हलवाई के अतिरिक्त हिंदुओं के भी दाल, भात, रोटी, आदि के होटल और भोजनालय हो सकते हैं। इसीलिए जब पहली बार ऐसा देखा तो हमें महान आश्चर्य हुआ।
दूसरा आश्चर्य बहुत दिनों बाद तब हुआ जब सनातन धर्म सभा के लिए मुलतान जाते हुए अंबाले में स्टेशन पर 'हिंदू रोटी लो, मुसलमान रोटी' कहते देखा और कच्ची रोटियाँ बिकती पाईं। असल में हमारी धारणा थी कि होटल तो मुसलमानों और कृश्तानों के ही हो सकते हैं। हमने काशी, प्रयाग आदि में और देखा भी न था। पीछे जब होटल सभी के हो गए तो भी ख्याल था कि छुआछूत के लिहाज से स्टेशनों पर हिंदू लोग रोटियाँ बेच नहीं सकते। हमें क्या ख्याल था कि सभी लोग एक-दूसरे की छुई खा लेंगे। मुसलमान भी छू ले तो कोई हर्ज नहीं, लेकिन बनानेवाला किसी जात का हिंदू होना चाहिए! हम क्या समझते थे कि यह हिंदू रोटी, हिंदू पानी, मुसलमान रोटी, मुसलमान पानी की पुकार छुआछूत या धर्म के लिए न हो कर निरी-बेवकूफी की बात है, जो सिर्फ हिंदू-मुसलिम कलह लगाने और बढ़ाने के ही काम आती है। अफसोस है कि जो लोग आज इस खान-पान के भेदभाव को मिटा चुके है वह भी इस झगड़े में एक न एक पक्ष लेते ही हैं। फिर चाहे खुल के लें या छिप के। हजारों में विरले ही ऐसे हैं जिनका दिल साफ है और जो इन झगड़ों को नादानी की हद्द समझते हैं। उनकी संख्या धीरे-धीरे बढ़ जरूर रही है। यही एक आशा की झलक है कि यह नादानी मिट के रहेगी।
गर्मी के दिन आते-न-आते हमने बिजनौर आदि शहरों को देखते-दाखते और गंगा के दोनों तटों पर घूमते-घामते हिमालय का पहली बार दर्शन किया और हरद्वार पहुँचे। कनखल होते हरिद्वार गए। कनखल में नहर और उसके ऊपर चलनेवाली पनचक्की देखी, हरद्वार में हर की पैड़ी पर गए, स्नान किया, न जाने किन-किन मठों में गए और ठहरे। पर हमें वह दुनियाँ न रुची। गंगा जी को वर्तमान विज्ञान ने उसके हिमालय के क्रोड़ से बाहर होते ही किस प्रकार बाँध लिया है और इस प्रकार उसके प्रचंड वेग के मद को चूर कर दिया है। यह हमने वहीं देखा। कुछ परिचित साधु भी मिले। लेकिन फिर भी हमारा मन रम न सका। फलत: वहाँ से पैदल ही हृषीकेश चल पड़े। वहाँ पहुँचने पर हमने दूसरी दुनियाँ देखी। गंगा के किनारे एक छोटा-सा गाँव-सा बसा हुआ पाया। वहीं कई एक अन्नसत्रा (क्षेत्र) थे जिनमें साधुओं को रोटी और गाढ़ी दाल या तरकारी एक बार दोपहर से पहले मिलती थी। वहाँ पर बाबा कमलीवाले के और दूसरों के भी क्षेत्र थे। पहाड़ से निकलते ही गंगा धनुषकार हो जाती है। उसी धनुष के मध्य में पश्चिम और हृषीकेश उस समय था। उसके उत्तर सुंदर लंबी झाड़ियों के सिलसिले में जहाँ-तहाँ बिना घर-बारवाले गेरुवाधारी बाबा लोग पड़े रहते थे। वह लोग क्षेत्र से रोटी ला कर खाया करते, परंतु ईधर हम फिर यह न देख सके कि क्या-क्या परिवर्तन हो गए हैं।
(14)
पुन: पढ़ने में
हम दोनों वहाँ झाड़ी में न ठहर उसी के ऊपर श्री योगानंद जी के छोटे से मठ में ठहरे। मगर भिक्षा तो क्षेत्र से ही रोटी ला कर करते थे। हाँ, रात में उस मठ में थोड़ा-सा जलपान मिल जाता था। उसकी बगल में कुछ और ऊँचाई पर कैलाश नाम से प्रसिद्ध श्री धनराजपुरी जी का एक बड़ा मठ था। वहीं पर हम एक शांत और विद्वान संन्यासी के पास 'वेदांत सिद्धांत मुक्तावली' पढ़ा करते थे। यह वेदांत का एक क्लिष्ट ग्रंथ माना जाता है। हमने उसे ही शुरू किया। हालाँकि, उसके पूर्व के और ग्रंथों को पढ़ा न था। कई लोगों के साथ हमारा पाठ था। या यों कहिए कि हमीं दूसरों के पाठ में शामिल हो गए थे। उसमें जब न्याय, मीमांसा आदि की बातें आती थीं तो कभी-कभी हम उनसे दोबारा पूछते थे। हालाँकि, आम तौर से एक ही बार कहने पर समझ लेते थे। कारण, बुद्धि तो तीक्ष्ण थी ही। लेकिन कई बार पूछने पर एक दिन उनने हमसे सब बातें पूछीं और कहा कि अभी आपकी अवस्था कम है, काशी जा कर व्याकरण, न्याय मीमांसा आदि पढ़िए। पश्चात वेदांत के ये ग्रंथ पढ़ने में मजा पाइएगा। उस समय तो हम शर्मिंदा से हुए और उनकी बात कुछ रुची भी नहीं। क्योंकि अभी भी योगी पाने की धुन थी। मगर फिर पीछे उनका ही उपदेश अक्षरश: पालन करना पड़ा।
