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					कितनी बेसब्री थी हमारी आँखों में 
					तब की बात तो शब्दातीत 
					जब उत्तर से उठती थी काली घटाएँ 
					हम गाते रह जाते थे 
					आन्ही-बुनी आवेले-चिरैया ढोल बजावेले 
					और सिर्फ धूल उड़ती रह जाती हमारे सूखे खेतों में 
					बाबा के चेहरे पर जम जाती 
					उजली मटमैली धूल की एक परत 
					गीत हमारे गुम हो जाते श्वासनलियों में कहीं 
					उदास आँखों से हम ताकते रह जाते 
					आकाश की देह 
				
					शाम आती और रोज की तरह 
					पूरे गाँव को ढक लेते धुएँ के गुब्बारे 
					मंदिर में अष्टयाम करती टोलियों की आवाजें 
					धीमी हो जातीं कुछ देर 
					बाबा उस दिन एक रोटी कम खाते 
				
					रात के चौथे पहर अचानक खुल जाती बाबा की नींद 
					ढाबे के बाहर निकलते ही 
					चली जाती उनकी नजर आकाश की ओर 
					जब नहीं दिखता शुकवा तारा 
					तो जैसे उनके पैंरो में पंख लग जाते वे खाँसते जोर 
					कि पुकारते पड़ोस के रमई काका को 
					कहते - ''सुन रहे हो रमई शुकवा नहीं दिख रहा 
					शायद सुबह तक होने वाली है बारिश।'' 
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