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कविता

तुझ मुख की झलक देख गई जोत चंदर सूँ

वली दक्कनी


21

तुझ मुख की झलक देख गई जोत चँदर सूँ
तुझ मुख पे अरक़ देख गई आब गुहर सूँ
शर्मिंदा हो तुझ मुख के दिखे बाद सिकंदर
बिलफ़र्ज़ बनावे अगर आईना क़मर सूँ
तुझ ज़ुल्‍फ़ में जो दिल कि गया उसकूँ ख़लासी
नई सुब्‍ह-ए-क़यामत तलक इस शब के सफ़र सूँ
हर चंद कि वहशत है तुझ अँखियाँ सिती ज़ाहिर
सद शुक्र कि तुझ दाग़ कूँ अल्‍फ़त है जिगर सूँ
अशरफ़ का यो मिसरा 'वली' मुजको गुमाँ है
उल्‍फ़त है दिल-ओ-जाँ कूँ मिरे पेमनगर सूँ

 

22

जब सूँ बाँधा है ज़ालिम तुझ निगह के तीर सूँ
तब सूँ रम ले रम किया रमने के हर नख़्वीर सूँ
बेहक़ीक़त गर्मजोशी दिल में नईं करती असर
शम्‍अ रौशन क्‍यूँ के होवे शो'ला-ए-तस्‍वीर सूँ
जग में ऐ ख़ुर्शीद रू वो चर्ख़ज़न है ज़र्रावार
जिनने दिल बाँधा है तेरे हुस्‍न-ए-आलमगीर सूँ
ऐ परी तुझ क़द का दीवाना हुआ है जब सूँ सर्व
पायबंद असकूँ किए हैं मौज की ज़जीर सूँ
ख़्वाब में देखा जो तरे सब्‍ज़-ए-ख़त कूँ सनम
सब्‍ज़बख़्तों में हुआ उस ख़्वाब की ताबीर सूँ
जग में नईं अहल-ए-हुनर अपने हुनर सूँ बहरायाब
कोहकन कों फ़ैज़ कब पहुँचा है जू-ए-शीर सूँ
ऐ 'वली' पी का दहन है गुंचए-गुलज़ार-ए-हुस्‍न
बू-ए-गुल आती है असकी शोखि़-ए-तक़रीर सूँ

 

23

ख़ुदाया मिला साहिब-ए-दर्द कूँ
कि मेरा कहे दर्द बेदर्द कूँ
करे ग़म सूँ सद बर्ग सदपारा दिल
दिखाऊँ अगर चेहरा-ए-ज़र्द कूँ
हटा बुलहवस तुझ भवाँ देखकर
कहाँ ताब-ए-शमशीर नामर्द कूँ
अगर जल में जल कर कँवल ख़ाक हो
न पहुँचे तिरे पाँव की गर्द कूँ
लिखा तुझ दहन की सिफ़त में 'वली'
हर एक फ़र्द में जौहर-ए-फ़र्द कूँ

 

24

देता नहीं है बार रक़ीब-ए-शरीर कूँ
शायद कि बूझता है हमारे ज़मीर कूँ
उस नाज़नीं की तब्‍अ गर आबे ख़याल में
बूझूँ सदा-ए-सूर क़लम की सरीर कूँ
बरजा है उसकूँ इश्‍क़ के गोशे मनीं क़रार
जो पेच-ओ-ताब दिल सूँ बिछावे हसीर कूँ
उसके क़दम की ख़ाक में है हश्र की नजात
उश्‍शाक़ के कफ़न में रखो इस अबीर कूँ
मुझको 'वली' की तब्‍अ की साफ़ी की है क़सम
देखा नहीं है जग में सजन तुझ नज़ीर कूँ

 