खैर, वेदांत मुक्तावली का पाठ चलता रहा। हमें एक मजा प्राय: मिलता था। जब क्षेत्र से रोटी लाते तो गंगा के किनारे चले जाते। पानी ज्यादा तेज न था। पर, पाँव दें तो कहाँ बह जाए पता न लगे। ऐसी धारा तेज थी। लेकि न ऊँचे-ऊँचे और चिकने पत्थर उसमें पड़े थे। उन्हीं पर छलाँग मारते-मारते कुछ भीतर जाते, एक चिकने पत्थर को धो कर उसी पर रोटी आदि रखते और दूसरे पर बैठ कर भोजन करते थे। जब चाहते चिल्लू से घूँट-घूँट तर जल पी लेते। जल इतना ठंडा था कि वैशाख-जेठ के दोपहर में भी खुली धूप में बैठने पर गर्मी न मालूम होती और सारा शरीर तर रहता। यह आनंद हम बराबर लेते रहे जब तक वहाँ रहे। दूसरे साधुगण भी ऐसा ही करते थे। स्नान आदि के समय भी खूब आनंद आता था।
लेकिन हृषीकेश में जो संसार हमने देखा और साधुओं की जो बदनामी सुनी, उससे ऊब गए। पंजाब से और दूसरे प्रांतों से श्रीमान स्त्री-पुरुष वहाँ झुंड-के-झुंड आते और धर्म के नाम पर साधुओं को खूब हलवा, पूड़ी, मेवे चभाते थे वहीं सत्संग भी होता। मगर आखिर इन सबका नतीजा क्या दूसरा होना था?यह भी पता लगा कि खाने-पीने का खूब आराम और सब तरह का मजा देख कर बहुत से लोग खेती-गृहस्थी से फुर्सत पाते ही गर्मियों में गेरुवा वस्त्र धारण कर साधु वेश में उस झाड़ी को हर साल आबाद करते, वर्ष आने के पहले ही खा-पी के तगड़े हो जाते और कुछ पैसे भी भक्तों और भक्तिनों से पा जाते थे। फिर घर चले जाते। पता नहीं अब क्या हालत हैं।
कैलाश की एक बात का उल्लेख करेंगे। उसके अधिष्ठाता श्री धनराज गिरि जी यद्यपि अधिक अवस्था के थे, तथापि बड़े ही मजबूत थे। उनका शरीर बहुत दृढ़ और ठोस था। कहते थे कि साल भर नियमित रूप से श्रीफल (बेल) खाया करते थे। वह जब बिलकुल ही सूख कर गिर जाता और पेड़ों पर नहीं मिलता था तो सुखाया हुआ रखते और खाते थे। कच्चा तैयार होते ही भून कर खाना शुरू करते। अन्न के सिवाय नियमित रूप से बेल का सेवन करते और नहीं तो, मुरब्बे के रूप में सही। उसी का फल था कि शरीर ठोस था और वृद्धावस्था में भी न तो बीमार पड़े और न ढीला-ढाला बदन हुआ। बेल के इस प्रकार के नियमित सेवन (कल्प) का ऐसा ही फल बताया जाता हैं। झाड़ी के और आगे भरत जी का मंदिर हैं और उसके आगे लक्ष्मण झूला। वहीं गंगा पर मोटे तारों के रस्से पर लटकने वाला लकड़ी का पुल बना हैं। क्योंकि तेज धारा में पाया बनना और ठहरना असम्भव हैं। लटकने वाला पुल हिलता तो रहता ही हैं, ज्योंही आप चढ़िए। लेकिन काफी मजबूत हैं। उस पर आदमी, टट्टू और बकरियाँ सभी सामान ले कर पार होती रहती हैं। असल में जब तारवार नहीं थे, तो उस पुराने जमाने में पहाड़ी लोग गंगा की धारा को पार कर ईधर-उधर जाते ही थे। तीर्थयात्री लोग भी जाते थे तो गंगा वगैरह की धाराओं को उस यात्रा में कई बार पार करना पड़ता था। इसके लिए एक उपाय निकाला गया था कि धारा के दोनों तरफ जो निकटवर्ती मजबूत पेड़ हों उनमें दो समानांतर मजबूत रस्से डेढ़-दो हाथ की दूरी पर बाँध दिए जाए। फिर उनमें छोटा-सा झूला आदमी के बैठने लायक बना कर लटका दिया जाए। झूले के साथ एक लंबी रस्सी हो जो दोनों ओर बँधी रहे। बस, अगर एक आदमी उस झूले में बैठ कर साथ वाली रस्सी को दोनों हाथों से जोर से खींचता रहे तो, झूला धीरे-धीरे आगे खसकता जा कर दूसरे किनारे पहुँच जाए। फिर उधर से इसी प्रकार ईधर भी आ जाए। इसी प्रकार किसी तरह उस समय विकट नदियाँ पार करते थे। उसमें झूले या उसके आधारभूत रस्सों के टूटने का खतरा था जरूर। लेकिन उपाय दूसरा था नहीं। इसीलिए लक्ष्मणझूला नाम पड़ा। अब तो लटकनेवाला पुल बन गया है। बदरीनारायण की यात्रा में हमने रास्ते में पुराने झूलों को काम में लाते हुए पहाड़ी मनुष्य देखे। कारण, चारों ओर लटकने वाले पुल तो बने हैं नहीं। ये तो बदरी, केदार आदि के रास्ते में ही हैं। ये पुल उन्हीं पुराने झूलों की नकल हैं। हाँ, उनमें तरक्की जरूर की गई है। हम झाड़ी से दूर तक जंगल में लक्ष्मण झूले के ऊपर तक योगियों और साधुओं की तलाश में चले जाते और लौट आते थे। जंगली