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कविता

प्रयाग का मेला

रविकांत


गंगा-जमुना के किनारे
ये रेतीला मैदान
यहाँ कभी नदी का बढ़ाव
कभी जोगियों का जमाव
यहाँ लगते हैं मेले
आते हैं कलाकार
कश्मीर से उठकर चला आता है
ऊनी कपड़ों का
अच्छा-खासा बाजार

इस उदास मैदान में क्या नहीं होता
नाच-गाना मुशायरा-कव्वाली
खेल-तमाशे सर्कस-प्रदर्शनी
प्रतियोगिता, फैशन, खान-पान और जानकारी
रामलीला, रास, नौटंकी
प्रवचन, उपदेश, संगति
नशा-पानी-पत्ती
धुआँ-धूनी-अगरबत्ती

बंगाल और उड़ीसा से आते हैं शिल्पकार
सजाई जाती है झाँकी
चटक रंगों से उभर आती है
देवी-देवताओं की छाती

उन दिनों यही मैदान
(ऐसा लगता है जैसे
दुल्हन के कमरे का
पोंछा हुआ श्रृंगार-दान )
किसी बच्चे के समान
(गंगा की नाभि पर
जिसकी लहराती हैं उँगलियाँ)
दिखाता है अपनी आँखों से
जेबों में भरी हुई
तमाम सारी खुशियाँ
झिलमिलाता है रात भर

और भी बहुत कुछ होता है यहाँ
चोरी, मक्कारी, ठगी और लूट
धीर-वीर पहुँचे हुए महात्माओं
और शिष्यों की बीच
जाग पड़ते हैं साधु ऐसे भी
स्त्रियाँ दबे-छुपे बताती हैं यह बात -
बेसुध होकर सोई हुई
युवतियों के इजारबंद
कट जाते हैं यहाँ
रात-बिरात

चलता रहता है कीर्तन
महात्मा जी कहते हैं यही
यहाँ लगता है ऐसा मेला
भले लोगों के लिए भला
बुरे लोगों के लिए बुरा

 


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