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कविता

आदिवासी

मदन कश्यप


ठंडे लोहे-सा अपना कंधा जरा झुकाओ
हमें उस पर पाँव रख कर लंबी छलाँग लगानी है
मुल्क को आगे ले जाना है
बाजार चहक रहा है
और हमारी बेचैन आकांक्षाओं के साथ-साथ हमारा आयतन भी बढ़ रहा है
तुम तो कुछ घटो रास्ते से हटो

तुम्हारी स्त्रियाँ कपड़े क्यों पहनती हैं
वे तो ऐसी ही अच्छी लगती हैं
तुम्हारे बच्चे स्कूल क्यों जाते हैं
(इसमें धर्मांतरण की साजिश तो नहीं)
तुम तो अनपढ़ ही अच्छे लगते हो

बस अपना यह जंगल नदी पहाड़ हमें दे दो
हम इन्हें निचोड़ कर देश को आगे ले जाएँगे
दुनिया में अपनी तरक्की का मादल बजाएँगे
और यदि बचे रहे तो तुम्हें भी नाचने-गाने के लिए बुलाएँगे

देश के लिए हम इतना सब कर रहे हैं
तुम इतना भी नहीं कर सकते!

तुम्हारी भाषा अब गंदी हो गई है
उसमें विचार आ गए हैं
तुम्हारी संस्कृति पथभ्रष्ट हो गई है
उसमें हथियार आ गए हैं
खतरनाक होती जा रही हैं तुम्हारी बस्तियाँ
केवल हमारी दया पर बसी नहीं रहना चाहतीं

हमने तो बहुत पहले ही सबकुछ तय कर दिया था
तुम्हें बोलना नहीं गाना आना चाहिए
पढ़ना नहीं नाचना आना चाहिए
सोचना नहीं डरना आना चाहिए
अब तुम्हीं कभी-कभी भटक जाते हो

तुम्हें कौन-सी बानी बोलनी है
कौन-सा धर्म अपनाना है
किस बस्ती में रहना है
कब कहाँ चले जाना है
यह तय करने का अधिकार तुम्हें नहीं है

तुम तो बस जो हम कहते हैं वह करो
बेकार झमेले में मत पड़ो
हम से डरो हमारी भाषा से डरो
हमारी संस्कृति से डरो हमारे राष्ट्र से डरो!

(2008)

 


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