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साइबेरिया। एक सुनसान चौड़ी-सी नदी के किनारे एक शहर है, जो रूस का एक प्रशासन केंद्र है। उस शहर में एक किला है और उस किले में एक जेल है। उस जेल में दूसरे दर्जे का एक कैदी1 नौ महीने से बंद है। रोदिओन रस्कोलनिकोव। जब अपराध किया गया, तबसे लगभग अठारह महीने बीत चुके हैं।
मुकद्दमे के दौरान कोई खास कठिनाई नहीं हुई। अपराधी दृढ़तापूर्वक सही-सही और साफ शब्दों में अपने बयान पर कायम रहा। उसने परिस्थितियों को न तो उलझाया, न उनके बारे में कोई गलतबयानी की, न ही अपने हित में तथ्यों को तोड़ा-मरोड़ा, न ही कोई छोटी-से-छोटी बात भी बताने में कोई कसर छोड़ी। उसने अदालत को बताया था कि उसने कब और कैसे हत्या करने की योजना बनाई थी, कैसे उसे पूरा किया था। उसने गिरवी रखी गई चीज का रहस्य समझाया था (लकड़ी का वह छोटा-सा, चपटा कुंदा जिसके साथ धातु की पट्टी जुड़ी हुई थी), जो उस औरत के हाथ में पाया गया था, जिसका खून किया गया था। उसने पूरे विस्तार के साथ बताया कि उसने किस तरह मरी हुई औरत के पास से चाभियाँ ली थीं, चाभियों का वर्णन किया, संदूक का और उसमें जो चीजें थीं उनका वर्णन किया, बल्कि उनमें से कुछ के नाम भी गिनवाए। उसने लिजावेता की हत्या का रहस्य समझाया। उसने बताया कि कोख ने किस तरह आ कर दरवाजा खटखटाया था, और उसके बाद वह छात्र आया था। उसने उनकी बातचीत का ब्यौरा दिया और बताया कि किस तरह वह (हत्यारा) बाद में सीढ़ियों पर नीचे भागा; कब उसने निकोलाई और मित्का को चिल्लाते हुए सुना और किस तरह एक खाली फ्लैट में छिप गया था और बाद में घर चला गया था। अंत में, उसने उस जगह का ठीक-ठीक वर्णन किया जहाँ वोज्नेसेंस्की एवेन्यू में वह पत्थर पड़ा था जिसके नीचे बटुआ और दूसरी चीजें पाई गईं। गरज कि सारा किस्सा एकदम साफ हो कर सामने आ साफ हो गया।
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1. पहले दर्जे का कातिल 12 साल की उम्रकैद की, दूसरे दर्जेवाला 8 से 12 साल तक की और तीसरे दर्जेवाला 4 से 8 साल तक की कैद की सजा पाता था।
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अलबत्ता, छानबीन करनेवाले वकीलों और जजों को इस बात पर ताज्जुब हुआ कि उसने उस फ्लैट से जो बटुआ और दूसरी चीजें ली थीं, उन्हें इस्तेमाल करने की कोई कोशिश किए बिना, उन्हें पत्थर के नीचे छुपा दिया था। फिर उन्हें इस बात पर भी ताज्जुब हुआ कि उसे पूरी तफसील के साथ यह भी नहीं याद था कि चीजें थीं कितनी। वास्तव में यह बात किसी तरह उनकी समझ में ही नहीं आ रही थी कि उसने बटुआ कभी खोला ही नहीं और उसे यह भी नहीं मालूम था कि उसमें कितना पैसा था। (पता चला कि बटुए में तीन सौ सत्रह रूबल और साठ कोपेक थे और कुछ नोट, खास तौर पर बड़ी रकम के नोट, जो ऊपर रखे थे, इतने दिनों तक पत्थर के नीचे पड़े रहने की वजह से बुरी तरह खराब हो गए थे।) उन्होंने यह पता लगाने की कोशिश में काफी वक्त लगा दिया कि अपराधी ने जब बाकी सारी बातें अपनी मर्जी से और सच-सच मान ली थी तो इसी एक बात के बारे में वह झूठ क्यों बोल रहा था। आखिरकार उनमें से कुछ ने (खास तौर पर जिन्हें मनोविज्ञान की थोड़ी-बहुत जानकारी थी) इस बात को माना कि मुमकिन है, उसने बटुए को कभी खोल कर देखा भी न हो और इसलिए उसे यह न पता हो कि जब उसने उसे पत्थर के नीचे छिपाया, तब उसमें क्या था। लेकिन इससे उन्होंने यह नतीजा निकाला कि अपराध वक्ती पागलपन के दौरान किया गया; दूसरे शब्दों में, ऐसे वक्त जब अभियुक्त किसी पक्के मकसद के बिना और निजी लाभ के किसी विचार के बिना केवल हत्या करने और डाका डालने की खातिर हत्या और डाके के उन्माद का शिकार रहा होगा। यह बात वक्ती पागलपन के उस प्रचलित सिद्धांत से काफी अच्छी तरह मेल खाती थी, जिसे आजकल अकसर कुछ खास किस्म के अपराधियों पर लागू किया जाता है। इसके अलावा कई लोगों की गवाही से यह बात पक्के तौर पर साबित हो चुकी थी कि रस्कोलनिकोव को विषाद की पुरानी बीमारी थी, जिसकी वजह से वह हमेशा उदास रहता था। इनमें डॉ. जोसिमोव हत्यारे के पुराने सहपाठी, उसकी मकान-मालकिन और उसकी नौकरानी शामिल थे। ये सब बातें इसी निष्कर्ष की ओर संकेत करती थीं कि रस्कोलनिकोव किसी आम हत्यारे, चोर और डाकू जैसा कतई नहीं था, बल्कि यह कि इस मुकद्दमे में उन लोगों का पाला एक बिलकुल ही दूसरी तरह के आदमी से था। इस सिद्धांत के समर्थकों को यह देख कर निराशा हुई कि अभियुक्त ने अपनी तरफ से कोई सफाई पेश करने की कोशिश नहीं की। अंतिम प्रश्न ये थे - किस चीज ने उसे हत्या करने पर मजबूर किया और किस चीज ने उसे डाका डालने के लिए प्रेरित किया इनके जवाब में उसने बिलकुल साफ-साफ और बुरी लगनेवाली स्पष्टता के साथ कहा कि इनकी वजह उसकी दयनीय भौतिक स्थिति, उसकी गरीबी और लाचारी थी, और उसकी यह इच्छा थी कि कम-से-कम तीन हजार रूबल के सहारे वह अपने जीवन की पहली मंजिल के दौरान तो अपनी माली हालत मजबूत कर ले। इस बारे में उसे पूरी उम्मीद थी कि जिस औरत का खून किया गया था, उसके फ्लैट में इतनी रकम तो मिल ही जाएगी। लेकिन उसने हत्या का फैसला खास तौर पर अपनी विवेकहीनता और कायरता के कारण किया था, और इसलिए भी कि वह अपनी मुसीबतों और असफलताओं में तंग आ चुका था। जब उससे पूछा गया कि उसने अपना अपराध स्वीकार क्यों किया, तो उससे साफ-साफ जवाब दिया कि उसने जो कुछ किया था उसका उसे सचमुच अफसोस था। यह सब कुछ थोड़ा लट्ठमार भी लग रहा था...
