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कविता

हिचकी

विमलेश त्रिपाठी


अमूमन वह उठती है तो
कोई याद कर रहा होता है
बचपन में दादी कहती थीं

आज रात के बारह बजे कौन हो सकता है
जो याद करे इतना कि यह
रुकने का नाम नहीं लेती

मन के पंख फड़फड़ाते हैं उड़ते सरपट
और थक कर लौट आते वहीं
जहाँ वह उठ रही लगातार

कौन हो सकता है

साथ में बिस्तर पर पत्नी सो रही बेसुध
बच्चा उसकी छाती को पृथ्वी की तरह थामे हुए
साथ रहने वाले याद तो नहीं कर सकते

पिता ने मान लिया निकम्मा-नास्तिक
नहीं चल सका उनके पुरखों के पद-चिह्नों पर
माँ के सपने नहीं हुए पूरे
नहीं आयी उनके पसन्द की कोई घरेलू बहू

उनकी पोथियों से अलग जब
सुनाया मैंने अपना निर्णय
जार-जार रोयीं घर की दीवारें
लोग जिसकी ओट में सदियों से रहते आये थे
कि जिन्हें अपना होना कहते थे
उन्हीं के खिलाफ रचा मैंने अपना इतिहास
जो मेरी नजर में मनुष्यता का इतिहास था
और मुझे बनाता था उनसे अधिक मनुष्य

इस निर्मम समय में बचा सका अपने हृदय का सच
वही किया जो दादी की कहानियों का नायक करता था
अन्तर यही कि वह जीत जाता था अन्ततः
और मैं हारता और अकेला होता जाता रहा

ऐसे में याद नहीं आता कोई चेहरा
जो शिद्दत से याद कर रहा हो
इतनी बेसब्री से कि रुक ही नहीं रही यह हिचकी

समय की आपा-धापी में मिला
कितने-कितने लोगों से
छुटा साथ कितने-कितने लोगों का
लिए कितने शब्द उधार
कितने चेहरों की मुस्कान बँधी
कलेवे की पोटली में
उन्हीं की बदौलत चल सका बीहड़ रास्तों
कँटीली पगडंडियों - तीखे पहाड़ों पर

हो सकता है याद कर रहा हो
किसी मोड़ पर बिछड़ गया कोई मुसाफिर
जिसको दिया था गीतों का उपहार
जिसमें एक बूढ़ी औरत की सिसकी शामिल थी
एक बूढ़े की आँखों का पथराया-सा इन्तजार शामिल था

यह भी हो सकता है
आम मंजरा गये हों - फल गये हों टिकोले
और खलिहान से उठती चइता की
कोई तान याद कर रही हो बेतरह
बारह बजे रात के एकान्त में

कहीं ऐसा तो नहीं कि दुःसमय के खिलाफ
बन रहा हो सुदूर कहीं आदमी के पक्ष में
कोई एक गुप्त संगठन
और वहाँ एक आदमी की सख्त जरूरत हो

नहीं तो क्या कारण है कि रात के बारह बजे
जब सो रही पूरी कायनात
चिड़िया-चुरुंग तक
और यह हिचकी है कि
रुकने का नाम नहीं लेती

कहीं-न-कहीं किसी को तो जरूरत है मेरी।

 


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