1. गीताधर्म
गीता को अनेक महत्त्वपूर्ण शिक्षाओं और बातों पर अभी प्रकाश डालना बाकी ही है। मगर यह काम करने के पहले उसके एक बहुत ही अपूर्व पहलू पर कुछ विस्तृत विचार कर लेना जरूरी है। गीता की कई अपनी निजी बातों में एक यह भी है। हालाँकि जहाँ तक हमें ज्ञात है, इस पर अब तक लोगों की वैसी दृष्टि नहीं पड़ी है जैसी चाहिए। यही कारण है कि यह चीज लोगों के सामने खूब सफाई के साथ आई न सकी है। उसी के सिलसिले में गीता की दो-एक और भी बातें आ जाती हैं। उनका विचार भी इसी प्रसंग में हो जाएगा। सबसे बड़ी बात यह है कि जिस बात का हम यहाँ विचार करने चले हैं उसका बहुत कुछ ताल्लुक, या यों कहिए कि बहुत कुछ मेलजोल, एक आधुनिक वैज्ञानिक मतवाद से भी हो जाता है - उस मतवाद से जिसकी छाप आज समस्त संसार पर पड़ी है और जिसे हम मार्क्सवाद कहते हैं। यह कहने से हमारा यह अभिप्राय हर्गिज नहीं है कि गीता में मार्क्सवाद का प्रतिपादन या उसका आभास है। यह बात नहीं है। हमारे कहने का तो मतलब सिर्फ इतना ही है कि मार्क्सवाद की दो-एक महत्त्वपूर्ण बातें गीताधर्म से मिल जाती हैं और गीता का मार्क्सवाद के साथ विरोध नहीं हो सकता, जहाँ तक गीताधर्म की व्यावहारिकता से ताल्लुक है। यों तो गीता में ईश्वर, कर्मवाद आदि की छाप लगी हुई है। मगर उसमें भी खूबी यही है कि उसका नास्तिकवाद से विरोध नहीं है और यही है गीता की सबसे बड़ी खूबी, सबसे बड़ी महत्ता। यही कारण है कि हमें गीताधर्म को सार्वभौम धर्म - सारे संसार का धर्म - मानने और कहने में जरा भी हिचक नहीं होती।
कर्म का पचड़ा
हाँ, तो जरा उसी बात को देखें कि वह कौन-सी है। हमने शुरू में ही उसकी तरफ श्रद्धा, मानसिक भावना आदि के नाम से इशारा भी किया है और कहा है कि वही चीज कर्म के बाहरी रूप को सोलहों आना पलट देती है - उसे एक निराले और अपने मन के ही साँचे में ढाल देती है। बात यह है कि सोलहवें अध्याय के आखिरी दो - 23 और 24 - श्लोकों में 'य: शास्त्रविधि मुत्सृज्य' आदि शब्दों के द्वारा ऐसा कहा गया है कि कोई भी काम - क्रिया या अमल - उसके संबंध में बने अनुशासन और पद्धतिविधान - शास्त्र - के ही अनुसार किया जाना चाहिए। इसीलिए जो ऐसा नहीं करता है उसका न तो वह काम पूरा होता है, न उसे चैन मिलता है और न मरने के बाद या पीछे उसका कल्याण ही होता है। बात भी ठीक ही है। हरेक काम की निराली तरकीबें और प्रक्रियाएँ होती हैं, उसे करने के नियम-कायदे होते हैं और बनने-बिगड़ने की हालत में पुरस्कार और दंड - अनुशासन - भी होते हैं। फिर चाहे वह काम लौकिक हो या पारलौकिक, बहुत बड़ा तथा अहम हो या मामूली। इसलिए उसके विधि-विधान को जानना और तदनुसार ही अमल करना जरूरी हो जाता है। जो लोग ऐसा नहीं करते उन्हें परेशानी तो होती ही है, उनका काम भी ठीक-ठीक हो नहीं पाता और पीछे जाने क्या-क्या नतीजे भुगतने पड़ते हैं। इसलिए गीता का यह आदेश - उसकी यह चेतावनी - बहुत ही मौजूँ है।
मगर दरअसल यह बात उतनी आसान और सीधी नहीं है जितनी एकाएक मालूम पड़ती है। गीता के ही अनुसार, 'कर्मों की जानकारी, उनकी माया, गहन है, बहुत ही कठिन है' - "गहना कर्मणो गति:" (4। 17)। फलत: जब हम कर्मों के घोर और दुष्प्रवेश जंगल में घुसते हैं तो यही नहीं कि रास्ता नहीं मिल पाता और भटक जाते हैं, बल्कि काँटों में बिंधा जाते, खूँखार जानवरों के शिकार बन जाते और चोर-बदमाशों के शिकंजे में भी फँस जाते हैं! एक तो कर्म यों ही ठहरे अनंत। फिर उनकी जानकारी ठहरी उनसे भी अनंत। तिस पर भी हरेक के ब्योरे होते ही हैं। उन्हें जानने का अवसर सबको मिलता भी नहीं। ऐसी दशा में हो क्या? क्या लोग कर्मों से विमुख रहें? क्योंकि अधिकांश लोग तो ऐसे ही होंगे। मगर तब तो संसार का काम ही रुक जाएगा। आखिर यह कैसे और क्यों कहा जाए कि किस काम के विधि-विधान को - शास्त्रविधान को - बखूबी जानने की जरूरत है और किसकी नहीं? सभी तो काम ही - कर्म ही - ठहरे और 'गहना कर्मणो गति:' तो सभी पर समान रूप से लागू है। यदि भीतर घुस के देखें तो बात भी ऐसी ही है। अत: 'को बड़ छोट कहत अपराध!' इसीलिए यही मानना होगा कि 'ऊपर चढ़के देखा, घर-घर एकै लेखा!' और अगर इस दिक्कत से बचने और दुनिया का काम चलाने के लिए लोग यों ही कर्मों में लग जाएँ, तो उनकी हालत क्या होगी? उनकी गति तो अभी-अभी कह चुके हैं। यही खयाल करके अर्जुन जैसे सूक्ष्मदर्शी ने सत्रहवें अध्याय के पहले ही श्लोक में चटपट यही बात पूछ ही तो दी। कृष्ण ने आगे के दो और तीन श्लोकों में उसका उत्तर दे के उसी का विवरण समूचे अध्याय में किया है।
इस बात पर जरा हम और गौर करें। किसी भी काम के करने के लिए रास्ते बताने वाले, दोई तरह के हो सकते हैं। एक तो जीवित मनुष्य और दूसरे उसके बारे में लिखी-लिखाई पुस्तकें जिन्हें शास्त्र कहते हैं। अब अगर जिंदा आदमियों को लेते हैं तो इतनी लंबी दुनिया में वे खामख्वाह होंगे बहुत ज्यादा। एक-दो या दस-बीस से तो काम चलने का नहीं। और जब दो आदमियों के भी सभी खयाल और विचार नहीं मिलते, तो फिर हजारों का क्या कहना? ऐसा भी होता है कि एक ही आदमी के विचार समय पाके एक ही बात के संबंध में बदलते रहते हैं और कभी-कभी तो तीन-तीन, चार-चार पलटे खा जाते हें। तब अनेक की बात ही क्या? इसी को कहते हैं 'मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना' या 'अपनी-अपनी डफली, अपनी-अपनी गीत।' महाभारत के वनपर्व के युधिष्ठिर-यज्ञ संवाद में यही बात स्वीकार की गई है कि एक मुनि ऋषि हों तो उनकी बात मान के काम चले। यहाँ तो अनंत हैं - अनेक हैं - 'नैकोऋषिर्यस्यवच: प्रमाणम्' (312+115)। आदमी की यह भी हालत होती है कि उसका दिमाग हमेशा स्वस्थ और एक हालत में रहता ही नहीं। तो कब उससे बात जानी जाए, कब नहीं? फिर दूरवर्ती को क्या मालूम कि कब उसका दिल-दिमाग ठीक है और उसने जब कहा था तब ठीक था या नहीं? और अगर कहीं देर तक उसके दिमाग में गड़बड़ी रही तो क्या हो? दुनिया के काम तो उसकी गड़बड़ी के लिए रुके रहेंगे नहीं।
और अगर इस दिक्कत से बचने के लिए लिखित वचनों तथा आदेशों की शरण लें, तो दूसरी पहेली खड़ी हो जाती है। जिंदा आदमी तो साफ कह-सुन देता है और अगर कोई बात समझ में न आए तो उससे पूछ के सफाई भी कर ले सकते हैं। मगर मरे का क्या हो? आखिर पुस्तकों और शास्त्रों के वचन तो मरों के ही हैं न? वे खुद तो बोल नहीं सकते। अगर किसी वचन का मतलब समझ में न आए या उलटा ही समझ में आए तो क्या करें? किससे पूछें? यदि उसकी टीका-टिप्पणी देखें तो और भी गजब हो। टीकाकार तो आखिर दूसरे ही होंगे न? फिर क्या मालूम कि उनने लेखक का अभिप्राय ठीक समझा या गलत? यदि खुद लेखक ने ही टीका की हो तो बात दूसरी है। मगर ऐसा होता तो शायद ही है। और अगर टीका में भी कहीं शक हो या वही कहीं समझ में न आए तो? आखिर वचन ही तो वह भी ठहरी और जब पहले या मूल के वचनों में ही संदेह की गुंजाइश है तो बाद वाले (तूल या टीका के) वचनों में भी क्यों न होगी? यदि लेखक की ही बातें सुन के ही किसी ने टीका लिखी और मौके-मौके से उनसे पूछ भी लिया था, तो भी इसका क्या सबूत है कि प्रश्नों का उत्तर ठीक ही मिला या उसने उसे ठीक ही समझा? पूछने और उत्तर देने वालों का दिमाग बराबर ही ठीक रहा और उसमें गड़बड़ी न रही, यह भी कौन कहे ?
कहते हैं कि पाणिनीय व्याकरण के सूत्रों पर जो पतंजलि का महाभाष्य है उसकी टीका सबसे पहले कैयट ने लिखी। उनके बारे में कहा जाता है कि बरसों यह हालत रही कि कोई बात वह एक दिन लिखते थे उसी को अगले दिन गलत बता के काट देते और फिर नए सिरे से लिखते थे। तीसरे दिन उसे भी काट के कुछ और ही लिखते! यही हालत बराबर रही! नतीजा यह हुआ कि हाथी के नहाने की-सी इस हालत से उन्हें सख्त अफसोस हुआ। वे खिन्न हो गए। नौबत यहाँ तक पहुँची कि मरणासन्न दीखने लगे। उस पर उनकी माँ ने सारी बातें जानके किसी अपने मित्र को बुलाया और उपाय पूछा। उसने रास्ता सुझाया कि कैयट को रात में दही और उड़द खिलाया जाए, तो इनकी बुद्धि मंद हो जाएगी। फिर तो जो भी एक बार लिखेंगे उसकी भूल शायद ही सूझे और इस प्रकार जिस काम के पूरे न होने की चिंता से वे मर रहे हैं वह पूर्ण हो जाएगा। यही किया गया और धीरे-धीरे वे स्वस्थ होने लगे। उधर टीका लिखने में प्रगति भी काफी हुई। जब कुछ दिनों बाद किसी मित्र ने उनसे खुद उनकी हालत पूछी तो उनने उत्तर दिया कि 'अब क्या पूछना है? अब तो बुद्धि को ही चुरा लेने वाले उड़द खा रहा हूँ' - ''अधुना शेमुषीमोषान्माषानश्नामि नित्यश:''! यही बात औरों की भी क्यों न होगी? फिर तो यदि रोज ही शास्त्र बदले तो ?
शास्त्रों और पुस्तकों की क्या बात कही जाए? एक-दो या दस-बीस हों तब न? यहाँ तो जितने मुनि उतने मत हैं - जितने लेखक उनसे कई गुना किताबें हैं। हिंदुओं के ही घर में एक व्यास के नाम से जानें सैकड़ों पोथियाँ हैं। खूबी तो यह कि वह भी एक दूसरे से नहीं मिलती हैं! उनमें भी परस्पर विरोधी बातें सैकड़ों हैं, हजारों हैं। तब किसे मानें किसे न मानें? और जब एक की ही लिखी बातों की यह हालत है, तो विभिन्न लेखकों का खुदा ही हाफिज! उनके वचनों में परस्पर विरोध होना तो अनिवार्य है! भिन्न-भिन्न दिमागों से निकले विचार एक हों तो कैसे? सभी दिमाग एक हों तो काम चले। मगर यह तो अनहोनी बात ठहरी। फलत: शास्त्रों के द्वारा किसी काम के भले-बुरेपन का निर्णय भी वैसा ही समझिए।
यदि चुनाव के जरिए राय लेके जो बहुमत से तय पाए वही ठीक माना जाए तब तो और भी गड़बड़ी होगी। समूचे संसार का मत तो मिली नहीं सकता। एक देश या प्रांत की भी यही हालत है। उलटा-सीधा समझाने वाले तो होते ही हैं। उसी से गड़बड़ होती है। जोई लोग एक बार एक तरह की राय देते हैं वही औरों के समझाने पर दूसरी बार बदल दे सकते हैं। उन बेचारों का इसमें कसूर भी क्या? उन्हें समझ हो तब न? और अगर यही समझ हो जाए तो फिर शास्त्र की जरूरत ही क्यों हो? समझदारों के लिए तो वह चाहिए नहीं। सबों को समझदार बना देना तो असंभव भी है। समझ की कोई नाप-जोख भी तो नहीं है कि वह कितनी चाहिए, कैसी चाहिए। इसका पता भी कैसे लगेगा? और अगर यही बात हो जाए तो गलत प्रचार की महिमा ही चली जाए। एक ही मुकदमे में ऐसा देखा जाता है कि वह जितने न्यायधीशों के सामने जाता है उसका उतने ही ढंग का मतलब लगता है। इसीलिए महाभारत वाले उक्त वनपर्व के वचन में साफ लिख दिया है कि 'तर्क-दलील का तो ठिकाना ही नहीं, वह तो दिमाग के ही मुताबिक बदलता है। वेदशास्त्र के वचन तो अनेक तरह के हैं - एक ही बात के लिए परस्पर विरोधी वचन मिलते हैं। ऋषिमुनि तो एक ठहरे नहीं कि उनकी बात से काम चल जाए। नतीजा यह है कि धर्म की हकीकत अँधेरी गुफा के भीतर बंद चीज जैसी हो गई है! तो फिर उपाय क्या? बड़े-बूढ़े जिस रास्ते गए हों या पंचों ने जो तय किया हो वैसी ही बात करके काम निकालना चाहिए' - ''तर्कोऽप्रतिष्ठ: श्रुतयो विभिन्ना नैको ऋषिर्यस्य वच: प्रमाणम्। धर्मस्य तत्तवं निहितं गुहायां महाजनो येन गत: स पन्था:।''
श्रद्धा का स्थान
मगर गीता का यह उत्तर नहीं है। काम चलाने की या गोल-मोल बातें गीता की शान के खिलाफ हैं। उसे तो साफ और बेलाग बोलना है। इसीलिए वह कहती है कि 'त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा। सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां शृणु॥ सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत। श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छृद्ध: स एव स:' (17। 2-3)। इसका आशय है, 'आदमियों की श्रद्धा स्वभावत: तीन ही तरह की होती है, सात्विक, राजस और तामस। इस श्रद्धा की हालत सुनिए। सत्त्वगुण के तारतम्य के हिसाब से ही सबों की श्रद्धा होती है और आदमी को तो श्रद्धामय ही समझना होगा। इसीलिए जिसकी श्रद्धा जैसी हो वह वैसा ही समझा जाए।' इसका निचोड़ यह है कि जिसका हृदय सत्त्व प्रधान है - जिसमें सत्त्वगुण की प्रधानता है - वह सात्त्विक आदमी है। जिसमें सत्त्व दबा हुआ है और रजोगुण की प्रधानता है। वह राजस है। जिसमें सत्त्व के बहुत ही अल्प होने के साथ ही रजोगुण भी दबा है और तमोगुण ही प्रधान है वही तामसी मनुष्य होता है। और जैसा मनुष्य वैसी श्रद्धा या जैसी श्रद्धा वैसा ही मनुष्य, यही सिद्धांत माननीय होने के कारण जैसी ही श्रद्धा के साथ काम किया जाएगा वैसा ही भला या बुरा होगा। सात्त्विक श्रद्धावाला बहुत अच्छा, राजसवाला बुरा और तामसवाला बहुत ही खराब समझा जाना चाहिए।
इसका मतलब समझना होगा। हरेक कर्म के करने वाले का वश परिस्थिति पर तो होता नहीं कि वह विद्वान हो, विद्वानों के बीच में ही रहे, पढ़ने-लिखने की पूरी सामग्री उसे मिले, उसकी बुद्धि खूब ही कुशाग्र हो, वह भूल कभी करी न सके। ऐसा होने पर वह मनुष्य ही क्यों हो? और उसके कर्तव्याकर्तव्य का झमेला ही क्यों उठे? वह तो सब कुछ जानता ही है। एक बात और। वह शास्त्रों के वचनों के अनुसार ही काम करें, यह तो ठीक है। मगर सवाल तो यह है न, कि उन वचनों का अर्थ वह समझे कैसे? किसकी बुद्धि से समझे? कल्पना कीजिये कि मनु ने एक वचन कर्तव्य के बारे में लिखा है जिसका अर्थ समझना जरूरी है। क्योंकि बिना अर्थ जाने अमल होगा कैसे? तो वह अर्थ मनु की ही बुद्धि से समझा जाए या करने वाले की अपनी बुद्धि से? यदि पहली बात हो, तो वह ठीक-ठीक समझा तो जा सकता है सही, इसमें शक नहीं। मगर करने वाले के पास मनु की बुद्धि है कहाँ? वह तो मनु के ही पास थी और उनके साथ ही चली गई।
अब यदि यह कहें कि करनेवाला अपनी ही बुद्धि से मनु के वचन का भाव समझे, क्योंकि मनु की बुद्धि उसमें होने से तो वह भी खुद मनु बन जाएगा और समझने की जरूरत उसे रहेगी ही नहीं; तो दिक्कत यह होती है कि अपनी बुद्धि से मनु का आशय कैसे समझें? जो चीज मनु की बुद्धि में समाई वही वैसे ही उसकी बुद्धि में तभी समा सकती है जब उसे भी मनु जैसी ही बुद्धि हो मगर यह तो असंभव है ऐसा कही चुके हैं। सभी लोग मनु कैसे बन जाएँगे? फलत: जैसा समझेगा गलत या सही वैसा ही ठीक होगा। दूसरा उपाय है नहीं। फिर तो वैसा ही गलत या सही करेगा भी। किया भी आखिर क्या जाए? मगर तब शास्त्र की बात की कीमत क्या रही? एक ही शास्त्र-वचन के हजार अर्थ हो सकते हैं अपनी-अपनी समझ के अनुसार, और यह एक खासा तमाशा हो जाएगा।
एक बात और भी है। यदि मुनि की ही समझ के अनुसार चलना हो तो बुरे-भले का दोष-गुण मनु पर न जाके करने वाले पर क्यों जाए? वह अपनी समझ से तो कुछ करता नहीं। उसकी अपनी समझ को तो कर्म-अकर्म के संबंध में कोई स्थान हई नहीं। उसे मनु का आशय ठीक-ठीक समझना जो है। और अगर यह बात नहीं है तो शास्त्र के आदेश और विधि-विधान का प्रयोजन ही क्या है? यदि मनु के माथे दोष-गुण न लदें इस खयाल से करने वाले को अपनी ही बुद्धि से समझना और करना है तब शास्त्र बेकार है। यह ठीक है कि जिसे अधिकार दिया गया है उसी पर जवाबदेही आती है। मगर यह जवाबदेही तो बिना शास्त्र के भी आई जाएगी। चाहे शास्त्र की बातें अपनी अक्ल से समझ के करे या बिना शास्त्र-वास्त्र के ही अपनी ही समझ से जैसा जँचे वैसा ही करे। दोनों का मतलब एक ही हो जाता है। फलत: शास्त्र खटाई में ही पड़ा रह जाता है। यही समझ के अर्जुन ने शंका की थी कि 'जो लोग शास्त्रीय विधि-विधान का झमेला, किसी भी तरह, छोड़ के श्रद्धापूर्वक यज्ञादि कर्म करते हैं उनकी हालत क्या होगी? वे क्या माने जाएँ - सात्त्विक, राजस या तामस?' - 'ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजंते श्रद्धयान्विता:। तेषां निष्ठा तु का कृष्ण सत्त्वमाहो रजस्तम:' (17। 1)।
गीता में इसका जो कुछ उत्तर दिया गया है वह यही है कि शास्त्र की बात तो यों ही है। इसीलिए इसे बच्चों को फुसलाने वाली चीज पुराने लोगों ने मानी है - 'बालानामुपलालना'। असली चीज जो कर्म के स्वरूप को निश्चित करती है वह है करने वाले की श्रद्धा ही। जैसा हमारी समझ में - हमारे दिल-दिमाग में - आया वैसा ही हमने ईमानदारी से किया, यही श्रद्धापूर्वक करने का मतलब है। यह नहीं कि समझते हैं कुछ और धारणा है कुछ। मगर डर, शर्म या लोभ वगैरह के चलते करते हैं कुछ और ही। फिर भी श्रद्धा के नाम से पार हो जाएँ। श्रद्धापूर्वक करने का ऐसा मतलब हर्गिज नहीं है। तब तो अंधेरखाता ही होगा और उसी पर मुहर लग जाएगी। दिल-दिमाग, जबान और हाथ-पाँव आदि के मेल या सामंजस्य की जो बात पहले कही गई है उसी से यहाँ मतलब है। उसमें जरा भी फेरफार नहीं होना चाहिए। जितना ही फेरफार होगा उतनी ही गड़बड़ और कमी समझिए। सत्रहवें अध्याय के अलावा 7वें के 20-23 तथा नवें के 23-33 श्लोकों में भी यही भाव दर्शाया गया है। यदि गौर से विचारा जाए तो उनका दूसरा मतलब होई नहीं सकता। उनके बारे में प्रसंगवश आगे भी प्रकाश डाला जाएगा। चौथे अध्याय के 11, 12 श्लोक भी कुछ ऐसे ही हैं।
इससे यह भी हो जाएगा कि करने वाले पर ही उत्तरदायित्व होगा। क्योंकि समझ के ही साथ उत्तरदायित्व चलता है। इसीलिए रेल से आदमी कट जाने पर जिनके ऊपर उसकी जवाबदेही नहीं होती; हालाँकि काटने का काम वही करता है। किंतु ड्राइवर पर ही होती है। उसे समझ जो है। यही कारण है कि पागल आदमी के कामों की जवाबदेही उस पर नहीं होती। वह समझ के करता जो नहीं है। यदि हमने गलत को ही सही समझ के ईमानदारी से उसे ही किया तो हम अपराधी नहीं हो सकते, यही गीता की मान्यता है। यद्यपि संसार में ऐसा नहीं होता है। मगर होना तो यही चाहिए। जो कुछ विवेचन अब तक किया गया है उससे तो दूसरी बात उचित होई नहीं सकती। यह ठीक है कि एक ही काम इस तरह कई ढंग से - यहाँ तक कि परस्पर विरोधी ढंग से भी - किया जा सकता है और सभी करने वाले निर्दोष और सही हो सकते हैं यदि उनने श्रद्धा से किया है जैसा कि बताया गया है। युक्ति-युक्त रास्ता तो इसके लिए यही हई। और यदि यह नई बात है तो गीता तो नई बातें बताती ही है।
धर्म व्यक्तिगत वस्तु है
यहाँ तक के विवेचन ने यह बात साफ कर दी कि धर्म या कर्तव्याकर्तव्य सोलहों आना व्यक्तिगत चीज है। न कि वह सार्वजनिक वस्तु है, जैसा कि आमतौर से माना जाता है। जब अपनी-अपनी समझ के ही अनुसार श्रद्धापूर्वक धर्म या कर्म करने का सिद्धांत तय पा गया और उसका मतलब भी साफ हो गया कि दिल, दिमाग, जबान और हाथ-पाँव आदि कर्मेंद्रियों में सामंजस्य होने का ही नाम श्रद्धापूर्वक करना है, तो फिर सार्वजनिकता की गुंजाइश रही कहाँ? जब श्रद्धा, ईमानदारी और सच्चाई से (honestly and sincerely) कर्म करने का अर्थ साफ हो गया और जब पूर्वोक्त चारों के सामंजस्य को सच्चाई तथा ईमानदारी से अलग कोई चीज नहीं मान सकते; या यों कहिए कि सच्चाई और ईमानदारी इस सामंजस्य या मेल से भिन्न कोई चीज नहीं, तो यह कैसे होगा कि दो-चार की भी समझ, श्रद्धा या ईमानदारी एक ही हो। ये सब चीजें?, ये सब गुण तो पूर्णरूप से व्यक्तिगत हैं। जो समझ हममें है वही दूसरे में कैसे होगी? यदि एकाध बात में दोनों का मेल भी दैवात हो जाए तो भी क्या? एकता का तो अर्थ है हर बात में मिल जाना और यही चीज गैरमुमकिन है। जब श्रद्धा और समझ पर बात आ जाए तो क्या यह संभव है कि सभी हिंदू संध्या पूजा करें या चुटिया रखें, या सभी मुस्लिम दाढ़ी रखें और रोजा-नमाज मानें? लोगों को आजाद कर दीजिए और दबाव छोड़ दीजिए, पाप नरक आजाब, दोजख आदि का भय उनके दिमाग से हटा दीजिए और देखिए कि क्या होता है। एक संध्या करेगा तो दूसरा उसके पास भी न जाएगा। तीसरा कुछ और करेगा और चौथे की निराली ही दशा होगी। यही बात रोजा-नमाज़ में भी होगी।
धर्म स्वभावसिद्ध है
सत्रहवें अध्याय के जिस दूसरे श्लोक को पहले उद्धृत किया है उसमें श्रद्धा को स्वभावसिद्ध 'स्वभावजा' कहा है। वह कृत्रिम चीज नहीं है। डर, भय आदि को तो दबाव डाल के या प्रलोभन से पैदा भी कर सकते हैं। मगर इन उपायों से श्रद्धा कभी उत्पन्न की जा सकती नहीं और वही है धर्म के स्वरूप को ठीक करने वाली असल चीज। वहाँ और उसके पहले समूचे चौदहवें अध्याय में तथा और जगह भी ऐसा प्रतिपादन किया गया है कि सत्त्व, रज और तम इन तीन गुणों के ही अनुसार श्रद्धा आदि दिव्यगुण मनुष्यों में पाए जाते हैं। हममें किसी को शक्ति भी नहीं कि उन गुणों को डरा धमका के या दबाव डाल के बदल सकें। शरीर, इंद्रियादि के निर्माण में जो गुण जहाँ जिस मात्रा में आ गया वह तो रहेगा ही। हम तो अधिक से अधिक यही कर सकते हैं कि समय-समय पर दबे रहने या न मालूम होने पर उसे प्रकट कर दें, जैसे पंखे के जरिए हवा पैदा नहीं की जाती, किंतु केवल प्रकट कर दी जाती है। हवा रहती तो है सर्वत्र। मगर मालूम नहीं पड़ती और पंखा उसे मालूम करा देता है, बिखरी हवा को जमा कर देता है। और स्वभाव तो लोगों के भिन्न होते ही हैं। इसीलिए हरेक के धर्म भी भिन्न ही होंगे। दो के भी धर्मों का कभी मेल हो नहीं सकता।
इतना ही नहीं। अठारहवें अध्याय के 41-44 श्लोकों में दृष्टांत-स्वरूप चारों वर्णों के कर्मों और धर्मों का विस्तृत वर्णन है। लेकिन यह कितनी विचित्र बात है कि चारों के धर्मों को अलग-अलग गिनाने के साथ-साथ 'स्वभावजं' - स्वाभाविक या स्वभावसिद्ध - यह विशेषण चार बार आया है। इसमें एक ही मतलब हो सकता है और वह यह कि गीता को इस बात पर ज्यादा से ज्यादा जोर देना है कि वर्णों और आश्रमों के जितने भी धर्म हैं सबके सब स्वाभाविक हैं, न कि कृत्रिम, बनावटी या डर, भय से पैदा किए गए। मगर इतने से ही संतोष न करके ठेठ 41वें श्लोक में भी, जहाँ चारों का एक स्थान पर ही नाम लिया है, साफ ही कहा है कि 'इन चारों के काम बँटे हुए हैं और यह बात गुणों के अनुसार बने हुए स्वभाव के ही मुताबिक हुई है' - ''कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणै:''। गुणों में सत्त्व, रज और तम की कमी-बेशी तथा सम्मिश्रण के अनुपात के ही हिसाब से लाखों, करोड़ों या अनंत प्रकार के मनुष्यों के स्वभाव बने हैं और इन जुदे-जुदे स्वभावों के ही अनुसार उनके कर्म भी निर्धारित किए गए हैं।
स्वाभाविक क्या है ?
इस वर्णन में एक और भी खूबी है। लोग तो आमतौर से यही समझते हैं कि ब्राह्मणमात्र के लिए एक ही प्रकार के धर्म हैं। यही बात क्षत्रियादि के भी संबंध में समझी जाती है। गीता में भी इन धर्मों को इसी प्रकार गिनाया है। इसलिए शंका हो सकती है कि फिर भी तो यह धर्म सामूहिक ही हो गया। व्यक्तिगत तो रहा नहीं। क्योंकि ब्राह्मण-समूह का एक धर्म हुआ ही और इसी तरह क्षत्रियादि के भी समूह का। यही बात शेख, सैयद, मुगल और पठान की भी हो सकती है और पादरी तथा गृहस्थ क्रिस्तान की भी। उसके बाद ब्राह्मणादि चारों को मिला के हिंदू समूह का भी एक धर्म होई जाता है, शेख, सैयद आदि का मिला के मुसलमान समुदाय का भी और पादरी तथा गृहस्थ का मिला के ईसाई का भी। इस प्रकार घूम-फिर के हम वहीं पहुँच जाते हैं जहाँ से चले थे और 'हैं वहीं पहले जहाँ थे, क्योंकि दुनिया गोल है' की बात आ जाती है।
इसी का उत्तर 'स्वभावप्रभवैर्गुणै:' में दिया गया है। गीता तो कहती है कि धर्म की बात भेंड़ों जैसी अंध परंपरा की नहीं है कि फलाँ ब्राह्मण है, तो फलाँ क्षत्रिय। यह कोई निश्चित और बँधी बँधाई बात नहीं है, कि फलाँ ब्राह्मण हई, या होगा ही और फलाँ क्षत्रिय, जैसा कि आज माना जाता है। आज तो हालत यह है कि कर्म भी नहीं देखे जाते। किंतु एक तरह की दुकानदारी ब्राह्मणादि वर्ण धर्मों के नाम पर चल पड़ी है। मगर इस वर्तमान परंपरा की जड़ में भी यही बात थी कि कर्मों से ही ब्राह्मणादि को जानते या पकड़ते थे - पकड़ने लगे थे। इसका आशय यह है कि कर्मों की एक परंपरा और प्रणाली जारी कर दी गई थी और बचपन से ही वही कर्म (काम) कराए जाते थे। किसी के स्वभाव की परीक्षा न की जाती थी। माता-पिता को जान लिया और पता पा लिया कि उन्हीं से बच्चा पैदा हुआ है। फिर क्या था? माता-पिता के ही वर्ण के अनुसार बच्चे के कर्म-धर्म ठीक कर दिए गए और इस प्रकार समय पाके वही ब्राह्मण, क्षत्रियादि बना जैसा कर्म करता रहा। माँ-बाप भी वर्ण इसी प्रकार उनके माँ-बाप के ही आधार पर कर्म कराके ठीक किया जाता था। यही शैली थी, यही प्रणाली थी। इसमें कर्म पर ही जोर था, दारमदार था। यही कारण है कि विश्वामित्र को ब्राह्मण मानने में दिक्कतें पेश आयीं। क्योंकि माता-पिता की बात उनके बारे में कुछ दूसरी ही थी। मगर इसमें इतनी तो बात थी कि कर्मों पर जोर था। फलत: जिसमें कर्म न हो वह वर्णच्युत और पतित हो जाता था - वह 'धोबी का कुत्ता घर का न घाट का' माना जाता था। मगर आज तो इतना भी नहीं है। आज तो केवल माँ-बाप से जन्म ही काफी है ब्राह्मणादि बनने के लिए!
मगर गीता के अनुसार तो उलटी बात थी, उलटी बात होती है, उलटी बात चाहिए। गीता तो कर्म के पहले माँ-बाप से उत्पत्ति को न देख स्वभाव देखती है। वह तो इस बात की जाँच-पड़ताल करती है कि जिससे किसी भी कर्म की आशा की जाती है उसका स्वभाव कैसा है। आखिर सियार, हाथी और सिंह का स्वभाव तो एक-सा है नहीं। इसीलिए उनके काम भी एक से नहीं हैं। यदि स्वभाव का खयाल न करके 'सब धान बाईस पसेरी' तौला जाए और गीदड़ से सिंह के काम की आशा की जाए तो सिवाय नादानी और निराशा के और होगा ही क्या? इसीलिए गीता सबसे पहले स्वभाव देखती है जो शुरू में ही शरीर रचना में शामिल हुए थे। क्योंकि स्वभाव के नाम पर गड़बड़ हो सकती है और कोशिश से सिखा-पढ़ा के थोड़े समय के लिए कोई भी किसी काम के लिए तैयार किया जा सकता है - कोई भी 'ठोंक-पीट के तत्काल वैद्यराज' बनाया जा सकता है और स्वभाव नाम इस बात को भी दिया जा सकता है। आखिर पहचान हई क्या? इसीलिए गीता मूलभूत गुणों को ही पकड़ती है जो कृत्रिम नहीं हैं। फलत: कल्पित या चंदरोजा चीज कब तक टिक सकेगी? सारांश यह कि बहुत गौर से दीर्घकाल तक पर्यवेक्षण के बाद ही स्वभाव का निश्चय होता है, ऐसी बात गीता को मान्य है। उसके बाद ही उसी के अनुसार कर्म कराया जाना - किया जाना - चाहिए, ऐसी मान्यता गीता की है और अंततोगत्वा वर्णों का अंतिम निश्चय उसी से होता है। महाभारत में लिखा है कि पहले कोई वर्ण न थे - सब एक ही समान थे; पीछे स्वाभाविक कर्मों के अनुसार ही वर्ण बने। ज्यादे से ज्यादा यही कि सभी ब्राह्मण ही थे - पीछे वर्ण विभाग हुआ - 'न विशेषोऽस्ति वर्णानां सर्वं ब्राह्ममिदं जगत। ब्रह्मणा पूर्व सृष्टं हि कर्मभिर्वर्णतां गतम्' (मोक्षधर्म 188। 10)। फिर वर्णों का विवरण भी दिया है। इससे भी यही बात सिद्ध होती है।
इस तरह हमने देखा कि गीता कर्मों से वर्णों को पकड़ने के बजाए गुणों के अनुसार बने स्वभाव से ही कर्मों को पकड़ना उचित समझती है। हमारा तो ऐसा खयाल है कि गीता के अलावा औरों की भी मान्यता पहले ऐसी ही थी। उसी का पतन होते-होते वर्तमान दशा को यह धर्म पहुँच गया है। लेकिन गीता के बारे में तो शक की जगह हई नहीं कि उसने यही माना है। ऐसी दशा में धर्म को सामूहिक रूप मिली कैसे सकता है? यह तो जरूरी नहीं कि ब्राह्मण का बच्चा ब्राह्मण ही हो, यदि ठीक-ठीक गुण और स्वभाव की पाबंदी की जाए और उसी कसौटी पर कसा जाए। यह भी नहीं कि अगर ब्राह्मण का लड़का ब्राह्मण हो भी गया तो भी बाप और बेटा - दोनों ही - एक ही तराजू पर सोलह आना पाव रत्ती ठीक उतर जाएँ - बराबर हो जाएँ। यह तो तभी संभव है जब दोनों की समझ एवं श्रद्धा और दोनों के स्वभाव एक हो जाएँ। मगर ऐसा होना गैरमुमकिन है यह पहले ही कहा जा चुका है। यह दूसरी बात है कि जैसे एक ही कक्षा में पढ़ने वाले छात्रों में समता न होने पर भी उनका एक वर्गीकरण व्यवहार के लिए होता है वैसा ही यहाँ भी होता रहा हो और आगे भी हो। मगर उसका मतलब यह तो नहीं है कि समानता और एकता हो गई। योग्यता तो सबों की भिन्न-भिन्न रहती ही है, रहेगी ही। एक वर्ण कहने का तो मतलब केवल यही है कि उस तरह के कर्मों के लिए कौन-से लोग यत्न करें और कौन उनके योग्य है यह मालूम हो जाए।
जिस प्रकार किसी की निजी चीज होती है, अपनी समझ तथा योग्यता होती है, अपना शरीर और स्वास्थ्य होता है; न तो उस पर किसी का अधिकार होता है और न उसकी अपनी चीज से एकता और समानता किसी और की वैसी ही चीज से होती है। ठीक उसी प्रकार धर्म की भी बात है। वह भी हरेक आदमी का अपना निजी और व्यक्तिगत पदार्थ है। उसमें किसी का साझा या हिस्सा नहीं है। धर्म सामूहिक - समूह की - चीज न होकर व्यक्तिगत है, हर व्यक्ति का जुदा-जुदा है। अगर दो आदमी एक ही ढंग से खाना खाते हों और एक ही चीज खाते हों, तो भी दोनों के खाने की क्रिया दो होगी, न कि एक। धर्म की भी यही बात है। यह बात गीता ने निर्विवाद सिद्ध कर दी है। कम से कम अपना मंतव्य उसने यही बता दिया है। यदि यही मंतव्य संसार में व्यापक हो जाए, सार्वभौम हो जाए - यदि यह गीताधर्म (गीता का बताया धर्म) संसार मान ले - तो धर्म के झगड़े रहने ही न पाएँ। इनके करते आज जो हमारा देश नरक बन रहा है और गजब की बला में आ फँसा है, वह तो न रहे। आज जो भाई का गला भाई और पड़ोसी का पड़ोसी धर्म की वेदी पर चढ़ाने को आमादा है, वह तो न हो। धर्म की यह नापाकीजगी तो मिट जाए।
इसी के चलते - धर्म को जो लोगों ने सामूहिक चीज समझ उसी के नाम पर भेड़ों की तरह लोगों को मूँड़ना शुरू कर दिया है। उसी के करते - तो राजनीति भी पनाह माँगती है। पंडित, मौलवी और पादरी हजारों लोगों को यों ही मूँड़ के जानें क्या-क्या अंटसंट सिखाते फिरते हैं। वे लोग कमाने वाली जनता को - किसानों और मजदूरों को - अपने पाँवों खड़े होने देना नहीं चाहते इसी धर्म के नाम पर और इसी की ओट में। जब किसानों और मजदूरों में वर्गचेतना पनपती है, शुरू होती है और प्रगति करती है तो इन धर्माचार्यों के घर में जाने क्यों आतंक छा जाता है और ये मातम मनाने लगते हैं! इनके पास कोठियाँ, कल-कारखाने और जमींदारियाँ न भी हों - और ज्यादातर के पास तो ये चीजें होती भी नहीं; उनका काम तो चेलों और मुरीदों की 'पूजा' और चढ़ावे से ही चलता है - तो भी ये जानें क्यों घबरा जाते हैं और नंगे पाँव दौड़ पड़ते हैं किसान-मजदूरों को उलटा-सुलटा समझाने और गुमराह करने के लिए। कर्म, तकदीर, भाग्य और भगवान ही तो धर्म के स्तंभ और पाए माने जाते हैं और उन्हीं के नाम पर किसानों तथा मजदूरों को ये भलेमानस वर्ग-संघर्ष और हक की लड़ाई से खामख्वाह रोकते हैं! सीधे और भोले लोग तो इन्हें पवित्र, धर्ममूर्त्ति, भगवान के दूत और पारसा समझते हैं - कम से कम उनका यही विश्वास होता है। यही कारण है कि ये गरीब ठगे जाते हैं और मालदार-जमींदारों के घर घी के चिराग जलते हैं! धर्म के नाम पर यदि और नहीं हो सका तो किसानों और मजदूरों के संघ ही अलग-अलग बनवा दिए जाते हैं! जब कभी वर्ग-संघर्ष चालू हो तो ये धर्माचार्य कहे जाने वाले पादरी, पुरोहित और मुल्ला अपने को धर्म के ठेकेदार कहके नियमत: धनियों और मालदारों का ही साथ देते हैं और शोषितों एवं पीड़ितों को छोड़ देते हैं; हालाँकि वही इनके चेले होते और उन्हीं से इनकी गुजर होती है।
2. मार्क्सवाद और धर्म
'Religion cannot be stopped. Conscience cannot be stilled. Religion is a matter of conscience and conscience is free. Worship and religion are free' (Stalin to Dean of Canterbury.)
'धर्म को रोका नहीं जा सकता। अंतरात्मा या हृदय को दबाया नहीं जा सकता। धर्म तो हृदय की चीज है और हृदय है स्वतंत्र। इसीलिए पूजा और धर्म स्वतंत्र हैं।' (स्तालिन का उत्तर)।
यही कारण है - यह एक प्रमुख कारण है - जिसके करते मार्क्सवाद में धर्म का विरोध पाया जाता है। धर्म को मानवसमाज के लिए अफीम (Religion is the opium of the people) बताने की यही असली वजह है। क्योंकि शोषितों तथा पीड़ितों पर धर्माचार्यों का जादू चल जाता है और उनके उत्थान के लिए होने वाला सारा यत्न बेकार-सा हो जाता है। ऐसी परेशानी होती है कि कुछ कहिए मत। हम मानते हैं कि धर्म के संबंध में मार्क्सवाद की निश्चित बातें हैं और पक्के मार्क्सवादी इस मामले में बुनियादी तौर पर अलग जाते और कोई रियायत करने को तैयार नहीं हैं। लेनिन ने धर्म-संबंधी अपने एक लेख में कहा है कि 'मार्क्सवाद तो भौतिकवाद है। इसीलिए वह बेमुरव्वती के साथ धर्म का विरोध करता है' - "Marxism is materialism. As such it is ruthlessly hostile to religion." मगर घबराने का सवाल नहीं है। यदि ठंडे दिल से विचारें तो पता चलेगा कि इसकी तह में और चीज है। सभी सिद्धांत की स्थापना और प्रतिपादन के मूल में कुछ खास बातें और परिस्थितियाँ रहती हैं और अगर हम उन पर खयाल न करें तो गलती कर सकते हैं।
मार्क्सवाद का मूल सिद्धांत द्वन्द्ववाद (dialectics) है और उसका यदि अबाध प्रयोग किया जाए - और दूसरी बात हो भी नहीं सकती - तो श्रेणीविहीन समाज के बन जाने के बाद भी यह द्वन्द्ववाद तो चालू रहेगा ही। उसका परिणाम क्या होगा, कौन कहे? यदि द्वन्द्ववाद से प्रगति होती है तो यह तो मानना ही होगा कि वर्गविहीन समाज सभी प्रगति के साधनों से पूर्णरूपेण संपन्न होने के कारण और भी उन्नति करेगा, सभी तरह की उन्नति - शारीरिक, मानसिक, वैज्ञानिक आदि - जिसके फलस्वरूप कौन-कौन से अज्ञात तत्त्व विदित होंगे यह कौन बताए? मार्क्सवाद तो श्रेणीविहीन समाज तक ही फिलहाल रुक जाता है। दरअसल बात यह है कि ज्ञान की ठेकेदारी ले लेना अच्छा नहीं, बुद्धिमानी नहीं। यदि उस समय ईश्वर या आत्मा का पता लग जाए तो क्या इनकार किया जाएगा, सिर्फ इसीलिए कि मार्क्सवाद उसे नहीं मानता? बुद्धिमानी इसी में है कि भविष्य के झमेले में न पड़ें और उसका रास्ता किसी के भी लिए बंद न करें - चाहे वह ईश्वरवादी बननेवाला हो या अनीश्वरवादी ही रहनेवाला हो। हाँ, आज इसके करते दिक्कत है, आज ईश्वरवाद प्रगति का बाधक है। क्योंकि जिस ज्ञान पर ही उसका टिक सकना या न टिक सकना संभव है और उचित भी है उसी का बाधक वही बन गया है! जिसे ज्ञानस्वरूप कहा जाए वही ज्ञानप्रसार का विरोधी! मगर स्थिति कुछ ऐसी ही बेढब है। इसलिए प्रगति चाहने वालों को सारी शक्ति लगा के उसका बेमुरव्वती से विरोध करना चाहिए - ऐसा करना चाहिए कि किसी भी तरह वह हमारे रास्ते में अड़ंगे डाल न सके। बस! मेरे जानते यही मार्क्स का आशय है, होना चाहिए और लेनिन के उक्त वाक्यों का यही अर्थ मैं समझता हूँ। इसीलिए इसमें साथ भी देता हूँ। आगे यह बात और भी साफ होगी।
लेनिन उसी लेख में आगे लिखता है, 'The fight against religion must not be confined to abstract preaching. The fight must be linked up with the concrete practical class movement directed towards eradicating the social roots of religion.'
'No education books will obliterate religion from the minds of those condemned to hard labour of capitalism, untill they themselves learn to fight in a united, organised, systematic and conscious manner the roots of religion, the domination of capital in all its forms.'
'धर्म के विरुद्ध लड़ी जाने वाली लड़ाई सिर्फ दिमागी बहस-मुबाहसे तक ही परिसीमित न होनी चाहिए। किंतु धर्म की जड़ के रूप में जो सामाजिक बातें हैं उन्हें खत्म करने के लिए जो वर्ग-आंदोलन और संघर्ष चलें - चलाए जाएँ - उनके साथ इसे जोड़ देना चाहिए।'
'धर्म की जो जड़ पूँजीवाद की अनेक सूरतों के रूप में कायम है उसे मिटाने के लिए संयुक्त, संगठित, नियमित और समझदारी के साथ लड़ाई चलाना जब तक वे सीख न जाएँ तब तक पूँजीवाद के नीचे सख्त मिहनत ही जिनके पल्ले पड़ी है उन लोगों के दिमाग से कोई भी पढ़ने-लिखने की किताब इस धर्म को जड़मूल से निकाल नहीं सकती है।'
लेनिन के ये उद्धरण इसलिए महत्त्व रखते हैं कि वह इस बात पर जोर देते हैं कि धर्म के खंडन-मंडन के झमेले में पड़ने के बजाए शोषितों का वर्गसंघर्ष ही खूब संगठित रूप से बराबर चलाना और उनमें वर्गचेतना पैदा करना यही बुनियादी चीज है। वह बात नहीं चाहता, काम चाहता था। उसकी आँखें तो बड़ी तेज थी। वह बहुत ही दूर तक देखता था। उसने समझ लिया कि धर्म और ईश्वर के खंडन-मंडन की वितण्डा में पड़के जनसेवक लोग कहीं के न रहेंगे - भटक जाएँगे। काम तो इससे कुछ होगा नहीं। केवल अक्ल की बदहजमी मिटेगी। हाँ, सीधे-सादे जन-साधारण विरोधी जरूर हो जाएँगे। धर्मध्वजी - धर्म के ठेकेदार - उन्हें जनसेवकों और क्रांतिकारियों के खिलाफ आसानी से भड़का देंगे। क्योंकि तर्क दलीलों की पेचीदगी तो वे समझ पाएँगे नहीं। इधर मुल्ले लोग अपनी चिकनी-चुपड़ी बातें आसानी से समझा के उन्हें विरोधी बना देंगे। यदि नास्तिक और धर्मविरोधी लोग अपनी दलील के साथ-साथ गरीबों की कोई ठोस भलाई कर पाते और धर्मध्वजी लोग नहीं कर सकते, तो बात दूसरी होती। क्योंकि तब तो जनसाधारण आसानी से समझ जाते कि हो न हो यही हमारा मित्र है। धर्म के विरुद्ध बोलता है तो क्या? काम तो हमारा ही करता है न? यदि दो-चार लात मार के भी गाय काफी दूध दे, तो बुरा कौन माने? यही वजह है कि लेनिन उस संघर्ष पर ही जोर देता है जिससे जनता को लाभ होता है और वह खिंच आती है। लड़ाई ही ऐसी चीज है जो उसे अपनी ओर खींच लेती है।
एक बात और है। जब जनता दिमागी बारीकियों को समझ पाती ही नहीं और हमें उसी को समझा के उठाना है, तो ऐसा क्यों न करें कि दोनों पक्षवाले - आस्तिक-नास्तिक - साफ ही कह दें कि इस झगड़े से क्या काम? धर्म-वर्म भी तो लोगों के हितार्थ ही है और यहाँ जीते जी नारकीय यंत्रणा भोग के स्वर्ग जाने के बजाए जो यहीं आराम मिले वही ठीक। आखिर स्वर्ग के लिए कोई मरना तो चाहता है नहीं। इसलिए आइए पहले यहीं लोगों को आराम पहुँचाने के लिए ही कुछ कर लें, लोगों की तरफ से उनके हकों के लिए लड़ लें। हम जानते हैं कि धर्म के ठेकेदार ऐसा नहीं करेंगे। मगर जनसेवक उन्हें ऐसा करने के लिए मजबूर क्यों न करें? इससे लोगों के सामने उनका परदाफाश हो जाएगा, ज्यों ही उनने इसमें आनाकानी या बहानेबाजी शुरू की। हम तो उनसे और दूसरों लोगों से भी कह देंगे कि हमारा विश्वास है कि धर्मवादी लोग शोषकों का ही साथ खामख्वाह देते हैं - उनके दलाल होते हैं और कमानेवालों को धोखा देते हैं। फिर ऐसे लोगों का और उनके इस धर्म के सिद्धांत का विरोध करें न तो और क्या करें? न वे दूसरी बात कर सकते, सिवाय शोषकों के साथ देने के और न हम धर्म और ईश्वर के विरोध के जरिए उनका विरोध करने और उनकी जड़ उखाड़ने से रुक सकते। हाँ, यदि उनकी बात सच्ची है और जनहित की है तो आएँ पहले यहीं जनसेवा कर लें। तब माना जाएगा कि मरने पर भी उनका धर्म लोगों को लाभ पहुँचायेगा।
यह ऐसी बात है कि लोगों के दिल में जम जाएगी। इससे धर्माचार्यों की कलई भी खुल जाएगी और लोग उन्हें छोड़ के हमारे साथ आ जाएँगे। यही होगा। दूसरी बात हो नहीं सकती। इस तरह हम विजयी होंगे। यदि कहा जाए कि धर्मवाले लोग भी वर्ग-संघर्ष करेंगे, तो यह असंभव बात है। वह इक्के-दुक्के कहीं कुछ भले ही कर लें। मगर सर्वत्र डटके ऐसा कभी कर नहीं सकते। नहीं तो फिर उनका धर्म ही डूब जाएगा - उनके धर्म का सारा आधार ही खत्म हो जाएगा। यह काम वही कर सकते हैं जिनमें आत्मविश्वास हो, जो अपने ही यत्नों से सब कुछ कर डालने की हिम्मत और विश्वास रखते हों। मगर धर्मवाले तो दैव, तकदीर, कर्म, पूर्व जन्म की कमाई और भगवान पर ही भरोसा रखते हैं। उनका अंतिम दारमदार उन्हीं पर होता है। भाग्य में जो बदा होगा सोई होगा, भगवान की मर्जी होगी, जब यही मानना है तो जम के प्राणपन से कौन लड़े? और ये मुफ्त की हलवा-पूड़ी उड़ाके तोंद फुलाने वाले लड़ेंगे? लेकिन यदि असंभव भी संभव हो जाए और वही लोग सर्वत्र वर्गसंघर्ष सफलतापूर्वक चलाने लगें तो चिंता क्या? हमारा काम तो हो गया। मार्क्सवाद जो चाहता है वह हो गया! हमारा काम है वर्गविहीन समाज बनाना न कि ईश्वर को मिटाना या उसके पीछे लाठी लिए फिरना! यदि धार्मिकों ने ही ऐसा समाज बनाया तो भी हमारी जीत हो गई! हमें तो ऐसी दशा में यह कहने का भी हक है, हम तो तब ऐसा भी कह सकते हैं कि धर्म में भी जो गलत चीज है वह भी इसी संघर्ष में ऐसे ही मिट जाएगी जैसे श्रेणियाँ मिटेंगी। फिर शुद्ध समाज की तरह कोई शुद्ध धर्म भी अंत में बन जाए तो हर्ज क्या?
लेनिन या मार्क्स और एंगेल्स के मत में एक और भी खूबी है कि उसमें वर्गसंघर्ष की कसौटी पर धर्म को कसते हैं। हमने तो कही दिया है कि भविष्य का रास्ता मत बंद कीजिए। हाँ, इस समय ईश्वर और धर्म का रास्ता रोक दीजिए। भविष्य से हमारा मतलब है श्रेणीविहीन समाज बन जाने के बाद से। हमारे कलेजे के पास ही फोड़ा हो गया है और उसमें नश्तर लगना जरूरी है। नश्तर लगे भी जरूर; ताकि हम बचें। मगर ऐसा नश्तर हर्गिज न लगे कि कलेजा ही कट जाए और हमीं मर जाएँ। सदा के लिए धर्म या ईश्वर को इजाजत ही न देना और उन्हें आँख मूँद के मार देना कलेजे का चीरना हो जाएगा। हम उससे बचें तो क्या बुरा। हम बिच्छू का डंक बेमुरव्वती से निकाल लें जरूर। मगर उसे जान से मारने तक क्यों परेशान हों? हमें तो लोगों को उसके डंक से ही भविष्य में बचाना है न? या कि उसका खून भी पीना है? हाँ, तो फोड़े पर नश्तर जरूर लगाएँ। आज श्रेणीयुक्त समाज में धर्म के लिए स्थान नहीं है, ऐसा जरूर कहें और खुशी से कहें। मगर कहें या न कहें, हर हालत में वर्गसंघर्ष जरूर करें, ताकि ईश्वरवादियों की पोल खुल जाए। जितनी जरूरत है उतना ही कहें और करें। बहकें न। जरूरत से ज्यादा न बढ़ें जिससे कहीं बहक जाएँ। इससे सजग रहें। हमारे जानते यही मार्क्सवाद का इस संबंध का निचोड़ है।
मगर आइए, जरा और भी विस्तार के साथ लेनिन के इस संबंध के वचनों पर विचार कर लें जो उसी लेख में पाए जाते हैं। वह लिखता है -
'The workers in a certian district and in a certain branch of industry are divided, we will assume, into a progressive section of class conscious Social Democrats, who are, of course, atheists, and a rather backward section, which still maintains contact with the rural district and the peasantry, which believes in God, goes to church and is perhaps under the direct influence of a priest, who we will assume, has organised a christian Labour Union. Let us assume further that the economic struggle in this district has led to a strike. The duty of the Marxist is to place the success of this strike in the forefront and to prevent the workers from being split up into atheists and Christians. Atheist propaganda in such circumstances may be superfluous and even harmful, not from vulgar point of view of frightening away the backward workers, or losing a seat at the elections etc. but from the point of view of the real progress of class struggle, which in the condition of present day capitalist society will lead the Christian workers to Social Democracy and atheism a hundred times more effectively than bare atheist propaganda. In the condition described above an atheist preacher would simply play into the hands of the priests who desire nothing more than that the division among the workers as between strikers and blacklegs should be substituted by a division between atheists and Christians the anarchist preaching irreconcilable war against God would, in such conditions, actually be helping the priests and the bourgeoisie, as indeed the anarchists always help the bourgeoisie.
A Marxist must be a materialist, that is, an enemy of religion, but from the materialist and dialectical standpoint, i.e., he must conceive the fight against religion not as an abstracition, not on the basis of pure theoretical atheism, equally applicable to all times and conditions, but concretely, on the basis of the class struggle which is actually going on and which will train and educate the masses better than anything else. A Marxist should take into consideration all the concrete circumstances, should always be able to see the dividing line between anarchism and opportunism (the dividing line is relative flexible, changeable, but it exits), should take care not to fall into the abstract, verbal, empty 'revolutionism' of the anarchist, or into the vulgar opportunism of the petty bourgeois or liberal intellectual, who shirks from the fight against religion, who evades this task, who reconciles himself with the belife in God, who is guided not by the interests of class struggle, but by the petty pitiful fear of offending, repelling or scaring off others by the wise precept, 'Live and let live' etc.
All other questions that rise in connection with the attitude of Social Democrats towards religion should be decided from the point of view outlined above. For example, it is frequently asked whether a clergyman may join the Social Democratic Party and usully this question is answered in the affirmative, without any reservation, and reference is made to the practice of Social Democratic parties in Europe. This practice is a result not only of the application of Marxist doctrines to the labour movement, but also of the special historical conditions in the west which do not exist in Russia. Consequently, an affirmative reply would not be correct. We cannot say once and for all that a clergyman cannot, in any circumstances, become a member of the Social Democratic Party, But on the other hand, we cannot make so positive a reply to the contrary. If a clergyman wishes to join us in political work, conscientiously carries out party work, and does not infringe the party programme, then he may be accepted into the ranks of Social Democracy, for the contradiction between the spirit and principles of our programme and the religious convictions of the clergyman may, in the circumstances, remain a matter that concerns him alone. A political organisation cannot undertake to examine all its members to see whether there is any contradiction between their views and the programme of the party. But of course such a case is very rare even in Europe, and in Russia is scarcely probable. If on the other hand, the clergyman joined the Social Demorcatic party and concerned himself mainly with preaching his religious ideas, then, of course, he would have to be expelled. We must not only admit, we must do everything possible to attract workers who retain their belief in God in to the Social Democratic Party. We are resolutey opposed to offending. But we attract them to our party in order to allow them to fight against it. We permit freedom of opinion inside the party, but within certain limits defined by the freedom of forming groups. We are not obliged to go hand in hand with those who advocate views rejected by the mojority of the Party.'
इसका आशय यह है, 'कल्पना करें कि एक इलाके के किसी कारखाने के मजदूरों के दो दल हो गए हैं। एक दल है प्रगतिशील एवं वर्गचेतनायुक्त सोशल डेमोक्रेटिक पार्टीवालों का, जो बेशक नास्तिक हैं। दूसरा दल है पिछड़े हुओं का, जिनका संबंध देहाती इलाकों और किसानों के साथ अभी कायम है, जो ईश्वर में विश्वास रखते हैं और गिरिजाघरों में जाते हैं और जिन पर वहाँ के पादरी का खूब असर है। हम यह भी मान लें कि उस पादरी ने वहाँ एक 'क्रिस्तान-मजदूर-संघ' भी संगठित कर रखा है। हम यह भी कबूल कर लें कि उस इलाके के मजदूरों की आर्थिक लड़ाई के परिणामस्वरूप वहाँ हड़ताल हो गई है। उस दशा में वहाँ मार्क्सवादी का यह कर्तव्य हो जाता है कि वह उस हड़ताल की सफलता को ही मुख्य बात माने और इस बात की कोशिश करे कि उस संघर्ष से संबंध रखने वाले मजदूरों में क्रिस्तान और नास्तिक - इस तरह के - दो दल बनने न पाएँ - हड़ताल के समय इस तरह की दलबंदी होने न पाए। ऐसी परिस्थिति में तो नास्तिकता का प्रचार केवल व्यर्थ ही न होगा; किंतु हानिकारक भी होगा - हानिकारक इस मोटी दृष्टि से नहीं कि पिछड़े विचार के मजदूर वहाँ भड़क जाएँगे, या चुनाव के समय नास्तिक प्रचारकों को उनका वोट न मिलने से मजदूर-संघ के चुनाव में वे हार जाएँगे। किंतु वास्तविक वर्गसंघर्ष की प्रगति की दृष्टि से भी वह हानिकारक होगा और वर्गसंघर्ष की वह प्रगति ही, वर्तमान पूँजीवादी समाज की हालत में, नास्तिकता के केवल प्रचार की अपेक्षा सौ गुना प्रभावशाली रीति से क्रिस्तान मजदूरों को सोशलडेमोक्रेटिक पार्टी तथा नास्तिकवाद में प्रवेश कराएगी। बल्कि वैसी दशा में तो नास्तिकता का प्रचारक उन पादरियों का ही मददगार बन जाएगा जो सबसे अधिक यही बात चाहते हैं कि हड़ताल के समय भी मजदूरों में हड़तालकारी और उसके तोड़नेवाले ऐसे दो दल न होकर नास्तिक और आस्तिक (क्रिस्तान) यही दो दल कायम रहें। उस हड़ताल में ईश्वर के विरुद्ध बेमुरव्वती से युद्ध चलानेवाले अराजक लोग तो पादरियों और पूँजीवादियों की ही मदद करेंगे, जैसा कि वे लोग सचमुच सदा ही ऐसी सहायता करते ही हैं।
'लेकिन मार्क्सवादी को तो भौतिकवादी होना होगा - अर्थात वह ईश्वर का शत्रु तो होगा। मगर होगा भौतिकवाद तथा द्वन्द्ववाद की ही दृष्टि से। इसका आशय यह है कि उसे धर्मविरोधी लड़ाई को केवल एक दिमागी चीज नहीं बनाना होगा और न उसे केवल नास्तिकता की सैद्धांतिक दृष्टि से चलाना ही होगा - ऐसी सैद्धांतिक दृष्टि से जो हमेशा हरेक परिस्थिति में समान-रूप से लागू होती है। किंतु स्थूल सांसारिक (बाहरी हिताहित की) दृष्टि से ही चलाना होगा, जिसका आधार होगा वह वर्गसंघर्ष जो सचमुच चालू है और जो जनसमूह को और उपायों की अपेक्षा कहीं अच्छी तरह शिक्षित तथा कुशल बनाएगा। मार्क्सवादी को चाहिए कि वह वास्तविक परिस्थिति का खयाल करे, वह इस योग्य हो कि बखूबी समझ सके कि कहाँ तक जाने पर अराजकवाद और अवसरवाद से मेल हो जाएगा (एक ऐसी सीमा जरूर होती है जो अराजकता तथा अवसरवाद को पृथक करती है। यह ठीक है कि वह सीमा आपेक्षिक है, उसका संकोच विस्तार होता रहता है, और वह बदलती रहती है), मार्क्सवादी को हमेशा सतर्क रहना चाहिए, ताकि वह अराजकतावादियों के ख्याली, जबानी और खोखले क्रांतिवाद में कहीं फँस न जाए, या कहीं ऐसा न हो जाए कि वह टटुपुँजिये बाबुओं या उदारतावादी दिमागदारों के भद्दे अवसरवाद का शिकार ही हो जाए। ये टटुपुँजिये बाबू या उदार दिमागदार ऐसे होते हैं कि धर्म-विरोधी संघर्षों से भागते और पिंड छुड़ाते फिरते हैं और आस्तिकता के साथ उनका समझौता हो जाता है। उन्हें इस बात में पथदर्शक वर्गसंघर्ष का स्वार्थ तो होता नहीं। किंतु वे तो हमेशा इसी तुच्छ एवं दयाजनक डर से काँपते रहते हैं कि कहीं और लोग रंज न हो जाएँ, हट न जाएँ या भड़क न उठें। वे तो इसी में बुद्धिमानी समझते हैं कि खुद भी कायम रहें और दूसरे भी बने रहें।
'इस संबंध में जो भी दूसरे प्रश्न उठते हैं कि सोशलडेमोक्रेटिक पार्टी के लोग धर्म के बारे में कौन-सा रुख अख्तियार करें उन सबों का निर्णय इसी ऊपर बताए सिद्धांत के ही आधार पर दिया जाना चाहिए। दृष्टांतस्वरूप प्राय: ऐसा पूछा जाता है कि पादरी लोग सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी के सदस्य बन सकते हैं या नहीं? इसका उत्तर भी बिना आगा-पीछे किए ही आमतौर से 'हाँ' दिया जाता है और कहा जाता है कि यूरोप की ये पार्टियाँ ऐसा ही तो करती हैं। असल में यूरोप में जो यह रीति चल पड़ी वह सिर्फ इसीलिए नहीं कि मजदूर आंदोलन में मार्क्स के मंतव्यों का प्रयोग किया गया था। बल्कि इसका कारण पश्चिम की कुछ खास ऐतिहासिक परिस्थितियाँ थीं, जो रूस में नहीं हैं। फलत: 'हाँ' वाला उत्तर यहाँ ठीक नहीं है। हम एक ही साँस में सबों के लिए यह नहीं कह सकते कि किसी भी हालत में कोई भी पादरी इस पार्टी का मेम्बर हो नहीं सकता। लेकिन दूसरी ओर हम विरोध में भी एक निश्चित उत्तर नहीं दे सकते। यदि कोई पादरी राजनीतिक कामों में हमारा साथ देना चाहता है, हमारी पार्टी का काम समझ-बूझ के करता है और पार्टी के कार्यक्रम का उल्लंघन नहीं करता, तो उसे हम अपनी पार्टी में ले सकते हैं। क्योंकि उस दशा में हमारे कार्यक्रम के सिद्धांतों और भावों के साथ अगर उस पादरी के धार्मिक विचारों का कोई विरोध हो तो वह केवल उस पादरी के ही विचरने की बात है। किसी राजनीतिक संस्था का यह काम हर्गिज नहीं है कि वह अपने प्रत्येक मेम्बरों में यह बात ढूँढ़ती फिरे कि आया उसके कार्यक्रम के साथ उनके दूसरे विचारों का विरोध तो नहीं है। लेकिन बेशक ऐसे पादरी तो यूरोप में भी बहुत ही कम मिलते हैं और रूस में तो वे शायद ही मुश्किल से मिल सकें।
'विपरीत इसके यदि कोई पादरी सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी में दाखिल होके अपना प्रधान काम अपने धार्मिक विचारों के प्रचार को ही बना ले, तो बेशक उसे पार्टी से निकाल देना ही होगा। हमें सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी में मजदूरों को सिर्फ दाखिल करना ही नहीं होगा। किंतु जो मजदूर ईश्वर में विश्वास करते हैं उन्हें भी अपनी ओर खिंच आने के लिए सभी संभव उपाय करने होंगे। हम किसी को भी भड़काने या रंज करने के पक्के विरोधी हैं। लेकिन हम तो उन्हें अपनी पार्टी में इसीलिए खींचते हैं कि उन्हें मौका दें कि वे हमसे (पार्टी से) लड़ लें। हम तो पार्टी के भीतर विचार-स्वातंत्र्य का मौका देते ही हैं। मगर इस स्वतंत्रता की कुछ सीमाएँ हैं जिनका निर्धारण पार्टी के भीतर छोटे-मोटे दल बनने से नियमों से ही हो जाता है। पार्टी के बहुमत ने जिन विचारों को नहीं माना हो उन्हीं का जो प्रचार करें उनसे हमारा साथ नहीं हो सकता।'
हमने जानबूझकर यह लंबा अवतरण दिया है जिससे धर्म के इस पेचीदे मामले पर काफी प्रकाश पड़ जाए। इसमें कई ऐसी बातें हैं जो बहुत बड़ा महत्त्व रखती हैं। इसलिए उन पर विशेष खयाल होना जरूरी है। लेनिन ने यह साफ कह दिया है कि हम खयाली और सैद्धांतिक रूप से ही नास्तिकता या अनीश्वरवाद के समर्थक नहीं हैं। बल्कि हम तो इस निरी दिमागी दुनिया के विरोधी हैं। इसमें तो उसे अवसरवाद और अराजकवाद साफ ही मालूम होता है। इसलिए भी उसने इसका विरोध किया है।
इसी के साथ वह यह भी साफ कहता है कि हमारा (मार्क्सवाद का) अनीश्वरवाद तो ऐसा नहीं है जो हर समय, हर परिस्थिति में लागू किया जा सके। यह कोई कोरी सिद्धांत की चीज नहीं है। यह तो सिर्फ व्यावहारिक बात है। इसीलिए इसका प्रयोग व्यावहारिक परिस्थिति को देखने के बाद ही खूब जानबूझ के करना होगा। कहीं ऐसा न हो कि हमने परिस्थिति तो इसके अनुकूल देखी और इसे लागू भी किया। मगर ऐसा हो गया कि हमने आगे का मौका समझा नहीं कि अब इसे बंद कर देना होगा; क्योंकि इसकी सीमा पूरी हो रही है। नतीजा यह हुआ कि अवसरवाद में हम जा फँसे! इसीलिए हमेशा सतर्क रहने पर उसने जोर दिया है।
वह यह भी कहता है कि हमें तो वर्ग संघर्ष देखना है - हमारे लिए तो नास्तिकवाद असल चीज है नहीं। वह यदि कुछ भी हो सकता है तो ज्यादा से ज्यादा यही कि वर्गसंघर्ष को निर्विघ्न चालू करने में मददगार हो जाए। मगर हमारा साध्य या असली लक्ष्य तो है वह वर्गसंघर्ष ही। इसलिए हमें बराबर यह खयाल रखना होगा कि कहीं हमारे नास्तिकवाद से उलटे उसी में हानि न पहुँच जाए। कहीं ऐसा न हो कि साधन ही साध्य की छाती पर कोदों दलने लग जाए - कहीं देवी से बकरा ही बड़ा न हो जाए और ऐसा न हो कि देवी की छाती पर वही चढ़ बैठे। यह सबसे मार्के की बात उसने कही है।
वह तो वर्गसंघर्ष का दृष्टांत देके कहता है कि हड़ताल वगैरह के समय नास्तिकता का प्रचार उसके लिए घातक होता है। हड़ताल के समय तो मजदूरों में एकता चाहिए - दलबंदी नहीं चाहिए। यदि कोई भी दलबंदी उस समय हो सकती है, तो ऐसी ही जिस पर मजदूरों और उनके नेताओं का कोई वश न हो और वह हो सकती है हड़तालियों और हड़ताल विरोधियों की ही, जिन्हें, 'काली-टाँगें' कहते हैं और जिनका काम होता है हड़तालियों की जगह पर जाके काम करें और इस तरह हड़ताल को तोड़ें! शेष मजदूर तो एक ही दल में होंगे। अगर पहले धर्म-वर्म के नाम पर दल बने भी हों तो वह फौरन खत्म कर दिए जाएँ। लेनिन तो यह भी कहता है कि पादरी-पुरोहित तो दरअसल मजदूरों के नेता होते नहीं। इसलिए यह बात तो वही चाहते हैं कि हड़ताल या वर्गयुद्ध के समय भी आस्तिक और नास्तिक दलों का बखेड़ा जरूर ही रहे। वे तो पूँजीपतियों के दलाल होते हैं। इसी से यह बात चाहते हैं। इसीलिए लेनिन का कहना है कि नास्तिकता का प्रचार संघर्ष के समय जो कोई करता है वह पूँजीवादियों का सहायक और दलाल होता है, चाहे वह यह बात भले ही न समझे।
और जब असली मौके पर - संघर्ष और लड़ाई के ही समय - ही हम आस्तिक-नास्तिक का झमेला खड़ा कर नहीं सकते, जब उस वक्त ऐसा करने की हमें इजाजत हई नहीं, तो फिर मार्क्सवाद पर नास्तिकता के इलजाम का अर्थ ही क्या है? जब हम मौज में बैठे हैं तब तो बहुत-सी बातें करते रहते ही हैं। उन्हीं में यह नास्तिकतावाली बात भी हो सकती है। कितने ही प्रकार के वाद-विवाद और मतभेद होते हैं। बातें जानने, समझने और स्थिति के स्पष्टीकरण के लिए यह चीजें जरूरी होती हैं। मगर उन्हें उद्देश्य या मान्य समझ लेना भूल है। नास्तिकवाद आदि की बातें तो वर्गसंघर्ष की तैयारी के रूप में ही की जाती हैं। क्योंकि पादरी-पुरोहित लोग धर्म, भाग्य और भगवान के नाम पर जमींदारों और कारखानेदारों के साथ किसानों और मजदूरों को लड़ने से रोकते हैं। फलत: उन्हें मनाना, किसान मजदूरों को समझाना और पादरी-पुरोहितों का मुँह बंद कर देना जरूरी हो जाता है। यह भी ठीक है कि जब तक जड़मूल से भाग्य और भगवान को ही उड़ाया न जाए तब तक वे मानते ही नहीं। वे होते हैं बड़े ही बेहया और उनका असर शोषित जनता पर खूब होता है। इसीलिए नास्तिकवाद अनिवार्य होता है। यह भी बात होती है कि धर्म और ईश्वर के मामले में जरा भी नर्मी और मुरव्वत से काम लिया जाए तो एक तो पादरी-पुरोहित चट कह बैठते हैं कि देखा न, आखिर वे लोग भी, दबी जबान से ही सही, भाग्य और भगवान को मानते ही हैं? फलत: सारा किया-कराया चौपट हो जाता है। दूसरी बात यह हो जाती है कि किसान और मजदूर दिलोजान से लड़ने को तैयार नहीं हो पाते। क्योंकि उसी नर्मी के करते उनमें भी कमजोरी आती है और अंततोगत्वा इतना तो सोचते ही हैं कि जैसा होगा देखा जाएगा।
और जब वह यह भी कहता है कि अनीश्वरवाद हर देश और हर काल के लिए नहीं है और उसका प्रचार विशेष सामाजिक परिस्थिति में ही होता है, तो फिर इसे सदा के लिए मान्य करके मार्क्सवाद पर निरीश्वरवाद का कलंक लगाना कहाँ तक जायज है? वह यह भी तो कहता ही है कि वर्गसंघर्ष के आधार पर ही निरीश्वरवाद का प्रचार करना होगा। उसके मत से वर्तमान समय में संघर्ष चालू हो वह जनता को कहीं अच्छी तरह शिक्षित और वर्गचेतनायुक्त कर देगा। फिर तो रास्ता साफ हो जाता है। मार्क्सवाद का असली काम निरीश्वरता प्रचार नहीं है। उसका तो काम है शोषितों एवं पीड़ितों को - कमाने वालों को - शिक्षित तथा वर्गचेतनायुक्त करना, जो दूसरे अन्य सभी उपायों की अपेक्षा वर्गसंघर्ष से ही बहुत अच्छी तरह पूरा होता है। फिर निरीश्वरता के कोरे प्रचार को छोड़ हम इसी संघर्ष में ही क्यों न लगें? इससे तो स्पष्ट हो जाता है कि वह नास्तिकवाद को साधन के रूप में ही स्वीकार करता है।
इस लंबे उद्धरण के पहले जो हमने लेनिन के दो छोटे-छोटे उद्धरण दिए हैं उनमें जो सबसे मार्के की बात है वह यह है कि दोनों में यही कहा गया है कि धर्म की बुनियाद तो पूँजीवाद और उसकी अनेक शकलें हैं। वह तो पूँजीवाद के आधार पर बनी सामाजिक व्यवस्था को ही वर्तमान धर्म और ईश्वरवाद की जड़ मानता है। फलत: मुख्य काम वह यही बताता है कि उस जड़ को ही खोदना होगा। पत्ता और शाखा तोड़ने से पेड़ तो रही जाएगा। इसीलिए इस सामाजिक व्यवस्था को ही मिटाने पर हमें जोर देना चाहिए। इससे साफ और क्या कहा जा सकता है?
और जब पादरी-पुरोहितों तक को भी अपनी पार्टी में लेने की राय वह देता है, बशर्ते कि उनका प्रधान काम धर्म प्रचार न होके पार्टी के कार्यक्रम को पूरा करना ही हो, तो फिर निरीश्वरता के इलजाम के कुछ मानी रही नहीं जाते। जो पादरी पार्टी में आके पार्टी के काम की अपेक्षा धर्म प्रचार को ही प्रधान काम समझे और प्रधानतया (स्मरण रहे 'प्रधानतया' लिखा है) वही करे उसी को पार्टी से निकालने की बात कही गई है। इससे तो और भी सफाई हो जाती है। वह तो कहता है कि हमें ऐसे सभी उपाय करने होंगे जिससे धर्म में विश्वास करने वाले किसान-मजदूर जरूर हमारी पार्टी में आएँ और हमारी इस चीज का - नास्तिकता का - विरोध करें - इसके खिलाफ लड़ें। हमें उन्हें इसका मौका देने के लिए ही पार्टी में खींचना होगा। और यह तो जरूरी नहीं कि आस्तिक मजदूर थोड़े और नास्तिक ही ज्यादा हों। बात तो उलटी ही होती है। फिर भी वह कहता है कि पार्टी के सदस्यों को भी अपने स्वतंत्र विचार रखने की आजादी किसी हद तक रहनी ही चाहिए। फलत: यदि पार्टी में बहुमत आस्तिकों का ही हो जाए तो? लेनिन को इसकी परवाह नहीं है। वह तो खूब जानता है कि असल चीज यह न होके वर्ग संघर्ष ही असल चीज हमारी पार्टी के लिए है, जिसमें आस्तिक-नास्तिक सभी साथ देंगे ही। नतीजा यह होगा कि संघर्ष चालू होने पर ज्यों-ज्यों उसमें सफलता मिलेगी त्यों-त्यों धर्म के ठेकेदारों का परदाफाश होता जाएगा। फलस्वरूप अंत में सभी या अधिकांश मजदूरों की आस्था धर्म से खुद-ब-खुद उठ जाएगी। वे उसे खुद पूँजीवाद की उपज और करामात समझ उससे घृणा कर बैठेंगे और बहुमत से निर्णय कर देंगे कि धर्म-वर्म की बात ठीक नहीं। फिर तो सभी को यही मानना ही होगा।
हम लेनिन के दो उद्धरण और देके यह विवाद खत्म करेंगे। वह अपने लेख के प्राय: शुरू में ही कहता है कि 'Religion is the opium of the people, said Marx, and this thought is the corner-stone of the whole Marxian philo-sophy on the question of religion. Marxism regards all modern religions and churches, all religious organisations as organs of bourgeois reaction, serving to drug the minds of the working class and to perpetuate their exploitation.'
इसका आशय है कि 'मार्क्स ने कहा था कि धर्म तो लोगों के लिए अफीम है और उसका यही कहना, यही विचार धार्मिक प्रश्नों के बारे में मार्क्स के समूचे सिद्धांत की असली बुनियाद है। मार्क्स के सिद्धांत के अनुसार आजकल के (modern - यह याद रखने की चीज है) धर्म, गिरजे वगैरह और सभी धार्मिक संस्थाएँ पूँजीवादी प्रतिगामियों के हथकंडे हैं, जिनका इस्तेमाल वे लोग श्रमजीवियों के दिमागों में जहर भरने और इस तरह उनका शोषण बराबर जारी रखने के लिए करते हैं।'
यहाँ तो इस बात को खोल के कह दिया है कि वर्तमान धर्म, मठमंदिर और धर्म की संस्थाएँ जाल हैं, धोखे की चीजें हैं। इन्हें मालदारों ने कमाने वालों को ठगने के ही लिए बनाया है। इन्हीं के द्वारा भोलीभाली जनता के दिमाग में जहर भरा जाता है। जैसे बच्चों को अफीम खिलाके सुला देते हैं वही बात पूँजीवादी धर्म के जरिए आम लोगों के बारे में करते हैं। उनके दिमाग खराब कर देते हैं। मार्क्स के धार्मिक सिद्धांतों की यही बुनियाद है। मार्क्स ने जो धर्म का विरोध किया है उसका असली कारण यही है। हमने तो शुरू में ही यही बात कही थी। यहाँ जो 'वर्तमान' धर्म कहा है, उससे भी यह झलकता है कि एक तो मार्क्स को इन बातों का विरोधी बनाने में यही चीजें कारण हुईं, इन्हीं की हरकतों ने मार्क्स को इनका - धर्म का - बागी बना दिया। दूसरे पीछे या पहले (भूत या भविष्य में) ऐसे धर्मों या धर्म की संभावना भी इससे सिद्ध हो जाती है, जिनका विरोध मार्क्स को इष्ट नहीं है। हमने गीताधर्म के निरूपण में धर्म का जो रूप गीता को मान्य बताया है वह तो वर्तमान धर्म से जुदा ही है। इसलिए उसके साथ भी मार्क्स का विरोध नहीं है, ऐसा सिद्ध हो जाता है।
जरा और भी सुनिए कि लेनिन क्या कहता है। वह अभी-अभी लिखे गए वाक्यों के बाद ही लिखता है कि, At the same time, however, Engels frequently condemned those who, desiring to be more 'left' or more 'revolutionary' than Social Democracy, attempted to introduce into the programme of the workers, party a direct profession of atheism in the sense of declaring war on religion. In 1874, speaking of the celebrated manifesto issued by the Blanquist refugees from the Commune, who were living in exile in London, Engels described their clamorous declaration of war upon religion as stupid, and stated that it would be the best means of reviving religion and retarding its death, Engels accused the Blanquists of failing to understand that only the class struggle of the workers, by drawing the masses in to class-conscious revolutionary practical work, can really liblrate the oppressed masses from the yoke of religion...and with equal ruthlessness condemned his pseudo-revolutionary idea of suppressing religion in socialist society.'
इसका अभिप्राय है कि 'इसी के साथ एंगेल्स ने उन लोगों की भर्त्सना की, जिसने सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी की अपेक्षा ज्यादा वामपक्षी या क्रांतिकारी बनने के गुमान में श्रमजीवियों की पार्टी के कार्यक्रम में नास्तिकता को साफ-साफ स्वीकार करने की बात रखने की कोशिश की। इसमें उनका साफ मतलब था धर्म के खिलाफ जेहाद बोलना - युद्धघोषणा करना। पेरिसवाले कम्यून (साम्यवादी सरकार) से भाग के जो ब्लांकी (अराजकतावादी नेता) के अनुयायी लंदन में रहते थे उनने जो महत्त्वपूर्ण घोषणापत्र प्रकाशित किया था उसके संबंध में 1874 में बोलते हुए एंगेल्स ने उनकी धर्मविरोधी युद्धघोषणा की लंबी बातों को मूर्खतापूर्ण बताया और कहा कि धर्म की मौत को रोक के उसे फिर से फैलाने का सबसे सुंदर साधन यह युद्ध घोषणा ही हो जाएगी। एंगेल्स ने ब्लांकी के अनुयायियों पर यह भी आरोप लगाया कि वह यह समझते ही नहीं कि सिर्फ श्रमजीवियों का वर्गसंघर्ष ही, जनसमूह को वर्गचेतनायुक्त क्रांतिकारी अमली काम में खींच के, पीड़ित जनता को सचमुच धर्म के जुए से मुक्त कर सकता है।...और उसी प्रकार पूरी बेरहमी के साथ उसने, समाजवादी समाज में धर्म को मिटा देने के संबंध में ड्यूहरिंग के नकली क्रांतिकारी विचारों की भी लानत-मलामत की।'
इस पर अब टीका-टिप्पणी बेकार है। एंगेल्स भी धर्म की बुनियाद पूँजीवाद को ही उसके मान के पंजे से छूटने को ही धर्म के जुए से मुक्ति मानता है। वह तो साफ ही कहता है कि श्रेणीविहीन समाज में जो लोग धर्म का नामोनिशान मिटाने के स्वप्न देखा करते हैं वह नकली क्रांतिकारी और रंगे सियार हैं! हमने तो यह पहले ही कहा है कि भविष्य का दरवाजा ही ईश्वर या धर्म के लिए बंद करने की कोशिश अति हो जाएगी। एंगेल्स ने तो अपनी 'ड्यूहरिंग के विरुद्ध' नामक पुस्तक में ही, जिसका जिक्र लेनिन ने ऊपर किया है, यह भी लिखा है कि धर्म के विरोध में वाद-विवाद और लड़ाई छेड़ देना लोगों के ध्यान को मार्क्स के असली राजनीतिक लक्ष्य से हटाके गलत रास्ते में ले जाना हो जाएगा और यह गलत बात होगी। उसके मत से मार्क्सवाद तो दरअसल राजनीतिक है, न कि धार्मिक। मार्क्स वर्गविहीन समाज की स्थापना का भूखा है, न कि खामख्वाह धर्मविहीन समाज का।
द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद और धर्म
बस, उद्धरणों की बात हो चुकी। इन पर विवाद भी हमने काफी कर दिया। अब एक ही बात और कहके हम आगे बढ़ेंगे। लेनिन ने कहा है कि मार्क्सवाद तो भौतिकवाद है और मार्क्सवादी द्वन्द्ववाद का सिद्धांत मानते हैं। इसलिए उन्हें धर्म या ईश्वर का विचार या खंडन-मंडन भी द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के अनुसार ही करना होगा। यही बात जरा समझने को रह जाती है। इसीलिए हमें इस संबंध में दो-चार शब्द कहने पड़ जाते हैं। क्योंकि यदि हम इस बात को, इस कुंजी को, बखूबी समझ जाएँ तो धर्म और ईश्वर के बारे में मार्क्सवाद का क्या रुख है और उस दृष्टि से हमें खुद क्या करना चाहिए, यह बात अच्छी तरह साफ हो जाएगी। बड़े-बड़े क्रांतिकारी कहे जाने वाले भी इस संबंध में भयंकर भूलें करते आए हैं, यह तो एंगेल्स ने ही खुद कह दिया है। इसलिए थोड़े से स्पष्टीकरण की जरूरत अभी है। अभी तक, हमारे जानते, इसका पूरा स्पष्टीकरण नहीं हो पाया है।
यदि भगवान ऐसा हो कि मरने के बाद की किसी दुनिया का प्रबंध करता हो जिसे स्वर्ग, नरक, बैकुंठ या बिहिश्त कहते हैं; अगर हमारी इस भौतिक दुनिया के कारबार से उसका कोई ताल्लुक न हो, तो मार्क्स को और मार्क्सवादियों को भी उससे नाहक कलह क्यों हो? जिस दुनिया का जीते-जी हमसे कोई वास्ता नहीं, जो निराली दुनिया है, मगर भौतिक नहीं है, आध्यात्मिक है, उसकी फिक्र हम क्यों करें, अगर वह बिलकुल ही अलग और जुदी है? अगर वह दुनिया और उसका प्रबंधक हमारे इस भौतिक संसार के कारबार में 'दालभात में मूसरचंद' नहीं बनता और दखल नहीं देता, तो हम भी उसमें क्यों दखल देने जाएँगे? अगर काजी जी शहर की फिक्र से नाहक दुबले हो रहे थे, तो हम भी काजी क्यों बनें? हम यहाँ कुछ यत्न करते और इस प्रकार इस भौतिक संसार एवं समाज को पूर्णत: बदलना चाहते हैं। हमारे इस काम में धर्म और भगवान यदि कोई मदद न करें तो भी हमें उनसे कोई शिकायत नहीं, गिला नहीं। मार्क्सवादी किसी अदृश्य तथा अलौकिक (Supernatural) शक्ति की मदद चाहते ही नहीं। उन्हें इस काम में ऐसी शक्ति की परवाह और जरूरत नहीं है। बल्कि वे तो ऐसा मानते हैं कि ज्यों ही मदद के भी नाम पर किसी शक्ति ने हमारे काम में दखल दिया कि सारा गुड़ गोबर हुआ। वे तो ऐसी शक्ति का किसी भी तरह इस काम में पड़ना ही खतरनाक मानते हैं। क्योंकि तब तो हमारा अपना यत्न ही ढीला हो जाएगा, शिथिल हो जाएगा और इसी में सारा खतरा है।
(हम इस समाज को अमूल परिवर्तित करने एवं बदलने के लिए किए जाने वाले अपने यत्न में किसी भी वजह से, किसी भी मुरव्वत से जरा भी शिथिलता बरदाश्त नहीं कर सकते। भाग्य और भगवान हमारे विरुद्ध लाठी थोड़े ही चलाते हैं। दरअसल होता है यही कि उनके नाम पर हमारे हाथ-पाँव रुक जाते हैं, हमारे यत्न ढीले पड़ जाते हैं और सफल हो नहीं सकते, हममें आत्मविश्वास नहीं रह जाता, हम उसी को खो देते हैं और अंततोगत्वा चौपट हो जाते हैं। हम लोगों का कुछ ऐसा संस्कार बन गया है कि यदि किसी भी तरह भाग्य और भगवान का नाम हमारे सामने आया कि हम जाल में फँसे और चौपट हुए। हम इस तरह अपने उद्धार की कोशिश में शिथिल होके तबाह होते रहते हैं।) मार्क्स ने हमारे इस असाध्य रोग को खूब ही समझा था। इसीलिए उसने बेदर्दी से इसकी दवा की और भाग्य तथा भगवान का खयाल भी इस भौतिक संसार के कामों में आने न दिया। उसने कह दिया कि भगवन, आप कृपा करें, अलग ही रहें, हम यों ही अच्छे हैं, हमें आपकी कोई जरूरत नहीं, 'बिलार दाई बख्श दें, मुर्ग बेचारा बिना पूँछ का ही रहेगा।' कोई आदमी, जो कमाने वाली जनता के कष्टों से द्रवीभूत हृदय रखता है और जिसे हमारे स्वभावों, संस्कारों तथा धर्म के नाम पर बनी रेशम की चमकीली फाँसी का कड़वा अनुभव है, मार्क्स की इस बेमुरव्वती और रूखेपन का पूरा समर्थन करेगा। धर्म, भगवान और उनके गण बैकुंठ और स्वर्ग का प्रबंध करें न, और मुक्ति का हिसाब रखें न? उन्हें कौन रोकता है? मगर इधर पाँव हर्गिज न बढ़ायें! खबरदार!
भौतिक द्वन्द्ववाद
मार्क्स तो भौतिकवादी इसी मानी में है कि इस संसार के छोटे-बड़े सभी कामों में वह किसी भी भगवान या दैवी-शक्ति का हाथ नहीं देखता। उसने तो इसके सभी कामों के बाकायदा चलाने की ताकत इसी दुनिया में, यहीं के पदार्थों में देख ली है। हम चाहे सो भी जाएँ। मगर वह ताकत, जिसे वह निरी भौतिक ताकत समझता है, बराबर जगी रहती और अपना काम करती जाती है। उसे तो जरा भी विराम नहीं है, जरा साँस लेने की फुरसत नहीं है। इसी ताकत का नाम उसने द्वन्द्ववाद रखा है। इसे ताकत कहिए, या भौतिक प्रक्रिया (Material Process) कहिए। यही सब कुछ करती है। मार्क्स इस दुनिया के निर्माण-संबंधी दार्शनिक विचारों में इससे आगे नहीं जाता, नहीं जा सकता है। उसके मत में इससे आगे जाने की जरूरत हई नहीं। हमारा काम तो इतने से ही बखूबी चल जाता है, चल जाएगा। बल्कि वह तो यहाँ तक कहता है कि आगे जाने में खतरा है और सारा गुड़ गोबर हो जाएगा - हमारे काम ही चौपट हो जाएँगे। यही है संक्षेप में मार्क्स का द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद या भौतिक द्वन्द्ववाद (Dialectical Materialism)।
इस सिद्धांत के अनुसार संसार के पदार्थों में बराबर संघर्ष (द्वन्द्व) चलता रहता है, जिसे हलचल, संग्राम, युद्ध या जीवन संग्राम (Struggle for Existence) भी कहते हैं। इससे कमजोर पक्ष हारता और जबर्दस्त जीतता है; दुर्बल खत्म हो जाते, मिट जाते और प्रबल जम जाते हैं। इसे ही डार्विन का विकासवाद भी कहते हैं। इस दुनिया में जो लोग साधन संपन्न, कुशल और चौकन्ने हैं वही रह पाते और आगे बढ़ते हैं। विपरीत इसके जो ढीले, आगा-पीछा करने वाले, असहाय, भोंदू हैं वे मिट जाते हैं। इस निरंतर चलने वाले (सतत) संग्राम के फलस्वरूप ही संसार की प्रगति होती है। यह तो बात मानी हुई है। चाहे ढीले-ढाले और आगा-पीछा वाले खत्म भले ही हो जाएँ और उनके विरोधी भले ही आगे बढ़ जाएँ। मगर इसी के साथ समूचा संसार आगे बढ़ जाता है और इसी में पीछे पड़ जाने वालों या शोषितों के उद्धार की आशा है, गुंजाइश है। यदि केवल विरोधी ही आगे बढ़ते और उन्हीं के साथ बाकी दुनिया नहीं बढ़ती, तो यह बात नहीं होती। परंतु उन्हीं के साथ शोषित जनता भी बढ़ती जाती है। किसानों और मजदूरों को तरह-तरह की चालाकी, जाल तथा उपायों से दबा के पूँजीवादी आगे बढ़े हैं सही। मगर उनकी ही प्रगति के साथ कलकारखाने, उत्पादन के साधन और ज्ञान-विज्ञान भी खूब ही प्रगति कर गए हैं। इन सबों की प्रगति के करते ही पूँजीवादियों की दिक्कतें भी बढ़ गई हैं, उनकी चिंता और परेशानी भी बढ़ गई है। फलत: वे डरने लगे हैं कि कहीं शोषित जनता हमें एकाएक दबा न ले। रूस में तो ऐसा हो भी चुका है। दूसरी जगह भी यह होके ही रहेगा। इसीलिए पूँजीवादियों की घबराहट बढ़ती ही जा रही है। यदि उनके वश की बात होती तो वे उत्पादन वगैरह के साधनों की ऐसी भयंकर प्रगति होने नहीं देते। मगर क्या करें? बेबस हैं। रेशम का कीड़ा अपने ही बनाए कोये में बंद होके मरने पर है!