25

हरगिज़ तू न ले साथ रक़ीब-ए-दग़ली कूँ
मत राह दे खि़लवत मिनीं ऐसे ख़लाली कूँ
तेरे लब-ए-याक़ूत उपर ख़त-ए-ख़फ़ी देख
ख़त्तात-ए-जहाँ नस्‍ख़ किये ख़त-ए-जली कूँ
ऐ ज़ुहरा जबीं किशन तेरे मुख की कली देख
गाता है हर इक सुबह में उठ रामकली कूँ
ऐ महजबीं महर-ए-लक़ा तेरी जबीं पर
करता हूँ हर इक दम मिनीं दम नाद-ए-अली कूँ
मैं दिल कूँ तेरे हाथ दिया रोज़-ए-अज़ल सूँ
मत दिल सूँ बिसार अपने महब्‍बे-अज़ली कूँ
नहीं मंसब-ओ-जागीर नहीं रोज़ वज़ीफ़ा
हर रोज़ तेरा नाम वज़ीफ़ा है 'वली' कूँ

 

26

हुआ है रश्‍क चम्‍पे की कली कूँ
नज़र कर तुझ क़बा-ए-संदली कूँ
करे फिऱदौस इस्‍तक़बाल उसका
तसव्‍वुर जो किया तेरी गली कूँ
हमारी आह-ए-आतिश रंग सुनकर
हुई है बेक़रारी बीजली कूँ
तिरे ग़म में दिल-ए-सूराख़-सूराख़
किया पैदा सदा-ए-बाँसली कूँ
दिल-ए-पुर ख़ूँ ने मेरे बाग़ में जा
दिया तालीम-ए-ख़ूँख़्वारी कली कूँ
किया है आब-ए-ख़जलत सूँ सरापा
हर इक मिसरा सूँ मिस्‍त्री की डली कूँ
पड़े सुनकर उछल ज्‍यूँ मिसर-ए-बर्क़
अगर मिसरा लिखूँ 'नासिर अली' कूँ
तिरे अशआर ऐसे नहीं 'फ़राक़ी'
कि जिस पर रश्‍क आवेगा 'वली' कूँ

 

27

जो कोई समझा नहीं उस मुख के आँचल के मआनी कूँ
वो क्‍यूँ बूझे कहो उस शोख़ चंचल के मआनी कूँ
करें गर बहस उस अँखियाँ के जादू की सहर साज़ाँ
न पहुँचे कोई बारीकी में काजल के मआनी कूँ
वो यूसुफ़ कूँ कहे सानी सो उस बेमिस्‍ल का क्‍यूँ कर
दो बीं कर जो कि समझा चश्‍म-ए-अहवल के मआनी कूँ
न निकले बहर-ए-हैरत सूँ जो हुए उस मुख का हमज़ानू
ये बूझे वो जो पहूँचा है सजन जल के मा'नी कूँ
सफ़ाई देख उसके मुख की है बेहोश सर ता पा
यही तहक़ीक समझो ख़्वाब मख़मल के मआनी कूँ
बयाँ ज़ुल्‍फ़-ए-बदीई का है 'सादुद्दीन' का मतलब
अझूँ लग तुम नहीं समझे मुतव्वल के मआनी कूँ
'वली' उस माह-ए-कामिल की हक़ीक़त जो नहीं समझा
वो हरगिज़ नईं बुझा आलम में अकमल के मआनी कूँ

 

28

फि़दा-ए-दिलबर-ए-रंगीं अदा हूँ
शहीद-ए-शाहिद-ए-गुल गूँ क़बा हूँ
हर इक मह रू के नहीं मिलने का ज़ौक़
सुख़न के आशाना का आशना हूँ
किया हूँ तर्क नर्गिस का तमाशा
तलबगार-ए-निगार-ए-बाहया हूँ
न कर शमशाद की तारीफ़ मुझ पास
कि मैं उस सर्वक़द का मुब्तिला हूँ
किया मैं अर्ज़ उस ख़ुर्शीदरू सूँ
तू शह-ए-हुस्‍न मैं तेरा गदा हूँ
सदा रखता हूँ शौक़ उसके सुख़न का
हमेशा तिश्‍ना-ए-आब-ए-बक़ा हूँ
क़दम पर उसके रखता हूँ सदा सर
'वली' हममशरब-ए-रंग-ए-‍हिना हूँ

