hindisamay head


अ+ अ-

कविता

जब प्रेम

विमलेश त्रिपाठी


नींद के साथ अभी-अभी रात का जादू टूटा है
सूरज मुझे नरम हाथों से सहला रहा है
और मेरे दोनों हाथ पलाश की पंखुड़ी में अटके
एक मोती की अभ्यर्थना में उठ गये हैं

सुबह की सफेद झालर से टूटा
रोशनी का एक कतरा मेरी चेतना में टपका है
और मेरी बासी देह
एक असीम शक्ति से फैलती जा रही है

एक दूधिया कबूतर
नीलिमा को पंखों में बाँधने उड़ान भरता है
उसके साथ उड़ता मैं
दिगन्त में अदृश्य हो जाता हूँ

मन्त्रों की सोंधी वास धीरे-धीरे
मेरे मन के उलझे रेशों को गूँथ रही है
और सदियों से दुबका एक स्वप्न

चारों ओर उजाले की तरह फैल रहा है
जमीन सोनल धूप में उबल रही है
आहिस्ता-आहिस्ता पृथ्वी के बचे रहने की गन्ध में
पूरा इलाका मदहोश है

यह सब हो रहा है
कि जब प्रेम एक पूरा ब्रह्माण्ड है
और मैं इस होने का एकान्त साक्षी

 


End Text   End Text    End Text

हिंदी समय में विमलेश त्रिपाठी की रचनाएँ