मार्क्सवाद शोषितों और पीड़ितों को बताता है कि आँखें खोलो और इस द्वन्द्ववाद में विश्वास करो। इस अटल सत्य को मानो कि तुम्हारा उद्धार इस भौतिक और सांसारिक संघर्षों के चलते ही अवश्यंभावी है। इसमें कोई भी बाहरी हाथ नहीं है। यदि बाहरी हाथ होता तो तुमसे लाख गुना काइयाँ और चलते-पुर्जे, जमींदार-मालदार उस बाहरी हाथ को अपने काबू में करके संसार की ऐसी प्रगति होने ही नहीं देते, जिससे आज उन पर आफत आ बनी है। फिर तुम किस खेत की मूली हो कि उस बाहरी हाथ को अपने पक्ष में करोगे? यदि कोई भगवान ऐसा करने वाला होता तो मालदार सोने और संगमरमर के मंदिर में उसे पधराके और मेवा-मिश्री खिला के - भोग लगा के - जरूर अपने कब्जे में कर लेता। तुम्हारे सत्तू की क्या बिसात? इसलिए ये खाम खयाल छोड़ के भौतिक द्वन्द्ववाद पर ही विश्वास करो।
मार्क्स यहीं पर यह भी कहता है कि देखो, पूँजीवादी और जमींदार - तुम्हारे शोषक - बड़े काइयाँ हैं। उनने तुम्हारे लिए अनेक जाल फैलाए हैं। भगवान और धर्म का कोई भी ताल्लुक इस भौतिक कारबार से नहीं होने पर भी उनने इन्हें खड़ा करी तो दिया। यह देखो, इन्हीं के नाम पर तुम्हें ठगते आ रहे हैं, ठगने चले हैं! और ये पंडित, मौलवी, पादरी, पुरोहित, साधु-फकीर? क्या ये भी ठगते हैं? हाँ, हाँ, जरूर ठगते हैं। ये सबके सब मालदार-जमींदारों के दलाल हैं। इसीलिए तो खाते तुम्हारा और गुण गाते हैं उनका। बड़ी चालाकी से जाल बिछा है। सजग रहो। दूर की कौड़ी लाई गई है। ये गुरु, पीर, पंडित वगैरह तुम्हें धोखा दे रहे हैं और अंत तक धोखा देंगे। इनकी बातों में हर्गिज न पड़ो। तुम जो अपने उद्धार के लिए कटिबद्ध हो रहे हो और द्वन्द्ववाद के चलते जो तुम्हारे उद्धार का सामान प्रस्तुत हो गया है उसी से घबरा के मालदारों ने ये जाल खड़े किए हैं; ताकि भाग्य और भगवान के फेर में पड़ के तुम अपने यत्न में शिथिल हो जाओ, उससे मुँह मोड़ लो और मालदार-जमींदारों के घर घी के चिराग जलें। फिर तो इन गुरु-पुरोहितों और पादरी-मौलवियों को वे लोग भरपूर विदाई देंगे!
मार्क्स और भी कहता है कि द्वन्द्ववाद और कुछ नहीं, केवल वर्गसंघर्ष है। एक वर्ग दूसरे को कल, बल, छल से दबा के, मिटा के खुद आगे बढ़ना चाहता है। मठ, मंदिर, तीर्थ, हज्ज, पोथी, पुराण इसी वर्गसंघर्ष की सफलता के साधन हैं। मालदार-जमींदार तुम्हारे वेतन में एक पैसा नहीं बढ़ाते, तुम्हारी दवा का प्रबंध नहीं करते और न लगान में ही कमी करते हैं। मगर मंदिरों और तीर्थों में लाखों रुपये फूँकते हैं! क्यों? वही पैसे तुम्हें क्यों नहीं देते? कल-कारखाने तुम्हीं चलाते हो न? खेतीबारी करके उनके लिए गेहूँ-मलाई तुम्हीं उपजाते हो न? या कि ये मठ, मंदिर और तीर्थ वगैरह? फिर तुम्हें पैसे न देके उन्हें वे लोग क्यों देते हैं? सोचो। तुम्हें देने से तुम्हारी हिम्मत बढ़ेगी और आगे फिर भी माँगें पेश करोगे और ये माँगें जब वे पूरा न करेंगे तो उन्हें मिटाने चलोगे। मगर मंदिरों और तीर्थों के पैसे तो उन्हें सूद-दर-सूद सहित वापस मिलेंगे। क्योंकि पंडे, पुजारी, साधु-फकीर वगैरह तुम्हें भाग्य और भगवान के नाम पर भड़कायेंगे, गुमराह करेंगे और संघर्ष से विमुख करेंगे! समझा न? यही चाल है। इसमें हर्गिज न पड़ो और लड़ो। यदि तुम्हारा विश्वास हो कि ये साधु-फकीर वगैरह तुम्हारे ही साथी हैं, तो चलो खुल के वर्गसंघर्ष करो और उन्हें भी मदद के लिए बुलाओ। उनसे कह दो कि आइए, मदद कीजिए। अभी तो हमारे पास कुछ है नहीं, तो भी आप लोगों को भरसक अच्छा ही खिलाते-पिलाते हैं। मगर इस संघर्ष में जीत होने पर तो खूब माल चखाएँगे और सुनहले वस्त्र पहनायेंगे, संगमरमर के महल बनवा देंगे। मठ-मंदिर भी वैसे ही सजा देंगे। मगर देखोगे कि वे हर्गिज तुम्हारा साथ न देंगे; हालाँकि उन्हें इसी में लाभ है। साथ दें भी कैसे? वे तो मालदारों के दलाल ठहरे न? वे मजबूर हैं, बँधे हैं। अपना फायदा सोचें या मालिकों का?
इस प्रकार भौतिक बातों में अध्यात्मवाद और ईश्वर का अड़ंगा खड़ा करके साधु-फकीर और मंदिर-तीर्थवाले संत-महंत मालदारों का पक्ष करते और उनके विरुद्ध शोषितों के द्वारा चलाई जानवाली हक की लड़ाई या वर्गसंघर्ष में बाधक होते हैं, यही बात मार्क्सवाद के जरिए शोषितों के दिल-दिमाग में बैठा दी जाती है। वे इसे बखूबी समझ के वर्गसंघर्ष से धर्म या ईश्वर के नाम पर नहीं मुड़ते। किंतु उसे अविराम चलाते जाते हैं। इसी वजह से पहले कहा गया है कि हड़ताल के समय नास्तिक-आस्तिक वाली दलबंदी मजदूरों में हर्गिज रहने न दी जाए, होने न दी जाए। पुरोहित या पादरी तो जरूर चाहेगा कि यह दलबंदी जारी रहे। मगर मार्क्सवादी हर्गिज इसे बरदाश्त नहीं करेगा। उसका तो असली लक्ष्य यह लड़ाई ही है। इसी के लिए यह आस्तिक-नास्तिक का झगड़ा भी पहले करता था; ताकि रास्ता साफ हो। मगर जब यह युद्ध चल पड़ा, तो उस झगड़े का क्या काम? उससे तो अब इसमें उलटे बाधा हो सकती है। इसीलिए उसे तिलांजलि दे देता है।
हमने इस लंबे विवेचन से साफ देख लिया कि भौतिक संघर्ष और वर्गयुद्ध में बाधक होने के कारण ही मार्क्सवाद में धर्म और ईश्वर का विरोध किया गया है। जब और कोई उपाय नहीं चला तो जमींदार-मालदारों ने इसी आखिरी ब्रह्मास्त्र से ही काम लेना शुरू जो कर दिया था। वह आज भी यही करते हैं। यही है धर्म और ईश्वर के विरोध का भौतिक दृष्टि से और द्वन्द्ववाद की दृष्टि से प्रयोग, या यों कहिए कि भौतिक द्वन्द्ववाद की दृष्टि से प्रयोग। इससे स्पष्ट है कि यदि इनके करते वर्गसंघर्ष में कोई भी बाधा न हो तो मार्क्सवाद इन्हें छुए भी नहीं। इनके साथ कम से कम क्षणिक संधि तो करी ले। बहुत पहले तो यह बात न थी - वर्गसंघर्ष में ये धर्मादि बाधक न थे, या यों कहिए कि वर्गसंघर्ष का यह रूप पहले था ही नहीं। तो फिर वे बाधक होते भी कैसे? इधर कुछ सदियों से ही यह बात हुई है। इसीलिए मार्क्सवाद में 'वर्तमान' धर्म (Modern Religion) और धर्मसंस्थाओं की ही बात कही गई है और इन्हीं को मालदारों का हथकंडा बता के विरोध किया गया है। मार्क्स के मत से जब सभी चीजें बदलती हैं तो धर्म भी आज बदला हुआ ही यदि मान लिया जाए तो हर्ज ही क्या? जो भी धर्म वर्गसंघर्ष का जरा भी बाधक हो यदि वह इसी बदले हुए के भीतर ही माना जाए तो इसमें उज्र क्या होगा?
यदि मार्क्सवाद की दृष्टि धर्म और ईश्वर के संबंध में भौतिक द्वन्द्ववाद की न हो के कोरी सैद्धांतिक होती, तो यह बात नहीं होती। सिद्धांत की दृष्टि का तो यही मतलब है कि बिना किसी प्रयोजन और खयाल के ही हम असलियत एवं वस्तुस्थिति का पता लगाना चाहते हैं। जैसा कि नए-नए ग्रहों का पता लगाते हैं। इसमें कोई खास प्रयोजन तो है नहीं। यह काम तो सृष्टि की असलियत की जानकारी के ही लिए किया जाता है। यह भी नहीं जानते कि इन अनंत ग्रहों और उपग्रहों की कौन-सी जरूरत इस सृष्टि के काम में है। फिर भी इनका और इनकी गति आदि का पता भी लगाते ही हैं। इसके बारे में वाद-विवाद चलता है और पोथी-पोथे भी लिखे जाते हैं। यही है सैद्धांतिक दृष्टि। यदि इस दृष्टि से धर्म और ईश्वर का विरोध मार्क्स को इष्ट होता है तो फिर भौतिक द्वन्द्ववाद की बात इस सिलसिले में छेड़ने का प्रश्न ही कहाँ होता ? यह दृष्टि तो ईश्वर के विरोध का प्रयोजन बताती है। अर्थात मार्क्स किसी खास प्रयोजन से ही उसका विरोध करता है न कि ईश्वर सचमुच हई नहीं, केवल इस सैद्धांतिक दृष्टि से। बल्कि इस सैद्धांतिक दृष्टि का तो वह पक्का विरोधी है। इसमें तो वह अराजकतावाद और अवसरवाद की गंध पाता है। इसीलिए इसका सख्त विरोध भी करता है। क्योंकि ये दोनों वाद मार्क्सवाद के विरोधी तथा वर्गसंघर्ष के घातक हैं। इससे तो यह भी सिद्ध हो जाता है कि वस्तुत: धर्म या ईश्वर हई नहीं, यह बात मार्क्स या मार्क्सवाद की नहीं है, इस पचड़े में वह नहीं पड़ता। भौतिक द्वन्द्ववाद की दृष्टि के इस लंबे विचार ने, हमें विश्वास है, मार्क्सवाद के इस पहलू को काफी साफ कर दिया है।
धर्म, सरकार और पार्टी
अब हमें फिर गीता के धर्म को देखना है। जब, जैसा कि पहले ही बता चुके हैं, धर्म गीता के अनुसार नितांत वैयक्तिक या व्यक्तिगत (शख्सी - Personal) चीज है, तो न सिर्फ इसमें या इसके नाम पर कलह की रोक हो जाती है। बल्कि मार्क्सवाद से भी मेल हो जाता है, विरोध नहीं रहता। व्यक्तिगत कहने का यही मतलब है कि किसी समुदाय, गिरोह, कमिटी, पार्टी, दल, सभा या अंजुमन की चीज यह हर्गिज नहीं है। हरेक आदमी चाहे जैसे इसके बारे में अमल करे, सोचे या कुछ भी करे। किसी दूसरे आदमी, दल, पार्टी, गिरोह या देश को इसमें टाँग अड़ाने और दखल देने का कोई हक नहीं। असल में गिरोह, समुदाय, पार्टी आदि को इससे कोई ताल्लुक हई नहीं। इसीलिए सरकार को भी इसमें पड़ने का हक है नहीं। अगर वह पड़ती है, जैसा कि बराबर ही देखा जा रहा है, खासकर पूँजीवादी युग में, तो और भी, नाजायज काम करती है। जर्मनी या और देशों की सोशल डेमोक्रेटिक पार्टियों ने जहाँ सरकार को इसमें पड़ने से रोका तहाँ उनने खुद इसमें पड़ जाने की गलती की, या कम से कम ऐसा खयाल जाहिर किया। इसीलिए एंगेल्स ने उन्हें डाँटा था। उसने कहा था कि सरकार इसमें हाथ न डाले यह तो ठीक है। मगर पार्टी की भी यह निजी चीज क्यों हो? पार्टी को इससे क्या काम? उसका कोई मेंबर धर्म को माने या न माने। पार्टी उसमें दखल क्यों देने लगी? हाँ, इसके चलते जो भारी खतरे हैं, उनका खयाल करके पार्टी का रुख तो इसके बारे में सदा भौतिक द्वन्द्ववाद वाला ही होगा। यही बात लेनिन ने अपने लेख में यों लिखी है -
'This he did in a declaration in which he emphatically pointed out that Social Democracy regards religion as a private matter in so far as the State is concerned, but not in so far as it concerns Marxism or the worker's party.'
'Should our deputy have gone further and developed atheistic ideas in greater detail ? We think not. This might have exaggerated the significance of the fight which the party of the proletariat is carrying on against religion; it might have obliterated the dividing line between the bourgeois and socialist fight against religion.'
इसका अर्थ यह है, 'एंगेल्स ने यह काम एक घोषणा के द्वारा किया, जिसमें उसने जोर देकर बताया कि सोशल डेमोक्रेटिक (मजदूरों की क्रांतिकारी) पार्टी धर्म को व्यक्तिगत चीज वहीं तक मानती है जहाँ तक सरकार का इससे ताल्लुक है। लेकिन उसके मत से मार्क्सवाद या मजदूरों की पार्टी के लिए यह व्यक्तिगत चीज नहीं है।'
'क्या डयूमा के हमारे प्रतिनिधि (सरकोफ) को चाहिए था कि आगे बढ़ जाता और नास्तिकवाद पर विस्तार से बोलता एवं खंडन-मंडन करता? हम तो ऐसा नहीं समझते। यदि वह ऐसा करता तो मजदूरों की पार्टी का जो धर्म-विरोधी आंदोलन और संघर्ष है उसके महत्त्व की अत्युक्ति हो जाती। समाजवादियों और पूँजीवादियों के द्वारा धर्म का विरोध करने में जो भेद है वह ऐसा करने से मिट जाता है।'
यहाँ यह बात जानने की है कि पूँजीवाद लोग भी अपना काम निकालने के लिए समय-समय पर धर्म का विरोध करते हैं। उस समय जर्मनी में विस्मार्क ने ऐसा ही किया था। जार भी यहूदियों का विरोध करता था और हिटलर भी। मगर उनका मतलब तो दूसरा ही होता है। या तो उन्हें दिमागी दुनिया की कुश्ती लड़ने का शौक होता है, या वे ख्याति के लिए ही ऐसा करते हैं, या ऐसा करने से उनका कोई दुनियावी मतलब सिद्ध होता है। वर्गसंघर्ष की दृष्टि से वे ऐसा काम हर्गिज नहीं करते। भले ही सैद्धांतिक दृष्टि से करते हों। विपरीत इसके साम्यवादी लोग वर्गसंघर्ष की ही दृष्टि से उसका विरोध करते हैं। मगर कोरे वाद-विवाद और खंडन-मंडन में पड़ जाने पर खतरा यह है कि मार्क्सवादी भी उसी सैद्धांतिक दृष्टि में पड़ जा सकते हैं। इसीलिए उसे रोक के दोनों दृष्टियों को अलग-अलग रखा गया है। मार्क्सवाद कोरे खंडन-मंडन को पूँजीवादी और इसीलिए अपनी विरोधी दृष्टि मानता है, यह बात मार्के की है।
दृष्ट और अदृष्ट
यह कहा जा सकता है कि गीता ने जब कर्मवाद को माना है तो भाग्य या प्रारब्ध का सवाल हमारे भौतिक कामों में भी आई जाता है। अठारहवें अध्याय के 'अधिष्ठानं तथा कर्त्ता' से लेकर 'पंचै ते तस्यहेतव:' (14, 15) तक दो श्लोकों में साफ ही कहा है कि जो कोई भी भला या बुरा काम किया जाता है उसके पाँच कारण होते हैं, जिनमें एक दैव, प्रारब्ध या भाग्य भी है, जिसे तकदीर भी कहते हैं। गीता ने स्वीकार कर लिया है कि प्रारब्ध का हाथ दुनिया के सभी कामों में होता ही है। इसमें शक की जगह हई नहीं। फिर तीसरे अध्याय के 'यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञ: कर्मसमुद्भव:' (14) में भी साफ ही कर्म और यज्ञ को वृष्टि के द्वारा अन्नादि के उत्पादन में और इस तरह भौतिक कार्य चलाने में कारण ठहराया है। चौथे अध्याय के 'नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य' (31) श्लोक में भी स्पष्ट ही कह दिया है कि यज्ञ के बिना इस दुनिया का काम चली नहीं सकता। छठे अध्याय के 37 से 48 तक के श्लोकों में इसी कर्म का संबंध मनुष्यों के जन्म और स्वभाव के साथ जोड़ के 45वें में कह दिया है कि 'अनेक जन्मों में यत्न करने के बाद ही उसका दिल-दिमाग ठीक हो जाने पर मनुष्य मोक्ष का भागी होता है' - ''अनेक जन्मसंसिद्धस्ततो याति परांगतिम्।'' इस तरह कर्मों का संबंध पुनर्जन्म के साथ लगा हुआ है और पुनर्जन्म का तो अर्थ ही है यह भौतिक शरीर। सोलहवें अध्याय के 19, 20 श्लोकों में आसुरी संपत्ति वालों के दुष्कर्मों के फलस्वरूप उनकी दुर्गति और नीच योनियों में उनका जन्म बताया गया है। दूसरे अध्याय के 'बुद्धियुक्तो जहातीह' (50) श्लोक में पुण्य-पाप का जिक्र है। इधर-उधर के श्लोकों में भी यही बात है। इस तरह गीता में जानें कितनी ही जगह यही बात पाई जाती है। इसलिए यह तो मानना ही होगा कि भाग्य और भगवान का दखल इस दुनिया के भौतिक कार्यों में गीता को भी मान्य है।
बात तो कुछ ऐसी ही मालूम पड़ती है और अगर इस पर कुछ ज्यादा खोद-विनोद न किया जाए तो इसी नतीजे पर पहुँचना अनिवार्य हो जाएगा। यह ठीक है कि ऐसा होने पर भी हमारा पहले का मंतव्य ज्यों का त्यों रह जाता है। क्योंकि यह जो कर्मवाद की बात अभी-अभी कही गई है वह तो गीताधर्म है नहीं - वह गीता की अपनी चीज नहीं है। इसके बारे में तो अधिक से अधिक इतना ही कह सकते हैं कि सामान्यत: उस समय के समाज और शास्त्र में जो कुछ कर्म-संबंधी बातें और धारणाएँ प्रचलित थीं, जो सिद्धांत आमतौर से इस संबंध में माने जाते थे, उन्हीं को अक्षरश: अनुवाद करके गीता ने लिख दिया है। ऐसा करने में उसका प्रयोजन कुछ न कुछ है। बावजूद इन सभी बातों के योग और ज्ञान के आश्रय लेने पर मनुष्य बंधनरहित हो जाता है, यही बात दिखलाने और योग, ज्ञान या भक्ति के मार्ग के महत्त्व को बताने के ही लिए उन कर्मफलों और विविध गतियों का उल्लेख गीता करती है, जो आस्तिक समाज में प्रचलित थीं और हैं। गीता का उनके अनुमोदन या उनकी यथार्थता से कोई ताल्लुक नहीं है। यह उसका ध्येय हई नहीं। यदि उन प्रसंगों और पूर्वापर विचारों को देखा जाए तो यह बात साफ हो जाएगी। गीता के श्लोकार्थ के समय हम भी यह बात साफ दिखाएँगे।
इसके विपरीत गीताधर्म के नाम से जो कुछ हमने कहा है और जिसका उल्लेख सत्रहवें अध्याय में आया है वह गीता की निजी चीज है, अपनी देन है। द्वितीय अध्याय वाले योग को जिस प्रकार हम गीताधर्म मानते हैं और स्वीकार करते हैं कि वह उसकी खास देन है, ठीक यही बात यहाँ भी है। श्रद्धापूर्वक कर्म करना ही असल चीज है। श्रद्धा से ही कर्मों का रूप निर्णीत हो जाता है। इसीलिए कर्म सोलहों आना व्यक्तिगत चीज है, यह बात भी गीताधर्म है। उस योग की ही तरह यह चीज भी और कहीं पाई नहीं जाती है। इसलिए गीताधर्म और मार्क्सवाद में कोई भी विरोध नहीं है यह जो हमने पहले कहा है वह ज्यों का त्यों बना रह जाता है और इस प्रकार हमारा अपना काम सिद्ध हो जाता है - पूरा हो जाता है। जो चीज या जो विषय - जो सिद्धांत - अन्यान्य ग्रंथों और मतवादों में पाया जाए उसे भला गीताधर्म कैसे कहेंगे? और यही बात कर्मवाद के संबंध में भी है। यही कारण है कि हमारे हरेक कामों में पाँच कारणों को गिना के उनमें जो दैव या भाग्य को भी गिनाया है, ठीक उसी के पूर्व के श्लोक 'पंचैतानि महाबाहो', 'सांख्ये कृतान्ते प्रोक्तानि' (13) में साफ ही कहा है कि सांख्यमत या सांख्यसिद्धांत में ऐसा माना गया है।
फिर भी इस संबंध में कुछ बातें जानने की हैं। इससे गीताधर्म के यथार्थ महत्त्व को समझने में आसानी होगी। प्राय: हजारों साल पहले एक अपूर्व प्रतिभाशाली नैयायिक विद्वान उदयनाचार्य हो गए हैं, जिनने ईश्वरवाद और धर्म-कर्म की सिद्धि पर कई अपूर्व ग्रंथ लिखे हैं। इन्हीं में एक का नाम न्यायकुसुमांजलि है। उसमें एक स्थान पर इसी दैव, प्रारब्ध, अदृष्ट या अपूर्व - दैव को ही अपूर्व तथा अदृष्ट भी कहते हैं - के संबंध में लिखते हुए लिखा है कि सांसारिक पदार्थों की उत्पत्ति के लिए दो प्रकार के कारण माने जाते हैं, दृष्ट और अदृष्ट। कपड़ा तैयार करने में जिस प्रकार सूत, जुलाहा, करघा वगैरह प्रत्यक्ष या दृष्ट कारण हैं, उसी प्रकार सभी पदार्थों के ऐसे ही कारणों को दृष्ट कारण कहते हैं। मगर इनके अलावा जो दूसरा कारण है और प्रयत्क्ष दीखने वाला नहीं है उसे अदृष्ट कहते हैं। उदयनाचार्य ने कहा है कि यह अदृष्ट कारण कोई स्वतंत्र या करामाती चीज नहीं है। उसका काम है दृष्ट कारणों को जुटाने में ही सहायक होना - 'अदृस्यदृष्ट सम्पादनेनैव चारितार्थ्यात्'। यह अदृष्ट, दैव या प्रारब्ध दूसरा कुछ नहीं करता! यह नहीं होगा कि सूत, जुलाहा, करघा आदि सभी प्रत्यक्ष कारण जुटे हों तो भी अदृष्ट के करते कपड़े के तैयार होने में देर लगेगी।
अब अगर हम इस दार्शनिक विचार पर गौर करते हैं तो कर्मवाद की सारी दिक्कतें दूर हो जाती हैं। ईश्वरवाद के ही सिलसिले में यह बात कही जाने के कारण महत्त्व और भी बढ़ जाता है। यदि ऐसा न मानें तो बड़ी गड़बड़ होगी और रसोई बनानेवाला चावल, पानी, लकड़ी, आग, चूल्हा, बरतन वगैरह रसोई के सभी सामानों को जुटाके भी भाग्य का मुँह देखता बैठा रहेगा। फलत: सभी जगह गड़बड़झाला हो जाएगा। पाचक महाशय अदृष्ट महाराज की बाट जोहते रहेंगे। मगर उनका दर्शन होगा ही नहीं! और तटस्थ दुनिया कहेगी कि यह कैसी मूर्खता की बात है अदृष्ट का सिद्धांत! इसमें तो कोई अक्ल मालूम होती ही नहीं। इसीलिए दार्शनिक नैयायिक की हैसियत से उदयनाचार्य ने बहुत ही सुंदर समाधान करके सारा झमेला ही मिटा दिया। यह भी नहीं कि अदृष्ट का अर्थ केवल पूर्व कर्म, दैव या प्रारब्ध ही हो। अदृष्ट का अर्थ है जो न दीखे - जो प्रत्यक्ष न हो। इसलिए ईश्वर, उसकी इच्छा वगैरह जो भी ऐसे कारण माने जाते हैं सभी इसमें आ गए और सभी का समाधान उदयनाचार्य ने किया है। क्योंकि दलील तो सभी के लिए एक ही है और गड़बड़ भी वही एक ही है।
हाँ, तो इस सिद्धांत के अनुसार यदि हम देखते हैं तो हमें कोई गड़बड़ नहीं मालूम होती। मजदूरों की लड़ाई के सिलसिले में हड़ताल का मौका आने पर सारी तैयारी हो गई और मजदूर लड़ने जा रहे हैं, या लड़ रहे हैं, इस विश्वास के साथ कि विजय होके ही रहेगी। इसी बीच भाग्यवादी और भगवान का ठेकेदार कोई पादरी, पंडित या मौलवी आके उन्हें बहकाता है कि कुछ न हो सकेगा, तुम्हारी तकदीर ही खराब है, तुम पर भगवान ही रंज है। तुम लोग हारोगे जरूर। मिलवाले पर भगवान खुश जो हैं, उसका भाग्य सुंदर जो है, उसका करम चंदन से लिखा जो गया है! बस, सारा मामला बिगड़ता है - उसके बिगड़ने का खतरा हो जाता है। मगर अगर उदयनाचार्यवाली दार्शनिक बात और युक्ति मान लें, तो फिर ऐसी बेहूदा बातों की गुंजाइश ही नहीं रह जाती। उस दशा में इन गुरु-पुरोहितों या मौलवी-पादरियों की बेहूदगी को जगह है कहाँ? हड़ताल की सफलता का सारा बाहरी या दृष्ट सामान जब होई गया तो अब अदृष्ट - भाग्य या भगवान - अलग कहाँ रह गया? यह तो सारी शैतानियत है। अमीरों के दलालों ने यह कुचक्र खुद रचा है जो निराधार और बेबुनियाद है। उन्हें तो उलटे यह कहना चाहिए कि हड़ताल की तैयारी में कोई कसर रहने न दो। बस, भगवान और भाग्य तुम्हारे साथ हैं और जरूर जीतोगे। यही उचित और कर्मवाद के सिद्धांत के अनुसार है।
और गीता का क्या कहना? वह तो हमारे यत्नों और कोशिशों को ही सब कुछ मानती है। वह अदृष्ट की परवाह न करके काम में मुस्तैदी से जुट जाने पर ही जोर देती है। वह कहती है कि जब सभी सामान मौजूद हैं तो जीत तो होगी ही, कार्यसिद्धि तो होगी ही। फिर आगा-पीछा क्यों? वह तो यहाँ तक कहती है कि जीतने-हारने का क्या सवाल? हमें तो काम करने का ही हक है। हमारे बस की चीज तो यही है। हम फल-वल की फिक्र करके काम से, संघर्ष से क्यों मुड़ें? यह तो नादानी होगी। वह तो पीछे मुड़ने वालों को कहती है कि छि:-छि: क्या मुँह दिखाओगे जब दुश्मन हँसेंगे और लोग गालियाँ देंगे? इस तरह बेइज्जती से जीने की अपेक्षा तो काम करते-करते और लड़ते-लड़ते मर जाना लाख दर्जे अच्छा है। इसमें शान है, प्रतिष्ठा है, इज्जत है। इससे न सिर्फ लड़ने और काम करने वालों का, बल्कि उनके साथियों का भी सिर ऊँचा होता है। फिर और चाहिए ही क्या? इससे बढ़के और हई क्या?
जब अर्जुन इसी आगा-पीछा में अपने कर्तव्य से विमुख हो रहा था, तो कृष्ण ने दूसरे अध्याय से ही शुरू करके अठारहवें तक जानें बीसियों बार उसे ललकारा और कहा कि क्या नाहक मरने-मारने की फिक्र नादानों की तरह कर रहे हो? तैयार हो जाओ, डट जाओ, कमर बाँध लो, दृढ़ संकल्प के साथ लड़ो। यह नामर्दों की-सी बातें क्या कर रहे हो? ये बातें तुम्हारे जैसों के लिए मुनासिब नहीं हैं, जेबा नहीं देती है। जरा सुख-दु:ख बरदाश्त करने की हिम्मत तो करो। इस विश्वास के साथ भिड़ तो जाओ कि जरूर फतह होगी। फिर तो बेड़ापार ही समझो। ये बातें अक्लमंदी की नहीं हैं जो तुम कर रहे हो। तुम धोखे में पड़ के आगा-पीछा कर रहे हो, खबरदार! जरा सुनिए, - 'धीरस्तत्र न मुह्यति' (2। 13), 'तांस्तितिक्षस्व' (2। 14), 'तस्माद्युध्यस्व' (2। 18), 'उभौ तौ न विजानीत:' (2। 19), 'कं घातयति हंति कम्' (2। 21), 'नानुशोचितुमर्हसि', 'न शोचितुमर्हसि' (2। 25-27, 30), 'का परिदेवना' (2। 28), 'न विकम्पितुमर्हसि' (2। 31), 'पापमवाप्स्यसि' (2। 33), 'उत्तिष्ठ युद्धायकृतनिश्चय:' (2। 37), 'युद्धाय युज्यस्व' (2। 38), 'कुरु कर्माणि' (2। 48), 'योगाय युज्यस्व' (2। 50), 'नियतं कुरु कर्म त्वं' (3। 8), 'मुक्तसंग: समाचर' (3। 9), 'कार्य कर्म समाचर' (3। 19),'कर्त्तुमर्हसि' (3। 20), 'युध्यस्व विगतज्वर:' (3। 30), 'कुरु कर्मैव' (4। 15), 'कृत्वापि न निबध्यते' (4। 22), 'उत्तिष्ठ भारत' (4। 22), 'योगिन: कर्म कुर्वन्ति' (5। 11), 'कार्यं कर्म करोति' (6। 1), 'तस्माद्योगी भव' (6। 46), 'युध्य च' (8। 7), 'योगयुक्तो भव' (8। 27), 'तत्कुरुष्वमदर्पणम्' (9। 27), 'यसो लभस्व' (11। 33), 'निमित्तमात्रं भव' (11। 33), 'युध्यस्व' (11। 34), 'मत्कर्मपरमो भव' (12। 10), 'न हिनस्त्यात्मनात्मानम्' (13। 28), 'मा शुच:' (16। 5), 'कर्म कर्तुमिहार्हसि' (16। 24), 'कर्म न त्याज्यं' (18। 3), 'न त्याज्यं कार्यमेव' (18। 5), 'कर्माणि कर्त्तव्यानि' (1। 6), 'कर्मण: संन्यासो नोपपद्यते' (18। 7), 'न हंति न निबध्यते' (18। 17), 'संसद्धिं लभते' (18। 45), 'स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य' (18। 46), 'स्वधर्म: श्रेयान्' (18। 47), 'कर्मकुर्वन्नाप्नोति किल्विषम्' (18। 47) 'सहजं कर्म न त्यजेत्' (18। 48), 'न श्रोष्यसि विनंक्ष्यसि' (18। 58), 'यदहंकारमाश्रित्य न योत्स्ये' (18। 59), 'प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति' (18। 59), 'करिष्यस्यवशोऽपि तत्' (18। 60), 'करिष्ये वचनं तव' (18। 73), इत्यादि। इन उद्धरणों से स्पष्ट है कि पचास बार से ज्यादा अर्जुन पर ललकार पड़ी है। शायद ही कोई अध्याय है जिसमें यह बात नहीं आई है। गीता में कर्म की ललकार ओतप्रोत है - यह कर्म की ललकार गीता की रग-रग में भिनी हुई है और कर्मयोग उसका कारण है।
अर्जुन की मानवीय कमजोरियाँ
यों तो दूसरे अध्याय के 33-36 श्लोकों में, मानव स्वभाव की कमजोरियों को समझ के ही, अर्जुन को खूब ललकारा है कि मुँह में कालिख पुत जाएगा, यदि पीछे हटे, लोग धिक्कारेंगे; हटने से तो मरना कहीं बेहतर है; शान की मौत बेइज्जती की गद्दी से लाख दर्जे अच्छी है, आदि आदि 37वें में भी कह दिया है कि तुम्हारे तो दोनों ही हाथों में लड्डू है - हारो तो शान तथा स्वर्ग और जीतो तो राजपाट! इसलिए हर्गिज मुँह न मोड़ो। असल में विवेक और अध्यात्मवाद की अपेक्षा यही बातें मनुष्य को स्वभावत: उत्तेजित करके कर्तव्य पथ में खामख्वाह जुटा देती है। गीता इसे बखूबी जानती है और इस पर जोर भी उसने इसीलिए दिया है। तथापि दूसरे अध्याय के शुरू के दो और तीन श्लोकों में जो कुछ कहा गया है वह इतना सुंदर है और मार्क्सवाद के साथ गीता को मिलाने में उसका इतना महत्त्व है कि हम उसे लिखे बिना रह नहीं सकते। वे दोनों श्लोक ये हैं, 'कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम्। अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्त्तिकरमर्जुन॥ क्लैब्यं मा स्म गम: पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते। क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परंतप:॥'
इन दोनों का अर्थ ऐसा है, 'अर्जुन, इस विकट समय में, जब कि सारी तैयारी हो चुकने के बाद भिड़ंत होने ही वाली है, तुममें यह कमजोरी कहाँ से आ गई? कमजोरी भी ऐसी कि भले लोग जिससे लाख कोस दूर भागें, और जो निहायत मनहूस और अमंगल होने के साथ ही इज्जत को भी मिट्टी में मिला दे। खबरदार, नामर्दी मत दिखाओ। यह चीज तुममें जेबा नहीं देती। इसलिए बहादुर, दिल की इस बेहूदी कमजोरी को छोड़कर तैयार हो जाओ।' मगर इतने से ही काम नहीं चलेगा। इन बातों की खूबी और अहमियत समझने के लिए हमें अर्जुन की उन बातों पर सरसरी नजर दौड़ानी होगी जो उसने इससे पहले कही थीं और जिनके जवाब में यह कहा गया है।
पहले अध्याय के 28-46 श्लोकों को देखने से पता चलता है कि अर्जुन को जैसे धर्म और अक्ल का अजीर्ण हो गया हो। उसका हृदय उस समय दया से दब गया था, यह बात उससे ठीक पहले के 27वें श्लोक के 'कृपया परयाविष्ट:' से स्पष्ट है। यही कारण है कि बुद्धि ठीक काम करती थी नहीं। फलत: अक्ल का अजीर्ण मिटाना जरूरी हो गया। जो लोग ऐन कर्तव्य पालन के समय दिल की कमजोरी और नादानी से दयार्द्र हो जाते और रहम करने लगते हैं वह ऐसी ही बेसिर-पैर की बातें करते हैं। 1905 में काले सागर के रूसी जहाजी बेड़े के सिपाहियों को मजबूरन अपने ही अफसरों के विरुद्ध बगावत करनी पड़ी थी। क्योंकि अफसरों ने जानबूझ के ऐसी शैतानियत की और सिपाहियों की स्वतंत्रता पर ऐसी रोक लगाई कि बरदाश्त से बाहर थी। बात यह थी कि रूस के किसानों और मजदूरों के क्रांतिकारी आंदोलनों के साथ जहाजी सिपाही (Sailors) सहानुभूति दिखाना चाहते थे। कारण, वह आंदोलन उनके अपने ही मजलूम भाइयों का था। मगर इसमें अफसरों ने अड़ंगे डाले। फलत: विद्रोह की आग भड़क उठी और सिपाहियों ने सभी अफसरों को चटपट कैद कर लिया! फिर तो लेने के देने पड़े! अफसरों की सारी गरमी ही गायब हो गई। उनने आरजू मिन्नत की, माफी माँगी, आगे के लिए बाधा न डालने के वादे किए। फिर क्या था? दया में आके सिपाहियों ने उन्हें रिहा कर दिया। बस, मौका मिलते ही बाहर से अपने पक्ष की फौज मँगा के अफसरों ने उन्हीं सिपाहियों का कत्लेआम शुरू कर दिया। ऐसे समय की दया नादानी की पराकाष्ठा होती है और उसका नतीजा इसी तरह भुगतना पड़ता है। लेनिन ने इस दयावाली नादानी का सुंदर वर्णन सन् 1905 वाली रूसी क्रांति के संबंध के 22/1/1917 वाले ज्यूरिच के भाषण में किया है। महाभारत के समय वही गलती अर्जुन भी ऐन मौके पर करने जा रहा था।
मगर इस ऐन मौके पर पीछे हटने के लिए कोई कारण तो चाहिए ही। दया की बात तो की जा नहीं सकती थी। जिनने सब कुछ किया और पांडव परिवार का सर्वस्व छीनने, उन्हें तंग-तबाह करने, उनकी स्त्री तक को बेइज्जत करने और उन्हें मार डालने तक के लिए जिनने कोई भी दकी का बाकी नहीं रखा, यहाँ तक कि जंगल में भटकने के समय उन्हें चिढ़ाने तथा जले पर नमक छिड़कने के लिए वही राजसी ठाटबाट के साथ दुर्योधन का सारा समाज पहुँच गया था, उन्हीं के साथ दया! ऐसा बोलने की हिम्मत अर्जुन को थी नहीं। इसलिए वह धर्म, पाप, कुलसंहार, वर्णसंकर, नरकवास का भय आदि बातें पेश करने लगा, धर्म एवं नीतिशास्त्र के पन्ने के पन्ने उलटने लगा। उनने यह भी कहा कि यह ठीक है कि विरोधियों को भी ऐसा ही सोचना चाहिए; आखिर अक्ल की ठेकेदारी हमीं को तो नहीं है; एक ही पक्ष के सोचने से दुनिया में काम भी नहीं चला करता। फिर भी उनकी आँखें तो बंद हैं! वे तो लोभ में पड़े हैं! उन्हें तो लोक-परलोक कुछ सूझता नहीं! लेकिन हमारी तो खुली हैं। हम तो सारा अनर्थ साफ देख रहे हैं। इसलिए हम तो संतोष को ही कल्याणकारी मानते हैं। यह भी ठीक है कि हम हटेंगे तो शत्रु लोग हमें बर्बाद करके ही छोड़ेंगे। मगर इससे क्या? हमारा परलोक तो न बर्बाद होगा, स्वर्ग बैकुंठ तो मिलेगा, भगवान तो खुश होंगे। इसलिए हमें हर्गिज-हर्गिज लड़ना नहीं चाहिए।
ऐसा मालूम होता है कि किसी जमींदार या कारखानेदार के अत्याचारों से ऊबकर हड़ताल या और तरह की सीधी लड़ाई लड़ने को जब किसान और मजदूर पूरी तरह आमादा हैं, ठीक उसी समय कोई धर्मध्वजी, धर्म का ठेकेदार गुरु, पीर, पंडित, मौलवी या पादरी उन्हें धर्म और भगवान के नाम पर सिखा रहा है कि कभी संघर्ष और लड़ाई का नाम न लो! राम, राम महापाप होगा। यदि जमींदार-मालदार कष्ट देते हैं, तो बरदाश्त करो आखिर वे लोग बड़े हैं, मालिक हैं। छोटों के लिए बड़ों की बातें सहने में ही फायदा है! संतोष करो, तो भगवान खुश होगा, परलोक बनेगा। भुलावे में मत पड़ो। वे गलती करते हैं तो करें, मगर उनकी देखा-देखी तुम लोग क्यों नादानी कर रहे हो, आदि-आदि। और दूसरे अध्याय के शुरू के दो श्लोकों में जो कुछ कृष्ण के मुँह से गीता ने कहलवाया है वह तो ऐसा मालूम होता है कि कोई वर्गसंघर्षवादी मार्क्सवादी ऐसे उपदेशकों को और उन किसान-मजदूरों को भी फटकार रहा है जो भूलभुलैया में पड़के आगा-पीछा कर रहे हैं। गीता ने धर्म और पुण्य-पाप आदि की सारी दलीलों का जो उत्तर इन दो श्लोकों में ही खत्म कर दिया है वह निरी भौतिक दृष्टि से ही है। इतना चुभता हुआ, संक्षिप्त और माकूल उत्तर शायद ही मिले। अर्जुन की धर्म-वर्म की बातों की जरा भी परवाह नहीं की गई है। उनका खयाल ही नहीं किया गया है। सीधे सांसारिक दृष्टि से ही उसे कस के चपत लगाई गई है और करारी डाँट दी गई है। इन दो श्लोकों में जो सिर्फ एक शब्द 'अस्वर्ग्य' आया है उससे शायद यह भ्रम हो कि स्वर्ग या परलोक की बात भी इसमें है। मगर संस्कृत में 'अस्वर्ग या अस्वर्ग्य' शब्द मनहूस, अमंगल आदि के ही मानी में आता है। ऐन लड़ाई के समय इन बातों से बढ़ के मनहूस या अमंगल होई क्या सकता है? इसीलिए हम गीता-धर्म को मार्क्सवाद का साथी पाते हैं।
स्वधर्म और स्वकर्म
इस सिलसिले में हम दो और बातें कहके यह प्रकरण पूरा करेंगे। एक तो है अपने-अपने धर्मों में ही डटे रहने और दूसरे के साथ छेड़खानी न करने की। अपने धर्म को कभी किसी दूसरे धर्म से बुरा या छोटा न मानना और दूसरों के धर्मों पर न तो हाथ बढ़ाना और न उनकी निंदा करना, यह गीता की एक खास बात है। गीता ने इस पर खास तौर से जोर दिया है। चाहे और जगह भी यह बात भले ही पाई जाती हो; मगर गीता में जिस ढंग से इस पर जोर दिया गया है और जिस प्रकार यह कही गई है वह चीज और जगह नहीं पाई जाती।
यों तो किसी न किसी रूप में यह बात अन्य अध्यायों एवं स्थानों में भी पाई जाती है। मगर तीसरे अध्याय के 35 वें और अठारहवें के 47-48 श्लोकों में खास तौर से इसका प्रतिपादन है। यहाँ तक कि 'श्रेयान्स्वधर्मो विगुण: परधर्मात्स्वनुष्ठितात्' श्लोक का यह आधा भाग दोनों ही जगह ज्यों का त्यों लिखा गया है। इससे गीता की नजरों में इसकी अहमियत बहुत ज्यादा मालूम पड़ती है। यह भी जान पड़ता है कि इस मामले में जो एक निश्चित दृष्टि तय कर दी गई है उसी का ज्यों का त्यों पालन करने पर ही गीता का जोर है। वह उसमें जरा भी परिवर्तन बरदाश्त नहीं कर सकती। नहीं तो उन्हीं शब्दों को हू-ब-हू दोनों जगह दुहराने का और दूसरा मतलब होई क्या सकता है? यह भी नहीं कि वे शब्द साधारण हैं। वही तो गीता के इस मंतव्य के प्रतिपादक हैं। उनके साथ जो अन्य शब्द या वाक्य पाए जाते हैं उनका काम है इन्हीं की पुष्टि करना - इन्हीं के आशय को स्पष्ट करना।
अब जरा इनका अर्थ देखें। श्लोक का जो आधा भाग ऊपर लिखा गया है उसका आशय यही है कि 'दूसरे का धर्म यदि अच्छी तरह पालन भी किया जाए तो भी उसकी अपेक्षा अपना (स्व) धर्म अधूरा या देखने में बुरा होने पर भी कहीं अच्छा होता है।' एक तो गीता ने धर्म और कर्म को एक ही माना है यह बात पहले कही जा चुकी है और आगे भी इस पर विशेष प्रकाश डालेंगे। लेकिन इतना तो इससे साफ हो जाता है कि यह मंतव्य सभी कामों, क्रियाओं या अमलों के संबंध में है, न कि धर्म के नाम पर गिनाए गए कुछ पूजा-पाठ, नमाज आदि के ही बारे में। इसका मतलब यह हुआ कि हमें अपने-अपने कामों की ही परवाह करनी चाहिए, फिक्र करनी चाहिए, फिर चाहे वे कितने भी बुरे जँचते हों, भद्दे लगते हों या उनका पूरा होना गैरमुमकिन हो। वे अधूरे भी दूसरों के पूरों से कहीं अच्छे होते हैं। इसलिए दूसरों के अच्छे, सुंदर और आसानी से पूरे होने वाले कामों पर हमारा खयाल कभी नहीं जाए; हम उन्हें करने और अपनों को छोड़ने की भूल कभी न करें। क्योंकि इस तरह हम दो कसूर कर डालेंगे। एक तो अपने कर्तव्य से भ्रष्ट होंगे और इस तरह उसकी पाबंदी के बिना होने वाली खराबियों की जवाबदेही हम पर होगी। दूसरे हम अनधिकार चेष्टा के भी अपराधी होंगे।
दूसरी बात है इसमें अपने या 'स्व' की। स्वकर्म या स्वधर्म का मतलब है जो प्रत्येक आदमी के लिए किसी वजह से भी निर्धारित है, निश्चित है उसके जिम्मे लगाया गया (assigned) है, या जो उसके स्वभाव के अनुकूल होने के कारण ही उस पर लादा गया है, उसके माथे मढ़ा गया है। अठारहवें अध्याय वाले श्लोक में ऊपर लिखे आधे श्लोक के बाद कारण के रूप में लिखा गया है कि 'स्वभाव के अनुकूल जो काम हो उसे करने में पाप या बुराई होती नहीं' - "स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्विषम्" इससे पता चलता है कि स्वकर्म या स्वधर्म का अर्थ है 'स्वाभाविक धर्म या कर्म।' उसके पहले 41-46 तक के छह श्लोकों में चारों वर्णों के धर्मों को गिनाते हुए सबों को 'स्वाभाविकधर्म' ही कहा है। उन श्लोकों में केवल कर्म शब्द ही है और इस 47वें में भी पूर्वार्द्ध में 'धर्म' कहके उत्तरार्द्ध में, जैसा कि अभी दिखाया है, 'कर्म' ही कहा गया है। बाद वाले 48वें में भी 'सहजं कर्म-कौंतेय' में पुनरपि कर्म शब्द ही आया है। फलत: मानना होगा कि धर्म और कर्म एक ही मानी में बोले गए हैं और इन शब्दों का अर्थ है स्वभावनियत, स्वभाव के अनुकूल या स्वाभाविक काम।
मगर समस्त गीता के आलोड़न करने और अठारहवें अध्याय के आरंभ के ही कुछ वचनों को भी देखने से पता चलता है कि कुछ कर्म ऐसे हैं जिनके बारे में स्वभाव का सवाल होता ही नहीं। वे तो सबों के लिए नियत, स्थिर या तयशुदा हैं। दृष्टांत के लिए 5-6 दो श्लोकों में यज्ञ, दान, तप के बारे में कहा गया है कि ये सबों के लिए समान रूप से कर्तव्य हैं। इन्हें कोई छोड़ नहीं सकता। बेशक फल और कर्म - दोनों की ही - आसक्ति छोड़ के ही ये किए जाने चाहिए, कृष्ण ने अपना यह पक्का मंतव्य कहा है। इसके बाद ही 'नियतस्य तु संन्यास: कर्मण:' आदि में कहा है कि नियत कर्म का त्याग उचित नहीं है। वह तो तामस त्याग है। 9वें श्लोक में भी 'कार्यमित्येव यत्कर्म नियत:' शब्दों के द्वारा नियत कर्म को कर्तव्य समझ के करते हुए फलासक्ति के एवं कर्मासक्ति के त्याग को ही सात्त्विक-त्याग कहा है। इससे स्पष्ट है कि नियत कर्म कहते हैं स्वाभाविक कर्म को और किसी कारणवश स्थिर या निश्चित किए गए (assigned) कर्म को भी। यज्ञ, दान, तप ऐसे की कर्मों में आते हैं। अपने आश्रितों का पालन या रक्षा भी ऐसे ही कर्मों में है। पहरेदार का पहरा देना, अध्यापक का पढ़ाना या सेवक की सेवा भी ऐसी ही है। अनेक धर्म, मजहब या संप्रदायों के अनुसार जिसे जो करने को कहा गया है वह भी नियतकर्म या स्वधर्म में आ जाता है। अपनी श्रद्धा और समझ से जो कुछ भी करता है वह तो पक्का-पक्की स्वधर्म है।
इस प्रकार यदि देखा जाए तो गीता ने धर्म-मजहब के झगड़े और शुद्धि या तबलीग के सवाल की जड़ को ही खत्म कर दिया है। गीता इन झगड़ों और सवालों को भेड़ों का मूँड़ना ही समझती है। और आदमी को भेड़ बनाना तो कभी उचित नहीं। इसलिए इन झमेलों में पड़ने की मनाही उसने कर दी है। उसने तो अठारहवें अध्याय के 48वें श्लोक में यह भी कह दिया है कि बुराई-भलाई तो सभी जगह और सभी कामों में लगी हुई है। इसलिए कर्मों के संबंध में अच्छे और बुरे होने की क्या बात? हमारा धर्म अच्छा, तुम्हारा बुरा, यह बात उठती ही कैसे है? सभी बुरे और सभी अच्छे हैं। किसने देखा है कि कौन-से धर्म भगवान या खुदा तक सीढ़ी लगा देते हैं? इसीलिए तीसरे अध्याय में 'श्रेयान्स्वधर्मो विगुण:' आदि आधे श्लोक के बाद कहा है कि 'इसलिए स्वधर्म करते-करते मर जाना ही कल्याणकारी है; दूसरे का (पर) धर्म तो भयदायक है।'
इतना ही नहीं। ठीक इस श्लोक के पूर्व वाले 34वें श्लोक में कहा है कि 'हरेक इंद्रियों के जो पदार्थ (विषय) होते हैं उनके साथ रागद्वेष लगे ही होते हैं; उनसे किसी का भी पिंड छूटा नहीं होता। इसलिए इन रागद्वेषों से ही बचना चाहिए। असल में चीजें या उनका ताल्लुक ये खुद बुरे नहीं हैं - इनसे किसी की हानि नहीं होती। किंतु उनमें जो रागद्वेष होते हैं वही सब कुछ करते हैं - वही जहर हैं, घातक है' - ''इंद्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यस्थितौ। तयोर्न वशभागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ॥'' इस बात का प्रतिपादन तो पहले बहुत विस्तार के साथ किया गया है। यहाँ ऐसा कहने का अभिप्राय यह है कि भले बुरे का सवाल उठाके जो किसी धर्म या काम को बुरा और दूसरे को अच्छा कहते हैं और इसीलिए आपस में लोगों के सर भी फूटते हैं, वह तो नादानी है। न कोई भला है न बुरा। भला-बुरा तो अपना मन ही है। यही तो चीजों या कामों में रागद्वेष पैदा करके जहन्नुम पहुँचाता है। इसलिए हमें इस भूल में हर्गिज नहीं पड़ना होगा। गीता का यह कितना सुंदर मंत्र है और यदि हम इस पर चलें तो हमारे हक की लड़ाई कितनी जल्दी सफल हो जाए। ऐसा होने पर तो मार्क्सवाद के सामने की भारी चट्टान ही खत्म जो जाए और वर्गसंघर्ष निर्बाध चलने लगे।
योग और मार्क्सवाद
जिन दो बातों को कहके यह प्रकरण पूरा करने की इच्छा हमने जाहिर की थी उनमें स्वधर्मवाली यह एक बात तो हो चुकी है। अब दूसरी को देखना है। गीता के छठे अध्याय के 45वें और सातवें अध्याय के तीसरे एवं 19वें श्लोकों के अनुसार गीतोक्त योग प्राय: अप्राप्य है। लाखों-करोड़ों में शायद ही एकाध आदमी इसमें पूरे उतरते हैं। उक्त 45वें श्लोक में तो कहा है कि 'योग की प्राप्ति के लिए यत्न करने वाला मनुष्य जब इसमें सारी शक्ति लगाके पड़े तो उसके भीतर की मैल धुलते-धुलते बहुत जन्म लग जाते हैं तब कहीं वह पूर्ण योगी बनके परमगति प्राप्त करता है' - ''प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी संशुद्धिकिल्विष:। अनेक जन्मसंसिद्धस्ततो याति परां गतिम्॥''
इसी प्रकार सातवें अध्याय के 19वें श्लोक में भी कहा है कि 'बहुत जन्मों में कोशिश करते-करते ज्ञान हासिल होता है, समस्त संसार में वासुदेव बुद्धि या परमात्मज्ञान होता है। उसी के बाद ब्रह्मप्राप्ति होती है। ऐसे महात्मा लोग अत्यंत अलभ्य हैं।' ''बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते। वासुदेव: सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभ:॥'' मगर तीसरे श्लोक में तो और भी कठिनाई का वर्णन इस मार्ग के सिलसिले में मिलता है। वहाँ तो कहा है कि 'हजारों-लाखों में एकाध आदमी ही योगी होने के लिए यत्न करते हैं और ऐसे लाखों में बिरला ही कोई मुझे - परमात्मा को - ठीक-ठीक जान पाता है' - ''मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये। यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वत:॥''
यदि इन तीनों वचनों को मिलाके देखें तो पता चलता है कि गीता का योग नियम तो हो सकता है नहीं। यह तो इतना कठिन है कि असंभवप्राय है। कठोपनिषद् में इसी संबंध के प्रश्न के उत्तर में यम ने नचिकेता से कहा था कि 'नचिकेता, मौत की बात मत पूछो - जीते-जी मर जाने की बात न पूछो' - "नचिकेतो मरणंमाऽनुप्राक्षी:" (1। 9। 25)। उनने यह भी कह दिया था कि 'इस मार्ग पर चलना क्या है छुरे की तीखी धार पर चलना समझो, जो असंभव जैसी बात है। इसीलिए जानकार लोगों ने कहा है कि यह मार्ग दुर्गम है' - "क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति" (1। 3। 14)। हमने भी योग के संबंध में जो कुछ कहा है उससे भी निस्संदेह यही बात पक्की हो गई है।
तृतीय अध्याय के 'यस्त्वात्मरतिरेव' श्लोक का बार-बार उल्लेख तो आया है। मगर इस संबंध में उसे मनन करना चाहिए। चौथे अध्याय के 19-23 श्लोकों को भी गौर से पढ़ना होगा। पाँचवें के 7-21 श्लोक भी इस संबंध में बहुत महत्त्व रखते हैं। छठे अध्याय के 7-32 श्लोकों में जितनी बातें कही गई हैं उनमें भी इस विषय पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। आठवें के 8-16 श्लोक भी विचारणीय हैं। दूसरे अध्याय के अंत में जो स्थितप्रज्ञ का, बारहवें के 13-19 श्लोकों में जो भक्त का और चौदहवें के 22-25 श्लोकों में जो गुणातीत का वर्णन है वह हमारी आँखें खोल देता है, ताकि इस चीज की कठिनाई का अनुभव करें। तेरहवें के 27-28 श्लोकों में भी यह बात मिलती है। अंत में अठारहवें अध्याय के 50-58 श्लोकों में भी यह बात लिखी गई है। यदि हम इन सभी वचनों का पर्यालोचन और मंथन करते हैं तो कठोपनिषद्वाली बात अक्षरश: सत्य सिद्ध होती है और मानना पड़ जाता है कि गीता का योग असंभव-सी चीज है। फलत: वह अपवाद स्वरूप ही हो सकता है न कि मनुष्यों के लिए नियम या सर्व-जन-संभव पदार्थ। सभी लोग ऐसी चीज को कम से कम आदर्श बनाएँ यह भी उचित नहीं। आकाश के चाँद को जो आदर्श बनाए और उसी के पीछे अपने सभी कामों को चौपट करे वह पागल के सिवाय और कुछ नहीं। यह योग ऐसा नहीं कि उसे आदर्श बनाके हम कुछ और भी कर सकते हैं जब तक वह प्राप्त न हो जाए।
जब इस भौतिक संसार में गीताधर्म - योग - अपवाद ही हो सकता है, न कि नियम, तो स्वभावत: यह प्रश्न उठता है कि सर्वसाधारण के लिए जो चीज साध्य हो और इसीलिए जो हमारे लिए नियम जैसी सार्वजनिक वस्तु हो सके वह क्या है? उत्तर में बेखटके कहा जा सकता है कि वह है मार्क्सवाद। बहुत लोग इस बात को नहीं समझ के ही नाक-भौं सिकोड़ते हैं। हालाँकि हमने धर्म तथा ईश्वर के संबंध में मार्क्सवाद का जो विश्लेषण किया है उससे लोगों का भ्रम कम से कम उस संबंध में तो मिट जाना ही चाहिए। मगर वह तो मार्क्सवाद का एक पहलू मात्र है। असल में तो मार्क्सवाद साम्यवाद या वर्गविहीन समाज का निर्माण ही है। मार्क्सवाद का तो यही लक्ष्य माना जाता है कि इस संसार को आनंदमय, सुखमय, स्वर्ग या बैकुंठ जैसा बना दिया जाए; न बीमारियाँ हों और न अकाल-मृत्यु हो, न कोई गरीब हो और न अमीर; सबों को समानरूप से खाने-पीने, पढ़ने-लिखने, कला-कौशल तथा ज्ञान-विज्ञान की सभी सुविधाएँ प्राप्त हों; सबसे ऊँचे दर्जे के आराम का सभी के लिए - मानवमात्र के लिए - पूरा सामान होने पर भी अंवेषण, विज्ञान, कला आदि के लिए पर्याप्त समय सबको प्राप्त हो; अनावृष्टि, अतिवृष्टि, पाला आदि को निर्मूल कर दिया जाए; प्रकृति के साथ ही संघर्ष करके मौत के ऊपर भी कब्जा कर लिया जाए, आदि-आदि। एक वाक्य में 'सर्वे भंतु सुखिन: सर्वे संतु निरामया:। सर्वे भद्राणि पश्यंतु मा कश्चिद् दु:खभाग्भवेत्,' पूरी तरह चरितार्थ हो जाए। यह बातें केवल मनोराज्य नहीं हैं। विज्ञान के लिए ये सभी संभव हैं। यदि विश्वामित्र की नई सृष्टि मानी जाती है तो आज भी विज्ञान क्या नहीं कर सकता है? विश्वामित्र ने भी यदि किया होगा तो विज्ञान के ही बल से।
यह ऐसी चीज नहीं है कि मानवमात्र में किसी के भी लिए असाध्य हो। यह भी नहीं कि इसके लिए कोई खास ढंग की या अलौकिक तैयारी चाहिए। मार्क्स ने तो इसका सीधा उपाय वर्गसंघर्ष बताया है। उसी का मार्ग अबाध हो जाने पर यह सभी बातें अपने आप धीरे-धीरे हो जाएँगी। रूस ने इसका नमूना पेश भी कर दिया है। वह इस मामले में बहुत कुछ अग्रसर हो गया है। असल में पूँजीवादी राष्ट्रों से घिरे होने के कारण ही - ऐसे राष्ट्रों से जो उसे हजम करने पर तुले बैठे हैं - उसकी प्रगति में वैसी तेजी नहीं आ सकी है। यदि यह बात न होती तो वह देश आज कहाँ का कहाँ जा पहुँचा होता। फिर भी उसने जो कुछ किया है वह भी कम नहीं है।
हमने अनीश्वरवाद के संबंध में मार्क्सवाद का मत स्पष्ट करी दिया है। मगर थोड़ी देर के लिए मान भी लें कि वह धर्म-वर्म से नाता तोड़ने को ही कहता है, तो हर्ज क्या है? यदि ऊपर लिखी सभी बातों की सिद्धि के लिए - भूमि पर ही स्वर्ग लाने के लिए - यह करना भी पड़े और ईश्वर को भी विदाई देनी हो तो क्या बुरा है? मामूली जमीन-जायदाद, रुपये-पैसे और कारबार के लिए भी तो रोज ही धर्म और ईश्वर को धकियाते ही हैं, गर्दनियाँ देते ही हैं। कचहरियों में, सर्वेसेटलमेंट के समय और खरीद-बिक्री में तो रोज ही शालिग्राम, गंगा, तुलसी, वेद, कुरान, बाइबिल उठाके झूठी कसमें खाते ही हैं। क्या इतने पर भी धर्म और ईश्वर रही गए? फाटका और सट्टेबाजी में तो कोई भी जाल-फरेब बच पाता नहीं और आजकल का व्यापार तो केवल जुआ ही है। फिर भी क्या हम लोगों ने धर्म और ईश्वर को भूमंडल में कहीं भी रख छोड़ा है? यदि इतने पर भी हमने कोई ऐसा कहने की धृष्टता करे कि वह धर्मवादी और ईश्वरवादी है तो यह पहले दर्जे का धोखा है, आत्मप्रवंचना और लोकवंचन है।
फिर हम साफ ही क्यों न कह दें कि हम धर्म-वर्म नहीं मानते? इसमें ईमानदारी तो है। उसमें तो यह भी नहीं है। इसका परिणाम भी सुंदर होगा। हम धर्म के ठेकेदारों से बाल-बाल - साफ-साफ - बच जाएँगे और अपने हक की लड़ाई बेखटके अच्छी तरह चला के श्रेणी-विहीन समाज जल्द से जल्द स्थापित कर सकेंगे। धर्म मानने की दशा में तो दुविधे में - रमखुदैया में - रह जाने के कारण कोई काम ठीक-ठीक कर पाते नहीं। न इधर के रह जाते हैं और न उधर के। परिणाम बहुत ही बुरा होता है। इसमें यह बात न होगी। कोई रुकावट तो होगी ही नहीं। मालदार-जमींदारों का अंतिम ब्रह्मास्त्र तो यही है और जब यही न रहा, तो उनकी तो कमर ही टूट जाएगी और जल्दी ही धड़ाम से गिर पड़ेंगे। इसलिए हमारी - शोषितों एवं पीड़ितों की - जीत शीघ्र ही होगी और अवश्य होगी। धर्म और ईश्वर के नाम पर जो स्वर्ग, बैकुंठ या बिहिश्त मिलने वाला बताया जाता है वह एक तो अनिश्चित है। दूसरे उसका आँखों देखा प्रमाण तो है नहीं। तीसरे वह मिलेगा भी तो मरने के बाद। मगर इसका फल तो यहीं पर प्रत्यक्ष स्वर्ग और बैकुंठ है। इससे तो यहीं पर आनंद-समुद्र में गोते लगाना है।
इतना ही नहीं। जब ज्ञान-विज्ञान का मार्ग उन्मुक्त हो जाएगा और सभी को इसका पूरा अवसर प्राप्त होगा, सारी सुविधाएँ सुलभ होंगी, तो यह भी हो सकता है कि हम उसी विज्ञान के जरिए धर्म और ईश्वर को भी ढूँढ़ निकालें। आखिर विज्ञान और साइंस का तो यही काम ही है न, कि सत्य का पता लगाए? वह तो असत्य का शत्रु और सत्य का साथी है। उसका तो एक ही काम है कि सत्य का पता चाहे जैसे हो लगाए। और अगर ईश्वर, धर्म और परलोक सत्य हैं, अबाध्य हैं, अखंडनीय हैं, जैसा कि धर्मवादी लोग दावा करते हैं, तब तो उन्हें और भी घबराना नहीं चाहिए। साँच को आँच क्या? तब तो विज्ञान ईश्वर वगैरह को जरूर ढूँढ़ लाएगा। जैसे बादलों में छिपा सूर्य कुछी देर के बाद बाहर आ जाता है और उसकी चमक-दमक और भी तेज मालूम होती है, वही बात धर्म और ईश्वर के बारे में भी होगी। इस दरम्यान कुछ समय के लिए छिपे रहने के कारण वे और भी सर्वजनप्रिय हो जाएँगे। तब तो हम उनकी कदर और भी ज्यादा करेंगे।
अभी तो ऐसा नहीं होता है। अभी तो हम उन्हें आधे मन से सिर्फ दिखाने के लिए ढोंग की तौर पर ही मानते हैं। हमारा मतलब है आम लोगों से ही। इसीलिए, जैसा कि कहा है, भौतिक स्वार्थों के सामने उन्हें ताक पर रख भी देते हैं। मगर तब तो यह बात न होगी। तब तो पूरी तौर से मानेंगे और कचहरियों या सट्टों का सवाल तब होगा ही नहीं और न रोजगार-व्यापार वाले ही होंगे कि झूठी कसमें खाने और जाल-फरेब की जरूरत पड़े। इसलिए तो धर्मवादियों को मार्क्सवाद का कृतज्ञ होना चाहिए, यदि वे ईमानदारी से धर्म तथा ईश्वर को मानते हैं, कि वह उनका रास्ता निष्कंटक और निर्बाध बना देता है। यदि थोड़ी देर के धर्मत्याग से - यदि कुछ समय तक इस त्यागरूपी घोर तप के प्रताप से - धर्म और भगवान का मार्ग सदा के लिए निरुपद्रव हो जाए तो हमें खुशी-खुशी इस त्याग को अपनाना चाहिए। आखिर बिना त्याग के तो कुछ होता-जाता नहीं।
लेकिन यदि धर्म और ईश्वर सत्य नहीं हैं तब तो विज्ञान उनका पता नहीं ही लगा पाएगा, यह बात पक्की है और जो विज्ञान की कसौटी पर खरा न उतरे वह तो जरूर ही नकली होगा। फिर हमें उसकी चिंता ही क्यों हो? हमें तो उलटे इसमें खुशी होनी चाहिए कि मिथ्या चीजों से पिंड छूटा। तब तो हमें मार्क्सवाद का कृतज्ञ भी होना चाहिए कि उसने सत्य का पता लगाया और धर्म या ईश्वर जैसी मिथ्या चीजों से हमारा पिंड छुड़ाया। आखिर मिथ्याचार और मिथ्या पदार्थों से चिपटे रहना तो कोई बुद्धिमानी है नहीं। यह तो किसी भी भलेमानस का काम नहीं है और हम - धर्मवादी - लोग यह तो दावा करते ही हैं कि हम भले लोग हैं। फिर तो हृदय से धर्मवादी खुश ही होंगे कि चलो अच्छा ही हुआ और मिथ्या पदार्थों से पिंड छूटा। ईमानदारी का तकाजा तो यही है।
इस प्रकार इस लंबे विवेचन ने यह साफ कर दिया कि गीताधर्म और मार्क्सवाद का कहीं भी विरोध नहीं है। वे अनेक मौलिक बातों में एक दूसरे के निकट पहुँच जाते हैं - मिल जाते हैं। बल्कि यों कहिए कि कई बुनियादी बातों में गीताधर्म मार्क्सवाद का पूर्णतया पोषक है। इतना कहने में तो किसी को भी आनाकानी नहीं होनी चाहिए कि मार्क्सवाद को गीता से कोई आँच नहीं है - कोई भय नहीं है। मार्क्सवाद से गीताधर्म के डरने या उसे आँच लगने का प्रश्न तो उठी नहीं सकता। ऐसा प्रश्न उठाना ही तो गीताधर्म को नीचे गिराना और उसके महत्त्व को कम करना है। वह तो इतनी मजबूत नींव पर खड़ा है, उसकी बुनियाद तो इतनी पक्की है कि वह सदा निर्भय है। उसे किसी से भी भय नहीं है। वह इतना ऊँचा है कि उस तक कोई दुश्मन पहुँच नहीं सकता है। असल में उसका शत्रु कोई हई नहीं। गीताधर्म का तो निष्कर्ष ही है 'तुल्यो मित्रारिपक्षयो:' (14। 25), 'सम: शत्रौ च मित्रे च' (12। 18) आदि-आदि।
3. गीता की शेष बातें
गीता की प्रमुख बातें और मुख्य मंतव्यों के विवेचन के सिलसिले में ही हमने जो 'गीता का धर्म और मार्क्सवाद' का स्वतंत्र रूप से विचार किया है उसका कारण तो बताई चुके हैं। उस लंबे विवेचन से भी उसके स्वतंत्र निरूपण की आवश्यकता का पता लोगों को लग जाता है। अतएव हमें फिर उसी साधारण मार्ग पर आ जाना और गीता की बची-बचाई प्रमुख बातों पर कुछ विशेष प्रकाश डाल देना है। बेशक, अब जिन बातों का विवेचन हम करेंगे वह भी अहमियत तथा महत्त्व रखती हैं और गीता में उनका भी अपना स्थान है। मगर यह ठीक है कि उन्हें वैसी महत्ता मिल नहीं सकती जो अब तक कही गई गीताधर्म की बातों को मिली है। आगे वाली बातों में भी कुछ मौलिक जरूर हैं। मगर उनका जिक्र किसी न किसी रूप में पहले आ चुका है। फलत: यहाँ उनका कुछ विस्तार मात्र कर दिया है। हाँ, जो नई हैं उनकी विशेषता यही है कि गीता ने उन्हें नए ढंग से रखा है और इस तरह उन पर अपनी मुहर लगा दी है।
गीता में ईश्वर
सबसे पहली बात आती है ईश्वर की। गीता में ईश्वर का नाम और उसकी चर्चा बहुत आई है, इसमें शक नहीं है। मगर यह चर्चा कुछ निराले ढंग की है। अठारहवें अध्याय के 'ईश्वर: सर्वभूतानां' (61) श्लोक में ईश्वर शब्द से ही उसका उल्लेख आया है। जितना स्पष्ट वहाँ लिखा गया है उतना और कहीं नहीं। और जगह दूसरे-दूसरे शब्दों के द्वारा उसका उल्लेख होने से वह सफाई नहीं है। एक बात और भी है। तेरहवें अध्याय के 'समं पश्यन्हि सर्वत्र' (28) में भी ईश्वर शब्द आया है। उससे पहले के 27वें श्लोक में परमेश्वर शब्द भी आया है। मगर उसमें वह सफाई नहीं है जो अठारहवें अध्याय के उस ईश्वर शब्द में है। वहाँ तो कुछ ऐसा मालूम होता है कि सबों से अलग और सबों के ऊपर कोई पदार्थ है जिसे ईश्वर कहते हैं और उसकी शरण जाने से ही उद्धार होगा। इस प्रकार जैसा आमतौर से ईश्वर के बारे में खयाल है ठीक उसी रूप में वहाँ आया मालूम होता है। मगर यहाँ जो ईश्वर और परमेश्वर है वह उस रूप में उसे बताता मालूम नहीं पड़ता है। 'प्रकृतिं पुरुषं चैव' इस 19वें श्लोक से ही शुरू करके यदि देखा जाए तो देह और जीव या प्रकृति और पुरुष का ही वर्णन इस प्रसंग में है। उन्हीं को क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ भी पहले तथा इस प्रसंग में भी कहा है। फिर 22वें श्लोक में तो साफ ही कहा है कि इसी पुरुष को पर, परमात्मा, महेश्वर आदि भी कहते हैं जो इसी देह में मौजूद है। आगे चल के 26वें में उसे ही क्षेत्रज्ञ कह के 27-28 में परमेश्वर और ईश्वर कहा है। इसलिए वह सफाई यहाँ है कहाँ? यहाँ तो जीव और ईश्वर एक ही प्रतीत होते हैं। 31वें श्लोक में भी 'परमात्माऽयमव्यय:' शब्दों के द्वारा इसी पुरुष को ही अविनाशी परमात्मा कह दिया है।
बेशक पंदरहवें अध्याय के 17-18 श्लोकों में परमात्मा, उत्तम पुरुष, पुरुषोत्तम तथा ईश्वर शब्दों से ऐसे ही ईश्वर का उल्लेख आया है जो प्रकृति एवं पुरुष के ऊपर - दोनों से निराला और उत्तम - बताया गया है। लेकिन यहाँ वाला ईश्वर शब्द मुख्य नहीं है, ऐसा लगता है। चौदहवें अध्याय के 19वें श्लोक में पर शब्द आया है। उसी के साथ 'मद्भाव' शब्द है। 26 और 27 श्लोकों में 'माँ' या 'अस्मत्' शब्द है। इससे पता लगता है कि पर शब्द भी परमात्मा का वाचक है। मगर वह जीवात्मा से अलग यहाँ प्रतीत नहीं होता। हाँ, सोलहवें अध्याय के 'असत्यमप्रतिष्ठन्ते जगदाहुरनीश्वरम्' (8) में जो अनीश्वर शब्द के भीतर ईश्वर है वह उसी ईश्वर का वाचक है, यद्यपि सफाई में कुछ कमी है। आगे चौदहवें श्लोक का ईश्वर शब्द तो मालिक या शासक के ही अर्थ में आया है। हाँ, 18, 19, 20 श्लोकों में जो 'अहं' और 'माँ' शब्द आए हैं वह जरूर ईश्वर के मानी में हैं। सत्रहवें अध्याय के छठे श्लोक में 'माँ' शब्द स्पष्ट ईश्वर के अर्थ में नहीं है। किंतु जीवाभिन्न ईश्वर ही उसका आशय मालूम पड़ता है। बेशक, 27वें श्लोक में जो 'तदर्थीय' शब्द है उसका 'तत्' शब्द ईश्वरवाचक है। लेकिन वह व्यापक अर्थ में ही आया है।
अठारहवें अध्याय के 46वें श्लोक में 'तं' शब्द ईश्वर के ही मानी में आया है, चाहे स्पष्टता उतनी भले ही न हो। उससे पहले के 43वें श्लोक का ईश्वर शब्द शासक के ही अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। 50-58 श्लोकों में ब्रह्म और अस्मत् शब्द बार-बार आए हैं और ईश्वरार्थक हैं। यही बात 65-66 श्लोकों के 'अहं', 'मत्' आदि शब्दों की है। इस पर आगे विशेष बातें लिखी जाएँगी। 68वें श्लोक में भी यही बात है। ग्यारहवें अध्याय के 5-55 श्लोकों में 'अहं', 'माम्', 'मत्', 'मे', 'मम्', 'ऐश्वरम्' आदि शब्द ईश्वरवाची ही हैं। दसवें के 2-42 श्लोकों में भी बार-बार 'अहं' शब्द 'परमात्मावाची' ही है। यही हालत नवें अध्याय की भी है। सातवें के 29-30 श्लोक में और आठवें के शुरू के चार श्लोकों में भी ब्रह्म, अधियज्ञ आदि शब्द ईश्वर के ही अर्थ में प्रयुक्त हुए हैं। आगे के 'अक्षर' शब्द का भी यही मतलब है। अव्यक्त, परपुरुष आदि शब्द भी इसी मानी में आए हैं। यहाँ 'अस्मत्' शब्द के जितने रूप हैं सभी ईश्वर के ही अर्थ में हैं। सातवें अध्याय के 'वासुदेव' तथा 'अनुत्तमागति' ईश्वरार्थ कही हैं। वहाँ 'माम्', 'अहम्' आदि बार-बार आने वाले शब्द भी उसी मानी में आए हैं। छठे अध्याय की भी यही बात है। पाँचवें के 10वें श्लोक का 'ब्रह्म' शब्द और 29वें श्लोक में 'महेश्वर' शब्द निस्संदेह ईश्वरवाचक हैं। 'अहं' या 'माँ' आदि शब्द भी वैसे ही हैं। चौथे अध्याय के पहले श्लोक का 'अहं' शब्द ईश्वरार्थक है। मगर तीसरे के 'मया' और 'मे' कृष्ण के ही अर्थ में आए हैं। छठे के 'अज' एवं 'ईश्वर' शब्द ईश्वर के अर्थ में आए हैं। फिर 14 श्लोक तक 'अस्मत्' शब्द का प्रयोग भी उसी मानी में है। 23वें का यज्ञ शब्द व्यापक अर्थ में ईश्वर को भी कहता है। उसके बाद का ब्रह्म शब्द परमात्मा का ही वाचक है। 31वें में भी ब्रह्म का वही अर्थ है। 35वें का 'मयि' शब्द ईश्वरार्थ है।
तीसरे अध्याय के तीसरे श्लोक में 'मया' शब्द ईश्वर के ही अर्थ में आया है। दसवें का प्रजापति ईश्वर ही है और पंदरहवें का अक्षर भी वही है। 30वें में 'मयि' शब्द ईश्वर को ही कहता है। मगर 31-32 में जो 'मे' शब्द है वह कृष्ण का वाचक है। जिस प्रकार अठारहवें अध्यावय में अत्यंत सफाई के साथ ईश्वर का जिक्र अंत में आया है, ठीक उसके उलटा दूसरे अध्याय में उसकी चर्चा तक कहीं हई नहीं! वह वहाँ कतई बेदखल कर दिया गया है! वहाँ तो आत्मा ही परमात्मा बना बैठा है। इस प्रकार स्पष्ट रूप में तो बहुत ही कम, लेकिन अस्पष्ट रूप में ईश्वर का उल्लेख गीता में पद-पद पर पाया जाता है।
इस तरह मालूम हो गया है कि गीता में ईश्वर की किसी न किसी रूप में सैकड़ों बार से ज्यादा चर्चा आई है। मगर असली रूप में हम उसे केवल अठारहवें अध्याय के 61वें श्लोक में ही साफ-साफ पाते हैं। कृष्ण ने खुद जो 'मैं' और 'मेरा' आदि के रूप में सैकड़ों बार कहा है उसमें कुछी बार अपने लिए - साकार वसुदेवपुत्र के लिए - कहा है। मगर आमतौर से अपने ईश्वरीय स्वरूप को ही लक्ष्य करके बोल गए हैं। यदि पूर्वापर का विचार करके देखा जाए या शरीरी कृष्ण में वे बातें लागू होई नहीं सकती हैं, जिनका उल्लेख उनने ऊपर बताए स्थानों में जानें कितनी बार किया है। जब चौथे अध्याय के शुरू में ही उनने कहा है कि मैंने यह योग पहले विवस्वान को बताया था और विवस्वान ने मनु को, तो यह बात शरीरी कृष्ण में कथमपि लागू हो सकती है नहीं। उसी के आगे जब अवतार की बात के प्रसंग में कहा है कि मैं समय-समय पर पैदा हो जाता हूँ, तो यह भी शरीरधारी के लिए संभव नहीं। कोई नहीं मानता कि कृष्ण बार-बार जन्म लेते हैं। यों तो हर मनुष्य भी बार-बार जन्मता ही है। मगर उसे अवतार नहीं कहते। चातुर्वर्ण्य की रचना भी कृष्ण के शरीर से नहीं होती। हालाँकि उनने कहा है कि मैं ही चातुर्वर्ण्य बनाता हूँ। सातवें अध्याय में अपने को अधियज्ञ कहा है। यह भी ईश्वर के ही लिए संभव है, न कि शरीर वाले के लिए। अधियज्ञ का आशय आगे मालूम होगा। इसी प्रकार प्रत्येक प्रसंग के देखने से पता चलता है कि आत्मज्ञान के बल से कृष्ण अपनी आत्मा को परमात्मस्वरूप ही अनुभव करते थे और वैसा ही बोलते भी थे। वह उपदेश के समय आत्मा का ब्रह्म के साथ तादात्म्य मानते हुए ही बातें करते थे। मालूम होता है, जरा भी नीचे नहीं उतरते थे! उसी ऊँचाई पर बराबर कायम रहते थे। इसीलिए तो इन उपदेशों में अपूर्व आकर्षणशक्ति और मोहनी है। बृहदारण्यक उपनिषद् में वामदेव के इसी प्रकार के अनुभव का उल्लेख आया है। वहाँ लिखा है कि 'तद्वैतत्पश्यन्नृषिर्वामदेव: प्रतिपेदेऽहं मनुरभवं सूर्यश्चेति। तदिदमप्येतहि य एवं वेदाहं ब्रह्मास्मीति स इदं सर्व भवति' (1। 4। 10)।
इसका अर्थ यह है कि 'वामदेव ऋषि को जब अपनी ब्रह्मरूपता का साक्षात्कार हो गया तो उनने कहा कि ऐं, हमीं तो मनु, सूर्य आदि बने! आज भी जिसे ठीक वैसा ही अनुभव अपनी ब्रह्मरूपता का हो जाए वह भी यही मानता है कि वही यह सारा संसार बन गया है।' संसार तो ईश्वर का ही रूप माना जाता है। गीता में तो इसकी घोषणा है। इसलिए जो अपने को ब्रह्मरूप ही मानने लगेगा वह तो यह समझेगा ही कि सारी दुनिया उसी का रूप है। कृष्ण का अनुभव ऐसा ही था। इसीलिए सातवें अध्याय के 3-12 श्लोकों में, नवें के 16-19 श्लोकों में और दसवें के प्राय: सभी श्लोकों में विभूति के रूप में उनने सबको अपना ही रूप बताया है। ग्यारहवें अध्याय में अपने आपको ही उनने कालरूपी कहा है। फलत: गीता के अहम् और मम आदि शब्दों को देख के जो ऐसा मानते हैं कि सगुण ईश्वर का वर्णन गीता में है वह भूलते हैं। अठारहवें अध्याय के 'सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं' (66) इत्यादि पूरे श्लोक में भी निर्गुण तथा निराकार से ही मतलब है, न कि साकार से। क्योंकि यदि कृष्ण का अभिप्राय अपने साकार रूप से होता तो सिर्फ 'मेरी ही शरण जाओ' - "मामेकं शरणं व्रज" की जगह वह कह देते कि मेरी ही शरण आओ - 'मामेकं शरणमाव्रज'। 'व्रज' का अर्थ है जाओ और आव्रज का अर्थ है आओ। जब वह सामने ही मौजूद थे तो जाओ कहना ठीक न था। जाओ तो परोक्ष या दूरवर्ती पदार्थ के ही लिए कहा जा सकता है। 'मामेकं शरणं चेहि' कह देने से श्लोक भी ठीक रहता। 'एहि' का अर्थ है आना। या कुछ दूसरा ही पद कह देते जिसका अर्थ आओ होता। इस पर ज्यादा विचार आगे मिलेगा।
ईश्वर हृदयग्राह्य
हमें यहाँ ईश्वर के संबंध की एक खास बात की ओर ध्यान देना है। वह यह है कि गीता के मत से ईश्वर की सत्ता को स्वीकार करने का एक ही परिणाम होता है कि हमारा आचरण प्रशंसनीय और लोकहितकारी हो जाता है। इसीलिए गीता ने ईश्वर की सत्ता की स्वीकृति की तरफ उतना ध्यान नहीं दिया है, जितना हमारे आचरण की ओर। इस संबंध में ज्यादा महत्त्वपूर्ण बात कहने के पहले हम एक बात कहना चाहते हैं। उसकी ओर ध्यान जाना जरूरी है। ईश्वर के बारे में तेरहवें अध्याय में कहा है कि 'वह ज्ञान है, ज्ञेय-ज्ञान का विषय - है, ज्ञान के द्वारा अनुभवनीय है और सबों के हृदय में बसता है' - ''ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य विष्ठितम्'' (17)। अठारहवें अध्याय के 61वें श्लोक में तो यह कहने के साथ ही और भी बात कही गई है। वहाँ तो कहते हैं कि 'अर्जुन, ईश्वर तो सभी प्राणियों के हृदय में ही रहता है और अपनी माया (शक्ति) से लोगों को ऐसे ही घुमाता रहता है जैसे यंत्र (चर्खी आदि) पर चढ़े लोगों को यंत्र का चलाने वाला' - ''ईश्वर: सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति। भ्रामयन्सर्वभूतानि यंत्ररूढाणि मायया''॥
यहाँ दो बातें विचारणीय हैं। पहली है हृदय में रहने की। यह कहना कि हृदय ईश्वर का घर है, कुछ ठीक नहीं जँचता है। वह जब सर्वत्र है, व्यापक है, तो हृदय में भी रहता ही है, फिर इस कथन के मानी क्या? यदि कहा जाए कि हृदय में विशेष रूप से रहता है, तो भी सवाल होता है कि विशेष रूप से रहने का क्या अर्थ? यह तो कही नहीं सकते कि वहाँ ज्यादा रहता है और बाकी जगह कम। यह भी नहीं कि जैसे यंत्र का चलाने वाला बीच में बैठ के चलाता है तैसे ही ईश्वर भी बीच की जगह - हृदय - में बैठ के सबों को चलाता है। यदि इसका अर्थ यह हो कि हृदय के बल से ही चलाता है तो यह कैसे होगा? जिस यंत्र के बल से चलाते हैं उसका चलानेवाला उससे तो अलग ही रहता है। मोटर या जहाज वगैरह के चलाने और घुमाने-फिरानेवाले यंत्र से अलग ही रह के ड्राइवर वगैरह उन्हें चलाते-घुमाते हैं। हृदय में बैठ के घुमाना कुछ जँचता भी नहीं, यदि इसका मतलब व्यावहारिक घुमाने-फिराने जैसा ही हो।
इसीलिए मानना पड़ता है कि हृदय में रहने का अर्थ है कि वह हृदय-ग्राह्य है। सरस और श्रद्धालु हृदय ही उसे ठीक-ठीक पकड़ सकता है। दिमाग या बुद्धि की शक्ति हई नहीं कि उसे पकड़ सके या अपने कब्जे में कर सके। ईश्वर या ब्रह्म तर्क-दलील से जाना नहीं जा सकता, यह बात छांदोग्योपनिषद् में भी उद्दालक ने अपने पुत्र श्वेतकेतु से कही है। वहाँ कहा है कि अक्ल बघारना और बाल की खाल खींचना छोड़ के श्रद्धा करो ऐ मेरे प्यारे, - 'श्रद्धत्स्व सोम्य' (6। 12। 3)। और यह श्रद्धा हृदय की चीज है। यह पहले ही कहा जा चुका है। इसलिए गीता के मत से ईश्वर हृदयग्राह्य है। फलत: जो सहृदय नहीं वह ईश्वर को जान नहीं सकता।
हृदय की शक्ति
अब दूसरी बात रही लोगों के चलाने की। सो भी ठीक ही है। जिस हृदय ने भगवान को जान लिया, पकड़ लिया, कब्जे में कर लिया वह दुनिया को चाहे जिस ओर घुमा सकता है। नरसी, नामदेव, सूर, तुलसी आदि भक्तजनों की बातें ऐसी ही कही जाती हैं। बताया जाता है कि भीष्म ने कहा कि 'आज मैं हरिसों अस्त्र गहाऊँ।' उनने अपने प्रेम के बल से अपनी प्रतिज्ञा रख ली थी और कृष्ण की तुड़वा दी थी। सूरदास ने कहा था कि 'हिरदयसे जौं जाहुगे बली बखानौ तोहिं।' रामकृष्ण ने विवेकानंद जैसे नास्तिक को एक शब्द में आस्तिक बना दिया। वह सच्चे हृदय की ही शक्ति थी जिसने भगवान को पकड़ लिया था। इसीलिए जिसने शुद्ध हृदय से श्रद्धा के साथ भगवान को अपना लिया है वह दुनिया को इधर से उधर कर सकता है।
गीता के इस कथन में एक बड़ी खूबी है। संसार के लोगों को हम तीन भागों में बाँट सकते हैं। या यों कहिए कि पहले दो भाग करके फिर एक भाग के दो भाग कर देने पर तीन भाग हो जाते हैं। आस्तिक और नास्तिक यही पहले दो भाग हैं। फिर आस्तिक के दो भाग हो जाते हैं - साकार ईश्वरवादी और निराकारवादी। इस प्रकार साकारवादी, निराकारवादी और निरीश्वरवादी ये तीन भाग हो गए। हमने देखा है कि ये तीनों ही आपस में तर्क-दलीलें करते और लड़ते रहते हैं। यह झमेला इतना बड़ा और इतना पुराना है कि कुछ कहिए मत। जब से लोगों को समझ हुई तभी से ये तीनों मतवाद चल पड़े। इन पर सैकड़ों पोथे लिखे जा चुके हैं।
मगर गीता इन तीनों पर तरस खाती और हँसती है। उसने जो ईश्वर को हृदय की चीज बना के बुद्धि के दायरे से उसे अलग कर दिया है, उसके चलते ये सभी झगड़े बेकार मालूम होते हैं और गीता की नजरों में ये झगड़ने वाले सिर्फ भटके हुए सिद्ध हो जाते हैं। इन झगड़ों की गुंजाइश तो बुद्धि के ही क्षेत्र में है न? इसीलिए जहाँ हृदय आया कि इन्हें बेदखल कर देता है, कान पकड़ के हटा देता है। क्यों? इसीलिए कि यदि ईश्वर है तो वह तो यह नहीं देखने जाता है कि किसके ऊपर आस्तिक या नास्तिक की छाप (label) लगी है, या साकारवादी और निराकारवादी की छाप। वह तो हृदय को देखता है। वह यही देखता है कि उसे सच्चाई से ठीक-ठीक याद कौन करता है।
आस्तिक-नास्तिक का भेद
जब इस प्रकार देखते हैं तो पता लगता है कि साकारवादी और निराकारवादी तो याद करते ही हैं। मगर निरीश्वरवादी भी उनसे कम ईश्वर को याद नहीं करते! यदि भक्ति का अर्थ यह याद ही है तो फिर नास्तिक भी क्यों न भक्त माने जाएँ? बेशक, प्रेमी याद करता है और खूब ही याद करता है, यदि सच्चा प्रेमी है। मगर पक्का शत्रु तो उससे भी ज्यादा याद करता है। प्रेमी तो शायद नींद की दशा में ऐसा न भी करे। मगर शत्रु तो अपने शत्रु के सपने देखा करता है, बशर्ते कि सच्चा और पक्का शत्रु हो। इसीलिए मानना ही होगा कि ईश्वर का सच्चा शत्रु भक्तों से नीचे दर्जे का हो नहीं सकता, यदि ऊँचे दर्जे का न भी माना जाए। पहले जो कहा है कि धर्म तो व्यक्तिगत और अपने समझ के ही अनुसार ईमानदारी से करने की चीज है, उससे भी यही बात सिद्ध हो जाती है। यदि हमें ईमानदारी से यही प्रतीत हो कि ईश्वर हई नहीं और हम तदनुसार ही अमल करें तो फिर पतन की गुंजाइश रही कहाँ जाती है?