खैर, अदालत ने जो सजा सुनाई, वह उसके मुकाबले में बहुत कम थी, जितनी कि अपराध को देखते हुए दी जानी चाहिए थी। इसकी अकेली वजह शायद यही थी कि अपराधी ने अपने काम को उचित ठहराने की कोशिश करने की बजाय बढ़-बढ़ कर गोया कि अपने आपको उसका दोषी ठहराने की उत्सुकता दिखाई थी। अपराध के सभी विचित्र और विशिष्ट लक्षण ध्यान में रखे गए। अपराध से पहले कैदी के बुरे स्वास्थ्य और उसकी दरिद्रता के बारे में कोई संदेह भी नहीं रह गया था। जो चीजें उसने चुराई थीं, उनका अगर उसने किसी भी तरह इस्तेमाल नहीं किया था तो एक तरह से इसकी वजह यह बताई गई कि उसमें पश्चात्ताप की भावना जाग उठी थी, और यह भी कि जिस वक्त अपराध किया गया उस वक्त उसके हवास पूरी तरह ठिकाने नहीं थे। पहले से योजना बनाए बिना जिस तरह लिजावेता की हत्या की गई थी, उससे इस अंतिम सिद्धांत की पुष्टि ही होती थी : एक आदमी दो हत्याएँ करता है और यह भूल जाता है कि सामने का दरवाजा खुला है! आखिरी बात यह थी कि रस्कोलनिकोव ने अपना अपराध ऐसे वक्त स्वीकार किया था, जब उदासी के दौरे की हालत में एक धर्मोन्मादी (निकोलाई) के झूठा अपराध स्वीकार करने की वजह से मामला बेहद उलझ गया था, और सो भी ऐसे में जबकि असली अपराधी के खिलाफ कोई पक्का सबूत नहीं था, न उसके खिलाफ किसी तरह का शुबहा था। (पोर्फिरी पेत्रोविच ने अपना वचन पूरी तरह निभाया था।) सजा कम दिए जाने में इन सब बातों का बहुत बड़ा हाथ था।
कई दूसरी परिस्थितियाँ भी अप्रत्याशित रूप से सामने आ गई थीं और वे बड़ी हद तक कैदी के पक्ष में थीं। भूतपूर्व छात्र रजुमीखिन ने कुछ ऐसी जानकारी खोज निकाली थी, जिससे साबित होता था कि कैदी रस्कोलनिकोव जब यूनिवर्सिटी में पढ़ता था, तब उसने अपने एक गरीब और तपेदिक के बीमार साथी की मदद की थी और अपने बहुत ही मामूली साधनों से छह महीने तक उसका लगभग पूरा खर्च उठाया था। जब वह छात्र मर गया तब उसने उसके अपाहिज बाप की (जिसकी देखभाल रस्कोलनिकोव का वह दोस्त लगभग तेरह साल की उम्र से करता आया था।) तब तक देखभाल की जब तक कि उसे अस्पताल में भरती नहीं कर लिया गया। फिर उसके मरने पर उसके कफन-दफन का खर्च भी रस्कोलनिकोव ने ही दिया था। इन सब बातों को अदालत के फैसले पर बहुत अच्छा असर पड़ा। अलावा इसके, रस्कोलनिकोव की पहलेवाली मकान-मालकिन विधवा जरनीत्सिना ने, जो मुलजिम की मँगेतर की माँ थी, गवाही दी कि जब वे पंचकोण में एक-दूसरे मकान में रहते थे, तब रस्कोलनिकोव ने दो बच्चों को एक जलते हुए घर में से निकाला था और इस कोशिश में खुद बुरी तरह जल गया था। इस बात की पूरी तरह जाँच की गई, और कई गवाहों ने पक्के तौर पर इसकी पुष्टि की। गरज कि अंत में अपराधी की केवल आठ वर्ष के दूसरे दर्जे के कठोर कारावास की सजा दी गई। अदालत ने अपराधी के स्वयं अपराध स्वीकार कर लेने को और उसके अपराध की गंभीरता को कम करनेवाली कई दूसरी परिस्थितियों को पूरी तरह ध्यान में रखा था।
रस्कोलनिकोव की माँ मुकद्दमे की शुरुआत में ही बीमार पड़ गई थीं। दूनिया और रजुमीखिन ने मुकद्दमे के चलने तक के लिए उन्हें पीतर्सबर्ग से बाहर भिजवा दिया था। इसके लिए रजुमीखिन ने पीतर्सबर्ग के पास ही एक रेलवे जंक्शन का चुनाव किया था ताकि वह मुकद्दमे की पूरी कार्रवाई पर नजर रख सके और दूनिया से भी ज्यादा से ज्यादा मिल सके। पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना की बीमारी बहुत अजीब किस्म की थी। तंत्रिकाओं की किसी तरह की गड़बड़ी थी, और उसके साथ ही उनका दिमाग अगर पूरी तरह न सही, कुछ हद तक तो खराब हो ही गया था। जब दूनिया अपने भाई से आखिरी बार मिल कर लौटी, तब उसने अपनी माँ को बहुत बीमार पाया। उन्हें बहुत तेज बुखार और सरसाम हो गया था। उसी दिन शाम को दूनिया और रजुमीखिन ने तय कर लिया कि माँ उसके भाई के बारे में जो सवाल पूछेंगी, उनके वे लोग क्या जवाब देंगे। रजुमीखिन की मदद से दूनिया ने एक पूरा किस्सा ही गढ़ लिया था कि रस्कोलनिकोव किसी निजी काम से रूस से बाहर जा रहा था, जिससे वह अंत में बहुत सारा पैसा और बहुत नाम कमाएगा। लेकिन जिस बात पर उन्हें ताज्जुब हुआ वह यह थी कि पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना ने उनसे इस बारे में कभी कोई सवाल पूछा ही नहीं। न उस वक्त, न बाद में। इसके विपरीत उन्होंने अपने बेटे के इस तरह अचानक चले जाने के बारे में खुद एक किस्सा गढ़ लिया था। उन्होंने रो-रो कर उन लोगों को बताया कि वह कैसे उनसे विदा लेने आया था; साथ ही उन्होंने यह भी संकेत दिया कि ऐसी कुछ बहुत महत्वपूर्ण और रहस्यमय बातें भी थीं, जो सिर्फ उन्हीं को मालूम थीं और यह कि रोद्या के कई ताकतवर दुश्मन थे, इसलिए वह उनसे छिप कर रहने पर मजबूर था। जहाँ तक उसके भविष्य का सवाल था, उन्हें इसमें जरा भी संदेह नहीं था कि जब कुछ विरोधी प्रभाव काम करना बंद कर देंगे, तब उसका भविष्य बहुत ही उज्ज्वल होगा। उन्होंने रजुमीखिन को यकीन दिलाया कि उनका बेटा एक दिन बहुत बड़ा राजनीतिक विचारक बनेगा, जैसा कि उसके प्रकाशित लेख और उसकी साहित्यिक प्रतिभा से प्रमाणित हो चुका था। वे लगातार उसका लेख पढ़ती रहती थीं। कभी-कभी जोर से भी पढ़ती थीं, लगभग उसे पढ़ते-पढ़ते ही सो जाती थीं, लेकिन शायद ही कभी यह पूछती थीं कि रोद्या कहाँ है -बावजूद इस बात के कि वे लोग खुले तौर पर उनसे उसकी चर्चा करने से कतराते थे, और इसी एक बात से उनके मन में संदेह पैदा हो जाना चाहिए था। कुछ बातों के बारे में पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना की अजीब-गरीब खामोशी पर आखिरकार उन लोगों के मन में कुछ आशंका पैदा हुई। मिसाल के लिए, अब वह कभी शिकायत नहीं करती थीं कि उसका कोई खत नहीं आया, जबकि पहले जब वे लोग एक छोटे से कस्बे में रहते थे, तब वह अपने प्यारे रोद्या का पत्र आने की उम्मीद पर ही जिंदा रहती थीं। इस बात की कोई वजह समझ में नहीं आती थी और इसलिए दूनिया बहुत चिंतित रहती थी। वह यह सोचने पर मजबूर हो जाती थी कि उसकी माँ को कहीं यह तो पता नहीं था कि उनके बेटे के साथ कोई भयानक बात हुई है और वे उसके बारे में पूछने से डरती थीं कि उन्हें कोई उससे भी भयानक बात न मालूम हो जाए। दूनिया को साफ दिखाई दे रहा था कि माँ के हवास पूरी तरह ठिकाने नहीं थे।