 

29

रखता हूँ शम्‍मे-आह सुख़न के फि़राक़ में
हाजत नहीं चिराग की मेरे रवाक़ में
आब-ए-हयात-ए-वस्‍ल सूँ सीने के सर्द कर
जलता हूँ रात-देस पिया तुझ फि़राक़ में
सुनकर ख़बर सबा सूँ गरेबाँ कूँ चाक कर
निकले हैं गुल चमन सूँ तेरे इश्तियाक़ में
ऐ दिल अक़ीक-ए-लब के ये आए हैं मुश्‍तरी
मोती न बूझ ज़ुहरा जबीं के बलाक़ में
तेरे सुख़न के ऩग्‍मा-ए-रंगीं कूँ सुन 'वली'
डूबा अरक़ के बीच 'इराक़ी' इराक़ में

 

30

हुआ तू ख़ुसरव-ए-आलम सजन! शीरीं मक़ाली में
आयाँ हैं बद्र के मा'नी तेरी साहब-कमाली में
जो कैफि़यत सियहमस्‍ती की तुझ अँखियाँ में है ज़ालिम
नहीं वो रंग वो मस्‍ती शराब-ए-पुर्तग़ाली में
तिरी ज़ुल्‍फ़ों के हल्‍कें में है यूँ नक़्श-ए-रूख़-ए-रौशन
कि जैसे हिंद के भीतर लगें दीवे दिवाली में
अगरचे हर सुख़न तेरा है आब-ए-खि़ज़्र सूँ शीरीं
वले ल़ज्‍ज़त निराली है पिया तुझ लब की गली में
कहो उस नूर चश्‍म-ओ-पिस्‍ता लब कूँ आशनाई सूँ
कि ज्‍यूँ बादाम के दो म़ग्‍ज़ होवें यक निहाली में
नज़र में नईं है मर्दों की सलाबत अहल-ए-ज़ीनत की
नहीं देखा कोई रंग-ए-शुजाअत शेर-ए-क़ाली में
'वली' के हर सुख़न का वो हुआ है मू-ब-मू ख़्वाहाँ
जो कुई पाया है लज़्ज़त तझ भवाँ के शे'र-ए-हाली में

 

31

छुपा हूँ मैं सदा-ए-बांसली में
कि ता जाऊँ परी रू की गली में
न थी ताक़त मुझे आने की लेकिन
बा ज़ोर-ए-आह पहूँचा तुझ गली में
अयाँ है रंग की शोख़ी सूँ ऐ शोख़
बदन तेरा क़बा-ए-संदली में
जो है तेरे दहन में रंग-ओ-ख़ूबी
कहाँ ये रंग, ये ख़ूबी कली में
किया ज्‍यूँ लफ़्ज में मा'नी सिरीजन
मुक़ाम अपना दिल-ओ-जान-ए-'वली' में

 

32

सहर पर्दाज़ हैं पिया के नयन
होश दुश्‍मन हैं ख़ुश अदा के नयन
ऐ दिल उसके अगे सँभाल के जा
तेग़ बरकफ़ हैं मीरज़ा के नयन
दिल हुआ आज मुझ सूँ बेगाना
देख उस रम्‍ज़ आशना के नयन
जग में अपना नज़ीर रखते नहीं
दिलबरी में वो दिलरुबा के नयन
नरगिस्‍ताँ को देखने मत जा
देख उस नरगिसी क़बा के नयन
वो है गुलज़ार-ए-आबरू का गुल
हक़ ने जिसको दिए हया के नयन
ऐ 'वली' किस अगे करूँ फ़रियाद
ज़ुल्‍म करते हैं बेवफ़ा के नयन