जड़ी-बूटियाँ ज्ञात हो जाए तो खाने-पीने की रोज की फिक्र से बचें यह भी ख्याल था। मगर न तो ऐसी बूटियाँ ही मिलीं और न योगी ही। हमने सोचा कि अच्छा तो बदरीनाथ बाबा का दर्शन ही कर आएँ और शायद कहीं उधर ही योगी मिलें। क्योंकि उत्तराखंड में ही तो उनके ज्यादा होने की बात बार-बार सुनी थी। इसलिए वहीं जाने का निश्चय कर लिया। मगर वैशाख शुक्लपक्ष की तृतीय (अक्षय तृतीया) के पहले तो बदरीनारायण जी का पट्ट (दरवाजा) खुलता नहीं। उसके पहले वहाँ पुजारी लोग जाते ही नहीं। बर्फ के कारण प्राय: छ: महीने मंदिर बंद रहा करता हैं। बर्फ हटने पर पहले पहल अक्षय तृतीया को ही वहाँ जाते हैं। कभी-कभी तो बर्फ की अधिकता के कारण और भी देर से जाना होता हैं। इसलिए यात्री लोग भी उसी के लगभग यात्रा करते हैं। न कि पहले। क्योंकि पहले जाना न सिर्फ बेकार होता हैं, वरन असंभव भी। कारण, रास्ते में दूकानें वगैरह ठीक नहीं रहती हैं, जिससे खाने-पीने का कष्ट होता है। वहाँ पहुँच कर ठहरना भी असंभव होता है। जहाँ तक स्मरण हैं, हृषीकेश से 189 मील या कुछ इतनी ही दूर बदरीनाथ का मंदिर है। इसलिए हम लोगों ने इसी हिसाब से चलना तय किया कि ठीक समय पर वहाँ पहुँच सकें।
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बदरीनारायण की यात्रा
हम दोनों ही साथ रवाना हो गए। पहले तो रास्ता बहुत ही विकट और खतरनाक था। लेकिन अब तो सड़कें यथासंभव पहाड़ काट-कूट कर अच्छी और बराबर कर दी गई थीं। ईधर तीस बत्तीस-साल के भीतर तो और भी उन्नति हो गई होगी। फिर भी धीरे-धीरे कहीं चढ़ती जाती है तो फिर उतरती है। यह चढ़ाव-उतार का सिलसिला बराबर जारी रहता है। कहीं-कहीं तो बहुत पतली होती है। उनकी एक ओर ऊँचा गिरिशृंग आकाश से बातें करता और दूसरी ओर अतल गत्ता, जहाँ कल-कल निनाद करती गंगा बहती है। उसका निनाद सुन नहीं सकते। हाँ, उसकी धारा देख सकते हैं। रास्ता कभी गंगा के दाएँ चलता है और कभी बाएँ। रास्ते में जहाँ-जहाँ लटकते पुलों से उसे पार करते हैं। इस समय की बात तो कह नहीं सकते। मगर तीर्थयात्रा में जूता न पहनने के ख्याल से उस समय लोग घास या कपड़े के जूते, जो वहीं बनते थे, पहन लिया करते थे। मगर हम तो सदा नंगे पाँव चलनेवाले वहाँ भी वैसे ही चले। हालाँकि, परिणाम बुरा हुआ और लौटते-लौटते हमारे पाँव के तलवे लहू-लुहान हो गए। फलत: चलना असंभव हो गया।
यह भी देखा कि रुपएवालों के लिए आदमी की सवारी वहाँ तैयार है। उस महान तीर्थयात्रा जैसे पवित्रतम अवसर पर भीबब! धर्म भी क्या गजबनाक चीज है! आदमी की छाती पर चढ़ के चलना! सो भी एक की छाती पर एक चढ़े। ढोनेवाले ज्यादातर ब्राह्मण या क्षत्रिय, और चढ़नेवाले घोर सनातनी हिंदू! यह निराली अंधेरपुर नगरी है! दूसरी सवारी उस समय तो असंभव थी। बड़े घोड़े तो नहीं, हाँ, टट्टू और बकरियाँ जा सकती थीं। मगर सिर्फ सामान ले कर। टट्टू पर आदमी चढ़े तो गिरने का खतरा बराबर रहता था। क्योंकि रास्ता बेढब था।
आदमी की सवारी भी दो प्रकार की थी, एक कांडी और दूसरी झंपान। कांडी तो मछली फँसानेवाले टाप की सी थी। सिर्फ एक ओर थोड़ी कटी थी जिससे चढ़नेवाला उसमें बैठ के नीचे पाँव लटका सके। या यों कहिए कि जैसे बाँस या बेंत के मोढ़े कुर्सियों का काम देने के लिए बनाए जाते हैं प्राय: उसी तरह की। उस पर आदमी को बैठा कर ढोनेवाला अपनी पीठ पर उसे बाँध लेता है। चढ़नेवाले की रक्षा के लिए उसके पाँव वगैरह पर भी कुछ बंधन रहता है। अगर चढ़नेवाले को पूर्व चलना है तो उसका मुँह पश्चिम और ढोनेवाले का पूर्व रहेगा। झंपान की शकल तो बिहार में काम आनेवाली खटोली जैसी होती है। कांडी को एक आदमी ले चलता है। इसलिए वह सस्ती पड़ती है। मगर झंपान में चार आदमी लगने से वह महँगा पड़ता है। हालाँकि उसमें आराम रहता है। अब तो हवाई जहाज जाने लगा है।