इसीलिए प्रौढ़ नैयायिक उदयनाचार्य ने ईश्वर-सिद्धि के ही लिए बनाए अपने ग्रंथ 'न्यायकुसुमांजलि' को पूरा करके उपसंहार में यही लिखा है कि वे साफ ही सच्चे और ईमानदार नास्तिकों के लिए ही वही स्थान चाहते हैं जो सच्चे आस्तिकों को मिले। उनने प्रार्थना के रूप में अपने भगवान से यही बात बहुत सुंदर ढंग से यों कही है - 'इत्येवं श्रुतिनीति संप्लवजलैर्भूयोभिराक्षालिते; येषां नास्पदमादधासि हृदये ते शैलसाराशया:। किंतु प्रस्तुतविप्रतीप विधयोऽप्युच्चैर्भवच्चिन्तका:; काले कारुणिक त्वयैव कृपया ते भावनीया नरा:।' इसका आशय यही है कि 'कृपासागर, इस प्रकार वेद, न्याय, तर्क आदि के रूप में हमने झरने का जल इस ग्रंथ में प्रस्तुत किया है और उससे उन नास्तिकों के मलिन हृदयों को अच्छी तरह धो दिया भी है, ताकि वे आपके निवास योग्य बन जाएँ। लेकिन यदि इतने पर भी आपको वहाँ स्थान न मिले, तो हम यही कहेंगे कि वे हृदय इस्पात या वज्र के हैं। लेकिन यह याद रहे कि प्रचंड शत्रु के रूप में वे भी तो आपको पूरी तौर से आखिर याद करते ही हैं। इसलिए उचित तो यही है कि समय आने पर आप उन्हें भी भक्तों की ही तरह संतुष्ट करें।' कितना ऊँचा खयाल है! कितनी ऊँची भावना है! गीता इसी खयाल और इसी भावना का प्रसार चाहती है।
दैव तथा आसुर संपत्ति
अच्छा, अब जरा ईश्वर की सत्ता को स्वीकार करने का परिणाम क्या होता है, क्या होना चाहिए, इस पर भी गीता की दृष्टि देखें। गीता के सोलहवें अध्याय के शुरूवाले छह श्लोकों में दैवी तथा आसुरी संपत्तियों का संक्षेप में वर्णन कर दिया है। इन दोनों का तात्पर्य मनुष्य के ऐसे गुणों और आचरणों से है जिनसे समाज का हिताहित, भला-बुरा होता है। कल्याणकारी और मंगलमय गुणों एवं आचरणों को दैवी संपत्ति और विपरीतों को आसुरी संपत्ति कहा है। पाँचवें श्लोक में यही बात साफ कह दी है कि दैवी संपत्ति मुक्तिसंपादक और कल्याणकारी है, जब कि आसुरी सभी बंधनों और संकटों को पैदा करती है। साथ ही यह भी कहा है कि अर्जुन के लिए चिंता की तो कोई बात हई नहीं। क्योंकि वह तो दैवी संपत्तिवाला है। इसके बाद छठे श्लोक के उत्तरार्द्ध में कहा है कि अब तक तो दैव संपत्ति का ही विस्तृत विवेचन किया गया है। मगर आसुरी तो छूटी ही है। इसलिए उसे भी जरा खोल के बता दें तो ठीक हो। फिर सातवें से लेकर अध्याय के अंत तक के शेष 18 श्लोकों में यही बात लिखी गई है। बेशक, अंत के 22-24 श्लोकों में निषेध के रूप में ही यह बात कही गई है। शेष श्लोकों में साफ-साफ निरूपण ही है।
यहाँ जो यह कहा गया है कि अब तक तो विस्तार के साथ दैव संपत्ति का ही वर्णन आया है, उससे साफ हो जाता है कि गीता के शुरू से लेकर सोलहवें अध्याय के कुछ श्लोकों तक मुख्यत: वही बात कही गई है। यह तो निर्विवाद है कि पहले अध्याय में खुल के समाज-संहार की कड़ी से कड़ी निंदा की गई है। दूसरे में भी जो अर्जुन को यह कहा गया है कि लोग तुम्हें गालियाँ देंगे और तुम पर थूकेंगे वह भी सामाजिक दृष्टि से ही तो है। तीसरे अध्याय में तो समाज रक्षार्थ यज्ञ का विस्तार ही बताया गया है और कहा गया है कि समाज के लिए उसे मूलभूत मानना चाहिए। इसी प्रकार चौथे के 'नायं लोकोऽस्त्यज्ञस्य' (31) आदि के द्वारा तथा छठे के 'आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति' (32) के जरिए लोक-कल्याणकारी भावनाओं एवं आचरणों का ही महत्त्व दिखाया है। सातवें से लेकर पंदरहवें अध्याय तक यही बात जगह-जगह किसी न किसी रूप में बराबर पाई जाती है। इसलिए स्पष्ट है कि समाज के कल्याण से ही गीता का मतलब है। यों तो योग का जो स्वरूप पहले बताया जा चुका है वह समाज के कल्याण की ही चीज है। दसवें अध्याय के अंत के 41वें श्लोक में तो साफ ही कह दिया है कि संसार में जोई चमत्कार वाली गुणयुक्त चीज है वह भगवान का ही रूप है, उसी का अंश है। इससे तो स्पष्ट है कि गीता की दृष्टि में भगवान का मतलब ही है जगन्मंगलकर्त्ता से। गीता वैसे भगवान को कहाँ देखती और मानती है जो केवल स्वर्ग और नरक में भेजने का इंतजाम करता हो, या मुक्ति देता हो? गीता ने तो ऐसे भगवान का खयाल ही नहीं किया है।
यही बात सोलहवें अध्याय के 7-24 श्लोकों से भी सिद्ध होती है। आमतौर से यही होता है, यही बात देखी जाती है कि जो कुकर्मों को करता हुआ ईश्वर की सत्ता में विश्वास नहीं करता हो उसकी निंदा या उसके खंडन-मंडन का जब प्रसंग आए तो इसी बात से शुरू करते हैं कि देखिए न, यह तो ईश्वर को ही नहीं मानता है और साफ ही कहता है कि इस सृष्टि की उत्पत्ति या इसके काम के संचालन के लिए उसकी जरूरत हई नहीं! फिर और लोगों की इसे क्या परवाह होगी? उनके हितों को क्यों न पाँव तले रौंदेगा? आदि-आदि। ठीक भी यही प्रतीत होता है और स्वाभाविक भी। भगवान तो लोगों के लिए सबसे बड़ी चीज है और जो उसे ही नहीं मानता वह बाकी को क्यों मानने लगा? लोगों का गुस्सा भी यदि उस पर उतरेगा तो यही कहके कि जब यह शालिग्राम को ही भून देता है तो इसे बैंगन भूनने में क्या देर? अंत में भी सब कुछ लानत-मलामत के बाद यही कहेंगे कि इसकी ऐसी हिम्मत कि भगवान तक को भी इनकार कर जाए?
मगर गीता में कुछ और ही देखते हैं। वहाँ तो असुरों का लक्षण बताते हुए पूरे सातवें श्लोक में ईश्वर का नाम ही नहीं आया है। आसुर-संपत्ति वाले इस संसार के मूल में ईश्वर को नहीं मानते यह बात सिर्फ आठवें श्लोक के पूर्वार्द्ध के अंत में यों पाई जाती है कि देखो न, ये लोग संसार के मूल में उसे नहीं मानते - 'जगदाहुरनीश्वरम्'। इसके पहले सातवें में तो यही कहा है कि 'असुर लोग तो क्या करें क्या न करें यह - कर्तव्याकर्तव्य - जानते ही नहीं, उनमें पवित्रता भी नहीं होती और न उनका आचरण ही ठीक होता है। सत्य का तो उनमें नाम भी नहीं होता' - ''प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जना न विदुरासुरा:। न शौचं नापिचाचारो न सत्यं तेषु विद्यते।'' आठवें के शुरू में भी कहा है कि 'वे जगत को बेबुनियाद और इसीलिए निष्प्रयोजन मानते हैं' - "असत्यमप्रतिष्ठन्ते जगदाहु:।" और जब ऐसी बात है तो फिर ईश्वर की क्या जरूरत? वह तो तभी होती जब यह संसार किसी खास मकसद या उद्देश्य को लेकर बनाया गया होता - बना होता। इसीलिए वे कहते हैं कि ईश्वर की कोई जरूरत हई नहीं।
समाज का कल्याण
इस प्रकार हम देखते हैं कि अनीश्वरवाद या नास्तिकता को पीछे धकेल दिया गया है। उसे वह महत्त्व नहीं मिला है जो आमतौर से दिया जाता है। गीता ने तो महत्त्व दिया है उन्हीं चीजों को जिनसे संसार के उत्थान-पतन का - इसकी उन्नति-अवनति का - गहरा संबंध है। भले-बुरे की पहचान होना, कर्तव्य-अकर्तव्य की जानकारी, उत्तम आचरण, बाहर-भीतर पवित्रता और सच्चा व्यवहार - यही चीजें तो समाज की बुनियाद हैं। इनके बिना न तो हमीं एक मिनट टिक सकते और न यह समाज ही चल सकता है। ईश्वर को आप मानिए, या मत मानिए। मगर ये चीजें मानिए खामख्वाह। आपका अमल अगर इन्हीं के अनुसार हो तो हमें आपके अनीश्वरवाद से - आपकी नास्तिकता से - कोई मतलब नहीं, उसकी परवाह हम नहीं करते। हम जानते हैं कि उसका जहरीला डंक खत्म हो गया है। फलत: वह कुछ बिगाड़ नहीं सकती। आप तो पिंजड़े में बंद पक्षी हो गए हैं इन्हीं बातों के करते। इसलिए समाज के ही गीत गाएँगे। न तो स्वच्छंद उड़ान ही मार सकते और न मनचाही डाल पर बैठ के स्वतंत्र गीत ही गा सकेंगे। यही है गीता का इस संबंध में वक्तव्य, यही है उसका कहना।
मगर जिनमें यही चीजें नहीं हैं - जो असुर हैं - जो देव नहीं हैं उनका क्या कहना? वे ईश्वर को क्यों मानने लगे? यह परस्पर विरोधी बातें जो हैं। यह होई नहीं सकता कि सदाचार और कर्तव्यपरायणता न रहे तथा बाहर-भीतर एक समान ही सच्चा व्यवहार भी न रहे; मगर ईश्वरवादी बने रहें। गीता की नजरों में ये दोनों बातें एक जगह हो नहीं सकती हैं। बेशक, आज तो धर्म और ईश्वर की ठेकेदारी लिए फिरने वाले ऐसे लोगों की ही भरमार है जिनमें ये बातें जरा भी पाई नहीं जाती हैं। एक ओर देखिए तो कंठी-माला, जटा, टीका-चंदन, दंड-कमंडल और क्या-क्या नहीं हैं। सभी के सभी धर्म वाले ट्रेडमार्क पाए जाते हैं। मगर दूसरी ओर ऐसे लोगों में न तो कर्तव्य-अकर्तव्य का ज्ञान है, न तदनुकूल आचरण है, न बाहर-भीतर सर्वत्र होने वाली पवित्रता ही है और न सच्चाई तथा ईमानदारी ही। आज तो यही बात धार्मिक संसार में सर्वत्र ही पाई जाती है। सब जगह इसी की छूट है। कोई पूछनेवाला ही नहीं कि यह क्या अंधेरखाता है। जिस हृदय में भगवान बसे वह कितना पवित्र और कितना उदार होगा! उसकी गंभीरता और उच्चता कैसी होगी! वह विश्वप्रेम से कितना ओतप्रोत होगा! (आखिर ईश्वर तो प्रेममय, सत्य, शुद्ध, आनंदरूप और निर्विकार है न? और वही हमारे हृदय में बसता भी है। फिर भी यह गंदगी और बदबू? कस्तूरी जहाँ हो वहाँ उसकी सुगंध न फैले, यह क्या बात? और ईश्वर की गंध तो भौतिक कस्तूरी के गंध से लाख गुना तेज है। फिर हमारे दिलों में, जहाँ वही मौजूद है, सत्य, प्रेम, दया, पवित्रता, सदाचार और आनंद क्यों नहीं पाया जाता? इन चीजों का स्रोत उमड़ क्यों नहीं पड़ता?
कहने के लिए तो लोग कहेंगे कि हम धार्मात्मा हैं, ईश्वरवादी हैं। मगर हैं ये लोग दरअसल पापात्मा और अनीश्वरवादी। नास्तिक लोग तो जबान से ही ईश्वर की सत्ता इनकार करते हैं। मगर ये भलेमानस तो अमली तौर पर उसे जहन्नुम पहुँचाते हैं। हम तो महान से महान नास्तिकों को जानते हैं जो अनीश्वरवादी तो थे, मगर जिनका आचरण इतना ऊँचा और लोकहितकारी था कि बड़े-बड़े पादरी, पंडित और धर्मवादी दाँतों तले उँगली दबाते थे। हिम्मत नहीं होती थी कि उनके विरुद्ध कोई चूँ भी करे, उँगली उठाए। मार्क्सवाद वैसे नास्तिकों को ही चाहता है जिनके काम से आस्तिक लोग भी शर्मिंदा हो जाएँ। वह बेशक उन धार्मात्माओं से अपना और समाज का पिंड खामख्वाह छुड़ाना चाहता है जो व्यवहार में ठीक उलटा चलते हैं। हमें तो अमल चाहिए, काम चाहिए, न कि जबानी हिसाब और जमाखर्च। हम तो 'कह-सुनाऊँ' नहीं चाहते; किंतु 'कर-दिखाऊँ' चाहते हैं।
यदि गीता के सोलहवें अध्याय के 9-18 श्लोकों पर गौर करें तो हमें पता चल जाएगा कि जो धर्म के ठेकेदार आज जनता के हकों की लड़ाई का विरोध करते फिरते हैं और इस मामले में धर्म और ईश्वर का ही सहारा लेते हैं उन्हीं का चित्र वहाँ खींचा गया है। यह चित्र ऐसा है कि देखते ही बनता है। इसमें शक नहीं कि 9-14 श्लोकों से तो यह साफ पता नहीं चलता कि धर्म के ठेकेदारों का ही यह चित्रण है। मगर पंदरहवें के 'यक्ष्ये दास्यामि' पदों से, जिनका अर्थ है कि 'यज्ञ करेंगे और दान देंगे' तथा 'यजंते नामयज्ञैस्ते दम्भेनाविधिपूर्वकम्' (17) से तो यह बात बिलकुल ही साफ हो जाती है। जहाँ पहले वचनों में सिर्फ यज्ञ करने और दान देने की बात है तहाँ आखिरवाले तो साफ ही कहते हैं कि - 'वे लोग दिखावटी यज्ञ ख्याति आदि के लिए ही करते हैं। यज्ञों के विधि-विधान से तो उन्हें कोई मतलब होता ही नहीं।' यह 'अविधिपूर्वकम्' शब्द दूसरे मानी में आई नहीं सकता है। यह इसीलिए धर्म के ठेकेदारों की नकाब उतार फेंकता है, इसमें शक नहीं।
उनका चित्र खड़ा करना शुरू ही किया है यह कहते हुए कि 'संसार के तो वे शत्रु ही होते हैं। फलत: उसे चौपट करने के बड़े से बड़े उग्र काम कर डालने की ताकत रखते हैं' - ''प्रभवन्त्युग्रकर्माण: क्षयाय जगतोऽहिता:।'' 'संसार से तात्पर्य यहाँ समाज से ही है। वहाँ बताया गया है कि उनका तो काम ही है समाज को तहस-नहस करना। ऐसा करते हुए वे खुद भी चौपट हो जाते हैं। क्योंकि समाज से बाहर तो जा सकते नहीं। उनकी वासनाएँ तथा आकांक्षाएँ इतनी ज्यादा और बड़ी होती हैं कि उनकी पूर्ति हो सकती नहीं। उनका ठाटबाट और ढोंग इतना ज्यादा होता है, गरूर इस कदर होता है और प्रभुत्व, प्रभाव या शक्ति का नशा ऐसा होता है कि कुछ पूछिए मत। जिद में ही पड़के अंट-संट कर बैठते हैं। उन्हें पवित्रता का तो कोई खयाल रहता ही नहीं। दुनिया भर की फिक्र उन्हीं के माथे सवार रहती है, ऐसा मालूम होता है। खूब चीजें प्राप्त करो और खाओ, पिओ, मौज करो, यही उनका महामंत्र होता है। जानें कितनी उम्मीदें उन्हें होती हैं। काम और क्रोध ही यही दो उनके पक्के और सदा के साथी होते हैं। विषयवासना की तृप्ति और शान बढ़ाने के लिए वे हजार जुल्म और अत्याचार कर डालते हैं। बराबर यही सोचते रहते हैं कि अमुक काम तो हमने कर लिया, अब तो सिर्फ फलाँ-फलाँ बाकी हैं। इतनी संपत्ति तो मिल चुकी ही है। मगर अभी तो कितनी ही गुनी हासिल करेंगे! बहुत दुश्मनों को खत्म कर डाला है। बचे हुओं को भी न छोड़ेंगे। हमीं सबसे बड़े हैं, महलों में रहते हैं, जो चाहते हैं करके ही छोड़ते हैं। हमसे बड़ा ताकतवर है कौन? सुखी भी तो हमीं हैं। न तो हमसे बढ़के कोई धनी है और न संगी-साथियों वाला ही। हमारे मुकाबिले में कौन खड़ा हो सकता है? वे दिन-रात खुद अपने ही मुँह से अपनी बड़ाई करते रहते हैं। रुपये-पैसे, गरूर और नशा की गरमी में ही चूर रहते हैं। यज्ञ और दान तो वे केवल दिखाने और ठगने के ही लिए करते हैं। उनमें अहंकार इतना ज्यादा होता है कि मत कहिए। वे आत्मा-परमात्मा को तो समझते भी नहीं कि क्या चीज हैं - उनके नाम से ही उन्हें नफरत होती है। नतीजा यह होता है कि उनका पतन होता ही जाता है। ऊपर तो वे उठ सकते नहीं। दूसरे, तीसरे आदि जन्मों में भी अधिकाधिक नीचे गिरते ही जाते हैं। ईश्वर या आत्मा तक उनकी पहुँच कभी होती ही नहीं।'
इसी रूप में असुरों या धर्मध्वजियों का चित्र गीता ने खींचा हैं। 18वें और 20वें श्लोक में एक बार फिर परमात्मा का उल्लेख यद्यपि किया है। मगर वह है आत्मा के रूप में ही। चाहे ईश्वर के रूप में भी मानें, तो भी जो कुछ उसके साथ-साथ कहा गया है उससे स्पष्ट है कि ऊपर लिखे आसुरी व्यवहारों और आचरणों के करते ही उनकी परमात्मा तक पहुँच हो पाती नहीं। इससे भी यही सिद्ध हो जाता है कि असल चीज आचरण ही हैं। 21-22 श्लोकों में तो खुल के कही दिया है - और यह बात उपसंहार की है - कि 'नरक या पतन के तीन ही रास्ते हैं जिन्हें काम, क्रोध और लोभ कहते हैं। ये तीनों आत्मा को भी चौपट कर देते हैं। इसलिए इनसे अपना पिंड छुड़ाना जरूरी है। जहन्नुम में ले जाने वाले इन तीनों से पल्ला छूटने पर ही कल्याणकारी रास्ता सूझता और सदाचरण होता है। फिर तो हर तरह से मौज ही मौज समझिए' - ''त्रिविधं नर-नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मन:। काम: क्रोधस्तथा- लोभस्तस्मादेतत्रयं त्यजेत्॥ एतैर्विमुक्त: कौंतेय तमोद्वारेस्त्रिभिर्नर:। आचरत्यामन: श्रेयस्ततो याति परां गतिम्॥'' आखिर में कार्य-अकार्य या कर्तव्य-अकर्तव्य के जानने और तदनुसार ही काम करने का आदेश दे के यह अध्याय पूरा किया गया है।
इस तरह देखते हैं कि जिस कर्तव्याकर्तव्य के ज्ञान से ही शुरू किया था उसी से प्रकरण का अंत भी किया गया है। यह नहीं कहा गया है कि भगवान के ज्ञान, उसकी भक्ति या पूजा-पाठ को ही अपनाना चाहिए। यह कहते भी कैसे? गीता ने तो पहले ही कह दिया है और उसे आगे भी यही कहना है कि कर्तव्य का पालन ही भगवान की पूजा है। फिर उलटी बात यहाँ कैसे कही जाती? और जब सभी बातों का पर्यवसान समाज के कल्याण एवं क्षेम में ही है - जब लोकसंग्रह ही गीता का ध्येय है - तो दूसरी बात कही जाए कैसे? जब भगवान का ज्ञान, ध्यान वगैरह भी मनुष्य को ऐसे साँचे में ढालने के ही लिए है कि उसकी प्रत्येक क्रिया, हरेक साँस और हर काम संसार के लिए मंगलप्रद बन सके, तो और बातों का अवसर ही कहाँ रह जाता है? गीता ने ईश्वर-अनीश्वरवाद के झमेले को जिस तरह सुलझाया है और खुद इस गड़बड़ से जो वह बहुत ऊपर पहुँची हुई है वही उसकी इस संबंध की खूबी है।
कर्म और धर्म
अब जरा कर्म और धर्म की बातों को भी देखें। आमतौर से ऐसी धारणा पाई जाती है कि कर्म, क्रिया या अमल तो सभी बुरे-भले कामों को ही कहते हैं। मगर धर्म कुछ खास कर्मों या कामों का ही नाम है। धर्म के ही मानी में मजहब और रिलिजन (Religion) शब्दों का भी प्रयोग करके उनके बारे में भी यही खयाल सर्वत्र पाया जाता है। इसका परिणाम भी बुरा से बुरा होता है। जब हमने मान लिया कि सिर्फ संध्या, पूजा, नमाज, रोजा, प्रार्थना वगैरह धर्म हैं, तब तो स्वाभाविक रूप से बाकी कामों में एक प्रकार की स्वतंत्रता का अनुभव करेंगे ही। धर्मों के संबंध में तो सैकड़ों तरह के बंधन होते हैं - कब करें, कैसे करें, कितनी देर तक करें आदि-आदि। गड़बड़ होने पर नरक, दोजख आदि के भय भी माथे पर सवार रहते हैं। भगवान की रंजिश का भी सबसे बड़ा खतरा इस बात में बना रहता है। इसीलिए स्वभावत: उनकी पाबंदी ठीक-ठीक की जाती है - कम से कम पाबंदी की कोशिश तो जरूर होती है।
लेकिन बाकी कामों में? उनमें तो कोई डर-भय उस तरह का नहीं होता। हाँ, लोक-लाज या कानून-वानून का डर जरूर रहता है। मगर लोगों से छिप-छिपाके और कानून-फंदे से बच-बचाके भी काम किए जा सकते हैं, किए जाते हैं। कानून की आँख में धूल डालना चतुर खिलाड़ियों के लिए बायें हाथ का खेल है। वे तो कानून को बराबर चराते फिरते हैं। इसलिए उन्हें स्वतंत्रता तो करीब-करीब रहती ही है। क्योंकि भगवान तो यहाँ दखल देता नहीं और न धर्मराज या यमराज ही। यह तो धर्म से बाहर की चीजें हैं, जहाँ उनका अधिकार नहीं। यदि थोड़ा-बहुत मानते भी हैं कि वह दखल देंगे तो भी यह बात अधूरी ही रह जाती है। क्योंकि संध्या, नमाज की तरह सच बोलने या शराब न पीने की बात नहीं है। यदि ये चीजें धर्म में किसी प्रकार आ भी जाएँ तो भी इनका स्थान गौण है, मुख्य नहीं। देखते ही हैं कि संध्या, नमाज वगैरह की पाबंदी में जो सख्ती पाई जाती है वह सच बोलने और सूद न लेने या शराब न पीने में हर्गिज नहीं है। बड़े-बड़े धर्माधिकारी भी बड़े-बड़े कारबारों और जमींदारियों के चलाने वाले होते हैं, जहाँ झूठ बोलने और जाल-फरेब के बिना काम चलता ही नहीं। मैनेजर, प्रबंधक और कारपरदाज वगैरह के जरिए वह काम करवा के अपने पिंड को बचाने की बात केवल अपने आपको धोखा देना है - आत्मप्रवंचना है। जब कारबार उनका है, जमींदारी उनकी है तो उसके मुतल्लिक होने वाले झूठ और जाल-फरेब की जवाबदेही उन्हीं पर होगी ही। यह डूब के पानी पीना और खुदा से चोरी करना ठीक नहीं। यदि कारबार और जमींदारी के फायदे के लिए वह झूठ और जाल न हो तो बात दूसरी है। मगर यहाँ तो उन्हीं के चलाने के ही लिए ऐसा किया जाता है।
इसीलिए गीता ने न तो धर्म की श्रेणियाँ बता के मुख्य, अमुख्य या प्रधान और गौण धर्म जैसा उसका विभाग ही किया है और न कोई दूसरी ही तरकीब निकाली है। गीता की नजरों में तो धर्म और कर्म या क्रिया (अमल या काम) एक ही चीज है। जिसे हम अंग्रेजी में ऐक्शन (action) कहते हैं उसमें और धर्म में जरा भी फर्क गीता नहीं मानती। इसका मोटा दृष्टांत ले सकते हैं। हिंदू लोग चार वर्णों को मानते हुए उनके पृथक-पृथक धर्म मानते हैं। उनके सिद्धांत में वर्णधर्म एक खास चीज है। मगर चौथे अध्याय के 12, 13 श्लोकों की अजीब बात है। 13वें में तो वर्णधर्मों की ही बात है। फिर भी कृष्ण कहते हैं कि 'हमने चारों वर्णों की रचना कर्मों के विभाग के ही मुताबिक की है और ये कर्म गुणों के अनुसार बने स्वभावों के अनुकूल अलग-अलग होते हैं', - ''चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागश:।'' यहाँ धर्म की जगह कर्म ही कहा गया है। 12वें श्लोक में भी कहा है कि 'मर्त्यलोक में कर्मों की सिद्धि जल्द होती है। इसीलिए यहाँ उसी सिद्धि (इष्टसिद्धि) के लिए देवताओं का यज्ञ किया करते हैं' - ''काङ्क्षन्त: कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवता:। क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा।'' यहाँ यज्ञ को कर्म कहा है, न कि धर्म; हालाँकि यह तो पक्का धर्म है। धर्मों की सिद्धि न कह के कर्मों की सिद्धि कहने का भी यही मतलब है कि धर्म और कर्म एक ही चीज है और गीता इन दोनों में कोई भेद नहीं रखती।
इसी प्रकार अठारहवें अध्याय के 41-44 श्लोकों में भी चारों वर्णों के ही धर्मों की बात आई है। 45-46 श्लोकों में भी उसी संबंध में यह बताया गया है कि उन धर्मों के द्वारा ही भगवान की पूजा कैसे हो सकती है और इष्टसिद्धि क्योंकर होती है। चारों वर्णों के कुछ चुने-चुनाए धर्मों को गिनाया भी गया है, जो पक्के और स्वाभाविक माने जाते हैं। सारांश यह कि ये छह श्लोक वर्णों के धर्मों की जितनी सफाई के साथ कहते हैं उतनी सफाई शायद ही कहीं मिलेगी। मगर एक बार भी उनमें धर्म शब्द नहीं आया है। खूबी तो यह कि उन्हीं में कर्म शब्द पूरे आठ बार आया है। धर्म के बारे में जिनका बड़ा जोर है उन्हें इस बात से काफी धक्का लग सकता है कि जहाँ धर्म शब्द का बार-बार आना निहायत जरूरी था वहाँ उसे गीता भूल-सी गई! और अगर ऐसे ही अवसर पर धर्म की बात नहीं आती है, किंतु उसकी जगह कर्म कहके ही संतोष किया जाता है, तो फिर यह कहने की गुंजाइश रही जाती कहाँ है कि धर्म और कर्म दो चीजें हैं?
जो लोग फिर भी हठ करते रहें और ऐसा कहने का साहस करें कि यद्यपि सभी धर्म तो कर्म ही होते हैं, तथापि सभी कर्म कदापि धर्म हो नहीं सकते, इसीलिए धर्म की जगह कर्म कहके काम चलाया जा सकता है और यही बात यहाँ पाई जाती है, उनके लिए कोई भी समझदारी की बात क्या कही जाए? यों ही कभी-कभी धर्म का नाम ले लेना और हर विशेष अवसर पर बार-बार कर्म का ही जिक्र करना, जबकि धर्म का उल्लेख ज्यादा मौजूँ और उचित होता, क्या यह बात नहीं बताता कि गीता इस झमेले से हजार कोस दूर है? यदि धर्म का नाम कहीं-कहीं आ गया भी तो यों ही, न कि किसी खास अभिप्राय से, यही कथन ज्यादा युक्तियुक्त प्रतीत होता है। यह ठीक है कि एकाध जगह धर्म शब्द से ही काम निकलता देख और कर्म कहने में दिक्कत या कठिनाई समझ के गीता ने धर्मशास्त्रों के अर्थ में ही धर्म शब्द कहा है। मगर वह ज्यों का त्यों बोल दिया गया है, न कि प्रतिपादन किया गया है कि धर्म खास चीज है। जैसा कि 'स्वधर्मपि चावेक्ष्य' (2। 31) में पाया जाता है। और जब दूसरे अध्याय में योग का सिद्धांत एवं स्वरूप बताते समय, तीसरे अध्याय में यज्ञ की महत्ता दिखाते वक्त, चौथे में यज्ञ का विस्तार एवं विवरण बताते समय और अठारहवें में अपने-अपने (स्व) धर्मों के रूप में ही कैसे भगवत्पूजा होती है यह सिद्ध करते समय भी सिर्फ कर्म की ही चर्चा आती है, न कि धर्म की एक बार भी, तो गीता में प्रतिपादन किसका माना जाए? वहाँ रहस्य और सिद्धांत किसके संबंध का बताया गया माना जाए? धर्म का या कर्म का? अगर कर्म का, क्योंकि धर्म का कहने की तो कोई भी गुंजाइश हई नहीं, तो फिर अंततोगत्वा यही बात रही कि गीता ने धर्म और कर्म में कोई भी अंतर नहीं किया है। उसने कर्म के ही दार्शनिक विवेचन से संतोष करके दिखा दिया है कि असली चीज कर्म ही है।
एक बात और भी है। गीता ने बार-बार कहा है कि कर्मों से ही बंधन होता है और उसी से छुटकारा मिलने को मुक्ति कहते हैं। अर्जुन ने इसी बंधन के डर से ही तो आगा-पीछा किया था। यदि दूसरे अध्याय के 38वें श्लोक से शुरू करके देखें तो प्राय: हरेक अध्याय में बार-बार कर्म की इस ताकत का और उससे छुटकारा पाने की हिकमत का जिक्र मिलेगा। चाहे उस हिकमत को योग कहें, निर्लेपता कहें, अनासक्ति कहें, समत्व बुद्धि कहें, या इन सबों को मिलाके कहें, यह बात दूसरी है। मगर यह तो पक्की चीज है कि बार-बार यही बात शुरू से अंत तक आई है। अर्जुन की धारणा कुछ ऐसी थी कि धर्म उन कामों को ही कहते हैं जिनमें कोई भी बुराई न हो, जिनसे स्वजन-वध आदि संभव न हों, जैसा ध्यान, समाधि, पूजा आदि। उसका भी खयाल था कि जिसके करते बुराई हो, हत्या हो या इसी तरह की और बात हो वह धर्म माना जाने पर भी वस्तुगत्या अधर्म - धर्म विरोधी - ही है। युद्ध से विरक्त होने और लंबी-चौड़ी दलीलें पेश करने का उसका यही मतलब था। दूसरा मतलब हो भी क्या सकता था? इसका उत्तर भी कृष्ण ने साफ ही दे दिया कि 'सहजं कर्म कौंतेय सदोषमपि न त्यजेत्। सर्वारंभा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृता:' (18। 48), 'श्रेयान्स्वधर्मो विगुण:' (3। 35, 18। 47), - ''बुराई-भलाई तो सर्वत्र मिली हुई हैं। ऐसा काम हो नहीं सकता जिसमें बुराई न हो या भलाई न हो। इसलिए बुराई वाला होने पर भी स्वधर्म ही ठीक है। उसी को करना चाहिए।'' गीता में जो धर्म, अधर्म शब्द कहीं-कहीं आ गए हैं वह अर्जुन की इसी भ्रांत धारणा को ही लेके, और उसे ही कृष्ण ने दूर किया है।
इससे एक और भी गड़बड़ हो जाती है। ऐसी धारणा के करते धर्म और अधर्म अजीब-सी चीज बन जाते हैं। क्षत्रिय के लिए युद्ध जैसा महान धर्म भी अधर्म की कोटि में - उसी श्रेणी में - आ जाता है। यह कितनी गलत बात है! ऐसा समझना कि जो निर्दोष हो, हिंसारहित हो वही धर्म और शेष अधर्म है, कितनी नादानी है! साँस लेने एवं पलक मारने में भी तो लक्ष-लक्ष कीटाणुओं का संहार होता रहता ही है। पुराने लोगों ने भी कहा ही है कि वायुमंडल में ऐसे अनंत जीव भरे पड़े हैं जिनका संहार पलक मारने से ही हो जाता है - 'पक्ष्मणोऽपि विपातेन येषां स्यात्पर्वसंक्षय:।' जब यही बात है तो फिर साँस का क्या कहना? वह तो बराबर चलती और गरमागरम रहती है। फलत: कत्लेआम ही होता रहता है उसके चलते भी! तो क्या किया जाए? क्या पलक न मारें? साँस न लें? क्योंकि अधर्म जो हो जाएगा! और जब इस प्रकार जीवन ही अधर्म हो गया तो आगे क्या कहा जाए? धर्मशास्त्रियों ने जिस जीवनरक्षा के लिए सब कुछ कर डालने और खा-पी लेने तक की छूट दे दी है वही अधर्म? और पूजा-पाठ? माला जपो, जबान हिलाओ, चंदन रगड़ो, फूल तोड़ो, आरती करो, दीप जलाओ, भोग लगाओ और पद-पद पर अनंत निर्दोष जीवों का संहार करो। फिर भी यह कहना कि यह पूजा-पाठ धर्म है, महज नादानी है, यदि धर्म की वही परिभाषा मानी जाए जो अर्जुन के दिमाग में थी। तब तो कहीं भी किसी प्रकार गुजर नहीं और धर्म महाराज यहाँ से सदा के लिए विदाई ही लेके चले जाएँ!
इसीलिए तो कृष्ण को कस के सुनाना पड़ा कि यह तो तुम्हारी अजीब पंडिताई है - 'प्रज्ञावादांश्च भाषसे' (2। 11)। धर्म की यह परिभाषा तो जहन्नुम में भेजे जाने की चीज है, उनने ऐसा समझ के ही अध्यात्म विवेचन से ही शुरू किया और अर्जुन को ललकारा। अर्जुन की गलती भी इसमें क्या कही जाए? जब धर्म-अधर्म के बारे में इसी प्रकार की मोटी बातें कही और लिखी जाती हैं और धर्म पालन के साथ ही 'अहिंसा परमोधर्म:' की दुहाई दी जाती है, तो उसका ऐसे मौके पर घपले में पड़ जाना अनिवार्य था। दरअसल कर्म का असली रूप और उसका दार्शनिक विश्लेषण न जानने के कारण ही तो धर्म-अधर्म और हिंसा-अहिंसा का यह घपला आ खड़ा होता है। इसलिए जरूरी हो गया कि वही विश्लेषण किया जाए। गीता ने यही किया भी। इससे तो साफ हो जाता है कि धर्म-अधर्म की सर्वसाधारण धारणा निहायत ही थोथी और ऐन मौके पर खतरनाक हो जाती है। अर्जुन को जो धोखा हुआ वह उसी के चलते। इसलिए आमतौर से जिसे लोग धर्म या अधर्म मानते हैं वह बच्चों की-सी बात हो जाती है। गीता ने यह बात दिखला दी है। वह धर्म ही क्या जिसके या जिसकी सर्वसाधारण समझ के चलते ऐन मौके पर, जब कि जीवन-मरण का संग्राम उपस्थित है, गड़बड़घोटाला हो जाए? धर्म को उस समय ठीक पथ-प्रदर्शन करना चाहिए। मगर वह तो उलटी गंगा बहाने लगता है! इसलिए धर्मशास्त्रियों की बातों को ताक पर रख के उसका नए सिरे से विवेचन और विश्लेषण जरूरी हो जाता है। यही जरूरत शुरू में ही बड़ी खूबी के साथ दिखा के गीता ने उसका नया विवेचन कर्म के ही दार्शनिक विश्लेषण (Philosophical analysis) के आधार पर किया है। क्योंकि इसके बिना दूसरा रास्ता हई नहीं।
यह भी तो देखिए कि जहाँ गीता में शुरू से लेकर अंत तक का कर्म का उल्लेख सैकड़ों बार कर्म शब्द से करने के अलावे कार्य, कर्तव्य, युद्ध, यज्ञ, यत्न, योग आदि शब्दों से किया है, तहाँ धर्म शब्द मुश्किल से किसी न किसी रूप में - अधर्म, धर्म्य, साधर्म्य के रूप में भी - सिर्फ तैंतीस बार आया है। खूबी तो यह है कि गीता के पहले श्लोक का धर्म तो नाम के साथ ही लगा है। वह कोई धर्म जैसी चीज को खास तौर से कहने के लिए नहीं आया है। कुरुक्षेत्र की प्रसिद्धि धर्मक्षेत्र के नाम से उस समय थी और यही बात श्लोक में भी आ गई! अठारहवें अध्याय के 70वें श्लोक में जो 'धर्म्य' शब्द है वह भी कुछ ऐसा ही है। वह तो केवल 'संवाद' का विशेषण होने से उसके औचित्य को ही बताता है। उसका कोई खास प्रयोजन नहीं है। चौदहवें अध्याय के दूसरे श्लोक के 'साधर्म्य' का धर्म शब्द भी दूसरे ही मानी में बोला गया है, न कि कर्तव्य के अर्थ में। वह तो समानता का ही सूचक है। दूसरे अध्याय के 40वें श्लोक का धर्म शब्द भी गीता के योग के ही अर्थ में आया है, न कि धर्मशास्त्रों के धर्म के मानो में। इसी प्रकार नौवें अध्याय के 2-3 श्लोकों में जो धर्म्य और धर्म शब्द आए हैं वह ज्ञान-विज्ञान के ही लिए आए हैं, न कि अपने खास मानी में। बारहवें के 20वें श्लोक का धर्म्य शब्द भी कुछ ऐसा ही है। वह समस्त अध्याय के प्रतिपादित विषय को ही कहता है। इसी प्रकार अठारहवें अध्याय के 46वें श्लोक में जो धर्म शब्द है उसी के अर्थ में उसी श्लोक में आगे कर्म शब्द आने के कारण वह भी संकुचित अर्थ में प्रयुक्त नहीं हुआ है। उसी अध्याय के 66वें श्लोक का धर्म शब्द भी व्यापक अर्थ में ही आया है और धर्म, अधर्म तथा दूसरे कर्मों का भी वाचक है। यह बात प्रसंगवश आगे कही जाएगी और इस पर विशेष प्रकाश पड़ेगा। यह ठीक है कि उस धर्म को कर्म की जगह पर प्रयोग नहीं किया है। क्योंकि ऐसा करना असंभव था। कहने का आशय यह है कि जितना व्यापक अर्थ कर्म शब्द का है उस अर्थ में वह धर्म शब्द नहीं आया है और इसकी वजह है जो प्रसंगवश लिखी जाएगी।
इस प्रकार देखने से पता चलता है कि पाँच से लेकर सत्रह अध्याय तक कुल तेरह अध्याय में यह धर्म आया ही नहीं है। हालाँकि इन्हीं में कर्म का दार्शनिक विवेचन खूब ही हुआ है। जिस समत्वरूप योग का वर्णन दूसरे अध्याय में पाया जाता है और जो कर्मों की कुंजी है वही पाँच, छह, नौ, बारह, तेरह और चौदह अधयायों में किसी न किसी रूप में आया ही है। सोलह और सत्रह अध्याय तो गीताधर्म की दृष्टि से काफी महत्त्व रखते हैं, यह पहले कही चुके हैं और विस्तार के साथ वह बात सिद्ध की जा चुकी भी है।
अब रहे सिर्फ पहले, दूसरे, तीसरे, चौथे और अठारहवें अध्याय। इन्हीं में धर्म शब्द कुल मिला के केवल चौबीस बार अपने विशेष मानी में प्रयुक्त हुआ मालूम पड़ता है। इसमें भी खूबी यह है कि पहले अध्याय के 40वें में तीन बार और तीसरे के 35वें में ही चार बार आया है। पहले के तैंतालीसवें में, दूसरे के बत्तीस-तैंतीस में, चौथे के सातवें में और अठारहवें के एकतीस-बत्तीस श्लोकों में दो-दो बार आ जाने के कारण कुल उन्नीस बार तो सिर्फ आठ ही श्लोकों में आया है। शेष 5वें श्लोकों में 5 बार। इनमें भी पहले अध्याय के 41 तथा 44वें, दूसरे के 7वें में, चौथे के 8वें में और अठारहवें के 34वें में - इस प्रकार एक-एक बार का बँटवारा है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि कुछी जगहों में वह पाया जाता है। इसमें भी खूबी यह है कि पहले अध्याय में सात बार और दूसरे में एक - कुल आठ - बार तो खुद अर्जुन ने ही यह शब्द कहा है। फलत: वह तो गीता के सिद्धांत के भीतर यों ही नहीं आता है। हाँ, सत्रह बार जो कृष्ण ने कहा है उसी पर कुछ भरोसा कर सकते हैं।
मजा तो यह है कि दूसरे अध्याय के 31वें तथा 33वें श्लोकों में जो कुल चार बार धर्म शब्द कृष्ण ने कहा है वह अर्जुन के ही कथनानुसार धर्मशास्त्र वाला ही है, न कि कृष्ण का खास। वहाँ तो अर्जुन की ही बात के अनुसार ही उसे माकूल करते हैं। इसी प्रकार तीसरे अध्याय के 35वें में जो चार बार आया है वह ठीक वैसा ही है जैसा कि अठारहवें अध्याय के 47वें का। क्योंकि 'श्रेयान्स्वधर्मो विगुण: परधर्मात्स्वनुष्ठितात्' यह श्लोक का आधा ज्यों का त्यों दोनों ही जगह पूर्वार्द्ध में आया है। फलत: यदि अठारहवें अध्याय में धर्म का अर्थ कर्म ही है, तो तीसरे में भी यही बात है - होनी चाहिए। यह भी बात है कि तीसरे अध्याय के शुरू से लेकर इस श्लोक के पूर्व तक कर्म की ही बात लगातार आई है। उसकी शृंखला टूटी नहीं है। इसलिए धर्म शब्द भी कर्म के ही अर्थ में प्रयुक्त हुआ है यही मानना उचित है।
इस प्रकार देखने पर तो सिर्फ चौथे अध्याय के 7-8 तथा अठारहवें के 31-32 एवं 34 श्लोकों में जो धर्म शब्द कृष्ण के मुख से निकले हैं केवल वही, मालूम पड़ता है, धर्म के विशेष या पारिभाषिक अर्थ में आए हैं। मगर यहाँ भी कुछ बातें विचारणीय हैं। चौथे अध्याय में तो धर्म का उल्लेख अवतार के ही प्रसंग में हुआ है। वहाँ कहा गया है कि जब समाज में उपद्रव होने लगता है और दुष्टों की वृद्धि हो जाती है तो अवतारों की जरूरत होती है। ताकि भले लोगों की, सत्पुरुषों की रक्षा हो सके। अब यदि इस वर्णन की मिलान सोलहवें अध्याय के असुरों के आचरणों से करें और तुलसीदास के 'जब जब होइ धर्म की हानी। बाढ़हिं असुर महा अभिमानी' वचन को भी इस सिलसिले में खयाल करें, तो पता लग जाता है कि धर्म का मतलब यहाँ समाज-हितकारी समस्त आचरणों से ही है। जिन कामों से समाज का मंगल हो वही धर्म है, ऐसा ही अभिप्राय कृष्ण का प्रतीत होता है।
बेशक, सिर्फ अठारहवें अध्याय के 31-32 तथा 34 श्लोकों में यह बात जरूर मालूम होती है कि सामान्य कर्तव्य-अकर्तव्य से अलग धर्म-अधर्म हैं। 30वें श्लोक में प्रवृत्ति-निवृत्ति शब्दों से इन्हीं धर्म और अधर्म को कहा है। इसके सिवाय जिस प्रकार वहाँ कार्याकार्य - कार्य-अकार्य - अलग बताया गया है, न कि इन्हें धर्म-अधर्म - प्रवृत्ति-निवृत्ति - के ही भीतर ले लिया है, ठीक उसी प्रकार 31वें में भी अधर्म और धर्म तथा अकार्य एवं कार्य जुदा-जुदा लिखा है। इससे साफ हो जाता है कि सामान्य कार्य और अकार्य से अलग ही धर्म एवं अधर्म हैं - ये विशेष पदार्थ हैं । मगर जब 32वें श्लोक पर विशेष ध्यान देते हैं तो यह पहेली सुलझ जाती है और पता चल जाता है कि धर्म-अधर्म शब्द भी व्यापक अर्थ में ही आए हैं। पहले - 31वें - श्लोक में आम लोगों की धारणा के ही अनुसार इन्हें अलग रखा है जरूर। मगर यह बात विवरण के ही रूप में है, यह मानना ही पड़ेगा।
बात असल यह है कि सात्त्विक, राजस और तामस बुद्धियों की पहचान इन तीन - 30 से 32 - श्लोकों में बताई गई है। पहले में कहा गया है कि प्रवृत्ति-निवृत्ति या धर्म-अधर्म तथा कर्तव्य-अकर्तव्य को ठीक-ठीक बताना सात्त्विक बुद्धि का काम है। इसी से उसकी पहचान होती है। फिर भी 31वें में कहा गया है कि इन चीजों को जो ठीक-ठीक न बताए - कभी ठीक बताए और कभी नहीं - वही राजस बुद्धि है। उसकी यही पहचान है। यहाँ तक तो ठीक है। दोनों की पहचान में धर्म (प्रवृत्ति), अधर्म (निवृत्ति) तथा कार्य-अकार्य का उल्लेख आया है। मगर जब तामस बुद्धि का प्रसंग 32वें श्लोक में आया है तो कार्य-अकार्य को छोड़ के केवल धर्म और अधर्म का ही उल्लेख है और कहा गया है कि जो अधर्म को ही धर्म माने और इस प्रकार सभी बातें उलटी ही बताए वही तामसी बुद्धि है। यदि पहला क्रम रखते तो कहते कि जो अधर्म को धर्म और अकार्य को कार्य समझे वही तामसी बुद्धि है। क्योंकि उसका काम न तो ठीक-ठीक बताना है और न कुछ गड़बड़ करना, किंतु बिलकुल ही उलटा बताना। मगर यहाँ कार्य-अकार्य को छोड़ के केवल धर्म-अधर्म का ही उल्लेख यही बताता है कि इन्हीं के भीतर कार्य-अकार्य भी आ जाते हैं और ये शब्द व्यापक अर्थ में ही आए हैं। फलत: कार्य-अकार्य का पहले दो श्लोकों में उल्लेख यों ही विवरण के ही रूप में है। 34वें श्लोक का धर्म शब्द तो प्रचलित प्रणाली के ही अनुसार धर्म, अर्थ, काम में एक को कहता है और जब पहले ही उसका अर्थ ठीक हो गया तो यहाँ दूसरा क्या होगा?
इस प्रकार यह बात निर्विवाद हो गई कि गीता ने धर्म को कर्म, काम या अमल से भिन्न नहीं मान के दोनों को एक ही माना है - धर्म ही कर्म है और कर्म ही धर्म। अर्जुन ने जो दूसरे अध्याय के 7वें श्लोक में कहा है कि 'धर्म के बारे में कोई भी निश्चय न कर सकने के कारण ही आपसे सवाल कर रहा हूँ' - ''पृच्छामि त्वां धर्मसंमूढचेता:'', उसका भी मतलब कर्तव्य, कर्म या काम से ही है। इसीलिए तो उसे जो उत्तर दिया गया है उसमें कर्म के ही स्वरूप और उसके सभी पहलुओं का विवेचन किया गया है। यही तो खूबी है कि शुरू से लेकर अंत तक जो भी विवेचन किया गया है वह कर्म का ही है, न कि धर्म का। एक भी स्थान पर धर्म का उल्लेख करके विश्लेषण या विवेचन पाया जाता है नहीं। अर्जुन के प्रश्न के उत्तर में जो कुछ कहना शुरू हुआ है वह भी मरने-मारने और युद्ध करने की ही बात लेके। इन्हीं बातों को धर्म कहके शुरू करते तो भी एक बात थी। मगर वहाँ तो सीधे कौन मारता है, कौन मरता है आदि प्रश्न ही उठाए गए हैं और उन्हीं का उत्तर दिया गया है। युद्ध करो, तैयार हो जाओ, लड़ने का निश्चय कर लो, आदि के ही रूप में बार-बार उपसंहार किया गया है, न कि धर्म करो, ये धर्म हैं, इसलिए इन्हें करो, आदि के रूप में। खूबी तो यह है कि यह सभी बातें स्वतंत्र रूप से कहके आगे 31-33 श्लोकों में यह भी बात कहते हैं कि धर्मबुद्धि से भी यही काम कर सकते हो - यह युद्ध और मरने-मारने का काम धर्म समझ के भी करना ही होगा। इससे तो साफ है कि पहले धर्म समझ के इन्हें करने पर जोर नहीं देके कर्तव्यबुद्धि या विवेकबुद्धि से ही इन्हें करने को कहा गया है।
इस प्रकार सभी कामों को धर्म के भीतर डाल देने का मतलब यह हो जाता है कि धर्म बहुत बड़ा एवं व्यापक बन जाता है और उसका सर्वजनप्रसिद्ध संकुचित रूप जाता रहता है। फलत: लोगों में जो धर्माचरण की प्रवृत्ति आमतौर से पाई जाती है उससे काफी फायदा उठाके सभी समाजोपयोगी कामों को उसी व्यापक एवं उदार बुद्धि से धर्म समझ के ही कराया जा सकता है। गीता के इस ढंग से कर्तव्य के संसार में बहुत बड़ा लाभ हो जाता है।
मगर दूसरा और असली महत्त्वपूर्ण लाभ इससे यह होता है कि धर्म के नाम पर धर्मशास्त्रों, धर्मशास्त्रियों तथा धर्माचार्यों का जो नाहक का नियंत्रण लोगों की समझ और उनके कामों पर रहा करता है वह खत्म हो जाता है। जब धर्म अत्यंत व्यापक बन जाता है, जब सभी काम उसमें आ जाते हैं तब धर्म के ठेकेदारों की गुंजाइश रही कहाँ जाती है? जब तक कोई खास चीज और कुछ चुनी-चुनाई बातें न हों तब तक उन्हें पूछे कौन? जीवन के हरेक काम में कौन किससे पूछने जाता है? किस धर्माचार्य की जरूरत इस बात के लिए होती है कि हम कैसे आगे-पीछे पाँव दें, कैसे साँस लें, कैसे खाने में मुँह चलाएँ, कैसे दाँतों से अन्न को खूब चबाएँ, कैसे कपड़े पहनें, आदि-आदि? ये बातें पूछना असंभव भी तो है। हाँ, स्वास्थ्यशास्त्रों और ऐसी ही दूसरी पोथियों की सहायता से इन्हें भले ही जान ले सकते हैं। मगर ऐसा तो नहीं होगा कि साल में एक या दो-चार गुरु और पीर या पंडित-पुरोहित इन्हीं के लिए खास तौर से आया करेंगे और 'पूजा' लिया करेंगे, ठीक जैसे एकादशी, रोजा आदि के सिलसिले में आते ही रहते हैं। तब तो रोजा, नमाज, संध्या, पूजा वगैरह भी साँस लेने आदि की ही श्रेणी में आ जाएँगे और वहाँ से भी धर्मध्वजियों की बेदखली होई जाएगी, चाहे देर से हो या सवेरे।
तीसरी बात यह होगी कि जब हरेक बात को धर्म के फंदे से निकाल के व्यावहारिक और सामाजिक दुनिया में ला देंगे तो उसके भले-बुरे पर जाँच स्वर्ग और नरक की दृष्टि से न करके देखेंगे कि इससे अपना और समाज का भौतिक लाभ क्या है, इससे सामाजिक, वैज्ञानिक या सांस्कृतिक विकास में कहाँ तक फायदा पहुँचता है, समाज के स्वास्थ्य की उन्नति इससे कहाँ तक होती है। बिना इस व्यावहारिक दृष्टि के ही तो सब गुड़ गोबर हो रहा है। नहाने में भी जब धर्म की बात घुसती है तो उससे शरीर या वस्त्रादि की स्वच्छता न देख के स्वर्ग-नरक को ही देखने लगते हैं! जैसे ऊँट की नजर हमेशा पश्चिम के रेगिस्तान की तरफ होती है, ऐसा कहा जाता है, ठीक उसी तरह हमें हर काम में ठेठ स्वर्ग, बैकुंठ या नरक ही सूझता है। इस पतन का कोई ठिकाना है! इस अंधी धर्मबुद्धि ने हमें - मानव समाज को - निरा भोंदू और बुद्धिहीन बना डाला है, मशीन करार दे दिया है! गीता का यह रास्ता इस बला से हमारा निस्तार कर देता है और हमें आदमी बना देता है।
चौथी और आखिरी बात यह होती है कि कर्म भले हैं या बुरे, इनके करते हम नरक में जाएँगे या स्वर्ग में आदि बातों और प्रश्नों का भी निर्णय जो अब तक पंडितों एवं मौलवी लोगों के हाथों में रहा है उसे गीता इस प्रकार उनसे छीन लेती और इन्हें ऐसी कसौटी पर कसती है जो सर्वत्र सुलभ हो, जिसे हम खुद हासिल कर सकते हैं, यदि चाहें। अब तक तो धर्म के नाम पर फैसला करने वाले पंडित आदि ही थे। मगर अब जब धर्म हो गया कर्म और कर्म के जाँचने की एक दूसरी ही कसौटी गीता ने तैयार कर दी, जो दूसरे के पास न होके हरेक आदमी के पास अपनी-अपनी अलग होती है, तो फिर पंडितों और मौलवियों को कौन पूछे? यह भी नहीं कि दूसरे की कसौटी - गैर की तराजू - दूसरे के काम आए। यहाँ तो अपनी-अपनी ही बात है। यहाँ 'अपनी-अपनी डफली, अपनी-अपनी गीत' है। फलत: परमुखापेक्षिता के लिए स्थान रही नहीं जाता। सोलह आना स्वावलंबन ही उसकी जगह ले लेता है। तब धर्म के नाम पर झमेले और झगड़े भी क्यों होंगे?
गीता का साम्यवाद
गीता में समता या साम्यवाद की भी बात है और उसे लेके बहुत लोग मार्क्सवादी साम्यवाद को खरी-खोटी सुनाने लगते हैं। उनके जानते मार्क्स का साम्यवाद भौतिक होने के कारण हलके दर्जे का है, तुच्छ है गीता के आध्यात्मिक साम्यवाद के मुकाबिले में। वह तो यह भी कहते हैं कि हमारा देश धर्मप्रधान एवं धर्मप्राण होने के कारण भौतिक साम्यवाद के निकट भी न जाएगा। यह तो आध्यात्मिक साम्यवाद को ही पसंद करेगा। असल में इस युग में जो साम्यवाद की हवा बह निकली है उसी से घबरा के यह बातें उसी के जवाब में कही जाती हैं। उस तरह की दूसरी चीज न रहने पर तो लोग खामख्वाह उधर ही झुकेंगे। इसीलिए गीता की यह बात लोगों के सामने ला खड़ी कर दी जाती है, ताकि स्वभावत: लोग इधर ही आकृष्ट हों और दूसरे साम्यवाद का खतरा न रह जाए। खूबी तो यह है कि जिन्हें अध्यात्मवाद से लाख कोस दूर रहना है वह भी गीता की यही बात रटते फिरते हैं! उनके स्थाई स्वार्थों को भौतिक साम्यवाद से बहुत बड़ा खतरा होने के कारण ही वे गीता का नाम लेके टट्टी की ओट से शिकार खेलते हैं। हर हालत में इस चीज पर प्रकाश डालना जरूरी है।
असल में गीता में प्राय: बीस जगह या तो सम शब्द का प्रयोग मिलता है या उसी के मानी में तुल्य जैसे शब्द का प्रयोग। दूसरे अध्यायय के 38वें तथा 48वें, चौथे के 22वें, पाँचवें के 18-19वें, छठे के 8, 9, 13, 29, 32, 33वें, नवें के 29वें, बारहवें के 13, 18वें, तेरहवें के 9, 27, 28वें, चौदहवें के 24वें तथा अठारहवें के 54वें श्लोकों में सम, समत्व या साम्य शब्द आया है। किसी-किसी श्लोक में दो बार भी आया है। चौदहवें के 24वें श्लोक में सम के साथ ही तुल्य शब्द भी आया है और 25वें में सिर्फ तुल्य शब्द ही दो बार मिलता है। इनमें केवल छठे के 13वें श्लोक वाला सम शब्द 'सीधा' (Straight) के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। इसलिए उसका साम्यवाद से कोई भी ताल्लुक नहीं है। शेष सम शब्दों या उन्हीं के अर्थ में प्रयुक्त तुल्य शब्दों का साम्यवाद से संबंध जरूर जुट जाता है। यदि असक्त, अनासक्त, परित्यागी या परित्याग आदि शब्दों को, जो सम के ही अर्थ में - उसी अभिप्राय से ही - प्रयुक्त हुए हैं, भी इसी सिलसिले में गिन लें; तब तो गीता के अंग-प्रत्यंग में यह बात पाई जाती है, यही मानना पड़ेगा। कर्म के विश्लेषण और इस समत्व या साम्यवाद का ऐसा संबंध है कि दोनों एक दूसरे के बिना रही नहीं सकते।
अब देखना है कि गीता की यह समता, उसका यह समत्व, समदर्शन या साम्यवाद है क्या चीज। जब तक उसकी असलियत और रूपरेखा का ही पता हमें न हो उसकी तुलना भौतिक साम्यवाद के साथ कर कैसे सकते हैं? तब तक हमें यह भी कैसे पता लग सकता है कि कौन भला, कौन बुरा है? यदि भला या बुरा है तो भी किस दृष्टि से, यह भी तो तभी जान सकते हैं। हरेक चीज हर दृष्टि से तो कभी भी अच्छी या बुरी होती नहीं। आखिर पदार्थों के पहलू तो होते ही हैं और उन्हें हर पहलू से अलग-अलग देखना जरूरी हो जाता है, यदि किसी और के साथ मिलान या तुलना करना हो। यही कारण है कि गीता के समदर्शन या साम्यवाद के हर पहलू पर प्रकाश डालना और विचार करना आवश्यक है।
जैसा कि पहले भी कहा गया है, गीता का साम्यवाद, समदर्शन, समत्वबुद्धि या साम्ययोग तो दिल-दिमाग की ही दशा विशेष है। दरअसल यूरोप में हीगेल आदि दार्शनिकों ने जिस विचारवाद या आइडियलिज्म (Idealism) को प्रश्रय दिया और उसका समर्थन किया है वह बहुत कुछ गीता के समदर्शन से मिलता-जुलता है। यह भी नहीं कि यह कोरी मानसिक अवस्था विशेष है जिसे ज्ञान की एक विलक्षण कोटि या दशा कह सकते हैं। निस्संदेह पाँचवें अध्याय के 18-19 - दो - श्लोकों में जो कुछ कहा है वह तो दर्शन या ज्ञानात्मक ही है। क्योंकि वहाँ साफ ही लिखा है कि पंडित लोग समदर्शी होते या सम नाम की चीज को ही देखते हैं, 'पंडिता: समदर्शिन:', 'साम्ये स्थितं मन:।' छठे अध्याय के 8-9 श्लोकों में भी 'समलोष्ठाश्मकांचन:', 'समबुद्धिर्विशिष्यते' के द्वारा कुछ ऐसा ही कहा है। हालाँकि 'समलोष्ठाश्मकांचन:' का व्यापक भाव माना जाता है जो आगे बताया जाएगा। यही बात उस अध्याय के 32-33 श्लोकों में भी है। क्योंकि 32वें में 'समं पश्यति' लिखा गया है और उसी का उल्लेख 33वें में है। यद्यपि तेरहवें अध्याय के 9वें श्लोक में यह बात इतनी स्पष्ट नहीं है और उसका दूसरा आशय भी संभव है; तथापि 27-28 दो श्लोकों में 'पश्यति' एवं 'पश्यन्' शब्दों के द्वारा उसे ज्ञान ही बताया है। बस।
नकाब और नकाबपोश
इसका आशय यह है कि जिस तरह स्वाँग बनानेवाले की बाहरी वेशभूषा के रहते हुए भी समझदार आदमी उससे धोखे में नहीं पड़ता है; किंतु असली आदमी को पहचानता और देखता रहता है; ठीक यही बात यहाँ भी है। संसार के पदार्थों का जो बाहरी रूप नजर आता है उसे विवेकी या गीता का योगी एकमात्र नट, नर्त्तक या स्वाँग बनानेवाले की बाहरी वेशभूषा ही मानता है। इसलिए इन सभी बाहरी आकारों के भीतर या पीछे किसी ऐसी अखंड, एकरस, निर्विकार - सम - वस्तु को देखता है जो उसकी अपनी आत्मा या ब्रह्म ही है। उसे समस्त दृश्य भौतिक संसार उसी आत्मा या ब्रह्म की नटलीला मात्र ही बराबर दीखता है। वह तो इस नटलीला की ओर भी दृष्टि न करके उसी सम या एक रस पदार्थ को ही देखता है वह जो बाहरी परदा या नकाब है उसे वह उतार फेंकता है और परदानशीन या नकाबपोश को हू-ब-हू देखता रहता है।
नरसी मेहता एक ज्ञानी भक्त हो गए हैं। उनकी कथा बहुत प्रसिद्ध है। कहते हैं कि वह एक बार कहीं से आटा और घी माँग लाये। फिर घी को अलग किसी पात्र में रख के कुछ दूर पानी के पास आटा गूँध के रोटी पकाने लगे। जब रोटी तैयार हो गई तो सोचा कि घी लगा के भगवान को भोग लगाऊँ और यज्ञशिष्ट या प्रसाद स्वयं ग्रहण करूँ। बेशक, आजकल के नकली भक्तों की तरह ठाकुरजी की मूर्ति तो वह साथ में बाँधे फिरते न थे। वे थे तो बहुत पहुँचे हुए मस्तराम। उनके भगवान तो सभी जगह मौजूद थे। खैर, उनने रोटियाँ रख के घी की ओर पाँव बढ़ाया और उसे लेके जो उलटे पाँव लौटे तो देखा के एक कुत्ता रोटियाँ लिए भागा जा रहा है! फिर क्या था? कुत्ते के पीछे दौड़ पड़े। कुत्ता भागा जा रहा है बेतहाशा और नरसी उसके पीछे-पीछे हाथ में घी लिए आरजूमिन्नत करते हुए हाँफते-हाँफते दौड़े जा रहे हैं कि महाराज रूखी रोटियाँ गले में अटकेंगी। जरा घी तो लगा देने दीजिए! मुझे क्या मालूम कि आप इतने भूखे हैं कि घी लगाने भर की इंतजार भी बरदाश्त नहीं कर सकते। यदि मुझे ऐसा पता होता तो और सवेरे ही रोटियाँ बना लेता! अपराधा क्षमा हो! अब आगे ऐसी गलती न होगी! कृपया रुक जाइये, आदि-आदि। बहुत दौड़-धूप के बाद तब कहीं कुत्ता रुका और नरसी ने भगवान के चरण पकड़े!
नरसी को तो असल में कुत्ता नजर आता न था। कुत्ते की शकल तो बाहरी नकाब थी, ऊपरी परदा था। वह तो नकाब को फाड़ के उसके भीतर अपने भगवान को ही देखते थे। उनकी आँखें तो दूसरी चीज देख पाती न थीं। उनके लिए सर्वत्र सम ही सम था, सर्वत्र उनकी आत्मा ही आत्मा थी, ब्रह्म ही ब्रह्म था। नटलीला का परदा वह भूल चुके थे - देखते ही न थे। यदि किसी वैज्ञानिक के सामने पानी लाइये तो वह उसमें और ही कुछ देखता है। उसकी दूरदर्शी एवं भीतर घुसनेवाली - परदा फाड़ डालनेवाली आँखें उसमें सिवाय ऑक्सीजन और हाइड्रोजन (Oxygen and Hydrogen) नामक दो हवाओं की खास मात्राओं के और कुछ नहीं देखती हैं, हालाँकि सर्वसाधारण की नजरों में वह सिर्फ पानी है, दूसरा कुछ नहीं। वैज्ञानिक की भी स्थूल दृष्टि पानी देखती है, यदि उसे वह मौका दे। नहीं तो वह भी देख नहीं पाती। मगर सूक्ष्म दृष्टि - और वही यथार्थ दृष्टि है - तो उस दृश्य जल को न देख अदृश्य वायुवों को ही देखती है। यही दशा नरसी की थी। यही दशा गीता के योगी या समदर्शी की भी समझिए।
यदि नौ मन बालू के भीतर दो-चार दाने चीनी के मिला दिए जाएँ तो हमारी तेज से तेज आँखें भी उनका पता लगा न सकेंगी, चाहे हम हजार कोशिश करें। मगर चींटी? वह तो खामख्वाह ढूँढ़-ढाँढ़ के उन दानों तक पहुँची जाएगी। उसे कोई रोक नहीं सकता। समदर्शी भक्तों की भी यही दशा होती है। जिस प्रकार चींटी की लगन तथा नाक तेज और सच्ची होने के कारण ही वह चीनी के दानों तक अवश्य पहुँचती और उनसे जा मिलती है; बालू का समूह जो उन दानों और चींटी के बीच में पड़ा है उसका कुछ कर नहीं सकता; ठीक वही बात ज्ञानी एवं समदर्शी प्रेमीजनों की होती है। उनके और भगवान के बीच में खड़े ये स्थूल पदार्थ हर्गिज उन्हें रोक नहीं सकते। शायद किसी विशेष ढंग का एक्सरे (X-ray) या खुर्दबीन उन्हें प्राप्त हो जाता है। फिर तो शत्रु-मित्र, मिट्टी-पत्थर, सोना, सुख-दु:ख, मानापमान आदि सभी चीजों के भीतर उन्हें केवल सम ही सम नजर आता है। परदा हट जो गया, नकाब फट जो गई है। यही है गीता के साम्यवाद के समदर्शन का पहलू और यही है उस ज्ञान की दशाविशेष।
रस का त्याग
मगर यह तो एक पहलू हुआ। मन या बुद्धि का पदार्थों के साथ संबंध होने पर भी उनके बाहरी या भौतिक आकार एवं रूप की छाप उन पर लगने न पाए और ये इन पदार्थों के इन दृश्य आकारों एवं रूपों से अछूते रह जाएँ, यह तो समदर्शन या गीता के साम्यवाद का केवल एक पहलू हुआ। उसका दूसरा पहलू तो अभी बाकी ही है और गीता ने उस पर काफी जोर दिया है। वही तो आखिरी और असली चीज है। इस पहले पहलू का वही तो नतीजा है और यदि वही न हो तो अंततोगत्वा यह एक प्रकार से या तो बेकार हो जाता है या परिश्रम के द्वारा उस दूसरे को संपादन करने में प्रेरक एवं सहायक होता है। यही कारण है कि गीता में पहले की अपेक्षा उसी पर अधिक ध्यान दिया गया है।
बात यों होती है कि मन का भौतिक पदार्थों से संसर्ग होते ही उनकी मुहर उस पर लग जाती है, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार फोटोग्राफी में फोटोवाली पटरी या शीशे पर सामने वाले पदार्थों की। सहसा देखने से यह पता नहीं चलता कि सचमुच उस शीशे पर सामने की वस्तु की छाप लगी है; हालाँकि वह होती है जरूर। इसीलिए तो उसे स्पष्ट करने के लिए पीछे यत्न करना पड़ता है। मन या बुद्धि पर भी लगी हुई पदार्थों की छाप प्रतीत नहीं होती। क्योंकि वे तो अदृश्य हैं - अत्यंत सूक्ष्म हैं। मन या बुद्धि को देख तो सकते नहीं। उनका काम है पदार्थों की छाप या प्रतिबिंब लेके बाहर का अपना काम खत्म कर देना और भीतर लौट आना।
मगर भीतर आने पर ही तो गड़बड़ पैदा होती है। मन ने बाहर जाके पदार्थों को प्रकट कर दिया - जो चीजें अज्ञान के अंधकार में पड़ी थीं उन्हें ज्ञान के प्रकाश में ला दिया। अब उन चीजों की बारी आई। उनकी छाप के साथ जब मनीराम (मन) भीतर घुसे तो उन पदार्थों ने अब अपना तमाशा और करिश्मा दिखाना शुरू किया। जहाँ पहले भीतर शांति-सी विराज रही थी, तहाँ अब ऊधम और बेचैनी - उथल-पुथल - शुरू हो गई! मालूम होता है, जैसे बिरनी के छत्ते में किसी ने कोई चीज घुसेड़ दी और पहले जो वे भीतर चुपचाप पड़ी थीं भनभना के बाहर निकल आईं। किसी छूतवाली या संक्रामक बीमारी को लेके जब कोई किसी घर या समाज में घुसता है तो एक प्रकार का आतंक छा जाता है, चारों ओर परेशानी छा जाती है और वह छूत की बीमारी जानें कितनों को तबाह करती है। मन पर अपनी मुहर लगा के जब भौतिक पदार्थ उसी रूप में मन के साथ भीतर - शरीर में - घुसते हैं तो ठीक संक्रामक रोग की-सी बात हो जाती है और भीतर की शांति भंग हो जाती है। वह मन अंग-प्रत्यंग में अपनी उस छाप का असर डालता है। या यों कहिए कि मन के द्वारा बाहरी भौतिक पदार्थ ही ऐसा करते हैं। फलत: हृदय या दिल पूर्ण रूप से प्रभावित हो जाता है। दिल का काम तो खोद-विनोद करना या जानना है नहीं। वह तो ऊँट की पकड़ पकड़ता है। जब उस पर भौतिक पदार्थों का प्रभाव इस प्रकार हुआ तो वह उन्हें जैसे का तैसा पकड़ लेता और परेशान होता है। यदि उसमें विवेक शक्ति होती तो उनसे भाग जाता। मगर सो तो है नहीं, और जिस मन और बुद्धि में यह शक्ति है उनने तो खुद ही यह काम किया है - बाहरी पदार्थों के भीतर पहुँचाया है, या कम से कम उनके कीटाणुओं को ही। फिर हो क्या?
पहले भी कहा जा चुका है कि भौतिक पदार्थ खुद कुछ कर नहीं सकते - ये बुरा-भला कर नहीं सकते, सुख-दु:ख दे नहीं सकते। किंतु मन में जो उनका रूप बन जाता है वही सुख-दु:खादि का कारण होता है। इस बात का विशेष रूप से विवरण ऊपर की पंक्तियों से हो जाता है। जब मन पर भौतिक पदार्थों की छाप पड़ती है तो उसमें एक खास बात पाई जाती है। पहले भी कहा जा चुका है कि उदासीन या लापरवाह आदमी को ये पदार्थ बुरे-भले नहीं लगते। क्योंकि उसके मन पर इनकी मुहर लग पाती नहीं। उनका मन बेलाग जो होता है। जिनके मन में लाग होती है, जिसे लस बोलते हैं, उन्हीं की यह दशा होती है। इसी लाग को गीता ने रस कहा है 'रसवर्जं रसोऽप्यस्य' (2। 59) श्लोक में। राग-द्वेष या काम, क्रोध के नाम से भी इसी चीज को बार-बार याद किया है। यही लाग या रागद्वेष - रस - सब तूफानों का मूल है। यदि यह न हो तो सारी बला खत्म हो जाए। गीता ने इस रस को खत्म करने पर इसीलिए काफी जोर भी दिया है।
अब हालत यह होती है कि भौतिक पदार्थों के इस प्रकार भीतर पहुँचते ही मैं, मेरा, तू, तेरा, अपना-पराया, शत्रु-मित्र, हित-अहित, अहंता-ममता आदि का जमघट लग जाता है - भीतर इनका बाजार गर्म हो जाता है। जैसे मांस का टुकड़ा देखते ही, उसकी गंध पाते ही गीध, चील, कौवे आदि रक्तपिपासु पक्षियों की भीड़ लग जाती है और वे इर्द-गिर्द-मँडराने लगते हैं; ठीक वही बात यहाँ भी हो जाती है। मैं-तू, मेरा-तेरा, शत्रु-मित्र आदि जो जोड़े हैं - द्वन्द्व हैं - वे जम के एक प्रकार का आपसी युद्ध - एक तरह की कुश्ती - मचा देते हैं और कोई किसी की सुनता नहीं। ये द्वन्द्व होते हैं बड़े ही खतरनाक। ये तो फौरन ही आपस में हाथापाई शुरू कर देते हैं। पहलवानों की कुश्ती में जैसे अखाड़े की धूल उड़ जाती है इनकी कुश्ती में ठीक उसी प्रकार मनुष्य के दिल की दुर्दशा हो जाती है, एक भी फजीती बाकी नहीं रहती। फिर तो सारे तूफान शुरू होते हैं। इसी के बाद बाहरी लड़ाई-झगड़े जारी हो जाते हैं, हाय-हाय मच जाती है। बाहर के झगड़े-झमेले इसी भीतरी कुश्तम-कुश्ता के ही परिणाम हैं। नतीजा यह होता है कि मनुष्य का जीवन दु:खमय हो जाता है। क्योंकि इन भीतरी कशमकशों का न कभी अंत होता है और न बाहरी शांति मिलती है। भीतर शांति हो तब न बाहर होगी?
गीता के आध्यात्मिक साम्यवाद की आवश्यकता यहीं पर होती है। वह इसी भीतरी कशमकश और महाभारत को मिटा देता है, ताकि बाहर का भी महायुद्ध अपने आप मिट जाए। ज्योंही मन बाहरी पदार्थों की छूत भीतर लाए या लाने की कोशिश करे, त्योंही उसका दरवाजा बंद कर देना यही उस साम्यवाद का दूसरा पहलू है। इसके दोई उपाय हैं। या तो मन में भौतिक पदार्थों की छूत लगने पाए ही न, जैसा कि समदर्शन वाले पहलू के निरूपण के सिलसिले में कहा जा चुका है। तब तो सारी झंझट ही खत्म हो जाती है। और अगर लगने पाए भी, तो भीतर घुसते ही मन को ऐसी ऊँची सतह या भूमिका में पहुँचा दें कि वह अकेला पड़ जाए और कुछ करी न सके; जिस प्रकार छूतवाले को दूर के स्थान में अलग रखते हैं जब तक उसकी छूत मिट न जाए। मन को ध्यान, धारणा या चिंतन की ऐसी ऊँची एवं एकांत अट्टालिका में चढ़ा देते हैं कि वह और चीजें देख सकता ही नहीं। अगर उसे किसी चीज में फँसा दें तो दूसरी को देखेगा ही नहीं। उसका तो स्वभाव ही है एक समय एक ही में फँसना। कहते हैं कि ब्रज में गोपियों को जब ऊधव ने ज्ञान और निराकार भगवान के ध्यान का उपदेश दिया तो उनने चट उत्तर दे दिया कि मन तो एक ही है और वह चला गया है कृष्ण के साथ। फिर ध्यान किससे किया जाए? 'इक मन रह्यो सो गयो स्याम संग कौन भजै जगदीस?' यही बात यहाँ हो जाती है और सारी बला जाती रहती है।
मस्ती और नशा
दूसरा उपाय मन की मस्ती है, पागलपन है, नशा है। चौबीसों घंटे बेहोश बनी रहती है। जिसे प्रेम का प्याला या शौक की शराब कहा है उसी का नशा दिन-रात बना रहता है। बाहरी संसार का खयाल कभी आता ही नहीं। असल में तो यह बात होती है हृदय में, दिल में। यह मस्ती मन का काम न होके दिल की ही चीज है। मन तो बड़ा ही नीच है, लंपट है। उसे तो किसी चीज में जबर्दस्ती बाँध रखना होता है। मगर दिल तो गंगा की धारा है, बहता दरिया है जिसका जल निर्मल है। उसी में यह मस्ती आती है, यह पागलपन होता है, यह नशा रहता है और वही मन को मजबूर कर देता है कि चुपचाप बैठ जाए, नटखटी या शैतानियत न करे। इसीलिए इसे मन की भी मस्ती कहा करते हैं। खतरनाक फोड़े के चीरने-फाड़ने के समय डॉक्टर लोग मनुष्य को क्लोरोफार्म के प्रभाव से बेहोश कर देते हैं; ताकि उसे चीर-फाड़ का पता ही न चले। उसका मन कहीं जाता नहीं - किसी चीज में बँधा जाता नहीं। किंतु निश्चेष्ट और निष्क्रिय हो जाता है, उसकी सारी हरकतें बंद हो जाती हैं, जैसे मुर्दा हो गया हो। यही बात मस्ती की दशा में भी मन की होती है। जब दिल अपने रंग में आता है और प्रेम के प्याले में लिपट जाता है तो गोया मन को क्लोरोफार्म दे दिया और वह मुर्दा बन जाता है। फिर तो कुछ भी कर नहीं सकता। दिल की इसी दशा को साम्यावस्था या साम्ययोग कहते हैं। मन की छूत का ऐसी दशा में न दिल पर असर होता है और न आगे वाला तूफान चालू होता है। जब डंक का ही असर न हो तो हायतोबा, चिल्लाहट और रोने-धोने या मरने का सवाल ही कहाँ?
इस दशा में भीतर की शांति ज्यों कि त्यों अखंड बनी रह जाती है। हृदय की गंभीरता (Serenity) नहीं टूटती और कोई खलबली मचने पाती नहीं। जब बाहरी चीजों का उस पर असर होता ही नहीं तो शांतिभंग हो कैसे? चट्टान से टकरा के जैसे लहरें लौट जाती हैं; छिन्न-भिन्न हो जाती हैं, ठीक यही हालत मन के द्वारा भीतर आनेवाले भौतिक पदार्थों की होती है। वे कुछ कर पाते नहीं। फलत: अपने-पराए, शत्रु-मित्र, हानि-लाभ, बुरे-भले का द्वन्द्व भीतर हो पाता नहीं। वहाँ तो सभी चीजें एक-सी ही रह जाती हैं। जब उनका असर ही नहीं हो पाता तो क्या कहा जाए कि कैसी हैं? इसीलिए उन्हें एक-सी कहते हैं। वे खुद एक-सी बन तो जाती हैं नहीं। मगर जब उनकी विभिन्नता का, उनके भले-बुरेपन का अनुभव होता ही नहीं तो, उन्हें समान, सम या तुल्य कहने में हर्ज हई क्या? यही बात गीता ने भी कही है। और जब भीतर असर हुआ ही नहीं तो बाहरी महाभारत की तो जड़ ही कट गई। वह तो भीतरी घमासान का ही प्रतिबिंब होता है न?
दूसरे अध्याय में सुख-दु:खादि परस्पर विरोधी जोड़ों - द्वन्द्वों - को सम करने की जो बात 'सुखदु:खे समेकृत्वा' (2। 38) आदि के जरिए कही गई है और 'सिद्धयसिद्धयो: समो भूत्वा' (2। 48) में जो काम के बनने-बिगड़ने में एकरस - लापरवाह - बने रहने की बात कही गई है, वह यही मस्ती है। चौथे अध्याय के 'सम: सिद्धावसिद्धौ च' (22) में भी यही चीज पाई जाती है। छठे के 'लोहा, पत्थर, सोना को समान समझता है' - 'समलोष्ठाश्मकांचन:' (8) का भी यही अभिप्राय है। नवें में जो यह कहा है कि 'मैं तो सबके लिए समान हूँ, न मेरा शत्रु है न मित्र' - 'समोऽहंसर्वभूतेषु न मे द्वेषयोऽस्ति न प्रिय:' (29) वह भी इसी का चित्रण है। बारहवें में जो 'अहंता-ममता से शून्य, क्षमाशील और सुख-दु:ख में एकरस' - 'निर्ममो निरहंकार: सम-दु:खसुख: क्षमी' (13), कहा है तथा जो 'शत्रु-मित्र, मान-अपमान, शीत-उष्ण, सुख-दु:ख में एक-सा लापरवाह रहे और किसी चीज में चिपके नहीं' - "सम: शत्रौ च मित्रो च तथा मानापमानयो:। शीतोष्णसुखदु:खेषु सम: संगविवर्जित:" (18) कहा है, वह इसी चीज का विवरण है। चौदहवें के 24-25 श्लोकों में 'समदु:खसुख: स्वस्थ:' आदि जो कुछ कहा है वह भी यही चीज है। यहाँ जो 'स्वस्थ:' कहा है उसका अर्थ है 'अपने आपमें स्थिर रह जाना।' यह उसी मस्ती या पागलपन की दशा की ही तरफ इशारा है। अठारहवें अध्याय के 54वें श्लोक में भी इसी बात का एक स्वरूप खड़ा कर दिया है 'ब्रह्मभूत: प्रसन्नात्मा' आदि शब्दों के द्वारा। यों तो जगह-जगह यही बात कही गई है; हालाँकि सर्वत्र सम शब्द नहीं पाया जाता।
ज्ञानी और पागल
जनसाधारण को यह सुन के आश्चर्य होगा कि यह क्या बात है कि जो परले दर्जे का तत्त्वज्ञानी हो वही पागल भी हो और बाहरी सुध-बुध रखे ही न। मगर बात तो ऐसी ही है। वामदेव, जड़भरत आदि की ऐसी बातें बराबर कही जाती हैं भी, यही नहीं कि हिंदुओं के ही यहाँ यह चीज पाई जाती है, या गीता ने ही यही बात 'या निशा सर्वभूतानां' (2। 69) में कही है, या सुरेश्वराचार्य ने अपने वार्त्तिक में खुल के कह दिया है कि 'बुद्धतत्त्वस्य लोकोऽयं जड़ोन्मत्तपिशाचवत्। बुद्धतत्तवोऽपि लोकस्य जड़ोन्मत्तपिशाचवत्' - ''पहुँचे हुए तत्त्वज्ञानी की नजरों में यह सारी दुनिया जड़, पागल और पिशाच जैसी है और दुनिया की नजरों में वह भी ऐसा ही है।' किंतु प्राचीनतम ग्रीक विद्वान अरिस्टाटिल (अरस्तू) ने भी प्राय: ढाई हजार साल पूर्व यही बात अपनी पुस्तक 'जीवन की बुद्धिमत्ता' (Wisdom of life) में यों कही है :-
'Men distinguished in philosophy, politics, poetry or art appear to be all of a melancholy temperament.' (page. 19)
'By a diligent search in lunatic asylums I have found individual cases of patients who were unquestionably endowed with great talents, and whose genius distinctly appeared through their madness' (I, 247).
'जिन लोगों ने दर्शन, राजनीति, कविता या कला में विशेषज्ञता प्राप्त की है उन सबों का ही स्वभाव कुछ मनहूस जैसा रहा है।' 'पागलखानों में यत्नपूर्वक अंवेषण करने पर हमने ऐसे भी पागल पाए हैं जिनका दिमाग निस्संदेह आले दर्जे का था और पागलपन की दशा में भी उनकी चमत्कारशील प्रतिभा साफ झलकती थी।' पश्चिमी दर्शनों का इतिहास का लेखक दुरान्ती (Duranti) भी लिखता है कि 'The direct connection of madness and genius is established by the biographics of great men, such as Rousseau, Byron, Alfieri etc.'
'पागलपन और प्रतिभा का सीधा संबंध स्थापित हो जाता है यदि हम रूसो, बायरन, आलफीरी जैसे महापुरुषों की जीवनियाँ गौर से पढ़ें।'
पुराने समाज की झाँकी
बेशक, इस जमाने में यह बात ताज्जुब की मालूम होगी चाहे हजार पुराने दृष्टांत दिए जाएँ, या महापुरुषों के वचन उद्धृत किए जाएँ। आज तो ऐसे लोग नजर आते ही नहीं। जीते-जी सदा के लिए हमारी माया-ममता मिट जाए और हम किसी को भी शत्रु-मित्र न समझें, यह बात तो इस संसार में इस समय अचंभे की चीज जरूर है। गीता ने इस पर मुहर दी है अवश्य। मगर इससे क्या? दिमाग में भी तो आखिर बात आए। ज्यों-ज्यों सभ्यता का विकास होता जाता है, मालूम होता है, यह बात भी त्यों-त्यों दूर पड़ती और असंभव-सी होती जाती है। असल में दिन पर दिन हम इतना ज्यादा भौतिक पदार्थों में लिपटते जाते हैं कि कोई हद नहीं। इसीलिए यह बात असंभव हो गई है। मगर पुराने जमाने के समाज में माया-ममता का त्याग इतना कठिन न था। गीता ने जिस समय यह बात कही है उस समय यह बात इतनी कठिन बेशक नहीं थी। उस समय का समाज ही कुछ ऐसा था कि यह बात हो सकती थी। और तो और, यदि हम बर्बर एवं असभ्य कहे जाने वाले लोगों का प्रामाणिक इतिहास पढ़ें तो पता लग जाएगा कि उनके लिए यह बात कहीं आसान थी। उनकी सामाजिक परिस्थिति तथा रहन-सहन ही ऐसी थी कि वे आसानी से इस ओर अग्रसर हो सकते थे।
जीसुइत संप्रदायवादी शारलेवो नामक फ्रांसीसी पादरी ने एक पुस्तक लिखी है जिसका नाम है 'हिस्तोरिया द ला नूवेल फ्रांस' (Historia dela Nouvelle France)। वह अमेरिका के रक्तवर्ण आदि वासियों में घूमता और प्रचार करता था। उसने तथा लहोतन नामक विचारशील पुरुष ने अपने अनुभव एवं दूसरों को भी जानकारी के आधार पर उस पुस्तक के अनेक पृष्ठों में उन असभ्य रक्तवर्ण लोगों के बारे में लिखा है, जिसे पाल लाफार्ग ने अपनी (Evolution of Property) के 32-33 पृष्ठों में यों उद्धृत किया है:-
'The brotherly sentiments of the Redskins are doubtless in part, ascribable to the fact that the words 'mine and thine', 'those cold words;' as Saint John Chrysostomos calls them, are all unknown as yet to the savages. The protection they extend to the orphans, the widows and the infirm, the hospitality which they exercise in so admirable a manner, are, in their eyes, but a consequece of the conviction which they hold that all things should be common to all men.'
'The free thinker Lahotan saya in his 'Voyage de Lahetan II,' Savages do not distinguish between mine and thine, for it may be affirmed that what belongs to the one belongs to the other. It is only among the Christain savages, who dwell at the gates of cities, that money is in use. The other will neither handle it nor even look upon it. They call it : the serpent of the white-men. They think it strange that some should possess more than others, and that those who have most should be more highly esteened than those who have least. They neither quarrel nor fight among themselves; they neither rob nor speak ill of one another.'
'बेशक रक्तवर्ण असभ्य लोगों में जो परस्पर भ्रातृभाव पाया जाता है वह किसी हद तक इसीलिए है कि उन लोगों को अब तक 'मेरा और तेरा' का ज्ञान हई नहीं - वही 'मेरा' और 'तेरा', जिन्हें महात्मा जौन्क्रिसोस्तमो ने 'ठंडे शब्द' ऐसा कहा है। अनाथों, विधावाओं एवं कमजोरों की रक्षा वे लोग जिस तरह करते हैं और जिस प्रशंसनीय ढंग से वे लोग आगंतुकों का आदर-सत्कार करते हैं वह उनकी नजरों में इसलिए अनिवार्य और स्वाभाविक है कि उनका विश्वास है कि संसार की सभी चीजें सभी लोगों की हैं।'
'स्वतंत्र विचारक लहोतन ने अपनी 'द्वितीय लहोतन की समुद्रयात्रा' पुस्तक में लिखा है कि असभ्य लोगों में 'मेरे' और 'तेरे' का भेद होता ही नहीं। क्योंकि यह बात उनमें देखी जाती है कि जो चीज एक ही है वही दूसरे की भी है। जो असभ्य लोग क्रिस्तान हो गए हैं और हमारे शहरों के पास रहते हैं केवल उन्हीं लोगों में रुपये-पैसे का प्रचार पाया जाता है। शेष असभ्य न तो रुपया-पैसा छूते और न उनकी ओर ताकते तक हैं। उन्हें यह बात विचित्र लगती है कि कुछ लोगों के पास ज्यादा चीजें होती हैं बनिस्बत औरों के, और जिनके पास ज्यादा हैं उनकी ज्यादा इज्जत होती है बनिस्बत कम रखने वालों के। वे असभ्य न तो आपस में झगड़ते और न लड़ते हैं। वे न तो किसी की चीज चुराते और न एक दूसरे की शिकायत ही करते हैं।'
कितनी आदर्श स्थिति है! कैसी उच्च भावनाएँ हैं! खूबी तो यह है कि ये लोग निरे अपढ़ और निरक्षर हैं! यह ठीक है कि सभ्यता की हवा उन्हें लगी नहीं है। आज से डेढ़ सौ वर्ष पहले तक जिनने उनकी यह बातें खुद देखी हैं उन्हीं के ये बयान हैं, न कि हजार-दो हजार साल पहले वालों के! इसलिए जो लोग ऐसा समझते हैं कि अहंता-ममता के त्याग की बातें कोरी गप्पबाजी है उन्हें होश संभालना चाहिए। वे आँखें खोलें और देखें कि हकीकत क्या है। पुरानी पोथियों में जो बातें ऋषि-मुनियों के लिए, आदर्श एवं वांछनीय मानी गई हैं वही असभ्य लोगों में पाई जाती हैं! बेशक, इस मामले में हम सभ्यों से वे असभ्य ही भले हैं! हमने तो अपने-पराए के इस मर्ज के चलते समूचे समाज को ही नरक बना डाला है - सारे संसार को जलती भट्ठी जैसा कर दिया है!