एक-दो बार ऐसा भी हुआ कि पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना ने बातचीत को खुद कुछ यूँ मोड़ दे दिया कि इस बात का जिक्र किए बिना कि रोद्या उस वक्त कहाँ था, उनके सवाल का जवाब देना नामुमकिन हो गया। जवाब जब कुछ गोलमोल असंतोषजनक और संदेहजनक होते थे, तब वे अचानक काफी दुखी, उदास और चुप हो उठती थीं, और यह सिलसिला काफी लंबे अरसे तक जारी रहा। दूनिया ने आखिरकार महसूस किया कि झूठ बोलना और कहानियाँ गढ़ना बहुत मुश्किल है, और वह इस नतीजे पर पहुँची कि कुछ बातों के बारे में चुप्पी साध लेना ही बेहतर होता है। फिर भी यह बात अधिक से अधिक स्पष्ट होती जा रही थी कि बेचारी माँ की समझ में कोई बहुत भयानक बात हुई है। दूनिया को याद आया, उसके भाई ने बताया था कि उसकी माँ ने स्विद्रिगाइलोव से उसकी मुलाकात के बाद रात को, रस्कोलनिकोव के आत्मसमर्पण से ठीक पहलेवाले दिन, उसे सोने में बड़बड़ाते सुना था। कहीं माँ को तब तो किसी बात का पता नहीं चला अकसर, कभी-कभी तो कई दिनों तक यहाँ तक कि कई हफ्ते तक बहुत दुख और उदासी में चुप रहने के बाद उस बीमार औरत में अचानक इतनी जान आ जाती थी कि जैसे उसे हिस्टीरिया का दौरा पड़ा हो। माँ तब ऊँची आवाज में अपने बेटे, अपनी उम्मीदों और भविष्य के बारे में बातें करने लगती थीं... उनके भ्रम कभी-कभी बहुत अजीब होते थे। वे लोग उन्हें खुश रखने की कोशिश करते, उनकी हाँ में हाँ मिलाते (वे स्वयं अच्छी तरह समझती थीं कि वे लोग महज उन्हें खुश करने के लिए ऐसा कर रहे हैं और उनसे सहमत होने का ढोंग कर रहे हैं), लेकिन वे फिर भी बातें करती रहती थीं।
रस्कोलनिकोव के अपराध स्वीकार करने के पाँच महीने बाद अदालत ने अपना फैसला सुनाया। जब भी मुमकिन होता था, रजुमीखिन उससे मिलने जेल जाता था। सोन्या भी। आखिरकार बिछुड़ने की घड़ी आ पहुँची। दूनिया ने कसमें खा-खा कर भाई को यकीन दिलाया कि उनका यह बिछोह हमेशा नहीं रहेगा; रजुमीखिन ने भी ऐसा ही किया। रजुमीखिन ने जवानी के जोश में पक्का फैसला भी किया कि वह अगले तीन-चार वर्ष अपने भविष्य को कमोबेश सुरक्षित बनाने और ज्यादा से ज्यादा पैसा बचाने में खर्च करेगा ताकि जा कर साइबेरिया में बस सके, जो विपुल प्राकृतिक साधनों का देश था और जिसे अधिक लोगों, मजदूरों और पूँजी की जरूरत थी। उसने योजना बना ली थी कि वह उसी शहर में जा कर बसेगा, जहाँ रोद्या था और... वे सभी एक साथ एक नई जिंदगी की शुरुआत करेंगे बिछुड़ने के समय वे सब रोए! आखिरी कुछ दिनों के दौरान रस्कोलनिकोव खयालों में खोया-खोया रहने लगा था। वह अपनी माँ के बारे में पूछता रहता था और लगातार उनके बारे में चिंतित रहता था। वह उनके बारे में असामान्य सीमा तक चिंतित लगता था, जिसकी वजह से दूनिया भी परेशान रहती थी। अपनी माँ के स्वास्थ्य के बारे में सारी बातें मालूम होने पर वह बहुत ही उदास हो गया। किसी वजह से हमेशा वह सोन्या से बहुत कम बातें करता था। स्विद्रिगाइलोव ने उसे जो पैसा दिया था, उसकी मदद से सोन्या ने बहुत पहले ही कैदियों की उस टोली के साथ, जिसमें रस्कोलनिकोव शामिल था, साइबेरिया जाने की तैयारियाँ पूरी कर ली थीं। उसने रस्कोलनिकाव से कभी इसकी चर्चा नहीं की, और उसने भी इस बारे में कुछ नहीं कहा, लेकिन दोनों जानते थे कि ऐसा ही होगा। आखिरी विदाई के समय जब उसकी बहन और रजुमीखिन ने उत्साह से उसे आश्वस्त किया कि जेल से उसके छूटने के बाद वे सब लोग एक साथ रहेंगे और उनका भविष्य बहुत सुखमय होगा, तो वह जवाब में बड़े विचित्र ढंग से मुस्करा पड़ा और यह डर जाहिर किया कि उसकी माँ इस बीमारी की वजह से जल्द ही मर जाएँगी। आखिरकार वह और सोन्या रवाना हो गए।
दो महीने बाद दूनिया और रजुमीखिन की शादी हो गई। बिना किसी धूमधाम के बहुत उदास वातावरण में। लेकिन पोर्फिरी पेत्रोविच और जोसिमोव भी आमंत्रित मेहमानों में थे। इस पूरे अरसे में रजुमीखिन एक ऐसा आदमी लगता था जिसने अपने मन में कुछ ठान रखी हो। दूनिया को विश्वास था कि वह अपनी सारी योजनाएँ पूरी करेगा, और वह उस पर विश्वास करने के अलावा कुछ और कर भी नहीं सकती थी : हर कोई जानता था कि उसका संकल्प पत्थर की लकीर है। और हाँ, उसने अपनी पढ़ाई पूरी करने के इरादे से यूनिवर्सिटी में फिर से नाम लिखा लिया था। वे दोनों लगातार भविष्य की योजनाएँ बनाते रहते थे और दोनों ने साइबेरिया में बस जाने का पक्का इरादा कर लिया था। तब तक के लिए उनकी सारी उम्मीदें सोन्या के साथ जुड़ी हुई थीं...
रजुमीखिन और दूनिया को उनकी शादी पर अपना आशीर्वाद दे कर पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना बहुत खुश थीं लेकिन शादी के बाद वे और भी उदास और परेशान रहने लगीं। उनकी उदासी दूर करने के लिए रजुमीखिन ने उन्हें उस छात्र और उसके अपाहिज बाप के बारे में बताया, और यह भी कि साल भर पहले रस्कोलनिकोव किस तरह जलते हुए घर में से दो बच्चों को निकाल लाने में खुद बुरी तरह जल गया और घायल हो गया था। पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना, जिनका दिमाग तो कुछ-कुछ खराब हो चला था, बेटे के बारे में नई बातें सुन कर खुशी से पागल हो उठती थीं। वे लगातार उसके बारे में बातें करती रहती थीं, यहाँ तक कि सड़क पर अजनबियों को रोक-रोक कर भी उनसे बातें करने लगती थीं। (वैसे दूनिया हमेशा उनके साथ रहती थी।) राह चलते या दुकानों में जो भी उनकी बातें सुनने को तैयार हो जाता, उसे वे पकड़ कर उससे अपने बेटे के बारे में, उसके लेख के बारे में बातें करने लगती थीं, यह भी कि उसने किस तरह एक गरीब छात्र की मदद की थी, किस तरह वह आग में जल गया था, और इसी तरह की न जाने कितनी दूसरी चीजों के बारे में, दूनिया की समझ में नहीं आता था कि उन्हें कैसे रोके। इस तरह की दिमागी उत्तेजना के अपने खतरे थे। उनके अलावा इस बात की भी संभावना थी कि किसी को रस्कोलनिकोव का नाम और उसके मुकद्दमे की याद आ जाए और वह उसके बारे में बातें करने लगे। दूनिया को लगता था कि उसकी माँ के स्वास्थ्य पर इसका घातक प्रभाव पड़ सकता है। पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना ने उन दोनों बच्चों की माँ का भी पता लगा लिया था, जिन्हें उनके बेटे ने बचाया था, और वे उससे मिलने जाने की जिद करती रहती थीं। आखिरकार उनकी चिंता अपने चरम पर जा पहुँची। कभी-कभी वे अचानक रोने लगती थीं। वे अकसर बीमार रहने लगीं, उन्हें तेज बुखार चढ़ जाता था और सरसाम हो जाता था।
