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(कवि शमशेर के चित्र से एक संवाद)
शमशेर !
मेरे तलवों को भेद कर
मेरे हृदय तक
विचारों के उलझाव तक आओ
मैं तुम्हारे चित्र को
माथे से नहीं लगा सकता
वहाँ दाग हैं अनेक
हृदय से सीधे नहीं लगा सकता तुम्हें
- न जाने कितनी पर्तों के नीचे
दबता गया है
निश्छल प्रेम
कुछ अरमानों के खून की बू है
इन हाथों में
मेरे पैर बेगुनाह हैं अभी
इधर से होकर आओ
- मेरे रूपाडंबर तक
मुझे लगता है
जल्द ही ऐसा होगा कि यह अँधेरा नहीं रहेगा
तब तुम कहीं और चले जाना, शमशेर
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