तब और अब
लेकिन अब हम अपने प्रसंग में आते हैं तो देखते हैं कि गीता का जो आध्यात्मिक साम्यवाद है और जिसकी दुहाई आज बहुत ज्यादा दी जाने लगी है, वह इस युग की चीज हो नहीं सकती, वह जनसाधारण की वस्तु हो नहीं सकती। बिरले माई के लाल उसे प्राप्त कर सकते हैं। इसी कठिनता को लक्ष्य करके कठोपनिषद् में कहा गया है कि 'बहुतों को तो इसकी चर्चा सुनने का भी मौका नहीं लगता और सुनकर भी बहुतेरे इसे हासिल नहीं कर सकते - जान नहीं सकते। क्यों कि एक तो इस बात का पूरा जानकार उपदेशक ही दुर्लभ है और अगर कहीं मिला भी तो उसके उपदेश को सुनके तदनुसार प्रवीण हो जाने वाले ही असंभव होते हैं' - ''श्रवणायापि बहुभिर्यो न लभ्य: शृण्वन्तोऽपि बहवो यं न विद्यु:। आश्चर्यो वक्ता कुशलोऽस्य लब्धाऽऽश्चर्यो ज्ञाता कुशलानुशिष्ट:'' (1। 2। 7) यही बात ज्यों की त्यों गीता ने भी कुछ और भी विशद रूप से इसकी असंभवता को दिखाते हुए यों कही है कि 'आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेनमाश्चर्यवद्वदति तथैव चान्य:। आश्चर्यवच्चन मन्य: शृणोति श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित्' (2। 29)।
पहले भी तो इस चीज की अव्यावहारिकता का वर्णन किया जाई चुका है। आमतौर से सांसारिक लोगों के लिए तो यह चीज पुराने युग में भी कठिनतम थी - प्राय: असंभव थी ही। मगर वर्तमान समय में तो एकदम असंभव हो चुकी है। जो लोग इसकी बार-बार चर्चा करते तथा मार्क्स के भौतिक साम्यवाद के मुकाबिले में इसी आध्यात्मिक साम्यवाद को पेश करके इसी से लोगों को संतोष करना चाहते हैं वे तो इससे और भी लाखों कोस दूर हैं। वे या तो पूँजीवादी और जमींदार हैं या उनके समर्थक और इष्ट-मित्र या संगी-साथी। क्या वे लोग सपने में भी इस चीज की प्राप्ति का खयाल कर सकते हैं, करते हैं? क्या वे मेरा-तेरा, अपना-पराया, शत्रु-मित्र, हानि-लाभ आदि से अलग होने की हिम्मत जन्म-जन्मांतर भी कर सकते हैं? क्या यह बात सच नहीं है कि उनको जो यह भय का भूत सदा सता रहा है कि कहीं भौतिक साम्यवाद के चलते उन्हें सचमुच हानि-लाभ, शत्रु-मित्र आदि से अलग हो जाना पड़े और सारी व्यक्तिगत संपत्ति से हाथ धोना पड़ जाए, उसी के चलते इस आध्यात्मिक साम्यवाद की ओट में अपनी संपत्ति और कारखाने को बचाना चाहते हैं? वे लोग बहुत दूर से घूम के आते हैं सही। मगर उनकी यह चाल जानकार लोगों में छिप नहीं सकती है। ऐसी दशा में तो यह बात उठाना निरी प्रवंचना और धोखेबाजी है। पहले वे खुद इसका अभ्यास कर लें। तब दूसरों को सिखाएँ। 'खुदरा फजीहत, दीगरे रा नसीहत' ठीक नहीं है।
मुकाबिला भी वे करते हैं किसके साथ? असंभव का संभव के साथ, अनहोनी का होनी के साथ। एक ओर जहाँ यह आध्यात्मिक साम्यवाद बहुत ऊँचा होने के कारण आम लोगों के पहुँच के बाहर की चीज है, तहाँ दूसरी ओर भौतिक साम्यवाद सर्वजनसुलभ है, अत्यंत आसान है। यदि ये भलेमानस केवल इतनी ही दया करें कि अड़ंगे लगाना छोड़ दें, तो यह चीज बात की बात में संसार व्यापी बन जाए। इसमें न तो जीते-जी मुर्दा बनने की जरूरत है और न ध्यान या समाधि की ही। यह तो हमारे आए दिन की चीज है, रोज-रोज की बात है; इसकी तरफ तो हम स्वभाव से ही झुकते हैं, यदि स्थाई स्वार्थ (Vested interests) वाले हमें बहकाएँ और फुसलाएँ न। फिर इसके साथ उसकी तुलना क्या? हाँ, जो सांसारिक सुख नहीं चाहते वह भले ही उस ओर खुशी-खुशी जाएँ। उन्हें रोकता कौन है? बल्कि इसी साम्यवाद के पूर्ण प्रचार से ही उस साम्यवाद का भी मार्ग साफ होगा, यह पहले ही कहा जा चुका है।
यज्ञचक्र
गीता में यज्ञ और यज्ञचक्र की भी बात आई है। यों तो हिंदुओं की पोथियों में इस बात की चर्चा भरी पड़ी है। उपनिषदों में भी यह बात कुछ निराले ढंग से ही आई है। मगर गीता का ढंग कुछ दूसरा ही है, जो ज्यादा व्यावहारिक एवं आकर्षक है। उपनिषद् रूपक के ढंग से यज्ञ और हवन का आलंकारिक वर्णन करते हैं और धर्मशास्त्र या पुराण इन्हें स्वर्ग, नरक या मुक्ति और बैकुंठ ही लिए करने की आज्ञा देते हैं। उनने यज्ञों को पूरा धार्मिक रूप दे दिया है। फिर तो स्वर्ग-नरक की बात आई जाती है और हुक्म या आज्ञा (Order or command) की भी जरूरत होई जाती है। हाँ, मनुस्मृति में 'अग्नौप्रास्ताssहुति: सम्यगादित्यमुपतिष्ठते। आदित्याज्जायते वृष्टिर्वृष्टेरन्नं तत: प्रजा:' (3। 76) वचन आया है। इसमें गीता की बातों का कुछ स्थूल आभास पाया जाता है। यह श्लोक इतना तो कहता ही है कि 'यज्ञ-यागादि के समय अग्नि में जो कुछ ठीक-ठीक हवन किया जाता है वह सूर्य तक पहुँचता है, सूर्य से वृष्टि होती है, वृष्टि से अन्न होता है और अन्न से प्राणियों की उत्पत्ति तथा वृद्धि होती है।'
महाभारत के शांतिपर्व के 261वें अध्याय का ग्यारहवाँ श्लोक भी ऐसा ही है। इससे इतना तो साफ होई जाता है कि उस समय लोगों का खयाल यज्ञ के संबंध में केवल स्वर्गादि तक ही सीमित न रह के समाज की व्यवस्था और उसके भरण-पोषण तक भी गया था। लोग यह मानने लगे थे कि समाज कल्याण के लिए - प्राणियों के सीधे भरण-पोषण आदि के लिए - भी यज्ञ एक जरूरी चीज है। धर्म के रूप में यज्ञ के करने से पुण्य के जरिए लोगों को अन्न-वस्त्रादि प्राप्त होंगे इस खयाल के सिवाय यह विचार भी जड़ पकड़ चुका था कि यज्ञ से सीधे ही वृष्टि में सहायता होती है और उससे अन्नादि उत्पन्न होते हैं।
बेशक, मीमांसकों ने कारीरी नामक याग के बारे में यह भी कहा है कि उसके करने से अवर्षण मिट जाता है और वृष्टि होती है - 'कारीर्या वृष्टिकामो यजेत।' मगर आमतौर से सभी यज्ञयागों के बारे में उनका ऐसा मत है नहीं। इसीलिए मनुस्मृति और शांतिपर्व के उक्त वचन उस समय के लोगों के विचारों की प्रगति के सूचक हैं। उससे पता चलता है कि किस प्रकार सामान्य रूप से पुण्यप्राप्ति, स्वर्गप्राप्ति आदि से आगे बढ़ के क्रमश: कारीरी यज्ञ के द्वारा सामान्यत: सभी यज्ञों का उपयोग समाजहित के काम में सीधे होने लगा। उपनिषदों के समय में ऋषियों ने और पीछे दार्शनिकों ने भी जो यह स्वीकार किया कि अग्नि से जल और जल से पृथिवी के द्वारा अन्नादि उत्पन्न हुए और इस प्रकार प्राणि-सृष्टि का विकास हुआ उसका भी संबंध इस यज्ञवाली प्रक्रिया से है या नहीं और अगर है तो कितना यह कहना असंभव है। यज्ञ और अग्नि का संबंध पुराने लोग अविच्छिन्न मानते थे। इसीलिए यह खयाल स्वाभाविक है कि शायद वह बात भी इसी सिलसिले में आई हो। मगर हमें तो उतने गहरे पानी में उतरना है नहीं। हम तो गीता की ही बात देखना चाहते हैं।
इससे पहले कि हम इस यज्ञ के बारे में गीता का मंतव्य या उसकी विशेषता बताएँ यह जान लेना आवश्यक है कि गीता में कहाँ-कहाँ यज्ञ का जिक्र है और किस प्रसंग में। यों तो यज्ञ के बारे में गीता का एक रुख और भाव हम बहुत पहले बता चुके हैं और कह चुके हैं कि उसमें क्या खूबी है। मगर यहाँ उसके दूसरे ही पहलू का वर्णन करना है। इस विवेचन से पहले कही गई बात पर भी काफी प्रकाश पड़ जाएगा। गीता की यह यज्ञ वाली बात जो अपना निरालापन रखती है उसे भी हम बखूबी जान सकेंगे।
गीता में तीसरे ही अध्याय से यज्ञ की बात शुरू हो के चौथे में उसका खूब विस्तार है। पाँचवें में भी यज्ञ शब्द अंत के 29वें श्लोक में आया है। सिर्फ छठे में वह पाया नहीं जाता। फिर लगातार सात, आठ, नौ, दस, ग्यारह और बारह अधयायों में यज्ञ की बात आती है। यह ठीक है कि बारहवें में यज्ञ शब्द नहीं आता। मगर तीसरे अध्याय में 'यज्ञार्थ' (3। 9) शब्द आया है और 'अहं क्रतुरहं यज्ञ:' (9। 16) में भगवान को ही यज्ञ कहा है। 'यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि' (10। 25) में भी भगवान को ही जप यज्ञ कहा है। फिर बारहवें के 10वें श्लोक में 'सत्कर्म', तथा 'मदर्थ कर्म' शब्द आए हैं। इसीलिए उसे भी जप यज्ञ ही माना है। बीच वाले 13, 14, 15 अध्यायों में यज्ञ की चर्चा नहीं है। उसके बाद 16, 17, 18 में स्थान-स्थान पर आई है। इससे स्पष्ट है कि गीता की दृष्टि से यज्ञ की महत्ता बहुत है, और है वह व्यापक चीज। गीता की खास-खास बातों में एक यह भी है।
अब जरा उसके स्वरूप का विचार करें। सबसे पहले तीसरे अध्याय के 9-16 श्लोकों को ही लें। इन आठ श्लोकों में यज्ञ और यज्ञचक्र की बात आई है। यहाँ यज्ञ का कोई भी ब्योरा नहीं दिया गया है और न उसका विशेष विश्लेषण ही किया गया है। केवल इतना ही कहा गया है कि 'जो कर्म यज्ञ के लिए हो उससे बंधन नहीं होता है, किंतु और-और कर्मों से ही' - ''यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबंधन:'' (3। 9)। इसके बाद यज्ञ को प्राणियों के लिए जरूरी और कल्याणकारी कहके 14-16 श्लोकों में एक शृंखला ऐसी बनाई है जो चक्र की तरह गोल हो जाती है और उसके बीच में यज्ञ आ जाता है। इसी को यज्ञचक्र कह के इसे निरंतर चालू रखने पर बड़ा ही जोर दिया है। 13वें तथा 16वें श्लोकों में यज्ञ न करनेवालों की सख्त शिकायत भी की गई है। यहाँ तक कह दिया है कि जो इस चक्र को निरंतर चालू न रखे वह पतित तथा गुनहगार है और उसका जीना बेकार है!
चौथे अध्याय की यह दशा है कि उसके 23-33 श्लोकों में यज्ञ का बहुत ज्यादा ब्योरा दिया गया है। इन ग्यारह श्लोकों में जो पहला - 23वाँ - है उसमें तो वही बात कही गई है जो तीसरे के 9वें में कि 'यज्ञार्थ कर्म सोलहों आना जड़-मूल से विलीन हो जाता है। फिर बंधन में कौन डालेगा?' - ''यज्ञायाचरत: कर्म समग्रं प्रविलीयते।'' इसके बाद यज्ञों की किस्में 24वें से शुरू होके 33वें तक बताई गई हैं। बीच के 31वें में तो यहाँ तक - साफ कह दिया है कि 'जो यज्ञ नहीं करता उसका दुनियावी काम तक तो चली नहीं सकता, परलोक की बात तो दूर रहे' - ''नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्य: कुरुसत्तम।'' इससे एक तो यज्ञ की व्यापकता तथा समाजोपयोगिता सिद्ध होती है - यह बात पक्की हो जाती है कि वह समाज को कायम रखने के लिए अनिवार्य है। दूसरे यह कि पूर्व के सात श्लोकों में जिन यज्ञों को गिनाया है वह केवल नमूने की तौर पर ही हैं। इसीलिए 28वें श्लोक में गोल-गोल बात ही कही भी गई है कि - 'द्रव्यों से संबंध रखने वाले, तप-संबंधी, योग-संबंधी, ज्ञान-संबंधी और सद्ग्रंथसंबंधी अनेक यज्ञ हैं' - ''द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथाऽपरे। स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतय: संशितव्रता:।'' फिर 32वें श्लोक में भी इसकी पुष्टि कर दी गई है कि 'इस प्रकार के अनेक यज्ञ वेदादि सद्ग्रंथों में बताए गए हैं और सभी के सभी क्रियात्मक या क्रियासाध्य हैं' - ''एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे। कर्मजान्विद्धितान्सर्वान्।'' आखिर में ज्ञानयज्ञ को और यज्ञों से उत्तम कह के इस प्रसंग को पूरा किया है। फिर ज्ञान की प्राप्ति का विचार शुरू किया है।
पाँचवें अध्याय में तो एक ही बार अंतिम - 29वें श्लोक में यज्ञ शब्द आया ही है। उसमें इतना ही कहा गया है कि परमात्मा ही यज्ञों तथा तपों को स्वीकार करने वाला एवं सभी पदार्थों का बड़ों से बड़ा शासक और नियंत्रणकर्त्ता है। लेकिन यह बात भी है कि सबों का कल्याण भी वह चाहता है - 'भोक्तारं यज्ञतपसां' आदि। यह दूसरी बात है कि चौथे अध्याय में जिस प्राणायाम को यज्ञ कहा है उसी का कुछ अधिक विवरण और तरीका इस अध्याय में दिया गया है। छठे में तो प्राणायाम की ही विधि विशेष रूप से दी गई है। फलत: इस दृष्टि से तो वह भी यज्ञ प्रतिपादक ही है।
सातवें अध्याय की यह हालत है कि उसके 20 से 23 तक के चार श्लोकों में निचले दर्जे के - जघन्य - यज्ञों का वर्णन करके अंत में कह दिया है कि जो भगवान के लिए यज्ञ करता है वही सबसे अच्छा है। यह एक अजीब-सी बात है कि जिसकी मर्जी जिस चीज में हो उसकी श्रद्धा उसी में मजबूत कर दी जाती है। यह काम खुद भगवान करते हैं ऐसी बात 'तस्यतस्याचलां श्रद्धां' (21) में साफ ही कही गई है। इसका एक मतलब तो यही है कि छोटी-छोटी चीजों में एकाग्रता होने और श्रद्धा जम जाने पर मनुष्य का अपने दिल-दिमाग पर काबू होने लगता है। इसलिए मौका पड़ने पर ऊँची चीज में भी वह उसे लगा सकता है। एकाएक वैसी चीज में लगाना असंभव होता है। इसीलिए पतंजलि ने योगसूत्रों में साफ ही कहा है कि 'यथाभिमतधयानाद्वा' (1। 39)। इसके भाष्य में व्यास ने लिखा है कि 'यदेवाभिमतं तदेव ध्यायेत्। तत्र लब्धस्थितिकमन्यत्रापि स्थितिपदं लभते' - ''जिसी में मन लगे उसी का ध्यान करे। जब उसमें मन जमते-जमते स्थिर होने लगेगा तो उससे हटा के दूसरे में भी स्थिर किया जा सकता है।'' दूसरी बात यह है कि धर्म तो श्रद्धा की ही चीज है, यह पहले ही कहा जा चुका है। वह न छोटा है न बड़ा, और न ऊँचा है न नीचा। वह कैसा है यह सब कुछ निर्भर करता है इस बात पर कि उसमें हमारी श्रद्धा कैसी है, हमारे दिल-दिमाग, हमारी जबान और हमारे हाथ-पाँवों में - इन चारों में - सामंजस्य कहाँ तक है और हम सच्चे तथा ईमानदार कहाँ तक हैं। इसीलिए यह सामंजस्य पूर्ण न होने के कारण ही कमअक्ल लोगों के कर्मों को तुच्छ फलवाला कहा है 'अंतवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम्' (7। 23)। लेकिन जिनका सामंजस्य दूसरा हो गया है उनके लिए कहा है कि वे भगवान रूप ही हैं - 'मद्भक्ता यांति मामपि' (7। 23)। इस अध्याय के अंत के 30वें श्लोक में 'अधियज्ञ' के रूप में यज्ञ का नाम लेकर प्रश्न किया है कि वह क्या है, कौन है? अधियज्ञ आदि की बात हम स्वतंत्र रूप से आगे लिखेंगे।
आठवें अध्याय के तो आरंभ में ही उसी अधियज्ञ के बारे में दूसरे ही श्लोक में प्रश्न किया गया है कि वह है कौन-सा पदार्थ? फिर इसी का उत्तर चौथे श्लोक में आया है कि भगवान ही इस शरीर के भीतर अधियज्ञ हैं - 'अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर।' मगर इससे पूर्व के तीसरे श्लोक में कर्म किसे कहते हैं, पूर्व के इस प्रश्न का जो उत्तर दिया गया है कि 'पदार्थों के उत्पादन और पालन का कारण जो त्याग या विसर्जन है वही कर्म कहा जाता है' - ''भूतभावोद्भवकरो विसर्ग: कर्मसंज्ञित:'', वह भी यज्ञ का ही निरूपण है। क्योंकि जैसा कि कह चुके हैं, तीसरे अध्याय में तो वृष्टि आदि के द्वारा यज्ञ का यही काम कहा ही गया है। इसी अध्याय के अंतिम - 28वें श्लोक में भी यज्ञ शब्द आया है। मगर उसका यही मतलब है कि यज्ञ कोई उत्तम चीज है जिसका फल बहुत ही सुंदर और रमणीय होता है। इससे ज्यादा कुछ नहीं कहा गया है।
नवें अध्याय के 15-16, तथा 20-28 श्लोकों में इस यज्ञ का विस्तार पाया जाता है। 15वें में ज्ञान-यज्ञ का ही विभिन्न रूप बता के दिखाया है कि उसके द्वारा कैसे भगवान की पूजा होती है। 16वें में भगवान को ही यज्ञ करार दे के वैदिक यज्ञ के साधन घी, अग्नि आदि को भी भगवान का ही स्वरूप कह दिया है। 20-21 श्लोकों में वैदिक सोम-यागादि का क्या परिणाम होता है और स्वर्ग पहुँच के उस यज्ञ के करने वाले फिर क्योंकर कुछी दिनों बाद लौट आते तथा जन्म लेते हैं, यह बताया गया है। 22वें में पुनरपि उसी ज्ञान-यज्ञ के महत्त्व का वर्णन है। 23-25 श्लोकों में सातवें अध्याय की ही तरह दूसरे-दूसरे देवताओं के यज्ञों की बात कह के उसमें इतना और जोड़ दिया है कि वह भी भगवान की ही पूजा है; हालाँकि जैसी चाहिए वैसी नहीं है। क्योंकि उसे करने वाले यह बात तो समझ पाते नहीं कि यह भी भगवत्पूजा ही है। इसीलिए वे चूकते हैं - उनका पतन होता है। जिस चीज में मन लगाइए वहीं पहुँचिएगा - वही बनिएगा, यही तो नियम है और वे लोग तो दूसरों में - भूत-प्रेत, पितर आदि में - ही मन लगाते हैं, उसी भावना से यज्ञ या पूजन करते हैं। फिर उन्हें भगवान कैसे मिलें? यही उनका चूकना है।
इस अध्याय के 26-28 तीन श्लोकों में जो कुछ कहा गया है वह है तो यज्ञ ही। मगर है वह बहुत बड़ी चीज। कोई भी काम, जो निश्चित कर दिया गया हो, करते रहिए। बस, वही भगवत्पूजा होती है यदि इसी भावना से वह काम किया जाए, यही अमूल्य मंतव्य इन श्लोकों में कहा गया है। कर्मों के छुटकारे के लिए खुद कर्म ही किस प्रकार साबुन का काम करते हैं, यही चीज यहाँ पाई जाती है। इन श्लोकों के सिवाय पीछे के 19वें श्लोक में भी कुछ ऐसी बात कही गई है जिससे पता चलता है कि उसमें भी यज्ञ का ही निरूपण है। भगवान को तो उससे पूर्व के 16वें श्लोक में यज्ञ कहा ही है। मगर इसमें जो यह कहा गया है कि 'मैं ही वर्षा रोकता हूँ और उसे जारी भी करता हूँ' - ''अहं वर्षं निगृह्वाम्यत्सृजामि च'', उससे पता चलता है कि यज्ञ का ही उल्लेख है। क्योंकि तीसरे अध्याय में तो कही दिया है कि 'यज्ञ से ही वृष्टि होती है' - ''यज्ञाद्भवति पर्जन्य:।'' 'उत्सृजामि' शब्द का अर्थ है उत्सर्ग या छोड़ना - बाधा हटा देना। आठवें में जो विसर्ग कहा गया है वही है यह उत्सर्ग। यज्ञों से वृष्टि की बाधा हटके पानी बरसता है। नवें अध्याय के अंत के 34वें श्लोक में भी 'मद्याजी' शब्द मिलता है, जिसका अर्थ है 'मेरा - भगवान का - यज्ञ करनेवाला - भगवत्पूजा'। इसी श्लोक के प्राय: तीन चरण अठारहवें अध्याय के 65वें श्लोक में भी ज्यों के त्यों पाए जाते हैं। अर्थ भी यही है।
दसवें अध्याय के तो केवल 25वें श्लोक में जप यज्ञ की बात आई है। इसके बारे में हम भी इस प्रसंग के शुरू में ही कह चुके हैं। ग्यारहवें अध्याय के 'नवेदयज्ञाध्ययनैर्नदानै:' (48), तथा 'नदानेन नचेज्यया' (53) श्लोकों में यज्ञ और इज्या शब्द आए हैं। इज्या का वही अर्थ है जो यज्ञ का। यहाँ केवल यज्ञ का उल्लेख है। कोई खास बात नहीं है। बारहवें अध्याय के 10वें श्लोक में 'मदर्थ' या भगवान के लिए किए जाने वाले कर्मों का उल्लेख है और यज्ञार्थ कर्म की बात तो कही चुके हैं। इसीलिए वहाँ भी यज्ञ की ही बात है।
सोलहवें अध्याय में यज्ञ का जिक्र है केवल 15वें तथा 17वें श्लोकों में । यह बात बहुत अच्छी तरह ईश्वरवाद के प्रसंग में लिखी जा चुकी है। हाँ, सत्रहवें अध्याय में यज्ञ की बात बार-बार अनेक रूप में आई है। पहले और चौथे श्लोक में श्रद्धापूर्वक यज्ञादि करने और सात्त्विक यज्ञों का साधारण उल्लेख है। कोई विवरण नहीं है। हाँ, इतना कह दिया है कि कैसों की यज्ञपूजा किस प्रकार की होती है। यज्ञ के सात्त्विक आदि तीन प्रकार यजनीय और पूजनीय पदार्थों के ही हिसाब से बताए गए हैं। फिर आगे के 11-13 - तीन - श्लोकों में यज्ञ के कर्त्ता के अपने ही भावों और विचारों के अनुसार यज्ञ के वही सात्त्विक आदि तीन भेद बताए गए हैं। इसके बाद 23-25 - तीन - श्लोकों में और कुछ न कह के यज्ञादि कर्मों की त्रुटियों के पूरा करने का सीधा उपाय बताया गया है कि श्रद्धा के साथ-साथ यदि ओंतत्सत् बोल के उन्हें किया जाए तो उनमें अधूरापन रही नहीं जाता - वे सात्त्विक बन जाते हैं। यही बात 27-28 श्लोकों में भी पाई जाती है। 28वें में हुत शब्द का अर्थ यज्ञ ही है। 27वें का 'तदर्थीयकर्म' भी इसी मानी में आया है। यज्ञार्थ और तदर्थ एक ही चीज है।
अठारहवें अध्याय के 65वें के सिवाय 70वें श्लोक में भी ज्ञानयज्ञ का उल्लेख है। गीता के उपसंहार में ज्ञानयज्ञ का नाम लेना कुछ महत्त्व रखता है। पहले भी तो कही चुके हैं कि और यज्ञों से ज्ञानयज्ञ श्रेष्ठ है। वही बात यहाँ याद हो आई है। खूबी तो यह है कि उस श्लोक में गीता के पढ़नेवाले को ही कहा है कि वही ज्ञानयज्ञ के द्वारा भगवान की पूजा करता है। इस प्रकार पठन-पाठन को ज्ञानयज्ञ के भीतर डाल के गीता ने सुंदर पथ-प्रदर्शन किया है। यज्ञ का अर्थ समझने के लिए कुंजी भी दे दी है। इस अध्याय के प्रारंभ के 3, 5, 6 श्लोकों में भी यज्ञ, दान, तप इन तीन कर्मों का बार-बार उल्लेख किया है और कहा है कि ये बुनियादी कर्म हैं। इन्हें किसी भी दशा में छोड़ नहीं सकते। इस तरह यज्ञ का महत्त्व सिद्ध कर दिया है।
इतनी दूर तक गीता के यज्ञ का सामान्य तथा विशेष विचार कर लेने के बाद अब हमें मौका मिलता है कि उसकी तह में घुस के देखें कि यह क्या चीज है। तीसरे अध्याय में जो यज्ञचक्र बताया गया है वह अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। उससे इस मामले पर काफी प्रकाश पड़ता है। इसलिए पहले उसे ही देखें कि उसकी हकीकत क्या है। वहाँ यह क्रम पाया जाता है कि कर्मों से यज्ञ का स्वरूप तैयार होता है, वह पूर्ण होता है - यज्ञ से वृष्टि होती है, वृष्टि से अन्न होता है, अन्न से भूतों यानी पदार्थों तथा प्राणियों का भरण-पोषण होता है और उनकी उत्पत्ति भी होती है। इस प्रकार जो एक शृंखला तैयार की गई है उसके एक सिरे पर भूत आ जाते हैं। भूत का असल तात्पर्य है ऐसे पदार्थों से जिनका अस्तित्व पाया जाए - यानी सत्ताधारी पदार्थमात्र। उसी शृंखला के दूसरे सिरे पर कर्म पाया जाता है, ऐसा खयाल हो सकता है। होना भी ऐसा ही चाहिए। क्योंकि कर्म का ही संबंध पदार्थ से मिलाना है और यही चीज गीता को अभिमत भी है। मगर इससे चक्र तैयार हो पाता नहीं। क्योंकि जब तक शृंखला के दोनों सिरे - छोर - मिल न जाएँ, जुट न जाएँ, चक्र होगा कैसे? चक्र का तो मतलब ही है कि शृंखला के भीतर वाले सभी पदार्थों का लगाव एक सिरे से रहे और कहीं भी वह लगाव टूटने न पाए। फलत: एक बार एक पदार्थ को शुरू कर दिया और वह चक्र खुद-ब-खुद चालू रहेगा। केवल शृंखला रहने पर और चक्र न होने पर यह बात नहीं हो सकती। तब तो बार-बार शृंखला की लड़ियों के किनारे पहुँच के नए सिरे से शुरू करने की बात आ जाएगी। मगर चक्र में किनारे की बात ही नहीं होती। सभी लड़ियाँ बीच में ही होती हैं।
यह ठीक है कि भूतों का तो कर्मों से ताल्लुक हई। भूतों में ही तो क्रिया पाई जाती और क्रिया से यज्ञ का संबंध हो के चक्र चालू रहता है। किनारे का सवाल भी अब नहीं उठता। यही सर्वजनसिद्ध बात है भी। मगर इसमें दो चीजों की कमी रह जाती है। एक तो यह बात निरी मशीन जैसी चीज हो जाती है। भूतों की क्रिया के पीछे कोई ज्ञान, दिमाग या पद्धति है, या कि यों ही वह क्रिया चालू है, जैसे घड़ी की सुइयों की क्रिया चालू रहती है? यह प्रश्न उठता है और इसका उत्तर जरूरी है। मगर इस चक्र में इसका उत्तर नहीं मिलता है। दूसरी बात यह है कि हमें तो अपने ही दिल-दिमाग के अनुसार कर्मों के करने का हक है, गीता का यह सिद्धांत बताया जा चुका है इस चक्र में यह बात भी साफ हो पाती नहीं और इसके बिना काम ठीक होता नहीं।
इसीलिए तीसरे अध्याय में उस शृंखला में दो लड़ें और भी जुटी हैं जो इस कमी की पूर्ति कर देती हैं। दोई कमियाँ थीं और दो लड़ें जुट गईं। वहाँ कहा गया है कि अक्षर से ब्रह्म और ब्रह्म से कर्म पैदा होता है। कर्म का तो यज्ञ के द्वारा उस शृंखला में लगाव हई। मगर प्रश्न यह होता है कि चक्र बनता है कैसे? अक्षर से शुरू करके भूतों पर खात्मा हो जाने पर मिलान तो होती नहीं। भूत और अक्षर तो दो जुदी चीजें हैं न? यह भी नहीं कि जैसे भूतों से कर्म बनते हों - उनके ही द्वारा कर्म होते हों - वैसे ही भूतों से अक्षर होता हो या बनता हो। फलत: भारी अड़चन आ जाती है। दोनों कमियों की पूर्ति कैसे हो गई यह बात तो अलग ही है - इसका भी पता नहीं चलता।
इस पहेली को सुलझाने के लिए हमें ब्रह्म और अक्षर को पहले जान लेना होगा कि ये दोनों हैं क्या। पहले ही ब्रह्म को लें। गीता में ब्रह्म शब्द तीन अर्थों में आया है। यों तो ब्रह्म शब्द का अर्थ है बृहत या बड़ा - बहुत बड़ा, सबसे बड़ा। आमतौर से ब्रह्म कहते हैं परमात्मा या भगवान को ही। उसे इसीलिए समंब्रह्म, परंब्रह्म या परब्रह्म और अक्षरब्रह्म भी कहा करते हैं। ब्रह्म शब्द गीता में कुल मिला के प्राय: तिरपन बार आया है। अध्याय और श्लोक जिनमें यह शब्द मिलता है इस तरह हैं - (2। 72), (3। 15), (4। 24, 25, 31, 32), (5। 16, 10, 19, 20, 21, 24, 25, 26), (6। 14, 28, 38, 44), (7। 29), (8। 1, 3, 11, 13, 16, 17, 24), (10। 12), (11। 15, 37), (13। 4, 12), (14। 3, 4, 26, 27), (17। 14, 23, 24), (18। 42, 50, 53, 54)। किसी-किसी श्लोक में कई-कई बार आने के कारण 50 बार से ज्यादा हो जाता है।
मगर यदि पूर्वा पर विचार किया जाए तो पता चलेगा कि पाँच ही अर्थों में यह शब्द प्रयुक्त हुआ है। परमात्मा के अर्थ में तो बार-बार आया है और सबसे ज्यादा आया है। ब्राह्मण जाति के अर्थ में केवल एक बार अठारहवें अध्याय के 42वें श्लोक में पाया जाता है। यों तो इसी ब्रह्म शब्द से बना ब्राह्मण शब्द कई बार आया है। प्रकृति या माया के अर्थ में चौदहवें अध्याय के 3, 4 श्लोकों में पाया जाता है। असल में उसके साथ महत शब्द लगा है और उसका अर्थ है महान या महत्तत्त्व। प्रकृति से जिस तत्त्व की उत्पत्ति वेदांत और सांख्यदर्शनों में मानी जाती है उसे ही महान, महत या महत्तत्त्व कहते हैं। तेरहवें अध्याय के 5वें श्लोक में जिसे बुद्धि कहा है वह यही महत है। यह है समष्टि या व्यापक बुद्धि, न कि जीवों की जुदा-जुदा। वहाँ जिसे अव्यक्त कहा है वही है प्रकृति और चौदहवें में उसी को ब्रह्म कहा है। सातवें अध्याय के चौथे श्लोक में भी उसे बुद्धि और अव्यक्त को अहंकार कह दिया है। वहाँ मन का अर्थ है अहंकार और अहंकार का प्रकृति अर्थ है। चौदहवें में महत शब्द के संबंध से ब्रह्म का अर्थ प्रकृति हो जाता है। प्रकृति से ही तो विस्तार या सृष्टि का पसारा शुरू होता है और सबसे पहले समष्टि बुद्धि पैदा होती है। इसीलिए प्रकृति का विशेषण महत दे दिया है। महत्तत्त्व भी तो प्रकृति से जुदा नहीं है, जैसे मिट्टी से घड़ा।
ब्रह्म शब्द का चौथा अर्थ है हिरण्यगर्भ या ब्रह्मा। उसी को अव्यक्त भी कहा है। आठवें अध्याय के 16, 17 श्लोकों में ब्रह्मा के ही अर्थ में ब्रह्म शब्द और अठारहवें में अव्यक्त शब्द आया है। ग्यारहवें अध्याय के 15वें में भी ब्रह्म शब्द का ब्रह्मा ही अर्थ है। छठे के 14वें तथा सत्रहवें अध्याय के 14वें श्लोक में ब्रह्मचारी एवं ब्रह्मचर्यवाला ब्रह्म शब्द वेद के ही अर्थ में सर्वत्र आता है और वहाँ भी आया है। चौथे के 'ब्रह्मणोमुखे' का ब्रह्म शब्द भी वेद का ही वाचक है। इसी प्रकार छठे अध्याय के 44वें श्लोक में जो ब्रह्म शब्द है वह भी वेदार्थक ही है। उसके पूर्व में 'शब्द' शब्द लग जाने से दूसरे अर्थ की गुंजाइश वहाँ रही नहीं जाती। तीसरे अध्याय में जो यज्ञचक्र के सिलसिले में ब्रह्म शब्द आया है वह भी वेद का ही वाचक है। शेष ब्रह्म शब्द परब्रह्म या परमात्मा के ही अर्थ में आए हैं। शायद ही कहीं परमात्मा के सिवाय उक्त शेष चार अर्थों में किसी में आए हों।
असल में तो ब्रह्म शब्द के तीन ही मुख्य अर्थ गीता में पाए जाते हैं और ये हैं वेद, परमात्मा, प्रकृति। यह भी कही चुके हैं कि आमतौर से ब्रह्म का अर्थ परमात्मा ही होता है। शेष अर्थ या तो प्रसंग से जाने जाते हैं, या किसी विशेषण के फलस्वरूप। दृष्टांत के लिए प्रकृति के अर्थ में ब्रह्म शब्द का प्रयोग होने के समय प्रसंग तो हई। पर, उसी के साथ महत विशेषण भी जुटा है। यही बात वेद के अर्थ में भी है। शब्द ब्रह्म की बात अभी कही गई है। 'ब्रह्मणोमुखे' में जो ब्रह्म का अर्थ वेद होता है वह प्रसंगवश ही समझा जाता है। यज्ञों का विस्तार वेदों में ही है। उसे ही वेद का मुख कह दिया है। मुख है प्रधान अंग। इसीलिए मुख और मुख्य शब्द प्रधानार्थक हैं। वेदों के प्रधान अंशों में यज्ञों का ही विस्तार पाया जाता भी है। जिन लोगों ने यहाँ 'ब्रह्मणोमुखे' में ब्रह्म का अर्थ परमात्मा किया है उन्हें क्या कहा जाए ? यज्ञों का विस्तार वेदों में ही तो है। भगवान के मुख में विस्तार है, यह अजीब बात है। हमें आश्चर्य तो तब और होता है जब वही लोग 'त्रिविद्या मां सोमपा:' (9। 20), तथा 'त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना:' (9। 21), में खुद स्वीकार करते हैं कि त्रयी या तीनों वेदों में यज्ञयागादि का ही विशेष वर्णन है। फिर यहाँ वही अर्थ क्यों नहीं किया जाए? तीसरे अध्याय में भी ब्रह्म का विशेषण सर्वगत है। गम् धातु संस्कृत में ज्ञान के अर्थ भी प्रयुक्त होती है। इसीलिए अवगत शब्द का अर्थ है जाना हुआ। इस प्रकार सर्वगत शब्द का अर्थ है सब चीजों को जनाने या बतानेवाला। खुद वेद शब्द का अर्थ है ज्ञान। ज्ञान से ही तो सब चीजें प्रकाशित होती हैं या जानी जाती हैं। इसीलिए यहाँ अर्थ हो जाता है कि सभी बातों को अवगत कराने वाले वेदों से ही कर्म आते हैं, पैदा होते हैं या जाने जाते हैं। वेद का तो काम केवल बताना ही है न?
यह तो सभी वेदज्ञ जानते हैं कि यज्ञयागादि सभी प्रकार के कर्मों पर बहुत ज्यादा जोर वेदों ने दिया है। मीमांसा दर्शन उन्हीं वेद वाक्यों के आधार पर कर्मों का विस्तृत विवेचन करता है। श्रौत तथा स्मार्त्त सूत्रग्रंथ इन्हीं वैदिक कर्मों की विधियाँ बताते हैं। यहाँ तक कि यजुर्वेद के अंतिम - चालीसवें - अध्याय के दूसरे मंत्र में साफ ही कह दिया है कि 'कर्मों को करते रह के ही इस दुनिया में सौ साल जीने की इच्छा करे; क्योंकि मनुष्य में कर्मों का लेप न हो - वे मनुष्य को बंधन में न डालें - इसका दूसरा उपाय हई नहीं' - ''कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समा:। एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे॥'' यह तो कही चुके हैं कि गीता ने भी कर्मों को ही उनके बंधन के धोने का साबुन बताया है। उसने इसकी तरकीब भी सुझाई है।
परंतु दरअसल ब्रह्म के दोई भेद किए गए हैं। मुंडक उपनिषद् के प्रथम खंड में ही जिसे परा एवं अपरा विद्या के रूप में 'द्वे विद्ये वेदितव्ये' कहा है, उसी चीज को सफाई के साथ महाभारत के शांतिपर्व के (231-6। 269-1) दो श्लोकों में, जो हू-ब-हू एक ही हैं, कह दिया है कि 'ब्रह्म तो दोई हैं - पर तथा अपर या शब्द ब्रह्म और परब्रह्म। जो शब्दब्रह्म में प्रवीण हो जाता है वही परब्रह्म को जान पाता है' - ''द्वे ब्रह्मणी वेदितव्ये शब्द ब्रह्म परं च यत्। शब्दब्रह्मणि निष्णात: परं ब्रह्माधिगच्छति॥'' इन्हीं दो में से शब्द-ब्रह्म को गीता के तृतीय अध्याय में सर्वगत ब्रह्म और पर-ब्रह्म को अक्षर कहा है। आठवें (8। 3) में उसे ही अक्षरब्रह्म और परमब्रह्म भी कहा है। और भी स्थान-स्थान पर यही बात पाई जाती है।
इस प्रकार सर्वगत वेद से यदि कर्मों की जानकारी होती है तो यह शंका कि कर्मों के पीछे ज्ञान और दिमाग है या नहीं, अपने आप मिट जाती है। वेद तो ज्ञान को कहते ही हैं। इसलिए मानना पड़ता है कि यज्ञयागादि कर्म घड़ी की सुई की चाल जैसे न हो के ज्ञानपूर्वक होते हैं। इनकी व्यवस्था ही ऐसी है। इसीलिए तो जवाबदेही भी करने वालों पर आती है। अब सिर्फ दूसरी शंका रह जाती है कि लोगों को समझ-बूझ के करने की बात है या नहीं। कहीं ऐसा तो नहीं कि किसी की प्रेरणा से विवश हो के ही कर्म करने पड़ते हैं। इसका उत्तर 'ब्रह्म अक्षर से पैदा हुआ' - "ब्रह्माक्षर समुद्भवम्" पद देते हैं। श्वेताश्वर उपनिषद् के अंतिम - छठे - अध्याय में एक मंत्र आता है कि 'जो परमात्मा सबसे पहले ब्रह्मा को पैदा करके उसे वेदों का ज्ञान कराता है' - ''यो ब्रह्माण विदधाति पूर्वं यो वै वेदांश्च प्रहिणोत तस्मै'' (6। 18)। जगह-जगह वैदिक ग्रंथों में यही बात पाई जाती है। मनु आदि ने भी यही लिखा है। ब्राह्मण ग्रंथों में भी बार-बार यही कहा गया है। इससे यह बात तो निर्विवाद है कि अविनाशी या अक्षरब्रह्म से वेद पैदा हुए। या यों कहिए कि उसने ही वेद बनाए। और जब ऐसा नहीं कह के कि परमात्मा ने कर्म बनाए, यह कहा है कि उसने वेद बनाए, तो स्पष्ट है कि हम वेदों को पढ़ के जानकारी हासिल करें और कर्मों को समझ-बूझ के करें। अगर यह कह दिया होता कि परमात्मा ने कर्म ही बनाए, तो यही खयाल होता है कि कर्म करने की उसकी आज्ञा या मर्जी है। उसमें सोचने-विचारने का प्रश्न है नहीं।
तब सवाल यह होता है कि चक्र कैसे बनेगा? भूतों का अक्षर ब्रह्म से कौन-सा संबंध है? जब तक या तो भूतों से अक्षरब्रह्म की उत्पत्ति न मानी जाए, या दोनों की एकता स्वीकार न की जाए तब तक शृंखला के दोनों छोर पृथक-पृथक रहेंगे। वे मिलेंगे हर्गिज नहीं। मगर इन दोनों में एक भी संभव नहीं। भूतों में तो सभी पदार्थ आ जाते हैं, चाहे जड़ हों या चेतन। फिर सबकी एकता ब्रह्म के साथ होगी कैसे? उनमें ब्रह्म की उत्पत्ति तो कोई भी नहीं मानता। तब यह गुत्थी सुलझे कैसे? यहाँ हमें फिर उपनिषदों की ओर देखना पड़ता है। तभी यह गाँठ सुलझेगी। गीता तो उपनिषद् हई। सभी अध्यायों के अंत में ऐसा ही कहा गया भी है।
बृहदारण्यक उपनिषद् के चतुर्थ अध्याय के पाँचवें ब्राह्मण के 11वें मंत्र में याज्ञवल्क्य एवं मैत्रेयी के संवाद के सिलसिले में याज्ञवल्क्य ने मैत्रेयी से कहा है कि 'यथाद्रैधाग्नेरभ्याहितस्य पृथग्धूमा विनिश्चिरन्त्येवं वा अरेऽस्य महतो भूतस्य नि:श्वसितमेतदृग्वेदो यजुर्वेद: सामवेदोऽथर्वांगिरस इतिहास: पुराणं विद्या उपनिषद: श्लोका: सूत्राण्यनुव्याख्यानिव्याख्यानीष्टं हुतमाशितं पायितमयं च लोक: परश्च लोक: सर्वाणि च भूतान्स्यैवैतानि सर्वाणि नि:श्वसितानि।' इसका आशय यह है कि 'जिस तरह गीले ईंधन से अग्नि का संबंध होने पर उससे चारों ओर धुआँ फैलता है, ठीक उसी तरह इस महान भूत की साँस के रूप में ही ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, इतिहास, पुराण, कला, उपनिषद, श्लोक, सूत्र, व्याख्यान, व्याख्यानों के व्याख्यान, हवन के पदार्थ, यज्ञ के भोज्य तथा पेय पदार्थ, यह लोक-परलोक, सभी भूत चारों ओर फैले हैं।'
यहाँ कई बातें हैं। एक तो वेदादि जितनी ज्ञान की राशियाँ हैं उनका केंद्र परमात्मा ही माना गया है। दूसरे सृष्टि के सभी पदार्थों का पसारा उसी से बताया गया है। तीसरे भूतों को भी उसी की साँस की तरह कहा गया है। यानी भूत उससे जुदा नहीं है। चौथी बात यह है और यही सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है कि उस परमात्मा को महाभूत कहा गया है। आगे के 14-15 मंत्रों में उसी को अविनाशी आत्मा कहा है, जिसका नाश कभी नहीं होता, जो पकड़ा जा सकता नहीं, जो गलता-पचता नहीं, जो सटता नहीं, जिसे व्यथा नहीं होती और जो घटता नहीं तथा सभी को जानता है - 'अविनाशी वा अरेऽयमात्माऽनुच्छित्तिधर्मा। अगृह्यो नहि गृह्यतेऽशीर्यो नहि शीर्यतेऽसंगो नहि सज्जतेऽसितो न व्यथते न रिष्यते विज्ञातारमरेकेन विजानीयात्।'
भूतों का महाभूत के साथ संबंध तो बताई दिया है कि भूत उसी महाभूत के रूप हैं। सिर्फ व्यष्टि और समष्टि का विभेद है। मगर है वह सबों की आत्मा ही। समष्टि होने के कारण ही उसे महाभूत कह दिया है। वह ज्ञान का आगार है। इसीलिए तो सबों की समझ का प्रश्न हल हो जाता है। जबर्दस्ती कोई कुछ नहीं करता। जबर्दस्ती या प्रेरणा का सवाल यहाँ हई नहीं। सभी विवेक से काम लेकर जिसे उचित समझें उसे करने को स्वतंत्र हैं। व्यष्टि और समष्टि का ताल्लुक होने से अक्षर का भूतों के साथ लगाव भी होई गया। दोनों तो एक ही ठहरे। इस प्रकार चक्र पूरा हो गया। इसी यज्ञचक्र के जारी रखने पर जोर दिया गया है।
इसमें कर्म न कह के यज्ञ कहने या इसे यज्ञचक्र बताने में खूबी यही है कि लोग यज्ञ की ओर आसानी से आकृष्ट हो जाते हैं। लोगों के दिल-दिमाग में उसका महत्त्व भरा पड़ा जो है। यह बात कर्म के संबंध में नहीं है, हालाँकि कर्मों को यज्ञ से अलग नहीं कर सकते। कर्मों से ही यज्ञ संपन्न होता है। फिर भी उसे ऊँचा स्थान मिला है। यह बात भी है कि यज्ञ के भीतर आत्मा, ईश्वर और ज्ञान भी आ जाते हैं। मगर कर्म कहने से इनका ग्रहण हो नहीं सकता है। यज्ञ को इतना व्यापक बना दिया है कि उसके भीतर सभी चीजें आ जाती हैं। समाज की वृद्धि, रक्षा और प्रगति के लिए जो कुछ भी किया जाए वह यज्ञ के भीतर आ जाता है। आत्मा को नीचे गिरने से रोकना यह बहुत बड़ा यज्ञ है। पतन से उसे बचाना आवश्यक है। सत्रहवें अध्याय के छठे श्लोक में जो आत्मा-परमात्मा के कृश करने की बात कही गई है या घसीटने की - खींचने की - उसका भी मतलब नीचे गिराने-गिरने या पतन से ही है। यह बात आसुरी कामों से होती है। इसीलिए उनकी निंदा और यज्ञ की प्रशंसा की गई है। देखिए न, दुनियावी बातों में ऐसे लोग अपनी एवं ईश्वर की कितनी झूठी कसमें खाते हैं और इस प्रकार अपने आपको तथा ईश्वर को भी कितना नीचे घसीट लाते हैं!
जैसे भूत का अर्थ है सत्ताधारी, ठीक उसी प्रकार अन्न का अर्थ है जिसे खाया-पिया जाए या जो औरों को खा-पी जाए - 'अद्यतेऽत्ति वा भूतानीत्यन्नम्।' वृष्टि या पानी की सहायता से जो भी चीजें तैयार हों या शुद्ध हों सभी अन्न के भीतर आ जाती हैं। वैदिक यज्ञादि से या वैज्ञानिक रीति से जो वृष्टि कराई जाए, नहर आदि के जरिए या कुएँ से पानी वहाँ पहुँचाया जाए जहाँ जरूरत हो, वृक्षादि की वृद्धि के जरिए वृष्टि को उत्तेजना दी जाए - क्योंकि यह मानी हुई बात है कि जंगलों की वृद्धि से पानी ज्यादा बरसता है और काट देने पर कम - या दूसरा भी जो तरीका अख्तियार किया जाए और जितनी भी वैज्ञानिक प्रक्रियाएँ सिखाई-पढ़ाई जाएँ सभी यज्ञ के भीतर आ जाती हैं। औषधियों के जरिए, स्वच्छता का खूब प्रसार करके या जैसे हो जल की शुद्धि के सभी उपाय यज्ञ ही हैं। फिर आगे जो कुछ भी जल के प्रभाव से हमारे काम के लिए - समाज के लाभ के लिए - किया जाए, बनाया जाए, - फिर चाहे वह शुद्ध हवा हो, खाद्य पदार्थ हों, जमीन हो, घर हों या दूसरी ही चीजें - सभी अन्न के भीतर आ जाती हैं। ज्ञान, ध्यान, समाधि के जरिए जो शक्ति पैदा होती है उससे क्या नहीं होता। योगसिद्धियों का पूरा वर्णन योगसूत्रों में है। इसलिए यह सब कुछ यज्ञ ही है। जो भी काम आत्मा, समाज तथा पदार्थों की सर्वांगीण उन्नति के लिए जरूरी हो उससे चूकना पाप है। यही गीता का उपदेश है, यही यज्ञचक्र का रहस्य है।
अध्यात्म, अधिभूत, अधिदैव, अधियज्ञ
अब हमें जरा सातवें अध्याय के अंत और आठवें के शुरू में कहे गए गीता के अध्यात्म, अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञ का भी विचार कर लेना चाहिए। गीता में ये बातें पढ़ के सर्वसाधारण की मनोवृत्ति कुछ अजीब हो जाती है। ये शब्द कुछ ऐसे नए और निराले मालूम पड़ते हैं जैसे विदेशी हों। असल में यज्ञ, भूत, दैव, आत्मा शब्द या इनके अर्थ तो समझ में आते हैं। इसीलिए इनके संबंध में किसी को कभी गड़बड़ी मालूम नहीं होती। मगर अध्यात्म आदि शब्द एकदम नए मालूम पड़ते हैं। इसीलिए कुछ ठीक जँचते नहीं। यही कारण है कि ये बातें पहेली जैसी मालूम पड़ती हैं। ऐसा लगता है कि ये किसी और ही दुनिया की चीजें हैं।
एक बात और भी है। छांदोग्य आदि उपनिषदों में अध्यात्म, अधिभूत और अधिदैव या आधिदैवत शब्द तो पाए जाते हैं। इसलिए जो उपनिषदों का मंथन करते और उनका अर्थ समझते हैं वह इन शब्दों के अर्थ गीता में भी समझने की कोशिश कर सकते हैं, करते हैं। इनके अर्थ भी वे लोग जैसे-तैसे समझ पाते हैं। मगर अधियज्ञ बिलकुल ही नया है। यह तो उपनिषदों में भी पाया जाता है नहीं। इसलिए न सिर्फ यह अकेला एक पहेली बन जाता है, बल्कि अपने साथ अध्यात्म आदि को भी वैसी ही चीज बना डालता है। जब हम अधियज्ञ का ठीक-ठीक आशय समझ नहीं पाते तो खयाल होता है कि हो न हो, अध्यात्म आदि भी कुछ इसी तरह की अलौकिक चीजें हैं। आठवें अध्याय के 3-4 श्लोकों में जो इनके अर्थ बताए गए हैं उनसे तो यह उलझन सुलझने के बजाए और भी बढ़ जाती है। जिस प्रकार कहते हैं कि 'मघवा मूल और विडौजा टीका'। यानी मघवा शब्द का अर्थ किसी ने विडौजा किया सही। मगर उससे सुननेवालों को कुछ पता ही न लगा। वे तो और भी परेशानी में पड़ गए कि यह विडौजा कौन-सी बला है। मघवा में तो मघ शब्द था जो माघ जैसा लगता था। मगर विडौजा तो एकदम अनजान ही है। ठीक यही बात यहाँ हो जाती है। ये शब्द तो कुछ समझ में आते भी हैं, कुछ परिचित जैसे लगते हैं। मगर इनके जो अर्थ बताए गए हैं वे? वे तो ठीक विडौजा जैसे हैं और समझ में आते ही नहीं।
बेशक यह दिक्कत है। इसलिए भीतर से पता लगाना होगा कि बात क्या है। एतदर्थ हमें उपनिषदों से ही कुंजी मिलेगी। मगर वह कुंजी क्या है यह जानने के पहले यह तो जान लेना ही होगा कि अधियज्ञ गीता की अपनी चीज है। गीता में नवीनता तो हई। फिर यहाँ भी क्यों न हो ? गीता ने यज्ञ को जो महत्त्व दिया है और उसके नए रूप के साथ जो इसकी नई उपयोगिता उसने सुझाई है उसी के चलते अध्यात्म आदि तीन के साथ यहाँ अधियज्ञ का आ जाना जरूरी था। एक बात यह भी है कि यज्ञ तो भगवत्पूजा की ही बात है। गीता की नजरों में यज्ञ का प्रधान प्रयोजन है समाज कल्याण के द्वारा आत्मकल्याण और आत्मज्ञान। गीता का यज्ञ चौबीस घंटा चलता रहता है यह भी कही चुके हैं। इसलिए गीता ने आत्मज्ञान के ही सिलसिले में यहाँ अधियज्ञ शब्द को लिख के शरीर के भीतर ही यह जानना-जनाना चाहा है कि इस शरीर में अधियज्ञ कौन है? बाहर देवताओं को या तीर्थ और मंदिर में भगवान को ढूँढ़ने के बजाए शरीर के भीतर ही यज्ञ-पूजा मान के गीता ने उसी को तीर्थ तथा मंदिर करार दे दिया है और कह दिया है कि वहीं आत्मा-परमात्मा की ढूँढ़ो। बाहर भटकना बेकार है। प्रश्न और उत्तर दोनों में ही जो 'इस शरीर में' - 'अत्र देहेऽस्मिन्' कहा गया है उसका यही रहस्य है।
इस संबंध में एक बात और भी जान लेना चाहिए। अगस्त कोन्त (Auguste Comte) नामक फ्रांसीसी दार्शनिक ने तथा और भी पश्चिमी दार्शनिकों ने किसी चीज के और खासकर समाज और सृष्टि के विवेचन के तीन तरीके माने हैं, जिन्हें पॉजिटिव (Positive) थियोलौजिकल (Theological) और मेटाफिजिकल (Metaphysical) नाम दिया गया है। मेटाफिजिक्स अध्यात्मशास्त्र को कहते हैं, जिसमें आत्मा-परमात्मा का विवेचन होता है और थियोलौजी कहते हैं, धर्मशास्त्र को, जिसमें स्वर्ग, नरक तथा दिव्यशक्ति-संपन्न लोगों का, जिन्हें देवता कहते हैं, वर्णन और महत्त्व पाया जाता है। पॉजिटिव का अर्थ है निश्चित रूप से प्रतिपादित या सिद्ध किया हुआ, बताया हुआ। कोन्त के मत से किसी पदार्थ को दैवी या आध्यात्मिक कहना ठीक नहीं है। वह इन बातों को बेवकूफी समझता है। उसके मत से कोई चीज स्वाभाविक (Natural) भी नहीं कहा जा सकती। ऐसा कहना अपने आपके अज्ञान का सबूत देना है। किंतु हरेक दृश्य पदार्थों का जो कुछ ज्ञान होता है वही हमें पदार्थों के स्वरूपों को बता सकता है और उसी के जरिए हम किसी वस्तु के बारे में निर्णय करते हैं कि कैसी है, क्या है आदि। बेशक, यह ज्ञान आपेक्षिक होता है - देश, काल, परिस्थिति और पूर्व जानकारी की अपेक्षा करके ही यह ज्ञान होता है, न कि सर्वथा स्वतंत्र। इसी ज्ञान के द्वारा उसके पदार्थों का विश्लेषण करके जो कुछ स्थिर किया जाता है वही पॉजिटिव है, असल है, वस्तुतत्त्व है। इसी प्रणाली को लोगों ने आधिभौतिक विवेचन की प्रणाली कहा है। इसे ही मैटिरियलिस्टिक मेथड (Materialistic method) भी कहते हैं। शेष दो को क्रमश: आधिदैवत एवं आध्यात्मिक विवेचन प्रणाली कहते हैं।
आधिदैवत प्रणाली में दिव्य शक्तियों की सत्ता स्वीकार करके ही आगे बढ़ते हैं। उसमें मानते हैं कि ऐसी अलौकिक ताकतें हैं जो संसार के बहुत से कामों को चलाती हैं। बिजली का गिरना, चंद्र-सूर्य आदि का भ्रमण तथा निश्चित समय पर अपने स्थान पर पहुँच जाना, जिससे ऋतुओं का परिवर्तन होता है, आदि बातें ऐसे लोग उस दैवी-शक्ति के ही प्रभाव से मानते हैं। ये बातें मानवीय शक्ति के बाहर की हैं। हमारी तो वहाँ पहुँच हई नहीं। सूर्य से निरंतर ताप निकल रहा है। फिर भी वह ठंडा नहीं होता! ऐसा करने वाली कोई दिव्य-शक्ति ही मानी जाती है। हम किसी चीज को कितना भी गर्म करें। फिर भी खुद बात की बात में वह ठंडी हो जाती है। मगर सूर्य क्यों ठंडा नहीं होता? उसमें ताप कहाँ से आया और बराबर आता ही क्यों कहाँ से रहता है? ऐसे प्रश्नों का उत्तर वे लोग यही देते हैं संसार का काम चलाने के लिए वह ताप और प्रकाश अनिवार्य होने के कारण संसार का निर्माण करने वाली वह दैवी-शक्ति ही यह सारी व्यवस्था कर रही है। इसी प्रकार प्राणियों के शरीरों की रचना वगैरह को भी ले सकते हैं। जाने कितनी बूँदें वीर्य की यों ही गिर जाती हैं और पता नहीं चलता कि क्या हुईं । मगर देखिए उसी की एक ही बूँद स्त्री के गर्भ में जाने से साढ़े तीन हाथ का मोटा-ताजा, विद्वान और कलाकार मनुष्य के रूप में तैयार हो जाता है सिंह, हाथी आदि जंतु बन जाते हैं! यह तो इंद्रजाल ही मालूम होता है! मगर है यह काम किसी अदृश्य हाथ या दिव्य शक्ति का ही। इसलिए उसकी ही पूजा-आराधना करें तो मानव-समाज का कल्याण हो। वह यदि जरा-सी भी नजर फेर दे तो हम क्या से क्या हो जाएँ। शक्ति का भंडार ही तो वह देवता आखिर है न? जिस प्रकार आधिभौतिकवादी जड़-पदार्थों की पूजा करते हैं या यों कहिए कि इन्हीं के अध्ययन में दिमाग खर्चना ठीक मानते हैं, ठीक वैसे ही आधिदैवतवादी देवताओं के ही ध्यान, अंवेषण आदि को कर्तव्य समझते हैं।
आध्यात्मिक पक्ष इन दोनों को ही स्वीकार न करके यही मानता है कि हर चीज की अपनी हस्ती होती है, सत्ता होती है, अपना अस्तित्व होता है। वही उसकी अपनी है, स्व है, आत्मा है। उसे हटा लो, अलग कर दो। फिर देखो कि वह चीज कहाँ चली गई, लापता हो गई! मगर जब तक उसकी आत्मा मौजूद है, सत्ता कायम है तब तक उसमें कितनी ताकतें हैं! बारूद या डिनामाइट से पहाड़ों को फाड़ देते हैं। बिजली के क्या-क्या करामाती काम नहीं होते! आग क्या नहीं कर डालती! दिमागदार वैज्ञानिक क्या-क्या अनोखे आविष्कार करते हैं! हाथी पहाड़ जैसा जानवर कितना बोझ ढो लेता है! सिंह कितनी बहादुरी करता है! मनुष्यों की हिम्मत और वीरता का क्या कहना! मगर ये सब बातें तभी तक होती हैं जब तक इन चीजों की हस्ती है, सत्ता है, आत्मा है। उसे हटा दो, सत्ता मिटा दो। फिर कुछ न देखोगे। अतएव यह आत्मा ही असल चीज है, इसी की सारी करामात है। इसका हटना या मिटना यही है कि हम इसे देख नहीं पाते। यह हमसे ओझल हो जाती है। इसका नाश तो कभी होता नहीं, हो सकता नहीं। आखिर नाश की भी तो अपनी आत्मा है, सत्ता है, हस्ती है। फिर तो नाश होने का अर्थ ही है आत्मा का रहना। यह भी नहीं कि वह आत्मा जुदा-जुदा है। वह तो सबों में - सभी पदार्थों में - एक ही है। उसे जुदा करे कौन? जब एक ही रूप, एक ही काम, एक ही हालत ठहरी, तो विभिन्नता का प्रश्न ही कहाँ उठता है? जो विभिन्नता मालूम पड़ती है वह बनावटी है, झूठी है, धोखा है, माया है। यह ठीक है कि शरीरों में ज्ञान के साधन होने से चेतना प्रतीत होती है। मगर पत्थर में यह बात नहीं। लेकिन आत्मा का इससे क्या? आग सर्वत्र है। मगर रगड़ दो तो बाहर आ जाए। नहीं तो नहीं! ज्ञान को प्रकट करने के लिए इंद्रियाँ आग के लिए रगड़ने के समान ही हैं। इस तरह आध्यात्मिक पक्षवाले सर्वत्र आत्मा को ही देखते हैं, ढूँढ़ते हैं। उसे ही परमात्मा मानते हैं।
अन्य मतवाद
कुछ लोगों का खयाल है कि इन्हीं आधिभौतिक, आदिदैवत एवं आध्यात्मिक - तीनों - पक्षों का जिक्र गीता में किया गया है। उनके मत से गीता का यही कहना है कि हमें इन सभी पक्षों को जानना चाहिए। जिन्हें मुक्ति लेना है और जन्म-मरण से छुटकारा पाना है उन्हें इन सभी पक्षों का मंथन करना ही होगा। वे खामख्वाह इन सबों का मंथन करते हैं। सातवें अध्याय के अंत के जिन दो श्लोकों में ये बातें कही गई हैं और इसीलिए आठवें के शुरू में इनके बारे में पूछने का मौका अर्जुन को मिल गया है, उनमें पहले यानी 29वें श्लोक में तो उनके मत से कुछ ऐसा ही लिखा भी गया है। वह श्लोक यों है, 'जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य यतन्ति ये। ते ब्रह्म तद्विदु: कृत्स्नमध्यात्मं कर्म चाखिलम्॥' इसका अर्थ यह है कि 'जो लोग भगवान का आश्रय लेकर जन्म, मरणादि से छुटकारा पाने की कोशिश करते हैं वे उस ब्रह्म को पूरा-पूरा जान लेते हैं, सभी कर्मों को जान जाते हैं और अध्यात्म आदि को भी जानते हैं।' इससे वे लोग अपना खयाल सही साबित करते हैं।
मगर बात दरअसल ऐसी है नहीं। वस्तुओं के विवेचन के उक्त तीन तरीके हैं सही। इन्हें लोग अपनी-अपनी रुचि एवं प्रवृत्ति के अनुसार ही अपनाते भी हैं। मगर यहाँ उन तरीकों तथा प्रणालियों से मतलब हर्गिज है नहीं। यदि इन श्लोकों से पहले के सिर्फ सातवें अध्याय के ही श्लोकों पर गौर किया जाए तो साफ मालूम हो जाता है कि आत्मा-परमात्मा की एकता के ज्ञान का ही वह प्रसंग है। इसीलिए वही बात किसी न किसी रूप में कई प्रकार से कही गई है। 16-19 श्लोकों में तो भक्तों के चार भेदों को गिना के ज्ञानी को ही चौथा माना है और कहा है कि 'ज्ञानी तो मेरी - भगवान की - आत्मा ही है' - ''ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्'' (7। 18)। इसकी वजह भी बताते हैं कि 'वह तो हमसे - परमात्मा से - बढ़ के किसी को मानता ही नहीं और हमीं में डूब जाता है' - ''आस्थित: सहि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम्'' (7। 18) लेकिन इसके बाद ही जो यह कहा है कि 'संसार में जो कुछ है वह सबका सब वासुदेव - परमात्मा - ही है, ऐसा जो समझता है, वह तो अत्यंत दुर्लभ महात्मा है' - ''वासुदेव: सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभ:'' (7। 19), वह तो बाकी बातों को हवा में मिला देता है। उससे तो स्पष्ट हो जाता है कि यही एक ही चीज दरअसल जानने की है।
इतना ही नहीं। इसके आगे 20-27 श्लोकों में उन लोगों की काफी निंदा भी की गई है जो दूसरे देवताओं या पदार्थों की ओर झुकते हैं। उनकी समझ घपले में पड़ी हुई बताई गई है, 'हृतज्ञाना:' (7। 20)। 'इसीलिए तुच्छ एवं विनाशशील फलों को ही वे लोग प्राप्त कर पाते हैं।' - ''अंतवत्तु फलं तेषां'' (7। 23)। भौतिक दृष्टिवालों के बारे में तो यहाँ तक कह दिया है कि हमारे असली रूप को न जान के ही ऐसे बुद्धिहीन लोग स्थूल रूप में ही हमें देखते हैं -'अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धय:' (7। 24)। आगे के तीन श्लोकों में इसी बात का स्पष्टीकरण हुआ है। अंत में तो यहाँ तक कह दिया है कि रागद्वेष के चलते जो अपने-पराए और भले-बुरे की गलत धारणा हो जाती है उसी का यह नतीजा है कि लोग इधर-उधर इस सृष्टि के भौतिक पदार्थों में भटकते फिरते हैं - 'इच्छाद्वेष समुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत। सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यांति परंतप' (7। 27)। इसके विपरीत जिन सत्कर्मियों में यह रागद्वेषादि ऐब नहीं हैं वे अपने-पराए आदि के झमेले में न पड़ के पक्के निश्चय एवं दृढ़संकल्प के साथ केवल हमीं - परमात्मा - में रम जाते हैं - 'येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम्। ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढ़व्रता:' (7। 28)। इसी के बाद वे श्लोक आए हैं। तब कैसे कहा जाए कि उनमें आधिभौतिक आदि विवेचनों पर जोर दिया गया है या ऐसे विवेचनों की जानकारी अवश्य प्राप्तव्य बताई गई है?
इसके सिवाय उक्त तीन बातों के अलावा ब्रह्म और कर्म की जानकारी की भी तो बात वही लिखी है। शंका भी इन दोनों ही के बारे में की गई है। उत्तर भी दिया गया है। भला अधियज्ञ को तो उन्हीं तीनों के साथ जैसे-तैसे जोड़ के वे लोग पार हो जाते हैं। मगर मरने के समय भगवान की जानकारी कैसे होती है, यह भी तो एक प्रश्न है। पता नहीं वे लोग इसे किस पक्ष में डालते हैं ऐसा तो कोई पुराना पक्ष है नहीं। और अधियज्ञवाला पक्ष तो बिलकुल ही नया है। फिर पुरानों के साथ इसका मेल कैसे होता है? खूबी तो यह है कि उनने 'अधिदेह' नाम का एक दूसरा भी पक्ष यहीं पर खड़ा कर दिया है और यह ऐसा है कि 'न भूतो न भविष्यति।' यदि वे लोग यह समझ पाते कि अध्यात्म शब्द में जो आत्मा शब्द है वह देह के ही मानी में है और जहाँ-तहाँ यह शब्द छांदोग्य, बृहदारण्यक आदि उपनिषदों या और जगह आया है इसी मानी में आया है, तो शायद अधिदेह की बात बोलने की हिम्मत ही न करते। ज्यादा तो नहीं, लेकिन हमारा उनसे यही अनुरोध है कि छांदोग्य के पहले अध्याय का दूसरा, खंड बृहदारण्यक के पहले अध्याय के पाँचवें ब्राह्मण का 21वाँ मंत्र तथा कौषीत की उपनिषद् के चौथे अध्याय के 9-17 मंत्रों को गौर से पढ़ जाएँ। तब उन्हें पता लगेगा कि अध्यात्म में जो आत्मा शब्द है वह शरीर का ही वाचक है या नहीं।
लेकिन जब कर्म, ब्रह्म और मरण काल का ब्रह्मज्ञान किसी पुराने पक्ष की चीज नहीं है तो फिर अध्यात्म वगैरह को ही क्यों पुराने पक्ष में घसीटा जाए? और इन पक्षों को जानने से लाभ ही क्या? किसी विश्वविद्यालय की न तो परीक्षा ही देनी है और न कोई उपाधि ही लेनी है। कोई पुस्तक भी नहीं लिखनी है कि पांडित्य का प्रदर्शन किया जाएगा या खंडन-मंडन ही होगा, जिसके लिए इन अनेक पक्षों की जानकारी जरूरी हो जाती है। यहाँ तो ब्रह्मज्ञान और मोक्ष का ही सवाल है। सो भी मरणकाल की जानकारी की बात उठा के यह भी जनाया है कि विशेष रूप से मरण समय के लिए जरूरी बातें यहाँ बता दी गई हैं। यही कारण है कि चार श्लोकों में ये बातें खत्म करके पाँचवें के ही 'अंतकाले च' आदि शब्दों से शुरू करके उसी अंतकाल या मरण समय की ही बातें अंत तक लिखी गई हैं। तरीका भी बताया गया है कि किस प्रकार उस समय आत्मा और ब्रह्म का साक्षात्कार होता है। मरने पर लोग किन-किन रास्तों से हो के जाते हैं यह बात भी अंत में कही गई है। ऐसी हालत में आधिभौतिक आदि मतवादों का तो यहाँ अवसर ही नहीं है। इसीलिए मानना पड़ता है कि इन बखेड़ों से यहाँ कोई भी मतलब नहीं है।
अपना पक्ष
असल बात यह है कि प्राचीन समय में कुछ ऐसी प्रणाली थी कि हम क्या हैं, यह संसार क्या है और हमारा इसके साथ संबंध क्या है, इन्हीं तीन प्रश्नों को लेकर जो अनेक दर्शनों की विचारधाराएँ हुई थीं और आत्मा-परमात्मा आदि का पता लगा था, या यों कहिए कि इनकी कल्पना की गई थी, उन्हीं में एक व्यावहारिक या अमली धारा ऐसी भी थी कि उसके माननेवाले निरंतर चिंतन में लगे रहते थे। उनकी बात कोई शास्त्रीय-विवेचन की पद्धति न थी। वे तो खुद दिन-रात सोचने-विचारने एवं ध्यान में ही लगे रहते थे। इसीलिए हमने उनकी धारा या प्रणाली को अमली और व्यावहारिक (Practical) कहा है। इस प्रणाली के सैद्धांतिक पहलू पर लिखने-पढ़ने या विवाद करने वाले भी लोग होंगे ही। मगर हमारा उनसे मतलब नहीं है और न गीता का ही है। गीता में तो अमली बात का वह प्रसंग ही है। वही बात वहाँ चल रही है। आगे भी मरण समय की बात आ जाने के कारण अमली या व्यावहारिक चीज की ही आवश्यकता हो जाती है। मरणकाल में कोरे दार्शनिकवादों से सिवाय हानि के कुछ मिलने-जुलनेवाला तो है नहीं।
ऐसे लोगों ने दृश्य - बाहरी - संसार को पहले दो भागों में बाँटा। पहले भाग में रखा अपने शरीर को। अपने शरीर से अर्थ है चिंतन करनेवालों के शरीर से। फिर भी इस प्रकार सभी जीवधारियों के शरीर, या कम से कम मनुष्यों के शरीर इस विभाग में आ जाते हैं। क्योंकि सोचने-विचारने का मौका तो सभी के लिए है। हालाँकि एक आदमी के लिए दूसरों के भी शरीर वैसे ही हैं जैसे अन्न, वस्त्र, पृथिवी, वृक्ष आदि पदार्थ। शरीर के अतिरिक्त शेष पदार्थों को भूत या भौतिक माना गया। पीछे इन भौतिक पदार्थों के दो विभाग कर दिए गए। एक तो ऐसों का जिनमें कोई खास चमत्कार नहीं पाया जाता। इनमें आ गए वृक्ष, पर्वत, नदी, समुद्र, पृथिवी आदि। दूसरा हुआ उन पदार्थों का जिनमें चमत्कार पाया गया। इनमें आए चंद्र, सूर्य, विद्युत आदि। इस प्रकार शरीर, पृथिवी आदि सूर्य प्रभृति, इन तीन विभागों में दृश्य संसार को बाँट दिया गया। शुरू में तो शरीर के सिवाय आत्मा, स्व, या निज नाम की और चीज का पता था नहीं। इसलिए शरीर को ही आत्मा भी कहते थे। पृथिवी आदि स्थूल पदार्थों को, जिनमें चमत्कार या दिव्य-शक्ति नहीं देखी गई, भूत कहने लगे। भूत का अर्थ है ठोस। इन्हें छू के इनका ठोसपन जान सकते थे। मगर जो आदमी की पहुँच के बाहर के सूर्य, चंद्र, विद्युत्, आदि पदार्थ थे उन्हें देवता, देव या दिव्य कहते थे। इनके ठोसपन का पता तो लगा सकते न थे। ये चीजें आकाश में ही नजर आती हैं। इसलिए आकाश को भी दिव् या द्यु कहते थे। वह ठोस भी तो नहीं है। जिस स्वर्ग नामक स्थान में इन दिव्य पदार्थों का निवास माना गया वह भी दिव् या द्यु कहा जाने लगा।
इस प्रकार आत्म या आत्मा, भूत और देव या देवता इन - तीन - विभागों के हो जाने के बाद सोचने-विचारने, चिंतन या ध्यान की प्रक्रिया आगे बढ़ी। आगे चल के शरीर के विश्लेषण करने पर इंद्रिय प्राण, बुद्धि आदि को शरीर से स्वतंत्र स्वीकार करना पड़ा। भौतिक शरीर को छोड़ देने के बाद भी इंद्रिय, प्राणादि रहते हैं। तभी तो जन्म, मरण, पुनर्जन्म आदि की बात मानी जाती है। यदि ये अलग न होते तो कौन जाता, कौन आता और किसका जन्म बार-बार होता? फलत: आत्मा या शरीर में रहने के कारण ही इंद्रियादि को अध्यात्म कहा गया। उपनिषदों में यही बात रह-रह के लिखी पाई जाती है। पाणिनीय व्याकरण के अव्ययीभाव समास के नियमानुसार यही अर्थ भी अध्यात्म शब्द का है कि आत्मा में रहने वाला। 'अधि' को अव्यय कहते हैं। उसी का आत्म शब्द के साथ समास हो के अध्यात्म बना है। फिर कालांतर में जब अंवेषण और भी आगे बढ़ा तो शरीर, इंद्रियादि से अलग आत्मा नामक एक अजर-अमर पदार्थ की कल्पना हुई। उसकी भी जानकारी तो शरीर में ही होती है। उसे भी इसीलिए अध्यात्म कह दिया। उसी आत्मा को जब परमात्मा मान लिया और इसका विवेचन भी किया गया तो सभी विवेचनों को अध्यात्मशास्त्र, आध्यात्मिकशास्त्र या आध्यात्मिक विवेचन नाम दिया गया।
इसी प्रकार भौतिक पदार्थों या भूतों का भी विश्लेषण एवं विवेचन किया गया और उनमें जो रूप, रस, गंध आदि खूबियाँ या विशेषताएँ पाई गईं उन्हें अधिभूत कहा गया। वे भूतों में ही जो पाई गईं। कुछ अंवेषणकर्त्ता यहीं टिक गए और आगे न बढ़े। दूसरे लोग आगे बढ़े और इन भूतों में भी सत्ता, अस्तित्व आदि जैसी चीजों का पता लगाया। इनके बारे में हमने पहले ही बहुत कुछ कहा है। इसी प्रकार देव या देवता कहे जाने जानेवालों की भी जाँच-पड़ताल होती रही। भूतों के अंवेषण होने पर जिन पदार्थों को अधिभूत कहा गया उनके संबंध के विवेक, विचार और मंथन आदि को ही आधिभौतिक नाम दिया गया। इसी तरह देवों या देवताओं में जो भी विभूति, खूबी, चमक, आभा वगैरह जान पड़ी उसे अधिदेव, अधिदैव या अधिदैवत नाम दिया गया। तत्संबंधी चिंतन, ध्यान या विवेचन भी आधिदैवत, आधिदैव या आधिदैविक कहा जाने लगा। पीछे तो लोगों ने अधिभूत और अधिदैव को एक में मिला के सबों के भीतर एक अंतर्यामी पदार्थ को मान लिया, जो सबों को चलाता है, कायम रखता है, व्यवस्थित रखता है। उसी अंतर्यामी को ब्रह्म या परमात्मा कहने लगे। सबसे बड़ा होने के कारण ही उसे ब्रह्म कहना शुरू किया। शरीर के भीतरवाली आत्मा को व्यष्टि मान के ब्रह्म को परमात्मा, बड़ी आत्मा या समष्टि आत्मा कहने की रीति चल पड़ी।
ऊपर हमने जो कुछ लिखा है वह शुरू से लेकर आज तक की स्थिति का संक्षिप्त वर्णन है। शुरू से ही यह हालत तो थी नहीं। यह परिस्थिति तो क्रमिक विकास होते-होते पैदा हो गई है। जब स्वतंत्र रूप से लोगों का चिंतन चलता था तो कोई अध्यात्म-विमर्श में लगे थे, कोई अधिदैव-विचार में और कोई अधिभूत-विवेचन में। यह तो संभव न था कि सभी लोग सभी बातें सोच सकें। तब तो सभी बातें अधूरी ही रह जातीं। कोई भी पूरी न हो पाती, अंत तक पहुँच पाती नहीं। और ज्ञान की वृद्धि के लिए वह अधूरापन सर्वथा अवांछनीय है, त्याज्य है। यही कारण है कि अलग-अलग सोचने वाले अपने-अपने कामों में लीन थे। यही कारण है कि जब तक सब लोग गोष्ठी या परस्पर विमर्श नहीं कर लेते थे तब तक अनेक स्वतंत्र निश्चयों पर पहुँचते थे। यह बात स्वाभाविक थी। श्वेताश्वतर उपनिषद् के पहले ही दो मंत्रों 'ब्रह्मवादिनो वदन्ति, किं कारणं ब्रह्म कुत: स्म जाता:' आदि, तथा 'काल: स्वभावो नियतिर्यदृच्छा' आदि में यही मतभेद और विचारभेद बताया गया है। साथ ही सभी सोचने वालों को ब्रह्मवादी ही कहा है, न कि किसी को भी कमबेश। उसी के छठे अध्याय के पहले मंत्र में भी इसी प्रकार के विचार-विभेद का उल्लेख 'स्वभावमेके कवयो वदन्ति' आदि के द्वारा किया है। वहाँ सबों को कवि या सूक्ष्मदर्शी कहा है। छांदोग्य के छठे अध्याय के दूसरे खंड के पहले ही मंत्र में 'सदेव सोम्येदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयम् तद्धैक आहुरसदेवेदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयम्' आदि के जरिए यही विचार विभिन्नता बताई गई है और अगले 'कुतस्तु खलु' मंत्र में इसी का खंडन-मंडन लिखा गया है। फलत: विभिन्न विचारों के प्रवाह होने जरूरी थे।
वैसी हालत में जो परम कल्याण या मोक्ष की आकांक्षा रखता हो उसके दिल में यह बात स्वभावत: उठ सकती है कि कहीं धोखा और गड़बड़ न हो जाए; कहीं ऐसा रास्ता न पकड़ लें कि या तो भटक जाएँ या परेशानी में पड़ जाएँ; कहीं ऐसे मार्ग में न पड़ें जो अंत तक पहुँचने वाला न हो के मुख्य मार्ग से जुटने वाली पगडंडी या छोटी-मोटी सड़क हो; राजमार्ग के अलावा कहीं दूसरे ही मार्ग के पथिक न बन जाएँ; कहीं ऐसा न हो कि मार्ग तो सही हो, मगर उसके लिए जरूरी सामान संपादन करने वाले उपाय या रास्ते छूट जाएँ और सारा मामला अंत में खटाई में पड़ जाए। जो सभी विचारपद्धतियों एवं चिंतनमार्गों को बखूबी नहीं जानते और न उनके लक्ष्य स्थानों का ही पता रखते हैं उनके भीतर ऐसी जिज्ञासा का पैदा होना अनिवार्य है। जिन्हें सभी विचार प्रवाहों का समन्वय या एकीकरण विदित न हो और जो यह समझ सके न हों कि पुष्पदंत के शब्दों में रुचि या प्रवृत्ति के अनुसार अनेक मार्गों को पकड़ने वाले अंत में एक ही लक्ष्य तक - परमात्मा तक - पहुँचते हैं - 'रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथ जुषाम्, नृणामे को गम्यवत्वमसि पयसामर्णव इव,' वे तो घबरा के सवाल करेंगे ही कि 'परमात्मा का ध्यान तो हम करेंगे सही, लेकिन अध्यात्म, अधिदैव, अधिभूत का क्या होगा? उनकी जानकारी हमें कैसे होगी? यदि न हो तो कोई हानि तो नहीं?'
सबसे बड़ी बात यह है कि उस काम में फँस जाने पर कर्मों से तो अलग हो जाना ही होगा। यह तो संभव नहीं कि ध्यान और समाधि भी करें और कर्मों को भी पूरा करें। ऐसी दशा में संसार का एवं समाज का कल्याण कहीं गड़बड़ी में न पड़ जाए यह खयाल भी परेशान करेगा ही। उनका यह काम ऐसे मंगलकारी कर्मों के भीतर तो शायद ही आए। कम से कम इसके बारे में उन्हें संदेह तो होगा ही। फिर काम कैसे चलेगा? और अगर जानकार लोग ही समाज के लिए मंगलकारी कामों को छोड़ के अपने ही मतलब में - अपनी ही मुक्ति के साधन में - फँस जाएँ, तो फिर संसार की तो खुदा ही खैर करे। तब तो संसार पथदर्शन के बिना चौपट ही हो जाएगा। इसके अतिरिक्त यज्ञवाला प्रश्न भी उन्हें परेशान करेगा। जब पहले ही कहा जा चुका है कि 'यज्ञों के बिना तो यहीं खैरियत नहीं होती, परलोक का तो कुछ कहना ही नहीं' - ''नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्य: कुरुसत्तम'' (4। 31), तो काम कैसे चलेगा? तब तो सब खत्म ही समझिए। यज्ञ के ही बारे में एक बात और भी उठ सकती है। यदि कहा जाए कि यज्ञ तो व्यापक चीज है। अतएव ध्यान और समाधि के समय भी होता ही रहता है, तो सवाल होता है कि यज्ञ में असल लक्ष्य, असल ध्येय कौन है जिसे संतुष्ट किया जाए? कहीं वह कोई दूसरा तो नहीं है। ज्ञान, ध्यान तो शरीर के भीतर ही होता है और यह यदि यज्ञचक्र में आ गया तब तो अच्छी बात है। तब तो बीमारी, दुर्बलता, अशक्ति और मरणावस्था में भी यह हो सकता है। इसलिए तब खासतौर से यह जानना जरूरी हो जाता है कि शरीर के भीतर जब यज्ञ होता है तो उससे किसकी तृप्ति होती है, कौन संतुष्ट होता है? कहीं नास्तिकों की तरह खाओ-पिओ, मौज करो की बात तो नहीं होती और केवल अपना ही संतोष तो नहीं होता? असल में उस यज्ञ से परमात्मा तक पहुँचते हैं या नहीं यही प्रश्न है। इसीलिए देह के भीतर ही अधियज्ञ को जानने की उत्कंठा हुई है। क्योंकि सबसे महत्त्वपूर्ण चीज यही है और सबसे सुलभ भी। मगर यदि इससे इंद्रियादि की ही पुष्टि हुई तो सारा गुड़ गोबर हो जाएगा। इसीलिए सभी प्रश्न किए गए हैं। यह ठीक है कि सातवें अध्याय के अंत में कृष्ण ने कह दिया है कि वह ज्ञान सर्वांगपूर्ण है - इसमें कोई कमी नहीं है; क्योंकि अधिभूत आदि को भी ऐसा पुरुष बखूबी जानता है। लेकिन जब तक अर्जुन को पता न लग जाए कि आखिर ये अधिभूत आदि हैं क्या, तब तक संतोष हो तो कैसे? इसलिए आठवें के शुरू में उसने यही पूछा है, यही प्रश्न किए हैं।
उनके उत्तर भी ठीक वैसे ही हैं जिनसे पूछने वाले को पूरा संतोष हो जाए। मरने के समय भगवान को जानने की जो उत्कंठा दिखाई गई थी उसका संबंध अधियज्ञ से ही है। इसीलिए उसे उसके बाद ही रखा है और उसका उत्तर शेष समूचे अध्याय में दिया गया है। क्योंकि सब प्रश्नों का मतलब चौपट हो जाए, यदि वह बात न हो सके। अर्जुन को यह भी खयाल था कि कृष्ण कहीं अपने आपकी ही भक्ति की बात न करते हों, और इस प्रकार ब्रह्मज्ञान से नाता ही न रह जाने पर कल्याण में बाधा न पड़ जाए। इसीलिए अर्जुन ने पूछा कि आखिर वह ब्रह्म क्या है? आपसे या ईश्वर से अलग है या एक ही चीज? उसका यह भी खयाल था कि कहीं ब्रह्म या परमात्मा भी वैसा ही चंदरोजा न हो जैसी यह दुनिया। तब तो मुक्ति का यत्न ही बेकार हो जाएगा। हिरण्यगर्भ को भी तो ब्रह्मा या ब्रह्म कहते हैं और उसका नाश माना जाता है। यही कारण है कि उस ब्रह्मा से पृथक परम अक्षर या अविनाशी ब्रह्म का निरूपण आगे किया गया है। वहाँ बताया गया है कि क्यों ब्रह्मा का नाश होता है और कैसे, लेकिन अक्षर ब्रह्म का क्यों नहीं?
उत्तर से सभी बातों की पूरी सफाई हो जाती है। परम अक्षर को ब्रह्म कहा है। असल में पंदरहवें अध्याय के 'द्वाविमौ पुरुषौ लोके' (16) श्लोक में जीव को भी अक्षर कहा है। इसीलिए परम आत्मा - परमात्मा - की ही तरह यहाँ परम अक्षर कहने से परमात्मा का ही बोध होता है। नहीं तो गड़बड़ होती।
अध्यात्म को स्वभाव कहा है। ब्रह्म के बाद स्वभाव शब्द आने से इसमें स्व का अर्थ वही ब्रह्म ही है। उसी का भाव या स्वरूप स्वभाव कहा जाता है। अर्थात अध्यात्म, जीव या आत्मा ब्रह्म का ही रूप है। गीता में स्वभाव शब्द कई जगह आया है। अठारहवें अध्याय के 41-44 श्लोकों में कई बार यह शब्द प्रकृति या गुणों के अनुसार दिल-दिमाग की बनावट के ही अर्थ में आया है। उसी अध्याय के 60वें श्लोक वाले का भी वही अर्थ है। पाँचवें अध्याय के 'न कर्त्तृव्यं' (14) श्लोक में जो स्वभाव है उसका अर्थ है सांसारिक पदार्थों या सृष्टि का नियम। मगर जैसे अठारहवें अध्याय के स्वभाव शब्द में स्व का अर्थ है गुण और तदनुसार रचना, उसी तरह पाँचवें अध्याय में स्व का अर्थ है इसके पहले के सांसारिक पदार्थ, जिनका जिक्र उसी श्लोक में हैं। सातवें अध्याय के ही 20वें श्लोक में जो भाव शब्द है उसका अर्थ है पदार्थ या हस्ती-अस्तित्व। ठीक उसी प्रकार इस श्लोक में भी स्वभाव का अर्थ हो जाता है ब्रह्म का भाव, अस्तित्व या रूप। दूसरा अर्थ ठीक नहीं होगा।
कम का जो स्वरूप बताया गया है वह भी व्यापक है। 'भूतभावोद्भवकरो विसर्ग:' यही उसका स्वरूप है। इसका अर्थ है जिससे पदार्थों का अस्तित्व, वृद्धि या उत्पत्ति हो उस त्याग, जुदाई या पार्थक्य को कर्म कहते हैं। यहाँ विसर्ग शब्द और सातवें के 27वें का सर्ग शब्द मिलते-जुलते हैं। संस्कृत के धातुपाठ में जो धातुओं का अर्थ लिखा गया है वहाँ सृज धातु का विसर्ग ही अर्थ लिखा है। पहले कह चुके हैं कि 'तपाम्यमहं वर्षं' (9। 19) श्लोक में उत्सृजामिका जो उत्सर्ग अर्थ है वही विसर्ग का भी है। दोनों में सृज धातु ही है। वर्णमाला में आखिर अक्षर जो स्वरगणना में पाया जाता है उसे भी विसर्ग एवं विसर्जनीय कहते हैं। ब्राह्मणग्रंथों में 'वैसर्जन होम' आता है। वहाँ भी विसर्जन का अर्थ है समाप्ति या खात्मा, या छोड़ देना। स्वरों का अंत होने के कारण ही विसर्ग आखिरी स्वरवर्ण है। वहाँ भी उस सिलसिले का अंत है। मल-मूत्रादि के त्याग या वीर्यपात को भी विसर्ग कहते हैं। सारांश यह है कि जिस चीज के छोड़ने, अलग करने, पूरा करने, प्रयोग करने, त्यागने से सृष्टि की उत्पत्ति, रक्षा, वृद्धि आदि हो सके वही कर्म है। इस प्रकार इस व्यापक अर्थ में ज्ञान, ध्यान, समाधि वगैरह का भी समावेश हो जाता है और इस तरह प्रश्नकर्त्ता का शक जाता रहता है। यह कम कल्याणकारी चीजें नहीं हैं। गीता का कर्म कोई पारिभाषिक या खास ढंग की चीज नहीं है, यही आशय है।
'अधिभूतं क्षरोभाव:' का अर्थ है कि पदार्थों का जो क्षर स्वरूप है, या यों कहिए कि उनकी विनाशिता है वही अधिभूत है। भाव शब्द तीन बार इतनी ही दूर में आ गया है और तीनों का एक ही अर्थ है सत्ता, अस्तित्व या रूप। पहले कह चुके हैं कि आखिर दृश्यजगत या भौतिक पदार्थों में जो विनाशिता है वह तो अजर-अमर है। यदि वह ऐसी न हो और सदा रहने वाली न हो तो पदार्थ ही अविनाशी बन जाएँ। इसीलिए वही उनका असली रूप है, स्व है, आत्मा है। आत्मा को तो गीता ने बार-बार अविनाशी कहा है। इस संबंध में बृहदारण्यक का वचन भी पहले ही लिखा जा चुका है। इस प्रकार अधिभूत भी आत्मा या परमात्मा से जुदा नहीं है। मगर उसे जिस ढंग से कहा है उसमें सुंदर दार्शनिकता पाई जाती है। इसी अध्याय के 20वें श्लोक में भाव शब्द जिस अर्थ में आया है वही अर्थ यहाँ भी है - पदार्थों का असल मूल वही है जिसे आत्मा या परमात्मा कहते हैं।
'पुरुषश्चाधिदैवतम्' का अर्थ है कि 'पुरुष ही अधिदैवत है।' गीता के 'द्वाविमौ पुरुषौ' श्लोक की बात कह चुके हैं। उसमें पुरुष आता है। उसी में 'क्षर: सर्वाणि भूतानि' भी लिखा है, जिससे अधिभूत का अर्थ साफ होता है। मगर प्रकृति तथा जीव दोनों को ही पुरुष कहा गया है, यह बात याद रखने की है। उससे आगे के 17वें श्लोक में 'उत्तम: पुरुष:' शब्दों में परमात्मा को उत्तम पुरुष या दोनों से ही पृथक बताया है और 18वें में उसी को पुरुषोत्तम भी कहा है। इससे सिद्ध हो जाता है कि आधिदैवत भी वही परमात्मा या पुरुष है और है वह सभी का स्वरूप 'वासुदेव: सर्वम्।'
अंत में 'अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे' के द्वारा यह कह दिया है कि मैं - परमात्मा - ही सभी शरीरों के भीतर अधियज्ञ हूँ। जो दिन-रात, श्वास-प्रश्वास, खानपान, निद्रा, बोलचाल, विचार, ध्यान आदि के रूप में 'यत् करोऽषि यदश्नासि' (9। 27) के अनुसार अखंड यज्ञ जारी है उससे भगवान की ही पूजा हो रही है, यही इसका आशय है। यह पूजा सुलभ और सुकर है। फलत: चिंता का अवसर रही नहीं जाता।
सातवें अध्याय के अंतिम - 29, 30 - श्लोकों में जो कुछ कहा है वह भी हमारे पूर्व के बताए इसी अर्थ का पोषक है। उन दोनों श्लोकों का पूरा विचार किया जाए तो यही अभिप्राय व्यक्त होता है कि जन्म-मरण आदि के संकटों से छुटकारा सदा के लिए पा जाने के विचार से जो लोग भगवान में ही रमते और यही काम करते हैं वह उस पूर्ण ब्रह्म को भी जानते हैं, अध्यात्म को भी और सभी कर्मों को भी। अधिभूत, अधिदैव तथा अधियज्ञ के रूप में भी भगवान को वही जानते हैं। इसीलिए पूर्ण योगी होने के कारण मरण समय में भी परमात्मा को साक्षात जान लेते हैं। दूसरे शब्दों में इसका आशय यह है कि जो लोग अधिभूत, अधिदैव, अधियज्ञ, अध्यात्म, ब्रह्म और कर्म को जानते हैं वही परमात्मा को अंत में भी जानते हैं। वही जरामरण - जन्ममरण - से छुटकारा पाने का यत्न भी ठीक-ठीक करते हैं। हर हालत में जानने से ही मतलब है; न कि शास्त्री य पद्धति एवं वादविवाद से। ये सभी एक ही चीज हैं यह इससे साफ हो जाता है। 'एकै साधे सब सधै' भी चरितार्थ हो जाता है। इसलिए भगवान में रमनेवाले के लिए चिंता की कोई गुंजाइश रह जाती नहीं।
एक ही बात और कहके इस लंबे विवेचन को पूरा करेंगे। जिस सातवें अध्याय में अध्यात्म आदि आए हैं और आठवें तक चले गए हैं उसके शुरू का ही श्लोक ऐसा है, 'ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषत:। यज्ज्ञात्वा नेह भूयोन्यज्ज्ञातव्यम विशिष्यते' (7। 2)। इसका भाव यह है कि 'हम तुम्हें ज्ञान-विज्ञान दोनों ही बताएँगे, सो भी पूरा-पूरा। उसके बाद तो कुछ जानना बाकी रही नहीं जाएगा।' इससे यह स्पष्ट होता है कि आगे जो कुछ कहा गया है वह ज्ञान और विज्ञान के ही सिलसिले में विस्तार के साथ आया है। ज्ञान और विज्ञान की बात यहीं से शुरू हो के सत्रहवें अध्याय के अंत तक पाई जाती है। अठारहवें में भी बहुत कुछ वही है। सातवें अध्याय का तो नाम ही है ज्ञान-विज्ञान योग। नवें अध्याय के पहले श्लोक में भी 'ज्ञानं विज्ञानसहितं' आया ही है। इस पर आगे और भी लिखेंगे। लेकिन ज्ञान-विज्ञान की बात चालू है यह तो मानना ही होगा। उसी प्रसंग से अध्यात्म आदि आए हैं यह भी निर्विवाद है।
और यह ज्ञान एवं विज्ञान है क्या चीज? ज्ञान तो है जानकारी या अनुभव और उसमें जब विशेषता या खूबी आ जाए तो वह हुआ विज्ञान। किसी ने हमें कह दिया या हमने कहीं पढ़ लिया कि सफेद और पीले रंगों को मिला के लाल तैयार करते हैं। यही हुआ लाल रंग के बारे में ज्ञान। इसे सामान्य जानकारी भी कह सकते हैं। मगर जब हमने खुद दोनों रंगों को मिला के लाल रंग तैयार कर लिया और उसकी पूरी जानकारी हासिल कर ली, तो वही हो गया विज्ञान। दूसरा दृष्टांत लीजिए। कहीं पढ़ लिया या जान लिया कि हाइड्रोजन और ऑक्सीजन नामक हवाओं को विभिन्न अनुपात में मिलाने से ही जल तैयार हो जाता है। यह ज्ञान हुआ। और जब किसी प्रयोगशाला में जा के हमने इसका प्रयोग खुद करके देख लिया या दूसरों से प्रयोग करा लिया तो वही विज्ञान हुआ। विज्ञान से वस्तु के रगरेशे की जानकारी हो जाती है।
प्रकृत में भी यही बात है। यों ही आत्मा-परमात्मा या जीव-ब्रह्म और संसार की बात कह देने से काम नहीं चलता। वह बात दिल में बैठ पाती नहीं। यदि बैठाना है तो उसका प्रयोग करके देखना होगा - यह देखना होगा कि किस पदार्थ से कौन कैसे बनता है, रहता है, खत्म होता है। यदि परमात्मा ही सब कुछ है तो कैसे, इसका विश्लेषण करना होगा। जब तक ब्योरेवार सभी चीजों को अलग-अलग करके न देखेंगे तब तक हमारा ज्ञान पक्का न होगा, विज्ञान न होगा, दिल में बैठेगा नहीं। फलत: उससे कल्याण न होगा। इसीलिए अध्यात्म, अधिभूत आदि विभिन्न रूपों में आत्मा या परमात्मा का जानना जरूरी हो जाता है और इसीलिए उसका उल्लेख आया है। बिना इसके जिज्ञासुओं को संतोष कैसे हो?
