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कविता

ख़ाक भी हो गई ख़ला अब के

शीन काफ़ निज़ाम


ख़ाक भी हो गई ख़ला अब के
जाने किस सिम्त है हवा अब के

हो गया ख़ुद से सामना अब के
फ़ासला और बढ़ गया अब के

वो जो इक मेरा दूसरा मैं था
छोड़ कर वो भी चल दिया अब के

गुम्बद-ए-गुमरही में आ पहुँचा
कैसा भुला हूँ रास्ता अब के

पहले जंगल जुदाई के थे नसीब
ऐ खुदा तू ने क्या लिखा अब के

ये सफ़र किस तरह कटेगा 'निज़ाम'
साथ अपने नहीं दुआ अब के

 


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