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कविता

तू तो है न मेरे पास

दिविक रमेश


सोचता हूं क्या था कारण-
मां को ही नहीं लेने आया सपना
या सपने की ही नहीं थी पहुंच मां तक।

मां गा सकती थी
सुना सकती थी कहानियां
रख सकती थी व्रत
मांग सकती थी मन्नतें
पर ले नहीं सकती थी सपने।

चाह जरूर थी मां के पास
जैसे होती है जीने के लिए जीती हुई
किसी भी औरत के पास।

मां हंस लेती थी
पूरी होने पर चाह
और रो लेती थी
न होने पर पूरी।

सोचता हूं
क्यों नहीं था मां के पास सपना
क्यों मां बैठाकर मुझे गोद में
कहती थी गाहे बगाहे
तू तो है न मेरे पास
और क्या चाहिए मुझे?

पर आज तक नहीं समझ पाया
कैसे करूं बंद इस वाक्य को-तू तो है न मेरे पास
लगाऊं पूर्ण विराम
या ठोक दूं चिह्न प्रश्नवाचक।

सोचता हूं
न हुआ होता मैं
तो शायद खोज पाती मां
अपना कोई सपना।
थमी न रहती सिर्फ चाह पर।
शायद न रही होती राह
मां की आंखें
नहर की।
यूं ढलके न हुए होते
बहुत उन्नत हुए होते थन मां के भी।

या मेरा ही होना
न हुआ होता
लीक पर घिसटती बैलगाड़ी सा
जिसका कोई सपना नहीं होता।

 


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