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कविता

क्योंकि मैं हर जगह पाई गई

जया जादवानी


क्योंकि मैं हर जगह पाई गई

मैं हर जगह पाई गई
हर जगह उगा ली गई
गुलदानों में, बैठकों में
नालियों के मुहानों में
कीचड़ के ढेर में
सूखती नदियों के किनारों पर
हरहराते समन्दरों में
तालाब के अँधेरों में
सोने के कमरों में
बेतरतीब लपेटे मैले बिस्तरों में
सलवटों में
बाहरी हो कि भीतरी
सिगरेट के धुएँ में
शराब की बोतलों में
फाइव स्टार होटल के कमरों में
कपड़े उतारते हुए
कपड़े पहनते हुए
उनके टपकते वीर्य को लोकने
इसीलिए तो वे कहीं गए नहीं खोजने
तड़फे नहीं, छटपटाए नहीं
पागल नहीं हुए, मरे नहीं
क्योंकि मैं हर जगह पाई गई

 

हम सब का अस्तित्व

गुजर चुकी चीजें
नहीं सोचतीं अपने होने के बारे में
न वे याद रखती हैं
कि अब वे नहीं हैं
वे बस थीं
समय की टिक टिक से परे
जिस तरह प्रेम
याद करने को कुछ भी तो नहीं है
हवा पीछे पलटे बिना चुपचाप बह रही है
फूल निरन्तर खिल रहे हैं
चिड़िया अपनी उड़ानों के बाद
कहाँ देख पाती है
अपने पीछे के आसमानों की लम्बाई
मैं इस सबसे आहिस्ते आहिस्ते गुजर गई
जिसके बीच में मुझे रोपित कर दिया गया था
उसी शाख पर खिली मैं
जिस पर प्रकृति ने उगाया था
और फूल कर पक कर तोड़ ली गई
वे सारे मौसम मुझ पर से गुजर गए
शाख मेरा बोझ सँभाले खड़ी रही चुपचाप
हम सब का अस्तित्व
एक और अस्तित्व को पोषित करने में है
कही यही बात नदी ने
चुपके से कानों में मेरे
सागर में विलीन होने से पहले...

 

देह स्वप्न

ले गया कपड़े सब मेरे
दूर... बहुत दूर
काल बहती नदी में
मैं निर्वसना
तट पर
स्वप्न देखती देह का

 

स्त्री - 1

तहखानों में तहखाने
सुरंगों में सुरंगें
ये देह भी अजब ताबूत है
ढूँढ़ लेती हूँ जब ऊपर आने के रास्ते
ये फिर वापस खींच लेती है

 

स्त्री - 2

ले कर अँजुरी में पानी
खुद को देखो तो दिखता है
उसका चेहरा
यूँ मैं अपनी अँजुरी छोड़ती हूँ
वापस नदी में
खुद को ढूँढ़ती हूँ
बह कर बहुत दूर नहीं गई हूँगी
अभी घड़ी भर पहले जरा-सा
घूँट पिया
अपना मुँह धोया था
 

स्त्री - 3

पढ़ते हैं खुद
खुद नतीजे निकालते हैं
मेरी दीवारों पर क्या कुछ
लिख गए लोग

 

स्त्री - 4

वे हर बार छोड़ आती हैं
अपना चेहरा
उनके बिस्तर पर
सारा दिन बिताती हैं
जिसे ढूँढ़ने में
रात खो आती हैं

 

स्त्री - 5

जैसे हाशिए पर लिख देते हैं
बहुत फालतू शब्द और
कभी नहीं पढ़ते उन्हें
ऐसे ही वह लिखी गई और
पढ़ी नहीं गई कभी
जबकि उसी से शुरू हुई थी
पूरी एक किताब

 

स्त्री - 6

वह पलटती है रोटी तवे पर
और बदल जाती है पूरी की पूरी दुनिया
खड़ी रहती है वहीं की वहीं
स्त्री
तमाम रोटियाँ सिंक जाने के बाद भी

 

स्त्री - 7

इतना ही था वह
जितना बर्फ में ताप
और मैंने
उम्र सारी गुजार दी
बर्फ लपेटे हुए

 

स्त्री - 8

उठाती हूँ जल
अंजलि में
वरती हूँ खुद को
खुद से

 

स्त्री - 9

तुमने कहा था तुम आओगे
और मैं ऋतु पूरी गुजार आई
शाखें हुईं नंगी पाले मारे मौसम में
कर्ज था आत्मा पर, देह उतार आई

 

स्त्री - 10

कपड़ा एक नया नकोर
कलफ लगा
सफेद
लौटाते हुए सोचती हूँ
काश एक ही धब्बा लगा होता
जरा-सा मसला गया होता
धुला होता कम से कम
एक बार
पटक-पटक कर
तुम्हारे घाट पर

 


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