रास्ते का प्रबंध ऐसा हैं कि थोड़ी-थोड़ी दूर पर पहाड़ के ऊपर से आनेवाले झरने के पास चट्टियाँ (पड़ाव) होती हैं जहाँ आटे आदि की दूकानें और ठहरने की मामूली जगह होती हैं। यात्रा के दिनों में ही ये चट्टियाँ आबाद रहती हैं। पीछे उन्हें कौन पूछे?पनचक्की का पिसा सुंदर आटा वहाँ मिलता है। चावल भी। सिर्फ गुड़, चना और नमक महँगा होता है। क्योंकि पहाड़ में पैदा न होने से नीचे से ले जाया जाता है। बाकी चीजें तो प्राय: नीचे (मैदान) के भाव में ही मिलती है। घी, दूध खूब मिलता है।
पहले तो चोरी होती न थी। अगर किसी की कोई चीज छूट गई तो लौटने पर बहुत दिनों के बाद भी जहाँ की तहाँ पड़ी मिलती थी। पहाड़ी लोग तो उसे छूते न थे। हाँ, यदि यात्रियों में से ही किसी ने चुपके से उठा ली तो बात दूसरी थी। यह था हमारे देश का पुराना सदाचार। न जाने सभ्यता पिशाची के करते अब क्या हालत है?हमने देखा कि वहाँ के ब्राह्मण, क्षत्रियादि गरीबी के करते कांडी, झंपान ढो कर या यात्रियों के सामान वगैरह साथ में ले जा कर मजदूरी के पैसे से गुजर करने में आत्मसम्मान मानते थे। लेकिन रास्ते में या चट्टियों पर पड़ी दूसरों की चीजें छूते तक न थे! यह भी देखा कि प्राय: सबके-सब सिर्फ लँगोटीधारी ही हैं। उनके चूतड़ नंगे हैं, हालाँकि, ऊँची कही जानेवाली जातियों के हैं। फिर भी उनकी ऐसी हालत है कि छोटे से छोटा भी शारीरिक परिश्रम करने से इन्कार नहीं! प्रत्युत उसे करने को लालायित दीखते थे, उसे ढूँढ़ते फिरते थे।
हमारी प्राचीन सभ्यता और सदाचार की यें बातें हम सभी को सीखने की हैं। न जानें हमने कहाँ से अनोखा धर्म और सदाचार सीखा है कि कामों को ही छोटा और बड़ा बना दिया! यहाँ तक कि कुछ कामों के करने में ब्राह्मण, क्षत्रियादि की जाति, धर्म और शान सभी मिट्टी में मिलते नजर आते हैं! हाँ, चोरी करने में वैसी हिचक नहीं! दूसरे का धन मिल जाए तो महाप्रसाद की तरह फौरन हजम! हमारा धर्म, हमारा सदाचार और हमारी प्रतिष्ठा वस्तुत:, इसी में हैं कि कमा के खाएँ और किसी काम को छोटा या नीच न मानें। इस बात में हमारे गुरु उत्तराखंड के वे गरीब लोग हैं।
उस यात्रा में भूख बहुत लगती है। एक तो पहाड़ की चढ़ाई-उतराई का श्रम। दूसरे स्वच्छ जलवायु। तीसरे बर्फ के पिघलने से मिलनेवाला जल। ये तीनों ही इस भूख के कारण हैं। अत: जो लोग खाने में कसर करते या खूब घी-दूध नहीं खाते उन पर उस बर्फानी पानी का धीरे-धीरे असर हो जाता है। जिससे वहाँ से वापस आने पर वे लोग प्राय: दस्त की बीमारी में फँसते हैं।
लेकिन हमने तो अनुभव किया कि खाने-पीने में कष्ट होने पर भी हम पर उस पानी का कोई असर न हुआ। हमारे पास तो पैसे थे नहीं और हमने यात्रा कर दी बहुत पहले जब ज्यादा यात्री चले न थे। जो चले भी थे वे अधिकांश अपनी ही फिक्रवाले थे। इसलिए चौबीस घंटे में एक बार भी भोजन मिलना कभी-कभी असंभव हो गया। दो-बार की चाह तो हम करते ही न थे। रास्ते में धनी और धर्मबुद्धि के लोग हमारे जैसों को खिलाया करते हैं जरूर। पर, वे देर से यात्रा करते हैं। जगह-जगह अन्नक्षेत्र हैं सही। मगर वे उस समय बीस-बीस, पच्चीस-पच्चीस मीलों की दूरी पर थे। इसीलिए लाचार हो कर हमें प्रतिदिन उतना ही और कभी-कभी अट्ठाईस-तीस मील तक चलना पड़ा। लौटने के समय एक सो नवासी मील की यात्रा हमने छ:-सात दिनों में इसी से पूरी की। शायद यही कारण है कि पानी-वानी का कोई असर हम पर न हो सका।
रास्ते की एक बात और भी है। हमने देखा कि बहुत से गर्वीले जवान या तो पिछड़ जाते या पस्त हिम्मत हो जाते थे! लेकिन बच्चे, बूढ़ी औरतें या वृद्ध पुरुष लगातार चले जाते थे! असल में धीरे-धीरे चलने में पहाड़ की चढ़ाई ज्यादा पस्त नहीं करती और न वैसी थकावट ही होती है। इसीलिए स्वभावत: धीरे चलनेवाले बच्चे या वृद्धजन हिम्मत हारते न थे। मगर तेज चलने की गर्मीवाले पस्त हो जाते थे। हम यदि तेज चले तो वह अपवाद स्वरूप ही समझा जाना चाहिए। हमारा यह भी नियम था कि साथवाले कमंडलु में जल ले कर चला करते थे। उस जल से रास्ते में न जानें कितनी वृद्ध-वृद्धाओं की प्यास हमने उस यात्रा में बुझाई।