इसीलिए सातवें के आखिरी - 30वें - श्लोक का जो लोग ऐसा अर्थ करते हैं कि भगवान के ज्ञान के साथ ही अधिभूत आदि का पृथक ज्ञान होना चाहिए, यही गीता की मंशा है, वह भूलते हैं। वहाँ तो सबों को परमात्म स्वरूप ही - 'वासुदेव: सर्वमिति' - जानना है। ब्रह्म तथा अधियज्ञ को तो परमात्म-रूप साफ ही कहा है। जीव - अध्यात्म - भी तो वही है। हाँ, कर्म शायद अलग हो। मगर वह तो व्यापक है। फलत: अंततोगत्वा वह भी जुदा नहीं है।
4. कर्मवाद और अवतारवाद
गीता की अपनी निजी बातों पर ही अब तक प्रकाश डाला गया है। मगर गीता में कुछ ऐसी बातें भी पाई जाती हैं, जो उसकी खास अपनी न होने पर भी उनके वर्णन में विशेषता है, अपनापन है, गीता की छाप लगी है। वे बातें तो हैं दार्शनिक। उन पर दर्शनों ने खूब माथापच्ची की है, वाद-विवाद किया है। गीता ने उनका उल्लेख अपने मतलब से ही किया है। लेकिन खूबी उसमें यही है कि उन पर उसने अपना रंग चढ़ा दिया है, उन्हें अपना जामा पहना दिया है। गीता की निरूपणशैली पौराणिक है। इसके बारे में आगे विशेष लिखा जाएगा। फलत: इसमें पौराणिक बातों का आ जाना अनिवार्य था। हालाँकि ज्यादा बातें इस तरह की नहीं आई हैं। एक तो कुछ ऐसी हैं जिन्हें ज्यों की त्यों लिख दिया है। इसे दार्शनिक भाषा में अनुवाद कहते हैं। वैसा ही लिखने का प्रयोजन कुछ और ही होता है। जब तक वे बातें लिखी न जाएँ आगे का मतलब सिद्ध हो पाता नहीं। इसलिए गीता ने ऐसी बातों का उपयोग अपने लिए इस तरह कर लिया है कि उनके चलते उसके उपदेश का प्रसंग खड़ा हो गया है।
मगर ऐसी भी एकाध पौराणिक बातें आई हैं जिन्हें उसने सिद्धांत के तौर पर, या यों कहिए कि एक प्रकार से अनुमोदन के ढंग पर लिखा है। वे केवल अनुवाद नहीं हैं। उनमें कुछ विशेषता है, कुछ तथ्य है। ऐसी ही एक बात अवतारवाद की है। चौथे अध्याय के 5-10 श्लोकों में यह बात आई है और बहुत ही सुंदर ढंग से आई है। यह यों ही कह नहीं दी गई है। लेकिन गीता की खूबी यही है कि उस पर उसने दार्शनिक रंग चढ़ा दिया है। यदि हम उन कुल छह श्लोकों पर गौर करें तो साफ मालूम हो जाता है कि पुराणों का अवतार वाला सिद्धांत दार्शनिक साँचे में ढाल दिया गया है। फलत: वह हो जाता है बुद्धिग्राह्म। यदि ऐसा न होता, तो विद्वान और तर्क-वितर्क करने वाले पंडित लोग उसे कभी स्वीकार नहीं कर सकते। मजा तो यह है कि दार्शनिक साँचे में ढालने पर भी वह रूखापन, वह वाद-विवाद की कटुता आने नहीं पाई है जो दार्शनिक रीतियों में पाई जाती है। सूखे तर्कों और नीरस दलीलों की ही तो भरमार वहाँ होती है। वहाँ सरसता का क्या काम? दार्शनिक तो केवल वस्तुतत्त्व के ही खोजने में परेशान रहते हैं। उन्हें फुरसत कहाँ कि नीरसता और सरसता देखें?
ईश्वरवाद
हम उसी चीज पर यहाँ विशेष प्रकाश डालने चले हैं। लेकिन उस अवतारवाद की जड़ में कर्मवाद है और है यह दार्शनिकों की चीज। गीता ने उसी को ले लिया है इसलिए जब तक कर्मवाद का विवेचन नहीं कर लिया जाता, अवतारवाद का रहस्य समझ में आ सकता नहीं। यही कारण है कि हम पहले कर्मवाद की ही बात उठाते हैं। यह कर्म का सिद्धांत किसी न किसी रूप में अन्य देशों के भी बहुतेरे दार्शनिकों ने - पुरानों ने और नयों ने भी - माना है। यह दूसरी बात है कि उनने खुल के ऐसा न लिखा हो। उनके अपने लिखने के तरीके भी तो निराले ही थे और सोचने के भी। इसीलिए उनने यह बात निराले ही ढंग से - अपने ही ढंग से - मानी या लिखी है। मगर हमारे देश के तो आस्तिक-नास्तिक सभी दार्शनिकों ने यह कर्मवाद स्वीकार किया है, सिवाय चार्वाक के। न्याय, सांख्य आदि दर्शनों के अलावे जैन, बौद्ध, पाशुपत आदि ने भी इसे साफ स्वीकार किया है। यह बात तो पहले ही कही जा चुकी है कि गीता ने भी कर्मवाद को माना है। मगर वह पौराणिक ढंग के कर्मवाद को स्वीकार न करके दार्शनिक कर्मवाद को ही मानती है, यह भी बताया जा चुका है। गीता के और और स्थानों में भी यह बात पाई जाती है। अठारहवें अध्याय के 'दैव चैवात्र पंचमम्' (18। 14) में यही बात 'दैव' शब्द से कही गई है, यह भी कह चुके हैं। चौथे अध्याय के 'जन्म कर्म च मे दिव्यम्' (4। 9) में दैव की जगह दिव्य शब्द आया है। मगर बात वही है। दोनों शब्दों का अर्थ भी एक ही है। दिव् शब्द से ही दिव्य या दैव शब्द बनते भी हैं। यों तो उसके 7, 8 - दो - श्लोकों में जो कुछ कहा गया है वह कर्मवाद के ही आधार पर कहा जा सकता है। दूसरे ढंग से वह कभी भी युक्तिसंगत होई नहीं सकता।
हाँ, तो आइए जरा इस कर्मवाद की दार्शनिक तह में पहले घुसें और देखें कि इसकी हकीकत क्या है। हम पहले कह चुके हैं कि पदार्थों में बराबर परिवर्तन जारी है। फलत: कुछी दिनों बाद चीजें बदल के एकदम नई बन जाती है। यद्यपि हमें ऐसा पता नहीं चलता और न हम यही समझ पाते हैं कि सचमुच कोई चीज बदल चुकी है। इस बात में वैज्ञानिकों की भी सम्मति दी जा चुकी है। गीता ने भी यह बात शुरू में ही 'देहिनोऽस्मिन्' (2। 13) में स्वीकार की है। हमने वहीं पर इस परिवर्तन के दृष्टांत के रूप में किसी कोठी या बरतन में बंद करके रखे गए चावल का दृष्टांत भी दिया है और बताया है कि किस तरह नया चावल कुछ दिनों में बदल के बिलकुल ही दूसरा बन जाता है। यहाँ भी हम फिर उसी दृष्टांत को लेंगे। हालाँकि जो कुछ विचार अब करेंगे वह दूसरे ढंग से, दूसरे पहलू से होगा। मगर इसे समझने के लिए वहाँ लिखी सभी बातें स्मरण कर लेने की हैं। दुबारा लिखना व्यर्थ है। वैज्ञानिक की प्रयोगशाला की भी जो बात वहाँ लिखी है, खयाल कर लेने की है।
जब हम देखते हैं कि प्रतिक्षण, प्रति सेकंड हरेक पदार्थ से अनंत परमाणु निकलते और उनकी जगह नए-नए आ धमकते हैं तो हमें आश्चर्यचकित हो जाना पड़ता है। इसलिए प्रयोगशाला में बैठ के ही यह बात सोचने की है। क्योंकि दूसरे ढंग से इस पर आमतौर से लोगों को विश्वास होई नहीं सकता। लोगों के दिमाग में यह बात समाई नहीं सकती कि प्रतिक्षण हरेक पदार्थ के भीतर से असंख्य परमाणु निकलते और भागते रहते हैं और उनकी जगह ले लेते हैं नए-नए बाहर से आ के। विज्ञान के प्रताप से यह बात अब लोगों के दिमाग में आसानी से आ जाती है। मगर पुराने जमाने में जब ये वैज्ञानिक यंत्र कहीं थे नहीं और न ये प्रयोगशालाएँ थीं तब हमारे दार्शनिक विद्वानों ने ये बातें कैसे सोच निकालीं यह एक पहेली ही है। फिर भी इसमें तो कोई शक हई नहीं - यह तो सर्वमान्य बात है - कि उनने ये बातें सोची थीं, ढूँढ़ निकाली थीं। इन्हीं के अंवेषण, पर्यवेक्षण और सोच-विचार ने उन्हें अगत्या कर्मवाद के सिद्धांत तक पहुँचाया और उसे मानने को मजबूर किया। या यों कहिए कि इन्हीं को ढूँढ़ते-ढूँढ़ते उनने कर्मवाद का सिद्धांत ढूँढ़ निकाला।
हमारे नैयायिक दार्शनिकों का एक पुराना सिद्धांत है कि एक ही स्थान में दो द्रव्यों का समावेश नहीं होता। पार्थिव, जलीय आदि सभी पदार्थों को उनने द्रव्य नाम दिया है। रूप, रस आदि गुणों में कोई भी जिन पदार्थों में पाए जाएँ उन्हीं को उनने द्रव्य कहा है। वे यह भी मानते आए हैं कि कई द्रव्यों के संयोग से नया द्रव्य तैयार होता है। दृष्टांत के लिए कई सूतों के परस्पर जुट जाने से कपड़ा बनता है। सूत भी द्रव्य हैं और कपड़ा भी। फर्क यही है कि सूत अवयव हैं और कपड़ा अवयवी। सूतों के भी जो रेशे होते हैं उन्हीं से सूत तैयार होते हैं। फलत: रेशों की अपेक्षा सूत हुआ अवयवी और रेशे हो गए अवयव। रेशों के भी अवयव होते हैं और उन अवयवों के भी अवयव। इस प्रकार अवयवों की धारा - परंपरा - चलती है। उधर कपड़े को भी काट-छाँट के और जोड़-जाड़के कुर्त्ता, कोट वगैरह बनाते हैं। वहाँ पर कपड़ा अवयव हो जाता है और कोट, कुर्त्ते अवयवी। जितने नए सूत जुटते जाते हैं उतना ही लंबा कपड़ा होता जाता है - नया-नया कपड़ा बनता जाता है। उधर अवयवों के भी अवयव करते-करते कहीं न कहीं रुक जाना जरूरी होता है, जहाँ से यह काम शुरू हुआ है। क्योंकि अगर कहीं रुकें न और हर अवयव के अवयव करते जाएँ तो पता ही नहीं लगता कि आखिर अवयवी का बनना कब और कहाँ से शुरू हुआ। इसीलिए जहाँ जाके रुक जाएँ उसी को नैयायिकों ने परमाणु कहा है। परमाणु (Atom) का अर्थ ही सबसे छोटा, छोटे से छोटा - जिससे छोटा हो न सके। परमाणुवाद के बारे में और भी दलीलें हैं। मगर हमें यहाँ उनमें नहीं पड़ना है। उन पर कुछ प्रकाश आगे डाला गया है। गुणवाद के प्रकरण में।
इस प्रकार परमाणुओं के जुटने - संजोग - से चीजें बनती रहती हैं। अब मान लें कि कुछ परमाणुओं ने मिल के एक चीज बनाई। लेकिन, जैसा कि कह चुके हैं कि पुराने परमाणुओं का निकलना और नयों का जुटना जारी है, जब कुछ और भी परमाणु पुरानों के साथ, जिनने आपसे में मिल के कोई चीज बनाई थी, आ जुटे तो अब जो चीज बनेगी वह तो दूसरी ही होगी। पहली तो यह होगी नहीं। क्योंकि पहली में तो नए परमाणु थे नहीं। इसी प्रकार कुछ सूतों को जुटाकर कपड़ा बना। मगर सूत तो जुटते ही रहते हैं। इसलिए नए सूतों को पुरानों के साथ जुटने पर कपड़ा भी बनता ही जाएगा। हाँ, यह नया होगा, न कि वही पहले ही वाला। क्योंकि पहले तो ये नए सूत जुटे न थे। यही हालत सर्वत्र जारी रहती है। अब यहीं पर नैयायिकों की वह बात आती है कि एक ही स्थान में दो द्रव्यों का समावेश नहीं हो सकता है।
चाहे परमाणुओं वाली बात में या सूतों वाली। हम हर हालत में देखेंगे कि नए-नए कपड़े या नई-नई चीजें बनती जाती हैं। मगर सवाल तो यह होता है कि जिन सूतों से पहला कपड़ा बना है उन्हीं के साथ कुछ दूसरों के जुटने से दूसरा और तीसरा बनता है। यह बात चाहे जैसे भी देखें, यह तो मानना ही होगा कि पहले कि जिन सूतों से पहला कपड़ा बना और उन्हीं में उसका समावेश है, अंटाव है। उन्हीं में दूसरा भी बनता है और उसके बाद वाले कपड़े भी बनते हैं; हालाँकि दूसरे-तीसरे आदि का अंटाव कुछ नए सूतों में भी रहता है। मगर पहले सूतों में भी तो रहता ही है। पीछे वाले कपड़े पहले वाले सूतों के बिलकुल ही बाहर तो चले जाते नहीं। ऐसी हालत में उन्हीं सूतों में कई कपड़े कैसे अंटेंगे, यही तो पहेली है। कपड़े तो द्रव्य हैं। और द्रव्य तो जगह घेर लेते हैं। इसी से नैयायिक कहते हैं कि एक ही स्थान में एक से ज्यादा द्रव्यों का अंटाव या समावेश नहीं हो सकता।
तब सवाल होता है कि यदि एक ही कपड़ा उनमें रहेगा तो साफ ही है कि जोई पीछे या नया बनेगा, तैयार होगा, तैयार होता जाएगा वही सभी - नए पुराने - सूतों में समाविष्ट होगा। फलत: पहले वाले हट जाएँगे, नष्ट हो जाएँगे, खत्म हो जाएँगे। जैसे-जैसे नए सिरे से कपड़ा बनता जाएगा तैसे-तैसे पहले बने कपड़े नष्ट होते जाएँगे। इस प्रकार के सभी पदार्थों में यही प्रक्रिया जारी रहती है - पहलेवालों के नाश का यह सिलसिला जारी रहता है। दूसरा उपाय है नहीं - दूसरा चारा है नहीं। बात तो कुछ अजीब और बेढंगी-सी मालूम पड़ती है। मगर हमें इस दुनिया में कितनी ही बेढंगी बात माननी ही पड़ती है। जब बुद्धि और तर्क की कसौटी पर कसते हैं तो जो बातें खरी उतरें उनके मानने में उज्र क्या है? किसी जमाने में सूर्य स्थिर है और पृथिवी चलती है; इस बात के कहनेवालों को बड़ी आफतें झेलनी पड़ीं। मगर गणित और हिसाब-किताब की मजबूरी जो थी। वे लोग करते क्या? नतीजा यह हुआ कि आज आमतौर से वही बात मानी जाने लगी है।
पहले विज्ञान का यह विकास न होने के कारण लोगों को इसमें झिझक हुई। मगर आज तो विज्ञान ने ही बता दिया है कि जरूर ही पुराने वस्त्र, पुराने चावल, पुराने पदार्थ नष्ट हो जाते हैं और नए पैदा हो जाते हैं। भला कपड़े के बारे में तो नैयायिक दार्शनिक यह भी कहते थे कि साफ ही नए सूत जुटे हैं। देखने वाले देखते भी थे। मगर कोठी में बंद चावलों में कौन देखता है कि चावलों के नए परमाणु जुटते और पुराने भागते जाते हैं। पुराने सूतों की ही सूरत-शक्ल के नए सूत कपड़े में जुटते हैं। मगर चावलों के पुराने परमाणुओं में जो स्वाद या रस होता है उसी स्वाद और रस के नए परमाणुओं को आते और पुरानों की जगह लेते कौन देखता है? चावल का स्वाद दस साल के बाद बदल के गेहूँ का तो हो जाता नहीं। उसमें स्वाद, रस वगैरह चावल का ही रहता है। इससे मानना पड़ेगा कि जो नए परमाणु आए वे चावल के ही स्वाद और रस के थे। बात तो यह भी कम अजीब और बेढंगी-सी है नहीं। इसीलिए नैयायिकों की बात अब समझ में आ जाती है - आ सकती है। चावलों के ही परमाणुओं का - वैसे ही स्वाद, रस, रूप-रेखाओं का - खजाना किसने कहाँ जमा कर रखा है जो बराबर आते-जाते हैं? यह नहीं कि चावलों की ही बात हो। गेहूँ, चने, मटर आदि की भी तो यही बात है। पशु, पक्षी, मनुष्य, खाक, पत्थर सबों की यही हालत है। सबों में अपनी ही जाति के परमाणु आ मिलते हैं! फलत: यह तो मानना ही पड़ेगा कि सबों का अलग कोष, खजाना (Stock) कहीं पड़ा है। मगर पता नहीं कहाँ, कैसे पड़ा है। यही तो पहेली है। बरतन या कोठी के मुँह तो ऐसे बंद हैं कि जरा भी हवा आ-जा न सके। मगर ये अनंत परमाणु बराबर आते-जाते रहते हैं! यही तो माया है, जादू है!
यहाँ तक तो हमने इस पहेली की उधेड़-बुन दार्शनिक ढंग से की। मगर सवाल हो सकता है कि इसका कर्मवाद से ताल्लुक क्या है? ताल्लुक है और जरूर है। इसीलिए तो जरा विस्तार से हमने यह बात लिखी है। नहीं तो आगे की बात समझ में नहीं आती। बात यह है कि अनंत परमाणुओं का आना-जाना और पुरानी की जगह नई चीज का बन जाना एक पहेली है यह तो मान चुके। अब जरा सोचें कि आखिर यह होता है क्यों और कैसे? पुराने चावलों की जगह नए क्यों बने? वैसे ही परमाणु क्यों आए और उतने ही ही क्यों आए जितने निकले? यदि कमीबेशी भी हुई तो बहुत ही कम। गेहूँ में चावल के और चावल में गेहूँ के क्यों नहीं आ गए? गाय में भैंस के और भैंस में गाय के क्यों न घुसे? आदमी में पशु के तथा पशु में आदमी के क्यों न प्रवेश पा सके? मर्द में औरत के और औरत में मर्द के क्यों न चले आए? वृक्षों में पत्थर के और पत्थरों में वृक्षों के क्यों न जुटे? मूर्खों में पंडितों के तथा पंडितों में निरक्षरों के क्यों न लिपटे? ऐसे प्रश्न तो हजार-लाख हो सकते हैं, होते हैं।
इन परमाणुओं का वर्गीकरण कहाँ कैसे किया गया है? यदि काम कौन करता है? जिसमें जरा भी गड़बड़ी न हो, किंतु सभी ठीक-ठीक अपनी-अपनी जगह जाएँ-आएँ यह पक्का प्रबंध क्यों, किसने, कैसे किया? इसमें कभी गड़बड़ न हो इस बात का क्या प्रबंध है और कैसा है? परमाणुओं के कोष में कमी-बेशी हो तो उसकी पूर्ति कैसे हो? यदि यह माना जाए कि हरेक पदार्थ से निकलने वाले परमाणु अपने सजातियों के ही कोष में जा मिलते हैं, तो प्रश्न होता है कि ऐसा क्यों होता है और उन्हें कौन, कहाँ, कैसे ले जाता है? साथ ही यह भी प्रश्न होता है कि निकलने वाले परमाणुओं की जो हालत होती है वह तो कुछ निराली होती है, न कि कोष में रहनेवालों की ही जैसी। ऐसी दशा में उनके मिलने से वह कोष खिचड़ी बन जाएगा या नहीं? नए चावल का भात भारी होता है और मीठा ज्यादा होता है, बनिस्बत पुराने चावलों के। इसलिए यह तो मानना ही होगा कि चावल के भी परमाणु सबके-सब एक ही तरह के नहीं होते। ऐसी हालत में चावल के परमाणुओं के भी कई प्रकार के कोष मानने ही होंगे। अब यदि यह कहें कि नए चावलों के परमाणु पुनरपि वैसे ही नए चावलों में जा मिलेंगे और जब तक जाकर मिल जाते नहीं तब तक कहीं शांत पड़े रहेंगे, तो सवाल होता है कि यह बारीक देखभाल कौन करता है और क्यों? ठीक समय पर वैसे ही चावलों में उन्हें कहाँ, कैसे पहुँचाया जाएगा यह व्यवस्था भी कैसे होती है? यह तो ऐसा लगता है कि कोई सर्वशक्तिशाली और सर्वव्यापक देखने वाला चारों ओर आँखें फाड़ के हर चीज को बारीकी से देखता हो और ठीक समय पर सारी व्यवस्था करता हो। यह कैसी बात है, यह प्रश्न स्वाभाविक है? यह कौन है? क्यों है? कैसे है? ये प्रश्न भी होते हैं। उसके हाथ बँधे हैं या स्वतंत्र हैं? यदि बँधे हैं तो किससे? और तब वह सारे काम ठीक-ठीक करेगा कैसे? यदि स्वतंत्र हैं तो भी वही बात आती है कि सारे काम नियमित रूप से क्यों होते हैं? कहीं-कहीं मनजानी घरजानी क्यों नहीं चलती?
चावलों को ही ले के और भी बातें उठती हैं। माना कि चावलों से असंख्य परमाणु निकलते रहते हैं। तो फिर जरूरत क्या है कि उनकी जगह खाली न रहे और दूसरे परमाणु खामख्वाह आ के जम जाएँ? धीरे-धीरे चावल पतले पड़ जाएँ तो हर्ज क्या? खिर घुनों के खा जाने से तो ऐसा होई जाता है। कपूर के परमाणु निकलते हैं और उनमें नए आते नहीं। इसीलिए वह जल्द खत्म हो जाता है। वही बात चावलों में भी क्यों नहीं होती? यदि कहा जाए कि चावलवाला मर जो जाएगा, तो प्रश्न होता है कि आग लगने या चोरी होने पर क्या वह भूखों नहीं मर जाता जब चावल लुट जाते या जल जाते हैं? और कपूर वाले पर भी यही दलील क्यों न लागू हो? चावल जलने पर या लुट जाने पर जो होता है वही बात यों भी क्यों नहीं हो? किसी समय चावलों के परमाणु ज्यादा निकल जाएँ और वह गल-सड़ जाए और किसी समय नहीं, ऐसा क्यों होता है? इसी तरह के हजारों सवाल उठ खड़े होते हैं यदि हम इन पदार्थों के खोद-विनोद और अंवेषण में पड़ जाएँ। हमने तो यहाँ थोड़े से प्रश्न नमूने के तौर पर ही दिए हैं।
इसी खोद-विनोद, इसी जाँच-पड़ताल, इसी अंवेषण के सिलसिले में इन जैसे प्रश्नों के उत्तर ढूँढ़ते-ढूँढ़ते हमारे प्राचीन दार्शनिकों को विवश हो के ईश्वर और कर्मवाद की शरण लेनी पड़ी, यह सिद्धांत स्थिर करना पड़ा। मनुष्य अपनी पहुँच के अनुसार ही कल्पना करता है। हम तो देखते हैं कि नियमित व्यवस्था बुद्धिपूर्वक ही होती है। बिना समझ और ज्ञान के यह बात हो पाती नहीं। और अगर कभी घड़ी या दूसरे यंत्रों को नियमित काम करते देखते हैं तो उसी के साथ यह भी देखते हैं कि उनके मूल में कोई बुद्धि है जिसने उन्हें तैयार करके चालू किया है। वही उनके बिगड़ जाने पर पुनरपि उन्हें ठीक कर देती है। जड़ पदार्थों में तो यह शक्ति नहीं होती कि अपनी भूल या गड़बड़ देखें, त्रुटि का पता लगाएँ और उसे सँभालें। इसके बाद हम बाकी दुनिया में भी ऐसी ही व्यापक या समष्टि बुद्धि की कल्पना करते हैं, क्योंकि हम सभी मिल-मिला के भी बहुत से कामों को नहीं कर सकते। वे हमारी ताकत के बाहर के हैं। दृष्टांत के लिए चावल वगैरह के बारे में जो बातें पूछी गई हैं उन्हीं को ले सकते हैं। वे हमारी पहुँच के बाहर की बातें हैं। जिन्हें हम देख पाते नहीं उनकी व्यवस्था क्या करें? और अगर थोड़ी देर के लिए मान भी लें कि हमीं सब लोग उन्हें करते हैं, कर लेते हैं, कर सकते हैं, तो भी हम सबों के कामों की मिलान (Co-ordination) तो होनी ही चाहिए न । नहीं तो फिर वही गड़बड़ होगी। अब इस मिलान का करने वाला कोई एक तो होगा ही जो सब कुछ बखूबी जानता हो।
जो लोग इन प्रश्नों के संबंध में प्रकृति, नैसर्गिक-नियम, शाश्वत विधान (Nature, Natural Law, Eternal Law) आदि कह के बातें टाल देते हैं वे शब्दांतर से अपनी अनभिज्ञता मान लेते हैं। हमारा काम है गुप्त रहस्यों का पता लगाना, प्रकृति के - संसार के - नियमों को ढूँढ़ निकालना। दिमाग, अक्ल, बुद्धि का दूसरा काम है भी नहीं। इन बातों से किनाराकशी करना भी हमारा काम नहीं है। कोई समय था जब कहा जाता था कि योगियों का आकाश में यों ही चला जाना असंभव है, दूर देश का समाचार जान लेना गैरमुमकिन है। पक्षी उड़ते हैं तो उड़ें। उनकी तो प्रकृति ही ऐसी है। मगर आदमी के लिए यह बात असंभव है। अपेक्षाकृत कुछ कम-बेश दूरी पर हमारी आवाज दूसरों को भले ही सुनाई दे। मगर हजारों मील दूर कैसे सुनाई देगी? शब्द का स्वभाव ऐसा नहीं है, आदि-आदि। मगर अंवेषण और विज्ञान ने सब कुछ संभव और सही बता दिया - करके दिखा दिया! फलत: स्वभाव की बात जाती रही। मामूली-सी बात में भी तर्क-दलील करते-करते जब हम थक जाएँ और उत्तर न दे सकें, तो क्यों न स्वभाव या प्रकृति की शरण ले के पार हो जाएँ? तब हम भी क्यों न कह दें कि यही प्रकृति का नियम है, नित्य नियम है? बात तो एक ही है। ज्यादा बुद्धिवाले कुछ ज्यादा दूर तक जा के प्रकृति की शरण लेते हैं। मगर हम कम अक्लवाले जरा नजदीक में ही और यह कैसे पता चला कि यह प्रकृति का नियम है, नित्य नियम है? प्रकृति क्या चीज है? नियम क्या चीज है? किसे नियम कहें और किसे नहीं? पहले तो कहा जाता था कि पृथिवी स्थिर है और सूर्य चलता है। क्यों? यही नित्य नियम है यही उत्तर मिलता था। अब उलटी बात हो गई इसीलिए प्रकृति, नेचर, प्राकृतिक नियमों की बात करना दूसरे शब्दों में अपने अज्ञान, अपनी संकुचित समझ, अपनी अविकसित बुद्धि को कबूल करना है। यह बात पुराने दार्शनिक नहीं करते थे। और जब जड़ नियमों को मानते ही हैं, तो फिर चेतन ईश्वर को ही क्यों न मानें? अंधे से तो आँखवाला ही ठीक है न? नहीं तो फिर भी अड़चन आ सकती है।
इसीलिए उनने उस व्यापक हाथ, शक्ति या पुरुष को स्वीकार किया, या यों कहिए कि ढूँढ़ निकाला। उसके बिना इस संसार का काम उन्हें चलता नहीं दीखा। इसीलिए उसे पुरुष कहा, पुरुष का अर्थ ही है जो सर्वत्र पूर्ण या व्यापक हो। यदि उसमें अविद्या, भले-बुरे कर्म, सुख-दु:ख, राग-द्वेष या भले-बुरे संस्कार मनुष्यों जैसे ही रहे तो फिर वही गड़बड़ होगी। पुरुष तो जीवों को भी कहते हैं। आत्माएँ भी तो व्यापक हैं। इसीलिए उसे निराला पुरुष माना और पतंजलि ने योगसूत्रों में साफ ही कह दिया कि 'क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्ट: पुरुषविशेष ईश्वर:' (1। 24) इसका अर्थ यही है कि अविद्या आदि से वह सर्वथा रहित है। इसीलिए उसे रत्ती-रत्ती चीजों का जानकार होना चाहिए। नहीं तो फिर भी दिक्कत होगी और संसार की व्यवस्था ठीक हो न सकेगी। उसका ज्ञान ऐसा हो कि उसकी कोई सीमा न हो - वह भूत, भविष्य, वर्तमान सभी काल के सभी पदार्थों को जान सके। इसीलिए पतंजलि ने कहा कि 'तत्र निरतिशयं सर्वज्ञबीजम्' (1। 25)। अगर वह मरे-जिए, कभी रहे कभी न रहे तो भी वही दिक्कत हो। इसलिए कह दिया कि वह समय की सीमा से बाहर है - नित्य है, अजर-अमर है। जितने जानकार, विद्वान, दार्शनिक और तत्त्वज्ञ अब तक हो चुके उसके सामने सब फीके हैं - तुच्छ हैं। क्योंकि देशकाल से सीमित तो सभी ठहरे और वह ठहरा इससे बाहर। इसीलिए वह सबों का दादागुरु है - 'पूर्वेषामपि गुरु: कालेनानवच्छेदात्' (1। 26)
कर्मवाद
मगर इतने से भी काम चलता न दीखा। यदि ऐसा ईश्वर हो कि जो चाहे सोई करे तो उस पर स्वेच्छाचारिता (Autocracy) का आरोप आसानी से लग सकता है। सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापक होने के कारण उसकी स्वेच्छाचारिता बड़ी ही खतरनाक सिद्ध होगी। जिस व्यवस्था और नियमितता के लिए हम उसे स्वीकार करते हैं या उसका लोहा मानते हैं, वही न रह पाएगी। क्योंकि उसकी स्वतंत्रता ही कैसी यदि उस पर बंधन लगा रहा? वह स्वतंत्र ही कैसा यदि उसने किसी बात की परवाह की? यदि उस पर कोई भी अंकुश रहे, चाहे वह कैसा भी क्यों न हो, तो वह परतंत्र ही माना जाएगा। यह प्रश्न मामूली नहीं है। यह एक बहुत बड़ी चीज है। जब हम किसी बात को बुद्धि और तर्क की तराजू पर तौलते हैं, तो हमें उसके नतीजों के लिए तैयार रहना ही होगा। यह दार्शनिक बात है। कोई खेल, गप्प या कहानी तो है नहीं। इस प्रकार के ईश्वर को मानने पर क्या होगा यह बात आँखें खोल के देखने की है। पुराने महापुरुषों ने - दार्शनिकों ने - इसे देखा भी ठीक-ठीक। वे इस पहेली को सुलझाने में सफल भी हुए, चाहे संसार उसे गलत माने या सही। और हमारी सभी बातें सदा ध्रुव सत्य हैं यह दावा तो समझदार लोग करते ही नहीं। ज्ञान का ठीका तो किसी ने लिया है नहीं। तब हमारे दार्शनिक ऐसी गलती क्यों करते? उन्हें जो सूझा उसे उनने कहा दिया।
इस दिक्कत से बचने के ही लिए उनने कर्मवाद की शरण ली। असल में यह बात भी उनने अपने अनुभव और आँखों देखी के ही अनुसार तय की। उनने सोचा कि प्रतिदिन जो कुछ भी बुरा-भला होता है वह कामों के ही अनुसार होता है। चाहे खेती-बारी लें या रोजगार-व्यापार, पढ़ना-लिखना, पारितोषिक, दंड और हिंसा-प्रतिहिंसा के काम। सर्वत्र एक ही बात पाई जाती है। जैसे करते हैं वैसा पाते हैं। जैसा बोते हैं वैसा काटते हैं। गाय पालते हैं तो दूध दुहते हैं। साँप पाल के जहर का खतरा उठाते हैं। सिंह पाल के मौत का। जान मारी तो जान देनी पड़ी। पढ़ा तो पास किया। न पढ़ा तो फेल रहे। अच्छे काम में इनाम मिला और बुरे में जेल या बदनामी हाथ आई। असल में यदि कामों के अनुसार परिणाम की व्यवस्था न हो तो संसार में अंधेरखाता ही मच जाए। जब इससे उलटा किया जाता है तो बदनामी और शिकायत होती है, पक्षपात का आरोप होता है। यदि इसमें भी गड़बड़ होती है तो वह काम के नियम का दोष न हो के लोगों की कमजोरी और नादानी से ही होती है। अगर काम के अनुसार फल का नियम न हो तो कोई कुछ करे ही न। पढ़ने में दिमाग खपानेवाला फेल हो जाए और निठल्ला बैठा पास हो। खेती करनेवाले को गल्ला न मिले और बैठे-ठाले की कोठी भरे। ऐसा भी होता है कि एक के काम का परिणाम वंशपरंपरा को भी भुगतना पड़ता है। यदि अपनी नादानी से कोई पागल हो जाए तो वंश में भी उसका फल बच्चों और उनके बच्चों तक पहुँचता है। ऐसी ही दूसरी भी बीमारियाँ हैं। एक के किए का फल सारा वंश, गाँव या देश भी भुगतता है।
इस प्रकार एक तो कर्म ही सारी व्यवस्था के करने वाले सिद्ध हुए। दूसरे उनके दो विभाग भी हो गए। एक का ताल्लुक उसी व्यक्ति से होता है जो उसे करे। यह हुआ व्यष्टि कर्म। दूसरे का संबंध समाज, देश या पुश्त-दरपुश्त से होता है। यही है समष्टि कर्म। ऐसा भी होता है कि हरेक आदमी अपने काम से अपनी जरूरत पूरी कर लेता है। नदी से पानी ला के प्यास बुझा ली। मिहनत से पढ़ के पास कर लिया। बेशक इसमें विवाद की गुंजाइश है कि कौन व्यक्तिगत या व्यष्टि कर्म है और समष्टि। मगर इसमें तो शक नहीं कि व्यष्टि कर्म है। जहर खा लिया और मर गए। हाँ, समष्टि कर्म में एक से ज्यादा लोग शरीक होते हैं। कुआँ अकेले कौन खोदे? खेती एक आदमी कर नहीं सकता। घर-बार सभी मिल के उठाते हैं। समष्टि कर्म यही हैं। सभी मिलके करते और फल भी सभी भोगते हैं। कभी-कभी एक का किया भी अनेक भुगतते हैं। फलत: वह भी समष्टि कर्म ही हुआ।
बस, तत्त्वदर्शियों ने इस सृष्टि का यही सिद्धांत सभी बातों में लागू कर दिया। उनने माना कि जन्म-मरण, सुख-दु:ख, बीमारी, आराम वगैरह सभी के मूल में या तो व्यष्टि या समष्टि कर्म हैं। उनने सभी की स्वतंत्रता मर्यादित कर दी। चावलों या पदार्थों के परमाणुओं के आने-जाने से लेकर सारे संसार के बनाने-बिगाड़ने या प्रबंध का काम ईश्वर के जिम्मे हुआ और सभी पदार्थ उसके अधीन हो गए। ईश्वर भी जीवों के कर्मों के अनुसार ही व्यवस्था करेगा। यह नहीं कि अपने मन से किसी को कोढ़ी बना दिया तो किसी को दिव्य; किसी को राजा तो किसी को रंक; किसी को लूटने वाला तो किसी को लुटानेवाला। जीवों के कर्मों के अनुसार ही वह सब व्यवस्था करता है। जैसे भले-बुरे कर्म हैं वैसी ही हालत है, व्यवस्था है। कही चुके हैं कि बहुतेरे कर्म पुश्त-दर-पुश्त तक चलते हैं। इसीलिए इस शरीर में किए कर्मों में जिनका फल भुगताना शेष रहा उन्हीं के अनुसर अगले जन्म में व्यवस्था की गई। जैसे भले-बुरे कर्म थे वैसी ही भली-बुरी हालत में सभी लोग लाए गए। इस तरह ईश्वर पर भी कर्मों का नियंत्रण हो गया। फिर मनमानी घरजानी क्यों होगी? तब वह निरंकुश या स्वेच्छाचारी क्यों होगा? कर्म भी खुद कुछ कर नहीं सकते। वह भी किसी चेतन या जानकार के सहारे ही अपना फल देते हैं। वे खुद जड़ या अंधे जो ठहरे। इस तरह उन पर भी ईश्वर का अंकुश या नियंत्रण रहा - वे भी उसके अधीन रहे। सारांश यह है कि सभी को सबकी अपेक्षा है। इसीलिए गड़बड़ नहीं हो पाती। किसी का भी हाथ सोलह आना खुला नहीं कि खुल के खेले।
कर्मों के भेद और उनके काम
यह तो पहले ही कह चुके हैं कि जब कर्म अपना फल देते हैं तो उस फल की सामग्री को जुटाकर ही। कर्मों का कोई दूसरा तरीका फल देने का नहीं है। एकाएक आकाश से कोई चीज वे टपका नहीं देते। अगर जाड़े में आराम मिलना है तो घर, वस्त्र आदि के ही रूप में कर्मों के फल मिलेंगे। इन्हीं कर्मों के तीन दल प्रकारांतर से किए गए हैं। एक तो वे जिनका फल भोगा जा रहा हो। इन्हें प्रारब्ध कहते हैं। प्रारब्ध का अर्थ ही है कि जिनने अपना फल देना प्रारंभ कर दिया। लेकिन बहुत से कर्म बचे-बचाए रह जाते हैं। सबों का नतीजा बराबर भुगता जाए यह संभव नहीं। इसलिए बचे-बचायों का जो कोष होता है उसे संचित कर्म कहते हैं। संचित के मानी हैं जमा किए गए या बचे-बचाए। इसी कोष में सभी कर्म जमा होते रहते हैं। इनमें जिनकी दौर शुरू हो गई, जिनने फल देना शुरू कर दिया वही प्रारब्ध कहे गए। इन दोनों के अलावे क्रियमाण कर्म हैं जो आगे किए जाएँगे और संचित कोष में जमा होंगे। असल में तो कर्मों के संचित और प्रारब्ध यही दो भेद हैं। क्रियमाण भी संचित में ही आ जाते हैं। यों तो प्रारब्ध भी संचित ही हैं। मगर दोनों का फर्क बता चुके हैं। यही है संक्षेप में कर्मों की बात।
अब जरा इनका प्रयोग सृष्टि की व्यवस्था में कर देखें। पृथिवी के बनने में समष्टि कर्म कारण हैं। क्योंकि इससे सबों का ताल्लुक है - सबों को सुख-दु:ख इससे मिलता है। यही बात है सूर्य, मेघ, जल, हवा आदि के बारे में भी। हरेक के व्यक्तिगत सुख-दु:ख अपने व्यष्टि कर्म के ही फल हैं। अपने-अपने शरीरादि को एक तरह से व्यष्टि कर्म का फल कह सकते हैं। मगर जहाँ तक एक के शरीर का दूसरे को सुख-दु:ख पहुँचाने से ताल्लुक है वहाँ तक वह समष्टि कर्म का ही फल माना जा सकता है। यही समष्टि और व्यष्टि कर्म चावल वगैरह में भी व्यवस्था करते हैं। जिस किसान ने चावल पैदा करके उन्हें कोठी में बंद किया है उसके चावलों से उसे आराम पहुँचना है। ऐसा करने वाले उसके व्यष्टि या समष्टि कर्म हैं जो पूर्व जन्म के कमाये हुए हैं। यदि चावलों के परमाणु निकलते ही जाएँ और आएँ नहीं, तो किसान दिवालिया हो जाएगा। फिर आराम उसे कैसे होगा? इसलिए उसी के कर्मों से यह व्यवस्था हो गई कि नए परमाणु आते गए और चावल कीमती बन गया। यदि पुराने नहीं जाते और नए नहीं आते तो यह बात न हो पाती। परमाणुओं का कोष भी कर्मों के अनुसार बनता है, बना रहता है। ईश्वर उसका नियंत्रण करता है। जब बुरे कर्मों की दौर आई तो घुन खा गए, चावल सड़ गए। या और कुछ हो गया। उनमें अच्छे परमाणु आ के मिले भी नहीं। यही तरीका सर्वत्र जारी है, ऐसा प्राचीन दार्शनिकों ने माना है। यों तो कर्मों के और भी अनेक भेद हैं। ऐसे भी कर्म होते हैं जिनका काम है केवल कुछ दूसरे कर्मों को खत्म (Negative) कर देना। ऐसे भी होते हैं जो अकेले ही कई कर्मों के बराबर फल देते हैं। मगर इतने लंबे पँवारे से हमें क्या मतलब? योगसूत्रों के भाष्य और दूसरे दर्शनों को पढ़ के ये बातें जानी जा सकती हैं।
अवतारवाद
इतने लंबे विवरण के बाद अब मौका आता है कि हम अवतारवाद के संबंध में इन कर्मों को लगा के देखें कि कर्मवाद वहाँ किस प्रकार लागू होता है। यह तो कही चुके हैं कि समष्टि कर्मों के फलस्वरूप पृथिवी आदि पदार्थ बनते हैं जिनका ताल्लुक एक-दो से न हो के समुदाय से है, समाज से है, मानव-संसार से है। सभी पदार्थों से है। यदि यह ढूँढ़ने लगें कि पृथिवी को किस व्यक्ति के कर्म ने तैयार किया-कराया, तो यह हमारी भूल होगी। एक से तो उसका संबंध है नहीं। पृथिवी के चलते हजारों-लाखों को सुख-दु:ख भोगना है, गल्ला पैदा करना है, घर बनाना है, कपड़ा तैयार करना है - होना है। उससे तलवारें, भाले, तोपें, गोले, लाठियाँ बन के जाने कितने मरें-मारेंगे। फिर एक के कर्म का क्या सवाल? पृथिवी आदि पदार्थ एक के कर्म से क्यों बनेंगे?
जरा यही बात अवतारों के विषय में भी लगा देखें। आखिर अवतारों का काम क्या है? उनसे होता क्या है? उनकी भली-बुरी उपयोगिता है क्या? गीता कहती है कि 'भले लोगों की रक्षा, बुरों के नाश और धर्म - सत्कर्मों, पुण्य-कार्यों, समाज-हितकारी कामों-की मजबूती एवं प्रचार के लिए बार-बार - समय-समय पर - अवतार होते हैं', - "परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दृष्कृताम्। धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगेयुगे" (4। 8)। अवतार के पहले की भी समाज की दशा यों कही गई है, 'जब-जब धर्म - सत्कर्मों - का खात्मा या अत्यंत ह्वास हो जाता है और अधर्म - बुरे कर्मों - की वृद्धि हो जाती है तभी-तभी भगवान खुद आते हैं' - "यदायदाहि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्" (4। 7)। इन श्लोकों में जो 'यदा यदा' - जब-जब - तथा' युगे-युगे' - समय-समय पर - कहा है उसका तात्पर्य यही है कि ऐसी ही परिस्थिति के साथ अवतार का ताल्लुक है। जिस प्रकार खेती-बारी के लिए जमीन और सींचने के लिए पानी की जरूरत है, साँस के लिए जैसे हवा जरूरी है; ठीक वैसे ही ऐसी परिस्थिति आ जाने पर उसका समुचित सामना करने, उसके प्रतिकार के लिए अवतार जरूरी है। पृथिवी, जल, वायु आदि का काम जिस प्रकार दूसरों से नहीं हो सकता है - जिस तरह पृथिवी आदि के बिना काम चल नहीं सकता - ठीक उसी तरह अवतार का काम और तरह से, दूसरों से चल नहीं सकता - उसके बिना काम हो नहीं सकता। इससे साफ हो जाता है कि जिस प्रकार पृथिवी आदि पदार्थ बनते हैं, पैदा होते हैं लोगों के समष्टि कर्मों के ही करते उन्हीं के फलस्वरूप, ठीक वैसे ही अवतार होते हैं लोगों के समष्टि कर्मों के ही फलस्वरुप उन्हीं के करते। अब यही देखना है कि यह बात होती है कैसे।
इसमें विशेष दिक्कत की तो कोई बात है नहीं। राम, कृष्ण आदि अवतारों के शरीरों से भले लोगों को - साधु-महात्माओं, देवताओं, तपस्वियों, सदाचारियों और भोलीभाली जनता को - तो बेशक आराम पहुँचता है, शांति मिलती है, उनकी चिंता और परेशानी मिटती है, उनके कर्मों में आसानी होती, सहायता पहुँचती है और वे निर्द्वन्द्व विचरते रहते हैं। जैसा कि खुद कृष्ण ने ही कहा है कि 'लोक-संग्रह या लोगों के पथदर्शन के खयाल से भी तो कर्म करना ही चाहिए' - "लोक-संग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्त्तुमर्हसि" (3। 20)। उनने यह भी साफ ही कह दिया है कि 'मेरे अपने लिए तो कुछ भी करना-धरना शेष नहीं है, क्योंकि मुझे कोई चीज हासिल करनी जो नहीं है। फिर भी कर्म तो मुस्तैदी से करता रहता ही हूँ क्योंकि यदि ऐसा न करूँ तो सब लोग मेरी ही देखा-देखी कर्मों को छोड़ बैठेंगे। नतीजा यह होगा कि सारी गड़बड़ पैदा हो जाएगी। फिर तो अव्यवस्था होने के कारण लोग चौपट ही हो जाएँगे' - "न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किंचन'', आदि (3। 22-26)। इसके अनुसार तो सभी को अच्छे से अच्छा पथ दर्शन एवं नेतृत्व मिलता है, जिससे सभी बातों की मर्यादा चल पड़ती है और समाज मजबूती के साथ उन्नति के पथ में अग्रसर होता है। इस तरह जितनों का कल्याण होता है उतनों का सत्कर्म या उनके पूर्व जन्म के अच्छे कामों का ही यह फल माना जाना चाहिए। यदि वे आराम पाते और निर्बाध आगे बढ़ते हैं तो इसमें दूसरों की कमाई, प्रारब्ध या पूर्व जन्मार्जित कर्मों की कोई बात आती ही नहीं। जिन्हें सुख मिलता है, सुविधाएँ मिलती हैं उनके अपने ही कर्मों के ये फल हैं, यही मानना होगा।
दूसरी ओर ऐसे लोग भी होते हैं जिन्हें मिटाने के लिए अवतारों के शरीर होते हैं। जिनकी शैतानियतें मिटानी हैं, जिन्हें तबाह-बर्बाद करना है अवतारों के करते जितनों को आठ-आठ आँसू रोने पड़ते हैं, जो खुद और जिनके सगे-संबंधी भी चौपट होते हैं, रो-रो मरते हैं, जिनकी भीषण से भीषण यंत्रणाएँ होती हैं, जिनकी स्वेच्छाचारिता बंद हो जाती और निरंकुशता एवं स्वच्छंदता पर पाले पड़ जाते हैं, उनकी यह दशा होती है यद्यपि अवतारों के शरीरों से ही, उनके कामों से ही। फिर भी इसका कारण उन्हीं दुराचारियों, दुष्कृत - दुष्ट - लोगों के अपने ही बुरे कर्म मानने होंगे। यदि किसी की लाठी से सिर फूटा या तलवार से गला काटा तो यह ठीक है कि सिर फूटने एवं गला कटने का प्रत्यक्ष कारण लाठी या तलवार है। मगर ऐसे कारणों के संपादन करने वाले वे दुष्कर्म माने जाते हैं जो पहले या पूर्वजन्म में ऐसे लोगों ने किए थे जिनके सिर फूटे या गले कटे। यह तो कर्मों का मोटा-मोटी हिसाब माना ही जाता है। इसलिए अवतारों के शरीरों के निर्माण में भी इन दुष्ट जनों के ही बुरे कर्म कारण हैं। पहले कही चुके हैं कि यदि किसी के शरीर से दूसरों को कष्ट या आराम पहुँचे तो उनके भी भले-बुरे कर्म उस शरीर के कारण होते हैं। शरीरवाले के कर्म तो होते ही हैं। फलत: जिस प्रकार साधारण शरीर के निर्माण में समष्टि कर्म कारण बनते हैं। उसी तरह अवतारों के शरीरों के निर्माण में भी।
एक बात और भी जान लेने की है। यह जरूरी नहीं कि पूर्व जन्म के ही भले-बुरे कर्म वर्तमान जन्म के सुख-दु:खों के कारण हों। इसी देह के अच्छे या गंदे काम भी कारण बन सकते हैं, बन जाते हैं। बासी या पुराने ही कर्म ऐसा करें यह कोई नियम नहीं है। सब कुछ निर्भर करता है कर्मों की शक्ति पर, उनकी ताकत पर, उनकी भयंकरता या उत्तमता पर। इसीलिए नीतिकारों ने माना है कि 'तीन साल, तीन महीने, तीन पखवारे या तीन दिनों में भी जबर्दस्त कर्मों के भले-बुरे फल यहीं मिल जाते हैं' - "त्रिभिर्वर्षैस्त्रिभिर्मासैस्त्रिभि: पक्षैस्त्रिभिर्दिनै:। अत्युत्कटै: पुण्यपापैरिहैव फलमश्नुते।" इसीलिए तो यह भी कहा जाता है कि 'इस हाथ दे, उस हाथ ले।' इसलिए दुष्ट जनों के जिन भयंकर कुकर्मों के करते हाहाकार मच जाता है, बहुत संभव है कि अवतारों के कारण वही हों या वह भी हों। इसी प्रकार महान पुरुषों के तप और सदाचरण भी, जो उन पापी जनों से त्राण पाने के लिए किए जाते हैं, अवतारों के कारण बन जाते हैं, बन सकते हैं। मीमांसकों ने जानें कितने ही ऐसे कर्म माने हैं जिनके फल जल्दी ही मिलते हैं।
इस प्रकार समष्टि कर्मों के चलते ही पृथिवी आदि की ही तरह अवतारों के शरीर बनते हैं यह बात समझ में आ जाती है। जो लोग ऐसा सोचते हों कि हमारे भले-बुरे समष्टि कर्म भगवान को नहीं खींच सकते; क्योंकि वह तो सबके ऊपर माना जाता है, उनके लिए तो पहले ही कहा जा चुका है कि कर्मों के अनुसार ही तो भगवान को चलना पड़ता है। उसे भी कर्म की अधीनता एक अर्थ में स्वीकार करनी ही पड़ती है। यदि लोगों के कर्मों के अनुसार उसे हजार परेशानी उठानी पड़ती हो, दौड़-धूप और चिंता, फिक्र करनी पड़ती हो, तो यह तो मामूली-सी बात ठहरी। जब लोगों ने ऐसा भी माना है कि भक्तजन भगवान को नचाते हैं, तो फिर अवतार बनना क्या बड़ी बात है? जिनके कर्मों के करते पूर्व बताए ढंग से परमाणुओं की क्रियाएँ, दौड़धूप और चावल पेड़, मनुष्य के शरीर आदि बनना-बिगड़ना निरंतर जारी है, अवतारों के शरीर भी उन्हीं की क्रियाओं के भीतर क्यों न आ जाएँ, उन्हीं से तैयार क्यों न हो जाएँ? आखिर ये सारी चीजें होती ही हैं संसार का काम चलाने के ही लिए न? फिर यदि अवतारों के बिना कोई काम रुकता हो या न चल सकता हो, तो उनके शरीर भी वैसे कामों के ही लिए क्यों न बन जाएँगे?
यह ठीक है कि जितनी चीजें बनती हैं सभी अनिवार्य आवश्यकताओं और जरूरतों के ही चलते। प्रकृति या संसार के भीतर व्यर्थ और फिजूल पदार्थों की गुंजाइश हई नहीं। बल्कि प्रकृति तो ऐसी चीजों की दुश्मन है। इसीलिए उन्हें जल्द मिटा देती है। वैसी ही आवश्यकताओं के चलते अवतार भी होते हैं। यही कारण है कि आवश्यकताओं की पूर्ति होते ही अवतारों का काम पूरा हो जाता है और उनके शरीर खत्म हो जाते हैं। किन्हीं का काम कुछ देर से होता है और किन्हीं का जल्द। कहते हैं कि नृसिंह के बिना हिरण्यकशिपु को कोई मार नहीं सकता था। कहानी तो ऐसी है कि उसने अपने लिए ऐसा ही सामान कर लिया था। यही वजह है कि भगवान को नृसिंह बनना और उसे मार के फौरन विलीन हो जाना पड़ा। पीछे नृसिंह का शरीर रह न सका। यही बात राम, कृष्ण आदि के बारे में भी है। जो जो काम उनने किए, जो पथदर्शन उनसे हुए वे औरों से हों नहीं सकते थे। मगर उन कामों के लिए कुछ ज्यादा समय चाहता था। इसीलिए वे लोग देर तक रहे। हमारा मतलब यहाँ पौराणिक आख्यानों पर मुहर लगाने या उन्हें अक्षरश: सही बताने से नहीं है। हमें तो यहीं दिखाना है कि अवतारों के लिए दार्शनिक युक्ति के अनुसार जो परिस्थिति चाहिए वह संभव है या नहीं।
यह बात भी अब साफ होई चुकी कि अवतारों के शरीरों में भगवान को खिंच आना ही पड़ता है। अवतार शब्द का तो अर्थ ही है। उतरना या खिंच आना अगर संसार में बुरे-भले कर्म माया-ममताशून्य जनों तक को अपनी ओर खींच सकते हैं और उनमें दया या रोष पैदा करवा के हजारों कठिनतम काम उनसे करवा सकते हैं, तो फिर भगवान का खिंच जाना कोई आश्चर्य नहीं है यदि बाँसुरी का स्वर मृग या साँप को खींच सकता है, उन्हें मुग्धा एवं बेताब कर सकता है; यदि बछड़े की आवाज गाय को बहुत दूर से खींच सकती है; यदि किसी प्रेमी का प्रेम हजारों कोस से किसी को घसीट सकता है, तो सृष्टि की जरूरत या लोगों के भले-बुरे कर्म तथा प्रेम और द्वेष भगवान को उस शरीर में क्यों नहीं खींच लेंगे। न्याय और वैशेषिक दर्शनों ने तो स्पष्ट कहा है कि लोगों के कर्मों से ही परमाणुओं में क्रिया जारी होती है और वे आपस में खिंच के मिलते-मिलते महाकाय पृथिवी, समुद्र आदि बना डालते हैं। फिर प्रलय के समय उलटी क्रिया होने से अलग होते-होते वही सबको मिटा देते हैं। ऐसी दशा में उन्हीं कर्मों से भगवान के शरीर क्यों न बन जाएँ? उनमें वह खिंच जाए क्यों नहीं?
अब एक ही सवाल और रह जाता है। कहा जा सकता है कि शरीर बन जाने पर तो भगवान की भी वही हालत हो जाएगी जो साधारण जीवों की। वही तकलीफ-आराम, वही माया-ममता और वही हैरानी-परेशानी होगी ही। इसका उत्तर गीता ने चौथे अध्याय में ही दे दिया है। वहाँ लिखा है कि, 'अविनाशी एवं जन्मशून्य होते हुए और सभी पदार्थों का शासक रहते हुए भी मैं अपनी माया के बल से शरीर धारण करता हूँ। मगर अपने स्वभाव को कायम रखता हूँ जिससे माया मुझ पर अपना असर नहीं जमा पाती' - "अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्। प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्ममायया" (4। 6)। माया कहने और अपने स्वभाव को कायम रखने की बात बोलने का मतलब यह है कि एक तो भगवान का शरीर साधारण लोगों जैसा देखने पर भी वैसा नहीं है; किंतु मायामय और नटलीला जैसा है। नट की कला की कितनी ही बातें असाधारण होती हैं। वे देखने में चाहे जो लगें; मगर उनकी हकीकत कुछ और ही होती है। देखने वाले चकाचौंध में पड़ के और का और समझ बैठते हैं। यही बात अवतारों के भी शरीरों की हैं। दूसरी बात यह है कि साधारण लोगों की तरह माया-ममता में वे दबते नहीं। उनका अपना स्वभाव, अपना ज्ञान, अपनी अनासक्ति और अपना बेलागपन बराबर कायम रहता है। खानपान आदि सारी क्रियाएँ उस शरीर के लिए आवश्यक होने के कारण ही होती हैं जरूर। मगर उनमें वे अवतार लिपटते नहीं, चिपकते नहीं। वे इन सब बातों से बहुत ऊपर रहते हैं।
यह भी जान लेना जरूरी है कि गीता में इस माया को दैवी या अलौकिक शक्तिवाली कहा है, जिसमें हजारों गुण, खूबियाँ या करिश्मे होते हैं - 'दैवीह्येषा गुणमयी मममाया' (7। 14)। इसीलिए उस माया के चलते जो शरीर बनेगा उसमें मामूली नटों के करिश्मों से हजार गुने अधिक करिश्मे होंगे - चमत्कार होंगे। वह तो महान इंद्रजाल होगा। इसी के साथ-साथ यह भी बात है कि जिस तरह कर्मों की व्यवस्था बता के भगवान के शरीर बनने की रीति कही जा चुकी है। वह असाधारण है, गैरमामूली है। इसीलिए जो निराले, अलौकिक काम अवतार करते हैं वह औरों में पाए नहीं जाते, पाए जा नहीं सकते। यह तो सारी प्रणाली ही अलौकिक है, निराले कर्मों का खेल है, भगवान की लीला है। भगवान भी दिव्य हैं, निराले हैं। उनकी माया भी वैसी ही है। अनोखे कर्मों से ही उनके शरीर बनते हैं, न कि मामूली कर्मों से। इसीलिए गीता ने कह दिया है कि इन सारी निराली बातों को जो ठीक-ठीक समझता है, भगवान के दिव्य जन्म एवं दिव्य कर्म को जो बखूबी जान जाता है, मरने के बाद वह पुनरपि जन्म नहीं ले के भगवान ही बन जाता है - 'जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वत:। त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन' (4। 9)।
`अवतारों के संबंध में गीता की बातें सामान्य रूप से बताई जा चुकीं। अब एक खास बात कहके यह प्रसंग पूरा करना है। हमने जो परमाणुओं के जुटने से पृथिवी आदि के बनने और अलग होने से उनके नष्ट हो जाने तथा प्रलय के आ जाने की बात कह दी है उससे यह तो पता लगी गया कि प्रलय और कुछ चीज नहीं है, सिवाय इसके कि वह कर्मों के, और इसीलिए सभी पदार्थों के जो उस समय रह जाते हैं, विराम का समय है, विश्राम का काल है। संसार में विश्राम का भी नियम पाया जाता है। इसीलिए कर्मवाद के माननेवालों ने कर्मों के सिलसिले में ही उसे माना है। इसीलिए वे प्रलय को कर्मों का विश्राम काल और सृष्टि को उनके काम या फल देने का समय मानते हैं।
इसी नियम के अनुसार जब-जब जहाँ-जहाँ समष्टि कर्मों की प्रेरणा से अवतारों की आवश्यकता अनिवार्य हो जाती है तब-तब तहाँ-तहाँ अवतार पाए जाते हैं, होते हैं। किसी खास देश या खास समय में ही अवतारों का मानना भारी भूल है। गीता को यह बात मान्य नहीं है। इसीलिए अवतार के प्रकरण में सिर्फ 'जब-जब, या समय-समय पर' 'यदायदाहि', 'युगे-युगे' (4। 7-8) यही कहा है। वहाँ किसी देश या मुल्क की बात पाई नहीं जाती है। पुराण-इतिहासों में भी सिर्फ भूलोक या मर्त्त्यलोक ही कहा है और यही बात प्रधान है। यदि कहीं एकाध जगह भारतवर्ष आया है तो वह या तो यों ही आ गया है दृष्टांत के रूप में, या अवतार विशेष के सिलसिले में ही, जो भारतवर्ष में ही हुए हैं। मगर दरअसल देश या मुल्क का कोई नियम नहीं है। मानव-समाज के ही कल्याण के लिए अवतार होते हैं और वह समाज सभी देशों में है। इसलिए यहूदी, इस्लाम या ईसाई धर्मों में जिन महापुरुषों या प्रमुख आचार्यों की बात आती है, जो धर्म संस्थापक माने जाते हैं, उन्हें अवतार मानने में गीता को कोई उज्र नहीं है। गीता के अनुसार तो वे सबके-सब अवतार हईं। यों तो 'यद्यद्विभूतिमत्' (10। 41) में सभी प्रकार के विलक्षण पुरुषों या पदार्थों को भगवान की ही विभूति आम-तौर से माना है।
इस प्रकार हमने देखा कि यदि ईश्वर या कर्मवाद की शरण ली गई है तो सिर्फ सृष्टि के कामों को पूरी तौर से चलाने के लिए। मालूम होता है कि इनके बिना कोई स्थान खाली था, गैप - gap - था। उसी की पूर्ति के लिए इन्हें माना गया। मगर पीछे हमारा पतन ऐसा हो गया कि हम अपना सारा यत्न छोड़ के इन्हीं भगवान और भाग्य - कर्म - के भरोसे बैठने लगे! यही बात अब तक जारी है।
5. गुणवाद और अद्वैतवाद
कर्मवाद एवं अवतारवाद की ही तरह गीता में गुणवाद तथा अद्वैतवाद की भी बात आई है। इनके संबंध में भी गीता का वर्णन अत्यंत सरस, विलक्षण एवं हृदयग्राही है। यों तो यह बात भी गीता की अपनी नहीं है। गुणवाद दरअसल वेदांत, सांख्य और योगदर्शनों की चीज है। ये तीनों ही दर्शन इस सिद्धांत को मानते हैं कि सत्त्व, रज और तम इन तीन ही गुणों का पसारा, परिणाम या विकास यह समूचा संसार है - यह सारी भौतिक दुनिया है। इसी तरह अद्वैतवाद भी वेदांत दर्शन का मौलिक सिद्धांत है। वह समस्त दर्शन इसी अद्वैतवाद के प्रतिपादन में ही तैयार हुआ है। वेदांत ने गुणवाद को भी अद्वैतवाद की पुष्टि में ही लगाया है - उसने उसी का प्रतिपादन किया है। फिर ये दोनों ही चीजें गीता की निजी होंगी कैसी? लेकिन इनके वर्णन, विश्लेषण, विवेचन और निरूपण का जो गीता का ढंग है वही उसका अपना है, निराला है। यही कारण है कि गीता ने इन पर भी अपनी छाप आखिर लगाई दी है।
परमाणुवाद और आरंभवाद
असल में प्राचीन दार्शनिकों में और अर्वाचीनों में भी, फिर चाहे वह किसी देश के हों, सृष्टि के संबंध में दो मत हैं - तो दल हैं। एक दल है न्याय और वैशेषिक का, या यों कहिए कि गौतम और कणाद का। जैमिनि भी उन्हीं के साथ किसी हद तक जाते हैं। असल में उनका मीमांसादर्शन तो प्रलय जैसी चीज मानता नहीं। मगर न्याय तथा वैशेषिक उसे मानते हैं। इसीलिए कुछ अंतर पड़ जाता है। असल में गौतम और कणाद दोई ने इसे अपना मंतव्य माना है। दूसरे लोग सिर्फ उनका साथ देते हैं। इसी पक्ष को परमाणुवाद ( Atomic Theory) कहते हैं। यह बात पाश्चात्य देशों में भी पहले मान्य थी। मगर अब विज्ञान के विकास ने इसे अमान्य बना दिया। इसी मत को आरंभवाद (Theory of creation) भी कहते हैं। इस पक्ष ने परमाणुओं को नित्य माना है। हरेक पदार्थ के टुकड़े करते-करते जहाँ रुक जाएँ या यों समझिए कि जिस टुकड़े का फिर टुकड़ा न हो सके, जिसे अविभाज्य अवयव (Absolute or indivisible particle) कह सकते हैं उसी का नाम परमाणु (Atom) है। उसे जब छिन्न-भिन्न कर सकते ही नहीं तो उसका नाश कैसे होगा? इसीलिए वह अविनाशी - नित्य - माना गया है।
परमाणु के मानने में उनका मूल तर्क यही है कि यदि हर चीज के टुकड़ों के टुकड़े होते ही चले जाएँ और कहीं रुक न जाएँ - कोई टुकड़ा अंत में ऐसा न मान लें जिसका खंड होई न सके - तो हरेक स्थूल पदार्थ के अनंत टुकड़े, अवयव या खंड हो जाएँगे। चाहे राई को लें या पहाड़ को; जब खंड करना शुरू करेंगे तो राई के भी असंख्य खंड होंगे - इतने होंगे जिनकी गिनती नहीं हो सकती, और पर्वत के भी असंख्य ही होंगे। वैसी हालत में राई छोटी क्यों और पर्वत बड़ा क्यों? यह प्रश्न स्वाभाविक है। अवयवों की संख्या है, तो दोनों की अपरिमित है, असंख्य है, अनंत है। इसीलिए बराबर है, एक-सी है। फिर छुटाई, बड़ाई कैसे हुई? इसीलिए उनने कहा कि जब कहीं, किसी भाग पर, रुकेंगे और उस भाग के भाग न हो सकेंगे, तो अवयवों की गिनती सीमित हो जाएगी, परिमित हो जाएगी। फलत: राई के कम और पर्वत के ज्यादा टुकड़े होंगे। इसीलिए राई छोटी हो गई और पर्वत बड़ा हो गया। उसी सबसे छोटे अवयव को परमाणु कहा है। परमाणुओं के जुटने से ही सभी चीजें बनीं।
गुणवाद और विकासवाद
दूसरा दल गुणवादियों का है। उनके गुणवाद को परिणामवाद या विकासवाद (Evolution Theory) भी कहते हैं। इसे वही तीन दर्शन - वेदांत, सांख्य तथा योग - मानते हैं। इनके आचार्य हैं क्रमश: व्यास, कपिल और पतंजलि। ये लोग परमाणुओं की सत्ता स्वीकार न करके तीन गुणों को ही मूल कारण मानते हैं। इन्हें परमाणुओं से इनकार नहीं। मगर ये उन्हें अविभाज्य नहीं मानते हैं। इनका कहना यही है कि कोई भी भौतिक पदार्थ अविभाज्य नहीं हो सकता है। विज्ञान ने भी इसे सिद्ध कर दिया है कि जिसे परमाणु कहते हैं उसके भी टुकड़े होते हैं। परमाणुवाद के मानने में जो मुख्य दलील दी गई है उसका उत्तर गुणवादी आसानी से देते हैं। वे तो यही कहते हैं कि पर्वत के टुकड़े करते-करते एक दशा ऐसी जरूर आ जाएगी जब सभी टुकड़े राई जैसे ही हो जाएँगे। उनकी संख्या भी निश्चित होगी, फिर चाहे जितनी ही लंबी हो। अब आगे जो टुकड़े हरेक राई जैसे टुकड़े के होंगे वह अनंत - असंख्य - होंगे। नतीजा यह होगा कि इन अनंत टुकड़ों से हरेक राई या राई जैसी ही लंबी-चौड़ी चीज तैयार होगी, जिसकी संख्या निश्चित होगी। अब यहीं से एक ओर राई रह जाएगी अकेली और दूसरी ओर उसी जैसे टुकड़ों को, जिनकी संख्या निश्चित है, मिला के पर्वत बना लेंगे। इसीलिए वह बड़ा भी हो जाएगा। फिर परमाणु का क्या सवाल? गीता में परमाणुवाद की गंध भी नहीं है - चर्चा भी नहीं है, यह विचित्र बात है।
इसीलिए परमाणुवाद और तन्मूलक आरंभवाद की जगह उनने गुणवाद और तन्मूलक परिणामवाद या विकासवाद स्थिर किया। उनने अंवेषण करके पता लगाया कि देखने में चाहे पृथिवी, जल आदि पदार्थ भिन्न हों; मगर उनका विश्लेषण (Analysis) करने पर अंत में सबों में तीन ही चीजें, तीन ही तत्त्व, तीन ही मूल पदार्थ पाए जाएँगे, पाए जाते हैं। इन तीनों को उनने सत्त्व, रजस और तमस नाम दिया। आमतौर से इन्हें सत्त्व, रज, तम कहते हैं। इन्हीं का सर्वत्र अखंड राज्य है - सर्वत्र बोलबाला है। चाहे स्थूल पदार्थ अन्न, जल, वायु, अग्नि आदि को लें, या क्रिया, ज्ञान, प्रयत्न, धैर्य आदि सूक्ष्म पदार्थों को लें। सबों में यही तीन गुण पाए जाते हैं। इसीलिए गीता ने साफ ही कह दिया है कि 'आकाश, पाताल, मर्त्त्यलोक में - संसार भर में - ऐसा एक भी सत्ताधारी पदार्थ नहीं है जो इन तीन गुणों से अछूता हो, अलग हो' - "न तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि देवेषु व पुन:। सत्त्वं प्रकृतिजैर्मुक्तं यदेभि: स्यात्त्रिभिर्गुणै:" (18। 40)। यों तो अठारहवें अध्याय के 7वें से लेकर 44 तक के श्लोकों में विशेष रूप से कर्म, धैर्य, ज्ञान, सुख, दु:खादि सभी चीजों का विश्लेषण करके उन्हें त्रिगुणात्मक सिद्ध किया है। सत्रहवें अध्याय के शुरू के 22 श्लोकों में भी दूसरी अनेक चीजों का ऐसा ही विश्लेषण किया गया है। गीता में और जगह भी गुणों की बात पाई जाती है। चौदहवें अध्याय में यही बात है। वह तो सारा अध्याय गुणनिरूपण का ही है। मगर वहाँ गुणों का सामान्य वर्णन है। इसका महत्त्व आगे बताएँगे।
यहाँ पर आरंभवाद और परिणामवाद या विकासवाद के मौलिक भेदों को भी समझ लेना चाहिए। तभी आगे बढ़ना ठीक होगा। आरंभवाद में यही माना जाता है कि परमाणुओं के संयोग या जोड़ से ही पदार्थों के बनने का काम शुरू होता है - आरंभ होता है। वे ही पदार्थों का आरंभ या श्रीगणेश करते हैं। वे इस तरह एक नई चीज तैयार करते हैं जैसे सूत कपड़ा बनाते हैं। जो काम सूतों से नहीं हो सकता है वह तन ढँकने का काम कपड़ा करता है। यही उसका नवीनपन है। मगर परिणामवाद या विकासवाद में तो किसी के जुटने, मिलने या संयुक्त होने का प्रश्न ही नहीं होता। वहाँ पहले से बनी चीज ही दूसरे रूप में परिणत हो जाती है, विकसित हो जाती है। जैसे दूध ही दही के रूप में परिणत हो जाता है। इस मत में तीनों गुण ही सभी भौतिक पदार्थों के रूप में परिणत हो जाते हैं। कैसे हो जाते हैं यह कहना कठिन है, असंभव है। मगर हो जाते हैं यह तो ठोस सत्य है। जब परमाणुओं को निरवयव मानते हैं, तो फिर उनका संयोग होगा भी कैसे? संयोग तो दो पदार्थों के अवयवों का ही होता है न? जब हम हाथ से लोटा पकड़ते हैं तो हाथ के कुछ भाग या अवयव लोटे के कुछ हिस्सों के साथ मिलते हैं। मगर निरवयव चीजें कैसे परस्पर मिलेंगी? इसीलिए आरंभवाद को मानने से इनकार कर दिया गया। क्योंकि इस मत के मानने से दार्शनिक ढंग से पदार्थों का निर्माण सिद्ध किया जा सकना असंभव जँचा।
गुण और प्रधान
सत्त्व, रज, तम को गुण नाम क्यों दिया गया यह भी मजेदार बात है। जब यही सृष्टि के मूल में है तब तो यही प्रधान ठहरे, मुख्य ठहरे, असल ठहरे, अग्रणी ठहरे। लेकिन इन्हें गुण कहते हैं! गुण या गौण का अर्थ है अप्रधान, जो मुख्य न हो, अग्रणी न हो। और प्रधान किसे कहा है? प्रकृति को, जो इन तीनों गुणों के मिल जाने से बन जाती है। जब ये तीनों गुण अपनी विषमता छोड़ के सम रूप से मिल जाते हैं, जब इनकी साम्यावस्था हो जाती है तो उसे ही प्रकृति और प्रधान कहते हैं; हालाँकि वह पीछे की चीज होने से गुण या गौण ठहरी। साम्यावस्था ही प्रलय की अवस्था है। उस दशा में सृष्टि का काम कुछ भी नहीं हो पाता - सब कुछ खत्म हो जाता है।
यद्यपि चौदहवें अध्याय के 5वें से 25वें तक के श्लोकों में इन गुणों की बात विशेष रूप से कही गई है, तथापि 5-18 तक के 14 श्लोकों के पढ़ने से, अभी जो शंका उठी है, उसका उत्तर मिल जाता है। दूसरी भी बातें विदित हो जाती हैं। इसीलिए इस अध्याय का विशेष महत्त्व हमने माना है। इन्हें गुण क्यों कहते हैं, इस संबंध में पाँचवाँ श्लोक खास महत्त्व रखता है। मगर उसका अर्थ करने या और भी विचार करने के पूर्व हमें सृष्टि की एक बात जान लेने की है जो उससे पहले के 3, 4 श्लोकों में कही गई है। हम तो हमेशा सृष्टि के ही संबंध में सोचते हैं कि यह कैसे बनी, इसका विकास या पसारा कैसे हुआ। दर्शनों का श्रीगणेश तो इसी बात को लेके होता ही है, यह पहले ही कहा जा चुका है। प्रलय या सृष्टि न रहने की दशा को तो हम पहले सोचते नहीं। वह तो हमारे सामने की चीज है नहीं। विचार के ही सिलसिले में जब उसकी बात पीछे आ जाती है, तो उस पर भी सोचते हैं। मगर उस दशा में भी वह महज ख्याली और दिमागी चीज होती है। वह सामने की या ठोस वस्तु तो होती नहीं। फिर पहले उधर खयाल जाए तो कैसे ?
एक बात और है। सृष्टि का अर्थ ही है अनेकता, विभिन्नता (Diversity, Heterogeniety)। इसी विभिन्नता को लेके हम शुरू करते हैं और अंवेषण चालू होता है। प्रलय तो इससे उलटी चीज है। उसमें तो एकता और अभिन्नता है, एकरूपता और समता (Uniformily & Homogeneity) है। जैसा कि गीता ने चौदहवें अध्याय के 6-18 श्लोकों में बताया है, गुणों में तो परस्परविरोध है - वे ऐसे हैं कि एक दूसरे को खा जाएँ। यदि हम तीनों के प्रतिनिधि के रूप में पित्त, वात और कफ को मान लें तो इनकी बात कुछ समझ में आ जाए। क्रमश: सत्त्व, रज, तम की जगह स्थूल शरीर में पित्त, वात, कफ माने जाते भी हैं। पित्तादि में सत्त्वादि की ही यों भी प्रधानता रहती है। सत्त्व में प्रकाश, उजाला, हल्कापन आदि माने जाते हैं। पित्त में भी यही चीजें हैं। पित्त आग या गर्म है। और उसी में ये बातें होती हैं। रज में क्रिया होती है और वायु तो सतत क्रियाशील है। तम भारी है और कफ भी जकड़ने वाली चीज है। शरीर के लिए जैसे पित्तादि तीनों की जरूरत है, वैसे ही संसार के लिए सत्त्वादि की आवश्यकता है। हाँ, पित्त आदि की मात्रा निश्चित रहे तो ठीक हो, नहीं तो गड़बड़, बेचैनी, बीमारी हो। यही बात सत्त्वादि की भी है। उनकी भी निश्चित मात्रा है और जहाँ वह बिगड़ी कि गड़बड़ शुरू हुई। जैसे शरीर में एक समय एक ही पित्त या वायु या कफ प्रधान हो के रहता है, वैसी ही बात इन गुणों की भी है। एक समय एक ही प्रधान रहेगा; बाकी उसी के मातहत। यही बात गीता ने 'रजस्तमश्चाभिभूय' (14। 10) श्लोक में साफ कही है।
इन गुणों का परस्पर विरोध तो मानते ही हैं। वायु, कफ, पित्त की भी यही बात है। मगर जरा और भी देख लें। ज्ञान के लिए, हल्केपन के लिए और प्रकाश के लिए क्रिया नहीं चाहिए, भारीपन नहीं चाहिए। ज्यादा हलचल से प्रकाश रुक जाता है, ज्ञान नहीं हो पाता, मन की एकाग्रता नहीं हो पाती। भारीपन से या तो नींद आती है या बेचैनी होती है। ज्ञान है सत्त्व का काम। हल्कापन और प्रकाश भी उसी का काम है। उसकी विरोधी क्रिया है रज का काम और भारीपन है तम का। साफ ही देखते हैं कि ज्ञान होने से मन उसमें लगे तो क्रिया रुक जाए। निद्रा या भारीपन भी जाता रहे। हल्कापन उसका विरोधी जो है। भारीपन हो तो सारी चीजें दब के रह जाएँ, नींद आ जाए और क्रिया न हो सके। ज्ञान की तो बात ही मत पूछिए। 6 से 9 तथा 11 से 18 तक के श्लोकों में इसी बात का सुंदर विवरण है।
मगर खूबी यह है कि इन तीनों का आपस में समझौता है कि हम लोग मिल के रहेंगे; नहीं तो किसी की खैर नहीं! राजनीति में आज तो धर्मों और देशों का परस्पर विरोध है वह तो इनके सामने फीका पड़ जाता है - वह इनके विरोध के सामने कुछ नहीं है। मगर चाहे हमारी नादानी से धर्मविरोध और राजनीति का विरोध मिटे या न मिटे, भाई-भाई की लड़ाई खत्म हो या न हो। मगर इनने तो पारस्परिक विरोध मिटा लिया है, समझौता (Pact) कर लिया है। इन्हें दुनिया में सिर ऊँचा करके रहना जो है। और हमें? हमें तो गैरों के जूते सहने और गुलामी करनी है न? फिर हमारा मेल कैसे हो? हाँ, तो इनने यह समझौता कर लिया है कि एक वक्त में हममें एक ही प्रधान होगा, नेता होगा, मुखिया होगा; बाकी दो उसी के साथ, उसी के अनुकूल चलेंगे, उसी की मदद करेंगे, बावजूद इसके कि ये दोनों ही उसके सख्त दुश्मन हैं! फिर मौके पर जरूरत के अनुसार हममें दूसरा प्रधान तथा लीडर होगा और पहला उस जगह से हटेगा। उस समय भी बाकी दो उसी प्रधान के सहायक होंगे। आवश्यकतानुसार उसे हटा के जब तीसरा मुखिया बनेगा तो बाकी दो उसके ही सहायक और साथी बनेंगे। यही है इन तीनों का अलिखित समझौता (Convention)। पूर्वोक्त दसवें श्लोक का यही अभिप्राय है।
यहीं पर इन्हें गुण कहने का एक कारण मिल जाता है। जैसा कि अभी कहा गया है, सृष्टि के रहते हुए इन तीन में दो या अधिकांश हमेशा एक के पीछे रहते हैं, उसी के सहायक और मददगार होते हैं; यहाँ तक कि अपना स्वभाव छोड़ के उसके विपरीत उसकी मदद करते हैं, जैसे बलपूर्वक किसी गुलाम से कोई काम कराया जाए। फर्क यही है कि इनके लिए बल प्रयोग नहीं है। दूरअंदेशी से खुद ही ये वैसा करते हैं। और इनमें जो एक कभी प्रधान होता है वही पीछे अप्रधान बन जाता है। इस प्रकार देखते हैं कि ये तीनों गुण सृष्टि के मूल कारण होते हुए यद्यपि प्रधान कहे जाने योग्य हैं, तथापि इनकी असली खूबी है दूसरों के अनुयायी बनना, उनकी सहायता करना, उनके अनुकूल होना। सृष्टि की दृष्टि से इनकी यह खूबी जरूरी है भी। इसी विशेषता के खयाल से, इसी ओर खयाल आकृष्ट करने के ही लिए इन्हें गुण कहा है। दसवें श्लोक से यही पता चलता है।
अब जरा दूसरा पहलू देखिए। यदि 5-9 श्लोकों को देखें तो पता चलता है कि ये तीनों ही गुण बाँधने का काम करते हैं। कोई ज्ञान, सुख आदि में मनुष्य को लिप्त करके, लिपटा के उन्हीं चीजों से उसे बाँध देते हैं; क्योंकि किसी चीज की ज्यादती ही ऐब है, बंधन है, तो कोई क्रिया और लोभ आदि में फँसा देते हैं। यह नहीं हुआ, वह नहीं हुआ, यह काम शेष है, वह बाकी है इसी हाय-हाय में जिंदगी गुजरती है। जिस प्रकार सत्त्व गुण, ज्ञान आदि में फँसा के बाँध देता है, उसी प्रकार रज क्रिया और लोभ आदि में। जाल में फँसाने का काम करने में ज्ञान सुख, क्रिया, लोभ चारे की जगह प्रयुक्त होते हैं। तम का तो फँसाना काम प्रसिद्ध ही है। वह तो हमेशा का ही बदनाम है। मगर जो उससे अच्छा रज है और जो महान माने जानेवाला सत्त्व है वह भी फँसाने में किसी से पीछे नहीं है! 'छोटी बहू तो छोटी, बड़ी बहू शुभानल्ला !' और यह तो जानते ही हैं कि फाँसने और बाँधने का काम रस्सी करती है। फिर चाहे वह सूत की बारीक या मोटी हो, या, और चीज की हो। संस्कृत में रस्सी को गुण कहते हैं। इसी का अपभ्रंश हो के गोन शब्द हो गया। नाव खींचने की रस्सी को गोन कहते हैं। फलत: फँसाने और बाँधने की ताकत इन गुणों में होने के ही कारण इन्हें गुण कहा है; ताकि लोग इनसे सजग रहें। 5-9 श्लोकों से यह स्पष्ट है। 5वें के उत्तरार्द्ध में तो एक ही साथ तीनों को बाँधनेवाले कह दिया है - 'निबध्नन्ति महाबाहो।' इसीलिए अर्जुन को कहा गया है कि इन गुणों से ऊपर जाओ - 'निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन' (2। 45)। इसी चौदहवें अध्याय में भी कहा है कि इन गुणों से अलग ब्रह्मात्मा को जानने वाले की मुक्ति होती है - 'गुणेभ्यश्च परं वेत्ति' (14। 19), तथा इन गुणों से ऊपर उठने पर ही मनुष्य ब्रह्मरूप हो जाता है - 'स गुणान्समतीयैतान्ब्रह्मभूयाय कल्पते' (14। 26)।
गुणों में यह परस्पर विरोध और मिल के काम करने की - दोनों - बात योगसूत्र - 'परिणामतापसंस्कारदु:खैर्गुणवृत्तिविरोधाच्च दु:खमेव सर्वं विवेकिन:' (2। 15) - में और इसके भाष्य में भी अत्यंत विशद रूप से बताई गई है। वहीं पर यह भी कह दिया है कि तीनों गुण परस्पर मिल के ही हर चीज पैदा करते हैं। इसीलिए तो सभी पदार्थों में तीनों ही गुण पाए जाते हैं। ईश्वरकृष्ण ने सांख्यकारिकाओं में भी 'सत्त्वं लघु प्रकाशकमिष्टमुपष्टम्भकं चलं च रज:। गुरु वर्णकमेव तम: प्रदीवच्चार्थतो वृत्ति:' (13) के द्वारा इन तीनों गुणों को परस्पर विरोधी बता के बाद में तीनों के मिल के काम करने का बहुत ही सुंदर दृष्टांत दिया है। इनके परस्पर मिलने का कारण भी बताया है। वह कहता है कि जिस प्रकार दीपक में तेल, बत्ती और तेज या अग्नि तीनों ही परस्पर विरोधी हैं तथापि तीनों को मिलाए बिना रोशनी होई नहीं सकती। आग बत्ती और तेल दोनों को ही खत्म करने वाली है। तेल ज्यादा दे दिया जाए जलना बंद हो जाए, बुझ जाए। बत्ती को भी भिगो के विकृत बना देता है। बत्ती भी तेल को सोखती है अगर सख्त बत्ती या कपड़े का बंडल डाल दें तो चिराग बुझ जाए। मगर प्रयोजनवश तीनों को हिसाब से रख के काम चलाते हैं। इस तरह परस्पर मेल से ही दीपक जलता है। इसी प्रकार संसार के कामों के चलाने और गुणों के अपने स्वतंत्र अस्तित्व के ही लिए तीनों का मिल के काम करना जरूरी हो जाता है।
तीनों गुणों की जरूरत
अब हमें एक ही बात का विचार करना शेष है जिसका सृष्टि से ही ताल्लुक है। बाद में प्रलय की बात कह के आगे बढ़ेंगे। सृष्टि की रचना कैसे होती है यह बात तो प्रलय के ही निरूपण में आगे आएगी। अभी तो हमें यह देखना है कि इन तीनों परस्पर विरोधी गुणों की क्या जरूरत है। क्या सचमुच ही इन तीनों की आवश्यकता है, यह प्रश्न होता है। उत्तर में 'हाँ' कहना ही पड़ता है। यह कैसे है यह बात और ये तीनों एक दूसरे की मदद कैसे करते हैं यह भी एक ही साथ मालूम हो जाएगी। यदि सिर्फ सत्त्व रहे तो हम ज्ञान, प्रकाश तथा सुख से ऊब जाएँगे। एक ही चीज का निरंतर होना (Monotony) ही तो ऊबने का प्रधान कारण है। इसीलिए तो परिवर्तन जरूरी होता है। ज्ञान के मारे न नींद, न खाना-पीना, न और कुछ होगा। प्रकाश में चकाचौंध हो जाएगी। हलका हो के यह संसार कहाँ उड़ जाएगा कौन कहे? यदि सिर्फ तम हो तो भी दबते-दबते कहाँ जाएगा पता नहीं। निरंतर नींद, भारीपन, जड़ता, अँधेरा, अज्ञान कौन बरदाश्त करेगा? पत्थर की दशा भी उससे अच्छी होगी। संसार का कोई काम होगा ही नहीं। इसलिए यदि सत्त्व और तम दोनों को ही मानें तो दोनों एक दूसरे को दबा के खत्म या बेकार (neutralised) कर देंगे। फलत: दो में एक का भी काम न होगा। इसीलिए रज आ के दोनों में क्रिया पैदा करता है, दोनों को चलाता है; ताकि दोनों सारी ताकत से आपस में भिड़ न सकें। न दोनों जमेंगे, स्थिर होंगे और न जम के लड़ेंगे। फिर एक दूसरे को बेकार कैसे बनाएँगे? यदि रज ही रहे और बराबर क्रिया होती रहे तो भी वही बेचैनी! सारी दुनिया जल्द घिस जाए, मिट जाए। इसलिए तम उसे दबा के बीच-बीच में क्रिया को रोकता है। सत्त्व क्रिया का पथ-प्रदर्शन करता है प्रकाश और ज्ञान दे के। मगर जब तम प्रकाश को रोक देता है तो ज्ञान के अभाव में भी क्रिया रुकती है। ज्ञान और क्रिया के बिना कुछ होई नहीं सकता। अत्यंत हलकी चीज स्थिर हो सकती ही नहीं। फिर उसमें ज्ञान या क्रिया हो कैसे? उसे वजनी बनाने के लिए भी तो तमोगुण चाहिए ही इस प्रकार तीनों की जरूरत और परस्पर सहायता स्पष्ट सिद्ध है।
सृष्टि और प्रलय
रह गई सृष्टि की प्रारंभिक दशा तथा प्रलय की बात। जब सृष्टि का विचार करने लगे तो अंत में यह बात उठी कि जब ये चीजें न थीं तो क्या था? आखिर न रहने पर ही तो बनने का सवाल पैदा होता है। यह भी बात है कि जब ये गुण परस्पर विरोधी हैं तो यदि ये कभी स्वतंत्र बन जाएँ और एक दूसरे की न सुनें, तब क्या होगा? यह निरी खयाली बात तो है नहीं। इनके प्रतिनिधि कफ, वायु, पित्त जब स्वतंत्र हो जाते और एक दूसरे की नहीं सुनते तो त्रिदोष और सन्निपात होता है और मौत आती है। वही जो कभी एक दूसरे के अनुयायी थे, आज आजाद हो गए! यही बात गुणों में हो तो? और जब विश्राम का नियम संसार में लागू है तो ये भी तो विश्राम करेंगे ही, फिर चाहे देर से करें या जल्द करें। उस समय क्या हालत होगी और ये किस तरह रहेंगे? और जब विश्राम का समय पूरा होगा तब कैसे, क्या होगा? इसी ढंग के सवाल उठाने पर सृष्टि तथा प्रलय की बात आ जाती है।
दार्शनिकों ने इन प्रश्नों पर बहुत ही उधेड़-बुन करके जवाब दिया कि जब तक ये गुण ऐसे के ऐसे ही रहेंगे तब तक इनका काम जारी रहेगा ही, तब तक तो चूहा बिल खोदता ही रहेगा। इनका स्वभाव ही जो यह ठहरा। इसीलिए, और कभी तन जाने पर भी, तीनों आजाद हो जाएँगे, समान हो जाएँगे। फिर तो कोई काम हो न सकेगा। बिना विषमता के, बिना एक दूसरे की मातहती के तो सृष्टि का काम चल सकता है नहीं और यहाँ तो 'नाई की बारात में सब ठाकुर ही ठाकुर ठहरे।' फलत: आजादी या साम्यावस्था में ही विश्राम होगा और यह सारा पसारा रुका रहेगा। क्योंकि 'रहे बाँस न बाजे बाँसुरी।' उसी साम्यावस्था को प्रलय कहते हैं, प्रकृति कहते हैं और प्रधान भी कहते हैं। ये गुण उसी हालत में जाते और फिर वहीं से लौटते हैं। इनका यह चरखा रह-रह के चालू रहता है। उससे आगे तो इनकी पहुँच है नहीं। वही इनकी अंतिम दशा है। इसीलिए उसे प्रधान कहते हैं। प्रधान कहते हैं उसे जो सबके अंत में हो, आखिर में हो। उसी प्रधान की अपेक्षा इनको गुण कहते हैं। क्योंकि इनकी आखिरी कृति वही है जिसे ये बनाते हैं अपनी प्रधानता, मुख्यता को गँवा के। जब इनकी क्रिया रही ही नहीं तो तने भले ही हों और आजाद भले ही रहें, फिर भी इनका पता कहाँ रहता है? वही प्रधान फिर इन्हीं गुणों के द्वारा अपना विस्तार करती है, सारा पसारा फैलाती है। इसी से उसे प्रकृति कहते हैं। प्रकृति का अर्थ ही है कि जो खूब करे, ज्यादा फैले-फैलाए।
कागज काटने के लिए जो मशीन (Cutting machine) आजकल बनी है। उसकी एक खूबी यह है कि हैंडिल - चलाने वाला भाग - पकड़ के मशीन चलाते रहिए और उसकी तेज धार कागज तक पहुँच के उसे काट देगी। फिर ऊपर वापस भी चली जाएगी। चलाने वाले का काम बराबर एक ही तरह चलता रहेगा। वह जरा भी इधर-उधर या उलट-फेर न करेगा। मगर उसी चलाने की क्रिया - कर्म - के - फलस्वरूप तेज धार ऊपर से नीचे उतर के काटेगी और फिर ऊपर लौट जाएगी। जितनी देर तक चलाते रहिए यही आना-जाना जारी रहेगा। सृष्टि और प्रलय की भी यही हालत है। हमारे काम, कर्म (actions) ही सब कुछ करते हैं। उन्हीं के करते कभी सृष्टि और कभी प्रलय होती है। ये दोनों चीजें परस्पर विरोधी हैं, जैसे मशीन की धार का नीचे आना और ऊपर जाना। मगर उन्हीं - एक ही - कर्मों के फलस्वरूप ये दोनों ही होती हैं। कभी भी जीवों को विश्राम मिल जाता हैं जिसे प्रलय कहते हैं। गीता ने उसी को 'कल्पक्षय' (9। 7) भी कहा है। उसे भूतसंप्लव भी कहते हैं। फिर कभी सृष्टि का काम चालू हो जाता है। प्रलय शब्द भी गीता (14। 2) में आया ही है।
यद्यपि यह खयाल हो सकता हैं कि सबों की दशा तो एक-सी नहीं हैं। सभी के कर्मों, कर्मफलभोगों तथा अन्य बातों में भी कोई समानता तो है नहीं। यहाँ तो 'अपनी-अपनी डफली, अपनी-अपनी गीत,' है। यहाँ तो 'मुंडे-मुंडे मतिर्भिन्ना तुंडे-तुंडे सरस्वती।' फिर यह कैसे संभव है कि सभी जीव किसी समय विश्राम में चले जाए और प्रलय हो जाए? यदि गीता ने ऐसा माना है और अगर दर्शनों ने भी इसे स्वीकार किया है तो इससे क्या? सभी का कार्य-विराम एक ही साथ हो, यह क्या बात? संसार कोई एक कारखाना या एक ही कंपनी के अनेक कारखानों का समूह तो है नहीं, कि निश्चित समय पर काम से छुट्टी मिल जाए, या काम बंद हो जाया करे। यहाँ तो साफ ही उलटी बात देखी जाती है। तब कल्पक्षय की बात कैसे मानी जाए? प्रलय क्यों मानी जाए?