एक दिन सुबह उन्होंने जोर दे कर ऐलान किया कि उनके हिसाब से रोद्या जल्दी ही घर लौट कर आनेवाला है। उन्होंने कहा कि उन्हें याद था, उनसे विदा होते समय उसने कहा था कि नौ महीने में उसके लौटने की उम्मीद की जा सकती है। वे फ्लैट की सफाई करने लगीं और अपने आपको उसकी वापसी के लिए तैयार करने लगीं। उसके लिए उन्होंने खुद ही अपना कमरा सजाना, फर्नीचर पर पालिश करना, पर्दे धोना और नए पर्दे टाँगना वगैरह शुरू कर दिया। दूनिया बहुत चिंतित थी, लेकिन उसने कुछ कहा नहीं, बल्कि अपने भाई के लिए कमरा तैयार करने में उनका हाथ ही बँटाती रही। बेलगाम कल्पनाओं, सुखद सपनों और आँसुओं के साथ एक कष्ट भरा दिन बिताने के बाद रात को वे बीमार पड़ गईं। सबेरे उन्हें तेज बुखार चढ़ा और सरसाम हो गया। बुखार उनके दिमाग को चढ़ गया था। वे दो हफ्ते के अंदर चल बसीं। सरसाम की हालत में वे बीच-बीच में कुछ ऐसे शब्द बोल देती थीं जिनसे पता चलता था कि बेटे के भयानक अन्जाम के बारे में उन्हें कहीं उससे ज्यादा पता था जितना कि वे लोग सोचते थे।
रस्कोलनिकोव को अपनी माँ के मरने की खबर बहुत दिनों तक नहीं मिली, हालाँकि साइबेरिया पहुँचने के कुछ दिनों बाद से ही उसे नियमित रूप से पीतर्सबर्ग से खबरें मिलने लगी थीं। यह पत्र-व्यवहार सोन्या के माध्यम से होता था : वह हर महीने पीतर्सबर्ग में रजुमीखिन को पत्र लिखती थी और हर महीने उसके पास जवाब आ जाता था। शुरू में दूनिया और रजुमीखिन को सोन्या के पत्र बहुत नीरस और बेमजा लगते थे, लेकिन आखिर में वे दोनों इसी नतीजे पर पहुँचे कि उसके पत्र इससे बेहतर हो ही नहीं सकते थे, क्योंकि उनमें तो दूनिया के अभागे भाई की जिंदगी की पूरी तस्वीर होती थी। सोन्या के पत्रों में बेहद नीरस ब्यौर होते थे और जेल में रस्कोलनिकोव के जीवन की परिस्थितियों का एकदम स्पष्ट विवरण होता था। उनमें सोन्या की अपनी उम्मीदों या भविष्य के बारे में उसकी अपनी आशाओं का कोई बयान या स्वयं अपनी भावनाओं का कोई इजहार, नहीं होता था। साधारण ढंग से रस्कोलनिकोव की मानसिक दशा तथा उसके विचारों और भावनाओं के बयान की कोशिश करने की बजाय वह केवल तथ्य लिख कर भेजती थी। यानी उनमें उसके अपने शब्द होते थे और इन बातों का विस्तृत ब्यौरा होता था कि उसका स्वास्थ्य कैसा है, जब वह उससे मिलती है तब वह क्या पूछता है, वह उससे क्या करने को कहता है, वगैरह-वगैरह। वह ये सारी बातें काफी विस्तार से लिख भेजती थी।
लेकिन दूनिया और रजुमीखिन को इन खतों से कोई तसल्ली नहीं मिलती थी, खास तौर पर शुरू में। सोन्या लिखती थी कि वह उदास और चुप-चुप रहता था। हर बार उससे मिलने जाने पर सोन्या जब उसे घर का हाल बताती थी, तो वह कोई दिलचस्पी नहीं दिखाता था। वह कभी-कभी माँ के बारे में पूछता था, और जब सोन्या ने यह देख कर कि उसे कुछ-कुछ शक होने लगा था, उसे आखिरकार माँ के मरने की बात बताई, तब उसे यह देख कर ताज्जुब हुआ कि यह खबर सुन कर भी उस पर कोई गहरा असर नहीं पड़ा - कम-से-कम उसने किसी तरह की कोई भावुकता नहीं दिखाई। सोन्या ने उन लोगों को यह भी लिखा कि देखने में वह खुद में ही बहुत ज्यादा खोया हुआ लगता था, लेकिन अपने नए जीवन की तरफ उसका रवैया एकदम सीधा था। उसे अपनी स्थिति के बारे में किसी तरह का भ्रम नहीं था, वह निकट भविष्य में हालात के किसी भी तरह से बेहतर होने की उम्मीद नहीं रखता था, उसके मन में कोई मूर्खतापूर्ण आशा नहीं थी (जो उसकी स्थिति में स्वाभाविक ही था), और लगता था उसे अपने नए परिवेश की किसी भी चीज पर कोई आश्चर्य नहीं होता था, हालाँकि यह परिवेश उन सब चीजों से एकदम भिन्न था, जिनसे वह अब तक परिचित था। उसने यह भी लिखा था कि उसका स्वास्थ्य संतोषजनक था। उसे काम पर बाहर भेजा जाता था पर वह न तो काम से जी चुराता था और न ही माँग-माँग कर काम लेता था। खाने की ओर से वह लगभग पूरी तरह उदासीन था। खाना भी इतवार को और छुट्टी के दिनों को छोड़ कर बाकी दिन इतना बुरा होता था कि आखिर में वह खुशी-खुशी सोन्या से कुछ पैसे लेने पर राजी हो गया था ताकि अपने लिए रोज खुद चाय बना लिया करे। जहाँ तक बाकी बातों का सवाल था, वह सोन्या से कह देता था कि वह उसकी चिंता न करे, क्योंकि उसे इस बात से भी उलझन होती थी कि कोई उसकी चिंता करे। सोन्या ने यह भी लिखा था कि जेल में वह दूसरे कैदियों के साथ एक बड़ी-सी बैरक में रहता था। सोन्या ने उन बैरकों को अंदर से तो नहीं देखा था लेकिन उसने यही नतीजा निकाला था कि वह जगह खचाखच भरी हुई, बहुत तकलीफदेह और गंदी होगी। उसने लिखा था कि वह लकड़ी के एक तख्त पर सोता था जिस पर एक कंबल बिछा रहता था और वह इसके अलावा कुछ और चाहता भी नहीं था। लेकिन तकलीफ और तंगी की हालत में वह इसलिए नहीं रह रहा था कि उसने ऐसी योजना बनाई थी या वह यही वह चाहता था, बल्कि इसलिए रह रहा था कि वह अपने अन्जाम से एकदम बेखबर और बेपरवाह था। सोन्या ने उनसे यह बात भी नहीं छिपाई कि खास तौर पर शुरू-शुरू में उससे मुलाकात के लिए उसके वहाँ आने में उसने कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई थी, बल्कि वह इस बात पर बहुत झुँझलाया था, बहुत ही कम बोल रहा था, और उसके साथ बड़ी रुखाई का बर्ताव कर रहा था। लेकिन अंत में सोन्या का उससे मिलने जाना रस्कोलनिकोव के लिए एक आदत और लगभग जरूरत जैसी चीज बन गई थी। इसलिए जब वह कुछ दिन बीमार रही और उससे मिलने नहीं जा सकी तो वह बहुत निराश हुआ था। वह उससे आम तौर पर इतवार और छुट्टी के दिन मिलती थी - या तो जेल के फाटक पर या गारद के कमरे में, जहाँ उसे उससे मिलने के लिए कुछ मिनट के वास्ते लाया जाता था। सप्ताह के बाकी दिनों में वह उससे कारखानों में, ईंटों के भट्ठों में या इर्तीश नदी के किनारे बने शेडों में मिलती थी, जहाँ वह काम करने जाता था। खुद अपने बारे में सोन्या ने यह लिखा था कि शहर में उसने कुछ लोगों से जान-पहचान पैदा कर ली थी और कुछ लोग उसका हाल जानने में दिलचस्पी भी लेने लगे थे। वह वहाँ सिलाई का काम करने लगी थी और चूँकि शहर में कोई पोशाक मिलनेवाला नहीं था इसलिए कई घरों में उसके बिना काम ही नहीं चलता था। जो बात उसने नहीं लिखी, वह यह थी कि उसी के असर से रस्कोलनिकोव को अधिकारियों की ओर से कुछ सुविधाएँ मिल गई थीं और उसे कम मेहनत का काम दिया जाता था। आखिरकार यह खबर पहुँची (दूनिया को पिछले कुछ खतों में ही एक असामान्य बेचैनी और फिक्र का एहसास होने लगा था) कि रस्कोलनिकोव सबसे अलग-थलग रहता था, कैदियों के बीच लोकप्रिय नहीं था, कई-कई दिनों तक बोलता नहीं था और बहुत पीला पड़ गया था। अचानक एक खत में सोन्या ने लिखा कि वह बहुत बीमार हो गया है और अस्पताल में कैदियों के वार्ड में भरती करा दिया गया है...