हाँ, तो हमारी यात्रा शुरू हुई। हम कई दिन चलने के बाद रास्ते में पड़नेवाले देवप्रयाग, कर्णप्रयाग, रुद्रप्रयाग आदि तीर्थों में ठहरते और उन्हें पार करते आगे बढ़ते गए। हमें गंगोत्तरी, यमुनोत्तरी, केदार और बदरीनाथ इन चार प्रधान तीर्थों में जाना था। पहले दो की ओर जाने में ही उत्तरकाशी पड़ जाती है। मंसूरी हो कर भी इन दोनों का रास्ता है। मगर हम उधर न जा कर ईधर बढ़े थे। सोचा था कि आगे जा कर दूसरे रास्ते से वहाँ जाएगे। मगर रास्ते में खाने-पीने के कष्ट ने हमें सुझाया कि उधर जाना ठीक नहीं। कारण, इतना पहले उधर के यात्री तो होंगे नहीं और रास्ते में अन्न बिना ही मरना पड़ेगा। इसलिए उन दो यात्राओं का विचार त्याग सिर्फ केदार और बदरी की ही फिक्र हमें रही। उनमें भी पहले केदार जा कर पीछे बदरी जाते हैं। ठीक याद नहीं, शायद देवप्रयाग से केदार का रास्ता बदलता है। वहीं पर जो गंगा की दो धाराएँ मिलती हैं, जाने के समय उनमें बाईं धारा से केदार जाते हैं। फिर लौटने के समय इतनी दूर वापस न आ कर ऊखी मठ से ही एक तिरछी राह आ कर बदरीवाली में आगे बढ़ के मिल जाती हैं।
हमने केदार बाबा का रास्ता अपनाया और जैसे-तैसे कभी खाते कभी भूखे रहते बढ़ने लगे। जहाँ आमतौर से चार बार खाने में भी भूख लगती हैं वहाँ एक बार भी न खाया और चढ़ाई तय करना मामूली बात न थी। लेकिन एक तो हिम्मत थी, दूसरी बेबसी।
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अग्नि परीक्षा और सफलता
उस रास्ते में त्रियुगी नारायण की एक विकट चढ़ाई पहले पड़ती है। हालाँकि उससे भी विकटतर और विकटतम आगे पड़ती है। खूबी यह थी कि त्रियुगी नारायण की चढ़ाई में दिनभर खाने को न मिला। हम ऐसे ही चलते रहे। तुर्रा यह कि हमारे साथी भी रास्ते में पेशाब के बहाने पीछे रुक गए और बहुत देर करने पर भी न आए। पीछे पता लगा कि वे जान बूझ कर साथ छोड़ना चाहते थे। उनकी बातें पहले से ही कुछ ऐसी हो रही थीं। करना क्या?अकेले ही चले। हालाँकि, कष्ट के समय एकांत और भी अखरता है। लोग तो रात में त्रियुगी नारायण में ठहरते हैं। मगर हमने जब खाने की कोई सूरत न देखी तो आगे चलना ही निश्चय किया। कहीं बीच में ही, देर होने से अशक्त हो कर, रह न जाए यह भय जो लगा था। उस दिन बहुत चले और गौरी कुंड आ कर ठहर गए शाम होते न होते। वहाँ से चढ़ाई भीमगोड़ा तक छ:-सात मील बहुत ही बेढ़ब है। भीमगोड़ा के बाद की चढ़ाई की तो पूछिए मत। सीढ़ियाँ बनी हैं। उन्हीं पर चढ़ना होता है। लेकिन शायद दो-तीन मील के बाद ही समतल भूमि मीलों मिलती है जो बर्फ से ढँकी रहती है। उसी बर्फ पर ही चलना पड़ता है। उसी के बाद केदार जी का मंदिर आ जाता है। इसी आशा में हम हिम्मत कर के पानी पी-पी कर किसी प्रकार गौरीकुंड पहुँच के सो रहे।
दूसरे दिन सवेरे ही रवाना हो गए और बड़ी कठिनाई से भीमगोड़ा पहुँच पाए। रात में यात्री लोग यहीं ठहरते हैं। यहाँ से केदार नजदीक है। केदार में तो बर्फ से लदे होने के कारण रात में न तो ठहरने का स्थान ही है और न हिम्मत ही होती है। बर्फ में कौन मरे?लोग भीमगोड़े से आगे बढ़ चुके थे और बढ़ रहे थे। यह देख हमने भी हिम्मत की। लेकिन हालत बुरी थी। दो-चार सीढ़ियाँ चढ़ते किसी प्रकार, और चक्कर खा के गिर पड़ते। फिर चढ़ते, फिर इसी तरह गिरते। इस प्रकार चढ़ते, गिरते राम-राम कर के हमने वह चढ़ाई खत्म की और लंबे बर्फानी मैदान में पहुँचे। अब तो हिम्मत हो गई। ज्यादा संकटों का सामना करने के बाद कम कष्टों में काफी हिम्मत होई जाती है। यह भी सोचा कि अब तो केदार जी निकट है। बर्फ पर पाँव देते ही वह सन्न हो जाता और भारी तकलीफ होती थी। साथ ही, सर्दी से देह में बल भी हो आया। सर्दी का कुछ ऐसा प्रभाव होता ही है। लेकिन थोड़ी देर बाद पाँव सून से हो गए और सन्न-सन्न लगना बंद हो गया।
अंत में मंदिर के पास आ गए। देखा कि बगल में बर्फ पिघल-पिघल के एक नदी बह रही है और लोग उसमें स्नान कर रहे हैं। यह वही गंगा की धारा थी जिसके किनारे-किनारे आए थे। यहीं से शुरू होती थी। चारों ओर सफेद बर्फ से लदे पहाड़ थे। न कहीं पेड़ और न कोई गाँव-गिराँव।
