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					खबर है कि नहीं रहा एक अगला दांत कवि त्रिलोचन कान हुआ पर न हुआ अफसोस मीर का नसीब
 सामने साक्षात् थे वासुदेव, कि न चल सका ज़ोर, यूं मारा बहुत था।
 भाई, बाकी तो सब सलामत हैं, बेकार था, सो गया, अफसोस क्या ?
 सुनो, शोभा के लिए अधिक होते हैं ये अगले दांत, और भाई
 त्रिलोचन और शोभा! ऊंह! वहां दिल्ली का क्या हाल है ?
 सर्दियों में खासी कटखनी होती है सर्दी।
 
					कहूं, यूं तो वार दूं दुनिया की तमाम शोभा आप परतो भी लगवा लें तो हर्ज ही क्या है, त्रिलोचन जी!
 
					नकली? जो मिलता है, उंह, यानी वेतनया तो दांत ही लगवा लूं या फिर भोजन जुटा लूं, महीनेभर का।
 
					वेतन!पर आप तो पाते हैं प्रोफेसर का!
 ऐसा,
 तो मैं चुप हूं भाई
 त्रिलोचन भीख तो नहीं मांगेगा।
 
					चुप ही रहा।गनीमत थी, नहीं मिली थी उपाधि उजबक की।
 
					क्या सच में शोभा के लिए होता है अगला दांत, महजऔर इसीलिए बेकार भी
 कहा, काटने के भी तो काम आता है त्रिलोचन जी!
 रहता तो काटने में सुविधा तो रही होती न ?
 
					ठीक कहा, त्रिलोचन हंसे - मुस्कराने की शैली में -तुम उजबक हो
 काटने को चाकू होता है।
 
					अजीब उजबक था मैं भीत्रिलोचन और काटना!
 आता काटना तो क्या कटे होते चिरानीपट्टी से
 क्या कटे होते हर वहां से
 जहां जहां से काटा जाता रहा है उन्हें!
 नहीं जानता त्रिलोचन सहमत होते या नहीं इस बात पर
 सो सोच कर रहा गया
 और सपने को सपना समझ कर भूल गया
 हांलांकि निष्कर्ष मेरे हाथ था--
 त्रिलोचन और काटना!
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