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वह बहुत दिनों तक बीमार रहा। लेकिन जेल के जीवन की भयानक परिस्थितियों से नहीं उसकी हिम्मत टूटी, न कठिन काम की वजह से, न बुरे खाने की वजह से, न इस वजह से कि उसका सर मूँड़ दिया गया था, और न ही उन चीथड़ों की वजह से जो उसे पहनने पड़ते थे। इन सारी कठिनाइयों और मुसीबतों से उसे फर्क ही क्या पड़ता था! उलटे, कड़ी मेहनत के कामों से वह खुश होता था : काम करते-करते जब उसका शरीर थक कर चूर हो जाता था, तो कम-से-कम कुछ घंटों तक उसे शांति से नींद तो आ जाती थी। खाने से भी उसे क्या फर्क भला पड़ता! बंदगोभी का पतला शोरबा, जिसमें काले-काले झींगुर तैरते रहते थे। जिन दिनों वह पढ़ता था उसे कभी-कभी यह भी नसीब नहीं होता था। उसके कपड़े गर्म थे और जिस तरह का जीवन वह बिता रहा था, उसके लिए मुनासिब थे। वह पाँव की बेड़ियों का बोझ भी महसूस नहीं करता था। क्या लाजिम था कि वह अपने मुँडे हुए सर और दो रंगों के कोट पर लज्जित हो! किसके सामने? सोन्या के सामने? सोन्या तो उससे डरती थी... फिर क्या जरूरी था कि वह उसके सामने लज्जित हो।
लेकिन भला लज्जित क्यों न हो? वह सोन्या के सामने भी लज्जित था, जिसकी तरफ रुखाई और तिरस्कार का रवैया अपना कर वह उसे तकलीफ पहुँचाता था। लेकिन वह अपने मुँड़े हुए सर या बेड़ियों की वजह से लज्जित नहीं था। उसके स्वाभिमान को गहरी ठेस लगी थी और वह स्वाभिमान को चोट पहुँचने के कारण बीमार पड़ा था। आह, अगर वह अपने को सचमुच किसी अपराध का दोषी समझ पाता तो कितना खुश होता! तब तो वह सब कुछ सहन कर लेता... अपना यह कलंक और अपमान भी। लेकिन वह अपने आपको सख्ती से परखता था, और उसके जिद्दी जमीर को उसके अतीत में कोई ऐसी बात नहीं दिखाई देती थी जो कुछ खास भयानक हो, अलावा शायद इसके कि उसने एक मामूली-सी भूल कर दी थी, जो किसी से भी हो सकती थी। वह जिस बात पर लज्जित था, वह यह थी कि वह, रस्कोलनिकोव, तकदीर के किसी अंधे फैसले की वजह से पूरी तरह, निराशाजनक सीमा तक, और मूर्खता के मारे एकदम मिट गया था और यह कि अगर वह जरा भी मन की शांति चाहता था तो उसे इस तरह के फैसले के 'बेतुकेपन' के सामने झुकना पड़ेगा, उसे सर पर धारण करना पड़ेगा।
वर्तमान में बेमतलब और बेकार की चिंता और भविष्य में आत्म-बलिदान का ऐसा जीवन जिसके बदले में उसे कुछ भी मिलने वाला नहीं था - उसका सारा जीवन ऐसे ही चलेगा, भला इससे क्या फर्क पड़ता था कि आठ साल बाद वह सिर्फ बत्तीस साल का होगा, और यह कि वह नए सिरे से जीवन शुरू कर सकता था। किस चीज के लिए वह जिंदा रहे... जीवन में उसका मकसद क्या होगा... उसका लक्ष्य क्या होगा... केवल अस्तित्व बनाए रखने के लिए जीवित रहना... इससे पहले तो वह एक विचार के लिए, एक आशा के लिए, एक स्वप्न के लिए हजार बार अपना जीवन कुरबान करने को तैयार रहता था। केवल अस्तित्व कभी उसका लक्ष्य नहीं रहा; उसने हमेशा कुछ इससे अधिक चाहा था। शायद इसलिए कि उसकी इच्छाएँ प्रबल थीं। किसी समय वह अपने आपको ऐसा शख्स समझता था जिसे किसी भी दूसरे शख्स के मुकाबले कुछ अधिक बातों की छूट थी।
काश कि भाग्य ने उसे पश्चात्ताप ही कराया होता - अंगारों की तरह दहकता हुआ ऐसा पश्चात्ताप जो उसका दिल छलनी कर देता और उसकी रातों की नींद उड़ा देता, ऐसा पश्चात्ताप जिसके साथ ऐसी भयानक तकलीफ जुड़ी होती है कि आदमी फाँसी लगा लेने या नदी में कूद पड़ने के लिए भी तैयार हो जाता है! अगर उससे ऐसा पश्चात्ताप हो पाता तो वह कितना सुखी होता! पीड़ा और आँसू - यह भी तो एक जीवन है! लेकिन उसे अपने अपराध का कोई पछतावा नहीं था।
तब वह कम-से-कम अपनी मूर्खता पर खुद से नाराज तो हो सकता था, जिस तरह पहले अपनी बेतुकी और नादानी की हरकतों पर हुआ करता था जिनकी वजह से वह आज जेल में बैठा था। लेकिन अब जेल में आ कर, इस आजादी में, उसने अपने दिमाग में एक बार फिर अपने किए पर विचार किया। उसमें उसे ऐसी कोई बेवकूफी या नादानी नहीं दिखाई पड़ी जैसी कि पहले उसे उस घातक, निर्णायक पल में दिखाई पड़ी थी।
'किस तरह,' उसने सोचा, 'भला किस तरह मेरा विचार उन दूसरे विचारों या सिद्धांतों के मुकाबले ज्यादा नादानी का विचार था जो सृष्टि के आदिकाल से इस दुनिया में थोक के भाव प्रचलित रहे हैं और आपस में टकराते रहे हैं अगर कोई इस चीज को सिर्फ गंभीरता से देखे, उसके बारे में एक व्यापक दृष्टिकोण अपनाए, ऐसा दृष्टिकोण जो परंपरागत दुराग्रहों से मुक्त हो, तब मेरा विचार बिलकुल ऐसा इतना विचित्र नहीं लगेगा...। अरे, तुम लोग जो हर चीज के बारे में सवाल उठाते हो, दो कौड़ी के दार्शनिकों, तुम भला आधे रास्ते में क्यों रुक जाते हो?'
'मेरा यह काम उन्हें इतना घिनावना क्यों लगता है?' वह मन ही मन कहता रहा। 'क्या इसलिए कि वह कुकर्म था? कुकर्म का भला क्या अर्थ होता है? मेरा जमीर साफ है। बेशक मैंने अपराधियों जैसा काम किया है। बेशक कानून में जो कुछ लिखा है उसका मैंने हनन किया है और खून बहाया है। अच्छी बात है... तो कानून में जो कुछ लिखा है उसकी खातिर उतार दो मुझे मौत के घाट... खत्म करो किस्सा। अलबत्ता, अगर ऐसा है तो मानवता का उद्धार करनेवाले उन बहुत से लोगों को, जिन्हें सत्ता उत्तराधिकार में नहीं मिली बल्कि जिन्होंने सत्ता छीनी थी, उन्हें उनके गौरव के दिनों के आरंभ में ही मौत के घाट उतार दिया जाना चाहिए था। लेकिन वे लोग सफल रहे और इसलिए सही थे, जबकि मैं सफल नहीं हुआ, सो मुझे यह कदम उठाने का कोई अधिकार नहीं था।'
वह सिर्फ इसी एक बात को अपना अपराध मानता था : कि वह इस काम में सफल नहीं हुआ और इस बात को उसने स्वीकार कर लिया।
यह विचार भी उसे सताता रहता था कि उसने अपने आपको मार क्यों नहीं डाला था वह नदी में कूद पड़ने से क्यों झिझक गया था, क्यों? इसकी बजाय उसने पुलिस के सामने जा कर सब कुछ मान लेने को बेहतर समझ लिया था! क्या जिंदा रहने की ख्वाहिश सचमुच इतनी जोरदार थी कि उस पर काबू पाना भी कठिन था? क्या स्विद्रिगाइलोव ने, जो मौत से डरता था, उस पर काबू नहीं पा लिया था?