इतने में ही एक गृहस्थ ने आ कर हमसे कहा कि ''महाराज भोजन कीजिए'' यह शब्द था या अमृत?हम तो दिल से उसके आभारी हुए और कहा कि स्नान और दर्शन के बाद खाऊँगा। वह इंतजार करने लगा और हम फौरन नहाने गए। जो पानी में हाथ डाला तो सुन्न! कमंडलु उठाना असंभव! तो भी जैसे-तैसे स्नान किया और जल ले कर मंदिर में गए। भीतर बर्फ की ऊँची शिलाएँ पड़ी-पड़ी गल रही थीं। बाबा केदारनाथ का दर्शन किया, जल चढ़ाया और वापस आए।देखा कि हमारा अन्नदाता एक पूड़ी बनानेवाले के पास खड़ा है, जहाँ लोग ताजी-ताजी पूड़ियाँ ले कर खाते जाते हैं। भोज पत्र के पेड़ की हरी-हरी लकड़ियाँ जल रही थीं और कड़ाही के घी में पूड़ियाँ पकती थीं। यदि ये लकड़ियाँ न जलें तो लोग भूखों मर ही जाए। वहाँ सूखी लकड़ी मिले कहाँ?वह भी तो नीचे से लाई जाती है। हम भी वहीं पहुँच गए और खूब अघा के पूड़ियाँ खाईं। हमारा ख्याल है कि एक सेर पक्की से कम न खाई होंगी। केवल पूड़ी मिल सकती थी। साग-तरकारी कहाँ मिले?वह भी तो गनीमत थी।
(17)
केदार से वापस ─ बदरी को
फिर हम चट-पट रवाना हो गए। हाँ, यह कहना तो भूल ही गए कि हमने या तो मध्य भारत के उस गरीब ब्राह्मण को ही जी भर के आशीर्वाद दिया था या केदारनाथ के अन्नदाता को। ये दोनों घटनाएँ सदा ताजी रहती हैं। खैर, शाम होते-होते गौरीकुंड आ कर ठहरे। फिर दूसरे दिन आगे बढ़े। जब लौटे तो त्रियुगीनारायण का रास्ता छोड़ नीचे-नीचे ही लौटे। लौटने में कोई उधर जाता ही नहीं व्यर्थ हैंरान होने। ऊखी मठ से आगे तिरछी राह पकड़ी और बदरी बाबा की तरफ चले। रास्ते में तुंगनाथ की भीषण चढ़ाई मिली। उसके बाद हम बढ़ते गए। केदार से लौटने के समय तो हमारे साथी मिले नहीं। हाँ, जब हम बदरीनाथ के दर्शन के बाद लौट रहे थे तो जाते हुए मिले। इस प्रकार चलते-चलाते बदरीनाथ के पास ज्योतिर्मठ या जोषीमठ मिला।
कहते हैं, धर्म-प्रचार की दृष्टि से आदि शंकराचार्य ने भारत के चार कोने में चार मठ स्थापित किए थे। वहीं से उनके अनुयायी भारत को चार भागों में विभक्त कर धर्म-प्रचार करते थे। इनके नाम हैं─शृंगेरीमठ (दक्षिण), शारदामठ (पश्चिम-काठियावाड़), गोबर्धन मठ (पूर्व जगन्नाथ) और ज्योतिर्मठ (उत्तर)। रामेश्वर, द्वारिका, जगन्नाथ और बदरीनारायण यह चार तीर्थ उनके पास पाए जाते हैं। लेकिन अब तो ज्योतिर्मठ पर रावल जी का दखल है जो गृहस्थ हैं, गोबर्धनमठ भी गड़बड़ हो रहा था। मगर सँभला है। ज्योतिर्मठ के सिवाय शेष तीनों ही दंडी संन्यासियों के हाथ में हैं। हालाँकि अब धर्म-प्रचार की बात कुछ ऐसी ही तैसी है।
हम सवेरे ही बदरीनाथ पहुँच गए। जहाँ तक हमें याद है उसी दिन मंदिर खुला था पहले पहल। वहाँ भी चारों ओर मैदान है उसमें एक घास होती है जो बर्फ से सूखी थी। उसे उखाड़ कर जलाते थे। चारों ओर बर्फ से लदे पहाड़ थे और गाछ वृक्ष का पता भी नहीं! वहाँ धर्मशालाएँ अनेक हैं। उन्हीं में एक के ऊपरी तल्ले में हम रहते थे। हमने स्नान और दर्शन किया। गंगा की धारा तो वहाँ भी है। मंदिर के सामने नीचे एक गर्म पानी का झरना भी है जो एक कुंड में गिरता रहता है। उसका पानी ज्यादा होने पर बह कर गंगा में चला जाता है। कुंड पत्थरों से बनाया गया है और डूब न सकें इतना ही गहरा है। पहले तो कुंड का पानी काफी गर्म लगता है। फलत: भीतर जाने की हिम्मत नहीं होती। मगर एक बार पड़ जाने पर पीछे आराम मालूम होता है। हम तो कई-कई घंटे उसमें पड़े रहते थे। हमारे पास सिर्फ एक ऊनी चादर थी। जाड़ा वहाँ ज्यादा था। अत: बहुत देर तक उस कुंड में रह के गुजारते और रात में पूर्वोक्त सूखी घास जला के काम निकालते थे। हमें याद है कि वहाँ तीन-चार दिन ठहरे। फिर रवाना हो गए।
भक्तजनों का विश्वास है कि भगवान के चरणों के नीचे से हो कर झरने का जल आता है। इसलिए उनकी ही कृपा से वह गर्म रहता है, ताकि गरीबों को सर्दी से बचाए। मगर गंगोत्तरी और यमुनोत्तरी में तो बहुत ज्यादा गर्म-उबलता हुआ सोता बताया जाता है। वहाँ किस भगवान के चरण से आता है?असल में प्रकृति की कुछ ऐसी रचना है कि वहाँ नीचे गंधक की खान होगी। उसी से छन कर आने से पानी गर्म हो जाता है। उसमें कुछ गंध भी ऐसी ही रहती है। मगर धर्म के मामले में अक्ल और दलील को गुंजाईश कहाँ?
