सड़कें साऊथ एक्स्टेंनशन की हों या नोएडा की
घूम ही नहीं बैठ भी सकतें हैं जानवर, मसलन
गाय, बछड़े, सांड़ इत्यादि
मौज से
खड़ी गाड़ियों के बीच
खाली स्थान भरो की तर्ज पर।
आज़ादी का एक अदृश्य परचम
देखा जा स्कता है फहराता हरदम, उन पर।
पर कितने आज़ाद हैं हम, कितने नहीं
यह सोचने की आज़ादी, सच कहना रामहेर
क्या है भी हम जैसों के पास!
किस खबर पर चौंकें
और किस पर नाचें
इतना तक तो रह नहीं गया वश में, हम जैसों के!
वह देखो
हां हां देखो
देख सको तो देखो
विवश है चांद निकलने पर दिन में
और अंधेरा हावी है सूरज पर, रात का।
फिर भी
कैसे हाथ में हाथ लिए चल रहे हैं दोनों
जैसे सामान्य हो सब
सदन के बाहर कैन्टीन के अट्टहास सा।
क्या हो सकती है हम जैसों की मजाल, मोहनदास!
कि बोल सकें एक शब्द भी खिलाफ, किसी ओर के भी!
आओ तुम्हीं आओ
आओ ज़रा पास आओ भाई हरिदास!
पूंछ लूं तुम्हारे ही कंधे पर रख हाथ
बोलने को तो क्या क्या नहीं बोल लेते हो
बकवास तक कर लेते हो
पर खोल पाए हो कभी अपनी जबान!
देखिए
मुझे कोई मुगालता नहीं है अपनी कविताई का अग्रज कबीर!
और आप भी सुन लें मान्यवर रैदास!
मैं करता हूं कन्फेस
कि सदा की तरह
रोना ही रो रहा हूं अपना
और अपने जैसों का।
चाह रहा हूं कि भड़कूं
और भड़का दूं अपने जैसों कॊ
पर नहीं बटोर पा रहा हूं हिम्मत सदा की तरह।
बस देख रहा हूं हर ओर सतर्क।
दूर दूर तक बस पड़े हैं सब घुटनों पर
बीमार बैलों से मजबूर
गोड्डी डाले जमीन पर।
सच बताना चचा लखमीचंद
हम भी नहीं हो गए हैं क्या शातिर
अपने शातिर नेताओं से--
कि कहें
पर ऐसे
कि जैसे नहीं कहा हो कुछ भी।
कि गिरफ्त में न आ सकें किसी की भी।
चलो
ठीक है न प्रियवर विदर्भिया
कम से कम
इतरा तो सकते ही हैं न
अपनी इस आजादी पर।
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