बात तो है कुछ पेचीदगी से भरी जरूर। मगर असंभव नहीं है। ऐसी बातें दुनिया में होती रहती हैं। यों तो रात में विराम और दिन में काम की बात आमतौर से सर्वत्र है। यह तो सभी के लिए है। मगर जहाँ दिन-रात बड़े होते हैं, जैसे उत्तर ध्रुव के आस-पास, वहाँ भी और नहीं तो छह मास का दिन एवं उतनी ही लंबी रात तो होती ही है। प्रकृति की ओर से जब तूफान आता है, बर्फीली आँधियाँ चलती हैं तब तो सभी को एक ही साथ काम बंद कर देना ही पड़ता है। मगर इन सभी को न भी मानें और अगर इनमें भी कोई गड़बड़ सूझे तो भी तो यह बात देखी जाती हैं कि किसी गोल घेरे या रास्ते पर चक्कर लगाने वाले यद्यपि भिन्न-भिन्न चालों वाले होते हैं, फिर भी ऐसा मौका आता है कि कभी न कभी सभी एक साथ मिल जाते हैं। फिर फौरन आगे-पीछे हो जाते हैं। यों तो आमतौर से आगे-पीछे चलते ही रहते हैं। मगर चक्कर लगाते-लगाते बहुत चक्करों के बाद देर या सवेर एक बार तो सभी इकट्ठे हो जाते हैं। फिर आगे-पीछे होके चलते-चलते उतनी ही देर बाद दूसरी-तीसरी बार भी एकत्र हो जाते हैं। यही सिलसिला चलता रहता है। बस, यही हालत प्रलय या कल्पक्षय की मानिए। इसीलिए हिसाब लगा के एक निश्चित समय के ही अंतर पर इसका बारंबार होना गीता ने भी माना है। इस प्रलय को गीता ने रात भी कहा है (8। 17-19 में)।
हाँ, तो उस प्रलय की दशा से सृष्टि का श्रीगणेश कैसे होता है यह बात भी जरा देखें। गीता के (7। 4-6), (8। 17-19), (9। 7-10), (13। 5) तथा (14। 3-5) में यह बात खास तौर से लिखी गई है। यों छिटपुट एकाध बात प्रसंग से कह देने का तो कुछ कहना ही नहीं। आठ और नौ अध्यायों में कुछ ज्यादा प्रकाश डाला गया है। जीवों के कर्मों की मजबूरी से उन्हें बार-बार जनमना-मरना पड़ता है। प्रलय के बाद भी यही चीज चालू रहती है, यही गोलमोल बातें वहाँ कही गई हैं। बेशक, चौदहवें अध्याय में सृष्टि के श्रीगणेश की खास बात कही गई है और बताया गया है कि यह किस तरह होती है। मगर इसे जब हम सातवें और तेरहवें अध्याय के वर्णन से मिला के तीनों का अर्थ एक साथ करते हैं और चौदहवें के समूचे गुण-वर्णन को भी उसी के साथ ध्यान में रखते हैं तभी इस बात पर पूरा प्रकाश पड़ता है। चौदहवें अध्याय के 5वें श्लोक में कहा गया है कि 'तीनों गुण प्रकृति से निकलते हैं' - "गुणा: प्रकृतिसम्भवा:।" निकलने का अर्थ तो कही चुके हैं कि साम्यावस्था छोड़ के अपनी विषम अवस्था में - अपनी असली सूरत में - आते हैं; न कि पैदा होते हैं। कैसे बाहर आते हैं यही बात उससे पहले के दो श्लोकों में माँ के पेट से बच्चे के बाहर आने का दृष्टांत देकर बताई गई है। उसी का विशेष विवरण सातवें एवं तेरहवें अध्याय में दिया गया है।
यह तो पहले ही कह चुके हैं कि प्रधान या प्रकृति तो साम्यावस्था है, एकरसता है, अविभिन्नता (homogeneity) है। उसके विपरीत उस अवस्था को भंग करके ही सृष्टि होती है जिसमें अनेकता और विभिन्नता (heterogeneity and diversity) है। यह चीज कैसे होती है, इनकी प्रक्रिया या क्रम क्या है, इस पर भी दार्शनिकों ने सोच के जो कुछ तय किया है वही बात उन दोनों अध्यायों में पाई जाती है। उसमें भी सातवें में बहुत कुछ कमी रह गई है। उसकी पूर्ति तेरहवें में हो जाती है। हाँ, कुछ ब्योरे की बातें वहाँ नहीं कही गई हैं, या एकाध में कुछ फर्क भी मालूम पड़ता है। मगर वह कोई खास चीज नहीं है। असल बातें ठीक-ठीक मिल जाती हैं। ब्योरा कहाँ तक गिनाया जा सकता है? ब्योरे में तो जानें कितनी ही बातें होती हैं। अगर उनमें कुछ छूटें तो फर्क तो मालूम होगा ही।
सांख्यदर्शन की एक कारिका है 'मूलप्रकृतिरविकृतिर्महदाद्या: प्रकृति-विकृतय: सप्त। षोडशकस्तुविकारो न प्रकृतिर्न विकृति: पुरुष:' (3)। इसका आशय यह है कि 'सृष्टि की जड़ में प्रकृति है। वह किसी से भी पैदा नहीं होती। हाँ, उससे महान, अहंकार और आकाश, वायु, तेज, जल, पृथिवी के सूक्ष्म स्वरूप - जिन्हें पंचतन्मात्रा कहते हैं - यही सात पदार्थ पैदा होते हैं। फिर उनसे दूसरी चीजें पैदा होती हैं। इसीलिए इन्हें प्रकृति-विकृत नाम से पुकारते हैं। वे दूसरी चीजें हैं सोलह - पाँच कर्म - इंद्रिय, पाँच ज्ञान - इंद्रिय, पाँच महाभूत और अंत:करण। ये सोलहों विकृति कहाते हैं। पुरुष या जीव तो न प्रकृति है और न विकृति।' यद्यपि इस कारिका में महान आदि सातों या शेष सोलह का भी नाम नहीं दिया है; तथापि एक और कारिका 'प्रकृतेर्महाँस्ततोऽहंकारस्तमाद् गणश्च षोडशक:' (16) आदि में सभी को गिना दिया है और सातों का क्रम भी बताया है कि पहले महान, तब अहंकार, तब पाँच तन्मात्राएँ। आगे का भी क्रम दे दिया गया है। मगर आगे बढ़ने के पहले इन बातों का थोड़ा स्पष्टीकरण जरूरी है।
सांख्यदर्शन ने जीव या पुरुष को तो सबसे निराला कहा है। वह न तो किसी से पैदा होता है और न किसी को पैदा करता है। वह न प्रकृति है, न विकृति। प्रकृति कहते हैं कारण को और विकृति कहते हैं कार्य को। वह दो में एक भी नहीं हैं। रह गए संसार के पदार्थ। सो इन्हें तीन दलों में बाँटा है। पहली है मूल प्रकृति या प्रधान। गीता ने इसी को प्रकृति या महद्ब्रह्म के अलावे भूतप्रकृति भी भूत प्रकृतिमोक्षं च (13। 34) में कहा है। अपरा भी कहा है जैसा कि आगे लिखा है। इससे पंचभूत पैदा होते हैं। इसी से इसे भूतप्रकृति कहा है। यह किसी से पैदा तो होती नहीं; मगर खुद पैदा करती है - यह किसी का कार्य नहीं है। इसीलिए इसे अविकृति भी कहा है। दूसरे दल में महान आदि सात आ जाते हैं। इन्हें प्रकृति-विकृति कहा है। ये खुद तो आगे के सोलह पदार्थों को पैदा करते हैं। इसीलिए प्रकृति या कारण कहाए। मूल प्रकृति से ही ये पैदा होने की वजह से विकृति भी कहे गए। अब इनसे जो सोलह पदार्थ पैदा हुए वह विकृति कहे जाते हैं। क्योंकि वे इनसे पैदा होने के कारण ही कार्य या विकृति हो गए। मगर उनसे दूसरी चीजें बनती हैं नहीं। दस इंद्रियों या पाँच प्राणों से अन्य पदार्थ पैदा तो होते नहीं। अंत:करण या बुद्धि से भी नहीं पैदा होते। चक्षु आदि बाहरी इंद्रियाँ हैं और बुद्धि या मन भीतर की। इसीलिए उसे अंत:करण कहते हैं। करण नाम हैं इंद्रिय का। अंत: का अर्थ है भीतरी। गीता ने पुरुष को मिला के यह चार विभाग नहीं किया है। किंतु सभी को - चारों को - ही प्रकृति कह के जीव या पुरुष को परा या ऊँचे दर्जे की और शेष तीन को अपरा या नीचे दर्जे की प्रकृति 'अपरेयमितस्त्वन्यां' (7। 5) आदि में कहा है।
दोनों में यह दो या चार भेदों का होना कोई खास बात नहीं है। मगर पुरुष को भी प्रकृति कहना जरूर निराला है। क्योंकि सांख्य ने साफ ही कहा है कि वह प्रकृति नहीं है। असल में गीता वेदांत दर्शन को ही मानती है, न कि सांख्य को। इसीलिए सांख्य को जो बातें वेदांत से मिलती हैं उन्हें तो माने लेती हैं। लेकिन जो नहीं मिलती हैं वहाँ स्वतंत्र बात कहती हैं। वेदांत ने तो माना ही है कि पुरुष या भगवान ने ही पहले सोचा; पीछे संसार बनाया। वेदांतदर्शन के दूसरे सूत्र 'जन्माद्यस्य यत:' में साफ ही माना है कि भगवान से ही आकाशादि पदार्थों का जन्म होता है। इसलिए वही कारण है। यदि वह कारण न होता तो उसे सिद्ध करना असंभव था। उसकी तब जरूरत ही क्या थी? वेदांत ने जीव को भगवान का रूप ही माना है और दोनों को ही पुरुष कहा है। हाँ, व्यष्टि और समष्टि के भेद के हिसाब से पर पुरुष एवं अपर पुरुष या पुरुष तथा पुरुषोत्तम यही दो नाम उसने जीव और ईश्वर को अलग-अलग दिए हैं। गीता ने भी 'उत्तम: पुरुषस्त्वन्य:' (15। 17) में यही कहा है। इसीलिए 'मम योनि:' (14। 3-4) आदि में पुरुष को ही सृष्टि का पिता और प्रधान या प्रकृति को माता कहा है। गीता सृष्टि-रचना को अंधे का खेल नहीं मानती। किंतु सोच-समझ के बनाई चीज (Planned creation) मानती है।
सृष्टि का क्रम
सोचने-समझने का यह मतलब नहीं कि चलना-फिरना, उठना-बैठना, खेती-गिरस्ती आदि हरेक कामों को हरेक आदमियों के बारे में पहले से ही तय कर लिया था। यह तो भाग्यवाद (Fatalism) तथा 'ईश्वर ने जो तय कर दिया वही होगा' (determinism) वाली बात है। फलत: इसमें करने वालों की जवाबदेही जाती रहती है। वह तो मशीन की तरह ईश्वर की मर्जी पूरा करने वाले मान लिए जाते हैं। फिर उन पर जवाबदेही किसी भी काम की क्यों हो और वे पुण्य-पाप के भागी क्यों बनें? मशीन की तो यह बात होती नहीं और इस काम में वे ठहरे मशीन ही। सोचने-समझने का सिर्फ यही आशय है कि मूलस्वरूप कौन-कौन पदार्थ कैसे बनें कि यह सृष्टि चालू हो, इसका काम चले, यही बात उसने सोची और इसी के अनुसार सृष्टि बनाई। यह तो हमारा काम है कि हममें हरेक आदमी खुद भला-बुरा सोच के अपना रोज का काम करता रहे। इसीलिए तो हमें बुद्धि दी गई है। उसे देकर ही तो ईश्वर जवाबदेही से हट गया और उसने हम पर अपने कामों की जवाबदेही लाद दी।
अब जरा यह देखें कि ईश्वर के सोचने और तदनुसार सृष्टि बनाने के मानी क्या हैं। वह हमारे जैसा देहधारी तो है नहीं कि इसी प्रकार सोचे-विचारेगा। यह तो कही चुके हैं कि प्रलय में प्रधान या प्रकृति समान थी, एक रूप थी। उसमें अनेकता और विभिन्नता लाने के लिए सबसे पहले क्रिया होना जरूरी है। क्योंकि क्रिया से ही अनेकता और विभिन्नता होती हैं। मिट्टी का एक धोंधा है। क्रिया के करते ही उसे अनेक टुकड़ों में कर देते या उससे अनेक बरतन तैयार कर लेते हैं। मगर क्रिया के पहले जानकारी या ज्ञान जरूरी है। यह तो हम कही चुके हैं कि सोच-विचार के यह सृष्टि बनी है। एक बात यह है कि यदि फिजूल और बेकार चीजें न बनानी हों, साथ ही सृष्टि की सभी जरूरतें पूरी करनी हों तो जो कुछ भी किया जाए वह सोच-विचार के ही होना चाहिए। कुम्हार सोच-साच के ही बरतन बनाता है। किसान खेती इसी तरह करता है। नहीं तो अंधेरखाता ही हो जाए और घड़े की जगह हांडी तथा गेहूँ की जगह मटर की खेती हो जाए। यही कारण हैं कि सांख्य ने ईश्वर को न मान के भी सृष्टि के शुरू में यह सोचना-समझना या ज्ञान माना है। मगर ज्ञान तो जड़ प्रकृति में होगा नहीं और जीव का काम सांख्य के मत से सृष्टि करना है नहीं। इसीलिए वेदांत ने और गीता ने भी सृष्टि के मूल में ईश्वर को माना है। वह है भी परम-आत्मा या श्रेष्ठ-आत्मा।
वह ज्ञान होगा भी हम लोगों के ज्ञान जैसा कुछ बातों का ही नहीं, छोटा या हल्का-सा ही नहीं। वह तो सारी सृष्टि के संबंध का होगा, व्यापक और बड़े से बड़ा होगा। इसीलिए उसे महत्त्व या महान कहा है। उसके बाद जो क्रिया होगी उसी को अहम या अहंकार कहा है। यह हम लोगों का अहंकार नहीं हो के सृष्टि के मूल की क्रिया है। समष्टि या व्यापक ज्ञान की ही तरह यह भी व्यापक या समष्टि क्रिया है। नींद के बाद जब ज्ञान होता है तो उसके बाद पहले अहम या मैं और मेरा होने के बाद ही दूसरी क्रिया होती है, और प्रलय तो नींद ही है न ? इसीलिए उसके बाद की समष्टि क्रिया को अहंकार नाम दिया गया है। इस अहंकार या क्रिया के बाद प्रकृति की समता खत्म हो के विभिन्नता आती है। और आकाश, वायु, तेज (प्रकाश), जल, पृथिवी इन पाँचों की सूक्ष्म या अदृश्य मूर्त्तियाँ (शक्लें) बनती हैं। इन्हीं से आगे सृष्टि का सारा पसारा होता है।
इन पाँच सूक्ष्म पदार्थों या भूतों के भी, जिन्हें तन्मात्रा भी कहते हैं, वही तीन गुण होते हैं, जैसा कि कह चुके हैं। उनमें पाँचों के सात्त्विक अंशों या सत्त्व गुणों से क्रमश: श्रोत्र, त्वक्, चक्षु, रसना, घ्राण ये पाँच ज्ञानेंद्रियाँ बनती हैं, जिनसे शब्दादि पदार्थों के ज्ञान होते हैं। ज्ञान पैदा करने के ही कारण ये ज्ञानेंद्रियाँ कहाती हैं। उन्हीं पाँचों के जो राजस भाग या रजोगुण हैं उनसे ही क्रमश: वाक, पाणि (हाथ), पाँव, मूत्रेन्द्रिय, मलेन्द्रिय ये पाँच कर्मेंद्रियाँ बनती हैं। इन पाँचों से ज्ञान न हो के कर्म या काम ही होते हैं। फलत: ये कर्मेंद्रियाँ कही गईं। और इन पाँचों के रजोगुणों को मिला के पाँच प्राण-प्राण, अपान, व्यान, समान, उदान -बने। ये पाँचों के रजोगुणों के सम्मिलित होने पर ही बनते हैं। उसी तरह, पाँचों के सत्त्वगुणों को सम्मिलित करके भीतरी ज्ञानेंद्रिय या अंत:करण बनता है, जिसे कभी एक, कभी दो - मन और बुद्धि - और कभी चार - मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार - भी कहते हैं। उसके ये चार भेद चार कामों के ही चलते होते हैं, जैसे पाँच काम करने से ही एक ही प्राण पाँच प्रकार का हो गया। हमें यह न भूलना होगा कि जब हम सत्त्व या रजोगुण की बात करते हैं तो यह मतलब नहीं होता है कि खाली वही गुण रहते हैं। यह तो असंभव है। गुण तो तीनों ही हमेशा मिले रहते हैं। इसीलिए इन्हें एक दूसरे से चिपके हुए - 'अन्योन्यमिथुनवृत्तय:' - सांख्य कारिका (12) में लिखा है। इसलिए सत्त्व कहने का यही अर्थ है कि उसकी प्रधानता रहती है। इसी प्रकार रज का भी अर्थ है। रजोगुण-प्रधान अंश। दोनों में हरेक के साथ बाकी गुण भी रहते हैं सही; मगर अप्रधान रूप में।
अब बचे पाँचों तन्मात्राओं के तम:प्रधान अंश जिन्हें तमोंऽश या तमोगुण भी कहते हैं। उन्हीं से ये स्थूल पाँच महाभूत - आकाश आदि - बने। जो पहले सूक्ष्य थे, दीखते न थे, जिनका ग्रहण या ज्ञान होना असंभव था, वही अब स्थूल हो गए। जैसे अदृश्य हवाओं -ऑक्सीजन तथा हाइड्रोजन - को विभिन्न मात्राओं में मिला के दृश्यजल तैयार कहते हैं; ठीक वैसे ही इन सूक्ष्म पाँचों तन्मात्राओं के तम प्रधान अंशों को परस्पर विभिन्न मात्रा में मिला के स्थूल भूतों को बनाया गया। इसी मिलाने को पंचीकरण कहते हैं। पंचीकरण शब्द का अर्थ है कि जो पाँचों भूत अकेले-अकेले थे - एक-एक थे। उन्हीं में चार दूसरों के भी थोड़े-थोड़े अंश आ मिले और वे पाँच हो गए, या यों कहिए कि वे पाँच-पाँच की खिचड़ी या सम्मिश्रण बन गए। दूसरे चार के थोड़े-थोड़े अंश मिलाने पर भी अपना-अपना अंश। ज्यादा रहा ही। हरेक में आधा अपना रहा और आधे में शेष चार के बराबर अंश तो इसीलिए अपने आधे भाग के करते ही हरेक भूत अलग-अलग रहे। नहीं तो पाँचों में कोई भी एक दूसरे से अलग हो नहीं पाता। फलत: यह हालत हो गई कि पृथिवी में आधा अपना भाग रहा और आधे में शेष जल आदि चार रहे। यानी समूची पृथिवी का आधा वह खुद रही और बाकी आधे में शेष चारों बराबर-बराबर रहे। इस तरह समूची में इन प्रत्येक का आठवाँ भाग रहा। इसीलिए उसे पृथिवी कहते ही रहे। जल आदि की भी यही बात समझी जानी चाहिए।
यह ठीक हैं कि इस विवरण में सांख्य और वेदांत में थोड़ा-सा भेद है। पाँच प्राणों को सांख्यवाले पाँच कर्मेंद्रियों से जुदा नहीं मानते। इसलिए उनके मत से पाँच तन्मात्रा, दस इंद्रियाँ और अंत:करण यही सोलह पदार्थ अहंकार के बाद बने। उनके मत में पाँच तन्मात्रा की ही जगह पाँच महाभूत हैं। क्योंकि तन्मात्राओं के तामसी अंशों को ही मिलाने से ये पाँच भूत हुए। इसीलिए वे तन्मात्राओं और भूतों को अलग-अलग नहीं मानते। महाभूतों के बनने के बाद तन्मात्राएँ तो रह जाती भी नहीं। उनके सात्त्विक तथा राजस भागों से ज्ञानेंद्रियाँ, कर्मेंद्रियाँ, प्राण और अंत:करण बने। बचे-बचाए तामस अंश से, महाभूत। बाकी संसार तो इन्हीं महाभूतों का ही पसारा या विकास है, परिणाम हैं, रूपांतर है, करिश्मा है। इस प्रकार उनके ये सोलह तत्त्व या विकार सिद्ध होते हैं। वेदांतियों ने पाँच कर्मेंद्रिय, पाँच ज्ञानेंद्रियों, मन और बुद्धि ये दो अंत:करण - और कभी-कभी मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार ये चार अंत:करण - मान के सत्रह या उन्नीस पदार्थ मान लिए। पाँच भूतों को मिला लेने पर वे चौबीस हो गए। महान तथा अहंकार को जोड़ने पर छब्बीस और प्रकृति को ले के सत्ताईस हो गए। सांख्य के मत से तेईस रहे। मगर यह तो कोई खास बात है नहीं। यह ब्योरे की चीज है। ये पदार्थ तो सभी - दोनों ही - मानते ही हैं।
एक बात और। हम पहले कह चुके हैं कि गीता के मत से गुण प्रकृति से निकले हैं, बने हैं। मगर हमने अभी-अभी जो कहा है उससे तो गुणों के बजाए बुद्धि, ज्ञान या महत्त्व, अहंकार और पंचतन्मात्राएँ - यही चीजें - प्रकृति से निकली हैं। भले ही यह चीजें गुणमय ही हों। मगर गुणों का निकलना न कह के इन्हीं का निकलना कहने का मतलब क्या है? बात तो सही है। गुणों का बाहर आना सीधे नहीं कहा गया है। लेकिन ज्ञान या महत्त्व है क्या चीज, यदि सत्त्वगुण नहीं है? ज्ञान तो सत्त्व का ही रूप है न? उसी प्रकार अहंकार है क्या यदि रजोगुण या क्रिया है नहीं? अहंकार को तो समष्टि क्रिया ही कहा है और क्रिया रजोगुण का ही रूप है न? अब रह गए पंचभूत जिन्हें तन्मात्रा कहते हैं। वह तो तम के ही रूप हैं। आगे जब पंचीकरण के द्वारा वे दृश्य और स्थूल बनते हैं तब तो उन्हें तम का रूप कहते ही हैं। फिर पहले भी क्यों न कहें? यह ठीक है कि तम के साथ भी सत्त्व और रज तो रहेंगे ही, जैसे इनके इनके साथ तम भी रहता ही है। इसीलिए तो पंचतन्मात्राओं के सत्त्व-अंश से ज्ञानेंद्रियाँ और रज-अंश से कर्मेंद्रियाँ बनती हैं। इसलिए यह तो निर्विवाद है कि 'गुणा: प्रकृति सम्भवा:' - प्रकृति से गुण ही बाहर होते हैं।
चौदहवें अध्याय के 3-4 श्लोकों में जो गर्भाधान की बात कही गई है उसका मतलब भी अब स्पष्ट हो जाता है। गर्भाधान के बाद ही गर्भाशय में क्रिया पैदा हो के संतान का स्वरूप धीरे-धीरे तैयार होता है। उसके पहले उसमें बच्चे का नाम भी नहीं पाया जाता। ठीक उसी तरह महान या समष्टि ज्ञानरूप चिंतन, संकल्प या सोच-विचार के बाद ही प्रकति के भीतर अहंकार या समष्टि क्रिया पैदा हो के पंचतन्मात्रादि की रचना होती है। जब तक भगवान के इस समष्टि ज्ञान का संबंध प्रकृति से नहीं होता, जब तक वह खयाल नहीं करता, तब तक प्रकृति में कोई भी क्रिया - मंथन - पैदा नहीं होती जिससे सृष्टि का प्रसार हो सके। प्रकृति की शांति, समता या एकरसता - घोर गंभीरता - भंग होती है अहंकार रूप मंथन क्रिया ही से और वह पैदा होती है। महत्तत्त्व, महान या समष्टि ज्ञान के बाद ही। इसी को उपनिषदों में ईक्षण या संकल्प कहा है, जैसा कि छांदोग्य में 'तदैक्षत बहुस्यां प्रजायेय' (6। 2। 3)। 'प्रजायेय' शब्द का अर्थ हैं कि प्रजा या वंश पैदा करें। इससे गर्भाधान की बात सिद्ध हो जाती है। गीता ने भी यही कहा है। गीता में गर्भाधान के बाद 'संभव:' और 'मूर्त्तय:' लिखने का मतलब भी ठीक ही है। स्वरूप ही तैयार होते हैं, पैदा होते हैं, आकृतियाँ बनती हैं।
हमने जो प्रकृति, महान अहंकार, पंचतन्मात्रा आदि की बात कही है उसका मतलब अब साफ हो गया। यहाँ सचमुच ही बच्चे या फल की तरह पैदा होने का सवाल तो है नहीं। प्रकृति तो पहले से ही होती है। महान का उसी से पीछे संबंध होता है। इसीलिए प्रकृति के बाद ही उसका स्थान होने से प्रकृति से उसकी उत्पत्ति अकसर लिखी मिलती है। महान के बाद ही आता हैं अहंकार। इसीलिए वह महान से पैदा होने वाला माना जाता है; हालाँकि वह प्रकृति की ही क्रिया है। उसके बाद पंचतन्मात्राएँ प्रकृति से ही बनती हैं। मगर कहते हैं कि अहंकार से तन्मात्राएँ पैदा हुईं। यह तो कही चुके हैं कि ये तन्मात्राएँ महाभूतों के सूक्ष्म रूप हैं। इसीलिए इन्हें भूत और महाभूत भी कहा करते हैं।
तेरहवें अध्याय के 'महाभूतान्यहंकारो बुद्धिरव्यक्तमेव च। इंद्रियाणि दशैकं च पंच चेंद्रियगोचरा:' (13। 5) का अर्थ यह है कि पाँच महाभूत (तन्मात्राएँ), अहंकार, समष्टि बुद्धि (महान), अव्यक्त या प्रकृति (प्रधान), ग्यारह इंद्रियाँ - दस बाहरी और एक अंत:करण - और इंद्रियों के पाँच विषय, यही क्षेत्र के भीतर आते हैं, क्षेत्र कहे जाते हैं। क्षेत्र का अर्थ है शरीर। मगर यहाँ समष्टि शरीर या सृष्टि की बुनियादी - शुरूवाली - चीज से मतलब है। इस श्लोक में वही बातें हैं जिनका वर्णन अभी-अभी किया है। श्लोक के पूर्वार्द्ध में तन्मात्राओं से ही शुरू करके उलटे ढंग से प्रकृति तक पहुँचे हैं। मगर ठीक क्रम समझने में प्रकृति से ही शुरू करना होगा। श्लोक में क्रम से तात्पर्य नहीं हैं। वहाँ तो कौन-कौन से पदार्थ क्षेत्र के अंतर्गत हैं, यही बात दिखानी है। इसीलिए उत्तरार्द्ध में ग्यारह इंद्रियाँ आई हैं। नहीं तो उलटे क्रम में इंद्रियों से ही शुरू करते। इंद्रियों के बाद जो उनके पाँच विषय लिखे हैं उनका कोई संबंध सृष्टिक्रम से या उसके मूल पदार्थों से नहीं है। पाँच तन्मात्रा, महान आदि के अलावे क्षेत्र के अंतर्गत जो विषय, राग, द्वेष आदि अनेक चीजें आगे गिनाई गई हैं उन्ही में ये पाँच विषय भी हैं।
सातवें अध्याय में इंद्रियों का नाम न लेकर शेष पदार्थों का उल्लेख 'भूमिरापोनलो वायु: खं मनो बुद्धिरेव च। अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा' (7। 4) श्लोक में आया है। जैसा कि पहले कहा गया है, यह अपरा या नीचेवाली प्रकृति का आठ भेद या प्रसार बताया गया है। तेरहवें अध्याय के 'महाभूतानि' की जगह यहाँ पाँचों भूतों का नाम ही ले लिया है 'भूमि, जल, अनल (तेज), वायु और आकाश (ख)।' मगर उत्तरार्द्ध में जो 'मनो बुद्धिरेव च अहंकार:' शब्दों में मान, बुद्धि और अहंकार का नाम लिया है उसके समझने में थोड़ी दिक्कत है। जिस क्रम से तेरहवें अध्याय में नीचे से ही शुरू किया है, उसी क्रम से यहाँ भी नीचे से ही शुरू है, यह तो साफ है। मगर पृथिवी जल, तेज, वायु और आकाश के बाद तो क्रम है अहंकार, महान और प्रकृति का। इसलिए मन, बुद्धि, अहंकार का अर्थ क्रमश: अहंकार, महान, और प्रकृति ही करना होगा। दूसरा चारा है नहीं। इसमें बुद्धि का अर्थ महान तो ठीक ही है। वे दोनों तो एक ही अर्थवाले है। हाँ मन का अर्थ अहंकार और अहंकार का प्रकृति करने में जरा उलट-फेर हो जाता है। लेकिन किया जाए क्या? इस प्रकार गुणवाद और सृष्टि का क्रम तथा उसकी प्रणाली आदि बातें संक्षेप में स्पष्ट हो गईं। गीता के मत का इस संबंध में स्पष्टीकरण भी हो गया। इससे उसके समझने में आसानी भी होगी।
अद्वैतवाद
अब अद्वैतवाद की कुछ बातें भी जान लेने की हैं। गीता का क्या खयाल इस संबंध में है यही बात समझनी है। हालाँकि जब वेदांत के ही अनुकूल चलना गीता के बारे में कह चुके, तो एक प्रकार से उसका अर्थ तो मालूम भी हो गया। फिर भी गीता के वचनों को उद्धृत करके ही यह बात कहने में मजा भी आएगा और लोग मान भी सकेंगे। अद्वैतवाद का अभिप्राय क्या है, वह भी तो कुछ न कुछ कहना ही होगा। क्योंकि सभी लोग आम तौर से क्या जानने गए कि यह क्या बला है?
हमने पहले यह कहा है कि गौतम और कणाद तथा अर्वाचीन दार्शनिक डाल्टन के परमाणुवाद और तन्मूलक आरंभवाद की जगह सांख्य, योग एवं वेदांत तथा अर्वाचीन दार्शनिक डारविन की तरह गीता भी गुणवान तथा तन्मूलक परिणामवाद या विकासवाद को ही मानती है। इस पर प्रश्न हो सकता है कि क्या वेदांत और सांख्य का परिणामवाद एक ही है? या दोनों में कुछ अंतर है? कहने का आशय यह है कि जब दोनों के मौलिक सिद्धांत दो हैं। तो सृष्टि के संबंध में भी दोनों में कुछ तो अंतर होगा ही। और जब वेदांत का मंतव्य अद्वैतवाद है तब वह परिणाम वाद को पूरा-पूरा कैसे मान सकता है? क्योंकि ऐसा होने पर तो गुणों को मान के अनेक पदार्थ स्वीकार करने ही होंगे। फिर एक ही चेतन पदार्थ - आत्मा या ब्रह्म - को स्वीकार करने का वेदांत का सिद्धांत कैसे रह सकेगा? यदि सभी गुणों को और उनसे होने वाले पदार्थों को प्रकृति से जुदा न भी मानें - क्योंकि सभी तो प्रकृति के ही प्रसार या परिणाम ही माने जाते हैं - और इस प्रकार जड़ पदार्थों की एकता या अद्वैत (Monism) मान भी लें, जिसे जड़ाद्वैत (Material monism) कहते हैं; साथ ही आत्मा एवं ब्रह्म की एकता के द्वारा चेतनाद्वैत (Spiritual monism) भी मान लें, तो भी जड़ और चेतन ये दो तो रही जाएँगे। फिर तो द्वित्व या द्वैत - दो - होने से द्वैतवाद ही होगा, न कि अद्वैतवाद। वह तो तभी होगा जब द्वित्व - दो चीज - न हो। अद्वैत का तो अर्थ ही है द्वैत या दो का न होना।
असल में वेदांत का अद्वैतवाद परिणाम और विवर्त्तवाद को मानता है। अद्वैतवाद को विकासवाद या परिणामवाद से विरोध नहीं है, यदि उसकी जड़ में विवर्त्तवाद हो। इसका मतलब यह है कि अद्वैतवादी मानते हैं कि यह दृश्य जगत ब्रह्म या परमात्मा, जिसे ही आत्मा भी कहते हैं, में आरोपित है, कल्पित है; यह कोई वास्तविक वस्तु है नहीं। इसकी कल्पना, इसका आरोप ब्रह्म में उसी तरह किया गया है जैसे रस्सी में साँप की कल्पना अँधरे में हो जाती है। या यों कहिए कि नींद की दशा में मनुष्य अपना ही सिर कटता देखता है, या कलकत्ता, दिल्ली आदि की सफर करता है। यह आरोप ही तो है, कल्पना ही तो है। इसी को अभास भी कहते हैं। किसी पदार्थ में एक दूसरे पदार्थ की झूठी कल्पना करने को ही अभास कहते हैं। रस्सी में साँप तो है नहीं। मगर उसी की कल्पना अँधरे में करते और डर के भागते हैं। सोने के समय अपना सिर तो कटता नहीं फिर भी कटता नजर आता है। बिस्तर पर घर में पड़े हैं। फिर कलकत्ता या दिल्ली कैसे चले गए? मगर साफ ही मालूम होता है कि वहाँ गए हैं भर पेट खा के पलंग पर सोए हैं। मगर सपना देखते हैं कि भूखों दर-दर मारे फिरते हैं! सुंदर वस्त्र पहने सोए हैं। मगर नंगे या चिथड़े लपेटे जाने कहाँ-कहाँ भटकते मालूम होते हैं! यही अध्यास है। इसी को आरोप, कल्पना आदि नाम देते हैं। इसे भ्रम या भ्रांति भी कहते हैं। मिथ्या ज्ञान और मिथ्या कल्पना भी इसको ही कहा है। अद्वैतवादी कहते हैं कि ब्रह्म में इस समूचे संसार का - स्वर्ग-नरकादि सभी के साथ - अभास है, आरोप है। जैसे सपने में सिर कटना, भूखों चिथड़े लपेटे मारे फिरना आदि सभी बातें मिथ्या हैं, झूठी हैं; ठीक वैसे ही यह समूचे संसार-का नजारा झूठा ही ब्रह्म में दीख रहा है। इसमें तथ्य का लेश भी नहीं है। यह सरासर झूठा है। असत्य है। केवल ब्रह्म या आत्मा ही सत्य है। ब्रह्म और आत्मा तो एक ही के दो नाम हैं - 'ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैवनापर:।'
स्वप्न और मिथ्यात्ववाद
जो लोग इन बातों में अच्छी तरह प्रवेश नहीं कर पाते वह चटपट कह बैठते हैं कि सपने की बात तो साफ ही झूठी है। उसमें तो शक की गुंजाइश है नहीं। उसे तो कोई भी सच कहने को तैयार नहीं है। मगर संसार को तो सभी सत्य कहते हैं। सभी यहाँ की बातों को सच्ची मानते हैं। एक भी इन्हें मिथ्या कहने को तैयार नहीं। इसके सिवाय सपने का संसार केवल दोई-चार मिनट या घंटे-आध घंटे की ही चीज है, उतनी ही देर की खेल है - यह तो निर्विवाद है। सपने का समय होता ही आखिर कितना लंबा? मगर हमारा यह संसार तो लंबी मुद्दतवाला है, हजारों-लाखों वर्ष कायम रहता है। यहाँ तक कि सृष्टि और प्रलय के सिलसिले में वेदांती भी ऐसा ही कहते हैं कि प्रलय बहुत दिनों बाद होती है और लंबी मुद्दत के बाद ही पुनरपि सृष्टि का कारबार शुरू होता है। गीता (8। 17। 19) के वचनों से भी यही बात सिद्ध होती है। फिर सपने के साथ इसकी तुलना कैसी? यह तो वही हुआ कि 'कहाँ राजा भोज, और कहाँ भोजवा तेली!"
मगर ऐसे लोग जरा भूलते हैं। सपने की बातें झूठी हैं, झूठी मानी जाती हैं सही। मगर कब? सपने के ही समय या जगने पर? जरा सोचें और उत्तर तो दें? इस अपने संसार को थोड़ी देर के लिए भूल के सपने में जा बैठें और देखें कि क्या सपने के भी समय वहाँ की देखी-सुनी चीजें झूठी मानी जाती हैं। विचारने पर साफ उत्तर मिलेगा कि नहीं। उस समय तो वह एकदम सच्ची और पक्की लगती हैं। उनकी झुठाई का तो वहाँ खयाल भी नहीं होता। इस बात का सवाल उठना तो दूर रहे। हाँ, जगने पर वे जरूर मिथ्या प्रतीत होती हैं। ठीक उसी प्रकार इस जाग्रत संसार की भी चीजें अभी तो जरूर सत्य प्रतीत होती हैं। इसमें तो कोई शक है नहीं। मगर सपने में भी क्या ये सच्ची ही लगती हैं? क्या सपने में ये सच्ची होती हैं, बनी रहती हैं? यदि कोई हाँ कहे, तो उससे पूछा जाए कि भरपेट खा के सोने पर सपने में भूखे दर-दर मारे क्यों फिरते हैं? पेट तो भरा ही है और वह यदि सच्चा है, तो सपने में भूखे होने की क्या बात? तो क्या भूखे होने में कोई भी शक उस समय रहता है? इसी प्रकार कपड़े पहने सोए हैं। महल या मकान में ही बिस्तर है भी। ऐसी दशा में सपने में नंगे या चिथड़े लपेटे दर-दर खाक छानने की बात क्यों मालूम होती है? क्या इससे यह नहीं सिद्ध होता कि जैसे सपने की चीजें जागने पर नहीं रह जाती हैं, ठीक उसी तरह जाग्रत की चीजें भी सपने में नहीं रह जाती हैं? जैसे सपने की अपेक्षा यह संसार जाग्रत है, तैसे ही इसकी अपेक्षा सपने का ही संसार जाग्रत है और यही सपने का है। दोनों में जरा भी फर्क नहीं है।
सपने की बात थोड़ी देर रहती है और यहाँ की हजारों साल, यह बात भी वैसी ही है। यहाँ भी वैसा ही सवाल उठता है कि क्या सपने में भी वहाँ की चीजें थोड़ी ही देर को मालूम पड़ती हैं? या वहाँ भी सालों और युग गुजरते मालूम पड़ते हैं? सपने में किसे खयाल होता है कि यह दस ही पाँच मिनट का तमाशा है? वहाँ तो जानें कहाँ-कहाँ जाते, हफ्तों, महीनों, सालों गुजरते, सारा इंतजाम करते दीखते हैं, ठीक जैसे यहाँ कर रहे हैं। हाँ, जागने पर वह चंद मिनट की चीज जरूर मालूम होती है। तो सोने पर इस संसार का भी तो यही हाल होता है। इसका भी कहाँ पता रहता है? अगर ऐसा ही विचार करने का मौका वहाँ भी आए तो ठीक ऐसी ही दलीलें देते मालूम होते हैं कि वह तो चंद ही मिनटों का तमाशा है! उस समय यह जाग्रत वाला संसार ही चंद मिनटों की चीज नजर आती है और सपने की ही दुनिया स्थाई प्रतीत होती है! इसलिए यह भी तर्क बेमानी है। इसलिए भुसुण्डी ने अपने सपने या भ्रम के बारे में कहा था कि 'उभय घरी मँह कौतुक देखा।' हालाँकि तुलसीदास ने उनका ही बयान दिया है कि उस समय मालूम होता था कि कितने युग गुजर गए। गौड़ पादाचार्य ने माण्डूक्य उपनिषद की कारिकाओं में दोनों की हर तरह से समानता तर्क-दलील से सिद्ध की है और बहुत ही सुंदर विवेचन के बाद उपसंहार कर दिया है कि 'मनीषी लोग स्वप्न और जाग्रत को एक-सा ही मानते हैं। क्योंकि दोनों की हरेक बातें बराबर हैं और यह बिलकुल ही साफ बात हैं' - "स्वप्नजागरिते स्थाने ह्येकमाहुर्मनीषिण:। भेदानां हि समत्वेन प्रसिद्धेनैव हेतुना।"
अनिर्वचनीयतावाद
संसार के संबंध के इस मंतव्य को मिथ्यात्ववाद और अनिर्वचनीयतावाद भी कहते हैं। अनिर्वचनीयता का अर्थ है कि इन चीजों का निर्वचन या निरूपण होना असंभव है। इनकी सत्यता तो सिद्ध हो ही नहीं सकती। यदि इनको अत्यंत निर्मूल मानें और कहें कि ये अत्यंत असत्य हैं, जैसे आदमी की सींग न कभी हुई, न है और न होगी, तो यह भी ठीक नहीं। क्योंकि सींग तो कभी दीखती नहीं। मगर ये तो प्रत्यक्ष ही दीखते हैं। इसलिए मनुष्य की सींग जैसे तो नहीं ही हैं। यदि इन्हें सत्य और असत्य का मिश्रण मानें, तो यह और भी बुरा है। क्योंकि परस्पर विरोधी चीजों का मिश्रण असंभव है। फलत: मानना ही पड़ता है कि इनके बारे में कुछ भी कहा नहीं जा सकता है - ये अनिर्वचनीय हैं। मगर यह सही है कि ये मिथ्या हैं। मिथ्या का मतलब ही यही है कि मालूम तो हो कि कुछ है; मगर ढूँढ़ने पर इसका पता ही न लगे। यह विचार कुछ नया और निराला प्रतीत होता है सही। मगर रेखागणित में जो बिंदु का लक्षण बताया गया है कि उसमें लंबाई-चौड़ाई कुछ भी होती नहीं, या रेखा के बारे में जो कहा गया है कि उसमें केवल लंबाई होती है, चौड़ाई नहीं, क्या यह अक्ल में आने की चीज है? जिसमें लंबाई-चौड़ाई कुछ भी न हो या जो सिर्फ लंबाई रखता हो ऐसा पदार्थ दिमाग में कैसे घुसेगा? फिर भी उसे मानते ही हैं।
यह ठीक है कि काम चलाने के लिए - केवल वाद-विवाद और विचार के लिए - वेदांत ने तीन प्रकार के पदार्थ माने हैं। एक तो सदा रहने वाला, वस्तुतत्त्व या परमार्थ पदार्थ, जिसे ब्रह्म कहिए या आत्मा कहिए। इसीलिए ब्रह्म या आत्मा की हस्ती, उसके अस्तित्व या उसकी सत्ता को परमार्थ सत्ता भी कहते हैं। दूसरे हैं सपने या भ्रम के पदार्थ, जैसे रस्सी में साँप, सीप में चाँदी या सपने का सिर कटना। ये जब तक प्रतीत होते हैं तभी तक रहते हैं। प्रतीत या ज्ञान को ही प्रतिभास भी कहते हैं। इसीलिए ये पदार्थ प्रातिभासिक हैं और इनकी सत्ता है प्रातिभासिक सत्ता। तीसरे हैं हमारे इस जाग्रत संसार के पृथिवी आदि पदार्थ, जिनसे हमारा व्यवहार चलता है, काम निकलता है। सपने के साँप का जहर तो नहीं चढ़ता। मगर इस साँप का चढ़ता है। यही है व्यवहार या काम-काज का चलना। ये चीजें कामचलाऊ हैं, व्यावहारिक हैं। इसलिए इनकी सत्ता को व्यावहारिक सत्ता कहते हैं। इस तरह तीन प्रकार के पदार्थ और उनकी तीन सत्ताएँ हो जाती हैं।
प्रातिभासिक सत्ता
मगर दर हकीकत व्यावहारिक तथा प्रातिभासिक पदार्थ दो नहीं हैं। दोनों ही बराबर ही हैं। यह तो हम सभी सिद्ध कर चुके हैं। दोनों की सत्ता में रत्तीभर भी अंतर है नहीं। इसलिए दो ही पदार्थ - परमार्थिक एवं प्रातिभासिक - माने जाने योग्य हैं। और दो ही सत्ताएँ भी। लेकिन हम लिखने-पढ़ने और वाद-विवाद में जाग्रत तथा स्वप्न को दो मान के उनकी चीजों को भी दो ढंग की मानते हैं। यों कहिए कि जाग्रत को सत्य मान के सपने को मिथ्या मानते हैं। जाग्रत की चीजें हमारे खयाल में सही और सपने की झूठी हैं। इसीलिए खामख्वाह दोनों की दो सत्ता भी मान बैठते हैं। लेकिन वेदांती तो जाग्रत को सत्य मान सकता नहीं। इसीलिए लोगों के संतोष के लिए उसने व्यावहारिक और प्रातिभासिक ये दो भेद कर दिए। इस प्रकार काम भी चलाया। विचार करने या लिखने-पढ़ने में आसानी भी हो गई। आखिर अद्वैतवादी वेदांती भी जाग्रत और स्वप्न की बात उठा के और स्वप्न का दृष्टांत दे के लोगों को समझाएगा कैसे, यदि दोनों को दो तरह के मान के ही शुरू न करे?
मायावाद
जो लोग ज्यादा समझदार हैं वह वेदांत के उक्त जगत-मिथ्यात्व के सिद्धांत पर जिसे अध्यासवाद और मायावाद भी कहते हैं, दूसरे प्रकार से आक्षेप करते हैं। उनका कहना है कि यदि यह जगत भ्रममूलक है और इसीलिए यदि इसे भगवान की माया का ही पसारा मानते हैं, क्योंकि माया कहिए, भूल या भ्रम कहिए, बात तो एक ही है, तो वह माया रहती है कहाँ? वह भ्रम होता है किसे? जिस प्रकार हमें नींद आने से सपने में भ्रम होता है और उलटी बातें देख पाते हैं, उसी तरह यहाँ नींद की जगह यह माया किसे सुला के या भ्रम में डाल के जगत का दृश्य खड़ा करती है और किसके सामने? वहाँ तो सोनेवाले हमीं लोग हैं। मगर यहाँ? यहाँ यह माया की नींद किस पर सवार है? यहाँ कौन सपना देख रहा है? आखिर सोनेवाले को ही तो सपने नजर आते हैं। निर्विकार ब्रह्म या आत्मा में ही माया का मानना तो ऐसा ही है जैसा यह कहना कि समुद्र में आग लगी है या सूर्य पूर्व से पच्छिम निकलता है। यह तो उलटी बात है, असंभव चीज है। ब्रह्म या आत्मा और उसी में माया? निर्विकार में विकार? यदि ऐसा मानें भी तो सवाल है कि ऐसा हुआ क्यों?
उनका दूसरा सवाल यह है कि माना कि यह दृश्य जगत मिथ्या है, कल्पित है। मगर इसकी बुनियाद तो कहीं होगी ही। तभी तो ब्रह्म में या आत्मा में यह नजर आता है, आरोपित है, अध्यस्त है, ऐसा माना जाएगा। जब कहीं असली साँप पड़ा है तभी तो रस्सी में उसका आरोप होता है, कल्पना होती है। जब हमारा सिर सही साबित है तभी तो सपने में कटता नजर आता है। जब कोई भूखा-नंगा दर-दर सचमुच घूमता रहता है तभी तो हम अपने आपको सपने में वैसा देखते हैं। ऐसा तो कभी नहीं होता कि जो वस्तु कहीं हो ही न, उसी की कल्पना की जाए, उसी का आरोप किया जाए कल्पित वस्तु की भी कहीं तो वस्तु सत्ता होती ही है। नहीं तो कल्पना या भ्रम हो ही नहीं सकता। इसलिए इस संसार को कल्पित या मिथ्या मान लेने पर भी कहीं न कहीं इसे वस्तुगत्या मानना ही होगा, कहीं न कहीं इसकी वस्तुस्थिति स्वीकार करनी ही होगी। ऐसी दशा में मायावाद बेकार हो जाता है। क्योंकि आखिर सच्चा संसार भी तो मानना ही पड़ जाता है। फिर अध्यासवाद की क्या जरूरत है?
लेकिन यदि हम इनकी तह में घुसें तो ये दोनों शंकाएँ भी कुछ ज्यादा कीमत नहीं रखती हैं, ऐसा मालूम हो जाता है। यह ठीक है कि यह नींद, यह माया निर्विकार आत्मा या ब्रह्म में ही है और उसी के चलते यह सारी खुराफात है। दृश्य जगत का सपना वही निर्लेप ब्रह्म ही तो देखता है। खूबी तो यह है कि यह सब कुछ देखने पर भी, यह खुराफात होने पर भी वह निर्लेप का निर्लेप ही है। मरुस्थल में सूर्य की किरणों में पानी का भ्रम या कल्पना हो जाने पर भी जैसे मरुभूमि उससे भीग नहीं जाती, या साँप की कल्पना होने पर भी रस्सी में जहर नहीं आ जाता, ठीक यही बात यहाँ है। सपने में सिर कटने पर भी गरदन तो हमारी ज्यों की त्यों ही रहती है - वह निर्विकार ही रहती है। यही तो माया की महिमा है। इसलिए तो गीता ने उसे 'दैवी' (7। 14) कहा है। इसका तो मतलब ही कि इसमें निराली करामातें हैं। यह ऐसा काम करती है कि अचंभा होता है। ब्रह्म या आत्मा में ही सारे जगत की रचना यह कर डालती है जरूर। मगर आत्मा का दरअसल कुछ बनता-बिगड़ता नहीं।
हाँ यह सवाल हो सकता है कि आखिर उसमें यह माया पिशाची लगी कब और कैसे? हमें नींद आने या भ्रम होने की तो हजार वजहें हैं। हमारा ज्ञान संकुचित है, हम भूलें करते हैं, चीजों से लिपटते हैं, खराबियाँ रखते हैं। मगर वह तो ऐसा है नहीं। वह तो ज्ञान रूप ही माना जाता है, सो भी अखंड ज्ञानरूप, जो कभी जरा भी इधर-उधर न हो। वह निर्लेप और निर्विकार है। वह भूलें तो इसीलिए कर सकता ही नहीं। फिर उसी में यह छछूँदर माया? यह अनहोनी कैसे हुई? यह बात तो दिमाग में आती नहीं कि वह क्यों हुई, कैसे हुई, कब हुई? कोई वजह तो इसकी नजर आती ही नहीं।
अनादिता का सिद्धांत
यही कारण है कि ब्रह्म में माया का संबंध अनादि मानते हैं। इस संबंध का ऐसा श्रीगणेश यदि कभी माना जाए तो यह सवाल हो सकता है कि ऐसा क्यों हुआ? मगर इसका श्रीगणेश, इसकी इब्तदा, इसका आरंभ (beginning) तो मानते ही नहीं। इसे तो अनादि कहते हैं। अनादि का तो मतलब ही है कि जिसकी आदि, जिसका श्रीगणेश हुआ न हो। फिर तो सारी शंकाओं की बुनियाद ही चली गई। संसार में अनादि चीजें तो हईं। यह कोई नई या निराली कल्पना केवल माया के ही बारे में तो है नहीं। यदि किसी से पूछा जाए कि आम का वृक्ष पहले-पहल हुआ या उसकी गुठली हुई? पहले वृक्ष हुआ या बीज? तो क्या उत्तर मिलेगा? दो में एक भी नहीं कह के यही कहना पड़ेगा कि बीज और वृक्ष की परंपरा अनादि है। अक्ल में तो यह बात आती नहीं कि पहले बीज कहें या वृक्ष; क्योंकि वृक्ष कहने पर फौरन सवाल होगा कि वह तो बीज से ही होता है। इसलिए उससे पहले बीज जरूर रहा होगा। और अगर पहले बीज ही मानें, तो फौरन ही वृक्ष की बात आ जाएगी। क्योंकि बीज तो वृक्ष से ही होता है। कब, क्या हुआ यह देखनेवाले हम तो थे नहीं। हमें तो अभी जो चीजें हैं उन्हीं को देख के इनके पहले क्या था यही ढूँढ़ना है और यही बात हम करते भी हैं। मगर ऐसा करने में कहीं ठिकाना नहीं लगता और पीछे बढ़ते ही चले जाते हैं। यही तो है अनादिता की बात। इसी प्रकार जगत और ब्रह्म के संबंध में माया की कल्पना करने में भी हमें अनादिता की शरण लेनी ही पड़ती है। हमारे लिए कोई चारा है नहीं। दूसरी चीज मानने या दूसरा रास्ता पकड़ने में हम आफत में पड़ जाएँगे और निकल न सकेंगे। हमें तो वर्तमान को देख के पीछे की बातें सोचनी हैं, उनकी कल्पना करनी है, जिससे वर्तमान काम चल सके, निभ सके। जो चाहें मान सकते नहीं। यही तो हमारी परेशानी है, यही तो हमारी सीमा (Limitation) है। किया क्या जाए? इसीलिए मीमांसादर्शन के श्लोकवार्त्तिक में कुमारिल को कहना पड़ा कि हम तो सिर्फ इतना ही कर सकते हैं कि दुनिया की वर्तमान व्यवस्था के बारे में यदि कोई शक-शुबहा हो तो तर्कदलील से उसे दूर करके अड़चन हटा दें। हम ऐसा तो हर्गिज कर नहीं सकते कि बेसिर-पैर की बातें मान के वर्तमान व्यवस्था के प्रतिकूल जाएँ - 'सिद्धानुगममात्रं हि कर्त्तुं युक्तं परीक्षकै:। न सर्वलोकसिद्धस्य लक्षणेन निवर्त्तनम' (1। 1। 4। 133)।
निर्विकार में विकार
इसीलिए निर्विकार में विकार या माया का संबंध साफ ही है। इसमें झमेले की तो गुंजाइश हई नहीं। सारा संसार जब उसी में है तो फिर माया का क्या कहना? हमें तो यही जानना है कि वह निर्लेप है या नहीं। विचार से तो सिद्ध भी हो जाता है कि वह सचमुच निर्लेप है। नहीं तो भरपेट खा के सोने पर भूखा क्यों नजर आता? खाना तो पेट में मौजूद ही है न? इसका तो एक ही उत्तर है कि पेट में खाना भले ही हो, मगर आत्मा तो उससे निर्लेप है। वह उससे चिपके, उसे अपना माने तब न? जगने पर ऐसा मालूम पड़ता था कि अपना मानती है। मगर सोने पर साफ पता लग गया कि वह तो निराली है, मौजी है। उसे इन खुराफातों से क्या काम? वह तो लीला करती है, नाटक करती है। इसलिए जब चाहा छोड़ के अलग हो गई और निर्लेप का निर्लेप है। सपने में भी एक को छोड़ के दूसरे पर और फिर तीसरे पर जाती है और अंत में सबको खत्म करती है। वहाँ कुछ नहीं होने पर भी सब कुछ बना के बच्चों के घरौंदे की तरह फिर चौपट कर देती है। असंग जो रही। उसे न किसी मदद की जरूरत है और न सूर्य-चाँद या चिराग की ही। वह तो खुद सब कुछ कर लेती है। वह तो स्वयं प्रकाश रूप ही है। बृहदारण्यक उपनिषद के चौथे अध्याय के तीसरे ब्राह्मण में यह वर्णन इतना सरस है कि कुछ कहा नहीं जाता। वह पढ़ने ही लायक है। वहाँ कहते हैं कि -
'स यत्र प्रस्वपित्यस्य लोकस्य सर्वावतोमात्रामुपादाय स्वयं विहत्य स्वयं निर्माय स्वेन भासा स्वेन ज्योतिषा प्रस्वपित्यत्रायं पुरुष: स्वयं ज्योतिर्भवति ।9। न तत्र रथा न रथयोगा न पन्थानो भवन्त्यथ रथान्नथयोगान्पथ: सृजते, न तत्रानन्दा मुद: प्रमुदो भवन्त्यथानन्दान्मुद: प्रमुद: सृजते, न तत्र वेशान्ता: पुष्करिण्य: स्रवंत्योभवन्त्यथवेशान्तान् पुष्करिणी: स्रवन्ती: सृजते सहि कर्त्ता ।10। स वा एष एतस्मिन्सम्प्रसादे रत्वा चरित्वा दृष्ट्वैव पुण्यं च पापं च पुन: प्रतिन्यायं प्रतियोन्या-द्रवति स्वप्नायेव सय त्तत्र किंचित्पश्यत्यनन्वागतस्तेन भवत्यसंगोह्ययं पुरुष: (15)।'
अब केवल दूसरी शंका रह जाती है कि जब तक कहीं असल चीज न हो तब तक दूसरी जगह उसकी मिथ्या कल्पना हो नहीं सकती। इसीलिए कहीं न कहीं संसार को भी सत्य मानना ही होगा। इसका तो उत्तर आसान है। दूसरी जगह उस चीज का ज्ञान होना जरूरी है। तभी और जगह उसकी मिथ्या कल्पना हो सकती है। बस, इतने से ही काम चल जाता है। जहाँ उसका ज्ञान हुआ है वहाँ वह चीज सच्ची है या मिथ्या, इसकी तो कोई जरूरत है नहीं। कल्पना की जगह वही चीज प्रतीत होती है, यही देखते हैं। न कि उसको सारी बातें प्रतीत होती हैं, या उसकी सत्यता और मिथ्यापन भी प्रतीत होता है। यदि किसी ने बनावटी, इंद्रजाल का या इसी तरह का साँप, फल या फूल देख लिया; उससे पहले उसे इन चीजों की कहीं भी जानकारी न रही हो; उसी के साथ यह भी मालूम हो जाए कि ये चीजें मिथ्या हैं, सच्ची नहीं; तो क्या कहीं उनका भ्रम होने पर यह भी बात भ्रम के साथ ही मालूम हो जाएगी कि ये मिथ्या हैं, बनावटी हैं? यदि ऐसा ज्ञान हो जाए तो फिर भ्रम कैसा? ऐसी जानकारी तो भ्रम हटने पर ही होती है। यह तो कही नहीं सकते कि झूठी चीजें ही जिनने देखी हैं न कि सच्ची भी, उन्हें भ्रम हो ही नहीं सकता। भ्रम होता है अपनी सामग्री के करते और यदि वह सामग्री जुट जाए तो सच्ची-झूठी चीज के करते वह रुक नहीं सकता। इसलिए जिस चीज का भ्रम हो उसका अन्यत्र सत्य होना जरूरी नहीं है; किंतु उसकी जानकारी ही असल चीज है। जानकारी बिना सत्य वस्तु का भी कहीं भ्रम नहीं होता है। जानें ही नहीं, तो दूसरी जगह उसकी कल्पना कैसे होगी? इसी प्रकार इस संसार का भी कहीं अन्यत्र सत्य होना जरूरी नहीं है। किंतु किसी एक स्थान पर भ्रम से ही यह बना है। उसी की कल्पना दूसरी जगह और इसी तरह आगे भी होती रहती है। एक बार जिसकी कल्पना आत्मा में हो गई उसी की बार-बार होती रहती है। यह कल्पित ही संसार अनादिकाल से चला आ रहा है।
मगर हमें इन दार्शनिक विवादों में न पड़ के केवल अद्वैतवाद का सिद्धांत मोटा-मोटी बता देना है और यह काम हमने कर दिया। यहीं पर यह भी जान लेना होगा कि जहाँ एक बार इस दृश्य जगह का अध्यास या आरोप आत्मा या ब्रह्म में हो गया कि विवर्त्तवाद का काम हो गया। चेतन ब्रह्म में इस जड़ जगत के आरोप को ही विवर्त्तवाद कहते हैं। जहाँ तक इस दृश्यजगत का ब्रह्म से ताल्लुक है वहीं तक विवर्त्तवाद है। मगर इस जगत की चीजों के बनने-बिगड़ने का जो विस्तार या ब्योरा है वह तो गुणवाद के आधार पर विकासवाद के सिद्धांत के अनुसार ही होता है। विवर्त्तवाद ने इन्हें मिथ्या सिद्ध कर दिया। अब परिणाम या विकासवाद से कोई हानि नहीं। क्योंकि इससे इन पदार्थों की सत्यता तो हो सकती नहीं। विवर्त्तवाद ने इनकी जड़ ही खत्म जो कर दी है। उसके न मानने पर ही यह खतरा था, द्वैतवाद आ जाने की गुंजाइश थी। बस, इतने के ही लिए विवर्त्तवाद आ गया और काम हो गया।
गीता , न्याय और परमाणुवाद
आश्चर्य की बात कहिए या कुछ भी मानिए; मगर यह सही है कि गीता में गौतम और कणाद का परमाणुवाद पाया नहीं जाता। इसकी कहीं चर्चा तक नहीं है और न गौतम या कणाद की ही। विपरीत इसके गुणकीर्त्तन और गुणवाद तो भरा पड़ा है, जैसा कि पहले बताया जा चुका है। इतना ही नहीं। जिन योग, सांख्य या वेदांतदर्शनों ने इसे मान्य किया है उनका भी उल्लेख है और उनके आचार्यों का भी। यह ठीक है कि योगदर्शन के प्रर्वतक पतंजलि का जिक्र नहीं है। मगर योग की विस्तृत चर्चा पाँच, छह, आठ और अठारह अध्यायों में खूब आई है। यों तो प्रकारांतर से यह बात और अध्यायों में भी मन के निरोध या आत्मसंयम के नाम से बार-बार आई ही है। पतंजलि से इसी बात को 'योगश्चित्तवृत्ति निरोध:' (1। 2) तथा 'अध्यास वैराग्याभ्यां तन्निरोध:' (2। 12) आदि सूत्रों में साफ ही कहा है। गीता के छठे अध्याय में मालूम होता है, यह दूसरा सूत्र ही जैसे उद्धृत कर दिया गया हो 'अध्यासेन तु कौंतेय वैराग्येण च गृह्यते' (6। 35)। चौथे अध्याय के 'आत्मसंयमयोगाग्नौ' (4। 27) में तो साफ ही मन के संयम को ही योग कहा है। और स्थानों में भी यही बात है। पाँचवें अध्याय के 27, 28 श्लोकों में, छठे अध्याय के 10-26 श्लोकों में तथा आठवें अध्याय के 12, 13 श्लोकों में तो साफ ही योग के प्राणायाम की बात लिखी गई है। अठारहवें के 51-53 श्लोकों में भी जिस ध्यानयोग की बात आई है, उसी का उल्लेख पतंजलि ने 'यथाभिमतध्यानाद्वा' (1।35) 'यमनियमासन प्राणायाम प्रत्याहार ध्यानधारणासमाधयोऽष्टावंगानि' (2 ।29) तथा 'तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम्' (3। 2) सूत्रों में किया है।
(शीर्ष पर वापस)
वेदांत , सांख्य और गीता
सांख्य और वेदांत का तथा उनके प्रर्वतक आचार्यों का भी तो नाम आया ही है। सांख्य के प्रर्वतक कपिल का उल्लेख 'कपिलोमुनि:' (10। 26) में तथा वेदांत के आचार्य व्यास का 'मुनीनामप्यहं व्यास:' (10। 37) में आया है। पहले कपिल का और पीछे व्यास का। इन दर्शनों का क्रम भी यही माना जाता है। इसी प्रकार 'वेदांतकृद्वेदविदेव चाहम्' (15। 15) में वेदांत का और 'सांख्य कृतान्ते प्रोक्तानि' (18। 13) तथा 'प्रोच्यते गुणसंख्याने' (18। 19) में सांख्यदर्शन का उल्लेख है। कृतांत और सिद्धांत शब्दों का एक ही अर्थ है। इसलिए 'सांख्ये कृतान्ते' का अर्थ है 'सांख्यसिद्धांत में।' सांख्यवादी भी तो आत्मा को अकर्त्ता, केवल तथा निर्विकार मानते हैं और यही बात यहाँ लिखी गई है। इसी प्रकार गुणसंख्यान शब्द का अर्थ है गुणों का वर्णन जहाँ पाया जाए। सांख्य शब्द का भी तो अर्थ है गिनना, वर्णन करना। सांख्य ने तो गुणों का ही ब्योरा ज्यादातर बताया है। इसीलिए उसे गुणसंख्यानशास्त्र भी कह दिया है। शेष सांख्य और योग शब्द ज्ञान आदि के ही अर्थ में गीता में आए हैं।
गीता में मायावाद
यह ठीक है कि मायावाद की साफ चर्चा गीता में नहीं आती। मगर माया का और उसके भ्रम में डालने आदि कामों को बार-बार जिक्र उसमें आया ही है। 'सम्भवाम्यात्ममायया' (4। 6) 'दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया' (7। 14), 'माययापहृतज्ञाना' (7। 15), 'योगमाया समावृत:' (7। 25), 'यंत्ररूढानि मायया' (18। 61) में जिस प्रकार माया का उल्लेख है, जैसा चौदहवें अध्याय में प्रकृति का वर्णन आया है, 'मयाध्यक्षेण प्रकृति:' (9। 0) में जिस तरह प्रकृति का नाम लिया है, तेरहवें अध्याय के 'भूतप्रकृतिमोक्षं च' (13। 34) आदि श्लोकों में बार-बार प्रकृति का उल्लेख जिस प्रसंग में आया है तथा 'महाभूतान्यहंकारो बुद्धिरव्यक्तमेव च' (13। 5) में जो अव्यक्त शब्द है ये सभी माया के ही अर्थ में आ के वेदांत के मायावाद के ही समर्थक हैं तेरहवें अध्याय के शुरू में जो क्षेत्रज्ञ का बार-बार जिक्र आया है और 'एतत्क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम्' (13। 6) में क्षेत्र का उसके घास-पात - विकार - के साथ जो वर्णन आलंकारिक ढंग से किया गया है वह भी इसी चीज का समर्थक है। क्षेत्र तो खेत को कहते हैं और जैसे खेतिहर खेत के घास-पात को साफ करके ही सफल खेती कर सकता है, ठीक उसी प्रकार यह क्षेत्रज्ञ - आत्मा - रूपी खेतिहर भी रागद्वेष आदि घास-पत्तों को निर्मूल करके ही अपने कल्याण का उत्पादन इस खेत - शरीर - में कर सकता है, यही बात वहाँ कही गई है। मगर वहाँ समष्टि शरीर या माया को ही क्षेत्र कहने का तात्पर्य है। व्यष्टि शरीर तो उसके भीतर आई जाते हैं। शुरू में जो महाभूत, अहंकार आदि का उल्लेख है वह इसी बात का सूचक है।
ब्रह्मज्ञान और लोकसंग्रह
जहाँ तक गीता का ताल्लुक इस मिथ्यात्व के सिद्धांत से और तन्मूलक अद्वैतवाद से है उसे बताने के पहले यह ज्ञान लेना जरूरी है कि संसार को मिथ्या मानने के बाद अद्वैतवाद एवं अद्वैततत्त्व के ज्ञान का व्यवहार में कैसा रूप होता है। क्योंकि गीता तो केवल एकांत में बैठ के समाधि लगानेवालों के लिए है नहीं। वह तो व्यावहारिक संसार का पारमार्थिक दुनिया के साथ मेल स्थापित करती है। उसकी नजर में तो अद्वैतब्रह्म के ज्ञान के बाद संसार के व्यवहारों में खामख्वाह रोक होती नहीं। यह ठीक है कि कुछ लोगों की मनोवृत्ति बहुत ऊँचे चढ़ जाने से वे संसार के व्यवहार से अलग हो जाते हैं। मगर ऐसे लोग होते हैं कम ही। ज्यादा तो ऐसे ही होते हैं जो लोकसंग्रह का काम करते रहते ही हैं। गीता की इसी दृष्टि का मेल अद्वैतवाद से होता है। इसीलिए पहले उस अद्वैतवाद का इस दृष्टि से जरा विचार कर लेना जरूरी है।
असल में ब्रह्म ही सत्य है, जगत मिथ्या है और आत्मा ब्रह्मरूप ही है, उससे पृथक नहीं है, इस दृष्टि के, इस विचार के दो रूप हो सकते हैं। या यों कहिए कि इस विचार को दो प्रकार से प्रकाशित किया जा सकता है। रस्सी में साँप का भ्रम होने के बाद जब चिराग आने या नजदीक जाने पर वह दूर हो जाता तथा साँप मिथ्या मालूम पड़ता है, तो इस बात को प्रकाशित करते हुए या तो कहते हैं कि यह तो रस्सी ही है, या साँप-वाँप कुछ भी नहीं है। यदि दोनों को मिला के भी बोलें तो यही कहेंगे कि वह तो रस्सी ही है और कुछ नहीं, या रस्सी के अलावे साँप-वाँप कुछ नहीं है। इन दोनों कथनों में और कुछ बात नहीं है, सिवाय इसके कि पहले कथन में विधिपक्ष (Positive side) पर विशेष जोर है, वही मुख्य चीज है। उसमें निषेध पक्ष (Negative side) अर्थ-सिद्ध है। उस पर जोर नहीं है। यदि वह बात बोलते भी हैं तो विधिपक्ष की मजबूती के ही लिए। विपरीत इसके दूसरे कथन में निषेध पक्ष पर ही जोर है, वही प्रधान बात है। यहाँ विधिपक्ष पर जोर न दे के उसे निषेध की दृढ़ता के ही लिए कहते हैं।
ठीक इसी तरह संसार के बारे में भी अद्वैत पक्ष को ले के कह सकते हैं कि यह तो ब्रह्म ही है और कुछ नहीं, या ब्रह्म के अलावे यह जगत कुछ चीज नहीं है। यहाँ भी पहले कथन में ब्रह्म की ही प्रधानता और उसकी जगद्रूपता ही विवक्षित है - उसी पर जोर है। जगत का निषेध तो अर्थ-सिद्ध हो जाता है जो उसी ब्रह्मरूपता को दृढ़ करता है। दूसरे कथन में जगत का निषेध ही असल चीज है। विधिपक्ष उसी को पुष्ट करता है। इसी तरह आत्मा ब्रह्म रूप ही है, उससे जुदा नहीं है ऐसा कहने में भी विधि और निषेधपक्ष आ जाते हैं। ब्रह्मरूप कहना विधिपक्ष है और आत्मा से अलग ब्रह्म नहीं है यह निषेधपक्ष। बात तो वही है। मगर कहने और जोर देने में फर्क है और गीता के लिए वह बड़े ही काम की चीज है। गीता इस फर्क पर पूर्ण दृष्टि रख के चलती है। दरअसल यदि पूछा जाए तो गीता ने निषेधपक्ष को एक प्रकार से भुला दिया है। उसने उस पर जोर न दे के विधिपक्ष पर ही जोर दिया है और इसकी वजह है।
असीम प्रेम का मार्ग
कर्म का मार्ग तो निषेध का रास्ता है नहीं। वह तो विधि का ही मार्ग है और गीताकर्म से ही शुरू करके अकर्म या कर्मत्याग पर - संन्यास पर - पहुँचती है। उसके संन्यास की परख, उसकी जाँच कर्म से ही होती है। गीता में कर्म शुरू करके ही संन्यास को आगे हासिल करते और उसे पक्का बनाते हैं। ऐसी हालत में निषेधपक्ष उसके किस काम का है? सो भी पहले ही? वह तो अंत में खुद-ब-खुद आ ही जाता है। यदि उसका अवसर आए। वह खामख्वाह आए ही यह हठ भी तो गीता में नहीं है। जब ब्रह्म को अपनी आत्मा का ही रूप मानते हैं तो अपना होने से कितना अलौकिक प्रेम उसमें होता है! दो रहने से तो फिर भी जुदाई रही गई यद्यपि वह उतनी दु:खद नहीं है। इसीलिए प्रेम में - उसके साक्षात प्रकट करने में, प्रकट होने में - कमी तो रही जाती है, बाधा तो रही जाती है। दो के बीच में वह बँट जाता जो है - कभी इधर तो कभी उधर। यदि एक ओर पूरा जाए तो दूसरी ओर खाली! यदि इधर आए तो वह सूना! दोनों की चिंता में कहीं जम पाता नहीं । किसी एक को छोड़ना भी असंभव है। यह बँटवारे की पहेली बड़ी बीहड़ है, पेचीदा है। मगर है जरूर।
देशकोश, गाँव, परिवार, घर, स्त्री, पुत्र, शरीर, इंद्रियाँ, आत्मा वगैरह को देखें तो पता चलता है कि जो चीज अपने आपसे जितनी ही दूर पड़ती है उसमें प्रेम की कमी उतनी ही होती है। दूर तक पहुँचने में समय और दिक्कत तो होती है और ताँता भी तो रहना ही चाहिए। नहीं तो स्रोत ही टूट जाए, सूख जाए और अपने आप से ही अलग हो जाएँ। इसीलिए ज्यों-ज्यों नजदीक आइए, दिक्कत कम होती जाती है और ताँता टूटने या स्रोत सूखने का डर कम होता जाता है। मगर फिर भी रहता है कुछ न कुछ जरूर। इसीलिए जब ऐसा मौका आ जाए कि देश और गाँव में एक ही को रख सकते हैं तो आमतौर से देश को छोड़ देते हैं और गाँव को ही रख लेते हैं। प्रेम की कमी-बेशी का यही सबूत है। इसी तरह हटते-हटते पुत्र, शरीर और इंद्रियों तक चले जाते हैं। मगर आत्मा की मौज या आनंद में उसके मजा में किरकिरी डालने पर, या कम से कम ऐसा मालूम होने पर कि शरीर या इंद्रियों के करते आत्मा का - अपना - मजा किरकिरा हो रहा है, आत्महत्या - शरीर का नाश - या इंद्रियों का नाश तक कर डालते हैं! क्यों? इसीलिए न, कि आत्मा तो अपने से आप ही है। अपने से अत्यंत नजदीक है? यही बात याज्ञवल्क्य ने मैत्रेयी से बृहदारण्यक में कही है और सभी के साथ के प्रेमों को परस्पर मुकाबिला करके अंत में आत्मा में होने वाले प्रेम को सबसे बड़ा - सबसे बढ़ के - यों ठहराया है - 'नवा अरे सर्वस्य कामाय सर्वं प्रियं भवत्यात्मनस्तु कामाय सर्व प्रियं भवति' (4। 5। 6)।
प्रेम और अद्वैतवाद
यदि ब्रह्म या परमात्मा में असली प्रेम करना है जो सोलह आना हो और निर्बाध हो, अखंड हो, एकरस हो, निरंतर हो, अविच्छिन्न हो, तो आत्मा और ब्रह्म के बीच का भेद मिटाना ही होगा - उसे जरा भी न रहने देकर दोनों को एक करना ही होगा। यदि सच्ची भक्ति चाहते हैं तो दोनों को - आशिक और माशूक को - एक करना ही होगा। यही असली भक्ति है और यही असली अद्वैतज्ञान भी है। इसीलिए गीता ने भक्तों के चार भेद गिनाते हुए अद्वैतज्ञानी को भी न सिर्फ भक्त कहा है, किंतु भगवान की अपनी आत्मा ही कह दिया है - अपना रूप ही कह दिया है, - 'ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्' (7। 18)। जरा सुनिए, गीता क्या कहती है। क्योंकि पूरी बात न सुनने में मजा नहीं आएगा। गीता का कहना है कि, 'चार प्रकार के सुकृती - पुण्यात्मा - लोग मुझमें - भगवान में - मन लगाते, प्रेम करते हैं, वे हैं दुखिया या कष्ट में पड़े हुए, ज्ञान की इच्छावाले, धन-संपत्ति चाहने वाले और ज्ञानी। इन चारों में ज्ञानी तो बराबर ही मुझी में लगा रहता है। कारण, उसकी नजरों में तो दूसरा कोई हई नहीं। इसीलिए वह सभी से श्रेष्ठ है। क्योंकि वह मेरा अत्यंत प्यारा है और मैं भी उसका वैसा ही हूँ। यों तो सभी अच्छे ही हैं; मगर ज्ञानी तो मेरी आत्मा ही है न? मुझसे बढ़ के किसी और पदार्थ को वह समझता ही नहीं। इसीलिए निरंतर मुझी में लगा हुआ मस्त रहता है' - "चतुर्विधा भजन्ते मां जना: सुकृतिनोऽर्जुन। आर्त्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी न भरतर्षभ। तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते। प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रिय: उदारा: सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्। आस्थित: सहियुक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम्" (7। 16-18)
ज्ञान और अनन्य भक्ति
इस प्रकार हमने देखा कि जिस भक्ति के नाम पर बहुत चिल्लाहट और नाच-कूद मचाई जाती है और जिसे ज्ञान से जुदा माना जाता है वह तो घटिया चीज है। असल भक्ति तो अद्वैत भावना, 'अहं ब्रह्मास्मि' - मैं ही ब्रह्म हूँ - यह ज्ञान ही है। इसीलिए 'अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जना: पर्युपासते। तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्' (9। 22) में यही कहा गया है कि 'भगवान को अपना स्वरूप - अपनी आत्मा - ही समझ के जो उसमें लीन होते हैं, रम जाते हैं तथा बाहरी बातों की सुध-बुध नहीं रखते, उनकी रक्षा और शरीर यात्रा का काम खुद भगवान करते हैं।' यहाँ अनन्य शब्द का अर्थ है भगवान को अपने से अलग नहीं मानने वाले। इसीलिए अगले श्लोक 'येऽप्यन्य देवताभक्ता:' (9। 23) में अपने से भिन्न देवता या आराध्यदेव की भक्ति का फल दूसरा ही कहा गया है। 'अनन्यचेता: सततं यो मां स्मरति नित्यश:। तस्याहं सुलभ: पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिन:' (8। 14) में भी यही बात कही गई है कि 'जो भगवान को अपनी आत्मा ही समझ के उसी में प्रेम लगाता है उसे भगवान सुलभ हैं - कहीं अन्यत्र ढूँढ़े जाने की चीज है नहीं।' यदि असल और सर्वोत्तम भक्ति ज्ञान रूप नहीं ''भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वत:। ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्' (18। 55) श्लोक में क्यों कहते कि 'उस भक्ति से ही मुझे बखूबी जान लेता है और उसके बाद ही मेरा रूप बन जाता है।' जानना तो ज्ञान से होता है, न कि दूसरी चीज से। इससे पूर्व के श्लोक 'ब्रह्मभूत: प्रसन्नात्मा' आदि में उसे ब्रह्मरूप कह के समदर्शन का ही वर्णन किया है। समदर्शन तो ज्ञान ही है यह पहले ही कहा गया है। यहाँ उसी समदर्शन को भक्ति कहा है। इस संबंध में और बातें आगे लिखी हैं।
इससे इतना सिद्ध हो गया कि जब ब्रह्म हमीं हैं ऐसा अनुभव करते हैं, तो प्रेम के प्रवाह के लिए पूरा स्थान मिलता है और उसका अबाध स्रोत उमड़ पड़ता है। क्योंकि वह प्रवाह जहाँ जा के स्थिर होगा वह वस्तु मालूम हो गई। मगर निषेधात्मक मनोवृत्ति होने पर ब्रह्म हमसे अलग या दूसरी चीज नहीं है, ऐसी भावना होगी। फलत: इसमें प्रेम-प्रवाह के लिए वह गुंजाइश नहीं रह जाती है। मालूम होता है, जैसे मरुभूमि की अपार बालुका-राशि में सरस्वती की धारा विलुप्त हो जाती है और समुद्र तक पहुँच पाती नहीं, ठीक वैसे ही, इस निषेधात्मक बालुका-राशि में प्रेम की धारा लापता हो जाती और लक्ष्य को पा सकती है नहीं। यही कारण है कि विधि-भावना ही गीता में मानी गई है। भक्ति की महत्ता भी इसी मानी में है।
सर्वत्र हमीं हम और लोकसंग्रह
अब जरा जगत के बारे में भी देखें। यहाँ भी यह जगत तो ब्रह्म ही है ऐसा विधिरूप ज्ञान ही गीता को मान्य है। क्योंकि इसमें हमारे कर्मों के लिए, लोकसंग्रह के लिए पूरी गुंजाइश रहती है। निषेध में यह बात नहीं रहती। मालूम पड़ता है कि निठल्ले जैसा बैठने की बात आ जाती है। आज जो वेदांत के अद्वैतवाद में इस निषेध पक्ष या संसार के मिथ्यात्व के ही पहलू पर जोर देने के कारण लोगों में अकर्मण्यता आ गई है वह गीताधर्म और गीता के इस महान मार्ग के छोड़ देने का ही परिणाम है। वेदांत के नाम पर आज प्रचलित महान पतन की यही वजह है। जब कोई विधानात्मक चीज हई नहीं, तो फिर कुछ भी करने-धरने की जरूरत ही क्या है? फलत: वेदांतवाद एवं अद्वैतवाद को इस पतन के गंभीर गर्त्त से निकालने के लिए जगत के मिथ्यात्व पर जोर देने वाले निषेधात्मक पक्ष की ओर दृष्टि न करके हमें 'जगत ब्रह्म ही है, हमारी आत्मा ही है' इस विधानात्मक पक्ष की ओर ही दृष्टि देना जरूरी है। इससे यही होगा कि हम चारों ओर अपनी ही आत्मा को देख के उसके कल्याणार्थ ठीक वैसे ही उतावले हो पड़ेंगे, दौड़ पड़ेंगे जैसे अपने पाँवों में फोड़ा-फुंसी होने, खुद भूख-प्यास लगने या अपने पेट में दर्द होने पर उतावले और बेचैन हो के प्रतीकार में लग जाते हैं। और जरा भी विलंब या आलस्य, अपना या गैरों का, बरदाश्त कर नहीं सकते।
गीता इसी दृष्टि पर जोर देती हुई कहती है कि 'बहुत जन्मों में लगातार यत्न करके, यह जो कुछ देखा-सुना जाता है सब भगवान ही है, ऐसा ज्ञान जिसे प्राप्त हो जाए वही इस संसार में अत्यंत दुर्लभ महात्मा है' - "बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते। वासुदेव: सर्वमिति स महत्मा सुदुर्लभ:" (7। 19)। ऐसा अद्वैत तत्त्वज्ञानी दूसरे के सुख-दु:ख को अपने में ही अनुभव करता है। यदि किसी को भी एक लाठी मारो तो उसकी चोट उसे ही लगती है। इसीलिए उसका हृदय द्रवीभूत हो के दत्तचित्तता के साथ लोकसंग्रह में उसे दिन-रात लग जाने को विवश कर देता है। इस बात का कितना मार्मिक वर्णन गीता के छठे अध्याय के ये श्लोक करते हैं, 'सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि। ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शन:। यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति। तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति। सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थित:। सर्वथा वर्त्तमानोऽपि स योगी मयि वर्त्तते। आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन। सुखं वा यदि वा दु:खं स योगी परमोमत:' (6। 29-32)।
इनका आशय यह है कि 'जिसका मन सब तरफ से हट के आत्मा - ब्रह्म - में लीन हो गया है और जो सर्वत्र समदर्शी है (समदर्शन का पूरा विवेचन पहले किया गया है) वह अपने आपको सभी पदार्थों में और पदार्थों को अपने आप में ही देखता है। इस प्रकार जो भगवान को भी सर्वत्र - सभी पदार्थों में - देखता है और पदार्थों को भगवान में, वह न तो भगवान - ब्रह्म - से जरा भी जुदा हो सकता है और न भगवान ही उससे जुदा हो सकता है - दोनों एक ही जो हो गए - जो योगी सभी पदार्थों में रहने वाले - पदार्थों के रग-रग में रमने वाले - एक हो भगवान को अपने से जुदा नहीं देखता, वह चाहे किसी भी हालत में रहे, फिर भी परमात्मा में ही रमा हुआ रहता है। जो योगी किसी भी प्राणी या पदार्थ के दु:ख-दु:ख को अपना ही समझता है, अनुभव करता है, वही सर्वोत्तम है।' इसी ज्ञान के बारे में पुनरपि गीता कहती है कि 'उसे हासिल करके फिर इस प्रकार भूल-भुलैया में हर्गिज न पड़ोगे। तब हालत यह होगी कि संसार के सभी पदार्थों को अपने आप में देखोगे और मुझमें भी - अर्थात तुममें, हममें - परमात्मा में - और इस जगत में कोई विभिन्नता रहेगी ही नहीं - सभी एक ही बन जाएँगे' - "यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पांडव। येन भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि" (4। 25)।
हमने शुरू में ही कर्मों के भेदों के निरूपण के प्रसंग में बता दिया है कि आगे बढ़ते-बढ़ते सभी भौतिक पदार्थों और परमात्मा के साथ आत्मा की तन्मयता कैसे हो जाती है। वही बात गीता बार-बार कहती है। इसीलिए जो प्रत्येक शरीर में आत्मा को जुदा-जुदा मानते हैं वह तो गीता से अनंत दूरी पर है। उनसे और गीताधर्म से कोई ताल्लुक है नहीं। सबकी एकता - एकरसता - के पहले सभी शरीरों की आत्मा की एकता तो अनिवार्य है। ऐसी बुद्धि और भावना सबसे पहले होनी चाहिए। यहीं से तो गीता का श्रीगणेश होता है। इसीलिए 'अंतवंत इमे देहानित्यस्योक्ता शरीरिण:' (2। 18) आदि श्लोकों में अनके शरीरों में रहने वाले शरीरी - आत्मा - को एक ही कहा है। जहाँ 'देहा:' यह बहुवचन दिया है, तहाँ 'शरीरिण:' एकवचन ही रखा है। आगे भी यही बात है। 'क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत' (13। 2) में भी सभी क्षेत्रों में - शरीरों में - एक ही क्षेत्रज्ञ - शरीरी - को कह के साफ सुना दिया है कि शरीर और शरीरी - आत्मा - भगवान के ही स्वरूप हैं। 'मयि ते तेषु चाप्यहम्' (9। 29) में भी यही बात कही गई है कि भक्तजनों में भगवान हैं और भगवान में भक्तजन हैं -अर्थात दोनों एक हैं। 'अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते' (12। 6) में भी दोनों की अभिन्नता - एकता - ही कही गई है। ऐसे ज्ञानियों की हालत यह होती है कि न तो उनसे किसी को उद्वेग या जरा-सी भी दिक्कत मालूम होती है और न उन्हें दूसरों से। यही बात 'यस्मान्नोद्विजते लोक:' (12। 15) में कही गई है। यही है ज्ञानी जनों की पहचान। 'मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी' (13। 10) में इसी अद्वैततत्त्वज्ञान को अव्यभिचारिणी भक्ति नाम दिया है। 'मां च योऽव्यभिचारेण' (14। 26) में इसे ही अव्यभिचारी भक्ति योग भी कहा है।
6. अपर्याप्तं तदस्माकम्
गीता के प्रथमाध्याय के 'अपर्याप्तं तदस्माकम्' (1। 10) श्लोक के अर्थ में बहुत मतभेद हैं। इसके शब्दों और उनके अर्थों की मनमानी खींचतान की गई है। अत: स्पष्टीकरण जरूरी है। संक्षेप में दो खयाल के लोग इस संबंध में पाए जाते हैं। एक तो वह हैं जो मानते हैं कि दुर्योधन अपनी फौज को कमजोर या नाकाफी कहे, इसकी कोई वजह नहीं थी। इसके उलटे काफी और अपरिमित कहने के कई प्रमाण वे लोग पेश करते हैं। पहली बात यह है कि खुद दुर्योधन ने उद्योगपर्व (54। 60-70) में अपनी सेना की सब तरह से तारीफ करके कहा था कि जीत मेरी ही होगी। दूसरी यह कि उसने गीता में जो श्लोक कहे हैं प्राय: इसी तरह के श्लोक उसके मुँह से गीता के बाद ही भीष्मपर्व (51। 4-6) में पुनरपि द्रोणाचार्य के ही सामने निकले हैं। तीसरी यह कि यह बयान अपने सैनिकों को प्रोत्साहित करने के ही लिए तो किया गया है। फिर इसमें अपनी ही कमजोरी की बात कैसे आएगी? तब तो उलटा ही प्रभाव होगा न? और स्वयं दुर्योधन ही इतनी बड़ी भूल करे, यह कब संभव है? जो लोग ऐसा खयाल करते हैं कि दुर्योधन डर के मारे ही ऐसा कह रहा था, वह भूलते हैं। क्योंकि महाभारत की लंबी पोथी में कहीं भी उसके भयभीत होने का जिक्र है नहीं। विपरीत इसके भीष्मपर्व (19। 5 तथा 21। 1) से पता चलता है कि दुर्योधन की ग्यारह अक्षौहिणी के मुकाबिले में अपनी केवल सात ही अक्षौहणी सेना देख के युधिष्ठिर को ही खिन्नता हुई थी।
इसीलिए इस खयाल के लोग इस श्लोक के पर्याप्त और अपर्याप्त शब्दों का आमतौर से प्रचलित अर्थ काफी और नाकाफी मानने में दिक्कत एवं ऊपरवाली अड़चनें देख के इनका दूसरा ही अर्थ मर्यादित या परिमित और अमर्यादित या अपरिमित करते हैं। इन अर्थों में भी दिक्कत जरूर है। क्योंकि ये प्रचलित नहीं हैं। मगर ऊपर लिखी दिक्कतों की अपेक्षा यह दिक्कत कोई चीज नहीं है। ऐसी परिस्थितियों में ही तो शब्दों के दूसरे-दूसरे अर्थ माने जाते हैं जो आमतौर से अप्रसिद्ध होते हैं। इसीलिए शब्दों को पतंजलि ने महाभाष्य में बार-बार कामधेनु कहा है : 'शब्दा: कामधेनव:'। क्योंकि संकट के समय या मौके पर जैसा चाहिए इनसे अर्थ (प्रयोजन) प्राप्त कर लीजिए। यही है पहले खयालवालों की स्थिति।
मगर दूसरे खयाल वाले शब्दों के प्रचलित और आमतौर से मालूम अर्थों को छोड़ने के लिए यहाँ तैयार नहीं हैं। इस संबंध में जो दलीलें पहले खयाल वाले देते हैं उनके विचार से वे सभी लचर हैं। शब्दों के अर्थों के बारे में मीमांसादर्शन में जो यह नियम माना गया है कि शब्द से आमतौर से मालूम होने वाले सीधे अर्थ को ही लेना चाहिए उसे छोड़ने का कारण कोई भी यहाँ है नहीं। बेशक दुर्योधन भयभीत था और इसके लिए दूर न जा के इसी श्लोक में प्रमाण रखा हुआ है। श्लोक के पूर्वार्द्ध में 'अपर्याप्तं' के बाद ही 'तत्' शब्द हैं जिसके आगे 'अस्माकं' है। इसी तरह उत्तरार्द्ध में 'पर्याप्तं तु' के बाद 'इदम्' है जिसके बाद 'एतेषां' आया है। 'तत्' का अर्थ है वह या जो सामने न हो। जो पदार्थ केवल दिमाग में हो और सामने न हो साधारणतया उसी को बताने के लिए 'तत्' आता है। इसके उलटा जो चीज सामने हो उसी का वाचक 'इदम्' है।
अब जरा मजा तो देखिए कि खुद अपनी ही फौज में खड़ा हो के दुर्योधन द्रोणाचार्य से बातें कर रहा है और अपने खास-खास योद्धाओं के नाम उसने अभी-अभी गिना के यह श्लोक कहा है - यह बात कही है। पांडव-सेना की बात पहले कह के अपनी फौज की पीछे बोला है और फौरन ही उसी के बाद 'अपर्याप्तं' आया है। ऐसी हालत में तो हर तरह से अपनी ही सेना सामने है और पांडवों की हर तरह से दूर है। यों भी दूर खड़ी है और उसकी चर्चा भी पहले हो चुकी है। फिर भी उसी को सामने और प्रत्यक्ष कहता है। 'इदम्' कहता है और अपनी को परोक्ष और दूर की। क्यों? इसीलिए न, कि उसके भीतर आतंक छाया है, उसे डर और घबराहट है और भूत की तरह पांडवों की सेना उसकी छाती पर जैसे सवार है? इसी घबराहट में अपनी फौज जैसे भूली-सी हो। आँखों के सामने और दिल-दिमाग पर तो पांडवों की फौज ही नाचती है। फिर कहे तो क्या कहे? अपनी फौज और अपनी शेखी तो भूल-सी गई है! यह बात इतनी साफ है कि कुछ पूछिए मत।
दूसरी बात है 'भीष्माभिरक्षितं' और 'भीमाभिरक्षितं' शब्दों की। यह तो सभी को मालूम था ही और दुर्योधन भी अच्छी तरह जानता था कि जहाँ भीम एक तरफा और आँख मूँद के लड़नेवाले हैं, वहाँ भीष्म दो नाव पर चढ़नेवाले और सोच-विचार के लड़नेवाले हैं। इसमें कई बातें हैं। महाभारत पढ़ने वाले जानते हैं कि कर्ण और भीष्म में तनातनी थी जिसके चलते कर्ण ने कह दिया था कि जब तक भीष्म जिंदा हैं मैं युद्ध से अलग रहूँगा। इसीलिए तो गीता के बाद वाले पहले ही अध्याय में लिखा है कि युधिष्ठिर ने उसे अपनी ओर मिलाने की बड़ी कोशिश की थी। फिर भी न आया यह बात दूसरी है। मगर वही वैर बता के वह उसे फोड़ना चाहते थे। अगर नहीं फूटा तो इससे पता लगता है कि वह दुर्योधन का पक्का आदमी था। मगर पक्का तो सेनारक्षक हो नहीं और दुभाषिया हो सेनापति, यह क्या कमजोरी की बात नहीं है? इसी से तो दुर्योधन को डर था। मगर भीम के बारे में कोई ऐसी बात न थी।
वह यह भी जानता था कि शिखंडी से भीष्म को खतरा है। इसीलिए इस श्लोक के बाद के श्लोक में ही दुर्योधन सभी से कहता है कि आप लोग सबके-सब सिर्फ भीष्म को ही बचाएँ - "भीष्ममेवाभिरक्षंतु भवंत: सर्व एव हिं।" लेकिन यह भी क्या अजीब बात है कि जो ही है सेनापति और सेना का रक्षक हो उसी की रक्षा के लिए शेष सभी को आदेश दिया जाए कि आप लोग 'केवल भीष्म' - 'भीष्ममेव' - की रक्षा करें! मालूम होता है, दूसरा कोई भी इससे जरूरी काम न था। मगर जिस फौज के सेनापति के ही बारे में यह बात हो वह फौज क्या जीतेगी ख़ाक? ऐसा कहीं नहीं देखा-सुना कि फौज के सभी प्रमुख योद्धा केवल सेनापति की ही रक्षा करें। मगर भीम के बारे में तो यह बात न थी। उन्हें कुछ सोचना-विचारना थोड़े ही था कि किस पर अस्त्र चलाएँ किस पर नहीं। इस मामले में तो वे ऐसे थे कि मीनमेख करना जानते ही न थे। बल्कि मीनमेख से चिढ़ते थे। वे तो युधिष्ठिर को कोसा करते थे कि आपको बुद्धि की बदहजमी और धर्म की बीमारी लगी है, जिससे रह-रह के मीनमेख निकाला करते हैं।
महाभारत में गीता के बादवाले अध्याय में ही यह बात लिखी है कि भीष्म ने साफ ही कह दिया कि युधिष्ठिर, जाओ, जीत तुम्हारी ही होगी। उनने यह भी कहा था कि क्या करूँ मजबूरी है इसीलिए लड़ुँगा तो दुर्योधन की ही ओर से, हालाँकि पक्ष तुम्हारा ही न्याययुक्त है। इसीलिए तुम्हारे सामने दबना पड़ता है और सिर उठा नहीं सकता। क्या ऐसे ही 'आ फँसे' वाले सेनापति से जीत हो सकती थी? और क्या इतनी बात भी दुर्योधन समझता न था? खूबी तो यह है कि न सिर्फ भीष्म, किंतु द्रोण, कृप और शल्य भी इसी ढंग के थे और यह बात उसे ज्ञात न थी यह कहने की हिम्मत किसे है? विपरीत इसके भीम अपने पक्ष के लिए मर-मिटने वाला था, उचित-अनुचित सब कुछ कर सकता था। इसीलिए तो दुर्योधन की कमर के नीचे उसने गदा मारी जो पुराने समय के नियमों के विरुद्ध काम था और इसीलिए अपने चेले दुर्योधन की कमर टूटने पर बलराम बिगड़ खड़े भी हुए थे कि भीम ने अनुचित काम किया। मगर भीम को इसकी क्या परवाह थी?