(18)
वापस हृषीकेश
जब हम लौटे तो बहुत तेज चले जैसा कि पहले कहा हैं। खाने-पीने के लिए इस बार हमने किसी भक्तजन की कतई परवाह नहीं की। सिर्फ सदरावत्ता या अन्न क्षेत्र में ही खा लेते। वह क्षेत्र दूर-दूर थे। इसलिए उसी हिसाब से हमें तेज चलना पड़ता था। जूता न पहनने और ज्यादा चलने का नतीजा हुआ कि हमारे दोनों पाँवों के तलवे छिल गए और लहू-लुहान हो गए। मगर करना क्या था?किसी प्रकार यात्रा तो पूरी करनी ही थी। जैसा कि बताया है, छ:-सात दिनों में ही प्राय: दो सौ मील की यात्रा करनी पड़ी! जो लोग लौटते हैं वह अलमोड़ा, काशीपुर के रास्ते से लौटते हैं। मगर हमें तो पुन: हृषीकेश आना था। अत: उस रास्ते हम नहीं गए। आखिर कार हृषीकेश आ ही गए। लेकिन बर्फानी हिस्से से आने के कारण हृषीकेश में लू मालूम पड़ती थी। जहाँ तक हमें याद है, ज्येष्ठ का महीना शुरू ही हुआ था। क्योंकि अक्षय तृतीया के कई रोज़ बाद तो हम चले ही थे और रास्ते में हफ्ते भर लगा। इस प्रकार सन 1908 ई. के जून में हम आ गए। प्राय: इसी समय गत वर्ष (आषाढ़) में काशी से रवाना हुए थे। एक वर्ष के भीतर ही हमने पैदल ही न जाने कितना फासला तय कर लिया और कितना अमूल्य अनुभव प्राप्त कर लिया। इतना ही नहीं। योगी के मिलने और योगाभ्यास करने की हमारी आशा पर पानी भी फिर गया। हम उससे एक प्रकार से निराश हो गए। यों कह सकते हैं कि हमारे संन्यासी जीवन के प्राय: एक वर्ष के बीतते-न-बीतते उसका पूर्व खंड खत्म होने को आया और थोड़े ही दिन के बाद मध्य खंड शुरू हुआ।
(19)
फिर काशी लौटे
न जाने क्यों बदरीनारायण से लौट कर हृषीकेश में ज्यादा दिन टिकने का दिल न हुआ। जल्दी ही हमने काशी चलने का निश्चय कर लिया। पर पाँवों ने जवाब दे दिया। बदरीनाथ की यात्रा में तो किसी प्रकार पाँवों में चिथड़े लपेट कर चलते आए। मगर अब क्या किया जाए यह ख्याल हुआ। अंत में तय किया कि जैसे-तैसे हरद्वार पहुँच कर वहाँ से रेल से ही काशी चलें, चाहे जो हो। यह दूसरी बार मजबूरन बिना टिकट के ही रेल पर चढ़ने का इरादा था। असल में मेरे स्वभाव के विपरीत यह बात हैं कि कोई भी काम छिपके या चोरी से किया जाए। इसमें मेरी आत्मा काँपती है और ऐसा करने में मैं अपने को निहायत ही कमजोर पाता हूँ। जो कुछ करना वह साफ-साफ ललकार के बहादुरों की तरह करना यही मुझे पसंद है। जाल फरेब से दूर भागता हूँ। मैं जानता हूँ, दुनिया में कभी-कभी इन चीजों की भी जरूरत पड़ जाती है और अच्छे-से-अच्छे काम भी खराब हो जाते अगर कुछ ऐसी बातें न की जाए। लेकिन करूँ क्या?बेबसी जो ठहरी। इसलिए तय किया कि जहाँ मौका मिला गाड़ी पर बैठूँगा। उसमें न तो छिपूँगा। न चुपके से निकल के भागूँगा। अधिकारी लोग अगर पकड़ के कोई दंड करेंगे तो बर्दाश्त करूँगा। उनसे साफ-साफ कह दूँगा कि पाँवों की मजबूरी से ही मैंने ऐसा किया, या करने का निश्चय कर लिया है। इसी विचार से हरद्वार चला।
मगर वहाँ तो प्लेटफार्म पर पहुँचना भी बिना टिकट के असंभव था। इसलिए आगे बढ़ के ज्वालापुर में ट्रेन में बैठा। मगर लक्सर में ही उतरना पड़ा। वहाँ गाड़ी बदली तो रेल के अधिकारियों ने मना किया कि आगे ट्रेन पर मत चढ़िए। मगर मैं कब माननेवाला था। फलत: काशीवाली ट्रेन पर जा बैठा और मुरादाबाद तक बेखटके आ गया। हाँ, मुरादाबाद में टिकट जाँचनेवाले ने उतार कर मुझे स्टेशनवालों के हवाले किया। दिन के नौ-दस बजे होंगे। मैंने स्टेशनवालों से कहा कि रोक लिया है तो भोजन तो दीजिए। उन बेचारों ने कहा कि जाइए महाराज! बस, फिर क्या था, मैं शहर में गया, खा-पी कर नदी की रेत पैदल पार की और अगले स्टेशन पर ट्रेन पकड़ी। वहाँ से तो कुछ ऐसा हुआ कि निरबाधा दूसरे दिन बनारस आ धमका, प्लेटफार्म पर उतर कर मैं सीधे पूर्व-ओर बढ़ा। किसी ने रोक-टोक न की। फलत: मैं बढ़ता ही गया बेधड़क और स्टेशन के बाहर चला आया। याद नहीं कि अपारनाथ मठ में गया या कहाँ। भरसक वहीं गया और ठहरा।
