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कविता

कौन थकान हरे

गिरिजा कुमार माथुर


कौन थकान हरे जीवन की।
     बीत गया संगीत प्‍यार का,
     रूठ गई कविता भी मन की।

वंशी में अब नींद भरी है,
स्‍वर पर पीत साँझ उतरी है
बुझती जाती गूँज आखरी -
इस उदास वन-पथ के ऊपर
पतझर की छाया गहरी है,

     अब सपनों में शेष रह गईं,
     सुधियाँ उस चंदन के वन की।

रात हुई पंछी घर आए,
पथ के सारे स्‍वर सकुचाए,
म्‍लान दिया बत्‍ती की बेला -
थके प्रवासी की आँखों में
आँसू आ-आ कर कुम्‍हलाए,

     कहीं बहुत ही दूर उनींदी
     झाँझ बज रही है पूजन की
     कौन थकान हरे जीवन की।


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