 

33

ख़ूब रू ख़ूब काम करते हैं
यक निगह में तमाम करते हैं
देख ख़ूबाँ कूँ वक्‍त़ मिलने के
किस अदा सूँ सलाम करते हैं
क्‍या वफ़ादार हैं कि मिलने में
दिल सूँ सब राम-राम करते हैं
कम निगाही सूँ देखते हैं वले
काम अपना तमाम करते हैं
खोलते हैं जब अपनी ज़ुल्फ़ाँ कूँ
सुबह आशिक़ कूँ शाम करते हैं
साहब-ए-लफ़्ज़ उसको कह सकते
जिस सूँ ख़ूबाँ कलाम करते हैं
दिल लिजाते हैं ऐ 'वली' मेरा
सर्व क़द जब खि़राम करते हैं

 

34

तुझ हुस्‍न ने दिया है बहार आरसी के तईं
बख़्शा है ख़ाल-ओ-ख़त ने निगार आरसी के तईं
रौशन है बात ये कि अवल सादालोह थी
बख़्शे हैं उसके मूँह सूँ सिंघार आरसी के तईं
ख़ूबी मिनीं अवल सूँ हुई है दहचंद तर
जब सूँ किया सनम ने दो-चार आरसी के तईं
हैरत की अंजुमन में वो हैरत फ़ज़ा ने जा
यक दीद में किया है शिकार आरसी के तईं
किस ख़त के पेच-ओ-तब कूँ दिल में रखे कि आज
ज्‍यूँ आब जू नहीं है क़रार आरसी के तईं
हैरत सूँ आँख अपस की न मूँदे हश्र तक
यक पल तो उस निज़क जो गुज़ार आरसी के तईं
गर उसके देखने की 'वली' आरज़ू है तुझ
बेगी अपस के दिल को सँवार आरसी के तईं

 

35

चाहो कि होश सर सूँ अपस के बदर करो
यक बार उस परी की गली में गुज़र करो
है कि़स्‍स-ए-दराज़ के सुनने की आरज़ू
उस जुल्‍फ़-ए-ताबदार की तारीफ़ सर करो
बूझो हलाल-ए-चर्ख़ कूँ अबरू-ए-पीर ज़ाल
उसकी भवाँ के ख़म पे अगर टुक नज़र करो
उस गुल के गर विसाल की है दिल में आरज़ू
शबनम नमन तमाम अँखियाँ अपनी तर करो
ऐ दोस्ताँ बनंग हुआ हूँ मैं होश सूँ
पीतम का नाँव ले के मुझे बेख़बर करो
पहुँचा है जिसको हिज्र की सख़्ती सूँ
उस बेख़बर कूँ हाल सूँ मेरे ख़बर करो
हर शे'र सूँ 'वली' के अज़ीजाँ बयाज़ में
मिस्‍तर के ख़त कूँ रिश्‍तए-सल्‍क-ए- गुहर करो

 

36

चाहो कि पी के पग तले अपना वतन करो
अव्‍वल अपस कूँ अजज़ में नक्‍श़-ए-चरन करो
हे गुलरुख़ाँ कूँ ज़ौक़-ए-तमाशा-ए-आशिक़ाँ
दाग़ाँ सिती दिलाँ कूँ उसके चमन करो
साबित हो आशिक़ाँ में जला जो पतंग वार
तार-ए-निगाह-ए-शम्‍अ सूँ उसका कफ़न करो
गर आरज़ू है दिल में हम आगोशिए-सनम
अँसुआँ सूँ अपने सेज जर फ़र्श-ए-चमन करो
चाहो कि हो 'वली' के नमन जग में दूरबीं
अँखियाँ में सुरमा पीव की ख़ाक-ए-चरन करो

 