जरा यह भी तो देखिए कि जहाँ स्वयं दुर्योधन ने शत्रुओं की सेना और उसके सेनानायकों का वर्णन पूरे चार (3 से 7) श्लोकों में किया है, तहाँ अपनी सेनावालों का सिर्फ एक (8) ही श्लोक में करके अगले (9वें) में केवल इतने से ही संतोष कर लिया है कि और भी बहुतेरे हैं जो मेरे लिए मर-मिटेंगे! आखिर बात क्या है? यह 'प्रथमग्रासे मक्षिकाभक्षणम्' कैसा? अपने ही लोगों का कीर्त्तन इतना संक्षिप्त? इसमें भी खूबी यह कि जिनके नाम गिनाए हैं उनमें एकाध को छोड़ सभी दो तरफे हैं, और विकर्ण तो साफ ही युधिष्ठिर की ओर जा मिला था, यह गीता के बादवाले ही अध्याय में लिखा है। शत्रु पक्ष के वर्णन में भी यह बात है कि द्रुपदपुत्र की बड़ी तारीफ की है। कहता है कि आपका ही चेला है। बड़ा काइयाँ है और वही है सेना को सजा के नाके पर खड़ी करने वाला। सभी को भीम और अर्जुन के समान ही युद्ध के बहादुर भी कह दिया है 'भीमार्जुन समायुधि'। अंत में सभी को यह भी कह दिया कि महारथी ही हैं - 'सर्व एव महारथा:'। क्या ये एक बातें भी अपनों के बारे में उसने कही हैं? और अगर कोई यह कहने की हिम्मत करे कि शत्रुओं की यह बड़ाई तो सिर्फ अपने लोगों को उत्तेजित करने के ही लिए है, तो यही बात 'अपर्याप्तं' श्लोक के बारे में भी क्यों नहीं लागू होती? दरअसल तो उसके दिल पर पांडवों का आतंक छाया हुआ था। फिर वैसा कहता क्यों नहीं?
एक बात और देखिए। उसके कह चुकने पर 'तस्य संजनयन्हर्षं' इस बारहवें श्लोक में यह कहा गया है कि दुर्योधन के भीतर बखूबी हर्ष पैदा करने के लिए भीष्म ने शंख बजाया। जरा गौर कीजिए कि 'उसके हर्ष को बढ़ाने के लिए' कहने के बजाए यह कहा गया है कि 'उसका हर्ष पैदा करने के लिए' - 'हर्षं संजनयन्'। जन धातु का अर्थ पैदा करना ही होता है न कि बढ़ाना। जो चीज पहले से न हो उसी को तो पैदा करते हैं। जो पहले से ही हो उसे तो केवल बढ़ा सकते है। इसी से पता लग जाता है कि दुर्योधन के भीतर हर्ष का नाम भी न था। इसीलिए भीष्म ने उसे पैदा करने की कोशिश की। 'जनयन्' के पहले जो 'सम्' दिया गया है उससे यह भी प्रकट होता है कि काफी मनहूसी थी जिसे हटा के खुशी लाने में भीष्म को अधिक यत्न करना पड़ा।
यह भी तो विचित्र बात है कि वह बातें तो करता है द्रोण से। मगर वह तो कुछ बोलते या करते नहीं। किंतु उसे खुश करने का काम भीष्म करते हैं जिनके पास वह गया तक नहीं! वह जानता था कि उनके पास जाना या कुछ भी कहना बेकार है। वह तो सुनेंगे नहीं। उलटे रंज हो गए तो और भी बुरा होगा। इसीलिए सेनापति होते हुए भी उन्हें छोड़ के द्रोण के पास दुर्योधन इसीलिए गया कि खतरे से सजग कर दिया जाए। उचित तो सेनापति के ही पास जाना था। यही तरीका भी है। मगर न गया। इससे भीष्म को भी पता चल गया कि मेरी ओर से उसे शक है। इसी से भीतर ही भीतर नाखुश है। उसी नाखुशी को दूर करने के लिए उनने बिना कहे-सुने शंख बजाया। नहीं तो एक प्रकार के इस अकांड तांडव का प्रयोजन था ही क्या? जोर से सिंहगर्जन करना और खूब तेज शंख बजाना अपनी सफाई ही तो थी।
द्रोण के पास जाने में दुर्योधन का और भी मतलब था। युद्धविद्या के आचार्य तो वही थे। इसलिए आगे लड़ाई की सफलता और भीष्मादि की रक्षा का ठीक उपाय वही बता सकते थे। यह काम जितनी खूबी के साथ वह कर सकते थे दूसरा कोई भी कर न सकता था शत्रुओं की सारी कला और खूबियों को वही जानते थे। उन्हें जरा उत्तेजित भी करना था। जिन्हें सिखा-पढ़ा के उनने तैयार किया वही अब उन्हीं से निपटने को तैयार हैं! जिस धृष्टद्युम्न को रणविद्या दी उसी ने आप ही के खिलाफ व्यूह रचना की है! कृतघ्नता की हद हो गई! इसीलिए जो 'तव शिष्येण' यह विशेषण उसने 'द्रुपद पुत्रेण' के साथ लगाया है उसके दोनों ही मानी हैं। एक तो यह कि सजग रहिए, वह काफी होशियार है। क्योंकि आपका ही सिखाया-पढ़ाया है। दूसरा यह कि चेला हो के गुरु के ही खिलाफ लड़ने की पूरी तैयारी में है, यह उसकी शोखी देखिए।
यह दलील, कि उत्तेजित करने और जोश बढ़ाने के बजाए डराने वाली कमजोरी की बात कैसे कहेगा, क्योंकि तब तो सभी लोग डर जाएँगे ही और सारा गुड़ ही गोबर हो जाएगा, भी निस्सार है। वह तो सिर्फ द्रोण से ही बातें कर रहा था। बाकी लोगों को क्या मालूम कि क्या बातें हो रही हैं? फिर उनके डरने का सवाल आता ही कहाँ से है? और द्रोण से भी सारी हकीकत और असलियत छिपाई जाए, यह कौन-सी बुद्धिमानी थी? वही तो दिक्कतों और खतरों का रास्ता सुझा सकते थे। आखिर दुर्योधन और किससे दिल की बातें कहता? द्रोणाचार्य इस बात का डंका पीटने तो जाते न थे कि सभी के दिल दहलने की नौबत आ जाती। और जब आगे 'सघोषोधार्त्तराष्ट्राणां' (19) श्लोक में साफ ही कह दिया है कि पांडवों की शंखध्वनियों से दुर्योधन के दलवालों का कलेजा दहल गया, जो फिर वही बात चाहे एक मिनट आगे हुई या पीछे, इसमें खास ढंग का ऐतराज क्या हो सकता है? जब भीष्मपर्व के पहले ही अध्याय के 18-19 श्लोकों में यही बात लिखी जा चुकी है कि केवल कृष्ण और अर्जुन के शंखों की ही आवाज से दुर्योधन की सेना के लोग ऐसे भयभीत हो गए जैसे सिंह के गर्जन से हिरण काँप उठते हैं, इसीलिए हालत यहाँ तक हो गई कि सभी की पाखाना-पेशाब तक उतर आई, तो फिर यहाँ दुर्योधन की बातों से दहलने का क्या प्रश्न?
अब रही यह दलील कि उद्योगपर्व में दुर्योधन ने स्वयं अपनी सेना की बड़ाई करके विजय का विश्वास जाहिर किया था यह भी वैसी ही है। यों प्रशंसा के पुल बाँधना और मनोराज्य के महल बनाना दूसरी चीज है। उसे कौन रोके। उसमें बाधा भी क्या है। मगर जब ऊँट पहाड़ पर चढ़ता है तो उसका बलबलाना बंद हो जाता है। ऊँचाई कैसी है इसका मजा भी मिलता है। यही बात हमेशा होती है जब ठोस चीजों और परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है। अर्जुन ने भी तो बहुत दिनों से जान-बूझ के लड़ाई की तैयारी की थी और जब कभी युधिष्ठिर जरा भी आगा-पीछा करते तो घबरा जाते थे और उन्हें कुछ सुना भी देते थे। मगर मैदाने जंग में जब सभी चीजें सामने आईं और ठोस परिस्थिति चट्टान की तरह आ डँटी तो घबरा के धर्मशास्त्र की पोथियों के पन्ने उलटने लगे। क्या उन्हें पहले मालूम न था कि युद्ध में गुरुजनों और कुल का संहार होगा? फिर यह रोना पसारने की वजह क्या थी सिवाय इसके कि पहले ठोस चीजें सामने न थीं, केवल दिमागी बातें थीं, मगर अब वही चीजें स्वयं सामने आ गईं? यही बात दुर्योधन की थी। पहले बड़ी-बड़ी कल्पनाएँ थीं। मगर युद्ध के मैदान में सारा रंग फीका हो गया।
गीता के बाद भी यदि यही श्लोक आए हैं तो इससे क्या? अगर इन श्लोकों से उसकी त्रस्तता सिद्ध होती है तो बादवाले भी यही सिद्ध करेंगे। हाँ, यदि इनमें ही उत्साह-उमंग हो तो बात दूसरी है। मगर यही तो अभी सिद्ध करना है। इसलिए बाद के श्लोक तो गीता के ही श्लोकों के अर्थ पर निर्भर करते हैं। यदि गीता में ही बाद के 12 से लेकर 19 तक के आठ श्लोकों को देखा जाए तो पता चलता है कि केवल दो श्लोकों में दुर्योधन के पक्ष वालों के बाजे-गाजे वगैरह बजने की बात लिखी है और बाकी 6 में पांडव पक्ष की! खूबी तो यह है कि इन दोनों में भी पहले में सिर्फ भीष्म के गर्जन और शंखनाद की बात है। दूसरे में भी किसी का नाम न ले के इतना ही लिखा है कि उसके बाद एक-एक शंख, नफीरी आदि बज पड़ीं। मगर पांडव पक्ष का तो इन शेष 6 श्लोकों में पूरा ब्योरा दिया गया है कि किसने क्या बजाया। इससे इतना तो साफ हो जाता है कि कम से कम गीताकार तो पांडव पक्ष का ही महत्त्व दिखाते हैं, दिखाना चाहते हैं, और हमें गीता के ही श्लोकों का आशय समझना है। महाभारत में क्या स्थिति थी, इसका पता हमें दूसरी तरह से तो है भी नहीं कि गीता के शब्दों को भी खींच-खाँचकर उसी अर्थ में ले जाए। अतएव हमने जो अर्थ इस श्लोक का लिखा है वही ठीक और मुनासिब है।
7. जा य ते वर्णसंकर:
गीता के पहले अध्याय के 'अधर्माभिवात् कृष्ण' (1। 41) श्लोक में वर्णसंकर के मानी में भी अकसर गड़बड़ हो जाती है। वर्णसंकर का शब्दार्थ है वर्णों का संकीर्ण हो जाना या मिल जाना। जब वर्णों की कोई व्यवस्था न रह जाए तो उसी हालत को वर्णसंकर कहा जाता है। बात असल यह है कि हिंदुओं ने जो वर्णों की व्यवस्था बनाई थी वह उस समय के समाज की परिस्थिति और प्रगति के अनुकूल ही थी। उनने यह अच्छी तरह देख लिया था कि समाज कहाँ तक उन्नति कर गया, आगे बढ़ गया और किस हालत में है - उसकी प्रगति वैसी ही तेज है, रुक गई है या बहुत ही धीरे-धीरे चींटी की-सी चाल से चल रही है। बस, यही बातें देख के इन्हीं के अनुकूल वर्णों की व्यवस्था उस समय बनी थी और यह बनी थी जीवन-संग्राम (Struggle for existence) का खयाल करके ही।
पुराने जमाने में युद्ध करने वाली सेना के चार विभाग होते थे, जिन्हें पैदल, रथवाले, घुड़सवार और हाथीसवार कहते थे। तोपखाना आज की तरह अलग न था; किंतु इन्हीं चारों के साथ आवश्यकतानुसार जुटता था। उनका रथ बहुत व्यापक अर्थ में बोला जाता था। इसीलिए कहा जाता है कि राम-रावण के युद्ध में राम के पास रथ न होने के कारण देवताओं ने भेजा था। वह रथ तो कोई हवाई जहाज जैसी ही चीज होगी। यह भी मिलता है कि वैसे ही रथ से राम जंगल से अयोध्या वापस आए थे। इसीलिए आज का हवाई जहाज भी उसी में आ जाता है। समुद्री जहाजों की लड़ाई तब तो थी नहीं। फिर भी वे तो रथ के भीतर ही आ जाते हैं। अंतर यही है कि वह रथ पानी में चलने वाला होता है। पनडुब्बी जहाज पानी के भीतर ही चलते हैं। इसीलिए आज भी पैदल (Infantry), घुड़सवार (Cavalry), तोपखाना (Artillery) जहाजी बेड़ा (Navy) और हवाई सेना (Airforce) इन पाँच विभागों के बावजूद हवाई जहाज की स्वतंत्र हस्ती नहीं है। वह चारों का ही साथी जरूरत के अनुसार बन जाता है, जैसे पहले तोपखाने की बात थी। इससे यह बात निकलती है कि युद्ध के लिए सेना के साधारणत: चार विभाग जरूरी होते हैं।
इसी दृष्टि से प्राचीनों ने जीवन संघर्ष को ठीक-ठीक चलाने और मानव समाज को उसमें विजयी बनाने के लिए उसके भी चार विभाग किए थे - समाज - को चार हिस्सों में बाँटा था; जिन्हें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र कहते थे और अब भी कहते हैं। उनने अध्यात्मवाद, पुनर्जन्म और परलोक का भी सिद्धांत स्वीकार किया था इसीलिए वर्णों के ही कार्यों की पुष्टि एवं सहायता के लिए चार आश्रम भी बनाए गए थे। ये आश्रम विद्यार्जन, तप, समाधि आदि के जरिए चारों वर्णों के लौकिक-पारलौकिक हित साधन में ही मदद करते थे। गृहस्थ आश्रम तो साफ ही है। मगर ब्रह्मचर्य का काम था सभी विद्याएँ पढ़ना तथा वानप्रस्थ का था तप और सरदी-गरमी को सहन करके समाधि के लिए अपने को तैयार करना। संन्यासी का काम था ध्यान और समाधि के द्वारा आत्मज्ञान को पूर्ण बनाना। यही लोग गृहस्थों और दूसरों को भी ज्ञानोपदेश के द्वारा कर्मयोगी बनाते थे।
वर्णों की हालत यह थी कि ब्राह्मण का काम था सभी प्रकार के ज्ञानों को पूर-पूरा हासिल करना। यहाँ तक कि गृहस्थ लोग ही ज्येष्ठ आश्रमी माने जाते थे। ब्राह्मण का ज्ञान पूर्ण होने पर वही सभी में - शेष क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र तीनों में - उसका पूरा प्रसार करते थे। इसीलिए सभी वर्णों के गृहस्थ ज्ञान दाता माने जाते थे। अंबरीष ने क्षत्रिय हो के भी दुर्वासा जैसे ब्राह्मण ऋषि को ज्ञान दिया था। जनक की भी यही बात थी। उपनिषदों में प्रतर्दन आदि राजाओं के बारे में तो यहाँ तक लिखा है कि पंचाग्नि विद्या जैसी चीजें वही जानते थे आरुणि जैसे प्रगाढ़ विद्वान ब्राह्मणों को भी मालूम न थीं। इसी प्रकार तुलाधार वणिक और जाजलि ब्राह्मण का संवाद महाभारत के शांतिपर्व में आता है जिसमें ब्राह्मण को बनिये ने ज्ञानोपदेश किया है। शूद्र की बात तो इतनी बड़ी है कि साक्षात धर्म व्याध की ही कथा महाभारत में है जहाँ संन्यासी तक ज्ञान सीखने जाते थे। इसीलिए मनु ने तीसरे अध्याय में कहा है कि 'गृहस्थ ही तो शेष तीन आश्रमवालों को अन्न और ज्ञान देकर कायम रखता है। इसीलिए वही चारों में बड़ा आश्रम हैं' - "अस्मात्रयोऽप्याश्रमिणो ज्ञानेनान्ननेनचान्वहम्। गृहस्थेनैव धार्यन्ते तस्माज्जयेष्ठाश्रमोगृही" फिर भी ब्राह्मणों का ही प्रधान काम रखा गया था कि विद्या देना और ज्ञान का प्रचार करना।
असल में जब तक एक दल समाज में ऐसा न हो जिसका काम ही हो अंवेषण, जाँच-पड़ताल, प्रयोग और सोचना-विचारना तब तक ज्ञान का विकास असंभव है। खासकर उस जमाने में जब आज की तरह ज्ञान के साधनों का विकास हो पाया न था और न ऐसे यंत्र ही बन पाए थे जो आज पाए जाते हैं। यातायात के साधन भी ऐसे न थे कि दुर्गम से भी दुर्गम स्थानों में जाया जा सके। उस दशा में सभी प्रकार की शोध और अंवेषण वगैरह की प्रगति के लिए यह जरूरी था कि समाज का एक भाग हर तरह से निश्चिंत करके इसी काम के लिए छोड़ दिया जाए। उपनिषदों और दूसरे ग्रंथों में जो ऋषियों एवं विद्वानों की गोष्ठियों तथा सभाओं के बार-बार वर्णन पाए जाते हैं। वह उन्हीं ब्राह्मणों की वैसी ही कान्फ्रेंसें थीं। जैसी आजकल दर्शन, विज्ञान आदि की कान्फ्रेंसें हुआ करती हैं। अपने-अपने अनुभवों को वहाँ प्रकट करके मिलान की जाती थी और कोई न कोई निष्कर्ष निकाला जाता था।
इसी प्रकार शासन और व्यवस्था के लिए भी समाज का एक विभाग अलग कर दिया गया था जिसे क्षत्रिय नाम दिया गया। इसमें भी वह बात है जो ब्राह्मण के सिलसिले में कही गई है। शासन का काम बड़ा ही पेचीदा है। अमन एवं शांति बराबर बनाए रखना ताकि समाज ठीक-ठीक प्रगति कर सके, मामूली काम नहीं है। युद्ध विद्या को व्यावहारिक रूप देना और उसे पूर्णता को पहुँचाना असंभव-सी चीज है। सभी दिमागी कामों के बीच में ब्राह्मणों के लिए गैरमुमकिन था कि युद्ध विद्या को अमली रूप में शिखर पर पहुँचा दें। द्रोण या कृप की तरह कोई-कोई ऐसा करें भी तो सभी ब्राह्मणों के लिए यह असंभव बात थी। और जब तक सामूहिक रूप से लाखों लोग यह काम न करें शत्रुओं से सफलतापूर्वक लोहा लेना असंभव था। द्रोण वगैरह इस काम में पड़े तो दूसरी विद्याओं की उतनी जानकारी उन्हें भी नहीं रही। इसीलिए क्षत्रिय नाम का एक जुदा वर्ण शासन और युद्ध के विज्ञान में पारंगत होने के ही लिए बनाया गया।
मगर जब तक खेती-बारी और रोजगार-व्यापार अच्छी तरह से न हो न तो ब्राह्मण का ही काम चल सकता है और न क्षत्रिय का ही । जैसे फौज के कमिसरियट विभाग के बगैर सभी सेना, अन्न, वस्त्रादि जरूरी चीजों के बिना ही खत्म हो जाए। ठीक वही बात वर्णों के बारे में भी समझना चाहिए। इसीलिए तो वैश्य नामक तीसरा वर्ण बनाया गया जो खेती-बारी के द्वारा अन्न, दूध, घी आदि उपजाए और व्यापार के जरिए वस्त्रादि दूसरी जरूरी चीजें मुहैया करे। अधिकांश व्यापार तो पहले जमीन से उत्पन्न चीजों का ही होता था। आज के कारखाने तो पहले थे नहीं। इसीलिए वैश्य का ही काम खेती और व्यापार दोनों ही रखा गया। फौज आदि के लिए सामूहिक रूप से भी अन्न-वस्त्र और अस्त्र-शस्त्रादि वही जमा कर सकता था। इसीलिए व्यापार भी उसी के हाथ में था।
अब समाजोपयोगी एक ही तरह का काम बच जाता है जिसे कारीगरी कहते हैं। इसमें दिमाग और शरीर दोनों के ही पूरे-पूरे सहयोग का सवाल आता है। पहले के तीनो वर्ण यह कर न सकते थे। उनके काम ऐसे हो गए कि दूसरी बात में पड़ने पर उनसे वह काम भी पूरे न हो पाते। एक बात यह भी है कि कारीगरी में हजारों बातें हैं। अस्त्र-शस्त्र बनाना, कपड़ा बनाना, यंत्रादि बनाना वगैरह। फिर इनमें भी कितने ही विभाग हो जाते हैं। इसीलिए इन सभी के लिए एक दल ऐसा ही चाहिए जो बाँट के एक-एक काम ले और उसे न सिर्फ पूरा करे, किंतु उसमें पूर्ण प्रगति करे, नए-नए आविष्कार करे। इसी के साथ मौके-बे-मौके ब्राह्मणादि तीनों वर्णों के भी काम कर सके। जरूरत आने पर ब्राह्मण का काम करे और आवश्यकता होने पर क्षत्रिय या वैश्य का। सारांश यह कि उक्त तीनों वर्णों के लिए संरक्षित शक्ति (Reserve Force) का काम दे। इसीलिए चौथा वर्ण बना जिसे शूद्र कहते हैं और उसमें भी लुहार, बढ़ई आदि सैकड़ों छोटे-छोटे विभाग हो गए। हमने सभी पुरानी पोथियों को देखा है। उनमें सभी तरह के दस्तकारों और कारीगरों को शूद्र ही कहा है।
शूद्र सभी वर्णों की कमी को भी पूरा (Supplement) करता था यह बात भी माननी ही होगी। इसीलिए तो ऐसे अनेक आख्यान पुराने ग्रंथों में मिलते हैं जिनसे पता चलता है कि ब्राह्मण और क्षत्रिय को भी कभी-कभी शूद्र कह देते थे। छांदोग्य-उपनिषद के चौथे अध्याय के पहले दो ब्राह्मणों में जानश्रुति राजा और रैक्व ऋषि का आख्यान आया है और चौथे में सत्यकाम जाबाल ऋषि का। रैक्व ने जानश्रुति को दो बार शूद्र कहा है - 'तमुह पर: प्रत्युवाचाह हारेत्वा शूद्र तवैव सहगोभिरस्तु' (4। 2। 3) तथा 'तस्याह मुखमुपोद्गृह्वन्नु वाचाजहारेमा: शूद्रानेनैव मुखेन्त लापयिष्यथा: (4। 2। 4)। रैक्व ने दोनों जगह जानश्रुति राजा को शूद्र कह के पुकारा है। सत्यकाम की बात ऐसी है कि जब अपनी माता जाबाला से आज्ञा लेने लगे कि मैं कहीं ब्रह्मचारी बन के पढूँगा-लिखूँगा तो उनने पूछा कि मेरा गोत्र तो बता दे, ताकि पूछने पर कह सकूँगा। इस पर माता ने कहा कि मैं भी नहीं जानती। मैं तो नौजवानी में इधर-उधर भटकती थी। उसी बीच तेरा जन्म हुआ और मेरा नाम जाबाला होने से तेरा नाम सत्यकाम जाबाल रखा गया। पीछे जब सत्यकाम हारिद्रुमत गौतम के पास गए और उनके पूछने पर अपने गोत्र के बारे में सारा हाल कह सुनाया तो गौतम ने कहा कि तुम जरूर ब्राह्मण हो। क्योंकि जो ब्राह्मण न हो वह ऐसी साफ बात बोल नहीं सकता - 'नैतद ब्राह्मणो विवक्तुमर्हति' (4। 4। 5)। जिसके बाप का ठिकाना हो उसे तो वर्णसंकर और ज्यादे से ज्यादा शूद्र ही कहते हैं। मगर उनने ब्राह्मण मान लिया। और कारण भी कितना सुंदर है कि उसने अपना कच्चा चिट्ठा जो कह दिया! ऐसा तो शूद्र या दूसरे वर्णवाले भी कर सकते हैं। करते हैं! इसी से मानना पड़ता है कि शूद्र सभी वर्णों का रिजर्व भी माना जाता था।
इस प्रकार समाज के कार्य-संचालन के लिए और उसकी पूर्ण प्रगति के खयाल से भी समाज को चार दलों में बाँटा गया। ऐसा करने में, जैसा कि गीता ने कहा है (4। 13, 18-41-44), आदमियों की स्वाभाविक प्रवृत्तियों और सत्त्वादि गुणों का भी शुरू-शुरू में खयाल किया गया। नहीं तो यों ही कैसे किसी को ब्राह्मण बना देते तो किसी को शूद्र? यही काम करने में उनके शरीरों के रंग (वर्ण) से भी मदद ली गई। तीनों गुणों के रंगों की कल्पना तो उन लोगों ने की थी ही। इसीलिए आदमियों के शरीर के रंगों या वर्णों को देखने के बाद उनके गुणों और तदनुसार स्वभावों का निश्चय करके ही उन्हें काम बाँटे गए। फिर वे अलग-अलग कर दिए गए। यदि स्वभाव एवं रुचि के अनुसार काम न दिया जाता तो सब गुड़ गोबर जो हो जाता। कोई भी वर्ण अपना काम ठीक-ठीक पूरा न कर पाता। इसी वर्ण या रंग का खयाल करके ही चारों को वर्ण कहा। वर्ण विभाग शब्द का भी यही मतलब है। इसीलिए महाभारत के शांतिपर्व के मोक्ष धर्म के 188वें अध्याय में भृगु का वचन इस प्रकार लिखा गया है, 'न विशेषोऽस्तिवर्णानां सर्वं ब्राह्ममिदं जगत। ब्रह्मणापूर्व सृष्टं हि कर्मभिर्वर्णतां गतम॥10॥ कामभोग प्रियास्तीक्ष्णा: क्रोधना: प्रियसाहसा:। त्यक्तस्वधर्मा रक्तांगास्ते द्विजा: क्षत्रतां गता:॥11॥ गोभ्यो वृत्तिं समास्थाय पीता: कृष्युपजीविन:। स्वधर्मान्नानुतिष्ठन्तितेद्विजावैश्यतां गता:॥12॥ हिंसानृतप्रिया लुब्धा: सर्वकर्मोपजीविन:। कृष्णा: शौचपरिभ्रष्टा स्तेद्विजा शूद्रतां गता:॥13॥ इत्येनै: कर्मभिर्व्यस्ता द्विजावर्णान्तरं गता:। धर्मो यज्ञक्रियातेषां नित्यं न प्रतिषिध्यते'॥14॥ इन श्लोकों का आशय यह है - 'शुरू शुरू में तो वर्णों का विभेद था ही नहीं, संसार में सभी ब्राह्मण ही थे। क्योंकि ब्रह्मा ने ही तो सबको पैदा किया था। मगर पीछे विभिन्न कामों के करते अनेक वर्ण हो गए। जिन ब्राह्मणों (ब्रह्मा के पुत्रों) को पदार्थों के भोग में ज्यादा प्रेम था, जो रूखे स्वभाव के और क्रोधी थे और जो बहादुरी की ओर बहुत ज्यादा झुकते थे ऐसे रक्त वर्णवाले ब्राह्मण ही जो अपना कर्तव्य छोड़ देने के कारण क्षत्रिय हो गए। जो पोले शरीरवाले गौ आदि पशुओं को पालते और खेती से जीविका करने लगे थे, साथ ही जो अपना (ब्राह्मण का) धर्म करते न थे वही वैश्य हुए। जो हिंसा और असत्य की ओर अधिक झुकते थे, लोभी थे, काले वर्ण के थे, सफाई से नहीं रहते थे और सभी काम करते थे वही ब्राह्मण शूद्र हो गए। इस प्रकार अलग-अलग कर्मों के चलते एक ब्राह्मण समाज ही अनेक वर्णों में बँट गया। इसीलिए तो सभी के पहचान स्वरूप यज्ञ की क्रिया सभी के लिए जरूरी बताई गई है। किसी के लिए उस यज्ञ की मनाही नहीं है।'
इन श्लोकों से कई बातें साफ होती हैं। एक तो यह कि एक समय ऐसा भी था जब वर्ण विभाग बिलकुल था ही नहीं। सभी एक ही थे। पीछे वर्णों का विभाग बना। दूसरी चीज यह कि पहले सभी ब्राह्मण ही थे। क्योंकि सभी ब्रह्मा के पुत्र थे। ब्रह्मन शब्द से ब्रह्मा बनता है और ब्राह्मण भी। ब्राह्मण का अर्थ ही ब्रह्मा का पुत्र। द्विज तो उन्हें इसीलिए कहते हैं कि उनके दो जन्म (द्वि+ज) होते हैं। एक माता-पिता वाला और दूसरा गायत्री संस्कारवाला। तीसरी बात यह कि ये जो वर्ण-भेद हुए वह स्वभाव तथा क्रिया (काम) की विभिन्नता एवं शरीर के रंग (वर्ण) की विभिन्नता से ही। इस तरह जो अनेक वर्ण बने उन्हें अपनी असली हालत (ब्राह्मणता) से पतन माना गया यह चौथी बात है। इससे पता लगता है कि एक समय ऐसा जरूर था जब किसी भी प्रकार के विभाग की जरूरत न थी इसे ही प्रारंभिक साम्यवादी अवस्था (Primitive communism) कहते हैं। पाँचवीं बात यह है कि शूद्रों के बारे में लिखा है कि वे सभी काम करने लगे 'सर्वकर्मोपजीविन:'। इससे दो बातें सिद्ध हो जाती हैं, एक तो यह कि शूद्र सभी वर्णों के रिजर्व का काम करते थे। दूसरी यह कि उन्हें कला-कौशल और दस्तकारी वगैरह के हजारों काम करने पड़ते थे। छठी बात यह कि सभी को जो यज्ञ करने की छुट्टी है और इसकी रोक न हो के करने पर ही जोर दिया गया है उससे पता लगता है कि फिर उसी ओर इन्हें जाना है जहाँ से आए थे। इन्हें यह यज्ञ याद दिलाता है कि पुनरपि उसी साम्यवादी अवस्था को प्राप्त करना है। यज्ञ का अर्थ है भी बहुत व्यापक, जैसा कि पहले ही भाग में लिखा जा चुका है। इन श्लोकों ने सभी वर्णों के स्वभावों का अच्छा चित्र खींचा है।
यहीं पर एक बात और जानने की है जिसका ताल्लुक वर्णसंकर से है। जब एक बार वर्णों का विभाग हो गया तो इस बात की पूरी व्यवस्था कर दी गई कि फिर खिचड़ी होने न पाए - फिर ऐसा न हो कि वर्णों की खिल्लत-मिल्लत हो जाए। चाहे इस बात पर कितने ही आक्षेप किए जाए - और दुनिया में निर्दोष तो कुछ भी नहीं है - लेकिन ऐसा करने में उनका एक खास मतलब था। वे यह मानते थे और आज के अंवेषण तथा विज्ञान से भी यह बात सिद्ध हो चुकी है कि जो काम पुश्त दर पुश्त से होता रह जाए वह एक प्रकार का स्वभाव बन जाता है। फलत: पीछे चल के जो लोग उस वंश में पैदा होते हैं वह उस काम में क्रमश: ज्यादे से ज्यादा विशेषज्ञ होते जाते हैं। बढ़ई का पेशा जिन वंशों में होता हो उनके बच्चे स्वभावत: उस कार्य में कुशल होते हैं। वे उसके संबंध में नए-नए आविष्कार आसानी से कर लेते हैं। कर सकते हैं। यही बात दूसरे पेशों, दूसरे कामों की भी है।
यही कारण है कि वर्णों के लिए जो व्यवस्था बनी उसमें विवाह-शादी और खान-पान की बड़ी सख्ती रखी गई। असल चीज है रक्त की शुद्धि जिसका मतलब यही है कि यदि उसी पेशे या काम के माँ-बाप होंगे और उनमें जरा भी गड़बड़ी न होगी, जैसी कि पशु-पक्षियों में पाई जाती है कि एक ही ढंग के पशु-पक्षियों के जोड़े लगते हैं, तो उनसे जो बच्चा होगा उसका संस्कार उस पेशे के बारे में और भी तेज होगा। वह उस काम में साधारणत: और भी कुशल होगा - कम से कम उसकी कुशलता का सामान तैयार तो होगा ही। विभिन्न वर्णों की परस्पर विवाह-शादी को सख्ती से रोकने का यही अभिप्राय था। जब कहीं उस रोक में कुछ ढिलाई भी की तो उसे ठीक न कह के वासनायुक्त शादी - कामतस्तु प्रवृत्तानां - कह दी। आखिर ब्राह्मण पिता और क्षत्रिय माता या विपरीत माता-पिता से जो संतान होगी वह किसका संस्कार रखेगी? दोनों के तो संस्कार दो ढंग के ठहरे जो मेल खाते नहीं। अब अगर परस्पर विरोध हो गया तो दोनों ही एक दूसरे को खत्म ही कर देंगे। खान-पान वगैरह की सख्ती भी इसी संस्कार की ही मजबूती और रक्षा से ताल्लुक रखती है और स्वास्थ्य से भी। उस स्वास्थ्य का आखिरी असर भी संस्कारों की ही मजबूती पर पड़ता है।
जिस प्रकार चित्र में तीन चीजें होती हैं। एक तो आधारभूत कागज, दीवार या कपड़ा वगैरह। दूसरा उसी पर रंग भरना। तीसरा किसी ढाँचे (Frame) के भीतर लगा के रखना। इनमें फ्रेम या ढाँचे तो सिर्फ रक्षार्थ है। ताकि बाहरी हवा-पानी से रंग फीका न पड़े या घिस न जाए। आधारवाले कागज वगैरह भी जरूरी हैं। अगर वे ठीक न हों तो न रंग ठीक भरेगा और न चित्र ठीक उतरेगा। मगर रंग भरना यही असली चित्रकारी है, चित्र है। फिर भी आधार भी जरूरी है और किसी हद तक बाहरी शीशे आदि का ढाँचा या फ्रेम भी।
यही बात वर्णों की भी समझिए। एक ही काम या पेशेवाले माँ-बाप का होना आधार स्वरूप कागज या दीवार की तरह है। आखिर छायाचित्र या फोटो सभी शीशों पर नहीं उतरता। उसके लिए खास ढंग की शीशे वाली पटरी (Plate) चाहिए। संस्कार की बात भी कुछ उसी से मिलती-जुलती है। उसके बाद जो संतान हो उसे उचित शिक्षा आदि देना यही रंग भरना है और यही असल चीज है, असल चित्र है। खान-पान आदि का संयम और विवाह-शादी की सख्ती तीसरी चीज है जो ढाँचे या फ्रेम का काम देती है। इसीलिए प्राचीन स्मृतिकारों ने लिखा है कि 'तप: श्रुतं च योनिश्च एतद् ब्राह्मण कारणम्। तप: श्रुताभ्यां मोहीनो जाति ब्राह्मण एव स:' (पातंजल महाभाष्य: 5। 1। 115) 'संयम, सदाचार आदि तप, विद्या और ब्राह्मणी ब्राह्मण से जन्म ये तीनों मिलके ब्राह्मण बनाते या पक्की ब्राह्मणता लाते हैं। इसीलिए जिनमें तप और विद्या न हो वह नाममात्र के - कहने के ही लिए - ब्राह्मण हैं।' यही बात क्षत्रियादि के संबंध में भी है। महाभाष्य के शुरू में ही पतंजलि ने जो कहा है कि ब्राह्मण का तो बिना किसी कारण या प्रयोजन के ही वेद-वेदांग को पढ़ना और जानना कर्तव्य है - 'ब्राह्मणेन हि अकारणो धर्म: षडगोवेदोऽध्येयो ज्ञेयश्च' उसका भी यही मतलब है। बिना ऐसा किए वह ब्राह्मण हो ही नहीं सकता।
इससे वर्णों के निर्माण की बुनियादी बात का पता चल गया और मालूम हो गया कि उनकी क्या जरूरत थी। आज तो ऐसा पतन हो गया है कि सारी चीजें धोखे की टट्टी और मौरूसी बन गई हैं। ब्राह्मणादि बनने का दावा तो अंध परंपरा की चीज हो गई है। वर्णों में छोटे-बड़ेपन का भूत ऐसा घुस गया है और नीच-ऊँच की बात हमारे दिमाग में इस कदर घर कर गई है कि कुछ कहा नहीं जाता। ये निराधार बातें कहाँ से कैसे घुस गईं यह कहना मुश्किल है। मगर पतन के साथ ऐसा होता ही है यह निर्विवाद है। पहले तो विश्वामित्रादि के संबंध में इस नियम का अपवाद भी होता था। मगर अब तो नियम का मूल मिट्टी में मिलाकर जब सारी बातें अंध परंपरा एवं मूर्खता के ही आधार पर बनी हैं तो वह अपवाद भी जाता रहा! जैसा कि पहले कहा जा चुका है और अभी-अभी कहा है, वर्ण विभाग के भीतर नीच-ऊँच या छोटे-बड़े की तो बात कभी आई ही नहीं। यह तो दिल-दिमाग की बनावट के अनुसार स्वाभाविक प्रवृत्ति देख के ही सामाजिक कामों का बँटवारा मात्र था, जिसने समाज की रक्षा और प्रगति निराबाध रूप से उस जमाने में हो सके जब आज जैसी परिस्थिति न थी।
यही कारण है कि वर्णसंकर को उस समय बहुत बुरा मानते थे। क्योंकि किसी पेशे या वर्ण की माँ और किसी के बाप के संयोग से जो संतान होगी वह साधारणत: समाज की प्रगति में सहायक हो सकती नहीं। अपवाद स्वरूप कुछ लोगों में भले ही कुछ खास बातें हो जाए। मगर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि यह व्यवस्था लक्ष-लक्ष लोगों के लिए आम तौर से थी और यह बात दूसरे ढंग से हो सकती न थी। सभी लोगों के लिए खास ढंग की व्यवस्था का प्रबंध होना असंभव था। क्योंकि विभिन्न वर्गों की जोड़ी (Cross breeding) बड़ी ही कठिन चीज है यदि सफलता लानी हो। इसीलिए आम तौर से उसे चला नहीं सकते। मगर जब सभी क्षत्रिय मर्द मर जाएँ तो आखिर होगा क्या? वर्णसंकर तो होगा ही या ज्यादे से ज्यादा गए गुजरों से संतानें होंगी जो वर्णसंकर से भी बुरी चीज होगी। यही कारण है कि अगले श्लोक में इस वर्णसंकर का नतीजा बताया है कि कुल के नाशक और समस्त कुल - दोनों ही - नरक में जाते हैं। इसका सीधा मतलब यही है कि सभी का पतन हो जाता है। नरक तो पतन, नीचे गिरने अवनति या फजीती और कष्ट की दशा को ही कहते हैं और यही बात वर्णसंकर के करने से होती है। जब सारा समाज ही पतित हो जाएगा, नीचे जा गिरेगा तो अकेला आदमी, जिसने कुल क्षय के द्वारा यह दशा ला दी, कहाँ जाएगा, कैसे रहेगा? उसे भी तो आखिर पतितों एवं गिरे हुओं के साथ ही रहना और व्यवहार करना होगा। समाज में अकेला तो कोई कुछ कर नहीं सकता। यह तो लंबी शृंखला है जिसकी एक-एक लड़ी हरेक व्यक्ति है। नतीजा यह होगा कि उन्नति के सभी मार्गों के अवरुद्ध होने से वह भी नीचे जा गिरेगा। पुरानी कहानी है कि किसी राजा का बच्चा दिन-रात किरातों में रहने से पूरा किरात ही बन गया था।
यही वजह है कि आगे जातिधर्म और कुलधर्मों का नाश लिखा है। वह रहने कैसे पाएँगे। उनकी तो बुनियाद ही जाती रही। एक तो उनके जाननेवाले ही नहीं रहे। और अगर कोई किसी प्रकार बचे भी तो जब समाज का समाज पथभ्रष्ट हो गया, तो वह भी उसी गढ़े में लाचार गिरेंगे ही। ऐसी हालत में कला, कौशल, कारीगरी, हुनर, हिकमत का पता कहाँ होगा? इन चीजों की विशेषज्ञता कैसे रह सकेगी और कहाँ?
जो पुरानी पोथियों में पिंडदान और तर्पण की बात कही गई है और जिसका उल्लेख आगे गीता में भी इसी सिलसिले में आया है कि वह भी चीज़ें चौपट हो जाएँगी। वह भी ठीक ही है। ये चीजें तो व्यष्टि का समष्टि के साथ - व्यक्ति का समाज के साथ - होने वाली एकता की सूचक हैं। इसीलिए साँप, बिच्छू, अनाथ, अनजान में मरे आदि का भी तर्पण-श्राद्ध करते हैं। मंत्रों में ऐसा ही लिखा है। इस तरह भूत, भविष्य, वर्तमान सभी के साथ हम अपनी तन्मयता और एकता का अनुभव करते हैं, अभ्यास करते हैं। यही है गीताधर्म जैसा कि कह चुके हैं। मगर जब अवनति के गर्त्त में जा गिरेंगे तो यह बात कैसे होगी। फलत: समाज विशृंखलित हो के नीचे गिरेगा। फिर तो ऊपर वाले लोग या पितर भी गिरेंगे ही। वे अलग कैसे रहेंगे? देव-पितर हमसे जुदा तो हैं नहीं।
8. ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव
गीता के 'ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव' (13। 4) में बहुत से लोग ब्रह्मसूत्र का शारीरक सूत्र या वेदांतदर्शन के सूत्र यही अर्थ करते हैं। क्योंकि ब्रह्मसूत्र शब्द एक प्रकार से वेदांतसूत्रों का नाम ही है। मगर शंकर ने अपने भाष्य में ऐसा न करके ब्रह्म के प्रतिपादक वचन का ही अर्थ किया है। क्योंकि वेदांतसूत्र के अर्थ करने में एक भारी दिक्कत है। ऐसा अर्थ करने पर गीता से पहले ही वेदांतसूत्रों का अस्तित्व उपनिषदों और वेदों की ही तरह मानना पड़ जाएगा। तभी तो इन सभी का उल्लेख गीता में संभव है। किंतु ऐसा मानने में अड़चन यह है कि ब्रह्मसूत्रों में ही कई जगह स्मृति शब्द से साफ ही गीता का उल्लेख आया है। खासकर 'अंशोनानाव्य-पदेशात्' (वेदां. 2। 3। 43) में जीव को परमात्मा का अंश लिख के उसमें प्रमाणस्वरूप गीता के 'ममैवांशो जीवलोके' (15। 7) का उल्लेख 'अपि च स्मर्यते' (2। 3। 45) सूत्र में स्मृति शब्द से किया है। यहाँ दूसरी स्मृति की संभावना हई नहीं, यह सभी मानते हैं। इसी प्रकार गीता में 'यत्र काले त्वनावृत्तिम' (8। 23-27) में जो उत्तरायण-दक्षिणायन का वर्णन है उसी का उल्लेख 'योगिन: प्रति च स्मर्यते' (4। 2। 21) में आया है। क्योंकि गीता में भी 'आवृत्तिं चैव योगिन:' (8। 23) में यही 'योगिन:' शब्द आया है। इस प्रकार जब गीता का स्पष्ट और असंदिग्ध उल्लेख ब्रह्म-सूत्रों में है; तो मानना पड़ेगा कि ब्रह्म-सूत्रों से पहले ही गीता थी। फिर गीता में ब्रह्म-सूत्रों का उल्लेख कैसे संभव एवं युक्तियुक्त हो सकता है? इसीलिए हमें ब्रह्म-सूत्र का वैसा अर्थ करना पड़ा है।
लेकिन कुछ लोग फिर भी इसे न मान के वेदांत सूत्र ही अर्थ कर डालते हैं। वे इस दिक्कत का सामना करने के लिए दो महाभारत और इसीलिए दो गीताएँ मानते हैं। उनके मत से पहले महाभारत न लिखा जा के भारत ही लिखा गया था। उसी में गीता भी थी। उसी के बाद वेदांत सूत्र बने और उनमें गीता को प्रमाण के रूप में उद्धृत किया गया। इसके बाद समय पाके भारत तखड़-पखड़ और छिन्न-भिन्न हो गया। इसीलिए व्यास ने उसे फिर से एकत्र किया और कुछ इधर-उधर से उसमें जोड़ा-जाड़ा भी। इसी से भारत का अब महाभारत हो गया। आखिर बड़ा होने का कोई कारण भी तो चाहिए और जब तक उसमें कुछ और न जुटता तब तक वह भारत ही न कहा जा के महाभारत क्यों कहा जाता? इस प्रकार तर्क-युक्ति के साथ वे महाभारत का पुनर्निर्माण मानते हैं। या यों कहिए कि भारत में ही संशोधन और संवर्धन करके उसे महाभारत बनाते हैं। गीता भी उसी में थी। इसलिए स्वभावत: उसमें भी जरामरा संशोधन हुआ और यह 'ऋषिभिर्बहुधा' श्लोक उसी संशोधन के फलस्वरूप पीछे से उसमें जुट गया। इस प्रकार यह महाभारत वेदांत-सूत्रों के बाद ही तैयार होने के कारण गीता में वेदांतसूत्रों का उल्लेख 'ब्रह्मसूत्र' शब्द से होने में कोई आपत्ति नहीं हो सकती है। यही है संक्षेप में उनके तर्कों और युक्तियों का निचोड़।
अब प्रश्न यह होता है कि यदि महाभारत को भारत का संशोधित एवं परिवर्द्धित रूप ही मानें और बड़ा होने से ही उसका नाम भी युक्ति-युक्त मानें, तो सामवेद के तांडय महाब्राह्म और पाणिनीय सूत्रों के पातंजल महाभाष्य के बारे में क्या कहा जाएगा? यह तो सभी संस्कृतज्ञ जानते हैं कि सामवेद के ब्राह्मण भाग को अन्य वेदों के ब्राह्मण भागों की तरह केवल तैत्तिरीय ब्राह्मण, वाजसनेय ब्राह्मण आदि जैसा न कह के तांडय महाब्राह्मण कहते हैं। इसी तरह व्याकरण के भाष्य को महाभाष्य ही कहते हैं। इतना बोलने से ही और भाष्यों को न समझ केवल पातंजल भाष्य ही समझा जाता है। तो क्या इसी दलील से यह भी माना जाए कि पहले छोटा-सा तांडय ब्राह्मण और छोटा पातंजल भाष्य बना था, पीछे उन्हीं दोनों का आकार बढ़ाया गया? लेकिन यह तो कोरी कल्पना ही होगी न? कहा जाता है कि आश्वलायन गृह्यसूत्र (3। 4। 4) में भारत और महाभारत दोनों ही का उल्लेख है। इसीलिए इन दो की कल्पना की गई है। मगर तांडय या पातंजल भाष्य के बारे में तो ऐसा कोई आधार नहीं है। यह भी बात है कि भारत एवं महाभारत दो तो मिलते नहीं। महाभारत ही तो मिलता है। और जब उसी में कुछ और जोड़ा गया है तो दो लिखने या कहने के मानी क्या? जब तक जुदे-जुदे पाए न जाएँ, दो कैसे कहे जा सकते हैं? आखिर गृह्यसूत्रों का समय उपनिषदों, ब्राह्मणों या वेदों से पुराना तो है नहीं। फलत: यदि उस समय भारत और महाभारत दोनों थे तो और ग्रंथों की तरह दोनों का पता तो चाहिए आज भी। नहीं तो गीता भी दो क्यों न मानी और लिखी जाए, लिखी जाती? सिर्फ एक सूत्र ग्रंथ में एक शब्द को लिखा या छपा देख के इतनी लंबी उड़ान उचित नहीं। लिखने और छपने में भूल से एक ही नाम, एक ही शब्द दो बार लिख या छप जाते हैं। ऐसा प्राय: देखा जाता है। हाँ, यदि विभिन्न समयों के लिखे और छपे दो-चार सूत्रग्रंथों में ऐसी चीज मिलती, तो शायद कुछ कहा जा सकता था।
यह भी तो जरा सोचें कि महात्मा और महेश्वर शब्द पहुँचे हुए बड़े लोगों या भगवान के लिए प्रयुक्त होते हैं। मगर इसका यह आशय नहीं होता कि खामख्वाह महात्माओं के पहले आत्मा शब्द से भी किसी को कहा जाता था, या भगवान को महेश्वर कहने के पहले जरूर ही औरों को ईश्वर कहते थे। भगवान की सत्ता तो सबसे पहले मानी जाती है। फिर उससे पहले कैसे कोई हुआ? 'मायिनं तु महेश्वरम्' (4। 10) में श्वेताश्वतर उपनिषद ने ब्रह्म को ही महेश्वर कहा है। मगर वहाँ ईश्वर का कोई मुकाबला है नहीं। क्योंकि उसी उपनिषद में और वेदों में भी महेश्वर को ही ईश्वर भी कहा है। आत्मा नाम से न तो किसी को कभी बोलते ही और न यह विशेषण ही किसी में लगाते हैं। स्वभावत: ही महान होने से ही महात्मा या महेश्वर कहने की परिपाटी पड़ गई है। इसी प्रकार तांडय, पातंजल भाष्य और महाभारत को भी स्वभावत: बहुत बड़े होने के कारण ही महाब्राह्मण, महाभाष्य और महाभारत कहने लग गए। यहाँ बाल की खाल खींचने की जरूरत हई नहीं। उसी में उसे कहीं भारत और कहीं महाभारत लिखा है।
जरा यह भी तो सोचें कि भारत में महज थोड़ा-बहुत जोड़ने से ही तो महाभारत होता नहीं। इसके लिए तो जरूर ही बहुत ज्यादा जोड़-जाड़ करना होगा। जहाँ अपेक्षाकृत महत्त्व दिखानी होती है तहाँ पहले से दूसरे में बहुत ज्यादा अंतर का होना अनिवार्य है। जाल और महाजाल इस बात के मोटे दृष्टांत हैं, समुद्र में डाले जाने वाले महाजाल के भीतर जाने कितने ही जाल आसानी से समा सकते हैं, आ सकते हैं। अन्य मारक-बीमारियों की अपेक्षा हैजा या प्लेग को हजार गुना मारक और खतरनाक समझ के ही इन्हें महामारी कहते हैं। ऐसी दशा में भारत की अपेक्षा महाभारत में बहुत ज्यादा - कई गुना - पदार्थ घुसने से ही उसे महाभारत कह सकते थे। फिर तो दोनों की पृथक सत्ता अनिवार्य है। यह असंभव है कि महाभारत के रहते भारत सर्वथा लुप्त हो जाए। वराहमिहिर के वृहज्जातक के रहते लघुजातक कहीं गायब नहीं हो गया। और न मंजूषा के रहते व्याकरण की लघुमंजूषा कहीं चली गई। वराहमिहिर की बृहत्संहिता के मुकाबिले में उनकी कोई लघुसंहिता या केवल संहिता नहीं मानी जाती। महान तथा बृहत का एक ही अर्थ है भी। सबसे बड़ी बात यह हो जाएगी कि गीता में भी तब बहुत ज्यादा परिवर्तन मानना होगा। यह नहीं हो सकता कि जो गीता भारत में थी वही जरा-मरा परिवर्तन के साथ महाभारत में आ गई!
परंतु गीता के बारे में ऐसा कह सकते नहीं। यह इतनी लोकप्रिय रही है कि इसमें एक शब्द का प्रक्षेप होना या मिलाना असंभव हो गया है। तेरहवें अध्याय में एक श्लोक घुसेड़ने की कोशिश कभी किसी ने की जरूर। लेकिन वह सफल न हो सका। वैदिक मंत्रों, ब्राह्मणों या प्रधान उपनिषदों में जैसे कोई प्रक्षेप होना संभव न हुआ, वही हालत गीता की भी रही है। मालूम होता है, उन्हीं की तरह इसे भी लोग जबान पर ही रखते थे। इसकी भी 'श्रुति' जैसी ही दशा रही है। प्रत्युत इसमें तो और भी विशेषता है कि वेदों और उपनिषदों को प्राय: भूल जाने पर भी इसे लोग भूल न सके। आज भी वैसा ही मानते हैं, पढ़ते-लिखते हैं, कदर करते हैं। जैसा कि पहले करते थे। इसलिए यदि कभी किसी भी हालत में इसमें एक भी शब्द या श्लोक जोड़ा जाता तो खामख्वाह पकड़ा जाता, यह पक्की बात है। किंतु 'ऋषिभिर्बहुधा' श्लोक के बारे में ऐसी धारणा किसी की भी पाई नहीं जाती। यही कारण है कि सात या ज्यादा श्लोकों की छोटी-छोटी गीताओं के थोड़ा-बहुत प्रचार होने पर भी, ऐसी गीता नहीं पाई जाती जिसमें यह 'ऋषिभिर्बहुधा' या ऐसे ही कुछ श्लोक न हों। भारत को ही महाभारत माननेवाले भी तो नहीं बताते कि कितने श्लोक इसमें पीछे जुटे थे। इसलिए यह सिद्धांत मान्य नहीं हो सकता।
एक बात और। छांदोग्य के सातवें अध्याय में कई बार इतिहास, पुराण आदि का उल्लेख है। इसी प्रकार बृहदारण्यक के दूसरे अध्याय में भी इतिहास, पुराण, सूत्र, व्याख्यान आदि का उल्लेख चौथे ब्राह्मण में आया है। तो क्या इससे यह समझें कि सचमुच वेदांतसूत्रों की तरह इनसे पहले भी सूत्रग्रंथ और आज के इतिहासों और पुराणों की ही तरह पहले भी इतिहास पुराण थे? क्या पहले भाष्य और व्याख्यान भी ऐसे ही थे यह माना जाए? यह तो सभी मानते हैं कि पुराणों का समय बहुत इधर का है। सूत्रों का समय भी ब्राह्मण ग्रंथों के बाद का ही है। फिर यह कैसे माना जाए कि इस प्रकार आमतौर से सूत्रों और उनके व्याख्यानों का उल्लेख करने मात्र से वे भी ब्राह्मण ग्रंथों से पहले थे? खूबी तो यह है कि जब एक ही तरह का उल्लेख कई उपनिषदों में मिलता है तो मानना ही होगा कि वे सूत्र और व्याख्यान प्रसिद्ध होंगे और ज्यादा संख्या में होंगे। इतिहास-पुराण भी काफी होंगे। ऐसी दशा में इन शब्दों का रूढ़ अर्थ न मान के यौगिक ही मानने में गुजर है। जैसा कि इस श्लोक में हमने ब्रह्मसूत्र शब्द का अर्थ रूढ़ न करके यौगिक ही किया है। दूसरा उपाय हई नहीं। इसलिए हमने जो अर्थ इस श्लोक का लिखा है वह कोई एकाएक नई कल्पना नहीं है। किंतु ऐसी कल्पना पहले भी होती आई है। शंकर ने उसी का अनुसरण किया है। बेशक, यह विषय और भी अधिक विवेचन चाहता है। मगर वह यहाँ के लिए नहीं है। किंतु आगे होगा।
लेकिन दो एक ऐसी बातें और भी यहीं कह देना जरूरी है जिनके बारे में विशेष अंवेषण एवं जाँच-पड़ताल की जरूरत नहीं है। सबसे पहली बात यह है यह जानते हुए भी कि ब्रह्मसूत्रों ने गीता को ही प्रमाण-स्वरूप उद्धृत किया है, गीताकार के लिए यह कब संभव था कि उन्हीं ब्रह्म-सूत्रों को प्रमाण के रूप में स्वयं उद्धृत करते? यह तो बिलकुल ही अनहोनी बात है। व्यवहार में तो यह बात कभी देखने में आती नहीं। चाहे कितनी ही महत्त्वपूर्ण और बड़ी पोथी क्यों न हो। मगर ज्यों ही एक बार उसने किसी दूसरी को अपनी बातों के समर्थन में उद्धृत किया कि उसके सामने उसकी अपनी महत्त्व वैसी नहीं रह जाती। फलत: कोई भी समझदार आदमी इस दूसरी के समर्थन में पहली की किसी बात को प्रमाण-स्वरूप पेश नहीं करता, पेश करने की हिम्मत नहीं करता। फिर गीता जैसे महान ग्रंथ में ऐसी बात का होना कथमपि संभव होगा यह कौन माने?
दूसरी बात भी इसी से मिलती-जुलती ही है। जो लोग यह मानते हैं कि ज्ञानोत्तर कर्म करना गीता के मत से अनिवार्य है, जिनके मत से गीता की आवश्यकता ही इसीलिए हुई थी, वही यह भी मानते हैं कि उस समय 'ज्ञानोत्तर कर्म करना अथवा न करना, हर एक की इच्छा पर अवलंबित था, अर्थात वैकल्पिक समझा जाता था' (गीतारह. पृ. 554)। वे इसके संबंध में उन्हीं वेदांतसूत्रों या ब्रह्म-सूत्र (3। 4। 15) को प्रमाण के लिए उद्धृत भी करते हैं। ऐसी दशा में यह बात तो समझ में आ जाती है कि ब्रह्म-सूत्र गीता को अपने समर्थन में उद्धृत कर लें। लेकिन गीता में उन्हीं ब्रह्म-सूत्रों का हवाला कैसे दिया जा सकता है? क्योंकि ज्यों ही यह बात हुई कि गीता पढ़नेवालों की नजर में उन सूत्रों की महत्त्व आ जाएगी। फलत: ऐसे लोग वेदांतसूत्रों की उन बातों पर भी स्वभावत: आकृष्ट होंगे ही जिनमें ज्ञानोत्तर कर्म करना जरूरी नहीं माना गया है। परिणाम क्या होगा? यही न, कि गीता में भी वही चीज मानने की ओर उनकी प्रवृत्ति हो जाएगी? अतएव बड़ी मुसीबत और कठिनाई के बाद गीतारहस्य में जो यह सिद्ध करने की कोशिश की गई है कि ज्ञानोत्तर कर्म करते-करते ही मरना गीताधर्म और गीतोपदेश है, उसकी जड़ में ही इस प्रकार कुठाराघात हो जाएगा। जिस बात की पुष्टि के लिए यह चीज पेश की गई उसी को कमजोर करने लगेगी! और खुद गीता अपने ही सिद्धांत को दुर्बल करने का रास्ता इस तरह ब्रह्मसूत्र का नाम लेकर साफ कर दे, यह असंभव है।
एक तरफ तो यह कहा जाता है कि महाभारत का तथा उसी के भीतर आ जाने वाली गीता का भी निर्माण 'बुद्ध के जन्म के बाद - परंतु अवतारों में उनकी गणना होने के पहले ही' हुआ होगा। इसीलिए विष्णु के अवतारों में बुद्ध की गणना महाभारत में कहीं पाई नहीं जाती। गीतारहस्य में यह भी माना गया है कि यद्यपि महाभारत के युद्ध के समय भागवत धर्म का उदय हो गया था। तथापि उसकी प्रधान पोथी के रूप में इस गीता की रचना तत्काल न हो के प्राय: पाँच सौ वर्ष बाद हुई होगी। क्योंकि किसी भी सिद्धांत या धर्म के प्रतिपादक ग्रंथ फौरन न बन के पीछे बनते हैं। इसी से पाँच सौ साल इसके लिए मान लिया है। मगर ब्रह्मसूत्रों (2। 2। 18-26) का हवाला दे के उनने यह भी लिखा है कि 'आत्मा या ब्रह्म में से कोई भी नित्य वस्तु जगत के मूल में नहीं है। जो कुछ देख पड़ता है वह क्षणिक या शून्य है,' अथवा 'जो कुछ देख पड़ता है वह ज्ञान है, ज्ञान के अतिरिक्त जगत में कुछ भी नहीं है, इस निरीश्वर तथा अनात्मवादी बौद्ध मत को ही क्षणिकवाद, शून्यवाद और विज्ञानवाद कहते हैं' (गीता र. 580)। भला ये दोनों बातें कैसे संभव होंगी यदि ब्रह्मसूत्रों को गीता के पहले मान लें? क्योंकि बुद्धधर्म के भीतर इन अनेक मतों और पंथों के खड़े होने और उनके ग्रंथों के बनने में तो कई सौ साल लगे ही होंगे और बिना प्रामाणिक बात के केवल मौखिक बातों में तो खंडन ब्रह्मसूत्र जैसा ग्रंथ करता नहीं। इस तरह यदि बुद्ध के बाद पाँच सौ साल भी इन बातों के लिए मान लें तो ब्रह्मसूत्रों का समय सन् ईस्वी के आरंभ में ही माना जाएगा। फिर गीता ने उन्हें कैसे उद्धृत किया या हवाले में दिया?
एक ही बात और। 'सुमंतु जैमिनि वैशंपायन पैल सूत्र भाष्य भारत महाभारत धर्माचार्या:' (3। 4। 4) इसी आश्वलायन गृह्यसूत्र में भारत और महाभारत देख के कल्पना की गई है कि दोनों दो हैं। इस सूत्र में पहले जो सुमंतु आदि नाम आए हैं उन्हीं का संबंध भारत महाभारत से जोड़ते हुए उनने लिखा है कि 'इससे, अब यह भी मालूम हो जाता है, कि ऋषितर्पण में भारत महाभारत शब्दों के पहले सुमंतु आदि नाम क्यों रखे गए हैं' (गी. र. 524)। मगर हमें अफसोस है कि ऐसा लिखते समय यह बात उन्हें कैसे नहीं सूझी कि नाम तो चार ही ॠषियों के आए हैं, मगर ग्रंथ हो जाते हैं सूत्र, भाष्य, भारत, महाभारत और धर्म ये पाँच! हाँ, यदि यह मान लें कि भारत अलग न हो के भूल से महाभारत का ही 'भारत महाभारत' ऐसा लिखा गया है, तब ठीक हो सकता है। तभी चार ऋषियों के लिए क्रमश: चार ग्रंथ आ सकते हैं और उन्हीं के आचार्य उन्हें मान सकते हैं। यह तो गीतारहस्य के लेखक भी नहीं मानते कि सभी ने पाँचों ग्रंथ बनाए हैं। यह असंभव भी है। धर्म शब्द शेष ग्रंथों के साथ होने से ग्रंथ का ही वाचक माना जाना भी चाहिए।
इस प्रकार इस विस्तृत विवेचन ने गुणवाद और अद्वैतवाद के सभी पहलुओं पर संक्षेप में ही इतना प्रकाश डाल दिया है कि उनके संबंध की गीता की सभी बातों को समझने में आसानी हो जाएगी। इसके मुतल्लिक गीता की जो खास दृष्टि है - तत्त्वज्ञान एवं वास्तविक भक्ति में जो गीता की दृष्टि में कोई अंतर नहीं है, किंतु दोनों ही एक ही हैं - इस बात के निरूपण से इस चीज पर पूरा प्रकाश पड़ गया कि अद्वैतवाद और जगन्मिथ्यात्ववाद के विधानात्मक पहलू पर ही गीता का विशेष आग्रह क्यों है?
9. ' सर्व धर्मान्परित्यज्य '
अब हमें विशेष कुछ नहीं कहना है। फिर भी गीता के अठारहवें अध्याय के अंत में जो 'सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं ब्रज। अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच:' (66) श्लोक आया है उसके ही संबंध में कुछ लिखना हम जरूरी समझते हैं। इसका यह मतलब नहीं है कि अब तक के हमारे कथन ने उस पर प्रकाश नहीं डाला है। उसकी चर्चा तो बार-बार आई है। यह भी नहीं कि हम कोई नई बात खास तौर से यहाँ कहने जा रहे हैं। इस संबंध में इतना कहा जा चुका है कि नई बात मालूम पड़ती ही नहीं। यों तो गीता हीरा ठहरी। इसीलिए इसे जितना ही कसो, इस पर जितना ही विचार करो यह उतनी ही खरी निकलती है और इसकी चमक उतनी ही बढ़ती है। बात असल यह है कि एक तो अठारहवें अध्याय को ही गीता का उपसंहार-अध्याय माना जाता है। उसमें भी अंत में यह श्लोक आया है। इसलिए गीता के उपसंहार का भी उपसंहार इसे मान के लोगों ने अपने-अपने मत और संप्रदाय के अनुसार इसके अर्थ की काफी खींच-तान की है। यदि यह कहें कि यह श्लोक एक प्रकार से गीतार्थ का कुरुक्षेत्र बना दिया गया है तो कोई अत्युक्ति न होगी। इसलिए हम यहाँ यही दिखाना चाहते हैं कि सांप्रदायिकता के आग्रह में गीता को उसके अत्यंत महान एवं उच्च स्थान से बेदर्दी के साथ घसीट के गहरे गढ़े में गिराने की कोशिश बड़े से बड़े विद्वान भी किस प्रकार करते हैं। इसी बात का यह एक नमूना है। इसी से समूची गीता में की गई खींच-तान और जबर्दस्ती का पता लग जाएगा। हमारा काम यह नहीं रहा है कि इतने लंबे लेख में किसी का भी खासतौर से खंडन-मंडन करें। हम इसे अनुचित समझते हैं। इसके लिए तो स्वतंत्र रूप से लिखने का हमारा विचार है। मगर अंत में थोड़ा-सा नमूना पेश किए बिना शायद यह प्रयास अपूर्ण रह जाएगा। इसीलिए यह यत्न है।
इस श्लोक का अक्षरार्थ तो यही है कि 'सभी धर्मों को छोड़ के एक मेरी - भगवान की - ही शरण में जा। मैं तुझे सब पापों से मुक्त कर दूँगा। सोच मत कर।' गीता को तो उपनिषदों का ही रूप या निचोड़ मानते हैं और उपनिषदों में धर्म-अधर्म के संबंध में बहुत कुछ लिखा जा चुका है कि उन्हें कैसे, कब और क्यों छोड़ना चाहिए। 'त्यज धर्ममधम च' ये स्मृति वचन धर्म-अधर्म सभी के त्याग की बात कहते हैं। कठोपनिषद के भी 'अन्यत्र धर्मादन्यत्राधर्मात्' (2। 14) तथा 'नाविरतो दुश्चरितात्' (2। 23) में धर्म-अधर्म सभी के छोड़ने की बात मिलती है। बृहदारण्यक (4। 4। 22) से धर्मों का संन्यास आवश्यक सिद्ध होता है यह हमने पहले ही सिद्ध किया है। आत्मा और उसके ज्ञान को न सभी झमेलों से बहुत दूर की बात इन वचनों ने कही हैं। इसके सिवाय गीता में ही 'सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थित:' (6। 31), 'एकत्वेन पृथक्त्वेन' (9। 15) आदि वचनों के द्वारा यही कहा गया है कि असली भजन या भक्ति यही है कि हम अपने को परमात्मा के साथ एक समझें और जगत को भी अपना ही रूप मानें। यहाँ एक शब्द का अर्थ गीता ने स्पष्ट कर दिया है। यह भी बात है कि यद्यपि गीता का धर्म कर्म से जुदा नहीं है, बल्कि गीता ने दोनों को एक ही माना है; तथापि सभी कर्मों का त्याग तो असंभव है। गीता ने तो कही दिया है कि 'यदि सभी कर्म छोड़ दें तो शरीर का रहना भी असंभव हो जाए' - "शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्धयेदकर्मण:" (3। 8)। इसीलिए इस श्लोक में कर्म की जगह धर्म शब्द दिया गया है; हालाँकि इससे पहले के बीसियों श्लोकों में केवल कर्म शब्द ही पाया जाता है, धर्म-शब्द लापता है। इसीलिए परिस्थितिवश धर्म शब्द सामान्य कर्म के अर्थ में न बोला जाकर कुछ संकुचित अर्थ में ही यहाँ आया हुआ माना जाना उचित है। फलत: कुछ विस्तृत एवं व्यापक रूप में शास्त्रीय विधि-विधान के अनुसार ही यहाँ धर्म शब्द का अर्थ लिया जाना उचित प्रतीत होता है। दूसरे अध्याय के 'स्वधर्ममपि' (2। 31) में जिस अर्थ में यह प्रयुक्त हुआ है या खुद अर्जुन ने ही 'धर्मसंमूढ़चेता:' (2। 7), 'कुलधर्मा: सनातना:' (1। 40) आदि वचनों में जिस संकुचित अर्थ में इसे कहा है यहाँ भी वही अर्थ या उसी से मिलता-जुलता ही मान लेना ठीक है। छांदोग्योपनिषद में 'एकमेवाद्वितीयम्' (6। 2। 1) में ब्रह्म को एक कहा भी है।
इसीलिए शंकर ने अपने गीताभाष्य में धर्मशास्त्रीय बंधनों को छोड़ के और उनमें लिखे धर्मों-अधर्मों से पल्ला छुड़ा के 'अहं ब्रह्मास्मि' - "मैं खुद ब्रह्म ही हूँ" इसी अद्वैतज्ञाननिष्ठा के प्राप्त करने का प्रतिपादन इस श्लोक में माना है। हम तो पहले अच्छी तरह बता चुके हैं कि बिना शास्त्रीय धर्मों को छोड़े या उनका संन्यास किए ज्ञाननिष्ठा गैरमुमकिन है। उसी जगह इस श्लोक का भी उल्लेख हमने किया है। यह भी बताई चुके हैं कि अठारहवें अध्याय के शुरू में जिस संन्यास और त्याग की असलियत और हकीकत जानने के लिए अर्जुन ने सवाल किया है वह संन्यास इसी श्लोक में स्पष्ट रूप से बताया गया है। इससे पहले 49वें श्लोक में सिर्फ उसका उल्लेख आया है। उससे पहले तो त्याग की ही बात को ले के बहुत कुछ कहा गया है। इसी श्लोक में जो 'परित्यज्य' शब्द आया है और जिसका अर्थ है 'परित्याग करके या छोड़के,' उससे ही साफ हो जाता है कि अद्वितीय या जीव से अभिन्न ब्रह्म की शरण जाने और उसका ज्ञान प्राप्त करने के पहले धर्मों को कतई छोड़ देना पड़ेगा। क्योंकि 'समान कर्त्तृकयो: पूर्वकाले क्त्त्वा' (3। 4। 21) इस पाणिनीय सूत्र के अनुसार पहले किए गए के मानी में ही 'क्त्त्वा' और 'ल्यप्' प्रत्यय हुआ करते हैं। परित्याग में त्याग के अलावे जो 'परि' शब्द है वह यही बताने के लिए है कि धर्म-अधर्म के झमेले से अपना पिंड कतई छुड़ा लेना होगा। विपरीत इसके अगर धर्म का अर्थ धर्मों का फल लेते हैं तो उसका त्याग तो भगवान की शरण में जाने पर भी होता ही रहेगा। क्योंकि ऐसा अर्थ करने वाले तो श्रवण, कीर्त्तन आदि नौ प्रकार की भक्ति को ही असल चीज मानते हैं। उनके मत से शरण जाने का अर्थ ही है यही नवधा - नौ प्रकार की - भक्ति करना। अन्य धर्मों को भी करते रहना वे मानते ही हैं। ऐसी दशा में उनके फलों का त्याग तो बाद में भी होता ही रहेगा। फिर यह कहने के क्या मानी कि सभी धर्मों से अपना पिंड पहले ही छुड़ा लो, अगर धर्मों का अर्थ है उनका फलमात्र?
अब जरा दूसरों का अर्थ भी देखें। माधव संप्रदाय के आचार्य अपने इसी श्लोक के भाष्य में लिखते हैं कि 'यहाँ धर्मों के त्याग का अर्थ है उनके फलों का ही त्याग, न कि खुद धर्मों का ही। क्योंकि तब युद्ध करने की जो आज्ञा दी गई है वह कैसे ठीक होगी। इसके अलावे खुद गीता के अठारहवें अध्याय के 11वें श्लोक में तो कही दिया है कि जो कर्मों के फलों का त्याग करता है उसे ही त्यागी कहते हैं - 'धर्मत्याग: फलत्याग:। कथमन्यथा युद्धविधि:?' 'यस्तुकर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयत' इति चोक्तम्।'
रामानुज-संप्रदाय के आचार्य स्वयं रामानुज के भाष्य में भी कुछ इसी तरह की बात लिखी गई है। वह कहते हैं कि 'मुक्ति के साधन के रूप में जितने भी काम कर्मयोग, ज्ञानयोग एवं भक्तियोग के नाम से प्रसिद्ध हैं वे सभी भगवान की आराधना ही है। इसलिए प्रेम के साथ जिसे जो धर्म करने को शास्त्रों ने कहा है उसे करते हुए ही पूर्व बताए तरीके से उनके फलों एवं कर्त्तृत्व के अभिमान को छोड़ के केवल हमीं को सबका कर्त्ता तथा आराध्यदेव मानो' - "कर्मयोग ज्ञानयोग भक्तियोग - रूपान्सर्वान्धर्मान् परमनि: श्रेयससाधनभूतान मदाराधनत्वेनातिमात्रप्रीत्या यथाधिकारं कुर्वाण एवोक्तरीत्या फलकर्मकर्त्तृत्वादिपरित्यागेन परित्यज्य मामेकमेव कर्त्तारमाराध्यं प्राप्यमुपायं चानुसन्धत्स्व।" 'एष एव सर्वधर्माणां शास्त्रीय परित्याग' - "यही-फलादि का त्याग ही - सब धर्मों का शास्त्र रीति के अनुसार त्याग माना जाता है, न कि स्वयं धर्मों का त्याग ही।'
ये दो तो पुराने आचार्यों के अर्थ हुए। अब जरा हाल-साल के लोकमान्य तिलक के हाथों लिखे गए गीता रहस्य में माने गए अर्थ को भी देखें। वह पहले यह लिखते हैं कि 'यहाँ भगवान श्रीकृष्ण अपने व्यक्त स्वरूप के विषय में ही कह रहे हैं। इस कारण हमारा यह दृढ़ मत है कि यह उपसंहार भक्ति प्रधान ही है।' फिर कहते हैं कि 'परंतु इस स्थान पर गीता के प्रतिपाद्य धर्म के अनुरोध से भगवान का यह निश्चयात्मक उपदेश है कि उक्त नाना धर्मों के गड़बड़ में न पड़कर मुझे अकेले को भज, मैं तेरा उद्धार कर दूँगा, डर मत।' मगर आखिर में कहते हैं कि 'मेरी दृढ़ भक्ति करके मत्परायण बुद्धि से स्वधर्मानुसार प्राप्त होने वाले कर्म करते जाने पर इहलोक और परलोक दोनों जगह तुम्हारा कल्याण होगा; डरो मत।' इसे पढ़ने से तो एक अजीब झमेला खड़ा हो जाता है। एक ओर सब धर्म करते रहने की बात और दूसरी ओर उन्हें छोड़ने की बात! लेकिन तिलक ने कुछ खास धर्मों को यहाँ गिना के कहा है कि इन अहिंसा, दान, गुरुसेवा, सत्य, मातृपितृसेवा, यज्ञयाग और संन्याय आदि धर्मों को, जो परमेश्वर की प्राप्ति के साधन माने जाते हैं, छोड़ के साकार भगवान की ही भक्ति करो। इस श्लोक के धर्म से उनका मतलब उन्हीं चंद गिनेगिनाए धर्मों से ही है। उनने धर्म शब्द का अर्थ धर्मों का फल करना मुनासिब न समझ यह नवीन मार्ग स्वीकार किया है। कुछ नवीनता भी तो आखिर चाहिए ही।
हमने सांप्रदायिक अर्थों की बानगी दिखा दी। यह ठीक है कि तिलक ने अपने अर्थ को सांप्रदायिक नहीं माना है। बल्कि उनने शंकर, रामानुज आदि के ही अर्थों को सांप्रदायिक कह के निंदा की है। मगर सांप्रदायिकता के कोई सींग-पूँछ तो होती नहीं। जो बात पहले से चली आती हो उसी का समर्थन करना यही तो सांप्रदायिकता है। तिलक ने यही किया है भी। भक्तिमार्ग तो पुराना है। व्यक्त या साकार भगवान की उपासना करना ही भक्तिमार्ग माना जाता है। तिलक ने न सिर्फ इसी श्लोक में, बल्कि गीतारहस्य में सैकड़ों जगह इसी भक्तिमार्ग पर जोर दिया है। वह तो गीता का विषय ही मानते हैं 'तत्त्वज्ञानमूलक भक्ति प्रधानकर्मयोग।' उनने भक्तिमार्गियों के ज्ञानकर्म-समुच्चय के समर्थन में भी बहुत ज्यादा जोर दिया है। यदि और नहीं तो गीतारहस्य के 'भक्तिमार्ग' तथा 'संन्यास और कर्मयोग' इन दो प्रकरणों को ही पढ़ के और खासकर रहस्य के 358-365 पृष्ठों को ही देख के कोई भी कह सकता है कि उसमें घोर सांप्रदायिकता है। भक्तिमार्ग की आधुनिक वकालत तो ऐसी और कहीं मिलती ही नहीं। श्लोकों के अर्थ करने में प्राचीन लोगों की अपेक्षा कुछ नई बात कह देने से ही सांप्रदायिकता से पिंड छूट नहीं सकता। हरेक संप्रदाय के टीकाकारों में पाया जाता है कि वे लोग शब्दार्थ में कुछ न कुछ फर्क रखते ही हैं। वे प्रतिपादन की नई शैली भी निकालते हैं। आखिर पुराने अर्थों एवं तरीकों में जो दोष विरोधी लोग निकालते हैं उनका समाधन भी तो करना जरूरी होता है।
हाँ, तो इन अर्थों पर विचार कर देखें कि ये कहाँ तक युक्तिसंगत और सही हैं। सबसे पहले तिलक की बात लें उनके अर्थ में दो बातें हैं। एक तो वे कृष्ण के साकार या व्यक्त स्वरूप की ही उपासना, पूजा या भक्ति का निरूपण इस श्लोक में मानते हैं। दूसरे धर्म का अर्थ कुछ खास धर्ममात्र करके संतोष कर लेते हैं। अब जहाँ तक व्यक्त कृष्ण की उपासना की बात है वह तो कुछ जँचती नहीं। चाहे और बातें कुछ हों या न हों, लेकिन क्या कृष्ण जैसे महान पुरुष के लिए कभी भी उचित था कि अपने व्यक्त स्वरूप की पूजा और उपासना की बात कहें? यह कितनी छोटी बात है! यह उनके दिमाग में आ भी कैसे सकती थी? वे ठहरे महान विभूति। फिर इतनी-सी मामूली बात को भी क्या वे समझ न सके कि खुद अपनी पूजा-प्रशंसा की बातें कितनी बुरी और निंदनीय होती हैं? वे इतने नीचे उतरने की बात सोच भी कैसे सकते थे? उनकी ऐसी हिम्मत हो भी कैसे सकती थी? यदि यह मान लें कि उनने अपने साकार स्वरूप की उपासना की बात नहीं कह के भगवान के ही वैसे रूप की भक्ति का उपदेश किया, तो फिर यह लिखने का क्या अर्थ है कि 'यहाँ भगवान श्रीकृष्ण अपने व्यक्त स्वरूप के विषय में ही कह रहे हैं?' इस वाक्य में 'श्रीकृष्ण अपने' इन शब्दों की क्या जरूरत थी? इनसे तो कृष्ण की अपनी ही प्रशंसा का प्रतिपादन सिद्ध होता है।
अच्छा, यदि यही मान लें कि भगवान के ही व्यक्त रूप की उपासना है और कृष्ण अपने को भगवान समझ के ही ऐसा उपदेश करते है; इसीलिए उन्हें अपनी व्यक्तिगत बड़ाई से कोई भी मतलब नहीं है; तो दूसरी ही दिक्कत आ खड़ी हो जाती है। यदि गीतारहस्य में लिखे इस श्लोक का शब्दार्थ पढ़ें तो वहाँ लिखा है कि 'सब धर्मों को छोड़कर तू केवल मेरी ही शरण में आ जा। मैं तुझे सब पापों से मुक्त करूँगा, डर मत।' यहाँ जो 'आ जा' लिखा गया है वह श्लोक के 'व्रज' का ही अर्थ है। मगर 'व्रज' का तो अर्थ होता है 'जा'। व्रज धातु तो जाने के ही अर्थ में है, न कि आने के अर्थ में। इसलिए जब तक श्लोक में 'आवाज' नहीं हो तब तक 'आ जा' अर्थ होगा कैसे? यह तो उलटी बात होगी। हमने पहले भी यह लिखा है और बताया है कि उस दशा में इस श्लोक का क्या रूप बन जाएगा। जब तक 'आ जा' या 'आओ' अर्थ नहीं करते तब तक अर्जुन के सामने खड़े कृष्ण के व्यक्त स्वरूप की शरण जाने की बात इस श्लोक से सिद्ध हो सकती ही नहीं। क्योंकि जब कृष्ण खुद सामने खड़े हैं तो अर्जुन से अपने बारे में 'मेरी शरण आ जा' यही कह सकते हैं। अगर 'मेरी शरण जा' कहें तब तो प्रत्यक्ष साकार रूप को छोड़ के अपने किसी और या निराकार रूप से ही उनका मतलब होगा। जो चीज सामने नहीं हो, किंतु परोक्ष में या दूर हो, उसी के संबंध में यह कहा जा सकता है कि उसकी शरण में जाओ। परंतु ऐसी चीज - कृष्ण का ऐसा परोक्ष स्वरूप - तो केवल वही निर्गुण निराकार ब्रह्म ही हो सकता है और यही अर्थ शंकर ने किया भी है। तो फिर इसीलिए शंकर पर तिलक के बहुत ज्यादा बिगड़ने और उन्हें खरी-खोटी सुनाने का मौका ही कहाँ रह जाता है?
दूसरी दिक्कत भी सुनिए। धर्म शब्द का इतना संकुचित अर्थ करने के लिए कारण क्या है? यदि इस प्रकार अर्थ किया जाने लगे तो क्या यह भद्दी खींचतान न होगी? जिस खींचतान का आरोप तिलक ने खुद शंकर पर बार-बार लगाया है उसके शिकार तो वे इस प्रकार स्वयं हो जाते हैं। इतना ही नहीं। स्वयं गीतारहस्य के 440 और 848 पृष्ठों में महाभारत के अश्वमेध पर्व के 49 और शांतिपर्व के 354 अध्यायों का हवाला दे के जिन खास-खास धर्मों को गिनाया है और जिनमें 'क्षत्रियों का रणांगण में मरण', 'ब्राह्मणों का स्वाध्याय', मातृपितृसेवा, राजधर्म, गृहस्थ धर्म आदि सभी का समावेश है, उन्हीं के त्यागने की बात इस श्लोक में कही गई है ऐसी मान्यता तिलक की है। तो क्या इससे यह समझा जाए कि अर्जुन को युद्ध करने से भी उनने रोका है? गृहस्थ धर्म से भी उन्हें हटाया है? माता-पिता की सेवा और क्षत्रिय के धर्म - राजधर्म - से भी उसे उनने रोका है और इन सभी को झंझट कहा है? यह तो अजीब बात होगी। युद्ध करने का आदेश बार-बार देते हैं, यहाँ तक कि उस श्लोक के पहले तक उसी पर जोर दिया है; और 'चातुर्वर्ण्य मया सृष्टं' (4। 13) तथा 'ब्राह्मणक्षत्रियविशां' (18। 41-44) में न सिर्फ वर्णों के धर्मों पर ही जोर दिया है, बल्कि उन्हें स्वाभाविक, 'स्वभावज' (Natural) कहा है। तो क्या अंत में सब किए-कराए पर लीपा-पोती करते हैं? और अगर स्वाभाविक धर्मों के छोड़ने की बात का कहना माना जाए तो सिंह को अहिंसक होने की भी शिक्षा व्यावहारिक मानी जानी चाहिए। शंकर के अर्थ में तो यह दिक्कत नहीं है। क्योंकि वह तो ज्ञानोत्पत्ति के ही लिए धर्मों का त्याग कुछ समय के लिए जरूरी मानते है। वे ज्ञान के बाद का त्याग सबके लिए जरूरी नहीं मानते। मगर जो लोग ऐसा नहीं मान के धर्म करने की बात के साथ ही इन धर्मों के इमेले से छुटकारे की बात बोलते हैं उनके लिए ही तो आफत है। और अगर अर्जुन इस प्रकार के धर्मों को छोड़ ही दे तो फिर वह करेगा कौन से 'स्वधर्मानुसार प्राप्त होने वाले कर्म?'
और भी तो देखिए। यदि कुछ इने-गिने धर्मों का ही त्याग करना इस श्लोक में बताया माना जाए, तो फिर धर्म शब्द के पहले सर्व शब्द की क्या जरूरत थी? 'धर्मान' यह बहुवचन शब्द ही तो काफी है। उन धर्मों को इसी से समझ ले सकते हैं। ऐसी हालत में सर्व कहने का तो यही मतलब हो सकता है कि कहीं ऐसा न हो कि बहुवचन धर्म शब्द से कुछी धर्मों को ले के बस कर दें। इसीलिए सर्वधर्मान कह दिया। ताकि गिन-गिन के सभी धर्मों को ले लिया जाए। पूर्व मीमांसा के कपिंजलाधिकरण नामक प्रकरण में 'कपिंजलानालभेत' - "कपिंजल पक्षियों को मारे", इस वचन में बहुवचन के खयाल से तीन ही पक्षियों की बात मानी गई है। जब तीन पक्षी भी बहुत हईं और उतने ही लेने से 'कपिंजलान्', बहुवचन सार्थक हो जाता है, तो नाहक ज्यादा पक्षियों का संहार क्यों किया जाए? यही बात वहाँ मानी गई है। वही यहाँ भी लागू हो सकती थी। इसीलिए 'सर्व' विशेषण सार्थक हो सकता है। मगर तिलक के अर्थ में तो यह एकदम बेकार है। उनने खुद गीतारहस्य में शब्दों के अर्थ में जगह-जगह बाल की खाल खींची है और दूसरों को नसीहत की है। मगर यहाँ? यहाँ तो वही 'खुदरा फजीहत, दीगरे रा नसीहत' हो गई। यहाँ 'अन्यहिं राह दिखावहीं आप अँधरे जाहिं' वाली बात हो गई!
सबसे बड़ी बात यह है कि गीता के उपदेश का यही आखिरी श्लोक है। इसके बाद जो बातें कही गई हैं वे तो शिष्टाचार वगैरह की हैं कि गीता की ये बातें किन्हें सुनाई जाए, किन्हें नहीं आदि-आदि। मगर इस श्लोक में जो पेचीदगी आ जाती है। उससे बात की सच्चाई के बदले घपला और भी बढ़ जाता है। यहाँ धर्म कहने से सभी धर्मों को लें या कुछेक को ही। यदि कुछेक को ही लेने की बात कहें तभी गड़बड़ होती है। सभी के लेने में तो रास्ता एकदम साफ है - कहीं रोक-टोक नहीं। कुछेक लेने में किन्हें लें, किन्हें नहीं, यह सवाल खामख्वाह खड़ा हो जाता है। यदि यह भी लिखा होता कि शांति पर्व या अश्वमेध पर्व के उन दो अध्यायों में लिखे धर्मों को ही ले सकते है, दूसरों को नहीं, तो भी काम चल जाता और घपला न होता। मगर ऐसा तो लिखा है नहीं। यहाँ तो धर्म शब्द से ही अटकल लगाना है कि किनको लें किनको न लें। ऐसी हालत में यदि कुछ ऐसे धर्म छूट गए जिन्हें लेना जरूरी है, या कुछ ऐसे लिए गए जिनका लेना ठीक नहीं, तो क्या होगा? तब तो सारा मामला ही गड़बड़ी में पड़ जाएगा। ऐसा नहीं होगा यह कैसे कहा जाए? आखिर अटकलपच्चू बात ही तो ठहरी। फलत: अर्जुन का दिमाग साफ होने के बजाए और भी आगा-पीछा में पड़ जाएगा - अगर ज्यादा नहीं तो कम से कम उतना आगा-पीछा में तो जरूर, जितना गीतोपदेश के शुरू में था। ऐसी हालत में इसके बाद ही अर्जुन का यह कहना कैसे ठीक हो सकता है कि 'आपकी कृपा से मेरा मोह दूर हो गया, मुझे सारी बातें याद हो आईं और अब मुझे जरा भी शक किसी भी बात में नहीं है; इसलिए आपकी बात मान लूँगा' - "नष्टोमोह: स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत। स्थितोऽस्मिगतसंदेह: करिष्ये वचनं तवं" (18। 73)? यह तो उलटी बात हो जाती है। अंत में कृष्ण की आज्ञा क्या हुई इसका पता भी लगता नहीं। फिर उनकी किस बात को मानने का वादा अर्जुन ने किया? और जब रणांगण में मरनेवाला धर्म आखिर में छोड़ देने को ही कहा गया था तो अर्जुन कृष्ण की बात मान के लड़ने क्यों लगा?
