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कविता

ओ प्रिय सारभूत बात

रविकांत


ओ प्रिय सारभूत बात
तुम मेरी देह को छूती हुई तैर रही हो
मैं देख नहीं रहा हूँ, यह नहीं
तुम्हें हाथों में लेने का प्रयास नहीं कर रहा हूँ
यह भी नहीं
पर मेरी हथेलियों में न जाने कैसी
मधुर सुगंधित फिसलन जमी है!

मैं उसे गुनगुनी बालू और
चेचकरू पत्थरों पर पोंछता हूँ
पर वह रह जाती है
वह रह ही जाती है हर बार
मैं तुमसे विमुख नहीं
न तुम मुझसे हो
लेकिन एक परछाईं है जो
हमारे विकसनशील संबंधों पर मँडराती है
उसके संकल्प
हमारे संकल्पों से कम वेगवान नहीं हैं
उसकी सत्ता भी तो
तुम्हारे ही रूपाकार में व्यक्त है, सत्य है!
तुम भी ऐसा मानती हो न!

हमारे संघर्ष कितने महत्वपूर्ण हैं!
हमें कितनी क्रांतिकारिता की आवश्यकता है?
मैं नहीं महसूस करता इसे
यह केवल सत्य है
निराशा नहीं

 


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