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कविता

दो बातें अधूरी

रविकांत


(कथाकार भुवनेश्वर से)

न जाने कब, किसने लगा दिया
मेरी पुतलियों पर
आरामदायक रंगीन लेंस
मैं धीरे-धीरे
न जाने क्या कुछ उल्टा-सीधा चलते हुए
बड़ा होने लगा

फिर एक दिन
इतिहास-दिवस के अवसर पर
मैंने अपनी सभी वक्रताओं पर
रोना शुरू किया

अकेलेपन में
अपने भीतर के उल्टेपन को
अपनी हथेलियों पर रख कर
मैं उसे देखता था
मेरे माथे पर शिकन पड़ जाती थी
धीरे-धीरे मेरा कोमल मस्तक
सिकुड़ता और कठोर होता गया

तब आखिर मैंने
हल्का-सा हार कर
अपने उल्टेपन पर
एक मोटी पॉलीथीन डाल ली

यूँ, मैंने अपने चढ़ते यौवन का
एक बेहद गरिमामय समय
उस पॉलीथीन की सरसराहट को
दबाते हुए बिताया

यह तो बहुत बाद की बात है
कि मैं ध्यान दे रहा हूँ आज
कि पॉलीथीन का वह पर्दा
कोई ऐसा अपारदर्शी न था
जैसा कि मैं कुछ कम शर्मिंदा था तब

पॉलिश-मढ़ी रंगीन आँखों वाला मैं
बीच बाजार
काले को लाल
और जर्द को आसमानी समझ कर
अपने 'आईने का गुलाम' हो रहा था
अब मैं क्या कहूँ
कि यह उन्हीं दिनों की बात है
या कि
आजकल कुछ अधिक कष्ट है मुझे
मैं अपने लड़खड़ाते हुए
घायल समय को
किसी मजबूत और नुकीले शीर्षक के प्रकाश में
गुम कर देना चाहता हॅूँ

पर
स्मृतियों को
अँगुलियों पर सँभाला जा सके
ऐसे बिंदुओं की तलाश में
मैंने देखा
मेरे आस-पास और मेरे पीछे
युवा धड़कनों का
बलिष्ठतम जन समूह है
मेरे सिवा
लावण्यमयी शक्लें
और इस दुनिया की
सबसे आधुनिक भाषा-भाषी आँखें भी
काल की धड़कनों पर दौड़ते हुए
उसके मस्तिष्क पर
अपना-अपना ताला डाल देना चाहती हैं

मुझे
यकीन करना पड़ा कि
यह ऊर्जा से भरी हुई, अत्यंत भव्य
जादू-मंतर और अपने प्राचीनतम टोटकों से लैस
निरंतर नई होती जाती
एक रेशमी राह है
इस पर दौड़ने वाले
सब झोलों में
बेड़ी है, हथकड़ियाँ हैं और ताले हैं
मुझे वैसे भी पता था
जैसे सबको पता था
मृत्यु के बारे में

किसी को नहीं पता है
कि कौन सी हथकड़ी, उसके
किस वर्तमान को जकड़ लेगी
या
कौन सा ताला
इतिहास के किस हिस्से को
सदा के लिए बंद कर देगा

हालाँकि, बहुत से धावक जानते हैं
कि अमुक-अमुक बेड़ियाँ
भविष्य की अमुक-अमुक जनसंख्या को
एक ही नियति में बाँधने से
बाज नहीं आएँगी

पर यह सब क्या कहने लगा मैं तुमसे
मैं तो करना चाहता हूँ तुमसे अपनी
एकदम निजी बात...

 


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