अपने लोगों के प्रेम को ठेल कर जुटाया हुआ अपना सब कुछ बेचकर ले आता हूँ मोहलत इस बार कुछ कर ही गुजरने की
पर यह समय है कि बीत जाता है बार-बार ...
न जाने कैसा है यह काम रोजगार तलाशने का जिसके लिए
मैं वह सब कुछ खो रहा हूँ जिसे पाना चाहता हूँ
हिंदी समय में रविकांत की रचनाएँ