37

ग़फ़लत में वक्‍त़ अपना न खो हुशियार हो हुशियार हो
कब लग रहेगा ख़्वाब में बेदार हो बेदार हो
गर देखना है मुद्दआ, उस शहिद-ए-मा'नी का रौ
ज़ाहिर परीशाँ सूँ सदा, बेज़ार हो बेज़ार हो
ज्‍यूँ चतर दाग़-ए-इश्‍क कूँ रख सर पे अपने अव्‍वलन
तब फ़ौज-ए-अहल-ए-दर्द का, सरदार हो, सरदार हो
वो नोबहार-ए-आशिक़ाँ, ज्‍यूँ सहर जग में है अयाँ
ऐ दीद: वक़्त-ए-ख़्वाब नईं, बेदार हो, बेदार हो
मत्‍ले का मिसरा ऐ 'वली' दर्द-ए-ज़बाँ कर रात-दिन
ग़फ़लत में वक़्त अपना न खो, हुशियार हो, हुशियार हो

 

38

किया मुझ इश्‍क़ ने ज़ालिम कूँ आब आहिस्‍ता आहिस्‍ता
कि आतिश गुल कूँ करती है गुलाब आहिस्‍ता आहिस्‍ता
वफ़ादारी ने दिलबर की बुझाया आतिश-ए-ग़म कूँ
कि गर्मी दफ़्अ करता है, गुलाब आहिस्‍ता आहिस्‍ता
अजब कुछ लुत्‍फ़ रखता है शब-ए-खि़ल्‍वत में गुलरू सूँ
खि़ताब आहिस्‍ता आहिस्‍ता, जवाब आहिस्‍ता आहिस्‍ता
मेरे दिल कूँ किया है, ख़ुद तिरी अँखियाँ ने आखि़र कूँ
कि ज्‍यूँ बेहोश करती है शराब आहिस्‍ता आहिस्‍ता
हुआ तुझ इश्‍क़ सूँ ऐ आतिशीं रू दिल मिरा पानी
कि ज्‍यूँ गलता है आतिश सूँ गुलाब आहिस्‍ता आहिस्‍ता
अदा-ओ-नाज़ सूँ आता है वो रौशन जबीं घर सूँ
कि ज्‍यूँ मश्रिक़ सूँ निकले आफ़ताब आहिस्‍ता आहिस्‍ता
'वली' मुझ दिल में आता है ख़याल-ए-यार बेपर्दा
कि ज्‍यूँ अँखियाँ मिनीं आता है ख़्वाब आहिस्‍ता आहिस्‍ता

 

39

आज दिसता है हाल कुछ का कुछ
क्‍यूँ न गुज़रे ख़याल कुछ का कुछ
दिल-ए-बेदिल कूँ आज करती है
शोख़ चंचल की चाल कुछ का कुछ
मुजकूँ लगता है ऐ परी पैकर
आज तेरा जमाल कुछ का कुछ
असर-ए-बाद:-ए-जवानी है
कर गया हूँ सवाल कुछ का कुछ
ऐ 'वली' दिल कूँ आज करती है
बू-ए-बाग़-ए-विसाल कुछ का कुछ

 

40

तुझ मुख पे जो इस ख़त का अंदाज़ा हुआ ताज़ा
अब हुस्‍न के दीवाँ का शीराज़ा हुआ ताज़ा
फूलाँ ने अपस का रंग ईसार किया तुझ पर
तुझ मुख पे जब ऐ मोहन ये ग़ाज़ा हुआ ताज़ा
उस हुस्‍न के आलम में तू शुहरा-ए-आलम है
हर मुख सूँ तेरा जग में आवाज़ा हुआ ताज़ा
सीने सूँ लगाने की हुई दिल कूँ उमंग ताज़ी
आलस सिती जब तुझ में ख़मियाज़ा हुआ ताज़ा
जो शे'र लिबासी थे ज्‍यूँ फूल हुए बासी
जब शे'र 'वली' तेरा यो ताज़ा हुआ ताज़ा

 


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