वह इन सवालों को ले कर परेशान होता रहा, और यह न समझ सका कि जब वह आत्महत्या करने की सोच रहा था, शायद तब भी उसे अपने अंदर और अपने पक्के विश्वासों में छिपे हुए एक बहुत बड़े झूठ का एहसास था। वह इस बात को नहीं समझ सका कि वह अस्पष्ट-सी भावना उसके अतीत से भावी जीवन के पूरी तरह संबंध-विच्छेद की, उसके भावी नवजीवन की, जीवन के प्रति उसके नए दृष्टिकोण की अग्रदूत हो सकती थी।
उसकी समझ में अधिक संभावना इस बात की थी कि वह भावना सहजवृत्ति का एक मुर्दा बोझ रही हो, जिस पर वह अपनी कमजोरी और अपने निकम्मेपन की वजह से काबू नहीं पा सका या जिसे पार करके वह आगे नहीं बढ़ पाया। वह अपने साथ के दूसरे कैदियों को देखता और अनायास ही उन पर हैरान होता। उन सबको जीवन से कितना प्यार था! वे उसे कितना मूल्यवान समझते थे! उसे ऐसा लग रहा था कि बाहर के मुकाबले जेल में लोग जीवन से कहीं अधिक प्यार करते हैं, उसे अधिक कीमती समझते हैं। उन लोगों ने - मिसाल के लिए, आवारागर्दों ने - कैसी-कैसी तकलीफें सही थीं, कैसी-कैसी यातनाएँ झेली थीं। क्या धूप की एक किरण का या युगों-युगों से खड़े हुए जंगल का उनके लिए भी इतना ही महत्व है या किसी दूर-दराज के किसी वीरान इलाके में उस शीतल जल-धारा का, जिसे तीन साल पहले उस जैसे आवारागर्द ने देख कर मन में अंकित कर लिया था और उसे दोबारा देखने के लिए वह उसी तरह ललचाता रहता था जैसे कोई अपनी प्रेमिका से मिलने को ललचाता रहता है, लगातार उसके स्वप्न देखता है, उसके चारों ओर की घास के झाड़ी में गाती हुई चिड़ियों के भी सपने देखता है। वह जैसे-जैसे जेल के जीवन से अधिकाधिक परिचित होता गया, वैसे-वैसे उसके सामने इसी तरह की और भी मिसालें आती गईं जिन्हें वह समझ नहीं पाता था।
तो भी जेल में और उसके चारों ओर बहुत कुछ ऐसा था जिसकी ओर उसका ध्यान नहीं जाता था। वह तो उसकी ओर ध्यान देना भी नहीं चाहता था। वह गोया नजरें झुकाए हुए रहता था। यह सब कुछ उसे बर्दाश्त से बाहर और घिनावना लगता था। लेकिन अंत में उसे न चाहते हुए भी बहुत-सी चीजों पर आश्चर्य होने लगा, और एक तरह से अनमनेपन से वह उन चीजों की ओर ध्यान देने लगा जिनके वजूद का पहले उसे गुमान भी नहीं था। लेकिन उसे आम तौर पर जिस चीज पर सबसे अधिक आश्चर्य होता था, वह उसके और उन सभी दूसरे लोगों के बीच की भयानक दूरी थी, जिसे मिटाया नहीं जा सकता था। उसे लगता था, वे किसी दूसरी ही नस्ल के लोग हैं। वह उन्हें और वे उसे अविश्वास और शत्रुता की भावना से देखते थे। वह इस अलगाव के आम कारणों को समझता और जानता था, लेकिन पहले कभी वह इस बात को स्वीकार न करता कि इन कारणों की जड़ें इतनी गहरी और मजबूत थीं। जेल में कुछ निर्वासित पोल भी थे - राजनीतिक कैदी। वे आम कैदियों को अनपढ़ भूदास समझते और नफरत करते थे। लेकिन रस्कोलनिकोव उन्हें इस नजर से नहीं देख सकता था : उसे साफ नजर आता था कि ये जाहिल किसान कई बातों में उन पोलों से ज्यादा समझदार थे। वहाँ कुछ रूसी भी आम कैदियों से उतनी ही नफरत करते थे। एक भूतपूर्व फौजी अफसर था और दो धर्मशास्त्र के छात्र थे। रस्कोलनिकोव को उनकी गलती भी साफ दिखाई देती थी।
सभी लोग उसे नापसंद करते और उससे कतराते थे। अंत में वे उससे नफरत तक करने लगे थे। क्यों यह उसे नहीं मालूम था। वे उससे नफरत करते और उस पर हँसते थे। जो उससे कहीं बड़े अपराधी थे, वे भी उसके अपराध पर हँसते थे।
'तुम तो किसी शरीफ घर के हो,' वे कहते।
'तुम्हें कुल्हाड़ी से किसी का खून नहीं करना चाहिए था; यह कोई शरीफ घर के लोगों का काम नहीं है।'
लेंट (उपवास) के महीने के दूसरे सप्ताह में उसकी अपनी बैरक के दूसरे कैदियों के साथ प्रार्थना के लिए गिरजाघर जाने की बारी आई। गिरजाघर जा कर उसने दूसरों के साथ प्रार्थना की। उसे कुछ एहसास भी नहीं था कि वह सब कैसे हुआ, लेकिन एक दिन झगड़ा हो गया। वे लोग मिल कर पागलों की तरह उस पर टूट पड़े।
'तू नास्तिक!' वे चिल्लाए। 'तू ईश्वर को नहीं मानता! तुझे तो मार डालना चाहिए!'
उसने उन लोगों से ईश्वर या धर्म के बारे में कभी कोई बात नहीं की थी, लेकिन वे उसे नास्तिक कह कर मार डालना चाहते थे। वह चुप रहा और उन लोगों का कोई जवाब नहीं दिया। एक कैदी वहशियाना क्रोध से पागल हो कर उस पर टूट पड़ने को तैयार था। रस्कोलनिकोव शांत भाव से चुपचाप उसकी अदा देखता रहा। वह उसे नजरें गड़ाए देखता रहा, और उसका चेहरा निश्चल रहा। ऐन वक्त पर संतरी उन दोनों के बीच में आ गया, वरना खून-खराबा हो जाता।
एक और सवाल जिसका वह कोई जवाब नहीं दे पाता था, यह था कि वे लोग सोन्या को इतना पसंद क्यों करते थे। वह उन लोगों को खुश करने की कोई कोशिश नहीं करती थी और उनकी भेंट भी कभी-कभार ही होती थी - जब वे काम पर जाते और सोन्या कुछ मिनटों के लिए उससे मिलने आती। लेकिन वे सभी उसे जानते थे, यह भी जानते थे कि वह उसके पीछे-पीछे आई है, और यह भी कि वह कैसे और कहाँ रहती है। वह न उन्हें पैसा देती थी, न उन पर कोई खास उपकार करती थी। सिर्फ एक बार क्रिसमस के अवसर पर वह उनके लिए तोहफे में मीठी टिकियाँ और सफेद डबल रोटी लाई थी। लेकिन धीरे-धीरे सोन्या के साथ उनके संबंध घनिष्ठ होते गए। वह उनकी तरफ से उनके परिवारवालों के नाम पत्र लिख कर डाक में डाल देती थी। देश के कोने-कोने से उनसे मिलने उनके रिश्तेदार जब आते तो उनके कहने पर सोन्या के पास पार्सल और पैसा तक छोड़ जाते थे। उनकी बीवियाँ और प्रेमिकाएँ सोन्या को जानती थीं और उससे मिलने जाती थीं। जब वह काम के वक्त रस्कोलनिकोव से मिलने आती या काम पर जाते हुए कैदियों की टोली से रास्ते में उसकी मुलाकात हो जाती, तब वे सब टोपियाँ उतार कर उसका स्वागत करते थे : 'हम लोगों के साथ तू बड़ी नेकी और उपकार करती है, बिटियारानी! तू तो हम लोगों के लिए एक छोटी-सी माँ की तरह है!' उजड्ड, दस नंबरी कैदी उस दुबली-पतली, छोटी-सी लड़की से ऐसी ही बातें कहते थे। वह मुस्करा कर उनके सलाम का जवाब देती, और जब वह उन्हें देख कर मुस्कराती तो हर आदमी खुश हो जाता। जिस तरह वह चलती थी, वह भी उन्हें बहुत अच्छा लगता था, और वे मुड़-मुड़ कर उसे चलता हुआ देखते रहते थे, उसकी तारीफें करते थे। वे इस बात के लिए भी उसकी तारीफ करते और उसके गुन गाते थे कि वह इतनी छोटी-सी थी। सच तो बल्कि यह है कि और किस-किस बात के लिए उसकी प्रशंसा करें, वे यह भी नहीं जानते थे। वे उसके पास अपनी बीमारियों का इलाज तक कराने जाते थे।
