नए-नए रंगों में बार-बार एक ही रूप गढ़ता है स्वप्न जल-तरंग के संगीत-से लयबद्ध स्वरों-सा!
कहाँ हो ऐ सौंदर्य! मेरी सिंहनी नदी तुम कहाँ हो?
चट्टानों को अँकवारती अगम्य पथों के चमत्कार में तिराती बहाए ले जाती हो मुझे तुम कहाँ हो?
हिंदी समय में रविकांत की रचनाएँ