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कविता

धूप की बाट जोहते

रूपा धीरू


मैं? मेरा क्या
मैं तो जलती हुई लकड़ी
हाँ
कभी सुलगती
कभी बुझती
कभी अधजली
लकड़ी ही तो हूँ
बावर्ची को आता है गुस्सा
मुझे उठाकर फेंक देता है
चिलचिलाती धूप में
और मैं पूरी तरह से सूखकर
तैयार हो जाती हूँ
जलने के लिए
खाना पकाते समय शाम को
मेरी तारीफ होती है -
जलावन जो धू-धू कर जलता है, वाह...
और मैं
तरह-तरह के व्यंजन बनाने में
मशगूल हो जाती हूँ
खाना बन जाता है
मुझे पानी डाल कर बुझा दिया जाता है
और मैं स्वयं में
कभी सुलगती
कभी बुझती
कल की धूप का
रास्ता जोहते हुए
धुआँती रहती हूँ

(मैथिली से अनुवाद : धीरेन्द्र प्रेमर्षि)
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