लेंट के महीने के अंतिम सप्ताहों में और ईस्टर के सप्ताह में रस्कोलनिकोव अस्पताल में रहा। बीमारी के बाद जब वह आराम कर रहा था, तब उसे वे सपने याद आए जो उसने तेज बुखार और सरसाम की हालत में देखे थे। उसने सपना देखा था कि एशिया के सुदूर भागों से शुरू हो कर एक अज्ञात भयानक महामारी सारे यूरोप में फैल गई, जिसने सारी दुनिया को तबाह कर दिया। कुछ चुनिंदा लोगों को छोड़ बाकी सब मौत के मुँह में चले गए। एक नई तरह के कीटाणु, मनुष्यों के शरीर में रहनेवाले सूक्ष्म जीव पैदा हो गए थे। लेकिन ये जीव विवेक और इच्छा-शक्ति से संपन्न थे। जो लोग इनका शिकार होते, वे तुरंत पागल और हिंसक हो उठते थे। लेकिन सत्य की खोज में लोगों ने कभी अपने आपको इतना बुद्धिमान और शक्तिशाली नहीं समझा था जितना कि ये रोगग्रस्त लोग अपने को समझ रहे थे। इससे पहले उन्होंने अपने निकाले हुए परिणामों को, अपने वैज्ञानिक निष्कर्षों को और अपनी नैतिक आस्थाओं को कभी इतना अटल, इतना अकाट्य नहीं समझा था। पूरी-पूरी बस्तियाँ और पूरी-पूरी जातियाँ इस बीमारी की शिकार हो कर पागल हो गईं। लोग लगातार भयभीत रहने लगे। वे एक-दूसरे की बात भी नहीं समझ रहे थे। उनमें से हर कोई यह समझता था कि सत्य का वास केवल उसके अंदर है। दूसरों को देख कर वह चिढ़ उठता था, छाती पीटने लगता था, रोता था और हाथ मलता था। उनकी समझ में नहीं आता था कि किस पर मुकद्दमा चलाएँ, किस तरह फैसला सुनाएँ, क्या अच्छा है और क्या बुरा है। उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि किसे दोषी बताएँ और किसे दोष-मुक्त करें। लोग एक तरह के बेमानी जुनून में एक-दूसरे की जान ले रहे थे। वे एक-दूसरे के खिलाफ पूरी-पूरी फौजें जुटाते, लेकिन ये फौजें कूच के दौरान ही अचानक आपस में लड़ने लगतीं, उनकी कतारें बिखर जातीं, सिपाही एक-दूसरे पर टूट पड़ते, एक-दूसरे को संगीनें और खंजर भोंकते, एक-दूसरे को काटते और खा जाते। शहरों में दिनभर ढिंढोरा पीटा जाता था, लोगों को जमा किया जाता था, लेकिन किसी को यह पता नहीं था कि उन्हें किसने बुलाया है या किसलिए बुलाया है। सभी के दिलों में गहरी दहशत समाई रहती थी। सबने रोजमर्रा के कामकाज भी छोड़ दिए, क्योंकि हर आदमी अपने ही सिद्धांतों का प्रचार कर रहा था, अपने हल पेश कर रहा था, और लोग किसी बात पर सहमत नहीं हो पाते थे। जमीन जोतना भी छोड़ दिया गया था। जहाँ-तहाँ लोग भीड़ लगा कर जमा हो जाते, कोई फैसला कर लेते, एक-दूसरे का साथ न छोड़ने की प्रतिज्ञा करते, लेकिन फौरन ही कोई दूसरी बात करने लगते - जो उन्होंने फैसला किया था उससे एकदम अलग। वे एक-दूसरे पर आरोप लगाते, लड़ते और एक-दूसरे को मार डालते। जगह-जगह आग लगी, अकाल फैला धरती पर मुकम्मल तबाही का नंगा नाच हो रहा था। यह महामारी बढ़ती गई; दूर-दूर तक फैलती गई। सारी दुनिया में कुछ ही लोग अपनी जान बचा सके। ये शुद्ध और चुनिंदा लोग थे, जिनकी तकदीर में लिखा था कि वे इनसानों की एक नई नस्ल, एक नई जिंदगी की बुनियाद रखें, धरती को नया रूप दें और शुद्ध करें। फिर भी उन लोगों को अब तक किसी ने देखा नहीं था, किसी ने उनकी बातें या उनकी आवाज नहीं सुनी थी।
जो चीज रस्कोलनिकोव को परेशान करती रहती थी, वह थी कि यह बेमानी डरावना सपना बेहद उदास और बेहद पीड़ाजनक ढंग से उसकी यादों में रह-रह कर उभरता और बुखार की हालत में देखे गए उन सपनों की छाप काफी अरसे तक बनी रहती। ईस्टर के बाद का दूसरा सप्ताह था। गर्मी बढ़ने लगी थी और रोशनी तेज होती जा रही थी। बसंत के दिन थे। कैदियों के वार्ड की खिड़कियाँ खोल दी गई थीं। (खिड़कियों में लोहे की छड़ें लगी थीं और उनके नीचे एक संतरी इधर-से-उधर चक्कर लगाता रहता था।) सोन्या अस्पताल में उससे मिलने सिर्फ दो बार आई। दोनों बार उसे खास इजाजत लेनी पड़ी, और यह बहुत मुश्किल काम था। लेकिन शाम के वक्त वह अकसर अस्पताल के आँगन में आ कर खिड़कियों के नीचे खड़ी हो जाती थी, कभी-कभी तो सिर्फ इसलिए कि आँगन में एक मिनट के लिए सही, खड़े हो कर दूर से वार्ड की खिड़कियों को देखती रहे। एक दिन शाम को रस्कोलनिकोव जो उस वक्त तक काफी ठीक हो चला था, सो गया। जब वह सो कर उठा तो यूँ ही टहलता हुआ खिड़की के पास चला गया, और अचानक बहुत दूर, अस्पताल के फाटक पर सोन्या को देखा। वह वहाँ खड़ी थी, और लग रहा था कि किसी चीज का इंतजार कर रही है। उस समय उसे ऐसा लगा, जैसे कोई चीज उसके दिल में छुरी की तरह उतर गई हो। वह चौंका और जल्दी से खिड़की के पास से हट गया। सोन्या अगले दिन नहीं आई, और न उसके अगले दिन। रस्कोलनिकोव ने महसूस किया कि वह बेचैनी से उसकी राह देख रहा था। आखिरकार उसे अस्पताल से छुट्टी मिली तो वापस जेल पहुँचने पर कैदियों से मालूम हुआ कि सोन्या बीमार हो गई थी और बाहर निकल नहीं पा रही थी।
वह बहुत परेशान हो गया और किसी को भेज कर उसका हाल पता कराया। जल्द ही उसे पता चल गया कि सोन्या की बीमारी खतरनाक नहीं थी। उधर जब सोन्या को पता चला कि रस्कोलनिकोव उसके बारे में परेशान और फिक्रमंद रहता है, तो उसने उसके पास पेंसिल से लिख कर एक परचा भिजवाया, जिसमें उसने बताया कि वह अब पहले से बहुत अच्छी है, बस उसे मामूली-सी ठंड लग गई थी और वह जल्द ही काम के वक्त आ कर उससे मिलने की उम्मीद कर रही है। यह परचा पढ़ते वक्त उसका दिल जोरों से धड़क रहा था।
दिन आज फिर बहुत सुहाना था। हलकी गर्मी और तेज रोशनी। बहुत सबेरे, लगभग छह बजे वह नदी के किनारे एक शेड में काम करने गया, जहाँ सिलखड़ी जलाने का भट्ठा था और उसे पीसा भी जाता था। वहाँ सिर्फ तीन कैदी थे। एक कैदी संतरी के साथ कुछ औजार लेने किले गया हुआ था और दूसरा लकड़ी काट-काट कर भट्ठी में झोंक रहा था। रस्कोलनिकोव शेड से निकल कर नदी के किनारे पहुँच गया। वह शेड के पास लट्ठों के एक ढेर पर बैठ गया और नदी के चौड़े, सुनसान फैलाव को देखने लगा। नदी के तेजी से ऊपर उठते हुए किनारे से एक बहुत विस्तृत दृश्य उसकी आँखों के सामने फैल गया। नदी के दूसरे किनारे से किसी गीत के टुकड़े हवा में हौले-हौले तैरते हुए उसके पास तक पहुँच रहे थे। धूप में नहाए हुए स्तेपी के अपार विस्तार में उसे खानाबदोशों के काले-काले तंबू छोटे-छोटे धब्बों की तरह दिखाई दे रहे थे। वहाँ आजादी थी। वहाँ दूसरे लोग रहते थे और वे उन लोगों जैसे कतई नहीं थे, जिन्हें वह जानता था। लगता था वहाँ समय भी ठहर गया है। गोया हजरत इब्राहीम और उनकी भेड़ों के गल्लों का जमाना अभी बीता न हो। रस्कोलनिकोव वहाँ बेहिस और बेहरकत बैठा उस विस्तृत दृश्य को एकटक देखता रहा। उसके विचार अब दिनसपनों का चिंतन का रूप लेने लगे। अभी वह किसी चीज के बारे में नहीं सोच रहा था, लेकिन घोर सूनेपन की भावना उस पर छा गई और उसे परेशान करने लगी।