गीतारहस्य में लिखे अर्थ के बारे में जो कुछ कहा गया है उससे शेष दो अर्थों की भी बहुत कुछ बातों पर प्रकाश पड़ जाता है। असल में रामानुज भाष्य में आगे एक दूसरा भी अर्थ किया गया है जो तिलक के अर्थ से बहुत कुछ मिलता-जुलता है। वहाँ धर्म का अर्थ कृच्छ्र, चांद्रायण, वैश्वानर आदि अनेक यज्ञ-याग और व्रत विशेष ही किया गया है। इसीलिए जो बातें इस तरह के अर्थ में गीतारहस्य पर लागू है, वही उस अर्थ पर भी। यह ठीक है कि तिलक ने एक ही धर्म शब्द के दो अर्थ कर डाले हैं। क्योंकि एक ओर तो वह कुछ गिने-चुने धर्मों को ही धर्म-शब्दार्थ मान के उनका त्याग चाहते हैं। लेकिन दूसरी ओर उसी शब्द का यह भी अर्थ करते हैं कि 'स्वधर्मानुसार प्राप्त होने वाले कर्म करते जाने पर।" इसीलिए उनके यहाँ ज्यादा गड़बड़ है। मगर धर्म शब्द का जो कुछ इने-गिने धर्मों से ही अभिप्राय माना गया है और उसके संबंध में जो आपत्ति हमने अभी-अभी बताई है वह तो दोनों पर ही लागू है।
एक बात और भी दोनों ही में समान रूप से पाई जाती है। यदि इस श्लोक के माधव एवं रामानुज भाष्यों को उनके उन भाष्यों के साथ पढ़ें जो गीता के अन्यान्य श्लोकों के ऊपर और खासकर ग्यारहवें तथा बारहवें अध्याय के ऊपर लिखे गए हैं, तो पता लग जाता है, कि वे लोग सगुण ब्रह्म या साकार कृष्ण भगवान की उपासना को ही इस श्लोक का विषय मानते हैं। ऐसी दशा में जो भी आपत्ति तिलकवाले अर्थ में 'व्रज' को ले के या और तरह से उठाई गई हैं वह तो इनमें भी अक्षरश: लागू है। यह कहना कि गीता का पर्यवसान साकार भगवान की शरणागति में ही है, दूसरा मानी नहीं रखता और इसमें घोर से घोर आपत्ति बताई जा चुकी है। हम तो पहले ही 'अहम्', 'माम्' आदि शब्दों के अर्थों को समझाते हुए बता चुके हैं कि उन शब्दों से साकार या व्यक्त कृष्ण को समझना असंभव है - ऐसी कोशिश करना भारी से भारी भूल है। जो कुछ हमें इस संबंध में कहना था वही कह चुके हैं। उसे इन भाष्यों के भी संबंध में पूरा-पूरा लागू किया जा सकता है।
रह गई इन दोनों भाष्यकारों की यह दलील कि धर्म का अर्थ उसका फल और कर्त्तृत्ववादि है, न कि धर्म का स्वरूप; क्योंकि गीता के इसी अठारहवें अध्याय के शुरू में ही त्याग का यही अर्थ माना गया है। हमने पहले योग या कर्म तथा फल में अनासक्ति एवं बेलगाव की बात पर विचार करते हुए गीता के श्लोकों के बीसियों दृष्टांत दिए हैं। उनके देखने से साफ हो जाता है कि गीता ने बार-बार कर्म और उसके फल का साथ-साथ वर्णन करके दोनों ही की आसक्ति को मना किया है। यही नहीं। 'सुखदु:खे समेकृत्वा' (2। 38) जैसे अनेक श्लोकों में कर्म का जिक्र न भी करके उसके फलों को ही साफ-साफ लिखा और उनमें आसक्ति को सख्ती से रोका है। जैसा कि पहले विस्तार के साथ समदर्शन की बात कही जा चुकी है, यह समदर्शन कर्मों के संबंध में न हो के अनेक स्थानों पर कर्म के फलों से ही ताल्लुक रखता है। 'यदृच्छालाभसंतुष्ट:' (4। 22), 'न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य' आदि (5। 20-22), 'सुहृन्मित्रार्युदासीन' (6। 9), 'अद्वेष्टा सर्वभूतानां' आदि (12। 13। 19) तथा 'उदासीनवदासीन:' आदि (14। 23-25) श्लोकों को यदि गौर से देखा जाए तो कर्मों का जिक्र न भी करके फलों से ही अलग रहने की बात पर जोर देते हैं। दूसरे अध्याय के स्थितप्रज्ञ, बारहवें के भक्त और चौदहवें के गुणातीत - ये तीनों ही - हैं क्या यदि कर्मों के फलों से कतई निर्लेप रहने वाले लोग नहीं हैं?
इस प्रकार गीता ने असल चीज फल को ही माना है और उसी से बचने, उसी के त्याग और उसी की अनासक्ति पर खास तौर से जोर दिया है। यही कारण है कि कर्मों के साथ तो फलों को अलग लिखा ही है; मगर स्वतंत्र रूप से भी जगह-जगह लिखा है। दूसरे अध्याय में जब गीता की अपनी चीज - योग - का स्वरूप उसे 'कर्मण्येवाधिकारस्ते' (2। 47-48) में बताया है, तो फल को अलग कहने की जरूरत पड़ी है। उसके बिना काम चली नहीं सकता था। यदि उसे अलग नहीं कहते तो योग ही चौपट हो जाता। उसकी असली शक्ल बन सकती न थी। गीता तो कर्म को न देख उसकी आसक्ति को ही देखती और उसी को रोकती है। उसी के साथ उसके फल की इच्छा और आसक्ति को भी हटाती है। यह बात हम बहुत अच्छी तरह सिद्ध कर चुके हैं। यह भी बखूबी बता चुके हैं कि अठारहवें अध्याय के 'निश्चयं शृणु मे तत्र' (18। 4) से लेकर 'स त्यागीत्यभिधीयते' (18। 11) तक के श्लोकों में साफ ही उसी कर्मासक्ति तथा फलासक्ति का त्याग कहा गया है। फिर भी हमें आश्चर्य होता है कि उन भाष्यों के रचयिता महापुरुष इन्हीं 4 से 11 तक के श्लोकों के आधार पर 'सर्वधर्मान' में धर्म का अर्थ उसका फल और धर्म के करने का अभिमान यह अर्थ कर डालते हैं! दोनों की आसक्ति अर्थ करते तो एक बात थी।
यदि उन श्लोकों या गीता के योग - कर्मयोग - की बात यहाँ होती और उसी का उपसंहार इस श्लोक में माना जाता तो क्या कभी यह बात संभव थी कि कर्म और फल या धर्म और फल को साफ-साफ न कहते और दोनों की आसक्ति का अत्यंत साफ शब्दों में निषेध न करते? गीता की तो यही रीति है और इसे उसने कहीं एक जगह भी नहीं छोड़ा है। यह बात हम दावे के साथ कह सकते हैं। बीसियों जगह यह बात गीता भर में आई है। मगर सभी जगह नियमित रूप से कर्मासक्ति और फलासक्ति का त्याग साथ कहा है। फिर उपसंहार में भी वही बात क्यों न की जाती? ऐसा न करने से तो अर्जुन के लिए साफ ही शंका की गुंजाइश रह जाती कि कहीं दूसरा ही तो मतलब नहीं है? उपसंहार में साफ न बोलने से जरूर शंका होती और उसके बाद अर्जुन हर्गिज यह नहीं कहता कि 'स्थितोऽस्मि गतसंदेह:।' इसीलिए दोनों भाष्यकारों का अर्थ गीता को मान्य नहीं यह बात निर्विवाद हो गई। यह भी तो उन्हें सोचना चाहिए था कि यदि इस श्लोक में भी संन्यास के तत्त्व का निरूपण नहीं है और इसके पहले तो और किसी श्लोक में हुआ ही नहीं, जैसा कि अच्छी तरह दिखाया जा चुका है, तो आखिर वह है कहाँ? और अगर कहीं नहीं है तो अर्जुन की शंका तो रही जाती है। फिर 'नष्टोमोह:' कैसा?
शंकर के अर्थ में तो ऐसी एक आपत्ति भी नहीं हो सकती। वह तो गीता के कर्मयोग या योग का निरूपण इसमें मानते ही नहीं। फिर धर्म और फल को अलग- अलग लिख के उसकी आसक्ति के त्याग की बात का उनके मत से यहाँ अवसर ही कहाँ रह जाता है? वह तो तत्त्वज्ञान के पहले शास्त्रीय विधि विधान के अनुसार कर्तव्य धर्मों का संन्यास ही इस श्लोक में ज्ञान के साधन के रूप में मानते हैं और वह काम 'सर्वधर्मान' से ही चल जाता है। मुख्यतया पुराने संस्कार के वश किसी एकाध धर्म में लोग चिपके न रह जाए इसीलिए सर्वधर्मान कह दिया है। सभी से पिंड छुड़ाना जरूरी है। एक भी रहेगा तो बाधक होगा जरूर। इस संबंध में अब और लिखना यहाँ ठीक नहीं है। इसका स्वतंत्र विचार श्लोकार्थ के प्रसंग से किया जाएगा।
10. शेष बातें
गीताधर्म से संबंध रखने वाली सभी प्रमुख बातों पर जहाँ तक हो सका हमने अब तक प्रकाश डाला और इस तरह गीतार्थ समझने का रास्ता बहुत कुछ साफ कर दिया। अब हमें समाप्त करने के पहले कुछ और भी कह देना है। जो बातें हम अब कहेंगे उनका भी ताल्लुक गीताधर्म से ही है। उनसे भी गीता का आशय समझने में बहुत कुछ सहायता मिलेगी; हालाँकि ये बातें इतनी महत्त्वपूर्ण नहीं हैं जितनी अब तक लिखी गई हैं। बात असल यह है कि केवल आशय समझना ही जरूरी नहीं होता। श्लोकों और पदों के अर्थों को ठीक-ठीक हृदयंगम करना भी आवश्यक होता है। इसके बिना आशय आसानी ने समझ में आ नहीं सकता। कभी-कभी तो शब्दार्थ अच्छी तरह जाने बिना आशय और भाषार्थ कतई समझ में आते ही नहीं। शब्दार्थ के सिवाय भी कुछ बातें होती हैं जिनसे श्लोकार्थ और श्लोक का आशय समझने में आसानी हो जाती है। उन बातों को जाने बिना बड़ी दिक्कत होती है। कभी-कभी तो चीज उलटे समझी जाती है। एकाध ऐसी भी बातें हैं जिनसे और कुछ न भी हो तो आशय की गंभीरता जरूर मालूम पड़ती है। इसलिए उनका जानना भी जरूरी है। यही सब बातें लिख के और अंत में दो-चार शब्दों में गीता-धर्म का उपसंहार करके यह वक्तव्य पूरा करेंगे। इसीलिए इसमें छोटी-मोटी-छुटी-छुटाई बातों का ही समावेश पाया जाएगा।
उत्तरायण और दक्षिणायन
गीता के आठवें अध्याय के 'यत्र काले त्वनावृत्तिं' आदि 23 से 27 तक के श्लोकों में उत्तरायण और दक्षिणायन या शुक्ल और कृष्ण मार्गों का वर्णन आता है। इसके बारे में तरह-तरह की कल्पनाएँ होती हैं। पुराने टीकाकारों और भाष्यकारों ने तो प्राय: एक ही ढंग से अर्थ किया है। हाँ, शब्दों के अर्थों से किन चीजों का अभिप्राय है इसमें कुछ मतभेद उनमें भी पाया जाता है। उनने इन दोनों मार्गों को देवयान और पितृयान (याण) भी कहा है। यान रास्ते को भी कहते हैं और सवारी या ले चलने वाले को भी। घोड़ा, गाड़ी वगैरह यान कहे जाते हैं। मगर जो पथदर्शक हो वह भी सवारी से कम काम नहीं करता। इसलिए उसे भी यान कहते हैं और वाहक भी। इन मार्गों को अर्चिरादि मार्ग और धूमादि या धूम्रादि मार्ग भी कहा है। पहले में अग्नि से ही शुरू करते हैं। और उसके बाद ही तो ज्योति:, अर्चि: या प्रकाश है। इसीलिए उसे अर्चिरादि कह दिया है। अग्नि ही यद्यपि शुरू में है और उसके बाद ही ज्योति: शब्द और कहीं-कहीं अर्चि: शब्द आता है; मगर अग्न्यादि मार्ग न कह के अर्चिरादि इसलिए कहते हैं कि अग्नि तो दोनों में है। उसके बाद ही रास्ते बदलते हैं। दूसरे में धूम से ही शुरू करने के कारण धूमादि नाम उसका पड़ा। इसी धूम को किसी-किसी ने धूम्र कहा है। धूम्र के मानी हैं। मलिन या अँधरे वाला। इस मार्ग में प्रकाश नहीं होने से ही इसे धूम्रादि कह डाला। कुछ नए टीकाकारों ने यही कह के संतोष कर लिया कि हमें इन श्लोकों का तात्पर्य समझ में नहीं आता। असल में पुराणों की तो बात ही जाने दीजिए। छांदोग्य और बृहदारण्यक उपनिषदों में भी जो इन दोनों मार्गों का वर्णन है उस पर भी उन्हें या तो विश्वास नहीं है, या उसे भी वे एक पहेली ही मान के ऐसा कह देते हैं।
बेशक यह चीज पुरानी है यहाँ तक कि ऋग्वेद (10। 88। 15) में भी इसका जिक्र है। यास्क के निरुक्त (14। 9) में भी यह बात पाई जाती है। महाभारत के शांतिपर्व में तो हई। वेदांत दर्शन के चौथे पाद के दूसरे और तीसरे अधिकरणों में भी यह बात आई है। इस पर वाद-विवाद भी पाया जाता है। कौषीत की उपनिषद के पहले अध्याय के शुरू के 2-3 आदि मंत्रों में भी यह बात आई है। वहाँ बहुत विस्तृत वर्णन है जो अन्य उपनिषदों में नहीं है। बृहदारण्यक उपनिषद के पाँचवें अध्याय के दसवें ब्राह्मण में थोड़ी-सी और छठे अध्याय के दूसरे ब्राह्मण के कुल सोलह मंत्रों में यही बात आई है। हालाँकि कौषीत की वाली कुछ ब्योरे की बातें इसमें नहीं लिखी हैं; फिर भी बहुत विस्तृत वर्णन है। छांदोग्योपनिषद के पाँचवें अध्याय के तीन से लेकर दस तक के आठ खंडों में भी यह वर्णन पूरा-पूरा पाया जाता है। उसके चौथे अध्याय के 15वें खंड में भी यह बात आई है। जब ऋग्वेद जैसे प्राचीनतम ग्रंथ से लेकर महाभारत तक में यह चीज पाई जाती है तो मानना ही होगा कि उस समय इसका पूरा प्रचार था। इस पर पूरा मनन, विचार और अंवेषण ही उस समय जारी था। इसीलिए इस प्रश्न का महत्त्व भी बहुत ज्यादा था। यदि छांदोग्य आदि उपनिषदों में इस विषय का निरूपण पढ़ें तो पता लगता है कि आरुणि जैसे महान ऋषि को भी इसका पता न था। इसे वहाँ पंचाग्नि-विद्या कहा है। साथ ही छांदोग्योपनिषद में ही नक्षत्र विद्या आदि कितनी ही विद्याएँ (Science) गिनाई हैं, जिनका नाम भी हम नहीं जानते। छांदोग्योपनिषद् के सातवें अध्याय के पहले और दूसरे खंडों में नारद ने सनत्कुमार से कहा है कि ऋग्वेदादि चारों वेदों, वेदों के वेद, पाँचवें इतिहास-पुराण के सिवाय, अनेक विद्याओं के साथ देवविद्या, ब्रह्मविद्या, भूतविद्या, क्षेत्रविद्या, नक्षत्रविद्या, सर्पविद्या, जनविद्या और देवविद्या जानता हूँ। ये विभिन्न वैज्ञानिक अध्ययन नहीं तो और क्या है? मगर अन्यान्य बातों में पतन के साथ ही इस बात में भी हमारा पतन कुछ ऐसा भयंकर हो गया कि हम ये बातें पीछे चल के कतई भूल गए। आज तो यह हालत है कि इन्हें हम केवल धर्म; बुद्धि से ही मानते हैं, सो भी इसीलिए कि हमारी पोथियों में लिखी हैं। मगर इनके बारे में न तो सोच सकते और न कोई दार्शनिक युक्ति ही दे सकते हैं?
लेकिन यदि थोड़ा भी विचार किया जाए तो पता चलेगा कि इन बातों का उसी कर्मवाद से ताल्लुक है जिसका निरूपण हम बहुत ही विस्तार के साथ पहले कर चुके हैं। जब हमारे पुराने आचार्य, ऋषिमुनि और दार्शनिक पुनर्जन्म को स्वीकार करने लगे तो उनने उसके मूल में इस कर्मवाद को ही माना। सद्गति और दुर्गति या मनुष्य से लेकर कीट-पतंग एवं वृक्षादि की योनियों में जाने और वैसा ही शरीर ग्रहण करने का कारण वह कर्म को ही मानते थे। आज हम यहाँ मनुष्य शरीर में हैं। कुछ दिन बाद मर के हजार कोस पर पशु या किसी और योनि में जाएँगे। सवाल होता है कि वहाँ हमें कौन, क्यों पहुँचायेगा और कैसे? हमने यहाँ बुरा-भला कर्म किया। उसका फल हमें हजारों कोस पर कौन पहुँचाएगा? जब व्यष्टि और समष्टि दोनों ही तरह के कर्मों से हमारे शरीर बनते या बुरी-भली बातें होती हैं, तो यहाँ के गैर के द्वारा किए गए कर्मों से हमारा शरीर कहीं दूर देश में कैसे बनेगा कि हम उस गैर को वहीं उसी शरीर से सताएँगे या आराम देंगे? श्राद्ध, यज्ञयागादि हमारे लिए कोई भी करे और उसका नतीजा हमें भी मिले - क्योंकि एक के कर्म का फल दूसरे को भी मिलता ही है, यह बता चुके हैं - इसकी व्यवस्था कैसे होती है? किसी ने हमारे मरने पर पिंडदान या तर्पण किया और हम बाघ या साँप की योनि में जनम चुके हैं, तो उस श्राद्ध या तर्पण का फल मांस या हवा आदि के रूप में हमें कौन पहुँचाएगा? बाघ को मांस ही चाहिए न? भात या आटे का पिंड तो उसके किसी काम का नहीं। वह तो यहीं रह जाता है भी। साँप को भी तो हवा चाहिए। ऐसी ही बातों पर सोच-विचार करके उनने कर्मवाद की शरण ली। साथ ही सबकी व्यवस्था के लिए एक व्यापक चेतना शक्ति को मानकर उसे ईश्वर नाम दिया। ईश्वर कहते हैं शासन करने वाले को।
इसी कर्मवाद के सिलसिले में यह उत्तरायण और दक्षिणायन वाली बात भी आ गई। हम तो कही चुके हैं कि हरेक पदार्थों से अनंत परमाणु प्रत्येक क्षण में निकलते ही रहते और उनकी जगह दूसरे आते रहते हैं। यह भी बात अच्छी तरह लिखी गई हैं कि ठीक समय पर ये परमाणु निकलते हैं, इनके कोष (Stock) हजारों ढंग के बने होते हैं, नए भी बनते जाते हैं, उनमें से ही दूसरे परमाणुओं के चावल वगैरह में शामिल होते हैं और उनसे जो निकले थे वे या तो पहले से बने परमाणु-कोष में जा मिलते हैं या उनसे नए कोष बनते हैं। यह बात दिन-रात चालू है। हमारी बाहरी आँखें इसे नहीं देखती हैं सही मगर भीतरी आँखें मानने को मजबूर होती हैं। फिर भी यह सारी बातें कैसे हो रही हैं और इनकी क्या व्यवस्था है, हम नहीं जानते। ब्योरे की बातें हमारी शक्ति के बाहर की हैं। नहीं तो फिर ईश्वर की जरूरत ही क्यों हो? तब हमीं ईश्वर नहीं बन जाते? हम भीतर की धुँधली आँखों से इन बातों को मोटा-मोटी देखते हैं। क्योंकि इनके बिना काम चलता नहीं दीखता, अक्ल रुक जाती है, आगे बढ़ पाती नहीं और कुंठित हो जाती है। जो नए परमाणु आते हैं वह ऊपर ही ऊपर गर्द-गुब्बार की तरह नहीं चिपकते। वे तो चावलों के भीतर घुस जाते, उनमें प्रविष्ट हो जाते। उनके यंग-प्रत्यंग बन जाते हैं!
जिस प्रकार ये बातें भौतिक पदार्थों के बारे में उनने इस भौतिक विज्ञान-युग के आने के बहुत पहले मान ली थीं, देख ली थीं, हम यह पहले ही कह भी चुके हैं, ठीक उसी प्रकार कर्म और आत्मा के बारे में भी उनने - उनकी सूक्ष्म आँखों ने - कुछ बातें देखीं, कुछ सिद्धांत स्वीकार किए। आत्मा या आत्मा के साथ ही चलने वाले सूक्ष्म शरीर के आने-जाने के बारे में भी उनने कुछ बातें तय की थीं। गीता ने 'ममैवांशो जीवलोके' आदि (15। 7-11) श्लोकों में जीवात्मा के आने-जाने का जो वर्णन करते हुए कहा है कि वह मन आदि इंद्रियों को साथ ले के जाती है वह उनकी यही कल्पना है। मन आदि इंद्रियों से मतलब वहाँ उस सूक्ष्म शरीर से ही है, जिसमें पूर्वोक्त पाँच कर्मेंद्रिय, पाँच ज्ञानेंद्रिय, पाँच प्राण और मन एवं बुद्धि यही सत्रह पदार्थ पाए जाते हैं - वह शरीर इन्हीं सत्रहों से बना है। मरने के समय वही निकल जाता है स्थूल शरीर से, और जन्म लेने में वही पुनरपि आ घुसता है। उसी के साथ आत्मा का आना-जाना है। खुद तो आ जा सकती नहीं। आईने के साथ जैसे किसी चीज का प्रतिबिंब चलता है वैसे ही सूक्ष्म शरीर के साथ आत्मा का प्रतिबिंब चलता है। आत्मा स्वयं तो सर्वत्र व्यापक है। वह कैसे आएगी? प्राणों का काम है घोड़े की तरह खींचना। उनमें क्रिया जो है। बुद्धि आईना है। उसी में आत्मा का प्रतिबिंब है। वही अँधरे में रास्ता दिखाती है।
यहाँ सवाल यह होता है कि सूक्ष्म शरीर का यह आना-जाना कैसे होता है? यह किस रास्ते से, किस सवारी या पथदर्शक की मदद से ठीक रास्ते पर जाता है और चौराहे पर नहीं भटकता? रास्ते में पड़ाव है या नहीं। पथदर्शक (guide) भी तो अनेक होंगे। क्योंकि एक ही कहाँ तक ले जाएगा? और यदि एक ही जीवात्मा के सूक्ष्म शरीर को ले जाना हो तो यह भी हो। मगर यहाँ तो हजारों हैं, लाखों हैं, अनंत हैं। रोज ही लाखों प्राणी मरते हैं। फलत: रास्ते में भीड़ तो होगी ही। इसीलिए कुछ दूर बाद ही एक पथदर्शक अपनी थाती (charge) को दूसरे के जिम्मे लगा के फौरन लौट आता होगा। फिर दूसरे को ले चलता होगा। इस प्रकार सबकी डयूटी बँटी होगी, बँधी होगी। कितनी दूर से कितनी दूर तक हरेक का चार्ज रहेगा यह भी निश्चित होगा, निश्चित होना ही चाहिए। जैसा यहाँ भौतिक दुनिया में हो रहा है उसी के अनुसार ही उस दुनिया में भी, जिसे आध्यात्मिक या परलोक की दुनिया कहते हैं, उनने सोच निकाला होगा। दूसरा करते भी क्या? दूसरा तो रास्ता है नहीं, उपाय है नहीं। यही है उत्तरायण और दक्षिणायन मार्ग के मानने की दार्शनिक बुनियाद। यही है उसका मूल सिद्धांत।
मरने के बाद शरीर को तो जलाई देते थे। कम से कम अग्नि संस्कार करते थे। यह भी कहा जाता है कि जलाने या अग्नि संस्कार के ही समय समान नामक प्राण इस शरीर से निकलता है। तब तक चिपका रह जाता है। यह खयाल अत्यंत पुराना है। इसीलिए मृतक का जलाना और अग्नि संस्कार हिंदुओं के यहाँ जरूरी माना गया है। यही कारण है कि जो लोग किसी वजह से मृतक को जला नहीं सकते वह भी अग्नि संस्कार अवश्य करते हैं। जलाने से बिगड़ते-बिगड़ते यह बात हो गई! मगर इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जलाने के बाद ही जीवात्मा की अंतिम विदाई यहाँ से होती है, ऐसी ही मान्यता थी। यही कारण है कि गीता (8। 24) में अग्नि से ही शुरू किया है - उत्तरायण मार्ग को लिखते हुए अग्नि से ही शुरू किया है। हालाँकि जब इस मार्ग को ज्योतिरादि या अर्चिरादि कहते हैं तब तो अग्नि के बाद जो ज्योति: शब्द आया है उसे ही शुरू में आना चाहिए था। इसीलिए अगले श्लोक में धूम से ही शुरू किया है। मगर अग्नि देने का अभिप्राय यही है कि अग्नि से संबंध तो सभी का होता है। उसके बाद ही दो रास्ते अग्नि को ज्वाला और उसके धूम से शुरू हो जाते हैं। यही वजह है कि अगले श्लोक में अग्नि शब्द की जरूरत न समझी गई। उसका काम तो पहले ही श्लोक से चल जाता है। उस एक ही अग्नि शब्द से और दोनों मार्गों के ज्योतिरादि एवं धूमादि नाम होने से ही लोग यह आसानी से समझ जाएँगे कि अग्नि में जलाने के बाद ही ज्योति और धूम से संबंध होगा, न कि पहले।
'यत्रकाले त्वनावृत्तिं' (8। 23) में काल का उल्लेख है। उससे यह भी पता चलता है कि दोनों मार्गों में काल ही की बात आती है। लेकिन यहाँ तो शुरू में अर्चि और धूम ही आए हैं। उनके बाद अह:, रात्रि, कृष्णपक्ष, शुक्ल, उत्तरायण के छ: महीने और दक्षिणायन के छ: महीने जरूर आए हैं, ये काल या समय के ही वाचक हैं भी। लेकिन आगे के श्लोकों में 'गती' और 'सृती' शब्द मार्ग या रास्ते के ही मानी में आए हैं। इसलिए छांदोग्य, बृहदारण्यक तथा निरुक्त आदि में भी उत्तरायण में आदित्य, चंद्र विद्युत और मानस या अमानव आदि का तथा दक्षिणायन में पितृलोक, आकाश, चंद्रमा आदि का भी जिक्र है इसलिए भी बहुतों का खयाल है कि यहाँ काल या समय की बात न हो के कुछ और ही है। इसके विपरीत महाभारत के भीष्मपर्व (120) और अनुशासनपर्व (167) से पता चलता है कि आहत होने के बाद भीष्म बाण-शैया पर पड़े-पड़े उत्तरायणकाल को देख रहे थे कि जब सूर्य उत्तरायण हो तो शरीर छोड़ें। इसीलिए जब तक दक्षिणायन रहा वह प्राणत्याग न करके लोगों को उपदेश देते रहे। इससे तो काल की ही महत्त्व उत्तरायण और दक्षिणायन मार्गों में प्रतीत होती है। गीता ने शुरू में काल ही नाम इन दोनों को दिया भी है।
इस उलझन को सुलझाने के लिए शंकर ने कहा है कि प्रधानता तो काल की ही है। इसलिए दूसरों के आ जाने पर भी काल ही कहा गया है। क्योंकि जिस वन में ज्यादा आम हों उसे आम्रवन और जहाँ ब्राह्मण ज्यादा हों उसे ब्राह्मणों का गाँव कहते हैं - 'भूयसांतुनिर्देशो यत्रकाले तं कालमित्याम्रवणवत्।' कुछ लोगों ने इससे यह भी अर्थ लगाया है कि जब किसी समय में वैदिक ऋषियों का निवास उत्तर ध्रुव के पास था, जहाँ छ: मास के दिन-रात होते हैं, उसी समय उत्तरायण का समय मृत्यु के लिए प्रशस्त माना गया। वही बात पीछे भी चल पड़ी। इसलिए शंकर आदि ने जो ज्योति:, अह: आदि शब्दों से तत्संबंधी देवताओं को माना है उस पर उनने आक्षेप भी किया है, हालाँकि काल तो शंकर ने साफ ही स्वीकार किया है। हमारे जानते तो शंकर का लिखना सही है। इसकी सुलझन भी हमें थोड़ा विचार करने से मिल जाती है। हमें इस बात के विवाद में नहीं पड़ना है कि उत्तर ध्रुव के पास कभी आर्य लोग या वैदिक ऋषि थे या नहीं। संभव है, वे रहे भी हों! मगर यहाँ वह बात नहीं हैं, हमारा यही खयाल है।
असल में एक बात सोचने की यह है कि प्रत्येक पदार्थ के परिपक्व होने में सबसे बड़ा हाथ काल या समय का ही होता है यह तो मानना ही होगा। कम-बेश समय के चलते ही चीजें पक्व तथा अपक्व होती हैं। यह ठीक है कि युक्ति से हम समय में कमी-बेशी कर दे सकते हैं। मगर समय की अपेक्षा तो फिर भी रहती ही है। काल और दिशा को जो प्राचीन दार्शनिकों ने माना वह इसी जरूरत को पूरा करने के लिए। काल और दिशा में कोई बुनियादी फर्क नहीं है। दोनों एक जैसे ही हैं। और एक दूसरे के सहायक हैं। इसीलिए वस्तुगत्या एक ही हैं। हम देखते हैं कि पदार्थों में परमाणुओं का आना या वहाँ से जाना भी समय की अपेक्षा करता है। कैसा परमाणु कब निकले या आए यह बात भी काल की अपेक्षा रखती है। यहाँ उत्तरायण और दक्षिणायन मार्गों में क्रमश: उपासना या अपरिपक्व ज्ञान तथा कर्म के परिपाक की ही जरूरत है भी; ताकि आगे वे अपना परिणाम या फल दिखला सकें। इसीलिए जो भी परिणाम होने वाला हो उससे पहले एक लंबा या विस्तृत काल होगा ही, फिर वह लंबाई चाहे बहुत ज्यादा हो या अपेक्षाकृत कम हो। ऋषियों ने उसी काल की कल्पना करके उसके विभाग वैसे ही किए जैसे हमने यहाँ कर रखे हैं - जैसे यहाँ पाए जाते हैं। इस विभाग के बाद जब ज्यादा लंबा काल आ गया तो उसे हमारी अपनी तराजू से नाप-जोख और बँटवारा न करके दिव्य या देवताओं की तराजू से ही बँटवारा किया। आखिर हमारी नन्ही तराजू से कब तक बाँटते रहते? यही रहस्य है दैवी या दिव्य वर्ष मानने का जिसमें हमारे छ: महीने का दिन और उतने की ही रात मानी गई। यह तो मामूली दिव्यतराजू हुई। मगर इससे भी लंबी है आखिरी तराजू, जिसे हिरण्यगर्भ या ब्रह्मा की तराजू कहते हैं। इसमें हमारे हजार युगों के दिन-रात माने जाते हैं। यही बात गीता ने इस उत्तरायण-दक्षिणायन-विवेचन के पहले उसी अध्याय में 'सहस्रयुगपर्यन्तं' (8। 17-19) श्लोकों में लिखी है। उसका भी इसी से ताल्लुक सिद्ध हो जाता है। क्योंकि उसी के बाद उत्तरायण आदि की बात पाई जाती है।
भीष्म की उत्तरायणवाली प्रतीक्षा भी इसी बात को पुष्ट करती है। जब उपासना या कर्म के परिपक्व होने में समय सहायक है तो उत्तरायण काल क्यों न होगा? वह तो थे उपासक। इसलिए उन्हें जाना था उसी मार्ग से। उसमें जो परिपाक होने में देर होती और इस तरह उनका वह उपासना रूप ज्ञान देर से पकता, उसी की आसानी के लिए उनने उत्तरायण की प्रतीक्षा की। यह आमतौर से देखा जाता है कि लोग रात में ही मरते हैं। आम लोग वैसे ही होते हैं। उन्हें ज्ञान से ताल्लुक होता ही नहीं। इसीलिए उनका रास्ता अँधरे का ही होता है। दक्षिणायन कुछ ऐसा ही है भी। वहाँ धूम, रात वगैरह सभी वैसे ही हैं। यह ठीक है कि बड़े-बड़े कर्मी लोगों के बारे में ही दक्षिणायन मार्ग लिखा है। जो ऐसे उपासक, ज्ञानी या कर्मी नहीं हैं उनके बारे में छांदोग्य के 'अथैतयो: पथोर्न' (5। 10। 8) में यह मार्ग नहीं लिखा है। लेकिन इसका इतना ही अर्थ है कि ऐसे लोग स्वर्ग या दिव्यलोक में नहीं जा के बीच से ही अपना दूसरा मार्ग पकड़ लेते हैं। क्योंकि मरने पर आखिर ये भी तो दूसरे शरीर धारण करेंगे ही और उन शरीर में इन्हें पहुँचाने का रास्ता तो वही है। दूसरा तो संभव नहीं। यह ठीक है कि उत्तरायण और दक्षिणायन शुरू में ही अलग होने पर भी संवत्सर में जा के फिर मिल जाते हैं। मगर तीसरे दलवाले जनसाधारण के मार्ग को वहाँ मिलने नहीं दिया जाता। साथ ही दक्षिणायन वाले संवत्सर या साल के छ: महीनों के बाद पितृलोक में सीधे जाते हैं और इस प्रकार ऊपर जा के दो रास्ते साफ हो जाते हैं। जैसा कि छांदोग्य (5। 10। 3) से स्पष्ट है। वैसे ही कर्मी लोगों के रास्ते से भी कुछी दूर जा के जनसाधारण अपना दूसरा रास्ता पकड़ लेते हैं। उत्तरायण वाले ब्रह्मलोक जाते हैं। दक्षिणायन वाले स्वर्ग जाते हैं। शेष लोग दोनों में कहीं न जा के मरते-जीते रहते हैं। यही तो वहाँ साफ लिखा है। स्वर्ग से लौटते हुए चंद्रलोक में आ के आकाश में आते और वायु आदि के जरिए मेघ में प्रविष्ट हो के उन अन्नों में जा पहुँचते हैं जिन्हें उनके भावी माता-पिता खाएँगे। पानी से तो अन्न होता ही है। गीता ने भी यह कही दिया है। इसीलिए वृष्टि के द्वारा अन्न में जाते हैं। यही बात छांदोग्य (5। 10। 5-6) में पाई जाती है। पाँच आहुतियों के रूप में इसी का विस्तार इसी से पहले के 4 से 9 तक के खंडों में किया गया है। मगर साधारण लोग आकाश के बाद चंद्रमा होते स्वर्ग में नहीं जाते; किंतु वहीं से वायु में हो के वृष्टि के क्रम से अन्न में आ जाते हैं। बस, यही फर्क है।
अत: कुछ इस तरह का संबंध इस रात की मौत से मालूम होता है कि वह साधारणत: दक्षिणायन मार्ग और उस अँधरे रास्ते से ही जुटी है - रात्रि की मौत का दक्षिणायन या अर्द्ध दक्षिणायन वाले अँधरे रास्ते से ही संबंध आमतौर से है। इसमें केवल अपवाद ही होता है - हो सकता है। यह बात अस्वाभाविक या आकस्मिक मृत्यु वगैरह में ही पाई जाती है जो दिन में होती है। कम से कम यही खयाल उस समय के दार्शनिकों और विवेकियों का था। इसीलिए भीष्म ने दिन और उत्तरायण की मौत को ही पसंद किया। इसीलिए उत्तरायण की प्रतीक्षा करते रहे। उनने और दूसरे लोगों ने माना कि इस तरह उनके ब्रह्मलोक पहुँचने या उपासना के परिपक्व होने में आसानी होगी। हमारे जानते यही तात्पर्य इस समस्त वृत्तांत और वर्णन का है। इसमें सबका समावेश भी हो जाता है। मार्ग या रास्ता कहने से तो कोई अंतर आता नहीं है। मार्ग तो वह हई। आखिर जमीन का रास्ता तो वहाँ है नहीं। वह तो दिशा तथा समय का ही है। ऊँचे, नीचे, पूर्व, पच्छिम कहीं भी जाना हो उसका काल से संबंध हई और पूर्व आदि दिशा को काल से जुदा मानते भी नहीं यह कही चुके हैं।
उत्तरायण प्रकाशमय है और दक्षिणायन अँधेरा। इसीलिए पथपदर्शकों के नाम भी दोनों में ऐसे ही हैं। मालूम होता है, जैसे चावल के परमाणु निकलने के रास्ते और साधन हैं जिन्हें हम देख न सकने पर भी मानते हैं, नहीं तो व्यवस्था न हो के गड़बड़ी हो जाती; वैसे ही शरीरदाह के बाद उत्तरायण मार्ग में चिताग्नि की ज्योति और दक्षिणायन में उसका धुआँ मृतात्मा की सूक्ष्म देह को ले चलने का श्रीगणेश करते हैं। कम से कम प्राचीनों ने यही कल्पना की थी कि सूक्ष्म शरीर को यही दोनों यहाँ से उठाते और ले चलते हैं। आगे दिन और रात को सौंप देते हैं। वह शुक्ल और कृष्णपक्ष को। यही क्रम चलता है। ज्योति, धूम आदि को देवता तो इसीलिए कहा कि इनमें वह अलौकिक - दिव्य - ताकत है जो हम औरों में नहीं पाते। सूक्ष्म शरीर को ले जाना और पहुँचाना असाधारण या अलौकिक काम तो हई। वैदिक यज्ञयागादि कर्मों का ज्ञान या विवेक से ताल्लुक है नहीं यह तो गीता ने 'यामिमां' (2। 42-46) आदि में कहा ही है और उन्हीं का फल है यह दक्षिणायन। इसीलिए यहाँ प्रकाश नहीं है। जैसे का तैसा फल है। उधर उपासना कहते हैं अपूर्ण ज्ञान की अवस्था को ही। इसलिए उसमें प्रकाश तो हई । यही बात उत्तरायण में भी है। ज्ञान के अपूर्ण होने के कारण ही मृतात्मा की, ब्रह्मलोक में पहुँचने के उपरांत समय पा के ज्ञान पूर्ण होने पर, ब्रह्मा के साथ ही मुक्ति मानी गई है। इसी को क्रम मुक्ति भी कहते हैं। जैसे जनसाधारण के लिए इन दोनों की अपेक्षा जीने-मरने का एक तीसरा ही रास्ता कहा गया है; उसी तरह अद्वैत तत्त्व के ज्ञानवाले का चौथा है। वह तो कहीं जाता है न आता है। उसके प्राण यहीं विलीन हो जाते और वह यहीं मुक्त हो जाता है।
गीता ने एक ओर तो यह चीज कही है। दूसरी ओर 'त्रैविद्या मां' (9। 20-21) में अस्थाई स्वर्ग सुख का भी वर्णन किया है। उसे भी कर्म-फल ही बताया है। वह यही दक्षिणायन वाली ही चीज है। यों तो ब्रह्मज्ञान और आत्मानंद का गीता में सारा वर्णन ही है। स्थित प्रज्ञ, भक्त और गुणातीत की दशा उसी आत्मज्ञान और ब्रह्मानंद की ही तो है। सवाल होता है कि स्वर्ग और ब्रह्मानंद के अलावे उत्तरायण-दक्षिणायन के पृथक वर्णन की क्या जरूरत थी? इससे व्यावहारिक लाभ है क्या? गीता तो अत्यंत व्यावहारिक (Practical) है। इसीलिए यह प्रश्न होता है।
असल में कर्मों के सिलसिले में कर्मवाद की बात आते-आते यह भी आनी जरूरी थी। इससे साधारण कर्मों की तुच्छता, अपूर्ण ज्ञान की त्रुटि एवं पूर्ण तत्त्वज्ञान की महत्त्व सिद्ध हो जाती है। स्वर्ग के वर्णन में केवल स्वर्ग की बात और उसकी अस्थिरता आती है। मगर ब्रह्मलोक की तो आती नहीं। एक बात और है। उपनिषदों में दक्षिणायन के वर्णन में कहा गया है कि चंद्रलोक में जा के जीवगण देवताओं के अन्न या भोग्य बन जाते हैं। देवता उन्हें भोगते हैं। देवता का अर्थ है दिव्यशक्तियाँ। वहाँ भी गुलामी ही रहती है। दिव्यशक्तियाँ जीव से ऊपर रहती हैं। फिर वह वहाँ से नीचे गिरता है। इसीलिए उसे यह खयाल स्वभावत: होगा कि हम ऐसा क्यों न करें कि कम से कम ब्रह्मलोक जाएँ, जहाँ कोई देवता हम पर न रहेगा; या आत्मज्ञान ही क्यों न प्राप्त कर लें कि सभी आने-जाने के झमेलों से बचें और खुद देवता बन जाएँ। क्योंकि नौ, दस, ग्यारह अध्यायों में तो सभी देवताओं को परमात्मा का अंश या उसकी विभूति ही कहा है और ज्ञानी स्वयं परमात्मा बन जाता ही है - वह खुद परमात्मा है। बस, इससे अधिक लिखने का यहाँ मौका नहीं है।
गीता की अध्याय-संगति
गीता का अर्थ समझने में एक जरूरी बात यह है कि हम उसमें प्रतिपादित विषयों को ठीक-ठीक समझें और उनका क्रम जानें। इसी का संबंध ज्ञान और विज्ञान से है जिसका उल्लेख गीता (7। 2-9। 1) में दो बार स्पष्ट आया है। इस दृष्टि से हम गीता के अध्यायों को देखें तो ठीक हो।
पहला अध्याय तो भूमिका या उपोद्घात ही है। वह गीतोपदेश का प्रसंग तैयार करता है जो अर्जुन के विषाद के ही रूप में है। यही सबसे उत्तम भूमिका है भी। इसके करते जितना सुंदर प्रसंग तैयार हुआ है उतना और तरह से शायद ही होता।
दूसरे अध्याय का विषय है ज्ञान या सांख्य। इसमें उसी की मुख्यता है।
तीसरे में कर्म का सवाल उठा के उसी पर विचार और उसी का विवेचन होने के कारण वही उसका विषय है।
चौथे में ज्ञान का कर्मों के संन्यास से क्या ताल्लुक है। यही बात आई है। इसीलिए उसका विषय ज्ञान और कर्म-संन्यास है।
स्वभावत:, जैसे दूसरे अध्याय में ज्ञान के प्रसंग से कर्म के आ जाने के कारण ही तीसरे में उसका विवेचन हुआ है, उसी तरह चौथे में संन्यास के आ जाने से पाँचवें में उसी का विवेचन है, वही उसका मुख्य विषय है।
छठे में अभ्यास या ध्यान का विवरण है। यह ज्ञान के लिए अनिवार्य रूप से आवश्यक है। इसे ही पातंजल योग भी कहते हैं। चौथे के ज्ञान और कर्म-संन्यास के मेल को ही ब्रह्मयज्ञ भी कहा है और वही उसका मुख्य अर्थ शंकर ने लिखा है। ठीक ही है। पाँचवें के मुख्य विषय - संन्यास - को उनने प्रकृतिगर्भ नाम दिया है। बाहरी झमेलों से पिंड छुड़ा के किस प्रकार प्राकृतिक रूप में ब्रह्मानंद में मस्त हो जाते हैं यही बात उसमें सुंदर ढंग से लिखी है। संन्यासी के संबंध में प्राचीन ग्रंथों में लिखा भी है कि वह जैसे माता के गर्भ से बाहर आने के समय था वैसा ही रहे - 'यथाजातरूपधार:।' इसलिए इस संन्यास को प्रकृतिगर्भ कहना सर्वथा युक्त है।
इस प्रकार छठे अध्याय तक जो बातें लिखी गई हैं उनके अलावे और कोई नवीन विषय तो रह जाता ही नहीं। यही बातें आवश्यक थीं। इन्हीं से काम भी चल जाता है। शेष बात तो कोई ऐसी आवश्यक बच जाती है नहीं, जो गीता-धर्म के लिए जरूरी हो और इसीलिए जिसका स्वतंत्र रूप से विवेचन आवश्यक हो जाए। हाँ, यह हो सकता है कि जिन विषयों का निरूपण अब तक हो चुका है उनकी गंभीरता और अहमियत का खयाल करके उन्हीं पर प्रकारांतर से प्रकाश डाला जाए। उन्हें इस प्रकार बताया जाए, दिखाया जाए कि वे हृदयंगम हो जाए। इस जरूरत से इनकार किया जा सकता नहीं। गीता ने भी ऐसा ही समझ के शेष बारह अध्यायों में यही काम किया है। अठारहवें अध्याय में इसके सिवाय सभी बातों का उपसंहार भी कर दिया है। इसीलिए सातवें अध्याय में कोई नया विषय न दे के ज्ञान और विज्ञान की ही बातें कही गई हैं। मगर कहीं लोग ऐसा न समझ लें कि यह बात केवल सातवें अध्याय का ही प्रतिपाद्य विषय है, इसीलिए नवें अध्याय के शुरू में ही पुनरपि उसी का उल्लेख कर दिया है।
यहाँ पर ज्ञान और विज्ञान का मतलब समझ लेने पर आगे बढ़ने में आसानी होगी। पढ़-सुन के या देख के किसी बात की साधारण जानकारी को ही ज्ञान कहते हैं। विज्ञान उसी बात की विशेष जानकारी का नाम है। इसके दो भाग किए जा सकते हैं। एक तो यह कि किसी बात के सामान्य (General) निरूपण, जिससे सामान्य ज्ञान हो जाए, के बाद उसका पुनरपि ब्योरेवार (Detailed) निरूपण हो जाए। इससे पहले की अपेक्षा ज्यादा जानकारी उसी चीज की जरूर होती है। दूसरा यह कि जिस ब्योरे का निरूपण किया गया हो उसी को प्रयोग (experiment) करके साफ-साफ दिखा-सुना दिया जाए। इस प्रकार अपनी आँखों देख लेने, छू लेने या सुन लेने पर पूरी-पूरी जानकारी हो जाती है, जिससे वह बात दिल-दिमाग में अच्छी तरह बैठ जाती है। हमने किसी को कह दिया, उसने सुन लिया या कहीं पढ़ लिया कि सूत से कपड़ा तैयार होता है। इस तरह जो उसे जानकारी हुई वही ज्ञान है। उसके बाद सामने कपड़ा रख के उसके सूतों को दिखला दिया, तो उसको विज्ञान हुआ - विशेष जानकारी हुई। मगर सूत का तानाबाना करके उसके सामने ही यदि कपड़ा बुन दिया तो यह भी विज्ञान हुआ और इसके चलते उसके दिल-दिमाग में यही बात पक्की तौर से जम जाती है।
गीता में भी शुरू के छ: अघ्यायों में जिन बातों का निरूपण हुआ है। वह तो ज्ञान हुआ मगर उन बातों के प्रकारांतर से निरूपण करने के साथ ही सातवें में सृष्टि के कारणों आदि का विशेष विवरण दिया है।
आठवें में अधिभूत आदि के निरूपण के साथ ही उत्तरायण आदि का विशेष वर्णन किया है।
नवें में फिर प्रकृति से सृष्टि और प्रलय के निरूपण के साथ क्रतु, यज्ञ, मंत्र आदि के रूप में इस सृष्टि को भगवान का ही रूप कहा है।
दसवें में इसी बात का विशेष ब्योरा दिया है कि सृष्टि की कौन-कौन-सी चीजें खासतौर से भगवान के स्वरूप में आ जाती हैं।
इस तरह जिस तत्त्वज्ञान की बात दूसरे अध्याय से शुरू हुई उसी को पुष्ट करने के लिए इन चारों अध्यायों में विभिन्न ढंग से बातें कही गई हैं। सृष्टि के महत्त्वपूर्ण पदार्थों की ओर तो लोगों का ध्यान खामख्वाह ज्यादा आकृष्ट होता है खुद-ब-खुद। अब यदि उन पदार्थों को भगवान का ही रूप या उन्हीं से साक्षात बने हुए बताया जाए तो और भी ज्यादा ध्यान उधर जाता है। हम तो कही चुके हैं कि आत्मा, परमात्मा और पिंड, ब्रह्मांड इन चारों में एक ही बुद्धि - सम बुद्धि ही - तत्त्वज्ञान है। इस निरूपण से उसी ज्ञान में मदद मिलती है। इस प्रकार ब्योरेवार निरूपण के द्वारा विज्ञान में ही ये चारों अध्याय मदद करते हैं। सातवें का विषय जो ज्ञान-विज्ञान कहा है वह तो कोई नई चीज है नहीं। इसमें ज्ञान या विज्ञान का स्वरूप बताया गया है नहीं कि वही इसका विषय हो। सिर्फ पहले के ही ज्ञान की पुष्टि की गई है। इसी प्रकार नवें का विषय राजविद्या-राजगुह्य लिखा है। मगर उसके दूसरे ही श्लोक में ज्ञान-विज्ञान का ही नाम राजविद्या-राजगुह्य कहा गया है। इसलिए यह भी कोई नई चीज है नहीं। आठवें का विषय जो तारक ब्रह्म या अक्षरब्रह्म है वह भी कोई नई चीज नहीं है। अविनाशी ब्रह्म या आत्मा के ही ज्ञान से लोग तर जाते हैं - मुक्त होते हैं और उसका प्रतिपादन पहले हो ही चुका है। ओंकार को भी इसीलिए अक्षर या तारक कहते हैं कि ब्रह्म का ही वह प्रतीक है, प्रतिपादक है। दसवें को तो विभूति का अध्याय कहा ही है और विभूति है वही भगवान का विस्तार। इसलिए यह भी कोई स्वतंत्र विषय नहीं है।
इस प्रकार ब्योरे के प्रतिपादन के बाद पूरी तौर से दिमाग में बैठाने के लिए प्रत्यक्ष ही उसी चीज को दिखाना जरूरी होता है और ग्यारहवें अध्याय में यही बात की गई है। भगवान ने अर्जुन को दिव्य दृष्टि दी है और उसने देखा है कि भगवान से ही सारी सृष्टि कैसे बनती और उसी में फिर लीन हो जाती है। यदि प्रयोगशाला में कोई अजनबी भी जाए तो यंत्रों तथा विज्ञान के बल से उसे अजीब चीजें दीखती हैं जो दिमाग से पहले नहीं आती थीं। कहना चाहिए कि उसे भी दिव्य-दृष्टि ही मिली है। दिव्य-दृष्टि के सींग पूँछें तो होती नहीं। जिससे आश्चर्यजनक चीजें दीखें और बातें मालूम हों वही दिव्य-दृष्टि है। इसलिए 11वें में विज्ञान की ही प्रक्रिया है।
ग्यारहवें अध्याय के अंत में जिस साकार भगवान की बात आ गई है उसकी और उसी के साथ निराकार की भी जानकारी का मुकाबिला ही बारहवें अध्याय में है। यदि उससे अंतवाले भक्तनिरूपण को चौदहवें के अंत के गुणातीत तथा दूसरे के अंत के स्थितप्रज्ञ के निरूपण से मिलाएँ तो पता चलेगा कि तीनों एक ही हैं। इसी से मालूम होता है कि बारहवें की भक्ति तत्त्वज्ञान ही है जो पहले ही आ गया है यहाँ सिर्फ ब्योरा है उसी की प्राप्ति के उपाय का।
तेरहवें में क्षेत्रक्षेत्रज्ञ का निरूपण भी वही विज्ञान की बात है।
चौदहवें का गुणनिरूपण सृष्टि के खास पहलू का ही दार्शनिक ब्योरा है।
पंदरहवें में पुरुषोत्तम या भगवान और जन्ममरणादि की बातें, सोलहवें में आसुर संपत्ति की बात और सत्रहवें की श्रद्धा विज्ञान से घनिष्ठ संबंध रखती है।
इसमें तथा अठारहवें में गुणों के हिसाब से पदार्थों का विवेचन गुण-विभाग में ही आ जाता है। अंत में और शुरू में भी अठारहवें में कर्म, त्याग आदि का ही उपसंहार एवं संन्यास की बात है जो पहले आ चुकी है। ध्यानयोग भी पहले आया ही है। उसी का यहाँ उपसंहार है।
योग और योगशास्त्र
गीता के योग शब्द को लेके कुछ लोगों ने जानें क्या-क्या उड़ानें मारी हैं और गीता का अर्थ ही संन्यास-विरोधी योग उसी के बल पर कर लिया है। इतना ही नहीं। ज्ञानमार्ग के टीकाकारों और शंकर वगैरह पर उनने काफी ताने-तिश्ने भी कसे हैं और खंडन-मंडन भी किया है। उनने इस योग, हर अध्याय के अंत के समाप्ति सूचक 'इतिश्री' आदि वचनों में 'योगशास्त्रे' तथा 'भगवद्गीतासु' शब्दों को बार-बार देख के यही निश्चय किया है कि एक तो गीता में केवल प्रवृत्ति रूप योग या संन्यास-विरोधी कर्म का ही निरूपण है - यह उसी का शास्त्र है; दूसरे यह योग भागवत या महाभारत वाला भागवत धर्म या नारायणीय धर्म ही है। उन्होंने उसे ही गीता का प्रतिपाद्य विषय माना है। इसीलिए जरूरत हो जाती है कि इन बातों पर भी चलते-चलाते थोड़ा प्रकाश डाल दिया जाए।
हम कुछ भी कहने के पहले साफ कह देना चाहते हैं कि गीता का विषय न तो भागवत धर्म है और न कुछ दूसरा ही। उसका तो अपना ही गीताधर्म है जो और कहीं नहीं पाया जाता है। यही तो गीता की खूबी है और इसीलिए उसकी सर्वमान्यता है। दूसरों की नकल करने में उसकी इतनी कदर, इतनी प्रतिष्ठा कभी हो नहीं सकती थी। तब उसकी अपनी विशेषता होती ही क्या कि लोग उस पर टूट पड़ते? यह बात तो हमने अब तक अच्छी तरह सिद्ध कर दी है। यह भी तो कही चुके हैं कि गीता ने यदि प्रसंगवश या जरूरत समझ के दूसरों की बातें भी ली है तो उन पर अपना ही रंग चढ़ा दिया है। मगर भागवत धर्म पर कौन-सा अपना रंग उसने चढ़ाया है यह तो किसी ने नहीं कहा। अगर रंग चढ़े भी तो जब गीता का मुख्य विषय दूसरों का ही ठहरा, न कि अपना खास, तब तो उसकी विशेषता जाती ही रही। शास्त्रों और ग्रंथों की विशेषता होती है मौलिकता में। उनकी जरूरत होती है किसी नए विषय के प्रतिपादन में। यही दुनिया का नियम एवं सर्वमान्य सिद्धांत है। लेकिन और भी सुनिए।
सबसे पहले सभी अध्यायों के अंत में लिखे 'योगशास्त्रे' और 'भगवद्गीतासु' को ही लें। जब इस बार-बार लिखे योग शब्द से कोई खास अभिप्राय लेने या इसे खास मानी पिन्हाने का यत्न किया जाता है तो हमें आश्चर्य होता है। गीता का योग शब्द तो इतने अर्थों में आया है कि कुछ कहिए मत। अमरकोष के 'योग: संहननोपायध्यानसंगतिषुक्तिषु' (3। 3। 22) में जितने अर्थ इस शब्द के लिखे गए हैं और उनके विवरण के रूप में जो बीसियों प्रकार के अर्थ पातंजलदर्शन, महाभारत या ज्योतिष ग्रंथों में आते हैं प्राय: सभी अर्थों में गीता ने योग शब्द को लिख के ऊपर से कुछ नए मानी भी जोड़े हैं। उसने अपना खास अर्थ भी इस शब्द को पिन्हाया है। यदि गीता के अठारहवें अध्याय के अंत के 74-76 श्लोकों को गौर से देखा जाए तो पता चलेगा कि गीता के समूचे संवाद को भी योग ही कहा है। यह तो हम पहले बता चुके हैं कि गीता का अपना योग क्या है। और भी देखिए कि पहले अध्याय में जिस अर्जुन के विषाद की ही बात मानी जाती है उसे भी 'विषादयोगोनाम प्रथमोऽध्याय:' शब्दों में साफ ही योग कह दिया है। भला इसका क्या संबंध है भागवत धर्म के साथ? अध्यायों के अंत में जो योग शब्द आए हैं। वह तो अलग-अलग प्रत्येक अध्याय में प्रतिपादित बातों के ही मानी में हैं। जब तक यह सिद्ध न हो जाए कि सभी प्रतिपादित बातें भागवत धर्म ही हैं तब तक उन योग शब्दों से यह कैसे माना जाए कि वे भागवत धर्म के ही प्रतिपादक हैं? ऐसा मानने में तो अन्योन्याश्रय दोष हो जाएगा। यही कारण है कि हर अध्याय में लिखी बातों को ही अंत में लिख के आगे योग शब्द जोड़ दिया गया है। इसलिए उन शब्दों से ऐसा अर्थ निकालना सिर्फ बाल की खाल खींचना है।
रह गई बात 'भगवद्गीतासु' या 'श्रीमद्भगवद्गीतासु' शब्द की। हम तो इसमें भी कोई खास बात नहीं देखते। इससे यदि भागवत धर्म को सिद्ध करने की कोशिश की जाती है तो फिर वही बाल की खाल वाली बात आ जाती है। यह तो सभी मानते हैं कि गीता तो उपनिषदों का ही रूपांतर है - उपनिषद ही है। फर्क सिर्फ़ यही है कि उपनिषदों को भगवान ने खुद अपने शब्दों में जब पुनरपि कह दिया तभी उसका नाम भगवद्गीतोपनिषद् पड़ गया। गीता शब्द जिस गै धातु से बनता है तथा उसका अर्थ जो गान लिखा है उसके मानी वर्णन या कथन हैं। फिर वह कथन चाहे तान-स्वर के साथ हो या साधारण शब्दों में ही हो। गान भी तो केवल सामवेद में ही होता है। मगर 'वेदै: सांगपदक्रमोपनिषदैर्गायंति यं सामगा:' में तो सभी वेदों में और उपनिषदों में भी गान की बात ही लिखी है। यहाँ तक कि वेद के अंग व्याकरणादि में भी गान ही कहा गया है। मगर वहाँ तो गान - ताल-स्वर के साथ - असंभव है। हम आपका गुण गाते रहते हैं, ऐसा कहने का अर्थ केवल बयान ही होता है, न कि राग और ताल के साथ गाना। यही बात गीता या भगवद्गीता में भी है। उपनिषद स्त्रीलिंग तथा अनेक हैं। इसीलिए 'गीतासु' में स्त्रीलिंग और बहुवचन प्रयोग है, जैसा कि बहुवचन 'उपनिषत्सु' में है। आमतौर से गीता शब्द भी इसीलिए स्त्रीलिंग हो गया। नहीं तो 'गीत' होता। यदि गौर से देखा जाए तो गीता में मौके-मौके से कुल 28 बार 'श्रीभगवानुवाच' शब्द आए हैं। इनमें केवल ग्यारहवें अध्याय में चार बार, दूसरे और छठे में तीन-तीन बार, तीसरे, चौथे, दसवें और चौदहवें में दो-दो बार तथा शेष अध्यायों में एक-एक बार आए हैं। इनका अर्थ है कि 'श्रीभगवान बोले।' चाहे श्रीभगवान कहें या श्रीमद्भगवान कहें, दोनों का अर्थ एक ही है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि गीता में जो कुछ उपदेश दिया है या वर्णन किया है वह श्रीमद्भगवान ने ही। बस, इसीलिए इसका नाम श्रीमद्भगवद्गीता हो गया; न कि किसी और कारण से। इतने से ही जानें कहाँ से नारायणीयधर्म को यहाँ उठा लाना और गीता के माथे उसे पटकना बहुत दूर की कौड़ी लाना है।
योग शब्द के बारे में जरा और भी कुछ जान लेना अच्छा होगा। गीता में केवल योग शब्द प्राय: 135 बार आया है। प्राय: उसी के मानी में उसी युज धातु से बने युंजन, युत्त्का, युक्त आदि शब्द भी कई बार आए हैं। मगर उन्हें छोड़ के सीधे योग शब्द हर अध्याय के अंत के समाप्ति सूचक संकल्प वाक्य में दो-दो बार आए हैं। इस प्रकार यदि इन 36 को निकाल बाहर करें तो प्राय: सौ बार गीता के भीतर के श्लोकों में यह शब्द पाया जाएगा। इनमें चौथे, पाँचवें, छठे तथा आठवें आदि में कुछ बार पातंजल योग के अर्थ में ही यह शब्द आया है, या ऐसे अर्थ में ही जिसमें पातंजल योग भी समाविष्ट है। तीसरे अध्याय के 'कर्मयोग' (3। 1) में और 'योगिन: कर्म' (5। 11) में भी योग शब्द साधारण कर्म के ही मानी में आया है। इसीलिए वहाँ कर्मयोग शब्द का वह विशेष अर्थ नहीं है जो उस पर कर्मयोग-शास्त्र के नाम से लादा जाता है। इसी तरह 'यत्रकाले त्वनावृत्तिम्' आदि (8। 13-27) श्लोकों में कई बार योग और योगी शब्द साधारण कर्म करने वालों के भी अर्थ - व्यापक अर्थ - में आया है। 'योगक्षेमं' (9। 22) और 'योगमाया समावृत:' (7। 25) का योग शब्द भी अप्राप्त की प्राप्ति आदि दूसरे ही अर्थों में है। दसवें अध्याय में कई बार योग शब्द विभूति शब्द के साथ आया है और वह भगवान की शक्ति का ही वाचक है। बारहवें में भी कितनी ही बार यह शब्द अभ्यास वगैरह दूसरे अर्थ में ही प्रयुक्त हुआ है। तेरहवें के 'अन्ये सांख्येन योगेन' (13। 24) में तो साफ ही योग का अर्थ ज्ञान है।
इस प्रकार यदि ध्यान से देखा जाए तो दस ही बीस बार योग शब्द उस अर्थ में मुश्किल से आया है, जिसका निरूपण 'कर्मण्येवाधिकारस्ते' (2। 47-48) में किया गया है; हालाँकि उस योग का भी जो निरूपण हमने किया है और जिसे गीताधर्म माना है वह ऐसा है कि उसके भीतर कर्म का करना और उसका संन्यास दोनों ही आ जाते हैं। मगर यदि यह भी न मानें और योग का अर्थ वहाँ वही मानें जो गीतारहस्य में माना गया है, तो भी आखिर इससे क्या मतलब निकलता है? गीता के श्लोकों में जो सैकड़ों बार से ज्यादा योग शब्द आया है उसमें यदि दस या बीस ही बार असंदिग्ध रूप से उस अर्थ में आया है और बाकी दूसरे-दूसरे अर्थों में, तो योग शब्द के बारे में यह दावा कैसे किया जा सकता है कि वह प्रधानतया गीता में उसी भागवत धर्म का ही प्रतिपादक है? चाहे आवेश में आ के औरों को भले ही कह दिया जाए कि वे तो शब्दों का अर्थ जबर्दस्ती करके अपने संप्रदाय की पुष्टि करना चाहते हैं। मगर यह इलजाम तो उलटे इलजाम लगानेवालों पर ही पड़ जाता है। यों तो चाहे जो भी दूसरों पर दोष मढ़ दे सकता है। मगर हम तो ईमानदारी की बात चाहते हैं, न कि खींचतान।
सिद्धि और संसिद्धि
योग शब्द जैसी तो नहीं, लेकिन सिद्धि और संसिद्धि शब्दों या इसी अर्थ में प्रयुक्त सिद्ध एवं संसिद्ध शब्दों को लेकर भी गीता के श्लोकों के अर्थों में और इसीलिए कभी-कभी सैद्धांतिक बातों तक में कुछ न कुछ गड़बड़ हो जाया करती है। आमतौर से ये शब्द जिस मानी में आया करते हैं वह न हो के गीता में इन शब्दों के कुछ खास मानी प्रसंगवश हो जाते हैं, खासकर संसिद्धि शब्द के। मगर लोग साधारणतया पुराने ढंग से ही अर्थ लगा के या तो खुद घपले में पड़ जाते हैं, या अपना मतलब निकालने में कामयाब हो जाते हैं। इसीलिए इनके अर्थ का भी थोड़ा-सा विचार कर लेना जरूरी है।
सिद्धि और सिद्ध शब्द अलौकिक चमत्कार और करिश्मों के ही संबंध में आमतौर से बोले जाते हैं। साधु-फकीरों को या मंत्र-तंत्र का अनुष्ठान करके जो लोग कामयाबी हासिल करते एवं चमत्कार की बातें करते हैं उन्हीं को सिद्ध और उनकी शक्ति को सिद्धि कहते हैं। इसी सिद्धि की अणिमा, महिमा आदि आठ किस्में पुराने ग्रंथों में पाई जाती हैं। अणिमा के मानी हैं छोटे-से-छोटा बन जाना और महिमा के मानी बड़े-से-बड़ा। लंकाप्रवेश के समय हनुमान की इन दोनों सिद्धियों का बयान मिलता है जब वे लंकाराक्षसी को चकमा दे के भीतर घुस रहे थे। पातंजल योग-सूत्रों के 'ते समाधावुपसर्गा व्युत्थाने सिद्धय:' (3। 37) में इसी सिद्धि का जिक्र है। जिसके चलते योगी भूत भविष्य की बातें जान लेता, दूसरों के दिल की बातें समझ लेता और पक्षी-पशुओं के शब्दों का भी अर्थ जानता है। इसी तरह की और भी बातें हैं। इसी प्रकार 'अहिंसाप्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्याग:' (2। 35), 'सत्यप्रतिष्ठायां क्रियाफलाश्रयत्वम्' (2। 36) आदि योगसूत्रों में जो लिखा गया है कि पूरे अहिंसक को साँप-बिच्छू और सिंह-बाघ आदि भी नहीं छूते और पूरा सत्यवादी जो भी कह देता है वह जरूर हो जाता है, उसे भी ऐसे आदमी की सिद्धि या शक्ति ही उन सूत्रों के व्यासभाष्य में यों कहा गया है, 'तदा तत्कृतमैश्वर्यं योगिन: सिद्धिसूचकं भवति।' इसी प्रकार किसी काम के पूरा हो जाने को भी सिद्धि बोलते हैं और कहते हैं कि हमारा कार्य सिद्ध हो गया। 'सिद्धयसिद्धयो: समो भूत्वा' (2। 48) में गीता ने भी इसी मानी में सिद्धि शब्द का प्रयोग किया है। 'गंधर्वयक्षासुरसिद्धसंघा:' (11। 22) तथा 'सर्वे नमस्यन्ति च सिद्धसंघा:' (11। 36) में जो सिद्ध शब्द है वह पूर्वोक्त योगसिद्धि जैसे ही अर्थ में आए हैं। देवताओं के एक ऐसे ही दल को सिद्ध कहते हैं। गीता में इनका केवल नाम आ गया है, न कि गीता के प्रतिपादित विषय में ये आते हैं। क्योंकि गीता का विषय तो ऐसा है जिसका उपयोग हम दैनिक जीवन में कर सकते हैं और ये सिद्ध है अलौकिक दुनिया के पदार्थ। इसलिए ऐसे स्थानों में तो कोई गड़बड़ होती ही नहीं। यहाँ तो ठीक ही काम चलता है।
मगर दिक्कत होती है और-और श्लोकों में। 'न च संन्यसनादेवसिद्धिं समधिगच्छति' (3। 4), 'कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादय:' (3। 20), 'कांक्षन्त: कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवता:। क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवतिकर्मजा' (4। 12), 'तत्स्वयं योगसंसिद्ध: कालेनात्मनि विन्दति' (4। 38), 'अप्राप्य योगसंसिद्धिं का गतिं कृष्ण गच्छति' (6। 37), 'यतते च ततो भूय: संसिद्धौ कुरुनंदन' (6। 43), 'अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो याति परांगतिम्' (6। 45), 'नाप्नुवन्ति महात्मान: संसिद्धिं परमांगता:' (8। 15), 'मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्सिद्धिमवाप्स्यसि' (12। 10), 'यज्ज्ञात्वामुनय: सर्वे परांसिद्धिमितो गता:' (14। 1), 'स्वेस्वे कर्मण्यभिरत: संसिद्धिं लभते नर:। स्वकर्मनिरत: सिद्धिं यथाविन्दति तच्छृणु' (18। 45), 'स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानव:' (18। 46), 'नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां संन्यासेनाधिगच्छति' (18। 49) और 'सिद्धिंप्राप्तो यथा ब्रह्म तथाप्नोति निबोध मे' (18। 50) श्लोकों में ही यह दिक्कत होती है।
इन पर कुछ भी विचार करने के पूर्व यह जान लेना होगा कि कर्मों के अनेक नतीजों में एक यह भी है कि उनसे हृदय, मन या अंत:करण की शुद्धि होती है। 'योगिन: कर्म कुर्वन्ति संगं त्यत्त्कात्मशुद्धये' (5। 11) में आत्मशुद्धि का मन की शुद्धि ही अर्थ है। इसीलिए वहाँ योगी शब्द का अर्थ है साधारण कर्मी, न कि गीता का योगी। क्योंकि उसका तो मन पहले ही शुद्ध हो जाता है। वह मन की शुद्धि के लिए कर्म क्यों करेगा? बिना मन:शुद्धि के वह योगी हो ही नहीं सकता। इसीलिए योगी हो जाने पर मन:शुद्धिका प्रश्न उठता ही नहीं। फलत: यदि पूर्व पर का विचार किया जाए तो 'मदर्थमपि' (12। 10) में भी सिद्धि का अर्थ है मन:शुद्धि ही। इसी प्रकार (18। 45-46) में भी सिद्धि और संसिद्धि का अर्थ मन की शुद्धि ही है और वह है उसकी चंचलता की निवृत्ति या रागद्वेष से छुटकारा 'तत्स्वयं योगसंसिद्ध:' (4। 38) में भी यही अर्थ है।
इसके सिवाय (8। 15), (14। 1) और (18। 49) इन तीन श्लोकों में सिद्धि तथा संसिद्ध शब्द में एक विशेषण लगा है जो दो जगह 'परमां' है और एक जगह 'परां'। मगर दोनों का अर्थ एक ही है और है वह 'ऊँचे दर्जे की या सर्वश्रेष्ठ' यही। इनमें जो (14। 1) का सिद्धि शब्द है उसी का विशेषण 'परां' है। फलत: परासिद्धि का अर्थ है परम कल्याण या मुक्ति ही। पर के साथ जुटने से सिद्धि शब्द उस प्रसंग में सिवाय मुक्ति या चरमलक्ष्य सिद्धि के अन्य अर्थ का वाचक हो ही नहीं सकता है। रह गए शेष दो श्लोकों वाले सिद्धि शब्द। सो यदि उनके भी इधर-उधर के श्लोकों के अर्थों पर पूरा गौर करें तो उनका अर्थ होता है पूर्ण रीति से कर्मत्याग। परम विशेषण कर्मत्याग की रही-सही भी त्रुटियों एवं कमियों को पूरा करके पूर्ण रीति से कर्मों से छुटकारे की बात ही कहता है। केवल संसिद्धि कहने से भी संभवत: सफलता अर्थ हो के कर्मों से छुटकारा अर्थ तो होता, मगर उसमें शायद खामी की गुंजाइश रह जाती। अठारहवें अध्याय के उस श्लोक के बादवाले में जो सिद्धि शब्द है वह तो परमसंसिद्धि का ही अनुवाद मात्र है। इसलिए उसका भी वही अर्थ है।
यदि 'संन्यासस्तु' (5। 6), 'नियतस्य तु' (18। 7) तथा 'भवत्यत्यागिनांग्म्' (18। 12) में देखें कि ब्रह्म और संन्यास शब्दों के अर्थ किस तरह पूर्व और उत्तर के वाक्यों के मिलाने से निश्चित होते हैं और वही रीति (3। 4) श्लोक में लगाएँ तो वहाँ सिद्धि का अर्थ होगा नैष्कर्म्य, संन्यास की सिद्धि या उसकी पूर्णता। इसी प्रकार (4। 2) में भी सिद्धि का अर्थ है फलप्राप्ति या लक्ष्यसिद्धि। छठे अध्याय में तो योग का प्रकरण है। इसलिए उसके 37, 43 और 45 श्लोकों में संसिद्धि का व्यापक अर्थ है, जिसमें मन की शुद्धिरूप योगसिद्धि और ज्ञान की प्राप्ति भी आ जाती है। इस प्रकार हमने देखा कि आँख मूँद के या बिना सोचे-विचारे अर्थ करने से इन शब्दों के अर्थों की जानकारी में गड़बड़ हो सकती है।
गीता में पुनरुक्ति
गीता के पढ़नेवालों को प्राय: अनेक बातों की पुनरुक्ति मिलती है और कभी-कभी तो तबीअत ऊब जाती है कि यह क्या पिष्टपेषण हो रहा। मगर कई कारणों से यह बात अनिवार्य थी। एक तो गहन विषयों का विवेचन ठहरा। यदि एक ही बार कह के छोड़ दिया जाए तो क्या यह संभव है कि सुनने वाले के दिमाग में वह बातें बैठ जाएगी? हमने तो ताजी से ताजी अंग्रेजी की किताबों में देखा है कि कठिन बातों को लेकर उन्हें बीसियों बार दुहराते हैं। यह दूसरी बात है कि अनेक ढंग से वही बातें कहके ही दुहराते हैं। गीता में भी एक ही बात प्रकारांतर और शब्दांतर में ही कही गई है, यह तो निर्विवाद है। अतएव गीता के उपदेश - गीताधर्म - की गहनता का खयाल करके पुनरावृत्ति उचित ही मानी जानी चाहिए।
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गीता की शैली पौराणिक
दूसरी बात यह है कि गीता का विषय और उसके तर्क वगैरह जरूर दार्शनिक हैं; मगर विषय प्रतिपादन की शैली पौराणिक है और गीता की यह एक खास खूबी है। दार्शनिक रीति रूखी और सख्त होती है, नीरस होती है। फलत: सर्वसाधारण के दिमाग में यह बात जँचती नहीं, जिससे लोग ऊब जाते हैं। फिर भी दार्शनिक इसकी परवाह करते नहीं। उन्हें तो सत्य का प्रतिपादन करना होता है। वे उपदेशक और प्रचारक तो होते नहीं कि लोगों के दिल-दिमाग को देखते फिरें। मगर गीता तो उपदेशक का काम करती है। इसका तो काम ही है सार्वजनिक जीवन से संबंध रखने वाले कामों का विवेचन करना और उनके रहस्य को लोगों के दिल-दिमाग में पहुँचाना। इसीलिए उसने पौराणिक शैली अख्तियार की है। इसकी विशेषता यही है कि संवाद, प्रश्नोत्तर या कथनोपकथन के रूप में ये बातें इसमें रखी गई हैं। इससे प्रसंग रुचिकर हो जाता है, उसमें सरसता आ जाती है। बच्चों के लिए यह संवाद की ही प्रणाली ज्यादा हितकर मानी जाती है। हितोपदेश में यही बात पाई जाती है और पुराणों में भी। इसके चलते कठिन से कठिन विषय भी आलंकारिक ढंग से प्रतिपादित हो के सहज बन जाते हैं। चौदहवें अध्याय में गर्भधारण के रूप में सृष्टि का निरूपण कितना सुंदर है! अर्जुन को दूसरे अध्याय में जो डाँटा गया है कि मुँह कैसे दिखाओगे वह कितना अनूठा है! पंदरहवें में, मरण के समय जीव सभी संस्कारों को ले के साथ ही जाता है, इसका कितना सुंदर वर्णन वायु के द्वारा फूलों की गंध ले जाने की बात से किया गया है!
गीतोपदेश ऐतिहासिक
हमें एक ही बात और कह के उपसंहार करना है। गीता के प्राचीन टीकाकारों में किसी-किसी ने गीता के वर्णन को केवल आलंकारिक मान के अर्जुन, कृष्ण आदि को ऐतिहासिक पुरुषों की जगह कुछ और ही माना है। उपदेश और उपदेश्य - गुरु तथा शिष्य - आदि को ही कृष्ण, अर्जुन आदि का रूप उनने दिया है और इस तरह अपनी कल्पना का महल उसी नींव पर खड़ा किया है। मगर हमें उससे यह पता नहीं चल सका था कि ऐसा करके वे लोग सचमुच महाभारत, गीता, उस युद्ध और कौरव-पांडव आदि को ऐतिहासिक पदार्थ नहीं मानते। क्योंकि इस बात की झलक उनकी टीकाओं में पाई नहीं जाती।
परंतु कुछ आधुनिक लोगों ने यह कह के गीता को ही ऐतिहासिकता से हटाना चाहा है कि प्राय: बीस लाख फौजों - क्योंकि 18 अक्षौहिणियाँ वहाँ मानी जाती हैं, और एक अक्षौहिणी में प्राय: एक लाख आदमी के अलावे घोड़े, हाथी, तोप आदि के होते थे - के बीच में, जब वह प्रहार करने ही को थीं, यह गीतोपदेश असंभव था। इसके लिए समय कहाँ था? इसीलिए कवि ने पीछे से कृष्ण और अर्जुन के नाम पर उसे रच के महाभारत में घुसेड़ दिया है।
मगर यदि वह जरा भी सोचें तो पता चले कि इस गीतोपदेश के लिए दो-चार घंटे की जरूरत न थी। सात सौ श्लोकों का पाठ तेजी से एक घंटे में पूरा हो जाता है। किंतु वहाँ श्लोक बोले गए, सो भी ठहर-ठहर के, यह बात तो है नहीं। कृष्ण ने अर्जुन को प्रचलित भाषा में उपदेश किया। एक घंटे के लेक्चर को लिखने में पोथा बन जाता है। गीतोपदेश में तो कुछ ही मिनटों की या ज्यादे से ज्यादा आधे घंटे की जरूरत थी। विश्वरूप का लेक्चर तो हुआ भी नहीं। वह तो दिखा दिया गया। अर्जुन ऐसा कुंद थोड़े ही था कि समझता न था और बार-बार रगड़-रगड़ के पूछता था। अत: उस मौके पर भी दस-बीस मिनट का समय निकाल लेना कुछ कठिन न था।
फिर भी हमारे ही देश के कुछ महापुरुषों ने जब यह कह दिया कि महाभारत की बातें ऐतिहासिक नहीं, किंतु कविकल्पित हैं, इसलिए गीता का संवाद भी वैसा ही है, तो हमें मर्मांतिक वेदना हुई। केवल हमीं को नहीं। हमारे जैसे कितनों को यह कष्ट हुआ। उसी समय कईयों ने हमसे अनुरोध किया कि आप इसका प्रतिपादन समुचित रूप से करें। वे हमारे गीता-प्रेम को जानते थे। इसी से उनने ऐसा कहा। यदि गीता में किसी का अपना सिद्धांत और उसकी हिंसा-अहिंसा न मिले तो इसमें गीता का क्या दोष? वह तो रत्नाकर सागर है। गोते लगाइए तो कुछ मोती मूँगे कभी न कभी उसमें से ऊपर लाइएगा ही। मगर आप जो चाहें सो ही उसमें से लाएँ यह असंभव है, और ऐसा न होने पर रत्नाकर के मूल में आघात करना उचित नहीं। गीता के अपने सिद्धांत हैं - गीताधर्म या एक खास चीज है जो उसी का है, न कि किसी और का।
ऐतिहासिकता की बात यों है। आज से हजारों साल पूर्व कुमारिल भट्ट ने मीमांसा दर्शन की टीका, तंत्रवार्त्तिक में, सदाचार के प्रसंग से अर्जुनादि पांडवों और कृष्ण के कामों पर आक्षेप करके पुन: उसका समर्थन किया है। दूसरे की दृष्टि में हमारे सत्पुरुषों का काम खटका था। इसलिए वे उन्हें सत्पुरुष नहीं मानते थे। कुमारिल ने खटका हटा के सत्पुरुष करार दिया और कृष्ण का ननिहाल पांडवों के यहाँ माना।
ब्राह्मणग्रंथों और उपनिषदों - खासकर छांदोग्य बृहदारण्यक आदि - में बीसियों बार कुरुक्षेत्र और कुरुदेश का जिक्र आया है और वहाँ अकाल एवं पाला-पत्थर की बात लिखी गई है। कुरुक्षेत्र का कुरु तो पांडवों तथा कौरवों का पूर्वज ही था। हस्ती भी उनका पूर्वज था। इसी से हस्तिनापुर नाम और स्थान पाए जाते हैं। कुरुक्षेत्र के युद्ध की स्मृति अभी तक वहाँ पाई जाती है और स्थान याद किए जाते हैं। छांदोग्य उपनिषद के चौथे अध्याय के 17वें खंड में देवकीपुत्र कृष्ण का उल्लेख है और ये थे पांडवों के नातेदार यह अभी कहा है। सबसे बड़ी बात यह है कि भीष्म के मरण के समय माघ में कृत्तिका नक्षत्र का सूर्य लिखा मान के और तैत्तिरीय आदि संहिताओं में भी यही देख के महाभारत के युद्ध का समय ईसा से पूर्व 1400 से लेकर 2500 साल के बीच में गणित के आधार पर ठीक किया गया है। तिलक ने ओरायन में इसका बड़ा प्रामाणिक विवेचन किया है। इसके सिवाय बीसियों भारतीय तथा पाश्चात्य देशीय पुरातत्त्वज्ञों ने भी यह बात मानी है। तिलक ने गीतारहस्य में साफ ही लिखा है कि 'सभी लोग मानते हैं कि श्रीकृष्ण तथा पांडवों के ऐतिहासिक पुरुष होने में कोई संदेह नहीं है,' 'चिंतामणिराव वैद्य ने प्रतिपादन किया है कि श्रीकृष्ण, यादव, पांडव तथा भारतीय युद्ध का एक ही काल है।' 'फिर निराधार बात क्यों कही जाए? तब तो रामायण आदि हमारा सभी इतिहास इसी तरह खत्म होगा। महाभारत पुस्तक को पुराण न कह के इतिहास कहते हैं और पंचमवेद भी। उपनिषद में भी ऐसा ही कहा है। तो क्या अब उसे निरा उपन्यास माना जाए।
गीताधर्म का निष्कर्ष
जो कुछ कहना था कहा जा चुका। गीतार्थ और गीताधर्म को समझने के लिए, हमारे जानते, इससे ज्यादा कहने की आवश्यकता नहीं है। इससे कम से भी शायद ही काम चलता। इसीलिए इच्छा रहते हुए भी हम इस विवेचन को संक्षिप्त कर न सके। उसमें हमें खतरा नजर आया। मगर अब हमें आशा है कि हमने जो कुछ लिखा है। उसी की कसौटी पर कसने पर गीताधर्म का हीरा शानदार और खरा निकलेगा। हम जानते हैं कि उसके लिए सैकड़ों तराजू और कसौटियाँ अब तक बन चुकी हैं जो एक से एक जबर्दस्त है। मगर हमारा अपना विश्वास है कि उनमें कहीं न कहीं कोई खामी है, त्रुटि है। जब सभी को अपने विश्वास की स्वतंत्रता है तो हमें भी अपने विचार के ही अनुसार कहने और लिखने में किसी को उज्र नहीं होना चाहिए। हम दूसरे के विचारों को उनसे छीनने तो जाते नहीं कि कलह हो। हम तो कही चुके हैं कि गीता तो इसी बात को मानती है कि हर आदमी ईमानदारी से अपने ही विचारों के अनुसार बोले और काम करे। इसीलिए हमने पुरानी कसौटियों की त्रुटियों का खयाल करके ही यह कसौटी तैयार की है। हमें इसमें सफलता मिली है या विफलता, यह तो कहना हमारे वश के बाहर की बात है। मगर 'कर्मण्येवाधिकारस्ते' के अनुसार हम इसकी परवाह करते ही नहीं। हमारी इस कसौटी में भी त्रुटियाँ होंगी, इसे कौन इनकार कर सकता है? लेकिन गीतार्थ हृदयंगम करने में यदि इससे कुछ भी सहायता मिली तो यह व्यर्थ न होगी।
महाभारत की उस बड़ी पोथी में जनकपुर के धर्मव्याध का वर्णन मिलता है, जो कसाई का काम करके ही अपनी जीविका करता था। उसी के सिलसिले की एक सुंदर कहानी भी है जो गीताधर्म को आईने की तरह झलका देती है। कोई महात्मा किसी निर्जन प्रदेश में जा के घोर तप और योगाभ्यास करते थे। दीर्घकाल के निरंतर प्रयत्न से उन्हें सफलता मिली और योगसिद्धि प्राप्त हो गई। फिर क्या था? उनने वह काम बंद कर दिया और गाँव की ओर चल पड़े। लेकिन जानें क्यों योगसिद्धि की प्राप्ति के बाद भी उन्हें संतोष न था, भीतर से तुष्टि मालूम न होती थी। खैर, रास्ते में एक वृक्ष के नीचे विश्राम करी रहे थे कि ऊपर से किसी बगुले ने उनके ऊपर विष्ठा गिरा दिया। उन्हें बड़ा गुस्सा आया और आँखें लाल करके जो बगुले को देखा तो वह जल के खाक हो गया! अब महात्मा को विश्वास हो गया कि उन्हें अवश्य योगसिद्धि प्राप्त हो चुकी है।
फिर वह आगे चले। उनने भोजन का समय होने से गाँव में एक गृहस्थ के द्वार पर पहुँच के 'भिक्षां देहि' की आवाज लगाई। देखा कि एक स्त्री भीतर है, जिसने उन्हें देखा भी और उनकी आवाज भी सुनी। मगर वह अपने काम में मस्त थी। इधर महात्मा को द्वार पर खड़े घंटों हो गए! उस स्त्री की धृष्टतापूर्ण नादानी पर उन्हें क्रोध आया। ठीक भी था। सिद्ध पुरुष का यह घोर तिरस्कार एक मामूली गृहस्थ की स्त्री करे! मगर करते क्या? आँखों से खून उगलते खड़े रहे और दाँत पीसते रहे कि संहार ही कर दूँ। इतने में भोजन ले के जो स्त्री आई तो आते ही उसने बेलाग सुना दिया कि आँखें क्या लाल किए खड़े हैं? मैं वृक्षवाला बगुला थोड़े ही हूँ कि जला दीजिएगा ! अब तो उन्हें चीरो तो खून नहीं। सारी गरमी ठंडी हो गई यह देख के कि इसे यह बात कैसे मालूम हो गई जो यहाँ से बहुत दूर जंगल में हुई थी! फिर तो उन्हें अपनी तप:सिद्धि फीकी लगने लगी। खाना छोड़ के उनने उस माता से पूछा कि तुझे यह कैसे पता चला? उसने कहा कि लीजिए भोजन कीजिए और जनकपुर में धर्मव्याध के पास जाइए। वही सब कुछ बता देगा!
महात्मा वहाँ से सीधे जनकपुर रवाना हो गए। परेशान थे, हैरत में थे। जनकपुर पहुँच के धर्मव्याध को पूछना शुरू किया कि कहाँ रहता है। समझते थे, वह तो कहीं तपोभूमि में पड़ा महात्मा होगा। मगर पूछते-पूछते एक हाट में एक ओर एक आदमी को देखा कि मांस काटता और बेचता है और यही धर्मव्याध है! सोचने लगे, उफ, यह क्या? यही धर्मव्याध मुझे धर्म-कर्म का रहस्य बताएगा? मगर कौतुकवश खड़े रहे। धर्मव्याध ने एक बार उन्हें देख के मुस्करा दिया सही; मगर वह अपने काम में घंटों व्यस्त रहा। जब काम से छुट्टी हो गई और दुकान समेट चुका तो उसने उनसे पूछा कि महात्मन, कैसे चले? क्या आपको उस स्त्री ने भेजा है? सिद्ध महात्मा तो और भी हैरान थे कि यह क्या? स्त्री तो भला गृहस्थी का काम करती थी। मगर यह तो निरा कसाई है। फिर भी उसकी भी नाक काटता है! खैर, हाँ कह के उसके साथ उसके घर गए! उन्हें बैठा के पहले घंटों वह अपने वृद्ध माँ-बाप की सेवा करता रहा, जैसे वह स्त्री अपने पति की सेवा कर रही थी! माँ-बाप से फुरसत पा के उसने उन्हें भी खिलाया-पिलाया! पीछे उसने वार्त्तालाप शुरू करके कहा कि मैंने पहले हजार कोशिश की थी कि इस हिंसा से बचूँ और दूसरी जीविका करूँ। मगर विफल रहा। तब समझ लिया कि चलो जब यही भगवान की मर्जी है तो रहे। बस, केवल कर्तव्यबुद्धि से यह काम करता हूँ। सफलता-विफलता और हानि-लाभ की जरा भी परवाह नहीं करता। उसके बाद जो साग-सत्तू मिलता है। उसी से पहले अपने प्रत्यक्ष भगवान - माँ-बाप - की सेवा-शुश्रूषा करके उन्हें तृप्त करता हूँ। फिर यदि कोई अतिथि हो तो उसका सत्कार करके खुद भी खाता-पीता हूँ। यही मेरी दिनचर्या है, यही मेरा योगाभ्यास है, यही मेरी तपश्चर्या और यही भगवान की पूजा है। वह स्त्री भी पति के सिवाय किसी और को जानती ही नहीं। उसके लिए भगवान और सब कुछ वही एक पति ही है। यही उसकी योगसाधाना है और यही न सिर्फ हम दोनों के बल्कि सारे संसार के कर्मों का रहस्य है, उनकी कुंजी है और वास्तविक सिद्धि का असली मार्ग है।
इस आख्यान में गीताधर्म का निचोड़ पाया जाता है। अब तक हम भगवान को, स्वर्ग, वैकुंठ, नरक और मुक्ति को अपने से अलग समझ उन्हें पाने के लिए कर्म-धर्म करेंगे और उनमें भी बुरे-भले का भेद करेंगे कि यह कर्म भला और यह बुरा है तब तक हम भटकते ही रहेंगे। तब तक कल्याण हमसे लाख कोस दूर रहेगा - दूर होता जाएगा। हमें तो अपनी आत्मा को ही, अपने आप को ही, सबमें वैसे ही देखना है जैसे नमक के टुकड़े में नीचे-ऊपर चारों ओर एक ही चीज होती है - नमक ही नमक होता है। यही बात गीता कहती है, यही उसका और उपनिषदों का अद्वैत-तत्त्व है। नमक का ही दृष्टांत देकर आरुणि ने अपने पुत्र श्वेतकेतु को यही बात छांदोग्योपनिषद् के छठे अध्याय के तेरहवें खंड के तीसरे मंत्र में इस तरह कही है, 'स य एषोऽणिमैतदात्म्यमिदं सर्वं तत्सत्यं स आत्मा तत्त्वमसिश्वेतकेतो।' यह अत्यंत कठिन होते हुए भी निहायत आसान है, यदि हममें इसकी आग हो, लगन हो। यही बात सूफियों ने यों कही है कि 'दिल के आईने में है तस्वीरे यार। जब जरा गरदन झुकाई देख ली' और 'बहुत ढूँढ़ा उसे हमने न पाया। अगर पाया पता अपना न पाया।' इसी के हासिल होने पर यह उद्गार निकली है कि 'हासिल हुई तमन्ना जो दिल में थी मगर। दिल को आरजू है कोई आरजू न हो।' उपनिषदों में इसी उद्गार को 'येन त्यजसि तत्त्यज' कहा है।
यही गीताधर्म है और यही उसका योग है। यही वेदांत का रहस्य है, जिसके फलस्वरूप लोकसंग्रह और मानव-समाज के कल्याणों के लिए छोटे-बड़े सभी कामों के करने का रास्ता न सिर्फ साफ हो जाता है, बल्कि सुंदर, रमणीय और रुचिकर हो जाता है, अत्यंत आकर्षक बन जाता है। इसी के करते लोकसंग्रहार्थ कर्म करने से तबीअत ऊबने के बजाए उसमें और भी तेजी से लगती जाती है। कितना भी कीजिए, फिर भी संतोष होने के बजाए और करें, और करें यही इच्छा होती रहती है। साथ ही, यदि दृढ़ संकल्प एवं पूर्ण प्रयत्न के बाद भी किसी कारण से कोई काम पूरा न हो, छूट जाए या और कुछ हो जाए, तो जरा भी बेचैनी या परेशानी नहीं होती। मस्ती हमेशा बनी रहती है। यही स्थितप्रज्ञ, भक्त और गुणातीत की दशा है। इसके चलते ही यदि कर्म सोलहों आने छूट जाए, जैसे पेड़ से पका फल गिर जाए, तो भी मस्ती ज्यों की त्यों रहती है। इसी मस्ती को हासिल करने के लिए पहले धर्मों का संन्यास आवश्यक होता है, ऐसी गीता की मान्यता है।