यह तो ठीक है कि योगियों की आशा न थी। लेकिन शास्त्रों में माथापच्ची करने को भी जी नहीं चाहता था। इसलिए शीघ्र ही गंगा तट पकड़ कर आगे की ओर बढ़ा। बरसात सिर पर थी। फिर भी मजा आया। गाजीपुर होता बक्सर के निकट कोटवा नारायणपुर आ गया फिर वहाँ से आगे बढ़ के उजियार होता भरौली पहुँचा। वहाँ एक संन्यासी बाबा का मठ है। वहीं ठहरा।
गाँव से बहुत दूर पूर्व गंगा के उत्तर एकांत में एक वटवृक्ष था। सुबह वहीं जा कर ठहरता, स्नानादि कर के भिक्षा के समय गाँव में वापस आता और मठ पर भोजन करता। जब आगे बढ़ने लगा तो महंत श्री शिवप्रसाद गिरि ने रोक लिया। बोले, चातुर्मास्य (वर्ष) में कहाँ जाइएगा?यहीं ठहरिए। मेरे दिल में भी बात बैठ गई और रुक गया। महंत जी मुझे 'परमहंस जी', कह के पुकारते और मुझसे प्रेम बहुत करते थे। गाँववाले किसानों से भी मेरी कुछ ऐसी ही मुहब्बत हो गई कि एक प्रकार फँस जाना पड़ा। बस, दिन का अधिकांश समय उस दूरवर्ती एकांत वटवृक्ष के तले बिताता और रात में मठ में रहता। इस प्रकार चातुर्मास्य बिताया। भरौली के लोग रामायण का गाना बहुत ही सुंदर करते थे। वहाँ एक-दो भजन गानेवाले भी अच्छे थे। इसलिए रामायण का गाना और भी जमता था। शंकरगढ़ के बाद वहीं पर यह मनोरम गान का संसर्ग मिला।
महंत श्री शिवप्रसाद गिरि के एक चेले थे जो काशी से वेदांत पढ़ आए थे। सयाने थे। उनका एक चेला था श्री रामचंद्र गिरि। वह लड़का ही था। थोड़ा-बहुत पढ़ता था। महंत जी काफी धनवाले थे। वे बार-बार कहते थे कि मैंने लोगों को बहुत ही ऋण दिया है और छत्तीस हजार रुपए केवल सूद के नाम पर वसूल किए हैं। गाँव के सभी गृहस्थ उनके शिष्य (चेले) थे और कर्जदार भी थे। सभी के खेत उनके पास रेहन थे। मगर जोतते वही लोग थे। महंत जी रुपयों के ब्याज लेते थे। इतने रुपए ऋण पर दिए! मगर वसूल तहसील की कोई चुस्त व्यवस्था न थी कि ताकीद की जाए। फलत: गृहस्थ लोग लापरवाही से उनके रुपए शीघ्र चुका न सकते और सूद-दर सूद में बचे-खुचे खेतों को धीरे-धीरे उनके हवाले करते जाते। महंत जी फायदे में थे। गृहस्थ लोग पामाल थे। मुझे देख कर बड़ा क्षोभ हुआ। खाता-पीता था तो मैं मठ में ही। फिर भी मौका पा कर गृहस्थों को चेतावनी देता था कि सँभल जाए और उनसे संसर्ग छोड़ें या कम करें नहीं तो नमक के बर्तन की तरह गल जाएगे। मेरी पक्की धारणा थी कि संन्यासी का बाना धारण कर धन जमा करना पाप है और वह पाप का धन जहाँ जाएगा उसे गला देगा। इसलिए उन्हें समझाता था। चेला बनने से भी रोकता था। मगर सुनता कौन?
ठीक समय तो याद नहीं। मगर वर्ष बीतने के बाद मेरे विचार बदले और आगे जाने के बजाए काशी जा कर दर्शन, व्याकरण, वेदादि के अध्ययन की धारणा हो आई। सोचा कि जंगल, पहाड़ों की खाक खूब ही छानी योगी तपस्वी का भी पता लगाया। भटके भी काफी। मगर हाथ कुछ न आया। भगवान तो अभी दूर-के-दूर ही रहे। इसलिए चलो शास्त्रों का मंथन करें और देखें उनमें क्या है। हृषीकेश (कैलाश) वाले वृद्ध महात्मा की बात भी याद हो आई। महंत जी और उनके चेले ने भी कहा कि पढ़िए। फिर तो विचार दृढ़ हो गया। उधर महंत जी के चेले का जो चेला था श्री रामचंद्र गिरि, उसे भी लोग काशी भेज कर पढ़ाना चाहते थे। इसलिए हम दोनों साथ ही जाए यह तय पाया। वह तो धनी महंत का चेला था। इसलिए उसे मासिक व्यय के लिए पैसे मिलने का तय पाया। मगर मुझे तो पैसे की परवाह थी नहीं और पैसे बराबर देता भी कोई क्यों?काशी में तो विरागी साधुओं के खान-पान का प्रबंध था ही। फिर और चाहिए ही क्या?फलत: हम दोनों ही काशी आ गए। जहाँ तक याद है, सन 1909 ई. के आरंभ की ही बात है। रामचंद्र गिरि तो कर्णघंटा मठ में ठहरा और मैं उसी अपारनाथ मठ में। इस प्रकार संन्यासावस्था का प्रथम खंड समाप्त कर हमने दूसरे खंड में पदार्पण किया।