अचानक सोन्या चुपके से आ कर उसके पास बैठ गई। अभी बहुत जल्दी थी; सुबह की ठिठुरन अभी कम नहीं हुई थी। वह अपना पुराना कोट पहने और हरी शाल ओढ़े हुए थी। चेहरे पर बीमारी का असर अभी तक बाकी था : वह बहुत दुबला और पीला था। उसे देख कर वह खुशी के साथ प्यार से मुस्कराई लेकिन, हमेशा की तरह, उसकी ओर उसने अपना हाथ बहुत डरते-डरते बढ़ाया।
वह अपना हाथ उसकी ओर हमेशा ही बहुत डरते-डरते बढ़ाती थी, और कभी-कभी तो बढ़ाती ही नहीं थी, गोया डर रही हो कि कहीं वह उसका हाथ झटक कर न हटा दे। वह हमेशा बेजारी के साथ उससे हाथ मिलाता था, उसके मिलने पर हमेशा झुँझलाया हुआ लगता था, और कभी-कभी तो उसके साथ मुलाकात के पूरे दौरान हठधर्मी के साथ चुप रहता था। कभी-कभी वह उससे भयभीत भी हो उठती थी और फिर दुखी हो कर चली जाती थी। लेकिन इस बार उनके हाथ मिले तो फिर अलग नहीं हुए। उसने जल्दी से एक नजर सोन्या को देखा, लेकिन कुछ कहे बिना नजरें जमीन की ओर झुका लीं। वे अकेले थे और कोई उन्हें देख नहीं रहा था। उस वक्त संतरी ने भी दूसरी ओर मुँह फेर रखा था।
यह कैसे हुआ, उसे मालूम नहीं था। लेकिन अचानक उसे लगा किसी चीज ने उसे पकड़ कर जमीन पर पटक दिया है। वह सोन्या के घुटनों से लिपट कर रोने लगा। पहले तो वह बहुत डरी और उसके चेहरे पर मौत का-सा पीलापन छा गया। वह झटक कर उठी और सर से पाँव तक काँपते हुए उसे देखती रही। लेकिन उसी पल उसकी समझ में सब कुछ आ भी गया। उसकी आँखें बेपनाह खुशी से चमक उठीं। वह समझ गई थी, और इसमें उसे जरा भी संदेह नहीं रह गया था कि वह उससे प्यार करता है, उससे बेहद प्यार करता है, और यह कि जिस घड़ी की वह इतने दिनों से राह देख रही थी, वह आ गई थी...
वे दोनों कुछ कहना चाहते थे लेकिन कह न सके। दोनों की आँखों में आँसू डबडबा आए थे। दोनों का रंग पीला पड़ गया था, दोनों बहुत दुबले हो गए थे, लेकिन उन बीमार और पीले चेहरों में एक नए भविष्य की, एक नए जीवन की सुनहरी सुबह जगमगा रही थी। प्यार ने उन्हें एक नया जीवन दिया था : एक के हृदय में दूसरे के लिए जीवन के अक्षय स्रोत थे।
उन्होंने समय के गुजरने और सब्र रखने का फैसला किया। उन्हें अभी और सात साल इंतजार करना था। तब तक उन्हें कितनी पीड़ा सहनी होगी और कितनी बेपनाह खुशी मिलेगी! उसे एक नया जीवन मिल गया था, वह इस बात को जानता था और वह अपने इस नए वजूद के कण-कण में इस बात को महसूस कर रहा था। और वह तो उसके ही लिए जी रही थी!
उस दिन शाम को जब बारकों में ताला लगा दिया गया तो रस्कोलनिकोव तख्त पर लेटा उसके ही बारे में सोचता रहा। उस दिन उसे लगा कि जो कैदी उसके दुश्मन थे, वे उसे आज कुछ दूसरे ही ढंग से देख रहे थे। वह आप ही उनसे बातें भी करने लगा था, और उसकी बातों का जवाब भी उन्होंने दोस्ती के भाव से दिया था। उसे वह सब कुछ याद आ रहा था। लेकिन उस समय तो सब कुछ वैसा ही था जैसा कि होना चाहिए था क्योंकि अब तो सब कुछ बदलनेवाला था।
वह उसके ही बारे में सोचता रहा। उसे याद आ रहा था कि वह किस तरह लगातार उसे सताता उसका दिल दुखाता रहा। उसे उसका मुरझाया हुआ, दुबला-पतला, छोटा-सा चेहरा याद आया, लेकिन अब उसे इन यादों से कोई खास तकलीफ नहीं हो रही थी। वह जानता था कि अब वह सोन्या की तकलीफों की भरपाई कितने अथाह प्यार से करेगा।
अब बीते दिनों की सारी तकलीफों का महत्व ही क्या रह गया था अब, भावनाओं के इस पहले ज्वार में, उसे हर चीज-यहाँ तक कि अपना अपराध भी, अपना कारावास भी और अपना दंड भी, एक ऐसा अजीब और बेमानी वाकिया लग रहा था जो शायद उसके साथ कभी घटा ही नहीं था। लेकिन उस शाम वह किसी भी चीज के बारे में देर तक और लगातार नहीं सोच पा रहा था, न किसी बात पर ध्यान केंद्रित कर पा रहा था। इसके अलावा, अब वह अपनी किसी भी समस्या को चेतन ढंग से शायद ही हल कर सकता था; उसे वह सिर्फ महसूस कर सकता था। तर्क-वितर्क की जगह जीवन ने ले ली थी, और अब किसी एकदम नई चीज को उसके जेहन में पनपना था।
'नया विधान' (न्यू टेस्टामेंट) उसके तकिए के नीचे रखा हुआ था। उसने यूँ ही उसे उठा लिया। यह किताब सोन्या की थी; इसी में से उसने लैजरस के फिर से जिंदा होने का किस्सा पढ़ कर सुनाया था। अपने जेल जीवन के शुरू में उसे लगा था कि वह अपनी धर्म की बातों से उसे पागल बना देगी, लगातार बाइबिल की ही बातें करेगी और अपनी किताबें जबरदस्ती उस पर थोपेगी। लेकिन उसे यह देख कर हैरानी हुई कि उसने कभी इसकी चर्चा भी नहीं की, कभी उसे नया विधान देने की बात तक नहीं छेड़ी। अपनी बीमारी से पहले खुद उसी ने उससे यह किताब माँगी थी लेकिन अभी तक उसे खोल कर देखा भी नहीं था।
उसे तो उसने अब भी नहीं खोला लेकिन एक विचार उसके दिमाग में बिजली की तरह कौंधा : 'ऐसा हो सकता है क्या कि अब उसकी आस्थाएँ मेरी आस्थाएँ भी बन जाएँ या उसकी भावनाएँ, उसकी आकांक्षाएँ ही...'
वह भी दिन भर बहुत बेचैन रही और रात को बीमार भी पड़ गई। वह बेपनाह खुश थी, और इस खुशी की उसे कभी उम्मीद तक नहीं रही थी। उसे अपनी इस खुशी से डर भी लगने लगा था। सात वर्ष, केवल सात वर्ष! उनकी आनंद की स्थितियों में कुछ पल ऐसे भी आते थे, जब वे दोनों सात वर्षों को सात दिन मानने लगते थे। रस्कोलनिकोव ने इस बात को महसूस ही नहीं किया था कि यह नया जीवन उसे मुफ्त नहीं मिला था बल्कि उसे इसकी भारी कीमत चुकानी होगी, भविष्य में कोई बहुत ऊँचा काम करके उसे इसका दाम चुकाना होगा...
लेकिन वह एक नई ही कहानी की शुरुआत है : धीरे-धीरे एक मनुष्य के पुनर्जन्म की कहानी, उसके पुनरुत्थान की, एक दुनिया से दूसरी दुनिया में उसके संक्रमण की, एक नई और अभी तक अज्ञात वास्तविकता से उसके परिचय की कहानी। अब वह एक नई कहानी का विषय अवश्य बन सकता है, अलबत्ता हमारी यह कहानी तो यहीं समाप्त होती है।